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बीरनन्दी पोर उनका चन्द्रप्रभ चरित
हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय के अन्तिम संग में प्रसंग वर्तमान भव का शिक्षाप्रद जीवनवृत्त दिया गया है। पाकर मिथ्यात्व का लक्षण किया है
वर्तमान भव के केवल गर्भकल्याणक का १६वें, जन्म, प्रदेवे देवगिर्या गुरुधीरगरावपि ।
तप तथा ज्ञान-इन तीन कल्याणकों का १७वें तथा प्रतत्त्वे तत्त्वबुद्धिश्च तन्मिथ्यात्वं विलक्षणम् ॥१३॥ मोक्ष कल्याणक का वर्णन अन्तिम १८ सर्म में प्रस्तुत
इसी का लक्षण हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में यों किया गया है। चन्द्रप्रभ की दिव्पदेशना इसी सर्ग में दी लिखा है
गई है। महाकाव्योचित प्रन्यान्य विषयों का पालकारिक पदेवे देवबुद्धिर्या गुरुषोरगुरौ च या।
वर्णन प्रसङ्गानुसार यथा स्थान किया गया है। अधर्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्व तद्विपर्ययात् ॥२॥
भाषार इसी तरह योगशास्त्र और धर्मशर्माभ्युदय के खरकर्म सम्बन्धी श्लोक भी मिलते-जुलते है। प्रतएव हरि
___ चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का मुख्य भाषार चन्द्र को हेमचन्द्र का प्रव्यवहित उत्तरवर्ती मानना होगा प्राचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण है, जिसके ५४३ पर्व जो १२वीं शती मे हुए हैं। फलतः ये वीरनन्दी से प्रभा
में चन्द्रप्रभ के कुल मिलाकर सान भवों का वर्णन है। वित हुए हैं - यह मानने में कोई मापत्ति दृष्टिगोचर पर्व के अन्त में केवल एक ही अनुष्ट्रप में क्रमश: सातों नहीं होती।
भवों के नाम भी बड़ी कुशलता से दिये गये हैंसमय
धीवर्मा१ श्रीधरो देवोर जितसेनो३ ऽच्युताधिपः४ । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने जिस गोम्मटसार पद्मनाभो५ ऽहमिन्द्रो ऽस्मान् पातु चन्द्रप्रभ.७ प्रमुः। कर्मकाण्ड मे वीरनन्दी का उल्लेख किया है उसकी रचना
वीरनन्दी ने उत्तरपुराण के क्रम के अनुसार चन्द्रचामुण्डराय की-जो गगवशीय राजा रायमल्ल के प्रधान
प्रभचरित में चन्द्रप्रभ का जीवनचरित लिखा है और मन्त्री व सेनापति थे-प्ररणा से की गई थी। उन्होंने
अन्त मे एक शार्दूल विक्रीड़ित मे क्रम से सातों भवों का चैत्र शुक्ला-पञ्चमी रविवार २२ मार्च सन् १०२८ मे
उल्लेख किया है
- श्रवण-बेल्गोला मे गोम्मट स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा
य. श्रीवर्मन्पो बभूव विबुध. सौधर्मकल्पे ततकी थी। मतः वीरनन्दी का भी वही समय सिद्ध
स्तस्माच्चाजितसेन चक्रभृदभूद्यश्चाच्युतेन्द्रस्ततः। होता है।
पश्चाजायत पद्मनाभनपति यौँ वैजयन्तेश्वरो। कृति
यः स्यातीर्थकरः स सप्तमभवे चन्द्रप्रभः पातु नः ॥६॥ महाकवि वीरनन्दी की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभचरित उत्तरपुराण के उक्त श्लोक ने न केवल वीरनन्दी है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसके अठारहो सगों के को, बल्कि प्रण्डितप्रवर प्राशाघर और दामनन्दी को२ कुल श्लोको की सख्या १६९१ है। प्रशस्ति के ६ श्लोक भी प्रभावित किया है। अलग हैं । सभी सर्गों के अन्तिम श्लोकों मे 'उदय' शब्द वीरनन्दी के समक्ष उत्तरपुराण के साथ जिनसेन माया है, अत: यह उदयाङ्क काव्य कहलाता है। चन्द्रप्रभ का हरिवंश पुराण भी रहा है, क्योंकि चन्नप्रभचरित की के साथ 'उदय' का मेल भी ठीक बैठता है।
१. श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः । कथा वस्तु
पपनामोऽहमिन्द्रो ऽभूयोऽव्यामचन्द्रप्रभः सनः ॥१०॥ प्रस्तुत महाकाव्य में अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ का
त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र चरित वणित है। इसीलिए इसका नाम 'चन्द्रप्रभचरितम्' २. श्रीवर्मा श्रीधरः स्वर्गेऽजितसेनऽच्युतः सुरः। रखा गया। इसके प्रारम्भ के १५ सर्गों में चन्द्रप्रभ के पचनाभोऽहमिन्द्रो यस्तं वन्देऽहं शशिप्रभम् ॥१३॥ पिछले ६ भवों (जन्मान्तरो) का मोर अन्त के ३ मे
पुराणसार संग्रह