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बनधर्म का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो रहा था। मोर उस का मन्दिर कहा जाता है । इस मन्दिर की शोभा अपूर्व समय अनेक कलापूर्ण मूतियां तथा सैकड़ो मन्दिरों का है। इसमें प्रध-मण्डप, महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह निर्माण भी हुपा है। खजुराहो की कला तो इतिहास में
समाविष्ट थे। एक सांझा प्रदक्षिणा पथ भी था जिसकी अपना विशिष्ट स्थान रखती ही है। यद्यपि खजुराहो में कितनी ही खण्डित मूर्तियां पाई जाती हैं, जो साम्प्रदायिक
बाहिरी दीवार नष्ट हो चुकी है। विष का परिणाम जान पड़ती हैं।
दूसरा मन्दिर मादिनाथ का है। यह घण्टाई मन्दिर यहाँ मन्दिरों के तीन विभाग हैं। पश्चिमी समूह, के हाते में दक्षिण-उत्तर पूर्व की भोर अवस्थित है। यह २-पर्क समह, ३ तथा दक्षिणी समूह। पश्चिमी समूह मन्दिर भी रमणीय और दर्शनीय है। इस मन्दिर में शिव विष्णु, चौसठ योगिनियाँ, जगदम्बा, कन्दारिया
__ पहले जो मूलनायक की मूर्ति स्थापित थी, वह कहाँ गई, मन्दिर, विश्वनाथ मोर नन्दी मन्दिर मंगलेश्वर का है। इनमे महादेव का मन्दिर ही सबसे ही प्रधान है, और
यह कुछ ज्ञात नहीं होता। तीसरा मन्दिर पाश्र्वनाथ का उत्तरी समूह मे भी विष्णु के छोटे-बड़े मन्दिर हैं । दक्षिणी
है। यह मन्दिर सब मन्दिरों से विशाल है। इसमें पहले
आदिनाथ की मूर्ति स्थापित थी, उसके गायब हो जाने पूर्वी भाग जैन मन्दिरों के समूह से अलंकृत है। यहाँ महादेव जी की एक विशाल मूर्ति ८ फुट ऊंची और तीन
पर इसमे पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की गई है। गर्भ
गृह की बाहिरी दीवारों पर बनी हुई अप्सराएं मूर्तिकला फुट से अधिक मोटी होगी। वराह अवतार भी प्रतीव
के उत्कृष्ट उदाहरण एवं संगतराशी के फन मे सुन्दर है। उसकी ऊंचाई सम्भवतः तीन हाथ होगी।
अलौकिक लालित्य की परिचायक है। इस मन्दिर मंगलेश्वर मन्दिरभी सुन्दर और उन्नत है। कालीका मंदिर
की दीवालों के अलंकरणों मे वैदिक देवताओं की भी रमणीय है। पर मूर्ति मे मां की ममता का अभाव मणि भीती
अभाव मूर्तियाँ भी उत्कीर्णित हैं। यह मन्दिर अत्यन्त दर्शनीय है दृष्टिगोचर होता है । उसे भयंकरता से प्राच्छादित जो कर
कर और सम्भवतः दसवी शताब्दी का बना हुमा है। इसके दिया है, जिससे उसमें जगदम्बा की कल्पना का वह
पास ही शान्तिनाथ का मन्दिर है। इन सब मन्दिरों के मातृत्व रूप नहीं रहा और न दया, क्षमा को ही कोई
शिखर नागर-शैली के बने हुए है और भी जहाँ तहाँ स्थान प्राप्त है, जो मानव जीवन के खास अग है। यहाँ
बुन्देलखण्ड में मन्दिरो के शिखर नागरशैली के बने हुए के हिन्दू मन्दिर पर जो निरावर ण देवियो चित्र उत्कीर्ण
मिलते हैं। ये मन्दिर अपनी स्थापत्यकला, नूतनता और देखे जाते है उनसे ज्ञात होता है कि उस समय विलास
विचित्रता के कारण प्राकर्षक है। यहाँ की मूर्तिकला, प्रियता का अत्यधिक प्रवाह बह रहा था, इसी से शिल्पियो
अलंकरण और अतुल रूपराशि मानव-कल्पना को पाश्चर्य की कला में भी उसे यथेष्ट प्रश्रय मिला है। खजुराहो की
में डाल देती है। इन अलंकरणों एवं स्थापत्यकला के नन्दी मूर्ति दक्षिण भारत के मन्दिरो मे भकित नन्दी
नमूनों में मन्दिरों का बाह्य और अन्तर्भाव विभूषित है। मूर्तियो से बहुत कुछ साम्य रखती है। यद्यपि दक्षिण की
जहाँ कल्पना में सजीवता, भावना मे विचित्रता तथा मूर्तियाँ आकार-प्रकार में कहीं उससे बड़ी हैं ।
विचारों का चित्रण, इन तीनों का एकत्र संचित समूह ही वर्तमान में यहाँ मन्दिर तो कई हैं किन्तु उनमें सर्व मूर्तिकला के प्रादों का नमूना है। जिननाथ मन्दिर के श्रेष्ठ तीन हिन्दू मन्दिर और तीन ही जैन मन्दिर हैं। बाह्य द्वार पर संवत् १०११ का शिलालेख अंकित है । जिससे पहले इनकी अधिक संख्या रही है। उनमें सबसे प्रथम ज्ञात होता है कि यह मन्दिर चन्देल राजा धंग के राज्यमन्दिर घटाई का है । यह मन्दिर खजुराहो ग्राम की ओर काल से पूर्व बना है। उस समय मुनि वासवचन्द के दक्षिण पूर्व में अवस्थित है। इसके स्तम्भों में घंटा और समय में पाहलवंश के एक व्यक्ति पाहल ने, जो धंग राजा जंजीर के अलंकरण उत्कोणित हैं। इसीसे इसे घण्टाई के द्वारा मान्य था, उसने मन्दिर को एक बाग भेंट किया