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देश एवं समाज के गौरव
साक्षात्कार में उनके महान एवं महानशाली यक्तित्व के मुझे भी जयपुर से जैन साहित्य की विभिन्न कला कृतियों दर्शन मिले । मैंने देखा कि कलकता जैन समाज पर को प्रदर्शित करने के लिए जाना पड़ा था । बा० छोटेलाल उनका एक दम नेतृत्व था और बड़े बड़े बंगालियों पर जी का इस प्रायोजन में प्रमुख हाथ था और उनका वीरभी उनकी विद्वत्ता एवं सेवा का गहरा असर था। वे सेवामन्दिर विद्वानों के प्रावास का प्रमुख केन्द्र था। जहाँ भी गये वहीं के अधिकारी ने उनका प्रच्छे ढंग से बाबजी भी उसी में ठहरे थे। इस प्रदर्शनी में बाबूजी ने स्वागत किया और उनसे मिलने पर समन्धता व्यक्त कलाकृतियों के खूब चित्र लिये। उनका सदैव प्राचीन की। मैंने देखा की कलकता समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति कलाकृतियों के चित्रों के संग्रह की घोर ध्यान रहता था। भी उनमे निर्देशन लेने के लिए उनके पास पहुँचने इस अवसर पर भी उनके निकट रहने का अवसर मिला और काफी समय तक समाज की स्थिति पर विचार और मैंने देखा कि बाबू जी के दिशा निर्देशन की भोर विनिमय किया करते।
सभी का ध्यान है और समाज के उच्चस्तरीय नेता भी उसके पश्चात् वे स्वय जयपुर पाये । मैं उन्हे लिवाने उनकी बात सब ध्यान से सुनते थे। के लिए स्टेशन पहुँचा और उन्हें स्व० सेठ बधी वन्द जी
हुचा भार उन्हें स्व० सठ वधी वन्द जी बावजी से चौथा और अन्तिम साक्षात्कार प्रभी गगवाल के निवास स्थान पर ठहराया। वे उस मकान करीब तीन वर्ष पूर्व पारा में जैन सिद्धान्त भवन की स्वर्ण मे ८-१० दिन रहे । उन दिनों में इतना अधिक
जयन्ती के अवसर पर हुपा था। बाबूजी के प्रायोजन घनिष्ट सम्बन्ध हो गया कि मैं उन्हें अपने पिता तुल्य
के स्वागताध्यक्ष थे। वे जैन बाला विश्राम में ठहरे हुए ममझने लगा । यहाँ पर उन्होंने कितने ही कलापूर्ण मन्दिरों में अपने अन्य साथियों के साथ जब उनसे मिलने के चित्र लिये । सस्थानों का निरीक्षण किया और उनमे
गया तो देखा कि बाबूजी एक कमरे में एक पाराम कुर्सी काफी पार्थिक सहायता भी दी, इस मकान में उनका
पर लेटे हुए हैं। स्वांम एवं खांसी से भयंकर रूप से स्वास्थ्य ठीक था । इसीलिए पुरातत्व एवं जैन साहित्य
पीड़ित है तथा बोलने मे भी तकलीफ होती है लेकिन के किनने हो गहन तथ्यों की उनमे जानकारी प्राप्त हो
जब हम लोग उनके पास जाकर बैठ गये तो फिर उन्होने मकी । पुरातत्व के सम्बन्ध मे उनका विशाल अध्ययन
ल अध्ययन अपने रोग की भी परवाह नहीं की और प्रत्येक विद्वान था और उसे पागे विकसित करने के लिए ही वे कितने मेंबडे ही प्रेम से बातचीत की। मेरे में उन्होंने यही ही म्यानों पर भ्रमण किया करते थे। उनकी यही हार्दिक
त थ । उनको यही हादिक प्रश्न किया कि माजकल मेरी कौन सी पुस्तक छप रही इच्छा रहती थी कि वे अपने जीवन में जैन मूर्तिकला एव
है तथा शोध कार्य किस गति से भागे बढ़ रहा है। बाबू स्थापत्यकला पर विस्तृत प्रकाश डाल सके जिसमें विद्वानो
जी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण प्रत्येक को यह को उनके महत्व के सम्बन्ध में जानकारी मिल सके।
भय था कि इसके प्रायोजन में वे कैसे अपना स्वागत तीसरा साक्षात्कार उनसे देहली में हुमा । यह कोई भापण पढ सकेगे लेकिन जब उन्होंने बिना किसी रुकावट सन् १९५६ की घटना है । उस समय देहली में एक जैन के अपना भाषण पढ़ा तो सभी परिचित प्राश्चर्य में पड़ सेमिनार का आयोजन हुमा था। इसी प्रवसर पर यहाँ गये और बाबजी की लगन एवं कार्य करने की शक्ति की विज्ञान भवन के बाहर पर एक विशाल साहित्य एव मत कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। यही मेरी उनसे पन्तिम कला प्रदर्शनी भी लगी थी। इतना सुन्दर एव विशान मुलाकात थी। किसे मालूम था कि वे थोड़ेही समयके और प्रायोजन देहली मे ही नहीं किन्तु संभवत भारत में ही मेहमान है और फिर सदा सदाके लिए बिछुड़ने वाले हैं। प्रथम बार हुपा था। इस प्रदर्शनी में साहित्य एवं कला मैं इस अवसर पर अपनी प्रसीम भावना से श्रद्धाजलि की विभिन्न कलाकृतियाँ प्रदर्शित की गयी थी। इस अर्पित करता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि प्रायोजन में भाग लेने के लिए समाज के अच्छे-अच्छे वे फिर इसी समाज में जन्म लेकर उसकी पहिले से भी कार्यकर्ता, विद्वान् एवं साहित्यसेवी सम्मिलित हुए थे। अधिक सेवा कर सकें।*