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गया है, जो निम्न प्रकार है
दर्शन भी स्याद्वाद सिमान्त को अपनालें तो फिर उनमें प्रथम ध्यान में वितर्क, विचार. प्रीति, सुख तथा कोई विरोध शेष नहीं रहेगा और प्रापेक्षिक दष्टि से उन एकाग्रता इन पांच चित्तवृत्तियों की प्रधानता रहती है। सबका कथन सत्य सिद्ध हो जायेगा। जनदर्शन ने वस्तु द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार का प्रभाव हो जाता मे अनेक धर्मों को मानकर स्यावाद के द्वारा उनका है। तृतीय ध्यान में प्रीति का भी प्रभाव हो जाता है प्रतिपादन किया है। वस्तु के उन अनेक धर्मों का प्रापेऔर चतुर्थ ध्यान में सुख का भी प्रभाव हो जाने पर क्षिक दृष्टि से कथन करने की शैली का नाम स्याद्वाद है। केवल एकाग्रता शेष रह जाती है । इस प्रकार साधक स्याद्वाद न तो संशयवाद है और न अनिश्चयवाद । स्थूलता तथा बहिरंगता से प्रारम्भ कर सूक्ष्मता तथा किन्तु अपेक्षावाद है। यहाँ 'स्यात्' शब्द एक निश्चित मन्तरंगता में प्रवेश करता है। ध्यान के विषय में चित्त अपेक्षा को बतलाता है। जब हम कहते हैं कि वस्तु स्यात् का प्रथम प्रवेश वितर्क कहलाता है तथा इस विषय में सत् है, और स्यात् असत्, तो यहाँ प्रथम 'स्यात्' का अर्थ चित्त का अनुमज्जन करना विचार है । इससे चित्त में जो है-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से, तथा मानन्द उत्पन्न होता है वह प्रीति है। इसके अनन्तर दूसरे 'स्यात् का अर्थ है-परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शरीर में जो शान्ति या स्थिरता का भाव उत्पन्न होता है की अपेक्षा से । कोई भी वस्तू स्वद्रव्यादि चतुष्टय की वह सुख है। प्रीति मानसिक मानन्द है और सुख शारी- अपेक्षा से सत् है और वही वस्तु परद्रव्यादि चतुष्टय की रिक स्थिरता। विषय में चित्त का पूर्णरूप से समाहित अपेक्षा से प्रसत् है । यही स्पाद्वाद है। स्यावाद के द्वारा हो जाना एकाग्रता है।
विवक्षित किसी एक धर्म का प्रतिपादन मुख्यरूप से होता प्रतीत्यसमुत्पाद
है तथा अन्य समस्त धर्मों का प्रतिपादन गौणरूप से । प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्धदर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त इस प्रकार स्यावाद के द्वारा हम विचार के क्षेत्र में होने है। इसका अर्थ है-सापेक्षकारणतावाद । अर्थात् किसी वाले समस्त विरोधों और संघर्षों को दूर कर सकते है तथा वस्तु के सद्भाव में अन्य वस्तु की उत्पत्ति ।
समस्त दर्शनों में मामजस्य स्थापिनकर सकते हैं अनेकान्त "प्रस्मिन् सति इदं भवति । अस्योत्पादादयमुत्पद्यते। और स्याद्वाद जैनदर्शनकी महत्त्वपूर्ण देन तथा प्राण है। इति इदं प्रतीत्यसमुत्पादार्थः ।" घट की उत्पत्ति मिट्टी, इस प्रकार यहाँ जैन-बौद्धदर्शन के कुछ प्रमुख विषयों कंभकार, दण्ड, चक प्रादि से होती है। मिट्टी घट का पर सक्षेप में प्रकाश डाला गया है। जिज्ञासूमो को दोनों हेत है और कंभकार, दण्ड, चक्र प्रादि प्रत्यय है । अतः दर्शनों के सिद्धान्तों को विस्तार से जानने के लिए उनके हेतु और प्रत्यय की अपेक्षा से होने वालो पदार्थ की मौलिक ग्रथों का अध्ययन करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति उत्पत्ति को प्रतीत्य समुत्पाद कहते हैं। अविद्या, संस्कार, को अपने ही दर्शन का अध्ययन नही करना चाहिए, किन्त विज्ञान, नामरूप, पडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपा- यथासभव और यथाशक्ति इतर दर्शन के प्रथो का भी दान, भव, जाति और जरामरण से प्रतीत्यसमुत्पाद के अध्ययन करना चाहिए। ऐमा करने से ही हम वास्तविक १२ अंग हैं। इन अगों की संज्ञा निदान भी है । इसे भव. ज्ञानको प्राप्त कर सकते है । हमे युक्तिवादी होना चाहिए। चक्र भी कहते हैं।
बुद्ध और महावीर पूर्णत: युक्तिवादी थे । उनका अनेकान्त और स्याहाद
कहना था कि जिस प्रकार जौहरी भाग मे तपाकर, काटअनेकान्त सिद्धान्त जैनदर्शन का एक विशिष्ट सिद्धांत कर और कसौटी पर कसने के बाद स्वर्ण को ग्रहण करता है, जिसे अन्य किसी दर्शन ने नहीं माना है, किन्तु जिसका है, उसी प्रकार हे भिक्षुमो ! अच्छी तरह से परीक्षा करने मानना प्रावश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । दूसरे दर्शनों ने के बाद ही हमारे वचनों को ग्रहण करना, न कि इसलिए अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक एक धर्म को लेकर उसका कि ये बुद्ध या महावीर के वचन हैप्रतिपादन किया है और जैनदर्शन ने स्याद्वाद के द्वारा तापाच्छंदाच्व निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः । उन भनेक दृष्टियों का समन्वय किया है। यदि अन्य परोक्ष्य भिक्षवोप्राचं मदचो न तु गौरवात् ॥