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धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा
हैं-उस श्रीमण्डप की तीन में से प्रथम (सबसे नीचे की) पीठ पर सामने की भोर मध्य मे धर्मचक्र प्रकित पाया कटनी या पीठ पर शासन भक्त यक्ष धर्मचक्र लिये खडे जाता है जिसके दोनों मोर उपासक उपासिकाएँ उक्त रहते हैं ।५ प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थकर चक्ररत्न की पूजा करते दिखाये गये हैं। कभी-कभी यह भ० महावीर के प्रधान यक्ष (या शासन देवता) मोमुख धर्मचक्र एक छोटे से स्तम्भ के शीर्ष पर अंकित किया एवं माता के मूत्तिविधान में ही उसका मस्तक धर्म- गया है और कभी-कभी घिरत्न प्रतीक के ऊपर। चक्राङ्कित होता है ।६ अभिधान चिन्तामणि मे तो नेमि- पादपीठ के दोनों छोरों पर एक एक बैठे सिह का प्रकन नाथ के नाम की व्युत्पत्ति ही धर्मचक्राय नेमिवन्नेमि., भी बहुधा मिलता है जो सभवतया सिहासन के सूचक है को है।
और प्रतिमा भ. महावीर की है शायद इस बात के भी मथुरा में प्राप्त मौर्य-शुङ्ग काल के एक पूरे मायाग- ती० शान्तिनाथ की एक प्रतिमा मे मध्यवर्ती धर्मचक पट्र पर धर्मचक्र ही उत्कीण है। ईस्वी सन् के प्रारम्भ से के दोनो मोर एक एक मग प्रकित है१० । कुछ पूर्व मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी आदि मे विविध
इस सबमे प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में भी धार्मिक प्रतीकों से अकित पायागपटो की पूजा का प्रचलन किसी समय धर्मचक्र की पूजा का पर्याप्त प्रचलन था। जैनजगत मे था। उसके पूर्व स्तूप पूजा का भी प्रचलन तीर्थङ्कर प्रतिमानो का वह मावश्यक प्रग ममझा जाता था, किन्तु सभवतया बौद्धोद्वारा स्तूप को अत्यधिक अपना
था। स्वतन्त्र पायागपटों में उत्कीर्ण करवाकर और स्तूप के लिया जाने के कारण जनो ने शनैःशनैः स्तूप पूजा का
वहिभांग या चैत्य के प्रमुख स्थान में स्थापित करके उसकी त्याग मा कर दिया । स्तूप पूजा के समय में ही पायाग
पूजा की जाती थी। सभवतया कलापूर्ण स्तम्भ बनाकर पटी की ओर उनके उपलक्ष्य से अन्य-स्वस्तिक, वर्धमानस्थ,
उन स्तम्भो के शीर्ष पर धर्मचक्र की प्राकृति बनाई नन्द्यावर्त, त्रिरत्न, अष्टमंगलद्रव्य आदि-प्रतीकों की
जानी थी और धर्मसंस्थानो के प्रागण में अथवा नगरों के पूजा का प्रचलन हुमा। अर्हत प्रतिमाएँ भी नन्दमौर्य
शृङ्गाटक आदि प्रमुख स्थानो में ऐसे स्तम्भ स्थापित किये काल से प्रतिष्ठित होने लगी थी, किन्तु उनका अधिक
जाते थे। उपरोक्त मे मे कतिपय मूट्रिनों को देखने से प्रचार शुङ्ग-शक-कुपाणकाल में ही हुआ। किन्तु गुप्तकाल
यह भी लगता है कि स्त्री पुरुष पावालवृद्ध मिलकर फल से पूर्व की तीर्थकर प्रतिमानो मे लॉछन नहीं रहा था,
पुप्प माला प्रादि द्रव्यो मे धर्मचक्र की पजा करते थे। प्रतएव कन्धो नक लटकती केशराशि के द्वारा तीर्थकर 3 ऋषभदेव की, सर्पफणाकार छत्र द्वारा ती. पार्श्वनाथ की इस प्रकार धार्मिक अनुधुतियों, प्राचीन साहित्य एवं और पादपीठ पर मिह तथा धर्मचक्र द्वारा तीथंकर महा- दो सहम वर्ष प्राचीन कलाकृतियो, पुरातत्त्वावशेषों वीर की नो पहिचान होती थी, अन्य तीर्थङ्करों की पहि
आदि के अध्ययन से तो यही लगता है धार्मिक या चान प्रतिमा पर प्रकित लेख में प्राप्त उनके नाम द्वारा सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में धर्मचक्र मूलतः नपरम्परा ही होनी थी, अन्य कोई साधन नही था।
की देन है। आज तो यह हमारे राष्ट्र का भी प्रतीक है __गुप्तकाल के पूर्व की अनेक जिन प्रतिमाओं के पाद
यद्यपि उसे राजनीतिक रग देने के लिए 'अशोकचक्र के
नाम से पुकारा जाता है। ५. कृताञ्जलिभिरानम्रमस्तकन्तित. स्थिते । म्फुरद्भिधर्मचकम्तदुदृयते यक्षनायक.॥
७. मथुग सग्रहालय, नम्बर बी० २६, बी १३, बी०१४, -मेधावी रचित समवशरणदर्पण, श्लो० ३२ इत्यादि । धर्मचकञ्चमस्तके (प्रतिष्टासारसंग्रह), मूद्धनिधर्म- ८. बही, न. ४६०, बी०४, बी० १२, इत्यादि । चक्र (मन्दिरप्रतिष्ठाविधान), --देखिए दी जैनावही, बी०५, इत्यादि। प्राइकानोग्रफी, पृ० ६५, ११८-११६
१०. भट्टाचार्य, पृ०७३-७४