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बीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रमचरित
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बढ़ यशस्वी थे। वे अपने गुरु के प्रधान शिष्य थे- शास्त्र के अधिकारी विद्वान थे। वे मङ्गलाचरण के प्रसङ्गों सतीयों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रकृति चन्द्रमा की भांति में उनका बार-बार स्मरण करें, यह साधारण बात नहीं सौम्य थी।
है। विशिष्ट दार्शनिक और प्रतिभाभिराम कवि वादिराज विबुध गुणनन्दी के गुरु का नाम गुणनन्दी था। वे सूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में नामोल्लेख पूर्वक इनकी भव्यजीवों के अनन्य विकासक एव मुनिसंघ के नायक थे। कृति की सराहना की है। मुनिसंघ उन्हें गणधर की तरह मानता था। वे अत्यन्त कवि दामोदर ने अपनी कृति चन्द्रप्रभ चरित में इन्हें सज्जन थे। देशीयगण में वे प्रथमतः गणनीय थे। वे 'कवीश' बतलाया है और वन्दन भी किया है३. पण्डित प्रत्यन्त गुणी तथा पुण्यात्मा थे। फलतः राजा की भाति गोविन्द ने अपनी कृति पुरुषार्थानुशासन के प्रारम्भ में उनके लिए भी कुछ असाध्य नहीं था।
इनका उल्लेख धनञ्जय, प्रसग और हरिचन्द्र से भी निष्कर्ष यह कि महाकवि वीरनन्दी गुरु, दादा गुरु पहले किया है और इनके काव्य को सूक्तियों तथा सद् तथा परदादा गुरु तीनों ही नन्दिसघ के प्रत्यधिक प्रभाव- युक्तियों से युक्त बतलाया है। पण्डितप्रवर माशाधर ने शाली प्रसाधारण विद्वान् थे। वीरनन्दी की असाधारण इनके चन्द्रप्रभ चरित से एक श्लोक५ उद्धृत करके सागर विद्वत्ता भी उनकी विशिष्ट गुरु परम्परा के अनुरूप थी। धर्मामृत के न्यायोपात्त-इत्यादि श्लोक (१.११) मे दिए
गये कृतज्ञता गुण पर प्रकाश डाला है। विद्वत्ता
जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदय के रचयिता वीरनन्दी की असाधारण विद्वत्ता का एक अनुमान
सरस्वती सुत प्रतिभामूर्ति कायस्थवंशावतंस महाकवि इसी से लगाया जा सकता है कि वे प्राचार्य प्रभयनन्दी के
हरिचन्द्र न धर्मशर्माभ्युदय के निर्माण की रूपरेखा चन्द्रशिष्य थे। वीरनन्दी ने अपने विशिष्ट बुद्धिबल से समस्त
प्रम को सामने रखकर बनाई। चन्द्रप्रभ चरित और वाङ्मय को प्रात्मसात् कर लिया था-वे सर्वतन्त्र स्वतत्र
धर्मशर्माम्युदय की मङ्गलाचरण पद्धति, पुराणो के पाश्रय थे। वे कुशल वक्ता एवं सफल शास्त्रार्थी थे । सभ्य पुरुषों की सचना, दार्शनिक चर्चा एव धर्मदेशना मादि को देख की सभापो मे उन्ही की बात मानी जाती थी। प्रवादियो कर कोई भी सहृदय यह जान सकता है कि हरिचन्द्र ने के कुतक उनके प्रबल युक्तिबल एव अतुल शास्त्रबल के वीरनन्दी के महाकाव्य को प्रथ से इति तक ध्यान से सामने शिथिल पड़ जाते थे। इसी कारण उनका यश भी देखा था। धर्मदेशना के कतिपय श्लोकों के चरण-के-चरण खूब था।
मिलते हैंप्रभाव
जीवा जीवानवा बन्धसंवरावय निर्जरा। अभयनन्दी के शिष्य होने के नाते वीरनन्दी और -
२. चन्द्रप्रभाभिसबझा रसपुष्टा मनः प्रियम् । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती सतीर्थ्य रहे, फिर भी सिद्धान्त
कुमुदतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।।१,३०॥ चक्रवर्ती नेमिचन्द्र उनसे प्रभावित थे। अन्यथा वे अपनी कृति-गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उनका तीन बार१ उल्लेख
३. चन्द्रप्रभजिनेशस्य चरित येन वणितम् ।
त वीरनन्दिन वन्दे कवीश ज्ञानलब्धये ॥ १।१६ न करते और न उन्हें गुरुकल्प मानते । नेमिचन्द्र सिद्धान्त
४. श्रीवीरनन्दिदेवो धनञ्जयासगो हरिश्चन्द्रः । १. जस्स य पायपसायेण णंत संसारजलहि मुत्तिण्णो । व्यधुरित्याद्याः कवयः काव्यानि सदुक्ति युक्तीनि ॥२२
वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं प्रभयणदि गुरु ॥४३६।। (ये दोनों पद्य 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के क्रमशः णमिऊण अभयदि सुदसायरपारगिंदणदिगुरु ।
पृष्ठ ७० व १२७ से उदघृत) बरवीरणदिणाहं पयडीण पच्चयं वोच्छ ॥७८५॥
५. विधित्सुरेनं तदिहात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् णमह गुणरयणभूसण सिद्धन्तामियमहद्धिभवभावं। गुणरुपेतोऽप्यपरैः कृतघ्नः समस्तमुटेजयते हि लोकम् । वरवीरणंदिचंद णिभ्मलगुणमिदणंदिगुरु ॥६६॥
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