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अनेकान्त
परी सू बात गोठि सगति मन करु । रूप निरीक्षण नारि त बेस्या परिहरु || नीम विना नवि पृष्य हुइ दुई पाप अपार ॥१०॥ वस्तु तप तपीयि तप तपीयि भेद छह बार ।
कर्म रासिद धन धगनि स्वर्ग मुगति पगधीय जाणू । तर वितामणि कल्पतरु वश्य पंच इन्द्रीय प्राणु ॥ जे मुनिवर शकतिर करीय तप करेसिंह घोर । मुगति नारि वरिसिद्द सहीय करम हणीय कठोर ॥११॥ ढाल बोजी
दशदिशानी सख्या करु दूरि विदेशि गमन परिहरु । जीनगर धरम नवि कीजइ, तीणं नगरि वासु न वसीजइ । देश विरति नितु उटी लेज्यो गमन तणी मर्याद करेज्यो । दूषण सहित भीगत टालु कंदमूल धरयाणा राजु ॥ २॥ से लरफूल सवे बीलीफल पत्रक वह गणका [लीगढ । बोर हूडा बनजा फन नीम करेयी त जानूफल ॥३॥ धान मालना घोल कहीजद्द दिन व्युह पुटिहनीय करीजइ । स्वाद चलित जे त्यां धान नीम नहीं ते माणस स्थान ॥४॥ दीस सहित तह्यि व्यालू करू गतिर सवि ग्राहर परिह उपवास अपिलू फल पामीज घालू फल दा ते न धरीजइ । ५ । एक बार वह बार विमीजद धरता फिरता नवि साईज पारस सख्या कीज फूल सचित टाली घालीजइ ॥६ तित्रिकाल सामायिक लेग्यो मन भी नह ध्यान करेग्यो ।
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पाठमि चौदस पौस पर डांपातिग परिहरु || उत्तम पात्र मुणीश्वर जाणु धावक मध्यम पात्र बलाणु । बाहर उपध पोथीय बीज अभयदान जिन पूजा कीज 100 थोडूं दान सुपात्रह दीजइ परभवि फल अनंत लहीजइ । दान कुपात्रहं नवि फलपावइ ऊसरभूमि वीज नविभावई | EP दया दान त देख्यो सार जिणवर जिव करु उधार जिणवर भवन सार करेथ्यो लक्ष्मी नृफन हह्यो लेज्यो । १०१ दमु इंद्रिय दमु इंद्रिय पाच जे चोर । धर्मरन चोरी करीब नरगमहिलेई कद । नवं दुक्खनी साण्डीय रोग शोक भंडार कड जे तप खडग धरी पुरुष इन्द्रीय करइ संघार देवलोक सुख भोगवीय ते रिसिह ससार छा यौवन रे कुटुब रिद्धि लक्ष्मीय चचल जाणीयिए । संसार रे कालि धनादि जीव साग पण फिए । एकलु रे सावर जाइ करम म्राठे गलई धरयु || १॥ काय धीरे जू उहु होइ कुटुम्ब परिवारहं विगुलए । शरीरे रे नरगभंडार मूंकी जामिइ एकलुए || क्षमाहारे खडगधार वि क्रोधवद्द रसंचारीहए । मार्दव रे पालीयि सारमान पापी पहु टालीयिए ॥ २ ॥
मर घरे चित्र करे वि माया सवि रद्द करए ।
मतोष रे मायुध लेवि लोभ बद्दरी सही संपर ।
राग मिल सार राग टालु निर्भय कहा ए १२॥
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इनि भट्टारक श्री मकनकीर्ति विरचिते सीखामण रास ।
आत्म-सम्बोधन
कविवर बौलतराम
जानत क्यों नहि रे, हे भर प्रातमज्ञानी ॥ टेक ॥। राग द्वेष पुगल की सम्पति निहवं शुद्ध निसानी । जाय नरक पशु नर सुरगति में यह पर जाय बिरानी । सिद्ध स्वरूप सदा प्रविनाशी, मानत बिरले प्रानी ॥२॥ कियो न काहू हरं न कोऊ, युद्ध-सिख कौम कहानी । जनम-मरन मलरहित विमल हैं, कोच बिना जिमि पानी ॥३॥ सार पदारथ है जिनमें महिकोषी नहि मानी। दौलत सो पैंट माहि बिराजे, लसि हूवं शिव बानी ॥ ४ ॥