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संस्कृत जैन प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पद्धति
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री
शिक्षा समुदाय या व्यक्ति द्वारा परिचालित वह सामाजिक प्रक्रिया है जो समाज को उसके द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं की घोर पर करती हैं। सास्कृतिक विरासत की उपलब्धि एव जीवन मे ज्ञान का पर्जन शिक्षा द्वारा ही होता है। जीवन समस्याओंी, प्राध्यात्मिक तस्वी की छानबीन एवं मानसिक क्षुधा की तृप्ति के साधन कला-कौशल का परिज्ञान शिक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । भारतवर्ष मे शिक्षा का विषय ऐहिक समस्याधो के माथ क्लेशो की मात्यन्तिक निवृत्ति के लिए रवान भी रहा है। विचार और धाचार का परिष्कार, उत्कान्ति एव शाश्वतिक मुख को प्राप्त करना भी शिक्षा का कार्य मुग्व माना गया है। इसी कारण शिक्षा का वास्तविकत्लक्ष्य वैयतिक विकास माना जाता है। श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को ममालोचना करते हुए बताया है
"But education is a delicate biological process of mental and moral growth which cannot be achieved by mechanical proceses, the external apparutus and machinery of an organiration As in education, so in a more marked degree in the sphere of religion and Spiritual life |
अच्छी शिक्षा व्यक्ति को केवल अनुभव करना पोर मोना ही नही सिखलाती बल्कि उसे विशेष कार्य करने की प्रेरणा भी देती है । कवि वादीर्भामह ने विद्या को शिक्षाका पर्यायवाची स्वीकार करते हुए बनाया है- "अनविद्या हि दिया स्वास्नोफनावा २ अर्थात् निर्दोषच्छी
1. Ancient Indian education, Dr. RadhaKumud Mukerji Pub. Motilal Banarsidass
Delhi 1960 AD Page 366.
२. क्षत्राणि ३/४५
तरह परिश्रम पूर्वक अभ्यस्त विद्या ही ऐहिक भौर पार लौकिक कार्यों को सफल करती है। इस कथन का विस्तार करने पर फलितार्थ निकलता है कि जिन शिक्षा से शारी रिक, मानमिक और धात्मिक विकास होता है, वही यथार्थ में अनवद्य शिक्षा है ।
शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु और विधि
साधारणतः उपनचन संस्कार के पश्चात् विद्यारम्भ करने का उल्लेख मिलता है। महाकवि प्रसग ने अपने वर्द्धमान चरित में अश्वनीय ३ का विद्यारम्भ उपनयन के बाद ही करने का निर्देश किया है। धनञ्जय के द्विसन्धान काव्य ४ मे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है । वादीर्भामह ने कुमार ओकर का विद्यारम्भ सरकार पाँच वर्ष की अवस्था में सम्पन्न होना लिखा है। विद्यारम्भ के पूर्व मिपूजन (मिद्धिपूजादि पूर्वकम् ) हवन और दानादि विधि का सम्पन्न होना श्रावश्यक माना है ।५ विद्यारम्भ सिद्धमानका खगे मे होता था। यज्जनो (वर्ण सामान्य )
उक्त स्वरो के पश्चात् क ख ग की शिक्षा प्रारम्भ होती थी ।
पावनाथचरित में भी कुमार रश्मिवेग का शिक्षारम्भ पाँच वर्ष की अवस्था में ही हुआ है। शिक्षारम्भ वर्णमाला ( सिद्धमातृका ) से होता है । कुमार रश्मिवेग अकेला अध्ययन नही करना है, यह समवयस्क बालको के साथ ही शिक्षक से पता या दृष्टिगोचर होता है । कवि इमी तथ्य की व्यञ्जना करता हुग्रा कहता है
सम वयविनयेन तत्परो गुरूपदेशोपनतासु बुद्धिमान् । विभश्य विद्यास शिक्षन स्वह मध्यस्य गुणाः पुरस्सराः -पाद० च०४/२०
मानवरित ५/२०
३.
४. मिन्धान १/२४
५. क्षत्र चडामणि १ / ११२