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१६.
अनेकान्त
४-दोनों ही दर्शन कर्म (कार्य) के अनुसार वर्ण- स्वर्ण के चूड़ा को तुड़वाकर जब हम उसका कुण्डल बनवा व्यवस्था को मानते हैं, न कि जन्म के अनुसार । वैदिक लेते हैं तो चूड़ा रूप पर्याय का नाश, कुण्डल रूप पर्याय दर्शन ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों की उत्पत्ति और उन दोनों में स्वर्ण रूप द्रव्य की प्रविकी व्यवस्था को जन्म के द्वारा माना है किन्तु जैन-बौद्ध च्छिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, दर्शन के अनुसार कोई जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण या आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह है और प्रत्येक क्षत्रिय नहीं कहला सकता है, किन्तु ब्राह्मण या क्षत्रिय के
द्रव्य उत्पाद, व्यय पोर ध्रौव्य रूप है । मूल में जीव और कार्य करके ही वैसा बन सकता है।
अजीब ये दो ही द्रव्य है। जीव भोर अजीव के सयोग ५-दोनों ही दर्शन सब मनुष्यों में समानता के
और वियोग जन्य कुछ ऐसी पर्याय उत्पन्न होती हैं जिन्हें प्रतिपादक हैं। सब मनुष्य समान हैं, सब को अपना-अपना
तत्व के नाम से कहा गया है। प्रतः जैन दर्शन मे तत्त्व
ना करने का अधिकार है, कोई उच्च या नीच नहीं माने गये हैं-जीव, मजीव, पासव, बन्ध, सवर, तथा स्त्री और शद्र को भी ज्ञान प्राप्त करने का अधि- निर्जरा और मोक्ष । इन्हीं मे पुण्य और पाप को मिलाकर कार है।
६ पदार्थ कहे गये हैं। -दोनों ही दर्शन वेद को पौरुषेय मानते है।
बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के भेद मीमांसकों ने वेद को अपौरुषेय माना है। दोनो ही
से दो तत्त्व मानकर भी यथार्थ में स्वलक्षण को ही दर्शनों के मीमांसकों की इस मान्यता का सप्रमाण खण्डन
परमार्थ सत् माना गया है और सामान्य लक्षण को मिथ्या करके वेद को पौरुषेय सिद्ध किया है।
माना गया है। वस्तु में दो प्रकार का तत्त्व देखा जाता ७-दोनों ही दर्शन ईश्वर को सृष्टि कर्ता नही
है-असाधारण और साधारण । प्रत्येक मनुष्य अपनी मानते हैं। नैयायिक विशेषिक दर्शन की मान्यता है कि
अपनी विशेषता को लिए हुए है यही असाधारण (स्त्रम विश्व की सष्टि एक ऐसे ईश्वर के द्वारा हुई है जो
लक्षण) तत्त्व है। सब मनुष्यों मे मनुष्यत्व नामक एक नित्य व्यापक और सर्वज्ञ है। दोनों ही दर्शनो ने प्रबल
माधारण धर्म की कल्पना की जाती है, अतः मनुष्यत्व प्रमाणों के आधार पर सृष्टि कर्तृत्व का खण्डन करके
मनुष्यों का साधारण धर्म है। बौद्ध दर्शन के अनुसार सिद्ध किया है कि यह ससार अनादि परम्परा से इसी
बस्तु का लक्षण प्रक्रियाकारित्व है। वस्तु वह है जो प्रकार चला पाया है और इसका रचयिता ईश्वर
अर्थ क्रिया करे । धर्मकीति ने न्यायबिन्दु में कहा हैनही है।
अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद् वस्तुनः । ८-दोनों ही दर्शन शुभ और अशुभ कर्मों का फल मानते हैं तथा परलोक में विश्वास रखते है।
घट की प्रक्रिया जलधारण है और पट की अर्थ
क्रिया प्राच्छादन है। इस प्रकार प्रत्येक प्रथं की अपनी होनों दर्शनों में तत्त्व व्यवस्था
अपनी अर्थ क्रिया होती है। यह अर्थ क्रिया स्वलक्षण मे जैन दर्शन मे द्रव्य या वस्तु का लक्षण सत् बतलाया ही बनती है, सामान्य लक्षण मे नही । घटत्व मे कभी भी गया है उत्पाद. व्यय तथा प्रोव्य से सहित वस्तु को सत् जलधारण रूप प्रर्थ क्रिया मंभव नही है, प्रतः सामान्य कहा गया है। जैसा कि उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सत्र में कहा है
जैन दर्शन में पदार्थ को सत् माना गया है तथा उस ___'सद् द्रव्यलक्षणम्'-५।२६ । 'उत्पाद व्ययधोव्ययुक्त सत् के विषय में कोई विवाद नहीं है। किन्तु बौद्ध दर्शन सत्'-५३० प्रत्येक पदार्थ त्रयात्मक है। एक पर्याय का में सत् की व्याख्या को लेकर बौद्ध दार्शनिकों के मख्य नाश होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है तथा उन रूप से चार भेद पाये जाते हैं जो इस प्रकार हैं-वैभा. दोनों पर्यायों मे एक तस्व अविच्छिन्न रूप से बना रहता षिक, सौत्रान्तिक, योगाचार तथा माध्यमिक । वैभाषिक
यह बात मनभव में भी माती है। हम देखते हैं कि बाघार्थ की सत्ता मानते है तथा उसका प्रत्यक्ष भी मानते