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व्यक्तित्व के बनी
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मैं महीने में एक दो बार उनकी रुग्णावस्था के समय रूप में निकालने की निश्चित योजना बना चुके थे, पर जाकर मिल पाता था। दमे मादि की शिकायत और स्वर्गवास हो जाने से वे यह कार्य सम्पन्न नहीं करवा सके। कमजोरी के बावजूद भी वार्तालाप के लिए घंटे दो घंटे जैन बिग्लियोग्राफी का नवीन संस्करण तैयार करने के बैठा ही लेते । उनका वात्सल्य तो इतना था कि भोजन लिए वे बडे बेचैन थे पर उपयुक्त व्यक्ति के प्रभाव में वह किया हुमा रहने पर भी कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ता। कार्य नहीं करवा सके। एक दो भादमी को काम में वे शरीर को नाशवान मानते थे अत: वेदनीय कर्म उन्हे जटाया भी पर योग्य सहकारी के प्रभाव से यह कार्य पूरा पगम्न न कर सका। मात्तं-रौद्र ध्यान को वे पास में ही न कर सके । एशियाटिक सोसायटी से तो पापका सम्पर्क न फटकने देते और शान्तिपूर्वक अपनी प्रात्मा का ही था ही, फिर भी कोई नवीन अन्य प्रकाशित होता तो वे ख्याल रखते थे।
उसे मंगवा लेते। इस प्रकार उनकी बैठक मे पुस्तकों से काकाजी अगरचन्द जी को वे बराबर पत्र देते रहते अलमारियां भरी रहनी थी। अपने यहा तरतीबवार और मेरे द्वारा भी समाचार लिखाते रहते थे। उनके पेटियों में बन्द सामग्री का समुचित उपयोग वे अपनी कलकत्ता पाने पर दो चार बार मुलाकात करना तो अस्वस्थता और योग्य सहकारी के प्रभाव में न कर सके मनिवार्य ही था। वे उनके लेखों व शोधकार्यों से बड़े जिसका पूरा उपयोग करके जैन समाज को उनकी अक्षुण्ण प्रभावित थे । वे उनके लेखों का उपयोगी संग्रह अन्य स्मृति कायम करनी चाहिए।
व्यक्तित्व के धनी
यशपाल जैन
बा० छोटेलाल जी से पहली बार कब मिलना हुमा, परिश्रमशीलता मे उन्हे मागे बढाया । उनमे प्रतिभा थी इसका पाज ठीक-ठीक - ध्यान नहीं है। लेकिन इतना और उनकी पैनी प्राख धर्म, इतिहास, पुरातत्व प्रादि नये. स्मरण है कि सन् १९४० के पास-पास जब पूज्य महात्मा नये क्षेत्र खोजती रहती थी। उत्कल के मुविख्यात पुराभगवानदीन जी, श्रद्धेय मामाजी (श्री जैनेन्द्र कुमार जी) तत्व-केन्द्र उदयगिरि-खण्डगिरि को प्रकाश में लाने का तथा मैं पर्वृषणपर्व के अवसर पर कलकत्ता गये थे तो श्रेय मुख्यत उन्ही को है, दासीन पाश्रम मे वर्णीजी का वहा उनसे मिलने और बातचीत करने का अवसर मिला स्मारक भी उन्ही के प्रयत्न का फल है । इसके अतिरिक्त था। बाद के वर्षों में तो मुझे उनकी गहरी प्रात्मीयता दक्षिण के न जाने कितने पुगतन्व-स्थलों को उन्होंने प्राप्त हुई। इसे मैं निश्चय ही अपना परम सौभाग्य वाणी प्रदान की। इतिहास-परिषद् के वार्षिक अधिवेशन मानता हूँ। क्योंकि बा० छोटेलाल जी उन विरल व्यक्तियों कही भी हो, निकट या दूर, हो नहीं सकता था कि बा. मे से थे, जो आज के युग मे दुर्लभ हैं । वह घनिक थे पर छोटेलालजी उनमें सम्मिलित न हों । वस्तुतः वह केवल धन का उनमे गुमान नहीं था, वह विद्वान थे, लेकिन एक दर्शक के नाते ही वहा नही जाते थे, बल्कि एक विद्वत्ता का दम उनमे नही था। इन्सान तो वह बहत सजग व्यक्ति की मूझ बूझ, अध्ययन शीलता तथा समी. ऊँचे दर्जे के थे। उनके इन तथा अन्य गुणों का स्मरण क्षक की दृष्टि में अपनी महत्वपूर्ण देन भी देते थे। करता हूँ तो मन बड़ा गद्गद् हो जाता है।
बेलगछिया (कलकत्ता) के जैन मन्दिर मे कला पौर दुबला-पतला शरीर, गेग से सदा प्राकान्त पर फिर पुगनन्द का जो अद्भुत समन्वय दिखाई देता है वह उन्हीं भी बा. छोटेलाल जी कर्म में सदैव रत जाने कितने के पुरातत्व-प्रेम तथा परिबम का द्योतक है। मुझे याद लोकोपयोगी कार्य उन्होने उठाये और अपनी लगन तथा है कि जब वह मन्दिर वर्तमान रूप में तैयार हो गया था