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अनेकान्त
जगा
मोक्षश्चेति जिनेन्द्राणां सप्ततत्त्वानि शासने। इनमें से कुछ (२६२.२६६) इलोकों में दार्शनिक चर्चा
प.च. १८२ भी है। ऐसी स्थिति में वीरनन्दी की अपनी कति में जीवा जीवालवा बन्धसंवरावपि निजंग। दार्शनिक प्रसंग लाना मावश्यक ही नहीं अनिवार्य भी था। मोक्षश्चेति तत्त्वानि सप्तस्युजिनशासने ।। इसी पुराण में धर्मनाथ का चरित केवल ५४ श्लोकों में
घ. श० २११८ पूरा किया गया है। उनमें कहीं तनिक भी दार्शनिक रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवान पुद्गलः स्मृतः । पुट नहीं है। फिर भी हरिचन्द्र ने अपने महाकाव्य को अणुस्कन्धप्रभेदेन द्विस्वभावतया स्थितः ।।
सर्वांग सुन्दर बनाने के लिए चतुर्थ सर्ग में जो अन्य च.च०१८१७८
सर्गों से प्रत्यधिक सुन्दर है-चार्वाकदर्शन की मीमांसा रूपगन्धरमस्पर्श शब्दवन्तश्च पुदगलाः ।
की है। निश्चय ही इस दार्शनिक प्रसंग का प्रेरक चन्द्रद्विधास्कन्भे देन त्रैलोक्यारम्भहेतवः ॥
प्रभचरित के द्वितीय सर्ग का दार्शनिक प्रसंग रहा है जो घ. श० २१०
५६ (४-१०६) श्लोकों में फैला हुना है। इस प्रसंग में यः कषायोदयात्तीवः परिणामः प्रजायते ।
तत्वोपप्लव मादि अन्य दर्शनों की विस्तृत समालोचना चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः सोऽनुवगितः ॥
की गई है। च. च०१८1८८
अतः यह मानने में कोई प्रापत्ति नहीं कि हरिचन्द्र कषायोदयतस्तीवपरिणामो मनस्विनाम् ।
भी वीरनन्दी से प्रभावित हुए हैं। चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः कारणं परम् ।।
बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रारम्भ मे भट्टार हरिचन्द्र घ. श० २१
का उल्लेख किया है-'भट्टार हरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपाइतना साम्य प्रकस्मात् नहीं हो सकता । यदि अन
यते' । कुछ विद्वान् इन्हें और धर्मशर्माभ्युदय के प्रणेता कम तथा भाव की समानता पर ध्यान दिया जाय तो
हरिचन्द्र को एक समझते हैं जो भ्रममूलक है। धर्मशर्मादोनों की लगभग पाधी दिव्यदशना एक हा जसा सिद्ध भ्यदय के लेखक का अभी तक कोई गद्य ग्रन्थ उपलब्ध होगी। धर्मशर्माभ्युदय की दिव्यदेशना का जितना अंश
नहीं हरा और न उनकी 'भट्टार' उपाधि ही थी। धर्मचन्द्रप्रभचरित की दिव्यदेशना से अधिक है वह अन्य
शर्माभ्युदय के अन्त में दी गई प्रशस्ति में उन्होंने अपने ग्रन्थों से-जिनमें तस्वार्थसूत्र व हेमचन्द्र का योगशास्त्र को रसध्वनि के मार्ग का सार्थवाह लिखा है-'रसध्वनेरभी सम्मिलित हैं-प्रभावित है । इसका एक कारण यह ध्वनि सार्थवाहः'। ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक माचार्य भी संभव है कि हरिचन्द्र कायस्थ थे। वे उच्चकोटि के
मानन्दवर्धन हैं । वे नवमी शताब्दी में हुए हैं। प्रतः कवि थे। कवित्व की चमत्कृति की दृष्टि से उनका मासन
हरिचन्द्र न बाण के पूर्ववर्ती हैं और न प्रानन्दवर्धन के। न केवल जैन, वरन् जनेतर महाकवियों से भी ऊँचा है,
हरिचन्द्र ने जीवन्धर चम्पू की रचना की है। चम्पू काव्य पर वे वीरनन्दी जैसे सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ नही थे। का प्राविष्कार दसवी शती में हुमा है, प्रत: हरिचन्द्र
प्राचार्य गुणभद्र का उत्तर पुराण प्रस्तुत दोनों महा- इसके बाद में हुए। कवियों के सामने रहा, यह सुनिश्चित है। इस पुराण में न स्थिर क्षणिकं ज्ञानमत्र शून्यमनीक्षणात् । चन्द्रप्रभ का चरित २७६ श्लोकों में समाप्त हुमा है।
वस्तु प्रतिक्षणं तत्त्वान्यत्वरूपं तवेक्षणात् ॥२६॥ १. नास्तिकाः पापिन. केचिद दैष्टिकाश्च हतोद्यमाः ।
प्रस्त्यात्मा बोधसद्भावात् परजन्मास्ति तत्स्मृतेः ।
सर्व विच्चास्ति धीवृद्धस्त्वदुपजमिदं त्रयम् ॥२९॥ त्वदीयास्त्वास्तिका धाः परत्र विहितोद्यमाः॥२६२।।
द्रव्याद् द्रव्यस्य वा भेदं गूणस्याप्यवदनिधीः । सर्वत्र सर्वदा सर्व सर्वस्त्वं सार्वसर्ववित् ।
गुणैः परिणति द्रव्यस्यावादीस्त्वं यथार्थदृक् ॥२६६।। प्रकाशयति नैबेन्दु र्भानुन्येिषु का कथा ॥२६॥
उ०पु०पर्व ५४