Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 धारण एवं आराधन करने की योग्यता अभिव्यक्त कर रहे हैं।
...प्रस्तुत संबोधन का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि जिस समय जम्बू स्वामी आचारांग सूत्र का श्रवण कर रहे थे, उस समय भले ही वे बड़ी उम्र के न रहे हों, परन्तु मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय इन चार ज्ञानों से युक्त आर्य सुधर्मा स्वामी द्वारा अपने ज्ञान से अपने शिष्य के भावी जीवन को दीर्घ देखा गया हो और उन्हें दीर्घजीवी जान कर ही इस संबोधन से संबोधित किया हो। उनकी अन्तरात्मा ने इस बात को स्वीकार किया हो कि जम्बू दीर्घजीवी है, लम्बे समय तक जीवित रह कर यह जिन शासन की सेवा करेगा, जन-मानस में अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी प्रवाहित करके विश्व को जन्म-मरण के ताप से बचाएगा। अतः भविष्य के दीर्घ जीवन को देखकर आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी को प्रस्तुत संबोधन से संबोधित किया हो।
- तीसरा कारण यह है कि साहित्य जगत में इस संबोधन को सुकोमल माना जाता है और आदर की दृष्टि से देखा जाता है । यह संबोधन इतना मधुर एवं प्रिय है कि इसके सुनने मात्र से हृदय-कमल की एक-एक कली खिल उठती है, शिष्य के मन में उल्लास और प्रसन्नता की लहरें लहर-लहर कर लहराने लगती हैं। जैनागमों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि एक ऐसा युग भी रहा है कि जिसमें संबोधन के लिए देवानुप्रिय शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, बाल-वृद्ध सभी के लिए इसका प्रयोग होता रहा है। साहित्यिक क्षेत्र में जो सम्मान देवानुप्रिय शब्द को प्राप्त था, वही आदर-सम्मान आयुष्मान् शब्द को प्राप्त था। इस संबोधन पद से भाषा का लालित्य, सौन्दर्य एवं माधुर्य छलक रहा था। बताया गया है कि नियुक्तिकार ने 'आउसं' शब्द के दस भेद किए हैं। उनमें संयम, यश और कीर्तिमय जीवन वाले व्यक्ति को भी इस सम्बोधन से संबोधित करने की परंपरा रही है। इसी कारण आध्यात्मिक एवं लौकिक सभी क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता रहा है। इसलिए वात्सल्यमय मधुर एवं सुकोमल भावना को अभिव्यक्त करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी
1. आयुष्मन्! इत्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनः प्रह्लादयताचार्येणोपदेशों देयः।
__-स्थानांग सूत्र, प्रथम स्थान-वृत्ति। 2. स्थानांगसूत्र (श्री धनपतराय जी द्वारा प्रकाशित) पृष्ठ 5