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अनेकान्त
होता है१.
समकालीन एक ऐतिहासिक पुरुष शेखत का भी उल्लेख तिहि अवसरे गुरु माविया बड़ाली नगर मझाररे। अपनी प्रस्तुत रचना 'सीखामणरास' के प्रथम चौथे छंद चतुर्मासि तिहां करोषोभनोधावक कीषा हर्ष पार रे। में किया है । "जाख शेख जे बीजादेव तिण तणी नवि अमीझरे पपराविया वधाई गाये नर नार रे,
कीजइ सेव" प्रस्तुत शेख शब्द निश्चय ही तत्कालीन सकल संघमिल बंदिया पाम्या जय जयकार रे।
प्रसिद्ध सूफी संत शेख तकी की ओर संकेत करता है। संबत चौबह से इक्यासीमला श्रावण मास लसंतरे, शेख तकी उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत थे जो हठयोगपूर्णिमा विबसे पूरण किया मुलाचार महंत रे॥ तंत्रशास्त्र और रसायन विद्या में बड़े सिद्धहस्त थे । विवेकी भ्राताना अनुग्रह यकी कीषा पंच महान् रे।
जन उनके अनन्य भक्त थे तथा उनकी देवता जैसी पूजा सं० १४८२ से १४६९ तक की उनके द्वारा प्रति- प्रतिष्ठा किया करते थे इसीलिए प्रा. सकलकीर्ति ने उन्हें ष्ठित मूर्तियां भी उपलब्ध होती हैं। वे सर्वकीर्ति या बीजादेव (कुगुरु) कहकर उनकी सेवा करने का निषेध समस्तकीति नाम से भी प्रसिद्ध थे जैसा कि निम्न उद्ध- किया है। (कई लोग शेख तकी को कबीर का गुरु रणों मे प्रतीत होता है
मानते हैं पर कबीर ने कही-कहीं उन्हें ऐसे ढग से संबो. उपासकाल्यो विबुध, प्रपूज्योग्रंथो महा धर्मकरो गुणाढ्यः ।
धित किया है जिससे उनका गुरुपन प्रतीत नहीं होता है। समस्तकीाश्मिनीश्वरोक्तः सुपुण्यहेतुजंयतासरियाम् ॥ (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार २४ अध्याय)
(देखो हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल पृ०७६ सच्चारित्रमिवमाप्त यतीन्ताः मानिनो निहतदोष समग्राः। संशोधित और प्रवद्धित संस्करण) शोषयन्तु तनुशास्त्रभरेण सर्वकीतिगणिन्नाकृत्रमत्र ।।
प्रा. सकलकीति गणी और प्राचार्य जैसे सम्मानित
विशेपणो से अलंकृत थे जैसाकि सकलकीर्ति रास की सुकमार चरिचस्यास्य इलोकाः पिडिताः बुधः। विया: लेखकः सर्वे ोकादशशत प्रमाः ।।
निम्न पक्ति से स्पष्ट है । "चहुँदिसि करि विहार सकल(सुकुमार चरित्र अध्याय)
कीति गणहररयण" अथवा प्रथो के अन्त मे "सुगणि बे बहन जाति के थे। उनका कार्य क्षेत्र गज- सकलकीया" इत्यादि । उनकी भाषा भी कबीर की भांति गत प्रान्त ही था जहाँ उनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेकों साधारण एवं जनोपयोगी थी उसमे साहित्यकता, रस मूर्तियां प्राप्त होती हैं। "सीखामणरास की तीसरी ढाल अलकार अथवा छदों का समुचित समावेश हो सकना के १०३ छद से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें जिनबिंब किसी तरह भी युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है, क्योकि एवं जिनभवन प्रतिष्ठा में विशेष रुचि थी जो धर्म के वह युग ही हिन्दी के लिए विशेष स्थिरता अथवा विकास मूल प्रग माने जाते हैं।
का समय नहीं कहा जा सकता है। प्रा० सकलकीति का "या पान तम्हि दीजो सार जिणवर बिब कर उबार।। बचपन का नाम पूर्णसिंह था, वे बाल्यकाल से ही बड़े जिणवर भवमसार करज्यो लक्ष्मी न फल तो लेख्यो।१० मेगावी एवं प्रतिभाशाली थे। इनकी माता का नाम गोभा
प्रा. सकलकीति की हिन्दी कविता गुजराती मिश्रित और पिता का नाम करमसिंह था। इनके पिता ने इनका है उनके साहित्य मे भक्ति की भावना भरी पडी है जो विवाह १४ वर्ष की अवस्था में ही कर दिया था पर वैराग्य और शान्त रस से परिपूर्ण हैं। महात्मा कबीर इनका मन सांसारिक विषय भोगों में न लगा, वे सदा
समकालीन थे जो हिन्दी साहित्य के इतिहास में घर से उदासीन ही रहा करते थे उनकी रुचि सदा धर्म भक्तिकाल की निर्गुण धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रति
समाज और साहित्य सेवा की भोर उन्मुख रहने लगी निधि कवि थे, वे सं० १४५६ से १५७५ तक हिन्दी
पौर पन्ततोगत्वा २० वर्ष की आयु मे वे अपने गुरु मुनि साहित्य की सेवा करते रहे उनकी भाषा विभिन्न भाषामो
पआनन्दी से स. १४७३ में 'नेणवा' ग्राम में दीक्षित हो से मिश्रित तपकड़ी भाषा थी। मा. सकलकीति ने अपने
गये थे। बड़ा खेद है कि ऐसे महान् साहित्यकार एवं १. देखो जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० प्रथम भाग प्रस्तावना । धर्म गरु का निधन ५६ वर्ष की प्रत्यायु मे ही म० १४६E