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तीन दिन का प्रातिथ्य
प्रतीक चर्चा के उपरान्त मैंने बाबूजी से पूछा-"कृपया उसे अभिव्यक्त करने के लिए चित्रांकन किया जाता है। यह बतलाइये कि जैन चित्रकला में कला की दृष्टि से दूसरी प्रणाली में ग्रन्थ के विषय से बाह्य चित्र दिये गये क्या विशेषता है ?' मेरा अभिगय उन सवित्र पाण्डु. है। इन पच
पर हैं। इन चित्रों का विषय से कोई सम्बन्ध नही है। लिपियों से है, जिनमे गुजगत और राजपूत कलम का
सौन्दर्य वृद्धि के लिए या अन्य हृदयगत भावनामों के
सान्दय वृद्धि क लिए मिश्रण पाया जाता है। क्या कला क्षेत्र में भी जैन स्पष्टीकरण के लिए चित्रो का प्रकन किया गया। बौद्ध और हिन्दू इस प्रकार की चौकापन्थी सभव है ?
अधिकांश पाण्डुलिपियों के चित्रों में माधुर्य, पोज और मेरा ऐसा विश्वास है कि भारतीय चित्रकला अखण्ड और सजीवता पायी जाती है। वस्तु को दृष्टि से जैन चित्रों एक है। चित्रांकन की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नही है। को एक पृथक वर्ष में रखना होगा, क्योंकि इन चित्रों की अन्तर है वस्तु के प्रकाशन मे या वर्ण्यवस्तु मे। अभि. विषयवस्तु और भावाभिव्यञ्जना अन्यत्र नहीं मिलती। व्यञ्जना की दृष्टि से कला एक है। प्रतः कला में मानव हा, टकानक क क्षत्र म ये चित्र कुछ प्रशों में । के शाश्वत राग-द्वेष, प्रेम-कलह, हास-विलास एव रखते हैं। कल्पमूत्र के चित्रों में गुजराती कलम, जिसकी अनुराग-विराग समान रूप से अभिव्यक्त होते हैं।"
प्रधान विशेषता बादाम के समान नेत्रों की है, पायी
जाती है। प्रतः इतना मानना पड़ेगा कि जैन चित्रकला श्री बाबू छोटेलालजी ने गम्भीर भाव से उत्तर देते में कुछ ऐसी बाते हैं, जो दूसरे धर्म की कलामों में नहीं हए कहा- 'जनचित्र पालीवन की दृष्टि से भी महत्त्व पायी जाती। धर्माश्रय होने के कारण धर्म की पृष्ठभूमि पूर्ण है। यद्यपि सुरुचि, परिष्कार, तूलिका स्पर्श की भी कला में निहित रहती है। अतः अग्यण्ड कला में भी कोमलता एवं हसिए की कसीदाकारी कुछ ही चित्रों में भेद संभव है। चित्रों की प्रात्मा भिन्न होने से उनकी पायी जाती है, तो भी गुजराती, मुगल और राजपूत टेकनिक में भी अन्तर है।" कला का मिश्रण होने से प्राकृतियों की विविधता प्राकषित मैं सपरिवार बाबुजी के यहाँ तीन दिनों तक रहा। करती है । नगरों, महलों, साधारण घरो, वनो, सरोवरों भोजन के समय बाबूजी स्वयं उपस्थित रहते। हम लोगों के दश्य जीवन के सभी रूपों में प्रकट हुए हैं। विराग की प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखते थे और प्राग्रह पूर्वक और त्याग के चित्रों में भी स्वस्थ जीवन का अकन हुअा रसगुल्ले खिलाते थे। याज बाबूजी नहीं है पर उनका है। मचित्र जैन ग्रन्थों की दो प्रणालियां हैं। पहली में वह प्रातिथ्य तथा कलाममशता मेरे मानम पटल पर धर्मकाथा के विषय को चित्रों द्वारा समझाने का प्रयाम अंकित है ! बाबूजी के और भी कई मस्मरण है, जिन्हें किया गया है। एक पृष्ठ पर जितना कथा रहता है, यथा समय पत्रों में प्रकाशित करने का प्रयास करूगा।
निरभिमानी बाबूजो
लक्ष्मीनारायण छावड़ा स्वर्गीय बाबू छोटेलालजी जैन कलकत्ता समाज के उक्त कमेटी के मेरे सात वर्ष के कार्यकाल में उनक प्रमुन्व कार्यकर्तामो मे से थे, उनमे मेरा सम्पर्क सन् १९२६ पूग सहयोग सत्परामशं मिलता रहा, जिसको मैं कभी से रहा है। जब वे बगाल विहार उड़ीसा तीर्थक्षेत्र कमेटी भुना नहीं सकता । प्राप सरल स्वभावी निरभिमानी एवं के सेक्रेटरी थे तब से ही उनके साथ मुझे भी सामाजिक उत्साही समाजसेवी थे और समाज के गौरव थे। कार्यों में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ था, हर कार्य उनके स्वर्गवास में समाज को काफी क्षति पहुंची है में उनका पूर्ण सहयोग मिला था। सन् १९३६ मे जब मैं जिसकी पूर्ति होना असम्भव है। बंगाल बिहार उड़ीसा दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी का अन्त में अपने परम सहयोगी के प्रति श्रद्धाजलि सेक्रेटरी नियुक्त होकर कार्य करने लगा उस समय बाबूजी अर्पित करता हुआ स्वर्गीय प्रात्मा को पूर्ण शान्ति प्राप्त उक्त कमेटी के सदस्य थे उनके पुराने अनुभवों के कारण होने के लिए भगवान महावीर से प्रार्थना करता हूँ।