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अनेकान्त
५५२ का लेख नाहर घाटी से प्राप्त इमा था, इसमें सूर्य के प्राचार-विचारों से परिपूर्ण रहा है। क्योंकि यहाँ वि. वंशी स्वामी भट्ट का उल्लेख हैं। सं० ११९ का शिला- सं० ११२३ भौर ११९९ से लेकर वि. स. १९६८ तक लेख जन संस्कृति की दृष्टि से प्राचीन है। इस लेख में की प्राचीन मूर्तियाँ और लेख उपलब्ध होते हैं। ये सब मोजदेव के समय पंच महाशब्द प्राप्त महा सामन्त विष्ण- लेख ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण हैं और प्रतीत के गौरव राम के शासन में इस लुप्रच्छगिरि के शान्तिनाथ मन्दिर की अपूर्व झांकी प्रस्तुत करते हैं । यदि यहाँ खुदाई कराई के निकट गोष्ठिक वजमा द्वारा निर्मित मानस्तम्भ भाचार्य जाय तो संभवतः और भी पुरातन जैन संस्कृति के प्रवकमलदेव के शिष्य प्राचार्य श्रीदेव द्वारा वि० सं० ११९ शेष प्राप्त हो सकते हैं । इन लेखो में सबसे अधिक लेख माश्विन १४ बृहस्पतिवार के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र जैसवालों और गोलापूर्वो के पाये जाते हैं, उनसे उन में प्रतिष्ठित किया गया था, इसी तरह अन्य छोटे-छोटे जातियों के धर्म-प्रेम की झलक मिलती है। लेख भी जैन संस्कृति की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस तरह सं० १२१३ के एक लेख मे भट्टारक मणिक्यदेव तथा देवगढ़ मध्यप्रदेश की अपूर्व देन है।
गुण्यदेवका नाम उत्कीर्ण हुमा है। और मं० १२१६ के लेख महार क्षेत्र
मे श्रीसागरसेन सैद्धान्तिक, आर्यिका जयश्री पौर चेली बुन्देलखण्ड में खजुराहो की तरह महार क्षेत्र भी रतनश्री का उल्लेख है। स० १२१६ के एक दूसरे लेख मे एक ऐतिहासिक स्थान है। देवगढ की तरह यहाँ प्राचीन कुटकान्वयी पडित लक्ष्मणदेव शिष्य पार्यदेव पार्यिका मूर्तिया और लेख पाये जाते हैं। उपलब्ध मूर्तियों के लक्ष्मश्री चेली चारित्र श्री और भ्राता लिम्बदेव का नाम शिलालेखों से जान पडता है कि विक्रम की ११वीं से अकित है। सं० १२१६ के एक तीसरे लेखमें कुटकान्वय के १३वीं शताब्दी तक के लेखों में प्रहार की प्राचीन बस्ती पडित मगलदेव और उनके शिष्य भ० पदमदेव का नामाका नाम 'मदनेशसागरपुर' था और उसके शासक श्री कन है। सं० १५४८ के लेख में भद्रारक "जिनचन्द्र' और मदनवर्मा थे, जो पदेलवश के यशस्वी नक्षत्र थे। इस शाह जीवराज पापडीवाल का नामोल्लेख है । सं० १५७२ नगर के पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह वर्त- के एक लेख में भ० गुणकीर्ति के पट्टधर मलयकीर्ति के मान में 'मदनसागर' नाम से प्रसिद्ध है। इसके किनारे अनेक द्वारा प्रतिष्ठा कराने का भी उल्लेख पाया जाता है। प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुए हैं। मदनवर्मा का शासन इसी तरह अन्य अनेक लेखों में जो विद्वानो. भट्टारको या वि० की ११वीं शताब्दी में विद्यमान था, उसके बाद ही श्रावक श्राविकानों के नामों का प्रकन मिलता है, वह किसी समय इसका नाम 'महार' प्रसिद्ध हुमा होगा। इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
यहाँ के उपलब्ध मूर्तिलेखों में खण्डेलवाल, जैसवाल, प्रहार क्षेत्र मे भगवान शातिनाथ की प्रतिष्ठा कराने मेवा, लमेच, पौरपाट (परवार) गृहपति, गोलापूर्व, वाला गृहपति वंश जैन धर्म का अनुयायी था जैन धर्म की बोलाराड, अवधपुरिया और गर्गराट् प्रादि अनेक उप- परम्परा उसके वंश में पहले से चली आ रही थी, क्योकि जातियों के उल्लेख मिलते हैं, जो उनकी धार्मिक रुचि के इस वंश के देवपाल ने 'बाणपूर' के सहस्रकूट चैत्यालय का द्योतक हैं। उनसे यह भी स्पष्ट जाना जाता है कि उस निर्माण कराया था। ऐसा शान्तिनाय की मूर्ति के संवत् काल में यह खूब सम्पन्न रहा होगा, क्योंकि वहाँ विविध १२३७ के लेख के प्रथम पद्य से प्रकट है२ । वाणपुर का उपजातियों के जन जन रहते थे और गृहस्थोचित षट्कर्मो उक्त जिनालय कब बना यह निश्चित नहीं है किन्तु मं. का पालन करते थे। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात अत्यन्त - महत्वपूर्ण है कि यह स्थान ७०० वर्षों तक जैन संस्कृति
१. देखो, अनेकान्त वर्ष, ९ कि. १० तथा वर्ष १० किरण
१.२.३ प्रादि में प्रकाशित प्रहार के लेख । १. सं० १२०८ पौर १२३७ के लेखों में मदनेश सागर .. ग्रहपतिवंश सरोकह-सहस्ररश्मि सहस्रकटं यः।
पुर का नामांकन हुमा है, देखो, अनेकान्त वर्ष ६, बाणपुरे व्यषितासीत श्रीमानिहि देवपाल कृति ॥ कि० १०० ३८५-६ ।
शान्तिनाथ मूर्तिलेख, महार