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मसिन १ इसी पुस्तक में श्रमणों को वान्दसील रहकर तीन भागों में विभाजित किया है- तित्थिय, ग्राजीवक और निगण्ठ२ । ठाणाङ्ग में ५. भेट दिये है-निगण्ठ, साक्य (बीड), तावस, मेरिय, चौर बाजी | वेदों की मान्यता को स्वीकार करना, जाति-भेद जन्मना नहीं कर्मणा मानना आदि वृछ ऐसी विशेषताएं थी जिन्हें प्रत्येक श्रमण-शाखा स्वीकार करनी थी। बौद्ध साहित्य मे तपस्वियों को समण कहा गया है । की उनको तिथिय, परिब्याजक, पचनक, मुण्डसावक, तेदण्डिक, मागन्डिक, प्रविरुद्धक, जटिलक गोतमक, मादेसिन मासिन चादि भी कहा गया है। समय वाद तो यहाँ बहुत अधिक प्रचलित है। बुद्ध को महाममण कहा गया है और उनके अनुयायियो को शाक्यपुनीय समण५ । निगण्ठ नातपुत्त को 'समण निगण्ठा' अथवा "निगष्ठा नाम समण जाति का" कहा है६ । 'सम' - ब्राह्मण' और ब्राह्मण समण जसे शब्द भी मिलते है। जहाँ भ्रमण और श्रमणेतर विचारों का प्रतिनिधित्व रहा करता है ।
बौद्ध साहित्य मे श्रमण संस्कृति के पोषक ताथको का उल्लेख मिलता है। वे है-पुराण कस्सप मक्खन गोसाल, अजित केमकम्बलि, पकुध कच्चापन, सज्जय बेलपित्त और निगष्ठ नातपुत्त । इनके विवरण के लिए दीघनिकाय का सामानफ्लसुत्त दृष्टव्य है, पर वहाँ पर इन सीकि के सिद्धान्तो की सही जानकारी नहीं मिलती। निगष्ठ नातपुन का निद्धान्त तो जिसमे बिल्कुल स्पष्ट है
उक्त तीर्थको की मंद्धान्तिक और जीवनी विषयक पृष्ठभूमि देखने पर उन्हे हम दो भागो में विभाजित कर सकते हैं
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१. सुत्तनिपात ५४, १५१, ७८६ २. बही ३०१
बौद्ध साहित्य में मंगव
३. ठाणाङ्ग, पृ० ६४६,
४. प० एन० ग्रापस्वामी शास्त्री, Sramana and Nou-Brahmanical sect, The cultural Heri -
tage of India. Vol. 1. p. 386ff.
५. सुत्तनिपात, सेलसुत्त,
६. प्रगुत्तरनिकाय, पृ० २०६
(i) आजीविक सम्प्रदाय जो पुराण कस्सप, मनखलि गोसाल और पकुच कच्चायन द्वारा चलाया गया।
९१
(ii) जो पानाथ और महावीर ने प्रचलित किया। इनमे प्रजीवक सम्प्रदाय का प्रतिष्ठापक मक्खलि गोसाल मूलत जैनधर्मानुयायी था । अन्य तीर्थिकों के भी जनधर्मानुयायी होने के उल्लेख मिलते हैं। १४वीं शताब्दी तक आजीवक सम्प्रदाय का अस्तित्व मिलता है, बाद में कहा जाता है कि वह दिगम्बर सम्प्रदाय में अन्त हित हो गया। इस प्रकार वर्तमान मे श्रमण संस्कति की कुल दो शाखाएँ जीवित है-जैन और बौद्ध
(ख) जैनधर्म और उसका साहित्य
बोड साहित्य मे जैनधर्म की प्राचीना विषयक उद्धरण मिलते है । एक समय था जबकि बवर जंसे विद्वानो ने जैनधर्म को बौद्धधमं की शाखा बताया था । परन्तु पालि साहित्य के अध्ययन से जेकोबीने इसका खन किया और प्रतिपादित किया कि पार्श्वनाथ ही ऐतिहासिक व्यक्ति होना चाहिए। सच पूछा जाय तो धमके सिद्धान्तो का तारजन सिद्धान्त ही रहे है और इसीलिए जैन से सर्वाधिक प्रभावित जान
पडता है।
ऋषभदेव का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है१० । और फिर यदि हम बौद्धपमं में स्वीकृत बुद्धां और प्रत्येक बुद्धो के नामो की मोर देखे तो अनेक नाम हमे जैन तीर्थंकरो के नामो का अनुकरण करते हुए दिखाई देते है । उदाहरणार्थ- प्रजित, सुलिय पदम या पद्म, चन्द, विमल धम्म । श्रग्नेमि को छ. तीर्थकग में एक माना है ११ । दृढनेमि नामके एक चक्रवती का उल्लेख है और इसी तरह अरिनेमि नाम के एक राजा और यक्ष का भी
१२ ।
9. Encyclopaedia of Buddhism, P. 332 Weber, Indische Studian, XVI. 210
Indian Antiquery, Vol. IX, p. 163
The Dictionary of chinese Buddhist Terms.
८.
e.
१०.
p. 184.
११.
गुनर, ३,३७३ १२. दीपनिका ३,२०१