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प्रस्तावना
उदाहरण, सोलहवेंमें अलंकार, काव्यके दोषण, और काव्यलक्षण, सत्रहवेंमें प्राकृतादिभाषाएँ, अठारहवेंमें दस प्रकारके रूपक, बीसवेंमें भारतीय, सात्वती, कैशिकी और आरभटी वृत्तियाँ एवं बाईसवेंमें हाव-भाव, हेला, नायक-नायिकादि भेद-निरूपण, विद्यमान हैं । इस बाईसवें अध्यायमें श्रव्यकाव्यसे सम्बन्ध रखनेवाले तथ्योंका निरूपण भी आया है । शेष अध्यायोंमें नाट्याभिनय सम्बन्धी कथन आये हैं। भरतमुनिने काव्यकी परिभाषा निम्नप्रकार उपस्थित की हैमृदुललितपदार्थं गूढशब्दार्थहीनं
बुधजनसुखयोग्यं बुद्धिमन्नृत्तयोग्यम् । बहुरसकृतमार्ग संधिसन्धानयुक्तं
भवति जगति योग्यं नाटकं प्रेक्षकाणाम् ।। उक्त लक्षणका विश्लेषण करनेपर काव्यमें निम्नलिखित सात गुणोंका रहना परमावश्यक है
१. कोमल और मनोरम पदावली । २. गूढ़ शब्द और अर्थका अभाव । ३. सर्वजनग्राह्यता। ४. युक्तियुक्तता। ५. नृत्यमें उपयोग किये जानेकी योग्यता। ६. रसयुक्तता। ७. संधिसन्धानयुक्तता ।
काव्यके उपर्युक्त सात विशेषणोंमें प्रथम, तृतीय विशेषणों द्वारा भरतमुनिने प्रसाद, माधुर्य आदि गुणोंपर प्रकाश डाला है। द्वितीय विशेषणसे दोषमुक्तताका बोध होता है। चतुर्थ विशेषणमें अलंकारादिका ग्रहण है। षष्ठ विशेषण द्वारा काव्यका रसयुक्त होना बताया गया है। पंचम और सप्तम विशेषणों द्वारा दृश्यकाव्यके लिए उपयोगी विषयोंका प्रतिपादन किया गया है। भरतमुनिके उपर्युक्त कथनसे काव्यशास्त्रके अन्तर्गत गुण, रस, अलंकार, शैली, दोषाभावका ग्रहण किया गया है। इन्होंने रसकी परिभाषा एवं रसास्वादनकी प्रक्रियाका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। षष्ठ अध्याय में रसोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है। इनका अभिमत है कि रसके बिना जगत्में कोई भी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हो सकता है । रस-निष्पत्तिके सन्दर्भ में विचार करते हुए लिखा है
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । को वा दृष्टान्त इति चेत्-उच्यते यथा नानाव्यञ्जनौषधिद्रव्यसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः, तथा नानाभावोपगमाद्रसनिष्पत्तिः । यथा
१. नाट्यशास्त्र, वाराणसी, सन् १९२५, १७।१२३ । Jain Education International
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