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अनेकान्त
सन् १९३६ में एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण प्रतिमाएँ छिपाकर रखी गई थीं। उसी लड़ाई के कारण उनका पता साधारण व्यक्ति को चला है ।
दो बैल लड़ रहे थे, जिसमें से एक बैल एक गड्ढे में गिर पड़ा। बैल निकालने के लिए गड्ढे को बड़ा किया गया और तलधर का पता साधारण जनता को हो गया । इस प्रकार इन द्वितीय मनोरम कलाकृतियो की जानकारी जन साधारण को प्राप्त हुई। ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग ने छानबीन कर इन प्रतिमाओं की सूची तैयार की। इन प्रतिमामों को उस ततपर से बाहर निकालने की धनेक योजनाएँ बनी किन्तु दुर्भाग्यवश कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सका। "कला क प्रेमियों ने इन प्रतिमाथी की जो दुर्दशा की है वह प्रवणनीय है, जिसके कारण प्राज १६० प्रतिमाम्रो मे प्राय सभी प्रतिमाएँ खण्डित है। अधिकतर प्रतिमाओं के सिर काटकर ले जाए गए हैं जो कला-प्रेमियों को बेच दिए जाते थे।" वे उनको अपने निवास स्थान मे रखकर घर की शोभा बढ़ाते हैं। इस प्रकार के कला-प्रेमियों के कारण देश मे अनेकों अनुपम कलाकृतिया खण्डित हुई और इस प्रकार कार्य करने वाल व्यक्ति उनको यह नीच कार्य करने के लिये उत्साहित करते रहे। जिसके फलस्वरूप अनुपम कलाकृतियाँ खण्डित अवस्था में मिलती है। सन् १९५९ में एक चोर रगे हाथों पकड़ा गया। जिसका मामला न्यायालय में चलता रहा तथा उस व्यक्तिको कुछ मास का कारावास भोगना पड़ा । इस पर शासन ने उन प्रतिमानों को तलघर से बाहर निकालने के आदेश देकर पुरातत्व तथा कला की बड़ी सुरक्षा की। इस प्रकार वे समस्त प्रतिमाएँ वहाँ से निकाल कर शिवपुरी में जिलाधीश महोदय के कार्यालय के समीप एक पुराने सायकिल स्टैंड में संग्रहीत की गई। इन प्रतिमाओं को वहाँ से लाने तथा घर से बाहर निकालने के कारण बहुत-सी प्रतिमाएँ खण्डित भी हो गई है। फिर भी उन प्रतिमाओं को तल पर से बाहर निकालने के बाद शिवपुरी मे रखने का एक सराहनीय कार्य है। इस प्रकार शिवपुरी संग्रहालय प्रारम्भ हुआ । इस संग्रहालय में जैन प्रतिमाओं का ऐसा पद्वितीय
संग्रह होना किसी भी 'देश के संग्रहालय में सम्भव नहीं है।' यह भी जिला जा सकता है कि 'ससार के किसी संग्रहालय में इतनी उत्तम जैन प्रतिमानों का संग्रह नहीं मिल सकता।' जिससे शिवपुरी संग्रहालय देश का एक प्रमुख जैन सग्रहालय बन जावेगा । २४ तीर्थकरों मे लगभग १४ तीर्थकरों की प्रतिमाएँ दीर्घा मे सुचारु रूप से प्रदर्शित की गई हैं। शेष तीर्थंकरो की प्रतिमाएं मध्यकाल की कला के धनुपम नमूने हैं। जिनकी पालिश भाज भी ऐसी चमकता है जैसे भाका गई हो।
भवन के मुख्य द्वार में प्रवेश करने पर एक जैन की चौकी पर प्रदक्षित का गई है। इस प्रतिमा पर एक तीर्थकर का प्रतिमा ध्यानमुद्रा में मद्धचन्द्राकार लकड़ी चमकदार पालिश की हुई है जिसको देलकर ऐसा प्रतीत हाता है । कि यह पालिश अभी की गई है । उसके उपरान्त दीर्घा क्रमाक १ भाती है । इस दीर्घा मे १४ तीर्थकर प्रतिमाए प्रदर्शित की गई है और ये प्रतिमाएँ प्रायः कायोत्सग मुद्रा मे हूं तथा दो-तीन प्रतिमाएँ ध्यान मुद्रा है किन्तु सारी प्रतिमाए देखने योग्य है, साथ ही कला मे अपना विशेष स्थान रखती हैं। इस दीर्घा के उपरान्त बरामदा माता है । इस बरामदे में लाल पत्थर की एक पार्श्वनाथ की प्रतिमा ध्यान मुद्रा मे प्रर्द्धचन्द्राकार लकड़ी की चौकी पर प्रदर्शित की हुई है। यहाँ पर लाल रंग के पत्थर की प्रतिमाएँ अधिकतर नहीं मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह विशेष प्रकार का पत्थर अन्यत्र कही से लाया गया होगा। इसके बाद दीर्घा क्रमाक २ घाती है। इस दीर्घा मे कुछ सति प्रतिमाएं बिना चौकी के प्रदर्शित की हुई है तथा पांच बड़े बड़े शो-केसों को भी बनवाया गया है । इस दीर्धा के बाहर एक भव्य पार्श्वनाथ की प्रतिमा ध्यान-मुदा मेघ-चन्द्राकार लकड़ी की चौकी पर प्रदर्शित की हुई है। इस प्रतिमा पर अच्छी चमकदार पालिश की हुई है।
इसके उपरान्त भवन के पिछले भाग में खंडित प्रतिमाएँ तथा चौकियों प्रदर्शित की हुई हैं। कुछ चौकियाँ अत्यन्त सुन्दर है। इन चौकियों में सिंह तथा हाथी अंकित किये गये हैं। एक चौकी में पंक्तियों का एक संस्कृत लोक उत्कीर्ण है । जिसमें संवत् १२४२ दिया गया है ।