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अनेकान्त
इन सब प्रमाणों की उपस्थिति मेरे इस स्वार्थानुमिति के अन्दर एक प्राचीन प्रस्तर के शिवलिंग का प्रवशिष्टांश" को दढ करने के लिए पर्याप्त थी कि प्राथम-पत्तन पौर है। इस पर पूरी तरह फिट बैठने वाला पीतल का पटन (जो प्रापेक्षिक दृष्टया अर्वाचीन केशोराय के प्राच्छादन है, जिस पर चार मुख बने हैं। बिचले देव मन्दिर के कारण अब केशोराय पट्टन नाम से प्रसिद्ध है) स्थान के द्वार की सरदल पर से आगे निकले हुए पत्थर दोनो वास्तव में एक थे। किन्तु अनेकान्त के विज्ञ पाठक. पर बीच में विष्णु की मूर्ति हैं और उसके बाई ओर, वर्ग के लिए इसी तथ्य की ओर सुस्पष्ट करने के लिए दाहिनी ओर शिव और ब्रह्मा हैं। गर्भगह में एक शिवमैंने राष्ट्रीय संग्रहालय के श्री व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, एम. ए. लिंग है। इस पर अनेक छोटे-छोटे लिंग उत्कीर्ण होने के सपनरोध किया कि वे केशोराय पाटण के विषय में कारण इसे 'सहस्रलिंग' कहते हैं। इन देवस्थानों के द्वार प्रापिलोजिकल सर्वे माफ इण्डिया की १६०४-५ की वा शैली के हैं। स्तम्भो के कोण झिरीदार हैं, और प्रोग्रेस रिपोर्ट के आधार पर एक टिप्पणी तैयार करे। और इनकी तलना अटरूम मति के स्तम्भों में किन्त श्री शर्मा ने मुझे रिपोर्ट का अंग्रेजी अवतरण ही की जा सकती है। किन्तु प्लस्तर की मोटी तह के कारण भेज दिया है। इसका हिन्दी रूपान्तर निम्नलिखित है- मूर्तियों की कुराई की शोभा बहुत कुछ खराब हो
कोटा से उत्तर-पूर्व की ओर लगभग नौ मील की चुकी है। हरीपर बदी राज्य का केशोराय पाटण नगर चम्बल पर इसी नगर मे अन्य प्राचीनकालीन स्थान एक मन्दिर मवस्थित है। यही नदी कोटा राज्य की भूमि को बूंदी से है जिसे पृथ्वीतल से नीचे होने के कारण जनता "भई अलग करती है। नगर का नामकरण विष्णु के विग्रह देवरा" कहती है। पाठ स्तम्भों पर प्राधारित खली
गोराय के नाम से हरा है। इनके ऊंचे मन्दिर मे चबल चौरी के मध्य भाग मे जमीन मे नीचे की ओर जाने के दिखाई पड़ती है। दृश्य प्रत्यन्त भव्य है । मन्दिर के उच्च लिए एक सीढी हैं जिसमे तीन से कम विश्राम स्थान प्राचीर से जल तक सीढियाँ चली गई है। किन्तु मन्दिर नही है । या कहना ठीक होगा कि ये एक सीढी से दूसरी को इमारत पर्वाचीन है; इसे सन् १६०१ मे महाराव सीढी पर पहुँचने के ये तीन मार्ग हैं। सीढियो मे प्रवेश राजा शत्रसाल जी ने बनवाया था। प्रतिष्ठा सम्बन्धी के लिए लगे द्वार बारीकी से चित्रित है। वही काले प्रस्तर पर गणपति की मूर्ति है, जिससे प्रतीत होता है कि पत्थर से बनी एक या दो जिन मूर्तियाँ भी है। दूसरी प्राधनिक काल मे भी वैष्णव मन्दिर के द्वार पर गगपति ओर अन्तिम सीढी को पार कर हम अटरू शैली के चौदह की मूर्ति बनती रही है।
स्तम्भों पर आधारित एक बन्द मण्डप या बडे कमरे मे मन्दिर के सन्निकट-एक स्थान है जिसे स्थानीय प्रवेश करते हैं। मण्डप के मध्य का बर्गाकार भूमिभाग जनता जम्बद्वीप नाम से अभिहित करती है। इसमें तीन चार स्तम्भों मे घिरा है; और ठीक इसके सन्मुख के प्राचीन देवस्थान हैं। यहाँ प्रतिवर्ष माघ शिवरात्रि के देवस्थान में मनुष्य के परिमाण से कुछ बड़ी काले पत्थर दिन यात्री बडी संख्या में एकत्रित होते हैं। मन्दिर पर की जिनमूर्ति है। इसकी कुराई भव्य है। सिर के चारों सफेदी कर दी जाती है। इसके फलस्वरूप देवस्थान के ओर प्रभामण्डल है।" दारो पर की मूर्तियों पर इतनी सफेदी चढ़ गई है कि पाश्रम-पत्तन और केशोराय पट्टन का एकत्व सिद्ध उन्हें पहचानना कठिन है । इसी लिए यह कहना असम्भव करने वाली युक्तिशृखला की यह रिपोर्ट अन्तिम कड़ी है कि घसते ही दाहिनी मोर के देवस्थान की चौखट के कही जा सकती है । स्थान का प्राचीन नाम केशोराय सरदल पर किन देवताओं की मूर्तियां है और वे किस पट्टन न होकर सन् १६४१ से कुछ पूर्व पट्टन मात्र था किस स्थान पर उत्कीर्ण है । दूसरी पोर के देवस्थान के और उससे पूर्व कम से कम हम्मीर के समय तक आश्रम द्वार की सरदल पर बाई ओर ब्रह्मा की मूर्ति पहचानी पतन यहाँ ब्राह्मण सम्प्रदाय का मुख्य देवमन्दिर मृत्युञ्जय जा सकती हैं। किन्तु दूसरी मूर्तियाँ अस्पष्ट है । देवस्थान महादेव का स्थान था जो हम्मीर के समय 'जम्बुपथ