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जैन मूर्ति कला का प्रारम्भिक स्वरूप
रमेशचन्द्र शर्मा (सहायक संग्रहाध्यक्ष राज्य संग्रहालय, लखनऊ )
परम्परा के अनुसार जैनधर्म में मूर्तिपूजा श्रादिकाल से मानी जाती है । इम प्रादिकाल का तात्पयं प्रथम तीर्थकर प्रादिनाथ या ऋषभदेव के समय से है। वर्षों मे इस समय का अनुमान लगाना असम्भव है । १८वें तीर्थकर ( अरहनाथ ) और ११वे तीर्थकर (मल्लिनाथ) के बीच का समय ही एक हजार करोड वर्ष का है। तीर्थंकरों का समय तो वर्षो मे मिलता भी नहीं। इस प्रकार यदि श्रुति परम्परा को आधार भी मान लिया जाय तो जैनधर्म में मूर्तिकला के विकास का काल निर्धारण नहीं हो सकता ।
पूर्ववर्ती
वर्तमान सामग्री के प्राधार पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी मूर्ति परम्परा को जैनधर्म में आदिकाल से मानने मे कठिनता है । २३वे तीर्थंकर स्वामी पार्श्वनाथ को ऐति हासिक विभूति माना जा मकता है और उनका समय ८वीं-हवी शती ई० पू० में प्रांका गया है। इतिहासकार इन्ही को जैनधर्म का प्रवर्तक मानते है। इनके पश्चात् ६टी शती ई० पू० में २४वे और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हुए। पार्श्वनाथ के समय की मूर्तियाँ तो है ही नहीं, वर्धमान महावीर के समकालीन पुरातत्व अवशेषो का भी सर्वथा प्रभाव है। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म के प्रवर्तन के साथ-साथ मूर्तिपूजा का सम्बन्ध हमारी वर्तमान पहुँच के आधार पर स्थापित नही हो
पाता ।
पटना के समीप लोहानीपुर मे मिली एक नग्न मूर्ति को कुछ विद्वान् इसकी विशेष प्रकार की चमक ( पालिश) के कारण मौर्य और शुगकाल के बीच की कलाकृति मानते हैं । डा० घटगे के अनुसार मूर्ति की नग्नता, दृढता व कायोत्सर्ग मुद्रा को इगित करती हुई लटकती बाहे इस
का प्रमाण है कि यह मूर्ति किसी तीर्थकर की ही रही होगी (दि एज माफ इम्पीरियल यूनिटी पृ० ४२५) । ऐसा मान लेने पर यह मूर्ति जैनधर्म की सबसे प्राचीन
मूर्ति मानी जाएगी। किन्तु एकमात्र इस मूर्ति के अतिरिक्त लगभग दो सौ वर्ष तक इतिहास इस दिशा मे मौन है और प्रथम शताब्दी की ई० से ही मूर्तियों का अविच्छन्न रूप से निर्माण प्रारम्भ होता है ।
प्रथम शताब्दी ई० पू० के कलिग नरेश खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख से हमे वहाँ एक तीर्थकर की मूर्ति की पुन स्थापना की घोर सकेत मिलता है । प्रभिलेख के अनुसार तीन सौ वर्ष पहले मगधाधिपति नन्द इस मूर्ति को यहाँ से ले गए थे। इस घटना क्रम के प्राधार पर मूर्ति का आरम्भ काल कम से कम चौथी शती ई० ༢༠ में निर्धारित होता है कुछ विद्वान् खण्डगिरि और उदयगिरि की गुफा में अंकित मूर्ति पटों की कुछ आकृतियो को जैन प्राकृतियां मानते है। उदयगिरि की रानी नूर गुफा में उत्कीर्ण एक पट को २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की जीवन घटनाओ से सम्बन्धित माना जाता है ।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगर निर्मारण सम्बन्धी प्रकरण में जिन मूर्तियो को नगर के मध्य भाग में स्थापित करने को लिखा है उनमे जयन्त, वैजयन्त और अपराजित, जैन मूर्तियों का भी उल्लेख है : - 'अपराजिता प्रतिहत जयन्त वैजयन्त कोष्ठकान् 'पुरमध्येकारयेत् । अथंशास्त्र का समय प्रो० जौली ने ३२० ई० पू० माना है। किन्तु जैसा कि ऊपर सकेत किया गया इस ममय की जैन मूर्तियाँ श्रभी उपलब्ध नही हुई है ।
प्रायागपट - कालक्रम के अनुसार जैन मूर्तियों में श्रायागपटों का स्थान सर्व प्रथम है । पत्थर के इन चौकोर पाटियों पर श्रर्हत या उनसे सम्बन्धित चिह्न उत्कीर्ण होते है। अभिलेखो मे इन्हे प्रयागपट की संज्ञा दी गई है । डा० उकूलर ने प्रयागपट को पूजा शिला माना है। डा० वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार प्रायाग शब्द का प्रच लन प्राक से हुम्रा जिसका तात्पर्य 'पूजा के योग्य' से