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अनेकान्त
ग्वालियर का इतिहास
होती है।
पर स्थित
जैन साहित्य में वर्तमान ग्वालियर का उल्लेख गोपायलु, गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपाचल गोयलगढ़ आदि नामों से किया गया है, ग्वालियर की इस प्रसिद्धि का कारण जहाँ उसका पुरातन दुर्ग ( किला ) है । वहाँ भारतीय ( हिन्दू बौद्ध और जैनियों के पुरातत्व की प्राचीन एवं विपुल सामग्री की उपलब्धि भी है। भारतीय इतिहास मे ग्वालियर का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। वहाँ पर प्राचीन अवशेषों की कमी नही है । उसके प्रसिद्ध सूबों और किलों में इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध ग्वालियर का यह किला पहाड़ की एक चट्टान है, यह पहाड़ डेढ़ मील लम्बा और ३०० गज चौड़ा है । इसके ऊपर बसुधा-पत्थर की चट्टाने हैं उनकी नुकीली चोटियाँ निकली हुई हैं, जिनसे किले को प्राकृतिक दीवार बन गई है। कहा जाता है कि इसे सूरज सेन नाम के राजा ने बनवाया था । वहाँ 'ग्वालिय' नामका एक साधु रहता था, जिसने राजा सूरमेन के कुष्ट रोग को दूर किया था। अतः उसकी स्मृति मे ही ग्वालियर नाम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, पर इसमे कोई सन्देह नहीं कि ग्वालियर के इस किले का अस्तित्व वि० की छठी शताब्दी मे था क्योंकि ग्वालियर की पहाडी पर स्थित 'urrear' द्वारा निर्माणित सूर्यमन्दिर के शिलालेख में उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाना है। दूसरे किलं मे स्थित चतुर्भुज मन्दिर के वि० स० ६३२-३३ के दो शिलावाक्यों में भी उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाता है। हाँ, शिलालेखों से इस बात का पता जरूर चलता है कि उत्तर भारत के प्रतिहार राजा मिहिर भोजने जीत कर इसे अपने राज्य कन्नौज मे शामिल कर लिया था । और उसे वि० की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ मे कच्छपघाट या कछवाहा वश के वज्रदामन् नाम के राजा ने, जिसका राज्यशासन १००७-१०३७ तक रहा है ग्वालियर को जीत
१. प्रो अरुणो राजास्य पौत्रेण श्री
२. सामेश्वर सूनुना जेजा
२. भुक्ति वेशोयं पृथ्वीराजेन
४. सुनीय सं० १२३९, देखो कनियम रिपोट १०,१.१०
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कर उसे पर अपना अधिकार कर लिया था । भौर जो जैन धर्म का श्रद्धालु था, उसने स० १०,३४ में एक जैनमूर्ति की प्रतिष्ठा भी करवाई थी। उस मूर्ति की पीठ पर जो लेख १. अंकित है उससे उसकी जैनधर्ममे प्रास्याका होना प्रमाणित
है । इस वंश के अन्य राजामों ने जैनधर्म के सरक्षण, प्रचार एवं प्रसार करनेमें क्या कुछ सहयोग दिया, यह बात अवश्य विचारणीय है और अन्वेषणीय है। इस वंश के मगलराज. कीर्तिराज, भुवनपाल, देवपाल पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल और मधुसूदनादि अन्य राजाओ ने ग्वालियर पर लगभग दो सौ वर्ष तक अपना शासन किया है; किन्तु पुनः प्रतिहार वंश की द्वितीय शाला के राजाधो का उस पर अधिकार हो गया था। परन्तु वि० सं०
१२४६ में दिल्ली के शासक अल्तमश ने ग्वालियर पर
घेरा डाल कर दुर्ग का विनाश किया। उस समय राप्तों ने अपने शौर्य का परिचय दिया, परन्तु मुठ्ठी भर राजपूत उस विशाल सेना से कब तक लोहा लेते ? प्राखिर राजपूतों ने अपनी धान की रक्षा के हित युद्ध में मरजाना ही श्रेष्ठ समझा और राजपूतनियों ने 'जोहर' द्वारा अपने सतीत्व का परिचय दिया। वे अग्नि की विशाल ज्वाला मे भस्म हो गई और राजपूत अपनी वीरता का परिचय देते हुए वीरगति को प्राप्त हुए किले पर अल्तमश का अधिकार हो गया ।
सन् १३६८ ( वि० स० १४५५ ) मे तैमूरलंग ने भारत पर जब श्राक्रमण किया। तब अवसर पाकर तोमर वशी वीरसिंह नाम के एक सरदार ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और वह उक्त वंश के प्राधीन सन् १५३६ ( वि० सं० १५९३ ) तक रहा ।
तोमर नामक क्षत्रिय वंश के अनेक राजाओं ने (सन् १३१० से १५३६ तक) ग्वालियर पर शासन किया है, उनके नाम वीरसिंह, उद्धरणदेव विषमदेव ( वीरमदेव) गणपतिदेव दूगरसिंह कीर्तिसिंह, कल्याणमन, मानसिंह,
१. स १०३४ श्री वज्जदाम महाराजाधिराज वइसाख वदि पाचमि | देखो, जनरल एशियाटिक सोसाइटी ग्राफ बंगाल पृ० ४१०-५११
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