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मध्य भारत का बन पुरातत्व
'चडोम' है। यह स्थान किसी समय जैन संस्कृति का घात (कछवाहा) वंशके राजा विजयपालके पुत्र विक्रमसिंह 'महत्वपूर्ण स्थान था। यहां कच्छपघाट (कछवाहा) वंश के राज्य में यह लेख लिखा गया है । डा. कीलहानके मताके शासकों के समय में भी जैन मन्दिर मौजूद थे और नुसार यह विजयपाल वही हैं जिनका वर्णन बयाना के वि. नूतन मन्दिरों का भी निर्माण हुआ था। साथ ही शिला- सं० ११०० के शिलालेखमें किया गया है। बयाना दूबकुण्ड लेख में उल्लिखित लाड-बागडगण के देवसेन कुलभूषण, से ८० मील उत्तर में है। इस लेख में जैन व्यापारी दुर्लभसेन, प्रबरसेन और शान्तिषण इन पांच दिगम्बर ऋषि और दाहड़ की वंशावली दी है। जायस वंश में सूर्य जैनाचार्यों का समुल्लेख पाया जाता है जो उक्त प्रशस्ति के समान प्रसिद्ध धनिक सेठ जासूक था, जो सम्यग्दृष्टि के लेम्बक एवं शान्तिषेण के शिष्य विजयकीर्ति के पूर्ववर्ती था, जिनेन्द्र पूजक था। चार प्रकार के पात्रों को श्रद्धाहैं । यदि इन पांचों प्राचार्यों का समय १२५ वर्ष मान पूर्वक दान देता था। उसका पुत्र जयदेव था, वह भी लिया जाय, जो अधिक नही है, तो उसे ११४५ में से जिनेन्द्र भक्त और निर्मल चरित्र का धारक था। उसकी घटाने पर देवसेन का समय १०२० के लगभग आ जाता यशोमती नामक पत्नी से ऋषि और दाहड़ दो पुत्र हए है। ये देवसेन अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे और लाड थे। ये दोनों ही धनोपार्जन में कुशल थे। इनमें ज्येष्ठ बागडगण के उन्नत रोहणादि ये विशुद्ध रत्नत्रय के धारक पुत्र ऋषि को राजा विक्रम ने श्रेष्ठी पद प्रदान किया था, थे और समस्त प्राचार्य इनकी आज्ञा को नतमस्तक हो और दाहड़ ने उच्च शिखर वाला यह सुन्दर मन्दिर हृदय मे धारण करते थे१। उक्त दूबकुण्ड में एक जैन बनवाया था। जिसमें कूकेक, सूर्यट, देवधर और महीचंद्र स्तूप पर सं० ११५२ का एक और शिलालेख अकित है मादि विवेकी चतुर श्रावकों ने सहयोग दिया था। और जिसमे स० ११५२ की वैशाख सुदी ५ को काष्ठामंघ के राजा विक्रमसिंह ने जिनमन्दिर के सरक्षण पूजन और महान् प्राचार्य देवसेन की पादुका-युगल उत्कीर्ण है। जीर्णोद्धार के लिए दान दिया था। । यह लेख जैसवाल यह शिलालेख तीन पंक्तियो मे विभक्त है । इसी स्तूप के जाति के लिए महत्वपूर्ण है। नीचे एक भग्नमूर्ति उत्कीर्ण है जिस पर 'श्रीदेव' लिखा है, ग्वालियर स्टेट के ऐसे बहुत से स्थान हैं जिसमें जो अधूरा नाम मालूम होता है पूरा नाम श्रीदेवसेन रहा जैनियो और बौद्धो तथा हिन्दुनो की पुरातन सामग्री पाई होगा, दूसरी पक्ति से बह पूरा नाम देवसेन हो जाता है। जाती है । भेलसा (विदिशा) वेसनगर, उदयगिरि, बडोह ग्वालियर मे भट्टारकों की प्राचीन गद्दी रही है और उसमे वरो (वडनगर) मन्दसौर, नरवर, ग्यारसपुर सुहानियाँ, देवसेन, विमलसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, गूडर, भीमपुर, पद्मावती, जोरा, चदेरी, मुरार, उज्जैन, यश कीति, मलयकीति और गुणभद्रादि अनेक भट्टारक और शिवपुरी आदि अनेक स्थान हैं। इनमें से यहाँ हुए है। इनमे देवसेन, यश.कीर्ति, गुणभद्र ने अपभ्रंश उदयगिरि नरवर और सुहानियों के सम्बन्ध में संक्षिप्त भाषा मे अनेक ग्रन्थों की रचना की है।
प्रकाश डाला गया है। दूबकुण्डका यह शिलालेख ३ बड़े महत्व का है । कच्छप- उदयगिरि १. प्रासीद्विशुद्धतरवोधचरित्रदृष्टिः
भेलसा जिले मे उदयगिरि नाम का एक प्राचीन नि.शेषमूरिनतमस्तकधारिताज्ञः ।
स्थान है। भेलसा से ४ मील दूर पहाड़ी में कटे हुए श्रीलाटवागडगणोन्नतरोहणाद्रि
मन्दिर हैं। पहाडी में पौन मील के करीब लम्बी और माणिक्यभूत चरितो गुरु देवसेनः ।
३०० फुट की ऊंचाई को लिए हुए है। यहाँ गुफाएं हैं,
जिनमे प्रथम और २०वें नम्बर की गुफा जैनियो की है। २. मं० ११५२ वैशाख सुदि पञ्चम्यां श्री काष्ठासंघ
२०वीं गुफा में जैनियों के तेईसवें तीर्थकर श्री पाश्र्वनाथ महाचार्यवर्य श्री देवसेन पादुका युगलम् । ३. See Archaeological Survey of India Vol.
की मूर्ति थी जो अब वहाँ नही है। उसमें सन् ४२५-४२६ 2,.P. 102
४. एपिग्राफिका इन्डिका जिल्द २ पृष्ठ २३२-४०