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भी वृत्ताकार होता है, तीर्षहर के शरीर पर लक्षित फलस्वरूप साहित्य या कला में जहाँ कही न 'धर्म१.०६ शुभ सामुद्रिक चिह्नों में चक्र भी एक चिह्न है जो चक्र' उपलब्ध होता है उसे बोडों का अनुकरण कहने की बहया हाथो की हपलियों और पैरों के तलवों पर रहता टेव सी पड़ चली है। उदाहरणार्थ श्री बी०सी० भट्टाहै-मथुरा मावि में प्राप्त कुछ प्रागन तीपर प्रतिमामो चार्य ने जैन प्रतिमाशास्त्र विषयक, अपने ग्रन्थ में लिख में इस प्रकार का चक्र चिह्न हवेलियो एव तलवो पर दिया कि-Dharmacakkra (wheel or law/-- उत्कीर्ण पाया भी गया है। तीर्थपुर की समवसरण सभा It seems to have been borrowed from Budभी वृत्ताकार होती है, उसके केन्द्र स्थान में विद्यमान dhism to Indicate the preaching of the Dharma श्रीमहप अपनी तीनों पीठो सहित वृत्ताकार ही होता है। in connection with the Tirthamkaras'. अर्थात् द्वितीय पीठ पर स्थापित तथा विहार समय में साथ तीर्थकरी के प्रमंग म धर्म के प्रवर्तन को सूचित करने के चलने वाली दस या पाठ प्रकार की जो मङ्गलध्वजाएं लिए धर्मचक्र (रूपी प्रतीक) को (जैनी ने) बौद्धधर्म से होती है उनमें से सर्वप्रथम चक्राति ही होती है। उधार ले लिया लगता है। इन विभिन्न प्रकार के चक्रों के अतिरिक्त एक अन्य
अन्य अनेकों की ऐमी धारणा है, किन्तु वह भ्रान्त है। चक्र होता है जिसका सास्कृतिक महत्त्व संभवतया सर्वा
चक्र प्रतीक की जैन परम्परा में प्रतिष्ठा के विषय में ऊपर धिक है, विशेषकर जैन एवं बौद्ध परम्परामो, मे और वह
जो कतिपय सकेत किये जा चुके है उनके अतिरिक्त स्वय है धर्मधक । बौवधर्म प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध ने गया
धर्मचक्र भी जैन सस्कृति की एक मौलिक देन प्रतीत होती में बोधि प्राप्त करने के उपरान्त वाराणसी के निकटस्थ
है। केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त प्रत्येक तीर्थकर का जब मुगवाव (सारनाथ) में अपना सर्वप्रथम उपदेश दिया था।
धर्म प्रवर्तनार्थ विहार होता है तो उनके धर्मचक्र प्रवर्तन इसी घटना को बौद्ध परम्पग मे धर्मचक्रप्रवर्तन कहते है।
का मूर्त प्रतीक निरन्तर घूमता हुमा (गतिमान) महम्न मौर्यकालीन कतिपय विशाल एव कलापूर्ण स्तम्भो के
मारों वाला तेज.पुज धर्मचक्र तीर्थकर के मागे मागे शीर्ष पर एक चक्र अकित पाया जाता है। प्राय. इन
चलता है। प्राचीन जैन पुराणो में सर्वत्र वपभादि स्तम्भों को सम्राट अशोक द्वारा निर्मापित माना जाता है
तीर्थकरों में से प्रत्येक के प्रसग में ऐसा उल्लेख हमा है। और उक्त नरेश को बहुधा बौडमतावलम्बी रहा विश्वास
तीर्थकरो के बिहार में धर्मचक्र सदैव तीर्थकर के आगे किया जाता है, यद्यपि इस विषय में भतभेद है। प्रस्तु
मागे चलता है। बिहार के अन्त मे जब जहाँ कही तीर्थकर इन स्तम्भो पर उत्कीर्ण चक्र को बोट परम्परा के धर्म
तिष्ठते हैं वही उनकी समवसरण ममा जुडती है। उक्त चक्र का मूर्ताकुन मान लिया गया। मूर्तकला में उपलब्ध
ममवसरण के मध्य मे जो श्रीमण्डप होता है-जिमके चक नामक सास्कृतिक प्रतीकका यह सर्वप्राचीन दृष्टान्त है।
कि केन्द्र में गन्धकुटी पर तीर्थकर स्वय विराजमान होने बीडकलामे भी अन्यत्र उसके धर्मचक्र का प्राय., प्रभाव है, और हिन्दूकला मे भी चक्रधारी विष्णु की मूत्तियाँ
३. दोना पाइकानोग्रफी, पृ०१६. गुप्तकाल के पूर्वको शायद ही कोई है। किन्तु क्योंकि पिछले
४. (i) महमारस्फुरबर्मचक्ररत्नपुर.सर-आदि पुराण, काल में बौडधर्म का एशिया महाद्वीप के बहुभाग में प्रमार
पर्व २५, श्लो. २५६ हुमा पौर उसके कारण इसके साहित्य पर कला प्रादि का
(i) स्फुरितारसहस्त्रेण प्रभामण्डलचारुणा। माधुनिक युग में कही अधिक व्यापक एवं गहन अध्ययन
यत्युगे धर्मचरण स्थीयते जितभानुना। तथा प्रचार हमा; धर्मचक्र, नामक प्रतीक को बोड सस्कृति
-पप० पु०, पर्व २, श्लो० १०१ की ही एक विशिष्ट देन मानने की प्रथा चल पड़ा।
(m) सहवारं हसद्दीप्त्या महस्रकिरणधुति । १. देखिए मधुरा संग्रहालय, बी. २,३,४,५ इत्यादि धर्मपत्रिमस्याग्रे प्रस्थमास्थानयोरभात् ॥ २. प्रादिपुराण,
-हरि० पु०, मर्ग ३, इलो० २०