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अनेकान्त
प्राचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में महन्तों में करके अपनी परम्परागत रुद्र-भक्ति का परिचय दिया । का पौराणिक शिव के रूप में उल्लेख किया है और कहा वीरसेन स्वामी द्वारा महंन्तों का पौराणिक शिव के रूप है कि महन्त परमेष्ठी वे हैं जिन्होंने मोह-रूपी वृक्ष को में किया गया चित्रण भी इसी तथ्य की ओर इंगित जला दिया है, जो विशाल प्रज्ञान रूपी पारावार से करता है। उत्तीर्ण हो चुके हैं, जिन्होंने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है। जो सम्पूर्ण बाधामों से निर्मुक्त हैं, जो अचल हैं,
स्वयं महाकवि पुष्पदन्त ने भी अपने महापुराण मे जिन्होंने कामदेव के प्रभाव को दलित कर दिया है, एक स्थल पर भगवान् वृषभदेव के लिए रुद्र की ब्रह्माजिन्होंने त्रिपुर अर्थात् मोह, गग, देष को अच्छी तरह से विष्णु-महेश रूपी त्रिमूति से सम्बन्धित अनेक विशेषणो भस्म कर दिया है, जो दिगम्बर मुनिव्रती अथवा मुनियों
का प्रयोग किया है । भगवान् का यह एक स्तवन है जिसे के पति अर्थात् ईश्वर हैं जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, उनके केवल ज्ञान होने के पश्चात् सौधर्म तथा ईशान सम्यक् चरित्र रूपी त्रिशूल को धारण करके मोह रूपी इन्द्र ने प्रस्तुत किया है। स्तवन में भगवान् की जय मनाते अंधकासुर के कबन्ध वृन्द का हरण कर लिया है तथा हुए कहा गया है कि वह दुर्मथ कामदेव का मन्थन करने जिन्होंने सम्पूर्ण प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लिया है और वाले हैं, दोष-रोष रूपी मांस के लिये अग्नि के समान हैं। दुर्नय का अन्त कर दिया है।
सम्पूर्ण विशुद्ध केवलज्ञान के प्रावास हैं, और मिथ्या-मार्ग पउमचरिउ में उल्लिखित 'रुद्राष्टक' इस तथ्य का से सन्मार्ग प्राप्ति के विचारक हैं । वह३ ककाल, त्रिशूल, द्योतक है कि इस रचना के समय तक वैदिक कालीन रुद्र ने कापालिक एवं पौराणिक युग के लोक प्रचलित
२. दुम्मह वम्मह णिम्महण दोस-रोस-पशु-पास-सिहि, स्वरूप को अंगीकार कर लिया था, जिसका जैन परम्परा
जय सयल विमल केवल णिलय रूपी समन्वय उक्त 'अष्टक' के रचयिता ने अपनी रचना
हरण-करण-उद्धरण विहि ।
३. जय सुकइ कहियणीसेसणाम, विमलमति चन्द्ररेखविरचित सिल शुद्धभाव कपालम् ।
भोमथण णिय रिउवग्ग भीम । व्रताचल शैलनिलयं जिनेन्द्र रुद्रं सदा बन्दे ॥३॥ वामा विमुक्क ससारवाम, गुणगणनरशिरमालं दशध्वजोद्भूत खट्वाङ्गम् ।
जय तिउरहारि हरहीर धाम । तपःकीति गौरिरचितं जिनेन्द्ररुद्रं सदा बन्दे ॥४॥ जय पयडिय धुस सयंभु भाव, सप्तभयडाम डमरूकवाचं अनवरत प्रकटसंदोहम् ।
जय जय सयभू परिगणिय भाव । मनोबद्ध सर्पपरिकरं जिनेन्द्र रुद्रं सदा बन्दे ॥५॥
जय संकर संकर विहियसति, अनवरतसत्यवाचा विकटजटामुकुट कृतशोभम् ।
जय ससहर कुवलय दिण्णकति । हुकार भयविनाशं जिनेन्द्र रुद्र सदा वन्दे ।।६।।
जय रुद्दर उद्दतवग्गगामि, ईशानशयनरचितं जिनेन्द्र रुद्राष्टकं ललितं मे ।
जय जय भवसामि भवोवसामि । भावं च यः पठति भावशुद्धस्तस्य भवेज्जगति ससिद्धिः ।७
मह एव महागुणगणजसाल, १. णिशद्ध मोहतरुणो वित्थिण्णणाण-सायरुत्तिण्णा ।
महकाल पलय कालुग्ग काल । णिहय-णिय-विग्ध-वग्गा बहुवाहविणिग्गया प्रयला । जय जय गणेस गणवइ जणेर, दलिय-मयण धायावा तिकाल विसएहिं तीहिणयणेहिं ।
जय बभपसाहिय बभचेर। दिट्ठ सयलठ्ठ सारा सुरतिउण मुणिव्वइणो॥
वेयंगवाई जय कमलजोरिण, तिरयण तिसूलधारिय मोहंधासुर-कबन्ध-विन्दहरा ।
भाई बराह उद्धरिय खोणि । सिखसयलप्परूवा परहन्ता दुण्णयकयंता ॥
सहिरण्ण विट्टि पडिवण्ण गन्भ, -धवला टीका-१, पृष्ठ ४५-४६
जय दुग्णय णिहण हिरण्णगम्भ ।