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जन मूति कला का प्रारम्भिक स्वरूप
है। प्रायागपटों में स्थापना की कोई तिथि नहीं है अतः की मिलती हैं। पहली खड़ी और दूसरी बैठी। खड़ी केवल शैलगत विशेषताओं के माधार पर ही इनका मूर्तियों की मुद्रा को दण्ड अथवा कायोत्सर्ग कहते हैं तिथिक्रम निश्चित किया गया है। श्री० बी० सी० भट्टा- जिनमें तीर्थकर का सर्वस्व त्याग का भाव प्रदर्शित है। चायं के अनुसार मायागपट विदेशीकला के प्रभाव से रहित बैठी मूर्तियों में तीर्थकर ध्यानस्थ भाव में दिखाए गए हैं। और कुपाणों से पूर्ववर्ती है । डा. अग्रवाल इन्हें पहली कला की दृष्टि से कुषाण कालीन मूर्तियां अपनी इन शताब्दी के पूर्व भाग में मानते है। अवश्य ही मायागपट विशेषतामो के कारण प्रसिद्ध हैं। मस्तक मुण्डित है उम काल की ओर संकेत करते है जब देवतामों की प्रतीकों अथवा कुछ हलके धुंघराले बाल हैं, पाखें बादाम की के माध्यम से उपामना की जाती थी और उनकी आकृ- प्राकृति की तरह गोल है, मुख पर हलका स्मित भाव है, तियो का प्रचलन केवल प्रारम्भ ही हुमा था। यह समय कान का नीचे का भाग छोटा है, छाती चौडी उभरी और प्रथम शती ई० का प्रथम चरण ही हो सकता है। कन्धे विशाल है। प्रभामण्डल यदि हैं तो सादा या केवल
कुछ पायागपटों के मध्य भाग में मुख्य देवता का हस्तिनख प्राकृति से उत्कीर्ण है। वक्षस्थल पर धीवत्स धर्म चक्र, स्नूप आदि के प्रतीक से सकेत है और कुछ में प्राकृति का लाछन मुख्य विशेषता है इसीसे बुद्ध व जैन तीर्थकर की प्राकृति है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए मूर्ति में भेद किया जाता है। हाथ तथा पैर के तलवों पर कि जिन पटों पर देवाकृति प्रकित है उनमें चिह्नों का ही त्रिरत्न, चक्र तथा कमल मादि चिह्न भी बने रहते हैं। बाहुल्य है । प्रायागपटों में अनेक शुभ चिह्न अंकित मिलते इन्हे महापुरुष लक्षण माना जाता है। जैन मूर्तियां अधिकहैं। जैसे स्वस्तिक, दर्पण, पर्णपात्र प्रासन, मीन यगल. तर सिंहासन पर पारुढ बनाई जाती थी और नीचे पुष्प पात्र, पुस्तक प्रादि । इन्हें प्रप्टमागलिक चिह्न कहा कुषाण कालीन ब्राह्मी लिपि मे दाता का नाम तथा गया है।
तत्कालीन गजा के राजत्व काल का सवत्, महीना, दिन मूतियों का प्रारम्भ-कलाकार ने जिस कुशलता से प्रादि दिए रहते हैं। इस काल की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों आयागपटो में प्रतीकों का स्थान देव प्राकृतियों को देना की जीवन घटनामों से सम्बन्धित दृश्यो का प्रभाव है। भारम्भ किया उमे समाज में मान्यता मिली। मथुरा का लखनऊ मंग्रहालय में एक एमा पट है (जं. ६२६) जिस तत्कालीन धार्मिक वातावरण इसके लिए एक विशेष पृष्ठ पर महावीर के भ्रण को ब्राह्मण स्त्री देवनन्दा के गर्भ से भूमि तैयार कर रहा था। अव सा समय था जब क्षत्रिय स्त्री त्रिशाला के गर्भ में स्थानान्तरण करते हुए विभिन्न मम्प्रदायों की लोक प्रियता दार्शनिक विवेचन नेगमेश को दिखाया गया है। पर नहीं अपितु मठ, विहार, व स्तूप बनवाने तथा मूर्तियों जैन मूर्तिकला में प्रारम्भ से ही ब्राह्मण देवताओं का की प्रतिष्ठा करने पर आधारित थी। कलाकार के सामने प्रदर्शन मिलता है। लखनऊ सग्रहालय में जैनधर्म से यक्ष की मूर्ति आदर्श स्वरूप थी जिसका अन्य मूतियों में मम्बन्धित सरस्वती की एक मूति है (जे०२४) जो सबसे अनुकरण हो सकता था। इसी समय मथुरा और गान्धार प्राचीन सरस्वती की प्रतिमा है। इसकी पीठ पर उत्कीर्ण कला केन्द्रो में बुद्ध मूर्ति का भी विकास हुमा। इतिहाम अभिलेख से जैनधर्म की प्राचीन सम्प्रदाय व्यवस्था पर व कला के क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। इससे बड़ा अच्छा प्रकाश पड़ता है। विभिन्न सम्प्रदायों में देवताओ को मूर्त रूप में व्यक्त प्राचीन जैन मूतियों में मर्वतो-मद्रिका प्रतिमा भी करने का जो सकोच था वह दूर हो गया। इस प्रकार महत्त्वपूर्ण है। इनमें चारी पोर तोथंकरों की मूर्तियाँ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति तथा कलात्मक गति विधियों बनी रहती हैं। इन मूर्तियों को चैत्य, स्तूप अथवा अन्य की पृष्ठभूमि में कुषाण काल के प्रारम्भ से जैनमूर्तियो का धार्मिक स्थानों में ऐसी जगह स्थापित किया जाता था निर्माण प्रारम्भ हो गया।
जहाँ भक्त जन उनकी प्रदक्षिणा कर सकते थे। इन्हें मुख्य विशेषताएं-प्राचीन जैन मूर्तियां हमें दो भांति अाजकल जन भाषा में चौमुखी प्रतिमा कहा जाता है।