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राजस्थान का जैन पुरातत्व
डा० कैलाशचन्द जैन
राजस्थान में जैनधर्म का अस्तित्व प्राचीनकाल से है। राजामों को प्रभावित किया और जैनधर्म और संस्कृति वहाँ प्रायः दो संस्कृतियों का अस्तित्व पुरातन समय से का संरक्षण किया। अनेक विद्वान ऋषियों, भट्टारकों, रहा है। पुरातन अवशेष भी पाठवीं शताब्दी तक के विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी उपलब्ध होते हैं । राजपूत राजाओं के राज्यकाल मे जैन और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य रचा। उसमें से धर्म खूब ही पल्लवित और विकसित हुमा है। राजपूत वर्तमान में जो कुछ साहित्य उपलब्ध है उसका भी अभी राजामों ने जैनधर्म के विकास में कोई रुकावट नही डाली पूर्णरूप से मूल्यांकन नहीं हो सका है फिर भी उसकी प्रत्यत उदारतावश सहयोगही दिया है। चौहानवशी राजामो महत्ता स्पष्ट है। राजस्थान में उपलब्ध मूर्तियाँ, मन्दिर ने तो जैन मन्दिरो को दान भी दिया है। जैनियों ने भी और शिलालेख, प्रन्थ-प्रशस्तियां, जिनमें संघ, गणगच्छादि राजपन गजामों के अनुकूल रहकर राज्य की सेवाएँ की के उल्लेख निहित हैं। उनसे इतिहास के लिए बड़ी जानहै और अनेक तरह से उसे सम्पन्न बनाने में सहयोग कारी मिलती है। पाज इस लेख द्वारा राजस्थान के जैन दिया है। वे सेवा-कार्य से कभी पीछे नही हटे है। जयपुर पुरातत्त्व पर विचार किया जाता हैप्रादि राज्यों का संरक्षण और सवर्द्धन भी किया है। कुछ बाद के शिलालेखों से तो ऐसा पता चलता है इतना ही नहीं किन्तु उन राज्यों के दीवान, कोषाध्यक्ष कि जैनधर्म राजस्थानमें बहुत प्राचीन समय में भी विद्यमान प्रादि उच्च पदों पर रह कर राज्य की अभिवृद्धि,स भाल, था किन्तु उन पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता प्रतिष्ठा को बढ़ाने तथा सरक्षण में सदा सावधान रहे हैं। भीनवाल के वि० सं० १३३३ के शिलालेख१ से पता राजस्थान में जैन संस्कृति के प्राण जैन मन्दिर, मूर्तियां चलता है कि महावीर स्वामी स्वय श्रीभाल नगर पधारे और शास्त्र-भण्डार विपुल मात्रा में देखने को मिलते हैं। थे। मुगस्थल के वि० सं० १४२६ के शिलालेखर में यह जैसे गुजरात में चौलुक्यवंशी कुमारपाल प्रादि के समय उल्लेख है कि महावीर स्वामी स्वय मर्चवभूमि पधारे जैनधर्म की पताका फहराती रही, उसी तरह राजपूताने तथा महावीर स्वामी के जीवन के ३७वें वर्ष में केशी में भी जैनधर्म का प्रभ्युदय रहा है। अनेक मन्दिर निर्माण श्रमण ने यहाँ पर एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। सत्तरहवीं मूति-प्रतिष्ठा, ग्रन्थनिर्माण और महोत्सवादि विविध कार्य शताब्दी के कवि सुन्दर गणि३ के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य सोत्साह सम्पन्न होते रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा ने घंधाणी के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा की किन्त यह सकता है कि जब दक्षिण देश में धार्मिक विद्वेष के कारण मन्दिर वास्तव में बारहवीं सदी का है। कर्नल टाके जैनधर्म और संस्कृति पर अत्याचार होने लगे और जैनियों अनुमार कुंभलमेर का एक मन्दिर राना सप्रति के द्वारा को बलात् शवधर्म में दीक्षित किया जाने लगा, तथा -
१. प्रोग्रेस रिपोर्ट पाकियोलोजिकल सर्वे वेस्टर्न सकिल, बिना किसी अपराध के साधुनों को मारने तथा धर्म परि
१९०७, पृ० ३५। वर्तन की अनेक घटनाएं घटने लगीं। तब वहाँ से भी कुछ
२. प्रबुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख संदोह. ४८ । जैन लोग गुजरात, राजस्थान पोर मालवा में प्राकर बसे
३. भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, और वहाँ उन्होंने अपने धर्म की रक्षा की।
पृ० २७३। राजस्थान में मेवाड़ौर मालवा में अनेक मुनियों, ४. प्रनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज माफ राजस्थान, जिल्द २, भट्टारकों ने विहार किया और अपने धर्मोपदेश द्वारा पृ०७७६.८० ।