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सुजानमल की काय साधना
मैं पातक कीना भारी जी,
भक्त सुजानमल ने अपनी एकनिष्ठता की तुलना सेव्या मनाचार प्रविचारी जी।
पातक और मीन से की है। जिस प्रकार पासक का चित्र मनरथ भाग्या महा दुःखकारी.
प्रतिपल स्वाति-द के लिए ही चाहता रहता है उसी सो थे देख रहा अवतागै जी। प्रकार सुजानमल का मन जिनेन्द्र के गुण-गान को, जैसे मैं कूड कपट छल छायो जी,
मछली का जीवन-माधार जल है उसी प्रकार सुजानमल सूस ले ले दोष लगायो जी। का जिनेन्द्र । ऐमी एकनिष्ठता बिरले भक्तों में ही फिर पिछतावो नहीं पायो जी,
मिलती हैरोमो प्रकृत कर्म कमायो जी।
जिनम्र तोय विसर, एक ई सांस, पच माधम मे रंग गतो जी,
विसरून एक ही सांस । क्रोध, मान, माया, लोभ मानो जी।
कम कम में तुम गुण रमिया ज्यूं फलन में बास । गगादिक मू झोलो वातो जी,
स्वाति र पातक चित चाहे बम बिन मोन मिरान तोडो प्रष्टादिक मू नातो जी ॥२४॥
तिम तुम बरशन को उत्कंठा लग रही अधिक पियास।३६) वष्णव भक्तो की तरह जैन भक्तो ने भी अपने प्रवगुण-निवेदन के अतिरिक्त भगवान् के द्वागतारे गये पतितो हिन्दी भक्ति-साहित्य में अपने भागध्य के प्रति भक्तिके नाम गिनाते हुए अपने उद्धार की प्रार्थना भी उनमे प्रदर्शित करने के लिए वान्मल्य, सल्य, मधुर पौर दास्य अवश्य की है किन्तु उस प्रार्थना में बड़ा अन्तर भी है। भाव अधिक ग्राह्य हुए है। वल्लभ सम्प्रदाय में वात्सल्य जहाँ वैष्णव-भक्त राम अथवा कृष्ण से उनके विरद-पालन और मध्य, निम्बार्क, ललित प्रादि मन्त्री सम्प्रदायो में मधुर पर व्यग्य करते हुए उन्हें चुनौती देने में नहीं चूकते-प्रब और मतों, रामानन्दी वैष्णवो तथा जैनों में दास्यव व देखिही मुरारि-वहाँ जैन भक्त इस प्रकार का व्यवहार मधुर भाव की प्रधानता है। किन्तु इन सभी भावों के गहित समझकर पाराध्य की श्रेष्ठता व अपनी विनय को अतिरिक्त एकभाव है-पुत्र-माव; जो परम प्रात्म-समर्थकों कम नहीं करते। अपने में ढेर सारे अवगुणों का समायोजन मे ही कहीं मिलेगा। विश्व में कोई भी सम्बन्धी-मित्र, मानते हुए भी भगवान द्वारा उद्धारे गए भक्तों से वैष्णव पति, पत्नी अथवा स्वामी प्रादि किसी भी अपराध पर कवियों का अपने को श्रेष्ठ मानना अथवा पाराध्य को प्रसन्न हो सकता है वापत्ति में हमको बुग जानकर चुनौती देना उनकी विनय और निरभिमान के प्रति थोडा छोड़ सकता है किन्तु माता-पिता ऐसा नहीं कर सकते। गंकालु बना देता है। जमाली, गोशाला, श्रेणिक, गौतम 'कुपुत्रो जायेत क्विचिदपि माता कुमाता न भवनि' इसी मादि भक्तो का उद्धार देखते हुए अपने उद्धार में विलम्ब विश्वास से अपने को परम अपराधी तथा विपदायस्त अन्य जन भक्तों की अपेक्षा सुजानमल को थोड़ा प्रखरा है, समझने वाले भक्तों ने पुत्र-भाव की उपामना का सहारा फिर भी उनसे अपने को श्रेष्ठ नही टहराया और न 'जिन' लिया है। कबीर कहते हैदेव को कोई चुनौती दी।
हरि जननी मै बालक तोरा। तारक तार सार कर मेरीतुमरेशात भव जल में बायो। करणानिधिबयानर तारे मुझ बिरियां हठ कहा पकड़ायो।
काहे नौगुन बकसह मोरा॥ जमाली, गोसाल, षिक गौतमलेगची पद बगसायो।
सुत अपराषक दिन केते।
जमनी चित रहेनते।। केता ही बन तारक वाऱ्या मो मैं कहा कहाव रखायो। यहाँ "मुझ बिरियां हट कहाँ पकड़ायो" में सुजानमल
क. ग• पृ० १८३ की उग्रता विचारणीय है, किन्तु वह वैष्णव भक्तों की तुलसी ने भी अपने उबार में डिलाई देखकर अपने अपेक्षा पर्याप्त मर्यादित है।
स्वामी राम को कई स्थानों पर अपना पिता कहकर पुकारा