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वर्णसमाम्नाय के सीख लेने के पश्चात् रश्मिवेग समान गुरुभक्ति को विद्यार्जन में प्रावश्यक कारण माना है। पायु वाले बालकों के साथ-साथ विनयपूर्वक अध्ययन करने जो शिष्य अपने गुरु की सेवा शुश्रूषा, विनय, भक्ति और लगा। वह अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समस्त विद्यानों उतकी भाज्ञा का पालन करता है। वह सभी प्रकार की में शीघ्र ही पारंगत हो गया। भव्य-प्रतिभाशाली भविष्णु विद्यानों को प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति में गुण स्वयं ही पाकर प्रविष्ट हो जाते हैं।
गुरुभक्तिः सतीमबत्य, भद्रं किवा न सापयेत् । कवि वादीसिंह के उल्लेखों से ऐसा स्पष्ट प्रतीत
त्रिलोको मूल्यरत्नेन, दुर्लभः किं तुषोत्करः।। होता है कि उस समय शिक्षा का प्रारम्भ अपने घर पर या
क्षत्र० २/३२ गुरु के स्थान पर होता था। वर्णज्ञान, गणितज्ञान और जिस प्रकार बहुमूल्य रत्न से भूमे का ढेर खरीदना लिपिशान तक छात्र किसी सुयोग्य गुरु से एकाकी ही शिक्षा साधारण सी बात है, उसी प्रकार निष्कपट भाव से प्राप्त करता था। जब प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही समाप्त सम्पन्न की गयी गुरुभक्ति से भी जब परस्पर या मुम्ति हो जाती थी, तब वह किसी विद्यालय या गुरुकुल में तक प्राप्त हो सकती हैं, तो अन्य लौकिक कार्यों की पूर्ति निवास कर ज्ञान की विभिन्न शाखामों की जानकारी प्राप्त होना तो तुच्छ बात है ।१ अभिप्राय यह है कि गुरुभक्ति करता था। पार्श्वनाथचरित के पूर्वोक्त सन्दर्भ से भी उक्त से शिक्षा की प्राप्ति बड़ी सरलता से होती है। तथ्य की पुष्टि हो जाती है। रश्मिवेग वर्णमाला और
जो शिष्य गुरुपों का उपकार न मान उनसे द्रोह प्रारम्भिक गणित प्रादि की शिक्षा एकाकी ही प्राप्त
करता है, उसके समस्त गुण नष्ट हो जाते है । जिम प्रकार करता। प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर वह समवयस्कों के
जड़ के बिना वृक्ष प्रादि की सत्ता नही रह सकती है, उसी माथ अध्ययन करता है, इससे यह ध्वनित होता है कि
प्रकार उपचार स्मति, विनय और गुरु सेवा के बिना विद्या विद्यालय शिक्षा घर में ही आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने के
रूपी वृक्ष भी नही ठहर सकता है । गुरुद्रोह करना या गुरु पश्चात् प्रारम्भ होती थी।
का अपमान करना शिक्षार्थी के लिए अत्यन्त अनुचित है। शिष्य की योग्यता और गुण
गुरु विनय के समान ही शिक्षार्थी को शिक्षाकाल में शिक्षार्थी के गुण और योग्यता का निर्देश क्षत्रचूडामणि
जितेन्द्रिय और संसार के विषयो की आसक्ति को छोड़कर में पाया जाता है । कवि वादीभसिंह ने लिखा है .
शिक्षा सम्पादन करना चाहिए। वादिराज ने पाश्वनाथ गुरुभक्तो भवाडीतो विनीतो धामिकः सुधीः ।
चरित मे वज्रनाभ के विद्याध्यन का निर्देश करते हुए शान्तास्वान्तो शतन्द्रालः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥
बताया है कि उसने अपने इन्द्रिय रूपी उन्मत्त हस्तियों को सत्र. ३१
निरकुश नहीं होने दिया। पञ्चेन्द्रियों के विषयो की पोर गुरुभक्त, संसार से अनासक्त-इन्द्रिय जयी, विनयी
जाती हुई शक्ति को उसने अपनी शिक्षा साधना मे धर्मात्मा, प्रतिभाशाली, कुशाग्रबुद्धि, शान्तपरिणामी,
लगाया।२ सभी प्रकार की वृत्तियों को रोक कर एक ही पालस्यरहित और सभ्यव्यक्ति ही उत्तम शिक्षार्थी
लक्ष्य की पोर केन्द्रित कर दिया। शिक्षाकाल में विविध होता है।
प्रकार की प्रवृत्तियाँ अधिक बाधक होती है, प्रत जो १. अथ विद्यागृह किविदासाद्य सखिमण्डितः।
१. गुरुद्रुहा गुण: को वा कृतघ्नाना न नश्यति । पण्डिताविश्वविद्याया-मध्यगीष्टातिपण्डित ।।
विद्यापि विद्युदामा स्या-दमूलस्य कुतः स्थितिः ।। क्षत्र० २/१
___ क्षत्र. २१३३ जीवन्धर ने प्रारम्भिक शिक्षा के अनन्तर मित्रो के २. प्रतिबोधकचित्तदर्पमगे, बलिना तेन कृते मदोदयेऽपि । साथ किसी पाठशाला में प्रविष्ट होकर सर्वविद्या- विषया विजगाहिरे हृषीक-द्विपनार्दनं यथामत तदीयः॥ विशारद पायनन्दी गुरु से अध्ययन प्रारम्भ किया।
पाश्च० बम्बई २५