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बाद का कैसे बतलाया जा सकता है ? वृत्तिकार के कथन थी। चामुण्डराय ने अपना विषष्ठिशलाका पुरुष चरित के अनुसार नेमिचन्द्र की दोनों कृतियाँ (लघु और बृहत) (चामुण्ड पुराण) शक सं०९०० में बनाकर समाप्त मुद्रित हो चुकी है। सोमदेव पूर्ववर्ती है इसलिए उनकी किया है। अतः नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का समय कृति का असर ब्रह्म देव की वृत्ति पर हो सकता है। वे शक स०९०० (वि० सं० १०३५) है। प्रतः उनका उनके बाद के विद्वान हैं।
समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ष है। और द्रव्य
संग्रह के कर्ता नेभिचन्द्र सैद्धान्तिक का समय विक्रम की यहां यह बात पौर विचारणीय है कि प्रस्तुत द्रव्य ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध पौर १२वीं का पूर्वाध है। संग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र मालवा के विद्वान हैं, दक्षिण भारत के नहीं, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती दक्षिण के
उक्त प्रमाणों के प्राधार पर द्रव्य संग्रह और वृत्तिनिवासी थे,गग नरेश राचमल्ल के सेनापति राजा चा. कार दोनों विद्वान् भोजदेव के समकालीन हैं, उन्हीं के मुंडराय के अनुरोध से उन्होने गोम्मटसार की रचना को राज्य समय उनकी रचना हुई है।*
वीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रभ चरित
अमृतलाल शास्त्री
नामसाम्य
अभयनन्दी थे। वे अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा सस्कृत महाकवियों की परम्परा को जिन्होने गौरवा- मान्य थे। उन्होने जैनधर्म के विषय मे परम्परागत न्वित किया है, महाकवि वीरनन्दी उन्ही में से एक है। प्रवर्णवादो या मिथ्या प्रवादो को दूर किया था। उनके उनकी कृति के रूप में अभी तक केवल चद्रप्रभ चरित द्वारा जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी। बे समुद्र की महाकाव्य ही उपलब्ध हुमा है। माचारसार के कर्ता भी भाति गम्भीर एवं सूर्य की भाति तेजस्वी थे। वे अत्यन्त वीरनन्दी हैं, पर वे प्रस्तुत वीरनन्दी से भिन्न है, क्योकि गुणी तथा मेधावी थे। वे भव्य जीवों के एकमात्र बन्धु वे प्राचार्य मेषचन्द्र के शिष्य थे। इनके अतिरिक्त एक एव उद्बोधक थे। पौर वीरनन्दी हुए जो प्राचार्य महेन्द्रकीति के शिष्य रहे। प्राचार्य प्रभयनन्दी के गुरु विबुध गुणनन्दी थे। वे अतः इन तीनो मे केवल नाम का ही साम्य है। गुरु परम्परा
मुनिजननुतपादः प्रास्त मिथ्याप्रवादः चन्द्रप्रभ चरित के अन्त मे कवि प्रशस्ति पाई जाती
सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । है, उससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत वीरनन्दीके गुरु भाचार्य
अभवद् अभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी
स्वमहिमजितसिन्धु व्यलोककबन्धुः ॥३॥ १. बभूव भव्याम्बुजपप्रवन्धु. पतिर्मुनीनां गणभृत्समान. । भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत्समानत्विषः
सदप्रणीदेशिगणाग्रगण्यो गुणाकर: श्रीगुणनन्दिनामा । शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् ।। गुणग्रामाम्भोधेः सुकृतवसतेमन्त्रमहसा
स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तः सतां ___ मसाध्यं यस्यासीन्न किमपि मही शासितुरिव । संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतकांकुशाः।। म तच्छिष्यो ज्येष्ठः शिशिरकरसोम्यः समभवत् शब्दार्थसुन्दरं तेन रचितं चारुचेतसा ।
प्रविख्यातो नाम्ना विबुधगुणनन्दीति भुवने ॥२॥ श्रीजिनेन्दुप्रभस्येदं चरितं कुमुदोज्ज्वलम् ॥॥