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श्रद्धाञ्जलि अनूपचन्द न्यायतीर्थ 'साहित्यरत्न'
श्रीमान् तुम्हारा अभिनन्दन
कर लेते होता हमें हर्ष। पर देख सका ना देव इसे
प्रो छोना तुमको इसी वर्ष ॥
युग परिवर्तन के साथ साथ
छोड़ा था तुमने रूढिवाद । नूतन प्राचीन विचारों का
सम्मिश्रण तुममें निविवाद ॥
(४) बालकपन से ही संस्कार
सेवा के तुममें गए पेठ । सीधा प्रौ सच्चा जीवन था
न पायो तुममें कभी ऐंठ॥
तन मन से उज्ज्वल मुट्ठी भर
सेवा भावी वानी उवार । 'अनेकांत' के पथवशंक
श्रो पुरातत्व-प्रेमी अपार ॥
बड़े बच्चे नवयुवकों में
ना समझा तुमने कभी भेद । मतलब की सबसे सुनने में
नाटुमा कभी भी तुम्हें खंद ।
छोड़ी जीवन को सुविधाएं
जब पड़ा बंग भीषण अकाल नोग्राखाली के दगों में
दिखलाया सेवा कर कमाल।
(८) लाये युवको को प्रागे तुम
कर धर्म और सेवा समाज । साहित्य-प्रेम को ज्योति जगा
तुम बने सुधारक पूर्ण प्राज ॥
टेडा सेवा का काम किन्तु
तुमने 'रिलीफ' में किया काम । निस्वार्थ भाव तन मन धन से
'छोटे' से ऊंचा किया नाम ॥
लग रहा तुम्हारा जो कुछ है
सब देश जाति-हित सदा काल । कितनी संस्थाएँ सचालित
हो चुको तुम्हीं से नौनिहाल ॥
जीवन को तुमने खपा दिया
संस्कृति-रक्षा हित गुणनिधान । तुम विज्ञ ब्वेिको दृढ़प्रतिज्ञ
थे मक राष्ट्र-सेवक महान ।।
(१२) नवजीवन की मिलती तुमसे
नित नयी प्रेरणा प्रौ प्रकाश । "सेवा का अनुपम पथ पकड़ो
मत होमो जीवन में निराश ॥"
जैसा भी चाहा कर डाला
सब जगह तुम्हारा था प्रभाव । सम्मान तुम्हारा सब करते
यह देख देख सीधा स्वभाव ॥