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मध्य भारत का जैन पुरातत्व
वाक्य से प्रकट है :
खडित मूर्तियों की संख्या अधिक पाई जाती है। नगर में 'तस्मादनेकविधविक्रमलब्धकीतिः पुण्यश्रुति. समभव- भी अच्छा मन्दिर है पौर जैनिपों की बस्ती भी हैं । परवर्मदेवः ।
नगर के पास-पास के ग्रामों प्रादि में भी जैन अवशेष वि० स०१३३८ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है पाये जाते हैं जिससे वहाँ जैनियों के प्रतीत गौरव का कि नरवर्मदेव ने धार (धारा नगरी) के राजा से चौथ पता चलता है। वसूल की थी। यद्यपि इस वंश की परमारो से अनेक नरवर से ३ मील की दूरी पर 'भीमपुर' नाम का छेड-छाड़ होती रहती थी, किन्तु उसमे नरवमं देव ने एक ग्राम है । जहां जज्जयेल वंशी राजा प्रासल्लदेव के सफलता प्राप्त की थी। नरवर्मदेव के बाद इसका पुत्र एक जैन सामन्त जैत्रसिंह रहते थे। उन्होंने जिन भक्ति प्रासल्लदेव गद्दी पर बैठा। इसके राज्य समय के दो से प्ररित होकर वहाँ एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया शिलालेख वि० स० १३१८ और १३२७ के मिलते है। था। और उस पर २३ पंक्त्यात्मक करीब ६०-७० श्लोको पासल्लदेव के समय उसके सामन्त जैसिंह ने भीमपुर में के परिमाण को लिये हुए विशाल शिलालेख लगवाया एक जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। इस मन्दिर की था, जो अब ग्वालियर पुरातत्त्व विभाग के संग्रहालय में प्रतिष्ठा स. १३१६ मे नागदेव द्वारा सम्पन्न हुई थी। मौजूद है। इस लेख में उक्त वंश के राजामों का उल्लेख इसके समय मे भी जैनधर्म को पनपने मे अच्छा सहयाग है। जैत्रसिंह की धार्मिक परिणति का भी वर्णन है, और मिला था। सिंह जैनधर्म का सपालक और श्रावक के नागदेव द्वारा उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख ब्रतों का अनुष्ठाता था। पासल्लदेव का पुत्र गोपालदेव
है। स० १३१६ का यह शिलालेख अभी तक पूरा प्रकाथा। इसके राज्य का प्रारम्भ स. १३३६ के बाद माना शित नहीं हया । यह लेख जैनियों के लिये महत्त्वपूर्ण है। जाता हैं। इसका चदेल वशी वीरवर्मन् क साथ युद्ध हुमा
पर ऐसे कार्यों मे जैन समाज का योगदान नगण्य है। था, जिसमे इसके अनेक वीर योद्धा मारे गये थे।
सुहानियां गणपतिदेव के राज्य का उल्लेख स० १३५० मे
यह स्थान भी पुरातनकाल में जैन संस्कृति का केन्द्र मिलता है। यह स. १३४८ के बाद ही किसी समय
रहा है और वह ग्वालियर से उत्तर की ओर २० मील, राज्याधिकारी हुमा होगा । सं० १३५५ के अभिलेख से .
तथा कटवर से १४ मील उत्तर-पूर्व में महसन नदी के ज्ञात होता है कि इसने चन्देरी के दुर्ग पर विजय प्राप्त
उत्तरीय तट पर स्थित है । कहा जाता है कि यह नगर की थी, क्योकि स० १३५६-५७ के सती स्तम्भो मे इसके
पहले खूब समृद्ध था और बारह कोश जितने विस्तृत राज्य का उल्लेख है । जान पड़ता है कि मुसलमानो की मार
ह कि मुसलमाना का मैदान मे प्राबाद था। इसके चार फाटक थे, जिनके विजयवाहिनी से चाहड़देव का बंश समाप्त हो गया।
चिह्न आज भी उपलब्ध होते हैं । सुना जाता है कि इस जैनत्व की दृष्टि से नरवर के किले मे अनेक जैन नगर को राजा सूरसेन के पूर्वजों ने बसाया था। कनिंघम मूर्तियाँ खडित-प्रखडित अवस्था में प्राप्त हैं। किले मे साहब को यहाँ वि० स० १०१३, १०३४ और १४६७ के इस समय ४ मूर्तियाँ अखंडित है जिन पर स० १२१३ से मूर्ति लेख प्राप्त हुए थे। १३४८ तक के लेख पाये जाते हैं।
इस लेख में मध्य भारत के कुछ स्थानों के जंन पुरा१-स० १२१३ असाढ़ सुदि ६, २-स. १३१६ तत्त्व का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। उज्जैनी, धारा ज्येष्ठ वदी ५ सोमे, ३-सं० १३४० वैशाखवदी ७ सोमे, नगरी और इनके मध्यवर्ती भूभाग अर्थात् समूचे मालव ४-स० १३४८ वैशाख सुदी १५ शनो।'
प्रदेश का जो जैन सस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, ये सब मूर्तियाँ सफेद संगमर्मर पाषाण की हैं। पूरा परिचय देने मे एक बड़ा अथ बन जायगा।