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मनकान्त
दूसरे प्रकार की वे शिक्षा संस्थाएं हैं जो पाठशाला के "
नजन:"२ पद विचारणीय है, क्योंकि कपिल की रूप में चलती थी, जिनमें एक से अधिक अध्यापक नही परीक्षा, पाठनशैली, ग्रहातिप्रायविज्ञान छात्रो और शिक्षकों होते थे। प्रत्येक पाठशाला में एक ही प्रध्यापक रहता था। में से किसे मुग्ध नहीं कर रहा था। इससे यह सकेत सहज वह सामान्य रूप से लिपिज्ञान, गणितज्ञान एवं भाषा मादि मे उपलब्ध होता है कि सत्यकि के विद्यालय में अध्यापको का बोध कराता धानकोई-कोई शिक्षक अन्य विषयो का की संख्या अधिक थी। ज्ञान भी.कराता था।
क्षत्रपूडामणि से यह भी ज्ञात होता है कि राजा-महाराजाओं तीसरे प्रकार को वे शिक्षा संस्थाएं थी, जिनका रूप के बालक अपने यहा ही गुणी शिक्षक को रखकर प्रध्ययन माजकल के वालेजों के समान था; जिनमे प्रत्येक विषय करते थे। हेमाभ नगरी के निकट दृढमित्र राजा के पत्र के लिए पृथक प्रध्यापक रहते थे। इस प्रकार की शिक्षा- सुमित्र प्रादि ने जीवन्धर कुमार को धनुर्विद्या सैनिक शिक्षा सस्थाएं किसी महान विद्वान द्वारा संचालित होती थी। के लिए शिक्षक नियत किया था । राजा ने जीवन्धरकुमार शान्तिनाथचरित में वणित कपिल जिस सत्यकि के विद्यालय में शिक्षक पद ग्रहण करने की प्रार्थना की थी। में पहुंचा था, उसमे कई अध्यापक थे और अनेक विषयो
सुतविद्यार्थमत्यर्थ पार्थिवस्तमयाचत । का प्रध्यापन होता था। कवि कहता है
पाराषनकसम्पाचा विद्या न हान्यसाधना।। प्रवापबध्यापकपुर्यसत्पकमळं पठाछाकुल: समाकुलम् ।
क्षत्र०७४ प्रलममध्यंजनराशिवनः सरस्वतीसन्ततिशालिमिवृतम्॥ गुरु की सेवा शुश्रुषा से ही विद्या की प्राप्ति होती है।
शा० १११११ अन्य प्रकार से नहीं। प्रतएव दृढमित्र राजा ने अपने राजकदाचिध्यापकजोवतंश्वराप्रतीतमाप्ताकिल जम्बुकाऽऽयया कुमारी को शिक्षित बनाने के लिए विद्वान जीवन्धर से रहःपति प्राह विचारचातुरी विरञ्चिकन्या कमनीय कान्तिभूत विनय पर्वक प्रार्थना की।
वही १११२० जीवन्धर कुमार ने भी निष्कपट भाव में राजकुमारों सत्यकि के मठ-विद्यालय में अनेक छात्र और कई को शिक्षा दी और राजकुमार भी विनय पूर्वक अध्ययन अध्यापक रहते थे। सत्यकि कुलपति था और जम्बुक नाम करते रहे। फलत.वे कुछ ही दिनों में गुरु के समान ही का शिक्षक उम संस्था का प्राचार्य था। 'प्रध्यापकजीवते. विद्वान हो गये। श्वग' पद जम्बुक को प्राचार्य होने के कारण ही सत्यकि
प्रश्रयेण बभूवस्ते, प्रत्यक्षाचार्यरुपकाः । के अधिक निकट था। हमी कारण उसका साहस कपिल विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरजसा ।। के साथ कुलपति की पुत्री मत्यभामा का विवाह करा देने
क्षत्र ७७७ का हुमा । यथा
जिस प्रकार कामधेनु इच्छित मनोरथो को पूर्ण करती विचार्य चाध्यापक एव जम्बुकावचो
है, उसी प्रकार गुरु की सच्ची सेवा-सुश्रूपा पौर विनय मनोहारि तदाऽऽयतो हितम् ।
करने से इच्छित विद्या की प्राप्ति होती है प्रतएव वे राजव्यवाहयतां कपिलेत कम्पका
कुमार गुरु जीवन्धर की मच्ची सेवा करने से साक्षात् गुरु महोत्सवात् कोविववर्णनातिगात् ॥
के समान हो गये। शा० ११२३
उक्त बर्णन से स्पष्ट है कि शिक्षा के लिए घर पर कपिल की अध्यापन शैली, विषय का पाण्डिन्य, शिक्षक को रखकर शिक्षा दिलाना, भी एक चौथी शिक्षा ज्योतिष, निमित्त प्रादि का परिज्ञान समस्त व्यक्तियो को सस्था जैसी ही वस्तु है। पर यह राजा-महाराजा या मेठपाश्चर्यचकित कर रहा था। इस सन्दर्भ में पाया हुमा
हुमा २. तनूभुवा पाठनिमित्तकारणाद् ग्रहातिचारादिविभोधनादपि
नवोनजामातृतया च सत्यकेरिपूजि भत्या कपिलो न कंजन १. प्रत्रचूडामणि २१
मुनिभद्रका शान्तिनाथचरित २१२७