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अनेकान्त
देवी
विघ्न क्षणभर में टल जाते हैं। पश्चात् सेठ देवराज ने कही गुपाल सो कारण कौन, जा कारण बैठे धरि मौन ।। सिंह के दिये हुए प्रच्छे-अच्छे गजमुक्ता वहाँ के राजा जो चाहो सो मोते लेह, पबतुन सुखसों राज करे ।। श्रीपाल की सेवा में भेंट किये और सिंह के उपद्रव का गोपाल
सब हाल सुनाया। जिससे राजा और दरवार के लोगों हे माता कह जानत नाह, जो तुम पूछत हो हम पाह। पर जैन-धर्म का बड़ा प्रभाव पड़ा और सबने जैनधर्म जो जानों इतनों जस लेह, बारिख मेरो नाश करे। अंगीकार किया। इति । देवी
इन दो कथामों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इल्ली देश हरीपुर गांव, तह हरिवर्व नृपति को ठांव। श्रीपुर का गोपाल ग्वाल ही एलिचपुर (Ellichpur) का बाकी मीच निकट भई प्राय, वाका राज लेहु तुम जाय ॥ राजा ईल (एल) है। कथा न. २ मे उल्लेखित
फिर क्या था गोपाल ग्वाल वही पहुँचा तो सचमुच वीरचन्द मुनिराज के समकालीन राजा श्रीपाल अन्तरिक्ष में हरीपुर नरेश की मृत्यु हो गई थी। मंत्रियों ने मतवाला पार्श्वनाथ क्षेत्र का उद्धारक या सस्थापक श्रीपाल ईल ही हाथी छोड़ रखा था। जो उसे वश मे करेगा, उसी को हो सकता है। इन्ही वीरचन्द मुनिराज के बारे मे डा. राजा बनाएगे । गोपाल ने पहुंचते ही उसका कान बकरे हीरालाल जी जैन लिखते हैं कि-काष्ठासघ को के समान पकड लिया और हरीपुर की राजगद्दी पर बैठकर उत्पत्ति से १८ वर्ष पश्चात वि. स. ६७१ में३ दक्षिण राज्य करने लगा।
देश के विंध्य पर्वत के पुष्कल नामक स्थान पर वीरचन्द एक नीच कल वाला पादमी एकाएक राजा बन मनि दारा भिल्लक संघ की स्थापना हई। उन्होने अप गया यह बात पडोस-पड़ोसके छोटे-छोटे राजामो को सहन एक अलग गच्छ बनाया, प्रतिक्रमण तथा मुनिचर्या की नहीं हुई। उन्होने बड किया। तब इसने फिर से चक्रे
भिन्न व्यवस्था की, तथा वर्णाचार को कोई स्थान नहीं श्वरी देवी की माराधना की और उसकी सहायता से बड दिया। इस एक उल्लेख से प्रमाणित होता है कि, नौवी शान्तकर उन सब पर प्रभुत्व जमाया। प्रादि ।
दसवी शताब्दी मे एक जैन मुनि ने विध्य पर्वत के भीलों कथा दूसरी-सेठ देवराज की
में भी धर्म प्रचार किया और उनकी क्षमता के अनुसार श्रीपुर में एक सेठजी रहते थे, वे जवाहरात का धर्मपालन की कुछ विशेष व्यवस्था बनायी। व्यापार करते थे, उनका नाम देवराज था। उन्होने स्वामी (भा० संस्कृति मे जैनधर्म का योगदान पृ० ३२) वीरचन्द मुनिराज के पास से श्री भक्तामर का अच्छा इसका यही अर्थ है कि, उस समय अजनो को भी अभ्यास किया था।......
जैनव्रत देकर उनका उत्थान किया जाता था। इन्ही सेठ देवराज और उनके साथियों ने रत्नदीप में पहुँच वीरचन्द स्वामी के शिष्य रामसेनाचार्य के बारे मे भी कर वहाँ क्रय-विक्रय करके घर का रास्ता लिया और यही कहा जाता है कि, इन्होने वीसो प्रजैन गोत्रियों को सकुशल श्रीपुर पहुंचे। सिंह के "समागम से" मत्यू टल जैन बनाया। इसी तरह हमारे चरित्र नायक भी उत्यित गयी, यह जानकर सबने बड़ी खुशी मनाई। जिनराज की हुए हो तो बाधा नही पाती। महापूजा भावपूर्वक की और धर्म की खूब प्रभावना इसी दूसरी कथा मे-'सेठ देवराज वीरचन्द स्वामी फैलायी। वीरचन्द स्वामी की वंदना को गये और उन्हें की वंदना को गये..."गजमुक्ता 'वहाँ के राजा श्रीपाल सब समाचार सुनाया, तब मुनि महाराज ने कहा-यह तो
को भेंट किये । भादि कथन है, तो निश्चित ही वह
की' सामान्य बात है, थी भक्तामर जी के प्रभाव से कोटि-कोटि
स्थान श्रीपुर से अलग होगा, जो ऊपर बताए मुजब इल्लि
देश का एलिचपुर ही होगा । या, नही तो श्रीपाल श्रीपुर १. मृत्यु
३. यह शक संवत् है ऐसा श्री मुख्तार साहा ने सिद्ध २. यह मागे की बात दूसरे प्रति मे है।
किया है।