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अनेकान्त
कहकर जनोंका शब्द-विषयक सिद्धान्त भी उल्लिखित है। पालोचनात्मक उल्लेख पाये हैं१० । धर्मकीति और उनके वहीं आकाश को निरवय भी बताया है ।
व्याख्याकार प्रज्ञाकर गुप्त११ ने भी जनों के सर्वज्ञवाद की
___कटु आलोचना की है। मालोचना करते समय वे सिद्धान्त २. जैन प्रमारण-विचार-(Jain Epistemology)
को ठीक तरह से समझे हुए नहीं दिखाई देते । बुद्ध ने तार्किक विवादो के फलस्वरूप प्रमाण विद्या के सिद्धांत यद्यपि अपने मे सतंजता होने का जोरदार विरोध किया निर्मित किए गये। पालि साहित्य मे ऐसे विवादो को था, परन्तु षभिजा के विकमित रूप ने पाखिर उनको वादक था और वितडा४ तथा ताकिको को तक्की५ व सर्वज्ञ बना ही दिया१२। तविकका कहा गया है। जनो ने इन विवादो में भी सत्य परोक्ष प्रमाणों में अनुमान विषयक उल्लेख अधिक और अहिंसा का प्राधार लिया है। सच्चक (म.१.२२७) स्पष्ट मिलते है । शान्तरक्षित ने पात्रकेसरि के हेतु प्रकार अभय (म. १.२३४) और असिवन्धकपुत्त गामिनि (म. का खण्डन किया है (तत्वमग्रह, १३७२-१३७६) । इसी ४.३२३) विषयक उद्धरण इस कथन के प्रमाण हैं। प्रमग मे उन्होंने उनकी "अन्यथानुपपन्नत्वे" प्रादि प्रसिद्ध
कारिका कुछ दूसरे रूप में प्रस्तुत की है । हेतुविन्दु टीका बुद्ध ने अपने पूर्वकालीन प्राचार्यो-सम्प्रदायो को तीन
__ मे जैनो को प्रमाणसमलववादी कहा है१३ । भागो मे विभाजित किया है-अनुस्साविका, त्क्की और
३. जंनाचार (Jaina Ethics) अननुस्सविका। जिन्होंने स्वय के अनुभव से विशेष ज्ञान
जैनाचार को श्रावकाचार और अनगाराचार मे प्राप्त किया है उनको उन्होन अननुस्साविका के अन्तर्गत
विभाजित किया जाता है। सामफलसुत्तमे निगण्ठनातरखा है। इस दृष्टि से जैन और बौद्ध धर्म इस श्रेणी मे
पुत्त के नाम से चातुर्याम सवर का उल्लेख है जो अस्पष्ट मा जाते है । निगण्ट नातपुत्त ने ज्ञान पर ही अधिक
है और पाश्वनाथ पाम्नाय का है१४ । सयुत्तनिकाय में जोर दिया है।
निगण्ठनातपत्त के नाम से वार व्रतो का उल्लेख है. जब अगत्तर निकाय (४.४२६) मे उनको ज्ञानवादा कहा कि पांच होना चाहिए१५ । प्रगत्तर निकाय मे अवश्य है। ज्ञान दो भागो में विभाजित किए जा सकते है
पञ्चाचा का उल्लेख है पर उनका क्र। और वर्णन मात्मज्ञान, जिसम पाँच प्रकार के ज्ञान प्रति है । दार्शनिक
ठीक नही १६ । अप्रासुक जल मे कीटाणु होते है । इसका ज्ञान जिममे प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रमाण माते
जैन सिद्धान्त का उल्लेख मज्झिम निकाय (१.३७७) मे है । शान्तक्षित न प्राचार्य मुमति के सिद्धान्त का वण्डन
है । वही निगण्ठनातपुत्त के अनुमार कायदण्ड को सर्वाधिक किया है। उनके अनुसार दोनो, मविकल्पक और निवि
पापकारी और हीन बनाया है पर उसी व्याख्या समित कल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण माने जाने चाहिए । पालि साहित्य
ढंग से नही की गई१७ । मे निगण्ट नातपुत्त की सर्वज्ञता के विषय मे एकाधिक बार
१०. मज्झिम १.५२६, २.३१ : धम्मपदठुकथा भाग २९, १. तत्त्वसग्रह २३१०
पृ०७४ मज्झिम २.२१४, १.६२, सयुत्त ४३६८, २. वही, २५५७
प्रगुत्तर ३७४ ३. सुनिपात ७६६, ८६२, ६१२
११.प्रमाणवातिकालकार ४.६१, ८.६-७ ४. वही, ८२५
१२ तत्त्वसग्रह ३६२८ ५. दीघ १.१६
१३ हेतुविन्दु टीका पृ० ३७ ६ उदान ७३
१४. दीघनिकाय ४१ ५. मज्झिम २.२११
१५ सयुत्त ४.३१७ ८. वही, १९२-३
१६. प्रगुत्तर ३,२७६,७ ६. तत्त्वसत्रह पञ्जिका पृ० ३६४
१७. मज्झिम १,३७२