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मानमपतन ही केशोराय पट्टन है सार्थवाही । और अकबर के समय 'जम्बुमार्ग' के नाम से कुछ अधिक नहीं है । केवल साम्प्रदायिक संघर्ष का कुछ प्रख्यात थे, प्रोग्रेस रिपोर्ट में वर्णित है कि केशोराय के अनुमान अवश्य सम्भव है। विषय अनुसन्धेय है। मन्दिर के अत्यन्त सन्निकट "जम्बुद्वीप' नाम का स्थान हैं। यहाँ माघ महीने मे शिवरात्रि के दिन अब भी
निसर्गरमणीय यह प्रदेश पाश्रमभूमि के उपयुक्त होने मेला लगता है। इसमे मिद्ध हैं कि जम्बुपथ सार्थवाही के कारण वास्तव में प्राश्रमस्थान होने का अधिकारी भगवान् मृत्युञ्जय का स्थान यही था। अब भी वहाँ दो था। चम्बल नदी के किनारे उपयुक्त स्थान पर स्थिति ने शिवलिंग वर्तमान है। किन्तु कालान्तर में राज्याश्रय के इसे पुटभेदन और पत्तन बनाया था। सौम्य प्रकृति ने कारण वैष्णव सम्प्रदाय के बलवान् होने पर इस स्थान इसे विविध-तीर्थत्व प्रदान किया था। 'जम्बुद्वीप' के की महता प्रापेक्षिक दृष्टया कम हो गई होगी। लोग प्राचीन देवस्थानों से यहां किसी विष्णु-मूर्ति की प्रवस्थिति अब 'जम्बुद्वीप' मात्र को जानते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं अनुमित की जा सकती है। शायद मुख्य मन्दिर के इधरहै इसी स्थान पर जम्बुपथसार्थवाही महादेव का भारत- उधर ब्रह्मा और विष्णु के स्थान रहे हों। नयचन्द्र सूरि प्रख्यात स्थान था । यहाँ अन्य मूर्तियाँ भी वर्तमान है। के शब्दों में शैव तो यह मानते ही रहे हैं कि 'जम्बुपथ. जिनकी पहचान प्रयत्नशील अनुसन्धाता के लिए शायद सार्थवाही स्वयम्भू शम्भु का ध्यान मात्र केवल मुक्ति अब भी असम्भव न हो। रिपोर्ट अब से ६२ वर्ष पूर्व को ही नही, मुक्ति को भी प्रदान करता है। यहीं सपलिखी गई थी वर्षा और वायु की चपेट खाती हुई और
स्नीक हम्मीर ने चर्मण्वती (चम्बल) नदी में स्नान कर वर्षानुवर्ष सफेदी मे पुनः पुनः प्रावृत्त जम्बूद्वीप की मूर्तियाँ
जम्बुमार्ग मृत्युञ्जय का अर्चन किया था। पाण्ड्याजी के सम्भव है कि इस समय बहुत अच्छी अवस्था मे न हों।
कथनानुसार जैन अब भी तीर्थकर मुनि का पर्चनकर 'भुईदेवरा' तो स्पाटत मनिसवत तीर्थकर का मनोरथ-पूर्ति के लिए यहाँ गणभोज भी किया करते हैं। जिनालय है । मुनि उदयकीर्ति, मदनकीर्ति, और प्राकृत- रल प्रान क बाद इसका व्यापारिक महत्त्व पूर्ववत् नहा निर्वाणकाण्ड आदि ने पाश्रम मे ही इसकी प्रस्थिति रहा है। प्राबादी भी घटी होगी। किन्तु इसकी नैसर्गिक वतलाई है सम्भवतः प्रतिमा का भूमिग्रह मे स्थापन भी
- रमणीयता अब भी पूर्ववत् है; और जगत् के माधुनिक
रमणा अपना इतिहास रखता है। मुनि मदनकीर्ति की चतस्त्रि- प्रशान्त वातावरण में भी अन्त शान्ति का इच्छुक भव्य
से इस विषय पर कुछ प्रकाश पडता है। किन्त वह जीव इसकी पोर पाकृष्ट हुए बिना नहीं रहता।
न्यायी सम्राट
ईरान का बावशाह नौशेरवां न्यायौ और कर्तव्य-परायण था।
एक बार वह शिकार खेलने के लिए निकला। भोजन की सामग्री साथ थी। एक गांव के किनारे विश्राम किया गया। रसोइये ने भोजन बनाना शुरू किया।
"जहांपनाह ! नमक नहीं है", भोजन पकाते-पकाते रसोइये ने कहा।
बादशाह ने आदेश दिया-"पाय के गांव से ले मा। लेकिन पंसा देना मत भूलना, यदि बिना पैसे लायगा तो सारा गांव उजड़ जायेगा।"
"थोड़ा-सा नमक बिना पैसे लाने से गांव से उजड़ जायेगा?"
रसोइए के इस प्रश्न पर बावशाह ने कहा-"यदि मैं बिना पैसे नमक लंगा तो दूसरे राज कर्मचारी रुपयों की बड़ीबड़ीलियां भी लेने में संकोच का अनुभव नहीं करेंगे।