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सम्पादक
*आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
मृति ग्रन्थ
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• साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. की प्रेरक, उज्ज्वल और शाश्वत जीवन सन्देश देने वाली कृतियों/स्मृतियों का अक्षय स्मृति कोष है यह स्मृति
ग्रंथ ।
● गुरुदेव श्री के लोक मंगल व्यक्तित्व की प्रकाश किरणें विकीर्ण हैं इसके प्रत्येक पृष्ट पर।
• दर्शन, संस्कृति, इतिहास और जनमंगल धर्म के शास्वत स्वर का अभिगुंजन है इसके हर स्पन्दन और हर आलोडन में।
• जैन विद्या के प्रख्यात मनीषी और चिन्तक आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी के कुशल निर्देशन/सम्पादन से प्रस्तुत यह स्मृति ग्रंथ स्मृति ग्रन्थों की उज्ज्वल परम्परा में एक दीप्तिमान नक्षत्र सिद्ध होगा, यह पाठक स्वयं अनुभव करेंगे।
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1998
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय
पुष्कर मुनि
स्पति ग्रन्थ
प्रधान सम्पादकः आचार्य-सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि सम्पादक/संयोजकः
दिठोश मुठिी प्रकाशक : श्रीतारक गुरु जैन ग्रन्थालय श्री पुष्कर गुरु पावन धाम, गुरुपुष्करमार्ग, शास्त्री-सर्किल,उदयपुर (राज.)
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• परामर्शक मंडल :
युवाचार्य डॉ. शिव मुनि जी म.
प्रवर्तक श्री उमेश मुनि जी म. 'अणु'
प्रवर्तक श्री रूपचन्द जी म. 'रजत'
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प्रधान सम्पादक :
आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म.
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प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि जी म. 'कमल' 'महामंत्री श्री सौभाग्य मुनि जी म. 'कुमुद' प्रवर्तक श्री कुन्दन ऋषि जी म.
संप्रेरक :
पं. श्री हीरा मुनि जी म. महासती श्री शीलकुंवर जी म. महासती श्री कुसुमवती जी म. महासती श्री कौशल्या जी म. महासती श्री विमलवती जी म. महासती श्री सत्यप्रभा जी म.
प. मुनि श्री नेमीचन्द जी म. प. श्री गणेश मुनि जी म. डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी म. महासती श्री पुष्पवती जी म. डॉ. कल्याणमल जी लोढा
डॉ. महेन्द्र सागर जी प्रचण्डिया डॉ. लक्ष्मण जी भटनागर श्री पदम जी मेहता
सम्पादक/संयोजक : दिनेश मुनि
प्रबन्ध सम्पादक : 'श्रीचन्द सुराना 'सरस'
प्रकाशक :
श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय श्री पुष्कर गुरु पावन धाम गुरु पुष्कर मार्ग (शास्त्री सर्कल) उदयपुर (राज.) ३१३००१
वीर निर्वाण संवत् २५२० विक्रम संवत् २०५१, आश्विन
मूल्य : मात्र ५००.०० रुपये
ईसवी सन् १९९४, अक्टूबर
मुद्रक : राजेश सुराना
द्वारा दिवाकर प्रकाशन
ए-७, अवागढ़ हाऊस, अन्जना सिनेमा के पास, एम. जी. रोड, आगरा-२८२००२ दूरभाष: (०५६२) ५४३२८, ५१७८९.
सम्पादक मंडल :
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज
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समर्पण
जिनके जीवन में मैंने देखीबालक सी सरलता, सहजता, मृदुलता तरुण सी कर्मठता, कर्त्तव्यशीलता, दृढ़ता वृद्ध सी गंभीरता, परिपक्वता, स्थिरता जप व ध्यान की निर्मल ज्योति से जिनका अन्तःकरण था प्रकाशमान । चारित्र एवं तप की सम्यक्साधना से, जिनका जीवन था दीप्तिमान ।
उन श्रद्धालोक के देवतायोग विभूति, श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी के श्री चरणों में समर्पित है भावों के सदाबहार सुवासित सुमनों की माला, हम सबकी श्रद्धा-आस्था-प्रणति का अक्षय स्मृतिकोष ।
-आचार्य देवेन्द्र मुनि
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स्वकीय
अगर कोई सूरज की सुनहरी किरणों के स्पर्श से पुलकित पृथ्वी के कण-कण को देखकर सूरज को धन्यवाद देने का प्रयास करें, ........
समस्त संसार को आश्रय देने वाली पृथ्वी माता का, अमृतोपम जल वर्षाने वाले मेघ का और अपने रोम-रोम से प्राण वायु उत्सर्जित कर संसार को जीवन देने वाले वृक्षों का अभिवन्दन करें, उसकी विरुदावली गाये, उसे बधाई देवें तो यह एक हास्यापद बाल-प्रयास ही कहा जायेगा न?
इसी प्रकार सत्पुरुषों, सन्त पुरुषों के प्रति यदि हम मानवता के अभ्युदय हेतु किये गये उनके उपकारों और अवदानों के प्रति धन्यवाद, आभार दर्शन, श्रद्धा निवेदन करें तो यह सब उसी प्रकार का बाल-प्रयत्न ही होगा।
जिस प्रकार सूरज, पवन, जल और वृक्षों के कारण ही प्रकति का सन्तुलन और प्राणियों का जीवन है. उसी प्रकार सत्पुरुषों के कारण ही हमारी आध्यात्मिक सृष्टि का सन्तुलन बना हुआ है।
मानव सृष्टि का मूल आधार भावात्मक है और भावात्मक जगत में प्रेम, सद्भाव, नीति, सदाचार आदि तत्त्व ही नियामक होते हैं और इनका सन्देश मिलता है सन्तों, सत्पुरुषों के जीवन से!
सत्पुरुषों ने मानवता को अपने तप-त्यागमय जीवन से जो कुछ सहज भावपूर्वक दिया है वह हमें अत्यन्त कृतज्ञ भावपूर्वक स्वीकार्य है किन्तु सच यह है कि हम उनके प्रति चाहे जितने अभिवंदन करें, उनके उपकारों से ऋण मुक्त नहीं हो सकते!
सूरज, पृथ्वी, मेघ और वृक्षों की भाँति ही महापुरुषों के अनन्त उपकारों से कभी कोई ऋण मुक्त नहीं हो सका, चाहें उनकी स्तुति वन्दना की जायें, काव्य रचे जायें, लाखों श्रद्धांजलियाँ दी जाएँ। हाँ फिर भी मैं कहूँगा कृतज्ञता एक श्रेष्ठ भाव है, और यह मानव का स्वभाव भी है। इसी स्वभाववश हम अपने उपकारीजनों के प्रति वन्दन करते हैं। उनका स्मरण करते हैं और उनके प्रति हृदय से सहज स्फूर्त श्रद्धाअभिव्यक्ति करते हैं। इसमें हमारी मनः संतुष्टि है, आत्म-तोष है।
महापुरुषों की स्मृतियों को मन के चिन्मय कोष में सहेजकर रखना, उनकी वाणी को जीवन को दर्पण में प्रतिबिम्बित करना, उनकी कृतियों को स्मृतियों के स्वर्ण पट्ट पर उत्कीर्ण करना इसी का नाम है-स्मृति ग्रन्थ।
स्मृति ग्रन्थ-एक स्मृति कोष होता है। यह युग पुरुषों के अमर कृतित्व को भावों के ताम्र-कलश में भरकर महाकाल के कठोर प्रवाह से सुरक्षित रखने का श्रद्धासिक्त प्रयत्न है। स्मृति कलश, कालजयी न सही, पर कालातीत अवश्य होता है।
चिरकाल से कृतज्ञ मानव मनीषा द्वारा ऐसे स्तुत्य स्मरणीय प्रयास होते रहे हैं। ग्रन्थों के ताम्र-कलशों में महापुरुषों की स्मृतियों की धरोहर सुरक्षित रखने का प्रयत्न होता रहता है।
जैन परम्परा पर दृष्टिपात करें तो आचारांग सूत्र का नवम अध्ययन और सूत्रकृतांग सूत्र का छठा अध्ययन शायद अपने समय का सबसे पहला स्मृति ग्रन्थ कहला सकता है। जिसमें आर्य सुधर्मा द्वारा श्रमण भगवान महावीर की तपोदीप्त जीवनचर्या का आँखों देखा वर्णन और उनके दिव्यातिदिव्य महतो महीयान् व्यक्तित्व का अत्यन्त भावविभोर करने वाला शब्द चित्र अंकित है। उस वर्णन का एक-एक शब्द आत्मा को स्पन्दित करता है। एक-एक वचन भाव लालित्य से मन को मोह लेता है।
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. आचारांग के उपधान अध्ययन को हम भगवान महावीर का सबसे प्राचीन जीवन ग्रंथ कह सकते हैं तो सूत्रकृतांग के वीर स्तुति अध्ययन को प्रभु महावीर की लोकातीत महिमा का काव्यात्मक, नीति काव्य या स्मृति काव्य भी कह सकते हैं। इन आगमों के स्वाध्याय से आज भी भगवान महावीर के अलौकिक पारदर्शी व्यक्तित्व के साथ साक्षात्कार-सा अनुभव करते हैं। उन शब्द चित्रों के भावात्मक रंगों में भगवान महावीर का मन भावन स्वरूप छविमान प्रतीत होता है।
आगम काल के पश्चात् तो महापुरुषों के जीवन चरित्र के रूप में स्मृति ग्रंथों की एक सुदीर्घ परम्परा ही चलती रही है। देश-काल के परिप्रेक्ष्य में उसके भिन्न-भिन्न रूप और भिन्न-भिन्न नाम रहे हैं।
वर्तमान में अभिनन्दन ग्रंथों व स्मृति ग्रंथों की एक परम्परा चल रही है। गुण-दोष की समीक्षा करने बैठे तो सभी पक्ष सापेक्ष होते हैं। परंपरा, परिपाटी, श्रद्धा गुणात्मक भी होती है और अनुकरणात्मक भी। श्रद्धा प्रबल होती है, वहाँ उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी चुना जाता है, इसलिए किसी भी परिपाटी को, श्रद्धा अभिव्यक्ति की किसी विधा या शैली को एकान्त गुणरूप या दोषपूर्ण कहना अनेकान्त दृष्टि की अवहेलना होगी। फिर भी व्यक्तित्व की गरिमा, उसकी व्यापकता, कृतित्व की विराटता और लोकोपकारिता आदि बिन्दुओं को दृष्टिगत रखना आवश्यक होता है।
प्रस्तुत उपक्रम एक परिपाटी का अनुकरण/अनुसरण नहीं है। न ही एक व्यक्ति की गरिमा का प्रश्न है। किन्तु प्रश्न है, उन हजारों-हजार भावुक हृदयों की श्रद्धाभिव्यंजना का तथा उस महापुरुष की लोकोपकारी सर्जना का जिसका प्रकटीकरण, जिसकी विज्ञापना जिनशासन की प्रभावना में सहायक बनेगी। अध्यात्म और नैतिक शक्ति के अभ्युदय में हाथ बँटायेगी। दर्शन और संस्कृति की सहज, सरल छवि रूपायित होगी...........
स्मृति ग्रंथ के पीछे व्यक्ति विशेष की गरिमा का प्रश्न नहीं, किन्तु व्यक्तित्व की महिमा का लोक व्यापी स्वरूप जुड़ना चाहिए। हमारा प्रयास रहा है, हम परम श्रद्धेय गुरुदेव के उज्ज्वल/अमर कृतित्व तथा लोकोपकारी व्यक्तित्व को जन-जन तक पहुँचाने में सफल हो सके, जो लोकभावना के रूप में युगों युग तक चिरजीवी बना रहेगा।
अनेक विद्वान मुनिवरों, विदुषी श्रमणियों तथा प्रज्ञाप्रतिभा श्रद्धावान श्रावकजनों ने अपनी-अपनी श्रद्धा भावना के अनुरूप इसमें सहयोग की पुष्पांजलियाँ अर्पित कर श्रद्धा के उस सूरज का अभिवादन किया है। साधना के उस समवेत शिखर की परिक्रमा की है। उपकारों के उस महामेघ के प्रति अहोभाव व्यक्त किया है, जिससे उन्हें स्वतः आत्मसंतुष्टि का अनुभव हो रहा है और साथ ही शासन प्रभावना का भी प्रसंग सफल हो रहा है।
मुझे विश्वास है यह ग्रंथ स्मृतियों की ग्रन्थि बाँधने के साथ ही आग्रहों की ग्रन्थि से मुक्त होने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। पाठकों को अधिक आत्मलक्ष्यी, सत्यानुसंधित्सु और सहज सरल जीवन शैली का प्रकाश स्तम्भ बन सकेगा। इसमें पूज्य गुरुदेव का साधनामय तपोमय जीवन का वह चित्र चित्रित है, जिसकी अनुशंसा ही नहीं, अनुसरण करने का भी भाव जाग्रत होगा। यह स्मृति ग्रन्थ युग-युग तक पथ प्रदर्शक बना रहेगा साधना का आलोक स्तंभ बनकर........ इति विश्वसीमि!
-आचार्य देवेन्द्र मुनि
जैन स्थानक लुधियाना (पंजाब).. दिनांक : २०/९/९४
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विविध प्रकार के गम्भीर ग्रन्थों के अवलोकन एवं आलेखन में व्यस्त साहित्य मनीषी आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
के विमोचन/लोकार्पणकर्ता परम गुरुभक्त उदारमना सेठ श्री डॉ. चम्पालाल जी देशरडा
एवं धर्मशीला सौ. प्रभा बाई देशरडा (औरंगाबाद)
उदार हृदय डॉ. चम्पालाल जी देशरडा सभी प्राणी जीवन जीते हैं, परन्तु जीना उन्हीं का सार्थक है जो अपने जीवन में, परोपकार, धर्माचरण करते हुए सभी के लिए सुख और मंगलकारी कर्तव्य करते हों। औरंगाबाद निवासी डॉ. श्री चम्पालाल जी देशरडा एवं सौ. प्रभा देवी का जीवन ऐसा ही सेवाभावी परोपकारी जीवन है।
श्रीयुत चम्पालाल जी के जीवन में जोश और होश दोनों ही हैं। अपने पुरुषार्थ और प्रतिभा के बल पर उन्होंने विपुल लक्ष्मी भी कमाई और उसका जन-जन के कल्याण हेतु सदुपयोग किया। आप में धार्मिक एवं सांस्कृतिक अभिरुचि है। समाज-हित एवं लोकहित की प्रवृत्तियों में उदारता पूर्वक दान देते हैं। अपने स्वार्थ व सुख-भोग में तो लाखों लोग खर्च करते हैं परन्तु धर्म एवं समाज के हित में खर्च करने वाले विरले होते हैं। आप उन्हीं विरले पुरुषों में हैं।
आपके पूज्य पिता श्री फूलचन्द जी साहब तथा मातेश्वरी हरकू बाई के धार्मिक संस्कार आपके जीवन में पल्लवित हुए। आप प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रहे। प्रतिभा की तेजस्विता और दृढ़ अध्यवास के कारण धातुशास्त्र (Metullurgical Engineering) में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
आपके सुपुत्र हैं-श्री शेखर। वह भी पिता की भाँति तेजस्वी प्रतिभाशाली हैं। अभी इन्जीनियरिंग परीक्षा समुत्तीर्ण की है। शेखर जी की धर्मपत्नी सौ. सुनीता देवी तथा सुपुत्र श्री किशोर कुमार हैं।
आप अनेक सेवाभावी सामाजिक संस्थाओं के उच्च पदों पर आसीन हैं। दक्षिण केसरी मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज होम्योपैथिक मेडिकल कालेज, गुरु गणेश नगर, औरंगाबाद के आप सेक्रेटरी हैं। संत-सेवा, साहित्य-सेवा, समाज-सेवा एवं मानव-सेवा के कार्यों में आप बिना किसी विज्ञापन के तन-मन-धन से सेवा एवं सहयोग करते रहते हैं।
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प्रकाशकीय
परम श्रद्धेय युगपुरुष गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का व्यक्तित्व और कृतित्व इतना व्यापक और लोकोपकारी रहा है कि आज उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा जाय, कहा जाय वह सब प्रासंगिक
जैन व जैनेतर हजारों व्यक्तियों पर उनके इतने उपकार हैं कि उनकी स्मृति से ही वे आज भाव-विभोर हो जाते हैं। गुरुदेव के प्रति असीम समर्पण और निष्ठा से जुड़े हजारों श्रद्धालुजन आज भी उनके साहित्य, शिक्षा, उपदेश और उनके द्वारा दिखाये साधना मार्ग पर बढ़कर अपना कल्याण कर रहे हैं।
गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी अपने युग के एक महान साधक थे। ज्ञानयोगी जपयोगी और ध्यानयोगी होने के साथ-साथ वे एक सहज योगी भी थे। उनकी तेजोदीप्त मुखमुद्रा तो स्वयं भी योगी के अभिराम रूप को व्यक्त करती थीं, किन्तु उनकी सहज जीवन शैली, सदा प्रसन्न मुख मुद्रा, कष्ट सहिष्णुता और जीवमात्र के प्रति असीम करुणाशीलता का स्मरण होने पर आज किसका हृदय गद्गद् नहीं हो जाता? ऐसे महापुरुष शताब्दियों में एकाध ही जन्म लेते हैं।
जन भावना का आदर करते हुए हमारी संस्था ने यह निर्णय लिया है कि परम श्रद्धेय गुरुदेव के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करने वाला एक स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित किया जाय। गुरुदेव श्री के स्वर्गवास के समाचार सुनकर लोगों ने स्वतः ही श्रद्धांजलियाँ, संस्मरण आदि इतनी विपुल सामग्री प्रेषित की है, यदि उसे पूर्ण रूप से प्रकाशित किया जाता तो शायद एक नहीं, दो स्मृति ग्रंथ भी निकल जाते। किन्तु ग्रंथपाठकों की पठन क्षमता, समय सीमा आदि सभी का विचार करके सामग्री को काफी संक्षिप्त करना पड़ा और अनेक विद्वानों के उपयोगी सुन्दर लेखों को भी छोड़ना पड़ा।
परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट महामनीषी श्री देवेन्द्र मुनिजी म. ने स्वयं अत्यधिक श्रम करके, अपने व्यस्ततम समय में से समय निकालकर ग्रंथ की सामग्री का अवलोकन किया, सुन्दर सम्पादन किया। परिष्कार एवं चयन में मार्गदर्शन किया। उनके मार्गदर्शन अनुसार गुरुदेव श्री के शिष्य श्री दिनेश मुनिजी ने इसके संयोजन, संकलन, संचयन और साज-सज्जा आदि के लिए काफी श्रम किया और संपादक मंडल को भी लेख आदि लिखने हेतु बराबर प्रेरित करते रहे।
हमें प्रसन्नता है कि परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट, विद्वान संपादक मंडल, प्रबन्ध सम्पादक तथा गुरुभक्त उदारमना श्रद्धालु श्रावकों के सहयोग से हम इस ग्रंथ को रमणीय रूप में प्रस्तुत कर सके। यह हमारे लिये प्रसन्नता की बात है। यद्यपि प्रकाशन में विलम्ब हो गया है, परन्तु फिर भी हमें संतोष है कि यह कार्य हमारी भावना को साकारता प्रदान कर सकेगा और श्रद्धालु जनों को परितोष प्राप्त होगा.......
-श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय
अध्यक्ष - सम्पत्ति लाल वोरा कोषाध्यक्ष - चुन्नीलाल धर्मावत
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सम्पादक
की
फलम से
सुप्रसिद्ध चिन्तक ईमरसन ने एक बार कहा कि कब्र की मिट्टी में मेरा शरीर दफनाया जाएगा पर मेरे गुण नहीं। फूल की तरह शरीर नश्वर है, पर सुगन्ध की तरह सद्गुण चिरकाल तक महकते रहेंगे। व्यक्ति मरता है पर व्यक्तित्व अमर रहता है। व्यक्ति भौतिक तत्व से बना हुआ है पर व्यक्तित्व अभौतिक चैतन्य तत्व से निर्मित है, जो शताब्दियों सहस्राब्दियों तक अपना अस्तित्व बनाये रखता है। आने वाले व्यक्तियों के लिए वह प्रेरणा का पावन स्रोत होता है, प्रकाशस्तम्भ की तरह वह सदा सर्वदा आलोक विकीर्ण करता रहता है।
परम श्रद्धेय गुरुदेवश्री का व्यक्तित्व अनूठा था और कृतित्व अद्भुत था। वे सरलता की साकार मूर्ति थे। विनम्रता के पुंज थे। धर्म और दर्शन के व्याख्याता थे। वे अनुशासक थे, स्वयं अनुशासन में रहकर उन्होंने शिक्षा
और संस्कार प्राप्त किए थे। उनकी चर्या अनुशासित थी और सदा सर्वदा अनुशासित जीवन जीने की पावन प्रेरणा भी प्रदान करते थे। आगम के शब्दों में कहा जाए तो उनका जीवन था "विज्जा विणय संपन्ने' विद्या और विनय से संपन्न थे। विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक, विवेक के साथ वाग्मिता और वाग्मिता के साथ नव नवोन्मेषशालिनि प्रतिभा और प्रतिभा के साथ थी सत्योन्मुखी सहज जिज्ञासा, इन्हीं सद्गुणों से मंडित था उनका जीवन। उनका विचार आचार सभी अहिंसा, अनेकान्त और आत्मीयता से आप्लावित था। सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय ही उनकी प्रवृत्तियां थीं इसलिए उनका जीवन सत्य भी था, शिव भी था, सुदंर भी था।
सद्गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. महान् मेधावी थे। अपनी प्रतापपूर्ण प्रतिभा के द्वारा अनेक गुरु गंभीर ग्रंथियाँ जो उलझी हुई थीं उनको सुलझाकर संघ को सबल बनाया। श्रमण संघ को सुदृढ़ और सुसंगठित करने के लिए वे नींव की ईंट के रूप में रहे। उनकी पावन प्रेरणा से अनेक धार्मिक संस्थाएं स्थापित हुई, पर वे सदा-सदा ही कमल की तरह निर्लिप्त रहे। सब कुछ निर्माण करके भी उसके प्रति अनासक्त रहे। उनका ऊर्ध्वमुखी चिन्तन अन्तश्चेतना को झकझोरता था। वे स्व-पर कल्याण के लिए वजादपि कठोराणि मृदुणि कुसमादपि जैसे कर्मयोग के धारक थे। उनमें अपूर्व आत्मविश्वास था अदम्य साहस था और अद्वितीय कर्मठता थी। वट वृक्ष की तरह उनका व्यक्तित्व विकसित था। वे स्वयं आत्मपथ के पथिक थे और दुराचार, अनाचार, भ्रष्टाचार में लिप्त मानवों को उन्होंने सच्चा पथ-प्रदर्शन प्रदान किया। उनका व्यक्तित्व अलौकिक और अतिमानवीय था।
जब मैं गुरुदेवश्री के दिव्य और भव्य व्यक्तित्व के विविध पहलुओं पर चिन्तन करता हूँ तो मुझे लगता है कि वे गुणों के आगार थे। उनके सद्गुणों का वर्णन करना मेरे लिए असंभव है। असीम गुणों को ससीम शब्दों में अभिव्यक्त किया भी तो नहीं जा सकता। उस दिव्य व्यक्तित्व के गुणों की पहचान भी करना बहुत कठिन है। सेवा की बलवती भव्य भावना, करूणा का बहता हुआ उच्छल निर्झर, साहस का शौर्यपूर्ण सजीव रूप, मन में जो भी संकल्प किया उसे पूर्णता प्रदान करने का वज आघोष, व्यक्ति के हृदय को छूने वाली और प्रतिबोधित करने वाली विमलवाणी, ऐसा कौनसा उदात्त गुण है जो उस अलौकिक व्यक्तित्व में नहीं था? उनमें थी हृदय को हरने वाली मृदुता और मधुरता पत्थर को भी पानी बनाने वाली अमिट संकल्पशीलता। मैंने हजारों लाखों व्यक्तियों को देखा है पर जो सर्वांग विलक्षण व्यक्तित्व गुरुदेव का था, वह मुझे कभी नहीं मिला। आश्चर्य तो इस बात का है कि एक ही व्यक्तित्व में अगणित विलक्षणताएँ भरी हुई थी।
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ के सम्पादन संयोजन में व्यस्त, गुरुदेव के सेवा भावी शिष्य श्री दिनेश मुनि (स्मृति ग्रन्थ के संयोजक/सम्पादक)
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वे युग पुरुष थे। उन्होंने समाज की गली सड़ी परम्पराओं को झकझोरा और उन्हें नई दृष्टि दी और नई सर्जना का स्वरूप बताया। अज्ञान और अन्धविश्वास में भटकते हुए मानवों के अन्तरमानस में ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित किया। मिथ्याधारणाओं को तोड़ा और श्रद्धा को नया आयाम प्रदान किया। विश्वास को ज्ञान पर केन्द्रित किया। नया चिन्तन, नया संकल्प और प्रगति के विकास के अभिनव आधार प्रदान किए। शिक्षा, सेवा और संगठन की त्रिवेणी बहाकर जन-जन को विकास के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दी। शताब्दियों क पश्चात् ऐसे युग पुरुष पैदा होते हैं जिन्होंने आठ दशक तक हमारे बीच में रहकर हमें न केवल अपने जीवन की नई दिशा दी अहिंसक समाज, देश और राष्ट्र को भी नया सन्देश दिया। स्वयं ने जमकर साधना की और दूसरों को साधना करने के लिए उत्प्रेरित किया। स्वयं समाधि में रहे और दूसरों को भी समाधि में रहने के लिए सदा उत्प्रेरित करते रहे। दार्शनिक प्लेटो ने ठीक ही लिखा है, "दार्शनिक की दृष्टि विशाल होती है वह सम्पूर्ण जगत का द्रष्टा ही नहीं होता वह तो जीवन और जगत की उन उलझी समस्याओं को सुलझाता भी है, जिनके कारण जीवन और जगत एक पहेली बने हुए हैं।" दार्शनिक की यह विशेषता मैंने गुरुदेवश्री के जीवन में पाई है।
गुरुदेवश्री भारतीय संत परम्परा के उज्जवल नक्षत्र थे। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की उज्ज्वल समुज्जवल किरणें आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर रही हैं। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व हमें आत्म कल्याण और लोक कल्याण की ओर अग्रसर बनने हेतु प्रेरणा दे रहा है। वे एक ओर कबीर जैसे फक्कड़ थे तो दूसरी ओर सूर जैसे भक्त हृदय के धनी भी थे। वे वयःस्थविर, ज्ञान स्थविर और तपःस्थविर थे। रत्नत्रय की आराधना में वे अडिग, अडोल थे, तो भावना जगत में करुण और कोमल भी थे, असहाय, दुःखी और पीड़ित जनमानस के लिए उनका हृदय माधुर्य से ओतप्रोत था तो अन्याय, अत्याचार आदि के लिए वे बहुत कठोर भी थे। कोमलता और कठोरता का उनके जीवन में मधुर संगम था, वे सच्चे साधक, संवेदनशील कवि और ओजस्वी प्रवक्ता थे। वे इन्द्रियजेता थे और आत्मविजेता थे। उनकी ओजस्वी और तेजस्वी वाणी में सिंह की तरह गंभीर गर्जना थी इसीलिए वे राजस्थानी केसरी कहलाते थे। मां बाली बाई की कुक्षी से उन्होंने स्नेह पाया था और पिता सूरजमल से उन्होंने ऊष्मा प्राप्त की थी, अन्तिम समय तक वे आत्म विजेता बने रहे। उनकी साधना का लक्ष्य आत्म-स्वरूप की प्राप्ति था। साधना की सीपी में पककर उनका साहित्यिक व्यक्तित्व उभरा था। वे आशु कवि थे। उन्होंने जन-मंगल की भावना को और आगम के गंभीर भावों को बड़ी कुशलतापूर्वक अपने साहित्य में बांधा था। वे अपनी साधना में सदा अप्रमत्त रहे जीवन की सांध्य बेला तक भी उनका विवेक दीप्त रहा। अनुभूति की सच्चाई और साधना की तेजस्विता के कारण उनकी वाचा भी सिद्ध हो चुकी थी। जो भी उनके मुँह से निकलता उसमें जादुई प्रभाव था, अमोघ शक्ति थी, और विवेक से संयुक्त वाणी को श्रवण कर किसका हृदय आन्दोलित नहीं हुआ? वे संघ की अमूल्य निधि थे।
प्रस्तुत गंथ में परम श्रद्धेय सदगुरुदेव के व्यक्तित्व और कतित्व को शब्दों की गागर में बांधकर जीवन के सागर को रखने का प्रयास किया है और इस प्रयास में परम श्रद्धेय महामहिम आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का मार्गदर्शन मेरे लिए सदा ही पथ-प्रदर्शक रहा, उन्होंने भक्तिभाव से विभोर होकर ग्रंथ का सुन्दर संपादन किया, ग्रंथ में जो कुछ भी अच्छाई है, वह उन्हीं के कठिन श्रम का सुफल है, तथा संपादक मंडल का भी सहयोग मुझे प्राप्त हुआ और उन श्रद्धालुओं को भी भुला नहीं सकता जिन्होंने गुरुदेवश्री के नाम पर अपनी सहज भक्ति प्रदर्शित की और ग्रंथ के प्रकाशन हेतु अर्थ सहयोग प्रदान किया, विशेषतः मैं स्नेह सौजन्य मूर्ति श्रीचंद जी सुराणा को नहीं भुला सकता जिन्होंने ग्रंथ को सजाने और संवारने में अथक प्रयास किया है। मैं उन सभी का आभारी हूँ जिन-जिन का मुझे सहयोग प्राप्त हुआ साथ ही सद्गुरूणी महासती श्री पुष्पवती जी म. का भी उपकार विस्मृत नहीं हो सकता जिनकी पावन प्रेरणा मेरे लिए सदा ही पथ-प्रदर्शक रही है।
- दिनेश मुनि
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शिवराज वी. पाटिल
अध्यक्ष लोक सभा, भारत SPEAKER LOK SABHA INDIA
सन्देश
दिनांक : ३१ अगस्त, १९९४
मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता है कि परम पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी की पुण्य स्मृति में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सम्मानित करते हुए एक स्मृति ग्रंथ "साधना के शिखर पुरुष-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि" प्रकाशित किया जा रहा है।
परम श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी जीवनपर्यन्त राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं सनातन संस्कृति के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने हेतु प्रयत्नशील रहे। आज हमारे देश को जिस प्रकार की विकट स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, उसमें यह नितान्त आवश्यक है कि हम मुनि जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा ले और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाये।
स्मृति-ग्रंथ अपने उद्देश्य में सफल हो, यही मेरी शुभ कामना है।
(शिवराज वी. पाटिल)
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सन्देश
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हरनाम दास जौहर HARNAM DAS JOHAR SPEAKER, PUNJAB LEGISLATIVE ASSEMBLY, CHANDIGARH.
दिनांक : २९ अगस्त, १९९४
हर्ष का विषय है कि युग पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के श्रद्धार्थ स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है।
मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाने एवं उसका सही मार्ग दर्शन करने हेतु श्री पुष्कर मुनि जैसी महान-विभूतियां कभी कभार इस भूमि पर अवतरित होती हैं जो अपना समस्त जीवन लोक कल्याण में अर्पित करते हुए विश्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाने के लिए जीवन पर्यन्त प्रयत्नशील रहती हैं। इसी भ्रातृवाद एवं प्रेम के सन्देश को फैलाने वाले पुष्कर मुनि जी ने न केवल साठ हजार किलोमीटर की यात्रा की, अपितु मानवता को अपने लेखन कार्यों से भी सही मानव धर्म निभाने की प्रेरणा दी। पुष्कर मुनिजी द्वारा दिखलाएँ गए भ्रातृवाद एवं प्रेम के मार्ग पर चल कर अनेकानेक । विभीषिकाओं के घेरे में घिरा हुआ मानव समाज अपने जीवन को सफल एवं समृद्ध बना सकता है।
मैं स्मृति ग्रन्थ की सफलता की कामना करता हूँ।
(हरनाम दास मौहर)
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सन्देश
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विद्याचरण शुक्ल जल संसाधन एवं संसदीय कार्य मंत्री
PRAMOL BANARASI भारत नई दिल्ली-११०००१ MINISTER OF WATER RESOURCES & PARLIAMENTARY AFFAIRS INDIA NEW DELHI-110001
दिनांक : २१ अप्रैल, १९९४
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि महान संत स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी की स्मृति में एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। स्मृति ग्रंथ में जैन श्रमण उपाध्याय श्रीजी की अध्यात्म साधना, जप-ध्यान-योग साधना, राष्ट्रीय एकता/अखंडता, मानवतावादी चिंतन एवं लोक कल्याणकारी प्रवृत्ति के समावेश से निश्चय ही यह उपयोगी व संग्रहणीय ग्रंथ सिद्ध होगा।
स्मृति ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की मैं कामना करता हूँ।
(विद्याचरण शुक्ल)
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सन्देश
अटल बिहारी वाजपेयी
नेता, प्रतिपक्ष, लोक सभा
दिनांक : २१ अप्रैल, १९९४
प्रिय श्री सरस,
आपका पत्र प्राप्त हुआ, धन्यवाद।
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि की स्मृति में आप एक स्मृति-ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहे हैं।
श्री मुनि जी ने अपना सारा जीवन अध्यात्म साधना, जप-ध्यान योग की अनुभूतियां प्राप्त करने में लगा दिया और उन्होंने समाज को व्यसन-मुक्त, सात्विक, सदाचारी जीवन जीने की प्रेरणा दी।
आशा है आप उनके सद्विचारों एवं उपदेशों को प्रेरणाप्रद रूप में स्मृतिग्रन्थ में स्थान देंगे। श्री मुनिश्री के प्रति अपनी श्रद्धांजलि सहित.
आपका
(अटल बिहारी वाजपेयी)
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कमलनाथ
मंत्री पर्यावरण एवं वन (भारत) ENVIRONMENT & FORESTS (INDIA)
सन्देश
भील
दिनांक : १७ मार्च, १९९४
यह जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि संस्थान द्वारा महान संत स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी की स्मृति में एक महत्वपूर्ण स्मृति-ग्रंथ 'साधना के शिखर पुरुष-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि' का प्रकाशन किया जा रहा है।
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राष्ट्रीय एकता के परम पक्षधर, मानव-कल्याण के शुभ-चिन्तक एवं | सदाचारी जीवन के प्रेरक श्री पुष्कर मुनि जी को याद करना हमारा परम कर्त्तव्य है और स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन इस श्रृंखला की एक कड़ी होगी। आशा है, यह स्मृति-ग्रंथ मुनिजी के विचारों का जीवन्त प्रेरणा-स्रोत सिद्ध होगा।
'स्मृति-ग्रंथ' के सफल प्रकाशन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
(कमलनाथ)
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मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री (दिल्ली)
CHIEF MINISTER (DELHI)
सन्देश
दिनांक : २९ अप्रैल, १९९४
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि आपका संस्थान स्व. उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी की स्मृति में एक ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहा है जिसमें मुनिजी के विशाल साहित्य और अध्यात्म-साधना तथा अनुभूतियों के बारे प्रचुर सामग्री होगी। मुनि जी ने अपने प्रवचनों में लोगों को सदैव सात्विक व सदाचारमय जीवन जीने की प्रेरणा दी। मुझे विश्वास है यह स्मृति ग्रंथ भी उसी प्रकार प्रेरणादायी सिद्ध होगा।
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मैं आपके इन सद्-प्रयासों की सफलता की कामना करता हूँ। मेरी ओर से हार्दिक शुभ-कामनाएँ।
(मदन लाल खुराना)
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सन्देश
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के. पी. सिंह देव
गायकाल सूचना और प्रसारण मंत्री नई दिल्ली ११०००१ MINISTER OF INFORMATION & BROADCASTING NEW DELHI-110001
दिनांक : २७ सितम्बर, १९९४
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी की स्मृति में एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। भारतीय चिन्तन के महामनीषी, स्नेह एवं सद्भावना की अखण्ड ज्योति फैलाने वाले श्री पुष्कर मुनि ने जीवन के उज्ज्वल पक्षों को उभारने के सतत प्रयत्न किए। उनका अद्भुत व्यक्तित्व और कृतित्व से पूरे समाज ने प्रेरणा प्राप्त की और उनके उपकारों को भुलाया नहीं जा सकता।
मैं स्मृति-ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की कामना करता हूँ।
(के. पी. सिंह देव)
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी स्मृति ग्रंथ : संपादक मंडल
मुनि श्री नेमीचन्द जी बहुश्रुत विद्वान सैकड़ों ग्रंथों के सम्पादक लेखक
प्रधान सम्पादक आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी
सम्पादक/संयोजक दिनेश मुनि
श्री गणेश मुनि जी शास्त्री कवि, लेखक ओजस्वीवक्ता शताधिक पुस्तकों के रचयिता
डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी
एम.ए.पी-एच.डी
साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी अनेक पुस्तकों की लेखक, परमविदुषी
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी स्मृति ग्रंथ
सम्पादक मण्डल
प्रो. कल्याणमल लोढा प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय
भूतपूर्व कुलपति जोधपुर विश्वविद्यालय
डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, डी.लिट
जैन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान हिन्दी प्रवाचक श्री वार्ष्णेय कॉलेज अलीगढ़
श्री पदम जी मेहता जोधपुर
सम्पादक जलते दीप (दैनिक) प्रसिद्ध पत्रकार, समाजसेवी
प्रो. लक्ष्मण भटनागर हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान
लेखक एवं सम्पादक
श्रीचन्द सुराना 'सरस' जैन साहित्य के सुविख्यात विद्वान
संपादक एवं लेखक
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. की ८५वीं जन्म-जयन्ती के मंगलमय अवसर पर त्रिदिवसीय विराट् आयोजन : स्मृति-ग्रन्थ का लोकार्पण
56:20.6
महामहिम उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. की ८५वीं । चले गए। चले चलो बढ़े चलो''' उनका यही नारा था। जन्म-जयन्ती का मंगलमय आयोजन नव्य भव्य भावना के साथ विघ्न और बाधाएँ उनकी जीवन सरिता को रोकने में समर्थ नहीं अपूर्व उल्लास के क्षणों में प्रारम्भ हुआ। त्रिदिवसीय कार्यक्रम में थे। उनमें और अधिक प्रवाह आता गया। उनके जीवन, साहित्य सर्वप्रथम १६ अक्टूबर को सामूहिक आयंबिल दिवस का कार्यक्रम 1 और शिक्षा के क्षेत्र में उनकी प्रगति को देखकर हृदय आनन्द से हुआ। उसमें सैकड़ों श्रद्धालुओं ने भाग लिया। प्रवचन सभा में । झूमने लगता है। उन्होंने गहराई से अध्ययन किया और प्रत्येक प्रश्न सर्वप्रथम श्री नरेश मुनि जी म. ने गुरुदेवश्री के प्रति श्रद्धा-सुमन के तलछट तक पहुँचकर उसका समाधान करने का प्रयास किया। समर्पित करते हुए कहा कि-उपाध्यायश्री का जीवन निराला था। वे युवावस्था में क्रांतिकारी रहे और उस युग में जिस युग में जैन और वे पूर्ण रूप से निर्लिप्त थे। श्री कमल मुनि जी "कमलेश' ने श्रमण परीक्षा नहीं देते थे, पर आपने परीक्षा देकर और साहित्यिक कहा कि उपाध्यायश्री का जीवन शतदल कमल की तरह खिला निर्माण कर अपनी प्रतिभा को एक नई दिशा दी। हुआ था जिसमें चारित्र की मधुर महक थी। महासती श्री सरिता
उनकी जप-साधना का प्रारम्भ हुआ नेत्र ज्योति के चले जाने जी म. ने संत जीवन की महत्ता बताते हुए उपाध्यायश्री के चरणों
से, जब जप के द्वारा पुनः नेत्र-ज्योति प्राप्त हुई तो आपकी अपूर्व में श्रद्धा-सुमन समर्पित किए।
निष्ठा जप-साधना के प्रति तीव्र हो गई और नवकार महामन्त्र की महासती डॉ. श्री दिव्यप्रभा जी म. ने गुरु के गौरव का साधना इतनी तल्लीनता और एकाग्रता के साथ की कि उस साधना उत्कीर्तन करते हुए कहा कि-उपाध्यायश्री एक ऐसे सद्गुरु थे में एक अलौकिक सिद्धि प्राप्त हुई। जिसने भी जप-साधना के बाद जिन्होंने अपने जीवन को साधना से निखारा और साथ में उन्होंने । मंगल पाठ सुना वह व्यक्ति आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर समाज को एक ऐसा शिष्य-रल दिया जो आज श्रमण-संघ के
जीवन का आनन्द लेता था। आचार्य पद पर आसीन है। गुरु की इस कृति को देखकर हम
संघ के मंत्री और अन्य वक्ताओं ने भी गुरुदेवश्री के प्रति सहज ही गुरु के गौरवपूर्ण व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते, मैंने अनेकों बार उनके दर्शन किए, उनकी वाणी में ओज
अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित किए। था, तेज था और वे सिद्ध जपयोगी थे। उनमें एक ओर जहाँ गुरु मध्याह्न में उपाध्यायश्री जी के जीवन-दर्शन को लेकर का तेज था तो दूसरी ओर माँ जैसा वात्सल्य भी था।
परीक्षाओं का आयोजन हुआ जिसमें लगभग १६१ श्रद्धालुओं ने पं. श्री रवीन्द्र मुनि जी म. ने कहा-उपाध्यायश्री के व्यक्तित्व
भाग लिया और सभी परीक्षार्थियों को चाँदी के सिक्के और धार्मिक को शब्दों की संकीर्ण सीमा में बाँधना बहुत ही कठिन है। जीवन
साहित्य आदि समर्पित किया गया। की सांध्य वेला में जब सूर्य अस्ताचल की ओर जाता है तो उसका दिनांक १७ अक्टूबर को श्रद्धेय उपाध्यायश्री के जन्म-दिन के प्रकाश भी मन्द हो जाता है किन्तु इस अध्यात्म सूर्य का सांध्य वेला उपलक्ष में जैन स्थानक लुधियाना में आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी के में भी और अधिक प्रखर तेज था, उन्होंने जीवन भर जो साधना सान्निध्य में एक विराट् सामूहिक जप-साधना का मंगलमय आयोजन की उस साधना की फलश्रुति के रूप में उनका महान संथारा था। किया गया जिसमें लगभग तीन हजार से अधिक व्यक्तियों ने भाग वस्तुतः वे निस्पृह योगी थे।
लिया। यह सामूहिक जप-साधना अपने आप में अनूठी और आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने अपने संक्षिप्त प्रवचन में आकर्षक थी। कहा-गुरुदेवश्री साधना के शिखर-पुरुष थे। वैडूर्य मणि की तरह जप-साधना के पश्चात् आचार्यश्री ने जप के महत्व पर प्रकाश उनका जीवन प्रकाशमान था। उनके जीवन के हर पहलू पर हम डालते हुए कहा कि ज + प ये दो अक्षर हैं। ज का अर्थ है जन्म दृष्टि डालें वहीं पर एक लुभावना आकर्षण है। साधना के पथ पर और प का अर्थ है पाप। जन्म और मरण से और पापों से जो उनके कदम मुस्तैदी से बढ़ते चले गए, बिना रुके वे निरन्तर बढ़ते मुक्ति दिलाए वह जप है। जप में व्यक्ति की एकाग्रता बढ़ जाती है
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और सामूहिक रूप से जब जप होता है और उसका जो प्रकम्पन होता है उससे वहाँ का वातावरण एकदम विशुद्ध हो जाता है जप की शक्ति अनूठी है। जप-सिद्धि के लिए किया जाता है प्रसिद्धि के लिए नहीं । आज जो नवकार महामन्त्र का जप हुआ है उस विषय में एक प्राचीन आचार्य ने तो लिखा है कि नवकार महामंत्र का जाप आठ करोड़, आठ लाख, आठ हजार आठ सौ आठ बार यदि कोई व्यक्ति एकाग्र मन से कर ले तो वह तीर्थंकर नामकर्म का अनुबंधन कर लेता है। उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। या तो वह उसी भव में मोक्ष में जाता है, नहीं तो तीसरे भव में मोक्ष जाएगा ही । आठ भव से वह अधिक संसार में नहीं रहता? कितनी महान शक्ति है जप में श्रद्धेय उपाध्याय श्री सिद्ध जपयोगी थे। वे नियमित समय पर जप की साधना करते थे और जप के प्रभाव से उनके नेत्रों में एक ऐसी दिव्य दृष्टि आ गई थी कि उस दिव्य दृष्टि से सामने वाले व्यक्ति के अन्तर हृदय की बात भी जान लेते थे और उसके तन और मन सम्बन्धी रोगों को भी समझ जाते थे और उसका निराकरण कर देते थे।
दिनांक १८ अक्टूबर को उपाध्यायश्री की जयन्ती के उपलक्ष में एक विराट् आयोजन दरेशी स्थित एस. एन. जैन विद्यालय के विराट् प्रांगण में नव्य भव्य आयोजन हुआ। इस पावन प्रसंग पर मद्रास, बैंगलोर, सिकन्दराबाद, पूना, अहमदनगर, औरंगाबाद, बम्बई, नासिक, धूलिया, सूरत, अहमदाबाद, उदयपुर, जोधपुर, भीलवाड़ा, जयपुर, अजमेर, मदनगंज, किशनगढ़, नाथद्वारा, सादड़ी, वसई, चण्डीगढ़, अम्बाला, पानीपत, मेरठ, दिल्ली, आगरा आदि विविध अंचलों से हजारों की संख्या में श्रद्धालुगण बसों, कारों द्वारा यहाँ पर पहुँचे। राजस्थान के शिक्षा मन्त्री श्री गुलाबचंद जी कटारिया और राजस्थान विधान सभा के स्पीकर श्री शांतिलाल जी चपलोत, पंजाब सरकार के जन स्वास्थ्य मंत्री श्री सुरेन्द्र जी कपूर, लुधियाना नगर परिषद के मेयर श्री सत्यप्रकाश जी चौधरी, टाईम्स ऑफ इण्डिया ग्रुप के सहसम्पादक श्री रमेश साहू, | विधायिका श्रीमती तारा भंडारी (राजस्थान), अ. भा. जैन कान्फ्रेंस के अध्यक्ष श्री बंकटलाल जी कोठारी, साहित्यकार श्री श्रीचन्द जी सुराणा, अ. भा. जैन कान्फ्रेंस युवा अध्यक्ष बाबूसेठ बोरा, उपाध्यक्ष कान्फ्रेंस जे. डी. जैन, उपाध्यक्ष आर. डी. जैन, उपाध्यक्ष श्री नृपराज जैन, महिला शाखा अध्यक्षा श्रीमती विद्युत जैन, दिवाकर संगठन समिति के अध्यक्ष श्री लक्ष्मीचन्द जी तालेड़ा, भूतपूर्व विधायक श्री कपूरचन्द जी जैन लुधियाना आदि अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने इस समारोह में भाग लिया।
श्री पुष्कर गुरु महाविद्यालय के मंत्री श्री कालूलाल जी ढालावत, स्वाध्याय-संघ ( सायरा) के अध्यक्ष श्री खुमानसिंह जी बागरेचा, श्री पुष्कर गुरु पावन धाम के संयोजक रोशनलाल जी मेहता एडवोकेट स्वाध्याय संघ सायरा के मंत्री श्री नाथूलाल जी माद्रेचा आदि ने अपने भाव सुमन समर्पित करते हुए कहा किउपाध्यायश्री सच्चे ज्ञान-योगी थे और उन्होंने ज्ञान की अखण्ड ज्योति जगाने के लिए हमें उठप्रेरित किया। शिक्षक नेता भंवर सेठ
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ने कहा कि मेवाड़ की धरती में एक विशिष्ट विशेषता रही है कि उसने बड़े-बड़े शिक्षाविदों को पैदा किया है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. ने श्रमण-संघ में शिक्षा-सुरसरिता प्रवाहित की ।
श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञान मुनि जी म. ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि में उपाध्यायश्री के प्रति अपनी अनन्त आस्था व्यक्त की। श्री कमल मुनि जी म. "कमलेश” ने कहा कि उपाध्याय श्री पर समस्त संघ को गौरव है उनका गरिमामय जीवन हमारे लिये सदा ही पथ-प्रदर्शक रहा है। श्री क्रांति मुनि जी म. ने एक श्लोक के माध्यम से अपनी श्रद्धार्चना उपाध्याय श्री के प्रति व्यक्त की।
डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी म. ने उपाध्यायश्री को सच्चे कलाकार के रूप में उपस्थित किया जिन्होंने अनेक व्यक्तियों के जीवन को निखारा है। परम विदुषी डॉ. श्री दिव्यप्रभा जी म. ने उपाध्यायश्री के अद्भुत व्यक्तित्व का चिन्तन करते हुए कहा कि वे सच्चे सद्गुरु थे। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रकाशपुंज की तरह था। डॉ. सरिता जी म. ने उपाध्यायश्री को श्रमण संघ के ज्योति पुंज के रूप में उपस्थित किया। पं. श्री रवीन्द्र मुनि जी म. ने उपाध्यायश्री के तेजस्वी जीवन का शब्द चित्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि वे ऐसे महापुरुष थे जिनका जीवन दीपक की तरह था, स्वयं प्रकाशित और दूसरों को प्रकाशित करने वाले थे। महासती श्री सीता जी म., महासती महिन्द्रा जी, महासती सावित्री जी ने भी अपने भाव सुमन उस महागुरु के चरणों में समर्पित किये।
चातुर्मास समिति के अध्यक्ष श्री हीरालाल जी जैन ने श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी के विराट जीवन की महिमा और गरिमा का उत्कीर्तन करते हुए कहा कि उनका जीवन कितना महान् था उस जीवन चित्र को शब्दों की फ्रेम में मेंढ़ना बहुत ही कठिन है। उन्होंने स्वर्गीय आचार्य-सम्राट् श्री आत्माराम जी म. का स्मृति दिवस - दिनांक ३० जनवरी को "अहिंसा दिवस" घोषित करने के लिए पंजाब शासन से प्रार्थना की और गरीब झोंपड़ी पट्टी में रहने वालों के सहयोग हेतु दो लाख रुपये का चैक देवकी देवी जैन कॉलेज की ओर से श्री सुरेन्द्र कपूर को भेंट किया। उन्होंने अपनी ओर से पचास हजार रु. की राशि डालकर आचार्य आत्माराम जैन सेवा संघ को ढाई लाख रुपया समर्पित किये। वह सेवा संघ अपने हाथों से गरीबों की सेवा में लगायेंगे।
श्री कपूर ने कहा कि पंजाब की धरती पर बूचड़खाना नहीं खुलेगा और जो बूचड़खाना इस समय हमारे मुख्यमंत्री श्री बेअन्तसिंह जी ने बन्द किया है वह सदा के लिए बन्द कराने का हमारा प्रयास चालू है और हम पुरजोर शब्दों में कह सकते हैं कि अब कोई बूचड़खाना यहाँ की धरती पर नहीं खुलेगा और ३० जनवरी को "अहिंसा दिवस" की घोषणा उन्होंने की।
शिक्षा मंत्री श्री गुलाबचन्दजी कटारिया (राजस्थान सरकार ) ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए कहा कि मुझे उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य अनेकों बार प्राप्त हुआ, वे एक
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रंथ समर्पण समारोह की झाँकिया
पाकर मनिहाराज
सम्राट 100
आचार्यश्री द्वारा गुरुदेव के प्रति श्रद्धार्पण एवं उद्बोधन सन्देश
पर सन्ना श्री पुष्कर मनिजी
भामा आचार्य समाट 1008 श्री देवेन्द्र
मंच पर विराजित मुनि मंडल। श्रद्धासुमन समर्पित कर रहे हैं सलाहकार श्री ज्ञानमुनिजी
आशीर्वाद देते हुए आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि जी
मंच पर विराजित श्रमणी मंडल। महासती डॉ. सरिताजी, महासती डॉ. दिव्यप्रभा जी आदि
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स्मृति ग्रन्थ का लोकार्पण
राजीबाजजन
कुन्ती
१. श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय के मंत्री श्री रोशनलाल जी मेहता, डॉ. चम्पालाल जी देशरडा को लोकार्पण हेतु ग्रंथ भेंट कर रहे हैं। पास खड़े हैं समाजरत्न श्री हीरालाल जी जैन।
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२. डॉ. देशरडाजी ने ग्रंथ की प्रथम प्रति आचार्यश्री के कर-कमलों में समर्पित की। साथ दे रहे हैं श्री शान्तिलाल जी चपलोत (अध्यक्ष रा. वि.) श्रीचन्द सुराना (प्रबंध सम्पादक) श्री गुलाबचन्द जी कटारिया (शिक्षा मंत्री राजस्थान) श्री रोशनलाल जी मेहता एडवोकेट (मंत्री ता. गु.ग्र.) श्री सुवालाल जी छलाणी (औरंगाबाद) श्री फकीरचन्दजी जैन, प्रधान एस. एस. जैन सभा, लुधियाना तथा गुरुभक्त श्री रमेश भाई शाह, दिल्ली
३. ग्रंथ का लोकार्पण कर प्रथम प्रति का विमोचन करते हुए डॉ. श्री चम्पालाल जी देशरड़ा
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विश्व सन्त थापाकरमानजामहाराज
का85वां जन्मजयन्ती साधनाकेशिखरपुरुष उपाध्याय पूज्य गुरुदेव यासर शान्ति आचार्य सम्राट 1008 श्री देवे ट्रमनिजी म.
समारोह
समारोह का एक विहंगम दृश्य ऊपर विराजित मुनि मंडल तथा सामने विशाल जन समूह
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श्री दिनेश मुनि जी आदि । विमोचन के बाद ग्रंथ का अवलोकन करते हुए आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि। सम्पादक
सुरेन्द्र मुनि जी आदि। ग्रंथ का अवलोकन करते हुए डॉ. राजेन्द्र मुनि जी, श्री दिनेश मुनि जी तथा श्री
आचार्य श्री का आशीर्वाद लेते हुए शिक्षामंत्री (राजस्थान) श्री गुलाबचन्द जी कटारिया तथा विधान सभा अध्यक्ष (राज.) श्री शान्तिलाल जी चपलोत ।
प्रबंध सम्पादक श्रीचन्द सुराना को स्मृति चिन्ह से सम्मानित करते हुए श्री राजकुमार जी जैन, पास में खड़े हैं भ्राता फूलचन्दजीजैन ।
श्री पुष्कर
शान्तिकय
आचार्य
LIGHT TEAT HOUSE
पुष्कर
विश्व सन्त
के शिखर पुरुष
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ਮੇਰੀ
श्री दे
सम्राट
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ऐसे पारस-पुरुष थे जिनके सान्निध्य को पाकर लोहा भी सोना बन । समर्पित की। इस विमोचन में सहयोगी बने-गुरुभक्त दानवीर श्रावक जाता था। उनके अन्दर साधना का तेज था और जो भी उनके । श्री सुवालाल जी छल्लाणी (औरंगाबाद), प्रबंध सम्पादक श्रीचन्द जी संपर्क में आ जाता उसे वे साधना की पावन प्रेरणा देते थे, मेरे । सुराना, श्री रोशनलाल जी मेहता, श्री रमेशभाई शाह (दिल्ली) जीवन पर उनका असीम उपकार रहा। श्री शान्तिलाल जी चपलोत आदि। (स्पीकर राजस्थान विधान सभा) ने कहा कि उपाध्यायश्री का
Pra
डॉ. चम्पालाल जी देशरडा को, लुधियाना जैन समाज की ओर पवित्र चरित्र हम सभी के लिये प्रेरणा-स्रोत रहा है, उनका मंगलमय
से शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। श्री तारक गुरु जैन आशीर्वाद हमारे जीवन के लिये वरदान रूप रहा। उनके आशीर्वाद
| ग्रंथालय की ओर से भी शाल ओढ़ाकर श्री देशरडा जी का सम्मान को पाकर हम लोग इस पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं, मेरा दृढ़ विश्वास
किया गया। है कि उनके नाम और आशीर्वाद से जीवन में सदा ही सफलता मिलती है। उन्होंने शासन को भी इस बात की प्रेरणा दी कि वे
आचार्य-सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने अपने अभिभाषण में भारतीय संस्कृति के अनुरूप अहिंसा की प्रतिष्ठा करें, माँस निर्यात
कहा-परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री का जीवन गंगा की तरह निर्मल था को बन्द करें। हमारा राष्ट्र राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रबल
और शरद ऋतु के चन्द्र की तरह सौम्य था। वे अप्रमत्त योगी थे, पुरुषार्थ से स्वतन्त्र हुआ है, हमें अहिंसा के क्षेत्र में राष्ट्रपिता की
प्रतिपल प्रतिक्षण जागरूक रहकर स्वयं साधना के पथ पर बढ़े और याद को सदा स्मरण रखकर कार्य करना चाहिए। उन्होंने पंजाब के
हमें भी उस पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। उन्होंने साहित्य मुख्यमंत्री सरदार बेअन्तसिंह जी को भी धन्यवाद दिया कि उन्होंने
के क्षेत्र में विविध विधाओं में लिखा। आज उस महागुरु के प्रति पंजाब की धरती पर बूचड़खाना बन्द करवाने की घोषणा कर
अनंत श्रद्धा व्यक्त करने हेतु अभी आपके सामने डॉ. चंपालाल जी अहिंसा प्रेमियों के दिल को जीता है।
देसरडा (औरंगाबाद वालों) ने “साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय
श्री पुष्कर मुनि जी म. स्मृति-ग्रंथ” का लोकार्पण किया है। यह ग्रंथ कान्फ्रेंस के अध्यक्ष श्री बंकटलाल जी कोठारी ने कहा कि
उपाध्यायश्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालता है। साथ उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन स्फटिक मणि की तरह
ही इतिहास के अज्ञात पृष्ठों को जन-जन तक पहुंचाता है। गुरु पारदर्शी था। वे सरलता की साक्षात् मूर्ति थे।
गम्भीर प्रश्नों को उद्घाटित करने वाले भी अनेक विषय इसमें हैं। नवभारत टाइम्स समूह के रमेश शाहू ने भारत की संस्कृति की। इस ग्रंथ के संयोजक/सम्पादक श्री दिनेश मुनि जी ने मेरे निर्देशन में सराहना करते हुए उसमें जैन धर्म की मौलिक विशेषताओं पर बहुत ही परिश्रम और सूझ-बूझ के साथ उत्कृष्ट कार्य किया है। प्रकाश डालते हुए अहिंसा की ओर सभी का ध्यान केन्द्रित किया।
गुरुभक्त डॉ. चम्पालाल जी देशरडा की सेवा भावना अनूठी है। वे
बोलते नहीं, करते हैं। और जो कहते हैं उससे अधिक ही करते हैं। उत्तरी भारत महासभा के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र पाल जी जैन ने
अनासक्त भाव रखने वाले हैं। दान का यह आदर्श गुण है इनमें। कहा कि मैंने उपाध्यायश्री के दर्शन उदयपुर में चादर समारोह के अवसर पर किए और प्रथम दर्शन में ही मैं श्रद्धा से अभिभूत आचार्यश्री ने वर्तमान समस्याओं की ओर इंगित करते हुए हो गया। आज उपाध्यायश्री के रूप में उनके शिष्य श्री देवेन्द्र कहा कि जैन समाज पर लक्ष्मी और सरस्वती की असीम कृपा रही मुनि जी म. हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर उत्तर भारत में है, पर एकतादेवी की कृपा कम होने से आज समूचे समाज में पधारे हैं और आत्म-दीक्षा शताब्दी के अवसर पर जो यहाँ पर सम्मेद शिखर को लेकर संघर्ष की स्थिति बन रही है। अनेकान्त के अद्भुत कार्यक्रम हुए हैं उसका श्रेय आचार्यश्री को ही है। इस उपासकों का दायित्व है कि वे परस्पर बैठकर सद्भावपूर्वक निर्णय अवसर पर अन्य अनेक वक्ताओं ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलियाँ समर्पित की।
इस अवसर पर अनेक श्रद्धालुओं ने अपने श्रद्धा-सुमन श्रद्धेय तपश्चात् आज का मुख्य आकर्षण था “साधना के शिखर उपाध्यायश्री के श्री-चरणों में समर्पित किए। पुरुष-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रंथ का लोकार्पण।" यह ग्रंथ । इस अवसर पर आचार्य-सम्राट् ने तपस्वी-रत्न श्री सहज मुनि स्मृति-ग्रंथों की परम्परा में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। जिसमें जी म. और पं. श्री रूपेन्द्र मुनि जी म. को श्रमण-संघीय सलाहकार उपाध्यायश्री के सागरसम गंभीर और गगन सम विराट् व्यक्तित्व । पद से और पं. श्री मूल मुनि जी म. को उपाध्याय पद से समलंकृत का समग्र आकलन और उनके जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों को चित्रों / किया। में जीवंत किया गया है। इस महान ग्रंथ का औरंगाबाद निवासी गुरुभक्त, दानवीर डॉ. श्री चम्पालाल जी देशरडा ने लोकार्पण कर
इस प्रकार उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ लोकार्पण का प्रथम प्रति आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के चरणों में
शानदार ऐतिहासिक कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न हुआ।
लेवें।
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अनुक्रमणिका
खण्ड-१
श्रद्धा का लहराता समन्दर (गद्य)
(पृ. १ से १६२ तक)
क्या
?
किनका?
कहाँ?
3uru 99.
200000
१. मेरे श्रद्धा लोक के देवता २. अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के धनी ३. उपाध्याय पुष्कर मुनि जी ४. पुष्कर पराग ५. सौरभ का समुद्र ६. हे श्रमण श्रेष्ठ ! हे ज्ञानधाम ! ७. साधना के शिखर पुरुष ८. श्रद्धा पुष्पाञ्जलिः ९. युग पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि १०. यथा नाम तथा गुणाः ११. प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी १२. सरलता ही साधुता का भूषण है १३. गरिमामय सन्त थे १४. हम सब उनके ऋणी रहेंगे १५. एक अपूरणीय क्षति १६. जितने महान ! उतने ही विनम्र ! १७. आपका आशीर्वाद मेरे साथ ! १८. जन-जन के पूज्य उपाध्यायश्री १९. अतीत के संस्मरण २०. बहुआयामी व्यक्तित्व २१. श्रद्धा-सुमन २२. कल्पवृक्ष मुनिराज थे २३. बहुगुणी : बहुश्रुत उपाध्यायश्री २४. रोशनी बाकी है
विराट् व्यक्तित्व के धनी २६. उपाध्यायश्री का जीवन २७. समत्वभाव के साधक २८. संत शिरोमणि उपाध्यायश्री २९. उपाध्यायश्री प्रबल पुण्यवान थे ३०. गुरु की श्रद्धा मेरी श्रद्धा
आचार्य देवेन्द्र मुनि जी स्व. आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी महाराज स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. स्व. प्रवर्तक श्रमण सूर्य श्री मरुधर केसरी मिश्रीमल जी म. स्व. उपाध्याय श्री कस्तूरचन्द जी महाराज स्व. प्रर्वत्तक श्री शान्तिस्वरूप जी महाराज आचार्य श्री विजय यशोदेव सूरीश्वर आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वर आचार्य श्री विजय नित्यानन्द सूरि जी म. आचार्य श्री चन्दन मुनि जी म. युवाचार्य डॉ. शिव मुनि जी म. स्व. उपाध्याय श्री केवल मुनि जी उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' उपाध्याय डॉ. विशाल मुनि जी प्रवर्तक उमेश मुनि 'अणु' । उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. प्रवर्तक श्री रमेश मुनि जी म. प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल' प्रवर्तक श्री कुन्दन ऋषि जी श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद' ध्यानयोगी पं. श्री हेमचन्द्र जी म. श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञान मुनि जी म. श्रमण संघीय सलाहकार श्री रतन मुनि जी श्री ज्ञान मुनि जी आशीष मुनि शास्त्री उपप्रवर्तक प्रवचन केसरी श्री अमर मुनि जी उपप्रवर्तक श्री मेघराज जी म. उपप्रवर्तक श्रमण विनयकुमार 'भीम' तपस्वी मोहन मुनि जी श्री गणेश मुनि शास्त्री
१४
२५. विराद
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क्या ?
संघ के भीष्म पितामह
३१.
३२. ध्यान-जप साधक
३३. गौरवमय संत जीवन
३४. महकता गुण गुलदस्ता
३५. महान् कलाकार पूज्य गुरुदेवश्री
३६. महान संत का महाप्रयाण
३७. श्रद्धा के दो सुमन
३८. जैन पुष्कर तीर्थ
३९. एक महान् क्षति है
४०. अद्भुत योगी उपाध्यायश्री
४१. दिव्य साधक-उपाध्याय प्रवर
४२. महकता पुष्प
४३. मेरे आराध्य देव थे !
४४. सद्गुरु की महिमा अनन्त
४५. श्रद्धा भरा प्रणाम
४६. शत-शत नमन
४७. पुष्करत्व के प्रतीक उपाध्याय श्री जी
४८. एक मधुर संस्मृति
४९. एक आकर्षक व्यक्तित्व
५०. अध्यात्मसिद्ध योगी उपाध्यायश्री
५१. अनन्त आस्था के केन्द्र
५२. मेरा भी सविनय वन्दन ५३. कितने महान् थे गुरुदेव ! ५४. श्रद्धा की पुष्प पंखुड़ियाँ ५५. आध्यात्मिक जगत् के सूर्य ५६. युग पुरुष को शत शत नमन !
५७. अद्भुत व्यक्तित्व और कृतित्व ५८. मेरी हार्दिक श्रद्धाजलि
५९. अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी
६०. श्रद्धा के इन कणों में
६१. ज्योतिर्मय महादीप
६२. श्रद्धार्चना
६२. आस्था की अकम्प लौ उपाध्यायश्री
६४. आराध्य गुरुदेवश्री
६५. श्रमण संघ का सितारा
६६. संयम प्रदाता सद्गुरुवर्य
६७. गुणों के पुँज गुरुदेव
६८. प्रेरणा के पावन स्रोत
६९. तप-त्याग और संयम के सुमेरु ७०. सरलता की साकार मूर्ति सद्गुरुदेव
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किनका ?
कमल मुनि " कमलेश”
सुरेश मुनि शास्त्री
शास्त्री गौतम मुनि 'प्रथम'
रतन मुनि 'रत्नाकर'
पं. श्री हीरा मुनि जी म. 'हिमकर'
तपस्वी श्री सुदर्शन मुनि जी म. की आज्ञा से राजेश मुनि जी
मदन मुनि 'पथिक'
श्री रमणीक मुनि “शास्त्री "
श्री सुभद्र मुनि जी सिद्धान्ताचार्य राममुनि 'निर्भय'
डॉ. सुव्रत मुनि शास्त्री
मुनि अमरेन्द्र कुमार जी
श्री भगवती मुनि 'निर्मल'
श्री दिनेश मुनि जी
श्री गीतेश मुनि 'गीत'
स्व. श्री नेम मुनि जी
अमृत ऋषि 'साहित्यर
लोकेश ऋषि जी
अरुण मुनि जी
श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ'
तपस्वी श्री प्रवीण मुनि जी शास्त्री 'प्रभाकर'
सिद्धार्थ मुनि जी
मुनि शालिभद्र जी म.
सुरेन्द्र मुनि जी
शासन प्रभाविका महासती श्री शीलकुंवर जी म. सा.
शासन प्रभाविका पूज्या श्री यशकुंवर जी म. सा.
साध्वी रत्न श्री पुष्पवती जी म. अध्यात्मयोगिनी साध्वी उमरावकुंवर जी म. 'अर्चना' उपप्रवर्तिनी महासती श्री स्वर्णकान्ता जी म. उपप्रवर्तिनी श्री आज्ञावती जी म.
उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री मगनश्री जी म. महासती श्री प्रकाशकुंवर जी म. साध्वी श्री चारित्र प्रभा जी
महासती श्री दयाकुंवर जी म. सा.
जैन सिद्धान्ताचार्य साध्वी श्री सुशील जी म.
साध्वी श्री चंदनबाला जी म. 'सिद्धांताचार्य'
साध्वी श्री चेलना जी म.
साध्वी श्री साधनाकुंवर जी म.
साध्वी श्री मंगल ज्योति जी म.
साध्वी श्री देवेन्द्र प्रभा जी म.
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४६
४८
४८
४९
४९
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५०
५१
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२२
क्या ?
७१. मेरे आराध्य गुरुदेव
७२. सिद्ध जपयोगी उपाध्याय पूज्य गुरुदेव
७३. तप और त्याग के साकार रूप
७४. संयम के सुमेरु
७५. आध्यात्मिक पुरुष
७६. एक ज्योतिमर्य व्यक्तित्व के धनी
७७. धर्म के जीते जागते रूप ७८. जीवन-निर्माता सद्गुरुदेव ७९. इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व के धनी
८०. विद्या और विनय से संपन्न
८१. सच्चे युग पुरुष
८२. शीर्षस्थ सन्त रत्न
८३. कोहिनूर हीरे की तरह चमकता व्यक्तित्व
८४. ध्यानयोगी
८५. सद्गुणों का महकता मधुवन ८६. वे दिव्यात्मा
८७. अप्रतिम सूर्य का महाप्रयाण
८८. महान् आत्मबली साधक
८९. उपाध्यायश्री को मेरा नमन
९०. परमाराध्य उपाध्यायश्री ९१. नमो उवज्झायाणं
९२. श्रमण संस्कृति के महान् सन्त ९३. धर्म ध्येय के विराट् धनी
९४. महापुरुषों की विराट् गौरव गाथा
९५. मेरी मानस धरती पर अंकित गुरुदेव !
९६. सफल जीवन की निशानी
९७. एक आदर्श जीवन
९८. आध्यात्मिक साधक
९९. सरस्वती पुत्र गुरुदेवश्री
१००. विनय और विवेक के शाश्वत सरोवर १०१. निष्कलंक-जीवन
१०२. ज्योतिर्मय साधक
१०३. साधक और सर्जक
१०४. संयम पथ के महाधनी १०५. ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ १०६. गुरुदेव का महाभिनिष्क्रमण १०७. फूल चला गया, सुगंध रह गई १०८. दीप स्तंभ उपाध्यायश्री
१०९. णमो उवज्झायाणं एक स्मृति चित्र
११०. उपाध्याय पुष्कर बूँद में समाया सागर
१११. चमकता तारा टूट गया
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किनका ?
साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा जी म.
महासती कौशल्या कुमारी जी म. महासती स्नेहप्रभा जी
साध्वी संयमप्रभा जी
महासती सुदर्शनप्रभा जी
साध्वी श्री तरुणप्रभा जी म. 'साहित्यरत्न'
महासती सत्यप्रभा जी
महासती प्रियदर्शना जी
साध्वी किरणप्रभा जी साध्वी रत्नज्योति जी महासती विलक्षण श्री जी
महासती धर्मशीला जी म.
महासती चन्दनप्रभा जी म.
साध्वी श्री कुशलकुंवर जी म.
साध्वी सुमनप्रभा 'सुधा' महासती श्री प्रेमकुंवर जी
महासती श्री विजयप्रभा जी म. साध्वी डॉ. सुप्रभाकुमारी 'सुधा' साध्वी सुधा जी
उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री उमेशकुमारी जी साध्वी श्री मनोरमाकुमारी 'मुक्त' साध्वी श्री बसन्तकुंवर जी साध्वी श्री तेजकुंवर जी म. सा. साध्वी प्रीतिसुधा 'प्रिया'
साध्वी विजयश्री जी
साध्वी श्री विकास ज्योति जी म.
साध्वी डॉ. सुशीला जी
महासती श्री रमेशकुमारी जी म. महासती सुलक्षणप्रभा जी
महासती श्री सुप्रभा जी म.
साध्वी कल्पना जी
महासती श्री धर्मज्योति जी म. साध्वी मधुकुंबर जी
बा. ब्र. साध्वी शान्ताकुंवर जी म. विदुषी साध्वी श्री लज्जावती जी
साध्वी प्रीतिसुधा जी
महासती सरस्वती जी
साध्वी रोशनकंवर जी म. महासती डॉ. ललितप्रभा जी
साध्वी डॉ. सरोज श्री जी
साध्वी विनयप्रभा जी
कहाँ ?
५१
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क्या ?
११२. आस्था की ज्योति उपाध्यायश्री ११३. श्रमण संघ के सत्यनिष्ठ सन्तरल
११४. पुष्करणी में पुष्कर खिल गया ११५. जानहू संत अनंत समाना ११६. कृतज्ञता के दो बोल
११७. महकता पुष्प
११८. अमूल्य हीरा खो दिया ११९. योगीश्वर
१२०. ओ ! पुष्कर गुरुदेव प्यारा
१२१. संयम के क्षण-क्षण को नमन
१२२. मेरे उपकारी गुरुदेव
१२३. वे नर रत्न थे
१२४. मंगलमूर्ति पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी म. सा.
१२५. सफल शिल्पी गुरुदेव
१२६. आदरांजल
१२७. जिसने पुष्कर को पाया
१२८. यह समाचार भी दुखदायी है।
१२९. मनीषी सन्त रत्न
१३०. साधना पथ के अमर साधक १३१. एक विशिष्ट विभूति
१३२: एक सितारा अस्त हो गया
१३३. धर्म सृष्टि के दिव्य पुष्प १३४. वे यशः शरीर में विद्यमान हैं।
१३५. अविस्मरणीय संस्मरण
१३६. वे एक प्रयाग तीर्थ थे
१३७. भावांजलि
१३८. प्रभावी सन्त
१३९. सहज सरल जीवन के धनी
१४०. एक प्रबुद्ध सन्त
१४१. दया के देवता
१४२. उत्कृष्ट साधक थे १४३. वे समर्थ साथक थे १४४. श्रद्धा सुमन १४५. महान् अध्यात्मयोगी
१४६. साधना के अमृत कलश १४७. वे आदर्शों में जीवन्त हैं।
१४८. स्नेहमूर्ति उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
१४९. श्रुत सम्पन्न भी, शील सम्पन्न भी
१५०. अद्भुत करम अद्भुत धरम १५१. अन्तमुर्खी महापुरुष
किनका ?
साध्वी चलना जी
साध्वी श्री मीना जी म.
साध्वी श्री शोभा जी
साध्वी राजश्री जी
साध्वी प्रियदर्शना 'प्रियदा'
साध्वी सुमिता जी
साध्वी कमलप्रभा शास्त्री
साध्वी प्रतिभाकंवर जी
साध्वी मितेषा जी
साध्वी संयमप्रभा जी
साध्वी विनयवती जी
साध्वी धर्मप्रभा सिद्धान्तशास्त्री'
साध्वी मंगलप्रभा जी
महासती श्री रामकंवर जी म.
महासती सुशीलकुंबर जी
साध्वी संघमित्रा जी
साध्वी सुमनकुवर जी म. व साध्वी कीर्ति सुधा जी म.
महासती श्री शान्ताकुमारी 'शास्त्री'
साध्वी डॉ. दर्शनप्रभा जी
साध्वी अर्चना जी साध्वी श्री रमेशकुमारी जी साध्वी किरणप्रभा जी म.
साध्वी चन्दना 'कीर्ति' जी
महासती श्री शारदाकुमारी 'शास्त्री'
साध्वी श्री संयमप्रभा जी म.
GG 20.
आर्या शांति जैन
बंकटलाल कोठारी जैन
स्व. पुखराजमल जी लूंकड
शांतिलाल छाजेड़ जैन स्व. अजीतराज सुराणा अशोक बोरा (बाबू सेठ) श्री दलसुख भाई मालवणिया
जसराज चौपड़ा (न्यायाधीश) श्री कृष्णमल लोढा (न्यायाधिपति)
उमरावमल चोरडिया
श्री नेमनाथ जैन
स्वामी अनन्त भारती
स्व. डॉ. नरेन्द्र भानावत
व्याख्यान वाचस्पति डॉ. महेन्द्रसागर प्रचडिया
जे. डी. जैन
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कहाँ ?
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२४
क्या ?
१५२. जीवन दृष्टा सन्त
१५३. साधक पुरुष
१५४. मौत को चुनौती देने वाले वीर पुरुष
१५५. समन्वयशील विचारक
१५६. स्वाध्याय के अखण्ड ज्योतिर्धर
१५७. असाधारण व्यक्तित्व के पुरोधा १५८. बेजोड़ इतिहास का सृजन कर गये।
१५९. तीर्थ गुरु पुष्कर
१६०. मेरी ध्यान साधना के गुरु
१६१. मेरी प्रगति गुरुदेव का आशीर्वाद
१६२. कमल सम निर्लिप्त
१६३. परम उपकारी गुरुदेव
१६४. भावभीनी श्रद्धार्चना
१६५. महान् संत उपाध्यायश्री १६६. कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन १६७. ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के धनी
१६८. गौरव गरिमामय मंडित व्यक्तित्व १६९. उनके सद्गुण हमारे मार्गदर्शक होंगे
१७०. अभिभूत हूँ उनके सारल्य से १७१. चमत्कारी मंगल पाठ था
१७२. धर्म के जीवन्त रूप थे १७३. सम्मेलन के महारथी थे
१७४. ध्यान-मीन साधना के प्रबल पक्षधर थे
१७५. विलक्षण व्यक्तित्व के धनी
१७६. वंदऊ गुरुपद पदुम परागा १७७. सरलता और सोहार्द का पावन प्रतीक
१७८. गुरुदेव सागर की तरह विराट थे
१७९. महान् संत
१८०. कर्मयोगी एवं तपःपूत उपाध्यायश्री जी १८१. कितने महान् ! कितने सरल !
१८२. वे दृढ़ संकल्पशील थे
१८३. आध्यात्मिक ज्ञान के सागर
१८४. अमर नाम हो गया
१८५. श्री पुष्कर मुनि जी
१८६. शताब्दी के अद्भुत संत श्री पुष्कर मुनि
१८७. एक युग पुरुष
१८८. तीर्थों में तीर्थ पुष्कर, सन्तों में संत पुष्कर
१८९. श्रद्धा सुमन
१९०. विनम्र श्रद्धांजलि
१९१. सद्गुणों का महकता हुआ गुलदस्ता
किनका ?
गुलाबचन्द कटारिया
रसिकलाल धारीवाल
मूलचन्द पोसल
मानव मुनि जी माणकचन्द जैन
भंवर सेठ
आचार्य डॉ. छगनलाल शास्त्री
प्रकाश संचालाल बाफणा
धनराज बांठिया
शांतिलाल तलेसरा
स्वतन्त्रता सेनानी देवीलाल मेहता
सेठ मांगीलाल सोलंकी
चुन्नीलाल
रा डॉ. चम्पालाल देशरडा
सुवालाल संदीपकुमार छल्लाणी
शांतिलाल दूगड़
परमेश्वरलाल धर्मावत
दयालाल हींगड़
डॉ. तेजसिंह गौड़
जयवन्तमल सखलेचा
विमलकुमार चौरडिया
कचरदास देवीचन्द पोरवाल मोफतराज मुणोत
श्री कृष्णमल लोढा व अनराज बोधरा
गणेशलाल बोहरा
रतनलाल मोदी
अशोककुमार मोदी
पुखराज मेहता
आचार्य राजकुमार जैन
राजेन्द्र लुकड़
प्रेमचन्द चौपड़ा
सुनील चौपड़ा
सुरेन्द्र कोठारी
नेमीचन्द जैन
हरबंसलाल जैन
डॉ. लक्ष्मीलाल लोढा
ब्रजभूषण भट्ट
पालीवाल ब्राह्मण समाज, उदयपुर
हस्तीमल झेलावत
पुष्पेन्द्र लोढा 'दीवाना'
कहाँ ?
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________________
क्या ?
१९२. माला का एक मोती
१९३. हम पर उनके अनन्त उपकार हैं १९४. उपाध्यायश्री विश्व-मैत्री के प्रतीक थे
१९५. हे सौम्य मूर्ति शत-शत प्रणाम ! १९६. अवर्णनीय उपकार है १९७. जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र
१९८. उनका नाम ही गुणों का पर्याय १९९. अद्भुत लोकप्रिय सन्त
२००. गुरुवर गये सही, पर मिटे नहीं
२०१. असहनीय दुःख
२०२. हार्दिक श्रद्धांजलि
२०३. नाम के अनुरूप थे वे २०४. जैसे सूर्य अस्त हो गया
२०५. अमर व्यक्तित्व के धनी थे वे
२०६. मुझ पर उनकी कृपा दृष्टि थी
२०७. श्रद्धा सुमन
२०८. अनन्त सद्गुणों के पुञ्ज २०९. उनकी स्मृति को शत-शत नमन २१०. समाज और संस्कृति के प्रहरी २११. जप ध्यान साधना के अद्भुत २१२. प्रेरणा के पावन प्रतीक २१३. भावभीनी श्रद्धार्चना
धनी
२१४. सत्य के तेज पुंज थे वे
२१५. भावभीनी वन्दना
२१६. सरलता के ज्योतिर्मय रूप थे वे
२१७. जीवन शिल्पी गुरुदेव
२१८. परम उपकारी थे गुरुदेव
२१९. कोटि-कोटि वंदन
२२०. तेजस्विता का ज्वलन्त उदाहरण
२२१. श्रद्धा के दो पुष्प
२२२. गुरुदेव संघ के गौरव थे २२३. गुणपुंज गुरुदेव के चरणों में २२४. कोटि-कोटि अभिनन्दन-वन्दन
२२५. सद्गुणों के पुंज गुरुदेवश्री
:
२२६. सच्चे जंगम तीर्थ पुष्कर मुनि जी २२७. निस्पृह संत
२२८. श्रमण संघ के वरिष्ठ संत
२२९. असीम उपकारी गुरुदेवश्री २३०. महान् व्यक्तित्व के धनी
२३१. संगठन के प्रबल समर्थक थे गुरुदेव
किनका ?
धर्मचन्द ललित ओसवाल
मोहनलाल चौपड़ा
सुमतिकुमार जैन
जैन भूषण शिरोमणिचन्द्र जैन
बद्रीलाल जैन अभिभाषक
शांतिस्वरूप जैन
कपूरचंद जैन
बाबूलाल सिरेमल जी लुंकड
जितेन्द्र नगावत एवं परिवार
आर. सी. रुणवाल
श्री एवं श्रीमती पारसमल बोहरा
बी. सज्जनराज सुराणा
सुभाष जैन
देवेन्द्रनाथ मोदी
धर्मीचन्द जैन लुगावत
रामस्वरूप जैन
चुन्नीलाल धर्मावत
राजेन्द्र नगावत जैन
डॉ. राजकृष्ण दूगड़
भेरूलाल सिंघवी
डालचन्द परमार
ताराचंद परमार गणेशलाल पालीवाल
कालूलाल ढालावत
सुभाष कोठारी
जवरीलाल कोठारी
निहालचन्द कोठारी
मूलचंद कोठारी
कांतिलाल कोठारी
खेमचन्द कोठारी
भंवरलाल मेहता
खेतरमल डोसी
राजकुमार जैन
अशोककुमार बाघमार
चांदमल मेहता
रतनलाल मारू
पदम कोठारी
अम्बालाल सिंघवी
गणेशलाल भंडारी
इन्द्रचन्द मेहता
२५
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११६
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२३२. आगम व दर्शन के गंभीर ज्ञाता २३३. गुरुदेव साहस के रूप थे २३४. गुरुवर प्रतिभासम्पन्न विभूति थे २३५. प्रेरणा के पावन स्रोत २३६. गुरुदेव की महिमा अपरम्पार २३७. महान् उपकारी तेजस्वी सन्त २३८. गुरुदेव सिद्ध जपयोगी थे २३९. दिव्य और भव्य जीवन था उनका २४०. आलोक स्तम्भ गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी २४१. महान् मेधावी तेजस्वी संतरल २४२. भावांजलि २४३. सरल और स्पष्ट वक्ता संत २४४. कितने महान् थे गुरुदेव ! २४५. वे युग पुरुष थे २४६. एक चमकता दमकता जीवन २४७. संयम के अवतार : उपाध्यायश्री २४८. सद्गुरु एक आध्यात्मिक शक्ति हैं २४९. श्रद्धा के दो पुष्प २५०. बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी २५१. जगमगाते सूर्य : गुरुदेवश्री २५२. दया के देवता : गुरुदेवश्री २५३. शिखर पुरुष : उपाध्याय गुरुदेव २५४. साधना के सर्वोच्च शिखर थे गुरुदेव २५५. सफल सिद्ध जपयोगी थे गुरुदेव २५६. त्याग, वैराग्य, संयम-साधना के जंगम तीर्थ २५७. विविध विशेषताएँ २५८. भक्तों के भगवान २५९. कितने महान् थे गुरुदेव ! २६०. तीन पीढ़ियों की सेवा २६१. निष्पृह गुरुदेवश्री २६२. स्नेह और सद्भावना के पावन प्रतीक २६३. समन्वय परंपरा के स्थापक २६४. सभी मनोरथ सिद्ध हुए २६५. साधना पथ के अविश्रान्त पथिक २६६. संघ और राष्ट्र के प्राण २६७. महामानव उपाध्यायश्री २६८. अध्यात्मयोगी चला गया २६९. उपाध्यायश्री का महाप्रयाण २७०. अध्यात्मयोगी थे ! २७१. जप की पावन ज्योति के चरणों में
भंवरलाल फुलफगर आजाद बरडिया आजाद लोढ़ा प्रकाश मोतीलाल बरडिया शोभालाल दोलावत श्याम जी बरडिया वीरेन्द्र डांगी खुमानसिंह कागरेचा रोशनलाल मेहता, एडवोकेट लहरीलाल सिंघवी शंकरलाल पालीवाल संपतिलाल बोहरा मांगीलाल जी ओरड़िया सुन्दरलाल बागरेचा शांतीलाल सुराना दीपचन्द मेहता सुशील संग्रामसिंह मेहता बंशीलाल लोढ़ा कनकमल सिंघवी दर्शनकुमार जैन रणजीतमल महेन्द्रकुमार लोढ़ा पारसमल बागरेचा राजमल सुराणा अमृत मांगीलाल जी सोलंकी किशनलाल तातेड़ धनपत बरडिया पोपटलाल बलदोटा रमणलाल जयन्तीलाल पुनमिया हिम्मतसिंह मेहता देवीचंद रतनचंद रांका नाथूलाल मादरेचा देवराज मेहता सुनीलकुमार पूनमचन्द बूरड़ ज्ञानचन्द तातेड़ सुनीलकुमार जैन प्रो. बी. एल. पारख चाँदमल बाबेल सुभाषचन्द जैन कमला माताजी सौ. मंजुला बहिन अनिलकुमार बोटादरा
१३७ १३८ १३८ १३९ १४० १४१ १४१ १४१ १४२ १४२ १४३ १४३
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क्या ?
२७२. प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी : सद्गुरुदेव
२७३. जीवन के सफल कलाकार
२७४. सम्यक् ज्ञान पुंज
२७५. बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी
२७६. शत शत वंदन
२७७. मेरा दर्द मिट गया (एक संस्मरण)
२७८. सत्यान्वेषी गुरुदेवश्री
२७९. अपूर्व थी जप निष्ठा
२८०. वे सिद्ध जपयोगी थे
२८१. एकता के पक्षधर थे
२८२. मेरे दादा गुरुदेव
२८३. गुरुदेव का जीवन बड़ा चमत्कारी था
२८४. आत्म-विज्ञानी संत थे
२८५. पुरुषार्थ के प्रेरक सूत्र २८६. मेरे महागुरु २८७. प्रतिपल जागरूक जीवन २८८. अद्भुत थी प्रवचन कला
२८९. श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन
२९०. शत शत वन्दन
२९१. उपाध्यायश्री पुराने चावल थे २९२. दिव्यदृष्टि के पनी
२९३. हे पुष्कर गुण धाम ! !
१. श्री पुष्करमुनिस्तपञ्चरम् (संस्कृत)
२. सिरिपुक्खरसई (प्राकृत)
३. श्रद्धा-सुमन (डिंगल )
४. कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन
५. हे उपाध्याय पुष्कर मुनि जी
६. क इत रत्नमिदं (संस्कृत)
७. भाव-सुमन (मुक्तक)
८. गुरु तुमने उपकार किया है !
९. श्रद्धा सुमन
१०. हन्त ! हन्त ! सुरलोक सिधारे !
११. गुरु उपकारी हैं
१२. इक थे जगमग जैन सितारे
१३. शत-शत वन्दन है गुरु पुष्कर
१४. सन्त वे मशहूर हैं
१५. योगिराज श्री पुष्कर गुरु
किनका ?
श्रीमती पुष्पा जैन
शान्ता बहिन मोहनलाल दोशी
डॉ. विद्युत जैन सुशीलादेवी जैन
कमला जैन 'जीजी'
श्रीमती रोशनदेवी
वैरागिन अनीता जैन
महासती डॉ. मुक्तिप्रभा जी म.
महासती डॉ. दिव्यप्रभा जी म.
हीरालाल जैन
वैरागी विकास जैन
कांतिलाल दरड़ा
श्री रवीन्द्र मुनि जी
श्री प्रकाश मुनि 'निर्भय'
पं. श्री नरेश मुनि जी महासती डॉ. धर्मशीला जी म.
महासती श्री प्रमोद सुधा जी म. सा.
साध्वी रजत रश्मि 'पंजाबी' साध्वी मैना
शांतिलाल पोखरणा 'जैन'
श्री रमेश भाई शाह कवि अभय कुमार 'योधेय'
काव्य-कानन की कलियाँ (पृ. १६३ से २१० तक)
आचार्यकल्प श्री शुभचन्द जी म. प्रवर्तक श्री उमेश मुनि 'अणु' प्रवर्तक श्री रूप मुनि 'रजत'
श्री सौभाग्य मुनि जी म. 'कुमुद' प्रवर्तक महेन्द्र मुनि 'कमल'
रमेश मुनि शास्त्री
श्री गणेश मुनि शास्त्री
श्री गणेश मुनि शास्त्री
पं. श्री उदय मुनि जी
उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि जी 'पंजाबी'
श्री हीरा मुनि जी म. "हिमकर'
उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि जी
मुनि उत्तमकुमार
कवि विजय मुनि जी म.
श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ'
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१६. श्रद्धांजलि पुष्प समर्पित १७. श्रद्धा-पुष्प १८. महाविद्वान् महागुणी १९. भावाञ्जलि २०. हे ज्योतिर्धर ! २१. उपाध्याय पुष्कर मुनि प्यारे २२. श्रद्धा-सुमन २३. शत-शत वन्दन २४. पूष्कर गुच्छकम
गुरु तेरा नाम रहेगा २६. फिर तेरी कहानी याद आई २७. श्रद्धांजलि २८. बड़े उपकारी हो २९. श्रद्धांजलि सुमन ३०. श्रद्धार्चन ३१. दिव्य दोहा द्वादशी ३२. श्रद्धा पूष्पांजलि ३३. श्री पुष्कर गुरु-महिमा ३४. मन पुष्कर से अविभाज्य रहे ३५. विनम्र प्रणामाञ्जलि ३६. श्रमण संघ की शान ३७. पुष्कर मुनीनाम् स्मृति-स्तोत्रम् (संस्कृत) ३८. हे महामुनि ! ३९. श्रद्धांजलि गीत ४०. पुष्कर ज्योति ४१. युग-पुरुष ! तुम्हें शत-शत वन्दन ४२. श्रद्धांजलि ४३. उज्ज्वल दिव्य सितारे थे ४४. गुरुदेव पुष्कर प्यारा ४५. स्तुति-पञ्चविंशतिका ४६. निर्झर बना महासागर ४७. चमकते इक सितारे थे ४८. जगत् हितार्थ श्री पुष्कर मुनि ४९. हे गुरुदेव ! ५०. श्रद्धा-सुमन ५१. पुष्कर परम पुनीत ५२. ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया ५३. पुष्कर मुनि की पुरवाई ५४. गुरु पुष्कर दीन-दयाला ५५. आपकी सदा जय हो ! ५६. श्रद्धांजलि प्रीति-पुष्प ५७. राज के उद्गार ५८. मेरा मस्तक सदा झुका है
उपप्रवर्तक सलाहकार श्री सुकन मुनि जी म. सा. मगन मुनि 'रसिक' उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि जी श्री विनोद मुनि जी साध्वीरत्न महासती श्री कुसुमवती जी म. महासती श्री प्रेमवती जी म. जैनार्या कौशल्याकुमारी जी महासती श्री सिद्धकुंवर जी म. आर्या प्रभाकुमारी जी म. साध्वी निरूपमा जी साध्वी गरिमा जी साध्वी सुप्रभा जी साध्वी चन्दनप्रभा जी साध्वी स्नेहप्रभा जी साध्वी सुशीला जी उपप्रवर्तिनी श्री रवि रश्मि जी म. महासती सुलक्षणप्रभा जी म. सा. कवि सुरेश वैरागी कवि सुरेश वैरागी कवि सम्राट् निर्भय हाथरसी' महासती सत्यप्रभा जी पं. श्री रमाशंकर शास्त्री विज्ञान भारिल्ल शोभनाथ पाठक डा. गुलाबसिंह दरड़ा श्रीचन्द सुराना 'सरस' सुमन्त भद्र चाँदमल बाबेल ताराचन्द जैन डॉ. दामोदर शास्त्री दिलीप धींग श्रीमती विमलादेवी बोथरा श्रीमती विजयाकुमारी बोथरा संदीप 'विक्की' दर्द शुजालपुरी चन्दनमल बनवट भद्रेशकुमार जैन प्रा. जवाहर मुथा नवरतनमल सूरिया सीता पारीक 'पूजाश्री' मनोजकुमार जैन 'मनस्वी' राजेन्द्र कुमार मेहता डॉ. शशिकर 'खटका राजस्थानी'
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किनका ?
कहाँ?
खण्ड-२
२१३ २१४ २१८
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तल से शिखर तक
(पृ. २११ से २७६ तक) (साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री का जीवन वृत्तांत)
लेखक : आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि १. मंगलम् ! २. अक्षयवट का प्रस्फुरण ३. साधना-शिखर का यात्री ४. राजहंस की ऊँची उड़ान ५. शिक्षा, सेवा, साधना के ज्योति स्तम्भ ६. सद्गुणों के शान्त शतदल ७. हिमशिला पर अंगारे ८. श्री ज्येष्ठ गुरु जाप ९. आध्यात्मिक साधना : उपलब्धियाँ व चमत्कार १०. संगठन के सजग प्रहरी ११. शिखर-समागम १२. चलते चलो अकेले राम ! किसने बाँधा है आकाश ! १३. अभिनन्दन ग्रन्थ का समर्पण १४. पूना-श्रमण सम्मेलन १५. चातुर्मास तालिका
टिम-टिम करते तारे ! १७. संगठन के सजग प्रहरी १८. महोत्सव और महोत्सव
२२५ २२८ २३० २३३
२३४ २३७ २४०
२४९
२५२
२५३ २५५ २५६ २६० २६४
संस्मरण
२६७
२६७
१९. केसर की वर्षा २०. कितने मिलनसार, कितने भले ! २१. साधुता के पर्याय २२. अध्यात्म यात्रा-स्मृतियाँ
श्री नाथूराम जैन तपस्वीरत्न श्री मगन मुनि जी म. डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया पं. मुनि श्री नेमीचन्द जी म.
२६९
२७२
खण्ड-३
वाग देवता का दिव्य रूप (पृ. २७७ से ४१८ तक)
२७९
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी
१. गुरुदेवश्री की साहित्य-स्रोतस्विनी २. जैन कथा वाङ्मय का अमृत-मन्थन ३. जैन कथाएँ भाग १ से १११ तक में आये हुए
प्रमुख पात्रों के नाम व आधार ग्रंथों की सूचनिका
२९५
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी
२९८
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३२३ ३३२-३७१
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
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३७२ ३७२ ३७२ ३७३
३७३
४. कथा कानन की कलियाँ
(१) धर्म चमत्कार में नहीं (२) अरुणदेव और देयिणी (३) पाप का घड़ा
(४) अन्धे परीक्षक ५. प्रवचन-पंखुडियाँ
मनोनिग्रह : कितना सरल, कितना कठिन ? जपयोग की विलक्षण शक्ति ध्यानयोग : दृष्टि एवं सृष्टि मंत्रविद्या की सर्वांगीण मीमांसा काव्य-सुमन की सौरभ जागजा इन्सान अविनाशी और निर्नामी हूँ आपरी चिन्ता वृद्धानुगामी कृतज्ञ विभिन्न स्थानों की प्रसिद्ध वस्तुएँ वीतराग वाणी माहात्म्य हिन्दी महिमा
नगरों के नाम पर द्वयर्थकर-श्लेष प्रयोग ७. गुरुदेवश्री की संस्कृत रचनाएँ
महावीर षट्कम् गुरुदेव स्मृत्यष्टकम् अहिंसाष्टकम् सत्यपञ्चकम् जपपञ्चकम् ब्रह्मचर्य-पञ्चकम् श्रावकधर्माष्टकम् मौनव्रतपञ्चकम्
भारतवर्षपञ्चकम् ८. जिज्ञासाएँ और समाधान प्रश्नोत्तर ९. श्रावक धर्म दर्शन : एक अनुशीलन १०. धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आँगन में ११. जैन धर्म में दान : एक समीक्षात्मक अध्ययन १२. ब्रह्मचर्य विज्ञान : एक समीक्षात्मक अध्ययन १३. उपाध्यायश्री रौ राजस्थानी साहित्य १४. दान का विश्वकोष-जैन धर्म में दान १५. पुष्करिणी निष्यन्द १६. पुष्कर सूक्ति कोश : एक दृष्टि
३७३ ३७३ ३७३
३७४ ३७४-३७८
३७४ ३७५ ३७५ ३७६ ३७७ ३७७ ३७८ ३७८ ३७९ ३८० ३८३ ३९० ३९६ ४०३ ४०९ ४११ ४१३ ४१७
साध्वी रल पुष्पवती जी म. श्री दिनेश मुनि जी साध्वी रल महासती पुष्पवती जी म. महासती रल ज्योति जी डॉ. तेजसिंह गौड़ डॉ. नृसिंह राजपुरोहित डॉ. राकेश गुप्त डॉ. नागरमल सहल डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया
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क्या ?
१. युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्य श्री अमरसिंह जी म. व्यक्तित्व और कृतित्व
२. हमारे ज्योतिर्धर आचार्य
३. आचार्य प्रवर श्री सुजानमल जी महाराज
४. आचार्य श्री जीतमल जी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन
५. महामहिम आचार्य पूज्य श्री ज्ञानमल जी महाराज
६. आचार्य श्री पूनमचन्द जी महाराज
७. अध्यात्मयोगी सन्त श्रेष्ठ श्री ज्येष्ठमल जी महाराज
८. महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज
९. श्रमण संघ एक चिन्तन
१०. जैनागम महोदधि के प्रकांड व्याख्याता आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज
११. विविध विशेषताओं के संगम :
आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी म. १२. प्रज्ञा पुरुष आचार्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी
१३. पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी का शिष्य परिवार (श्रमण)
१४. पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी का शिष्या परिवार (श्रमणियाँ)
१. अनेकता में एकता ही अनेकान्त है। २. सत्य की खोज
३. जैन दर्शन में काल की अवधारणा ४. ध्यानयोग : दृष्टि और सृष्टि
५. जपयोग साधना
६. अपरिग्रह से द्वंद्व विसर्जन : समतावादी समाज रचना
७. मानव-संस्कृति के विकास में
किनका ?
खण्ड-४
इतिहास की अमर बेल
(पृ. ४१९ से ४९० तक)
श्रमण संस्कृति (जैन धारा) की भूमिका
८. कर्म चक्र से सिद्ध चक्र
९. कर्म से निष्कर्म जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त
1
१०. जैन दर्शन का मनोविज्ञान
मन और लेश्या के संदर्भ में
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
श्री दिनेश मुनि जी
श्री दिनेश मुनि जी श्री दिनेश मुनि जी
खण्ड-५
अध्यात्म साधना के शाश्वत स्वर (पृ. ४९१ से ५५४)
आचार्य श्री विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी म.
डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
डॉ. वीरेन्द्रसिंह
स्वामी अनन्त भारती
विमलकुमार चौरड़िया
मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय'
डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन
विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचडिया
डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
डॉ. राजीव प्रचडिया, एडवोकेट
३१
कहाँ ?
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३२
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क्या
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किनका ?
कहाँ
डॉ. राजबहादुर पाण्डेय, साहित्यरत्न
5669
श्रीचन्द सुराना 'सरस'
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११. अनेकान्त : रूप-स्वरूप १२. व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में :
जैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता १३. साधुचर्या की प्रमुख पारिभाषिक शब्दावलि
अर्थ और अभिप्राय १४. जैन मंत्र योग १५. हाँ, मैं जैन हूँ
श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया श्री करणीदान सेठिया श्री परिपूर्णानन्द वर्मा
५४५ ५४०
खण्ड-६
जन मंगल धर्म के चार चरण
(पृ. ५५५ से ६३२ तक)
CommenDRDS.50000000000000000RRORAakoooooo
५६०
५६१
१. पर्यावरण रक्षा और अहिंसा २. पर्यावरण परिरक्षण : अपरिहार्य आवश्यकता ३. जैन धर्म और पर्यावरण-सन्तुलन ४. पर्यावरण-प्रदूषण : बाह्य और आन्तरिक ५. पर्यावरण-प्रदूषण और जैन दृष्टि ६. पर्यावरण के संदर्भ में जैन दृष्टिकोण ७. बढ़ता प्रदूषण एवं पर्यावरणीय शिक्षा ८. कैसा हो हमारा आहार ९. शाकाहार है संतुलित आहार १०. शाकाहार : एक वैज्ञानिक जीवन शैली ११. स्वास्थ्य रक्षा का आधार-सम्यग् आहार-विहार १२. भगवान महावीर और महात्मा गाँधी की
भूमि पर बढ़ते कत्लखाने १३. अण्डा-उपभोग : स्वास्थ्य या रोग १४. तम्बाकू एक : रूप अनेक १५. माँसाहार या व्याधियों का आगार ! १६. शाकाहारी अण्डा : एक वंचनापूर्ण भ्रान्ति १७. सुखी जीवन का आधार : व्यसन मुक्ति १८. भूकम्प कैसे रोका जाये? १९. जीवन के काँटे : व्यसन २०. स्वस्थ समाज का आधार : सदाचार
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी डॉ. हरिश्चन्द्र भारतीय पं. मुनि श्री नेमीचन्द जी म. श्री विनोद मुनि जी म. डॉ. सुषमा डॉ. शेखरचन्द्र जैन डॉ. हेमलता तलेसरा आचार्य राजकुमार जैन डॉ. नेमीचन्द जैन मुनि नवीनचन्द्र विजय सुशीला देवी जैन
५८३
५८ ५९० ६०० ६० ६०१
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पद्मश्री श्री यशपाल जैन साध्वीरत्न पुष्पवती जी म. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. आचार्य देवेन्द्र मुनि जी डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया मानिकचन्द नवलखा आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी
६१६ ६१५ ६२६
६२१
2000
६२५
६३०
खण्ड-७
संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
(पृ.६३३ से ६६४ तक) १. संथारा, संलेषना : एक चिन्तन
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी २. संलेषणा-संथारा के कुछ प्रेरक प्रसंग
उपाध्याय श्री केवल मुनि जी ३. जैन दर्शन में संथारा
डॉ. रज्जनकुमार
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श्रद्धा, मन के समन्दर में मचल-मचलकर उठने वाली वह कोमल स्नेहिल तरंग है, जिसके हर स्पन्दन में सृष्टि के साथ दिव्य चेतना का तादात्म्य जुड़ा हुआ है।
श्रद्धा, श्रद्धेय के प्रति आस्था का समर्पण है, विश्वासों की धड़कन है, आदर और अहोभाव की पुलकन है।
मानव-चेतना जिन सद्गुणों के प्रति सहज आकृष्ट होती है, उनके प्रति विनत/समर्पित भी हो जाती है। कृतज्ञतापूर्ण अहोभाव के साथ ही उत्फुल्ल होकर नाचने भी लगती है। जीव जगत की इस जागृत दिव्य चेतना का नाम ही है, श्रद्धा।
श्रद्धेय के प्रति श्रद्धा की अभिव्यंजना मनुष्य का सहज धर्म है, स्वभाव है, मौलिक अधिकार भी है। युग-युग से मानव का भावुक अन्तःकरण श्रद्धेय के प्रति भक्ति की पुलक लिए मुखर होता रहा है। उसकी भाव-स्पन्दना से निःसृत/स्फुरित कोमल कान्त मधुर शब्दावली सहज ही एक भक्ति काव्य बन जाती है।
श्रद्धा के उस लहराते महा समन्दर की प्रत्येक तरंग अपने आप में एक भक्ति संगीत होता है, एक अन्तर्लीन भक्ति नृत्य होता है। श्रद्धा पुरुष गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. आपके, हमारे सबके श्रद्धेय पुरुष थे।
उनके असीम उपकारों का आकार अमाप है। उनका सान्निध्य, उनकी वाणी, आशीर्वचन और उनका मार्गदर्शन देव प्रसाद के रूप में जिन्हें प्राप्त हुआ, उनकी गणना सैकड़ों में नहीं, हजारों में है। ____ वे जब हमारे बीच विद्यमान थे तब भी हमारे कृतज्ञता के स्वर उनके चरण-मन्दिर में गीत बनकर मुखरित होते रहते थे। विगत वर्ष उदयपुर में जब उनका महाप्रयाण हो गया तो हजारों-हजार श्रद्धासिक्त मानस तरंगाकुल हो उठे। दिन के उजाले में सघन अंधकार सा छा गया। प्यासे होठों से लगा अमृत-चषक जैसे हाथों से छूटकर गिर गया हो, होठ अनबुझी प्यास से अकुलाते रह गये।
उस स्थिति की विरह-वेदना, अन्तर को चीर-चीर देने वाली अकथ व्यथा, शब्दों से व्यक्त करना ही कठिन है, उसे रोक पाना भी कठिन है।
पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के पश्चात् भक्तजनों ने, अपनी निगूढ मनोव्यथा को वक्तव्यों द्वारा, पत्रों द्वारा, काव्य पंक्तियों द्वारा रूपायित किया है। वास्तव में यह मनोवेदना, भक्ति और श्रद्धा का वह कारुणिक रूप है, जिसे आज की भाषा में श्रद्धांजलि कहा जाता है।
सचमुच श्रद्धांजलि क्या है ? मन की घनीभूत पीड़ा से द्रवित हुआ वह अश्रु बिन्दु है।
जिसके लघु कण-कण में उच्छल श्रद्धा का निस्सीम सिंधु है। श्रद्धेय आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी के पास धीरे-धीरे ऐसे पत्रों का अम्बार लग गया, कई फाइलें भर गईं, जिनमें पूज्य उपाध्यायश्री के प्रति सहज श्रद्धा रखने वाले, कृतज्ञमना, गुणज्ञ त्यागी मुनिजनों, विद्वानों, श्रावकों व श्री संघों आदि के श्रद्धा स्निग्ध भावोद्गार कमल पत्र पर पडे निशीथ की ओस की तरह मोती बनकर चमक रहे हैं।
किसी ने पांच-सात पंक्तियों में, किसी ने एक-दो पृष्ठों में तो किसी ने पांच-सात पृष्ठों में अपनी भावनाएँ उकेरी हैं, स्मृतियाँ संजोयी हैं, गुरूदेव के प्रति कृतज्ञ भावेन शब्दों की सुमनांजलि समर्पित की है। भावना का अन्तःस्फूर्त वेग ऐसा प्रवाहपूर्ण होता है, कि रोकना चाहने पर भी रुक नहीं पाता। हृदय के उत्स से फूटकर श्रद्धा का निर्झर बह-बह जाना चाहता है। ___ हमारा प्रयल रहा है, उन पवित्र भाव-सुमनों की ढेर सारी पंखुड़ियाँ को श्रद्धा के थाल में सजाकर रख लिया जाय। भक्ति के समन्दर की उन आकुल तरंगों का रूपाकंन कर लिया जाय, उन भाव-प्रवण भक्ति रेखाओं को ग्रन्थ के हृदय पटल पर रंगोली की तरह मंडित कर लिया जाय। ___ हम ने सावधानी बरती है, प्राप्त सामग्री में से किसी का नाम छूट न पाये। हाँ उनके विस्तार को कम अवश्य किया है। क्योंकि आखिर स्मृति ग्रंथ के पृष्ठों की भी सीमा है, पाठकों के पठन-काल की सीमा है। सभी कुछ सीमा में अच्छा रुचिकर मनोरम लगता है। फिर भी आप देखेंगे, ग्रन्थ का यह प्रथम खण्ड सबसे विशाल बन गया है, महत्वपूर्ण भी
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
भावना लोक की सबसे बड़ी शक्ति है श्रद्धा!
जहाँ, जब जिस के प्रति श्रद्धा जगती है तो एक अलौकिक समर्पण भाव उत्पन्न होता है। एक आत्मा की अश्राव्य ध्वनि तरंगों का स्पन्दन दूसरी आत्मा को स्पन्दित कर देता है।
मेरे श्रद्धा लोक के देवता
एक अनिर्वचनीय आकर्षण एक-दूसरे को प्रगाढ़ रूप में बाँध देता है। अमाप्य असीम दूरी भी अत्यन्त समीपता में बदल जाती है। सूर्योदय होते ही कमल खिल उठते हैं।
चन्द्रोदय होने पर चातक पक्षी पीयूष-रश्मियों का पान कर पुलकता हुआ अंगारों को भी हिम-खण्ड की भाँति निगल जाता है। मूर्च्छित निस्पन्द चेतना भी शक्ति स्फूर्त होकर प्रचण्ड हुंकारें भरने लगती है।
पंगु सुमेरू शिखर पर चढ़ जाता है।
जन्म से चक्षु विहीन सूरदास आराध्य की दिव्यातिदिव्य सुरम्य छवि का आत्म-साक्षात्कार करने लगता है।
मूक मानव सुरगुरु की भाँति धारा प्रवाह बोलने लगता है। संसार में जो कुछ असंभव लगता है, वह सब संभव हो जाता है- श्रद्धा के बल से ।
इसलिए कहा है-श्रद्धा में है असीम अनन्तबल ।
आदर, सन्मान, सद्भाव, प्रतिष्ठा यह सब शब्द सरोवर की छिछली तरंगों जैसे, एक सामान्य अर्थ के द्योतक है। श्रद्धा असीम है। महासागर की तरंगों की भाँति उसके ओर-छोर को कोई पहचान नहीं पाता, पकड़ नहीं पाता। असीम अर्थ है उसमें असीम शक्ति है। उसके असीम वाच्यार्थ हैं। श्रद्धा सम्यग्दर्शन का अंग है। साधना मार्ग का प्रथम सोपान है।
देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा है-सम्यग्दर्शन !
श्रद्धा सचेतन होती है उसमें आत्मा की अनुभूति स्फुरित होती है, इसलिए श्रद्धा कभी अंधी नहीं हो सकती।
जिसे हम अंध श्रद्धा कहते हैं, वह श्रद्धा नहीं, अज्ञानजनित आवेग है। मोह का उद्वेग है अज्ञान श्रद्धा विष है, अंधगर्त है। ज्ञानयुक्त श्रद्धा अमृत है। हिम शिखर का आरोहण है। नंदन वन का आनन्द विहार है।
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श्रद्धा के तीन आधेय है-देव, गुरु, धर्म |
इनका मध्य केन्द्र है गुरु ।
गुरु की महिमा का पार सद्गुरु भी नहीं पा सकते।
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-आचार्य देवेन्द्र मुनि
गुरु की यशोगाथा गाने के लिए सरस्वती का शब्द भंडार भी कम पड़ जायेगा।
गुरु इसलिए गुरु नहीं है कि वह महान् है, भारी है, किन्तु अंध मानव को चक्षु प्रदान करते हैं। लघु में गुरुता का दीप जलाकर उसे प्रभास्वर बना देते हैं। दीपक को सूरज बना देते हैं गुरु!
शास्त्र में 'चक्रवुदयाणं, 'मग्ग दयाण' विशेषण हैं जो वास्तव में गुरु की गुरुता के बोधक हैं। गुरु देव हैं, गुरु धर्म है, गुरु ज्ञान है, गुरु चारित्र है, इसलिए गुरु के प्रति आस्था सम्यक् श्रद्धा है। गुरु के प्रति कृतज्ञ भक्ति, समर्पण, गुरु का स्मरण, गुरु का संकीर्तन, मनुष्य को गुरुता के पथ पर अग्रसर करता है।
गुरु के प्रति श्रद्धापूर्ण दो शब्द सुमन समर्पित करने में शिष्य को जो अनिर्वचनीय आनन्द, आत्म-तुष्टि और असीम आत्मोल्लास की अनुभूति होती है, वही शिष्य की आत्मसंपत्ति है। शिष्य का शिष्यत्व तभी कृतार्थ होता है जब वह अहोभावपूर्वक गुरु के उपकारों का स्मरण करता हुआ उनकी स्मृतियों में स्वयं को तन्मय कर देता है। गुरु के साथ, गुरु की आत्मा के साथ शिष्य की अभेदानुभूति है। शंकर का 'अद्वैत' है महावीर का निश्चय नय है।
आज के इन पावन क्षणों में गुरुदेव के उपकारों की स्मृति मेरे रोम-रोम में मुखरित हो रही है। रोम-रोम उत्कंचित होकर गा रहे हैं धन्य गुरुदेव ! अहो गुरुदेव ! आप दूर होकर भी मुझ में स्थित हैं। आपके गुणों की, आपकी सद्भिक्षाओं की ज्योति ही मेरी जीवन ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष संसार की समस्त ज्योतियों का प्रकाश मन्द है।
पुष्प के विलय के बाद भी पुष्प की सुवास मिट्टी में महकती रहती है। पवन को प्रीणित करती रहती है। गुरुदेव के गुणों का सौरभ, उपकारों का आत्म-संवेदन जन्म-जन्म तक मुझे प्रीणित और परिपुष्ट करता रहेगा।
गुरु ऐसा दिव्य दीपक है, जिसकी माटी की देह-दीवट बिखर जाने के बाद भी उसकी ज्ञान रश्मियाँ आलोक वर्तिका बनकर हजारों-हजार पथिकों का पथ उजालती रहती हैं, आलोकित करती रहती है ! गुरुदेव की ज्योति सघन अन्धकार के घनघोर क्षणों में भी मुझे ज्योतिर्मय बनाती रहती है।
संकटों से कंपा देने वाले प्रखर पलों में भी उनकी स्मृति मुझे अमिट शक्ति, अमिट साहस और अपराजेय विश्वास देती रहेगी।
यही है मेरी श्रद्धा का ध्रुव बिन्दु।
गुरु की अखण्ड, अविचल श्रद्धा ही मेरी अनन्त शक्ति का स्रोत है और वही शक्ति का सम्बल मेरे रोम-रोम में जागृत हो रहा है।
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NROENas DO90098
2005909
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ । आज है गुरुदेव की जन्मजयंती!
ताराचन्दजी महाराज ध्यानस्थ थे और उन्हीं के परिपार्श्व में आसीन
थे गुरुदेव! मैंने देखा उस दिव्य आकृति को, सहसा स्मृतियां सजीव कल है शरद पूर्णिमा!
हो उठीं और मेरी वाणी के स्वर फूट पड़े-“यही आकृति थी मेरे आज का शीतल चन्द्र अपनी निर्मल शुभ्र किरणों से अमृत की ।
स्वप्न में! यही है मेरे गुरुदेव! ऐसा ही नाक-नक्श! मधुर हास! वर्षा कर रहा है। दूधिया बन गई है चाँदनी रात!
और अमृत वर्षती आँखें ! मैं इन्हीं का शिष्य बनूँगा।" अमृत से भीगा-भीगा शीतल पवन स्पर्श! चन्द्र ज्योत्सना में
इस घटना की स्मृति होते-होते आज भी रोमांच हो उठता है। स्नात निरभ्र नील गगन!
जब मैंने पहले दिन, पहली बार, पूज्य गुरुदेव के दर्शन किये थे चातक पक्षी एक टक इन अमृतवर्षी किरणों का पान कर । मेरी आत्मा में कितनी पुलक थी, कितना आनन्द था! मन के सागर अंगारे चुग रहा है।
में उल्लास उर्मियाँ तरंगित हो रही हैं। उस सुखद अनुभूति की सहस्रदल कुमुद जैसे हजार-हजार हाथों से बरसते अमृत कणों
अपूर्व अनुस्मृति को शब्दों की पकड़ में नहीं बांध पाता हूँ। को बटोर-बटोर कर अमृत-पराग जुटा रहा है।
इसे केवल एक संयोग नहीं कहा जा सकता। पूर्वजन्म का हिमगिरि के निर्जन वन उपवन में पुष्पित संजीवनी चन्द्र किरण
संस्कार, पूर्वजन्म का ऋणानुबन्ध या कर्मशास्त्र की भाषा में
भवान्तरीय स्नेहानुबंध कहना हो तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। का पान कर अमृतमयी बन रही हैं और सुधावर्षी शशिकर की शीतल स्नेहिल किरणों का स्पर्श पाकर मेरे मन में मधुर-मधुर
मेरे मन की संकल्प भूमि में उसी दिन वह संस्कार बीज स्मृतियाँ अंगडाई भर रही हैं।
अंकुरित हो उठा-“यही हैं मेरे गुरुदेव! मैं इन्हीं का शिष्य बनूँगा।" मैं सुदूर अतीत में विचर रहा हूँ। जाति स्मृति न सही, पर मेरा स्वप्न सच हुआ। उनके वात्सल्य का अमिट रस पाकर अतीत की स्मृतियों परत दर परत उघड़ रही हैं और अनुभूतियों के मेरा जीवन कृतकृत्य हुआ। बचपन की वे मीठी-मीठी यादें अनन्त स्वर्णिम चित्र अनावृत हो रहे हैं।
वात्सल्य रसववर्षिणी गुरुदेव की वाणी, माँ के आंचल की तरह
शीतल सुखद उनका सान्निध्य! मुझे जीवन भर कृतार्थ करता रहा। पूज्य गुरुदेव! मेरे गुरुदेव! जीवनदाता गुरुदेव! मेरे ज्योति पुरुष गुरुदेव! मेरे मनोमय देव मन्दिर के स्मृति-स्वर्ण सिंहासन पर आज एकांत क्षणों में बैठकर सोचता हूँ, सहसा गुरुदेव की यह विराजमान हो रहे हैं। एक दिव्य आलोक छितरा रहा है, जिसकी
| भव्य छवि मेरे मन के आइने में उभर-उभर आती हैं। उनके विराट् नयन भावनी प्रकाश छटा में मैं देख रहा हूँ अपना अतीत, बचपन । व्यक्तित्व को अगर वट वृक्ष से उपमित करूं तो लगता है बरगद का वह मीठा-मीठा रस-स्रोत जो बन गया है-एक मीठा सपना। की तरह उनका व्यक्तित्व सबके लिए शुभंकर, सुखकर था। एक रात मैंने देखा एक स्वप्न! सचमुच स्वप्न!
जिस प्रकार बरगद के नीचे बूढ़े लोग अलाव डालकर यादों
और अनुभवों की जुगाली करते हैं, बच्चे उसकी टहनियों का ___ स्वप्नलोक की परी-सा जादुई सुहावना और पहले कभी नहीं
पलना बनाकर झूलते हैं, युवक बैठे बतियाते अपने सपनों के देखा ऐसा अपूर्व उल्लासमय!
ताने-बाने बुनते हैं, ठीक वैसे ही पूज्य गुरुदेव के चरणों की शीतल एक ध्यानस्थ दिव्य पुरुष! गौरवर्ण भव्य ललाट! अमृत चषक। छाँव में प्रत्येक आयु वर्ग के, हर विचार के, हर सम्प्रदाय के व्यक्ति सी बड़ी-बड़ी स्नेहिल आँखें! मन्द-मन्द मुस्कराता मुखड़ा! श्वेत मुख । आकर अनुपम आत्मीयता का अनुभव करते थे। एक सन्त के वस्त्रिका! कुछ उजली-उजली कुछ मटमैली-चादर से लिपटा सम्पुष्ट सर्वमंगल सानिध्य के रूप में सबको सुख-शांति आनन्द- सन्तोष शरीर! जिसके परिपार्श्व में फैल रहा है स्वर्णिम प्रभामंडल!
और समाधान की अनुभूति होती थी। मैं भाव-विभोर होकर कर रहा हूँ दर्शन-मन्थएण वंदामि!
ऐसे श्रद्धा लोक के देवता, साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव आशीर्वाद का उठा हाथ मुझे दे रहा है वरदान ! 'धन्ना'! दया । आज हमार बाच उपस्थित नहीं है। साधना का वह स्वाणम सूरज
अस्ताचल की गोद में छुप गया, किन्तु सूरज छिपने के बाद भी
उसका स्वर्णिम आलोक धरा-गगन को आलोकित करता रहता है। आँखें खुल गईं, स्वप्न टूट गया।
उसकी जीवन दायिनी ऊष्मा प्राणियों में ऊर्ध्वस्विल होती रही है। स्मृतियों के मोती जैसे बिखर गये। मैंने कहा माताजी से मैंने | इसी प्रकार श्रद्धालोक के उस सूरज की भाव रश्मियां, उनकी स्वप्न देखा है, एक देव पुरुष जो होंगे मेरे गुरुदेव, मुझे दे रहे हैं। स्मृतियां, उनकी अनुकृतियां, उनके वात्सल्य की अनुभूतियां, उनके आशीर्वाद!
अमर हस्ताक्षरों से मंडित कृतियां, आज हमारी चेतना में मूर्तिमंत लगभग एक माह बाद एक दिन माताजी के साथ मैं गया था ।
हैं, जीवंत है, और युग-युग तक जीवन्त रहेगी। गुरुदेव ताराचन्दजी म. सा. के दर्शन करने। बड़े गुरुदेव श्री श्रद्धा लोक के देवता के चरणों में हमारी विनयांजलि!
पालो!
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R 302929200000 Saneducationpternational PosRDP690890.00002DODIDD
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
अमर हस्ताक्षर
(अक्षर भाव रूप में शाश्वत होता है। व्यक्ति और वस्तु काल के महाप्रवाह में लीन हो जाते हैं परन्तु व्यक्तित्व और वस्तुत्व अक्षीण है। गुण रूप में व्यक्तित्व अमर रहता है, और उस व्यक्तित्व के प्रति व्यक्त उद्गार-भावरूप में अपना शाश्वत महत्व रखते हैं। महान व्यक्तित्व इतिहास पुरुष होते हैं। ऐसे ही विरल इतिहास पुरुषों द्वारा एक इतिहास पुरुष की उपस्थिति में, उनके प्रति समय-समय पर अभिव्यक्त हार्दिक उद्गार आज भी उतनी ही प्रासंगिकता और यथार्थता की अनुभूति करा रहे हैं। अतीत के पृष्ठों पर चमकते ये कुछ अमर हस्ताक्षर स्वर्णाक्षरों की भाँति आज भी अपनी चमक-दमक और मूल्यवत्ता में बेजोड़ हैं।
-सम्पादक
[ अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के धनी : पुष्करमुनि
-स्व. आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी महाराज
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी श्रमणसंघ के एक महान सन्त हैं। वे प्रकृष्ट प्रतिभासंपन्न हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अद्भुत है। श्रमणसंघ के निर्माण में उनका अपूर्व योगदान रहा है। श्रमणसंघ की यशोगाथा दिग्दिगंत में गूंजती रहे, इसके लिए वे सतत प्रयत्न करते हैं। श्रमणसंघ के उत्कर्ष हेतु समय-समय पर वे मुझे नम्र निवेदन भी करते रहे हैं। उनके सुझाव मौलिक होते हैं और स्पष्ट भी होते हैं। वे चाहते हैं कि श्रमणसंघ आचार और विचार की दृष्टि से सदा-सर्वदा उन्नति की ओर अग्रसर हो। उनके जीवन में विनम्रता है और उनका व्यवहार बहुत ही मधुर है। वे जब भी कोई सुझाव देते हैं उसकी भाषा अत्यन्त संयत और विनम्रता युक्त होती है, जिसका असर सीधा हृदय पर होता है। वे सदा अनुशासन में रहे हैं और दूसरों को भी अनुशासन में रहने का पाठ पढ़ाते हैं।
उपाध्याय श्री जी ने साहित्य के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उन्होंने विविध विधाओं में लिखा है, कथा साहित्य के क्षेत्र में तो उनकी देन अपूर्व है। संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश और प्राचीन गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के ग्रन्थों में से आधुनिक शैली में जो कथाएँ लिखी हैं, वे अत्यन्त लोकप्रिय हुई हैं। यही कारण है कि उनका अंग्रेजी और गुजराती में अनुवाद भी हो चुका है। हिन्दी में प्रथम बार इस प्रकार का कथा साहित्य देकर उपाध्याय जी ने श्रमणसंघ के गौरव में चार चांद लगाये हैं। वे मंजे हुए लेखक हैं और साथ ही सफल प्रवक्ता हैं। वे ज्ञानयोगी हैं, ध्यानयोगी हैं और हैं अध्यात्मयोगी। उपाध्यायश्री जी अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के धनी हैं।
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उपाध्याय जी नियमित समय पर जप और ध्यान की साधना करते हैं। चाहे कैसा भी प्रसंग हो पर वे ठीक समय पर अपनी साधना में रत हो जाते हैं। उन्हें जप और ध्यान-साधना से प्यार है। श्रमणसंघ के अन्य सन्तों के लिए भी यह प्रशस्त कार्य अपनाने योग्य है। जप और साधना की अभिवृद्धि होने पर साधक बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होगा, उसका आध्यात्मिक उत्कर्ष होगा।
उपाध्याय जी को मैंने बहुत ही निकटता से देखा है। वे मेरी सेवा में सात-सात महीने तक रहे हैं और ऐसे रहे हैं जैसे विनीत शिष्य हों। उनमें अहंकार का नाम नहीं, ज्ञान होने पर भी ज्ञान का गर्व नहीं है। यही है मेरी दृष्टि से उनकी प्रगति का मूल मंत्र।
(२० अक्टूबर, १९८३ ७४वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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श्रमणसंघ के गौरव
श्रमण संघ के गौरव उपाध्याय पुष्कर मुनि जी
-स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म.
पुष्कर पराग -स्व. प्रवर्तक श्रमणसूर्य श्री मरुधरकेसरी
मिश्रीमल जी महाराज
(१)
श्रमणसंघ उवज्झाय शुभ, पुष्कर परम पराग, थाग ज्ञान का ना मिले, विमल नयन वैराग, विमल नयन वैराग, जागती ज्योति अविचल, सुघड शिष्य समुदाय, भक्तिकारक है विज्ञवर, पुण्योदय शशि पूर्णिमा, चढ़ता है सोभाग,
श्रमण संघ उवज्झाय शुभ, पुष्कर परम पराग ॥१॥
उपाध्याय का अर्थ है स्वयं अध्ययन करे और दूसरों को
अध्ययन करवाये, स्वयं आगमों को पढ़े दूसरों को पढ़वाएँ, HOD अध्ययन-अध्यापन से संघ में ज्ञान की ज्योति उपाध्याय जागृत
करते हैं। जन-जन के अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने के लिए यह २४ प्रबल प्रयास करते हैं। 'स्वाध्यायान् मा प्रमदः' यही उनके जीवन का SED आघोष होता है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी सच्चे अर्थों में उपाध्याय हैं। वे संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित हैं। उन्होंने आगम साहित्य का गहराई से अनुशीलन किया है। न्याय, दर्शन
और योग का गम्भीर परिशीलन किया है। साहित्य और संस्कृति का
पर्यवेक्षण कर अध्ययन में प्रौढ़ता प्राप्त की है। आपका अध्ययन क बहुत ही विशाल और तलस्पर्शी है।
व आपश्री की प्रवचन शैली बहुत ही प्रभावपूर्ण है। जब आप राण गम्भीर गर्जना करते हैं तो श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। आपके
प्रवचनों में भाषा की सरलता, भावों की गम्भीरता और अध्ययन की विशालता के स्पष्ट दिग्दर्शन होते हैं। प्रवचनों के बीच ऐसी
चुटकी लेते हैं जिससे श्रोताओं में हँसी के फव्वारे फूट पड़ते हैं। - वस्तुतः आप वाणी के देवता हैं।
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी केवल प्रवचनकार ही नहीं अपितु कुशल लेखक भी हैं। आज तक शताधिक रचनाएँ कर उन्होंने भारती के भण्डार को समर्पित की हैं। भाषा की दृष्टि से उनका साहित्य हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, संस्कृत और अंग्रेजी में प्रकाशित है। विविध विधाओं में उन्होंने जमकर लिखा है, कथा साहित्य के क्षेत्र में तो एक कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया है। उनकी लेखनी के चमत्कार पर समाज को गौरव है।
श्री पुष्कर मुनिजी मेरे निकटतम स्नेही, सहयोगी, साथी रहे हैं। अनेकों बार साथ में रहने का अवसर मिला है, साथ में वर्षावास भी किये हैं। उनके स्नेह और सौजन्यता पूर्ण सद्व्यवहार से मैं सदा प्रभावित हुआ हूँ। श्रमण संघ को ऐसी वरिष्ठ विभूतियों पर सात्विक गौरव है।
-(७४वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर)
माहण कुल केतु सरिस, निवड्यो गच्छ अमरेश, तारक शिष्य तारक बनी, अद्भुत दे उपदेश, अद्भुत दे उपदेश, ध्यान दिग्दर्शन करता, शंकाऽकुल कोइ आत, उसीका संशय हरता, मधुर वचन अतिथि सुनत, निरखत दृग अनिमेष, माहण कुलकीर्ति सरस, निवड्यो गच्छ अमरेश ॥२॥
(३) परियटक परवीण हैं, घूमे देश अनेक, तन रुज की परवा नहीं, लो ये दृढ़ता देख, लो ये दृढ़ता देख, दृढ़ासन दृढ़ मर्यादा, रंच नहीं अभिमान, सदा रहते हैं सादा, सरस सादगी रहत, नित कदली वन गज देख, परियटक परवीण हैं, घूमे देश अनेक ॥३॥
-(७४वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर)
मनुष्य चाहे न बदले पर उसके विचार बदलते हैं। तभी तो एक ही झटके में महाभोगी महायोगी बन जाता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सौरभ का समुद्र
-स्व. उपाध्याय श्री कस्तूरचन्द जी महाराज
सन्त अगरबत्ती की तरह स्वयं जलकर दूसरों को सौरभ प्रदान करता है और मोमबत्ती की तरह प्रज्ज्वलित होकर दूसरों को आलोक बाँटता है। उसका जीवन विश्व कल्याण के लिए सर्वात्मना समर्पित होता है। पर वह सम्मान और सत्कार का स्वयं इच्छुक नहीं होता किन्तु समाज उसके गुणों से अनुप्राणित होकर वह सन्त का सम्मान कर अपने आपको गौरवान्वित करता है।
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी श्रमण संघ के एक वरिष्ठ सन्तरत्न हैं। जिन्होंने अपना जीवन जन-जीवन के उत्थान के लिए समर्पित किया है। हजारों मील की उन्होंने यात्राएँ की हैं भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार किया है। यही कारण है कि समाज का श्रद्धालु मानस उनके प्रति भक्ति भावना से विभोर होकर नत है।
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनका यह प्रवेश ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से बहुत मंगलप्रद है। उनका स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ रहेगा। उनकी जप व ध्यान साधना में अभिवृद्धि होगी। उनकी गौरव गरिमा दूज के चांद की तरह निरन्तर बढ़ती रहेगी और आपके शिष्य समुदाय में भी वृद्धि होगी।
-(७४वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर)
• अहंकार में ऊँचे चढ़े नयन, कपट में डूबा मन और दूसरों को दुःख देकर कमाया हुआ धन तीनों ही नाश करने वाले हैं।
पाप की परिभाषा पुस्तक से नहीं, अपने मन से पूछो। जो काम करते समय तुम्हें भय, लज्जा और बैचेनी का अनुभव हो, समझ लो वह पाप है।
अन्याय और अनीति की कमाई से कोई धनवान भले ही बन जाये परन्तु वह सुख-चैन से नहीं जी सकता।
● संसार में सुखी वह है, जो मेहनत की कमाई खाता है और भाग्य पर भरोसा रखता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
Sam AdubatorMIN
हे श्रमण श्रेष्ठ हे ! ज्ञानधाम ! लो मेरे शत-शत प्रणाम
-स्व. प्रवर्तक श्री शान्तिस्वरूप जी महाराज (मेरठ)
हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम हे कृपा सिन्धु लोकाभिराम । अध्यात्मयोगी निष्काम राम! मेरे लो शत-शत प्रणाम ॥
कहते हैं तीर्थराजपुष्कर, हैं सबके दुख को हर्ता । सब ताप मिटाता प्राणी के मनवांछित है पूरणकर्ता ॥ करता होगा लेकिन हमने तो नहीं आज तक है देखा। चलता-फिरता यह तीर्थराज "पुष्कर" तो सबने है देखा ॥ दिन-रात निरन्तर आत्मभाव का अमृत पान कराते हो। सुधासिक्त वाणी से प्रतिपल, मृत को अमर बनाते हो ॥ हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
क्यों न बनायेंगे जबकि, अन्तर् में, ले ब्रह्मतेज आया। वीर- प्रस्विनी के तेजस्वी कण से निर्मित की काया ॥ जबकि हो तुम सूर्य-सूनु, तो क्यों न सूर्य कहलाओगे ? हे बाली के बाल वाली सम क्यों न अजेय हो जाओगे ? जो है जगत्पूज्य अम्बा-लाल, न वो योगी होवे ? जो है अमृतपुत्र भला वह भी जग का रोगी होवे ? हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
तुमको पाकर सत्य अहिंसा सदाचार को प्राण मिला। विनय सरलता समता करुणा अनासक्ति को मान मिला। तप संयम स्वाध्याय ध्यान का मानो विमल उद्यान खिला । दुख सागर से पार होने को आर्त मानव को यान मिला ॥ हे महाप्राण ! हे धर्मदिवाकर !! अग जग का दुख हरने को। अनगिनत काल तक रहो यहाँ पृथ्वी ही देवमू करने को। हे श्रमण श्रेष्ठ, हे ज्ञानधाम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
साधना के शिखर पुरुष
-आचार्य श्री विजय यशोदेव सूरीश्वर
(जैन साहित्य मंदिर, पालीताना)
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी मुझे एक-दो बार मिले, बातचीत हुईं, लेकिन ज्यादा परिचय नहीं हुआ, मिलने का ४ विशेष मौका मिलता तो उनसे मिलकर आनन्द होता।
पुष्कर मुनिजी की साधना-आराधना विशिष्ट कोटि की थी। उन्होंने विशाल ज्ञान तथा साधनाबल द्वारा अपनी वाणी से हजारों लोगों को OP आत्मकल्याण के मुक्ति मार्ग पर चढ़ाया और अनेक आत्माओं को आध्यात्मिक प्रकाश से तेजस्वी बनाया था। देश के अग्रणी नेताओं ने भी - उनका आशीर्वाद प्राप्त किया है। ज्ञान और संयम की सुवास सबको आकर्षित क्यों नहीं कर सकती? PPS उनके जाने से आध्यात्मिक शक्ति का क्षय हुआ है, लेकिन आनन्द की बात यह है कि वे संघ को आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी जैसा श्रेष्ठ SD व्यक्तित्व भेंट कर गये हैं।
उनकी आत्मा जहाँ हो, वहाँ शांति प्राप्त करें।
श्रद्धा पुष्पाञ्जलिः
-आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वर
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साहित्यपुष्करे जातः पुष्करः पुष्करो मुनिः।
द्योतयेत् कृतिभिः नित्यं, पुष्करः शरदां शतम्॥ भारतीय वाङ्मयाम्भोनिधौ जैनाचार्याणामपूर्वयोगदानमद्यापि जगति रलाकरत्वं धार्यते। यत्र कुत्रापि येषु केष्वपि विषयेषु तत्वदर्शनेषु पाच्यार्वाचीनग्रंथेषु वा अवलोकनं क्रियते तत्र तत्रैव तेषामपूर्वदर्शनचिन्तन मुक्ता समृद्धयः सर्वत्रोपलभ्यते।
सहस्रेभ्यः वत्सरेभ्यः श्रमणसंस्कृतेरुपासकाः संस्कृतसाहित्येषु प्राकृतसाहित्येषु वा भण्डारं परिपूरयितुमनवरतः सन्नद्धाः वर्तन्ते। 3 विंशतिशत्यामपि श्रमणसंस्कृतिधारानवरत प्रवाहितास्ति जैनाचार्याः निरन्तरं रचनाक्षेत्रे संलग्नाः सन्ति। आधुनिकेषु विद्वद्वर्येषु उपाध्यायश्री - पुष्करमुनेः स्थानं महीयमानं वर्तते। स्वमौलिकरचनाभिः तेन श्रेष्ठत्वमरत्वं प्रापितमस्ति।
मौलिक ग्रन्थरचनाभिः जिनसाहित्य पुष्करिण्यां पुष्करमिव सुरभिणा सौरभवन्तमस्ति। मुनेः व्यक्तित्वं काव्यगगने स्वगच्छाकाशे च पुष्करोपमं चकासते स्व कृतिमयूखैः।
ज्ञानगंगास्वरूपोऽयं महाभागः मनीषिणां कृते चिन्तनावगाहने अनिर्वचनीयमानंदसंदोहत्वमनुभूयते। तेषां महाभागानां जीवनम्-"इह भविए do- वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे" पुण्यानुयोगेन सूर्यनगर्यां (जोधपुरे) मयापि चातुर्मास समये सम्मेलनस्ययोगः प्राप्तः। GER मयानुभूतं निर्मलमानसोऽयं विनम्रभूतिरासीत्। जैनकथासाहित्यैकादशोत्तरशतकथाकुसुमैः कथारचनायां कीर्तिमान स्थापितमस्ति। निबन्ध60 प्रवचनविधायामपि भवद्भिः मौलिक चिन्तनरूपाणि नवनीतानि यथा जैनधर्मेदानम् ब्रह्मचर्यम्, 'श्रावकधर्मदर्शनम्' एतानि पुस्तकानि सुरचितानि। काव्यक्षेत्रेषु 'श्रीमद्-अमरसूरिकाव्यम्' 'विमलविभूतयः' 'पुष्करपीयूषम्' काव्यग्रन्थाः विरचय्य सुहृदां हृदयेषु पीयूष-प्रवाहो प्रवाहितः। द्वितीयावसरो मुम्बापुर्यां तैः सह संयोगस्य मया प्राप्तः।। तेषां महाभागानां जिनसिद्धान्तनिष्ठां तपसाधनां ध्यानयोगे मनोयोगं च द्रष्ट्वाहमपि अतिप्रभावितोऽभवम्। माननीयोऽयं मुनिः निस्पृहयोगस्वरूपस्यादर्शो पूज्यश्चासीत्। जिनसमाजे तेषामतीवोपकारः कथं वयं विस्मरामः।
आचार्य देवेन्द्रमुनिभिः तेषां स्मृती अनुपम स्मृतिग्रन्थस्य प्रकाशनं क्रियते श्रुत्वैतत् अतीव प्रसन्नमानसोऽहं स्वश्रद्धापुष्पाञ्जलिस्वरूपं
भावार्चनस्वरूपञ्च यत्किञ्चित् हृदयभावं समर्पयामि। ०००
जयन्ति ते सुकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः। 1290करवाजापरतावातार Samedication tinlenaldhaROIDS.2000 24 ad6000
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
बालक अम्बालाल ने पिता की अनुमति पाकर दीक्षा ग्रहण की। । युगपुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि।
श्रमण बनकर श्री पुष्कर मुनि जी म. ने अपने जीवन को
संयम-साधना, ज्ञानसाधना व गुरुसेवा में लगाया। ज्यों-ज्यों आप -आचार्य श्री विजय नित्यानन्द सूरि जी म.
युवा होते गए वैराग्य चादर की शोभा बढ़ती गई। सांसारिक सुखों जिनका हृदय शान्ति, दया, वात्सल्य आदि सुवासित सद्भावों
को ठुकराकर प्रभु महावीर के मार्ग (वाणी) 'अप्पदीपो भव' को का उद्गम स्थल है, जिनके स्वस्थ विचार, मौलिक चिन्तन एवं
अपनाने का आपका निश्चय अब सभी को आह्लादित करता था। "मित्ती मे सव्वभूएसु' का उदात्त दृष्टिकोण आज के अनास्था, कुण्ठा
आपका अधिकांश समय अध्ययन, मनन व समाज को नूतन दिशा तथा वैषम्य से भरे अनात्मपरक भौतिकवादी युग में अध्यात्म
देने में व्यतीत होता था। आप जगत एवं जीव के सच्चे द्रष्टा बने
इसीलिए तो आपके प्रवचनों में चेहरे के ओज-उल्लास व वाणी की तप-त्याग के दीपस्तम्भ हैं, जो धर्म, अध्यात्म-साधन, ज्ञान-संस्कृति,
मृदुता से अपार जन-समूह उमड़ पड़ता था। आपका तपःपूत साहित्य व अन्यान्य में पूर्ण निष्णात रहे, जो कुशल संगठक,
आशीर्वाद पाकर भक्त अहोभाव में निमग्न हो जाते थे। एक सुखद प्रखरवक्ता, रससिद्ध कवि, वैराग्य के सच्चे प्रेरक एवं देव-गुरु के
आश्चर्य तो यह रहता था आप श्रद्धालुओं को अपनी सुधासिक्त प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहे ऐसे उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी
वाणी से प्रसन्न व सन्तुष्ट करके ही भेजते थे इसीलिए आपके महाराज के व्यक्तित्व का आकलन करना मुझ जैसे सामान्य सन्त
भक्तों में विद्वान्, साहित्यकार, धनी-निर्धन एवं सामान्य सभी प्रकार की शक्ति व शब्द सामर्थ्य से परे है। हाँ, आपश्री का गुणानुवाद तो
के लोग होते थे। जितना भी किया जाए, कम ही होगा और गुणानुवाद का अवसर पाकर मैं स्वयं को भाग्यशाली मानता हूँ।
वैदिक, जैन व बौद्ध-तीनों दर्शनों के विशद एवं गहन
अध्ययन के कारण आपकी वक्तृत्व कला पर सदैव गम्भीर चिन्तन दक्षिणी राजस्थान के मेवाड़ अंचल में उदयपुर जिले के की छाप रहती थी। ऐसे युगपुरुष हजारों वर्षों में एक बार ही जन्म सिमटार ग्राम में वि. सं. १९६७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को लेते हैं। वास्तविकता तो यह है कि आप एक विशिष्ट अध्यात्मयोगी ब्राह्मणकुल में जन्मा बालक अम्बालाल नौ वर्ष की अल्पायु में ही सन्त थे। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है ‘पन्ना समक्खिए धम्म मातृविहीन बन गया था। माता बालीबाई की मृत्यु से बालक के मन । तत्तं तत्तविणिच्छियं-'तत्त्व का निश्चय करने वाली प्रज्ञा ही धर्म के में संसार की क्षणभंगुरता का विचार आया और सम्भवतः यही स्वरूप को देखती है।' सत्य ही, आपने अपनी तत्त्वविवेचिनी प्रज्ञा वैराग्यभाव की पहली किरण थी जो अम्बालाल के मन-मस्तिष्क में 1 से धर्म के ही सही स्वरूप का चिन्तन-मनन किया था। अतएव आप कौंध गई थी। उनका मन घर में अपने साथियों के साथ खेलने में स्वकल्याण के साथ परकल्याण में सदैव लीन रहे। जैनसाहित्य व नहीं लगता था क्योंकि मन में तो वैराग्य का बीज अपनी भूमि पा
दर्शन के घेरे से बाहर जाकर भारतीय वाङ्मय दर्शन एवं साहित्य चुका था और उस बीज को पानी, हवा देने का कार्य साध्वीप्रमुखा
का समन्वयात्मक अध्ययन करने तथा सभी धर्मों और धर्मपुरुषों के महासती श्री धूलकंवर जी ने किया तो प्रकाश देने का कार्य पूज्य
प्रति समान आदरभाव रखने की अपने व्यक्तित्व की विशेषता के गुरुदेव श्री ताराचंद जी म. ने किया। दीक्षा से पूर्व ही बालक
कारण ही समय-समय पर विभिन्न सम्प्रदाय के प्रधान सन्त तो
आपसे अध्यात्म चर्चा किया ही करते थे। देश के मूर्धन्य विद्वान्, अम्बालाल को साधुओं की वेशभूषा, उनके पात्रे व क्रिया-कलाप बड़े रुचिकर लगते थे। एक बार उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव से पूछा
राजनीतिज्ञ व समाज-सुधारक समाज को सही दिशा देने के लिए
आपसे विचार-विमर्श किया करते थे। कि जैन धर्म क्या है? पूज्य ताराचन्द्र जी म. ने अत्यन्त स्निग्धभाव से कहा
आपके साहित्य सृजन से आज श्रमण-श्रमणी परिवार ही नहीं स्याद्वादो विद्यते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते।
वरन् सुधी श्रावक-पाठक भी लाभान्वित हैं। उपन्यास, संस्मरण,
निबन्ध, प्रवचन साहित्य, कथा साहित्य व चिन्तन साहित्य सभी पर नास्त्यन्यपीड़नं किंचिज्जैनधर्मः स उच्यते ॥
आपने अपना लेखन कार्य किया। जैन कथाओं के एक सौ ग्यारह -जिसमें स्याद्वाद है, पक्षपात नहीं है तथा किंचित् मात्र भी भाग के अतिरिक्त पुष्कर प्रभा, सागर के मोती, अमर पुष्पांजलि, परपीड़न नहीं है, उसे जैनधर्म कहते हैं।
संगीत सुधा, भक्ति के स्वर आदि आपके गीतों के संग्रह हैं। संस्कृत "हे वत्स! संसार में एकमात्र धर्म ही आत्मा का रक्षक है, यही
में आप द्वारा रचा गया 'अमरसिंह महाकाव्य' आपको साहित्यकारों
की प्रथम पंक्ति में प्रतिस्थापित करता है। आप द्वारा लिखे गए दीपक के समान अज्ञानान्धकार का नाश करने वाला है, जरामरण के वेग से बहते हुए जीवों के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है।
भजन राजस्थान में बहुत लोकप्रिय हुए हैं। इस धर्म की आराधना करने से तुम अजर-अमर स्थान प्राप्त कर
ऐसे प्रज्ञाप्रदीप, ज्योतिर्धर नक्षत्र व अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री सकते हो।"
पुष्करमुनि जी महाराज आज हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु उन्होंने
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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अनुकरणीय सीमा तक पूर्ण किया है। वर्तमान में विशाल श्रमण संघ 'पुष्कर' नाम आकाश का भी है। यथा-"विहाय आकाश के अनुशास्ता सरस्वती के मानसपुत्र, साहित्यकार विद्वद्वरेण्य । मनन्तपुष्करे।" इस प्रकार अनन्त के साथ पुष्कर का प्रयोग हुआ आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्रमुनि जी महाराज हैं। आप अपनी समस्त है। जिसका ओर-छोर नहीं मिलता, जो भारी प्रतिकूलताओं से घिरा उपलब्धि का श्रेय अपने पूज्य गुरुदेव उपाध्याय जी को देते हैं। मैं हुआ भी कभी अपनी निर्मलता नहीं खोता, वह विष्णुपद देवमार्ग तो परमपूज्य प्रबुद्ध सन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. तथा बना रहता है। पुष्कर नाम कमल का भी है। पुष्कर से संयोग से महाप्रभावक महान विद्वान आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. दोनों को 'पुष्करिणी' नाम बावड़ी का बनता है। 'पुष्करराज' तीर्थ तो विरल समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रखर विचारक मानता हूँ। आचार्य श्री तीर्थों में गिना ही जाता है। अस्तु, इन सभी पर्यायगत नामों को जी की तो सदैव व्यक्तिगत रूप से मुझ पर बड़ी अनुकम्पा रही है। अपने जीवन के अनर्घ्य पहलुओं से सार्थक बनाता हुआ महामनस्वी आपकी सरलता व सहजता को देखकर तो बस यही लिख । उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी का अभिधान कवियों की कल्पनाओं सकता हूँ
में साकार बना है इसीलिये यथा नाम तथा गुणाः वाली उक्ति एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् ।
शतप्रतिशत चरितार्थ हुई प्रतीत होती है। पृथिव्यां नास्ति तद्व्यं यद्दत्त्वा चानृणी भवेत् ॥ -गुरु जो शिष्य को एक अक्षर भी उपदेश करते हैं उस निमित्त पृथ्वी पर कोई ऐसा द्रव्य नहीं है, जिसको देकर शिष्य
प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी : उनसे उऋण हो सके।
उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. । उपरोक्त सूक्ति के अनुसार आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी कदापि
-युवाचार्य डॉ. शिवमुनि जी म. अपने पूज्य गुरुजी से उऋण नहीं हो सकते किन्तु मैं ऐसा मानता हूँ कि आप जैसे जाज्वल्यमान शिष्य ने पूज्य गुरुदेव के यश को
श्रमण संस्कृति अध्यात्म की भित्ति पर तथा तप और त्याग की दिग्-दिगन्त तक प्रचारित व प्रसारित कर एक अनुकरणीय प्रतिमान
आधारशिला पर आधारित है। श्रमण का जीवन साधनामय होता स्थापित किया है। इससे जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय
नहा आपतु सम्पूर्ण भारतीय है, वह स्वाध्याय, तप और ध्यान की आध्यात्मिक रूपी त्रिवेणी में समाज आपके व आपके गुरुवर के सदैव ऋणी तथा आभारी रहेंगे।
स्थापित होकर अपने अंतःकरण में अहिंसा-संयम-तपरूपी धर्म-दीप को प्रज्ज्वलित करता है, तथा उसकी धवल ज्योति में जीवन को
कंचनमय बनाता हुआ सारे संसार को अपनी गहरी अनुभूति का यथा नाम तथा गुणाः
दिग्दर्शन कराता है, और वह सदा-सदा के लिए विश्व जन समुदाय
का एक मार्गदर्शक बन जाता है। -आचार्यश्री चन्दन मुनि जी म.
उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. आगम साहित्य के व्यक्ति मात्र पूजनीय नहीं होता, सद्गुणपूर्ण गुणमंडित व्यक्तित्त्व
प्रबुद्ध चिन्तक एवं गम्भीर तत्ववेत्ता थे। जैन सिद्धान्त के स्तोक पूजनीय होता है। एक रससिद्ध महाकवि ने कहा है
साहित्य पर आपका परिपूर्ण अधिकार था। आपकी साहित्यिक ज्ञान
गरिमा अद्वितीय थी। आपने कविता के माध्यम से अनेक चरित्रों वदनं प्रसादसदनं, सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः ।
का प्रणयन किया था। आपका विपुल कथा साहित्य धार्मिक जनता करणं परोपकरणं, येषां केषां न ते वन्द्याः ॥
के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। जिनके मुखारविंद पर प्रसन्नता निवास करती हो, जिनके हृदय आप स्थानकवासी जैन समाज के मूर्धन्य संत रन थे। आपके सरोवर में दया हिलोरें मारती हो, जिनकी सहजवाणी अमृत वर्षाती प्रखर पाण्डित्य से प्रभावित होकर सादड़ी सन्त सम्मेलन में साहित्य हो, जिनकी प्रत्येक क्रिया परोपकारमयी हो वे महामना किनके शिक्षण पद पर आपको अधिष्ठित किया गया। भीनासर सम्मेलन में वन्दनीय नहीं होते? अर्थात् वे सभी के वन्दनीय होते हैं, उपास्य मंत्रीपद पर नियुक्त हुए। तत्पश्चात् अजमेर शिखर सम्मेलन में
परामर्शदात्री समिति के मनोनीत सम्माननीय सदस्य बने। उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी उसी प्रकार के महामनस्वी थे। श्रमण संघ के समग्र विकास के लिए आप सदा प्रयत्नशील गीर्वाणवाणी में 'पुष्कर' नाम जल का है। "नीरं वारि जलं " रहते थे। आपने आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी म. के सान्निध्य प्रभृति नामों में "क्षीर पुष्कर" सुस्थान पाता है। जल जीवन है, में रहकर श्रमणसंघ के उत्कर्ष में सतत् योगदान दिया है। आपके जल अमृत है। "पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्"- पृथ्वी साथी श्रमण संघ से पृथक् हो गये फिर भी आपकी आस्था श्रमण पर तीन रल हैं उनमें जल पहला है, प्रमुख है, अत्यन्तोपयोगी है। संघ के प्रति अटूट थी।
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होते हैं।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
आप उपाध्याय पद से विभूषित थे। आप एक प्रतिभाशाली संत थे। आपकी समग्र चेतना तत्व चिन्तन में प्रवाहित रहती थी। आपने अपने जीवन में जपयज्ञ को अधिक महत्व दिया। आपके हृदय में नवकार मंत्र की जप साधना अबाध गति से निरन्तर चलती रहती
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थी।
है वह अपूरणीय है। उनके संथारे के हृदय विदारक समाचार सुनकर ही हम अवाक् एवं स्तब्ध हो गये थे।
स्व. पूज्य उपाध्याय श्री जैन जगत् के तेज पुंज थे किन्तु आज उनके दिवंगत हो जाने से हम सब दिग्भ्रम हो गये हैं।
अपने ओजस्वी मंगलमय प्रवचनों एवं संयम-साधना से आपका आज की संत परम्परा में महिमा एवं गरिमामय स्थान था जो सदैव के लिए चिरस्मरणीय एवं स्पृहणीय बन गया है।
आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्रमुनि जी तथा समस्त साधनाशील अंतेवासी परिवार के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना है। आप सब इस दारुण आघात को सहन कर तथा उनके निर्देशित मार्ग पर चल कर उनकी कीर्ति को चिरस्थायी बनावें। आज की इस वियोग बेला में मेरे यही हार्दिक उद्गार हैं। र स्वर्गीय महापुरुष के पदचिन्हों पर स्वयं की सुवास से हम अपना जीवन सुवासित कर सकें। यही मेरी विनम्र एवं भावपूर्ण श्रद्धांजलि है।
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आप प्रसिद्ध प्रवचनकार थे। आपकी भाषण शैली भी बड़ी ही अनूठी एवं निराली थी। ओजभरी वाणी में जब आप विषय का विश्लेषण करते थे तब जनता मंत्रमुग्ध हो जाती थी। _आपने भारत के विभिन्न अंचलों में विचरण करके वीतराग वाणी का प्रचार-प्रसार किया, जन-जन में जिनवाणी की गंगा प्रवाहित करके जन-जागरण का अभिनव संचार किया। __आपका पंच भौतिक शरीर आज हमारे मध्य नहीं है, परन्तु उनका यशःकाय-निःसंदेह दिव्य प्रकाश स्तंभ बनकर मानवमात्र के लिये मार्गदर्शक बना रहेगा।
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। सरलता ही साधुता का भूषण है।
-स्व. उपाध्याय श्री केवल मुनि भगवान महावीर ने कहा है-सरलता साधुता का भूषण है। इस
हम सब उनके ऋणी रहेंगे सन्दर्भ में मैं सोचता हूँ तो उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी एक
--उपाध्याय डॉ. विशाल मुनि उदाहरणस्वरूप दीखते हैं। | उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी बहुत ही सरल एवं भद्र प्रकृति के आज अचानक यह दुःखद समाचार सुनकर अपार दुःख हुआ सन्त थे। उनकी मुख मद्रा वैसे तेजस्वी और वाणी प्रचंड ओजस्वी कि पूज्य उपाध्याय प्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. सा. का स्वर्गवास थी। प्रचंड वाणी का उद्घोष सुनने वाला जब उनसे बातचीत करता हो गया है। और कुछ समय उनके सहवास में बिताता तो ऐसा लगता था कि ये हमें कल्पना भी नहीं थी कि इतने जल्दी ऐसी दुःखद घटना सन्त सचमुच में श्रीफल-नारियल प्रकति के हैं। ऊपर से जितने
होगी। अभी तो चादर महोत्सव की खुशी का वातावरण महक ही कठोर और तेजस्वी दीखते हैं। भीतर हृदय में उतने ही मधुर तथा
रहा था कि उन्हीं प्रसन्नता की घटाओं से दुःखों की वर्षा हो गयी। सरल हैं। उनकी जल-सी सहजता, बालक-सी सरलता सभी के मन
समय की विडम्बना को नहीं आंका जा सकता है। को मोह लेती थी। कई बार उनसे मिलने का अवसर आया, परन्तु सदा ही मैंने उनको प्रसन्न, मृदुभाषी, विनम्र और सरल स्वभाव में
म उपाध्यायप्रवर श्री जी ने लम्बे समय तक इस पद पर रह कर ही पाया।
श्रमणसंघ की सेवा की, धर्म की अपार प्रभावना की, उसके लिए
हमारा श्रमणसंघ ही नहीं संपूर्ण जैन समाज उनका ऋणी रहेगा। | उपाध्याय श्री के स्वर्गवास से पुरानी पीढ़ी के एक प्रखर
वयोवृद्ध उस महापुरुष के महाप्रयाण कर जाने से जो क्षति हुई है तेजस्वी प्रभावशाली सन्त का अभाव हो गया है।
उसकी परिपूर्ति संभव नहीं है।
इस दुःखद घटना से आपको तथा आपके सन्त-साध्वी परिवार गरिमामय सन्त थे......
को जो कष्ट हुआ है वह अकल्पनीय है। हम आपके लिए हार्दिकता
सान्त्वना की कामनायें करते हैं। आप सभी सन्त रत्न उपाध्यायप्रवर -उपाध्याय मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल'
श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के आदर्श जीवन को जीवन्त करते रहें राजस्थान केसरी स्व. उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज
यही हमारी मंगलकामनायें हैं। आगम परम्परा के वरिष्ठ संत थे, उनके स्वर्गवास से जो क्षति हुई ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
व व्यवहार में कितने विनम्र और सरल हैं। वास्तव में ये ही गुण थे एक अपूरणीय क्षति
जो उनकी महानता को और अधिक महान बना रहे थे। -प्रवर्तक उमेश मुनि ‘अणु' उपाध्याय श्री के स्वर्गवास से स्थानकवासी समाज की महान
क्षति हुई है। उस संत पुरुष को शत-शत नमन! उपाध्याय श्री के संथारा सहित देहावसान की बात ज्ञात हुई। सुनकर एक आघात-सा लगा।
आपका आशीर्वाद मेरे साथ ! काफी समय से उपाध्याय श्री जी अस्वस्थ थे। आपश्री ने लम्बी दीक्षा-पर्याय पायी। बहुत विशाल क्षेत्र में विचरण किया। आप अच्छे
-प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी म. प्रवचनकार थे। आपने साहित्य-क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया। आप दीर्घ अनुभवी संत थे। आपके वियोग से बहुत बड़ी क्षति हुई है। वे असीम आस्था के केन्द्र प्रातः स्मरणीय परम पूज्य मेवाड़ भूषण आपश्री के पूज्य गुरुदेव थे। वियोग दुःखद होता है। आपने उनकी धर्म सुधाकर गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म. का जब उपाध्यायप्रवर भरपूर सेवा की। आप पर उनकी विशेष कृपा थी। उनकी छत्र-छाया राजस्थान केसरी श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी म. से मधुर मिलन में आपने अपना खूब विकास किया। उनके गौरव में आपने
हुआ उस समय मैं भी गुरुदेवश्री की सेवा में ही था। मैंने पहली श्रीवृद्धि की। सचमुच में आपने गुरु-ऋण बहुत अंशों में चुका दिया। बार पावन दर्शन किए थे उपाध्याय श्री के। फिर भी शिष्य को गुरु का वियोग पीड़ित करता है। आपके लिये मैंने अपना परिचय देते हुए कहाभी यह बात अपवादरूप नहीं हो सकती है। फिर भी आप ज्ञानी
"मेरे परिवार के सदस्य तथा जन्मभूमि मजल श्रीसंघ के लोग शिष्य हैं और हमारे आचार्य हैं। मैं आपश्री को क्या आश्वासन की
सभी आपके भक्त तथा अनुयायी हैं। गुरु आम्नाय की दृष्टि से सभी बातें लिखू। यह छोटे मुँह बड़ी बात होगी। हम सभी सन्त-सती यही
आपके शिष्य हैं।" मंगल-कामना करते हैं कि आपने गुरुकृपा से जो भी पाया है, वह वियोग की अग्नि से तपकर विशेष उज्ज्वल और तेजस्वी बने।
प्रसन्न मुद्रा में उपाध्यायश्री ने अपना वरदहस्त मेरे सिर पर आप परम श्रेष्ठ अनुशास्ता बनकर श्रमणसंघ में रत्नत्रय से सम्पन्न
रखते हुए फरमायाआत्माओं के निर्माता, पोषक, शोधक, संरक्षक और संवर्धक बनें। 1 "रमेश मुनि! तुम पहले मेरे शिष्य हो, फिर मेवाड़भूषण जी दिवंगत आत्मा जब तक परमात्म-स्वरूप को उपलब्ध न कर ले, तब म. के। दीक्षा लेकर रत्नत्रय की आराधना साधना में तुमने अच्छी तक उसके कारणरूप जिनशासन को प्राप्त करके उसमें रमण प्रगति की। तुमने अपने गुरु तथा सम्प्रदाय के गौरव को बढ़ाया है। करते रहें।
भविष्य में भी इसी तरह जिनशासन तथा श्रमणसंघ की गरिमा-महिमा में दिन-दूनी रात चौगुनी अभिवृद्धि करोगे। यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है।"
मैंने कहाजितने महान ! उतने ही विनम्र !
"हुजूर की महती कृपा है शुभ-भावना रूप आशीर्वचन रहे तो -उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पदमचन्दजी म. यह अकिंचन अवश्य अपनी आत्म-साधना-आराधना तथा
शासनप्रभावना में उत्तरोत्तर सफल होता जाएगा।" देहली, वीर नगर आदि स्थानों में उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी "मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है।" प्रसन्न मुद्रा में म. के साथ रहने का अवसर आया। तब मैंने उनको बहुत नजदीक
उपाध्यायश्री ने फरमाया। से समझा/देखा। उनका हृदय बहुत विशाल और प्रेमल था। जप,
सविनय साभार मेरे मुँह से निकलाध्यान-साधना में उनकी गहरी निष्ठा थी और वह हर किसी को ही जप की प्रेरणा देते थे। भक्त लोग उनके पास आकर अपनी पीड़ा
"चिन्त्यो न हंत! महतां यदि वा प्रभावः।" और बाधाओं की चर्चा करके उनसे मार्गदर्शन माँगते थे। तो आचार्यप्रवर पूज्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. के आचार्य पद चादर उपाध्याय श्री का हृदय करुणा से पसीज उठता था। वे बहुत ही समर्पण समारोह के अवसर पर पुनः जब उदयपुर की पावन धरा दयालु थे। दूसरों के दुःखों से द्रवित हो जाते और अपने स्वास्थ्य पर उपाध्यायश्री के दर्शन हुए तो वही स्नेह-आत्मीयता का खजाना की परवाह किये बिना दूसरों का कष्ट मिटाने का प्रयास करते। प्राप्त हुआ। साथ ही वे पूर्व में मिले आशीर्वचन रूप ही मेरे उनसे जब कभी बातचीत होती तो लगता इतने महान सन्त बातचीत हृदय-स्थल पर चमक रहे हैं।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
ऐसे महान संतप्रवर का वियोग श्रमणसंघ के लिए एक अपूरणीय क्षति है। मैं अपनी ओर से उपाध्यायश्री को श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।
ब्राह्मण कुल में जन्म लिया, फिर जैन धर्म स्वीकारा। तेरी वाणी से अमृत की बही सदा मृदुधारा॥ हे महामुनि पुष्कर तुमको जग भूल नहीं पाएगा। भटके जग को दिया सर्वदा तुमने नव उजियारा॥
जन-जन के पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी
-प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 'कमल'
अतीत के संस्मरण
-प्रवर्तक श्री कुन्दन ऋषि जी
परम श्रद्धेय स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का जीवन सन् १९६४ में अजमेर में सम्मेलन था, आचार्य भगवन्त निराला एवं आदर्श जीवन रहा है। जैन-अजैन सभी आज भी उनके शाजापुर वर्षावास पूर्ण कर मध्य प्रदेश के चुने हुए बड़े-बड़े क्षेत्रों आध्यात्मिक व्यक्तित्व की महिमा गाते नहीं थकते। जो भी आपके । को स्पर्शते हुए अनेक मूर्धन्य सन्तों को साथ में लेकर राजस्थान की सान्निध्य में पहुँचा उसे अकथनीय शांति की अनुभूति हुई। यही वीरभूमि की ओर कदम बढ़ा रहे थे। मैं गुरुदेव के साथ ही था। कारण है कि वे जन-जन के पूज्य बन गए मेरे लिए भी वे पूर्णतः मुझे दीक्षा लिए करीब डेढ़ वर्ष हुआ था। दीक्षा पर्याय थोड़ी थी। पूजनीय एवं वंदनीय हैं।
अनुभव भी नहीं था। सर्वप्रथम उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे अजमेर मुनि सम्मेलन उधर बाड़मेर की ओर से मंत्री श्री पुष्कर मुनिजी, मंत्री श्री के लिए जाते समय गुलाबपुरा में मिला। तदनन्तर एक लम्बा । अम्बालाल जी म. अपने शिष्यमंडल के साथ आचार्यश्री जी के अंतराल उनके दर्शन बिना गुजर गया, चाहकर भी मिलने का स्वागत के लिए उग्र विहार करते हुए गुलाबपुरा पधारे, मैंने कई प्रसंग बन नहीं पाया। नागौर वर्षावास के बाद जब हम मीरा नगरी दिनों से उनका नाम सुना था, किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किए थे। मेड़ता पहुँचे वहाँ एवं बाद में जैतारण की धरती पर श्रमण सूर्य
गौर वर्ण, सुगठित शरीर, विशाल भाल, प्रभावी चेहरा, मझला मरुधरकेसरी जी म. की स्मृति में आयोजित समारोह के अवसर
कद, ओजस्वी बुलन्द वाणी उन्होंने आचार्यश्री जी को वन्दन किया। पर उनके चरणों में रहने का अवसर मिला। इसके पश्चात् अन्तिम
मैंने भी उन सन्तों के चरणों में अपना मस्तक झुकाया। वे थे मंत्री दर्शन अभी हुए आचार्य पद चादर समर्पण समारोह के ऐतिहासिक
श्री पुष्कर मुनिजी म.। उन्होंने बड़े स्नेह एवं वाल्सत्य से मेरी पीठ प्रसंग पर झीलों की नगरी उदयपुर में।
पर थापी मारी और हाथ पकड़ कर नाम पूछा। मैं अपने आपको एक-एक स्मृति आज भी मेरे मन-मस्तिष्क के बोध पट पर धन्य मानने लगा, आज इन महान् सन्त का आशीर्वाद मिला, अंकित है। उनके सम्पूर्ण जीवन-व्यवहार में मैंने कहीं पर भी गुलाबपुरा, विजय नगर, ब्यावर होकर अजमेर गए। आगे-पीछे दोहरापन नहीं देखा। बहुत ही सरलता एवं सहजता के जीवन्त । साथ चलते रहे, हर जगह प्रतिदिन दर्शन होते रहे। प्रतीक थे वे। मधुरता, व्यवहारकुशलता, प्रवचन पटुता, संघ संगठन अजमेर से गुरुदेव ने जयपुर की ओर कदम बढ़ाए। आप के प्रति निष्ठा अनेकानेक ऐसी विशिष्टताएँ उनमें थीं कि उन्हें मैं राजस्थान में ही रहे। सन् ७२ में सांडेराव सम्मेलन हुआ। कभी भूल कर भी नहीं भुला सकता। पिछले कुछ वर्षों से वे निरंतर आचार्यश्री जी पंजाब, देहली, यू.पी., हरियाणा आदि प्रान्तों में 800 अस्वस्थ चल रहे थे। बावजूद उनका आत्मबल एवं समभाव जो था । विचरते हुए राजस्थान पधारे। आप भी गुजरात, महाराष्ट्र, बम्बई उसका स्मरण होते ही मन सहसा धन्य-धन्य कह उठता है। होकर साण्डेराव पधारे। राजस्थानी सन्तों का सम्मेलन था, उस दिन
अद्भुत विद्वता के धनी उपाध्याय श्री ने अपने जीवन में सतत् समय भी आपके दर्शन हुए। उस समय देखा कि बड़ों के सामने अप्रमत्त रह कर जहाँ महत्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया वहीं
बात भी रखते हैं कितने विवेक के साथ सीमित शब्दों में और कहीं अपनी अनोखी सूझ-बूझ से ऐसे सन्तों का निर्माण किया जो अपनी
हठाग्रह नहीं। विद्वता एवं सर्जना से आज जन-जन को प्रेरित एवं उल्लसित कर । बाल दीक्षा को लेकर बम्बई में आपके साथ हुए व्यवहार को रहे हैं। हमारे श्रमणसंघ को आज योग्य आचार्य के रूप में लेकर काफी चर्चा हुई। फिर कहीं मन में कटुता नहीं, साफ हृदय से परमादरणीय श्री देवेन्द्र मुनि जी म. जैसे प्रज्ञा पुरुष संप्राप्त हैं यही 1 सब कुछ कह दिया, सादड़ी तक साथ रहे। आचार्यश्री जी मध्य उसी महासंत की देन है। अंत में पूरी श्रद्धा के साथ मैं इन पंक्तियों । प्रदेश होकर महाराष्ट्र में पधारे। सन् ७५ में आचार्य भगवन्त D OL के साथ उनके श्रीचरणों में अपनी आस्था के सुमन समर्पित । घोड़नदी वर्षावास के लिए पधार रहे थे। आपश्री पूना वर्षावास के करता हूँ
लिए पधारे। खेड़ मंचर (पूना) में पुनः दोनों महापुरुषों का मिलन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । हुआ। बड़ी हार्दिकता थी, उस समय देखा कि आप कितनी सुन्दर उसके बाद श्रमणसंघ को सुदृढ़ करने के लिए, शेष कार्य लोक भाषा में कविता बनाते हैं और जब गाकर सुनाते तो | सम्पन्न करने के लिए आचार्य उपाचार्य का सन् १९८७ का संयुक्त श्रोतागण झूम उठते हैं। उसमें कितना आकर्षण था। कुछ दिन वर्षावास हुआ। चातुर्मास सफल करने के लिए आपने काफी प्रयास साथ-साथ रहे, चातुर्मास के पश्चात् भी आपको कर्नाटक जाना था,
किया। आने वाली समस्या को सुन्दर ढंग से हल किया। आपकी आचार्य भगवन्त का स्वास्थ्य थोड़ा अस्वस्थ हुआ, सुनकर आप | गंभीरता, सरलता, सरसता के दर्शन उस समय हुए जब आचार्यश्री घोड़नदी पधारे।
जी का दीक्षा अमृत महोत्सव व सामूहिक दीक्षा का कार्यक्रम भी उस समय श्रमणसंघ का संगठन सुदृढ़ कैसे हो, उसकी बड़े धूमधाम से सम्पन्न हुआ। साधना एवं स्वाध्याय में तल्लीन रहने व्यवस्था सुन्दर ढंग से चले इस विषय को लेकर काफी चिन्तन । वाले महान् सन्त आज हमारे बीच नहीं रहे किन्तु उनकी स्मृतियाँ हुआ। कुछ पदाधिकारियों के चयन को लेकर भी चर्चा हुई। उस हृदय-पटल पर अंकित हैं। समय आपको उपाध्याय बनाने का आचार्यश्री जी ने निश्चय किया और पदाधिकारियों से राय मँगा ली। पूना वर्षावास में संवत्सरी के
बहुआयामी व्यक्तित्व दिन घोषणा की, आपका रायचूर वर्षावास था। आप बैंगलोर, मद्रास पधारे, सन् ७९ का वर्षावास आचार्यश्री जी का
-श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद' सिकन्दराबाद था। आप भी दक्षिण की ओर से लौट रहे थे, और
(श्रमण संघीय महामंत्री) हैदराबाद में पुनः गुरुदेव के साथ आप सभी का सम्मिलन हुआ। आचार्य, उपाध्याय संयुक्त वर्षावास हुआ। चातुर्मास में आप सभी मैं एक समुद्र के किनारे बैठा हूँ, किसी लहर को पकड़ना का पूर्ण सहयोग रहा। वर्तमान आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि म. हर चाहता हूँ किन्तु लहरें इतनी अधिक उमड़ती चली आ रही हैं कि समय साथ थे।
किसी को पकड़ पाना संभव नहीं लग रहा है, हर लहर का अपना इन सुदीर्घ काल में आपका काफी सहयोग रहा अतः अनेक
सौन्दर्य है, अपनी गूंज है। समस्या, भावी योजना सभी बैठकर तैयार करना, कार्यान्वित उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. का व्यक्तित्व एक समुद्र करना, उस समय आपसे काफी शिक्षा मिली। हम सभी छोटे सन्तों का व्यक्तित्व है, विस्तृत और गहन। मैं उनके जीवन से उमड़ती को आपके सान्निध्य में बैठने का आगम-चर्चा को अवकाश मिला।। अनेकानेक विशिष्टताओं में से किसी एक को व्याख्यायित कर आगे उस समय अभिनन्दन ग्रन्थ आपको भेंट करना था। आपने कहा बढ़ना चाहता हूँ, किन्तु मेरे सामने प्रश्न है कि किस विशेषता को किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को लाने की जरूरत नहीं है। हमारे
लेकर चलूँ सभी विशेषताएँ अपना एक अलग महत्व रखती हैं। हीरे राष्ट्रपति हमारे संघनायक हैं, इन्हें छोड़कर किसी को बुलाने की
के हर पहलू की तरह। उनकी प्रत्येक विशिष्टता में एक अप्रतिम जरूरत नहीं है। यह आपकी उदारता, समयसूचकता एवं बड़ों के चमक है। सन्मान का द्योतक है।
सादड़ी सम्मेलन का वह उत्साहपूर्ण वातावरण, चारों तरफ ___ संगठन के आप हिमायती थे, उदात्त विचार के धनी थे, हम
फैली गहरी चहल-पहल। दूर-दूर से पधारे मुनियों का परस्पर सभी दूध शक्कर बनकर रहे। इसलिए ६-७ माह किधर निकले
स्नेहपूर्वक मिलन, सभी तरफ आनन्दपूर्ण रौनक, उसी सुन्दर इसका पता ही नहीं चला। चातुर्मास बाद आचार्यश्री जी कर्नाटक
वातावरण में एक भरपूर युवा सन्त ने यकायक मुझे अपने हाथों में होकर महाराष्ट्र पधारे, आप भी महाराष्ट्र होकर गुजरात,
उठा-सा लिया, और गम्भीर स्वर में पूछा-क्या तुम्हारा ही नाम है राजस्थान में पधारे। करीब ९ वर्ष के बाद सन् १९८७ में पूना
सौभाग्यमुनि? मैंने कहा-तहत। अच्छा क्या पढ़ते हो? शिखर सम्मेलन हुआ। आपका स्वास्थ्य भी इतना अनुकूल नहीं था, प्रवास काफी दूर का था, फिर भी आचार्यश्री जी का आग्रह भरा
मैंने कहा-लघुसिद्धान्त कौमुदी रट रहा हूँ। आमंत्रण पहुँचा, डेपूटेशन पहुंचा और तुरन्त स्वीकृति दी और "कहाँ तक याद कर ली?" अपने शरीर की ओर लक्ष्य न देते हुए सर्दी-गर्मी परिषह को सहते
"भ्वादिगण चल रहा है।" हुए पूना पहुँचे। सम्मेलन के कार्य में पूर्ण सहयोग दिया, सम्मेलन सफल रहे यही सभी सन्तों का विचार था।
उन्होंने एक-दो सूत्र पूछे। मैंने वृत्ति सुना दी, बहुत खुश, और सभी पदाधिकारी सन्तों के विचार विनिमय के बाद शास्त्री श्री
कहा-अच्छा पढ़ते रहो। देवेन्द्रमुनि जी म. को उपाचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय इस प्रथम परिचय के बाद मैं उस सत्र में अनेक बार महाराज हुआ, सम्मेलन में पद की घोषणा एवं सन्मान में चादर भी भेंट की श्री के दर्शन करता रहा। हर बार मुझे देखकर वे बहुत खुश होते गई। हम सभी को प्रसन्नता हुई।
और कुछ न कुछ नयी प्रेरणा अवश्य प्रदान करते। कन्वतस्तष्कप्तप्त
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सादड़ी सम्मेलन के बाद हम पुनः मेवाड़ आ गये और उपाध्याय श्री अपने गुरु श्री ताराचन्द्र जी म. के साथ दूरवर्ती क्षेत्रों प्रवासरत रहे।
एक लम्बे अन्तराल के बाद हम फिर देलवाड़ा मिले, जहाँ स्व. निवाड़भूषण पूज्य मोतीलाल जी म. सा. स्थानापन्न थे।
पूज्य उपाध्याय श्री ने यहाँ भी मेरे अध्ययन की पूर्ण जानकारी नी। इसके बाद तो अनेक बार उपाध्याय श्री से मिलन होता रहा।
मैंने जब-जब भी उनको देखा वे प्रसन्नवदन थे। प्रफुल्लित, आनन्दपूर्ण बने रहना उनका स्वभाव-सा बन गया था। उदासीनता ख दैन्य उनके वातायन में भी कहीं प्रविष्ट नहीं हो सकते थे, यहाँ तक कि यदि कोई कुछ उदासी ओढ़े उन्हें दिखा भी गया तो थे चन्द शब्दों से ही उसे गुदगुदा देते थे।
"यथाकृति तथा गुणाः " यह उक्ति उनमें शत-प्रतिशत चरितार्थ श्री जैसी उनकी कद-काठी, डील-डील भव्य था, उनकी अनुभूति, अभिव्यक्ति तथा प्रवृत्ति सभी उतने ही भव्य और उदात्त थे।
मधुर और मनोरंजक स्वभाव होने से हमें उनसे बात करने में कभी संकोच नहीं हुआ। यही नहीं, हम कभी-कभी उनसे कुछ कौतूहल भी कर बैठते तो उपाध्याय श्री स्वयं ही खिलखिला कर हँस पड़ते और उस कौतूहल को आनन्दपूर्ण वातावरण प्रदान कर देते।
यह उनकी कृपा ही थी कि भ्रमणसंघ और सामाजिक प्रश्नों पर वे हमारे जैसे छोटे मुनियों से भी विचार चर्चा कर लिया करते थे।
संवत्सरी विषय विषयक हमारी और उपाध्यायश्री की पूर्व नरम्परा में पर्याप्त भेद रहा।
श्रमणसंघ में भी संवत्सरी का प्रश्न चर्चित होता रहा।
जब कभी सेवा में बैठने का अवसर मिलता उपाध्यायश्री अवश्य फरमाते-अरे कुमुद, यह संवत्सरी का विवाद तो श्रमण संघ से समाप्त करो।
मैं कहता- उपाध्यायश्री आप मिटाओगे तो यह विवाद मिट ही जायेगा।
अन्ततः पूना सम्मेलन में वह विवाद भ्रमणसंघ में सदा के लिए समाप्त हो गया। उस दिन जब मैं सभा समाप्ति पर उपाध्यायश्री से मिला तो उनके हर्ष का पारावार न था ।
उन्होंने फरमाया- बस ! आज बहुत अच्छा हुआ। जो विवाद श्रमणसंघ में काँटे की तरह चुभ रहा था, निकल गया।
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संघ ऐक्य की कितनी गहरी शुभेच्छा भरी हुई है उपाध्यायश्री के मन में।
उपाध्यायश्री हर्ष-विभोर होकर बोले जा रहे थे, मैं उनके -आनन्दोल्लसित मानस की हर्षोर्मियों को पढ़ रहा था। मैंने सोचा
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उपाध्यायश्री ने कहा- पूरे जैन समाज की संवत्सरी भी एक दिन निश्चित हो जाये तो कितना आनन्द रहे ?
मैंने कहा- महाराजश्री आपकी भावना यह लाखों अनुयायियों की भावना है, यह कभी न कभी अवश्य सफल होगी।
पूज्य उपाध्यायश्री की अपनी एक अनूठी वक्तृत्व कला थी। गेयात्मक पदों का पुनःपुनः उच्चारण करते हुए अपने विषय को रसपूर्ण और सर्वग्राही बना देने में वे परम निपुण थे। गम्भीर से गम्भीर विषय को भी लोक ग्राह्य बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। कभी-कभी तो मैंने देखा कि उपाध्यायजी न्यायशास्त्र के रूक्ष और गम्भीर विषय पर ही विवेचना करने लगते, हम समझते कि अभी जनता में उकताहट आ जायेगी। ऐसे रूक्ष और गम्भीर विषय को यहाँ कौन समझने वाला है किन्तु उपाध्याय जी छोटे-छोटे दृष्टान्त और लोकोक्तियों को प्रस्तुत कर उस विषय में ऐसी सरलता भर देते कि श्रोता न केवल उस विषय तथा रूप को समझ लेता अपितु वह आनन्द से भी परिपूर्ण हो जाता। हम सोचते यह कला उपाध्यायजी में ही है।
वे जन्मना ब्राह्मण थे। श्रमण वाङ्मय का अध्ययन तो उन्होंने किया ही, वैदिक शास्त्रों का अध्ययन भी उनका बढ़ा-चढ़ा था। उनके वार्तालाप और प्रवचन में श्रमण-ब्राह्मण संस्कृति के तत्त्वों का विलक्षण समन्वय रहता था। इससे न केवल उस विषय की रोचकता बढ़ जाती अपितु दोनों संस्कृति के ज्ञान रस का अद्भुत समन्वित आनन्द उपलब्ध होता था।
उपाध्यायश्री की बहुश्रुतता अतिविख्यात भले ही न हो किन्तु गहन और विस्तृत अवश्य थी। बहुश्रुत कहलाने वाले सन्तों के द्वारा दिये गये समाधान भी जब उपाध्यायश्री की तर्क कसौटी पर चढ़ते तो उन्हें असफल और निष्तेज होते देखा गया।
स्वाध्याय उनके जीवन की अनिवार्य प्रवृत्ति थी। वे अध्ययन और अध्यापन के प्रति बहुत ही जागरूक थे। यही कारण है कि आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी, श्री गणेश मुनिजी, डॉ. राजेन्द्र मुनिजी, रमेश मुनिजी और अनेक विदुषी साध्वीजी को महाराज श्री तैयार कर सके। सचमुच वे जीवन-शिल्पी थे। उनकी ज्ञान गरिमापूर्ण प्रतिभाशाली रचनाओं से जिनशासन और श्रमणसंघ शोभान्वित हो रहा है।
आचार्य चहुर महोत्सव के अवसर पर जब हम दिनांक १८ मार्च को उदयपुर पहुँचे तब उपाध्यायश्री स्वस्थ और प्रसन्न थे। उन्हें देखकर एक क्षण के लिए भी हम यह नहीं सोच पाये कि यह विभूति अब अपनी आयु के अन्तिम क्षणों में प्रवर्तमान है।
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बहुत सामान्य अस्वस्थता उभरी और बढ़ती गई, फिर भी दिनांक २८ मार्च (चहर महोत्सव) तक अस्वस्थता इतनी गम्भीर नहीं थी, कि जो घटित हुआ उसकी कल्पना कर सकें।
उपाचार्य श्री चद्दर उत्सव के लिए आशीर्वादार्थ सेवा में पहुँचे तो मैं साथ था। प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद देते हुए विदा किया और पुनः हम लौटकर आये तो मैंने पूछा- उपाध्यायश्री कौन आये हैं?
उपाध्यायश्री ने गम्भीर वाणी में कहा "आचार्यश्री" और बड़े भाव-विभोर हो आशीर्वाद दिया। उसी रात्रि उपाध्याय श्री गम्भीर स्थिति में चले गये, उसके बाद वे उस रोगान्तक से उभर नहीं पाये और हमारे देखते-देखते प्रयाण कर गये।
जिस गरिमा से वे जिए, उसी गरिमा के साथ चल पड़े। सैकड़ों साधु-साध्वी जी और हजारों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति उनके स्वर्गवास क्षणों की अन्यतम विशेषता है जिसका अन्यत्र उदाहरण मिल पाना कठिन है।
उपाध्यायश्री नहीं रहे, एक युग खंडित हो गया, एक पीढ़ी चुक गई।
आचार्यसम्राट् आनन्द ऋषि जी म. पूज्य गुरुदेवश्री भारमल जी म., प्रवर्त्तक श्री पन्नालाल जी म., पूज्य मरुधरकेशरी म., पूज्य कस्तूर चन्द जी म. पूज्य छोगालाल जी म. आदि महान् सन्तों की एक पीढ़ी थी । उपाध्याय जी उसी पीढ़ी के संत थे, आज वह पीढ़ी समाप्तप्रायः है। उस पीढ़ी के अभी दो-तीन महान् संत शेष बचे हैं, अन्यथा अधिकांश आज अनुपलब्ध हैं, समाज में एक ऐसी रिक्तता खड़ी हुई है, जिसे भर पाना कठिन लग रहा है।
पूज्य उपाध्यायश्री के स्वर्गस्थ होते ही मैं नीचे आया और गुरुदेवश्री (पूज्य प्र. श्री अम्बालाल जी म. सा.) को कहा कि उपाध्यायश्री नहीं रहे गुरुदेव में कहा "मेरे सभी साथी छोड़कर चले गये।" गुरुदेवश्री के ये वचन इतने आर्द्र थे कि मेरा हृदय हिल गया। मैंने देखा - गुरुदेवश्री की आँखों के पास की झुरियाँ अश्रु कणों से भीगी थीं। मैं भी मन-नयन से आर्द्र हो उठा।
हम जानते हैं कि उपाध्यायश्री के अभाव की पूर्ति अब संभव नहीं है, किन्तु उनकी कमी समाज को लम्बे समय तक अखरेगी।
वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, उनकी स्मृति ही युगों-युगों तक हमें सम्प्रेरणाएँ प्रदान करती रहेगी।
श्रद्धा-सुमन
-ध्यानयोगी पं. श्री हेमचन्द्र जी म.
परम पावन, उपाध्यायप्रवर स्वनाम धन्य श्री पुष्कर मुनि जी म. की पुण्य स्मृति में एक स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन का आयोजन किया जा रहा है, यह अत्यन्त प्रसन्नता एवं गौरव का विषय है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
ऐसे सर्वोत्कृष्ट महापुरुषों के कृत उपकार से उऋण होने के लिए ऐसे सात्विक आयोजनों का होते रहना, समाज के लिए आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य होता है।
इसी संदर्भ में मेरे मन में भावना जागृत हुई कि उस सर्वोत्कृष्ट महापुरुष के चरणों में मैं भी कुछ श्रद्धा के सुमन समर्पित करूँ।
उस अध्यात्मयोगी महाश्रमण के पावन श्रीचरणों में बैठने और मुक्त हृदय से वार्तालाप करने का सौभाग्य मुझे कई बार संप्राप्त हुआ था। इसलिए उन परम पावन क्षणों को मैं अपने जीवन पर्यन्त भुला नहीं सकता। वे जादू भरे क्षण तो आजीवन मेरे मानस पटल पर अमिट रूपेण उटटकित रहेंगे।
एक बार श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी का वर्षावास वीर नगर, जैन कॉलोनी, दिल्ली में था और हमारा चातुर्मास उनके अत्यन्त सन्निकट ही शक्तिनगर, दिल्ली में था। एक दिन मेरे मन में आया कि वीरनगर जाकर उस परम पावन पुरुष के दर्शन किए जायें और उनका मंगलमय आशीर्वाद लिया जाये। लेकिन मन थोड़े असमंजस एवं थोड़े संकोच में भी था कि पता नहीं, श्रद्धेय महाराजश्री जी का मेरे साथ क्या कुछ और कैसा व्यवहार होगा ? फिर भी हिम्मत करके मैं उनके पावन चरणों में पहुँच ही गया।
मुझे अपने सन्मुख देखते ही वे महापुरुष हर्ष से गद्गद् होकर कमल के समान खिल उठे। आओ ! मुनि जी आओ! पधारो ! बड़े दर्शन दिए, ऐसा कहते हुए वे अपने पट्टे से उठे और आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ते हुए अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने आसन तक ले गये। फिर उन्होंने बलात् मुझे अपने पट्टे पर अपने बराबर ही बैठा लिया। तदनन्तर कुशल मंगल पूछते हुए अत्यन्त प्रेमपूर्वक निस्संकोच वार्तालाप करने लगे।
उनके इस अपनत्व एवं प्यार भरे मधुर व्यवहार को देखकर मेरा समस्त असमंजस और सारा का सारा संकोच छू-मन्तर हो गया। उस समय तो मुझे ऐसा अनुभव होने लगा मानो हम दोनों तो जन्म-जन्म से चिर-परिचित एवं संगी साथी हो
उस समय उनके चरणों में बैठकर मुझे जो प्यार मिला, वह अनुपम था। उस समय उनसे जो आत्मीयता मिली, वह सचमुच में बेजोड़ थी। इस प्रकार उनका अकृत्रिम स्नेह एवं मधुर व्यवहार प्राप्त करके मैं तो निहाल हो गया, कृत-कृत्य ही हो गया। वास्तव में उनकी जैसी महिमा एवं गुण गरिमा सुनी थी, प्रत्यक्ष में उससे भी अधिक दृष्टिगोचर हुई। तभी से मेरे मन में उनके प्रति गहन आस्था और अगाध श्रद्धा है।
इसी से मैं डंके की चोट कह सकता हूँ कि श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी का जीवन समता और स्नेह से परिपूर्ण था। वे जैसे बाहर में थे, वैसे ही अन्तर में थे। उनका हृदय निष्कपट था उनमें किसी भी प्रकार की कोई बनावट नहीं थी। वे श्रमणसंघ के प्राण थे। वे साधु समाज के स्थायी स्तम्भ थे। वे निरन्तर ज्ञान-साधना में लीन रहते
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
थे। वे संयम साधना के सजग प्रहरी थे। वे संयम साधना में सतत जागृत रहते थे। वे जैन गगन मण्डल के एक ज्योतिर्मान नक्षत्र थे। वे संगठन एवं संघ एकता के प्रबल पक्षधर थे। वे श्रमणों में श्रेष्ठ श्रमण थे। ये योगियों में श्रेष्ठ योगी थे ये ज्ञानियों में उत्तम ज्ञानी थे। वे सत्य-अहिंसा की साक्षात् मूर्ति थे। श्रमण संस्कृति के उन्नायकों में उनका विशिष्ट और श्रेष्ठ स्थान रहा है। उन्होंने साहित्य एवं प्रवचनों के द्वारा समाज का अत्यधिक उपकार किया है, जिससे जैन समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। वे धीर थे, गम्भीर थे, सरल थे और समताधारी थे। वे सच्चे क्षमाश्रमण थे। महावीर की अहिंसा, राम की मर्यादा और बुद्ध की करुणा से उनका जीवन ओत-प्रोत था। इन गुणों से वे महावीर थे, राम थे एवं बुद्ध भी थे।
वे स्वयं तो गहन विद्वान थे ही, उनके शिष्यरत्न भी परम विद्वान हैं जिनमें श्री देवेन्द्रमुनि जी म. वर्तमान में स्थानकवासी समाज के एक मूर्धन्य संत हैं जो श्रमणसंघ के आचार्य जैसे सर्वोच्च पद पर आसीन हैं। मुझे अटल विश्वास है कि इनके शासन में श्रमणसंघ की दिनों-दिन उन्नति होगी। स्थानकवासी जैन समाज का गौरव बढ़ेगा। बस इन्हीं शब्दों के साथ उन परम पावन, उपाध्यायप्रवर, स्वनामधन्य श्री पुष्कर मुनिजी म. को मैं अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ ।
कल्पवृक्ष मुनिराज थे
-श्रमणसंघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनि जी म.
उपाध्याय पद की गरिमा
पंच परमेष्ठी में आचार्य पद का तीसरा और उपाध्याय पद का चौथा स्थान है। आचार्य पद आध्यात्मिक आचरण के महास्तोत्र का अभिव्यंजक होता है और उपाध्याय अध्यात्म विद्या का चमचमाता दिव्य दिवाकर माना जाता है। यह सत्य है कि प्रशासन की दृष्टि से आचार्य का स्थान ऊँचा है, उपाध्याय से महान् होता है, परन्तु एक अपेक्षा से उपाध्याय का पद आचार्य पद से भी अधिक महत्वपूर्ण रहता है क्योंकि आचार्य केवल साधु-साध्वी के आचार को शुद्ध बनाने में जागरूक रहते हैं, उनके आचरण में जान डालते हैं। कौन नहीं जानता कि आचरण तभी तेजस्वी हो पाता है, जब उसके साथ ज्ञान का संगम कायम रहे। ज्ञान से ही आचरण में तेजस्विता आती है। जैनागम भी आचरण से पहले ज्ञान हो महत्व देते हैं। श्री दशवैकालिक सूत्र इस सत्य का पूर्णतया सम्पोषण कर रहा है
"पढमं नाणं तओ दया।"
भाव स्पष्ट है, पहले ज्ञान और उसके अनन्तर दया (आचरण) होती है।
ज्ञान के प्रदाता महापुरुष उपाध्याय ही होते हैं। अतः श्रमण संघ का प्रथम शिक्षक उपाध्याय ही माना जाता है। विधान कहता है
Pinternatio
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कि साधु १२ वर्ष तक उपाध्यायश्री के चरणों में बैठकर श्रद्धा-भक्ति और विनयपूर्वक आगमों के मूलपाठ का अध्ययन करे, उसके बाद १२ वर्ष तक उन्हीं आगमों का अर्थ रूप से आचार्यश्री से अध्ययन करे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपाध्याय सूत्रशिक्षक है और आचार्य भाष्यशिक्षक। परन्तु भाष्य सदा मूल के आधार पर ही चलता है, फलतः उपाध्याय श्रमणसंघ की पहली शक्ति है, पहला शिक्षक है और आचार एवं विचार को नया मोड़ देने वाली महाज्योति है।
वंदनीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.
हमारे परमाराध्य पूज्यपाद उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. अखिल भारतवर्षीय श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के मनोनीत ख्यातिप्राप्त एवं लोकप्रिय महासंत रहे हैं। ये महापुरुष योगी, ध्यानी, लेखक, व्याख्याता, चिन्तक, विचारक, अनुभवी एवं एक चमत्कारी सिद्ध पुरुष थे। इनके व्यक्तित्व- सिन्धु में गुण सम्पदा के अछूट खजाने भरे पड़े थे। इनके लिखे साहित्य का जब हम परिशीलन करते हैं तो ऐसा लगता है कि इनकी लेखनी पर भगवती सरस्वती का वास था, इनकी प्रत्येक रचना में जीवन के सिद्धान्त मुखरित होते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इनके मुख से निकली प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति का प्रत्येक अक्षर जादूगर की भाँति अपना अपूर्व प्रभाव लिए हुए था।
जैनधर्म दिवाकर वन्दनीय आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी म. के शास्त्रीय ज्ञान के चमत्कार इन नयनों ने स्वयं निहारे हैं, परन्तु श्रद्धा के केन्द्र महामहिम उपाध्याय पूज्य श्री पुष्कर मुनि म. का आगम ज्ञान भी बड़ा विलक्षण और अद्वितीय सुनता हूँ, इनकी साहित्य सेवाएँ जब सन्मुख आती हैं तो इनके ज्ञान शरीर की सुषमा को देखकर आनंद-विभोर हो उठता हूँ। परन्तु क्या किया जाए, मेरा यह दुर्भाग्य ही रहा कि मैं चलते-फिरते इस अनमोल ज्ञान निधि के दर्शन नहीं कर सका। यह सत्य है कि भीनासर सम्मेलन में आचार्य सम्राट् गुरुदेव पूज्यश्री आत्माराम जी म. के आदेश से मेरा भी भीनासर जाना हुआ था, सैकड़ों की संख्या में वहाँ पर साधु-साध्वियाँ विराजमान थीं, स्मृति साथ नहीं दे रही कि उस महासम्मेलन में साधना के अमरदूत, अहिंसा, सत्य और तप की पावनत्रिवेणी उपाध्यायप्रवर पूज्य श्री पुष्करमुनि जी म. के मंगलमय दर्शन करने का पावन अवसर प्राप्त हुआ था या नहीं, पर जिस किसी ने इनकी यशोगरिमा के दर्शन किए हैं वह आज भी इनकी गुणगाथाएँ कहता हुआ थकता नहीं है।
सुनता हूँ देहली चांदनी चौक में जब आपश्री विराजमान थे तो उस समय दोपहर के १२.०० बजे भी श्रद्धा के सरोवर में डुबकियाँ लगाने वाले भक्तजन हजारों की संख्या में आपके पावन मुख से मंगलपाठ सुनने के लिए खड़े रहते थे, श्रद्धालु जनता का करबद्ध तथा पंक्तिबद्ध होकर खड़े रहना कितना प्यारा, मनोहारी, आकर्षक, श्रद्धा एवं निष्ठा की वर्षा करता हुआ दिखाई देता था, कुछ कहते नहीं बनता ।
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आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.
"
सज्जन बोले कि यह सत्य है कि मैंने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के कल्मषहारी दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया परन्तु श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के तीसरे पाट पर विराजमान लेखन कला के अमरधनी विनीतता के महासागर, सैकड़ों की संख्या में ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य की अद्वितीय सेवा करने वाले आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. "शास्त्री" के जब हम दर्शन करते हैं। तो उनकी प्रतिमा में हमें उनके गुरुदेव पूज्यश्री उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन साक्षात् हो जाते हैं। पूज्य उपाध्याय श्री जी म. के अनुरूप व्यक्तित्व का पूर्णरूप से आभास इनमें ही सम्प्राप्त हो जाता है। यह सुनकर मैंने उस सज्जन से कहा- संभव है, भक्तराज कबीरजी ने इसीलिए यह उद्घोष किया हो :
"निराकार की आरती, साधों की ही देह । लखों जो चाहो अलख को, इनमें ही लखि लेह ॥" पुष्कर तीर्थ है
वैदिक परम्परा में पुष्कर एक तीर्थ माना जाता है। संभव है। इस तीर्थ पर जाने वाला यात्री तो कभी खाली ही लौट जाए, परन्तु हमारे तीर्थराज श्रमणसूर्य उपाध्याय पूज्य श्री पुष्करमुनि जी म. की चरण-शरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति कभी खाली नहीं लौट सकता है उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। श्रमणसंघ के इस कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि युग पुरुष के पावन चरण सरोजों में हमारे शत-शत प्रणाम। संक्षेप में कहूँ :
कल्पवृक्ष मुनिराज थे, पुष्कर प्यारा नाम । चरणों में तुम सर्वदा, करते रहो प्रणाम ।
सिमरण करते जो सदा, पावें सौख्य निधान। चिन्तामणि ये सन्त थे, कहता है "मुनि ज्ञान"।
बहुगुणी : बहुश्रुत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी
-श्र. स. सलाहकार श्री रतनमुनि
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी श्रमणसंघ के वरिष्ठ संत थे। वे एक शांतमना, सरल हृदयी तथा अनुशासनप्रिय संत थे। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी उन्होंने श्रमण परम्परा से दीक्षा ग्रहण की और जैन धर्म की विशिष्ट प्रभावना की। अपने एक शिष्य में स्थित संभावनाओं को उन्होंने ऐसा अप्रतिम स्वरूप दिया कि वह आज एक विशाल धर्मसंघ का नेतृत्वकर्ता है। आचार्य पद पर विद्यमान है। अपने अंत पर किसी व्यक्ति को इतने उच्च स्थान पर पहुँचाना गुरु की विशेष गरिमा है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जिन विभूतियों में स्वभावतः उच्चता होती है वे स्वतः ही अपने अनुकूल परिवेश का निर्माण कर लेती हैं। जो धर्म परिवेश अपने इर्द-गिर्द पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. श्री पुष्कर मुनिजी ने रचा उससे अनेक जन उपकृत हुए। वे समाज के केन्द्र बिन्दु थे। तात्पर्य उनके इर्द-गिर्द समाज के कई बिन्दु चक्कर लगाते। अनेक समस्याओं के उचित समाधान दिये। वे एक विशिष्ट कोटि के चिन्तक थे। उनकी साहित्य प्रतिभा अप्रतिम थी। उनके साहित्य में गहराई थी, उच्चता थी और अनेक कोण भी थे। वह बहुआयामी थे।
बहुत ठीक कहा है उनके प्रति आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने "विज्ञान और दर्शन के ध्यान और योग के इतिहास और साहित्य के, संस्कृति और सभ्यता के, अध्यात्म और चिन्तन के, आगम और न्याय के गंभीर ज्ञाता थे।" और यह भी कि वे विभिन्न गुणों की सौरभ से सुरभित थे। वे एक उच्चकोटि के विद्वान थे तो दूसरी ओर एक साधक भी थे। योगी अंतर्दृष्टा तो होते ही हैं। किन्तु शास्त्रज्ञानी होना विरलता है। साधक कठोर आत्मनिग्रही होते हैं पर कुशल प्रशासक होना विशेषता है। तपस्वी तथा ध्यानी वचनसिद्ध होते हैं। पर कलम सिद्धि अद्भुतता है । "
आचार्यश्री के इस कथन में जहाँ उनकी अनन्य श्रद्धा है, वहीं इसमें यथार्थ भी झलकता है। वे एक ऐसे चन्द्र के समान थे जिसके एक साथ ही दोनों पक्ष उजागर थे और वे दोनों पक्ष ही थे प्रकाशमान जीवन में अनूठापन ही उनकी विशिष्टता थी ये बहुगुणी, बहुश्रुती थे। जो भी उनके जीवन में उनके सम्पर्क में आया उसने पाया कि इस कथन में कहीं पर भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। गुरु गंभीर व्यक्तित्व के साथ ही उनमें पर्याप्त सरल हृदयता थी । वे अनेक आयामों से युक्त व्यक्तित्व के धनी थे।
उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिजी चुने गए संतों में से एक संत थे। वे भले ही शरीर से हमारे मध्य नहीं हैं परन्तु हमारी स्मृतियों में वे पूर्णतः जीवंत हैं। उन्हें राजस्थानकेसरी के पद से, विरुद से अलंकृत किया गया पर वह अलंकार ही उनके व्यक्तित्व से अलंकृत हो गया। वे सामाजिक कल्याण की अपरिमेय क्षमता से युक्त थे। उनमें प्रत्येक के लिए गहन आत्मीयता थी। अपने आपको सही मार्ग पर ले जाकर उन्होंने अन्यों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वे संयम की प्रतिमूर्ति हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने संयम को सर्वोपरि माना। बाक्संयम भी उन्हें सर्वप्रिय था। वे कम बोलते थे पर जो बोलते थे उनमें मृदुता का पुट होता था ।
श्रमणसंघ के निर्माण में आपका योग अभूतपूर्व था। आपके साहित्य, संस्कृतिज्ञान-विज्ञान को अपूर्वता को ध्यान में रखकर ही आचार्यसम्राट्श्री आनंदऋषि जी ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था स्व. आचार्यसम्राट् आनंदऋषि जी ने उनकी विशेषताओं का उल्लेख किया है वह दृष्टव्य है। वे सदा अनुशासन में रहकर दूसरों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया करते हैं ज्ञान होने
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
पर भी उनमें अहंकार नहीं है यही उनके जीवन की प्रगति का
तूं नहीं पर तेरी उल्फत, हर किसी के दिल में है, मूलमंत्र रहा है। उनकी सरलता, सहजता और सदा आह्लादित रहने
शमा तो बुझ चुकी मगर, रोशनी महफिल में है। वाली मुख मुद्रा ने मुझे प्रभावित किया है।
तुम्हें कौन कहता मरहूम, तुम जिन्दों में जिन्दा हो, आचार्यसम्राट् आनंदऋषिजी ने उनके अनुशासन को अत्यन्त
तुम्हारी नेकियाँ बाकी, तुम्हारी खूबियाँ बाकी॥ पुष्ट बताया है क्योंकि, वे केवल आदेश नहीं देते थे। पहले वे स्वयं
वस्तुतः सच्चाई यही है, वह महापुरुष आज भी अदृश्य रूप में पालन करते फिर आदेश देते थे। यह कार्य लेने की सबसे श्रेष्ठ
मौजूद है और युगों तक मौजूद रहेंगे। इन्हीं शब्दों के साथ हार्दिक | पद्धति है। इसमें कार्य लेने व करने वाले में परस्पर जुड़ाव रहता
श्रद्धांजलि। है। उन्होंने आपके ज्ञान को अहंकार से परे बतलाया है। ज्ञान अहंकार के बोझ से बोझिल नहीं हो यह एक अत्यन्त उत्कृष्ट स्थिति है। ऐसा ज्ञान अवश्य ही कल्याणकारी होता है। सरल व
विराट् व्यक्तित्व के धनी : उपाध्यायश्री जी) सहज जीवन हर किसी को आह्लाद सौंपता ही है। आत्म-संयम ने उपाध्याय-प्रवर के व्यक्तित्व को अपूर्व गरिमा
-आशीष मुनि शास्त्री, एम. ए. प्रदान की थी। वे महाप्रयाण कर गए पर उन्होंने गुरु के प्रति आत्मा
(तपस्वी रत्न श्री सुमति प्रकाश जी म. के शिष्य) की जो मिसाल कायम की थी वह उन्हें भी अपने शिष्य से प्राप्त हुई। वे जब गए तब उनके साथ था आत्मिक और आध्यात्मिक
उत्तरी भारत प्रवर्तक शासनसूर्य बहुश्रुत दादा गुरुदेव श्री वैभव। उन्होंने एक दीप प्रज्वलित किया और उसे अपने शिष्यों को
शान्तिस्वरूप जी म. सा. की दीक्षा स्वर्णजयन्ती महोत्सव के सौंपा। उसी दीप के आलोक में अपनी आत्मा का परिष्कार कर रहे
भव्यायोजन में उत्तर भारत के अधिकांश सन्त-सतियाँ मेरठ पधार हैं शिष्यजन।
रहे थे। उसी श्रृंखला में मेरठ श्री संघ की आग्रह भरी विनती को सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर राजस्थान केसरी उपाध्याय प्रवर श्री
पुष्कर मुनि जी म. सा., साहित्यमनीषी श्री देवेन्द्र मुनि जी म. रोशनी बाकी है
शास्त्री (वर्तमान आचार्य) आदि ठाणा ६, २५ फरवरी, १९८५ को
होने वाले महोत्सव में भाग लेने मेरठ पधारे।
-श्री ज्ञानमुनिजी (आचार्यश्री हस्तीमल जी म. सा. के सशिष्य) मैंने उपाध्याय श्री जी के यशस्वी नाम को तो बहुत बार सुना
था किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य मुझे उसी समय प्राप्त हुआ था। दीर्घकालीन संयम के धनी, श्रमणसंघ के वयोवृद्ध उपाध्याय
। उपाध्याय श्री जी का गौरवर्ण, विशाल भाल, साधना की दीप्ति से प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के देहावसान के समाचार सुनकर
चमकता हुआ चेहरा, तेजस्वी नयन, सुदीर्घ कंधे, भरा हुआ सुगठित मुनिमण्डल के हृदय अत्यन्त सन्न रह गये। तत्काल चार लोगस्स का
शरीर, भव्याकृति दर्शकों को चुम्बकीय आकर्षण से अपनी ओर ध्यान करने के बाद मुनिवर ने निम्न भाव फरमाये-स्नेही कृपालु,
आकर्षित करती थी। मैं भी उपाध्याय श्री जी के प्रथम दर्शन में ही सरलमना, वात्सल्यवारिधि, दीर्घ अनुभवी सन्त भगवन्त का विदा
अत्यधिक प्रभावित व श्रद्धानत हुआ। हो जाना जैन जगत् की एक अपूरणीय है। मुझे स्व. उपाध्याय प्रवर के दर्शनों का प्रसंग कई बार मिला। संवत् २०२१ में उपाध्याय
मेरठ पधारने पर राजस्थान केसरी जी म. का उत्तरी भारत प्रवर के पीपाड़ चातुर्मास की तो मुझे पूरी-पूरी स्मृतियाँ आज भी
प्रवर्तक द्वारा भव्य स्वागत हुआ। दोनों महापुरुष का साधु-मिलन सजग हैं। २०३२ में दीक्षा से पूर्व बम्बई के फोर्ट इलाके में आपश्री
देखते ही बनता था। ऊँचे पाटे पर विराजमान होकर उपाध्यायप्रवर विराजते थे। मैं आशीर्वाद लेने के लिये रात्रि के लगभग ९.00 जब केसरी की सी आवाज में प्रवचन की सिंह गर्जना करने लगे बजे सेवा में पहुँचा तो अँधेरे में भी फौरन पहचान लिया तथा मुझे तब मैं अवाक्-अपलक-सा महाराज श्री जी की ओर देखता रहा। दीक्षा हेतु उत्तम शिक्षाएँ प्रदान की। उन्होंने कहा था कि- मन-ही-मन सोचने लगा ७६-७७ वर्ष की उम्र में भी इतनी बुलंद "आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म. सा. जैसे महापुरुष को गुरु रूप आवाज। जवानी के दिनों में कैसे गरजते होंगे? जब मैं उस में चुनकर व पाकर तुमने सचमुच बड़ी उपलब्धि पाई है।" उनका । महापुरुष के समक्ष गया तो दोनों हाथ फैलाते हुए “आओ वह स्नेहिल चेहरा व वरदहस्त आज भी भाव-विभोर कर देता है। पुण्यवान!" के सम्बोधन से सम्बोधित करते हुए मानो वर्षों से उस ज्योतिपुंज महापुरुष का भौतिक शरीर तो हमारे सामने श्रीचरणों का सेवक हो उसी रूप में थापी दिया। उस महापुरुष की विद्यमान नहीं रहा किन्तु यश शरीर से वे आज भी जीवित हैं। स्मृति के साथ ही वे शब्द तथा वह दृश्य आज भी चलचित्र की ठीक ही कहा है
तरह आँखों के आगे आता है।
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ताकतातताताकतातन्त्रता
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२०
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मंगलपाठ - उपाध्यायप्रवर जब दोपहर १२ बजे ध्यान-साधना पूर्ण कर उठते थे, तब वर्षाती बादलों की तरह जनमानस उमड़-घुमड़ कर मंगलपाठ सुनने के लिये आपकी ओर ऐसे खिंचे आते थे मानों किसी एक को अनमोल खजाना लुटाया जा रहा हो।
१४ वर्ष की बालड़ी उमर में दीक्षा लेकर प्रभु महावीर की साधना के महामार्ग में आगे बढ़ने वाले श्रद्धेय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. ने जैन, वैदिक, बौद्ध आदि धर्म-शास्त्रों व साहित्य का ऐसा तलस्पर्शी अध्ययन किया कि आप उपाध्याय जैसे गरिमामय पद पर पहुँचे 'साधना साधक को सिद्धि दिलाती है' के अनुरूप आपकी वाणी में ऐसी शक्ति पैदा हो गयी कि उत्तर भारत से लेकर ठेठ दक्षिण भारत तक हजारों दुखार्त्त, रुग्ण, शोकसंतप्त लोगों के दुःख-दर्द आपश्री जी के मुखारविन्द से मंगलपाठ सुनकर दूर होते थे और तो क्या भूत-प्रेत, डाकिन, शाकिन आदि क्रूर देवी शक्ति के कोप से पीड़ित सैंकड़ों लोग आपश्री जी के मंगलपाठ से ठीक होते थे। क्योंकि संयम की साधना ऐसी चमत्कारिक साधन है कि उसके समक्ष देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि भी स्वतः नतमस्तक हो जाते हैं
देवदाणव-गंधव्वा जक्ख रक्खस किण्णरा। बंभयारिं णमंसंति दुक्करं जे करति तं ॥
- उत्तरा. अ. १६
सुयोग्य शिष्य
ठाणांग शास्त्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने चार तरह के पुत्रों का वर्णन किया है। उनमें उत्कृष्ट पुत्र है अतिजात पुत्र जो अपने जनकल्याण के सत्कार्यों से अपने माता-पिता की यश कीर्ति से भी बहुत आगे बढ़ते हैं। पुत्र की तरह ऐसे ही शिष्य और शिष्याएँ भी होते हैं। वैसे तो उपाध्यायप्रवर की यश-कीर्ति दिगदिगन्त तक फैली है उसे और फैलाने का काम किया आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. ने। संस्कृत में एक सूक्ति आती है
'पुत्रात् शिष्यात् पराजयेत्'
उपाध्यायप्रवर ने छोटी उमर में ही श्रद्धेय श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. को दीक्षित कर साधना के ऐसे साँचे में ढाला, ऐसे आगे बढ़ाया कि अपनी आँखों के समक्ष ही अपने हाथों से तराशा हुआ हीरा (शिष्य) श्रमणसंघ जैसे विशाल सन्त समुदाय के आचार्य पद पर शोभित होते हुए देखा। आने वाले कल में जब इतिहास में आचार्यों की गाथाएँ लिखी जायेंगी उसमें आपश्री जी का आचार्य के गुरु के रूप में स्मरण होता रहेगा।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी उपाध्यायश्री के जीवन को शब्दों के माध्यम से अंकन करना समुद्र को गागर में भरने के प्रयत्न के
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
समान है। वर्तमान समय में ७०-७२ वर्ष की उम्र पाना भी कठिन है पर उपाध्याय प्रवर तो ७0 वर्ष की सुदीर्घ दीक्षा पर्याय पालन कर स्व-पर कल्याण में लगे रहे। और अन्त में जीवन-दीपक को बुझता हुआ जानकर पंडितमरण (संथारा) अंगीकार कर जीवन सँवार गये। शास्त्रकार कहते हैं-जो पंडित मरण को प्राप्त होता है वह अल्पसंसारी होता है। भले ही उपाध्यायप्रवर की पंचभूतात्मक देह हमारे समक्ष नहीं है लेकिन उनका यश-शरीर हम सबके बीच में है और रहेगा। उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलना ही उस महापुरुष के प्रति सच्ची भावांजलि होगी।
उपाध्याय श्री का जीवन संपूर्ण घट के समान था
-उपप्रवर्तक प्रवचन केसरी श्री अमर मुनिजी
जैन सूत्रों में व्यक्ति के मानसिक विकास और चारित्रिक क्षमता को एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है।
१. कुछ व्यक्ति उस घट के समान होते हैं, जिसका नीचे का तला फूटा हुआ होता है घट में जितना पानी डाला जाए यह एक साथ नीचे से बह जाता है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ज्ञान एवं चारित्रिक गुणों की निधि प्राप्त करते हैं, परन्तु उसे जीवन में संरक्षित / सुरक्षित नहीं रख सकते। जो कुछ मिला उसे खो दिया।
२. कुछ लोग उस घट के समान होते हैं जो बीच से फूटा होता है। बीच से फूटे घट में जितना पानी डाला जाये, उसका आधा तो व्यर्थ ही चला जाता है ऐसी जीवन-शैली वाले व्यक्ति ज्ञान एवं आचार की बात जितनी सुनते व प्राप्त करते हैं, उसका आधा ही ग्रहण कर पाते हैं।
३. कुछ व्यक्ति ऊपर से फूटे हुए घट के समान होते हैं। ऐसी मनोवृत्ति वाले सुने हुए / पढ़े हुए ज्ञान एवं चारित्र का आचरण तो कर लेते हैं, परन्तु कभी-कभी प्रमाद एवं आलस्य करके प्राप्त हुई ज्ञान एवं श्रुत निधि को खोते भी जाते हैं।
४. कुछ व्यक्ति पूर्ण घट के समान होते हैं जिसमें डाली गई एक भी बूँद व्यर्थ नहीं जाती। ऐसी जागृत एवं अप्रमत्त जीवन दृष्टि जिनके पास होती है, वे गुरु से, शास्त्र से जो भी प्राप्त करते हैं, उसे सम्पूर्ण रूप में जीवन में रमा लेते हैं।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन सम्पूर्ण घट के समान था। उन्होंने गुरु से, शास्त्र-स्वाध्याय से, साधना-आराधना से, जीवन में जो प्राप्त किया उसे सदा सुरक्षित रखा। वे अपनी जीवन चर्या में सदा सावधान और निष्ठावान रहे। साधना के अमृत को,
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
श्रुत ज्ञान की रसायन को प्राप्त किया और संपूर्ण घट की भाँति सदा जीवन में सुरक्षित रखा। ऐसे सरल साधक और ज्ञान आराधक उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज स्थानकवासी जैन समाज की अमूल्य निधि थे। उनके स्वर्गवास से एक महान् आत्मा हमारे बीच से चली गई। उस साधक पुरुष को सौ-सौ नमन करता हूँ।
समत्वभाव के साधक : उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा.
-उपप्रवर्तक श्री मेघराजजी म. सा.
साधक समता भाव में जीता है। समता भाव ही साधक जीवन का केन्द्र बिन्दु है । केन्द्र-बिन्दु के निकट जो भवि आत्मा रहती है, वही अपने जीवन का और अन्य भवि आत्माओं के जीवन का उत्थान कर सकती है। वीतराग शासन का मूल ही है समत्व भाव । समत्व भाव के अभाव में बीतराग शासन का अनुयायी कभी भी अपने जीवन में सच्चा साधक नहीं बन सकता है।
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श्रमण संघीय उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ऐसे ही समत्व भाव के साधक थे। महावीर वाणी के आलोक में उन्होंने अपना जीवन जीया और अपने जीवन का निर्माण तथा उत्थान किया। मैंने जब-जब भी उनके दर्शन किए, अति निकटता से देखा उन्हें वही प्रसन्नवदन, वही समता भाव की निर्मल लहरें उनके चेहरे पर अठखेलियाँ करती हुईं मुझे दिखायी दीं। अभी ४ वर्ष पहले जब आप रतलाम पधारे थे तब आखिरी बार दर्शन- मिलन का प्रसंग बना था । श्रमणसंघ के निर्माण और उत्थान में आपश्री का बहुत बड़ा योगदान रहा है अपने मानापमान की चिंता से निरत सर्वदा संघ के उत्थान के लिए चिंतन करते रहे। जहाँ-जहाँ भी आपश्री जी ने विचरण किया, वहाँ-वहाँ प्रेम, एकता, संगठन और भाईचारे का बिगुल बजाया और जिनवाणी के आधारभूत तत्त्व समता भाव का प्रसार किया। विद्वता और साधकता का अद्भुत सामंजस्य रहा है आप में आपश्री को इस गुरुत्य की ही यह अनुपम देन है कि आपके सुयोग्यतम शिष्य, विद्वद-शिरोमणि, प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य के रूप में संघ को एक अनमोल हीरा मिला है जिनके शासन में श्रमणसंघ और अधिक गौरवान्वित हो और विकास पथ पर बढ़ता रहे, यही अभिलाषा और शुभकामना है।
श्रमणसंघ के उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के स्वर्गवास से एक बहुत बड़ी श्रमणसंघ में क्षति हुई है। आपकी आत्मा जहाँ भी हो, वहाँ पर और आगे वीतराग-वाणी का प्रकाश पाये और अपनी आत्मा का विकास करे, यही हार्दिक श्रद्धांजलि!
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Donlooooo Se
संत शिरोमणि उपाध्यायश्री
2008
-उप प्रवर्तक भ्रमण विनयकुमार 'भीम'
भारत की परम्परा हमेशा संतों की परम्परा रही है। भारत देश संतों का देश है इस भारत की पुण्य धरा पर अनेक संत, ऋषि हुये, जिन्होंने भारत के इतिहास को उज्ज्वल करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुझे अत्यधिक खुशी है एवं मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि श्रमणसंघ के महान् उपाध्याय ज्ञानयोगी, जपयोगी, तपयोगी, साधना के महान मर्मज्ञ विश्व संत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के दर्शनों का, साथ में रहने का विहार करने का, प्रवचन सुनने का मुझे सौभाग्य मिला। वे क्षण कितने आनन्ददायी थे जब उनको मैं याद करता हूँ तो हृदय गद् गद् हो जाता है। वास्तव में उपाध्यायश्री एक महान् साधनानिष्ठ, श्रमण श्रेष्ठ, संत शिरोमणि थे।
अभी कुछ समय पूर्व उनका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ यह समाज का दुर्भाग्य रहा उपाध्यायश्री के बारे में क्या कहा जाय वे जैन जगत् के जंगम तीर्थ थे, सभी क्षेत्रों में उनका महान आदर, सम्मान, सत्कार एवं वर्चस्व था। उपाध्याय श्री हमारे महामहिम श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर, सफल साहित्यकार आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज के महान गुरु थे। उनके गरिमामय जीवन पर स्मृति ग्रन्थ निकल रहा है यह गौरव की बात है।
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वे बहुभाषा विशेषज्ञ थे, वाणी के जादूगर थे, संयम में अपार निष्ठा थी, लगन थी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र, विनय, विद्या, विवेक के वह चलते-फिरते विद्यालय थे। उपाध्यायश्री के जीवन पर यह स्मृति ग्रन्थ इतना ही विराट्, व्यापक होगा जितना हमारे उपाध्याय श्री का जीवन था ।
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उपाध्यायश्री प्रबल पुण्यवान थे
-तपस्वी मोहन मुनिजी
पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। उसके लिए क्या लिखूँ? मैं विद्वान भी नहीं हूँ और लिखने की आदत भी नहीं है। फिर भी उपाध्याय श्री के प्रति अपनी श्रद्धा भावना तो व्यक्त करना ही चाहता हूँ।
शास्त्र में उपाध्याय के २५ गुण बताये हैं जो डिगते प्राणी को स्थिर करे और अज्ञान में भटकते जीव को सद्ज्ञान का बोध देवे, उसे उपाध्याय कहा है।
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२२
उपाध्याय पूज्य पुष्कर मुनिजी म. में यह गुण विद्यमान था । मैंने अनेक बार उनके दर्शन किये और उनकी सेवा का भी अवसर मिला। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा रही।
संसार में भाग्यशाली उसे समझा जाता है जो अन्तिम समय में आनन्द और समाधिपूर्वक पंडित मरण प्राप्त करे। पूज्य उपाध्याय श्री कितने भाग्यशाली थे कि उनकी विद्यमानता में आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी का शानदार चादर महोत्सव सम्पन्न हो गया। दीक्षा महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। सब कार्यक्रम सानन्द सम्पन्न कराकर | समूचा दायित्व आचार्यश्री को संभलाकर फिर समाधिभाव के साथ | पंडित मरण प्राप्त किया।
आगम में आनन्द श्रावक का वर्णन आता है। उसने अपने | ज्येष्ठ पुत्र को सब दायित्व सौंपकर निवृत्ति लेकर अंतिम संलेखना संथारा किया। उसी प्रकार उपाध्याय श्री के जीवन में भी यह सहज प्रसंग बन गया। यह उनकी महान् पुण्यवानी का सूचक है।
दूसरी बात संथारा / पंडितमरण प्राप्त करने पर अन्तिम यात्रा में लोगों की भीड़ तो हो जाती है, परन्तु इतने साधु-साध्वियों का एकत्र होना तो प्रबल पुण्यवानी का ही फल है।
इस प्रकार मैंने देखा उपाध्याय श्री का जीवन जितना यशस्वी और चढ़ती पुण्याई वाला रहा, उनका अन्तिम समय भी उतनी ही प्रबल पुण्यवानी का सूचक रहा ।
मैं ऐसे महान् उपाध्यायश्री को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ और आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. की वन्दना करके उनके आरोग्यमय दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। आचार्यश्री की दिन दूनी रात चौगुनी जहाँ जलाली बढ़ती रहे। मेरी यही हार्दिक भावना है।
गुरु की श्रद्धा मेरी श्रद्धा
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पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. मेरे श्रद्धाधार आराध्य मुनिनाथ थे। मैं उनके अदेखे हो जाने के बाद उनके बारे में क्या कहूँ और क्या लिखें? कुछ भी कहना और लिखना ठीक वैसा ही प्रयास है, जैसे चुल्लू भर पानी समाने वाली अंजुलि में हृदय की असीम अपार श्रद्धा को रखकर बताना कि ये थे मेरे गुरुदेव ।
- श्री गणेश मुनि शास्त्री श्री गणे
सच में गुरुगम कथनीय होता ही नहीं, वह तो अनंत आकाश का अगम अगोचर महानद होता है। गुरु कहने का नहीं, सहने का सत्य होता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
गुरु तो महानद होता है। उसे अगस्त्य बन पान तो किया जा सकता है परन्तु उसे कहा नहीं जा सकता। गुरु सहा जाता है, कहा नहीं। क्योंकि गुरु शिष्य को पारावार रहित समुद्र में धकेलता है। पर वह ममत्व की उनींदी आँखों से उसे कभी निहारता नहीं। इसलिए वह गुरु होता है।
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गुरु शिष्य को सीख का अमृत पिलाता है। गुरु के मधुर उपालम्भ केवल पीड़ा नहीं देते, वे शिष्य का परित्राण करते हैं। इसलिए पूर्ण शिष्यत्व को जीने वाले कबीर जैसे महान शिष्य ने गुरु की व्याख्या करने के प्रसंग में न कुछ कहने की तरह एक ही पद-वाक्य में गुरु को पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित किया था
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गुरु प्रजापत सारिखा, पड़-पड़ काढे खोट । भीतर से रक्षा करे, ऊपर लगावे चोट ॥
गुरु कहने को सशरीर शिष्य के इर्द-गिर्द दिखलाई देता है, पर सच में तो वह शिष्य के ममत्व से दूरातिदूर होता है। वह निर्ममत्व व निसंग का स्वयं साधक होता है। उसी अममत्व के असीम आसन पर शिष्य को अवस्थित देखना/पाना चाहता है।
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गुरु मरणधर्मा कभी हुआ ही नहीं वह अमर और अजन्मा होता है वह भव्यात्माओं का उद्धारक, पथ प्रदर्शक मार्गदर्शक होता है। वह शिष्य को कुम्हार की तरह घड़ता है उसकी जड़ता व मूढता मिटाता है। गुरु शिष्य के प्रति जितना कठोर होता है, उतनी ही उसकी गुरुता पूर्णत्व पाती है।
जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। घड़े को घड़ने की उसकी क्या प्रक्रिया होती है। वह घड़े को थापी से मार-मार कर उसे रिसने से बचाता है। कुम्हार को विश्वास हो जाता है यह अब कहीं से भी रिसेगा नहीं, तब वह थापी को एक ओर पटक देता है और घड़े को सूखने देता है।
गुरु भी शिष्य को वर्जनाओं के कठोर वचनों से घड़ता है। दया, स्नेह, करुणा, परोपकार, संयम, निष्ठा, सदाचार आदि का प्राण-संचार कर देता है, तब वह शिष्य को कहता है-'अब तुम तपस्या की आंच तापो !' साथ ही इस सीख से भी अभिमंत्रित करता है- 'तपस्या में क्रोध करोगे तो भस्म हो जाओगे। सदाचार से विचलित होओगे तो दुनिया तुम्हें ठुकरा देगी।'
इतनी सीख देकर वह मनतः समाधिस्थ हो जाता है समाधिस्थ होते समय वह शिष्य को फिर से अबोली वाचा में कहता है- 'मैं संसारार्णव के उस किनारे पर पहुँच रहा हूँ, तुम गुरु संनिधि पाना चाहते हो तो मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा तुम उस पार आकर पुकार भर लेना, मैं अदेखा नहीं रहूंगा, यहीं मिल जाऊँगा। भूलकर भी इस पार खोजने की, पुकारने की कोशिश मत करना।'
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श्रद्धा का लहराता समन्दर बाजार
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'इस पार जगत उस पार गुरु' बस इतना-सा मंत्र याद रखना।
बहता था। सम्पूर्ण अग-जग उससे लाभान्वित होकर गौरवान्वित होता रहा।
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मैं अपने आराध्य गुरुदेव के बारे में कुछ न कहूँ यह भी मेरी विवशता है। ऊपर जो कुछ कहा वह भी आराध्य को कहने का पुष्कर गुरु का 'मुनि' होना एक सत्य था। पर वे निस्पृह थे, एक उसांस है।
यह गहन सत्य है। मुनि होना सिक्के का एक पक्ष है, मुनित्व का श्रद्धेय गुरुवर श्री पुष्कर मुनिजी म. संयम में जीते रहे
अवतरण होना सिक्के का दूसरा पक्ष है। निस्पृह हो रहना दूसरे पक्ष ताजिंदगी। अध्यात्म के समरसी भावों में भीगे डूबे रहे हमेशा।।
की उपलब्धि है। किसने जाना उनके अन्तर्मन को। शिष्य गुरु को पा ले तो वह एकदा मैं उनके अनंत-असीम गुरु-स्वरूप का चिंतन कर रहा शिष्य नहीं रहता-वह गुरु हो जाता है।
था तो मैंने पाया-'उन्होंने वैभव को वैराग्य में, समृद्धि को सिद्धि में, मोह को करुणा में, विषमता को समता में, वेदना को आनंद
में, जैनत्व को जिनत्व में डूबोकर साधुत्व की परम हंस अवस्था मैं तो मानता हूँ। मैंने उन्हें हृदयस्थ तो किया है पर मैंने पाने
तक अपने को विस्तृत कर लिया था और मुनित्व जैसे महान पद 220 का प्रदर्शन नहीं किया, क्योंकि पाने के प्रदर्शन में अक्सर शिष्य
को पाकर उन्होंने जन-जन के हित में अपने को तिल-तिल तिरोहित गुरु को खो देता है। गुरु का खो जाना ही शिष्यत्व का लुप्त हो
कर दिया था। जाना है। क्यों?
द्वितीयदा मैंने उन्हें जानना चाहा तो पाया कि वे आगम की क्योंकि गुरु केवल गुरु ही नहीं होता। वह गुरुत्व से ऊपर उठा
आँख हैं, श्रुत व श्रद्धा हैं। वे श्रद्धा से भरे हैं; उन्होंने अपनी देह पुरुषोत्तम (विष्णु-वीतरागत्व की ओर धावमान पुरुष) महापुरुष भी
को बेदम होते पाया तो एक स्फुरणा ली। मन को आदेशित किया, 902 होता है। वीतरागत्व की महासत्ता को जी रहे महापुरुष को शिष्य के
मन बस बहुत हुआ। अनचाही मृत्यु को संलेखना व्रत की स्वीकृति DS बस का है कि वह उन्हें अपने हाथों में थामे रहे। गुरु मोह में यदि
देकर बार-बार शरीर को नष्ट करने वाली मृत्यु से मैत्री कर ले। शिष्य ऐसा करता है तो वह गुरु-रूप कुम्हार के हाथ से घड़ा हुआ शिष्य नहीं रह जाता।
. . . . . . . . और मैंने तभी देखा आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि । जी म. के आचार्य पद समारोह के बाद उन्होंने परम श्रद्धेय श्री
आचार्यप्रवर, परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म.,000 गुरु दीवार की खूटी पर टंगी हुई तस्वीर नहीं है कि उसे जब । मारवाड़ के महाप्रण प्रर्वतक श्री रूपचन्द जी म., महामंत्री सौभाग्य AGO चाहा खूटी से उतारा और माथे से लगा लिया और फिर से खूटी मुनि जी म., प्रवर्तक श्री रमेश मुनि जी म., प्रवर्तक श्री महेन्द्र मुनि 0 पर लटका दिया। क्योंकि गुरु कभी अटकने की बात नहीं करता, जी 'कमल', तपस्वी श्री मोहन मुनि जी म., पण्डितरत्न श्री चन्दन वह सदा भव-भ्रमण के भटकाव को मिटाने का महामंत्र प्रदान । मुनि जी म., ओजस्वीवक्ता श्री रवीन्द्र मुनि जी म. आदि संतों एवं करता है। इसीलिए वह संयम में जीता है। संयम में सबको सीता है। विदुषी महासतियों तथा अनेकानेक श्रावक संघों की उपस्थिति में वह अमृत पाता है और अमृत ही बाँटता/लुटाता है।
संथारा-संलेखना व्रत का प्रतिज्ञा पाठ ग्रहण किया। आँखें बंद थीं,
और अपने मुनि में अंदर के मुनित्व से शाश्वत साक्षात्कार में
समाहित हो गए। इसी अंदर के मुनित्व को पाने के लिए ही हम मैं शब्दों के छिलके न उतारता हुआ थोड़े शब्दों में उनकी
आप चले हैं, चलते रहे हैं और चलते ही रहेंगे यही जैनत्व का अथाहता को थाहने का प्रयास करूँ तो कह सकता हूँ-'गुरु तो । अमर मंत्र है, इसी का नाम संथारा-निस्तारा है। सच्चे अर्थों में स्वपरकल्याणकारी कल्पवृक्ष होता है। संत-भाव होता है, पूजा नहीं। उसका जीवन अध्यात्म का साम्राज्य होता है और ।
गुरु की श्रद्धा मेरी श्रद्धा, मेरी श्रद्धा सबकी श्रद्धा। यही श्रद्धा वह जन्म-जन्म की अपूर्ण साधना की ज्योति भी होता है। वह भावों
का सार कि तुम भी पहुँचो उस पार। की अथाहता तो है, पर ज्वार नहीं। वे संतत्त्व के समुद्र तो थे, पर विषमताओं के खारेपन से रहित सीधे-साधे अमृत सागर थे।
मन जब भटक जाता है तो चाहे जितनी दीर्घकालिक साधना हो, उसे
बचा नहीं सकती और जब मन स्थिर हो जाता है तो दीर्घकाल तक गुरु पुष्कर ने संत-जीवन पाया था, उसी को उन्होंने
भोगे हुए विषय-भोग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। जीवंत किये रखा। संतभाव को जीने का अर्थ है अनहदना की बिन
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि बांसुरी को सुनते रहना। उनके प्रत्येक कर्म से अनहद का संगीत
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संघ के भीष्म पितामह
-कमल मुनि "कमलेश "
उपाध्यायप्रवर श्रमणसंघ के भीष्म पितामह थे। उनका वियोग संघ के लिये वज्रपात के समान है। उनके द्वारा की गई शासन प्रभावना संघ के लिए कल्पतरु के समान है। कितनी ही बार दर्शनों का सौभाग्य मिला। वे प्रसन्न मुद्रा, सरलता, विशालता के भंडार थे। उनका अभाव संघ को चिरकाल तक अखरता रहेगा। इस बेला में आपश्री संघ के नायक हैं, धैर्य, साहस, संबल से हम दुःखद क्षणों में सहभागी बनते हुए वीर प्रभु से मंगल कामना करते हैं कि स्वर्गीय आत्मा को शांति मिले।
ध्यान - जप साधक
-सुरेश मुनि शास्त्री (प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी के शिष्य)
परम श्रद्धेय उपाध्याय प्रवर पूज्य श्री पुष्कर मुनिजी म. का संयम साधनामय जीवन आगन्तुक भव्य आत्माओं का प्रेरक ही नहीं, मार्गदर्शक रहा है।
जप तथा ध्यान-साधना आराधना का सफल माध्यम लेकर जो कुछ आपश्री ने प्राप्त किया समय-समय पर श्रद्धा-शील मुमुक्षुओं को भी मुक्त हस्त से लुटाया भी।
आप स्वाध्यायशील, ध्यान-मीन-जप-तप तथा केवल प्रवचनकार ही नहीं सफल कवि के साथ ही कथा लेखक और साहित्यकार के रूप में श्रमणसंघ में शोभित हुए थे।
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आपके दर्शन तथा सेवा का सुअवसर मुझे भी कई बार मिला । अंतिम समय की सहनशीलता सभी संतों के लिए एक सबल प्रेरणा की प्रतीक रही है। मैं अपने मन में यही भावना करता हूँ सविनय श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कि मुझे भी ध्यान - मौन-जप-संयम साधना-उपासना में आशानुरूप सफलता प्राप्त हो ।
गौरवमय संत जीवन
शास्त्री गौतम मुनि 'प्रथम' (मे. भू. गुरुदेव श्री प्रतापमलजी म. के प्रशिष्य)
'संत' शब्द की गहन व्याख्या को चंद शब्दों में आंकना असंभव है । जिनका जीवन इस शब्द से सुशोभित है वह महान् है। स्व के लिए तथा पर के लिए प्रकाश स्तम्भ है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
भगवान् महावीर की वाणी में- "सुसाहुणो गुरुणो।" अर्थात् वह सुसाधु गुरु पद को प्राप्त करता है जो सुवृति है। जो अहिंसासत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप महाव्रतों का आराधक है। उसे संत-मुनि- भिक्षु श्रमण आदि नामों से पहचान सकते हैं।
इस प्रकार के आराधक संत का जीवन भव्य भक्तों के लिए सदैव श्रद्धास्पद रहता है। किसी ने ठीक ही कहा है
सत्य क्षमा के सागर तेरी क्या यश गाथा गाऊँ? तेरे पावन पद पंकज में श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ ॥
संत जीवन सागर विशाल ही नहीं, गंभीर भी है। वह चाँद-सा निर्मल, सूर्य-सा तेजस्वी है। यदि यों कहूँ कि संत जीवन आर्य संस्कृति का प्राण है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं ।
इस आर्यभूमि पर अनेकानेक संत रत्न हुए हैं जिन्होंने अपने त्याग तप-संयम से जन-जन को धर्मनिष्ठ बनाया है। उसी संत श्रृंखला में उपाध्याय बहुश्रुत प्रज्ञापुरुष श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन भी जगत् जीवों के लिए उपकारी रहा है। मुझे आपके दर्शन का सौभाग्य उदयपुर (राज.) की धरती पर मिला। संयोग की बात है मेरे आराध्य गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म. का चातुर्मास बड़ी सादड़ी होना था किन्तु अस्वस्थता के कारण उदयपुर रहना हुआ। उस समय आपने तथा वर्तमान आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी म. ने जो गुरुदेव की सेवा की वह सदैव याद रहेगी।
जब गुरुदेव ने पाँच दिन के संधारे सहित स्वर्गगमन किया। उस समय आपने बहुत धैर्य का सम्बल दिया जो सराहनीय है।
ऐसे महान् संतप्रवर उदारमना उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. को ४८ घंटे का संथारा आया उन्होंने पंडित-मरण का वरण किया।
आपश्री के स्वर्गवास से जैन समाज में एक प्रौढ़ अनुभवी संत रत्न की कमी हुई है। संघ में उपाध्याय पद का स्थान रिक्त हुआ है। श्रद्धेय उपाध्याय श्री जी की आत्मा को शाश्वत सुखों की प्राप्ति हो यही मेरी श्रद्धांजलि।
महकता गुण गुलदस्ता
-रतन मुनि 'रत्नाकर'
(मे. भू. गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म. के शिष्य)
परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन अनेकों गुणों से महकता गुलदस्ता था। उन्होंने अपने गुरुदेव से तथा ज्येष्ठ गुरुभ्राताओं से विनय विवेक पूर्वक ज्ञान धन प्राप्त किया। आगम-ज्योतिष - न्याय-छंद शास्त्र सभी पढ़े।
ज्ञानी-ध्यानी-तपी-जपी - शास्त्रज्ञ स्थविर परम श्रद्धास्पद उपाध्याय श्री जी म. के पावन दर्शन का सौभाग्य इस अकिंचन ने भी प्राप्त किया।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
२५ । आपश्री से सेवा-स्वाध्याय-प्रवचन आदि अनेकों कलाएँ सीखने व्यक्ति निरुत्तर हो जाता था, गुरुदेवश्री आशुकवि भी थे, तत्काल को मिलती थीं। ध्यान प्रक्रिया की ओर आपश्री का विशेष लक्ष्य था। कविता बनाते थे, उन्होंने हजारों भजन बनाए, सैंकड़ों चौपाइयाँ अनक गुणसम्पन्न श्रमणसंघ के उपाध्याय पूज्य श्री पुष्कर ।
लिखीं। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में गुरुदेवश्री ने विपुल मुनिजी म. को इस अकिंचन मुनि की श्रद्धांजलि।
साहित्य का सृजन किया। गुरुदेवश्री की जप-साधना बहुत ही गजब की थी, वे खूब जप करते, जप साधना उनकी सिद्ध हो चुकी थी,
इसलिए हजारों व्यक्ति उनके मंगल पाठ को श्रवण कर आधि-व्याधि । महान् कलाकार : पूज्य गुरुदेव श्री )
और उपाधि से मुक्त हुए, वे परम दयालु थे। किसी भी दुःखी को -पं. श्री हीरामुनिजी म. “हिमकर" नहीं देख पाते थे, दुःखी को देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो
उठता था। गुरुदेवश्री इतने सौभाग्यशाली रहे कि उनके सामने ही उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का मेरे जीवन । स्वर्गीय आचार्यसम्राट् श्री आनन्द ऋषिजी म. ने श्री देवेन्द्र मुनिजी पर असीम उपकार है, मेरा जीवन एक अनघड़ पत्थर की तरह म. को उपाचार्य पद प्रदान किया और उन्हीं के सामने उदयपुर में था, अरावली की पहाड़ियों में बसा हुआ समीजा ग्राम में क्षत्रिय | "आचार्य पद चद्दर समारोह" सानंद संपन्न हुआ। और अंतिम कुल में मेरा जन्म हुआ और बाल्यकाल के सुनहरे क्षण पशुओं को समय में संथारा कर वे स्वर्गस्थ हुए, संथारा और स्वर्गवास के चराने में बीते, न शिक्षा और न धर्म का वातावरण, सद्गुरुणी जी समय २०० से अधिक साधु-साध्वियों की उपस्थिति इस बात की श्री शीलकुंवर जी म. के सम्पर्क में आकर महास्थविर श्री ताराचंद्र द्योतक है कि वे कितने महान् थे। जी म. और गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. के चरणों में पहुँचा।
__हमारे पर गुरुदेव उपाध्यायश्री की सदा असीम कृपा रही है, युवावस्था में गुरुदेवश्री ने बहुत ही श्रम कर मुझे अक्षर ज्ञान
मुझे समय-समय पर गुरुदेवश्री हित शिक्षा प्रदान करते थे। करवाया और आगे बढ़ाया। यदि पूज्य गुरुदेवश्री उस समय इतना
गुरुदेवश्री के स्वर्गवास से श्रमणसंघ में एक महान् ज्योतिर्धर संत श्रम नहीं करते तो मेरे जीवन का कायाकल्प नहीं होता। वस्तुतः वे
रत्न की कमी हुई है, जिसकी पूर्ति होना निकट भविष्य में संभव जीवन के महान् कलाकार थे।
नहीं है। मैं गुरुदेव के चरणों में अपनी ओर से भाव-भीनी _विक्रम संवत् १९९५ में मेरी आर्हती दीक्षा हुई और श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यही मंगल कामना करता हूँ कि नहास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. का शिष्यत्व स्वीकार किया। मेरे । आपश्री के सदा मंगलमय आशीर्वाद से मेरी आध्यात्मिक प्रगति नश्चात् श्री देवेन्द्र मुनि जी "शास्त्री' दीक्षित हुए। उनका और मेरा होती रहे। अध्ययन साथ-साथ चलता रहा और प्रबल पुरुषार्थ के कारण और उपाध्याय गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद के स्वरूप वे श्रमणसंघ माता महान संत का महाप्रयाण के आचार्य पद पर आसीन हुए। उपाध्यायश्री प्रबल पुण्य के धनी थे, यही कारण है कि
-तपस्वी श्री सुदर्शन मुनिजी म. की आज्ञा से राजेश मुनि महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. के स्वर्गवास के पश्चात् केवल चार
उपाध्याय श्री जी के हमारे मध्य से महाप्रयाण कर जाने से संत रह गये थे, किन्तु पूज्य गुरुदेवश्री के पुण्य प्रताप से अनेक
श्रमणसंघ की ही नहीं अपितु समग्र राष्ट्र और विश्व की एक दीक्षाएँ हुईं और हमारे गच्छ ने अपूर्व प्रगति की। गुरुदेवश्री सिद्ध
अपूरणीय क्षति हुई है जो भविष्य में पूर्ण होना असम्भव है। जपयोगी थे, प्रखर वक्ता थे, उनकी वाणी में गांभीर्य था, ओज था और जब कभी भी किसी भी विषय पर प्रवचन करते तो वे उसके
। यहाँ अम्बाला के श्रीसंघ ने एवं विराजित साधु-साध्वियों ने तलछट तक पहुँचकर विषय का विश्लेषण करते, साथ ही आगम,
५/४/९३ को एक शोक सभा मनाई और उपाध्याय श्री के व्यक्तित्व वेद, उपनिषद, धर्म ग्रंथ और संस्कृत वांगमय की सूक्तियों के साथ
एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया। हिन्दी-राजस्थानी-गुजराती और मराठी की कविताएँ भी प्रस्तुत आचार्यवर! तपस्वी श्री सुदर्शन मुनिजी महाराज ने फरमाया है करते, लोक कथाओं के माध्यम से विषय को इतना सरस बना देते कि "आप स्वयं महान श्रमण संघ के शासक और कालज्ञ हैं इस थे कि सुनते-सुनते श्रोता हँसी से लोटपोट हो जाते थे, गुरुदेव के 1 दुःखद परिस्थिति में धैर्य के साथ, परिस्थिति के साथ समझौता प्रवचन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि साक्षर और निरक्षर सभी करने में आप समर्थ हैं अतः मेरा यही कहना है कि उपाध्याय श्री समान रूप से प्रभावित होते थे।
जी का दिव्याशीर्वाद आपको और हमें प्राप्त हो और श्रमणसंघ का मैंने यह भी देखा कि गुरुदेवश्री सफल वक्ता थे और धार्मिक
विकास हो एवं आपका शासनकाल श्रमणसंघ के विशेष उत्थान के
लिए हो।" चर्चा करने में तो गुरुदेवश्री के समान हस्ती ढूँढ़ने पर भी मिलना कठिन है। गुरुदेवश्री इस प्रकार तर्क प्रस्तुत करते कि सामने वाला पुनः यथायोग्य वन्दना एवं सुखसाता के साथ।
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। २६ .
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
वर्णन करने के लिए किसी महाग्रन्थ की आवश्यकता पड़ेगी। मेरे श्रद्धा के दो सुमन
जैसा एक सामान्य सन्त आपश्री के महत्तम जीवन का आंकलन या -मदन मुनि 'पथिक' ।
वर्णन कर भी कैसे सकता है। हम तो आपके चरणों में अपनी
विनम्र श्रद्धांजलि मात्र ही अर्पित करके स्वयं को धन्य अनुभव कर श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन समाज के जाने-माने, मूर्धन्य, सकते हैं। मनीषी सन्त शिरोमणियों में राजस्थान केसरी, पंडित प्रवर श्रद्धेय
इस संसार में आलोचकों की कमी नहीं है। आलोचना करने में स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम सदा अमर
किसी का क्या जाता है? महान से महान व्यक्ति की भी आलोचना रहेगा। आपश्री ने अपने जीवनकाल में जैन समाज की जितनी
की जा सकती है। और की जाती रही है। किन्तु श्रद्धेय उपाध्याय अहर्निश सेवा की, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। विशेष रूप से
श्री की आलोचना किया जाना प्रायः असंभव ही था। क्योंकि श्रमणसंघ की एकता और संगठन के लिए आपश्री ने जितना
आपश्री के उज्ज्वल जीवन में तो सर्वत्र, सरलता, पवित्रता और अथक परिश्रम और पुरुषार्थ किया वह तो कभी भुलाया ही नहीं
सौम्यता ही दृष्टिगोचर होती थी। फिर भी यदि कोई व्यक्ति दुर्भावना जा सकता। अनेक वरिष्ठ सन्तों के मन के तथा मत के भेदों को
से ग्रसित होकर किसी विषय में आपश्री की कोई आलोचना करने आपश्री ने अपने सुलझे हुए मस्तिष्क तथा सौम्य व्यवहार से दूर
का दुःसाहस करता था तो आपश्री कभी विचलित नहीं होते थे, किया था।
कुपित नहीं होते थे, बुरा नहीं मानते थे, बल्कि अपने आलोचक से आपश्री का प्रकाण्ड पांडित्य अद्भुत था। ज्ञान, दर्शन और भी स्नेह ही करते थे। आपश्री के हृदय की यह उदारता भव्य थी, चारित्र की आपश्री साक्षात् मूर्ति थे। आपका व्यक्तित्व जितना भव्य, इसमें कोई सन्देह नहीं। तेजोमय एवं आकर्षक था उतना ही आपका अन्तमानस भी गहन, विशाल, सरल एवं शुद्ध था।
आपश्री की वाणी में जादू था। वह मधुर थी और प्रभावकारी
थी। उस वाणी के सम्मोहन से सभी श्रोता विमुग्ध हो जाया करते भगवान महावीर की वाणी प्रमाण है। भगवान ने फरमाया है
थे। जब आपश्री प्रवचन करते थे तो श्रोताओं के बीच में इतनी कि सरलता साधना का महाप्राण है। उपाध्याय श्री सरलता में सने वार
शान्ति व्याप्त रहती थी कि यदि एक सुई भी गिरे तो उसकी हुए थे। आपके सरल व्यक्तित्व के सम्मुख कैसा भी आग्रही या
आवाज सुनाई दे जाय। इतनी मधुरवाणी तथा श्रेष्ठ प्रवचन शैली पूर्वाग्रही व्यक्ति सहज ही विनत हो जाता था।
के धनी थे आप। धर्म के मूल विनय के विषय में तो यह बात है कि उपाध्याय
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि श्रद्धेय स्व. उपाध्याय श्री श्री मूर्तिमान विनय थे। अंहकार का कालानाग आपश्री के समीप
जैसी महान विभूतियाँ इस धराधाम पर यदाकदा ही, शताब्दियों में कभी नहीं फटक पाया। श्रमणसंघ के इतने उच्च पद पर विराजकर ।
एकाध बार ही अवतरित होती हैं। उनको पाकर जैन समाज धन्य भी आप सदा विनयवान ही बने रहे। इससे आपके उत्कृष्ट जीवन
हो गया था। आपश्री की शिष्य मण्डली भी ज्ञान और चारित्र की की स्पष्ट झलक प्राप्त हो जाती है।
आराधना में सदैव अग्रणी ही रही है। और आज हम सहर्ष देख आपश्री का हृदय बहुत कोमल था। उसमें दया का सागर रहे हैं कि आपश्री के पंडित सुशिष्य श्रद्धेय देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री लहराया करता था। दया की सरस धारा जिस साधक के जीवन में स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के महामहिम आचार्यसम्राट के सर्वोच्च प्रवाहित रहती है वह उन्नति के सोपान चढ़ता ही चला जाता है। पद पर सुशोभित हैं। यही बात उपाध्याय श्री के जीवन में सिद्ध हुई। किसी भी व्यक्ति के तनिक से भी दुःख को देखकर ही आपश्री का हृदय करुणा से
मेरी लेखनी में सामर्थ्य नहीं है कि मैं श्रद्धेय उपाध्याय श्री के द्रवित हो जाया करता था। अपने जीवन-काल में साधु-मर्यादा के
भव्य जीवन का अंकन कर पाऊँ। मैं तो आपश्री के चरण-कमलों में भीतर रहते हुए आपने हजारों व्यक्तियों के जीवन को दुःख से मुक्त
अपनी विनययुक्त श्रद्धांजलि ही अर्पित कर पाना अपना परम किया था।
सौभाग्य मानता हूँ। अपनी अटूट लगन तथा अविराम परिश्रम से आपश्री ने शिक्षा तथा ज्ञान के उच्चतम सोपानों का स्पर्श किया तथा अपनी साहित्य
जैन पुष्कर तीर्थ धारा से मां भारती का भंडार भरा। आपश्री ने काव्य-कथा, गीत,
-श्री रमणीक मुनि “शास्त्री" भजन, निबन्ध इत्यादि साहित्य की सभी विधाओं में एक के बाद एक सैंकड़ों ग्रन्थों की रचना की।
(उपप्रवर्तक श्री प्रेमसुखजी महाराज के शिष्य) आपश्री के जीवन की विशेषताओं का वर्णन करने में लेखनी हम अपने जीवन को एक सीढ़ी से उपमित करते हैं कि जिस असमर्थ है। कोई समर्थ लेखनी हो भी तो उन सभी विशेषताओं का सीढ़ी के द्वारा हम नीचे उतरते हैं, उसी सीढ़ी के माध्यम से हम
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
२७ ।
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2009
ऊपर भी जाते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि जो ऊर्जा मानव को अर्थात् जहाँ सिकन्दर ने तुच्छ सुखों के लिए जीवन का परम धन मानवता से गिराकर दानव बनाती है, वही ऊर्जा सम्यग् उपयोग। दाँव पर लगा दिया वहीं महावीर ने परम सिद्धि की प्राप्ति के लिए पर इन्सान को उठाकर भगवान् भी बना देती है।
सांसारिक तुच्छ-सुखों को एक ही ठोकर से ठुकरा दिया। इसी मैं, महावीर और सिकन्दर को, बुद्ध और हिटलर को, एक ही
भेद-रेखा ने एक को शैतान तो एक को भगवान् बना दिया। खेल के दो खिलाड़ी मानता हूँ, किन्तु उनमें एक पूर्णतः पराजित हो अरे पगले! जिस जीवन और आत्मा के प्रति तू इतना उदासीन गया तो दूसरा सर्वोच्च विजेता, क्योंकि एक ने जहां जिस ऊर्जा से है, उसी में तो तेरा सुप्त परमात्मा करवटें ले रहा है। जरा अन्तर् विकास के चरमोत्कर्ष अर्थात् परमसिद्धि की सत्ता प्राप्त की, दूसरे में झांक तो सही, देख तो सही। जिस जीव को तू निरर्थक ने वहीं पतन की तलहटी को छुआ। दोनों का परिश्रम एक-सा ही । समझकर जी रहा है। उसमें छिपी संभावित ऊर्जा शक्ति को पहचान था, किन्तु एक ने जहां सच्चिदानन्द से स्नात परमानन्द के मनोहर तो सही। इसी बात पर पाश्चात्य विचारक लांगफेलो की एक उक्ति सुगन्धित सिद्धि-पुष्प प्राप्त किए तो दूसरे ने स्वयं को अनन्त पीड़ा । पर ध्यान जाता है। यथाके कांटों से बिंधा हुआ पाया। ऊर्जा एक ही पर परिणाम
"मुझसे दुःखपूर्ण कविता में यह न कहो कि जीवन सत्य है, भिन्न-भिन्न! क्यों? जिस ऊर्जा के सदुपयोग से हमारे जीवन की
जीवन महत्वपूर्ण है और मृत्यु उसका लक्ष्य नहीं है। तू मिट्टी है डाली पर सदाचार के पुष्प खिलते हैं, उसी ऊर्जा के दुरुपयोग से
और मिट्टी में मिल जाएगा यह आत्मा के विषय में नहीं कहा व्यभिचार के कांटे भी निकलते हैं। तो इससे यह सिद्ध होता है कि
गया है।" आदमी जब गिरने लगता है तो इतना गिर सकता है कि उसके आगे एक क्रूर राक्षस भी मात खा जाए और यदि अगर उठे तो
उपरोक्त कथन को अक्षरशः सत्यता दी कालजयी महापुरुष, इतना उठ सकता है कि देवताओं को भी पीछे धकेल कर अरिहंत
जैन-समाज के पुष्कर तीर्थ उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी और सिद्धों के उज्ज्वल इतिहास की कड़ी बन जाए।
महाराज ने जिन्हें क्रूरकाल ने हमसे कुछ दिन पूर्व ही छीन लिया है,
किन्तु मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि मृत्यु अपने किए दुष्कृत्य पर अब आप समझ गए होंगे कि महावीर और सिकन्दर के पास
पश्चात्ताप कर रही है, क्योंकि उसे इस दिव्य आत्मा से वह सम्मान एक-सी ही ऊर्जा थी। दोनों ने ही युद्ध किए, दोनों ने ही ।
नहीं मिला जो उसे सामान्यतः सांसारिक मनुष्यों से प्राप्त होता अपने-अपने शत्रुओं को पराजित किया और लोगों के ही जीवन में
आया है, अपितु इस कालजयी महापुरुष ने अपनी स्वागत भरी विजय-उत्सव आया, पर यह क्या दोनों के बीच एक ऐसी भेद-रेखा
मीठी मुस्कार (संथारे) से मृत्यु की दिल दहलाने वाली क्रूर गर्जना खिंच गई जिसने दोनों को जुदा-जुदा कर दिया।
को तर्जनी (अवमानना) ही दिखा दी। घोर अपमान-ऐसा अपमान दोनों ने ही युद्ध किया, किन्तु एक के युद्ध में खून की नदियाँ कि जिसकी मौत ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि बहीं तो दूसरे ने अष्ट कर्मों की होली जलाई। एक ने जहाँ लाखों अधिकतर सांसारिक लोग मौत के नाम से थर-थर कांपने लगते हैं नारियों के सुहाग को उजाड़ा, लाखों माताओं को पुत्रहीन किया और जब मृत्यु लोगों को इस तरह कांपते हुए देखती है तथा भय और करोड़ों बच्चों को अनाथ बनाया, वहीं दूसरे से प्रेम, मैत्री, से पीठ किए भागते हुए देखती है या अपने सन्मुख मनुष्यों को अहिंसा की धर्ममयी गंगा प्रवाहित हुई। लाखों, करोड़ों को जीवन के कुछ और क्षणों के लिए हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हुए देखती अभयदान के माध्यम से छिनी हुई खुशियाँ मिलीं। जीता सिकन्दर । है तो उसे एक गहरा सकून मिलता है, तब गर्व से उसकी ग्रीवा भी और जीते महावीर भी और दोनों की ही जीत का जश्न मनाया अकड़ जाती है तथा स्वयं को उन क्षणों में वह ब्राह्मण की साम्राज्ञी गया, किन्तु जहाँ एक के जश्न में गुलाम और खुदगर्ज लोगों ने । समझने की भूल करने लगती है। गर्वीली मौत यह भी भूल जाती है हिस्सा लिया, वहीं दूसरे के बहारे-जश्न में प्रकृति का कण-कण । कि तेरे अपमान के लिए किसी वीर या महावीर की मुस्कान ही सम्मिलित था। जहाँ एक के जश्न में ढोलक, नगारे, नुपूर और काफी है। सत्य कहा गया है एक सूक्ति में, किपायल की झंकार में लाखों-करोड़ों की दबी वेदना कराह रही थी,
“सर्वं हि महतां महत्!"
DOD वहीं दूसरे के जश्न में तीनों लोकों का हर एक सदस्य एक अनूठी
ROC000 खुशी के साथ शामिल था, क्योंकि जहाँ एक उत्सव मन तथा
-बड़े लोगों की सभी बातें बड़ी होती हैं। आत्मविजेता का था। एक की जीत में बाहुबल, सैनिक-शक्ति व उपाध्यायप्रवर की वीर मुस्कान (संथारे) पर "दिनकर" जी कुशल-रणनीति का हाथ था और दूसरे ने यह विजय सात्विक की चार पंक्तियाँ याद आ रही हैं किआत्म-विश्वास, आत्म-पराक्रम व आत्म-संयम के सहयोग से प्राप्त
"बड़ी कविता, वही जो इस भूमि को सुन्दर बनाती है। की थी। तो इस प्रकार दोनों के पास एक-सी ही ऊर्जा थी किन्तु सिकन्दर ने उस ऊर्जा को सांसारिक तुच्छ सुखों के लिए दाँव पर
बड़ा वह ज्ञान, जिससे व्यर्थ की चिन्ता नहीं होती। लगा दिया मानो जैसे किसी नादान व्यक्ति ने कौवे को उड़ाने के
बड़ा वह आदमी, जो जिन्दगी भर काम करता है। लिए बड़ी कठिनाई से प्राप्त चिन्तामणि रत्न को ही फैंक दिया हो, बड़ी वह रूह है, जो रोये बिना तन से निकलती है।"
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इन पंक्तियों को देखकर ऐसा लगता है कि उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी के सम्मान में श्री दिनकर जी पहले ही लिखकर रख गए हों और कह गए हो कि मैं रहूँ या न रहूँ किन्तु मेरे ये श्रद्धा से सने हार्दिक भाव सुमन उस महापुरुष की स्मृति में अवश्य समर्पित कर देना, क्योंकि उपरोक्त चारों पंक्तियाँ उस महापुरुष के चहुँमुखी व्यक्तित्व का परिचय दे रही हैं। जहाँ उन्होंने श्रेष्ठ व उच्च ज्ञान- तूलिका से अपने जीवन-चित्र में कविता द्वारा बहुरंगी रंग भरा, वहीं उन्होंने उच्च-साधना से प्राप्त विविध चमत्कारों से लोगों की वीरान जिन्दगी में खुशियों की चांदनी बिखेरी और विदा होते-होते अंतिम पंक्ति को भी सिद्ध कर गए कि
"बड़ी वह रूह है, जो रोये बिना तन से निकलती है।"
इसी को ही तो जैन आगमों की भाषा में पंडित मरण या समाधिमरण के नाम से जाना जाता है।
हमारे विचार, हमारा आचार और हमारी जीवन जीने की शैली हमको महापुरुषों या साधारण जनों की श्रेणी में खड़ी करती है। क्या खूब लिखा है किसी ने कि
"Great minds have purposes, others have wishes. Little minds are tamed and subdued by misfortunes, but great minds rise above them."
महापुरुषों के लक्ष्य होते हैं और दूसरों की इच्छाएँ मात्र । क्षुद्र व्यक्ति विपत्तियों से दब्बू और अभिभूत हो उठते हैं, किन्तु महान् व्यक्ति उनसे ऊपर उठ जाते हैं। आगे कहा है कि
"Great actions speak great mind."
महान कार्य, महान मस्तिष्क के द्योतक होते हैं, क्योंकि जिस तरह हमारे आचार रूपी महल के लिए विचार रूपी नींव की जरूरत है, जिस प्रकार सृष्टि-पताका हेतु दृष्टि दण्ड की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह महान् कार्य भी शुद्ध, सात्विक व सरल मस्तिष्क के सहयोग से संपादित होते हैं।
मेरे हिसाब से समय और समाज के अनुसार जो कोई महापुरुष धर्म का उद्धार करने आता है। उसे महापुरुष कहें या अवतार कहें, इसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे जगत में आकर जीवों को अपना जीवन संगठित करने का मार्ग बता जाते हैं। जो दिव्यय-पुरुष जिस समय आता है उस समय उसी के आदर्श के अनुरूप सब कुछ होता है-मनुष्य बनते हैं और सम्प्रदाय चलते हैं। समय पर वे सम्प्रदाय विकृत हो जाने पर वैसे ही अन्य संस्कार बन जाते हैं।
हर अवतार, हर पैगम्बर ने दुनियां को एक न एक महान् सत्य का सन्देश दिया है जब तुम सर्वप्रथम उस सत्य-सन्देश का श्रवण करते हो तत्पश्चात् उस महापुरुष की जीवनी का अवलोकन करते हो तो उस सत्य के प्रकाश में उसके सम्पूर्ण जीवन को पूर्णतः व्याख्यायित पाते हो।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उपाध्याय प्रबर की जीवन- प्रतिमा को किसी भी कोने से जांचो परखो, वह वहीं से आत्म-ज्ञान तथा आत्म-संयम से भरी दिखाई पड़ती है। जब हम उपाध्याय श्री जी के सजीले व बहु-आयामी व्यक्तित्व कृतित्व पर नजर दौड़ाते हैं तो फिलिप जैम्स बेले द्वारा कथित कथन को साकाररूप लेते देखते हैं। उसने कहा था कि
"The greatmen never in dead, not years; in thoughts, not breaths; in feeling, not in figure on a dial. We should count time by heat-throbbs.'
महापुरुष कार्यों में जीवित रहते हैं, न कि वर्षों में ये विचारों में जीवित रहते हैं, सांसों में नहीं। वे भावों में जीवित रहते हैं, घड़ी के डायल पर लिखें अंकों में नहीं। आगे उसने और भी गजब का लिखा है कि हमें अर्थात् महापुरुषों की श्रेणी में पहुँचने के लिए समय की गणना हृदय की धड़कनों से करनी चाहिए, तभी हम समय के महत्व को समझ सकते हैं तथा अपने जीवन को बदल सकते हैं ये आगे लिखते हैं जैसे कि
'He most lives who thinks most, fells the noblest-acts the best. '
वही संसार में सबसे अधिक जीवित रहता है जो सर्वाधिक विचार करता है, उत्तम भाव रखता है और सर्वोत्तम कार्य करता है।
ऐसे महापुरुषों की जीवनियाँ ही हमें याद दिलाती हैं कि हम भी अपना जीवन महान् बना सकते हैं और मरते समय अपने पदचिन्ह समय की रेत पर छोड़ सकते हैं। यथा
Lives of great man all remind us, We can make our lives sublime, And, deporting, leave behind us, Footprints on the sands of time. उपाध्यायप्रवर के आदर्श पदचिन्ह स्वर्णिम इतिहास के पृष्ठों पर सदैव अंकित रहेंगे तथा आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करेंगे और हमको या आगत सचेतन मस्तिष्क युक्त मनुष्य को आदर्शमय जीवन जीने की प्रेरणा देते रहेंगे।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज !
आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने अपने गुरुदेवश्री से वह सब कुछ सीखा जो एक शिष्य को सीखना चाहिए था। मुझे बिल्कुल भी संकोच नहीं होगा आचार्यप्रवर को उपाध्यायश्री की जीवन-गन्ध कहने में। इसी गंध की बदौलत श्री देवेन्द्र मुनि जी संघ के मुनीन्द्र अर्थात् श्रमणसंघीय श्रमण श्रमणी तथा श्रावक-श्राविका के अनुशास्ता बने हैं। इसी के साथ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि श्रमण संघ को जो इतने विद्यासंपन्न एवं गुणसंपन्न आचार्यप्रवर प्राप्त हुए हैं, उसमें दो अदृश्य महापुरुषों का सहयोग कभी नहीं भुलाया जा सकता। उसमें पहला महापुरुष उस जौहरी के सदृश है,
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श्रद्धा का लहराता समन्दरमा
२९ । जिसने मटमैले हीरे को स्वच्छ किया तथा उसमें छिपे पानी (प्रतिभा) मैंने पूज्य गुरुदेव श्री के चरणों में यह समाचार निवेदित को प्रकट किया और अपने परिश्रम से उस बाल-हीरे को कोहिनूर किया। इस पीड़ापूर्ण समाचार को सुनकर उनके मन को भी बहुत में बदल दिया। दूसरे महापुरुष उस जौहरी के समान हैं जिसने हीरे ख्याल हो रहा है। के ढेर में भी सर्वोत्तम हीरे को पहचान लिया तथा सितारों की
उपाध्याय श्री के पूर्वज मुनिराजों के एवं हमारे पूर्वज गुरुओं बारात में चाँद-सा दूल्हा बना दिया अर्थात् मुनि को देवों का देवेन्द्र
के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध सम्पर्क थे। हम वर्तमान में भी वैसा ही घोषित कर दिया।
अनुभव करते हैं। अतः उपाध्याय श्री जी का महाप्रयाण दोनों मुनि 9000 आप समझ गए होंगे कि मेरा इशारा किन महापुरुषों की ओर परम्पराओं के लिये महान् क्षति है। है। फिर भी स्पष्ट कह देता हूँ। ये महापुरुष हैं या थे क्रमशः हमारे
उपाध्याय श्री इस युग के विशिष्ट मुनिराज थे। उनका जीवन वर्तमान आचार्य के पूज्य गुरुदेव उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि ।
संघ, समाज के लिये, प्रेरणा पूर्ण था। उनका अभाव समाज के लिये 90 जी महाराज और श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट् श्री ।
जहाँ खिन्नता का कारण है वहाँ यह प्रेरणा सदैव देता रहेगा जीवन आनंदऋषि जी महाराज।
को ऐसे सुनियोजित तरीके से जीओ कि स्व और पर दोनों का उपाध्याय श्री, आचार्यश्री और भाग्य प्रेम-कुल
हित साधन कर, अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। इसके अतिरिक्त चारित्र-नायक चमत्कारिक उपाध्यायश्री जी का
उपाध्याय श्री अपने समस्त कार्यों को पूर्ण कर, विशिष्ट तथा तृतीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. का
समाधि साधना के साथ पुष्कर पलाशवत् अपने जीवन की यात्रा हमारे इस भाग्य-प्रेम कुल से अखण्ड संबंध जुड़ चुका है, क्योंकि
३ को सम्पन्न कर गये हैं। यह कितनी महान् उपलब्धि है। हमारे पूज्य गुरुदेव सरल स्वभावी उपप्रवर्तक श्री प्रेमसुख जी म. आपश्री के लिये ये गुरु-वियोग के पीड़ादायक पल हैं परन्तु के पौत्र शिष्य श्री राजेश मुनि जी म. ने जहाँ उपाध्यायश्री जी को आपके लिये यह कितने महान् गौरव की बात भी है-आपश्री के दीक्षामन्त्र प्रदान किया था। वहीं गुरुदेव के प्रपौत्र अर्थात् श्री राजेश गुरुदेव जन-मन के आराध्य बने। मुनिजी म. के शिष्य श्री अनुपम मुनि जी म. को वर्तमान आचार्य
अत्रस्थ सभी मुनिवर आपश्री के गुरुवियोग के इस पीड़ादायक श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने २८ मार्च को उदयपुर में चादर पद
समय में हार्दिक संवेदना अभिव्यक्त करते हैं। महोत्सव के प्रसंग पर दीक्षा-मंत्र प्रदान किया जो इस भाग्य प्रेम-कुल के लिए सौभाग्य की बात है। इसके अतिरिक्त आचार्य-पद चादर महोत्सव में गुरुदेव श्री के
[ अद्भुत योगी उपाध्याय पुष्कर मुनिजी म. ) ज्येष्ठ शिष्य-रत्न पं. प्रवर श्री रवीन्द्र मुनि जी म. ठाणा चार को जो आचार्य श्री जी से प्रेम भरा अपनत्व मिला, उसे कभी भुलाया
-सिद्धान्ताचार्य राममुनि 'निर्भय' 660 नहीं जा सकता। इस बात को हम निःसंकोच कह सकते हैं कि
संसार में दो ही मार्ग हैं-एक भोग मार्ग, दूसरा योग मार्ग। आचार्यप्रवर इस भाग्य-प्रेम-कुल-मंदिर के आराध्य देव हैं। बस
भोग मार्ग पर चलने वाला भोगी होता है तथा योग मार्ग पर चलने DOS हमारी शासनेश प्रभु से यही प्रार्थना है कि आचार्य भगवन् द्वारा
वाला योगी होता है। जैन दर्शन में मन-वचन-काया को योग की DD हम सभी पर इसी तरह प्रेम की वर्षा होती रहे।
संज्ञा दी है। फलितार्थ हुआ कि मन-वचन-काया को जिसने अपने ORDS अन्त में पुनः अनन्त श्रद्धा के केन्द्र उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर वश में कर लिया है वह योगी है। उपाध्याय पुष्कर मुनिजी म. ऐसे मुनि जी म. को, पू. गुरुदेव की ओर से और समस्त प्रेम-कुल के ही एक योगी थे, अद्भुत योगी। सदस्यों की ओर से श्रद्धा-सहित भाव-सुमन अर्पित करता हूँ।
। योगी के लिए ध्यान मुद्रा का बहुत महत्व होता है। ध्यान में
आत्मा से वार्तालाप करने का अवसर मिलता है। ध्यान में शरीर से
परे हटकर साधक आत्मा के निकट पहुँच जाता है। एक अंग्रेज एक महान क्षति है
विचारक ने कहा है-ध्यान क्या है-श्री सुभद्र मुनि
Absent in the body (शासनरल योगीराज श्री रामकृष्णजी म. के सुशिष्य)
present in the soul. आज प्रातः ज्ञात हुआ-"परम श्रद्धेय उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर
उपाध्याय जी म. को घंटों ध्यान में बैठने का अभ्यास था। मुझे Dee मुनि जी महाराज दिव्यलोक को प्रस्थान कर गये।" उक्त समाचार
स्वयं अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ है। वे एक सच्चे संत से मन स्तम्भित रह गया।
थे। संत का अर्थ है-शांत! जो शांत है वही सच्चा संत है।
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संत की उपस्थिति उसका मीन
उसका सान्निध्य
उसका दर्शन
समाज सेवा है।
प्रवचन है
पथ-दर्शन है चिन्तामुक्ति की औषधि है।
कई बार उपाध्याय श्री के पावन दर्शनों का लाभ मिला। वे सरल हृदय से दिल खोलकर दिल की बातें करते थे। बातें करते हुए वे दूसरे को भी अपना ही समझते थे। उनका आत्मीयतापूर्ण सरल व्यवहार हर मानस को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लेता था।
उनका जीवन तो शानदार था ही, मरण ही बहुत शानदार रहा है। संथारापूर्वक मरण महापुरुष का ही होता है। वे चले गए परन्तु अपना स्वस्थ छोड़ गए। समाज को एक चलता फिरता (जंगम) तीर्थ दे गए - वह तीर्थ है - आचार्य देवेन्द्र मुनि जी म. का पावन सानिध्य पावन दर्शन आचार्य श्री उपाध्याय श्री की अनमोल कृति हैं। मैं अन्त में महामना उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ लेखनी को विराम देता हूँ।
दिव्य साधक- उपाध्यायप्रवर पूज्यश्री पुष्करमुनि जी म.
- डॉ. सुव्रत मुनि शास्त्री (एम. ए., पी-एच. डी. )
श्रमण संस्कृति की यह दृढ़ आस्था रही है कि हृदय के पूर्ण निर्मल हो जाने पर मन के निश्वार्थ होने से मानव की सहज परहित की वृत्ति पूर्णतया जाग्रत हो जाती है, उसमें धर्मज्योति जगमगा उठती है, तब वह सबका आश्रय केन्द्र बन जाता है। लोग उसकी दिव्यता से प्रभावित हो उसकी जय-जयकार करने लगते हैं। इसीलिए कहा है
जयन्ति ते महाभागाः कारुण्यामृत सागराः । छिन्दन्ति ये महापाशान्, माया मोहवतां नृणाम् ॥
अर्थात् जो महापुरुष मोह-माया के बन्धनों में जकड़े हुए लोगों को बन्धनमुक्त करते हैं, करुणारूपी अमृत के सागर के समान ऐसे उत्तम दिव्य पुरुषों की ही जय-जयकार होती है। जो मानव समाज, देश और राष्ट्र के लिए कल्याणप्रद होते हैं, उन्हीं यशस्वी महापुरुषों को लोग सदैव स्मरण करते हैं। ऐसे महापुरुषों के लिए लिखा है
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देश जातिहितार्थाय ये श्वसन्ति महायशाः । म्रियन्ते ते जनाऽत्र, मानवैः शुद्ध मानसैः ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अर्थात् देश और जाति के हित और कल्याण के लिए जो महान आत्माएँ मानव जीवन धारण करती हैं, शुद्ध हृदय वाले मनुष्यों के द्वारा यहाँ उन्हीं का स्मरण किया जाता है। ऐसे ही दिव्य महापुरुष थे पूज्य उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज । उपाध्याय श्री का जन्म मेवाड़ की वीरभूमि के सिमटार ग्राम में ब्राह्मण कुल में हुआ । जन्म-जात शुभ संस्कारों के प्रभावस्थ भाव आप युवा होते-होते वैराग्य रंग में स्नात होकर पूज्य श्री ताराचन्द्र जी महाराज के श्री चरणों में दीक्षित हो गए। अपने अथक सेवाभाव, स्वाध्यायशीलता एवं साधना- परायणता के बल पर वे निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहे। उनकी साधना से आत्मा की तेजस्वी शक्ति प्रस्फुटित हुई। अपनी वाणी से वे प्रवचन प्रभावना करने लगे। उनकी वाणी अनुपम ओज भरी होती थी। अपने निरन्तर के स्वाध्याय, चिन्तन, मनन और आन्तरिक अनुभूति के योग से उन्होंने साहित्यिक जगत में प्रवेश किया। साहित्य की गद्य-पद्य दोनों विधाओं पर उन्होंने अधिकार पूर्ण लिखा। उनका कथा साहित्य, शोध ग्रन्थ और गीत संग्रह इसके सशक्त प्रमाण हैं।
उनकी दिव्य साधना, ओजस्वी वाणी और वात्सल्यमयी धर्म प्रभावना से अनेक भव्य आत्माओं ने धर्म बोध प्राप्त कर अपने जीवन को आलोकित किया। उनमें से कुछ उच्चकोटि के साधुसाध्वी बन गए तो कुछ उच्चाचार वन्त श्रावक-श्राविकाएँ बन गए। उसका ज्वलन्त उदाहरण हैं वर्तमान में अखिल भारतीय स्थानकवासी श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. और कविरत्न श्रद्धेय श्री गणेश मुनि जी म. आदि अनेक श्रेष्ठ साधु और आर्यकाएँ हैं जो वर्तमान में अपनी उच्च पावन साधना एवं प्रवचन प्रभावना से संघ का गौरव बढ़ा रहे हैं।
पूज्यवर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के सन् १९८४ के चाँदनी चौक, दिल्ली के चीमासे में अनेक बार उनके दर्शन, प्रवचन तथा तत्पश्चात् विहार यात्रा में उनके साथ विचरण का सौभाग्य पूज्य गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द जी म. के साथ मिला था। उस समय उनके आशुकवित्व एवं मधुर स्वभाव ने सभी का मन मोह लिया था। वे जहाँ भी जाते वहीं एक अद्भुत धर्म प्रभावना का रंग जम जाता था। वे जहाँ बड़ों को सम्मान देते थे वहाँ छोटों को अपने सहज वात्सल्य से सराबोर कर देते थे, जिससे प्रत्येक साधक उन्हें अपना मानता था और मन में यही भाव रहता था कि अधिक से अधिक समय तक उनका सान्निध्य मिलता रहे। ऐसे महान् दिव्य साधक अपने अमर गुणों के कारण सदा सर्वदा अशरीरी होकर अपने यशस्वी गुणों के लिए संघ समाज में स्थायी स्थान बनाए रखते हैं। ऐसे शाश्वत महान् साधक के प्रति अपने भक्ति भरे भाव समर्पित करते हुए हम गौरव का अनुभव करते हैं।
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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भाल पर तिलक के समान हैं। जैन श्रमणों ने इस श्रमण संस्कृति महकता पुष्प
की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम दिया। जैन श्रमण, श्रमण 100 -मुनि अमरेन्द्र कुमार सस्कृतिक कठारतम साधका मस हा
वैसे देखा जाय तो, सन्त शब्द की परिभाषा में ही भद्रता श्रमण, भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी है। उसका संरक्षक
निहित है। सन्त तो दूर की बात है, सच्चा मानव बनने के लिए भी, है, उद्धारक है, और उसे विकास के सर्वोच्च शिखर तक ले जाने
परिणामों की भद्रता और सरलता की सर्वप्रथम अनिवार्य वाला साहसिक नेता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास, इन
आवश्यकता हुआ करती है। शास्त्रकार तो यहाँ तक कहते हैं कि त्याग-मार्गी, महान् आत्माओं के समुज्ज्वल चरित्रों एवं पावन
धर्मात्मा, एकमात्र भद्र हृदय मानव ही हो सकता है। अर्थात् भद्र उपदेशों से भरा पड़ा है। इन संस्कृति के उन्नायक महापुरुषों से
| हृदय में ही धर्म सुस्थिर रह सकता है। उपाध्याय श्रीजी धर्मात्मा ही भला कौन परिचित नहीं है। प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी तक भी इनके
| नहीं, बल्कि सच्चे महात्मा भी थे। क्या मन? क्या वाणी? और क्या महान् सद्गुणों एवं कार्य-कलापों से सुपरिचित हैं। सन्त देश-काल
कर्म? उनका सारा जीवन ही भद्रता से ओत-प्रोत था। प्राकृतिक की तुच्छ सीमाओं में कभी बँध कर नहीं रहा। समाज, परिवार,
| भद्रता के जबकि अन्यत्र दर्शन ही दुर्लभ होते हैं, वही प्राकृतिक सम्प्रदाय या देश भी उस अमर ज्योति को रोक कर नहीं रख सके।
भद्रता उनके जीवन में प्रचुरतम मात्रा में, कूट-कूट कर भरी थी। उस महान् पुरुष की दिव्य ज्योति सर्वत्र फैली। अपने समुज्ज्वल
उनके सम्पर्क में आने वाले, चाहे साधु-साध्वी हों, अथवा गृहस्थ, वे आलोक से उसने समस्त विश्व को आलोकित कर दिया। उसके
उनकी भद्रता और सरलता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते थे। सद्गुणों और पावन अनुभूतियों की सुगन्ध को, क्षुद्र परिधि कब तक बन्द रख सकती थी? वह तो फैली समस्त विश्व में। जन
मर्द शुख खू नहीं तो फिर क्या है? मानस का कोना-कोना उसकी विराट खुशबू से महक उठा,
फूल में बू नहीं तो फिर क्या है? सुवासित और सुगन्धित हो उठा। इन श्रमण संस्कृति के पुण्य-स्रोत, श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्रीपुष्कर मुनिजी के किस-किस महान् सन्तों, अध्यात्मवेत्ताओं की पुण्य जन्मभूमि होने का गौरव वस्फ की तारीफ लिखू ? उनकी तो सारी जिन्दगी ही औसफ की भारत को ही अधिकांशतः सम्प्राप्त है। कश्मीर से लेकर | खान थी। खुशमिजाजी, जिंदा-दिली, खिदमतपरस्ती, नेक चलन कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक ऐसा कौन-सा । और पाक अमल किस-किस का अफसाना लिखने बै? उनके स्थान है, जो इन ऋषियों, मुनियों, त्यागियों, महात्माओं, सन्तों और एक-एक वस्फ की तारीफ में पोथे के पोथे और दीवान के दीवाना श्रमणों से गौरवान्वित न हुआ हो। भारत तो अध्यात्म संस्कृति का लिखे जा सकते हैं। फिर भी दो सतरें एक शायर के शब्दों में केन्द्र ही रहा है। अतः प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समाज में, प्रत्येक दोहरा ही देता हूँ। सम्प्रदाय में, प्रत्येक प्रांत में, एक से एक बढ़कर ये महामानव हुए
सखावत, शुजाअत, इबादत, रियाजत। हैं तथा होते रहेंगे। सौराष्ट्र एवं गुजरात के सन्तों में, त्यागी
हर एक वस्फ में तुझको थी काबलीयत॥ महापुरुषों से भला कौन परिचित नहीं है। महाराष्ट्र एवं बंग देश की विभूतियों को भला कौन नहीं जानता। राजस्थान के धीर, वीर,
ए उनकी जिन्दगी एक महकते हुए फूल की जिन्दगी के मानिन्द
भला कौन अनभित थी। फूल की महक तो थोड़ी देर कायम रहती है। फूल के मुझातेपञ्चनद के फक्कड़ फकीर भला किससे छिपे हुए हैं और उत्तर
सूखते ही, उसकी हस्ती भी खत्म हो जाती है लेकिन उनके औसाफ प्रदेश? वह तो एक तरह से भक्तों, सन्तों एवं सत्पुरुषों की मानो
की खुशबू तो हमेशा महकने वाली खुशबू है। वह उनकी जिन्दगो के खान ही रहा है। भारत की यह आध्यात्मिक सन्त परम्परा आज ही
वक्त भी थी और इसी तरह मुश्तकबिल भी उसकी महक से नहीं अपितु अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। ऋषभदेव,
महकता रहेगा। क्या अपना, क्या पराया? सब उसके औसाफ शान्तिनाथ, राम, कृष्ण, पारस और महावीर सरीखे अवतारी
की खुशबू से मुअत्तर रहे हैं और रहेंगे। जैसा कि एक शायर ने DEE महापुरुषों की यह भारत ही जन्मभूमि रही है। महात्मा बुद्ध,
कहा हैआचार्य शंकर, महव, निम्बार्क आदि तथा गुरुनानक, तुलसी, सूर,
फूल बन करके महक, तुझको जमाना जाने। कबीर, दादू, मीरा जैसे एवं तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, नरसी,
भीनी खुशबू को तेरी, अपना बेगाना जाने॥ आनन्दघन जैसे भक्तों और सन्तों की परम्परा यहाँ अविच्छिन्न रूप
सचमुच में वे एक ऐसे ही हमेशा के लिए कायम रहकर से चलती आई है।
खिलने वाले फूल बनकर, गुलशने आलम में महके थे। उनकी श्रमण संस्कृति के उन्नयन और उत्थान में, जैन श्रमणों का भी मिसाल कैसे दी जाए। वे अपने जैसे खुद ही थे। एक शायर के 20 महत्वपूर्ण योग रहा है। जैन श्रमण, श्रमण संस्कृति के विशालतम । शब्दों में
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत।।
वे मनस्वी पुरुष अपने युग के तेजस्वी पुरुष थे। समाज के हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।"
मुख व मस्तिष्क भी थे। समाज के विकास व कल्याण के लिए
अपने युग के अन्धविश्वासों, अन्धपरम्पराओं, मूढ़ता से परिपूर्ण औसाफ से चमकता चेहरा, नेक अमल से दहकती सोने-सी। हा देह। क्या मजाल? किसी की निगाहें ठहर सकें। बेशक वह इन्सान
रूढ़िवाद से संघर्ष करते रहे, जूझते रहे। स्वकल्याण और पर
कल्याण करना उनका परम लक्ष्य था। उनका सोचना, उनका थे। लेकिन उनकी जिन्दगी एक पुरनूर मेहरोमाह से भी बढ़कर थी।
बोलना व उनका कार्य करना सभी में जन कल्याण करने की तभी तो शायर को कहना ही पड़ा आपको देखकर
भावना अंगड़ाइयाँ लेती रहती थीं। उन्होंने अपने प्राणों की बाजी निगाह बर्क नहीं, चेहरा आफताब नहीं।
लगाकर भी समाज को नूतन आलोक से भर दिया। उनका स्वभाव वह आदमी थे, मगर देखने की ताब नहीं॥
निस्तरंग समुद्र की तरह था जो हलचल कोलाहल से दूर रहकर उनके कौल और फैल, खुशी हो या गम, अकेले हों या लोगों ।
विकास की तरंगों से आन्दोलित था। वे सृजनात्मक शक्ति में 3 के बीच में, हर हालत में यकसां रहते थे। यह नहीं कि उनका दिल ।
विश्वास करते थे। जीवन में कितने ही विरोध के स्वर उभरे पर कुछ सोचे और जबान कुछ कहे, जबान कुछ कहे और फैल कुछ
विरोध को विनोद मानकर सदा उदात्त सृजनात्मक कामों में ही और ही कर गुजरें। नहीं, दिल-जबान और अमल, यह तीनों ही
संयोजित होते रहे। यदि कोई उनकी निन्दा भी करता तो भी उनकी आपके यकसा रहे हैं। तभी तो आप एक महान पुरुष बन सके,
पावन शक्ति कबूतर की भाँति इतनी प्रचण्ड थी कि मान अपमान
के कंकड़-पत्थरों को भी हजम कर शक्ति प्राप्त करते रहे। पाकबातन कहला सके। ऐसे ही महान् भारतीय त्यागी सन्तों के, महान् जीवन से ।
सूर्य की संतप्त चमचमाती किरणों से जो भी सम्पर्क में आता प्रकाश लेकर, आज हम भी, अपना जीवन-पथ, आलोकित कर,
है वो चमक उठता है। वैसे ही उन महान् युग पुरुष के सम्पर्क में निःश्रेयस और कल्याण के राजमार्ग पर, आगे निरन्तर आगे बढ़
अधम से अधम व्यक्ति भी आता है वह महान् जीवन-धारियों की
श्रेणी में आ जाता है। सकते हैं। "जीवन चरित महापुरुषों के, हमें यह शिक्षा देते हैं।
जस्थानकवासी जैन समाज के युग पुरुष के लड़ियों की कड़ी में हम भी अपना-अपना जीवन, स्वच्छ-रम्य कर सकते हैं।
सदगुरुवर्य अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. भी एक विरल तेजस्वी कड़ी हैं। आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक व नयनाभिराम है तो उससे भी अधिक आन्तरिक जीवन अभिराम
है। प्रथम दर्शन में ही व्यक्ति उनसे प्रभावित, आकर्षित हुए बिना मेरे आराध्य देव थे !
नहीं रहता। विशाल देह, लम्बा कद, दीप्तिमान निर्मल गौर वर्ण,
प्रशस्त चौड़ा भाल, नुकीली ऊँची नाक, उन्नत वक्ष, सशक्त मांसल -श्री भगवती मुनि “निर्मल" भुजाएँ, तेजपूर्ण शान्त मुख-मण्डल, प्रेमामृत वर्षात दिव्य नेत्र,
उज्ज्वल सफेद खादी के वस्त्रों से परिमण्डित विभूति को देखकर मेरे विचारों ने एकदम मोड़ खाया। कल तक जो सम्मुख थे।
बरबस ही दर्शक मोहित हो जाता है। प्रेम की पवित्र प्रतिमा, न दृष्टिपथ के पर्दे में आबद्ध थे पर आज क्या हो गया। कहाँ चले
सरसता की श्रेष्ठ निधि, दृढ़ संकल्प शक्ति, अद्भुत कार्यक्षमता गये। वर्तमान धरा की पुण्य सलिला में नहाते हुए भविष्य की
आभ्यन्तर व बाह्य परिपेक्ष्य के रूप में कभी देखा जा सकता था। सुन्दरतम कल्पना को संजोये आगे बढ़ गये। पर मेरा मन व्यथित है, उद्वेलित है। कौन भानजा कहेगा किसको मामा कहकर
आपश्री की जन्मभूमि का गौरव मेदपाट है। जहाँ तलवारों की
खनखनाहट, रण की झंकार नाद गूंजती रही, वहाँ मीरा की पुकारूँगा?
तरंगमती भक्ति के गीतों के स्वर भी गूंजे हैं। जन्मभूमि का गौरव प्रत्येक युग में कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का जन्म होता है
मिला है सिमटार (नान्देशमा) को। बाल्यावस्था में अम्बालाल के जिन्होंने अपनी महानता, दिव्यता और भव्यता से जन-जन के
नाम से पुकारे जाते थे। ग्राम धार्मिकता से ओत-प्रोत था। सुसंस्कार अन्तर्मानस को अभिनव आलोक से आलोकित किया है। जो समाज
गहरे में पहुँच रहे थे। संस्कृत के एक श्लोक को परिवर्तन के साथ की विकृति को नष्ट कर संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित
यों कह सकते हैंकरते हैं। अपने युग के गले-सड़े व्यर्थ के आचार व विचार में नव B सृजन का प्राणसंचार करते रहे हैं। उनके अध्यवसाय से पथ सुपथ
आस्ते कलियुगे विप्रो धर्म कर्म विशारदः। हो जाता है। पथ के शूल तो पुष्प व विपत्ति सम्पत्ति बन जाती है।
अम्बालाल इति ख्यातो नाम्ना धर्मपरायणः।। मार्ग की प्रत्येक बाधायें उत्साह प्रदान करती हैं। उलझन सुलझन योग्य गुरु की सन्निधि को पाकर आपने अपने जीवन को मोड़ बन जाती है।
दिया। संसार की असारता, नश्वरता, क्षणभंगुरता व स्वार्थ
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर परायणता को देखकर उनका मन संसार से विरक्त हो गया। योग्य आप में आस्था का ओज अद्वितीय था। साथ ही व्यवस्था की गुरु की सन्निधि पाकर गुरुता के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सूझ भी बेमिसाल थी, सत्वमयी थी। मन मोद से परिपूर्ण हो जाए गये। जिस समय आपने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया उस और कठोर तपश्चरण द्वारा किसी लक्ष्य को प्राप्त करना यथार्थतः। समय का वातावरण विचार भिन्नता था। जैन श्रमण का संस्कृत उल्लेखनीय प्राप्ति है। जो आप में सहज प्राप्त थी। आपकी वाणी का अध्ययन करना व परीक्षा देना दोनों निषिद्ध थे पर आपने वह में मनमोहकता होने से मंत्रित थी। वह जैसी निकलेगी वैसी ही उसकी किया। आपश्री में अध्ययन के साथ-साथ प्रतिभा, मेधा व कल्पना जागतिक और आध्यात्मिक फलश्रुति निकलेगी। वाणी चरित्र की शक्ति की प्रधानता है, कल्पना शक्ति उर्वरता तीव्र होने से नयी-नयी प्रतिध्वनि है। भाषा समितिपूर्वक जिन्हें वाणी व्यवहार का अद्भुत कल्पनायें प्रसुत होती रही हैं। तर्कणा शक्ति की तीव्रता से कठिनतम । अभ्यास हो फिर उस. मौन व्याख्यान की वार्ता को क्या कहना वहDER विषयों को भी सरलता से हृदयङ्गम कराने में आप समर्थ थे। तो उनके नेत्रों में पढ़ा जा सकता है। उनके चरणों में सदाचरण का व्याख्यान कला में भी आप दक्ष थे। विद्वता अध्ययन से
सन्देश मुखरित होता है। स्व. उपाध्यायश्री जी का जीवन सदाचरणपरिपूर्ण वक्तृत्व विधा के मध्य में ऐसी बात कहते कि श्रोता
पूर्वक संयम-साधना से सम्यक् तपश्चरण अपनी आत्मा का तेजस्वी खिलखिला उठते, क्लिष्ट विषय को भी सरलता से हृदयङ्गम कर
महातेज प्रकटीकरण में आप पूर्णरूपेण सफल हुए हैं। लेते। आप वाणी के जादूगर थे। किस समय कौन-सी बात कहना आपका दर्शन स्पर्शन जब से मेरे नेत्र खुले तभी से हो रहे हैं। यह सम्यक् रीति से जानते थे। आप जपयोगी थे। जप की यह आपका व मेरा पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। आपकी बाल्यावस्था निधा आपको परम्परा से प्राप्त थी। जप में महान् शक्ति है। जो अपने मातुलगृह में व्यतीत हुई तो मेरी भी बाल्यावस्था भी उसी घर कार्य अन्य शक्ति से सम्भव नहीं वह असम्भव कार्य भी जप से सम्भव है। नियमित रूप से, नियमित समय पर सद्गुरुदेव सविधि
साधनावस्था में भी अनेकों स्थानों पर साथ रहने का प्रसंग महामन्त्र नवकार को लेकर जप किया जाये तो अवश्य ही सिद्धि
बना। यत्र-तत्र सर्वत्र प्रेम स्नेह का अमृत मिला। अन्तिम कालावधि मिलती है। उपाध्यायश्री जी नियमित रूप से प्रतिदिन जप करते थे। भोजन की उन्हें चिन्ता न थी, जप की चिन्ता थी। जप का समय
में तो एक मास से अधिक समय पर्यन्त सेवा में रहने का प्रसंग अचूक था, बिहार-यात्रा में भी जप समय होने पर बैठ जाते थे।
मिला। आत्मसंतोष है कि सेवा मिली। चाहे जंगल ही क्यों न हो। सड़क के किनारे पर वृक्ष के नीचे चेहरे पर सतेज भाव अन्तिम समय पर्यन्त रहा। स्वर्ग-गमन के पश्य ध्यानावस्थित हो जाते थे। वे खूब रसपूर्वक जप करते थे। उनके । बाद भी शव को देखकर ऐसा लगता कि अब बोलेंगे। जहाँ भी हो सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता उसे जप की प्रेरणा देते थे। जिस लोक में भी हों वहीं मेरे श्रद्धा सुमन स्वीकार करें। बस यही एक श्रमण भगवान महावीर का सिद्धान्त कि भारण्ड पक्षी के
अभ्यर्थना। समान अप्रमत्त रहते हुए समयं गोयम मा पमायए-क्षण मात्र के लिए प्रमाद न करो। सतत् आत्मध्यान स्वाध्याय ध्यान में संलग्न
सद्गुरु की महिमा अनन्त रहो। स्व. उपाध्याय जी इस सूत्र के कायल थे। आपका प्रत्येक कार्य नियमित समय पर होता था। प्रातः २ बजे से कार्य प्रारम्भ होता जो
-श्री दिनेश मुनि रात्रि के ९ बजे पर्यन्त अविराम गति से चलता था। दर्शनार्थियों का जनसमूह सतत बना रहता था पर अपने कार्यक्रम में परिवर्तन सद्गुरु की महिमा अनन्त है, गुरु के उपकार भी अनन्त हैं करना उन्हें रुचिकर न था।
और अनन्त की अनुभूति बिना गुरु की कृपा के कदापि सम्भव जीवन की सांध्यबेला में उन पर अनेक व्याधियों ने आक्रमण । नहीं है। जीवन अनन्तकाल से अँधेरी गलियों में भटक रहा है। कर दिया था पर चेहरे पर वही सहनशीलता के भाव। इन पंक्तियों विषय-वासना में अटक रहा है। गुरु हमें प्रकाश देते हैं, गुरु पारस के लेखक से गुरुदेव ने कहा-कष्टों की पराकाष्ठा है। वेदना असह्य पत्थर हैं जो हमारे जीवन रूपी लोहे को स्वर्ण में परिवर्तित कर देते 900 होती जा रही है पर उनका दृढ़ता से सामना करना है। रोग अपना हैं, गुरु कुशल नाविक हैं जो शिष्य की जीवन-नौका को इस विराट कार्य करें मैं अपना कार्य करूँ। चेहरे पर वही प्रसन्नता का भाव। संसार रूपी सागर से पार कर देते हैं। गुरु आध्यात्मिक चिकित्सक 2000 सिंह-सी दहाड़ती हुई बुलन्द आवाज और शारीरिक कष्ट
हैं जो रोगों को ही नहीं किन्तु मन के रोगों को निर्मूल कर देते हैं । वेदना के क्षणों में भी अपार धीरता, सहिष्णुता को देखकर ऐसा और ऐसा आरोग्य प्रदान करते हैं जिससे आत्मा अपने स्वरूप को HD आभास होता था कि गुरुदेव जपयोगी हैं। पीड़ायें उन पर हावी नहीं समझ जाता है। गुरु के बिना संसार में कुछ नहीं है, गुरु की सबसे हो सकतीं। अधिकतम वेदना के क्षणों में भी बापा यह आवाज बड़ी विशेषता है कि वह शिष्य को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित निकलती थी। दादा गुरुजी को बापा कहकर पुकारते थे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । मेरा परम सौभाग्य रहा कि मुझे सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर आप भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त थे, सदा स्वाध्याय और मुनि जी म. जैसे संघ अनुशास्ता प्राप्त हुए जिनका जीवन समता, ध्यान में तल्लीन रहते थे। मैंने देखा वृद्धावस्था में आपका शरीर ममता और सहिष्णुता का पावन संगम था। आपका व्यक्तित्व अनन्त अस्वस्थ हो गया था। कई बार तीव्र ज्वर भी रहता था, तन आकाश में सुशोभित इन्द्रधनुष की तरह बहुरंगी प्रतिभा से युक्त अस्वस्थ था किन्तु आपका आत्मबल गजब का था। आपका मन था, उपवन में खिले हुए विविध प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों की तरह । कभी भी अस्वस्थ नहीं हुआ, उस अस्वस्थ स्थिति में भी यदि हम आपकी संयम-साधना पल्लवित और पुष्पित थी जो भी आपके लोग आपकी सेवा में पहुँचते तो आप हमारे से विविध प्रकार के सान्निध्य में पहुँचता वह चारित्र की सौरभ में सुवासित हो जाता प्रश्न पूछते थे, उत्तर न आने पर आप स्वयं उत्तर प्रदान करते। था। चारित्र बल के कारण भक्तगण स्वतः खिंचे चले आते थे, हम कहते कि गुरुदेव आराम कीजिए पर आप आराम को तो इसीलिए कवि के हृदतंत्री के तार इस प्रकार झनझना उठे
हराम ही मानते थे, आपका यह दिव्य संदेश था कि, उट्ठिए! णो "कल्पनाओं को शक्ल दिया तुमने,
पमायए!! उठो, प्रमाद को छोड़ो। अनन्त-अनन्त काल से प्रमाद की मेरे जीवन को संबल दिया तुमने।
दिशा में सोए रहे हो, अब यह जीवन मिला है यदि इस जीवन में जिन्दगी के घने अँधेरों को,
भी तुमने प्रमाद किया तो फिर कहाँ साधना करोगे? रोशनी में बदल दिया तुमने ॥"
गुरुदेव जागृति का संदेश देते हुए यह प्रबल प्रेरणा देते थे कि कैसे भल सकता है आपको आपने मेरे जीवन को विविध साधु बने हो तो भजन करो, तप करो, जप करो नहीं तो याद सद्गुणों के रंग से रंगा, जीवन को नया मोड़ दिया है, आपके
रखनासान्निध्य को पाकर मेरा जीवन धन्य हो उठा। अंधे को आँख, पंगु
"गृहस्थी केरा टुकड़ा, लाम्बा-लाम्बा दांत। को पैर और संतप्त हृदय को सान्त्वना मिलने से जितनी आनन्द
भजन करे तो उबरे, नहीं तो काढ़े आंत॥" की अनुभूति होती है, उससे कई गुना आनन्द की अनुभूति मुझे
कितनी थी सद्गुरु में जागरूकता। यह है इसका स्पष्ट निदर्शन। हुई, आपके स्नेह से पगी हुई छांव को पाकर मुझे उसी तरह की अनुभूति हुई कि मध्याह्न की चिलचिलाती धूप में किसी धने वृक्ष की
आज गुरुदेव हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनका पवित्र जीवन आज
भी हमें प्रेरणा दे रहा है, यह सत्य हैछांव सुस्ताने को प्राप्त हुई हो। प्रत्येक सांस में आपने त्याग और वैराग्य की संयम-साधना की और स्वाध्याय की प्रेरणा दी। आज वे "बहुत दिनों बाद हस्तियाँ ऐसी भू पर आती हैं। सारी स्मृतियाँ और अनुभूतियाँ स्मृति पटल पर उभर कर आ रही जिनके गुण गौरव से जनता धन्य-धन्य हो जाती है।" हैं, आपके सद्गुण रूपी मुक्ताओं को शब्द सूत्र में पिरोने का मेरा यह प्रयास है। आपका जीवन सूर्य की तरह तेजस्वी था तो मेरा यह प्रयास नन्हें से दीपक की तरह है।
श्रद्धा भरा प्रणाम मेरे जीवन की अँधेरी रात में आप प्रभात बनकर उदित हुए और मेरे मन रूपी कमल को खिला दिया। आपकी कृपा रूपी
-श्री गीतेश मुनि 'गीत' किरणें पाकर मेरा जीवन ही परिवर्तित हो गया। आपके आनन पर
(श्री गणेश मुनि जी शास्त्री के सुशिष्य) जो मृदु हास्य अठखेलियाँ करता था उससे यह स्पष्टतः ज्ञात होता
-भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान संस्कृति है। त्याग-संयम के था कि आपका अन्तर्हृदय आनन्द से छलक रहा है, उसकी कहीं
कारण ही मानव से महामानव, इन्सान से भगवान और आत्मा से थाह नहीं। गीर्वाण गिरा के यशस्वी शब्दों में इतना ही कहा जा
परमात्मा के रूप में रूपायित होते हैं। सकता है
-महापुरुषों की धरती होने के कारण ही भारत देश धर्म “अधरं मधुरं वचनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
प्रधान व आर्य देश कहलाता है। भारत देश को विश्व का गुरु इसी हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरं॥"
कारण माना गया है। यहाँ जितने धर्म, पंथ, ग्रन्थ, संत-महन्त हुए आपका जीवन मोती की तरह पानीदार था, आपका या हैं उतने किसी भी देश में नहीं मिलेंगे। आभावलन प्रभावपूर्ण था, आपका तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी
प -सर्वधर्म समभाव के कारण हमारा भारतवर्ष महान् है। समयचेहरा दूसरों को अपना बनाने में सक्षम था, इसीलिए तो कवि ने
समय पर इस पुण्य धरा पर पुण्य पुरुष जन्म लेकर अध्यात्मकहा है
शान्ति का संदेश देकर अस्त-व्यस्त संत्रस्त मानव समाज में अभिनव 'यूं तो दुनियाँ के समुद्र में, कभी कमी होती नहीं।
चेतना का संचार करते हैं। २० वीं सदी के चमकते संत सितारों में लाख गौहर देख लो, इस आब का मोती नहीं।"
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
जायेगा, कारण कि यह क्षमाशील, जैन कथा साहित्य के महान् लेखक, ज्ञान दिवाकर, अध्यात्मयोगी संत पुरुषोत्तम थे। उनकी अध्यात्म किरणें देश-विदेशों में विकीर्ण हो रही हैं।
-भारत के विभिन्न प्रान्तों में विचरण कर धर्म-ज्ञान-गंगा प्रवाहित की, जिससे हजारों-हजार व्यक्ति अन्धकार से प्रकाश में, अधर्म से धर्म की राह पर चल पड़े। आपकी वाणी में जादू था जिससे श्रोताओं के मन पर सीधा असर पड़ता था। लोह चुम्बक की भाँति आपके व्यक्तित्व में कशिश थी । आपश्री ने अपने शिष्यशिष्याओं को ज्ञान-साधना में निपुण बनाया। आज अनेक संत व महासतियाँ धुरन्धर विद्वान, कवि, प्रवक्ता, लेखक हैं जिनमें आचार्य प्रवर समर्थ साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनि जी म एवं मेरे दादा गुरुदेव प्रसिद्ध साहित्यकार ज्ञानज्योति श्री गणेश मुनि जी शास्त्री अग्रगण्य हैं।
-उदयपुर में समायोजित चादर समारोह के ऐतिहासिक प्रसंग पर मैंने परदादा गुरुदेव उपाध्याय श्री जी म. सा. का स्नेहपूर्ण आशीष पाया तो अन्तर्मन झूम उठा।
-इतने बड़े महापुरुष होते हुए भी उन्होंने मुझ बाल मुनि को वात्सल्य भरी वाणी में सत् शिक्षाओं का अमृत प्रदान किया वह अनुपम है।
-आज ये महापुरुष संतश्रेष्ठ देह दृष्टि से नहीं हैं पर उनके अगणित उपकार सदियों तक समाज देश का मार्गदर्शन करते रहेंगे। उस दिव्यात्मा को मेरा शतशः वन्दन' ! नमन।
शत-शत नमन
स्व. श्री नेम मुनिजी
वास्तव में उपाध्याय श्री जी म. समाज के एक पिता थे। उदार हृदय से सबको ज्ञान-दान दिया, बड़े-बड़े उपकार किये, ऐसे परम पिता के दर्शन न हो सके इसका हृदय में महा दुःख है। उपाध्याय श्री जी म. आशाओं के केन्द्र थे।
शासनदेव से हार्दिक विनम्र प्रार्थना है कि उपाध्याय श्री जी की शान्तात्मा को पूर्ण अध्यात्म शान्ति प्राप्त हो, आचार्य सम्राट् एवं समस्त सुशिष्य परिवार को इस वियोगजन्य महादुःख को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो ।
यदि सोने को तपा दिया जावे तो कुन्दन बन जाता है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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पुष्करत्व के प्रतीक : उपाध्याय श्री जी
-अमृत ऋषि 'साहित्यरत्न'
पुष्कर शब्द पवित्रता एवं पावनता का प्रतीक है। जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र को पावन बनाने की शक्ति निहित है वही पुष्कर बन सकने की सामर्थ्य रखता है। पावन व्यक्ति को यदि पावन बनाने का कार्य किया जाए तो कोई महत्व नहीं रखता। महत्ता तभी मालूम होती है जब नैतिक आचरणों से गिरे हुए व्यक्ति को पावन बनाने के लिए कार्य किया जाए। उसको नैतिक और आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख करने के लिए साहसिक कदम उठाया जाए।
हिन्दू धारणा के अनुसार पुष्कर में अवगाहन करने वाला मानव अपने समस्त पापों का विसर्जन कर देता है। उसके शरीर पर जो पाप-रज लिपटी हुई होती है वह पुष्कर के पानी से मुक्त हो जाती है। वह पुष्करमय बन जाता है। अगर पुष्कर में निर्मलता का अंश नहीं समाहित होता तो आगत व्यक्तियों को पुष्कर बनाने की क्षमता उसमें नहीं रहती।
पुष्कर में नैतिक एवं आध्यात्मिक आदर्श समाये हुए रहते हैं। उन आदर्शों के द्वारा ही मानव को महामानव बनाने की सामर्थ्य विद्यमान होती है ऐसे ही मेवाड़ की माटी में खेले उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. में समागत व्यक्तियों को पुष्करत्व बनाने की विलक्षण क्षमता थी। जो कोई भी उनके सान्निध्य में एक पल भी व्यतीत कर देता तो पुष्कर के अंश आये बिना उसमें नहीं रहते । पतित से पावन बनाने का एक अविराम कार्यक्रम उनका चल पड़ता।
उनका व्यक्तित्व सृजनशील था। सृजन कल्पना के आधार पर होता है। जिसके पास कल्पनाओं का अक्षय स्रोत निहित होता है, वही सृजनात्मक कार्यों को सरंजाम दे सकता है। उपाध्याय श्री जी की मनस्-तरंगें समाज को विकासोन्मुखी बनाने के लिए तरह-तरह की कल्पनाओं से आप्लावित रहती थीं। समाज को खोखला बनाने वाली कुरूढ़ियों के प्रति सदैव चिंतित रहते थे। उन रूढ़ियों को समाज से निर्मूलीकरण करने के लिए समय-समय पर अपने प्रवचनों के द्वारा जेहाद के स्वर छोड़ते थे।
वे वाङ्मयी थे। किसी भी दर्शन का अध्ययन करना हो तो तत्सम्बन्धी साहित्य की आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन उपाध्याय श्री जी के श्री चरणों में जो कोई अध्ययनार्थ पहुँच गया उन्हें साहित्य की कोई जरूरत नहीं होती थी। क्योंकि उनकी प्रकाण्ड पाण्डित्यता ही साहित्य होता था। वे सरस्वती पुत्र थे। उनकी वाणी में शारदा का अस्तित्व निर्झरित होता रहता था। जैन दर्शन ही नहीं अपितु इतर दर्शनों की गहरी विद्वत्ता उनके सृजनात्मक तुलनात्मक साहित्य से स्पष्टतः परिलक्षित होती है। उन्हें आगममनीषी और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक साहित्यमनीषी कह दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति का प्रश्न ही । हमारे हृदय की सारी मलिनताएँ, सारी अशान्ति गायब हो जाती
नहीं उठता। सरस्वती तनय होने से ही श्रमणसंघ ने उन्हें थी। जिनका विराट् व्यक्तित्व हमें स्वयं ही मोह लेता था। जिन्होंने 'उपाध्याय' के गौरवपूर्ण पद से अलंकृत किया था। पुष्कर का कार्य अपने सान्निध्य में आये हर लौहकण को उज्ज्वल स्वर्ण बना दिया यही है कि अज्ञान का मल शमन करके ज्ञान का निर्मलत्व पैदा करना।
एक समय उपाध्यायप्रवर शिष्य समुदाय सहित बेंगलोर पधारे। व अकेला व्यक्ति कुछ भी कार्य सम्पादित करने की ताकत नहीं आपश्री की सद्प्रेरणा से अष्ट दिवसीय शिविर लगा, सौभाग्य से रखता। उसे दूसरे का सहयोग अवश्य लेना पड़ता है। परस्पर मुझे भी आपका सुसान्निध्य प्राप्त हुआ। शिविर के प्रथम दिवस ही आदान-प्रदान करना ही महावीर का मुख्य ध्येय था। जो बिखर मुझे उपाध्याय श्री ने फरमाया-"लोकेश बाँठिया तुम शिविर में चुका है उसकी शक्तियाँ भी संकीर्णता के दायरे में सिमटकर रह प्रथम पुरस्कार प्राप्त करोगे।" मैं तन-मन से अभ्यास करने लगा,
जाती हैं। अखण्ड में शक्ति भी अखण्डित रहती है। इसी बात को । शिविर समापन समारोह के दिन मैं प्रथम पुरस्कार से सम्मानित 359 समझा था राजस्थानकेशरी जी ने। संघ में व्याप्त फिरका परस्ती से किया गया। TET उन्हें उद्विग्नता हो गयी। श्रमणसंघ रूपी अखण्ड संस्था को निर्मित
आप वाणी के जादूगर थे, कितनी भी दुर्भावना लेकर कोई करने में उनका अविस्मरणीय योगदान समाज कदापि विस्मृत नहीं
आए आपके मधुर वचनों और मीठी मुस्कान से प्रभावित होकर Poad कर पाएगा। टूटी-बिखरी महावीर की मोती-माला को पुनः एकसूत्र
वह सदा के लिए आपका हो जाता था। आप श्रमणसंघ के एक र में पिरोने का कार्य उनकी अप्रतिम सूझ-बूझ से ही हुआ था। पुष्कर
ओजस्वी, तेजस्वी उपाध्याय रत्न थे। जिस किसी ने आपको निकट ॐ के जलकण जैसे समवेत रूप में रहते हैं वैसे ही श्रमणों के पुष्कर
से देखा है, उनके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा है। आप Page को एक जगह समन्वित करने के श्रेय में उनका भी बहुत बड़ा
एक तेजपुंज थे। आपने सोए हुए समाज को जगा कर सही दिशा
का ज्ञान कराया। एक सैनिक के समान आपका जीवन था। सैनिक -20 वे सामाजिक ही नहीं बल्कि परम आध्यात्मिक भी थे। जप अपने कर्तव्य-पालन में सदैव जागरूक रहते थे। पण साधना उनकी सदैव निर्बाध रूप से चलती रहती थी। आत्मा से
उपाध्याय श्री में पवित्रता, मधुरता, प्रसन्नता और व्यवहारOG परमात्मा बनने की ओर उनके कदम सतत् चलायमान रहते थे।
कुशलता ये चारों गुण विद्यमान थे। आपके जीवन की अनुपम * उन्हें अध्यात्म पथ के आरोही कह दिया जाये तो कोई अत्युक्ति
विशेषताएँ थीं। उनकी पावन स्मृति से मेरा हृदय सुवासित है। नहीं। पुष्कर भी पावन होता है। परमात्मा (मोक्ष) को पावन दूसरे ।
रह-रहकर आज उनकी यादें मेरे मन को कचोट रही हैं। ॐ शब्दों में कहते हैं।
आपका जीवन फूलों से कोमल और गंगा से निर्मल था, 40 आज श्रद्धेय पूज्यवर्य उपाध्यायश्री हमारे बीच सदेह उपस्थित
रत्नमणि से पावन और शशि से उज्ज्वल था। अस्तु ! नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श, जीवंतता अवश्य प्रकट कर रहे हैं। वे देहातीत जरूर हो गए हैं लेकिन उनका साहित्य सजीव उपस्थिति
__ अनेक गुणों से युक्त आपके महान् जीवन का मैं क्या वर्णन जरूर दर्शा रहा है।
करूँ? मेरा हृदय श्रद्धा से पूर्णतः अभिभूत है। हृदय आपको कभी भुला नहीं सकता। ऐसी महान् विभूति के श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन
अर्पित करता हूँ। एक मधुर संस्मृति
"तेरे गुण की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गायेंगे।
- लोकेश ऋषि' और सभी कुछ भूल सकेंगे, पर तुम्हें भुला न पायेंगे।" (पं. रत्न प्रवर्तक श्री कल्याण ऋषि जी म. के सुशिष्य)
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हाथ था।
एक आकर्षक व्यक्तित्व
-अरुण मुनि
इस विषम पाँचवें आरे में जब मानव मानव से भिड़ रहा है,
त्राहि-त्राहि मची हुई है, मनुष्य बेभान होकर दुनियां को चुराने का R स्वप्न देख रहा है-ऐसे विकट समय में हमें शान्ति व अहिंसा का 96 मार्ग बताने एक महान मूर्ति उपस्थित हुई थी इस धरती के भगवान
तुल्य “राजस्थान केसरी उपाध्याय प्रवर पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी म. सा.।"
अहा! कैसी सुन्दर-शीतल-शान्त-भव्य-प्रेरणापुंज-जन-जन नायक300 सजीव मूर्ति थी हमारे उपाध्यायप्रवर की। जिनके दर्शन मात्र से
परम श्रद्धेय वात्सल्यवारिधि पूज्य उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के मधुर संस्मरण लिखने की उत्कट इच्छा हो रही है, पर लिखते-लिखते मुझे विचार आ रहा है कि क्या लिखू ? क्योंकि पूज्य उपाध्याय श्री का मुझे अल्प परिचय है। परम श्रद्धेय
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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का जीवन हिमालय की तरह विराट् और सागर की तरह विशाल
। अध्यात्मसिद्ध योगी : उपाध्यायश्री था। उनका जीवन निर्मल, विचार उदार एवं प्रकृति सरल व सरस थी। अध्यात्मयोगी परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री स्थानकवासी जैन संघ
-श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ' के एक ज्योतिर्मान नक्षत्र थे। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी व संत
(श्री गणेश मुनि शास्त्री के सुशिष्य) रत्न थे। आप कुशल कवि, सफल लेखक, तेजस्वी वक्ता, उत्कृष्ट साधक और संगठन के जीते-जागते पुजारी थे। श्रमणसंघ के निर्माण जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र, स्वनाम धन्य, प्रज्ञा पुरुषोत्तम, में और इसके विकास में आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा। राजस्थान जन-जन की आस्था के केन्द्र, उपाध्याय, अध्यात्मयोगी, परम श्रद्धेय केशरी, अध्यात्मयोगी, प्रसिद्ध वक्ता, पंडित प्रवर श्रमणसंघ के एक पूज्य प्रवर दादा गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने १४ वर्ष की विशिष्ट संत थे। उनके जीवन में विविध विधाओं का सुन्दर संगम सुकोमल बालवय में धर्म का पावन पथ अपनाया। इस शैशवावस्था था। जहाँ उनमें श्रद्धा का प्राधान्य था वहाँ उनमें तर्क की प्रबलता में ही धर्म के अध्यात्म स्वरूप को समझा और हाथों में भी थी, जहाँ उनमें हृदय की सुकोमलता थी वहाँ उनमें अनुशासन । संयम-साधना की ज्योतिर्मान मशाल थामी एवं अपने गुरुदेव के प्रति कठोरता भी थी। उनके जीवन में जप और ध्यान के प्रति मरुधरा के महान सन्त रत्न, धर्म प्रभावक श्री ताराचन्द्र जी म. सा. अनुराग था तो संसार के भौतिक सुखों के प्रति विराग भी था, के साथ चल पड़े। यह ज्योति पुरुषोत्तम ही आगे चलकर देश के जहाँ संयम, साधना, तप, आराधना मनोमर्थन की अपेक्षा थी वहाँ । कोने-कोने में अभिनव धर्म-चेतना जागृत करने में समर्थ/सक्षम हुये। यश कामना के प्रति उपेक्षा भी थी। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व
__आपश्री के नूतन प्रेरक चिन्तन से अनेकानेक साधकों की उपाध्याय श्री का था।
जीवनधारा में अलौकिक परिवर्तन आया। आपश्री स्वप्न जगत में एक पाश्चात्य विचारक ने भी महान व्यक्ति के जीवन की विचरण करने वाले नहीं थे, वरन् यथार्थ की धरा पर जीने वाले विशेषताओं के बारे में लिखा कि श्रेष्ठ व्यक्ति की तीन पहचान हैं- मुमुक्षु साधक थे। (१) आयोजन में उदारता, (२) कार्य में मानवीयता तथा (३) उपाध्यायश्री विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। सरस्वती/जिनवाणी सफलता में संतुलन-यह सभी विशेषताएँ उपाध्याय श्री के जीवन में ने तो मानो आपकी जिह्वा पर ही अपना स्थायी आवास बना रखा साकार थीं, अतः वे श्रेष्ठतम संत थे। उनके सन्निकट जो भी आता, था। विभिन्न धर्म/सम्प्रदाय में विभक्त/खण्डित मानव-समाज को उनके जीवन-चरित्र की सौरभ से प्रफुल्लित हो जाता था, क्रोधी अखण्डित/संगठित होने का प्रेरक संदेश प्रदान कर आपने कीर्तिमान क्षमाशील हो जाता था। रोगी निरोगी हो जाता था ऐसा चमत्कार स्तम्भ स्थापित किया। साथ ही समाज/परिवारों में व्याप्त विषमताओं युक्त आपका जीवन था।
के बिखरे कांटों को समता एवं शिक्षा की झाडू से साफ किया, मुझे सौभाग्य से जीवन में अनेक महापुरुषों के दर्शन का
जिससे आज वहाँ धर्म, प्रेम, सम्प आदि के सुमन खिल रहे हैं। सुअवसर मिला, लेकिन उपाध्याय श्री से मिलने का मौका मुझे २४ बचपन से ही आपश्री प्रवचन कला में पट/कोविद रहे। यही मार्च, १९९३ को उदयपुर में आयोजित चादर महोत्सव पर मिला।
कारण था कि आपश्री के प्रवचनों में शब्दों की लड़ी, भाषा की उस समय आपश्री ने आत्मीयता एवं माधुर्य के साथ शुभ आशीष
कड़ी एवं तर्कों की झड़ी का अनुपम संयोजन रहता था। आपश्री की दिया। तत्पश्चात् कुछ ही समय बाद आप अस्वस्थ हो गये। ३
रसीली ओजस्वी वाणी की गूंज ने जन-जन के मन को मोहित कर अप्रैल, १९९३ को ४२ घंटे के संथारे-संलेखनापूर्वक समाधि-मरण
दिया था। लौह चुम्बकीय प्रवचन शैली आकर्षक/अनूठी थी, जहाँ को प्राप्त कर जीवन का मोक्ष पाया।
एक ओर आपके सम्बोधनों में अध्यात्म की गूढ़ता रहती थी वहीं
दूसरी ओर उसमें हास्य का भी उचित सम्मिश्रण रहता था जो मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि उपाध्याय श्री का
श्रोताओं के लिये सुगरकोटेड औषधि के समान कार्यकारी होता था। स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। आपका स्मृति ग्रंथ एक प्रचलित
ध्यानयोगी सद्गुरुदेव श्री जहाँ-जहाँ भी पधारे वहाँ-वहाँ की परंपरा का पालन मात्र नहीं है किन्तु चिरस्मरणीय निर्माण की
जनता ने अत्यन्त स्नेह, श्रद्धा एवं समर्पण भाव से अपनी गरिमा से आप अभिनंदनीय हैं। जनमानस जिस व्यक्ति के गौरवपूर्ण ।
विनयांजलियाँ समर्पित की तो आपश्री ने भी धर्म-ज्ञान का पुण्य व्यक्तित्व से प्रभावित होता है वही अभिनंदनीय है।
प्रसाद जिज्ञासु-भक्तजनों में वितरण कर धर्म के नये-नये रहस्य मैं विश्वास करता हूँ कि स्मृति ग्रंथ के रूप में हमारी गुरु । उद्घाटित किये। भक्ति का जीवित उदाहरण एवं श्रद्धा सुमन के रूप में इस ग्रंथ को
जैनागम रत्नाकर में गहन डुबकी लगाकर १११ भागों में 'जैन आने वाले वर्षों में आदर्श ग्रंथ के रूप में माना जायेगा एवं हजारों
कथाएँ' मणिमुक्ताओं की अनुपम माला बनाकर पाठकों को पाठक इस ग्रंथ से लाभ उठायेंगे।
अर्पित/समर्पित की है। वह आपश्री के गहन ज्ञान/चिन्तन का प्रतीक यही मेरी मंगल कामना है।
हैं। इन कथाओं में नैतिकता, ईमानदारी, कर्त्तव्य-परायणता आदि
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सद्गुणों की गूंज है, जो मानव मात्र को रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, बाह्य आडम्बर, क्रियाकाण्ड आदि से बचने की प्रेरणा देती है साथ ही आत्मा को बाह्य वेग-आवेग से हटाकर संवेग की ओर अग्रसर करती है। विचक्षण/विलक्षण प्रज्ञा के धनी होने के कारण आपश्री ने भगवान् महावीर के आचरणीय / मननीय सिद्धान्तों का सम्यक् अनुशीलन / परिशीलन कर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरल / सरस / सहज कथा- विधा में विवेचन किया है जो मानव मात्र को सम्यक् / यथार्थ दिशादर्शन देने में सक्षम है।
ज्ञानयोगी, वचनसिद्ध सद्गुरुदेवश्री बाल, युवा एवं वृद्ध सभी के लिये समान आकर्षण का केन्द्र थे। श्रमणसंघ में आपकी अपनी अलग ही पहचान थी। आपश्री अपने शिष्यों पर अत्यन्त वात्सल्य भाव रखते थे एवं उनसे मंत्रणा करके कार्य करते थे। धर्म-सभाओं में अपने सुयोग्य विद्वान शिष्यों की प्रशंसा करते हुए प्रायः कहा करते थे-'मेरी एक भुजा देवेन्द्र मुनिजी हैं तो दूसरी भुजा गणेश मुनिजी हैं।' शिष्य तो और भी हैं पर ये दोनों दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ एवं गुणों में श्रेष्ठ हैं। विद्वत्ता व लेखन कार्य में इन दोनों ने अनुपम कीर्ति अर्जित की है। परम श्रद्धेय पूज्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. आज श्रमण संघ के नायक संघ शास्ता आचार्य पद पर आसीन हैं, जो ज्ञान दिवाकर समता, सागर और कलम कलाधर हैं।
उपाध्यायश्री जी के द्वितीय शिष्यरत्न परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री गणेश मुनिजी म. शास्त्री हैं जो साहित्य की प्रत्येक विधा एवं अद्यतन साहित्यिक शैली में अपनी रचनाओं के द्वारा अनुपम ख्याति प्राप्त कर रहे हैं।
आपश्री के एक गुरुभ्राता हैं, आगमज्ञाता पं. रत्न श्री हीरा मुनिजी म. सा. तथा शिष्यों में पं. रत्न श्री रमेश मुनिजी म., सन्त रत्न श्री दिनेश मुनिजी म., ओजस्वी वक्ता श्री नरेश मुनिजी म. । साथ ही चार पीत्र शिष्य हैं- जिनेन्द्र मुनि काव्यतीर्थ', डॉ. श्री राजेन्द्र मुनिजी महामहोपाध्याय, तरुण तपस्वी श्री प्रवीण मुनिजी म., नवदीक्षित श्री शालिभद्र मुनिजी म. एवं दो प्रपौत्र शिष्य हैं-श्री सुरेन्द्र मुनिजी, श्री गीतेश मुनिजी 'गीत'। इन सभी को विश्व - सन्त सद्गुरुदेव श्री ने सत् शिक्षा अहिंसा संयम का पीयूष पान कराया और शुभाशीर्वाद प्रदान किया। वस्तुतः वे एक संत मसीहा बनकर आये थे।
विराट् व्यक्तित्व के धनी गुरुदेव श्री द्वारा जप ध्यान-साधना के बाद त्रिकाल मांगलिक का मेघ बरसता तो उस अमृतधारा का रसपान करने हजारों-हजार नर-नारी उमड़ पड़ते थे, जिससे अनेकों श्रद्धालुजनों के नीरस जीवन में नई बहारें आ जाती थीं। आपश्री के महिमा मण्डित पावन प्रेरक सानिध्य से अनेकानेक व्यक्ति अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हुये, साथ ही अव्रती से व्रती एवं व्रती से महाव्रती बनकर जिन शासन की प्रभावना कर रहे हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जिसने भी आपश्री से किया साक्षात्कार, उसके सारे दूर हुये दुःख के अम्बार ।
हे करुणा के सागर गुरुवर, तेरी जग में जय-जयकार, वन्दन कर गुणगान करेंगे, कभी तो सुनना करुण-पुकार ॥ कदम-कदम पर फूल और कांटे आये,
पर न फूलों से सन्तुष्ट हुये न कांटों से रुष्ट । दोनों स्थितियों में अहर्निश करते रहे,
अपने अन्तर में समभाव को परिपुष्ट ॥
कुशल चिकित्सक की भाँति आपश्री ने जन-मन के जख्मों पर मैत्री करुणा / सम्प की मरहम पट्टियों की और की विषम भावों की शल्य चिकित्सा भी । राग-द्वेष के कांटों को निकालने के लिये विनय और विवेक की सुई का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया।
उपाध्यायश्री श्रमण संस्कृति के आधार थे। श्रमण संघ के अनुपम श्रृंगार थे । यह सिद्धान्त आप में साकार हो उठा था
चाह गई चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह । जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे शाहन के शाह ॥
जैनागमों के अनुसार पादपोपगमन- समाधिमरण मोक्षाभिलाषी साधक की सर्वोत्तम दशा मानी जाती है, इसमें अत्यन्त धैर्यशाली, कष्ट सहिष्णु एवं देहासक्ति से रहित साहसी साधक ही सफल हो सकते हैं। कारण कि यह साधना की चरम सीमा / कसौटी मानी गई है और इसमें आपश्री खरे उतरे हैं। आपने अपना जीवन अनासक्त योगी की भाँति जिया जैसे जल में कमल ऐसा प्रतीत होता था, उनके मन की आसक्तियों के सभी धागे टूट चुके थे अतः पल-पल समदर्शिता के संदर्शन हो रहे थे। वे अन्तिम दिनों में / क्षणों में परमानन्द में संलीन थे। न हिलना, न डुलना, न बोलना, न चलना, सब ओर से अपने आपको संवृत्त कर लिया था। प्रतिमा की भौति केवल दर्शनीय/ वन्दनीय / अभिनन्दनीय बन गये थे हजारों-हजार आँखें आप पर टिकी हुईं थीं, पर आप अपने आप में लीन थे।
मुझे रह-रह कर बचपन के वे सभी क्षण याद आने लगे, उनके अनगिनत असीम उपकार स्मृति पटल पर उभरने लगे। एक-एक घटना अन्तर्मन में गहराने लगी। पुनः पुनः दिल भर आता, घबराहट बढ़ जाती, पर मन को समझाता दादा गुरु की मुझ पर अपार कृपा-दृष्टि रही है। यह सब अतीत की मधुर स्मृति उभर आ रही है। इसी तथ्य को अपने भविष्य के लिए सोचता हूँ तो अज्ञात / प्रेरक भाव उभर कर आता है कि उनकी कृपा ही मेरे लिए निधि है, पाथेय है, जो कदम-कदम पर भविष्य में मेरा प्रशस्त मार्ग-दर्शन करती रहेगी।
उपाध्याय, ध्यानयोगी, मेरी असीम आस्था के केन्द्र, विश्व सन्त, दादा गुरुदेव श्री श्रमणसंघ की बगिया का एक महकता हुआ
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
फूल था, जो आज देह दृष्टि से हमारे मध्य नहीं है किन्तु उनके
मेरा भी सविनय वन्दन सद्गुणों की भीनी-भीनी महक सदियों तक महकती रहेगी। इन्सान दो कार्यों से अमरत्व को प्राप्त करता है। कहा भी है
-सिद्धार्थ मुनि कर कोई ऐसा काम जमाना डोल उठे।
(प्रवर्तक श्री रमेश मुनिजी के नवदीक्षित शिष्य)
and off or of या लिख ऐसा कोई ग्रन्थ जमाना बोल उठे।
भारतीय संस्कृति के निर्माण में ऋषि, मुनि, मनस्वियों का अपूर्व योगदान रहा है। अपने धार्मिक संदेशों, उपदेशों के माध्यम
से संत आत्माओं ने भारत के जन-मानस का सिंचन किया है। अनन्त आस्था के केन्द्र
भारतीय जन-जीवन को सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र देकर उत्तम पथ
की ओर अग्रसर किया है। -तपस्वी श्री प्रवीण मुनि जी शास्त्री “प्रभाकर"
__घर-घर, गाँव-गाँव, जन-जन में अध्यात्म को प्रसारित करते (श्री गणेश मुनि जी के सुशिष्य)
हुए सत्य-अहिंसा-अनेकांत-अपरिग्रह का सिंहनाद यदि किसी ने OR मेरे अनंत आस्था के केन्द्र उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर
किया, गुंजाया तो वे हैं-संत-साधक-श्रमण। मुनिजी म. के संबंध में लिखते हुए मैं सोच रहा हूँ कि क्या लिखू? श्रमणसंघ के अध्यात्मयोगी उपाध्याय पूज्य प्रवर श्री पुष्कर क्योंकि उनके गण अनंत हैं और मैं उन गुणों का वर्णन करने में । मुनिजी म. भी उसी तेजस्वी-यशस्वी शृंखला के एक चमकते-दमकते असमर्थ हूँ। बाल्यकाल से ही मेरा गुरुदेव के प्रति सहज आकर्षण
} मोती रहे हैं। जिनकी तपःपूत साधना, आराधना के प्रभाव से था, उन्हीं से मैंने सम्यक्त्व दीक्षा धारण की और उन्हीं से मैंने अगणित आत्माएँ धर्मज्योति से लाभान्वित होती रहीं। आशातीत चारित्र धर्म पाया। गुरुदेवश्री की प्रेरणा से ही मैंने तप का मार्ग
रूप से युवक व्यसनों से मुक्त बने। स्वीकार किया और अनेक मासखमण किए। और उससे अधिक भी जैन कथाएँ उपाध्यायजी की ओर से जैन साहित्य कोष को तपस्या की। गुरुदेवश्री ने मुझे जप विधि भी बताई कि तुझे तप के एक अनमोल धरोहर के रूप में अर्पित की गईं हैं। जो संघ तथा साथ जप भी करना है और गुरुदेवश्री के द्वारा बताई हुई विधि से पठन करने वाले मानवों के लिए वरदान रूप तथा सदा स्मरणीय मैं जप करने लगा और मुझे अनुभव हुआ कि जैनशासन में रहेगी। सकल स्थानकवासी समाज तथा श्रमणसंघ को गौरवान्वित शासनप्रभाविका देव और देवियों की कमी नहीं है, तप और जप करने वाली बात है। | के प्रभाव से चुम्बक की तरह वे खिंची चली आती हैं, पर उनका का आपके शिष्य ही अभी-अभी श्रमण संघ के एक महान् आचार्य | दिव्य तेज सहन करने की क्षमता हर साधक में नहीं होती। यदि
के रूप में उभरे हैं। यह महान् देन भी आपश्री की है। साधक भयभीत हो जाए तो वह साधना से च्युत भी हो सकता है।
ऐसे गरिमासम्पन्न उपाध्यायश्री जी म. की स्मृति में प्रकाशित गुरुदेवश्री ने कहा, तुम्हें मंत्र की साधना नहीं करनी चाहिए, तुम्हें
स्मृति ग्रंथ को मेरी लघु भावना समर्पित तथा सविनय वन्दन। तो केवल महामंत्र की ही साधना करनी चाहिए, महामंत्र की साधना से आध्यात्मिक ऊर्जा समुत्पन्न होगी और उससे अलौकिक आनंद की उपलब्धि होगी। दीक्षा लेने के पश्चात् गुरुदेवश्री के सान्निध्य में दो वर्षावास
कितने महान् थे गुरुदेव ! मैंने किए, शेष सारे वर्षावास अन्य संत भगवन्तों के सान्निध्य में हुए, गुरुदेवश्री की अपार कृपा मेरे पर रही और मुझ अज्ञानी को
-मुनि शालिभद्र जी म. वे सदा ही हित-शिक्षा प्रदान करते रहे। मेरा परम सौभाग्य रहा कि
(उपाध्यायश्री के पौत्र शिष्य) जीवन की अन्तिम घड़ियों में भी मुझे दर्शन का सौभाग्य मिला है
इस विराट् विश्व में अन्य सभी का मिलना सरल और सुगम और उनके चरणों में बैठने का भी सौभाग्य मिला, आज मेरे
है पर सद्गुरु का मिलना बहुत ही दुर्लभ है। सद्गुरु जीवन-रथ के आराध्य गुरुदेव भौतिक देह से नहीं हैं किन्तु वे हमारे हृदय आसन
सारथी हैं, सद्गुरु जीवन-नौका के नाविक हैं, सद्गुरु भूले-भटके पर आसीन हैं, उनके गुणों का स्मरण आते ही मेरा हृदय उनके
जीवन राहियों के सच्चे पथ-प्रदर्शक हैं, सद्गुरु प्रकाशस्तम्भ की चरणों में सदा नत रहा है और सदा नत रहेगा। यही उनके प्रति
तरह स्वयं आलोकिक हैं और दूसरों को भी आलोक प्रदान करते भक्ति-भावना से विभोर होकर श्रद्धार्चना समर्पित कर रहा हूँ।
हैं, मेरा परम सौभाग्य रहा कि उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रथम दर्शन का सौभाग्य सन् १९८९ में मिला। वह
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वर्षावास गुरुदेवश्री का जसवंतगढ़ था, गुरुदेवश्री की जयंती के मंगलमय आयोजन में सम्मिलित होने के लिए मैं मदनगंज से वहाँ पर पहुँचा था, उस वर्ष सद्गुरुणी जी महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. के पास जहाँ मेरी बड़ी बहिन महासती श्री प्रतिभाजी म. ने दीक्षा ग्रहण की, मैं भी उनके चरणों में रहकर धार्मिक अध्ययन कर रहा था, मैंने महासतीजी म. से कहा, इस अवसर पर मैं गुरुदेव श्री के दर्शन करने के लिए जाऊँगा और मदनगंज संघ के साथ मैं जसवंतगढ़ पहुँचा। गुरुदेवश्री के प्रथम दर्शन ने ही मेरे को अत्यधिक प्रभावित किया, उनकी भव्य मुखाकृति और सहज स्नेह के कारण मेरा हृदय आनंद-विभोर हो उठा, गुरुदेवश्री का सादड़ीमारवाड़ चातुर्मास हुआ, उस चातुर्मास में मैं सेवा में रहा, उसके पश्चात् निरन्तर सेवा में रहा।
सन् १९९३ में उदयपुर में चद्दर समारोह था। गुरुदेवश्री के आदेश को शिरोधार्य कर मेरे आदरणीय माता-पिता ने दीक्षा की अनुमति प्रदान की और २८ मार्च को चद्दर समारोह के अवसर पर मेरी दीक्षा सानंद संपन्न हुई, दीक्षा लेकर ज्यों ही मैं गुरु चरणों में पहुँचा, गुरुदेवश्री ने मेरे सिर पर हाथ रखा और मुझे मंगलमय आशीर्वाद दिया, खूब ज्ञान-ध्यान में आगे बढ़ो सात दिन के पश्चात् मेरी बड़ी दीक्षा संपन्न हुई और दूसरे दिन गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हो गया। गुरुदेवश्री की असीम कृपा का जब भी मैं स्मरण करता हूँ तो मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है कितने महान थे गुरुदेव, कितनी थी हम बालकों पर उनकी असीम कृपा, हे गुरुदेव मैं आपके सद्गुणों को अपना कर अपने जीवन को धन्य बनाऊँ यही हार्दिक श्रद्धार्चना ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
श्रद्धा की पुष्प पंखुड़ियाँ
-सुरेन्द्र मुनि (उपप्रवर्त्तक डॉ. राजेन्द्र मुनिजी के सुशिष्य )
परम श्रद्धेय महामहिम उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का ओजस्वी व्यक्तित्व असीम और अपरिमित था, उसमें कटुता का अभाव था, और अनंत माधुर्य-श्रोत से परिप्लावित था, वे अपनी दुग्ध धवल साधना के प्रति जितने कठोर थे, उतने ही अन्य व्यक्तियों के प्रति उनका व्यक्तित्व मधुरिमापूर्ण था।
सद्गुरुदेव सफल कलाकार थे, जीवन के मंजे हुए कलाकार थे, उन्होंने जीवन को जीया, प्रकाशमान दीपक की तरह और जो भी उनके निकट संपर्क में आया, उन्हें उन्होंने उसी तरह ज्योतिर्मान बना दिया, इसी को कहते हैं स्पर्शदीक्षा। अपने समान बना देना महान पुरुषों का एक विशेष गुण होता है।
उपाध्यायश्री का दृष्टिकोण बहुत ही व्यापक था । संकीर्ण दृष्टिकोण उन्हें पसन्द नहीं था, जीवन में अनेकों बार मैंने देखा, जहाँ पर साम्प्रदायिकवाद दृष्टिकोण मानस को संकीर्ण बनाता है, यहाँ पर आप साम्प्रदायिकवादी दृष्टिकोण से ऊपर उठकर हर प्रश्न पर चिन्तन करते और उस विषाक्त वातावरण से अपने आपको सदा बचाए रखते। उन्होंने जो ज्ञानराशि प्राप्त की थी, उसे उन्होंने सभी सुपात्रों को मुक्त हृदय से बाँटी, यह मेरा है, यह तेरा है, यह अपना है, यह पराया है, यह दृष्टिकोण उनके जीवन में कभी नहीं आया । यदि यह कह दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे चलती-फिरती ज्ञान की प्याऊ थे।
20180
आपने स्वयं ने विविध भाषाओं का विविध विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन किया और दूसरों को भी तलस्पर्शी अध्ययन कराने में उन्हें संकोच नहीं था। आपश्री ने अनेक संत-सतियों को धर्म, दर्शन व आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन कराया। ऐसे परम पुनीत पवित्र आत्मा का स्मरण आते ही और उनके विराट् व्यक्तित्व को याद करते ही श्रद्धा से सिर झुक जाता है।
१. विवाद करने वाला, बहुत दिनों तक किसी भी निश्चय पर न पहुँचने वाला व्यक्ति कभी भी धर्मनिष्ठ नहीं हो सकता। २. किसी को छोटा सिद्ध करने में सफल होने वाला व्यक्ति धर्म रूपी कल्पतरु से कुछ भी नहीं पा सकता।
३. आस्था ही वह आधार है, जिस पर धर्म का भवन खड़ा होता है।
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४. धर्म एक वृक्ष है, कर्त्तव्य उसकी एक शाखा है। वृक्ष को त्यागने से शाखा को पकड़ कर कैसे रहा जा सकता है ?
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
आध्यात्मिक जगत के सूर्य
-शासन प्रभाविका महासती श्री शीलकुंवर जी म. सा.
(स्व. महासतीश्री धूलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
आगम साहित्य में वर्णन है कि शिष्य की शोभा विनययुक्त | विचलित नहीं हुए। यहाँ तक कि भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह प्रवृत्ति में रही हुई है, “सीसस्स सोहा विणए पवित्ति" जिस शिष्य | जी गुरुदेवश्री के प्रवचन में उपस्थित हुए, गुरुदेवश्री का ध्यान का में विनय की प्रधानता होती है, वही शिष्य प्रगति के पथ पर अपने 1 समय हो गया, आपश्री उसी समय जाप करने के लिए एकान्त मुस्तैदी कदम बढ़ाता है। मैंने देखा है, अनंत आस्था के केन्द्र शांत स्थान पर पधार गए। उसी तरह आपश्री के प्रधान शिष्य उपाध्याय पूज्य गुरुवर्य श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनिजी म. को। आपके देवेन्द्र मुनिजी म. को स्व. आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. जीवन के कण-कण में, अणु-अणु में सद्गुरुदेव के प्रति अपार सा. उपाचार्य पद प्रदान कर रहे थे पर आपश्री ध्यान का समय आस्था थी, आप सर्वात्मना समर्पित संत रल थे। सद्गुरुदेव श्री होने से आचार्यश्री को वंदन कर चल दिए। यह इस बात का ताराचंद्र जी म. के संकेत को समझकर आप उसी प्रकार की प्रवृत्ति प्रतीक है कि सद्गुरुदेव के मन में ध्यान के प्रति कितना अधिक करते थे, आपके अन्तर् हृदय में यह भव्य भावना सदा अठखेलियाँ रुझान था। करती रही कि सद्गुरु ही हमारे जीवन-नौका के नाविक हैं उनकी
उनका जीवन परोपकार-परायण था। किसी भी दीन-दुःखी को आज्ञा के अनुसार ही हमारी सारी प्रवृत्ति होनी चाहिए।
देखकर, व्याधि से संत्रस्त देखकर करुणा से छलकने लगता था। रामायण में श्रवण कुमार का वर्णन आता है, जो अपने आपश्री के सान्निध्य में आकर हजारों व्यक्तियों के जीवन का माता-पिता के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वैसे ही गुरुदेवश्री महास्थविर कायाकल्प हुआ, अधर्म से धर्म की ओर उनकी प्रवृत्ति हुई। ताराचंद्र जी म. के प्रति समर्पित थे। राजा दशरथ के वचनों को साधनामय जीवन की प्रेरणा पाकर वे निहाल हो गए। शिरोधार्य कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम वन के लिए प्रस्थित हो गए,
उपवन में सुमन खिलता है और अपनी मधुर सौरभ से सारे जिस प्रकार राम ने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया, वैसे ही
उपवन को महका देता है, और अन्त में मुझा जाता है, वैसे ही आप सद्गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर कार्य करते थे। आगम
सद्गुरुवर्य ने अपने सद्गुणों की सौरभ से भारत की भूमि को साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि गणधर गौतम का श्रमण
महकाया और जीवन की सांध्य बेला में संथारा कर उन्होंने स्वर्ग भगवान् महावीर के प्रति अपार राग था, वैसे ही आपका भी अपने
की राह ग्रहण की। किन्तु उनका यशस्वी जीवन आज भी सभी के गुरुदेव के प्रति अपार स्नेह था। आपको तथा महास्थविर
लिए प्रेरणा का स्रोत है। श्रीताराचंद्रजी म. को देखकर गणधर गौतम और भगवान् महावीर की सहज स्मृति हो आती थी।
यदि यह कह दूँ कि गुरुदेवश्री आध्यात्मिक जगत के सूर्य थे
तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, सूर्य को निहार कर कमल खिल उठते इस विराट् विश्व में प्रतिदिन हजारों प्राणी जन्म लेते हैं और
हैं, अंधकार नष्ट हो जाता है, चारों ओर आनंद और उल्लासमय मृत्यु के शिकंजे में फँसकर सदा-सदा के लिए विदा भी हो जाते हैं
वातावरण चमकने लगता है, वैसे ही आपश्री के जीवन से पर किसी को पता नहीं चलता कि उन्होंने कब जन्म लिया और
श्रद्धालुओं के हृदय कमल खिल उठे और उनके अज्ञान अंधकार कब संसार से विदा हो गए पर कुछ ऐसी विशिष्ट आत्माएँ होती
को सदा आप नष्ट करते रहे। हे गुरुदेव! आप महान् थे, हमारी हैं, जो अपने मंगलकारी कार्यों के द्वारा जन जन के अन्तर हृदय में
अनंत आस्थाओं के केन्द्र थे, आज आपकी भौतिक देह हमारे बीच अपना विशिष्ट स्थान बनाती हैं, और उन्हें संसार कभी विस्मृत नहीं
में नहीं है किन्तु आपका यशस्वी जीवन हमारे सामने है और वह कर सकता। उनकी स्मृति जन-मानस में सदा बनी रहती है। परम
जीवन सदा-सदा हमें प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। हम भी आपकी श्रद्धेय पूज्य गुरुदेवश्री ऐसे ही विशिष्ट महापुरुष थे, वे इस प्रकार
तरह साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें, यही श्रद्धा सुमन समर्पित। जीए कि उनका जीवन जन-जन के लिए प्रेरणा स्रोत रहा, उनके जीवन में तप और त्याग की प्रधानता रही। जप साधना के प्रति आपश्री की विशेष रुचि रही, नियमित समय पर जप करना आपश्री को पसन्द था, यही कारण है कि आप भोजन छोड़ सकते साधारण लोगों की सेवा ही जब मनुष्यों को महान् बना देती है थे पर भजन का समय नहीं छोड़ सकते थे। जीवन में कई बार ऐसे तो संघ सेवा यदि तीर्थंकर पद प्राप्त करा दे तो उसमें क्या प्रसंग भी आए जिसमें सामान्य साधक विचलित हो जाता है और आश्चर्य?
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि वह सोचता है कि जप बाद में कर लेंगे किन्तु गुरुदेवश्री कभी भी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
क्षमा, करुणा, दया उनके अन्तर्जीवन के भूषण थे। वाणी में | युग पुरुष को शत-शत नमन !
सहज आकर्षण था, माधुर्य था। जीवन के कण-कण में सत्य, -शासन प्रभाविका पूज्या श्री यशकुंवर जी म.सा.
अहिंसा की ज्योति प्रज्वलित थी। जिनका जीवन उस स्वर्ण-कलश के
समान था, जिसमें सद्गुणों की दिव्य सुधा भरी हुई थी। जिनके परमादरणीय, यशस्वी व्यक्तित्व के धनी, ओजस्वी प्रवचनकार, अन्तर् में निहित थी संघ-समाज एवं राष्ट्र के कल्याण की। अभ्युदय आगमज्ञ, श्रद्धेय, वंदनीय, उपाध्यायप्रवर स्व. श्री पुष्कर मुनिजी म. की मंगल भावनाएँ, श्रमण संघ की नींव को सुदृढ़, सशक्त बनाने सा. की प्रथम पुण्य तिथि पर एक स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित होने जा एवं संघ-संगठन की मंजुल कामनाएँ! रहा है, हार्दिक प्रसन्नता।
आज वह दिव्यात्मा इस लोक से प्रयाण कर गया है, किन्तु महापुरुषों की पुनीत स्मृति तो प्रतिपल बनी रहती है क्योंकि वे उनका यश:काय आज भी अमर है। उनके महान् मंगलमय आदर्श इस लोक से प्रयाण कर जाते हैं किन्तु फिर भी अपने अनुपम भ्रमित मानव को दिशाबोध देते रहेंगे। भव्यों का पथ प्रशस्त करते आदर्शों की उज्ज्वल रेखा छोड़ जाते हैं। वह अमिट स्मृति रेखा रहेंगे। कभी भी धूमिल नहीं होती है। निरन्तर प्रकाशमान रहती है।
अंत में मैत्री, ममता एवं मानवता के श्रेष्ठ पुजारी को शत-शत यही कारण है कि उदयपुर की महिमामयी पुण्य धरा जहाँ । वंदन! नमन! चादर समर्पण की सुमंगल बेला में धरती का कण-कण मुस्काया
"महिमा-मण्डित ज्योतिपुरुष, करुणा के तुम सागर हो। था, उसी पुनीत धरा पर उपाध्यायश्री जी के स्वर्गरोही हो जाने से
लाखों जन के तारणहारे, “पुष्कर" ज्ञान सुधाकर हो॥ सभी की हर्षित मनः कलियाँ मुरझा गयीं थीं।
अवनितल के दिव्य दिवाकर, संतरल "पुष्कर" मुनिराज। कारण-श्रमण उपवन का महकता सुवासित एक दिव्य सुमन
सुमनाञ्जलि अर्पित तुमको श्रमण संघ के निर्मल ताज॥" काल-कवलित हो गया। सद्गुण की दिव्य-पराग विश्व में फैलाकर। अवनितल का महान् दिव्य दिवाकर ज्ञानालोक वसुधा पर विकीर्ण कर धरा धाम को दिव्य प्रकाश से भरकर अस्ताचल पर चिर - विश्राम के लिए चला गया। ज्ञान सुधाकर अपनी ज्ञानामृत वृष्टि से
अद्भुत व्यक्तित्व और कृतित्व सभी को नव-जीवन प्रदान कर न जाने अनंत में कहाँ समा गया? क्रूरकराल काल की आँधी से असमय में ही वह हँसता-खिलता
-साध्वीरल श्री पुष्पवती जी म. - सुविकसित दिव्य पुष्प टहनी से टूटकर धराशायी हो गया।
महापुरुषों का व्यक्तित्व बहुत ही अद्भुत और निराला होता है। _एक पुण्यात्मा ज्योतिपुरुष देह देवल को सूना करके इस लोक समाज की संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध होकर भी वे अपना 25 से प्रयाण कर गया। गुणों के अगाध सागर की महिमा का गान कैसे सर्वतोमुखी विकास कर जन-जन के मन में अनंत आस्था समुत्पन्न
करूँ? विशाल गुण-गरिमा का अंकन लघु लेखनी से कैसे करूँ? | करते हैं, उनकी दिव्यता-भव्यता और महानता को निहारकर विश्वविश्रुत, जन-जन के वंदनीय करुणा निकेतन, ज्ञान के अक्षय । जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव आलोक जगमगाने लगता है, वे भण्डार, समता-सरलता के धाम, संयम-साधना के धनी, दिव्य समाज की विकृति को नष्ट कर संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए द्रष्टा, जन-जन की आस्था के अमृत सिन्धु, ज्ञान भानु, अमृतयोगी, आगाह करते हैं, वे आचार और विचार में अभिनव क्रांति का ज्योतिर्धर दीप मणि के सदृश दमकता व्यक्तित्व, अध्यात्म-साधक, शंख फूंकते हैं, वे अध्यवसाय के धनी होते हैं जिससे कंटकाकीर्ण
राजस्थान केसरी उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. के विराट् । दूरगम पथ भी सुमन की तरह सहज, सुगम हो जाता है। पथ के 2200 व्यक्तित्व को सीमित शब्दावली कब अभिव्यक्त कर सकती है। ण शूल भी फूल बन जाते हैं, विपत्ति भी संपत्ति बन जाती है, उन्हीं सागर से भी अधिक गंभीरता, चन्द्र से भी अधिक शीतलता,
महापुरुषों की पावन पंक्ति में आते हैं श्रद्धेय सद्गुरुवर्य सूर्य से भी अधिक तेजस्विता, पर्वत-सी ऊँचाई होती है संत जीवन
अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्कर जी म.। 59 में। उपाध्यायश्री का जीवन भी इन्हीं सद्गुणों से समन्वित था। आपश्री की दार्शनिक मुख मुद्रा पर चमकती-दमकती हुई
जिनके जीवन में हिमाद्रि-सी अडिगता थी, अग्नि-सी तेजस्विता थी, निश्छल स्मित रेखा उतफूल नीलकमल के सदृश मुस्कुराती हुई वायु सी गतिशीलता थी। जिनका जीवन-दीप भीषण झंझावातों में स्नेहस्निग्ध, निर्मल नेत्र, स्वर्ण कमल पत्र के समान चमकता और भी अकम्प बनकर प्रकाश फैलाता रहा था। जो वात्सल्यवारिधि थे। दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट जिसे निहारकर किसका हृदय सहज सरलता, कोमलता एवं मृदुता उनके जीवन में ओत-प्रोत थी। श्रद्धा से नत नहीं होता था, जितना आपका बाह्य व्यक्तित्व कोमलता एवं सरलता संत जीवन का भूषण है-"शमोहि नयनाभिराम था, उससे भी अधिक मनोभिराम आभ्यन्तर व्यक्तित्व यतीनां भूषणं न भूपतीनाम्।"
था। आपकी मंजुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारधारा की भव्य
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
आभा सदा दमकती रहती थी। आपकी निर्मल आँखों के भीतर से
"गृहस्थी केरा टुकड़ा, लम्बा-लम्बा दांत। कमल के सदृश सहज, सरल, स्नेह सुधारस छलकता रहता था।
भजन करे तो उबरे, नहीं तो काढ़े आंत॥" वार्तालाप में सहज शालीनता के दर्शन होते थे। आपश्री के हृदय की
गुरुदेवश्री सिद्ध जपयोगी थे, जप उन्हें सर्वाधिक प्रिय था। मैंने संवेदनशीलता एवं अपूर्व उदारता दर्शक के हृदय और मस्तिष्क को
सहज ही में एक दिन जिज्ञासा प्रस्तुत की कि, आप किसका जप एक साथ प्रभावित करती थी।
करते हैं ? गुरुदेवश्री ने कहा, नवकार महामंत्र से बढ़कर और कोई मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मंत्र नहीं। नवकार महामंत्र के पैंतीस अक्षर हैं। एक-एक अक्षर के मुनि जी म. का सहज सान्निध्य प्राप्त हुआ। मेरी सद्गुरुणी जी एक-एक हजार देव सेवक हैं, ३५ हजार देव जिस महामंत्र के सोहन कुंवर जी म. तप और त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं। सेवक रहे हों, उस महामंत्र का क्या कहना। यह महामंत्र आधि, बाल्यकाल में ही मैं उनके चरणों में पहुँची। उनके पवित्र सान्निध्य में व्याधि और उपाधि को मिटाकर सहज समाधि प्रदान करता है। बाल्यकाल की अनमोल घड़ियाँ बीतीं। मैंने उनके चरणों में बैठकर
मेरे दादा गुरुश्री ज्येष्ठ मल जी म. ने मुझे जिस रूप में जप आगम साहित्य का और स्तोत्र साहित्य का गहराई से अध्ययन
की विधि बताई है, उसी रूप से मैं नवकार महामंत्र का जाप करता किया। आगम के रहस्यों को समझा उस समय गुरुदेव महाराष्ट्र
हूँ। यह जाप स्वांत सुखाय है, जब जाप का समय हो जाता है, यदि और गुजरात में विचर रहे थे। जब गुरुदेवश्री महाराष्ट्र, गुजरात
मैं जाप के समय से कुछ इधर-उधर हो जाऊँ तो मेरा मन और मध्यप्रदेश की यशस्वी यात्रा सम्पन्न कर उदयपुर पधारे, तब
छटपटाने लगता है, नियमित समय पर मैं यदि जाप न करूँ तो गुरुदेवश्री ने सद्गुरुणी जी म. को यह पावन प्रेरणा दी कि हमें
मेरा मन ही नहीं लगता। मुझे ऐसी अनुभूति होती है कि तू समय व्याकरण, साहित्य, न्याय, संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी का
चूक रहा है, चाहे घड़ी हो या न हो, मैं ठीक समय पर जाप के तलस्पर्शी अध्ययन करावें। सद्गुरुदेव की प्रेरणा से गुरुणी जी म.
लिए बैठ जाता हूँ। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए, लम्बे-लम्बे ने हमारे अध्ययन की सारी व्यवस्था की और हमें न्यायतीर्थ, विहार चल रहे थे, भयंकर गर्मी भी थी तो भी मैं समय होने पर काव्यतीर्थ, सम्पूर्ण व्याकरण मध्यमा, काव्य मध्यमा, साहित्य रत्न जंगल में भी जाप के लिए बैठ गया, अनेकों बार तीन-तीन बजे और जैन सिद्धांताचार्य की परीक्षाएँ दिलवाईं और गुरुदेवश्री की गाँव में पहुँचा। आहार का विलम्ब मेरे मन को प्रभावित नहीं करता कृपा से हम अच्छे नम्बरों से समुत्तीर्ण हुईं।
पर भजन का विलम्ब मेरे लिए असह्य हो जाता है। यही कारण है मेरे लघु भ्राता धन्नालाल की भी दीक्षा आपके श्रीचरणों में हुई
कि राष्ट्रपति (पूर्व) ज्ञानी जैलसिंह जी, लोक सभा अध्यक्ष श्री और उनका नाम देवेन्द्र मुनि रखा गया। भाई होने के नाते से
बलराम जाखड़, पूर्व सांसद एच. के. एल. भगत, राष्ट्रपति डॉ. गुरुदेवश्री के चरणों में अनेकों बार वर्षावास करने के सौभाग्य भी
शंकरदयाल शर्मा आदि भारत के सर्वोच्च राजनेता गण समय-समय
मिली पर समुपस्थित होते रहे, उस समय भी मैं जाप का समय होने पर चरणों में जब भी पहुँचते, गुरुदेवश्री सदा ही निरर्थक वार्तालाप से
जाप में पहुँचता रहा क्योंकि जाप मेरा अपना प्रिय विषय रहा है, दूर रहते, जाते ही या तो वे आगमिक, दार्शनिक प्रश्न पूछते और
कई बार मुझे १०३, १०४ डिग्री ज्वर रहता, पर जब मैं जाप जब हमें उत्तर नहीं आता तो वे उसका सटीक समाधान करते।
के लिए पद्मासन पर बैठता तो मेरा ज्वर उस समय बिल्कुल मिट गुरुदेवश्री से हमने अनेक आगम की टीकाएँ पढ़ीं, चूर्णियाँ पढ़ीं
जाता रहा है, जाप में अपूर्व शक्ति और आनंद की अनुभूति मुझे
होती रही है। और भाष्य भी पढ़े। गुरुदेवश्री के पढ़ाने का क्रम इतना चित्ताकर्षक था कि गम्भीर से गम्भीर विषय को वे सहज और सरल रूप से ।
मैंने गुरुदेवश्री से पूछा, गुरुदेव! आपके मंगल पाठ को सुनकर समझाते थे कि विषय सहज हृदयंगम हो जाता था। गुरुदेव की अनेक व्यक्ति स्वस्थ होते रहे हैं, अनेक व्यक्तियों की बाधाएँ दूर सबसे बड़ी विशेषता थी कि जो विषय यदि समझ में नहीं आता तो
होती रही हैं, क्या आप उसके लिए संकल्प करते हैं ? गुरुदेवश्री ने दुबारा-तिबारा जिज्ञासा प्रस्तुत करते तो कभी भी उनके चेहरे पर
। कहा, मैं किसी प्रकार का संकल्प नहीं करता और न किसी प्रकार रोष की रेखाएँ उभरती नहीं, वही मधुर मुस्कान, वही सहजता।।
के चमत्कार की भावना ही मेरे मन में है, नवकार महामंत्र के उनका' मंतव्य था कि एक क्षण भी प्रमाद न करो, जीवन के प्रबल प्रभाव से यह सब कुछ सहज होता है, जितना जप करोगे अनमोल क्षण बीते जा रहे हैं, इन क्षणों का जितना सदुपयोग कर । उतना हा जप
सटका उतना ही जप सिद्ध हो जाएगा। लो, वही तुम्हारे लिए सार्थक है। आलस्य जीवन का अभिशाप है। जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः, जपात् सिर्द्धि न संशयः। प्रमाद से सदा बचो, तुम साधु बने हो, साधना करना तुम्हारे जीवन मेरा तो सभी साधु-साध्वियों से कहना है कि वे नवकार
मेरा नोटी का संलक्ष्य है, यदि साधना नहीं करोगे तो यह गृहस्थ के टुकड़े । महामंत्र का जाप करें क्योंकि जाप से मन को अपूर्व समाधि मिलती हजम नहीं होंगे। वे एक दोहा भी फरमाया करते थे
है, तनाव से मुक्ति मिलती है।
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४४
गुरुदेवश्री आशुकवि थे, प्रत्युत्पन्नमति थे, समयोचित पद्य बनाना उनका दायें हाथ का खेल था, उन्होंने हजारों पद्य बनायें पर खेद इस बात का रहा कि उनके द्वारा निर्मित सारा पछ साहित्य एकत्रित नहीं किया गया क्योंकि गुरुदेवश्री उसी क्षण बनाकर सुना देते थे, कई बार तो उन पद्यों को लिपिबद्ध भी नहीं किया गया। यदि सारा पद्य साहित्य लिपिबद्ध होता तो मैं सोचती हूँ कि एक विराटकाय ग्रंथ बन जाता, गुरुदेवश्री ने खंड काव्य भी विविध राग-रागनियों में अनेक लिखे हैं, अनेक कथाओं को उन्होंने विविध राग-रागनियों में निर्मित किया है, वह सम्पूर्ण साहित्य अभी तक अप्रकाशित है, मैंने अपने भ्राता आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. को निवेदन किया कि वे गुरुदेवश्री का सम्पूर्ण पद्य साहित्य अच्छी तरह से संपादित कर प्रकाशित करावें, जिससे प्रवचन करने वालों को बहुत ही सहूलियत होगी क्योंकि कथा एक ऐसा माध्यम है, जिससे प्रवचन में सहज सरसता आ जाती है।
गुरुदेवश्री बहुभाषाविद् थे, वे धाराप्रवाह संस्कृत भाषा में वार्तालाप करते थे, धाराप्रवाह गुजराती भाषा में प्रवचन करते थे, धाराप्रवाह मराठी और राजस्थानी भाषा में वार्तालाप और प्रवचन आदि करते थे। गुरुदेव श्री को हजारों दोहे, श्लोक, कविताएँ, भजन तथा प्राचीन चरित्र कंठस्थ थे। गुरुदेवश्री के प्रवचन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे गम्भीर से गम्भीर विषय को इस रूप में प्रस्तुत करते थे कि श्रोताओं को यह प्रवचन भार रूप प्रतीत नहीं होता था। सहज हृदयंगम हो जाता था, गुरुदेवश्री का मानना था कि वह प्रवचन क्या जो श्रोताओं के पल्ले न पड़े, प्रवचन केवल पांडित्य का प्रदर्शन करना नहीं है, प्रवचन श्रोताओं के हृदय को झकझोरना है, उनके अंतर्मानस में तप और त्याग की ज्योति को प्रज्ज्वलित करना है। हम जो बात कहें वह यदि श्रोता के अन्तर्मानस में प्रवेश कर जाती है तो वह सच्ची धर्म कथा कहलाएगी और उस धर्म कथा से निर्जरा भी होगी।
गुरुदेवश्री महान् पुण्य पुरुष थे, मैंने स्वयं ने अपनी आँखों से देखा, गुरुदेवश्री अपने गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे। यदि कभी बड़े गुरुदेव तेजतर्रार होकर गुरुदेव को उपालम्भ भी दे देते तो भी गुरुदेव विनीत मुद्रा में गुरुदेव के उपालम्भ को सुनते और उनके चरण पकड़कर अपने अपराध की क्षमा-याचना मांगते। उनका यह मंतव्य था कि शिष्य का दायित्व है कि वह गुरु की आज्ञा का सदा पालन करे। गुरु की आज्ञा में तर्क-वितर्क करना सुयोग्य शिष्य का कर्तव्य नहीं, गुरु की आज्ञा तो हमेशा अविचारणीय होती है, फिर हम विचार क्यों करें, गुरु जो भी कुछ कहते हैं, हमारे हित के लिए कहते हैं, उनसे बढ़कर हमारा हितचिन्तक और कौन हो सकता है, मैंने यह भी अनुभव किया कि जितना गुरुदेवश्री गुरु के प्रति समर्पित थे, उतने ही बड़े गुरुदेव की असीम कृपा उन पर थी। यह गुरु और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ ।
शिष्य की जोड़ी गणधर गौतम और महावीर की तरह लगती थी, कोई भी अपरिचित व्यक्ति यही समझता था कि ये गुरु-शिष्य पिता और पुत्र होंगे पर वास्तविक स्थिति दूसरी थी। इस युग में इस प्रकार की समर्पण भावना भाग्यशाली गुरु और शिष्य में ही मिलती है और मुझे लिखते हुए अपार हर्ष की अनुभूति होती है कि मेरे भ्राता आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. भी गुरुदेवश्री के प्रति इसी तरह जीवन भर समर्पित रहे और उनकी विमल छत्र-छाया में उनका धार्मिक अध्ययन हुआ, साहित्य का निर्माण हुआ, सद्गुरु की कृपा का ही प्रतिफल है कि वे श्रमणसंघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए ये सब गुरुदेवश्री की कृपा का ही चमत्कार है, उनके कुशल नेतृत्व में ही २८ मार्च ९३ को उदयपुर में बद्दर समारोह हुआ।
गुरुदेवश्री सफल साधक थे, जिसका ज्वलन्त प्रमाण है कि जीवन की सान्ध्य बेला में गुरुदेवश्री ने अपनी इच्छा से संधारा स्वीकार किया और ४२ घण्टे तक चीवीहार संधारा रहा। शरीर में उस समय अपार वेदना रही होगी पर आपके चेहरे पर वही दिव्य तेज झलक रहा था, वही आध्यात्मिक मस्ती प्रगट हो रही थी, हम आगमों में पादपोपगमन संथारे का वर्णन पढ़ती हैं, उस वर्णन को पढ़ते समय मन में कई बार विचार आया कि यह संथारा किस प्रकार होता होगा पर हमने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेवश्री का संथारा पादपोपगमन संथारे की तरह था। वे ४२ घण्टे में एक क्षण भी न हिले, न डुले, उफ तक भी नहीं की, धन्य हैं ऐसे अध्यात्मयोगी गुरुदेवश्री को जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन यशस्वी रूप से जीया, अध्यात्म मस्ती में जीया और जीवन के अंतिम क्षणों में संथारे का स्वर्ण कलश उन्होंने चढ़ाकर भौतिकवादी व्यक्तियों को यह बता दिया कि जो व्यक्ति जीवन भर हँसते-हँसते जीता है, वह व्यक्ति हँसते-हँसते मृत्यु को किस प्रकार वरण करता है।
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धन्य है गुरुदेव आपका जीवन धन्य है आपका व्यक्तित्व, धन्य है आपका कृतित्व। आप सच्चे सद्गुरु थे, जीवन के कलाकार थे, आपने हमारे जीवन को ही नहीं घड़ा किन्तु हजारों व्यक्तियों के जीवन के निर्माता रहे, हजारों पथभ्रष्ट व्यक्तियों का आपने सच्चा पथ-प्रदर्शन किया। कमल की तरह आपका जीवन निर्लिप्त रहा है अनंत श्रद्धा के पुंज मेरी कोटि-कोटि वंदना स्वीकार करें। हम आपके अनंत उपकार से कभी भी विस्मृत नहीं हो सकते और हमें पूर्ण आत्म-विश्वास है कि आपकी असीम कृपा सदा ही हमारे पर रही है, आपकी विमल छत्र-छाया में हमारा जीवन साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा है, वही विमल छत्र-छाया सदा ही हमारे पर रहेगी और हम आपके नाम को सदा रोशन करते रहें, आपके दिए हुए ज्ञान को सदा जन-जन तक पहुँचाते रहें। आपकी यशः कीर्ति को दिग्दिगन्त में फैलाती रहें, इसी मंगल मनीषा के साथ पुनः आपके चरणारबिन्दों में भाव-भीनी वंदना ।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि
आपश्री जी की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। माँ बालीबाई की -
वात्सल्यमयी छाया में व पिता श्री सूरजमल जी के लाड़-प्यार में -अध्यात्मयोगिनी साध्वी उमराव कुँवर जी म. 'अर्चना'
बालक अम्बालाल अभिवृद्धि करने लगा। माँ की ममतामयी छाया
बचपन में ही उठ गई व पिता ही बच्चे को माँ का प्यार दे यत्र-तत्र जपयोगी परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. घूमते रहे। श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्रेरक एवं एक दिव्य श्रमण थे। स्वभाव
अन्ततोगत्वा यह अम्बालाल रूपी कल्पवृक्ष सेठ अम्बालाल जी से सरल, सौम्य, प्रभावशाली, धर्मनिष्ठ एवं कर्त्तव्यनिष्ठ थे।
के आंगन में आरोपित किया गया। इसने वहाँ छाया भी दी, फल अनेकों बार आपके पावन दर्शनों का सौभाग्य मुझे सम्प्राप्त भी दिए। जब उनका घर खुशियों से भर गया तो वही कल्पवृक्ष श्री SD हुआ। जब भी मिलते, बड़ी आत्मीयता से तत्व चर्चा करते थे। ताराचंद्र जी म. के साधु समुदाय में स्थानांतरित हो गया व गुरु की 5 वास्तव में आप एक अप्रमत्त सन्त एवं विवेकशील साधक थे। छाया में वैराग्य की लहरें तरंगित हो उठीं।
आपका जैसा नाम था, वैसे ही आपके जीवन में गुण थे, संवत् १९८१ की ज्येष्ठ शुक्ला दशमी के दिन संयममूर्ति श्री अथवा गुणों के अनुरूप ही आपका नाम था।
ताराचन्द्र जी म. के चरण-कमलों में जैन भागवती दीक्षा अंगीकार आज आपका पार्थिव शरीर हमारे मध्य नहीं रहा, लेकिन
की। जन-जन की शुभ-कामनाओं से नभ गूंज उठा। पिता सूरजमल आपका अध्यात्म-चिन्तन तथा आपके द्वारा किये गये महत्वपूर्ण
का लाड़-प्यार बालक को भुला न सका क्योंकि उनके मानस में कार्य अमर हैं। आपका साधनामय आध्यात्मिक जीवन सबके लिये ।
अंकित थी एक विराट् अस्तित्व की खोज और छवि। बस उसी में प्रेरणादायक रहेगा। इन्हीं अन्तर्मन की भावनाओं के साथ उन
अपने आपको समर्पित कर दिया। इस योग्य शिष्यरत्न को पा गुरु महामना, जपयोगी उपाध्यायश्री के श्री चरणों में मेरी हार्दिक
| ताराचंद्र आह्लादित हो उठे। श्रद्धांजलि।
गुरुदेवश्री की छत्रछाया व उनकी वात्सल्यमयी दृष्टि में रह - बालक अम्बालालजी, अब मुनि पुष्कर था, संयम-यात्रा में उत्तरोत्तर
वृद्धि करने लगे। श्रमण बन जीवन के तीन लक्ष्य बनाए-संयमअद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ।
साधना, ज्ञान-साधना व गुरु सेवा। म. श्री जी की साधना व -उपप्रवर्तिनी महासती श्री स्वर्णकान्ता जी म.
व्यक्तित्व दोनों महान् थे।
संयम के सोपान पर चढ़ते-चढ़ते आप इतने विराट् स्थल पर प्रायः लोग सन्तों की समता कल्पवृक्ष से करते हैं, किन्तु मेरी
पहुँच गए कि आपश्री जी के श्री मुख के निकले वचन अमोघ सिद्ध दृष्टि में महान संत कल्पवृक्ष से भी अधिक महान् होते हैं क्योंकि
होने लगे। १२.00 बजे का मंगलपाठ श्रोताओं को भौतिक और कल्पवृक्ष आज नहीं रहे, किन्तु सन्त समाज आज भी विद्यमान है।
आध्यात्मिक सिद्धि से भरने लगा। कल्पवृक्ष केवल भौतिक सम्पदाएँ ही प्रदान कर सकता है, किन्तु सन्त भौतिक सम्पदाओं से उपराम हो आध्यात्मिक सम्पदाओं से
आपकी ज्ञान-साधना का कोई सानी नहीं था। साहित्य के क्षेत्र लोगों को निहाल करते रहते हैं। पापों, परितापों और सन्तापों को । में आपका योगदान स्मरणाय हा सता का जीवन तो स्वय एक नष्ट कर आत्म-शांति प्रदान करते रहते हैं।
पाठशाला होता है, जिसमें निरन्तर ज्ञान सरिता का अवगाहन होता
रहता है। आप स्वभाव से अध्ययनशील थे एवं आप अधिकांश हमारे आराध्य श्री पुष्कर मुनिजी म. इसी परम्परा के एक
समय अध्ययन, मनन, चिन्तन व लेखन में व्यतीत करते थे। पुस्तकें महान संत थे। उन्होंने अपनी झोली तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपी रत्नों
आपकी सबसे बड़ी सहयोगी थीं, जिनसे वे मौन वार्तालाप करते थे। से भरी ही थी, अपने शिष्यों की झोलियाँ भी संयम-ज्ञान व दृढ़ता के असीमित भण्डार से भर दी थीं।
आपकी संयम-साधना व ज्ञानाराधना को इतनी उत्कृष्टता पर DGE
देख आपकी गुरु के प्रति विनीतता का सहज ही अनुमान लगाया D. श्रमणसंघ के देदीप्यमान रत्न उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.
जा सकता है। आपश्री जी अपने गुरु के प्रति विशेष रूप से 20% का जन्म मेवाड़ में हुआ। मेवाड़ की भूमि को वीर प्रसूता वसुन्धरा के नाम से स्मरण किया जाता है। यहाँ का प्राचीन इतिहास इतना
श्रद्धान्वत थे। गुरु-सेवा में मनसा-वाचा-कर्मणा लीन थे। गौरवशाली है कि इस भूमि के कण-कण में शौर्य, पराक्रम, बलिदान मानवीय चेतना के ऊर्ध्वमुखी सोपानों पर आरोहण करते हुए
और त्याग की अनेकों कहानियाँ छिपी हैं। इनके जन्म से मानो आपश्री जी ने जहाँ समाज को ज्ञान दिया, संयम-साधना दी, वहाँ मेवाड़ की वीरभूमि की माला में एक और मोती बढ़ गया। इसी । एक अमूल्य हीरा भी हमें प्रदान किया, वर्तमान आचार्य सम्राट् श्री मेवाड़ के क्रोड़ में बसे गोगुन्दा के निकट सिमटार नामक गाँव को । देवेन्द्र मुनि जी म. के रूप में जो हैं। जिसे उन्होंने स्वयं तराशा,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । संवारा एवं संभाला। यह जैन श्रमणसंघ का अहोभाग्य है कि वह
ज्योतिर्मय महादीप इतनी बड़ी देन हमें जाते-जाते दे गए, इसके लिए हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
। -उप प्रवर्तिनी साध्वीश्री मगनश्री जी म.
(खद्दरधारी, शासनज्योति स्व. महार्या श्री मथुरा देवी श्रद्धा के इन कणों में
म. सा. की सुशिष्या) एक कण मेरा मिला लें।
इस संसार में अनादि काल से दो धाराएँ बह रही हैं-एक
भौतिक धारा, दूसरी आध्यात्मिक धारा; जिसमें भौतिक धारा कर्म -उप प्रवर्तिनी श्री आतावती जी म..
प्रधान है तथा आध्यात्मिक धारा धर्मप्रधान है। कर्म प्रवृत्तिप्रधान है, भारतीय संस्कृति में संत परम्परा का एक अनूठा ही स्थान रहा धर्म निवृत्तिप्रधान। निवृत्ति ही मोक्ष है इसलिए धर्म मोक्ष का कारण 8 है। प्राचीन इतिहास का अवलोकन किया जाए तो ऐसा दृष्टि पथ में } है। जिस प्रकार असि, मसि, कृषि कर्म प्रधान व्यक्ति के साधन हैं आता है कि संत भारत की आत्मा है। भारत संतों की तपोभूमि रही
। उसी प्रकार धार्मिक व्यक्ति भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप पर चलता प्रय है। यहाँ समय-समय पर अनेकानेक महापुरुषों का संत एवं तपस्वी है। ये चारों धर्म के अंग हैं इन्हें मोक्ष का साधन भी कह सकते हैं।
साधक आत्मा के रूप में जन्म होता रहा है। यह भारत की पावन जैसे चक्रवर्ती गज, अश्व, रथ, पदाति के द्वारा ६ खण्डों को साध वसुन्धरा संत जनों की साधना की सुरभि से सदा-सदा से सुरभित
I लेता है वैसे ही धर्मात्मा भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप के दम पर Poe रही है। जब हम महान् संतों का नाम स्मरण करते हैं तो बहुत से आत्म-विजय प्राप्त कर लेता है। चक्रवर्ती के पास चौदह रल एवं
व्यक्तित्व साधकों के चित्र हमारे मानस पटल पर उभरते हैं। कुछ नव-निधि होती है। जबकि धर्मात्मा साधक के पास रत्नों की गिनती 25 ऐसे विश्वविख्यात हुए जिन्होंने अपना समग्र जीवन ज्ञानाराधना, .
ही नहीं। धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर भगवान होते हैं तथा धर्मगुरु मुनि साधना, तप और संयम दृढ़ता में रहकर व्यतीत किया और जीवन |
भी होते हैं। ऐसे महामुनि साधना के सजग प्रहरी परमेष्ठी पद के P3 के अंतिम क्षण तक अपनी साधना की यश सुगन्धि जन-जन में धारक उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. आचार-विचार
महकाते हुए अपनी सहिष्णुता, गम्भीरता, उदारता, महानता, की समग्रता युक्त आत्म-विजयी साधक थे। तेजस्विता, वाक्पटुता आदि गुणों की महक जनता जनार्दन के आपश्री का व्यक्तित्व तेजस्वी था। संयम-साधना द्वारा आपने मानसपटल पर सदा-सदा के लिए अविस्मरणीय छाप छोड़ दी। भौतिकवाद की चकाचौंध में फंसे हुए व्यक्तियों को सच्चा मार्ग-दर्शन
ऐसे ही संतों की दिव्य माणिक्य माला में जैन संस्कति में दिया। जैन साहित्य की आपने अविस्मरणीय सेवा की। यही कारण है अनुपम रल, मेधावी अध्यात्म योगी, जैन संघ की उज्ज्वल विभूति कि हजारों श्रद्धालुगण आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित हैं। देदीप्यमान नक्षत्र जन-जन के आराध्य यशस्वी, मनस्वी, वचस्वी
यथानाम तथागुण के समान आपका जीवन तीर्थ स्वरूप ही था। मुनि पुङ्गव आगम वारिधि स्वनाम धन्य उपाध्याय स्व. श्री पुष्कर जो भी आपकी शरण में आया वही पावन बनता चला गया। आप मुनि जी म. हुए। जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग संयम सर्वगुणसम्पन्न महापुरुष थे आपका प्रत्येक कार्य शुभ और की कठोर साधना में ही व्यतीत किया।
कल्याणपरक था। आपकी छत्र-छाया संघ के लिए वरदान रूप थी। आप दीर्घ संयमी बने एवं यत्र-तत्र पद यात्रा करते हुए
भले ही नाशवान शरीर से हमारे मध्य नहीं हो किन्तु यश शरीर से जिनवाणी का भरपूर प्रचार-प्रसार किया। जो भी आपके श्री चरणों सदैव जैन जगत में आप सदा जीवित ही रहोगे। में उपस्थित होता आपके व्यक्तित्व एवं साधना से ओत-प्रोत जीवन ।
हे महादीप! तूने असंख्य दीप जलाए थे, को देख सदा के लिए चरण सेवक बनता और हृदय में अनंत
हो गए निहाल जो सवाली बनकर आए थे। असीम आस्थाएँ लेकर गुनगान करता जाता। इस प्रकार से
हमारे पास अब उनका प्रकाश है, उपाध्यायश्री जी का सम्पूर्ण साधनामय जीवन हम सबके लिए
उससे करना हमें आत्म-विकास है। प्रेरणा स्रोत एवं आलम्बन रूप है आज वह भले भौतिक देह में हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु उनकी साधनामयी यशोगाथाएँ इतिहास
पावन गुरु की स्मृति में श्रद्धा पुष्प समर्पित। सदा गुनगुनाता रहेगा और भावी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक रहेंगे उनके महागुण। आज उनकी पावन स्मृति के प्रकाशन में मुझे भी श्रद्धायुक्त पुष्पाञ्जलि अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त कर परम हर्ष धर्म से प्राप्त की गई लक्ष्मी को धर्म में ही लगाना चाहिये। हुआ। हम सबके लिए यही कर्तव्य है कि हम उस महापुरुष के गुणों क्योंकि धर्म लक्ष्मी को बढ़ाता है और लक्ष्मी धर्म को बढ़ाती है। का अनुसरण करें। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। किं बहुना, इत्यलम्।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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श्रद्धार्चना
अंतःकरण में सतत् एक मधुर मुस्कान की संगीत गूंजती रहती है।
ऐसी महान् विभूति हमारे बीच में न रही है किन्तु स्मृतियाँ अमिट हैं। -महासती श्री प्रकाशकुंवर जी म. आज हमारे समाज में ही नहीं, सम्पूर्ण जैनशासन में एक
चारित्र आत्मा की जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति होना असंभव है। श्रमण संघ में बढ़ी है, आपकी कीर्ति,
अतः मेरी ओर से और मेरी सतियों की ओर से उस दिवंगत अहिंसा तप संयम की है प्रचण्ड शक्ति।
आत्मा को चिर शांति मिले। पुनीत पावन बन रही राजस्थान की धरती
इन्हीं भावनाओं के साथ भावभीनी श्रद्धा अर्पित करती हूँ। जन-जन के हृदय में बह रही “पुष्कर मुनि" की भक्ति॥
इस सृष्टि के सौंदर्य चेत्य में अनेक प्रकार के पुष्प खिलकर मुरझा जाते हैं। किन्तु मौलिकता तो उन्हीं पुष्पों की है, जो कि आस्था की अकम्प लौ उपाध्यायश्री जिसमें विशिष्ट गुणों का मूल्यांकन हो। अर्थात् अपनी महकती सौरभ के द्वारा दूर-दूर तक फैलकर मनुष्य के दिल-दिमाग को
-साध्वी श्री चारित्र प्रभा ताजगी से भर देती है। अंतर् हृदय ताजा-तरोजा कर देती है। तथा
(परम विदुषी श्री कुसुमवती जी म. सा. की सुशिष्या) हृदय को प्रफुल्लित एवं पल्लवित बनाती है।
२ अप्रैल, १९९३ की रात्रि को श्राविका ने आकर बतायाइसी प्रकार इस विश्व में अनेक जीवों का जन्म होता है और
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का स्वर्गवास हो गया है। यह अंतकाल भी हो जाता है। लेकिन उन दो महान् वीर पुरुषों का
समाचार सुनते ही मस्तिष्क को एक गहरा आघात पहुँचा। समस्त जीवन कीमती है। जिनका सौरभित व्यक्तित्व सदैव प्रत्येक जीव को
साध्वीवृंद स्तब्ध रह गईं। एकदम हृदय से निम्न उद्गार फूट पड़े-- नया मार्गदर्शन कराते हैं। नई राह दिखाने में कुशल सहयोगी बन पाते हैं। हमारे श्रमणसंघ के उपाध्यायप्रवर पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी
हाय, क्या अमर संघ आज अनाथ हो गया। म. का जीवन मिश्री जैसा मधुर एवं गुणों के पुरुष की तरह सुगन्ध गुलशन को छोड़कर क्या बागवा चला गया। से महकता था। साथ ही साथ आपश्री के जीवन में कितने महान् हे कृतांत! क्यों तुझे तनिक भी दया न आई। गुणों का समावेश है। अतः उसका वर्णन करने के लिए मेरे पास जो लूट करके प्राण हमारा क्यों हमसे ले गया। कोई शक्ति नहीं है। फिर भी मुख्य गुण अल्प शब्दों में लिखने के
आगम में चार प्रकार के फूल का रूपक देते हुए कहा है कि लिए मेरी लेखनी लिपिबद्ध हो रही है।
जिस फूल में ज्ञान की सुगंध और आचार की सुन्दरता हो, वह अतः आपश्री का सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में सर्वोपरि फूल संसार का श्रेष्ठ फूल है, फूलों में गुलाब का फूल फूलों का स्थान रहा है तथा व्यक्तित्व और साहित्य समाज रूपी सागर की राजा कहलाता है। क्योंकि उसकी भीनी-भीनी मधुर सुगंध और एक बूँद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। किन्तु उपाध्यायप्रवर के कोमल सुन्दर पखुड़ियों का लावण्य देखने वाले का मन मुग्ध कर व्यक्तित्व के सद्गुणों की सुवास आज भी वर्तमान में और भविष्य देता है। जिस व्यक्ति का जीवन हँसते हुए खिले गुलाब की तरह में भी विकसित होती रहेगी। जिनके आत्म-साधना की तथा साहित्य
ज्ञान की सुगंध से महकता हो और आचार की सुन्दरता श्रेष्ठता से की स्मृति समाज के लिए प्रेरणाप्रद रहेगी। आपश्री के महान्
दर्शनीय हो, वह गुलाब की तरह सब का मन मोह लेता है। गुलाब व्यक्तित्व को समाज कभी भी भूल नहीं पाएगा।
का फूल जहाँ भी खिलता है। वहाँ के वातावरण को सुवासित कर
देता है, जन-जन के मन को तरोताजा बना देता है। सर्वत्र अपनी आपश्री की अद्वितीय साधना हरेक क्षेत्र में चहुँमुखी थी।
मधुर मुस्कान बिखेरना ही उसकी विशेषता है। आपश्री ने अनेक विषयों को सरल, सहज एवं सुगमतापूर्वक समझ सकें ऐसे साहित्य का सृजन किया है। आपके द्वारा लिखित जैन
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी का जीवन भी एक खिला हुआ कथाएँ भाग १११ तक देखने में आयी हैं। आपकी काव्यकला
गुलाब का फूल था। जिस प्रकार पुष्प में सुगन्ध, चन्द्र में शीतलता, अनूठी थी। साथ ही काव्यकला में अनुपम ओज और तेज था। ।
दुग्ध में धवलता समाई हुई है। उसी प्रकार गुरुदेव का जीवन भी आप आशुकवि थे।
भरपूर गुणों से परिपूर्ण था। पूना संत सम्मेलन में मुझे दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जो
आप बादल नहीं, स्वयं आसमान थे, कि आज भी आपकी अमृतमय वाणी मेरे कर्ण कुहरों पर गुंजन
आप फूल नहीं, स्वयं ही उद्यान थे। करती है। पूर्व की स्मृतियाँ हृदय पटल पर अंकित होती हैं। आपका क्या कहने, आपकी योग साधना के, व्यक्तित्व, भाषा-शैली हृदय के तारों को झंकृत कर देती है। आप पुजारी नहीं, स्वयं भगवान थे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ज य उपाध्यायश्री जी कई भाषाओं के विशेषज्ञ थे। गुरुदेव की । प्रहर का विधान है, तो छः प्रहर का समय साधक का ज्ञान और
स्मरण शक्ति बड़ी प्रखर थी। पूज्य गुरुदेव में एक अद्भुत आकर्षण ध्यान में बीतता है। साधक सदा अप्रमत्त रहकर ज्ञान और ध्यान में Re शक्ति थी, जो एक बार उनके सान्निध्य में आया वह सदा-सदा के । अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है। लिए उनका परम भक्त बन गया। उस आत्मा का संस्था के प्रति ।
पंचम काल में तीर्थंकर नहीं हैं, मनःपर्यवज्ञानी भी नहीं हैं, न यश का कोई लगाव नहीं था। आप अपने शिष्य को आचार्य पद
अवधिज्ञानी हैं और न वर्तमान में पूर्वधर ही हैं, वर्तमान में देकर समाज को सशक्त बनाने में समर्थ हुए।
जिनवाणी का और गुरुदेव का ही आधार है। गुरुदेव अपनी विमल | उस महापुरुष के जाने से लाखों आँखें रो रही हैं। कारण! वाणी से अज्ञान अंधकार में भटकते हुए भव्य प्राणियों को प्रतिबोध उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की छाया से आज हम सब
देते हैं, सद्गुरुदेव का जीवन बहुत ही निराला जीवन था, वे महान् वंचित हो गए थे। उपाध्यायश्री के वियोग की बात सुनकर कौन
साधक थे उनका तपःपूत जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा स्रोत था, ऐसा मानस होगा जो तड़फा न होगा।
मेरे पर गुरुदेवश्री का अनंत उपकार रहा है, गुरुदेवश्री की पावन
प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर मैंने अपने जीवन के लिए दो मार्ग चुनेतेरे गुण की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गाएगें।
एक सेवा और दूसरा तपस्या। जब मैं तपस्या करती तब गुरुदेवश्री और सभी कुछ भूल सकेंगे, पर तुम्हें भूला न पाएगें।
मुझे फरमाते दया माता तपस्या की साता है। गुरुदेवश्री के गुरुदेव का सबसे बड़ा चमत्कार यह हुआ कि जब लोग मंगल, मुखारबिन्द से यह बात सुनकर मेरा हृदय प्रसन्नता से झूमने लगता, बुध को चादर महोत्सव करके गए। फिर ५ ता. को वही भीड़। वही उनका सम्बल पाकर मैं साधना में अग्रसर हुई हूँ। जुड़ी भीड़ उस महापुरुष का परिचय था। उस महापुरुष की
गुरुदेवश्री तन से हमारे बीच से चले गए किन्तु हमारे दिल के पुण्यवानी २०० साधु-सन्तों का मिलना। यह भी एक दुर्लभ कार्य
सिंहासन पर वे आज भी विराजमान हैं और सदा-सदा विराजे अकस्मात् सहज ही हो गया। दाह संस्कार के समय कड़ाके की धूप रहेंगे। होते हुए भी एक बदली आई और कुछ क्षण में चलती बनी। लोग बोले म. इन्द्र देवता भी गुरुजी को श्रद्धांजलि के लिए पुष्प अर्पित
श्रमणसंघ का सितारा करने आये हैं। लेकिन मेरा मन रो रहा था अब उनको लेने कहा जाए, इसलिए मन कह उठता है कि एक बार आओ गुरुजी.......
-जैन सिद्धांताचार्य साध्वी श्री सुशील जी उनके गुणों का वर्णन कहाँ तक करूँ। उस महान् विभूति के गुणों का आत्मसात करना ही उनके
"तोड़ दिये आपने संसार के बंधन, चरणों में अपनी सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करना है।
जीवन है आपका सुन्दर शीतल चंदन।
भक्तों के हैं उपाध्याय प्रवर भव दुःख भंजन .. "तेरे गुणों की गाथा जमाना गाता रहेगा।
उपाध्यायश्री के गुण गाने का हृदय में हो रहा स्पंदन॥" जब तक सांस में सांस है, स्मृति तराने बजाता रहेगा।"
इस विराट् संसार के प्रांगण में महान् आत्माओं की चेतना साधना के सतत् प्रहरी के पद चिह्नों पर चलकर यदि हम ।
शक्ति की आवश्यकता होती है। जिनके चिन्तन के कदम जन अपने आत्म-बल को सशक्त बना सकें तो निश्चित ही अमरत्व प्राप्त
समुदाय के लिए गतिमान थे। आपश्री की विचक्षण बुद्धि प्रत्येक Page हो सकेगा।
प्राणी के लिए सच्चा मार्गदर्शन कराने में दिशाप्रद थी। जिनका
व्यक्तित्व अद्वितीय था। भव्य एवं महान् आत्मशील महामुनि थे। इन आराध्य गुरुदेवश्री
महान् विभूति के गुणों की प्रशंसा करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु जैसी
दुनिया की महान् शक्तियाँ भी कुण्ठित हो जाती हैं। -महासती श्री दयाकुंवरजी म. सा.
मेरे जैसी अल्पबुद्धिवाली द्वारा इन महान् हस्ती की गुण गरिमा (परम श्रद्धेय स्व. श्री धूलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
को अपने शब्दों में गुंथन अर्थात् सूरज से सामने दीपक बताने परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. वाली कहावत चरितार्थ होगी। आपश्री के दर्शन का लाभ शेषकाल श्रमणसंघ के उपाध्याय थे। उपाध्याय का अर्थ है, जो स्वयं ज्ञान में अल्प समय का प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात् सन् १९७९ का करते हैं और दूसरों को ज्ञान की पावन प्रेरणा देते हैं। गुरुदेवश्री चातुर्मास सिकन्दराबाद में चरण सरोज का योग मिला। उपाध्यायश्री का जीवन ज्ञानयोगी था, ज्ञान और ध्यान जीवन साधना के दो की महती कृपा मेरे पर थी। जो कि मैं अपने शब्दों में व्यक्त करने पांख हैं, जिससे साधक आध्यात्मिक गगन में विहरण करता है, 1 में असमर्थ हूँ। उसके बाद पूना संत सम्मेलन में दर्शन का आगम साहित्य में ज्ञान के लिए चार प्रहर और ध्यान के लिए दो अत्यल्प लाभ प्राप्त हुआ। श्रमणसंघ के उज्ज्वल तारे जिन्होंने
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
संसार की प्रत्येक आत्मा को अमोघवाणी के द्वारा अमृत पान
कराया।
आपश्री की वाणी के प्रभाव आलोक से जनमानस आलोकित होता था क्योंकि हर वाक्य उसके अन्तःकरण को छू लेता था। जो भी आपश्री जी के सान्निध्य में आया उसने आनंद का स्रोत ही
पाया।
अतः आपश्री के हाथों की ललकार वाणी की ओजस्विता की ध्वनि हृदय पटल पर अंकित होती है। स्वर्गस्थ आत्मा को मैं अंतर्हृदय से चिरशांति मिले यही आपश्री के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ।
"लाखों करोड़ों तारिकाएँ उदय होती हैं आकाश में, समर्थ नहीं हो सकती सृष्टि तिमिर के नाश में।
चन्द्र समर्थ आप उपाध्याय प्रवर पंचम काल में....... दीजिए पूज्य उपाध्याय प्रवर वरदान इस कलिकाल में ।"
संयम प्रदाता सद्गुरुवर्य
-साध्वी श्री चंदनबाला जी म. "सिद्धांताचार्य " (शासन प्रभाविका महासती श्री शीलकुंबर जी म. की सुशिष्या)
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का व्यक्तित्व और कृतित्व मेरू पर्वत से अधिक ऊँचा और सागर से भी अधिक गंभीर था। शब्दों के बॉट से उनके जीवन को तोला नहीं जा सकता। ससीम शब्दों के द्वारा असीम गुणों का उत्कीर्तन भी कैसे किया जा सकता है मैं सोच रही हूँ, गुरुदेवश्री के गुणों को किन शब्दों में आबद्ध करूँ ? उनका हृदय मक्खन से भी अधिक मुलायम था और उनकी वाणी मिश्री से भी अधिक मधुर थी, उनके जीवन का कण-कण हीरे की तरह चमकदार था, मोती की तरह उनमें आद थी और माधुर्य से लबालब भरा हुआ क्षीर समुद्र-सा उनका जीवन था।
कवियों ने संत हृदय की तुलना नवनीत से की है, नवनीत मुलायम होता है और गर्मी से पिघल जाता है, पर नवनीत से भी बढ़कर संत का हृदय है। नवनीत ताप लगने पर पिघलता है पर संत स्वताप से नहीं, परताप से पिघलते हैं, इसलिए वे नवनीत से भी बढ़कर हैं। किसी भी दीन-दुःखी को देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और मैंने देखा है हजारों व्यक्ति रोते हुए गुरुदेवश्री के पास आए और उनके ध्यान के मंगलपाठ को श्रवण कर हँसते हुए विदा हुए, बहुत गजब की थी उनकी साधना वर्षों तक अखण्ड साधना करने के कारण उनकी वाचा सिद्ध हो गई थी।
मेरा परम सौभाग्य रहा कि श्रद्धेय पूज्य गुरुदेवश्री ने मुझे आती दीक्षा प्रदान की और मुझे दीक्षा देने के लिए लम्बा विहार
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कर पधारे। साथ ही जब भी मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुंची तब उन्होंने मुझे सदा ही ज्ञान-ध्यान की प्रेरणा दी जीवन के अंतिम समय में जब उनका स्वास्थ्य भी पूर्ण स्वस्थ नहीं था, हम पाली का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर सद्गुरुणी जी श्री शीलकुंवर जी म. के साथ उदयपुर दर्शनार्थ पहुँची, प्रारंभिक वार्तालाप के पश्चात् गुरुदेवश्री ने पूछा कि कुछ आगमिक नये प्रश्न लाई हो क्या ? मैंने निवेदन किया कि गुरुदेव इस समय आपका स्वास्थ्य समीचीन नहीं है, इसलिए बाद में कृपा करना पर गुरुदेवश्री ने कहा, जो प्रश्न हो वे मुझे बताओ और मैंने प्रश्न गुरुदेवश्री के चरणों में रखे और गुरुदेवश्री ने उन सभी आगमिक प्रश्नों का समाधान कर दिया। गुरुदेवश्री की कितनी थी जिज्ञासा और जिज्ञासा के कारण ही उन्होंने हर क्षेत्र में प्रगति की ।
गुरुदेवश्री का जीवन जिस तरह से यशस्वी रहा, अंतिम समय भी उतना ही यशस्वी रहा, उन्होंने संथारा कर वीर की तरह हँसते-हँसते मृत्यु को स्वीकार किया, जिसे जैन आगमों में पंडितमरण कहा है और पंडितमरण को प्राप्त करने वाला महान् साधक होता है। गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी अनंत आस्था के साथ वंदना, उनकी तरह हमारा जीवन भी महान् बने, यही उनके चरणों में भावभीनी श्रद्धार्थना
गुणों के पुंज गुरुदेव
-साध्वी श्री चेलना जी (विदुषी महासती श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
कबीर भारतीय संस्कृति के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, उन्होंने लिखा, "सम्पूर्ण पृथ्वी का कागज करूँ और सम्पूर्ण वृक्षों की कलम बनाऊँ और समुद्र की स्याही बनाऊँ तो भी सद्गुरु के गुणों का वर्णन नहीं लिख सकता।" कितने होते हैं सद्गुरु में गुण। मेरी जैसी लघु साध्वी किस प्रकार गुरु के गुणों का वर्णन कर सकती है। गुरुदेवश्री गुणों के पुंज थे उनका सम्पूर्ण जीवन गुणों से मंडित था। सर्वप्रथम दीक्षा लेने के पश्चात् गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे सादड़ी (मारवाड़) में प्राप्त हुआ। गुरुदेवश्री के मंगलमय प्रवचन भी सुनने को मिले, गुरुदेवश्री के प्रकांड पांडित्य को निहार कर और उनकी हित- शिक्षाओं को सुनकर मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो उठा।
उसके पश्चात् अनेकों बार गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिला, उनके श्रीचरणों में बैठने का अवसर मिला, जब भी मैं उनके चरणों में पहुँची, तब गुरुदेवश्री सदा ही हमें मधुर शब्दों में हित शिक्षा प्रदान करते रहे। धन्य है मेरा सौभाग्य कि ऐसे सद्गुरुवर्य हमें प्राप्त हुए। क्रूर काल ने हमारे से अपने गुरुदेव को छीन लिया पर गुरुदेव तो हमारे अन्तर हृदय में बसे हुए हैं, उनको
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कौन छीन सकता है, मैं अनंत आस्था के साथ गुरु चरणों में श्रद्धा समर्पित करती हूँ।
प्रेरणा के पावन स्रोत
-साध्वी श्री साधनाकुंवर जी म. (महासती श्री शीलकुंवर जी म. की सुशिष्या)
शिष्य के अन्तर मानस में एक विचार पैदा हुआ कि गुरु बड़ा है या गोविन्द । उसने चिन्तन किया, उसे समाधान मिला कि गोविन्द से भी बढ़कर गुरु है क्योंकि यदि गुरु नहीं होते तो गोविन्द के दर्शन कौन कराता, गोविन्द के दर्शन कराने वाला गुरु है, इसलिए वह गोविन्द से भी बढ़कर है। मेरे सद्गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का मेरे पर असीम उपकार है। गृहस्थाश्रम में भी हमारे गुरु उपाध्याय श्री रहे और संयमी जीवन में भी हमारे गुरु उपाध्यायश्री रहे। मैंने साध्वीरल महासती श्री शीलकुंवर जी म. सा. के पास संयम स्वीकार किया। गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे पर रही। बड़ी उम्र में दीक्षा लेने के कारण ज्ञान-ध्यान में विशेष प्रगति करना हमारे लिए संभव नहीं था। गुरुदेवश्री ने कहा, ज्ञान-ध्यान यदि नहीं होता है तो सेवा करो सेवा बहुत बड़ा धर्म है और गुरुदेवश्री की प्रेरणा से हमने अपने जीवन का लक्ष्य सेवा और तप को बनाया। गुरुदेव आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी मंगलमय शिक्षाएँ हमारे जीवन के लिए वरदान रूप रही हैं और उन शिक्षाओं को धारण कर हमने प्रगति की है। हे गुरुदेव, आपके चरणों में हमारी भाव-भीनी श्रद्धार्चना ।
तप-त्याग और संयम के सुमेरू
-साध्वी श्री मंगलज्योति जी म.
प्रकृति के प्रांगण में जब सहस्र रश्मि सूर्य का उदय होता है तो प्रकृति में अभिनव चेतना का संचार हो जाता है, जब आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटाएँ आती हैं, उनकी गंभीर गर्जना को सुनकर मोर केकारव करने लगता है, जब आम्रमंजरी लहलहाने लगती है तो कोकिला पंचम स्वर में कूकने लगती है, वैसे ही महापुरुष जब अवतरित होते हैं तो जन-जन का मन आनंदविभोर हो उठता है। परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. ऐसे ही महापुरुष थे। सौ व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति बहादुर होता है और हजारों में एकाध व्यक्ति पंडित होता है और दस हजार व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति वक्ता होता है किन्तु लाखों व्यक्तियों में एकाध व्यक्ति महापुरुष बनता है। महापुरुष समाज का मुख भी है और मस्तिष्क भी। वह समाज की हर परिस्थिति पर चिन्तन करता है और यह
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
प्रेरणा देता है कि किस तरह से बुराइयों से जूझना है और प्रगति करनी है।
मानव का जीवन क्षणिक है, जन्म लेते ही उसकी यात्रा मृत्यु की ओर प्रस्थित होती है पर कुछ विशिष्ट व्यक्ति होते हैं जो इस क्षणिक जीवन में भी आत्मा को निखारने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते हैं। जन्म और मरण के चक्र से अपने आपको निकालने का प्रयास करते हैं, ऐसे ही सद्गुरुदेव थे, उनके तपोमय जीवन को निहारकर हृदय श्रद्धा से नत होता रहा, उनके जीवन में तप था पर तप का अहंकार नहीं था, उनके जीवन में उत्कृष्ट चारित्र था पर चारित्र का प्रदर्शन नहीं था, वे सिद्ध जपयोगी थे जप के प्रति उनके अन्तर्- मानस में अपार आस्था थी। मैंने गुरुदेव से पूछा, आपश्री किसका जप करते हैं? गुरुदेवश्री ने कहा- 'नवकार महामंत्र' से बढ़कर और कोई मंत्र नहीं है। मुझे मेरे दादागुरु श्री ज्येष्ठमल जी म. सा. ने स्वप्न में आकर जो जपविधि बताई, उसी विधि के अनुसार मैं जप करता हूँ, जप करने में मुझे अपार आनंद आता है और वह आनन्द अनिर्वचनीय है।
गुरुदेवश्री ने मुझे यह भी बताया कि ज्येष्ठ गुरुदेव की मेरे पर असीम कृपा रही है, समय-समय पर उनके स्वप्न में दर्शन होते हैं, जो भी समस्या होती है वे मार्गदर्शन देते हैं। मैं उनका पौत्र शिष्य हूँ, उनकी असीम कृपा को मैं विस्मृत नहीं हो सकता, मैं तो तुम्हें भी कहता हूँ कि तुम भी ज्येष्ठ गुरुदेव पर अनंत आस्था रख क्योंकि तुम्हारा जन्म भी उसी परिवार में हुआ है जिस परिवार में दादागुरु ने जन्म लिया, अतः पारिवारिक दृष्टि से तुम भी उनकी पौत्री हो, गुरुदेवश्री के आदेश से मैंने जप प्रारंभ किया और वस्तुतः मुझे भी अपार आनंद की अनुभूति हुई।
गुरुदेवश्री के दर्शन दीक्षा लेने के पश्चात् अनेकों बार हुए। जब भी हम गुरुदेव श्री के दर्शन के लिए पहुँचे, सदा ही हमने गुरुदेवश्री के चेहरे पर अपार प्रसन्नता देखी, आध्यात्मिक साधना की मस्ती देखी, कई बार तन से रुग्ण होने पर भी उनके मन में कहीं रुग्णता नहीं थी, इसे कहते हैं सच्चे साधक का जीवन सच्चा साधक सदा आत्मभाव में रहता है, गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे पर रही और जीवन के अंतिम क्षणों में भी हमने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेवश्री संथारे में किस प्रकार जागरूक स्थिति में मृत्यु से भी अभय थे, जहाँ अन्य व्यक्ति मृत्यु से कांपता है, वहाँ गुरुदेवश्री के स्वर इस प्रकार प्रस्फुटित हो रहे थे।
अब हम अमर भये न मरेंगे.............
धन्य हैं ऐसे महागुरु को जिनका जीवन आदि से अंत तक ज्योतिर्मान रहा । तप-त्याग और संयम के सुमेरू को अनंत आस्था के साथ वंदन।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सरलता की साकार मूर्ति सद्गुरुदेव
-साध्वी श्री देवेन्द्र प्रभाजी म. (महासती चंदनबाला जी म. की सुशिष्या)
साधक के जीवन में सबसे पहली आवश्यकता है, सरलता। जो जीवन कापट्य से परिपूर्ण हो, छल और छद्म से युक्त हो, उस ऊसर भूमि पर साधना का कल्पवृक्ष पनप नहीं सकता। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का सम्पूर्ण जीवन सरलता से ओत-प्रोत था, जो उनके मन में था, वही उनकी वाणी में था और वही उनके आचरण में था, उनका जीवन एकरूप था, इसीलिए उनके जीवन के कण-कण में धर्म रमा हुआ था। गुरुदेवश्री शासन प्रभावक संत रत्न थे, श्रमणसंघ के एक ज्योतिर्धर महापुरुष थे पर उनके चरणों में हमारे जैसी छोटी साध्वियों भी पहुँच जाती तो गुरुदेवश्री हमारे साथ भी वार्तालाप करने में संकोच नहीं करते, वे हमारे को मधुर शब्दों में हित शिक्षाएँ प्रदान करते थे और हमें ज्ञान-ध्यान की प्रेरणा प्रदान करते।
गुरुदेवश्री फरमाया करते थे कि देवेन्द्र! तेरी जन्मभूमि जालोर में ही मेरी दीक्षा हुई है, तेरी भी दीक्षा वहीं हुई और मेरी भी दीक्षा वहीं हुई है, इसलिए अप्रमत्त होकर सारे प्रपंच छोड़कर ज्ञान-ध्यान करो, जब भी मैं गुरु चरणों में पहुँची, तब उन्होंने ज्ञान-ध्यान की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। धन्य है, मेरे परम आराध्य गुरुदेव को, जिनका जीवन सद्गुणों से मंडित था, उनके श्रीचरणों में मैं अपनी भावभीनी श्रद्धार्चना समर्पित कर यही मंगल कामना करती हूँ कि आपके तेजस्वी जीवन से हम सदा प्रेरणा प्राप्त कर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ती रहें।
मेरे आराध्य गुरुदेव
-साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा जी म.
भारतीय संस्कृति में माता-पिता और गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। माता-पिता जन्म देते हैं किन्तु गुरु जीवन को सुसंस्कृत और परिष्कृत करते हैं। वे कलाकार हैं जो अनघड़ पत्थर को सुन्दरतम् आकृति प्रदान करते हैं। इसलिए माता-पिता के पश्चात् गुरु को स्थान दिया गया है।
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गुरु शब्द हमारी पावन संस्कृति में अत्यन्त वर्चस्व जमाये हुए है। आगम की भाषा में गुरु चक्षुप्रदाता चक्खुदयाल है मोह एवं अज्ञान के आवरण को दूर करके सम्यक् पथ दिखाने वाला गुरु ही है। संसार में जीवन जीने की कला सिखाने वाला गुरु ही है। गु का अर्थ अन्धकार और रु का अभिप्राय नष्ट करने वाला। अतः अज्ञान के अँधेरे को नष्ट करके ज्ञान का / विवेक का ज्योतिर्मय दीप
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प्रज्ज्वलित करने वाला गुरु है। गुरु की महत्ता का बखान करते हुए किसी विद्वान ने कहा है :
"अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥"
गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए प्रबुद्ध मनीषियों ने उसे ईश्वर से भी पहले नमस्य एवं पूज्य बताया है।
"गुरु" शब्द का उच्चारण करते ही विराट् व्यक्तित्व के धनी अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. की पावन स्मृति मस्तिष्क में छा जाती है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जितना कहा जाये, कम है। व्यक्ति जल की तरह ससीम होता है, किन्तु व्यक्तित्व जलनिधि की तरह असीम। उनका व्यक्तित्व फूलों का एक गुलदस्ता था, जिसमें अनेक रंग/गंध / रस एक सूत्र में बँधे थे। हुए
पूज्य गुरुदेवश्री का जीवन मिश्री की तरह मीठा और गुलाब की तरह सुरभियुक्त था। मिश्री को जिधर से चखो मीठी ही लगेगी। गुलाब के फूल को कहीं से उसकी किसी भी पत्ती को सुधा जाये एक-सी सुगन्ध प्राप्त होगी। पूज्य श्री के जीवन को कहीं से झाँककर देखो गुणों का पुंज ही दृष्टिगोचर होता है।
गुरुदेवश्री का जीवन सहज स्वाभाविक था । कृत्रिमता का लेश भी नहीं। जीवन में दोहरापन तो कभी नजर ही नहीं आया। न तो कथनी में अन्तर दिखाई दिया और न अन्दर बाहर भेद ही दृष्टिगोचर हुआ। दुराव, छिपाव का लवलेश भी नहीं था :
"जहा अन्तो तहा बहि जहा बहि तहा अन्तो।"
जैसे भीतर थे वैसे ही बाहर थे किसी कवि की पंक्तियों में हम यह कह सकते हैं
"जैन समाज के वे नूर थे, छल और कपट से सदा दूर थे। जीते जी संग्रह किया संयम धन का जब चले तो पूर्णता से भरपूर थे।"
पूज्य गुरुदेव संयम की अकम्पशिखा थे। सुमेरू के समान अडिग थे। जिस प्रकार आंधी और तूफान आने पर भी सुमेरू चलायमान नहीं होता, स्थिर रहता है, उसी प्रकार अनेक परिषह और उपसर्ग आने पर भी आप स्थिर रहते थे। संयम को रोम-रोम में आत्मसात् किए हुए थे अपने आपको पूर्णरूपेण संयम में रमाये हुए थे :
अगरबत्ती की तरह जलकर खुशबू देने वाले बहुत थोड़े होते हैं, मोमबत्ती की तरह गलकर प्रकाश देने वाले भी बहुत थोड़े होते हैं। धर्म और आगम की चर्चा करने वाले तो बहुत मिलेंगे....... किन्तु आचरण के सांचे में ढालने वाले बहुत ही थोड़े मिलेंगे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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मैंने बहुत सन्निकटता से उन्हें देखा है। उनमें किंचित् भी प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके अतिरिक्त वेद, उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति अहंकार न था। वे क्षमा की साक्षात् प्रतिमा थे। करुणा के सागर थे। आदि के अगणित श्लोक उन्हें कण्ठस्थ थे। अप्रमत्त रहकर निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, जप-तप में संलग्न
श्रद्धेय सद्गुरुदेव एक सफल साहित्यकार थे। आपका साहित्य रहते थे। सन्त-गुरु-आचार्य दीपक के समान होते हैं, जो स्वयं भी
मानवतावादी विचारों से ओत-प्रोत है। आपने सर्वप्रथम गीत/ प्रकाशमान होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
कविता/काव्य लिखे। आपके गीत धार्मिक/आध्यात्मिक भावों से कहा भी है
परिपूर्ण हैं। आपश्री ने समय-समय पर सैंकड़ों भजनों और चरित्र "जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो।
काव्यों (चौपाइयों) की रचना की। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति॥'
आप गंभीर विचारक थे। श्रावक धर्म दर्शन, जैन धर्म में दान, गुरुदेवश्री को स्वाध्याय में बहुत रुचि थी। वे स्वाध्याय प्रेमी थे। ब्रह्मचर्य विज्ञान, धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में आदि ज्ञान-ध्यान-स्वाध्याय में सतत् रत रहते थे। आपश्री के शब्द हैं कि उच्च कोटि का प्रवचन साहित्य है जिसमें आपका गंभीर चिन्तन "स्वाध्याय गंगा के निर्मल नीर की तरह है, वह पवित्रता व शान्ति । मुखरित हुआ है, वहीं दूसरी ओर सरल/सरस/सुबोध भाषाशैली में प्रदान करता है। जो स्वाध्याय में रमण करता है, वह निज भाव में । जैन कथाएँ लिखकर कथा साहित्य सृजित किया है। रमण करता है। समुद्र के किनारे रत्नों की उपलब्धि नहीं होती, वे ओजस्वी वक्ता थे। उनकी वाणी में भक्ति और शक्ति की रत्न तो समद्र की अतल गहराई में जाने से ही उपलब्ध होते हैं, ज थी। भारतीय संस्कति शक्ति और साकि के मिल वैसे ही स्वाध्याय की गहराई में जाने पर ही चिन्तन के अभिनव है। भक्तिविहीन शक्ति वीभत्स होती है तो शक्तिविहीन भक्ति दयनीय। रत्न मिलते हैं। स्वाध्याय से मनीषा की स्फुरणा होती है। नये-नये उन्मेष और विकास के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। कषायों
वे एक ओर उच्च कोटि के विद्वान थे तो दूसरी ओर पहुँचे में मंदता और चित्त में निर्मलता आती है। जिससे कर्मों की महान्
हुए साधक भी। ज्ञान की गरिमा और साधना की महिमा का सुन्दर
सुमेल था उनके उदात्त व्यक्तित्व में। निर्जरा होती है। इसलिए भगवान महावीर ने साधकों को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा-उढिए नो पमायए! ए साधको, उठो, प्रमाद ना स्वभाव में सहजता/सरलता, व्यवहार में मृदुता/नम्रता, वाणी में का परिहार कर स्वाध्याय में लीन हो जाओ।"
मधुरता/सत्यता, मुख पर सौम्यता/तेजस्विता और हृदय में गुरुदेवश्री के ये शब्द उनके जीवन में आत्मसात् थे। वे अप्रमत्त
निर्मलता/पवित्रता का सहज संगम लिए हुए था पूज्य गुरुदेवश्री का
जीवन। रहकर सतत् स्वाध्याय में संलग्न रहते और चिन्तन के नये-नये आयामों को उद्घाटित करते।
एक ही व्यक्ति कवि, लेखक, वक्ता, नायक, जपी, तपी, ध्यानी,
योगी हो यह आश्चर्यजनक है, परन्तु श्रद्धेय सद्गुरुदेवश्री के जीवन सन् १९८३ में मुझे परम विदुषी पूज्या गुरुवर्या श्री कुसुमवती
में ये सभी गुण विद्यमान थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका जी म., परम विदुषी महासती श्री पुष्पवती जी म. आदि के साथ पूज्य गुरुदेवश्री के सान्निध्य में मदनगंज- किशनगढ़ क्षेत्र में
व्यक्तित्व असाधारण था। वे इस अवनितल की दिव्य विभूति थे।
उन जैसे किसी राष्ट्र या समाज में कई युगों के बाद हुआ करते हैं, वर्षावास करने का अवसर प्राप्त हुआ। उस वर्षावास के दौरान हम
जो अपने ऊर्जवल व्यक्तित्व से जन-जन का मार्गदर्शन करते हैं, साध्वीसंघ ने आपके सान्निध्य में भगवती सूत्र का वाचन किया।
जन-चेतना जागृत करते हैं। आपश्री के अपरिमित/अगाध ज्ञान के बारे में क्या कहूँ, आप ज्ञान के महासूर्य, अनंत आकाश हैं, जिसे माप लेना हमारी शक्ति के उपाध्याय गुरुदेवश्री अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण कर चले गये। बाहर है।
उनका महान व्यक्तित्व अनन्त में विलीन हो गया है। गुरुदेवश्री के
परिनिर्वाण से हम सब रिक्तता का अनुभव कर रहे हैं :आपका तलस्पर्शी अध्ययन था। किसी भी विषय को छूते तो उसके तलछट तक पहुँचते। व्याख्यायित करने की शैली इतनी "तेरे ही दम इस गुलशन में बहार थी शोभन थी कि नीरस विषय भी सरस/सरल हो जाता। पूर्णमनोयोग तेरे ही कदमों में रहकते हजार थी। से ज्ञान-दान करते। समुद्र से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर बरसने वाला तेरे जाने से कण-कण हताश हो गया बादल नहीं थे, उन्हें लेना तो था ही नहीं। केवल देना ही देना। लेने इस चमन का पत्ता-पत्ता उदास हो गया।" वाला योग्य हो, उसका पात्र सीधा हो।
उनका यशोमय जीवन हमारे लिए प्रेरणा स्तम्भ बने। हम उनके पू. गुरुदेवश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी दिखाए मार्ग पर अविराम बढ़ते रहें। उस त्याग-विभूति विराट आदि अनेक भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किए हुए थे। वे संस्कृत व्यक्तित्व को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित है। (गीर्वाण वाणी) में धाराप्रवाह बोलते। जैन आगम/धर्म/दर्शन के
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सिद्ध जपयोगी उपाध्याय पूज्य गुरुदेव )
पुष्कर मुनिजी म. सच्चे संत रल थे। वे समाज में पनप रही
बुराइयों को किस प्रकार सहन कर सकते थे। अतः उन्होंने अपने -महासती कौशल्या कुमारी (सज्जन शिष्या) प्रवचना क माध्यम से मानव समाज का प्रबल प्रेरण
प्रवचनों के माध्यम से मानव समाज को प्रबल प्रेरणा प्रदान की कि
वे बुराइयों से मुक्त बनें, बुराइयाँ प्रारम्भ में वामन की तरह लघु मानव एक सामाजिक प्राणी है, समाज का आलम्बन और रूप में दिखाई देती हैं पर एक दिन जब विराट रूप ग्रहण करती हैं सहयोग से वह सुखपूर्वक जीता है, आध्यात्मिक, नैतिक, तो फिर उन बुराइयों से मुक्त होना बहुत ही कठिन है, इसलिए 90193 पारिवारिक और सामाजिक-सांस्कृतिक अभ्युदय करता है। बिना प्रारम्भ में ही जीवन में प्रविष्ट न हों। अतः सतत् जागरूकता Sam एक दूसरे के सहयोग के जीवन यात्रा आनन्द और उल्लास के । अपेक्षित है। यही कारण है कि उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री के पावन क्षणों में सम्पन्न नहीं हो सकती, मानव को कदम-कदम पर समाज प्रवचनों से उत्प्रेरित होकर हजारों व्यक्तियों ने बुराइयाँ छोड़ी और का सहारा लेना पड़ता है फिर भले ही वह एकान्त शांत स्थान पर सदा-सदा के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होकर उन्होंने अनुभव किया कि जाकर रह जाए तो भी समाज से उसका संबंध पूर्ण विच्छिन्न नहीं । व्यसन से मुक्त होने पर जीवन का जो आनन्द है, वह बहुत ही हो सकता, स्थानांग सूत्र में भगवान महावीर ने कहा, साधक को अनूठा और निराला होता है। षट्कायिक जीव, गण, शासक, गृहपति और शरीर इन पाँचों का
उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री स्वयंसिद्ध जपयोगी थे और जो भी सहयोग साधना के अभ्युदय के लिए अपेक्षित है।
उनके निकट संपर्क में आता, वे उसे जप जपने के लिए प्रेरणा मानवों का समूह ही समाज कहलाता है, जब मानव अवश्य प्रदान करते, हजारों युवकों ने उनकी प्रेरणा से नमस्कार सुव्यवस्थित रूप से संगठित बनता है, तब समाज कहलाता है। महामंत्र का जाप प्रारम्भ किया। नमस्कार महामंत्र पर गुरुदेवश्री की पशुओं का समूह समज है। समज में चिन्तन का अभाव होता है
अपार आस्था थी, उनका यह मंतव्य था कि अन्य जितने भी मंत्र हैं जबकि मानव में चिन्तन की प्रमुखता होती है, जीवन को विशुद्ध
वे मंत्र सविधि जप न करने पर हानि भी कर सकते हैं पर 909 बनाने के लिए मानव प्रतिपल प्रतिक्षण चिन्तन करता है। महापुरुष
नमस्कार महामंत्र ऐसा महामंत्र है जो माँ के दूध की तरह है जो वह है जो समय-समय पर किन्हीं कारणों से वातावरण में विकृति
किसी भी साधक को हानि नहीं करता, उसे लाभ ही लाभ होता है आती है, दुर्व्यसनों के दूषण समुत्पन्न हो जाते हैं, अनेक रूढ़ियाँ
और हमने यह भी अनुभव किया कि गुरुदेवश्री के निर्देश के पनपने लगती हैं, तब महापुरुष समाज में फैली हुई बुराइयों को
अनुसार जप करने वाले की शारीरिक, मानसिक सभी प्रकार की नष्ट करते हैं और समाज का स्वच्छ वातावरण निर्मित करते हैं,
व्याधियाँ और उपाधियाँ नष्ट हो जाती हैं और उन्हें अपूर्ण समाधि समाज में सत्ता, संपत्ति और पद प्रतिष्ठा के कारण अहंकार के
प्राप्त होती है। काले नाग कई बार फन फैलाकर खड़े हो जाते हैं, जिससे समाज दूषित और भ्रमित हो जाता है। ऐसे समाज को पूर्ण विशुद्धता प्रदान
श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के गुणों का उत्कीर्तन किन शब्दों में किया करने का दायित्व महापुरुषों का होता है, वे समाज में फैले हुए।
1 जाए। वे आलोकस्तम्भ की तरह, जन-जन को सदा प्रेरणा प्रदान कलुषित वातावरण को देखते नहीं किन्तु उस वातावरण को विशुद्ध
करते रहे, उनका विमल जीवन सभी के लिए प्रेरणा स्रोत रहा,तता बनाने का प्रयास करते हैं।
भले ही वे आज भौतिक देह की दृष्टि से हमारे बीच नहीं हैं किन्तु
उनका गरिमामय पूर्ण यशस्वी जीवन हम सभी के लिए सदा सर्वदा महापुरुष समाज में ही पैदा होते हैं, समाज में ही रहते हैं और
आलोक प्रदान करता रहेगा। समाज में जो उद्दण्डता, उच्छृखलता, असात्विकता और कुसंस्कार जब अधिक मात्रा में पनपने लगते हैं तो वे अपने प्रतापपूर्ण प्रतिभा से उन्हें नष्ट करते हैं।
[तप और त्याग के साकार रूप : उपाध्यायश्री आज समाज में चारों ओर फूट, वैमनस्य, चोरी, दुर्व्यसन,
-महासती स्नेहप्रभा विकार, शिकार, जुआ, कुरूढ़ियाँ, पान पराग, जर्दा, तम्बाकू,
(महासती कौशल्या जी की सुशिष्या) शराब, माँस आदि अनेक दुर्गुण इतनी अधिक मात्रा में पनप रहे हैं यदि उन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जिस परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. अपने युग के दिन मानव और पशु में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाएगा। आज का एक महान् तत्वदर्शी महापुरुष थे, उनके विचार उदार और परम मानव दानव बनता जा रहा है, वह दुर्गणों के चंगुल में बुरी तरह। पवित्र थे। उनका आचार उत्कृष्ट था, उनकी वाणी मधुर और प्रिय फंस रहा है, जिससे समाज परेशान है, राष्ट्र हैरान है, परिवार में थी। उन्होंने स्वयं ज्ञान की साधना की और दूसरों को भी खुलकर 904 विषमता की ज्वालाएँ धधक रही हैं, उन ज्वालाओं को नष्ट करने ज्ञान का दान प्रदान किया, उन्होंने अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में DSS के लिए संतगण सदा प्रयत्नशील रहे हैं, परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री जितना कार्य किया, उसका वर्णन कर सकना सहज कार्य नहीं है,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उनकी दृष्टि बहुत ही विराट और व्यापक थी उनके लिए कोई और साधना का जीता जागता रूप था। वे ज्ञान, प्रतिभा और पराया नहीं था, वे सभी को समान दृष्टि से देखते थे, यह उनका । पौरुष के बल पर महान् बने थे उन जैसे तेजस्वी व्यक्ति तथा
सहज और स्वाभाविक सद्गुण था। धर्म-दर्शन-व्याकरण-न्याय और | एकनिष्ठ साधक किसी भी समाज या राष्ट्र में युगों के पश्चात् हुआ 500 आगम के आप प्रकाण्ड पंडित थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी करते हैं जो प्रसुप्त मानव समाज में और राष्ट्र में जन चेतना का 900 प्राचीन भाषाओं के आप सहज विद्वान थे। शास्त्र चर्चा में परम दक्ष शंखनाद फूंकते हैं और अपने जाज्वल्यमान प्रदीप्त और ओजपूर्ण 38थे। आपकी प्रवचन कला श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाली थी, व्यक्तित्व और गुरु गम्भीर पौरुषमय वाणी से जन-जन को 26 आपके सद्गुणों का वर्णन करना कहाँ तक संभव है तथापि संक्षेप झकझोरते हैं, सजग और सावधान करते हैं।
में यों कहा जा सकता हैDOD
श्रमण संस्कृति यम, नियम, संयम की संस्कृति है, अध्यात्म की 1 श्रद्धेय उपाध्यायश्री अपने युग के एक जाने माने संतरत्न थे। । संस्कृति है। तप, त्याग और विराग की संस्कृति है, जिस संस्कृति ने 28 जप, तप और ज्ञान साधना के साथ ही साथ जन-जन का कल्याण मानव मूल्य की प्रतिष्ठा की, जिसने इसी कसौटी पर मानव को
करना और उस जन मंगलकारी कार्य का उदात्त रूप से प्रसार कसा है, जो इस कसौटी पर खरा उतरा वही व्यक्ति महतोमहीयान कम करना आपके जीवन का एक लक्ष्य था। सद्भाव, सदाचार, स्नेह, माना गया है। यदि संत के जीवन में संयम, तप और त्याग का बल DD सहयोग, सहिष्णुता और शुद्धात्मवाद आदि ऐसे सद्गुण थे जिन नहीं है, वैराग्य का पयोधि उछालें नहीं मार रहा हो, कष्ट 35 सद्गुणों में वे जीए और दूसरों को जीने की प्रेरणा प्रदान करते । सहिष्णुता का अभाव है तो वह व्यक्ति युग नायक, युगद्रष्टा, युग SAD रहे। अंधविश्वास, अंधपरम्परा, रूढ़िवाद, जातिवाद, स्वार्थान्धता, ऋषि-महर्षि और सच्चा गुरु नहीं बन सकता। ऊँच-नीच की विषमतापूर्ण वार्ताओं से आप सदा दूर रहे। आपने
जैन संस्कृति ने उसी को धर्म गुरु के पद पर प्रतिष्ठित किया, सदा ही मिथ्यात्व का खण्डन किया और सद्भावों का प्रचार-प्रसार
जिनके जीवन में त्याग और वैराग्य था। उपाध्याय श्री पुष्कर किया। जन-जन को यह प्रेरणा दी कि वे सामाजिक कुरीतियों से
मुनिजी म. के जीवन में ज्ञान-दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी बचें। धार्मिक समन्वय नैतिकोत्थान के लिए और श्रमण संस्कृति के
प्रवाहित थी, इसीलिए वे सच्चे गुरु थे, उन्होंने तत्व ज्ञान को बांटा। प्रचार और प्रसार के लिए लगभग ६० हजार कि. मी. की पैदल
वे गुरु थे, उन्होंने जन-जन के मन में ज्ञान की ज्योति जगाई, वे यात्राएँ कीं। धार्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, विविध विषयों पर
गुरु थे उन्होंने अपने आपको तिराया और दूसरों को भी पार का जब आप प्रमाण पुरस्सर प्रवचन करते थे तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो
लगाया। जाते। आपके प्रवचनों में सहजता थी, सरलता थी, लोकभोग्य दृष्टान्तों की प्रधानता होती थी, गंभीर से गंभीर विषय को सरल
"जो सीखो, किसी को सिखाते चलो। 6 रूप में प्रस्तुत करने में आप कुशल थे। आपका यह अभिमत था ।
दिए से दिए को, जलाते चलो।" कि प्रवचन जो हम करते हैं, उसमें पांडित्य प्रदर्शन करना हमारा महापुरुष वह है जो अपने पीछे पावन प्रेरणा का प्रसाद छोड़ उद्देश्य नहीं होना चाहिए किन्तु जन-जन के अन्तर्मानस में । जाता है, उस महागुरु के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि - सद्भावनाएँ उबुद्ध करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। बुराइयों के । अर्पित करते हुए अन्तर् मानस से गद्गद होकर ये स्वर झंकृत हो चंगुल से बचाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
रहे हैं 20 देश की दुर्दशा को देखकर श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी की लेखनी "चुप है, लेकिन सदियों तक गूंजेगी सदाए साज तेरी। Y और वाणी उस दिशा में प्रवाहित हुई और उन्होंने अपना सम्पूर्ण दुनिया को अँधेरी रातों में ढाढस देगी आवाज तेरी॥"
जीवन "सत्यं शिवं सुन्दरम्” के लिए समर्पित कर दिया। आज
उनकी भौतिक देह हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका स्वर्णिम जीवन तब हमारे लिए सदा पथ प्रदर्शक रहेगा, उनके चरणों में भावभीनी
आध्यात्मिक पुरुष श्रद्धांजलि।
-महासती सुदर्शन प्रभा
(महासती कौशल्या जी की सुशिष्या) संयम के सुमेरू : उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि
भारतीय पावन पुण्य धरा पर अनेक विमल विभूतियाँ हुई हैं -साध्वी संयमप्रभा
जिन्होंने अपने ज्ञान, त्याग और तपोमय जीवन से भारत के नाम (महासती श्री कौशल्या जी की सुशिष्या)
को सदैव रोशन किया है। ऐसी ही चंद महान् विभूतियों की पंक्ति उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. विश्व की । में श्रद्धेय उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम उन विमल विभूतियों में से थे जिनका जीवन संयम, त्याग, तप सहज ही अंकित किया जा सकता है, उन्होंने अपने त्याग, तप,
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
ज्ञान और चारित्र के बल से जैन और जैनेतर समाज का अवर्णनीय उपकार किया।
यह निर्विवाद सत्य है कि वे आध्यात्मिक पुरुष थे। उनका आध्यात्मिक जीवन "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" था। आप चमत्कार प्रदर्शन में किंचित मात्र भी विश्वास नहीं करते थे किन्तु सहज रूप से चमत्कार होते थे। आपके ध्यान के मंगलपाठ को श्रवण कर हजारों व्यक्ति आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त हो गये। "हमने स्वयं ने अनुभव किया कि हजारों व्यक्ति रोते हुए आते और हँसते हुए विदा होते, चिरकाल की व्याधि भी कुछ ही क्षणों में नष्ट हो जाती। आपका यह स्पष्ट आघोष था कि नमस्कार महामंत्र में अपूर्व शक्ति है यदि कोई एकाग्रता के साथ और नियमित समय पर जाप करे तो उसके जीवन में सुख और शान्ति का सागर अठखेलियाँ करने लगेगा।
आप सफल प्रवचनकार थे, आपकी वाणी में जादू था। आप आगम के गुरु गंभीर विषयों को भी सरल और सुगम दृष्टि से प्रस्तुत करते थे। आपके प्रवचन श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर और हृदय पर गहरी छाप छोड़ते थे। उनकी वाणी में आध्यात्मिक गहराई और अनुभूतियों का अद्भुत संगम था।
आपश्री की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी कि आप स्वयं गहराई से आगम, दर्शन, धर्म संबंधी ग्रन्थों का अध्ययन करते थे। टीका चूर्णि भाष्यों के अध्ययन में आपकी गहरी रुचि थी। अध्ययन के साथ दूसरों को पढ़ाने की आप में असीम शक्ति थी, आप जब पढ़ाते थे तो मूल आगम के रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए अन्य आगमों के इस प्रकार उदाहरण और तर्क देते थे कि अध्ययन करने वाला आपकी प्रबल प्रतिभा से सहज प्रभावित हो जाता था। आगम के प्रति आपकी रुचि को देखकर सभी चकित थे, आगम के रहस्यों को बहुत ही सुगम रीति से प्रस्तुत करते थे। सटीक उदाहरणों से विषय को इस प्रकार प्रस्तुत करते कि जिज्ञासु गद्गद हो उठता, उसके हृदयतंत्री के तार झनझना उठते धन्य है गुरुदेव आपके ज्ञान को । धन्य है सद्गुरुदेव आपकी प्रतिभा को । वस्तुतः आप प्रज्ञापुरुष, अध्यात्म-योगी और सच्चे उपाध्याय के सद्गुणों से मण्डित थे। मेरी कोटि-कोटि वंदना ।
एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के धनी उपाध्यायश्री
--साध्वी श्री तरुणप्रभा जी म. “साहित्यरत्न"
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. राजस्थान के गौरव थे, हमारे पूज्य गुरुदेव स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी म. "मधुकर" के सहपाठी थे और पूर्ण सहयोगी थे। उपाध्यायश्री का व्यक्तित्व बहुत ही तेजस्वी/ओजस्वी और वर्चस्वी था। जब भी हमने उपाध्याय श्री के दर्शन किए. उनकी स्नेह से छलछलाती हुई वाणी
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को सुना, हमारा हृदय बासों उछलने लगा, उनकी वाणी में मिश्री सा माधुर्य था, वे बहुत ही मधुर शब्दों में प्रेरणा प्रदान करते थे, निरर्थक वार्तालाप करना उन्हें पसन्द नहीं था, जब भी चरणों में पहुँची उन्होंने हमें यही प्रेरणा प्रदान की कि आगमों का अध्ययन करो, आगमों के अध्ययन से साधना में जागरूकता आएगी और साथ ही स्तोक साहित्य का भी अध्ययन करो, स्तोक साहित्य हमारा, वह साहित्य है, जिसे हम आगम की पूँजी कह सकते हैं, आगमों के गुरु गम्भीर रहस्य स्तोक साहित्य के द्वारा सुगमरीति से समझ में आ जाते हैं।
सन् १९९३ का मार्च महीना हमारे संघ के लिए वरदान रूप रहा । २८ मार्च को हमारे संघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. का चद्दर समारोह का भव्य आयोजन उदयपुर में रखा गया था, हम भी उदयपुर पहुँचीं, २०० से अधिक साधु-साध्वी इस अवसर पर पहुँचे और लाखों सुश्रावक/ श्राविकाओं ने इस समारोह में भाग लेकर अपने जीवन को धन्य बनाया, हमने प्रथम बार इतना विराट् आयोजन देखा। आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म., उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के अंतेवासी हैं, चहर समारोह के पश्चात् किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि उपाध्यायश्री एकाएक रुग्ण हो जाएँगे और संथारा कर उनका स्वर्गवास हो जायगा । हमने देखा संथारे के समय उनके चेहरे पर गजब का तेज था। कौन कह सकता था कि यह विमल विभूति हमारे बीच नहीं रहेगी, देखते ही देखते ४२ घंटे के पश्चात् उनका संथारा सीज गया और वह महान् आत्मा हमारे से सदा-सदा के लिए बिछुड़ गई पर उन्होंने जो साधना की सौरभ विश्व में फैलाई, उससे आज भी जनमानस महक रहा है, ऐसे परम गुरु उपाध्यायश्री के चरणों में भाव-भीनी वंदना के साथ श्रद्धार्थना
धर्म के जीते-जागते रूप उपाध्यायश्री
-महासती सत्यप्रभा जी
परमादरणीय अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. श्रमण संस्कृति के एक आदर्श संत, तत्वद्रष्टा और प्रखर प्रवक्ता थे। राजस्थान का मेवाड़ प्रदेश त्याग, बलिदान, साहित्य, संगीत और कला का अनन्यतम केन्द्र रहा है। शक्ति और भक्ति का यहाँ पर अद्भुत समन्वय हुआ है। यहाँ की पावन पुण्य धरा पर अनेक संत, शूरवीर - देशभक्त और सती-साध्वियों ने जन्म लिया और अपने साधनामय तपोनिष्ठ उदात्त जीवन से यहाँ के कण-कण को गौरवान्वित किया। ऐसी गौरवमयी परम्परा के देदीप्यमान नक्षत्र रहे हैं, श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री ।
भौतिक चित्ताकर्षक प्रभुता प्रदर्शन से अलग-थलग रहकर शान्त / प्रशान्त आध्यात्मिक साधक के रूप में स्वकल्याण के साथ
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परकल्याण में जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन लगाया, सेवा, सरलता और साधना के मूर्त रूप थे। चेतना का और प्रगतिशीलता का लक्षण है। नहीं रहता है, तब समाज की गति अवरुद्ध हो जाती है, उसका परम तेजस्वी रूप धूमिल हो जाता है। धर्म आपके जीवन में साकार रूप लिए हुए था। आपके जीवन का प्रत्येक व्यवहार धर्म से ओतप्रोत था। आपका यह स्पष्ट मंतव्य था, दीपक में जितना तेल होगा उतना ही प्रकाश होगा। जीवन में यदि धर्म रमा हुआ है तो उसकी वाणी का भी प्रभाव पड़ेगा। यही कारण था कि आपकी • विमलवाणी से प्रभावित होकर हजारों व्यक्तियों ने धर्म के पथ को अपनाया, जपसाधना को स्वीकार किया।
वस्तुतः आप त्याग, धर्म हमारी जागरूक धर्म जब प्रगतिशील
गुरुदेवश्री सफल वक्ता थे, वे जिस विषय पर बोलते थे, उस विषय के तलछट तक पहुँचते थे। सरल भाषा में आत्मा, परमात्मा, धर्म, पुनर्जन्म जैसे दार्शनिक विषयों पर इस प्रकार प्रवचन करते थे वह दार्शनिक विषय सहज हृदयंगम हो जाता था। अपने प्रवचनों में इस प्रकार के रूपक कथाएँ और चुटकले प्रस्तुत करते थे कि श्रोता आनन्द से झूमने लगते थे और हँसी के फव्वारे छूट पड़ते थे। साथ ही प्रवचन में आशु कविता के द्वारा जन-जन के हृदय को आन्दोलित कर देते थे। गुरुदेवश्री के प्रवचन में जहाँ विषय की गंभीरता रहती वहाँ भाषा की सरलता और सहजता रहती। वे अपने प्रवचनों में जहाँ गंभीर तत्व की मीमांसा करते वहाँ पर समाज में फैले हुए अंधविश्वासों और कुरीतियों पर तीखे व्यंग भी कसते । निर्व्यसन जीवन जीने की प्रेरणा देते।
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मैंने अनुभव किया गुरुदेवश्री सरलमना, आत्मानुशासी और सच्चे व अच्छे संयमनिष्ठ संत थे। आप नई दृष्टि प्रदान करते थे, आपका यह मंतव्य था कि युवापीढ़ी ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में अग्रसर हो । नये चिन्तन से परिचित हो यह श्रेष्ठ बात है, भारतीय संस्कृति की जो उदात्त विचारधारा है यदि हम उस जीवन्त विचारधारा से हट गए तो मानवता के लिए वह कलंक होगा। इसलिए आपने अपने साहित्य में भी भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्वों की स्थापना की आपने जो भी साहित्य सृजित किया, उसमें संप्रदाय नहीं, धर्म के सार्वभौमिक तथ्य उद्घाटित किए हैं।
गुरुदेवश्री के जीवन की यह अपूर्व विशेषता रही कि वे जहाँ जीवन भर निर्मल साधना करते रहे वहाँ जीवन के अंतिम क्षणों में भी उन्होंने सहर्ष स्वेच्छा से संथारा ग्रहण कर यह बता दिया कि जो साधक जीवन भर सफल साधना करता है, वह अंतिम क्षणों में भी साधना के समुत्कर्ष को पा सकता है। संथारा साधना का अंतिम लक्ष्य है, उस अंतिम लक्ष्य को गुरुदेवश्री ने सफलता के साथ वरण कर एक महान् रूप प्रस्तुत किया।
गुरुदेवश्री के चरणों में भाव-भीनी वंदना के साथ मैं अपनी श्रद्धा भरी श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यह मंगल मनीषा करता
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
हूँ, आपका जीवन हमारे लिए सदा-सर्वदा प्रेरणा स्रोत रहेगा और हम आपके जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर अपना आध्यात्मिक उत्कर्ष करते रहेंगे।
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जीवन-निर्माता सद्गुरुदेव
महासती प्रियदर्शना जी (साध्वीरत्न महासती श्री पुष्पवती जी म. की सुशिष्या)
भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक ऊर्जा को प्रदीप्त बनाये रखने में संत का विशेष योगदान रहा है। आज चारों ओर उपभोक्ता संस्कृति के नाम पर असंयम और विलासिता पनप रही है, ऐसी विकट बेला में उपयोग दृष्टि विकसित कर अपने जीवन को ६९ वर्ष तक निरतिचार संयम साधना के पथ पर अग्रसर करते हुए रहना अपने आप में एक अनूठी कला है, महत्वपूर्ण आदर्श है।
सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. अपने यशस्वी संयमी जीवन के दीप को प्रतिपल प्रतिक्षण जलाये रखकर न केवल स्वयं उसके मधुरिम प्रकाश से आनंदित और आलोकित होते रहे अपितु अज्ञान और अभाव में निमज्जित हजारों लाखों पथ भ्रमित व्यक्तियों को अपने निर्मल ज्ञान, दर्शन व चारित्र निष्ठ आलोक से पथ प्रदर्शन भी करते रहे।
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यह एक ज्वलन्त सत्य है कि श्रमण परम्परा में प्रव्रजित श्रमण जीवन सहज-सरल सुविधा का जीवन नहीं है, यह संयम यात्रा कंटकाकीर्ण पथ पर चलने के समान अत्यन्त कठिन है। इस यात्रा में स्वयं के सुख और सुविधा के लिए दूसरों को हटाना / गिराना
नहीं होता और न उनके अधिकारों से उनको वचित ही किया जाता है, संयमी साधक को दूसरों से नहीं अपने आप के विकारों से लड़ना होता है। वह इस युद्ध में बाह्य अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग नहीं करता किन्तु क्षमा, सरलता, समता, अनासक्ति, धैर्य, संतोष, सहनशीलता प्रभृति शस्त्रों से दुर्गुणों को प्राप्त करता है। यह साधना के महामार्ग पर बढ़ते हुए जो उपसर्ग और परीषह की चट्टानें आती हैं, उन्हें चीरता हुआ आगे बढ़ता है और आत्म-दर्शन के आनन्द को प्राप्त करता है।
श्रद्धेय सद्गुरुवर्य सदा-सर्वदा अप्रमत्त भाव से बरसाती नदी की तरह निरन्तर आगे बढ़ते रहे, उनका सम्पूर्ण जीवन विवेक और वात्सल्य का साक्षात् रूप था। १४ वर्ष की लघुवय में संसार के राग-रंग को त्याग कर निवृत्ति के पथ पर निरन्तर बढ़ते रहे। सद्गुरुवर्य महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. के कुशल नेतृत्व में विमल विवेक के आलोक में एक और आप आत्म-शोधन करते रहे तो दूसरी ओर सामाजिक समुत्थान हेतु जन-जागृति का शंख ही फूँकते रहे। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु,
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा व दिल्ली आदि प्रान्तों में पैदल परिभ्रमण कर हजारों लोगों को मद्य, माँस आदि मादक पदार्थों के सेवन का त्याग कराकर सात्विक जीवन जीने की सदा प्रेरणा प्रदान करते रहे। जनमानस में फैली हुई अंध श्रद्धा को दूर करने के लिए आपने प्रबल प्रयास किया।
आपने स्वयं आगम, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का तलस्पर्शी अनुशीलन किया और अपने शिष्य शिष्याओं को भी उस पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। यही कारण है कि आपके सुशिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने साहित्य के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। दूसरे शिष्य श्री गणेशमुनि जी ने भी साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा आपके शिष्य रमेश मुनि जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में निबंध लिखे, आपके पौत्र शिष्य डॉ. राजेन्द्र मुनि जी ने आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी के साहित्य पर शोध प्रबंध लिखकर आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच. डी की उपाधि प्राप्त की। तथा आपकी सुशिष्या महासती कुसुमवती जी, महासती पुष्पवती जी महासती चारित्रप्रभा जी महासती दिव्यप्रभाजी, दर्शनप्रभा जी, चन्दनवाला जी, कौशल्या जी आदि अनेकों संत-सतियों ने उच्चतम शिक्षाएँ प्राप्त की हैं और साहित्यरत्न, जैन सिद्धांताचार्य, न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, एम. ए. और पी-एच. डी. की उपाधियों से समलंकृत हुईं हैं। अनेकों साध्वियाँ प्रवचन कला में निष्णात हैं, आपश्री शताधिक व्यक्तियों के जीवन-निर्माता रहे हैं।
आपश्री का संपूर्ण जीवन पूर्ण यशस्वी रहा। निर्धूम ज्योति की तरह सदा आप प्रज्ज्वलित रहे और जीवन की सांध्य बेला में ४२ घण्टे का चौवीहार संथारा कर आपका संसार से महाप्रयाण हुआ। आपका पुण्य प्रबल था जिसके फलस्वरूप अंतिम समय में आपकी सेवा में २00 से अधिक साधु-साध्वी समुपस्थित थे तथा लाखों व्यक्तियों ने अंतिम समय में आपके दर्शन कर अपने जीवन को धन्य किया। आपका पूर्ण यशस्वी जीवन सभी के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है, आप हमारे जीवन के निर्माता थे, हमारी अश्रुपूरित अनन्त आस्था आपश्री के श्रीचरणों में समर्पित है, आप जहाँ भी हों हमें मंगलमय आशीर्वाद प्रदान करें, जिससे हमारी संयम-साधना निर्विघ्न रूप से उत्तरोत्तर बढ़ती रहे।
इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व के धनी : सद्गुरुदेव
-साध्वी किरणप्रभा जी (महासती पुष्पवती जी की सुशिष्या)
जय अनंत आकाश में इन्द्रधनुष की मनमोहक छटा छितराती है तो दर्शक का मन-मयूर नाच उठता है। उस चित्ताकर्षक दृश्य को देखते-देखते नेत्र अघाते नहीं, मन भरता नहीं और हृदय आनन्द से झूमने लगता है। पुनः पुनः उस दृश्य को देखने के लिए आँखें
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ललकती हैं। कभी इन्द्रधनुष के चार रंग दिखलाई देते हैं तो कभी पाँच और कभी सात । नेत्र यह निश्चय नहीं कर पाते किसमें कितने रंग हैं। उन रंग-बिरंगों को वह देखते ही रह जाते हैं।
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर पुनि जी म. का व्यक्तित्व भी इन्द्रधनुष की तरह ही चित्ताकर्षक था जब-जब उनकी दिव्य और भव्य देह के दर्शन किए तब ऐसा अनुभव होता था कि आपका विकल्प विविध रंगों से रंगा हुआ है, केवल अनुभूति होती थी कि आप सरलता की साकार प्रतिमा हैं। विनम्रता के पावन प्रतीक हैं, आपके अन्तर्मानस में ज्ञान का अगाध सागर ठाठें मार रहा है। नाना प्रकार की ज्ञान की तरंगें तरंगायित हैं। विविध भाषाओं पर अधिकार, धर्म, दर्शन और आगम आदि के गम्भीर रहस्यों का सूक्ष्म विवेचन श्रवण कर लगता कि आप कितने महान् हैं।
आपकी वाणी में ओज था, तेज था, और साथ ही माधुर्य छलकता था। जब भी बोलते थे, गंभीर चिन्तन के बाद ही शब्द निकलते थे। निरर्थक बोलना आपको पसन्द नहीं था। आगम की भाषा में आप हितकारी, हिताक्षर और सुन्दर बोलते थे, आपकी वाणी को वकील भी कील नहीं सकते थे। आप सच्चे वाग्मी थे, वागीश्वर थे। शब्दों में सार, भाषा में सार और माधुर्य इस प्रकार छलकता था मानों अंगूरों का गुच्छा ही हो।
वे अनुशासनप्रिय थे, वर्षों तक वे गुरु के अनुशासन में रहे, संघशास्ता आचार्य के अनुशासन में रहे, वह अनुशासन वाणी विलास का नहीं अपितु जीवन के व्यवहार का था। यही कारण है कि अस्सी वर्ष की उम्र में स्व. आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. के आदेश को शिरोधार्य कर बाड़मेर जिले से विहार कर पूना सम्मेलन में पधारे।
तीन महीने के स्वल्प काल में लगभग १५०० कि. मी. की लम्बी यात्रा की यह है अनुशासनप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण सेनापति के आदेश को शिरोधार्य कर जिस प्रकार सैनिक रणक्षेत्र में जूझता है, वैसे ही साधक आचार्य के आदेश को शिरोधार्य कर ननुनच किए बिना ही कार्य करता है। वही सच्चा अनुशासन प्रेमी है जो दूसरों के अनुशासन में रह सकता है, वही सच्चा अनुशास्ता
बन सकता है।
विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक और विवेक के साथ वाग्मिता और व्यवहारपटुता ऐसे सद्गुण हैं, जिनसे जीवन निखरता है, श्रद्धेय गुरुदेवश्री के जीवन में विविध गुणों का मणिकांचन संयोग हुआ था उनमें विलक्षण प्रतिभा थी। वाल्यकाल से ही वे अध्ययनशील थे, उन्होंने व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि का गहराई से अनुशीलन किया जो भी महामनीषी उन्हें मिलते उनके सामने जिज्ञासाएँ प्रस्तुत करने में कतराते नहीं थे। उनमें सहज स्फुरणा थी, सहज जिज्ञासा थी और उसी जिज्ञासा के कारण उन्होंने अपना विकास किया था और वे अनेक ग्रन्थों के पारायण
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । करने में सक्षम बने। जहाँ वे भाषा और दर्शन शास्त्री थे वहाँ वे उनका जीवन मण्डित था। उनमें प्रतिभा की विलक्षणता थी, वे आगम के गंभीर ज्ञाता भी थे। आगम के गुरु-गंभीर रहस्यों को इस | आशु प्रज्ञ और दीर्घ प्रज्ञ थे। किसी भी विषय के तलछट तक प्रकार समुद्घाटित करते थे कि जिज्ञासु आश्चर्यचकित रह जाता। पहुँचना उनका स्वभाव था। बचपन से ही उनमें प्रतिभा की स्फुरणा था। इस प्रकार की अनूठी, अद्भुत और विलक्षण प्रतिभा के धनी थी और साथ ही जिज्ञासु थे। सत्योन्मुखी जिज्ञासा ने ही उनके थे, हमारे श्रद्धेय सद्गुरुवर्य। आगम की भाषा में कहा जाए तो वे जीवन को प्रगति के पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया था। “विज्जा, विनय संपन्ने" के साथ “आसु पन्ने और दीह पन्ने" थे। उन्होंने आगम साहित्य का गहराई से मंथन, न्याय दर्शन, व्याकरण सद्गुरुजी के गुणों का जितना भी उत्कीर्तन किया जाए, उतना
आदि का तलस्पर्शी अनुशीलन और परिशीलन किया। वे जहाँ
विद्यासंपन्न थे, वहाँ चारित्रसंपन्न भी थे। ही कम है, उनके गुणों को शब्दों में बाँधना बहुत ही कठिन है। श्रद्धा और भक्ति से विभोर होकर मैं अपनी भावार्चना उनके आगम साहित्य में एक सूक्ति है, "सच्चस्स आणाए उवट्ठिए श्रीचरणों में समर्पित करती हुई अपने आपके भाग्य की सराहना मेहावी मारं तरइ" सत्य की आराधना में उपस्थित मेधावी मृत्यु पर करती हूँ कि उस महागुरु के चरणों में मुझे बैठने का सौभाग्य । विजय वैजयन्ती फहराता है। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के जीवन में मिला, उनकी अपार कृपा दृष्टि मेरे पर रही।
प्रस्तुत सूक्ति ने साकार रूप ग्रहण किया था। उनकी सत्य के प्रति
अपार निष्ठा सत्य ही उनका जीवन व्रत था। वे किसी भी मूल्य पर । विद्या और विनय से संपन्न : उपाध्यायश्री सत्य की अवहेलना नहीं करते थे। वे आगम की भाषा में "सव्वभूय
हियदंसी" थे अर्थात् सर्वभूत हितदर्शी थे। प्रत्येक प्राणी का हित -साध्वी रत्नज्योति जी करना उनका स्वभाव था। (महासती पुष्पवती जी म. की सुशिष्या)
उपाध्यायप्रवर जीवन भर ज्ञान की अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित श्रमण भगवान् महावीर की ज्योतिर्धर संत परम्परा में करते रहे, जो भी उनके चरणों में पहुँचता उन्हें वे ज्ञान प्रदान उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम स्वर्णाक्षरों में
करने में आनन्द की अनुभूति करते। यहाँ तक कि अस्वस्थ अवस्था अंकित है। भगवान् महावीर के पवित्र सिद्धान्त उनके जीवन के में भी यदि कोई संत कोई साध्वी और कोई जिज्ञासु आगम, धर्म कण-कण में, मन के अणु-अणु में मुखरित थे। वे साधुता के शृंगार और दर्शन संबंधी जिज्ञासाएँ लेकर पहुँचता तो वे अपने तन के थे। मानवता के दिव्य हार थे। ज्ञान की अखण्ड ज्योति उनके जीवन । रोग को भूलकर उनके तर्कों का सम्यक् समाधान करते। अकाट्य को आलोकित कर रही थी। वस्तुतः इस प्रकार के संत आलोक तर्कों से और आगम प्रमाण से सिद्ध करते कि सत्य क्या है? स्तम्भ की तरह होते हैं।
अन्धकार में परिभ्रमण करने वाले व्यक्ति उनके ज्ञान सागर में जब समर्पण उनका जीवन व्रत था। वे जन-जन के मन में मानवता
अवगाहन करता तो विस्मय से विमुग्ध हो जाता, उसके हृतंत्री के का संचार करते थे। आदान में नहीं, प्रदान में उनका विश्वास था।
तार झनझना उठते। धन्य है प्रभो आपके ज्ञान को, धन्य है प्रभो ग्रहण में नहीं, समर्पण में उनकी निष्ठा थी, सुख-शांति, प्रेम और
आपकी स्मृति को। ज्ञान होने पर भी उपाध्यायश्री जी में ज्ञान का सद्भावना के वे पावन प्रतिष्ठान थे। उनकी वाणी मिश्री से भी
अहंकार नहीं था, द्रव्य से ही नहीं, भाव से भी उपाध्यायश्री सच्चे अधिक मीठी थी, उसमें माधुर्य छलकता था। वे जो कुछ भी बोलते
उपाध्याय थे। उनका जीवन सद्गुणों से मंडित था, उनके चरणों में थे हितकर और सुन्दर बोलते थे। शब्दों में सार, भाषा में भाव
कोटि-कोटि वंदन। और माधुर्य इस प्रकार छलकता था जैसे अंगूर के गुच्छे हों। वे सच्चे वाग्मी थे।
सच्चे युग पुरुष उन्होंने लघुवय में महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. के पास
-महासती विलक्षण श्री जी आर्हती दीक्षा ग्रहण की और सद्गुरुदेव के कठोर अनुशासन में
(महासती पुष्पवती जी म. की सुशिष्या) रहकर अध्ययन और संस्कारों की श्रेष्ठ निधि प्राप्त की, इसलिए वे स्वयं अनुशासित जीवन जीते रहे और दूसरों को भी यही पावन
युग पुरुष वह है जो युग को नई दृष्टि देता है, नया चिन्तन प्रेरणा देते रहे कि अनुशासन में रहो। उनका जीवन अनुशासन का
देता है, नई वाणी प्रदान करता है, उसकी वाणी में युग मुखरित जीता-जागता रूप था।
होता है, उसके प्रत्येक क्रिया-कलाप में युग की चेतना झंकृत होती आगम साहित्य में संतों के लिए "विज्जा-विणय-संपन्ने" } है, वह युग को नई स्फूर्ति, नई जागृति और नई चेतना सब कुछ विशेषण आता है, विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक देता है, इसीलिए वह युग का प्रतिनिधित्व करता है। वह संसार को और विवेक के साथ वाग्मिता आदि ऐसे दिव्य और भव्य गुणों से कहता है कि जिस रास्ते पर तू चल रहा है, आँखें मूंदकर बढ़ रहा
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
है, वह रास्ता और वह मंजिल तेरी नहीं है, वह भूल-भुलैया है, यदि हम उपाध्यायश्री के विचारों का तलस्पर्शी अनुशीलन और जरा संभल, अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ा और भूल भरी राह परिशीलन करें तो सहज ही हम कह सकते हैं कि वे सच्चे को छोड़। यदि तू अपना तप, मन सर्वात्मना युग पुरुष के चरणों में युगपुरुष थे, युगदृष्टा थे, वे अंध परम्परा के कट्टर विरोधी थे। समर्पित कर देगा तो तेरा जीवन धन्य हो जाएगा।
जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव चेतना का संचार किया, ऐसे परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. युग पुरुष के चरणों में भावभीनी श्रद्धाचेना। अपने युग के एक जाने-माने हुए युग पुरुष थे और उन्होंने अपनी जानी-मानी भोली जनता को श्रद्धा का पाठ पढ़ाया, भक्ति की शीर्षस्थ सन्त रत्न : उपाध्यायश्री जी । भागीरथी में अवगाहन कराया और अर्पणा का दिव्य संदेश प्रदान किया। युग पुरुष जीवन में अंधाधुंध निरुद्देश्य या तर्कहीन आचरण
-महासती धर्मशीला जी म. के पक्ष में नहीं होता, उसकी एक प्रशस्त प्रांजल योजना होती है
(महासती सत्यप्रभाजी की सुशिष्या) और वस्तुपरक निर्मल समीक्षा का हिमायती होता है, वह कर्मनिष्ठ । अप्रमत्त दुर्धर कर्मयोगी होता है, वह चाहता है हर धर्म के क्षेत्र में
भारतवर्ष सन्तों का देश है, यहाँ पर संत परम्परा अर्वाचीन जो अन्धविश्वास पनप रहा है, राग-द्वेष के काले-कजराले बादल
1 नहीं है, इस परम्परा का आदिम रूप जानना हो तो हमें मंडरा रहे हैं और मानव सिर झुकाकर एक बंदी की तरह विवेक
प्रागैतिहासिक पृष्ठों को उठाना होगा, जहाँ पर से यह विमल को विस्मृत होकर सभी को स्वीकार करता हुआ चला जा रहा है,
स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई। गंगाजल की तरह संत परम्परा गति करती वह उन व्यक्तियों को आगाह करता है कि तुम अपने जीवन
| हुई आगे बढ़ती रही है, उसने ठहरना नहीं सीखा, ठहरने में गन्दगी व्यवहार की समीक्षा करो, चिन्तन के आलोक में सोचो कि आपका
होती है और बहाव में निर्मलता रहती है। मानव को मानव के रूप जीवन कैसा है? अंधा-धुंध आँख मूंदकर किसी भी बात को
में प्रतिस्थापित करने वाले संत व्यक्ति को अज्ञान के अंधकार से स्वीकार न करो किन्तु सद्विवेक से अपने जीवन और आचरण की
निकाल कर ज्ञान के आलोक में लाते हैं, जिज्ञासा है, ज्ञान क्या है? सम्यक् समीक्षा करो और फिर उसे स्वीकार करो।
ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् अर्थात् जिससे जाना जाए वह ज्ञान है।
ऐसा कोई क्षण नहीं जिसमें ज्ञान विद्यमान न रहता हो, ज्ञान को युगपुरुष सदा ही स्वप्नदृष्टा होते हैं। वे सदा-सर्वदा एक विदग्ध
जानने वाला व्यक्ति ही ज्ञानी, पंडित है, इसी कारण आचारांग सूत्र ज्वलन्त सत्य को स्वीकार करता है, जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रखर
में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा, “खणं जाणाई पंडिए" अर्थात् स्वप्न दृष्टा होता है, वैसे ही युग पुरुष भी वह पार्थिव तथ्यों की
जो क्षण को जानता है, वही पंडित है, संत है। खोज में स्वप्न निहारता है, उन्हें आकृति प्रदान करता है तो दूसरा सामाजिक, दार्शनिक सत्यों को जन-जीवन में संस्थापित कर उसे
संत परम्परा के इतिहास का यदि हम गहराई से परिशीलन प्रकट करता है, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. एक मेधावी
करें तो यह स्पष्ट होगा कि संत परम्परा के इतिहास में जैन संतों महापुरुष थे, उनकी कथनी और करनी में एकता थी, उन्होंने दूसरों
का अलग-थलग स्थान है, उसकी दैनिक दिनचर्या दूसरे संतों से को प्रकाश देने का अहंकार कभी नहीं किया किन्तु उन्होंने स्वयं
सर्वथा पृथक् है, उसकी अपनी जीवन शैली है, जैन संत पादविहारी प्रकाशमय जीवन जीने का प्रयास किया, उनके जीवन में वैषम्य
होते हैं, वर्षा ऋतु में जीवों की उत्पत्ति अधिक हो जाने से चार नहीं था। भेदभाव की दीवारें नहीं थीं, उनका जीवन मैत्री के सूत्र
माह तक वह एक स्थान पर अवस्थित रहकर धर्म की साधना से बँधा हुआ था। वे एकता के मसीहा थे, उनका यह मंतव्य था कि
करता है, गुणों की उपासना करता है। काम, क्रोध, मद, मोह और मानव जाति एक है। अस्पृश्यता कृत्रिम, निर्मूल, निर्वश है इसलिये
लोभ आदि दुर्गुणों से अपने आपको बचाए रखता है। उन्होंने अपने प्रवचनों में मानव एकता पर बल दिया। उन्होंने स्पष्ट परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का उद्घोषणा की कि धर्म पर किसी व्यक्ति विशेष का आधिपत्य नहीं जैन परम्परा के संतों में एक विशिष्ट स्थान था। यदि यह कह दिया है, धर्म के विशाल प्रांगण में संकीर्णता और भिन्नता को अवकाश जाए कि उनका शीर्षस्थ स्थान था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नहीं है, धर्म के दरबार में सभी प्राणी समान हैं, जैसे सूर्य और वे सफल वक्ता, वाग्मी थे, उनकी कथनी और करनी में एकरूपता चन्द्र का आकाश और दिशा का बँटवारा नहीं हो सकता, उसी थी, उनकी वाणी में ओज, तेज और दूसरों के हृदय को प्रभावित तरह धर्म का भी बँटवारा नहीं हो सकता, उन पर सभी का करने की अद्भुत क्षमता थी। जैसा उनका नाम था वैसा ही उनका आधिपत्य है, धर्म आत्मा का स्वभाव है, किसी जाति, प्रान्त और गुण भी था, वे कैंची नहीं, सुई थे, जिनमें चुभन तो थी किन्तु दो देश का स्वभाव नहीं है। यदि धर्म में लोक मंगल की भव्य भावना दिलों को जोड़ने की अपूर्व योग्यता भी थी। संकीर्णता के घेरे में | नहीं है तो वह धर्म नहीं है, धर्म किसी खेत और बगीचे में पैदा आबद्ध समाज को उन्होंने विराट्ता का पाठ पढ़ाया, समाजोत्थान नहीं होता, वह तो हमारे अन्तर्मानस में पैदा होता है।
के लिए उन्होंने अपना जीवन खपाया, वे अपने लिए नहीं सदा
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दूसरों के लिए जीये, जो कार्य राजनीतिक दल करने में सर्वथा असफल रहे उस कार्य को आपने अपने उपदेश से कुछ क्षणों में करके दिखा दिया, थे सच्चे समाज सुधारक थे, अंत्योद्धारक और पतितोद्धारक थे।
श्रद्धेय गुरुदेवश्री मानव हृदय के सच्चे पारखी थे, करुणा और दया की निर्मल स्रोतस्विनी थे, उनका अन्तर्-हृदय सदा आप्लावित रहता था, यही कारण है कि हजारों अजैनों ने आपके संपर्क में आकर व्यसनों से मुक्त जीवन जीने के लिए प्रतिज्ञा से आबद्ध हुए जो व्यक्ति प्रतिदिन ६०-७० बीड़ी, सिगरेट पीते थे उन्होंने एक बार के उपदेश से प्रभावित होकर सदा-सदा के लिए बीड़ी-सिगरेटतम्बाकू-पान पराग आदि दुर्व्यसनों का त्याग कर दिया था। हजारों व्यक्तियों ने गुरुदेवश्री के संपर्क में आकर जप साधना प्रारम्भ की थी, हजारों व्यक्तियों के जीवन का कायाकल्प हो गया था। दुर्गुणों के स्थान पर उनके जीवन में सद्गुण मंडराने लगे थे, वस्तुतः उपाध्यायश्री पारस पुरुष थे जो भी उनके संपर्क में आया उसका काला कलूटा जीवन स्वर्ण की तरह चमकने लग गया।
आज भले ही सद्गुरुदेव की भौतिक देह हमारे बीच नहीं है, ज्यों-ज्यों उनके गुणों का स्मरण आता है। एक से एक परत उभरती चली जा रही है और मैं सोच रहा हूँ कि कितने महान् थे गुरुदेव, जिनका व्यक्तित्व महान् था और कृतित्व उनसे भी महानू था, जिसने आपके चिन्तन में डुबकी लगाई, वह सदा-सदा के लिए परिवर्तित हो गया। परिवर्तित ही नहीं, पवित्र भी हो गया, ऐसे गुरुदेव के चरणों में कोटि-कोटि वंदन, अभिनन्दन ।
कोहिनूर हीरे की तरह चमकता व्यक्तित्व -महासती चन्दनप्रभा जी म. (महासती सत्यप्रभा जी की सुशिष्या)
भारतीय संस्कृति के अतीत के पृष्ठों का अध्ययन करने से सूर्य के प्रकाश की तरह यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि जब-जब संस्कृति में विकृति आई धर्म के नाम पर अधर्म पनपा, सदाचार के नाम पर पापाचार की अभिवृद्धि हुई तब विश्व में कोई विशिष्ट व्यक्ति समुत्पन्न हुआ, जिसने विश्व को एक नई दृष्टि दी, एक नया चिन्तन दिया और जन-जन के मन में आध्यात्मिक शक्ति का संचार किया, उस व्यक्ति को लोग महापुरुष या युगपुरुष की अभिधा प्रदान करते रहे हैं। उस युग पुरुष की परम्परा में परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम अग्रगण्य रूप से लिया जा सकता है।
भारत के अध्यात्मवादी चिन्तकों का यह अभिमत रहा कि बसर ने दुनिया को खोजा तो कुछ नहीं पाया पर खुद को खोजा तो बहुत कुछ पाया। खुद को खोजने का अर्थ है, अपनी अन्तत्मा
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
में डुबकी लगाना। मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? और इस विराट् विश्व में मैं क्यों परिभ्रमण कर रहा हूँ? यदि इन प्रश्नों पर गहराई से व्यक्ति चिन्तन कर ले तो वह सब कुछ पा जाता है,
"पहचान ले अपने को तो इन्सान खुदा है। गो जाहिर में है खाक मगर खाक नहीं है ।"
देखने में तो बेशक इन्सान खाक का पुतला दृष्टिगोचर होता है। पर जब अन्दर की आँख से निहारते हैं तो उन्हें इस कंकर में भी शंकर छिपा नजर आता है।
हम अनुभव करते हैं कि सूर्य स्वयं प्रकाश पुंज है, इसीलिए वह दूसरों को प्रकाश प्रदान करता है, फूल के कण-कण में सुगन्ध का भण्डार भरा है, तभी वह दूसरों को सुरभि प्रदान करता है, इसी तरह महापुरुष प्रकाशशील भी होते हैं और सौरभ के खजाने भी होते हैं, ये दूसरों को ज्ञान का प्रकाश भी देते हैं और संयम की सौरभ भी बाँटते हैं। उन्होंने संयम की साधना की, अहिंसा की आराधना की इसीलिए वे संसार को शांति और समता का उपदेश देते थे, प्रेम का पाठ पढ़ा सके। उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री की वाणी में अद्भुत जादू था, ये चाहे महाराष्ट्र में पहुंचे, चाहे कर्नाटक में, चाहे तमिलनाडु में, चाहे आन्ध्र में, चाहे गुजरात में, चाहे राजस्थान में और चाहे उ. प्र. में उनकी तपःपूत वाणी को श्रवण कर जन-जन के मन में श्रद्धा का सरसब्ज बाग लहलहाने लगता था, भक्ति की भागीरथी प्रवाहित हो जाती थी, सेवा और समर्पण की सरस्वती का संगम हो जाता था, इसीलिए तो उनके चरणों में कोटि-कोटि वंदन है, अभिनन्दन है। हे युग पुरुष आपके जीवन का हर क्षण कोहिनूर हीरे की तरह चमकता, दमकता रहा। परोपकार के साक्षात् रूप आपके चरणों में हमारी भावभीनी वंदना ।
ध्यानयोगी
-साध्वी श्री कुशल कुंवर जी म. जैन सिद्धान्ताचार्या'
यह भारतवर्ष प्राचीन काल से ही मनीषियों का देश रहा है। ऋषभदेव, महावीर, बुद्ध आदि से लेकर आज तक अनेक ज्ञानी, ध्यानी, योगी, तपस्वी, ऋषि और महर्षियों ने जन्म लेकर इस धरा को पावन किया है। यह देश ऋषि प्रधान एवं कृषि प्रधान रहा है। सम्पूर्ण देश में ऋषि महर्षियों ने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिवेणी को प्रवाहित व प्रसारित किया है।
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भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में संत, ऋषि, महर्षियों एवं चिन्तकों का महान् योगदान रहा है। इस पायन भूमण्डल पर अनेक संतरत्न अवतरित हुए जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर सम्पूर्ण जीवन स्व तथा पर कल्याण में समर्पित कर दिया। इसी संत परम्परा में मेवाड़ रत्न उपाध्यायप्रवर पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी म. थे। जिन्होंने देश-देश, नगर-नगर में भ्रमण कर
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर अपनी अमृतमयी मधुर वाणी द्वारा जन-जन को उपदेश देकर आपने रत्नपुरी की पावनधरा पर चरण-कमल धर-कर मही व लाभान्वित किया। आपकी वाणी में मधुरता, हृदय में सरलता और जन-जन के मन को पुनीत कर दिया। उस अवधि में चार विरक्त नेत्रों में सरसता थी। आप शास्त्रों के ज्ञाता थे। उपाध्यायश्री जी की आत्माओं को (दीक्षार्थी भगिनियों को) चारित्र रत्न प्रदान किया। ध्यान के प्रति अटूट आस्था थी। सदैव आपकी ध्यान-साधना चलती
___आप मेघ बनकर आए व अतृप्तों को तृप्ति दी। ऐसी ज्ञानवृष्टि रहती थी । आपका संयमी जीवन महान् आदर्श एवं भूले-भटके
बरसाई कि कई श्रोताओं के हृदय सरसब्ज हो उठे, कइयों ने मानवों के लिए पथ प्रदर्शक रहा है। आप स्थानकवासी समाज के
अपनी हृदयसीप में अमृतवाणी की बूंदें लेकर आत्मसात करमा एक दीप स्तम्भ थे। आपके दर्शन का सौभाग्य मुझे चादर महोत्सव
मुक्तारूप में परिवर्तित किए, उन वाणी मुक्ताओं को मैंने भी अपनी के शुभ प्रसंग पर प्रथम बार ही प्राप्त हुआ। आपके अंतिम दर्शन
हृदय-मंजूषा में संजोकर रखा है। प्राप्त कर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी
उन महान् गुणों के स्मृतिपट पर आते ही विचारों की चंचल PAR व लोकप्रिय संत थे। आपने अपने प्रिय शिष्य रत्न को सुघढ़ कर
लहरें खामोश भी नहीं हो सकतीं व दिल कह उठता हैआचार्य के रूप में महान् मूल्यवान धरोहर श्रमणसंघ को समर्पित की। ऐसे युग पुरुष का अभिनन्दन करती हुई श्रद्धा सुमन अर्पित
सृष्टि के इतिहास में, जुड़ गए, जीवन के पृष्ठ अनुपम। करती हूँ।
सद्गुणों के विविध रंगों से, रंग गए जीवन चित्र अनुपम॥
हृदय प्यालियों में भरा था वाणी का सुधारस"मानव की पूजा कौन करे, मानवता पूजी जाती है।
तारिफे काबिल है सब कुछ, व्यक्तित्व कृतित्व भी था अभिरूपम्॥ साधक की पूजा कौन करे, साधकता पूजी जाती है।"
आप "भारंडपक्षी व चरेप्पमत्तो" वत् होकर ज्ञानाराधना में लीन बने रहते थे और जो हृदय-सागर में प्रतिपल ज्ञान व
सद्गुणमुक्ता निकलते थे उन्हें बटोरकर रखते व जब-जब भी हम । सद्गुणों का महकता मधुवन
आपके सान्निध्य में पहुँच जाते तो व्यर्थ चर्चाओं को छोड़कर त
प्रश्नमुक्ताओं को प्रदान करते थे। या यूँ कह दें तो हर्ज नहीं कि -साध्वी सुमनप्रभा 'सुधा'
आपने ज्ञान, संयम, साधनादि सद्गुणों से जीवन बगिया को आबाद (चाँद चरणोपसिका)
कर रखा था अतः उससे अलग हटने का मन ही नहीं करता था। महान् विभूतियों का आदर्श भी महान् और विराट होता है। वे
इसलिए कहूँगी आपकी विमलवाणी संघ हेतु प्रकाशस्तंभरूप में है तो श्रेष्ठ कर्मों को करके बूंद से महासागर में विलीन हो जाते हैं, जिन
आपका निर्मल चिंतन साहित्यरूप में संघ समाज हेतु जन-जन Sad महापुरुष ने 'तिण्णाणं तारियाणं' की नैया स्वरूप बनकर 'बहुजन
हितार्थ वरदान रूप भी है। हिताय बहुजन सुखाय' जीवन समर्पित किया वह थे उपाध्याय प्रवर मैंने देखा-उस अनुपम ज्ञान के स्वामी ने अलौकिक आलोक स्व. श्री पुष्कर मुनिजी म. सा.।
पुंज के रूप में युग को दिशा व दृष्टि प्रदान की। अतः आप में -
साधना की अतल गहराई, ज्ञान की उच्चतम ऊँचाई थी तो आपका जीवन कितना गौरव-गरिमावंत व महान रहा-ऐसे व्यक्तित्व व कृतित्व को शब्दों की परिधि में परिवेष्ठित करना सहज
सागरसम गांभीर्यता व सुमेरूसम अटलता व विराटता भी थी। नहीं है क्योंकि
आप ऐसे विशिष्ट योगी थे आपके साधनामय जीवन में जो भी 4 0
आया वह अभिभूत हुए बिना न रह सका, उनके जीवन के विभिन्न महकाया आपने विविध, सद्गुणों का मधुवन।
आयामों से हम उनके जीवन प्रसंगों को उद्घाटित करें तो संयम में 2 उन्हीं पर न्यौछावर है, अबोला हृदय का स्पंदन॥
महानता, विचारों की विशालता, स्वभाव में माधुर्यता व मिलनअसीम गुणों को, ससीम शब्दों में बांध नहीं पाऊँगी।
सारिता, व्यवहार में लघुता ही नजर आती थी। पर जो देखा वही लिखने, ललक रहा मेरा मन॥
और अंत में उनकी समता, सहिष्णुता तो अवर्णनीय ही हैमेरे अंतराकाश पर स्मृति पंछी उड़ान भर रहे हैं, उस छोर पर चादर समारोह के पश्चात् शारीरिक स्थिति गिरती जा रही थी, पहुँच रहा है यह मन पंछी जहाँ ३० जनवरी, १९८९ की मधुर । वेदना भी थी पर चेहरे पर तो समता की मुस्कान नजर आ रही प्रभात आपके शुभागमन में आनंद व धर्मप्रभावना की गुलाल उछाल थी, समाधिभावों में लीन बने रहे। और उन्हीं समत्व भावों में रही थी उस बेला ने हमें भी आकंठ आनंदमग्न कर दिया। उन्होंने नश्वर देह का परित्याग कर दिया। वह देह पुष्प मुरझाकर 9050 'समागतोऽहं तव दर्शनाय' उपाचार्य प्रवरजी (वर्तमानाचार्य), समाप्त हो गया पर उनकी यशःसुरभि से हमारा व समस्त DSS उपाध्यायप्रवर जी व अन्य संत महापुरुषों का पावन दर्शन पाकर जनमानस सौरभान्वित है, उन्हीं पुण्य पुरुष के श्री चरणों में हार्दिक मन समुल्लसित हो उठा।
सुमनांजलि समर्पित करती हूँ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । वे दिव्यात्मा......
हमसे प्रश्न पुछवाया कि बाल भारी है कि कर्म भारी। हमने प्रत्युत्तर
दिया कि बाल भारी। यह प्रसंग आपके आस्थाप्रदीप की भोर प्रेरित -महासती श्री प्रेमकुंवर जी करता है।
आपश्री के महाप्रयाण से सकल जैन समाज को अपूरणीय क्षति वे 'निग्गंथा उज्जुदंसिणो' के अनुरूप सरल एवं भद्र परिणामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे ज्ञान के भंडार थे, दर्शन श्रद्धा के सुमेरू
हुई है। वह अब पूर्ण होना असंभव है। इस दृष्टि पटल पर थे, चारित्र के चूड़ामणि थे, निर्मल कीर्ति के धनी श्रमण कल्प
अनेकानेक जीवात्मा अवतरित होती हैं और मरती हैं, लेकिन
दुनियां उसे याद करती है, उनके गुण गाती है, जिसको जीवन मर्यादा के संरक्षक थे।
जीना आता है। वे जीवन जी गये और सकल जैन समाज को ऐसे महान दिव्यात्मा गुरुदेव का वियोग हमारे लिए वज्र जीवन जीने की कला सिखा गये तो उनके गुणों की सौरभ भी प्रहारवत् असह्य है।
आज तक महक रही है।
इस आलोक युग दृष्टा, युग स्नातक को मैं सूक्ष्मान्तर से र अप्रतिम सूर्य का महाप्रयाण ) श्रद्धा-सुमन समर्पित करती हूँ।
हे परमात्मन्! आपने जो आदेश दिये हैं, उनका पालन हमेशा SODI
-महासतीश्री विजयप्रभा जी म.
अवश्य करता रहेगा जैन समाज। (राज. सिंहनी महासतीश्री प्रेमवतीजी म. की सुशिष्या)
आप जिनशासन रूपी आकाश पर धवल कीर्ति और निर्मल 04 "संयम खलु जीवनम्" संयम ही जीवन है। असंयम ही मृत्यु । नक्षत्र बनकर सदैव चमकते रहें।
है, जीवन के इस आदर्श सूत्र पर जो पावन चरण असी पथ पर आगे बढ़ते हैं, वे सदा वन्दनीय, अभ्यर्थनीय होते हैं।
महान् आत्मबली साधक य भौतिक जीवन की अभिव्यक्ति का चले जाना अस्तित्व बोध का समापन नहीं है। हमारे जैन सिद्धान्त की महानतम परम्परा में मृत्यु
-साध्वी डॉ. सुप्रभाकुमारी 'सुधा' को भी एक महोत्सव के रूप में स्वीकार किया गया है, तीर्थंकरों के
एम.ए., पी-एच. डी. पंच कल्याणकों में निर्वाण कल्याणक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया
(महासती उमराव कुंवरजी की सुशिष्या) गया है।
अध्यात्मयोगी, सन्त पुरुष, परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर ____ भौतिक मूर्तत्व का निर्माण और विलय प्रकृति की सतत्
मुनिजी म. सा. श्री के दर्शनों का अनेक बार लाभ मिला किन्तु मैंने प्रक्रिया है, उसे सर्वत्र गतिमान है, उदय और विलय प्रकृति का
अन्तिम दर्शन ३० मार्च, १९९३ को उदयपुर में किये। इससे पूर्व अकाट्य नियम पूज्य उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. का भी अंग
कई बार दर्शन किये लेकिन १८ मार्च, १९९३ की दोपहर में मुझे है। आपका जीवन एक व्यक्ति का नहीं, वह समग्र विश्व की
अपनी गुरु-बहनों के साथ सेवा में बैठने का शुभ अवसर मिला, । पवित्रता का जीवन है। जो आत्मा इस संसार में जन्म लेकर अपने
उस समय पूज्य उपाध्याय श्री जी ने फरमाया-देखो! मेरे शरीर में लिए नहीं, बल्कि समाज के, प्राणीमात्र के लिए कल्याणार्थ जीते हैं,
कितनी बीमारियाँ थीं, लेकिन मैं कभी परवाह नहीं करता हूँ। हार्ट FE उन्हें सकल संसार सदा-सदा के लिए याद किया करता है और
की बीमारी भी ठीक हो गई और अभी भी एक लाख जनता के उनके महाप्रयाण यात्रा होने से शोक संतप्त हुआ करता है।
बीच बिना लाउडस्पीकर के बोलने की क्षमता रखता हूँ। ऐसी एक इसी श्रेणी में परोपकार के लिए व प्राणीमात्र के कल्याणार्थ के नहीं अनेक बातें हुईं, जिन्हें सुनकर हम सकते हैं कि उपाध्याय श्री लिए अपना शरीर न्यौछावर करने वाले आस्था प्रतीक श्री। एक महान् आत्मबली साधक थे। पुष्करमुनि जी म. ने विश्व मानवता को सत्य, अहिंसा, विश्व मैत्री,
ऐसे त्यागी महापुरुषों के सम्बन्ध में कुछ लिख पाना बहुत ही प्रेम का पावन संदेश समाज को चिरस्मरणीय यादांजलि भरती
कठिन लगता है, क्योंकि उनकी संयम-साधना, ज्ञान-आराधना से 20. रहेगी।
परिपूर्ण जीवन की महानता को तथा त्याग-वैराग्य एवं आपका बहुआयामी गुणी व्यक्तित्व था, ज्ञान-ध्यान के प्रति आत्मानुभूतियों की गहराइयों को शब्दों में नाप पाना मुश्किल ही
गहरी रुचि थी। चादर महोत्सव पर पहले सोपान अहिंसापुरी में जब नहीं, अति मुश्किल है। कुल मिलाकर मुझे श्रद्धांजलि स्वरूप यही PP हम हमारी आराध्य सद्गुरुवर्याश्री के आदेशानुसार दर्शनार्थ | कहना है कि आपश्री का ज्योतिर्मय व्यक्तित्व युग-युग तक जन-जन
आपके पुनीत चरणों में पहुँचे तो आपने किन्हीं बहनों के द्वारा का पथ प्रदर्शित करता रहेगा।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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उपाध्यायश्री को मेरा नमन
यति धर्म अर्थात् श्रमण धर्म को आपने सच्चे रूप में जीया था।
क्षमा, निर्लोभता, कोमलता, सरलता, सत्यता आदि सद्गुणों से -साध्वी 'सुधा'
मण्डित विभूषित था आपका महान यशस्वी जीवन! (शासन-प्रभाविका पूज्या श्री यशकुँवरजी म. की शिष्या) श्री पुष्करमुनि जी म. का जीवन सद्गुणों से महकता हुआ
गुलदस्ता था। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी, कुशल वाग्मी एवं वाणी उदित हुआ था एक दिव्य दिवाकर, अम्बर में नहीं किन्तु
के जादूगर थे। श्रेष्ठ कथाकार थे। बहुमुखी प्रतिभा से आपने अवनितल पर। सिमटारा की पुण्यमयी नगरी में पवित्रतम, ब्राह्मण
सद्साहित्य का सृजन कर माँ सरस्वती के कोष की अभिवृद्धि की। कुलभूषण पिता श्री सूरजमल जी एवं मातु श्री बाली के प्रांगण में।
आप कुशल शिल्पी थे। शिष्यों के जीवन-निर्माता थे। शिष्यों के माँ बाली ने बाल सूर्य को जन्म दिया था, जिसकी सहन-रश्मियों
जीवन को तीक्ष्ण छैनी से तराश कर दिव्य भव्य रूप प्रदान किया। को पाकर विश्व का कण-कण आलोकित हो चुका था। विश्व की
इसी के फलस्वरूप आपश्री के शिष्यरत्न श्री देवेन्द्रमुनिजी म. को सघन तमिस्रा को चीर कर वह अंशुमाली नव-प्रभात की नव-प्रेरणा
श्रमणसंघ के महान आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। लेकर युग-युग से सुषुप्त चेतना को जागृत करने के लिए उदित हुआ था।
कोमलता जीवन का मधु है। और इस मधुरिमा के संदर्शन होते
हैं आपके यशस्वी जीवन में। जो भी इस पुण्यात्मा के चरणारविन्दों "कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
में आया, आपकी अनुपम मधुरिमा से मुग्ध बन गया। आनन्द के वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।"
सागर में गोते लगाने लगा। कुल को पवित्र करने, और जननी को कृतार्थ करने के लिए
मेरेपन की भावना भव-भ्रमण को बढ़ाती है। ममता के पाश में ही महापुरुष जन्म लेकर इस धराधाम को धन्य बनाते हैं। उपाध्याय श्री जी ने भी जन्म लेकर वसुन्धरा को भाग्यशालिनी बनाया।
आबद्ध आत्मा विभाव की अँधेरी गलियों में भटकती है। विभावदशा
विष है और स्वभावदशा अमृत है, विभाव अंधकार है तो स्वभाव शुभ संस्कारों के जल से सिंचित आपश्री की जीवन-बगिया । प्रकाश है। सद्गुण सुमनों से सुरभित हो उठी।
राग से विराग की ओर, भोग से योग की ओर, भुक्ति से सुमधुर उषाकाल समापन की ओर अग्रसर था, और तरुणाई मुक्ति की ओर, वासना से उपासना की ओर, विनाश से विकास ने अंगड़ाई नहीं ली थी उससे पूर्व ही परम प्रभावी महामहिम
की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना ही जीवन है। युगपुरुष श्री ताराचंद्र जी म. की ओजस्वी अमृतवाणी से मोहममता की जंजीर टूट गयी और अन्तर् में वैराग्य की निर्मल
रागभाव का पूर्ण अवसान ही वीतरागता है। यही वीतरागता 0 दीपशिखा प्रज्वलित हो गयी तथा मां बाली का यह बाल सूर्य
| है, यही जीवन की शुद्धात्म दशा है। अतः वीतरागता की ओर साधना पथ की ओर चरण बढ़ाने को कृतसंकल्पित हो गया।
बढ़कर मुक्ति रमणी का वरण करो। यह पावन संदेश दिया था 4000
प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा को। पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, ऐसा कहा जाता है, लेकिन आज तक का इतिहास यह बताता है कि एक
नवकार महामंत्र जो कि १४ पूर्व का सार है, कष्ट विमोचक पारस दूसरा पारस नहीं बना सकता है। किन्तु इस पृथ्वी पर
है, जो जीवन में पग-पग पर मंगल के फूल खिलाता है, पर आपमहापुरुष ही ऐसे होते हैं जो अपने ही समान समीपस्थ मानव को
श्री की अगाध श्रद्धा एवं भक्ति थी। पूर्ण आस्था के साथ आपने इस बना सकते हैं, जो भी महापुरुष के चरणों का अनुगामी यदि बनता
महामंत्र का काफी जप किया था। आप महान् जप योगी साधक थे। है तो।
अतः आपने साधकों को नवकार मंत्र के जप की प्रेरणा प्रदान की। आत्मा से परमात्मा बनने के लिए, दिव्यज्ञान के धारक श्रद्धेय
ममता के बंधन से विमुक्त बनकर आपने अपने जीवन में श्री ताराचन्द्र जी म. के पावन चरणों में १४ वर्ष की लघु उम्र में
| समता की साधना की थी। जीवन को उच्च भव्य बनाने के लिए आपश्री ने भागवती दीक्षा अंगीकार की। आपकी संयम-साधना का
समता-सरोवर में अवगाहन किया था। ऐसे महान संतरल, संयम शुभारम्भ हुआ श्रद्धेय गुरुदेव के श्रीचरणों में।
साधना के मेरूमणि, अनुत्तर ध्यानयोगी उपाध्यायप्रवर श्री
पुष्करमुनि जी म. का यशस्वी दिव्य जीवन सभी को प्रेरणा प्रदान ध्यान साधना-पथ के पथिक का प्रमुख अंग है। ध्यान-साधना
करता रहेगा। यही मंगल-मनीषा है। को परिपूर्णता की ओर ले जाने का सोपान है, सिद्धि का द्वार है, यह मानकर ही आपश्री ध्यानयोगी बने। अन्तरात्मा की झांकी को
नमन है, वंदन है, अभिनंदन है, उस युग पुरुष को! जन-जन निहारने, आत्म-सौन्दर्य को निखारने, स्व-पर के ज्ञाता बनने के के वंदनीय, अर्चनीय, चेतनाशील व्यक्तित्व के धनी, पुण्यात्मा लिए।
पुण्यपुरुष को!
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परमाराध्य उपाध्यायश्री
- उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री उमेशकुमारी जी एवं साध्वी परिवार
योगनिष्ठ, परमसाधक, आराध्य, श्रद्धेय मुनिराज श्री श्री १००८ श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. परम धाम स्वर्गधाम को प्राप्त हो गये, ऐसा जानकर हार्दिक कष्टानुभूति हुई। स्वास्थ्य बेशक अनुकूल न था पर ! इतनी शीघ्र चले जायेंगे, सोचा नहीं था। आपके सिरछत्र आपश्री को आचार्य के सिंहासन पर आरूढ़ कर तत्काल विदाई ले जायेंगे, कौन जानता था। आज तो उनका बहार देखने का समय था अपने सुशिष्य रत्न के ठाठ देखने की बेला थी पर! सब छोड़कर चल दिए मानो आगे कोई अनिवार्य कार्य करना हो खेद हुआ उनके जाने का अतीव दुःख हुआ उनके जाने का आपको साथ लेकर पंजाब पधारते, इस धरा को सींचते, सभी को दर्शन एवं वाणी से तृप्त करते मगर हमारा भी ऐसा सौभाग्य कहाँ ? आपको भी गहरा दुःख होना ही था। हमारा समस्त साध्वी वर्ग महती संवेदना प्रकट कर रहा है।
नमो उवज्झायाणं
-साध्वी श्री मनोरमा कुमारी "मुक्त" ( उप प्रवर्तिनी श्री मगन श्री जी म. की अन्तेवासी शिष्या)
उद्यन्त्वमूनि बहूनि महा महासि, चन्द्रोऽप्यले भुवन मण्डल मण्डनाय । सूर्यादृते न तदुदेति न चास्तमेति, येनोदितेन दिनमस्तमितेन रात्रिः ॥
आकाश में टिमटिमाता प्रकाश तो बहुत सारे करते हैं। चन्द्रमा भी लोकालंकरण के लिए पर्याप्त है। परन्तु वास्तविक उदय और अस्त तो सूर्य का होता है जिसके उदय से दिन व अस्त से रात्रि होती है। महापुरुषों का गमन-आगमन पूर्वोक्त अन्योक्ति द्वारा उपमित अभिहित होता है।
जन-जन की जिह्वा पर जिसका नाम है। मन की गहराइयों में जिनकी स्मृतियों का मधुरगान है, कण-कण में जिनका निवास है अवनि अम्बर जिसकी याद में उदास है, दिव्यता एवं भव्यता की साकार प्रतिमा जो अभी कुछ समय पूर्व हमारे मध्य में विराजित थे जिनके पावन दर्शन करने पर मेरा मन-मयूर नाच उठा था वे थे अध्यात्मयोगी राजस्थान केसरी उपाध्याय प्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. सा.। बात उस समय की है जब उपाध्याय श्री जी अपनी विद्वान शिष्यमण्डली सहित चाँदनी चौक चातुर्मास हेतु दिल्ली पधारे। हमें त्रीनगर आपश्री के पावन दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ। वह समय वह दृश्य वह क्षण मुझे कितने प्रभावित कर गए बता पाना असंभव है। फिर भी मैं प्रयास कर रही हूँ। प्रथम दर्शन की
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अनुभूति शब्दातीत है क्योंकि उस समय तीन महिमा मंडित परमेष्ठी देवों के दर्शन हो रहे थे। (१) उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी (२) श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री तथा अन्य साधुगण । सभी तिण्णाणं तारयाणं की उपमा से उपमित नजर आ रहे थे। आपश्री जी त्याग की सजीव मूर्ति थे। मुख पर सौम्यता, वाणी में मधुरता, स्वभाव में चन्द्रमा समान शीतलता, सागर वर गम्भीरता एवं दिव्य योगी थे। मुनियों के मध्य प्रवचन सभा में आपश्री की अलग-अलग ही छवि थी जैसे तारों में १६ कलाओं से चन्द्रमा सुशोभित होता है। प्रखर प्रतिभा के धनी उपाध्यायप्रवर का प्रवचन वैराग्यवर्द्धक होता था। जब आपश्री जी बोलते थे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो सरस्वती पुत्र ही धरती पर जनता के पाप धोने आया हो। प्रवचन करने की शैली बड़ी सरल, सहज, मधुर, आकर्षक एवं श्रोताओं के अन्तस्थल को स्पर्श करने वाली थी। आपश्री की जादू भरी वाणी में जम्बूजी का वैराग्य आज भी कर्ण कुहरों में गुंजायमान है।
खुश जमालों की याद आती है, बेमिशालों की याद आती है। जाने वाले लौट कर नहीं आते, जाने वालों की याद आती है। कर्मठ योगी धुन के पक्के या निर्मल जीवन व्यवहार। त्याग तपस्या की थी मूर्ति सादा जीवन उच्च विचार ।। पूर्ण निभाया गौरव पद का डरते रहते इन्द्र से दूर। किया प्राप्त यश निर्मल तुमने, आत्म-समाधि रख भरपूर ॥ यश जीवन अपयश ही मृत्यु सदा सुनाते नीतिकार । जीवन बना यशस्वी जाता, धन्य-धन्य जीवन शत बार ॥
आपश्री के जीवन में अनगणित गुण भरे हुए थे। आपके दर्शन करने चाहे सेठ साहूकार आया या गरीब, वही आत्मधन से सुसमृद्ध होकर गया। क्योंकि परिवार या व्यापार की चर्चा आपके पास नहीं थी। वहाँ तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की चर्चा होती। इसी से आप श्री जी उपाध्याय पद को सार्थक बना रहे थे। आपश्री गुमराहों के सच्चे पथ-प्रदर्शक थे, विषमता में समता का मधुर संगीत सुनाने वाले अमर गायक थे। सत्य अहिंसा की भव्य भावनाओं के मूर्तिरूप थे। आपका सम्पूर्ण जीवन आला-निराला था। कहते हैं गुरु के स्वभाव, संस्कार और सद्गुण शिष्य में प्रतिबिम्बित होते हैं। अतः अप्रमत्त साधक पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. जैसे योग्य, विनीत, आज्ञाकारी, निरंहकारी, कुशल शासक के दर्शन करने पर अनुमान लगा सकते हैं कि जिनके शिष्य इतने महान हों तो गुरु कैसे होंगे। उपाध्याय श्री जी ने आजीवन ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा संघ की सेवा की तथा परलोक तैयारी (संथारा) से पूर्व यह वागडोर अपने कुशल शिष्य को सौंप गए या यूँ कहें समाज को ऐसी देन देकर गए जिस उपकार से सदियों सदियों तक जैन समाज में उन्हें याद किया जाएगा। जैन जगत सदैव आपकी स्मृति को ताजा रखेगा
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इन्हीं चन्द श्रद्धा सुमनों द्वारा उपाध्याय प्रवर को शत्-शत् नमन वन्दन!
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
श्रमण संस्कृति के महान संत
- साध्वीश्री वसन्त कुंवरजी
जैन श्रमण संस्कृति की एक गौरवशाली परम्परा रही है। युगों-युगों से आत्म-कल्याणार्थ, धर्मप्रचारार्थ एवं मानवमात्र के हित हेतु संसार, स्वजन एवं भौतिक सुख-सम्पदा का परित्याग करके संयम पथ को अंगीकार करने वाले मनीषियों की एक लम्बी श्रृंखला जैन संस्कृति में विद्यमान है।
श्रमणसंघ के उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने अपने दीर्घ संयमी जीवन में तप, त्याग और वैराग्य की एक ज्योतिर्मय मूर्ति के रूप में जैन श्रमण संस्कृति को आलोकित करते हुए मुमुक्षु मानवों का पथ-प्रदर्शन किया। आपश्री ने श्रमणसंघ को आचार्य के रूप में एक विद्वान शिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. को इस श्रमण संस्कृति की बागडोर सौंपकर श्रमणसंघ पर महान उपकार किया है जिसे कोई भी व्यक्ति या श्रमण-श्रमणी विस्मृत नहीं कर सकते।
उपाध्याय श्री का स्वभाव सरल एवं हमेशा प्रसन्न मुख ही रहता था। आप श्रमणसंघ के महान् संतों में एक थे। आपका विचरण भारतवर्ष के अन्दर उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम तक रहा। आप श्रमण संस्कृति के महान संत थे। आपके दर्शन करने का सौभाग्य मुझे भी आपके इंदौर चातुर्मास के समय मिला। आप स्वभाव के बहुत ही मधुर एवं सरल थे। आपने श्रमण संघ को अपने संयम एवं साधनामय समय में संगठन एवं एकता के प्रयास में काफी योगदान दिया।
धर्म ध्येय के विराट् धनी श्री पुष्कर मुनि
:
-साध्वीश्री 'तेजकुंवर' जी. म. (परम विदुषी महासती स्व. श्री यशकुंवर जी म. सा. की सुशिष्या)
धर्म के व्याख्याकार इस संसार में बहुत होते हैं। परन्तु धर्म को धारण कर उसके ध्येयों को आत्म सात कर, युग-निर्माण का कार्य करता हुआ मानव जाति का पथ प्रदर्शक बन जाये, ऐसी विलक्षण प्रतिभाएँ यदा-कदा ही जन्म लेती हैं। श्री जैन श्रमण संघ के महान मुनि, धार्मिक शिक्षाओं को मूर्त रूप देने वाले इस बेजोड़ शिल्पी का श्री वर्धमान जैन श्रमण संघ में विशिष्ट स्थान है। पुष्कर मुनि पवित्रता का पर्याय है। श्री पुष्कर मुनिजी महाराज में धर्म की आराधना एवं धर्म की पावनता का बीजारोपण उनके धार्मिक एवं पावन ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ही हो गया था।
आपश्री एक दिन मुनि शिरोमणि श्री ताराचंद्र जी महाराज के सम्पर्क में आये एवं उनसे धर्म के रहस्यों पर उस बाल्यावस्था में ही विचार-विमर्श करने लगे। बालक की धार्मिक रुचि देखकर स्वयं
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महाराज साहब भी हतप्रभ रह गये। गुरुदेव से प्रभावित होकर बालक अम्बालाल ने अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए उनकी निश्रा पाने का निश्चय कर लिया। किसे पता था एक छोटा-सा ये ब्राह्मण बालक तीर्थराज पुष्कर की सी गहराई प्राप्त कर संसार के पापों को हरने वाले महान् साधु बन जायेंगे।
श्री पुष्कर मुनि ने अखण्ड तपस्या एवं अपनी योग शक्ति के बल पर संस्कृत, प्राकृत एवं कई भारतीय भाषाओं के ज्ञाता बन गये। जैन धर्म के विपुल ग्रन्थों का अध्ययन, चिन्तन एवं उनको आत्मसात करके एक नवदर्शन का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने अन्य धर्मों एवं सम्प्रदायों के ग्रन्थों का भी गहन अध्ययन किया। इस महान तपस्या एवं आराधना के लिए आचार्य श्री आनन्दऋषि जी ने उन्हें उपाध्याय की पदवी प्रदान कर श्री वर्धमान श्रमणसंघ को कृतकृत्य किया। उन्होंने विविध जैन ग्रन्थों की रचना कर जैन साहित्य में वृद्धि ही नहीं की बल्कि साधु समाज के लिए एक अनुकरणीय कार्य किया है।
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श्रमणसंघ में आपश्री जी एक महान हस्ती के रूप में थे। आपश्री जी की अनुपस्थिति श्रमण संघ के लिए क्षति पूर्ण है। ऐसी विभूतियाँ अथक परिश्रम से ही प्राप्त होती हैं। आपश्री जी को चिर शान्ति प्राप्त हो यही मेरी भावनाजलि अर्पित है।
महापुरुषों की विराट् गौरवगाथा
-साध्वी प्रीतिसुधा 'प्रिया'
( मरुधरासिंहनी श्री तेजकुंवर जी म. सा. की सुशिष्या) महापुरुषों का जीवन हमारे नैतिक, धार्मिक, नैष्टिक व व्यावहारिक जीवन में प्रेरणा प्रदान करता है। आपकी उज्ज्वल लीला हमें सुसंगठित व निष्ठा परायण बनने के लिए उत्साहित करती है।
आपका जन्म संवत् १९६७ आश्विन शुक्ला १४ के दिन सिमटारा ग्राम की भूमि आपश्री के जन्म से धन्य हो गई। शुक्ला चवदश का जन्म किसी-किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है। जिसने शुक्ला चतुर्दशी को जन्म लिया वह स्वतः ही भाग्यशाली बनता है। आपका धैर्य व साहस सराहनीय है। आप श्रमणसंघ के उपाध्याय पद से इसीलिए विभूषित हुए कि “विक्रमार्जित राज्यस्यरचयमेव मृगेन्द्रता" वाली उक्ति को स्वयं चरितार्थ करता है।
आपका अध्ययन सर्वतोमुखी था। बाल्यकाल में आपका अध्ययन नहीं के बराबर था किन्तु जब श्री ताराचन्द्र जी म. सा. से १९८१ में ज्येष्ठ शुक्ला १० के दिन दीक्षित हुए तब से गुरु कृपा के कारण अध्ययन चालू हुआ। आप प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, कन्नड़ एवं राजस्थानी आदि अनेक विषयों में, पारगामी हुए।
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आपकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी व विश्वजनीन थी। आपका रचित साहित्य भी पांच हजार पृष्ठों से भी अधिक है। कइयों ने आपसे मार्गदर्शन प्राप्त किया है। आपकी महिमा सर्वत्र फैली हुई थी तथा आपके द्वारा कई भव्य जीवों का उद्धार हुआ है। ऐसे उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के पद चिन्हों पर चलकर हम अपने अभ्युदय का मार्ग ढूँढने का प्रयास करें और उपाध्याय जी के जीवन से सच्ची शिक्षा लें तो हमारा कल्याण सहज हो सकता है। मैं अपने हृदय की असीम आस्था के साथ उस महापुरुष के श्री चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करती हूँ।
खुश जमालों की याद आती है। बेमिसालों की याद आती है।
जाने वाले नहीं आते हैं
जाने वालों महापुरुषों की याद आती है ।
मेरी मानस धरती पर अंकित गुरुदेव !
-साध्वी विजयश्री (एम. ए., जैन सिद्धान्ताचार्या)
स्व. उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म. सा. मेरे पारिवारिक धर्मगुरु रहे हैं। मेरे पिताश्री की दादीजी और भुआजी आपकी सम्प्रदाय में दीक्षित हुई, तत्पश्चात् मेरी संसारी दादीजी एवं भुआजी भी आपश्री के ही चरणों में दीक्षित हुई हैं, अतः पीढ़ियों से ही हमारा परिवार आपके प्रति आस्थावान रहा है। हमारी दादीजी एवं भुआजी हमें समय-समय पर गुरुदेव के बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्व की उज्ज्वल घटनाएँ / कथाएँ एवं साधना संबंधी चमत्कारों को बड़ी रोचक शैली में सुनाया करती थीं, हम बड़े ध्यान से और आश्चर्य से यह सब सुनते, लेकिन फिर अपने अध्ययन और क्रीड़ा में व्यस्त हो जाते, गहराई से कभी उसकी सत्यता पर विचार नहीं करते।
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विशाल हृदयी गुरुदेव ! पंजाब सिंहनी पूज्या महासती श्री केसर देवीजी म. सा. के पास जब मेरी दीक्षा निश्चित हो गई, उस समय आपश्री का मेवाड़ की वीरांगनाओं की गौरव गाथाओं का आदर्श कायम रखकर संयम मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ते रहने का एक विस्तृत शुभ संदेश एवं आशीर्वचन मुझे प्राप्त हुआ, तो मेरा हृदय प्रथम बार आपके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उस संदेश में आपकी उदारता, विशालता और आत्म-वत्सलता का संदर्शन कर मुझे एक अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई एक तेजोमय महान् व्यक्तित्व का धनी, सद्गुणों का पुंज, मनस्वी संत पुरुष का कल्पना चित्र मेरे हृदय-पट पर स्वर्ण-रेख के समान अंकित हो गया, जो कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। जबकि एक संप्रदाय का व्यक्ति यदि अन्य संप्रदाय में दीक्षित हो जाता है, और उस अवस्था में; जबकि उसके निकट
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ पारिवारिक जन भी उसमें दीक्षित हो, तो ऐसी स्थिति में सांप्रदायिक द्वेष व वैर खड़ा हो जाता है, आपसी मनमुटाव हो जाते हैं। लेकिन गुरुदेव उदार दृष्टिकोण रखने वाले उच्चकोटि के संत थे, वहाँ ऐसी संकीर्ण और तुच्छ भावनाओं को स्थान ही कहाँ ? मुझे ऐसे अपने पारिवारिक धर्मगुरु के प्रति सात्विक गौरव की अनुभूति हुई, और उनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा व आदर का भाव और भी बढ़ गया।
सन् १९७५ में जब आप श्री अहमदाबाद का चातुर्मास पूर्ण कर महाराष्ट्र की पुण्यभूमि पूना में पधारे, उस समय पू. केसरदेवी जी म. सा. भी बम्बई का चातुर्मास पूर्ण कर पूना की ओर बढ़े। गुरुदेव का चातुर्मास पूना सादड़ी सदन स्थानक में निश्चित हुआ, और इधर पू. म. श्री का भी कारणवश पूना में साधना सदन स्थानक में चातुर्मास हो गया । यह एक आकस्मिक संयोग ही था, और मेरे लिये तो दीक्षा के पश्चात् यही प्रथम दर्शन थे उस समय मेरे मन-मस्तिष्क में अनेक विकल्प फूलों पर भ्रमरों की भाँति मंडरा रहे थे। मन में अब भी यही विचार आ रहे थे कि गुरुदेव मेरे इधर दीक्षा लेने का कारण पूछेंगे, अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मुझे या म. श्री जी को कुछ न कुछ कहेंगे। पर, जब हम वहाँ पहुँचे, तो वे इतने अपनत्व और प्रेम से मिले, कि जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी, संकीर्णता नाम की वहाँ कोई बात ही नहीं थी। मुझे वह श्लोक याद आ गया
"अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥"
जिसके लिये समस्त वसुधा ही अपनी है, वह उसमें से किसको पराया कहे ? म. श्री जी एवं गुरुदेव दोनों का कारणवश पूना में करीब नौ महीने रुकना हुआ, मैं बराबर उनके दर्शनार्थ दिन में दो बार जाती रही, पर उन्होंने कभी यह प्रसंग नहीं छेड़ा में उनकी महानता के समक्ष सदा-सदा के लिये नत हो गई। यह प्रसंग मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय संस्मरण है, जो कभी भूला नहीं सकती।
अखंड- व्यक्तित्व गुरुदेव !
पूना चातुर्मास में पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. ने मुझे अपने साथ लेखन कार्य में जोड़ दिया। यह उनकी महानता थी, कि लेखन-क्रिया से कोसों दूर मुझ जैसी अनगढ़ मूर्ति को उन्होंने तैयार किया, और इसी कारण प्रतिदिन दो चार घंटे के निकट सम्पर्क में मैंने उपाध्याय श्री जी के आंतरिक व्यक्तित्व को भी अच्छी तरह से जाना, देखा व परखा।
मैंने देखा, कि वे सच्चे अर्थ में एक संत थे। संत की पहचान बताते हुए एक श्लोक में कहा गया है, कि
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"यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया । चित्ते वाचि क्रियायां च साधुनामेकरूपता ॥"
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} श्रद्धा का लहराता समन्दरा
Face अर्थात् उनके मन में जैसा भाव होता है, वैसा ही वचन से
'बहनो पहनो मतना गहनो बोलते हैं और वचन के अनुसार ही क्रिया करते हैं। क्योंकि
पण मानो म्हारो कहनो॥" साधुओं के मन, वचन और क्रिया में एकता होती है, अनेकता
इस पंक्ति को कई-कई बार दोहरा देते थे। इस प्रकार अनीति नहीं।
की कमाई कभी टिकने वाली नहीं है, उसके लिये आपश्री कई बार यह एकता उनमें प्रतिक्षण देखी जा सकती थी, वे जैसे अंदर यह पंक्ति दोहराते थेमें थे वैसे ही बाहर में। उनके मन, वाणी और कर्म में बहुरूपियापन
"आयो केवा ने, वाह-वाह आयो केवा ने। नहीं था, कृत्रिमता और बनावट से वे कोसों दूर थे। जब कभी भी
थें अमर नहीं हो रेहवाने, क आयो केवाने। जाओ वे एक ही रूप में मिलेंगे। वही मुस्कुराता चेहरा, वाणी में वही मधुरता और गुरुता, हृदय में वही सहजता, निर्मलता और निश्छलता।
कूड़ कपट कर माल कमाई, तिजोरी में राख्यो हो। उनके निकट सम्पर्क में रहकर मैंने एक बात विशेष रूप से कालो धन नहीं रहेला थारे, इन्दिरा भाख्यो हो, उनमें देखी, कि कभी भी, कोई भी, कैसा भी व्यक्ति उनके पास
क आयो केहवाने ॥" दर्शन के लिये जाता है, तो वे हर एक का खुशमिजाज से सर्वप्रथम इस प्रकार प्रवचन के मध्य में सब तरह का मसाला डालकर 'आओ पुण्यवान!' या 'पुण्यवान! दया पालो' इन मधुर शब्दों से इस प्रकार प्रस्तुत करते कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते थे। स्वागत करते थे। उनके ये शब्द सुनते ही आगंतुक के मन में एक
जपयोगी गुरुदेव ! स्नेह भरी स्थायी छाप अंकित हो जाती थी, वह गुरुदेव को अपने अत्यंत निकट अनुभव करने लगता था। उसके बाद उसकी हर
उपाध्याय श्री जी एक जपयोगी साधक श्रेष्ठ: थे, जाप और समस्या का समाधान जिज्ञासा का अंत होने तक पूरी तत्परता से
ध्यान में समय के इतने पाबंद थे, कि अपना समय होने पर वे करते थे।
व्याख्यान के बीच में भी उठकर चले जाते थे। जब उनसे पूछते 'सुखसाता है, गुरुदेव!' तो उसका भी एक बार मैंने उनसे पूछा-'गुरुदेव! आपको जाप में इतनी रुचि गुरु-गंभीर परन्तु मधुर गिरा से प्रत्युत्तर देते–'सब आनंद मंगल!' कैसे है ? मेरा जाप में उतना मन क्यों नहीं लगता? आप कोई ऐसा उनका यह संक्षिप्त और सारगर्भित उत्तर प्राप्त कर हृदय आनंद से उपाय बताइये, जिससे मेरी भी जाप के प्रति रुचि बढ़े, और मैं भी झूमने लगता था।
जाप की साधना करूँ।" वे 'मूडी' नहीं थे, उनका व्यक्तित्व अखंड था, उसके टुकड़े उन्होंने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा-"मुझे भी पहले जाप नहीं किये जा सकते।
में इतनी रुचि नहीं थी, मेरे दादा गुरु कई-कई घंटे जाप की साधना मैंने देखा, कई बार ऐसे प्रसंग भी आए, जिनमें सामान्य व्यक्ति
किया करते थे, और मुझे भी जाप के लिये प्रेरित करते, परन्तु तो घबरा ही जाए, और मैदान छोड़कर भागने की तैयारी करे,
मेरी रुचि अध्ययन-अध्यापन में ही अधिक रहती थी। लेकिन ये महामनस्वी कभी घबराए नहीं। दुःखों व कष्टों के एक बार मेरी नेत्र-ज्योति अचानक लुप्त हो गई, चारों ओर झंझावातों से कभी विचलित नहीं हुए। बाहर की सुखद या दुःखद अंधेरा ही अंधेरा छा गया। कुछ भी दिखाई नहीं देता था। रात्रि को किसी भी परिस्थिति से वे प्रभावित न होने के अभ्यस्त थे। बड़ी से | मैं सोया हुआ था, मेरे दादागुरु ज्येष्ठ गुरुदेव ने मुझे दर्शन दिये, बड़ी घटना को भी वे इतनी सहजता से झेल लेते थे, मानो कुछ और दो-तीन बार कहा-उठ! उठ। मैं उठा। उन्होंने मुझे कहा, कि EP905 हुआ ही नहीं। कहीं कोई बात बिगड़ती देखकर वे उसे इस प्रकार | तू जाप कर, सब ठीक हो जाएगा। तेरी सारी परेशानियाँ दूर हो मोड़ दे देते थे, कि विरोधी भी पराजित हो जाता था। कठिन से
जाएंगी। कठिन समस्या को वे सहजता से सुलझा देते थे।
उस समय से मैंने निरंतर जाप करना प्रारंभ कर दिया। अब प्रवचन-पटु गुरुदेव !
जाप मेरा व्यसन बन गया है। मैं भोजन छोड़ सकता हूँ, पर जाप पूना एवं सिकन्दराबाद के चातुर्मासों में मैंने आपके प्रवचन भी नहीं। मेरा यह जाप 'स्वान्तः सुखाय' है, लेकिन जाप से अनेकों खूब जमकर सुने हैं। आपश्री के प्रवचन तत्त्वों की गहराई को लिये लोगों की आधि-व्याधि नष्ट हो जाती है, उनके शारीरिक, हुए होते हुए भी अत्यन्त सरस, मधुर व प्रभावपूर्ण होते थे। मानसिक व दैविक प्रकोप शान्त हो जाते हैं। यह शब्द-शक्ति का बीच-बीच में ऐसे चुटकले छोड़ते, कि श्रोताओं में हँसी के फव्वारे चमत्कार है। मंत्र में अचिन्त्य शक्ति होती है, उसी के प्रभाव से छूट पड़ते थे। बहनें जब खूब आभूषण पहनकर आतीं, तो वे कई । आस-पास का वातावरण पवित्र बन जाता है। लोग मुझे निमित्त बार अपने प्रवचनों में मधुर फटकार लगा देते थे
मान लेते हैं।"
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मैंने कहा- 'गुरुदेव ! मुझे भी कोई मंत्र अपने मुखारविन्द से प्रदान कीजिये, जिससे जाप में स्थायित्व आएगा, आपश्री द्वारा प्रदत्त मंत्र के जाप से मेरी जाप के प्रति रुचि और श्रद्धा बढ़ेगी।"
गुरुदेव ने एक कागज लिया, और उस पर एक छोटा-सा मंत्र लिख दिया, तथा जाप करने की प्रेरणा भी दी।
मैं विचार करती हूँ, गुरुदेव कितनी उदार प्रवृत्ति के थे। उनके जीवन में न दुराव था, न छिपाव । एकदम स्पष्ट जीवन अकृत्रिम मानस! महापुरुषों की पहचान ही इसी से होती है
"जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।"
मृत्युञ्जयी गुरुदेव !
जीवन के अंतिम क्षणों में जब वे अपनी जन्मभूमि नदेिशमा में पधारे तब हम भी जसवन्तगढ़ से नांदेशमा पहुँचे। उस समय उनका स्वास्थ्य बड़ा नरम चल रहा था।
हम गुरुदेव के पास दर्शनार्थ पहुँचे। वंदन नमस्कार करने के बाद मैंने पूछा "गुरुदेव ! अब आपका स्वास्थ्य कैसा है ? सादड़ी के चातुर्मास में आपको हार्ट की बड़ी तकलीफ रही, हमें दूर बैठे ही चिंता करा दी ?"
वे सहज मुस्कुराते हुए कहने लगे- “ चिंता की कोई बात नहीं, सादड़ी में डॉक्टरों ने ऑपरेशन किया, तब सबको चिन्ता हो गई थी, लेकिन अब मुझे कोई तकलीफ नहीं है, बी. पी. भी ठीक है। मैंने अपनी ध्यान-साधना से सब ठीक कर लिया है।"
उनका आत्म-विश्वास से दीप्त चेहरा देखकर मैं दंग रह गई, कि इतनी अस्वस्थ अवस्था में भी गुरुदेव कितने सहज हैं।
उसी दिन रात्रि को अचानक खून की उल्टी, दस्त आदि होने लगे। वेदना की असह्यता से गुरुदेव बेहोश हो गये। उपस्थित सभी संत एवं श्रावक वर्ग घबरा गया। ऐसा लगने लगा, मानो गुरुदेव अभी गये। जैसे चंद मिनटों के मेहमान हों। उदयपुर से भक्त लोग भागे-भागे डॉक्टर को साथ लेकर आये। लेकिन सबेरा होते-होते स्वास्थ्य कुछ सुधरा, सबके जान में जान आई।
हम भी प्रातः ही दर्शन एवं वंदन हेतु पहुँचे, उस समय तो बाहर से ही पू. रमेशमुनि जी म. सा. ने हमें आश्वस्त करते हुए | कहा- 'गुरुदेव इस समय विश्राम कर रहे हैं, कमजोरी अत्यधिक है, वैसे चिंता की कोई बात नहीं।"
दोपहर को हम पुनः गुरुदेव की सेवा में पहुँचे, यद्यपि गुरुदेव की अस्वस्थता और निर्बलता देखते हुए हमें दर्शन की भी उम्मीद नहीं थी, परन्तु जैसे ही हम अंदर गये, गुरुदेव उठकर बैठ गये। हमने वंदन करके सुखसाता पूछी तो उसी गंभीर गिरा में वे बोले"सब ठीक है! आनंद मंगल है।"
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
हमने स्वास्थ्य के बारे में पूछा, तो कहने लगे-"हाँ! रात्रि को थोड़ा उल्टी, दस्त हो गये थे, पर संतों ने संभाल लिया। अब ठीक हूँ।"
हम तो गुरुदेव का चेहरा ही देखते रह गये, इतनी वेदना और अशक्तता में भी गुरुदेव के चेहरे पर उतनी ही प्रसन्नता, उतनी ही सहजता, जैसी पहले दिन थी। मानों, विशेष कुछ हुआ ही नहीं ।
उदयपुर चादर- समारोह में भी प्रतिदिन आपश्री के दर्शनों का लाभ मिलता रहा। उस समय तो ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो एक महान् योगीश्वर के दर्शन कर रही हूँ। तन में व्याधि पर मन में गजब की समाधि थी। तन की वेदना मन को छू भी नहीं रही थी। चेहरे पर कोई अकुलाहट नहीं, घबराहट नहीं, सिकुड़न नहीं, दीनता नहीं, किसी की अपेक्षा नहीं, मानों वे कृतकृत्य हो गये हों। न शिष्यों का मोह, न कोई क्षोभ न राग, न द्वेष, एकदम असंपृक्त, एकदम निर्लिप्त, एकदम अनासक्त। वे मानों सबको मृत्यु की कला सिखा रहे हों। मृत्यु में से अमरत्व निकाल रहे हों। मौत का स्वागत कैसे करना चाहिये, यह पहली बार मैंने उनसे सीखा।
गुरुदेव को मेरा नमन ।
ऐसे महान योगी, साधक, संयमी, सदा अप्रमत्त गुरुदेव के चरणों में मैं क्या चढ़ाऊँ? जो चढ़ाना चाहती हूँ, वह मेरे हृदय की वस्तु है हृदय की वस्तु हृदय में ही पड़ी रहे, यही चाहती हूँ।
गुरुदेव ! आपके समस्त शुभ्रगुणों के प्रति मेरा नमन !
" आपका यह विराट् रूप, शब्दों में नहीं समाता। जितना कुछ लिखें मगर, लिखने को शेष रह जाता ॥"
सफल जीवन की निशानी
साध्वी श्री विकासज्योति जी म. (महासती विदुषी श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
"जिनका जीवन सदा समता की रसधार रहा, जिनका जीवन सदा साधना का द्वार रहा। जिनने जीना सीखा सिखाया सभी को जीनाजो जीवन की अन्तिम श्वासों का संघ का आधार रहा।" पुष्पवाटिका में रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं, महकते हैं और अपनी सौरभ को चारों ओर फैलाकर अंत में समाप्त हो जाते हैं, मानव वाटिका में भी अनेक जीवन रूपी पुष्प महकते हैं, अपने पवित्र चरित्र की सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध करते हैं और अंत में संसार से विदा हो जाते हैं किन्तु उनका यश चारों ओर फैला रहता है, वे नहीं रहते किन्तु उनका यश दिग्दिगन्त में व्याप्त
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
माग
६९ ।
रहता है। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के विसर्जित हो जाने पर भी उपाध्यायश्री जी की कीर्तिगाथा अमर ऐसे ही विशिष्ट महापुरुष थे, वे जब तक रहे तब तक उनका | है, अमर रहेगी। इसी विश्वास के साथ आस्था पूर्ण हृदय से जीवन पुष्प महकता रहा पर आज वे नहीं हैं किन्तु उनकी उपाध्यायश्री जी के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करती हूँ। यश-गाथा आज भी सर्वत्र मुखरित है, एक क्षण भी जीओ, प्रकाश
"हर दिल में तेरी याद है, दिल याद से आबाद है, करते हुए जीओ यदि हजारों वर्षों तक भी जीया गया, विकार और
आबाद है दिल साद है, सब गा रहे गुणवाद है। वासनाओं के धुएँ को छोड़ते हुए तो वह जीवन किस काम का?
श्रद्धा के दो फूल हैं, कर लीजिए स्वीकारगुरुदेवश्री का जीवन दिव्य था, भव्य था तो मृत्यु भी उससे भी
आशीर्वाद दें हमें, थामें नाव की पतवार॥" अधिक यशस्वी रही, जिस व्यक्ति की मृत्यु यशस्वी होती है, उसका जीवन भी पूर्ण यशस्वी होता है, मैंने स्वयं ने अपनी आँखों से देखा है गुरुदेवश्री के जीवन के अन्तिम क्षणों को, सूर्य जब अस्ताचल की आध्यात्मिक साधक : उपाध्याय श्री ओर पहुँचता है तो उसका प्रकाश धीमा हो जाता है। उसमें मध्याह्न की तरह तेजस्विता नहीं होती पर गुरुदेवश्री का जीवन सूर्य सांध्य
-महासती श्री रमेश कुमारी जी म. बेला में भी मध्याह्न के सूर्य की तरह चमक रहा था, प्रदीप्त था,
परिवर्तिनि संसारे, मृतः को वा न जायते। यही उनके सफल जीवन की निशानी थी, ऐसे परम आराध्य
स जातो येन जातेन, याति वंशः समुन्नतिम्॥ गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ।
इस नश्वर संसार में अनन्त प्राणी प्रतिदिन जन्म लेते हैं और
अनन्त ही प्रतिदिन काल के गाल में विलीन हो जाते हैं। संसार के एक आदर्श जीवन
अन्य व्यक्तियों का पता भी नहीं पाता कि कब कौन, कहाँ जन्मा
और कब इस संसार से विदा हो गया? प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी -साध्वी डॉ. सुशीला
हम कुछ ही दिनों में भूल जाते हैं। हमें न उनकी जन्म की तिथि एम.ए., पी-एच.डी.
स्मरण रहती है, और न मृत्यु की। सामान्य मनुष्य जन्म लेता है, परम श्रद्धेय, पूज्य गुरुदेव, शांत आत्मा उपाध्याय श्री पुष्कर जीवन भर की जीविकोपार्जन में लगा रहता है और अन्त में मर मुनिजी म.! आपका गरिमा पूर्ण व्यक्तित्व आलोक स्तम्भ की तरह जाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन निरुद्देश्य ही रहता है और सर्वत्र प्रकाश फैलाता हुआ बड़ा ही अद्भुत था। मुझे आपके प्रत्यक्ष मानव-जाति को उनके संसार में आने का कोई लाभ नहीं मिलता। दर्शनों का सौभाग्य प्रथम बार उदयपुर में आचार्य चादर महोत्सव परन्तु संसार में कुछ ऐसी महान् विभूतियाँ भी जन्म लेती हैं, जो के पावन प्रसंग पर मिला। मैंने देखा अस्वस्थता के क्षणों में भी कि भौतिक दृष्टि से तो मृत्यु को अवश्य प्राप्त होती हैं, अपने अप्रमत्त बनकर उपाध्यायश्री जी स्वाध्याय किया करते थे। जीवन महान कार्यों से ऐसी अमर ज्योति संसार में प्रज्ज्वलित कर जाती के अंतिम समय में आपके चेहरे पर अपूर्व शांति विद्यमान थी। हैं, जिसके अलौकिक प्रकाश में मानव-जाति के उत्थान का मार्ग हम अपने आपको गौरवशाली मानते हैं कि उपाध्यायश्री जी ने ।
अनन्तकाल तक आलोकित होता रहता है और वे जन-जन के हृदय अपने शिष्य रत्न हमारे श्रद्धा केन्द्र आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. जैसे
में अमर हो जाते हैं। ऐसी महान् आत्माओं के जीवन की सुगन्ध महान् विभूति संत रत्न से श्रमणसंघ की गरिमा में चार चांद लगाये
कोटि-कोटि युगों तक महकती रहती है और जन-जीवन को हैं। उपाध्यायश्री जी की प्रतिमूर्ति आचार्यश्री जी का हर आदर्श
सुवासित करती रहती है। हमारे लिए अनुकरणीय है।
ऐसे ही थे उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. जिन्होंने अपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सादगी, सरलता, त्याग एवं शाश्वत विचारों से जैन जगत को ही नहीं, अपितु प्राणी मात्र को तपस्या की एक सजीव मूर्ति थे। आपकी जीवन-साधना का प्रत्येक । एक नई चेतना दी तथा सोए हुए समाज को जागृत करके उसे क्षण भगवान् महावीर की उद्घोषणाओं के साथ गतिशील था। जीवन का वास्तविक उद्देश्य बताया और सद्मार्ग पर दृढ़ता से आपकी आध्यात्मिक साधना इतनी महान् थी कि गरीब हो या चलने की प्रेरणा दी। पूज्य गुरुदेव उस दीपक की भाँति थे, जो अमीर, रोगी हो या स्वस्थ, नेता हो या व्यापारी तथा श्रेष्ठी हो या स्वयं जलता है और दूसरों की राह आलोकित करता है। सामान्य व्यक्ति, सभी के लिए आकर्षण का केन्द्र थी। आपकी
अध्यात्म विजेता ओजपूर्ण वाणी के प्रभाव से अनेक कुपथगामी प्राणियों की दिनचर्याएँ बदल गईं। “यथा नाम तथा गुण" की उक्ति के अनुसार
हे सच्चे साधक! आपश्री जी के जीवन से त्याग, वैराग्य, उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. ने अपने नाम को “पवित्र पुष्कर
इन्द्रिय-निग्रह, संयम-साधना, धैर्य, शौर्य, वीर्य, साहस, प्रोत्साहन के तीर्थ" की तरह सार्थक किया। जो प्रतिपल वंदनीय है। भौतिक देह ।
साथ बाह्य और आभ्यन्तर तप के झर-झर झरते हुए झरनों में नयन
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स्नान कर प्रत्येक जिज्ञासु मनस्तोष प्राप्त करता था। सचमुच आपश्री जी ने क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष एवं मोहादि अपने आन्तरिक शत्रुओं पर उसी प्रकार विजय प्राप्त की थी, जैसे युद्ध-क्षेत्र में अर्जुन ने दुर्योधन पर अथवा राम ने रावण पर प्राप्त की थी। आपक्षी जी वस्तुतः सच्चे अध्यात्म विजेता थे।
आपश्री जी के दिव्य ललाट पर एक अलौकिक प्रकार की आभा देदीप्यमान रहती थी, आपश्री जी की भव्य शान्त प्रसन्न मुस्कराहट युक्त सौम्य मुखाकृति के जो भी एक बार दर्शन कर लेता था, आजीवन उसके हृदय पट पर उसका भव्य चित्र अंकित हो जाता था, आपश्री जी की वाणी से अमृत रस झरता था, जिसका आकण्ठ पान कर प्राणी वर्ग अपने आपको धन्य-धन्य समझता था, अपनी प्रतिभा के कारण आपश्री जी सन्त मण्डली में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे।
आपका ज्ञान भण्डार कुबेर के अक्षय द्रव्य कोष की भाँति असीम था- आपश्री का अधिकांश समय शास्त्रों के चिन्तन मनन आदि सत्कार्यों में ही व्यतीत होता था। आप अपने कर-कमलों एवं वाणी द्वारा सदैव ज्ञान-दान वितरण करते रहते थे, आपकी महानता की ख्याति दूर-दूर देशों तक व्याप्त है।
परोपकारी महात्मा
सन्तों की महिमा संसार में, इसलिए भी व्याप्त है कि वे अपने जीवन का कण-कण विश्व हित के लिए समर्पित कर देते हैं। महापुरुषों का जीवन संसार के लिए होता है, उपकार के लिए होता है, अथ च प्राणी मात्र के कल्याण के लिए होता है। नीतिकार एक स्थान पर संत पुरुषों की महिमा करते हुए करता है।
परोपकाराय सत्तां विभूतयः।
अर्थात् सन्त पुरुषों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही स्वार्थ की संकुचित क्षुद्र परिधि से उठकर परमार्थ एवं विश्व हित के उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं। वे सारे विश्व को अपना समझकर विश्व कल्याण को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लेते हैं। यही सन्तों एवं महान् पुरुषों की महत्ता का हेतु रहा हुआ है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. इस महत्व से अनभिज्ञ नहीं थे। आपके तो जीवन का महामंत्र ही सेवा एवं परोपकार था अपने पराये के भेदभाव से दूर, आपश्री जी एक उच्च कोटि के परोपकारी महात्मा थे, जन-जीवन के उत्थान की, कल्याण की भावनाएँ आपके हृदय में हर समय हिलोरें लिया करती थीं, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आपश्री जी ने अनेक स्थानों पर पुस्तकालय, वाचनालय एवं ज्ञानालय स्थापित किए एवं कराए, जिससे जनता अपने स्तर को उच्च बना सके। अधिक क्या ? आपश्री जी हर समय दूसरे के उपकार के लिए अग्रसर रहा करते थे।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ मृतः को वा न जायते ।
--- विश्व की विस्तीर्ण वाटिका में असंख्य पुष्प विकसित होते हैं, ये मनोहारी पुष्प अपनी स्वल्पकालीन सुन्दरता एवं सौरभता पर इठलाकर मन्द मन्द मुस्करा कर धराशायी हो जाते हैं। क्षणिक तारुण्य पर इतरा कर धूल में मिल जाते हैं, यही बात मानव-जीवन के संबंध में भी है। विश्व में असंख्य मानव जन्म लेते हैं एवं जैसे-तैसे जीवन व्यतीत करके, मृत्यु के विकराल मुख में समा जाते हैं, जीवन और मरण, सृष्टि के निरन्तर चलने वाले कार्यक्रम हैं, परन्तु जिस प्रकार संसार में उसी पुष्प का खिलना, खिलना है, जिसके पराग से, जिसकी सुरभि से, जिसकी सुगन्ध एवं सुन्दरता से संसार को लाभ पहुँचा हो ।
नर रत्न
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. एक नररत्न थे, ऐसे नररलों को पाकर ही पृथ्वी धन्य हुई है। अथ से इति तक, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन, शुद्ध-निर्मल अथव पवित्र रहा है। सद्गुणों के तो आप पुंज ही थे, तपः साधना, सेवावृत्ति, सरल स्वभाव, शान्त मुद्रा, कठोर साधक चर्या इत्यादि आपके किन-किन सद्गुणों का वर्णन किया जाए।
आपश्री उदार हृदय, त्यागमूर्ति, मधुरभाषी, अहिंसाप्रेमी, परम कारुणिक, परम दयालु, सत्यकामी, सत्यनामी, सत्यवादी एवं महान् आत्मा थे, आपश्री जी की पवित्र वाणी में अपूर्व चमत्कार था उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं पंजाब शताधिक क्षेत्र आपश्री के ओजस्वी वचनों से प्रेरणा लेकर कर्तव्य पथ पर अग्रसर हुए हैं, जिसके चिन्त अद्यावधि अविकल रूप में विद्यमान दृष्टिगोचर होते हैं।
उपाध्याय श्री जी म एक सुविकसित सुगन्धित पुष्प के समान थे, जिनके दर्शन करके, जिनकी पवित्र वाणी सुन करके, जिनकी कुछ सेवा करके भक्त वृन्द अपने को कृतार्थ समझता था, आपश्री जी ने अपने ७० वर्ष लम्बे पवित्र जीवन में कर्त्तव्य पालन का वह चमत्कार दिखाया, जिसका गुणगान आज बच्चे-बच्चे की जबान पर है, जिन्हें युग-युग तक समाज एवं राष्ट्र याद करेगा। आज कौन मानव ऐसा है जो आपके गुणों का स्मरण न करता हो ।
वे महामानव शरीर से बेशक ओझल हो गये हैं, परन्तु अपनी महान् विचारधारा और सद्गुणों के रूप में आज भी वे जन-मानस में जीवित है, विद्यमान हैं और अमर हैं। उनकी विचारधाराएँ और जीवन ज्योति आज भी हमारा पथ-प्रदर्शन कर रही हैं और भविष्य में भी करती रहेंगी। आओ उस नररत्न के महान् जीवन का अभिनन्दन करते हुए अपनी श्रदांजलि अर्पित करें।
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
। सरस्वती पुत्र : गुरुदेवश्री
वैराग्य के शाश्वत सरोवर थे। श्रमण संस्कृति के एक मनोनीत और
विश्रुत विद्वान श्रमण थे। आपका मंगलमय जीवन अहिंसा और -महासती सुलक्षणप्रभा जी
सत्य का पावन प्रतिष्ठान था, जप और तप, दया और करुणा का (महासती कौशल्या कुंवर जी की सुशिष्या)
आदर्श भण्डार था, उदारता और सहिष्णुता का प्रकाश स्तम्भ था,
जो संयम पथ के पथिक साधकों को सदा सन्मार्ग का दर्शन कराता स्वभाव में सरलता, व्यवहार में विनम्रता, वाणी में मधुरता, रहा, संयम भूमि पर गति करने वाले श्रमणों को अपने गंतव्य स्थल मुख पर सौम्यता, नयनों में तेजस्विता, हृदय में पवित्रता, स्वभाव में { तक पहुँचने में जो अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, उन बाधाओं से सहजता का नाम था, परम श्रद्धेय उपाध्याय पू. गुरुदेव श्री पुष्कर । सतर्क रहकर सावधानीपूर्वक अप्रमत्त भाव से आगे बढ़ने की प्रेरणा मुनि जी म.। सद्गुरुवर्य के जीवन को कहीं से भी झांककर देखो प्रदान करते थे, वे अपने युग के युग पुरुष थे, ज्योति पुंज थे, कोहिनूर की तरह सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश था। गंगा के निर्मल नीर । सच्चे पथ प्रदर्शक थे। को किसी भी छोर से पीओ मधुरता से ओतप्रोत होगा। मिश्री को
जो भी साधक उनके चरणों में पहुँचता वे उन्हें यह पावन किसी भी कोने से चखो, वह मीठी होगी। गुलाब के फूल को कहीं
प्रेरणा प्रदान करते, जीवन का कोई भरोसा नहीं है, प्रभात के तारे से भी सूंघो, उसमें खुशबू ही होगी। वैसे ही सद्गुरु का जीवन था,
की तरह जीवन क्षण भंगुर है, मानव कितना पागल है, जो कमनीय उनके सद्गुणों को शब्दों की लड़ी की लड़ी में बाँधना बहुत ही
कल्पनाओं के नित नये महल खड़े करता है और सारी शक्ति और कठिन है तथापि अल्प बुद्धि से असीम भावों को ससीम शब्दों में
सामर्थ्य उसके पीछे लगाता है पर अपने आपको भूल जाता है, जो व्यक्त करने का एक प्रयास किया जा रहा है।
शाश्वत सत्य है, उसको विस्मृत होकर अशाश्वत के पीछे अपनी आपश्री का स्वभाव बालक की तरह सरल था। कपट, माया, शक्ति का अपव्यय कर रहा है। यदि शाश्वत सत्य को हृदयंगम कर छल और छद्म का आपके जीवन में नामोनिशान भी नहीं था, जैसा लें तो उसका भव-भ्रमण सदा-सदा के लिए मिट जाए। सद्गुरुदेव आपका जीवन अन्दर था, वैसा ही आपका बाह्य जीवन था। अन्दर की पावन प्रेरणा से अनेक आत्माओं ने शाश्वत सत्य को अपनाने और बाह्य जीवन की एकरूपता थी। बहुरूपिया जीवन आपको के लिए संयम-साधना के पथ पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाए, उनमें | तनिक मात्र भी पसन्द नहीं था।
से एक मैं भी हूँ, गुरुदेवश्री की विमल वाणी ने मेरे में वैराग्य कहा जाता है कि देवताओं की संपत्ति अमृत है, वैसे ही मानव
| भावना उद्बुद्ध की और मैं साधना के पथ पर बढ़ी, गुरु की की संपत्ति मधुर वाणी है। यह सत्य है कि प्रथम दर्शन में मानव का
असीम कृपा से ही मुझे यह संयम रत्न प्राप्त हुआ, उनकी असीम शारीरिक सौन्दर्य व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता है, पर
कृपा जीवन भर मेरे पर रही है और जब भी गुरुदेव की पावन उसकी वाणी में यदि माधुर्य नहीं है तो वह सौंदर्य चिरकाल तक
स्मृति आती है तो मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है, गुरु चरणों व्यक्ति को आकर्षित नहीं कर सकता। दुर्योधन का रूप सुन्दर था,
में यही प्रार्थना है कि मैं सदा सर्वदा कषाय का शमन करूँ और कृष्ण का रूप उतना सुन्दर नहीं था पर उनकी वाणी में गजब का
आज्ञा का आराधन करते हुए अपने जीवन को पवित्र बनाती रहूँ। माधुर्य था, जिसके कारण कृष्ण जन-जन के आराध्य देव बन गये। मयूर के रंग-बिरंगे पंखों को निहारकर चित्रकार की तूलिका भी फीकी पड़ जाती है, शारीरिक सौन्दर्य होने पर भी वाणी का जो
निष्कलंक-जीवन माधुर्य कोयल में है, वैसा माधुर्य मयूर में न होने के कारण वह
-साध्वी कल्पना जी कवि के काव्य का केन्द्र नहीं बन सका। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य की वाणी
(स्व. महासती श्री मदन कुंवर जी की सुशिष्या) में माधुर्य का सागर ठाठे मारता था, वे जब बोलते थे तो लगता था, सरस्वती पुत्र ही बोल रहा है, चुम्बक की तरह श्रोताओं को वे
एक शायर ने लिखा है, आकर्षित करते थे, उनके प्रवचनों में और वार्तालाप में हँसी के
"जिन्दगी ऐसी बना, जिन्दा रहे दिलशाद तू। सहज फव्वारे छूट पड़ते थे। आज सद्गुरुदेव की भौतिक देह हमारे
जब न हो दुनियाँ में, तो दुनिया को याद आए तू॥" बीच नहीं है किन्तु उनके गुणों का स्मरण कर सहज ही हृदय श्रद्धा परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का 400 से नत हो जाता है।
जीवन बहुत ही निराला जीवन था। उनका जीवन सरिता की सरस
धारा के समान निरन्तर प्रवाहित रहा। जैसे अनंत आकाश को [ विनय और विवेक के शाश्वत सरोवर ) नापना कठिन है, सागर की गहराई को नापना मुश्किल है, उसी
तरह गुरुदेवश्री के जीवन को नापना भी कठिन है, उनका जीवन -महासती श्री सुप्रभा जी म.
बहुत ही अद्भुत था, विरले साधक ही इस प्रकार निर्दोष, परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. विवेक और निष्कलंक जीवन जीते हैं। एलबमा, यजयकायम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । मार्ग में कई पत्थर पड़े होते हैं पर सभी के भाग्य परिवर्तित जैन धर्म ने जन्म को भी कल्याण माना है और मृत्यु को भी नहीं होते, एक पत्थर था जिस पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरण कल्याण की संज्ञा दी है, जन्म कल्याण उसका होता है जिनका का स्पर्श हो गया और वह पत्थर अहिल्या के रूप में जीवन्त हो जीवन संयम की साधना से मंडित हो, तप की आराधना से उठा। हमारा जीवन भी उसी अनघड़ पाषाण की तरह संसार की सुशोभित हो और मनोमंथन कर जो जीवन को निखारता हो। परम राह में पड़ा हुआ था, हमारे भाग्य जगे और सद्गुरु के चरणों का
। श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का जन्म भी कल्याणमय स्पर्श पाकर हमारा जीवन भी अहिल्या की तरह प्राणवान बन
रहा, वे जब तक जीए तब तक साधना की अखण्ड ज्योति से सका। सद्गुरुदेव ने हमारे जीवन में संस्कारों के प्राण फूंक दिए,
उनका जीवन जगमगाता रहा। उन्होंने हमारे जीवन का, विचारों का कायाकल्प किया इसलिए हम कैसे भूल सकते हैं आपको। जहाँ पर आप में आचार की कठोरता
_गुरुदेवश्री का सम्पूर्ण जीवन निर्धूम अग्नि की तरह था, जिसमें थी वहीं पर आप में विचारों के प्रति सद्भाव भी था। आपके नयन
आलोक था किन्तु धुआँ का अभाव था। गुरुदेवश्री प्रेरणा के पावन युगल में विराग की लाली चमकती थी, अलौकिक सौम्यता, संयम
स्रोत थे, जो भी उनके चरणों में पहुँचा, उसे वे ज्ञान और ध्यान की धवलता, भावनाओं की विशालता, हृदय की सहृदयता, दृष्टि की प्रेरणा देते। आगम के रहस्य बताते, गुरुदेवश्री का आगमिक की विशालता, व्यवहार में कुशलता और अन्तर् हृदय की मृदुता । ज्ञान बहुत ही गंभीर था। उन्होंने अपने जीवन में आगमों का सहज निहारी जा सकती थी। वस्तुतः आप गुणों के पुंज थे। अनेकों बार परायण किया। जो भी गुरुदेवश्री की आगम की
टीकाएँ पढ़ना चाहते, गुरुदेवश्री उन्हें सहर्ष पढ़ाते। पढ़ाने में आपका जीवन अज्ञान रूपी निशा में कौमुदी की तरह चमकता था, आपके हृदय मंदिर में स्नेह, सद्भावना और ज्ञान की वीणा
गुरुदेवश्री को बहुत ही आनन्द आता और गुरुदेवश्री से आगम की सुरीली स्वर लहरियाँ झनझनाती थीं। आपके हृदय की
पढ़ने में हमें भी बहुत ही आनन्द की अनुभूति होती। गुरुदेवश्री की विशालता समुद्र की गहराई से भी अधिक थी, उस हृदय की
। दूसरी विशेषता थी, वे महाज्ञानी थे, किन्तु उनका जीवन अत्यन्त गहराई में मैंने डुबकी लगाकर संयम-सदाचार के रत्न खोजे और
| सरल था, छोटी से छोटी साध्वी से भी बात करने में आप कतराते उन रत्नों को पाकर मेरा हृदय आनन्द से झूम उठा, धन्य है प्रभो! नहीं थे, आपके चरणों में बैठकर आध्यात्मिक जीवन के रहस्य कैसे लिखू मैं आपके अनन्त उपकारों की कहानी, जितना-जितना मैं | जानने को मिलते, गुरुदेवश्री जिस प्रकार यशस्वी रूप से जीए, उसी जीवन रूपी समुद्र में गहराई में जाता हूँ, उतना-उतना यह अनुभव प्रकार उन्होंने यशस्वी रूप से अन्तिम समय में संथारा कर एक होता है कि आपके जीवन को शब्दों में बाँधना बहुत ही कठिन है, उज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया। संथारा अनेक व्यक्ति करते हैं पर आपका यह विराट रूप, शब्दों में नहीं समाता।
गुरुदेवश्री का संथारा बहुत ही अपूर्व था। जैन आगमों में जितना कुछ लिखें मगर, लिखने को शेष रह जाता।
“पादपोपगमन" संथारे का वर्णन आता है, पादमोपगमन संथारे में
साधक न हाथ हिलाता है, न पैर हिलाता है, जिस प्रकार वृक्ष की उदयपुर में चद्दर समारोह का मंगलमय आयोजन पूर्ण हुआ।
टहनी काटने पर स्थिर पड़ी रहती है, अपनी इच्छा से न इधर अनक कमनीय कल्पनाएँ संजोए हुए सभी प्रतीक्षा कर रहे थे कि
होती, न उधर होती है, वही स्थिति हमने गुरुदेवश्री की देखी, आपका वरदहस्त सदा-सदा हमारे पर रहेगा पर नियति ने उस महागुरु को हमसे छीनकर अनाथ कर दिया, इसीलिए कवि ने
गुरुदेवश्री के चेहरे पर भी उस समय अपूर्व तेज झलक रहा था, कहा है,
धन्य हैं ऐसे सद्गुरुदेव को जिन्होंने यशस्वी रूप से जीवन जीया
और यशस्वी रूप से ही मृत्यु को वरण किया। परम आराध्य "ऐ मौत ! तुझको भी आखिर नादानी हुई।
गुरुदेव के चरणों में अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ। फूल तुने वो चुना, जिससे गुलशन की वीरानी हुई।"
सद्गुरुदेव के चरणों में कोटि-कोटि वंदन। और श्रद्धा के ये सुमन।
साधक और सर्जक ज्योतिर्मय साधक
-साध्वी मधुकुंवर -महासती श्री धर्मज्योति जी म.
(पूज्य महासती यशकुंवर जी म. की सुशिष्या) (विदुषी महासती श्री शीलकुंवरजी म. की सुशिष्या)
इस विराट् विश्व को उपमा की भाषा में कहा जाय तो यह "जिनके जीवन में ज्ञान की खिल रही थी फुलवारी, एक नन्दन वन है, जिसमें अनेक व्यक्ति रूपी सुमन खिलते रहे हैं। उनके चरणों की जाऊँ मैं बार बार बलिहारी।
और अपनी मधुर गुण सौरभ से महकते रहे हैं। नन्दनवन में ज्ञान का आगर, गुण का भण्डार था “गुरु पुष्कर" सुविकसित पुष्प विभिन्न कोटि में परिलक्षित होते हैं, जिनकी तुम्हारे पावन पद्मों में पल-पल वन्दना हमारी॥"
पहचान अलग-अलग रूप रंग सुगन्ध से मूल्यांकित होती है। इसी
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
संदर्भ में ध्यानयोगी उत्कट साधक उपाध्ययप्रवर परम पूज्यश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का भी यथा नाम तथा गुण के अनुरूप इस जिनशासन की श्रमण वाटिका में उनका विशिष्ट महत्त्व एवं प्रतापपूर्ण अस्तित्व था ।
पूज्य गुरुदेव का पावन नाम था पुष्कर मुनि पुष्कर अर्थात् कमल अनुयोगद्वार सूत्र में वर्णित श्रमण जीवन की विभिन्न उपमाओं में से एक "जलरूहसम" कमल फूल के सदृश जिनका जीवन ज्ञान पराग से अभिसिक्त था, जिससे ही वे उपाध्याय पद पर विभूषित हुए।
कमल-फूल पानी और पंक के संयोग से उत्पन्न पल्लवित, पुष्पित होकर भी पानी से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार पूज्य उपाध्याय प्रवर का जीवन भी विषय कषाय रूप संसार पंक से निर्लिप्त निसंग था।
कमल-फूल की सौरभ और शीतलता से भ्रमर आकृष्ट होकर दौड़े आते एवं रसपान कर गुंजारव करते हैं वैसे ही उपाध्याय प्रवर के ज्ञान पराग की सौरभ शीतलता पर चतुर्विध संघ रूप भ्रमर भी चरणाम्बुजों में भक्तिगान का गुंजारव करते हुए ज्ञानामृत का पान करते थे।
कमल-फूल की सुगंध स्वतः ही चारों दिशा में फैलती है वैसे ही पूज्य उपाध्यायश्री भी सत्य, संयम, शील आदि अनेक गुणों सुगंध से ओत-प्रोत थे और वह गंध चहुँदिशि में प्रसारित थी।
कमल-फूल दिनकर के उदित होते ही महक उठते, उसी प्रकार ज्ञानी-ध्यानी, त्यागी, तपस्वी गुणीजनों को देखते ही उपाध्यायश्री का हृदय कमल खिल उठता तथा कमल-फूल की प्रफुल्लता के समान तन-मन नयन आनन्दित हो जाते थे व सदैव ही पुलकित रहते थे।
कमल-फूल सदा सूर्य के सन्मुख रहता उसी प्रकार उपाध्यायप्रवर भी आगम विहारी एवं जिनेश्वरदेव की आज्ञानुरूप ही विचरणशील थे।
पुण्डरीक कमल उज्ज्वल एवं धवलिया से युक्त होता वैसे ही उपाध्यायप्रवर का हृदय कमल भी ध्यानयोग की साधना से समन्वित उज्ज्वल, समुज्ज्वल, सरल व निर्मल था।
इस प्रकार उनका जीवन अनेक विशिष्ट विशेषताओं से ओत-प्रोत था जिनका वर्णन करना ठीक उसी प्रकार होगा- "सब सागरमसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय" फिर भी भक्तिवशात् उनके जीवन की समग्र विशेषताओं का चित्रण संक्षेप में इस प्रकार हो सकता है संयमी जीवन के तीन लक्ष्य निर्धारित किए जो साधक- जीवन के लिए परिपूर्ण थे प्रथम था संयम साधना, द्वितीय था ज्ञान आराधना एवं तृतीय था गुरुसेवा ।
संयम साधना के रूप में चरण सत्तरी स्वरूप गुणसित्तर वर्ष तक जिनकी संयम साधना निर्मल रही एवं साधना मंदिर का स्वर्ण
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कलश समाधि भाव में स्थिर बने। ज्ञान आराधना के रूप में वे अंग- उपांग सूत्र स्वमत परमत के गहन ज्ञाता थे। निर्मल ज्ञान रूपी किरणों से अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाले श्रमणसंघ रूप गगन में चमकते हुए भानु उपाध्याय पद पर आसीन हुए तथा साहित्य की विविध विधाओं में उल्लेखनीय एवं मूल्यवान ग्रन्थों की सर्जना की। उनमें से जैन कथाओं का अपना अलग ही महत्त्व है। वास्तव में वे जहाँ एक साधक थे तो दूसरी और सर्जक भी थे। साहित्य और साधना का यह युगपद समन्वय इनके व्यक्तित्व और कृतित्त्व में इक्षुखंड में रस की भाँति समाया हुआ था जो हम सबके लिए प्रेरणास्पद रहा और है। गुरुसेवा के रूप में वे नन्दीषेणमुनि की भाँति थे। ऐसे अलौकिक महिमामंडित उपाध्यायप्रवर का स्वर्गारोहण जिनशासन की ऐसी क्षति हुई जो भुलाये भूली नहीं जा सकती। उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व और चेतना शीलकृतित्व शब्दातीत है एवं प्रेरणास्पद है। उनकी आत्मा सदा शाश्वत सुखों की उपलब्धि में सदा सर्वदा समुद्यत रहे और उनके गुणों का अचिन्त्य प्रभाव साधकों के लिए सम्बल रूप रहे इसी परम आस्था के साथ हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित होवे।
संयम पथ के महाधनी
- बा. ब्र. साध्वी : शांता कुंवर जी म.
हाय काल तू है गजब कीना अति अन्याय । पुष्कर गुरु को ले गया जो था जग सुखदाय ॥
उद्यान में हजारों हजार पुष्प खिलते हैं। सभी का रंग-रूप व सौन्दर्य पृथक्-पृथक् होता है। लेकिन जिस फूल की सुगन्ध सबसे अधिक सुहावनी व लुभावनी होती है, जिसका सौन्दर्य सबसे अलग होता है तो दर्शकों का ध्यान उसी की ओर आकृष्ट होता है। उसी प्रकार संसार रूपी उद्यान में जिस मनुष्य में अद्भुत गुण-सौरभ, परोपकार की माधुर्यता और शील-सदाचार का सौन्दर्य कुछ पृथक् व निराला होता है तो संसार का प्रत्येक व्यक्ति उसी की ओर आकृष्ट होता है।
उसी के अनुरूप पूज्य प्रवर उपाध्याय संयम पथ के महाधनी थे। श्री पुष्कर मुनि जी महाराज आगम की भाषा में महुकुम्मे महुपिहाने मद्य कुंभ की भाँति भीतर-बाहर चिर मधुर और णावणीय तुल्लहियया नवनीत के समान कोमल हृदय वाले थे, तेजोमय मुखमण्डल, शांत मुद्रा, प्रशस्त भाल, हृष्ट-पुष्ट देह, गेहुओं रंग, ज्ञान-दर्शन- चारित्र के महाधनी, पारदर्शिनी ज्ञान दृष्टिसंपन्न थे। उपाध्याय पूज्य प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज समाज की उन दिव्य विभूतियों में से हैं जिन्होंने आत्महित चिन्तन के साथ-साथ परहित की भावनाओं से समाज को बहुत कुछ दिया।
उनका हृदय विशाल और लोक कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत था। सहजता और स्वाभाविकता उपाध्यायश्री के रोम-रोम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । में समायी हुई थी। आध्यात्मिकता उनके जीवन की संगिनी थी। उतने ही थे। आपने राजस्थान में ही नहीं, भारत के अनेक प्रान्तों उपाध्यायश्री ने अपने उपदेशों में केवल उन्हीं बातों को कहा। में अपने सद्गुणों की सौरभ महकायी है और उस सौरभ का पान जिनका उन्होंने स्वयं अनुभव किया और अपने आचरण में उतारा।। अनेक आत्माओं ने किया है। आप अमित आत्मबली और कुशल केवल समाज के लिए ही नहीं अपितु मानव-मात्र के एक । कर्णधार भी थे। कृपासिन्धु! आपके सद्गुणों की गाथा जितनी गाऊँ अनुकरणीय आदर्श संत रत्न थे।
उतनी कम है। चारित्रात्मा सन्तरत्न महामहिम संयम क्षेत्र के सफल सेना
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु जगत में, नायक पूज्य उपाध्यायप्रवर श्री उदयपुर की पावन धरती तारक
गुरु जीवन के सच्चे ईश। गुरु ग्रन्थालय में संलेखना संथारे सहित स्वर्ग गमन कर गये। उनके
गुरु चरण में श्रद्धानत हो, चरणों में शांता की शत-शत मौन भावांजलि समर्पण।
नित्य नमाऊँ सादर शीष॥ धन्य-धन्य वे साधक जग में जो जीवन चमकाते हैं।
भगवन्! मैं चादर समारोह पर उदयपुर आई उस समय आप जन-जन के मन में जो अपनी पावन याद बसाते हैं। थोड़े अस्वस्थ थे फिर भी अच्छी तरह से बोले और साता पूछी
किन्तु पता नहीं था कि यह देदीप्यमान मूर्ति कुछ दिनों में ही आँखों ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ
से ओझल हो जायगी। जीवन एक यात्रा है, इस यात्रा में कई बार
इस प्रकार की अप्रिय घटना घट जाती है। जिसकी कभी कल्पना भी -विदुषी साध्वी श्री लज्जावती जी नहीं होती है, जिनका भास भी नहीं होता किन्तु जब विपरीत कार्य
हो जाता है तो सारी अपेक्षाएँ एक क्षण में ढह जाती हैं। क्रूर काल नाम रोशन कर गये, गुणों का न कोई पार है।
ने हमारे आपके साथ भी ऐसा ही निष्ठुर उपहास किया जिसकी लेखनी न लिख सके, जो आपका उपकार है।
कल्पना भी नहीं की थी कि इस रविवार को चादर समारोह बड़े ही पूज्यनीय गुरुदेव उपाध्याय श्री जी म. सा. वास्तव में आपश्री
हर्ष उल्लास के साथ संपन्न हुआ और उस रविवार को उपाध्यायश्री का उपकार अवर्णनीय है तथा आपश्री के असीम गुणों का वर्णन
जी इन सैंकड़ों संत-सतियाँजी को बिलखते हुए छोड़कर अचानक करना मेरी बुद्धि के बाहर है। गुरुदेव! आपका हँसता-मुस्कराता
आँखों से ओझल हो जायेंगे। किन्तु क्या किया जाय इस कुदरत के चेहरा, स्नेहिल नेत्र, पवित्र भावनाओं से भरा हृदय, समभाव के
नियम के सामने सब विवश हैं। आज हमारे हृदय इस अपार वेदना धारक, वाणी में ओज, आत्म-विजयता ऐसे मेरे गुरुदेव उपाध्यायश्री
से व्यथित हैं। क्योंकि गुरुदेव! उपाध्याय श्री जी का जीवन जी के दर्शन प्रथम बार मुझे देवास में हुए थे, जब आप इन्दौर का
श्रमणसंघ के हेतु सदा सर्वदा समर्पित रहा। वे श्रमणसंघ के एक वर्षावास करके देवास पधारे थे। उस समय आपकी तथा पूज्यनीय जीवन्त और ज्वलन्त प्रतिनिधि थे एवं त्याग और समर्पण के आचार्यश्री जी की अमृतमय वाणी सुनने का स्वर्ण अवसर प्राप्त पावन प्रतीक थे। निर्भीकता की जीती-जागती प्रतिमूर्ति थे। उनके हुआ था। गुरुदेव! वह आपश्री का पावन संदेश आज भी हृदय में हृदय में ज्ञान का अगाध सागर लहलहा रहा था तथा गजब की सुरक्षित है।
क्षमता थी उनमें। वे शासन के प्रभाविक चिन्तामणि रत्न के समान
थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में जिनशासन की प्रभावना की उसे आपके पधारने से देवास में चारों दिशा से भक्तगण उमड़ पड़े
मेरी ससीम वाणी व्यक्त नहीं कर सकती। उनका हृदय बड़ा विराट थे और देवास क्षेत्र में मेला-सा लग गया था। गुरुदेव! आपकी
एवं विशाल था। उनका मन संकीर्णता से परे था एवं संप्रदाय की पावन स्मृतियाँ शेष रह गईं।
घेराबंदी से मुक्त था। संघ और संगठन के परखे हुए सूत्रधार थे। आपके साथ आचार्य भगवन पुण्य जहाज के समान थे जिसका
ऐसे गुरुप्रवर हजारों हजार वर्षों में भाग्य से ही मिलते हैं। आपकी आधार लेकर पुण्यवान आत्माएँ भव-सागर पार कर रही हैं। कहनी और करनी एक समान थी, जो जीभ पर था वही जीवन में गुरुदेव! जैसे फूलों की महत्ता उसकी सुगंध से है, दीपक की महत्ता । था। महत्वाकांक्षा के पंक में भी कमल की भाँति निर्लेप थे। सभी के उसके प्रकाश से है वैसे ही मनुष्य की महत्ता उसके सद्गुणों से है।। प्रति उनके अन्तर् मानस में समभाव था और काया-कल्प करने में आपने जैन संस्कृति के गौरव को अक्षुण्ण बनाया और विश्व के
अथक प्रयास उन्होंने किया था। उन महामहिम के चरणों में पहुंचने कण-कण को सुगंधित किया।
पर मन की व्यथा रोग कष्ट उसी तरह नष्ट हो जाता था जिस जैसे विद्युत् के स्विच से हलका-सा स्पर्श होते ही सारा
प्रकार सूर्य के उदित होने पर सघन अन्धकार नष्ट हो जाता है। अंधकार हट जाता है और प्रकाश प्रसरित हो जाता है, उसी प्रकार उनकी मांगलिक में भी ऐसा चमत्कार था कि चिलचिलाती धूप एवं जब आपश्री की वाणी मुखरित होती थी तो ऐसा प्रतीत होता था । कड़कड़ाती ठंड में भी लोग पानी की पूर की तरह चले आते थे, कि सारा सभागार जगमगा रहा है। इतना ही नहीं प्रतिभासंपन्न भी गजब की भीड़ लगती थी। आपश्री की मधुर मीठी वाणी महकते
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३ श्रद्धा का लहराता समन्दर :
हुए फूलों की तरह मोहक थी। जन सागर श्रद्धा और प्रेम की इतने वर्षों के आशीर्वादमय निकट (सान्निध्य) साए का सर से उत्ताल तरंगों की भाँति उमड़ता था और उसी प्रकार हमारे आचार्य उठ जाना कितना वेदनामय होता है। इस बात का पूरा अनुभव ले भगवन् भी जन-जन के लिये विराट् विकास का नया द्वार खोलेंगे चुके हैं और ले भी रहे हैं। एक तरफ जिम्मेवारियों का आमंत्रण ऐसी पूर्ण आशा हर एक मानस में प्रज्ज्वलित है। उनका प्रबल तथा दूसरी तरफ गुरु भगवन्त का महाभिनिष्क्रमण !!! .. पुरुषार्थ आज सभी के सामने प्रकाश स्तम्भ की तरह मौजूद है। हम सभी के लिये एक सुदृढ़ कवच है जो किसी संकट के समय हमारी फूल चला गया, सुगंध रह गई ) पूर्ण रूप से रक्षा करेंगे ऐसी पूर्ण आस्था है।
-महासती सरस्वती जी ___पूज्यवर! आपका साया हमारे ऊपर बना रहे ऐसे गुरु अनन्तअनन्त पुण्यवानी से ही मिलते हैं। लेकिन मुझे एक आश्चर्यकारी
उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी का जीवन पुष्प ही था। पुष्प (यानी बात तो यह देखने को मिली कि उपाध्यायश्री के सान्निध्य में शिष्यों
फूल), फूल चला जाता है, और सुगन्ध छोड़ जाता है। उपाध्यायजी की अनोखी जोड़ी देखने को मिली, जैसे सूर्य के समान तेजस्वी
के जीवन का क्या वर्णन करूँ। जीवन एक पुष्प है जहाँ पुष्प है तो हमारे आचार्य भगवन् देवेन्द्र मुनिजी म. सा. एवं चन्द्र के समान
प्रेम अवश्य है। सत्य है प्रेम में से ही मधु निकलता है वही तो शीतल और प्रकाण्ड विद्वान् पूज्य श्रीगणेशमुनि जी शास्त्री दोनों
जीवन का आनन्द है। गुरुभ्राता की अनुपम जोड़ी जो अनेक सद्गुणों से अलंकृत है तथा दोनों भ्राता राम लक्ष्मण जैसे दीप रहे हैं। वैसे तो सभी शिष्य गुणों
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने अनेकों देशों में के निधान हैं। किन्तु आचार्य भगवन की सेवा पूज्य दिनेश मुनिजी
विचरण करके अपनी मधुरवाणी को वर्षाते हुये प्रेम की धारा और पूज्यनीय श्री गणेशमुनिजी शास्त्री की सेवा में श्री जिनेन्द्र मुनि
बहाते हुये क्रूर हृदय को सरल हृदय बनाया। उन्होंने प्रेम की शक्ति की जो सेवा देखी वह अवर्णनीय है। ऐसी महान् विभूतियों के
को पहचाना था। वे विश्वास करते थे कि क्रूरता को प्रेम से बदला पावन पुनीत चरणाम्बुजों में यथाविधि कोटि-कोटि वन्दना।
जा सकता है। क्रूरता कैसी भी आई सामने पर देवत्व शक्ति भी
प्रचंड थी। पर प्रेम की शक्ति महान् है। इस सिद्धान्त पर विश्वास हे श्रमण कुल के भानू आपकी छत्रछाया व वरदहस्त हम
रखकर ही वे चल पड़े और इसीलिये अपने दुश्मनों के बीच भी श्रमण-श्रमणियों के ऊपर युग-युग तक बना रहे यही प्रभू से
बेखौफ घूम सके। क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध कितना भी दानवी सविनय प्रार्थना करती हूँ।
हथियार से सज्जित क्यों न हो पर जिसके पास क्षमा का अस्त्र है
तो उसे वह पराजित कर देगा। दानव को हमेशा देवत्व के सामने गुरुदेव का महाभिनिष्क्रमण
झुकना पड़ा है। क्रोध सदैव क्षमा के सामने पराजित हुआ है। इसी
विश्वास के बल पर वे क्रूरता को कोमलता में बदल देते थे। कारण 5 -साध्वी प्रीतिसुधा
कि जीवन में वही साधना, वही त्याग, वही ध्यान, वही मौन, वही महान् तेजस्वी, ज्ञानस्थविर, जपस्थविर, दीक्षास्थविर परमपूज्य । तप, इन्हीं के प्रभाव से देवता तो चरणों में आकर वन्दन-नमस्कार उपाध्यायश्री जी की वार्ता सुन ऐसे स्तब्ध हो गए कि न बोल पाए, करते ही थे पर दानवों ने भी आकर नमस्कार किया और अपनी न हिल पाए। अस्वस्थता के समाचारों से अवगत थे किन्तु प्रतीक्षा । स्वयं की क्रूर बुद्धि का त्याग किया। यह शक्ति उपाध्याय श्री पुष्कर इस बात की कर रहे थे कि होश में आने के समाचार आयेंगे मुनिजी म. सा. की है। पुष्प कहै, पुष्कर कहै, मुष्कर कहै। किन्तु हुआ अलग ही, संथारे के समाचार सुने ही थे कि आखिरी क्या-क्या गुण गायें॥ पैगाम की सूचना १५ मिनट बाद ही मिली
मराठी में कहते हैं "गड आला पण सिंह गेला' दुर्ग जीता पर शेर जैसा आदमी चला गया। जिन्होंने देव इन्द्र की प्रतिमा को
। दीप स्तंभ उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी तराशा था। विविध प्रतिभाओं के पैलुओं से पारदर्शक बनाया था।
साध्वी रोशनकंवर जी म. (न्यायतीर्थ) कम से कम एक बार भी झांक लेते अपने आइने में तो सार्थक हो
(स्व. श्री विरदीकंवर जी म. की सुशिष्या) जाता सारा प्रयास। किन्तु विधि के विधान तो कुछ विचित्र होते हैं। कैसी आंटी चूंटी घुट जाती है कर्मों के उदय की कि मनुष्य के सारे पुष्प स्वयं सुंदर है, उसे सुंदरता का बाना पहनाने की पुरुषार्थ बौने हो जाते हैं।
आवश्यकता नहीं होती। देव इन्द्र का साया था वह, काया थी फौलादी।
पुष्प के सौन्दर्य का वर्णन नहीं करना पड़ता, न ही उसकी याद आशीर्वाद दिए थे अनगिन, माया सारी भुला दी। या में स्मृति धाम बनाने पड़ते हैं। फूल से प्रसरित सुवास ही उसका
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} ७६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीवन और दर्शन बन जाती है। उसे चाह नहीं होती कि, कोई । अत्यन्त सुन्दर थी। सरल-सीधी भाषा में आगम के गहन विषय की उसके पास आए, उसकी तथा उसके महक की प्रशंसा करे। फूल प्रस्तुति करना उन्हें खूब आता था। उनमें सद्गुण, बौद्धिकता एवं की सुवास को संग्रहीत करने कलम-कापी या कैमरा सक्षम नहीं है, . सदाचार-संयम का अनूठा संगम था। जप और ध्यान उनके जीवन न ही लेख-संगीत या शायरी
में ताने-बाने की भाँति बुने हुए थे। ऐसे ही जिनशासन उपवन में एक सौरभमय पुष्प थे हमारे तप, जप एवं ध्यान की निरन्तरता में जनता चमत्कार ढूँढने पूज्यवर। जिनकी साधना पर, सौरभ पर, लेखनी पर जैन समाज की अभ्यस्त है। श्री उपाध्याय जी म. सा. के प्रभाव की चर्चा में को गौरव है। पू. श्री उपाध्यायजी का जीवन काँटों के बीच गुलाब जनता के जिह्वारथ पर चढ़ कर चारों ओर पहुँचती थी, मुझे भी ही था। इस सुंदर गुलाब ने कठिनाइयों को सहन कर अपना जीवन वर्षों से उसकी गूंज सुनाई देती थी। प्रभुचरणों में अर्पित किया।
सन् १९८८ में उपाध्याय श्री जी का वर्षावास इन्दौर में था। जन्मभूमि भी भाग्यशालिनी है जहाँ ऐसे महापुरुष ने जन्म
वहीं पहली और अंतिम बार मुझे उनके दर्शन एवं सान्निध्य का लिया। उपाध्याय श्री के सद्गुणों का वर्णन शब्दातीत है। क्योंकि । सौभाग्य मिला। तब उनके अगाध शास्त्रज्ञान की बहती गंगा में आपके गुणों का न छोर है, न ओर है। ऐसा प्रतीत होता है एक
अवगाहन करने का मुझे मौका मिला। मैं नित्य ही नए-नए प्रश्न विशाल गुणों का सागर ठांठें मार रहा है। मैं कहाँ से प्रारम्भ करूँ? | लेकर उनकी सेवा में उपस्थित होती और वे बड़ी तत्परता, कैसे करूँ? क्या लिखू ? लेखनी तो उठा बैठी हूँ लेकिन कुछ समझ
तन्मयता एवं स्नेह से मेरे प्रश्नों का उत्तर देते। उनकी तत्त्व में नहीं आता पहले किसका वर्णन करूँ। उनके अन्दर विद्वत्ता थी,
विवेचन की शैली मेरे मानस में अभिनव उत्साह का संचार करती। वात्सल्यता तथा परदुःखकातरता भी थी साथ ही साथ वे सुलेखक
कई बार वे प्रातः प्रवचन में उन्हीं प्रश्नों के उत्तर विशद रूप से भी थे। उपाध्याय श्री भले ही इस तन से चले गये पर हमारे हृदय
देकर जनमानस में तत्त्वज्ञान की रुचि जगाते। में चिरकाल तक यादें विद्यमान रहेंगी। महापुरुष जब अपने नाशवान तन का परित्याग कर देते हैं तो वे अपने गुणों से
उपाध्याय श्रीजी गुरुवार को पूर्ण मौन रखते थे। मैंने सोचा, अजर-अमर हो जाते हैं। कुछ आत्माएँ इस रूप में जन्म लेकर ।
आज मौन के कारण आगमचर्चा नहीं हो पाएगी, अतः उस दिन अपने आदर्शों को छोड़कर जाती हैं।
मैंने छुट्टी कर दी। आधे घण्टे तक वे मेरी प्रतीक्षा करते रहे, फिर
सन्देश भेजा कि आप आ जाइए, आगम चर्चा तो मौन में भी हो अम्बर का तुझे सितारा कहूँ, या धरती का रत्न प्यारा कहूँ?
सकती है। वे प्रायः कहते, शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग में बिताया त्याग का एक नजारा कहूँ, अथवा डूबतों का तुझे सहारा कहूँ? ..
गया समय ही सार्थक होता है। उनकी वात्सल्य-वर्षा पाकर मुझे कई जैन समाज पर आपका जो उपकार है वह अवर्णनीय है। जैसे बार मेरे गुरुदेव श्री मालवकेसरी सौभाग्यमल जी म. सा. की स्मृति सागर को गागर में भरना असम्भव है, ऐसे ही आपके गुणों का हो उठती। उपाध्याय श्रीजी से भी मैं कहती कि आपके व्यक्तित्व वर्णन करना मेरी बुद्धि से बाहर है। आपका व्यक्तित्व हिमालय से एवं स्वभाव में मुझे गुरुदेव की झलक मिलती है तो वे कहतेऊँचा, सागर से गंभीर, मिश्री से मधुर और नवनीत से भी मालवकेसरी जी से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और वे उनके साथ सुकोमल था। आपश्री की आत्मा जहाँ पर भी विराजमान है वहाँ } बिताए क्षणों की स्मृति में खो जाते, फिर अचानक उनके संस्मरण आत्मा को शान्ति मिले। ऐसे सुलेखक के चरणों में श्रद्धा सुमन सुनाने लगते। उनकी उदारता, गुणग्राहकता, गांभीर्य देखकर मन अर्पित करते हुए
श्रद्धा से भर उठता। शत-शत वन्दन !
प्रवचन सभा में उपाध्याय श्रीजी एवं तत्कालीन उपाचार्य श्रीजी
को एक साथ देखकर मुझे चाँद-सूरज युगल की अनुभूति होती। गुरु णमो उवज्झायाणं : एक स्मृति चित्र ) उपाध्याय पद पर और शिष्य उपाचार्य पद पर रहे, यह भी
इतिहास की एक अनूठी मिसाल है। अपने प्रिय शिष्य श्री देवेन्द्र -महासती डॉ. ललितप्रभाजी। मुनिजी म. सा. को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित पाकर उनका मन
कितना आल्हादित हुआ होगा, हम केवल कल्पना कर सकते हैं। अध्यात्मयोगी सन्तरल उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. का व्यक्तित्व भव्य एवं अनूठा था। वार्तालाप की शैली अत्यन्त मनमोहक
उपाध्याय श्रीजी देह से भले ही आज हमारे बीच नहीं रहे पर थी। बातचीत के प्रसंग में उनकी दृष्टि उपस्थित व्यक्ति के विचारों अपने विशिष्ट गुण-विग्रह से वे सदैव हमारे साथ रहेंगे। उनकी की गहराई को मापती हुई सी प्रतीत होती थी। आगन्तुक को सहज स्मृतियाँ जन-जन के मन पर अमिट रहेंगी। जब-जब उनकी याद ही अपना बना लेने की प्रवृत्ति उनकी विशेषता थी। प्रवचन शैली आएगी, मन कह उठेगा
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
ওও
हे उपाध्याय! हे महामुने!
प-से पवित्रता अर्थात् जिसके मन-वचन-काय के योग पवित्र हैं उज्ज्वल यशगाथा जगत सुने
तथा करण भी पवित्र हैं वह उन्नत है। तुम जंगम पुष्कर तीर्थ बने
अ-अ-(आ) पवित्रता एवं उन्नति जीवन में आदि-अन्त तक है, महिमामण्डित थे स्नेह सने
कहीं से भी देखो वही रूप मिलता है, कृत्रिमता नहीं होती है। जब जब आएगी हमें याद
ध्-से अर्थ ध्वनित हो रहा है आत्मगुणों को धारण करना गूंजेगा मन में मधुर नाद
और इसी में इस पद की गरिमा है, उन्नति है, पवित्रता है। जय उपाध्याय जय जय पुष्कर
'या' ने अपना रूप बताया, केवल अपने को याद रखो। यहाँ श्रद्धा प्रसून लो ज्योतिर्धर !
जो कुछ दिख रहा है वह सब कुछ तेरा नहीं है।
___'य'-पुनः य की ध्वनि से हम बोध पा रहे हैं कि उपर्युक्त गुणों [ उपाध्याय पुष्कर : बूंद में समाया सागर की महिमा यति धर्म की है।
- इस उपाध्याय अक्षरों से किस प्रकार परिचित हो रहे हैं वही -साध्वी डॉ. सरोज श्री
तो जीवन मिला था एक अद्भुत योगी को जिसका नाम बच्चे-बूढ़े-DOS 'उपाध्याय' यह वृहत् स्वरूप हमें देखना है, परखना है। पर
जवान सभी को याद है। सभी को उस रूप की पहचान है। तीर्थों चहुँ ओर से, नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे, आस-पास देखना है,
का तीर्थ, अहिंसा, संयम, तप की साकार प्रतिमूर्ति, प्रतिभा का कि यह क्या अनमोला रूप प्रत्यक्ष हुआ?
ओज, वाणी का जादू, आदर्श व्यक्तित्व का वैभव वाला उपाध्याय lated
पुष्कर मुनिराज। यह उपाध्याय पुष्कर श्रमणसंघ में, जन-जन में - महामंत्र पंच परमेष्ठी का यह एक पद है। इसकी गरिमा इसकी
अमृत बाँटते कभी थकता नहीं था। महिमा स्व की है पर से कोई सम्बन्ध नहीं है। जो कुछ इसके पास है वह यहाँ से नहीं लिया, जन्म के साथ ही लाया था और साथ ही
जिनके सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् से युक्त संस्मरण जन-जीवन को ले जाएगा। सत्यता तो यह है कहीं से आया नहीं और कहीं जाएगा
प्रतिसमय सम्बोधि का अनुपम लाभ आज भी प्रदान कर रहे हैं। नहीं। जन्मना मिटना इसका स्वभाव नहीं है। इस उपाध्याय जीवन उपाध्याय पुष्कर मुनिराज की शिक्षा है उन्नति, पवित्रता, सत्यता, की कोई कथा कहानी नहीं। क्योंकि इस जीवन में सत्यता ही
। यही जीवन जीने की निसरणी है। उन्होंने बताया कि इस निसरणी सत्यता है। यह स्वरूपमय है। कल्पना को तो इसका रूप दिखता ही। पर मैं चढ़ा था, अगर तुम भी चढ़ोगे तो पाओगे मुक्तिधाम। और 903 नहीं।
। उन्होंने कहा था कि मुमुक्षु साधको! अपने आपका अध्ययन करने
से उन्नति होती है। व्यक्तित्व श्रेष्ठ श्रेष्ठतर बनता हुआ ऊपर उठ उप+अध्याय जो स्व में अपने आपको विलीन कर ले वह
जाता है। पवित्रता को अपना सकता है। उपाध्याय।
ये उपाध्यायमय पुष्प आकाररूप में हमारे समक्ष नहीं हैं। इस उपाध्याय पद में कुछ सस्वर व्यंजन है और कुछ स्वर रहित व्यंजन है। और कुछ स्वर हैं। इन सभी वर्गों के समन्वय से ।
आकार स्थायी होता भी नहीं। किसी भी फूल ने स्थायी रूप पाया तथा समन्वय ध्वनि से गूंजन होती है। वह गूंजन वर्णों की
भी नहीं लेकिन उसकी सुगन्ध सदा-सर्वदा सर्वत्र व्याप्त हो गई। वह विविधता में अपना एक रूप देती है। जो वर्ण अपने-अपने वर्ण से ।
| कभी समाप्त नहीं होती इसी प्रकार पुष्कर सुगन्ध हमने पायी। युक्त हैं लेकिन समन्वयात्मक ध्वनि से वह एक ही वर्ण के हो गये।।
पुष्कर का अर्थ है बहुत, आदि अन्त रहित। वही यह पुष्कर है, यह उपाध्याय स्वरूप की गरिमा है कि आत्मा जब तक 'स्व' में
1 देखने वाले विविध हो गये पर यह पुष्कर वही है, कल भी वही था लीन नहीं थी तो बिखरी हुई थी। उसकी गूंज में, ध्वनि में।
और कल भी वही रहेगा। इस फूल का नाम था “उपाध्याय श्री रचनात्मक वीर्य स्पष्ट नहीं हो रहा था। अनेकता में उसकी निजी
पुष्कर मुनि जी महाराज"। इसकी गुण सुगन्ध ने दिग्-दिग्न्त में - पहचान नहीं हो रही थी। जब बिखरा रूप सिमट कर एक हो गया
अपनी सौरभ से आनन्द उल्लास प्रदान किया था। आज भी मिल तो अनन्त-अनन्त गरिमा से सुसज्जित चमत्कारों के रूप से रूपायित ।
रहा है। होकर स्पष्ट हो गया।
____महिमामय आत्म पुष्कर तेरे पास पक्षपात नहीं है। तूने सुगन्ध सन उपाध्याय उ-प- अ - अ - ध् - या - य।
लुटा दी अब कोई भी ले अतः मुझे भी यह सुगन्ध मिली। उसी को
स्मरण करती हुई चन्द भावों को तेरे लिए प्रस्तुत कर रही हूँ। इस उपाध्याय के पद में उ-से हमें समझाया जाता है उत्तम बनो, उन्नति करो, ऊपर उठो।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
गुरुदेव! आपके चरणों में भावभीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित चमकता तारा टूट गया
करती हूँ। -साध्वी विनयप्रभा जी
जग कहता है रहे नहिं,
मन कहता है गये न हिं। उपाध्याय श्री सूर्य समान तेजस्वी, धर्म के सारथी, धर्म के
जग भी सच्चा मन भी सच्चा, श्रेष्ठ चक्रवर्ती, अनंत गुणसागर, समाज भूषण, अनुपम अशरण को
सभी में हैं पर दिखे नहीं ॥ शरण देने वाले, श्रेष्ठतम ध्यानयोग के साधक, दिव्य, यथानाम तथागुण सम्पन्न जैसे पुष्प दूर-दूर तक अपनी सौरभ फैलाकर अनेक मनुष्यों के मन को ताजगी से भर देता है, और हृदय को प्रफुल्लित
आस्था की ज्योति उपाध्याय श्री बनाता है। उसी प्रकार इस विश्व में ध्यान-साधना-तपसाधना-जप साधना
-साध्वी चेलना जी D की सुगन्धि फैलाने वाले, दिव्य जीवन की कला सिखाने वाले,
(उप प्रवर्तिनी महा. श्री शशिकान्ता जी म. की पौत्री शिष्या) समाज को गौरवान्वित कराने वाले, शासन की शान बढ़ाने वाले,
‘स्वर्गादपि गरीयसी' यह भारतभूमि युगों-युगों से सन्तों, प्रवचन के माध्यम से प्रभावना करने वाले अपनी उत्कृष्ट प्रज्ञा
महात्माओं, मुनियों, मनीषियों और ऋषियों की तपोभूमि रही है वाले, श्रेष्ठतम जीवन जी कर प्रेरणा का पान कराने वाले गुरु
और इन महात्माओं के कारण ही इस भूमि को अखिल चराचर चरण में समर्पणता करने वाले आप महापुरुष थे, आपके गुणों का
जगत को ज्ञान का दिव्य प्रकाश बाँटने और अखण्ड निजानन्द धर्म वर्णन करने में मेरी शक्ति नहीं है, फिर भी सिकन्दराबाद के
का सन्देश विकीर्ण करने का सौभाग्य मिलता रहा है। वर्षावास में जो अनुभव हुआ, वह स्मृतियाँ आज भी आँखों के सामने दिखाई देती हैं। आपकी पहाड़ी आवाज, निर्भीक वृत्ति, स्पष्ट
धर्मज्ञान की इस अजन, निर्बाध परम्परा के संवाहकों में इस तत्त्वयुक्त धारणा मजबूत थी, श्रद्धा आत्मस्पर्शी, ओजस्वी थी।
वर्तमान शती में भी एक मूर्धन्य परमसन्त का नाम उभर कर हमारे HD प्रभावशील वचनों से जनता का दिल आनंद से विभोर हो जाता
समक्ष आया है, जिनका समस्त जीवन सर्वजन-कल्याण और था। दुःख की बात यह है कि लाड़ले प्यारे लाड़ले संयम
अधोगामी समाज के पुनरुत्थान के लिए समर्पित रहा है। प्राणिमात्र सिन्धु, शास्त्रज्ञान के विशाल सिन्धु वरड़िया कुल के चंद्र,
से प्रेम करना, अहिंसाधर्म का पालन करना और अनेकान्त दर्शन विजामाता के संदीप, पिता जीवन के रलद्वीप, आत्मप्रकाशक,
के माध्यम से सबके लिए मोक्ष के द्वार अनावृत करना ही जिनका आनन्द के उल्लास, पुष्कर की सुहास, वाणी भूषण गौरवर्ण,
एकनिष्ठ ध्येय रहा है, ऐसे ही प्रातः स्मरणीय सन्त, अध्यात्म-योगी, सुगठित देह धारक, चिन्तन से परिपूर्ण, धरासम सहिष्णु सूर्य समान
उपाध्याय परमपूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के लिए सूर्य तेजस्वी ऐसे सुशिष्य की आचार्य पद-पट्टाभिषेक महोत्सव के बाद
को दीपक दिखाने जैसा कुछ कहने का दुस्साहस मैं कर रही हूँ। श्री आशीर्वाद रूपी आँखों से और अमृत भरे शब्दों से, वात्सल्य भरे
पुष्कर मुनिजी म. तो साक्षात् ज्ञान-राशि, अन्तर्दर्शी चिन्तक और मातृ हृदय से और कोमल हाथों के आशीर्वाद से, भावभीनी नजरों
कल्याण स्वरूप थे, जिनके विषय में मुझ अल्पज्ञ का कुछ कहना, से आपके पद्ममल के चरणों से भले ही शारीरिक पीड़ा से आप
आशा है, एक क्षम्य धृष्टता मानी जायेगी। द्रव्य रूप से नहीं, परन्तु भावरूप से आप उन्हें अलंकृत सदा करते जैसा बहुविदित है, मुनिश्री ने पूज्य गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी
रहे, अदृष्टाशक्ति से आपकी कृपा दृष्टि बनी रहे, भक्तों के महाराज के पारसवत् सान्निध्य में गहन शास्त्राभ्यास करके अपनी Fro श्रद्धाकेन्द्र बने रहे, जनमानस में आपकी आत्मशक्ति जागृत रहे। जन्मजात प्रतिभा को मणिकांचन योग प्रदान किया। गुरुदेव श्री _ जैसे सूर्य चन्द्र अखिल विश्व को दूर से ही प्रकाशित करते हैं,
पुष्कर मुनिजी बहुश्रुत, बहुभाषी, प्रखर विद्वान थे जिनका प्राकृत, वैसे ही आप ज्ञान किरणों से अपने भक्तों के अंतर् मानस को
संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी प्रभृति अनेक भाषाओं आलोकित करें, अपने आशीर्वाद की छत्रछाया से आत्मशान्ति की
पर पूर्ण अधिकार था। आपकी वाणी अपने विलक्षण ओज और
प्रसादगुण से बच्चे, जवान, बूढ़े, नर और नारियों के चित्त को अनुभूति प्रदान करें, और संघ को शक्ति प्रदान करें, वटवृक्ष की तरह संघ को हराभरा, पल्लवित और सुगंधित करें।
समान रूप से सहज आलोकित कर देती थी। आपके व्यक्तित्व में
प्रभाव, मौलिकता, आकर्षण और रस का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण इस पावन अवसर पर मेरी प्रभु से यही प्रार्थना है कि आपकी था कि देखते ही बनता था। वाणी के साथ ही वे लेखनी के भी वरद छत्रछाया सदा हमारे पर रहे, और आपकी छाया में हम सदा धनी थे और साहित्य के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ अमूल्य एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष करते रहें। यही हार्दिक तमन्ना है कि आपका । अविस्मरणीय रहेंगी। विशेषतः जैन कथा साहित्य के प्रचार-प्रसार में मंगलमय आशीर्वाद सदा मुझे मिलता रहे।
उनका योगदान हमारे लिए एक अनमोल थाती है।
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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आपश्री के बहुज्ञ शिष्यों में सूर्य चन्द्र के समान दो शिखरस्थ प्रमुदित प्रफुल्लित कर देती थी जैसे कुमुदिनी को चन्द्रकिरणें। नाम हैं : आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. और कलम के आपश्री के शिष्यों की लम्बी सूची में उनके दो अनन्य शिष्य सूर्य GRA धनी ज्ञानज्योति श्री गणेश मुनिजी शास्त्री म., जो उनकी ज्योति और चन्द्र की भाँति जिन-शासन के गगनमण्डल में भासित हो रहे शृंखला को अक्षुण्ण धारण किये हुए हैं।
हैं, और वे हैं आचार्य-प्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. तथा लेखिनी _मैं अधिक पिष्टपेषण न करके अपनी अनन्त श्रद्धा और
के धनी ज्ञानज्योति श्री गणेश मुनिजी शास्त्री। धन्यता के दो फूल ही उन उपाध्याय श्री की चरणवंदना में अर्पित गुरुदेव उपाध्याय श्री सागर के समान गम्भीर थे और उनके करती हूँ, जो जिनशासन के गगनमण्डल में सदा-सर्वदा भासित व्यक्तित्व के वैराट्य का अंकन करना मुझ सरीखी अल्पमति के रहेंगे।
लिए कठिन अथच दुस्साध्य भी होगा।
तथापि जैसे कोई अबोध बालक असीम प्रकाश को अपनी श्रमण-संघ के सत्यनिष्ठ सन्तरत्न भुजाओं की परिधि में समेटना चाहे, वैसे ही मैं भी श्रद्धातिरेक में
गुरुदेव श्री के सम्बन्ध में कुछ कहने की धृष्टता करती हुई इन -साध्वी श्री मीना जी म. (एम. ए.) शब्दों में अपनी श्रद्धा-भावना व्यक्त कर रही हूँ(उप प्रवर्तिनी महा. श्री शशिकान्ता जी म. की सुशिष्या)
आप बादल नहीं, स्वयं आसमान थे, भारतीय संस्कृति सन्तों की महिमा एवं उनके सद्गुणों की
आप पुष्प नहीं, स्वयं ही उद्यान थे। गरिमा से सदैव अनुप्राणित होती रही है और उनके तप, त्याग एवं
क्या कहने हैं आपकी योग साधना के, सर्वोच्च आत्म-साधना की ज्योति का अमर प्रकाश विश्व के
आप पुजारी नहीं, स्वयं भगवान थे। जन-जन को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए प्रकाश-स्तम्भ बन गया है। यह वह प्रकाश है जो जीवन की यथार्थता एवं जीवन सत्यों को सतत् उद्घाटित करता रहता है।
पुष्करणी में पुष्कर खिल गया भारत-भूमि का यह परम सौभाग्य है कि वह अमर ज्योति श्रृंखला कभी क्षीण नहीं हुई और महर्षियों, मुनियों, मनीषियों,
-साध्वी श्री शोभा (जैन सिद्धान्ताचार्या) ANd सन्त-महात्माओं की एक अविच्छिन्न परम्परा यहाँ जीवन्त रही
"पुष्करणी में पुष्कर खिला था, सौरभयी जिनकी महान। आयी। सर्वजन कल्याण एवं पतनोन्मुख समाज का उत्थान करने के
ज्ञान-ध्यान-स्वाध्याय का ही, रहता था जिन्हें काम॥ लिए वे सदा अवतरित होते रहे और सत्य और अहिंसा का दिव्य
ऐसे महर्षि गुणियों के गुण, गा और करे सन्मान। प्रकाश उन्होंने मन्द नहीं होने दिया। 'मित्ति मे सव्व भूए सु' का
देवों में इन्द्र यूँ ऊँचे, शिष्य उनके “देवेन्द्र" भगवान ।। उदार सिद्धान्त उन्होंने ही किया और अखण्ड भ्रातृत्व और प्राणिमात्र से प्रेम करना समस्त विश्व को सिखाया। इन सन्तों ने ही भारत का पावन-पावत्र वसुन्धरा हमशा महापुरुषा स माडत मोक्ष और अक्षयसुख के द्वार सभी के लिए खोले। ऐसे ही एक रही है। यहाँ पर अनेकों महापुरुषों ने अपने जीवन के महान प्रातःस्मरणीय सन्त जो इसी बीसवीं शती में अवतरित हुए वे थे। आदर्शों से भूले-भटके पथिकों का पथ-प्रदर्शन किया। उन अध्यात्म-योगी उपाध्याय परम पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी
महानात्माओं की पावन पंक्ति में परम श्रद्धेय ध्यान-योगी अध्यात्म महाराज, जो साक्षात् ज्ञानपुंज, गहन विचारक एवं महामनीषी थे।
वेत्ता तत्त्वदर्शी श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का स्थान अनुपम है। आपने पूज्य गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज के पावन सान्निध्य में महर्षि-गुणज्ञ-गुरुवर्य श्री जी के पावन दर्शन चाहे उपलब्ध नहीं गहन एवं विस्तृत शास्त्राभ्यास किया।
हुए, परन्तु जिस भी भव्यात्मा ने आपश्री जी के तेजोमय दिव्य प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी प्रभृति
दर्शन पाये वह कृतकृत्य हो जाता था। आपका भव्य व्यक्तित्व बहुभाषी विद्वान इन मुनिश्री की वाणी में अद्भुत ओज,
उत्कृष्ट आध्यात्मिक संयम-साधना, ज्ञान-ध्यान की आराधना, प्रासादिकता और प्रभावोत्पादकता का अक्षुण्ण प्रवाह था। जैन कथा
विनम्रता से परिपूर्ण था। साहित्य के प्रसार-प्रचार में आपका योगदान अविस्मरणीय रहेगा श्री संघ में ऐसी महान-पुण्यात्मा विभूतियों का वियोग सहन और युगयुगों तक अद्वितीय रहेगा। आपके मुख का प्रभामण्डल करना और कमी को पूर्ण करना अति दुर्लभ ही नहीं, दुष्कर है। आबाल-वृद्ध, नर-नारी सभी को अपनी ओर सहज आकर्षित करता शासनेश प्रभु की अपार दया से शासन प्रभावक, साधु रल, था और बच्चे, बूढ़े, नर, नारी सभी उनके सान्निध्य में समान रूप आचार्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. जैसे महान् सुशिष्य की PP से धन्य होते थे। उनकी प्रभावभरी, रसभरी वाणी सभी को वैसे ही । संघ पर दीर्घकाल तक छत्रछाया बनी रहे और साधु-साध्वी,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ की रक्षा रूपी कृपा दृष्टि रखते रहे की परिचालना अपने अन्तर् के केन्द्र से थी, बाह्य से प्रभावित ताकि इस तीर्थ को आपश्री के महान आदर्शों की सद्प्रेरणा । होकर जीवन जीना उन्हें अस्वीकार्य था, तभी तो “जहा अंतो तहा मिलती रहे।
बाहि" का जिनसूत्र उनके व्यक्तित्व से अर्थ पाता था। बाहर और अन्तर् का द्वंद्व नहीं होने से उनके भीतर समग्रता का सूर्योदय
हुआ। बाहर से होने वाले द्वंद्व से वे निर्द्वद्व रहे यहीं से उनकी जानहू सत अनत समाना
ऊँचाइयों को मापा जा सकता है। -साध्वी राजश्री, एम. ए. (संस्कृत) शिष्य के रूप में वे सुयोग्य रहे तो गुरु के रूप में सुयोग्यतम! (महासती श्री चारित्रप्रभा जी की सुशिष्या) अपने हाथों से जिस मूर्ति को गड़ा, उसी को मंदिर में सजाकर
पूजकर स्वयं को विदा कर लिया। मरण को सुमरण बना दिया संत अनंत को अपने भीतर समेट कर जीता है। अस्तित्व के
जिसे स्व का स्मरण होता है, वही मरण को सुमरण बना सकता है। साथ उसके व्यक्तित्व तथा उसके व्यक्तित्व के साथ अस्तित्व का
मरण के बाद भी वे अमृतधर्मा रहे क्योंकि जो मरता है, वह संत अनहनाद गूंजता रहता है। संत का व्यक्तित्व अस्तित्व की श्रेष्ठतम
नहीं होता। संत तो सदैव अमृत होता है। नश्वर से ईश्वर की ओर संरचना है, क्योंकि वह अपने आपको समग्र के लिए समर्पित
बढ़े उनके चरण मृत्यु न होकर चिर-जीवन की कामना है, अगर करता है। संत की गति, वृत्ति, प्रवृत्ति व प्रकृति के साथ जुड़ी है,
अमृत की इस आराधना को मृत्यु कहेंगे तो फिर जीवन क्या होगा? जो निखिल चराचर का अपने भीतर संवरण किए हुए है।
जीवन के अमर अधिष्ठान में वह महान चेतना रूपायमान हो इसी परम श्रद्धानिधि उपाध्याय पू. प्रवर गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी सदा कांक्षा के साथ अमृत पुरुष गुरुप्रवर की स्मृति को शाश्वत म. इस सत्य के मूर्ति मंत प्रतीक थे। उनके संतत्व में एक प्रणाम। रचनात्मक साधुता थी, वे जहाँ भी जाते सृजनात्मकता उनके साथ-साथ चली जाती। शैशव जब कैशोर्य की संकरी गली से गुजर ।
कृतज्ञता के दो बोल POP रहा था तभी वे महामना संत रत्न महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. के आँखों के तारे बने। अपनी साधना के साथ अभिनव रचना के
-साध्वी प्रियदर्शना 'प्रियदा' व्य फूल खिलाए। एक योग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य के रूप में उनकी
घटना उन दिनों की है, जब मेरी जीवन-यात्रा का दसवां 288 संयम-यात्रा गतिशील हुई। संयम की यात्रा पर वे गतिशील रहे और
बसन्त चल रहा था। अध्यात्मयोगी, वात्सल्यवारिधि, परम श्रद्धेय गतिशीलता ही प्रगतिशीलता का पर्याय है। संतत्व को उन्होंने लिया
पूज्य गुरुदेव श्री उपाध्याय-प्रवर पुष्कर मुनिजी म. सा. अपनी ही नहीं अपितु साधुता को जीया था। हर क्षण जागृति की यात्रा पर
शिष्य मंडली के साथ उदयपुर संभाग में पधारे। हमारी दादीजी श्री उनके चरण बढ़ते रहे, गतिशील पांव प्रगति के गीत गाते रहे,
चन्द्रकंवर जी म. सा. एवं भुआजी श्री चंद्रावती जी म. सा. ने आगे बढ़ने का यह क्रम कभी रुका नहीं, हर अवरोध को बिना
आपकी निश्राय में दीक्षा अंगीकार की हुई थी। मेहता परिवार विरोध के झेल गए। उत्तेजना से दूर हटकर उन्होंने चेतना के ।
आपकी वरद् कृपा पाकर अनुग्रहित था और है। नवोनमेश को जगाया इसीलिए वे साधना के सहज संगायक थे।
हमारे पिताश्री श्रीमान आनंदीलाल जी मेहता हमेशा आपके प्रेरणा के प्रतीक पुरुष के रूप में वे सदा स्मरणीय रहेंगे,
| ज्ञान-वैराग्य गर्भित आध्यात्मिक प्रवचनों को सुनने पधारते थे, और उनकी प्रेरणाओं के सहन दल कमल कभी मुझाए नहीं, अपितु
हमें भी साथ में ले जाते। गुरुदेव का प्रवचन प्रारंभ होते हीउनकी सृजन सुगन्ध जन-मन के अन्तश को तरंगायित करती रही। जहाँ गए वहाँ समता, प्रेम, शान्ति का प्रसाद बांटा। आस्था और
“जय हो जय हो साधु-जीवन की, विश्वास की समन्वित ज्योति जलाई। निराश आँखों में आशा का
साधु जीवन की त्यागी जीवन की।" 30 अंजन आंझा, टूटे हुए परिवारों को जोड़ा। बिखरती हुई ___ ये भावपूर्ण पंक्तियाँ सुनते ही हृदय झंकृत हो जाता, वाणी
सामाजिकता के एकता सूत्र बने। उनका व्यक्तित्व सेतु की तरह था, । मुखरित हो उठती थी। श्रोतागण झूम-झूमकर बड़ी तन्मयता के साथ जो दो अलग हुए तटों को जोड़ता था।
ये पंक्तियाँ गाते थे। सुप्त आत्माओं को भी मानो जागरण का मंत्र महाप्राण गुरुवर स्वयं नाव, नाविक, पतवार तथा सागर थे।
मिल गया हो। उनकी श्रद्धा जलराशि में जो जितना डूबा वह उतना ही तिर गिया। गुरुदेव के त्याग-वैराग्य से संपृक्त मुखारविंद से निकली हुईं ये उनके जीवन का एक अनूठा पहलू यह भी था कि उनकी चेतना ने } गीत की पंक्तियाँ बच्चा-बच्चा गुनगुनाता रहता था। उसमें मैं भी कभी आवेश में प्रवेश नहीं किया। स्वयं को उस धरातल से कभी एक थी जो चलते-फिरते, उठते-बैठते हर वक्त इन पंक्तियों को विचलित नहीं किया जहाँ से वह ऊर्जा प्राप्त करते थे, उनके जीवन गुनगुनाती रहती थी।
काजल
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श्रद्धा का लहराता समन्दर का
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एक बार जब दादीजी म. सा. के स्थान पर मस्ती में ये साथ रहने की अनुमति मिल जाय तो जीवन-भर आपके साथ पंक्तियाँ गा रही थीं तब वात्सल्यमूर्ति दादीमाँ ने मेरे समीप आकर रहकर साधना कर सकूँ। वात्सल्य से सिर पर हाथ फिराते हुये कहा-"तुझे साध्वी बनना
इस बाल चेष्टा के समक्ष सभी चकित थे। गुरुदेव ने अपना पसंद है?" मैंने कहा-"हाँ, मुझे साध्वी बनना अच्छा लगता है।"
पाँव पीछे किया, और एक भाई ने हाथ पकड़ कर मुझे दूर हटाया। दादी म. सा. ने तब बड़े वात्सल्य के साथ सिर पर हाथ फिराते हुये कहा-'तब तो कल तुझे गुरुदेव के पास ले चलूँगी, चलेगी न?'
1 भाई ने समझाया- 'तू लड़की है न, साथ में जाना तो दूर तू मैंने कहा-'जरूर चलूंगी।'
गुरुदेव को छू भी नहीं सकती है।' दूसरे दिन दादीजी म. सा. व भुआजी म. सा. मुझे मदनपोल ___उस समय के बाल-मन को बड़ी ठेस पहुंची। स्थानक में गुरुदेव के पास लेकर गये। शांत-एकांत नीरव स्थान पर । मैं घर की ओर लौट गई, गुरुदेव विहार कर गये। इस घटना गुरुदेव का सामीप्य पाकर हृदय धन्यता का अनुभव कर रहा था। का हृदय पर गहरा प्रभाव अंकित हो गया। धर्म की ओर रुचि
मुझे आगे करके दादीजी म. सा. ने कहा-'गुरुदेव! यह बढ़ती गई, और स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक अभ्यास भी आनंदीलाल की छठवीं लड़की है। इसे धर्म में बड़ी रुचि है। आपका । चलता रहा। भजन-'जय हो जय हो साधु जीवन की' हरदम गुनगुनाती रहती
इधर मेरे बड़े बहन महाराज श्री विजयश्री जी म. सा. ने है। इसे आत्मबोध देने की कृपा कीजिये।
पंजाब सिंहनी परम पूज्या महासती श्री केसरदेवी जी म. सा. व गुरुदेव ने मेरे ऊपर वात्सल्य-रस की वर्षा करते हुये। अध्यात्मयोगिनी महासती श्री कौशल्यादेवी जी म. सा. के पावन फरमाया-'बेटी ! तुम्हारा नाम क्या है?'
सान्निध्य में १२ वर्षों से दीक्षा अंगीकार की हुई थी, उस समय "गुरुदेव ! प्रियदर्शना'
उनका विचरण क्षेत्र दक्षिण भारत हैदराबाद था। गर्मी की छुट्टियों में
पिताजी के साथ मैं भी हैदराबाद पहुँची। गई तो केवल दर्शनों के अच्छा, भगवान महावीर की बेटी। वही प्रियदर्शना है क्या?
लिये थी किन्तु हमेशा-हमेशा के लिये वहाँ की हो गई। अब ध्यान लगाकर सुनना'अरिहंतो महदेवो'-अरिहंत भगवान मेरे देव हैं।
वैराग्य रंग ऐसा चढ़ा कि धार्मिक पढ़ाई ही रुचने लगी। दो
। वर्ष तक वैराग्यकाल में अध्ययन किया। 'जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो'-जीवन पर्यन्त के लिये सच्चे साधु मेरे आराध्य गुरुदेव हैं।
सन् १९७९ की अक्षय तृतीया को दीक्षा निश्चित हुई। संयोग
से आचार्य भगवंत आनंद ऋषिजी म. सा. का व उपाध्याय प्रवर 'जिणपण्णत्तं तत्तं'-जिनेश्वर भगवान द्वारा बताया हुआ तत्त्व
| गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. एवं साहित्य वाचस्पति वर्तमान में सिद्धान्त ही मेरा धर्म है।
जो आचार्य पद पर सुशोभित हैं श्री देवेन्द्रमुनि जी म. सा. भी वहाँ 'इअ सम्मत्तं मए गहियं'-इस समकित-रल को मैं ग्रहण समुपस्थित हो गये। करती हूँ।
उन घड़ियों में मेरे गुरुणीजी म. सा. को व मुझे अपार करुणासिंधु गुरुदेव ने मुझे समकित का स्वरूप समझाया।
प्रसन्नता हो रही थी। जीवन के उषाकाल में जिस सद्बोधि का जीवन भर जमीकंद त्याग की व नवकार महामंत्र की एक माला
बीज अन्तर्हृदय में वपन किया; पुनः उसका अभिसिंचन करने व फेरने की प्रेरणा दी।
दीक्षाकाल में आशीर्वाद प्रदान करने आप हैदराबाद पधार गये। मेरे जीवन में ये स्वर्णिम क्षण अपूर्व थे। जीवन में पहली बार
दीक्षा के समय के मंगलमय उद्बोधन व आशीर्वचन मेरे मुझे सच्चे आनंद की अनुभूति हुई।
जीवन की अनमोल निधि हैं। विस्तार-भय से सभी घटनाओं का गुरुदेव से इतना आंतरिक लगाव जुड़ गया कि स्कूल का समय उल्लेख कर पाना कठिन प्रतीत हो रहा है। १९७९ का हमारा छोड़कर लगभग सारा समय वहीं बीतने लगा। जब यह सुना कि- चातुर्मास आचार्य श्री व उपाध्याय श्री के साथ में हुआ। चार मास गुरुदेव! विहार करने वाले हैं तो सुनते ही आँखें बरसने लगीं, फिर
तक हम भरपूर लाभ लेते रहे। सोचा रोने से क्या होगा? गुरुदेव से विनती करूँगी, मुझे भी साथ ले चलो, फिर क्या था? मन में दृढ़ निश्चय कर लिया और ।
__ अब मैं अपने पाठकों का ध्यान सन् १९९३ वर्ष की ओर व्याख्यान समाप्ति के बाद जब सभी लोग जा चुके थे मात्र तीन
आकर्षित करना चाहती हूँ। | चार भाइयों के साथ पिताजी से गुरुदेव बात कर रहे थे. मैं मौके चौदह वर्षों के बाद पुनः हमने जनवरी १९९३ में नांदेशमा की टोह में वहीं खड़ी थी-जैसे ही बात पूरी हुई कि गुरुदेव के ग्राम में गुरुदेव के दर्शन किये। शरीर शिथिल हो गया था फिर भी चरण पकड़ लिये। गुरुदेव मेरे पिताजी को समझा दीजिये, आपके आवाज में वही ओज और वही मस्त जीवन।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
महकता पुष्प
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-साध्वी सुमिता एक दिन संध्या के समय सिद्धाचलम् की बाल्कनी में किताब पढ़ रही थी। सहज ही सामने ध्यान गया। पुष्पवाटिका में विविध रंग-बिरंगी पुष्प खिले हुए थे। जो मानव मन को मोह लेते थे। गुलाब के एक पौधे पर कुछ फूल खिले हुए थे पर उनमें एक पुष्प मुझाया हुआ नजर आया। मन में विचार चक्र शुरू हुआ कि फूल अपनी सुन्दरता से सबको आकृष्ट कर लेते हैं और अपनी भीनी-भीनी सुरभि फैलाकर मुझ जाते हैं। क्षणिक (अल्प-सा) जीवन भी सार्थक कर जाते हैं।
शास्त्र में चार प्रकार के फूलों का वर्णन आता हैकई फूल ऐसे होते हैं जिनमें सौंदर्य भी होता है और सुवास भी। कई फूलों में सुन्दरता तो होती है, पर सुवास नहीं होती। कई फूलों में सुवास होती है, पर सुन्दरता नहीं। कई फूल ऐसे भी होते हैं जिनमें न तो सुवास, न सौंदर्य ही होता है।
इसी तरह चार प्रकार के मानव होते हैंकई मानवों में आचार की सुन्दरता एवं ज्ञान की सुवास होती है। कई मानवों में सद्गुणों की सुवास होती है, पर आचरण नहीं। कई मानव ऐसे जिनमें आचरण होता है, पर सद्गुण नहीं। कई मानव ऐसे जिनमें न आचरण, न सद्गुण।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि महाराज का जीवन खिले हुए गुलाब की तरह ज्ञान की सुवास से महकता था और आचरण की सुन्दरता से दर्शनीय था। सबका मन मोहकर दिग्दिगंत में अपनी गुण एवं यश सौरभ फैलाकर चला गया।
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जीवन की मस्ती पर ये पंक्तियाँ सहज उद्गीत हो जाती हैं
"जिंदगी की वो इक आला हस्ती थे जिंदगी में वो फकीराना मस्ती थे। जिनकी शान में है कौम का सिजदा
जिंदगी में चमकती रोशनी की बस्ती थे।" नांदेशमा के बाद हमने गुरुदेव के दर्शन 'चादर महोत्सव' के अवसर पर किये।
शरीर में काफी शिथिलता आ गई थी। फिर भी वंदना करने वाले को हाथ उठाकर शुभाशीष प्रदान करना आपका सहज स्वभाव नहीं गया। जंगम तीर्थ पुष्कर-गुरु के श्री-चरणों में जो भी पहुँच जाता, शुभाशीषों से उसकी झोली भर जाती थी। जन्म-जन्म के पाप धुल जाते थे। आपने कई पापात्माओं को पुण्यात्मा बनाकर महात्मा के उच्च स्थान पर आसीन किया है। आपकी कृपा अपार है। आप साक्षात् कृपासिन्धु व करुणावतार थे। आप अक्सर कहा करते थे
"रोता आया मानव जग में, अच्छा हो अब हँसता जाय।
और दूसरे रोतों को भी, जैसे बने हँसाता जाय॥"
आप जीवन की अंतिम-बेला तक मुस्कुराते रहे। संथारावस्था में हमने देखा, तपोलीन साधक परमानंद प्राप्ति की लगन में ऊपरऊपर उठता चला जा रहा है। कबीरदास के शब्दों में आपकी मृत्यु महोत्सव बन गई
जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द।
मरने से ही पाईये, पूरण परमानंद॥ गुरुदेव का पार्थिव-शरीर हमारे मध्य नहीं रहा, किन्तु भावात्मक रूप से वे अब भी अपने भक्तों के हृदय में विराजमान हैं।
आपकी वाणी हम नहीं सुन पा रहे हैं, किन्तु अब ऐसा लगता है, अपने शिष्य-शिष्याओं के मुखारविंद से आप ही बोल रहे हैं। आप बेशक चुप हैं, किन्तु सदियों तक आपकी आवाज आपश्री के सद्साहित्य के माध्यम से गूंजती रहेगी। व्यक्ति, परिवार व देश को 'जैन कथाएँ' सम्यक् मार्गदर्शन करती रहेंगी। अंधकार में भटकती, ठोकरें खाती हुई भव्यात्माएँ आपके द्वारा प्रदत्त ज्ञान-रश्मियों में मार्ग टटोलती रहेंगी। ऐसा पूर्ण विश्वास है।
'तू चुप है लेकिन सदियों तक गूंजेगी ये साज तेरी। दुनियाँ को अंधेरी रातों में, ढांढस देगी आवाज तेरी॥"
गुरुदेव हम सदैव कृतज्ञतापूर्वक आपके बताये मार्ग पर अग्रसर होते रहें-इसी मंगल मनीषा के साथ भावपूर्ण शत-शत वंदन! अभिवंदन। अभिवंदन! अभिवंदन!! अभिवंदन!!!
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अमूल्य हीरा खो दिया
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-साध्वी कमलप्रभा शास्त्री
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उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. की वाणी में गजब का ओज, माधुर्य और प्रवचन करने की ऐसी सुन्दर कला थी कि सारी जनता भाव-विभोर हो जाती थी। आपकी वाणी से वीरवाणी का सुन्दर निर्झर प्रवाहित होता था। आपश्री के मंगलचरण जहाँ भी पड़े,
आपश्री की मधुरवाणी ने और दिव्य साधना ने वह चमत्कार दिखाया कि नास्तिक भी आस्तिक हो गये।
आप में किसी भी प्रकार का दुराव-छिपाव नहीं था। आप विराट् हृदय के धनी, जप और ध्यान योगी थे। आप जिधर गये वहाँ जन-जन को आकर्षित किया।
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
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आपने ७० वर्ष के दीर्घ समय तक संयम की साधना की। पू. पण्डितरत्ना प्रभागुरुणीजी म. सा. के मुखारबिंद से सुनने को आपके अचानक यूं चले जाने से जो खोया वह कभी पा नहीं मिलती हैं। जैसे प. पूज्य गुरुदेव गणेशलालजी म. सा. ने मिथ्यात्व सकते। भाव विह्वल हृदय से हम सब आपको श्रद्धा के सुमन अर्पित की भ्रान्ति को दूर किया और कई श्रावक और श्राविकाओं को करते हैं।
प्रतिज्ञाबद्ध किया था कि वह कभी भी मिथ्यात्वी देवता की
आराधना नहीं करेंगे। यदि कोई दैवीय शक्ति से दुःखी था तो उसके योगीश्वर
दुःख को दूर किया। बस इसी प्रकार अध्यात्म-योगी पू. श्री पुष्कर
मुनि जी महाराज के प्रति भी प्रगाढ़ श्रद्धा के बोल पू. गुरुणीजी म. -साध्वी प्रतिभाकंवर जी सा. के मुखारबिन्द से कहते सुना कि वह भी एक महान् संयमी
साधक थे। जो दुःखी, पीड़ित मानस की चेतना को सम्यक् शक्ति के आलोक रश्मि बिखेरता हुआ सहस्रांशु जनमानस के अधंकार
आलोक से भर देते थे। जिनकी कृपा से अनेक व्यक्तियों की को नष्ट करने के लिए उदित हुआ। उसका उदित होता हुआ
समकित दृढ़ बनी है। हमें तो दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं प्रकाश वह बिखरी हुई किरणें सोये मानस को झकझोर कर जगाने
हुआ पर फूल की सौरभ और महापुरुषों की गुणों की सुगन्धि वायु वाली वह रश्मियाँ जिसके सामने बिचारा चन्द्रमा सिमट कर रह
से ज्यादा तेज गति से प्रसरित होती है। यह एक दिव्य भव्य आत्मा गया। तारों की बारात अस्ताचल पर डूबती-सी दिखायी देने लगी।
थी। जिनके विषय में जितना कहें उतना ही कम है। जब हम उनका अंधेरा तो दुम दबाकर नौ दो ग्यारह हो गया।
साहित्य देखते हैं तो हर पंक्ति में नवीनता ही दृष्टिगोचर होती है। _उसी समय मेरी चेतना ने चिन्तन में गोते लगाना प्रारम्भ । जितनी बार पढ़ो उतने बार अनोखे ही भाव जानने को मिलते हैं। किया। चेतना चिन्तन में खो गयी, क्या अकेला सूरज ही आलोक ऐसे महान् लेखक थे वह महापुरुष जो आज नश्वर शरीर से हमारे की रश्मियों को बिखेर कर संसार का अंधकार मिटा सकता है? 1 मध्य नहीं हैं पर उनका साहित्य, उनका आदर्श गुण यह सब हमें क्या उसके सानी और कोई संसार में नहीं है? मेरी सुप्त प्रज्ञा ने सर्चलाईट के समान मार्गदर्शित करता है। उनकी अनुपम निधि जागृति के स्वर में जबाब दिया-नहीं। अकेला सूरज तो सिर्फ | हमारे लिए पाथेय के समान काम आयेगी। ऐसे अध्यात्मयोगी द्रव्यान्धकार को दूर कर सकता है। द्रव्य रूप में रहे चाँद तारों के जनमानस में अपने त्याग की प्रतिभा से छाने वाले उस योगी को प्रकाश को मंद कर सकता है। लेकिन संसार में सूर्य के समान अंतर के कण-कण से शत-शत प्रणिपात करेंगे। अंत में इसी तेजस्वी पुत्र अपने माता के धवल दूध की ओर धवल प्रदान करके । शुभकामना के साथ.... जनमानस में छिपे भावान्धकार को दूर करने का कार्य करते हैं।
“अध्यात्म पथ के पथिक योगीश्वर, वह मानस के दिल के अंधकार भरे कोने को छूकर उसमें रही
जीवन को नयी दिशा प्रदान की। गंदगी को फिल्टर कर देते हैं। रिफाइन्ड करने का कार्य करते हैं। वह है संत एवं सज्जन प्राणी।
बढ़ करके संयम के शुभ पथ पर,
इस धरती के कण-कण में पावनता निर्माण की॥" संतों का जीवन आलोक भरा होता है। उनके उदित होते ही आभ्यन्तर अंधकार कोसों दूर चला जाता है। जो आभ्यन्तर अंधकार एवं चैतन्य की जागृति का ही उपदेश देते हैं। जिनके उपदेशों से जनता में जागृति आकर जन-मानस में फैले तमस को
ओ! पुष्कर गुरुदेव प्यारा..... दूर किया जाता है। तमसावृत संसार में एक नयी किरण आकर प्रकाश फैला सकती है। ऐसे ही समाज को नयी दिशा प्रदान करने
-साध्वी मितेषा वाले अध्यात्मयोगी पुष्कर मुनिजी म. सा. के. स्मृति ग्रन्थ के बारे
(लींबडी गोंडल संप्रदाय की सिद्धान्त प्रेमी
पूज्य मुक्ताबाई महासती जी की शिष्या) में सुना और लेखनी ने दिल के असीमित भावों को सीमित शब्दों में बाँधने का असफल प्रयास करने का क्रम जारी किया जिस योगी
नाम पण सुन्दर, जीवन पण सुन्दर का व्यक्तित्व चारों तरफ से हिरकणी के समान उज्ज्वल एवं निर्मल
साधना पण श्रेष्ठ उत्तम सम्यक् पुरुषार्थे करी सुन्दर। था, जिनमें चरित्र की आभा एवं संयम की प्रभा के हरपल हरक्षण
धन्य छे गुरुदेव नो मंगल जीवन! दर्शन होते थे। जिनकी पावन साधना के तले कई पामर आत्माओं ने प्रकाश पाया था। कइयों के अंधकारपूर्ण जीवन में सुखद एवं
पुष्कर = पुष् + कर = पुष = पोषण करवू सुनहरा-प्रकाश फैला था। उस प्रकाश से सभी प्रकाशित होते हैं।
तप-त्यागे आत्मानुं पोषण करे तेनुं नाम पुष्कर! चाहे वह निकट रहने वाला हो, चाहे दूर रहने वाला हो। पर उस
जैना रोम रोम माँ प्रभुभक्तिनी ने मैत्री नी विलसी धारा सुखद प्रकाश से प्रकाशित हुए बिना नहीं रहता है। बहुत सी बात
ओ पुष्कर गुरुदेव प्यारा!
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परमेष्ठीना प्रभु भजन मां पुलकित नित रहे नारा ओ आत्माने पुष् कर नारा। ओ पुष्कर गुरुदेव प्यारा! आवे साधक कोई सीदाता हृदये भर्या निराशा तेने हिम्मत हेतभर्या देता दिलना दिलासा शरणे आवेला आश्रिताना, योग क्षेम कर नारा
मान- ओ पुष्कर गुरुदेव प्यारा!
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उन्हें भव परंपरा की यात्रा को पूर्ण करना है। उनका जन्म-मरण दोनों सार्थक हुए, वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करें यही मंगल-मनीषा!
तेरे जीवन में हो, सिद्धि का सुखद सबेरा। तेरे संयम के क्षण-क्षण को नमन है मेरा॥
मेरे उपकारी गुरुदेव
-साध्वी विनयवती
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जिनशासन सिरताज स्व. श्रद्धेय सद्गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी संयम के क्षण-क्षण को नमन
म. के श्रीचरणों में विनयवती का शत-शत वंदन।
मेरे अनंत उपकारी परम पूज्य श्रद्धेय सद्गुरुदेव के गुणों का
-साध्वी संयमप्रभा (महाराष्ट्र सौरभ म. चांदकुंवर जी की सुशिष्या)
वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ। फिर भी मैं टूटी-फूटी भाषा में लिख
रही हूँ। २८ मार्च, १९९३ की मंगल प्रभात उल्लास के साथ चतुर्विध
जब गुरुदेव के पहली बार ढोल में दर्शन किए थे उस समय संघ के समक्ष समुपस्थित हुई। श्रमणसंघ के सुखद भविष्य की
मीठे, मधुर शब्दों में उन्होंने मुझे कहा-यह संसार असार है। बहुत भावना को हृदय-पात्र में बटोरकर आदर के साथ, आचार्य पद की
ही दुःख भरा है। आर्त्तध्यान करने में कोई फायदा नहीं है। उसके गरिमामय चादर पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को अर्पित की गई।
बाद आपका पदार्पण पदराड़ा हुआ। मुझे घरवाले लोक स्थानक में समारोह-संपूर्ति के पश्चात् आगंतुक गंतव्य स्थली पर पहुँचने के
दर्शन हेतु जाने नहीं देते थे। मैं चुपके से जाती थी। गुरुदेव के लिए विदा होना चाहते ही थे, तभी एक अघटित-अनियोजित
उपदेशामृत का पान करती। उस समय मैं कुछ भी नहीं समझती समारोह में शरीक होने के लिए रुकना पड़ा, वह समारोह था
थी। बड़ी अज्ञानी थी लेकिन गुरुदेव की अमृतवाणी में मुझे बहुत ही उपाध्यायप्रवर महामहिम पू. श्री पुष्कर मुनिजी म. का मृत्यु
आनंद आता था। उससे प्रभावित होकर दीक्षा के भाव जागृत हुए। महोत्सव! यह एक ऐसी मौत है जिसे जैन साधक स्वेच्छा से स्व
इतनी जड़ बुद्धि वाली थी कि पू. गुरुदेव कखगघ स्वर सिखाते थे। खुशी से स्वीकार करता है और पूर्व तैयारी के साथ अन्तिम पड़ाव पर पहुंचता है।
गुरुदेव के सदुपदेश से मेरी दीक्षा मेरे गाँव में ही हुई। गुरुदेव
के अनेक चमत्कार देखे। गुरुदेव के अनंत गुणों का वर्णन करने में विरुदावली सुनाकर जैसे योद्धाओं में जोश भरा जाता है। उन्हें
मैं असमर्थ हूँ। मेरे अंतराय कर्मों का उदय होने से गुरुदेवश्री के यदि होश हो तो जयघोष निश्चित है। वही हुआ इस महाश्रमण के
अन्तिम दर्शन नहीं कर सकी। मुझे बड़ा दुःख होता है कि मेरे जैसी साथ लगभग ४२ घण्टे तक जिनवाणी का श्रवण कराया गया,
कोई अभागिन नहीं होगी। दूर होने पर भी अंतर में दर्शनों की समय के साथ उन्होंने अन्तिम विदा ली। उसी समय मेरे भावों ने
तमन्ना लगी रहती। पर अब सदा-सदा के लिए दर्शनों से वंचित रह शब्दों का बाना पहना
गई। यह दुःख अपने जीवन के आखिर तक मैं कभी भूल नहीं कुछ पल भी ना मिले, खुशी के आलम को भुलाने के लिए। सकती। स्वर्ग में विराजित पू. गुरुदेव को मैं भावपूर्ण श्रद्धांजलि एक दर्दीला हादसा हो गया, सबके दिल को हिलाने के लिए।
अर्पित करती हूँ। शिष्य के लिए गुरु के वरदहस्त की जुदाई, संघ के लिए महान् अनुभवी साधक का अभाव दारुण दुःखजन्य तो था ही, लेकिन मैं
वे नर रत्न थे सोचती हूँ अपनी ही कृति की (आचार्यप्रवर) अलौकिक प्रतिभा, आत्मानंद की खिलती बगिया देखने के लिए शायद उम्र का
-साध्वी धर्मप्रभा 'सिद्धांतशास्त्री' तकाजा, इंद्रियों की कमजोरी और दो ही ज्ञान बाधक बनते हों,
(एम. ए. संस्कृत) इसीलिए तो वे आत्म-समाधि के सागर में डूबकर तृतीय ज्ञान के
एक रत्न जब जौहरियों के हाथों में जाता है तथा जब उसका अधिकार को पाने के लिए स्वर्गलोक की यात्रा पर प्रयाण कर गए।
परीक्षण किया जाता है, तब किसी जौहरी का ध्यान उस रल की उनका गृहत्याग सार्थक हुआ, क्योंकि जंगम तीर्थराज पुष्कर के । सुन्दरता पर जाता है, तो किसी का ध्यान उस रत्न से निकलने पए रूप में प्रतिष्ठा के स्वामी बने। उनका देहत्याग सफल हुआ क्योंकि वाली रंग-बिरंगी, चमकीली प्रभा पर। किसी का ध्यान उसकी
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। श्रद्धा का लहराता समन्दरगाह
कीमत का आंकलन करने में होता है, तो कोई सोचता है कि यह धन्य है, जिनका जीवन, अमूल्य गुण रूपी मुक्ता-माला बनकर किस खान का रत्न होगा? आदि-आदि। भिन्न-भिन्न प्रकार की मानव जन-जन के हृदय का हार बन जाता है। हिमालय से उच्च विचार, प्रकृति के अनुसार रत्न के गुणों का भिन्न-भिन्न प्रकार से निरीक्षण गंगा सी स्वच्छ वाणी रूपी जल से जिन्होंने कइयों के जीवन को हुआ। वह रन, जिसे ज्ञानियों ने पाषाण का टुकड़ा कहा है, अपने पवित्र किया हो, वे वन्दनीय हैं! अभिवन्दनीय हैं। ऐसे दिव्य पुरुष मूल्य, चमक तथा गुण के कारण जौहरियों को सोचने के लिए के प्रति संक्षेप में श्रद्धायुक्त दो शब्दों द्वारा पुष्पाञ्जलि अर्पित करती मजबूर बना देता है। वह धनवान एवं निर्धनों का आकर्षण का हुई शत-शत बार, वन्दन, अभिनन्दन करती हूँ। केन्द्र भी बन जाता है। उस पाषाण रत्न की अपेक्षा नररल की महिमा ज्ञानियों ने ।
[ मंगलमूर्ति पूज्य श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. अद्वितीय बतायी है। चाणक्य ने कहा"पृथिव्यां त्रीणि रत्लानि, जलमन्नं सुभाषितम्।
मी -साध्वी मंगलप्रभा जी मूढैः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते॥",
(बा. ब्र. पूज्य श्री शान्तिकुँवर जी म. सा. की शिष्या) अर्थात् इस विश्व की विराट् धरा पर तीन ही रत्न हैं-जल, पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ऐसे थे जिनका अन्न और महापुरुषों के सद्वचन। वे लोग अज्ञानी हैं, जो पत्थर के जीवन निश्छलता, मृदुता, सहजता एवं सौजन्यता की मंगल मूर्ति टुकड़ों को रत्न नाम से जानते हैं अर्थात् उनको रत्न कहते हैं। था, जिनका व्यक्तित्व ही अपने आप में शतानुशत विकसित, इस विराट् विश्व की धरा पर समय-समय पर तीर्थंकर,
पल्लवित, पुष्पित एवं विभूषित था। उनके दर्शन का मुझे एक ही वासुदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, धनी-मानी, दानी, योगी, त्यागी एवं कई
बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। वास्तव में मैं दर्शन करके उनके भव्य अवतारी महापुरुष हुए, जिन्होंने स्वकल्याण के साथ-साथ विश्व
आभायुक्त व्यक्तित्व से अति प्रभावित एवं आनन्दित हुई। उनकी कल्याण को महत्व दिया। उन्होंने अपने प्रबल विशुद्ध ज्ञान द्वारा
। साधना अपूर्व थी, उनकी मांगलिक का ऐसा चमत्कार था कि लोग संसार के समस्त प्राणियों को अज्ञान के अन्धकार में भटकते देखा
सुनने के लिए दौड़े चले आते थे। इस क्रूरकाल ने उन्हें भी नहीं एवं करुणावतार बनकर, समस्त प्राणियों के लिए ज्ञान का मार्ग ।
छोड़ा और सबको छोड़कर वे सदा के लिये चले गये। पूज्य 29 प्रशस्त किया।
उपाध्यायजी के अवसान से चतुर्विध संघ की एक महती क्षति हुई।
है जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में सम्भव नहीं है। ऐसे पूज्य ऐसे नररत्न महापुरुषों का जन्म जब इस धरती पर होता है,
उपाध्यायजी को मैं भावभीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर कोटि-कोटि तो यह धरती पुण्य तीर्थ स्वरूपा बन जाती है। तप, त्याग व साधना से ओत-प्रोत, अध्यात्मयोगी, विश्वसन्त, श्रमणसंघीय उपाध्याय स्व.
वन्दना करती हूँ। श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का जन्म मेवाड़ की पावन धरा पर
तेरे गुण गौरव की गाथा, धरती के जन-जन गायेंगे! हुआ। “होनहार बिरवान के होत चीकने पात" वाली कहावत के
और सभी कुछ भूल सकेंगे, पर तुम्हें भुला न पायेंगे। अनुसार बाल्यावस्था से लेकर ही आपका जीवन अद्भुत रहा। आपमें सरलता, सहजता व निर्मलता की त्रिवेणी के दर्शन होते थे। पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. श्रमण संस्कृति की गरिमा थे। आपका जीवन स्नेह, त्याग व आदर्श गुणों से सुशोभित था।
सफल शिल्पी गुरुदेव स्वच्छ विचार एवं दृढ़ संकल्प के धनी पूज्य उपाध्यायश्री जी ने
-महासती जी श्री रामकंवरजी म.,62 अपनी लेखनी से हजारों पृष्ठों में साहित्य लिखा। उनकी मौलिक
-महासती श्री इन्दुप्रभाजी म. सा. “प्रभाकर" रचनाओं के अध्ययन से हम उस दिव्य आत्मा के गुणों के दर्शन कर सकते हैं। सूझ-बूझ के धनी, दूरदर्शिता एवं लेखनी के जादू का
परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव श्री श्रद्धा के केन्द्र तो थे ही साथ ही परिचय आपकी रचनाओं से जान पड़ता है।
गुरु की गौरव-गाथा के एक महत्वपूर्ण अंग थे। आपश्री का व्यक्तित्व निखरे हुए कुन्दन की तरह प्रभायुक्त था।
वे एक सफल शिल्पी थे। जो अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा का रूप आपश्री ने भारत के विशाल भू-भाग को अपनी पादविहारी यात्रा से
देने में पूर्ण सक्षम थे। वैसे शिल्पकार मेरी आस्था के आयाम,000 स्पर्शा। धर्म की ज्योति जगा कर प्रभु वर्द्धमान की अमृत-वाणी का
अन्तर् हृदय में विराजमान द्विय ज्योति एवं मेरे श्रद्धास्पद पूज्य दिव्य संदेश जन-जन तक पहुँचाया। आपके ज्योतिर्मय जीवन के
भगवान हमारे बीच नहीं रहे। प्रकाश में आने वाले प्राणी आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। किन्तु उन्हीं द्वारा निर्मित कुछ प्रतिमायें हमारे सम्मुख आपश्री का जीवन आदर्शयुक्त है तथा प्रेरणा का स्रोत भी। विराजमान हैं। मैं उनसे यही इच्छा करती हूँ कि इस छोटे से कंकर
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को शंकर बनाने में आप श्री भी पूर्ण सक्षम है। आपकी स्नेह, सद्भावना ही हमारा मार्ग प्रशस्त कर सकेगी।
आदरांजलि
-महासती सुशीलकुँवर जी (स्व. पू. श्री अमृतकुंवर जी म. की सुशिष्या) STUER
"संतः स्वतः प्रकाशते, न परतो नृणाम् कदा। आमोदो नहि कस्तूर्थ्या, शपथेन विभाव्यते ॥"
अर्थात् सत्पुरुषों के सद्गुण स्वयं ही प्रकाशमान होते हैं, दूसरों के प्रकाश से नहीं । कस्तूरी की सुगन्ध शपथ दिलाकर नहीं बतायी जाती, उसकी खुशबू ही उसकी महत्ता प्रकट करती है। उसी प्रकार महापुरुषों का जीवन भी सद्गुणशीलता, सदाचार की सुगन्ध से सुरभित होता है और सुरभित कर देता है। साधना के उत्तुंग शिखर पर पहुँचने के लिए सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्र की मशालें लेकर अज्ञान अंधकार विच्छिन्न करने के लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। मार्ग में आने वाले संकटों का सामना मुस्काते हुए करके आगे बढ़ जाते हैं। उनका नाम इतिहास के पृष्ठों पर सुवर्णाक्षर में अंकित हो जाता है।
ऐसे संत पुरुषों के जीवन की दिव्य-झाँकी जन-जीवन के अन्तस्थल में तप, त्याग एवं संयम की उदात्त भावनाएँ जगाती है, व्यक्ति को जीवन में कुछ कर गुजरने को प्रेरित करती है और जीवन-निर्माण की दिशा में आगे बढ़ाती है।
"महापुरुषों की जीवनी हमको यह बतलाती है।
उनका अनुसरण करने वाले को उच्च बनाना सिखाती है। कालरूपी खेती पर चिन्ह वे जो तज जाते हैं।
आदर्श उनको मानकर आगन्तुक भी ख्याति पा जाते हैं ।"
ऐसे महामनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी महायशस्वी प्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का जीवन संत परम्परा की एक कड़ी है।
आपश्री ने बाल्यकाल में ही दीक्षा लेकर अल्पसमय में ही आगमों का एवं अनेक भाषाओं का गहरा अध्ययन किया। आपश्री स्पष्ट एवं निर्भीक, सुशिक्षा के प्रकाशक, धर्म के प्रभावक, आध्यात्मिक चिकित्सक, उदात्त विचारक, ज्ञान-ध्यान के उपासक ऐसे सर्वतोमुखी सर्वांगीण सार्वभौमिक सन्त पुरुष थे। आपश्री ने अपने मुख से, लेखनी से एवं जीवन से जनता को जो-जो दिया वह आज भी जनमानस पर अंकित है और रहेगा।
"जग में जीवन श्रेष्ठ वही, जो फूलों-सा मुस्काता है। अपने गुणों से सारे जग के कण-कण को महकाता है।" परम हर्ष की बात तो यह है कि वर्तमान के श्रमणसंघीय आचार्यप्रवर पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. आपश्री के ही शिष्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
रत्न हैं। आप जैसे महान विभूति का सन्मान, बहुमान करना याने अपनी संस्कृति-सभ्यता को अमर बनाना है, अपने आपको धन्य बनाना है। आपश्री के पवित्र पावन पद पंकजों में भावभीनी पुष्पांजलि सादर, सश्रद्धा समर्पित करते हुए आनंदानुभूति हो रही है।
जिसने पुष्कर को पाया
-सायी संघमित्रा
(बरेली सम्प्रदाय)
जिसने भी पुष्कर छाया को पाया, उसने जीवन के हर कष्ट से छुटकारा पाया था यह मेरा भी अनुभव है। पुष्कर के चले जाने से पुष्करहीन जीना भी कठिन है। गुरुदेव पुष्कर मुनिजी सिर्फ जैनियों के ही वन्दनीय नहीं थे। उनका संयममय जीवन अजैनों के लिए भी श्रद्धास्पद रहा है। आज समाज ने काल की चक्की में एक अनमोल रत्न पीसा जाता देखा, समाज में गुरुदेव पुष्कर की कमी कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती । गुरुदेव पुष्कर सी मिसाल मिलना मुश्किल है।
पुष्कर दिन दिल सबका निष्प्राण हुआ। माली जाता बाग भी वीरान हुआ ।
यह समाचार भी दुखदायी है
-साध्वी सुमन कुँवर जी म. -साध्वी कीर्तिसुधा जी म.
उपाध्याय पुष्करमुनि जी के देवलोक के समाचार सुनते ही बहुत दुख हुआ। ऐसे तो बहुत दिनों से स्वास्थ्य के समाचार सुनते थे किन्तु ऐसा नहीं सोचा था कि आज ही वह दिन उदित होगा। पांचवाँ आरा दुखदायी होता है ऐसे ही हमें हमारे बुजुर्ग जी महान् संत थे जैसे आचार्य १००८ श्री आनंदऋषि जी म. सा. तथा उपाध्याय पुष्करमुनिजी म. सा. ऐसे महान् संत हमें छोड़-छोड़ के गये हैं। यह समाचार ही हमारे लिये दुखदायी है।
मनीषी सन्त रत्न
-महासती श्री शान्ताकुमारी 'शास्त्री' (मालव सिंहनी स्व. श्री कमलावती जी म. सा. की सुशिष्या)
भारत भूमि अनंत काल से अध्यात्म भूमि रही है। महापुरुषों के प्रति श्रद्धाशील रही है। ऋषि, मुनि एवं संतों का व्यक्तित्व और कर्तृत्व सदा प्रेरणादायी एवं सामान्य जन से विशिष्ट होता है। उन्हीं
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Posato } श्रद्धा का लहराता समन्दर महापुरुषों की श्रृंखला में हैं हमारे आराध्य परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री बीच रहते हुए कभी माया करते नहीं देखा। यहि इनके जीवन को पुष्कर मुनिजी महाराज।
एक शब्द में ही कह दूँ जल कमलवत् जीवन जीते हैं तो कोई जैसे फूलों की महत्ता उसकी सुगंध है, दीपक की महत्ता प्रकाश
अतिशयोक्ति नहीं होगी। गुरुदेव कभी किसी से उपालम्भ की भाषा है वैसे ही मनुष्य जीवन की महत्ता उसके सद्गुणों से है। इसी
से नहीं बोलते थे। इन सब गुणों से युक्त गुरुदेव को निकटता से प्रकार आपश्री जी सद्गुणों के भंडार थे। आपने जैन संस्कृति के
देखा पर उनमें बनावटीपन नहीं देखा। गौरव को और विश्व के कण-कण को सुगंधित किया।
स्वाध्याय प्रेमी मैं अपनी श्रद्धा का निष्काम दीप जलाकर भावों के अगणित गुरुदेव एक ऐसे जन सन्त थे जो सदैव स्वाध्याय साधन में रत पुष्पों से अपनी श्रद्धांजलि गुरु चरणों में समर्पित करती हुई मुक्त रहते थे। वे पढ़ने-पढ़ाने में दत्तचित्त हो जाते थे कि आपको पता भी 6000 की भाषा में चंद पक्तियाँ लिखकर विराम लेती हूँ।
नहीं चलता कि कौन आया और कौन गया। अस्वस्थ अवस्था में भी संसार में आते हैं वो दुनियाँ का कल्याण करते हैं
पढ़ने-पढ़ाने का क्रम नहीं टूटा अन्तिम अवस्था तक स्वाध्याय का। और जग को चमक देकर मन में यादें छोड़ जाते हैं।
सहिष्णुता वह एक सितारा था जो चमक देकर चला गया
- सरलता और सहिष्णुता ही आपका कवच था, जो मन से वही उन्हीं की याद में शांता श्रद्धांजलि अर्पित करती है।
वाणी में था और जो वाचा में वही कर्म में था। आपके स्वभाव की सबसे बड़ी विशेषता थी। अन्तर् और बाह्य की एकरूपता गुरुदेव:58
की दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा नहीं था। वे ज्ञान पिपासुओं को बिना साधना पथ के अमर साधक
किसी भेद-भाव के ज्ञान प्रदान करते थे तथा अपने स्नेह को
वात्सल्यपूर्ण भाव से सभी जिज्ञासुओं पर समान रूप से उढ़ेलते थे। 6.00 -साध्वी डॉ. दर्शनप्रभा
उनका उद्घोष था ‘समियाए धम्मे' समता में धर्म है। वे दयाशील (महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. की सुशिष्या) थे. आपकी भाषण-शैली चमत्कारपूर्ण थी, गुरुदेव की सरल मार्मिक लाखों आते लाखों जाते, दुनियाँ में न निशानी है,
अमृतमयी वाणी और संसार की असारता के उपदेश से प्रभावित जिसने कुछ उपकार किया, उनकी ही अमर कहानी है।
होकर ही मैंने संसार के दावानल से मुख मोड़कर, इनके पावन
चरणों में मन लगाना उचित ही समझा। ताकि आत्म-शक्ति को फूलों की महक अमित है, उसे कोई मिटा नहीं सकता,
अभिव्यक्त कर शान्ति पथ की ओर गमन कर सकें। तुम मरण पाकर भी अमर हो, इस सत्य को कोई झुठला नहीं सकता। गुरुदेव का सान्निध्य मुझे एक वसीयत के रूप में मिला है। मैंE:
यह ऋण संभवतया इस जीवन में तो चुकाने में अक्षम हूँ उनकी मनुष्य के जीवन में सद्गुरु की प्राप्ति होना एक महान्
पावन स्मृति से मेरा हृदय सुवासित था, रह-रहकर आपकी यादें उपलब्धि है। 'गुरु' एक आध्यात्मिक शक्ति है जो मनुष्य को नर से
आज मेरे मन को कचोट रही हैं। मेरा मन उपाध्यायश्री के DS: नारायण और आत्मा को परमात्मा बना देती है। गुरु ऐसे श्रेष्ठ
चरण-कमलों में अपनी श्रद्धा की कलिकाएँ अर्पण करने के लिए DDD कलाकार होते हैं, जो एक अनपढ़ ठोकरें खाते हुए जीवन रूपी
बेचैन हो उठा है। यद्यपि मेरे मन को मालूम है कि अब किसी भी प्रस्तर को अपने सत् प्रयासों द्वारा जनता में पूजनीय और वन्दनीय
तरह से मिलने वाले नहीं हैं, किन्तु इस अधीर मन को समझना and बना देते हैं।
बड़ा कठिन है। मन को केवल श्रद्धा के पुण्य अर्पित करने का 6 जिनके तप का त्याग का आ सकता न अन्न।
आश्वासन मात्र दे सकती हूँ। अनेक गुणों से युक्त आपके महान् मुश्किल से मिलते यहाँ ऐसे सच्चे सन्न।
जीवन का मैं क्या वर्णन करूँ। मैं उस महापुरुष के चरणों में श्रद्धा360 अगर ये सत्य संयम का, हृदय में बीज ना बोते।
सुमन एवं श्रद्धा पुष्प अर्पित करती हूँ। यूँ ही संसार सागर में, न खाते हम कभी गोते।
पुष्कर गुरु की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गाएगें। न पावन आत्मा होती, न जीवित मन्त्र ये होते।
और सभी भूल सकेंगे, पर तुम्हें भूला न पाएगें। कभी का देश मिट जाता, जो ऐसे सन्न ना होते।
अब गुरुदेव की सुनहरी शिक्षाओं से हम सदा-सदा के लिए उपाध्यायप्रवर गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी के विषय में क्या । वंचित हो गए। गुरुदेव अपनी ख्याति के सुमन इस धरती के लिखू और क्या नहीं लिखू। आपके जीवन में दूसरों की बढ़ती हुई । कोने-कोने में बिखेर कर अमर हो गये। यदि गुरुदेव के गुणों में से प्रगति देख ईर्ष्या नहीं देखी। प्रतिकूल प्रसंगों में इन्हें क्रोधित होते । एक भी गुण का अनुकरण किया जाए तो वे आज भी हमारे पास नहीं देखा। आगम-ज्ञान होते हुए भी अभिमान नहीं देखा। सबके } हैं। ऐसे श्रद्धा के केन्द्र महान् गुरुदेव के पावन-चरणों में कोटि-कोटि
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श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। गुरुदेव आप जहाँ भी हो आपकी छत्रछाया बनी रहे।
तेरे ही दम पर इस गुलशन में बहार थी,
तेरे ही कदमों में रहमते हजार थीं।
तेरे जाने से कण-कण हताश हो गया,
इस चमन का कण-कण क्या पत्ता-पत्ता उदास हो गया।
गुरु पुष्कर पावन जीवन सुरभि बिखेरता रहेगा। श्रमण संस्कृति के सरोवर में सदैव सहस्रों कमल खिलते रहेंगे। जो ज्ञान के लिए बढ़ा उस ज्ञानी आत्म का ज्ञान आलोकित करता रहेगा।
एक विशिष्ट विभूति
गमों के इन क्षणों में एक स्वर मेरा मिला दो। अर्चना के रत्नकणों में एक कण मेरा मिला दो ॥
The
-साध्यी अर्चना
कहते हैं इस असीम संसार में जो बड़ा है वह गुरु! किसी कवि ने भी इन्हीं भावनाओं को गीतों में ढाला था और कहा था 'गुरु से बड़ा न कोय। उसी परम एवं पवित्र आत्मा की अर्थात् गुरु की छत्रछाया उठ गयी। श्रमणसंघ का एक चमकता सितारा, बेसहारों का सहारा, अनाथों के नाथ ने इस दुनिया से विदाई ली। पीछे मुड़कर भी न देखा कि हमारे जाने से पीछे वालों पर क्या गुजरेगी। आपश्री के ऊपर गम का साया छाया पर श्रमणसंघ में कितनी बड़ी खाई हो गयी जिसको भरना अवश्य असंभव है।
कभी प्रकृति से संसार को कतिपय ऐसी दिव्य विभूतियाँ मिल जाती हैं जिन्हें पाकर संसार का चप्पा-चप्पा धन्य हो उठता है। उन्हीं विरल विभूतियों में एक हुए हमारे उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. उत्कट साधना, प्रखर चिन्तन आपको विरासत में मिली। तन, मन, मनन, मंथन की असाधारण प्रक्रिया से गुजरी संयमी यात्रा एक आदर्श यात्रा रही । चुनौतियों को साहस से अपनी चिन्तन की आंजुरी में झेल लिया। संकल्प की आग में निखरा आत्मविश्वास में दमकता रूप देखकर सब एक बार तो चकरा जाते ।
वेदना और विषमता के नुकीले काँटों की गोद में भी आपकी साधना का गुलाब सदा मुस्कराता रहा। अपनी महक बिना किसी भेदभाव के सबको सव काल बराबर बाँटते रहे कोई भी दुःखियारा आपके सान्निध्य में आता तो सुख अनुभव करता। थकाद्वारा आता तो ताजगी बहिरता, निराश और दिशाहारा आता तो आस्था का आलोक मुट्ठी में भर अपने गंतव्य की ओर बढ़ता ।
प्रभावशाली व्यक्तित्व, अनुकरणीय कृतित्व, प्रखर वक्तृत्व, संयम साधना के सुदृढ़ आत्मबली के धनी थे। ऐसा लगता था समस्त शुभ परमाणु जैसे एक देह में पिंडीभूत हुए हैं।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
आप क्या गये संसार को सूना कर गये, हर वृक्षों को सुखा कर गये, जलते आसमानों को बुझा कर गए। हम सबको उदास कर गये। श्रमणसंघ का एक अनमोल स्थान तो रिक्त हुआ ही साथ ही साथ साधकों का एवं शिष्यों का जीवन सूना कर गये।
आप ऐसी विशिष्ट विभूतियों में हैं जिनका इस धरती पर अवतरित होना भी जनता भूलती नहीं और जाना भी भूलती नहीं। आपने मृत्यु को भी चुनौती देकर पण्डित-मरण को प्राप्त कर मृत्यु को महोत्सव बना दिया। जीवन को गौरव से गौरवान्वित किया। धन्य तो आप बने पर हम अनाथ हुए श्रमण संघ में अँधेरा छा
गया।
एक सितारा अस्त हो गया
- साध्वी श्री रमेशकुमारी जी
श्रमणसंघ के एक-एक सितारे अस्त हो रहे हैं। ये समाज का दुर्भाग्य ही है-नए संत विशेष होते नहीं और अनुभवी संत विदाई ले रहे हैं। उपाध्यायश्री जी के निधन से संघ में जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना असम्भव है किन्तु कर्म सिद्धान्त की अटल रेखाओं को और उनके प्रभाव को अपरिहार्य समझ कर आपश्री जी व सभी संत धैर्य धारण करें हमारी सभी साध्वियों की शासनदेव से प्रार्थना है कि उपाध्यायश्री जी की पवित्र आत्मा को परम शान्ति प्राप्त हो ।
धर्म सृष्टि के दिव्य पुष्प
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-साध्वी किरणप्रभा जी म.
उपाध्याय श्री जी का होना एक सार्थक अस्तित्व का यकीन था । उन्होंने जो असाधारण जिंदगी को जीवा, उसे जो अमोल सार्थकता दी वह अमिट रेखांकित बन गयी है। आपश्री एक अखण्ड दीप के समान दीप्त रहे, आपश्री ने जो सक्रियता अपनाई थी वैसी ही सक्रियता अन्य अनेकों में जाग्रत की थी जिस तरह दीप से दीप प्रज्ज्वलित होता है वैसे ही आपसे प्रेरणा पाकर अनेक जन सेवा कार्य में संलग्न हुए हैं।
हमें भी ऐसा लगता न था निरंतर गतिमान यह व्यक्तित्व विराम भी पा सकेगा लेकिन और आज आप आचार्यश्री को भी इस काल के सच को स्वीकारना विवशता प्रतीत हो रही है क्योंकि आपनी के तो कण-कण, अणु-अणु, रोम-रोम में गुरु के प्रति अद्भुत अजोड़ ऐसी भक्ति, समर्पणता, श्रद्धा, आस्था रची-बसी हुई है जिसे कोई आँक भी नहीं सकता और न ही आपश्री की बराबरी कर सकता है।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
वे यशः शरीर में विद्यमान हैं
-साध्वी चन्दना 'कीर्ति एम. ए. (महासती श्री कमलावती जी की सुशिष्या)
एक दिन पूर्व अचानक ही इन कणों को अप्रिय समाचार सुनने को मिले कि उदयपुर में पूज्य उपाध्यायश्री ने संथारा व्रत ग्रहण कर लिया है और दूसरे ही दिन इन कठोर हृदय भेदक समाचारों ने तो हदय पर वज्राघात कर दिया।
कितनी ही चिर-चिरंतन संस्मृतियाँ दुखावेग के प्रवाह में प्रवाहित - सी होने लगीं, ऐसा लगा मानों सब कुछ अतीत में समा रहा है, शून्य में डूबा जा रहा है और सब अनुभूतियों को छोड़कर ये ही अनुभूति पुनः पुनः उठ रही हैं कि श्रमणसंघ का एक देदीप्यमान उज्ज्वल नक्षत्र अस्त हो गया।
यह हम सभी जानते हैं कि आज तक जाते हुए को कोई रोक नहीं सका है। काल के आगे सभी मजबूर हैं, निरुपाय हैं, फिर भी मन में एक विकलता-सी आ जाती है। स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि गुरुदेव हमसे इतनी जल्दी ही चिर विदाई ले लेंगे और विदाई भी ऐसी जो कभी संयोग में परिवर्तित नहीं हो सकती।
हे क्रूर नियति! तेरी विडम्बना बड़ी विचित्र है। खुशियों के गहरे सागर में जहाँ पूरा समाज डुबकियाँ ले रहा था, आनन्द से सराबोर हो रहा था, उसी समय में सभी को अन्तर्वेदना से व्याकुल कर दिया।
जिस गुरु ने अपने शिष्य को हृदय का असीम वात्सल्य रस देकर बढ़ाया, पल्लवित और पुष्पित किया, महकाया एवं अपने समक्ष ही एक महान् पदयोग्य बना दिया। मात्र अपना या अपने अन्य शिष्यों का ही नहीं बल्कि पूरे समाज का भारी बोझ अपने लाइले शिष्य के कन्धों पर दिया मानों वर्षों की उनकी भावना साकार हुई, श्रम सार्थक हुआ।
आज स्थूल देह से पूज्य गुरुदेव हमारे बीच नहीं हैं पर सूक्ष्म विचार देह से तो अब भी वे हमारे बीच हैं। उनके यशः शरीर को हम सब सुरक्षित रखें। यही अपेक्षा है।
अविस्मरणीय संस्मरण
-महासती श्री शारदा कुमारी "शास्त्री" (परम् विदुषी गुरुवर्याश्री सुमनकुमारीजी म. की खुशिष्या)
मेरा यह परम् सौभाग्य रहा है कि मैं अपनी जीवन यात्रा में अनेक शासन प्रभावक महापुरुषों के सान्निध्य से न केवल प्रभावित हुई हूँ अपितु लाभान्वित हुई हूँ कुछ ऐसे स्वर्णिम अवसर भी उपस्थित हुए जो आज भी मेरे मन मस्तिष्करूपी आकाश में नक्षत्र
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की भाँति प्रकाशमान है। इसी संदर्भ में मुझे उपाध्याय अध्यात्मयोगी, वाणी सिद्ध, व्याख्यान वाचस्पति श्री १००८ श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का सहज ही ऐसा स्मरण हो रहा है जो एक संस्मरण बन गया।
मुझे अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री जी के पावन दर्शनों का अनेक स्थलों पर लाभ प्राप्त हुआ, सर्वप्रथम दर्शन लाभ अजमेर साधु सम्मेलन में एवं जोधपुर, पीपाड़, ब्यावर, दिल्ली, मेरठ, सांडेराव प्रान्तीय सम्मेलनादि में हुए। उनकी ज्ञान साधना की गहराई देखकर मैं आनंद विभोर हो उठी, आपश्री की ज्ञान साधना का प्रकाश लेखन के रूप में परिलक्षित होता है और विचार चर्चा में भी देखते ही बनता भी। मैं आपश्री के पावन सान्निध्य में जब भी पहुँची तब मैं अपनी ओर से भी जिज्ञासा प्रस्तुत करती और आपश्री तर्क सम्मत समाधान प्रदान करते थे और कभी आप स्वयं ही अपनी ओर से प्रश्न उपस्थित कर देते थे। आपश्री के प्रश्न आगमिक और दार्शनिक से संबंधित थे आपक्षी की उत्तरशैली सारगर्भित ज्ञानप्रद और कभी-कभी आनंदप्रद रहती थी। आपश्री वर्ण से ब्राह्मण थे और ब्राह्मण ज्ञान के अधिष्ठाता होते ही हैं। आपने दीक्षाकाल से हीसमयं साधना की भाँति ज्ञान की भी आराधना की और आप अपने जीवनकाल में शिक्षा मंत्री और उपाध्यायपद से विभूषित हुए जो आपकी ज्ञान साधना की फलश्रुति है। उपाध्याय के पद पर आपश्री को देखकर और जानकर मुझे भगवान महावीर की विद्यमानता की स्मृति हो आती है। भगवान् महावीर के शासन में गणधर उपाध्याय का कार्य करते थे और गणधर ब्राह्मण थे, इस प्रकार सहज ही यह माणिकांचन संयोग बन गया।
आज वे शरीर दृष्टि से हमारे मध्य में नहीं है किन्तु अपने यशस्वी कार्य कलापों से विद्यमान है और रहेंगे। उनकी शोभा के परिचायक के रूप में उन्हीं के शिष्य श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर महामहिम आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा । मैं उनके विषय में जितना भी वर्णन करूँ उतना ही कम है। तथापि उन महापुरुष के चरणों में हृदय की गहराई से सश्रद्धा वंदनाजंली अर्पित करती हूँ।
वे
एक प्रयाग तीर्थ थे
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-साध्वी श्री संयम प्रभाजी म. (श्री शारदा जी म. की सुशिष्या)
जीवन एक सतत् प्रवाहमान सरस सरिता है, एक तट है जन्म और दूसरा तट है मृत्यु, जन्म और मृत्यु के अन्तराल का नाम ही जीवन हैं। जीवन तभी उपवन है जब उसमें सद्गुणों के सुगंधित सुमन महकते हैं, सद्गुणों के अभाव में जीवन उपवन नहीं निर्जन वन है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । इसी जीवन परिभाषा के आलोक में उपाध्यायश्री पुष्कर जाना पड़ेगा। आपकी क्षति समाज के एक वरिष्ठ प्रभावशील संत मुनिजी म. सा. के जीवन का अवलोकन करती हूँ तो मेरा अनुभव की क्षति है। मेरी कोटि-कोटि वन्दना। और अध्ययन शत प्रतिशत इस रूप में रहा है कि उपाध्यायश्री जी का जीवन महकता हुआ उपवन है। अध्यात्मिक भाषा में कहूँ तो
सहज सरल जीवन के धनी उपाध्यायश्री जी के जीवन में ज्ञान की गंगा, दर्शन की यमुना और चारित्र की सरस्वती का प्रेक्षणीय संगम हुआ है। अतः वे एक
-स्व. पुखराज मल जी लूंकड प्रयागतीर्थ के रूप में जन-जन के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गया
(पू. अध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस) और जो भी इस तीर्थ के पावन सान्निध्य में पहुँचा। उसने एक अवर्णनीय आनंद का अनुभव किया और वह सदा के लिए । जीवन में अनेक बड़े बड़े व्यक्तियों, आचार्यों तथा संत पुरुषों कृतकृत्य हो गया। वे मेरे लिए चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हुए किन्तु उनके । से सम्पर्क हुआ है किन्तु साधुता का जो विलक्षण गुण पूज्य सद्गुणों ने ऐसी प्रकाश किरणें विकीर्ण की जिससे वे महापुरुष सूर्य उपाध्याय श्री में मैंने देखा वह अपने आप में अद्भुत है। आप सदा से प्रतीत हुए किरणों से सूर्य का बोध हो जाता है यही कथन इस ही सहज और प्रसन्न रहते हैं। क्रोध, अहंकार और कपट कभी संदर्भ में सहज ही रूपायित हो गया।
आपके जीवन में मैंने नहीं देखा। उनकी इस सरलता सहजता के उपाध्यायश्री अपनी दिव्य, भव्य आकृति के रूप में विद्यमान
प्रति मेरे हृदय में अपार आस्था है ... नहीं है, किन्तु यशः शरीर से अभी भी है और भविषय में भी
(गुरुदेव श्री की ८०वी. जन्म जयन्ती पर व्यक्त उद्गार) रहेगें। ससीम भाषा में असीम श्रद्धा उनके प्रति समर्पित करती हूँ।
एक प्रबुद्ध संत
भावांजलि
-शांतिलाल छाजेड़ जैन (महामंत्री अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेन्स)
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-आर्या शांति जैन, कोद
अपने मन को संयमित, केन्द्रित करने वाले भगवान महावीर के उपदेश “एगे जिए" को आत्म-सात करने धर्मध्यान के ध्याने वाले, अध्यात्मयोगी थे उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा। जिन्होंने अपने जीवन को सार्थक बनाया, साथ ही उन्होंने जन-कल्याण के लिये मार्ग-दर्शन हेतु ग्रंथों का प्रकाशन किया, प्रवचन भी दिये, आज वे अमर हैं। पार्थिव देह के न होने पर भी जन-मानस में उनके सद्गुणों की अमिट छवि है, वह सदा-सदा के लिये उन्हें याद रहेगी। ऐसे उपाध्यायप्रवर के चरणों में मेरी तथा समस्त साध्वीमंडल की ओर से अनंत-अनंत शुभेच्छाओं के साथ। वंदन-नमन एवं भावांजलि समर्पित होवे।
आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी के गुरुवर श्री पुष्करमुनिजी का स्वास्थ्य चादर समारोह के समय कुछ अधिक ही गंभीर चल रहा था। प्रख्यात डॉक्टरों के पेनल ने जब यह घोषित किया कि शरीर के अंग-प्रत्यंग अब कार्य नहीं कर पा रहे हैं तो आचार्यप्रवर द्वारा गुरुवर की मौन स्वीकृति पाकर उन्हें संथारा का पचखाण करवा दिया। लगभग ४१-४२ घण्टों के बाद आपश्री ने इस असार संसार से विदा ग्रहण कर ली। आपके रूप में हमने एक प्रबुद्ध संत खो दिया है। आपकी श्रेष्ठता का एक सबसे उत्तम प्रमाण यही है कि आपका ही एक शिष्य आचार्य पद का अधिकारी बना। गुरुदेव की स्मृति को कोटि कोटि वंदन कर उनकी आत्मा की प्रशांति की कामना करता हूँ।
प्रभावी संत
दया के देवता
-बंकटलाल कोठारी जैन (अध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेन्स)
-अजीतराज सुराणा (भू. पू. महामंत्री अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस)
मृत्यु जीवन का यथार्थ है परन्तु जो जीवन उज्ज्वलता से परिपूर्ण होता है उसके लीन हो जाने से अंधकार फैल जाता है। उस अंधकार से उबरना कठिन हो जाता है। उपाध्याय श्री एक अत्यन्त प्रभावी संत थे। गहन एकाग्र साधना के बाद उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली मांगलिक का प्रभाव अत्यन्त ही कल्याणमय होता था। अब उनके अभाव में एक श्रेष्ठ नियोजन से वंचित रह
(श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेन्स के भू. पू. महामंत्री श्री अजीतराज जी सुराणा आज हमारे बीच विद्यमान नहीं हैं। पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री के प्रति उनके मन में बड़ी आस्था थी। १५ वर्ष पूर्व उन्होंने गुरुदेवश्री के अभिनन्दन में एक भावपूर्ण संस्मरण लिखा था, उसी का कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है।)
परम पूज्य राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज केवल स्थानकवासी समाज की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जैन
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
समाज की बहुमूल्य निधि हैं। आपका बाहरी आचार तथा आंतरिक विचारधाराएँ दोनों ही भगवान् महावीर के उपदेशानुकूल हैं। गुरुदेव से अत्यन्त निकट सम्पर्क में आने का मेरा यह पहला ही अवसर है। आपके दर्शन कर अपूर्व आत्मशांति की प्राप्ति होती है। गुरुदेव जैसे ऊँचे तपस्वी हैं वैसे ही उच्चकोटि के विद्वान भी हैं। जैन सिद्धान्तों के समस्त रहस्य आपकी जिह्वा के अग्र भाग पर स्थित हैं। भारत के विविध अंचलों में भ्रमण कर आपने जैन समाज के जीवन में जैनत्व उतारने के लिए कठोर श्रम किया है।
आपके हृदय में करुणा का सागर हिलोरें लेता है। आप जिस किसी को भी दुःखी देखते हैं उसके कष्टों को दूर करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं। दूसरे के तापों से आपका मक्खन के समान कोमल हृदय द्रवित हो जाता है।
एक बार आपश्री रायपुर में वर्षावास पूर्ण कर बिलाड़ा की ओर पदार्पण कर रहे थे कि मार्ग में बाण गंगा के निकट शिकारियों द्वारा पशुपक्षियों का क्रूर वध देखकर आपकी अन्तरात्मा रो उठी। आपने शिकारियों को मधुर वचनों में समझाया कि प्राणियों की सताना महापाप है। शिकारियों पर आपकी वाणी का अद्भुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने सदा-सदा के लिए शिकार का त्याग कर दिया।
एक बार आपने बम्बई और पूना के बीच लोनवाला के निकट काली गुफाओं में स्थित देवी मंदिर में आदिवासियों के द्वारा किए जाने वाले बलिदान को रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बलिदान करने वाले आदिवासियों ने आपका कड़ा विरोध किया। आपने कहा कि आप लोग मेरा बलिदान कर सकते हैं परन्तु मैं यहाँ किसी अन्य जीव का बलिदान नहीं होने दूँगा। अन्त में आदिवासियों का हृदय परिवर्तन हो गया और उस बकरे का अभयदान देकर उन्होंने भविष्य में कभी बलिदान न करने को प्रतिज्ञा की आप हमेशा अपने उपदेशों में भक्तों को दयाव्रत धारण करने की प्रेरणा देते रहते हैं।
सन् १९७५ में पूना में आपका वर्षावास था, उस समय पूना में बहुत तेज वर्षा हुई। झोंपड़पट्टी में रहने वाले बेघरबार हो गए। पूज्य गुरुदेव ने शौच के लिए जंगल जाते हुए उनकी दयनीय स्थिति देखी। उनका दयालु हृदय द्रवित हो उठा। लौटकर आपने अपने प्रवचन में उन व्यक्तियों की कारुणिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया। उसी समय वहाँ पर श्री पुष्कर गुरु सहायता संस्थान की स्थापना हुई। और उस संस्था के द्वारा हजारों व्यक्तियों को सहायता प्रदान की गई। आजकल भी यह संस्था दीन-दुखियों की पर्याप्त सहायता कर रही है।
आप कहीं भी सहायता की आवश्यकता अनुभव करते तुरन्त उनकी पूर्ति की प्रेरणा प्रदान करते। आपने बम्बई, आंध्रप्रदेश, राखी (राजस्थान) आदि स्थानों पर भी दुखियों के दुःख निवारण पर धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करायी।
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उत्कृष्ट साधक थे
-अशोक (बाबूशेठ) बोरा ( युवा विभाग अध्यक्ष : अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेन्स) उपाध्यायश्री ने जैसा बोया वैसा पाया। अपने गुरु के प्रति जो अनन्य आस्था उन्होंने प्रकट की वही उनके शिष्यों के द्वारा लौटकर उन्हें प्राप्त हुई। जिस ज्ञान के बीज को उन्होंने रोपित किया वह विशाल वट बनकर सबको छाया प्रदान कर रहा है। उनके शिष्य आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. ने तो उनके अगाध ज्ञान को आत्मसात किया है।
उपाध्याय प्रवर की युवकों के प्रति बड़ी श्रेष्ठ भावना थी । युवक वर्ग धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा रखते हुए जीवन में उच्चतम चारित्र्य को वहन करें यह उनकी भावना थी।
उपाध्याय प्रवर एक उत्कृष्ट साधक थे। कितनी भी व्यस्तता हो वे अपनी समाधि के लिए समय निकाल ही लेते। एक नियत समय पर सर्व कार्य छोड़कर वे ध्यानस्थ होते और उस एक घण्टे के ध्यान के उपरान्त वे असीम शक्ति से भरकर मांगलिक प्रदान करते तो श्रद्धालुजन अभिभूत हो उठते ।
वे समर्थ साधक थे
-श्री दलसुख भाई मालवणिया
जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि पूज्यपाद उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. का अवसान हो गया है। उनका अवसान हो नहीं सकता है, आचार्यश्री में उनकी सारी शक्ति मौजूद है। वे अत्यन्त सरल, मृदु, विद्वान साधक थे, उनके अवसान से कई लोगों को दुःख होना स्वाभाविक है। उनकी उदारता अपूर्व है, उसका उदाहरण मिल नहीं सकता, स्वयं समर्थ साधक विद्वान प्रभावी होते हुए भी अपने शिष्य को आचार्य बना दिया यह अन्यत्र दुर्लभ है। मेरा स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं रहा है कि मैं कुछ नया लिख सकूँ, इसी पत्र का उपयोग करें।
श्रद्धा सुमन
-जसराज चौपड़ा (न्यायाधीश राजस्थान हाईकोर्ट)*
उपाध्यायप्रवर श्रद्धेय स्व. श्री पुष्करमुनिजी महाराज मात्र एक वर्चस्वशील व्यक्तित्व ही नहीं अपने आप में एक संस्था थे उनके विराट् व्यक्तित्व का अंकेक्षण मात्र इस बात से कर दिया जाना चाहिए कि उनके द्वारा दीक्षित एवं शिक्षित शिष्य आज श्रद्धास्पद देवेन्द्र मुनि के रूप में श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य के रूप में हमें उपलब्ध हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उनकी सरलता, चित्त की निर्मलता व किसी भी व्यक्ति को परिवार पर महती कृपा थी। आप श्री की सबसे बड़ी विशेषता जो कष्ट में देखकर द्रवित हो जाने की सहजता इस बात की द्योतक है । मुझे देखने में आई वह थी आप श्री की गहरी सूक्ष्म दृष्टि; व्यक्ति कि वे कैसे पारदर्शी एवं दयालु व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी वाणी की पात्रता की पकड़ और उसकी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार में श्रोताओं को प्रभावित करने की अजस्र शक्ति विद्यमान थी। अपने कार्य करने की प्रबल प्रेरणा। मैंने आपको किसी बात के प्रति शिष्यों के साथ उनका व्यवहार पितृवत् व स्नेह से सरोबार था। आग्रही नहीं पाया। सदैव, सहज सरल प्रज्ञाशील और सर्व ग्राही जब वे व्याख्यान फरमाते थे तो ऐसा लगता था कि ज्ञान गंगा सम्पन्न पाया। आप श्री ध्यान के विशिष्ट साधक, चिन्तक एवं उनकी वाणी से सहज निसृत हो रही है। उनकी वाणी का प्रभाव संस्कृति के रक्षक असीम आत्म शक्ति के धारी आत्मानन्द में रमण इतना चुम्बकीय था कि व्याख्यान शुरू होने के बाद उनके करने वाले अद्भुत योगी थे। आप श्री का चुम्बकीय व्यक्तित्व सभी सभामण्डप को छोड़ना संभव नहीं था।
को मोह लेता था। भीतर से कोमल होने पर भी सिद्धान्तों के प्रति उनकी आस्था उपाध्याय श्री वक्ता थे तो ऐसे कि अपनी प्रवचन शैली एवं बहुत अडिग थी और समाज पर यदि कोई संकट वे देख लेते थे। सार गर्भित विचारों द्वारा किसी भी अपरिचित को सदा के लिये तो मेरू की तरह अडिग होकर खड़े हो जाते थे। चुनौतियों का
{ परिचित ही नहीं, अपितु अपना आत्मीय बनाने में भी सक्षम थे। सामना करने की उनकी शक्ति बेजोड़ थी। उनके हृदय में छोटे-बड़े आप श्री के प्रवचन केवल धर्म-कर्म का ही पाठ नहीं पढ़ाते अपितु का कोई फर्क नहीं था। सभी उनके चरणों में समान रूप से स्नेह । वे समाज का कल्याण करने वाले, मानवता की शिक्षा देने वाले प्राप्त करते थे। उनकी उपस्थिति ही हर श्रद्धालू को सहज ही इस और निकट का भाई चारा स्थापित करने वाले थे। उसका कारण बात के लिये आश्वस्त कर लेती थी कि उसकी समकित पूज्य उनका अपना सरल स्वभाव एवं मृदुता पूर्ण सम्भाषण था। आप श्री उपाध्याय के हाथों में पूरी तरह सुरक्षित है।
के भक्त निरक्षर, विद्वान, दीन दुःखी, धनी सुखी दुःखी सभी प्रकार
के लोग होते थे। मुझे इस बात का अति सुखद आश्चर्य होता था अनेक भाषाओं के वे जानकार थे और विचारों में कभी
कि आप श्री सभी प्रकार के श्रद्धालुओं को अपना सुयोग्य एवं आग्रह का भाव नहीं रखते थे। दूसरों की बात पूरे ध्यान से सुनते समुचित परामर्श द्वारा प्रसन्न ही नहीं, आनन्द ही आनन्द कह कर थे मगर सिद्धान्तों के मामले में वे किसी तरह का समझौता करने विदा करते थे। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि को तैयार नहीं थे। उपाध्याय श्री कई लब्धियों से प्रतिष्ठित थे। ऐसा आप श्री के तथ्य पूर्ण भाषणों, स्नेह-स्निग्ध वार्तालापों और सम कई बार अनुभव हुआ है कि वे भविष्य का सहज ही साक्षात्कार सामयिक विचारों से प्रभावित होकर श्रोताओं के दल के दल उमड़ कर लेते थे और अपनी प्रज्ञा और साधुचयों को सुरक्षित रखते हुए पड़ते थे और उन दलों में आबाल वृद्ध सभी होते थे। भक्तजनों के कष्ट निवारण में अपना समुचित योगदान बिना किसी
आप श्री को शास्त्रों का गहन अध्ययन था। आप जैनागम जैन भेदभाव के कर लिया करते थे। ऐसा विरल व्यक्तित्व छिन जाने से
दर्शन के सूक्ष्म पर्यवेक्षक के अतिरिक्त विविध शास्त्रों के भी मर्मज्ञ समाज को बहुत बड़ी क्षति हुई है जिसकी पूर्ति सहजतया संभव
एवं गहन अध्येता रहे हैं। आपकी महत्वपूर्ण कृतियां ब्रह्मचर्य नहीं है।
विज्ञान, श्रावक धर्म दर्शन, जैन धर्म में दान, धर्म का कल्प वृक्ष,
महाभारत के प्रेरणा प्रदीप, विमल विभूतियां, वैराग्य मूति जम्बू । महान अध्यात्म योगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि ]
कुमार, ओंकर एक अनुचिन्तन आदि है। आपका साहित्य इतना
उपदेशक एवं आकर्षक रचना युक्त है कि इनको पढ़कर मन मंदिर -न्यायाधिपति श्रीकृष्ण मल लोढ़ा (से. नि.)
पवित्र हो जाता है। (पूर्व न्यायाधीश राजस्थान उच्च न्यायालय एवं पूर्व अध्यक्ष, राज्य आयोग, उपभोक्ता संरक्षण, राजस्थान आप श्री ७० वर्ष तक कठोरता से संयम साधना में लीन रहे। अध्यक्ष श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ जोधपुर) वि. सं. २०५० चैत्र शुक्ला ११ को आप श्री ने समाधिमरण का
संकल्प लेकर संथारा ग्रहण किया और ४८ घंटा पश्चात् शान्त हो भारत भूमि रलमयी है। इस बसुन्धरा ने अनेक रत्न उगले हैं। गये। उपाध्याय श्री पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं है पर समाज में उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि ऐसे ही रत्नों में एक दीप्ति मय रल थे। अहिंसा, सेवा, ज्ञान और क्रिया की जो ज्योति प्रज्वलित की है
सर्व प्रथम तीन दशक के पहिले तपोनिष्ठ जीवन के धनी उसमें आप श्री की प्रेरणा, आप श्री का प्रकाश और आशीर्वाद बहुमुखी प्रतिभाशाली अथक अध्येता जैन धर्म के प्रति पूर्ण रूपेण | अक्षुण बना रहेगा। ऐसी महान् आत्मा को शत शत वन्दन। समर्पित व मानवता के संजीवक उपाध्याय पुष्कर मुनि के दर्शन का इस बात का गर्व है कि उपाध्याय श्री के सुशिष्य श्री देवेन्द्र लाभ मिला था। इसके पश्चात समय समय पर जोधपुर पाली, मुनि जी म. सा. श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर है जो भविष्य में दिनों किशनगढ़, अजमेर, पीपाड़, उदयपुर आदि शहरों में दर्शन करने दिन श्रमण संघ की व्यवस्था का संचालन अद्वितीय ढंग से कर का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उपाध्याय श्री की मुझ पर एवं मेरे } ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि करते रहेंगे।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साधना के अमृत कलश उपाध्यायश्री जी
-उमरावमल चोरडिया (अध्यक्ष, अ. भा. श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस राजस्थान संभाग )
सागर से विशाल मोती के समान धवल अध्यात्म साधना के उज्ज्वल नक्षत्र जप-तप ध्यानयोगी साधना सूर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का सम्पूर्ण जीवन दिव्य तेजस्विता से परिपूर्ण था । वे सच्चे अर्थों में कर्मठ जपयोगी ध्यानयोगी संत महापुरुष थे। संगठन के प्रबल पक्षधर उपाध्यायश्री ने जीवन पर्यन्त संघ व समाज में वीर वाणी का शंखनाद कर जनचेतना जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यसन मुक्त समाज की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान कर हजारों-हजार व्यक्तियों को सात्विक सदाचार जीवन जीने की प्रेरणा दी। साधना से समाधि उनके जीवन का लक्ष्य बन चुका था। उनका सम्पूर्ण जीवन मानवतावादी, धर्म को सच्चे अर्थों में जीने वाले ऐसे संत का जीवन था जो संकीर्ण विचारधाराओं से ऊपर उठकर समाज को नई रोशनी, नया चिन्तन देने वाले महापुरुष का जीवन था। उनकी पुण्य स्मरण ही पुष्कर जैसा पवित्र और हम सब के लिए मंगलकारी बने इसी शुभ भावना के साथ।
वे आदर्शों में जीवन्त हैं
-श्री नेमनाथ जैन (इन्दौर)
पूज्य उपाध्यायश्री को शास्त्रों का गहन अध्ययन होने के साथ-साथ लेखक, वक्ता, कवि और वे साहित्य सृजनकार थे। उपाध्यायश्री ने स्वयं के अध्ययन के साथ-साथ अनेकों साधु-सन्तों, श्रावक-श्राविकाओं को सहन अध्ययन कराया है। राष्ट्रीय एकता और लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों का पोषण किया। अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को सदाचार, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त का उपदेश देकर बहुजनहिताय सर्वजन सुखाय का अभूतपूर्व कार्य किया।
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पूज्य उपाध्यायप्रवर ने हमें श्री देवेन्द्र मुनिजी के रूप में ऐसा रत्न प्रदान किया जो आज हमारे सिरमौर है एवं शासन के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर जिनशासन की महती प्रभावना कर रहे हैं।
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आज उपाध्यायप्रवर हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके आदर्श, उनका साहित्य और उनकी प्रेरणा आज भी विद्यमान है और आने वाले समय में उनका बताया पथ हमारा दिशादर्शन करेगा। निकट समय में गुरुदेव की पूर्ति अपूरणीय है। उनके चरणों में श्रद्धास्पद, श्रद्धावनत वन्दन करता हुआ हृदय की अनन्त आस्थाओं के साथ श्रद्धायुक्त श्रद्धार्चना अर्पित करता हूँ।
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स्नेहमूर्ति उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी
-स्वामी अनन्त भारती
( महामहोपाध्याय ब्रह्ममित्र अवस्थी)
आज से लगभग नौ वर्ष पूर्व की बात है अगस्त १९८५ में वीर नगर दिल्ली के स्थानक में पूज्य भण्डारी जी अपने शिष्य-प्रशिष्यों के साथ चातुर्मास कर रहे थे। पूज्य भण्डारीजी से मेरा दो-तीन वर्षों से परिचय था मैं उनसे मिलने के लिए उक्त स्थानक में गया। उसी अवसर पर मुझे पूज्य उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी से मिलने का अवसर मिला। सामान्य परिचय के बाद कुछ धार्मिक चर्चा प्रारम्भ हुई। मुनिजी ने ब्राह्मण धर्म, जिसे प्रायः सनातन धर्म कहा जाता है, के कुछ महनीय पक्षों की चर्चा प्रारम्भ की, और उसके ही समानान्तर जैन परम्परा के साधना पक्षों का उल्लेख करते हुए मेरे समक्ष एक प्रश्न रखा कि क्या दोनों परम्पराओं के मूल में कहीं रञ्चमात्र भी अन्तर दिखाई देता है ? उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि सभी धार्मिक परम्पराओं के मूल में प्रेम और सर्वसमत्व की भावना प्रतिष्ठित है। सभी प्राचीन धर्माचार्यों ने प्रेम के माध्यम से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। उन्होंने अनके उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि जिस प्रकार भागीरथी का पावन नीर यात्रा करता हुआ धीरे-धीरे मलिन होता हुआ हावड़ा के पास स्नान योग्य भी नहीं रह जाता, उसी प्रकार विविध धार्मिक परम्पराओं में कालान्तर में विकार आने लगता है, और उनकी पावनता मिटने लगती है, परस्पर वैर विरोध प्रकट होने लगता है, हम साधु-सन्तों और विवेकशील पुरुषों को चाहिए कि धर्म के सदाचार पक्ष की रक्षा और प्रतिष्ठा के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहे।
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हम लोगों की चर्चा चल रही थी, तभी एक गृहस्थ परिवार उनके दर्शन के लिए आया। परिवार में पति, पत्नी और बच्चे थे। प्रणाम करके वे लोग वहीं आसन लेकर बैठ गये। मुनिजी ने कुशल क्षेम पूछने के बाद उनका व्यवसाय पूछा। वे एक व्यापारी थे। व्यवसाय के परिचय के अनन्तर मुनिजी ने पूछा- अपने व्यापार के प्रसंग में तुम कितनी ईमानदारी बरतते हो? वे सज्जन मौन रहे। मुनिजी ने उस मौन में उनका उत्तर समझकर बड़े प्रेम से उन्हें समझाया कि देखो, छल प्रपञ्च की कमाई का धन खाकर तुम्हारे बच्चों का चरित्र नष्ट हो जायेगा, और वे स्वयं तो कालान्तर में दुखी होंगे ही, बुढ़ापे में तुम्हारा जीवन भी नरक बन जायेगा। इसलिए यदि तुम अपने पुत्र-पुत्रियों को जीवन में सुखी देखना चाहते हो, अपना बुढ़ापा सुखमय बिताना चाहते हो तो व्यापार में पूरी ईमानदारी बरतो। एक बात और ध्यान में रखो कि अपनी आमदनी का एक निश्चित हिस्सा नियमित रूप से दान-पुण्य के काम में लगाओ। दान करते समय भी नाम की इच्छा न रखो।
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दान में कुछ रकम जहाँ धार्मिक संस्थाओं में उदारतापूर्वक दो, वहीं दीन-दुखियों की सेवा भी प्रेम से करो प्रेम से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।
इसके बाद हम लोगों की धर्म दर्शन विषयक चर्चा प्रारम्भ हुई। थोड़ी देर बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे संस्थान (स्वामी केशवानन्द योग संस्थान) के निमन्त्रण पर आयोजित होने वाले उत्तर प्रदेश दर्शन परिषद् के अधिवेशन में उपस्थित रहने एवं उद्घाटन समारोह के अवसर पर प्रवचन के लिए उन्हें निमन्त्रित कर उनसे विदा ली। उक्त अवसर पर भी मुनिजी ने सत्य और स्नेह को ही जीवन में अपनाने का सन्देश उपस्थित विद्वत्समाज को दिया।
उसके बाद से आज भी जब कभी उनका स्मरण आता है उनका मधुर स्नेहमय व्यवहार और सत्य एवं प्रेम का सन्देश मानस में गूंजने लगता है। पूज्य पुष्करमुनिजी जैसे सन्तों के उपदेश ही वर्तमान काल में फैल रही सामाजिक विसंगतियों का समाधान दे सकते हैं। आज भले ही उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी भौतिक शरीर से संसार में नहीं हैं, किन्तु उनके एक बार भी सम्पर्क में आये हुए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उनकी अभौतिक मूर्ति प्रतिष्ठित है जो अपने उपदेशों से चिरकाल तक उसके पथ को आलोकित करती रहेगी।
श्रुत सम्पन्न भी शील सम्पन्न भी .....
- (स्व.) डॉ. नरेन्द्र भानावत
२८ मार्च, १९९३ को श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी का चादर महोत्सव समारोह उदयपुर में संपन्न हुआ। उस दिन उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी की शारीरिक अवस्था अत्यन्त गंभीर थी। गढसिवाना वर्षावास में मैंने आपके दर्शन किये थे तब भी आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। लगता है अपने सुशिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि के चादर महोत्सव को आत्म साक्ष्य देने के भाव से ही वे समभाव में स्थित थे। चादर महोत्सव के ठीक ६ दिन बाद ही ३ अप्रैल, १९९३ को ८३ वर्ष की आयु में इस महापुरुष ने संथारापूर्वक महाप्रयाण कर दिया। भारतीय सन्त परम्परा का एक उज्ज्वल नक्षत्र परम ज्योति में विलीन हो गया।
श्रमण भगवान् महावीर ने मानव के चार प्रकार बताये हैं- १. श्रुत संपन्न, २. शील संपन्न ३ श्रुत व शील रहित तथा ४. श्रुत व शील संपन्न हो । केवल श्रुत संपन्न व्यक्ति उस पंगु के समान है। जिसके नेत्र तो हैं किन्तु पैर नहीं, और केवल शील संपन्न उस अंधे के समान है उसके पैर तो हैं पर नेत्र नहीं । श्रुत और शील रहित व्यक्ति अन्धा भी है और पंगु भी। श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जिसमें श्रुत भी हो और शील भी हो। अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि श्रुतसंपन्न भी थे और शीलसंपन्न भी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
उपाध्याय पुष्कर मुनि जी का बाह्य आभ्यन्तर व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक भव्य एवं प्रभावक था विशाल देह-यष्टि, लम्बा कद, दीप्तिमान तेजस्वी प्रशांत मुखमण्डल, उन्नत ललाट, नुकीली ऊँची नासिका, सशक्त मांसल भुजाएँ, दिव्य नेत्र, पीयूषवर्षी मेघ गर्जन । ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व का अनूठा संगम, संयम में कठोर और व्यवहार में करुण-कोमल, ज्ञान में पर्वत-शिखर सी ऊँचाई और आचार में समुद्र की गहराई, नरमाई और तरुणाई का अद्भुत
सामंजस्य ।
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आप प्रत्युत्पन्नमति सफल ध्यान साधक और संवेदनशील साहित्यकार थे। एकान्त में घण्टों बैठे आप ध्यान करते थे और अजपा जाप भी। आप कहा करते थे-जप में दो अक्षर हैं। “ज” का अर्थ है जन्म का विच्छेद करने वाला और "प" का अर्थ है पाप का नाश करने वाला। अतः जन्म-मरण का आवागमन रुकता है। ध्यान से मन की शुद्धि होती है। जप से वचन की शुद्धि होती है। और आसन से काया की शुद्धि होती है। आप प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रातः, मध्याह्न और रात्रि में जाप करते थे। भोजन की अपेक्षा भजन को अधिक महत्व देते थे। दिन में ११ बजे से १२ बजे तक ध्यान-साधना करके जब आप मांगलिक फरमाते थे तो श्रद्धालु भक्तों की अपार भीड़ जमा हो जाती थी। आपके साधनाशील व्यक्तित्व और वचन-सिद्धि के प्रभाव से अनेक रोते हुए चेहरे मुस्कान में बदले, व्याधिग्रस्त व्यक्ति रोगमुक्त हुए ।
आपके सत्संग में जो भी आता, उसे आत्म-शक्ति और मानसिक शान्ति मिलती थी आप भारतीय सन्त परम्परा के मूर्धन्य संत थे। आपका कार्य था जीव मात्र को उसके स्वभाव का बोध कराना। वृद्धावस्था में भी आप में नवयुवक-सा उत्साह और पैरों में अंगद -सी शक्ति थी। सरलता, सहिष्णुता और सरसता की प्रतिमूर्ति इस आध्यात्मिक विभूति को हार्दिक श्रद्धांजलि एवं प्रणति ।
अद्भुत करम अद्भुत धरम
-व्याख्यान वाचस्पति डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया (एम.ए., पी.एच.डी., डी. लिट्, विद्यावारिधि : साहित्यालंकार)
कर्म से निष्कर्म होने की परम्परा तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित है। द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकर्म के वातायन से कर्म का चक्र प्रायः चला करता है। शुभ और अशुभ कर्म के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं। कर्म के अधीन यह प्राणी अनन्त काल से भव-भ्रमण कर रहा है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा प्राण तत्त्व की तीन श्रेणियाँ हैं। जो शरीर से संश्लिष्ट मोहजन्य जीवन जीता है, वह प्राणी बहिरात्मा कहलाता है। शरीर और आत्मा को भिन्न समझ कर जो सत्कर्म में प्रवृत्त होकर आत्म-विकास में सक्रिय रहता है,
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
वह प्राणी वस्तुतः अन्तरात्मा कहलाता है। अन्तरात्मा का परिष्कृत रूप सन्तात्मा परमात्मा के स्वरूप का प्रवर्तन करता है। परमवंध उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. अन्तरात्मा-सन्तात्मा के उत्तम उदाहरण हैं।
उदयपुर के समीप गोगुंदा समुद्रतल से अत्युच्च समतल क्षेत्र हैं, जहाँ की प्राकृतिक सुषमा सहज आकर्षक, समशीतोष्ण जलवायु, रोग को निरोग, विपन्न को सम्पन्न और निष्क्रिय को सक्रिय होने की प्रेरणा प्रदान करता है, उसके समीप सिमटार नामक ब्राह्मण शासन प्रधान ग्राम है। यहाँ श्री सूरजमल जी पालीवाल सम्पन्न और सम्भ्रान्त जागीरदार थे। उनकी ज्येष्ठ पत्नी श्रीमती वालीबाई सदा के लिए अपने पितृगृह-नान्देशमा चली आयी और यहीं पर उनकी कुशल कोख से आश्विन शुक्ला १४, संवत् १९६७ को पुत्र रत्न का जन्म हुआ। नामकरण संस्कार में अम्बालाल की संज्ञा प्रदान की गयी। बालक अम्बालाल के शारीरिक लक्षण यशस्वी, आध्यात्मिक तथा स्व-पर कल्याणकारी नेत्तारं बनने की भविष्यवाणी करते। वित्त की तेजस्विता मति और श्रुत ज्ञान की परिपुष्टि करती । संयोग से जिनपंथी साधु-संस्कार सुलभ होते गए। फलस्वरूप ज्येष्ठ शुक्ला १० सम्वत् १९८१ को भागवती दीक्षा में प्रदीक्षित हो गए और पाया नया नाम श्री पुष्करमुनि श्रद्धेय ताराचन्द्रजी म. के अन्तेवासी बनकर पुष्करमुनि जिनवाणी की स्वाध्याय-साधना में प्रवृत्त हो गए। सतत साधना से मुनि श्री पुष्करजी के चरण निरन्तर सघने लगे और अन्ततः साधुचरण प्रमाणित हो गए। उनकी 'साहू चरिया' प्रोन्नत होती गयी और अन्ततः वे उपाध्याय परमेष्ठी के पड़ाव पर प्रतिष्ठित हो गए।
'जिन साहू' की चर्या अपनी होती है। उसमें ज्ञान-विज्ञान सम्पृक्त संयम और तपश्चरण की प्रधानता रहती है। उपाध्याय श्री पुष्करमुनि के सारे करम अद्भुत है। वे मांत्रिक विद्या के स्वामी हैं। वाणी की सिद्धि में पारंगत हैं। धर्मावरण में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि हो रही है। उनके द्वारा लोक में संयम और सदाचार के संस्कार निरन्तर विस्तार पाने लगे। वाणी ने उनकी लेखनी को वरदान प्रदान किया फलस्वरूप काव्य, कहानी तथा निबंध उपन्यास आदि काव्य रूपों में सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की ।
ग्रंथों के प्रणवन में ही नहीं, अपितु ग्रंथ से निग्रंथ मार्ग पर चलने वाली विरल सन्तात्माओं का भी निर्माण किया, अनेक सुधी संतों को उन्होंने भागवती दीक्षा प्रदान की, जिनके द्वारा आगम का उजागरण और सदाचरण का प्रवर्तन हो रहा है। उपाध्याय श्री कर्म से कर्मयोगी हैं, और धर्म से धर्मयोगी वे धन्य है, अनन्य है मेरी अनन्त मंगल कामना और भावना है कि शत-शत अब्दियाँ वे हमें चारित्र और ज्ञान आलोक विकीर्ण करते रहें। इन कतिपय शब्दों के व्याज से उपाध्याय श्री के शुभचरणों में अपनी अनन्त वन्दनाएँ अर्पित समर्पित करता हूँ।
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अन्तर्मुखी महापुरुष
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-जे. डी. जैन
(उपाध्यक्ष अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस)
अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. सा. का सन् १९८३ में दिल्ली में पदार्पण हुआ। गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु मैं पहुँचा, उस समय मैं दिल्ली महासंघ का प्रधान था अतः गुरुदेवश्री के स्वागत समारोह का दायित्व मुझ पर था, मैंने प्रथम दर्शन में ही पाया कि उपाध्यायश्री जी प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा के एक तपःपूत आत्मा हैं, उनका शरीर गौरवर्ण का था, चेहरा भरा हुआ था, उन्नत और प्रशस्त भाल, विशाल वक्षस्थल, वृषभ से कंधे, साखू पेड़-सा लम्बा सुडील कद, उपनेत्र में से चमकते हुए तेजस्वी नेत्र, मुस्कुराती हुई मुख मुद्रा और अजानु-लम्बी भुजाएँ, यह था उनका बाह्य व्यक्तित्व जिसको देखकर कौन आकर्षित नहीं होता, प्रथम दर्शन में ही मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ।
सन् १९८३ का चातुर्मास "चांदनी चौक" दिल्ली हुआ, उस वर्षावास में मैंने बीसों बार गुरुदेवश्री के दर्शन किए और भावभीनी प्रार्थना की कि आप गाजियाबाद पधारें। गुरुदेव श्री गाजियाबाद | पधारे और तीन महीने तक वहाँ पर विराजे भी, उस समय बहुत ही सन्निकट रहकर गुरुदेवश्री के दर्शन किए, वार्तालाप किया, गुरुदेवश्री को निहारकर मुझे अपने स्वर्गीय गुरुदेव धर्मोपदेष्टा फूलचन्द जी म. की सहज स्मृति हो आई। उनका बाह्य व्यक्तित्व धर्मोपदेष्टा श्री फूलचंद जी म. के समान ही था तो आन्तरिक व्यक्तित्व भी बहुत कुछ समान पाकर मेरा हृदय आनन्द से झूम उठा, उपाध्याय श्री जी का मृदु व्यवहार, शांतिपूर्ण किन्तु क्रांतिकारी विचार, नपी तुली शब्दावली, वात्सल्य, सरलता, सौम्यता, विद्वता और प्रवचन कला में अपूर्व दक्षता देखकर मुझे लगता कि गुरुदेवश्री साक्षात् सरस्वती पुत्र हैं।
अक्षय तृतीया का पावन प्रसंग था, गुरुदेवश्री उस समय हस्तिनापुर में विराज रहे थे, उस दिन मुख्य अतिथि के रूप में चन्द्रास्वामी उपस्थित हुए, जिस समय चन्द्रास्वामी वहाँ पर पहुँचे, उस समय गुरुदेव बन्द कमरे में ध्यानस्थ थे क्योंकि वे नियमित रूप से ग्यारह से बारह बजे तक ध्यान करते थे। चन्द्रास्वामी ने मेरे से पूछा, उपाध्यायश्री जी कहाँ पर है? मैंने कहा, गुरुदेवश्री कमरे में आराम कर रहे हैं, ध्यानमुद्रा से निवृत्त होने के पश्चात् ज्यों ही द्वार खुला, चन्द्रास्वामी कमरे में पहुँचे, उन्होंने पूछा क्या आप आराम कर रहे थे ? गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा कि ध्यान भी आराम ही है, ध्यान में साधक इन्द्रियों के विषयों से हटकर अन्तर्मुखी होता है और जब वह अन्तर्मुखी होता है तो उसे अपार आनन्द की अनुभूति होती है, वह आराम मिलता है जो बहिर्मुखी स्थिति में नहीं मिलता। आराम की यह परिभाषा सुनकर चन्द्रा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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स्वामी खिलखिला कर हँस पड़े और मुस्कुराते हुए बोले कि मुझे आज पता चला कि ध्यान भी एक आराम है और यह आराम
जीवन द्रष्टा सन्त सच्चा आराम है क्योंकि ध्यान में साधक सभी तनावों में मुक्त हो
-गुलाबचन्द कटारिया जाता है।
(शिक्षामन्त्री राज, सरकार) 190204
BI श्रद्धेय उपाध्यायश्री जी का जीवन विविध गुणों का पुंज था, तब उनमें विनय, सरलता, सहजता और सद्भाव था। श्रद्धेय
सन् १९८० की बात है। परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री जी के चाचागुरु धर्मोपदेशा श्री फूलचन्द जी म. का
श्री पुष्कर मुनिजी म. का वर्षावास उदयपुर के पंचायती नोहरे में
था। मैं गुरुदेव श्री के प्रवचन में पहुंचा। उनकी मेघ गम्भीर गर्जना मेरे जीवन पर असीम उपकार रहा है, उन्हीं से मैंने सम्यक्त्व दीक्षा
को सुनकर मेरा हृदय आनन्द-विभोर हो उठा। सम्भव है, पन्द्रह FAR प्राप्त की थी और जीवन की सांध्य बेला में उनकी सेवा का भी
अगस्त का दिन रहा होगा। गुरुदेव श्री अपने प्रवचन में बता रहे थे मुझे सौभाग्य मिला था। जब मैंने आपश्री को देखा तभी से मुझे
हमने जिस पावन पुण्य धरा पर जन्म लिया है उस राष्ट्र के प्रति लगा कि वही रूप आपका भी है, आप बहुत ही विनोदी स्वभाव के
हमारा दायित्व है कि हम सर्वात्मना समर्पित होकर राष्ट्र के थे और मेरे को प्यार भरे शब्दों में कहते, तू तो मेरे चाचा गुरु का
समुत्थान हेतु कार्य करें। जैन धर्म ने जहाँ आत्मा परमात्मा शिष्य है, तू गृहस्थ शिष्य है तो मैं साधू शिष्य हूँ अतः हम दोनों
आदि दार्शनिक पहलुओं पर गहराई से चर्चा की है वहाँ उसने राष्ट्र एक गुरु भाई हुए, इतने छोटे श्रावक को इतना सन्मान देना महानता की
धर्म के सम्बन्ध में भी बहुत गहराई से विश्लेषण किया है। हम DD निशानी है।
जिस राष्ट्र में रहते हैं उस राष्ट्र के प्रति हमारा दायित्व है कि हम 984 दो वर्ष पूर्व गाजियाबाद में घोर तपस्वी श्री दीपचंद जी म. पूर्ण नैतिक जीवन जीयें। आज राष्ट्रीय भावनाएँ धीरे-धीरे लुप्त क विराज रहे थे, एक दिन उन्होंने फरमाया, राजस्थान में एक ऐसे होती जा रही हैं जिसके फलस्वरूप आज देश में अराजकता EDHATमहान संत विचरण कर रहे हैं, जो तीन भव कर मोक्ष जाएँगे। फैल रही है। राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने के लिए भी हम आप उनके दर्शनों का लाभ लो, गाजियाबाद संघ के अनक
कतराते नहीं। सदस्यगण उस समय उपस्थित थे, सभी ने जिज्ञासा व्यक्त की कि _ उपाध्याय श्रीजी ने अपने प्रवचन में यह भी कहा कि आज
वह महान संत कौन है? तब तपस्वी जी ने कहा, कि वे महान् संत हमारे जीवन में व्यसनों का घुन लग गया है, व्यसन हमारे जीवन area उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. हैं। यद्यपि मैंने उन महान संत के को बर्बाद करने वाले कीटाणु हैं। यदि इन कीटाणुओं पर रोक
दर्शन नहीं किए हैं पर आप लोग जायें और दर्शन का लाभ लेवें। नहीं लगाई गई तो देश की आर्थिक हानि तो है ही साथ ही स्वास्थ्य TES मैं अपने आपको परम सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने उपाध्यायश्री की भी हानि है। कैंसर आदि अनेक रोग व्यसनों की देन हैं। मैंने
- पुष्कर मुनिजी म. के बीसों बार दर्शन किए, मैंने उनके हाथ में प्रवचन को सुनकर अपने मन में दृढ़ प्रतिज्ञा की कि अपने जीवन
ध्वजा, पद्म, कमल, मत्स्य आदि अनेक शुभ चिन्ह भी देखे थे, उन्हें । में किसी प्रकार के व्यसन का सेवन नहीं करूंगा। और राष्ट्र के यह परम सौभाग्य भी मिला कि उनके शिष्य देवेन्द्र मुनिजी म. प्रति सदा वफादार रहूँगा। मेरे को राष्ट्रीय भावना जो जन्मधूंटी के आज श्रमणसंघ के आचार्य पद पर आसीन हैं।
साथ प्राप्त हुई थी उसे पल्लवित और पुष्पित करने का श्रेय 39 उदयपुर में जब उनका चद्दर महोत्सव हुआ उस समय मैं वहाँ ।
सद्गुरुदेव को है। - पहुँचा। गुरुजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, मुझे देखते ही उन्होंने मैं अनेकों बार गुरुदेव के चरणों में पहुँचा और उनकी पावन Poad फरमाया, जे. डी. तुम आ गए। गुरुजी का कितना प्यार और प्रेरणा से मेरे में नैतिक बल पैदा हुआ। मैंने गुरुदेव के समक्ष यह Doo वात्सल्य था। चद्दर समारोह के पश्चात् गुरुजी का स्वास्थ्य भी प्रतिज्ञा ग्रहण की कि गुरुदेव मैं राजनीति में रहता हुआ कभी DGE अत्यधिक अस्वस्थ हो गया और उन्होंने संथारा स्वीकार किया, भी रिश्वत नहीं लूंगा और ईमानदारी से जीवन जीऊँगा। आप मुझे
लाखों श्रावक उस अवसर पर उपस्थित थे, पर मुझे चमर ढुलाने ऐसा आशीर्वाद दें कि गन्दी राजनीति में भी कमलवत् निर्लिप्त रह प्ति का सुनहरा लाभ मिला, यह लाभ प्रबल पुण्यवानी से ही मुझे सकूँ। प्राप्त हुआ था, मेरी यही मंगलकामना है कि गुरुदेवश्री की
गुरुदेव श्री का चद्दर समारोह के अवसर पर उदयपुर कीर्तिकौमुदी सदा-सर्वदा दिदिगन्त में फैलती रहे और उनके ।
पदार्पण हुआ, चादर समारोह उदयपुर के इतिहास में अपूर्व रहा। विमल विचारों को अपनाकर हम अपने जीवन को धन्य-धन्य बना चादर समारोह के पश्चात् गुरुदेव श्री का स्वास्थ्य यकायक बिगड़
- सकें, यही उस अन्तर्मुखी महापुरुष के चरणों में भावभीनी गया और सन्थारे के साथ स्वर्गवास हुआ। मेरा सौभाग्य रहा कि 1901 श्रद्धांजलि।
उस अवसर पर भी मुझे सेवा का अवसर मिला। उनका यशस्वी DDG4
जीवन सदा मुझे प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साधक पुरुष
-रसिकलाल धारीवाल,
(घोड़नदी)
सन् १९६८ का वर्षावास उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का महाराष्ट्र में घोड़नदी था। उस समय मैं वहाँ का चेयरमैन था । उपाध्यायश्री के दर्शन किये। मेरे अन्तर्मानस में उनके प्रथम दर्शन की छवि आज भी अंकित है। मेरे मकान पर भी वे पधारे। मुझे देखकर गुरुदेव श्री ने कहा कि तुम पुण्य पुरुष हो, तुम जिस कार्य में हाथ डालोगे सफलता प्राप्त होगी। गुरुदेव श्री की अमृतवाणी का मेरे पर जादू-सा असर हुआ।
गुरुदेव श्री के पुण्य प्रभाव से मैंने जिस किसी भी कार्य में हाथ डाला उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। मैं सोचने लगा कि गुरुओं के आशीर्वाद में कितने गजब की शक्ति है। पूना, बम्बई, दिल्ली, इन्दौर, उदयपुर आदि अनेक क्षेत्रों में मैं गुरुदेव के दर्शन हेतु पहुँचा। गुरुदेव श्री भी जितनी बार घोड़नदी पधारे उतनी बार मेरे मकान पर भी पधारे। मेरे पुत्र प्रकाश ने तो गुरुदेव से सम्यक्त्व दीक्षा भी ग्रहण की।
यह सत्य है कि उपाध्याय गुरुदेव महान सन्त थे । उनकी साधना बहुत ही गजब की थी, वे बहुत ही दयालु पुरुष थे। किसी भी दुःखी व्यक्ति को वे देख नहीं पाते थे। जब तक उसका दुःख दूर नहीं कर पाते तब तक उनका मन क्लान्त रहता था और वे उसे मंगलपाठ भी सुनाते तथा जप करने की प्रेरणा देते।
आज गुरुदेव श्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी स्मृति सदा हमारे मस्तिष्क में है और रहेगी। मेरी तथा माताजी आदि सपरिवार की गुरुदेव की चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि ।
मौत को चुनौती देने वाले वीर पुरुष
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- मूलचन्द घोसल ('निदेशक' जैन विश्व भारती, लाडनूँ)
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि ने अन्त समय में अमित आत्मबल से अनशन स्वीकार कर जो पौरुष दिखलाया, वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। इस प्रकार शरीर छोड़ने से पहले शरीर का मोह छोड़कर पूर्ण सतर्कता के साथ मौत को चुनौती देने वाले ऐसे वीर बिरले ही होते हैं। अन्त समय में "आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है " इस भेदज्ञान को प्राप्त करना, सहज काम नहीं है। हम दिवंगतआत्मा के प्रति विनम्रतापूर्वक हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की कामना करते हैं।
समन्वयशील विचारक
गुरु के वचन ही मंत्र का मूल है। और गुरु कृपा ही मोक्ष का मूल है।
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-मानव मुनि (इन्दौर)
भगवान् महावीर के २६०० सौ वर्ष बाद भी जैनाचार्यों एवं मुनियों ने, महासतियों ने जैन धर्म का अहिंसा परमोधर्म का ध्वज विश्व में लहराया है। वैसे ही विज्ञान युग के आध्यात्मिक आगम ज्ञाता, ध्यान योगी, सरल स्वभावी, समन्वय विचारक, अपने जीवन को संयम, तप त्याग सांचे में कठोर साधना, दृढ़ संकल्प, करुणा मूर्ति परम पू. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. संसार के लिये प्रकाश स्तम्भ बन गये। उन्होंने सदैव समता भावना को जागृत धर्मोपदेश के माध्यम से किया। वे कहा करते थे हम समय की कद्र करेंगे तो समय हमारी प्रतिष्ठा बढ़ायेगा। सदैव उनकी विचारधारा रहती थी कि भगवान् महावीर के शासन में ऊँच-नीच, जाति-पाँति को महत्व न देकर स्त्री या पुरुष मानव मात्र ही नहीं, प्राणी मात्र के लिये धर्म का संदेश दिया जाय। 'अहिंसा परमोधर्म' राष्ट्र धर्म है, विश्व धर्म है। 'जीओ और जीने दो' का संदेश जैनधर्म की बुनियाद है, दीन दुःखी अभावग्रस्त परिवारों के लिये उनके हृदय में करुणा जागृत हो जाती थी, जीव रक्षा एवं समाज-सुधार के वे महान प्रेरणा स्रोत थे।
संयम की दृढ़ता हिमालय जैसी, गंगाजल जैसी निर्मल थी। मैंने नजदीक से देखा, सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ चातुर्मास जहाँ भी होता, सेवा में जाने की प्रबल भावना रहती थी जब भी जाता मंगलमय आशीर्वाद देते व शिक्षा देते साधनामय जीवन हो, मानव सेवा, जीवदया का लक्ष्य रहे, साधक जीवन न जीने का इच्छुक होता है, न मरने का, वह दोनों स्थितियों में समभाव की साधना में दृढ़ संकल्पी रहता है। जैन धर्म जैन दर्शन है जो जीने की कला सिखाता है, उनके एक-एक शब्द अनमोल मोती के समान होते थे, सबके साथ समता भाव रहता था चाहे अमीर आये या गरीब किसी प्रकार का भेद नहीं देखा। उनका सारा जीवन रोम-रोम राग-द्वेष रहित अध्यात्म साधना में परिपूर्ण भरा हुआ था। आवाज में तेज ओजस्वी प्रवचन से श्रोता भक्तिभाव से मंत्र मुग्ध हो जाते थे। ऐसा लगता था प्रवचन सुनते ही चले जायें, समय का भान नहीं रहता था। ठीक ११ बजे उठ जाते थे, ध्यान में चले जाते थे ठीक १२ बजे मांगलिक श्रवण करने को भीड़ उमड़ पड़ती थी । मंगलपाठ का बड़ा महत्व था, श्रद्धा-भक्ति से जो भी श्रवण करता उनकी इच्छाएँ पूर्ण होती थीं। मैंने देखा, अनुभव किया नम्रता के सागर थे, अहंकार तो पास में रह नहीं सका। सदैव स्वाध्याय, चिन्तन-मनन में तल्लीन रहा करते थे। समय-समय पर लेखनी भी चलती रहती थी। उदयपुर में चादर महोत्सव के समय भी दर्शन
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किये, चेहरा चमक रहा था, आध्यात्मिक तेज प्रकट हो रहा था। वे कई बार चर्चा के दौरान कहा करते थे शरीर का क्या मोह ? पंचभूत का यह पीजरा है एक दिन माटी में मिल जायेगा पर आत्मा अमर है। कबीर का पद कहा, चूनडी पर दाग नहीं लगे, ज्यों की त्यों धर दीनी चूनडिया वह पद अन्तिम समय चरितार्थ किया, संयम-साधना में दाग नहीं लगने दिया। महापुरुष के जीवन के बारे में जितना भी लिखा जायेगा तो एक ग्रन्थ तैयार हो जावेगा। वर्तमान आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने जो गुरु की सेवा की है वह अद्वितीय है, लिखना व वर्णन करना कठिन है। एक क्षण भी उनसे दूर नहीं होते थे। उनका आशीर्वाद ही इनकी दौलत है, आध्यात्मिक धरोहर है। महापुरुष के चरणों में कोटि-कोटि वंदन । उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी उनके सिद्धान्तों व बताये हुये मार्ग पर चलें।
स्वाध्याय के अखण्ड ज्योतिर्धर
-माणक चंद जैन (संयोजक- स्वाध्याय संघ अहमदनगर )
मेवाड़ भूमि जो वीरभूमि के नाम से विख्यात है वह संत-रत्नों को जन्म देने में भी पीछे नहीं रही। उसी श्रृंखला में इस वीर व धर्म भूमि ने एक संत रत्न को जन्म देकर अपने यथा नाम तथा गुण को सार्थक कर दिया। स्व. उपाध्याय पूज्य गुरुदेव ही इस गुदड़ी के अमूल्य लाल थे जो मेवाड़ धरा तक ही संकुचित न रहकर विश्व संतों की श्रृंखला की एक कड़ी बन गये। मुझे उपाध्याय श्रीजी के १९७५ के पूना चातुर्मास में सर्वप्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हआ। कितना आकर्षक व्यक्तित्व था मैं सहज लोह चुम्बक की तरह उस ओर खिंचता ही चला गया। गौर वर्ण, विशाल भुजाएँ, चौड़ा ललाट तथा वाणी में अद्भुत आकर्षण सहज ही मन को मोह लेते थे।
अपनी आदत के अनुसार मैं अपनी जिज्ञासा को शान्त करने की हिम्मत कर ही बैठा। बस प्रश्नोत्तर शुरू करना था प्रश्नों पर प्रश्न चलते रहे प्रश्नों के समाधान का एक अनोखा ही ढंग व आनंद था। मैंने देखा कितना भी समय व्यतीत हो जावे ? होनी चाहिए जिज्ञासा फिर तो क्या था उस पहली हिम्मत ने मुझे उनका अपना ही बना दिया। फिर तो जब भी दर्शनों का अवसर मिलता अरे पुण्यवान स्वाध्यायी क्या नये प्रश्न लाया है? फिर क्या, जिज्ञासा प्रारम्भ हो जाती। और मुझे समाधान मिल जाता था । घुमा-फिरा कर कहने की आदत नहीं थी।
आपके चिन्तन से जो नये प्रश्न अंतगड सूत्र पर तैयार होते अपनी डायरी से मुझे बताते। कितना चिंतन था ? कितना अपनापन था। वे ज्ञान के भण्डार थे। जहाँ जप-तप में महान स्वयंसिद्ध थे वहाँ स्वाध्याय-चिंतन में भी किसी से पीछे नहीं थे। उनके
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
स्वाध्याय-चिंतन से हम स्वाध्यायी बंधुओं को नया दिशा-बोध मिलता था। इसके लिए स्वाध्यायी संघ उनका सदैव ऋणी रहेगा। आज वे हमारे बीच नहीं हैं किन्तु स्मरण ही हमें दिशा-बोध देता रहता है। मैं उनकी पुण्य तिथि पर श्रद्धा के भाव पुष्प ही अर्पण कर सकता हूँ और मेरे पास में इससे अधिक है भी क्या जो उन्हें अर्पित कर सकूँ।
असाधारण व्यक्तित्व के पुरोधा
-भंवर सेठ (उदयपुर)
अपने जीवनकाल में ही अपनी आयु और उसके अंतिम क्षणों का आभास करना आज के वैज्ञानिकों के लिये भले ही आश्चर्यजनक हो सकता है लेकिन श्रमण संस्कृति के महान संत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज साहब को अपनी आयु-रेखा तथा उसके अन्तिम क्षणों के एक-एक पल की पूरी जानकारी थी और उसी के अनुसार उन्होंने अपनी इस भौतिक देह का त्याग कर देवलोक का मार्ग सहर्ष स्वीकार किया यह रहस्योद्घाटन उनकी एक डायरी से प्राप्त एक छोटे से पत्रक से होता है।
जिस महापुरुष को अपने जीवन रहस्य की जानकारी हो, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं होता है, वह एक अलौकिक एवं असाधारण व्यक्तित्व होता है। अर्थात् वह भगवान् का स्वरूप या ईश्वर का देवदूत होता है, जिसे स्वयं भगवान् ने अपने भक्तों के मार्गदर्शन के लिये इस पुण्य धरा पर अवतरित किया है।
यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे अपने बचपन से ही श्रद्धेय पुष्कर मुनि महाराज सा. का सान्निध्य प्राप्त हुआ। आपके बहुमुखी व्यक्तित्व ने हमेशा मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया कि मैं प्रतिवर्ष उनके दर्शन कर सकूँ। मुझे नहीं मालूम उनमें वह कौन-सा जादू था कि मैं अनायास व कभी-कभी प्रयत्नपूर्वक परन्तु लगभग प्रतिवर्ष उनके चरणों में पहुँचता रहा।
ट्रेड यूनियन में सक्रिय होने के कारण मेरा कार्यक्षेत्र राजस्थान व उसके बाहर भी रहा और ऐसे अनेक अवसर मुझे मिले कि जहाँ-जहाँ महाराज साहब विराजे वहाँ-वहाँ मुझे अपने कार्य से जाना पड़ा, फलस्वरूप जो मेरे अभिन्न मित्र थे तथा जिनका कार्यक्षेत्र राजनैतिक या सामाजिक था, उनका सम्पर्क भी महाराज साहब से हुआ और वे भी उनके ऐसे भक्त बन गये कि प्रतिवर्ष उनके दर्शन व आशीर्वाद का लाभ प्राप्त करने का उन्होंने नियमित क्रम ही बना लिया।
अभी पिछले वर्ष का ही प्रसंग है, श्री सुन्दरलाल जी जैन (मेरठ) के साथ हम कई मित्र गढ़सिवाना (मारवाड़) गये। हमारे साथ वर्तमान शिक्षामंत्री श्री गुलाबचन्द कटारिया, कर्मचारियों व
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
शिक्षकों के राष्ट्रीय नेता एवं उदयपुर के विधायक श्री शिवकिशोर सनाढ्य व अन्य सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र के कार्यकर्ता व प्रमुख लोग थे। महाराज साहब ने हम सभी को सन्निकट बिठाया और अपने पैर के तलुओं पर व हाथ के हथेली पर लहराते हुए ध्वज के निशान दिखाये। एक प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ मैं स्वयं तुरन्त अपनी हथेलियों में वैसे ही चिन्ह ढूँढने को तत्पर हुआ, और मैंने जीर देकर महाराज साहब को कहा कि मेरे हाथों में भी ऐसे चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं। महाराज साहब ने कहा कि ये चिन्ह साधु-जीवन का संकित करते हैं, क्या तुम्हें भी साधु बनना है ? यह सुनते ही मुझे दृष्टिगत होने वाले थे चिन्ह सहसा लुप्त दिखाई दिये तब उन्होंने और समीप बुलाकर उन चिन्हों से पहचान कराई। यह घटना उनके ज्योतिषीय ज्ञान को भी परिलक्षित करती है।
मैंने उनके जीवन की कई घटनाओं का साक्षात्कार किया, उससे मुझे लगा कि वे कोई व्यक्ति नहीं अपितु स्वयं एक संस्था थे। उनका व्यावहारिक पक्ष इतना मजबूत था कि उनके अनुकरण मात्र से ही व्यक्ति महान बन जाता है श्रमण संघ के वर्तमान आचार्य पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री उनमें से एक हैं उन्होंने जैन जगत में साहित्य का अंबार लगा कर सम्पूर्ण विश्व में तहलका मचा दिया है, उनकी पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद हो रहा है, और देश-विदेश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। न गुरु ने विद्यालय का मुँह देखा और न शिष्य आचार्य देवेन्द्र ने, लेकिन उनका साहित्यिक वर्चस्व आज सर्वज्ञात है।
पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण एवं उनके अंतिम संस्कार से सम्बन्धित समस्त घटनाक्रमों से मैं अत्यन्त नजदीक से जुड़ा रहा, समाचार-पत्रों, रेडियो और टी. बी. प्रसारण से लेकर अन्य व्यवस्थाओं के दौरान पूज्य गुरुदेव के प्रति जो अनन्य भक्ति मैने देखी, भक्तों का भारी तादाद में उमड़ना और उनके अन्तिम दर्शनों हेतु भक्तों की होड़ का जो साक्षात्कार किया, वह मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय अनुभव है। यह सब पूज्य गुरुदेव के प्रतिभाशाली एवं असाधारण व्यक्तित्व का ही अमिट शिलालेख है।
बेजोड़ इतिहास का सृजन कर गये
-आचार्य डॉ. छगनलाल शास्त्री (विजिटिंग प्रोफेसर मद्रास विश्वविद्यालय)
निःसन्देह परमाराध्य उपाध्यायश्री धार्मिक जगत् के एक ऐसे परम उज्ज्वल, दिव्य प्रकाश स्तम्भ थे, जिसके द्युतिमय आलोक में पथप्रान्त मानवों ने जीवन की सही दिशा प्राप्त की। वे एक ऐसे बेजोड़ इतिहास का सृजन कर गये, जो युग-युगान्तर - पर्यन्त अहिंसा, विश्व वात्सल्य, समता और सौमनस्य का पावन संदेश प्रदान करता रहेगा।
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आपश्री के वे परमाराध्य गुरुदेव थे, जिनकी छत्रछाया में फूलते-फलते आप विकास की मंजिल पर उत्तरोत्तर बढ़ते गये, श्रमणसंघ के सर्वोच्च पद पर समासीन हुए। आपके पदारोहण दिवस पर उपाध्यायप्रवर कितने हर्षित, उल्लसित और आत्मपरितुष्ट हुए, वर्णनातीत है। जिस सुकुमार पौधे का अपने श्रम और साधना के दिव्य सलिल से सिञ्चन किया, उसे एक सुविशाल सहस्र शाखी वट-यक्ष के रूप में देखकर उनके हृदय में आत्म-परितोष का हर्ष मानो समा नहीं रहा था। आपश्री को उन गुरुवर्य की छत्रछाया चिरकाल तक प्राप्त रहेगी, ऐसी शुभाशा हम सब अपने मन में संजोये थे, किन्तु लिखते हुए चित्त बड़ा शोक-संविग्न हो उठता है, नियति को यह स्वीकार नहीं था उसके एक ही क्रूर पंजे के आघात ने वह सब घटित कर डाला, जिसकी कल्पना तक नहीं थी।
यद्यपि आप एक परम प्रबुद्ध मनीषी हैं, उद्भट ज्ञानी हैं, आत्मजयी योगी हैं, किन्तु इस घटना से आपके हृदय पर जो कुलिशोपम आघात पहुँचा है, उसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
अन्तर्ज्ञान के संस्पर्श द्वारा इस भयावह घाव पर मरहम पट्टी करना ही अब एकमात्र शरण्य है। विज्ञेषु किं बहुना ।
तीर्थ गुरु पुष्कर
- प्रकाश संचालाल बाफणा (औरंगाबाद)
महामहिम सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. श्रमण संघ के एक वरिष्ठ महामेधावी उपाध्याय थे। उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद पर आसीन होने पर भी आपनी को अभिमान स्पर्श नहीं कर सका था, आप सरल और निश्चित व्यक्तित्व, धीर, शान्त प्रकृति के धनी थे। आपका अकृत्रिम व्यवहार देखकर श्रद्धालुगण सहज प्रभावित होते थे। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि वाणी से नहीं व्यवहार से व्यक्तित्व को देखा जाता है। व्यवहार ही जीवन दर्पण है, उसी में जीवन का तथ्य, सत्य और कथ्य सभी प्रतिबिम्बित होते हैं, व्यवहार जीवन की कसौटी है य सद्गुरुवर्य उस कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे उतरे थे।
मैंने श्रद्धेय गुरुदेवश्री के अनेकों बार दर्शन किए, जितनी भी वार दर्शन किए, उतनी ही बार आनंद की अनुभूति हुई। आपका नाम पुष्कर था। पुष्कर वैदिक परम्परा का तीर्थ गुरु रहा है, अन्य तीर्थों की यात्रा करने वाला व्यक्ति यदि पुष्कर तीर्थ में स्नान न करे तो उसकी तीर्थ यात्रा अपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही गुरुदेव जंगम तीर्थ थे, उनके दर्शन से जीवन आनंद-विभोर हो जाता था। कोई भी जिज्ञासु आपश्री के पास पहुँचता, उसका सही समाधान होता, आपश्री की वाणी मधुर थी तो मन भी मधुर था। यदि आगम की
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ भाषा में कहा जाए तो जिनका हृदय अकलुष, निष्पाप और वाणी 1 मुझे कहने की आवश्यकता ही नहीं। गुरुदेवश्री की इस निस्पृहता ने में मधुर अलाप है “हिययमपावमकलुसं जीहा वि य महुर भासिणी । मेरे मन को मोह लिया और गुरुदेवश्री की असीम कृपा से मेरी णिच्चं।"
आर्थिक दृष्टि से अपार उन्नति हुई। मैं सोचता हूँ कि गुरु कृपा में गुरुदेवश्री का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुत ही अद्भुत था।
कितनी बड़ी गजब की शक्ति है। COPE
उनके असीम गुणों का वर्णन ससीम शब्दों में करना कभी भी संभव । पूना वर्षावास के पश्चात् प्रतिवर्ष कभी एक बार कभी दो बार नहीं है, उनके सद्गुणों की ज्योति हमें सदा आलोक प्रदान करती | मैं सपरिवार तथा महाराष्ट्र के अनेक श्रद्धालु सुश्रावकों को लेकर रहेगी। वे वस्तुतः आलोक पुंज थे, उन्होंने आलोकमय जीवन जीया पहुँचता रहा। मेरी श्रद्धा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रही है।
और आलोकमय ही उनके जीवन की सांध्य बेला व्यथित हुई।। उदयपुर चद्दर समारोह पर भी मैं पहुँचा। गुरुदेवश्री की शारीरिक उनके चरणों में श्रद्धास्निग्ध श्रद्धांजलि समर्पित करते हुए मैं नत हूँ। स्थिति को देखकर मेरा हृदय व्यथित हो उठा, आज गुरुदेवश्री की
भौतिक देह हमारे सामने नहीं है, किन्तु मैंने अनेकों बार
ध्यान-साधना में गुरुदेवश्री के दर्शन किए हैं, उनके दिव्य-भव्य देव मेरी ध्यान साधना के गुरु
रूप को देखकर मैं स्तंभित हो गया। सूर्य से भी अधिक तेजस्वी
उनके चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वे बहुत ही ऊँचे देवलोक में -धनराज बांठिया पधारे हैं, दूसरे ही क्षण मैंने संकल्प किया कि गुरुदेवश्री आपश्री के (पूना) | श्रमणपर्याय के रूप में दर्शन होने चाहिए उसी क्षण दर्शन हो गए।
मैं उदयपुर समाधि पर गया तब भी मुझे ध्यान में वहाँ पर मुझे सन् १९७५ के बाद श्रद्धेय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. सा.
दोनों ही रूप के दर्शन हुए। का चातुर्मास पूना सादड़ी सदन में था। मेरा मकान भी सादड़ी सदन के पास था। श्री रमेश मुनिजी म. गोचरी के लिए आए और मुझे
गुरुदेवश्री के स्वर्गवास होने पर मेरे यहाँ पर भी केसर की पूछा कि आपने गुरुदेवश्री के दर्शन किए या नहीं? यदि दर्शन नहीं
वर्षा हुई और जब मैं उदयपुर पहुँचा तो वहाँ के श्रद्धालुओं ने किये हैं तो मेरे साथ चलिए। मुनिजी के द्वारा आग्रह होने से मैं भी
बताया कि यहाँ पर भी केसर की वर्षा हुई थी कितने महान् थे सादड़ी सदन में पहुँचा। प्रथम दर्शन में ही मुझे लगा कि
हमारे सद्गुरुदेवश्री। वे जन-जन के श्रद्धा केन्द्र थे, उस श्रद्धा केन्द्र उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. एक असाधारण संत हैं। उनके
के चरणों में मेरी अनंत आस्थाएँ समर्पित हैं। हे गुरुदेव आपका चुम्बकीय आकर्षण ने मेरे को आकर्षित किया और मैं प्रतिदिन
मंगलमय जीवन और आपकी साधना हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ की गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु जाने लगा। धीरे-धीरे मेरी अपार आस्था
तरह हमारा पथ प्रदर्शन करती रहेगी, हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा को गुरुदेवश्री के प्रति हो गई।
जागृत करती रहेगी, यही है आपके चरणों में हमारी और हमारे
परिवार की श्रद्धार्चना। ___एक दिन मैंने गुरुदेवश्री से पूछा कि आपश्री ध्यान करते हैं, मेरी भी इच्छा है कि मैं ध्यान करूँ। गुरुदेवश्री ने अपार कृपा कर मुझे ध्यान करने की विधि बताई और मैं भी ध्यान करने लगा।
मेरी प्रगति : गुरुदेव का आशीर्वाद गुरुदेवश्री की असीम कृपा ही कहनी चाहिए कि मुझे ध्यान साधना में सफलता मिली। अनेकों व्यक्ति गुरु-स्मरण कर मैंने ठीक किए हैं,
-शांतिलाल तलेसरा जो व्याधि से संत्रस्त व्यक्ति रोते हुए आए वे हँसते हुए विदा हुए।
(जसवंतगढ़) यह है गुरुदेवश्री की अपार शक्ति का चमत्कार।
संतों का जीवन उज्ज्वल और समुज्ज्वल होता है, उनका _गुरुदेवश्री कितने महान् थे, यह मैं शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं | आदर्श पवित्र होता है, उनके दर्शन से एक प्रेरणा प्राप्त होती है। कर सकता। सागर को सागर से ही उपमित किया जाता है, वैसे ही संत का प्रत्यक्ष जीवन जितना पावन होता है, उतना ही उनका गुरुदेवश्री की महानता की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा स्मरण भी पावन होता है। श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर सकती। वे सहज थे, निस्पृह थे। मैंने अनेकों बार गुरुदेवश्री के मुनिजी म. के प्रत्यक्षीकरण का मुझे अनेकों बार सौभाग्य प्राप्त चरणों में निवेदन किया कि मुझे साहित्य छपाना है, कृपाकर हुआ। सन् १९६६ का वर्षावास गुरुदेवश्री का अरावली के फरमाओ। मैं क्या सेवा कर सकता हूँ, पर गुरुदेवश्री सदा यही । पहाड़ियों के अंचल में बसे हुए पदराड़ा ग्राम में था, नन्हा-सा गाँव फरमाते रहे कि जो भी तुम्हारी इच्छा हो, कर सकते हो, पर अपने चारों ओर पहाड़ियाँ ही पहाड़ियाँ किन्तु जहाँ पर संतों के पावन मुखारबिन्द से कभी यह नहीं कहा कि तुझे यह कार्य करना है।। चरण गिरते हों, वहाँ गाँव भी नगर की तरह बन जाता है। अमुक कार्य में इतना तुझे खर्च करना है, मेरे निवेदन करने पर भी पदराड़ा में गुरुदेवश्री के चातुर्मास से एक अभिनव क्रांति का संचार वे सदा मुस्कुराते रहते और फरमाते कि तुम्हारा काम तुम करो। हुआ। मेरी जन्मभूमि यद्यपि जसवंतगढ़ रही किन्तु व्यवसाय की
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
दृष्टि से मैं उस समय पदराड़ा में रहता था । परम सौभाग्य से गुरुवर्य के वर्षावास का अवसर मेवाड़वासियों को मिला। हमारा हृदय आनंद से झूमने लगा। मैंने सोचा, व्यवसाय तो जीवन भर करना ही है पर गुरु चरणों की सेवा कब प्राप्त होगी और मैं दिन रात गुरु चरणों में रहने लगा।
गुरुदेव की मेरे पर असीम कृपा रही। मुझे बहुत ही निकट से गुरुदेवश्री को देखने का अवसर मिला और मेरा हृदय अपार आस्था से आपूरित हो गया। मैं सोचने लगा कितने महान हैं मेरे गुरुदेव एक पाश्चात्य चिन्तक ने लिखा है कि "महान् व्यक्ति वह होता है, जो छोटों से प्यार करता है।" गुरुदेवश्री छोटे तबके से प्यार करते थे, उनके लिए धनवान और निर्धन, साक्षर और निरक्षर सभी समान थे, यही कारण है कि गुरुदेवश्री के सम्पर्क में हजारों अजैनबन्धु भी आते थे और गुरुदेव की अपार कृपा को पाकर वे अपने आप के भाग्य की सराहना करते थे। चार महीने का समय इस प्रकार बीत गया यह हमें पता ही नहीं चला, गुरुदेवश्री ने विहार किया। हमारी आँखों से अश्रुओं की धारा बह रही थी । गुरुदेवश्री मेवाड़ में जहाँ भी पधारे, उनके दर्शनों के लिए पहुँचता रहा, गुरुदेवश्री का सन् १९६७ का वर्षावास बालकेश्वर बम्बई में हुआ। मैं वहाँ दर्शन के लिए गया। मुझे गुरुदेवश्री के चरणों में बैठे हुए वस्तीमल जी ने आग्रह किया कि आप हमारे व्यवसाय केन्द्र में कार्य करें। मैं उनके आग्रह को मानकर कुछ दिन यहाँ कार्य करता रहा फिर सूरत में कार्य प्रारंभ हुआ, गुरुदेवश्री की असीम कृपा का ही सुफल था कि धीरे-धीरे मेरी प्रगति हो गई और मैं आज जो कुछ भी हूँ वह गुरु कृपा का ही सुफल है।
सन् १९८९ का वर्षावास गुरुदेवश्री का हमारी जन्मभूमि में हुआ। निरन्तर चार महीने तक गुरुदेवश्री की सेवा में रहने का सौभाग्य मुझे मिला। गुरुदेवश्री जैसे अप्रमत्त साधक के प्रति किसकी सहज निष्ठा जागृत नहीं होती, उन्हें निहार कर ही और उनकी कमलवत् निर्लिप्तता को देखकर हमारा हृदय सदा ही उनके चरणों में नत रहा। गुरुदेवश्री सन् १९८७ में पाली में विहार कर पूना सम्मेलन में पधारे, उस विहार यात्रा में भी मेरे को सेवा का अवसर मिला, उस लम्बी यात्रा में सूरत के अनेक श्रद्धालुगण साथ थे। हमने देखा कि गुरुदेवश्री लम्बी विहार यात्रा कर गाँव में पधारते जबकि हम लोग थक जाते थे और विश्रान्ति के लिए सोचते पर गुरुदेवश्री समय होते ही ध्यान में विराज जाते। कई बार तो वे रास्ते में ही ध्यान में विराजे । नियमित समय पर ध्यान करना उन्हें पसन्द था और रात्रि में भी वे नियमित समय पर ध्यान में विराज जाते थे।
गुरुदेवश्री का जीवन बहुत ही प्रेरणा स्रोत रहा वे जन-जन के हृदयहार थे और मेरे पर उनकी असीम कृपा सदा रही। बहर समारोह के अवसर पर भी गुरुदेवश्री की कृपा से मुझे सेवा का अवसर मिला। मैं लगातार महीने भर उदयपुर रहा। सोच रहा था
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कि गुरुदेवश्री के साथ बिहार यात्रा में रहूंगा। यों गुरुदेवश्री कुछ रुग्ण अवश्य थे किन्तु उनके अपूर्व आत्मबल के कारण किसी को यह पता ही नहीं चलता था कि वे रुग्ण हैं। जब कभी कोई पूछता तो वे एक ही उत्तर देते आनंद ही आनंद है। वे फरमाते तन भले ही अस्वस्थ है किन्तु मेरा मन निजानन्द में लगा हुआ है। उनकी वह भजन पंक्ति आज भी मेरे कर्ण कुहरों में गूंज रही है।
"मेरा तन तो हरदम स्वस्थ रहे और निज आनंद में मस्त रहे, मैंने आसन दृढ़ लगाया है, वाणी पे नियंत्रण पाया है, स्वचिन्तन में विश्वस्त रहे,
मेरा मन तो हरदम प्रशस्त रहे।"
गुरुदेव के मन में कहीं पर भी बीमारी का प्रवेश नहीं था उनके चेहरे पर अपूर्व शांति छलकती थी । गुरुदेवश्री को जिस समय अपार वेदना थी, उस समय भी उनकी आध्यात्मिक मस्ती पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो रही थी। वे इतने जागरूक थे कि उन्होंने अपने मुखारबिन्द से कहकर अपने प्रिय शिष्य आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. से संधारा ग्रहण किया और ४२ घण्टे का उन्हें चीवीहार संधारा आया, हम सभी गुरुदेवश्री के आध्यात्मिक तेज को देखकर आश्चर्यचकित थे उनके प्राण आँखों से निकले। प्राण निकलने के पश्चात् भी ऐसा लगता था कि वे जीवित हैं स्वर्गवास के बाद भी उनके चेहरे पर किसी प्रकार की न्यूनता दिखाई नहीं दी। धन्य हे गुरुदेव, मेरा और मेरे परिवार की ओर से कोटि-कोटि वंदन। आपका मंगलमय आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहा है और रहेगा।
"
कमल सम निर्लिप्त
-स्वतंत्रता सेनानी देवीलाल मेहता गोगुन्दा (पूर्व प्रधान)
हर वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक होता है बाह्य रूप और दूसरा होता है, आंतरिक रूप। बाह्य रूप दिखावटी, आडम्बर और कृत्रिमता से ओत-प्रोत होता है और दूसरा पहलू है आंतरिक । उसमें वास्तवकिता होती है, बाह्य दिखावा की छलना नहीं होती, इन दोनों पहलुओं के आकर्षण में भी अन्तर है, बाह्य आकर्षण चाक चिक्य पूर्ण होता है पर आन्तरिक जीवन में चौंधिया देने वाली वाली कृत्रिमता का अभाव होता है, आंतरिक जीवन की ओर। हर सामान्य व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित नहीं होता, वे तो बाहर के ही दृश्य को देखते हैं पर संत के जीवन में बाह्य जीवन की उतनी प्रमुखता नहीं है, जितनी उसके आंतरिक जीवन की महत्ता है।
परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. स्वनामधन्य का जीवन कमल की तरह निर्लिप्त था, उन्हें किसी भी
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संस्था से, ग्राम से और किसी वस्तु से लगाव नहीं था। उनका मुख्य रूप से लगाव था, साधना के प्रति, उनमें जप की रुचि गजब की थी और वह जप भी वे नवकार महामंत्र का करते थे और उस जाप के कारण उनकी वाणी सिद्ध हो चुकी थी, उनके मुखारबिन्द से जो भी बात निकलती वह पूर्ण सिद्ध होती थी। गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के पश्चात् में आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. के दर्शन हेतु भीलवाड़ा पहुँचा, वार्तालाप के प्रसंग में आचार्यश्री ने कहा कि | गुरुदेवश्री की डायरी जो प्राप्त हुई है, उसमें उन्होंने सन् १९७७ में जब बैंगलोर चातुर्मास था, तब लिखा था कि मेरी उम्र ६६ वर्ष और १६ वर्ष की अवशेष है और यह बात पूर्णरूप से सत्य सिद्ध हुई। इससे हम समझ सकते हैं कि गुरुदेवत्री का अतीन्द्रिय ज्ञान कितना गजब का था, उन्हें इतने वर्ष पूर्व अपने जीवन का अनुभव हो गया था।
गुरुदेवश्री के अनेक संस्मरण मेरी स्मृति में चमक रहे हैं, गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे परिवार पर रही, हमारा हर परिवार का सदस्य उनके प्रति सर्वात्मना समर्पित रहा है। उनकी पावन पुण्य स्मृति सदा बनी रहे, और उनके बताए हुए कार्य को मैं पूर्ण रूप से सम्पन्न कर सकूँ यह हार्दिक इच्छा है और अपने जीवन के अनमोल क्षण उनके नाम से निर्मित कॉलेज की सेवा के लिए मैं पूर्णतया समर्पित हो जाऊँ और गुरुदेवश्री की यशः गाया को द्गिदिगन्त में फैला सकूँ, यही उस महागुरु के चरणों में हार्दिक श्रद्धार्चना |
परम उपकारी गुरुदेव
नोट मांगीलाल सोलंकी (पूना) लक
सन् १९६९ में श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. का वर्षावास साधना सदन, पूना में हुआ। गुरुदेवश्री के मंगलमय प्रवचनों से पूना में एक धर्म की नई लहर व्याप्त हो गई। लोगों को लगा कि मारवाड़ से पधारे हुए संत भगवन्तों के प्रवचन कितने प्रभावशाली होते हैं, साधना सदन का विशाल हॉल भी छोटा पड़ने लगा। श्रद्धेय उपाध्यायश्री की सादड़ी क्षेत्र पर अपार कृपा रही उन्हीं की प्रेरणा से सादड़ी में सन् १९५२ में यशस्वी संत सम्मेलन हुआ और उसमें श्रमणसंघ का निर्माण हुआ। पूना में गुरुदेवश्री का यह वर्षावास अपनी शानी का वर्षावास था क्योंकि हम लोग वर्षों से महाराष्ट्र में रहने लग गए। मारवाड़ में विशेष प्रसंगों पर ही जाने आने का प्रसंग था पर इस वर्षावास में गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। गुरुदेवश्री की ध्यान-साधना ने जन-मानस को अत्यधिक प्रभावित किया। हमने स्वयं ने देखा कि रोते और बिलखते हुए श्रद्धालुगण आते और श्रद्धा से मंगलपाठ श्रवण कर हँसते हुए विदा होते। गुरुदेवश्री की
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
साधना का चमत्कार देखकर नास्तिक भी आस्तिक होने लगे, जो युवक कभी नहीं आते थे वे गुरुदेवश्री के संपर्क में आने लगे।
मेरा प्रथम परिचय गुरुदेव श्री से उसी वर्ष सन् १९६९ में हुआ। गुरुदेवश्री का सन् १९७० का वर्षावास दादर बम्बई में हुआ और १९७१ का दादाबाड़ी बम्बई में हुआ। उन दोनों वर्षावासों में अनेकों बार गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे और मेरे परिवार को मिलता रहा, गुरुदेवश्री के चरणों में बैठकर हमें अपार आनंद की अनुभूति हुई। सन् १९७५ का वर्षावास हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर सादड़ी-सदन में हुआ। उस वर्ष गुरुदेवश्री का वर्षावास रायचूर करने का था पर हमारी प्रार्थना ने चमत्कार दिखाया और गुरुदेवश्री का वर्षावास सादड़ी सदन में हुआ। इस वर्षावास में सादड़ी सदन के सभी आबाल-वृद्धों में जो अपूर्व उत्साह देखने को मिला वह अद्भुत था।
गुरुदेवश्री वहाँ से रायचूर, बैंगलोर, मद्रास और सिकन्दराबाद का वर्षावास सम्पन्न कर राजस्थान पधारते समय पूना पधारे और पन्द्रह दिन से अधिक समय पूना में विराजे। राजस्थान दिल्ली होकर पुनः राजस्थान पधारे। इधर आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. सा. ने पूना में संत सम्मेलन का मंगलमय आयोजन किया और गुरुदेवश्री का पूना पधारना हुआ और गुरुदेवश्री की असीम कृपा का ही सुफल था कि गुरुदेवश्री के चरणों में हमने प्रार्थना की और मेरी प्रार्थना को सम्मान देकर मेरे नव्य भव्य मकान में गुरुदेवश्री लगभग एक सप्ताह तक विराजे ।
गुरुदेवश्री की दीक्षा जयंती मनाने का भी हमें अवसर मिला । सन् १९९० में गुरुदेवश्री का वर्षावास हमारी जन्मभूमि सादड़ी में हुआ ।
इस वर्षावास में लगभग छः महीने का समय गुरुदेवश्री की सेवा में रहने का सौभाग्य मिला। मैंने और मेरे परिवार ने गुरुदेवश्री के बीसों चमत्कार देखे। गुरुदेवश्री जैसे पवित्र आत्मा ढूँढ़ने पर भी मिलना बहुत ही कठिन है। वे महान् जपयोगी थे और जप करने से उन्हें अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं। उनकी वाणी सिद्ध हो गई थी। उनके मुखारबिन्द से निकले हुए शब्द पूर्ण सिद्ध होते थे।
गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समय भी मैं उदयपुर में ही था, उनका दिव्य संधारा देखकर मैं स्तंभित था, वे कितने पुण्यवान थे कि स्वर्गवास के समय श्रमणसंघ के दो सौ से अधिक साधु-साध्वी उनकी सेवा में थे हमारे परिवार पर उनकी असीम कृपा रही है। मैं अपनी ओर से और अपने परिवार की ओर से गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ।
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यदि सोने को तपा दिया जावे तो कुन्दन बन जाता है। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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| श्रद्धा का लहराता: समन्दर
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190909 भावभीनी श्रद्धार्चना
सद्गुणों का समुद्र था, उस समुद्र का वर्गीकरण करना कठिन ही
नहीं, अति कठिन है। उनके विराट् व्यक्तित्व रूपी सिन्धु को शब्दों : -चुन्नीलाल कसारा
के बिन्दु में बांधना बहुत ही कठिन है।
उपाध्याय पू. गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शनों का संत का वेश धारण करने वाले व्यक्तियों की इस संसार में
सौभाग्य सन् १९९० में हुआ जब सादड़ी (मारवाड़) का यशस्वी कमी नहीं, अकेले भारत में छप्पन लाख से भी अधिक साधु हैं, ।
वर्षावास संपन्न कर आप पाली की ओर पधार रहे थे। मैं सपरिवार ऐसा मैंने सुना है। इतनी साधुओं की फौज किन्तु वे केवल वेश से ।
औरंगाबाद से दर्शनार्थ ढालोप उपस्थित हुआ। रात्रि के ८.00 बजे साधु हैं, पर उनका आचार और विचार समुन्नत नहीं है, वे स्वयं
का समय हो गया, उपाध्यायश्री ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे, उस इन्द्रियों के गुलाम हैं, वासना के दास हैं और व्यसनों के चंगुल में
समय उपाचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. से मेरा एक घण्टे तक विविध फंसे हुए हैं जो स्वयं अंधकार में भटकते हैं, वे दूसरों को क्या
विषयों पर वार्तालाप हुआ। ९.00 बजे उपाध्यायश्री जब ध्यान 900 प्रकाश दे सकते हैं। जिस संत में आध्यात्मिक तेज नहीं, और जो
मुद्रा से निवृत्त हुए, उनका मंगल पाठ सुनकर हम लोग जयपुर के 500 भौतिकता के दल-दल में फँसा हुआ है, वह केवल नाम का संत है,
लिए प्रस्थित हो गए। ध्यान का मंगल पाठ सुनकर मेरे मन को काम का नहीं। अंधकार को नष्ट करने के लिए हजार-हजार सूर्यों
अपूर्व आनंद की उपलब्धि हुई। जोधपुर से अपने आवश्यक कार्य 800 की आवश्यकता नहीं होती, एक ही सूर्य सम्पूर्ण विश्व को ।
से निवृत्त होकर मैं पुनः उसी रास्ते में औरंगाबाद की ओर बढ़ आलोकित कर सकता है, वही स्थिति संत की है। एक संत जो ।
रहा था, मैंने पुनः उपाध्यायश्री के दर्शन किए। प्रथम दर्शन में ही संतत्व से युक्त है, वह आलोक प्रदान कर सकता है।
मुझे अनुभूति हुई कि उपाध्यायश्री एक पहुँचे हुए महापुरुष, सिद्ध परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. जपयोगी हैं। उन्हें यह सिद्धि प्राप्त हो गई है। किसी व्यक्ति के ऐसे ही निर्मल संत थे। उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, तेजस्वी कृतित्व । जीवन में कोई समस्या हो तो वे अपने विशिष्ट ज्ञान के प्रभाव से 90.90 को निहार कर किसका हृदय श्रद्धा के नत नहीं होता। गुरुदेव के बिना पूछे ही बता देते और साथ ही उस समस्या का समाधान किस 503 दर्शन हमने बहुत ही लघुवय में किए। मेरे गांव में जो अरावली की प्रकार होगा, उपाय भी बताते। उपाध्यायश्री का उपाय यही था कि Dia पहाड़ियों के बीच बसा हुआ है, बड़े गुरुदेव महास्थविरश्री वे साधक को योग की प्रेरणा देते और जप के प्रभाव से वह व्यक्ति ताराचंद्रजी म. और गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी म. का उपाधि से मुक्त हो जाता।
hole आगमन होता रहता और गुरुदेव हमारी व्यवसाय केन्द्र अन्दर
मेरे हृदय पर उपाध्यायश्री की साधना की अमिट छाप पड़ी विरार, बम्बई में भी कई बार पधारे। गुरुदेवश्री के प्रति हमारे
जब उपाध्यायश्री जोधपुर पधारे तब मैं सुवालाल जी सा. छल्लाणी अन्तमानस में अगाढ़ आस्था है और वह आस्था निरन्तर संपर्क में
आदि श्रद्धालुगण उपाध्यायश्री के दर्शन हेतु जोधपुर पहुंचे और त आने पर सतशाखी के रूप में बढ़ती ही चली गई।
उसके पश्चात् पीपाड़ चातुर्मास में भी हमने दो बार उपाध्यायश्री के _मैंने जीवन में गुरुदेवश्री के सैंकड़ों बार दर्शन किए हैं, उनके । दर्शन किए। मेरा परम सौभाग्य रहा कि श्री देवेन्द्रमुनि जी म. द्वारा चरणों में बैठने का भी मुझे सौभाग्य मिला है, ज्यों-ज्यों मैंने लिखित "कर्म विज्ञान" के दूसरे भाग के प्रकाशन का सौभाग्य मुझे गुरुदेवश्री के दर्शन किए त्यों-त्यों मेरी आस्था गुरुदेवश्री के प्रति मिला। कर्म विज्ञान के प्रथम भाग को पढ़कर मेरा मन बहुत ही बढ़ती चली गई, गुरुदेवश्री गुणों के पुंज थे, उनके गुणों का वर्णन {आल्हादित हुआ और मैंने आचार्यश्री से निवेदन किया कि इसके करना हमारी शक्ति से परे है, श्रद्धेय गुरुदेवश्री के चरणों में मैं जितने भी भाग निकलें उसके प्रकाशन का लाभ मुझे मिलना चाहिए भाव-भीनी श्रद्धार्चना समर्पित करता हूँ। हे गुरुदेव आप महान् थे और मेरी प्रार्थना को आचार्यश्री ने और उपाध्यायश्री ने सम्मान और सदा महान् बने रहें, मेरी भाव-भीनी श्रद्धार्चना स्वीकार करें दिया। आचार्यश्री और उपाध्यायश्री की कितनी कृपा है, यह सहज
FedEO क्योंकि मैं आपका परम भक्त और उपासक रहा हूँ।
ही इससे परिज्ञात होता है।
90590000 उपाध्यायश्री के प्रति हमारी निष्ठा ज्यों-ज्यों दर्शन करते रहे,
16000 महान संत उपाध्यायश्री त्यों-त्यों बढ़ती ही गई। हमने सोजत, सिवाना और उदयपुर आदि
bete अनेक स्थलों पर उपाध्यायश्री के तीन वर्षों में कई बार दर्शन किए -डॉ. चम्पालाल देशरड़ा
और उनके चरणों में बैठकर उनसे वार्तालाप करने का भी अवसर (औरंगाबाद)
मिला। परम श्रद्धेय महामहिम उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. प्रायः यह माना जाता है कि संत अपने धुन के धनी होते हैं श्रमणसंघ की एक जगमगाती ज्योति थे, जिनका जीवन सूर्य के | पर मैंने देखा कि उपाध्यायश्री बहुत ही सरलमना थे। उनका हृदय समान तेजस्वी और चन्द्रमा के समान सौम्य था। उनका जीवन | स्फटिक की तरह निर्मल था, तनिक मात्र भी उनमें अहंकार नहीं
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । RDC था। इतने महान् संत होते हुए भी अहंकार और ममकार से वे दूर जाता है। उनकी तेजोमय स्मृति की रेखाएँ मिटाए नहीं मिटतीं और
थे। दूसरी विशेषता यह थी, वे बहुत ही दयालु प्रकृति के थे। किसी भुलाने से भुलाई नहीं जा सकतीं। तभी व्यक्ति को कष्ट से उत्पीड़ित देखते तो उनका हृदय दया से प्रदेश उपाध्याय राज्य रामटेव श्री पुष्कर मनि जी म के मैंने द्रवित हो उठता था और वे दया करके उसे सदा/सर्वदा दुःख से । कब टा
दा/सवदा दुःख स कब दर्शन किए वह तिथि तो पूर्ण स्मरण नहीं है। हाँ सन् १९८७ मुक्त होने का उपाय बताते थे।
में पूना संत सम्मेलन था। हम औरंगाबाद से संघ लेकर उस उपाध्यायश्री जी की विशेषता थी कि वे बहुत ही कम बोलते सम्मेलन में उपस्थित हुए थे, उस समय उपाध्यायश्री के दर्शन का
थे और जो बोलते वह बहुत सारपूर्ण और जीवनोत्थान के लिए सौभाग्य मिला पर अत्यधिक भीड़ भरा वातावरण था, उसके PR प्रेरणादायी होता था। उनके छोटे-छोटे और सरल वाक्य जो उनके। पश्चात् उपाध्यायश्री का महामहिम आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि म कर हृदय से निकलते थे, दूसरे के हृदय को झकझोर देते थे।
जी म. के नेतृत्व में अहमदनगर में वर्षावास हुआ। उस वर्षावास में 888 उपाध्यायश्री परम सौभाग्यशाली थे, इन तीन वर्षों में उन्होंने ।
अनेकों बार जाने का अवसर मिला, दर्शन भी किए किन्तु PRODP6 तन की व्याधि सहन की किन्तु उनके चेहरे पर वही मधुर मुस्कान ।
वार्तालाप आदि नहीं हो सका। 90P और ताजगी देखने को मिलती थी। १०३ डिग्री ज्वर होने पर भी } अहमदनगर वर्षावास सम्पन्न कर उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि म. D कभी भी उनके चेहरे पर खिन्नता हमने नहीं देखी।
अपने शिष्य मण्डल सहित औरंगाबाद पधारे। औरंगाबाद में 2990 उदयपुर चद्दर समारोह पर औरंगाबाद से हम ट्रेन लेकर पहुंचे।
उपाध्यायश्री का प्रथम बार पदार्पण हुआ। जनता में अपार उत्साह LODDथे, वह ऐतिहासिक प्रसंग दर्शनीय था। लाखों जनमेदिनी के बीच
था। वह उत्साह प्रेक्षणीय था। उपाध्यायश्री के मंगलमय प्रवचन, SD उपाध्यायश्री के प्रधान अन्तेवासी देवेन्द्रमुनि जी म. को श्रमणसंघ
उनके मंगल पाठ में अपार भीड़ समुपस्थित होती। हमने देखा के तृतीय पट्टधर की चादर समर्पित की गई थी। यह चादर स्नेह,
उपाध्यायश्री एक निःस्पृह संत हैं, उनके सामने चाहे धनवान 2 सद्भावना और संगठन की पावन प्रतीक थी। इसलिए इस समारोह
पहुँचता चाहे गरीब, वे धनवानों से भी अधिक गरीब व्यक्तियों को में एक लाख से भी अधिक व्यक्ति भारत के विविध अंचलों से
प्यार करते। उनके मगंल पाठ को श्रवण कर सैंकड़ों व्यक्ति आधि, B पहुँचे। इस समारोह को देखकर हमारा हृदय बांसों उछलने लगा।
व्याधि और उपाधि से मुक्त हो जाते। बड़ा चमत्कारिक था उनके 12 धन्य है ऐसे तेजस्वी गुरु, जिन्होंने अपने शिष्य को इस उच्चतम पद
ध्यान का मंगलपाठ। 20P पर आसीन करने के लिए कितना जीवन खपाया था। शिक्षा दीक्षा औरंगाबाद से विहार करने के बाद रास्ते में प्रायः हर स्थान TOS के लिए कितना पुरुषार्थ किया था। वे सच्चे कलाकार थे, जिन्होंने } पर दर्शनार्थ हम लोग पहुँचते रहे और उपाध्यायश्री की असीम
अपने शिष्य को आराध्य देव के रूप में जन-जन की आस्था का कृपा हमारे पर रही। उपाध्यायश्री का सन् १९८८ इन्दौर वर्षावास केन्द्र बनाया।
सम्पन्न हुआ, उस वर्ष औरंगाबाद से सात बसें लेकर हम लोग D D श्रद्धेय उपाध्यायश्री ने चद्दर समारोह के पश्चात् पंडित-मरण
वर्षावास की विनती के लिए पहुँचे किन्तु उपाध्यायश्री को राजस्थान ADD को वरण किया। हम लोग पुनः औरंगाबाद से आपके चरणों में
की ओर बढ़ना था और हमारी इच्छा थी कि उपाध्यायश्री का पहुँचे और अंतिम दर्शन कर अपने आपको भाग्यवान अनुभव
वर्षावास औरंगाबाद हो। औरंगाबाद संघ का प्रत्येक सदस्य a go करने लगे। उपाध्याय जैसी विमल विभूतियाँ ढूँढ़ने पर भी मिलना
उपाध्यायश्री जी के वर्षावास हेतु प्रयत्नशील था। हमारा प्रबल त कठिन हैं, वे वस्तुतः महान् थे।
पुरुषार्थ भी था, सफलता प्राप्त नहीं हुई।
उपाध्यायश्री जी की सेवा में तीन-चार महीने के बाद कोटि-कोटि वन्दन-अभिनन्दन
औरंगाबाद के हम श्रद्धालुगण पहुँचते रहे। इन चार वर्षों में
उपाध्यायश्री के बीसों बार दर्शन करने का सौभाग्य मिला, -सुवालाल संदीपकुमार छल्लाणी
जितनी-जितनी बार हमने दर्शन किए, हमें अपार आनंद की (औरंगाबाद)
अनुभूति हुई। उपाध्यायश्री की असीम कृपा सदा हमारे पर रही है,
उनके गुणों का जितना वर्णन किया जाए उतना ही कम है। वे जप 30 जीवन में प्रतिपल प्रतिक्षण अनेक व्यक्तियों से हमारा योगी थे, नियमित समय पर उनकी जप-साधना चलती रहती थी। हा साक्षात्कार होता है। चलचित्र की तरह अनेक व्यक्ति जीवन में आते जप-साधना के कारण उन्हें अपार सिद्धि प्राप्त हो गई थी। वे किसी OF हैं और चले जाते हैं पर उनके मिलन और सम्मिलन में किसी को दूर से देखकर ही समझ जाते थे कि वह व्यक्ति किस प्रकार
प्रकार का स्थायित्व नहीं होता पर कुछ ऐसे चुम्बकीय आकर्षण की व्याधि से संत्रस्त है, किस प्रकार उसके मानस में चिन्ता है और SODP संपन्न व्यक्ति होते हैं, जो अपनी अनूठी छाप मन और मस्तिष्क पर वे उसका उपाय भी उसी क्षण उसे बता देते थे, जप करो और जप DD छोड़ जाते हैं, उनका निवास हमारे अन्तर्मानस के सिंहासन पर हो करने से सदा-सदा के लिए समस्या का समाधान हो जायेगा।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
हमने अनेक बार गुरुदेवश्री के मंगलपाठ का अनुभव किया, हमारी अनंत आस्था उनके चरणों में रही। चद्दर समारोह के अवसर पर औरंगाबाद संघ पूरी ट्रेन लेकर उदयपुर पहुँचा और चद्दर समारोह सम्पन्न कर जब हम औरंगाबाद उदयपुर से पहुंचे तो हमें सूचना मिली कि उपाध्यायश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ हो गया है। और उन्होंने संथारा ग्रहण कर लिया है। हम प्लेन से पुनः उदयपुर पहुँचे दर्शन किये संथारे में आपश्री की बहुत ही उत्कृष्ट भावना रही आज ये हमारे बीच नहीं है किन्तु उनका मंगलमय जीवन और उपदेश हम सभी के लिए वरदान रूप रहेगा। उनके श्रीचरणों में अनंत श्रद्धा के साथ कोटि-कोटि वंदन-अभिनन्दन।
ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के धनी
-शांतिलाल दूगड़ (नासिक पूर्व युवा अध्यक्ष )
सन् १९४७ जिस समय देश परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त हुआ और सर्वतंत्र स्वतंत्र हुआ, उस वर्ष गुरुदेवश्री का वर्षावास नासिक में था। उसके पूर्व १९३६ में भी गुरुदेवश्री का वर्षावास नासिक में हुआ। इन दोनों वर्षावासों में मेरे परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा रही। सन् १९४७ में में बहुत ही छोटा था, मेरी मातेश्वरी गुरुदेवश्री के प्रति अनन्य आस्थावान हैं, गुरुदेवश्री की असीम कृपा को स्मरण कर वे भावना से विभोर हो जाती हैं।
सन् १९८७ में पूना में संत सम्मेलन हुआ उस संत सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए उपाध्यायश्री राजस्थान से उग्र विहार कर गुरुदेवश्री नासिक पधारने वाले थे, मैं गुरुदेवश्री की सेवा में ढिंढोरी पहुँचा और मैने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि हमारा परम् सौभाग्य है कि आप नासिक पधार रहे हैं। नासिक संघ पलक पावड़े बिछाकर आपके पधारने की अपलक प्रतीक्षा कर रहा है। गुरुदेवश्री इस प्रवास में दो दिन नासिक विराजे। उस समय उपाध्यायश्री विशाल मुनि जी म. मंत्री श्री सुमन मुनि जी म. आदि संत भी धुलिया की ओर से विहार करके पधार रहे थे, हमारा स्थानक बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में चल रहा था, गुरुदेवश्री ने अपने जोशीले भाषण में नासिक के भक्तों को आह्वान किया और गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से उस समय कुछ चन्दा हुआ और आज जो स्थानक की नव्य भव्य बिल्डिंग खड़ी हुई है उसकी मंगलमय प्रेरणा गुरुदेवश्री की रही। यदि गुरुदेवश्री उस समय प्रेरणा प्रदान नहीं करते तो यह भव्य भवन आज इस रूप में नहीं बन सकता था। गुरुदेवश्री की प्रेरणा से स्थानक बन गया। जो अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
पूना संत सम्मेलन के पश्चात् प्रतिवर्ष में गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु पहुँचता रहा और गुरुदेवश्री की भी मेरे पर असीम कृपा रही। आज उनकी भौतिक देह हमारे बीच नहीं है पर गुरुदेवश्री के गुणों का स्मरण कर मेरा हृदय श्रद्धा से नत है किन शब्दों में गुरुदेवश्री
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के गुणों का वर्णन करूँ, यह कुछ समझ में नहीं आता। शब्दों की सीमा है, उन असीम गुणों को व्यक्त नहीं कर पाते। मैं अपने शब्दों में यही निवेदन करना चाहूँगा कि उनका ज्योतिर्मय व्यक्तित्व हम सभी के लिए सदा प्रेरणा स्रोत रहे।
गौरव गरिमामय मंडित व्यक्तित्व
- परमेश्वरलाल धर्माचन (उदयपुर)
परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन मैंने बहुत ही छोटी उम्र में किए क्योंकि पूज्य पिताश्री चुन्नीलाल जी धर्मावत गुरुदेवश्री के अनन्य भक्तों में से रहे हैं। पूज्य पिताश्री के साथ में मैं गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु गया था और पिता श्री के निवेदन पर गुरुदेवश्री ने मुझे सम्यक्त्व दीक्षा भी प्रदान की थी। मैं अपने अध्ययन में व्यस्त रहा और उसके बाद में अपने व्यवसाय में। पूज्य पिताश्री की तरह मैं समय-समय पर गुरुदेवश्री के चरणों में नहीं पहुँच सका, तन भले ही मेरा दूर रहा किन्तु मन मैं तो गुरुदेव बसे हुए थे।
गुरुदेवश्री का सन् १९८८ का वर्षावास इन्दौर में था और वहाँ से विहार कर गुरुदेवश्री उदयपुर पधारे। गुरुदेव श्री का स्वागत समारोह हुआ, उस समय तथा उसके पश्चात् श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय का उद्घाटन हुआ, उस समय मंच का संचालन का दायित्व समाज ने मुझे दिया। संचालन के कार्य को देखकर गुरुदेवश्री आल्हादित हुए और उन्होंने कहा कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है और मुझे प्रसन्नता है कि धर्मावत जी के सामाजिक कार्यों को भी तुम सहर्ष संभाल सकोगे। गुरुदेवश्री का मंगलमय आशीर्वाद मेरे लिए बरदान रूप रहा।
गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे परिवार पर रही। जब भी गुरुदेवश्री का उदयपुर में पदार्पण हुआ तब हमारे मकान पर गुरुदेवश्री का विराजना रहा, उनके प्रवचन होते रहे। सन् १९९२ में जब गुरुदेवश्री चद्दर समारोह के लिए पधारे, समय बहुत कम था, मकान पर विराजने का समय न होने से आधा घण्टे के लिए ही वे दुकान पर विहरा करते समय विराजे, कितनी असीम कृपा रही गुरुदेवश्री की जब भी मुझे स्मरण आता है तो मेरा हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है।
गुरुदेवश्री प्रबल पुण्य के धनी थे, जिसके कारण ही गुरुदेवश्री को योग्यतम सुयोग्य शिष्य मिले जो आज श्रमणसंघ के अधिनायक हैं। गुरुदेवश्री के नेतृत्व में ही उनके शिष्य श्रमणसंघ के अनुशास्ता बनें, यह कितना बड़ा सौभाग्य है गुरु का गुरु तो सदा शिष्य से पराजय की कामना करते हैं, वे चाहते हैं कि उनका शिष्य उनसे आगे बढ़े, अतिजात शिष्य बने श्री देवेन्द्रमुनि जी म. ने अतिजात शिष्य बनकर गुरुदेवश्री की गरिमा में चार चाँद लगाए ।
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उपाध्याय.श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ उदयपुर में २८ मार्च, १९९३ को चद्दर समारोह हुआ। इस आन्ध्रप्रदेश, कहाँ राजस्थान, कहाँ हरियाणा, कहाँ दिल्ली और कहाँ चद्दर समारोह के संचालन का दायित्व भी मुझे दिया गया और मुझे उ. प्र. आदि। सन् १९९२ का वर्षावास गढ़सिवाना का संपन्न कर लिखते हुए अपार प्रसन्नता होती है कि उदयपुर के इतिहास में उदयपुर चद्दर समारोह में गुरुदेवश्री का पदार्पण हो रहा था। हमारे पहली बार चद्दर समारोह पर जो जनमेदिनी बरसाती नदी की तरह प्रान्त वालों ने भाव-भीनी प्रार्थना की कि गुरुदेव हमारे प्रान्त को भी उमड़ी, उसे देखकर सभी उदयपुर के नागरिक आश्चर्यचकित थे। पावन करें। दया के देवता का हृदय द्रवित हो उठा और वे उस भण्डारी दर्शक मण्डल का विशाल पंडाल जो पहले कभी भी दर्शकों प्रान्त में पधारे। सभी श्रद्धालुगण अपने प्रान्त में गुरुदेवश्री को से भरा नहीं था, वह खचाखच भर जाने के बाद भी हजारों दर्शक निहारकर कहने लगे कि वस्तुतः गुरुदेव दीनदयाल हैं, कितना कष्ट उसके बाहर खड़े रहे।
सहन कर पधारे हैं। गुरुदेवश्री को कष्ट तो अवश्य हुआ पर हम आचार्य पद चादर समारोह के पश्चात् दूर-दूर अंचलों से आए
सभी उनकी कृपा से कृतार्थ हो गए। किसे पता था कि गुरुदेवश्री हुए हजारों दर्शनार्थी अपने-अपने स्थानों पर लौट गए, सभी को यह
का वाकल प्रान्त में यह अंतिम पदार्पण हुआ। गुरुदेवश्री की असीम उम्मीद थी कि पुनः इतने दर्शनार्थी गुरुदेवश्री के संथारे के अवसर
कृपा का स्मरण कर हम सभी भक्तगण नत हैं। पर नहीं आ पायेंगे पर दूर-दूर से हजारों दर्शनार्थी पहुँच गए और | गुरुदेवश्री जैसे महान् संत आज हमारे बीच में नहीं रहे हैं। महानिर्वाण यात्रा में तो लाखों की जनता थी, जिधर से भी वह । किन्तु उनके सद्गुण सदा-सर्वदा हमारे सामने मिलेंगे और हम महायात्रा निकली, उधर बाजार की सारी सड़कें भर गईं, छतें भर उनके सद्गुणों को जीवन में अपनाते रहें, यही उस महागुरु के गईं, अपार जनमेदिनी को देखकर हम सभी विस्मित थे, यह जनता चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जनार्दन का सागर कहाँ से आ रहा है। वस्तुतः उदयपुर के इतिहास में यह दृश्य भी अपूर्व रहा।
अभिभूत हूँ उनके सारल्य से ) पूज्य गुरुदेवश्री की आज भौतिक देह हमारे बीच नहीं है, किन्तु उनका गौरव गरिमामय मंडित व्यक्तित्व हमारे सामने है और
-डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन सदा सामने रहेगा, उनका उज्ज्वल और समुज्ज्वल जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है, ऐसे निःस्पृह अध्यात्मयोगी गुरुदेव के
आज से कुछ वर्ष पूर्व की बात है, जब राजस्थान केसरी श्रीचरणों में भावांजलि समर्पित करता हूँ।
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का वर्षावास किशनगढ़
मदनगंज (राजस्थान) में था। किसी कारणवश मैं उस समय अजमेर | उनके सद्गुण हमारे मार्गदर्शक होंगे।
गया था। वहीं मुझे विदित हुआ था कि पूज्य उपाध्यायश्री जी म.
अपने शिष्यों सहित वर्षावास हेतु किशनगढ़, मदनगंज में -दयालाल हींगड़
विराजमान हैं। मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और उज्जैन के
स्थान पर किशनगढ़ की ओर रवाना हो गया। इसके पूर्व सन् मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूँ कि मेरी जन्मभूमि में गुरुदेव श्री के १९८२ में एक दीक्षा प्रसंग में नोखा (चांदावतों का) में मैं आपश्री पावन संस्मरण जुड़े हुए हैं। गुरुदेवश्री बाल्यकाल में वहाँ पर रहे के व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुका था। यद्यपि उस समय कुछ ही थे। हमारे गाँव के अम्बालाल जी ओरड़िया के वहाँ पर वे कार्य क्षण आपश्री के सान्निध्य का लाभ मिल पाया था तथापि आपश्री के करते थे और वहीं पर उनके अन्तर्मानस में वैराग्य का अंकुर सारल्य और स्नेहसिक्त व्यवहार ने मेरे हृदय पर अमिट छाप छोड़ प्रस्फुटित हुआ था। जो अंकुर एक दिन विराट वृक्ष का रूप धारण | दी थी। कर गया उस दिन किसे पता था कि गाय और भैंसों को चराने वाला बालक अपने प्रबल पुरुषार्थ से इस महान ऊँचाई को प्राप्त ।
जिस समय मैं जैन स्थानक भवन पहुँचा, उस समय आपश्री करेगा और जैनशासन का सरताज बनेगा।
अपने कुछ श्रद्धालु भक्तों के साथ किसी विषय पर मंत्रणा कर रहे
थे। मैंने उस समय पू. श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा., पू. श्री रमेश मुनि दीक्षा लेने के पश्चात् भी गुरुदेवश्री हमारे प्रान्त में समय-समय
जी म. सा., पू. श्री राजेन्द्र मुनि जी. म. सा. आदि के दर्शन किये पर पधारते रहे। चारों ओर अरावली की पर्वत मालाएँ अनंत
और पू. श्री उपाध्यायश्री जी के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। आकाश को छू रही हैं, जहाँ पर केवल पगडंडियों के रास्ते से बड़ी प. श्री राजेन्द्र मनि जी म. स्वयं आपश्री की सेवा में गए और मेरे मुश्किल से पहुँचा जाता था पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे
हृदय की भावना बताई। आपश्री ने तत्काल ही मुझे बुलवा लिया प्रान्त पर रही कि गुरुदेवश्री समय-समय पर अपने चरणारविन्दों
दी जा गित कर लगभग दस-पन्द्रह मिनट तक चर्चा की रज से हमें पावन करते रहे।
करने का मुझे समय दिया। उस समय हमारी विभिन्न विषयों पर गुरुदेवश्री भारत के विविध अंचलों में विचरण करते रहे, कहाँ चर्चा हुई थी। आपश्री ने मुझे बार-बार यही कहा था कि आज कर्नाटक, कहाँ तमिलनाडु, कहाँ म. प्र., कहाँ गुजरात, कहाँ । समाज में मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। इसलिये इस विषयक
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साहित्य का प्रचार-प्रसार होना चाहिए तथा बालकों में अच्छे संस्कार उत्पन्न हो सके, इस विषय पर भी चर्चा हुई थी। आपश्री की इस उदारता और अपनत्व से परिपूर्ण व्यवहार से मैं अभिभूत हो उठा था। चलते-चलते जब मैंने कहा कि आपश्री का काफी समय मैंने ले लिया है। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ। तब आपश्री ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। अच्छे कार्य करो, समय की चिन्ता नहीं। मैं उन्हें वंदन कर प्रसन्न हृदय से वहाँ से उज्जैन के लिए रवाना हो
गया।
दूसरा प्रसंग पीपाड़ शहर का है। आपश्री का वर्षावास सन् १९९१ का पीपाड़ शहर में था। मुझे जोधपुर जाना था, सोचा पहले पीपाड़ शहर चलकर पू. उपाध्यायश्री जी म. पू. उपाचार्य श्री जी म. आदि मुनि भगवंतों के दर्शन कर फिर जोधपुर पहुँचा जाय। अपने इन विचारों को क्रियान्वित करने के लिए मैं ब्यावर से बिलाड़ा और वहीं से पीपाड़ शहर पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर सभी मुनि भगवंतों के दर्शन किये चर्चा में उपाचार्यश्री ने कहा कि प्रतिक्रमण के पश्चात् मिलना। चूँकि मुझे प्रातः जल्दी ही पीपाड़ शहर से जोधपुर के लिए रवाना होना था, इसलिये मैं पीपाड़ शहर में जितनी देर ठहरा, समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करने में ही रहा। प्रतिक्रमण समाप्ति के पश्चात् मैं उपाचार्यश्री की सेवा में जाने के लिए स्थानक में गया। स्थानक में जिस कक्ष में उपाचार्यश्री विराजमान थे उसके ठीक पहले वाले कक्ष में उपाध्यायश्री जी म. विराजमान थे। रात्रि का लगभग साढ़े आठ, पौने नौ बजे का समय रहा होगा। मैंने पहले कक्ष में प्रवेश किया। बाहर से हलका हलका प्रकाश कक्ष में आ रहा था। मैंने कक्ष में प्रवेश करते ही उपाध्यायश्री को वंदन किया। मुझे पता नहीं कि उन्होंने मुझे देखा या नहीं किन्तु एक कदम ही मैंने बढ़ाया होगा कि उनकी आवाज सुनाई दी- "कौन, गौड़ जी हैं क्या ?"
"जी हाँ, बाबजी मैं ही हूँ।" आगे बढ़ते मेरे कदम सहसा रुक गए ये पुनः बोले- आओ इधर आओ।
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मैं उनके सम्मुख पहुँचा और सामने ही बैठ गया। उन्होंने बड़े ही अपनत्व भरे शब्दों में कुशल-मंगल पूछा और मेरी पीठ पर अपना हाथ रख दिया। लगभग तीन-चार मिनट तक उनका हाथ मेरी पीठ पर रहा। मुझे लगा उस समय वे मन ही मन कुछ मंत्रोच्चार भी कर रहे थे। फिर मेरी पीठ पर हाथ फिराकर सिर पर हाथ रखा और सिर पर हाथ फेर कर बोले-“जाओ, अब जाओ।"
इस प्रकार पाँच-छः मिनट तक मैं उनके सम्मुख अविचलित मौन बैठा रहा। उस समय की मेरी अनुभूति गूंगे के गुड़ खाने के समान है। उस अनुभूति का मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता।
आज जबकि पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. हमारे बीच नहीं है, उनका स्नेह से आपूरित अपनत्व भरा व्यवहार रह रहकर याद आता है। कभी-कभी एकांत में बैठा मैं विचारमग्न
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रहता हूँ तो ऐसा लगता है कि मेरी पीठ पर उनका हाथ है और मैं भाव-विभोर हो उठता हूँ। अब तो उनकी स्मृति ही हमारा सम्बल है। वे भौतिक रूप से ही हमारे बीच न हों किन्तु वैचारिक रूप से वे आज भी हमारे बीच हैं।
प्रसन्नता का विषय है कि उनकी स्मृति में एक स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है विश्वास है यह स्मृति ग्रन्थ एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्रकाशित होगा और उपाध्यायश्री के सांगोपांग व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रस्तुत करने में सार्थक सिद्ध होगा।
चमत्कारी मंगल पाठ था
......
-जयवन्तमल सखलेचा
महान संतों के जीवन की कई ऐसी घटनाएँ होती हैं जो मनुष्य के जीवन की दिशा बदल देती हैं। मेरे जीवन में भी कुछ ऐसे प्रसंग आए जो मेरी स्मृति पर अमिट छाप छोड़ गए।
अध्यात्मयोगी, परम पूज्य उपाध्याय १००८ श्री पुष्कर मुनिजी महाराज साहब का सन् १९७३ का चातुर्मास था। गुरुदेव की हमारे पिताजी श्री मंगलचन्द जी सखलेचा पर विशेष अनुकंपा एवं आशीर्वाद था। अगस्त सन् १९७३ की बात है मेरे ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार जिसकी उम्र करीब १३ वर्ष की थी, अचानक तबियत खराब हो गई, नाक से खून आने लगा, बुखार भी हो गया, डाक्टरों को दिखलाया एवं कई प्रकार की दवाइयाँ दीं परन्तु स्थिति काबू में नहीं आई। २-३ दिन में तबियत ज्यादा बिगड़ गई, नाक से खून आना बंद नहीं हुआ एवं लड़का सन्निपात की स्थिति में आ गया। मेरे पिताजी गुरुदेव के पास गए एवं उनसे कहा कि मेरे पौत्र की तबियत ज्यादा खराब हो रही है कृपया उसे मंगल पाठ देने की कृपा करें। यह सुनते ही गुरुदेव हमारे घर पधारे एवं मेरे पुत्र की हालत देखकर कहा कि बैठने के लिए एक लकड़ी का स्टूल दो मैं यहीं बैठकर ध्यान करूँगा ये स्टूल पर बैठकर ध्यान में लीन हो गए, कुछ समय पश्चात् ध्यान से उठकर मेरे पुत्र को मंगल पाठ सुनाया तथा बतलाया कि यह बालक मूठ की चपेट में आ गया था इसलिए खून आना चालू हो गया। अब ठीक हो जावेगा। कुछ ही समय में नाक से खून आना बंद हो गया तथा बुखार भी उतरने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गया। यह मेरे जीवन की ऐसी घटना है जिसे मैं कभी भी नहीं भूल सकता तथा गुरुदेव का जो उपकार मेरे पर हुआ वह मेरे मानस पटल पर सदैव अंकित रहेगा।
पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी की एक और घटना मेरे स्मृति पटल पर अंकित है। आपका चातुर्मास समाप्त होने पर इन्दौर से जावद, निम्बाहेड़ा होते हुए चित्तौड़ में पदार्पण हुआ में भी किसी कार्यवश अपने रिश्तेदार एवं उनकी पुत्री के साथ चित्तौड़ गया।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । हुआ था। जैसे ही पता लगा पूज्य गुरुदेव यहाँ विराजे हुए हैं उनके हूँ'''' उनने तो मेरे जीवन की बदली दिशा को परिष्कृत करने में प्रवचन सुनने स्थानक गया। प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् | बहुत बड़ा योगदान दिया है। शतशत श्रद्धा वन्दन ! गुरुदेव ऊपर पधारे तो हम भी उनके पीछे-पीछे ऊपर चले गए तथा उनके चरणों में बैठे। गुरुदेव ने कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् । सम्मेलन के महारथी थे..... जो मेरे साथ थे, उनका परिचय पूछा। मैंने बतलाया कि यह मेरे रिश्तेदार हैं तथा साथ में उनकी पुत्री भी है जो थोड़ी दूर पर बैठी
-कचरदास देवीचंद पोरवाल हुई गुरुदेव को देख रही थी। गुरुदेव ने उस बालिका की तरफ
(अध्यक्ष श्री वर्धमान श्वे. स्था. श्रावक संघ, पुणे) देखा और कहा इस लड़की को कोई बीमारी होनी चाहिए। यह सुनकर मैं और उस लड़की के पिता अचंभित हो गए क्योंकि उस
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की पूना संघ पर बहुत लड़की के पेट में काफी समय से दर्द रहता था एवं उसे भूख नहीं ही कृपा रही। आपके २ चातुर्मास पूना में हुये थे। आपके चातुर्मास लगती थी जिस कारण उसके पिता काफी चिंतित रहते थे। महाराज 1 में पूना में बहुत धर्मजागृति हुई थी। पूना श्रमण सम्मेलन में भी साहब ने कहा कि इस लड़की को १२ बजे का मंगल पाठ सुनने
आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं होने पर भी इतनी लम्बी यात्रा करके को कहना। हम तीनों ने १२ बजे का मंगल पाठ सुना तथा वहाँ से
आप पधारे और पूना सम्मेलन भी उपाध्यायजी के मार्गदर्शन से लौट आए। तब से उस लड़की के पेट का दर्द कम होने लगा। सफल हुआ। यह पूना संघ कभी नहीं भूल सकता। आप (श्री देवेन्द्र दो-तीन बार उसे मंगल पाठ के लिए बुलाया जिसके बाद वह स्वस्थ
मुनिजी) आचार्य पद पर विराजमान हुये यह सब उपाध्यायजी के हो गई। उसकी शादी भी हो गई एवं उसके एक पुत्र भी हो गया। जीवन की बहुत ही आनंदमय एवं मनोकामना (इच्छा) पूर्ति है। इस घटना के बाद लड़की के पिता को गुरुदेव पर काफी श्रद्धा हो
आपने गुरुदेव उपाध्याय प. पू. श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की गई एवं जब भी अवसर मिला उन्होंने गुरुदेव के दर्शन का लाभ
लगातर ५८ साल तक सेवा की है। आपको दुःख होना स्वाभाविक उठाया।
है तो भी आप बहुत ही ज्ञानी एवं गंभीर महान संत हो, सभी को
हिम्मत देने एवं धीरज देने का उत्तरदायित्व आप पर आ पड़ा है। धर्म के जीवन्त रूप थे
आप यह सब सहकर श्रमणसंघ को बलवान एवं शक्तिशाली
बनायेंगे। प. पू. स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. को पूना -विमल कुमार चौरडिया (पूर्व सांसद) संघ की भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम पूना संघ के सभी
श्रावक-श्राविका आपके बताये हुए मार्ग पर चलेंगे। इसी विश्वास के पूज्य पुष्कर मुनिजी म. सा. ज्ञान के अक्षय भण्डार थे, उनके ज्ञान का आवरण इतना क्षीण हो चुका था कि उनने ऐसे-ऐसे ग्रन्थों की रचना की जिनने उनको तो अमर बनाया ही किन्तु मुझ जैसे
[ ध्यान-मौन साधना के प्रबल पक्षधर थे ) लाखों मुमुक्षुओं को धर्म आराधन की प्रेरणा दी। और उनके द्वारा रचित ग्रन्थ देते रहेंगे।
-मोफतराज मुणोत पूज्य उपाध्याय भगवन्त श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का जीवन
(अध्यक्ष अ. भा. श्री जैन रल हितैषी श्रावक संघ) धर्म का जीता-जागता स्वरूप था। उनका व्यक्तित्व अद्भुत था, नररत्नाकर राजस्थान के वे अमूल्य हीरे थे। उनके द्वारा सृजित
परम श्रद्धेय उपाध्याय पं. रल श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ग्रन्थ इस बात को प्रकट कर देते हैं कि उन्हें व्याकरण, न्याय, तर्क ।
स्थानकवासी संत परम्परा के वयोवृद्ध आत्मार्थी संत थे। चौदह वर्ष का गहन अध्ययन था। वैदिक, बौद्ध, जैन व अन्य दर्शनों का
की अल्पायु में भागवती दीक्षा अंगीकार कर उन्होंने अध्ययनतलस्पर्शी अध्ययन था। उनका संस्कृत, प्राकृत, गुजराती,
अनुसंधान से अनेकानेक भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया और राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार था। उनके तप
जन-जन में करीब ७० वर्षों तक आध्यात्मिक-नैतिक-धार्मिक का तेज इतना था कि उनके द्वारा दिया जाने वाला मांगलिक सुनने
संस्कार जगाये। के लिये समाज के महानुभाव बहुत ही लालायित रहते थे। _ ध्यान और मौन साधना के प्रबल पक्षधर उपाध्यायप्रवर के वे 'चले गये "जाना तो था ही...., सबको जाना।
जीवन में धीरता, वाणी में मधुरता, व्यवहार में सरलता और मन है पर उनका अभाव एकदम भुलाया नहीं जा सकता भुलाया
में निष्कपटता थी, इन्हीं सद्गुणों के कारण जन-जन की उनके प्रति नहीं जा सकेगा जब-जब उनकी कथाएँ, उनके ग्रन्थ,
अनन्य आस्था थी। स्मारिका, सूक्ति कलश सामने आयेंगे, वे हमेशा अपने पास ही वयोवृद्ध उपाध्यायप्रवर व्यक्ति की पात्रता पहचानने में निष्णात आशीर्वाद देते दिखेंगे। मैं तो उनके उपकार से बहुत ही दबा हुआ थे। उनके सान्निध्य में जो भी जाता, वे आत्मीयता से बात करते।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
बातों ही बातों में धर्म का मर्म समझाने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने अपने अन्तरंग कृपा पात्र सुशिष्य विवर्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. को साहित्य साधना में जोड़कर शास्त्रीय गूढ़ ज्ञान दिया और उनमें आचार्य बनने की प्रतिभा और योग्यता पैदा की। उपाध्यायप्रवर के सुशिष्य परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. श्रमणसंघ के नायक के रूप में शासन सेवा कर रहे हैं।
उपाध्यायप्रवर पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे फिर भी उनकी दैदीप्यमान मुखमुद्रा देखकर किसी को अस्वस्थता के भाव देखने को नहीं मिले और संथारापूर्वक समाधि मरण प्राप्त कर साधना का चरम उद्देश्य प्राप्त किया।
हम, अध्यात्मयोगी परम श्रद्धेय उपाध्याय पं. रत्न श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के स्वर्गवास से प्राचीन परम्परा के आत्मार्थी संतरत्न की अपूरणीय क्षति मानते हैं और दिवंगत आत्मा के गुण स्मरण के साथ उन्हें भावपूर्ण श्रद्धा समर्पित करते हैं।
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी
-श्री कृष्णमल लोढ़ा (अध्यक्ष) -अनराज बोथरा (मंत्री) (श्री जैनरत्न हितैषी श्रावक संघ, जोधपुर)
परम श्रद्धेय उपाध्याय पं. रत्न श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. भारतीय श्रमण परम्परा के विशिष्ट ज्ञानी-ध्यानी और विलक्षण व्यक्तित्व के धनी संत रत्न थे।
चौदह वर्ष की लघुवय में दीक्षा लेकर संयम साधना में सतत् जागरूक रहकर उपाध्याय श्री ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का श्लाघनीय प्रयास किया।
वयोवृद्ध उपाध्याय श्री के जीवन में ज्ञान और क्रिया का अद्भुत संगम था। वे प्रशान्त, सौम्य और उदात्त प्रकृति के धीरगंभीर सन्त थे।
उपाध्यायप्रवर कुशल शिल्पी थे। उन्होंने अपने अन्तरंग शिष्य विद्ववर्य श्री देवेन्द्र मुनि जी को शिक्षण-प्रशिक्षण देकर भ्रमणसंघ के आचार्य पद प्राप्ति के योग्य बनाया। उपाध्यायप्रवर के सुशिष्य आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. का चादर समारोह उदयपुर में सम्पन्न होने के मात्र चार दिन पश्चात् संथारा स्वीकार करना और समाधि-मरण प्राप्त करना अनुपम साधना का उत्कृष्ट अध्याय है। ऐसे अध्याय को अध्यात्मयोगी ही प्राप्त करते हैं।
श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, जोधपुर अध्यात्मयोगी उपाध्याय पं. रत्न श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के स्वर्गस्थ होने पर पुरानी पीढ़ी के चारित्रवान संतरत्न की अपूरणीय क्षति मानता है। और दिवंगत आत्मा को भावपूर्ण श्रद्धा अर्पित करता है। ..
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बंदऊ गुरुपद पदुम परागा
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-गणेशलाल व्होरा
इस अवनि पर अवतार लेने वाली विशिष्ट आत्माओं में से एक महान आत्मा श्री पुष्कर मुनिजी थे। वे अवनि पर आत्मा बनकर आये मही पर महात्मा बनकर जिये और परमात्मा के परम तत्व में पुनः विलीन हो गए। केवल उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की महक, याददाश्त, स्मरण, प्रभाव और प्रकाश रह गया है जो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और मानव संस्कृति को लाभान्वित करता रहेगा।
आपका जीवन व जगत् अद्भुत, अलौकिक, अनोखा, असीम और आदर्शवादिता लिये हुए था। ये चुम्बकीय आकर्षण तथा पारसमणि के गुणों से ओत-प्रोत थे जो कोई उनके संपर्क में आया, वह बिन मोल उनका ही हो जाता था। वे चमत्कारी महापुरुष, मुनि और महात्मा थे। ये सब अनुभवजन्य प्रभाव का प्रस्तुतिकरण है। मैं और मेरे परिवार पर पड़े प्रथम दर्शन, चरण-स्पर्श और निकटता का प्रभाव है हमको उन्होंने कृतार्थ किया। हम धन्य हो गये। न जाने कौन से पूर्व जन्म की पुण्यायी उदय हुई कि हमें उनका वरद हस्त और उनके अनुयायियों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। हम उनके हो गये। भाग्य हैं हमारे।
हमारा परिवार वैष्णव ब्राह्मण कुल में से है। हम वह घड़ी और दिन भूल नहीं सकते जब हमें उनके प्रथम मांगलिक सुनने का सुअवसर मिला। कुछ सालों पूर्व आपका (अपनी संत मंडली के साथ) चौमासा इन्दौर नगर में हुआ था। वहाँ आपकी बड़ी ख्याति फैली हुई थी। जिज्ञासावश हम भी दर्शन लाभ हेतु गये। प्रवचन सुना, मांगलिक सुना और दर्शन कर लाभान्वित हुए। प्रत्यक्ष प्रभाव ने हमें लुभा लिया। फिर तो प्रायः प्रतिदिन हम जाने लगे। न जाने क्या जादू हमारे परिवार पर (बच्चों से बुजुर्ग तक) हो गया कि हम उनके अनन्य भक्त, श्रद्धालु और स्नेही पात्र बन गये।
उनके मांगलिक सुनने के लिए तो लोगों की भीड़ लगी रहती थी। दूर-दूर से दुःखी दर्दी, आकांक्षी, श्रद्धालु भक्तगण नियमित समय पर आकर इकट्ठे हो जाते थे। उनके (श्री पुष्कर मुनि जी ) मांगलिक में वह चमत्कार था कि अनुयायियों की व उपस्थितों की मन:कामना पूर्ण हो जाती थी। अपार संतोष मन में और पूर्ण सफलता (कामनाओं में लोगों को मिलती थी कई अच्छे-अच्छे लोगों से मैने स्वयं सुना है स्वयं ने भी कई बार अनुभव किया है। उनका व्यक्तित्व विरला था और कृतित्व अनुकरणीय, आदर्शयुक्त अनूठा था।
उनकी विशेष विशेषता यह थी कि उपदेश के बनिस्पत उदाहरण को वे श्रेष्ठ मानते थे (Example is better than
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । precept) । कथनी की अपेक्षा करनी पर अधिक जोर देते थे।
। सरलता और सौहार्द का पावन प्रतीक ) एक आदर्श गुरु के सभी गुण, गरिमा, गहनता, गुरुत्व व गूढ़ता उनमें विद्यमान थी ऐसे गुरु, लोक-परलोक को तारने वाले
-रतनलाल मोदी बहुत-बहुत कम मिलते हैं। किसी ने सच ही लिखा है
अरावली की विकट घाटियों में बसा हुआ देवास नन्हा-सा “संत मिलन सम, सुख जग नाहि।
ग्राम। जहाँ पर चारों ओर कल-कल, छल-छल करते हुए झरने बह प्रभु कृपा बिनु, सुलभ न काहि॥"
रहे हैं, चारों ओर प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा पड़ा है, उस स्थान पर श्रीपुष्कर-पद्म-पराग की महक-ख्याति भारत के कोने-कोने में | पहुँचना बहुत ही कठिन है पर हमारे परम आराध्य गुरुदेव कभी फैली है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, धर्माचार्य, प्राचार्य, प्रसिद्ध विद्वान, | दो साल से, कभी चार साल से अपने श्रद्धालु भक्तों को संभालने के जन-नेता, समाज-शास्त्री आदि ज्ञानी गण उनके आशीर्वाद लेने आते । लिए पधारते रहे हैं। महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. सा. का रहते थे। शिशु से सरल स्वभाव वाले संत शिरोमणि ने सबको स्नेह । आगमन हुआ। हमारे सारे गांव में एक नई चहल-पहल प्रारंभ हुई। से आशीष दिया। उनकी मंगल-कामना की व उज्ज्वल भविष्य का । उस प्रान्त के सभी श्रद्धालुगण बरसाती नदी की तरह वहाँ पर मांगलिक मंत्र सुनाने में कोई कोताई नहीं की। उनका बहुआयामी । उमड़-घुमड़ कर पहुँचने लगे। गुरुदेवश्री की मंगलमय वेदना प्रारंभ व्यक्तित्व सर्वविदित था।
हुई और गुरुदेवश्री ने हमें सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की। वे साधना के शिखर पुरुष थे। उनकी श्रेष्ठता व स्मृति सदा सन् १९४५ में गुरुदेवश्री का देवास में आगमन हुआ, उस वर्ष सदा भगवती-भागीरथी की तरह निरन्तर इस नश्वर-संसार में मैं गुरुदेवश्री के साथ लम्बे समय तक रहा। गुरुदेवश्री के उपदेश से प्रवाहित रहेगी। एक श्रेष्ठ महात्मा, संत, विद्वान, मानव और गुरु मेरे मन में वैराग्य भावना जागृत हुई। मैंने गुरुदेवश्री से कहा, के सभा लक्षण व गुण उनमें थे। भारतीय संस्कृति के साकार-स्वरूप। गुरुदेव मुझे दीक्षा प्रदान कर दो। पर गुरुदेवश्री ने कहा, मैं तुझे और जैन-धर्म के तत्वज्ञानी थे। प्रत्यक्ष जीवन में वे इतने सहज दीक्षा नहीं दे सकता क्योंकि तेरे भोगावली कर्म का उदय है। मैंने और सरल थे कि कोई उनकी विशालता को यकायक आंक नहीं कहा-गुरुदेव, बड़ी उम्र हो गई है अभी कहीं शादी तो नहीं हुई है। सकता था। जो सच्चे संत होते हैं वे प्रभाव को छुपाते हैं तथा । मैं सोच रहा था कि शादी शायद ही हो। जब गुरुदेवश्री ने मना कर स्वभाव को प्रकट करते रहते हैं। जबकि सामान्य व्यक्ति अपन। दिया तो मैं निराश हो गया। मैं सोचने लगा कि अब मेरे भाग्य में स्वभाव को छिपाकर प्रभाव का प्रदर्शन करते हैं। गुरुजी गुणों की दीक्षा नहीं लिखी है। गुरुदेवश्री की भविष्यवाणी सार्थक हुई और खान थे। ऐसे गुरु के चरणों में, ये पंक्तियाँ उद्धृत हैं।
विवाह हो गया तथा पाँच लड़के और चार लड़कियाँ हुईं। मैंने
सोचा मैं संसार के झंझट में फँस गया। लड़कों का तो कल्याण है। "वंदऊ गुरुपद पदुम परागा।
मैं तीन लड़कों को लेकर सन् १९७२ में गुरुदेवश्री की सेवा में सुरुचि सुवास सरस अनुरागा॥"
सांडेराव प्रान्तीय संत सम्मेलन में पहुँचा और गुरुदेवश्री से प्रार्थना “श्रीगुरुपद नखमणि गन ज्योति।
की कि इन बच्चों का उद्धार हो जाए तो मैं सोचूँगा कि मेरे द्वारा सुमरित दिव्य दृष्टि हिय होति॥"
जैनशासन की कुछ सेवा हो सके। गुरुदेवश्री ने स्वीकृति प्रदान की
और गुरुदेवश्री की असीम कृपा से मैं अपने तीनों बच्चों को लेकर "गुरुपद रज मृदु भंजन अंजन।
सन् १९७२ के जोधपुर वर्षावास में पहुँच गया। सन् १९७३ में नयन अमिअ देश दोष विभंजन॥"
गुरुदेवश्री का चातुर्मास अजमेर में हुआ, वहाँ पर मेरे पुत्र शब्दों के द्वारा, विशेषणों के जरिये और उपमाओं के आधार चतरसिंह की भागवती दीक्षा सम्पन्न हुई और उनका नाम दिनेशमुनि पर तो हम उनके कार्य-व्यवहारों की जो अनुभूति है उसका रखा गया। विवरण, वृत्तान्त, वर्णन और व्याख्या नहीं कर सकते है। केवल किन्तु दोनों पुत्रों का पुण्य प्रबल न होने से वे आर्हती दीक्षा निजी अक्षर-ज्ञान ही आकार लेता है। अतः मैं यह कहूँगा कि
प्राप्त नहीं कर पाए और गृहस्थाश्रम में रह गए। अन्तर की अनुभूति की, अभिव्यक्ति नहीं होती। श्रद्धेय गुरुदेवश्री की सेवा में लम्बे समय तक मुझे रहने का संत के सदाचार की, कही मूर्ति नहीं होती।
अवसर मिला है, लम्बे विहारों में भी मैं साथ में रहा और जाये कहीं, शांति मिले वहीं, आकांक्षा है यही।
गुरुदेवश्री की असीम कृपा मेरे पर रही, मेरे जीवन का नक्शा ही
बदल गया। गुरुदेवश्री के चरणों में रहने से मुझे अपूर्व शान्ति मिले हैं, मिलेंगे बहुत, पर पुष्कर मुनिजी की पूर्ति नहीं होती।
मिलती रही। धर्म-ध्यान और तपस्या आदि भी मैं करता रहा। मैं दिन में कई बार चाय पीता था और चाय में जरा-सा भी विलम्ब
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर मजाक
होने पर मेरा मूड ऑफ हो जाता था पर गुरुदेवश्री के उपदेश को
महान सत सुनकर मैंने सदा-सदा के लिए चाय का त्याग कर दिया। चाय का त्याग करने पर मुझे स्फूर्ति, नई चेतना महसूस होने लगी यह सब
-पुखराज मेहता गुरुदेवश्री की कृपा का ही सुफल है। गुरुदेवश्री आज हमारे बीच नहीं हैं, अंतिम समय में भी मैं
उपाध्याय श्री एक महान साधक थे, आपका सुदीर्घ संयमी गुरुदेवश्री के चरणों में रहा, मैंने उनकी जागरूक स्थिति को
जीवन हमें प्रेरणा देता रहा तथा आपका बताया हुआ मार्ग हमारा निहारा, वस्तुतः गुरुदेवश्री बहुत ही पहुंचे हुए संतरल थे। उनका
पथ आलोकित करता रहेगा। जीवन सरलता, सहजता और सौहार्द का जीता-जागता रूप था। गुरुदेवश्री की विशेषताओं का अंकन करना बहुत ही कठिन है। कर्मयोगी एवं तपःपूत उपाध्यायश्री जी ) मेरी उनके चरणों में वंदना। हे गुरुदेव ! आप तिरण तारण हो। मेरी आपके चरणों में भावभीनी श्रद्धार्चना।
-आचार्य राजकुमार जैन
(सचिव, भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् नई दिल्ली) गुरुदेव सागर की तरह विराट् थे
साधना मनुष्य-जीवन का सर्वोत्कृष्ट कर्म है। साधना के द्वारा -अशोक कुमार मोदी
ही मनुष्य अपने उस चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है जिसमें
उसके जीवन की सार्थकता निहित है। साधना यद्यपि मनुष्य-जीवन मैं बहुत ही छोटा था। संभव है उस समय मेरी उम्र ५ वर्ष की । की अनिवार्यता है, किन्तु बिरले ही उसे अपने जीवन में अपना कर थी। मैं पूज्य पिताश्री के साथ जोधपुर वर्षावास में पहुँचा। सन् । आत्मसात् कर पाते हैं, क्योंकि दुरूह और कठिन लगने वाले उस १९७२ का वर्षावास गुरुदेवश्री का जोधपुर में था। मेरे ज्येष्ठ भ्राता । मार्ग पर चलने के लिए जिस आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय की चतरसिंह और महेन्द्रसिंह भी साथ में थे। उस वर्षावास में आवश्यकता होती है वह सामान्यतः लोगों में कम होता है। इसीलिए गुरुदेवश्री के चरणों में मैंने गुरुदेव से धार्मिक अध्ययन किया। दृढ़ निश्चयी पुरुष बिरले ही मिल पाते हैं। जो उस दुरूह मार्ग का FDSO वर्षावास के पश्चात् विहार में भी हम सभी साथ में ही रहे। सन् । अनुसरण करते हैं वे कर्मयोगी के रूप में जाने व समझे जाते हैं। १९७३, १९७४ और १९७५ इन वर्षों में गुरुदेवश्री की सेवा में | ऐसे ही कर्मठ व्यक्तित्व के धनी रहे हैं हमारे आराध्य श्री उपाध्याय रहने का सौभाग्य मिला। मेरी उत्कट भावना गुरुदेवश्री के चरणों में पुष्कर मुनिजी महाराज। दीक्षा ग्रहण करने की थी पर कर्मगति बड़ी विचित्र है, जिसके
साधना के क्षेत्र में मुनिप्रवर ने जिस दृढ़ निश्चय का परिचय कारण चाहते हुए भी मैं दीक्षा नहीं ले सका, जिसका आज भी मन
दिया वह शब्दातीत और वर्णनातीत है। स्वभाव से वे सरल, प्रकृति में बहुत विचार है। मेरे बड़े भाई चतरसिंह जी ने दीक्षा ली और वे
से मृदु और वाणी से मधुर थे, किन्तु साधना में वे उतने ही कठोर दिनेशमुनि जी के नाम से विश्रुत हैं।
थे। उनकी साधना यद्यपि आत्मोत्कर्ष परक आत्महित साधना के भाई म. के कारण प्रायः प्रतिवर्ष गुरुदेवश्री के चरणों में लिए थी, फिर भी न जाने कितने मनुष्यों का जीवन उनकी साधना पहुँचने का अवसर व दर्शन करने का अवसर मिलता रहा। । से कुसंस्कारों के अन्धकार कूप में गिरने से बच गया। उनके सम्पर्क गुरुदेवश्री के चरणों में बैठकर मुझे अपूर्व शान्ति भी मिलती रही। में जो भी आया वह उनका ही होकर रह गया और उसने अपने जब कभी भी मैं तनाव से ग्रसित हुआ तब-तब मैं गुरु चरणों में जीवन को न केवल सुधारा अपितु उसे उन्नत बनाया। उनके पहुँचता रहा हूँ और मुझ बालक पर गुरुदेवश्री की अपार कृपा प्रभावशाली वचनामृत ने न जाने कितने लोगों की जीवन नैया को दृष्टि सदा बनी रही। गुरुदेवश्री इतने महान् थे कि जिसका वर्णन पार लगाया। उनके प्रवचनों-उपदेशों में लोगों के हृदय को छू लेने करना संभव ही नहीं। उनके गुण सागर की तरह विराट रहे हैं, और उनका हृदय परिवर्तन करने की अपूर्व क्षमता थी। इसका उन सागर रूपी गुणों को शब्दों की गागर में भरना बहुत ही कठिन कारण सम्भवतः यह था कि उनके व्यवहार में मानवीय सहजता थी है। गुरुदेव आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु हमारी अनंत आस्था और वे बाहर से जो थे, अन्दर से भी वही थे। यही उनकी सदा-सदा उनके चरणों में रही है और रहेगी और उनका वरदहस्त आत्मीयता का मूल है। सदा हमारे परिवार पर रहा है, जिसके फलस्वरूप हमारे परिवार
उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे कुशल वक्ता एवं प्रवचन में सुख और शांति की सुरीली स्वर लहरियाँ झनझना रही हैं।
कला में निपुण थे। लगता था साक्षात् वाग्देवी सरस्वती उनकी मैं गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ यही जिह्वा पर अहर्निश विराजमान रहती है। वे आशुकवित्व की कामना करता हूँ कि हे गुरुदेव! मेरे अपराधों को क्षमा कर मुझे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे। कविता उनकी हृदय से सहज प्रसूत सदा ही मंगलमय वरदान प्रदान करते रहें।
भाव के रूप में निकल कर वाणी का आश्रय पाकर मुखरित हो
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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जाती थी। उसमें भावों और कल्पना का ऐसा अद्भुत सामन्जस्य । महाव्रतों का दृढ़ता से पालन जैसे अगणित सद्गुण एक साथ होता था कि श्रोता या पढ़ने वाला चकित हुए बिना नहीं रहता था। विद्यमान थे फिर भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया था। ऐसे महान भाषा सौष्ठव, भाव माधुर्य, सहज प्रसूत कल्पनाशीलता उनकी । संत का हमारे बीच से विदा लेना पूरे समाज के लिये एक ऐसी कविता के अभिन्न अंग थे।
अपूरणीय क्षति है जिसकी पूर्ति होना असंभव है। र उनका वैदृष्य अप्रतिम था। विद्वत्ता एवं पाण्डित्य उनके ज्ञान । पू. उपाध्याय श्री के सानिध्य में ही आपने वीतरागीकी अक्षय निधि था। इसके साथ ही वे बहुत ही विनयशील थे। जीवन प्रारम्भ किया और उनकी असीम कृपा भी आप पर सदा अभिमान उनके स्वभाव से कोसों दूर था। संसार की कोई बात बनी रही; आपके आध्यात्मिक, साहित्यिक एवं वैचारिक उत्कर्ष में उनकी ज्ञान परिधि से बाहर नहीं थी। नीतिकार का कथन है कि सदा उनकी प्रेरणा रही व आप उनके स्नेह-भाजन भी रहे। इतने वह विद्या या ज्ञान निरर्थक है जिससे मनुष्य में विनय सम्पन्नता न दीर्घकाल का सान्निध्य जब छूटता है तो दुःख होना स्वाभाविक है हो-“विद्या ददाति विनयम्" के वे मूर्तिवान थे। उनके स्वभाव की। लेकिन काल की गति निराली होती है। इस अवसर पर माताजी, विनम्रता के साथ-साथ आचार में दृढ़ता तथा अनुशासन में कठोरता देवकुमार भाई, मैं व हमारा परिवार हृदय के दुःख को, सम्वेदना
थी इसीलिए अपनी भूल या गलती के लिए वे अपने आपको कभी J को अभिव्यक्त कर मन को हल्का कर सकते हैं, समझा सकते हैं 5DDक्षमा नहीं कर पाते थे और उसका प्रायश्चित्त करने के लिए वे लेकिन आपको सान्त्वना समर्पित कर सकने की क्षमता हममें अपनी साधना को और अधिक कठोर बना लेते थे।
नहीं है। उन्होंने सदैव आचरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया। वह श्री वीर प्रभू से यही प्रार्थना है कि वे स्वर्गस्थ आत्मा को चिरआचरण चाहे कायिक हो या मानसिक हो या वाचिक हो, तीनों में शांति व हम सबको उनके बताये मार्ग पर चलने की सद्प्रेरणा दें। एकरूपता होनी चाहिये। जो मन में है वही बोला जाय, जो बोला जाय वही किया जाय इसी में आचरण की शुद्धता और सार्थकता है। आचरण मनुष्य के जीवनोत्कर्ष का सोपान है जो मनुष्य को जीवन की ऊँचाइयों तक पहुँचा देता है। मुनि प्रवर की जन सामान्य
वे दृढ़ संकल्पशील थे....... को देशना रही है कि मनुष्य चूँकि समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ है, अतः 390194 वह अपने आचरण में इस प्रकार का सुधार करे कि वह सहज
-प्रेमचन्द चौपड़ा और स्वाभाविक हो, उसमें कृत्रिमता या बनावटीपन या दिखावा पूज्य उपाध्यायश्री का व्यक्तित्व बहुत ही लोकप्रिय था। लोक नहीं हो। उसके जीवनकाल में उसके द्वारा इस प्रकार का आचरण श्रद्धा का भाजन था, उनकी कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं जो हर किया जाय कि उससे दूसरे क्षुद्र से क्षुद्रतर प्राणि का भी अपघात सामान्य में नहीं मिलतीं। उनकी वाणी में ओज था, उनके जीवन में नहीं हो। जो ऐसा करता है वह निश्चित रूप से जीवन मूल्यों एवं निर्भीकता, दृढ़ संकल्पशीलता थी, जिसका साक्षात् अनुभव हमें जीवन के उच्चादर्शों को प्राप्त कर लेता है। आचरण की इस भुसावल शुभागमन दि. १९.४.८८ पर हुआ। आप ही की ओजस्वी कसौटी पर मुनि प्रवर स्वयं अपना आचरण कसते रहे। यही कारण एवं निर्भीक वाणी की वजह से ही शानदार भवन निर्माण कार्य
है कि उनके आचरण ने उन्हें मानव-जीवन की ऊँचाइयों तक पहुँचा । हुआ, जिसे भुसावल का स्थानकवासी समाज कभी भी भुला नहीं कह दिया और सदा सर्वदा के लिए वे हमारे वन्दनीय बन गए।
सकता। उस दिव्य व्यक्तित्व के प्रति हम श्रद्धावनत हैं और उनकी वे साधनाप्रिय थे। चिन्तन, मनन एवं जपसाधना में ही उनका उस्मृति में उनके चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। समय व्यतीत होता था। कई ग्रंथों को आपने संपादित किया। एक
सच्चे गुरु के रूप में आपने अपने शिष्यों को हर प्रकार से योग्य बनाया, अध्ययन कराया। प्रवचन, लेखन आदि कलाओं में दक्ष
बनाया। उसका साक्षात् उदाहरण, उन्हीं का एक शिष्य आज कितने महान ! कितने सरल !
आचार्य भगवंत के उच्चतम शिखर पर विराजित है। शिष्यों के प्रति
उनकी असीम वत्सलता देखकर मन विभोर हो उठता है। -राजेन्द्र लुंकड़ (बम्बई)
या उनके विचार बहुत ही उदार एवं विराट् थे। उनमें समाज एवं पूज्य उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के देवलोक । राष्ट्र अभ्युदय तीव्र आकांक्षा-बिज थे। उन्हें समाज, प्रांत, प्रदेश एवं होने के समाचार से हृदय को गहरा आघात लगा। पू. उपाध्याय श्री राष्ट्र हमेशा याद रखेगा। उन्होंने अपनी प्रतिभा, वक्तृत्व व कृतित्व के जीवन में सादगीपूर्ण विद्वता, सरल व निरभिमानी व्यक्तित्व, । से जिनशासन की जो सेवा की वह सदियों तक याद रखी जाएगी। सबको साथ लेकर चलने की अपूर्व क्षमता, महान तपस्वी, पंच। जिस प्रकार से गन्ना बाहर से कठोर दिखता है पर भीतर कण-कण
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
में मधुरस व्याप्त रहता है, उसी प्रकार उपाध्यायप्रवर के जीवन के कण-कण में मधुर स्नेह रस व्याप्त था।
जैन संघ के निर्मल गगन से आज उस चंद्र का अभाव सब को खटक रहा है। उनकी शांतिदायिनी शीतल अमृत किरणें हमसे दूर चली गयी हैं। दिवगंत आत्मा अपने आत्मिक गुणों को प्राप्त करे। चिरशांति प्राप्त करे। यही शासनदेव से करबद्ध प्रार्थना है।
आध्यात्मिक ज्ञान के सागर
-सुनील चौपड़ा
अध्यात्मयोगी, प्रज्ञापुरुष पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. जैन जगत के तेजस्वी नक्षत्र थे। आपका बाह्य व आभ्यन्तर व्यक्तित्व हृदय को लुभाने वाला था। गौर वर्ण, भव्यभाल, उन्नत सलाट, विशाल भुजायें, भरा हुआ आकर्षक मुखमण्डल, चमकते सूर्य के समान चेहरे का तेज जिसके दर्शन कर हृदय आनन्द-विभोर हो उठता था जितना उनका बाह्य व्यक्तित्व था उससे कितने ही गुणा अधिक आन्तरिक व्यक्तित्व था। वे सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करते थे। मैत्री एवं संगठन के हिमायती थे। उनमें अपार साहस, चिन्तन की गहराई, दूसरों के प्रति सहज स्नेह था। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुमुखी था। उन्होंने व्यवहार कुशलता से जन-जन के मानस को जीता था और संयम-साधना के अन्तरंग को विकसित किया था जो भी उस महामूर्ति के समक्ष आता, उनके स्वच्छ हृदय एवं निश्छल व्यवहार से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।
आपक्षी की ध्यान-साधना बहुत ही उत्कृष्ट कोटि की थी। उनकी मांगलिक को श्रवण करने के लिए हजारों की जनमेदिनी उमड़ पड़ती थी। मंगल पाठ श्रवण कर सभी अपने को भाग्यशाली समझते थे। आपश्री ने बहुत लम्बे-लम्बे विहार करके जन-जन कल्याण हेतु हिन्दुस्तान के सुदूर प्रान्तों में चातुर्मास किये थे। उस महामहिम आत्मा का सदा स्मरण बना रहे हम सब उनके मंगलमय आशीर्वाद से आध्यात्मिक, धार्मिक, साहित्यिक सभी क्षेत्रों में निरन्तर प्रगति करते रहें यही मंगल मनीषा है।
अमर नाम हो गया
-सुरेन्द्र कोठारी (महामंत्री श्री बर्द्धमान पुष्कर जैन युवा मंच उदयपुर)
"है समय नदी की धार जिसमें सब बह जाया करते हैं, है समय बड़ा तूफान प्रबल जिसमें पर्वत झुक जाया करते हैं, अक्सर दुनिया के लोग समय से ठोकर खाया करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे होते जो इतिहास बनाया करते हैं।"
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किसी कवि की ये पंक्तियाँ उपाध्यायप्रवर पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के जीवन पर चरितार्थ होती हैं। गुरुदेव ने अपने समय का उपयोग करते हुए, अपने जीवन को ऐतिहासिक बना दिया है। उनका नाम जैन इतिहास या यूँ कहें कि हिन्दुस्तान के इतिहास में अमर हो गया है।
श्री पुष्करमुनिजी
नेमीचन्द जैन
श्री संघ के उपाध्याय थे और समाज के मार्गदर्शक थे पुण्योदय से वह हमारे युग के अनुपम चिन्तक थे।
टू धर्म के थे ज्ञाता और आरोही क्रिया पथ के थे। कर्म गति का कर विवेचन लाखों के प्रबोधक थे। र हे निष्काम यश-अपयश से सत्यमार्ग के पथिक थे। मुक्त थे मोह पाश से पर कर्तव्य के दृढ निश्चयी थे. नि त चर्या पर थे सावधान दुर्बलता के नहीं पोषक थे। जी ए संतोष का जीवन और संतोष के ही प्रेरक थे।
पर काल धर्म तेरा तो यह है अटल नियम । छोड़ जर्जर शरीर और प्रारम्भ कर नया जीवन
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शताब्दी के अद्भुत संत श्रीपुष्कर मुनि
- हरबंस लाल जैन (वरिष्ठ सदस्य, राष्ट्रीय कार्यकारिणी एवं संभागीय अध्यक्ष एस. एस. जैन कान्फ्रेस)
ज्ञान के प्रति तड़फ अत्यन्त ही विद्यानुरागी तथा घोर अध्यावसायी पुष्कर मुनिजी महाराज प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, कन्नड़ एवं राजस्थानी भाषा के निष्णात एवं धुरन्धर पंडित थे। उनकी वाणी में ऐसा सम्मोहन, ओज एवं प्रवाह था कि हजारों की संख्या में जैन तथा अजैन सभी धर्म लाभ लिया करते थे। इतना ही नहीं वरन् महाराज श्री की लेखनी में भी अप्रतिम जादू था । उनकी स्याही से लिखे गये अक्षर जैनागमों में ही नहीं परन्तु भारतीय वेदान्तियों के लिये भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अतः वे चिरस्मरणीय एवं ऐतिहासिक दस्तावेज हैं ये राजस्थानी तथा हिन्दी भाषा के सशक्त कवि थे तथा उनके द्वारा रचित ग्रंथ धर्म, अध्यात्म, साधना, योग, जप एवं तप के ज्योतित स्तम्भ हैं। उपाध्यायश्री के सम्पूर्ण जीवन ज्योति को यदि गहन दृष्टि से देखा जाए तो प्रतीत होगा कि उनका सांगोपांग जीवन ही ज्योतिर्मय था जिसकी ज्योति के प्रकाश से हजारों लाखों तप्त एवं दग्ध हृदयों को शीतलता प्राप्त हुई क्योंकि उसकी अध्यात्म साधना निरन्तर प्रज्वलित नन्दाद्वीप के सदृश थी। साहित्य-साधना के क्षेत्र में उनके
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । द्वारा की गई साधना जैन कथा साहित्य के क्षेत्र में युगानुरूप गुरुदेवश्री साहित्यकार, विचारक व मधुर वक्ता थे। वे अद्वितीय रहेगी।
अध्यात्म-साधना में अग्रणी थे। उनकी साधना व ध्यान की अनेक बातें हैं। कई अवसरों पर मुझे उनकी साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार
देखने का अवसर भी मिलता था। उनके मुखारबिन्द से दिन व रात एक युग पुरुष
का मांगलिक श्रवण करने सैंकड़ों श्रावक-जैन-अजैन उपस्थित रहते
थे। उस मांगलिक श्रवण से जो आनन्द की अनुभूति होती थी -डॉ. लक्ष्मी लाल लोढ़ा
उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। उस समय एक (प्राध्यापक, भौतिक विज्ञान, राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़ (राज.))
अद्भुत शान्ति व निर्द्वन्दता के हिलोरें मन में उठते थे। अन्तिम
समय में मैं भी उदयपुर ही था, गुरुदेव श्री में मैंने जिस विशिष्ट परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर अध्यात्म चेतना का दर्शन किया वह उन्होंने उच्च कोटि की साधना मुनिजी महाराज श्री अपूर्व प्रभावशाली, सौम्य व्यक्तित्व के धनी एवं । के बल पर ही प्राप्त की होगी। तेजस्वी महापुरुष थे। गुरुदेवश्री से हमारे सम्बन्ध गुरु-शिष्य के रूप गुरुदेवश्री के प्रति जन-मानस की जो असीम भक्ति, आस्था व में विगत कई वर्षों से थे। मैंने सर्वप्रथम गुरुदेवश्री के दर्शन मेरी श्रद्धा है उसका मुख्य कारण ही मैं यह मानता हूँ कि वे एक निस्पृह दादी माँ श्रीमती नाथीबाई के साथ किये थे। गुरुदेवश्री का वह योगी, शान्त तपस्वी, करुणाशील संत और परमार्थ सेवी महान युग प्रथम मातृतुल्य वात्सल्य मुझे आज तक भी याद है। वैसे तो पुरुष थे। मैं जन्म जयन्ती के इस अवसर पर श्रद्धापूर्वक उनको चातुर्मास अवधि में उनसे दर्शन लाभ का प्रयत्न करता था मगर श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ। जब से गुरुदेव श्री का चातुर्मास १९८० में उदयपुर हुआ था, उस समय मुझे अधिक निकट रहने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने यह । तीर्थों में तीर्थ पुष्कर, संतों में सन्त पुष्कर अनुभव किया कि गुरुदेव श्री सभी व्यक्तियों से एक ही स्नेह से वार्ता करते थे। कभी किसी को टालने की कोशिश नहीं करते थे।
-ब्रजभूषण भट्ट हर व्यक्ति जो उनके सम्पर्क में आता यह अनुभव करता कि गुरुदेव
पुष्कर जिस प्रकार तीर्थों का गुरु कहलाता है। यह अत्योक्ति श्री की उसी पर असीम कृपा दृष्टि है।
नहीं होगी यदि कहें कि पुष्कर मुनि का भी गुरुओं में वही पूज्य उस चातुर्मास में मुझे "श्री त्राटक युवक परिषद्" के मन्त्री के स्थान है-वे जैन दर्शन के ही प्रकांड विद्वान नहीं थे अपितु वैदिक रूप में कार्य करने का अवसर मिला। परिषद् ने कई धार्मिक दर्शन के उतने ही मर्मज्ञ थे व अन्य धर्मों के भी ज्ञानी थे-यह कहें आयोजन करवाये। एक मैगजीन "युवा जाग्रति" का भी प्रकाशन कि वे धार्मिक एनसाइक्लोपीडिया (ज्ञानकोष) थे तो ज्यादा उचित करवाया। मैं इन सभी कार्यों के सम्पादन में अनेक कठिनाइयों का होगा, सर्व धर्म समभाव उनके प्रवचन का सार था। अनुभव कर रहा था। मैं अनेक बार इनके निवारण व अन्य के
किशनगढ़ में महाराज श्री के चातुर्मास में कई महोत्सव, दीक्षा लिए गुरुदेवश्री के समक्ष अपनी बात रखता था। गुरुदेवश्री अपने
समारोह और कल्याण कार्य संपादित हुये, गीता जयन्ती पर अर्ज मधुर शब्दों में मुझे समझाते और कहते थे "सब हो जायगा"। इस
करने पर सहमति ही नहीं पूर्ण रूप से आयोजन करने का आशीर्वचन में न मालूम क्या जादू था कि कठिनतम कार्य भी अति
आश्वासन दिया-यहाँ स्थित माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में सरलता से सम्पन्न हो जाता था। मुझे अपने शोध कार्य में बड़ी
उपाध्याय जी के सान्निध्य में गीता जयन्ती १२ वर्ष पूर्व अत्यधिक कठिनाई अनुभव हो रही थी। मैं कभी-कभी नर्वस हो जाता था।
शालीनता से मनाई गई। जैन-अजैन श्रोतागणों का उत्साह और एक बार गुरुदेवश्री के समक्ष अपनी बात रखी। गुरुदेवश्री ने फिर }
आनन्द वर्णनातीत है। महाराज श्री की रचनावही आशीर्वचन "सब हो जायेगा" दोहराया। तत्पश्चात् मेरा कार्य किस तरह से सम्पन्न होने लगा उसकी मुझे पहले उम्मीद नहीं थी।
_ग्रंथों में गीता है, सतियों में सीता है इससे उनके प्रति मेरी श्रद्धा और गहरी हो गई। अन्ततोगत्वा मैंने आज भी याद आती है जब भी गीता जयंती आती है-पुष्कर अपना शोध कार्य पूर्ण किया।
मुनि जैनियों के ही नहीं थे, सबके थे। ऐसा मैं मानता हूँ। उनके अब तो मैं जब भी दर्शन करने जाता अधिकाधिक समय
सभास्थल में अन्य धर्मावलम्बियों की भी बराबर उपस्थिति बनी गुरुदेवश्री के सम्पर्क में गुजारने का प्रयत्न करता था। गुरुदेवश्री की
रहती थी। हमारे यहाँ के डॉ. फैयाज अली जी तो नित्य ही वखाण भी असीम कृपा थी कि मुझे कहते “बैठ" और फिर वह में बिला नागा आते थे और कभी-कभी उनसे धार्मिक समस्याओं वात्सल्ययुक्त ज्ञान की बातें बताते कि समय का ध्यान ही नहीं
| पर भी विचार-विमर्श करते थे। रहता, दूसरे भाई-बहिन दर्शन करने आते-जाते मगर मैं वहीं बैठा पुष्करमुनि की आध्यात्मिक, यौगिक शक्ति का अनुमान इसी से रहता। ऐसा महान व्यक्तित्व अभी तक मेरे जीवन में नहीं आया। । लगता है कि उनके दर्शन मात्र से कइयों की पीड़ायें शांत होती थीं
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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और मनोरथ पूर्ण होते थे। उसी प्रसंग में जब यहाँ हस्तीमलजी महाराज साहब पधारे तो गंगा और यमुना का संगम समारोह बड़ा
विनम्र श्रद्धांजलि ही भावभीना हुआ। ज्ञान गंगा का जो प्रवाह हुआ उससे सबका
-हस्तीमल झेलावत समाधान हुआ, ऐसा आकर्षण था संत समागम का।
(एम.ए., साहित्यरत्न (इन्दौर)) जब दिल्ली में महाराजश्री विराज रहे थे-वहाँ भी दर्शन करने का सौभाग्य मिला। मैंने पूछा महाराज यह देश काल के क्या हाल
श्रमण जगत के तेजस्वी नक्षत्र एवं महान अध्यात्मयोगी हैं ? उस समय शायद इंदिरा जी की पराकाष्ठा थी। यही कहा सब
पूज्यनीय उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनिजी महाराज का जीवन कुछ बदलने वाला है यह नहीं रहेगा। एक बार और अवसर मिला
अहिंसा, संयम और तप का त्रिवेणी संगम था। पाली में। जब वहाँ से विहार कर रहे थे मैं किसी कार्यवश पाली ज्ञान की दिव्य आभा से प्रकाशमान तथा सागर के समान गया हुआ था। ज्ञात होने पर साईकल लेकर नदी पार गया और गंभीर उनका बहुमुखी व्यक्तित्व जन-जन के लिए महान् प्रेरणा चरणस्पर्श किये, महाराजश्री ने जो मंगलम दिया आज भी उसकी केन्द्र था। श्रुति है हृदय में।
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की साधना उनके जीवन का इन्हीं शब्दों के साथ उनकी पुण्यस्मृति में पुष्पांजलि अर्पित परम लक्ष्य रहा है। उपाध्यायप्रवर तीर्थरूप थे। आदर्श शिष्य और करता हुआ सबके साथ सद्भावना अर्पित करता हूँ। सर्वे भवन्तु | आदर्श गुरु होने का गौरव प्राप्त कर उन्होंने अपने जीवन के पवित्र सुखी, सर्वे सन्तु निरामयः।
को सार्थक कर लिया है।
। आपके जैसे बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व को श्रमण संघ के श्रद्धा सुमन
पूज्यनीय आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित कर समाज पर बहुत बड़ा
उपकार किया है। -पालीवाल बाह्मण समाज, उदयपुर
मेरा परिवार उपाध्यायप्रवर के श्रीचरणों में विनम्र श्रद्धांजलि परम पूज्य महामना १००८ श्रीमान् पुष्करमुनिजी महाराज
अर्पित करता है। सा. के ब्रह्मलीन होने के समाचार से उदयपुर-सम्पूर्ण पालीवाल ब्राह्मण समाज के भाई-बहिनों को गहरा आघात लगा है। एक दिव्य ज्योति जो हमें आलोकित कर रही थी, वह सदा-सदा के लिए
[ सद्गुणों का महकता हुआ गुलदस्ता ) ब्रह्मलीन हो गई है। पूज्य महाराजश्री जी के प्रति हम नत मस्तक होकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। परमपिता परमात्मा से
-पुष्पेन्द्र लोढ़ा 'दीवाना', एम.ए. प्रार्थना करते हैं कि स्वर्गस्थ महाराज जी की आत्मा को चिर शांति
(लेखक, पत्रकार) प्रदान करे।
"फूल बनकर महक, तुझको जमाना जाने। पालीवाल समाज को गर्व है कि ऐसा अनमोल रत्न अपने
तेरी भीनी खुशबू को, अपना बेगाना जाने॥" बाल्यकाल से ही जैन समाज को समर्पित हुआ तथा जैन धर्म की
निःसंदेह इस विश्व की सुन्दर और सुरम्य वाटिका में कुछ दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पूज्य महाराज श्री ने अपना सम्पूर्ण
विशिष्ट आत्माएँ महकते पुष्प के रूप में अवतरित होती हैं। उनका जीवन जैन धर्मोत्थान के साथ त्याग, तपस्या एवं साधना से जैन
जीवन पुष्प की जीवन रेखा से भिन्न है, विलक्षण है। जब तक समाज में सर्वोपरि प्रतिष्ठा प्राप्त कर सम्पूर्ण जैन समाज व अपने
उसका अस्तित्व रहता है, जीवन ज्योति का दीप प्रज्वलित रहता है, कुल को ही गौरवान्वित नहीं किया अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र को दिशा
तब तक उनका व्यक्तित्व, उनकी साधना जन-गण-मन को सुवासित प्रदान की है।
व्यक्तित्व की महक से महकाती ही है। अपने सद्गुणों के महासौरभ परमपूज्य महाराजश्री की स्मृति सदैव अमर रहे इस हेतु । दान से मानव के मन-मस्तिष्क को ताजा बनाती ही है। किन्तु इस सेमटाल गाँव में एक ऐसा पुष्कर अमर स्मृति केन्द्र बने, जिससे उस
संसार से प्रयाण कर जाने के बाद भी उनकी साधना, उनका क्षेत्र का जनमानस लाभान्वित होकर कर्म एवं धर्म के प्रति समर्पित
व्यक्तित्व, उनकी तेजमय ज्ञान-ध्यान युक्त जीवन की सुवास का भाव से परमपूज्य महाराजश्री के पदचिन्हों का अनुसरण कर सके। अनन्त और अक्षय कोष का कभी लोप नहीं होता प्रत्युत उनकी
पुनः उदयपुर नगर का पालीवाल समाज परमपूज्य महाराज । मृत्यु के बाद भी जन-जन के मन में नई प्रेरणा, नई चेतना व सा. के प्रति नतमस्तक होकर शत-शत नमन करते हुए अश्रुपूरित | ताजगी प्रदान करता है और उसे प्रतिक्षण आगे बढ़ाने के लिए श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है।
प्रेरित करता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "आपकी इबादत के क्या कहने, आपकी बंदगी के क्या कहने, जो शमां की सांनिद थी रोशन,
आपकी लाजबाव जिंदगी के क्या कहने।"
"फूल एक गुलाब का, मुरझा के चला गया। त्याग के अनुराग से, खुशबू जगत को दे गया।"
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"तेरे गुण की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गाएगें। और सभी कुछ भूल सकेंगे पर तुम्हें भुला ना पाएगें।"
की माला का एक मोती
-धर्मचन्द ललित ओसवाल
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उन्हीं विशिष्ट आत्माओं में से मेरे मन मंदिर के दिव्य श्रद्धादेव, उपाध्यायप्रवर पूज्यश्री पुष्करमुनिजी म. सा. का व्यक्तित्व भी ऐसा ही था। उनके जीवन की अनुपम विशेषताएँ भी थीं, उनके उदार व्यक्तित्व की अनोखी ऐसी क्षमताएँ भी थीं जिनकी पावन स्मृति की महासौरभ से हमारा हृदय सुवासित है। रह-रहकर आज उनकी यादें मन को कचोट रही हैं। आपका जीवन कवि के शब्दों में फूलों से कोमल और गंगा से निर्मल था। रत्नमणी से पावन और
शशि से उज्ज्वल था। p903Pad "जग कहता है तुम चले गए, मन कहता है तुम गए नहीं।
जग भी सच्चा-मन भी सच्चा, मन से गुरुवर गए नहीं॥" एक विचारक ने कहा है-"Death is certain.” अर्थात् मृत्यु अवश्यंभावी है।
दूसरे विचारक के शब्दों में"Death is nothing, but a change for the new, This is a secret, known only to few."
अर्थात् मृत्यु परिवर्तन के अलावा कुछ भी नहीं है, किन्तु इस रहस्य के ज्ञाता बहुत कम ही लोग हैं। जन्म के बाद मृत्यु तो प्रत्येक प्राणी की होती है, परन्तु मरण पद्धति में अन्तर होता है। यकीनन जीवन जीना एक कला है तो मरना भी एक कला है। एक शायर ने कहा है"सुनी जब हिस्टरी, तो इस बात का
कामिल यकीं आया, जिसे मरना नहीं आया
उसे जीना नहीं आया।" सुन्दर रीति से, शांति समाधिपूर्वक मरण भी एक विचित्र कला है, जो किसी महान् व्यक्तित्व को ही प्राप्त होती है। मृत्यु भी एक अनमोल उपहार है जो ऊर्ध्वगति के जीव को गति प्रदान करता है। ऐसा जीवन उदात्त विचारों का प्रसार करता है तथा परिवेश के तदनुरूप आचरण करने की प्रेरणा देता है। ऐसा जीवन सर्व अपेक्षाओं की पूर्ति करता है। अंजलि भर सबको सुसंस्कारों का एक गुलदस्ता प्रदान करता है। कितना सही कहा है चिंतक ने
"मौत जिंदगी का एक पल भी नहीं देती,
मगर जिंदगी एक पल में बहुत कुछ दे देती है।" अनेकों गुणों से युक्त उपाध्यायश्री के महान जीवन का मैं क्या । वर्णन करूँ ? बेशक महान जीवन था, गुरुवर का।
४ अप्रैल, १९९३ प्रातः अहिंसा विहार, रोहिणी में भगवान महावीर जयन्ती के अवसर पर आयोजित प्रभात फेरी निकल रही थी वहाँ पर ही परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री के स्वर्गवास के समाचार से हृदय पर आघात पहुँचा। अहिंसा विहार में शासन प्रभावक श्री सुदर्शन लाल जी म. सा. के शिष्य शास्त्री पदम चन्द जी म. सा. पधारे हुए थे। महावीर जयन्ती का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया एवं गुरुदेव की स्मृति में एक घन्टे का सामूहिक महामंत्र का जाप हुआ और महाराज श्री ने उपाध्यायश्री के जीवन पर प्रकाश डाला और श्रद्धापूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित की।
हम स्वयं अतीत की लहरों में खो गये। अहिंसा विहार का प्रांगण आपश्री का एवं गुरुदेव का दिल्ली प्रवास के दौरान का सुन्दर दृश्य मन एवं दिमाग पर अंकित हो उठा। जिस धरती पर गुरुदेव के चरण पड़े आज वहाँ के आनन्दित वातावरण में अनेक परिवार उनके आशीर्वाद स्वरूप फल-फूल रहे हैं।
श्रमणसंघ की माला का एक और मोती माला में से निकल गया। लेखनी द्वारा भावों को व्यक्त करना हमारी सामर्थ्य से बाहर है।
वीतराग प्रभु के चरणों में यही प्रार्थना है कि पुण्य आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें और हम सब उनके आशीर्वाद से गुरुदेव के दिखाये मार्ग पर चलकर अपना जीवन सार्थक कर सकें।
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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हम पर उनके अनन्त उपकार हैं।
-मोहनलाल चोपड़ा
(नाशिक)
जलते द्वीप रहेंगे, आपके गुणगान, नाम, सद्मार्ग, सत् प्रेरणा सदैव 2000 प्रकाशमान रहेगी।
यह आपके पवित्र चरणों का ही फल है जहाँ-जहाँ आप पधारे, आपके चरण सरोज पहुँचे, धर्म की महिमा रूपी पवित्र गंगा बही। आप ही के सुशिष्य श्री आचार्यप्रवर देवेन्द्र मुनिजी तृतीय पट्टधर के रूप में स्थानकवासी जैन परम्परा को सुशोभित कर रहे हैं।
पूज्य उपाध्यायश्री का समाचार सुनकर बहुत ही दुःख हुआ है। हमारे एक महान् संत आज हमारे बीच न रहे। पूज्य गुरुदेव को हम, हमारी परिवार की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके अनन्त उपकार और आशीर्वाद से हम आज इस मुकाम पर पहुँचे हैं।
हे सौम्य मूर्ति शत-शत प्रणाम !
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उपाध्याय पू. श्री पुष्कर विश्व-मैत्री
-जैन भूषण शिरोमणिचन्द्र जैन के प्रतीक थे गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के समाधि मरण
। प्राप्त होने के समाचार सुनकर मैं ही नहीं वरन् सब जैन समाज
। -सुमति कुमार जैन स्तब्ध रह गया। अभी उस शिल्पकार द्वारा अपने भाग्यवान शिष्य 9851
की दीक्षा व शिक्षा से निर्माण की कई मंगल मूर्ति अपने उच्चतम भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है। इसमें श्रमण संस्कृति
पदासीन होकर चादर समारोह के रूप में समारोह के आनन्द की का अनुपम योगदान है, रहा है, रहेगा। श्रमण (साधु) हर वर्ग का आदरणीय व्यक्तित्व है, साध का मन घृणा, द्वेष, कलह आदि
स्मृतियाँ याद कर-कर चतुर्विध संघ का रोम-रोम पुलकित होता था 9000
कि गुरुदेव ने अपने जीवन का लक्ष्य पूरा समझकर शायद काल दुर्गन्धों से कभी दूषित नहीं होता, उसके मन की वसुधा पर समाज,
को भी इस समारोह में कोई विज न समझे, रुकने की आज्ञा दी व 509 राष्ट्र, संपदा, सम्प्रदाय, मत, मतान्तर की कोई भेद रेखाएँ नहीं
खुशी की शहनाइयाँ, नुपूर की ध्वनियाँ-नक्कारों की आवाज ठंडी होतीं, उसका मन पुष्प की तरह सत्य, अहिंसा और मैत्री की सुरभि
पड़ी ही थी कि अकस्मात् महाप्रयाण कर दिया। किसी ने ठीक ही प्रसरित करता रहता है। पूज्य उपाध्याय ज्योति पुरुष,
कहा हैअध्यात्मयोगी, राजस्थानकेसरी, प्रसिद्धि प्राप्त वक्ता उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी का जीवन साधना का आदर्श था। समाज के उत्कर्ष, “फलक देता है जिनको ऐश, उनको गम भी होते हैं। समाज के संगठन के प्रबल प्रेरक, हजारों मीलों की पदयात्राएँ, जहाँ बजते हैं नक्कारे, वहाँ मातम भी होते हैं।"
180.000 अगणित कष्ट सहन करते हुए, जैन-अजैन सभी के श्रद्धानत अनेक हम अनुयायी तुम पथ प्रदर्शक, तुम कर्म चितेरे, हम दर्शक। विशेषताओं के धनी, अपने कृतित्व के प्रति कभी अहंकार भाव न
तुम सौम्य मूर्ति एक सरस बिम्ब, इस पर स्नेह ना प्रतिबिम्ब। रखने वाले, अनासक्त योगी की तरह काम में जुटे रहकर, फल की
करी राह हमारी देदीप्यमान, थे कर्मयोगी, थे निरभिमान। प्रतीक्षा न करते हुए ऐसे विराट, विशाल व्यक्तित्व उपाध्यायश्री के लिए जन-जन अन्तर्हदय से निसृक्त श्रद्धा का अर्थ सदैव समर्पित
इक सरस सात्विक निष प्राण, हे सौम्य मूर्ति, तुम्हें शतशत प्रणाम। करता रहा है, आज भी श्रद्धानत है। जिस महान व्यक्तित्व की विशेषताओं को कभी परिगणित नहीं किया जा सके उस विराट् महापुरुष के लिये कुछ भी कहना हो तो संक्षेप में यही कहा जाएगा
अवर्णनीय उपक कि वे सर्वथा निर्विवाद महापुरुष थे। अहिंसा, सत्य, मैत्री के प्रतीक थे, मानव-मात्र के लिये वन्दनीय, श्रद्धेय उपाध्यायश्री का आज हम
-बद्रीलाल जैन अभिभाषक
आममापक.30 सभी के बीच में से चले जाना, श्रमण संस्कृति में करारी चोट है।
यह जानकर अत्यन्त दुःख हुआ कि ज्ञानमहोदधि, चारित्रवान, ataa हम सभी के लिये यह असहनीय है, पर इस काल की घड़ी के आगे । बहुश्रुत अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी का स्वर्गवास हो
। सभी नतमस्तक हैं।
गया। पूज्य उपाध्यायजी के महान गुणों तथा उपकारों का वर्णन आज आप देह रूप में हमारे समक्ष न हों, परन्तु आपका अवर्णनीय है। पूज्य श्री के पुण्यप्रताप व धर्म-साधना ने श्री देवेन्द्र पडा । स्मरण, आप द्वारा दी गयी विचारधारा, चिन्तन, वाणी सदैव हमारे । मुनि जी जैसे शिष्य का निर्माण किया जो श्रमणसंघ का पट्टधर न्य पास रहेगी, व जन-जन के लिए सदैव प्रकाश का प्रतीक रहेगी, नियुक्त हुआ। गुरु विछोह की व्यथा भी अवर्णनीय होती है। उनके लाभ जिस प्रकार आकाश में झिलमिल-झिलमिल तारे और इस भू पर । निधन से समाज की जो क्षति हुई वह अपूरणीय है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । D. जिनेश्वर देव उनकी आत्मा को चिरशांति एवं शाश्वत सुख । | प्रदान करे।
अद्भुत लोकप्रिय संत
-बाबूलाल सिरेमलजी लुंकड़ Re
जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र FOOFOR
उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का -शांतिस्वरूप जैन
संथारापूर्वक देवलोक का कुछ दिनों पहले समाचार सुनकर मैं परम् पूजनीय उपाध्याय श्री श्री १००८ श्री पुष्कर मुनि जी। हतप्रभ रह गया। इस शून्यता की प्रतिपूर्ति होना असंभव है। गुरुदेव B 88 महाराज सा. का देवलोक गमन सुनकर मन बहुत दुखित हुआ। वे
का व्यक्तित्व अद्भुत लोकप्रिय था, भक्तों की श्रद्धा समुद्री लहरों की म जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र व अध्यात्मयोगी थे। उन्होंने जो कार्य
तरह उमड़ पड़ती थी। उनके कालधर्म से जैन समाज की व श्रमण Bedeo जाति व समाज के लिए किये हैं वे कभी भी भुलाए नहीं जा । सघ का अपूरणाय क्षात हुइ ह।
सकते। हम बड़े भाग्यशाली हैं जो कि चादर समारोह पर उनके ह म दर्शन हुए। यह हमारे जैन समाज के लिए बहुत भारी क्षति है जो
गुरुवर गये सही पर मिटे नहीं HD कभी पूर्ण नहीं हो सकती। मेरी व मेरे समस्त परिवारजन की ओर से आचार्य श्री एवं सभी साधुवृन्द व साध्वीवृन्द के चरणों में बहुत
-जितेन्द्र नगावत एवं परिवार 3DD-बहुत वंदना-नमस्कार।
"जिन्दगी के जहर को अमृत बनाकर पी गये हैं। SOR उनका नाम ही गुणों का पर्याय । शूल से भी फूल से मुस्कराकर जी गये हैं।
मौत बेचारी उन्हें क्या छू सकेगी?
-कपूरचन्द जैन जो लाखों दिलों में आस्था केन्द्र बनकर जी गये हैं।" BP उपाध्याय श्री जी का जीवन कितना महान् एवं आदर्शमय रहा
“जग कहता है, गुरुवर रहे नहीं, 595 है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जिनका नाम ही जिनके गुणों
मन कहता है, गुरुवर हटे नहीं। 3BDB का पर्याय है। जिनकी यशोकीर्ति आकाश की भाँति असीम रही है।
जग भी सच्चा मन भी सच्चा, प्र य नाम लेते ही जिनकी अद्भुत अलौकिक अनुपम छवि स्मृति पटल
गुरुवर गये सही पर मिटे नहीं। पर उभर आती है। और मैंने तो साक्षात् उस दिव्य विभूति के 358दर्शन किए हैं। पर समय की अबाध गति है, समय किसी का रास्ता
सच ही हमें भी उसी रास्ते पर जाना है पर गुरुदेव के बताये 8 नहीं देखता। परन्तु कभी-कभी ऐसे दिव्य पुण्य पुरुष भी इस समय
हुए मार्ग को हम अपनायेंगे तभी हमारा जीवन सार्थक होगा। की परिधि में आ जाते हैं। इस क्रूर काल ने किसी को बख्शा नहीं, पूज्यवर की आत्मा शीघ्र मोक्षगामी बने। गुरुवर के श्री चरणों PP कब पापी अपनी लपेट में ले जाए इसका भरोसा नहीं।
में नगावत परिवार के श्रद्धा सुमन अर्पित हों। उपाध्याय श्री जी संसार के लिए धर्म मार्ग प्रशस्त करते हुए "आईं थी मनहूस घड़ियाँ कैसी शनिवार को ।
स्वयं साक्षात् धर्म रूप हो गए हैं। उपाध्याय श्री ने अपनी प्रताप पूर्ण छीनकर जो ले गईं हमारे आधार को ॥ क र प्रतिभा की तेजस्विता से जन-जन को प्रभावित किया। वे एक लब्ध प्रतिष्ठित सन्त थे।
असहनीय दुःख ऐसे मंगलमूर्ति गुरुदेव के अमर जीवन की गाथाएँ भारत कर वसुन्धरा के कण-कण से मुखरित होती रहें यही मेरी मंगल कामना
-आर. सी. रूनवाल
उपाध्याय पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के स्वर्गवास के Pos अन्त में जीवन और मृत्यु से परे सदा आनन्दमय, चिन्मय, समाचार मिलने से हमें बहुत असहनीय दुःख हुआ। विधि के 30.9 दिव्य आत्मा को मेरे त्रिकाल वन्दन अभिवन्दन। गण
विधान के आगे किसी की भी नहीं चलती है।
जिस समय आग की ज्वालाएं धधकने लगें उस समय कोई चाहे कि आग को कुआ खोदकर बुझा दूंगा। जैसे यह कार्य मूर्खतापूर्ण है वैसे ही बुढ़ापा आने पर हम धर्म करेंगे यह कथन भी उतना ही हास्यास्पद है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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श्रद्धा का लहराता समन्दर माया
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हार्दिक श्रद्धांजलि
शरीर विनश्वर है, आत्मा अमर है। फूल बिखर जाता है,
उसकी सौरभ वातावरण को सुरभित कर जाती है। गुरुदेवश्री का l -श्री एवं श्रीमती पारसमल बोहरा
व्यक्तित्व अमर है, कृतित्व युग-युग तक जैन समाज में प्रेरणापुंज
बना रहेगा। वह पावन देह भले ही अनन्त में विलीन हो गई पर 2 2 पूज्य गुरुदेव का हमारे पर असीम उपकार है। आपकी आत्मा । उनकी गुण-सौरभ हम सबके जीवन को सदैव सुरभित करती को चिर शांति मिले, एवं शीघ्र ही अनंत सुखों को प्राप्त करे, ऐसी रहेगी, उनके दिव्य संदेश आने वाली पीढ़ियों को साधना की राह जिनेश्वर भगवान से कामना करते हैं। मेरी एवं मेरे परिवार की दिखाते रहेंगे। उनकी पावन स्मृतियाँ सदैव सम्बल देती रहेंगी। तरफ से पूज्य गुरुदेव को अनन्य भक्ति के साथ में अश्रुपुरित । हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित हैं। नाम के अनुरूप थे वे
मुझ पर उनकी कृपा दृष्टि थी
-धर्मीचन्द जैन, लुणावत 4000 -बी. सज्जनराज सुराणा पूज्य उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. महान
पूज्यनीय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के देवलोक होने का महापुरुष थे। अपने नाम के अनुरूप ही वे कोमल और निर्मल थे।
के समाचार सुनकर मुझे एवं समस्त परिवार को हार्दिक दुःख जो भी भक्त उनके पास आता था उनके दर्शन लाभ प्राप्त कर
हुआ। आत्म-संतोष का अनुभव करता था।
उपाध्यायश्री के आपके चादर महोत्सव पर दूर से दर्शन करने पूज्य उपाध्याय श्री एक महान कलाकार थे। उपाध्याय श्री एक
| के अन्तिम सौभाग्य प्राप्त हुए थे। उपाध्यायश्री की मेरे पर काफी अच्छे साहित्यकार थे। कृपा दृष्टि शुरू से रही है। उनका चला जाना मुझे एवं सारे समाज
। को बुरी तरह खलेगा। आज पूज्य उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. हमारे बीच नहीं हैं। केवल उनकी स्मृतियाँ ही शेष हैं। इस अवसर पर मैं
श्रद्धा सुमन पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. को सादर वंदन नमन करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
-राम स्वरूप जैन जैसे सूर्य अस्त हो गया
"पुष्कर मुनि थे, सन्त महान ।
Fac 480% संयमी जीवन, अनुपम ज्ञान ॥"
Fallo -सुभाष जैन श्रमण संस्कृति में त्यागी सन्त का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी उपाध्याय श्री जी के निधन का समाचार सुनकर हम सब
| श्रमण शृंखला में श्रमण-संघीय उपाध्याय श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी परिवारी जन शोक सागर में डूब गये। एक सूर्य जैसे अस्त हो गया
म. का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। आपके दर्शनों का लाभ हो। पूज्य श्री जी एक गम्भीर चिन्तक, दार्शनिक एवं ज्ञानी सन्त थे।
आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व बम्बई में प्रथम बार प्राप्त हुआ। ऐसे अनमोल रत्न का संसार से चले जाना वज्रपात के समान है। उदयपुर चादर समारोह में भी दर्शनों का खूब लाभ रहा। हम सब परिवारी जन शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि इस महान । सन् १९८७ ईस्वी को पूना में विराट् साधु सम्मेलन हुआ। आप 66 आत्मा को शान्ति प्रदान करें।
भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ पधारे। श्रमणसंघ में एक नये पद 89
“उपाचार्य" का श्रीगणेश हुआ। यह सम्मेलन की सबसे महत्वपूर्ण 555 अमर व्यक्तित्व के धनी थे वे उपलब्धि थी। यह उपाचार्य पद आपके शिष्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.ER
को आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. ने एक भव्य समारोह में PA
-देवेन्द्रनाथ मोदी प्रदान किया। इसका सम्पूर्ण श्रेय आपको ही है। इस भव्य और परम पूजनीय उपाध्याय पंडित प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी ।
विशाल साधु-सम्मेलन में मैंने भी भाग लिया था। महाराज साहब के अचानक संथारेपूर्वक महाप्रयाण के दुखद आप अपनी विहार यात्रा करते हुए विश्वविख्यात ताज नगरी समाचारों से विषाद, महान क्षति और रिक्तता की गहरी अनुभूति आगरा भी पधारे। आगरा श्रमण संस्कृति का प्रमुख केन्द्र तथा : हुई है जिसकी अभिव्यक्ति करने में मैं अपने आपको पूर्ण असमर्थ महायोगी परम गुरु मुनि श्री रत्नचन्द्र जी म. का प्रसिद्ध क्षेत्र है। पा रहा हूँ।
यहाँ पर आपका भव्य स्वागत हुआ। जनता दर्शनों को उमड़ पड़ी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 2080P जल दोपहर १२ बजे की मंगलीक ने जादू-सा प्रभाव किया। आगरा व्यवसाय हेतु मेरे पूज्य पिताश्री उदयपुर पधार गए और
अध्यात्म, त्याग-तपस्या तथा सेवा के लिए भी प्रसिद्ध है। धर्म का । उदयपुर की सामाजिक और साम्प्रदायिकवाद की स्थिति को देखकर ठाठ लग गया। श्री पुष्करमुनि गद्गद् थे।
हमारे मन में एक जागृति आई और हमने बहुत ही प्रयास करके Sayapal एक दिन शुभ अवसर देखकर आप श्री रत्नचन्द्र जी म. का । श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय की स्थापना की। श्री तारक गुरु जैन
BB सुन्दर समाधि-स्थल देखने को गए, मैं आपके साथ था। वहाँ का । ग्रंथालय का भवन बनाने हेतु मैंने कठिन श्रम किया पर गुरुदेवश्री
त रमणीक तथा शान्त वातावरण देखकर आप बड़े प्रभावित हुए और सदा ही निस्पृह रहे, क्योंकि उनके जीवन के कण-कण में तो Joon मन ही मन कुछ विचार कर इधर-उधर देखा, तत्पश्चात् आप निस्पृहता रमी ही हुई थी। उन्होंने कभी भी सक्रिय भाग नहीं लिया, 6 8 ध्यान पर बैठ गए। काफी समय बाद जब आप ध्यान से उठे तो यह है गुरुदेवश्री की असीम निस्पृहता का ज्वलन्त उदाहरण। मन बड़ा प्रसन्न था। महायोगी की महिमा कोई योगी ही जान सकता।
गुरुदेवश्री के दो वर्षावास उदयपुर में सन् १९५७ और है। कुछ समय बाद वहाँ से जैन स्थानक आ गए।
१९८० में हुए। इन दोनों वर्षावासों में मुझे बहुत ही निकटता से 886 उन दिनों शाम का प्रतिक्रमण मैं आपके सान्निध्य में ही किया। सेवा का अवसर मिला तथा मेरे निवास स्थान “आकाशदीप" में
90920 करता था। साहित्यिक होने के कारण उनसे खुलकर चर्चा होती। भी गुरुदेवश्री के अनेक बार विराजने से हमारी श्रद्धा में अपार PRODDOD दूसरे दिन आपने खचाखच भरे व्याख्यान हाल में श्री रलचन्द्र जी अभिवृद्धि हुई। गुरुदेवश्री की मेरे परिवार पर असीम कृपा रही। DOODम. की महिमा का गुणगान एक सुन्दर भजन के रूप में गाकर
आज हम जो कुछ भी हैं, उसी गुरु की कृपा का सुफल है। सुनाया। श्रोतागण मन्त्रमुग्ध थे, आज भी वह भजन गाया जाता है।
सन् १९९३ में श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य श्री PDO.DA जहाँ तक मैं समझता हूँ कि यह आपके त्याग, तपस्या, संयमी
देवेन्द्रमुनिजी म. का चद्दर समारोह उदयपुर में हुआ। इस आयोजन जीवन तथा ध्यान का ही फल है कि आज श्री देवेन्द्र मुनि
की प्रार्थना और स्वीकृति हेतु हम गुरुदेवश्री की सेवा में गढ़सिवाना HDay"आचार्य" पद पर विराजमान हैं। धन्य हैं ऐसे गुरु।
पहुँचे और हमारे शिष्टमण्डल ने गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी TE D आज पुष्कर मुनि जी हमारे बीच नहीं हैं। उनकी मधुर । प्रार्थना की कि, गुरुदेव! देवेन्द्रमुनिजी की जन्म भूमि भी उदयपुर है 39000 स्मृतियाँ, संयमी जीवन तथा कर्तव्यनिष्ठा का पाठ हमारे जीवन को तो यह चद्दर समारोह का लाभ उदयपुर को मिले, ऐसी हमारी : नया प्रकाश देगा। श्रद्धांजलि के रूप में उस महान् संत को मैं अपने
भावभीनी प्रार्थना है। गुरुदेवश्री ने स्वीकृति प्रदान की और वे dege श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँ और शासनदेव से आपकी आत्मा की
उदयपुर दिनांक १ मार्च, ९३ को पधारे। गुरुदेवश्री अहिंसापुरी से laodeos शान्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ।
विहार कर उदयपुर शहर में पधारे और रास्ते में “आकाशदीप"
पड़ता था, मैंने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि आपश्री कुछ समय वहाँ अनन्त सद्गुणों के पुञ्ज :
पर विश्राम करें। मुझे यह लिखते हुए अपार आल्हाद है कि उपाध्याय पूज्य गुरुदेव
गुरुदेवश्री ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार किया और लगभग आधा
घण्टे तक वहाँ पर विराजे। जिस दिन उदयपुर में प्रवेश हुआ,
-चुन्नीलाल धर्मावत । स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ था। दिनांक ५ मार्च, १९९३ को उदयपुर सिटी (कोषाध्यक्ष : श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर) से आपश्री विहार कर श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय में पधारे।
गुरुदेवश्री स्वस्थ थे किन्तु २८ मार्च, १९९३ को चद्दर समारोह गुरु की गौरव गरिमा का वर्णन करना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए
गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद से सानंद संपन्न हुआ। हमें जितनी 0 सम्भव नहीं। अनेक कलम कलाधर महामनीषी भी गुरु के गुणों का
कल्पना नहीं थी, उससे अधिक भारत के विविध अंचलों से पूर्ण वर्णन करने में अक्षम रहे, फिर मेरे जैसा व्यक्ति पूर्ण रूप से
श्रद्धालुगण उदयपुर पहुंचे और हमें चतुर्विध संघ के सेवा करने का 8 . किस प्रकार वर्णन कर सकता है। गुरु के गुण अनन्त हैं, अनन्त गुणों का वर्णन करना इस तुच्छ लेखनी से संभव नहीं है।
सौभाग्य मिला। ऐतिहासिक चादर समारोह संपन्न होने के पश्चात् P OP बाल्यकाल से ही गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मुझे मिलता रहा
गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ होता चला गया। अनेक उपचार 200000.00 साल है, मेरी जन्मभूमि बाघपुरा है जो अरावली की पहाड़ियों से घिरा
किए गए किन्तु स्वास्थ्य ठीक होने के बजाए अधिक व्याधि से 2000 हुआ है, जहाँ पर पहले सड़कों का साधन भी नहीं था किन्तु
ग्रसित हो रहा था और गुरुदेवश्री को तो यह अनुभव हो ही चुका OGEORG 8 गुरुदेव, उन विकट घाटियों को पार करते हुए वहाँ पर पधारते थे।
था कि अब मेरा लम्बा समय नहीं है और उन्होंने अपने मुखारबिन्द परम्परा से गुरुदेवों की असीम कृपा बाघपुरा पर रही वहीं पर मैंने
से आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. को कहा कि मुझे संथारा करा दें 833 बड़े गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. से मैंने सम्यक्त्व दीक्षा ।
और आचार्यश्री ने गुरुदेव को संथारा कराया। हम सभी संघ वाले 22 ग्रहण की थी।
उपस्थित थे।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
गुरुदेवश्री का ४२ घण्टे का शानदार चौवीहार संथारा आया। इस संथारे में गुरुदेवश्री की स्थिति को देखकर और उनकी सौम्य मुख मुद्रा को देखकर हमें लगा कि गुरुदेवश्री का यह संथारा कितना महानू है, न उन्होंने हाथ पैर हिलाए और न किसी प्रकार की कोई चेष्टा की उनके मुखारबिन्द पर अपूर्व तेज झलक रहा था ३ अप्रेल को ४२ घण्टे के संधारे के पश्चात् उनका स्वर्गवास हुआ और पाँच अप्रेल को गुरुदेवश्री का श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय में ही अग्निसंस्कार हुआ।
गुरुदेवश्री के संथारे के अवसर पर और अंतिम संस्कार के समय हमें उम्मीद नहीं थी कि इतना जनसमुदाय पुनः उपस्थित होगा, किन्तु गुरुदेवश्री के स्वर्गवास पर भी इतनी जनमेदिनी उपस्थित हुई कि जिसे देखकर हम सभी आश्चर्यचकित हो गए। तीन चार दिन पहले चद्दर समारोह से लोग गए थे, कहाँ बम्बई, कहाँ दिल्ली, कहाँ औरंगाबाद, कहाँ बम्बई, कहाँ पूना, दूर-दूर के अंचलों से प्लेन ट्रेन और अपने कार आदि के साधनों से हजारों लोग उदयपुर पहुँच गए और निर्वाण यात्रा के अन्दर लाखों लोगों की उपस्थिति उदयपुर के इतिहास में एक नई घटना थी। लाखों लोग गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु और अंतिम श्रद्धा सुमन समर्पित करने हेतु उमड़ रहे थे। धन्य है गुरुदेव, आपकी अंतिम सेवा का हमें अवसर मिला। आपकी सभी मनोकामना पूर्ण हुईं। आप जैसे महान् गुरु को पाकर हमारा हृदय श्रद्धा से नत है। गुरुदेवश्री के चरणों में मेरे और मेरे परिवार की ओर से अनन्त अनन्त श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
उनकी स्मृति को शत-शत नमन
-राजेन्द्र नगावत "जैन"
यह एक अनूठा संयोग है कि पुष्कर नामी तीर्थ में गोते लगाकर देवताओं के राजा देवेन्द्र इतने अधिक पुण्यशाली हो उठे कि श्रमणों के एक वृहद् संघ ने उन्हें नेतृत्व प्रदान किया, अपने संघ का आचार्य निरूपित किया।
इतना सारगर्भित था उनके जीवन का हर अध्याय कि केवल उपाध्याय विरद में ही गुंफित हो सकता था। वे विद्वत्ता के भार से बोझिल नहीं हुए, वे गहन साधना के बल पर अनेकजनों के आराध्य बने । प्रत्येक को उन्होंने यथोचित सम्मान दिया। जो औरों को सम्मान देता है, निश्चय ही वह भी अभिनन्दनीय हो उठता है ।
उनके अनमोल जीवन से जैन संस्कृति ही नहीं, ब्राह्मण संस्कृति व साथ ही मानव संस्कृति जीवंत हो उठी। ये किसी उपमा में नहीं बाँधे जा सके, न ही अलंकारों के वे मोहताज रहे। वे बेजोड़ थे, अप्रतिम थे, अनुपम थे। उनकी स्मृति को शत-शत नमन ।
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समाज और संस्कृति के प्रहरी
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-डॉ. राजकृष्ण दूगड़ (जोधपुर)
राजस्थान की वीर प्रस्विनी पुण्य भूमि ने जिस प्रकार शतशः रणबांकुरे वीरों एवं वीरांगनाओं को जन्म दिया है, उसी प्रकार ज्योतिर्मय संत एवं सती रत्नों की अखण्ड परम्परा भी इस पुण्य भूमि को अपनी अमृतवानी से निरन्तर सिंचित करती रही है। ऐसे श्रेष्ठ संतों की परम्परा में शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृति के पुरोधा अध्यात्मयोगी राजस्थान केसरी स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी का स्थान अग्रगण्य है।
करीब चालीस वर्ष पूर्व उदयपुर चातुर्मास के अवसर पर मुझे उपाध्यायश्री के दर्शनों का सर्वप्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तपःपूत गौरवर्णी उन्नत देह, उन्नत प्रशस्त भाल, विशाल वक्षस्थल, लम्बा चौड़ा सुडौल शरीर, मुस्कराती हुई प्रसन्न भावमुद्रा, देखते ही मैं मंत्रमुग्ध होकर उनके श्रीचरणों में नत हो गया। तब तक मैं साधु-संतों की सेवा का बहुत कम लाभ उठाया करता था परन्तु कैसा भी नीरस व्यक्ति क्यों न हो ऐसे तेजस्वी संत का प्रभाव तो निश्चित रूप से उसके मानस को अपूर्व आल्हाद से आपूरित कर ही देता है। तब उनकी सुयोग्य, मेधावी शिष्य मण्डली को साहित्य के अध्ययन में सहयोग देने के पुनीत कार्य के संदर्भ में महीनों तक उनकी सेवा में उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त कर सचमुच मैं धन्य हो गया। फिर तो यह सुयोग मुझे बराबर मिलता रहा।
पूजनीय उपाध्यायश्री की विहार यात्राओं का अजस्र स्रोत स्वर्गवास पर्यन्त बराबर चलता रहा। एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त आपश्री अपनी शिष्य मण्डली के साथ स्वर्गवास पर्यन्त बराबर आते जाते रहे राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों के विविध अंचल आपकी मधुरवाणी एवं सिंहगर्जना से गूँजते रहे। जोधपुर अंचल पर तो आपकी विशेष कृपा दृष्टि रही। और मुझे उनके दर्शन एवं अमृत वचनों के श्रवण का लाभ बराबर प्राप्त होता रहा । और पिछले वर्ष गढ़सिवाना में तो उस दिव्य विभूति के दर्शन कर मैं अभिभूत ही हो गया। अस्वस्थ होने के बावजूद भी उनके शान्त मुखमण्डल से बरसता आध्यात्मिक तेज, संयत-शीतल वाणी में नपातुला प्रभावशाली आशीर्बचन, ऐसा जैसे मेघों का मन्द मन्द गर्जन हो रहा हो, उपस्थित जनसमुदाय को मंत्रमुग्ध कर देता था। अस्वस्थ होने पर भी अपने शरीर के प्रति जिसकी तटस्थता हो उसके व्यक्तित्व की सहजता कभी विलीन नहीं हो सकती है। अस्तु, श्रद्धा आपूरित जनसमूह उनके श्रीचरणों में मस्तक झुकाता रहा और वे स्नेहाभिसिक्त शीतल शब्दों में उन्हें आशीर्वचन प्रदान करते रहे। कैसा निस्पृह, भव्य एवं उल्लासपूर्ण व्यक्तित्व था उनका ।
फिर तो उनके अन्तिम दर्शन उनके सुयोग्य एवं तेजस्वी, साहित्यमनीषी वर्तमान श्रमणसंघ के यशस्वी आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जी के चादर महोत्सव के अवसर पर उदयपुर में हुए। इन्हीं श्री को जैन समाज के उद्धार हेतु समर्पित किया, वह कभी भुलाई नहीं देवेन्द्रमुनि जी एवं श्री गणेशमुनि जी को साहित्य के अध्ययन में जा सकती है। सहयोग देने का गौरव मुझे सदैव गर्वान्वित करता रहेगा। अस्तु उस
अस्तु जैन संस्कृति के उन्नायक, जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र समय उपाध्यायश्री गंभीर बीमारी की अवस्था में थे। परन्तु उनके
उस पावन तेजस्वी, यशस्वी संतश्रेष्ठ के चरणों में कोटि-कोटि तेजस्वी मुखमण्डल की छवि, उनका स्नेहासिक्त व्यक्तित्व फिर भी
वंदन। यथास्थिति रूप में विद्यमान था। चादर महोत्सव अत्यंत भव्यता एवं उल्लासपूर्वक संपन्न हुआ। भारत के कोने-कोने से सहस्रों श्रद्धालु श्रावकों ने श्रद्धा संवलित हो उत्साहपूर्वक इसमें भाग लिया, वह
[ जप ध्यान साधना के अद्भुत धनी ) अपूर्व था। उपाध्यायश्री भले ही अस्वस्थ होने से प्रत्यक्षतः इसमें उपस्थित
-भेरूलाल सिंघवी नहीं हो सके, परन्तु उनके आशीर्वाद का साया निरन्तर उस सारे
हम कितने सौभाग्यशाली रहे हैं कि हमारी पावन जन्म भूमि में आयोजन पर अपनी वात्सल्यमयी आभा बिखेरता रहा। इसी के
गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का ननिहाल रहा है। फलस्वरूप आयोजन अत्यंत भव्यता से संपन्न हुआ और चार पाँच
उनके बाल्यकाल की सुनहरी घड़ियाँ वहीं पर बीती हैं। क्योंकि दिन बाद ही उपाध्यायश्री अपनी मोक्ष यात्रा पर प्रयाण कर गये।
उनकी मातेश्वरी प्रायः नान्देशमा ही रहती थी, इसलिए माँ के साथ ऐसा प्रतीत होता था मानो भीष्म पितामह की भाँति इस आयोजन
गुरुदेवश्री भी वहीं पर रहे इसलिए वर्षों तक लोगों में यही विचार हेतु उन्होंने अपनी उपस्थिति को सहेज रखा था। वर्तमान युग में
रहे कि गुरुदेव श्री की जन्मभूमि नान्देशमा ही है। नान्देशमा का इच्छा मृत्यु का इससे सुन्दर उदाहरण और कहाँ मिलेगा?
बालक से लेकर वृद्ध तक जैन और अजैन सभी समाज के व्यक्ति अस्तु उपाध्यायश्री अपने नश्वर शरीर का तो परित्याग कर गुरुदेवश्री को अपना आराध्यदेव मानते रहे हैं, जब भी गुरुदेवश्री गये परन्तु उनका तेजस्वी व्यक्तित्व पीढ़ियों तक जैन समाज के पथ का नान्देशमा में पदार्पण होता, अपार भीड़ गुरुदर्शनों के लिए उमड़ को आलोकित करता रहेगा।
पड़ती। आबाल-वृद्ध के चेहरों पर भक्ति की भागीरथी प्रवाहित होने उपाध्यायश्री के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर कितना कुछ लिखा
लगती, सभी गुरुदेवश्री को अपना मानते थे और गुरुदेवश्री भी जा चुका है। उनकी दीक्षा स्वर्ण जयन्ती पर प्रकाशित बृहद्
उन्हें अपना ही मानते थे। गुरुदेवश्री सभी से वार्तालाप करते, उनके अभिनन्दन ग्रंथ में जैन समाज के इस ज्योतिर्धर जगमगाते नक्षत्र के
सुख-दुःख की बातें पूछते, अपनत्व की भावना के कारण ही सर्वतोमुखी व्यक्तित्व की शतशः विद्वान संतों एवं महासतियों,
गुरुदेवश्री के तीन वर्षावास नान्देशमा में हुए, सन् १९२५, १९४३,
१९५० ये तीन वर्षावास हुए। राजनीतिज्ञों एवं साहित्यकारों, दार्शनिकों एवं जन नेताओं ने जिस रूप में वंदना की है, वह अपूर्व है। उनकी तेजस्विता, सरलता,
वर्षों से हम लोग यह प्रयास कर रहे थे कि गुरुदेवश्री का एक ज्ञान-साधना, प्रवचन पटुता एवं सबसे प्रमुख संगठन कुशलता की
वर्षावास पुनः नान्देशमा में हो, गुरुदेवश्री की भी हार्दिक इच्छा थी जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी है।
पर कुछ क्षेत्र स्पर्शना न होने से इस प्रकार की परिस्थितियाँ आती
रहीं कि हमारी भावना मूर्त रूप नहीं ले सकी, गत वर्ष भी हमने मैं तो चाहता हूँ कि स्व. उपाध्यायश्री की साहित्यिक प्रतिभा
बहुत ही श्रम किया था। पर हम सोच रहे थे संभव है हमें इस वर्ष पर स्वयं शोधपूर्ण प्रबंध लिख कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि
लाभ मिल जाए पर चद्दर समारोह के बाद गुरुदेवश्री अत्यधिक प्रस्तुत कर सकूँ। साथ ही जिज्ञासु शोधार्थियों को प्रेरित कर
रुग्ण हो गए। किसी को भी यह कल्पना नहीं थी कि गुरुदेवश्री साहित्य में उनके योगदान के विविध पक्षों का सम्यक् विश्लेषण
इतने जल्दी हमें छोड़कर इस संसार से विदा हो जायेंगे। सभी की प्रस्तुत करवा कर अपने पुनीत कर्तव्य का अंशतः पालन कर अपने
यही कल्पना थी कि गुरुदेवश्री अभी लम्बे समय तक विराजेंगे और को धन्य कर सकूँ।
उनकी विमल छत्रछाया में हम अपना आध्यात्मिक विकास करते समस्त जैन समाज उस यशस्वी, मनस्वी एवं तेजस्वी संतश्रेष्ठ रहेंगे पर क्रूरकाल ने असमय में ही गुरुदेवश्री को हमारे से छीन की स्मृति को संजोकर अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा है। लिया। श्रमणसंघ के संगठन में उपाध्यायश्री ने जो मौलिक योगदान दिया
__जिस महान आत्मा की यहाँ पर चाह होती है लगता है कि वह चिरस्मरणीय रहेगा और फिर अपनी प्रबुद्ध शिष्य मण्डली के
उनकी वहां पर भी चाह होती है, गुरुदेवश्री जब तक विराजे, वहां सतत् निर्माण एवं विकास की वह अथक और अनवरत साधना तक वे पूर्ण यशस्वी जीवन जीए। उन्होंने अपने पवित्र चारित्र की जसने श्रमणसंघ के वर्तमान साहित्यमनीषी आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि सौरभ से जन-जन को प्रभावित किया, चारित्र उनके जीवन की जी एवं प्रखरवक्ता श्री गणेशमुनि जी जैसे प्रतिभासंपन्न तेजस्वी संतों । अपार संपदा थी, जप साधना और ध्यान साधना उनकी अद्भुत
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
१२३ थी। गुरुदेवश्री का संबंध नान्देशमा के साथ रहा है, नान्देशमा की सामर्थ्य है कि हम उस महागुरु के गुणों को अंकित कर सकें, पर धरती के साथ रहा है, इसलिए हमें यह कहते हुए अपार हर्ष है। यह सत्य है कि गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा हमारे पर रही, Dapoor कि हमारी जन्मभूमि में जन्मे हुए लाड़ले ने मेवाड़ की यशस्वी जब भी मैं सेवा में पहुँचता गुरुदेवश्री के मंगलमय आशीर्वाद को गौरव गरिमा में अभिवृद्धि की। वे प्रज्ज्वलित दीपक की तरह पाकर मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव करने लगता। आज जन-जन को प्रकाश देते रहे, आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं। गुरुदेवश्री की भौतिक देह हमारे बीच नहीं है किन्तु वे यशःशरीर किन्तु उनका यशः शरीर हम सभी को सदा-सर्वदा प्रेरणा प्रदान से जीवित हैं और सदा ही उनका यशःशरीर हमारे लिए प्रेरणा का करेगा, यही गुरुदेवश्री के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि।
पावन प्रतीक रहेगा। गुरुदेवश्री के चरणों में सादर भावांजलि
समर्पित करता हूँ। प्रेरणा के पावन प्रतीक
भावभीनी श्रद्धार्चना ! -डालचंद परमार (-पूर्व अध्यक्ष श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर)
-ताराचंद परमार भारतीय संस्कृति में व्यक्ति पूजा का महत्व नहीं है किन्तु पंचमकाल में भरतक्षेत्र में अनेक विमल विभूतियाँ हुईं हैं
l गुणपूजा का महत्व रहा है जो विशिष्ट गुणवान व्यक्ति होते हैं, वे | जिन्होंने जिनशासन की महिमा में चार चांद लगाये हैं, उन ही व्यक्ति जन-जन के आस्था के केन्द्र होते हैं, इसलिए तो कवि ने महापुरुषों की पावन परम्परा में परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य कहा है कि
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम आदर के साथ लिया “मानव की पूजा कौन करे, मानवता पूजी जाती है,
जा सकता है। उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी म. सा. शान्त, दान्त,
गंभीर और सौम्य प्रकृति के धनी संत थे। विहार क्षेत्र उनका बहुत साधक की पूजा कौन करे, साधकता पूजी जाती है।"
ही विशाल रहा, कहाँ तमिलनाडु, कहां कर्नाटक, कहाँ आन्ध्र, कहां परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी महाराष्ट्र, कहाँ गुजरात, कहाँ म. प्र., कहाँ राजस्थान, कहाँ म. अनुपम व्यक्तित्व के धनी थे, उनके महान् व्यक्तित्व के दर्शन हरियाणा, कहाँ उ. प्र., कहाँ दिल्ली सभी अंचलों में उन्होंने पैदल करने का मुझे बहुत ही लघुवय में अवसर प्राप्त हुआ क्योंकि मेरे परिभ्रमण कर जन-जन के मन में श्रद्धा के दीप प्रज्ज्वलित किए। पूज्य पिताश्री सेठ नाथूलाल जी सा. परमार गुरुदेवश्री के अनन्यतम
जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारे, उनके त्याग, तपस्या और साधना भक्तों में से थे, उनके जीवन के कण-कण में, मन के अणु-अणु में
के प्रति जनमानस श्रद्धानत रहा। उनके ध्यान के पश्चात् दिए जाने गुरु भक्ति रमी हुई थी। गुरुदेवश्री का सन् १९३८ में हमारे गांव के
वाले मंगलपाठ का तो अपूर्व ही प्रभाव था। हजारों लोग उनके सन्निकट कम्बोल गांव में वर्षावास हुआ, जो लगभग एक
मंगलपाठ को श्रवण कर आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर किलोमीटर दूर था। प्रतिदिन गुरु दर्शनों के लिए हम सपरिवार उस
समाधि को प्राप्त करते रहे। वर्षावास में पहुँचते रहे, उस वर्षावास में गुरुदेवश्री और बड़े गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. सा. ये दोनों ठाणा ही विराज रहे थे।
गुरुदेवश्री के दर्शन बहुत ही लघुवय में ही किए। उस समय मैं
भी छोटी उम्र का ही था और गुरुदेवश्री भी छोटी उम्र के ही थे। गुरुदेवश्री जब रुग्ण हो गए तो हमारे पूज्य पिताश्री और मुझे
हमारे ज्येष्ठ आदरणीय नाथूलाल जी सा. परमार गुरुदेवश्री के सेवा का अवसर मिला। पिताश्री के साथ मैं गुरुदेवश्री के समय
परम भक्तों में से थे। उनकी भक्ति गजब की थी जिसके फलस्वरूप समय पर दर्शन के लिए पहुँचता रहा। सन् १९६६ में गुरुदेवश्री का
ही सेरा प्रान्त में गुरु भक्ति पल्लवित और पुष्पित हुई। सेठ पदराड़ा चातुर्मास हुआ, हमारी जन्मभूमि होने के नाते चार महीने
नाथूलाल जी सा. के कारण ही हमारे नन्हें से गांव पदराड़ा में 6806 तक हमें सेवा का सुनहरा अवसर मिला। उस समय पिताश्री का
1 गुरुदेवश्री के चातुर्मास का लाभ प्राप्त हुआ सन् १९६६ का। स्वर्गवास हो गया। पिताश्री के पास जो पुस्तकालय था, वह हमने
गुरुदेवश्री का वर्षावास जब पदराड़ा में हुआ तो संघ में अपूर्व श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, पदराड़ा को समर्पित किया। जब
उत्साह का संचार हो गया, हम अपने आपको सौभाग्यशाली मानने उदयपुर में श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की स्थापना हुई तो वह
लगे और हमें विश्वास हो गया कि हमारे गुरुदेव ग्रामों को भी 3 ग्रंथालय उदयपुर आ गया। जब श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की
महत्व देते हैं। जब भी गुरुदेवश्री का मेवाड़ में पदार्पण होता जब स्थापना हुई उस समय मुझे अध्यक्ष बनाया गया और मैं वर्षों तक ।
पदराड़ा को अवश्य ही लाभ मिलता रहा है। गुरुदेवश्री की अपार इस पद पर रहकर संघ समुत्कर्ष हेतु प्रयास करता रहा।
कृपा हमारे पर रही है, हम उनके गुणों का स्मरण कर श्रद्धा से गुरुदेवश्री क्या थे? उनकी महिमा और गरिमा का उत्कीर्तन नत हैं उनके गुण हमें सदा-सदा आगे बढ़ने की पावन प्रेरणा देते करना मेरी लेखनी के परे की बात है, हमारी लेखनी में कहां रहेंगे, यही गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धार्चना।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
सत्य के तेज पुंज थे वे
भावभीनी वन्दना
-गणेशलाल पालीवाल पूर्व प्रधान
-कालूलाल ढालावत
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परम आदरणीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. करुणा के रणक्षेत्र में जूझने वाला बहादुर होता है, वह जूझते हुए मृत्यु सागर थे, शांति के प्रचारक थे, सत्य के तेज पुंज थे, छल कपट से को वरण कर लेता है तो भी उसकी मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं किन्तु मुक्त थे, संगठन के सदैव सजग प्रहरी थे, कर्त्तव्यपरायण थे, वीर मृत्यु कहलाती है, वीर बाहर के शत्रुओं से लड़ता है पर संत उच्चकोटि के सादगीप्रिय थे, विकार और वासनाओं से मुक्त थे, वे
आभ्यन्तर शत्रुओं से लड़ता है। वह काम, क्रोध, मद, मोह, छल आगम साहित्य के प्रकाण्ड पंडित थे तथापि अभिमान से मुक्त थे,
आदि बुराइयाँ जो रावण की प्रतीक रही हैं, उन बुराइयों को प्रेम, प्रभृति सद्गुणों के कारण ही वे जन-जन के वंदनीय थे। यों वे
वात्सल्य, सदाचार आदि सद्गुणों से पराजित करता है, उसका युद्ध हमारे परिवार के ही जन्मे हुए नररत्न थे। चौदह वर्ष की लघुवय
अन्तरंग जीवन का युद्ध होता है। जैनमुनियों की आचार संहिता में उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया था और भारत के विविध
भारत के अन्य संतों से विलक्षण है, उनके जीवन में त्याग की दूर-दूर के अंचलों में विचरते रहे, इसलिए पहले उनसे विशेष
प्रधानता होती है और त्याग से ही वे शीर्षस्थ पुरुष बनते हैं। परिचय नहीं हो पाया किन्तु सन् १९८० से गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। गुरुदेवश्री का सन् १९८० में
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का हमारे गाँव सारोल में पदार्पण हुआ। तब से गुरुदेवश्री के अत्यधिक
| जन्म हमारे गांव में ही हुआ। नान्देशमा उनका ननिहाल था, वहीं सन्निकट में रहने का सुअवसर मुझे मिला, कई बार विहारों में साथ
पर उनकी मातेश्वरी रहती थीं, इसलिए उनके बाल्यकाल के सुनहरे में रहा। दिल्ली, मदनगंज, किशनगढ़, राखी, अहमदनगर, इन्दौर
क्षण नान्देशमा में ही बीते और दीक्षा लेने के पश्चात् भी तीन आदि सभी स्थानों पर गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु पहँचा। गुरुदेवश्री की चातुर्मास नान्देशमा में किए। उन चातुर्मासों में बड़े गरुदेवश्री भी असीम कृपा मेरे पर रही, पहले तो मेरे मन में यह संकोच था ताराचंद्रजी म. सा. ने हम ग्रामवासियों को किस प्रकार जीवन कि गुरुदेवश्री जैन मुनि हैं, वे हमारे से वार्तालाप करेंगे या नहीं जीना चाहिए यह कला उन्होंने सिखाई। उन्होंने सामाजिक जीवन के करेंगे। यद्यपि भाई होने के नाते जैन मुनियों के आचार संहिता से परिप्रेक्ष में बताया कि जैन धर्म में अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन है। परिचित न होने के कारण मन में यह भय रहा हुआ था पर । अतः लम्बे समय तक यदि घर में आटा रखा जायेगा तो उसमें गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आते ही वह भय कपूर की तरह उड़ अनेक जन्तु गिर जायेंगे। इसी तरह अन्य वस्तुओं के संबंध में भी गया।
उन्होंने विवेकयुक्त जीवन जीने के लिए सभी को उत्प्रेरित किया, पूज्य गुरुदेवश्री का बाह्य व्यक्तित्व जितना लुभावना था, उससे
शौच आदि बाहर जाओ तो लोटे आदि से पानी ले जाना चाहिए भी अधिक आकर्षक था, आभ्यन्तर व्यक्तित्व। ज्यों-ज्यों गुरुदेवश्री
केवल नदी, नालों पर जाकर निवृत्त होना उपयुक्त नहीं है। न जाने के सन्निकट परिचय में आते रहे त्यों-त्यों अनुभव हुआ कि पूज्य
कितनी ही शिक्षा की बातें उन्होंने सिखाईं, जिससे हमारे ग्राम्य गुरुदेवश्री गुणों के पुंज हैं, उनकी सबसे बड़ी विशेषता हमने यह
जीवन में एक अभिनव जागृति आई, नहीं तो पहले तीन-तीन, पाई कि वे धनवानों से भी अधिक गरीबों से प्यार करते हैं, गरीब
चार-चार महीने का आटा उपयोग में लेते थे, जिसमें कई प्रकार व्यक्ति कोई भी किसी समस्या से आक्रान्त होता तो गुरुदेवश्री
की लटें आदि पड़ जाती थीं, हमारे यहां पर कन्द-मूल का भी उसकी समस्या को सुलझाते और समाधान भी करते, उसे इस | अधिक प्रचलन था। गुरुदेवश्री के उपदेश से कन्दमूल का प्रचार बंद प्रकार का जप बताते वह उस जप की साधना कर अपूर्व आनंद हुआ तथा गुरुदेवश्री के वर्षावासों में अत्यधिक व्यक्तियों के जीवन की अनुभूति करता, गुरुदेवश्री की जप साधना से दृष्टि इतनी पैनी में परिवर्तन आया। बन गई थी कि किसी भी व्यक्ति को दूर से देखकर समझ जाते थे गुरुदेवश्री हमारे गांव के होने से उनके साथ सहज आकर्षण कि इसमें यह व्याधि है या उपाधि है और वे उसका उपाय भी
होना स्वाभाविक था। गुरुदेवश्री के बाल्यकाल की अनेक घटनाएँ बताते, वस्तुतः उनका ज्ञान गजब का था, उनकी साधना महान थी,
आज भी चमक रही हैं। गुरुदेवश्री प्रकांड पंडित थे। संस्कृत, मुझे परम गौरव है कि भाई म, भारत के एक महान संत के पद
प्राकृत, अपभ्रंश आदि विविध भाषाओं के तलस्पर्शी अध्येता थे, वे पर प्रतिष्ठित हुए। मैं उनके चरणों में अपनी अनंत श्रद्धा समर्पित
धाराप्रवाह संस्कृत में बोलते थे और लिखते भी थे, गुरुदेवश्री करता हूँ।
आशुकवि थे, समय-समय पर प्रवचन सभा में ही नई कविताएँ,
नये भजन बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। गुरुदेवश्री के प्रवचनों में मन के ऊपर कर्तव्य को विजय पानी ही पड़ेगी।
जहाँ तत्व दर्शन की गुरू गंभीरता थी वहां पर लोक कथाएँ, बोध -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
कथाएँ, रामायण और महाभारत के पावनप्रसंग भी समय-समय पर 680लयाला ACat900ASOAPatra200090020200400200.
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श्रद्धा का लहराता समन्दर माग
सुनाते थे। उनकी अभिव्यक्ति इतनी स्फुट और विनोदप्रिय थी कि
जीवन शिल्पी गुरुदेव श्रोतागण प्रवचन में लोट-पोट हो जाते थे। आपश्री की आवाज बहुत ही बुलन्द थी, चार पांच हजार व्यक्ति आपके प्रवचनों को,
-जवरीलाल कोठारी मंगलपाठ को अच्छी तरह से श्रवण कर लेते थे। आपने जीवन भर कभी भी ध्वनि विस्तारक यंत्र का उपयोग नहीं किया। आप परम श्रद्धेय उपाध्याय पू. गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का नियमित समय पर जाप करने के प्रबल पक्षधर थे। भोजन से भी व्यक्तित्व अनूठा और कृतित्व अद्भुत था। गुरुदेवश्री सच्चे गुरु थे। भजन आपको अधिक प्रिय था, समय पर जाप करना आपको । गुरु का कार्य है शिष्य का पथ-प्रदर्शन करना। गुरु ने हमारे जीवन अत्यधिक पसन्द था। कुछ समय भी इधर-उधर होने पर आपको को नया मोड़ दिया, उनकी पावन प्रेरणा सतत् यही रही कि सहज बेचैनी होती थी और जाप करने में इतने अधिक तल्लीन हो ।
तुम्हारा जीवन व्यसनों से मुक्त बने, तुम्हारे जीवन में चारित्रिक तेज जाते थे कि सभी प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ भी नष्ट हो जाती
प्रकट हो, नियमोपनियममय तुम्हारा जीवन हो। गुरुदेवश्री के उपदेश थीं, ऐसे पुण्य पुरुष अध्यात्मयोगी गुरुदेव श्री के चरणों में मेरी
से हम व्यसनों से मुक्त रहे और गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से संत भावभीनी वंदना।
सेवा का भी हमें सौभाग्य मिलता रहा।
पूज्य गुरुदेवश्री के पीपाड़ वर्षावास में और जोधपुर वर्षावास
में हमें सेवा का सौभाग्य मिला और बहुत ही निकटता से गुरुदेवश्री सरलता के ज्योतिर्मय रूप थे वे को देखने का भी अवसर मिला। गुरुदेवश्री बहुत ही सरलात्मा और पवित्रात्मा श्रे। गुरुदेवश्री की असीम अनुकम्पा हमारे पर रही है,
P 4 -सुभाष कोठारी हमारी यही मंगलकामना है कि गुरुदेवश्री की इसी तरह की
अनुकम्पा हमारे ऊपर सदा-सदा बनी रहे, भले ही वे आज हमारे संत भगवन्तों के चरणों में हमारा मस्तिष्क सदा ही झुकता रहा
बीच नहीं हैं किन्तु उनकी असीम कृपा सदा हमारे पर है और है क्योंकि उनका जीवन त्याग और वैराग्य का, संयम और साधना
रहेगी! गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धार्चना! का, तप और जप का एक पावन प्रतीक है, उनके सात्त्विक गुणों के प्रति हमारे मन में अनंत आस्थाएँ होती हैं और उनका पावन
परम उपकारी थे गुरुदेव जीवन हम अज्ञानी जीवों के लिए सच्चा पथ प्रदर्शक होता है। आर्याव्रत में ऐसे संत रत्नों पर ही सात्विक गर्व रहा है, ऐसे महान्
-निहालचंद कोठारी संतों से ही हमारी संस्कृति को पोषण मिला है, जिससे भारत विश्व
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. गुरु के गौरव से गौरवान्वित है।
मरुधरा के महान संत थे, वे त्याग और वैराग्य की जाज्वल्यमान हम जिस महापुरुष को श्रद्धांजलि अर्पित करने जा रहे हैं, वे प्रतिमा थे। आपके जीवन में गुण गरिमा थी, उसका वर्णन करना उच्च कोटि के संत रत्न थे, जिन्होंने आचार्य देवेन्द्र मुनिजी म. जैसे हमारी लेखनी से परे है, आपकी मुख मुद्रा को देखकर लगता था श्रमणरल को समाज को समर्पित किया, जो आज श्रमणसंघ के { कि आपमें अपूर्व अन्तश्चेतना विद्यमान है। आप में ये विलक्षणता तृतीय पट्टधर हैं। श्रद्धेय गुरुदेवश्री का जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन था,
थी कि आपने विघटन को नहीं सदा ही संगठन को महत्व दिया। सर्वश्रेष्ठ जीवन की संक्षिप्त परिभाषा है, जीवन की सरलता आप वैष्टी होते हुए भी समष्टि के रूप में रहे। निष्कपटता और दम्भता। आत्मशुद्धि के लिए सरलता से बढ़कर गुरुदेवश्री के पवित्र जीवन में एक खास बात देखने को आई। अन्य साधन नहीं, बाह्य आचार या प्रचार किसी का कम और वे चाहते थे स्थानकवासी समाज की उन्नति। वे स्थानकवासी समाज ज्यादा हो सकता है, क्षेत्र की दृष्टि से क्रिया-कलाप में भी अन्तर हो । में आचार और विचार सम्बन्धी ऐसी उत्क्रांति लाना चाहते थे. सकता है परन्तु जिसका मन शुद्ध है, जिसकी वाणी शुद्ध है और
जिससे समाज ज्ञान, दर्शन और चारित्र की छत्र-छाया में जिसका आचरण शुद्ध है, उनका जीवन घृतसिक्त पावक के समान
जीवन-यात्रा करे। आपकी हार्दिक इच्छा थी, प्रत्येक श्रमण विधान, D0 सहज सरल होता है, निर्धूम होता है, निर्मल होता है। गुरुदेवश्री
क्रियापात्र और त्याग और वैराग्य के महामार्ग पर उसके मुस्तैदी
कदम बढ़ें। वे श्रावक और श्राविकाओं में भी आचार की उत्कृष्टता सरलता के ज्योतिर्मय रूप थे, उनका आचार सरल, विचार सरल
देखना चाहते थे। अपने प्रवचनों में गुरुदेवश्री इस बात पर सदा व और व्यवहार सरल, सब कुछ सरल था, कहीं पर भी छिपाव नहीं
बल देते थे, उनके प्रवचनों को श्रवण कर हजारों व्यक्ति व्यसन से था, माया नहीं थी। उनकी सरलता ने मेरे मन को बहुत ही
मुक्त हुए, हजारों व्यक्तियों ने तम्बाकू छोड़ी, वे बीड़ी-सिगरेट के प्रभावित किया, ऐसे सरल मूर्ति गुरुदेव के चरणों में मेरी भावभीनी
उपासक थे। दिन-रात में अनेक बीड़ियाँ पी लेते थे, उन्होंने 2002 वंदना।
सदा-सदा के लिए बीड़ियाँ छोड़ दीं।
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पीपाड़ का वर्षावास हमारे परिवार के लिए बहुत ही वरदान रूप रहा। उस वर्षावास के लिए हमें अथक प्रयास करना पड़ा। वर्षों तक प्रयास करने के बावजूद वह वर्षावास हमें मिला। वह गुरुदेवश्री का हमारे गाँव में अन्तिम वर्षावास था और पीपाड़ में जो धर्म की प्रभावना हुई, उसे देखकर हम सब विस्मृत थे, यह गुरुदेवश्री का ही पुण्य प्रभाव था कि इतना धर्म-ध्यान वहां हुआ। हजारों दर्शनार्थी बन्धु भी वहाँ पर उपस्थित हुए।
आज भले ही हमारे सामने गुरुदेवश्री की भौतिक देह नहीं है। किन्तु उनका यशः शरीर आज भी विद्यमान है और भविष्य में भी विद्यमान रहेगा। हे गुरुदेव ! आप जीवन शिल्पी रहे हैं, हमारे जीवन के निर्माता रहे हैं, हमारे जीवन में धार्मिक संस्कार के बीज वपन करने वाले रहे हैं, आपका अनंत उपकार हमारे परिवार पर है। है गुरुदेव ! मेरी ओर से, मेरे पू. पिताश्री नेमीचंदजी सा. की ओर से तथा परिवार के सदस्यों की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि!
कोटि-कोटि वंदन
-मूलचंद कोठारी
सन् १९४७ का यशस्वी वर्षावास नासिक का संपन्न कर गुरुदेवश्री बम्बई पधारे। जब मेरे पिताश्री को ज्ञात हुआ, हम दोनों कार लेकर गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ ठाणे पहुँचे। गुरुदेव श्री के दर्शन कर हृदय आनंद-विभोर हो उठा, उस समय बड़े गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद्रजी म. पं. रत्न श्री पुष्कर मुनिजी म., हीरामुनि जी म., देवेन्द्र मुनिजी म., और गणेश मुनिजी म., ठाणा पांच विराज रहे थे। उस वर्ष गुरुदेव श्री का वर्षावास बम्बई घोटकोपर में हुआ, उस वर्षावास में गुरुदेवश्री की असीम कृपा से संघ सेवा का सौभाग्य मिला, सांवत्सरिक पारणे आदि का लाभ हमें मिला और बारह महीने तक गुरुदेवश्री बम्बई विराजे, प्रति रविवार को मैं पूज्य पिताश्री और मेरे बड़े भाई मांगीलालजी, चम्पालालजी आदि समय-समय पर सेवा में पहुँचते रहे ! यह पहला संपर्क मेरे लिए वरदान रहा। उसके बाद गुरुदेवश्री के पीपाड़, बम्बई और अहमदाबाद में चातुर्मास हुए, उन चातुर्मासों में हमें सेवा का अवसर मिला।
अहमदाबाद के चातुर्मास में मुझे अधिक सेवा करने का लाभ मिला, उसके बाद मेरा विचार था कि एक चातुर्मास पुनः हमारी जन्मभूमि के गाँव में हो, वर्षों तक मैं और मेरे ज्येष्ठ भ्राता चम्पालाल जी प्रयत्न करते रहे। चम्पालालजी की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी और वे असमय में ही इस संसार से विदा हो गए। भाई सा. के विदा होने से मेरे मन को भारी आघात लगा और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि गुरुदेवश्री का वर्षावास पीपाड़ कराना ही है और उस वर्षावास में सारे व्यवसाय को छोड़कर पीपाड़ ही चार महीने तक रहना है। मेरी धर्मपत्नी खमादेवी ने कई नियम भी ग्रहण कर
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
लिए थे कि जब तक गुरुदेवश्री का चातुर्मास नहीं होगा मैं अमुकअमुक वस्तुओं का त्याग रखूँगी। अंत में हमारी विजय हुई और १९९१ का वर्षावास हमें प्राप्त हुआ। इस वर्षावास में यद्यपि गुरुदेवश्री जितने स्वस्थ होने चाहिए, नहीं थे तथापि उनका दृढ़ आत्मबल और मनोबल को देखकर हम सभी विस्मृत थे। गुरुदेव ने हमारे सभी घरों पर पगले भी किए और उस वर्षावास में समयसमय पर गुरुदेवश्री ने अपने मंगलमय उद्बोधन से हम सभी को धर्म में प्रेरित भी किया।
उदयपुर चद्दर समारोह के अवसर पर हमारे परिवार का चीका भी लगा और उस चीके में मुझे रहने का सौभाग्य मिला। सभी संत भगवन्तों के पगले हमारे यहाँ पर हुए गुरुदेवश्री की तो अपार कृपा थी ही, जिसके फलस्वरूप ही यह सुनहरा अवसर हमें मिला था।
सभी के अन्तर्मानस में यही विचार थे कि गुरुदेवश्री की विमल छत्रछाया पांच छः वर्ष तक अवश्य रहेगी पर क्रूरकाल ने अपना प्रभाव दिखाया और गुरुदेवश्री ने ४२ घण्टे का चौवीहार संथारा कर एक उज्ज्वल और समुज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया। उनके जीवन की विदाई के अवसर पर भी हमने देखा, उनमें अद्भुत साहस था, उनके ओजस्विनी चेहरे पर आध्यात्मिक दिव्य आलोक जगमगा रहा था। स्वर्गवास के पश्चात् भी उनके चेहरे से नहीं लगता था कि गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हो गया है। ऐसे अद्भुत योगी गुरुदेव के चरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन !
तेजस्विता का ज्वलन्त उदाहरण
-कांतिलाल कोठारी
परमादरणीय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. हमारे परम आराध्य देव रहे हैं, हमारे कोठारी परिवार पर उनकी अपार कृपा रही है और कोठारी परिवार भी उनके प्रति सर्वात्मना समर्पित रहा है। मेरे दादाजी सेठ हरकचंद जी कोठारी और मेरे पूज्य पिताश्री सेठ चम्पालालजी कोठारी दोनों ही गुरुदेवश्री के परम भक्तों में से रहे हैं, इसलिए हमारे अन्तर्मानस में भी गुरुदेव श्री के प्रति अनन्य आस्था रही मेरे पूज्य दादाजी और पूज्य पिताश्री का यह दृढ़ विश्वास था कि हमने जो कुछ भी विकास किया उस विकास के मूल में गुरुदेवश्री का हार्दिक आशीर्वाद मुख्य रूप से रहा है। गुरुजनों के आशीर्वाद में अपूर्व चमत्कार है जिसके फलस्वरूप ही हम प्रगति के पथ पर बढ़ सके।
उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का व्यक्तित्व बड़ा ही दिलचस्प और विलक्षण रहा है, उनमें कार्यक्षमता अद्भुत थी। श्रमणसंघ के संगठन प्रसंगों पर मैंने देखा उनमें जो कृतित्व शक्ति है। यह अद्भुत है, उनकी विलक्षण संगठन शक्ति और स्फूर्तिमान साहस को देखकर मैं सदा ही विस्मय से विमुग्ध होता रहा हूँ।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
वे दिन स्मृतियों से ओझल नहीं हुए हैं, जब हमारे पूज्य पिताश्री ने बालकेश्वर (बम्बई) में स्थानकवासी श्रावक संघ की स्थापना की और कोठारी भवन (राजहंस) में गुरुदेवश्री का चातुर्मास करवाया। गुजराती समाज के वरिष्ठ नेताओं को हमारे पूज्य पिताश्री के किए गए कार्य से ईर्ष्या हुई और वे सोचने लगे कि मारवाड़ी समाज का व्यक्ति किस प्रकार आगे आ सकता है। और उस वर्षावास में बालदीक्षा के प्रकरण को लेकर बम्बई समाचार के पृष्ठ के पृष्ठ रंग कर आने लगे। उन्होंने खुलकर विरोध किया। वे सोच रहे थे कि गुरुदेवश्री हमारे विरोध के सामने नत हो जायेंगे पर गुरुदेवश्री तो श्रमणसंधीय संविधान के अनुसार कार्य करने में रत थे। अंत में बम्बई के वरिष्ठ महामनीषी चिमनभाई चकूभाई शाह को झुकना पड़ा और उन्होंने कांदाबाड़ी के उपाश्रय में भाषण देते हुए कहा "पुष्कर मुनि जेवा संतो सोधवा पण मलया मुश्किल छ" और उन्होंने गुरुदेवश्री का चातुर्मास कांदाबाड़ी में करवाया। यह है गुरुदेवश्री की तेजस्विता का ज्वलन्त उदाहरण। जिस कार्य को हमारे पूज्य पिताश्री ने प्रारंभ किया उसे उन्होंने स्वीकार किया और आज बालकेश्वर में श्री व. स्था. जैन श्रावक संघ बना हुआ है।
यह सत्य है कि व्यक्तित्व संघर्षों से नहीं, निर्माण से निखरता है; उसकी तेजस्विता की सार्थकता विध्वंस से नहीं अपितु पुनःनिर्माण से नापी जाती है। गुरुदेवश्री का व्यक्तित्व समाज में विधायक व्यक्तित्व रहा है। गुरुदेवश्री स्थानकवासी परम्परा के प्रति पूर्ण निष्ठावान थे, जब-जब स्थानकवासी समाज पर विरोधी व्यक्तियों ने प्रहार और आक्षेप किए तब गुरुदेव श्री ने उनका दृढ़ता के साथ उत्तर भी दिया।
गुरुदेवश्री ने हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर हमारी जन्म भूमि के गाँव में एक नहीं अपितु चार चातुर्मास किए। चारों यशस्वी चातुर्मास पीपाड़ के इतिहास में नई जागृति, नई चेतना समुत्पन्न करने वाले सिद्ध हुए। हमारे में जो धार्मिक भावना है, उसका मूल श्रेय गुरुदेवश्री की असीम कृपा को ही जाता है, उन्हीं की छत्र-छाया में हमारा धार्मिक संस्कार रूपी बीज पनपा है। ऐसे परम आराध्य गुरुदेव के चरणों में मेरी और मेरे परिवार की ओर से कोटि-कोटि वंदना !
श्रद्धा के दो पुष्प
- खेमचंद कोठारी
मैंने गुरुदेवश्री के दर्शन बहुत ही छोटी उम्र में किए हमारी जन्मभूमि पीपाड़ में गुरुदेवश्री के चार वर्षावास हुए। सन् १९३२, १९४३, १९६४ और चौथा १९९१ में हुआ । प्रथम वर्षावास में मैं बहुत ही छोटा था। पूरी स्मृति नहीं है। किन्तु दूसरे वर्षावास में मेरे
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पूज्य पिताश्री ने गुरुदेवश्री से सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान करवाई। तीसरे और चतुर्थ वर्षावास में गुरुदेवश्री की सेवा का मुझे सौभाग्य मिला, गुरुदेवश्री के दर्शन कर और उनके चरण-स्पर्श कर मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव करने लगा। सन् १९६७ में गुरुदेवश्री का वर्षावास हमारे व्यावसायिक केन्द्र बालकेश्वर, बम्बई में हुआ, उस वर्ष भी गुरुदेवश्री के चरणों में बैठने का अत्यधिक अवसर मिला।
गुरुदेवश्री हमें सदा यही प्रेरणा प्रदान करते रहे, तुम अपने आपको पहचानो, निज स्वरूप को बिना पहचाने आत्मा अनंतकाल से भटक रहा है, निज भाव को छोड़कर परभाव में रमण करने का परिणाम सदा ही कष्ट कर रहा है, इसलिए निज भाव में रमण करना ही सम्यक्दर्शन है। और जब तक सम्यकृदर्शन नहीं आता वहाँ तक न सम्यक्ज्ञान आता है और न सम्यक्चारित्र ही । गुरुदेवश्री की आध्यात्मिक वाणी को श्रवण कर मेरे हृदय में अपूर्व शान्ति प्राप्त हुई।
सन् १९९१ के वर्षावास में पूज्य गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य पूर्ण स्वस्थ नहीं था इसलिए श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. विशेष रूप से प्रवचन करते रहे और उनके प्रवचनों में आध्यात्मिक चर्चा सुनकर मेरा हृदय बांसों उछलने लगा क्योंकि हम संसारी जीव भौतिकवाद के अन्दर निरन्तर उलझे रहते हैं। भौतिकवाद से तनाव पैदा होता है। हमारी आत्मा अनंतकाल से भौतिकवाद में उलझने के कारण हम अपने स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। आचार्यश्री के पास जब भी में बैठा जब आचार्यश्री की अध्यात्म भावना से ओतप्रोत विचार सुनने को मिलते हैं तो मेरा मन प्रमुदित हो जाता है।
हमारा परम सौभाग्य है कोठारी परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा रही है। गुरुदेवश्री के गुणों का वर्णन जितना किया जाए, उतना ही कम है। गुरुदेवश्री महान् थे, और जीवन के अंतिम क्षण तक भी उनकी साधना के प्रति जागरूकता को देखकर तो हृदय श्रद्धा से नत होता रहा है। ऐसे गुरु को पाकर हम अपने आपको सौभाग्यशाली मानते हैं गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी भावभीनी श्रद्धार्थना
गुरुदेव संघ के गौरव थे
-भंवरलाल मेहता (पूर्व प्रधान)
कुछ व्यक्ति बड़े होने का नाटक करते हैं पर वस्तुतः वे बड़े नहीं होते, वे अपने आपको बड़ा मानते हैं, पर उनमें बड़प्पन का अभाव होता है। जो व्यक्ति बड़े होते हैं उनमें अहंकार नहीं होता, उनके हृदय में दया की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित होती है। परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ऐसे ही
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उठता।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । P: महान् संत थे। उन्हें अपने बड़प्पन का कभी अहंकार नहीं आया, शब्दावली कब व्यक्त कर पाई है, मैं ज्यों-ज्यों स्मरण करता हूँ,
जो कुछ भी उनमें था, सहज था, प्रदर्शन से वे कोसों दूर थे। यदि त्यों-त्यों गुणों की एक लम्बी पंक्ति मेरी आँखों के सामने खड़ी हो किसी व्यक्ति को संत्रस्त देखते तो उनका हृदय दया से द्रवित हो जाती है। गुरुदेवश्री के जीवन में वस्तुतः अद्भुत विशेषताएँ थीं।
यह सत्य है कि हर पर्वतमाला में चन्दन के वृक्ष नहीं होते, हर न मैंने गुरुदेवश्री के दर्शन पहले कब किए यह तो पूर्ण स्मरण
हाथी के मस्तिष्क में मोती नहीं पैदा हुआ करते वैसे ही साधु का नहीं किन्तु सन् १९८१ में गुरुदेवश्री का वर्षावास राखी में था, उस
वेश पहन लेने से ही कोई साधु नहीं बन जाता। द्रव्य वेश साधु के 356 वर्ष मैं गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु राखी पहुँचा। मुझे यह आशा नहीं
बाहर की पहचान है किन्तु अंतरंग जीवन ही सच्चे साधु की
पहचान है, यदि अंतरंग जीवन साधुता से मंडित नहीं है तो बाह्य थी कि गुरुदेवश्री मुझे पहचान पायेंगे पर गुरुदेवश्री को जरा-सा परिचय दिया कि मैं भावरी का हूँ और इन दिनों मैं पाली रहता हूँ
जीवन केवल हड्डियों का ढांचा है, उसमें प्राण नहीं हैं। 6 और गुरुदेवश्री ने पूरा परिचय दे दिया। भांवरी में तो हमारे पूर्वज उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. के जीवन में मणिकांचन 36DD बहुत ही विचरण करते रहे हैं। चातुर्मास वगैरह भी हुए हैं। पूज्य । संयोग हुआ था, वे बाह्य वेश-भूषा से भी संत थे तो आन्तरिक BE गुरुदेवश्री की आत्मीयता ने चुम्बक की तरह मुझे खींच लिया, जीवन से भी संत की गरिमा से मंडित थे, गुरुदेवश्री के दर्शनों का
2 उसके पश्चात् मैं गुरुदेवश्री की सेवा में बीसों बार पहुँचा। सन् । सौभाग्य अनेकों बार मिला, जितनी बार मिला, उतनी-उतनी श्रद्धा ० १९८६ का वर्षावास हमारे पाली में हुआ। उस वर्ष गुरुदेव के बहुत दृढ़ से दृढ़तर होती गई। स्वर्गवास के दो महीने पहले गुरुदेवश्री
ही निकट रहने का अवसर मिला। मैंने देखा कि गुरुदेवश्री निर्लेप हमारे कमोल गांव में पधारे। चार दिन विराजे, गुरुदेवश्री का यह
नारायण हैं, उन्हें किसी भी पदार्थ के प्रति आसक्ति नहीं है। यदि पदार्पण संघ में अपूर्व उत्साह का संचार करने वाला सिद्ध हुआ। यों EP कोई आया तो अच्छी बात, नहीं आया तो अच्छी बात। यदि आता गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे गांव में रही है और मेरे जन्म के
तो उसे प्यार से अपने पास बिठाते, वार्तालाप भी करते। मैं सोचने । पूर्व गुरुदेवश्री का पदार्पण विक्रम संवत् १९९५ में हुआ था। म लगा वस्तुतः गुरुदेव को जिस संघ ने अध्यात्मयोगी की उपाधि प्राप्त
गुरुदेवश्री का सन् १९३८ में चातुर्मास हुआ। सन् १९६६ का श की है, वह उपाधि सटीक है, गुरुदेव वस्तुतः अध्यात्मयोगी हैं।
चातुर्मास हमारे गाँव से एक किमी. दूर पदराड़ा में हुआ। इस गुरुदेवश्री के अहमदनगर, इन्दौर, जसवंतगढ़, सादड़ी, पीपाड़, चातर्मास से पर्व हमारे प्रान्त की आर्थिक दष्टि उतनी समद्ध नहीं LOD सिवाना सभी वर्षावास में मुझे जाने का अवसर मिला। चद्दर
थी। गुरुदेवश्री के वर्षावास के पश्चात् हमारे प्रान्त की आर्थिक FE अवसर के समारोह पर भी मैं. वहीं था और गुरुदेवश्री का
स्थिति दिन प्रतिदिन सुधरती ही चली गई। जब आर्थिक दृष्टि से o स्वर्गवास हुआ तब भी मैं उदयपुर में ही था। गुरुदेवश्री के सम्पर्क
सुधार आया तो सभ्यता में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक था, पहले 64 में आने से मेरे जीवन में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ। यों हमारा पूरा
हमारे प्रान्त में मुख्य रूप से खेती का धंधा था, किन्तु अब हमारे परिवार गरुदेवश्री के प्रति सर्वात्मना समर्पित रहा है। सन १९९१
प्रान्त की सैंकड़ों दुकानें सूरत में लग गईं हैं और सभी ने बहुत में मैंने आचार्य अमरसिंह जी म. की सम्प्रदाय की जमीन जो वर्षों DD से श्रावकों के अधीन थी, उस पर स्थानक बनवाया और गुरुदेवश्री
अच्छी प्रगति की है, यह सब गुरुदेवश्री के ध्यान मंगलपाठ का ही जल का पीपाड़ चातुर्मास जाने के समय वहाँ पर विराजना रहा,
प्रभाव है। आज हमने जो कुछ भी आर्थिक दृष्टि से उन्नति की है, गुरुदेवश्री के वहाँ पर विराजने से मैं अपने आपको धन्य-धन्य
उसका मूल गुरु कृपा में ही रहा हुआ है। 01 अनुभव करने लगा कि मेरा श्रम सफल हुआ।
गुरुदेवश्री के गुणों का क्या वर्णन किया जाए, जितना-जितना OID गुरुदेवश्री आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनका मंगलमय
मैं सोचता हूँ, उनके एक नहीं, हजारों सद्गुण मेरे स्मृत्याकाश में HD जीवन हमारे लिए सदा ही प्रेरणा का स्रोत रहा है। ऐसे महामुनि ही
चमकते रहते हैं। हे गुणपुंज गुरुदेव आपके चरणों में कोटि-कोटि संघ के गौरव रहे हैं और जिनकी विमल छत्र छाया में ही हमारा
वंदन, मेरी भावभीनी श्रद्धार्चना स्वीकार करो। 8 संघ प्रगति कर रहा है, ऐसे गुरुदेव के चरणों में भावभीनी वंदना
करते हुए मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रहा हूँ। । कोटि-कोटि अभिनन्दन-वंदन
1949 गुणपुंज गुरुदेव के चरणों में
-राजकुमार जैन -खेतरमल डोसी
सन् १९८८ का वर्षावास इन्दौर की जनता के लिए वरदान
रूप रहा। स्वर्गीय आचार्यसम्राट् श्री आनंद ऋषिजी म. के चरणों में गुरुदेवश्री के संबंध में क्या लिखें? शब्दों के बाट उनके अनंत । सन् १९८७ का अहमदनगर वर्षावास संपन्न कर उपाध्यायश्री PP गुणों को तोलने में सदा ही असमर्थ रहे हैं, असीम गुणों को ससीम पुष्कर मुनिजी म. महाराष्ट्र की धरा को पावन करते हुए जब NER कन्यता
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
१२९ जलगाँव पधारे तो इन्दौर संघ अनेकों बसें लेकर जलगाँव पहुँचा, मेरी भाणेज श्री सुन्दरकुमारी के मन में वैराग्य भावना जागृत हुई इन्दौर के इतिहास में पहली बार इतनी बसें वर्षावास की प्रार्थना और उसने कहा कि मैं अब संसार अवस्था में नहीं रहूँगी, मुझे DD हेतु पहुंची थीं। उपाध्यायश्री जी ने हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर त्याग मार्ग ग्रहण करना है। परम विदुषी साध्वीरत्न पुष्पवतीजी म. इन्दौर की स्वीकृति प्रदान की। इन्दौर के आबालवृद्ध सभी आनंद से की सेवा में उदयपुर में हमने उनको रखा। गुरुणीजी के सेवा में - झूमने लगे।
रहकर उसने बहुत ही अध्ययन किया। हमारी हार्दिक इच्छा थी कि
सुन्दरकुमारी की दीक्षा हमारे गजेन्द्रगढ़ में ही हो किन्तु महासतीजी वर्षावास हेतु गुरुदेवश्री का आगमन हुआ, जन-जन के मन में
गजेन्द्रगढ़ पधारने की उस समय स्थिति में नहीं थीं क्योंकि माताजी उत्साह की तरंगें-तरंगायित थीं, श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री के ध्यान
म. प्रभावती जी लम्बे विहार नहीं कर सकती थीं, अतः हमने कहा मंगलपाठ को सुनने के लिए इन्दौर का धर्म स्थानक जो इतना
कि यदि उपाध्याय गुरुदेवश्री दीक्षा देने के लिए आन्ध्रप्रदेश से विशाल है, वह भी छोटा पड़ने लगा ज्यों ही बारह बजते, दूर-दूर
बिहार कर उदयपुर पधार जाएंगें तो हम दीक्षा दे देंगे। गुरुदेवश्री से लोग दौड़ते हुए महावीर भवन में पहुँचते और गुरुदेवश्री के
सन् १९७९ का वर्षावास सिकन्दराबाद संपन्न कर उग्र विहार करते ध्यान मंगलपाठ को सुनकर अलौकिक आनंद की अनुभूति करते।
हुए उदयपुर पधारे और हमने बैशाख सुदी पूर्णिमा सन् १९८० को प्रवचन में भी महावीर भवन का हॉल खचाखच भर जाता था, उदयपुर में दीक्षा प्रदान की और सुन्दरकुमारी का नाम रत्नज्योति उपाध्यायश्री के और उस समय जो उपाचार्य पद पर अलंकृत थे | रखा गया। महासती रत्नज्योतिजी ने गुरुदेवश्री के दिशा निर्देशन में
और वर्तमान में जो आचार्य पद से विभूषित हैं, श्री देवेन्द्र मुनिजी । प्रगति की। म. के मंगलमय प्रवचनों को श्रवण कर युवा वर्ग में अभिनव
जब पुण्य प्रबल होते हैं तो कोई न कोई अवसर मिल ही जाता चेतना का संचार हुआ, जो युवा कभी स्थानक का मुँह नहीं देखते
है, सन् १९८७ में पूना में संत सम्मेलन का मंगलमय आयोजन थे, वे विशाल संख्या में स्थानक में उपस्थित होते थे।
हुआ और उस आयोजन में उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री और महासती उपाध्यायश्री की ७९ वीं जयंती के पावन प्रसंग पर अखिल | श्री पुष्पवतीजी म. पूना पधारे और उस वर्ष अहमदनगर में स्वर्गीय भारतीय स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस का अमृतमहोत्सव का आयोजन आचार्यसम्राट् श्री आनंदऋषिजी म. की सेवा में गुरुदेवश्री का और Dial भी बहुत ही भव्य और ऐतिहासिक रहा। उपाध्यायश्री जी के
गुरुणीजी म. का वर्षावास हुआ। हमने भावभीनी प्रार्थना की किDOE वर्षावास के पश्चात् हमारे मन में चुम्बकीय आकर्षण रहा, जिससे आप महाराष्ट्र में पधार गए हैं तो गजेन्द्रगढ़ भी अब दूर नहीं है, हम प्रतिवर्ष अनेकों बार उनकी सेवा में पहुँचे, उनके चरणों में
उपाध्यायश्री जी ने तो मध्यप्रदेश की ओर विहार किया और न बैठकर अपार आनंद की अनुभूति हुई। आज गुरुदेव हमारे बीच में
महासतीजी ने गजेन्द्रगढ़ की ओर और सन् १९८८ का वर्षावास नहीं हैं पर हमारी अनंत-अनंत आस्थाएँ उनके प्रति हैं, मैं अपनी
गजेन्द्रगढ़ को प्राप्त हुआ और यह वर्षावास तप, त्याग आदि की ओर से, अपने परिवार की ओर से और इन्दौर युवक संघ की
| दृष्टि से अपूर्व रहा। ओर से गुरुदेवश्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदन कर श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।
गुरुदेवश्री के समय-समय पर मैंने दर्शन किए। उनके चरणों में
बैठा, उनके विविध गुणों से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ। आज पूज्य सद्गुणों के पुंज गुरुदेव श्री
गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके गुणों की सौरभ आज
चारों ओर फैली हुई है। कस्तूरी की सुगन्ध को बताने के लिए -अशोक कुमार बाघमार
शपथ खाने की आवश्यकता नहीं होती वैसे ही महापुरुषों के गुणों
को बताने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, उनके जीवन कर्नाटक में जैन संतों का आगमन बहुत ही कम होता रहा है।
का कण-कण और अणु-अणु सुगन्ध से महकता है और सदा-सदा राजस्थान की तरह वहाँ पर संतों का विचरण नहीं है। राजस्थान से
महकता रहेगा, ऐसे सद्गुणों के पुंज गुरुदेवश्री के चरणों में मैं ही संत वहाँ पर पधारते हैं, सन् १९७५ का पूना का यशस्वी
श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ, आनंद की अनुभूति कर रहा हूँ। वर्षावास संपन्न कर परम श्रद्धेय उपाध्याय गुरुदेवश्री महाराष्ट्र की यात्रा संपन्न कर कर्नाटक पधारे। कर्नाटक निवासियों की भक्ति
Paroo भावना उमड़ पड़ी। मीलों तक जाकर गुरुदेवश्री का अभिवन्दन किया, हर गाँव में एक नई बहार थी, जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारते,
। सच्चे जंगम तीर्थ : पुष्कर मुनिजी ) जनता उमड़ पड़ती और अपने भाग्य की सराहना करती।
-चांदमल मेहता गुरुदेवश्री हमारे गजेन्द्रगढ़ में पधारे। हमारे में नया जोश पैदा हो गया, भले ही गुरुदेव तीन-चार दिन विराजे किन्तु उन तीन-चार मैं राजनीति में जीवन के ऊषाकाल से लगा रहा, सदा ही दिनों में ही जो धर्म की बहार आई, वह बहुत ही दर्शनीय थी। गांधीवादी विचारधाराओं के प्रति मेरा समर्पण रहा और उसी दृष्टि 1-24
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से जीवन चलता रहा। मेरा परम सौभाग्य है कि सन् १९८३ का वर्षावास परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का मदनगंज में हुआ। मदनगंज संघ वर्षों तक गुरुदेव के वर्षावास हेतु प्रयत्नशील रहा और अन्त में सफलता प्राप्त हुई। प्रस्तुत वर्षावास में मदनगंज संघ ने सेवा की दृष्टि से मुझे चुना और उस वर्षावास में समाज के कार्यों में अधिक भाग लेने का अवसर मिला, उस वर्षावास में परम श्रद्धेय उपाध्याय पू. गुरुदेव की सेवा का भी अवसर मिला। गुरुदेव की सेवा में पहुँचकर मेरे जीवन का नक्शा ही बदल गया। मुझे राजनीति से भी धर्मनीति के प्रति अधिक रुझान पैदा हुआ और गुरुदेवश्री के ध्यान मंगलपाठ के अनेक चमत्कार मैंने स्वयं ने देखे
एक बार मेरा पेट अत्यधिक दर्द कर रहा था, मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुँचा, उनका ध्यान मंगलपाठ सुनते ही मेरा दर्द गायब हो गया। अनेकों बार गुरुदेव के चामत्कारिक प्रसंग देखने को मिले। मैंने देखा कि जो लोग नास्तिक थे, वे भी गुरुदेव श्री के संपर्क में आकर आस्तिक बन गए। मेरे मन में एक भावना उदयुद्ध हुई कि प्रस्तुत वर्षावास की पावन स्मृति सदा-सदा बनी रहे, इसके लिए "पुष्कर गुरुसेवा संस्थान" की स्थापना की और औषधालय निर्माण हेतु विशाल बिल्डिंग तैयार हो गई। हम चाहते थे कि गुरुदेवश्री का आगमन हो और उनके नेश्राय में उद्घाटन हो और उस दृष्टि से हमने अनेकों बार प्रयास भी किया पर सफलता नहीं मिली।
आज गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु गुरुदेवश्री की पावनस्मृति में जो हमने संस्था बनाई है, यह सदा-सर्वदा उनके वर्षावास की स्मृति को ताजगी प्रदान करती रहेगी, और हम चाहते हैं कि गुरुदेवश्री सच्चे जंगमतीर्थ थे, जड़पुष्कर तीर्थ में तो कितने ही व्यक्ति डूब जाते हैं पर गुरुदेवश्री ऐसे महापुरुष थे, कि उनकी सेवा में पहुँचने पर अधम से अधम व्यक्ति भी तिर जाता था, उस स्थावर तीर्थ पर तो श्रद्धालुओं को जाना पड़ता है पर वह जंगमतीर्थ हमारे भक्तिभाव को महत्व देकर हमारे घर पर ही पहुँच जाता था। गुरुदेवश्री के गुणों का वर्णन मैं किन शब्दों में करूँ, उनकी असीम कृपा हमारे परिवार पर रही है, और उनके अनेक संस्मरण भी मेरी स्मृति पटल पर नाच रहे हैं, मेरी उनके चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि और उनका स्मरण हमारे लिए पावन पाथेय है मेरी भावभीनी वंदना
निस्पृह संत
-रतनलाल मारू
संत शब्द संस्कृत भाषा के सत् शब्द से निर्मित हुआ है, जिसका तात्पर्य है अविनाशी, अजर, अमर, त्रिकालाबाधित सत्व सत्ता । संत केवल शरीर नहीं होता वह तो आत्मा होता है, आत्मा का वह दिव्य और भव्य तेज जो क्रूरकाल के अंधकार में कभी
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2006
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आच्छादित नहीं होता, जो सदा रहता है। संत का शरीर भले ही नष्ट हो जाए किन्तु उसकी आत्मा अमर है और वह दिव्य गुणों के प्रकाश से प्रकाशित है।
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. भले ही शारीरिक दृष्टि से हमारे बीच में नहीं रहे हैं परन्तु अपने दिव्य गुणों के भव्य आकार में आज भी विद्यमान हैं, उनके श्रमणत्व का भव्य और नव्य रूप अब भी हमारे सामने ज्यों का त्यों विराजमान है। उनके जीवन की पावन स्मृति, उनके निर्मल साधुत्व की दिव्य दृष्टि आज भी हमारे अन्तर्मानस पर आसीन है ये अजर, अमर, अविनाशी जीवन के धनी थे।
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श्रद्धेय सद्गुरुवर्य की असीम कृपा हमारे पर रही है। गुरुदेवश्री ने हमारे संघ की प्रार्थना को सम्मान देकर मदनगंज में वर्षावास किया और उस वर्षावास में जो एकता की लहर व्याप्त हुई, मदनगंज संघ में अभिनव चेतना का संचार हुआ। गुरुदेवश्री जैसे निष्पृह योगी के दर्शन कर और उनकी सेवा भक्ति कर मदनगंज संघ अपने भाग्य की सराहना करने लगा। हमने सैंकड़ों संत भगवन्तों के दर्शन किए, उनकी सेवा भक्ति की परन्तु उपाध्याय पूज्य गुरुदेव के जीवन की निराली विशेषताएँ हमने देखीं उनका जीवन स्फटिक की तरह निर्मल था। किसी भी पदार्थ के प्रति उनके मन में आसक्ति नहीं रही थी हमने मदनगंज में पुष्कर गुरु सेवा संस्थान की संस्थापना की पर गुरुदेवश्री ने उस संस्था के लिए कभी भी अपने मुँह से एक शब्द नहीं कहा। उन्होंने यही कहा कि आप लोगों का काम आप करें। और मेरा काम ध्यान-साधना, जप-साधना और उपदेश देना है, वह मैं दूँगा। गुरुदेवश्री की निस्पृहता देखकर हम सभी विस्मित थे। गुरुदेवश्री के नाम की संस्था बनाई पर गुरुदेव अपने नाम की संस्था के प्रति भी कितने निस्पृह रहे यह हम देखकर आनंद-विभोर हो उठे। हम चाहते थे कि गुरुदेवश्री के मदनगंज पधारने पर हम उसका उद्घाटन करवाएँ और हमने मेड़ता में गुरुदेव से प्रार्थना भी की कि आप यहाँ पधारें पर गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य प्रतिकूल था हमारी मन की बात मन में ही रह गई, यह कल्पना भी नहीं थी कि चद्दर समारोह के पश्चात् गुरुदेवश्री इतने जल्दी हमें छोड़कर इस संसार से विदा हो जायेंगे।
हम गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धा से नत हैं। उनका मंगलमय आशीर्वाद सदा सर्वदा हमें मिला है और उनकी विमल छत्रछाया में हमने हर प्रकार से विकास किया है। गुरुदेवश्री की विमल छत्रछाया हमारे पर सदा बनी रहेगी, यही मंगल मनीषा के साथ मैं उनके चरणारबिन्दों में कोटि-कोटि वंदन कर श्रद्धार्चना समर्पित करता हूँ।
नियम धर्म का पालन धैर्य, श्रद्धा और विश्वास के साथ करो। - उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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श्रमण संघ के वरिष्ठ संत
वर्षावास जसवंतगढ़ में हुआ, हमारे जैसे भक्तों की भावना को मूर्त
रूप दिया, जबकि कई बड़े-बड़े संघ आपश्री के वर्षावास हेतु प्रबल -पदम कोठारी
प्रयास कर रहे थे। हम सोच रहे थे, कुछ लोगों में इस प्रकार की
धारणा है कि बड़े संतों को बड़े शहर ही अधिक पसन्द हैं, वे वहीं संत विनम्रता के साक्षात् रूप होते हैं, जिसके मन में अहंकार
पर अधिक विराजते हैं और वर्षावास करते हैं, पर गुरुदेवश्री का काला नाग फन फैलाकर बैठा हुआ हो, वह संत कैसा? क्योंकि इसके अपवाद रहे। उन्होंने बड़े शहरों की प्रार्थना को ठुकराकर अहंकार और साधुता में तो सदा-सदा से विरोध रहा है, जैसे हमारे ग्राम में चातुर्मास कर हमें धन्य-धन्य बनाया। प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते वैसे ही अहंकार और विनय एक साथ नहीं रह सकते, जहाँ अहंकार होगा वहाँ
जसवंतगढ़ पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा सदा-सदा से रही है
और मेरा भी परम सौभाग्य रहा कि जब पहले हमारे गाँव में व्यक्ति यही सोचेगा कि मेरे से बढ़कर इस विराट् विश्व में अन्य नहीं है, जबकि संत यह सोचता है कि मेरे से बढ़कर इस संसार में
स्थानक नहीं था तब गुरुदेवश्री हमारे मकानों में विराजते थे,
अनेकों बार गुरुदेवश्री का हमारे गाँव में पदार्पण होता रहा है, हजारों ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, तपस्वी हैं। संत अपने दुर्गुण देखता है
गुरुदेवश्री के नाम पर दूर-दूर से जैन-अजैन सभी भक्ति भावना से और दूसरों के गुण देखता है। वह देखता है कि मेरे में कितना
विभोर होकर आते रहे हैं, प्रस्तुत वर्षावास में हमारे गाँव में एक अज्ञान और इनमें कितना ज्ञान है, यही परिज्ञान उसे निरन्तर आगे
नई बहार आ गई, भारत के दूर-दूर के अंचलों से श्रद्धालुगण बढ़ाता है।
हजारों की संख्या में यहाँ पहुँचे, जिन लोगों ने कभी हमारे गाँव का परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ऐसे
नाम भी नहीं सुना था, वे भी वहाँ पधारे और हमें भी उनकी सेवा विनम्र संत थे, श्रमणसंघ के एक वरिष्ठ संत होने पर भी और करने का सौभाग्य मिला। इतने महान ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी होने पर भी उनके मन को
राम ने भीलनी के झूठे बेरों को पसन्द किया, श्रीकृष्ण ने अहंकार ने नहीं छूआ था। चाहे निर्धन, चाहे धनी, चाहे बाल, चाहे
विदुर रानी के छिलकों को पसन्द किया, भगवान महावीर ने वृद्ध, चाहे गृहस्थ, चाहे संत सभी के साथ बिना भेदभाव के वे
चन्दना के उड़द के बाकुले पसन्द किए वैसे ही गुरुदेव उपाध्यायश्री वार्तालाप करते, सहज भाव से उनसे मलते, यह मेरा है, यह तेरा
पुष्कर मुनिजी म. ने हमारे छोटे गाँव को पसन्द कर हमारे पर जो है, वे इस भावना से ऊपर उठे हुए थे, यही कारण है कि
असीम उपकार किया, उसके लिए हम सदा-सदा गुरुदेवश्री के गुरुदेवश्री के प्रति सभी नत थे।
आभारी तो हैं ही, गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे गाँव पर और हमारी जन्मभूमि के गाँव में गुरुदेवश्री का वर्षावास हुआ। सन् हमारे पर रही है, उस पुण्य पुरुष के चरणों में मेरी कोटि-कोटि १९५१ में, उस वर्षावास में मैंने गुरुदेवश्री की सेवा की और वंदना और भावभीनी श्रद्धार्चना। गुरुदेवश्री के व्यक्तित्व और कृतित्व से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ, ऐसे महान गुरु के चरणों में भक्तिभाव से विभोर होकर श्रद्धा सुमन । महान व्यक्तित्व के धनी : गुरुदेव । समर्पित करता हुआ अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा हूँ।
-गणेशलाल भण्डारी
उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. का और मेरा असीम उपकारी गुरुदेवश्री
बाल्यकाल साथ-साथ में बीता है। हमारा जन्म एक ही मौहल्ले का
है। मेरे मकान के पास ही मकान में उनकी मातेश्वरी वालीबाई -अम्बालाल सिंघवी
रहती थीं। हम दोनों ही साथ-साथ में खेलते थे पर मैं तो संसार में फ्रांस के एक विद्वान रोमारोलिया ने एक बार कहा कि ही रह गया और गुरुदेवश्री इतने महान् बन गए, जिसकी हम महापुरुष ऊँचे पर्वतों के समान होते हैं, हवा के तीव्र झोंके उन्हें । कल्पना भी नहीं कर सकते। मैं संसार के दलदल में फँसा रहा और लगते हैं, मेघ उनको आच्छादित भी कर देता है पर हम अधिक | गुरुदेवश्री कमल की तरह संसार से अलग-थलग हो गए। खुले रूप में वहीं पर जोर से सांस ले सकते हैं। तात्पर्य यह है कि चौदह वर्ष की लघुवय में उन्होंने संयम-साधना को स्वीकार महापुरुष की छत्रछाया ही सामान्य व्यक्ति के लिए परम किया और एक वर्ष के पश्चात् ही उनका वर्षावास नान्देशमा में आल्हादकारी होती है, वे स्वयं कष्ट सहन करते हैं पर दूसरों को हुआ, उस समय हमें यह कल्पना नहीं थी कि गुरुदेवश्री अपना कष्ट नहीं देते। यही कारण है कि हमारा गाँव सबसे छोटा गाँव है। इतना विकास करेंगे पर प्रबल पुरुषार्थ के कारण व्यक्ति कहां से जो एक पहाड़ी पर बसा हुआ है, जहाँ पर केवल स्थानकवासी जैनों कहां तक पहुँच जाता है, यह गुरुदेवश्री के जीवन को देखकर के ही घर हैं, अन्य किसी के घर नहीं। १९८९ में गुरुदेव का सहज रूप से कहा जा सकता है।
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19.6
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गुरुदेवश्री जिस युग में जन्मे उस युग में अरावलियों के पहाड़गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से मद्रास में दक्षिण भारतीय स्वाध्याय में बसे हुए गाँव में किसी प्रकार की सुविधाएँ नहीं थीं। उदयपुर संघ की स्थापना हुई, जिसमें बड़े-बड़े श्रेष्ठिगण भी पर्युषण के आठ पहुँचना भी हमारे लिए एक समस्या थी। सुबह पांच बजे रवाना दिनों में प्रवचन करने के लिए जाने लगे हैं, गुरुदेवश्री की प्रेरणा से होते तब जाकर हम सांयकाल तक उदयपुर पहुँचते। कितनी उस वर्ष अनेक सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक कार्य हुए। घाटियों को पार करना पड़ता, कितने नदी और नालों को लांघना
सन् १९९० के वर्षावास में सादड़ी में रहने का बहुत बड़ा पड़ता, जरा-सी असावधानी हो जाए तो हड्डी-पसली एक होने का
अवसर मिला, उस वर्षावास में भी मैंने गुरुदेवश्री को बहुत ही डर था। उस गाँव में जन्म लेकर के गुरुदेवश्री सद्गुरुदेवश्री के
निकटता से देखा, यों तो प्रतिवर्ष मैं गुरुदेवश्री के दर्शन के लिए चरणों में पहुंच गए और साधना कर और ज्ञान की आराधना कर
पहुँचता रहा हूँ, उनका वरदहस्त सदा हमारे पर रहा है और प्रगति के पथ पर बढ़ते चले गए।
रहेगा, इसी मंगल भावना के साथ मैं श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। गुरुदेवश्री का जो भी विकास हुआ, उसके पीछे उनका प्रबल पुरुषार्थ था। उनके मन की लगन थी क्योंकि बड़े गुरुदेव बहुत ही
सीधे और सरल परिणाम के धनी थे। वे केवल टकोर करते थे आगम व दर्शन के गंभीर ज्ञाता ] FDY किन्तु टकटक नहीं। उन्होंने गुरुदेवश्री को अध्ययन के लिए प्रेरणा दी किन्तु दिन-रात श्रम कर गुरुदेवश्री ने अपना विकास किया और
-भंवरलाल फुलफगर B साथ ही अपने शिष्यों का भी उन्होंने विकास करवाया। यही कारण
(घोड़नदी) | है कि उनके प्रधान शिष्य देवेन्द्रमुनिजी म. आज श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्य पद पर सुशोभित हैं, जो गुरुदेवश्री के
परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के दर्शनों का P3 गौरव में अभिवृद्धि कर रहे हैं। गुरुदेवश्री का महान व्यक्तित्व हम
सौभाग्य सन् १९६८ को बम्बई में हुआ, जहाँ पर परम विदुषी PHY सभी के लिए सदा-सदा प्रेरणा देता रहेगा, यही उनके प्रति हार्दिक साध्वीरल श्री प्रमोदसुधा जी म. वहाँ पर विराज रही थीं। 96949 श्रद्धांजलि। मैं उनका बाल सखा भी आध्यात्मिक विकास करता । प्रमोदसुधा जी म. ने अपने प्रवचन में कहा, श्रद्धेय उपाध्यायश्री रहूँ, यही चरणों में भावभीनी प्रार्थना और वंदना है।
पुष्कर मुनिजी म. आगम और दर्शन के गंभीर ज्ञाता हैं, ये निर्भीक
और स्पष्ट वक्ता हैं। एक दिन के दर्शन में ही हमने पाया कि । संगठन के प्रबल समर्थक थे गुरुदेव ) गुरुदेवश्री का अध्ययन बहुत ही गंभीर है। विचार चर्चा में
गुरुदेवश्री के आगमिक ज्ञान को देखकर हमारा हृदय अनंत आस्था -इन्द्रचन्द मेहता से नत हो गया। जब महासतीजी के मुखारबिन्द से यह बात सुनी
तो मैंने निश्चय किया कि अगला वर्षावास गुरुदेवश्री का घोड़नदी सन् १९७८ की बात है, मद्रास संघ के अहोभाग्य से परम
में कराया जाए। संघ से विचार-विमर्श कर हमने अपनी प्रार्थना श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का पदार्पण
जोरदार शब्दों में रखी। हुआ। मारवाड़ के सुदूर अंचल से चलकर गुरुदेवश्री मद्रास पधारे। हम सभी के हृदय कमल खिल उठे और मन मयूर नाचने लगे। गुरुदेवश्री ने बम्बई से पूना की ओर विहार किया। यद्यपि
हमारा हृदय आनंद से झूमने लगा। प्रस्तुत वर्षावास में हमने देखा बम्बई के घाटकोपर और कई संघों का अत्यधिक आग्रह चल रहा 903 दूर-दूर से बरसाती नदी की तरह जनता प्रवचन में उमड़ती थी, था। सभी संघ चाहते थे कि ऐसे महाज्ञानी गुरुओं का वर्षावास हमें
उपाध्यायश्री के प्रवचनों में गजब का प्रवाह था। राजस्थान की प्राप्त हो किन्तु घोड़नदी संघ का प्रबल पुण्य का उदय था कि कहावतें, राजस्थान की लोककथाएँ आदि का जब भी वे अपने । गुरुदेवश्री ने पूना के उपनगर में ही हमें चातुर्मास की स्वीकृति प्रवचनों में प्रयोग करते तो श्रोतागण में हँसी की फव्वारे छूट पड़ते।। प्रदान कर दी। हमें स्वीकृति मिली कि कुछ क्षणों के बाद घाटकोपर साथ ही उनके तात्त्विक और सारगर्भित प्रवचनों में आगम के गुरू (बम्बई) संघ भी वहाँ पहुँच गया, जिस संघ में जयंतीलाल जी गम्भीर रहस्यों को सुनते तो गुरुदेवश्री की अपार ज्ञानराशि के प्रति । मसकरिया आदि भी थे, जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि गुरुदेवश्री ने
सभी को सात्त्विक गौरव होने लगता। उपाध्यायश्री के प्रति । घोड़नदी का वर्षावास स्वीकार कर लिया है तो वे एकदम निराश ४० जनमानस में अनंत-अनंत आस्थाएँ जनमानस में उमड़ रही थीं। हो गए। उन्होंने घोड़नदी संघ को प्रार्थना की, आपका संघ छोटा है
___गुरुदेवश्री का हमारी जन्मभूमि सादड़ी पर असीम उपकार है, जबकि घाटकोपर में सात-आठ हजार घर स्थानकवासी समाज के
गरुदेवश्री के सादडी में सन १९२६. १९५१. १९६१ और १९९० हैं। यदि वहाँ पर चातुर्मास होता है तो कितनों को लाभ मिलेगा, प ल में चार चातुर्मास हुए और सभी चातुर्मास पूर्ण यशस्वी रहे, । इस दृष्टि से घाटकोपर संघ अनेकों बार घोड़नदी आया, हमने यही
8 गुरुदेवश्री की प्रेरणा से सादड़ी में संत सम्मेलन हुआ और श्रमण उन्हें निवेदन किया कि, हमारे को यह चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ तक संघ का निर्माण हुआ। गुरुदेवश्री संगठन के प्रबल समर्थक थे, है, हम इसे अब आपको कैसे दे सकते हैं ?
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
गुरुदेवश्री का यह वर्षावास पूर्ण ऐतिहासिक वर्षावास था, जिस वर्षावास में प्रवचन में धीरे-धीरे संख्या बढ़ती चली गई। आसोज और कार्तिक महीने में भी प्रवचन में जनता श्रावण और भाद्र महीने की तरह रही तथा धर्म ध्यान भी अपूर्व रहा। मैं एक जिज्ञासु श्रावक रहा और स्वाध्याय की रुचि बाल्यकाल से ही मेरे में रही, जिसके कारण मैंने अपनी शंकाएँ गुरुदेव श्री के चरणों में रखने का उपक्रम बनाया। लगभग उस वर्षावास में मैंने गुरुदेवश्री से तीन हजार प्रश्न किए और मुझे लिखते हुए अपार आह्लाद है कि सभी टेढ़े-मेढ़े प्रश्नों का उत्तर आगम प्रमाण से सदा मिलता रहा। मैं गुरुदेवश्री के आगमिक ज्ञान को देखकर स्तंभित था ।
मेरे पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा रही। प्रायः प्रतिवर्ष गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य मिलता रहा। गुरुदेवश्री सिद्ध जपयोगी थे, नियमित समय पर उनकी तपः साधना निरन्तर चलती रहती थी। वर्षावास में ऐसे कई प्रसंग भी आए और उसके पश्चात् भी किन्तु गुरुदेवश्री जप साधना का समय होते ही जप साधना में विराजते और उनकी जपःसाधना के दिव्य प्रभाव को मैं कई बार देख चुका ।
मैं जीवन के ऊषाकाल से ही संत और साध्वियों के निकट संपर्क में रहा हूँ और मैंने बहुत ही निकटता से संत-साध्वियों को देखने का प्रयास भी किया है पर उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री की एक निराली विशेषता रही। उनका ज्ञान बहुत ही गंभीर था, उनकी प्ररूपणा विशुद्ध प्ररूपणा थी। वे आगम विरुद्ध कोई भी बात स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं थे और अत्यन्त जागरूक आत्मा थी। परन्तु मेरा दुर्भाग्य रहा कि गुरुदेवश्री के अंतिम वर्षावास में भी विशेष कारण से दर्शन नहीं कर सका और चद्दर समारोह पर और गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समय भी परिस्थितिवश उपस्थित नहीं हो सका, जिसका मेरे मन में बहुत ही विचार है।
मैं गुरुदेवश्री के चरणों में अपनी भावभीनी श्रद्धा समर्पित करता हूँ, उनकी असीम कृपा जैसी मेरे पर रही, सदा बनी रहेगी। वे महान् थे, उनकी महानता हमें भी सदा प्राप्त हो यही हार्दिक श्रद्धार्थना
गुरुदेव साहस के रूप थे
-आजाद बरडिया, (उदयपुर)
इस विराट् विश्व में समय-समय पर ऐसे विश्व विश्रुत संत होते रहे हैं, जिनका नाम प्रभात के पुण्य पलों में लिया जाता है। उनका नाम स्मरण आते ही हृदय श्रद्धा से नत हो उठता है। श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि म ऐसे ही संत रत्न थे। शेक्सपियर के शब्दों में कहा जा सकता है, उनके जीवन का सदैव यही ध्येय था कि नाम से नहीं किन्तु व्यक्ति का महत्व काम से है।
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आत्मा का उद्धार करना ही जीवन की सफलता का मूल लक्ष्य है। और वे उस लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते रहे।
मेरा उनसे प्रथम परिचय सन् १९९३ में मार्च महीने में जब गुरुदेवश्री उदयपुर आए तभी हुआ पहले ही गुरुदेवश्री उदयपुर अनेकों बार पधारे। वर्षावास भी हुए किन्तु में उस समय उदयपुर में नहीं था, बाहर रहने के कारण गुरुदेवश्री के दर्शनों का सौभाग्य इसके पूर्व मुझे नहीं हुआ था में पहली बार ही उनके सम्पर्क में आया, उनके वचनामृत का पान कर और उनकी संत प्रकृति को निहारकर मैं उनका भक्त बन गया। जो भी संतप्त हृदय उनके चरणों में पहुँचता वे उन्हें सन्मार्ग का उपदेश देते जैसे अशोकवाटिका में पहुँचने पर व्यक्ति शोक से मुक्त हो जाता है वैसे ही गुरु चरणों में पहुँचकर व्यक्ति शोक से मुक्त हो जाता है।
मैंने गुरुदेवश्री में अपार सद्गुणों के दर्शन किए, वृद्धावस्था होने पर भी वे साहस के रूप थे। उनमें सरलता थी, सहज स्नेह था और उस सहज स्नेह के कारण मैं उनके प्रति अनंत आस्थावान बन गया। लगभग एक महीने का परिचय हमारे जीवन का महान् सम्बल बन गया। गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं पर उनका जीवन पावन प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। यही उस महागुरु के चरणों में श्रद्धा-सुमन।
गुरुवर प्रतिभासम्पन्न विभूति थे
-आजाद सोढ़ा (उदयपुर)
जब सूर्य अवतरित होता है तो प्रकृति नटी मुस्कराने लगती है, चम्पा की सलोनी टहनी पर जब फूल खिलते हैं तो सारा वातावरण सुगन्ध से महक उठता है। जब आकाश में काले-कजराले बादल मंडराते हैं तो मयूर नृत्य करने लगते हैं, जब बसन्त के आगमन पर आम्र-मंजरी लहलहाने लगती है तो कोकिला का कंचन स्वर मुखरित हो उठता है, इसी प्रकार जब किसी महापुरुष का स्मरण आता है तो मन प्रसन्नता से तरंगित हो उठता है।
परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. एक ऐसी ही प्रतिभासंपन्न विभूति थीं, वे लाखों में एक थे, उनमें जो चरित्रनिष्ठा, संयम के प्रति आस्था, मानस की कोमलता और भावों की भव्यता को देखकर सहज ही हृदय श्रद्धा से नत हो जाता था। उनके जीवन का कण-कण मधुरता से ओत-प्रोत था, उनकी वाणी मधुर थी, उनका चेहरा मधुर था, उनकी आँखों से मधुरता टपकती थी और उनका हृदय मधुर था
उनकी वाणी के पीछे विलास नहीं था किन्तु विचार थे और विचारों के पीछे भाव-भीनी भावना मुखरित थी । वक्तृत्व कला के वे धनी थे, जब उनकी गंभीर गर्जना होती तो श्रोतागण उसे श्रवण कर मंत्रमुग्ध हो जाते थे, गुरुदेवश्री के प्रवचनों में अपूर्व विशेषता
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । थी, वे गंभीर से गंभीर विषय को सरल रूप में प्रस्तुत करते थे, इन वर्षों में मैं गुरुदेवश्री के बहुत ही निकट संपर्क में आया D जिसे सुनकर श्रोता सहज रूप से हृदयंगम कर सकें।
और गुरुदेवश्री की सहज सरलता, सौम्यता प्रभृति सदगुणों से मेरा १० 200 गुरुदेवश्री के दर्शन मैंने बहुत ही लघुवय में किए थे क्योंकि
मन अत्यधिक आल्हादित हुआ, आज जहाँ कुछ स्थलों पर बड़े संत - मेरे पूज्य भाई महाराज जो वर्तमान में श्रमणसंघ के आचार्य पद से ।
दूसरों से बोलना भी पसन्द नहीं करते और कुछ स्थलों पर मैंने यह समलंकृत हैं, वे श्री देवेन्द्रमुनिजी म. उनके श्रीचरणों में ही दीक्षित
भी अनुभव किया कि सामने वाला व्यक्ति उनकी सम्प्रदाय का नहीं हुए, हमारे परिवार के अनेक सदस्य गुरुदेवश्री के चरणों में दीक्षित है तो वे न तो उनसे वार्तालाप करना पसन्द करते हैं और न उनके हुए, इसलिए मैं पिताजी के साथ गुरुदेवश्री के दर्शनों के लिये जाता
घर का आहार-पानी ही ग्रहण करते हैं, यहाँ तक कि मकान में ॐ रहा पर व्यवसाय में व्यस्त होने के कारण बहुत कम समय निकल प्रवेश करके भी उल्टे पैरों लौट जाते हैं कि यह हमारी सम्प्रदाय का
पाता। सन् १९९३ का मार्च महीना गुरुदेवश्री उदयपुर पधारे, नहीं है तो दूसरी ओर गुरुदेवश्री सहज रूप से सभी से मिलते थे 28.2 उनके दर्शनों का सौभाग्य मिला, चद्दर समारोह होने के कारण हमें । और उनका करुणापूर्ण हृदय किसी भी दुःखी और ददी को देखकर Papभी अपूर्व लाभ मिला। उदयपुर के इतिहास में यह पहली घटना थी दया से द्रवित हो जाता था। SORD कि लाखों लोगों ने इस समारोह में भारत के विविध अंचलों से
गुरुदेवश्री कितने सौभाग्यशाली रहे कि उनका अंतिम समय DD आकर भाग लिया।
उदयपुर में बीता कहीं कुछ कल्पना नहीं थी। चद्दर समारोह के उदयपुर में एक अविस्मरणीय प्रसंग बना, इस चद्दर समारोह पावन प्रसंग पर गुरुदेवश्री का उदयपुर में आगमन हुआ, यह
को देखकर सभी स्तंभित थे। जैन और अजैन सभी सोचने लगे कि मंगलमय आगमन सभी के लिए प्रेरणा स्रोत रहा पर गुरुदेवश्री का 20 कितनी निष्ठा है जैन संतों के प्रति निष्ठा की भव्य भावनाएँ चारों चद्दर समारोह के बाद स्वास्थ्य बिगड़ गया और हम सभी को 2 006 ओर प्रसारित थीं। गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे परिवार पर। छोड़कर वे आत्मभाव में इतने तल्लीन हो गए, उन्होंने हँसते-हँसते रही।
समाधिमरण को प्राप्त किया। वे वस्तुतः शिखर पुरुष थे, जीवन गुरुदेवश्री का समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। आज भौतिक देह ।
भर आनंदित रहे और अंतिम क्षणों में भी उनका जीवन आनंद 06 से गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनका यशः शरीर विद्यमान
और उल्लास से परिपूर्ण रहा, मैं श्रद्धेय गुरुदेवश्री के चरणों में 385 है और वे सदा ही हमारे लिए ज्योति स्तम्भ की तरह हमें मार्गदर्शन
अपने एवं अपने परिवार की ओर से श्रद्धा सुमन समर्पित करता देते रहेंगे। मैं अपनी ओर से मातेश्वरी राजबाई की ओर से और
हुआ आनंद की अनुभूति कर रहा हूँ। उनका वरदहस्त हमारे लिए परिवार के सदस्यों की ओर से गुरु चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित
सदा प्रेरणा का पावन स्रोत रहेगा। करता हूँ।
गुरुदेव की महिमा अपरम्पार BD प्रेरणा के पावन स्रोत
-शोभालाल दोलावत, पदराड़ा (विरार) -प्रकाश मोतीलाल बरडिया, (उदयपुर)
हे मेरे आराध्य गुरुदेव मैं आपको किन शब्दों में श्रद्धांजलि परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के जीवन में
जीवन में अर्पित करूँ, यह समझ में नहीं आ रहा है, आपके गुण तो अनन्त
आपत करू, यह समझ मनहा आ रहा है, आपक क्षमा, दया, नम्रता, कर्मठता, साहस, स्फूर्ति, दूरदर्शिता, विवेक,
इस. स्फर्ति दरदर्शिता. विवेक./हैं, उन अनंत गुणों को थोड़े शब्दों में पिरोना बहुत ही कठिन है, DO निर्भीकता, विनोदप्रियता, भावुकता आदि न जाने कितने सद्गुण ।
इसीलिए तो कबीर ने लिखा था कि सम्पूर्ण पृथ्वी का कागज बनाया भरे पड़े थे। पूज्य गुरुदेवश्री के दर्शन मैंने कब किए, यह सही
जाये और सम्पूर्ण वृक्षों की कलम बनाई जाए और सभी समुद्रों की तारीख तो मुझे स्मरण नहीं है। मेरे भाई म. जो इस समय स्याही बनाई जाए तो भी सद्गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं। श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी हैं। गुरुदेवश्री के
हे गुरुदेव आपकी महिमा और गरिमा निराली थी। बाल्यकाल से ही दर्शन हेतु जब मुझे मेरे पिताश्री ले गए तो मैं गुरुदेवश्री की
आपकी कृपा दृष्टि मुझे प्राप्त हुई थी। समय-समय पर आपने मुझे महानता को देखकर नत हो गया। गुरुदेवश्री इतने महान संत होकर । सम्बल प्रदान किया। भी मेरे से बहुत ही प्यार भरे शब्दों में वार्तालाप की उनकी अपार गुरुदेवश्री के अनेक संस्मरण मेरे स्मृति पटल पर चमक रहे कृपा दृष्टि को पाकर मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव करने
हैं। सन् १९९० का वर्षावास गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी लगा। गुरुदेवश्री के सन् १९८० के उदयपुर वर्षावास में अनेकों म. का सादड़ी में था। मैं गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ पहुँचा, उस दिन बार मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुँचा, उनके प्रवचनों को भी सुना। गुरुदेवश्री एकाकी ही विराजे हुए थे, मैं गुरुदेवश्री के चरणों में बैठ ज्यों-ज्यों मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुँचता रहा त्यों-त्यों मेरे ।
गया। वार्तालाप के प्रसंग में गुरुदेवश्री ने कहा कि शोभालाल अब अन्तर्मानस में गुरुदेवश्री के प्रति सहज निष्ठाएँ जागृत होती रहीं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि कहीं एकान्त शांत स्थान में बैठकर खूब
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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साधना करूँ। व्याख्यान आदि तो वर्षों तक देता ही रहा हूँ क्योंकि
गुरुदेव सिद्ध जपयोगी थे अब मेरा बहुत लम्बा समय नहीं। दो तीन वर्ष ही तो निकालने हैं, इतने समय में जितनी अधिक साधना हो जाए, उतना अच्छा है।
उaparda
-वीरेन्द्र डांगी (उदयपुर) दो-तीन वर्ष की बात सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए, मैंने पुनः निवेदन किया कि भगवन् ये फरमाया आपने! गुरुदेवश्री ने संतों का जीवन एक आदर्श जीवन होता है। उनके पवित्र ODS कहा, अच्छा-अच्छा कोई बात नहीं, तुम घबराओ मत और सान्निध्य को पाकर अपवित्र भी पवित्र हो जाता है। उनके दर्शन SODE आश्वासन देकर अपने लेखन के कार्य में व्यस्त हो गए।
कर जीवन धन्य हो उठता है और उनकी सेवा कर हृदय पवित्र हो D RD गुरुदेवश्री को यह अनुभव हो गया था कि मेरा कितना समय
जाता है। उनका स्मरण मात्र ही जीवन का कायाकल्प कर देता है। अवशेष है किन्तु आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी म. को और भक्तजनों को
परम श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. से प्रत्यक्षीकरण कष्ट न हो इसलिए वे जानते हुए भी मौन हो जाते थे और अब मैं
का मुझे उदयपुर में सौभाग्य मिला। प्रथम दर्शन ने ही मेरे मन को सोचता हूँ कि गुरुदेवश्री ने जो फरमाया था, वही सत्य निकला।
प्रभावित किया। मुझे लगा कि गुरुदेवश्री तो मेरे चिरपरिचित हैं,000 तीन वर्ष से कम ही समय गुरुदेवश्री विराजे। धन्य हैं मेरे
। उनके मधुर व्यवहार ने मेरे को चुम्बक की तरह खींच लिया। पहले गुरुदेव, जिनका जीवन साधनामय, आराधनामय रहा जिन्होंने
तो मैं सोचता रहा कि गुरुदेवश्री बहुत बड़े संत हैं, मेरे से बोलना अपने जीवन को अप्रमत्त रहकर सदा निखारा ऐसे महामहिम
भी पसन्द नहीं करेंगे, पर जब मैं उनके निकट संपर्क में पहुँचा तो गुरुदेव को पाकर धन्य-धन्य हो उठा। गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी
मैंने उसके विपरीत उन्हें पाया। उन्होंने स्नेह और सद्भावना के श्रद्धार्चना।
साथ मेरे से वार्तालाप किया और मुझे प्रेरणा दी कि, तू जाप कर, DOESD. जाप करने से तुझे मानसिक शांति का अनुभव होगा। गुरुदेवश्री ने
मुझे जाप करने के लिए प्रेरणा दी और मैंने जाप भी किया किन्तु महान उपकारी तेजस्वी सन्त
पूर्ण जाप नहीं कर सका पर जितना भी जाप किया, मुझे अपार dea
आल्हाद की अनुभूति हुई। -श्याम जी बर्डिया, (उदयपुर)
गुरुदेवश्री सिद्ध जपयोगी थे, किसी व्यक्ति के चेहरे को देखकर अगरबत्ती जब जलती है तो चारों ओर मधुर सुवास फैल ही वे उसके अन्तर् में रही हुई व्याधि तथा जीवन की समस्याओं 220 जाती है और अंत तक अगरबत्ती सुवास देती है। श्रद्धेय को समझ जाते थे और उनका दयालु हृदय एकदम द्रवित हो उठता उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. अपने जीवन के प्रारंभ से अंत तक था। गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में आकर मेरी श्रद्धा उनके प्रति अपनी आत्म-साधना और समाज अभ्युदय के कार्यों में संलग्न रहे । दिनों-दिन बढ़ती चली गई। मेग पर
दिनों-दिन बढ़ती चली गई। मेरा परम सौभाग्य रहा कि आचार्यश्री उनकी सुवास सर्वत्र परिव्याप्त है, उन्होंने स्वयं भी साधना की और देवेन्द्र मनिजी म के चार समारोह पर और गमटेवश्री के संधारे अपने पावन प्रवचनों से जनमंगल के हजारों कार्य किए किन्तु के समय सेवा करने का अवसर मिला, उस अलौकिक महापुरुष के उनका जीवन कमल की तरह निर्लिप्त था, कहीं पर भी आसक्ति
साक्षात्कार से मेरे मन और आत्मा में परम शक्ति-संतोष प्राप्त हुआ उनके जीवन में नहीं थी।
है और उस महागुरु के प्रति गहरी श्रद्धा उभर कर आ रही है, वह जीवन ही क्या है जो संसार को प्रेम प्रदान न करे, सुमन गुरुदेवों की स्मृति को चिरस्थायी रखने के उद्देश्य से स्मृति ग्रन्थ का 3RDOS खिलने पर सौरभ फैलती है, वैसे ही जीवन से स्नेह और समायोजन सुन्दर ही नहीं अति सुन्दर है। उस महागुरु को मेरे सद्भावना की सुगन्ध प्रसारित होती है। वे सफल, गंभीर विचारक अनेकों भाव प्रणाम और उनका मंगलमय जीवन सदा मेरे स्मृति
और एकता के प्रबल पक्षधर थे। वे जन-जन के अंदर प्रेम का पटल पर चमकता रहे और मैं अपने जीवन को उनके दिव्य संचार करना चाहते थे, शांति की पावन गंगा बहाना चाहते थे, आलोक से मंडित कर सकूँ, यही उनके श्रीचरणों में श्रद्धासुमन! उनकी वात्सल्य गंगा में जिसने भी अवगाहन किया वह सदा सर्वदा समभाव का उपासक बन गया। मैं आज देख रहा हूँ कि भारत में चारों ओर अराजकता है।
दिव्य और भव्य जीवन था उनका कुटिल राजनीतिज्ञों ने समाज और परिवार को बिखेरने का प्रयास किया है, ऐसे समय में संतगण ही स्नेह और सद्भावना का संचार
-खुमानसिंह कागरेचा, (सिंघाड़ा) कर सकते हैं। वे स्वयं अमर हैं और उनका ऋण सदा समाज पर भारतीय संस्कृति में जीवन के बाह्य और आन्तरिक दोनों पक्षों DSDO रहेगा, मैं उस महान उपकारी तेजस्वी संत के चरणों में श्रद्धाशील पर चिन्तन है, इस संस्कृति की यह अपूर्व विशेषता रही है कि हृदय से श्रद्धा भावना समर्पित करता हूँ।
उसने दोनों पक्षों के सामंजस्य पर बल दिया है, जीवन के दोनों ही
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । पक्ष पूर्णरूप से यथार्थ हैं, किसी एक की भी उपेक्षा करने से जीवन श्रद्धेय गुरुदेवश्री उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. गुणों के में पूर्णता नहीं आती। वास्तव में यह हमारी संस्कृति की दिव्यता, आगार थे उनमें धैर्य, सरलता, सादगी, स्नेह और सद्भावना का भव्यता, अन्तरमुखता और पूर्णता के तत्व हैं, जो संतों की ही देन । प्राधान्य था, उनका व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली था, गुरुदेवश्री
है, उन महान त्यागी संतों ने भोगविलासमय जीवन से ऊपर उठकर । भारत के विविध अंचलों में जहाँ भी पधारे, वहाँ अपना अपूर्व 20000
त्यागमय जीवन जीया, जिन्होंने गहन चिन्तन, मनन और प्रभाव छोड़ गए। आज भी गुरुदेवश्री का नाम स्मरण कर हजारों निदिध्यासन किया और अपने अनुभवों के आलोक में जीवन जीने लोग कार्य प्रारंभ करते हैं और सफलता देवी उनके चरण चूमती की प्रेरणा दी। श्रद्धेय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि म, का बाह्य व्यक्तित्व है। गुरुदेवश्री का जीवन दिव्य और भव्य रहा और वे महान् जितना लुभावना था, उससे भी अधिक उनका आन्तरिक व्यक्तित्व पुण्यशाली थे, जो चद्दर समारोह होने के पश्चात् उन्होंने चौवीहार चित्ताकर्षक था।
संथारा कर स्वर्ग की राह ली। गुरुदेवश्री के संबंध में जितना लिखा गुरुदेवश्री की असीम कृपा हमारे प्रान्त पर रही, हमारा प्रान्त
जाए उतना ही कम है, वे ध्यानयोगी, ज्ञानयोगी और अध्यात्मयोगी अरावली की विकट पहाड़ियों से घिरा हुआ है। आज तो सड़कें बन
थे। श्रमणसंघ के वे वरिष्ठ उपाध्याय थे, उनके श्रीचरणों में मैं चुकी हैं, उस समय सड़कों का अभाव था। पगडंडियों के रास्ते श्रद्धा से नत हूँ। उनका मंगलमय जीवन हमारे लिए सदा प्रेरणा का कंटकाकीर्ण मार्ग को पार करना बहुत ही कठिन होता है। अरावली स्रोत रहा है। मैं अपनी ओर से, अपने परिवार की ओर से अपनी की पहाड़ियों में से निर्झर बहते हैं, कलकल छलछल बहते हुए श्रद्धार्चना समर्पित करता हूँ। नदियों-नालों को पार करते हुए मेवाड़ से मारवाड़ हमारे गुरुजन पधारते और हमें प्रतिबोध देते, गुरुदेवों की असीम कृपा से ही [ आलोक स्तम्भ गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी ) हमारे जंगली जीवन में सभ्यता के अंकुर प्रस्फुटित हुए। गुरुदेवश्री की विमलवाणी ने वहाँ के जन-जीवन में आमूलचूल परिवर्तन
-रोशनलाल मेहता एडवोकेट किया, उन्होंने बताया कि तुम जंगलों के रोज नहीं हो, तुम मानव
(मंत्री श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर) बने हो, तन से मानव बनना ही पर्याप्त नहीं, जब तक तुम्हारे
भारत में संतों की पावन परम्परा न होती तो आज भारतीयों जीवन में सद्संस्कार पल्लवित नहीं होंगे तब तक धर्म के अंकुर
के पास अध्यात्म विद्या का अभाव होता, अध्यात्म विद्या के कारण प्रस्फुटित नहीं होंगे वहाँ तक तुम सच्चे मानव नहीं बन सकते। तुम
ही तो भारत विश्व का गुरु कहलाया है। अन्य पाश्चात्य देश कहलाने के लिए जैन हो पर जैन आचार संहिता का जब तक
भौतिक दृष्टि से भले ही अपना महत्व रखते हों किन्तु जहाँ तक पालन न करो तब तक जैन नहीं बन सकते। गुरुदेवश्री के उपदेशों
अदृश्य शक्ति के संबंध में चिन्तन का प्रश्न है, दर्शन की गंभीर गुरु से हमारे प्रान्त में अभिनव चेतना का संचार हुआ।
ग्रन्थियों को सुलझाने का प्रश्न है और आत्मदृष्टि का प्रश्न है, वहाँ गुरुदेवश्री महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. के आद्य आचार्यश्री वे भारतीय चिन्तन के सामने टिक नहीं पाते उनके कदम लड़खड़ाने अमरसिंह जी म. के संत और सतियों का हमारे प्रान्त में पदार्पण लगते हैं, संत भारतीय संस्कृति के सार्वभौम सत्य को साक्षात् करने होता रहा और उन्हीं की असीम कृपा से हमारे में जैन धर्म के प्रति वाले हैं, वे यहाँ की संस्कृति के पावन प्रतीक हैं। निष्ठा जागृत हुई। महास्थविर गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. और
संतों की परम्परा के प्रति हम सदा नत रहे हैं, उनकी परार्थ उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. की असीम कृपा मेरे पर
चिन्तनात्मक सर-सरिता में हम सदा अवगाहन करते रहे हैं और रही, वे सच्चे जौहरी थे, उनके पैनी दृष्टि हमारे पर गिरी और
आत्म-स्फूर्त पवित्र प्रेरणा भी प्राप्त करते रहे हैं और आज भी उन्होंने पावन प्रेरणा दी कि तुम्हारे जीवन में जो व्यसन हैं, उन
हमारा संत संस्कृति के प्रति श्रद्धा से हृदय नत है। जब कभी भी व्यसनों से मुक्त बनो, रात्रि-भोजन का तथा कंदमूल का त्याग करो।
पावन जीवन का स्मरण आता है, तब श्रद्धेय सद्गुरुवर्य गुरुदेवश्री की पावन प्रेरणा से हमारे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. की पावन पुण्य स्मृति उजागर हो आया और अपने नन्हें से ग्राम में हमने धर्मस्थानक भी बनाया तथा
जाती है। गुरुदेवश्री के मैंने कब दर्शन किए, यह तो पूर्ण स्मरण हमारे प्रान्त के सभी ग्रामों में विशाल नव्य-भव्य स्थानक बन गए।
नहीं है पर यह यथार्थ सत्य है कि मेरे पूज्य पिताश्री अर्जुन लाल स्वाध्याय संघ की स्थापना हुई और हमारे प्रान्त में से स्वाध्यायी
जी सा. मेहता, महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. और उपाध्यायश्री बन्धु पर्युषण प्रवचनों में पहुँचते हैं।
पुष्कर मुनि जी म. के अनन्यतम श्रावक थे, उनकी सर्मपण भावना हमारे प्रान्त में गुरुदेवश्री, परम विदुषी साध्वीरल श्री जन-जन के लिए प्रेरणा स्रोत थी। पूज्य पिताश्री ने ही महास्थविर शीलकुंवर जी म., साध्वी सज्जनकुंवर जी म., महासतीश्री कौशल्या श्री ताराचंद्र जी म. से मुझे सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान करवाई। गुरुदेवों
जी म., महासती श्री कुसुमवती जी म. तथा महासतीश्री पुष्पवती की भी हमारे परिवार पर असीम कृपा रही, उस कृपा का वर्णन DD जी म. के चातुर्मास भी हुए।
लेखनी के द्वारा नहीं किया जा सकता।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
उदयपुर में श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की स्थापना हुई और मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ कि प्रस्तुत ग्रंथालय की सेवा का मुझे अवसर मिला, जब से यह संस्था स्थापित हुई तब से मैं इस संस्था के साथ जुड़ा हुआ हूँ। मुझे लिखते हुए अपार आल्हाद है कि श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय ने साहित्यिक क्षेत्र में जो एक कीर्तिमान स्थापित किया है, उससे हमारा सिर गौरवान्वित है।
श्रद्धेच सद्गुरुवर्य के और आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी म. के साहित्य को प्रकाशन करने का हमारी संस्था को श्रेय मिला। गुरुदेवश्री का और आचार्यश्री का साहित्य बहुत ही अनूठा और अद्भुत है चाहे साक्षर हो चाहे निरक्षर, सभी के लिए साहित्य उपयोगी है। हमने कथा साहित्य के अन्तर्गत गुरुदेवश्री के द्वारा लिखित हजारों कथाओं को जैन कथाएँ सिरीज माला के रूप में प्रकाशित किया, जिसके १११ भाग प्रकाशित किए और अनेक भागों के दुबारा संस्करण भी निकल चुके और अनुवाद भी हो चुके, यह हमारे कथा साहित्य की लोकप्रियता का ज्वलन्त प्रमाण है। हमने दार्शनिक, धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना को उजागर करने वाला उत्कृष्ट साहित्य भी प्रकाशित किया, जिस साहित्य ने विद्वद जगत को आकर्षित किया है और भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने उस साहित्य की मुक्त कंठ से सराहना भी की है।
गुरुदेवश्री जीवनशिल्पी थे, उन्होंने अपने शिष्य / शिष्याओं को उच्चतम अध्ययन करवाया। आज हमें अत्यन्त गौरव है कि आज श्रमणसंघ के तृतीय पट्ट पर गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य देवेन्द्रमुनि जी म. आसीन हैं। श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर महामहिम आचार्यसम्राट श्री आनंदऋषि जी म. ने और श्रमणसंघ ने ऐसे रत्न को चुना जो शान्त, दान्त और गंभीर है और जिनका अध्ययन विशाल है। पूना संत सम्मेलन सन् १९८७ में हुआ, उस सम्मेलन में श्री देवेन्द्रमुनि जी म. को उपाचार्य पद प्रदान किया गया। महामहिम आचार्य सम्राट् श्री आनंद ऋषि म. के स्वर्गस्थ होने पर सन् 1992 में अक्षय तृतीया के सुनहरे अवसर पर सोजत सिटी में श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को आचार्यपद प्रदान किया गया और समयाभाव के कारण उस समय चद्दर समारोह नहीं हो सका। उदयपुर संघ की यह प्रयत्न भावना रही कि उदयपुर में जन्मे हुए श्री देवेन्द्रमुनिजी म. का आचार्य पद चादर समारोह उदयपुर में हो इसके लिए प्रार्थना करने हेतु हमारा शिष्टमण्डल गढ़सिवाना पहुँचा और हमने भक्तिभाव से विभोर होकर गुरुदेवश्री से निवेदन किया कि यह पावन प्रसंग उदयपुर को मिलना चाहिए। पहले आपश्री अपने ध्यान में देख लीजिए ।
उदयपुर चादर समारोह पूर्ण यशस्वी रूप से संपन्न होगा न? एक क्षण गुरुदेवश्री ने चिन्तन किया और कहा कि आप लोगों को पूर्ण रूप से यश मिलेगा। दूसरे दिल्ली आदि दूर के क्षेत्र में मेरा पहुँचना संभव नहीं होगा पर उदयपुर तो सुखे समाधे पहुँच जाऊँगा। गुरुदेवश्री के मंगलमय की बात सुनकर हमारा हृदय
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आनंद-विभोर हो उठा और हमें पूर्ण विश्वास हो गया कि हमें पूर्ण सफलता मिलेगी और हमने प्रयत्न प्रारंभ किया। सभी संत भगवंतों की कृपा से और कफ्रिस के सहयोग से चद्दर समारोह के लिए उदयपुर की स्वीकृति मिली और उदयपुर की गरिमा के अनुकूल यशस्वी रूप से चादर समारोह संपन्न हुआ।
जब गुरुदेवश्री उदयपुर पधारे मन मस्तिष्क में कहीं पर भी यह कल्पना नहीं थी कि इतने अस्वस्थ हो जायेंगे। सभी यही सोच रहे थे कि गुरुदेवश्री आचार्यश्री के साथ ही पंजाब, हरियाणा, उ. प्र. की यात्रा करेंगे। इनकी विमल छत्रछाया में आचार्यश्री का यश दिदिगन्त में फैलेगा। चद्दर समारोह के पश्चात् गुरुदेवश्री अस्वस्थ हो गए और इतने अस्वस्थ हो गए कि कल्पना का कमनीय महल एकदम ढह गया। गुरुदेवश्री ने कहा, मेरा अंतिम समय आ गया है और मुझे संथारा करा दो गुरुदेवश्री की उत्कृष्ट भावना देखकर आचार्यश्री ने संधारा कराया और वह संथारा भी चौबीहार, ४२ घण्टे का शानदार संथारा रहा। लाखों लोगों ने गुरुदेवश्री के दर्शन किए और हमारे परम आराध्य गुरुदेव हम सभी को बिलखता छोड़कर इस संसार से विदा हो गए।
वे जीवन भर यशस्वी रूप से जीये और यशस्वी रूप से ही उन्होंने मृत्यु को वरण किया। वीर सेनानी की तरह वे मृत्यु से लोहा लेते रहे। उनके चेहरे पर अपूर्व सौम्यता और शांति को देखकर सभी विस्मित थे. इसे कहते हैं साधना, इसे कहते हैं त्याग और वैराग्यमय जीवन इसे कहते हैं सच्चा संत जीवन गुरुदेवश्री के स्वर्गवास होने के पश्चात् भी उनके चेहरे पर यही दिव्यता, वही भव्यता थी कहीं पर ऐसा नहीं लगता था कि गुरुदेवश्री के तन में। से प्राण निकल चुके हैं। अंतिम समय में भी ये पद्मासन से आसीन किये गए क्योंकि उन्हें पद्मासन सिद्ध था। प्रतिदिन गुरुदेवश्री पद्मासन से पाँच-छः घण्टा बैठते थे। गजब की थी उनमें साधना के प्रति निष्ठा ।
आज गुरुदेवश्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनका मंगलमय आशीर्वाद हमारे साथ है, उनके द्वारा जो अमर संदेश हमें मिले हैं, वे सदा हमारे जीवन को आलोक करते रहेंगे। मैं भक्ति भावना से विभोर होकर गुरुदेवश्री के चरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित करता हूँ। हे गुरुदेव ! हम आपके हैं, सदा आपके रहेंगे और आपके बताए हुए मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहेंगे। आपकी पावन प्रेरणा हमारे लिए आलोकस्तंभ की तरह पथ-प्रदर्शन करती रहेगी।
महान मेधावी तेजस्वी संतरत्न
सहरीलाल सिंघवी (नान्देशमा)
महापुरुषों का जीवन ज्योति स्तम्भ की तरह होता है, ज्योति स्तम्भ भूले भटके राहियों का पथ प्रदर्शन करता है। वह कहता है। कि आओ मेरे पास तुम्हें मैं सही मार्ग बताऊँगा । गुरुदेवश्री का
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीवन भी ज्योति स्तम्भ की तरह ही प्रभावशाली रहा जो भी जीवन अपने प्रबल पुरुषार्थ से एक दिन महापुरुष की कोटि में पहुँच जाते से भूला और भटका हुआ राही उनके चरणों में पहुँचा, उसे सही हैं। उस चिन्तक ने हमें पूछा कि आपके यहाँ ऐसे महापुरुष कितने दृष्टि मिली, सही चिन्तन मिला।
हुए हैं। हमने कहा कि, अतीत की तो हमें स्मृति नहीं है किन्तु उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्करमुनिजी म. सा. श्रमणसंघ के महान्
वर्तमान में हमारे गांव से निकले हुए दो महापुरुष हैं, एक जैन मेधावी, तेजस्वी संतरल थे, वे श्रमणसंघ के उपाध्याय पद पर
श्रमण बने हैं तो दूसरे वैदिक परम्परा के संन्यासी। आसीन थे किन्तु उन्हें उपाध्याय का गर्व नहीं था, अहंकार उनको जैन श्रमण जो बने हैं वे जैनशासन के एक महान् तेजस्वी संत छू नहीं सका था वे सदा जो भी व्यक्ति आता उनसे सहज स्वभाव हैं, उनकी लिखी हुई सैंकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, उन्होंने हमारे से मिलते थे, उनके जीवन में कभी भी दिखावा नहीं था जो भी गांव में ही जन्म लिया था, उनका बाल्यकाल का नाम अम्बालाल था, सहज था, सरल था।
था और उनके पूज्य पिताश्री का नाम सूरजमल जी और मातेश्वरी हमारे परिवार पर तो गुरुदेवश्री की अपार कृपा रही। हमारे का नाम वालीबाई था और उनके छोटे भाई भेरुलाल जी हैं, एक गाँव में ही गुरुदेवश्री का ननिहाल था, इसलिए बाल्यकाल की ही टहनी पर दो फूल खिले, एक तो प्रगति के चरम शिखर को विविध घटनाएँ उनकी नान्देशमा के साथ जुड़ी हुई हैं, बाल्यकाल में पहुँच गया और दूसरा फूल बिना खुशबू बिखेरे ही संसार से विदा उनकी बाल क्रीड़ाएँ नान्देशमा में ही संपन्न हुईं, उनकी आदरणीया हो गया, केवल गांव निवासी उनको जानते अवश्य हैं परन्तु कोई मातेश्वरी वालीबाई का भी नान्देशमा में ही स्वर्गवास हुआ और भी उन्हें पहचानता नहीं और दूसरा महापुरुष ऐसा हुआ है कि उनकी मृत्यु को देखकर ही उनका मन चिन्तन के सागर में डुबकी | जिसके दर्शनों के लिए भारत के विविध अंचलों से हजारों व्यक्ति लगाने लगा। उनका बाल सुलभ मानस यह निर्णय नहीं कर पा रहा पहुँचते हैं। भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री, था कि जीवन सत्य है या मृत्यु सत्य है, मृत्यु क्यों होती है, राज्यपाल और बड़े-बड़े पदाधिकारी उनके चरणों में पहुँचते हैं। किसलिए होती है, ऐसा कौन-सा तत्व है, जो शरीर में से निकल उन्हीं के नाम का यह साइन बोर्ड लगा है, इसीलिए आपने हमारे से जाने पर शरीर निढाल होकर पड़ जाता है, इसी चिन्तन ने उनको
९, इसा चिन्तन न उनको पूछा है। वैराग्य की ओर गतिमान किया, यह बीज ही आगे चलकर विराट
उस पाश्चात्य चिन्तक ने कहा कि वे कहाँ हैं ? हमने कहा, यहाँ रूप धारण कर सका।
| से दस किमी. पर जसवंतगढ़ ग्राम में वे अपना वर्षावास बिता रहे गुरुदेवश्री के हमारे यहाँ तीन वर्षावास हुए पर हमारी हार्दिक । हैं, वह चिन्तक गुरुदेवश्री के दर्शन के लिए पहुंचे और गुरुदेवश्री इच्छा थी कि तीन चातुर्मास तो हुए हैं किन्तु एक चातुर्मास और के दर्शन कर अपने आपको उन्होंने गौरवान्वित अनुभव किया। होना चाहिए। पलंग और पाटे के भी चार पहिए होते हैं, यदि चार
गुरुदेवश्री के संबंध में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के चातुर्मास हो जाते तो हम विशेष रूप से धन्य-धन्य हो जाते।
समान है, हमें तो यह गौरव है कि वे हमारी भूमि में जन्मे और गुरुदेवश्री चद्दर समारोह के पूर्व नान्देशमा पधारे। नान्देशमा में आज उनके नाम पर हमारे गांव में कालेज की स्थापना होने वाली एक नई बहार आ गई थी। हजारों श्रद्धालुगण नान्देशमा में है और अन्य अनेक विकास के कार्य यहाँ होंगे। धन्य है उस उपस्थित हुए थे। गुरुदेवश्री के चार दिन का यह प्रवास पूर्ण | महागुरु को जिन्होंने हमारे वंश में जन्म लेकर हमारे वंश की कीर्ति ऐतिहासिक कहा जा सकता है, पर किसी को भी यह पता नहीं था को दिग्-दिगन्त में फैलाया। उनके चरणों में भाव-भीनी वंदना के कि गुरुदेवश्री इतने जल्दी हमारे बीच से उठ जायेंगे। आज तो साथ श्रद्धार्चना। केवल उनकी पावन स्मृतियाँ ही शेष रह गई हैं। उनका मंगलमय जीवन हमारे लिए सदा ही प्रेरणा का स्रोत रहा है और रहेगा और सरल और स्पष्ट वक्ता संत उनके सद्गुणों को ग्रहण कर हम अपने आपको धन्य बना सकें, यही उस महागुरु के चरणों में भाव-भीनी श्रद्धार्चना।
-संपतीलाल बोहरा,
(अध्यक्ष, श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर) भावांजलि
सन् १९५७ की बात है, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. का
वर्षावास था। उस वर्षावास में मेरे पूज्य पिताश्री ने और मातेश्वरी -शंकरलाल पालीवाल (गुरु पुष्कर नगर (सेमटार))
ने कहा कि वत्स इस वर्ष हमारे सद्गुरुदेव का चातुर्मास यहाँ पर है
इसलिए तू गुरुदेवश्री के दर्शन के लिए जा। मात-पिता की पावन एक पाश्चात्य चिन्तक भारत में आया। उसने हमें पूछा कि क्या प्रेरणा ने मेरे में एक नई चेतना फूंकी और मैं गुरुदेवश्री के दर्शन इस गांव में कोई बड़ा पुरुष पैदा हुआ है। हमने कहा कि यहाँ पर के लिए पहुँचा। गुरुदेवश्री के सहज स्नेह ने मुझे आकर्षित किया। बड़े पुरुष नहीं पैदा होते किन्तु बालक ही पैदा होते हैं। बालक ही हमारे गांव रूण्डेडा में कविरल श्री नेमीचंद जी म. और महास्थविर
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
श्री ताराचंद्र जी म. ने मेरे जन्म के पूर्व चातुर्मास किया था और वहाँ पर भूतपूर्व अमरसिंह सम्प्रदाय का क्षेत्र था। परम्परा के कारण सहज लगाव होना स्वाभाविक था और वह वर्षावास पूर्ण यशस्वी रहा, पूज्य गुरुदेवश्री के ओजस्वी, तेजस्वी प्रवचनों ने उदयपुर में एक नई हलचल पैदा की और क्रांति की स्वर लहरियाँ झनझनाने लगीं। वह प्रथम परिचय धीरे-धीरे बढ़ता ही चला गया।
सन् १९६६ में गुरुदेवश्री का वर्षावास पदराड़ा हुआ, उस वर्षावास में श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय की स्थापना पदराड़ा में हुई, पर पदराड़ा में यातायात के साधनों का अभाव था अतः हमने उदयपुर में ग्रंथालय खोलने का निर्णय लिया क्योंकि उदयपुर में मकानों का अभाव होने से धर्म-ध्यान करने वाले श्रद्धालुओं के लिए भी एक समस्या थी और रुग्ण / वृद्ध साधु-साध्वियों को ठहरने में भी असुविधा थी । सम्प्रदायवाद के कारण मकान खाली पड़े रहने पर भी संत-सतियों को ठहरने के लिए दुर्लभ थे और सन् १९७३ में हमने निर्णय लिया कि हमें मकान लेना है और वह हमने खरीद लिया, इस भगीरथ कार्य में श्रीमान चुन्नीलाल जी सा धर्मावत का अपूर्व सहयोग रहा। गुरुदेवश्री अहमदाबाद चातुर्मास हेतु पधार रहे थे, उस मकान में एक दिन विराजे और श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय का प्रधान केन्द्र उदयपुर में स्थापित हो गया। उस समय ग्रंथालय के अध्यक्ष डालचंद जी सा. परमार थे। जब उसकी शारीरिक स्थिति कार्य करने में सक्षम नहीं रही तो मुझे श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय का अध्यक्ष पद दिया गया। सभी पदाधिकारियों के सहयोग से तब से अब तक मैं इस पद पर रहकर कार्य करता आ रहा हूँ।
पुनः गुरुदेवश्री का सन् १९८० में उदयपुर चातुर्मास हुआ। गुरुदेवश्री सिकन्दराबाद का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर उदयपुर पधारे। महासती श्री रत्नज्योति जी की दीक्षा संपन्न हुई और वर्षावास भी शानदार रूप से उदयपुर में हुआ। प्रस्तुत वर्षावास में गुरुदेवश्री के अनेकों प्रवचन मैंने सुने पूज्य गुरुदेवश्री की वाणी में जोश था, कुरीतियों के प्रति रोष भी था और जब उनकी गंभीर गर्जना होती तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। अनेक शिक्षाविद और राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले विशिष्ट व्यक्ति समय-समय पर गुरुदेवश्री के प्रवचनों का पूरा लाभ लेते रहे। गुरुदेवश्री जहाँ सफल प्रवक्ता थे, वहाँ सफल लेखक भी थे। हमने ग्रंथालय की ओर से गुरुदेव श्री के कथा साहित्य को १११ भागों में प्रकाशित किया, यह कथा साहित्य बहुत ही चित्ताकर्षक रहा। बालक-बालिकाएँ, युवक और युवतियाँ और वृद्ध भी इस कथा साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते हैं। अल्प मूल्य में जन-जन के जीवन में नैतिकता का संचार हो इसलिए इस साहित्य का प्रकाशन हुआ और मुझे लिखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है कि इन कथाओं के गुजराती भाषा में और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद भी हुए और वे अनुवाद लक्ष्मी पुस्तक भण्डार, गांधी मार्ग, अहमदाबाद ने प्रकाशित किए।
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गुरुदेवश्री का प्रवचन साहित्य भी हमें प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला, धर्म का कल्पवृक्ष जीवन के आंगन में, श्रावक धर्म दर्शन, जैन धर्म में दान एक समीक्षात्मक अध्ययन और ब्रह्मचर्य विज्ञान | यह प्रवचन साहित्य सामान्य प्रवचन साहित्य न होकर एक विशिष्ट प्रवचन साहित्य है। अपने विषय का सांगोपांग विवेचन इन ग्रन्थों में हुआ है। पूज्य गुरुदेवश्री का गंभीर पाण्डित्य इस साहित्य में निहारा जा सकता है।
गुरुदेवश्री की सबसे बड़ी विशेषता थी वे सच्चे संत थे, सच्चे संत की मेरी दृष्टि से सटीक परिभाषा है, जिनमें छल, छद्म, माया और कापट्य पूर्ण जीवन का अभाव है, जिनके मन में जो बात है, वही वाणी में है और वही आचरण में है, वही तो सच्चा संत है, गुरुदेवश्री के जीवन में बालक की तरह सरलता थी, वे जो कुछ भी बात होती उसे स्पष्ट शब्दों में फरमा दिया करते। गुरुदेवश्री के दर्शन हेतु मैं प्रायः जाता ही रहा और मुझे बहुत ही निकटता से देखने का अवसर मिला और उनकी सच्ची साधुता को देखकर में सदा नत होता रहा।
हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर पूज्य गुरुदेवश्री ने और अन्य पदाधिकारी मुनिराजों ने तथा कांफ्रेंस ने आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म. का चद्दर समारोह करने की अनुमति प्रदान की और गुरुदेव श्री इस सुनहरे अवसर पर उदयपुर पधारे और ५ मार्च को श्री तारक गुरू जैन ग्रंथालय में पधारे चद्दर समारोह का ऐतिहासिक कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ पर किसे पता था कि गुरुदेव श्री का सदा-सदा के लिए हमारे सिर के ऊपर से छत्र उठ जाएगा। गुरुदेवश्री अस्वस्थ हो गये और उन्होंने संधारा कर साधनारूपी मंदिर पर स्वर्ण शिखर चढ़ाया। आपश्री का संथारा देखकर और समभाव देखकर हम सभी विस्मित थे, गुरुदेवश्री सदा ही संस्था के प्रति निस्पृह रहे, वे निज साधना में ही तल्लीन थे पर संस्था में ही गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हुआ एवं उनका अंतिम संस्कार भी संस्था में ही हुआ। गुरुदेवश्री की सदा छत्रछाया हमारे पर बनी रहे, यही गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी वंदनांजलि।
कितने महान थे गुरुदेव !
-मांगीलाल जी ओरड़िया (वास)
संत संसार के उद्धार करता है क्योंकि ये समदर्शी होते हैं, वे सभी में अपनी इच्छाओं की आहुति देते हुए अपने जीवन में आत्म-साधना, ज्ञानोपदेश और जनकल्याण के लिए सर्वात्मना समर्पित कर देते हैं तथा विकार और वासनाओं को काम, क्रोध, मद, मोह आदि आन्तरिक शत्रुओं को पराजित कर देते हैं। उनका तपः पूत जीवन जन-जन के लिए प्रेरणा का पावन स्रोत होता है। संसार के प्राणी विकार वासनाओं में फँसे रहते हैं मोह, माया के गर्त में डूबे रहते हैं, उन व्यक्तियों का उद्धार संतों के पावन
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सदुपदेश से होता है। संत उपदेश को पाकर उनके जीवन में नया मोड़ आता है।
श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. एक महान् योगी, तपोधन अध्यात्मनिष्ठ, सरल एवं सौम्य ज्ञान वृद्ध और | बयवृद्ध महापुरुष थे। गुरुदेवश्री के दर्शन मैंने बहुत ही लघुवय में किए। गुरुदेवश्री अरावली की पहाड़ियों में अवस्थित हमारे गांव में पधारे थे, उस समय बड़े गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. भी साथ में ही थे, हमारे को गुरुदेवश्री ने सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की थी । गुरुदेवश्री के प्रति हमारे परिवार के, हमारे प्रान्त के सभी सदस्यों की अपार निष्ठा रही है और गुरुदेवश्री की भी हमारे पर असीम कृपा रही हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर आपक्षी ने समयाभाव होते हुए भी चादर समारोह में पधारना बहुत ही आवश्यक होने पर भी हमारे प्रान्त को दस दिन का समय दिया और सभी गांवों में पधारे। उन विकट रास्तों को पार कर गुरुदेवश्री का हमारे प्रान्त में पदार्पण हुआ, जिससे हम धन्य-धन्य हो उठे, गुरुओं की कृपा कितनी महान होती है, वे स्वयं कष्ट सहन करके दूसरों का उपकार करते हैं।
गुरुदेवश्री के चरणों में हमारी भाव-भीनी वंदना ।
वे युग पुरुष थे
- सुन्दरलाल बागरेचा, मेरठ (उदयपुर)
भारत की पावन पुण्य धरा पर समय-समय पर संत पुरुषों का आगमन हुआ है। उन्होंने यहाँ की मिट्टी और हवा में अपने जीवन के और उज्ज्वल, समुज्ज्वल संस्कार वपन किए हैं, वे संस्कार आज भी अंकुरित हैं, भारत ने सदैव ही सम्राट के चरणों में नहीं अपितु संतों के चरणों में अपना उन्नत मस्तक झुकाया है, इस प्रकार भारतीय चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है संत ।
स्थानकवासी समाज में समय-समय पर युग पुरुष पैदा होते रहे हैं, जो अपने विमल विचारों से जन-जन को प्रेरणा देते रहे हैं, उन्हीं युग पुरुषों की लड़ी की कड़ी में परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम लिया जा सकता है। श्रद्धेय गुरुदेवश्री अभी कुछ समय पहले हमारे मध्य में थे, पर आज वे हमारे मध्य में नहीं हैं, उस विमल विभूति के वियोग ने समाज को अनाथ बना दिया। वे आज नहीं रहे हैं इस सत्य और तथ्य को हमारा भक्ति परायण मन मानने को तैयार नहीं है पर सत्य को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता, यह सत्य है कि अब उनकी भौतिक देह हम नहीं देख सकते हैं किन्तु उनका आध्यात्मिक रूप हमारे कण-कण में समाया हुआ है, उनका भौतिक वियोग भले ही हो गया हो किन्तु आध्यात्मिक जीवन हमारे सामने है।
एक पाश्चात्य चिन्तक ने लिखा है कि मानव मरणशील है तो मानव अमर भी है, जैन दृष्टि से भी यह कथन सत्य है क्योंकि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
पर्याय दृष्टि से मृत्यु होती है पर द्रव्य-दृष्टि से आत्मा अजर-अमरअविनाशी है, उसका वियोग कभी नहीं हो सकता। श्रद्धेय गुरुदेवश्री का जीवन गुणों का पुंज था ये प्रवक्ता थे, लेखक थे, विचारों से उदार थे, अहंकार और ममकार का उनमें नामोनिशान नहीं था, उनकी वाणी में मधुरता भरी हुई थी और उनका व्यवहार बहुत ही चित्ताकर्षक था, जो महानुभाव गुरुदेवश्री के सान्निध्य में रहे वे इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं कि गुरुदेवश्री का जीवन हिमालय से भी ऊँचा था, सागर से भी अधिक गंभीर था, उनके मन की गरिमा ने और उनके कार्य की महिमा ने जन-जन को श्रद्धानत् किया था, पवित्र किया था।
गुरुदेवश्री मन से पवित्र थे, हृदय से सरल थे, बुद्धि से प्रखर थे और व्यवहार से बहुत ही मधुर थे। क्या संत और क्या गृहस्थ, सभी पर उनकी स्नेह दृष्टि होती थी, उनके जीवन कोष में सभी अपने थे, कोई भी पराया नहीं था। सभी को प्रेम प्रदान करना उनका जीवन व्रत था ।
सन् १९८४ का चांदनी चौक दिल्ली का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर गुरुदेवश्री अपने शिष्यों के साथ मेरठ पधारे। उस समय यहाँ पर विराजे हुए आदरणीय प्रवर्तक श्री शांति स्वरूप जी म. की दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव का कार्यक्रम था। अन्य अनेक संत भी उस समय वहाँ पर पधारे थे। गुरुदेवश्री के प्रथम दर्शन में ही मैं प्रभावित हुआ। उ. प्र. की धरती में मेवाड़ प्रान्त से पधारे हुए संतों को निहारकर मेरा मातृभूमि का प्रेम सहज रूप से प्रगट हो गया और गुरुदेवश्री की भी मेरे पर और मेरे परिवार पर असीम कृपा रही, वे घर और हमारी फैक्ट्री पर पधारे। उस प्रथम परिचय के पश्चात् मैंने बीसों बार गुरुदेवश्री के दर्शन किए। मैंने सोचा कि ऐसे महापुरुष जिनके दर्शन से ही मन में अपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। क्यों नहीं मैं अपने संघी साथियों को भी इस पुण्य कार्य में सहभागी बनाऊँ और मैं वर्षों से शिक्षाविद् और शासन में सेवा करने वाले अनेक व्यक्तियों को लेकर बस के द्वारा सेवा में पहुँचता रहा हूँ। और जो भी मेरे साथ चलते रहे हैं ये भी गुरुदेवश्री के अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते। सभी के मन में गुरुदेवश्री के प्रति अपार आस्थाएँ मुखरित हो गईं।
गुरुदेवश्री इतने महान् रहे कि उन्होंने अपने शिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को खूब अध्ययन करवाया और गुरुदेवश्री की प्रेरणा से ही उन्होंने लिखना भी प्रारंभ किया और उन ग्रन्थों को प्रकाशित करने की सेवा का मुझे भी अवसर मिला। ग्रंथ भी बहुत ही जानदार हैं। एक बार पढ़ना प्रारंभ करने पर जब तक उसे पूरा नहीं करते तब तक ग्रन्थ हाथ से छूट नहीं सकता। उदयपुर चद्दर समारोह पर मैं सपरिवार मेरठ से उदयपुर पहुँचा और बहुत ही आनंद और उल्लास के क्षणों में चद्दर समारोह का मंगलमय कार्य संपन्न हुआ, दीक्षाएँ हुईं पर गुरुदेवश्री काफी अस्वस्थ हो गए।
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PoKER । श्रद्धा का लहराता समन्दर
१४१ अस्वस्थ स्थिति में भी मैंने गुरुदेवश्री से कई बार पूछा कि कैसे हैं ?
संयम के अवतार : उपाध्यायश्री गुरुदेवश्री मुस्कराते हुए फरमाते, बहुत आनंद है। मैंने कभी भी उनके चेहरे पर उदासीनता और खिन्नता नहीं देखी, वही
-दीपचन्द मेहता (सिवाना) आध्यात्मिक मस्ती जीवन के अन्तिम क्षणों में भी देखने को मिली। ४२ घण्टे के चौवीहार संथारे के बाद गुरुदेवश्री ने भौतिक देह को
दो शब्द हैं संकल्प और विकल्प। संकल्प मानव को उत्थान की छोड़ दिया। आज भी उनका तेजस्वी चेहरा मेरी आँखों के सामने
ओर गति प्रगति करने के लिए बाध्य करता है तो विकल्प पतन
की ओर। इस विराट् विश्व में जितने मानव हैं, उनमें संकल्प की घूम रहा है। वे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे, सच्चे संत थे, ऐसे
दृढ़ता कम है और वह विकल्पों में अधिक उलझे हुए हैं। विकल्प सद्गुरुदेवश्री के चरणों में मेरी भाव-भीनी श्रद्धार्चना।
मन में आधि-व्याधि और उपाधि समुत्पन्न करते हैं जबकि संकल्प
मन में अखण्ड समाधि प्रदान करते हैं। एक चमकता दमकता जीवन
परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. अपने युग
के एक ज्योतिर्धर संत रत्न थे। अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से उन्होंने -शान्तिलाल सुराना (खण्डप) अपने कदम समाधि की ओर बढ़ाए, भोग से योग की ओर चल
पड़े और अंत में अपनी विशुद्ध साधना कर परम योगी बन गए। उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. आज की
विकल्पों और व्याधियों से मुक्त हो गए। उनके पवित्र चरित्र को शताब्दी के एक युग पुरुष थे। उनका विचार समन्वित आचार और
1 और तेजस्वी जीवन को विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज भी आचार समन्वित विचार जन-जन की श्रद्धा का केन्द्र बन गया।
हजारों भक्त उनके नाम का स्मरण करते हैं, जप करते हैं, उनके चारों ओर उनकी गंभीर विद्वता की धाक थी और उनके उज्ज्वल
नाम के जप में ही वह शक्ति है कि व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त समुज्ज्वल पवित्र चरित्र का समादर था। जन-जन के मन में अपार
हो जाता है। आस्था थी और उन्हें अपना सच्चा पथ प्रदर्शक मानते थे।
हमारी प्रार्थना को सम्मान कर गुरुदेवश्री का यशस्वी वर्षावास सद्गुरुदेव ने अहमता और ममता के प्रगाढ़ बंधनों को तोड़ा। सन् १९७२ में हमारी जन्मभूमि गढ़सिवाना में हुआ। उस वर्ष त्याग, तपस्या, विनय, विवेक और वैराग्य की अमर ज्योति गरुदेव की सेवा का सौभाग्य मिला। और गरुदेवश्री कितने महान प्रज्ज्वलित की। मिथ्याविश्वास, मिथ्या आचार, मिथ्या क्रियाकलापों थे यह अनुभव भी हुआ। मेरी अनंत आस्था उन गुरु चरणों में है का खण्डन करके जन-जीवन को पावन प्रेरणा प्रदान की, पवित्र । मुझे पूर्ण भरोसा उन चरणों का है, कैसी भी विकट बेला में जब जीवन जीने का संदेश दिया, ज्ञान का दिव्य आलोक फैलाकर भी मैं उनके नाम का स्मरण करता हूँ तो सारे विकल्प की घनघोर जन-जीवन को तेजस्वी बनाकर जीने की प्रेरणा दी।
घटाएँ नष्ट हो जाती हैं और मन में अपूर्व शांति का अनुभव होता
है। हे गुरुदेव! मेरे कोटि-कोटि प्रणाम स्वीकार करें और मुझे पूज्य गुरुदेवश्री में एक अद्भुत आकर्षण शक्ति थी जो भी
अनंत-अनंत आशीर्वाद प्रदान करें। श्रद्धालुगण एक बार उनके सान्निध्य में आया, वह सदा-सदा के लिए उनके प्रति समर्पित हो गया, उनकी व्यापक दृष्टि थी, जिसके फलस्वरूप अपना-अपना ही नहीं किन्तु पराया भी अपना था।
। सद्गुरु एक आध्यात्मिक शक्ति हैं । वसुधा के सभी नर-नारी उस महागुरु को अपना मानते थे। उस
-सुशील संग्रामसिंह मेहता (उदयपुर) महाज्योति पर रागद्वेष के झंझावातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता था। गीता की भाषा में यदि कहा जाए तो वे स्थित प्रज्ञ थे। जो भी भारतीय पावन पुण्य धरा पर ऐसी अनेक विमल विभूतियाँ हुई पाया उसे सबको बाँट दिया तथापि मन में किंचित् मात्र भी । हैं जिन्होंने अपने ज्ञान, ध्यान, त्याग व तपोमय जीवन से अपने अहंकार नहीं था। उनका जीवन सागर की तरह था, जिस १ नाम को सदैव आलोकित किया है, उन्हीं महापुरुषों की परम्परा में साधक ने उनके जीवन सागर में गोते लगाए, उतने ही अधिक रन । परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का नाम उसने प्राप्त किये। पूज्य गुरुदेवश्री के मंगलपाठ का ही चमत्कार है । अत्यन्त निष्ठा के साथ लिया जा सकता है। वे अध्यात्म रस में सदा कि जब भी मेरे मानस में चिन्ता पैदा हुई, गुरुदेव के चरणों में निमग्न रहते थे, शासन प्रभावक, आशु कवि, ज्ञान योगी, ध्यान पहुँचा और चिन्ता से मुक्त हुआ तथा आर्थिक दृष्टि से भी खूब । योगी और अध्यात्म योगी थे। प्रगति हुई।
जीवन में सद्गुरु की प्राप्ति होना एक महान् उपलब्धि है। उस पावन सद्गुरुदेव के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करते सद्गुरु एक आध्यात्मिक शक्ति है, जो मानव को नर से नारायण, हुए मैं अपने आपको धन्य-धन्य अनुभव कर रहा हूँ।
आत्मा से परमात्मा और इन्सान से भगवान बना देती है। सद्गुरु
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक ऐसे श्रेष्ठ कलाकार हैं जो अज्ञान-अंधकार में परिभ्रमण करते । स्वर्गवास से अपूरणीय क्षति हुई है। ऐसे गुरुदेव के चरणों में हमारी हुए इधर से उधर ठोकरें खाते हुए जीवन रूपी प्रस्तर को प्रतिमा | भावभीनी वन्दना। बना देते हैं। मेरा परम सौभाग्य रहा है, सद्गुरुदेव के दर्शनों का सौभाग्य अनेकों बार मिला, उनके श्रीचरणों में रहने का अवसर भी [ बहुआयामी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी । मिला। मैने सदा ही आपको स्वाध्याय में तल्लीन पाया। पढ़ने और पढ़ाने में आप कितने अधिक दत्त-चित्त हो जाते थे कि आपको
-कनकमल सिंघवी (इन्दौर) ज्ञात ही नहीं होता था, कितना समय हो गया। आप आगम के धर्म और दर्शन के गुरु गंभीर रहस्यों को बहुत ही सरलतम शब्दों में
परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का
ओजस्वी व्यक्तित्व बहुआयामी और बहुमुखी था। वे प्रतिपल प्रस्तुत करते जिससे कि वे रहस्य सहज ही समझ में आ जाते थे।
प्रतिक्षण आत्म-साधना के पथ पर बढ़ने वाले तेजस्वी संत होने के आपका जीवन प्रशान्त, सौम्य, मधुर मुस्कान, ज्ञान की ।
साथ-साथ जीवन और समाज में फैली हुई विकृतियों को नष्ट करने DHDS गंभीरता, विचारों की निर्मलता, स्वभाव की सरलता, विनम्रता और
जन-जन के मार्ग को प्रशस्त करने वाले महापुरुष भी थे, एक ओर कोमलता से आपूरित था। आपके प्रवचनों में समन्वय तथा आगमों
उनके व्यक्तित्व में कबीर की तरह स्पष्टवादिता थी तो दूसरी ओर 93 के गम्भीर रहस्य सहज श्रवण करने को मिलते थे। आपके प्रवचनों
भक्त कवि सूरदास का माधुर्य भी उनमें झलकता था। एक ओर संत में नीति की सूक्तियाँ, लोक कथाएँ, बौद्ध कथाएँ और विषय की ।
कवि तुलसीदास का समन्वयवादी दृष्टिकोण उनमें निहारा जा गहराई होती थी। आपकी वाणी के जादू के कारण गंभीर से गंभीर ।
सकता था तो दूसरी ओर सूफी कवि जायसी का स्नेहानुभूति पूर्ण विषय की प्रस्तुति इस प्रकार होती कि श्रोता झूम उठते थे।
स्वर भी उनमें झंकृत था। वे कोमल भी थे तो कठोर भी थे, सरल श्रद्धेय सद्गुरुवर्य जितने सरल और सीधे थे और जितना भी थे और प्राज्ञ भी थे, वे अंतरंग और बहिरंग जीवन में फैले हुए उनका यशस्वी जीवन रहा उतना ही उनका यशस्वी जीवन का अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिए सतत् प्रयासरत थे। उनका सन्ध्याकाल भी रहा, उस अनंत आस्था के केन्द्र सद्गुरु के । चाहे गद्य साहित्य हो या पद्य साहित्य हो या उनके प्रवचन, सर्वत्र श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन।
उनका अद्भुत व्यक्तित्व मुखरित होता है, उनके सान्निध्य को पाकर
कितने ही दिशा-विहीन साधक सही दिशा को पाकर अपने जीवन श्रद्धा के दो पुष्प
को धन्य-धन्य अनुभव करते रहे। बंशीलाल लोढ़ा (अहमदनगर)
श्रद्धेय उपाध्यायश्री का जितना भी धार्मिक, दार्शनिक और
कथा साहित्य प्रकाशित हुआ है, उसमें गहन चिन्तन है, शुष्कता परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का वर्षावास सन् । नहीं, सरसता है और साथ ही अनुभूति की तरलता है। कवि हृदय १९८७ में आचार्यसम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. की सेवा में } की सरसता और वक्ता की प्रभविष्णुता उनके साहित्य में एक साथ अहमदनगर में हुआ। उस वर्षावास में उपाध्यायश्री के निकट देखी जा सकती है, जितनी उन्हें काव्य साहित्य में सफलता प्राप्त परिचय में मैं आया। इसके पूर्व घोड़नदी और पूना वर्षावास सम्पन्न } हुई है उतनी ही गद्य साहित्य में भी। कथा साहित्य को पढ़ते-पढ़ते कर उपाध्यायश्री जी अपने शिष्यों के साथ अहमदनगर आये थे तो पाठक आनन्द से झूमने लगता है, कथा साहित्य की सबसे बड़ी तब उनके दर्शनों का सौभाग्य मिला था किन्तु विशेष परिचय नहीं विशेषता है कि उसमें पांडित्य का प्रदर्शन नहीं है किन्तु जो भी बात हो पाया किन्तु प्रस्तुत वर्षावास में उपाध्यायश्री जी की असीम कृपा कही गई है, वह इतनी सीधी और सरल है, पाठक पढ़ते-पढ़ते हमारे पर रही। हमने यह अनुभव किया कि उपाध्यायश्री जी सफल आनन्द-विभोर हो उठता है और वह सदा-सदा के लिए अपने साधक हैं, वे ध्यानयोगी, जपयोगी और ज्ञानयोगी सन्तरत्न हैं। जीवन में पनपते हुए दुर्व्यसनों से मुक्त होने के लिए कटिबद्ध हो हमने अनेकों चमत्कार उनके मंगलपाठ के देखे हैं। उपाध्यायश्री जी जाता है। स्वयं जाप करते थे और जो भी उनकी चरणों में पहुँचता उन्हें वे
श्रद्धेय उपाध्यायश्री क्रांत द्रष्टा संत रत्न थे। उन्होंने देखा जाप करने की पावन प्रेरणा प्रदान करते। उनकी पावन प्रेरणा से ।
मानव का जीवन दो भागों में बँटा हुआ है, आध्यात्मिकता और उत्प्रेरित होकर हजारों व्यक्ति मुँहपत्ती लगाकर जाप करने लगे।
सामाजिकता। इन दोनों के बीच बहुत बड़ी दरार है और उस दरार अहमदनगर वर्षावास के पश्चात् जहाँ भी उपाध्यायश्री | को पाटने के लिए आपने प्रबल प्रयास किया। उन्होंने जैन धर्म को विराजते वहाँ मैं उनके चरणों में दर्शन हेतु पहुँच जाता। जन-जन का धर्म बनाने हेतु अपने पावन प्रवचनों में जीवन शुद्धि अहमदनगर में आचार्यसम्राट् श्री आनन्दऋषि जी म. का स्वर्गवास पर बल दिया। हजारों व्यक्तियों को व्यसनों के द्वारा होने वाली हुआ और ठीक बारह महीने पश्चात् उपाध्यायश्री का उदयपुर में ] हानियों को समझाकर उन्हें त्यागने के लिए प्रेरित किया और स्वर्गवास हो गया। दोनों श्रमणसंघ की महान् हस्तियाँ थीं उनके विवेकपूर्वक हजारों व्यक्तियों ने निर्व्यसन जीवन जीने की प्रतिज्ञाएँ
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
भी स्वीकार की। ऐसे परम श्रद्धेय गुरुदेव के चरणों में अपनी । हूँ। ऐसे परम दयालु गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि अनंत आस्थाएँ समर्पित करते हुए अपने आपको गौरवान्वित समर्पित करते हुए मेरा हृदय भावना से विभोर हो रहा है। अनुभव कर रहा हूँ।
दया के देवता : गुरुदेवश्री जगमगाते सूर्य : गुरुदेवश्री )
-रणजीतमल महेन्द्रकुमार लोढ़ा (अजमेर) -दर्शनकुमार जैन (दिल्ली)
संत दया का देवता है, दया धर्म की महागंगा जब प्रवाहित प्रभात के पुण्य पलों में प्राची दिशा से सूर्य का उदय होता है। होती है तभी सद्गुणों के सुमन फलते हैं, फूलते हैं। जहाँ दया की चारों ओर गहन अंधकार एक क्षण में मिट जाता है। चारों ओर स्रोतस्विनी सूख जाती है, वहाँ पर धर्म के सुन्दर पुष्प मुझ जाते सूर्य की किरणें फैल जाती हैं। यही स्थिति महापुरुषों की है, उनके हैं। संत के अन्तर् हृदय में दया की भव्य भावना प्रवाहित होती है, जीवन के आलोक को पाकर अज्ञानियों के अंधकार नष्ट होते रहे जिससे वह स्व और पर के भेदभाव को छोड़कर सबको एक ही हैं और उन साधकों का जीवन ज्ञान से प्रभा स्वर बनता रहा है। भाव से निहारता है और दया का, करुणा का अमृत वितरण परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. ऐसे ही जगमगाते सूर्य
करता है। संतों का हृदय नवनीत से भी अधिक विलक्षण है, थे, जिनके संपर्क में आकर लाखों व्यक्तियों ने अपने जीवन को नई
नवनीत स्वताप से द्रवित होता है, जबकि संत परताप से द्रवित दिशा एवं नया दर्शन दिया, नया मोड़ दिया।
होते हैं। स्वताप से वे कभी विचलित नहीं होते। उपाध्यायश्री सिद्ध जपयोगी थे। जप के प्रति उनकी अपार
परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. श्रमण निष्ठा थी। नियमित समय पर वे स्वयं जप करते थे और उनके
संघ के एक महासंत थे, वे उपाध्याय के पद से समलंकृत थे। संपर्क में जो भी व्यक्ति आता चाहे युवक हो, चाहे युवतियाँ हों वे
भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी ने उन्हें “विश्व संत" की 36 उन्हें जप की प्रेरणा देते, जप करने के लिए उत्प्रेरित करते।
उपाधि प्रदान की थी तथा अन्य अनेक स्थानों से विभिन्न संस्थाओं उपाध्यायश्री जी की प्रेरणा से हजारों युवकों ने जप साधना प्रारम्भ की और उन्हें जप साधना का चमत्कार भी प्राप्त होता। वे आधि,
के द्वारा उन्हें विविध उपाधियाँ प्रदान की गईं तथापि उनके अन्तर् छन्
मानस में अहंकार नहीं था, अहंकार और ममकार से वे ऊपर उठे व्याधि और उपाधि से मुक्त होकर जप साधना में आनन्द की अनुभूति करते, जब जप साधना में एक बार आनन्द की अनुभूति
हुए थे, जो विश्व के हित में अपने आपको समर्पित कर देता है, हो जाती है, तब वह जप छूटता नहीं। ऊपर से थोपा हुआ नियम
वही तो विश्व संत की उपाधि से समलंकृत होता है। चिरकाल तक स्थाई नहीं होता।
श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के दर्शनों का सौभाग्य अनेकों बार हुआ त उपाध्यायश्री किसी पर नियम थोपने के पक्षधर नहीं थे, उनका
। चाहे जैसी शारीरिक स्थिति में रहे हों, कई बार पेशाब में पस की मंतव्य था, पहले उसे समझाया जाए और समझने के बाद उसे
अभिवृद्धि हो जाने से उन्हें तीव्र ताप हो जाता था, १०४°, १०५° नियम दिलाया जाए क्योंकि नियम के बिना व्यक्ति कई बार फिसल
ज्वर में भी वही शान्ति, कभी उनके चेहरे पर घबराहट देखने को भी जाता है, इसलिए नियम आवश्यक है पर वह नियम समझदारी- नहीं मिली। जब भी पूछते गुरुदेव कैसे हैं ? तो एक ही शब्द उनके पूर्वक होना चाहिए। बिना समझदारीपूर्वक जो नियम ग्रहण किया मुखार-बिन्द से निकलता था आनन्द ही आनन्द है। गुरुदेव ज्वर तो जाता है, वह सच्चा नियम नहीं होता, वह सुप्रत्याख्यान नहीं होता। है? पर वे फरमाते थे ज्वर तो शरीर में है पर आत्मा तो पूज्य गुरुदेवश्री हमारे डेरावाल कोलोनी दिल्ली में पधारे।
ज्वररहित है। हमारे यहाँ पर स्थानक नहीं था। गुरुदेव की असीम कृपा से हमें हमारे परिवार पर गुरुदेवश्री की असीम कृपा रही। सन् जमीन मिल गई और नव्य भव्य स्थानक भी बन गया। महापुरुषों १९८३ में गुरुदेवश्री का वर्षावास मदनगंज में हुआ। हम दोनों भाई की जब कृपा होती है तब क्या असंभव है। गुरुदेव की असीम कृपा सपरिवार दर्शनार्थ पहुँचे। प्रथम दर्शन ने ही हमारे को इतना हमारे परिवार पर रही है।
अधिक प्रभावित किया कि हम सदा-सदा के लिए गुरु चरणों में उपाध्यायश्री के अनेकों बार दर्शन करने का सौभाग्य मुझे । समर्पित हो गये। पूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा से उनके मिला। उनके निकट संपर्क में आकर मेरे मन में यह विचार उबुद्ध चमत्कारिक मंगलपाठ को सुनकर जो भी हमने कार्य प्रारम्भ किया हुआ कि मैं सदा-सर्वदा के लिए पानपराग, जर्दा, तम्बाकू आदि उसमें हमें सहज सफलता मिली। पूज्य गुरुदेवश्री कृपा कर हमारे व्यसनों से मुक्त बन जाऊँ और मैंने अपने हृदय की बात मकान पर भी विराजे। जिस प्रकार गुरुदेव की असीम कृपा हमारे उपाध्यायश्री के चरणों में रखी और उन्होंने प्रसन्नता से मुझे नियम । पर रही वैसी ही कृपा पूज्य गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य आचार्य दिलाए और वह नियम आज भी मैं दृढ़ता के साथ पालन कर रहा है सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनिजी म. की भी रही है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गुरुदेवश्री के श्रीचरणों में हमारी और हमारे परिवार की सर्वोच्च शिखर को संस्पर्श करने वाले महागुरु थे। उनकी साधना सादर श्रद्धाञ्जलि।
बहुत ही अद्भुत थी। अनेकों बार गुरुदेवश्री की साधना के प्रबल
प्रभाव को देखने को हमें सौभाग्य मिला है, ऐसे अद्भुत कार्य हमने शिखर पुरुष : उपाध्याय गुरुदेव देखे हैं जिसकी सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता। उनके
पास अनेकों सिद्धियाँ थीं। -पारसमल वागरेचा (बेंगलोर)
एक बार मेरी धर्मपत्नी बखती बाई प्रेतात्मा से पीड़ित थी। उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की मुख मुद्रा पर सदा प्रसन्नता । अनेक उपचार किये पर ठीक नहीं हुई। गुरुदेवश्री के चरणों में झलकती थी, जब भी मैंने उनके दर्शन किए तब मैंने उन्हें प्रसन्न रायचूर वर्षावास में पहुंची और वह प्रेतात्मा जो पत्नी को अपार मुद्रा में ही पाया। उनके मुखारबिन्द को देखकर यह सहज अनुभूति कष्ट दे रही थी वह गुरुदेव के सदुपदेश से उनका शिष्य बन गयी होती कि वे एक सामान्य कुल में जन्मे एक नन्हें से ग्राम में पैदा | और सदा-सर्वदा किसी को भी कष्ट न दूँगी यह दृढ़ प्रतिज्ञा ग्रहण हुए। आज श्रमणसंघ के उपाध्याय पद पर आसीन हैं। लाखों-लाखों की। यदि किसी को सहयोग की अपेक्षा हुई तो अवश्य करूँगी। व्यक्तियों के वे श्रद्धा के केन्द्र हैं। यह उनकी सहज सौम्य मुद्रा से
धन्य है आपकी साधना को जिससे अनेक दुष्टात्मा पवित्रात्मा स्पष्ट होता है। जो महापुरुष प्रसन्नता के क्षणों में और चिन्ता के
बन गये। गुरुदेव के चरणों में मेरी व मेरी धर्मपत्नी तथा परिवार क्षणों में समभाव में रहते हैं, वे ही तो प्रगति के पथ पर अपने
की वन्दना। मुस्तैदी कदम बढ़ाते हैं। जो व्यक्ति प्रसन्नता के क्षणों में आनन्द से झूमने लगते हैं और दुःख के क्षणों में आँसू बहाने लगते हैं, वे व्यक्ति कभी भी महापुरुष नहीं बन सकते। महापुरुष बनने के लिए
। सफल सिद्ध जपयोगी थे गुरुदेव ) जीवन को तपाना/निखारना पड़ता है। स्वर्ण आग में तपकर ही तो
-अमृत मांगीलालजी सोलंकी (पूना) कुन्दन बनता है। ग्रेनाईट का पत्थर घिस करके ही तो चमकता है, जितनी-जितनी उस पर घिसाई होती है, उतना-उतना उसमें निखार उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. एक सफल जपयोगी सिद्ध आता है।
पुरुष थे। उनके मंगल पाठ को श्रवण कर सभी मनोरथ पूर्ण होते श्रद्धेय उपाध्यायश्री का हृदय सरल था, उनकी मुखाकृति सौम्य थे। पूना वर्षावास में गुरुदेवश्री के दर्शन और सेवा का सौभाग्य हमें SODE
थी और उनका कार्य रसमय होता था, वे जिस किसी भी कार्य को प्राप्त हुआ। हमें यह अनुभव हुआ कि गुरुदेवश्री की साधना बहुत 1806
करते, तन्मयता के साथ करते। प्रस्तुत गुण के कारण ही वे ही गजब की है। हमारे परिवार में एक दो सदस्य इस प्रकार की "शिखर पुरुष" बन सके। वे श्रमणसंघ के श्रेष्ठ पद पर आसीन व्याधि से ग्रसित हो गये कि जिसका उपचार बड़े से बड़े डाक्टर के होकर भी सम्प्रदायवाद की भावना से ऊपर उठे हुए महापुरुष थे। पास भी नहीं था, पर गुरुदेवश्री के मंगलपाठ को श्रवण कर वे पूर्ण जो भी उनके संपर्क में आता, वह उनकी उदारता, सरलता और । स्वस्थ हो गये। जीवन में अनेक ऐसे भी प्रसंग आये जिस समय मन सहजता को देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
में चिन्ताएँ समुत्पन्न हुईं अब क्या होगा? और हम गुरुदेव के चरणों उपाध्यायश्री साधनारत संत थे, उनकी साधना आत्मिक साधना में पहुँच गये तो हमारी चिन्ता सदा-सदा के लिए नष्ट हो जाती थी। थी। बिना साधना के जीवन में निखार नहीं आता, जितना तेल मेरे पिताजी जब भी गुरुदेव के चरणों में पहुँचते तब मन में होगा, उतना ही दीपक प्रज्ज्वलित होगा। बिना संचार के जो प्रचार एक संकल्प लेकर पहुँचते कि साहित्य के प्रकाशन हेतु मुझे इतना होता है, वह स्थायित्व लिए हुए नहीं होता। उपाध्यायश्री की साधना अनुदान देना है। उन्होंने गुरुदेवश्री से अनेकों बार निवेदन किया में जो स्थायित्व था उसके पीछे उनकी साधना का बल, तेज था, कि आप मुझे सेवा फरमाइये पर गुरुदेवश्री फरमाते जो भी तुम्हारी उस महान् साधक के चरणों में कोटि-कोटि वंदन। उनका मंगलमय
भावना हो वह लाभ ले सकते हो पर गुरुदेव ने अपने मुखारबिन्द आशीर्वाद हमें मिला है, जिसके फलस्वरूप ही हमारे जीवन में सुख से कभी नहीं फरमाया कि तुम्हें यह करना है। वस्तुतः गुरुदेवश्री और शांति की सुरसरिता प्रभावित हुई।
पूर्ण अनासक्त थे। उनके जैसे अनासक्त गुरुदेव का मिलना दुर्लभ ही
नहीं, अति दुर्लभ है। मैं और मेरा परिवार गुरुदेव के चरणों में । साधना के सर्वोच्च शिखर थे गुरुदेव ) भावभीनी श्रद्धाञ्जलि समर्पित करते हैं।
-राजमल सुराणा (पूना) ( त्याग, वैराग्य, संयम-साधना के जंगम तीर्थ) हर पर्वत में माणिक्य नहीं होता, हर वन में चन्दन नहीं होता,
-किशनलाल तातेड़ (दिल्ली) हर हाथी के गण्डस्थल में मुक्ता नहीं होती और हर व्यक्ति साधना के शिखर तक नहीं पहुँचता। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य साधना के परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के तीन वर्षावास
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
भारत की राजधानी दिल्ली में हुए उपाध्यायश्री जी आचार्य सम्राट् श्री अमरसिंह जी म. की परम्परा के सन्त रत्न हैं। आचार्यश्री अमरसिंह जी म. हमारे तातेड़ परिवार के थे। उस परिवार के हम लोग हैं अतः सहज अनुराग होना स्वाभाविक था क्योंकि हम आचार्यश्री अमरसिंह जी म. के सातवीं पीढ़ी में हैं, तो उपाध्यायश्री जी भी उनकी सातवीं पीढ़ी में शिष्य हैं।
दिल्ली वर्षावास में हमने बहुत ही सन्निकट रूप से आपको देखा। आपकी त्याग, वैराग्य और संयम साधना के प्रति जो जागरूकता देखी तो हमारा हृदय अनन्त आस्था से आपके चरणों में झुक गया। हमने देखा कि उपाध्यायश्री निरर्थक वार्तालाप करना पसन्द नहीं करते थे। जब भी उनके चरणों में पहुँचे तब उन्होंने ज्ञान-ध्यान के सिवाय कोई बात नहीं कही। उपाध्यायश्री को प्रश्नोत्तर करने का बहुत ही शौक था। वे बहुत ही सीधे-सादे शब्दों में आगम के गम्भीर रहस्य बताते थे उनकी आगमों पर अपार आस्था थी। उन्होंने ब्राह्मणकुल में जन्म लिया और गृहस्थाश्रम में वे गायत्री मन्त्र का जाप करते थे। पर जैन श्रमण बनने के बाद उनकी महान् आस्था नवकार महामन्त्र पर थी, और वे नियमित रूप से नवकार महामन्त्र का जाप करते थे। नवकार महामन्त्र की साधना के कारण उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गई थी जिसके फलस्वरूप उनके मंगल पाठ को श्रवण कर सभी प्रकार की व्याधियों से लोग मुक्त हो जाते थे। मध्यान्ह में जब वे मंगलपाठ सुनाते थे तो हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित होती थी हमने देखा चाँदनी चौक में और वीरनगर में हजारों लोग मंगल पाठ के समय दौड़ते हुए पहुँचते थे ।
गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ समय-समय पर हम लोग पहुँचते रहे। अन्तिम समय में उन्होंने संथारा कर स्वर्ग का वरण किया। धन्य है उनकी साधना और आराधना को हमारी कोटि-कोटि उनके चरणों में भावभीनी वन्दना ।
विविध विशेषताएँ
-धनपत बरड़िया (मदनगंज)
सन् १९७३ का वर्षावास गुरुदेव का अजमेर में था। उस वर्षावास में अनेकों बार गुरुदेव के दर्शन हेतु हम पहुँचे। हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर गुरुदेवश्री वर्षावास के पश्चात् मदनगंज पधारे। मदनगंज संघ गुरुदेवश्री से अपार प्रभावित हुआ । वर्षों तक हमारी प्रार्थना मदनगंज वर्षावास हेतु चलती रही, और हमारी प्रार्थना सफल हुई सन् १९८२ में । गुरुदेवश्री का वर्षावास मदनगंज में पूर्ण ऐतिहासिक रहा। उस वर्षावास में गुरुदेवश्री की पावन स्मृति को बनाये रखने हेतु " श्री वर्धमान पुष्कर जैन सेवा समिति" का निर्माण हुआ। उसमें चिकित्सालय और विभिन्न प्रकार के उद्योगों के लिए बिल्डिंग बन गई और चिकित्सालय प्रारम्भ भी हो गया।
गुरुदेवश्री की सेवा में जब भी हम पहुँचे उनकी असीम कृपा हमारे पर रही, हमने सदा ही उनको आल्हादित पाया। उनके भव्य
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और दिव्य चेहरे पर सदा ही आध्यात्मिक आलोक जगमगाता रहा है। विविध विशेषताएँ उनके जीवन में थीं। मेरी और मेरे परिवार की ओर से गुरुदेवश्री के चरणों में सादर श्रद्धाञ्जलि ।
भक्तों के भगवान
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पोपटलाल तवोटा (पूना)
पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का वर्षावास सन् १९६८ घोडनदी में हुआ। हमारी प्रार्थना को सम्मान देकर गुरुदेवश्री हमारे खेत पर पधारे और श्री संघ की सेवा का हमें सौभाग्य मिला। सन् १९६८ का पूना (सादड़ीसदन) में वर्षावास था । उस वर्ष भी गुरुदेवश्री की सेवा करने का हमें सुयोग मिला। सन् १९७५ में गुरुदेव का वर्षावास रायचूर करने का था। वे अहमदाबाद का वर्षावास सम्पन्न कर रायचूर की ओर बढ़ने की पूर्ण भावना रखे हुए थे, मैं गुरुदेवश्री के चरणों में पहुँचा और पुरजोर शब्दों में प्रार्थना की कि यह वर्षावास सादड़ीसदन पूना को देना होगा। आप हमारी प्रार्थना को ठुकराकर आगे नहीं पधार सकेंगे। गुरुदेव का निन्यानवे प्रतिशत विचार रायचूर का था पर हमारी भक्ति ने रंग दिखाया और गुरुदेवश्री का वर्षावास सादड़ीसदन, पूना में हुआ। और उस वर्षावास में सेवा का लाभ हमें मिला।
सन् १९९० में गुरुदेवश्री का वर्षावास पीपाड़ या गढ़सिवाना करने का था । हमने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की कि गुरुदेवश्री आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है। भयंकर गर्मी है इसीलिए हमारी हार्दिक प्रार्थना है कि आप यह वर्षावास सादड़ी प्रदान करें। और हमारी प्रार्थना ने साकार रूप लिया। संवत्सरी के दूसरे दिन गुरुदेव श्री को हार्ट अटैक आ गया था पर हमारे और संघ के पुण्य प्रताप से गुरुदेवश्री पूर्ण स्वस्थ हो गये सादड़ी वर्षावास में भी गुरुदेवश्री की सेवा का हमें लाभ मिला। वस्तुतः गुरुदेव श्री भक्तों के भगवान थे। उनके चरणों में कोटि-कोटि वन्दन के साथ श्रद्धाञ्जलि |
कितने महान थे गुरुदेव !
-रमणलाल जयन्तीलाल पुनमिया (बसई)
पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का मेरे पर और मेरे परिवार पर असीम उपकार रहा है। गुरुदेव श्री हमारी प्रार्थना को सन्मान देकर चार बार वसई पधारे। उस समय मेरी बहन काफी संत्रस्त थी। गुरुदेवश्री के मंगलपाठ को श्रवण कर वह पूर्ण स्वस्थ हुई। इसी प्रकार मेरी पुत्री आशा और मेरा भाई जयन्ती भाई भी गुरुदेव श्री के मंगलपाठ को श्रवण कर पूर्ण स्वस्थ हो गये। जिस व्याधि का उपचार डाक्टर के पास भी नहीं था उसका उपचार गुरुदेव के पास था।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गुरुदेवश्री की साधना बहुत ही गजब की थी जिसका हमें एक मन सदा धर्म-साधना में लगा रहे। गुरुदेवश्री के चरणों में बार नहीं, बीसों बार अनुभव हुआ। सन् १९९० में गुरुदेवश्री का । कोटि-कोटि वंदन। मंगलमय वर्षावास सादड़ी में हुआ और उस वर्षावास में हमें गुरुदेवश्री की सेवा करने का सौभाग्य मिला। गुरुदेव की असीम
निष्पृह गुरुदेवश्री कृपा हमारे पर रही। वस्तुतः गुरुदेवश्री कितने महान् थे। उसका वर्णन हम नहीं कर सकते। उनके चरणों में कोटि-कोटि वन्दन।
-देवीचंद रतनचंद रांका (सिकन्दराबाद) सिवानची प्रान्त में परम श्रद्धेय गुरुदेवश्री का एकछत्र साम्राज्य
था। लगभग दो शतक से भी अधिक समय हो गया, जब आचार्य तीन पीढ़ियों की सेवा
अमरसिंह जी म. की शिष्य परम्परा उस प्रान्त में विचरती रही है, -हिम्मतसिंह मेहता (जयपुर)
हमारा ग्राम राखी ऐसा मध्य केन्द्र में बसा हुआ है कि मोकलसर से
यदि किसी संत को खण्डप भारड़ा पचारना है तो राखी पधारना ही महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. जब बाल्यकाल में थे, तब होगा। यदि किसी को मोकलसर से कर्मावास समदड़ी पधारना है तो मेरी पूजनीया मातेश्वरी सुगनकुंवर भी लघुवय में थीं, दोनों का राखी पधारना होगा, इस प्रकार प्रतिवर्ष गुरु भगवन्तों का और बाल्यकाल एक साथ बीता, ताराचंद्र जी म. ने दीक्षा ग्रहण की, पर | महासतीवृंद के दर्शनों का लाभ अनेकों बार हमें मिलता रहा। मेरी मातेश्वरी दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकीं किन्तु दीक्षित साध्वी की _महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म. आदि संत भगवन्त के दर्शनों तरह उन्होंने जीवन जीया। वे सुश्राविका थीं उनके जीवन के का सौभाग्य हमें बाल्यकाल से ही मिलता रहा। हमारे माता-पिता, कण-कण में धर्म की भावना ओतप्रोत थी, उनके पवित्र संस्कार
गुरुदेवों के प्रति अनन्य आस्थावान् थे। हमारे जीवन में भी आए। सन् १९४५ की ग्रीष्म ऋतु थी, श्रद्धेय पूज्य गुरुदेवश्री ताराचन्द्र जी म., श्री पुष्कर मुनिजी म. आदि संत
हमारी पूजनीया मातेश्वरी की यह हार्दिक तमन्ना थी कि हमारे
ग्राम में गुरुदेवों का आगमन तो होता है किन्तु एक या दो दिन से उदयपुर पधारे, शाम के समय पुष्कर मुनिजी म. गोचरी के लिए
अधिक नहीं विराजते। कभी इस क्षेत्र में गुरु भगवन्तों का चातुर्मास पधारे, तीसरी मंजिल से गोचरी लेकर सीढ़ियाँ उतर रहे थे,
भी हम करा सकें तो हम बहुत ही सौभाग्यशाली होंगे। माता-पिता भयंकर गर्मी से महाराजश्री को चक्कर आ गया और सीढ़ियों से
के रहते हुए उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो सकी। मेरे आदरणीय नीचे गिर पड़े, सिर में भयंकर चोट आई, बेहोश हो गए। काफी
ज्येष्ठ भ्राता रतनचंद जी रांका ने सोचा कि माता-पिता की भावना खून गया, उस रुग्ण अवस्था में माताजी ने मुझे आदेश दिया कि
को मूर्त रूप देना हमारा दायित्व है और इसी भव्य भावना से तुझे इस अवसर पर गुरुदेवश्री की सेवा करनी चाहिए और माँ के
उत्प्रेरित होकर उन्होंने धर्म स्थानक का निर्माण करवाया। अतिथियों आदेश को शिरोधार्य कर मुझे उस समय सेवा का अवसर मिला।
के लिए पंचायती नोहरे का निर्माण करवाया, छोटा गाँव होने से राजकीय सेवा के कारण मुझे जयपुर रहना पड़ा, सन् १९५३, अन्य सुख-सुविधाएँ भी दर्शनार्थियों के लिए संभव नहीं थीं, अतः १९५५ और १९५६ इन तीन वर्षों में गुरुदेव के तीन वर्षावास सभी प्रकार की सामग्री उन्होंने संजोई और गुरुदेवश्री से मद्रास, जयपुर में हुए तथा परम विदुषी साध्वीरत्नश्री सोहनकुंवरजी म. के बैंगलोर, सिकन्दराबाद और उदयपुर वर्षावास में निरन्तर प्रार्थना वर्षावास भी जयपुर हुए। उन चातुर्मासों में मेरी माताजी प्रायः करते रहे कि राखी पर आपकी कृपा होनी चाहिए। सन् १९८१ में महासतीजी के सान्निध्य में ही विराजती थीं। माताजी में सुश्राविका हमारा संघ नाथद्वारा पहुँचा, उस समय नाथद्वारा में म. प्र., मेवाड़ के सारे सद्गुण विद्यमान थे और उन्हें गुरुदेव कहा करते थे, और मारवाड़ के बीसों संघ उपस्थित थे। सबसे छोटा संघ हमारा इन्होंने साध्वी के श्वेत वस्त्र धारण नहीं किये हैं पर साध्वी के गुण था पर गुरुदेवश्री ने हमारे संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया और इनमें विद्यमान हैं, इसलिए वे उन्हें स्नेह और सद्भाव के साथ राखी संघ को वर्षावास का लाभ मिला। हमने गुरुदेवश्री से यह भी 'काला महाराज' कहते थे।
प्रार्थना की कि गुरुदेवश्री महासती श्री शीलकुँवरजी म. का ____माता के सुसंस्कारों का ही यह सुफल है कि राजकीय सेवा से ।
चातुर्मास भी हमें मिलना चाहिए ताकि चतुर्विध संघ उस छोटे से निवृत्त होने के पश्चात् मैं १५ वर्षों से सामायिक, स्वाध्याय आदि
क्षेत्र में विराजकर धर्म की अपूर्व प्रभावना करे। दयालु गुरुदेव ने की आराधना में लगा हुआ हूँ, मैंने महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी
हमारी प्रार्थना को स्वीकार किया और चतुर्विध संघ के साथ म., उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. और आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी
वर्षावास सानंद संपन्न हुआ। म. इन तीन पीढ़ियों की सेवा की है और प्रायः प्रतिवर्ष मैं दर्शनों हमारे पूज्य भाई सा. ने इस वर्षावास को पूर्ण सफल बनाने के के लिए सपरिवार जाता रहा हूँ, चद्दर समारोह के अवसर पर भी } लिए जी-जान से प्रयास किया और हमारे आग्रह को सम्मान देकर गया था और गुरुदेव ने मुझे अंतिम आशीर्वाद भी दिया कि मेरा सिवानची प्रान्त के तथा अन्य भारत के विविध अंचलों से हजारों
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दर्शनार्थी राखी जैसे नन्हे से गाँव में पहुँचे और हमें उनकी सेवा का चित्र उटूंकित होता है, जिनके अन्तर्हृदय में ज्ञान का अगाध सागर भी अवसर मिला। वर्षावास के कारण राखी जैसा छोटा-सा ग्राम हिलोरें ले रहा था, जिनके मस्तिष्क से अनुभव का अमृत फूट रहा गुरुदेवश्री के विराजने से नगर जैसा बन गया। खूब धर्म की। था, जिनके हाथों में समय के प्रवाह को रोकने की अपूर्व क्षमता थी प्रभावना हुई। दान, शील, तप और भाव की सुरसरिता प्रवाहित हुई। जिनके पैरों में पहलवान की-सी मस्ती थी, जिनके कण्ठ से उस वर्षावास में चार माह तक गुरुदेवश्री के निकट संपर्क में |
उदात्तवाणी प्रस्फुटित होती थी, वस्तुतः वे महापुरुष थे, जिन्होंने रहने का परम सौभाग्य हमें मिला। हमने देखा गुरुदेवश्री निष्पह
हमारे अन्तर्जगत के अंधकार को नष्ट किया और ऊर्ध्वगामी योगी थे, कभी भी किसी भी वस्तु की चाह नहीं। हमारे अनेक बार
चिन्तन प्रदान किया। निवेदन करने पर भी उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम्हें यह कार्य मैं बहुत ही छोटा था, बचपन की एक धुंधली-सी स्मृति आज करना है, गुरुदेवश्री का यही उत्तर रहता था कि आप अपनी इच्छा । भी मानस-पटल पर चमक रही है। हमारे ग्राम में गुरुदेवश्री का से इतना अच्छा कार्य कर रहे हैं, मेरे कहने की आवश्यकता क्या? आगमन हुआ और उस ज्ञानरूपी हिमालय से प्रवचन गंगा प्रवाहित उनके जैसा निष्पृह संत/अनासक्त संत मिलना दुर्लभ ही नहीं, अति हुई। उस प्रवचन गंगा में अवगाहन कर सभी का हृदय आल्हादित दुर्लभ है।
था। क्या धनवान और क्या गरीब, क्या अमीर और क्या गुरुदेवश्री प्रबल पुण्य के धनी थे, सिवानची प्रान्त के श्रद्धालु
दीन-दुःखी, क्या मोची और क्या चमार हो, सभी उनकी आकर्षक अपने गाँव से बाहर बहुत ही कम जाते हैं पर उस वर्षावास में
वाणी से प्रभावित थे। यह था उनकी वाणी का अद्भुत प्रभाव, सिवानची प्रान्त के सुश्रावक और सुश्राविकाओं ने दर्शन और
बेमिसाल चमत्कार, जिससे सभी प्रभावित थे। प्रवचन लाभ लेकर एक कीर्तिमान स्थापित किया। क्या स्थानकवासी, उस महापुरुष का जन्म उस समय हुआ जब भारत परतन्त्रता क्या मंदिरमार्गी, क्या जैन और क्या अजैन, ३६ कीम वाले दूर-दूर । की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी शासकों ने देश को बुरी के अंचलों से राखी पहुँचते थे, यह था गुरुदेवश्री का अतिशय। तरह से अपने चंगुल में फँसा रखा था। उस समय भारत के मूर्धन्य गुरुदेवश्री समदर्शी थे। गुरुदेवश्री के प्रवचनों में जैनों से भी
मनीषीगण देश को आजाद बनाने के लिए प्रबल प्रयास कर रहे थे। अजैन अधिक उपस्थित होते थे। जब गुरुदेवश्री रामायण का
खादी का आंदोलन द्रुतगति से चल रहा था। खादी अल्पारंभी है, प्रवचन में वांचन करते तो श्रोता झूमने लगते। गुरुदेव श्री फरमाते,
इसलिए आपने भी खादी पहनने का नियम ग्रहण किया और जीवन मेरे लिए राम और भगवान महावीर बराबर हैं और दोनों ही मोक्ष
भर आपने खादी के वस्त्रों का ही उपयोग किया। आपके मंगलमय में पधारे हैं। परम श्रद्धेय गुरुदेवश्री का असीम उपकार हमारे पर
प्रवचनों में राष्ट्रीय भावना, देशभक्ति के स्वर सदा मुखरित होते रहा है, हमारे परिवार पर रहा है, हम उनके असीम उपकार से
रहते थे। आपका यह स्पष्ट मंतव्य था कि जिस देश में हम जन्मे
हैं, जिस देश के अन्न और जल से हमारे शरीर का निर्माण हुआ विस्मत नहीं हो सकते। हमारे ज्येष्ठ भ्राता रतनचंद जी सा. रांका
है, उस देश के प्रति हमें पूर्ण रूप से वफादार रहना चाहिए। आज नहीं रहे हैं किन्तु उनकी अन्तिम इच्छा गुरुदर्शन की थी और
राष्ट्रीय संपत्ति का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए, जब कभी भी आप गुरुदेवश्री का स्मरण करते-करते ही उन्होंने प्राण त्यागे थे, अतः
राष्ट्र धर्म पर प्रवचन करते तो लगता था कि आपका हृदय बोल हम उनके शव को लेकर गुरुदेवश्री के चरणों में पहुंचे और गुरुदेव
रहा है। देश में फैलती हुई अनैतिकता, अमानवीयता के प्रति से मंगलपाठ श्रवण कर उनका अग्नि संस्कार किया।
आपकी वाणी अंगारे की तरह बरसती थी। आप अपने प्रवचनों में आज गुरुदेवश्री हमारे बीच में नहीं रहे हैं परन्तु गुरुदेवश्री के नैतिकता पर बल प्रदान करते थे, सादा जीवन जीने की प्रेरणा देते सुशिष्य देवेन्द्र मुनिजी आज श्रमणसंघ के सरताज बने हैं, यह थे। लोक कथाओं के माध्यम से आगम, वेद, उपनिषद, पुराण के गुरुदेवश्री का ही पुण्य फल है, जिसके कारण उन्होंने इतनी प्रगति माध्यम से वे इस प्रकार सरल और सरस रूप में विषय का की है। मैं अपनी ओर से, अपनी भाभीजी की ओर से तथा सम्पूर्ण प्रतिपादन करते कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठते। आपश्री के प्रवचन में परिवार की ओर से गुरुदेवश्री के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि सर्वत्र समन्वय के स्वर प्रस्फुटित होते थे। आपका यह मानना था समर्पित करता हूँ।
कि हम आग बुझाने वाले हैं, हम आग लगाना क्या जाने, हम
स्नेह-सद्भावना का प्रचार संचार करने वाले हैं। आपके प्रवचनों की [ स्नेह और सद्भावना के पावन प्रतीक )
सबसे बड़ी विशेषता थी कि आप जन-जन में प्रेम और सद्भावना
का संचार करते थे। आपके प्रवचनों को श्रवण कर जन-जन के मन -नाथूलाल मादरेचा (ढोल)
में फैला हुआ वैमनस्य सदा-सदा के लिए धुल जाता था, स्नेह और
सद्भावना के पावन प्रतीक सद्गुरुदेव के चरणों में हार्दिक श्रद्धांजलि उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्करमुनिजी म. सा. का पावन समर्पित करते हुए मैं अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा हूँ कि स्मरण आते ही मानस पटल पर एक ऐसे दिव्य-भव्य व्यक्तित्व का मुझे ऐसे सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ गुरुदेव प्राप्त हुए।
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समन्वय परम्परा के स्थापक उपाध्यायश्री
देवराज मेहता (जयपुर)
हमारी गौरवशाली भारतभूमि संतों, मुनियों, ऋषियों और महात्माओं की तपोभूमि रही है। यहाँ की पावन पुण्य धरा पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम, कर्मयोगी श्रीकृष्ण, अर्हत अरिष्टनेमि, भगवान महावीर, तथागत बुद्ध जैसे नररत्न यहाँ पर जन्मे और उनकी यह अध्यात्म क्रियास्थली रही है। यहाँ के कण-कण में आज भी संत साधना का साक्षात् कराने की क्षमता है। यदि किसी के अन्तरमानस में निष्ठा है तो इतिहास के पृष्ठ इस बात के साक्षी हैं। कि बड़े से बड़े सम्राट और सद्गृहस्थ संतों के चरणों की धूल लेने के लिए सदा सलकते रहे और अपने आपको सौभाग्यशाली मानते रहे | संत निसंग भाव से कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक घूम-घूम कर धर्म प्रचार करते रहे। वे समन्वय की आदर्श परम्परा के स्थापक रहे, स्नेह सद्भावना और आत्मीपम्य दृष्टि प्रदान करना उनका संलक्ष्य रहा, इसलिए सम्राट से भी बढ़कर परिव्राट की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। यह एक परखा हुआ सत्य है। अन्य भिक्षु या महात्मागण अपनी मर्यादाओं को विस्मृत होकर परिग्रह के सिद्धांत को अपनाते रहे, उनका जीवन एक आदर्श जीवन न रहकर एक ऐश्वर्य संपन्न व्यक्ति का जीवन हो गया पर जैन श्रमण इसका अपवाद रहा। जैन श्रमण सदा ही आत्म-साधना के महामार्ग पर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाता रहा और आधुनिक युग में भी उसका यह पवित्र आदर्श हमें देखने को मिलता है।
परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. स्थानकवासी जैन परम्परा के एक ओजस्वी / तेजस्वी संत थे। हमारे परिवार पर उनकी असीम कृपा रही है। परम्परा की दृष्टि से वे हमारे गुरु भी रहे हैं। वे जीवन भर आनन्द और उल्लास के साथ जीये और मृत्यु को भी उन्होंने महोत्सव बना दिया। वे जब तक जीये तब तक अपनी साधना की मस्ती में मस्त रहे। और जब पार्थिव शरीर को छोड़कर अगली दुनिया में उन्होंने प्रस्थान किया तो आनंद से झूमते हुए वे विदा हुए, उनके मानस सागर में अपनी साधना और कृतित्व के प्रति अपार आस्था की लहरें तरंगित हो रही थीं, उनकी मौत मोहपाश से आबद्ध नहीं थी। जो मौत मोहपाश से आबद्ध होती है, वह मौत वास्तविक मृत्यु नहीं होती, वास्तविक मृत्यु तो यह है, जो हँसते हुए मृत्यु को वरण करें। उन्होंने हँसते हुए मृत्यु को वरण किया था। यही उनकी साधना का आराधना का शिखर था। वस्तुतः उनका जीवन महान् था और वे महानता की कसौटी पर सदा-सर्वदा खरे उतरे, ऐसे महागुरु के चरणों में कोटि-कोटि वंदन
Yaba
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सभी मनोरथ सिद्ध हुए
-सुनील कुमार पूनमचन्द, सूरह (दिल्ली)
जब किसी व्यक्तित्व में महानता के गुणों का अवतरण होता है। तो वह सहज ही जन-जन के मन का श्रद्धा का भाजन बन जाता है। परम श्रद्धेय स्व. उपाध्याय प. गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवन भी सभी की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। आपका जीवन निर्मल जल की भाँति पवित्र था। आपके जीवन में सादगी और सरलता की सुर-सरिता प्रवाहित थी आप अपने और पराये की भावना से परे थे। आपकी देव, गुरु, धर्म के प्रति अनंत आस्था थी, अगाढ़ स्नेह था।
मेरा परम सौभाग्य रहा कि आप जैसे सद्गुरु की मुझे उपलब्धि हुई। गुरु एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो मानव को नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा बना देता है। गुरु ऐसे श्रेष्ठ कलाकार हैं जो एक अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा का रूप प्रदान कर देते हैं। जो वन्दनीय और पूजनीय हो जाते हैं। वस्तुतः आपश्री का जीवन, शान्त, सौम्य, ज्ञान की गंभीरता, विचारों की गरिमा, स्वभाव की सरलता, विनम्रता और कोमलता से आपूरित था। आपश्री के प्रवचनों में समन्वय के स्वर मुखरित थे। आपकी सरलता हृदय को स्पर्श करती हुई अन्तर्मानस को छूती थी। आपकी वाणी में ओज, तेज और मधुरता का ऐसा सुन्दर समन्वय था जो श्रोता प्रवचन को श्रवण कर लेता, वह आत्म-विभोर हो उठता।
मैंने सुना कि आपश्री के सद्गुरुवर्य महास्थविर श्री ताराचंद्र जी म एक महान जपयोगी संत रत्न थे और उनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता ज्येष्ठमल जी म. भी सिद्ध जपयोगी थे, वे रात-रात भर खड़े रहकर जप की साधना करते थे। जप साधना से उनकी वाणी में एक चमत्कार पैदा हो गया था। गुरु परम्परा से प्राप्त जाप की विधि आपको प्राप्त हुई थी और नियमित समय पर आपश्री भी निरन्तर जाप करते थे और जाप साधना में आपकी अत्यधिक अभिरुचि थी। आपकी जपनिष्ठा ने एक ऐसी अद्भुत शक्ति पैदा कर दी थी। कि हजारों व्यक्ति आपके मंगलपाठ को सुनकर अपने चिन्ताओं से मुक्त हो जाते थे। जब मध्याह्न में आप ध्यान के पश्चात् मंगलपाठ देते, उसे समय बरसाती नदी की तरह जनता उमड़ पड़ती थी । बाजार बन्द हो जाते थे, सड़कों पर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। धन्य है ऐसे महापुरुष का दिव्य जीवन, धन्य है उनकी अद्भुत साधना, जिसे हमें प्रत्यक्ष देखने का अनुभव हुआ। जिनके मंगलपाठ को श्रवण कर मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हुए।
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समय-समय पर मैं और हमारा परिवार तथा पूज्य पिता श्री पूनमचन्दजी पूज्य गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ पहुँचते रहे। जब हमें यह ज्ञात हुआ कि गुरुदेवश्री ने संथारा ग्रहण किया है, मैं उस समय बम्बई में था। मैने पूज्य पिताश्री को दिल्ली फोन किया। पूज्य पिताश्री ने फोन पर मुझे सूचित किया कि पूज्य गुरुदेवश्री के
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
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अन्तिम अग्नि संस्कार का लाभ हमें लेना है। पूज्य पिताश्री की हम अपनी अनंत आस्था समर्पित करते हैं। हम अपना सौभाग्य भावना को लक्ष्य में रखकर मैं बम्बई से और पिताश्री दिल्ली से समझते हैं, उनके तेजस्वी शासन में हमें रहने का सौभाग्य मिला। उदयपुर पधारे। हमारा यह परम सौभाग्य रहा कि हमारी भावना के अनुसार यह लाभ हमें मिला। हम अपने आपको सौभाग्यशाली [ संघ और राष्ट्र के प्राण समझते हैं कि हमें यह सेवा प्राप्त हुई। गुरुदेवश्री के चरणों में मैं अपनी और हमारे परिवार की वन्दना के साथ श्रद्धांजलि समर्पित
-सुनील कुमार जैन (गुड़गाँवा) 5 करता हूँ।
एक नन्हे से वटवृक्ष के बीज में विराट वृक्ष का अस्तित्व छिपा साधना पथ के अविश्रान्त पथिक
है। उमड़-घुमड़ कर आते हुए बादलों की ओट में शीतल लहरों का
सागर छिपा है, उसी प्रकार महापुरुषों के जीवन में सद्गुण छिपे 900 -ज्ञानचन्द तातेड़ (दिल्ली)
रहते हैं। उनका जीवन ज्ञान, सरलता, सहजता, सहिष्णुता,
सौम्यता, नम्रता प्रभृति, सद्गुण उनके जीवनाकाश में मंडरा रहे थे, 50 श्रमण भगवान महावीर विश्व चेतना के पावन पथिक थे, वे
सेवा और समर्पण भाव तो उनके जीवन के कण-कण में व्याप्त था। शेर की तरह साधना के पथ पर अप्रमत्त भाव से निरन्तर बढ़ते
आगमों का गहन अध्ययन और तलस्पर्शी विद्वता होने पर भी उनमें रहे और जो भी महापुरुष उनके संपर्क में आया, उन्हें भी उस पथ
अहम् का अभाव था। कुछ व्यक्तियों की धारणा है कि विद्वता पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित किया। समय-समय पर इस पावन पथ अहंकार को जन्म देती है, पर प्रस्तुत मंतव्य को आपने असत्य पर अनेक विभूतियाँ प्रकट होती रही हैं जो केवल अकेली ही नहीं सिद्ध कर दिया। जो भी व्यक्ति आपके संपर्क में एक बार आ गया पाण्य चलीं अपितु उनके साथ एक कारवां चलता रहा है। परम श्रद्धेय वह आपकी विद्वता और सरलता के मणिकांचन संयोग को देखकर उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का संयमी जीवन ही अकेला नहीं
श्रद्धा से नत हुए बिना नहीं रहा। चला। उनके साथ प्रतापमल जी म. ने भी आर्हता दीक्षा ग्रहण की थी और उसके पश्चात् उनकी पावन प्रेरणा के प्रदीप से अनेकों
प्रथम दर्शन में ही मैं आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका, व्यक्तियों का जीवन ज्योतिर्मय बना। आपकी पावन प्रेरणा से
अनिमेष दृष्टि से आपकी ओजस्वी, तेजस्वी सौम्य आकृति को
देखता ही रह गया। आप जैसे विमल विभूति-समता मूर्ति के दर्शन अनेकों भव्य आत्माओं ने सागार धर्म से आगार-अनगार धर्म को स्वीकार किया।
पाकर हृदय आनन्द से झूम उठा। आपमें एक ऐसी संजीवनी शक्ति
थी, प्रण एवं सत्व का बल था जो अन्य व्यक्तियों में बहुत कम आपश्री की साधना समन्वय की पोषक रही है। आपके विमल
देखने को मिलता है, आप जैसे महान् व्यक्ति ही समाज संघ और विचार, आपका मधुर व्यवहार और आपकी निर्मल वाणी में
राष्ट्र के प्राण हो सकते हैं। आप भौतिक यशः कीर्ति के व्यामोह से समन्वय की सुरसरिता सतत् प्रवाहित रही है। आपका जीवन फूलों
अत्यधिक दूर थे। आप देना जानते थे जो भी आपके पास आता, का उपवन है, जिसमें अनेक सद्गुण रूपी सुगन्धित फूल/पुष्प महक उसे आप ज्ञान-दान देते थे। आपका ज्ञान रूपी महामेघ सतत् रहे हैं। आपकी कृपा दृष्टि को पाकर तुच्छ व्यक्ति भी उच्च बनता बरसता ही रहता था तथा पठन-पाठन के अतिरिक्त आपका रहा है। आप साधना पथ के अविश्रान्त पथिक रहे हैं। आपका
अधिकांश समय ध्यान, स्वाध्याय और आत्म-चिन्तन में ही लगता जीवन कर्मयोगी का जीवन रहा। आपके जीवन में प्रबल पुरुषार्थ
था। सबसे बड़ी विशेषता थी, समता की आप साक्षात् मूर्ति थे। सदा देखा जा सकता था, जीवन के कण-कण का और क्षण-क्षण शारीरिक कष्ट के समय भी सदा आप मुस्कराते रहते थे, मुहरमी का सदुपयोग कर आप महान् बने और आपने दूसरों को भी यही
सूरत आपको किंचितमात्र भी पसन्द नहीं थी। आपका हृदय आनन्द प्रेरणा दी कि तुम्हें भी जीवन को महान् बनाने के लिए सतत्
से आपूरित था और वही आनन्द आपकी वाणी और चेहरे पर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। सतत् पुरुषार्थ से ही जीवन में
स्पष्ट रूप से झलकता था। ऐसे सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर अभिनव चेतना का संचार होता है।
मुनि जी म. के चरणों में कोटि-कोटि वंदन। हे तप और त्याग के S d गुरुदेवश्री अपने जीवन के निर्माता थे। उन्होंने अपने जीवन को | देवता हमारी अनंत श्रद्धा को स्वीकार करो। श्रम से निखारा था, वे प्रत्युत्पन्नमति थे। गम्भीर से गम्भीर विषयों का वे उसी क्षण समाधान कर देते थे, उनके प्रवचनों में कभी भी
महामानव उपाध्यायश्री नीरसता नहीं होती थी, सदा हँसी के फव्वारे छूटते रहते थे। वे स्वयं सरस थे इसलिए उन्हें नीरसता पसन्द नहीं थी। वे सदा हँसते
-प्रो. बी. एल. पारख (अजमेर) हुए जीए और हँसते हुए ही उन्होंने मृत्यु को भी वरण किया, यही उनके जीवन की पूर्ण सफलता है, उनके जीवन रूपी भव्य भवन भारत की पावन पुण्य भूमि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अवतारी पर संथारे का स्वर्ण कलश सदा चमकता रहेगा, उनके चरणों में | महामानव को जन्म देने का गौरव प्राप्त हुआ है तो अनेक ऋषित
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
महर्षियों ने भी जन्म लेकर जन-जन को पवित्र प्रेरणा प्रदान की है।। आप भारत के महान संत, चिन्तक, अध्यात्मयोगी, मनीषी थे, इसी परम्परा की लड़ी की कड़ी में अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव । हे दया के सागर, पीड़ाहारक, महामानव तुम्हें शत-शत नमन। उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का नाम गौरव के साथ लिया जा सकता है। उपाध्यायश्री जी म. ओजस्वी और प्रभावशाली प्रवक्ता थे
अध्यात्मयोगी चला गया और समर्थ लेखक थे। उनका व्यक्तित्व अद्भुत और अनूठा था, उनका व्यवहार बहुत ही सौम्य था, जो भी उनके सम्पर्क में आया
-चाँदमल बाबेल (भीलवाड़ा) उसे ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हुआ, उन्होंने “सत्यं शिवं सुन्दरम्" D जीवन जीने की प्रेरणा दी। उनके प्रवचनों में भाषा की सरलता
"करोड़ों रोज आते हैं, धरा का भार बनने को। और भावों की गम्भीरता रहती थी। आपकी वाणी में ओज था।
अनेकों जन्म लेते हैं, जनों के पाश बनने को। आपश्री की आवाज बहुत ही बुलन्द थी। यहाँ तक कि आठ दस
कई हैं जन्मते पंडित, जवां से बह्म बनने को। हजार व्यक्ति भी बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के आपके प्रवचनों को
उपजते हैं यहाँ कितने, शरीरी सन्त बनने को॥" आनन्द के साथ सुन सकते थे।
इस नश्वर संसार में अनन्त प्राणी प्रतिदिन जन्म धारण करते आपने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया और जैन परम्परा में आप हैं और प्रतिदिन काल के विकराल गाल में विलीन हो जाते हैं। दीक्षित हुए। आप आजीवन जैन दर्शन के गंभीर अध्येता रहे, आप जन्म-मृत्यु का यह काल चक्र अनादि काल से चला आ रहा है। एक जैन दर्शन की जो सूक्ष्म मीमांसा करते, उसे श्रवण कर प्रबुद्ध वर्ग दिन जन्म लेना, एक दिन मरण को प्राप्त करना यह विश्व का अत्यधिक प्रभावित होता था। जैन कथा सिरीज माला में आपने अबाध सनातन नियम है। जन्म, मरण इस दृष्टि से अपने परिवेश १११ भागों का निर्माण किया, ये कथाएँ कितनी प्रेरक हैं, इसका में कोई विशेष घटना नहीं रह गयी है। पता ही नहीं चलता कि इस आभास मुझे सन् १९७८ में हुआ, जब मैं दृष्टिरोग से पीड़ित था जन्म-मरण के चक्रव्यूह में कौन, कब और कहाँ जन्म लेता है और और उसका उपचार करने के लिए मद्रास गया हुआ था, मेरी नेत्र इस संसार से कब चला जाता है। इस जन्म-मरण के चक्र को ज्योति पूर्णतया नष्ट हो चुकी थी। मैं उपाध्यायश्री का आशीर्वाद ऐतिहासिक बनाया जा सकता है ? यह प्रश्न विचारणीय है। लेने पहुँचा, उपाध्यायश्री जी ने आशीर्वाद दिया और आचार्य श्री विश्व के इतिहास में बड़े-बड़े धनपति व सताधीश हो चुके हैं। देवेन्द्र मुनिजी म. ने मुझे सांत्वना दी और उन्होंने जैन कथाओं की
जिनके प्रासाद गगन से टकराते थे जिनके विशाल भवनों में लक्ष्मी पुस्तकें दी। प्रतिदिन मैं अभिभावकगण से उन कथाओं को सुनता
। नृत्य करती थी जिनके शौर्यबल के सामने अनेकों योद्धा हाथ जोड़े लगभग वहाँ दो माह तक मुझे रुकना पड़ा, भारत के सुप्रसिद्ध नेत्र
खड़े रहते थे। किन्तु आज विश्व में उनके किस कोने में स्मृति चिन्ह चिकित्सक डॉ. बद्रीनाथ ने मेरी चिकित्सा की। शल्य चिकित्सा के
अवशिष्ट हैं? पूर्व मैं दर्शन के लिए पहुँचा। उपाध्यायश्री जी का मंगलपाठ श्रवण किया और आचार्यश्री ने मुझे कहा, हम गुरुदेव से प्रार्थना करेंगे वे
विश्व के उदयाचल पर विराट् व्यक्तित्व सम्पन्न दिव्यात्मायें आपके स्वास्थ्य की मंगल कामना करेंगे और आपको नेत्रज्योति
समय-समय पर उदित होती रही हैं। जिनके आचार-विचार, ज्ञान अवश्य प्राप्त होगी और यह सत्य सिद्ध हुआ।
और चारित्र का भव्य प्रकाश देश, धर्म और समाज के सभी
अंचलों को आलोकित करता रहा है। जन-जन के जीवन में ज्योति गुरुदेवश्री के दर्शन से मुझे मानसिक शांति प्राप्त हुई और
भरता रहा है। उनकी कथाओं से मेरे मन में अपूर्व शक्ति का संचार हुआ। आपकी साधना अपूर्व थी, मध्याह्न में आप ग्यारह से बारह बजे तक ध्यान
वस्तुतः भारत की शस्य श्यामला वसुन्धरा में युगों-युगों से करते थे। बारह बजे का मंगलपाठ सुनने के लिए हजारों की
धर्मधारा प्रवाहित होती रही है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर जनमेदिनी उपस्थित होती थी। स्थानकवासी परम्परा में ऐसे कम
तक के शासनकाल में हजारों-हजार संयमी मुमुक्षु आत्मायें धर्म पथ साधु मिले हैं जिनके मंगल-पाठ में हजारों की संख्या में उपस्थिति
पर चलकर आत्म-कल्याण करती हुईं जन-जन को सद्बोध देती हुई हो। आप सिद्ध जपयोगी थे, आपको दृष्टि इतनी पैनी थी कि
रही हैं। इसके बाद भी पावन धर्म सलिता निरन्तर प्रवाहित होती देखते ही आपको यह ज्ञात हो जाता था कि यह व्यक्ति अमुक
रही है। यह क्रम आज तक चला आ रहा है। व्याधि से संत्रस्त है और गुरुदेवश्री अपार कृपा कर उस व्याधि से इसी क्रम में महान मनस्वी, अध्यात्मयोगी वरिष्ठ उपाध्याय मुक्त होने का सही उपाय जप आदि बताते थे। गुरुदेवश्री ने अपने प्रवर १००८ श्री पुष्कर मुनि म. सा. आये जिनका मेवाड़ की शिष्य और शिष्याओं को शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति करने के लिए भूमि जो कि आनबान की रक्षा के लिये विश्वविख्यात है। ऐसी प्रेरणा दी और साहित्य निर्माण के लिए भी प्रेरणा दी, जिसके पवित्र धरती पर अवतरित हुये। वैसे मानव की महत्ता जन्म से फलस्वरूप ही आचार्य देवेन्द्र मुनिजी म. इतना विराट् साहित्य लिख } नहीं, उसकी पावन साधना से है, आत्मविकास से है। इस महापुरुष सके। अन्य संत भी इस दिशा में आगे बढ़ सके।
ने वही कर दिखाया। बचपन में ऐसे संस्कारों का बीजारोपण हुआ मन तात्ताततस्तन्तु EORDD
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O D www.janelibrary.org DAD A Geo-00066
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
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कि साधना के पथ पर चल पड़े। वैराग्य की धारा से जुड़ गये एवं आपका व्यक्तित्व जल तरंगों के समान निरन्तर गतिमान, पुष्प मुनिव्रत स्वीकार किया। मुनिव्रत स्वीकार करने के बाद सतत् के समान सदा प्रसरणशील रवि रश्मियों के समान आलोकमय, ज्ञान-साधना में संलग्न हो गये एवं निरन्तर अपने में अखण्ड ज्योति सागर समान गंभीर था। जगाते रहे, निरन्तर शुद्धत्व की ओर अपने दृढ़ कदमों से बढ़ते
आप मन से सरल, हृदय से भावनाशील, व्यवहार से मृदुल रहे। भगवान महावीर का सन्देश "ऐसे वीर प्रशंसीय जे बद्ध
एवं चित्त वृत्तियों से शान्त एवं निर्मल थे आपकी दिनचर्या पूर्ण पडिमोयए" को साकार किया।
व्यस्त थी। इस महापुरुष ने अपनी त्रिसाधना के साथ-साथ जन-कल्याण
हे वरिष्ठ उपाध्यायप्रवर, अध्यात्मयोगी, राष्ट्रसन्त, महान हेतु निरन्तर भारतभूमि के विभिन्न क्षेत्रों में विचर-विचर कर
क्रान्तिकारी, महान युग पुरुष, महान् सुधारक, महान् संगठन प्रेमी, महावीर का पावन सन्देश जन-जन के पास पहुँचाया। “साधयति स्व
समाज के सही नेतृत्वकर्ता, आपका जीवन हमें प्रेरणा देता रहेगा, पर कल्याणाय" का मंत्र आपके जीवन का अंग बन गया। आपने
ऐसी अमर आत्मा के चरणों में हार्दिक श्रद्धांजलि। अपने जीवन में भूले-भटके मानवों को सही दिशा निर्देशन कराया।
"अक्सर दुनिया के लोग जीवन में चक्कर खाया करते हैं। आपने सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय सभी धाराओं से जुड़कर अपने जीवन को समाज एवं देश के लिये समर्पित कर
किन्तु कुछ ऐसे ही, जो इतिहास बनाया करते हैं।" दिया।
ऐसे महापुरुष की क्षति केवल समाज में ही नहीं अपितु [ उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी का महाप्रयाण ) भारतीय समाज की अपूरणीय क्षति है। आप वास्तव में विश्व सन्त थे जैसा आपको इस पद से विभूषित किया गया था। आपने जो
-सुभाषचन्द जैन, क्रान्तिकारी विचार दिये, वे विचार युगों-युगों तक जनमानस को
४ अप्रैल को उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के देवलोक का प्रकाश स्तम्भ के रूप में परिलक्षित होते रहेंगे।
समाचार सुनकर जैन नगर, मेरठ के समस्त नागरिक स्तब्ध रह __आप भौतिक शरीर से हमारे मध्य से चले गये किन्तु विराट् । गए। ४ व ५ अप्रैल को भगवान महावीर स्वामी की जन्म जयन्ती व्यक्तित्व, साधना का सौरभ, ज्ञान की गरिमा, कीर्ति, यश हमारे । के सभी कार्यक्रमों को ५ अप्रैल के मध्यान्ह २.00 बजे तक के सामने विद्यमान है “कीर्तिर्यस्य सः जीवति" इस प्रकार आप प्रकाश लिए स्थगित कर दिया गया। जैन नगर, मेरठ के स्थानक के मुख्य स्तम्भ के रूप में विद्यमान हैं।
हाल में ५ अप्रैल की प्रातः को एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन आपने अनेक आत्माओं को संयम पथ पर अग्रसित किया।
किया गया जिसमें सर्वप्रथम सवा लाख श्री नमोकार मन्त्र का आपके मार्गदर्शन में भारत के तृतीय पट्टधर आचार्य देवेन्द्र मुनि
उच्चारण किया गया। तत्पश्चात् विराजित साधु-साध्वियों ने सा. शिष्यरत्न हैं जो आज अपनी साहित्य सेवा के द्वारा विश्व को
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी के श्रीचरणों में अपने श्रद्धा सुमन आलोकित किये हुए हैं। आप वरिष्ठ उपाध्याय पद से जाने ही नहीं
अर्पित किए। मेरठ जैन नगर समाज के अध्यक्ष श्री दर्शनलाल जैन जाते बल्कि आप इस पद के गुणों में पूर्णरूपेण खरे उतरे हैं,
सहित अनेक वक्ताओं ने अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए जैनधर्म की प्रभावना करने में आपने इस पद की गरिमा को
उपाध्यायश्री जी के मेरठ प्रवास का विशेष उल्लेख किया कि किस
प्रकार जनमेदिनी सभा में वे अपनी दिव्य मांगलिक दिया करते थे अक्षुण्ण बनाये रखा था।
व विशेष रूप से उत्तर भारतीय प्रवर्तक गुरुदेव श्री शान्तिस्वरूप आपके द्वारा सम्पादित कार्य चाहे वे सामाजिक हों, धार्मिक हों,
जी म. सा. के देवलोक पर आपने अपनी उपस्थिति से किस प्रकार साहित्यिक हों अपने आप में बेजोड़ हैं। आपके ये कार्य इतिहास के । तात्कालिक व्याकुल मेरठ के जैन समाज को धैर्य प्रदान किया। ऐसे पृष्ठों में जगमगाते ही नहीं अपितु इतिहास अपने आप में । ऐतिहासिक पुरुष के पावन श्रीचरणों में जैन नगर की सभी गौरवान्वित अनुभव करेगा।
संस्थाओं की ओर से भी श्रद्धा-सुमन अर्पित किए गए। आपने सफल योगी की भूमिका निभायी। आपको किसी की “शान्ति लोक परिवार" की ओर से उपाध्यायश्री जी के परवाह नहीं थी। आप निडर होकर अध्यात्म रस में तल्लीन रहते थे। कोई मेरी प्रशंसा करे या न करे। सबके प्रति समान व्यवहार था। कोई निकट का श्रावक हो या दूर का, धनवान हो या गरीब सबके साथ समानता, सच्चे ओलिये की तरह “सीकरी से क्या
बुद्धिमान न तो बीते हुए समय की चिन्ता करते हैं और न भविष्य
के लिये चिन्तित रहते हैं, बल्कि वे वर्तमान ही देखते हैं। काम" जहाँ पर है वही मस्त “स्वान्तसुखाय" अपने आप में लीन
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि रहते थे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अध्यात्मयोगी थे!
शोभा, भव्यात्माओं संत महात्माओं से है। उसका साज है। पंच
महाव्रतधारी त्यागी आत्मा जो भारतीय उद्यान के शोभायमान पुष्प -कमला माताजी (इन्दौर)
हैं, आपके ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं अमृतवाणी रूप पराग से अनेक
भविजनों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। और जिनवाणी के हे योगीराज! आपके गुणों का वर्णन करने में क्या यह जड़ माध्यम से चार गति में फंसे हुए अज्ञानी जीवों को बाहर निकालते लेखनी सक्षम हो सकती है ? नहीं। लेकिन मन के उद्गारों को प्रगट हैं अर्थात् अज्ञान की अंधेरी, अटवी में रगड़ते हुए अज्ञानी आत्मा करने में यही सच्ची सहायक है।
को मिथ्यात्व के घोर तिमिर से सम्यक्त्व के आलोक में ले जाते हैं हे पुष्करराज! आपश्री ने डगर-डगर, नगर-नगर में पाद भ्रमण
एवं भव-भ्रमण का अन्त करवाते हैं। उनमें से अनेक संत अब इस कर तरण-तारण के विशेषण को सार्थ किया।
धरती पर नहीं हैं किन्तु उनके असीम सद्गुण रूपी पुष्पों की सौरभ
हजारों वर्षों तक महकती है। "आप तिरे पर तारही, ऐसे श्री गुरुराज, वे गुरु मेरे उर बसो"
इस धरातल पर विराट् विश्व में अनन्त प्राणी जन्मते हैं और पुष्कर तीर्थ एक ही स्थान पर स्थित है, लेकिन आप तो
मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अगले पड़ाव के लिए रवाना हो जाते हैं। चलते-फिरते सच्चे तीर्थ थे। भव्यजनों की ज्ञान-पिपासा को शान्त
कौन कहाँ से आया, कहाँ जायेगा, कोई अता-पता नहीं लगता है करने में सक्षम थे, वाणी में तो जादू ही था।
किन्तु कई भव्यात्माओं का जीवन इतना महान होता है कि जीवन __हे आत्मचिन्तक! प्रतिक्षण आत्मचिन्तन में ही व्यतीत होता था। की अंतिम श्वास तक स्व-पर की साधना में अपना जीवन सफल जब-जब भी सेवा का लाभ मिला। ज्ञान-चर्चा का ही मुख्य लक्ष्य
बना लेते हैं। रहता था पूज्यश्री का। आपकी चिन्तनरूपी धाराओं के द्वारा जो
इतिहास स्थानकवासी समाज के आदरणीय वंदनीय स्तुत्य 80 नवनीत निकला है वह युगों-युगों तक भव्य आत्माओं को पुष्ट }
जीवन सैंकड़ों संतों की गौरव गाथा से भरा पड़ा है। उसी श्रृंखला 2 करता रहेगा।
के मोती यथा नाम तथा गुण जिनका जीवन पुष्कर (सरोवर) की हे पुण्यपुज! तीनों योग पुण्य प्रतिभा से ओतप्रोत थे। गौर । भाँति निर्मल था ऐसे पूज्यपाद परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर वर्ण। आकर्षक विशाल काया! मनोयोग-जन-जन हिताय, जन-जन मुनिजी म. सा. की पावन स्मृति में एक ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है। सुखाय, वचन प्रतिभा भी अलौकिक थी। जिन-जिन आत्माओं को उस महान विभूति के गुणगान करने का लघु साहस मैं करने जा दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ, आपकी साधक मूर्ति ने अपना स्थान रही हूँ। बना ही लिया उनके हृदय में।
परम श्रद्धेय पुष्करमुनिजी म. सा. विशाल संघ रूपी आकाश सच्चे शिल्पी! पत्थर से प्रतिमा घड़े, पूजा लहे अपार। जड़ के क्षितिज पर उदय होने वाले सहन रश्मि दिवाकर थे। आपका पत्थर को भी अपनी टाँचनी के द्वारा उसे पूजनीय बना देता है सही।
बहुमुखी ज्योतिर्मय व्यक्तित्व जैन अजैन सभी क्षेत्रों में श्रद्धा का कारीगर।
केन्द्र था। आपका जीवन सरल एवं जप की सौरभ से महकता हुआ लेकिन आप तो चैतन्य शिल्पी थे। एक नन्हे से बालक को ज्ञान था। जीवन के उषा काल में ही ऐश-आराम से एवं सांसारिक र रूपी छैनी के द्वारा सभी गुणों में सम्पन्न बनाया। जो आज श्रमणसंघ प्रलोभन से ऊपर उठकर मोक्षमार्ग की आराधना हेतु संयमनिष्ठ के सरताज आचार्य पद को सुशोभित कर रहे हैं।
जीवन अंगीकार करना आपके जीवन की महान विशेषता रही है। ऐसे धीर! वीर! गंभीर! पू. आचार्यप्रवर को पाकर श्रमणसंघ
जप, साहित्य-सेवा एवं दया भाव से आप आजीवन लगे रहे। भी गौरव अनुभव कर रहा है। वैसे सभी शिष्यरल आपके हमारा परम सौभाग्य है कि ऐसी महान् विभूति द्वारा लिखा प्रतिभासम्पन्न हैं।
हुआ साहित्य पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। उग्र साधना अद्भुत 1 दृढ़ संकल्पी! महाप्रयाण भी पादोग-गमन संथारे द्वारा हुआ यह
समता एवं सरलता के फलस्वरूप जिस परम तत्व का साक्षात्कार भी आपकी गाढ़ साधना का परिचय है। हे ज्योतिपुंज! आज जहाँ
किया उसे आपने विश्व-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर साहित्य भी विराज रहे हों। मैं शत्-शत् वन्दन युक्त भावभीनी श्रद्धांजलि
के रूप में रख दिया। महापुरुषों के सारगर्भित साहित्य हमारे अर्पित करती हूँ।
मार्गदर्शक हैं। उपाध्यायश्री जी का हमारे ऊपर बड़ा भारी उपकार है कि उन्होंने जीवन के अंधेरे रास्ते को तय करने के लिए उनका
साहित्य रूप दीपक दिया है। । जप की पावन ज्योति के चरणों में )
आप भव्य और आकर्षक शारीरिक सम्पदा से सम्पन्न होने के -सौ. मंजुला बहन अनिलकुमार बोटादरा (इन्दौर) साथ ही सेवा एवं जप की गरिमा से विभूषित थे। आप बहुमुखी
प्रतिभासम्पन्न विरल व्यक्तित्व के धनी और उत्कृष्ट चारित्रिक गुणों भारत संतों की नगरी है, अर्थात् भारत का गौरव भारत की से विभूषित अनुपम आध्यात्मिक विभूति थे। जीवन की अंतिम
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
श्वास तक स्व-पर की साधना में आपने अपना जीवन सफल बना लिया। इस दुर्लभ मानव देह को प्राप्त कर आपने पूरा जीवन आध्यात्मिक खोज में बिता दिया था। आपकी वाणी में अद्भुत जादू भरा था, वात्सल्य भाव से ओतप्रोत आपकी अमृतवाणी से जनसमूह दंग रह जाता था ।
आपकी आत्मा की उदारता, विचारों की भव्यता एवं व्यक्तित्व की झिलमिलाती रश्मियाँ दर्शनार्थियों को आनन्द-विभोर कर देती थीं। आप ऊर्ध्वसी ओजस्वी महान विभूति थे। आपकी सिंहनाद जैसी जोशीली सारगर्भित वाणी का अमृत जब प्रवचन में हृदय की उत्कृष्ट भावना से बरसता था, पूरी सभा मंत्रमुग्ध हो जाती थी। आपके जीवन का महान पहलू था कि आप चलते-फिरते लाउडस्पीकर थे। आपकी आवाज दूर-दूर तक सुनाई देती थी।
जब आप जसवंतगढ़ चातुर्मासार्थ विराजमान थे तब हम आपकी सेवा में दर्शनार्थ पहुँचे। दूर से ही आपकी अमृतवाणी हमारे कानों में सुनाई दी। मेरे परिवार वालों ने मुझे कहा आप कहते हैं कि उपाध्यायश्री माईक में नहीं बोलते हैं और यहाँ तो माईक का शौर है। मैंने कहा हम प्रवचन सभा में ही जा रहे हैं आप ही देख लेना।
मेरे साथीगण ताज्जुब कर रहे थे कि मधुरता से भरपूर इतनी पहाड़ी आवाज क्या मानव की हो सकती है। ? आप देह से हमारे बीच नहीं रहें किन्तु आपकी पावनमूर्ति आँखों से ओझल न होगी। जीवन की महानता जन्म और मृत्यु दोनों को ही गौरवशाली बना देती है। संत सद्गुरु बनकर जन-जन के मानस में संस्कार का सिंचन करते हैं जब आदर्श समाज बनता है।
आपने भारत के विभिन्न प्रांतों में घूम कर जन-जन को भगवान महावीर का संदेश सुनाया है घर-घर में अध्यात्म की, जप की लौ प्रज्ज्वलित की है। आपकी ओज भरी वाणी सुनकर हजारों जैन-अर्जन व्यक्तियों ने व्यसन मुक्ति पाई है। आपकी असीम पुण्यवानी आसमान छू रही थी जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण वर्तमान आचार्य भगवान परम श्रद्धेय श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. जैसे सरल स्वभावी, आज्ञाकारी, निरवालिस शिष्य हैं। आपके इंगित इशारे पर आपकी सेवा में परम श्रद्धेय राजेन्द्रमुनिजी, श्री रमेश मुनिजी एवं श्री दिनेश मुनिजी म. सा. रहे।
आपके द्वारा प्रेम, सद्भाव, स्नेह, संगठन, ऐक्यता के लिए समय-समय पर कविता भजन के द्वारा प्रवचनों का नया रूप निखरता था। आप सफल वक्ता, लेखक एवं आशु कवि की त्रिवेणी थे। आपके मन में सदैव दृढ़ता का भाव बना रहता था। अपने शिष्यों में यहीं विरासत छोड़ गये हैं।
इन्दौर चातुर्मास में आपके दर्शन का एवं सेवा का लाभ मिला। मैंने बहुत ही नजदीक से आपको देखा कि हर दर्शनार्थी के साथ आप ज्ञान चर्चा करते थे, छोटे-बड़े का, सम्प्रदायवाद का कोई भेदभाव आप में नहीं था। आप और अभिमान छत्तीस का अंक था। समाज के कमजोर वर्ग के लिए आप मसीहा बनकर आये थे । आप Jain Edit canon daternational G
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जीता-जागता, चलता-फिरता कल्पवृक्ष थे, उनकी शीतल छाया में आधि-व्याधि से ग्रस्त मुरझाया हुआ मानव पुष्प नवचेतना नवस्फुरणा प्राप्त करते थे।
पुष्कर-सा निर्मल झरना आज भी अप्रत्यक्ष रूप से बह रहा है जिसमें अवगाहन कर हमें कर्मों का मल धोना है। महान् आत्मा का, सद्गुरु का गुणानुवाद हमारे पुण्यों की अभिवृद्धि करता है। आज उनकी पावन जन्म जयंती पर स्मृति ग्रंथ प्रकाशित करना उनके प्रति दृढ श्रद्धा की सुन्दर अभिव्यक्ति है। हम उन्हीं संतों के पावन पदचिन्हों पर चलकर जीवन उज्ज्वल कर सकें। यही श्रद्धासुमन हृदय से उत्कृष्ट भावों से समर्पित करती हूँ।
सत सत वंदन के साथ श्रद्धा के सुमन समर्पित हैं
दुःखियों के मसीहा के चरणों में जैनशासन के सितारे जो हो गये प्रभु के प्यारे
प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी सद्गुरुदेव
-श्रीमती पुष्पा जैन (जयपुर)
प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी श्रद्धेय उपाध्याय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी म. के व्यक्तित्व का चित्रण करना अनन्त आकाश को बाहुपाश में आबद्ध करने के समान कठिन है तथापि सद्गुरुदेव के प्रति अनंत आस्था से उत्प्रेरित होकर उनके श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन समर्पित करने का साहस कर रही हूँ।
सादगी, सरलता, सहिष्णुता, सज्जनता, सहृदयता, समता के साक्षात् रूप सद्गुरुदेव, उनका व्यक्तित्व असाधारण, प्रेरक और गुणग्राही था। उन्होंने भारतीय धर्म-दर्शनों का गहराई से अनुशीलन और परिशीलन किया था तथापि उनमें ज्ञान का अहंकार नहीं था, वे निर्मल चारित्र के धनी थे किन्तु चारित्र का अहंकार भी उनको छू नहीं सका था, उनका संपूर्ण जीवन जप, तप और स्वाध्याय से परिपूर्ण था। वे समय पर जप करते थे, स्वाध्याय करते थे, उनका सम्पूर्ण जीवन नियमित जीवन था। वे समय पर भोजन को छोड़ सकते थे, किन्तु भजन को नहीं। समय पर भजन करना उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी, नियमित समय पर जप करने के कारण उनका जप सिद्ध हो गया था, वे जप के पश्चात् जो मंगलपाठ प्रदान करते, उसे श्रवण करने के लिए हजारों की भीड़ सहज रूप से एकत्रित हो जाती थी, जो आस्था से समुपस्थित होता, उसकी आधि-व्याधि और उपाधि सदा-सदा के लिए मिट जाती और समाधि के अपूर्व आनन्द में निमंजित हो जाता।
हमारा परम सौभाग्य रहा कि उनके श्रीचरणों में रहने का समय-समय पर अवसर मिला। उन्हें बहुत ही सन्निकटता से देखने का और परखने का अवसर मिला, उनके लौकिक व्यक्तित्व ने सदा हमें प्रभावित किया। ये महापुरुष आज हमारे बीच नहीं है किन्तु
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उनका यशःशरीर आज भी है और सदा रहेगा। वे हमारे हृदय के विवेक और धैर्य से निर्वहन करते थे, जिनकी वाणी में कुछ सिंहासन पर आसीन हैं, उनका मंगलमय नाम ही सम्पूर्ण कार्य की | निराला ही ओज था, उलझी समस्याओं के समाधान में जो सिद्धि को लिए हुए है। उनकी विमल छत्र-छाया के आलोक में सिद्धहस्त थे, भक्तों के सहारे थे। जैनत्व के सर्व मंगलकारी रूप के हमारा जीवन सदा प्रगति के पथ पर बढ़ता रहेगा यही उनके प्रति विकास के लिए जो कटिबद्ध थे, जिनके चरण-कमल जहाँ भी श्रद्धार्चना है।
पड़ते। संयम, सदाचार और समता की सौरभ से जन-जन का हृदय
प्रमुदित हो जाता था। ऐसे थे परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री जीवन के सफल कलाकार :
पुष्कर मुनिजी म.। उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म.सा.. सत्साहित्य का अमृत पिलाकर जो भौतिकता से मूर्छित विश्व
समाज को नवजीवन प्रदान करते थे, जिनका औदार्य अत्यन्त -शान्ता बहिन मोहनलाल दोशी, बम्बई
विशाल था जिन्होंने साम्प्रदायिक संकीर्णताओं की दीवार को
हटाकर संघीय एकता के महामंत्रोच्चार में अपना स्वर मिश्रित कर मैं उस परम पावन श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर
श्रमण संगठन की आवाज को बुलन्द किया। ऐसे राजस्थानकेसरी मुनि जी म. के श्री चरणों में अनन्त आस्था के श्रद्धा सुमन समर्पित
उपाध्याय पूज्यपाद श्री पुष्कर गुरुदेव का विशाल भव्य, दिव्य, करता हूँ जिस महागुरु ने अपने ज्ञान के दिव्य प्रकाश से जीवन
सरल, सहज, सद्भावों से छलाछल भरा हृदय वत्सलता से पूर्ण था। और जगत को ज्योतिर्मय बनाया और उस दिव्य आत्मा के प्रति
वे ब्राह्मणत्व के साक्षात् रूप थे। चतुर्मुखी प्रतिभासम्पन्न थे अर्थात् श्रद्धा का कलकल-छलछल करता हुआ निर्झर पूरे प्रवाह के साथ
उनके तेजस्वी आभामण्डल से ज्ञान की किरणें फूट रही थीं। वे प्रवाहित है, जिसने विकट से विकट परिस्थितियों में भी बाधा की
ज्ञान के पुंज थे। साथ ही क्षत्रियत्व का दिव्य तेज भी उनमें चट्टानों को चीरकर जो निरन्तर आगे बढ़ा, जिसने विश्व को नई
झलकता था। जब प्रवचन पट्ट पर वे आसीन होते और प्रवचन राह दी, नई दिशा प्रदान की, जिस राह पर वे स्वयं चले और
करते तो वीरत्व सहनमुखी कमल की भाँति खिल उठता। कार्य की दूसरों को चलने के लिए आगाह किया, जिसके अन्तर्मानस में सत्
कुशलता और वार्तालाप के चातुर्य को देखकर आप में “वैश्यत्व" की उपलब्धि की भव्य भावना अंगड़ाइयाँ लेती हों, उसे एक दिन
के दर्शन होते। आपश्री की सेवा भावना निहार कर चतुर्थ वर्ण के सत्य सहज ही उपलब्ध हो जाता है। कवि के शब्दों में, जिन खोजा
कर्तव्य का स्मरण हो उठता। आपका व्यक्तित्व पारदर्शक, चुम्बकीय तिन पाईयां, गहरे पानी पैठ। उन्होंने खोजा और उन्हें प्राप्त हुआ,
व तेजोमय था। उसमें से ज्ञान रश्मियों की प्रखरता, हिम शिखरों अपने जीवन में ज्ञान के साथ ध्यान और ध्यान के साथ जप की
की तरलता, मानस की पवित्रता, परदुःख कातरता संस्कृति की साधना निरन्तर चलती रही, जीवन रूपी वस्त्र को उन्होंने जप और जप के शुभ संस्कारों से संस्कारित किया।
सजग प्रहरी की कर्तव्यनिष्ठा उस व्यक्तित्व की धीर, गम्भीरता
और निश्छलता सहज ही अपनी ओर खींचती चली जाती थी। गुरुदेव क्या थे? एक शब्द में कहना चाहूँ तो सादा जीवन 5 और उच्च विचार के वे साकार रूप थे। जैसा उनका दिव्य और
सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. का भव्य शरीर था वैसी ही दिव्य और भव्य आत्मा उसमें निवास
जीवन मानव-जीवन के समुद्धार के लिए करुणा, मैत्री, सहृदयता, करती थी। जो भी उनके संपर्क में आया, उसके जीवन में
प्रमोद भावना से संयुक्त ओत-प्रोत मुक्तिमार्ग की ओर प्रशस्त था। आमूलचूल परिवर्तन हुआ, उसके जीवन की दृष्टि बदली और साथ
पूज्यश्री जी का मंगल प्रवचन अनुभूतिपूर्ण, चिन्तनशील, हृदयस्पर्शी BOOBही सृष्टि भी बदली। उसका जीवन-पुष्प खिल उठा, ऐसे जीवन के
और अन्तर्मुखी साधना से पूर्ण चमत्कृत था। प्रत्येक प्रश्न का सम्यग सफल कलाकार के श्रीचरणों में भावभीनी वंदना।
उत्तर देकर मार्ग प्रशस्त करते थे। आप अपने नाम के अनुकूल
संयम के अगाध सागर थे, जिसमें संयमनिष्ठा के अनन्त रत्न [सम्यक् ज्ञान पुंज : उपाध्याय पूज्य गुरुदेव )
विद्यमान थे। आपका नयनाभिराम व मनोभिराम निर्मल गौरवर्ण,
तेजपूर्ण, शान्त मुखमण्डल प्रेम पीयूष बरसाते दिव्य नेत्र से सज्जित -डॉ. विद्युत जैन (गाजियाबाद) व्यक्तित्व में भगवान महावीर की संयम निष्ठा, श्रीकृष्ण का कर्मयोग, (अध्यक्ष : अ. भा. श्वे. जै. स्था. महिला विभाग) बुद्ध की करुणा और चाणक्य की नीति का सुन्दर समन्वय था। सर्वोच्च श्रमण के सभी गुणों से विभूषित, बाल ब्रह्मचारी जो पूत के पांव पालने में ही नजर आते हैं। आपने वीरभूमि विद्वता के अगाध सागर थे, सिद्धियाँ जिनके चरण चूमती थीं, मेवाड़ के ग्राम गोगुन्दा के सन्निकट सिमटार ग्राम में आश्विन वैराग्य जिनका अंगरक्षक था, संयम जिनका जीवन साथी था, जो शुक्ला १४ वि. सं. १९६७ (सन् १९१०) में माता वालीबाई की "अध्यात्मयोगी" के नाम से प्रख्यात संत थे, जो प्रतिकूल कोख से ब्राह्मण कुल में जन्म लिया, पिता सूरजमल के जीवन को परिस्थितियों में भी अजयमेरू थे। श्रमणसंघ प्रदत्त उत्तरदायित्वों का कृतार्थ किया। आप सांसारिक नाम अम्बालाल से जाने जाते थे।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
१५५ परम उदार ज्ञानी गुरुदेव श्री ताराचंद्र जी म. सा. की निश्राय में रही थीं। इस प्रकार न जाने कितने जीवन विनाश होने से पहले ही वि. सं. १९८१ ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को गढ़जालोर में १४ वर्ष की बच गए और न जाने कितने घर तबाह होने से बच गए। अल्पवय में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेने के साथ ही आपने
साधना उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य था जिसे उन्होंने अपनाया ज्ञानार्जन, धर्म-प्रचार, सेवा-साधना, साहित्य-साधना आदि और अपने जीवन का अभिव
और अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाया। साधना उनकी सहचरी श्रमणोचित गुणों के बीजों को मानव समाज के बहुमुखी विकास । थी और वे साधना के लिए सर्वतोभावेन समर्पित थे। यद्यपि संसार कर ज्ञान गंगा से उर्वर बना नन्दनवन बना डाला।
और सांसारिकता उनके लिए नगण्य थी, किन्तु फिर भी मानव-SSAGE "ज्ञान कंठे और दाम अंटे" की राजस्थानी कहावत को पूर्ण । कल्याण और उसके माध्यम से प्राणी कल्याण को उन्होंने अपने समझकर कंठस्थ ज्ञान को आपने विशेष महत्व दिया। आपने अपनी
कर्म क्षेत्र के अन्तर्गत रखा। इसका कारण यह था कि प्राणिमात्र के DEPRE ज्ञान गंगा को सर्वप्रथम कविता के माध्यम से प्रवाहित किया।
प्रति वे करुणा और दया से ओतप्रोत थे। वे साधना में जितने आपने अपनी अटूट लगन व विलक्षण विद्वता से जैन व जैनेत्तर
निष्ठुर, अनुशासन में कठोर और आचरण में संयमी थे, उतने ही 00:00 सिद्धांतों, आगमों का गंभीर व गहरा ज्ञान पाया। आपने अपने इस
वे सहृदय, दया से परिपूर्ण और करुणा से ओतप्रोत थे। यही ज्ञान प्रकाश को हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती,
कारण है कि वे अपनी संयमपूर्ण जीवन यात्रा में जन-जन के राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं के माध्यम से गद्य-पद्य दोनों ही
आराध्य बन गए। समाज के सभी वर्गों के लोगों के लिए वे उस साहित्य की विधाओं में जन-जन तक पहुँचाया। आपके साहित्य में
कुएं की भाँति थे जो तृषितों की तृषा शान्त करने में समर्थ था। oad अनुभवों का अमृत है, चिन्तन की गहनता धर्म, दर्शन, अध्यात्म
दुःखी और पीड़ितों के लिए वे उस वैद्य की भाँति थे जो अपने और साधना का तलस्पर्शी विवेचन है। उनमें ऐतिहासिक व
1 चिकित्सा नैपुण्य से रोगों का शमन कर कष्ट से छुटकारा दिलाने में 208 पौराणिक कथाओं का प्राचुर्य है।
समर्थ था। इस प्रकार वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रज्ञापुरुष थे। आप जप-साधना के महान साधक थे। साथ ही जनमानस का
सम्पूर्ण समाज उनका अत्यधिक ऋणी है, क्योंकि समाज को आत्म-कल्याण करना आपके उदार एवं आदर्श जीवन का मुख्य
उन्होंने बहुत कुछ दिया है। समाज को जो दिशा निर्देश मुनिश्री से PPORTA लक्ष्य था। श्रद्धालु जनमानस आपको अज्ञानान्धकार में सम्यक्ज्ञान
प्राप्त हुआ उससे समाज का बहुत बड़ा उपकार हुआ है। समाज में DDAR का प्रकाश फैलाने वाला महान पुरुष मानती है और युगों-युगों तक
व्याप्त आडम्बरपूर्ण दिखावा, कुरीतियों और गलत परम्पराओं की मानती रहेगी। आपकी प्रेरणा से अनेक पुस्तकालय, विद्यालय खोले
ओर संकेत करते हुए मुनिश्री ने उनसे होने वाली हानियों और गए। अन्ध-विश्वासों, अंधपरम्पराओं, जातिवाद, स्वार्थाधंता,
समाज पर पड़ रहे दुष्प्रभाव की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट पारस्परिक विषमता आदि दुर्गुणों का युक्तिपूर्वक खण्डन कर आपने
किया। उनकी प्रेरणा से समाज ने वास्तविकता को समझा और उन सद्भाव व सदाचार, स्नेह, सहयोग, सहिष्णुता और शुद्धात्मवाद का
कुरीतियों और आडम्बरों से स्वयं को मुक्त किया। इस प्रकार प्रचार कर राष्ट्रीय मूलों को मजबूत बनाया।
समाज में पुनर्जागरण का सूत्रपात हुआ और स्वस्थ समाज का
निर्माण हुआ। उन्होंने समाज को समता भाव और अहिंसा का जो ऐसे सरल सम्यक्ज्ञानी ध्यानी अजेय महापुरुष को मेरा
मूलमंत्र दिया था उसका व्यापक प्रभाव समाज पर हुआ। अतः शत्-शत् वंदन।
निर्विवाद रूप से स्वस्थ और अहिंसक समाज की स्थापना में उनका 80
योगदान अद्वितीय ही माना जायेगा। इसी प्रकार समाज में नैतिक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी - उत्थान की प्रेरणा भी लोगों को उपाध्यायश्री से प्राप्त हुई। वर्तमान 600
में नैतिक रूप से लोगों का जितना अधःपतन हुआ है वह निश्चय ही -सुशीला देवी जैन
चिन्ता का विषय है। उपाध्यायश्री ने इसे बहुत पहले ही समझ लिया 99.90
और लोगों में शुद्ध आचरण के संस्कार डालने का संकल्प उन्होंने 60 श्रद्धेय गुरुप्रवर उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी का व्यक्तित्व
किया था। उनके उद्बोधनों, प्रवचनों एवं सदुपदेशों का इस बुराई DED बहुआयामी एवं विलक्षण था। वे यद्यपि आध्यात्मिक संत थे तथापि सामाजिक पुनर्जागरण और लोगों में नैतिकता का विकास उनके
को दूर करने में व्यापक प्रभाव हुआ जो स्पष्टतः लक्षित हो रहा है। प्रवचनों में मुख्य रूप से मुखरित होता था। उन्होंने सदैव अपने
उपाध्यायश्री यद्यपि आज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनकी प्रवचनों में आचरण की शुद्धता पर विशेष बल दिया और लोगों । स्मृति, उनकी शिक्षा, उनकी प्रेरणा, उनके सदुपदेश और उनके को उसकी प्रेरणा दी। उनकी वाणी में माधुर्य था, आकर्षण था और
उद्बोधन आज भी सतत् रूप से हमारा, हम सब का, सम्पूर्ण प्रेरणा का वह पुट था जो अनायास ही श्रोताओं के हृदय को छू
समाज का, सम्पूर्ण देश और विश्व का मार्ग निर्देश कर रहे हैं-यही 8888 लेता था। उनकी प्रेरणा से अनेक लोगों का हृदय परिवर्तन हुआ
हमारा सम्बल है और यही हमारी धरोहर है। और उन्होंने अपने जीवन से उन बुराइयों और कुव्यसनों से उनकी स्मृति को सदैव जीवन्त बनाए रखने के लिए आवश्यक छुटकारा पाया जो उनके जीवन को घुन की भाँति जीर्ण-शीर्ण बना है कि उनके द्वारा दिखाए हुए पथ का अनुसरण हम निष्ठा और PPP
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। समर्पित भाव से करें। अतः इस अवसर पर उनके चरण कमलों में । कारण जैन मुनि बन जाए यह आश्चर्य की बात नहीं है। अनेक मेरा शतशः नमन।
महान् संत लघुवय में ही संत बनने की ठान लेते हैं, किन्तु ब्राह्मण
बालक अम्बालाल ने अपनी अल्पवय में ही बिना जैन शास्त्र पढ़े, शत-शत वंदना बिना जैन-दर्शन, जैनाचार अथवा जैनत्व को समझे और बिना उस
उम्र तक पहुँचे, जबकि व्यक्ति अपनी विकसित और प्रबुद्ध बुद्धि से -कमला जैन 'जीजी' हिताहित अथवा सत्यासत्य का निर्णय कर सकता है, एकदम जैन
साधु बनने का निर्णय कर लिया और बिना परिवार या अपने सन्त शब्द का उच्चारण करते ही हमारे मानस चक्षुओं के
समाज की परवाह किये दृढ़ता के साथ जैन-दीक्षा ग्रहण कर ली समक्ष किसी ऐसी महान् आत्मा का मूर्तिमान रूप सामने आ जाता
तथा साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर अग्रसर हो चला। दूसरे शब्दों है, जिसका समग्र आन्तरिक एवं बाह्य जीवन शुभ्र, सात्विक,
में साधना के दुरूह सोपानों पर उत्तरोत्तर दृढ़ता से चढ़ता चला निर्विकार, सतत जागरूक, साधनामय, सांसारिक प्रपंचों से विलग,
गया। समत्वपूर्ण, परमात्म निमग्न, आत्मा केन्द्रित, ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा सरलता, सौम्यता आदि दिव्य गुणों का कोष हो। ऐसे रूप की
जाज्वल्यमान जीवन कल्पना करते ही हमारा मन स्वतः अनिर्वचनीय श्रद्धा और माधुर्य इस भूतल पर जीते सभी हैं, किन्तु उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी से भर जाता है। उस मोक्षमार्ग के पथिक की महत्ता का वर्णन महाराज के समान ज्वलंत अथवा जीवंत जीवन बिरले ही जी पाते असंख्य शब्दों अथवा वाक्यों से भी किया नहीं जा सकता।
हैं जिनके बहुमुखी व्यक्तित्व तथा अनुकरणीय जीवन से सम्पर्क में
आने वाला प्रत्येक व्यक्ति सहज ही कुछ न कुछ लाभ लेने के लिये आज मैं ऐसे ही महामना संत को अपने अन्तर्मानस की सम्पूर्ण
स्वतः ही बाध्य हो जाता था। उन्हें मात्र आगमों का ही नहीं अपितु आस्था लेकर श्रद्धांजलि अर्पण कर रही हूँ। वे संत थे परम श्रद्धेय,
ज्योतिष आदि अनेक विद्याओं का भी गूढ ज्ञान था। सदा ही उनका उत्कृष्ट तत्वज्ञानी, जैन दर्शन के गंभीर ज्ञाता, ज्योतिष एवं
चेहरा माधुर्य एवं आकर्षक मुस्कुराहट से मंडित रहता था। यही सामुद्रिक आदि शास्त्रों के अध्येता तथा अनेक मंत्र-सिद्धियों के
कारण था कि प्रत्येक दर्शनार्थी निःसंकोच उनके चरणों में बैठकर स्वामी पूज्य प्रवर स्वर्गीय गुरुदेवश्री पुष्करमुनि जी म.। असंख्य
अपने स्वाध्याय में बाधक समस्याओं का अथवा जीवन को उन्नत व्यक्तियों ने उनकी अद्भुत सिद्धियों से और मात्र उनके मुखारबिंद
बनाने में आने वाली परेशानियों का निराकरण करने का उपाय से मांगलिक सुनकर भी मनचाहा लाभ प्राप्त किया है। प्रतिदिन
पूछने में हिचकिचाता नहीं था। गुरुदेव अति स्नेह और सहज भाव गहन ध्यानोपरांत जब दोपहर ठीक बारह बजे वे मंगल-मंत्र का
से प्रत्येक जिज्ञासु के प्रश्नों का उत्तर देकर उनके सहायक बनते उच्चारण करते थे, उस बेला में सैंकड़ों व्यक्ति उपस्थित रहकर उसे
थे। अमीर, गरीब, विद्वान अथवा अनपढ़ के लिये उनके करुणा, आशीर्वाद के समान ग्रहण करते थे।
सौहार्द पूरित परोपकारी मानस में तनिक भी भेदभाव नहीं था। चमत्कारिक चरण
मधुर व्यक्तित्व के समान ही उनकी प्रवचनशैली भी अत्यन्त "पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।" यह एक बहुत । मधुर और आकर्षक थी। गहन और गूढागम विषयों को भी चे पुरानी कहावत है और निश्चय ही प्रत्येक कहावत के मूल में सत्य अत्यन्त सरल तरीके से श्रोताओं को समझा देने की अद्भुत क्षमता का अंश होता है। ज्योतिष एवं सामुद्रिक विद्या के ज्ञाता, हाथों की, रखते थे और इसी बीच हास्यरस आदि से परिपूर्ण शिक्षाप्रद ललाट की अथवा पैरों की रेखाओं को देखकर ही व्यक्ति के
उदाहरण आदि सुनाकर लोगों को मंत्रमुग्ध करते हुए ऊबने नहीं भविष्य के बारे में बहुत कुछ बता देते हैं। पालने में सोते हुए ।
देते थे। यही कारण था कि प्रवचनाभिलाषी, प्रारंभ से अंत तक बालक के पाँव भी स्वतः दिखाई देते हैं अतः उनकी गठन और
समान उत्साह से घंटों उनकी पीयूषपूर्ण वाणी श्रवण करते थे। रेखाओं पर दृष्टिपात करके उसका भविष्य जान लिया जाता होगा। किन्तु ब्राह्मण कुलोत्पन्न शिशु अम्बालाल के पैरों की रेखाओं को तो कुछ मधुर संस्मरण अगर किसी शास्त्रविद् ने देखा भी होगा तो वह, यह न बता सका मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बचपन से ही श्रमणसंघ की उस होगा कि यह शिशु बाल्यावस्था में ही जैन-संत बन जाएगा। अबोध स्वर्णिम विभूति गुरुदेवश्री के दर्शन एवं सम्पर्क का असंख्य बार अम्बालाल के चमत्कारिक चरणों की रेखाएँ तो किसी देवी शक्ति ने अवसर मिला। मुझे खूब याद है जब मैं बहुत छोटी थी, एक बार ही देखी होंगी और उसी महाशक्ति ने शैशवावस्था से बाल्यावस्था में । अपने पिताजी समाजरत्न पं. शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' के साथ आते न आते उन्हें भविष्य के महान् संत बनने की प्रेरणा देनी 1 महाराजश्री के दर्शनार्थ गई थी। उस समय उन्होंने दूर से ही मेरे प्रारम्भ कर दी होगी तथा अपनी वरद छाया में सहेज कर उसके । पैर देखकर कहा था-'भारिल्ल साहब! कमला के पैरों में पद्म-रेखा नन्हें मानस को गढ़ना प्रारम्भ कर दिया होगा। क्योंकि जैन कुल में है। यह खूब भ्रमण करेगी।' उपाध्याय श्री का कथन यथार्थ साबित जन्मा बालक तो प्रारम्भ से ही जैन संतों के सम्पर्क में आने के हुआ। भारत की प्रत्येक मुख्य दिशा की यात्रा और पहाड़ी, रमणीय
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
१५७ स्थलों का पर्यटन करने के मुझे बहुत अवसर मिले। साथ ही उन्होंने मूक आशीर्वाद की सहायता से विद्वत्-शिरोमणि ही नहीं अपितु यह भी फरमाया था कि-"सरस्वती का भी इसे वरदान मिलेगा। संघ-शिरोमणि महामहिम आचार्य सम्राट् बन गए। और लोग इसे याद रखेंगे।" यह तो मैं नहीं जानती कि देवी सरस्वती के भंडार में मुझ अकिंचन को कुछ स्वीकार हुआ या नहीं,
एक दीप बुझा, पर सहस्र रश्मियों से प्रदीप्त दीपक जला गया किन्तु पूज्य गुरुदेव के दोनों आशीर्वचन मुझे अक्षरशः स्मरण रहे हैं इतिहास प्रसिद्ध उदयपुर शहर में चारों दिशाओं से जनता सदा ही जो उनके मुखारबिंद से निःसृत हुए थे।
अपने नए आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के चादर-महोत्सव इसी प्रकार और एक बार स्वयं विद्वत्-प्रवर होने पर भी वे
पर उमड़ रही थी। सभी ओर आनन्द महोत्सव अपनी चरम सीमा पिताजी से जैन दर्शन संबंधी विभिन्न विषयों पर वार्तालाप कर रहे
पर था, किन्तु उसके सम्पन्न होने के बाद ही मूर्धन्य संत, महान् थे और मैं मात्र उनके दर्शन और बिना अधिक समझते हुए भी
साधक, परम तपस्वी, उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. की अत्यधिक दोनों के प्रश्नोत्तरों को सुन रही थी कि, इतने में ही उनके
अस्वस्थता के समाचार फैलने लगे और उसके बाद ही स्वनामधन्य बालशिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी वहाँ अपनी कापी और पेन्सिल लेने
उन संत-शिरोमणि के देहत्याग की घोर वन रूप दुःखद सूचनाएँ आ गए। उन्हें देखते ही दोनों की बातचीत ने रुख बदल लिया।
प्रसारित हो गईं। श्रद्धेय व मंगलमूर्ति गुरु म. मुस्कुराते हुए कह उठे
ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे जीवन की सम्पूर्ण शक्ति से अपने शिष्य
को श्रमणसंघ के सर्वोच्च पद पर आसीन कराने तक उन्होंने म "भारिल्ल साहब और सब समस्याएँ तो सुलझती रहेंगी, किन्तु
न महाकाल को भी अपने निकट नहीं फटकने दिया था। या कि-जबइस मूर्तिमान और सबसे बड़ी समस्या को कैसे सुलझाऊँ ? यह
तक स्वयं प्रज्वलित दीपक को चरम प्रकाशमान नक्षत्र का रूप न 2004 बताइये।"
लेने दिया तब तक अपनी दिव्य शक्ति से काल को अपनी जीवनपिताजी ने हँसते हुए कहा-“महाराज जी! इन्होंने आर्हती दीक्षा परिधि में नहीं आने दिया। किन्तु जब उन्होंने अपने जीवन भर की 10 ग्रहण कर ली और अब आपके संरक्षण में हैं। भला अब क्या साधना, कुशलता और निमग्नता से गढ़ी हुई प्रतिमा को सम्पूर्ण समस्या रह गई है?"
कलाओं से मंडित कर सर्व-पूज्य बना दिया तो नज़र भरकर उसे विहँसते हुए गुरुदेव बोले-'भाई! यह सब तो ठीक है पर इस । देखा और पूर्ण संतोष, आनन्द एवं शांतिपूर्वक अपने नयन मूंदें। देवेन्द्र को आप देख तो रहे हैं। यह इतना नाजुक है कि कुछ न । तथा चिरनिद्रा को अपना लिया। महाभारत के भीष्म की तरह कुछ व्याधि इसे बनी ही रहती है। मैं यही सोचता रहता हूँ कि अपना कार्य सम्पन्न करके इच्छा-मृत्यु का वरण करने वाली उस इससे जब अपने शरीर का बोझ ही नहीं सँभलता तो ज्ञान का बोझ महान् आत्मा को मेरी शत-शत वंदना। इस पर कैसे डालूँ ? आप तो लेखन कार्य के अलावा साधु-साध्वियों को ज्ञान-दान देते हैं, कोई उपाय बताइये?"
मेरा दर्द मिट गया (एक संस्मरण) ) इस बात पर वहाँ बैठे हुए सभी हँस पड़े। पिताजी ने मुस्कुराते
-श्रीमती रोशन देवी, प्रताप नगर (चित्तौड़गढ़) हुए कहा-"उपाय केवल यही है कि अभी तो ये बाल मुनि ही हैं, अतः इनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए हल्के-फुल्के थोकड़ों आदि
मैं दिनांक १२ सितम्बर सन् १९९२ को अपने पति व परिवार DD से जबानी थोड़ा बहुत सिखाते रहिये, और उम्र के कुछ बढ़ने पर
सहित पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के दर्शन करने हेतु जब इनका स्वास्थ्य समीचीन हो जाए तथा बुद्धि भी और विकसित
। चित्तौड़गढ़ से रवाना हुई किन्तु दुर्भाग्यवश जोधपुर पहुँचते-पहुँचते न हो तभी आगमादि का रहस्य व गूढ़ ज्ञान कराइये। बुद्धि इनकी
वर्षा अधिक हो गई कि चारों तरफ बाढ़ आ गई और गढ़सिवाना अत्यन्त कुशाग्र है और तब ये सहज और शीघ्र ही आपका प्रदत्त ।
| पहुँचने का रास्ता बन्द हो गया और हम पुनः चित्तौड़गढ़ वापस भार वहन कर लेंगे।"
पहुँच गये। स्वर्गीय गुरुदेव से होने वाले ऐसे सरल, मधुर और आत्मीयता
दिनांक २१.९.९२ की रात्रि लगभग १ या २ बजे होंगे मालूम से परिपूर्ण अनेक वार्तालाप के प्रसंग मुझे याद हैं और याद है
। हुआ कि जैसे मुझे गुरुदेव के दर्शन हुए। तत्काल मैंने अपने पति से उनका स्नेहपूर्ण सहज एवं सारगर्भित व्यक्तित्व।
बात कही और गुरुदेव के दर्शन हेतु चलने के लिए कहा। उसी व कल का नाजुक शिष्य, आज श्रमण-संघ का सिरमौर समय वे भी तैयार हो गये तथा रात्रि को लगभग ३ बजे बस से
रवाना हो हम गढ़सिवाना पहुँचे। वस्तुतः दिवंगत गुरुवर्य उपाध्यायश्री अपने जिस कोमल-कान्त शिष्य को ज्ञानाभ्यास कराने के लिये भी सोच-विचार करते थे, वही पूज्य आचार्यश्री की दर्शन वन्दना की पर आचार्यजी ने हमें DOG शिष्य ज्ञान के सोपानों को अनवरत नीचे छोड़ते चले गए और बैठने को मना कर सीधे गुरुदेव के इस समय दर्शन कर लो, ऐसा 05 अपने गुरु की छत्र-छाया, उनके प्रयास एवं अहर्निश प्राप्त होने वाले फरमा कर गुरुदेव के पास रवाना कर दिये।
देव बोले-'भाई! यह
है कि कुछ ना कार्य सम्पन्न क
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । पूज्य गुरुदेव के पास दर्शन करने पहुँचे। गुरुदेव तख्त पर वे सत्यान्वेषी थे, पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सत्य को स्वीकार जीमणा हाथ अपने सिर के सहारे लगाये पौढ़े हुए थे। भाई-बहिन करने में उन्हें कभी संकोच नहीं था। जो भी बात उन्हें सही प्रतीत कई दर्शनार्थी बैठे हुए थे। हमारे कमरे में दाखिल होते ही पूर्व बैठे होती थी, वे उसे मानते थे और उसी पर बल देकर समझाते भी दर्शनार्थियों को गुरुदेव ने फरमाया-आप दूसरी जगह दया पालें। थे। जप-साधना के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी, यद्यपि उन्होंने वे भाई-बहिन अन्यत्र दर्शन करने कमरे से बाहर हुए। मुझे
ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। गायत्री मंत्र आदि उन्हें कण्ठस्थ थे और मेरे पति को बैठने को फरमाया। बैठते ही फरमाया-पुण्यवान किन्तु नवकार महामंत्र पर उनकी अपार आस्था थी और आस्था के अब की बार दुबारा आना पड़ा-हम बैठे ही थे कि पीछे से कई
साथ ही रात्रि को दो बजे से उठकर जाप करते, मध्याह्न में ग्यारह भाई-बहिन और दर्शन करने कमरे में दाखिल होने लगे। गुरुदेव ने से बारह और सार्यकाल में आठ से नौ बजे तक जाप करते, चाहे हाथ से इशारा कर अन्य दर्शन करने को फरमाया।
कैसी भी स्थिति आती, वे उस समय जप नहीं छोड़ते। मैंने देखा
गुरुदेवश्री विहार यात्रा में थे, लम्बा विहार था किन्तु वे जंगल में - हम गुरुदेव के समक्ष बैठे हुए थे। गुरुदेव बैठे हुए लगभग दो
ही जप के लिए विराज गए। इसी तरह तीव्र ज्वर में भी वे मिनट तक हमें देखते रहे। बाद में अपने बायां हाथ अपने खुद की
पद्मासन लगाकर जाप में बैठ जाते थे। मैंने यह भी देखा कि जाप कमर को लेकर ऐड़ी तक हाथ फिराते हुए मुझे कहा- बहन
करते समय उनका ज्वर उतर जाता था और वे पूर्ण स्वस्थ हो तुम्हारा ये पाँव पिछले चार साल से बड़ा दर्द करता है। काफी
जाते थे और जब भी जाप के लिए विराजते, वे पद्मासन से ही इलाज कराया, इस दर्द से घबड़ाकर तुम मौत माँगने लगी हो। मैं
विराजते थे। इतनी वृद्धावस्था में भी पद्मासन में बैठने में उन्हें अपने आप हाँ करती रही चूंकि जो गुरुदेव फरमा रहे थे वह मेरे
किंचित् मात्र भी कष्ट नहीं होता, उनका आसन सिद्ध हो चुका था, साथ बीत रही थी बल्कि उस समय पर भी पाँव में भारी दर्द होने । से मैं उदास थी।
घण्टों तक पद्मासन से बैठकर जाप करते थे। गुरुदेव जी ने फरमाया-आज से चैन की नींद सोओ। आज से ।
गुरुदेवश्री को दीवार का सहारा कतई पसन्द नहीं था। वे कभी
{ भी दीवार के सहारे नहीं बैठते थे, वे फरमाया करते थे, भगवान् पाँव दर्द नहीं करेगा। अब उदयपुर दर्शन कर लेना।
का सहारा है, गुरु का सहारा है, धर्म का सहारा है फिर दीवार के उसी समय से मेरा पाँव दर्द चला गया और उसी दिन से सहारे की क्या आवश्यकता? जब तक मेरुदण्ड सीधा रहेगा तब गुरुदेव की माला फिराती हूँ।
तक शरीर स्वस्थ रहेगा। दीवार के सहारे पर बैठने वाला व्यक्ति
लम्बे समय तक साधना में नहीं बैठ सकता। सत्यान्वेषी गुरुदेवश्री
गुरुदेवश्री कभी भी मोहरमी सूरत को पसन्द नहीं करते थे, -वैरागिन अनीता जैन (उदयपुर)
उदास और खिन्न होना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था। उनका
चेहरा गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहता था। वे सदा परम श्रद्धेय महामहिम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुस्कुराते थे, उनकी मधुर मुस्कान को देखकर दर्शनार्थी आनंद मुनि जी म. श्रमणसंघ की एक दीप्तिमान तेजस्वी मणि थे। उनकी विभोर हो उठते थे, उनके मुखारबिन्द से पहला ही शब्द निकलता, सरल, विनम्र और निर्मल व्यक्तित्व की शुभ्र आभा ने न केवल उस आनंद और मंगल। वे स्वयं आनंदस्वरूप, मंगलस्वरूप थे। आनंद मणि के अपने व्यक्तित्व गौरव की अभिवृद्धि की है अपितु संघ । और मंगल के साक्षातूरूप थे, उनके चरणों में बैठकर अपार आनंद गौरव से मंडित हुआ। गुरुदेवश्री प्रबल प्रतिभा के धनी थे, उनका की अनुभूति होती थी। लगता था कि उनके चरणों में ही बैठे रहें, चिन्तन ऊर्वर था, वे प्रत्येक प्रश्न पर गहराई से चिन्तन करते और मन में अनिर्वचनीय आनंद की धारा प्रवाहित होती थी, ऐसे महान् उसके अंतस्थल तक पहुँचकर उसका सही समाधान करते थे। । सद्गुरुवर्य के गुणों का उत्कीर्तन कहाँ तक किया जाए। उनका इसका मूल कारण था वे बहुविध भाषा के ज्ञाता थे, संस्कृत-प्राकृत- जीवन धन्य था और हमें उनकी सेवा का अवसर प्राप्त हुआ, गुजराती-मराठी-राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं पर उन्होंने । जिससे हम भी सौभाग्यशाली हैं, गुरुदेवश्री के चरणों में हृदय की आधिपत्य पाया था और उन भाषाओं से संबंधित साहित्य का । अनंत आस्था के साथ वंदना। गहराई से परिशीलन भी किया था। जैन आगम, बौद्ध, त्रिपिटक और वेद, उपनिषद आदि वैदिक वांगमय का उनका अध्ययन बहुत ही गहरा था। वे व्यापक दृष्टिकोण से सोचते थे।
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धर्म की बारह पत्नियां हैं। इसके नाम-१. श्रद्धा २. मैत्री ३. दया ४. शान्ति ५. तुष्टि ६. पुष्टि ७. क्रिया ८. उन्नति ९. बुद्धि १०. मेधा ११. तितिक्षा १२. लज्जा।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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स्मृति ग्रन्थ की सामग्री छपने के लिए पूर्ण रूप में तैयार हो जाने तक भी गुरुदेव श्री के प्रति अनेकानेक श्रद्धांजलियाँ प्राप्त हो रही हैं। ग्रन्थ विमोचन की तिथि निश्चित हो चुकी है और समय बहुत कम है। उन सबका प्रकाशन संभव नहीं है। फिर भी कुछ महत्वपूर्ण श्रद्धासुमन यहां प्रस्तुत हैं। अति विलम्ब के कारण उन्हें यथास्थान मुद्रित कर पाना संभव नहीं हुआ है। अतः हम इस खण्ड के अन्त में ही उन्हें संयोजित करके संतोष अनुभव करते हैं। हमारी विवशता को समझते हुए आदरणीय जन क्षमा करेंगे।
-सम्पादक
अपूर्व थी जप निष्ठा
-महासती डॉ. मुक्ति प्रभा जी म.
श्रमण संघ का यह परम सौभाग्य रहा है कि इस संघ में अनेक ज्योतिर्धर विभूतियाँ रही हैं और वर्तमान में हैं। मैं कई बार श्रमण संघ को फूलों के बगीचे की उपमा देती हूँ, फूलों के बगीचे में रंग-बिरंगे सुगन्धित फूल होते हैं जो अपनी भीनी-भीनी महक से जन-जन के मन को मुग्ध करते हैं। श्रमण संघ में भी ऐसे पुष्प हैं कोई ज्ञानी है तो कोई ध्यानी हैं, कोई तपस्वी हैं तो कोई चिंतक हैं लेखक है, विविध गुणों का मधुर संगम हुआ है श्रमण संघ में। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. हमारे श्रमण संघ के एक प्रतिभा पुरुष थे। वे ज्ञान योगी, ध्यान योगी और सिद्ध जपयोगी थे। भगवान् महावीर ने अपने अंतिम प्रवचन में साधक को संदेश दिया एक समय का भी प्रमाद न कर उस अप्रमत्त स्थिति का साक्षात् रूप उपाध्यायश्री के जीवन में देखने को मिलता था। निन्दा और विकथाओं से सदा दूर रहकर सदा स्व का चिन्तन करना उन्हें पसन्द था। मैंने जब भी उनके दर्शन किए तब मैंने उनको स्वाध्याय में रत पाया और जब स्वाध्याय से निवृत्त हो जाते तो जप साधना में तल्लीन हो जाते थे। नियमित समय पर जप करने की कला यदि किसी को सीखनी हो तो उपाध्यायश्री के जीवन से सीख सकता है। बिहार हो रहा है, चिलचिलाती धूप पड़ रही है जप का समय होने पर जप के लिए बैठे हैं, न पैर झुलसने का डर और न धूप और प्यास का डर, एकान्त शान्त क्षणों में बैठकर जप कर रहे हैं, प्रवचन चल रहा है, जप का समय हो गया, उठकर चल दिए, लब्ध प्रतिष्ठित श्रद्धालु बैठे हैं, वार्तालाप चल रहा है, जप का समय होते ही 'तुम तुम्हारे और हम हमारे' कहकर उठ जाते, यहां तक कि १०५ डिग्री ज्वर में भी जप का समय होते ही वे जप के लिए बैठ जाते थे। वस्तुतः उनकी जप निष्ठा बहुत ही अपूर्व थी और सभी के लिए उठप्रेरक थी। आज हम जरा सा दूसरा कार्य आ जाता है तो जप को छोड़कर उस कार्य में लग जाते हैं। मैं श्रद्धेय उपाध्यायश्री के चरणों में अपनी भाव भीनी श्रद्धार्थना समर्पित करती हूँ, यही उनसे मंगल आशीष चाहती हूँ कि हे गुरुदेव ! आपकी तरह हमारी जप साधना भी निर्विघ्न रूप से संपन्न हो, हम भी आपकी तरह निरन्तर आध्यात्मिक उत्कर्ष करती
रहे।
स्वयं कष्ट उठाकर दूसरे को सुख पहुँचाना ही सच्चा परोपकार है। - उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
सिद्ध जप योगी थे ....
-महासती डॉ. दिव्य प्रभा जी म.
जीवन में कभी कभार ऐसे अनमोल क्षण आते हैं जो कभी भी भुलाए नहीं जा सकते, वे सदा-सदा के लिए स्मृति पटल पर अंकित हो जाते हैं। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन किस दिनांक को किए यह तो पूर्ण स्मरण नहीं है पर उनके दर्शनों का सौभाग्य हमें सर्वप्रथम बम्बई में मिला, उसके पश्चात् अहमदनगर में, पनवेल में, अहमदाबाद, अम्बाजी में मिला, जितनी बार भी दर्शन हुए और उनके श्रीचरणओं में बैठने का अवसर मिला अपार आनंद की अनुभूति हुई।
उपाध्यायश्री की सबसे बड़ी विशेषता थी वे निरर्थक वार्तालाप करना पसन्द नहीं करते थे। जब भी हम पहुँचे उन्होंने जैन धर्मदर्शन संबंधी हमार से प्रश्न करने प्रारंभ किए और जब हमें उत्तर नहीं आए तो उन्होंने उत्तर बताने में भी संकोच नहीं किया। उनका ज्ञान बहुत ही गहरा था, आगम साहित्य का उन्होंने बहुत ही गहराई से परिशीलन किया था और टीका ग्रन्थों का भी आगम के गुरू गंभीर रहस्यों को सुनकर हमारा मन मानस प्रसन्नता से झूमने लगा।
वे सिद्ध जपयोगी थे और हमारी भी जप के प्रति सहज रूचि रही, मेरे शोध का विषय भी अरिहंत था । उपाध्याय श्री की नवकार महामंत्र पर अनंत आस्था देखकर हमारा हृदय आनंद से तरंगित हो उठा, वे स्वयं तीनों समय जप करते थे और जो भी उनके संपर्क में आता उन्हें जप की प्रेरणा प्रदान करते थे। उनके मंगल पाठ को श्रवण कर हजारों व्यक्ति स्वस्थ हुए आधि-व्याधि, और उपाधि से मुक्त हुए।
उपाध्यायश्री का हमारे गुरुदेव आत्मार्थी मोहन ऋषि जी म. प्रवर्त्तक विनय ऋषि जी म. और हमारी सद्गुरूणी जी शासन प्रभाविका उज्ज्वल कुंवर जी म. के साथ बहुत ही निकट का संबंध रहा। हमारी दीक्षा के पूर्व ही पूर्व गुरूदेवों के साथ संबंध होने के कारण हमारी भी अनंत आस्था आपश्री के प्रति प्रारंभ से रही है। जितना हमने आपश्री के संबंध में सुना था उससे अधिक हमने आपको पाया, आज आपके सुशिष्य आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. श्रमण संघ के सरताज हैं, उस गुरू को हार्दिक बधाई है। जिन्होंने शासन के लिए ऐसे प्रभावक शिष्य रत्न प्रदान किया। हमारी अनंत श्रद्धाएं श्रद्धेय उपाध्यायश्री के श्रीचरणों में समर्पित ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एकता के पक्षधर थे......
में पदार्पण हुआ, अपार जन समुदाय आचार्य सम्राट के दर्शन हेतु
उमड़ रहा था। मेरी मौसी म. की भी दीक्षा थी, मैं भी उस अवसर -हीरालाल जैन (उपाध्यक्ष अ. भा. स्था. जैन कांफ्रेंस) । पर अम्बाला आया, मेरी मौसी म. की सद्गुरूणी शासन प्रभाविका
महासती श्री स्वर्णकान्ता जी म. ने मुझे बहुत ही स्नेह से अपने पास भारत की पावन पुण्य धरा की यह अपूर्व विशेषता रही है
बिठाया और कहा कि 'विकास, तेरे पुण्य प्रबल है हमारी हार्दिक यहां की धरती के कण-कण में, अणु-अणु में महापुरुषों के पवित्र
इच्छा है कि तू आचार्य सम्राट के पास दीक्षा ग्रहण करें तेरी माता चरित्र की सौरभ महक रही है। यहां की धरती पर अगणित
और पिता तो मेरी बात मानने को सदा तत्पर है बोल तेरी क्या महापुरुष पैदा हुए हैं जिनका पवित्र चरित्र प्रकाश-स्तम्भ की तरह
इच्छा है ? मैंने कहा-जैसे आप कहोगे वैसा मैं करने के लिए प्रस्तुत जन-जन का पथ-प्रदर्शक रहा है उन्हीं महापुरुषों की पवित्र परम्परा
हूँ। दूसरे ही दिन गुरूणी मैया ने मुझे आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि में उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. का नाम अनंत श्रद्धा
जी म. के चरणों में सहर्ष समर्पित कर दिया। के साथ लिया जा सकता है।
आचार्य सम्राट के चरणों में पहुँचकर मुझे अपार आनंद की जब भी मेरी स्मृतियों के आकाश में उपाध्यायश्री का नाम
अनुभूति हुई। आचार्य सम्राट के आदेश से छोटे गुरूदेव श्री दिनेश व आता है तो मेरा हृदय बासों उछलने लगता है और सिर गौरव से
मुनि जी म. का अपार स्नेह मुझे मिला और आचार्य सम्राट से पता उन्नत हो जाता है, क्योंकि उन्होंने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से अपने
चला कि मेरे दादा गुरू उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी शिष्य को इस योग्य बनाया कि आज उनके शिष्य आचार्य सम्राट
म. श्रमण संघ के एक ज्योति पुरुष थे। वे बहुत बड़े ज्ञानी, ध्यानी, श्री देवेन्द्र मुनि जी म. श्रमण संघ के तृतीय पट्ट पर आसीन है।
तपस्वी महापुरुष थे, उनके दर्शनों का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला जहाँ तक मुझे स्मरण है मैंने उपाध्यायश्री के अनेकों बार दर्शन पर उनके फोटो को देखकर ही और उनके गुणों को श्रवण कर किए हैं पर वार्तालाप करने का सुनहरा अवसर सन् १९८४ में जब मेरा हृदय उनके चरणों में समर्पित हो गया। मैं बालक हूँ और आपश्री का वर्षावास दिल्ली चांदनी चौक में था तब मिला, उस । गुरूदेवश्री के चरणों में यही हार्दिक प्रार्थना करता हूँ, हे गुरूदेव! समय आपके ओजस्वी/तेजस्वी प्रवचनों को भी सुना और १९८५ मेरी बुद्धि तीक्ष्ण हो, मैं खूब ज्ञान ध्यान कर और संयम जीवन का वर्षावास दिल्ली, वीर नगर में ही था, उस समय भी अनेक बार ग्रहण कर आपके नाम को अधिक से अधिक रोशन करूँ ऐसी मुझे दर्शन करने का अवसर मिला। सन् १९८७ में जब पूना में संत शक्ति प्रदान करें। यही मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। सम्मेलन हुआ उस समय विहार में भी संगमनेर आदि क्षेत्रों में दर्शन
[ गुरूदेव का जीवन बड़ा चमत्कारी था ) और वार्तालाप करने का अवसर मिला, पूना संत सम्मेलन में भी आपके सौम्य व्यक्तित्व को बहुत ही निकटता से देखने का अवसर
-कांतिलाल दरड़ा, औरंगाबाद मिला, उसके पश्चात् सन् १९८८ में इन्दौर में जब कफिस का अमृत महोत्सव था तब आपश्री के दर्शन हुए, सन् १९९२ में जोधपुर में
विक्रम सं. २०२५ का वर्षावास उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री का और उसके पश्चात् चद्दर समारोह के अवसर पर उदयपुर में
घोड़नदी में हुआ, यों उपाध्याय पूज्य गुरूदेव श्री पुष्कर मुनिजी म.
के सर्वप्रथम दर्शन हमने बम्बई में किए थे किन्तु उस समय परिचय आपश्री के दर्शन किए, उस समय आपका स्वास्थ्य काफी अस्वस्थ
नहीं हो पाया, घोड़नदी वर्षावास में पूज्य गुरुदेवश्री को अत्यधिक था किन्तु आपके चेहरे पर अपूर्व तेज दमक रहा था। आचार्य सम्राट
सन्निकट से देखने का सौभाग्य मिला। गुरूदेव की असीम कृपा मेरे के चद्दर समारोह का कार्य संपन्न होने पर उन्होंने आपश्री को
पर और हमारे परिवार पर रही, उस समय हमारी आर्थिक स्थिति हार्दिक बधाई दी। आपश्री के मुखारबिन्द से यही शब्द निकले व
बहुत ही चिन्तनीय थी पर गुरूदेव की कृपा से आज हर प्रकार से मेरा हार्दिक आशीर्वाद है कि आचार्य जिन शासन की खूब सेवा करें।
आनंद ही आनंद है। जिस पर गुरू की कृपा हो जाती है उस व्यक्ति उपाध्यायश्री जी एकता के पक्षधर थे, संगठन के सच्चे
को कभी कोई कमी नहीं होती। मिट्टी भी सोना बन जाती है। हिमायती थे और साथ ही वे सिद्ध जपयोगी थे, ऐसे महागुरू के चरणों में कोटि-कोटि वंदन। उनका अनंत उपकार हम कभी भी
____मेरे पूज्य पिताश्री प्रतिवर्ष गुरुदेवश्री के चरणो में पर्युषण पर्व
की आराधना करने हेतु पहुँचते थे। जबसे हम गुरूदेव के संपर्क में भुला नहीं पायेंगे। हमारी अनंत-अनंत आस्थाएँ उनके श्रीचरणों में
आए हमारी अनंत श्रद्धा बढ़ती ही चली गई। जब कभी जीवन में समर्पित।
संकट के बादल मंडराये हमने गुरूदेव का स्मरण किया और जैसे मेरे दादा गुरुदेव
दक्षिण का पवन चलने से बादल छंट जाते हैं वैसे ही हमारी बाधाएँ
सदा दूर होती रही है। गुरूदेवश्री का जीवन बड़ा ही चमत्कारी रहा -वैरागी विकास जैन है उनके चमत्कार के अनेक अनुभव हमें हुए हैं, हम अपने परिवार
की ओर से और अपनी ओर से गुरू चरणों में अपनी भावांजलि महामहिम आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. का अम्बाला समर्पित करते हैं।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
१६१
दिव्यदृष्टि के धनी : उपाध्यायश्री
हे पुष्कर गुण धाम !!
-श्री रमेश भाई शाह (दिल्ली)
-कवि अभय कुमार 'योधेय'
सन् १९८५ की बात है, मेरा स्वास्थ्य अत्यधिक अस्वस्थ चल रहा था। जब तन अस्वस्थ होता है तो मन भी शिथिल हो जाता है उस समय किसी भी कार्य को करने की इच्छा नहीं होती। उदास और खिन्न मन से दिल्ली में पधारे हुए उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के दर्शनार्थ मैं कोल्हापुर में अवस्थित धर्म स्थानक में पहुंचा। वंदन कर गुरु चरणों में बैठा गुरुदेवश्री की दिव्यदृष्टि मेरे पर गिरी
और उन्होंने सन्निकट बुलाकर कहा कि तुम्हें इस प्रकार की तकलीफ होती है? जो मुझे तकलीफ होती थी मेरे बिना कहे ही गुरुदेवश्री ने बता दी, मैं तो गुरुदेवश्री की दिव्य दृष्टि को देखकर चमत्कृत हो उठा, केवल बीमारी और बिमारी के कारणों को ही नहीं बताया बल्कि उन्होंने जो विधि जाप आदि की बताई उस अद्भुत विधि से मैंने जाप प्रारंभ किया और धीरे-धीरे वर्षों से जिससे मैं पीड़ित था उन सभी से मुक्ति मिल गई, मेरा शरीर स्वस्थ हुआ, मन प्रसन्न हुआ।
जब भी मन में किसी प्रकार की कोई चिन्ता जागृत हुई मैं उपाध्यायश्री के चरणों में पहुँचता रहा और उनके मंगल पाठ को श्रवण कर सदा सदा के लिए चिन्ता से मुक्त भी होता रहा। मैं राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि जहाँ भी गुरुदेवश्री पधारे वहाँ पहुँचा और उनके पावन दर्शन कर मन को अपार शांति मिली।
उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री का उदयपुर में स्वर्गवास हुआ। आज के युग के वे एक जाने माने हुए संत रत्न थे। उनका जीवन पावन था। उनकी वाणी जन जन के लिए प्रेरणा स्रोत थी। वे निस्पृह थे मैंने अनेकों बार उनके चरणों में निवेदन भी किया कि मुझे कुछ सेवा का अवसर प्रदान करें, सदा एक ही स्वर निकला-आनन्द ही आनन्द है। उनकी निस्पृहता को देखकर मेरा हृदय और अधिक श्रद्धा से नत हो गया। धन्य है ऐसे गुरुदेव को ! आज वे हमारे बीच नहीं है किन्तु उनके सुयोग्य शिष्य श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. श्रद्धेय पू. गुरुदेवश्री की प्रतिछाया के रूप में है। गुरुदेवश्री के गुण उनमें पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। गुरुदेवश्री का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है मैं अपनी ओर से तथा मेरी धर्मपत्नी स्वर्गीया सुश्राविका मालती बहिन की ओर से
और अपने पूरे परिवार की ओर से गुरु चरणों में भाव भीनी श्रद्धार्चना समर्पित करता हूँ और यही मंगल कामना करता हूँ कि गुरुदेवश्री ! आपका मंगलमय आशीर्वाद मेरे को एवं मेरे परिवार को मिलता रहे जिससे हम धर्म साधना से निरन्तर आगे बढ़ते रहें।
पतित पावन एक सरोवर पुष्कर जिसका नाम। उसमें परम ब्रह्म का वास, वह है, प्रभु का धाम ! हे पुष्कर ॥१॥
श्रद्धा और विवेक हृदय में जिसके हर पल सजग रहे। उसके सिर पर वरद हस्तपुष्कर सद्गुरू का सदा रहे !
हे पुष्कर |॥२॥ ज्ञान धाम, करुणा निधान हे तारण तरण तपस्वी। उज्ज्वल मुक्ताओं से पूरित, आभा युक्त मनस्वी ! हे पुष्कर ॥३॥
देव-देवेन्द्र, गणेश सेवित, गरिमा गौरवसिक्त सद्गुरू। चरण कमल की रज हूँ मैं भी, हे पुष्कर, तारक-समर्थ गुरू !
हे पुष्कर ॥ ४॥ शीश झुका है, चरण युगल में रखो लाज, विभु मेरी। भटक गया हूँ, राह दिखादो, बांह थाम लो मेरी ! हे पुष्कर
॥५॥ पाप पंक से हुआ अपावन पुष्कर अब स्वीकारो। पतित पावन धाम, यदि तुममुझ को आज उबारो !
हे पुष्कर ॥६॥ हे पुष्कर गुण धाम महिमावन्त गुण खान। तुम मेरे हो राम, पतित पावन राम ! हे पुष्कर ॥ ७ ॥
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१६२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ विभिन्न श्रीसंघों, संस्थाओं आदि से प्राप्त शोक प्रस्ताव (तार एवं पत्र ) श्रद्धांजलियां तथा गुरुदेव श्री के प्रति भावपूर्ण श्रद्धा उद्गार संख्या में अत्यधिक तथा इतने विस्तृत हैं, साथ ही प्रायः सभी में एक समान भाव तथा अभिव्यक्तियाँ हैं। अतः उनकी पुनरावृत्ति न करके यहाँ सादर उनका नामोल्लेख किया जाता है।
• श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अध्यक्ष- सुमेरमल मेडतिया मंत्री - हरकराज मेहता
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अध्यक्ष- कालू सिंह बाफणा
• श्री वर्द्धमान साधुमार्गी स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, मंत्री करण सिंह सिसोदिया
● श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्री संघ,
मंत्री - माणक चन्द मेहता
● श्री गाँधी नगर स्थानकवासी जैन संघ मंत्री रमेश भाई डी. गाँधी
गाँधी नगर श्री तिलोक रत्न स्थानक जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड अहमदनगर • श्री कर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, (मेवाड़)
अध्यक्ष- तिलोक चन्द सिसोदिया
मंत्री मांगी लाल जैन
भायंदर (बम्बई)
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अध्यक्ष-छोटू लाल महाजन जैन
देवास (म. प्र.)
श्री श्वेताम्बर जैन स्थानक,
राजपाल जैन एवं समाज
सोनीपत
• श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, सुजान सिंह
● श्री स्थानकवासी जैन वीर संघ, अध्यक्ष-जेवरी लाल सिसोदिया मंत्री- ताराचन्द बम्ब
उदयपुर
रामपुरा बाजार, कोटा
श्री वर्द्धमान श्वे. स्था. जैन श्रावक संघ
• श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ,
मंत्री - पारसमल डोशी
मंगल साधना केन्द्र, अध्यक्ष-धनराज देश लहरा
मंत्री - दीप चन्द देश लहरा
जोधपुर
किशनगढ़
● श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, मंत्री - चांदमल मुरडिया
• खादी ग्रामोद्योग सघन विकास समिति,
मंत्री लक्ष्मी चन्द भण्डारी
मांडलगढ़
उरला (दुर्ग)
मन्दसौर
पाली जिला मानव स्वास्थ्य सुधार संस्था, अध्यक्ष- बहादुर राज मेहता
पाली
श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ, मंत्री-आर. कन्हैयालाल
वेलूर
श्री दिल्ली गुजराती स्थानकवासी जैन संघ चांदनी चौक, दिल्ली
बस्सी (जयपुर)
ब्यावर
अलवर
मदनगंज
• श्री आगम प्रकाशन समिति, मंत्री अमर चन्द मोदी
• अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस मालवा खण्ड निहाल चन्द गाँधी
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, मंत्री - पारस कांठेड
• श्री एस. एस. जैन सभा पवन कुमार जैन
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, उपाध्यक्ष - हस्तीमल दगडूराम मुथीयान मंत्री - सुरेश चन्द सी. कांठेड
• श्री कर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, प्रधान-अशोक कुमार जैन मंत्री - श्री चमनलाल जैन
• एस. एस. जैन सभा,
मंत्री रमेश कुमार जैन
-
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन संघ, अध्यक्ष-फतह चन्द बाफणा
श्री वर्द्धमान स्थानकवासी श्रावक संघ, मंत्री - शोभा लाल जैन
एस. एस. जैन सभा,
मंत्री शान्ति लाल जैन
• श्री वर्द्धमान श्वे. स्था. श्रावक संघ,
मंगत लाल लसोड
•
•
श्री वर्द्धमान स्था. जैन श्रावक संघ
श्री जैन दिवाकर युवक परिषद् विजय लोढ़ा
• श्री श्वे. स्था. जैन संघ
मंत्री - नवल चन्द बोकडिया
• श्वे. स्था. जैन सभा
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ब्यावर
मंत्री अजीत सिंह पटवा
● श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, सचिव- पवन जैन
•
श्री जैन रत्न हितैषी संघ
• श्री श्वे. स्था. जैन स्वाध्यायी संघ, रतन लाल जैन
• श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अध्यक्ष-बुधराज जामड
• श्री श्रमण संघीय जैन श्राविका संघ, अध्यक्ष- श्रीमती नगीना बोहरा मंत्री श्रीमती पारसमणि खीचा
रतलाम
पुरानी पड़ासौली
पानीपत
अहमदनगर (महा.)
अम्बाला शहर
जालंधर
भोपाल
विरार (महाराष्ट्र)
शालीमार बाग, दिल्ली
प्रतापगढ़ निम्बाहेड़ा निम्बाहेड़ा
साहूकार पैठ, मद्रास
फरीदाबाद
बदनावर
भोपालगढ़
गुलाबपुरा
मेड़ता सिटी
उदयपुर
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर
१६३
संस्कृत भाषा निबद्ध
प्राकृत भाषानिबद्ध
।
श्री पुष्करमुनिस्तव-पञ्चकम्
-आचार्यकल्प श्री शुभचंद जी म.
-१)
श्री मद्विप्रकुलाम्बुजोदयदशीतांशुः तपस्वी सुधीः, अम्बालाल इति प्रथामधिगतः पश्चादसौ पुष्करः। राजस्थानगते शुभंयु-सिमटाराख्ये जनि प्राप्तवान्,
ग्रामेऽश्वर्तुनवैक वैक्रम-समायामाश्विने मासके॥
-(२) तिथ्यां वै सितपक्षके मनुमितायां योगिराजोगुरुः श्रीमज्जैन-सुतत्त्वमेव निखिलं प्राचीचरत् सर्वतः। आजीवं मनुजेषु यो व्रतधरो धीरो महापण्डितो
यो बाल्ये विषयेष्वसक्तमनसा ध्यायन् परं सत्यकम्॥
३)
श्रीमत्तारकचन्द्र नामगुरुश्चार्हन्त्य-दीक्षां पुरा सम्प्राप्यैव मुनीश्वरोऽध्ययनकृद् वैदुष्यमाप्तुं वरम्। सर्वाम्नाय-सुतत्त्व विन्मुनिवरो देशेष्वनेकेषु च,
ज्ञानं देष्टुमना वरं स मनुजान् सम्भ्रान्तवान् सर्वतः॥
सिरिपुक्खरस्सुई : श्री पुष्कर स्तुति
-प्रवर्तक श्री उमेशमुनि ‘अणु' भारहवासे खाया, एगा मेवाड-भूमि-नामस्थि।
वीरा जस्सिँ पसिद्धा, जाया केई स तंत-पिया॥१॥ भारतवर्ष में 'मेवाड़भूमि' नामवाली प्रख्यात (भूमि) है। जिसमें कई स्वातन्त्र्य-प्रिय वीर (पुरुष) प्रसिद्ध हो गये हैं।
तम्मण्डले अइलहू, सिमटारो णाम एगगं गाम। नीडं व दिय-गणाणं, तं पि आसओ दिआणं किर॥२॥ उस प्रदेश में सिमटार नाम का एक बहुत ही छोटा ग्राम है। वह ग्राम द्विजगणों (पक्षिवृन्दों) के घोंसले के समान द्विजजन (ब्राह्मण कुल का) आश्रयस्थान (के रूप में) था।
सूरजमलजी-णामो, विप्पो तत्थ वसई हु साणंदो।
घरणी वालीबाई, गिहस्स सोहा व जुण्हागा ॥३॥ उस ग्राम में 'श्री सूरजमलजी' नाम के एक ब्राह्मण रहते थे। निश्चय ही (उनका समय) आनन्द से युक्त (जा रहा) था क्योंकि उनकी गृहिणी वालीबाई घर की चाँदनी (और) शोभा सदृश थी। तस्स उयरा अवयरइ, एगो बालो सुगुत्त-पुण्णधरो।
= १९६७ रिसि-रस-णिहि-ससि-अहे, हरिसभरा अम्मताया तो॥४॥
उन (वालीबाई) के उदर से एक सुगुप्त (= छिपे हुए) पुण्य वाले बालक का वि. सं. १९६७ में जन्म हुआ। उससे माता-पिता महान् हर्ष में भर गये। (बचपन में मातृ-वियोग आदि के कारण सुगुत्त पुण्णधरो कहा है।)
णामकरणस्स दिवसे, अंबालालो-त्ति तस्स अभिहाणं। देन्ति सुरसेण तित्ता, पिम्म-फलं दठु नियगं विव॥५॥ वे (माता-पिता) नामकरण (संस्कार) के दिन अपने प्रेम के फल के समान (बालक को) देखकर, विशिष्ट रस से तृप्त (-से)होते हुए उस (बालक) का नाम अम्बालाल देते हैं।
पुत्तो घरंसि जाओ, कस्स ण सुविणं मणंसि उवजायइ। वीसरइ पसव-पीलं, जणणी लीणा भविस्स सुहे॥६॥
घर में पुत्र का जन्म हुआ तो किसके मन में (भावि) स्वप्न नहीं उत्पन्न होते हैं ? (वैसे) माता (वालीबाई) भी प्रसव-पीड़ा को 25 भूल जाती हैं और भविष्य के सुख में लीन हो जाती हैं।
वड्ढइ सिसू सहासो, पाणि-पाय-चालणं करित्ताणं। अम्बा-पियंक-कमले, चंदमुहो रमइ सो भद्दो॥७॥
श्रुत्वा यस्य मुखारविन्द-निरितं पीयूषतुल्यं वचः आत्मानं कृतकृत्यमेव मनुजा नार्यश्च जानन्तकि। नित्यं पुष्करनामधेयक उपाध्यायस्य यातः पदं
पाञ्चालादि-मरुस्थलेषु विचरन् ख्यातिं परा लब्धवान्॥
दिव्यं ज्ञानमुपार्जयज्जिनवरस्याहो असौ शासनमध्युष्यामलभाः सुयुग् भगवतो धर्मानुरक्तः सदा। शास्त्रज्ञान-विचारणे मतिमतां व्यासायते यो वशी
जीयाज्जैन-सुधर्म-तत्त्व विदलं शोभारते भारते॥
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१६४
( मुख पर ) हास से युक्त (वह) शिशु अपने हाथ-पैरों को हिलाता हुआ बड़ा होता (जा रहा है। वह चन्द्रमुख वाला भद्र माता की प्रिय गोदी रूप कमल में क्रीड़ा करता है।
( इस गाथा में चन्द्र और कमल की विरोधी बात कही गयी है। चन्द्रोदय में कमल कुम्हलाता है, परन्तु यहाँ पुत्र के चन्द्रमुख से माता के अंकरूपी कमल में प्रियता उमड़ रही हैं अर्थात् पुत्र चन्द्र को अंक कमल प्रिय है और माँ का अंक कमल पुत्र चन्द्र के प्रेम में उल्लसित हो रहा है। इसके साथ आगे अंककमल के कुम्हलाने रूप वियोग की सूचना भी है ।)
जणणी जयाणियं के, सिसुं गहिय चिट्ठई गिह-दुवारे । 'किच्या कवोलभाए, मुहं तस्स चुम्बइ सिरग्गं ॥८ ॥ जब माता अपनी गोद में बालक को लेकर घर के द्वार पर खड़ी रहती है, (तब) वह (दिशा की ओर देखती हुई) (अपने) कपोल भाग पर उसके मुख को रखकर सिर के अग्रभाग का चुम्बन करती है।
पासइ दिसं सुहिट्ठा, आलिंगित्ता कया उरंसि हसइ । बालं रमाविऊणं, अम्बालालं रसमणुहवइ ॥ ९ ॥ (यह) प्रसन्न बनी हुई दिशा की ओर देखती है और कभी ( बालक का ) हृदय से आलिंगन करके हँसती है। (इस प्रकार ) माता अम्बालाल को खिलाकर रस का अनुभव करती है।
कालो हु आगओ तो ताल देन्तो मुहं विहाडित्ता । जणणि गिलेइ दुट्ठो, पाडित्ताणं करा बालं ॥ १० ॥
उसके बाद (कभी) काल भी ताल देता हुआ मुँह फाड़कर आ गया। वह दुष्ट (जननी के हाथ से बालक को गिराकर माँ को निगल जाता है।
पासइ तथा रुयंतो, अम्बालालोऽग्गिणाऽम्ब-जालतं । अच्छेरयं महन्तं जायं दट्ठूण निद्दयं कम्मं ॥ ११ ॥
तब रोता हुआ अम्बालाल माता को अग्नि से जलाते हुए | देखता है। उसे (इस किसी को अग्नि से जलाने रूप) निर्दय कर्म को देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ।
जाणइ जया उदन्तं सच्चं सो बीससेज नेव हि। जीवो कहं महंतो, एवं खलु निच्चलो होज्जा ॥१२॥
जब वह (अम्बालाल) सही वृत्तान्त को जानता है, तब यह (उस पर इस प्रकार ही (होता है) विश्वास ही नहीं करता है। ( वह सोचता है कि ) इतना बड़ा जीव ऐसे निश्चल कैसे हो जाता है ?
पुष्फे व कोमलं तं सोओ गिण्हड हिमो व पीलेड़। कत्थ गयं मज्झ सुहं, इओ तओ सो पलोएइ ॥ १३ ॥
पुष्प से कोमल उस ( अम्बालाल) को शोक पकड़ लेता है और हिम (पात) सा पीड़ित करता है ( वह आर्तभाव से सोचता है ) "मेरा सुख कहाँ गया ?" और फिर वह इधर-उधर देखता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
तं पासिऊण जणगो, लुहमणो णेव होइ साणंदो । पुव्यं व देइ किंचि ण ण व संलव ण हि चुंबे ॥१.४ ।।
(उसे लगा) उसको देखकर रूक्ष मन वाले पिता (अब) जरा भी आनंदित नहीं होते हैं, पहले के समान कुछ देते नहीं हैं, न वार्तालाप करते हैं और न चुम्बन ही करते हैं।
पुच्छइ पण कोयि तं ता, जियगेहे अभियो कडू जाओ। सुक्खइ सयं वहित्ता, अंसुं सुण्ण-णयणो होइ ॥ १५ ॥
( मानो वह अपने घर में (ही) अप्रिय और कडुआ हो गया। अतः उसे कोई पूछता ही नहीं है। इस कारण उसके आँसू बहकर स्वयं ही सूख गये और (वह) शून्य नयन वाला हो जाता है।
पेमपि अहिलसइ, सुक्क मुझे सो न किंचि तं पासइ। हियअं स एव रोवइ, चक्खूणि जलंति को जाणइ ॥ १६ ॥
प्रेम और प्रिय (जन) को (वह) चाहता है। (किन्तु) वह शुष्क मुँहवाला उस (प्रेम और प्रियजन) को कुछ नहीं देख पाता है। अतः (उसका) हृदय सदैव रोता है और आँखें जलती (रहती हैं। परन्तु (इसे) कौन जानता है?
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लग्गइ जगं पि सुण्णं, गेह-सुण्णयाइ जीवियं सुण्णं । मेहं व तम्मि समए, ताराचन्दं मुणिं पासइ ॥ १७ ॥
(उसे) घर की शून्यता से जगत् भी शून्य लगता है और जीवन भी शून्य लगता है। ऐसे समय में वह मेघ के समान (वात्सल्य अमृत की वर्षा करने वाले) श्री ताराचन्द्रजी मुनिराज को देखता है।
सो जीवियस्स अट्ठ, लहेइ लाहं परं सुही होइ। आणंद-आलयं खलु, धम्मं पावेइ हरिस भरो ॥१८॥
वह (अम्बालाल मुनिराज की चरणसेवा से) परम लाभ रूप जीवन का अर्थ प्राप्त करता है। (अतः दुःख के दिन बीत जाते हैं। और) सुखी होता है। निश्चय आनन्द के आलय धर्म को प्राप्त करता है और हर्ष से भर जाता है।
९ 9 = १९८१
दिक्खिय गुरुस्स पाए, भू-सिद्धि-निहि-सीयरस्सिँ अद्दम्मि । पत्तं सुहं तु जंण य, तुल्लं किर तस्स भुवणम्मि ॥ १९ ॥
विक्रम संवत् १९८१ में गुरुदेव के श्रीचरणों में दीक्षित होकर (अम्बालालजी ने) जो सुख पाया, उसके तुल्य (तीन) भुवन में (कोई सुख ) नहीं है।
जालोरए सुनयरे, उम्मिल्लिय णाण अक्खि लोहे | गिहिय गुरुस्स चरणं, जिण सासण- अंगणे धण्णो ॥ २० ॥
( वह) ज्ञानरूपी नेत्र को खोलकर जिनशासन के आंगन में ( स्थित अपने ) गुरुदेव के चरण (के शरण) को जालोर नामक उत्तम नगर में ग्रहण करके धन्य बन कर (आनन्द में) लोटता है।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर मार
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सो धम्मपुक्खरं तं, पप्प पुक्खरो मुणी वियसिय मुहो। श्री आनन्दऋषिजी महाराज ने पूना नगर में जन समूह के उत्साह
जायइ महीयले खलु, खाई लब्भइ तयभिहाणे ॥२१॥ के बीच होती हुई जयध्वनि में उपाचार्य पद पर उपस्थापित किया। वे (अम्बालाल) उस धर्मरूपी पुष्कर को प्राप्त करके, विकसित
दठूण ताओ णिय-पुत्तगं तु, मुखवाले श्री पुष्करमुनि हो जाते हैं और इस नाम में पृथ्वीतल में
अप्पाउ अग्गम्मि पयम्मि हिट्ठो। प्रसिद्धि पाते हैं।
एमेव सीसे नियगाउ उच्चं, पढइ लिहइ गुणइ गुणी, छत्तयले रमइ थेरमुणिणो सो।
ठाणं वरन्ते हरिसेइ सामी॥२९॥ सेवेइ कप्पतरु तं, गमइ संजमे सुहो कालं ॥२२॥
पिता अपने पुत्र को अपने से आगे के पद पर स्थित देखकर
हर्षित होता है। वैसे ही स्वामी अर्थात् श्री देवेन्द्रमुनि जी महाराज के (वे) पढ़ते-लिखते हैं और (वे) गुणी (पढ़े हुए ज्ञान का) मनन
गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज अपने शिष्य को अपने करते हैं तथा (उन) स्थविर मुनि की छत्रच्छाया में रमण करते हैं।
से उच्च स्थान (आचार्य पद) पर आरूढ़ होने पर हर्षित हुए। वे उस (धर्मरूपी) कल्पवृक्ष का सेवन करते हैं और शुभ (भाव वाले) बनकर संयम में समय को व्यतीत करते हैं।
= २०५० ०५० २
नह-सर-सुन्न-भुयदे, चित्तस्स सुपंचमीइ तइओ य। जाओ मुणी तरू विव, परियालो तस्स हियअ-आणंद
आयरिओ सब्भूओ, देविंदो समण-संघस्स ॥३०॥ वड्ढेइ-पासिय फलं, जाओ थेरो अमियतित्तो॥२३॥
जाओ आयरिओ एव, आनंदायरिये गए। वयइ वर-आसिवायं, सिस्स-पसिस्साण सो महाथेरो। हंसो व तणुं चिच्चा, धम्मपयं गिण्हिय गओ तं ॥२४॥
पच्छा चादरदाणस्स, विही खलु इमा कया॥३१॥
विक्रम सं. २०५० की चैत्र की सुपंचमी = सुदी पंचम के दिन (फिर श्री पुष्कर-) मुनिजी (गहरे) वृक्ष के समान हो गये।
श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज श्रमणसंघ के भली-भाँति तृतीय आचार्य (उनका शिष्य) परिवार उन (के गुरु) के हृदय का आनन्द बढ़ाता
हो गये। है। (इस) फल को देखकर (वे) स्थविर बड़े तृप्त होते हैं।
(यों तो) आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषिजी महाराज के (देह वे महास्थविर (श्री ताराचन्द्रजी म.) शिष्य-प्रशिष्यों को उत्तम
त्याग कर परलोक) जाते ही (श्री देवेन्द्रमुनिजी म.) आचार्य ही हो आशीर्वाद देते हैं और हंस के समान शरीर को छोड़कर-धर्मरूपी
गये थे। किन्तु बाद में यह चादर-दान की विधि की गयी। उस पथ को ग्रहण कर उड़ जाते हैं।
पक्खम्मि तम्मि दिवसे-एगारसहे समाहिपत्तो सो। पुक्खरमुणीति संघ-समणे भूओ सुओ उवज्झाओ।
चइऊण जज्जर-तणं, गओ परभवे उवज्झाओ॥३२॥ विहरिय विसाल-खेत्ते, भारहवासे वयणवासं ॥२५॥ मेहो व वरिसिऊणं, भत्ताण उरं सुसिंचइ मुणी सो।
उसी पक्ष में ग्यारहवें दिन अर्थात् चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन
समाधि को प्राप्त वे (श्री पुष्करमुनिजी म.) उपाध्याय जर्जर जाणामि णेव साहू, केत्तिआण वल्लहो जाओ? ॥२६॥
1 औदारिक शरीर को त्यागकर परभव पधार गये। श्री पुष्करमुनिजी म. श्रमणसंघ में उपाध्याय हुए-सुने गये। वे मुनि भारतवर्ष के विशाल क्षेत्र में विचरण करके और बादल के
पावइ ण जाव मुक्खं, ताव होउ जिण-कमबुअ-भसलो। समान वचनामृत (रूपी जल) की वर्षा करके, भक्तों के हृदय को
सुद्धिं लहेज्ज जीवो, तस्स य संतिं परं-भावेमि ॥३३॥ भली-भाँति सिञ्चित करते हैं। मैं नहीं जानता कि वे साधु कितने
उनका जीव जहाँ तक मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है, वहाँ तक (जनों) के (हृदय-) वल्लभ हुए।
(वे) श्री जिनेश्वरदेव के चरण-कमल के भ्रमर बनें और (अन्त में)
परम शुद्धि और शान्ति को प्राप्त करें-ऐसी भावना करता हूँ। सुलेहगो कई वत्ता, इइ लोया वयन्ति णं। साहू मण्णेइ साहुत्ता, राढामणीव ते पया ॥२७॥
तस्सेव सीसो तइओ य सूरी, लोक उन्हें 'सुलेखक, वक्ता और कवि थे' ऐसा कहते हैं किन्तु
देविंदसाहु सुजसोयरो जो।
लद्धासिवाओ गुरुणा लहिता, (भगवान् जिनश्वर देव का अनुयायी) साधु साधुत्त्व (रूप असली मणि) की अपेक्षा इन सभी पदों को राढामणि (= काँच की नकली
साहुत्तसिद्धिं अणुसासएज्जा ॥३४॥ मणि) के समान मानता है।
उन्हीं (श्री पुष्करमुनिजी म.) के शिष्य और (श्रमणसंघ के) देविंदो तस्सीसो, आणंदेण उव-आयरिय-ठाणे
तृतीय आचार्य हैं, श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज, जो (अपने गुरु और
अपने) उत्तम यश के करने वाले हैं, जिन्होंने (अपने) गुरु से जण-समुच्छाहे पूणे, समुवठाविओ जय-झुणीए॥२८॥
आशीर्वाद पाया है, वे साधुत्व की सिद्धि को प्राप्त करके, (श्री व्य श्री दवन्द्र मुनिजी महाराज का आचायप्रवर पूज्य श्रमणसंघ का) अनुशासन करें।
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१६६
डिंगल भाषाशैली निबद्ध काव्य
श्रद्धा सुमन
-प्रवर्तक श्री रूपमुनि 'रजत'
त्राम्बा सुत रिपुता गुरु, ता भुख का असवार । ता जननी पियु आभरण, ता भुख सुत जुहार ॥ सवैया
पुष्कर-पुष्कर टैरत है हम, मुख कानन भान न बात सुने न, वरुनी से गोन कियो तुम ता दिनसे, दिन ही या कुल कान रहो न रहो परि-देव-तो
से भीन लही सु नही। धुनि जो वहि सो बही ॥ दिन याद नई रु नहीं । टेक ग्रही रूग्रही ॥
प्रेम जहर लागी लहर, कहै दशा जिम जाय । व्याध मिटे जनभक्त की, पुष्कर गुरु मिल जाय ॥ वैन सदा पुष्कर उच्चारत, नैन पुष्कर-गुरु दर्शाये । रैन पुष्कर विन दुर्भर सदा, सैन पुष्कर बिना न सुहावे ॥ चाह पुष्कर की याद रहे नित, 'देवेन्द्र' शिष्य को जी ललचावे ॥ रोम ही रोम " पुष्कर" रमें रजत-कौउ आय-गुरु राज मिलावे ॥
तान दिन संत जपंत, जादिन से विछुहा भयो।
याद न चुकत चिंत, गुरु पुष्कर गये धाम में
सवैया
नैन उसास हियो भर आवत, वासर एसे किते भरिये। ले फिरियाद कहाँ फरिये मन, लाय लगे सो किसे लरिये ॥ जाय किघो गिरिये गिरितुंगन, खाय किधो विष को मरिये । रूप कहै उपचार बताओ मुनी, अंतहुं-पुष्कर कहा करिये ॥ या पलही पलही तलफे तन तोबिन तोबिन के झप जैसे,
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पंथ थके सुमनोरथ के मुख, जोत मनो शशी सुरडदेसे ॥ ज्वाल कराल जगी उर भीतर, कौलो निभाव बने अब कैसे। मुनि पुष्कर - विनु “रूप” करे अब क्यों करिये भरिये दिन ऐसे ॥ पुष्कर-ध्यान लगो घट भीतर-तजेन चित्तर रूप का ही कोउ दिनों पल एक बन्यौ सोउ, जान नहीं गुजरीसु जबेही ॥ होन को कौन मिटावन हैं, ऐसी लही है निशानी सबै ही ।।
परमानन्द पुष्करमुनि सर्व विषय कल्लोल । संयम अनुभवते सदा आनन्द लह्यो अमोल ॥ अखंडित पंडित भोअनुप, शास्त्रनको सुगाल कसोटी थी कविता तणो, उपाध्याय टकशाल ॥
वाई ..
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन
जिनके पावन पद रज से,
धरती का कण कण महका था।
वचन पुष्प पराग झरा तो,
जन जन का मन खनका था । तीर्थराज पुष्कर माना
स्वयं मूर्त रूप पाया, उपाध्याय पुष्कर मुनि जी से जिनशासन गौरव चमका था ॥ १ ॥
10.0.0.0.
-श्री सौभाग्य मुनि जी म. "कुमुद" ( श्रमण संघीय महामंत्री )
तारा गुरु के नयन सितारे माँ भारती के नन्दन
सहमी धरा गगन हतः प्रभ था लहर पवन की रोई थी
वीर जयन्ती भी आई पर
उसकी खुशियां धोई थीं लाखों लाखों आँखों की आशा खोई खोई थी उपाध्याय जी की काया जब अग्नि शय्या पर सोई थी ॥२॥
ब्रह्म कुलावतंश ज्ञान के सजे सजाये शुभ स्पन्दन तुम गये भक्तों के मन में जगा गये करुणा क्रन्दन जय देवेन्द्राचार्य निर्माता
कोटि-कोटि वन्दन- अभिनन्दन ॥३॥
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Octo20
श्रद्धा का लहराता समन्दर
१६७ ।
हे उपाध्याय पुष्कर मुनि जी
-प्रवर्तक महेन्द्र मुनि “कमल"
क्यों साथ अचानक छोड़ गये, क्या ऐसी हम से भूल हुई। पाटल की पंखुरियाँ जैसे, तुम बिन लगे बबूल हुईं।
हे उपाध्याय पुष्कर मुनि जी, हम खो तुमको पछताते हैं। साथ आपके बीते जो पल
रह-रह याद हमें आते हैं। आज हवा भी चुभती मेरे लगता जैसे शूल हुई। पाटल की पंखुरियाँ जैसे तुम बिल लगे बबूल हुईं।
ज्ञानामृत की बूंदें तुमने, निशदिन धरती को बांटी हैं। बनी संगठन में जो खाई
नित तुमने उसको पाटी है। श्रमण संघ के खातिर सचमुच वाणी आपकी कूल हुई। पाटल की पंखुरियां जैसे तुम बिन लगे बबूल हुईं।
यमस्य दूतं प्रति पृच्छयेयं
कथं हृतं रत्नमिदं मदीयम् ॥२॥ लोके गुरो में यशसः सुपुज
सोढुं त्वया नैव कृतान्त! किं वा । त्वया विचार्यं ननु काल-कार्य
इन्द्रोऽपि सोढुं सहते कदाचित् ॥३॥ कालोऽसि जात्यन्ध इवापि मन्ये
कृतं त्वया कार्यमहेतुकं तत् ।। दृष्टं त्वया पापमिदं न वा किं
फलं त्वया नैव विचारितं वा ॥४॥ लोके प्रसिद्धिं सुतरां समीक्ष्य
त्वदीयमेतत् हृदयं विदुष्टम् । एतद्विचार्यैव गुरुर्मदीयः
त्वया कृतः किं सुरलोकवासी ॥५॥ रे काल! ते मौर्यमिदं त्वदीयं सात
मृतेऽपि तस्मिन् मरणं न तस्य । देहस्य नाशं मरणं वदन्ति
संस्तारिणः किं भयमेति मृत्योः ॥६॥ काल ! त्वदीयं विहितं कुकार्य
व्यर्थं हि जातं भुवने निकृष्टम् । तनोति कीर्ति नितरां जगत्यां
कश्चिन्न हर्तुं क्षमते कदाचित् ॥७॥ घोरान्धकारे तव चौर्यमेतत्
दुष्टस्य कालस्य कलङ्कमेव । यतो गुरो में सुषमा प्रदीप्ता
दैनंदिनं वर्द्धत एव नित्यम् ॥८॥ ईा वशेनैव कुकृत्यमेतत्
त्वया कृतं चेतसि चिन्तयेयम् । वात्सल्यमेतत् हृदये गुरो में
प्रकाशते प्रत्ययमेव तावत् ॥९॥ प्राणेभ्य एवायमहो प्रयासः
करोति किं ते हृदयस्य पूर्तिः । कार्यं त्वदीयं प्रचलत्यथान्ते
तथापि ते तोषमुपैति चित्ते? ॥१०॥ सोढुं समर्थोऽक्षम एव एषः,
याचे रमेशो मुनि रेतदेवम् । अनन्तमानन्दसुखस्य राशिं
गुरु र्मदीयो लभतामजनम् ॥११॥ ..
झीलों की नगरी में जाकर, आपने देह को त्यागी है। दर्शन जिसने किये आपके
वह नर सचमुच बड़भागी है। "कमल" योग्य मस्तक पर चढ़ने उनके चरण की धूल हुई। पाटल की पंखुरियां जैसे तुम बिन लगे बबूल हुईं।
कथं हृतं रत्नमिदं.........
-रमेश मुनि शास्त्री
(उपाध्यायश्री के सुशिष्य) (उपजाति वृत्तम्) मृत्यो! वद त्वं किमु कारणं ते
बुद्धस्तथातिक्रमणं कुतो वा । यो दिव्यवाचा वपुषा वदान्य
श्री पुष्करं तं गुरुमुज्जहार ॥१॥ बहूनि रत्नानि विभासितानि
लोके विलोके सुतरां स्वभासा ।
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379
१६८
मुक्तक
भाव- सुमन
मेरे रोम-रोम के ऊपर जिसने नित उपकार किया, अमृत देकर जिसने जग का हँस-हँस कर विषपान किया।
मुनि गणेश पर गुरुवर पुष्कर आशीर्वाद बनाये रखना, ज्ञान की घूंटी पिला आपने नित मेरा उत्थान किया।
O
काली निशा में आपने ज्ञान का दीपक जलाया, रूठी थी जग की बहारें आपने सुमन खिलाया।
गीत
बिना मौसम आँसुओं की उमड़ती मन में घटाएँ, चल रहे हम श्रद्धा के भाव को मन में उठाए ।
सुनसान अब लगने लगा है आपके बिन यह जहाँ, भावना के उदधि में लो श्रद्धा का फिर ज्वार आया।
O
-श्री गणेशमुनि शास्त्री
स्मृति आते ही आँसू नयन में आते हैं मेरे, भरी दुपहरी घेर लेते मुझको अनचाहे अंधेरे ।
मुनि गणेश के अंतर् में हर पल आपकी सूरत समाई, बस उसी तस्वीर को हम रहते हैं हर पल सटाए ॥
O
शब्द जो तुमने दिये आकार देकर धर रहा हूँ, आपका ले नाम निशदिन खाली घट को भर रहा हूँ।
संकृत होते रहे हैं तार अन्तर वीणा के नित, अवशाद की चादर यहाँ रहती है हर ओर घेरे ॥
O
मुक्ति पथ के पथिक बन आप गुरुवर चल दिये, भाव- श्रद्धा के यहाँ मैं आज अर्पित कर रहा हूँ ।
गुरु तुमने उपकार किया है!
मेरे प्यारे गुरुवर पुष्कर ! भूल तुम्हें मैं कैसे जाऊँ । मेरे जीवन के हर क्षण पर गुरु तुमने उपकार किया है।
मैं तो इक अनगढ़ पत्थर था, तुमने देखा और उठाया। ज्ञान छेनी से मुझे तराशा, मुझको मूर्ति रूप बनाया।
- श्री गणेशमुनि शास्त्री
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अपने हाथ बिछा अवनी पर गुरु तुमने आधार दिया है। मेरे जीवन के हर क्षण पर गुरु तुमने उपकार किया है। मैं बालक अंजान अकेला, कुछ पाने को भटक रहा था ।
महामोह के बन्धन में गिर, मन मेरा भी अटक रहा था।
मुझे पिलाकर के ज्ञानामृत गुरु तुमने उद्धार किया है। मेरे जीवन के हर क्षण पर गुरु तुमने उपकार किया है। अगर न मिलते आप मुझे तो, मृग मरीचि सा जीवन होता । अभिशापों के जंगल में फिर, मैं कैसे वरदान संजोता ।
मैं तो मिट्टी का ढेला था गुरु तुमने आकार दिया है। मेरे जीवन के हर क्षण पर गुरु तुमने उपकार किया है। स्मृति की लहरें उठ उठ कर, मन का आंगन गीला करतीं। शब्द सुमन अर्पित करते भी, दोनों आँखें हर पल झरतीं।
मुनि गणेश को सदा सत्य का गुरु तुमने संसार दिया है। मेरे जीवन के हर क्षण पर गुरु तुमने उपकार किया है।
श्रद्धा-सुमन
-प्रिय सुशिष्य जैन सिद्धान्ताचार्य प. श्री उदय मुनिजी
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पिता सूरज के दिवाकर सम आप लाल थे, पाकर माता-पिता समाज आपको निहाल थे। ले संयम उपाध्याय पद शोभित किया 'उदय' पूज्य पुष्कर आप लेखक - साधक कमाल थे ॥ १ ॥ बाल्यावस्था में संयम लेकर आत्म उद्धार किया, दे धर्मोपदेश लोगों पर बहुत उपकार किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे उपाध्याय पुष्कर आप, करनी कर महान् कूल श्री संघ रोशन किया ॥२॥ साध्वी श्री धूलकुंवर से ली प्रेरणा संयम की, पूज्य गुरुवर ताराचंद्र से पावन दीक्षा ग्रहण की। श्री अमर सूरी की रचना की संस्कृत मांय 'उदय' रच बहु रचनाएँ सेवा की पुष्कर ने जैन साहित्य की ॥ ३ ॥ समझ जीवन की क्षणभंगुरता संयम अंगीकार किया। सत्य प्रेम अहिंसा का जग को पावन संदेश दिया। उपाध्याय पुष्कर का नाम सदियों तक अमर रहेगा 'उदय' बन पारस सम श्री संघ को आचार्य देवेन्द्र सा शिष्य दिया ॥४ ॥
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१६० A
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
[कुछ अतिमहत्त्वपूर्ण श्रद्धांजलियाँ किसी कारणवश मुद्रित होने से रह गईं। इस भूल का हमें खेद है। विलम्ब से ही सही, अब उनको यहाँ संयोजित किया जा रहा है। सम्मान्य मुनिजन क्षमा करेंगे।]
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रहा है। वे सद्गुणों के पुँज और पुरुषार्थ के प्रबल प्रतिनिधि रहे हैं, आत्मा-विज्ञानी सन्त थे ।
संतों की समृद्ध परम्परा में परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि -श्री रवीन्द्र मुनि जी जी म. सा. का नाम बहुत ही गौरव के साथ लिया जा सकता है।
उनका व्यक्तित्व बहुरंगी और बहुआयामी था। पूना संत सम्मेलन में हमने सर्वप्रथम उपाध्यायश्री के दर्शन दिल्ली में किये थे। प्रथम
उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके अपार वात्सल्य को दर्शन में ही उनके विराट् व्यक्तित्व का मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
पाकर हृदय आनन्द से झूम उठा। मैंने उनके विराट् व्यक्तित्व में उनकी हंसमुख मुद्रा और सहजता मन की गहराइयों में पैठ गई।
मालवकेसरी श्री सौभाग्य मुनि जी म. का व्यक्तित्व देखा। जिस जो वर्षों बाद आज भी ज्यों की त्यों छविमान है। उपाध्यायश्री के
प्रकार मालवकेसरी जी म. सदा सर्वदा आत्म-मस्ती में झूमते थे वैसे मुखारविंद से ही दिल्ली में श्रद्धेय श्री राजेन्द्र मुनि जी की दीक्षा
ही उपाध्यायश्री भी सदा ही आत्म-साधना में तल्लीन रहते थे। हुई। उसके बाद तो कई बार उपाध्यायश्री के चरणों में बैठने का अवसर मिला। उन मधुर क्षणों की याद जीवन में आज भी
मैंने उपाध्यायश्री के चेहरे पर कभी भी उदासीनता नहीं देखी,
उनका चेहरा कमल की तरह खिला रहता था, वार्तालाप में सहज तरोताजा है।
अपनत्व था, गंभीर से गंभीर विषय को सरल रूप में प्रस्तुत करने हमारे पूज्य गुरुदेव परम सेवाभावी श्री प्रेमसुख जी म. का
में वे दक्ष थे, उनका चिन्तन और मनन बहुत ही गहरा था, आदेश मिलने पर में आचार्यश्री के चादर महोत्सव समारोह पर अध्ययन के साथ उनमें अनभति की तरलता थी। उपाध्यायश्री का उदयपुर पहुँचा। चादर समारोह वास्तव में एक ऐतिहासिक समारोह
विचरण क्षेत्र भी बहुत ही विशाल रहा, वे तमिलनाडु, कर्नाटक, था। सैकड़ों संत सतियों का समागम, हजारों श्रद्धालुओं का Jआन्ध्र, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान, आगमन। उपाध्यायश्री का स्वास्थ्य यकायक गड़बड़ा गया। वे गंभीर । हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि विशाल क्षेत्रों में विचरे और रूप में अस्वस्थ हो गये। परन्तु फिर भी उनकी वाणी में वही गूंज । जहाँ भी पधारे उन्होंने अपने पवित्र चरित्र की छाप छोड़ी। आज वे थी। चेहरे पर वही तेज और मुस्कराहट थी, जीवन के अंतिम । हमारे बीच नहीं हैं किन्तु हमारी आस्था उनके प्रति समर्पित है और समय में भी वे जीवन के प्रति, शरीर के प्रति अत्यन्त अनासक्त
सदा समर्पित रहेगी। सहज थे। आगमों में पादपोपगम संथारा का वर्णन सुना है, जिसमें वृक्ष से कटी हुई शाखा की भाँति साधक निश्चल और स्थिर हो जाता है। उपाध्यायश्री के संथारा के समय उसी स्थिति में उन्हें
मेरे महागुरु देखकर मन में एक भाव जगा कि यह परम साधक जीवन में सदा ही प्रथम व उच्च स्थान पर रहा है। जीवन की अन्तिम बेला में भी
-पं. श्री नरेश मुनि जी कितना सजग, कितना स्व-लीन और बाह्य विभावों से मुक्त
सन् १९७६ की बात है, मुझे बहिन महासती श्री दर्शन प्रभा अन्तश्चैतन्य है। सचमुच उन्होंने भेद विज्ञान को जीवन में साकार
जी म. ने प्रेरणा की कि तुमने अभी तक पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री कर लिया था। आत्मा और देह की भिन्नता का परिज्ञान ही उनकी
पुष्कर मुनि जी म. के दर्शन नहीं किए हैं। यदि तुमने एक बार समता और सहजता का प्रतिफल था कि इस असीम वेदना की
दर्शन किये तो तुम्हें सहज ही गुरुदेवश्री की गरिमा का पता. लग अनुभूति में भी वे आत्मानुभूति में रम रहे थे। महान् तपोधन और
जाएगा। और महासती श्री चारित्र प्रभा जी की भी यही प्रेरणा रही। आत्म-विज्ञानी सन्त के चरणों में मेरी कोटि-कोटि वन्दना !
मैं दोनों का पत्र लेकर चल पड़ा उस समय गुरुदेव बागलकोट विराज रहे थे, गुरुदेव के दर्शन हेतु दूर-दूर अंचलों से श्रद्धालुगण
आ रहे थे। उनके चमत्कारिक मंगल पाठ को सुनने के लिए भक्तों पुरुषार्थ के प्रेरक सूत्र
की भीड़ लगी हुई थी, मैं भी उसी समय वहाँ पहुँच गया, दर्शन
किये। प्रथम दर्शन में ही मेरा हृदय गुरु-चरणों में नत हो गया, -श्री प्रकाश मुनि “निर्भय"
जैसा बहिन म. ने और महासती श्री चारित्र प्रभा जी म. ने मुझे भारतीय संत परम्परा का आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक
कहा था उससे अधिक मैंने गुरुदेवश्री में आकर्षण और स्नेह पाया। क्रांति के इतिहास में जो योगदान रहा है वह बहुत ही अपूर्व है। उन्होंने मुझे बहुत ही प्यार से अपने पास बिठाया और क्या संत सदा ही क्रान्तिदर्शी रहे हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अनूठा । ज्ञान ध्यान आता है इस संबंध में जानकारी ली और नया ज्ञान सानुकान्त
पासवरपरन्तरता
FRANCIDEN
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
सीखने के लिए गुरुदेवश्री ने मुझे प्रेरणा दी। गुरुदेवश्री स्वयं मुझे पढ़ाते रहे गुरुदेव के चरणों में रहकर कर्नाटक की लम्बी यात्रा मैंने तय की और बैंगलोर वर्षावास में गुरुदेव के चरणों में रहा और कुछ समय मद्रास वर्षावास में भी गुरुदेव के चरणों में रहने का अवसर मिला और वहाँ से सिकन्दराबाद तक विहार यात्रा में रहा। पारिवारिक समस्या होने के कारण मैं सिकन्दराबाद से दिल्ली पहुँच गया और जब गुरुदेवश्री सिकन्दराबाद का यशस्वी वर्षावास संपन्न कर उदयपुर पधारे तो मैं पुनः उदयपुर दर्शनों के लिए पहुँचा और उस वर्षावास में भी गुरु चरणों में रहकर अध्ययन करने का अवसर मिला।
राखी वर्षावास के पश्चात् पूज्य गुरुदेवश्री ने और मेरी बहिन म. दर्शन प्रभा जी और चारित्र प्रभा जी ने मुझे प्रबल प्रेरणा दी कि वैराग्य अवस्था में बहुत लम्बे समय तक रह चुके हो। अब आईती दीक्षा ग्रहण कर लो और सन् १९८२ में गढ़सिवाना में मेरी दीक्षा संपन्न हुई। गुरुदेवश्री की असीम कृपा मेरे पर रही है। गुरुदेवश्री की कृपा के फलस्वरूप ही मैं धर्म और दर्शन का अध्ययन कर सका हूँ। पूज्य गुरुदेवश्री में हजारों विशेषताएँ थीं। उन हजारों विशेषताओं को किन शब्दों में लिखा जाए यह समझ में नहीं आता, उनका सम्पूर्ण जीवन सरलता और सहजता से भरा हुआ था, आगम साहित्य के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी और जब भी उन्हें समय मिलता हमें प्रेरणा देते, आओ मेरे पास और आगम साहित्य को पढ़ो। गुरू का अनन्त उपकार कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी असीम कृपा सदा ही मेरे पर रही है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु हमारे हृदय पर उनकी छवि अंकित है। और सदा अंकित रहेगी यही है उस महागुरु के चरणों में | भावभीनी श्रद्धार्चना |
PR
प्रतिपल जागरूक जीवन
FP
-महासती डॉ. धर्मशीला जी म.
परम श्रद्धेय महामहिम उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका व्यक्तित्व अत्यधिक आकर्षक, प्रभावक और बहुत ही लोकप्रिय था। उनका स्वभाव मधु से भी अधिक मधुर और शान्त व मिलनसार था। वे सदा जागरूक रहते थे उनकी साधुचर्या इस बात की द्योतक थी अपने जीवन में कहीं दोष न लगे इसके लिए वे प्रतिपल प्रतिक्षण जागरूक रहते थे तथा न दूसरों की निन्दा सुनते थे और न किसी की आलोचना ही यदि कोई व्यक्ति उनके सामने दूसरों की आलोचना करता तो उनके मुखारविन्द से एक ही शब्द निकलता तुम यहाँ पर धर्म करने के लिए आए हो, पाप करने के लिए नहीं, दूसरों की निन्दा और
१६०B आलोचना करना पाप है। न मैं किसी की निन्दा सुनना पसन्द करता हूँ और न निंदा ही करता हूँ। यदि तुम्हें करना ही है तो तत्वचर्चा करो, आगम संबंधी, जैन दर्शन संबंधी प्रश्न करो।
संत सदा ही तन से निरपेक्ष रहते हैं। तन के ऊपर उनका विशेष लक्ष्य नहीं होता। वे तो सदा ही आत्मभाव में रमण करते हैं। और उन्हें आत्मभाव में रमण करने में ही अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। उपाध्यायश्री के जीवन में जहाँ पर प्रज्ञा का दिव्य प्रकाश जममगा रहा था वहाँ पर उनमें आचार के प्रति बहुत ही गहरी निष्ठा थी, आचार और विचार का, ज्ञान और क्रिया का उनके जीवन में समन्वय था। उनका जीवन यज्ञ की अग्नि की तरह प्रज्वलित था, ज्योतिर्मय था।
वे निर्भीक और फक्कड़ संत थे। गरीब से गरीब व्यक्ति से प्यार करते थे। उनके सामने गरीब और अमीर का भेद नहीं था। उनका संकल्प सुदृढ़ था। जो भी उन्होंने संकल्प किया उसमें वे सदा सफल रहे। उपाध्यायश्री के जीवन में तप भी था, त्याग भी था और वैराग्य भी था। हमने बहुत ही निकटता से उनके दर्शन किये, उनसे विचार चर्चाएँ कीं, हमारे परम आराध्य गुरुदेव आत्मार्थी श्री मोहन ऋषि जी म. और मंत्री श्री विनय ऋषि जी म. और मेरी सद्गुरुणी जैन जगत् की उज्ज्वल तारिका श्री उज्ज्वल कुंवर जी म. भी उनके विमल विचारों से प्रभावित थीं।
हमें परम आह्लाद तो इस बात का है कि उन्होंने श्रमण संघ को एक ऐसा दिव्य- रत्न दिया है जो श्रमण संघ का भाग्य विधाता है। ऐसे शिष्य-रत्न के वे सद्गुरुदेव रहे हैं और हमारे सभी के वे सच्चे पथ-प्रदर्शक रहे हैं। उपाध्याय ज्ञान के अधिष्ठाता होते हैं, आगम के गुरू गंभीर रहस्यों के ज्ञाता होते हैं। उनका असीम उपकार हमारे पर है। जब मैंने नवतत्व पर शोध प्रबन्ध लिखा उस समय उपाध्यायश्री का मार्गदर्शन और आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. का पथ-प्रदर्शन मेरे शोध प्रबन्ध के लिये वरदान रूप रहा। उनके चरणों में बैठकर हमने बुहत कुछ पाया है। अन्त में मेरी यही कामना है। शायर के शब्दों में कहूँ
"हर रोशनी हो यहाँ जहाँ तुम भी रहो परमानन्द हो वहाँ जहाँ तुम भी रहो।
अद्भुत थी प्रवचन कला
-महासती श्री प्रमोद सुधा जी म. सा.
सन् १९६७ की बात है हम कांदावाड़ी (बम्बई) स्थानक में ठहरी हुई थीं। एक दीक्षा का पावन प्रसंग था। उस प्रसंग पर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. और श्री देवेन्द्र मुनि जी म. जो ओर पधार रहे थे तब पुनः आपके पूना में दर्शन हुए और उसके वर्तमान में आचार्य हैं वहाँ पर पधारे थे। पहली बार उनके दर्शनों । पश्चात् सन् १९८७ में पूना सम्मेलन हुआ, उस सम्मेलन में आपश्री का सौभाग्य मिला, उपाध्यायश्री के आध्यात्मिक सारगर्भित प्रवचन । पधारे और आपश्री के शिष्य-रत्न श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. को को सुनकर मेरा हृदय आनन्द विभोर हो उठा। मध्याह्न में
"उपाचार्य पद" प्रदान किया गया था। आपश्री के दर्शन और उपाध्यायश्री ने हमारे से आगम संबंधी प्रश्न पूछे और जिन प्रश्नों
प्रवचनों का लाभ मिला। १९८७ का वर्षावास उपाध्यायश्री का स्व. का उत्तर हमें नहीं आया उन्हें उपाध्यायश्री ने बताने की कृपा की।
आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी म. सा. के साथ अहमदनगर में प्रथम दर्शन में ही उनके आत्मीयतापूर्ण सद्व्यवहार के कारण मुझे
हुआ। उस अवसर पर भी हम वहाँ पर थीं और उपाध्यायश्री के ऐसा अनुभव हुआ कि हमारा परिचय आज का नहीं अपितु वर्षों
दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनके प्रवचन भी हमने अनेक बार पुराना है।
सुने। वे शेर की तरह दहाड़ते थे, उनके प्रवचनों में जहाँ आगम के उस समय बाल-दीक्षा के प्रकरण को लेकर कुछ ऐसे स्वार्थी गुरु गंभीर रहस्य रहते वहाँ जीवन के ऐसे तथ्यों की भी चर्चा होती तत्त्वों के द्वारा गलत धारणाएँ जन-मानस में फैलाई जा रही थीं। थी जो सभी के लिए बहुत ही उपयोगी होती थी। मैंने अपने प्रवचन में उपाध्यायश्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व
__ वस्तुतः उपाध्यायश्री महान् संत-रल थे। उनके स्वर्गवास से को लेकर स्पष्ट शब्दों में कहा-बम्बई संघ का महान् सौभाग्य है,
अपार क्षति हुई है। ऐसा महान् संत जो युग-युग के पश्चात् होता है ऐसे निस्पृही तत्वदर्शी महापुरुषों का आपके संघ को सौभाग्य मिला
आज हमारे बीच नहीं है। उनके स्मृति-ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है है। इस सुनहरे अवसर पर लाभ लेना है, यदि आप लोगों ने किसी
मैं अपनी ओर से उस महान् गुरु के चरणों में अपनी भावभीनी भ्रांतिवश इन गुरु चरणों की सेवा का लाभ नहीं लिया तो बाद में
श्रद्धार्चना समर्पित करती हूँ और यह निवेदन करती हूँ कि उनका आपको पश्चात्ताप करना होगा। उपाध्यायश्री का ज्ञान कितना गहरा
ज्योतिर्मय जीवन हमें सदा-सदा साधना के पथ पर आगे बढ़ने के है, हमने तो प्रथम दर्शन में ही यह अनुभव किया है कि यह ज्ञान
लिये प्रेरित करता रहे। की ज्योति है और इस ज्योति के चरणों में रहकर हमें भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसी समय घोड़नदी संघ गुरुदेवश्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ, मैंने घोड़नदी संघ को यह पावन प्रेरणा दी कि महाराष्ट्र की धरती ऐसे सद्गुरुदेव को पाकर धन्य हो उठेगी।
श्री चरणों में श्रद्धा सुमन आपके संघ का परम सौभाग्य है कि गुरुदेवश्री का बम्बई से विहार उस दिशा में हो रहा है, अतः आप जागरूकता के साथ गुरुदेव के
-साध्वी रजत रश्मि “पंजाबी" वर्षावास के लिए पूर्ण रूप से प्रयत्नशील रहें और मेरी प्रेरणा को पाकर घोड़नदी संघ पूर्ण रूप से जागरूक हो गया। सन् १९६८ का । परमादरणीय महामहिम उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के वर्षावास उपाध्यायश्री का घोड़नदी में हुआ। हमने भी गुरुदेवश्री के गुणों के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुना है। जिन श्रद्धालुओं ने उनके पुनः दर्शन अहमदनगर, पूना आदि में किए। जितनी-जितनी बार दर्शन किए, उनके मगंल पाठ को श्रवण किया, उनसे विचार दर्शन हुए उतनी-उतनी बार हम गुरुदेवश्री के अगाधज्ञान राशि में चर्चाएँ कीं, उनके प्रवचनों को सुना, वे उपाध्यायश्री के गुणों का से कुछ चिन्तन रूपी रल प्राप्त करते रहे, यह हमारा परम उत्कीर्तन करते समय इतने भाव-विभोर होते रहे हैं जिसका वर्णन सौभाग्य रहा।
लेखनी के द्वारा नहीं किया जा सकता। यद्यपि मैंने अपने चर्मसन् १९७० में उपाध्यायश्री की पावन प्रेरणा से बम्बई
चक्षुओं से उपाध्यायश्री के दर्शन नहीं किए किन्तु उनके गुणों को घाटकोपर में श्रमणी विद्यापीठ की स्थापना हुई, उस समय
सुनकर ही मेरा हृदय भावना से आपूरित होकर श्रद्धा सुमन गुरुदेवश्री ने श्रमणी विद्यापीठ में जो श्रमणियों को आगम और तत्व
समर्पित करने के लिए ललक रहा है। दर्शन का अध्ययन करवाया उसमें उपाध्यायश्री का गहन अध्ययन जैन शासन में "उपाध्याय" का गौरवपूर्ण स्थान है। परमेष्ठी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हो रहा था। वे आगमों के रहस्यों को । महामंत्र में उनका चौथा स्थान है, उपाध्याय ज्ञान {ज होता है। जिस सुगम रीति से प्रस्तुत करते थे सुनकर विद्यार्थी मंत्र मुग्ध हो । स्वयं अहर्निश ज्ञान और ध्यान में मस्त रहता है और दूसरों को भी जाता था। जब तक अध्ययन की गहराई नहीं होती वहाँ तक इस । ज्ञान ध्यान की पावन प्रेरणा देता है। परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री सच्चे प्रकार विश्लेषण करना बड़ा कठिन है। उपाध्यायश्री के १९७९ में । अर्थों में ज्ञानयोगी थे, उन्होंने स्वयं अनेकों बार आगमों का सिकन्दराबाद का वर्षावास संपन्न कर उपाध्यायश्री उदयपुर की। पारायण किया, उनके ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला। उनके
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1 श्रद्धा का लहराता समन्दर ग्रन्थ बहुत ही गम्भीर और भावनाओं से व चिन्तन से लबालब भरे हुए हैं। जिस विषय पर उन्होंने लिखा है उस विषय के तलछट तक वे पहुंचे हैं। लगता है कि उन्होंने जिस विषय को छुआ उस पर हर पहलू पर उन्होंने लिखा है कोई भी ऐसा विषय नहीं रहा जिस पर उन्होंने चिन्तन नहीं किया है दान, ब्रह्मचर्य विज्ञान, श्रावक धर्म दर्शन ऐसे ही ग्रन्थ हैं जो अपने विषय के विश्वकोष कहे जा सकते हैं।
मैं अपनी ओर से तथा अपनी सद्गुरुणी तपोमूर्ति महासती हेमकुंवर जी म. की ओर से अपनी अनन्त आस्था उनके श्रीचरणों में समर्पित करती हूँ।
8
शत शत वन्दन
-साध्वी मैना (शासन प्रभाविका पूज्या श्री यशकंवरजी म. सा. की शिष्या)
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[ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी पुराने चावल थे)
-शान्तिलाल पोखरणा "जैन", भीलवाड़ा वर्तमान युग में पुराने अनुभवी संत बहुत कम रह गए, उन्हीं में से उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता था। वे श्रमण संघ की आन, बान और शान थे। श्रमण संघ के निर्माण से आज तक उनका संगठन और एकता में विश्वास रहा, अतः अनेक झंझावातों के बावजूद उन्होंने कभी भी श्रमण संघ से पृथक् होने की बात नहीं सोची, बल्कि सदैव उनका प्रयास रहा कि जो भी कमियाँ श्रमण संघ में हैं, उन्हें सबके साथ मिल-बैठकर चिन्तन-मनन करके कैसे दूर किया जा सकता है। उनमें जोश भी था तो होश भी था। उनकी वाणी में माधुर्य झलकता था
और प्रत्येक श्रावक, श्राविका को पुण्यात्मा या भाग्यशाली कहकर पुकारते थे, जिससे प्रत्यके के मन में सहज ही परस्पर वात्सल्य भाव और श्रद्धा जग जाती थी और जो भी उनके सम्पर्क में आता आपका हो जाता। श्रद्धा ही समर्पण की ओर अग्रसर करती है और इसी को गीता में विश्वास, कुरान में यकीन और बाइबिल में फेथ कहा जाता है। श्रद्धा या विश्वास पर सारी दुनियाँ टिकी हुई है।
श्रमण संघ का गौरव है कि सम्पूर्ण जैन समाज-श्वेताम्बर या दिगम्बर में सबसे बड़ा संघ श्रमण संघ है, जिसमें आचार्यश्री जी की नेश्राय में करीब एक हजार साधु-साध्वियों का जन-जन में जिनशासन की प्रभावना करने के लिए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और पूर्व से पश्चिम तक विचरण होता है, जिससे न केवल हमारे ही देश में अपितु विश्व में अहिंसा के आधार पर भाईचारा, विश्व-बन्धुत्व की भावना व विश्व-शान्ति का बल मिलता है, इसी कारण तो ऐसे त्यागी वैरागी संतों से प्रभावित होकर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन में जैन धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भगवान महावीर के दिव्य संदेश 'जीओ और जीने दो', 'सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर विश्व को नया रास्ता दिखाया और भारतवर्ष को अहिंसा के आधार पर आजाद कराया। कहते हैं चावल पुराना और घी नया अधिक लाभदायक होता है। वे श्रमण संघ में पुराने चावल की भाँति बड़े ही मँजे-मँजाये संत थे, उनकी वाणी में अपार ओज, व्यक्तित्व में गर्म जोश, व्यवहार में शालीनता और बोली में माधुर्य था।
गुरु कितना महान् है इसमें महानता नहीं है वरन् गुरु शिष्य को अपने से कई गुना अधिक महान् बना दे उसी की बलिहारी है। अनुभवी संत होने के नाते उन्होंने जान लिया था कि उनके पास शिष्य श्री देवेन्द्र मुनि जी के रूप में एक हीरा है। उन्होंने अपनी सारी शक्ति उसे तराशने में लाग दी, जिससे उनके जीते जी ऐसे महान् श्रमण संघ के तृतीय पट्ट पर २८ मार्च, ९३ को आचार्य पद पर श्री देवेन्द्र मुनि जी सुशोभित हुए। चन्द दिनों के पश्चात् ही ३ अप्रैल, ९३ को उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ने संथारा पूर्वक पण्डित मरण को प्राप्त किया, चतुर्विध संघ सदैव आपका ऋणी रहेगा, ऐसे उपाध्यायश्री के चरण में शत्-शत् वंदन अभिनन्दन और श्रद्धा-सुमन अर्पित।
पु- पुरुष वही जो इस जीवन में, छ षड् रिपु तज करे साधना । क- कथनी करनी की एकरूपता से, र- रत्न त्रय की करे आराधना ॥ मु- मुनित्व भाव में रमण करने को, नि- निशदिन जो तत्पर रहे। जी- जीवन खिला पावन सुमन सम, म- मकरन्द गुणों को जनता लहे॥ हा- हास-विलास से मुखड़ा मोड़ा, रा- राज्य शिवपुरी का पाने को। ज- जन जीवन को उपदेश दिया, सा- साधनामय जीवन अपनाने को॥ को-कोमल किसलय सम हृदय तुम्हारा, श- शतदल सम तव जीवन था। त- तरु कल्प सम आशा पूरण, श- शम दम प्रशम युत जीवन था॥ त- तप त्याग से जीवन महकाया, वं- वन्दन प्रतिपल करते हैं।
द- दमनेन्द्रिय (दयासिन्धु) के पावन चरण में, -न- नमन युत श्रद्धा पुष्प धरते हैं।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
उपाध्याय मुनि पुष्कर प्यारे ! हन्त ! हन्त ! सुरलोक सिधारे!
(9)
जिनके शम, दम, संयम पर थे, लोग सभी बलिहारे जी।
उपाध्याय मुनि पुष्करश्री जी, हा हा स्वर्ग सिधारे जी ॥
(२)
सुनते ही मनहूस खबर हर, दिल पर बज्रापात हुआ। ऐसा शोक हुआ कुछ गहरा, शोक शोक से मात हुआ । (3)
एक-एक से बढ़कर जग में, देखा सन्त निराला है। सन्त आप-सा कहीं कभी भी, पर न मिलने वाला है ।
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(४)
सन्त एक बस हीरा ही थे, हीरों में भी जो सिरताज । भूल सकेगा नहीं आपको, सपने में भी जैन समाज ॥ (५)
जैन जगत यह चाहे जितनी, कोशिश करने वाला है। रिक्त हुआ जो स्थान आपका, कभी न भरने वाला है।
(६) अखिल विश्व का मंगल करने, दुनिया में थे आये जी । अखिल विश्व का मंगल करके, जग से आप सिधाये जी ॥
(७)
दर्शन किये आपके जिसने, गुण गाता न थकता है।
हर इक ही तो चरण कमल पर,
श्रद्धा भारी रखता है ।
('लावनी छन्द' वा 'ताटक छन्द)
(<)
'श्रमणसंघ' का नाम कह गये रोशन जग में भारी जी सन्त आप- सा विरला होगा, कोई पर उपकारी जी ॥
(९)
उपाध्याय पद पा करके भी, कुछ न ज्ञान-गुमान किया। विनय विवेक धर्म पर अपना, केवल केन्द्रित ध्यान किया । (१०)
वक्ता कुशल कमाल आप थे, लेखक कोविद कविः कमाल! संयम निर्मल पाला ऐसा, जिसकी मिलनी कठिन मिसाल ॥ (११)
लिखे आपने ग्रन्थ सैकड़ों,
'जैन कथाएँ' के सौ भाग ।
सत्य, दया, अनुकम्पा जित में, भरा हुआ है जप, तप, त्याग ॥
(१२)
क्या बतलायें जो दीपाये, उपाध्याय के गुण पच्चीस । आप समान किसी में ही तो, गुण ये होते विदूवे बीस ॥
(१३) झण्डे जैन धर्म के जग में. जगह-जगह लहराये थे।
दूर हटा पाखण्ड हजारों, सच्चे मनुज
'बनाये थे।
(१४)
चादर उत्सव से न पहले, स्वर्गपुरी प्रस्थान किया। योगीराज ! योग के बल से, सब का ही रख मान लिया ॥
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-उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि 'पंजाबी'
(१५)
प्रिय देवेन्द्राचार्य शिष्य को, देकर अन्तिम आशीर्वाद ।
स्वर्ग सिधाये, नहीं आपको, कौन करेगा कहिये याद ? (१६)
'मुनि रमेश' 'राजेन्द्र' विज्ञवर, 'मुनि गणेश' 'गीतेश महान्।
'मुनि दिनेश' 'नरेश' 'जिनेन्द्र मुनि', 'मुनि सुरेन्द्र जी' गुण की खान ।। (969)
'शास्त्री' और 'एम. ए. कोई, है 'बी-कॉम' 'विशारद' और ऊँचे शिक्षण से शिष्यों को, विज्ञ बनाया है हर तौर ॥ (१८)
१६९
शिष्य-प्रशिष्य आपके जितने, गीत आपके गायेंगे। इन में ही अब आप सर्वदा, नज़र सभी को आयेंगे ॥
(१९)
वर्ष बयासी से भी ऊपर, आयु आपने पाई है। दिग्-दिगन्त पर्यन्त देखलो, महिमा भारी छाई है ।
(२०)
मात्र जिक्र क्या अरे ! आज का, वर्ष हजारों के भी बाद
नगर 'उदयपुर' के हर उर में, मधुर रहेगी उनकी याद ॥
(२१) स्वर्गवास सुन आज आपका, जो है भारी भौचक स्तब्ध ! 'चन्दन मुनि पंजाबी' करता, चरणों में दो अर्पित शब्द!
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१७०
गुरु उपकारी हैं
- श्री हीरामुनि जी महाराज 'हिमकर'
(१)
श्री पुष्कर गुरु राज, सबही सुधारे काज, लिया स्वर्ग केरा राज, गुण के भंडारी हैं।
तारक गुरु ग्रंथालय, ठाट से विराजे आय, शिष्य को पूज्य बनाय, लिया यश भारी है।
चादर ओढाय गुरु, नया यश किया शुरु, निराली थी जोड़ गुरु, अब ओलु आये हैं।
उपाध्याय थे कमाल, कर गए झट काल, हीरामुनि जपे माल, गुरु उपकारी हैं।
(२)
ज्येष्ठ गुरु भ्राता मेरे, शरणों में रहू तेरे, गुणों के भंडार पूरे, उपाध्याय प्यारे थे।
पिता सूरज के पूत, माता वाली के सपूत, आज देखू इत् अत, आँसू भर आये हैं।
दीक्षा वय सीतर की, साधना की जप तप की, सरधा जिन तत्व की, जैन के सितारे थे।
हीरामुनि 'हिमकर', याद करे पल-पल, आज्ञाकारी बनकर, साधना में रत हैं। (3)
पुष्कर तीर्थराज है, हिन्दू धर्म का ताज हैं, पुष्कर गुरुराज थे, गुणों के भंडार थे।
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गुरु मुझ मन भाये, आगम का ज्ञान पाये, पचीसज गुण वाले, ओज्झ गुण भारी थे।
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सभा का भी ठाठ देखा, वाणी का प्रभाव देखा, पद्मासन आला था, चारु रुप धारी थे।
ध्यान के रसिले भारी, जैन पथ के पुजारी, हीरामुनि अरज करी, गुरु माने तारजो । (8) निश दिश ध्यान करो, अठसत जाप करो, पुष्कर मुनि शरणो, सदा सुख दायी हैं।
अध्यात्म योगीराज, संघ के सरताज, भगतों के सारे काज, अति साताकारी हैं।
कंचन सा काया गोरी, बीमारी ने आप घेरी, जल के हो गए होली, संसार असारी हैं।
गए गुरु सुरलोक, सुधारे थे दोनों लोक, हीरामुनि देवे धोक, वंदना हमारी है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
(4)
गुरु पाठ पे विराजे, आचारज देव राजे, सिंह सभी वाणी गाजे, पुष्कर का प्यारा है।
अमर पूनम पाठ, देवजी लगाया ठाठ, आतम आनंद नाम, गादी को दिपाया है। मेरे 'गुरु भ्राता प्यारा, पुष्कर का प्राण प्यारा, युग-युग जीओ लल्ला, जैन का सितारा है।
ज्येष्ठ गुरु नाम रहो, तारा गुरु जाप जपो हीरामुनि कहे सुनो, गुरु नैया पार हैं।
उपाध्याय मुनि पुष्कर प्यारे। इक थे जगमग जैन सितारे |
- उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि 'पंजाबी' "पुष्कर पैंतीसी" ('ताटक छन्द' वा 'लावनी छन्द')
(9)
गहरे ज्ञानी - गहरे ध्यानी,
गहरे जो व्याख्यानी थे।
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"उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिवर",
(२)
भरमा सुन्दर सकल शरीर ।
गौरवर्ण तन लम्बा -ऊँचा,
चो पटक, चमकीले लोचन,
तन चादर, मुखपत्ती मुख पर
(३)
कछुये से फिर उन्नत पांव।
सन्त एक लाखानी थे॥
(४)
जनम लिया "सिमिटार" ग्राम में वीर भूमि है जो मेवाड़।
कंधे ओघा जैन फकीर ॥
उपाध्याय-पद भूषित यह थे,
जिनका प्यारा 'पुष्कर' नाम ॥
"
"बाली बाई" "सूरजमल के
रहा हर्ष का कुछ न पार ॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
१७१
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"उगनी सौ सत्तासठ" विक्रम, "आश्विनी सुदि चौदस" प्यारी केवल ब्राह्मण वंशी ही क्यों,
नाच उठी नगरी सारी॥
(१३) भाग सौ ग्यारी जिसके, "जैन कथायें" खूब लिखीं। अद्भुत अनुपम ऐसी कृतियाँ,
अन्य कहीं पर नहीं दिखीं।
(१४) पढ़ते-पढ़ते प्यारे पाठक, सभी स्तब्ध रह जाते हैं। शिक्षाओं का सागर ही इक,
उनको सब बतलाते हैं।
नौ वर्षों का होते-होते, मातापूज्या प्यारी जी।
रोते-धोते छोड़ बाल को, 1 . हा! हा! स्वर्ग सिधारी जी॥
(७) दुनिया से मन उचट गया उस, भोले भाले बच्चे का। अनुभव से कुछ कच्चे लेकिन,
सबके सच्चे, अच्छे का॥
(१५)
"ताराचंद्र मुनीश्वर जी" का, इसको मिला सहारा था। मन को मारा, संयम धारा,
जगत विसारा सारा था।
(९)
नहीं छोड़ने को मन करता, ऐसी रोचक भाषा है, शब्द-शब्द हट ऐसा मनहर,
हीरा यथा तराशा है।
(१६) कवितायें भी बहुत लिखी हैं, राजस्थानी भाषा में। आता है इस शहद सुधा-सा,
उस लासानी भाषा में।
(१७) कभी भूलने नहीं आपको, देगा दिया अमर साहित्य। स्मरण रहेंगे नित्य-नित्य ज्यों,
नये वर्ष का नव आदित्य॥
(१८) नजर बहुत कम हमको आये, धनी कलम के आप समान। उच्च कोटि के चोटी के थे,
आप समर्थ महा विद्वान ।।
उगनी सौ इक्यासी दशमी, ज्येष्ठ शुक्ला शुभ आई थी।
"गढ़ जालोर" निवासी जनता,
____ फूली नहीं समाई थी॥
(१०) लगे पढ़ाई करने डटकर, मुनिवर बनने के फिर बाद। जैनागम के साथ थोकड़े,
किये सैंकड़ों जल्दी याद॥
(११) हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत आदिक, विद्या में निष्णात बने। राजस्थानी और मराठी,
गुजराती में साथ बने।
(१२) गीत, काव्य, कविता से लिखना, किया आपने तब प्रारम्भ। बाद गद्य में लेखन लिखकर,
साक्षट दुनिया रही अचंभ॥
सभी शिष्य भी अतः आपके, पंडितराज करारे हैं। चरण कमल पर जिनके जग जन,
जाते बस बलिहारे हैं।
(२०) "श्री देवेन्द्राचार्य' विज्ञ थे, शिष्य आपके प्यारे हैं। मधुव्याख्यानी ज्ञानी ध्यानी,
जगमग जैन सितारे हैं।
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१७२
'मुनि रमेश' 'राजेन्द्र मुनीश्वर',
गुणी 'गणेश' 'गीतेश' महान ।
(२१)
(२२)
" शास्त्री" और "एम. ए." कोई,
'मुनि दिनेश' 'नरेश' 'जिनेन्द्र मुनि',
है "बी. कॉम." "विशारद" और ।
विद्या, बुद्धि विलक्षण लखकर, लखकर ज्ञान-विज्ञान ।
उपाध्याय आगम में जो,
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ऊँचे शिक्षण से शिष्यों को,
पढ़ने की अभिलाषा आशा, लेकर जो भी आते थे।
(२३)
'मुनि सुरेन्द्र जी' गुण की खान ॥
जैन संघ ने सादर - सादर,
(२५)
क्या मजाल जो शब्द एक भी, समझ किसी के न आये।
(२४)
उपाध्याय से उच्च पदों का, सचमुच मुश्किल पाना है।
आगे आप अगर थे जप में,
आगम उनको सादर सादर,
(२६)
अतः सभी से सही अर्थ में,
गुण पच्चीस बताये हैं।
विज्ञ बनाया था हर तौर ॥
(२७)
उपाध्याय पद किया प्रदान ॥
पाकर के भी सही अर्थ में,
तप में पीछे नहीं रहे।
(२८)
सांगोपांग पढ़ाते थे।
"उपाध्याय" थे कहलाये ॥
शीशे जैसे स्पष्ट आप में,
उसको कठिन निभाना है ।
आए नगर सवाये हैं।
योगीराज आपको दुनिया,
कहिये कैसे नहीं कहे ॥
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सबको ही आकर्षित हर्षित, करने वाली बोली थी।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ |
(२९)
मानो मुख में मधु ही था या,
(३०)
परखा निर्धन न धनवान।
छोटा-बड़ा कभी न परखा,
दाँतों तले दबाता उंगल,
राग-द्वेष से दूर आप थे,
देख-देख जग त्याग महान्।
जैन धर्म के श्रमणसंघ के,
गुणानुवाद करें हम कितना,
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(३१)
संयम चुस्त निभाने वाले.
अग्रगण्य उजियारे थे।
चैत्र शुक्ल एकादश विक्रम,
(३२)
नहीं गुणों का आता अन्त।
सबको प्यारे सब से न्यारे.
(३३)
" गीदड़बाहा मण्डी" में जो,
दो हजार था और पचास ।
शर्बत मिश्री झोली थी।
(३४)
ढूंढें कितना किन्तु आप सा,
सबको समझा एक समान ॥
(३५)
विरले होंगे आप समान ॥
पंजाबी मुनि चन्दन" है।
जगमग तेज सितारे थे ।
नगर "उदयपुर" कर संथारा,
मुश्किल मिलना सच्चा संत ॥
स्वर्गलोक जा किया निवास ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि को, bong
करता शत-शत वन्दन है |
धर्माचरण से प्राणी का अंतरंग विकसित होता है और अंतरंग
निखार की आभा ऊपर भी झलकने लगती है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
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शत-शत वन्दन है गुरु पुष्कर
-मुनि उत्तम कुमार, एम. ए.
वीर पूसता वसुन्धरा ने, दिये सन्त अनेक महान्। त्यागी तपस्वी महा संयमी, हुए थे धर्म पर बलिदान॥१॥
जैन समाज सदैव रहेगा, पूज्य प्रवर ऋणी तुम्हारा। दिया ऐसा महान् शिष्य, बने जो जैन जगत सितारा॥९॥
-
महावीर के शिष्य परम्परा में, अवतरे सन्त बहु गुणवान। जम्बू-स्थूल लोका, धर्मदास, इसके लिए हैं वे प्रमाण ॥२॥
पूज्य आचार्य प्रवर देवेन्द्र, बने श्रमणसंघ के शान। इनसे बढ़ेगा वीर शासन का, दूनी-चौगुनी मान सम्मान।।१०।।
श्रमण संघ की सुन्दर वाटिका, जहाँ हैं पुष्प खिले अनेक। पूज्य मुनिवर उपाध्याय जी, पुष्कर थे उनमें से एक॥३॥
बाल्यकाल में संयम लेकर, स्वाध्याय में जुट गये। अल्पकाल में महा विद्वान, मुनियों में से आप भये॥४॥
जिनकी लेखनी में शारदा का, रहता है सदैव वास। ऐसे शास्ता से हरदम, रखता है समाज बहुभास ॥११॥
पूज्य प्रवर्तक शान्ति स्वरूप के, साथ हुए आपके दर्शन। मेरठ शहर में विराजित थे,
प्रफुल्लित हुआ मेरा तन-मन॥१२॥ अप्रैल माह उन्नीसौ तिरानवे, आया दिवस महा दुखदाय। गये संघ को अनाथ करके, पूज्य उपाध्याय जो सबके सहाय॥१३॥
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जैनागम गीता महाभारत, वेदों का अध्ययन किया। प्राकृत संस्कृत व्याकरण का, तन-मन से परायण किया।॥५॥
विद्वानों के विच तुम सदा, रखते थे महत्व स्थान। देख तुम्हारी प्रतिभा को, करता था हर कोई गान॥६॥
हे पूज्य प्रवर विराजे जहाँ, कृपा दृष्टि बनी रहे। तेरी महिमा महा निराली, इक जबान अरु क्या कहें॥१४॥
संयमी थे ज्ञानी ध्यानी, सरल तपस्वी व्याख्यानी। सबके लिए हित चिन्तक, सदैव उचारे मीठी वाणी ॥७॥
महान् साहित्यकार महामनीषी, तेरी सदा होवे जय। "मुनि उत्तम" चरणों में नत, मिट जाये सब कर्म भय॥१५॥
मांगलिक आपका महाप्रभावक, भाग आते थे नर-नार दौड़। दर्शन व्याख्यान श्रवण का, लगता था सदा ही होड़॥८॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
संत वे मशहूर हैं
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योगिराज श्री पुष्कर गुरु
-श्री जिनेन्द्र मुनि 'काव्यतीर्थ'
-कवि विजय मुनि जी म. (प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी म. के शिष्य)
योगिराज पुष्कर गुरु, ॐ नमो उवज्झाय। जोड़ गये इतिहास में, एक नया अध्याय॥
ज्ञान-संयम-त्याग-तप से जो सदा जीते रहे। आत्म-धन-स्वाध्याय रस को जो सदा पीते रहे ॥१॥
तारा गुरु से आपने, पाया उत्तम ज्ञान। लघुवय में दीक्षित हुए, जाने सकल जहान॥
नाम "पुष्कर" काम पुष्कर साम्य ऋजुता के धणी ।। पुष्कर मुनिजी हो गये हैं साधना की प्रिय मणि ॥२॥
जन्मे थे नान्देशमा, दीक्षा ली जालोर। पुण्य प्रभावी महामना, गुण का ओर न छोर॥
सरल भावी सहज सेवी श्रमणसंघ की शान थे । चौथ पद शोभित हुए मुनिराज वे गुणवान थे ॥३॥
सूरज वाली नन्द से, मिली धर्म की डोर। घूम-घूमकर आपने, किया जगत रसबोर॥
दिव्य है मेवाड़ माटी जग प्रसिद्धि छा गई । मुनि संघ में मनु मुक्ता ये निधि शोभा गई ॥४॥
सद्गुण चिन्तन चाँदनी, आत्म-शान्ति का धाम। ध्यान योग की साधना, करते थे अविराम॥
"धूल" जी महासति दिव्या, बोध जिनसे आप पाया । थे गुरु "तारा" सुहाने शिष्य जिनका बन पुजाया ॥५॥
गुरु दर पे जो भी गया, पाया सम्यग्ज्ञान। क्षमा दया के पुञ्ज थे, जीवन त्याग-प्रधान॥
हजैन जैनेतर विधा के बन गये विज्ञान वेत्ता । इशाह न्याय-ज्योतिष के वे ज्ञाता सुवचन के भी प्रणेता ॥६॥
अमित आपका ज्ञान था, शक्ति-सिन्धु गुरुदेव। मानव मन से आप की, सेवा करते देव॥
मौन जप की ध्यान की आराधना के स्तोत्र थे। श्रमणसंघ में आप भी वक्ता धरम की ज्योत थे ॥७॥
अनुशासन का सूत्र दे, पाया जग सम्मान। सदा बढ़ाया आपने, मर्यादा का मान॥
घूमकर कई प्रान्त में गंगा बहाई ज्ञान की। और भव्यों के सुमन में ज्योति जगाई ध्यान की ॥८॥
गुरु गुणाकर दीजिये, कृपा-दृष्टि का दान। सम्यग्दर्शन ज्ञान युत, सम्यक् होवे ध्यान॥
आपके ही शिष्य आचारज बने महाभाग ये । मुनिन्द्र ये देवेन्द्र हैं पाया सुखद सौभाग ये ॥९॥
नहीं दीखते जगत में, पर मन में है वास। अणु-अणु में तुम बस रहे, जैसे सुमन-सुवास॥
__देह से पुष्कर मुनि जी आज कोसों दूर हैं।
तत्व वेत्ता ध्यानयोगी संत वे मशहूर हैं ॥१०॥
वीर भूमि मेवाड़ की, उदयपुर है खास। सरगति पाई आपने, सब को किया निराश
काम
अंतिम समय आलोचना संलेखना स्वीकार कर । उदयपुर में देह त्यागी बहुत समता धार कर ॥११॥
प्रथम शिष्य आचार्यवर, शास्त्री मुनि देवेन्द्र। द्वितीय शिष्य हैं आपके, गणेश मुनि गुण-केन्द्र।।
हो विनत अर्चन करूँ पुष्कर सुमन श्रेय धाम को।। दादा गुरुवर ने दिया, उत्तम संयम रत्न। कीर्तन करूँ वंदन “विजय" त्रियोग से गुणधाम को ॥१२॥ 'मुनि जिनेन्द्र' नित कर रहा, ज्ञान-साधना यत्न॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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श्रद्धाञ्जलि पुष्प समर्पित
श्रद्धा-पुष्प
-उपप्रवर्तक सलाहकार श्री सुकन मुनि जी म. सा.
-मगन मुनि 'रसिक'
सोरठा
गुण गम्भीर संघ साज, सरल स्वभावी आतमा।
पुष्कर मुनि महाराज, शत-शत वन्दन मान जो॥१॥
अमरगच्छ अनमोल, श्रमणसंघ में दीपता।
वाणी मधुर रस घोल, पुष्कर सम मिलनी कठिन॥२॥
सन्थारो सुखदाय, चेत सुदी दसमी कियो।
श्री संघ रे मन भाय, नश्वर तन पावन हुवो॥३॥
कियो अचानक गोन, नव बज चौबिस मिनट में।
पुष्कर मुनि हुवे मौन, चटके स्वर्गां चालिया॥४॥
पुष्कर सन्त महन्त, आध्यात्मिक योगी हुवो।
धीर वीर मतिवन्त, सखरो संजम पालियो॥५॥
उदयपुर में अस्त, जन जन मन मुरझित हुआ।
चढ़ विमाने सन्त, वैकुण्ठा में सिधाविया ॥६॥
(तर्ज-चार दिना रो अठे पावणो ) वीर भूमि रा वीर पुरुष,
भारत में नाम कमाय गया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
___ गौरव जग में छाय गया।टेर॥ गंगा जल ज्यूँ निर्मल जीवन, विरल विभूति नामीजी। अध्यात्म योगी महान् साधक, ज्ञानी अन्तर्यामीजी॥ हिरदे बसिया, तरसे अखियाँ, रोम-रोम में भाय गया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु का,
गौरव जग में छाय गया॥१॥ विक्रम संवत् उगणी सौ, सतसठ रो साल सुहावै है। आसोज शुक्ला चवदश रो दन, मनड़ा ने पुलकावे है॥ सूरज चमक्यो, गहरो दमक्यो, जन्म आपश्री पाय गया।
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
Pा गौरव जग में छाय गया ॥२॥ मात-पिता बालक ने निरखे, तन, मन खुशियाँ छाय गई। मन मोहन मुखमण्डल प्यारो, सखियाँ मंगल गाय रही। कुल उजियाला, सद्गुण वाला, मुख मुख महिमा गाय रया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु का,
गौरव जग में छाय गया ॥३॥ ब्राह्मण कुल में अवतरिया है, सिमटारा शुभ गाम जी। अमरत रे सम मिठो लागे, अम्बालाल जी नाम जी॥ मनड़ा हरिया, गुण हुँ भरिया, प्रबल पुण्य प्रगटाय गया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा
गौरव जग में छाय गया॥४॥
आचार्य देवेन्द्र, हीरामुनि गणेश जी।
रमेश दिनेश नरेन्द्र, राजादि बिलखा हुआ॥७॥
अम्बेश प्रवर्तक रूप, रमेश कमल सोभागजी।
सुकन विनय रवि चूप, प्रेम समागम इत मिला।।८॥
शील, पुष्प लो प्रेम, कुसुम सन्त सती सहु मिलिया।
टाल सकिया नहीं टेम, देखत हंसो उड़ गयो॥९॥
स्वर्गां बैठा जाय, आशीर्वाद दिरावजो।
सुकन फले मन भाय, सकल कार्य सिद्धि होवे॥१०॥
तव आतम सुख लेहर, यही भावना सुकन री।
गुरु मिश्री की मेहर, श्रद्धाञ्जलि अर्पित करूँ ॥११॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सरस्वती रा पूत सलूणा,
शिष्य शिरोमणि देवेन्द्र मुनिवर, विद्या में भरपूर है।
महामहिम अभिराम है। प्रगति पथ पर दन-दन बढ़िया,
चादर ओढ़ी श्रमणसंघ री, भव्य भाल पर नूर है।
आचार्यप्रवर गुणधाम है। जन-जन प्यारा, हार हियारा,
अभिनन्दन है, नित वन्दन है, आगे कदम बढ़ाय गया।
पावन दर्शन पाय रया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरुरा, गौरव जग में छाय गया ॥५॥
गौरव जग में छाय गया॥१०॥ . योग मिल्यो है पूर्व पुण्य हुँ,
प्रतिभाशाली दिव्य पुण्यवन्त, गुरुवर ताराचन्द्र जी।
अन्तिम घड़ियाँ जान लीं। महाप्रतापी महा गुणधारी,
त्याग भावना उत्कृष्ट आई, तेजस्वी सुख कन्द जी॥
संथारा री ठान ली॥ दर्शन करता, वाणी सुणता,
लिया संथारा, संघ सितारा, रंग वैरागी आय गया।
स्वर्गा माही सिधाय गया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा, गौरव जग में छाय गया॥६॥
गौरव जग में छाय गया॥११॥ उगणी सौ इक्यासी माही,
जीवन आपरो धन्य-धन्य है, मास जेठ रो जाणज्यो।
जावाँ नित बलिहारियाँ। शुक्ला दसमी रो यो शुभ दन,
पुष्कर गुरुवर, पुष्कर गुरुवर, महान् मंगलिक मानज्यो।
नाम जपे नर नारियाँ। संजम लीनो, मोह तज दीनो,
समजा आनन्द होवे, मंगल होवे, जीवन उच्च बनाय गया।
का याही भावना भाय रया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा, - गौरव जग में छाय गया ॥७॥
गौरव जग में छाय गया॥१२॥ पुष्कर मुनिजी नाम अनोखो,
श्रमणसंघ रा परम हितैषी, वल्लभ मन में भाया हो।
संघ मजबूत बणायो है। उपाध्याय पद सँ शोभित वे,
गाँव-गाँव और नगर-नगर में, जप योगी जस गाया हो।
संगठन नाद बजायो है॥ घणी सरलता, घणी मधुरता,
ज्योति पुञ्ज वे, ज्ञान कुञ्ज वे, वाणी आप सुनाय गया।
सन्मारग बतलाय गया। का उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा, गौरव जग में छाय गया।॥८॥
गौरव जग में छाय गया॥१३॥ दोय हजार और वर्ष पचास में,
श्रद्धा पुष्प चढ़ाऊँ स्वामी, उदियापुर में आया जी।
आपश्री रे चरणा में। चादर मोछबरा घर-घर में ट
मुगति महल में वेग विराजो, गहरा मोद मनाया जी॥
या ही कामना शरणा में॥ पार न पावाँ, काँई गुण गावाँ,
रसिक वणावाँ, गीत सुणावाँ, नव इतिहास बणाय गया।
नेणा माही समाय रया। उपाध्यायश्री पुष्कर गुरु रा,
उपाध्यायश्री पुष्कर गुरुरा, गौरव जग में छाय गया॥९॥
गौरव जग में छाय गया॥१४॥ भOS 205DOODDOG
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
महाविद्वान महागुणी उपाध्याय पुष्कर मुनि
(१)
अत्यन्त ही गुणवान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि, अत्यन्त ही विद्वान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (२)
सन्त न उन-सा निहारा, प्यारा सारा देख जग, इक प्रकृति का वरदान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (3) जिनधर्म का सन्देश दे, निज देश दे पर देश दे, नित कर रहे कल्याण थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (४)
छल राग से भी द्वेष से भी, क्रोध से भी क्लेश से, मद मान से अनजान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (५)
थे सितारे जैन के थे, थे सहारे जैन के, हर भक्त के भगवान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (६)
न लकीरों के बने थे, भूल करके भी फकीर, धी, ध्यान, सम्यग्ज्ञान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (७) अरिहंत की आराधना है, सिद्धपद की साधना, नित कर रहे व्याख्यान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (e) अरिहन्त के अनुयायी थे, हर एक को सुखदायी थे, इक देवता इनसान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (९) दूर व्यसनों से हटो, सब सत्य के पथ पर डटो, डट, कर रहे ऐलान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (१०) लड़कियाँ लड़के बनी हैं, और लड़के लड़कियाँ, लख हो रहे हैरान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (११)
है जहाँ फैशन परस्ती, मन की मस्ती रात-दिन, न फ्रान्स इंग्लिस्तान ये, उपाध्याय पुष्कर मुनि ।
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-उपप्रवर्तक श्री चन्दन मुनि (पंजाबी)
(१२)
झलकती थी आपमें इक
सभ्यता इक भव्यता,
साक्षात् हिन्दोस्तान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि ।
(१३)
तीन एके भाग जिसके 'जैन कथाएँ' लिख गये, विद्वान आलीशान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (१४)
थे दमन के देवता तो, ये शमन के देवता, गुण-गण-गगन के भान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि। (१५)
श्री श्रमण नामक संघ का, कुछ नये निराले ढंग का, नित कर रहे निर्माण थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि ।
(१६) सत्य-समता - सरलता की, सादगी की, सम्प की, जप त्याग तप की तान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (१७) दुख-कष्ट हरने के लिये, संसार तरने के लिये, नित दे रहे वरदान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (१८) पूज्यवर देवेन्द्र मुनि-सा, दे गये हमको गुणी, क्या पारखी पहचान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (१९) गुरुदेव ताराचन्द्र को, सानन्द रोशन कर दिया, युग चरण पर कुर्बान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (20)
लाल 'सूरजमल के थे, 'बाली' मां के नौ निहाल, द्विज वंश की इकशान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि ।
(२१)
कर संथारा तन विसारा, स्वर्ग प्यारा पा लिया, सब सद्गुणों की खान थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि । (२२) कर रहा वन्दन उन्हें, पंजाब का 'चन्दन मुनि' हर श्रमण के श्रद्धान् थे, उपाध्याय पुष्कर मुनि ।
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भावाञ्जलि
मानवता के अमर मसीहा,
-सेवामूर्ति प्रखरता श्री विनोदमुनि
जिनशासन के दिव्य सितारे।
तारकगुरु के चरणों में आ,
तारक बन कर तुमने तारे ॥ १ ॥
उभय-रूप से पुष्कर बन कर,
निज आतम को धन्य बनाया ।
सम्यग्ज्ञान का आलोक पा,
भ्रान्तजनों का भ्रम मिटाया ॥२॥
विविध भाषाओं के विज्ञाता,
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विविध दर्शनों के तुम ज्ञाता ।
प्रवचनपटुता मन में मृदुता,
'उपाध्याय' की पाई गुरुता ॥ ३ ॥
व्यक्तित्व में थी बड़ी दिव्यता,
समता के भावों में क्षमता,
कर्तृत्व में थी बड़ी दक्षता ।
जगाई जन-जन में कर्मठता ॥४॥
उपलब्ध हुआ जो भी तुमको,
उसे बांटने तत्पर थे तुम
जलकमलवत् निर्लेपभाव से,
मर्त्यदेह तो अस्थायी पर,
सच्चे तीर्थ बने तुम ॥५॥ पुष्कर
श्रद्धा स्मृतियों में कायम है।
'विनोद' करे भावाञ्जलि अर्पण,
सत्यं शुद्ध भाव संयम है ॥ ६ ॥
धर्म के प्रति विवेकपूर्ण अटूट शुद्ध श्रद्धा और दृढ विश्वास से ही सम्यक्त्व प्राप्त होता है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
For Private & Personal
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
हे ज्योतिर्धर !
-साध्वीरत्न महासती श्री कुसुमवती जी म.
तेरी लय में है लय मेरी ।
हे ज्योतिर्धर ! जय जय तेरी !!
अवनि से लेकर अम्बर तक जय जय जय जिनकी होती भव सागर में उनकी आभा उदधि में जैसे मोती।
हम उनका लेकर नाम हृदय से अपना शीश झुकाते हैं। आराधक बन महासंत के अपना कर्ज चुकाते हैं।
लो चरण वन्दना नित मेरी। हे ज्योतिर्धर ! जय जय तेरी !! तारक गुरु के चरणों में जब आ पुष्कर लहराया था। वाली की स्मृति उमड़ी मन सूरज का धुंधलाया था । जैन जगत हर्षित था सारा अम्बा पुष्कर बन चलता है। मन अंधियारा दूर करो देखो वह दीपक जलता है।
गुरु ज्ञान से गूँजी भेरी ।
हे ज्योतिर्भर ! जय जय तेरी !!
अध्यात्मयोगी की ज्योति जलाकर तुमने किया उजाला था। भक्ति, ज्ञान व कर्मयोग को तुमने हर पल पाला था । तुमसा नहीं तपस्वी देखा है गुरुवर! आप महान थे। साधक व आराधक सच्चे जिनशासन की शान थे।
लो विनय भावना नित मेरी। हे ज्योतिर्धर जय जय तेरी!!
कुन्दन बनने के खातिर तुम अंगारों पर सदा चले। फूलों के संग गले लगाया पथ में जितने शूल मिले। त्याग तपस्या से कर्मों का हर पल मुनि ने नाश किया। पीड़ाओं का ओढ़ दुशाला इस जग को उल्लास दिया।
तुम बिन सिसके दुनियां चेरी । हे ज्योतिर्धर! जय जय तेरी!!
उपाध्याय का पद पाकर के ज्ञान दिया नित सन्तों को । राजस्थान केसरी बनकर सदा जपा अरिहंतों को। आचार्य बना देवेन्द्र शिष्य को दिव्य लोक तुम चले गये। लहर उठी-झीलों के अन्दर हम काल के हाथों छले गये।
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तुम बिन पूनम लगे अंधेरी । हे ज्योतिर्धर! जय जय तेरी !!
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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उपाध्याय पुष्कर मुनि प्यारे
श्रमणसंघ के उपाध्याय, श्री पुष्कर गुरुवर आप थे।
नवकार के सच्चे समर्थक, मार्ग दृष्टा आप थे॥५॥ -राज. सिंहनी महासतीश्री प्रेमवती जी म.
आत्मस्वरूप की शोध में रहती थी, आपकी साधना।
आत्म प्रतीति को जगाकर, की अविलम्ब आराधना ॥६॥ (तर्ज : मोहरम (मारीया))
रोम-रोम में रमती थी, वीर वचन की वाचना। उपाध्याय पुष्कर मुनि प्यारे,
ऐसे संयम यात्री दात्री, गुरु पुष्कर को वंदना ॥७॥ कैसे छोड़ के स्वर्ग सिधारे।।टेर॥
ध्यानयोगी अध्यात्मयोगी, योगियों में सरताज थे।
ज्ञानियों में श्रेष्ठ ज्ञानी, गुरु पुष्कर राज थे॥८॥ उन्नीसो अड़सठ में जन्म जो लिना, ब्राह्मण कुल को उज्ज्वल किना
गंगा यमुना सरस्वती सम, व्यक्तित्व आपका निर्मल था।
हिमालय गिरी से भी उन्नत, जीवन आपका विमल था।॥९॥ शुभ बेला, घड़ी पलवारे ॥१॥ कैसे
गुरुवर का मांगलिक सुनकर, भूत-प्रेत भग जाते। सूरजमल जी तात कहाये,
समदृष्टि सुर सेवा करते, हाथ जोड़ हाजिर रहते॥१०॥ मता वाली बाई जाये,
अनाथों के नाथ गुरुवर, अनाथ बनाके छोड़ चले। बचपन में संयम धारे ॥२॥ कैसे.......
क्या सुनाये दासता, आप स्वर्ग सोपान चढ़े ॥११॥ गुरु ताराचंद्र जी सोहे,
भूधरा पर हुए अवतरित, आश्विन ओली निराली थी। चार तीर्थ का मन मोहे,
भू पर से प्रयाण किया, चैत्र मास की ओली थी॥१२॥ उनके शिष्य हो आप सितारे ॥३॥ कैसे''
श्रद्धाञ्जलि अर्पित करती कौशल्या, तव स्मरणों में। ज्ञान ध्यान में चित्त रमाया,
स्वीकारो त्रिकाल नमन, वन्दन तव श्री चरणों में ॥१३॥ गुरु सेवा कर हर्षाया, शासन दिपाया गुरु के सहारे ॥४॥ कैसे
शत-शत वन्दन आचार्य देवेन्द्र प्यारा, ओ शिष्य हो खास तुम्हारा,
-महासती श्री सिद्धकुंवर जी म. 00 उनको बिलखत छोड़ सिधारे ॥५॥ कैसे
(तर्ज : बार बार तोहे........) उदयपुर में संथारा किना
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि की बोलो जय-जयकार चैत्र सुदी ग्यारस भिना,
पर उपकारी गुरु को वन्दन बारम्बार टेर प्रेमवती श्रद्धांजलि प्यारे ॥६॥ कैसे
आश्विन शुक्ला चवदस को गुरु जन्म लिया मात-पिता और ब्राह्मण कुल को धन्य किया
गोगुन्दा की धरती हो गई वन्दनीय हर बार श्रद्धा-सुमन का
लघुवय में संस्कार उभर कर आये थे -जैनार्या कौशल्याकुमारी
तारा गुरु का सान्निध्य पा हरसाये थे
ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को आई थी नई बहार" गुरु भक्ति का तीर्थ महा, त्रिवेणी का तीर।
संस्कृत प्राकृत गुजराती राजस्थानी गोता एक लगाय जो, मीटे आपदा पीर ॥१॥
अनुपम वक्ता काव्यकार थे महाज्ञानी
अद्भुत वाणी प्रवचन शैली की थी अजब बहार" गुरु शक्ति ही विश्व में, सर्व सुखों की खाण। निश्चय भव जल उतरिये, पाइये पदनिर्वाण॥२॥
शीतलता निर्मलता जिनके कण-कण में
शान्ति सरलता सहज थी जिनके तन मन में सच्चिदानन्द घन सद्गुरु, सद्गुण का आराम।
जैन कथा साहित्य जगत में चमकेगा हर बार श्री गुरुचरण सरोज में शत-शत कोटी प्रणाम ॥३॥
आगमज्ञानी राष्ट्र सन्त संघ के मोति जाके सिर पर सदा रहा गुरु कृपा का हाथ।
आचार्यप्रवर देवेन्द्र सी दी अनुपम ज्योति दोनों लोक में जानिये वही बना सनाथ ॥४॥
'सिद्ध' चरण में वन्दन शत शत कर लेना स्वीकार'.' मान्तकातळवण्तन्तत One-homemationaPROG02069-000-00-00Horsprivatbiabersonalaise-a0000RROcdsc0000000000000
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पुष्कर गुच्छकम्
-आर्या प्रभाकुमारी जी म.
(संस्कृत)
पुष्करं पुष्पसदृशं, मार्दवादिगुणयुतम्
उपाध्यायं नमोऽस्तु ते, पुष्कराख्यं महामुनिम् ॥१ ॥
पुष्कराख्यं तीर्थराजं जनाः यांति सद्भावतः । जंगम तीर्थ- पुष्करः सर्वान्लाभं प्रयच्छति ॥२॥ श्रावकाः भ्रमरा इव, सेवायामतिष्ठन् तव । प्रमुदितमनसा हि, श्रुत सौरभमगृण्हन् ॥ ३ ॥ यथा पुष्पानि सूद्याने, विविध वर्ण संयुता । हरिता श्वेत पीताश्च, फुल्लति समभावतः॥४॥
संघर्ष नैव कुर्वन्ति, नते निन्दति परस्परम् । तद्वत् श्रमणसंघेतु, पुष्करो मुनि शोभते ॥ ४ ॥
ऐक्यताया महानेता, उदारचेता सद्गुणी । वन्देऽहं चरणाम्भोजं, मुहुर्मुहु सद्भावतः॥६॥
शरीर सौष्ठ्यं जनाः दृष्ट्वा, भव्या मुग्धा भवन्ति हि । चित्रलिखितैव नराः धर्मश्रवण तत्पराः ॥७ ॥
सुशिष्याय पदं दत्वा स्वकार्यं सिद्धमकरोत् । समाधि शान्त भावेन, अमरे प्राप्ताऽमरत्वम् ॥८ ॥
पुष्कराऽष्टकं ये भव्याः पठन्ति नित्यमेव हि। आधि व्याधिरूपाधिश्च, सर्वथैवमुपशाम्यति ॥९॥
मदीयं पुण्यगुच्छकं, समर्पयामि सद्भावतः स्वीकुरु मेऽनुकंपया, शुभाषीशं प्रयच्छ मे ॥१०॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
पुष्कर गुच्छक
- आर्या प्रभाकुमारी जी म.
( हिन्दी अर्थ )
पुष्कर मुनि पुष्प के समान क्षमा, मृदुता, आर्जवादि १० यति धर्मों से युक्त तथा उपाध्याय पद से अलंकृत ऐसे पुष्कर मुनि को मैं वंदन करती हूँ ॥ १ ॥
तीर्थों में श्रेष्ठ पुष्कर तीर्थ पर लोग सद्भावना से जाते हैं। यह जंगम पुष्कर तीर्थ सब जगह जा-जाकर लाभ देते हैं ॥ २ ॥
श्रावक जन भंवरे के समान आपकी सेवा में रहते थे। प्रसन्न मन से शास्त्र सिद्धान्त की सुगंध लेते थे ॥ ३ ॥
सुंदर बगीचे में अनेक प्रकार के पुष्प के पौधे रहते हैं। कोई नीले, पीले एवं श्वेत कुसुमों को धारण करते हैं ॥४ ॥
वे आपस में लड़ाई, झगड़ा नहीं करते हैं। एक दूजे की निन्दा भी नहीं करते हैं। वैसे ही वाद-विवाद से रहित श्रमणसंघ में पुष्कर मुनि सुशोभित होते थे ॥५ ॥
एकता के महानेता, उदार, विशाल भावना वाले, सद्गुणों के भंडार ऐसे महामुनि के चरण-कमलों में मैं बार-बार वंदन करती हूँ ॥ ६ ॥
शरीर का सौन्दर्य देखकर भविजन मुग्ध होते थे। चित्रलिखित पुतले के समान धर्म-श्रवण में स्थिर एवं तत्पर हो जाते थे ॥७॥
सुशिष्य (देवेन्द्रमुनि को) आचार्य पद का महोत्सव कर उन्हें पद पर आसीन कर दिया। तत्पश्चात् स्वकार्य भी सिद्ध कर लिया। अर्थात् स्वर्ग सिधार गए। संलेखना संथारा एवं समाधि भाव से अमरत्व को प्राप्त कर लिया ॥८॥
जो भवि आत्माएँ “पुष्कर अष्टक" का सदैव पठन पाठन करेंगी। उनकी आधि, व्याधि और उपाधि, दुःख, दारिद्र सब नाश हो जायेगा। मंगल ही मंगल बरसेगा ॥ ९ ॥
अपना यह पुष्पगुच्छक आपको समर्पण कर रही हूँ। मुझ पर दया करके इसे स्वीकार करिए, और मुझे शुभाशीष दीजिए ॥१० ॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
गुरु तेरा नाम रहेगा
(तर्ज बहुत प्यार करते हैं
बहुत याद करता है, मेरा ये मन भुला न सकेंगे,
जनम जनम
यादें तुम्हारी, हरदम सताती
एक पल गुरु तुम्हें, भूल न पाती
जाने से तेरे-सूना है चमन
जीवन में तेरे थी कितनी सरलता अध्यात्मयोगी थे कितनी सजगता करते जो दर्शन, मिटते करम अमृत सी पावन, तुम्हारी थी वाणी भव्य जनों को जो थी कल्याणी सुनते थे जो भी थे मिटते भरम
जब तक ये सूरज चांद रहेगा तब तक गुरु तेरा नाम रहेगा श्रद्धा में चरणों में
"निरू" का नमन
फिर तेरी कहानी याद आई
-साध्वी निरूपमा
-साध्वी गरिमाजी
फिर तेरी कहानी याद आई, फिर तेरा तराना याद आया हम सबको रोता छोड़ तेरा, चुपके से यूँ जाना याद आया एक सुमन खिला था उपवन में
सौरभ फैली थी हर दिग् में
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तब किसने जाना था मन में मुरझायेगा ये तो किसी दिन में
मुरझा के भी अपनी सुरभि से जग को महकाना याद आया तुम प्यार के सागर थे गुरुवर
सद्गुण के आकर थे गुरुवर जिन-धर्म प्रचारक थे गुरुवर
तुम ज्ञान दिवाकर ये गुरुवर
अपने पावन उपदेशों से जन-मन को जगाना याद आया
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तेरा आंगन तो वृन्दावन था,
दर्शन तेरा अति पावन था
उपदेश तेरा मन भावन था ।
बस याद के दीप जलाते हैं
मानव क्या तू महामानव था
चरणों में तेरे जो भी आये उनको अपनाना याद आया
तुम्हें भूल न एक पल पाते हैं
और श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं
तुम्हें भाव से शीष झुकाते हैं।
हम भटके थे संसार भवंर तेरा राह दिखाना याद आया......।
श्रद्धांजलि
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(तर्ज बार बार तोहे' ')
उपाध्याय पूज्य गुरुवर को याद करे नर नार जीवन जिनका पूर्ण रहा मंगलकार | रि॥
ज्ञान ध्यान में रहकर जप तप खूब किया भवि जीवों को अमृतमय उपदेश दिया
१८१
नांदेशमा गाँव में जन्म आपने पाया था मेवाड़ धरा को धन्य धन्य बनाया था
सूरजमल और बालि बाई के सूत थे प्राणाधार ॥ १ ॥ तारक गुरु से शिक्षा आपने पाई थी जालोर शहर में दीक्षा ठाई थी
संघ धन्य हो गया वहाँ का बोले जय जयकार ॥२॥
चादर महोत्सव पर उदियापुर आये थे अंतिम दर्शन देकर संथारा ठाये थे
- साध्वी सुप्रभाजी
संप्रदायवाद को दूर हटाकर किया धर्म प्रचार ॥ ३ ॥
चैत सुदि ग्यारस का दिन कैसा आया गुरुवर सबको तज के स्वर्ग सिधाया
समभावों में रमण किया और जीता मोह अपार ॥४॥
सुप्रभा की श्रद्धाजलि हो चरणों में बारंबार ॥५ ॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
बड़े उपकारी हो
श्रद्धांजलि सुमन
-साध्वी चन्दनप्रभा
(तर्ज : दूर कोई गाए) श्रमणसंघ की शान थे, बड़े गुणवान थे। झूरे दुनिया सारी हो, बड़े उपकारी हो।।टेर॥
दीनों के दयाल थे, परमकृपाल थे।
वाणी अमृतधारी हो, बड़े उपकारी हो॥१॥ संघ गंथन के अनुरागी, साधना में बड़भागी। सोम्यमुद्राधारी हो, बड़े उपकारी हो॥२॥
-साध्वी स्नेहप्रभा, बी. ए. (पू. गुरुणी मैया श्री कौशल्याकुमारीजी म. सा. की सुशिष्या
(तर्ज-दिल लूटने वाले जादूगर ) श्रद्धा सुमनांजली अर्पित हो गुरु पुष्कर के श्री चरणों में।।टेर। सुरजमलजी के लाल थे, माता वाली के बाल थे। नांदेशमा नगरी अति आनंद गुरु पुष्कर के श्री चरणों में ॥१॥ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी, शुभ जन्म आपने पाया था। गूंज उठी जनता सारी, गुरु पुष्कर के श्री चरणों में ॥२॥ दुनिया से नाता जोड़ दिया आत्मा से नाता जोड़ दिया। बचपन में ही संयम धारा, गुरु तारक के श्री चरणों में॥३॥ विनय विवेक और सेवा साथ, शास्त्रों का गहरा चिंतन है। दुश्मन भी लौटके आ जाते, गुरु पुष्कर के श्री चरणों में॥४॥ नवकार मंत्र के स्मरण से, हट जाती रोग बीमारी है। आनंद का अनुभव हो जाता, गुरु पुष्कर के श्री चरणों में ॥५॥ आधी व्याधी मिट जाती है, उपाधि कभी नहीं आती है। भूत प्रेत सभी नम जाते हैं, सुन मांगलिक गुरु श्री चरणों में ॥६॥ काया से गुरुवर छोड़ गये, सद्गुण से अंतर में बैठे। "कौशल्या" किरपा होती रहे गुरु "स्नेह" प्रार्थना चरणों में॥७॥
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जैसा नाम वैसा काम, करते थे वे गामगाम कहाँ गई मणी प्यारी हो, बड़े उपकारी हो॥३॥
मार्गदर्शक संत थे, बड़े भगवन्त थे। श्रमणसंघ आधारी हो, बड़े उपकारी हो॥४॥
काम याद आता है, भूला नहीं जाता है।
ढूँढे अँखियाँ सारी हो, बड़े उपकारी हो॥५॥ गुण तो अनेक थे, उपाध्याय ऐसे थे। क्षमा दिलधारी हो, बड़े उपकारी हो॥६॥
कैसी घड़ी आई है, बड़ी दुःखदाई है। खटके दिल मझारी हो, बड़े उपकारी हो॥७॥
श्रद्धार्चन
-साध्वी सुशीलाजी
वियोग करारा है, सबको लगता खारा है। भव्य सूरत कहाँ तुम्हारी हो। बड़े उपकारी हो ॥८॥
दिल धड़कता आँखें रोतीं, गये कहाँ वह संघ मोती। भूले किस प्रकारी हो, बड़े उपकारी हो॥९॥
अश्रुपूरित आता था, हर्षित वह जाता था। वाणी जिनकी प्यारी हो, बड़े उपकारी हो॥१०॥
संघ रथ के कुशल सारथी, पाकर हर्षित है रोम-रोम। घर घर पे जय जय होवे, गूंज रही धरती अरु व्योम॥ रवि सम दीप्तिमान आप हो, मिलती सबको कृपा किरण। थके हारे खिल जाते हैं, पाकर आपके कमल चरण। केवल गुरु के वरदहस्त से, हुए आसीन सर्वोच्च पद पर। मन आनंद विभोर हो जाता, महोत्सव के शुभ अवसर पर॥ हास्य मधुर विलसे मुखपर, देख खुश होता सारा जहान। सागर सम गंभीर अरु, हिमालय से धीर महान॥ रत हो सदा संघ उन्नति में, पाते उसी में ही आत्मानंद। थी तमन्ना चरणों में आने की, करने प्रत्यक्ष दर्श अरु वंदन॥ जयवंत हो देव का शासन, जयवंत हो आचार्यप्रवर। यश सौरभ फैले दिग्दिगंत में, है प्रार्थना प्रभु चरणों पर॥ हो स्वीकार बहिन सुशील के शत् शत् वंदन हार्दिक अभिनंदन !
शासन दीपाया है, भव्यों को जगाया है।
श्रद्धा सुमन स्वीकारी हो, बड़े उपकारी हो॥११॥ चन्दनप्रभा पुकारती, अर्ज ये गुजारती। श्रद्धा सुमन स्वीकारी हो, बड़े उपकारी हो॥१२॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
१८३
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दिव्य दोहा द्वादशी
-उपप्रवर्तिनी श्री रवि रश्मिजी महाराज (तपसूर्या श्री हेमकुंवरजी म. की सुशिष्या)
दर्शन को है तड़फता, सारा जैन समाज। आओ पुष्कर पूज्यवर,
उपाध्याय मुनिराज ॥१॥
क्यों न होते आप श्री, जन्मजात विद्वान। जन्म समय में जब मिला, ब्राह्मण वंश महान॥९॥ शिष्य रत्न जो आपने, हमको दिये अनेक। 'श्री देवेन्द्राचार्य' हैं,
सबसे बढ़कर एक॥१०॥ जाते-जाते दे गये, उनको आशीर्वाद। जो था अपने आपमें, सचमुच परम प्रसाद ॥११॥ आ सकता न आपके, गहन गुणों का अन्त। लो 'श्रमणी रवि रश्मि' के,
वन्दन बार अनन्त ॥१२॥
जल्दी जाने का लिया, गुरुवर ! कैसे नाम। बहुत आपके हैं पड़े,
अभी अधूरे काम॥२॥ जिसका कोई था नहीं, मोल और फिर तोल। जैन जगत के आप थे,
हीरे इक अनमोल॥३॥
श्रद्धा पुष्पांजलि
संत आप-सा संयमी, विरला होगा अन्य। अन्य आप-सा त्याग तप,
शम, दम, जप है धन्य॥४॥
इक सौ ग्यारह भाग में, 'जैन कथायें' ढाल। देकर जग को कर गये,
सचमुच मालोमाल ॥५॥
होते हैं विस्मित बड़े, बुधन जिनको देख। राजस्थानी में लिखे,
कविता-ग्रन्थ अनेक ॥६॥ सूर्य-चांद-सी बात है, यह भी परम प्रत्यक्ष।
भाषण शैली में रहा, जमा कौन कहो समकक्ष ॥७॥ चिजा लाए अंत मी तितिमा शिशिर
शास्त्र पढ़े थे आप सीएम कि NRN
कापणा जिला उपाध्याय थे आपश्री, **JUST
सचमुच नम्बर एक ॥८॥
-महासती सुलक्षणप्रभाजी म. सा.
जैन सि. शास्त्री, रल, एस. एस. सी (पू. कौशल्याकुमारीजी म. सा. की सुशिष्या)
(तर्ज : अब तो घुड़ला पर ) म्हाने छोड़ गया हो मझधार, ओलु तो आवे आपरी॥टेर॥ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी दिन, जन्म लियो गुरुराज सुरजनन्दा वालीरा चन्दा, धन-धन नान्देशमां गांव॥१॥ बालक वय में दीक्षा धारी, तारा गुरुवर पास। ज्ञान ध्यान तो खूब कियो है, पूरण किनी गुरु आस ॥२॥ उपाध्याय पूज्य गुरुदेव है, अध्यात्म योगीराज। मांगलिक री तो महिमा भारी, गावे हे श्री संघ आज॥३॥ विश्व सन्त जग में विख्याता, छ: काया का त्राण।। दुखियोंरा तो दुःख हरनारा, कुण सुणेला दुःखरी बात॥४॥ संयम आपरो धवल हिमालय, करुणा हृदय विशाल। ज्ञानी गहरा सागर सम थे, वाली माता रा सुनो लाल ॥५॥ शिष्य रत्न है आचार्य आपरा, देवेन्द्रमुनि गुरुराज। श्रमण संघरा नायक पर तो, किरपा वरसावो दिनानाथ ॥६॥ श्रद्धा रा म्हें सुमन चढावाँ, स्वीकारो मम नाथ। 'सुलक्षण' सुदर्शन पावो, गुरु कौशल्या गुरुणी आशीर्वाद ॥७॥
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रामशास्त्र पढ़े थे
सतियाँ, सन्त अनेकामी फागत
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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श्री पुष्कर गुरु महिमा
-कवि सुरेश 'वैरागी'
(मन्दसौर) गुरु पद पंकज हृदयंगम कर जीवन का कल्याण करो,
वर्ष उम्र का नवम बाल से ममता का आंचल छूटा पुष्कर गुरु की पुण्यकथा का गुणिजनो! गुणगान करो।
निर्मल हुआ विधाता नटखट मन की खुशियों को लूटा
बिखर गए सपने शैशव के भावों का घट ही फूटा अरिहंत शरणं
पत्थर लगा अचानक जैसे खिड़की का शीशा टूटा सिद्धाणं शरणं
क्या है अमर और क्या नश्वर मनुआ इसका ध्यान धरो साधू शरणं
पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। दया धर्म शरणं
अरिहंत शरणं संत जगत में भक्ति शक्ति ले विरला कोई आता है
देखी जीवन की सुन्दरता मृत्यु का चेहरा विद्रूप जो दुःख हरणा मंगल करणा मोक्षमार्ग दिखलाता है
कभी बहे पुरवा सुखदाई कभी जेठ की तपती धूप दैहिक दैविक भौतिक व्याधि से प्राणी बच जाता है
दीपक जब बुझ गया अचानक कहाँ गया ज्योतिर्मय रूप सत् गुरु की सन्निधि मिलने पर सत्य अमर फल पाता है
हुआ चित्त पर चिन्तन हावी “वैरागी" हो गया स्वरूप काम क्रोध मद लोभ शमन कर सौम्य सुधा का पान करो
चलो सत्य के उस स्वरूप से जीवन में पहचान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
अरिहंत शरणं माह आश्विन शुक्ल चतुर्दशी उन्नीस सौ सड़सठ का साल
अम्बालाल जी अम्बालाल को अपनाकर खुशहाल हुवे सूरजमल वालीबाई के फलित पुण्य थे अम्बालाल
निःसंतान सेठ सेठानी पाकर पुत्र निहाल हुवे जन्म भूमि सिमटार तीर्थ सम चमक उठा मेवाड़ी भाल
परावली ले गये साथ में दिन दिन मालामाल हुवे बलिदानी भूमि पर आये ध्वजा धर्म की लिए कृपालु
जब अपनी संतान हुई बदले बदले सुस्ताल हुवे पालीवाल ब्राह्मण कुल गौरव वंदन करो बखान करो
पशुधन लेकर भटके जंगल बाल पीर का ज्ञान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो
पुष्कर मुनि की पुण्यकथा का गुणिजनो गुणगान करो। __अरिहंत शरणं
अरिहंत शरणं महापुरुष का जीवन पथ तो सदा कंटकाकीर्ण रहा
पत्थर की ठोकर से आहत बहा पांव से रुधिर अपार छोड़े जागीरदार पिता मन ध्रुव समान दुःख पूर्ण रहा
घर पहुँचे तो हुवे प्रताड़ित कौन वहां जो देता प्यार जन्मभूमि तज नान्देशमा ननिहाल बसे मन चूर्ण रहा
तन ज्वर से तपता था लेकिन प्रतिध्वनित हो गई पुकार मित्रों संग परिधि में घूमे ममता का आघूर्ण रहा।
मन विचलित वन चले पशु ले हुआ क्रूरता का व्यवहार विनय और व्यवहार कुशलता संस्कारों का मान करो
मन ही मन ठानी बालक ने अब सत् गुरु का भान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
अरिहंत शरणं नान्देशमा जहाँ जैन श्रमण-श्रमणी अकसर ही आते थे
महासती जी धूलकुंवर जी से जाकर के करी पुकार ज्ञान ध्यान की सरिता बहती श्रावक जन सुख पाते थे
गुरुवर ताराचंद्र जी से मिलवाकर के कर दो उपकार सन्तों की निर्मलवाणी सुन जो आनंद मनाते थे
ही चाह यही है गुरु यहाँ आ मुझको करें शिष्य स्वीकार बुद्धि तेज संयुत शिशु अम्बालाल सभी को भाते थे. यह
महासती ने पास बिठाया ममतापूर्ण किया व्यवहार बाल विनोद मुदित मोहक छवि मन ही मन अनुमान करो । लगन सत्य निष्ठा हो तो साकार मिले आह्वान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।कार पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं.....
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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मारवाड़ से गुरु प्रवर मेवाड़ तरफ कर गये बिहार बही ज्ञान गंगा अपनी गति दया धर्म की जय जयकार कण कण क्षण क्षण बोल रहा था ताराचंद्र नमन सौ बार सागर खुद चलकर प्यासे के ओठों तक आये इस बार अम्बालाल हुवे वैरागी, "वैरागी" जयगान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं मिट्टी में से खोजा हीरा जौहरी थे विद्वान महान उन्हें ज्ञात था आगे चलकर होगा जैन धर्म की शान समय ठहरता नहीं कभी भी वह तो रहा सदा गतिमान वीणा पाणी सिद्ध हुई बढ़ गया साधना का सम्मान सत्य और शिव सुन्दर से निज लक्ष स्वयं निर्माण करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं श्री संघों के भाव जगे दीक्षा का लाभ हमी पावें नगरी में उत्सव हो महान धरती अम्बर नाचे गावें जालौर संघ था पुण्यवान अवसर पाकर के हरषावे चौदव वर्षि दो बालक जब संयम का मारग अपनावें दर्शन कर चक्षु धन्य हुए मंगल गीतों पर कान धरो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं श्रमण बने मुनि पुष्कर ने जीवन में लक्ष बनाये थे ज्ञान, साधना, संयम के संग गुरु सेवा अपनाये थे ध्यान, ज्ञान और भक्ति से गुरुवर तारा मन भाये थे मानों वशिष्ठ ने मर्यादा पुरुषोत्तम फिर से पाये थे । ऐसे गुरु और शिष्य चरण में मनुआ चतुर सुजान धरो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो
अरिहंत शरणं जब ज्ञान, ध्यान, वैराग्य योग सब एक साथ मिल जाता है दुष्कर से दुष्कर कार्य तभी पुष्कर पुष्कर हो जाता है वेद पुराण और गीता उपनिषद् सरल हो जाता है। मेघा के मेघ उमड़ते हैं उजड़ उपवन बन जाता है वैदिक, बौद्ध, जैन दर्शन अधिकारी के व्याख्यान वरो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं संस्कृत प्राकृत गुजराती उर्दू भाषा अधिकारी थे गुरुवर के श्रीमुख से निसरित शब्द शब्द हितकारी थे रोम रोम में नेह बसा वे योगिराज ब्रह्मचारी थे शबरी के थे श्रीराम द्रोपदी के कृष्ण मुरारी थे
आचार्य प्रभु देवेन्द्र मुनि के गुरु महान कल्याण करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं शिष्यों और महासतियों को आगम ज्ञान कराया था सद्गृहस्थ सन्निधि आये तत्त्वार्थ सूत्र समझाया था शिक्षा के केन्द्र हुवे निर्मित गुरु ग्रंथालय बनवाया था ज्ञान, ध्यान, वैराग्य तत्व सुधियों को भाया था। वे खुद अनन्त कृतियाँ अनन्त आतुर अन्तर यशगान करें पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं' जो सरल साधना लीन मनुज वह महाप्राण कहलाता है चाहे ग्रहस्थ या साधक हो जगती पर पूजा जाता है नख से शिख तक निर्दम्भ गुरु मन श्रद्धा से भर जाता है वे बालमना वे सिद्ध पुरुष कर ध्यान दंभ घबराता है हे ! दया धर्म के कल्पवृक्ष गुरु अमृत हमें प्रदान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
अरिहंत शरणं कभी शिकारी मन बदला कहीं बकरे का बलिदान रुका हिंसक भी आगे बढ़कर के चरणों में हर बार झुका दीन हीन दुःखियों की पीड़ा मानवता का माथ झुका अनावृष्टि या हो अकाल रथ दया भाव का नहीं रुका ऐसे विकट, विनाशक क्षण पर पीड़ा पर निज माथ धरो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो
अरिहंत शरणं... संत कष्ट से कब घबराता दुःख में भी सुख पाता है ज्यों कांटों के बीच सुमन हंसता सुगन्ध बिखराता है जितना तपता है सुवर्ण उतना निखार आ जाता है नादान भले अपमान करें हर जहर संत पी जाता है हे! सहनशील समता सागर मेरा सारा अभिमान हरो पुष्कर मुनि की पुण्यकथा का गुणिजनो गुणगान करो।
. अरिहंत शरणं "ज" जन्म छेदने वाला है “प" निश्चित पाप नशावन है जप से मन बुद्धि शुद्ध करो जप णमोकार से पावन है आंखों की ज्योति कोई पाता मन हो जाता वृन्दावन है मुहूर्त खुद ही ये बोल उठो गुरुवर महान मनभावन है जीवन में जप का है महत्व जप णमोकार इन्सान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो।
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जंगल में मंगल जा बैठे डर दूर अमंगल भाग गये वनचर भी करते थे प्रणाम थे भाग्य सभी के जाग गये केशरिया सिंह दहाड़ भरे गुरुवर सन्निधि बेराग भये चरणों में नाग लिपट करके सुध भूल गये बेदाग भये नयनाभिराम गुरुवर स्वरूप ऐ! दिगदिगंत व्याख्यान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरण
सम्मेलन सादड़ी बुलवाया पुरुषार्थ पुष्करी रंग लाया श्री श्रमण संघ निर्माण हुवा बंध एक सूत में सुख पाया जैनागम वारिधि सहस अष्ट गुरु आत्माराम का यश गाया आचार्यप्रवर वे प्रथम हुवे हर श्रमण हृदय में हर्षाया मर्यादा में बंध गये सभी मर्यादा का सम्मान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
राष्ट्रपति राजेन्द्र जवाहर भेंट कर हरषाये गुरुवर से मिलकर के उनने जैनागम के दर्शन पाये देसाई पंत व टंडन जी हर श्रेष्ठ जनों के मन भाये गुरुदेव शंकराचार्य मिले करुणा के सागर लहराये कभी अहिंसा हारे ना ऐसा सुन्दर अभियान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं कला, धर्म, साहित्य जुड़े हर ओर आपका अभिनन्दन संगम सुरसती गंगा जमना अवगाहन कर मिटता क्रंदन संगीत सुधा, भक्ति के स्वर हर काव्य हमारा जीवन धन जन जन श्रद्धा से बोल रहा हम नीर गुरु तुम हो चंदन आशा अभिलाषा मात्र यही उपकार करो अज्ञान हरो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं ये विकट भंवर भौतिकला का हम दीन हीन अज्ञानी हैं। है पश्चात्ताप से दग्ध, नयन से अविरल बहता पानी है मन गज मेरा, जग हुवा ग्राह भक्तों की लाज बचानी है वे निर्बल के बल, मैं याचक गुरु पुष्कर और दानी है। ध्वज सत्य अहिंसा का थामें मंजिल की ओर प्रयाण करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं सन् उन्नीस सौ चौबीस से चलकर बाणु तक आ जायें उनसित्तर वर्षावास किए हर ग्राम नगर जन मन भाये डाकू लछमन सिंह संत हुबे जब गुरुबर सन्निधि में आए सूखी रोटी का मान बढ़ा नानक की याद दिला आये काव्य कला साहित्य मनीषी नयन बंद कर ध्यान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
ये है मेरा सौभाग्य रहा युग उपाध्याय का यश गाया अट्ठाईस मार्च तरियाणु को आचार्य शिष्य लख सुख पाया अप्रेल तीन तरियाणु को चल दिए गुरु छोड़ी काया दृगनीर मेरे जिह्वा जड़ है जन मन की पीर न कह पाया उपाध्यायश्री के अमृतमय उपदेशों का पान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
हर क्षेत्र महकता था जिनसे वे मलयागिर पावन चंदन हाथ जोड़कर विधिना भी करती थी बारम्बार नमन बयालीस घण्टे संथारा हँसते-हँसते की मौत वरन्
जब उस अनन्त में लीन हुवे तज दिया सहज ही जीवन धन दो सौ से अधिक संत सतियों केशर बारिश स्नान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो अरिहंत शरणं चिरऋणी रहेगा ये समाज आचार्यप्रवर से संत दिए सम्राट प्रभु देवेन्द्र मुनि पा जग मग जग उत्साह लिए राजेन्द्र, गणेश, रमेश, नरेश, प्रवीण, गीतेश, प्रकाश किये लो उदित दिनेश जिनेन्द्र सुरेन्द्र है, शालिभद्र विश्वास लिए जन गण मन नाचे मयूर हो मंगलमय अभियान करो पुष्कर मुनि की पुण्य कथा का गुणिजनो गुणगान करो। अरिहंत शरणं
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मन पुष्कर से अविभाज्य रहे - कवि सुरेश वैरागी
तप ज्ञान ध्यान साधना के हो शिखर आप
आपको नमन गुरुवर, बारम्बार है। मेरे कृपानिधि, श्रद्धानिधि दया सागर हो
योगिराज पुष्कर का नाम प्राणाधार है।
अन्तस में आपका स्वरूप है प्रकाशवान
जीवन में आपके विचार ही तो सार है। पथ हो प्रशस्त साथ, आपका आशिष रहे मेरा मान धन गुरु, आपका दुलार है।
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X
गुरु दूर नहीं हैं कभी मुझसे
घट में बन प्राण विराज रहे।
मुनि पुष्कर पावन नाम महा
हिंसा का ना नामोनिशान मिले
सत् राह पे सारा समाज रहे।
चहुँ ओर दया का ही राज रहे।
कोई जन्म या योनि मिले मुझको
मन पुष्कर से अविभाज्य रहे।
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। श्रद्धा का लहराता समन्दर
१८७
विनम्र प्रणामाञ्जलि
श्रमण संघ की शान पुष्कर मुनि महान )
-कवि सम्राट निर्भय हाथरसी
-महासती सत्यप्रभाजी
(तर्ज-दूर कोई गाए ) श्रमणसंघ की शान थे, बड़े गुणवान थे। झूरे दुनिया सारी हो, बड़े उपकारी हो ।।टेर।
दीनों के दयाल थे, परमकृपाल थे।
वाणी अमृतधारी हो
॥७॥
मार्गदर्शक संत थे, बड़े भगवन्त थे।
श्रमणसंघ आभारी हो
॥२॥
संघगंथन के अनुरागी, साधना में बड़भागी।
सौम्य मुद्राधारी हो
॥३॥
जैसा नाम वैसा काम, करते थे वे गामगाम।
कहाँ गई मणि प्यारी हो
॥४॥
जिनके जीवन के कण-कण ने जगहित सदा विचारे हैं। जिनके मन के कण-कण ने सत्पथ-प्रशस्त विस्तारे हैं। राजस्थान-केसरी बन मन-हिंसक-सिंह पछारे हैं। जगमग कण्टक-हर्ता कर्मठ-धर्म कठोर-कुठारे हैं। जगमग अक्षय आनंद ज्योति ने जगमग जग उजियारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं। जागरूक संत की दृष्टि से सृष्टि सदा सुख पाती है। मानवता भी देख महामानव को मन-मुसकाती है। मन-वाणी से लोक-लोक अंतर्लोकों को पार कियापद यात्रा करते धरती भी छोटी पड़ जाती है। स्थानकवासी हैं पर चलते-फिरते बंजारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं। काम-सकाम भले ही दिखते हो, नितान्त निष्कामी हैं। गति अविराम मिली हैं पूर्ण विरामी, अल्प विरामी हैं। सब कुछ बंधनहीन है फिर भी अनगिन मन बंधन में हैं। कोटि-कोटि जन गण मन जिनके साधन पथ अनुगामी हैं। ज्ञान-ध्यान-चिंतन-अध्यात्म योग भण्डारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं। अक्षय-आनंद-निर्झर बनकर अतृप्त-तृप्त बनाया है। सत्य-अहिंसा-प्रेम-पुण्य पुष्कर में विश्व नहाया है। साधना-साध्य-साधना-की सरिता ने अमृत पिलाया है। सत्यं-शिव-सुन्दरं का सुखमय सागर लहराया है। जीवन नौका-नाविक ने, जन जीवन पार उतारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं। कुशल कलाकारी से जाने कितनों का निर्माण किया ? पुण्य-प्रेरणा द्वारा जाने कितने का कल्याण किया? मानवता के मस्त-मसीहा ने जग का दुःख हरने काजाने कितने निष्प्राणों का प्राण जगाकर त्राण किया? पारस-पुरुष ने परस-परस कर, वर्ण-सुवर्ण संवारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं। मन का अणु-अणु चमकाया है, ज्ञान-साधना-ध्यानी ने। सबको ज्ञान-निदान दिया है परहित-सर्वस्व-दानी ने। वात्सल्य की दिव्य मूर्ति ने, सब कुछ "निर्भय" बना दियास्वाभिमानी की ज्योति जगा दी, ज्योतिर्मय-गुरु-ज्ञानी ने। आत्म-साधना से समाज साधना-सुपन्थ-बुहारे हैं। श्री सद्गुरु पुष्कर मुनिजी को नम्र प्रणाम हमारे हैं।
काम याद आता है, भूला नहीं जाता है।
ढूँढ़े अँखियाँ सारी हो... ॥५॥ गुण तो अनेक थे, उपाध्याय ऐसे थे।
क्षमा दिलधारी हो ॥६॥ कैसी घड़ी आई थी, बड़ी दुखदाई थी।
खटके दिल मझारी हो ॥७॥
वियोग करारा है, सबको लगता खारा है।
भव्य सूरत कहाँ तुम्हारी हो
॥८॥
दिल धड़कता आँखें रोतीं, गया कहाँ वह संघ मोती,
भूले किस प्रकारी हो ॥९॥
अश्रुपूरित आता था, हर्षित वह जाता था।
वाणी जिनकी प्यारी हो
॥१०॥
शासन दीपाया है, भव्यों को जगाया है।
श्रद्धा सुमन स्वीकारी हो
॥११॥
सत्यप्रभा पुकारती, अर्ज ये गुजारती।
श्रद्धा सुमन स्वीकारी हो' ||१२।।
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श्रीमदुपाध्याय - गुरुदेव- पुष्करमुनीनाम् स्मृति-स्तोत्रम्
- पं. श्री रमाशंकर शास्त्री (अजमेर) (शिखरिणीवृत्ते)
उपाध्यायं सन्तं यशसि गुरुदेवं व्यवहृतम्, महात्मानं जैनं नमति भुवनं भूसुरजनिम् । महान्तं श्रीमन्तं जगति विदितं पुष्कर मुनिम्, दधाम्यन्ते भक्त्या त्रिविधिविहितं वन्दनमहम् ॥१ ॥ गुणान् भव्यानस्य सदसि विदुषामेव हि सदा, स्तुतान् श्रुत्वा सर्वे मनसि मुनयो मे सहृदयाः । प्रसीदन्तीत्येवं गुणिषु गणितः पुष्करमुनिः, भवेदन्तेऽवश्यं वचनकुशलो जैनजगतः ॥ २ ॥ अभूदध्यात्मज्ञः परमनिपुणश्चिन्तनविधेः, कृती जैनन्याये कविरपि तदा संस्कृतगिरः । विजेता कामस्य प्रकृतिसरलो भव्य पुरुषः, कथं वक्तुं शक्तः परमविकृतः स्यामहमिमम् ॥ ३ ॥ अपारं माहात्म्यं पुनरहमहो! पुष्करमुनेः, कथं स्यां ख्यातुं तज् जगति विषयव्यापृतमतिः । महामूर्खः श्रुत्वा सदसि विदुषां सद्गुणभृताम्, मुनीनां जैनानां मतमभिहितं तत्समवदम् ॥४॥ गुरु ताराचन्द्र स्थविरवरपूज्यं पुनरयम्, गुणैः स्वीयैः सर्वैः प्रतिदिनमतुष्यत् प्रतिपदम्। फलं तस्यैवेदं मुनिजनगणे सुस्फुटमिदम्, प्रधानः शिष्योऽभूत् परममहिमा भूसुरमुनिः ॥५॥
नमस्कारान् मन्त्रान् प्रतिदिनमथाऽयं समजपत्, ततो लब्ध्वा सिद्धिं जनगणविपन्नं व्युदहरत् । अरे ! साक्षाद् दृष्ट्वा परमचकितोऽहं समभवम्, तथाऽप्यन्यान् तोष्टुं न हि पुनरहं स्यां प्रतिनिधिः || ६ || चमत्कारी साधुर्मुनिषु परमः पुष्करमुनिः, महात्मा जैनोऽयं यदपि जनितो भूसुरगृहे । स्वकीयं शिष्य-यो रचयति मुनीन्द्रं मुनिषु तम्, तदाऽऽचार्यं वोक्तं श्रमणगणवरेण्यं गुरुवरम् ॥७ ॥ कियान् सन् श्रेष्ठोऽयं परमविनयी यो मुनिजने, पुनीतानाचार्यान् श्रमणवर सङ्घात्प्रचलितान् । प्रणम्यानेतुं तान् यतति पुनरेकः प्रतिदिनम्, यतोऽहं ज्ञात्वैतत्स्वयमभिमतं तद् व्यरचयम् ॥८ ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
गुरुदेव-पुष्करमुनि- स्मृति-स्तोत्र
-पं. श्री रमाशङ्कर शास्त्री
(हिन्दी अनुवाद)
परमविख्यात महात्मा, ब्राह्मण, प्रसिद्धि में जिनको गुरुदेव कहते हैं, जिनको जैन मुनि होने के कारण विश्व जिनको प्रणाम करता है, ऐसे जगप्रसिद्ध सन्त श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज को तिखुत्तो सहित भक्ति के साथ अन्त में मैं प्रणाम करता हूँ ॥१ ॥
विद्वत्सभा में जिनके गुणों की प्रशंसा को सुनकर मेरे सहृदय मुनिजन प्रसन्न होते हैं, जिनकी गुणियों में गणना होती है। अतएव जैनजगत् का जिनको प्रवक्ता कहा गया है ॥२॥
जो वास्तव में अध्यात्म के ज्ञाता, विचारनिपुण, जैन-न्याय में प्रवीण, संस्कृत भाषा के कवि, कामविजयी, प्रकृति से सरल और भव्याकृति को मैं महाविकीर्ण होकर भला ! किस प्रकार इनको यथार्थ में वर्णन कर सकता हूँ ॥ ३ ॥
अहो ! विकारी होकर मैं, इन गुरुदेव कीर्ति महात्मा श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज के अपार माहात्म्य को यथावत् कैसे कह सकता हूँ। सद्गुणी जैन महात्मा की विद्वत्सभा में इस महामूर्ख ने मत को सुनकर कह डाला है ॥४ ॥
इन गुरुदेव श्रीयुत् पुष्कर मुनिजी महाराज ने अपने गुरु स्थविर वर पूज्य श्रीमान् श्रीताराचन्द्रजी महाराज को, अपने सभी प्रकार के गुणों से प्रतिदिन स्थान-स्थान पर उनको प्रसन्न रखा, उस सबका ही परिणाम है कि अतुलित गुणयुक्त, ब्राह्मण मुनि, प्रधान शिष्य श्री पुष्कर मुनिजी बने ॥ ५ ॥
गुरु महाराज श्री ताराचन्द्रजी महाराज के आदेश से आपने प्रतिदिन नमस्कार मन्त्रों का जप कर सिद्धि प्राप्त की और दुःखियों के दुःख दूर किये। जिसको साक्षात् देखकर मैं चकरा गया। फ भी मैं दूसरों को सन्तुष्ट करने का प्रतिनिधि नहीं हो सकता ॥ ६ ॥
ब्राह्मणों के घर में जन्म लिए हुए जैन मुनि होकर मुनियों में बड़े चमत्कारी श्री पुष्कर मुनिजी महात्मा बने । जिन्होंने कि अपने ही शिष्य को श्रमणगण में पूजनीय आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया ॥७॥
आपश्री मुनियों के समुदाय में कितने विनीत और श्रेष्ठ सन्त थे कि जो मुनिजन श्रमणसंघ को छोड़कर चले गये हैं, उनको पुनः नमन कर सदा श्रमणसंघ में लाने का प्रयत्न किया, जिसको जानकर मैंने भी अपना वैसा ही विचार बनाया कि आप वास्तव में एक श्रमणसंघ हो ऐसा चाहते थे॥८॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
स्वशिष्यं देवेन्द्रं नववयसि दीक्षामधिगतम्, विरक्तिं संसारादभिनवमतिं बालकधियम् । कथं कृत्वा चैनं शिशुमिव पुनीतं गुरुरयम्, व्यदाद् विद्यावृत्तिं मनसि मम नैति स्मृतिपथम् ॥९॥ महाश्चर्यं मन्ये कथमिममबोधं मुनिमहो ! स्वशिष्यं देवेन्द्रं मनसिजविकारादपि सदा । अरक्षद् मोक्षार्थी मुनिषु परमः पुष्करमुनिः, स एवाऽस्त्याचार्यः श्रमण शुभसङ्खेऽप्यधिकृतः ॥१०॥
स्मृतिं पूतां ध्यातुं विदधति कृतज्ञा भुवि गुरोः, सुशिष्यास्तस्यान्ते विमलमुनयः पुष्करमुनेः। स्मृतेर्ग्रन्थं स्रष्टुं सृजति शुभयनं पुनरिमम्, कृतज्ञाः शिष्या ये विहितमुपकारं जहति किम् ? |99 || उपाध्यायं वीरं जपिषु परमं योगिनमिमम्, महात्मानोऽप्यन्येऽभिदधति गुरुं पुष्करमुनिम् । अमन्यन्त श्रेष्ठं मुनिषु मुनिमेकं गुण-मणिम्, कथानां साहित्ये कविमपि महान्तं सुरगिरः ॥ १२ ॥ मुनीनामैक्यार्थं गुरुरयमहो ! पुष्कर मुनिः, सदैवैच्छत्सङ्घे विकृतमुनिवादेऽप्याभिरतान् । मुनीन् स्वीयान् मान्यान् विदधतु विधानं यदुचितम्, तदा निन्दावादैरलमिति विपत्तेः प्रशमनम् ॥ १३ ॥
परन्त्वन्ये सन्तः कथमपि विवादं शमयितुम्, यदा नैच्छन्नन्ते मुनय इति चैते व्यपगताः । विरच्यान्यं सङ्घ रचयितुमलं ते प्रतिदिनम्, स्वकीयं माहात्म्यं प्रतिमुनिसमीपे दधति रे ! ||१४||
भवत्वन्यः सङ्घः किमपि तु फलं स्यात् त्रिभुवने, समाजश्चैकोऽयं न च किमपि वेषेऽन्तरमिदम्। विवादश्चारित्र्ये चलति पुनरेको मतिकृतः, ततश्चावोचन्मे भवतु पुनरैक्यं गुरुमुनिः ॥१५ ॥ प्रणामान्ते वाक्यं प्रियतरमथैतद् गुरुमुखात्, अरे पुण्यात्मन्! त्वं चर करुण धर्मं स्वनुसृतम्। अशृण्वं सौभाग्याद् न हि किमपि वाक्यं श्रुतमतः न मन्दो दौर्भाग्याद् भवति हृषितात्मा पुनरयम् ॥१६ ॥ कियानासीत्प्रेमा सकल जनतायां गुरुमुनेः, ब्रजेत् व्काऽप्येषोऽयं प्रियजनसमूहः स्वयमहो ! समायात्सद्यस्तं सविधिनमनार्थं चरणयोः, तथा प्रष्टुं सेवां न किमपि तु वाक्यैरुदतरत् ॥१७॥
१८९
बालबुद्धि अपने शिष्य को जो नवदीक्षित थे, संसार से विरक्त हुए को, जो बच्चे ही थे, उनको किस प्रकार की शिक्षा दी कि वे श्रमणाचार्य हो गए। इस बात को विचार कर मेरा मन आज तक कोई उदाहरण नहीं ढूँढ़ सका ! ||९ ॥
मुनियों में मोक्षार्थी श्री पुष्कर मुनिजी महाराज ने संसार के विकार से दूर, अबोध शिष्य को छोटी अवस्था के रहते हुए इस योग्य बना दिया कि वे श्रमणसंघ के आचार्य पद पर अधिकृत हुए ॥१०॥
जगत् में गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के पवित्र शिष्य, उनके शरीरान्त पर उनकी पावन स्मृति को स्थिर करने के लिये स्मृति ग्रन्थ को रच रहे हैं। क्योंकि कृतज्ञ शिष्य गुरु के उपकार को क्या कभी भुला सकते हैं। अर्थात् कभी नहीं भुला सकते ॥११॥
जपकर्त्ताओं में वीर इन परमयोगी श्रीयुत् उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज को अन्य महात्मा भी अपना गुरु मानते हैं और मुनिजन में इनको कथाओं के साहित्य में मर्मज्ञ और देवभाषा महान् कवि मानकर आदर करते हैं ॥१२ ॥
ये गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज मुनियों की एकता के लिये सदा चाहते रहे और पारस्परिक निन्दावाद को त्यागने के लिये कहते रहे। क्योंकि ऐसा करने से व्यर्थ के निन्दावाद की स्वतः शान्ति हो जाती है ॥१३॥
किन्तु प्रयत्न के रहते हुए भी, जब अन्य मुनिजन ने नहीं चाहा, अपितु अपने-अपने संघ बनाने लगे और अपने को ही पूज्य मानने लगे ॥१४॥
त्रिभुवन में अन्य संघ होने से कोई परिणाम नहीं मिलता। समाज तो एक ही है। वस्त्र और रीति-रिवाज सब एक-से हैं। केवल कल्पना द्वारा अपने चारित्र्य की विशेषता बताना है। अतः गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज ने सदा एकता की पहल की ॥ १५ ॥
प्रणाम करने के पश्चात् गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के श्रीमुख से यही सुनते थे कि अरे पुण्यात्मा ! सदा दयाधर्म का पालन कर। इस वाक्य के अतिरिक्त कोई दूसरा वाक्य नहीं सुना, किन्तु दुर्भाग्य से यदि कोई प्रसन्न न हो तो क्या हो ! ॥ १६ ॥
गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का जनता में प्रेम ही कुछ विलक्षण था ! कहीं पर भी पहुँचते तो जनसमूह उमड़ने लगता और चरण वन्दना की होड़-सी लग जाती थी। और सेवा के अतिरिक्त उनके मुख से कुछ नहीं निकलता था ॥ १७ ॥
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१९०
तदाऽऽश्चर्यं कीदृक् पुनरिह गुरोः पुष्करमुनेः, सुबालं देवेन्द्रं कथमिममशिक्षद् गुणगणम् । महोत्कृष्टं विश्वे स्वयमपि समाधौ जपविधेः, सदा लग्नोऽतिष्ठद् रचयति मुनिं गीष्पतिसमम् ॥ १८ ॥
अतुल्यं माहात्म्यं जगति परमं विस्मयकरम्, तदासीदस्यैतद् भवति पुनरेकं गुरुमुनेः। महाचार्यः पूज्यः श्रमणवरसङ्घऽभवदयम्, गुरोः शुश्रूषायाः फलमिदमहो ! सम्प्रकटितम् ॥१९॥ कदाप्यन्यं सन्तं कमपि मुनिसङ्घादपसृतम्, महात्माऽयं ज्ञात्वाऽप्युचितविधिवाक्यैर्व्यवहृतम्। तदेमं तेऽप्यन्ये विदधति विधिं तं समुचितम्, वदाम्येनं तस्मान् मुनिषु परमं पुष्करमुनिम् ॥ २० ॥ तदाऽऽपाते काले मुनिरयमथाऽऽसीद् व्यथितवत्, विपन्नो वा दुःखादवददिति दुःखं समुचितम् । परन्तु व्याख्याने प्रकटयति नित्यं वचनतः, स्वकीयं हृद्दुःखं सदसि वचनैर्वाऽनिशमहो ! ||२१||
प्रमाणं मे कर्णौ स्वयमहमरे ! स्यामपि तदा, नियुक्तोऽहं चासं वटुमुनि जनानां विषयतः । सुशिक्षादानार्थं सततमहमासं सहचरः, विहारे काले वा वसतिसमये प्रावृषि ऋतौ ॥ २२ ॥ स्वशिष्याणां शिक्षावितरणविधी जागृतिरियम्, प्रदीप्तैवासीन्मे गुरुमुनिमणेः पुष्करमुनेः । अतः सर्वे शिष्या विविधविषये सन्ति गुणिनः, स्वभिज्ञाः शास्त्राणां किमहमभिदध्यां पुनरहो ! ॥२३॥
अपूर्वं सामर्थ्यं किमपि तु गुरौ पुष्करमुनौ, न वक्तुं स्यां योग्यः पुनरपि वदेयं किमपि तत् । यथाज्ञानं किञ्चिद् यदभिलषितं तदखिलम्, तदानेनैवाप्तं मुनिषु गुरुदेवोज्ज्वल पदम् ॥२४॥ मुनेस्ताराचन्द्रात्स्थविर गुरुदेवाद् मुनिरयम्, शुभां दीक्षां लब्ध्वा यशसि गुरुदेवोऽभवदहो ! महत्त्वं तस्यैतन् मुनिषु गणनीयं मम मते, मनुष्यं सामान्यं रचयति मुनिं पुष्कर मुनिः ॥ २५ ॥ गुरोराज्ञां धृत्वा शिरसि जपमेकं प्रतिदिवम्, जपन्नेषोऽभून्मे परममुनिरेको गुरुरयम् । महान् विश्वे सिद्धो मुनिसदसि मान्यो मुनिगुरुः, तदाऽस्यैकः परमगुरुदेवः पुनरभूत् ॥ २६ ॥
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TH विचार
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
तब फिर यह कितने आश्चर्य की बात गुरुदेव श्रीमान् पुष्करमुनिजी महाराज की है कि इन्होंने स्वयं ध्यानमग्न रहते हुए अपने सुशील शिष्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज को कैसे गुण-गण सिखा दिये ! जिससे कि वे बृहस्पति के समान बन गये ॥१८॥
यह कितना आश्चर्यजनक गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का एक माहात्म्य है कि गुरुसेवा का परिणाम प्रकट हुआ कि ये शिष्य महोदय तो श्रमणसंघ के पूज्य आचार्य बने और स्वयंमुक्त होकर सिद्ध शिलावासी हो गये ॥ १९ ॥
गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज एक अद्वितीय सहानुभूति वाले सन्त थे, जो सदा अन्य सन्तों को भी अपने साथ लेकर चलते थे। यही कारण था कि आप सदा जिनको अन्य सन्त निरादृत करते थे, उनको आप आश्रय देते थे ॥ २० ॥
आपश्री आपातकाल के समय, व्यथित के समान दुःखी हो उठते थे और दुःख से कहते थे कि यह दुःख यथार्थ है । किन्तु अपने व्याख्यान में वचनों से अपने हृदय के दुःख को सदा प्रकट करते थे। वे वास्तव में राष्ट्रीय सन्त थे ॥ २१ ॥
इस बात का मैं स्वयं साक्षी हूँ, क्योंकि मैं बालमुनियों के शिक्षण के लिये नियुक्त था। अतएव मैं मुनियों के साथ निरन्तर बना रहता था। चाहे फिर विहारकाल हो अथवा वर्षावास हो ॥ २२ ॥
स्मरणीय बात है कि गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के विचार से बालमुनियों की शिक्षा की भावना बड़ी उत्कट थी । इसी हेतु से सभी आपके शिष्यजन विविध विषयों में प्रवीण हैं ॥ २३ ॥
गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज में अपूर्व सामर्थ्य था ! जिसको कहने के योग्य नहीं हूँ। पुनरपि मैं यथा तथा के रूप में कुछ कह सकता हूँ कि जो इन्होंने चाहा, वह मुनिजन में उज्ज्वल गुरुदेव पद प्राप्त किया। इसको सभी जानते हैं ॥ २४ ॥
अरे! स्थविर गुरुदेव श्री ताराचन्द्रजी महाराज से शुभ भागवती दीक्षा ग्रहण कर कीर्ति में आप गुरुदेव कहलाये। मेरे विचार से मुनिजन में इससे बड़ा कोई यश नहीं हो सकता ! पुनः महत्त्व की बात यह है कि आपके शिष्य श्रमणाचार्य बन गये॥ २५ ॥
गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज अपने गुरु महाराज की आज्ञा को अपने सिर पर धारण कर ही प्रतिदिन जप करते ही एक महामुनिराज हुए। उसके प्रभाव से ही आज आपके शिष्य श्रीयुत् देवेन्द्र मुनिजी महाराज श्रमणों के आचार्य बने ॥ २६ ॥
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
अयं स्वेच्छामृत्योः फलमपि च लब्ध्वाऽगमदितः, रहस्यं स्पष्टं तन् न च किमपि कष्टं पुनरभूत् । अथाऽऽचार्यावाप्तौ मरणमपि मे तन्न हि भवेत्, यतोऽयं देवेन्द्रो भवतु सहसैको गुरुरयम् ॥२७॥
महोत्कर्षोऽस्याऽयं कथमपि तु कष्टं जनगणे, श्रुतं वा जातं तन्न हि किमपि दुःखं समभवत् । परन्त्वन्ते देहं त्यजति विधितोऽयं गुरुवरः, महारम्ये स्थाने स्वपिति ससुखं पुष्कर मुनिः ॥ २८ ॥
समस्ताः सन्तः स्युः परमविदितोऽसौ जनगणः, महासत्यः पूज्याः परमविदितास्ता अपि गणे। समे शिष्या जैना जगति सुषमा साऽप्युदयपूः, स्थितावस्यामन्ते त्यजति च शरीरं गुरुरयम् ॥ २९ ॥ रमेशं शिष्यं स्वं विषम समयेऽसावधिगते, शरीरान्तं ज्ञात्वा वदति सहसा तं गुरुरयम् । महापक्षाघातं जगति च सहेऽन्ते विधिवशात्, विवक्षं ज्ञात्वा तं यतति पुनरेषोऽप्यतिमतिः ॥३०॥ मुनेरन्तं ज्ञात्वा निधन समयज्ञाश्च मुनयः, यथेच्छं संस्तारं चरितुमनसस्तेऽप्यनुमतिम् । प्रतीक्षन्ते तावद् वदति पुनरन्ते स्वयमहो ! कथं संस्तारेच्छुः कमहमितरं नावदमिदम् ॥३१॥
श्रुतं वृत्तं वाक्यं वदति कविरेतत् पुनरिदम्, भवेद् वाक्यं सत्यं कथमपि वदेयं स्वयमहम् । परन्त्वेतत्तथ्यं मुनिगुरुरयं पुष्कर मुनिः, महान् सन्नेकोऽभूत् कथमिहलिखेयं पुनरिदम् ॥३२॥ यतोऽवात्सं शिष्यैः सह भवतु शिक्षा प्रतिदिनम्, मुनीनां बालानां विहतिसमये मे मुनिजने । कृपापात्रं तावानहमपि गुरोः पुष्करमुनेः, दयाभावः कोऽयं किमिति हृदयेऽहं समगमम् ॥ ३३ ॥
स्वभावे गाम्भीर्यं कियदवधिकं मेऽस्य च मुनेः, न वक्तुं स्याल्लोके सरलमतिकः कोऽपि मनुजः । महान्तो विद्वान्सो विमलमतयस्तेऽपि चकिताः, तदासन् दृष्ट्वा तं किमहमधिकं चाब्रुवमिदम् ॥ ३४ ॥
जनानां ज्ञानार्थं सततमुपकारी गुरुरयम्, कथानां साहित्यं व्यसृजदपरं मङ्गलमयम् । अधीत्यैतत्सर्वे परममुपकारं स्वहृदये, विदन्त्यन्ये विज्ञामुनय इह कार्यं शुभमिदम् ॥३५॥
DIE VIE
जनते
१९१
गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज इस संसार से स्वेच्छा मृत्यु जिसको संस्तार अथवा संथारा कहते हैं, उसके फल को प्राप्त कर इस जगत् से पधारे। आप जानते थे कि मेरी मृत्यु से आचार्य पद महोत्सव में किसी प्रकार का विघ्न न हो, अतः उत्सवपर्यंत आप जीवित रहे ॥ २७ ॥
यह कितना आपश्री का उत्कर्ष है, कि किसी को कोई कष्ट, किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ, यह न देखा, न सुना। किन्तु अन्त में, आप गुरुदेवश्री विधिपूर्वक शरीर त्यागकर एक सुन्दर (इतिहास प्रसिद्ध) शहर उदयपुर में सो रहे हैं ॥ २८ ॥
अपार जनसमूह, सभी सन्त और पावन सतियों एवं सभी आपके शिष्य उपस्थित थे। जगत् में शोभा, वह उदयपुर नगरी। ऐसी स्थिति में आप अपने शरीर को छोड़ते हैं ॥ २९ ॥
यह जानकर कि अब इस संसार से उठना है, अपने शिष्य श्री रमेश मुनिजी महाराज को गुरुदेव फरमाते हैं, किन्तु पक्षाघात के कारण कहते नहीं बनता। शिष्यवर भी विवक्षु जानकर यत्न करते हैं, किन्तु अन्त में विवश हो जाते हैं ॥३०॥
निधन के जानकर मुनिजन, संथारे के लिए अनुमति की प्रतीक्षा करते हैं, किन्तु संस्तारेच्छु गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज अन्त में ऐसी चेष्टा करते हैं कि क्या मैंने अभी तक संस्तारव्रत के लिये अभी तक किसी को नहीं कहा ! ॥ ३१ ॥
मैं कवि के रूप में, सुनी हुई बात को कह रहा हूँ, परन्तु यह तो एक तथ्य है कि मुनिजन के गुरु, गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज एक महान् सन्त हुए, इसको लिखूँ भी तो कैसे लिखूँ ? ॥ ३२ ॥
बालमुनियों की प्रतिदिन शिक्षा हो, इसलिये मैं इनके विहार के समय भी साथ रहा। अतः मैं भी तब तक इन गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज की कृपा से समझ पाया कि दयाभाव, वास्तव में किसको कहते हैं ॥ ३३ ॥
गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज की गम्भीरता कहाँ तक है। इसको संसार में स्वाभाविक वृत्ति का मनुष्य नहीं जान सकता था। क्योंकि बड़े विद्वज्जन भी, इनको समझने में, आश्चर्य मानते थे। तब मेरे जैसे सामान्य बुद्धि का मनुष्य उनको कहाँ तक कुछ अधिक कह पायेगा ॥ ३४ ॥
निरन्तर उपकारी गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज ने मनुष्यों के ज्ञान के लिये मङ्गलमय कहानियों का साहित्य रचा, जिसको सभी पढ़कर उनके उपकार जो जानते हैं। साथ ही ज्ञानी मुनिजन, इस शुभ कार्य कहते हैं ॥ ३५ ॥
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१९२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सदा स्वव्याख्याने जिनवर महिम्नां विरचितम्,
परम यशस्वी गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज सदा अपने सुकाव्यं धर्मात्मा मुनिषु सुयशाः पुष्कर मुनिः।
धर्मोपदेश में जिनवर मुनियों के विषय की रचना, अपने शुद्ध शब्दों निजैः शुद्धैः शब्दैर्विमलगुणयुक्तैरनुदिनम्,
में प्रतिदिन सुनाते थे। श्रोताओं का सभा में, यह उनका 200 सभायां श्रोतृणां शुभगमुपदेशं परमदात्॥३६॥
कल्याणकारी उपदेश होता था॥३६॥ पवित्राऽऽचारात्मा गुरुवरयशाः पावनमुनिः,
परम पूतात्मा पावनमुनि गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज मुनीनां निर्माण परमनिपुणः पुष्करगुरुः।
मुनियों के निर्माण में परमनिपुण थे। अतएव सर्वाभीष्ट मुक्ति को सदाऽऽराध्यां मुक्तिं स्वयमभिलषन् काममतुलम्,
चाहते हुए, मुनिजन में अहो! आप अद्वितीय मुनि हो गये हैं।॥३७॥ मुनिष्वन्येष्वेषोऽप्यतिशयविशेषः पुनरहो!॥३७॥ अपूर्वः कोऽप्येको मुनिषु मुनिराजः स्वयमयम्,
आप वास्तव में मुनियों में अनोखे मुनिराज हुए, जिन्होंने अपने स्वशिष्यं देवेन्द्र रचयति मुनीन्द्रं मुनिमहौ।
शिष्य को मुनियों के संसार में मुनीन्द्र बना दिया अथवा श्रमणसंघ प्रसिद्धो वाऽऽचार्यः श्रमणवरसङ्घ मुनिषु यः,
में प्रसिद्ध आचार्य बना दिया अथवा महिमा से पूज्य बना दिया 400 महिम्ना पूज्यो वा यशसि पुनरेको मुनिगुरुः॥३८॥
अथवा संसार में मुनियों का गुरु बना दिया।॥३८॥ अहं मन्ये स्वान्ते वदतु जगदेतत् किमपि तत्,
_मैं तो अपने मन में ऐसा मानता हूँ कि फिर चाहे संसार कुछ अयं ज्ञात्वा रुग्णोऽभवदिह मिषाद् वा मम गुरुः।
भी कहे कि आप मेरे गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज जानबूझ शयानः पश्येयं किमपि न वदेयं पुनरहम्,
कर बीमार बने, जिससे कि मैं सोता हुआ देखू और मैं कुछ बोलूँ, स्वयं सत्सङ्कल्पं मनसि कृतमेतद् भजति सः॥३९॥
ऐसा उन्होंने अपने मन में संकल्प कर रखा था।॥३९॥ प्रसिद्धोयोगी सन् कथयतु कथं स्यात्स्वयमयम्,
प्रसिद्ध योगी होकर आप फिर ऐसे रोगी कैसे हो सकते थे, जो व्यथाऽऽक्रान्तो रुग्णो वदति पुनरेकं न हि वचः।
कि एक बोल भी न बोल सके। कोई भी ज्ञानी, यह बता सकता है इयं लीला विश्वे महति महतां मे गुरुसताम्,
कि क्या कभी किसी ने गुरु सन्त सिद्ध की इस विश्व में ऐसी लीला OOD
तथा सिद्धानां स्यात् कथमिह विपश्चित् किमु वदेत्॥४०॥ देखी है क्या!॥४०॥ सुधाऽऽशीभिः शिष्यो मुनिरिह रमेशो गुणनिधिः,
जिन गुरु महाराज के आशीर्वादों से यहाँ मुनिराज श्री रमेश समुत्पन्नोऽस्त्येकः परमविबुधोऽयं मम गुरोः।
मुनिजी महाराज एक अच्छे विद्वान् सन्त हो सकते हैं, फिर चाहे कृपायाः सेवायाः फलमिति च वेदं किमपि तत्,
यह फल कृपा हो अथवा सेवा का हो अथवा कुछ भी हो! मैं तो प्रमाणं प्रत्यक्षं मम तु हृदये तं कथयितुम्॥४१॥
अपने हृदय में इसको प्रत्यक्ष प्रमाण मानता हूँ॥४१॥ अपृच्छन् सद्भक्ताः सकलजनयोगे रहसि वा,
सभी मनुष्यों की उपस्थिति में, एकान्त में सद्भक्तों ने प्रश्न स्वयं स्वीयादिष्टात् कथय किमु कष्टं तव कृते।
किया कि आपके निमित्त कोई, स्वीय इष्ट से कोई कष्ट तो नहीं रमेशः श्रद्धालुः सरलवचनः कोऽपि सुमुनिः,
है? इस पर श्री गुरुदेव पुष्करमुनिजी महाराज ने कहा कि मेरा तो दयापात्रं मेऽयं प्रथयति गुरुः पुष्कर मुनिः॥४२॥ मा यही सीधा-सादा श्रद्धालु और दया का पात्र श्री रमेशमुनि है अर्थात्
मुझे इस शिष्य के रहते कोई कष्ट नहीं है।॥४२॥ स्वकीयं कालं यो गमयति यथेच्छं सनियमम्,
जिन गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज ने नियम के साथ स एषोऽयं स्वामी भवति समयेऽसौ मृतसमः।
अपना दैनिक कार्य किया, वे ऐसे समय मूर्छित हो, शयन करें, न मन्ये सत्यं तन्मनसि मम तोषं न च पुनः,
इसको मैं अपने हृदय में ठीक नहीं मानता और न मेरा मन सन्तुष्ट ततोऽहं वीक्ष्येमं कथमपि यथार्थं न हि भजे ॥४३॥
होता है। इससे इनको देखकर मैं इस सबको-यथार्थ हो ऐसा नहीं मानता अर्थात् यह सब संगत प्रतीत नहीं होता, यह सब तो इनकी
कोई माया है॥४३॥ अथाऽयं सत्स्वेको जिनमुनिषु गण्यो गुरुरहो!
दूसरे जैन मुनिराजों में आप गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महात्मा गम्भीरः कमपि मुनिमन्यं लघुपदम्।
महाराज सदा मान्य, गम्भीर महात्मा के रूप में सदा ही आदृत रहे। अवादीसंसारे परमविकृते पुष्करमुनिः,
आपने कभी परमविकृत संसार में कभी किसी अन्य मुनि को कभी ततोऽहं तं धन्यं मुनिजनवरेण्यं हृदि भजे ॥४४॥
ओच्छा शब्द नहीं कहा। अतएव मैं आपको मुनिजन-वरेण्य अपने
मन में मानता हूँ॥४४॥ 3.92DDEष्तष्क
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
विरक्तेः प्रत्यक्षं भवति शुभ रूपं जिनमुनेः, अतस्त्यागं श्रेष्ठं वदति जिनधर्म्मः प्रतिपदम्। विरक्ताः सन्त्यन्ये परमविदिते वैदिकमते, तथाप्येतत् स्पष्टं जगति जिनसाधुर्निरुपमः ॥४५ ॥
नमस्कृत्यान्तेऽहं गुरुवरमिमं पुष्कर मुनिम्, महान्तं तच्छिश्यं श्रमणगण पूज्यं गुणनिधिम् । शुभं श्रीदेवेन्द्रं परममहिमानं मुनि-गुरुम्, अहो! आचार्यं तं नमति जगदेतन्निरुपमम् ॥४६ ॥
उपाध्यायश्रेष्ठं गुरुवरमिमं पुष्कर मुनिम्, स्वकीये स्वान्तेऽहं सकलसुनियोगेऽप्यतुलितम् । मुनीनामाचार्यं मुनिषु मुनिवन्धं सुषमितम्, नमाम्यन्ते भक्त्या कृतयुगलपाणिर्भृशमिमम् ॥४७॥ वसन्तञ्चस्यान्ते विनयिनमिमं देवसदृशम्, युगाचार्यं पूज्यं विबुधसमिती संस्तुतपदम् । मुनीन्द्रं देवेन्द्रं नमति बहुशः पाणियुगलः, महानिम्न प्राणी जगति विषमः कोऽपि विकलः ॥४८॥
मुनीन् सर्वानन्ते प्रणमति जनोऽयं सविनयम्, यतोऽन्ते सर्वेऽमी गुरुमुनिविपत्तेर्विचकिताः। सकम्पास्तिष्ठन्तः स्वगुरुशुभदेहं क्षणभरम्, निरीक्ष्यान्ते नेत्राज्जहति जलविन्दूनविरलम् ॥ ४९ ॥ परं सौभाग्यं मे यदिह गुरुदेवं मुनिजनैः, असङ्ख्यैरायातैः सह पुनरिमं पुष्कर मुनिम् । अपश्यं पर्यङ्के शिथिलितशरीरं विरचिते, दृढैः पट्टैः साकं रचित शुभगेहे मुहुरहम् ॥५०॥ स्मृतिं धृत्वा स्वान्ते परमरमणीयां प्रियगुरोः, प्रसीदाम्येवाहं न पुनरनुकर्तुं मम गतिः । परन्त्वैतत्सत्यं यदि तमनुकर्तुं भुवि पुनः, तदा देवेन्द्रोऽयं गुरुवर इहैको मम मुनिः ॥ ५१ ॥
नकोऽप्यत्र स्थायी जगति सकलेवा त्रिभुवने, महावीर : स्वामी चरमजिनतीर्थः स हि गतः । न चाश्चर्यं लोके मम गुरुरयं पुष्कर मुनिः, प्रयात्यस्मान् हित्वा सरणिरियमेका गतिमती ॥ ५२ ॥
अथाऽस्मिन् स्तोत्रेऽहं कमपि महिमानं तव गुरोः, यथार्थं वक्तुं स्यां न च विवृतिशक्तिर्मयि तथा । यतो मूर्खप्रायः किमहमधिकं गौरवमयम्, वदेयं माहात्म्यं तत इह तु मूकः पुनरयम् ॥ ५३ ॥
१९३
जैनधर्मानुयायी मुनि की विरक्ति का रूप प्रत्यक्ष में मङ्गलमय अथवा माङ्गलिक होता है। अतएव जैनधर्म प्रत्येक स्थान पर त्याग को श्रेष्ठ बताता है। परम विख्यात वैदिक धर्म में वीतराग संन्यासी होते हैं। तथापि यह तो स्पष्ट है कि जैन मुनि अद्वितीय होता है ॥४५ ॥
गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज को नमन कर अन्त में उनके महान् शिष्य परमगुणी, श्रमणगण के पूज्य, प्रसिद्ध मुनिजन गुरु, मङ्गलरूप श्री देवेन्द्र मुनिजी आचार्य महाराज को यह जगत् नमन करता है, अतः मैं भी नमन करता हूँ ॥ ४६ ॥
अपने अन्तःकरण में, मैं सकल मुनि समुदाय में निरूपम, मुनियों के आचार्य, अतिशोभाशाली मानता हूँ, ऐसे उपाध्याय श्रेष्ठ गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज को हाथ जोड़ता हुआ भक्ति से प्रणाम करता हूँ ॥ ४७ ॥
अन्त में हाथ जोड़े हुए मैं अत्यन्त निम्न प्राणी जगत् में महाविकल विद्वत्समिति में आराध्य देव समान युगाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज को नमन करता हूँ ॥ ४८ ॥
अन्त में, सविनय यह, उन सभी मुनियों को जो गुरुदेव की विपत्ति से चकित हुए सकम्प खड़े हुए अपने गुरुदेव की शुभ देह को थोड़ी देर देखकर आँसुओं की धार बहाने वाले सभी शिष्य सन्तों को नमन करता हूँ ॥ ४९ ॥
मेरा परम सौभाग्य था कि आये हुए असंख्य मुनिजन के साथ दृढ़ लकड़ी के पट्टों के बने हुए पाट पर सुन्दर भवन में शिथिलित शरीर गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज को मैंने निहारा ॥५०॥
प्रिय गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज की अत्यन्त मनोहारी स्मृति को अपने हृदय में धारण कर मैं केवल प्रसन्न हो सकता हूँ, किन्तु उसकी नकल करने की मेरी कोई स्थिति नहीं है। परन्तु यह सत्य है कि यदि कोई नकल कर सकता है तो वे आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज हो सकते हैं ॥ ५१ ॥
इस जगत् में अथवा त्रिभुवन में कोई भी ऐसा नहीं है, जो स्थायी हो। अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी आये और गये। अतएव इन गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के, हम सबको छोड़कर जाने पर कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि इस संसार की यह रीति है ॥ ५२ ॥
गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज की महिमा को इस स्तोत्र में यथावत् वर्णन कर सकूँ, ऐसी मेरी विवरणशक्ति मुझमें नहीं है, इसलिये मूर्ख जैसा मैं चुप रहना अब ठीक समझता हूँ ॥ ५३ ॥
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१९४
रमाशङ्कर नामा56, मुनेः स्तोत्र लिखाम्यहो भवेयुर्यदि दोषा मे, क्षमायाः पात्रतां भजे ॥ ५४ ॥
कवेः कृत्यं न वेद्येकं, गुणेष्वेकं न वा पुनः । गुरोरेका कृपां मन्ये वदाम्येवं लिखाम्यहम् ॥५५ ॥
हे तपोधनी ! हे महामुनि !
हे विश्ववंद्य
हे जग के
शुभ वरदान,
हे पूर्ण काम,
तुम गुण निधान,
नित शत-शत वन्दन
नित आराधन
कोटि-कोटि अभिनन्दन !
तुम पावन
गंगा जल समान, तुम कोटि-कोटि
रवि-रश्मि-किरण-से दीप्तिमान !
तुमसे पावन हुई
गगन तक
फैली शीतल
हिम गौरी शंकर
सिद्ध श्रेणि,
तुम थे हे अरिहन्त !
सम्यग्दर्शन,
ज्ञान चरित मय
महोत्तम तीर्थराज - पावन त्रिवेणी, हे पुण्यधाम !
..
हे महामुनि
हे सत्यकाम !
तुमको अर्पित
श्रद्धा के सुमन
दीप अर्चन के,
तुम्हें समर्पित,
अर्घ्य सुवासित
अगुरु धूप
पावन चन्दन के,
हे मृत्युञ्जय,
कालजयी,
अजरामर,
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अहो ! गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के स्तोत्र को मैं रमाशङ्कर नामधारी लिखता हूँ। यदि मेरे इस स्तोत्र में कोई दोष हों तो मैं क्षमा की पात्रता को स्वीकार करता हूँ ॥ ५४ ॥
हे
हे सदानन्द,
हे निर्विकार,
तुम्हें स्पर्श कर
हुई सुपावन सिद्ध भूमि,
वह देवभूमि,
वह तपोभूमि
कवि के कृत्य को नहीं जानता, न कवि के गुणों में से एक गुण को पहचानता हूँ मैं केवल मेरे गुरु महाराज की कृपा को मानता है, जिसके द्वारा में ऐसा कहता हूँ और ऐसी रचना करता हूँ॥५५॥
मस्तक पर रख
देव वृन्द गणइन्द्रशची
रवि-शशि
कृतकृत्य हुई
वह धरा धूलि,
तव चरम-कमल की
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!
तारक वृन्दारकज्योतिमान हैं,
दीप्तिमान हैं,
है त्रिभुवन आलोकित
या उज्ज्वल आलोक तुम्हारा,
युगों-युगों तक
व्याप्त रहेगा
धरा गगन में
तीन भुवन में
सुयश तुम्हारा,
वीणा वाणी,
श्वेता धवला
गाएगी नित
गीत तुम्हारा ।
हे जगद्वंध,
हे जग पूजित,
स्वीकार करो
हम सब जन-जन के
-विज्ञान भारिल्ल
पूजन,
आराधन,
अभिनन्दन,
शत-शत वन्दन !
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
श्रद्धांजलि गीत
प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि, श्रद्धा भरा प्रणाम है। पुष्कर मुनि की पावनता से, अमर हो गया नाम है।
निज व्यक्तित्व कृतित्व साधना, सतत स्नेह सद्भाव से, मुनिवर के प्रति अचल आस्था, उमड़ रही हर गाँव से ॥ उदयपूर में उदित हुए, और उदयपूर में अस्त हुए। भक्त जनों के भव्य भाव, अप्रैल माह में ध्वस्त हुए ।
गोगुन्दा भी गौरवशाली जन्मस्थल अभिराम है। प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि, श्रद्धाभरा प्रणाम है। * अम्बालाल अलौकिक प्रतिभा, पुष्कर मुनि हो अमर हुए। दीक्षा ली "ताराचन्द्र जी से महामुनिश्वर प्रखर हुए। ज्ञान-ध्यान-जप-योग-साधना, सतत् समन्वय जन कल्याण । पांच व्रतों के संबल से ही, नवयुग का अनुपम निर्माण ॥ भरत भूमि की इस विभूति का यही अनूठा काम है। प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि, श्रद्धाभरा प्रणाम है।
"
- शोभनाथ पाठक
दीक्षित श्री देवेन्द्र मुनि जी शिष्यरत्न अनुकूल हुए। गुरु-शिष्य अप्रतिम आभा से श्रमणसंघ के मूल हुए । उदयपूर आचार्य अलंकृत महामहोत्सव गौरववान । पावनता की पराकाष्ठा, गुरुवर का अविरल गुणगान ॥ दो अप्रैल तिरानवे को हुआ अमर यह धाम है। प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि, श्रद्धा भरा प्रणाम है ॥
उसी याद में स्मृतिग्रन्थ, विनम्र चरण में अर्पित है। ज्ञानोदधि का श्रद्धा सागर, पुष्कर हेतु समर्पित है॥
परम पूज्य आचार्यप्रवर के संपादन की यह थाती । पुष्कर मुनि के कीर्तिमान की पुलकित होकर गुण गाती ॥ ऐसे गौरवमयी ग्रंथ से हुआ विभूषित नाम है। प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि श्रद्धा भरा प्रणाम है ।
१. गाने योग्य हो अतः बड़ी मात्रा लगायी हैं।
२. निधन का महीना ।
३. जन्मस्थान
४. बचपन का नाम
५ दीक्षा गुरु
६. शिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी
७. आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी का संपादन।
5500
Jan Education Intentational a
Patte
SPat
19080 100
पुष्कर ज्योति
१९५
-डॉ. गुलाब सिंह दरड़ा
(१)
जिन्दगी भर देश का यह घाव सिल सकता नहीं, फूल जो मुरझा गया अब पुनः खिल सकता नहीं । ठीक है, मिल जायेंगे साधू हमें भी सैंकड़ों किन्तु भारत को ऐसा व्यक्तित्व मिल सकता नहीं ॥
(२)
शत्रुता की अग्नि में वह मित्रता का नीर था, जो दिलों को बांध दे वह प्यार की जंजीर था । विश्व के दोनों गुटों की डोर उसके हाथ थी, वह अकेला था कहाँ, दुनियां उसी के साथ थी । (3)
विरोधी की भावना को जीतता था प्यार से, पर कभी डरता नहीं था तोप से तलवार से । ओस की शीतल सुकोमल पुष्प का अवतार था, किन्तु अवसर आने पर जलता हुआ अंगार था ॥ (४)
वह लगा था रात दिन नव राष्ट्र के निर्माण में, धर्म सेवा का नशा था व्याप्त उसके प्राण में । साम्प्रदायिक द्वेष का सारा हलाहल पी गया, स्वयं शंकर की तरह आदर्श जीवन जी गया ॥
120100202-000
(५)
आज भारत ही नहीं संसार सारा रो रहा, एक फूल झड़ा, सकल उद्यान सूना हो रहा। किन्तु दिव्य सुगन्ध उसकी नष्ट हो सकती नहीं, शब्दों के साथ नभ में वह गूँज खो सकती नहीं ।
(६)
बुझ गई ज्योति मगर आलोक अब भी शेष है, खो गया पुष्कर मगर उसका अमर संदेश है। है उसी की सीख संकट में न हम आहें भरें, जिस तरह हो आज उसके स्वप्न को पूरा करें ॥
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१९६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
(
श्रद्धांजलि
युग-पुरुष ! तुम्हें शत-शत वंदन )
-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
-सुमन्त भद्र
युग-पुरुष! तुम्हें शत-शत वंदन। तेरे अन्तर् में दीप्त हुआ था । दिव्य साधना का तेजस् भालपट्ट पर रहा दमकता
विमल ब्रह्म-रस का ओजस
D D
आँखों से करुणा का अमृत बहता था प्रतिपल ज्यों निर्झर! पीड़ित व्याकुल मानव का मन
हो जाता शान्त जिसे पीकर
MOUse
ओ महाप्रणव के आराधक!
तुमने साधा था अन्तरमन
अदृश्य हो गये आज कहां दर्शन को आकुल हैं जन-जन!
2.0000000000000
पुष्पमित्र पुष्करतीर्थागम श्रमणसूर्य पारमितानन्दन
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयीधर
कीर्तिकाय जिनप्रज्ञास्यन्दन, आप्तकाम अधिगत वैखानस चिदाकाशचर जंगम योगी धृतिवैराग्य यशः श्रीसंयुत् दयाक्षमार्जवधर संयोगी,
दानशीलतपभावपयोनिधि संवरनिर्जरसंगम ध्याता बोधिबीज जितकाम यतस्वी
समितिगुप्तिधर सिद्धिप्रमाता, ऋत स्थितप्रज्ञ मनस्वी अक्षर आशुतोष शिवग्रामी गोचर श्वेताम्बर सुधांशु ध्रुवसंज्ञक सत्यकाम सवर्णि अगोचर,
मृदुल मिताक्षर परमहंसश्रुत संघाराम संघप्रिय सत्विक अनुस्यूत अध्वर्यु अन्वयी
अपरामृष्ट आत्मविद तात्विक देवेन्द्राभिधानचिन्तामणि मुनिसम्राट भव्य लोकोत्तम पुण्डरीकसौरभ विजितेन्द्रिय लोकाकाशसद्य पुरुषोत्तम
मर्यादा-सुमेरु शैलेशी प्रतिमाधर परिमल जिनकल्पी लोकाराध्य ललितश्रुतिविस्तर
परमतितिक्षु मुक्तिसंकल्पी, क्लेशकर्मजित महासमाधिग सिद्धलोकगत विभु अक्षय हो उपाध्याय पुष्कर मुनिसत्तम गुरु गरीय युगमंगल जय हो।
तुम सरस्वती के वरद पुत्र !
भरते शब्दों में प्राण-प्रखर ! तेरे हर स्वर में सतत गूंजता ! जिनवाणी का पंचम स्वर !
100cbbwaalas-0301503005000030-500500055500-
6
पाकर वाणी का अमिय-परस कितनों ने पाया नवजीवन ! कितनों का अन्तर कालुष हर
था बना दिया तुमने कुन्दन
अपनी सिद्धी के अमृत से दिया जन-जीवन को संजीवन अब आज पुकारें तुम्हें यहाँ वाणी आकुल ! अतृप्त नयन !
युग-पुरुष ! तुम्हें शत-शत वन्दन !
L...
-
प्रमाण
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20.003009922602RAC
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V
3000000000000 39500000000000000
। श्रद्धा का लहराता समन्दर
१९७१
उज्ज्वल दिव्य सितारे थे
गुरुदेव पुष्कर प्यारा
-चाँदमल बाबेल
-ताराचंद जैन
उपाध्याय श्री की कृपा से चमन खिला हमारा। गुरु पुष्कर की याद में उमड़ा हिन्दुस्तान सारा॥
'विश्व सन्त' हटाओ पन्त, चतुर्विध संघ की है आवाज। गुरु जी की याद आती आज चमके-चमके जैन समाज॥
'पुष्कर' के पवित्र नीर से, नीड़ हुआ उज्ज्वल हमारा। डूबती नैया, डूबते समाज को, मिला तिनके का सहारा॥
महान् मनस्वी, महान् यशस्वी, महानता उर धारे थे। उपाध्याय पुष्कर गुरुजी, उज्ज्वल दिव्य सितारे थे।
लघुवय में दीक्षा धारण कर, कठिन साधना साधी थी। ज्ञान ध्यान में चित्त रमाया, पूरण आत्म समाधि थी॥ आगम सम्मत भाव आपके, जनता सुनने को आदी थी।
बड़े प्यार से उन्हें सुनाते भाषा सीधी सादी थी॥ दशों दिशायें गुंजित होतीं, बोल-बोल जयकारे थे॥
बैठ पाट पर भव्य भाव से, जब उपदेश सुनाते थे। वाणी-वीणा सुनकर उनको, श्रोता नहीं अघाते थे। सत्य ज्ञान का खोल खजाना, जब सबको दिखलाते थे।
धन्य धन्य के शब्द सभी के, मन से निकले जाते थे। चारों ओर खुशी की लहरें, वाह-वाह करते सारे थे।
गहन ज्ञान का गर्व आपके, मन में कभी न छाया था। व्यक्तित्व आपका परम तेजस्वी, सबके मन को लुभाया था। जो भी आया शरण आपके, धन्य-धन्य कहलाया था।
आचार्य देवेन्द्र मुनि सा, शिष्यरल भी पाया था। चादर महोत्सव सम्पन्न हो, बस यही भावना धारे थे।
'पुष्कर' का पवित्र जल, स्वच्छ, उज्ज्वल और निर्मल । गुरुदेव हुए विरक्त ज्यों कीच से कमल ।।
'ज्येष्ठ', 'तारा' और गुरुदेव पुष्कर प्यारा। देवेन्द्र मुनि शान्त-दान्त, चमकता सितारा।।
180020
सुरेन्द्र और शालीभद्र की छटा न्यारी। ये दोनों हैं पुष्कर की डाली प्यारी॥ Poeople
Facod रमेश, दिनेश, नरेश मुनि हैं अनुचारा। राजेन्द्र मुनि का लगे व्याख्यान अति प्यारा॥
आत्मज्ञान का सम्बल लेकर, संथारा मन भाया था। श्रद्धा सागर उमड़ा उदयपुर, अन्तिम दर्शन पाया था। चैत्र माह का दिवस ग्याहरवां, दुःख दावानल लाया था। दो हजार पचास का संवत् नयनों नीर बहाया था।
जोर से बोलो, मधुर बोलो, गुरुदेव पुष्कर प्यारा। अहिंसा, सत्य पर डटे रहे, झण्डा ऊँचा रहे हमारा॥
GOODOOD
Sat:
युगों युगों तक ऋणी रहेंगे, सबने शब्द उच्चारे थे।
उपाध्याय श्री की कृपा से चमन खिला हमारा। गुरु पुष्कर की याद में, उमड़ा हिन्दुस्तान सारा॥
अध्यात्म योगी परम-प्रभावी, अब दृष्टि नहीं आता है। किन्तु उनका अमर कर्तृत्व, पल पल याद दिलाता है। प्रथम स्मृति दिवस आज अब, यह भी बीता जाता है।
श्रद्धा सुमन समर्पण श्रुतधर! 'चांद' गीत यह गाता है। नहीं भुलाये जा सकते हैं, जो जन-जन को प्यारे थे॥
मस्तिष्क में धर्म का सहारा और हृदय में धर्म के प्रति आस्थायही दो बातें मनुष्य कभी न भूले तो उसका कल्याण होने में देर नहीं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
वाजपला
000000000002900 in Education International
- पापवजाएर For Private Personal use only
D D
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
स्तुति-पञ्चविशंतिका
-डॉ. दामोदर शास्त्री उपाचार्य व अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ (शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार)
जयपुर (राज.)
येषां सुशिष्यो बहुशास्त्रविज्ञः, देवेन्द्रनामा मुनिरद्य पूज्यः। श्वेताम्बर-स्थानकवासि-साधु, संघाधिपाचार्यपदे चकास्ति। जिनके श्रेष्ठ शिष्य पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि, जो अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं और आज 'जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण-संघ' के अधिपति 'आचार्य' पद पर शोभित हो रहे हैं।
महाव्रतानां परिपालनाय, निर्दोषरीत्या सततोद्यता ये। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह-इन पाँच) महाव्रतों के निर्दोष रीति से पालन हेतु जो सदैव उद्यत-तत्पर रहा करते थे, उन उपाध्याय-प्रवर स्व. पूज्य श्री पुष्कर मुनिवर महाराज को मैं | भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(२) समस्तजैनागम-पारगा ये, स्वाध्याय-सुध्यान-तपोनुरक्ताः। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
जो समस्त जैन आगमों के पारंगत (विद्वान्) थे, तथा स्वाध्याय व प्रशस्त ध्यानरूपी तपश्चरण में अनुरक्त रहा करते थे, उन उपाध्याय-प्रवर स्व. पूज्य श्री पुष्कर मुनिवर महाराज को मैं । भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
अन्येप्यनेके सुयशोऽर्जयन्तः, शिष्य-प्रशिष्या विहरन्ति यस्य। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ जिनके और भी अनेक शिष्य-प्रशिष्य आज उत्तम कीर्ति अर्जित करते हुए विचरण कर रहे हैं, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार वन्दना करता हूँ।
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तत्त्वज्ञ-विद्वज्जन-पूजिता ये, भव्यात्म-सम्बोधन-तत्पराश्च। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ जो तत्वज्ञानी विद्वान् व्यक्तियों द्वारा पूजित थे, तथा भव्य प्राणियों को उद्बोधन देने में तत्पर रहा करते थे, उन उपाध्याय-प्रवर स्व. पूज्य श्री पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
विद्योपदेशेन जगत्यहिंसा-धर्म प्रचाराय समुद्यता ये। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
जो (अपने) धार्मिक उपदेश द्वारा संसार में अहिंसा-धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु उद्यत रहा करते थे, उन पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व, पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(४)
(९) सम्मानिता राष्ट्रपति-प्रबुद्धैः ये विश्वसन्तेति विशेषणेन। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
जो (दिल्ली में) भारत के प्रबुद्ध राष्ट्रपति (ज्ञानी जैलसिंह जी) द्वारा 'राष्ट्रसन्त' इस विशेषण से सम्मानित हुए थे, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कारवन्दना करता हूँ।
मोहान्धकारापहृतौ दिनेशान्, परात्म-कल्याण-समुत्सका ये। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
जो (लोगों के) अज्ञान-अन्धकार को नष्ट करने में 'सूर्य' के । (समान) थे, और स्व-पर कल्याण में समुत्सुक-इच्छुक रहा करते थे, उन उपाध्यायप्रवर स्व. पूज्य श्री पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार वन्दना करता हूँ।
(५) येषां सुकीर्तिः प्रथिता सुशिष्यैः, चारित्रनिष्ठै : सुबुद्यैर्विनीतैः। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ विनीत, विद्वान् व चारित्र-सम्पन्न शिष्यों के द्वारा जिनकी कीर्ति (लोक में सर्वत्र) विख्यात थी, उन उपाध्याय-प्रवर स्व. पूज्य श्री पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार वन्दना करता हूँ।
(१०)
यैर्बोधिता भव्यजना अनेके, दुस्त्याज्य-पापाद् विरताः प्रजाताः। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ जिनके द्वारा उद्बोधन प्राप्त कर, अनेक भव्य जन कठिनता से छूटने वाले पापों से विरत हुए थे, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
(११)
कृता अजैना अपि बोधियुक्ताः, अणुव्रतानुष्ठिति तत्परा यैः । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥ जिन्होंने अनेक अजैनों को भी सम्यक्त्वयुक्त बनाकर, अगुव्रतों के पालन में तत्पर बना दिया था, उन पूज्य उपाध्याय प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(१२)
सञ्ज्ञान गंगा परिपूत-चित्ताः, चारित्र - सद्भूषणभूषिता ये । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान् ॥
प्रशस्त ज्ञान-विज्ञान की गंगा से जिनका मन निर्मल पवित्र था, और जो सच्चारित्र रूपी भूषण से विभूषित थे, उन पूज्य उपाध्याय- प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(१३)
नाम।
गीतार्थ- सर्वश्रमणेषु येषाम् तपस्विनामाद्रियते स्म पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान् ॥ समस्त 'गीतार्थ' श्रमण मुनियों में जिन तपस्वीराज का नाम आदर से लिया जाता था, उन पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
।
(98) निर्मानलोभाः करुणा-समुद्राः, अकिञ्चना मार्दवमूर्तयो ये पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥ जो मान व लोभ से दूर थे, करुणा के सागर थे, अकिञ्चन (ममत्व-परिग्रह से रहित) थे, तथा मृदुता की तो साक्षात् मूर्ति थे, उन पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(१५)
विद्यानुरागो गुणि-पक्षपातः खले समत्वं प्रथितं च येषाम् । पूज्यानुपाध्यायवरानू स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान् ॥
जिनका अनुराग विद्या के प्रति रहा करता था, गुणियों के प्रति जिनका प्रेमानुराग रहता था, और दुष्ट जनों के प्रति तो जिनका समता भाव प्रसिद्ध था ही, उन पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(१६)
धीराग्रगण्याः सुधियां वरिष्ठाः, मनस्विनश्चात्म- गवेषिणो ये । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभवत्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान् ॥
जो 'धीर' (अविचल साधकों) में अग्रगण्य थे, बुद्धिमानों में वरिष्ठ ज्येष्ठ थे, मनस्वी थे, और आत्म-गवेषी (शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति हेतु उद्यत ) थे, उन पूज्य उपाध्यायप्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(१७)
श्वेताम्बर स्थानकवासि-साधु, संघे समेषां परमादृता ये। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥ (जैन) श्वेताम्बर स्थानकवासी साधु-संघ में जो सबके लिए परमादरणीय थे, उन पूज्य उपाध्याय प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार -वन्दना करता हूँ।
(१८)
यदीय- माङगल्यवचः श्रुतिर्हि शुभं जनानां व्यदधात्समेषाम् । । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान् ॥ जिनकी 'मंगलीक' वाणी को सुनने से सभी लोगों का शुभ-कल्याण होता था, उन पूज्य उपाध्याय प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार वन्दना करता हूँ।
(१९) (२०)
संकीर्तितोदयपुरे स्वमनुष्यदेहं
संलेखनामनुसरन्त उपात्तधैर्याः । त्यक्त्वा प्रशस्त-शुभकर्मफलं स्वकीयं,
प्राप्तुं गता यतिवरा अमरालयं ये॥
प्रादुः सुभक्तिभरपूर्णजना असंख्याः,
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येभ्योऽश्रुपूर्णविनयाञ्जलिमेत्य तर्हि ।
पूज्यान् तपः सुचरितोर्जितकीर्तिसारान्
तानानतोऽस्म्यनघ- पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥ प्रसिद्ध (राजस्थान में झीलों की नगरी) 'उदयपुर में धैर्यपूर्वक संलेखना (संधारा) विधि का अनुसरण करते हुए मनुष्य देह का त्याग कर, अपने प्रशस्त शुभ कर्मों के फलस्वरूप जिन्होंने स्वर्ग (देव) गति प्राप्त की थी, और उस समय भक्ति-भावों से भरे असंख्य लोगों ने आकर जिन्हें अधुपूर्ण विनयाञ्जलि समर्पित की थी, तपस्या से उत्कृष्ट कीर्ति अर्जित करने वाले उन पूज्य उपाध्याय- प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्ति-पूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
(२१)
सिद्धान्तनिष्ठाऽनुपमा यदीया, विनम्रता चार्जवता विशिष्टा । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥ जिनकी सिद्धान्त-निष्ठा अनुपम थी, विनम्रता व ऋजुता विशिष्ट थी, उन पूज्य उपाध्याय प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार - वन्दना करता हूँ।
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(२२) शुद्धोपयोगे निरता अभूवन् किं बोद्यता ये हि शुभोपयोगे । पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर- संयमीन्द्रान् ॥
जो या तो 'शुद्धोपयोग' (ध्यान-साधना) में संलग्न रहा करते थे, या फिर शुभोपयोग (प्रशस्त प्रवचन आदि कार्यों) में तत्पर रहा करते थे, उन पूज्य उपाध्याय प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार - वन्दना करता हूँ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
(२३)
चमकते इक सितारे थे जनेषु कारुण्यदृशं वहन्तः, ये लोककल्याणकरा अभूवन्। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
(कव्वाली) प्राणियों के प्रति करुणा-दृष्टि रखते हुए जो जन-जन के
-श्रीमती विमला देवी बोथरा कल्याणकारी होते थे, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर
मंडी गीदड़वाहा (पंजाब) को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
किये जिन काम न्यारे थे, किये जिन काम प्यारे थे, (२४)
'श्री पुष्कर मुनीश्वर जी', चमकते इक सितारे थे।। ज्ञानस्य गाम्भीर्यमुदारदृष्टिम्, तपःप्रियत्वं च यदीयमासीत्।
'उपाध्याय' का पद पाकर, पढ़ाकर संत सतियों को, पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥
बनाये बहुत से पण्डित, तथा वक्ता करारे थे।२। जो ज्ञान की गम्भीरता व उदार दृष्टि के साथ-साथ, तपस्या के प्रति
नहीं था द्रोह दिल में कुछ, नहीं था मोह दिल में कुछ, रुचि रखते थे, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व. पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करता हूँ।
कपट की झपट से खुद को, किये बैठे किनारे थे।३। (२५)
धनी निर्धन कोई जन था, दुखी या दीन दुर्मन था,
किसी काया रुग्ण तन था, सबल सबके सहारे थे।४। सदेव-शास्त्रेष्वनुराग-भावः, येषां प्रसादाद् हृदि मादृशानाम्। पूज्यानुपाध्यायवरान् स्वभक्त्या, नमामि तान् पुष्कर-संयमीन्द्रान्॥ ।
दया की दिव्य मूरत थे, क्षमा की साफ सूरत थे,
जगत की हर जरूरत थे, अहं अघ सब विसारे थे।५। जिनके कृपा-प्रसाद से मेरे जैसे लोगों को सद्देव व सत्-शास्त्रों के प्रति हार्दिक अनुराग जागृत हुआ था, उन पूज्य उपाध्याय-प्रवर स्व.
कठिन जो और खारे थे, शब्द सारे विसारे थे, पुष्कर मुनिवर को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार वन्दना करता हूँ।
वचन जब भी उचारे थे, सुधा से ही उचारे थे।६। न देखा वृद्ध या बच्चा, न देखा कम अधिक अच्छा,
न देखा सरल या सच्चा, सभी सम-सम निहारे थे।७। निर्झर बना महासागर
कि इकसौतीस बढ़-चढ़कर, किताबें हैं लिखीं सुन्दर, -दिलीप धींग, बम्बोरा
रहे तर बहुत नर पढ़कर, बहुत पहले भी तारे थे।८। मेवाड़ी पहाड़ी चट्टानों से फूटा निर्झर,
जिन्होंके नैन तारे थे, जिन्हों को परम प्यारे थे, उपाध्याय पुष्कर मुनिजी प्यारा नाम है।
मा ‘बाली' के दुलारे थे, पिता 'सूरजमल' तुम्हारे थे।९। सहज सजग बन बहता रहा सतत,
वह 'गुरु पुष्कर नगर' प्यारा, जहाँ पर जन्म था धारा, बाधाएँ घुमाव बन गये तीर्थ धाम है।
कि उगनी सौ उन्हत्तर में, मुदित जन बहुत सारे थे।१०। रत्नत्रय की महक, णमोकार की चहक,
इक्यासी में ली दीक्षा जब, बड़े थे लोग गद्गद् तब, प्रवचनों की कूहूक, लेगे अभिराम है,
सुगुरु 'तारा' तुम्हारे थे, गुणी ज्ञानी जो भारे थे।११। प्यासे आये जब कभी, पूर्ण तृप्त हुए सभी,
'मुनि देवेन्द्र जी' प्यारे, तुम्हारे शिष्य हैं भारे,
हमेशा आपने अपने, इन्हीं पर प्राण वारे थे।१२। "दिलीप" कालजयी महासागर को प्रणाम है।
व्याख्यानी न आपसा देखा, न ध्यानी आपसा देखा,
न ज्ञानी आपसा देखा, कवीश्वर आप न्यारे थे।१३। धूल सुरभित हुई हुआ सुरभित पवन, लग रहा पत्थरों में खिला था सुमन।
जिन्होंने आप के सारे, सदा बिगड़े संवारे थे,
परम ही आपको प्यारे श्री त्रिशला-दुलारे थे।१४। चलते-फिरते तीर्थ थे गुरु पुष्कर मुनिअध्यात्म योगी को कोटि-कोटि नमन।
कि 'विमला बोथरा' चरणन, झुकाकर सिर करे वंदन, बिताकर संयमी जीवन, सुरों के पुण्य धारे थे।१५।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
जगत हितार्थ श्री पुष्कर मुनि
:- श्रीमती विजयकुमारी बोध बी.ए., बी. एड मंडी गीदड़बाहा (पंजाब)
(दिव्य दोहा द्वादशी)
जगत हितार्थ विशिष्ट जो, कर जाते हैं काम । अमर हुआ है जगत में, उनका ही तो नाम ॥ १ ॥
"उपाध्याय पुष्कर मुनि” ऐसे ही थे सन्त । जग-जन हित जिनने यहाँ, काम किये अत्यन्त ॥ २ ॥
ज्ञानाराधक आपसा, मिलना मुश्किल अन्य । नामी ग्रामी आप थे, कलम कलाधर धन्य ॥ ३ ॥
जिनमें सेवा, स्नेह है, दया, क्षमा, तप, त्याग । "जैन कथायें" के लिखे इकसी ग्यारह भाग ॥४॥
देश-भक्ति, प्रभु-भक्ति है, शक्ति, शील है, दान। क्या बतलायें और है, कितना इनमें ज्ञान ॥ ५ ॥
आध्यात्मिकता का भरा, जिनमें कोरा ज्ञान। ग्रन्थ लिखे हैं आपने ऐसे कई महान् ॥६॥
"
भाषण में भी आप थे, रखते बड़ा कमाल। सुन करके व्याख्यान को, गूँज उठे था हाल ॥७॥
उठ करके व्याख्यान से, जाए कौन चला । ऐसी थी बस आपकी अद्भुत कथा कला ॥८॥
,
जैनागम के बिन कभी, करते थे न बात। जैनागम स्वाध्याय में लगे रहे दिन-रात ॥ ९ ॥
योग-साधना आपकी भी थी बड़ी कमाल घंटे निश-दिन ध्यान में, देते कई निकाल ॥१०॥
नहीं गुणों का आपके, आ सकता है अन्त । सचमुच ही थे आपजी, सुलझे सच्चे सन्त ॥११॥
'विजयकुमारी बोथरा', मंडी गीदड़बाहा । भेंट शब्द दो कर रही, मन में भर उत्साह ॥ १२ ॥
हे गुरुदेव !
आकाश नहीं, पर अनन्त जो, सागर नहीं, पर अथाह जो, पर्वत नहीं, पर विशाल जो, भगवान नहीं, पर इंसान जो, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे गुरु को, चन्दन मेरा, हे गुरुदेव!
धर्म का प्रचारक जो, ज्ञानी और विचारक जो, स्नेहशील और दानी जो,
विनम्र और विवेकी जो, ऐसे ज्ञानी को, ऐसे गुरु को, वन्दन मेरा हे गुरुदेव !
महावीर का अनुयायी जो, त्यागी और तपस्वी जो, श्रमणसंघ का गुरु जो,
ताराचन्द्र का शिष्य जो,
राजस्थान का केसरी जो, महावीर नहीं, पर पुष्कर जो, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे गुरु को, बन्दन मेरा, हे गुरुदेव!
देह त्यागी, आँखें त्यागी,
न त्याग पाए मेरा हृदय हे गुरुदेव ! विलीन हुई जब आत्मा परमात्मा में, छू गई मुझे यह हे गुरुदेव ! तुम्हें मिल गई मुक्ति,
बाँध गई वही, मुझे तुमसे हे गुरुदेव ! ऐसे देवलोकी को, ऐसे गुरु को, नतमस्तक हो, वन्दन मेरा, हे गुरुदेव ! हे गुरुदेव ! हे गुरुदेव !
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- संदीप 'विकी'
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२०२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
श्रद्धा-सुमन
पुष्कर परम पुनीत ग
-चन्दनमल बनवट, सीहोर (म. प्र.)
-दर्द शुजालपुरी
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"पुष्कर मुनि" स्मृति तुम्हारी आती है।
इस भारत की धरती अश्रु बहाती है।
द्वीपों में ज्यों श्रेष्ठ है श्री पुष्करवर द्वीप, गुरुओं में अति श्रेष्ठ हैं,
पुष्कर परम पुनीत।
ज्योति तुम्हारी से प्रज्वलित जग सारा
तुम ऐसे स्थापित जैसे ध्रुव तारा
सरस्वती तुमको आशीष सुनाती है!
पुष्कर मुनि स्मृति तुम्हारी आती है!
तीर्थों में पुष्कर बड़ा महातीर्थ है एक, उपाध्याय पुष्कर गुरु
पूर्ण तीर्थ हैं नेक।
तुमने “सिमटारा" भूमि को धन्य किया
"ताराचंद्र गुरु" ज्ञान-गंग का पान किया
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2-9:29.9 SHORO
वाणी तुम्हारी भक्ति-भाव जगाती है!
पुष्कर मुनि स्मृति तुम्हारी आती है!
वाणी में अति मधुरता, गरजें जैसे मेघ, दिग्विजयी बनते गए
कर कर अश्वमेध। गंगा से गंभीर हैं, सरस्वती समवेत, हिमगिरि से उत्तुंग हैं,
हीरक कणि से श्वेत।
तुम योगी तुम साधक तुम अविनाशी हो
कोटि-कोटि जैनों के हृदय निवासी हो
बस्ती-बस्ती यश-गाथाएँ गाती हैं!
पुष्कर मुनि स्मृति तुम्हारी आती है!
तुम उदार तुम सहज सरल और निर्मल थे
तुम मनीषियों, विद्वानों के सम्बल थे
श्रमणसंघ के स्तंभ हैं, प्रभु के मानस्तंभ, अगणित भक्तों के सुघड़
सुदृढ़ हैं अवलम्ब।
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"शिष्यरत्न देवेन्द्र" तुम्हारी थाती है!
पुष्कर मुनि स्मृति तुम्हारी आती है!
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20030
"उपाचार्य जी के गुरु" उपाध्याय वर श्रेष्ठ, सहन भक्त प्रातः जपें
"पुष्कर" अरु “गुरु ज्येष्ठ''।
आस्था ही वह आधार है जिस पर धर्म का भवन खड़ा होता है। सब ओर से निराश व्यक्ति अनायास ही धर्म की ओर झुकता है। परम नास्तिक भी संकट पड़ने पर भगवान को मानने लगते हैं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
धन्य मानता मैं स्वयं सहपाठी गुरुराज, "चंदन" चरणों में नमित कल परसों व आज।
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया
निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास
अनंत में
न जाने कहाँ खो गया ?
शिष्य गण
भक्त जन
करते रहे पुकार गुरुदेव !
क्यों हो गए चिर निद्रा में लीन ?
एक बार तो देखो हमको
अपने नयन उघार
ओ जग के तारणहार ! गुरुदेव !
किस गहन चिन्तन में लीन हो ?
क्या खोज रहे हैं-आगम-मोती ?
क्या निहार रहे हैं- आतम-ज्योति ?
उठो बरसाओ
गुरुदेव !
आप अपनी अमृतमय प्रवचन-धारा
जिसका करें हम श्रवण
मिट जाये सबका मिथ्याभ्रम !
आप देख तो रहे हैं न ?
कितने विकल/विकल हैं हम
ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया
अखियाँ अ-मोती बरसाती बोलिये न
“दया पालो पुण्यवान्"" आनन्द है पुण्यवान्"
गुरुदेव ! आज आपने यह
मीन व्रत क्यों ले लिया?
अरे! 'बापजी,' को क्या हो गया......॥
एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया। निज व्यक्तित्व...
नीड़ का प्राण-पंछी जो चल पड़ा
अनंत की यात्रा पर
छोड़ नश्वर देह को इसीलिए रहे
सबके प्रश्न अनुत्तरित !
-भद्रेश कुमार जैन (सा. रत्न, एम. ए., पी-एच., डी.) (कार्यरत), ब्यावर
व्यक्ति चला गया
व्यक्तित्व रह गया
दीप बुझ गया
प्रकाश सबको दे गया
बुझ गई सद्गुण अग्रवर्तिका
सुवास की लहरें
कर गई विकीर्ण।
कौन कहता है
ये चले गए?
क्रूर काल के हाथों
छले गए ?
मैं कहता हूँ
वे आज भी हैं अमर !
उनकी यशोपताका
फहर रही फर फर
गूँज रहा है
परम श्रद्धेय राष्ट्रसन्त
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज का नाम
आज भी घर-घर ।
क्योंकि वह
जन-जन के मानस में
बीज धर्म का बो गया........।
एक ज्योतिर्मय जीवन
तिरोहित हो गया
निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास
अनंत में न जाने कहाँ खो गया.
विक्रमी संवत् १९६७ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को
उदयपुर जनपद में
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गोगुन्दा निकट ग्राम 'सिमटारा' में लेकर जन्म वंश, मात-पिता को किया धन्य!
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी-मराठी! गुजराती-कन्नड़-राजस्थानी !! इन भाषाओं पर किया एकाधिकार बन गये फिर तो काव्यकार साहित्यकार प्रवचनकार!
नाम था अम्बालाल बनेगा छहकाय का प्रतिपाल नियति ने लिख दिया यही उन्नत भाल पर!
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वाणी में अद्भुत तेज सिंह-सी गर्जना शब्दों का सरस प्रवाह श्रोता, सुन-सुन कर हो जाता निहाल!
बचपन में ही विरक्त रहने लगा गुरुदेव श्री ताराचंद्र जी महाराज की प्रवचन-धारा में जब किया अवगाहन वैराग्य रंग से रंजित होने लगा सुषुप्त आतम-भान जगने लगा! तज दियामात-पितु का दुलार आ गयागुरुदेवश्री की चरण-शरण! करनी जो हैपावन प्रव्रज्या ग्रहण! विद्याजीवी ब्राह्मण कुल में लेकर जन्म आजीवन ग्रहण किया-ब्रह्मचर्य! और भगवान की इस सूक्ति को "बंभचेरेण होइ बम्भणो" को सार्थक कर गया १९८१ विक्रमी संवत् ज्येष्ठ शुक्ला दशमी के दिन वह किशोर/संयमित हो गया......... एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया............
वीरों की भूमि (मेवाड़) का ये वीर सबको कहताबन जाओ महावीर! हरलो जन-जन की पीर।। प्रवचन सुनने उमड़ती भीड़ अपार जन संकुल ही जन संकुल। सम्पर्क में जो भी आया गुरुवर के यादों की पिटारी संग ले गया जन-जन के अन्तस्थल में गुरुवर पुष्कर का सुवचन उड्रंकित हो गया............॥
गुरुदेव की अति सुखद छत्रछाया में गुरुदेव के ज्ञान-वर्षण से अणगार “पुष्कर" निज ‘ज्ञान पुष्करिणी' भरने लगा। सीखा-आगम-ज्ञान।
एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनंत में। न जाने कहाँ खो गया.......॥ पाँव-पाँव चलने वाला सूरज गाँव-गाँव, नगर-नगर, डगर-डगर फैलाकर धर्म की रोशनी आया झीलों की नगरी उदयपुर कार्यक्रम थानिज सुशिष्य विद्वद्वर्य देवेन्द्राचार्य का आचार्य पद चादर महोत्सव! कार्यक्रम हो गया सानन्द-सम्पन्न!
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
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उपाध्यायश्री हुए कुछ अस्वस्थ बनने लगी देह निर्बल आत्मा सबल तन में व्याधि मन में समाधि
शिष्यगण पर हुआ-अनभ्र वज्रापात भक्त जन सकल संघ भी स्तब्ध रह गया!
चतुर्विध संघ से कर-क्षमापना कर संलेखना ग्रहण किया संथारा
की आलोचना निज आत्म की अहर्निश आत्मा में रमण रागद्वेष से परे समताभाव में लीन अध्यात्मयोगी हो गया निर्मल भावों में लीन!
विक्रमी संवत् २०५० चैत्र शुक्ला एकादशी २ अप्रैल ईस्वी सन् १९९३ को वह संयमी-भानु सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्वत श्रृंखलाओं की
ओट में खो गया। संयमी जीवन पर चढ़ा संथारे का 'शिखर' गुरु 'पुष्कर' चिर निद्रा में सो गया.......॥ एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनन्त में न जाने कहाँ खो गया...
प्रशांत मुख मुद्रा 'सागर वर गंभीरा चन्द्र-सा निर्मल देखो धो रहा है तपाग्नि से कलिमल संसार-सागर से कमलवत् निर्लिप्त हो गया.... एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनंत में न जाने कहाँ खो गया...॥
आचार्यश्री मानतुङ्ग जी ने पाई थी मुक्ति कारागृह से कर आदि-जिन की भक्ति! गुरुवर ने भी संलेषना के माध्यम से ४२ घंटे में ही देह-कारागार से कर लिया स्वतंत्र निज आतम को देवेन्द्राचार्य हतप्रभ रह गए
भारत का जन-जन उदयपुर का कण-कण झीलों में करती नर्तन लघु-लघु लहर कहती है मानो हे गुरुवर आप थे, रहेंगे
और हैंवंदनीय! दर्शनीय!! पूजनीय-अर्चनीय!! अभिनंदनीय-प्रशंसनीय!!! क्योंकि आप थे"संयम सुमेरु"
म समेत साधना के पथ पर आरूढ़ होने के बाद कभी पीछे मुड़कर देखा तक भी नहीं। आप थे“अध्यात्मयोगी"
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सदा जप-तप ज्ञान-ध्यान में रहते अहर्निश लीन! आप थे
"महान् धर्म प्रचारक”
भारत वर्ष में कर पाद विहार
जनता में फूँकी
एक नूतन चेतना!
आप थे
"राष्ट्रसन्त"
जन-जन के
धर्ममयी विचारों के उन्नायक ! गुणों का महान् पुष्कर-तीर्थ अनेकानेक भव्य प्राणियों के जीवन का कलिमल धो गया।
एक ज्योतिर्मय जीवन.....॥
प्रथम पुण्य तिथि पर हे युगस्रष्टा ! आत्मद्रष्टा !!
स्वीकारो यह भावनाआप जहाँ कहीं भी हों चिर-शांति प्राप्त करें
दूर गांव से
स्मृतियों के पंख पर आती हुयी
"पुष्कर" वचनों की आभातरंगों को मैं
जब सुन पाता हूँ तो
काले काले बादलों से भरा हुआ आकाश छँट जाता है
झूम-झूम कर स्नेह वर्षा होने लगती है........... पंख फैलाये उड़ान फरते पंछी,
झूम झूम कर नहाते हुए पेड़,
रोम रोम से सिहरन भरतीगंध भरी मस्त पुरवाई.
मुझे जीवन का एक नया संगीत सुनाने लगते हैं.
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......
करें वरणशाश्वत सुखों को !
महामना
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी महाराज साहब को
भावभीनी श्रद्धाञ्जलि ! हार्दिक गुणा अलि!!
निर्मल कुसुमाञ्जलि !!! ज्ञान-दर्शन- चारित्र-तप-रूप गुरुदेव को
हार्दिक शतशः वन्दन !
सहस्रशः अभिनन्दन !!
उपाध्यायश्री
गुरुवर "पुष्कर" के गुणगान से
मम लेखनी का कण-कण
पावन हो गया......॥ एक ज्योतिर्मय जीवन तिरोहित हो गया निज व्यक्तित्व की छोड़ सुवास अनंत में न जाने कहाँ खो गया... न जाने कहाँ सो गया
!!
पुष्कर मुनि की पुरवाई
"पुष्कर" मुनि ने कहा था, जो दूसरे को बदलने से पहले स्वयं को बदल लेता है,
वह सच्चा सुधारक है...
- प्रा. जवाहर मुथा, अहमदनगर
निसर्ग, पेड़, पौधे, वर्षा, फूल, फूल, कलियाँ नदी प्रवाह सब बदल लेते हैं, पहले अपने आप को !
वे सच्चे सुधारक हैं, और फिर वे कहते हैं कि इस तरह बदलो की दुनिया के काम आ सकेको.......
पुष्कर मुनिजी के सारे वचन जलतरंग की तरह बजते हुए तालाब जैसे हैं......
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श्रद्धा का लहराता समन्दर
२०७
कजली के दर्द भरे गीत, धानी चूनर की हँसी, मेंहदी की मनभावनी गंध, सारे जैसे उनके वचन-विथा में पिरोये हुए थे......... फिर एक बार पुष्कर मुनि ने कहा था, "जो जितना बुद्धिमान होगा, वह उतना ही श्रद्धालु और विश्वासू होगा". उनके ये शब्द रस के संवाद बन गये.. साँसों में जिस तरह छंद गूंजते रहे..... एक बात सही है कि जिन्दगी तूफान के पत्तों की तरह होती है
वह किसको क्या दे-ले सकती है...... लेकिन ऐसे तूफान में ठहराव आ जाता है जब पुष्कर मुनि जैसे तपस्वी का आगमन होता है..... ठीक ही कहा था मेरे मन ने तब कि आयु की यमुना पर पुष्कर मुनि का जीवन ताजमहल के भाँति था नितांत सुंदर, रमणीय, और सहज.... मैं उन्हें शत शत वंदन करता हूँ कि आप फिर आयें और हमें जीवन की नयी सीख दें।
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गुरु पुष्कर दीन-दयाला
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-नवरतनमल सूरिया
गुरु पुष्कर दीन दयाला, जीवन था भव्य निराला।
दिव्य साधना से जिनके, अन्तर में भया उजाला । गुरु पुष्कर...
कभी न उलझे मोह माया में, भौतिकता से दूर रहे, लघु वय में ही सन्त बने, और तप संयम में सुर रहे।
रायचुर चातुर्मास में, पद उपाध्याय सम्भाला ।। गुरु पुष्कर...
कोई न खाली हाथ लौटता, द्वार आपके जो आता, सामायिक माला नियम के, कुछ मोती वह पा जाता।
कई दुखी व्यसनी थे उनको व्यसन मुक्त कर डाला। गुरु पुष्कर...
कहीं मिटायी फूट कहीं पर जीवों के बलिदान रुके, कहीं किया निर्भय लोगों को, कहीं विरोधी आन झुके।
कहीं जुड़ी विद्वान परिषद, कहीं धार्मिक शाला ।। गुरु पुष्कर...
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जैन धर्म प्रभावना हेतु, कथा भाग तैयार किये, तारक ग्रन्थालय की हुई स्थापना कई ऐसे उपकार हुए।
जैन साहित्य का मान बढ़ा, जन जन ने पढ़ डाला। गुरु पुष्कर...
अन्त समय उदयपुर शहर में नव इतिहास बनाया था, दो सौ साधु साध्वी के बीच में संथारा सिंझाया था।
तारक गुरु की ज्ञान बढ़ी, नवरतन जपता माला॥ गुरु पुष्कर...
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औचक अंधेरे में
फिर डूब गये हैं हम
अत्तर आकाश में अश्रु
की
उमड़ रही हैं अनचाही घटाएँ
भीड़ में घिर के भी
सन्नाटों में कैद हो गये हम आज
लगता है सूरज में कल जैसी
आज चमक नहीं है
जलते दीपों में वो दमक नहीं है
हवाएँ चल रहीं मगर
साँस लेने का मन नहीं है।
बगिया वही है मगर
जिसकी सौरभ प्रसन्न होते थे सब
उसमें वह सुमन नहीं है।
आपकी सदा जय हो!
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धरती रोई, अम्बर रोया, रोया है ऊपर वाला। बीच भंवर में छोड़ चले आप, किस्मत में पड़ गया ताला ॥
आपने उम्र साधना जो की इतिहास हमेशा गायेगा।
"
आपकी पुनीत प्रेरणाओं पर, युग अपना शीश झुकायेगा ॥
श्रद्धाञ्जलि प्रीति पुष्प
पुष्कर सूख गया है नियति के हाथों फूल स्मृतियों को संजोये खड़े हैं। भ्रमरों का बन्द है गूँजन तितलियों की शान्त है धड़कन चलता फिरता पुष्कर देखते देखते
झीलों की लहरों में खो गया
श्रद्धा के
मेरे पास सिर्फ रह गये हैं आँसू
जो स्मृति आने पर छलकते हैं
भावों के सुमन खार के मध्य खिलते हैं।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
-सीता पारीक "पूजाश्री, विजयनगर (अजमेर)
मन बोलता है हर बार
हे महामानव तुम्हारे जग पर कई
अनगिनत हैं उपकार
आपकी सदा जय हो! जय हो! जय हो!!
सुमन समर्पित करते हुए
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कोमलता आपके कण-कण में थी, जागरूकता रहती थी क्षण-क्षण | अपूर्व साधना जो आपने की, चमकाया जग का हर कण-कण ॥
-मनोज कुमार
दीप जो आपने जलाया, वो सदा जलता ही रहेगा। साधना का जो चमत्कार दिखाया, वह सदा फलता ही रहेगा ।।
'जैन 'मनस्वी',
भारत की ओ दिव्य विभूति, मैं श्रद्धा के गीत गाऊँगा । वन्दन कर आपके चरणों में श्रद्धा के पुष्प चढ़ाऊँगा ।
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| श्रद्धा का लहराता समन्दर
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गुरुदेव के प्रति राज के उद्गार
पुष्कर गुरु के चरणों में, अन्तर के उद्गार। जहाँ कहीं विद्यमान हों, वन्दन करें स्वीकार ॥१॥
देश देशावर घूमकर, स्वपर किया कल्याण। उपाध्यायपद पा लिया, अध्यात्म योगी महान् ॥१४॥ अध्यात्म योगी आप थे, किये करोड़ों जाप। जो भी आया शरण में, मिट गया सब सन्ताप॥१५॥
इस जीवन पर आपका, सदा रहा उपकार। भूल नहीं मैं पाऊँगा, वन्दन बारम्बार ॥२॥
पुष्कर गुरुवर आपतो, भक्तों के भगवान। श्रमण-संघ की आपने, खूब बढ़ाई शान ॥३॥
श्रमणसंघ में आपका, गौरव मय था स्थान। महावीर के शासन में, चमके भानु समान ॥१६॥
उपकारी गुरुदेव को, नित्य नमाऊँ शीश। अपना भी उद्धार हो, माँगू यह आशीष॥४॥
पुष्कर गुरुवर आपके, हित मित मीठे बैन। श्रमणसंघ को आपने, बहुत बड़ी दी देन।।१७।।
शिष्य रत्न हैं आपके, आचार्यश्री देवेन्द्र। श्रमणसंघ के आचार्य को, वन्दन करे राजेन्द्र ॥१८॥
उपाध्याय पुष्कर गुरु जिनशासन के ताज। विनय सहित वन्दन करे, शीश झुका यह "राज"॥५॥
पुष्कर गुरु के शिष्य हैं, श्रमणसंघ सरताज। आचार्यश्री देवेन्द्र पर, हम सबको है नाज॥१९॥
गुरुवर आप महान थे, किस विध करूँ बखान। आत्मज्ञान समदर्शिता, ज्ञानवान गुणवान ॥६॥
चादर का समारोह था, उदयापुर के माय। चार तीर्थ का मेला था, सबका मन हरषाय ॥२०॥
आधार स्तम्भ गुरुदेव थे, इस जीवन के आप। चरणों का सेवक बनूँ, मिटे पाप सन्ताप॥७॥
दोसो ऊपर सन्त सती, लाखों थे नरनार। आचार्यश्री देवेन्द्र को, सौदा संघ का भार ॥२१॥
इस जीवन पर सदा रहा, गुरुवर का उपकार। पामर प्राणी 'राज' है, करदो बड़ा पार ॥८॥
चादर अर्पण हो गई, हो गये सब शुभ काम। आशीष देकर आपतो, पहुँचे शिव सुख धाम।।२२।।
तन से मन से वचन से, करता हूँ गुणगान। गुरुवर के गुणगान से, हो जावे कल्याण॥९॥
तारक गुरु ग्रन्थालय में, बन गया पावन धाम। पुष्कर गुरुवर आपतो, कर गये जग में नाम ॥२३॥
नान्देशमा के नन्द थे, समटाल के सन्त। दीक्षा ली जालोर में, बने सन्त भगवन्त॥१०॥
तरयासी वर्ष में, त्यागी नश्वर देह। अजर अमर यह आत्मा, कर गई सबसे नेह ॥२४॥
धन्य-धन्य माता बाली, धन्य सूरज के लाल। धन्य गाम सेमटाल है, धन्य कुटुम्ब पालीवाल ॥११॥
प्रथम पुण्य तिथि आपकी, मना रहे हम आज। श्रद्धा सुमन अर्पित करे, नत मस्तक हो "राज"॥२५॥
तारक गुरुवर आपके, तारा भव जल पार। गुरु चरणों में आपने, पाया ज्ञान अपार ॥१२॥
दीक्षा लेकर आपने, किया धर्म प्रचार। आगम का अध्ययन किया, पाला पंचाचार॥१३॥
ऐसा कोई भी कार्य जिसके साथ पीड़ा और हिंसा जुड़ी है धर्म की संज्ञा कैसे पा सकता है?
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
मेरा मस्तक सदा झुका है
-डॉ. शशिकर 'खटका राजस्थानी', विजयनगर (अजमेर)
जिनके कारण गूंज रही है, जिनवाणी हर गाँव में। मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में॥
शक्ति का जो स्रोत रही है, भक्ति मन उत्थान की। मस्तक चढ़ने योग्य बनी है, मिट्टी राजस्थान की।
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सुबह करे हम शाम करे शहर करे सब ग्राम करे पावन जीवन नाम करे
धरती को प्रणाम करे जीवन सागर पार करे हम, बैठ ज्ञान की नाव में। मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में॥
संयम लेना लक्ष्य बनाया, आ वाणी के प्रभाव में। परम सन्त श्री पुष्कर मुनिजी दया भाव ले आये थे। । मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में॥ प्रेम नेह करुणा की गंगा, अपने संग में लाये थे।
संयम के पथ पर चलकर के, आत्म-तत्व को पहचाना।
क्षणभंगुर है मानव-जीवन, महामुनि ने था जाना॥ ज्योति जला वे चले गये मौत के हाथों छले गये
वे आगम वाणी गाते थे अनचाहे हम जले गये
गाकर सदा सुनाते थे सूरज बन वे ढले गये
प्रभु का पथ बतलाते थे
ज्ञान की ज्योति जलाते थे यादें शेष रही अन्तर में, मन डूबा इसी विभाव में। मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में॥
धर्म संगठन की नित चर्चा, करते धूप व छाँव में। सूरज वाली ने सुत पाया, बजी थाली सिमटार में। मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में। मात पिता सुत को नित अम्बा, कहते हरपल प्यार में॥
आचार्य बना देवेन्द्र शिष्य को, चिर निद्रा में वे सोये।
उन बिन सूना यह जग सारा, रहते हम खोये खोये॥ माँ ने जब मुखड़ा मोड़ा अम्बा ने बन्धन तोड़ा
झीलों में जलजला उठा तारा चरणों में दौड़ा
आँसू भी छलछला उठा झुककर के कर को जोड़ा
पुनः कारवा आज लुटा
नयनों में फिर उठी घटा
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'शशिकर' भाव मुनि पुष्कर के, नित रहते थे समभाव में। मेरा मस्तक सदा झुका है, पुष्कर मुनि के पाँव में॥
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तुलस शिश्वर तक
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तल से शिखर तक
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तल से शिखर तक
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जन्म जीवन का मंगलम् है। जन्म पर खुशियाँ बाँटना, महोत्सव मनाना संसार की रीति है।
जन्म के साथ ही जीवन की महान शिखर यात्रा प्रारंभ होती है। यह यात्रा हिमशिखर का आरोहण है। इसलिए इसमें प्रतिपल जागरूकता, सचेतनता और लक्ष्य के प्रति अटूट आस्था होना जरूरी है। जिन व्यक्तियों में इस आरोहण के प्रति जीवट होता है, लक्ष्यबद्धता होती है, आस्था होती है-वे शिखर तक पहुँच जाते हैं, उनकी यात्रा की समाप्ति महोत्सव के रूप में होती है। उनकी मृत्युबेला-उत्सवबेला बन जाती है और मृत्यु दिन पर्व के रूप में मनाया जाता है। ___अधिकतर मनुष्यों का जन्म-मंगल तो मनाया जाता है, परन्तु मृत्यु? मृत्यु मातम के रूप में, शोक दिवस के रूप में और कारुणिक रूप में उपस्थित होती है। विरले ही ऐसे भाग्यशाली होते हैं जिनके जन्म-मंगल पर घी के दिये जलते हैं, तो मृत्यु दिन पर स्वर्ग के देवगण भी फूल बरसा कर महोत्सव मनाते हैं। एक घर का चिराग लाखों हृदयों का दीपक बनकर, एक माता का लाडला लाखों माता-पिता, बंधु परिजनों की आँख का तारा बनकर चमके, ऐसे भाग्यशाली शलाका पुरुषों की गणना में आज एक नाम हमारी जिह्वा पर नाच रहा है- ' गुरुदेव श्री उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.।
उपाध्याय श्री मेवाड़ की पथरीली लाल माटी में से निकले वह वैडूर्य मणि थे, जिनकी चमक-दमक निरन्तर बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई। जौहरी की दृष्टि कसौटी बन जाती है।
उपाध्याय श्री का जीवन एक शतशाखी वट था। उनके व्यक्तित्व के घटक सद्गुणों की गणना करने बैठे तो लगेगा-ऐसा कौन-सा गुण फूल है, जो उस महावट की शाखा पर नहीं फला होगा। विश्व की ऐसी कौन-सी दुर्लभ विशिष्टता है, जो उस बहुआयामी व्यक्तित्व के परिसर में न समाई होगी।
इन्द्रधनुष की तरह उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व मनभावन रंगों का ऐसा मिश्रण था जिसकी रंग-छटा रंग-विलय के बाद भी स्मृतियों में छाई रहती है।
उपाध्याय श्री के सबसे निकट और सबसे प्रिय, उनके शिल्प की सबसे श्रेष्ठ कृति आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी द्वारा ही उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व का आस्था भरी मंजुल शब्दावली में जो शब्दांकन हुआ है, वह अनेक दृष्टियों में महत्वपूर्ण तथा चिरस्थायी मूल्यवत्ता समन्वित है। यहाँ पर प्रस्तुत है-तल से शिखर तक।
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तल से शिखर तक
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
श्रद्धेय उपाध्यायश्री का जीवन सामान्य व्यक्ति की भाँति तल (तलहटी) से प्रारम्भ होकर एक अलौकिक पुरुष के रूप में शिखर आरोहण का जीवन्त उदाहरण है। यों तो सभी का आरम्भ तल से ही होता है परन्तु जिन के भीतर दिव्यता/भवितव्यता के अलौकिक संस्कार छुपे होते हैं, अमित उज्ज्वल संभावनाओं की ज्योति प्रज्ज्वलित होती हैं वे तल पर खड़े होकर भी अतल गहराई और असीम ऊँचाई लिये होते हैं। उनका तल स्थित जीवन भी सबके मध्य शिखर रूप ही प्रतीत होता है। पूज्य उपाध्यायश्री के जीवन की यही विलक्षणता थी कि वे प्रारम्भ से अन्त तक सर्व सामान्य के बीच रहकर भी सदा असामान्य गरिमा लिये जीये। उनकी अपनी अलग ही एक निराली छवि, अद्भुत अस्मिता थी और इसी गरिमा की चरम स्थिति में देह त्यागकर कृतकृत्य हुए।
पड़ मंगलम् !
और अनगिन सूर्य अवतरित हुए हैं।
एक सूर्यपुरुष हमारे बीच भी आया थासघन, अँधेरी रात्रि का भी अन्त होता ही है।
वह तिरोहित भी हो गया। ब्राह्ममुहूर्त चैतन्य का शंख फूंकता है।
आरोहण कर गया। ऊषा पूर्व क्षितिज को लाल-गुलाबी-केशरिया कर देती है.... अब हम उसकी पुण्य-प्रकाशवान स्मृति के अमर आलोक में 6000 और सूर्योदय होता है।
अपना जीवन-पथ टटोलकर आगे बढ़ सकें, इसलिए उचित होगा
कि हम उस स्मृति को अपने अन्तर में उतारें और आत्मालोक प्राप्त सृष्टि के प्रगाढ़ तमस पर आलोक-धाराएँ फूट पड़ती हैं। दृष्टि ।
करें। ही नहीं, सृष्टि की अन्तरात्मा तक आलोकित, आनन्दित होकर 'सुन्दरम्' हो जाती है।
हम ले चलते हैं आपको उस आलोक-लोक मेंपुरुषार्थ का पुण्य-प्रवाह मंगल ध्वनि में गा उठता है। वसुधा के कल्याण का मंत्र दिशाओं में निनादित होता है और सृष्टि 'शिवम्'
एक विजन, सघन, भयावह वन । बन जाती है।
अँधेरी घुप्प अँधेरी रात ॥ अंधकार के आवरण हटते हैं। आलोक आत्मा का, आत्मा में क्रूर, हिंसक प्राणियों से भरे उस वन के आकाश में चमकते से ही फूटता है और सुन्दरम् तथा शिवम् ‘सत्यम्' होकर शाश्वत सितारे भी उस वन की भयावहता से काँप रहे थे। हो जाते हैं। कण-कण और पल-पल में अखण्ड, अव्याहत ‘मंगलम्'
उस विषमतम परिवेश में, उस गाढ़ वन में किसी वृक्ष के का अनहद नाद व्याप्त हो जाता है।
नीचे, किसी नर-शार्दूल की समस्त शोभा, गरिमा और भव्यता की क्योंकि रात बीतती है।
मनोहारी एवं प्रभावोत्पादक छटा बिखेरता हुआ एक महायोगी सन्त और सूर्य अवतरित होता है।
ध्यानस्थ, साधनारत बैठा था। अँधेरी रात्रि की सघनता और गहन
वन की भयावहता उसे कहीं स्पर्श नहीं कर पा रही थीं। न तन को, सूर्य आकाश में ही नहीं, आदमी में भी होता है। कोई आश्चर्य
न मन को। आत्मा तो उसकी त्रैलोक्य की शरणस्थली ही थी। नहीं यदि आदमी ही सूर्य होता हो तो! शेष जो कुछ हो वह भ्रम ही हो, अंधकार ही हो। सत्य यही हो कि आदमी ही सूर्य हो।
रात्रि प्रगाढ़ होती गई। सन्नाटा साँय-साँय करने लगा। उस
सन्नाटे को चीरता हुआ, अभी-अभी अपनी गुफा से निकले सिंह का किन्तु वह जानता न हो। भूल गया हो। भटक गया हो। भ्रमित ।
भीषण गर्जन उठा । हो गया हो।
सारा जंगल भय से काँप उठा । वनराज जो आ रहे थे, और जब वह जागे, तब उसका आत्म-सूर्य त्रैलोक्य को
अपने शिकार की खोज में, चुनौती देते हुए-यदि कोई प्रतिद्वन्द्वी हो आलोकित कर दे।
सकता हो तो उसे सामने आने के लिए ललकारते हुए।
be समय अनादि है।
भयानक केशरी सिंह अपनी अयाल फैलाए, अहंकार भरी समय अनन्त है।
मदमस्त चाल से गर्जन-तर्जन करता हुआ उसी वृक्ष के सामने पहुंचा इस अनादि-अनन्त काल में हमारी सृष्टि में अनगिन रातें ।
और उसे अपने सामने एक अन्य नर-शार्दूल दिखाई दिया-ध्यानस्थ घिरी हैं।
योगी के रूप में। प्रशान्त, प्रदीप्त मुखमुद्रा धारण किए हुए।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ किन्तु सिंह योग को क्या जाने?
ऐसा महामानव भी इस पृथ्वी पर किसी दिन सचमुच, साक्षात् साधुता से उसका क्या परिचय?
चलता-फिरता था-किन्तु हम तो जानते हैं। हमारे तो सामने की ही
बात है। अभी कल की ही तो । वह तो शरीर मात्र को जानता था। शारीरिक बल का ही मूर्तरूप था। आत्मबल से सर्वथा अनजान था, वह पशु-जंगल का
उपरोक्त पूरे प्रसंग का वर्णन हम इस जीवनी में यथास्थान राजा! उसे केवल अपना शिकार ही दिखाई दिया, और वह अपनी
। विस्तारपूर्वक करेंगे। अभी तो इतना ही जान लीजिए कि सम्पूर्ण जलती हुई, क्रूर, दहकते अंगारों जैसी आँखें एकटक उस योगी पर
सृष्टि के ध्रुव सत्य, शिव और सुन्दर को अखण्ड मंगलम् के रूप में जमाए अपनी उस घातक उछाल के लिए तैयार हुआ जिस उछाल
सदेह रूपायित कर स्थित हो जाने वाले उस देवात्मा को हमने जाना के बाद सामने वाला प्राणी जीवित बचता ही नहीं।
था-साधना के शिखर पुरुष, साधुता के शलाका-सन्त, श्रुत व
संयम के संगम, महाजपयोगी, प्रज्ञा-प्रदीप, राजस्थान-केसरी, किन्तु उसी समय योगी ने अपने नेत्र खोले और अपनी
सन्त-शिरोमणि पूज्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनि के नाम से ! .. अमृतोपम तेजोदीप्त दृष्टि मरणान्तक आक्रमण करने के लिए प्रस्तुत उस सिंह पर डाली।
अक्षयवट का प्रस्फुरण उस योगी की उस दृष्टि का वर्णन क्या संभव है ? नहीं।
महर्षि दधीचि अस्थियों का ढाँचा मात्र थे, जहाँ तक शारीरिक
स्थिति का प्रश्न था, किन्तु उनकी अस्थियों से वज्र बना था, जो केवल इतना कहा जा सकता है कि उस अमृतमय दृष्टि में
। समस्त सृष्टि की आसुरी प्रवृत्तियों के लिए काल-सदृश था।
सात साल की आयी नियों के लिए काल-मटा अपार करुणा और असीम मैत्रीभाव था, जो आत्मा के परम पुरुषार्थ से प्रदीप्त भी था।
महात्मा गाँधी डेढ़ पसली के आदमी थे, किन्तु इस पृथ्वी के
एक छोर से दूसरे छोर तक, सूर्योदय से सूर्यास्त के स्थल तक जिस उस अभय दृष्टि के समक्ष वह क्रूर, विकराल, भूखा सिंह समर्थ ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त नहीं था-वस्ततः जिसके साम्राज्य स्तम्भित-सा घड़ी भर देखता ही रह गया। ऐसी अमृतमय, में सूर्यास्त होता ही नहीं था-उस विशाल साम्राज्य को गाँधी के आलोकवान, अभय दृष्टि उस मूक पशु-उस वन के राजा ने कभी । आत्मबल ने ध्वस्त कर दिया था। देखी नहीं थी।
जब ऐसा है, तब यदि किसी महापुरुष की देह भी भव्य हो, चकित और फिर नमित वह सिंह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। योगी कि जिसके दर्शन मात्र से मानव का शीश श्रद्धा से नमित हो जाय के चरणों तक आकर वह अपना सिर झुकाकर कुछ क्षण खड़ा रहा तथा उस महापुरुष का जीवन भी भव्यतम हो, कि जिसके प्रभाव से और फिर अपनी राह चला गया।
अन्धकार में भटकती हुई आत्माएँ प्रकाश का पथ पकड़ लें तो वह सिंह एक पशु था। विचार नहीं कर सकता था। किन्तु यदि
फिर कहना ही क्या? वह विचार कर सकता होता तो निश्चय ही वह यही सोचता कि विशाल, कद्दावर, ऊँची, सशक्त, मनोरम, गौरवर्ण देह। उन्नत, पुरातन काल के लिए तो सुना जाता है कि तीर्थंकरों, मुनियों,
प्रदीप्त भाल, किसी ज्योतिर्चक्र की भाँति केशरहित कपाल, निर्मल ऋषि-महर्षियों के समीप, उनकी असीम प्रेम एवं करुणा की छाया । अमृतवर्षी नेत्र, आजानु मांसल भुजाएँ, विस्तीर्ण वक्षस्थल, सुपुष्ट में घोर हिंसक प्राणी भी अपने समस्त जन्म-जात वैर-भाव को । स्कन्ध, अंगद के से पाँव, सिंह का सा पराक्रम और गजराज भुलाकर, अपनी हिंसक वृत्ति को त्याग कर, हिलमिल कर साथ बैठे । ऐरावत की सी अलमस्त चाल | रहते थे, किन्तु इस कलियुग में भी क्या कोई ऐसा महापुरुष हो मानो श्वेत-कंचनवर्णी सुचिक्कण संगमर्मर से किसी कुशल सकता है जिसके एक अमृतोपम दृष्टिपात मात्र ने मेरी वृत्ति को । मूर्तिकार द्वारा गढ़ी गई कोई ग्रीक देव-प्रतिमा ! परिवर्तित कर डाला?
मानो अजन्ता-एलोरा से उड़कर कोई सुगठित, सौंदर्यवान, काश! वह वनराज विचार कर सकता होता।
पवित्र शिल्पकृति साक्षात् चैतन्य बनकर भूमि पर विचरण करने कर से क्रूर, हिंसक से हिंसक उस वनराज के समक्ष स्वयं
लगी हो। अभय रहकर उस पशु को भी अभय का पाठ पढ़ा देने वाला वह कुछ ऐसा ही था उपाध्याय श्री का भव्य, बाह्य व्यक्तित्व। योगी कौन था?
आभ्यंतर के दिग्दर्शन हेतु तो यह चरित्र लिखा ही जा रहा है। आइये, अब अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। अपने-अपने किन्तु अभी तो होनहार बिरवान के चिकने पात हरिया रहे थे। पात्र में जितना-जितना समाए उतना-उतना आलोक उस सूर्य से सघन हो रहे थे प्रस्फुटन तथा परिवर्धन का क्रम आरम्भ हुआ था प्राप्त कर लें, जो किसी दिन हमारी इसी पृथ्वी पर अवतरित हुआ वातावरण में एक अवर्णनीय, अज्ञात, मधुरिम सौंदर्य एवं था। आने वाली पीढ़ियों को विश्वास हो कि न हो कि क्या कोई । सौरभ के प्रक्षेपण और दिशा-दिशा में विकिरण का काल था वह।
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२१५ । हिमालय के गर्भ से जब अलकनंदा के पुण्य स्रोत का उद्भव स्वर्ग से भी महान्-स्वर्गादपि गरीयसी-अपनी प्यारी, कल्याणी हो जाता है, तब आगे जाकर क्या महागंगा के महाप्रवाह को कोई जननी जन्मभूमि के गौरव और स्वतंत्रता की रक्षा से बढ़कर अन्य रोक सका है?
कोई कर्त्तव्य होता भी क्या है? नहीं।
इसी कर्त्तव्यभूमि, त्यागभूमि मेवाड़ के प्रसिद्ध स्थल गोगुन्दा के DG वह विपुल महाप्रवाह एक दिन सागर बन जाता है और फिर
समीप ही स्थित है एक छोटा-सा ग्राम गुरुपुष्कर नगर (सिमटार), अपनी करुणा और प्रेम के दयार्द्र मेघों से भूतल पर अमृतवर्षण
जिसे पूज्य गुरुदेव को जन्म देने का असीम, अखण्ड गौरव प्राप्त करता है।
हुआ। आइये, निर्झर से महानद और महानद से महासागर बनकर
तो लीजिए, अब हम चलते हैं छोटे-से ग्राम सिमटार की सीमा जन-जन को जीवन और संजीवन प्रदान करने वाली इस अथक,
से पूज्य गुरुदेव की असीम और अनन्त महानुभावता के आलोक
जगत में। अविराम अनन्त यात्रा के साक्षी हमारे साथ आप भी बनिए
विक्रम संवत् १९६७ की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी का धन्य दिवस!
पुंजीभूत प्रकाश तथा अनन्त प्रेम के असीम आगार पूज्य
गुरुदेव का जन्म सिमटार ग्राम में संवत् १९६७ में हुआ था। एक बहुत छोटा-सा ग्राम-नाम गुरुपुष्कर नगर (सिमटार)। यह छोटा-सा ग्राम इस युग के एक महापुरुष की जन्मस्थली बनकर
किन्तु जन्म से नौ माह पूर्व की एक रात्रि के उस अन्तिम इतिहास में अमर हो गया।
प्रहर, प्रातःकाल के आगमन की उस पुण्यवेला को भी भुलाया नहीं
जा सकता जब एक धन्यकुक्षि भावी माता ने एक विरल महास्वप्न कहाँ है यह ग्राम? नाम भी कभी सुना नहीं। ऐसे किस
देखा। महापुरुष की जन्मस्थली बनने का परम सौभाग्य इस अजाने-से ग्राम
वे स्वप्नदर्शिणी पुण्यवान महिला थीं-वालीबाई। उनके पतिदेव को प्राप्त हो गया? इसके विषय में तो जानना ही चाहिए।
का नाम था श्री सूरजमल जी। ये दम्पत्ति अपने मधुर स्वभाव एवं जी हाँ! हम आपको वही तो बताने जा रहे हैं। उस ग्राम और । व्यवहार के कारण ग्राम में एक आदर्श ही थे। दोनों की वाणी उस पुण्य-पुरुष के विषय में जानकर आप अनुभव करेंगे कि आप प्रिय थी। व्यवहार मधुर था। जीवन सरल और सीधा था। वक्रता न के जीवन में कुछ सार्थकता का समावेश हुआ। आज कुछ प्राप्त । मन में थी, न आचरण में।
ब्राह्मण कुलोत्पन्न श्री सूरजमल जी के पूर्वज मारवाड़ प्रदेश के विश्व के देशों में श्रेष्ठ भारत के पश्चिमांचल में स्थित पाली नगर से मेवाड़ में आए थे। प्राचीन शिलालेखों में पाली का राजस्थान प्रदेश है। प्रतिदिन अस्ताचल की ओर जाता हुआ सूर्य | नाम ‘पल्लिका' अथवा 'पल्ली' मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह इस पवित्र भूमि को नमन करता है और पुनः नई दीप्ति के साथ स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। उदित होने का वरदान माँगता है। भारतवर्ष के इतिहास में
एक अनुश्रुति जानने योग्य है, क्योंकि उसमें से बंधुत्व, राजस्थान का जो महत्त्वपूर्ण स्थान है वह तो सुपरिचित ही है। यह उदारता, सहयोग, सहानुभूति आदि सद्गुणों की सुवास आती है। भूमि वीरों, महाकवियों, भक्तों, सन्तों, दानियों और परम पुरुषार्थी । कहा जाता है कि किसी समय पाली में एक लाख ब्राह्मणों के घर जन-सामान्य की भूमि है।
थे और वे सभी लक्षाधिपति थे। जब भी कभी कोई निर्धन ब्राह्मण इसी यशस्वी राजस्थान प्रदेश के पश्चिमी छोर को स्पर्श कर
बाहर से आता और वहाँ निवास करना चाहता तो प्रत्येक घर से पूर्व और उत्तर की ओर फैलता हुआ भूखण्ड है-मेवाड़।
एक-एक ईंट और एक-एक रुपया उसे प्रदान किया जाता था। रोमांच-सा हो जाता है मेवाड़ का नाम सुनते ही।
ईंटों से घर बन जाता।
और निर्धन ब्राह्मण एक लाख घरों से एक-एक रुपया प्राप्त अतीत के सैंकड़ों सुनहरे पृष्ठ स्मृति के पवन-झकोरों में
कर स्वयं भी लक्षाधिपति हो जाता। फड़फड़ाने लगते हैं। राणा कुम्भा और प्रताप जैसे प्रतापी नर-पुंगवों की याद हृदय को गौरव से अभिभूत करने लगती है। नाम गिनाए
पारस्परिक सहयोग तथा समानता की भावना का यह कितना न जा सकें, इतने वीर पुरुषों, वीरांगनाओं तथा वीर बालकों ने ।
श्रेष्ठ उदाहरण है? अपनी जन्मभूमि मेवाड़ के लिए हँसते-हँसते अपने प्राण, अपना यह आदर्श भावना आज इस भूतल पर से कहाँ उड़ गई, कौन सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
जाने?
हुआ हमें।
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उस आदर्श नगरी पाली में रहने वाले ब्राह्मण किसी के द्वारा पूछे जाने पर स्वयं को पालीवाल कहते और गौरव का अनुभव करते थे।
और अपने सद्गुणों के कारण उन्हें अपने हृदय में इस गौरव का अनुभव करने का अधिकार भी था। उन्होंने अपनी नगरी को, अपनी भूमि को, बंधुत्व की पवित्र भावना से सिंचित किया था। ऐसी भूमि का गौरव यदि उन्हें था तो साधिकार था, सर्वथा उचित ही था।
ऐसी सम्पन्न एवं संस्कारवान नगरी पर स्वार्थी यवनों की कुदृष्टि पड़ गई। संवत् १३९३ में उन्होंने पाली पर आक्रमण कर दिया। पालीवालों ने अपनी नगरी की रक्षा हेतु जमकर लोहा लिया। वे यदि चरित्रवान थे तो वीर्यवान भी थे। उनके सामने यवनों की एक नहीं चल रही थी।
किन्तु मानवता, संस्कार और धर्म से जिनका दूर का परिचय भी नहीं था, ऐसे वचनों ने जब अपनी दाल गलती न देखी तब उन्होंने ब्राह्मणों के समक्ष गायों को खड़ा कर दिया और युद्ध करने लगे। धार्मिक संस्कारों से युक्त 'पालीवाल' गायों पर प्रहार कर ही नहीं सकते थे। इसके अतिरिक्त क्रूर, अधर्मी यवनों ने समस्त जलस्रोतों में गायों का माँस भी डाल दिया जिससे कि पालीवालों को पीने के लिए जल भी अप्राप्य हो गया।
ऐसी स्थिति में पालीवालों को अपनी प्यारी नगरी का त्याग करना पड़ा और वे भारतवर्ष के विभिन्न अंचलों में जा बसे। इस घटना के प्रमाण स्वरूप एक प्राचीन कवि की निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती हैं
तेरह सौ तिरानवे, घणो मच्यो घमसाण । पाली छोड़ पधारिया, ये पालीवाल पहचान ॥
अस्तु, श्री सूरजमल जी के पूर्वज भी पाली से ही मेवाड़ में आए थे। मेवाड़ के महाराणा ने आपके पूर्वजों को जागीर दी थी।
वंश परम्परा से ही संस्कारवान श्री सूरजमल जी की शीलवान धर्मपत्नी श्रीमती वालीबाई ने उस रात्रि के अन्तिम प्रहर में, अरुणोदय से पूर्व एक अपूर्व स्वप्न देखा
प्रातःकाल की मन्द मन्द, सुरभित, नव चैतन्य प्रदायिनी शीतल बयार प्रवाहित थी। एक बहुत ही सुन्दर, हरा-भरा, फलों से लदा हुआ आम्रवृक्ष था। देवी वालीबाई ने देखा कि वह आम्रवृक्ष उनके मुख में प्रविष्ट हो गया है।
इस अपूर्व एवं अद्भुत स्वप्न को देखकर उनकी निद्रा खुल गई। बहुत समय तक वे विचार करती रहीं कि ऐसे विचित्र स्वप्न का अर्थ क्या हो सकता है ?
जब पतिदेव श्री सूरजमल जी जागृत हुए तब उन्होंने उनसे पूछा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
"आज प्रभात के आगमन की बेला में मैंने ऐसा स्वप्न देखा। इसका क्या अर्थ हो सकता है? मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही। "
सूरजमल जी विचारवान व्यक्ति थे। उन्होंने शुभ घड़ी तथा अन्य शुभ लक्षणों का विचार करके अपनी धर्मपत्नी को बताया
“देवी ! यह स्वप्न तो बहुत ही शुभ है। आम फलों का राजा है। इसकी पत्तियाँ भी शुभ अवसरों पर गृहस्थों के घरों में मंगल-सूचक वन्दनवारों के रूप में सजाई जाती हैं। अतः इस स्वप्न का तो यही अर्थ हो सकता है कि उचित समय पर तुम्हारी कुक्षि से किसी ऐसे पुण्यवान बालक का जन्म होगा जिसका सुयश राजामहाराजाओं के यश से भी अधिक विस्तार पाकर इस धराधाम को आनन्दित करेगा।"
यह सुनकर वालीबाई के हर्ष का कोई पार नहीं रहा। सूरजमल जी भी सन्तोष और आनन्द के भावों में निमग्न हो गए।
फिर जैसा कि हमने आपको बताया, नौ महीने के पश्चात्, संवत् १९६७ की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को समस्त ग्राम में लक्ष्मीस्वरूपा मानी जाने वाली देवी वालीबाई ने हमारे चरितनायक पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री को एक परम सुन्दर, प्रसन्नवदना बालक के रूप में जन्म दिया।
बधाइयाँ बजने लगीं।
आशीर्वादों की वर्षा होने लगी।
और ऐसा होता भी क्यों नहीं? उस पुण्यवान बालक के जन्म के साथ ही उस पूरे ग्राम तथा आसपास के प्रदेश में अनायास ही, सहज रूप से आनन्द का वातावरण बन गया था तथा सुख-समृद्धि की वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगी थी। उस ग्राम तथा उस अंचल के निवासी चमत्कृत-से हो गए थे। उन्हें विचार आता था कि देवीस्वरूपिणी वालीबाई के इस पुत्र के जन्म के साथ ही हमारे ग्राम तथा प्रदेश में एकाएक यह कैसा आनन्द का वातावरण बन गया है।
द्वितीया का चन्द्रमा अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है। एक हल्की-सी ज्योतिर्मय रेखा मन को सहज ही आकृष्ट भी करती है। और आनन्दमय भी बना देती है।
वह बालक भी ऐसा ही सुन्दर और तेजवान प्रतीत होता था । फिर द्वितीया का चन्द्र धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। उसकी एक-एक कला निखरने लगती है जब तक कि वह पूर्ण चन्द्र की शोभा को धारण न कर ले।
ठीक इसी प्रकार वह बालक भी बड़ा होने लगा।
चन्द्रमा की एक-एक कला के समान ही उस चन्द्रोपम बालक की एक-एक प्रवृत्ति तथा एक-एक गुण दिखाई देने लगे और विकसित होने लगे।
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माता-पिता का तो कहना ही क्या, जो भी पुण्यवान व्यक्ति उस असाधारण बालक को देखता कुछ विस्मय-विमुग्ध-सा ही हो जाता। अपने मन में आनन्द का भी अनुभव करता और परमात्मा से भी करता- अरे इस अजातशत्रु बालक को कहीं हमारी
नजर न लग जाय ।
उस बालक के गर्भ में आने के समय उसकी भाग्यवान माता ने आम्रवृक्ष के दर्शन किए थे, अतः उसका नाम अम्बालाल रखा गया। दिवस ऐसे व्यतीत होने लगे, मानों सोने के हों।
रात्रियों ऐसे बीततीं, मानो चाँदी की हों
भारतवर्ष के अधिकांश अंचलों में उस समय बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। श्री सूरजमल जी एक जागीरदार थे। उनकी भी दो पलियाँ थीं। वालीबाई बड़ी थीं।
लघुपत्नी ने जब देखा कि वालीबाई ने ऐसे असाधारण, सुन्दर, होनहार और अजातशत्रु बालक को जन्म दिया है तो वह स्त्री-सुलभ भावना से मन ही मन खिन्न एवं उदास रहने लगी। उसे चिन्ता सताने लगी कि पतिदेव के मन में मेरे प्रति अनुराग एवं आकर्षण अब कम हो जायेगा।
उसके मन की इस चिन्तायुक्त भावना को वालीबाई ने अपनी सहज बुद्धि से शीघ्र ही जान लिया।
जानकर उन्हें खेद हुआ विचार करने लगी थे कि इस अप्रिय स्थिति से कैसे बचा जाय? इसका क्या निवारण संभव है?
उन्हें एक ही मार्ग उपयुक्त प्रतीत हुआ।
अपने प्रिय पुत्र को लेकर वे अपने पिता कानाजी और मातेश्वरी मगदूबाई के घर नान्देशमा चली आई। इसके पश्चात् हमारे चरितनायक का लालन-पालन नान्देशमा में ही होने के कारण उनकी जन्मभूमि नान्देशमा ही विख्यात हुई।
सूरजमल जी की दूसरी पत्नी ने भी बाद में एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया और वह अपने घर-संसार में शान्तिपूर्वक व्यस्त रहने लगी।
इधर नान्देशमा में बालक अम्बालाल धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ किसी फुल्ल- प्रफुल्ल आम्रवृक्ष की भाँति ही अपनी शोभा और सौरभ से ग्रामवासियों के हृदयों को आनन्दित करने लगा।
उसकी बुद्धि विलक्षण प्रतीत होती थी। उसका विनयपूर्ण व्यवहार लोगों को चमत्कृत कर देता था। उसकी गौरवर्ण, निर्मल देह नेत्रों को आनन्द से भर देती थी। सभी लोग यह सोचकर बड़े आश्चर्य में डूबे रहते थे कि एक छोटे-से बालक में एक साथ इतने सद्गुणों का समावेश आखिर कैसे हो गया? लगता है कि यह कोई चमत्कारी महापुरुष बनकर इस धराधाम को धन्य करेगा।
लोगों का ऐसा विचार करना गलत नहीं था, यह बात आज तो सिद्ध हो चुकी है।
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किन्तु उस समय तो विस्मय ही विस्मय था । और भूमिका बन रही थी ।
नान्देशमा ग्राम में जैन जनता की आबादी विशेष थी। मेधावी बालक अम्बालाल जैन बालकों के साथ ही खेलता-कूदता था। जन्म से ब्राह्मण होने के कारण अम्बालाल जन्मजात प्रतिभा और सहज तेजस्विता का धनी तो था ही, अब जैन संस्कारों का अमृत-वर्षण उसके व्यक्तित्व को एक अद्भुत निखार एक उच्च आयाम भी प्रदान करने लगा।
उस जैनबहुल बस्ती में जैन श्रमण श्रमणियों का आवागमन चलता ही रहता था। माता वालीबाई जैन श्रमण श्रमणियों के तप, त्याग और जगत के प्राणिमात्र के प्रति प्रेम एवं करुणा का भाव रखने वाले जीवन से बहुत प्रभावित थीं जब-जब भी ग्राम में कोई जैन सन्त अथवा सतियाँ पधारते, तब-तब वालीबाई अपने पुत्र के साथ उनका सान्निध्य अवश्य किया करती थीं।
वालीबाई का हृदय निर्मल था।
निर्मल जल में छवियाँ सुस्पष्ट दिखाई देती हैं।
दूसरे रूप में यह कहा जा सकता है कि निर्मल जल सुन्दर छवियों को सरलता और पूर्णता से ग्रहण करता है।
वालीबाई के साथ भी ऐसी ही बात थी।
उनके निर्मल हृदय में जैन धर्म के श्रेष्ठ संस्कार सहज रूप से प्रतिबिम्बित, प्रकाशित और स्थापित होते चले गए।
मातृभक्त, मेधावी बालक अम्बालाल भी इन सुसंस्कारों से अछूता कैसे रह सकता था ?
उसका जन्म ही महान् था ।
जीवन महानतम होने के लिए ही निर्माण हुआ था ।
ब्राह्मण-बालक अम्बालाल के सुसंस्कार, विनय, विवेक, व्यवहार कुशलता इत्यादि गुणों को देख-देखकर ग्रामवासी 'धन्यधन्य' कहते अघाते नहीं थे। स्नेह तो उसे मिलता ही था। आदर भी उसका सर्वत्र किया जाता था।
और अब जब उसमें जैनधर्म के उत्तम सिद्धान्तों के प्रति बढ़ता हुआ अनुराग एवं आकर्षण देखा गया तब तो ग्रामवासियों के आनन्द का कोई पार ही नहीं रहा ।
उन्हें निश्चय हो गया कि उनके छोटे-से ग्राम में पलने वाला यह अद्भुत, विलक्षण, अजातशत्रु बालक एक दिन इतना महान् बनेगा कि विश्व विस्मित होकर उसे नमन् करेगा !
और वह नमन् विश्व-मानव की जीवन-धन्यता का प्रतीक
होगा।
किन्तु समय का पंछी विचित्र-विचित्र उड़ानें भरा करता है।
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काल की गति को जानना कठिन ही होता है।
एक दिन बालीबाई अस्वस्थ हो गई।
और वे फिर कभी स्वस्थ हो ही नहीं पाईं।
बीमारी बढ़ती गई और उसका समापन हुआ उनकी देह के अन्त के साथ ही ।
माता का एकाएक देहान्त हो गया।
बालक अम्बालाल हतप्रभ !
यह क्या हो गया ? उसकी इतनी भली, ऐसी देवी स्वरूपिणी, इतनी समतारूपी माता कहाँ चली गई ?
मात्र नी वर्ष का बालक विचार-सागर में गोते लगाने लगाजीवन तो इतना सुन्दर है। किन्तु यह मृत्यु की विभीषिका क्या है और कहाँ से आ धमकती है? किसी भी अजाने क्षण, एकाएक बाज की भाँति क्रूर झपट्टा मारकर यह प्राणी को कहाँ ले जाती है ? क्यों ले जाती है ?
मेरी प्यारी, भली माता को यह इस प्रकार क्यों और कहाँ से
गई ?
क्या यह मृत्यु किसी दिन मुझे भी ऐसे ही उठा ले जायेगी ? यदि यही सत्य है तो फिर इस सांसारिक जीवन की सार्थकता क्या है ?
ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध ने भी कुछ इसी प्रकार से विचार किया था।
आज मात्र नौ वर्ष का बालक अम्बालाल भी नान्देशमा ग्राम में अपनी माता के शव को देखकर यही विचार कर रहा था यह जीवन क्या है ? मृत्यु क्या है' क्या है 'क्या है
जीवन के अक्षयवट में चिन्तन की कल्याणी शाखा प्रशाखाओं का प्रस्फुटन हो चला था।
साधना- शिखर का यात्री
अक्षयवट की शाखाएँ अब विस्तार प्राप्त करेंगी।
इतना असीम, सघन विस्तार, कि उनकी शीतल छाया में वसुधा सिमट जाय।
सारी
सोचने पर कितनी अद्भुत और मनोरम प्रतीत होती है यह कल्पना-कि कहीं, कोई एक ऐसा अमृतोपम अक्षयवट हो, जिसका अनन्त, असीम विस्तार सारी सृष्टि को शरण दे सके।
किन्तु कोरी कल्पना प्रतीत होने वाली यह भावना समय-समय पर ऐसे महापुरुषों के जीवन में साकार स्वरूप ग्रहण करती आई है, जो जीवन के प्रचण्ड ताप से दग्ध-विदग्ध विकल मानवता के
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
लिए अखण्ड आनन्द और शान्तिमय, सुशीतल आत्मदर्शन हेतु अमर अक्षयवट ही सिद्ध हुए हैं।
उपाध्याय श्री का जीवन ऐसी ही जीवन-ताप से दग्ध मानवता की एक अक्षय शरणस्थली था।
यही हम आपको बताते हैं-किन्तु, क्रमशः ।
क्रम का भंग अव्यवस्था उत्पन्न करता है। अव्यवस्था उपाध्याय श्री को कतई नापसन्द थी। अव्यवस्था अनियम को जन्म देती है। अनियम असंयम का कारण बनता है। असंयम जीवन का विनाश कर देता है। संयम उपाध्याय श्री का मूल मन्त्र था। अतः हमें क्रमशः ही चलने दीजिए
माता की असामयिक मृत्यु के बाद पुत्र को पिता पुनः सिमटार ले आए, स्नेहवश। आखिर वे पिता थे। और एक ऐसे पुत्र के भाग्यवान पिता जो बाल्यकाल में होनहार बिरवान था और अपने जीवन-काल में शीतल शान्तिप्रदाता एक अमर अक्षयवट
पिता सूरजमल जी पुत्र अम्बालाल को अपने साथ सिमटार से तो आए किन्तु बालक अम्बालाल का मानस-चिन्तन तो अब किसी भी ग्राम, नगर, देश या संसार से भी आगे बहुत आगे और जीवन और मृत्यु के भी पार और परे किसी ऐसे लोक में उड़ानें भरने लगा था कि उसे अब अपने जीवन को किसी एक ग्राम तक सीमित करके रखे रखना शक्य प्रतीत नहीं हो रहा था।
उसका मन सिमटार ग्राम में नहीं लग रहा था।
सूरजमल जी ने विवश होकर विचार किया कि शायद अम्बालाल का मन नान्देशमा में ही लगे।
यह सोचकर उन्होंने उसे पुनः नान्देशमा ही भेज दिया।
किन्तु बालक अम्बालाल की मानस-मंजरी का सौरभ अब पल-पल मुक्त आकाश की खोज कर रहा था ।
वह रह तो नान्देशमा में ही रहा था, किन्तु उसके विचार रोके रुक नहीं रहे थे, बाँधे बँध नहीं रहे थे, थामे थम नहीं रहे थे।
जीवन के समस्त व्यापार वह मानों एक तटस्थ भाव से, किन्तु निष्ठापूर्वक ही किए चले जा रहा था। लेकिन किसी एक पक्षी के समान जो रहने के लिए बाध्य तो हो किसी पिंजरे में, मगर जिसकी दृष्टि हो असीम, अनन्त आकाश की ओर।
मानो वह बालक अपने बचपन में ही प्रौढ़ हो गया हो। उन्हीं दिनों एक संयोग उपस्थित हुआ
परावली नामक ग्राम के निवासी एक श्रेष्ठिवर जिनका नाम सेठ अम्बालाल ओरडिया था, अपनी ससुराल नान्देशमा आए। वहाँ
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तल से शिखर तक
उन्होंने बालक अम्बालाल को देखा। उस बालक के व्यक्तित्व को देखकर और उसके सद्गुणों से सहज ही प्रभावित होकर वे उसकी ओर आकृष्ट हो गए। उन्होंने देखा और भली प्रकार समझ लिया कि यह बालक बहुत ही प्रतिभावान, प्रखर एवं पुण्यशाली है।
वे निस्सन्तान भी थे। उनके विवाह को दस-बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे, किन्तु उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई थी। लाखोंकरोड़ों की सम्पत्ति और व्यवसाय का उनके बाद कोई सीधा वारिस नहीं था। अतः उनके मन में यह विचार आया कि क्यों न वे इस प्रतिभाशाली, विनयी, विवेकी बालक को ही अपने साथ ले जायें ? अम्बालाल को लाकर वे उसे
उन्हें यह विचार उपयुक्त लगा और समझा-बुझाकर वे उसे अपने साथ ले गये। घर पुत्रवत् ही स्नेह करने लगे। निस्संतान सेठ-सेठानी को पुत्र का सुख मिलने लगा। बालक पुण्यवान तो था ही, उसके आने के बाद से ही सेठजी के व्यापार में भी खूब वृद्धि होने लगी। इस कारण उनका स्नेह अम्बालाल पर अधिक प्रगाढ़ हो गया।
किन्तु विधि की लीला विचित्र है, ऐसा कहा जाता है। यह भी देखा जाता है कि प्रायः मनुष्य अपने स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है तथा स्वार्थ के वशीभूत जो व्यक्ति हो जाता है वह फिर अपने उपकारी के उपकार को तो भूल ही जाता है, साथ ही अपने कर्तव्य से भी च्युत हो जाता है।
संयोग से सेठ-सेठानी को पुण्यवान बालक अम्बालाल के उनके घर में आने के बाद धन-धान्य सम्बन्धी लाभ तो हुआ था, साथ ही उन्हें सन्तान की प्राप्ति भी हो गई। वर्षों से ये अपनी सन्तान के लिए तरस रहे थे। अम्बालाल को अपने साथ लाकर वे इस अभाव को बहुत कुछ अंशों में भूल भी रहे थे। किन्तु अब जब उन्हें स्वयं अपनी सन्तान प्राप्त हो गई, तब उनके मन में अम्बालाल के प्रति जो प्रेम और आकर्षण पूर्व में था, वह धीरे-धीरे कम होने
लगा।
अब अम्बालाल के प्रति उनके मन में उपेक्षा का भाव आ गया। उपेक्षा का शिकार, निरपराध और निर्दोष बालक अब सेठ के पशुओं को जंगल में चराने ले जाता। दिन भर जंगल में ही व्यतीत हो जाता। बालक तो था ही, पशुओं का ध्यान रखते हुए वह बाल-सुलभ क्रीड़ाओं में अपना समय व्यतीत करता रहता । कभी वंशी बजाता, कभी पशुओं के आगे-पीछे दौड़ता।
इस प्रकार मनुष्य की ओर से उपेक्षावृत्ति का शिकार बनते हुए भी उस अवधि में बालक अम्बालाल ने प्रकृति से अनेक पाठ पढ़े। उसके मन में निडरता आई। स्वभाव में जो उदारता आरम्भ से ही थीं, उसमें और अधिक व्यापकता आई उसे ऐसा आभास होने लगा कि जैसे संसार में सभी कुछ अपना है। क्षुद्र परायेपन की भावना उसके हृदय से निकलती चली गई। कुल मिलाकर प्रकृति के साथ उसका सामंजस्य ऐसा बैठा कि उसके सहज मानवीय गुण अधिक उदात्त होकर प्रगट होने लगे।
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एक दिन जंगल में खेलते-कूदते हुए उसके पैर में चोट आ गई। रक्त का प्रवाह बह निकला। भयंकर पीड़ा हुई। किन्तु उसे चुपचाप सहन करते हुए वह संध्या को पशुओं को लेकर घर लौटा।
तीखे, नुकीले पत्थर की चोट के कारण उसके पैर में बहुत दर्द था। लड़खड़ा रहा था। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था कि सेठजी विकल हो जाते और तत्काल उसके घाव की समुचित मरहम पट्टी कराते ।
किन्तु इसके विपरीत घायल बालक को जो कुछ मिला वह भी सेठजी की कटु फटकार-क्या देखकर नहीं चला जाता ?
उपचार के स्थान पर उपालम्भ !
अब आप ही कल्पना कीजिए कि ऐसी स्थिति में एक कोमल बाल-मन पर क्या बीती होगी ?
उसे रात्रि में ज्वर हो आया। सारी रात वह ज्वर के ताप और पीड़ा से कराहता रहा ।
प्रातः काल होने पर सेठजी ने उसे फिर आदेश दिया जाओ, पशुओं को जंगल में घरा लाओ।
स्वार्थ मनुष्य को क्या सचमुच अन्धा ही बना देता है? सेठजी ने बालक के ज्वर का, उसकी चोट और पीड़ा का तनिक भी विचार नहीं किया। विवश बालक अपनी वेदना को अपने छोटे-से, कोमल हृदय में दबाकर चुपचाप पशुओं को लेकर जंगल में चला गया। पैर में पीड़ा तथा ज्वर के कारण उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था, फिर भी वह गया।
किन्तु आज उसे अपनी प्यारी, ममतामयी माता बहुत याद आई और उसकी वेदना तप्त आँसू बनकर उस दिन उसके नेत्रों से अविराम फूट पड़ी |
साँझ ढले वह घर लौटा।
सांत्वना का, स्नेह का एक शब्द भी उसे किसी से नहीं मिला।
संसार की स्वार्थपरकता और सम्बन्धों की निस्सारता का मूर्त रूप उस बालक के मन में कहीं बहुत गहरे तक उतर आया। उसके मस्तिष्क में चिन्तन का एक झंझावात ही मानो हाहाकार कर उठा।
किसी डूबते को जैसे किनारा मिल जाय, ठीक उसी प्रकार एक दिन बालक अम्बालाल ने देखा कि ग्राम में जैन साध्वियाँ आई हुई हैं। उनके दर्शनमात्र से उसके जलते हुए मस्तिष्क में शीतलता का संचार हो आया और साध्वी प्रमुखा महासती श्री धूलकुंवर जी को सविनय वन्दन कर उसने पूछा
"चार वर्ष पूर्व इस ग्राम में सेठजी के गुरु श्री ताराचन्द्र जी महाराज आए थे। आप उन्हें जानती हैं ?"
महासती जी ने सौम्य, विनयवान उस बालक को बड़े ध्यान से स्नेहपूर्ण नेत्रों से देखा और उत्तर देते हुए पूछा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "हाँ ! हम उन्हें जानती हैं। किन्तु तुम उनके विषय में क्यों जंगल के अनेक जाति के सैंकड़ों और हजारों वृक्ष मानो पूछ रहे हो?"
आपस में एक मौन प्रेमालाप किया करते हैं। "जब वे यहाँ आए थे तब उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से अपने पास निर्झर कल-कल करते हुए प्रवाहित होते रहते हैं और प्यासे बैठाया था। मुझसे बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें की थीं। सुन्दर-सुन्दर पथिकों की प्यास बुझाते हैं। पशु-पक्षी और मानव सभी के लिए चित्र भी बताए थे। कहानियाँ भी सुनाईं थीं। वे बहुत अच्छे थे। वे उनका शीतल मधुर जल समान रूप से सुलभ रहता है। इस समय कहाँ हैं ? मैं उनका शिष्य बनना चाहता हूँ।"
वृक्ष जब फलों से लद जाते हैं तो वे यह विचार नहीं करते कि बालक का यह उत्तर सुनकर महासती जी के नेत्रों के सम्मुख
ये फल हमारे हैं। हम इन्हें किसी अन्य को क्यों दें? पक्षी हों या एक विराट् स्वप्न-सा तैर आया। एक सुनहरे भविष्य की मधुर । पथिक, जो भी चाहे उन फलों को प्राप्त कर सकता है। कल्पना ने उनके हृदय को आनन्दित कर दिया।
इस प्रकार प्रकृति की गोद में खेलते-कूदते हुए भी बालक उस स्वप्न एवं कल्पना का ठीक-ठीक चित्र उनके मानस-पटल
अम्बालाल ने समता, उदारता और प्रेम के पाठ अनायास ही पढ़ पर उतर आया था कि नहीं, यह तो हम नहीं कह सकते, किन्तु एक अद्भुत, मनोरम, विराट् छवि की रंगीन रेखाएँ तो अवश्य ही और ये पाठ वह अपने भावी महान् जीवन में कभी नहीं भूला। दिखाई दी थीं।
उपाध्याय श्री के जीवन में जिन श्रेष्ठ गुणों का समावेश था, उन्होंने उत्तर दिया
उसकी गहरी और कभी न हिलने वाली जड़ें शायद उसी अवधि में "वे सन्तप्रवर इस समय मारवाड़ में विहार कर रहे हैं। यह
विकसित हुईं थीं। मूल रूप में बीज तो महावट वृक्ष का था ही। तो तुम जानते ही हो कि सन्त किसी एक स्थान पर नहीं ठहरते। महासती जी की ओर से सूचना पाकर श्री ताराचन्द्र जी अतः यदि तुम चाहो तो हम तुम्हें उनके पास भेजने की व्यवस्था महाराज उदयपुर आदि अंचलों में विहार करते हुए परावली पधारे। कर सकते हैं।"
उनके पदार्पण ने ग्राम में उत्साह और आनन्द का वातावरण बना
दिया। श्रोतागण उनके उपदेश का श्रवण करने के लिए अपने-अपने किन्तु बालक अम्बालाल ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया- ज
काम छोड़कर चल पड़े। "मैं मारवाड़ तो नहीं जाऊँगा। किन्तु मैं उनका शिष्य भी
बालक अम्बालाल जब जंगल से लौटा तो उसने ग्राम में यह अवश्य बनना चाहता हूँ। यदि आप उन्हें सूचना देकर यहाँ बुला
चहल-पहल देखी और उत्सुकतावश वह दौड़ा-दौड़ा स्थानक की सकें तो मैं वचन देता हूँ कि उनका शिष्य अवश्य बनूँगा। आप मुझ
ओर गया। उसने साश्चर्य और सानन्द देखा-चार वर्ष पूर्व जिन बालक पर कृपा करें। उन्हें यहाँ अवश्य बुला दें।"
महाराज को उसने देखा था, जिन्होंने उसे बड़े ही स्नेहपूर्वक अपने बालक के वचनों में दृढ़ता थी। हृदय में अटल-संकल्प था। पास बैठाकर बातें की थीं, वे ही कृपालु महाराज पट्ट पर बैठे हुए महासती जी ने यह भली-भाँति समझ लिया और उसे आश्वस्त
प्रवचन कर रहे थे। उसका हृदय आनन्द से भर उठा। करते हुए गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज के पास समाचार उस समय प्रवचन में भृगु पुरोहित का प्रसंग चल रहा था। प्रेषित कर दिए।
उसके दोनों पुत्र संयम-साधना के मार्ग पर जाना चाहते थे और
मोह के मारे माता-पिता उन्हें रोकने का प्रयत्न कर रहे थे। किन्तु जब तक महाराज श्री का पदार्पण परावली में हो पाता, उस
बालकों की वैराग्य भावना इतनी दृढ़ और प्रबल थी कि उसके बीच की अवधि में बालक अम्बालाल अपने नित्य क्रमानुसार सेठ
समक्ष सभी को अपनी हार स्वीकारनी पड़ी। इतना ही नहीं, बालकों के पशुओं को चराने के लिए जंगल में जाता रहा।
के माता-पिता तथा राजा-रानी ने भी अन्ततः साधना का पथ अब वह बालक होते हुए भी सब कार्य बड़े ही तटस्थ भाव से । अंगीकार कर लिया। किया करता था। जंगल में प्रकृति की गोद में उसका चिन्तन
बालक अम्बालाल ने तो पहले से ही संयम के पथ पर चलने विकसित होने लगा। वह विचारमग्न होकर देखा करता
का निश्चय कर लिया था। महाराज श्री के प्रवचन को सुनकर हवा और पक्षी. बड़े मधुर स्वरों में गान किया करते हैं। उनके उसके उस निश्चय में वज्र की-सी दृढ़ता भी आ गई। इस संगीत से उसके विकल मन को बड़ी शान्ति मिलती थी।
प्रवचन के उपरान्त जब एकान्त प्राप्त हुआ तब उसने महाराज वह देखता-सूर्य की अनन्त रश्मियाँ बिना किसी भेदभाव के श्री से विनयपूर्वक कहापर्वत, वृक्षों, पृथ्वी और आकाश को प्रकाशित करती हैं, उनमें __ "मैं आपश्री की ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैं दीक्षा लेना चाहता नव-जीवन का संचार करती हैं।
हूँ। आपका शिष्य बनना चाहता हूँ।"
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पुष्कर जीवन कथा
गुरुदेव ताराचन्दजी म. के मंगलमय प्रवचन में बालक को एक नया मोड़ दिया
दीक्षा प्रदान करते हुए गुरुदेव
ताराचन्दजी म.
१. नाम रखा गया मुनि प्रतापमल-शिष्यत्व-नारायण चन्दजी म. तथा २. अम्बालाल का नाम रखा गया पुष्कर मुनि-शिष्यत्व ताराचन्दजी म.
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पुष्कर जीवन कथा
नामकरण संस्कार पर १. बालक की माँ वालीबाई ने सपने में आम देखा है इस लिये बालक का नाम अम्बालाल
रखना ही श्रेष्ठ रहेगा
श्री अम्बालाल जी की दीक्षा का भव्य जुलूस (गढ़ जालोर)
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तल से शिखर तक
२२१ । महाराज श्री ताराचन्द्र जी ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से बालक के इतना दत्तचित्त कर दिया कि-देखते ही देखते वह एक पंडित की व्यक्तित्व के आर-पार तक देख लिया।
भाषा बोलने लगा। उन्होंने एक ही दृष्टि में जान लिया कि यह केवल एक बालक मानो सरस्वती देवी अपना वरदहस्त उस मेधावी बालक के ही नहीं, एक ऐसा अद्भुत ज्योतिपुंज है जो भविष्य में सम्पूर्ण । मस्तक पर रखने के लिए अधीर ही बैठी थी। जैन-जगत को ज्योतिर्मय कर देगा।
मात्र अवसर की प्रतीक्षा थी, और अवसर अब उपस्थित हो आवश्यकता केवल हीरे को तराशने की अथवा पन्ने को
गया था। निखारने की थी।
उस वर्ष गुरुदेव का वर्षावास पाली में था। उस समय बालक एक कुशल जौहरी की भाँति गुरुदेवश्री ने उस धूल भरे हीरे
वैरागी के रूप में था। संयोग की ही बात है कि उस समय महान् को अथवा मटमैली किन्तु मूल्यवान मणि को देखते ही पहचान
चमत्कारी सन्त वक्तावरमल जी महाराज भी पाली में ही उपस्थित लिया।
थे। उन्होंने बालक वैरागी अम्बालाल के हाथ में पद्म, कमल, ध्वजा, स्वीकृति मिल गई।
मत्स्य, डमरू आदि अनेक शुभचिन्ह देखे तो वे विस्मय विमुग्ध और आशीर्वाद प्राप्त हो गया जो भाग्यवानों को ही प्राप्त होता है। परम प्रसन्न हो गए। उन्होंने गुरुदेव से कहा
बालक अम्बालाल के पैर का घाव अभी भी टीसता रहता था। "लोग व्यर्थ ही मुझे चमत्कारी कहा करते हैं। अरे, चमत्कार इतनी उपेक्षा मिली थी उन्हें सेठजी से। उसकी शारीरिक पीड़ा को तो साक्षात् इस बालक के रूप में आपकी छाया में प्रगट होकर देखकर गुरुदेव श्री के संकेत से एक वैद्य जी ने उसका उपचार समस्त जैन-जगत को चमत्कृत करने की प्रतीक्षा में उपस्थित है। यह किया जो कि संयोगवशात् उदयपुर से परावली आए हुए थे। उनके
बालक, बालक ही नहीं जैन धर्म की अद्भुत प्रभावना करने वाला उपचार से घाव शीघ्र ही ठीक हो गया और बालक लम्बी पद यात्रा
अनुपमेय महापुरुष है। यह मेरा वचन है। मानें तो भविष्य कथन के योग्य हो गया।
है। मुझे जो स्पष्टतः दिखाई दे रहा है, वह यही है।" पिता सूरजमल जी ने मोहवश अम्बालाल को रोकने का बहुत
इस प्रकार वैरागी के रूप में अध्ययन करते हुए अम्बालाल को प्रयास किया। किन्तु जहाँ तक उसका प्रश्न है, वह तो अचल और ।
लगभग एक वर्ष से अधिक हो चुका था। अडिग था।
सिवाना और जालौर के अतिरिक्त भी अनेक अन्य संघ हार्दिक और जहाँ तक सूरजमल जी के मोह का प्रश्न था, वे
रूप से चाहते थे कि दीक्षा के महोत्सव का लाभ उन्हें प्राप्त हो। नान्देशमा के प्रबुद्ध श्रावकों के समझाने-बुझाने से अन्ततः समझ गए और उन्होंने बालक को दीक्षा ग्रहण करने की स्वीकृति सहर्ष किन्तु गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी चाहते थे कि दीक्षा से पूर्व प्रदान कर दी।
अम्बालाल का अध्ययन और भी अधिक गंभीर-गहन हो जाय तो संयम-साधना के शिखर की दिशा में यात्रा का आरम्भ हो
अधिक अच्छा हो। अतः वे और लम्बे समय तक उसे वैरागी के गया।
रूप में ही रखना चाहते थे।
___ लेकिन अन्ततः संघवालों की निर्मल-निश्छल भक्ति एवं राजहंस की ऊँची उड़ान
अत्यधिक आग्रह ने गुरुदेव का हृदय पिघला ही दिया। अनन्त काल
से भक्तों के निश्छल स्नेह, भक्ति और आग्रह के सम्मुख आराध्य संभावनाएँ हों और समुचित सहारा मिल जाय तो सफलता के
झुकते ही चले आए हैं, वशीभूत होते रहे हैं। शिखर तो सहज ही और स्वतः ही चरण चूमने लगते हैं।
श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से यही तो कहा था, कुरुक्षेत्र के बालक अम्बालाल तो जन्मजात प्रतिभापुरुष था।
समरांगण मेंधूल-भरा हीरा था।
"भक्तिमान् यः स मे प्रियः।" मन माटी में सनी हुई मूल्यवान मणि था।
तथाउसे जौहरी मिल गया।
"भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।" श्री ताराचन्द्र जी महाराज के दिग्दर्शन में जब उसने 'क-खग' से अध्ययन आरम्भ किया तो यह एक विस्मय की ही बात है । सच्चा भक्त अपने भगवान् को भी विवश कर ही देता है। हमने कि अत्यन्त अल्पकाल में ही अक्षर ज्ञान के उपरान्त वह पुस्तकें । यहाँ एक ही उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु यदि इतिहास, पुराणों पढ़ने लगा और धार्मिक साहित्य के अध्ययन में उसने स्वयं को । को उठाकर टटोला जाय तो ऐसे अनेक प्रसंग पाठकों को
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अनेक प्रसंगों को स्वयं पाठकगण जानते निश्चय ही वह शुभ दिवस धन्य था। और वे भाग्यवान मनुष्य भी होंगे।
भी धन्य थे जिन्होंने उस धन्य दिवस को अपनी आँखों से देखा था। अस्तु, गुरुदेव भी अपने भक्तों के आग्रह को कैसे टाल सकते एक सघन, विशाल वटवृक्ष। थे? परिणामतः उन्होंने जालौर संघ को दीक्षा-महोत्सव के आयोजन
अपनी ऊँचाई से आकाश को अंक में भरने के लिए उत्सुक। की स्वीकृति प्रदान कर ही दी।
अपनी लटकती जटाओं से भूमि के आलिंगन के लिए आतुर। ___ गुरुदेव श्री की स्वीकृति मिलनी थी कि संघ में आनन्द की
उस पवित्र, सभी के लिए कल्याणकारी-शुभदा वटवृक्ष के मन्दाकिनी प्रवाहित हो गई। जिस बालक के उज्ज्वल भविष्य का
नीचे गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज तथा पंडित नारायणचन्द्र विश्वास सभी को हो चुका था, उसकी दीक्षा-महोत्सव का
जी महाराज अपनी सन्त-शिष्य मंडली सहित विराजित थे, कल्याणकारी अवसर प्राप्त होना जालौर संघ के लिए तो एक
शोभायमान थे। अलभ्य वरदानस्वरूप ही था। संघ से प्रार्थना कर यह लाभ लिया जालोर निवासी गैनमल जी बोरा ने गैनमल जी वोरा और उनकी
वटवृक्ष भारतीय संस्कृति का एक मान्य, शुभ प्रतीक है। धर्मपत्नी चुन्नीबाई उनके धर्म के माता-पिता बने।
विस्तार और समृद्धि का प्रतीक! वटवृक्ष की शीतल छाया में
सात्त्विकता और साधना का मधुर सौरभ वातावरण को पवित्र __एक महान महोत्सव की तैयारियाँ अपूर्व उल्लास एवं उमंग के भावों से भर देता है। साथ आरम्भ हो गईं।
भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान की उपलब्धि वटवृक्ष के तले और फिर आया वि. सं. १९८१ की ज्येष्ठ शुक्ला दशमी का । ही हुई थी। उसी की पवित्र, शीतल छाया और सन्निधि में उन्होंने शुभ दिवस।
हजारों मोक्षार्थी मानवों को दीक्षा प्रदान की थी। उस दिन के सौभाग्य, उसकी आभा, उसके आनन्द का वर्णन तथागत बुद्ध ने वटवृक्ष की छाया में ही वर्षों तक तपाराधना कैसे किया जाय?
की थी और बोधि को प्राप्त हुए थे। वही सूर्य, वही पूर्व दिशा और वही आकाश।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने पंचवटी में वटवृक्ष के नीचे ही अपनी किन्तु जैसे उस दिन के सूर्य में अनन्त प्रकाश तो था ही, साथ
पर्णकुटी बनाई थी। ही ऐसा भी प्रतीत होता था मानो वह सूर्य उस दिन अपनी अनन्त स्पष्ट है कि वटवृक्ष हमारी भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न रश्मियों के अनन्त हाथों से सृष्टि पर अखण्ड आशीर्वाद की वर्षा | अंग रहा है, अतीत काल से ही। भी कर रहा हो।
___उसी एक वटवृक्ष के नीचे आज एक भव्य महोत्सव का सूर्योदय के समय पूर्व दिशा प्रफुल्लित हो जाती है, किन्तु उस आयोजन था। दिन तो वह दिशा मानो दिशा-दिशा को पुकार कर कह रही हो- सन्त-शिरोमणि विराजमान थे, शान्त मुखमुद्रा में। दीक्षार्थी दो 'अरी जागो, तुम्हें पता नहीं क्या कि आज इस पृथ्वी पर भी एक बालकों की प्रतीक्षा थी। और सूर्य उदित होने वाला है।'
जालौर का गगनांगन जैन धर्म की जयजयकार से जीवन्त जब सूर्य उदित होता है तब आकाश अपने ही आनन्द में डूब होकर गूंज रहा था। कर रंग-रंगीले स्वप्नों में खो जाता है।
एक विशाल जुलूस नगर के भीतर से आनन्द और उल्लास Tyा लेकिन उस दिन तो आकाश प्रसन्नता के मारे मानो बौरा-सा दिशा-दिशा में बिखेरता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। दो चपल तनही गया था। उस दिन के आकाश में पक्षियों के मधुर कलरव के अश्वों पर दो बालक-रामलाल और अम्बालाल-सुन्दर, सजीले
अतिरिक्त भी एक ऐसा अश्रुत, अद्भुत संगीत मुखर हो रहा था। वस्त्रों से आवेष्टित बैठे हुए थे। राम-लखन की-सी जोड़ी दिखाई दे जो कानों से नहीं, मन से, आत्मा से सुना जाता है। वह संगीत-जो
| रही थी। हमारे कानों को ही प्रिय नहीं लगता, बल्कि हमारी आत्मा तक को जय-जयकार के पारावार का कोई अन्त नहीं था। आनन्द-विभोर कर देता है।
जुलूस के साथ दोनों बालक उस वटवृक्ष के समीप अन्ततः आ ऐसा था उस शुभ दिन का सूर्य, पूर्व दिशा और आकाश ! पहुँचे।
क्योंकि उस दिन एक महामानव इस असार संसार की धूलि कुछ दूर पर ही अपने-अपने अश्वों से नीचे उतरकर अत्यन्त कीचमय भूमि से शाश्वत शान्ति के साधना-शिखर के प्रथम सोपान विनयभाव से आगे बढ़कर उन्होंने गुरुदेव श्री के पुनीत पाद-पद्मों पर अपने पावन चरण धर रहा था।
में विनम्र वन्दन किया।
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अब वह पुनीत बेला आ पहुंची थी जो उन्हीं भाग्यवान पुरुषों शिखर पर आरोहण आरम्भ हुआ। एवं नारियों को प्राप्त होती है, जिन्होंने भव-भव में पुण्यों का संचय किया हो।
मुक्ति-मानसरोवर के राजहंस अपनी ऊँची उड़ान पर चल बालकों के शरीर पर मूल्यवान वस्त्र एवं आभूषण थे-संसार | पड़े थे। के प्रतीक !
श्रमण बनने के पश्चात् पुष्कर मुनि जी महाराज ने अपने सदा-सर्वदा के लिए उनका त्याग करने हेतु वे एकान्त में चले । जीवन के तीन प्रमुख लक्ष्य बनाएगए।
(१) संयम-साधना, (२) ज्ञान-साधना और (३) गुरु-सेवा। जब वे लौटे तब उन्होंने शुभ्र, श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे।
यह तो सारा संसार ही जानता और मानता है कि गुरु के श्वेत वस्त्र मन की धवलता व शान्ति के प्रतीक होते हैं। युद्ध ।
बिना ज्ञान नहीं मिलता। भारतीय संस्कृति में तो यह तथ्य विशेष विराम के लिए श्वेत झंडी दिखाई जाती है। उसी प्रकार मन की रूप से विचारित और प्रमाणित भी हुआ है। दस देश में गरु का शान्ति के लिए श्वेत वस्त्रों का धारण करना ही उपयुक्त माना जाता ।
स्थान उच्चतम माना गया है। एक श्लोक में कहा गया हैहै। वे दोनों वैरागी बालक संसार के अशान्त, राग-द्वेषमय कलुषित वातावरण का त्याग कर, उससे मुक्त होकर अब शान्ति, समता,
अज्ञान तिमिरान्धानां, ज्ञानाअन शलाकया । निर्लोभता और वीतरागता के पथ पर अपने दृढ़ चरण बढ़ा रहे थे।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥ इसी कारण वे रंगीन वस्त्रों का त्याग कर श्वेत वस्त्रों को धारण -अज्ञान के तिमिर से अन्धे व्यक्तियों के नेत्रों को ज्ञान के कर गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए थे।
अंजन की शलाका से जिन्होंने ज्योतिर्मय कर दिया, ऐसे गुरु को उस समय उन बालकों की शोभा अवर्णनीय थी। ऐसा प्रतीत
नमन है। होता था मानो दो राजहंस पुनीत मानसरोवर की यात्रा के लिए इसी प्रकार अनेक रूपों में गुरु की महिमा एवं महत्त्व को अपने पंख फड़फड़ा रहे हों।
हमारे दर्शन एवं साहित्य में वर्णित किया गया है। यहाँ तक कि उस अद्भुत दृश्य को जिन सहस्रों व्यक्तियों ने उस दिन
माता-पिता से भी अधिक महत्त्व गुरु को प्रदान किया गया है। इस निहारा, वे धन्य हो गए। श्वेत, शुभ्र, सादे वस्त्रधारी उन बाल-द्वय
चिन्तन के पीछे शताब्दियों का गूढ़ और गहन मनन छिपा हुआ है। को देखते ही जन-मेदिनी में से जय-जयकार की गगन भेदी ध्वनि अतः निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि गुरु के बिना शिष्य उठी और दिगन्तों तक व्याप्त हो गई।
को न तो अनुभव का अमृत ही प्राप्त होता है और न ज्ञान का
मार्ग। इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में यह भी कहा गया हैमात्र चौदह वर्ष के दो सुकुमार बालक जीवन भर के लिए सत्य, अहिंसा आदि पंच महाव्रतों की अखण्ड साधना का दृढ़
"तित्थयर समो सूरी" संकल्प ग्रहण कर आग्नेय पथ पर अपने अडिग चरण बढ़ा रहे थे। अर्थात्, आचार्य तीर्थंकर के समान है। उनके शरीर कोमल थे, सत्य है।
स्पष्ट है कि गुरु को भगवान् का ही पद प्रदान किया गया है। किन्तु उनके संकल्प की दृढ़ता और अडिगता तो हिमालय की उपनिषदों का भी कथन है-“आचार्यवान्, पुरुषो वेद।"-अतः, भाँति अचल थी।
जिसने गुरु किया, वही ज्ञानी हो सकता है। उस भावविभोर कर देने वाले अनुपम दृश्य को देखकर दर्शकों पुष्कर मुनि जी की अभी बाल्यावस्था थी। वे उसी अवस्था से के नेत्रों से आनन्द एवं आश्चर्य के अश्रु प्रवाहित हो रहे थे और परम मेधावी थे। बाल्यावस्था में स्मरणशक्ति भी विशेष सतेज होती झनझनाते हुए हृदय के तारों से ध्वनि उठ रही थी-धन्य है। धन्य है। अतः तीक्ष्ण बुद्धि, विद्याध्ययन के प्रति अगाध प्रेम तथा बाल्याहै इन बाल मुनियों को।
वस्था इन तीनों के संगम का पूरा-पूरा लाभ लेकर आप बड़े साहस, अध्यवसाय, अटल संकल्प एवं एकाग्रता के साथ विद्याध्ययन में
0000 दीक्षा विधि सानन्द सम्पन्न हुई।
जुट पड़े और अपने भव्य भावी जीवन का निर्माण करने लगे। अब वे बालक मुनि बन गए थे।
उस भव्य महल की एक-एक ईंट को ठोक-बजाकर बड़े ही उनमें से रामलाल जी का नाम मुनि प्रतापमल रखा गया और / यत्न और आस्था के साथ जोड़ना और जमाना आरम्भ किया; और वे पं. नारायणचन्द्र जी महाराज के शिष्य घोषित किए गए, तथा । उस भगीरथ-प्रयल का जो सुफल उन्हें ज्ञान-गंगा के अपने मानस में अम्बालाल जी का नाम पुष्कर मुनिजी रखा गया और वे श्रद्धेय । अवतरण के रूप में मिला, वह आज सुविदित है। आगे के अध्यायों ताराचन्द्र जी महाराज के शिष्य बने।
में हम इस ओर यथाशक्य सकित करने जा भी रहे हैं। A
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अभी तो उस भव्य ज्ञान-प्रासाद की ईंटें चुनी जा रही थीं- यही, कि- “साहित्य, संगीत, कलाविहीनः। Jo2000 मंज़िल पर मंज़िल खड़ी की जा रही थी।
साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण हीनः॥" 1965
राजस्थानी भाषा में एक कहावत है-"ज्ञानकंठा, दामअंटा"- जो मनुष्य साहित्य-संगीत-कला इत्यादि से विहीन होता है, वह RE
बहुत सरल-सी प्रतीत होने वाली इस कहावत के हार्द को आपश्री साक्षात् बिना पूँछ और सींग वाला एक पशु ही होता है। सम्यक् प्रकार से जानते थे। अतः ज्ञान को कण्ठस्थ करने में असामी के
अ लावा अनेक जोन आपका विशेष लक्ष्य था।
के विद्वान् नियुक्त किए और उनके मार्गदर्शन में आपश्री ज्ञान के आपने संस्कृत व्याकरण का अध्ययन जब आरम्भ किया तब भव्य मन्दिर के एक के पश्चात् एक सोपान चढ़ते ही चले गए। इस गुरुदेव ने उसकी दुरूहता का दिग्दर्शन कराते हुए कहा
सरस्वती आराधना में उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। पंडित खान-पान चिन्ता तजै, निश्चय मांडे मरण ।
रामानन्द जी, जो मैथिल के थे, उनका सहयोग इस साधना में
भरपूर मिला। आपने ब्यावर, पेटलाद (गुजरात) और पूना के घो-ची-पू-ली करतो रहै, तब आवे व्याकरण
फर्ग्युसन कालेज में न्याय व साहित्य तीर्थ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। अर्थात्-कोई जब खान-पान प्रभृति चिन्ताओं को त्याग कर साथ ही आपने वैदिक, बौद्ध तथा जैन दर्शन का तुलनात्मक केवल व्याकरण-ज्ञान के पीछे ही अपना जीवन झोंक देता है, उतने अध्ययन भी किया। आपने वेदों का, उपनिषदों का, गीता और समय के लिए स्मरण करने, पुनरावर्तन करने, पूछ-ताछ करने और महाभारत का अध्ययन और बौद्ध परम्परा के विनयपिटक, लिखने को अपना प्रमुख विषय बनाता है, तब कहीं जाकर । दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय आदि पिटक साहित्य का तथा आगम व्याकरण को हृदयंगम करने में सफलता प्राप्त होती है।
साहित्य के अतिरिक्त उसके व्याख्या साहित्य का विशेषावश्यक ___एक व्याकरण की ही क्या बात, आपश्री ने जिस किसी भी
भाष्य, तत्त्वार्थ भाष्य, सन्मतितर्क, प्रमाण मीमांसा, न्यायावतार, विषय को हाथ में लिया, उसमें स्वयं को पूर्ण एकाग्रता के साथ
स्याद्वाद् मंजरी, रत्ना-करावतारिका, सर्वार्थसिद्धि, समयसार, D : समर्पित कर दिया और अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर सैंकड़ों ग्रन्थों
प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक
आदि का भी अध्ययन किया। को कण्ठस्थ कर लिया। आपश्री में यह सहज ज्ञान था कि
बाल्यकाल में जितना भी स्मरण कर लिया जाय उतना ही अच्छा इस व्यापक और गहरे अध्ययन के अतिरिक्त आपका संस्कृत, BABA है, क्योंकि वह स्मरण चिरस्थायी होता है।
प्राकृत, गुजराती और उर्दू भाषा पर भी पर्याप्त अधिकार था।
अंग्रेजी भाषा का अध्ययन भी आपने आरम्भ किया था, किन्तु इसके आगे का सोपान आता है बुद्धि की परिपक्वता का। जब
उसमें विशेष विकास का अवसर प्राप्त नहीं हो सका। 1000 बुद्धि आरम्भिक अध्ययन के पश्चात् स्वतः ही परिपक्व हो जाती है, तब पढ़े हुए विषय का अर्थ समझने की जिज्ञासा जागृत होती है
। इस प्रकार आपने अपनी प्रतिभा, मेधा और कल्पना शक्ति के तथा अपने ज्ञान को अन्य व्यक्तियों के साथ बाँटने की भी।
बल पर स्वयं को ज्ञानालोक से विभूषित कर लिया। हमारे यहाँ कहा गया है
जिसके पास कुछ है, वही दूसरों को कुछ दे सकता है। शून्य में
से तो शून्य की ही प्राप्ति हो सकती है। ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् सरस्वती के भंडार की, बड़ी अपूरव बात।
आपश्री ने अपने इस विपुलज्ञान को मुक्त-हस्त होकर अपने शिष्यों ज्यों खरचे त्यौं-त्यौं बढ़े, बिन खरचे घटि जात ॥ तथा अन्य जिज्ञासुओं में बाँटना आरम्भ किया।
सारे संसार के विद्वान एक ही सत्य को भिन्न-भिन्न भाषा अध्यापन एक कला है। तपस्या है। उसमें बड़ी कुशलता की FORE
अथवा शैली में अभिव्यक्त किया करते हैं। प्रसिद्ध, प्रगाढ़ पाश्चात्य आवश्यकता पड़ती है। अध्ययन तो सरलता से किया जा सकता है, विचारक और विद्वान् बेकन ने उपरोक्त सत्य और तथ्य को अपनी किन्तु अध्यापन में स्वयं को खपाना पड़ता है। किसी भी ग्रन्थ के शैली में इस प्रकार कहा है
निगूढ़तम भावों को पहले स्वयं समझकर फिर अन्य के मस्तिष्क में "रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफैक्ट मैन, राइटिंग
उन्हें बिठाना बड़ा ही दुस्तर कार्य है। अध्यापन कार्य में वही व्यक्ति एन एग्जैक्ट मैन।" अर्थात् अध्ययन मनुष्य को पूर्ण बनाता है,
सफल होता है जिसमें प्रतिभा की तेजस्विता होती है, स्मृति की भाषण अथवा संभाषण उसे निष्णात बनाता है तथा लेखन उसे
प्रबलता होती है तथा अनुभवों का अम्बार होता है। आपश्री में प्रामाणिक बनाता है।
प्रतिभा, स्मृति तथा अनुभूति तीनों गुणों का अद्भुत समावेश था।
आप कठिन से कठिन विषय को भी सरल बनाकर सामने वाले को कथन का सार यही है कि अध्ययन एवं ज्ञान के अर्जन से ही समझाने में दक्ष थे। विद्यार्थी की योग्यता के अनुसार विषय का । एक मनुष्य वास्तविक अर्थों में मानव बनता है, अन्यथा मानव और संक्षेप अथवा विस्तार करना आपश्री को खूब अच्छी तरह से एक पशु में फिर भेद ही क्या रह जाता है?
आता था।
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पूज्य उपाध्याय श्री श्रेष्ठ प्रवचनकार एवं लेखक होने के साथ एक कुशल संग्रहकार भी थे ।
आपकी हस्तलिपि बहुत स्पष्ट और सुन्दर थी। विविध विषयों पर संग्रहीत प्रवचन सामग्री की सुन्दर हस्तलिपि के दो नमूने ।
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१. विहार के समय कुछ क्षण के लिए
विश्राम साथ में आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी।
२. आचार्यश्री स्वाध्याय सुनाते हुए
३. किसी गहन विचारपूर्वक देख रहे हैं। गुरुदेव
४. गुरुदेवश्री के साथ श्री दिनेश मुनिजी।
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। तल से शिखर तक
अपने इस ज्ञान का वरदान आपने अपने गुरुभ्राता श्री एडिसन जैसे प्रख्यात शिक्षाविद् का कथन है-“शिक्षा हीरामुनिजी, सुशिष्य देवेन्द्रमुनि, गणेशमुनिजी, जिनेन्द्रमुनिजी, मानव-जीवन के लिए वैसे ही है, जैसे संगमरमर पाषाण के लिए रमेशमुनिजी, राजेन्द्रमुनिजी, प्रवीणमुनिजी, दिनेशमुनिजी, नरेश
शिल्पकला।"
Poe मुनिजी, सुरेन्द्र मुनि, गीतेश मुनि, शालीभद्र मुनि को आगम साहित्य का अध्ययन करा कर दिया।
इसी प्रकार आपश्री भी यही मानते थे कि विश्व में जितनी भी
उपलब्धियाँ हैं, उनमें शिक्षा ही सर्वोत्तम है। यह शिक्षा ही है जिससे आपश्री ने महासती शीलकुंवर जी, महासती कुसुमवती जी,
जीवन में सदाचार की उपलब्धि होती है, सद्गुणों के सरस सुमन महासती पुष्पवती जी, महासती कौशल्या जी, महासती चन्दनबाला
1 खिलते हैं। अतः 'दीक्षा' के साथ 'शिक्षा' भी आवश्यक है। जी, महासती विमलवती जी, महासती सत्यप्रभाजी, महासती चारित्रप्रभा जी, दिव्यप्रभाजी, दर्शनप्रभाजी, सुदर्शनप्रभाजी, रुचिका । इसी भावना से अनुप्रेरित रहकर आपने अपने शिष्यों तथा जी, हर्षप्रभा जी, किरणप्रभा जी, सुप्रभा जी, रत्नज्योति जी, शिष्याओं को सदैव शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते रहने के लिए रुचिका जी, राजश्री जी, प्रतिभा जी, गरिमा जी, चन्दनप्रभाजी, प्रोत्साहित किया, प्रेरणा दी। उनकी शिक्षा के लिए समुचित व्यवस्था सुमित्रा जी, नयनज्योति जी, संयमप्रभा जी, निरूपमा जी, अनुपमा की। जिस युग में सन्त-सतीवृन्द परीक्षा देने से कतराता था, उस जी, विचक्षणश्री जी, स्नेहप्रभा जी, सुलक्षणप्रभा जी आदि
युग में आपने स्वयं ने उच्च परीक्षाएँ दी और अपने अन्तेवासियों से महासतियों को आगमों की टीकाओं व न्याय आदि का अध्ययन
} भी दिलवाईं। कराया। श्रमणी विद्यापीठ, बम्बई में भी आपने कुछ समय तक टीका ग्रन्थों का अध्ययन करवाया।
जीवन-विकास की इस आधारभूत नींव को दृढ़ बनाने की
आपकी इस शुभ भावना का ही सुफल इस रूप में विकसित हुआ इसके अतिरिक्त भी अनेक सन्तों, न्यायमूर्ति इन्द्रनाथ मोदी, वकील रस्तोगी जी, वकील हगामीलाल जी, वकील आनन्दस्वरूप
कि जैन जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान्, ज्ञानमहोदधि स्व. पं. जी आदि शताधिक गृहस्थ व्यक्तियों को भी आपने तत्त्वार्थ सूत्र,
शोभाचंद्रजी भारिल्ल यह कहा करते थे कि उपाध्याय श्री पुष्कर कर्मग्रन्थ आदि का अध्ययन करवाया।
मुनि जी की शिष्य मंडली जितनी सुशिक्षित एवं विद्वान है, उतनी
अन्य किसी की नहीं। पंडित शोभाचन्द्र जी भारिल्ल जैसे महापंडित विशेषता यह थी कि आपकी विद्वत्ता गहन थी, प्रतिभा सूक्ष्म
का यह कथन कितना मूल्यवान है यह तो कहने की आवश्यकता थी और इनमें मधुर संगम हो गया था तर्कपटुता एवं वाक्चातुर्य
ही नहीं। वे कभी एक शब्द भी अयथार्थ, अनावश्यक अथवा का। इन विशेषताओं के दृढ़ आधार पर जब आप किसी भी विषय का निरूपण करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी पुष्प की
अतिरंजनायुक्त नहीं बोलते थे। जो कुछ भी कहते थे वह यथार्थ ही एक-एक पंखुड़ी खुलती चली जा रही है। इस प्रकार गंभीर से
होता था, सत्य ही होता था। गंभीर विषय भी सहज ही हृदयंगम कर लिया जाता था।
। शिक्षा, सेवा, साधना के ज्योतिस्तम्भ ) आपश्री की यह मान्यता थी कि जीवन में शिक्षा का वही मतलब है जो शरीर में प्राण का है। अशिक्षित व्यक्ति का जीवन अधूरा, नीरस और निरर्थक-सा ही रहता है। क्योंकि शिक्षा के
शिक्षा के प्रति आपश्री के इतने लगाव का ही फल था कि अभाव में जीवन में गति नहीं आ सकती, प्रगति नहीं हो सकती।
आपश्री की प्रबल प्रेरणा से भँवाल चातुर्मास में वीर लोकाशाह जैन
विद्यालय की स्थापना हुई। अनेक स्थानों पर धार्मिक पाठशालाएँ शिक्षा के स्वरूप तथा उद्देश्य पर अपने विचार प्रगट करते हुए
खुलीं। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) के निर्माण में भी यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने कहा था-"शरीर और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौंदर्य और जितनी सम्पूर्णता का
उपाध्याय श्री का प्रबल पुरुषार्थ ही कारणभूत रहा था। विकास हो सकता है, उसे सम्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।" सन् १९७५ में आपश्री का वर्षावास पूना में था। उस अवधि कहते हैं, एक कहावत है-गुरु गुड़ ही रह गए, चेला शक्कर |
में विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष डॉ. ऐस. बारलिंगेजी हो गए-कुछ ऐसी ही बात हुई थी प्लेटो और अरस्तू के विषय में।
से आपका परिचय हुआ। इस परिचय का अच्छा परिणाम यह हुआ अरस्तू प्लेटो का शिष्य था। किन्तु इन दोनों महान् दार्शनिकों में से कि विश्वविद्यालय में जैन धर्म और दर्शन सम्बन्धी अध्ययन व कौन किससे बढ़कर था, घटकर था, यह निर्णय आज तक नहीं हो । अध्यापन के लिए एक जैन चेयर की संस्थापना करने की योजना सका है।
बनी। इसमें सेठ लालचन्द जी हीराचन्दजी दोशी ने ढाई लाख रुपये, ऐसे ही महान् दार्शनिक और विद्वान अरस्तू ने कहा है
श्री रतिभाई नाणावटी ने एक लाख रुपये, श्री नवलभाई फिरोदिया "जिन्होंने मानव-शरीर पर शासन करने की कला का अध्ययन ने एक लाख पच्चीस हजार रुपये और अन्य जैन बंधुओं की ओर किया है, उन्हें यह विश्वास हो गया है कि युवकों की शिक्षा पर ही । से सवा दो लाख रुपये, इस प्रकार कुल सात लाख रुपये एकत्र राज्य का भाग्य आधारित है।"
किये गए।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । परिणामस्वरूप जैन चेयर का कार्य आरम्भ हो गया। यह एक Madam, बहुत बड़ा काम था। विश्वविद्यालय के कुलपति श्री दाभोलकर जी I am directed to inform you that "The ने विशेष रूप से निम्न पत्र लिखकर आपश्री के प्रति कृतज्ञता व्यक्त । Upadhyaya Pushkar Muni Padak' (silver medal की
with gold plating) has been awarded to you on
the result of M. A. Examination, held in April, D.A.Dabholkar University of Poona
1977. Vice-Chancellor Ref. No. Phil/24/1007
Yours faithfully Date: 10/8/1976 Dear Shri Muniji,
Sd./—Deputy Registrar (Examination) I am writing this letter to you to express on Copy for CS to Donor behalf of the University of Poona, our profound
Dr. A. D. Batra thankfulness and gratitude for your valuable help, advice and encouragement towards the
Secretary endowment of a chair in Jain Logic, Philosophy
The Rajasthan Kesari Adhyatmayogi and Culture in our university. I am aware of your
Pushkar Muniji Abhinandan Granth Samiti great interest and devotion to Jain studies and
6/4, Pitra Chaya, Yarvada, this act of concern and sympathy expresses your
Poona, Pin-411006. love and devotion to this cause in a most fitting शिक्षा के प्रसार हेतु, छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर manner. We hope to promote research studies in
अग्रसर होते रहने की सत्प्रेरणा देने का यह अनवरत प्रयास आगे Jain Philosophy in a manner worthy of the noble cause and also in keeping with the needs and
ही बढ़ता चला गयाrequirements of our society and I am sure, we पूना के ही एक आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज में बी. ए. और shall continue to have the benefit of your
बी. कॉम. प्रथम आने वाले छात्र को प्रतिवर्ष सौ-सौ रुपयों के दो suggestions and the support of your patronage in our efforts.
पुरस्कारों की व्यवस्था भी आपश्री की प्रेरणा से की गई। Thanking you and with regards,
और भी आगे चलिए
Yours Sincerely श्रमण-श्रमणियों और भाव-दीक्षितों के अध्ययन के लिए To,
आपश्री की प्रेरणा से उदयपुर में तारक गुरु जैन ग्रन्थालय के Shri Puskar Muniji Sd.—D. A. Dabholkar अन्तर्गत पुष्कर विद्यापीठ की संस्थापना हुई, जिसमें सम्प्रति _एक सच्चा विद्वान् दूसरे विद्वान् की ओर सहज सौजन्य से सतीवृन्द एवं भाव-दीक्षिताएँ अध्ययन कर रही हैं। आकर्षित होता है।
सन् १९६६ में आपश्री का चातुर्मास पदराड़ा में हुआ। उस इसी प्रकार पूना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष J समय महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी महाराज की पुण्य स्मृति में डॉ. आनन्दप्रकाश जी दीक्षित भी श्रद्धेय गुरुवर्य के दर्शनार्थ | आपश्री की प्रेरणा से "श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय" की स्थापना उपस्थित हुए। उस समय उन्होंने विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के हुई। पहले यह संस्था पदराड़ा में चलती रही। उसके पश्चात् संस्था अन्तर्गत एक स्वर्ण पदक की स्थापना करने के लिए प्रार्थना की। का मुख्य कार्यालय उदयपुर में आ गया। इस संस्था के द्वारा विश्वविद्यालय में तत्सम्बन्धी व्यवस्था इसी वर्ष से कर दी गई, साहित्य की विविध विधाओं में बड़े ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए जैसाकि निम्न पत्र से स्पष्ट है
हैं। जैनधर्म एवं दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ बड़े सारगर्भित हैं। अब तक Ref. No. Ex/Medal/20712 University of Poona
तीन सौ से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। यह संस्था साहित्यिक
12 Oct., 1977 दृष्टि से एक गौरव-गरिमा से युक्त संस्था है। इस संस्था का उद्देश्य Smt. Joshi Sunita Govinda
है-शोध प्रधान एवं जीवनोपयोगी उत्कृष्ट-साहित्य का प्रकाशन Condidate No. 1945
करना। at the M. A. Examination held in April 1977
आपश्री की प्रबल प्रेरणा ने समाज के किस-किस अंग को स्पर्श 865, Sadashiva Peth, Poona-30
कर उसे निखार प्रदान नहीं किया? कितने-कितने क्षेत्रों में आपने Subject-Award of "The Upadhyaya Shri शिक्षा, धर्म एवं संस्कृति के प्रचार और परिवर्धन हेतु कार्य नहीं Pushkar Muni Maharaj Padak."
किया?
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दीन-दुःखी रोगी की सेवा जहाँ प्रेम से की जाती है। रुग्ण जनों का रोग मिटाकर दुआ उन्हीं की ली जाती है ॥
राजकीय दरा चिकित्सालय
सुधा मुलतानमा भराज्ञी बाफना चैरिटेबल ट्रस्ट भीवंडी 1992
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पूज्य गुरुदेवश्री की प्रेरणा से चिकित्सालय जन सेवार्थ समर्पित
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जैन स्थानक भवन (पदराड़ा)
जय श्री पुष्कर
ॐ नमोः जय श्री देवेन्द्र मानव सेवा ही महान धर्म है।
संयम ही जीवन है।
भारत के महान संत युग प्रधान प्रवक्ता पूज्यगुरूदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि महाराज एवं आपके सुशिष्य आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि महाराज की सद् प्रेरणा से इस चिकित्सालय भवन का निर्माण किया गया।
निर्माण कर्ता
मुथा मुलतान मल भूराजी बाफणा चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा
फ्र शिलान्यास फ्र माननीय श्री गंगारामजी चौधरी राजस्व मंत्री राजस्थान सरकार, जयपुर के कर कमलों द्वारा
पूज्य गुरुदेवश्री की प्रेरणा से चिकित्सालय जन सेवार्थ समर्पित
पू. गु.उ. श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की ८२ वी जन्म जयति पर निर्मित श्री चंपालाल हरखचंद कोठारी रा.उ.प्रा. विद्यालय क्र १
पीपाड़ शहर
पूज्य गुरुदेवश्री की जन्म जयंती पर स्थापित विद्यालय (पीपाड़)
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गुरुदेवश्री प्रेरणा संस्थापित श्री व. स्था. जैन श्रावक संघ का धर्म स्थानक, सोलापुर (महाराष्ट्र)
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गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित जैन भवन, गोगुन्दा
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गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित स्थानक
जैन स्थानक भवन (सायरा )
जैन स्थानक भवन (बगडुन्दा)
220
श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ सायरा (पुत्र)
1207584
जैन स्थानक भवन (सिंघाड़ा)
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श्री जैन स्थानक एदलाबाद (महाराष्ट्र)।
डेरावाल नगर दिल्ली में स्थित श्री गुरु पुष्कर भवन (जैन स्थानक)
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पुष्कर जैन चिकित्सालय
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श्री वर्धमान जैन पुष्कर गुरु सेवा समिति मदनगंज द्वारा संचालित पुष्कर गुरु जैन चिकित्सालय ।
जैन स्थानक भवन, डबोक (उदयपुर)
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गुरुदेव की ननिहाल नांदेशमा में नव-निर्मित जैन स्थानक पुष्कर भवन (नांदेशमा)
श्री वर्धमान महावीर राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय ग्राम ढोल
पुष्कर गुरु जैन महाविद्यालय गुरु पुष्कर नगर सिमटार।
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पूज्य गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित जैन स्थानक आदि धार्मिक स्थान।
जैन स्थानक भवन (कमोल)
जैन स्थानक भवन एवं आयम्बिल खाता (ढोल)
जैन स्थानक भवन (ढोल)
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गुरुदेवश्री की प्रेरणा से संस्थापित सेवा और शिक्षा संस्थान; जहाँ सेवा की सरिता बहती है तो विद्या के दीप जल रहे हैं। पुष्कर गुरु जैन सेवा शिक्षण संस्थान का विशाल प्रांगण
पूज्य गुरुदेव का नाम जहाँ जन्मजन्म की प्यास बुझा देता है, वहाँ उनके पावन नाम पर संस्थापित यह जल मन्दिर हजारों राहगीरों को शीतल जल पिलाता हुआ उनके तन की प्यास भी शान्त कर रहा है। पुष्कर जल मन्दिर (प्याऊ) सिमटार।
पुष्कर गुरु जैन सेवा शिक्षण संस्थान सिमटार का भीतरी दृश्य।
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पूज्य गुरुदेवश्री की प्रेरणा से निर्मित जैन स्थानक आदि धार्मिक स्थान।
जैन स्थानक भवन (जसवंतगढ़)
जैन स्थानक भवन (सुआवतों का गुढा)
जैन स्थानक भवन (तरपाल)
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तल से शिखर तक
२२७
आपश्री के पावन प्रवचनों से प्रभावित होकर भारत के विविध स्थलों में गृहस्थों की धार्मिक साधना हेतु स्थानक बने तथा अनेक स्थलों पर बालक और बालिकाओं के धार्मिक अध्ययन हेतु पाठशालाएँ भी निर्मित हुईं तथा स्वाध्याय के लिए वाचनालय एवं पुस्तकालय भी स्थापित हुए। उन सभी का पूरा और विस्तार से परिचय देना यहाँ संभव नहीं है। संक्षेप में ही एक सूची निम्न प्रकार है
१. श्री तारक गुरु ग्रन्थालय
२. श्री तारक गुरु ग्रन्थालय
३. श्री अमर जैन ज्ञान भंडार
४. श्री अमर जैन जागृति मंडल
५. श्री पुष्कर गुरु विद्यापीठ
६. श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान
७. श्री पुष्कर गुरु जैन लायब्रेरी
८. श्री ज्येष्ठ गुरु सेवा समिति ९. श्री पुष्कर गुरु सहायता फण्ड
१०. श्री पुष्कर गुरु गोशाला ११. श्री महावीर जैन सहायता फण्ड १२. श्री तारक गुरु जैन पुस्तकालय १३. श्री अमर जैन पुस्तकालय १४. श्री तारक गुरु जैन पुस्तकालय १५. श्री तारक गुरु जैन लायब्रेरी
१६. श्री पुष्कर मुनि जैन धार्मिक पाठशाला
१७. श्री पुष्कर मुनि राजस्थानी युवक मण्डल
१८. श्री राजस्थानी स्थानकवासी जैन संघ १९. श्री पुष्कर गुरु धार्मिक पाठशाला २०. श्री पुष्कर गुरु धार्मिक पाठशाला २१. श्री पुष्कर गुरु धार्मिक पाठशाला २२. श्री पुष्कर गुरु धार्मिक पाठशाला २३. श्री पुष्कर जैन भवन २४. श्री अमर जैन धर्म स्थानक २५. श्री अमर जैन धर्म स्थानक २६. श्री अमर जैन धर्म स्थानक २७. श्री अमर जैन धर्म स्थानक २८. श्री अमर जैन धर्म स्थानक
२९. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३०. श्री अमर जैन धर्म स्थानक
उदयपुर
पदराड़ा
खाण्डप
नान्देशमा
उदयपुर
गढ़सिवाना
गुलेजगढ़
उदयपुर
पूना
सिन्धनूर (कर्नाटक)
मैसूर (कर्नाटक)
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बीरार (महाराष्ट्र) शिवाजी नगर (बैंगलोर) शिवाजी नगर (बैंगलोर)
गोगुन्दा
नान्देशमा
तिरपाल
यशवन्तगढ़
ढोल
सायरा
डबोक
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३१. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३२. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३३. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३४. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३५. श्री अमर जैन धर्म स्थानक ३६. श्री जैन धर्म स्थानक
३७. श्री जैन धर्म स्थानक
३८. श्री जैन धर्म स्थानक ३९. श्री जैन धर्म स्थानक ४०. श्री जैन धर्म स्थानक ४१. श्री जैन धर्म स्थानक
४२. श्री जैन धर्म स्थानक
४३. श्री जैन धर्म स्थानक
४४. श्री जैन धर्म स्थानक
४५. श्री जैन धर्म स्थानक
४६. श्री जैन धर्म स्थानक
४७. दक्षिण भारतीय जैन स्वाध्याय संघ
४८. मद्रास विश्वविद्यालय में जैन इन्डोमन्ट
४९. श्री तारक युवक परिषद ५०. श्री तारक गुरु जैन पुस्तकालय ५१. श्री अमर जैन धर्म स्थानक
५२. श्री वर्धमान पुष्कर जैन सेवा समिति ५३. श्री तारक गुरु जैन पुस्तकालय ५४. वर्धमान पुष्कर जैन पुस्तकालय ५५. पुष्कर देवेन्द्र जैन पुस्तकालय
५६. अमर जैन पुस्तकालय ५७. जेष्ठ गुरु जैन पुस्तकालय ५८. आचार्य देवेन्द्र जैन पुस्तकालय
५९. श्री पुष्कर युवक मंडल ६०. श्री पुष्कर गुरु युवक परिषद
वास
मादड़ा
कोल्यारी
बागपुरा
झाडोल
बेलवडी (महाराष्ट्र)
पालघर (महाराष्ट्र)
भीम (राज.)
बीरार
केलवारोड
सफाला
वाणगाँव
Privates Personall
मजल
खाण्डप
भारण्डा
गदक
मद्रास
मद्रास
उदयपुर
बम्बोरा
सिंघाड़ा
मदनगंज
राखी
किशनगढ़
शिक्षा, धर्म एवं सामाजिक क्षेत्रों में श्रद्धेय उपाध्यायश्री द्वारा किए गए विशाल, व्यापक तथा ठोस कार्यों की उपरोक्त संक्षिप्त तालिका को पढ़कर ही पाठक समझ सकते हैं कि एक दिन, एक बाल-राजहंस ने जो उड़ान भरी थी वह कितनी ऊँची थी।
करमावास
जसवन्तर्गढ़
समदड़ी
कमोल
जीवन के मानसरोवर में से एक-एक कर चुगे गए मूल्यवान मोती उन्होंने भारतवर्ष के आसेतु हिमालय अंचलों में राष्ट्र और समाज की भावी पीढ़ियों के लिए मुक्त मन से बिखेर दिए थे।
लोनावला
बैंगलोर
उनके उदार हृदय की यही मंगल कामना थी कि भारत के नौनिहालों तथा नागरिकों का जीवन सद्धर्म की आब और निर्मल उज्ज्वलता लिए हुए मोतियों की भाँति ही प्रकाशित हो।
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VESDPlear-OR
२२८
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
सदगुणों के शान्त शतदल
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श्रद्धेय गुरुवर्य के महत् जीवन के उत्कृष्ट क्रियाकलापों की एक । ____ क्या आपत्ति हो सकती थी? आपत्ति का कोई भी कारण हमें Parge सूक्ष्म रूपरेखा ही पिछले अध्याय में प्रस्तुत की जा सकी है। सच्चाई। इसमें दिखाई नहीं देता। तो यह है कि समाज और राष्ट्र तथा सम्पूर्ण मानवता को उनकी
दो दीपक यदि एक ही प्रकोष्ठ को अधिक उज्ज्वल करें, जो अमर और चिरस्थायी देन है, उसका सम्पूर्ण आकलन तो प्रायः ।
अधिक प्रकाश फैले इस अन्धकारमय जगत में, तो हानि क्या है ? | संभव ही नहीं है।
आपश्री उसी धर्मशाला में विराजें। ज्ञानचर्चा हुई। आनन्द का फिर भी आगे के अध्यायों में प्रसंगानुसार हम उन
वातावरण बना। दूरियाँ कम हुईं। परस्पर सद्भाव एवं समझ का क्रियाकलापों का यथासंभव आलेखन करने का प्रयत्न करेंगे जिनसे
विस्तार हुआ। ज्ञानी आचार्यश्री शान्तिसागर जी "पुष्कर मुनि" 200 उनके परम पुरुषार्थ की झलक हमारे पाठकों को मिल सके।
नामक सच्चे महासन्त के चरित्र और विचारों से बहुत प्रभावित यहाँ हम उनके आभ्यंतर व्यक्तित्व की परमोज्ज्वल छवि को अपनी लेखनी द्वारा यथाशक्य अंकित करने का यत्न करते हैं।
बम्बई में आगम प्रभावक श्री पुण्यविजय जी महाराज विराज एक सच्चे सन्त का जीवन तो समस्त सद्गुणों का पुंज ही होता रहे थे। वे वयस्थविर, ज्ञानस्थविर और दीक्षा-स्थविर भी थे। है। उन अनेक सद्गुणों में से एक जो प्रमुख गुण है, वह है-विनय।। आपश्री उनसे मिलने बालकेश्वर के जैन मन्दिर में पधारे। लम्बे गुरुदेव विनय की मूर्ति थे। विनम्रता उनके जीवन में रची-बसी
समय तक आगमिक एवं दार्शनिक विषयों पर विचार-चर्चा हुई। हुई थी। आप श्रमणसंघ के उपाध्याय थे। ज्ञान के महासागर थे।
आपश्री के विनय एवं जिज्ञासावृत्ति को निहारकर-पुण्यविजय जी अनेक उपाधियों से अलंकृत थे। अपने भूतपूर्व सम्प्रदाय के वे महाराज गद्गद हो गए तथा दोनों महान् सन्तों का स्नेहपूर्ण सम्बन्ध मूर्धन्य वरिष्ठ सन्त थे। साधना के शिखर तक पहुँचे हुए थे। किन्तु । फिर अटूट ही रहा, आजीवन बना रहा। इतना सब होते हुए भी अहंकार उनके समीप कभी फटक भी नहीं ।
पं. मुनि श्री यशोविजय जी विद्वान हैं। तपस्वी हैं। दुर्घटनाग्रस्त
मनि श्री यशोविजय जी विद्वान हैं। सका। अहंकार उनकी कल्पना तक में भी कभी नहीं आ सका। होकर वे बम्बई के नानावाटी अस्पताल में थे। एक ज्ञानी, तपस्वी 800 उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से विनम्रता की मधुर और मोहक सुवास ही ।
सन्त अस्वस्थ हो और समीप ही हो, तो क्या हमारे परम उदार, 18 उड़ा करती थी।
विनयमूर्ति, सरलमना उपाध्याय श्री उनकी सुख-साता पूछने भी न इतने उच्च पद पर आसीन रहने के उपरान्त भी वे गुरुजनों जाते? यदि न जाते तो फिर उनकी महानता का दर्शन हमें कैसे A का आदर उसी विनयभाव से करते थे जैसे कि एक लघु संत होता? HERE करता है। सम्प्रदाय की रेखा उनके प्रशस्त उदार पथ को कहीं से वे मुनि श्री यशोविजय जी के पास गए। सुख-साता पूछी।
नहीं चीरती थी। प्रत्येक सम्प्रदाय के व्यक्तियों से वे निश्छल हृदय से मिलते और चर्चा करते थे। अन्य सम्प्रदायों के धर्मस्थलों में जाने में
प्रमाणित हुआ, कि एक सच्चे सन्त की दृष्टि कभी संकुचित उन्हें कभी संकोच नहीं होता था। वे मानते थे कि दूर-दूर रहकर
नहीं होती। ETE दूरियों को मिटाया नहीं जा सकता। दूरियाँ तथा मतभेद तो । पूज्य गुरुदेव की विनय भावना तथा उदार मनोवृत्ति के इस
8 स्नेह-सौजन्ययुक्त सामीप्य से ही मिट सकती हैं। स्थानकवासी प्रकार के दृष्टान्त अनेक हैं। हमारे पास स्थानाभाव है। अतः एक-दो
- परम्परा में होने से आपश्री को मूर्तिपूजा में तो विश्वास नहीं था, प्रसंग ही बताकर हम विश्वास करते हैं-कि पाठक यह भली-भाँति Doos
किन्तु आबू के देलवाड़ा मन्दिर में, राणकपुर जी, केसरियाजी आदि जान सकेंगे कि विनयशीलता किसे कहते हैं ? अनेक श्वेताम्बर मन्दिरों में तथा श्रवण बेलगोला, गजपन्था आदि
। अंग्रेजी में एक कहावत है-Talents differ-इसका अर्थ अनेक दिगम्बर जैन मन्दिरों में भी आप पधारे और वहाँ की
है-प्रतिभाशाली व्यक्तियों के चिन्तन में भेद हो सकता है। परम उत्कृष्ट कलाकृतियों का अवलोकन किया।
श्रद्धेय उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज के साथ श्रमण-संघ के एक बार आपश्री नासिक से सूरत पधार रहे थे। गजपन्था वैधानिक प्रश्नों को लेकर आपश्री का उनसे अत्यधिक मतभेद हो तीर्थ में उस समय चारित्र-चक्र चूड़ामणि दिगम्बराचार्य श्री गया था। अन्त में उपाचार्य श्री को श्रमण संघ के उपाचार्य पद से - शान्तिसागर जी विराज रहे थे। एक गुणवान व्यक्ति दूसरे गुणवान । त्यागपत्र देना पड़ा था। किन्तु जब आपश्री उदयपुर पधारे, तब
व्यक्ति की ओर आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक और उचित भी है। श्रद्धेय गणेशीलाल जी महाराज अस्वस्थ थे। उनका ऑपरेशन हुआ दिगम्बर श्रावकों का भी आग्रह था कि आपश्री एक ही धर्मशाला में था। आपश्री अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँ पधारे और सविधि उन्हीं के साथ विराजें।
वन्दन किया।
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। तल से शिखर तक
२२९ ।
वह विनय-वन्दन अविस्मरणीय रहना चाहिए। क्योंकि उससे सिद्धगति की प्राप्ति असम्भव है। उनका मानना था आवश्यकता आपश्री की महानता की झलक हमें प्राप्त होती है। आपश्री की चरित्र की है, चातुर्य की नहीं। आवश्यकता सम्यक् आचार की है, विनम्रता को देखकर श्री गणेशीलाल जी महाराज का हृदय आनन्द । समलंकृत वाणी की नहीं, कार्य की है, विवरण और कोरे प्रचार से भर उठा और उन्होंने आपश्री को अपने गले से लगा लिया। की नहीं।
हमें इससे कुछ सीखना चाहिए। दूरियाँ बनाते देर नहीं लगती। खेद का विषय होना ही चाहिए कि आज साधक के जीवन में दूरियाँ मिटाकर एक हो जाने में ही महानता है।
बहुरूपियापन आ गया है। उसका वास्तविक, व्यक्तिगत जीवन
अलग है और सामाजिक जीवन अलग। अजमेर का भी एक प्रसंग है-महास्थविर श्री हगामीलाल जी महाराज से सम्बन्धित। उनका श्रमण संघीय सन्तों से कभी भी
जीवन में दम्भ का प्राधान्य है। दम्भ से सामने वाले का कोई सम्बन्ध नहीं रहा, किन्तु हमारे श्रद्धेय गुरुदेव के व्यक्तित्व में तो
भला होने से तो रहा, स्वयं का विनिपात तो सुनिश्चित हो ही जाता मानो चमत्कार ही था। आपश्री के विनयपूर्ण सुव्यवहार से महास्थविरजी का हृदय-परिवर्तन हो गया और वे सदा-सदा के लिए आपश्री एक निर्दोष बालक की भाँति सरलमना थे। मैं उनका आपश्री के बन गए।
विनम्र शिष्य हूँ। मैंने स्वयं देखा है कि अनेक बार कोई भी बात राजस्थान प्रान्तीय सम्मेलन में सर्व सम्मति से यह निर्णय लिया ।
होने पर आपश्री महास्थविर ताराचन्द्र जी महाराज के पास
निस्संकोच स्पष्ट रूप से कह देते थे। इतनी सरलता थी उनमें। गया कि श्रद्धेय हस्तीमल जी महाराज से पुनः श्रमण-संघ में मिलने हेतु आपश्री वार्तालाप करें। जब आपश्री जोधपुर विराज रहे थे तब और था साहस! वहाँ स्थिति काफी तनावपूर्ण थी। तथापि आपश्री ने प्रवचन बन्द
भगवान् महावीर ने कहा-सरलता साधना का महाप्राण है। रखा और स्वागत हेतु बहुत दूर तक पधारे।
चाहे गृहस्थ साधक हो, चाहे संयमी साधक हो, दोनों के लिए छोटी-सी बात है।
सरलता, निष्कपटता, अदम्भता आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। किन्तु महापुरुषों की छोटी-छोटी बातों में गहरे अर्थ समाए
घृतसिक्त पावक के समान सहज, सरल साधना ही निधूम होती है,
निर्मल होती हैरहते हैं। व्यापक प्रभाव की शक्ति निहित होती है। आपश्री की विनम्रता से उस समय जोधपुर संघ में सद्व्यवहार
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। का संचार हो गया। श्री हस्तीमल जी म. के साथ आपश्री का
निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तेव्व पावए॥ प्रवचन भी हुआ। आपश्री की ओर से कहीं कोई कसर बाकी नहीं -भगवान् महावीर के इस कथन को आपने अपने जीवन में रही। किन्तु उनकी हार्दिक इच्छा श्रमण-संघ में मिलने की नहीं थी, पूर्ण रूप से चरितार्थ कर लिया था। इसी कारण इतने उच्च पद पर अतः इस सम्बन्ध में प्रगति नहीं हो सकी।
आसीन होकर भी आप सदैव सरल और सौम्य ही बने रहे। किन्तु आपश्री के विनय एवं सद्व्यवहार का प्रभाव श्री और उस सरलता ने आपके जीवन को चार चाँदों से सुशोभित हस्तीमल जी महाराज पर जो पड़ा, सो फिर कभी मिट नहीं सका। । कर दिया। जीवन भर वे ही मधुर सम्बन्ध रहे। मदनगंज और पाली आदि में
दया के देवता मिले स्नेह-सद्भाव के साथ।
दया मनुष्य का श्रेष्ठ मानवीय गुण है। साधना का नवनीत वस्तुतः विनय एक ऐसा ही कवच है, जिसे आज तक कोई । और मन का माधुर्य है। दया की भावना से हृदय से हृदय उर्वर भेद नहीं सका। एक अभेद्य कवच है-विनय।
बनता है और उसमें सद्गणों के कल्पवृक्ष उगते हैं। सन्तों को तो सरलता साकार होती है
दया के देवता ही कहा गया है। वह सन्त ही क्या जो 'स्व' और
'पर' का भेदभाव भुलाकर सभी प्राणियों को दया का अमृत-दान न पूज्य गुरुदेव नख से शिख तक सरल थे। दम्भ का लवलेश भी
करे? महापुरुष वही है जो स्वयं कष्ट सहन करने तथा विपत्तियों उनके जीवन में नहीं था। उनके जीवन और चरित्र का कौन-सा
को भी दृढ़ भाव से सहन करने में समर्थ हो, किन्तु किसी भी अन्य कोण था, जो सरल नहीं था? उनकी वाणी सरल थी। विचार
प्राणी के तनिक से भी दुःख से जिसका कोमल हृदय नवनीत-सा सरल, सीधे, सत्य और सुस्पष्ट थे। प्रत्येक व्यवहार सरल था।
पिघल जाय। आगमों में साधक का एक नाम 'दविए' भी आया हैन कहीं छिपाव-दुराव, न कहीं वक्रता।
दूसरों के दुःख से द्रवित होने वाला। टेढ़े-चलने या वक्र उक्ति को वे साधक के लिए घातक मानते। एक बार आपश्री रायपुर (राज.) से वर्षावास पूर्ण कर थे। आपका दृढ़ और अटल विचार था कि सरल बने बिना बिलाड़ा की ओर पधार रहे थे। मार्ग में एक सरस वन था।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । बाणगंगा का निर्मल नीर प्रवाहित था। पशु-पक्षीगण अपनी प्यास प्रकार बिहार, आन्ध्रप्रदेश आदि स्थानों पर भी दुष्काल के कारण
बुझाने के लिए नदी के किनारे आया करते थे। शिकारी निर्दयता से हजारों-लाखों पीड़ित हुए। आपकी प्रेरणा से इन सभी मनुष्यों की ae
ते थे। आपने तनिक-विश्राम के समय वहाँ शिकारियों । भरपूर सहायता अन्न-वस्त्रादि के रूप में की गई। 100000 को आया देखा तो अपने मधुर वचनों से उन्हें समझाया कि निरीह,
सन् १९८१ में आपका वर्षावास राखी (राजस्थान) में था। उस निरपराध, भोले-भाले प्राणियों को मारना श्रेयस्कर नहीं है। उन्हें
समय राजस्थान में भयंकर दुष्काल पड़ा। चारे के अभाव में मूक किसी भी प्रकार सताना और कष्ट देना पाप है। उन क्रूर
पशु दनादन काल के ग्रास बन रहे थे। आपके पावन उपदेश के शिकारियों पर आपके मधुर वचनों का तथा दया भावना का इतना
प्रभाव से लाखों रुपयों की राशि एकत्र हो गई। उस चातुर्मास में स्थायी प्रभाव पड़ा कि उन्होंने सदा के लिए शिकार करना छोड़
सेठ रतनचंद जी, देवीचंद जी रांका ने अत्यधिक उदारता के साथ दिया।
तन-मन-धन से पूरा सहयोग किया। ___बम्बई और पूना के बीच लोनावला है। वहाँ कार्ला की गुफाएँ
इस प्रकार के प्रसंग अनगिनत हैं। हैं। कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। प्राचीन युग में वहाँ सैंकड़ों बौद्ध साधक साधना किया करते थे। वहाँ एक देवी का मन्दिर भी है।
हमारे कथन का आशय यही है कि आपश्री के हृदय में दया वहाँ की कला को देखने के लिए गुरुदेवश्री एक दिन वहाँ ठहरे।
का महासागर लहराया करता था। किसी भी प्राणी को दुःखी
देखकर आप उसके दुःख-निवारण हेतु प्रेरित हो जाते थे और मध्याह्न में कुछ आदिवासी देवी के मन्दिर में बकरे की बलि चढ़ाने 100.0000 हेतु आए। गुरुदेव ने द्रवीभूत होकर उनसे कहा-निरीह बकरे का
आपके प्रभाव से जन-जन कष्ट में पड़े हुए प्राणियों के कष्टों को JODD बलिदान न करो। किन्तु वे नहीं माने तो आपने कहा-लो, तुम्हें ।
दूर करने के लिए कटिबद्ध हो जाता था। बलि ही देनी है तो मेरी दे दो।
आपका कोमल हृदय चन्द्रकान्तमणि के सदृश ही था। परदुःख दया-भावना की यह पराकाष्ठा थी।
दर्शन तो क्या, परदुःख के श्रवण मात्र से विगलित हो जाता था। इसे देखकर आदिवासियों को भी समझ आ गई। वे बोले"बाबा! आपके जैसा दयावान साधु हमने तो कभी नहीं देखा। हम
हिमशिला पर अंगारे बकरे को अभयदान देते हैं और आगे भी कभी ऐसा पाप नहीं करेंगे।"
स्वर्ण को तपाते चले जाइये, वह निखरता चला जायगा। भारत भर में फैले हुए अनेक सम्प्रदायों में अनेक लोग चींटियों
चन्दन को घिसते जाइए-सुवास बढ़ती ही जायगी। को, पक्षियों-पशुओं को आटा, अन्न, चारा आदि डालते हैं। वे अपने
इसी प्रकार सन्त कष्टों से घबराता नहीं। कष्ट तो उसके धर्म की इतिश्री इतने में ही मान लेते हैं, किन्तु लाखों और करोड़ों
जीवन को माँजते चले जाते हैं। मानव भूख से तड़फते हैं, शीत से ठिठुरते हैं, रोगों से ग्रसित होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उन लाखों-करोड़ों मानवों की भलाई
लोहा-फौलाद बनता जाता है। करने की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। आपश्री अपने आपश्री की कष्ट-सहिष्णुता एवं भाव-सहिष्णुता अद्भुत थी। प्रवचनों में यथासमय बारम्बार ऐसे अभावग्रस्त मानवों के साथ किसी भी परिस्थिति में आपको असहिष्णु होते कभी किसी ने नहीं सहयोग किए जाने की बात दुहराते थे और परिणामतः अनेक | देखा। दानवीर आगे आ जाते थे और मानव-सेवा हेतु लाखों रुपयों की
सन् १९४२ में आप कुचेरा से विहार कर नागौर पधार रहे राशि एकत्र हो जाती थी।
थे। मार्ग में मूंडवा नामक कस्बा था। वहाँ जैन गृहस्थ का एक भी सन् १९७५ का वर्षावास पूना में था। उस समय वहाँ बहुत । घर नहीं था। माहेश्वरियों के ही घर थे। एक भवन में आपने भिक्षा अधिक वर्षा हुई। झोंपड़-पट्टी में रहने वाले लोग बेघर-बार हो गए। हेतु प्रवेश किया। वह माहेश्वरी सज्जन जैन श्रमणों से परिचित पूज्य गुरुदेव ने उनकी दीन-दयनीय दशा देखी तो द्रवित हो गए। नहीं था। उसका व्यापार उड़ीसा में था। आपश्री को घर में प्रवेश अपने प्रवचन में उनकी इस दुःखद स्थिति का ऐसा मार्मिक चित्रण करते देखकर वह आग-बबूला हो गया और लगा अनाप-शनाप आपने किया कि उसी समय वहाँ पर श्री पुष्कर गुरु सहायता बकने और गालियाँ देने-चले आए बिना पूछे घर में। निकलो यहाँ संस्था की स्थापना हो गई। वह संस्था आज भी हजारों मानवों का । कल्याण कर रही है।
। सहिष्णुता की मूर्ति बोली-“सेठजी, हम जैन साधु हैं। मधुकरी सन् १९४८ में आपका वर्षावास घाटकोपर (बम्बई) में था। करते हैं। उसी के लिए तुम्हारे घर में आए हैं। गरम पानी का उस समय भयंकर तफान आया। लाखों लोग बेघरबार हो गए। इसी उपयोग करते हैं। यदि गरम पानी हो तो दे दीजिए।"
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तल से शिखर तक
२३१ ।
सेठ पर जैसे गरम पानी ही पड़ गया। गुर्राता हुआ बोला-क्या "मैं जैन साधु हूँ।" तेरे बाप ने यहाँ गरम पानी रख छोड़ा है........?
"कैसा साधु है ? साधु तो घर-घर जाकर आवाज लगाते हैंआपने सहज, स्नेहमय मुद्रा में कहा-इसीलिए तो हम आए हैं। बम भोले! हरे राम! हरे कृष्ण! कान ही खा जाते हैं।" भारतीय दर्शनशास्त्र में पुनर्जन्म माना गया है। इस जन्म में नहीं तो
_“माताजी, हम जैन साधु इस प्रकार आवाज नहीं लगाते। यह पूर्वजन्म में कभी आप मेरे बाप रहे होंगे।
हमारे आचार में नहीं है। हम तो शान्ति के साथ गृहस्थ के घर में अपनी सैंकड़ों गालियों तथा कटुवचनों के उत्तर में इतनी मीठी प्रवेश करते हैं और नियमानुसार भिक्षा मिल जाती है तो ग्रहण कर बोली और ऐसी अद्भुत सहिष्णुता देखकर सेठ का क्रोध ठंडा पड़ लेते हैं। अन्यथा हम लोग आनन्दपूर्वक निराहार रहना भी जानते गया और वह आपश्री की महानुभावता को जान गया। उसने कहा- । "आप जरा ठहरिए, मैं देखता हूँ।" यह कहकर वह भीतर गया।
उस महिला ने अपने दीर्घ जीवनकाल में आज ही एक सच्चा सेठानी से पूछा-"जैन साधु आए हैं। गरम पानी है?" सेठानी भी
साधु देखा था, जो सैंकड़ों गालियों की बौछारें शान्त, सहिष्णु भाव सेठ जी जैसी ही थी। बोली-“क्या उसकी माँ ने यहाँ गरम पानी रख छोड़ा है?"
से उस प्रकार सहन करता रहा मानो फूल बरस रहे हों.............. आपने सेठानी के ये वचन भी सुन लिए। प्रेमपूर्वक सेठजी से
कहने की आवश्यकता नहीं कि वह महिला श्रद्धा से विभोर हो
गई। कहा-“आज का दिन तो बड़ा ही अच्छा है। पिता भी मिल गए, माता भी मिल गई। इसलिए लगता है पानी तो क्या, रोटी भी मिल जायेगी।"
एक विहार के समय आपश्री के गुरुदेव के पैर में बहुत पीड़ा यह सुनकर तो सेठ-सेठानी स्वयं ही पानी-पानी हो गए। गुरुदेव Jथी। कहीं विराम लेना अनिवार्य बन गया था। पूछताछ से पता के चरणों में गिर पड़े। भक्तिभाव से आहार-पानी तो दिया ही, साथ चला-सड़क से हटकर चार फाग दूर एक नया ग्राम बसा है। वहाँ ही बोले-"हमने अपने जीवन में सैंकड़ों, हजारों साधु देखे। किन्तु सुविधा हो सकती है। आप जैसा सच्चा महान् सन्त तो कभी कहीं नहीं देखा। महाराज! मैं
गाँव में पहुंचे और ग्राम के बीच में एक नीम के पेड़ के नीचे, 9003 जगन्नाथपुरी में व्यवसाय करता हूँ। वहाँ तो सहस्रों साधु-संन्यासियों
चबूतरे पर बैठे। किन्तु देखते-देखते ही ग्राम के सभी आस-पास के का जमघट लगा रहता है। जरा-सी बात उनके मन के विपरीत हो
घरों के द्वार बन्द हो गए। कुछ देर में दस-बीस नौजवान हाथों में 800 तो वे चिमटा लेकर दौड़ पड़ते हैं। किन्तु आप?.......आप तो धन्य
लाठियाँ लिए हुए आए-"क्यों बैठे हो यहाँ ? एक क्षण भी न रुको। हैं! हमने इतनी कड़वी बातें कहीं, ऐसा दुत्कारा, किन्तु आपके चेहरे
भाग जाओ यहाँ से।" पर तो क्रोध का कोई चिह्न ही दिखाई नहीं दिया।"
आपश्री ने उन्हें समझाना चाहा-"हम जैन साधु हैं ।" वह सेठ और वह सेठानी आपश्री के प्रति अनन्य भक्तिभाव से भर उठे।
किन्तु वे तो सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे। एक शब्द भी।
उन्हें डर लग गया था कि डाकू आ गए हैं। उस समय उस क्षेत्र में BDDD यह प्रभाव सहिष्णुता का ही तो है।
डाकुओं का प्रकोप अधिक चल रहा था। सन् १९५४ में आपश्री दिल्ली का वर्षावास पूर्ण कर जयपुर
विवशता में आगे चलना पड़ा। उन भ्रमित युवकों ने उन्हें एक आ रहे थे। महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी महाराज के पैर में एकाएक दर्द हो जाने के कारण आपको एक ग्राम में रुकना पड़ा।
प्रकार से खदेड़ ही दिया। उस ग्राम में जैन-श्रमण पहली बार ही गए थे। एक मकान में आप कोई ग्राम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। आपके गुरुदेव श्री के जब प्रविष्ट हुए तो वहाँ खेलती-कूदती हुई बालिकाएँ आपको पैर में बहुत पीड़ा थी, किन्तु ऊबड़-खाबड़ राह पर भूख और प्यास देखकर भयभीत-सी होकर चिल्लाती हुई ऊपर भागीं। उनका को सहन करते हुए, मार्ग में मिल जाने वाले ग्रामीणों से किसी ग्राम 00 चिल्लाना सुनकर मालकिन आई और लगी गालियों की बौछार का पता पूछते हुए आगे बढ़ता ही रहा सन्तों का काफिला। करने..........।
किसी एक राहगीर से पता चला यहाँ से चौदह मील दूर भरे-भरे मेघ भी रीत जाते हैं।
सड़क-किनारे एक मन्दिर है। उस महिला का गालियों का खजाना भी खाली हो गया। उसी कष्टदायी स्थिति में दिन भर चलने के पश्चात् वह मन्दिर थककर अन्त में उसने कहा-"अरे, आखिर तू है कौन? मैंने इतनी मिला। मन्दिर की पुजारिन आपको देखते ही आनन्दित हो उठी गालियाँ दी और तू चुपचाप खड़ा मुस्करा ही रहा है?"
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। “आज मेरे सौभाग्य! गुरुदेवों के दर्शन हुए। मेरी माता जयपुर बल्कि ऐसा भी होता है कि आलोचना से व्यक्तित्व में अधिक के जौहरियों के यहाँ रहती थी और मैं भी वहीं बड़ी हुई हूँ। यहाँ । निखार ही आता है, यदि हमारी मान्यता में बल है तो। हमारी खेती है। जंगल में पड़ी हूँ। वर्षों से मनोकामना थी कि
प्रायः लोग अनुकूल परिस्थितियों में तो आनन्द से मुस्कराते हैं, सद्गुरुओं के दर्शन हों, वह कामना आज पूर्ण हुई। आज मेरा और
किन्तु प्रतिकूल परिस्थिति में भी वही आनन्द भाव बनाए रख सकें बच्चों का एकासन व्रत है। गुरुदेव! आहार-पानी तैयार है। ग्रहण
ऐसे महापुरुष आपश्री के समान बहुत थोड़े ही होते हैं। गुरुदेवश्री करें। मैं आज धन्य हो गई।"
अपनी निन्दा और स्तुति दोनों में समान भाव बनाए रखकर बड़े प्रेम से उसने भिक्षा प्रदान की।
कभी-कभी अपनी मस्ती में झूमकर उर्दू का यह शेर गुनगुनाया आपश्री ने गुरुदेव से कहा-"आज का दिन भी अपूर्व आनन्द
करते थेका रहा। प्रातःकाल तर्जना और सांयकाल अर्चना। तर्जना और
मंज़िलें हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर। अर्चना में समभाव में रहना ही श्रमण-जीवन का सही आनन्द है।" । रात हो जाए तो दिखलाए तुझे दुश्मन चिराग॥
ऐसे परीक्षा लेने वाले प्रसंगों का कोई अन्त ही नहीं है। आप कितना सुन्दर, मधुर और सन्तुलित है आपका विचार! पढ़ते जाइये। हम लिखते जायें। किन्तु कहीं न कहीं विराम तो लाना
एक ही प्रसंग आपकी इस विषय की महत्ता को प्रगट करने के ही पड़ेगा। अनेक विहारों में, अनेक स्थानों पर, अनेक प्रकार की
अनेक विहारी में, अनेक स्थाना पर, अनक प्रकार का लिए पर्याप्त होना चाहिएसमस्याएँ आती रहीं और समाधान निकलते रहे-अंतिम समाधान के रूप में सन्तोष, शान्ति तथा सहिष्णुता तो है ही। .
सन् १९६७ का वर्षावास बालकेश्वर (बम्बई) में था। उस
समय बालकेश्वर संघ की संस्थापना को लेकर कांदावाड़ी-बम्बई कहीं मकान नहीं। कहीं आहार नहीं।
संघ के अधिकारियों के मन में यह विचार चल रहा था कि इस कहीं तर्जना और कहीं भय के कारण दुत्कार।
संघ की स्थापना हो जाने से कांदावाड़ी संघ को सार्वजनिक कार्यों
के लिए जो लाखों रुपयों की सहायता प्रतिवर्ष मिलती है, वह बन्द किन्तु किसी भी स्थान पर किसी भी प्रसंग में आपश्री को
हो जायेगी। वे विरोध करने की स्थिति में तो नहीं थे, किन्तु विरोध तनिक भी, किंचित् मात्र भी विचलित होते हुए अथवा असहिष्णु
करना था। अतः उन्होंने बालदीक्षा को लेकर ही विरोध किया। होते हुए नहीं देखा गया।
विरोध अवैधानिक था, क्योंकि जो बाल-दीक्षा दी गई थी, वह वे सदैव यही विचार करते थे-अनार्य देशों में भगवान्
बम्बई से साठ मील दूर दी गई थी। बम्बई महासंघ के कार्यक्षेत्र से महावीर को कितने कष्ट दिए गए, तथापि भगवान् उन कष्टों का । बाहर। जिसमें बाल-दीक्षा का निषेध नहीं हो। मुस्कुराते हुए ही स्वागत करते रहे। उसी पथ पर हमें भी आगे
श्रमण-संघ बनने के पश्चात् अनेकों बालदीक्षाएँ हो चुकी थीं। बढ़ना है।
आचार्य एवं प्रधानमंत्री मुनिवर भी बाल-दीक्षा दे चुके थे। निंदक नियरे राखिए
फिर भी, विरोध की आँधी इतनी तीव्र आई, कि यदि उस आपश्री के चरित्र का एक और विशिष्ट गुण, आपश्री के समय आपश्री के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता तो वह अपने आभ्यंतर व्यक्तित्व का एक और उज्ज्वल पहलू यह था कि आप न । स्थान पर टिक नहीं सकता था। किसी की स्तुति से विशेष प्रसन्न होते थे और न किसी के द्वारा की
किन्तु हिमालय को भी कभी चलित होते किसी ने सुना है? जा रही निन्दा अथवा आलोचना से रुष्ट।
आपश्री विचलित नहीं हुए। समाचार-पत्रों के पृष्ठ रंगे आते रुष्ट होना तो दूर, अपने आलोचक से वे प्रेमपूर्वक यही कहते
रहे। विरोधी व्यक्ति उत्तेजनापूर्ण बातें लिखते रहे। किन्तु हिमालय थे-आपने मुझे शायद ठीक से समझा नहीं। आपका विरोध मेरे ।
की हिमशिलाओं पर अग्नि के अंगारे क्या प्रभाव डाल सकते हैं? लिए तो विनोद ही है।
आपश्री जानते थे कि आँधी की आयु लम्बी नहीं होती। संसार में जिन व्यक्तियों के विमल विचारों में गहनता व मौलिकता होती है, उनकी आलोचना भी सहज रूप से होती है।
वर्षा आती है। किन्तु आपश्री जैसे महान् व्यक्ति उन आलोचनाओं से अपने मन । आकाश निर्मल हो जाता है। एवं विचारों को अछूता ही बनाए रखकर अपने लक्ष्य की ओर
वही स्थिति अन्त में आई। विरोधियों के मन में पश्चात्ताप आगे ही बढ़ते चले जाते हैं।
उत्पन्न हुआ अपने अकृत्य के लिए। वे आपश्री के चरणों में झुक निन्दा और स्तुति-दोनों समान।
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इन विरोधियों का विरोध आपश्री ने कभी किया ही नहीं था। यह थी, और इतनी थी आपकी अगाध सहिष्णुता, जिसके आप तो शान्त थे। अचल और अडिग।
समक्ष कटु से कटु आलोचक भी आपके चरणों में विनत हो जाते थे। आपश्री की साधुता को देखकर बम्बई महासंघ के मूर्धन्य इस प्रकार की निराधार आलोचनाओं के प्रसंग आपश्री के मनीषी अध्यक्ष श्री चिमनभाई ने हजारों की जनता के समक्ष घोषित जीवन में अनेक बार आए। किन्तु आपश्री का तो एक ही कथन किया
था-प्रभात से पूर्व अंधकार कुछ अधिक गहन होता ही है। सूर्य "पुष्कर मुनिजी जेवा साचा साधु गोत्यापण न मिले।"
उदित होने वाला है। तुम सत्य पथ पर हो, न्याय के मार्ग पर चल
रहे हो तो फिर भय कैसा? -खोजते-खोजते थक जाइये। किन्तु पुष्कर मुनिजी जैसे सन्त मिलने वाले नहीं।
आलोचना का धुंआ तो सत्य का पवन चलते ही विलीन हो | जाता है।
श्री ज्येष्ठ गुरु जाप
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
वचन सिद्ध कलियुग मांई। गुरुराज आप परगट पाई।
नाम से काम सिद्ध थावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥१॥ नाम को पडचो पड़े भारी । मिटे कष्ट शान्ति हो जावै सारी।
सुख मांही जांरा दिन जावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥२॥ राज में अपनो काज बढ़े। फिर दिन-दिन लछमी हाथ चढ़े ।
जा देश-विदेश तो जय पावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥३॥ छिन में तन को सब रोग मिटे । कई जनम-जनम के कर्म कटे ।
फिर चित्त चिन्ता भी हट जावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥४॥ भयदायक भूत प्रेत मिले । लिया नाम तुरन्त वे दूर टले ।
जंगल में मंगल हो जावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥५॥ प्रातः उठ लिया नाम थकी । नव-निधि हुवे या बात पकी ।
आनन्द की बंशी बज जावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥६॥ तारक गुरु प्रसाद करी । 'मुनि पुष्कर' को परतीत खरी।
नाम से नैया तिर जावे ।
श्री ज्येष्ठ मुनि ने जो ध्यावे ॥७॥
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भारतीय साधना पद्धति में जप का विशेष महत्व सदा काल से रहा है।
आध्यात्मिक साधना उपलब्धियाँ व चमत्कार
जप वह चमत्कार है, जो समस्त आधि-व्याधियों और उपाधियों को नष्ट कर परम आनन्ददायी समाधि प्रदान करता है।
अद्भुत शक्ति निहित है-जप में
गीता में - श्रीकृष्ण ने अर्जुन से इसी रहस्य का उद्घाटन करते हुए रहा था
"यज्ञानां जप यज्ञोऽस्मि ।"
हे अर्जुन! यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ।
केवल दो अक्षर हैं 'जप' में 'ज' जन्म का विच्छेद करने वाला है और 'प' पाप का नाश करने वाला।
अतः, ध्यान दीजिए, जप संसार का नाश करने वाला है, अर्थात् जन्म-मरण से मुक्ति ।
ध्यान से मन शुद्ध होता है। जप से वचन की शुद्धि होती है, और आसन से काया विशुद्ध बनती है।
जो भव्य प्राणी सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए जप की अनिवार्य आवश्यकता है। इसीलिए भारत के एक तत्त्व चिन्तक ने कहा है
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-त्याग दीजिए तमाम संशय जप कीजिए, और एकाग्र मन से कीजिए। जप में अनन्त शक्ति है। असंभव कार्य भी जप से संभव हो जाते हैं।
नियमित समय पर सद्गुरुदेव से सविधि नवकार महामंत्र को लेकर यदि जप किया जाय तो सिद्धि अवश्य ही मिलती है। ऐसा दृढ विश्वास था आपश्री का आप स्वयं प्रतिदिन नियमित रूप से जप करते थे। भोजन के स्थान पर भजन को अधिक महत्त्व देते थे। उनके जीवन में जप की साधना तो साकार ही हो उठी थी। सम्पर्क में आने वाले जिज्ञासुओं को वे जप करने की शुभ प्रेरणा प्रदान करते थे। स्वयं भी रसपूर्वक जप करते थे। अपने प्रवचनों में वे प्रायः कहा करते थे-कहाँ-कहाँ भटक रहे हो ? क्यों भटक रहे हो ? मन्त्र-तन्त्रों के पीछे पागल बनकर घूमना वृथा है। महामंत्र नवकार जैसा प्रभावशाली मंत्र अन्य कोई नहीं है, हो नहीं सकता। एकनिष्ठा, एकतानता के साथ इसका जप करो- तुम्हें अनिर्वचनीय आनन्द की उपलब्धि होगी।
आपश्री को जप और ध्यान की साधना गुरुपरम्परा से प्राप्त थी। जप की सिद्धि के लिए गुरुजनों की कृपा अत्यन्त आवश्यक भी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
होती है। यदि उनके द्वारा प्राप्त विधि से जप किया जाय तो अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है। गुरुदेव प्रातः, मध्यान्ह और रात्रि में जप-साधना नियमित रूप से घंटों तक करते थे।
उस साधना में किसी प्रकार की लौकिक अथवा भौतिक कामना या भावना का अंशमात्र भी नहीं था ।
इसीलिए आपको वह सिद्धि प्राप्त थी, जिसे हमने स्वयं अपनी आँखों से देखा है, प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि लोग रोते-बिलखते हुए आते थे और गुरुदेवश्री से मांगलिक सुनकर हँसते और मुसकराते हुए विदा होते थे ।
डॉक्टर और वैद्य हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते थे। आकाश की ओर दृष्टि उठा देते थे। असहाय हो जाते थे। किन्तु उन्हीं रोगियों को हमने गुरुदेव की वाणी से स्वस्थ होते हुए देखा है।
ऐसे ही एक-दो प्रसंग यहाँ दिए जा रहे है, जिससे कि पाठक जप के महत्त्व को तथा उससे प्राप्त होने वाली शक्ति और सिद्धि का कुछ अनुमान तो लगा सकें।
सन् १९६९ का समय । गुरुदेव का विहार नासिक में था। एक बाई रोती- कलपती उनके पास आई और बोली "मेरे नी वर्ष के पुत्र के नेत्रों की ज्योति चली गई है। मैं बहुत दुःखी हूँ। अब मेरे पुत्र का क्या होगा ?"
उस भद्र महिला के दुःख से गुरुदेव का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने उसके घर जाकर बालक को मांगलिक सुनाया और पूछा"कुछ दिखाई देता है ?" बालक ने उत्तर दिया- "कुछ धुंधलाधुँधला-सा । "
तीन दिन उसे गुरुदेव ने मांगलिक सुनाया। उसके नेत्रों की ज्योति लौट आई। बड़े-बड़े नेत्र विशेषज्ञ जो निराश हो चुके थे, आश्चर्यचकित रह गए और बोले - " महाराजश्री, आपकी इस चमत्कारपूर्ण सिद्धि को देखकर हमें परमात्मा पर विश्वास हो गया है। हम आस्तिक बनने पर विवश हो गए हैं। धन्य है आपको।"
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सन् १९७७ का एक अन्य प्रसंग गुरुदेव मैसूर से बैंगलोर पधार रहे थे। बैंगलोर से पैंतीस मील दूर रामनगर नामक ग्राम में वे ध्यान से निवृत्त हुए ही थे कि एक कार में कुछ व्यक्ति आए। उनके साथ एक महिला भी थी। महिला अस्वस्थ थी। सभी लोग बहुत चिन्तित थे। पाँच दिन से उस महिला ने न कुछ खाया-पिया था और न ही वह कुछ देख सकती थी या बोल सकती थी उसकी हालत बहुत चिन्तनीय थी डॉक्टर कुछ कर नहीं पा रहे थे।
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उन सज्जनों ने बताया- "गुरुदेव ! हम बड़ी आशा लेकर आपके पास आए हैं बैंगलोर के सम्माननीय सेठ श्री छगनलाल जी मूथा ने बताया कि हमारे लिए अब आपके अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है। कृपा कीजिए।"
गुरुदेव ने दो क्षण उस महिला को नवकार मंत्र सुनाया और फिर एक पुस्तक उसे बताते हुए कहा- "इसे पढ़ सकती हो?"
दो क्षण पूर्व जो महिला मूर्च्छितावस्था में पड़ी थी, सहसा चैतन्य होकर उस पुस्तक को दनादन पढ़ने लगी । गुरुदेव की कृपा से वह पूर्ण स्वस्थ हो गई। उपकृत लोग जब आश्चर्य विमुग्ध थे तब गुरुदेव ने कहा - "भाई, मैं कोई डॉक्टर नहीं हूँ। मैं तो एक साधक हूँ। साधना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। साधना कीजिए, कल्याण होगा।"
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सन् १९७३ का वर्षावास अजमेर में था। पारसमल जी ढ़ाबरिया की धर्मपत्नी मनधर ने मासखमण तप किया था। पारणे से पूर्व रात्रि में अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई। सभी लोग घबरा गए। उस समय के प्रसिद्ध डॉ. सूरजनारायण जी भी कुछ समझ और कर न सके। चिन्तित ढ़ाबरिया परिवार गुरुदेव श्री के पास आया- "गुरुदेव ! अब क्या किया जाय ? यदि उसे कुछ हो गया तो जैनधर्म की बड़ी निन्दा होगी कि जैनी लोग मनुष्यों को भूखा मार देते हैं। अब तो आपकी ही शरण है।"
"शरण तो धर्म की है, भाई चिन्ता न कीजिए। सब ठीक हो जायेगा।" कहकर गुरुदेव ढ़ाबरिया जी के घर गए। उनकी पत्नी को उन्होंने कुछ सुनाया। वह तत्काल एकदम स्वस्थ हो गई। सर्वत्र
आनन्द छा गया।
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सद्धर्म एवं साधना के समक्ष बड़ी से बड़ी दानवी शक्ति भी किस प्रकार परास्त हो जाती है, इसका उदाहरण है यह एक प्रसंग
सन् १९३६ की बात है। गुरुदेव बड़ौदा से सूरत पधार रहे थे। मार्ग में दूर-दूर तक केवल मुसलमानों की ही बस्तियाँ थीं। नवीपुरा की कपास की मील में एकमात्र एक ब्राह्मण का घर था। वहाँ से आहार तो प्राप्त हो गया, किन्तु ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं मिला। गुरुदेव को उपयुक्त स्थान के लिए इधर-उधर देखते हुए एक मुसलमान भाई ने देखा और पूछा - "क्या देखते हो बाबा ?” गुरुदेव ने बताया कि रात्रि विश्राम के लिए कोई उपयुक्त स्थान चाहिए। उस मुसलमान ने एक बड़ा-सा बंगला बताते हुए कहा - "वह मेरा ही है। आप खुशी से उसमें ठहर सकते हैं।"
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उस समय आपके साथ गुरुदेव श्री ताराचन्द्र जी महाराज तथा पं. रामानन्द जी शास्त्री थे। तीनों उस बंगले में ठहर गए। एकान्त,
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जंगल-सा था । अँधेरी रात्रि थी। पंडित जी एक लालटेन अपने लिए किराये पर ले आए। एक ओर पंडित जी तथा दूसरी ओर आप तथा गुरुदेव श्री ताराचन्द्रजी महाराज विश्राम कर लेंगे यह विचार था। रात्रि में नौ बजे तक आप पंडित जी से ज्ञान चर्चा करते रहे। उसके बाद आपश्री जपादि करके लेट गए। इससे पूर्व आपने पंडित जी को सावधान कर दिया था कि बंगले की स्थिति देखते हुए किसी उपद्रव की आशंका हो सकती है। अतः वे ध्यान रखें।.
ज्यों ही आपश्री को नींद आने लगी कि एक चीत्कार सुनाई पड़ी। आप उठ बैठे देखा पंडित जी चीख रहे थे और दीपक टिमटिमा रहा था। समीप जाकर आपने पूछा- क्या बात है पण्डितजी ?
पंडितजी का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था। हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। उन्होंने कहा- "मेरी छाती पर एक भयावनी सूरत आकर बैठ गई और मुझे मारने लगी।" आपने कहा - "संभव है आपका हाथ आपकी छाती पर आ गया हो। चिन्ता न कीजिए। "
किन्तु पंडितजी ने कहा- "नहीं महाराज! वह तो साक्षात् यम ही था। अब मैं यहाँ नहीं सो सकता। आपश्री के समीप ही सोऊँगा।" यह कहकर वे आपके पास ही आकर सोए। दीपक भी उन्होंने अपने समीप ही एक ओर रख लिया।
रात्रि के बारह बजे पुनः पंडित जी उसी प्रकार चीख पड़े। आप उठ बैठे। देखा - दीपक का प्रकाश जो बिलकुल ही मन्द हो चुका था, धीरे-धीरे पुनः तेज हो रहा था और पंडित जी पहले की ही भाँति पसीने से नहाए हुए थे। आपश्री ने कहा- “पंडित जी ! यह इसी मकान का चमत्कार है। किन्तु अब आप घबराइये नहीं। कुछ नहीं होना ।" यह कहकर आपने कुछ जप किया और रजोहरण से रेखा खींचते हुए कहा- अब आप निश्चिन्त होकर सो जाइये। आपका बाल भी बाँका न होगा।"
किन्तु पंडित जी इतने भयभीत हो चुके थे कि वे अब अलग सोने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा- “मैं तो अब आप दोनों के बीच में ही सोऊँगा।"
परिस्थिति को देखते हुए आपने पंडित जी को बीच में ही सुला लिया। प्रतिदिन के नियमानुसार आप तो दो बजे उठकर जप ध्यान में विराज गए और पंडित जी शान्ति से सोते रहे।
प्रातःकाल विहार कर भड़ींच जाना था। मकान की आज्ञा पुनः लौटाने के लिए जब उस मुसलमान भाई के पास गए तब वह तीनों । को देखकर हैरान रह गया, बोला- “कमाल है, आप लोग जिन्दा रह गए ?"
आपने उसे समझाया - "ऐसा करना ठीक नहीं। हम तो बच गए, किन्तु दूसरों के साथ कभी ऐसा न करना । "
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आपकी आध्यात्मिक शक्ति को देखकर वह मुसलमान भाई धीरे-धीरे साँझ ढल गई। अन्धकार अपना राज्य फैलाने लगा। बहुत प्रभावित हुआ। चरणों में गिरकर पश्चात्ताप करता हुआ उसी समय अचानक पत्थरों की वर्षा होने लगी। देखने पर अनुमान क्षमायाचना करने लगा और बोला-"मुझे माफ कीजिए। उस मकान हुआ कि एक टेकरी पर जो कुछ झोंपड़ियाँ दिखाई दे रही थीं, में जिंन्द रहता है। वह किसी को ज़िन्दा नहीं छोड़ता। मैंने आपको उधर से ही पत्थर आ रहे थे। काफिर समझकर जान-बूझकर उस मकान में भेजा था। बड़ी गलती
किन्तु एक भी पत्थर लगा नहीं। और वह पाषाण-वर्षा फिर हुई। एक सच्चे फकीर को मैंने तकलीफ दी। माफ कीजिए। आगे से ।
बन्द हो गई। प्रतिक्रमणादि से निवृत्त होकर गुरुदेव जप-साधना में कभी ऐसा नहीं करूँगा। आपने मेरी आँखें खोल दीं।"
बैठ गए।
रात्रि के लगभग नौ बजे होंगे कि एक थानेदार कुछ सिपाहियों एक और प्रसंग पाठकों को सुनाने योग्य है। इसलिए कि वह के साथ वहाँ आ धमका। वह गरजा-"कौन हो? यहाँ क्यों बैठे स्पष्टतः यह प्रमाणित करता है कि इस धराधाम पर पूज्य गुरुदेव । हो? चलो थाने पर।" श्री के समान कुछ ऐसे नर-शार्दूल समय-समय पर अवतीर्ण होते हैं,
गुरुदेव श्री ने ध्यान से निवृत्त होकर कहा-"हम जैन श्रमण जिनके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और दया का एक ऐसा
हैं। रात्रि में विहार नहीं करते।" प्रदीप्त प्रकाश होता है कि किसी भी प्रकार के भय का अन्धकार उनके समीप भी नहीं फटक सकता। तथा ऐसे महापुरुषों के समक्ष
थानेदार अधिकार-मद में मत्त था। उसने कहा कि चलना ही क्रूर से क्रूर और हिंसक से हिंसक प्राणी भी अपनी हिंसावृत्ति तथा
पड़ेगा। वह धमकियाँ देने लगा। किन्तु गुरुदेव ने शान्त भाव से वैरभाव का विसर्जन कर देते हैं।
कहा-"आपकी धमकियाँ व्यर्थ हैं। आप अपनी शक्ति का अपव्यय
न करें। हम रात्रि में विहार नहीं करेंगे।" इस घटना का संकेत हमने आरम्भ में किया था। अब उस अविस्मरणीय प्रसंग की थोड़ी विगत यहाँ दी जा रही है
सीधे-सादे शब्दों में कही गई इतनी-सी बात में वज्र की-सी
दृढ़ता थी। थानेदार ने इस बात को समझ लिया और कहाघटना सन् १९४८ की है। गुरुदेव घाटकोपर (बम्बई) का
“अपना कुछ परिचय दे सकते हो तो दीजिए आप।" वर्षावास पूर्ण कर नासिक संघ के अत्याग्रह को स्वीकार कर वहाँ पधारे और फिर सूरत की ओर आगे बढ़े। मार्ग में सतपुड़ा पर्वत
“बम्बई की विधानसभा के स्पीकर भाऊ साहब कुन्दनमल की विकट पहाड़ियाँ आती थीं। उन्हें पार कर वासदा पहुँचे। कोई
फिरोदिया हमारे शिष्य हैं।"-गुरुदेव ने बताया। भी जैन मुनि कहाँ बाईस वर्षों के पश्चात् पधारे थे, अतः वहाँ के थानेदार ने कहा-इतनी दूर का नहीं, कोई निकट का परिचय संघ में आनन्द की लहर व्याप्त हो गई थी। दो दिन वहाँ ठहरकर बताइये। नवसारी की ओर प्रस्थान किया।
तब गुरुदेव ने कहा-“वासदा के नगरसेठ इन्दुमल जी हमारे अपरान्ह का समय था। पगडण्डियों के मार्ग से यात्रा चल रही शिष्य हैं।" थी। सड़क नहीं थी। चारों ओर गाढ़-जंगल फैला हुआ था। मार्ग में
इतना सुनते ही थानेदार गुरुदेव के चरणों में गिरकर क्षमा मिलने वाले किसी व्यक्ति से पूछा तो उसने बताया वह लक्ष्य-स्थल
माँगने लगा और कहने लगा-“अरे, गुरुदेव! मुझसे बड़ी भूल हो वहाँ से दो गाऊ है। दो गाऊ, अर्थात् चार मील।
गई। आपने अपना यह परिचय मुझे पहले ही क्यों नहीं दिया? आगे चले। मीलों पीछे छूटते चले गए, किन्तु वे चार मील तो नगरसेठ का फोन मेरे पास आया था कि हमारे गुरुदेव पधार रहे द्रोपदी के चीर के समान बढ़ते ही चले गए। उनका कोई अन्त ही हैं। ध्यान रखना। उन्हें कोई कष्ट न हो। किन्तु मैंने तो उल्टा आपके नहीं आ रहा था। इस प्रकार कम से कम बारह मील की यात्रा हो | साथ अविनयपूर्वक व्यवहार कर डाला। अब मुझे क्षमा कीजिए। गई होगी, किन्तु लक्ष्य का कोई नामोनिशान नहीं था। तब गुरुदेव वस्तुतः इस टेकरी पर जो झोंपड़ियाँ हैं, उनमें कुछ आदिवासी रहते श्री ने अस्ताचल की ओर निर्देश करते हुए कहा-"देवेन्द्र! सूर्य हैं। उन्होंने कभी जैन मुनियों को देखा नहीं। बेचारे भोले भी हैं। अस्ताचल की ओर शीघ्रता से बढ़ रहा है। चारों ओर पहाड़ियाँ हैं। उन्होंने समझा कि कोई चोर-डाकू आ गए हैं। अतः वे फरियाद कोई गाँव भी दिखाई नहीं देता। अब हम आगे नहीं बढ़ सकते।। लेकर मेरे पास आए थे। इसीलिए मैं यहाँ आया। अब आप मुझे किसी वृक्ष के नीचे ही आज रात्रि विश्राम लेना होगा।"
क्षमा करते हुए कृपया समीप ही एक मील पर एक ग्राम है, वहाँ ___साथ में जो भाई था उससे आज्ञा ग्रहण कर एक वृक्ष के नीचे
पधारिए। यह स्थान तो अत्यन्त भयावह है। नदी पर पानी पीने के आसन जमा दिया। चारों ओर हरा-भरा वन था और समीप ही
लिए रात्रि में शेर तथा अन्य हिंसक प्राणी आया करते हैं।" कहीं ताप्ती नदी प्रवाहित थी।
किन्तु पर्वत भी डिगते हैं क्या?
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२३७ ।
गुरुदेव के समान पुरुष-सिंह कौन-से सिंह से भयभीत होने यह स्थिति भयावह होगी।
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परस्पर आत्मभाव, सहयोग, सहिष्णुता तथा संगठन की जितनी DRD उन्होंने अपना दृढ़, अभय निश्चय थानेदार को बता दिया। आवश्यकता आज दिखाई दे रही है वह संभवतः पहले कभी नहीं थानेदार ने कुछ आदिवासियों को सुरक्षा हेतु वहाँ छोड़ना चाहा तो रही। गुरुदेव ने इसके लिए भी इन्कार कर दिया। कहा-"हम तो सभी
यह भविष्य-दर्शन पूज्य गुरुदेव ने बहुत पहले से ही कर लिया DS को अभय प्रदान करते हैं। आप निश्चिन्त होकर जायें। हम यहीं।
था। अतः श्रमण-संघ की एकता और संगठन हेतु उन्होंने जो प्रबल रहेंगे।"
पुरुषार्थ किया था और संगठन के भव्य प्रासाद को खड़ा करने के विवश थानेदार नमन करके चला गया।
लिए आपश्री ने नींव की ईंट बनकर जो त्याग किया था वह आज रात्रि का लगभग एक बजा होगा। एक विशालकाय, नवहत्था इतिहास बन चुका है। केशरीसिंह दहाड़ता हुआ अपने तीक्ष्ण दाँत निकाले और अंगारों
उस इतिहास की एक झलक लेना आवश्यक प्रतीत होता हैजैसी आँखें गुरुदेव पर गड़ाए आगे बढ़ा।
यह तो आज सूर्य के समान सत्य और प्रगट है, तथा किन्तु ध्यानस्थ गुरुदेव ने जब अपनी कोमल, दयामय, अभय
सर्वविदित है, कि श्रद्धेय गुरुवर्य स्थानकवासी जैन समाज के एक दृष्टि उस सिंह पर क्षण भर के लिए डाली तो वह हिंसक पशु
मूर्धन्य मनीषी और कर्मठ सन्त थे। उनके विशाल, अगम हृदय एकाएक ऐसा विनम्र हो गया मानो उसकी आत्मा पर किसी ने
जलोदधि में आरम्भ से ही यह चिन्तन-मन्थन चलता रहा था कि अमृत की वर्षा कर दी हो और उसकी जन्म-जन्म की हिंसकवृत्ति
स्थानकवासी समाज की उन्नति किस प्रकार हो? सहसा विलुप्त हो गई हो।
उन्नति का एकमात्र मार्ग है-संगठन! वह सिंह गुरुदेव के समीप अपनी मदमाती चाल से आया, क्षणभर नमित भाव से रुका और फिर नदी की ओर चला गया।
संगठन के अभाव में तो फिर बिखराव ही बिखराव है, और उस वन के राजा ने ऐसा सृष्टि-सम्राट् पहली बार ही देखा था। बिखराव का अर्थ है, अशक्ति।
रात तो लम्बी थी। काली थी। सुनसान थी। जंगल की रात अशक्ति अपने साथ लाती है-अनस्तित्व। थी-घनघोर वन की सघन काल रात्रि!
अतः गुरुदेव का चिन्तन चलता रहा कि ऐसा क्या किया अन्य हिंसक पशु भी उस रात उधर से निकले। किन्तु उस जाय-कुछ न कुछ तो किया ही जाना चाहिए, जिससे कि 90 रात्रि में वे सभी मानो अपने-अपने उपद्रव भूल गए थे।
स्थानकवासी समाज संगठित हो, शक्तिवान बने और उसकी पुनीत
की पनीत सत्य है-'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।'
परिणति हो-मानव का कल्याण। इसी प्रकार के प्रसंगों की श्रृंखला बहुत लम्बी है। स्थान और
श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक सौ सत्तर वर्ष समय का ही अभाव है।
के पश्चात् पाटलिपुत्र में प्रथम सन्त सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में
द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण श्रमण संघ जो छिन्न-भिन्न हो DDD शायद पाठकों के धीरज का भी।
गया था, अनेक बहुश्रुत श्रमण काल कर गए थे, दुष्काल के कारण नहीं, पाठकों का धैर्य तो अनन्त ही है। हम ही विराम लेते हैं यथावस्थित सूत्र परावर्तन नहीं हो सका था। अतः दुष्काल समाप्त और फिर आगे ले चलते हैं आपको।
होने पर सभी विशिष्ट सन्त पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। उन्होंने
ग्यारह अंगों का संकलन किया था। बारहवें अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता संगठन के सजग प्रहरी
भद्रबाहुस्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर
रहे थे। उन्होंने संघ की प्रार्थना को सन्मान देकर मुनि स्थूलिभद्र को मानव टूटता चला जा रहा है।
बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। स्थूलिभद्र मुनि ने बाहर से भी। भीतर से भी।
बहनों को चमत्कार दिखाया, जिससे अन्तिम चार पर्यों की वाचना आशंका स्वाभाविक है कि यदि इस टूटने और बिखराव को शाब्दिक दृष्टि से उन्हें दी गई। समय रहते रोका न गया-तो फिर मानवता का क्या होगा?
द्वितीय सम्मेलन ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुआ था। क्या किसी दिन इस पृथ्वी पर अपने-अपने अहं में डूबी ऐसी सम्राट खारवेल जैनधर्म के उपासक थे। हाथीगुफा के अभिलेख से इकाइयाँ मात्र ही रह जायेंगी जिनका परस्पर कोई आत्मीय सम्बन्ध यह प्रमाणित हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर नहीं होगा?
जैन मुनियों का एक संघ बुलाया था।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 00000
तृतीय सम्मेलन मथुरा में हुआ। यह सम्मेलन वीर निर्वाण संगठन-प्रासाद की नींव तो तैयार हो ही गई, और उसकी 1200000 10002..य संवत्-८२७ से ८४० के मध्य में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में | रचना में गुरुदेव श्री का प्रबल पुरुषार्थ समाहित था। हुआ। उसी समय दक्षिण और पश्चिम में जो संघ विचरण कर रहे
इस दिशा में प्रयत्न करते रहने की आपश्री की भावना में कभी थे उनका सम्मेलन वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में ।
शिथिलता अथवा विक्षेप नहीं आया। चिन्तन चलता ही रहा कि BRDS हुआ। यह चतुर्थ सम्मेलन था।
ऐसा प्रयास किया जाय जिससे कि श्रमणों का एक संगठन बन __पंचम सम्मेलन वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी ई. सन् ४५४- जाय-क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे संगठन ही जीवन है, और ४६६ के मध्य में वल्लभी में हुआ था। इस सम्मेलन के अध्यक्ष विघटन है मृत्यु। देवर्धिगणी क्षमाश्रमण थे।
अतः स्पष्ट है कि कोई भी समाज संगठन के बिना प्रगति कर इन पाँचों सम्मेलनों में आगमों के संबंध में ही चिन्तन-मनन । ही नहीं सकता। जब प्रगति न हो तब परिणाम क्या संभव है? किया गया, क्योंकि स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति धीरे-धीरे ही सही, किन्तु निश्चित रूप से-क्षय। का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति प्रभृति कारणों से श्रुत
अतः आपश्री संगठन के लिए रात-दिन चिन्तन करते रहे, साहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो गया था। उसे पुनः व्यवस्थित
प्रयास करते रहे। आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप ही करने का प्रयास किया गया। उसके पश्चात् आगमों की वाचना को
सन् १९५२ में सादड़ी में सन्त सम्मेलन हुआ। क्योंकि सम्मेलन के लेकर कोई सम्मेलन नहीं हुए।
पूर्व आपश्री का सादड़ी में वर्षावास था। 20 आचार्य अमरसिंह जी महाराज के समय पंचेसर ग्राम में एक
सम्मेलन-स्थल कौन-सा हो, इस प्रश्न को लेकर स्थानकवासी सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का उद्देश्य श्रुत के सम्बन्ध में
जैन काँफ्रेन्स के अधिकृत अधिकारीगण निराश हो गए थे, क्योंकि चिन्तन नहीं, किन्तु पारम्परिक क्रियाओं को लेकर पूज्य श्री कानजी
जितने भी अन्य स्थानों से सम्मेलन के लिए प्रार्थनाएँ आई थीं, वे ऋषिजी महाराज के सम्प्रदाय के अनुयायी पूज्य श्री ताराचन्द जी
। सशर्त थीं। अतः विचारकों के समक्ष प्रश्न था कि सम्मेलन कहाँ महाराज, श्री जोगराजजी महाराज, श्री भीवाजा महाराज, श्री
कराया जाय? शर्ते पूरी न हों, तो सम्मेलन हो नहीं। पूर्वाग्रह रूप त्रिलोकचन्द जी महाराज, आर्याजी श्री राधा जी, पूज्य श्री हरिदास
शर्ते स्वीकार करना भी उपयुक्त नहीं हो सकता था। जी महाराज के अनुयायी मलूकचन्द जी महाराज, आर्या फूलाजी महाराज तथा पूज्य श्री परशुराम जी महाराज के अनुयायी श्री
इस विषम प्रश्न का समाधान आपश्री की निस्वार्थ, निस्संग खेतसी व खींवसी जी महाराज और आर्या श्री केसरजी महाराज
भावना एवं प्रयत्न से ही संभव हो पाया। आपश्री ने कहा-सादड़ी आदि सभी सन्त-सतीगण गम्भीर विचार-चर्चा के पश्चात् आचार्य
सम्मेलन के लिए उपयुक्त स्थल है। यह पावन भूमि है। यहाँ पर श्री अमरसिंह जी महाराज के साथ एक सूत्र में बँध गए।
आप सम्मेलन करें। इसके साथ ही आपश्री ने अपने ओजस्वी,
तेजस्वी, यथातथ्य प्रवचनों से स्थानीय संघ में सम्मेलन की भव्य उसके पश्चात् राजस्थान प्रान्तीय मुनियों का सम्मेलन पाली में ।
भूमिका तैयार की। परिणामतः इतना भव्य और सफल सम्मेलन सन् १९०२ में हुआ।
हुआ कि सभी देखकर विस्मित रह गए। संगठन की प्रथम लहर उत्पन्न हुई।
इस सम्मेलन को विशिष्ट ऐतिहासिक सम्मेलन माना जा सकता तत्पश्चात् सन् १९३३ में अजरामपुरी अजमेर में एक विराट है, क्योंकि इसी सम्मेलन में आपश्री द्वारा किए गए भव्य एवं सन्त-सम्मेलन का आयोजन हुआ। उस सम्मेलन में स्थानकवासी भगीरथ प्रबल पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप श्री वर्धमान स्थानकवासी समाज के मूर्धन्य सन्तगण पधारे। इसमें गुरुदेव श्री ने अपने
जैन श्रमण संघ का निर्माण हुआ। अजातशत्रु व्यक्तित्व की सारी शक्ति झोंककर नींव की ईंट के रूप इसे यदि एक ऐतिहासिक उपलब्धि न कहा जाय तो फिर क्या में अथक कार्य दिया। समाज-वीणा के बिखरे हुए तारों को मिलाने कहा जाय? में आपश्री ने कोई कोर-कसर न छोड़ी, ताकि उस वीणा के मिले
इस सम्मेलन में लगभग पचास हजार नर-नारी बाहर से हुए, एकीकृत तारों से एक ऐसी मानव-कल्याण की झंकार उठ सके
एकत्रित हुए थे। आपश्री के गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी जिससे कि समस्त मानवता उपकृत और आनन्दित हो उठे।
महाराज सभी सन्तों में उस समय सबसे बड़े थे। विभिन्न सम्प्रदायों -60930 यद्यपि वह सम्मेलन पूर्ण सफल नहीं हो सका, तथापि संगठन । की सरिताएँ श्रमण-संघ के महासागर में विलीन हो गई। संगठन के
के एक सुन्दर वातावरण का निर्माण अवश्य ही हुआ और ऐसे । लिए सभी पदवीधारी मुनिराजों ने अपनी पदवियों का परित्याग कर अनेक प्रस्ताव भी पारित हुए जिनसे स्थानकवासी समाज का । दिया और सर्वानुमति से परम श्रद्धेय, जैनागम वारिधि श्री एक भविष्य उज्ज्वल दिखाई देने लगा।
हजार आठ आत्माराम जी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया DEED8 6 APEOPNEPOTo
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गया। आगममर्मज्ञ श्री गणेशीलाल जी महाराज को उपाचार्य पद दिया गया और पंडित प्रवर आनन्दऋषि जी महाराज को प्रधानमंत्री पद प्रदान किया गया। सोलह विद्वान मुनिराजों का एक मंत्रिमंडल बनाया गया, जिसमें श्रद्धेय गुरुदेव को साहित्य - शिक्षण मंत्री पद दिया गया।
पद का महत्त्व क्या है ?
कर्तव्य है, जो कि प्रधान है।
आपश्री ने संगठन के लिए जिस विलक्षण प्रतिभा, सूझबूझ, विचार - गाम्भीर्य तथा संगठन शक्ति का परिचय उस अवसर पर दिया वह अविस्मरणीय है तथा श्रमण संघ इसके लिए आपका सदैव ऋणी ही रहेगा। नींव का पत्थर यद्यपि दिखाई नहीं देता, वह स्वर्ण कलश की तरह दूर से दिखाई नहीं देता किन्तु उसके बिना भव्य भवन का निर्माण नहीं होता। गुरुदेव भी नींव की ईंट के रूप में रहकर ही कार्य करने के आदि थे।
आपश्री का यह अथक प्रयास आगे ही बढ़ता रहा। संगठन बना रहे, श्रीसंघ का विकास उत्तरोत्तर होता रहे, यही आपके मन की भावना बनी रहती थी।
पश्चात् सोजत मन्त्रिमण्डल की बैठक, भीनासर सम्मेलन (१९५५), अजमेर शिखर सम्मेलन (१९६४) और सांडेराव राजस्थान प्रान्तीय सम्मेलन (१९७१) में भी आपश्री ने निष्ठापूर्वक महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा कीं । श्रमण संघ अखण्ड बना रहे इसके लिए जितना भी योगदान दिया जा सकता था वह आप देते ही रहे। आपश्री चाहते थे कि श्रमण संघ आचार-विचार, दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हो। श्रमणों की शोभा शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करने में है, तथा मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए, ऐसा आपका कथन और मान्यता थी ।
स्थानकवासी समाज की सीमा से आगे बढ़कर आप सम्पूर्ण जैन समाज की एकता देखना चाहते थे। बैंगलोर के सन् १९७७ के भारत जैन महामण्डल के लघु अधिवेशन में प्रवचन करते हुए आपने कहा था कि फूट एक प्रकार का विषबीज है। इसे समूल नष्ट करना चाहिए। इससे हमारे समाज की बहुत हानि हुई है। सम्प्रदाय रहें, किन्तु सम्प्रदायवाद न रहे। जिस प्रकार एक ही परिवार के लिए एक ही मकान में पृथक्-पृथक् कक्ष रहने के लिए होते हैं, जहाँ अलग-अलग व्यक्ति स्वतन्त्र रूप से रहते हैं, लेकिन मकान में एक हॉल भी होता है, जहाँ परिवार के सभी सदस्य
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बैठकर वार्तालाप व चिन्तन कर सकते हैं, उसी प्रकार हमारे समाज की स्थिति होनी चाहिए। स्थानकवासी, मन्दिरमार्गी, तेरापन्थी व दिगम्बर परम्पराएँ भले ही रहें, किन्तु एक ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ बैठकर सभी हृदय की बात कह सकें और जैनधर्म के विकास हेतु चिन्तन कर सकें, प्रयास कर सकें।
आपश्री ने कहा था कि सम्प्रदाय उतना बुरा नहीं है, जितना कि सम्प्रदायवाद है। सम्प्रदायवाद के काले चश्मे ने हमें सत्य और तथ्य को पहचानने नहीं दिया, अतः सम्प्रदायवाद को त्याग कर हमें शुद्ध जैनत्व को अपनाना चाहिए।
प्राचीन तथा नवीन का समुचित सामंजस्य ही जीवन को सुन्दर और विकासोन्मुख बना सकता है अतः आपश्री एक ओर समीचीन नवीन विचारों को अपनाने के पक्षपाती थे तो दूसरी ओर प्राचीन श्रेष्ठ विचारों से भी उतना ही लगाव रखते थे। आपश्री का स्पष्ट कथन था कि नवीनता और प्राचीनता-ये दोनों प्रगति रथ के दो पहिये हैं। एक उठा हुआ है, दूसरा टिका हुआ आप दोनों पैर एक साथ आकाश में उठाकर उड़ने का हास्यास्पद प्रयास भी नहीं करना चाहते थे, तथा एक ही स्थान पर अड़े-खड़े रहकर प्रगति की ओर से विमुख भी नहीं होना चाहते थे। निरन्तर और निर्बाध प्रगतिआपका लक्ष्य था उसका मार्ग यही है कि कुछ गतिशील हो, कुछ स्थिर हो। गति और स्थिति दोनों पर एक-दूसरे का समान प्रभाव बना रहे। कुछ लोग किसी भी नई बात से कतराते हैं और पुरानी बात से ही चिपटे रहते हैं। उनके अन्तर में पुराने के प्रति विश्वास और नए के प्रति अविश्वास होता है। किन्तु आपश्री प्राचीनता की भूमि पर अवस्थित होकर नवीनता का स्वागत करने में संकोच नहीं करते थे।
संक्षेप में यदि कहा जाये तो आप एक सेतु थे- नवीनता तथा प्राचीनता के बीच, जो दोनों तटों को मिलाता है।
आपश्री में हठवादिता हरगिज नहीं थी । किन्तु गहन चिन्तनशीलता एवं अन्य व्यक्तियों तथा सम्प्रदायों के प्रति अपार तथा निश्छल सहनशीलता थी। जैसा कि इस जीवनी के कतिपय पिछले अध्यायों तथा आगे आने वाले अध्यायों से भी स्पष्ट होता है।
आपका भव्य जीवन विमूर्च्छित जीवन नहीं था।
पराजय शब्द आपने अपने कोष से निकाल ही दिया था।
आपके जीवन में जीवन्त चैतन्य था । आस्था का अमर आलोक था और था सामर्थ्य एवं सामंजस्य का सरस संगीत ।
धर्मनिष्ठ श्रोता के कान सागर के समान होते हैं जिसमें धर्म चर्चारूपी नदियां निरन्तर भरती रहने पर भी कान रूपी सागर भर नहीं पाते।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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शिखर-समागम
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आप कल्पना कीजिए कि हमारे साथ आप हिमालय की यात्रा । धैर्य, लगन और कर्त्तव्य-परायणता के कारण देश स्वतन्त्र हुआ है
पर हैं और देख रहे हैं-ऊँचे, गगनचुम्बी, पुनीत, धवल शिखर और अब इस स्वराज्य को सुराज्य बनाना है। इसके लिए 00000 2000 और शिखर
आवश्यकता है पवित्र चरित्र की। एक दिन था जबकि भारत अपनी परस्पर रहस्यमय मौन संभाषण करते हुए! 90.ODS कितना आकर्षक हो सकता है यह दृश्य!
चारित्रिक गरिमा के कारण विश्व गुरु जैसे गौरवमय पद पर
अलंकृत था, किन्तु आज की स्थिति शोचनीय बनती जा रही है। श्रद्धेय गुरुवर्य का सम्पर्क जन-साधारण से तो रहा ही, किन्तु उनके पावन और गम्भीर-शिखर समान व्यक्तित्व के आकर्षण से
नैतिक स्तर का उत्थान देश की प्रगति के लिए अनिवार्य है। खिंचकर भारत के अनेक शीर्ष और विशिष्ट सत्पुरुष समय-समय आपश्री ने यह भी बताया कि प्राचीन साहित्य और संस्कृति की पर उनसे भेंट करते रहे। उन विशिष्ट व्यक्तियों में चिन्तक, रक्षा की जानी चाहिए। जैनाचार्यों ने विविध भाषाओं के जिस विचारक, धर्म एवं संस्कृति के प्रति आस्थावान अनेक लोग रहे। विपुल श्रेष्ठ साहित्य का सृजन किया है, उसका परिचय भी आप जब वे लोग समीप बैठकर चिन्तन और चर्चा करते थे तो
श्री ने-राजेन्द्र बाबू को दिया। विद्वान राष्ट्रपति ने स्वीकार किया
कि जैन साहित्य किसी सम्प्रदाय विशेष की ही नहीं, बल्कि ऐसा ही प्रतीत होता था, मानो हिमालय के धवल गगनचुम्बी
मानव-मात्र की विशेष उपलब्धि है। मैं भाग्यवान हूँ कि मेरा जन्म D oora शिखरों का परस्पर मौन संभाषण चल रहा हो।
भी उसी पावन-भूमि में हुआ है जहाँ भगवान् महावीर का हुआ था। मा हठाग्रह से विहीन आपश्री चिन्तन के आदान-प्रदान में विश्वास रखते थे एवं अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों ही बातों को सुनने के
जन-नायक वीर जवाहर और गुरुदेव SDOG
अभ्यस्त थे। जिस कथन में जितना सार हो, उसे ग्रहण करने में जवाहरलाल नेहरू का नाम स्मृति में आते ही दृष्टि के समक्ष आपश्री को कभी संकोच नहीं होता था।
बिजलियाँ-सी कौंधने लगती हैं-ऐसा ही तेजस्वी व्यक्तित्व था उनका। निस्संदेह आपश्री स्थानकवासी संस्कृति के प्रति पूर्ण एवं प्रबल
वे भारत के प्रथम निर्विवाद प्रधानमंत्री थे। पूर्व और पश्चिम का आस्थावान थे, उसे आप महान् क्रान्तिकारी विशुद्ध आध्यात्मिक
अद्भुत संगम था नेहरूजी की विचारधारा में। ४ दिसम्बर, १९५४ विचारधारा और आचार का प्रतीक मानते थे, तथापि भ्रान्त
को श्रद्धेय गुरुदेवश्री का पंडितजी से दिल्ली में विचार-विमर्श हुआ। धारणाओं और रूढ़िवाद से आप सर्वथा दूर थे।
वार्तालाप का सारांश इस प्रकार हैआपका मानस उदार, विशाल और व्यापक था। वहाँ संकीर्णता
गुरुदेव-"भगवान् महावीर विश्व की महान् विभूति थे। उनका के दायरे नहीं थे। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय कार्य करने
आचार उत्कृष्ट था, विचार निर्मल। उन्होंने साधना कर अपने वाले कार्यकर्ता, जिज्ञासुगण, विचारक-सभी आप श्री के निकट
जीवन को निखारा था। भगवान् महावीर ने आचार में अहिंसा तथा सम्पर्क में आए और कुछ लेकर ही गए। आपश्री ऐसे लोगों से
विचार में अनेकान्त जैसे दिव्य सिद्धान्त प्रदान किये। किन्तु आज आत्मीयता के साथ मिलते रहे तथा आपके सौजन्यतापूर्ण व्यवहार
हम उनका जन्मदिवस अथवा स्मृति-दिवस नहीं मानते। शासन को से अपने अन्तरतम तक प्रभावित होकर ही वे लोग लौटे।
चाहिए कि ऐसे महापुरुष की स्मृति में एक दिवस का अवकाश
रखा जाय।" आपश्री के सम्पर्क में आने वाले विशिष्ट व्यक्तियों की संख्या काफी अधिक रही। यहाँ कतिपय व्यक्तियों से आपश्री के संस्मरण
नेहरू जी-"निस्संदेह आपका सुझाव उपयुक्त है। मैं भगवान् प्रस्तुत हैं।
महावीर को महापुरुष मानता हूँ। इस सम्बन्ध में अवश्य चिन्तन
करूँगा। यह भी असंदिग्ध है कि उनका प्रभाव राष्ट्रपिता गाँधीजी राष्ट्रपति के साथ
पर अहिंसा के सिद्धान्त के रूप में बहुत अधिक, अचल था।" ___भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरल डॉ० राजेन्द्र प्रसाद इस देश
श्रमण-संस्कृति की विभिन्न धाराओं के सम्बन्ध में और जैन के एक महामूल्यवान रल ही थे। वे आध्यात्मिक प्रकृति के थे।
संस्कृति एवं कला पर जब चर्चा चली तब गुरुदेव श्री ने ज्योतिर्धर भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन के प्रति उनमें अपूर्व निष्ठा थी।
आचार्य जीतमल जी द्वारा बनाई गई उत्कृष्ट कलाकृतियाँ बताई। उनमें गम्भीर विद्वत्ता थी और देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होते
एक चने की दाल जितने स्थान पर चित्रित एक सौ आठ हाथी, हुए भी उनकी विनम्रता, सरलता और सादगी एक आदर्श ही थी।
सूर्यपल्ली तथा दोनों ओर कटिंग किए हुए अक्षरों को देखकर नेहरू दिल्ली में वे आपश्री के सम्पर्क में आए और अनेक विषयों जी बहुत प्रभावित हुए। पचपन मिनट तक इन दोनों महापुरुषों ने DDO पर वार्तालाप हुआ। आपश्री ने बताया कि भारतीय जनता के अपूर्व । सौहार्द्रपूर्ण वार्तालाप किया।
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श्रीमती इन्दिरा गाँधी तथा उनके दोनों पुत्र राजीव और संजय । दो तट हैं। इनके बीच ही मानव-जीवन की सरिता प्रवाहित होती है। गांधी भी उस समय उन कलाकृतियों को देखकर चमत्कृत हुए। धर्म श्रद्धा पर आधारित है, दर्शन तर्क पर। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई
गुरुदेव श्री ने वेदान्त तथा बौद्धदर्शन के सम्बन्ध में भी राजर्षि दि. १५-९-१९७४ को गुरुदेव श्री की मोरारजी देसाई से
से विचार-विमर्श किया और अन्त में सार रूप में कहा कि धर्म विचार-चर्चाएँ हुईं। श्री देसाई १९७७ में बाद में प्रधानमंत्री बने थे।
और दर्शन को पाश्चात्य प्रभाव से परस्पर प्रतिद्वन्द्वी माना जाने उस दिन मोरारजी देसाई मेरे द्वारा लिखित "भगवान् महावीरः एक
लगा है, यह चिन्तन भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं है। इससे अनुशीलन" ग्रन्थ का विमोचन करने के लिए उपस्थित हुए थे।
लाभ नहीं, हानि ही अधिक है। गुरुदेव ने अपने प्रवचन में कहा-"आज चारों ओर अशान्ति का राजस्थान के शेर सुखाड़िया जी वातावरण है। आज का मानव घोर भौतिकवादी है। त्याग के स्थान
कहा जाता है कि एक जंगल में दो शेर नहीं रह सकते। यह पर भोग और अहिंसा के स्थान पर हिंसा, अपरिग्रह के स्थान पर
ठीक हो या न होपरिग्रह का जंजाल ही दिखाई देता है। मानव का यह अभियान आरोहण की ओर न होकर अवरोहण की ओर हो रहा है। उत्थान
किन्तु एक ही प्रदेश में दो प्रतिभासम्पन्न सज्जन महानुभाव तो आर विकास के स्थान पर पतन और सर्वनाश के पथ की ओर बढ स्नेहपूर्वक रह ही सकते हैं। रहा है। मानव की यह भौतिक प्रवृत्ति उसे अशान्त बनाए हुए है। __ सुखाड़िया जी वर्तमान वृहद् राजस्थान के निर्माता थे। कुशल "भगवान महावीर ने अन्तर्दर्शन की प्रेरणा दी। आज मानव
राजनीतिज्ञ तो थे ही, विचारवान व्यक्ति भी थे। वे अनेक बार पूज्य अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त को विस्मृत कर चुका
गुरुदेव से मिले तथा उनसे शुभ कार्यों की प्रेरणा लेते रहे। वे वर्षों है। ये लक्षण शुभ नहीं हैं।"
तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे और फिर तमिलनाडु के राज्यपाल
भी। मोरारजी भाई सीधे-सादे, सरल व्यक्ति हैं। प्रतिभा-पुरुष हैं। वे गुरुदेव श्री के प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने संकल्प
___ वे मुख्यमंत्री हों कि राज्यपाल, जब भी अवसर मिला, वे लिया कि वे गुरुदेव श्री के कथनानुसार मानव जाति के कल्याण के । गुरुदेव श्री से मिलने आते रहे। पशुओं में प्रतिद्वन्द्विता हो सकती है, 2009 लिए हर संभव प्रयत्न करने में कभी पीछे नहीं हटेंगे।
किन्तु ज्ञानवान नर-शार्दूलों में तो परस्पर स्नेह और आदर भाव ही
संभव है। सुखाड़िया जी ने गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त करके बहुत गुरुदेव और गृहमंत्री पंत जी
कुछ सीखा और अपने सीखे हुए रास्ते पर राजस्थान, तमिलनाडु सोजत सन्त-सम्मेलन के अवसर पर तत्कालीन गृहमंत्री पं. और कहना चाहिए कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की जनता को चलाने और 2 गोविन्दबल्लभ पंत से गुरुदेव की विचारचर्चाएँ हुईं। पंडित पन्त जी आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। मनीषी व्यक्ति थे। उन्होंने गुरुदेव के कथन को बहुत ध्यान से सुना
चन्दनमल बैद और गुना। गुरुदेव ने जो बातें पन्तजी को बताई उनका सार यही है कि जैनदर्शन के सिद्धान्त आज की भटकी हुई, त्रस्त मानवता के
सन् १९७३ में गुरुदेव श्री का वर्षावास अजमेर में था। वहाँ लिए नवजीवन का संचार करने वाले हैं। अहिंसा मानव-जीवन के
१३ सितम्बर को 'विश्वमैत्री दिवस' का भव्य आयोजन था। उसमें लिए मंगलमय वरदान है। अनेकान्तवाद सम्यग्दृष्टि है। अहिंसा और
राजस्थान के तत्कालीन शिक्षा एवं वित्तमंत्री चन्दनमल जी बैद अनेकान्तवाद एक-दूसरे के पूरक हैं। इनके समन्वय में अद्भुत
विशेष रूप से उपस्थित हुए थे। विश्व-मैत्री की पृष्ठभूमि पर चिन्तन शक्ति है। इनका उपयोग करने में ही विश्व का कल्याण निहित है।
प्रस्तुत करते हुए सद्गुरुदेव ने कहा-"दर्शन सत्य है, ध्रुव है, त्रैकालिक है। मानव की कुछ मूल समस्याएँ होती हैं। दर्शन उन
। मनीषी पन्तजी ने स्वीकार किया कि अहिंसा और अनेकान्त
समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। इस समय विश्व की जैनदर्शन की भारतीय दर्शन को अनन्य और अपूर्व देन है।
सबसे बड़ी समस्या विषमता है। उसका मूल कारण समत्व की दृष्टि गुरुदेव और राजर्षि टण्डन जी
का अविकास है। भगवान महावीर ने इसी समत्व भाव को समझने गुरुदेव सन् १९५४ में दिल्ली में वर्षावास हेतु जब ठहरे थे,
और उस पर अमल करने को कहा था। उन्होंने कहा था कि जिस तब राजर्षि टण्डन जी उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुए थे। धर्म और
प्रकार आपको दुःख अप्रिय है, उसी प्रकार सभी भूतों को, सभी दर्शन पर व्यापक और महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई। आचार और विचार
प्राणियों को, सभी जीवों को दुःख अप्रिय है। अतः किसी को के परस्पर पूरक होने तथा मानव-जीवन में उनके अत्यधिक महत्त्व
परिताप नहीं देना चाहिए। कर को दर्शाते हुए गुरुदेव श्री ने बताया कि आचाररहित विचार बाह्य दृष्टि से भेद होने के बावजूद सभी जीवों का आन्तरिक विकार है तथा विचाररहित आचार अनाचार है। धर्म और दर्शन जगत एकसदृश है। जिसने एक आत्मतत्त्व को जान लिया है, उसने
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विश्व के सभी तत्त्वों को जान लिया है-"जे एगं जाणइ से सव्वं । छोटा-सा शब्द है। किन्तु वह विष्णु के तीन चरणों से भी अधिक जाणइ” “एकस्मिन् विज्ञाते सति सर्व विज्ञातं भवति" का यही विराट् एवं व्यापक है। मनुष्य जाति ही नहीं, विश्व के समस्त अर्थ है।
चराचर प्राणी इन तीन चरणों में समाए हुए हैं। अहिंसा है, वहाँ अतः सारांश यह कि आज आवश्यकता समत्व भाव विकसित
जीवन है। जहाँ अहिंसा नहीं, वहाँ जीवन भी नहीं है। यह एक करने की है। अहिंसा और अनेकान्त की दृष्टि से यह संभव है।
विराट् शक्ति है। समस्याओं का समाधान अहिंसा में ही है। अतः विश्व के चिन्तकों को इन महनीय सिद्धान्तों को अपनाना । "संसार के सभी दर्शनों में अहिंसा के महत्त्व को स्वीकार चाहिए।
किया गया है। सभी धर्म-प्रवर्तकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अहिंसा गुरुदेव श्री ने राजस्थान में बढ़ते हुए मत्स्योद्योग तथा
तत्त्व की विवेचना की है। किन्तु अहिंसा का जितना सूक्ष्म तथा मदिरापान एवं धार्मिक शिक्षा के विषयों पर भी श्री बैद से चर्चा
व्यापक विश्लेषण जैनदर्शन में है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं है। जैन की। आपश्री के विचारों से प्रभावित होकर उनकी गाँठ बाँधकर श्री
संस्कृति की प्रत्येक क्रिया अहिंसामूलक है। गाँधी जी भी मानते थे बैद ने विदा ली।
कि अहिंसा केवल साधु-महात्माओं के लिए ही नहीं है, वह तो
मानव-मात्र के लिए है। दि. ३०-१०-८२ को पूज्य गुरुदेवश्री की जन्म-जयन्ती पर जोधपुर में उपस्थित होकर श्री बैद ने कहा-"मैं पूज्य उपाध्याय श्री
“अहिंसा के अभाव में मानव निर्दयी दानव बन जाता है। वह के तेजस्वी व्यक्तित्व, कृतित्व तथा विचारों से प्रभावित हूँ। आपने
एक प्रेत के समान हो जाता है। सुप्रसिद्ध चिन्तक इंगसोल ने लिखा साहित्य के माध्यम से भी जो ज्ञान-गंगा प्रवाहित की, वह युग-युग है-"जब दया का देवदूत दिल से दुत्कार दिया जाता है और तक जन-जन के पाप, ताप और संताप को दूर करने वाली है।। आँसुओं का फव्वारा सूख जाता है, तब मनुष्य रेगिस्तान में रेंगते हमारा सौभाग्य है कि आपश्री जैसे महान् साधक और ज्ञानी सन्त । हुए सर्प के सदृश हो जाता है।" के चरणों में बैठने का अवसर हमें उपलब्ध है।"
सरदार गुरुमुख निहालसिंह अहिंसा के इस महान् तथा व्यापक श्री डी. पी. यादव
विश्लेषण को सुनकर अभिभूत हो गए तथा प्रवचन के पश्चात्
अहिंसा पर ही गुरुदेव श्री से चर्चा करते रहे। सन् १९७१ में बम्बई, कान्दावाड़ी में वर्षावास था। उस समय केन्द्रीय मंत्री श्री डी. पी. यादव उपस्थित हुए। बिहार में उस समय भाऊ साहब वर्तक भीषण दुर्भिक्ष पड़ा हुआ था। पीड़ित बिहार निवासियों की
बम्बई के सन्निकट बिरार (महाराष्ट्र) में गुरुदेव श्री विराज रहे सहायतार्थ वे उपस्थित हुए थे। गुरुदेवश्री ने भारतीय संस्कृति की
थे। उस समय महाराष्ट्र के कृषि मंत्री भाऊ साहब पूज्य गुरुदेव के मूल आत्मा की पहचान प्रगट करते हुए कहा-"भारतीय संस्कृति
निकट सम्पर्क में आए। गुरुदेवश्री ने अपरिग्रह तथा समाजवाद के की मूल आत्मा, मूल आधार है-दया, दान और दमन। प्राणियों के
विषय में कहा-कोई भी व्यक्ति बन्धन में नहीं रहना चाहता। परिग्रह प्रति दयाभाव रखो, मुक्त हस्त से दान करो और मन के विकल्पों
सबसे बड़ा बन्धन है। पदार्थ के प्रति हृदय की आसक्ति व ममत्व का दमन करो। जब मानव को क्रूरता से शान्ति नहीं मिली तब वह
की भावना ही परिग्रह का मूल है। पतन का मूल कारण भी परिग्रह दया की ओर लौटा, संग्रह से शान्ति नहीं मिली तब दान की
ही है। बाइबिल में तो यहाँ तक भी कहा गया है कि सुई की नोंक भावना का उदय हुआ तथा जब भोग ने मानव के जीवन में
से ऊँट भले ही निकल जाय, किन्तु धनवान को स्वर्ग में प्रवेश नहीं अशान्ति और अमिट तृष्णा भर दी, तब इन्द्रिय-दमन आया। अतः
मिल सकता। यह कथन स्पष्टतया परिग्रह के विरोध में ही है। विकृत जीवन को सुसंस्कृत बनाने हेतु दया-दान-दमन की ।
भगवान् महावीर ने रूपक भाषा में कहा है-परिग्रह रूपी वृक्ष के आवश्यकता है।"
स्कन्ध हैं-लोभ, क्लेश, कषाय। चिन्ता रूपी सैंकड़ों सघन और गुरुदेवश्री के प्रवचन के प्रभाव से उसी सभा में साठ हजार विस्तीर्ण उसकी शाखाएँ हैं। रुपयों की राशि एकत्रित हो गई।
महर्षि व्यास के अनुसार उदर-पालन के लिए जितना आवश्यक सरदार गुरुमुख निहालसिंह
है, वह व्यक्ति का अपना है, इससे अधिक जो व्यक्ति संग्रह करके सन् १९५४ में गुरुदेव दिल्ली के चाँदनी चौक जैन स्थानक में
रखता है वह चोर है और दण्ड का पात्र है। विराज रहे थे। उस समय राजस्थान के भू. पू. राज्यपाल सरदार आज व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में जो अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है, गुरुमुख निहालसिंह प्रवचन में उपस्थित हुए। उनके मन में गुरुदेव । वह संग्रह की वृत्ति के ही कारण है। रूस के महान् क्रान्तिकारी के दर्शन प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा थी। अहिंसा का विश्लेषण लेनिन ने संग्रह वृत्ति को मानव-समाज की पीठ का ज़हरीला फोड़ा करते हुए गुरुदेव ने फरमाया-“अहिंसा तीन अक्षरों का एक कहा है।
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आज धनिक और गरीब के बीच आर्थिक वैषम्य की गहरी अपनी अलग विशेषता रखता है। जैन परम्परा एक ओर धर्म है, खाई दिखाई देती है। इस अपरिग्रह को अपना कर शीघ्र ही पाटा वहीं दूसरी ओर दर्शन है। उस दर्शन में मेधा और श्रद्धा का समान जाना चाहिए। राष्ट्रकवि दिनकर ने विषमता का मार्मिक चित्रण । रूप से विकास किया गया है। जैनदर्शन में जितना महत्त्व विश्वास किया है
अथवा श्रद्धा को दिया गया है, उतना ही तर्क को भी। विश्वास की श्वानों को मिलता दूध, वस्त्र,
दृष्टि से जैन परम्परा धर्म और तर्क की दृष्टि से दर्शन है। भूखे बालक अकुलाते हैं।
जैनदर्शन के दो विभाग हैं-व्यवहार पक्ष और विचार पक्ष। माँ की हड्डी में चिपक, ठिठुर,
व्यवहार पक्ष का आधार अहिंसा है और विचार पक्ष का आधार जाड़े की रात बिताते हैं।
अनेकान्त है। अहिंसा के आधार पर सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, युवती की लज्जा वसन बेच,
अपरिग्रह आदि व्रतों का विकास हुआ है तथा अनेकान्तवाद के जब ब्याज चुकाए जाते हैं।
आधार पर नयवाद, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी का विकास हुआ है। मालिक तब तेल-फुलेलों पर,
जैन परम्परा का अनेकान्तवाद विभिन्न दर्शनों में विभिन्न नामों से ।। पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
मिलता है। बुद्ध ने उसे विभज्यवाद की संज्ञा दी है। बादरायण के
ब्रह्मसूत्र अथवा वेदान्त में उसे समन्वय कहा गया है। मीमांसा, "अतः आज 'सादा जीवन, उच्च विचार' की आवश्यकता है। सांख्य, न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी भावना रूप से उसकीs ad सम्राट् चन्द्रगुप्त के महामंत्री चाणक्य एक कुटिया में अल्प-परिग्रह उपलब्धि होती है। किन्तु अनेकान्तवाद का जितना विकास जैन के साथ ही रहते थे। वृक्ष के नीचे बैठकर समस्त भारतवर्ष का सूत्र दर्शन में हुआ है उतना अन्य किसी परम्परा में नहीं। संचालन करते थे। वियतनाम के जनप्रिय राष्ट्रपति हो-ची-निन्ह भी ।
जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकान्तवाद के समान ही कर्मवाद सादगी और अपरिग्रह की मूर्ति थे। बाँस और मिट्टी के कच्चे
पर भी विस्तार से चिन्तन किया गया है। कर्म, कर्म का फल और मकान में ही उनका आवास था। वियतनाम की जनता ने उनके इस ।
करने वाला-इन तीनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैन दृष्टि से जो कर्म अपरिग्रही स्वरूप को सर्वश्रेष्ठ मानकर उन्हें राष्ट्रपति पद पर
का कर्ता है, वही कर्मफलभोक्ता भी है। जो जीव जिस प्रकार के DRD सुशोभित किया था, ठीक हमारे राष्ट्रपति राजेन्द्रबाबू के समान।"
कर्म करता है, उसके अनुसार शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के फल वी. एस. पागे
भोगता है। पूना-वर्षावास। सन् १९७५ उस समय “जैन दर्शन : स्वरूप कर्म और कर्मबन्धन से मुक्त होने को मोक्ष कहा गया है। जैन और विश्लेषण” ग्रन्थ का विमोचन करने हेतु महाराष्ट्र विधान । दर्शन में मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण, इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। सभा के अध्यक्ष श्री वी. एस. पागे उपस्थित हुए। गुरुदेव ने । मुक्ति आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। मोक्ष अवस्था में आत्मा भारतीय दर्शन पर विचार प्रस्तुत करते हुए कहा-भारतवर्ष । अपने स्वरूप में स्थिर रहता है। उसमें अन्य किसी प्रकार का दार्शनिक देश है। दर्शनों की जन्मस्थली है। चार्वाक् दर्शन को विजातीय तत्व नहीं होता।" छोड़कर भारत के अन्य सभी दर्शनों का मुख्य ध्येय आत्मा और
। इस प्रकार जैन दर्शन के इतने गंभीर एवं व्यापक विश्लेषण उसके स्वरूप का प्रतिपादन है। चेतन और अवचेतन के स्वरूप को
को सुनकर पागे जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-जैन दर्शन जितनी सूक्ष्मता से भारतीय दर्शन ने समझाने का प्रयास किया है
वस्तुतः अद्भुत है, अनूठा है। विश्व का अन्य कोई दर्शन उसकी उतना विश्व के किसी अन्य दर्शन ने नहीं। यूनान के दार्शनिकों ने
समता नहीं कर सकता। भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, किन्तु शैली की सुन्दरता के बावजूद चेतन और परम चेतन के स्वरूप का विश्लेषण
डॉ. श्रीमालीजी इतना गंभीर और मौलिक नहीं है जितना होना चाहिए था।
भारत के भूतपूर्व शिक्षामंत्री डॉ. कालूलाल श्रीमाली मनीषी यूरोप का दर्शन आत्मा का दर्शन न होकर प्रकृति का दर्शन है।
विद्वान् थे। वे मैसूर में गुरुदेव श्री की सेवा में अनेक बार उपस्थित अतः एकांगी रह जाता है। भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति के स्वरूप का
हुए तथा गुरुदेव श्री तथा उनके शिष्यों द्वारा विरचित साहित्य को भी चिन्तन है, जीवन और जगत की भी उपेक्षा नहीं है, किन्तु वह
देखकर अत्यन्त प्रमुदित हुए। उन्होंने कहा-शोध प्रधान तथा चिन्तन चैतन्य के प्रतिपादन हेतु है।
तुलनात्मक दृष्टि से जो साहित्य निर्माण हो रहा है वह प्रशंसनीय है 900
तथा आज के सन्दर्भ में बहुत आवश्यक भी है। “जैन कथाएँ" तर्क और दर्शन का मधुर समन्वय है भारतीय दर्शन। उसमें
देखकर तो वे विस्मित भी हुए तथा कहने लगे कि जैन साहित्य में आध्यात्मिक चिन्तन की प्रेरणा है। मात्र बौद्धिक विलास नहीं। दर्शन
कथा-साहित्य का इतना विपुल भंडार है, इसकी तो मुझे कल्पना का अर्थ है सत्य का साक्षात्कार करना। फिर भले ही वह सत्ता तक नहीं थी। प्राचीन जैनाचार्यों ने वास्तव में कथाओं के माध्यम से चेतन की हो अथवा अचेतन की। भारतीय दर्शनों में भी जैनदर्शन । जीवन के अदभत तत्त्व बडी सगमता से प्रस्तत किए हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ध्यान और योग तथा जप-साधना की चर्चा चलने पर । चामुण्डराय, नगचन्द्र, कुमुरेन्दु रत्नाकरवर्णी आदि। शताधिक जैन गुरुदेवश्री ने कहा-ध्यानशतक में आचार्य जिनभद्र ने स्थिर चेतना । लेखक हुए हैं जिन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा में बहुत लिखा है। को ध्यान कहा है और चल चेतना को चित्त कहा है
अभी बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित पड़ा है। शासन का कर्त्तव्य है "जं स्थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तं चित्तं।"
कि ऐसे साहित्य को प्रकाश में लाकर जैनधर्म और संस्कृति के
सुनहरे इतिहास को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया जाय।
-ध्यानशतक २१ आचार्य अकलंक ने ध्यान की परिभाषा करते हुए लिखा है
पाटिल सा. ने कहा-"मैं स्वीकार करता हूँ। जैन साहित्य जैसे बिना हवा वाले प्रदेश में प्रचलित प्रदीप-शिखा प्रकम्पित नहीं
विशाल एवं सारगर्भित है। आपश्री ने मेरा ध्यान इस ओर होती, वैसे ही निराकुल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से सिद्ध
आकर्षित किया तदर्थ मैं आभारी हूँ। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे अन्तःकरण की वृत्ति एक आलम्बन पर अवस्थित हो जाती है।
जैन कन्नड़ साहित्य का अधिक से अधिक प्रसार हो सके।" उनके अभिमतानुसार व्यग्र चेतना ज्ञान है और वही स्थिर होने पर । बाब जगजीवनराम ध्यान है।
___दलितों के मसीहा बाबू जगजीवनराम जी भारत की एक आचार्य रायसेन ने कहा है-एक आलम्बन पर अन्तःकरण की । विभूति थे। वे दिनांक ९-७-१९७८ को दर्शनार्थ एवं विचार-चर्चा वृत्ति का निरोध ध्यान है।
हेतु उपस्थित हुए। उस प्रसंग का स्थल राबर्टसनपेठ था। चर्चा के ध्यान चित्त की निर्विकल्प दशा है। वहाँ पर किसी भी दशा में मध्य गुरुदेव श्री ने कहा-भगवान् ऋषभदेव विश्व संस्कृति के मन का लगाव नहीं रहता। एतदर्थ ही आचार्यों ने कहा है-"ध्यान आद्यपुरुष हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में ही नहीं, अपितु निर्विषयं मनः"-निर्विषय मन ही ध्यान है।
विश्वसंस्कृति में उनका अप्रतिम स्थान है। वे संस्कृतियों के ध्यान से चित्त में जो अनन्त-अनन्त ऊजाएँ प्रसुप्त हैं, वे जागृत
संगमस्थल हैं। उनके संबंध में विशद् जानकारी देने हेतु "ऋषभदेवः होकर बहिर्मुखी प्रवाह को अवरुद्ध कर देती हैं। अतः जैन
एक परिशीलन" ग्रन्थ प्रदान करते हुए आपश्री ने कहा-ये साधना-पद्धति में ज्ञान और ध्यान पर अत्यधिक बल दिया गया है।
राजनीति के आद्यपुरुष हैं। इनसे प्रेरणा प्राप्त कर जनता-जनार्दन के
कल्याण हेतु धर्म के पथ पर शासन अग्रसर हो, यही मेरी ध्यान शब्दों का विषय नहीं है। वह शब्दातीत अनुभूति है। इस
मंगल-मनीषा है। अरूप अनुभूति को साधकों ने विभिन्न प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया है। जैसे-ध्यान एक अलौकिक मस्ती का नाम है जिसे प्राप्त कर
___ बाबू जगजीवनराम जी को श्री राजेन्द्र मुनि द्वारा रचित ग्रन्थ लेने के पश्चात् 'पर' का बोध नहीं रहता। दूसरे शब्दों में स्वयं में ।
भी भेंट दिए गए। खो जाने का नाम ध्यान है।
बाबूजी को सद्गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। ध्यान साधना के लिए आहार पर नियंत्रण, शरीर पर पी. रामचन्द्रन नियंत्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण, श्वासोच्छ्वास पर नियंत्रण, भाषा
दि. १६-२-१९६८ को केन्द्रीय विद्युत एवं ऊर्जा मंत्री श्री पी. पर नियंत्रण और मन पर नियंत्रण आवश्यक है।
रामचन्द्रन गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ तथा विचार-चर्चा हेतु के. जी. इस प्रकार गुरुदेव श्री ने ध्यान के सम्बन्ध में गहराई से चर्चा
एफ. जैन स्थानक में उपस्थित हुए। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री की। विशेष विगत हेतु पाठकगण देखें-"श्रुत व संयम के संगम, |
ने धर्म तथा सम्प्रदाय का विश्लेषण करते हुए कहा-धर्म जीवन का प्रज्ञा-प्रदीप पुष्कर मुनि।" (लेखक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री)
संगीत है। आध्यात्मिक उन्नति का मूलमन्त्र है। धर्म है-अहिंसा, सी. एन. पाटिल
सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अनासक्ति। ये सद्गुण प्रत्येक दि. ७-१०-१९७६ को रायचूर में कर्नाटक के श्रममंत्री सी.
मानव के जीवन को विकसित करते हैं। किन्तु जहाँ धर्म को एन. पाटिल उपस्थित हुए। औपचारिक वार्तालाप के मध्य गुरुदेवश्री
सम्प्रदाय के सीमित दायरे में बाँध दिया जाता है वहाँ संघर्ष, कलह ने कहा-"कर्नाटक अतीत काल से ही जैन संस्कृति का केन्द्र रहा
आदि उत्पन्न होते हैं। सम्प्रदाय जन्म लेता है, समाप्त होता है। किन्तु है। इतिहास की दृष्टि से द्वितीय भद्रबाहु स्वामी उत्तर भारत से
धर्म सदा अखण्ड रहता है। सम्प्रदाय पाल के समान है और धर्म इधर आए थे। ऐसा माना जाता है। जैन श्रमण भाषा की दृष्टि से
पानी के समान। सरोवर की पाल हो, किन्तु पानी न हो तो पाल बहुत उदार रहे हैं। उन्होंने जिस प्रकार से अन्य भाषाओं में
किस काम की? साहित्य-सृजन किया, उसी प्रकार कन्नड़ भाषा में भी। यदि हमारे संविधान में भारत को धर्म-निरपेक्ष राज्य कहा गया है। कन्नड़-साहित्य में से जैन साहित्य को निकाल दिया जाय तो प्राचीन | मेरी दृष्टि में यह ठीक नहीं है। इसके बदले सम्प्रदाय निरपेक्ष राज्य कन्नड़-साहित्य प्राणरहित हो जायगा। नृपतुंग, आदि पंप, पोन्न, रन्न, कहा जाना अधिक उचित होता।
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विश्व सन्त की सम्मानित चादर
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भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी उपाध्यायश्री के आध्यात्मिक व्यक्तित्व से विशेष प्रभावित रहे हैं। दिल्ली (सन् १९८४) में उपाध्यायश्री द्वारा लिखित ग्रन्थ 'ब्रह्मचर्य विज्ञान' का लोकार्पण राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह द्वारा किया गया। पास में विराजित हैं आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी तथा श्री दिनेश मुनिजी, दूसरी ओर वाणीभूषण श्री अमर मुनिजी तथा साथ में खड़े हैं। कांफ्रेंस के तत्कालीन महामंत्री अजीतराजजी सुराणा तथा युवानेता श्री सुभाष ओसवाल।
उपाध्यायश्री को विश्व सन्त की चादर समर्पित करते हुए ज्ञानी जैलसिंह
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स्व. आचार्यश्री आनन्द ऋषिजी म. की सन्निधि में प्रवचन करते हुए वर्तमान आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी उपाध्यायश्री
(पुष्कर मुनि जी म.) के साथ।
मेरठ में स्व. प्रवर्तकश्री शांतिस्वरूप जी म. के साथ विचार चर्चा करते हुए। पास में विराजमान हैं मुनिश्री सुमतिप्रकाश जी।
गुरुदेवश्री के पास किन्हीं प्रसन्नता के क्षणों में वर्तमान आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी
तथा
स्मृति ग्रन्थ के संयोजक
श्री दिनेश मुनिजी।
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तल से शिखर तक
श्री रामचन्द्रन जी ने इस कथन की यथार्थता को स्वीकार किया।
स्थानीय जैन युवक मण्डल ने श्री रामचन्द्रन को नमस्कार महामंत्र का कलात्मक चित्र भेंट किया। गुरुदेव ने इस महामंत्र का अर्थ बताते हुए कहा यह जैनधर्म का महामंत्र है। इसमें व्यक्ति की पूजा नहीं, बल्कि गुणों की उपासना की गई है। जैन धर्म व्यक्ति पूजा को नहीं, गुणों की उपासना को महत्त्व देता है। चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों-जिनका राग-द्वेष नष्ट हो गया है, उनको नमस्कार करता है।
जैन धर्म की इस उदार वृत्ति को देखकर केन्द्रीय मंत्री बहुत अभिभूत हुए। उन्हें "ऋषभदेवः एक परिशीलन" तथा श्री राजेन्द्र मुनि द्वारा लिखित ग्रन्थ भी भेंट किए गए। उन्हें जब ज्ञात हुआ कि उनकी जन्मस्थली तमिलनाडु में गुरुदेव श्री पधार रहे हैं, तब तो उनके हर्ष का कोई पार ही नहीं रहा।
श्री गोलवेलकर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संचालक स्व. श्री स. मा. गोलवलकर (गुरुजी) की भेंट गुरुदेव श्री से सन् १९७२ में हुई, जब आपश्री सिंहपोल, जोधपुर में चातुर्मास हेतु विराज रहे थे। वे जब दर्शनार्थ आए, तब भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति पर गम्भीर चर्चा के बीच गुरुदेव ने कहा ये तीनों मानव विकास के लिए आवश्यक हैं। इन्हें विभक्त नहीं किया जा सकता। इन तीनों का सम्मिलित रूप ही मानव के लिए वरदान स्वरूप है। जब संस्कृति आचारोन्मुख होती है तब वह धर्म है, जब विचारोन्मुख होती है तब दर्शन है। संस्कृति का आन्तरिक रूप चिन्तन है और उसका अर्थ संस्कार है। संस्कार चेतन का ही हो सकता है, जड़ का नहीं।
वस्तुतः संस्कृति स्वयं में एक अखण्ड और अविभाज्य तत्त्व है। उसका विभाजन नहीं किया जा सकता। भेद या खण्ड चित्त की संकीर्णता के प्रतीक है। संस्कृति के पूर्व जब कोई विशेषण लगा दिया जाता है तब वह विभाजित हो जाती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति भी श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति इन दो विभागों में विभक्त हो गई है। श्रमण और ब्राह्मण-ये दोनों भारतीय धर्म परम्पराएँ गुरु के गौरवपूर्ण पद को सुशोभित करती रही हैं। भारतीय राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए पुनः इनका सुन्दर समन्वय होना चाहिए। बाह्य, भीतिक, क्रियात्मक दृष्टि को गौण बनाकर आध्यात्मिक विकास, चेतना के अन्तर्शोधन एवं चेतना के ऊर्ध्वमुखी विकास की ओर दृष्टि जानी चाहिए।
ब्राह्मण संस्कृति को विकसित करने में मीमांसा दर्शन, वेदान्त दर्शन और न्याय दर्शन का अपूर्व योगदान रहा है, तो श्रमण संस्कृति के विकास में जैन, बौद्ध, सांख्य, योग तथा आजीवक दर्शन का योगदान रहा है।
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कपिल और पतञ्जलि ने क्रमशः सांख्यशास्त्र और योगसूत्र में संन्यास को जीवन का मुख्य धर्म स्वीकार किया है। यद्यपि उच्चतम साधकों के लिए श्रमण शब्द का व्यवहार न किया गया हो, तथापि यह सत्य है कि संन्यासी, परिव्राजक और योगी शब्द का भी वही अर्थ है जो भ्रमण शब्द का है संन्यासी, योगी और श्रमण- तीनों का मूल उद्देश्य एक ही है वह उद्देश्य है-आध्यात्मिक जीवन का विकास तथा अनन्त आनन्द की प्राप्ति ।
श्री गोलवलकर जी ने प्रश्न किया- "जैन धर्मावलम्बी हिन्दू समाज का ही अंग हैं, फिर वे स्वयं को जैन क्यों लिखते हैं ?"
समाधान गुरुदेव श्री ने प्रस्तुत किया- “भारत में रहने वाले सभी हिन्दू हैं, इस परिभाषा की दृष्टि से जैन भी हिन्दू हैं। तथा 'जिसका हिंसा से दिल दुखता है, यह हिन्दू है।' इस परिभाषा से भी जैन हिन्दू हैं । किन्तु जो ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन त्रिदेवों को मानता हो, चारों वेदों को प्रमाणभूत मानता हो, ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता मानता हो, वही हिन्दू है-इस दृष्टि से जैन हिन्दू नहीं हैं। यह सत्य है कि जैन संस्कृति हिन्दू संस्कृति से पृथक् होते हुए भी भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है। भारतीय संस्कृति से वह पृथक् नहीं है।"
श्री गोलवलकर जी गुरुदेव श्री के इस समन्वयवादी चिन्तन से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में कहा-" आप जैसे सुलझे हुए विचारक सन्तों की बहुत आवश्यकता है।"
जगद्गुरु शंकराचार्य
गुरुदेव तथा कांची कामकोटि पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य की भेंट का मधुर प्रसंग बड़ा रोचक है। सन् १९३६ में गुरुदेव का चातुर्मास नासिक में था। सन्ध्या के समय आपश्री बहिर्भूमि हेतु गोदावरी नदी की ओर जा रहे थे। सामने से कार में जगद्गुरु आ रहे थे। उन्होंने आपश्री को देखते ही कार रुकवा दी और संस्कृत भाषा में आपसे पूछा- आप कौन हैं?"
गुरुदेव श्री ने कहा- "मैं वर्ण की दृष्टि से ब्राह्मण और धर्म की दृष्टि से जैन श्रमण हूँ।"
जगद्गुरु इस उत्तर से आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा"ब्राह्मण और जैनों में तो आदिकाल से ही वैर रहा है-सर्प और नकुल की तरह। फिर आपने ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर जैन धर्म कैसे ग्रहण किया?"
आपश्री ने कहा- "यह खेद की किन्तु सत्य बात है कि जैनों और ब्राह्मणों में मतभेद तथा कटुतापूर्ण व्यवहार भी रहा है। किन्तु यह भी सत्य है कि हजारों ब्राह्मण जैन धर्म में प्रव्रजित हुए । भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य जो गणधर कहलाते हैं, वे ग्यारह ही वर्ण से ब्राह्मण थे। उनके चार हजार चार सौ शिष्य भी ब्राह्मण थे। वस्तुतः महावीर के परिवार में बहुत ब्राह्मण थे और उन्होंने जैन धर्म के गौरव को बढ़ाने में अपूर्व योगदान दिया। भगवान्
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महावीर के पश्चात् भी आचार्य हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर आदि शताधिक विद्वान हुए हैं, जो वर्ण से ब्राह्मण थे।"
"आपने जैन धर्म क्यों स्वीकार किया ?"
"क्योंकि जैन धर्म में त्याग, संयम और वैराग्य की प्रधानता है। जैन श्रमण अपने पास एक पैसा भी नहीं रखता। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। पृथ्वी के विविध अंचलों में वह नंगे पैर पैदल ही भ्रमण करता है। मधुकरी कर जीवन निर्वाह करता है। सिर तथा दाढ़ी के बालों को वह अपने हाथ से ही नोंचकर निकालता है। जैन धर्म की इस त्याग-निष्ठा ने ही मुझे जैन धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उठप्रेरित किया।"
इसके पश्चात् जैन दर्शन की विशेषताओं तथा भारतीय दर्शन में जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण स्थान पर चर्चा हुई। गुरुदेव श्री ने विस्तार से विवेचन किया।
उसे सुनकर जगद्गुरु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा"आज मुझे प्रथम बार ही जैन मुनि से मिलने का अवसर मिला है। मैंने जैन दर्शन के विषय में बहुत कुछ पढ़ा है, किन्तु आज आपसे मिलने पर अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण हो गया। आपश्री से यह वार्तालाप दो संस्कृतियों के समन्वय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा। वस्तुतः मिलन-सम्मिलन से अनेक भ्रान्त धारणाओं का निरसन हो जाता है।"
श्री जैनेन्द्र कुमार
जैनेन्द्र जी प्रसिद्ध कथाशिल्पी साहित्यकार थे। उनके साहित्य में दार्शनिक चिन्तन तथा मनोविज्ञान की दृष्टि बहुत सूक्ष्म रहती थी। सन् १९६७ में बालकेश्वर, बम्बई के वर्षावास के समय वे गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। वार्तालाप के प्रसंग में जैन मनोविज्ञान पर चिन्तन करते हुए गुरुदेव श्री ने जैन दर्शन तथा जैन मनोविज्ञान का विस्तृत, विशद विवेचन किया। यहाँ हम संक्षेप में कुछ मुख्य बिन्दु ही सूत्र रूप में प्रस्तुत कर पाएंगे। विशेष- विवरण हेतु पाठक देखें - "श्रुत व संयम के संगम : प्रज्ञा-प्रदीप पुष्कर मुनि ” ( लेखक - देवेन्द्र मुनि शास्त्री)
गुरुदेव ने फरमाया-जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नोकर्म की त्रिपुटी पर आधारित है। जैन दृष्टि से मन एक स्वतन्त्र पदार्थ या गुण नहीं है, अपितु आत्मा का ही एक विशेष गुण है। मन की प्रवृत्ति सर्वतन्त्र स्वतन्त्र नहीं, अपितु कर्म और नोकर्म की स्थिति की अपेक्षा से है। जब तक हम इसका स्वरूप नहीं समझेंगे वहाँ तक मन का स्वरूप नहीं समझा जा सकेगा।
मन के स्वरूप के विषय में गुरुदेव श्री ने इसके बाद विशद् विवेचन प्रस्तुत किया और बताया कि मन दो तरह का है-एक चेतन और दूसरा पौद्गलिक।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
आपश्री ने आत्मा के स्वरूप तथा पुद्गलों के प्रभाव का भी सुन्दर विवेचन करते हुए कहा- मन का असर शरीर पर होता है। इसे ही हम 'शरीर पर मानसिक असर' कहते हैं।
वार्तालाप के प्रसंग में मस्तिष्क और मन के परस्पर सम्बन्ध, इन्द्रिय तथा मन के सम्बन्ध तथा मन क्या है? विभिन्न दर्शनों में मन की स्थिति क्या रही है ? एवं मन की व्यापकता, मानसिक योग्यता के तत्व, लेश्या, ध्यान आदि के सम्बन्ध में भी विस्तृत प्रकाश गुरुदेव श्री ने डाला ।
जैनेन्द्र जी गंभीर विचारक थे। उन्होंने स्वीकार किया कि मैं जैन मनोविज्ञान के सम्बन्ध में विशेष अध्ययन करूँगा। आज जैन मनोविज्ञान को नूतन परिवेश में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
पं० सुखलाल जी सिंघवी
पं० सुखलाल जी भारतीय दर्शन के एक महान् चिन्तक और मर्मज्ञ विद्वान थे। आपने शोध दृष्टि से जैन दर्शन पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। वे गुरुदेव से सन् १९५६ में जयपुर तथा सन् १९७२ में एवं १९७४ में अहमदाबाद में अनेकान्त बिहार में मिले गुरुदेव श्री ने पंडित जी के समक्ष दर्शन सम्बन्धी अपनी अनेक जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। पंडित जी ने अत्यन्त सरल व सहज रूप से उन जिज्ञासाओं का समाधान किया। वे गुरुदेव की जिज्ञासा वृत्ति को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- जिज्ञासा ही दर्शन की जननी है। जब तक जिज्ञासा जागृत नहीं होती, सत्य के द्वार नहीं खुलते। मैंने जैन मुनियों में प्रथम बार ही आप जितनी जिज्ञासा वृत्ति देखी है। यही आपके विकास का मूल है। मुझे विश्वास है कि आप ज्ञान के शिखर तक अवश्य पहुँचेंगे।
ज्ञान चर्चा की दृष्टि से यह भेंट बहुत महत्वपूर्ण रही।
पं० बेचरदास जी दोषी
पं० बेचरदास जी दोषी प्राकृत भाषा के मूर्धन्य मनीषी थे। उनका अध्ययन विशाल एवं दृष्टि व्यापक थी। वे पूज्य गुरुदेव श्री से अनेकों बार मिले। जब भी भेंट हुई प्राकृत भाषा और आगम साहित्य को लेकर विचार चर्चाएँ होती रहीं। उन चर्चाओं में वे गुरुदेव श्री से आगम के गहन रहस्यों को जानकर कई बार अत्यन्त आादित हुए।
पं. दलसुख मालवणिया
पं. दलसुख मानवणिया जैन दर्शन के मूर्धन्य चिन्तकों में से हैं। वे बहुत ही सुलझे हुए विचारक हैं जयपुर, अहमदाबाद, बम्बई, पूना, बैंगलोर, बड़ौदा - इत्यादि अनेक स्थानों पर अनेक बार आपने गुरुदेव श्री से धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न विषयों पर
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} तल से शिखर तक
२४७ चर्चा की। गुरुदेव श्री के सौजन्ययुक्त स्वभाव से वे बहुत ही गुरुदेव-'भिक्षु दृष्टान्त' की तरह उस युग के दृष्टान्तों के प्रभावित हुए। विस्तार भय से उन सभी चर्चाओं का अंकन हम यहाँ संकलन भिक्षु दृष्टान्त के खण्डन रूप में हैं, वह मेरे पास में हैं, नहीं कर रहे हैं।
जिसे पढ़कर पाठक के मन में राग-द्वेष की अग्नि भड़क उठे, क्या
उसका भी प्रकाशन होना चाहिए? आगमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजय जी म.
गुरुदेव श्री ने जीतमल जी म., कविवर नेमिचन्द्र जी म. के सादड़ी सन्त-समागम के अवसर पर आगम प्रभावक मुनि श्री
पद भी सुनाए जिनमें तेरापन्थ के सम्बन्ध में कटु आलोचना थी। जो पुण्यविजय जी से गुरुदेव की भेंट हुई। व्यस्तता में अधिक चर्चा न
उस युग की भावना का चित्र था। जिसे सुनकर आचार्य तुलसी जी हो सकी। किन्तु सन् १९७० में बम्बई, बालकेश्वर में अनेकों बार
के चेहरे से ऐसा परिज्ञान हो रहा था मानो 'भिक्षु दृष्टान्त' का आपश्री की आगम, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकाएँ आदि के रहस्यों
प्रकाशन करवा कर उचित नहीं किया। क्योंकि जिसकी को लेकर विचार-चचएिँ हुईं। वे चर्चाएँ अत्यन्त ज्ञानवर्धक थीं।
प्रतिक्रियास्वरूप ऐसा साहित्य प्रकाशित कराया जायगा तो उससे गुरुदेव श्री ने अनेक बातें जो स्थानकवासी परम्परा में धारणा
दरार बढ़ेगी, घटेगी नहीं। व्यवहार के रूप में चल रही थीं, वे आपश्री को बताई। उन्हें सुनकर आपश्री ने कहा-जो बातें धारणाओं से चल रही हैं वे बहुत
दूसरी बार जैन एकता को लेकर जोधपुर में गुरुदेव श्री आदि महत्त्वपूर्ण हैं। आगमों के बहुत से रहस्य जो आगम और व्याख्या
से लगभग एक घण्टे वार्तालाप हुआ। यह वार्तालाप अत्यन्त साहित्य से स्पष्ट नहीं होते वे इनसे स्पष्ट हो जाते हैं। आगम
स्नेह-सौजन्यपूर्ण क्षणों में सम्पन्न हुआ। इस वार्तालाप में उपाध्याय प्रभावक जी ने यह भी कहा कि स्थानकवासी परम्पराओं की
श्री हस्तीमल जी महाराज भी सम्मिलित थे। गुरुदेव श्री ने बताया धारणाओं का एक संकलन हो जाय तो आगमों के रहस्य को
कि जैन एकता की अत्यन्त आवश्यकता है। यदि हम इस सम्बन्ध में समझने में बहुत उपयोगी हो।
जागरूक न हुए तो आने वाली पीढ़ी हमारे सम्बन्ध में विचार
करेगी। और वह एकता तभी सम्भव है जबकि केवल मंच पर ही आचार्य श्री तुलसी
नहीं, व्यवहार में ऐसा कार्य किया जाय जिससे एकता में बाधा मगुरुदेव श्री का आचार्य तुलसी जी से तीन बार मिलन हुआ। उपस्थित न हो। दोनों ओर से यह प्रयास होना चाहिए। एक ओर प्रथम बार सन् १९६१ में सरदारगढ़ (राज.) में तथा द्वितीय बार । का प्रयास सफल नहीं हो सकता। सन् १९६५ में जोधपुर में और तृतीय बार सन् १९८६ में ब्यावर आचार्य तुलसी जी ने भी गुरुदेव श्री के स्वर में स्वर मिलाते में। प्रथम भेट में आचार्य श्री तुलसी जी ने तेरापन्थ समुदाय के
हुए कहा-आपका चिन्तन सुलझा हुआ है, तथा उसी दृष्टि से हम द्वारा प्रकाशित अपना सम्पूर्ण साहित्य गुरुदेव श्री को भेंट किया। प्रयत्न करेंगे तभी सफल हो सकेंगे। दूसरे दिन प्रातःकाल शौच से निवृत्त होकर लौटते समय आचार्य
तीसरी बार ब्यावर में गुरुदेव श्री अस्वस्थ थे, ज्वर से ग्रसित श्री के साथ आपकी भेंट हुई। आचार्य श्री तुलसी जी ने गुरुदेव श्री
थे। आचार्य श्री तुलसी जी से मेरा शौच भूमि में जाते समय मिलन से पूछा-कल हमने साहित्य प्रेषित किया था, वह आपने देखा होगा।
हुआ। आचार्य श्री ने पूछा कि उपाध्याय पुष्कर मुनि जी जंगल के वह आपको कैसा लगा?
लिए क्यों नहीं पधारे। मैंने उन्हें बताया कि ज्वर के कारण नहीं गुरुदेव श्री ने कहा-साहित्य के क्षेत्र में आपकी प्रगति देखकर पधार सके। आचार्य श्री स्वयं चलकर पीपलिया बाजार में स्थित मन में आह्लाद होता है। आप संगठन व जैन एकता के प्रबल } स्थानक में गुरुदेव श्री की साता पूछने के लिए पधारे। वार्तालाप पक्षधर हैं तो आपके द्वारा साहित्य भी वैसा ही प्रकाशित होना हुआ और मैंने अपना साहित्य उन्हें भेंट किया। चाहिए जो एकता की दृष्टि से सहायक हो। जिस साहित्य से
गुरुदेव श्री का व्यक्तित्व महान् था। हृदय निर्मल था। दृष्टि विघटन उत्पन्न होता है, राग-द्वेष की अभिवृद्धि होती है, उसका
व्यापक थी। अतः इस प्रकार राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षिक, प्रकाशन कराना आज के युग में कहाँ तक उपयुक्त है?
आध्यात्मिक प्रभृति विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित शताधिक व्यक्ति, आचार्य तुलसी-ऐसा कौन-सा ग्रन्थ प्रकाशित हुआ जो आपकी चिन्तक व मूर्धन्य मनीषीगण उनके पावन सम्पर्क में आते रहे। दृष्टि से अनुचित है?
विस्तार के भय से वे सभी संस्करण यहाँ नहीं दिए जा सकते।
आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, आचार्य श्री काशीराम जी गुरुदेव श्री-'भिक्षु दृष्टान्त' जैसे ग्रन्थ का प्रकाशन मैं उचित
महाराज, गणी उदयचन्द जी महाराज, आचार्य श्री जवाहरलाल जी नहीं मानता।
महाराज, उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज, आचार्य श्री आचार्य तुलसी-'भिक्षु दृष्टान्त' में अनेक ऐतिहासिक सत्य तथ्य नानालाल जी महाराज, आचार्य हस्तीमल जी म., आचार्य खूबचन्द रहे हुए हैं, अतः उनका प्रकाशन कराना उचित समझा गया। जी म., आचार्य श्री सहस्रमल जी म., जैन दिवाकर चौथमल जी
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२४८
महाराज, उपाध्याय किस्तूरचन्द जी म. मालवकेसरी सौभाग्यमल जी म. शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी म., आचार्य श्री गुलाबचन्द्र जी महाराज, आचार्य रूपचन्द्र जी महाराज, कविवर नानचन्द्रजी म., मुनि सन्तबालजी, आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी म., उपाध्याय श्री अमरमुनि जी म., उपाध्याय फूलचन्द जी म., प्रवर्त्तक श्री पन्नालाल जी म., कविवर्य श्री चौथमल जी म., मरुधरकेसरी मिश्रीमलजी म., युवाचार्य मधुकर मुनि जी म., आचार्य श्री घासीलाल जी म. आचार्य पुरुषोत्तम लाल जी म., आदि स्थानकवासी समुदाय के मूर्धन्य मनीषीगण तथा पुरातत्त्ववेत्ता पद्मश्री मुनिजनविजय जी गुरुदेव श्री से चन्देरिया, चित्तौड़ तथा अहमदाबाद में अनेकों बार मिले और इतिहास तत्त्व महोदधि आचार्य विजयेन्द्र सूरि जी, इतिहास वेत्ता मुनि श्री कल्याणविजय जी, डॉ. मुनि कान्तिसागर जी, आचार्य रामचन्द्रसूरि जी, आचार्य विजयधर्म सूरिजी, आचार्य समुद्रसूरि जी, आचार्य मुनि श्री यशोविजय जी, गणिवर्य पं. मुनिश्री अभयसागर जी, डॉ. मुनि नगराज जी. डी. लिट्. पं. मुनि श्री नथमल जी, चारित्र चक्र चूड़ामणि दिगम्बर आचार्य शान्तिसागर जी, आचार्यप्रवर देशभूषण जी, आचार्य विद्यानन्द जी, महन्त दर्शनराम जी, डॉ. एस. एस. बारलिंगे, डॉ. टी. जी. कलघटगी, डॉ. प्रेमसुमन जैन, डॉ. कमलचन्द्र सोगानी, डॉ. भागचन्द भास्कर, डॉ. संगम लाल पाण्डेय, इतिहास रत्न अगरचन्द्र जी नाहटा, जस्टिस टी. के. तुकोल, जस्टिस इन्द्रनाथ मोदी, जस्टिस सोमनाथ मोदी, जस्टिस कल्याण मल लोढ़ा, जस्टिस मानसिंह परिहार, जस्टिस कान्ता भटनागर, जस्टिस दिनकर लाल मेहता, जस्टिस मिलापचन्द्र जैन, जस्टिस अग्रवाल, श्री ऋषभदास रांका, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. ए. डी. बतरा, डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित, डॉ. नथमल टाँटिया, आचार्य निरंजननाथ, दिनेशनन्दिनी डाल्मिया, डॉ. डी. एस. कोठारी, सेठ अचलसिंह जी, सोलिसिटर जनरल चिमनभाई चक्कूभाई शाह, पद्मश्री सेठ | मोहनलाल जी चोरड़िया, सेठ विनयचन्द्र दुर्लभ जी, खेलशंकर दुर्लभ जी, सेठ हीराचन्द, बालचन्द्र आदि व्यक्तियों से गुरुदेव श्री की विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ हुईं।
सन् १९६४ में जब उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. दिल्ली पधारे तब समाजरत्न डॉ. दौलतसिंह कोठारी, सांसद श्री भिक्खुराम जैन, दिल्ली महानगर के पार्षद मेहताबचंद जैन,
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
नगर निगम पार्षद श्री महेन्द्र कुमार जैन, दिल्ली जैन समाज के मंत्री श्री प्रेमचंद जैन, कांफ्रेंस के मंत्री श्री अजितराज जी सुराणा, श्री एच. के. एल. भगत, श्री पुरुषोत्तम गोयल, अध्यक्ष दिल्ली महानगर परिषद, गोकुल भाई भट्ट, मंत्री श्री रूपनारायण जी, राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी, भारत के सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी, श्री कुलानन्द भारती, कार्यकारी पार्षद दिल्ली प्रशासन, कवि हाथरसी, सांसद मूलचंद डागा, श्री नवल किशोर शर्मा-पेट्रोलियम मंत्री भारत सरकार, जवाहरलाल मुणोत, गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री, अमरसिंह जी चौधरी, दिगम्बर जैन महासभा के मंत्री श्री ताराचंद जी "प्रेमी", डॉ. नरेन्द्र भानावत ।
सन् १९८७ पूना में डॉ. शंकरदयाल जी शर्मा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तब जगतगुरू शंकराचार्य और जाने माने संगीतकार रवीन्द्र जैन।
"
सन् १९८८ में आपका वर्षावास इन्दौर में था तब मध्यप्रदेश शासन के उद्योगमंत्री चन्द्रप्रभाष शेखर तथा विधायक ललित जैन ने आपके दर्शन किए तथा डॉ. नेमीचंद जैन एवं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह जी ।
सन् १९८९ में आपका वर्षावास जसवंतगढ़ था : उदयपुर महाराणा महेन्द्र सिंह जी तथा गुलाबसिंह सक्तावत आदि ने आपश्री के दर्शन किए और सादड़ी वर्षावास १९९० में न्यायमूर्ति जसराज जी चौपड़ा, राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष श्री हरिशंकर भाभड़ा और १९९२ सिवाना वर्षावास में महाराणा गजसिंह और न्यायविधि मंत्री शांतिलाल चपलोत सन् १९९३ चादर समारोह में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री सुन्दरलाल पटवा तथा पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, पूर्व सांसद रामचन्द्र विकल ये सभी गुरुदेवश्री के स्नेह-सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार से प्रभावित हुए।
वस्तुतः स्नेह एक ऐसा ही सुनहरा सूत्र है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति आनन्दपूर्वक बाँधा जा सकता है। ये सभी गुरुदेव श्री के स्नेह-सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार से प्रभावित हुए।
सरल स्नेह के कोमल धागे में कठोर से कठोर मोती भी पिराए जा सकते हैं।
श्रेष्ठ, शिखर पुरुषों की तो फिर बात ही क्या है ?
टूटे जहाज के डूबे यात्री को जैसे लकड़ी का तख्ता सहारा है वैसे ही संसार सागर से पार होने के लिये सम्यक्त्व रूपी तख्ता ही सहारा है। संसार रूपी महावन को पार करने के लिये धर्म सार्थ की तरह है। दरिद्री के लिये चिन्तामणि रत्न है। सघन वन में लगी आग में सरोवर है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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शीतऋतु में विश्राम के क्षणों का दृश्य
गुरु-शिष्य चिन्तन मनन के क्षणों में
बाई ने
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एक ऐतिहासिक स्मृति चित्र
अजमेर साधु सम्मेलन की पूर्णता पर “आचार्य-सम्राट" पद से विभूषित श्री आनंद ऋषि जी म. सम्मेलन स्थल से बाहर आते हुए। पास में क्रमशः उपाध्याय श्री किस्तूरचंद जी म., उपाध्याय श्री अमर मुनि जी म., मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म.. उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म., उपाध्याय श्री हस्तीमल जी म. आदि संत वृंद।
त्राटक ध्यान साधना निरत गुरुदेव श्री
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भक्तजनों को आशीर्वाद देते हुए
पद्मासन ध्यान साधना में स्थिर गुरुदेव
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कुछ बिखरी स्मृतियाँ (१) पूना सम्मेलन के अवसर पर रात्रि
विश्राम के समय आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म. से विचार विमर्श करते
हुए गुरुदेव उपाध्यायश्री जी (२) आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म. के साथ
पूज्य गुरुदेव, उपाध्याय श्री, प्रवर्तक
श्री रूप मुनि, श्री सुरेश मुनि शास्त्री (३) उदयपुर चादर महोत्सव के प्रसंग पर
दीक्षार्थिनी बहनें-मध्य में नीताकुमारी
वर्तमान-साध्वी विचक्षण श्री जी (४) संथारे के समय गुरुदेव के दर्शन
करती हुई वैरागिन बहन अनीता लुंकड़ पास में खड़े हैं वैद्य दिलखुश लाल सेठ
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तल से शिखर तक
अद्भुत लगभग अनिर्वचनीय ही है अविराम यात्रा का आनन्द ।
सभी
रात्रि और दिवस, पृथ्वी और आकाश, ग्रह-नक्षत्र - काल, किसी रहस्यमय अनन्त यात्रा पर हैं।
चलते चलो अकेले राम ! किसने बाँधा है आकाश !
जन्म और मरण के अनादि-अनन्त चक्र को अपने हाथों से घुमाती चली जा रही यह समूची सृष्टि ही मानो एक ऐसी यात्रा पर है जिसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता।
न दे दिखाई इस यात्रा का अन्त, किन्तु कभी न कभी आती है। एक स्थिति, जिसका फिर कोई, कभी अन्त नहीं होता।
किन्तु फिर वह स्थिति है।
सिद्ध स्थिति।
अचल और अनन्त ।
आनन्द की बात यही है कि उस परम और चरम सिद्धस्थिति तक पहुँचने से पूर्व का जो काल है वह चिर गतिमान है-उसमें कहीं कोई विराम नहीं है, विराम जड़ता ना देता है।
चैतन्य आत्मा का जड़ता से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं । अतः यात्रा है
"रात-दिवस, प्रतिपल, प्रतियाम,
धूप-छाँह में, सुबहो - शाम,
जीवन और मरण से आगेचलते चलो अकेले राम ॥"
नाम में तो कुछ रखा नहीं है। काम ही है जो महत्त्व रखता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ऐसे किसी अकेलेराम को नाम दिया - घुमक्कड़ । पूरा एक शास्त्र ही लिख डाला उन्होंने घुमक्कड़ - शास्त्र ।
श्रमण संस्कृति का श्रमण 'घुमक्कड़' है।
इस शब्द को किसी हलके रूप में लेना ठीक नहीं होगा। 'घुमक्कड़' अर्थात् एक ऐसा यात्री, जिसकी यात्रा अविराम है जो कहीं रुकता नहीं। अपनी सम्यकदृष्टि से देखता चलता है-और चलता ही चला जाता है।
इस छोर से उस छोर तक
अनादि से अनन्त तक।
बात को कुछ सरल रूप में कहा जाये
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जैन श्रमण एक ऐसा सम्यक् दृष्टिवान यात्री है जो हिमालय से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक पैदल ही परिभ्रमण करता है, और अपनी इस यात्रा में वह जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म की ज्योति जगाता चलता है।
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यह कितना बड़ा काम है? समूचे मानव-जीवन की सार्थकता निहित है इस पुण्य कर्म में धर्म से विमुख बने हुए व्यक्तियों को श्रमण धर्म का वास्तविक मर्म बताता चलता है।
सरिता कहीं रुकती नहीं । श्रमण भी उसी सरिता की सरस धारा के समान चलता ही रहता है, उसका जीवन सतत् प्रवाहित रहता है।
इसीलिए तो भगवान् महावीर ने कहा है- " विहार चरिया इसिणं पसत्था - अर्थात् श्रमण ऋषियों के लिए बिहार करना प्रशस्त है। जैन श्रमणों के लिए ही नहीं, वैदिक संन्यासियों तथा बौद्ध भिक्षुओं के लिए भी परिभ्रमण करना आवश्यक माना गया है। अवश्य ही जीवन की गतिशीलता के साथ पैरों की गतिशीलता का कोई अदृष्ट सम्बन्ध रहना चाहिए। नीतिकारों ने देशाटन को चातुर्य का कारण माना है" देशाटनं पण्डित मित्रता च।"
उपनिषदकारों ने सूत्र दिया- "चरैवेति-चरैवेति" इस सूत्र के द्वारा केवल भावात्मक गतिशीलता को ही नहीं, अपितु परिभ्रमण को विभिन्न उपलब्धियों का हेतु माना गया है। वृद्धश्रवा इन्द्र ने सत्य ही कहा है" धरती चरतो भग"जो बैठा रहेगा, उसका भाग्य भी बैठा रहेगा, जो चलता चलेगा, उसका भाग्य भी चलता चलेगा, गतिशील रहेगा।
तथागत बुद्ध ने भी अपना मन्तव्य इस प्रकार दिया है - जिस प्रकार गैंडा अकेला वन में निर्भय होकर घूमता है। वैसे भिक्षुओं को निर्भय होकर घूमना चाहिए। एक समय उन्होंने अपने साठ शिष्यों को बुलाकर कहा
चरथ भिक्खवे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय । चरथ भिक्खवे चारिकां, चरथ भिक्खवे चारिकां ॥
हे भिक्षुओ! बहुत-से लोगों के हित के लिए और अनेक लोगों के सुख के लिए विचरण करो। भिक्षुओ! अपनी जीवन चर्या के लिए सतत् चलते रहो। सतत् भ्रमण करते रहो।
उन भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध से पूछा - " भदन्त ! अज्ञात प्रदेश में जाकर हम लोगों को क्या उपदेश दें ?"
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२५०
बुद्ध ने बताया
"पाणी
न
हंतच्चो
दातव्वं
अदिन्नं न कामेसु मुच्छा न चरितव्या
भासितव्या
पातव्वं ॥
मूसा न मज्जं न अर्थात् प्राणियों की हिंसा न करो, चोरी मत करो, कामासक्त मत बनो, मृषा मत बोलो और मद्य मत पियो।
बौद्ध धर्म विश्व ने सुदूर अंचलों में फैल गया। इसका स्पष्ट कारण बौद्ध भिक्षुओं का सतत् परिभ्रमण ही है। बौद्ध भिक्षुओं ने घूम-घूमकर अपने आचरण और उपदेशों के द्वारा लंका, जावा, सुमात्रा, बर्मा, चीन, जापान, तिब्बत आदि अनेक देशों में नीति, सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार किया।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन स्वयं एक बड़े भारी घुमक्कड़ थे। खूब घूमे, खूब अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया, खूब गहरे उतरे, और कहा - "भगवान् महावीर को धन्य है। वे घुमक्कड़-राज थे।"
स्वयं भगवान् महावीर ने भी एक दिन अपने श्रमणों और श्रमणियों को कहा था- "भारण्डपक्खीव चरेऽप्पमत्ते" - हे श्रमणो! भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विहार करो, भ्रमण करो, विचरण करो।"
उस काल में, बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों के सतत् विचरण के कारण ही उस समूचे प्रदेश का नाम ही विहार से 'बिहार' हो गया।
एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है- “He travels best, | who travels on foot” वही सर्वोत्तम यात्रा करता है जो पैदल यात्रा करता है।
गहन
इस संक्षिप्त भूमिका से हमारे पाठक पैदल परिभ्रमण के महत्त्व को अवश्य समझ सकेंगे। मानव-जीवन व्यापक है, विशाल है, है। इसकी गहनता, वास्तविक अनुभूति, सांस्कृतिक अध्ययन तथा | नैतिक परम्पराओं का तलस्पर्शी अध्ययन जितना एक पद यात्री कर सकता है, उतना कोई वाहन-विहारी कदापि नहीं कर सकता।
निस्संदेह यह काँटों का मार्गे है। इस पथ में दुःख हैं, असुविधाएँ हैं।
किन्तु जो व्यक्ति फूल और कंटक, सुविधा और असुविधा, और दुःख को समान मानकर नहीं चला, वह चला ही क्या ?
सुख
7
चलते-चलते एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक नगर से दूसरे नगर, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाते-आते कहीं अमृत मिलता है, और हाँ, कहीं विष भी कहीं स्नेह, सद्भावना, सत्कार मिलता है तो कहीं दुत्कार और अपमान ।
Education intemation
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
श्रद्धेच गुरुवर्य ने अपने भव्य जीवन में निरन्तर आगे से आगे ही चलते और बढ़ते हुए समस्त विष को अमृत बना दिया।
हमारे लिए यह विस्मय का विषय हो सकता है, किन्तु उनके लिए तो यह सहज-सामान्य था।
क्योंकि उनका तो समूचा व्यक्तित्व, सम्पूर्ण अस्तित्व ही अमृतमय था।
संभव नहीं है कि श्रद्धेय गुरुदेव के समस्त जीवन के अविराम विहार तथा वर्षावासों का पूरा विवरण प्रस्तुत किया जा सके।
आकाश को कौन बाँध पाया है ?
शब्द उनके भव्य जीवन का लेखा कहाँ तक अंकित कर पायेंगे ?
अतः हम उनके विहार तथा वर्षावासों की एक सूक्ष्म, संक्षिप्त झलक मात्र अपने पाठकों को दिखा पाएंगे, और आशा रखेंगे कि वह एक दिव्य झलक मात्र ही हमारे सुधी पाठकों के मानस-लोक को आलोकित कर सकेगी।
युग बदल चुका है। विज्ञान ने बहुत प्रगति की है। यातायात के अनेक प्रकार के साधन उपलब्ध हैं। वे सुविधाजनक भी हैं और तीव्रगामी भी समुद्र और आकाश में भी आवागमन सरल-सुगम हो गया है। अन्य ग्रहों तक मानव की पहुँच हो गई है। किन्तु जैन श्रमण प्राचीन हितकारी परम्परा के अनुसार पादचार से ही ग्रामानुग्राम विचरण करता है। ऐसी पैदल विहार चर्या में अनेक व्यक्तियों से, अनेक प्रकार की संस्कृतियों से परिचय होता है। जीवन के विकास के लिए इस प्रकार के विभिन्न अनुभव बहुत सहायक होते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह कि जैन श्रमणों के सदुपदेशों से जन-जन का कल्याण होता है।
श्रद्धेय गुरुवर्य ने अपने जीवनकाल में बहुत बड़ी-बड़ी यात्राएँ की थीं। उन्होंने मेवाड़, पंचमहल, मारवाड़, ढूँढार, भरतपुर, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, खानदेश, सौराष्ट्र, गुजरात, महाराष्ट्र. कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश आदि प्रान्तों की अनेक बार यात्राएँ कीं। आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि इतनी लम्बी-लम्बी यात्राओं में उनसे कितने छोटे-बड़े व्यक्ति सम्पर्क में आए होंगे और उन सभी को आपके जीवन से कितनी प्रेरणा प्राप्त हुई होगी।
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राजस्थान से बम्बई- पूना तक आपश्री ने पाँच बार यात्रा की। प्रत्येक बार की यात्रा दूसरी बार की यात्रा से अधिक प्रभावशाली रही। प्रथम यात्रा में आपश्री बम्बई में दो महीने तथा दूसरी यात्रा में वहाँ के विविध अंचलों में बारह महीने तक रुके। तृतीय यात्रा के प्रथम चरण में छह महीने तथा द्वितीय चरण में दो वर्ष तक रुके।। इस समय मेरे द्वारा सम्पादित किया हुआ कल्पसूत्र का गुजराती। अनुवाद कान्दावाड़ी जैन संघ के द्वारा प्रकाशित हुआ और उसकी
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तल से शिखर तक
प्रथम आवृत्ति ३००0 प्रतियाँ सिर्फ ५ दिन में समाप्त हो गयीं। पुनः द्वितीय आवृत्ति ८ दिन में समाप्त हो गई। संसार में भाँतिभाँति के लोग हैं। उसकी लोकप्रियता को देखकर कुछ लोगों ने उसकी आलोचना भी की। किन्तु उसकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती ही गई। सूर्य को काला कहने से वह काला तो हो नहीं सकता।
चतुर्थ यात्रा में दक्षिण की ओर बढ़ना था तो केवल चालीस दिन रहे। किन्तु इन चालीस दिनों में बहुत व्यस्त कार्यक्रम रहा। स्थान-स्थान पर आपश्री के जाहिर प्रवचन हुए। महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर चौपाटी पर लगभग ७०-८० हजार जनता थी । भात - बाजार के जाहिर प्रवचन में १०-१५ हजार जनता थी। बम्बई में सर्वप्रथम राजस्थानी मुनियों का स्वागत और विदाई समारोह मनाया गया, जिसमें बम्बई में गणमान्य नेतागण उपस्थित थे। इन चालीस दिनों में बम्बई के सैकड़ों कार्यकर्तागण गुरुदेव श्री के निकट सम्पर्क में आए, प्रभावित हुए और कर्मक्षेत्र में दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित हुए।
पाँचवीं यात्रा दक्षिण भारत से राजस्थान आते समय की है। इस यात्रा में बम्बई के विविध अंचलों में केवल अठारह दिन रुके, किन्तु कार्यक्रम व्यस्त रहा तथा राजस्थानी संघ ने उपाश्रय के लिए लाखों रुपये दान दिए । अनेक गणमान्य व्यक्तियों से साहित्यिक तथा सांस्कृतिक चर्चाएँ हुईं।
गुरुदेव अहमदाबाद भी चार बार पधारे। प्रथम बार प्रेमाबाई हॉल में जाहिर प्रवचन हुए। दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार जाहिर प्रवचन हुए तथा चौथी बार आपने वर्षावास वहीं किया। उस समय वहाँ श्रावकों में जो साम्प्रदायिक मतभेद चल रहे थे, वे आपश्री के प्रभाव से समाप्त हो गए तथा जनमानस में स्नेह-सौजन्य का सरस वातावरण बना। भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी का सुनहरा प्रसंग था श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी जैन समाज में निर्वाण शताब्दी मनाई जाय इस सम्बन्ध में तीव्र विरोध था। उस कटु वातावरण में आपश्री के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व के कारण अहमदाबाद में स्थित मन्दिरमार्गी समाज के मूर्धन्य आचार्य श्री नन्दनसूरि जी महाराज ने उस आयोजन में भाग लिया। इस प्रकार उग्र विरोध होते हुए भी महोत्सव भव्य रूप से मनाया गया। हठीसिंह की बाड़ी में तथा नगरसेठ के वंडे में सामूहिक रूप से आयोजन हुए तथा राजस्थानी सोसायटी के विशाल मैदान में मोरारजी भाई देसाई के द्वारा "भगवान् महावीर एक अनुशीलन" ग्रन्थ का विमोचन किया गया और वह आपक्षी को समर्पित किया गया।
पूना में भी आपश्री के दो वर्षावास हुए प्रथम की अपेक्षा द्वितीय वर्षावास अधिक प्रेरणादायी रहा। इस अवधि में अनेक मूर्धन्य मनीषियों से सम्पर्क बढ़ा। "जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण", "धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आँगन में", "भगवान्
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महावीर की प्रतिनिधि कथाएँ" आदि अनेक ग्रन्थों का विमोचन हुआ। इसी समय आपश्री की प्रेरणा से विश्वविद्यालय में जैन चेयर की स्थापना हुई, जिसका जिक्र हमने आरम्भ में किया था। पुष्कर गुरु सहायता फण्ड की स्थापना भी तभी हुई थी एवं तपस्या के ठाठ का तो कहना ही क्या ?
जयपुर में आपश्री के तीन वर्षावास हुए। जोधपुर में पाँच इन वर्षावासों में अध्ययन - चिन्तन-मनन के साथ ही जैन एकता के लिए आपश्री ने अथक परिश्रम तथा प्रबल पुरुषार्थ किया। आपश्री के वर्षावासों में तप एवं जप की उत्कृष्ट साधना होती है। आपश्री ने जहाँ भी वर्षावास किए, वहीं-वहीं स्नेह सद्भावना के सरस सुमन खिलते रहे युवकों में धर्म के प्रति आस्था एवं अनुराग जागा ।
आपश्री की कर्नाटक की यात्रा भी अत्यन्त यशस्वी रही थी। उस प्रान्त में आप जहाँ भी पधारे, वहाँ पर अपूर्व उत्साह का संचार हुआ। जन-जन के मानस में जैन धर्म व दर्शन को जानने, समझने तथा अपनाने की निर्मल भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेने लगी। अनेक शिक्षण संस्थाओं में आपके प्रवचन हुए। रायचूर में स्थानकवासियों के एक सौ दस घर होने पर भी ग्यारह मास खमण तथा अन्य इकसठ तपस्याएँ हुई। बैंगलौर वर्षावास में लगभग ४६ मासखमण हुए तथा तप की जीती-जागती प्रतिमा अ. सी. धापूबाई गोलेच्छा ने १५१ की उग्र तपस्या की। इसके अतिरिक्त अन्य लघु तपस्याएँ भी इतनी अधिक हुईं कि लोग विस्मित रह गए। “पुष्कर गुरु जैन युवक संघ", "पुष्कर गुरु जैन पाठशाला" एवं "पुष्कर गुरु जैन भवन" का भी निर्माण हुआ।
अब आइये मद्रास |
मद्रास दक्षिण भारत का जाना-माना औद्योगिक केन्द्र है। वहाँ के राजस्थानी बन्धुओं ने अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय व सांस्कृतिक कार्य करके अपनी गौरव गरिमा में चार चाँद लगाए हैं। स्थानकवासी जैन समाज द्वारा संचालित अनेक शिक्षण संस्थाएँ यहाँ हैं। उच्चतम शिक्षा केन्द्र से सामान्य शिक्षा केन्द्र तक की व्यवस्था है। समाज द्वारा अनेक आरोग्य केन्द्र भी संचालित हैं। पूज्य गुरुदेव का सन् १९७८ का शानदार वर्षावास मद्रास में हुआ। मद्रास में गर्मी अधिक पड़ने के कारण यहाँ तपस्याएँ कम ही हो पाती हैं। किन्तु आपके वर्षावास में इक्कीस मासखमण हुए मानव समुदाय की सेवा सुश्रूषा के लिए जो व्यवस्था है, उसमें आपक्षी की प्रेरणा से उदारमना महानुभावों ने लाखों रुपयों का दान दिया। आपखी के पावन उपदेश से प्रभावित होकर श्रावक संघ ने "दक्षिण भारतीय स्वाध्याय संघ" की स्थापना की। इस स्वाध्याय संघ की महान् विशेषता यह है कि यह एक असाम्प्रदायिक संस्था है। इसका मुख्य उद्देश्य है-दक्षिण भारत में शुद्ध स्थानकवासी धर्म का प्रचार करना। पर्युषण के पुण्य पलों में स्वाध्यायी बन्धु यत्र तत्र जाकर स्वयं भी धर्म की साधना करते हैं और दूसरों से भी करवाते हैं। दूसरी विशेषता यह है कि बड़े-बड़े उद्योगपति भी इस स्वाध्याय संघ में सक्रिय भाग लेते हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ इस वर्षावास में केरल की राज्यपाल श्रीमती ज्योति से नगर और प्रांत से प्रांत में आपश्री उसी भाव से विचरण करते वेंकटाचलम्, तमिलनाडु के राज्यपाल प्रभुदास पटवारी, राज्यसभा रहे जैसे कोई गृहस्थ अपने भव्य भवन के विभिन्न कक्षों में दिल्ली के उपाध्यक्ष श्री रामनिवास मिर्धा, संसद सदस्य अनन्तदेव | आता-जाता है। किसी भी प्रान्त में आप पधारे, सभी जगह (गुजरात), हुक्मचन्द कच्छवाई (म. प्र.), कचरूलाल चौरड़िया (म. अपनापन, सभी जगह स्नेह तथा सभी जगह सभी व्यक्तियों पर प्र.), युवराज (बिहार), डॉ. एस. बद्रीनाथ, सत्यनारायण जी अटूट कृपा भाव! गोयनका प्रभृति अनेक गणमान्य नेता एवं विद्वान् गुरुदेवश्री के
आपके जीवन में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उदात्त भावना मानो सम्पर्क में आए तथा विविध विषयों पर चर्चाएँ करके लाभान्वित
साकार हो उठी थी तथा आपश्री सर्वग आनन्द का अनुभव करते
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रहे।
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इसी समय मद्रास विश्वविद्यालय में “जैन इन्डोमैन्ट" की
इससे पूर्व कि हम अपने पाठकों की जानकारी हेतु आपश्री के स्थापना भी हुई। बापालाल कम्पनी के अधिपति सुरेन्द्रभाई मेहता ने
समस्त वर्षावासों की तालिका प्रस्तुत करें, कुछ अन्य वर्षावासों की उदारतापूर्वक अनुदान दिया। श्री शंकर नेत्र चिकित्सालय में नेत्र
महत्वपूर्ण घटनाएँ भी बता देना उचित रहेगा। विशेषज्ञों के निर्माण हेतु सुरेन्द्रभाई तथा शी. यू. शाह की ओर से लाखों का अनुदान दिया गया।
सन् १९७९ का आपश्री का वर्षावास महामहिम आचार्य सम्राट आनन्दऋषि जी के आदेश से सिकन्दराबाद में हुआ। वहाँ उनके
चरणों में रहने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ। आचार्य सम्राट् की । अभिनन्दन ग्रन्थ का समर्पण
असीम कृपा रही। गंभीर प्रश्नों पर आचार्य तथा उपाध्याय में
चर्चाएँ हुईं। वे चर्चाएँ अत्यन्त लाभप्रद रहीं। वर्षावास के पश्चात् मद्रास का यशस्वी वर्षावास सम्पन्न कर आपश्री तमिलनाडु,
शोलापुर, पूना, बम्बई, सूरत, बड़ौदा होते हुए आपश्री ने अक्षय कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश को पावन करते हुए हैदराबाद पधारे।
तृतीया का पारणा ऋषभदेव में किया। आचार्य सम्राट आनन्दऋषि जी महाराज महाराष्ट्र से विहार कर पहले ही वहाँ पधार चुके थे। पूज्य गुरुदेव की ५६वीं दीक्षा-जयन्ती
उदयपुर में रत्नज्योतिजी की दीक्षा महासती पुष्पवती जी के का शुभ अवसर था। ५ जून, १९७८ को गाँधी भवन के विशाल ।
पास सम्पन्न हुई और फिर चातुर्मास उदयपुर में हुआ, सन् १९८० हॉल में विशिष्ट नागरिकों की उपस्थिति में आचार्य सम्राट् ने
का। विद्वान् डॉ. ए. डी. बत्तरा आपश्री के प्रति अनन्य भक्तिभाव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी की उल्लेखनीय साहित्यिक-सेवाओं ।
रखते थे। वे पूना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। तथा संघ-सेवाओं के उपलक्ष में “उपाध्याय पुष्कर मुनि अभिनन्दन ।
उनका अमेरिका जाने का प्रसंग बना। वहाँ उनकी भेंट डॉ. जेम्स से ग्रन्थ" तथा खादी की श्वेत चादर आपश्री को समर्पित की। यह
जब हुई तब उन्होंने डॉ. बत्तरा से पूछा कि आपके गुरुदेव कौन हैं, १२00 पृष्ठ का विशालकाय ग्रन्थ नौ खण्डों में विभाजित है।
क्योंकि वे योग में बहुत रुचि रखते थे। जब डॉ. बत्तरा ने बताया इसमें १२५ वरिष्ठ विद्वानों के लेख हैं, जिनमें भाषा की दृष्टि से
कि पूज्य उपाध्याय श्री उनके गुरु हैं, तब वे अत्यन्त प्रसन्न होकर ८५ लेख हिन्दी तथा ४० लेख अंग्रेजी में हैं।
अमेरिका से उदयपुर आए तथा आपश्री के चरणों में रहकर
ध्यान-विधि आदि का अध्ययन किया। इस भव्य समारोह की अध्यक्षता राज्य पंचायत मंत्री नागारेड्डी ने की। टेक्नोलोजी मंत्री हमग्रीवाचारी, भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री
एक विद्वान व्यक्ति सुदूर सात समुद्र पार से आपश्री के पास गोपालराव इकबोटे, श्री पी. एल. भंडारी, डॉ. ए. डी. बतरा आदि
सोल्लास जिज्ञासु बनकर आए, इसी से पता चलता है कि आपश्री प्रमुख व्यक्तियों ने उस समारोह में चार चाँद लगाए।
के व्यक्तित्व में कितना अद्भुत प्रभाव था। इन लम्बी-लम्बी विहार यात्राओं में कभी भयंकर गर्मी का
इस अवधि में डॉ. दौलतसिंह कोठारी, केशरीलाल बोर्दिया, पं. अनुभव हुआ। तेज, तपाने वाली लू ने आपश्री की अग्निपरीक्षा ली
मनीषी जनार्दन राय नागर आदि अनेक विख्यात शिक्षाविद् भी तो कभी सनसनाती हुई हवाओं में तीव्र शीत में ठिठुरना भी पड़ा।
आपश्री के सम्पर्क में आए। मूसलाधार वर्षा भी अचानक आ गई तो उसे भी सहन करते हुए वर्षावास के पश्चात् नीमच, बड़ी सादड़ी तथा मेवाड़ के अन्य मार्ग काटना पड़ा। बम्बई के विहार में नदी-नालों से बचने के लिए अंचलों का स्पर्श करते हुए आपश्री रतनचन्द जी रांका के रेल की पटरी के मार्ग से चलना पड़ता है। वहाँ पर कंकड़ों से नग्न अत्यधिक आग्रह से बाड़मेर जिले में पधारे। वर्षावास राखी में पैर छलनी हो जाते हैं। कहीं-कहीं चिकनी मिट्टी चिपट जाने से हुआ। राखी एक छोटा-सा ही ग्राम है, किन्तु वहाँ भी धर्म की चलना दूभर हो जाता है। किन्तु जीवन-संग्राम का अथक यात्री इन । प्रभावना पूर्ण हुई। गुरुदेव की जन्म-जयन्ती के अवसर पर रांकाजी कठिनाइयों की परवाह कहाँ करता है? आपश्री भी अजन, । ने इक्यासी स्कूलों को आर्थिक सहयोग प्रदान किया। अनेक अविराम रूप से विहार करते रहे। एक ग्राम से दूसरे ग्राम, नगर अस्पतालों को भी आपने सहयोग दिया।
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केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री श्री अशोक गहलोत उपाध्यायश्री के प्रति विशेष श्रद्धाशील रहे हैं। एक समारोह में आचार्यश्री द्वारा लिखित साहित्य का लोकार्पण कर प्रथम प्रति गुरुदेव को भेंट कर रहे हैं (जोधपुर)।
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आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी द्वारा सम्पादित 'उपाध्याय पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रंथ' की प्रथम प्रति आचार्य सम्राट श्री ऋषिजी म. को भेंट की गई। बम्बई के वरिष्ट उद्योगपति श्री खेमचन्द जी कोठारी व पास खड़े सेठ चम्पालाल जी कोठारी आचार्यश्री को ग्रंथ भेंट करते हुए (हैदराबाद)।
राजस्थान के तत्कालीन वित्तमंत्री श्री चन्दनमल जी बैदू ने उपाध्यायश्री के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया (जोधपुर)। पास में खड़े हैं श्री कुंवरलाल जी बैताला, गोहाटी
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पावन जन्म भूमि जिस धरती पर जन्म लिया, खेले, कूदे, रसपान किया। वह धरा धन्य हो गई आज अब तीर्थभूमि का स्थान लिया। जिस भूमि और जिस भवन में गुरुदेवश्री ने जन्म लिया, वह जन्मस्थान का मकान (सिमटार)
ननिहाल (नांदेशमा) का भवन जो अब अपने में एक पुण्य स्मारक बन चुका है। (बाहरी रूप)
गुरुदेवश्री के ननिहाल (नांदेशमा) का वह जीर्ण भवन (भीतर से) जहाँ की धरती पर बचपन के सुनहरे सुखद क्षण स्वर्ण कण बनकर बिखरे
हुए हैं।
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न्यायाधिपति श्री मिलापचन्द जैन
राजस्थान हाईकोर्ट (जोधपुर) आचार्यश्री द्वारा लिखित महाग्रन्थ 'जैन आचार : एक अनुशीलन' की प्रथम प्रति पूज्य उपाध्यायश्री को भेंट करते हुए।
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भगवान महावीर की २५00वीं निर्वाण शताब्दी महोत्सव के अवसर पर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी द्वारा लिखित 'भगवान महावीर एक अनुशीलन' पुस्तक का लोकार्पण करते हुए भारत के भू. पू. प्रधान मंत्री वयोवृद्ध राष्ट्रनेता श्री मोरारजी भाई देसाई (अहमदाबाद ) |
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तत्कालीन केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्री एच. के. एल. भगत दिल्ली में पूज्य उपाध्यायश्री को, आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी द्वारा लिखित पुस्तक का विमोचन कर समर्पण करते हुए। पास में विराजमान हैं उ. भा. प्रवर्त्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द जी म. वाणी भूषण श्री अमर मुनिजी तथा पास में खड़े हैं श्री निर्मल जैन (दिल्ली) ।
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श्री दिनेश मुनिजी को दीक्षा पाठ प्रदान कर केश लुंचन करते हुए पूज्य गुरुदेव।
भारत के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी को माला प्रदान करते हुए गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी।
पूज्य उपाध्यायश्री के सदुपदेश से प्रेरित जैन स्थानक भवन भद्रावती (कर्णाटक)।
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सामाजिक जीवन के साथ-साथ राष्ट्रीय जीवन में भी उपाध्यायश्री गुरुदेव का विशेष प्रभाव रहा है। समय-समय पर राष्ट्र के मूर्धन्य व्यक्तित्व, राजनेता आदि उपस्थित होकर आपश्री से नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणा तथा लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं।
भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति (वर्तमान राष्ट्रपति) महामहिम डॉ. शंकरदयाल जी शर्मा ने गुरुदेव के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। साथ में हैं-भू. पू. केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार बूटासिंह तथा भू. पू. केन्द्रीयमंत्री श्री अशोक गहलोत आदि।
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मेवाड़ नरेश महाराणा महेन्द्रसिंह जी उपाध्यायश्री से जप माला ग्रहण करते हुए (जसवंतगढ़ ८९) पास में विराजित हैं। आचार्यश्री एवं साथ में खड़े हैं गुरुभक्त श्री शान्तिलाल जी तलेसरा।
जोधपुर नरेश महाराज गजसिंह जी उपाध्यायश्री से विचार विनिमय तथा वार्तालाप करते हुए (सिवाना)
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युवानेता केन्द्रीय मंत्री श्री जगदीश टाइटलर अनेक बार उपाध्यायश्री के निकट सम्पर्क में आये और जब भी आये अत्यन्त विनम्र भावपूर्वक चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया। पास खड़े हैं युवानेता श्री सुभाष ओसवाल ।
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केन्द्रीय पैट्रोलियम मंत्री श्री नवलकिशोर शर्मा ।
केन्द्रीय मंत्री सरदार बूटासिंह
गुरुदेव से प्रसाद रूप में माला तथा सन्त साहित्य प्राप्त करते हुए।
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गुरुदेवश्री की जन्म जयन्ती मदनगंज में आशीर्वाद स्वरूप गुरुदेव का साहित्य प्राप्त करते हुए श्री डी. आर. मेहता (गर्वनर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया)
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गुरुदेवश्री की जन्म जयन्ती (दिल्ली) आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी द्वारा सम्पादित कल्पसूत्र (द्वितीय संस्करण) का समर्पण करते हुए कवि सम्राट निर्भय हाथरसी ।
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पुस्तक विमोचन कर गुरुदेवश्री को साहित्य समर्पण हुए गुरुभक्त श्री शान्तिलाल जी तलेसरा।
गुरुदेव की जन्म जयन्ती पर 'जलते दीप' दैनिक जोधपुर का विशेषांक समर्पित करते हुए प्रसिद्ध उद्योगपति श्री घेवरचन्द जी कानूगो (जोधपुर)
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आचार्यश्री आनन्द ऋषिजी के पास खड़े हैं-सद्यः मनोनीत उपाचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी, एवं युवाचार्य डॉ. शिव मुनिजी ।
पूना श्रमण सम्मेलन के विहंगम दृश्य
इतिहास सदा जीवित रहता है स्मृतियों में, श्रुतियों में। सन्त सदा शाश्वत बन जाता है सुन्दर कृतियों में | मंच पर विराजमान :
अपने उत्तराधिकारियों के नाम की घोषणा करते हुए परमृ श्रद्धेय राष्ट्रसन्त श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषिजी ।
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उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा के पश्चात् आचार्यश्री को वन्दना करते हुए उपाचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री
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मंच पर विराजमान श्रमण संघ के प्रमुख पदाधिकारी मुनिगण।
पूना श्रमण सम्मेलन मंच पर ऊँचे आसन पर विराजमान हैं आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषिजी । सम्मान्य विशिष्ट अतिथि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी । तथा क्रमशः उपाचार्यश्री देवेन्द्र
मुनि जी, युवाचार्य डॉ. शिव मुनिजी, उपाध्याय केवल
मुनिजी,
उपाध्यायश्री
पुष्कर
मुनिजी, प्रवर्तक श्री कल्याण ऋषिजी आदि अधिकारी श्रमणगण ।
उपस्थित
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समुदाय का एक दृश्य: विशाल सभा को सम्बोधित करते
हुए साध्वीरल पुष्पवती जी महाराज ।
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पूना श्रमण सम्मेलन में दूर-दूर से समागत संघ व समाज के हजारों प्रतिनिधि, कांफ्रेंस के कार्यकर्तागण ।
अगणित विशाल श्रद्धालु जन-समूह का एक विहंगम दृश्य ।
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आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषिजी म. की उपस्थिति में साहित्यार्पण करते हुए दानवीर गुरुभक्त सेठ (स्व.) श्री रतनचन्द जी रांका (राखी) ।
महासती पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ का विमोचन कर आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषिजी म. को समर्पित करते हुए प्रसिद्ध उद्योगपति श्री रसिकलाल धाडीवाल (घोडनदी) पीछे खड़े हैं श्री भंवरलालजी फूलफगर : समारोह स्थल अहमदनगर।। राजस्थान विधान सभा अध्यक्ष श्री हरिशंकर भाभड़ा आत्मीय भावपूर्वक बात-चीत करते हुए। मेवाड़ महामंडलेश्वर महंत श्री मुरली मनोहर शरण जी गुरुदेव का अभिवादन करते हुए।
गुरुभक्त गृहस्थ योगी सेठ श्री धनराज जी बांठिया (पना) गुरुदेव को साहित्य भेंट करते हुए।
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२५३।।
सन् १९८२ का वर्षावास जोधपुर में हुआ। इसमें भी आचार्य श्री का आदेश तो प्रत्येक स्थिति में शिरोधार्य किया ही जन्म-जयन्ती के अवसर पर अनेक निर्धनों को पर्याप्त सहयोग जाना था, क्योंकि गुरुओं की आज्ञा अविचारणीय है, उसे टाला ही प्रदान किया गया। इसी अवसर पर “जैन आचार : सिद्धान्त और नहीं जा सकता। अतः आपश्री ने पूना सम्मेलन में पहुँचने की स्वरूप" ग्रन्थ का विमोचन किया गया। इस ग्रन्थ को विद्वानों तथा । स्वीकृति प्रदान कर दी। अन्य सामान्य जन ने भी खूब सराहा। यहाँ तक कि पंडित दलसुख मालवणिया जी ने तो इसे जैनाचार का विश्वकोष तक कहा।
पूना-श्रमण सम्मेलन सन् १९८३ का वर्षावास मदनगंज, किशनगढ़ में हुआ। धर्म की खूब प्रभावना के अतिरिक्त इस अवसर पर वहाँ एक पुष्कर समय कम था। गुरु सेवासमिति संस्था गुरुदेव के नाम पर स्थापित हुई। जिसका
विहार लम्बा था। विधिवत् उद्घाटन ७ जनवरी, १९७४ को हो गया। चिकित्सालय और सेवा के अन्य अनेक कार्य प्रारम्भ हो गये हैं।
वृद्धावस्था थी। इस वर्षावास के पश्चात् जयपुर, दौसा, भरतपुर, आगरा,
सभी परिस्थितियाँ प्रतिकूल ही थीं। किन्तु प्रबल पुरुषार्थ के मथुरा, वृन्दावन, फरीदाबाद आदि स्थानों को पावन करते हुए।
धनी गुरुदेव श्री सिरोही, आबू रोड, अम्बा जी, बड़ौदा, सूरत, गुरुदेव श्री दिल्ली पधारे और सन् १९८४ का वर्षावास दिल्ली में
बारदोली, बासदा एवं सतपुड़ा पर्वतों को पार करते हुए नासिक, ही हुआ। इस वर्षावास में गुरुदेव की जन्म-जयन्ती के अवसर पर
संगमनेर होते हुए सम्मेलन के एक दिन पूर्व पूना पहुँच ही गए। भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जी ने गुरुदेव को 'विश्व संत' की वृद्धावस्था में इस लम्बे विहार में गुरुदेव श्री को एक-एक दिन गौरवपूर्ण उपाधि से विभूषित किया। एच. के. एल. भगत, जगदीश में २५-२५ किलोमीटर तक की यात्रा भी करनी पड़ी। आचार्य श्री टाइटलर, बलराम जाखड़ आदि विशिष्ट व्यक्ति एवं राजनेतागण के आदेश के पालन हेतु आपश्री ने इस कष्ट को सहर्ष झेला और गुरुदेव की सेवा में उपस्थित हुए। आध्यात्मिक चर्चाएँ हुईं। विशेष
एक अभूतपूर्व आदर्श उपस्थित किया कि जो व्यक्ति स्वयं अनुशासन रूप से अहिंसा, नशाबन्दी तथा मांसाहार समाप्ति के प्रचार सम्बन्धी में रह सकता है वही दूसरों को भी अनुशासन में रख सकता है। विचार विमर्श हुए। अनेक शिक्षाविद भी समय-समय पर उपस्थित
पूना सम्मेलन दिनांक २/५/८७ को शनिवार को आरम्भ हुआ। होते रहे और गुरुदेव के ज्ञानसागर में से श्रेष्ठ विचारों के यौक्तिक
14
१३/५/८७ तक चला। इस सम्मेलन में १०७ सन्त तथा १५३ ग्रहण करते रहे।
महासतियाँ उपस्थित थीं। आचार्य सम्राट् के मंगलाचरण के साथ इस वर्षावास में मंगलपाठ के अवसर पर अपार जन-सागर
सम्मेलन का शुभारम्भ हुआ। शान्तिरक्षक के रूप में सभा का उमड़ पड़ता था। जनता को शान्ति प्राप्त होती थी। मंगल पाठ का
संचालन सुमन मुनिजी ने किया। इस सम्मेलन की यह प्रमुख समय दिन में ठीक बारह बजे रहता था।
विशेषता रही कि जितने भी निर्णय इसमें लिए गए वे सब वहाँ से विहार कर गुरुदेव बड़ौत में दीक्षाओं के अवसर पर सर्वानुमति से लिए गए, तथा इसमें महासती वृन्द को भी बैठने का पहुँचे। उत्तर भारतीय प्रवर्तक शान्तिस्वरूप जी की दीक्षा स्वर्ण अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं, कुछ साध्वियाँ प्रतिनिधि के जयन्ती के अवसर पर मेरठ में आपश्री रहे।
रूप में भी बैठीं। दिनांक १३ मई को सम्मेलन आचार्य श्री के पुनः दिल्ली पदार्पण हुआ और वहाँ वीरनगर में वर्षावास
कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। हुआ। सन् १९८५ का वर्षावास दिल्ली में सम्पन्न कर अलवर, इस सम्मेलन में आचार्य श्री आनन्दऋषि जी ने कहा-श्रमण जयपुर, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, ब्यावर होते हुए गुरुदेव श्री । संघ एक जयवन्त संघ है। इस संघ की उन्नति हेतु मैं श्री देवेन्द्र मुनि पाली पधारे। इस वर्षावास में पूना सम्मेलन हेतु चर्चा हुई। कॉन्फ्रेन्स शास्त्री को उपाचार्य पद से सुशोभित करता हूँ, तथा श्री शिव मुनि 5000 के अनेक पदाधिकारी आए और उन्होंने गुरुदेव श्री से प्रार्थना की । जी को युवाचार्य पद से। मुझे विश्वास है कि ये दोनों विद्वान मुनि कि वे पूना पधारें। गुरुदेव ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेरी । श्रमण संघ के प्रति पूर्ण समर्पित होकर कार्य करेंगे तथा निष्ठापूर्वक EDEO वृद्धावस्था है, अब लम्बा विहार करना सम्भव नहीं।
अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेंगे।
bee वर्षावास के पश्चात् आपश्री ने बाड़मेर जिले की ओर प्रस्थान आचार्य श्री तथा संघ का आदेश एवं आग्रह था कि उपाध्याय |किया। वे समदड़ी के सन्निकट पहुँचे थे कि आचार्य सम्राट श्री कुछ समय तक आचार्य श्री की सेवा में रहें। आचार्य श्री के
आनन्दऋषि जी महाराज का पत्र लेकर संचालाल जी बाघणा, ज्ञान एवं अनुभव का लाभ प्राप्त करें। अतः आपश्री सात महीने बकंटराज जी कोठारी आदि का शिष्टमंडल पहुँचा और बताया कि तक आचार्य श्री की सेवा में ही रहे। इस अवधि में आपश्री पर त आचार्यश्री का आदेश है, आपश्री को सम्मेलन में पधारना ही है। । आचार्य श्री की पूर्ण कृपा रही।
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त । २५४
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ 50000
इस वर्षावास में जन-मानस में बहुत अधिक धर्म-प्रेरणा जाग्रत थी। उधर आपश्री को ज्वर १०४ डिग्री तक था। फिर भी आपश्री हुई।
ने विहार चालू ही रखा। गुरुदेव श्री वहाँ से औरंगाबाद, जालना, जलगाँव, भुसावल, किन्तु शारीरिक स्थिति एवं शक्ति की भी एक सीमा तो होती
हैदराबाद आदि क्षेत्रों को पावन करते हुए वर्षावास हेतु इन्दौर है। अतः अन्ततः राह में पैदल चलने की स्थिति न रहने पर POIDEO
पधारे। इस वर्षावास में स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेन्स का आपश्री को डोली का उपयोग करना पड़ा। सन्तगण डोली उठाकर 36. 00 अमृत-महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसमें श्री अर्जुनसिंह जी इत्यादि मध्य । चले। प्रदेश के प्रमुख राजनेतागण उपस्थित होते रहे।
वर्षावास हेतु आपश्री पीपाड़ पहुँचे। इस वर्षावास में गुरुदेव की वहाँ से विहार करके आपश्री देवास, उज्जैन, खाचरोद, जन्म-जयन्ती के अवसर पर हरि-शंकर भाभड़ा आदि अनेक प्रमुख रतलाम, जावरा, मन्दसौर, निम्बाहेड़ा, चित्तौड़, काशी आदि प्रदेशों । व्यक्ति उपस्थित हुए और गुरुदेव के ज्ञान से लाभान्वित हुए। में विचरण कर उन्हें पावन करते हुए उदयपुर पधारे। अक्षय
पीपाड़ चातुर्मास के पश्चात् आपश्री मेड़ता, जैतारण, जोधपुर तृतीया का पारणा उदयपुर में ही हुआ। उदयपुर से मेवाड़ के
होते हुए वर्षावास हेतु सिवाना पधारे। विविध अंचलों में विहार करते हुए आपश्री वर्षावास हेतु जसवन्तगढ़ पधारे। जसवन्तगढ़ के वर्षावास में विविध अंचलों से
आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज का अहमदनगर में आपश्री के दर्शनार्थ उपस्थित हुए। जिनमें मेवाड़ के भूतपूर्व
स्वर्गवास हो गया था। अतः अब संघ का अत्यधिक आग्रह था कि महाराणा महेन्द्रसिंह भी थे। उन्होंने उपाध्याय श्री से जप की प्रेरणा
अक्षय-तृतीया के पावन अवसर पर आपके शिष्य उपाचार्य श्री प्राप्त की तथा इस वर्षावास में समाज ने आपश्री की जन्मभूमि में
देवेन्द्र मुनि को आचार्य पद प्रदान किए जाने की घोषणा सोजत में कॉलेज बनाने का निर्णय लिया। वह इलाका आदिवासी इलाका था,
की जाय। अतः शिक्षा एवं संस्कार की दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था। पूज्य प्रवर्तक श्री रूपमुनि जी म0, कन्हैयालाल जी 'कमल' उपाध्याय श्री का हृदय वहाँ की आदिवासी जनता के प्रति करुणा । महाराज, तपस्वीरत्न सहज मुनि जी आदि सन्त वहाँ पधार चुके थे। से द्रवित था। गरीब प्रजा अनेक प्रकार से कष्ट उठा रही थी। अतः कॉन्फ्रेन्स के अध्यक्ष पुखराज जी लूंकड़ आदि सभी प्रमुख व्यक्तियों उपाध्याय श्री ने करुणा-द्रवित होकर उस प्रजा में शिक्षा के प्रसार से यथायोग्य परामर्श करने के पश्चात् प्रवर्तक रूप मुनिजी ने सभी तथा संस्कारों की जागृति हेतु वहाँ कॉलेज बनाए जाने की प्रेरणा संघों की ओर से देवेन्द्र मुनि शास्त्री को आचार्य पद पर सुशोभित प्रदान की। जिसके फलस्वरूप कालेज की बिल्डिंग बनना प्रारम्भ हो किए जाने की घोषणा की। गया है। अनेक कमरे बन भी गये हैं। सम्भवतः शासन की अनुमति सिवाना चातुर्मास में जोधपुर के भूतपूर्व नरेश गजसिंह जी ने कॉलेज के लिए शीघ्र प्राप्त हो जायेगी।
उपाध्याय श्री की सेवा में उपस्थित होकर जप-प्रेरणा प्राप्त की तथा इसके पश्चात् आपश्री वर्षावास हेतु सादड़ी पधारे। यह
समय-समय पर धार्मिक चर्चाएँ कीं। इसी चातुर्मास में लगभग दो वर्षावास सन् १९९० में हुआ। संवत्सरी के दूसरे दिन आपश्री को सौ विकलांग व्यक्तियों को पैर लगाए गए। हृदयाघात हो गया। स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण स्थिति को वहाँ से मोकलसर, जालौर, सादड़ी इत्यादि होते हुए, मेवाड़ के देखकर मैंने उनसे पूछा कि क्या आपश्री संथारा करना चाहते हैं। मगरों तथा अन्य अंचलों को पावन करते हुए, जिनमें जन्मभूमि भी तो आपश्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा-अभी मेरा अन्तिम समय नहीं सम्मिलित थी, आपश्री आचार्य पद चादर-महोत्सव हेतु उदयपुर आया है। विचार न करो।
पधारे। नीचे का रक्तचाप मात्र तीस डिग्री रह गया था, किन्तु आपश्री इस भव्य चादर-महोत्सव तथा पूज्य गुरुदेव श्री की पावन की आस्था हिमालय के शिखर के समान ही रही। डॉक्टरों ने कहा । जीवन-ज्योति के अन्तिम क्षणों का वर्णन हम आगामी दो अध्यायों
कि अब आपश्री विहार न करें, किन्तु आत्मबल के असीम धनी में कतिपय संस्मरण तथा गुरुदेव श्री के साहित्य का संक्षिप्त परिचय DRDI
होने के कारण आपश्री पैदल ही पाली होते हुए समदड़ी पधारे। उस देने के पश्चात् इस पावन जीवन-चरित के अन्तिम अध्याय में H D समय समदड़ी में ग्रीष्म का प्रकोप भयानक था। ५३ डिग्री तक गर्मी / करेंगे।
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इनकी सन्तानें-श्रद्धा सत्य को जन्म देती है; मैत्री का पुत्र प्रसाद; दया का अभयः शान्ति से शमः तुष्टि से हर्षः पुष्टि से गर्भ, क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ नाम के पुत्र होते हैं। मेधा नाम धर्म की पत्नी से स्मृति नामक कन्या, तितिक्षा से मंगल नाम का तथा लज्जा से विनय नाम का पुत्र होता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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तल से शिखर तक
संख्या ई०सं० वि० सं०
१९२४ १९८१
१९२५
१९८२
१९२६
१९८३
१९२७ १९८४
१९२८ १९८५
१९२९.
१९८६
१९३० १९८७
१९३१ १९८८
१९३२ १९८९
१९३३ १९९०
१९३४
१९९१
१९३५ १९९२
9.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
90.
99.
१२.
१३. १९३६
१४.
१९३७
१९३८
१५. १६. १९३९
१७. १९४० १९९७
१८. १९४१ १९९८ १९. १९४२ १९९९ २०. १९४३ २००० २१. १९४४ २००१ २२. १९४५ २००२ २३. १९४६ २००३ २४. १९४७ २००४
२५.
१९४८ २००५
२६.
१९४९ २००६
२७.
१९५० २००७
२८. १९५१ २००८
२९. १९५२
३०.
१९५३
३१. १९५४ २०११ ३२. १९५५ २०१२ ३३. १९५६ २०१३ ३४. १९५७ २०१४ ३५. १९५८ २०१५
यहाँ हम गुरुदेव श्री के समस्त चातुर्मासों की तालिका प्रस्तुत करते हैं
Mainiducation Dernation
क्षेत्र का नाम
समदड़ी
नान्देशमा
सादड़ी
सिवाना
जानीर
सिवाना
खाण्डप
गोगुन्दा
पीपाड़
भँवाल
ब्यावर
लीमड़ी
नासिक
१९९३
१९९४
मनमाड
१९९५
कम्बोन
१९९६ सिवाना
खाण्डप
समदड़ी
रायपुर
पीपाड़
जोधपुर
नान्देशमा
धार
नासिक
घाटकोपर (बम्बई)
चूड़ा
नान्देशमा
सादड़ी
रिवाना
२००९
२०१० जयपुर
दिल्ली
जयपुर (सकारण) जयपुर (सकारण)
उदयपुर
बागपुरा
प्रान्त का नाम
मारवाड़
मेवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मेवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
गुजरात
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
मेवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मेवाड़
मध्य प्रदेश
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
गुजरात - सौराष्ट्र
मेवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
दिल्ली
मारवाड़
मारवाड़
मेवाड़
मेवाड़
संख्या
ई०सं० वि० सं०
३६.
१९५९ २०१६
३७. १९६० २०१७
३८.
१९६१ २०१८
३९. १९६२ २०१९
४०.
१९६३ २०२०
४१.
१९६४ २०२१
४२.
१९६५
२०२२
४३.
१९६६ २०२३
४४.
१९६७ २०२४ २०२५
४५. १९६८ F ४६. १९६९ २०२६
४७.
१९७० २०२७
४८.
१९७१ २०२८
४९.
१९७२ २०२९
५०.
२०३०
५१.
१९७३ १९७४ २०३१ १९७५ २०३२
५२.
५३.
१९७६ २०३३
५४.
१९७७ २०३४
५५.
१९७८
२०३५
५६.
१९७९ २०३६
५७. १९८० २०३७ १९८१ २०३८
५८.
५९.
१९८२
२०३९
६०.
१९८३
२०४०
६१.
१९८४
२०४१
६२.
१९८५
२०४२
६३. १९८६
२०४३
६४. १९८७
२०४४
६५. १९८८
२०४५
६६. १९८९
२०४६
६७. १९९०
२०४७
६८.
१९९१
२०४८
६९. १९९२ २०४९
Private
क्षेत्र का नाम
जोधपुर
ब्यावर
सादड़ी
जोधपुर
जालौर
पीपाड़
खाण्डप
पदराड़ा
बालकेश्वर (बम्बई)
घोडनदी
पूना
दादर (बम्बई)
कान्दाबाड़ी (बम्बई)
जोधपुर
अजमेर
अहमदाबाद
पूना
रायचूर
बेंगलोर
मद्रास
सिकन्दराबाद
उदयपुर
राखी
जोधपुर
मदनगंज किशनगढ़
दिल्ली
वीर नगर,
पाली
अहमदनगर
इन्दौर
जसवन्तगढ़
सादड़ी
पीपाड़
सिवाना
दिल्ली
२५५
प्रान्त का नाम
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मेवाड़
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र
मारवाड़
राजस्थान
गुजरात
महाराष्ट्र
कर्नाटक
कर्नाटक
तमिलनाडु
आन्ध्र प्रदेश
मेवाड़
मारवाड़
मारवाड़
राजस्थान
दिल्ली
दिल्ली
मारवाड़
महाराष्ट्र
म. प्र.
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
मारवाड़
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
टिम-टिम करते तारे !
(संस्मरण)
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महापुरुषों के एक-एक शब्द, एक-एक संकेत, प्रत्येक कथन, छोटी से छोटी क्रिया में भी महान् जीवन के गम्भीर दिशा-निर्देश अन्तर्निहित रहते हैं।
आज हमारे पास पूज्य गुरुदेव के भव्य जीवन की अनन्त कल्याणी स्मृतियाँ ही शेष हैं
मानो अन्तर्मानस के नीलाकाश में स्मृतियों के सितारे झिलमिला
रहे हों ! DOORDAR
कोई बहुत ही सूक्ष्म झिप-झिप-सी करती मनोहर तारिका है, उज्ज्वल-उज्ज्वल!
तो कभी कोई स्मृति का धवल धूमकेतु-सा दीप्तिमान तारक भी किसी अंगार-सा जलता हुआ दृष्टिगोचर होता है।
कड़वी भी होती हैं स्मृतियाँ। मीठी भी होती हैं यादें।
गुरुदेव श्री के जीवन में अनेक प्रकार के प्रसंगाते रहे, जाते रहे। प्रिय भी, और सामान्य जन को अप्रिय लगें-ऐसे भी।
किन्तु गुरुदेव श्री की आत्मा कितनी उच्च स्थिति पर आसीन रहकर उन समस्त कटु-मधुर प्रसंगों को आनन्द एवं समभाव के साथ देखती थी, यही बताना हमारा उद्देश्य है।
कुछ छोटे-मोटे अवसर देखिए600
दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम 1000 यह प्रसंग सन् १९२६ का है। आपश्री का वर्षावास उस वर्ष
सादड़ी (मारवाड़) में था। उस समय आपके गुरुदेव श्री ताराचन्द्र
जी महाराज तथा दौलतराम जी महाराज भी वहीं थे। एक दिन ap भिक्षा में एक मोदक आया। अब एक मोदक को कौन खाए?
गुरुदेव महास्थविर ताराचन्द्र जी महाराज ने कहा
"पुष्कर! तू सबसे छोटा है। यह लड्डू तू ही खा ले। तू ही DAD इसका अधिकारी है।"
किन्तु गुरुदेव ने कहा-"गुरुदेव आप बड़े हैं। अतः यह सरस आहार आपश्री को ही ग्रहण करना चाहिए अथवा फिर इन वृद्ध महाराज को।"
इस प्रकार एक-दूसरे को ही खाने का कहे जाने पर निर्णय रहा कि पहले शेष आहार ले लिया जाय, बाद में, अन्त में इसका वितरण ही कर लेंगे। इस निर्णय के अनुसार लडु को बीच में रखे पाट पर रख दिया गया।
किन्तु दाने-दाने पर तो खाने वाले का नाम पहले से ही लिखा रहता है।
समीप ही एक पीपल का पेड़ था। उस पर एक वानर बैठा था। उसकी चपल दृष्टि उस मोदक पर पड़ी। धीरे-धीरे चतुराई
और चपलता से वह नीचे उतरा और उस मोदक पर झपट्टा मारकर चलता बना।
वितरण की झंझट भी समाप्त हो गई। गुरुदेव ने प्रसन्न मुद्रा में अपने गुरुदेव से कहा-"इसी को कहते हैं-दाने-दाने पर लिखा है, खाने वाले का नाम। हम लोग व्यर्थ ही पशोपेश में पड़े थे।" उत्कट सेवाभावना
सन् १९३४ में आपका वर्षावास ब्यावर में था। वर्षाकाल के चातुर्मास में जैन श्रमण विहार नहीं किया करते। वे एक ही स्थान पर स्थिर रहते हैं किन्तु स्थानांग सूत्र के पंचम ठाणे में उल्लेख है कि विशिष्ट परिस्थितियों में विहार किया जा सकता है। वे कारण हैं-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए, आचार्य अथवा उपाध्याय के स्वर्गारोहण के अवसर पर, वर्षा क्षेत्र से बाहर रहे हुए आचार्य या उपाध्याय की वैयावृत्य करने के लिए।
इस विधान के अनुसार गुरुदेवश्री के ब्यावर वर्षावास के समय एक अवसर उपस्थित हो गया। आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय के वयोवृद्ध प्रवर्तक श्री दयालचन्द जी महाराज, जिनका वर्षावास उस समय समदड़ी में था, अचानक अत्यधिक अस्वस्थ हो गए। अतः इस विशेष परिस्थिति में उत्कट सेवाभावना से प्रेरित होकर आपश्री विहार करके समदड़ी पधारे। सत्याग्रह या हठाग्रह?
सत्य के लिए आग्रह तो ठीक है, किन्तु हठाग्रह करना उचित नहीं। आपश्री का वर्षावास सन् १९३६ में नासिक में था। उस समय आपश्री बम्बई होकर नासिक पधारे थे। तब सत्याग्रही मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज ने आचार्य हुक्मीचन्द जी महाराज, पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज और पूज्य मुन्नालाल जी महाराज की एकता करने हेतु फुटपाथ पर बैठकर सत्याग्रह कर रखा था। सत्याग्रह के साठ दिन पूरे हो चुके थे। बम्बई संघ के आग्रह पर आपश्री ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जैन श्रमणों को इस प्रकार फुटपाथ पर बैठकर अनशन करना उचित नहीं है। इसे सत्याग्रह नहीं, हठाग्रह की संज्ञा दी जायेगी। ऐसा करने से जिनशासन की प्रभावना के स्थान पर हीलना होती है।
उन्हें गुरुदेवश्री के अकाट्य तर्क तो समझ में आ गए। उनका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। किन्तु फिर भी वे अपना हठ
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दिल्ला प्रदशाव रायासयोगीरा
पूज्य उपाध्यायश्री प्रवचन की भिन्न-भिन्न मुद्राओं में१. मंगलाचरण करते हुए २. शास्त्र-रहस्य समझाते हुए ३. उदाहरण एवं दृष्टान्त देते हुए ४. निर्भीक उद्बोधन
यजा
एभटाबजार
जय हो
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Sainalitorary.
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गुरुदेव को स्वाध्याय सुनाते हुए आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि
शिष्य को जिज्ञासा का समाधान
देते हुए गुरुदेवश्री
आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी के साथ गंभीर विचारणा लीन
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गुरुदेवश्री स्वाध्याय मुद्रा ध्यान मुद्रा तथा प्रवचन मुद्रा में ।
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स्वर्गीय श्री लालचंदजीगादि
भावनाओं के विशिष्ट क्षणों में गुरुदेवश्री गहन विचार मग्न अतीव प्रसन्न तथा चिन्तन व वार्तालाप मद्रा में।
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नयनों में सरधार, वचन में प्यार, हृदय था निर्मल गंगा जल-सा। बीत गये कुछ वर्ष, मगर यंह, लगता है ज्यों कल सा॥
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भिन्न-भिन्न ये रूप तुम्हारे.
निज स्वरूप बोध कराते । पुलकन, चितवन, ज्ञान-ध्यान की,
सहज साधना को समझाते ॥
To Do & Sp
y.g
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आशीर्वाद आपका गुरुवर याद सदा आयेगा। संकट की घड़ियों में, मेरी नैया पार लगायेगा।
उपाध्याय श्रीपुष्कर मुनिजी म.
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innelibraw.
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यात्रा हो या विश्राम का क्षण,
सावधान अप्रमत मन ।
डोली हो या छड़ी हाथ में, एकाकी या शिष्य साथ में ॥
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आशीर्वाद आपके गुरुवर। कितने रूपों में मिल जाते॥
जैसे कर-सूरज किरणों से। भक्त-हृदय सरसिज खिल जाते।
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Bale
। तल से शिखर तक
२५७ त्यागने के लिए प्रस्तुत नहीं थे। अन्त में हुआ यह कि डॉक्टर के उसी प्रकार अनाप-शनाप बहुत कुछ बकने के बाद उसने अपने 68Hal कहने पर उन्हें अनशन का त्याग करना पड़ा।
साथ लाए हुए आठ-दस आदमियों से कहा-"अब. देखते क्या हो ?EPOPore हा काश। मैंने उपाध्यायी के मशन को यह सीधे से नहीं चलेगा। बाँधो इसे रस्सियों से और उठाकर ले स्वीकार कर लिया होता!
चलो।"
P00% प्रकाण्ड पांडित्य
वे लोग पूरा षड्यन्त्र रचकर आए थे। रस्सियाँ भी लाए थे 5390
और बाँधकर उठा ले जाने के लिए गाड़ी भी। गुरुदेव ने अब उनके सन् १९३७ में मनमाड चातुर्मास के पूर्व शरोही में विदुषी
पूरे षड्यन्त्र को समझ लिया और विनोद का त्याग कर गंभीर महासती राजकुंवर जी और जैन जगत की उज्ज्वल तारिका
आत्मदृढ़ता से उन्हें ललकारते हुए कहा-'मेरे समीप यदि आए उज्ज्वलकुमारी जी आपसे मिलीं। आपश्री के न्याय, दर्शन के
और मुझे हाथ भी लगाने का प्रयास किया तो ठीक नहीं होगाप्रकाण्ड पांडित्य को देखकर वे अत्यधिक प्रभावित हुई और उन्होंने आपश्री से पढ़ने की जिज्ञासा प्रगट की। किन्तु आपश्री का वर्षावास
सावधान किए देता हूँ।" मनमाड निश्चित हो चुका था, अतः महासती जी की भावना को
उस समय गुरुदेव के चेहरे पर जो आध्यात्मिक तेज प्रगट हो मूर्तरूप प्रदान नहीं किया जा सका। क्योंकि महासती राजकुंवर जी आया था वह दर्शनीय ही था। उस तेज को देखकर वे षड्यन्त्रकारी रुग्ण थीं और वे पृथक् रहने की स्थिति में नहीं थीं।
। स्तम्भित रह गए। किन्तु इस एक ही प्रसंग से स्पष्ट है कि न सूर्य का प्रकाश वृद्धा ने भी देखकर और समझ लिया कि गुरुदेव को इस छिपाए छिपता है और न ही पंडितों का पांडित्य।
प्रकार-वह और उसके अन्य साथी तो क्या, कोई पूरा सैन्य भी
यदि आ जाय तो ले जाना तो दूर, हाथ भी नहीं लगा सकता। तब एक षड्यन्त्र
वह अपने षड्यन्त्र की असफलता को देखकर मगरमच्छ के आँसू बात सन १९४० की है। आपश्री का वर्षावास खाण्डप में था। बहाती हुई कहने लगी-'अच्छा बेटा, हम तेरे साथ जबरदस्ती नहीं 50000 एक दिन एक वृद्धा महिला आठ-दस व्यक्तियों को लेकर आई।
| करेंगे। तू अपनी इच्छा से ही हमारे साथ चल।' सन्तगण स्वाध्याय में लीन थे। आते ही उस वृद्धा ने कहा-'मेरा पुत्र यहाँ पर है। मैं उसे लेने आई हूँ।'
एक तमाशा-सा खड़ा हो गया। बिलकुल बेतुकी और असत्य बात थी। गुरुदेव ने प्रसन्न मुद्रा में
संसार में तमाशबीनों की कमी नहीं। विनोद के रूप में कहा-'हम यहाँ तीन साधु हैं। जो भी तुम्हें पसन्द बहुत से लोग कुतूहलवश वहाँ अब तक एकत्रित हो चुके थे। न्य हो, उसी को अपना पुत्र बना लो।'
उनमें एक विवेकवान श्रावक श्री रघुनाथमल जी लूंकड़ भी थे।:3 1 किन्तु वह वृद्धा तो षड्यन्त्र रचकर आई थी। उसने तपाक से
उन्होंने उन लोगों को समझाया और बताया-'ये इस मुनिजी की कहा-"तू ही मेरा पुत्र है। चल मेरे साथ।"
माता नहीं हैं। इनकी जन्मस्थली से आए हुए भक्तगण भी यहाँ
दर्शनार्थ आए हुए हैं। उनसे पूछ लो। जैन स्थानक में इस प्रकार गुरुदेव ने कहा-"बड़ा शुभ दिन है आज। माता मिल गई। हाँ,
लाठियाँ और रस्सियाँ लेकर आने और षड्यन्त्र रचने के लिए आप इस जन्म में तो नहीं, किन्तु किसी पूर्वजन्म में तू मेरी माता रही
लोगों को दण्ड दिया जा सकता है। किन्तु हम लोग क्षमा धर्म को होगी। इसीलिए मुझे देखकर तेरे मन में वात्सल्य उमड़ रहा है।"
मानते हैं। जाइये, आप लोगों को गुरुदेवश्री क्षमा करते हैं।" किन्तु वृद्धा को न विनोद को समझना था और न किसी संगत
वे लोग लज्जित होकर और उस वृद्धा के षड्यन्त्र को जानकर बात को। वह तो हठ करती हुई बोली-'बेटा! मुझसे मजाक मत कर। चल, चुपचाप घर चल।'
चुपचाप क्षमायाचना कर लौट गए। अब स्थिति गंभीर होने लगी तो गुरुदेव ने कहा-"देखो माता,
सत्यानाश नहीं, अठ्यानाश तुम्हें कोई भ्रम हो गया है। मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हूँ। मेरा जन्म तो गालियों के बीच में भी शान्त रहकर स्नेह वचन ही कहना मेवाड़ में हुआ था और मेरी आँखों के सामने ही मेरी माता का कितना प्रभावी होता है यह बात इस प्रसंग से समझ में आ देहान्त हो गया था। अब तू मेरी नई माता कहाँ से आ गई?" जाती है।
लेकिन वृद्धा को तो किसी भी प्रकार से मानना नहीं था। क्रोध सन् १९४२ का वर्षावास रायपुर में था। इस वर्षावास से पूर्व में भरकर, आँखों से अंगार-से बरसाते हुए वह मनगढन्त बात आपश्री जब नाथद्वारा में विराज रहे थे, तब नन्दलाल जी रांका के कहने लगी-“तू झूठ बोलता है। मैं ही तेरी माँ हूँ और जीवित बैठी। पुत्र नजरसिंह ने गुरुदेव से दीक्षा प्रदान करने के लिए प्रार्थना की। हूँ। आज से सोलह-सत्रह वर्ष पूर्व तू घर से भाग गया था और इन किन्तु पारिवारिक जनों की अनुमति के अभाव में आपश्री ने उसे साधुओं के चंगुल में फँसकर साधु बन गया है...।" ।
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लेकिन उसकी भावना भी प्रबल थी। उसने व्याख्यान के बीच में स्वतः ही मुनिवेश धारण करके स्वतः ही 'करेमि भन्ते' का पाठ पढ़कर प्रवज्या ग्रहण कर ली।
अब रायपुर में उसकी माता आग बगूला होकर सभा में उपस्थित हुई और आपश्री को मनचाही गालियाँ देने लगी- मानो गालियों का विश्वकोष ही उसने खोल दिया हो।
गुरुदेव मन्द, मधुर मुस्कान के साथ शान्तिपूर्वक उस महिला का गाली पुराण सुनते रहे।
जब उसने देखा कि यह शान्त साधु तो कुछ भी कहता नहीं, तनिक भी विचलित दिखाई नहीं देता तो थक थकाकर हाथ नचाते हुए बोली-"तुम्हारा सत्यानाश जाना।"
तब गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा- "माता ! सिर्फ सत्यानाश ही क्यों कहती हो ? अठ्यानाश कहो न! सत्यानाश में तो एक कर्म शेष रह जायेगा, जिससे मुक्ति नहीं होगी। अठ्यानाश होने पर ही मुक्ति होगी।"
गुरुदेव की इस अद्भुत सहनशीलता, इतने मधुर व्यवहार को देखकर वह महिला आश्चर्यचकित और लज्जा से पानी-पानी हो गई।
गुरुदेवश्री के चरणों में गिरकर बोली "क्षमा ! भगवन्! मोह के वशीभूत होकर मैंने आपको कटु वचन कह डाले। उचित-अनुचित का भी विचार मुझे नहीं रहा। आपश्री मुझे क्षमा प्रदान करें। आपकी शरण में आकर तो मेरे पुत्र का जन्म सार्थक हो गया।" डाकू साधु बना
प्रस्तुत वर्षावास में शान्तिमुनि ने मासखमण तप किया और ठाकुर गोविन्दसिंह जी के अत्याग्रह पर राजमहल में प्रवचन हुए। प्रवचनों का ऐसा सुन्दर और स्थायी प्रभाव पड़ा कि ठाकुर साहब ने मांस तथा मदिरा का त्यागकर दिया।
इस वर्षावास से पूर्व उस समय के दूर-दूर तक दहशत फैलाने वाले डाकू लक्ष्मणसिंह जी करमावास में आपके प्रवचन में उपस्थित हुए। आपके प्रभावी प्रवचनों को सुनकर उन्हें अपने कृत्यों पर ग्लानि हुई और बाद में डाकूपने का परित्याग करके वे वैदिक परम्परा के साधु बन गए ।
सत्संग का गहन प्रभाव इन दृष्टान्तों से प्रगट होता है। सत्संग वह सुधा है जिससे मनुष्य के जीवन में से दुर्गुणों का विष निकल जाता है।
सूखी रोटी का स्वाद
सन् १९४३ में आपका वर्षावास पीपाड़ में था । वर्षावास से पूर्व आप जोधपुर पधारे थे। मार्ग में चौदह मील का विहार कर आप एक प्याऊ पर ठहरे। उस प्याऊ की देख-रेख एक बाबा किया
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
करते थे। बाबा ने आपश्री को देखकर कहा 'एक जैन सेठ की बनाई हुई यह प्याऊ है। उनके आदेश से मैं यहाँ पर सदा सचित्त पानी रखता हूँ। वह पानी आप ग्रहण कर लीजिए, तथा मेरे पास दो सूखे और लूखे बाजरे के टिक्कड़ भी हैं। वे मेरे काम के नहीं हैं। आप चाहें तो उन्हें भी ले सकते हैं।
भयंकर गर्मी थी। गाँव दूर था। अब इस समय इतने लम्बे विहार के पश्चात् तेज गर्मी में गाँव में जाकर भिक्षा लाना संभव नहीं था। अतः आपश्री ने उस बाबा से एक टिक्कड़ ले लिया और उसे पानी में डुबो डुबोकर आधा-आधा खा लिया।
दूसरे दिन आप जोधपुर पहुँचे वहाँ गोचरी में बादाम और पिश्ते की कतलियाँ आईं। किन्तु आपश्री ने यह देखकर उस समय कहा- जो अमृतोपम स्वाद उस सूखे टिक्कड़ में था वह इन बादाम-पिश्ते की कतलियों में कहाँ ?
सत्य है, वास्तविक स्वाद और आनन्द भूख में है, किसी पदार्थ में नहीं। स्वाद के वशीभूत होकर आज मानव भाँति-भाँति के पकवान खाता है, किन्तु जो भी रूखा-सूखा भोजन परिश्रम करने के बाद कड़ी भूख लगने पर खाया जाता है, वही गुणकारी होता है।
दृढ़ मनोबल आपश्री के दृढ़ जाती है
सन् १९४४ का वर्षावास पूर्ण कर आपश्री उदयपुर पधारे। सायंकाल पाँच बजे आप गोचरी के लिए गए थे। उस दिन धूप तेज थी। गर्मी बहुत अधिक पड़ रही थी। भिक्षा लेकर लौटते समय आपको चक्कर आ गया और आप गिर पड़े किसी तेज, नुकीले पत्थर से आपके सिर में गहरी चोट लग गई। काफी खून बह गया। शरीर में शिथिलता आना स्वाभाविक था ।
मनोबल की झलक प्रस्तुत घटना से स्पष्ट मिल
बेहोशी ने भी धर दबाया।
थोड़ी देर बाद जब आपको होश आया तब आपने देखा कि लोग डोली में आपको स्थानक तक ले जाने की तैयारी कर रहे थे। यह देखकर आपश्री ने कहा- "मैं पैदल चलकर ही स्थानक तक जाऊँगा । डोली की आवश्यकता नहीं।"
आपश्री पैदल ही गए।
सूर्यास्त हो चला था, अतः आपने न टाँके लगवाए और न कोई दवा ही ली।
इसे कहते हैं मानव का दृढ़ मनोबल ।
निस्पृह योगी
अनासक्ति, संयम और त्याग-ये अध्यात्म जीवन के तीन अंग है। वे महान् साधक हैं जो मनसा, वाचा और कायेण उक्त तीनों की
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तल से शिखर तक
२५९ । साधना करते हैं। भारतीय संस्कृति में ऐसे महापुरुष अध्यात्म पुरुष के लिए ही उपयुक्त है, मेरे लिए तो यह मोटी खद्दर की चद्दर ही के नाम से विश्रुत हैं, वे समाज, धर्म और राष्ट्र के लिए पावन पर्याप्त है, श्रेष्ठीप्रवर की आँखों में आंसू थे पर गुरुदेव इन्कार हो प्रेरणा स्रोत होते हैं।
गए थे, अनुनय-विनय करने पर भी उन्होंने वह पश्मीना स्वीकार परम श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म.
नहीं किया, श्रेष्ठीप्रवर अंत में गुरु के चरणों में झुक गया। धन्य है एक ऐसे ही अद्भुत अध्यात्मयोगी संत थे, जिनकी अध्यात्म साधना ।
आपकी निष्पृहता को, धन्य है आपकी संयम-साधना को, धन्य है से उस युग में जहाँ भौतिकवाद की चारों ओर चकाचौंध थी,
आपकी आध्यात्मिक मस्ती को। आधुनिक विज्ञान की नित नई उपलब्धियों ने मानव को बहिर्मुखी जीवन में ऐसे अनेकों प्रसंग आए जहाँ गुरुदेवश्री की अनासक्ति बना दिया था, उस युग में वे जनमानस में अध्यात्म ज्योति जगाने सहज रूप से निहारी जा सकती थी, इसीलिए बम्बई के का भरसक प्रयास कर रहे थे, श्रद्धेय गुरुदेवश्री स्थानकवासी जैन
स्थानकवासी जैन समाज ने उन्हें अध्यात्मयोगी की उपाधि से समाज के एक प्रतिभाशाली युग पुरुष थे, वे अपने युग के प्रकाण्ड
समलंकृत किया था। विद्वान और परम् विचारक संत थे।
ध्यान की प्रेरणा श्रद्धेय गुरुदेवश्री की स्मृतियाँ मानस पटल पर चमक रही हैं, सन् १९४६ में आपका वर्षावास धार में था। धार को सुप्रसिद्ध वे स्मृतियाँ उनके उदात्त और निर्मल हृदय की परिचायिका हैं, वे साहित्य और काव्यप्रेमी महाराज भोज की राजधानी होने का गौरव बहुत ही निस्पृह थे। बम्बई का प्रसंग है, पालनपुर के एक प्राप्त है। यह भी किंवदन्ती है कि कविकुल गुरु कालिदास ने भी कोट्याधीश श्रेष्ठी ने गुरुदेवश्री से प्रार्थना की, भगवन् मैं गतवर्ष अपने अमर साहित्य का सृजन इसी नगरी में किया था। कश्मीर गया था और वहाँ से ३५ हजार का बहुमूल्य पश्मीना
यह वही नगरी है जहाँ पर स्थानकवासी समाज के ज्योतिर्धर लेकर आया हूँ, यह तो बम्बई नगरी है, यहाँ तो ऊनी वस्त्र का
आचार्यश्री धर्मसिंह जी महाराज ने धर्म की प्रभावना हेतु अपने बहुत ही कम उपयोग होता है पर गुरुदेव आपश्री तो एक स्थान से शिष्य के विचलित होने के कारण स्वयं ने संथारा कर समाधिमरण दूसरे स्थान पर, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में पधारते हैं, मेरी
। प्राप्त किया था। वह पट्ट, जिस पर आचार्यश्री ने संथारा किया था, हार्दिक इच्छा है कि वह पश्मीना जो मैं अपने लिए लाया था वह उस पर प्रायः सन्त व सतीगण शयन नहीं करते हैं। किन्तु आपश्री आपके श्री चरणों में समर्पित करूँ। कृपया मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार उस पर चार महीने सोये। आपको स्वप्न में आचार्यश्री के दर्शन भी करें। गुरुदेवश्री ने कहा-श्रेष्ठीप्रवर मैं तो गरीब साधक हूँ, इतना हुए और उन्होंने आपको ध्यान-साधना आदि के सम्बन्ध में प्रबल बहुमूल्य पश्मीना मैं नहीं ओढ़ सकता, वह तो आप जैसे श्रेष्ठीवर्य प्रेरणा प्रदान की।
- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन के अश्व पर सवार साधक क्षण-क्षण इतना गिरता है कि पहली नरक
से गिरता-गिरता सातवीं तक पहुँच जाता है और मन के तनिक इशारे से इतना ऊँचा उठता है कि क्षण में ही केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त कर लेता है। मन जब भटक जाता है तो चाहे जितनी दीर्घकालिक साधना हो, उसे बचा नहीं सकती और जब मन स्थिर हो जाता है तो दीर्घकाल तक भोगे हुए विषय-भोग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ऋतु का सुहावनापन मन की प्रसन्नता पर अवलम्बित है। मन में शान्ति हो तो दुर्दिन भी सुदिन लगते हैं।
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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सन् १९४८ का वर्षावास घाटकोपर, बम्बई में सम्पन्न कर द्वितीय वर्षावास में व्याख्यान वाचस्पति श्रमण संघ के आप अन्य स्थानों पर विचरण करते रहे। आपके अन्तर्मानस में प्रधानमंत्री श्री मदनलाल जी महाराज आपके साथ थे। इस वर्षावास जैन समाज की एकता के लिए चिन्तन चल रहा था। घाटकोपर में के उपसंहार में कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को आपश्री के सद्गुरुदेव आपकी प्रबल प्रेरणा से उपाध्याय प्यारचन्द जी महाराज, आत्मार्थी महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी महाराज का संथारे से स्वर्गवास हो श्री मोहनऋषि जी महाराज, शतावधानी पूनमचन्द जी महाराज गया। महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. श्रमण संघ में सबसे बड़े और परम विदुषी उज्ज्वलकुमारी जी आदि सन्त-सतीगण वहाँ पर दीक्षा स्थविर थे। गुरु का वियोग किस शिष्य के हृदय में ठेस नहीं एकत्रित हुए। सन्त-सम्मेलन की योजना बनाई गई और आपश्री ने
पहुंचाता है। एक पंचसूत्री योजना प्रस्तुत की
अनुशासन १. एक गाँव में एक चातुर्मास हो।
सन् १९५७ में आपका चातुर्मास उदयपुर में था। उस समय २. एक गाँव में दो व्याख्यान न हों।
आपश्री के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर उपाचार्यश्री गणेशीलाल ३. एक-दूसरे की आलोचना न की जाए।
जी महाराज ने मुनि श्री हस्तीमल जी तथा तपस्वी राजमल जी को ४. एक सम्प्रदाय के सन्त दूसरे सम्प्रदाय के सन्तों से मिलें।
अनुशासनबद्धता सिखाने के लिए आपके पास उदयपुर वर्षावास
हेतु प्रेषित किया। ५. यदि मकान की सुविधा हो तो एक साथ ठहरा जाए।
परिणाम बहुत उत्साहजनक आया। आपश्री ने उन्हें इतने सन् १९५१ में आपका चातुर्मास सादड़ी था। उस समय
स्नेह-सौजन्यपूर्वक रखा कि देखकर सभी व्यक्ति चकित रह गए। आपश्री की प्रेरणा से सादड़ी में विराट् सन्त-सम्मेलन हुआ और श्री । वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना हुई। संघ की इस अखंड रहे यह संघ हमारा संस्थापना में आपश्री की विलक्षण प्रतिभा, सूझ-बूझ, संगठन-शक्ति श्रमणसंघ की स्थिति विषम हो रही थी। यह बात सन् १९६० तथा सौम्य-सद्व्यवहार नींव की ईंट के रूप में कार्य करते रहे।
की है। उस समय आपश्री का वर्षावास ब्यावर में था। पारस्परिक सन् १९५२ में सिवाना वर्षावास में भी संगठन को अधिक से । विचार भेद ने संघ की स्थिति को, जैसा कि हमने कहा, चिन्तनीय अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए आपका चिन्तन चलता रहा।। बना दिया था। उस स्थिति को सुलझाने-सम्हालने के लिए आपश्री परिणामस्वरूप ही सोजत में मंत्रिमंडल की बैठक हुई। उसमें वर्षावास के पश्चात् विजयनगर पधारे। वहाँ मंत्री मुनिश्री पन्नालाल सचित्ताचित्त के प्रश्न को लेकर गम्भीर चर्चाएँ हुई और एक । जी महाराज वृद्धावस्था के कारण विराजे थे और आपके सन्देश आचारसंहिता का निर्माण हुआ। जब भी कभी सम्मेलनों में को सम्मान देकर उपाध्याय हस्तीमल जी महाराज भी वहाँ पधार विचार-चर्चा में मतभेद होने के कारण दरार पड़ने की स्थिति उत्पन्न गए थे। आप तीनों ने मिलकर श्रमण संघ के विषय में गम्भीर हुई, उस समय आपश्री नूतन एवं पुरातन विचारों वाले सन्तों को विचार-विनिमय किया तथा 'अखंड रहे यह संघ हमारा' विषय पर समझा कर समस्या का समाधान करते रहे। आपश्री का यह स्पष्ट ऐतिहासिक वक्तव्य भी दिया, जिसका सारांश प्रस्तुत हैमत रहा कि केवल संगठन के गीत गाने से काम नहीं चलेगा।
_ 'युगों से समाज के हितैषियों के अन्तर्मानस में यह आकांक्षा उसके लिए अपने स्वार्थों का बलिदान भी देना होगा। केवल मंच
थी कि हमारे श्रद्धेय मुनिगण ज्ञान और चारित्र में, आचार और पर लम्बा-चौड़ा व्याख्यान देना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु सच्चे हृदय ।
विचार में उन्नत होने पर भी विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त हैं। जिसके से कार्य करने की आवश्यकता है।
कारण जिनशासन की जो उन्नति होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही संगठन के ऐसे सजग प्रहरी बिरले ही होंगे।
है। विभिन्न धाराओं में प्रवाहित होने वाली सरिता अपने लक्ष्य तक महास्थविर जी का स्वर्गवास
नहीं पहुँच सकती, लक्ष्य स्थल पर पहुँचने के लिए अनेकता नहीं, ___ सन् १९५५ और १९५६ में आपका वर्षावास जयपुर में था।
एकता की आवश्यकता है। यदि हमारे ये सन्त भगवान एक बन प्रथम वर्षावास में कविवर्य अमरचन्द जी महाराज, स्वामी श्री }
जायें, सुसंगठित व व्यवस्थित बन जायें तो जिनशासन की महती हजारीमल जी महाराज, स्वामी फतेहचन्द जी महाराज, पं. मधुकर ।
प्रभावना हो सकती है। जैन धर्म की विजय-वैजयन्ती हिमालय से मुनिजी महाराज और पं. कन्हैयालाल जी 'कमल' आदि चौदह सन्त । कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक ही नहीं, अपितु विश्व आपश्री के साथ थे।
के एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सकती है।'
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तल से शिखर तक
अजरामपुरी अजमेर के पवित्र प्रांगण में सन्त सम्मेलन का सफल आयोजन इसी भव्य भावना को लेकर किया गया था, जिसमें सन्तगण ने सोत्साह भाग लिया। संगठन के महत्व पर गम्भीरता से विचार-विमर्श किया। यह अत्यधिक प्रसन्नता का विषय है कि हमारे प्रतिभासम्पन्न वयोवृद्ध व अनुभवी सन्तों ने उस प्रशस्त भूमि का निर्माण किया जिससे पारस्परिक कटुता कम हुई तथा एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के अत्यधिक सन्निकट आया और स्नेह सद्भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई।
सादड़ी का सन्त सम्मेलन उसी सद्भावना का पुण्य प्रतीक है, जिसमें श्रद्धेय सन्तगण ने शासनहित की प्रदीप्त भावना को लेकर जो महान् त्याग किया, वह आज ही नहीं, इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों की भाँति सदैव चमकता रहेगा। जिसकी पुण्य गाथाएँ अन्य सम्प्रदायों ने तथा राष्ट्रीय समाचार-पत्रों ने मुक्त कंठ से गायीं।
आज उन पुण्य पलों का स्मरण करते ही हृदय गद्गद् हो जाता है, मन-मयूर नाच उठता है, मुख-कमल खिल उठता है। क्या उत्तम भावना थी हमारे श्रद्धेय मुनिमंडल की वहां पर संघोन्नति की भावना से प्रेरित होकर ही उन्होंने "श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना की और उसमें अपनी पूरी-पूरी सम्प्रदायों का विलीनीकरण किया।
श्रमणसंघ को एक ही सूत्र में पिरोने के लिए एक समाचारी का निर्माण किया गया। किन्तु वहाँ अवकाश के क्षणों का अभाव होने के कारण समाचारी निर्माण का कार्य पूर्ण नहीं हो सका। सोजत और मीनासर सम्मेलन में उस अपूर्ण समाचारी तथा तत्कालीन समस्याओं पर विचार-विमर्श किया गया।
किन्तु अत्यन्त परिताप की बात है कि हमारा कदम जो दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर मुस्तैदी से आगे बढ़ना चाहिए था, यह रुक गया केवल रुका ही नहीं, कुछ पीछे भी खिसका मानस की जो उदार भावना संघोन्नति की ओर थी, वह अपनी वैयक्तिकता अथवा साम्प्रदायिकता को ही पल्लवित पुष्पित करने की ओर लग गई। अधिकार- लिप्सा शैतान की आँत की भाँति बढ़ने लगी। साधारण-सी बात को लेकर आचार्यश्री आत्माराम जी म. तथा उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी में मतभेद हो गया और इन दोनों महापुरुषों के पारस्परिक विरुद्ध निर्णय हमारे सामने आए। इधर इन दोनों के बीच की प्रधानमंत्री की कड़ी की लड़ी पूर्व ही टूट चुकी थी। अतः दोनों महापुरुषों में मेल किस प्रकार बढ़ाया जाय। यह एक गम्भीर समस्या बन गई। दोनों महापुरुषों के विरोधी निर्णयों को पाकर सन्त समुदाय में भी सनसनी होने लगी। जिससे अधिकारी मुनियों का अनुशासन जिस रूप में रहना चाहिए था, उस रूप में न रह सका।
आज स्थिति इतनी विषम बन गई है कि कहीं पर भी किसी भी प्रकार की व्यवस्था भंग हो, श्रमण या श्रमणी साधना के मार्ग से च्युत हो जायें तो भी कौन कहे? किसका क्या अधिकार है?
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यह निर्णय करना भी विज्ञों के लिए एक महान् प्रश्न बन गया है। आज न भूतपूर्व साम्प्रदायिक व्यवस्था ही रही है और न वर्तमान अधिकारियों का योग्य अनुशासन ही हमारी दृष्टि से आचार शैथिल्य का यह प्रमुख कारण है। आचार्य और उपाचार्यश्री के चरणारविन्दों में मतभेद निवारणार्थ अनेक बार विनम्र प्रार्थनाएँ की गयीं और योजना भी प्रस्तुत की गयी पर खेद है कि उनमें से अभी तक एक भी सफल न हो सकी और मतभेद ने इतना उग्र रूप धारण किया कि पारस्परिक संबंध विच्छेद की स्थिति भी हमारे सामने आ गई।
हमारी यह हार्दिक भावना है कि संघ में संगठन अक्षुण्ण बना रहे। व्यक्ति अपने हित और मानापमान को महत्व न देकर संघ के हित को और सम्मान को महत्व दें। संघ महान् है, इस बात को समझकर संयमशुद्धि के साथ संघ के कल्याणार्थ सर्वस्व न्यौछावर करके श्रमणसंघ के अधिनायकों के एकछत्र शासन में त्यागीवर्ग संयम साधना, तप आराधना और मनोमन्थन कर ज्ञान-दर्शन- चारित्र की त्रिवेणी में अवगाहन करें।
किन्तु यह तभी संभव है जबकि संघ के सर्वोच्च अधिनायक आचार्यश्री तथा उपाचार्य श्री में मतभेद दूर होकर समरसता, सरसता उत्पन्न हो ।
एतदर्थ ही विजयनगर के प्रांगण में श्रमणसंघ की स्थिति पर विचार करने के लिए हम तीनों सन्त एकत्र हुए और समस्त स्थानकवासी समाज के अन्तर्मानस की भव्य भावनाओं को लक्ष्य में रखकर श्रद्धेय आचार्यश्री और उपाचार्यश्री के चरणारविन्दों में निवेदनार्थ एक प्रस्ताव रखने का भी निर्णय किया। किन्तु ता. ३०.११.६० को उदयपुर में उपाचार्यश्री ने उपाचार्य पद का त्याग करके स्वयं को श्रमण संघ से पृथक् घोषित किया, जिसे हम संघ के लिए हितकर नहीं मानते हैं। हमारी यह हार्दिक भावना है कि वे पुनः संघ हित और जिनशासन की उन्नति को ध्यान में रखकर उस पर गंभीरता से विचार करें और उलझी हुई समस्याओं को परस्पर विचार-विमर्श द्वारा या अन्य किसी माध्यम से हल करके संघ के श्रेय के भागी बनें।
हमारा यह दृढ़ मन्तव्य है कि वर्तमान में हमारी आचार व्यवस्था किन्हीं कारणों से शिथिल हो गई है। अतः उस पर कड़ा नियन्त्रण आवश्यक है क्योंकि आचारनिष्ठा में ही श्रमण संघ की प्रतिष्ठा है। हम चाहते हैं कि प्रमुख मुनिवरों के परामर्श से शिथिलाचार को आमूलचूल नष्ट करने के लिए दृढ़ कदम उठाया जाय। हम शिथिलाचार को हर प्रकार से दूर करने के लिए प्रस्तुत हैं। जब तक संघ में पारस्परिक मतभेद दूर होकर इसके लिए सुव्यवस्था न हो जाय तब तक अधिकारी मुनिवर अपने आश्रित श्रमण वर्ग की आधार वृद्धि पर पूर्ण ध्यान रखें। यदि कदाचित् किसी भी सन्त व सतीजन की मूलाचार में कोई स्खलना सुनाई दे तो तत्काल उसकी जाँच कर शुद्धि कर दी जाय ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अन्त में हमारी ही नहीं अपितु संघ के सभी सदस्यों की भावना श्रमण संघ की सुदृढ़ता के लिए ही सन् १९७७ का वर्षावास है कि श्रमण संघ अक्षुण्ण व अखण्ड बना रहे। आचार और विचार । महामहिम आचार्यप्रवर आनन्दऋषि जी महाराज की सेवा में की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर दृढ़ता से बढ़ता रहे। सिकन्दराबाद में किया। संघ के समुत्कर्ष के सम्बन्ध में आचार्यप्रवर और जन-जन के हृदय से यही नारा निकले कि “अखण्ड रहे यह । से गम्भीर चिन्तन-मनन किया गया और आचार्यश्री की संघ हमारा।"
जन्म-जयन्ती के सुनहरे अवसर पर मधुकर मुनिजी महाराज को प्रस्तुत वक्तव्य से समाज में अभिनव जागृति का संचार हुआ
युवाचार्य पद प्रदान किया गया। और उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को लगा कि मेरी इस प्रकार जहाँ-जहाँ भी आपश्री के वर्षावास हुए, वहाँ पर अवैधानिक कार्यवाही को श्रमणसंघ के मूर्धन्य मनीषीगण अनादर धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहे। आपश्री के की दृष्टि से देख रहे हैं, अतः उन्होंने श्रमणसंघ से व उपाचार्य पद
। वर्षावासों में उत्कृष्ट तप की आराधना होती रही है और संघ में से त्यागपत्र की घोषणा कर दी। आपश्री ने त्यागपत्र की सूचना स्नेह-सदभावना की अभिवृद्धि भी। मिलते ही विजयनगर से उपाचार्य श्री की सेवा में-एक शिष्ट मंडल
जहाँ भी आपश्री पधारे वहाँ पर संघ में अभिनव जागृति का प्रेषित करवाया। उस शिष्टमंडल ने उपाचार्य श्री से यह निवेदन किया कि आप त्यागपत्र न दें। आपश्री से जो अवैधानिक कार्यवाही
संचार होता रहा है। स्थान-स्थान पर जो सामाजिक कलह थे, जिसे हो चुकी है, उसका परिष्कार कर दिया जाय। पर उपाचार्य श्री
राजस्थानी भाषा में 'धड़ा' कहते हैं, ये आपश्री के उपदेशों तथा भक्तों को प्रसन्न रखना चाहते थे। अतः ऐसा न कर सके। आपश्री
सत्प्रेरणा से मिटे हैं। रायपुर-मेवाड़ में कई वर्षों के धड़े थे, वे ने अपनी ओर से यही. प्रयास किया कि श्रमणसंघ अखंड बना रहे,
आपश्री के एक ही उपदेश से मिट गए। एतदर्थ आपश्री उदयपुर भी पधारे और हर दृष्टि से उपाचार्य श्री अनुशासनप्रिय को समझाने का प्रयास किया, किन्तु किन्हीं कारणों से सफलता न
का महामहिम आचार्यसम्राट् आनन्दऋषि जी म. का वर्षावास पूना मिल सकी।
में था। आचार्यसम्राट् ने श्रमण संघ के सभी मूर्धन्य मनीषियों को सन् १९६४ में अजमेर में शिखर सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन प्रेरणा प्रदान की कि पूना में सन्त सम्मेलन का मंगलमय आयोजन की सफलता के लिए आपश्री ने अथक प्रयास किया और हो यह मेरी हार्दिक इच्छा है। आचार्यसम्राट् की इच्छा की पूर्ति करने गुलाबपुरा से लेकर अजमेर तक गुरुदेव श्री ने आचार्य आनन्दऋषि के लिए कौन इन्कार हो सकता था। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। जी महाराज के साथ रहकर अनेक गम्भीर समस्याओं को सुलझाने
श्रद्धेय गुरुदेवश्री ने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहाँ पर पहुँचने में का प्रयास किया और परमश्रद्धेय आचार्य सम्राट् आत्माराम जी म. अपनी असमर्थता पत्र द्वारा निवेदन की। आचार्यश्री ने आदेश दिया के स्वर्गस्थ होने पर उनके पट्ट पर आचार्य सम्राट् आनन्दऋषि जी ।
कि हर हालत में पहुँचना ही है यह मेरा आदेश है। अनुशासनप्रिय म. को आसीन किया। तथा मंत्री व्यवस्था के स्थान पर प्रवर्तक
गुरुदेवश्री आचार्यसम्राट् की आज्ञा की अवहेलना किस प्रकार कर और उपाध्याय व्यवस्था को मान्यता प्रदान की।
सकते थे। समदड़ी (बाड़मेर) से उग्र विहार कर पूना पधारे और सन् १९६७ में बालकेश्वर, बम्बई में चातुर्मास था। बम्बई में सम्मेलन में सम्मिलित हुए। यह थी आपकी अनुशासनप्रियता। राजस्थान प्रान्तीय व्यक्तियों का कोई संगठन नहीं था। आपश्री की ।
प्रस्तुत सम्मेलन में आचार्यसम्राट ने और श्रमणसंघ के सभी प्रेरणा से राजस्थान प्रान्तीय संघ की स्थापना हुई। तथा अनेक ।
पदाधिकारी मुनिराजों ने संघ सेवा का दायित्व मुझे सौंपा। साहित्यकार इस वर्षावास में आपश्री के परिचय में आए।
नियमित दिनचर्या सन् १९६९ में पूना में वर्षावास के बाद आपश्री नासिक । पधारे। उस समय मालवकेसरी सौभाग्यमल जी महाराज आपश्री के
आपश्री के जीवन का अटल सिद्धान्त था-कम बोलना और साथ थे। नासिक में महाराष्ट्र के श्रावकों का एक विराट् आयोजन ।
कार्य अधिक करना। आपश्री का स्पष्ट मन्तव्य था कि मानवकिया गया। श्रमणसंघ की उन्नति किस प्रकार हो, इस पर गम्भीर
जीवन का भव्य प्रासाद आचार-विचार के विशाल स्तम्भों पर रूप से विशद् चर्चाएँ की गईं।
निर्मित होता है। आपश्री को स्वाध्याय, ध्यान, जप, चिन्तन, मनन,
अध्यापन, व्याख्यान, आगन्तुकों से वार्तालाप, उनकी नाना शंकाओं सन् १९७० में आपश्री का चातुर्मास कान्दावाड़ी, बम्बई में
का निरसन करना प्रिय था। था। उस समय राजस्थान प्रान्तीय सन्त सम्मेलन का आयोजन सांडेराव-मारवाड़ में किया गया। वहाँ संघ उत्कर्ष की भावना से । इसके साथ ही योगासन करना आपश्री का एक नियमित आपश्री लम्बे-लम्बे विहार करके दो महीने में सम्मेलन में पधारे। कार्यक्रम था। हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन, बद्ध पद्मासन और आपश्री के पधारने से वहाँ संगठन का सुन्दर वातावरण बना। शीर्षासन-ये आपके प्रिय आसन थे।
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२६३ । अधिक औषधि-सेवन को आप उचित नहीं मानते थे। आप आहार के पश्चात् आपश्री हल्का विश्राम करते थे। उसी यथासम्भव औषधि नहीं लेते थे और भोजन में कम खाना तथा अवधि में आप ऐसे साहित्य का अध्ययन भी करते थे जो विश्राम संख्या में भी कम पदार्थ ही लेना आप उचित समझते थे। आपका में भार-स्वरूप न बने। इस प्रकार एक पंथ, दो काज निबट जाया मानना था कि भोजन की मात्रा जितनी कम होगी, उतनी ही करते थे। साधना में स्फूर्ति रहेगी। अधिक खाने से आलस्य और प्रमाद की
हल्के, थोड़े समय के विश्राम के पश्चात् आपश्री साहित्य-लेखन अधिकता होगी।
तथा अध्यापन करते थे, एवं आगन्तुकों से विचार-चर्चा भी। आपश्री साधारणतया रात्रि को दो बजे उठ जाते थे। सर्वप्रथम कार्य होता था ध्यान और जप की साधना करना। उसके पश्चात्
सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात् पुनः आत्मालोचन तथा आठ बजे आपश्री आत्मालोचन करते थे, जिसे जैन भाषा में 'प्रतिक्रमण'
से नौ बजे तक जप व ध्यान के बाद फिर कुछ समय विचार-चर्चा कहते हैं।
के उपरान्त प्रायः दो बजे तक शयन करते थे। सूर्योदय होने के पश्चात् आप गाँव से बाहर शौच के लिए
इस प्रकार 'युक्ताहार विहारस्य योगो भवति दुःखहा' के जाते थे, जिससे श्रम, टहलना व घूमना सहज रूप से हो जाता था।
अनुसार आपकी जीवन-चर्या सहज, नियमित एवं बहुत ही सरल
थी। इसी कारण आप प्रायः स्वस्थ ही रहते थे और कभी बीमारी उसके पश्चात् आता था समय स्वाध्याय का।
आती भी थी तो उसे भी ध्यान, आसन, प्राणायाम द्वारा शीघ्र ही स्वाध्याय के पश्चात् एक घंटे का प्रवचन।
दूर कर देते थे। प्रवचन के पश्चात् पुनः एक घंटे तक जप व ध्यान किया
आपश्री के जीवन से सम्बन्धित ये कतिपय संस्मरण स्मृतियों करते थे और फिर आहार।
के आकाश में सितारों की भाँति आज भी झिलमिला जाते हैं और आहार में आपश्री दो बातों का विशेष ध्यान रखते थे-संख्या । मन आलोकित हो उठता है। और मात्रा-दोनों ही कम।
जिसके पास क्षमा है, उसके लिये धनुष बाण, खड्ग, भाले आदि सब व्यर्थ हैं। ये शस्त्र तो शत्रु की देह को ही काबू करते हैं, जबकि क्षमा शत्रु को मित्र बना देती है। यह अमोघ शस्त्र शत्रु के हृदय को जीत लेता है। भूल मनुष्य से होती है पर जो भूल का प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करता है वह महान बन जाता है।। मनुष्य की कैसी विचित्र अभिलाषा है कि वह विष खाकर भी जीवित रहना चाहता है। जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब मनुष्य पतित से पावन और दुष्ट से सन्त बन जाता है। आलस्य जीवित व्यक्ति की समाधि है। जो बैठे रहते हैं उनका भाग्य भी बैठ जाता है, जो सोते हैं उनका भाग्य भी सोता है और जो चलते हैं, दौड़ते हैं, उनका भाग्य भी चलता है, दौड़ता है। कोई भी प्राणी तभी तक जीवित रहता है जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं। पुण्य क्षीण होने पर महापराक्रमी को एक साधारण व्यक्ति भी मार सकता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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महोत्सव और महोत्सव
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नील-निर्मल झीलों की नगरी, राजस्थान का काश्मीर, विश्व में इतनी अधिक अस्वस्थता एवं अशक्ति के उपरान्त भी वे re
वीरत्व के लिए विख्यात महान् मेवाड़ अंचल की राजनगरी उदयपुर स्थितप्रज्ञ की भाँति पूर्ण आत्मभाव में लीन थे। भव्य, प्रशान्त, दिव्य उस दिन एक महोत्सव में मग्न थी।
मुखमुद्रा पर कहीं एक सलवट तक तो दिखाई दे नहीं रही थी। वही __मानों अमरों की अलकापुरी ही इस भूतल पर उतर आई हो।
आत्मतेज, वही सौम्यता, वही निर्मल पावनता और अखण्ड शान्ति
की भव्य भावना! अपने समस्त सौंदर्य-शृंगार, उल्लास और आनन्द का अमृतकलश उँडेलती। मानव-मेदिनी सातों समुद्रों की भाँति उफन रही थी। उसके
चैत्र महीना था। शुक्ला नवमी का दिन। प्रातःकाल का समय, अपार हर्ष और उमंग का ऊँचा उफान आकाश छू रहा था।
सूर्य उदय होने ही वाला था, प्रतिक्रमण पूर्ण हो चुका था, केवल
प्रत्याख्यान करने थे श्रद्धेय गुरुदेवश्री ने कहा-'देवेन्द्र अब मेरा वह एक महोत्सव का पावन दिवस था।
अंतिम समय आ गया है मैं अब कुछ ही समय का मेहमान हूँ। अब चैत्र सुदी पंचमी, रविवार, दिनांक अट्ठाईस मार्च, सन् उन्नीस मुझे चौविहार संथारा करा दो। यों पूर्व, जब कभी भी स्वास्थ्य की सौ तिरानवे। (२८.३.९३)
प्रतिकूलता के अवसर पर मेरे द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर - श्रमण-संघ के आचार्य-पद का चादर-महोत्सव उस दिन उस
गुरुदेव फरमाते रहे कि मेरा अभी अंतिम समय नहीं आया है, जब भाग्यशाली नगरी में आयोजित था। उस महान् महत्वपूर्ण अवसर
मेरा अंतिम समय आएगा तब मैं स्वतः तुझे कह दूंगा।' आज पर समस्त नगरी जैनत्व की निर्मल प्रेम-भावना में आकंठ डूबी उस
गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य भी उतना अस्वस्थ नहीं था तथापि मैंने
गुरुदेवश्री के शारीरिक लक्षणों को देखा और मुझे लगा कि भव्य एवं सुविशाल मंडप की ओर अपलक नयनों से निहार रही
गुरुदेवश्री का फरमाना यथार्थ है और मैंने उसी समय गुरुदेवश्री थी, बढ़ रही थी, उमड़ रही थी-जहाँ श्रमण-संघ के तृतीय आचार्य
की भव्य भावना को समलक्ष्य में रखकर सभी संत जो वहाँ पर पद का चादर-समारोह होने वाला था।
चद्दर समारोह में पधारे हुए थे। प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म. सारी नगरी ही क्यों, समस्त भारतवर्ष से उल्लास में डूबे चले प्रवर्तक, श्री रूपमुनि जी म., प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी म., आए दो सौ से अधिक सन्त-सतीवृन्द और दो लाख से अधिक } प्रवर्तकश्री महेन्द्रमुनि जी म. 'कमल', महामंत्री श्री सौभाग्यमुनि जी धर्मप्रेमी बन्धु उस विशाल, आकाश की भाँति अघोर मंडप में भी म., तपस्वी प्रवर मोहनमुनि जी म., पं. हीरामुनि जी श्री गणेशमुनि समा नहीं पा रहे थे।
जी म., पं. श्री रवीन्द्र मुनिजी म. आदि सभी को बुला लिया और कैसा अद्भुत, कितना अवर्णनीय और भव्य था वह दृश्य और ।
। उन सभी संतों के सामने गुरुदेवश्री की भव्य भावना को बतलाते
हुए मैंने कहा कि "गुरुदेवश्री ने स्वयं संथारा मांगा है और वह भी वह वातावरण! ऐसे आनन्दमय, भव्य एवं अमृतवर्षी परिदृश्य को
चौविहार। गुरुदेवश्री ने अपने जीवन की आलोचना पहले ही स्वस्थ देखने के लिए देवगण भी उस अवसर पर इस भूतल पर उतर
अवस्था में कर ली थी और अस्वस्थता के कारण औद्देशिक आए हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
नैमेत्तिक आहार औषध आदि का जो उपयोग हुआ, उसका परम उल्लास, सद्भाव, स्नेह और आनन्द के क्षणों में निर्मल प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर लिया था। गुरुदेवश्री जागरूक भावनाओं के साथ वह चादर-समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ।
आत्मा हैं आप लोग जो अनुभवी हैं, आपने अनेकों बार संथारे
करवाए हैं, अतः आप भी देख लेवें। किन्तु, हा हन्त! उसी अवसर पर पूज्य उपाध्याय श्री को करवाए ह, अतः आप भा दख लव। यकायक नाक से खून गया। थोड़ा भी नहीं, लगभग दो किलो। वे शारीरिक लक्षणों को देखकर अधिकारी मुनिप्रवरों ने और कुछ दिन से अस्वस्थ तो चल ही रहे थे, किन्तु नाक से इतना तपस्वीमुनि आदि ने कहा कि आप संथारा फरमा देवें। संतों की अधिक खून यकायक चले जाने से वे अत्यधिक अशक्त हो गए। साक्षी में उसी समय श्रावक वर्ग भी उपस्थित हो गया था, मैंने उन खड़े होते समय यद्यपि उन्होंने एक सन्त का हाथ थाम रखा था, सभी के सान्निध्य में गुरुदेवश्री को चौविहार संथारा करवा दिया।
फिर भी अधिक अशक्ति के कारण वे संभल नहीं सके और उनके संथारे के समय गुरुदेवश्री पूर्ण जागरूक स्थिति में थे, उसके 5. पैर की अंगुलियों में फ्रैक्चर हो गया।
पश्चात् उन्हें बोलने में कुछ कठिनाई का अनुभव होने लगा
किन्तु उनके मुखारबिन्द पर अपूर्व तेज झलक रहा था, वे प्रशान्त किन्तु उन महान् आत्मा के विषय में यह क्षुद्र लेखनी क्या
मुद्रा में जिस स्थिति में सोए हुए थे उसी स्थिति में बिना हिले-डुले DD लिखे? कैसे लिखे? कितना लिखे?
सोते रहे। 90.00 Jain Education international or
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आचार्यपद चादर समारोह:
उदयपुर उदयपुर के भंडारी सभा मंडप के विशाल प्रांगण में दिनांक २८ मार्च चैत्र सुदि ५ रविवार को आचार्यपद चादर समारोह का महा-आयोजन। मंच पर आसीन आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी (पाट पर) तथा आजू-बाजू में प्रवर्तकश्री अम्बालालजी प्रवर्तकश्री रूप मुनिजी आदि मुनिगण।
बारियरवन्दीरजत श्रीदेवन मुनिजीम.
अम्बालालजी
मिन्सनिज
म.,
समारोह में उपस्थित मंच पर आसीन साध्वी-समुदाय।
भारत के विभिन्न अंचलों से समागत लगभग दो लाख से अधिक श्रद्धालु विशाल जन-समूह का एक दृश्य। आचार्यश्री सभा को सम्बोधित कर रहे हैं।
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चादर समर्पण श्रमणसंघ के प्रवर्तक आदि वरिष्ठ मुनिवरों ने मिलकर सामूहिक रूप में समस्त श्रमणसंघ की आस्था, विश्वास, समर्पण एवं एकसूत्रता की प्रतीक पवित्र चादर आचार्य श्री को ओढाई।
समस्त श्रमणी समुदाय ने चादर को स्पर्शकर अपनी आस्था एवं समर्पणनिष्ठा से दृढ़ सूत्र से जोड़ दिया।
इसी पवित्र चादर को स्पर्शकर श्रावक-श्राविका समूह ने अपनी एक निष्ठा और आस्था का बल संयुक्त कर दिया। कांफ्रेंस के अध्यक्ष, मंत्री व श्रावक संघ के वरिष्ठ श्रावकों ने समूहबद्ध होकर आचार्यश्री को चादर समर्पित की। आचार्यश्री के सामने बैठे हैं नव- दीक्षित साधु-साध्वी।
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महिला अघिलेशन खिल भारतवर्षीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन को फम भावना
अ. भा. महिला सम्मेलन के आयोजन में चादर समारोह के अवसर पर मंच पर आसीन साधु-साध्वी त्यागी वर्ग।
आचार्यश्री का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ : कर्म विज्ञान भाग-४ का समर्पण करते हुए प्रसिद्ध दानवीर गुरुभक्त सुश्रावक डॉ. चम्पालाल जी देसरड़ा, औरंगाबाद।
चादर समर्पण समारोह के पश्चात् समस्त संघको सम्बोधित कर, एकता, अनुशासन, व्यसनमुक्तजीवन का सन्देश देते हुए आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी तथा पीछे राजेन्द्र मुनिजी और दिनेश मुनिजी।
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अन्तिम आशीर्वाद
संथारा ग्रहण करने के पश्चात् शान्त प्रसन्न भाव से परम शिष्य आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी को गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. अन्तिम आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं! 'मेरी जीवन यात्रा के परम सुखकारी सदा रहो सुखमय!' पास खड़े हैं गुरुभक्त दिनेश मुनिजी।
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संथारे की स्थिति में गुरुदेव को अंतिम आलोयणा सुनाते हुए आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म.।
संथारे में णमोकार मंत्र का सामूहिक जाप करते हुए गुरुदेव के समीप श्री रमेश मुनि, श्री सुरेन्द्र मुनि, श्री जिनेन्द्र मुनि, श्री नरेश मुनि, श्री शालीभद्र मुनि, श्री राजेन्द्र मुनि, श्री प्रवीण मुनि आदि।
गुरुदेव श्री को स्वाध्याय सुनाकर, आशीर्वाद लेते हुए परम सेवाभावी श्री दिनेश मुनि।
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संथारे में अन्तिम दर्शन करते हुएसाध्वीश्री प्रिय दर्शना जी म. साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी म. महासती श्री प्रेमकुंवर जी म.
साध्वी रत्नश्री पुष्पवती जी म. साध्वी चारित्रप्रभाजी आदि साध्वीसमूह गुरुदेव के संथारे में अन्तिम दर्शन करते हुए।
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साध्वी विचक्षणाजी को गुरुदेव के संथारे में अंतिम दर्शन कराते हुए
साध्वीरल श्री पुष्पवती जी म. साध्वी श्री रत्नज्योति जी म.
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संथारा ग्रहण के पश्चात् तेजोमय समाधिस्थ मुद्रा में गुरुदेव
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वन्दू चरण-कमल गुरुवर के मेरे शरण भये भव-भव के
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निशि दीपो ऽम्बुधौ द्वीपं मरौ शाखी हिमे शिखी । कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं त्वद् पादाब्ज रजः कणः ॥
रात्रि के सघन अंधकार में दीपक, तूफानी हवाओं से मचलते समन्दर में द्वीप (टापू), आग से तपते मरुस्थल में छायादार वृक्ष, बर्फीली शीत हवाओं में अग्नि, जिस प्रकार मानव को सहायक एवं शरणभूत होते हैं, उसी प्रकार तपस्वी तेजस्वी महागुरु के चरण कमल की रज शिष्य को सदा प्रकाश, आधार, आश्वासन और बल शक्ति-प्रदान करती रहती हैं।
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स्वर्गवास के पश्चात् भावाकुल भक्त जनता के दर्शनार्थ रखा गया गुरुदेव का पार्थिव शरीर
उड गया हंस, तन-कनक पिंजर छोड। बुझ गई ज्योति, माटी की दीवट तोड॥
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"क्यूँ" छोड़ गये गुरुवर !"-- एक अनन्त अबूझ जिज्ञासा भरी दृष्टि से अपलक निहार रहे हैं गुरुदेव के परमभक्त सेठ श्री चुन्नीलाल जी धर्मावत तथा श्रद्धा भरा प्रणाम लो!की मुद्रा में श्री परमेश्वरजी धर्मावत
श्रीपुष्कर मुनिजी म.
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अर्हनिशं सेवामहे का दृढ़ संकल्प लिये चादर महोत्सव से महाप्रयाण उत्सव तक रात-दिन सेवा में जुटे उदयपुर तथा अन्य स्थानों से समागत उत्साही युवकगणः गुरुदेव के महाप्रस्थान से पूर्व यात्रा की तैयारी में.
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अन्तिम महायात्रा के लिए निर्मित अतिभव्य शोभारथ-बैकुंठी
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श्री तारक गुरु
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प्रस्थान के लिए प्रस्तुत बैकुंठी में विराजमान
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महायात्रा का प्रारंभ श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय के मुख्य द्वार से। सामने उमड़ रहा है भक्ति भावाकुल अपार जनसमूह!
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शोभायात्रा गुरुदेवश्री की अन्तिम शोभायात्रा; तारक गुरु ग्रंथालय भवन से प्रारंभ होकर उदयपुर के राजमार्ग एवं मुख्य बाजारों में घूमती रही। लगभग एक लाख से अधिक श्रद्धाभाव विह्वल जन समूह पुष्कर मुनि की जय। जब तक सूरज चांद रहेगा, पुष्कर मुनि का नाम रहेगा के गगन भेदी नारों के साथ आगे बढ़ती जा रही है।
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शोभायात्रा के विहंगम दृश्य
नगर के मुख्य माग चेटक, सर्कल हाथीपोल, बड़ा बाजार, सूरजपोल, बापू बाजार, दिल्ली गेट आदि में घूमकर शोभायात्रा वापस शास्त्री सर्कल तारक गुरु ग्रंथालय में पहुँची।
हाथी पर बैठे हुए उछाल करते हैं जसवंतगढ़ निवासी गुरुभक्त श्री शांतिलाल जी तलेसरा व खेतरमल जी डोसी (कमोल) एवं उनका परिवार।
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अग्नि संस्कार हेतु सर्वप्रथम चिता को प्रज्वलित कर अग्नि समर्पित करते हुए गुरुभक्त श्री पूनमचन्द जी सुनील कुमार जी बुरड़ (दिल्ली) व नारियल समर्पित करते हुए कोठारी परिवार (बम्बई) घी चन्दन समर्पित करते हुए सेरा प्राप्त के गुरुभक्त
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गुरुदेवश्री के अन्तिम शरीर संस्कार के कारुणिक दृश्य।
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जो चले गये आँखों से ओझल हुए, मगर स्मृतियों में वे सदा जीवित ही रहते हैं, उनके बाकी बचे निशान आईठाण, जब-जब इन्हें देखेंगे उनसे जुड़ी बातें, स्मृतियों में पुन-पुनः जन्मती रहेगी, वे मरे नहीं, यह कहती रहेगी।
श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय का नवनिर्मित प्रवचन भवन जहाँ पर गुरुदेवश्री प्रवचन पीयूष वर्षात थे।
ग्रन्थालय का प्राचीन भवन, जहाँ पर गुरुदेवश्री ने संथारा ग्रहण किया।
वह सुखपाल पालकी जो अस्वस्थता के समय गुरुदेवश्री के विहार में उपयोगी बनती थी।
गुरुदेवश्री के उपकरण-मुखपत्ती, रजोहरण, पात्र, माला, चश्मा, घड़ी, वस्त्र, पुस्तकें आदि।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. की अन्तिम समय में सेवा करने वाले श्रद्धालु डॉक्टर व कम्पाउण्डर
डॉ. कौशिक सा. हार्ट के
विशेषज्ञ हैं तथा राजस्थान के प्रसिद्ध कार्डियोलोजिस्ट हैं। (फोटो प्राप्त नहीं है)
डॉ. जसवंतसिंह मठ्ठा आप उदयपुर के कान, नाक, गला के विशेषज्ञ हैं, सेवा-भावी हैं।
श्री शंकरलाल जी डांगी कम्पाउण्डर (उदयपुर)
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डॉ. बम्ब
आप उदयपुर के प्रसिद्ध डॉ. हैं। सेवा-भावी धार्मिक विचारों के व्यक्ति हैं, संत सतीवृंद की सेवा में अग्रसर रहते हैं।
वैद्य दिलखुशलाल सेठ आप कुशल आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं।
श्री अमोलकचंद कछावा परिचर्या अधीक्षक सचिव उदयपुर हॉस्पिटल
श्री हिम्मतसिंह मेहता कम्पाउण्डर (उदयपुर)
आप सभी व्यक्तियों ने उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री की तन-मन से सेवा भक्ति की और उपाध्याय श्री का आशीर्वाद प्राप्त किया।
श्री शांतिलाल नलवाया कम्पाउण्डर (उदयपुर)
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। तल से शिखर तक
२६५ / सारे शहर में एक नई हलचल प्रारंभ हो गयी जिसने भी सुना । मुनिमण्डल ने वेश परिवर्तन किया। मैं भी गुरुदेव के शरीर के वह दौड़कर ग्रंथालय में पहुँचा। सभी साधु-साध्वियों, श्रावक और सामने खड़ा था, तथा वही चिर-परिचित मुख मुद्रा को निहार रहा श्राविकाओं का अपार जमघट वहाँ पर हो गया। मधुर स्वर से । था। नेत्रों को वहाँ से हटाने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। आत्मा नवकार महामंत्र का जाप भी प्रारंभ हुआ। कुछ विविध प्रकार ध्वनि चला गया था। केवल पिंजरा रह गया था। शरीर से संबंध विच्छिन्न भी प्रस्फुटित होने लगी तथा लोगस्स का पाठ भी होने लगा और करने का प्रसंग उपस्थित हुआ। हमने मन ही मन महामंत्र नवकार सभी को सुनते हुए भी गुरुदेवश्री आत्मभाव में तल्लीन थे। का स्मरण किया और गुरुदेवश्री का पार्थिव शरीर श्रावकों को गुरुदेवश्री की मुखाकृति से यह स्पष्ट परिज्ञात हो रहा था कि वे समर्पित कर दिया। ५३ वर्ष का लम्बा समय उनके चरणों में पूर्ण परम समाधि में लीन हैं। वर्षों की साधना के परीक्षण का क्षण था । हुआ था। और उस कसौटी पर गुरुदेवश्री पूर्ण रूप से खरे उतर रहे थे।
श्रीचुन्नीलाल धर्मावत्, रोशनलाल जी. मेहता, शांतिलाल जी भारत के विविध अंचलों से जो लोग चद्दर समारोह में आए थे । तलेसरा, कन्हैयालाल जी धोखा, मूलचंद जी बूरड़, चांदमल सर्राफ, वे दो दिन पूर्व ही अपने स्थल पर पहुँचे, उन्हें टेलीफोन आदि के जालमचंद जी कोटीफोड़ा, बंकटकोठारी जी अध्यक्ष कांफ्रेंस अध्यक्ष द्वारा सूचनाएँ मिलीं, गुरुदेवश्री ने जावजीव का चौविहार संथारा युवा कांफ्रेंस बाबूसेठ बोरा, उपाध्यक्ष कफ्रिंस, नेमनाथ जी जैन, ग्रहण कर लिया है, वे पुनः उदयपुर की ओर पहुँच रहे थे। हजारों शिक्षक नेता भंतर सेठ, खुमानमल जी मागरेचा आदि सुश्रावकों को की संख्या में दर्शनार्थी बन्धुओं का आगमन हो रहा था सभी के पार्थिव शरीर सौंप दिया गया। उन्होंने धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे चेहरे माए हुए थे। भक्तजन दर से गरुदेव के दर्शन कर आगे बढ उतारा अंतिम संस्कार की विधि के अनुसार गुरुदेवश्री को पद्मासन रहे थे, किन्तु गुरुदेव आत्मस्थ थे। समय-समय पर मैं गुरुदेवश्री को मुद्रा में बिठाए जो प्रबुद्ध श्रावक शासन प्रभावक भक्तगण थे। स्वाध्याय, आलोचना पाठ, स्तोत्र पाठ सुना रहा था।
संगीतज्ञ थे वे सभी गुरुदेवश्री के पार्थिव शरीर के चरणों में चैत्र शुक्ला एकादशी दिनांक ३ अप्रैल, ९३ को संध्या का
बैठकर गीत गाने लगे। हम लोग ऊपर के कमरे में थे। गुरुदेव का प्रतिक्रमण पूरा हुआ, गुरुदेवश्री को दीर्घ श्वांस चलने लगा। मैं
पार्थिव शरीर प्रवचन हाल में रखा गया था। नीचे अत्यधिक गुरुदेव के चरणों में बैठा हुआ उन्हें स्वाध्याय सुना रहा था। रात्रि
चहल-पहल थी पर ऊपर केवल हम साधुगण थे, सभी कुछ था पर के नौ बजे और अठारह मिनट पर वह ज्योतिशिखा निस्पंद हो गई।
गुरुदेवश्री का सान्निध्य नहीं था और उनके अभाव में सूना-सूना चारों ओर नीरव और निस्तब्ध वातावरण छा गया। सभी संत मौन ।
लग रहा था। हो गये। सभी संत गुरु चरणों में उपस्थित थे पर ऐसा अनुभव हो श्रावकगण पूरी रात्रि व्यवस्था में संलग्न रहे। गुरुदेवश्री ने जब रहा था कि वह ज्योतिपुंज यहाँ से चल पड़ा है। सभी उस ज्योति से संथारा पचखा तभी से देवविमान तैयार कर दिया गया था। पुरुष के पार्थिव तन को देख रहे थे। तन वही था किन्तु प्राण भारत के विविध अंचलों से हजारों की संख्या में श्रद्धा सुमन पखेरु उड़ गए थे। जो सभी के आँखों के तारे नयनों के सितारे थे, समर्पित करने हेतु लगभग ५० हजार से भी अधिक व्यक्ति बाहर E सभी के प्रिय जीवन के आधार थे, जो हमारे जीवन सर्वस्व थे। । से उपस्थित हुए और स्थानीय लोगों का तो कहना ही क्या? पूज्य गुरुदेव हमें छोड़कर किसी अन्य लोकयात्रा पर पधार गए थे। उदयपुर के इतिहास में पहली बार स्वर्गवास के समय इतनी गुरुदेवश्री का कालजयी व्यक्तित्व था पर क्रूरकाल ने एक ऐसा उपस्थिति देखकर सभी विस्मित हो गये। शोभा यात्रा में हाथी, घोड़े आघात उपस्थित किया था, जिसकी कोई कल्पना नहीं थी, हम पर श्रद्धालु बैठे हुए सिक्कों की बरसात कर रहे थे, उसके पीछे कई सभी गुरु चरणों में ही उपस्थित थे पर उस आघात को रोकने का बैण्ड भी थे। दिनांक ५ अप्रैल को चैत्र शुक्ला तेरस के दिन सामर्थ्य किसी में नहीं था। श्रावकगण भी दौड़कर पहुँच रहे थे। पर उदयपुर श्री तारक गुरू ग्रंथालय से ११.00 बजे शव यात्रा प्रारंभ सभी दिग्मूढ़ थे। वे अगली व्यवस्था करने में लग गए।
हुई। उदयपुर के मुख्य स्थलों पर होती हुई शोभा यात्रा आगे बढ़ जैन परम्परा का यह अभिमत है कि आत्मा देह से जब निकल
रही थी। इस शोभा यात्रा में लाखों लोगों ने भाग लिया जब तक जाता है, तब भी कुछ समय तक आत्मप्रदेशों के बंधन प्रभावशाली
सूरज चाँद रहेगा : पुष्कर गुरु तेरा नाम रहेगा और शोभा यात्रा रहते हैं, उस समय शरीर का स्पर्श भी कष्ट देने वाला होता है सभी क्षेत्रों में घूमती हुई तीन बजे पुनः ग्रंथालय पहुंची, उस देह के इस दृष्टि से लगभग पौन घण्टे तक सभी शान्त और स्थिर होकर
दाह के अवसर पर दो सौ से अधिक सन्त- सतीजन, दो लाख से बैठे रहे। ४८ मिनट के बाद श्रमणसंघीय मर्यादा के अनुसार अधिक नागरिक स्तब्ध, आकुल-व्याकुल भाव से चंदन-चिता से गुरुदेवश्री के शरीर को बिठाया गया, नये वस्त्र उन्हें पहनाए गये, उठती उन अग्नि की लपटों को देख रहे थे, जिन्होंने गुरुदेवश्री की नया चोलपट्टा, नई पछेवड़ी और नई मखवस्त्रिका। इस कार्य में काया को तो भस्मीभूत कर दिया था, किन्तु जिनके अमर सुयश तपस्वी श्री मोहनमुनि जी म., महामंत्री श्री सौभाग्यमुनि जी म., को दिदिगन्तों में फैलाने के लिए वे उल्लसित होकर लपकी चली प्रवर्तक श्री रमेश मुनि जी म., प्रवर्तक श्री रूपमुनि जी म. प्रभृति जा रही थीं।
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२६६
चन्दन चिता से उठती अग्नि की सुगंधमय ज्वालाएँ मानो यह कह रही थीं मैं मनुष्य के पार्थिव शरीर को ही जलाकर भस्म कर सकती हूँ, किन्तु उनके यश सौरभ को मिटाना मेरे वश में नहीं। सद्पुरुषों की सद्गुण ज्योति को मन्द करने की शक्ति मुझमें नहीं है।
जहाँ भी गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समाचार पहुँचे, यहाँ पर बाजार बंद हो गये। टेलीविजन, बी. बी. सी. तथा आकाशवाणी के द्वारा गुरुदेवश्री के स्वर्गवास के समाचार प्रसारित हो गये । जगह-जगह स्मृति सभाओं का आयोजन किया गया। गुरुदेवश्री की जीवन यात्रा की तरह उनके पार्थिव शरीर की यात्रा भी पूरी भव्यता और दिव्यता के साथ संपन्न हुई।
हमने आपसे कहा था कि ऐसे महोत्सव को अपनी आँखों से देखने के लिए यदि देवगण भी स्वर्ग से इस भूतल पर उतर आएँ तो कोई विस्मय की बात नहीं।
वही हुआ भी ।
चंदन की चिता जल रही थी।
आकाश से केशर की वर्षा हो रही थी।
और वह केशर वर्षा गुरुदेवश्री के स्वर्गारोहण के ठीक एक माह पश्चात् भी उस स्थल पर हुई।
100.
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
एक नहीं, दो महोत्सव हो गए, साथ ही साथ ।
पवित्रता तथा स्वर्गीय सौरभ से युक्त वह केशरवर्षण उस शुभ अवसर पर, उस धन्य स्थल पर, यदि देवताओं की भी उपस्थिति का प्रमाण नहीं तो फिर क्या है ?
एक महिमामय महान् जीवन के महाकाव्य के महागान के शुभ संजीवन-संगीत के स्वर शून्य में समा गए।
एक अनन्त, अमर, आध्यात्मिक आलोकपुंज अदृश्य हो गया। अपने भव्य जीवन के साथ भव्यतम मरण महोत्सव मनाता आत्मा का अमर पंछी अन्ततः उड़ गया।
अपनी अजानी, ऊँची से ऊँची उड़ान पर !
देह का जन्म होता है।
देह का ही मरण।
किन्तु जब गुरुदेवश्री के जैसी परम पावन महान् आत्माएँ देह त्याग करके अपने अनन्त आवास की ओर लौटती हैं, तो वह अवसर एक महोत्सव का ही होता है।
देह का पुष्प विलीन होकर माटी में मिल जाय इससे पहले ही इसे संथारा और समाधि मृत्यु की वेदी पर चढ़ाकर सार्थकता अनुभव करूँ
यही मेरी अन्तिम भावना है।
यह दीपक बुझ जायेगा फिर अंधेरा छाने वाला है। किन्तु मैं अपने आत्म-मन्दिर में प्रकाश फैलाकर कण-कण को आलोकमय बनालूं, ऐसा उजाला यहाँ कर दूँ कि दीपक बुझ जाने के पश्चात् भी मेरे आत्म-मन्दिर में प्रकाश ही प्रकाश रहे ।
"
जब तक शरीर के साथ आत्मा की अभेदानुभूति है, तबतक वेदना, पीड़ा, परिषह सभी कष्ट देते हैं, पीड़ा का अनुभव होता है, जब-जब ज्ञान चेतना आत्म-चेतना में रमती है। शरीर भावना छूट जाती है। तब न सर्दी लगती है, न गर्मी! न भूख सताती है, न प्यास! शरीर की पीड़ा शरीर तक ! मन पीड़ा से मुक्त आनन्द अनुभव करता रहे। मैं इस स्थिति का अनुभव करना चाहता हूँ।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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तल से शिखर तक
२६७।
संस्मरण
केसर की वर्षा : एक संस्मरण
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-श्री नाथूराम जैन, दिल्ली बैशाख शुक्ला ११ संवत् २०५० दिनांक ३ मई, १९९३ का के छींटे थे और दीवारों पर भी केसर लगी हुई थी, जहाँ पर समय था। हम लोग दिल्ली से आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म.. श्रद्धेय उपाध्यायश्री जीवन के अंतिम समय में संथारा में पोढ़े हुए के दर्शनार्थ उदयपुर पहुंचे। हमारे साथ मेरा पुत्र देवेन्द्र जैन, थे वहाँ पर भी केसर की वर्षा हुई थी, हमें विश्वास हो गया यह पुत्रवधू रेणु जैन और पौत्र मणि जैन आदि थे। आचार्यश्री के दर्शन सारा चमत्कार उसी महागुरु के प्रभाव से हुआ है। कर हमारा हृदय आनन्द विभोर हो उठा, आचार्यश्री के सद्गुरुवर्य
आचार्यश्री से पता लगा कि आज से ठीक एक महीने पूर्व ४८ उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के दर्शनों का सौभाग्य सन्
घण्टे के चौवीहार संथारे के पश्चात् गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हुआ १९८४-८५ में दिल्ली में हुआ था, जब हम लोग उदयपुर पहुंचे,
है। अन्य कई लोगों ने भी केसर की वर्षा के वर्णन को सुनाया। उसके एक माह पूर्व ही गुरुदेवश्री का स्वर्गवास हो गया।
धन्य है ऐसे शासन प्रभावक पूज्य गुरुदेवश्री को जिन्होंने जीवन भर रात्रि का समय था। हम श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय के ऊपर तो अपने पवित्र चरित्र की सौरभ से जनमानस को महकाया और की मंजिल में सोए हुए थे, रात्रि में हमारे शरीर पर बूंदें गिरने स्वर्गवास के पश्चात् भी उनके उस पावन स्थल पर केसर की वर्षा लगीं। हमने देखा आकाश की ओर किन्तु कहीं पर भी बादल देखकर हमारा हृदय आनन्द विभोर हो उठा, हमने उन केसर के दिखाई नहीं दिए। सोचा कि संभव है अनन्त आकाश में कोई पक्षी रंगे हुए वस्त्रों को गुरुदेवश्री की असीम कृपा को समझकर अपने जा रहा होगा और उसने कहीं बीट कर दी होगी और हम पुनः घर पर सुरक्षित रखे हैं और जब भी उन वस्त्रों को निहारते हैं तो गहरी नींद में सो गए।
हमारी स्मृति तरोताजा हो जाती है, गुरुदेव उपाध्यायश्री के चरणों प्रभात के पुण्य पलों में जब उषा सुन्दरी मुस्कुरा रही थी, सूर्य
में अनन्त आस्था के साथ नमस्कार कर यही प्रार्थना करता हूँ कि की आभा जब हमारे पर गिरी, हमने देखा हमारे बिस्तर पर केसर
हमारे परिवार पर आपकी सदा-सदा कृपा दृष्टि बनी रहे और हम की वर्षा हुई है, शरीर पर धारण किए हुए वस्त्र भी केसर की बूंदों
सदा धर्म के मार्ग में आगे बढ़ते रहें। से प्रभावित हैं, हमें लगा कि संभव है किसी ने रात्रि में हमारे पर केसर की वर्षा की होगी।
एक अनूठा संस्मरणवस्त्र परिवर्तन करने की दृष्टि से हमने कमरे में रखे हुए सूटकेस को लेने के लिए कमरे का ज्यों ही ताला खोला, मेरे पुत्र
उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी मः की बनियान जो अन्दर पड़ी हुई थी, उसमें खूब केसर लगी हुई कितने मिलनसार, कितने भले! थी, एक क्षण तक मैं चिन्तन करने लगा, बंद कमरे में इस कपड़े पर केसर कैसे? ज्यों ही नये कपड़े निकालने के लिए सूटकेस
-तपस्वीरत्नश्री मगनमुनिजी महाराज, अहमदनगर खोला तो और भी आश्चर्य का पार नहीं रहा। सूटकेस में रखे हुए कपड़ों में से केसर की मधुर महक आ रही थी और उन पर भी
स्थानांगसूत्र के चतुर्थ-स्थानक में एक चतुभंगी सूत्र आता है, केसर की वर्षा हुई। इस अद्भुत आश्चर्य को देखकर मैं दौड़ा-दौड़ा
जिसका भावार्थ है-चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं-(१) कोई आचार्यश्री के पास गया और कहा कि आश्चर्य ही नहीं, महान् ।
पुरुष आपात भद्रक होता (प्रारम्भ में मिलने पर भला दिखता) है; आश्चर्य है, बंद कमरे में रखी हुई बनियान भी केसर से भर गई
संवास-भद्रक (साथ में रहने पर भला) नहीं होता, (२) कोई पुरुष और सूटकेस में रखे हुए वस्त्र भी केसर से सने हुए हैं, बड़ी मधुर ।
संवास-भद्रक होता है; आपात भद्र नहीं; (३) कोई पुरुष महक आ रही है, बाहर जहाँ हम सोए हुए थे, वहाँ तो हमने सोचा ।
आपात-भद्रक भी होता है और संवास-भद्रक भी होता है और (४) कि किसी श्रद्धालु ने रात्रि में हमारे पर केसर डाल दी होगी पर ।
कोई पुरुष न तो आपात-भद्रक होता है, और न ही संवास-भद्रक। बन्द कमरे में और बन्द सूटकेस में रखे हुए कपड़े भी केसर से
१. चत्तारि पूरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा19) आवातभहए णाममेगे णो संवास युक्त हैं, यह तो गजब का चमत्कार है।
भद्दए; (२) संवासभद्दए णाममेगे णो आवातभद्दए (३) एगे आवातभद्दए हमने देखा आचार्यश्री जिस कमरे में विराजे हुए थे, उन
वि, संवासभद्दए वि; (४) एगे णो आवातभद्दए, णो संवासभहए। दीवारों पर भी केसर थी और आचार्यश्री के वस्त्रों पर भी केसर
-स्थानांग सूत्र स्था. ४, उ.१, सूत्र १०७
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इस चतुभंगी में उल्लिखित विकल्पों के अनुसार तृतीय भंग वाला सर्वोत्तम है। बहुधा देखा जाता है कि सामान्य मनुष्यों में ही नहीं, साधकों तक में प्रथम या द्वितीय भंग (विकल्प) पाया जाता है। कई साधक मिलने पर बहुत ही आत्मीयता दिखाते हैं, मीठी-मीठी बातें करते हैं, ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो ये उन्हीं के ही अन्तरंग भिन्न हों; परन्तु उनके अन्तर में सामने वाले साधक की उन्नति और प्रगति को देखकर ईर्ष्या की आग प्रज्ज्वलित होती है, अथवा अपनी क्रियापात्रता का अहंकार का सर्प अन्तर में फुफकारता रहता है, अथवा साम्प्रदायिकता की सर्पिणी हृदय में आसन जमाये रहती है; वे दूसरे का उत्कर्ष, प्रसिद्धि, अन्य सम्प्रदाय की तरक्की सहन ही नहीं कर पाते, इसलिए वे किसी साधक के साथ में अव्वल तो रहना नहीं चाहते, रह भी लेंगे तो समय-समय पर बखेड़ा करके अशान्ति फैलाते रहते हैं, या अपनी उत्कृष्टता की डींग हांक कर दूसरों को नीचा दिखाने का प्लान करते रहते हैं, अर्थात् वे किसी न किसी तरह से सामने वाले पवित्र और सच्चे साधक साथ भी निश्चलता और निश्चलता, सरलता और सौजन्य के साथ रहना नहीं चाहते। ऐसे साधक के साथ रहना अच्छा नहीं होता। वे छिद्रान्वेषी बनकर सामने वाले साधक को हैरान करते रहते हैं। कई साधक प्रारम्भ में मिलने पर तो अच्छा नहीं दिखता। प्रकृति का कठोर और सहसा साथ में रहने वाले साधक पर दवाब डालने और रौब गाँठने का उपक्रम करता है, परन्तु जब उसके साथ रहते-रहते अधिक दिन हो जाते हैं तो वह सामने वाले के प्रति सहिष्णु बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमजोरी रहती है, प्रकृति कठोर साधक में भी कुछ आन्तरिक दुर्बलता के कारण वह सामने वाले साधक पर हावी नहीं हो पाता। फिर उसके साथ रहते-रहते कुछ स्नेह भाव भी हो जाता है, इसलिए वह अन्य साधक के प्रति कठोर नहीं हो पाता। इस कारण वह संवासभद्रक हो जाता है। फिर यदा-कदा पूर्व-संस्कारवश प्रकृति के कठोर हो जाते हैं, परन्तु फिर पश्चात्ताप करते हैं, कोमल भी हो जाते हैं। तृतीय भंगवर्ती साधक आपात और संवास दोनों प्रकार से भद्र (भले) सिद्ध होते हैं। वे जिस किसी साधक के साथ रहते हैं, उनके साथ अपने-आपको एडजस्ट कर लेते हैं, सहिष्णु बनकर अपनी | उदारता का परिचय देते हैं चारित्रिक श्रद्धाजनित या ज्ञानगत दुर्बलता देखकर ये अनदेखी तो नहीं करते थे सहसा साथ में रहने वाले साधक के प्रति कठोर नहीं होते, वे गम्भीर बनकर मन ही मन परमात्मा से उसकी उस दुर्बलता को निकालने के लिए प्रार्थना करते हैं, कभी अवसर देखकर बड़े प्रेम से मधुर शब्दों से एकान्त में, अकेले में उसे समझाते हैं, उसके लिए स्वयं त्याग तप करते हैं, उसके गुणों की प्रशंसा करके उसकी दुर्बलता पर कटाक्ष या हास्य न करके उससे कहते हैं-बन्धु ! उक्त दुर्गुण या दुर्बलता क्या तुम जैसे प्रतिभाशाली और विचक्षण साधक को शोभा देती है ? अगर उक्त दुर्गुण या दुर्बलता के बजाय तुम अमुक सद्गुण या शक्तिमत्ता को अपनाते तो कितना अच्छा रहता है ? तुम शक्तिपूर्वक इस दुर्गुण
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
या दुर्बलता को मिटाकर ही दम लेते तो कितना अच्छा लगता? अतः ऐसे साधक आपात और संवास, दोनों प्रकार से अच्छे और उत्कृष्ट होते हैं। परन्तु चौथे प्रकार के विकल्प वाले साधक दोनों प्रकार से अयोग्य सिद्ध होते हैं। वे न तो आपात-भद्र होते हैं, और न संवास में भले होते हैं।
प्रस्तुत चार प्रकार के साधकों में से जब हम स्व. उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी महाराज के जीवन को टटोलते हैं, तो उन्हें तीसरे विकल्प के अधिकारी मानने में कोई संकोच नहीं होता। उनके साथ रहने वाले हम जैसे अन्य उपसम्प्रदाय के या अन्य ग्रुप के साधक उसकी प्रकृति की भद्रता और मिलनसारी देखकर उनके साथ रहने में अपना गौरव समझते थे। जब उनकी वात्सल्य दृष्टि किसी अपने ग्रुप के या दूसरे ग्रुप के अथवा अपने सम्प्रदाय उपसम्प्रदाय के या दूसरे सम्प्रदाय - उपसम्प्रदाय के साधक पर पड़ती तो सामने वाला साधक चाहे विरोधी मान्यता का हो, चाहे विद्रोही हो, चाहे स्वच्छन्दी हो, उनके पास रहने तथा उनसे मिलने में किसी प्रकार की मानसिक कठिनाई अनुभव नहीं करता, वह कायल होकर पानी-पानी हो जाता, नम्र बन जाता।
घटना वि. सं. २०३६ की है। उस वर्ष मेरा चातुर्मास भी सिकन्दराबाद में पू. आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म. के साथ में था। उस समय उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी महाराज भी अपनी शिष्य मण्डली सहित उस चीमासे में सिकन्दराबाद में साथ में ही थे सब मिला कर कुल ३९ साधु-साध्वी थे। इतने अधिक साध- साध्वियों का चार मास तक एक जगह रहने पर कभी न कभी किसी बात पर संघर्ष होना असम्भव नहीं, फिर भी स्व. उपाध्यायश्री की प्रकृति इतनी मिलनसार और कोमल थी कि संघर्ष का मौका ही नहीं आने देते थे। हम तीनों ग्रुपों के भिक्षाचरी करने वाले साधु साथ में ही जाते और अपनी-अपनी प्रकृति, स्वास्थ्य और रुचि के अनुकूल आहार गृहस्थों के यहाँ से लाते और परस्पर प्रेम से सभी साधुओं को वितरण कर देते थे। मैं अपनी प्रकृति, रुचि के अनुसार सादा भोजन लाता, उससे स्व. उपाध्याय श्री को बहुत प्रसन्नता होती । वे अक्सर कहा करते थे- "मगनजी ! तुम्हारी लाई गोचरी मुझे बहुत पसंद है। मैं तुम्हारी लाई हुई भिक्षा में से अवश्य ही थोड़ा-सा लूंगा।" इस प्रकार मेरे प्रति उनका वात्सल्य भाव सदैव रहता था। मैंने उस चातुर्मास में ३१ उपवास का तपश्चरण किया था। वे मेरी तपस्या के दौरान मेरी सेवा का बहुत ध्यान रखते थे साथ ही वे इस तपस्या से अत्यन्त प्रभावित थे कि उन्होंने मेरी तपस्या के पूर के दिन उत्साहपूर्वक बहुत ही शीघ्र मेरी प्रशंसा में एक स्तवन बना कर गाया, उसमें उन्होंने अपनी भावना प्रदर्शित की कि इस तपस्या में मुझे भी भागीदारी (हिस्सा) प्राप्त हो। वे स्वयं भी यदाकदा स्वाध्याय, ध्यान, जप, प्रतिसंलीनता, उपवास, एकाशन, आयम्बिल आदि बाह्य आभ्यन्तर तप किया करते थे।
यही कारण था कि वे कभी-कभी आध्यात्मिक तेजोमुद्रा में किसी को जो भी कह दिया करते थे वह उसी रूप में घटित हो जाता था, यह भी मैंने देखा और अनुभव भी किया।
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heated 2000
एक बार पूना में आप विराजित थे। उस समय वहाँ पू. उपाध्यायश्री का भी जन्म वंश विद्याजीवी ब्राह्मण कुल था और सूरजमल जी म., पं. श्रीमल्लजी म., श्री चुन्नीलालजी म. और मैं, जन्म का नाम था-अम्बालाल। यों हम चार ठाणा साधु भी वहीं थे। वहाँ भी वे हमसे प्रेम से मिले,
विक्रम सर्वत् १९८१ अर्थात् खष्टादि १९२४ ज्येष्ठ शुक्ला साथ में भी रहे। उन्होंने हमारे प्रति कभी अरुचि, उदासीनता या ।
दशमी के दिव्य दिवस को तत्कालीन पूजनीय गुरुदेव श्री ताराचन्द्र घृणा आदि नहीं दिखाई। एक बार वि. सं. २००३ में जब पं. ।
जी महाराज के पवित्र सान्निध्य में भागवती दीक्षा ग्रहण की। श्रीमल्लजी म. के साथ मेरा चातुर्मास इन्दौर में बग्घीखाने में था, ।
प्रदीक्षित अम्बालाल-श्री पुष्करमुनि बन गए। अपनी मुनिचर्या में तब आपका अपनी शिष्यमंडली के साथ मोरसल्ली गली में चातुर्मास
दीक्षित प्रज्ञापुरुष ने शरीर-साधना और चित्त-साधना में मनसा, था। हमारे साथ वे प्रेम से मिलते और वार्तालाप करते थे। एक दिन ।
वाचा, कर्मणा स्वयं को खपा दिया और अन्ततोगत्वा उल्लेखनीय स्थण्डिल भूमि से वापस लौटते समय अकस्मात् बहुत जोर से वर्षा | बेजोर सिटता उपला काली। अपने
बेजोड़ सिद्धता उपलब्ध करली। अपने स्वाध्याय सातत्य के होने लगी। हमारे और उन सबके कपड़े भाग गए थ। वर्षों से परिणामस्वरूप आपश्री प्राकत, संस्कत, कन्नड, मराठी, गजराती.
भीगने के कारण वर्तमान आचार्यश्री (जो उस समय बालक ही थ) । हिन्दी तथा राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता बन गए। | को ज्वर हो गया था। मैं प्रेम से उन्हें बग्धीखाने में जहाँ हम ठहरे हुए थे, ले आया और सुला दिया। शाम को तबियत ठीक हो जाने
जैन संत की चर्या सदा समिति सम्पृक्त होती है। उनके चरण पर स्व. उपाध्यायश्री जी म. आए और उन्हें अपने साथ मोरसल्ली
चलते हैं तो ईर्या समिति चरितार्थ होती है। वे जब बोलते हैं तो गली स्थानक में ले गए। उन्होंने जाते समय कहा-“मगनजी!
उनके वचन वस्तुतः प्रवचन बन जाते हैं। वे जब आहार ग्रहण धन्यवाद है आपको! आपने बहुत अच्छा कार्य किया।" मैंने मन ही
करते हैं तो षटरस एकमेव होकर विरस किन्तु सरस हो जाता है। मन कहा-कितने सहृदय और मिलनसार हैं, ये?
निष्क्रमण और प्रतिष्ठापन समिति-व्यवहार में उनकी चर्या निरीह प्राणियों की विराधना न होने पावे अस्तु सर्वथा सजग और प्रमाद-मुक्त रहती है। उपाध्यायश्री की चर्या प्रायः समिति सम्पन्न थी।
उनकी चर्या अहिंसामुखी थी। उनका जीवन ज्योतिर्मय था। सरलता, साधुता के पर्याय : उपाध्यायश्री पुष्करमुनि ।
सहजता और आर्जवी आचरण उनकी जीवन शैली की विशेषताएँ
थीं। वे विचारों में अनाग्रही थे और थे अभिव्यक्ति-व्यवहार में -विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया सर्वथा स्याद्वादी। उनका हृदय कुसुम से भी कोमल किन्तु शुभ एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट्
संकल्प में वज्र से भी था कठोर।
उपाध्यायश्री ने जीव और जगत को आगम की आँखों से एक जिज्ञासु एक साधक के समीप आकर अपनी जिज्ञासा
देखा-परखा था। उनकी दृष्टि में जगत कभी मिथ्या नहीं रहा, व्यक्त करते हुए पूछता है, “भदन्त ! संसार जानना चाहता हूँ।" |
मिथ्या तो मानव की मान्यता होती है। उनके विचार और व्यवहार साधक ने जिज्ञासु को अपनी आँखों में आप्लावित कर उत्तर दिया, "भले प्राणी, यदि आप संसार जानना चाहते हैं तो आपको एशिया
में देव, शास्त्र और गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धान् और सम्मान मुखर जानना होगा। यदि आप एशिया जानना चाहते हैं, तो आपको
हो उठे थे। देव की वंदना साधक को सर्वथा स्वावलम्बी बनाती है।
शास्त्र तभी सार्थ होते हैं जब वे स्वाध्यायी में चरितार्थ हो जाते हैं। भारतवर्ष जानना होगा। यदि आप भारतवर्ष जानना चाहते हैं तो आपको राजस्थान प्रदेश को जानना होगा और यदि आप राजस्थान
गुरु की गरिमा तभी सार्थक होती है जब वह शिष्य को उन्मार्ग से
विमुख कर सन्मार्गमुखी बनाती है। उपाध्यायश्री शुद्ध देव, शास्त्र जानना चाहते हैं तो आपको स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन श्रमणसंघ
और गुरु के गुणों से समप्रभावित थे। वे वस्तुतः रत्नत्रय की के महान अध्यात्मयोगी, जप-ध्यान के सिद्ध साधक, वरिष्ठ उपाध्यायश्री पुष्करमुनि म. सा. को जानना होगा। उपाध्यायश्री ज्ञान प्रभापूर्ण प्रयोगशाला थे।
be और साधना के शिखर पुरुष थे।
अनेक मानवीय उदात्त गुणों के धारी सदाचारी महापुरुष विशेष किन्तु विशाल देह यष्टि, सृष्टि का प्रभापूर्ण भामण्डल,
उपाध्यायश्री पुष्करमुनि मेरे परिचय में किस प्रकार आए, यह भी आगमी ज्ञानालोक से विस्फाटित नेत्रावलि, मुख मण्डल पर धवल
एक सुखद संयोग रहा। उनके जीवन-सान्निध्य पर आधारित अनेक श्वेत पट्टिका, उत्तम उत्तरीय में समेटे समग्र कंचन-सी काया पूज्य
संस्मरणों के सार-सारांश की संक्षिप्ति यहाँ इस प्रकार प्रस्तुत करना
वस्तुतः हमारा अभिप्रेत है। ताकि उनकी चर्या के अनेक उपयोगी उपाध्यायश्री के रूप को स्वरूप प्रदान करती है। विक्रम संवत् १९६७ आश्विन शुक्ला चौदश का भव्य काल कण उदयपुर के
तथा अद्भुत गुणों का उजागरण हो सके। अन्तर्गत गोकुन्दा नामक उपनगर के निकटवर्ती साधारणतः किसी कार्य के सम्पादन के लिए उपादान और निमित्त शक्तियों असाधारण ग्राम सिमटारा की भव्यभूमि आपश्री को जन्म देकर का समीकरण आवश्यक होता है। अभिनन्दन-ग्रंथों में मैं प्रायः धन्यता को प्राप्त हुई। भगवंत देव महावीर के गणधरों की भाँति । लिखा करता हूँ। किन्तु उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रंथ के
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । लिए जब कुछ विशिष्ट शोधपूर्ण लिखने का आग्रहपूर्ण निदेश सामान्यतः सन्तों का संयोग प्राप्त होना सौभाग्य की बात मनीषी श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री का प्राप्त हुआ तब लेख तो लिखा | समझना चाहिए। भरी भीड़ में उपाध्यायश्री का सान्निध्य प्राप्त करना गया और वह आदरपूर्वक प्रकाशित भी हुआ। मेरे पास डाक द्वारा वस्तुतः सरल नहीं था, ऐसी स्थिति में जब-जब मुझे अवसर मिला विशाल अभिनन्दन ग्रंथ प्रेषित किया गया था। तत्काल में वह ग्रंथ । उनका सान्निध्य पाने का मैंने उसे खिसकने नहीं दिया। इस प्रकार अपनी विशालता एवं सुधी सामग्री-सम्पदा के लिए पहल करता था। अनेक बार मुझे उनके मंगल दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ उसमें भारतीय विद्या और संस्कृति के अनेक अंगों का सुधी और । था। सधे लेखकों द्वारा मूल्यांकन किया गया है। इतना विपुल, इतना }
दिल्ली वर्षावास में जब मुझे उपाध्यायश्री के दूसरी बार मंगल सुन्दर ग्रंथ राज का नयनाभिराम प्रकाशन निश्चित ही जिसके
दर्शन करने का सुयोग मिला। विशाल भवन के उत्तरी ऊर्ध्व प्रकोष्ठ सम्मान में रचा गया है वह व्यक्ति विशेष/साधक सुधी वस्तुतः
में विराजमान महामनीषी सुधी साधक उपाध्यायश्री के पवित्र दर्शन अद्भुत और वरेण्य ही होगा।
हुए। स्मरण पड़ता है उन्होंने तब किसी मंत्र का दीर्घ उच्चार कर उसे देखकर मेरे मन में तब उपाध्यायश्री के दर्शन करने की । मेरे मन में विद्यमान संक्लेशकात्वरन्त निदान किया और निराकरण लालसा और अभिलाषा जाग्रत हुई थी और मेरा मनोरथ तब पूर्ण हेतु उन्होंने जपने के लिए मुझे एक मंत्र दिया, एक जाप दी, और हुआ जब मुनिमणि श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री के सुशिष्य मुनिवर दिए अनेक उपकरण। तब से निरन्तर मेरी नैत्यिक साधना और राजेन्द्र मुनि का आगरा विश्वविद्यालय की एम. ए. की उपाधि सामायिकी में वह प्रदत्त अंश भी सम्मिलित है, फलस्वरूप अनेक प्राप्त्यर्थ एक परीक्षार्थी की भूमिका के निर्वाह में मेरा सहयोग। मेरा विधि अपयश, आन्तराय और अनर्थ से मेरा निरन्तर बचाव होता तब सारस्वत सहयोग कार्यकारी प्रमाणित हुआ जब परीक्षाफल
रहा है। घोषित हुआ कि मुनिश्री राजेन्द्र जी अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण
__ मैं मानता हूँ कि वचन जब प्रवचन बन जाते हैं तब बौद्धिक घोषित किए गए हैं।
प्रदूषण प्रायः समाप्त हो जाता है। उपाध्यायश्री के साथ वाणी अपने अधीनस्थ मुनियों को आर्यविद्या में तो पारंगत करा ही व्यवहार में यह सूक्ति-सार वस्तुतः चरितार्थ होता था। देते थे उपाध्याय श्री, उनके मन में अत्यधिक आधुनिक पद्धति के
पाली की ओर उनका मंगल विहार हुआ था। बात तब की है अनुसार प्रशिक्षित करने का शुभ भाव विद्यमान रहता था। उन्हीं के
और मेरा आचार्यप्रवर श्री जीतमल जी म. सा. (अब दिवंगत) की आशीर्वाद से प्रेरित होकर मुनि राजेन्द्रजी पी. एच. डी. उपाधि के
हीरक जयन्ती महोत्सव में भाग लेकर नागौर जिलान्तर्गत कुचेरा से लिए मेरे निर्देशन में प्रवृत्त होने के लिए सन्नद्ध हुए और मुझे
लौटना हो रहा था। सीकर होता हुआ मुझे एक साधारण से गाँव दिल्ली आमंत्रित किया गया। उपाध्यायश्री के सिगाड़े में राजेन्द्र मुनि
के अतिसाधारण से कक्ष में असाधारण साधना में तल्लीन साधक स्वाध्यायी तरुण मुनि थे। दिल्ली पहुँचने पर श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री
उपाध्यायश्री के मंगल दर्शन हुए थे। विद्युत विहीन अंधकार में ने मेरा उपाध्यायश्री से परिचय कराया था। उनकी तेजस्वी दृष्टि में
साधना से निवृत्त हो जब वे विश्राम में जाने वाले ही थे कि मैं सम्यक्दृष्टि, महामनीषी ज्ञानी भेद-विज्ञानी, चारित्र में चारुता पूर्ण
उपस्थित हो गया। मुक्तहास में हार्दिक आशीर्वाद उन्होंने इस प्रकार चैतन्य सम्पन्न राष्ट्रसन्त के दर्शन कर मेरा मन-मोद से भर गया।
विकीर्ण किया कि शरद की ज्योत्स्ना भी निस्तेज हो गई और उसे कितने जन्मों की घनीभूत आत्मीयता इस प्रकार घिरी, उघरी कि
पाकर सफल हो गयी मेरी यात्रा। कुछ नहीं माँगा और मुझे लगा बतरस पाने को मन मचल उठा। शब्द और उसका अर्थ विज्ञान
कि सब कुछ मिल गया। ऐसी मौन दातार-प्रियता अन्यत्र प्रायः वैदुष्यपूर्ण विश्लेषण जब महाराज श्री ने किया तब मैं ज्ञान-गौमती
दुर्लभ ही है। में अवगाहन करने लगा। उनकी प्रज्ञा-प्रतिभा से मैं अतिरिक्त प्रभावित हुआ।
पाली पहुँच कर मुझे विश्रुत विद्वान् श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री
(अब आचार्यश्री) के साथ एक अभिनन्दन ग्रंथ के लिए विचार सुधी साधक के वचनामृत सुनकर सारा सन्ताप शान्त हो जाता
विमर्श करने का सुअवसर मिला था। इस कार्य से मुक्त होकर जब है। उपाध्यायश्री वचनविशारद थे। उनके सारस्वत सान्निध्य में हुई
मैंने उपाध्यायश्री के शुभदर्शन किए तो बड़ी तसल्ली हुई। बातों ही अनेक संदर्भो में चर्चा ने मुझे अनेक अछूते प्रसंगों का प्रबोध
बातों में एक अद्भुत चर्चा छिड़ गयी। अशरीरी आत्माओं के विषय कराया था।
में जो सन्दर्भ मुझे सुनाए गए वे सचमुच थर्राने वाले लगे। वर्तमान अन्त में उन्होंने मेरे जैसे सामान्य जन-जीवन की खैर-खबर की जैन स्थानक का पूर्वरूप वस्तुतः मस्जिद रहा होगा। इस संदर्भ में सूक्ष्म पड़ताल जिस ढंग से प्राप्त की उससे उनकी सूक्ष्म उपाध्यायश्री को ऐसी अनेक विरोधिनी अशरीरी आत्माओं से परिगणन-पटुता सहज में प्रमाणित हो जाती है। उनके एक संकेत से डटकर जूझना हुआ। भयंकर से भयंकर यातनाएँ, पीड़ादायक मेरी तत्काल व्यवस्था कर दी गई जिसे देखकर मेरे मन-मानस में आघातों का उन्होंने दृढ़तापूर्वक सामना किया और धन्य है उनके उनके प्रति अपार आस्था उत्पन्न हुई।
दृढ़ संकल्प को जिसके बलबूते पर वे एकाकी ही अनेक आक्रामिक
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1000000 प्राणलेवा आघातों को सहन करते रहे और निष्कम्प साधना में लीन है। उनका क्षणिक सान्निध्य पाकर हजारों-हजारों नर-नारियाँ, रहे तथा अन्ततः उन सभी को निस्तेज होकर परास्त होना हुआ। आबालवृद्ध अभक्ष्य त्याग का व्रत लेकर सन्मार्ग पर चलने की तब से अब तक प्रतिवर्ष निर्विन वर्षावास होता है और तमाम | प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उपाध्यायश्री व्यवस्था विशेष से भले ही जुड़े साधु-साध्वी महाराज पधारते रहते हैं। क्षेत्र शुद्धि कर उपाध्यायश्री । हों किन्तु उनके उदारमना व्यक्तित्व ने साम्प्रदायिकता को कभी ने उसे पूर्णतः धार्मिक क्षेत्र बना दिया। वे सचमुच मंत्र द्रष्टा थे। प्रश्रय नहीं दिया। वे सभी में घनीभूत थे सचमुच ज्ञान, श्रद्धान और जब मुनिश्री राजेन्द्र एम. ए. ने अपनी ओर से पी-एच. डी.
अवधान के अद्भुत संगम थे। हेतु शोध-प्रबंध रच डाला तब दर्शनार्थ मुझे आमंत्रित किया गया। ज्ञान और ध्यान के महान् साधक पूज्य उपाध्यायश्री ने आगम अधिक वर्षा होने के कारणवश उन-उन क्षेत्रों में मेरा पहुँचना नहीं पर आधारित काव्य, कथा-कहानी और प्रवचन नामक काव्य रूपों हुआ। जब आपश्री जोधपुर पधारे तो मेरा वहाँ किसी तरह पहुँचना | में विपुल साहित्य का सृजन किया। वाणी चारित्र की प्रतिध्वनि सम्भव हो गया। जोधपुर में जैन स्थानक मेरे लिए एकदान नया होती है। उपाध्यायश्री की वाणी वस्तुतः शास्त्र बन गई। आपके 12906 स्थल था उस पर हमारा पहुँचना हुआ रात्रि के दस बजे के बाद। जीवन में कल्याणकारी बातें प्रायः आत्मसात हो गयी थीं। इस स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने एक दुकान है जिसके नियामक प्रकार उनका व्यक्तित्व और कृतित्व प्राणी मात्र के लिए प्रेरक प्रदीप से मुझे जैन स्थानक की पड़ताल करनी पड़ी। जैन स्थानक बतलाने बन गया था। देश के अनेक शिष्ट और विशिष्ट व्यक्तित्व राजनेता, में वह और सभी प्रायः असमर्थ रहे पर मुँहपट्टी साधुओं के विषय । धर्म नेता, तत्त्ववेत्ता, विद्वान और विदुषी, कृषक और श्रमिक तथा में जानकारी देने में वह समर्थ प्रमाणित हुआ। उसने कहा इन । साक्षर-निरक्षर आपके सम्पर्क में आकर सभी असमर्थ पूर्णतः समर्थ साधुओं में एक वृद्ध साधु हैं वे एक पहुँचे हुए सिद्धात्मा हैं। आप बन जाते थे। कहें तो मैं आपको उनके पास पहुँचा दूँ फिर कदाचित् वहाँ से ।
विक्रम सम्वत् २०५० चैत्र शुक्ला ११ खष्टाब्दि १९९३, २ आपको जैनस्थानक (महावीर भवन) भी मिल जाय। मैंने मौन ।
अप्रेल को कठिन व्याधि के पश्चात् आपश्री ने समाधि-मरण का स्वीकृति दे दी और हम लोग चल पड़े। गलियाँ तो मथुरा की ।
संकल्प लेकर संथारा ग्रहण किया और अविचल योगलीन स्थिति में प्रसिद्ध रही हैं पर यहाँ के गलिहारे कुछ कम नहीं। गलियों के
अड़तालीस घण्टों के पश्चात् जीवनदीप निर्वाण को प्राप्ति हो गया। दुर्गमन के बाद मेरा उस स्थान पर पहुँचना हुआ जहाँ पूज्य उपाध्यायश्री का प्रवास था। विशाल भवन हवेली के नाम से अत्यन्त
इस प्रकार उपाध्यायश्री शुक्ल पक्ष में उत्पन्न हुए, शुक्ल पक्ष में प्रसिद्ध पर आम आदमी उसे जैनस्थानक या महावीर भवन के रूप
प्रदीक्षित हुए और शुक्ल पक्ष में शुक्ल-ध्यान में सदा-सदा के लिए में नहीं जानता। यह जादुई प्रभाव था उपाध्यायश्री का जो पूरे क्षेत्र
शान्त हो गए। यह शुक्ल पक्षीय मंगल संयोग सिद्ध करता है कि में, जैन-अजैन समुदाय में, अपने वात्सल्यमयी वातावरण विकीर्ण
पूजनीय उपाध्यायश्री प्रभावंत नक्षत्री जीव थे। काव्यशास्त्रीय भाषा करने में सर्वथा सफल रहता।
में कहूँ तो वे श्रमणचर्या के सचमुच साकार अनन्वय अलंकार थे।
ऐसी पूत आत्मा को मेरे शत-सहन वंदन-अभिवंदन। इत्यलम्! जैन संत सदा पद-यात्री होते हैं। इसीलिए उनका जनसाधारण से भी सम्पर्क सधता जाता है। वे विभिन्न भाषा-भाषियों के सम्पर्क में आते हैं। उन्हें संसार का यथार्थ स्वरूप देखने को प्राप्त होता है। मंगल कलश' दारुणदुःखों से पीड़ित प्राणियों को अपने उपदेशों में उन्हें संयम ३९, सर्वोदय नगर
और सदाचार की ओर उन्मुख कर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा | आगरा रोड, अलीगढ़-२०२ 009 देते हैं। उपाध्यायश्री की इस दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही
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* जीत सदा सत्य की ही होती है। जब झूठ जीतता है तो थोड़ी देर तालियां पिट जाती हैं और
सत्य की विजय होती है तो युग-युग तक दीवाली मनाई जाती है। * जिसके पास साहस और संकल्प है, उसके बल का मुकाबला नहीं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
अध्यात्मयोगी की अध्यात्म यात्रा-स्मृतियाँ
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-पं. मुनि श्री नेमीचंद जी म. (अहमदनगर) अध्यात्मयोगी स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. अपनी । अध्यात्मयोगी में चारित्रयोग की तल्लीनता इहलौकिक जीवन यात्रा पूर्ण करके चले गए, किन्तु उनकी अध्यात्म और साधु जीवन की दैनिक चर्या में स्वाध्याय, प्रवचन, यात्रा की मधुर एवं प्रेरक स्मृतियां उन्हें अमर बना गई हैं।
मंगलपाठ श्रवण, भिक्षाचर्या, शयन, जागरण, बाह्य तप, आहार, अध्यात्मयोगी का लक्षण और स्वरूप
विहार इत्यादि दैनन्दिन क्रिया भी वे उपयोग-सहित, यन्नाचार-युक्त, सर्वप्रथम हमें अध्यात्मयोगी का लक्षण और स्वरूप समझना
जागृत एवं अप्रमत्त रहकर करते थे, तब उनका कर्मयोग ज्ञान एवं चाहिए। भगवद्गीता में योग की सर्वाधिक व्यापक और सार्थक
श्रद्धापूर्वक ही दृष्टिगोचर होता था। अतः हम कह सकते हैं। व्याख्या की गई है। वह है
जब-जब वे जप, ध्यान, प्रतिसंलीनता, समाधि, धारणा या स्तोत्रपाठ
आदि में तल्लीन होते थे, तब-तब वे भक्त, साधक या योगी प्रतीत 'योगः कर्मसु कौशलम्"
होते थे, किन्तु उनके अन्तर में यही विवेकसूत्र गूंजता रहता था"कर्म में कुशलता योग है।"
"जय चरे, जयं चिट्टे, जयमासे जयं सएं। जब किसी सम्यग्ज्ञान, सम्यक्भक्ति (सम्यकदर्शन) और
जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥२ सम्यक्रिया (सत्कर्म) में दक्षता, निष्ठा, तन्मयतायुक्त कुशलता घुल-मिल जाती है, तब गीता की भाषा में वह योग बन जाता है।
जो साधक यातना (उपयोग) सहित चलता है (प्रत्येक चर्या कोरा ज्ञान, चाहे वह सम्यग्ज्ञान हो, योग नहीं है, अकेली श्रद्धाभक्ति
करता है), यतनापूर्वक बैठता है, खड़ा होता है और यतनाचारपूर्व भी योग नहीं होती और न ही अकेला सम्यक्चारित्र (सक्रिया या
सोता है, आहार करता है या वस्तुओं का या पंचेन्द्रिय-विषयों का सत्कर्म) स्वयं योग बनता है, किन्तु इन तीनों में जब कुशलता,
उपभोग करता है, यतापूर्वक बोलता है, वह पापकर्म का बन्ध ध्येय निष्ठा, रागद्वेष रहित निष्ठा, ध्येय के प्रति एकान्मता एवं
नहीं करता। उदात्तता का संगम होता है, तभी इन्हें योग बना देता है। वस्तुतः उनमें अध्यात्म योग सहजरूप से प्रस्फुटित था कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग, इन तीनों का मिलन ही ।
यही है जैन दृष्टि से अध्यात्मयोग! प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक चर्या “अध्यात्मयोग" है।
अथवा प्रत्येक क्रिया में प्रियता-अप्रियता, राग या द्वेष, मोह और जो उपर्युक्त अध्यात्मयोग से संपन्न हो, अर्थात् जो उक्त योगत्रय द्रोह, आसक्ति और घृणा के भाव से रहित सिर्फ ज्ञाता-द्रष्टा रहना में कुशल, दक्ष, एकनिष्ठ और रत हो, उसे हम अध्यात्मयोगी कह ही कर्म कौशल है, यतनाचार है, एकमात्र शुद्ध आत्मा या परमात्मा सकते हैं।
के प्रति निष्ठा भक्ति है, उसी के स्वरूप में रमणता है, आत्मा के उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी : अध्यात्मयोग संपन्न
सहज स्वाभाविक गुणों के प्रति ही दौड़ है। यही अध्यात्मयोग
अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी में सहज रूप से प्रस्फुटित स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. के समग्र जीक्न पर
था। उनमें ज्ञानधारा के साथ भक्ति की शीतल धारा और साधुत्व दृष्टिपात करते हैं तो उनका जीवन ज्ञान के प्रदीप से जगमगाता
की स्व-परकल्याण साधना में पुरुषार्थ की कर्म (कर्तव्य) धारा रहा है। उन्होंने जो साहित्य-सर्जन किया है, तत्वज्ञान के अगाध
प्रवहमान थी। सागर में गहरे होते लगाए हैं, प्रवचन कल ज्ञानगंगा की अजन धारा बहाई है, उससे उनमें ज्ञानयोग का आलोकित प्रदीप देखा जा | अध्यात्मयोगी में ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति तीनों का मिलन अनिवार्य सकता है। जब वे भक्तिप्रवण स्तोत्र पाठ करते थे, परमात्मा की आज की भाषा में कहें तो, उनमें ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति स्मृति और गुणगान श्रद्धाभाव में विभोर होकर करते थे, आत्मा की (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) तीनों का अपूर्व त्रिवेणी संगम था। अमरता और अनन्त चतुष्ट्यरूपता पर विश्वास रखकर जप, ज्ञप्तिविहीन भक्ति अन्धभक्ति हो जाती है, इसी प्रकार भक्तिविहीन ध्यान, कायोत्सर्ग, मौन और व्युत्सर्ग या प्रतिसंलीनता तप में ज्ञप्ति निष्क्रिय वाणी विलास हो जाती है तथैव भक्तिविहीन शक्ति अन्तर्मुख हो जाते थे, तब उनकी आत्मनिष्ठा देखते ही बनती थी, भयंकर एवं अनर्थकारी हो जाती है तो शक्तिविहीन भक्ति दीनता किन्तु यह सब होता था ज्ञानयोग के साथ भक्तियोग।
एवं दैन्यता से युक्त हो जाती है। इसीलिए जैनधर्म के वीतराग
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। तल से शिखर तक
२७३ । पुरस्कर्ताओं ने ज्ञप्ति, भक्ति और शक्ति तीनों का मिलन
“लाभालाभे सुहे-दुक्खे, जीविए मरणे तहा। अध्यात्मयोग के लिए अनिवार्य माना है, जो मोक्षपथ में पाथेय रूप
समो जिंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥१ है। स्व. उपाध्यायश्री में ज्ञान का नद सतत् बहता रहता था। वे
अर्थात् अध्यात्मयोगी लाभ हो या अलाभ (हानि), सुख हो या संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी आदि भाषाओं के
दुःख, जीवन रहे या मृत्यु होने लगे तथा निद्रा हो या प्रशंसा, अधिकृत विद्वान थे। साथ ही वेद, गीता, उपनिषद् मनुस्मृति एवं
सम्मान मिले या अपमान मिले, दो प्रकार की अवस्थाओं में सम आगमों की अगाध ज्ञाननिधि उनके मस्तिष्ककोष में संचित थी। वे
रहे, वही समतायुक्त साधक अध्यात्मयोगी है। कवि भी थे, लेखक भी, साधक भी, भक्त भी, वक्ता भी, योगी भी ।
अध्यात्मयोगीश्री की अध्यात्मयात्रा कहाँ से और कैसे? एवं श्रमणसंघ के विशिष्टपदाधिकारी भी थे।
अध्यात्मयोगी स्व. उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. की इसी प्रकार वे योगी, ध्यानी और जपनिष्ठ साधक भी थे,
अध्यात्मयात्रा कहाँ से और कैसे प्रारंभ हुई? इस यात्रा में कहाँ-कहाँ तथैव आहार, विहार, धर्मप्रचार, साधु जीवन का आचार इत्यादि में
उतार-चढ़ाव आए? सफलता-असफलता मिली? कैसे-कैसे उनकी सजग, अप्रमत्त एवं निष्ठावान् साधक थे।
अध्यात्मयात्रा में अवरोध एवं विरोध आए? तूफानों में भी कैसे अध्यात्मयोगी स्वार्थी नहीं, आत्मार्थी और ज्ञाता-द्रष्टा
अपनी संयमी जीवन नौका को सकुशल एवं सुरक्षित रूप से खेते कई लोगों का कहना है-अध्यात्मयोगी अपने आप ही सीमित
हुए अध्यात्मयोग से संपन्न बने? संक्षेप में हम इसकी झांकी प्रस्तुत रहता है, स्व अर्थमग्न होता है, अपने धर्मसंघ, गण, राष्ट्र, समाज
करते हैंआदि से उदासीन और अलग-थलग रहता है, परन्तु यह बात समुद्रयात्री नाविक सम अध्यात्मयोगी की अध्यात्म यात्रा पूर्णतः यथार्थ नहीं है। यह बात दूसरी है कि अध्यात्मसाधना के समुद्र यात्रा करने वालों को सदैव तूफान, आँधी आदि का भय प्रारंभिक काल में वह आध्यात्मिक साधना में परिवक्वता एवं निष्ठा बना रहता है। कोई समुद्र की यात्रा करे और तूफान का सामना न के लिए एकान्त में जनसम्पर्क से रहित, मौन, ध्यान, जप-तप, करना पड़े। यह असंभव है। किन्तु कुशल नाविक आँधी और स्वाध्याय, ग्रहण-आसेवन शिक्षा आदि में अधिक रत रहता हो तूफान के वातावरण में भी अपनी नौका को सावधानीपूर्वक परन्तु उसका आध्यात्मिक योग सही माने में तभी चरितार्थ एवं जागरूक रहकर खेता है और उसे पार पहुंचाता है। उसी प्रकार सार्थक होता है, जब संघ गण राष्ट्र, समाज आदि घटकों के साथ । संसार-समुद्र में अध्यात्मयात्रा करने वाले अध्यात्मयोगी का भी वह मन-वचन-काया से साथ रहता हुआ भी, अपने कर्तव्यों और संसार-समुद्र में डूबने तथा उफान और तूफान का खतरा रहता है, दायित्वों का पालन करता हुआ भी निर्लिप्त रहे, तटस्थ रहे, उस समय अध्यात्मयोगी भी संसार-समुद्र में अध्यात्मयात्रा करता ज्ञाता-द्रष्टा रहे, वीतरागता का अभ्यास करे। इसलिए अध्यात्मयोगी
हुआ सतत् जागरूक, यतनाचार- रत एवं ज्ञाताद्रष्टा रहकर जीवन अन्तरात्मा में गहरी डुबकी लगाता हुआ भी बाहर से संघ, गण,
नौका खेता है और स्वयं को और साथ ही संघ, राष्ट्र समाज आदि राष्ट्र, ग्राम, नगर, व्यक्ति समाज, समष्टि आदि घटकों के साथ
को समुद्र पार पहुंचा देता है। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि सम्पर्क रखता हुआ भी जागरूक रहता है। अध्यात्मयोगी का जीवन
जी म. भी अपनी अध्यात्मयात्रा में अनेक विघ्नों, कष्टों, उपसर्गों, वटवृक्ष की तरह होता है। जैसे वटवृक्ष बाहर में जितना विशाल
उपद्रवों एवं संकटों का सामना करते हुए जागरूक रहकर आगे और व्यापक दिखता है, उतना ही भीतर (जड़) में गहरा होता है।
बढ़े हैं। उपाध्यायश्री का बाहर में जितना व्यापक परिचय जनता से, अध्यात्मयोगी विराट् बनने का संकेत : स्वप्नदृष्टा विशिष्ट व्यक्तियों से, संघ, राष्ट्र आदि से सम्पर्कयुक्त होता है, उपाध्यायप्रवर स्व. श्री पुष्कर मुनि जी के अध्यात्मयोगी होने उतनी ही उनकी अध्यात्मयोग की जड़ें गहरी, ठोस एवं दूर-दूर तक का संकेत उनके शैशवकाल से पूर्व गर्भ में आने पर उनकी फैली हुई होती हैं।
मातेश्वरी वालीबाई को फलों के राजा आम्रफल के स्वप्न के रूप में अध्यात्मयोगी का स्थितप्रज्ञ से मिलता-जुलता लक्षण
हुआ। इस स्वप्न का फलादेश अपने जीवन के तेजस्वी, यशः सौरभ
से व्याप्त और योगिराज बनने का सभी को परिलक्षित होता था। अध्यात्मयोगी का अन्तरंग लक्षण भगवद्गीता में उक्त स्थितप्रज्ञ
इसी स्वप्न के अनुरूप बालक का नाम अम्बालाल रखा गया। प्रकृति के लक्षण से मिलता-जुलता है। जैन आगमों में उसे स्थितात्मा
के बालक अम्बालाल को अध्यात्म यात्रा प्रारंभ कराने के बहाने (ठियप्पा) कहा गया है। उपाध्यायश्री जी के उदात्त ज्ञान-दर्शन
जन्मग्राम से माता के द्वारा नान्देशमा ग्राम में पहुँचा दिया, जहाँ चारित्र-तप से युक्त जीवन इस तथ्य का साक्षी है।
जैनों की मुख्य आबादी थी तथा जैन श्रमण या श्रमणियाँ पधारते, अध्यात्मयोगी का विशिष्ट लक्षण जैन आगम के अनुसार यों है
१. उत्तराध्ययन सूत्र अ. १९, गाथा. ९०
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} २७४
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आपकी माताजी आपको साथ में लेकर उनके दर्शन और प्रवचन तुम्हें वहाँ ले जाने की व्यवस्था जो जाएगी। किन्तु अध्यात्म यात्रा के | श्रवण के लिए ले जाती थी। साधु-साध्वियों के आध्यात्मिक जीवन | पथिक अम्बालाल ने कहा-मैं मारवाड़ तो नहीं जाऊँगा, किन्तु वे | के संस्कार बीज रूप में बालक अम्बालाल में भी पड़ते गए।
यदि यहाँ पधारेंगे तो मैं अवश्य ही उनका शिष्य बन जाऊँगा। अध्यात्मयात्रा का श्रीगणेश : वैराग्य पाथेय के रूप में
अध्यात्म यात्रा के आग्नेय पथ पर। दुर्भाग्य से आध्यात्मिक संस्कारों का बीजारोपण करने में साध्वी जी की सूचना पाकर महामुनि श्री ताराचंद्र जी म. निमित्त वात्सल्यमयी माता का देखते ही देखते आकस्मिक देहान्त हो विचरण करते-करते परावली पधारे। महाराजश्री के दर्शन करके गया। नौ वर्ष के बालक अम्बालाल के मन में अकस्मात् मातृवियोग एवं प्रवचन सुनकर अम्बालाल अतीव प्रफुल्लित हुआ। महाराजश्री के कारण मृत्यु पर चिन्ता का स्तोत्र फूट पड़ा। यही से उनके ने भृगु पुरोहित के दोनों पुत्रों के वैराग्य एवं समय पथ पर आरूढ़ चिन्तनशील मस्तिष्क में अध्यात्मयात्रा का श्रीगणेश वैराग्य पाथेय होने की कहानी बहुत ही ओजस्वी ढंग से सुनाई। उसे सुनकर के रूप में साथ हुआ।
विरक्ति से ओत-प्रोत बालक अम्बालाल अध्यात्म-यात्री बनने के अध्यात्मयात्रा में सहायक सेठ अम्बालालजी के साथ परावली में
लिए मचल उठा। गुरुदेव ताराचंद्र जी म. ने बालक के मन, बुद्धि
और हृदय को टटोल, उसके जीवन के संबंध में कुछ लोगों से 5 मानो इसी अध्यात्मयात्रा में सहायक बनने हेतु एक दिन ।
पूछा। गुरुदेव की पारखी दृष्टि ने इस विशिष्ट मानवरल को परावली ग्रामवासी सेठ अम्बालालजी ओरड़िया आए। सेठ
पहचान लिया। गुरुदेव ने साधु जीवन की कठिनाइयाँ, विहारयात्रा, अम्बालालजी के कोई सन्तान नहीं थी। बालक अम्बालाल की
चर्या, त्याग, तप, संयम आदि के कष्टमय जीवन की गाथाएँ वैराग्यवासित शान्त चर्या देखकर वे प्रभावित हुए और वात्सल्यवश
सुनाई। परन्तु उसे सुनकर तो बालक अम्बालाल का मन और दृढ़ | अपने साथ उसे परावली ले गए। वहाँ बालक अम्बालाल का
हो गया। अध्यात्मयात्रा के पथ पर चलने के लिए। लालन-पालन होने लगा। किन्तु संसार में स्वार्थ न होता तो यह स्वर्ग बन जाता। जब सेठ अम्बालालजी के चिर प्रतीक्षा के पश्चात् एक
नान्देशमा के श्रावकों के समझाने पर पिता सूरजमल जी ने पुत्र हो गया तो बालक अम्बालाल के प्रति वात्सल्य का स्थान स्वार्थ
दीक्षा की सहर्ष अनुमति दे दी। साधु जीवन के लिए प्राथमिक और अपेक्षा ने ले लिया। सेठ ने उसे पशुओं को जंगल में चरा
आचार-शास्त्र, प्रतिक्रमण, तत्वज्ञान एवं अध्यात्म ग्रन्थों का डटकर लाने का कार्य सौंपा। परन्तु बालक अम्बालाल वैराग्य के भजन
अध्ययन वैराग्य संपन्न अम्बालाल करने लगा। जालोर के गुरुभक्त गाता, बांसुरी बजाता और आनन्द से पशुओं के बछड़ों के साथ
श्रावकों की आग्रहपूर्ण विनती मानकर जालोर में आपकी भागवती क्रीड़ा करता। एक दिन जंगल में क्रीड़ा करते हुए अचानक पैर में
दीक्षा सम्पन्न की। आध्यात्मिक यात्री के रूप में आपका गुणनिष्पन्न पत्थर की चोट लग गई। सारा पैर का पंजा लहुलुहान हो गया।
नाम रखा गया-पुष्कर मुनि। असह्य पीड़ा हो गई। पर उस जंगल में सिवाय पशु के उसकी अध्यात्मयात्रा में ज्ञान की गहनता पुकार कौन सुनता। शाम को देर से घर पहुंचा तो सेठ ने बहुत
अध्यात्म यात्रा के लिए परिवक्व ज्ञान अनिवार्य है। उसके आड़े हाथों लिया, बहुत डांटा। न तो उसकी पीड़ा के प्रति
बिना यह यात्रा निर्विघ्न नहीं हो पाती। व्यक्ति अन्धविश्वास, अधैर्य सहानुभूति और न ही मरहम पट्टी। सेठ का यह रूखा व्यवहार और
तथा किंकर्तव्यमूढ़ता की राह पर चल पड़ता है। अतः आपने ऊपर से तीव्र ज्वर एवं दर्द की हालत में भी पशुओं को चरा लाने
अध्यात्मयात्रा में सुदृढ़ता, परिवक्वता एवं विकासशीलता के लिए का आदेश।
आगमों, दर्शन-शास्त्रों, भाषाओं तथा अध्यात्म ग्रन्थों का रुचि और अध्यात्म यात्रा में आगे बढ़ने के मार्ग की खोज में
उत्साहपूर्वक गंभीर अध्ययन किया। इतना ही नहीं, आपने कई फिर भी बालक अम्बालाल ने धैर्य नहीं खोया, अपने जीवन
साधु-साध्वियों को इन विषयों का अध्ययन कराया। को अध्यात्मयात्रा के मार्ग में आगे बढ़ाने का विचार किया। जहाँ अध्यात्मयोगी पुष्करमुनि में निरहंकारता-नम्रता चाह होती है, वहाँ राह मिल जाती है। बालक अम्बालाल ने सेठजी
मा अध्यात्मयोगी के जीवन में ज्ञान होने पर उसका अहंकार नहीं का उपेक्षापूर्ण रवैया देख अपना नया मार्ग खोजना शुरू किया। एक
होता, बल्कि नम्रता, समता, तितिक्षा, धीरता आदि गुणों में वृद्धि दिन गाँव में पधारी हुई साध्वी प्रमुखा महासती श्री धूलकुंवर जी से होती है। अध्यात्मयोगी पुष्करमनि जी में विद्वता और ज्ञानवृद्धि के वंदना करके सविनय पूछा-महासती जी, वे महाराज कहाँ हैं ? जो ।
साथ-साथ नम्रता, जिज्ञासा, गुणग्राहकता आदि गुणों की भी वृद्धि चार साल पहले यहाँ आए थे? मुझे उन्होंने अपने पास प्रेम से होती गई। आपको पोका सापटाय जाति कौम वर्ग और वर्ण बिठाकर आत्म-विकास की सुन्दर कथाएँ भी सुनाई थीं। मैं उनका
के गुण व्यक्तियों से समभावपूर्वक मिलन और प्रेमपूर्वक धर्म चर्चा शिष्य बनना चाहता हूँ।
करने में आनन्द आता था। गुजरात के गजपंथा तीर्थ में विराजित साध्वी जी ने बालक की जिज्ञासा देखकर कहा-वे इस समय दिगम्बराचार्य श्री शांतिसागर जी के साथ आप एक ही धर्मशाला में
मारवाड़ में हैं। यदि तुम्हारी इच्छा उनके दर्शन करने की हो तो ठहरे, मिले, अनेक विषयों पर धर्म चर्चा की। आपकी उदारता एवं Proosप्रलयकाएक
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तल से शिखर तक
समन्वयात्मक विचारों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। बम्बई में आगम प्रभाकर स्थविर श्री पुण्यविजयजी म. से मिलकर आपने आगमों के अनेक विषयों पर विचार-विमर्श किया। आपकी जिज्ञासा और विनयशीलता को देखकर वे गद्गद हो गए। मतभेद और सम्प्रदाय भेद होते हुए भी आप उदयपुर में रुग्णावस्था में विराजमान श्रद्धेय पूज्य श्री गणेशीलाल जी म. को सविनय वंदना करके सुखसाता पूछने गए। आपकी विनम्रता देखकर उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा। ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनमें अध्यात्मयोगी के योग विनयादि गुण आपमें सहज प्रादुर्भूत हुए।
अध्यात्मयोगी के जीवन में सरलता और निश्छलता का गुण
अध्यात्मयोगी के जीवन में सरलता, निश्छलता एवं निर्दम्भता आदि गुण अनिवार्य हैं। इन्हीं गुणों से ओत-प्रोत होने पर अध्यात्म विकास यात्रा निर्विघ्न होती है। उपाध्यायप्रवर श्री के जीवन में सरलता, निश्छलता एवं निर्दम्यता कूट-कूट कर भरी थी। वे जैसे बाहर थे, वैसे ही अन्दर थे, जैसे अंदर में थे, वैसे ही बाहर में थे। उन्हें छल-कपट करना, मायाचार करना पसन्द न था । उपाध्याय पद से विभूषित होने पर भी आपने सरलता, सीम्यता और निष्कपटता आदि गुणों को आत्मसात् कर लिया था।
अध्यात्मयोगी के जीवन में दया आदि गुणों का बसेरा
अध्यात्मयोगी का जीवन सर्वभूतान्मभूत होने से उसमें दया, करुणा, अनुकम्पा, सहृदयता और सहानुभूति आदि गुण अवश्य होने चाहिए। स्व. उपाध्यायश्री के जीवन में भी मानो इन गुणों ने अपना बसेरा कर लिया था। वे जहाँ भी किसी प्राणी का जीवन दु:खित या पीड़ित देखते अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उसकी पीड़ा मिटाने के लिए उद्यत हो जाते थे।
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एक बार आप रायपुर (राजस्थान) का वर्षावास व्यतीत करके बिलाड़ा की ओर पधार रहे थे। रास्ते में एक सघन अटवी और बाणगंगा नदी पड़ती है। तृषातुर पशु-पक्षी यहाँ अपनी तृषा मिटाने आते थे किन्तु यहाँ झाड़ियों में कुछ शिकारीगण उन पशु-पक्षियों का शिकार करने की ताक में छिप कर बैठे थे। वे ज्यों ही बाहर निकले, आपश्री ने उन्हें पहचान कर प्राणियों की रक्षा का उपदेश दिया। उसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने सदा के लिए शिकार करने का त्याग कर दिया।
लोनावला की निकटवर्ती कार्ला-गुफा के पास आदिवासियों की आराध्यदेवी का मंदिर है। करुणाशील अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि जी एक दिन मध्याह्न में वहाँ से गुजरे तो देखा कि कुछ आदिवासी लोग देवी के आगे बकरे की बलि करना चाहते थे। आपने उन्हें युक्तिपूर्वक समझाया कि बकरे की बलि करना कितना बुरा और वैर परम्परावर्द्धक है। फिर भी वे नहीं मान तो आपने उनके सामने खड़े होकर कहा लो, नहीं मानते हो तो मेरी बलि ले लो, बकरे को छोड़ दो। इस आदिवासियों का हृदय परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसे बकरे को अभयदान देकर कहा- "बाबा! अब हम सभी देवीमाता के आगे बकरे आदि प्राणी की बलि नहीं चढ़ायेंगे।"
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सन् १९७५ में पूना में बहुत तेज वर्षा हुई। उसके कारण झोंपड़ पट्टी में रहने वाले बेघरबार हो गए। उनकी दयनीय स्थिति देखकर आपका दयाहृदय द्रवित हो उठा। आपने लौटकर अपने प्रवचन में उन व्यक्तियों की दयनीय स्थिति का चित्रण प्रस्तुत किया। स्थानीय संघ ने तत्काल “श्री पुष्कर गुरु सहायता संस्था" की स्थापना की और उस संस्था के माध्यम से उन विस्थापित जनों को सहायता प्रदान की गई और उनकी आजीविका की भी व्यवस्था की गई। आपने उन लोगों को प्रेरणा देकर मद्यपान एवं मांसाहार का त्याग कराया।
सन् १९८१ में आपका वर्षावास "राखी" था। उस वर्ष राजस्थान में भयंकर दुष्काल था, जिस कारण मानव एवं पशु भूख के मारे मर रहे थे। आपने दुष्काल पीड़ितों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा की। जिसके फलस्वरूप सेठ रतनचंद जी रांका प्रभृति उदार व्यक्तियों के प्रयत्न से लाखों रुपयों का फण्ड एकत्रित हो गया। जिससे दुष्काल पीड़ितों को जीने की उपयोगी साधन-सामग्री देकर उनका दुःख दूर किया गया। आपका अनुकम्पा प्रवण हृदय इस प्रकार की करुणा एवं दया की प्रेरणा के कारण अध्यात्म यात्रा में आगे से आगे बढ़ता जा रहा था। अध्यात्मयोगी का मूलमंत्र
परीषह-उपसर्ग-सहन
परीषह और उपसर्ग को समभावपूर्वक सहना तो अध्यात्मयोगी का मूलमंत्र है। वह कष्टों, परीषहों और उपसर्गों को हँसते-हँसते सहन करता है, किसी से शिकायत या कष्टदाता के प्रति प्रतिक्रिया न तो मुँह से व्यक्त करता है और न मन में उद्विग्नता लाता है, बल्कि अपना अहोभाग्य मानता है कि मुझे निर्जरा (कर्मक्षय) करने का सुअवसर दिया। अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनि जी म. के जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग आए, जब उन्होंने कष्ट सहिष्णुता का परिचय दिया।
सन् १९४२ में आप कुबेरा से नागौर पधारे थे, रास्ते में मुंडवा कस्बा पड़ता है, वह माहेश्वरी लोगों के अनेक घर हैं। आपने भिक्षा के लिए एक माहेश्वरी के घर में प्रवेश किया। जैन श्रमणों से बिल्कुल अपरिचित उस माहेश्वरी ने आपको प्रवेश करने से रोका और दो चार खरी-खोटी सुनाई "गर्म पानी हो तो हम ले सकते हैं, ऐसा कहते ही वह क्रोध में तमतमाता हुआ बोला," क्या तेरे बाप ने यहाँ गर्म पानी कर रखा है? आपने नम्रभाव से उत्तर दिया "भारतीय दर्शनों के अनुसार आप इस जन्म में नहीं, किन्तु किसी जन्म में मेरे पिता रहे होंगे।" यह सुनकर सेठ कुछ नरम होकर अंदर सेठानी से गर्म पानी के विषय में पूछने गया तो उसने भी वैसी ही कोमुमुद्रा में उत्तर दिया। आपने सुना तो मुस्कराते हुए कहा- "सेठ जी आज मुझे अपनी मां भी मिल गई और पिता भी। इसलिए पानी नहीं तो रोटी बनी होगी तो मिल जाएगी।" आपकी इस सहिष्णुता और मुस्कान का सेठ-सेठानी दोनों पर अचूक प्रभाव पड़ा। भक्ति विभोर होकर उन्होंने आपको भिक्षा दी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जयपुर की ओर जाते समय गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. के पैर एक बार आप और आपके गुरुदेव दो ही संत बड़ौदा से सूरत में अत्यधिक दर्द था। बड़ी मुश्किल से चलते हुए और आप सभी | पधार रहे थे। साथ में पं. रामानन्द जी शास्त्री थे। रास्ते में एक एक गाँव में पहुँचे। वहाँ आप सबको मुँह बाँधे एक डाकू समझकर । मुस्लिम बहुल गांव में रुके। स्थानीय मुस्लिम भाई ने एक भूत का ठहरने नहीं दिया। लाठियाँ लेकर कुछ लोग आए, आपको उसी बंगला ठहरने के लिए बता दिया। रात को उक्त प्रेत का भयंकर समय आगे खदेड़ दिया। राहगीरों से पूछते-पूछते सायंकाल १४ प्रकोप हुआ। पंडितजी की तो डर के मारे घिग्घी बंध गई। परन्तु मील दूर सड़क के किनारे स्थित एक मंदिर में पधारे। वहाँ की आपश्री के जाप के प्रभाव से उपद्रव शान्त हो गया। पुजारिन ने भक्तिभाव से आपको ठहरने का स्थान तथा
। ऐसे एक ही नहीं अनेक प्रसंग आए, जब आपके अध्यात्मयोग आहार-पानी दिया। आज प्रातःकाल तर्जना मिली और सायंकाल
यकाल की पूरी कसौटी हुई। परन्तु आप उसमें खरे उतरे। मिली अर्चना, तब भी समभाव में स्थित होकर रहे। अध्यात्मयोगी की वही मस्ती आप में रही कि लाभ और अलाभ में, सुख और
पूर्वोक्त अध्यात्मयात्रा का उत्तरोत्तर परिवर्द्धन दुःख में, सम्मान और अपमान में, अनुकूलता और प्रतिकूलता में इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि आपश्री की सम रहे। मन में जरा भी क्षोभ, व्याकुलता या उद्विग्नता नहीं लाए। आध्यात्मिकयात्रा आगे से आगे दिनोदिन बढ़ती जा रही थी। __ कई नगर विरोध और कटु आलोचना की आँधी इतनी तीव्र अध्यात्मयोगी अपनी साधना के साथ-साथ समाज की साधना रही कि दूसरा होता तो टिक नहीं पाता, परन्तु अध्यात्मयोगी और शुद्धि की ओर भी अधिक ध्यान देता है। समाज शुद्ध न हो उपाध्यायश्री जी म. विरोध के कांफड़ों के सामने भी अविचलित तो उसमें रहने वाला व्यक्ति भी अशुद्ध हो सकता है। यही कारण होकर टिक रहे।
है-साधुवर्ग की विचार-आचार धारा को व्यवस्थित करने, उसे अध्यात्मयोगी की उपलब्धियों के चमत्कार
एकरूपता देने तथा शास्त्रों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध करने के
उद्देश्य से पाटलिपुत्र से लेकर अजमेर, सादड़ी एवं सोजत तक में इतनी शान्ति और समाधि का मूल कारण है-आपकी जप,
कई साधु-साध्वी सम्मेलन हो चुके थे. सन् १९५२ के सादड़ी में हुए ध्यान, मौन तथा तप की साधना। वास्तव में, जाप, आधि, व्याधि
साधु सम्मेलन में आपने अपने ओजस्वी प्रवचनों से सम्मेलन की और समाधि को नष्ट कर समाधि प्रदान करने वाला, बोधिलाभ में
भूमिका तैयार की। उसमें आपने अपनी विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा स्थिर रहने वाला तथा प्रत्येक परिस्थिति में सम और शान्त रहने
और सूझ-बूझ का परिचय दिया। अथक परिश्रम से निर्मित वाला होता है।
श्रमणसंघ को सुदृढ़ बनाने तथा अखण्ड बनाए रखने के लिए जप और ध्यान की साधना आप प्रतिदिन त्रिकाल करते थे। आपने जी-जान से प्रयत्न किया। आप सम्प्रदायवाद एवं धर्म झनून इसका अलौकिक प्रभाव जिन्होंने देखा है, वे जानते हैं कि उसके ।
आदि को स्वयं पसन्द नहीं करते। आपकी विराट् योग्यता और कारण आपश्री के मुख से मंगलपाठ सुनकर लोग स्वस्थ और प्रसन्न विद्वता देखकर श्रमणसंघ के महामहिम आचार्यसम्राट श्री होकर विदा होते थे।
आनंदऋषि जी म. ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया। आपने सन् १९६९ की नासिक की घटना। एक नौ वर्ष की बालिका उपाध्याय पद के अनुरूप अनेक साधु-साध्वियों को पढ़ाया, स्वयं भी की नेत्र ज्योति चली गई। अध्यात्मयोगी गुरुदेव उसके घर पर स्व-सिद्धांत-परिसिद्धांत का गहन अध्ययन किया। “धर्म का पधारे, मंगलपाठ सुनाया। सहसा उस बच्ची की आँखों में पुनः । कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में", "ब्रह्मचर्य विज्ञान", "जिन्दगी ज्योति आ गई। नेत्र-विशेषज्ञ भी इसे देखकर आश्चर्यचकित हो । एवं मुस्कान सफल जीवन", "दानः एक समीक्षात्मक अध्ययन,” उठे।
"श्रावक धर्म दर्शन," आपकी सफल कृतियाँ हैं। जैन कथाएँ भाग बैंगलोर से ३५ मील दूर रामनगर गांव में उपाध्यायश्री ठहरे ।
१ से १११ तक आपके जीवन की समाज को अनूठी देन है। हुए थे कि बैंगलोर से एक कार में एक २०-२५ वर्ष की उम्र की
समाज को अद्भुत नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेरणा देने युवती को लेकर कुछ व्यक्ति आए, बेहोशी की हालत में थी, सभी
वाला साहित्य है। सम्यक्चारित्र का भी आपने स्वयं पालन किया उपचार नाकामयाब हो गए थे। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री मँह से और समाज को भी आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.. उपप्रवर्तक श्री महामृत्युंजय नमोकार मंत्र का पाठ सनते ही वह होश में आ गई। राजेन्द्र मुनि जी म., श्री दिनेशमुनि जी म.. श्री गणेशमनि जी म. सन् १९७३ के अजमेर वर्षावास के दौरान पारसमल जी
"शास्त्री" आदि कई साधुरल शिष्य दिए, कई श्रमणोपासक बनाए। ढाबरिया की धर्मपत्नी ने मासखमण तप किया। परन्तु पारणे की
इस प्रकार आपकी अध्यात्मयात्रा वैराग्य से प्रारंभ होकर रात को उसकी तबियत एक-एक बिगड़ी। उसकी नाजुक एवं गंभीर
। ज्ञान-दर्शन चारित्र की गरिमा को छूती हुई अन्तिम श्वास तक परिस्थिति के कारण सभी चिन्तित थे। सभी उपचार भी निष्फल हो
समाधिमरण रूप संथारा को पार करती हुई देवलोक प्रयाण कर गए। ऐसे समय में उपाध्यायश्री उसे दर्शन देने पधारे। कुछ पाठ
गई। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी. की यह सुनाया, जिससे वह स्वस्थ होकर उठ बैठी, उसने आहारदान दिया।
अध्यात्मयात्रा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य को आचार में यह था अध्यात्मयोग का चमत्कार।
कुशलतापूर्वक चरितार्थ करती हुई सफल हुई।
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। महामनीषी उपाध्यायश्री का वाङ्मय-विमर्श )
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श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्करमुनि जी म. के लिए साहित्यकार, कवि, लेखक आदि विशेषण बहुत हलके पड़ते हैं। उनके विराट प्रातिभ ज्ञान और स्वतः स्फूर्त व्युत्पन्न मनीषा की मीमांसा करने के लिए शायद कोई उपयुक्त शब्द मिले तब तक हम उनको महामनीषी शब्द से ही सम्बोधित करना चाहेंगे।
पूज्य गुरुदेव ने लिखने के लिए कभी लिखा ही नहीं, और कविता करने के लिए कुछ रचा नहीं। भावों की उच्छल लहरें शब्दों का सहज सतरंगी परिवेश धारण कर जब कागज पर उतरती तो कभी वह कविता बन जातीं, कभी सूक्ति, कभी कहानी और कभी प्रवचन। तुलसी, सूर और कबीर की भाँति उनकी वाणी सहज काव्य थी। उनके वचन सहज ही सुवचन या प्रवचन बन जाते थे और उनकी लिखी गद्य पंक्तियाँ साहित्य का स्वरूप धारण कर लेती थी। इसलिए उपाध्यायश्री द्वारा रचित/ग्रथित, उद्गीत रचनाओं को साहित्य या काव्य जगत की बंधी बंधाई परम्परागत परिभाषा व नियमावली से तौलना या उन रूढ़ मूल्यों पर कसना उचित नहीं होगा। एक सन्त मनीषी की वाणी को उपमा आदि अलंकार व रस विधा से परखने की अपेक्षा जीवन मूल्यों की महिमा से ही तोलना अधिक उपयुक्त होता है। सन्त का वही श्रेष्ठ काव्य है, वही उत्तम साहित्य है, जिसमें उसकी अन्तर्वीणा का स्वर सहज सरगम में झंकृत होता है और मानवीय अन्तश्चेतना को स्वाभाविक रूप में स्पर्श करता है, स्पन्दित करता है।
उपाध्यायश्री का लेखन, प्रवचन, गायन बहुआयामी रहा है। विद्वान् मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी ने उनके व्यक्त विचारों व लिखित भावों को विषय एवं विचार की दृष्टि से विभक्त कर अनेक आकार-प्रकारों में संग्रहीत किया है। कथा साहित्य, काव्य साहित्य, प्रवचन साहित्य, निबन्ध साहित्य, संस्कृत रचनाएँ आदि। उनके सम्पूर्ण वाङ्मय का अवगाहन करने के लिए तो सैकड़ों ग्रन्थों व पुस्तकों को पढ़ना होगा। यहाँ पर तो मात्र उस विशाल ज्ञान राशि की झलक दिखाने मात्र का एक लघु प्रयास किया जा रहा है। विविध दृष्टियों से सृजित उपाध्यायश्री के बहुआयामी साहित्य का यत्किंचित-रसास्वाद साहित्य पर कुछ विद्वानों की विवेचना और फिर उनके यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
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वाग देवता का दिव्य रूप
गुरुदेव श्री की साहित्य-स्रोतस्विनी (विहंगम दृष्टि )
साहित्य और कला मानव-जीवन के लिए वरदान है। साहित्य एवं कला का परस्पर सम्बन्ध आज से नहीं, अनादि काल से रहा है। एक साहित्यकार अवश्य ही कलाकार भी होगा। इनका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। भारत के महान् कवि एवं साधक भर्तृहरि ने साहित्य-संगीत-कला से विहीन मानव को साक्षात् पशुवत् ही कहा है।
काव्य से प्राप्त होने वाले आनन्द का वर्णन करना प्रायः असंभव ही है। इसका तो अनुभव ही किया जा सकता है। इसीलिए गीर्वाण-गिरा के यशस्वी कवियों ने काव्य से प्राप्त होने वाले रस या आनन्द को "ब्रह्मानन्द सहोदर" की संज्ञा दी है। 'ब्रह्मानन्द' की अभिव्यक्ति कहाँ तक सम्भव है ? वह तो अनुभूति का ही विषय है।
आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजनों पर चिन्तन करते हुए उससे प्राप्त होने वाले यश, कीर्ति, व्यावहारिक ज्ञान अमंगल का विनाश, आनन्द तथा उपदेश पर विस्तार से प्रकाश डाला है। यदि हम काव्य की श्रेष्ठता तथा ज्येष्ठता का प्रतिमान इन्हीं तत्त्वों को मान लें तो हम पाते हैं कि गुरुदेवश्री की अनगिन काव्य रचनाओं में इन तत्त्वों की सहज संस्थिति है।
गुरुदेवश्री की कविताओं का लक्ष्य किसी अमूर्त सौंदर्य लोक की कल्पना अथवा संस्थापना करना नहीं है। न ही उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों से कविता कामिनी को सजाना ही है। अपितु उनका लक्ष्य तो जन-जन के मानस में त्याग और वैराग्य की मंगलमय भावना उत्पन्न करना ही है। सत्काव्य की यही विशेषता रही है। वह मानव को शब्दों के जाल में उलझाता नहीं, वरन् सीधे हृदय को प्रभावित करता है। उसमें लोकमंगल के विधायक तत्त्व होते हैं। छद्म आधुनिकता का कृत्रिम प्रयास नहीं, अपितु शाश्वत सत्यों का आख्यान और मानवीय संवेदना की गहरी पहचान होती है।
ठीक ही कहा जाता है-कवि बनते नहीं, जन्मते हैं। इसी कारण आपश्री के काव्य में सहजता, मार्मिकता, हृदय की गहराई और भायों की श्रेष्ठता मिलती है। साथ ही निश्छल, मंगलकारी उपदेश प्रवणता के दर्शन भी यत्र-तत्र होते हैं।
सद्गुरुदेवश्री की सुधावर्षिणी साहित्य-स्रोतस्विनी शतथा होकर सहज रूप से, अविराम गति से प्रवाहित होती रही। उसमें क्या नहीं है ? काव्य की गंगा, कथा की यमुना और निबन्ध की सरस्वती का सुन्दर संगम हुआ है।
जो भी पाठक थोड़े से भी सुचित्त से आपक्षी के साहित्य का पारायण करेंगे उन्हें उसमें वाल्मीकि का सौंदर्य एवं विराटता,
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि कालिदास की प्रेषणीयता, भवभूति की करुणा, तुलसीदास का प्रवाह, सूरदास का माधुर्य, दिनकर का शौर्य तथा गुप्तजी की सरलता एवं सुबोधता के दर्शन एक साथ होंगे। चमत्कार मूर्त दृष्टिगोचर होगा।
काव्य एवं गीति साहित्य
यह कहने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं रहती कि गुरुदेव एक मनस्वी एवं यशस्वी साहित्यकार थे लिखना पढ़ना, कविताएँ करना, प्रवचन करना, धर्म एवं संस्कृति पर चर्चाएँ करनाकालयापन के ये ही श्रेष्ठ प्रकार आपश्री को प्रिय थे। प्रारम्भ से ही आप साहित्य का सृजन करते रहे। साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश काव्य के द्वारा हुआ, किन्तु उसके बाद फिर साहित्य का कोई भी अंग, कोई भी विधा, आपकी अमर, अमृतवर्षिणी लेखनी से अछूती नहीं रही।
आपश्री सफल साधक, गम्भीर विचारक और मानवता के सन्देशवाहक थे। अपने युग की सम्पूर्ण प्रवृत्ति तथा सत्ता के आप दृष्टा एवं स्रष्टा थे। आपका साहित्य मानवता की भावना से ओतप्रोत है। अपने गहन विचारों को जनचेतना के समक्ष रखने में आप सिद्धहस्त थे। आपका साहित्य मात्र जड़ शब्द-समूहों का जंजाल नहीं है, किन्तु उसमें तो बोलता हुआ, गाता हुआ जीवन है।
आपके गीत धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भावों से परिपूर्ण हैं। उनमें आध्यात्मिकता व सामाजिकता का मधुर, मंगलमय आलाप है-अपलाप मात्र नहीं।
गीतों के संकलन 'पुष्कर पीयूषपट', 'पुष्कर-प्रभा', 'संगीतसुधा', 'भक्ति के स्वर', 'सायर के मोती', 'अमर-पुष्पांजलि आदि शीर्षकों से प्रकाशित हुए हैं। अप्रकाशित भजनों का परिमाण भी बहुत अधिक है।
मानव हृदय की अबोल वाणी को स्वर देने में, झंकृत करने में संगीत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एतदर्थ ही मध्यकालीन सन्तों ने अपनी धार्मिक वाणी को विविध राग-रागिनियों से सम्युक्त कर मानवीय संवेदना को जागृत करने का सफल प्रयास किया है। कबीर, नानक, सूर, तुलसी, मीरा, आनन्दघन, यशोविजय, समयसुन्दर प्रभृति सन्तों ने अपनी-अपनी भक्ति भावनाओं की श्रद्धांजलि संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
आपश्री के काव्य में भाषा की सरलता, शैली की सहजता, तथा लोकप्रिय धुनों का सुन्दर सामंजस्य है। लोकप्रिय धुनों पर लिखे गए आपके गीत बहुत प्रभावशाली हैं। आपका ध्यान केवल
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वैयक्तिक साधना तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु विभिन्न राष्ट्रीय एवं मानवीय समस्याओं के प्रति भी आप सदैव सजग रहे। आपश्री के गीतों में निरर्थक फिल्मी गीतों की तरह बिजली की तड़क, सर्चलाइट की चकाचौंध या सर्कस की कलाबाजी नहीं है, किन्तु जो कुछ भी है वह सहज है, सुन्दर है, सरल है और सौम्य है।
इनका लक्ष्य ?
लक्ष्य स्पष्ट है - जन-जन के मन को स्वस्थ बनाना और भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर मोड़ना है। अन्य शब्दों में, मानव को जीवनोत्थान की मंगलमय प्रेरणा प्रदान करना है।
आपके गीत स्तुतिपरक, उपदेशपरक और प्रकीर्णक हैं। स्तुतिपरक रचनाओं में कवि ने प्रसिद्ध आराध्यदेव तीर्थंकर, विहरमान तीर्थंकर गणधर और सतियों की स्तुति की है। इन रचनाओं में शैली एक ही रही है। कवि को ऐश्वर्य, धन, यश आदि की रंचमात्र भी कामना नहीं है, वह तो केवल भवसागर से पार होना चाहता है। सन्त होने के कारण कविता साध्य नहीं, साधन है।
उपदेशपरक रचनाओं में कवि ने हेय बातों को त्यागने और उपादेय बातों को ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित किया है।
प्रकीर्णक रचनाएँ वे हैं, जो दोनों उक्त वर्गों में नहीं आती हैं। ये रचनाएँ समय-समय पर श्रोताओं को उद्बोधन देने हेतु रची गई हैं।
चरित काव्य
ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन चरित्र को आधार बनाकर काव्य-रचना करने की प्रवृत्ति अतीत काल से रही है। जैन साहित्य, में भी चरित्र काव्यों की लम्बी परम्परा है।
चरित्र के माध्यम से जीवन-निर्माण की पवित्र प्रेरणा दी जाती रही है। गुरुदेवश्री ने भी क्षमावीर उदायी, द्रोपदी की आदर्श क्षमा, सत्यान्वेषी आचार्य शय्यम्भव, बालर्षि मणक, महामात्य शकडाल, श्रुतकेवली आचार्यश्री भद्रबाहु महायोगी स्थूलभद्र कोशा गणिका का कला-कौशल, यक्षा साध्वी, चाणक्य और चन्द्रगुप्त, बुढ़िया की सीख, अवन्ति सुकुमाल का त्याग, आर्य मंगू, महान् प्रभावक आर्य वज्रस्वामी, वज्रसेन की भविष्यवाणी, आचार्य आर्यरक्षित, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, युगप्रधानार्च नागार्जुन, देवर्धिगणी क्षमाश्रमण, आचार्य हरिभद्र आचार्य मानतुंग, सम्राट् सम्प्रति श्री रत्नाकर सूरि सूरि सम्राट् श्री हीरविजय जी, कवि धनपाल की सेवा, कुमारपाल की घोषणा, जैन श्राविका का साहस, भोज का भाग्य, देशप्रेमी भामाशाह, दयाधर्म की विजय, अशीच भावना सबसे बड़ा कौन ?, वृद्धा की सामायिक, सत्यवादी मुहणसिंह, धृतराष्ट्र की दुष्टता, भौतिक सुख में सार नहीं, काल का असर, आचार्य अमरसिंह जी महाराज, आचार्य श्री तुलसीदास जी महाराज, आचार्य श्री सुजानमल जी महाराज, आचार्य श्री जीतमल जी महाराज, आचार्य श्री ज्ञानमलजी महाराज, आचार्य पूनमचन्द जी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
महाराज, अध्यात्मयोगी जेठमल जी महाराज, महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज, आदि अनेक ऐतिहासिक महापुरुषों पर आपश्री ने अनेक खण्ड काव्य लिखे हैं।
सुरसुन्दरी चरित्र, रत्नदत्त चरित्र, मानतुंग मानवती चरित्र, गुणाकर गुणावली चरित्र, पुण्यसार चरित्र, सुखराज चरित्र, अमरसेन- वीरसेन चरित्र, वैराग्यमूर्ति जम्बूकुमार चरित्र, पाप-विपाक (बाल हत्यारा), पापों का फल (भला और बुरा) कर्म विपाक, स्वार्थ का खेल, महामंत्री उदयन, धनतेरस, दुःख का कारण, हिन्दुओं की गौरव गरिमा, सुशीला की सुशिक्षा, बादशाह की न्यायप्रियता कृत कारित का फल, एक वचन का प्रभाव, महामंत्र नवकार, परोपकार वृत्ति, मृत्यु का भय, सर्वज्ञप्रभा, पाप का बाप, कर्मों का कर्जा, कसाई केवली, त्याग की महिमा, गिरिधर की मोहलीला, निस्पृह सन्त गोरखनाथ, केशरिया मोदक, गोपीचन्द राजा, मम्मण सेठ, नरभव की महिमा, चमड़ी की परख, कुमारपाल, अमरजड़ी, शीतलापूजन, मातृसेवा, सफलता का मूल भाग्य, महात्मा गाँधी, दाड़िम सेठ, अनुकम्पा की महिमा, लक्ष्मीधर सेठ, जीवरक्षा का महत्त्व, सम्राट् सम्प्रति भोज का भाग्य अशीच भावना, पूनिया श्रावक, वचन का महत्त्व, दया की भावना, नियम की दृढ़ता, दान में अभिमान, गांगेय से भीष्म, स्त्री का सेवाभाव, गुरुभक्त एकलव्य, छल का फल, दान का दोष, कीचक का नाश, सबसे बड़ा दुःख, क्रोध की आग, न्याय की बात, कर्ण का दान, एक सेर सतुआ, परोपकारी भीम, भाई का भाई, योग्यता बढ़ाइये, जीवरक्षा की शिक्षा, हाय गरीबी, द्रौपदी की क्षमा, अद्भुत दान, अर्जुन का आदर्श, धर्म की अडिगता, सच्ची सलाह, वशीकरण का रहस्य, समय बड़ा बलवान, अतिथि देवो भव, ऊँचा मनोबल, विजय का मार्ग, एक चुनाव, छोटी-सी भूल, नियम का प्रभाव, गुण की दृष्टि, एक अनुपम सहयोग, दासी या स्वामिनी ?, असली तीर्थयात्रा, प्राणघाती की प्राणरक्षा, जाजली और तुलाधार, अतिलोभ एक दुर्दशा, छह गुरु, भाग्य की बात, आत्मा को देखो, गलत निर्णय, चोरी का दण्ड, विनय की विशेषता आदि शताधिक चरित्र और खण्डकाव्य आपश्री ने लिखे हैं । उनमें से कुछ चरित्र 'ज्योतिर्धर जैनाचार्य' 'विमल विभूतियों', वैराग्यमूर्ति जम्बूकुमार, महाभारत के प्रेरणा प्रदीप आदि कुछ प्रकाशित हुए। हुए हैं तथा बहुत से अप्रकाशित है।
इतिहास मानव जाति की बहुत बड़ी अमूल्य सम्पदा है। अतीत की महत्त्वपूर्ण घटनाओं और चली आ रही परम्परागत धारणाओं का यथार्थ चित्रण इतिहास में मिलता है। भारतीय धर्म, दर्शन और समाज की ऐतिहासिक परम्परा अत्यधिक समृद्ध रही है। यह एक ज्वलन्त सत्य है कि व्यष्टि की अपेक्षा समष्टि को व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्त्व देने के कारण भारतीय परम्परा में इतिहास का जिस प्रकार लेखन अपेक्षित था, उस रूप में न हो सका। किन्तु इतिहास लेखन के विविध स्रोत किसी न किसी रूप में सुरक्षित अवश्य रहे हैं। महाकाल के झंझावात में भी वे स्रोत लुप्त
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिः साहित्य सर्जना करते हुए
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श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर के पदाधिकारीगण
श्रीमान संपत्तिलाल जी बोहरा (उदयपुर)
श्री रोशनलाल जी मेहता (उदयपुर)
समाजरल
श्री चुन्नीलाल जीसा धर्मावत (उदयपुर)
श्री डालचन्द जी सा. परमार (पदराडा)
शिक्षक नेता श्री भंवरलाल जी सेठ
(चादर समारोह के प्रेस प्रवक्ता)
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। वागू देवता का दिव्य रूप
२८१ नहीं हुए हैं। महाभारत के लेखक वेदव्यास ने लिखा है-'इतिहास वस्तुतः इतिहास धर्म और समाज को जीवित रखने वाली की यत्नपूर्वक रक्षा की जानी चाहिए। धन आता है, जाता है, उसके । संजीवनी बूटी है। नष्ट होने पर कोई नष्ट नहीं होता, किन्तु इतिहास के नष्ट होने पर
इतिहास क्या है?-इस पर चिन्तन करते हए प्रसिद्ध पाश्चात्य समाज का भी विनाश होता है।'
विचारक कार्लाइल ने लिखा है-जीवनियाँ ही सच्चा इतिहास है। एक अन्य विचारक ने लिखा है-यदि किसी जाति, समाज या
। उन जीवनियों में महापुरुषों की अमर गाथाएँ उटंकित होती हैं, राष्ट्र को नष्ट करना हो, उसे अपनी गौरव-गरिमा को नष्ट करके
। जो जन-जन के अन्तर्मानस में संयम-साधना, तप-आराधना और दुर्भाग्य के दुर्दिन देखने के लिए सर्वनाश के महागर्त में गिराना हो,
मनोमंथन की प्रबल प्रेरणाएँ प्रदान करती हैं, साथ ही, कर्तव्य मार्ग करने की आवश्यकता नहीं, बस एक ही कार्य किया। में जूझने के लिए सन्देश और साहस भी जुटाती हैं। जाय कि उसका इतिहास उससे छीन लिया जाय।
___गुरुदेवश्री ने जैन इतिहास की उन विमल विभूतियों की वे इतिहास के वे स्वर्णपृष्ठ जिनमें उसके पूर्वजों की गौरव गाथाएँ अंकित हैं, उनको विपरीत रूप में उपस्थित किया जाय, जिससे वह
पावन गाथाएँ चित्रित की हैं जिनमें प्रेरणा है, भावना है, साधना है।
सम्राट् उदाई और द्रौपदी के चरित्र में क्षमा की महत्ता का प्रतिपादन देश, समाज व राष्ट्र अथवा धर्म भी, पतन की ओर सहज ही
किया गया है। क्षमा कायरों का नहीं, अपितु वीरों का भूषण है। अग्रसर हो जायगा।
क्षमा वही व्यक्ति कर सकता है जिसके जीवन में तेज है, ओज है, जब कोई देश, समाज, राष्ट्र या धर्म हीन व दीन भावनाओं से । वीरता है। ग्रसित हो जाता है, अपने महत्त्व से विस्मृत हो जाता है, तो उसे
क्षमा धर्म की साधना करते वीर समर्थ। प्रतिपल यही सुनाया जाता है कि तुम कुछ नहीं हो। तुम्हारे पूर्वजों
शक्तिहीन रखते क्षमा, उसका क्या है अर्थ? में किंचित्मात्र भी सामर्थ्य नहीं था। उन्होंने अपने जीवन में कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया।
मार सके, मारे नहीं, उसका नाम मरह।
जिसकी हो असमर्थता, उसकी कृतियाँ रह॥ जब ये बातें सुनाई जाती हैं तो उस देश, समाज, राष्ट्र या धर्म की श्रेष्ठ परम्पराएँ भी स्वतः छिन्न-विच्छिन्न होने लगती हैं। उसके
क्षमा बड़े ही कर सकते हैं, क्षुद्र क्षमा कब कर पाते? रक्त की ऊष्मा ठंडी पड़ जाती है तथा वह पतन की ओर अग्रसर निर्बलता से पिसे हुए नर, बड़-बड़ करते मर जाते। होने लगता है।
-कवि की शब्द चेतना इतनी प्रबुद्ध तथा सशक्त है कि नीति, मनोविज्ञान भी यही कहता है। जो व्यक्ति हीन भावनाओं के धर्म, दर्शन की गुरु-गंभीर ग्रन्थियाँ भी बड़ी सुस्पष्ट व सुबोध भाषा कीटाणुओं से ग्रसित होगा, वह क्षय रोगी की भाँति अन्दर ही
में प्रस्तुत करने में स्वयं की शक्ति दर्शाती है। द्रौपदी के क्षमा-प्रसंग अन्दर से खोखला हो जाता है।
पर कवि ने लिखा हैयदि ऐसे व्यक्ति को इस रोग से मुक्त होना है तो उसे अपने
हिंसा का प्रतिकार न हिंसा, हिंसा का प्रतिकार अहिंसा? पूर्वजों के पवित्र चरित्र से प्रेरणाएँ ग्रहण करनी होंगी। उसे समझना प्रेम शान्ति सुख-धाम होगा कि उन यशस्वी पूर्वजों का ऊर्जस्वल रक्त अब भी मेरी हिंसक को क्यों मारा जाये, उसका हृदय सुधारा जाये, धमनियों में प्रवाहित है।
सुना सत्य पैगाम बेकन बहुत गंभीर विचारक था। उसने कहा है-इतिहास पढ़ने आग, आग से नहीं बुझाओ, जल बनने का मार्ग सुझाओ, से मानव बुद्धिमान बनता है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने लिखा है- पाओ सुख आराम स्वदेशाभिमान सिखाने का इतिहास सबसे बड़ा साधन है। गिब्बन
-गुरुदेवश्री की कविता को पढ़ने में, सुनने में, समझने में का यह लिखना सर्वथा अनुचित है कि इतिहास मानव के अपराध,
किसी टीका या कुन्जी की आवश्यकता नहीं पड़ती। कविता इतनी मूर्खताओं और दुर्भाग्यों के रजिस्टर के अलावा कुछ नहीं है। इसके
सरल व भावोद्बोधिनी है कि प्रबुद्ध पाठक उसे सहज रूप से विपरीत इतिहास तो मानव-जीवन को उन्नत बनाने का महत्त्वपूर्ण
समझता चला जाता है। उनका काव्य केवल मनोरंजन अथवा साधन है।
काव्यानन्द के लिए ही नहीं, अपितु आदर्श जीवन दर्शन के लिए है। इतिहास लड़खड़ाती जिन्दगियों में नवजीवन का संचार करता उसमें जीवन-संगीत की सरस लय है। उनकी कविता अलंकारों से है। भूले-भटके जीवन का पथ-प्रदर्शन करता है। अपने अतीत की लदी हुई नव दुल्हन की तरह बन-ठनकर प्रस्तुत नहीं होती, अपितु गौरव-गाथाओं का स्मरण करने से मनुष्य के जीवन में प्रबल सीधी, सरल, सात्त्विक जीवन संगिनी की तरह है। साथ ही उनकी पराक्रम का संचार होता है।
भाषा चुस्त, अनुभूतियों से परिपूर्ण और चुटीली है।
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महादानी कर्ण के प्रसंग पर
धन हो चाहे पास में, दिया न जाता दान।
देने वाला ही यहाँ माना गया महान् ॥
कर्ण ने जब अपने कठोर कवच-कुण्डल तक भी दान कर दिए तब भी
मलिनता मुख पर न झलकी, देख छल होता हुआ। दान वह भी दान क्या, दिल दे अगर रोता हुआ ।।
सहजता तथा सचाई की दृष्टि से यह कितनी मार्मिक उक्ति है ? दान तो देना ही चाहिए, किन्तु दानी के हृदय में उसके लिए न गर्व होना चाहिए और न ही दुःख ।
इसी प्रकार भीम के परोपकार प्रसंग पर वक्र-असुर का यह कथन भी काव्य-सौंदर्य की कसौटी पर कितना खरा उतरता है
अरे दुष्ट डरता नहीं, क्यों खाता यह माल? माल जिसे तू मानता, माल नहीं वह काल ॥
भाई के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कवि सहज रूप से ही कितनी गम्भीर बात कह जाता है
भारत की यह रीति रही है, भाई अपना भाई है। कभी-कभी भाई-भाई में होती क्या न लड़ाई है? भाई कहाँ पीठ का मिलता, मिलता कंचन गाँठ का भाई से बढ़कर क्या होती, मीठी यहाँ मिठाई है?
उपरोक्त पंक्तियों में भाई के महत्व तथा मधुर एवं प्रगाढ़ सम्बन्धों का अति सुन्दर चित्रण है।
वैराग्यमूर्ति जम्बूकुमार चरित्र में विविध घटनाओं और भावों को व्यक्त करते हुए कवि ने अत्यन्त सुकुमार शब्दावली का प्रयोग किया है। देखिए उदाहरण
परम प्रभावक प्रभव के, परम पूज्य गुरु आप। जम्बूजी की जीवनी, पूर्णतया निष्पाप ॥
बोले बिना, बिना डोले ही और बिना खोले ही आँख । अनुमति दे दी है दीक्षा की, भोले पति के सन्मुख झाँक ॥ देता दान मान भी देता, होने देता मान नहीं । मान दान का होना क्या है, दाता का अपमान नहीं ॥
मानव की भावनाओं को प्रांजल करने हेतु कवि ने यत्र-तत्र नैतिक जीवन का उपदेश भी दिया है
स्वास्थ्य विरोधी द्रव्य मिलाकर, द्रव्य कमाने वाले जन । धन का सपना नहीं देखते, केवल खुश कर लेते मन ॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
शक्ति संगठन में
होती है, इसीलिए सब रहते एक।
सभी एक हों, सभी नेक हों, इसमें ही हैं सिद्धि अनेक ॥
निराशावाद जीवन के लिए हितकारी नहीं है। अतः निराशावाद
का खण्डन करते हुए कवि कहता है
चलने वाले राही ही तो रास्ता भूला करते हैं।
डाली टूटा करती उनकी जो नर झेला करते हैं । गिरते जो घोड़े चढ़ते थे, नहीं पिसाटा गिर सकती, उपल बीनने वाली बुढ़िया, क्या सेना से घिर सकती?
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर भी कवि ने अच्छा व्यंग किया है। और कहा है कि जो शिक्षा बालकों में विनय की भावना न भरती हो, उनके विवेक को उबुद्ध न करती हो, जो मानव को मानव के साथ प्रेमपूर्वक रहना न सिखाती हो, जिसे स्वयं अपना ही ज्ञान न हो वह शिक्षा क्या है? उस शिक्षा से तो भिक्षा माँगना ही भला । कवि के मार्मिक शब्द हैं
सदुपयोग शिक्षा का करना, सौ शिक्षा की शिक्षा एक । वह शिक्षा क्या शिक्षा है जो सिखला पाती नहीं विवेक! पढ़कर भी इतिहास आप में जगा आत्मविश्वास नहीं। उस दीपक को दीप कहें क्या, जिसके पास प्रकाश नहीं ॥
जिज्ञासा ही दर्शन की जननी है। बिना जिज्ञासा के व्यक्ति सत्य-तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकता। धर्म का सही मर्म वही व्यक्ति समझ सकता है जिसके अन्तर्मानस में प्रबल जिज्ञासा है। कवि ने सत्य ही कहा है
धर्म-धर्म कहते सभी धर्म-धर्म में फर्क । मर्म धर्म का समझ लो, करके तर्क-वितर्क ॥
जीवन में कभी उन्नति होती है और कभी अवनति होती है। यह एक झूले की तरह है जो कभी ऊपर तो कभी नीचे आता-जाता रहता है। महामात्य शकडाल और वररुचि के जीवन-प्रसंग को चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है
क्या से क्या होता घटित, अघटित सारा कार्य। इसीलिए अध्यात्म पर बल देते सब आर्य ॥ बादल प्रतिपल में यथा, बदला करते रंग।
रंग बदलता देखिए, अंगी का निज अंग ॥
आहार जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। बिना आहार के न ज्ञान हो सकता है, न ध्यान हो सकता है और न प्रचार ही हो सकता है। कवि ने इसी तथ्य को अपनी भाषा में इस प्रकार व्यक्त किया है
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श्रम स्वाध्याय नहीं हो पाते, मिलता जब आहार नहीं । जब आहार नहीं मिलता तब होता पाद-विहार नहीं ॥
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वाग् देवता का दिव्य रूप
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होता पाद-विहार नहीं तब, होता धर्म प्रचार नहीं।
दान धर्म का प्रवेश द्वार है। दान की महत्ता पर चिन्तन करते होता धर्म-प्रचार नहीं तब, रहता एक विचार नहीं।
हुए कवि ने लिखा है कि दुर्भिक्ष के समय उदारता से दान दो। उस रहता एक विचार नहीं तब, आस्थाएँ मर जाती हैं।
समय पात्रापात्र का विचार न करो। क्योंकि जो व्यथित है, उसे देना । शक्ति बिखर जाती संघों की, प्रभावना गिर जाती है।
ही तुम्हारा संलक्ष्य होना चाहिए। देखियेप्रभावक व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए कवि ने जो शब्द-चित्र
पात्रापात्र विचार को यहाँ नहीं अवकाश। प्रस्तुत किया है वह बड़ा अद्भुत है
देता है आदित्य भी सबको स्वीय प्रकाश।
जो प्राणों का पात्र है, वह दानों का पात्र। उन्नत मस्तक दीर्घ भुजाएँ,
जो पढ़ने में तेज है, वही श्रेष्ठतम छात्र॥ भव्य ललाट, हृदय बलवान। क्षात्र तेज के साथ रूप ने,
-साधना की दृष्टि से साधक को निरन्तर साधना करनी बना रखा था अपना स्थान॥
चाहिए। उसे किसी प्रकार के चमत्कार की आकांक्षा नहीं करनी चौड़ी छाती, स्कन्ध सुदृढ़ थे,
चाहिए और न चमत्कार का प्रदर्शन ही करना चाहिए। कवि
चमत्कार-प्रदर्शन का निषेध करता हुआ कहता हैनेत्र विशाल सुरंग विशेष। रंग गेहुआँ होता ही है,
चमत्कार है ब्रह्मचर्य तप, आकर्षण का केन्द्र हमेश॥
चमत्कार है व्रत-संयम। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता-सदृश माना गया है।।
चमत्कार दिखलाने वाला, 'अतिथि देवो भव' यहाँ का मूल स्वर है। जब अतिथि घर पर
चमत्कार को करता कम॥ आए, तब गृहस्वामी का कर्तव्य है कि वह उसका स्वागत करे। चमत्कार दिख जाया करता, कवि ने इसी बात को कितने सुन्दर ढंग से कहा है, देखिए
दिखलाने का करो न मन। रोटी और दाल से बढ़कर भोजन क्या हो सकता है?
विद्युत चमत्कार दिखलाकर, आया हुआ अतिथि अपने घर, क्या भूखा सो सकता है?
शीघ्र छुपाती अपना तन॥ आश्रय दो, दो भोजन-पानी, अपनापन दो, दो सत्कार।
दुष्ट व्यक्ति, चाहे कैसा भी संयोग मिले, किन्तु अपनी वृत्ति को आये अतिथि न अर्थ माँगने, नहीं व्यर्थ का ढोओ भार। नहीं छोड़ता। वह शिष्ट के साथ भी दुष्ट प्रवृत्ति करने से नहीं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की कवि ने संक्षेप में अति सुन्दर
चूकता। कवि ने ऐसे ही दुष्ट मानव की प्रवृत्ति का चित्रण करते परिभाषा की है
हुए लिखा हैद्रव्य त्याग से है बड़ा, देह त्याग का राग।
नहीं छोड़ता दुष्ट दुष्टता, होता ही है जीव का, देहाश्रित अनुराग॥
उसका ऐसा बना स्वभाव। यह मैं, मैं यह, इस तरह लेता है मन मान।
गिरिशिखरों पर, सड़कों में ज्यों, यही बड़ा मिथ्यात्व है, यही बड़ा अज्ञान ।।
___पाये जाते बड़े घुमाव। देह भिन्न, मैं भिन्न हूँ, जब लेता मन मान।
मोर मधुर बोला करता है, सम्यग्दर्शन है यही, है यह सम्यग्ज्ञान॥
अहि को किन्तु निगल जाता। साधक को उद्बोधन देते हुए कवि ने कहा कि जिनशासन के
भले नली में डालो, पर, क्या, लिए तुम्हें न्योछावर हो जाना चाहिए। जब तक तुम जिन- शासन
श्वान-पुच्छ का बल जाता? के प्रति सर्वात्मना समर्पित नहीं होओगे तब तक जिन- शासन की तलो तेल में, भले महल में, सच्ची समुन्नति नहीं हो सकती। अतः वह कहता है
गन्ध प्याज की कब जाती? जिन-शासन के लिए आप भी जीवन दान करो अपना। मार्जारी के मन में मूषक-गण पर अगर कभी देखा हो जो कुछ, वह तो सही करो सपना ।
दया नहीं आती॥ सुत दो, कन्याएँ दो, धन दो, और समय दो, सेवा दो ।
काव्य के भाषा-सौष्ठव तथा उक्ति-वैचित्र्य का एक सुन्दर श्री जिनशासन अपना शासन, समझ प्रेम का मेवा लो॥ उदाहरण देखिए
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । कालिन्दी के काले जल ने
-जैन सन्त की परिभाषा आपने इस प्रकार दी हैकिया नहीं किसको काला?
महाव्रतों की कठिन साधना, नव विधि से जीवन पर्यन्त। क्यों न निराला होगा उसका
करने वाले महापुरुष को, माना जाता जैनी सन्त॥ सुष्टु स्वरूप बड़ा आला। केवल यमुना का जल काला,
समता सहित, रहित ममता से, कालापन पुर में न कहीं,
विहरण करता भूतल पर। अथवा कालापन केशों में
नहीं किसी के बल पर जीता, कालापन उर में न कहीं।
जीता है अपने बल पर॥ सरसता, रमणीयता, शब्द और अर्थ में गाम्भीर्य-ये काव्य के
आचार्य अमरसिंहजी का वर्णन करते हुए अनुप्रासों की उत्तम तात प्रमुख गुण हैं। जो काव्य रसयुक्त हो और दोषमुक्त हो, वही
छटा दर्शनीय है26 रमणीय है। काव्य में रमणीयता और सुन्दरता लाने हेतु प्राचीन
काल में अलंकारों का प्रयोग विशेष रूप से होता रहा है। गुरुदेवश्री उत्तम आकृति, उत्तम व्याकृति, ने अलंकारों को कभी उद्देश्य तो नहीं माना, किन्तु उनके काव्य में
उत्तम व्यवहृति, मति उत्तम। 6 भी यथास्थान सहज रूप से अनुप्रास, उदाहरण, उपमा, रूपक
उत्तम उपकृति, धृति अति उत्तम, प्रभृति अलंकार आये हैं, जिन्होंने उनके काव्य को अधिक सौंदर्य
उत्तम व्यापृति, गति उत्तम॥ D. प्रदान किया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
अहिंसा का विश्लेषण करते हुए कवि ने बहुत ही सुन्दर सत्पुरुषों के स्पर्श से होती धारा पवित्र।
भाव-शब्दों की लड़ियों की कड़ियों में पिरोये हैंबनता वायु सुगन्धमय पाकर उत्तम इत्र॥ (उपमा)
तत्त्व अहिंसा से सात्विकता, फूल सूंघने फल खाने को, गाने को आकाश मिला।
सात्विकता में सत्व निवास। कौन पूछता पोस्ट कौन-सा और कौन-सा लिखें जिला॥
सत्व सहित जीवन का होता (उदाहरण)
बहुत महत्व, विशेष विकास॥
स्वतन्त्रता, सम्पत्ति सत्व में, बोले बिना, बिना डोले ही और बिना खोले ही आँख।
(अनुप्रास)
अतः अहिंसा धर्म प्रधान। धर्म अहिंसा से सहमत हैं, x
आगम, वेद, पुराण, कुरान॥ जम्बू की गति में जब देखी अजब गजब वाली मस्ती।
सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व्रत, राजहंस, ऐरावत डरकर, छोड़ गए शहरी बस्ती॥ (रूपक)
एक अहिंसा के हैं अंग। आर्य वज्रस्वामी के पवित्र चरित्र में दीक्षा का वर्णन करते हुए
बिना अहिंसा फीका लगता, 60 जो अनुप्रास सहज रूप से प्रयुक्त हुए हैं, वे प्रेक्षणीय हैं
धर्म-रु उपदेशों का रंग। दीक्षा-शिक्षा गुरु से पाई, भिक्षा पाई लोगों से।
जैन श्रमणों की वेशभूषा में मुखवस्त्रिका का प्रमुख स्थान है। पूर्ण तितिक्षा मुनि ने पाई, निज अनुकूल प्रयोगों से॥
जैन श्रमण मुखवस्त्रिका क्यों धारण करते हैं, यह बात कवि ने 2002 युवक अमरसिंह ने संसार की स्थिति का चित्रण करते हुए सरल और सरस शब्दों में बताया हैRR अपनी मातेश्वरी से कहा कि संसार में प्रत्येक जीव के साथ अनन्त न बार संबंध हो चुका है, फिर बिछुड़ने और मिलने पर शोक और
मुख्य चिह्न मुखवस्त्रिका, जैन सन्त का जान। आनन्द किस बात का? कवि ने इसी को अपने शब्दों में व्यक्त
बचा रही है प्रेम से, वायुकाय के प्राण ॥ 6 किया है
वह गिरने देती नहीं, सन्मुख स्थित पर थूक। 930 या ऐसा जीव नहीं है जग में, जिससे जुड़ा न हो संबंध।
कहती अपने वचन से कभी न जाना चूक॥ 15.90.00
मिलने और बिछुड़ने पर फिर कैसा शोक तथा आनन्द? 388
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| वाग् देवता का दिव्य रूप “खुले मुँह बोले नहीं" यह संयम का मूल।
वीरा आई जो, वीरा आई जो, थे तपस्या रे माय हो। बाँधे जो मुखवस्त्रिका, सम्भव क्यों हो भूल?
वीरा थां बिना सूनो लागसी जी॥ बाल्य-जीवन का वर्णन करते हुए कवि ने उत्तम माता की वीरा जग में, वीरा जग में सगलो साथ हो। सन्तान उत्तम होती है, यह प्रतिपादन किया है। उसके कुछ पद्य वीरा मिल्यो न मिल जावसी जी॥ देखिए
-भाई बहन को उत्तर देता हैउत्तम शिशुओं की माता भी,
बेनड़ आयो बेनड़ आयो मैं मरुधर सूं चाल हो। होती उत्तम गुण वाली।
बेनड़ तपस्या रो भाव देखने जी॥ उत्तम फूल उगाने वाली,
बेनड़ थारो, बेनड़ थारो, मैं धर्म रो वीर हो। उत्तम होती है डाली॥
बेनड़ लायो मैं तपस्या री चूंदड़ी जी॥ उत्तम रंग, अंग भी उत्तम,
आपने मोहग्रस्त व्यक्तियों को फटकारते हुए कहा हैउत्तम संग मिला सारा।
आयो केवाँ ने, वाह-वाह आयो केवाँ ने। उत्तमता को जाना जाता,
थे अमर नहीं ठोरे वाने के आयो केवाँ ने॥ उत्तम लक्षण के द्वारा॥ ग्राम्य संस्कृति का चित्रण करते हुए आपश्री ने लिखा हैगाँवों में है धर्मलाज शुभ, गाँवों में है नैतिकता।
कूड़-कपट कर माल-कमाई, तिजोरी में राख्यो हो।
कालो धन नहीं रेला थारे, इन्दिरा भाख्यो हो॥ बसी वास्तविकता गाँवों में, शहरों में है कृत्रिमता॥ धर्म के मर्म पर प्रकाश डालते हुए कवि ने कहा है
गुरुदेवश्री निस्संदेह, निर्विवाद रूप से एक सुलझे हुए, समर्थ,
सफल कवि थे। उनकी कविताओं में भाषा की दुरूहता नहीं, किन्तु दूध-दूध होते नहीं, सारे एक समान।
भावों की गम्भीरता है। यह एक सामर्थ्यवान कवि में ही संभव हो अर्क दुग्ध के पान से पुष्ट न बनते प्राण ॥
सकता है। धर्म-धर्म कहते सभी, धर्म-धर्म में फर्क।
उनका अधिकांश कविता-साहित्य अप्रकाशित है। आपश्री ने मर्म धर्म का समझ लो, करके तर्क-वितर्क ॥
जैन-इतिहास के उन ज्योतिर्धर नक्षत्रों के जीवनों को चित्रित किया आधुनिक मानव-समाज नैराश्य, कुण्ठा, सन्त्रास, विघटन आदि
है, जिनका जीवन प्रेरणाप्रद रहा है। कवि के काव्य का आधार भयंकर व्याधियों से पीड़त है। आपश्री की दृष्टि से उन व्याधियों से
सदाचार, सत्य, अहिंसा आदि मानवीय सद्गुणों का प्रकाशन है। मुक्त होने के लिए तप, त्याग, वैराग्य-ये साधन संजीवनी बूटी के
आपश्री का काव्य-साहित्य भाषा, अलंकार, कला आदि दृष्टियों से समान हैं। यदि मानव इन सद्गुणों की उपासना करे तो उसका
सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर एवं श्रेष्ठ है। जीवन आशा व उल्लास से भर सकता है। आपश्री ने अपने काव्य आपश्री के काव्य की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैंमें सर्वत्र यही प्रेरणा दी है।
१. भाषा भावों को वहन करने में पूर्ण सक्षम है। आपश्री की काव्य शैली की भाषा प्रवाहपूर्ण व प्रभावशाली है।। २. चिन्तन में स्पष्टता व तेजस्विता है। शब्दों का सुन्दर संयोजन, विचारों का सुगठित स्वरूप और
३. काव्य में लयात्मकता के साथ मनोहारी सहज तुकान्तता अभिव्यक्ति की स्पष्टता आपकी सजग शिल्प-चेतना का स्पष्ट
भी है। उदाहरण है। आपके काव्य में सहजता, तन्मयता और प्रगल्भता का सुन्दर संयोजन हुआ है।
४. कविता में शब्दाडम्बर नहीं है, तथा वह सहज और
हृदयग्राही है। भाषा की दृष्टि से आपश्री का काव्य-साहित्य हिन्दी, राजस्थानी
५. काव्य का उद्देश्य और लक्ष्य स्पष्ट है। और संस्कृत में रहा है। समय-समय पर आपश्री ने राजस्थानी भाषा में भी प्रकीर्णक कविताएँ लिखी हैं। जैन-साधना में तप का
६. गहन-गंभीर बात को संक्षेप में सूक्ति रूप में कहने में कवि अत्यधिक महत्व रहा है। जब बहनें तप करती हैं, तब उन्हें भाई
पूर्ण दक्ष है। की सहज स्मृति हो आती है। आपने बहन की भावना का चित्रण ७. काव्य की मात्रा जहाँ विपुल है वहाँ पर काव्य-कला की राजस्थानी भाषा में इस प्रकार किया है
श्रेष्ठता व ज्येष्ठता भी अक्षुण्ण है।
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।२८६ .
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । देवी सरस्वती एक साथ इतने वरदान यदा-कदा, किसी-किसी ब्रह्मचर्य जगति तनुते, ब्रह्मचर्य प्रशस्तम्, GODS4 को ही प्रदान करती है।
यस्योत्कर्ष भुवनविदितं, कोऽपि वक्तुं न शक्तः। संस्कृत-साहित्य
रम्यं रूपं स्पृशति तृणकं, लज्जमानं परन्तु,
स्वस्यास्तित्वं कथमपि धरन् नृत्यतीदं तदग्रे॥ अमृत से छलकता हुआ कलश कहीं पड़ा हो और उसकी उपमा यदि खोजनी पड़े, तो संभवतः संस्कृत भाषा के श्रेष्ठ साहित्य
अर्थात्, संसार में प्रशस्त ब्रह्मचर्य ने महान् आश्चर्य फैला रखा से ही उसकी उपमा दी जा सकती है।
है। जिस ब्रह्मचर्य के विश्व-विख्यात वैशिष्ट्य को कोई भी कहने के
लिए समर्थ नहीं हो सका है। यहाँ तक कि रमणीय रूप भी लज्जित समस्त विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने प्राचीन संस्कृत साहित्य की
होकर तिनके तोड़ने लगता है। किन्तु यह अपने अस्तित्व को इसी श्रेष्ठता को मुक्त कंठ से सराहा है।
प्रकार रखकर ब्रह्मचर्य के समक्ष नृत्य करता है। अर्थात्, यह __यह दुर्भाग्य की ही बात है कि आज भारतवर्ष में संस्कृत भाषा ब्रह्मचर्य ही जगदुत्तम है। काफी उपेक्षित-सी ही चुकी है। यहाँ तक कि संस्कृत का उच्च तथा
आचार्य सम्राट् अमरसिंह जी महाराज के चरित्र के सम्बन्ध में शोधपूर्ण अध्ययन करने के लिए भारतीय छात्रों को विदेशों में
कवि अपनी विनययुक्त भावना इस प्रकार अभिव्यक्त करता हैजाना पड़ता है, विशेष कर जर्मनी तथा फ्रांस आदि देशों में।
सत्सुश्रेष्ठं श्रुतिमतियुतं ज्ञानिगुण्येषु वन्द्यम्, ____ संस्कृत भाषा भारत की एक अमर थाती है। इसी भाषा को यहाँ के मूर्धन्य मनीषियों ने गंभीर व गहन विषयों के प्रतिपादन हेतु
लक्ष्मीवन्तं प्रथित समिति, सिद्ध गुप्तिं प्रसिद्धम्। अपनाया-सभी प्रकार के सम्प्रदायवाद, पंथवाद, प्रान्तवाद या नत्वाचार्य श्रमणममरं सिंह मेवाभिधानं, जातिवाद आदि कृत्रिम भेदों को भुलाकर।
तस्यैवैतच्चरितमतुलं तायते वित्तवृत्तम् ॥ जहाँ वैदिक मनीषियों ने इस भाषा के भंडार को भरने का । अर्थात्, श्रुति और मति से युक्त, ज्ञानियों और गुणियों में प्रयास किया, वहीं जैन एवं बौद्ध विज्ञगण भी पीछे नहीं रहे। वन्दनीय, समितियों के पालक, गुप्तियों के साधक, प्रसिद्ध सन्तवर उन्होंने भी हजारों ग्रन्थ इस भाषा में लिखे। आचार्य हरिभद्र, आचार्य अमरसिंह जी महाराज को नमस्कार कर मुझ पुष्कर मुनि
आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य मलयगिरि, आचार्य अभयदेव, आचार्य के द्वारा उन आचार्य महाराज का यह जाना हुआ अनुपम पवित्र सिद्धसेन दिवाकर, उपाध्याय यशोविजय जी, आचार्य अकलंक, चरित्र विस्तृत किया जा रहा है। आचार्य समन्तभद्र, विद्यानन्द प्रभृति शताधिक जैनविज्ञों ने संस्कृत
ज्येष्ठमल जी महाराज की स्तुति करते हुए आपश्री ने भाषा में दर्शन, साहित्य, व्याकरण, काव्य आदि विविध विषयों पर ।
लिखा हैजिन ग्रन्थों का सृजन किया, वह भारत की अमर सम्पदा है।
ज्येष्ठमल्ल गुरुदेवं श्रयते, इसी प्रकार बौद्ध विद्वान् अश्वघोष, वसुबन्धु, दिङनाग, नागार्जुन, धर्मकीर्ति आदि महान् विद्वानों ने भी संस्कृत भाषा में
भक्तजनो विजयोऽपि विजयते। न्याय, दर्शन आदि विषयों पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। भजतु निरन्तरमतिकलिवीरम्, परम श्रद्धेय गुरुवर्य की ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण
वचनसिद्ध गुरुदेव गभीरम्॥ प्रारम्भ से ही संस्कृत भाषा के प्रति रुचि रही थी। अपने विद्यार्थी महिमानं लभते रमणीयं, जीवन से ही वे संस्कृत भाषा में लेखन करते रहे। संस्कृत भाषा में
श्रियाः शरण्यं गुणभजनीयम्। उनकी अनेक रचनाएँ हैं। वे सभी रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं।
भजतु निरन्तरमतिकलि वीरम्, 'अमरसिंह महाकाव्य' का प्रथम संस्करण विक्रम संवत् १९९३ में
वचनसिद्ध गुरुदेव गभीरम्॥ प्रकाशित हुआ था, किन्तु बाद में आपश्री को लगा कि रचना अपूर्ण है, अतः उस पर पुनः नवीन रूप से लिखा और वह तेरह सर्गों में अर्थात्-जो ज्येष्ठमल जी गुरुदेव का आश्रय लेता है, वह भक्त स्रग्धरा, शार्दूल-विक्रीड़ित, 'वसन्त-तिलका प्रभृति विविध छन्दों में
| पुरुष एकाकी रहकर भी विजय प्राप्त करता है और इतना ही नहीं, लिखा गया है। इस महाकाव्य में रूपक, वक्रोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा,
वह लक्ष्मी का शरण्य, गुणों से प्राप्त चित्ताकर्षक माहात्म्य का अनुप्रासादि विविध अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। आपश्री के अधिकारी होता है। उत्कृष्ट काव्यों में से यह एक है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं। आचार्य प्रस्तुत काव्य में आपश्री ने ब्रह्मचर्य का विश्लेषण करते हुए | दण्डी ने काव्यादर्शन में, व्यास ने 'अग्निपुराण' में, विद्यानाथ ने एक स्थान पर लिखा है
'प्रतापरूद्र यशोभूषा' में, आचार्य हेमचन्द्र ने 'काव्यानुशासन' में, REPEताततप्तब्य Vain Edijcaudos intemnational Far Piyvana & Personal wing only s
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वाग देवता का दिव्य रूप
अरिस्टोटल ने 'दि आर्ट ऑफ पोयट्री' में, हेगेल ने 'फिलासफी ऑफ फाइन आर्ट्स' में महाकाव्य के लक्षणों का विस्तार से विवेचन किया है। उन सभी के आधार पर महाकाव्य के मुख्य तत्व चार हैं- महान् कथानक, महान् चरित्र, महान् सन्देश और महान् शैली।
महाकाव्य वह सांगोपांग छन्दोबद्ध कथात्मक काव्यरूप है, जिसमें कथाप्रवाह, अलंकृत वर्णन तथा मनोवैज्ञानिक चित्रण से युक्त ऐसा सुनियोजित सांगोपांग और जीवन्त कथानक होता है, जो रसात्मकता या प्रभान्विति उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है। महान् प्रेरणा और महान् उपदेश भी प्रस्तुत काव्य में प्रतीकात्मक या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है। जबकि प्रस्तुत काव्य में काव्य संबंधी रूढ़ियों की जकड़ नहीं है, इसमें कवि ने अपनी स्वाभाविक प्रतिभा का ही प्रयोग किया है। फलतः इसमें स्वाभाविकता और कलात्मकता दोनों एक साथ परिलक्षित होती हैं। इसमें भाषा की जटिलता नहीं, किन्तु सरसता है और अर्थ गंभीरता है जो पाठकों के मन को मोह लेती है।
काव्य मर्मज्ञों ने काव्य के अनेक गुण बताए हैं। आचार्य भामह ने काव्यालंकार में माधुर्य, प्रसाद और ओज-ये तीन मुख्य गुण बताए हैं। माधुर्य और प्रसाद गुण वाली रचना में समासान्त पदों का प्रयोग प्रायः नहीं होता, तो ओज गुणवाली रचना में समास बहुल पद प्रयुक्त होते हैं। आपश्री के प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य इन दो गुणों की प्रधानता है। कहीं-कहीं पर ओज गुण भी परिलक्षित होता है।
आपश्री ने तीर्थंकरों की स्तुति के रूप में अष्टक, एकादशक, दशक आदि विविध रूप में अनेक स्फुट रचनाएँ भी की हैं। जिनमें आपश्री के हृदय की विराट् भक्ति छलक रही है। इस स्तोत्र साहित्य को पढ़ते हुए सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हेमचन्द्र और मानतुंग के स्तोत्र साहित्य का सहज स्मरण हो आता है।
भगवान् ऋषभदेव जैन संस्कृति के ही नहीं, अपितु विश्व संस्कृति के आद्य पुरुष हैं। संस्कृति और सभ्यता के पुरस्कर्ता हैं। भाव-विभोर होकर उनकी स्तुति करता हुआ कवि कहता है
आसीद् यदा जगति विप्लव एक बुद्धेः, जाती जनस्य कृषि कर्मणि वान्यकायें। त्राताऽयमेव विषमे, विषये तदाऽभूत्, तीर्थंकरं तमृषभं सततं नमेयम् ॥
-भगवान् शान्तिनाथ सोलहवे तीर्थंकर हैं। विश्व में शान्ति-संस्थापक हैं। उनके नाम में ही अद्भुत भक्ति है। जिससे सर्वत्र शान्ति की सुरलहरी झनझनाने लगती है। कवि का कथन हैसुशान्तिनाथस्य पदारविन्दयोः, नमस्त्रिकृत्वोऽपि पुनर्मुहुर्मुहुः । नमामि जन्मान्तरकर्मशान्तये, शिवाय भिक्षुस्तव पुष्करो मुनिः ॥
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-भगवान् पार्श्व तेईसवें तीर्थंकर हैं। आधुनिक इतिहासकार भी जिनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। इन भगवान् पार्श्वनाथ की महान् विशेषता का चित्रण करते हुए कवि कहता हैघृतोत्सर्गोद्रेकः प्रभुरपि विभावं न मनसा, स्पृशत्येवं किंचित् कथनीयं पुनरिदम् । भवेन्नाम्नाऽप्येतज् जगतियशसः स्यात्फलमदः, प्रभु पार्श्व वन्दे प्रयमिमतिभूत्यै प्रतिदिनम् ॥
महातपोभिः परितप्य विग्रहम्, प्रहाय कर्माणि शिवं शुभं पदम् । प्रसिद्ध संस्तार पथा प्रत्यात्पसी,
पथः प्रणेतारमहं प्रभुं भजे ॥
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विश्वज्योति श्रमण भगवान् महावीर का उग्र तप सभी तीर्थंकरों से बढ़कर था। उन्होंने उग्र तप की साधना से कर्मों को नष्ट कर दिया और शिवत्व को प्राप्त किया। ऐसे महान् वीर प्रभु की स्तुति कर कवि स्वयं को धन्य मानता हुआ कहता है
इस प्रकार कवि का संस्कृत स्तोत्र साहित्य साधक के अन्तर्मानस में भक्ति की भागीरथी ही प्रवाहित कर देता है।
निबन्ध-साहित्य
संस्कृत में किसी विचारक मनीषी ने एक उक्ति कही है-"गय कवीनां निकर्ष वदन्ति" अर्थात् किसी कवि में अथवा साहित्यकार में वस्तुतः कितना सामर्थ्य अथवा साहित्य-सृजन हेतु भावों तथा अनुभवों एवं ज्ञान का कितना खजाना है, यह बात उसके द्वारा लिखे गए गद्य से प्रगट होती है।
संक्षेप में, यदि कहा जाय तो यह कहा जा सकता है कि 'सच्चे कवि की कसौटी उसका गद्य ही है।'
गुरुदेवश्री ने जितनी विपुल मात्रा में श्रेष्ठ पद्य लिखा है, उतना ही श्रेष्ठ गद्य भी विभिन्न विधाओं में भी लिखा है इन विधाओं में निबन्ध प्रमुख है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्ध में ही सबसे अधिक सम्भव है। अतः भाषा की दृष्टि से निबन्ध गद्य साहित्य का सबसे अधिक और विकसित रूप है सामान्य लेख में लेखक का व्यक्तित्व पूर्णरूपेण निखरता नहीं है। वह प्रच्छन्न रूप में रहता है। जबकि निबन्ध में लेखक का व्यक्तित्व पूर्णरूपेण निखर कर पाठकों के समक्ष आता है।
अतः कहा जा सकता है कि निबन्ध गद्य-साहित्य की वह विधा है, जिसमें लेखक एक सीमित आकार में इस विविध रूप जगत के प्रति अपनी भावात्मक एवं विचारात्मक प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करता है।
मुख्य रूप से निबन्ध के दो भेद हैं-भावात्मक और विचारात्मक। आपश्री ने दोनों ही प्रकार के निबन्ध लिखे हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । निबन्धों में अनुभूति की प्रधानता है। विचारात्मक निबन्धों में आपने । “अहिंसा और अनेकान्त जैन दर्शन के प्राणभूत तत्त्व हैं। हमारे विवेचनात्मक एवं गवेषणात्मक दोनों प्रकार के निबन्ध लिखे हैं। शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है, वही स्थान जैन दर्शन आपके निबन्धों में कल्पना, अनुभूति और तर्कपूर्ण मधुर व्यंग भी { में अहिंसा और अनेकान्त का है। अहिंसा आचार-प्रधान है और है। निबन्धों की शैली सरस, सरल और हृदय के विराट् भावों को अनेकान्त विचार-प्रधान है। अहिंसा व्यावहारिक है, उसमें प्राणिमात्र अभिव्यक्त करने में सक्षम है। समय-समय पर आपश्री के निबन्ध के लिए दया, करुणा, मैत्री व आत्मौपम्य की निर्मल भावना पत्र-पत्रिकाओं में तथा विभिन्न ग्रन्थों में प्रकाशित हुए हैं और कितने | अंगड़ाइयाँ लेती है तो अनेकान्त बौद्धिक अहिंसा है। उसमें विचारों ही निबन्धों की पुस्तकें अभी अप्रकाशित हैं। आपश्री के कुछ की विषमता. मनोमालिन्य दार्शनिक विचारभेट और उसमे उत्पन निबन्धों के उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
होने वाला संघर्ष नष्ट हो जाता है। सह-अस्तित्व, सद्व्यवहार के पुद्गल द्रव्य पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने लिखा है- विमल विचारों के फूल महकने लगते हैं।
"न्याय-वैशेषिक' जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, विज्ञान जिसे आज विश्व में सर्वत्र अशान्ति दृष्टिगोचर हो रही है। विश्व में 'मैटर' रहता है, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल कहा है। बौद्ध साहित्य अशान्ति का मूल कारण क्या है? इस पर विचार करते हुए में 'पुद्गल' शब्द "आलय विज्ञान", "चेतना संतति" के अर्थ में | आपश्री ने अपने "स्याद्वाद और सापेक्षवाद : एक अनुचिन्तन"
व्यवहृत हुआ है। भगवती सूत्र में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा नामक निबन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा हैSOD को पुद्गल कहा है। किन्तु मुख्य रूप से जैन साहित्य में 'पुद्गल'
"आज का जन-जीवन संघर्ष से आक्रान्त है। चारों ओर द्वेष का अर्थ 'मूर्तिक द्रव्य' है, जो अजीव है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल
और द्वन्द का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के द्रव्य विलक्षण है। वह रूपी है, मूर्त है, उसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण
कटघरे में आबद्ध है। आलोचना और प्रत्यालोचना का दुष्चक्र तेजी SDOES पाए जाते हैं। पुद्गल में सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु से लेकर बड़े से बड़े ।
से चल रहा है। मानव एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अन्धविश्वासों व पृथ्वी स्कन्ध तक में मूर्त गुण पाये जाते हैं। इन चारों गुणों में से
के चुंगल में फँस रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार R s किसी में एक, किसी में दो और किसी में तीन गुण हों, ऐसा नहीं
होकर एक-दूसरे पर छींटाकशी कर रहा है। वह अपने विचारों को 55006 हो सकता। चारों ही गुण एक साथ रहते हैं। यह सत्य है कि किसी ।
सत्य और दूसरे के विचारों को असत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है। में एक ही गुण की प्रमुखता होती है, जिससे वह इन्द्रिय अगोचर हो
| "सच्चा सो मेरा" इस सिद्धान्त को विस्मृत करके "मेरा सो जाता है, और इसके गुण गौण होते हैं, जो इन्द्रियगोचर नहीं हो
| सच्चा" इस सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है। परिणामतः इस पाते हैं। इन्द्रियगोचर होने से हम किसी गुण का अभाव नहीं मान
संकीर्ण वृत्ति से मानव-समाज में अशान्ति की लहर लहराने लगी है। सकते। आज का वैज्ञानिक हाइड्रोजन और नाइट्रोजन को वर्ण, गन्ध
इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्ण वृत्ति से उत्पन्न हुआ अहंकार, और रसहीन मानते हैं। यह कथन गौणता को लेकर है। दूसरी दृष्टि
आग्रह तथा असहिष्णुता का चरमोत्कर्ष होता है, तो धार्मिक व से इन गुणों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे 'अमोनिया' में एकांश
सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं। इस हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन रहता है। अमोनिया में रस
परिस्थिति के निवारण के लिए ही जैन दर्शन ने विश्व को और गन्ध ये दो गुण होते हैं। इन दोनों की नवीन उत्पत्ति नहीं
। अनेकान्तवाद की दिव्य दृष्टि प्रदान की है। मानते, चूंकि यह सिद्ध है कि असत् की कभी भी उत्पत्ति नहीं हो ।
का कभी नाणा नहीं हो सकता। इसलिए जो गण दान जैसे महत्वपूर्ण विषय पर गुरुदेवश्री ने एक विराट्काय अणु में होता है, वही स्कन्ध में आता है। हाइड्रोजन और नाइट्रोजन ग्रन्थ का निर्माण किया है। दान की व्याख्या करते हुए आपश्री ने के अंश से अमोनिया निर्मित हुआ है, इसलिए रस और गन्ध जो लिखा हैअमोनिया के गुण हैं, वे गुण उस अंश में अवश्य ही होने ही "दान दो अक्षरों से बना हुआ एक चमत्कारी शब्द है। आप चाहिए। जो प्रच्छन्न गुण थे, वे उनमें प्रगट हुए हैं। पुद्गल में चारों दान शब्द सुनकर चौंकिए नहीं। दान से यह मत समझिए कि गुण रहते हैं, चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट हों। पुद्गल तीनों कालों । आपकी अपनी कोई वस्तु छीन ली जायेगी या आपको कोई वस्तु में रहता है, अतः सत् है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। जो अपने
जबरन दी जायेगी। दान एक धर्म है और धर्म कभी किसी से सत् स्वभाव का परित्याग नहीं करता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त जबरन नहीं करवाया जाता। हाँ, उसके पालन करने से लाभ और है, और गुण पर्याय सहित है, वह द्रव्य है। द्रव्य के बिना उत्पाद
| न करने से हानि के विविध पहलू अवश्य ही समझाए जाते हैं। इसी नहीं होता, उत्पाद और व्यय के बिना ध्रौव्य नहीं हो सकता। द्रव्य
प्रकार दान कोई सरकारी टैक्स नहीं है, कोई आयकर, विक्रयकर का एक पर्याय उत्पन्न होता है, दूसरा नष्ट होता है, पर द्रव्य न
या सम्पत्तिकर नहीं है। जो जबरन किसी से लिया जाय अथवा उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। किन्तु सदा ध्रौव्य रहता है......"
दण्डशक्ति के जोर से उसका पालन कराया जाए। चूँकि दान धर्म है, अहिंसा और अनेकान्त का विश्लेषण करते हुए आपश्री ने / अथवा पुण्य कार्य है, इसलिए वह स्वेच्छा से ही किया जा स्पष्ट लिखा है
सकता है।"
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| वागू देवता का दिव्य रूप
२८९ पुण्य पर चिन्तन करते हुए आपने लिखा है
ज्वालामुखी फूट रहे हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र-सभी "भारतीय संस्कृति के सभी चिन्तकों ने पुण्य-पाप के सम्बन्ध में
अशान्त हैं, खिन्न हैं। आग के दहकते हुए गोले की तरह जी रहे हैं। विस्तार से चिन्तन किया है। मीमांसा दर्शन ने पुण्य-साधन पर
अत्यन्त संतप्त, विक्षुब्ध और तनावपूर्ण स्थिति है। बौद्धिक विकास अत्यधिक बल दिया है। उसका अभिमत है कि पुण्य से स्वर्ग के
चरम और परम स्थिति तक पहुँच गया है। मानव ने ज्ञान-विज्ञान अनुपम सुख प्राप्त होते हैं। उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग करना ही
के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। वैज्ञानिक साधनों जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। पर जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का
के प्राचुर्य से भौतिक सुख-सुविधा के तथा आर्थिक समृद्धि के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है-पुण्य-पाप रूपी समस्त कर्मों
गगनचुम्बी अम्बार लग चुके हैं। तथापि मानव की आध्यात्मिक, से मुक्ति पाना। यह देहातीत या संसारातीत अवस्था है। जब तक
सामाजिक और मानसिक विपन्नता दूर नहीं हुई है। शिक्षा प्रदान प्राणी संसार में रहता है, देह धारण किए हुए है, तब तक उसे
करने वाले हजारों विश्वविद्यालय हैं, जहाँ मानव विविध विधाओं संसार में रहना पड़ता है और उसके लिए पुण्यकर्म का सहारा लेना
में उच्चतम शिक्षा प्राप्त करता है। किन्तु शिक्षा प्राप्त करने पर भी
वह अपनी क्षुद्र स्वार्थवृत्ति व भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम पड़ता है। पापकर्म से प्राणी दुःखी होता है, पुण्य कर्म से सुखी। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। स्वस्थ शरीर, दीर्घ आयुष्य,
का अंकुश नहीं लगा पाया है। धन-वैभव, परिवार, यश, प्रतिष्ठा आदि की कामना प्राणिमात्र को नित्य नई ऐच्छिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त होने पर भी मन सन्तुष्ट है, सुख की कामना करने मात्र से सुख नहीं मिलता किन्तु सुख नहीं है। वैज्ञानिक साधनों से विश्व सिमटकर अत्यधिक सन्निकट प्राप्ति के सत्कर्म करने से सुख मिलता है। उस सत्कर्म को शुभ योग आ चुका है। किन्तु मानव-जीवन के बीच हृदय की दूरी प्रतिपल, कहते हैं। आचार्य उमास्वाति ने कहा है-“योगः शुद्धः पुण्यासवस्य प्रतिक्षण अधिक से अधिकतर होती चली जा रही है। वह तन से पापस्य तद्विपर्ययः"-शुभयोग पुण्य का आस्रव करता है और । सन्निकट है, किन्तु मन से दूर है। अशुभयोग पाप का।
सुरक्षा के साधनों की विपुलता व ऊँचाई अनन्त आकाश को शुभ योग, शुभ भाव या शुभ परिणाम और सत्कर्म प्रायः एक छू रही है, तथापि मानव का मन भय से संत्रस्त है। हृदय ही अर्थ रखते हैं, केवल शब्द-व्यवहार का अन्तर है।
आकुल-व्याकुल है। वह विध्वंसकारी शस्त्रास्त्रों के निर्माण में श्रावक धर्म पर भी आपने एक विराट्काय चिन्तन प्रधान ग्रन्थ
प्रतिस्पर्धा में पड़ा हुआ है। ज्ञात नहीं, यह प्रतिस्पर्धा कब सम्पूर्ण का सृजन किया है। उसमें आपश्री ने व्रत के सम्बन्ध में चिन्तन
मानव जाति की अन्त्येष्टि का निमित्त बन जाय! एक व्यक्ति के करते हुए लिखा है
हृदय में जलती हुई आग कुछ ही क्षणों में संसार को भस्म कर
सकती है। व्यक्ति का रोग विश्व का रोग बन सकता है। अर्थ की व्रत एक पाल है, एक तटबन्ध है। आप जिस गाँव में रहते हैं,
अत्यधिक अभिवृद्धि होने पर भी मानव की अर्थ-लोलुपता कम नहीं वहाँ यदि बिना पाल का तालाब हो तो क्या आप वहाँ रहना पसन्द
हुई है। वह द्रौपदी के दुकूल की तरह बढ़ रही है। एक वर्ग दूसरे करेंगे? आप कहेंगे ऐसी जगह वर्षा के दिनों में एक दिन भी रहना
वर्ग को निगलने के लिए व्यग्र है। भोगोपभोग की सामग्री को प्राप्त खतरे से खाली नहीं है। न मालूम कब तालाब में पानी बढ़ जाये
करने के लिए वह पागल कुत्ते की भाँति बेतहाशा दौड़ लगा रहा है। और वह बाहर निकलकर गाँव को डुबो दे। मकानों को ढहा दे।
अधिकाधिक हैरान व परेशान हो रहा है। व्रत भी एक पाल है, तटबन्ध है। जो स्वच्छन्द बहते हुए मानव-समाज का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वह भौतिकवाद जीवन-प्रवाह को मर्यादित बना देता है, नियंत्रित कर देता है।
की दौड में अध्यात्मवाद को भलाये जा रहा है, त्याग को छोड़कर व्रत जीवन को स्वयं नियन्त्रित करने के लिए स्वेच्छा से भोग की ओर गति कर रहा है। अपरिग्रह को छोड़कर परिग्रह की स्वीकृत मर्यादा है, जिसमें रहकर मानव अपने आपको पशुता, । ओर लपक रहा है। सभ्यता और संस्कृति के नाम पर उच्छृखलता दानवता, उच्छृखलता, पतन, आत्म-विकास में अवरोध उत्पन्न करने व विकृति को अपना रहा है। समता, स्वाभाविकता और सरलता वाले असंयम आदि को रोकता है।
के स्थान पर विषमता, कृत्रिमता और छल-छद्म का प्राधान्य हो व्रत एक अटल निश्चय है। मानव जब तक व्रत नहीं लेता, तब
रहा है। उसके अन्तर्मानस में उद्दाम वासनाएँ पनप रही हैं और तक उसका मन डाँवाडोल रहता है, उसकी बुद्धि निश्चल और
ऊपर से वह सच्चरित्रता का अभिनय कर रहा है। बाह्य और स्थिर नहीं हो पाती। व्रत ग्रहण करने पर मानव का निश्चय अटल |
आभ्यंतर जीवन में एकरूपता का अभाव है। कथनी और करनी में हो जाता है।
आकाश-पाताल-सा अन्तर है। वह वैज्ञानिक तकनीक को अधिक
गहराई से जानता है; पर अपने सम्बन्ध में बिलकुल ही अनजान है। सम्यग्दर्शन पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने लिखा है
बाहर की सफाइयाँ खूब हो रही हैं, किन्तु भीतर में स्वच्छता का इस विराट् विश्व में हम जिधर भी दृष्टि उठाकर देखते हैं, अभाव है। तन उजला है-मन मलिन है। इसीलिए एक शायर ने उधर ही अशान्ति की ज्वालाएँ धधक रही हैं। विग्रह और संघर्ष के । कहा है
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सफाइयाँ हो रही हैं जितनी,
सम्यग्दर्शन मोक्ष का साधन रूप है। इसीलिए यहाँ पर दर्शन दिल उतने ही हो रहे हैं मैले ।
का अर्थ दृष्टि और निश्चय है। दृष्टि भ्रान्त भी हो सकती है और अँधेरा छा जायगा जहाँ में,
निश्चय मिथ्या हो सकता है। अतः दर्शन के पूर्व ‘सम्यग्' शब्द
व्यवहृत हुआ है। जिसका अर्थ है-ऐसी दृष्टि जिसमें किसी प्रकार अगर यही रोशनी रहेगी ॥
की भ्रान्ति नहीं है, और अयथार्थ भी नहीं है। ऐसा निश्चय, जो भौतिकवाद की इस विकट बेला में मानव को यह चिन्तन
पूर्णतया वास्तविकता को लिए हुए है। करना है कि शान्ति और आनन्द कहाँ है? यह भौतिकवादी भावना
सम्यग्दर्शन जीवन की दिव्य दृष्टि है। आचार्य उमास्वाति ने स्वार्थवृत्ति को पनपा सकती है, शोषण और पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ा DO
और आचार्य अभयदेव ने सम्यग्दर्शन का अर्थ 'श्रद्धा' किया है। सकती है, पर उसे शान्ति और आनन्द प्रदान नहीं कर सकती।
नियमसार की तात्पर्य वृत्ति में लिखा है कि शुद्ध जीवास्तिकाय से 2059004 विवेक और संयम को उबुद्ध नहीं कर सकती। भारत के मूर्धन्य
उत्पन्न होने वाला जो परम श्रद्धान है, वही दर्शन है। जहाँ पर तत्त्व मनीषियों ने गहराई से इस तथ्य को समझा और उन्होंने स्पष्ट
या किसी पदार्थ का निश्चय, श्रद्धान, विवेक या रुचि आत्मलक्षी शब्दों में यह उद्घोषणा की-मानव का भौतिकवाद की ओर जो
। हो, वहीं सम्यग्दर्शन होता है। अभियान चल रहा है, वह आरोहण की ओर नहीं, अवरोहण की ओर है। वह मानव को उत्थान के शिखर की ओर नहीं, पर पतन
दर्शन के पहले सम्यग् विशेषण लगाने का यही उद्देश्य है कि की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है। जब तक मानव भौतिकवाद
देखना सम्यग् हो। जब दर्शन के पूर्व सम्यग शब्द लग जाता है तो में भटकता रहेगा तब तक सच्चे सुख के संदर्शन नहीं हो सकते।
वह दर्शन आध्यात्मिक बन जाता है। मिथ्यात्व की स्थिति में दर्शन सुख-शान्ति और सन्तोष को प्राप्त करने के लिए अपने अन्दर ही
परलक्षी होता है। आचार्य पूज्यपाद का मन्तव्य है कि पदार्थों के अवगाहन करना पड़ेगा। जैसे कस्तूरिया मृग अपनी नाभि में कस्तूरी
यथार्थ प्रतिपत्तिविषयक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए ही दर्शन होने पर भी उसकी मधुर सौरभ के लिए वन-वन भटकता है, वही
के पहले सम्यग् विशेषण दिया है। व्याकरण की दृष्टि से 'सम्यग्' स्थिति आज मानव की है। वह बाहर भटक रहा है किन्तु अपने
के मुख्य तीन अर्थ हैं-प्रशस्त, संगत और शुद्ध। प्रशस्त विश्वास ही अन्दर नहीं झाँक रहा है। अपने अन्दर झाँकना, आत्मावलोकन
सम्यग्दर्शन है। प्रशस्त का एक अर्थ मोक्ष भी है। अतः मोक्षलक्षी करना, शुद्ध आत्मा का अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। पुरुषार्थ
दर्शन सम्यग्दर्शन है।" सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है- ऊपर दिए गए कतिपय उदाहरण हैं-गुरुदेव श्री के समर्थ,
'आत्मदर्शन सम्यग्दर्शन है, आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्म- गंभीर, चिन्तन, सुधा में सराबोर श्रेष्ठ गद्य-साहित्य के। ऐसे सरस86 स्थिरता सम्यक्चारित्र है।'
गंभीर गद्य को पढ़ते हुए पाठक का आनन्दनिमग्न होकर स्वयं को आध्यात्मिक साधना में इन तीनों का गौरवपूर्ण स्थान है और
एक उच्च धरातल पर अनुभव करना सहज और स्वाभाविक है। यही मोक्ष है।
संस्मरण-साहित्य सम्यग्दर्शन शब्द 'सम्यग्' और 'दर्शन' इन दो शब्दों से निर्मित है। दोनों शब्द गंभीर अर्थ गौरव को लिए हुए हैं। हम यहाँ प्रथम
संस्मरण-लेखन सदैव लेखक के हृदय में एक आह्लादकारी भाव दर्शन शब्द को समझ लें तो सहज में सम्यग्दर्शन का हार्द समझ में
जगाने वाला होता है तथा पाठकों के लिए भी उसमें कुछ विशेष ही
आकर्षण समाया रहता है। आ सकता है।
यह साहित्य की एक सशक्त विधा है। अन्यान्य विधाओं से यह तत्त्वचिन्तन की एक विशिष्ट धारा दर्शन के नाम से जानी
अधिक रुचिकर और प्रिय होती है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में और पहचानी जाती है। जैसे-सांख्यदर्शन, बौद्धदर्शन, जैनदर्शन
नित्य नई, भिन्न-भिन्न प्रभावों वाली घटनाएँ घटित होती रहती हैं। आदि। यहाँ पर दर्शन शब्द प्रस्तुत अर्थ में व्यवहृत नहीं हुआ है।।
कुछ घटनाएँ चलचित्र की तरह आती हैं और चली जाती हैं-जैसे जैन आगम साहित्य में निराकार उपयोग या सामान्य ज्ञान के लिए।
कहीं कोई जुगनू चमका, और गायब। 20दर्शन शब्द आया है। वस्तु की सत्ता मात्र का अवलोकन करना
अथवा कहीं कोई बिजली तड़पी-और फिर नदारद! दर्शन है। वह अर्थ भी यहाँ अभीष्ट नहीं है। जिसके द्वारा देखा जाय या जिसे देखा जाय, वह दर्शन है। केवल आँखों से देखना भी किन्तु कुछ घटनाओं की छाप अमिट हो जाती है। वे भुलाने यहाँ अभीष्ट नहीं है। अनेकार्थ संग्रह में दर्शन के अर्थ में दर्पण,
पर भी भुलाई नहीं जा सकतीं। स्मृति के आकाश में वे बार-बार दि. शास्त्र. स्वप्न लोचन कर्म देश आदि विविध बिजली की तरह कौंधती ही चली जाती हैं। पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ पर दर्शन का अर्थ केवल नेत्रों मधुर भी होते हैं संस्मरण । से निहारना ही नहीं है, किन्तु अन्तर्दर्शन है।
तीक्ष्ण भी । कड़वे भी।
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| वाग् देवता का दिव्य रूप म
२९१ क्योंकि जीवन में माधुर्य और कटुता दोनों का योग होता ही के हृदय की शुद्धता, मन की सरलता और अपने सिद्धान्तों पर है। कभी भी ऐसा संभव नहीं है कि जीवन में अकेली मिठास ही पहाड़ की तरह अटल रहते हुए देखकर मेरे मन में उनके प्रति मिठास हो, कड़वाहट कभी, कहीं हो ही नहीं।
सहज श्रद्धा जागृत हुई।" यदि किसी काल में यह संभव हो भी जाय कि जीवन में केवल मंत्री मुनि श्री हजारीमल जी महाराज के सम्बन्ध में आपने मिठास ही मिठास हो, तो जीवन रूढ़ बनकर अवश्य ही नीरस बन । लिखा हैजाय। यही बात कड़वाहट के लिए भी कही जा सकती है। केवल "वे उच्चकोटि के सहदय सन्त थे। उनका जीवन आचार और अविराम कड़वाहट जीवन को विषैला कर दे।
विचार का पावन संगम था। आज के युग में प्रतिभासम्पन्न विद्वानों संस्मरण लिखने की एक विशिष्ट शैली है। इस विशिष्ट शैली } की कमी नहीं है। यह फसल बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही है। 33 में भी भिन्न-भिन्न लेखकों की अपनी-अपनी अलग-अलग पहचान विचारकों का भी बाजार बड़ा गर्म है। ग्रन्थकारों का तो कहना ही होती है, भिन्न-भिन्न रंग होते हैं।
क्या? वे भी अल्पसंख्यक नहीं रहे; पर सच्चे सन्त बड़े महँगे हो
गए हैं। लेकिन स्वामीजी महाराज सच्चे सुसंस्कारी सन्त थे। इसी गुरुदेवश्री के संस्मरण-लेखन की शैली बड़ी अद्भुत और प्रभावक है। भावों का अंकन बहुत चित्ताकर्षक हुआ है। आपके |
कारण जन-जन के हृदय के हार और जन-मन के सम्राट् थे।" संस्मरणों के कतिपय उदाहरण यहाँ दिए जा रहे हैं। पाठक स्वयं
पंडित श्रीमलजी महाराज के सम्बन्ध में आपश्री द्वारा लिखित देखें कि उनमें कितना आकर्षण है
पंक्तियाँ संस्मरणरूप में हैं"गौर वर्ण की देह में कनक की-सी आभा, मँझला कद, भव्य "उस समय में "लघु सिद्धान्त कौमुदी' पढ़ रहा था। काव्य भाल, सन्दर व स्वस्थ शरीर, आकर्षक व्यक्तित्व. तन से वद. मन और न्याय के ग्रन्थों का अध्ययन भी चल रहा था। सना, नया से जवान, सीधा-सादा रहन-सहन, आडम्बररहित जीवन-यह है
बाजार के स्थानक में स्थित मुनिश्री श्रीमलजी, पंडित अम्बिकादत्त आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज साहब का छविचित्र।"
जी से सिद्धान्त कौमुदी पढ़ रहे हैं। उनसे मिलने की जिज्ञासा तीव्र
हुई। पर शहर में मिलना संभव नहीं था। प्रातः जिधर वे शौच के एक विचारक की वाणी में "सुख की चाँदनी में सभी हँस ।
लिए जाते थे, उधर हम भी गए। जंगल का वह एकान्त, शान्त सकते हैं, पर दुःख की दुपहरी में हँसना सरल नहीं।'' किन्तु श्रद्धेय
स्थान। सम्प्रदायवाद से उन्मुक्त वातावरण। दिल खोलकर संस्कृत आचार्यवर ने सुख की शुभ चाँदनी में ही नहीं; किन्तु कष्टों की
भाषा में वार्तालाप हुआ। अनेक प्रश्नों पर चर्चा हुई। भय का भूत कठिन दोपहरी में भी हँसना सीखा है। कभी भी और किसी भी
भागा और हम एक-दूसरे के पक्के मित्र हो गये।" अवस्था में आपश्री को सदा मुस्कराते ही पाएँगे। मुश्किलें उन्हें हतोत्साहित नहीं करती, प्रोत्साहित ही करती हैं। सदा प्रसन्न रहना
यहाँ दिए गए कतिपय संस्मरणांशों को पढ़कर पाठक अब ही उनका सहज गुण है।"
जान गए होंगे कि गागर में सागर किस प्रकार समाया जा सकता आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज के विषय में आपने
सरल से सरल भाषा में हृदय के गहन से गहन भावों की लिखा है
अभिव्यक्ति के बेजोड़ नमूने हैं ये संस्मरण! "आचार्यप्रवर महामहिम आनन्दऋषि जी महाराज श्रमण संघ की एक जगमगाती ज्योति हैं। जिनका जीवन सूर्य के समान तेजस्वी
कथा-साहित्य और चन्द्रमा के समान सौम्य है। उनका जीवन सद्गुणों का समुद्र
नारी-जीवन की करुणता को व्यक्त करते हुए राष्ट्र-कवि है। उस समुद्र का वर्गीकरण किस प्रकार किया जाय, यह गम्भीर
मैथिलीशरण जी ने लिखा हैचिन्तन के पश्चात् भी समझ में नहीं आ रहा है। उनके विराट व्यक्तित्व रूपी सिन्धु को शब्दों के बिन्दुओं में बाँधना बड़ा ही कठिन
अबला जीवन हाय तेरी करुण कहानी ।
आँचल में है दूध, और आँखों में पानी ॥ "अजरामपुरी अजमेर में वृहद् साधु-सम्मेलन का भव्य
केवल दो ही सरल पंक्तियों में गुप्त जी ने नारी-जीवन की आयोजन। जन-जन के मन में अपार उत्साह बरसाती नदी की तरह । सघन करुणता और उसके हृदय की असीम ममता और विराट्ता न हटा
बहकाएक पतिभा-सम्पच सन्त पधार रहेको साकार करके रख दिया है। थे। उस समय सभी सन्तों की व्यवस्था की जिम्मेदारी हम इसीलिए विश्व-साहित्य में कथा साहित्य का बहुत महत्व रहा राजस्थानी सन्तों पर थी जिससे सभी सन्तों के साथ हमारा मधुर है। कथा साहित्य विश्व का सबसे प्राचीन साहित्य रहा है। विश्व के सम्बन्ध होना स्वाभाविक था। उस समय आनन्दऋषि जी महाराज मूर्धन्य मनीषियों ने काव्य का आदिकाल तो निश्चित किया है
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि मानकर। क्रौंच पक्षी के जोड़े पर | पंचविंशति, पैंतीसवाँ, अड़तालीसवाँ, उनपचासवाँ, छप्पनवाँ, शिकारी ने बाण का प्रहार किया, जिससे नर क्रौंच छटपटाने लगा। । अठावनवाँ, उनसठवाँ, साठवाँ, इक्सठवाँ, बासठवाँ, तिरेसठवाँ, उसकी दारुण वेदना और वियोग में मादा क्रौंच करुण क्रन्दन करने बहत्तरवाँ, तिहत्तरवाँ, चौहत्तरवाँ, तिरासीवाँ, पिचयासीवाँ, लगी, जिसे देखकर वाल्मीकि के हत्तन्त्री के तार झनझना उठे और छियासीवाँ, निव्यासीवाँ और नब्बेवाँ भाग उपन्यास के रूप में हैं। काव्य का सृजन हो गया-“मा निषाद प्रतिष्ठायां त्वमगमः शाश्वती / शेष भागों में कथाएँ हैं। समा......।" किन्तु कथा या कहानी का इतिहास कितना प्राचीन है,
उपन्यास व कथाओं का मूल उद्देश्य नैतिक भाव जागृत करना यह अभी तक अज्ञात है।
है। आपश्री के उपन्यासों व कथाओं की शैली अत्यधिक रोचक है। पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों का अभिमत है कि भारतीय
पढ़ते-पढ़ते पाठक झूमने लगता है। आपके कथा-उपन्यासों का मूल साहित्य में ऋग्वेद सबसे अधिक प्राचीन है। ऋग्वेद साहित्य का
साहित्य का स्रोत प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और जैन रास साहित्य रहा आदि ग्रन्थ है। किन्तु कथा साहित्य ऋग्वेद से भी प्राचीन है।
है। आपने उन प्राचीन कथाओं को आधुनिक रूप में प्रस्तुत इतिहास विज्ञों का मानना है कि ऋग्वेद की रचना भारत में आर्यों
किया है। के आगमन के पश्चात् ही हुई, किन्तु आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में विकसित रूप से धार्मिक और दार्शनिक परम्पराएँ थीं ।
आपकी प्रत्येक कथा रोचक व सरस है। मानव स्वभाव व और उनका साहित्य भी था। वह साहित्य भले ही लिखित रूप में न }
जीवन की यथार्थता के रंग-बिरंगे चित्र प्रस्तुत करती है। प्रबुद्ध रहकर मुखाग्र रहा हो। वेद भी जब रचे गए तब लिखित नहीं थे।। पाठक के मन को झकझोर कर पूछती है कि तू कौन है? तेरा उन्हें एक-दूसरे से सुनकर स्मृति में रखा जाता था। अतः वेदों को । जीवन वासना के दलदल में फँसने के लिए नहीं है। यदि तू श्रुति भी कहा जाता है।
कर्मबन्धन करेगा तो उसके कटुफल तुझे ही भोगने पड़ेंगे। यदि तूने इसी तरह जैन साहित्य भी सुनकर स्मरण रखने के कारण श्रुत
श्रेष्ठ कर्म किए तो उसका फल श्रेष्ठ प्राप्त होगा। यदि कनिष्ठ कर्म कहलाता रहा है। कथा या कहानी श्रुति और श्रुति से भी प्राचीन
किए तो उसका फल अशुभ प्राप्त होगा। कर्मों का फल निश्चित रूप है।
से सभी को भोगना पड़ता है। भोक्ता के हाथ में कोई शक्ति नहीं कि
उन्हें भोगे बिना रह सके। व श्रद्धेय गुरुवर्य ने कथा-साहित्य में उपन्यास और कहानी दोनों ही लिखे हैं। उपन्यास में जीवन के सर्वांगीण और बहुमुखी चित्र
आपने कथाओं में पूर्वजन्म का भी चित्रण किया है। जिसके विस्तार से अंकित किए जाते हैं। यही कारण है कि उपन्यास की
कारण व्यक्ति को इस जन्म में सुख और दु:ख प्राप्त होते हैं। लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। साहित्य के क्षेत्र में उपन्यासों की
कथाओं में इस बात पर भी बल दिया गया है कि अशुभ कृत्यों से बाढ़-सी आ रही है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा है
बचो। जो व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार "उपन्यास ने तो मनोरंजन के लिए लिखी जाने वाली कविताओं
दूसरों के लिए भी करो। इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष की पवित्र एवं नाटकों का रस-रंग भी फीका कर दिया है। क्योंकि पाँच मील प्रेरणाएँ दी गई हैं। व्यसनों से बचने के लिए और सद्गुणों को दौड़कर रंगशाला में जाने की अपेक्षा पाँच सौ मील दूर की पुस्तकें
धारण करने के लिए सतत् प्रयास किया गया है। मँगा लेना आसान हो गया है जो रंग-मंच को अपने पत्रों में समेटे __इन कथाओं के सभी पात्र जैन-कथा साहित्य के निर्धारित हुए है।"
प्रयोजन के अनुरूप ढाले गए हैं। इसमें कोई राजा है, रानी है, मंत्री उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए । है, राजपुत्र है, सेठ है, सेठानी है। कोई चोर, कोई दूकानदार तो SDE लिखा है-"मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। कोई सैनिक है। इस प्रकार सभी पात्र अपने-अपने वर्ग का
मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वकृत कर्म का फल भोगते हैं। कर्म के DAE उपन्यास का मूल तत्त्व है।" इस परिभाषा के प्रकाश में गुरुदेव के अनुसार उनका जीवन-यापन होता है और अन्त में किसी न किसी 20 कथा-साहित्य को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-(१) उपन्यास, का उपदेश श्रवण कर या किसी अन्य निमित्त से वे संसार से और (२) कहानी साहित्य।
विरक्त हो जाते हैं। श्रमण-जीवन अथवा श्रावक-जीवन को स्वीकार जैन श्रमण होने के नाते आपके उपन्यास भले ही आधुनिक
। कर मुक्ति की ओर कदम बढ़ाते हैं। उपन्यासों की कसौटी पर खरे न उतरें, तथापि उन उपन्यासों में इन कथाओं में जीवनोत्कर्ष चारित्र द्वारा होता है। कषायों की दार्शनिक, सामाजिक और धार्मिक विषयों की गंभीर गुत्थियाँ मन्दता, आचार की निर्मलता के स्वर झंकृत हुए हैं। सीधे, सरल व सुलझायी गई हैं। आपश्री ने "जैन-कथाएँ" नामक कथामाला के नपे-तुले शब्दों में वे पात्र की विशेषताएँ बतलाते हैं। इन कथाओं के
अन्तर्गत कथा एवं उपन्यास लिखे हैं जो एक सौ ग्यारह भागों में वर्णनों में उतार-चढ़ाव नहीं है। जो सज्जन हैं, वे जीवन की सान्ध्य एक प्रकाशित हुए हैं। प्रथम, चतुर्थ, षष्टम, नवम, दशम, चतुर्दश, 1 बेला तक सज्जन ही बने रहे और दुर्जन व्यक्तियों का मानस भी
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वाग देवता का दिव्य रूप
उन सज्जनों के सम्पर्क से बदल जाता है वे अपने कुकृत्यों को त्यागकर सुकृत्यों को अपनाते हैं।
कथाएँ कुछ बड़ी हैं, कुछ छोटी कथा-लेखन शैली कथा कहने के समान ही है। सभी कथाएँ वर्णनात्मक एवं उपदेश प्रधान हैं। उपदेश यत्र-तत्र सूत्र रूप में भी दिया गया है। ये कथाएँ आधुनिक कहानी व उपन्यास की दृष्टि से भले ही कम खरी उतरें, क्योंकि लेखक का उद्देश्य पाठक को शब्दजाल में व शैली के भँवरजाल में उलझाना नहीं है वह तो पाठकों के जीवन का चारित्रिक दृष्टि से निर्माण करना चाहता है। इसीलिए यत्र-तत्र उपदेश, नीति-कथन व उद्धरणों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है। भाषा में चुम्बकीय आकर्षण है जो पाठकों को सदा आकर्षित करता रहता है। कथोपकथन यथास्थान कथासूत्र को आगे बढ़ाने में उपयोगी हैं। ये सभी कथाएँ जैन-कथा साहित्य की सुन्दर व अनमोल मणियाँ हैं जो सदा चमकती रहेंगी।
जैन कथाओं के अतिरिक्त आपश्री के प्रवचन साहित्य में सैंकड़ों रूपक, ऐतिहासिक कथाएँ व बोध कथाएँ प्रयुक्त हुई हैं। उदाहरण के रूप में हम यहाँ एक-दो कथाएँ दे रहे हैं, जिससे ज्ञात हो सके कि ये सभी कथाएँ कितनी सरस व बोध प्रदान करने वाली हैं। देखिए
अर्धरात्रि का समय था। आकाश में चपला चमक रही थी। घनघोर घटाएँ छाई हुईं थीं। बरसात की झड़ी लगी हुई थी। ठीक ऐसे समय में सुनसान मरघट में एक नारी का करुण क्रन्दन सुनाई देता है। उसके नेत्रों से गंगा-यमुना बरस रही है।
वह दुखिया अबला पुकार रही थी- "महाराज ! यहीं रहते हो ? जरा आओ, अन्तिम समय में अपने प्यारे पुत्र का मुखड़ा तो देख लो।"
अबला रोयी । किन्तु वहाँ उस अरण्य रोदन को सुनता ही कौन था? इतने में उसने सामने देखा एक जरा जीर्ण काले-कलूटे शरीर का एक व्यक्ति हाथ में बाँस लिए खड़ा है और बोलता है-"अरी पगली ! क्यों रोती है? यहाँ राजमहल नहीं है, कौन आएगा तुझे देखने ?"
करुण स्वर में तारा ने कहा- "तुम्हारे पास माँ का हृदय होता तो तुम्हें मेरी व्यथा का अनुभव होता। यह मेरे कलेजे का टुकड़ा आज जमीन पर पड़ा है। इसके शव को ढकने के लिए आज पूरा कपड़ा भी नहीं मिल रहा है। सोने के पालने में झूलने वाले सूर्यवंश के राजकुमार को आज कफन के लिए टुकड़ा भी नसीब नहीं है। मेरा हृदय आज वेदना से फटा जा रहा है। इस पुत्र के पिता ध्वजपति सम्राट् को मैं पुकारती हूँ।"
सामने खड़े व्यक्ति ने पूछा- "कौन हो तुम? क्या तुम्हारा नाम तारा है ?"
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"और आप सूर्यवंशी सम्राट हरिश्चन्द्र हैं ? " - तारा ने प्रति प्रश्न किया और तभी बिजली चमकी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। वर्षों से बिछुड़े हुए दो प्राणी मिले। किन्तु अत्यन्त करुण प्रसंग को लेकर पुत्र के शव को देखकर हरिश्चन्द्र का हृदय भर आया। किन्तु दूसरे ही क्षण कर्त्तव्यपालन के लिए हृदय को कठोर कर बोला - "अरी पगली ! अब यह राजा हरिश्चन्द्र नहीं है, यह तो कालिया चांडाल का क्रीत दास है, और तुम तारा हो, पर अब महारानी नहीं हो, ब्राह्मण की क्रीत दासी हो। अब भूल जाओ उन दिनों को क्या उस दिन की घड़े को हाथ लगाने की घटना भूल गई ?
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तारा के आँसुओं का बाँध टूट चुका था। वह कहने लगी"नाथ ! सब्र करो। देखते नहीं हो प्राणप्यारा पुत्र सामने मरा पड़ा है ?"
हरिश्चन्द्र- " क्या हुआ है इसे ?"
“प्राणनाथ ! आज यह फूल चुनने उद्यान में गया था, तभी एक काले नाग ने इसे इस लिया। इसके शरीर के अणु-अणु में जहर फैल गया है।" तारा दिखलाने के लिए आगे बढ़ती है।
"तारा! यह तो ठीक है। किन्तु इस समय मैं अपने मालिक के कर्त्तव्य पर नियुक्त हूँ। मैं कुछ भी रियायत करने के लिए तैयार नहीं। एक टका लेकर आओ दाह-संस्कार का। जब तक दाह-संस्कार का टका नहीं दोगी जब तक दाह-संस्कार नहीं हो सकेगा।"
तारा - " नाथ ! यह तो जैसा मेरा पुत्र है, वैसा ही आपका है। क्या आप दाह-संस्कार के लिए सामान नहीं दे सकते? यहाँ तो काफी लकड़ियों का ढेर है। कौन देखता है प्राणनाथ ?"
हरिश्चन्द्र ने गरजते हुए कहा- "मैं कर्त्तव्य से च्युत नहीं हो सकता। मैं अपने अधिकार की वस्तु छोड़ सकता हूँ पर यह तो मेरे स्वामी के अधिकार की वस्तु है। शव दाह के लिए दो टके देने ही होंगे।"
'नाथ! एक ही साड़ी थी। आधी का कफन बनाया और आधी लज्जा - निवारण के लिए है। और कुछ भी मेरे पास नहीं।'
हरिश्चन्द्र चाहे कुछ भी हो, तुम्हें टके चुकाने होंगे।
तारा दरख्त की ओट में होकर अपनी साड़ी खोलकर देते हुए कहती है-लो, नाथ! टके की कीमत की तो होगी ही न?"
कर्त्तव्य की कठोर अग्नि परीक्षा में हरिश्चन्द्र उत्तीर्ण
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हुए।
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बंगाल के महान् दार्शनिक सतीशचन्द्र विद्याभूषण की प्रशंसा सुनकर उनकी माता के दर्शन के लिए एक व्यक्ति आया। उसका
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विचार था कि जिस माता की वात्सल्यमयी गोद में पल कर सादगी और संयम से जीवन बिताना ही सच्चे कलाकार का विद्याभूषण का जीवन इतना कलामय बना है, उस रत्नकुक्षि- लक्षण है।" धारिणी जननी के दर्शन कर अपने नयनों को पवित्र करूँ। किन्तु ज्यों ही उसने सीधे-सादे वस्त्रों से तथा हाथों में पीतल के कड़े से
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरुदेवश्री द्वारा लिखित सभी युक्त विद्याभूषण की माँ को देखा त्यों ही वह भौंचक्का हो गया।
कथाएँ दिलचस्प, शिक्षा-प्रधान और सारगर्भित हैं। किसी कहानी में उसके मस्तिष्क में अनेक कल्पनाएँ उत्पन्न होने लगी कि क्या ऐसा
वैराग्य की रसधारा है तो किसी में बालक्रीड़ा एवं मातृ-स्नेह का महान् दार्शनिक अपनी माता की इतनी उपेक्षा कर सकता है ? क्या
वात्सल्य रस प्रवाहित है तो किसी में पवित्र चरित्र की शुभ्र तरंगें ये सीधे-साधे वस्त्र और पीतल के कड़े माता के अनादर की बोलती
तरंगित हो रही हैं। म कहानी नहीं हैं ?
इसी प्रकार किसी कथा में नीति-कशलता की उर्मियाँ उठ रही किन्तु वार्तालाप करने से उसे अपनी धारणा मिथ्या प्रतीत हुई।
हैं, कहीं पर बुद्धि के चातुर्य की क्रीड़ाओं की लहरें अठखेलियाँ कर माँ और पुत्र में अगाध स्नेह के दर्शन हुए। तथापि आगन्तुक ने
रही हैं, कहीं पर दया-अहिंसा-मानवता के सिद्धान्तों की रसधारा अपने मन के अविश्वास को दूर करने के लिए अत्यन्त नम्रता से
प्रवाहित हो रही है। पूछा-"माताजी! आपके शरीर पर साधारण वस्त्र और पीतल के कड़े देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है कि क्या यह आपके लिए,
किसी कथा में वीर रस का तेज है तो कहीं पर शान्त रस का बंगाल के लिए और सतीश बाबू के लिए लज्जा की बात मन्द, प्रशान्त प्रवाह हृदय को शीतलता प्रदान करता है। नहीं है?"
इस प्रकार आपके कथा-सागर की शोभा निराली और अत्यन्त सतीश बाबू की माँ ने कहा-“भैया! तुम्हारा यह समझना भूल
मनमोहिनी है। भाषा मुहावरेदार और कहावतों से परिपूर्ण भी है भरा है। हीरे-पन्ने-माणिक-मोती के आभूषणों से आवेष्टित होकर
और साथ ही सरल, सरस व सुन्दर है। जैसे तैल युक्त धुरी से लगा जन-मन में ईर्ष्या की भावना भड़काने में मैं अपना और बंगाल का
चक्र बिना किसी रुकावट के नाचता है, वैसे ही पाठक स्वतः ही, व सतीश का गौरव अनुभव नहीं करती। मनुष्य की सुन्दरता
सहज रूप से इन कथाओं के रस में निमग्न और प्रवाहित हो वस्त्रालंकारों से नहीं अपितु त्याग में, उदारता में, सात्विकता में है।
जाता है। तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होनी चाहिए कि अभी कुछ समय पूर्व अन्त में, यह कहा जा सकता है कि आपश्री ने सभी प्राचीन बंगाल के दुष्काल ने जन-जीवन में एक विषमता पैदा कर दी थी, कथाओं को प्राणवती, सुन्दर भाषा में नवजीवन प्रदान किया है। मानव अन्न के दाने-दाने के लिए तरस रहा था, छटपटा रहा था। इस कथा-साहित्य में पिष्ट पेषण नहीं है। आपका लक्ष्य, इन कथाओं उस समय सतीश ने जो उदारता दिखलायी और मैंने अपने हाथों | के लेखन में पाठक-जगत को नया चिन्तन तथा मौलिक विचार से जो गरीब जनता की सहायता की, वही मेरा असली गौरव है।। देकर जीवन-संग्राम में आगे बढ़ाना है।
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अपने लाभ के लिये मनुष्य झूठ बोलता है। लेकिन जब उसका यह भ्रम मिट जाय कि झूठ बोलने से कुछ लाभ नहीं केवल लाभ का आभास है तो फिर कोई झूठ नहीं बोलेगा। लाभ तो सत्य बोलने में ही है। पुण्य और लक्ष्मी के जाने का पता उसके चले जाने के बाद ही लगता है। जल्दबाजी में जो कुछ किया, वह जीवन भर पछताने से भी वापस मिलने वाला नहीं है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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जैन कथा वाङ्मय का अमृत-मन्थन उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी द्वारा रचित "जैन कथाएं"
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि हिन्दी जैन कथाओं के दो रूप हमें प्राप्त होते हैं। प्रथम रूप है- 1 आगम-साहित्य के बाद जो कथा-साहित्य रचा गया, उसकी विभिन्न भाषाओं से अनूदित कथाएँ और दूसरा रूप है मौलिकता, धारा में एक नया परिवर्तन आया। आगमगत कथाओं, चरित्रों और जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यञ्जित हुआ है। आज महापुरुषों के छोटे-मोटे जीवन प्रसंगों को लेकर मूल कथा में बहुत से विद्वानों ने जैन पुराणों की कथाओं को अभिनव शैली में अवान्तर कथाओं का संयोजन तथा मूल चरित्र को पूर्वजन्मों की प्रस्तुत किया है और सतत निमग्न हैं। डॉ. नेमीचन्द्र जैन के । घटनाओं से समृद्ध कर कथावस्तु का विकास और विस्तार करना कथनानुसार “जैन आख्यानों में मानव जीवन के प्रत्येक रूप का यह पश्चात्वर्ती कथा साहित्य की एक शैली बन गई। सरस और विशद विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवन चित्र विविध
प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश से होती हुई जैन कथाओं की परिस्थिति-रंगों से अनुरंजित होकर अंकित हैं। कहीं इन कथाओं में
विकास यात्रा हिन्दी के कथा-भंडार की अभिवृद्धि करती है, अपनी ऐहिक समस्याओं का समाधान किया गया है तो कहीं पारलौकिक
मंजिल तय करती है। परम्पराओं की भिन्नता, अनुश्रुतियों का अंतर समस्याओं का। अर्थनीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक
एवं समय के दीर्घ व्यवधान के कारण कथासूत्रों में परस्पर भिन्नता परिस्थितियों, कला कौशल के चित्र, उत्तुंगिनी अगाध नद-नदी आदि
और घटनाओं का जोड़-तोड़ भी काफी भिन्न हो गया। अनेक कथाएँ भूवृत्तों का लेखा, अतीत के जल-स्थल मार्गों के संकेत भी जैन
तो ऐसी हैं जो बड़ी प्रसिद्ध होते हुए भी कथा-ग्रंथों में बड़ी भिन्नता कथाओं में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवन को गतिशील,
लिए रहती हैं। आगमों में वर्णित कुछ कथाओं में, पश्चात्वर्ती हृदय को उदार और विशुद्ध एवं बुद्धि को कल्याण के लिए उत्प्रेरित करती है। मानव को मनोरंजन के साथ जीवनोत्थान की ।
साहित्य में अवान्तर कथाएँ जोड़कर उन्हें व्यापक विस्तृत कर दिया त प्रेरणा इन कथाओं में सहज रूप से प्राप्त हो जाती है। हिन्दी जैन ।
गया है। साहित्य में संस्कृत और प्राकृत की कथाओं का अनेक लेखकों और कथा सूत्रों की इस विविधता को देखकर यह प्रयत्न करना कि कवियों ने अनुवाद किया है। एकाध लेखक ने पौराणिक कथाओं कथा का मूल स्रोत कहाँ है, कैसा है, उसमें जो मतभेद या अवांतर Ped का आधार लेकर अपनी स्वतंत्र कल्पना के मिश्रण द्वारा अद्भुत कथाएँ हैं वे मान्य है या नहीं यह कार्य सिर्फ जलमंथन जैसा ही कथा साहित्य का सृजन किया है। इन हिन्दी कथाओं की शैली बड़ी होगा। कथाओं की ऐतिहासिकता की खोज के बजाय हमारा लक्ष्य ही प्रांजल, सुबोध और मुहावरेदार है। ललित लोकोक्तियां, दिव्य उनकी प्रेरकता की ओर रहना चाहिए। हजारों लेखकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टान्त और सरस मुहावरों का प्रयोग किसी भी पाठक को अपनी । देश-काल में जो कथा-ग्रंथ रचे हैं उनमें मत-भिन्नता, कथासूत्र का ओर आकृष्ट करन के लिए पर्याप्त हैं।"
जोड़-तोड़ भिन्न प्रकार का, नाम आदि की भिन्नता होना सहज ही हिन्दी की इन कथाओं के पीछे एक पवित्र प्रयोजन समाविष्ट ।
है। अनेक कथा-ग्रंथों के पर्यवलोकन से हमारा विश्वास बना है कि है कि श्रोताओं और पाठकों की शुभवृत्तियाँ जाग्रत हों, पाप कर्म से हमें प्राचीन ग्रंथों की "शव-परीक्षा" न करके "शिव-परीक्षा" निवृत्त होकर शुभकर्म-प्रवृत्ति की प्रेरणा प्राप्त हो, कथा-रचना में
(कल्याणतत्व की परीक्षा) करने की आदत डालनी चाहिए। जिस ऐसा उच्च एवं उदात्त आदर्श जैन कथा वाङ्मय की अपनी । कथा ग्रंथ में जहाँ जो उच्च आदर्श, प्रेरक तत्व और जीवन विशिष्टता है। साधारणतया कथा का प्रयोजन मनोरंजन होता है, निर्माणकारी मूल्यों के दर्शन होते हैं, उन्हें बिना किसी भेदभाव के
OPos पर, जैनकथा के विषय में यह अधिकारपूर्वक कहा जा सकता है । ग्रहण कर लेना चाहिए।
be8000 कि उसका प्रयोजन मनोरंजन मात्र नहीं है, किन्तु मनोरंजन के साथ अनेक ग्रंथों में ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही कथानक 2006 किसी उच्च आदर्श की स्थापना करना, अशुभ कर्मों का कटुफल
अलग-अलग प्रसंग में अलग-अलग रूप में अंकित मिलता है। कहीं | परिणाम बताकर शुभकर्म की ओर प्रेरित करना रहा है। उच्चतर
कथानक का पूर्वार्ध देकर ही उसको छोड़ दिया है, कहीं उत्तरार्ध तो सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करना,
कहीं कुछ अंश ही। ऐसी स्थिति में कथासूत्रों को सम्पूर्ण रूप से व्यक्तित्व के मूलभूत गुण-साहस, अनुशासन, चातुरी, सज्जनता,
लिखना बड़ा कठिन हो जाता है और उनमें विवादास्पद प्रश्न भी सदाचार एवं व्रतनिष्ठा आदि को प्रोत्साहित करना तथा उनके
खड़ा हो सकता है। हमने उपाध्यायश्री पुष्करमुनिजी की जैन कथाएँ चरित्र में उन संस्कारों को बद्धमूल करना-यही जैन कथा साहित्य
भाग १ से १११ तक में इस प्रकार के प्रसंगों पर प्रयत्न यह किया का मूल प्रयोजन है।
है कि जहाँ तक जो कथासूत्र परिपूर्ण मिला है उसे दो-तीन १. हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन, भाग २, डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री, पृष्ठ ७७। कथाग्रंथों के संदर्भो से जोड़कर पूर्ण करने का प्रयल किया है किन्तु
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ कथा साहित्य की विशालता और विविधता को देखते हुए किसी समीक्षकों ने कहानी के छह घटक स्वीकार किए हैं-कथावस्तु, कथानक की पूर्णता, समग्रता और प्राचीनता की पूर्ण गारण्टी तो । संवाद या कथोपकथन, पात्र या चरित्रचित्रण, भाषा शैली, देशकाल, नहीं दी जा सकती। यह तो बहुश्रुत पाठकों पर ही निर्भर है कि । उद्देश्य। प्रत्येक पल्लवित कहानी में यह सभी घटक उपलब्ध होते हैं। उन्हें कहीं कोई किसी कथानक से संबंधित नया कथासूत्र मिले तो । यद्यपि उत्कंठा और मनोरंजन का तत्व सार्वभौम रूप से स्वीकार वे मुझे अथवा प्रणेता को अवगत कराएँ ताकि उसमें समय-समय । किया जाता है किन्तु नीतिकथा, धर्मकथा और रूपककथा में एक पर संशोधन-परिवर्द्धन किया जा सके।
अन्य तत्व अनिवार्य माना गया है और वह है प्रेरणा-सद्गुणों की, अध्यात्म योगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी द्वारा १११ भागों
लोकहितकारी, समाज परिवार, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान की
प्रेरणा। में संकलित कहानियाँ अनेक दृष्टिकोणों से महनीय हैं। एक सौ ग्यारह भागों में विभक्त उपाध्याय श्री की ये जैन कथाएँ कथा जैन कथाएँ की इस समग्र माला में सभी प्रकार की कथाओं साहित्य की महत्ता में चार चाँद लगाती हैं। व्यावहारिक जगत् में का संकलन है-साथ ही उनमें विभिन्न प्रकार की-सद्गुणों की, वस्तु के सही रूप को जानना, उस पर विश्वास करना और फिर जीवन सुधार की प्रेरणा है। इसमें शिथिलाचार और लोक मूढ़ता से उस पर दृढ़तापूर्वक आचरण करना-जीवन निर्माण, सुधार और हानि का वर्णन है तो जाति एवं ज्ञान-मद की निस्सारता दिखाई गई उन्नत बनाने का राजमार्ग प्रशस्त करती हैं। यदि ठाणं की शैली में । है। किसी कहानी में अडिग विश्वास का महत्व है तो किसी में कहँ तो-दर्शन एक है-सम्यग्दर्शन-१, ज्ञान एक है-सम्यग्ज्ञान-१, तितिक्षा, उपकार, साहस का महत्व वर्णित हुआ है। इसी प्रकार
और चारित्र एक है-सम्यक्चारित्र-१ । इस प्रकार तीनों मिलकर । अनेक कथाएँ साहस से संबंधित हैं तो बहुत-सी बुद्धमानी और बने १११ और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र की त्रिपुटी सीधा मुक्ति । चतुराई से। कहीं बुद्धि का चमत्कार दिखाई देता है तो कहीं शील का-सर्वकर्मक्षय का मार्ग है, धार्मिक जगत में। इस दृष्टि से जैन का। चटपटी चाट के समान कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनमें कथाओं के समस्त भागों में संकलित कथाएँ धार्मिक तो हैं ही, साथ । कौतुक द्वारा पाठक को एक निराला स्वाद प्रदान किया गया है। ही जीवन निर्माण में भी भरपूर सहायक हैं।
शील, सदाचार, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्यपालन, समाज-सेवा, अप्रमाद,
विषय-कषाय विजय, धर्मप्रभाव, नवकार मंत्र प्रभाव आदि से जैन कथाएँ : माला में संकलित
संबंधित तथा विभिन्न प्रकार के मानसिक और चारित्रिक सद्गुणों उपाध्याय श्री की "जैन कथाएँ" के सभी भागों में संकलित की धारणा तो सभी कहानियों में है। इनमें चौबीस तीर्थंकरों, बारह सभी कहानियाँ प्रेरणानुसार भेद के आधार पर धर्मकथा के चक्रवर्तियों और नौ बलभद्र, वासुदेव, प्रतिवासुदेवों-त्रेसठ शलाका अन्तर्गत ही है और यदि कहानियों के स्वरूप भेदों की अपेक्षा पुरुषों की जीवनियाँ भी हैं। कुछ कथा भागों में एक ही सम्पूर्ण विचार किया जाए तो पश्चिमी और पौर्वात्य चिंतकों द्वारा बताए । चरित्र है तो कुछ में छोटी-छोटी कहानियों का संकलन भी किया
गये सभी भेद-प्रभेदों से संबंधित कहानियाँ इस माला में पाठकों को गया है। एक सम्पूर्ण चरित्र एक ही जन्म का है तो ऐसा भी है कि 2000 सुलभ हो जाएँगी। यद्यपि इस माला में चोर-कथा-सहस्रमल चोर-भाग २१ भवों का चित्रण भी एक ही भाग में पूरा का पूरा दिया गया
३, विधुच्चोर-भाग ८८ भी हैं, स्त्रीकथा-अनन्तमती-भाग २१, कोची हैं। कुछ बड़े चरित्र भी हैं जो दो भागों में और यहाँ तक कि चार हलवाइन-भाग २१, उमादेवी-भाग २३, राजकथा-आनन्दसेन-भाग भागों में पूर्ण हुए हैं। १२, शंखराजा-भाग ८३ आदि में स्त्रीकथा राजकथा आदि हैं, पर ये विकथा नहीं हैं, क्योंकि इनकी मूल प्रेरणा पाप का कुफल
कथाओं का मुख्याधार दिखाकर संसार से विरक्ति उत्पन्न करना है। अतएव धर्मकथा के उपाध्यायश्री की “जैन कथाएँ" माला में कुछ कथाएँ अन्तर्गत ये निर्वेदनी कथाएँ हैं।
अंगशास्त्रों से संकलित हैं तो अधिकांश अन्य पुराणों से। किन्तु
प्रश्न यह है कि पुराणकारों ने इन कथाओं का संकलन कहाँ से जैन कथाएँ : कथाओं के प्रेरणा स्वर
किया? इनका मूलाधार और उत्स कहाँ हैं ? कहानी का बीज है-उत्कण्ठा और मनोरंजन। इस मूल बीज को ।
इस प्रश्न के उत्तर में हमें इतिहास की गहराई में जाना संसार के सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है। कथा शब्द का ।
आवश्यक है। पंचकल्प-भाष्य (गाथा १५४५-४९) में उल्लेख है कि प्रादुर्भाव भी इसी तथ्य की ओर संकेत करना दिखाई देता है। वन "क" व "था" अक्षरों के संयोग से “कथा" शब्द का निर्माण
१. यह आचार्य कालक शालिवाहन राजा के समकालीन थे। इनका समय वीर हुआ है। यहाँ "क" अक्षर श्रोता की उत्कंठा को उसी प्रकार जगा
निर्वाण संवत् ६०५ है। -जैन कथाएँ, भाग १११, उपाध्याय श्री पुष्कर देता है, जिस खिलौना दिखाने पर बच्चा उसे लेने के लिए मचल मुनिजी, पृष्ठ २८ तत्थजाव सुहम्मसामिणा जंबूनामस्स पढमाणुओगे जाता है अथवा रंगीन चित्र को लेने के लिए लपक पड़ता है। इस तित्थयरचक्कवट्टिसार वंसपरूवणागयं वसुदेवचरियं कहियं ति। उत्कंठा बीज का ही पल्लवन कहानी के रूप में होता है। कला
-वसुदेवहिंडी, प्रथम भाग, पृष्ठ २१.
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। वाग् देवता का दिव्य रूप आचार्य कालक ने जैन परम्परागत कथाओं का संग्रह किया और जीवन को तो सुखमय बनावे ही, साथ ही समाज सुधार में अपनी इस क्षीण होते साहित्य का प्रथमानुयोग नाम से पुनरुद्धार किया। शक्ति, योग्यता और क्षमता का उपयोग कर सके। साथ ही वे अपने इस उल्लेख के प्रमाण वसुदेवहिण्डी', आवश्यक चूर्णि, आवश्यक पारिवारिक जीवन में स्नेह-वात्सल्य की सरिता बहा सके।६ सूत्रर तथा अनुयोगद्वार की हरिभद्रीयावृति३ और आवश्यक
उपसंहार निर्यक्ति आदि ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। इन ग्रंथों में जिस प्रथमानुयोग का संकेत है, वह यही पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है, जिसके
विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और पुनरुद्धारकर्ता आर्यकालक हैं। कतिपय विद्वानों ने यह अभिमत भी
सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है। भारतीय साहित्य व्यक्त किया है कि इस कथा साहित्य (दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत
में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है। पूर्वगत कथा साहित्य) का मूल नाम प्रथमानुयोग ही था किन्तु वह
भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना लुप्त हो चुका था। अतः आर्यकालक द्वारा पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग
विशिष्ट महत्व रखते हैं। श्रमण परम्परा ने भारतीय कथासाहित्य से मूल प्रथमानुयोग का भेद दिखाने के लिए समवायांग और
की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा भी दी है। नंदीसूत्र में पूर्वगत प्रथमानुयोग को मूल प्रथमानुयोग कहा गया है।
जैन कथा साहित्य का तो मूल लक्ष्य ही रहा है कि कथा के माध्यम
से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की कोई सत्प्रेरणा देना। आगमों दिगम्बर साहित्य में तो कथा-ग्रंथों-पुराणों के लिए प्रथमानुयोग
से लेकर पुराण, चरित्र, काव्य, रास एवं लोककथाओं के रूप में शब्द रूढ़ हो गया है, वहाँ इसी नाम का व्यवहार होता है।
जैन धर्म की हजारों-हजार कथाएँ विख्यात हैं। अधिकतर कथा प्रथमानयोग नामकरण के अनेक कारण हो सकते हैं, यथा-इस साहित्य प्राकत, संस्कत, अपभ्रंश, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में साहित्य की विशालता, प्रेरकता आदि। किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण
होने के कारण और वह भी पद्य-बद्ध होने से बहुसंख्यक पाठकगण कारण यह प्रतीत होता है कि बिल्कुल ही निपट अज्ञानी पुरुष, } उससे लाभ नहीं उठा सकते। जैन कथा साहित्य की इस अमूल्य जिसने कभी धर्म का नाम भी न सुना हो, उसे कथाओं द्वारा सहज निधि को आज की लोक भाषा-राष्ट्रभाषा हिन्दी के परिवेश में ही धर्म की ओर रुचिशील बनाया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा
प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशा में एक नहीं कई में इसी हेतु को स्वीकार करके सर्वप्रथम सामान्य और यहाँ तक कि
सुन्दर प्रयास भी आरम्भ हुए हैं पर अपार अथाह कथा-सागर का अचार्य लोगों को भी धर्म संस्कार प्रदान करने के लिए प्रथमानुयोग
आलोड़न किसी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे-जगन्नाथ के | का ही ज्ञान देने कथाओं द्वारा धर्मोपदेश का निर्देश दिया गया है। रथ को हजारों हाथ मिलकर खींचते हैं, उसी प्रकार प्राचीन मैं इस चर्चा में विस्तार से न जाकर इतना ही कहना चाहता हूँ कि कथा-साहित्य के पुनरुद्धार के लिए अनेक मनस्वी चिन्तकों के अंगशास्त्रों में उल्लिखित कथाओं के अतिरिक्त जिस अन्य विपुल दीर्घकालीन प्रयत्नों की अपेक्षा है। कथा साहित्य का इस माला में संकलन का प्रयास हुआ है उसका
___ इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पूज्य गुरुदेवश्री पुष्करमुनिजी मूलाधार दृष्टिवादगत मूल प्रथमानुयोग अथवा आर्यकालक द्वारा
महाराज ने वर्षों तक इस दिशा में महनीय प्रयास किया है। उन्होंने पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है।५।।
अपने विशाल अध्ययन-अनुशीलन के आधार पर सैकड़ों कथाओं इन कहानियों में जितनी प्रेरणाएँ हैं, सबका शाश्वत महत्व है। का प्रणयन किया है जिनका एक सुदीर्घ कथा माला (जैन कथाएँ) ऐसा कभी नहीं हो सकता जबकि सत्य, शील, सदाचार, परोपकार के रूप में सम्पादन मेरे द्वारा सम्भव हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक माला आदि चारित्रिक सद्गुण महत्वहीन हो जाएँ अथवा सेवा, सहयोग, 1 की संख्या एक सौ ग्यारह है। अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेवश्री सहकार आदि समाज को स्थिरता प्रदान करने वाली प्रवृत्तियों के । उपाध्याय पुष्करमुनि जी द्वारा गद्य-पद्यात्मक विराट कथा का अभाव में समाज और सामाजिक गतिविधियाँ प्रवर्तमान् रह सकें। । सम्पादित नाम “जैन कथाएँ" शीर्षक से अभिहित किया गया है जो इन कथाओं से व्यक्ति समुचित प्रेरणा ग्रहण करके अपने वैयक्तिक | हिन्दी जैन कथा साहित्य में अभिनव प्रदेय कहा जाएगा।
१. एते सव्वं गाहाहिं जहा पढमाणुओगे तहेव इहइपि वन्निजति वित्थरतो।
-आवश्यक चूर्णि, भाग १, पृष्ठ १६० २. पूर्वभवाः खल्वमीषा प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः।
-आवश्यक हरिमव्रीया वृति, पृष्ठ १११-११२ ३. अनुयोगद्वार हरिभद्रीयावृत्ति, पृष्ठ ८० ४. परिआओ पवज्जा भावाओ नत्थि वासुदेवाणं। होई वलाणं सो पुण पढमाणु ओगाओ णायब्यो॥
-आवश्यक नियुक्ति पृष्ठ ४१२ विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ५२, प्रथमानुयोग अने तेना प्रणेता स्थविर आर्यकालक (मुनि पुण्यविजयजी)
६. जैन कथाएँ, भाग १११, लेखकीय अध्यात्मयोगी श्री पुष्करमुनि,
सम्पा. देवेन्द्र मुनि, श्रीचन्द सुराना “सरस", पृष्ठ ३०-३१.
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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जैन कथाएँ भाग १ से १११ तक में आये हुए प्रमुख पात्रों के
नाम व आधार ग्रंथों की सूचनिका
15600DDED
36000
क्रम
भाग संख्या
७८
६६
१०३ २१ १०४ १८ १०२ २७ १०१
BaateRAGESRAE390000.
00RRORE
PROCamp3900200
आधार ग्रंथ विशेषावश्यक भाष्य, जैन कथा रल कोष भाग ६ शाम्ब प्रद्युम्न चरित्र विक्रम चरित्र त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ४ विक्रम चरित्र, अघटकुमार नृपकथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ४ सर्ग १ कथा रल कोष भाग १ त्रिषष्टि-परिशिष्ट पर्व, जम्बुचरियं
अजापुत्र कथानकम् त्रिषष्टि, पर्व २ उपदेश प्रासाद, मुनिपति चरित्र श्रेणिक चरित्र, उत्तराध्ययन सूत्र कुवलयमाला कहा विक्रम चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ४ उपासकाध्ययन (हरिभद्र सूरि)
१०
३३
३७
DOORS 00000
१३ १४
१०१ २९
१७
३१ ३३ ८६ ३७-३८
२०
३७
कथा का प्रमुख पात्र अगीतार्थ आचार्य अग्निभूति-वायुभूति अग्नि बेताल अग्निशर्मा और जिनधर्म अघटकुमार अचल बलभद्र अचल मुनि अजयसिंह और जिनदास अजापुत्र अजितनाथ तीर्थंकर अतुंकारी भट्टा अनाथी मुनि अनंगकुमार अनंगसेना अनन्तनाथ तीर्थंकर अनन्तमती अंधे परीक्षक अनर्थ की जड़ अपराजित और प्रीतिमती अभयकुमार अभयकुमार और श्रेणिक अभिनव राम अभिनन्दननाथ तीर्थंकर अभिनन्दन मुनि अमरकुमार अमरसेन वयरसेन अरणक श्रावक अरणक मुनि अरनाथ तीर्थंकर अरिष्टनेमि तीर्थंकर अरिष्टनेमि-राजमती अरुणदेव देयिणी अर्हद्दास कुन्दलता अवन्ति सुकुमाल अशनिवेग विद्याधर अशोक रोहिणी अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव अषाढ़भूति आचार्य अहीर अहीरनी अंगारक अंजना सती अंबड विद्यासिद्ध
२२
२२ १०१ १००
२६
09020403009 260000690DPOTO
२४ २५ २६ २७
१३
३३
१०१
२९ -३०
८६ ८६
नेमिनाथ चरित्र, त्रिषष्टि, पर्व ८ श्रेणिक चरित्र (त्रिलोक ऋषिजी) श्रेणिक चरित्र विक्रम चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ३ हरिषेण-बृहत्कथाकोष श्रेणिक चरित्र मतिनन्दन गणी की संस्कृत रचना ज्ञातासूत्र अ.८ उत्तरा. नियुक्ति, गा. ९२ त्रिषष्टि, पर्व ६ त्रिषष्टि, पर्व ८, नेमिनाथ चरित्र त्रिषिष्टि. पर्व ९, नेमिनाथ चरित्र पार्श्वनाथ चरित्र सम्यक्त्व कौमुदी विक्रम चरित्र, हरिषेण वृहत्कथाकोष, सुकुमाल चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ४ रोहिणी अशोकचन्द्र नृप कथा, अशोकचन्द्र रोहिणी रास त्रिषष्टि, पर्व ४ उत्तराध्ययन, अ.२ जैन कथारल कोष भाग ६, उपदेशरलाकर जंबुचरियं, त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व त्रिषष्टि, पर्व ७ अम्बड चरित्र
३० २२
३५
१०३
९६
१०४
P08
७५ १०२
४२
१६
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| वागू देवता का दिव्य रूप
२९
९६
उपासकदशांग १ त्रिषष्टि, पर्व ६
१०७
१०८
5
३८
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४१
८८ ७२
आनन्द गाथापति आनन्द बलदेव आनन्दसेन-चन्द्रसेन आन्धारिका और अम्बड आरामशोभा आरोग्य विप्र आर्द्रक मुनि इलापुत्र उज्झितकुमार उत्तमकुमार उदयन वासवदता उदितोदय राजा उमादेवी उषा अनिरुद्ध ऋषभदेव तीर्थंकर ऋषिदत्ता एणिका ऐन्द्रजालिक कठ और भद्रा कठियारा मुनि कनककेतु राजा कनकध्वज जयसुन्दर कनकप्रभा कनकलता कनकधी कनकसुन्दरी धनदत्त कपिला दासी कमल कमल सेठ कमलसेन-गुणसेना कमलावती कमला सती कयवन्ना (कृतपुण्य) करकण्डु (प्रत्येकबुद्ध) कर्मरक्षित-भाविनी कलावती कंकु और सुन्दरी कान्हड़ कठियारा कामगजेन्द्र कामदेव श्रावक कामपाल कामलता कार्तिक सेठ कालसौकरिक कालिक दैत्य और जिनदास कालीदास कीर्तिचन्द राजा कुबेरदत्त कुबेरदत्ता
अम्बड चरित्र वर्द्धमान देशना धर्मरत्न प्रकरण टीका श्रेणिक चरित्र आख्यानक मणिकोष जैन कथा रत्नकोष उत्तमकुमार चरित्र त्रिषष्टि, पर्व १० सम्यक्त्व कौमुदी विक्रम चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ८ उसह चरियं, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति इसिदत्ता चरियं कुवलयमाला कहा विक्रम चरित्र मुनिपति चरित्र श्रेणिक चरित्र उपदेशमाला, ज्ञातासूत्र पुहवीचन्द चरित्र कुवलयमाला कहा सम्यक्त्व कौमुदी विक्रम चरित्र
३०
२९
९६
७९
श्रेणिक चरित्र विनोद कथा संग्रह जैन कथा रत्न कोष भाग ४, धर्मरत्न प्रकरण टीका पुहवीचन्द चरित्र विक्रम चरित्र विक्रम चरित्र कथाकोष प्रकरण, धर्मोपदेशमाला विवरण उत्तरा. ९, कमलसंयमी टीका
S:0900696
विक्रम चरित्र मुनिपति चरित्र
POPणमण्डलकामा
Paco.
कुवलयमाला कहा उपासकदशांग सूत्र सुमतिनाथ चरित्र, पूर्वभवाधिकार, जैन कथा रत्नकोष, भाग ६ विक्रम चरित्र भगवती १८/२ श्रेणिक चरित्र हरिषेण-बृहत्कथा कोष विक्रम चरित्र धर्मरत्न प्रकरण टीका त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व जम्बुचरियं
१०० २२
5900600a6o
१०९ १०२
Jain gbodhtion internationalocRROR
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३३००
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
१०७
DDND
त्रिषष्टि, पर्व ५ अम्बड चरित्र कुवलयमाला कहा कुवलयमाला कहा श्रेणिक चरित्र
३८
९६
३३ ८३
९८
९९
१०० १०१ १०२ -१०३
१०१ ३८
कुरुचन्द्र राजा कुरुवक और विक्रमसिंह कुवलयचन्द्र कुवलयमाला कुसुमलता-कपट श्राविका कुसुमवती सती कुसुमसेन-कुसुमवती कुसुमायुध और कनककेतु कुंचिक सेठ कुण्डकौलिक श्रावक कुन्थुनाथ तीर्थंकर कुणीक कूलबालुक मुनि कूलबालुक मुनि कृतघ्न ब्राह्मण कृष्ण कृष्ण और गति कृष्णपाक्षिक मंत्री केतुमती केशव चोर कोकास काष्ठशिल्पी
१०४
१०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११०
कुवलयमाला कहा मुनिपति चरित्र उपासकदशांग सूत्र त्रिषष्टि पर्व ६ श्रेणिक चरित्र श्रेणिक चरित्र त्रिषष्टि, पर्व १0 उत्तरा. लक्ष्मीवल्लभवृत्ति विक्रम चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ८ त्रिषष्टि, पर्व ८ मुनिपति चरित्र त्रिषष्टि, पर्व८ वर्द्धमान देशना आवश्यकचूर्णि, बसुदेव हिंडी, आचार प्रदीप प्रकरण, जैन कथाकोष, भाग ६, जिनरलकोष विक्रम चरित्र विक्रम चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ६ निशीथवृत्ति गजसिंह चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ८ हरिषेण बृहत्कथाकोष आवश्यक नियुक्ति, उपदेश रत्नाकर, कथारल कोष भाग ६ कथारल कोष भाग ६, भव भावना कथारल कोष, भाग ६ पुहवीचन्द चरित्र
१११
२१
१०७
६७
समराइच्च कहा
११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७
कोची हलवाइन खप्परचोर खल मंत्री और ललितमित्र गजसिंह-चम्पकमाला गजसुकुमार गर्ग कलाचार्य गंगापाठक गंधप्रिय गामड़िया गिरिसुन्दर और रत्नसार गुणचन्द्र भाग्यवती गुणचन्द्र और वानमंतर गुणमाला सती गुणसुन्दरी सती गुणसुन्दरी-पुण्यपाल (लकड़हारों) गुणसेन और अग्नि शर्मा गुणाकर गुणधर गोपयुवक गोभद्र ब्राह्मण गोमती गोविन्दसिंह ग्वाला और प्रियंगुमंजरी घूक और हंस चक्रदेव चण्डप्रद्योत चण्डसोम
शीलोपदेशमाला, उपदेश प्रासाद पौराणिक कथाएँ, समराइच्च कहा श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र जैन कथारल कोष, भाग ४ त्रिषष्टि, जंबुचरियं
१०२
२२
१००
जैन कथारन कोष, भाग ६ गोविन्दसिंह चम्पकमाला रास, गोविन्दसिंह चरित्र विक्रम चरित्र हरिषेण-बृहत्कथा कोष धर्मरत्नप्रकरण टीका श्रेणिक चरित्र कुवलयमाला कहा
१०९ ३८
५९
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2 9000
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३ वाग् देवता का दिव्य रूप
३०१ 10530
1001
१३८
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राजस्थानी लोक कथा साहित्य
१३९
३०
सम्यक्त्व कौमुदी चन्दरास, चन्द चरित्र
१४० १४१ १४२ १४३ १४४
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५१ ६८ १०१ १६
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१५४ १५५ १५६ १५७
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१५९ १६० १६१ १६२
चतुरसेन चन्दन मलया चन्दनश्री चन्द राजा चन्द्रकला चन्द्रकुंवर चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त चन्द्रगुप्त चन्द्रदर्शन (कछुआ) चन्द्रप्रभ तीर्थंकर चन्द्रयशा और अंबड चन्द्र व्यापारी चन्द्रसेन चन्द्रावती चन्द्रसेन लीलावती चन्द्रावती और अम्बड चम्पकमाला चम्पक श्रेष्ठी चंचलकुमारी चाण्डाल चाणक्य: दिव्य पाशा चिलातीपुत्र चित्रगति और रलवती चित्रसेन पद्मावती चुलनीपिता श्रावक चुल्लशतक चेटक राजा चेलना चोर शिल्पी चोल्लक चौबोली जमदग्नि-रेणुका जय चक्रवर्ती जयचन्द (मधुबिन्दु) जयराजर्षि जय और विजय जयविजय जय विजय जयसुन्दरी (श्रेष्ठि पत्नी) जयानन्द केवली जसमा सती जालिनी और शिखी जिनचन्द्रकुमार जिनदत्त और जितशत्रु जिनदत्त जिनमती जिनदत्त श्रेष्ठी जिनदास श्रावक जिनदास सुगुणी जिनमती और रुद्रदत्त जिनसेन-रामसेन
३८
ज्ञातासूत्र, उपदेशपदवृत्ति त्रिषष्टि. पर्व ३
अम्बड चरित्र विक्रम चरित्र राजस्थानी गुजराती रास रचनाएँ चन्द्रसेन लीलावती रास अम्बडनो रास । जैन कथारत्नकोष भाग ६ जिनकीर्ति की संस्कृत गद्य रचना राजस्थानी लोक कथा साहित्य श्रेणिक चरित्र उत्तरा. टीका, उपदेशपदवृत्ति ज्ञातासूत्र, आख्यानक मणिकोष त्रिषष्टि, पर्व ८, नेमिनाथ चरित्र शील तरंगिणी उपासकदशांग उपासकदशांग श्रेणिक चरित्र श्रेणिक चरित्र उपदेश वृत्ति उत्तरा. टीका, उपदेश पद वृत्ति विक्रम चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ६ त्रिषष्टि. पर्व ७ जंबुचरियं, त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व कथारत्नकोष, भाग १ समराइच्च कहा जय विजय चरित्र हरिषेण बृहत्कथा कोष स्थानकवासी संत कवियों की चोपियां जयानन्द केवली रास अमर चित्र कथा समराइच्च कहा कथारलकोष भाग ६, षट् पुरुष चरित्र हरिषेण बृहत्कथाकोष मुनिपति चरित्र
१६३
६८
२१
B06
१०३
१०४
१०२ १८
१७
१६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ १७६ ৭৩৩ १७८ १७९ १८० १८१
२८
४८
२०
FOL 1000०.००
90.9090 [D9000
६९
१००
४ ५४
१८२
१०२
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१८३ १८४ १८५
१० १00 २७
त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व, जंबुचरियं धर्मवीर जिनदास चरित्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष जिनसेन रामसेन ढाल
dosage
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POS4
500
३४
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्राचीन जैन पुराण मुनिपति चरित्र त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व जंबुचरियं
१८६ १८७ १८८ १८९ १९० १९१
१०२ ५४ ३४ ८८
१९२
५६
R55
१०५
१९३ १९४
प्राचीन जैन पुराण त्रिषष्टि, पर्व ८ तरंगवती कथा त्रिषष्टि. पर्व ५ कुवलयमाला कहा तिलकमंजरी गद्य काव्य श्रेणिक चरित्र
६०
१९५
३२ १०२ २२ ७०
त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व, जंबुचरियं विक्रमचरित्र
१९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५
१०७
७७
२०६
२०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२
३८
जुट्ठिल श्रावक जोयण मुनि जंबूकुमार ज्योत्स्ना राजकुमारी झांझरिया मुनि ढंढण मुनि तरंगवती तारक (प्रतिवासुदेव) ताराचंद मुनि तिलकमंजरी तिलकवती प्रसेनजित तिलोकसुन्दरी (श्रेष्ठिपुत्री) तीन मित्र तेजपुंज (राजकुमार) तेजसिंह थावर्चापुत्र दत्तमुनि दत्तवासुदेव दमदन्त राजर्षि दुर्दुरांक देव दर्पफलिह दामिया सेठ दामनक दांता श्रेष्ठी दुर्गन्धा देवकुमार देवकुमार-प्रेतकुमार देवचन्द्र और अंबड देवदमनी देवयश देवराज और रलावली देवराज वच्छराज देवसिंह कनकसुन्दरी देव और श्रीकृष्ण देवी और नेवला द्यूत दृढ़प्रहारी मानव जन्म दुर्लभता के ९ दृष्टान्त द्विपृष्ट वासुदेव द्विमुख प्रत्येकबुद्ध धन और धनवती धनद (भंडारी) धनद (श्रेष्ठिपुत्र) धनद और संघश्री धनदत्त और पूर्णभद्र धनदत्त व्यवहारी धनदत्त और शुक्र धनदत्त (श्रेष्ठिपुत्र)
ज्ञातासूत्र उपदेशमाला, उपदेश सप्ततिका त्रिषष्टि, पर्व ६ आवश्यक नियुक्ति ऋषिमंडल श्रेणिक चरित्र कुवलयमाला कहा ऐतिहासिक घटना आख्यानक मणिकोष, वर्द्धमान देशना प्रबन्ध चिन्तामणि श्रेणिक चरित्र विक्रम चरित्र जैनकथारलकोष, भाग ४, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र अंबड चरित्र विक्रम चरित्र राजस्थानी चरित्र साहित्य पुहवीचन्द चरित्र देवराज वत्सराज प्रबन्ध पुहवीचन्द चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ८
२४
२१३
Joosip
२१४
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२१६
२१७
७०
६८
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२१८ २१९ २२० २२१ २२२ २२३-३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८
१०० १०५
उत्तरा. ३ टीका, उपदेशमाला वृत्ति दृढ़ प्रहारी कथा (जिनरत्नकोष) हरिषेण-बृत्कथाकोष त्रिषष्टि. उत्तरा. ९, कमलसंयमी टीका त्रिषिष्टि पर्व ८, नेमिनाथ चरित्र जैनकथारलकोष, भाग ४, श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र शांतिनाथ चरित्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष हरिषेण बृहत्कथाकोष धनदत्त व्यवहारी रो रास
१००
२३९
४२
२४०
२४१ 19000
१८
कथारलकोष भाग १
Jamsducation-internationalobi
6 6
F or: Riwale sPersonal-use only.30-90-9-20.90%accacceso DDDDDDA
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60.9066EPOPOST
1 वाग् देवता का दिव्य रूप
३०३
२४२
१८
२४३
८१
१०५ १०५
१८
२४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५
कथारत्नकोष भाग १ जैन कथारल कोष, भाग ४, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र धर्मोपदेशमाला विवरण त्रिषष्टि. पर्व ४ कथारनकोष समराइच्च कहा मुनिपति चरित्र कुवलयमाला कहा जैनकथारत्नकोष, भाग ४, श्रावक प्रतिक्रमण सुत्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष त्रिषष्टि. पर्व १० स्थानांग टीका, उपदेशमाला श्रेणिक चरित्र मुनिपति चरित्र वसुदेवहिण्डी (धम्मिल्ल हिण्डी)' समराइच्च कहा अम्बड चरित्र
2018SAPN
२५६
20.2
धर्मोपदेशमाला विवरण
त्रिषष्टि.
६४ ९४ १०० ५४ ५४ ६४ १०२
धनदेव वणिक धनमित्र धनमित्र दृढ़मित्र धनमित्र और बलि धनमुनि धनश्री और धनदेव धनश्री-बोधिभट्ट धनश्रेष्ठी धनसेठ धनसेन धनश्री धन्ना (शालिभद्र) धन्ना धन्य और श्रीमती धम्मिल्ल धरण और लक्ष्मी धरणेन्द्र चूड़ामणि और अंबड धर्मकतु धर्मघोष धर्मयशमुनि धर्मचन्द्र धर्मनाथ तीर्थंकर धर्मपाल धर्मराजा धर्मरुचि तपस्वी धुराजी किसान धूर्तयोगी धूसर छिद्र में कील नग्गति प्रत्येकबुद्ध नटखटचन्द्र (सुर सुन्दर) नन्दन बलदेव नन्दयन्ती सती नन्दिनीपिता श्रावक नमि और चन्द्रयश नमिनाथ तीर्थंकर नमुचि मंत्री नमुचित नरवर्मा राजा नर्मदासुन्दरी सती नवलशा-रम्भा नंदा (श्रेणिक की रानी) नंदा-सुनन्दा नंदीषण नागदत्त नागदत्त नागदत्त सार्थवाह और विक्रमयशा राजा नागसेन और नागदत्त नागदत्त श्रेष्ठी नागदमनी नागश्री
२५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३ २७४ २७५ २७६ २७७ २७८
६८
३२
१०७ ६४ ९६
१०१
१०४ १८
जैनकथारनकोष, भाग ६, उपदेश रलाकर धर्मोपदेशमाला विवरण त्रिषष्टि, जम्बुचरियं विक्रमचरित्र उपदेशपद वृत्ति उत्तरा. ९, कमलसंयमी टीका खटपटिया सेठ (जैन दिवाकरजी कृत रचना) त्रिषष्टि पर्व.६ शीलोपदेशमाला उपासकदशांग उत्तरा.९ टीका त्रिषष्टि, पर्व ८ मुनिपति चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ७ कथारलकोष, भाग १ शीलोपदेशमाला, उपदेश प्रासाद गुजराती कथा श्रेणिक चरित्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष श्रेणिक चरित्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष हरिषेण-बृहत्कथाकोष त्रिषष्टि, पर्व ४ हरिषेण-बृहत्कथाकोष जैन कथार्णव विक्रम चरित्र सम्यक्त्व कौमुदी
६५
२७९
२८०
196.
२८१ २८२
३७
९०
२८३ २८४ २८५ २८६ २८७ २८८
१८ १०३ १००
२३
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३०
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0000000000000
900
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११० १०२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धर्मरल प्रकरण टीका त्रिषष्टि. जंबुचरियं, कथारत्न कोष, भाग १
१८
२९० २९१ २९२ २९३ २९४ २९५
३३
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धर्मोपदेशविवरण
५२
२९६
१०६
८८
१३
२९७
२९८ २९९-३०९
३१० ३११
८८
५८
३१२
१०१
९६
३०
३१४ ३१५
त्रिषष्टि. पर्व ४ त्रिषष्टि. पर्व ८
आख्यानक मणिकोष त्रिषष्टि. पर्व ८ नेमिनाथ पतंगसिंह चरित्र पदमावती पदमसी रास त्रिषष्टि, पर्व २
आख्यानक मणिकोष सम्यक्त्व कौमुदी विक्रम चरित्र गोराबादल कवित्त, प्रतिव्रता पद्मिनी जैन कथारत्नकोष भाग ६ पुहवीचन्द चरित्र उपदेशपद त्रिषष्टि पर्व ६ धर्मरत्न प्रकरण टीका जैन कथारलकोष भाग ६ श्रेणिक चरित्र
२२
३१६
७५
500ROSED651005000000002
३१७ ३१८ ३१९ ३२०
६८ १०३
३२१
१०८
७५
३२२ ३२३
नागार्जुन नागिला श्राविका नारायण (पुरोहित पुत्र) निन्यानवे का चक्कर निम्बक निर्मला निशुम्भ प्रतिवासुदेव निषधकुमार नूपुर पंडिता नेमिनाथ-श्रीकृष्ण (११ प्रसंग) पतंगसिंह पदमावती पद्मप्रभु तीर्थंकर पदमरुचि श्रावक पद्मलता पद्मा (चमारी) पद्मिनी पद्मिनी (श्रेणिक पुत्री) पद्मोत्तर और हरिवेग परमाणु स्तम्भ परशुराम और सुभूम पशुपालन पक्षिघातक पागल प्रद्योत पातालसुन्दरी पादलिप्तसूरि पापबुद्धि-पुण्यबुद्धि पार्श्वनाथ तीर्थंकर पिशाच और श्रीकृष्ण पुण्डरीक-कुण्डरीक पुण्यपाल पुण्यपुरुष-पुण्यप्रभा पुण्यसार पुण्याढ्य राजा पुरन्दर कलावती पुरन्दर राजा पुरन्दर राजा पुरुषपुण्डरीक वासुदेव पुरुषसिंह वासुदेव पुरुषोत्तम वासुदेव पुष्पभूति आचार्य पुष्पसालसुत पुष्पसेन-फूलों की रानी पूनिया श्रावक पूर्णचन्द्र और पुष्पसुन्दरी प्रद्युम्नकुमार प्रभव प्रभास चित्रकार
३२४
३२
३२५
११०
३२६ ३२७
१०१ ८८
धर्मरत्नप्रकरण टीका कामघट कथानक त्रिषष्टि. पर्व ९ त्रिषष्टि. पर्व ८ ज्ञाता सूत्र पुण्यपालराजकथा, गुणसुन्दरी चरित
३२८
३२९
३३०
५१
३३१
३३२ ३३३
६६
لمه لمه لمه النه له لمه
३३४
८४
३३७
१०९ १०७ १०६
मालदेवरचित पद्य चौपाई कुवलयमाला धर्मरल प्रकरण टीका त्रिषष्टि, पर्व ६ त्रिषष्टि. पर्व ६ त्रिषष्टि पर्व ६ आवश्यक नियुक्ति, धर्मोपदेशमाला, जैन कथारल कोष भाग ६ धर्मरलप्रकरण टीका
३३८
३३९
१०६ ७५
RAD
३४०
३४१
३४२
१११ ५२ ३७
३४३
३४४ ३४५ ३४६ ३४७
१४ १०२ ११०
श्रेणिक चरित्र पुहवीचन्द चरित्र प्रद्युम्न चरित्र जम्बुचरियं, त्रिषष्टि. धर्मरल प्रकरण टीका
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बाग देवता का दिव्य रूप
३४८
३४९
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३५१
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३५३
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२४
१२
५२
२८
११०
४९
९३
६५
८८
५४
७९
४४
Jain Education Intemational
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि
प्रह्लाद प्रतिवासुदेव प्रियदर्शना
प्रियदर्शी राजकुमार
प्रियंकर राजा
प्रियंकर (श्रेष्ठि पुत्र)
प्रियंवद कनकवती
पृथ्वीचन्द्र गुणसागर बन्धुमती
बल राजा
बलवीर कुमार
बल प्रतिवासुदेव
बँकचूल
बकचूल हार
कचूल हार
बालपंडिता
बावना चंदन
बिम्बसार
बीसा बोली ब्रह्मदत्त चक्री
ब्राह्मणी
भट्टमात्र
भद्र बलदेव
भद्रनन्दी कुमार
भय का भूत भरत चक्रवर्ती
भरत चक्रवर्ती
भर्तृहरि
भवदेव
भवदेव-भावदेव
भवानी (मंत्री -पुत्री)
भविष्यदत्त बन्धुदत्त भागचन्द सुदर्शन सेठ
भानुकुमार
भानुमती विजयसेन
भीम
भीमकुमार
भीमसेन
भीमसेन हरिसेन
भुवनतिलक कुमार भुवनभानुकेवली भुवनसुन्दरी सती
भुवनानन्दा
भेरीवादक
मइरावती मणिचूल विद्याथर
मकरध्वज राजकुमार मखतूला
श्रेणिक चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ६
प्रियंकर नृप (संस्कृत रचना) कुवलयमाला कहा
शांतिनाथ चरित्र, जैन कथारत्न कोष भाग ६
पुरुवीचन्द चरित्र
धर्मरत्न प्रकरण टीका
जैन कथारत्न कोष, भाग ६
त्रिषष्टि, पर्व ६
विक्रम चरित्र
मुनिपति चरित्र
श्रेणिक चरित्र
विक्रम चरित्र
वैरिसिंह कुमार बावना चंदन चौपाई
उत्तरा त्रिषष्टि पर्व ९
विक्रम चरित्र
त्रिषष्टि. पर्व ७
धर्मरत्न प्रकरण टीका
त्रिषष्टि. पर्व १
विक्रम चरित्र
कथारत्नकोष भाग १
त्रिषष्टि परिशिष्ट पर्व जंबुचरियं
जैन कथारत्न कोष, भाग ४, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र
भविस्सयत्त कहा
कुवलयमाला कहा
कुवलयमाला कहा विक्रम चरित्र
पार्श्वनाथ चरित्र, धर्मरत्नप्रकरण टीका
धर्मरत्न प्रकरण टीका, उपमिति भव प्रपंच कथा जिनरल कथाकोष
भुवनसुन्दरी कथा
त्रिपष्टि पर्व
मदिरावती कथा, वर्धमान देशना
जैन कथारत्नकोष भाग ६
For Private & Personal use only s 2010
३०५
www.jainebbrary.org Do
Page #424
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________________
1 ३०६
३९६
६४
BADDDSDRFORE
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धर्मोपदेशमाला विवरण, आवश्यक कथा, आवश्यक चूर्णि मुनिपति चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ४ धर्मोपदेश विवरण
१०३
६४
कुवलयमाला कहा कुवलयमाला कहा
विक्रम चरित्र उत्तरा. ९ टीका
६९
१०६
৩৩ ११०
११०
३९७ ३९८ ३९९ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६
४१७ ४१८-४५०
४५१ ४५२ ४५३ ४५४ ४५५ ४५६ ४५७ ४५८
८० १०४ १२
८९-९०
त्रिषष्टि. पर्व ६ भवभावना धर्मरत्न प्रकरण टीका, उपमिति भव प्रपंच कथा धर्मरल प्रकरण टीका, प्रभावक चरित्र जैन कथारलकोष भाग ४ त्रिषष्टि. पार्श्वनाथ चरित्र महाबल मलयसुन्दरी रास पांडव चरित्र कुवलयमाला कहा महावीर चरिय, त्रिषष्टि पर्व १० उपासक दशांग सूत्र त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व जम्बुचरियं कुवलयमाला कहा जैन कथारलकोष भाग ६, भव भावना
६२
पलपEPAVANCEDARSHASOKSSSSOSESHएक
९५
मगधसुन्दरी मगधसेना (वेश्या) मघवा चक्रवर्ती मच्छियमल्ल मणिचन्द्र गुणचन्द्र मणिभूषण राजा मणिरथकुमार मणिरथ कुमार मणिशेखर तस्कर मतिसागर मंत्री मदनरेखा सती मदनसेन तारासुन्दरी मधु प्रतिवासुदेव मधुप्रिय मध्यम बुद्धि मरुण्डराज महानन्दकुमार महापद्म चक्रवर्ती महाबल कुलपुत्र महाबल मलयासुन्दरी महाभारत महारथकुमार महावीर तीर्थंकर (३२ प्रसंग) महाशतक श्रावक महिषदत्त महेन्द्र मालवकुमार महेन्द्र राजकुमार अभयदान मंगल कलश मंजुला मंडल माथुर वणिक माधवसिंह मानभट्ट मानवती मानतुंग मायादित्य मां पुत्री मित्रश्री मित्रसेन मित्रसेन धर्मसेन मुकनसिंह-बंसाला मुग्धभट्ट मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर मुंज राजा मूर्ख शिष्य और बन्दर मूलदेव मेघकुमार मेघरथ और विद्युन्माली
९६ १०२ ५९
তত
२६
शांतिनाथ चरित्र
३२
विक्रम चरित्र धर्मोपदेशमाला विवरण
४५९
६४
५०
४६० ४६१
४६२
३५
कुवलयमाला कहा मानतुंग मानवती रास कुवलयमाला कहा
کیا
४६४ ४६५
३०
सम्यक्त्व कौमुदी धर्मरत्न प्रकरण टीका
४६६
१११
४६७
५० ४३
४६८
४६९
४७०
१०१
४७१
७५
राजस्थानी लोक साहित्य जैन कथारत्न कोष भाग ६, आचार प्रदीप त्रिषष्टि. पर्व ६ जैन कथारत्नकोष भाग ६, मुंजप्रबन्ध, प्रबन्ध चिन्तामणि आवश्यकनियुक्ति, जैन कथारलकोष, भाग ६ उपदेशवृत्ति श्रेणिक चरित्र कथारलकोष भाग ६, त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व, जम्बुचरियं
४७२ ४७३ ४७४ ४७५
७८
ValGA0002040GERDINDASE0. 000000000000000 300020 10005.0GrPrivate & Parsohar use only.30000000000
2034200300500000
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वाग देवता का दिव्य रूप
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६५
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५
१०२
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२३
मेघरथ और विद्युन्माली
मेरक प्रतिवासुदेव
मैलार्य मुनि
मौजी खोजी
मोहदत्त
मृगसुन्दरी मृगासुन्दरी यव राजर्षि
यशपाल (मंत्री पुत्र)
यशोधर राजा
यशोवर्मा राजा
यक्षदिन्न
रविवार
रतिसुन्दरी सती
रमणीकलाल
रमा
रसाल राजा और शीलवती
रसोइया और सुभूम
रत्न
रत्नचूड़ विद्याधर रत्नचूड़ श्रेष्ठपुत्र
रत्नमंजरी
रत्नवती रत्नपाल
रत्नवती सती
रत्नशिख
रलशिखर
रत्नसार
राजसिंह और विकट
राजा और आचार्य
रामचरित्र (२१ + २५ = ४६ प्रसंग )
रुक्मिणी विक्रम चरित्र
रुक्मिणी और मुख्या
रुद्रसूरि
रूपकला
रूपली
रूपिणी और अम्बड
रेवती
रोहिणी और अम्बड
रोहिणी
रोहिणी सती
रोहिणेय चोर
लकुच और पंगुल
लड्डू के लोभी
ललितांगकुमार
ललितांग और रूपवती रानी
लक्ष्मणा साध्वी
लक्ष्मीपूज लक्ष्मीवती
जम्बुचरियं त्रिषष्टि. पर्व ६
श्रेणिक चरित्र
कुवलयमाला कहा
जैन कथारलकोष भाग ४, श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
आख्यानक मणिकोष, उपदेशप्रसाद उपदेशपद
यशोधर चरित काव्य
उपदेश सप्ततिका धर्मोपदेशमाला विवरण
विक्रम चरित्र
त्रिषष्टि. पर्व ६
उत्तरा ३ टीका, आवश्यकचूर्णि उपदेशपदवृत्ति धर्मरत्न प्रकरण टीका, उपमिति भव प्रपंच कथा
विक्रम चरित्र
रतनपाल चरित्र
पुहवीचन्द चरित्र
रत्नशिखर रास वर्द्धमानदेशना
डिष्टि पर्व ६
आवश्यक टिप्पणक जैन कथारत्नको. भाग ६
त्रिषष्टि. पर्व ७
विक्रमचरित्र कथारत्नकोष भाग १
अम्बड चरित्र हरिषेण बृहत्कथाकोष
अम्बड चरित्र
धर्मरत्न प्रकरण टीका
उपदेश प्रासाद, उपदेश सप्ततिका, भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति
श्रेणिक चरित्र
हरिषेण बृहत्कथाकोष
विनोद कथा संग्रह
पार्श्वनाथ चरित्र
त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व, जम्बुचरिय श्राद्धविधि, उपदेशप्रासाद
विक्रम चरित्र
३०७
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G
५२
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२९
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४७
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१०९
लक्ष्मी लीलाधर
लक्ष्मी सरस्वती
लक्ष्मीधर
लालचन्द्र धर्मचन्द्र
लीलापत झणकारा
लीलावती (श्रेष्ठि पुत्री)
लोभदेव
लोहवणिक
वज्रगुप्तकुमार
वज्रस्वामी
वत्सराज
वरदत्त
वरदत्त मुनि
वागदत्ता-सुनन्दन
वल्कलचीरी
वसुतेज मदनमंजरी
वसुदत्त धनदत्त
वसुदेव
वसुधीर
वसन्तमाधव-मंजुघोषा वसन्तरकुमार
वसुमती (वणिक् पुत्री) वसुमित्र जिनभक्त
वसु (सत्यवादी राजा)
वानर और मुनि वानर और वानरी
वारिखिल्ल
वारिषेण सोमशर्मा
वासुपूज्य तीर्थंकर
विक्रम चरित्र (विक्रमादान-शौर्यदित्य
का पुत्र) ५ प्रसंग
विक्रमसिंह और विक्रमादिव्य
विक्रमादित्य ६१
(१७+२६+१८) प्रसंग
विजयकुमार विजयकुमार
विजय बलदेव
विजय सेठ- विजया सेठानी
विजयसेन
विद्याविलास
विधि देवी
विद्युच्चोर
विद्युल्लता विद्युल्लता सती
विद्योत्तमा
विनयवती सती
विनयधर
विमल
For Private & Personal use Only
1800
जैन कथारत्नकोष भाग ६
लीलापत झणकारा काव्य
कुवलयमाला कहा
ज्ञातासूत्र
कुवलयमाला कहा
उपदेशमाला, ऋषिमण्डल प्रकरण
शांतिनाथ चरित्र
नागपंचमी कहा उपदेशमाला
विक्रम चरित्र वसुदेवहिण्डी
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जैन कथारलकोष भाग ६, सुमतिनाथ चरित्र
जैन कथारत्नकोष भाग ५ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
वसुदेवहिण्डी नेमिनाथ चरित्र हरिवंश पुराण, त्रि पर्व ८ लालकवि-प्राचीन जैन पुराण
कथारत्नकोष भाग १
बृहत्कथाकोष हरिषेण
पार्श्वनाथ चरित्र, त्रिषष्टि.
त्रिषष्टि. पर्व ८
त्रिषष्टि परिशिष्ट पर्व जंबुचरिवं
त्रिषष्टि. शत्रुंजय माहात्म्य, उपदेश प्रासाद गौतम कुलक
हरिषेण वृहत्कथाकोष
त्रिषष्टि, पर्व ४
विक्रम चरित्र
अम्बड चरित्र
विक्रम चरित्र
धर्मरत्न प्रकरण टीका
धर्मरत्न प्रकरण टीका त्रिषष्टि. पर्व ६
समराइच्च कहा, जैन कथारत्नकोष भाग ६ विद्याविलास संस्कृत गद्य रचना
विक्रम चरित्र
हरिषेण बृहत्कथाकोष सम्यक्त्वकौमुदी
विक्रम चरित्र
प्राचीन चौपाई
धर्मरत्न प्रकरण टीका धर्मरत्न प्रकरण टीका
c.
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बाग देवता का दिव्य रूप
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३९
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९६
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.९२
५७
६४
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४
२२
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८
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१७७
२४
४१
११
900
२२
८३
१८
८६
२२
१११
20
३७
१८
१८
१०२
विमलकुमार विमलनाथ तीर्थंकर
विमला सती
विश्वभूति विश्वभूति और विशाखभूति
विष्णुकुमार महामुनि
विष्णुदत्त
विष्णुश्री
विंध्यशक्ति और पर्वत
वीरकुमार
वीर बुनकर
वीरभान उदयभान वीरमती
वीरमती जगदेव
वीरसेन कुसुमश्री
वीरसेन और सिंह
वीरांगद - सुमित्र
और धनश्री
वृद्धवृषभ
वैतरणि और धन्वन्तरि वैद्य
शकडालपुत्र श्रावक शतमति
शत्रुमर्दन मधुकांता
शांतिनाथ तीर्थंकर
शांब और पालक शिवकुमार पद्मश्री
शिव और दत्त
शिव ब्राह्मण और स्वर्णकार
शिवराजा
शिशुपाल
शीतलनाथ तीर्थंकर
शीलवती
शीलवती और युवा मुनि
शुद्धभट
शुभमती
शुभमती
शूरपाल शीलवती
शूरमित्र और शूरचन्द्र शंख और सिद्धसेन
शंख और कलावती
शंखमुनि
शंख और यशोमती
शंख राजा रूपवती रानी
श्येन श्रेष्ठी
श्रावक मद्रक मिथ्यात्वी श्रावक सच्चे झूठे
श्रीगुप्त (श्रेष्ठिपुत्र)
श्रीदेव नृप
श्रीधर ब्राह्मण सार राजा
Qate
धर्मरत्न प्रकरण टीका, उपमिति भव प्रपंच कथा
त्रिषष्टि. पर्व ४
धन्य चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ४
त्रिषष्टि. पर्व ६ हरिषेण- बृहत्कथाकोष
सम्यक्त्व कौमुदी
त्रिषष्टि. पर्व ६
जैन कथारत्न कोषभाग ६, सुपार्श्वनाथ चरित्र
त्रिषष्टि. पर्व ८
वीरभान उदयभान रास
विक्रम चरित्र
वीरमती जगदेव रास
हरिषेण वृहत्कथाकोष जिनरत्नकोष
मुनिपति चरित्र
त्रिषष्टि. पर्व ८
उपासकदशांग
विक्रम चरित्र
त्रिष्टि पर्व ५
धर्मोपदेशमाला विवरण, त्रिषष्टि. पर्व ८ जम्बुचरियं त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व
मुनिपति चरित्र
मुनिपति चरित्र
विक्रम चरित्र
त्रिषष्टि. पर्व ८ त्रिषष्टि, पर्व ६
पुराण कथा त्रिषष्टि, पर्व २ विक्रम चरित्र
शांतिनाथ चरित्र
हरिषेण बृहत्कथाकोष विक्रम चरित्र
पुहवीचन्द चरित्र
कथारल कोष भाग 9
नेमिनाथ चरित्र, त्रिष्टि पर्व ८
विक्रम चरित्र
धर्मरत्न प्रकरण टीका
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र जैन कथारत्नकोष भाग ४
श्रेणिक चरित्र
कथारत्न कोष, भाग १
कथारत्नकोष, भाग १ त्रिपष्टि परिशिष्ट पर्व जम्बुचरिय
३०९
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________________
5000
३१०
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
DD8.9062D
सिरि सिरिवाल कहा राजस्थानी लोक साहित्य
७३० ७३१ ७३२ ७३३ ७३४ ७३५ ७३६-७५
३४
३४
पुराण कथा पुराण कथा त्रिषष्टि. पर्व ४ श्रेणिक चरित्र
SO1P.94
१०४ ३७
७७६
३८ ३७
श्रीपाल-मैनासुन्दरी श्रीमती श्रीमती (थेष्ठि पत्नी) श्रीपति सेठ श्रीमती सेठानी मण्डुक सेठ श्रीवर्मराजा श्रेणिक-अभयकुमार (२० + २१ = ४१ प्रसंग) श्रेणिक और पाँच सौ कुमार श्रेयांसनाथ तीर्थंकर शृंगारमंजरी सती सगर चक्रवर्ती सदयवत्स-सावलिंगा सनत्कुमार चक्री समय का फेर समरसिंह और गिरिसेन समरादित्य केवली समुद्रदत्त
ওভুত ৩৩ ७७९ ७८० ७८१
१०१
श्रेणिक चरित्र त्रिषष्टि, पर्व ४ जयवंत सूरिकृत रास त्रिषष्टि. पर्व २ सदयवत्स चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ४
४४
૭૮ર
१०३
७८३
७८४
७८५
७८६
७५
७८७
१०६ १०० १०२
समराइच्च कहा समराइच्च कहा जैन कथारलकोष भाग ६, गौतम पृच्छा अल्पपुण्य बंधाधिकार प्रश्नोत्तर माला वृत्ति त्रिषष्टि. पर्व ६ हरिषेण-बृहत्कथाकोष जम्बुचरियं, त्रिषष्टि. परिशिष्ट पर्व कथारनकोष राजस्थानी लोक कथाएँ
७८८
७८९ ७९०-८०८ ८०९ ८१०
१८
५२
समुद्रदत्त और चंडशासन समुद्रदत्त और सौम्य समुद्रश्री सम्यक्त्व से संबंधित प्रसंग सरस्वती सरस्वती धनमोद सरिसव धान्य सर्वज्ञप्रभा सर्वहर सर्वागसुन्दरी
६८
८११ ८१२
८१३
२४ ७९
उत्तरा. ३ टीका, उपदेशपद वृत्ति राजस्थानी लोक कथा विक्रम चरित्र आवश्यक अरिहंत वर्णन अधिकार, जैन कथारल कोष भाग ६
८१४
८१५ ८१६ ८१७
१०१
वर्द्धमान देशना त्रिषष्टि. पर्व ३
८१८ ८१९
६४
उपदेशमाला
८२०
८२१
६०
८२२
८२३ ८२४
सहदेव काष्ठ शिल्पी सहस्रमल्ल चोर संभवनाथ तीर्थंकर संवेग सागरचन्द्र कुमार सागरदत्त सागरदत्त सागरदत्त श्रेष्ठी सामदेव-वामदेव सालिहीपिता श्रावक सिद्धसेन सूरि सिद्धाचार्य सिद्धि और बुद्धि सिन्दूर पद्म सिंहकुमार और आनंदकुमार सिंह और जीवानन्द सिंहलकुमार सिंह-वसन्त
९६
८२५ ८२६
६४
कुवलयमाला कहा श्राद्ध विधि, उपदेश प्रासाद जैनकथारत्नकोष भाग ६, सुमतिनाथ चरित्र उपासकदशांग विक्रम चरित्र उपदेशपद त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व, जम्बुचरियं विक्रम चरित्र समराइच्च कहा मुनिपति चरित्र सिंहलकुमार चरित्र जैन कथारलकोष भाग ६
८२७
१०२
८२८ ८२९ ८३० ८३१
४४
८३२
७५
For Private & Personal use only
Bain Education Intematonal
RCECE00
0
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वाग् देवता का दिव्य रूप
३११ 19.600
८३३
640
१०७ २३ ३३
आख्यानक मणिकोष त्रिषष्टि. पर्व ६ विक्रम चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ७ सुगन्धदशमी कथा जैन कथारलकोष भाग १ धर्मरत्न प्रकरण टीका ऋषिमण्डल प्रकरण वृत्ति त्रिषष्टि. पर्व ६
१८
१०८
६९
१०६
८३७ ८३८ ८३९ ८४० ८४१ ८४२ ८४३ ८४४ ८४५ ८४६ ८४७ ८४८
अन्तकृद्दशा
६४
उपदेशमाला पार्श्वनाथ चरित्र
५०
८४९
८५० ८५१ ८५२
६४ १०६ १०१ ११०
कुवलयमाला कहा धर्मोपदेशमाला विवरण त्रिषष्टि. पर्व ६ त्रिषष्टि, पर्व ३ धर्मरल प्रकरण टीका, ज्ञातासूत्र श्रेणिक चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ६
८५३
१०३
९४
८५४ ८५५ ८५६ ८५७ ८५८ ८५९ ८६० ८६१
सुकुमालिका-जितशत्रु सुकेतु और प्रियमित्र सुकोमला सुकोशल मुनि सुगंधा-योजनगंधा सुजय राजर्षि सुजातकुमार सुदर्शन (श्रेष्ठी) सुदर्शन बलदेव सुदर्शन राजा सुदर्शन सेठ अर्जुनमाली सुधा सिन्धु सुनन्दा सुनार (स्त्री लोलुपी) सुन्दर राजा सुन्दर सेठ सुन्दरी सुंदरीनन्द सुप्रभ वासुदेव सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर सुबुद्धि प्रधान जितशत्रु राजा सुभद्र वणिक सुभूम चक्रवर्ती सुमतिचन्द्र सुमतिनाथ तीर्थंकर सुमति सागर मुनि सुमित्र और प्रियंगुमंजरी सुमंगला रानी सुयोधन राजा-यमदण्ड सुरप्रियकुमार सुरसुन्दर सुरसुन्दरी सुरसुन्दरी सुरादेव श्रावक सुरेन्द्रदत्त सुलस सुलसकुमार सुलसा और अम्बड सुव्रत आचार्य सुव्रत और प्रियमित्रा सुव्रत मुनि सुव्रत मुनि (केसरिया मोदक) सुविधिनाथ तीर्थंकर सूर विप्र सूरसेन मुक्तावली सूर्यसिंह सेचनक हाथी सेचनक हाथी
2009 pap
त्रिषष्टि, पर्व ३
16566
१०१ ४३ ९३
९४
सुमित्र चरित्र सुमितनाथ चरित्र सम्यक्त्व कौमुदी जैन कथारत्नकोष भाग ६, वन्दारू वृत्ति पुहवीचन्द चरित सुरसुन्दरी चरित
PGene Paekacee Pasee
८६२ ८६३
७८
३८
१४
उपासकदशांग उपदेशपद वृत्ति श्रेणिक चरित्र शांतिनाथ चरित्र अम्बड चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ६ मुनिपति चरित्र आवश्यक नियुक्ति, योग संग्रह, जैन कथारल कोष भाग ६
0606
८६५ ८६६ ८६७ ८६८ ८६९ ८७० ८७१ ८७२ ८७३ ८७४ ८७५ ८७६ Zত ८७८
१०४
७५
१० १०१
७५
त्रिषष्टि. पर्व ३ जैन कथारलकोष भाग ६ पुहवीचन्द चरित
८३
९४
८७९
श्रेणिक चरित्र मुनिपति चरित्र
८८०
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1३१२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
206
८८१ ८८२
३८
सेन और विषेण सेनक और सुमंगल सेडुक सोना सती
समराइच्च कहा श्रेणिक चरित्र मुनिपति चरित्र
४०
८८५
१०८
सोम
धर्मरल प्रकरण टीका
३६
८८७ ८८८ ८८९
२४ १०९ १०० १००
८९०
२३
५४ ६४ १०२
८९१ ८९२ ८९३ ८९४ ८९५ ८९६ ८९७ ८९८ ८९९ ९००
विक्रम चरित्र हरिषेण-बृहत्कथाकोष हरिषेण बृहत्कथाकोष हरिषेण बृहत्कथाकोष विक्रम चरित्र त्रिषष्टि. पर्व ६ उपदेशमाला त्रिषष्टि, परिशिष्ट पर्व, जम्बुचरियं मुनिपति चरित्र त्रिषष्टि. पर्व कुवलयमाला कहा
१०५
सोमचन्द्र और प्रचण्डा सोमदत्त सोमशर्मा मुनि सोमशर्मा मुनि सोमशर्मा सौभाग्यसुन्दरी स्कन्धक आचार्य स्कन्धक मुनि स्वर्णकार स्वर्णकार और श्रेणिक स्वयंभू वासुदेव स्वयंभू विप्र स्मिता राजकुमारी हरिताली हरिनन्दी हरिबल मच्छी (अहिंसा) हरिश्चन्द्र (सत्यवादी) हरिषेण-चक्रवर्ती हरिसेन-सुमतिचन्द्र हल्ल-बिहल्ल हंस-केशव हंसराज बच्छराज हुण्डिक चोर हेमवती रानी क्षुल्लक कुमार मुनि क्षुल्लक मुनि क्षुल्लक श्रमण त्रिपुष्ट वासुदेव ज्ञानचन्द्र-विज्ञानचन्द्र
विक्रम चरित्र धर्मरल प्रकरण टीका वर्द्धमान देशना
९०१
१०४
त्रिषष्टि, पर्व ७
९०२ ९०३ ९०४ ९०५ ९०६ ९०७ ९०८ ९०९
श्रेणिक चरित्र वर्द्धमान देशना
९१०
जैन कथारत्नकोष भाग ६ आचारांग-नियुक्ति चूर्णी आचारांग-नियुक्ति चूर्णी आख्यानक मणिकोष उपदेशपद, धर्मोपदेशमाला, ऋषिमण्डल प्रकरण धर्मोपदेशमाला विवरण त्रिषष्टि. पर्व ४ सर्ग, १
९११ ९१२ ९१३ ९१४
६४ १०४
९२
जिस प्रकार नदी की धारा विभिन्न क्षेत्रों का स्पर्श करती हुई अन्त में समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार जैन कथा साहित्य की धारा, श्रृगार-हास्य आदि विभिन्न रसों का आस्वाद कराती हुई अन्त में निर्वेद रस-समुद्र में परिणत हो जाती है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
३१३ ।
कथा कानन की कलियाँ
पूज्य गुरुदेव श्री एक जीवंत कथा कोष थे। जैन आगमों, ग्रन्थों से लेकर हजारों लोक कथाएँ उन्हें याद थीं। समय-समय पर प्रवचन एवं वार्तालाप प्रसंग में गुरुदेव रोचक एवं सामयिक कथाओं द्वारा विषय को रुचिकर तथा सुबोध-सहज बना देते थे। हंसी के शिक्षाप्रद चुटकुले तो बात-बात में उनके श्रीमुख से सुने जाते थे, जिससे श्रोता रसमय होकर तन्मय भी हो जाते थे।
जैन कथाएँ के रूप में १ से १११ भाग तक का शृंखला बद्ध कथा सागर तो पूज्य गुरुदेव की एक चिरस्मरणीय अद्भुत अमर सर्जना है। यहाँ प्रस्तुत है-जैन कथाएँ के भिन्न-भिन्न भागों से समुद्धृत चार रोचक कथाएँ।
-संपादक
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में भी एक परिव्राजक स्थिर आसन से बैठा हुआ है। इस दृश्य को देखकर वह चमत्कृत हुई। अपने पति को प्रभावित करने का उसने
उचित अवसर देखा। वह अपने पति से बोलीधर्म चमत्कार में नहीं
"देखिए नाथ ! नीचे की ओर देखिए।" वत्सकावती देश की कौशाम्बी नगरी। यमुना नदी के किनारे विद्याधर ने नीचे की ओर देखा, बोलाबसी हुई। समृद्ध और सम्पन्न ।
"कहो, क्या कहना चाहती हो?" परिव्राजक सुप्रतिष्ठ श्याम सलिला यमुना की धार में कुशासन
“इस परिव्राजक को देख रहे हैं ?" पर बैठकर माला जपता। उसे जल-स्तंभिनी विद्या सिद्ध थी। इस सिद्धि और चमत्कार प्रदर्शन से जनता में उसका बड़ा मान था। “हाँ।" लोग उसके प्रति बहुत भक्ति रखते। यहाँ तक कि नगर-नरेश
"आपने देखा, यमुना के तीव्र जल-प्रवाह में भी कैसा स्थिर धनसेन भी उसके श्रद्धालु थे। उस पर आस्था रखते थे।
बैठा है। इस परिव्राजक का कितना तपःमाहात्म्य है? क्या अन्य परिव्राजक सुप्रतिष्ठ दिन-रात यमुना-जल में बैठा रहता, वहीं साधु ऐसा तप कर सकते हैं ?" विद्युद्वेगा ने कहा और परिव्राजक सो जाता। बाहर तो वह शरीर की आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त । के तप की दुष्करता का वर्णन करने लगी-'माघ का महीना है, होने आता अथवा भोजन के लिए ही आता।
जल बर्फ के समान ठण्डा है, छूते ही शरीर में सिहरन दौड़ जाती भोजन भी वह राजा धनसेन के साथ ही करता। राजा धनसेन
है, लेकिन यह परिव्राजक योग साधना कर रहा है।" भी उसे बड़े प्रेम और मान-सम्मान के साथ भोजन कराते। किसी विद्याधर राजा विद्युत्प्रभ ने अपनी रानी विधुढेगा की बात सुनी साधारण घर से कैसे भोजन कर लेता इतना बड़ा सिद्ध-चमत्कारी और व्यंगपूर्वक मुस्करा दिया, कहा कुछ नहीं। परिव्राजक ! बेचारे सामान्य गृहस्थ तो परिव्राजक को भोजन कराने
पति की मुस्कराहट से विद्युद्वेगा आवेश में आ गई, बोलीकी आशा ही त्याग बैठे थे। जब परिव्राजक उनके घर आता ही
"क्या आप इस परिव्राजक के तप को दुष्कर नहीं मानते? नहीं था तो वे और करते भी क्या? सिर्फ दर्शन-प्रणाम करके ही संतोष कर लेते।
आप तो ऐसे मुस्करा दिये जैसे यह साधारण सी बात है।" लेकिन राजा धनसेन की रानी धनश्री सम्यग्दर्शन सम्पन्न
"है ही साधारण।" विद्याधर विद्युत्प्रभ ने कहा-“इसमें न तो श्राविका थी। उसकी उस परिव्राजक के प्रति कोई श्रद्धा न थी।।
कोई विशेष तपोबल है, न विद्याबल। जलस्तम्भिनी विद्या से इसने सिर्फ राजा धनसेन ही उस परिव्राजक के भक्त थे।
जल को स्थिर कर दिया है। यह विद्या तो बहुत ही साधारण है, जो
तुच्छ से तप से ही प्राप्त हो जाती है।" एक दिन परिव्राजक यमुना-जल में स्थिर बैठा हुआ माला जप
"आपको इस परिव्राजक का तप तुच्छ दिखाई दे रहा है!" रहा था। उसी समय रथनूपुर के विद्याधर राजा विद्युतत्प्रभ का विमान आकाश-मार्ग से निकला। उसके पार्श्व में ही उसकी पत्नी
विद्युवेगा का आवेश और बढ़ गया-"मैं कहती हूँ, ऐसा तपोबल विद्युद्वेगा बैठी थी। विधुढेगा परिव्राजकों की भक्त थी जबकि
और विद्याबल किसी अन्य में नहीं है।" विद्युत्प्रभ श्रमणोपासक था। वह द्वादशव्रती श्रावक था।
पत्नी का आवेश पति ने हँसकर ठंडा किया, फिर बोलाविधुढेगा की दृष्टि नीचे की ओर गई तो उसने देखा, यमुना "इसका तपोबल कितना है और विद्याबल कैसा है, वह मैं का जल किलोलें भरता हुआ बड़े वेग से बह रहा है किन्तु इस वेग तुम्हें अभी दिखा सकता हूँ। तुम कहो तो क्षण मात्र में इसकी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विद्या छीन लूँ और तुम कहो तो अन्य विद्या की ओर इसे वह सोचने लगा-यह नगर अचानक ही बन गया है। इतना लालायित कर दूं। साथ ही यह भी दिखा दूँ कि यह कितना । सुन्दर नगर बसाने में तो वर्षों लगते। अतः यह किसी की विद्या का ढोंगी-पाखण्डी है।"
चमत्कार मालूम होता है। विद्युद्वेगा ने पति की पहली बात नहीं मानी। विद्या से पतित 'किसकी विद्या का चमत्कार हो सकता है यह?" परिव्राजक होने पर परिव्राजक सुप्रतिष्ठ जल में स्थिर नहीं रह पाता, उसकी सोच ही रहा था कि उसे वह डोम-डोमनी दिखाई दे गये। 'ये प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा में बदल जाती, लोग उसका उपहास करते-यह डोम-डोमनी यहाँ कैसे?' 'इनका यहाँ क्या काम?" सोचने लगा स्थिति विद्युद्वेगा नहीं चाहती थी, क्योंकि वह परिव्राजकों की भक्त । परिव्राजक-'आज ही मुझे ये दो बार दिखाई दिये हैं और तीसरी थी। उसने पति की दूसरी बात स्वीकार कर ली।
बार यहाँ इस नगर में। इससे पहले इनको कभी देखा नहीं था। ऐसा ___तत्काल विद्याधर विद्युत्प्रभ ने अपनी विद्या का प्रयोग किया।
मालूम होता है, इस नगर की रचना इन्होंने ही की है।' स्वयं तो डोम बना ही, पत्नी को भी डोमनी बना लिया। जहाँ चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित करना तो उसकी तपस्या परिव्राजक सुप्रतिष्ठ यमुना नदी के जल में स्थिर था, उसके ऊपर का ध्येय था ही। उसने मन ही मन सोचा-'जल-स्तम्भिनी एक विद्या जाकर एक अत्यन्त मलिन-दुर्गन्धित चमड़ा धोने लगे। दुर्गन्ध तो मैं जानता ही हूँ। यदि नगर-निर्माण की यह दूसरी विद्या भी सुप्रतिष्ठ के शरीर में भर गई।
सीख लूँ तो सोने में सुहागा हो जाय। लोग मुझ से बहुत प्रभावित
होंगे। फिर तो मैं खूब पुजुंगा। मेरे बराबर फिर कौन होगा?' परिव्राजक ने उनकी ओर जलती आँखों से देखा; लेकिन कहा कुछ नहीं। वह वहाँ से उठकर ऊपर की ओर चला गया।
यह सब सोचकर वह डोम-डोमनी के पास आया, उनका न
अभिवादन किया और बड़े मीठे-विनम्र स्वर में बोलाविद्याधर अपनी पत्नी की ओर देखकर मुस्कराया। पत्नी भी मुस्कराई। वे दोनों भी वहाँ से उठे और ऊपर की ओर जाकर उस
"महाभाग ! मैं आप लोगों की शक्ति को न पहचान पाया। अत्यन्त दुर्गन्धित चमड़े को धोने लगे।
अनजाने में आपको कटुशब्द कहे। आप मुझे क्षमा करें।" यह देखकर परिव्राजक गुस्से से लाल हो गया, वह अपशब्द मन ही मन मुस्कराया विद्याधर विद्युत्प्रभ, प्रगट में बोलाबकने लगा, गालियाँ देने लगा। जी भरकर गालियाँ देकर वह उस "क्षमा की कोई बात नहीं। हमने आपके शब्दों का बुरा ही न स्थान से और भी ऊपर की ओर चला गया।
माना तो क्षमा का प्रश्न ही कहाँ है?" विद्याधर ने अपनी पत्नी से कहा
“आप बहुत उदार हैं।" परिव्राजक के स्वर में मिश्री जैसी "देख लिया, कितना क्रोधी है यह !" जनम
मिठास थी। पत्नी क्या कहती? चुप हो गई। उसने समझ लिया कि
"वह तो सब ठीक है। आप अपना अभिप्राय कहिए।" परिव्राजक के हृदय में शान्ति नहीं है, इसकी कषाय प्रबल हैं।
"अभिप्राय'''''' ?" कुछ देर रुककर परिव्राजक ने कहाअब विद्याधर और उसकी पत्नी यमुना के दूसरे किनारे पर
“आप मुझे यह नगर-निर्माण की अद्भुत विद्या सिखा दीजिए।" पहुँचे। वहाँ विद्याधर ने अपने विद्याबल से एक नगर का निर्माण डोम सोचने लगा। उसने परिव्राजक की बात का कोई जवाब DOD
किया। उसके कंगूरे, कलश धूप में स्वर्ण से चमक रहे थे। । नहीं दिया। परिव्राजक ही बोला००२
परिव्राजक सुप्रतिष्ठ की दृष्टि जैसे ही उन कंगूरों पर गई वह “क्या सोचने लगे आप? क्या मैं अपात्र हूँ?" चकित रह गया। सोचने लगा-मैं वर्षों से यमुना जल में तपस्यारत
"नहीं, आप तो पात्र हैं।" डोम ने कहा-“लेकिन समस्या कुछ हूँ, आज तक तो यह नगर देखा ही नहीं। यह नया नगर अचानक
और ही है।" 0 ही किसने निर्मित कर दिया? :
"वह क्या?" परिव्राजक ने उत्सुकता प्रगट की। कालय अपने कुतूहल को परिव्राजक रोक न सका। वह उस नगर को देखने जा पहुँचा। उसने देखा-नगर बहुत ही सुन्दर ढंग से बसा
डोम ने समस्या बताईहुआ है। स्थान-स्थान पर उद्यान हैं, वापिका-जलाशय हैं, ऊँचे-ऊँचे ___हम लोग डोम हैं और आप हैं महान तपस्वी ब्राह्मण। विद्या भवन हैं जिनके स्वर्णमय कंगूरें चमक रहे हैं, चौड़े-लम्बे राजपथ हैं। तो हम आपको सिखा देंगे; लेकिन समस्या यह है कि विद्या ग्रहण सब कुछ नयनाभिराम है। वायु से उड़ती हुई ध्वजाओं के साथ-साथ करते समय तथा जब भी हम आपके सामने आयें, आपको हमें, उसका दिल भी उड़ने लगा। कनक कंगूरों की चमक ने उसके दिल नमस्कार करना पड़ेगा। यदि आपने हमें नमस्कार नहीं किया तो में भी चमक भर दी।
उसी क्षण यह विद्या विलीन हो जायेगी।"
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३१५ 103
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
"यह भी कोई समस्या है?" हँसकर परिव्राजक बोला-“विद्या “आज तो आपने बहुत देर कर दी। मैं बड़ी देर से आपकी देने वाला चाण्डाल भी क्यों न हो, वह तो पूज्य होता है। गुरु को प्रतीक्षा कर रहा था।" नमस्कार करना तो शिष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है।"
और परिव्राजक का स्वागत करके राजा ने उसे ऊँचे आसन "तो आपको यह बात स्वीकार है?" डोम ने पूछा।
पर बिठाया। संन्यासी बड़ी अकड़ के साथ आसन पर तनकर बैठ "एक बार नहीं, सौ बार।" परिव्राजक ने वचन दिया।
गया। आज उसके मुख पर गर्व की विशिष्ट आभा थी। मुख पर
मुस्कराहट छाई हुई थी। चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे कोई विशिष्ट "फिर हमें क्या आपत्ति है।" डोम ने कहा और विद्या सिखा। सिद्धि-सफलता प्राप्त हो गई हो, कुछ अद्भुत-अनोखा मिल गया दी। परिव्राजक ने डोम को नमस्कार करके विद्या ग्रहण कर ली।
विद्या प्राप्त करके परिव्राजक मन में फूला न समाया। डोम ने राजा ने पुनः कहाअपनी विद्या का संहरण किया, वह सन्दर नगर विलुप्त हो गया
“आज आप कहाँ चले गये थे संन्यासी जी? भोजन का समय जैसे गधे के सिर से सींग। वहाँ अब बीयावान जंगल था। डोम
भी निकल गया, और भोजन ठंडा भी हो गया।" दम्पत्ति और परिव्राजक सुप्रतिष्ठ तीन व्यक्ति ही रह गये। डोम ने
"हाँ, समय तो अधिक हो गया। तुम्हारी शिकायतें सत्य हैं। पर कहा
आज हमें एक विशिष्ट उपलब्धि हुई है।" परिव्राजक ने गम्भीरता "हम अन्यत्र जाते हैं, अब आप विद्या-प्रयोग से मनमाना नगर । ओढी। निर्माण कर सकते हैं।"
"कैसी उपलब्धि महाराज!" राजा ने जिज्ञासा की। यह कहकर डोम-डोमनी चल गये। कुछ दूर जाकर वे अदृश्य
"नरेश ! निरन्तर ध्यान, अध्ययन और तप करते हुए हमें भी हो गये। अब परिव्राजक सुप्रतिष्ठ ने विद्या का प्रयोग किया
दीर्घकाल व्यतीत हो गया। लेकिन हमारी तपस्या आज ही फलवती तुरन्त ही एक सुन्दर नगर का निर्माण हो गया।
हुई है, हमारा जीवन भी आज ही सफल हुआ है।" परिव्राजक ने अब तो परिव्राजक की खुशी का ठिकाना न रहा। मन ही मन राजा धनसेन की जिज्ञासा को उत्सुकता का रूप दिया। मगन हो गया। उसका हृदय बल्लियों उछल रहा था। पैर जमीन पर
“अपनी सफलता के बारे में मुझे भी कुछ बताइये।" राजा ने नहीं पड़ रहे थे। कल्पना का प्रवाह वह रहा था-'अब मेरे समान
उत्सुकता प्रगट की। कौन है? मेरी प्रतिष्ठा में चार-चाँद लग जायेंगे, सौगुनी हो जायगी।
___"मुँह से क्या कहूँ राजन् ! प्रत्यक्ष देखकर तुम भी दाँतों तले अहा, कैसी अद्भुत विद्या मुझे प्राप्त हुई है। वह खुशी से झूमने
अंगुली दबा लोगे।" परिव्राजक ने राजा की उत्सुकता बढ़ाकर उसे लगा।
अधर में लटका दिया। अचानक ही उसका विचार प्रवाह मुड़ा-'लेकिन इस विद्या के
राजा धनसेन भी समझ गया कि संन्यासी मुँह से न कहकर लिए मुछे डोम को प्रणाम करना पड़ा। ब्राह्मण और तपस्वी होते हुए
अपनी सफलता का प्रभाव स्पष्ट दिखाना चाहता है। उसने भी भी मुझे इतना नीचे गिरना पड़ा।'
अधिक आग्रह करना उचित न समझा फिर योगियों से अधिक _ 'ऊँह
किसने देखा?' दूसरे क्षण ही उसने इस । आग्रह करना उचित है भी नहीं। कौन जाने कब उल्टे पड़ जाएँ। विचार को झटक दिया। फिर उसका विचार-प्रवाह बह निकला-1 चमत्कारी योगियों के प्रति मन में एक प्रकार का भय तो रहता ही 'लोक में प्रतिष्ठा पाना ही प्रमुख है। इसके लिए लोनों को है कि जाने कब शाप दे दें, अनिष्ट कर दें। यह सब सोचकर राजा चमत्कार भी दिखाना ही पड़ता हैं, क्योंकि चमत्कार को ही चुप हो गया। उसने बात बदलीनमस्कार होता है। जब मैं नगर निर्माण करके चमत्कार दिखाऊँगा
"जैसी आपकी इच्छा महाराज! अब भोजन कर लीजिए।" तो लोग मेरी बहुत ही अधिक पूजा प्रसंसा करेंगे, मुझे घोर तपस्वी
"भोजन तो आप मेरे नगर में ही चलकर करिए।" परिव्राजक समझेंगे। मैं भी यही कहूँगा कि तपस्या से मुझे यह चमत्कारी विद्या
ने दर्पपूर्ण स्वर में कहा। प्राप्त हुई है।
सुनकर राजा चौंका। उसने समझ लिया-परिव्राजक को कोई और परिव्राजक को अपने चारों ओर जन-समूह जय-जयकार
विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त हो गई है। उसी का प्रदर्शन' यह मेरे समक्ष करता हुआ दिखाई देने लगा। वह रंगीन कल्पनाओं में डूब गया।
करना चाहता है। फिर भी राजा धनसेन ने कहा
“महाराज ! आज तो यहाँ भोजन बन चुका है। आपकी राजा धनसेन ने परिव्राजक को बहुत ही मृदुल स्वर में हँसकर प्रतीक्षा में मैं भूखा भी हूँ। आज तो आप यहीं भोजन करिए। कल उपालंभ दिया
आपकी इच्छानुसार आपके नगर में चलूँगा।"
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "मेरी इच्छा तो यही थी कि आज ही तुम मेरे नगर को "यह कौन मलिन वेश वाले डोम-दम्पत्ति आ गये हैं ? इन्हें देखो।" परिव्राजक ने कहा-“पर तुम मेरे भक्त हो। तुम्हारी इच्छा किसने निमंत्रण दिया है ? जाओ, इन्हें बाहर निकाल दो।"
भी मैं नहीं टाल सकता। आज यहीं भोजन किये लेता हूँ। पर कल 180
। सेवकों ने स्वामी की आज्ञा का पालन किया। जैसे ही उन्होंने तुम अपने परिवार और परिकर सहित मेरे नगर में अवश्य बोटानिकोबार
डोम-दम्पत्ति को बाहर निकाला कि इन्द्रजाल के समान सब गायब! आना।"
न वहाँ उद्यान थे, न जलाशय और न भवन; रह गया सिर्फ राजा की आज्ञा से भोजन लग गया। परिव्राजक और राजा ने । भयानक वन। परिव्राजक की फूली हुई छाती पिचक गई। उसका भोजन किया। भोजन के बाद परिव्राजक चला गया।
मुँह उतर गया। खिले हुए चेहरे को निराशा का पाला मार गया। दूसरे दिन प्रातःकाल ही परिव्राजक ने विद्या के प्रभाव से नये राजा ने परिव्राजक की ओर देखा तो उसके मुख पर घोर PPP नगर का निर्माण कर दिया। राजा धनसेन अपने परिवार-परिकर निराशा थी; पूछा
सहित आया तो उस नये और बहुत ही सुन्दर नगर को देखकर यह क्या हुआ महाराज? क्या तपस्या में कोई कमी रह दंग रह गया; बहुत प्रभावित हुआ। अपनी रानी धनश्री से बोला- गई?"
"देखा, मेरे गुरु का प्रभाव ! कैसी अद्भुत विद्याएँ हैं इनके मन की निराशा जबान पर आ गई। परिव्राजक के मुख से के पास। ऐसी विद्याएँ किसी अन्य तपस्वी के पास नहीं हो सकतीं।" सच्ची बात निकली
राजा ने यह बात रानी धनश्री को प्रभावित करने के लिए । “राजन् ! मैं कृतघ्न हूँ। आपने अभी जो डोम-दम्पत्ति देखे थे,
कही थी। लेकिन दृढ़ सम्यक्त्वी कभी चमत्कारों से प्रभावित नहीं मैंने उन्हीं से यह नगर-निर्माण की विद्या सीखी थी। आपके कारण Do होते, वे तो ऐसे चमत्कारों को मदारियों के खेल ही समझते हैं।
रानी धनश्री भी प्रभावित नहीं हुई। किन्तु उसने पति को कोई जबकि विद्या-प्रदाता गुरु को नमस्कार करना मेरा प्रथम कर्तव्य जवाब देना उचित न समझा, चुप ही रही।
था। राजा-रानी समस्त परिवार-परिकर सहित नगरी को घूम-घूम इतने से ही राजा सब कुछ समझ गया। उसने देखा तो कर देखने लगे। साथ में परिव्राजक सुप्रतिष्ठ भी था। राजा को डोम-दम्पत्ति मंद-मंद कदमों से चले जा रहे थे। शीघ्र गति से एक-एक उद्यान-जलाशय आदि दिखाता। राजा उसकी प्रशंसा करता चलकर राजा उनके पास पहुँचा, प्रणाम किया और नगर-निर्माण और परिव्राजक खुशी में झूम उठता, गर्व से फूल उठता, उसकी की विद्या सीखने की इच्छा प्रगट की। डोम-दम्पत्ति ने अपनी शर्त छाती गजभर चौड़ी हो जाती।
बताकर राजा धनसेन को विद्या सिखा दी। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। घूमते-घूमते सभी लोग मुख्य नगर-द्वार पर आये। वहाँ
अपने घर लौट आया। परिव्राजक को अति मलिन वेश में डोम दम्पत्ति खड़े दिखाई दिये। कृतघ्नता ऐसा अवगुण है, जिसके कारण सभी सद्गुणों पर उन्हें देखते ही परिव्राजक सकपका गया। सबके सामने उनको पानी फिर जाता है। परिव्राजक सुप्रतिष्ठ की कृतघ्नता का समाचार नमस्कार कैसे करे? उसने तो यही प्रचारित किया था कि 'यह सारे नगर में फैल गया। यद्यपि अब भी वह जल-स्तम्भिनी विद्या के उपलब्धि मुझे अपनी तपस्या से प्राप्त हुई है।' डोम दम्पत्ति को बल से यमुना की बीच धारा में बैठता लेकिन लोगों की श्रद्धा नमस्कार करने से तो उसकी पोल खल जाती। लोगों को ज्ञात हो उसके प्रति नहीं रही। राजा की भक्ति भी समाप्त हो गई। वह समझ जाता कि डोम-दम्पत्ति की कृपा से ही परिव्राजक को यह विशिष्ट गया कि परिव्राजक ढोंगी है, पाखण्डी है, कृतघ्न है। कतघ्न का तो विद्या प्राप्त हुई है। डोम दम्पत्ति इसके गुरु हैं। और फिर उसका मुँह देखना भी पाप है, फिर श्रद्धा-भक्ति की तो बात ही क्या ? सर्वत्र अपयश होता।
परिव्राजक की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई। लोगों की निगाहें बदल अपने अपयश के विचार मात्र से परिव्राजक सुप्रतिष्ठ घबड़ा गईं, उनकी निगाहों में उसके लिए तिरस्कार झलकने लगा। उसकी गया, उसे पसीना छूट आया। उसकी स्थिति बड़ी विचित्र हो गई
पोल खुल चुकी थी। नगर-वासियों की तिरस्कार भरी निगाहों को थी। इधर गिरो तो कूआ, उधर गिरो तो खाई-मरण दोनों ही
वह सह न सका। कहीं दूसरे स्थान पर चला गया। तरफ। यदि डोम दम्पत्ति को प्रणाम करता है तो भी अपयश होता एक दिन राजा धनसेन अपनी राजसभा में बैठा था। उसकी है और प्रणाम नहीं करता है तो यह अद्भुत नगर मायानगरी के राजसभा खचाखच भरी हुई थी। सभासद तो थे ही, बाहर के समान क्षण मात्र में विलुप्त होता है।
विशिष्ट अतिथि भी आये हुए थे। हास्यविनोद चल रहा था। परिव्राजक का जाति-अभिमान जाग उठा। उसने क्षणभर में ही इतने में ही वे डोम दम्पत्ति आये। वे द्वार के बाहर ही खड़े थे आवेश में आकर निर्णय लिया। सेवकों से बोला
कि राजा धनसेन की दृष्टि उन पर पड़ गई। वह तुरन्त अपने
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| बाग देवता का दिव्य रूप
सिंहासन से उठा और उन्हें झुक कर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। आदर सहित उन्हें लाया, अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठा।
राजा धनसेन की इस क्रिया से सभी उपस्थित जन आश्चर्य में पड़ गये। उनकी दृष्टि राजा की ओर उठ गई। राजा बोला
"आप सब का आश्चर्य स्वाभाविक है लेकिन ये मेरे गुरु हैं। मैंने इनसे विद्या सीखी है ? अपने गुरु को भक्तिपूर्वक प्रणाम करना और उच्चासन देना मेरा कर्त्तव्य है। मैंने अपने कर्त्तव्य का ही पालन किया है।"
राजा के स्पष्टीकरण से लोगों का समाधान तो हुआ, जिज्ञासा भी शांत हो गई लेकिन खुसर-पुसर होने लगी- राजा धनसेन के गुरु डोम है।
राजा धनसेन की विनय और भक्ति से विद्याधर विद्युत्प्रभ और विद्याधरी विद्युद्वेगा प्रसन्न हो गये। उन्हें राजा का अपवाद अच्छा न लगा। अपवाद मिटाने के लिए वे अपने असली रूप में आ गये।
लोगों ने देखा - डोम- डोमनी के स्थान पर एक तेजस्वी युवक और युवती बैठे हैं। उनकी देह-कान्ति अनुपम है। शरीर पर सुन्दर वस्त्राभूषण हैं। सभी आश्चर्य में डुबकियाँ लगाने लगे। उनके आश्चर्य का समाधान करते हुए विद्याधर विद्युत्प्रभ ने कहा
"मैं रथनूपुर का राजा विद्युत्प्रभ विद्याधर हूँ। और यह है मेरी पत्नी विद्युद्वेगा । मैं समस्त विद्याधरों का नायक हूँ। तुम्हारी विनय-भक्ति से मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।"
"लेकिन आपने डोम का रूप क्यों बनाया?" राजा धनसेन ने जिज्ञासा की।
"उसका एक कारण था।" विद्युत्प्रभ ने कहा- "मेरी पत्नी विद्युद्वेगा ने जब उस परिव्राजक की तपस्या की प्रशंसा की तो मैंने डोम का रूप बनाकर उसकी परीक्षा ली
"
" और वह कृतघ्न निकला।" राजा ने वाक्य पूरा कर दिया। विद्याधर विद्युत्प्रभ ने आगे कहा
"राजन् ! इन क्षुद्र विद्याओं और चमत्कारों में धर्म नहीं है, धर्म तो आत्म-कल्याण में है। इन चमत्कारों से कभी प्रभावित नहीं होना चाहिए। सदा अपने आत्मकल्याण की साधना करनी चाहिए और आत्म-कल्याण का साधन है-रत्नत्रय की आराधना, सच्चे देव, गुरु और धर्म पर विश्वास, उन्हीं के द्वारा दिया हुआ ज्ञान और उन्हीं के बताये उत्तम पथ का आचरण । इसी से जीव संसार के बन्धनों को काटकर मुक्त होता है।"
राजा को यह सुनकर बहुत सन्तोष हुआ। वह समझ गया कि जिनधर्म ही सार है। वह जिनधर्म का अनुयायी बन गया। अन्य लोग भी प्रभावित हुए। उन्होंने भी जिनधर्म ग्रहण कर लिया।
३१७
जिस प्रकार राजा धनसेन ने उत्तम धर्म ग्रहण किया उसी प्रकार प्रत्येक मुमुक्षु का कर्त्तव्य है कि विनयपूर्वक धर्म को ग्रहण करे, गुरु की श्रद्धा-भक्ति करे।
२
अरुणदेव और देयिणी
( वचन शुद्धि का विवेक)
पुराने समय में ताम्रलिप्ति नगरी में कुमारदेव नाम का एक व्यापारी रहता था। भगवत्कृपा से कुमारदेव के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रेष्ठी कुमारदेव ने उसका नाम अरुणदेव रखा। प्रायः यह देखने में आता है कि जिनके घर में सन्तान की कमी नहीं होती, उनके यहाँ धन का अभाव होता है और जिनके यहाँ धन की प्रचुरता होती है, उनके यहाँ औलाद नहीं होती श्रेष्ठी कुमारदेव के यहाँ लक्ष्मी का वास था। बड़ी मनौतियों से उसके एक पुत्र हुआ था, इसलिए अरुणदेव माता-पिता को विशेष प्रिय था। कुमारदेव ने यथासमय विद्यालय भेजकर अरुणदेव को उचित शिक्षा दिलाई।
-हरिषेण वृहत्कथाकोष, भाग-१ (जैन कथाएं भाग ९ पृष्ठ ७१-८९)
चूहे के बच्चे बिल खोदना सहज रूप से ही सीख लेते हैं। अरुणदेव व्यापारी का पुत्र था, अतः वह सहज रूप से ही व्यापार-वाणिज्य में निपुण हो गया। ताम्रलिप्ति नगरी में ही महेश्वर नाम का अन्य श्रेष्ठी पुत्र था अरुणदेव की महेश्वर से प्रगाढ़ मैत्री थी। अरुणदेव और महेश्वर जब कभी जहाज में माल भर कर व्यापार करने दूर देश जाते तो साथ-साथ हो जाते। व्यापार में दोनों साथी थे ही घर पर भी साथ-साथ ही खाते-पीते उठते-बैठते थे।
एक बार कुमारदेव ने सोचा, अरुणदेव हर तरह से योग्य और समर्थ हो गया है। समस्त लेन-देन और व्यापार इसने अपने हाथों में ले लिया है। अब तो शीघ्र ही इसका विवाह कर देना चाहिए।' कुमारदेव अरुणदेव के विवाह की चिन्ता में था। संयोग से पाटलिपुर नगर का व्यापारी जसादित्य अपनी पुत्री देयिणी का विवाह प्रस्ताव लेकर कुमारदेव के पास आया । जसादित्य की पुत्री देयिणी रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। कुमारदेव ने जसादित्य का विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अरुणदेव तथा देयिणी का विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो गया।
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एक दिन महेश्वर और अरुणदेव बैठे बातें कर रहे थे। महेश्वर ने अरुणदेव से कहा
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" मित्र ! आजकल देयिणी भाभी पाटलिपुर- अपने पीहर गई हुई है, इसलिए तुम्हारा मन कुछ उदास रहता है। मेरी बात मानो भाभी को लिवा लाओ।"
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३१८
अरुणदेव ने कहा
" मित्र ! तुम तो जानते हो कि बनिये का बेटा जहाँ भी गिरता है, कुछ-न-कुछ लेकर ही उठता है। अगर तुम मेरे साथ चलो तो एक पंथ दो काज के अनुसार जहाज लेकर चलें। पाटलिपुर में माल बेचें। धन भी कमा लायें और तुम्हारी भाभी को भी ले आयें। "
महेश्वर को अरुणदेव का प्रस्ताव पसन्द आया। दोनों ने एक ही जहाज में किराने का सामान लादा और समुद्री मार्ग से द्वि-उद्देश्यीय यात्रा शुरू कर दी।
आदमी अपनी योजना बनाता है, पर होता कुछ और ही है। यही भाग्य है, यही कर्मयोग है। अरुणदेव और महेश्वर खुशी-खुशी समुद्र की छाती को चीरते हुए चले जा रहे थे कि तभी समुद्र में भयंकर तूफान आया। जहाज उलट-पलट गया। दोनों मित्रों के प्राण संकट में पड़ गये। लेकिन बचने वाला अथाह सागर में भी बच जाता है और मरने वाला एक मामूली ठोकर से भी नहीं बच पाता । महेश्वर और अरुणदेव दोनों एक लकड़ी के तख्ते के सहारे तैरते तैरते पाँच दिन में किनारा पा गए। संयोग से दोनों पाटलिपुर नगर में पहुँच गए। महेश्वर ने अरुणदेव से कहा
“चलो, यह भी अच्छा ही हुआ कि हम तुम्हारी सुसराल पहुँच गए। किसी और नगर में पहुँचते तो बड़ी परेशानी होती । "
अरुणदेव ने कहा
" मित्र ! अब हम सुसराल नहीं जाएँगे ।"
"क्यों ?" आश्चर्य व्यक्त करते हुए महेश्वर ने पूछा - "तुम्हारे श्वसुर जसादित्य तो नगर के बहुत बड़े श्रेष्ठी हैं, देयिणी भाभी भी अपने पिता के पास हैं । तुम्हारे आने की उन्हें कितनी खुशी होगी! तुम सुसराल जाने से क्यों इन्कार कर रहे हो ?"
अरुणदेव ने साफ-साफ कहा
"मित्र! मैं सुसराल हरगिज नहीं जाऊँगा। सिद्धान्त और व्यवहार दोनों दृष्टियों से आपदग्रस्त और वक्त के मारे व्यक्ति को सुसराल नहीं जाना चाहिए। अपने घर से खाकर चलो तो बाहर भी खाना मिलता है। अच्छी दशा में सुसराल में जो सम्मान होता, सो अब न होगा।"
अरुणदेव की युक्तियुक्त बात महेश्वर ने मान ली। दोनों उद्यान (Park) में पहुँचे। अरुणदेव को उद्यान में छोड़कर महेश्वर बाजार से भोजन लेने चला गया। सन्ध्या का समय था। देयिणी अपनी सखियों के साथ हवा खाने उद्यान में आई संध्या की सुरमई चादर ने धीरे-धीरे रात्रि की काली चादर ओढ़ ली। तभी एक चोर आया और देयिणी के हाथ काटकर उसके रत्नजटित कंगन ले गया। देखिणी के हाथों से रक्त की धारा बहने लगी। उसने चोर-चोर का शोर मचाया। उद्यान रक्षक राजा के सिपाही चारों ओर दौड़े। चोर ने सोचा, 'अब मुश्किल है, अतः वह छिपने के लिए केली गृह में
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
घुस गया। वहाँ अरुणदेव सो रहा था। चोर ने देयिणी के दोनों कंगन और छुरी अरुणदेव के पास पटक दिये और स्वयं झाड़ियों में छिप गया। राजा के सिपाही चोर को ढूँढ़ते फिर रहे थे। जब वे वहाँ आये तो अरुणदेव को रंगे हाथों पकड़ लिया और राजा के पास ले गये।
चूंकि अरुणदेव के पास देविणी के कंगन और छुरी बरामद हुई थी, इसलिए राजा ने उससे कोई पूछ-ताछ नहीं की और तत्काल शूली का हुक्म दे दिया। राजा के सिपाही अरुणदेव को शूली पर चढ़ाने ले गए।
इधर बाजार से खाना लेकर महेश्वर उद्यान में आया। जब उसे केली गृह में अरुणदेव नहीं मिला तो उसने उद्यान -रक्षक से
पूछा
"यहाँ मेरा मित्र अरुणदेव सो रहा था। क्या तुम्हें मालूम है कि वह कहाँ गया ?"
उद्यानरक्षक ने कहा
"भाई मैं तो किसी अरुणदेव को नहीं जानता हो, इतना मुझे मालूम है कि किसी चोर ने नगर के प्रसिद्ध व्यापारी जसादित्य की पुत्री देयिणी के हाथ काटकर उसके कंगन ले लिए हैं। राजा के सिपाही एक सोते हुए चोर को कंगन और छुरी सहित पकड़ कर ले गए हैं। राजा ने उसे शूली का हुक्म दिया है। मुझे तो बस इतना ही मालूम है।"
उद्यान - रक्षक की बात सुन महेश्वर तत्काल शूली स्थल पर गया। अरुणदेव शती के पास खड़ा था। महेश्वर अरुणदेव को देखकर करुणकन्दन करने लगा और शोकविह्वल होकर मूर्च्छित हो गया। राजा के सिपाही अरुणदेव को शूली चढ़ाना तो भूल गए और महेश्वर को देखने लगे। उन्होंने सोचा, 'यह भी चोर का साथी है। इसे भी तो कुछ सजा मिलनी चाहिए, पर पहले इसकी मूछ तो दूर हो।' दर्शकों को महेश्वर की मूर्च्छा का बड़ा दुख था। जल के छींटे देकर दर्शक महेश्वर की मूर्च्छा दूर करने का प्रयत्न करने लगे। शीतल वायु के स्पर्श और लोगों के प्रयास से जब महेश्वर की मूर्च्छा दूर हुई तो लोगों ने उससे पूछा
"भाई! तुम इस चोर को देखकर क्यों रो रहे हो ?" महेश्वर ने कहा
“मुझे तो इस बात पर रोना आता है कि यहाँ का राजा निरपराधों को ही सजा देता है।"
राजा के सिपाही तथा दर्शकों ने कहा
"इसने जसादित्य श्रेष्ठी की पुत्री देषिणी के हाथ काटकर उसके कंगन चुराये हैं। कंगन और छुरी सहित यह रंगे हाथों पकड़ा गया है। फिर तुम इसे निरपराध कैसे कहते हो ?"
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| वागू देवता का दिव्य रूप
३१९ ।
महेश्वर ने दृढ़ता के स्वर में कहा
"प्रभो! अरुणदेव मेरा जामाता तथा देयिणी मेरी पुत्री है। पूर्व “तुम लोग नहीं जानते कि यह कौन है। यह मेरा मित्र
जन्म में इन्होंने क्या कठोर वचन कहे थे, जिसके कारण इन्होंने इस अरुणदेव ताम्रलिप्ति नगरी के व्यापारी कुमारदेव का पुत्र और
जन्म में दुःख भोगा?" तुम्हारे नगर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी जसादित्य का जामाता तथा देयिणी राजा तथा महेश्वर आदि ने भी मुनि की ओर जिज्ञासा भरी का पति है। क्या पति अपनी पत्नी के हाथ काटकर कंगन दृष्टि से देखा। सबको उत्सुक देख केवली मुनि चन्द्रधवल ने देयिणी चुरायेगा?"
और अरुणदेव की ओर देखकर कहामहेश्वर की बात सुनकर सभी चकरा गए। सिपाहियों की “शुभ आत्माओ! देयिणी और अरुणदेव पूर्व जन्म में माता हालत खराब हो गई। उन्होंने सोचा कि इसकी बात राजा के कानों और पुत्र थे। पुत्र के रूप में अरुणदेव ने देयिणी से कठोर वचन तक पहुँच गई तो राजा हमें कठोर दण्ड देगा। राजा कहेगा कि कहे, चुभने वाली बातें कहीं। क्रोधवश देयिणी ने भी कठोर बातें तुमने छान-बीन किये बिना एक निरपराध व्यक्ति को क्यों पकड़ा।' पुत्र अरुणदेव से कहीं। उसी के परिणामस्वरूप इस जन्म में इन्होंने यह सोच सिपाही लोग महेश्वर को पत्थर मारने लगे। लेकिन कष्ट भोगे। उड़ते-उड़ते बात जसादित्य के कानों तक पहुँच गई। उसने राजा से
कठोर वचन कहने का मूल कारण क्रोध ही होता है। यह क्रोध कहा अरुणदेव को मुक्त कराया तथा देयिणी को साथ ले शूली
ही मानव का प्रबल शत्रु है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार स्थल पर आया। राजा भी वहीं पहुँच गया।
कषायों का त्याग करके ही प्राणी मोक्ष की ओर बढ़ सकता है। इन इसी समय आकाश मार्ग से केवली मुनि चन्द्रधवल वहाँ आये। चारों में क्रोध बहुत दुखदायी है। इसलिए यदि क्रोध का त्याग कर RT देवों ने वहाँ कमलासन की रचना की। मुनि चन्द्रधवल कमलासन
शम को अपनाओगे तो वाणी से शीतल और मृदु वचन ही Palanga को शोभित करने लगे। राजा, श्रेष्ठी जसादित्य और देयिणी,
निकलेंगे। अरुणदेव-महेश्वर आदि सब ने मुनि की वन्दना की और अपने-अपने आसन पर बैठ गए। मुनि ने सबको सम्बोधित कर
- इसके बाद मुनि ने देयिणी और अरुणदेव के पूर्वजन्म की कथा उपदेश देना शुरू किया
सुनाना प्रारम्भ किया। उपस्थित धर्मप्रेमी ध्यान से सुनने लगे।
x “हे भव्य आत्माओ! प्रत्यक्ष रूप से दीखने वाली साधारण सी नींद तो रात भर में पूरी हो जाती है, पर यह मोह निद्रा प्राणी को बहुत पहले की बात है। इस भरत क्षेत्र में वर्धमानपुर नामक जीवन भर घेरे रहती है। अतः मोहनिद्रा का त्याग करो और धर्म । एक नगर है। वहाँ सिद्धड़ नाम का एक कुलपुत्र रहता था। सिद्धड़ को अपनाओ, क्योंकि धर्म ही वह नाव है, जिस पर बैठ कर की स्त्री का नाम चन्द्रा था। सर्ग नाम का सिद्धड़ का पुत्र था। तीन संसार-सागर से पार हुआ जा सकता है। धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के प्राणियों का छोटा-सा परिवार था; फिर भी सिद्धड़ दो समय की हृदय से होती है, इसलिए मानवता, मनुष्यता ही सार है।
रोटी नहीं जुटा पाता था। कहावत है-'कर्महीन खेती करै, बैल मरै "हे प्राणियो! प्राणघातादि का त्याग करो। कभी किसी से कठोर
सूखा परै।' भाग्यहीन को कहीं भी सफलता नहीं मिलती। ऐसा वचन मत कहो। क्रोध की बात तो दूर रही, यदि हँसी-मजाक में
व्यक्ति जब खेती करता है तो उसके भाग्य- दोष से या तो सूखा भी कठोर वचन कहे जाते हैं तो दुस्सह कर्मबन्ध का अर्जन होता ।
पड़ जाती है, या बैल मर जाता है। सिद्धड़ जो भी कार्य करता, उसे असफलता ही मिलती। सोने को भी छूता तो मिट्टी हो जाता।
ये तीनों प्राणी जहाँ भी जाते, मेहनत-मजदूरी करते, पर अपना पेट "हे आत्माओ! पूर्वजन्म में कठोर वचन कहने के कारण ही
नहीं भर पाते थे। एक बार धूप से व्याकुल एक भाग्यहीन व्यक्ति अरुणदेव और देयिणी ने दुस्सह कर्म बाँधे और इस जन्म में कष्ट
छाया के लिए एक बेल के वृक्ष के नीचे खड़ा हुआ। उसके खड़े भोगे।"
होते ही एक बेल उसके सिर पर आ पड़ा, बेचारा हाय-हाय करता अरुणदेव और देयिणी का नाम सुनते ही सब चौंक गए। हुआ वहाँ से भागा। यही हाल सिद्धड़ का था। अपना पेट भरने के
0000000 देयिणी ने अपने कटे हुए हाथों की तरफ देखकर सोचा, 'मैंने । लिए सिद्धड़ चन्द्रा और सर्ग जाने क्या-क्या करते थे, फिर भी पेट Doo पूर्वजन्म में अपने पति से ऐसे क्या कठोर वचन कहे थे, जिसके नहीं भर पाते थे। कारण मुझे यह दारुण दुख भोगना पड़ा।' अरुणदेव ने भी विचार
पेट भरने की आशा में भटकते-भटकते एक दिन सिद्धड़ की किया-'मुनि की वाणी कभी असत्य नहीं हो सकती। अवश्य ही
मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या हुई, सिद्धड़ सुख की नींद सो गया। लेकिन पूर्वभव में मैंने देयिणी से मर्म वचन कहकर दुखों की गठरी बाँधी
चन्द्रा और सर्ग पर तो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा। चन्द्रा और
सर्ग पेट की चिन्ता में दर-दर भटकने लगे। चन्द्रा ने अब दासीवृत्ति मुनि की रहस्य भरी वाणी सुनकर श्रेष्ठी जसादित्य ने कहा- अपना ली। वह सेठ-साहूकारों के घरों का काम करके कुछ प्राप्त
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कर लेती। किसी का पानी भरती, किसी के बर्तन साफ करती और किसी के कपड़े धोती। संर्ग ग्वाले का काम करने लगा। वह सेठ साहूकारों के गाय बछड़े लेकर उन्हें चराने जंगल जाता। दोनों माँ-बेटे जो कुछ प्राप्त करते, उससे दोनों मिलकर अपना पेट भरते।
एक बार किसी व्यापारी के यहाँ उसके मेहमान आ गए। उसने चन्द्रा को सबेरे बहुत जल्दी घर बुलाया। सर्ग गाय-बछड़े लेकर जंगल चला गया था। चन्द्रा ने झटपट रोटियाँ सेकीं और कुछ मट्ठा और रोटियाँ वर्ग के लिए छीके पर रख दरवाजे की सॉकल लगा, बिना कुछ खाये पीये व्यापारी के यहाँ चली गई।
चन्द्रा ने व्यापारी के यहाँ सुबह से शाम तक जी तोड़ परिश्रम किया। लेकिन मेहमानों की व्यस्तता के कारण व्यापारी ने तथा व्यापारी के किसी कुटुम्बी ने चन्द्रा से खाने की न पूछी। सभी मेहमानों के स्वागत-सत्कार में लगे रहे। इधर सर्ग जंगल से लौटा। उसने सोचा माँ कहीं गई है, वह आयेगी तो खाना देगी। अतः वह माँ के इन्तजार में बाहर ही बैठ गया। कुछ ही क्षणों में भी सर्ग की व्याकुलता बढ़ गई। भूख के मारे उसका बुरा हाल था। उसे माँ पर रह-रह कर क्रोध आ रहा था। इधर चन्द्रा व्यापारी के यहाँ सेवा में फँसी थी। शाम को जब चन्द्रा ने छुट्टी पाई तो खाली हाथ घर लौटी। वह व्यापारी की शोषण वृत्ति पर क्षुब्ध थी, क्योंकि उसने यह कह दिया था, अपनी मजदूरी कल ले जाना, इस समय घर में मेहमान हैं। दूसरे, चन्द्रा भी सुबह से भूखी थी, इधर चन्द्रा का इन्तजार करते-करते सर्ग की आँखे पथरा गई थीं, भूख के कारण उसके प्राण निकले जा रहे थे। जैसे ही चन्द्रा घर आई और सर्ग ने माँ को देखा तो वह क्रोधोन्मत्त हो बोला
“पापिनी, दुष्टे! क्या व्यापारी ने तुझे शूली पर चढ़ा दिया था, जो तू अब तक बैठी रही ?"
चन्द्रा अपनी पराधीनता पर दुखी थी यह पराधीनता भी मनुष्य जीवन की कैसी बिडम्बना है। पराधीनता बिना मृत्यु की मृत्यु, बिना अग्नि के प्रज्वलन बिना जंजीर का बन्धन, बिना पंक की मलीनता और बिना नरक के नारकीय वेदना है। पुत्र सर्ग की ऐसी विष भरी वाणी सुनकर चन्द्रा को भी क्रोध आ गया उसने भी प्रत्युत्तर में कहा
"क्या तेरे हाथ कट गए थे, जो तू न तो साँकल खोल सका और न छीके पर से रोटियाँ उतार कर खा सका ?"
इस प्रकार दोनों ने एक दूसरे से कठोर वचन कहकर दारुण दुःखों की नींव डाली- दुस्सह कर्मों का अर्जन किया।
एक बार दोनों ने एक मुनि का उपदेश सुन श्रावक व्रतों को ग्रहण किया और जीवन के अन्त में दोनों ने अनशन कर समाधि पूर्वक मृत्यु का वरण किया। मरकर दोनों को देवभव प्राप्त हुआ। दोनों बहुत दिनों तक देवलोक में रहे। देवलोक से सर्ग का जीव
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
च्युत हुआ और वह ताम्रलिप्ति नगरी में श्रेष्ठी कुमारदेव के यहाँ अरुणदेव के रूप में जन्मा । चन्द्रादेवी का जीव इसी पाटलिपुर नगर में श्रेष्ठी जसादित्य की पुत्री वेथिणी के रूप में उत्पन्न हुआ।
कथा को आगे बढ़ाते हुए मुनीश्वर चन्द्रधवल ने कहा
“प्राणियो ! चन्द्रा ने सर्ग से हाथ कटने की बात कही और सर्ग ने चन्द्रा से शूली चढ़ने की बात कही मुँह से आदमी जो कुछ कहता है, वह व्यर्थ नहीं जाता; यहाँ तक कि मन में सोचा हुआ भी व्यर्थ नहीं जाता उल्टा सीधा कैसा ही बीज भूमि में डालो, यह अवश्य उगता है । चन्द्रा की वाणी चूँकि प्रत्युत्तर में थी, इसलिए वह अधिक कठोर थी और इसीलिए देयिणी के रूप में चन्द्रा के हाथ काटे गए। सर्ग की वाणी उतनी कठोर न थी, इसलिए वह शूली पर चढ़ा, पर बच गया।"
अन्त में सभी धर्मानुरागियों से मुनीश्वर ने कहा
"प्राणियो! काया से की हुई हिंसा तो बहुत दूर की बात है, मन से सोची हुई हिंसा भी जीव का विघात करने वाली और नरक के दुःख को देने वाली है।
“एक बार कुछ लोग वैभारगिरि के जंगल में वनभोज (पिकनिक) के लिए गए। तभी एक भिक्षुक वहाँ आया। लेकिन कर्मदोष के कारण उसे भिक्षा न मिली। इस पर भिक्षुक का मन क्रोध से भर गया और उसने सोचा, 'इन लोगों के पास अपार भोजन सामग्री है। कहकहे लगाकर माल उड़ा रहे हैं, पर मुझे तनिक-सी भिक्षा नहीं दी। ऐसा मन होता है कि इन सभी को मार डालूँ।' यह सोच भिक्षुक पहाड़ पर चढ़ गया और एक बड़ी भारी शिला वनभोजियों पर लुढ़का दी। शिला के साथ वह भिक्षुक भी नीचे आ रहा। वनभोजी तो शिला के नीचे दब कर मरे ही, वह भिक्षुक भी मर गया।
'हे प्राणियो! इसीलिए मन, कर्म, वचन से हिंसा का त्याग करना चाहिए। अहिंसा ही सब धर्मों का मूल है। मूल को सींचने से ही वृक्ष हरा-भरा रहता है।"
मुनीश्वर की वाणी सुनकर सभी श्रोता प्रतिबुद्ध हुए। देयिणी और अरुणदेव को जाति स्मरण हुआ। दोनों ने एक दूसरे को क्षमा कर दिया और दोनों का मन वैराग्य से भर गया। अरुणदेव व देविणी का पूर्वभव सुन राजा ने विचार किया- 'जब साधारण से कठोर वचन बोलने से ऐसी दशा होती है तो मेरी क्या गति होगी ? वास्तव में यह संसार बड़ा विचित्र है ।'
अरुणदेव देयिणी के साथ राजा और श्रेष्ठी जसादित्य ने चारित्र ग्रहण किया। जिस चोर ने देयिणी के हाथ काटे थे और कंगन लिए थे, वह चोर भी मुनि की धर्मसभा में उपस्थित था। उसने भी अपना अपराध स्वीकार किया और सबके साथ
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वाग देवता का दिव्य रूप
आत्म-कल्याण का पथिक बना। महेश्वर ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये।
सभी ने कठोर तप और साधना द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति की । -पार्श्वनाथ चरित्र (जैन कथाएँ: भाग १२, पृष्ठ १३५-१४८)
3
पाप का घड़ा
अवन्ती नगरी के नगरसेठ कुबेरदत्त सभी के काम आते थे। अपार सम्पत्ति के स्वामी नगरसेठ कुबेरदत्त ने एक बार नई सेना की भरती के लिए राजा श्रीचन्द को पन्द्रह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दी थीं। किसानों को बीज की जरूरत हो, बैल खरीदने हों-नगरसेठ के यहाँ से भरपूर धन मिलता था। किसी व्यापारी को पूँजी की जरूरत हो, वह भी नगरसेठ से मिलती थी। गरीब कन्याओं का ब्याह तो वे पूरा अपने धन से ही कराते थे। इस तरह वे राजा प्रजा, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब सभी के काम आते थे।
व्याह-शादी की सहयोग श्रृंखला में उनका नीलखाहार अवन्ती का हार माना जाता था। इस हार ने जाने कितने वरों के कंठ की शोभा बढ़ाई थी। नगरसेठ कुबेरदत्त ने नौ लाख स्वर्णमुद्राओं की कीमत का एक अद्वितीय हार बनवाया था। इसमें सिंहलद्वीप के रत्न जड़े थे। बीस वर्ष पहले यह नौ लाख का था । आज पचास लाख से कम का न था; फिर भी नौलखाहार के नाम से जाना जाता था ।
अवन्ती का दूल्हा जब ब्याह करने दूसरे नगर को जाता, तब नगरसेठ का नौलखाहार पहनकर जाता। इससे अवन्ती की शान बढ़ती । कन्या पक्ष वालों की निगाहें इसी हार पर टिकी रहतीं। इस हार के विषय में एक किंवदन्ती यह भी थी कि जो वर इस हार को पहनकर व्याह करता है, उसकी वधू सुशील और पतिव्रता होती है। इसीलिए बड़े-बड़े धन्ना सेठ नगरसेठ से वक्त पड़ने पर उनका हार माँग लेते।
अवन्ती में धनदत्त नाम के एक धनी सेठ रहते थे। उनके पुत्र चतुरसेन का विवाह था । वरात पच्चीस योजन दूर कंचनपुर नगर जानी थी। आषाढ़ के महीने में ब्याह होना था। धनदत्त सेठ नगरसेठ कुवेरदत्त से उनका नौलखाहार माँग लाये और वर-वेशी चतुरसेन की शान में चार चाँद लग गए।
ब्याह से लौटने के बाद चतुरसेन ने पन्द्रह-बीस दिन नौलखा हार पहना। हार पहनते पहनते उसकी नीयत बिगड़ गई। उसने एक सुनार से हूबहू वैसा ही नकली हार बनवाया, जो कुल तीन हजार में बनकर तैयार हो गया। नकली चीज में असली से कुछ ज्यादा चमक-दमक होती है। अन्तर बस यही है कि नकली की
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चमक-दमक थोड़े दिन के लिए होती है और असली की टिकाऊ, सो इस हार के नकली रत्न भी असली जैसे ही चमकते-दमकते थे, बनावट भी असली जैसी ही थी।
चतुरसेन ने असली हार अपने पास रख लिया और नकली सेठ कुबेरदत्त को दे आया। हार प्राप्ति की रसीद भी ले ली। कुबेरदत्त ने सरल भाव से उसे रख लिया और चतुरसेन ने अपने आप ही अपनी पीठ ठोक ली। इस रहस्य का पता धनदत्त को नहीं चला।
आषाढ़ का महीना तो बीत ही चला था। सावन भादों, क्वार भी बीत गया। जाड़ों में सेठ सागरचन्द्र के पुत्र धनसार का विवाह आया। वे भी कुबेरदत्त से उनका हार माँगने गये। सेठजी ने जब हार देखा तो दंग रह गए, क्योंकि हार काला पड़ गया था। सेठ कुबेरदत्त को यह समझते देर न लगी कि धनदत्त के पुत्र चतुरसेन ने धोखा किया है। क्योंकि उसके विवाह के बाद मैं पहली बार ही सागरचन्द्र को हार दे रहा हूँ।
कुबेरदत्त ने धनदत्त को अपने पास बुलवाया और एकान्त में उनसे कहा
“ सेठजी ! आपके पुत्र चतुरसेन ने यह चतुराई की है। नकली हार मुझे दे दिया है और असली उसके पास है। मुझे राजदरबार न जाना पड़े, इसलिए आप अपने बेटे को समझा-बुझाकर मेरा नीलखाहार मुझे दिलवा दीजिए। वह तो सभी के काम आता है।"
धनदत्त बोले- " मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। यह सब उसी की मक्कारी है। मैं उससे हार अभी दिलवाता हूँ। आप बात हम दो के बीच ही रखें।"
धनदत्त अपने पुत्र के पास गया और बिना किसी भूमिका के सारी बात कह दी। हार का आरोप सुनते ही चतुरसेन अपने पिता पर बिगड़ पड़ा
"आप मुझे चोर समझते हैं? मेरे पास रसीद है। मेरे पास कोई हार नहीं है।"
धनदत्त ने फिर समझाया
“परिणाम सोच ले चतुरसेन ! भयंकरा देवी चोरों के प्राण ले लेती है, इसे याद रखना बहुतेरे हेकड़ चोरों ने अपनी चोरी स्वीकार नहीं की, तब उन्हें रात को भयंकरा देवी के मन्दिर में बन्द किया गया और सबेरे उनका शव ही मिला। राजा श्रीचन्द चोरों को क्षमा नहीं करते।"
चतुरसेन ने दृढ़ता से कहा
"जब मैंने हार दबाया ही नहीं है तो न तो मुझे राजा का डर है और न भयंकरा देवी का जो सच्चा है, वह किसी से नहीं डरता।"
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३२२
अब लाचार होकर सेठ धनदत्त नगरसेठ कुबेरदत्त के पास गये और कहा कि आप जो चाहें करें, चतुरसेन हार की चोरी स्वीकार नहीं करता। कुबेरदत्त ने सागरचन्द्र से कहा कि आप अपने बेटे का विवाह विना नीलखाहार के ही कर लें।
अब नगरसेठ कुबेरदत्त राजसभा गये और चतुरसेन का अप्रमाणित अपराध राजा के सामने रखा। अवन्ती नरेश श्रीचन्द ने चतुरसेन को बहुत डराया धमकाया, पर उसने हार लेने की बात स्वीकार ही नहीं की। अब राजा ने क्रुद्ध होकर कहा
" इस धूर्त को भयंकरा देवी के मन्दिर में बन्द कर दो। देवी द्वारा मौत ही इसका दण्ड है।"
अपने लिए दण्ड की घोषणा सुनकर भी चतुरसेन डरा नहीं । मुस्कराता रहा। तब आपस में लोगों ने काना-फूसी की है तो सच्चा सच्चा है, इसीलिए डर नहीं है कुछ बोले- लेकिन नगर सेठ भी तो धार्मिक और परोपकारी हैं। वे भी मिथ्या आरोप नहीं लगायेंगे। सबकी अन्तिम टिप्पणी यही रही कि कल पता चल जाएगा, कौन सच्चा है, कौन झूठा
संध्या हुई। राजा के सिपाही चतुरसेन को देवी के मन्दिर में बन्द करने ले गए। नगरी के सैंकड़ों आदमी साथ थे। चतुरसेन के पिता धनदत्त, नगरसेठ कुबरेदत्त आदि भी थे।
भयंकरा देवी का मन्दिर क्षिप्रा नदी के किनारे जंगल में अवन्ती से बाहर था । इस देवी की प्रतिमा इतनी भयंकर थी कि दिन में देखते ही प्राण निकलते थे इसीलिए इसका नाम भयंकरा था । चतुरसेन को इसी के आयतन में बन्द कर दिया गया और बाहर से कपाट बन्द कर दिये गए।
रात के सन्नाटे में चतुरसेन ने देवी को देखा तो उसकी प्रतिमा पर प्रहार करना शुरू कर दिया और कहता गया- तू मुझे मारेगी तो मैं भी तेरी प्रतिमा को नष्ट-भ्रष्ट करके छोडूंगा।
प्रहार परिणाम से देवी प्रकट हो गई और बोली
"अरे श्रेष्ठिपुत्र में किसी के प्राण नहीं लेती। चोर भीतर से बहुत दुर्बल होता है, सो मेरी प्रतिमा देखकर ही प्राण छोड़ देता है। मेरा अस्तित्व बना रहने दे तेरा बाल भी बाँका नहीं होगा।"
सचमुच ही चतुरसेन का बाल भी बाँका नहीं हुआ । सबेरे जब किवाड़ खोले गये तो चतुरसेन हँसता-मुस्कराता बाहर निकला। उसके मित्रों ने उसे गोद में उठा लिया और जोर-जोर से चिल्लाने लगे सच्चे का बोलवाला, झूठे का मुंह काला
चतुरसेन सच्चा माना गया। नगर सेठ कुबेरदत्त की आवस मिट्टी में मिल गई। सबने यही कहा कि नगरसेठ बेईमान है। चतुरसेन पर झूठा आरोप लगाया है।
नगरसेठ को नीलखाहार जाने की चिन्ता नहीं थी। चिन्ता थी धर्म की अवमानना होने की। जैनधर्मी श्रावक को मिथ्यावादी माना
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जा रहा था। जैन शासन को बट्टा लग रहा था। अतः सेठ कुबेरदत्त तेला तप करने बैठ गये। नवकार मन्त्र की शरण ली। यथासमय चक्रेश्वरी देवी प्रकट हुई और उसने कहा
" वत्स ! चिन्ता मत करो। पापी पहले हँसता है, पर बाद में उसे पछता-पछताकर रोना पड़ता है। चतुरसेन के पाप का घड़ा अवश्य छूटेगा। धर्म की ध्वजा फहरायेगी।"
"लेकिन कैसे ?” कुबेरदत्त ने व्यग्र होकर कहा- "भयंकरा देवी के मन्दिर से आज तक कोई चोर जीवित नहीं निकला। चतुरसेन सच्चा और मैं झूठा समझा जा रहा हूँ। कुछ उपाय बताओ मातेश्वरी!"
चक्रेश्वरी देवी बोली
"राजा से कहकर पूनम की रात को अग्नि परीक्षा की व्यवस्था कराओ। बाकी मैं सम्हाल लूँगी।"
इतना आदेश देकर शासनदेवी चक्रेश्वरी अन्तर्धान हो गई। उसी दिन रात को चक्रेश्वरी देवी ने अवन्ती के राजा श्रीचन्द से सपने में कहा कि पूनम की रात चतुरसेन की अग्नि परीक्षा लो
सबेरे जब नगरसेठ कुबेरदत्त ने राजा से अग्नि परीक्षा की बाता कही तो राजा ने आश्चर्य से कहा
"जो बात तुम कह रहे हो, वही बात देवी ने मुझसे भी सपने में कही है। अब तो दूध का दूध, पानी का पानी अवश्य होगा।"
राजा ने अवन्तीनगरी में घोषणा करा दी कि पूर्णिमा को क्षिप्रा तट पर चतुरसेन की अग्नि परीक्षा होगी। यह घोषणा चतुरसेन ने भी सुनी तो उसने अपने नाम को सार्थक करने का निश्चय किया और सीधा कुम्हार के घर गया। कुम्हार को एक स्वर्णमुद्रा देकर कहा कि मेरे लिए छोटा-सा और छोटे ही मुँह का एक घट बना दो। कुम्हार ने बना दिया। घड़ा लेकर चतुरसेन घर आया और उसमें सेठ का नौलखाहार रख दिया तथा ऊपर से आटा भर दिया। फिर कुम्हार से कहा कि मैं तुम्हें एक अशर्फी और दूँगा। अग्नि परीक्षा वाले दिन तुम भी आना और इस घड़े को साधे रहना। इसमें जो आटा है, उसे मैं चींटियों को चुगाऊँगा ।
कुम्हार का ध्यान तो मिलने वाली स्वर्णमुद्रा की ओर था, अतः उसने चतुरसेन की बात पर ध्यान नहीं दौड़ाया और उसकी बात सहज में ही स्वीकार करली |
पूर्णिमा के दिन क्षिप्रा तट पर बड़ी भारी भीड़ जुड़ी एक अग्निकुण्ड नें लोहे का ठोस गोला दहक रहा था। राजा प्रजा सब चतुरसेन की सच्चाई देखने खड़े थे। चतुरसेन का वह घट जिसमें सेठ का नीलखाहार था, उसे कुम्हार लिये खड़ा था।
सबके सामने दहकता गोला बाहर निकाला गया। चतुरसेन ने जोर से कहा
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वाग देवता का दिव्य रूप
“शासन देवता और दिग्पालो! अगर मेरे पास सेठ कुबेरदत्त का नौलखाहार हो तो मुझे यह गोला जला दे।"
यह कह चतुरसेन ने लाल-लाल दहकता गोला हाथ में लिया तो सब दंग रह गये। वह उसे ऐसे लिये रहा, जैसे कोई गेंद को पकड़ता है। हार कुम्हार के कब्जे में था, इसीलिए चतुरसेन नहीं
जला ।
अब तो चतुरसेन की जय-जयकार होने लगी। जब जय-जयकार का शोर शान्त हुआ तो कुम्हार के हाथ से घड़ा ऐसे गिरा, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने गिराया हो। गिरते ही घड़ा फूटा पाप का घड़ा। सेठ कुबेरदत्त का नौलखाहार चमकने लगा। सभी उस हार को पहचानते थे। उसकी किरणें अँधेरे में उजाला कर रही थीं।
"मेरा हार कुम्हार के पास कैसे ?' यह कहकर नगरसेठ हार लेने लपके। राजा के सैनिकों ने कुम्हार को पकड़ लिया। डर के कारण उसने वहीं सब बातें बता दीं। अब चतुरसेन कैसे बचता । उसने अपना अपराध स्वीकार किया। अब तो सभी एक स्वर से चिल्लाये पाप का घड़ा अवश्य फूटता है।
(जैन कथाएँ भाग ७०, पृ. १३१-१३२) ४
अन्धे परीक्षक
(मानव चरित्र के परीक्षक अन्तर्थक्षुः )
"तुम चारों का नाम क्या है ?" राजा के वाणिज्य मन्त्री ने पूछा।
पहले ने बताया
"मेरा नाम नयनरंजन है ?"
"खूब ! बहुत खूब! नाम भी सोच-समझ रखा है, तुम्हारे माता-पिता ने आँखों के गोलक तक गायब हैं और नाम नयनरंजन।"
वाणिज्य मन्त्री ने ठहाका लगाकर कहा और दूसरे अन्धे से पूछा
"तुम्हारा क्या नाम है, नयनरंजन के भाई ?"
"मेरा नाम सुदर्शन है और मुझसे छोटे तीसरे का है सुलोचन।”
आस-पास खड़े राजसेवकों ने भी ठहाका लगाया और हँसते-हँसते चीधे अन्धे से पूछा
"अब तुम
भी बता दो अपना नाम ।"
"मुझे अन्तारमण कहते हैं श्रीमान् !”
वाणिज्य मन्त्री ने चारों को सम्बोधित करते हुए कहा
"तुम चारों के चारों धन्य हो । छाँट-छाँटकर नाम रखे गये हैं। तुम्हारे। ठीक भी है, भाग्य ने आँखें नहीं दीं। तुम्हें अन्धा बनना पड़ा। पर नाम रखना तो भाग्य के हाथ की बात नहीं थी, सो तुमने नाम छाँट-छाँटकर खूब रखे।"
वाणिज्य मन्त्री ने पुनः कहा
"सूरदासो ! हमारे राजा के अनाथालय में बहुत-से लँगड़े-लूले और अपाहिज रहते हैं। अन्धों का भी एक अलग वर्ग है। तुम बड़े मजे से राजकीय अनाथालय में रहो और अपना शेष जीवन काटो । लेकिन अपने बेचने का मजाक छोड़ो। हम करेंगे क्या तुम्हें खरीदकर ? तुम्हें खरीदेगा भी कौन ?”
३२३
वाणिज्य मन्त्री की पूरी टिप्पणी सुनने के बाद सबसे बड़े भाई नेत्रहीन नयनरंजन ने कहा
"मन्त्रिवर! हम अनाथ होते तो सीधे आपके अनाथालय में आते। हमारे माता-पिता है। हम चारों अन्धे भाई सनाथ हैं अपने माता-पिता की निर्धनता दूर करने के लिए हम अपने को बेचना चाहते हैं। हम चारों का मूल्य हमारे माता-पिता को दे दो और हमें खरीद लो।"
"कितना मूल्य चाहिए तुम्हें अपनी बिक्री का ?"
"चारों के बदले चार लाख स्वर्ण मुद्राएँ।"
"चार लाख !"
आश्चर्य के साथ सबके मुँह फटे रह गये। वाणिज्य मन्त्री ने कुछ रोष के साथ पूछा
“सूरदासो ! तुम हमारे राजा की घोषणा का अनुचित लाभ उठाना चाहते हो। वस्तुतः तो तुम्हारी कीमत चार कौड़ी भी नहीं है। खाने-पहनने की कमी है तो तुम अपने माता-पिता सहित हमारे अनाथालय में रह सकते हो।"
वाणिज्य मन्त्री की इस टिप्पणी पर दूसरे अन्धे सुदर्शन ने
कहा
"श्रीमन! आपके राजा की यह घोषणा है कि उनकी 'विदेश-हाट' में शाम तक जो माल नहीं बिकेगा, उसे राज्य की ओर से खरीदा जायगा। हम चारों अन्धे भाई सुबह से बिकने बैठे हैं। हमें किसी ने नहीं खरीदा, इसलिए या तो हमें खरीदें या फिर आपके राजा अपनी घोषणा वापस लें।"
एक अन्य राजसेवक ने कहा
“सूरदासो! बिकने वाली चीज बिकती है और खरीदी जाने वाली खरीदी भी जाती है। हमारी 'विदेश-हाट में सभी चीजें तो
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । बिना बिकी नहीं रहतीं? जो रहती हैं, वे हमारे क्रयकेन्द्र द्वारा राजसेवक हक्के-वक्के होकर एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। इशारों खरीद ली जाती हैं और किसी-न-किसी दिन हमारे बिक्री केन्द्र से ही इशारों में एक ने फुसफुसाहट की भाषा में दूसरों से कहाबिक भी जाती हैं। तुम बिकने वाली चीज हो ही नहीं। एक दिन
“अन्धे तो बहुत देखे, पर ऐसे अजीब अन्धे आज ही मिले।" क्या, दस दिन बैठकर देख लो, तुम्हें कोई नहीं खरीदेगा। निश्चय ही तुम हमारे राजा की घोषणा का अनुचित लाभ उठाना चाहते
दूसरे ने कहाहो।"
“पहले एक-एक करके पूछ तो लो कि इनकी विशेषताएँ क्या इस राजसेवक के कथन का उत्तर दिया तीसरे भाई
हैं।" सुलोचन ने
चारों अन्धे कुछ फासले से थे, इसलिए इनकी खुसर-फुसर “आप अनहोनी बात कह रहे हैं। आपके इसी बाजार में, जिस ।
सुन-समझ नहीं पाये। अन्ततः वाणिज्य मन्त्री ने पहले अन्धे से बाजार में हम बैठे हैं, नित्य ही दास-दासियाँ भेड़-बकरियों की तरह
पूछाबिकते हैं। फिर हम बिकने योग्य कैसे नहीं?"
"तुम्हारी क्या विशेषता है नयनरंजन?' राजसेवक ने पूछा
"श्रीमान! मैं रत्नपारखी हूँ। बड़े-बड़े रत्नपारखी (जौहरी)
धोखा खा सकते हैं, पर मेरी परख, सच्ची परख होती है।" "मान लो दास-दासियाँ बिकते हैं और तुम भी बिकने योग्य हो। पर यदि तुम अपना मूल्य हमारे महाराज का पूरा राज्य ही ___ कहने की देर थी कि हँसते-हँसते सब लोट-पोट हो गये। जब माँग लो तो क्या मिलेगा? अपने को बेचना अनुचित नहीं, पर हँसते-हँसते पेट दुखने लगा तो एक राजसेवक बोलाअनाप-शनाप मूल्य माँगना राजा की घोषणा का अनुचित लाभ । "कमाल है भाई नयनरंजन! आँखों के गोलक तक गायब हैं उठाना नहीं तो और क्या है ? दास-दासी तो फिर भी सेवा करते । और तुम रनों की परख करते हो!" हैं, खरीदार स्वामी के काम आते हैं, और यहाँ तो तुम अन्धों की
“अच्छा अब तुम भी बताओ भाई सुदर्शन!" सेवा के लिए उल्टे दास-दासी चाहिए। आखिर तुम्हारा उपयोग ही क्या है?"
सुदर्शन बोलाचौथे भाई अन्तारमण को भी बोलना पड़ा। उसने कहा
“मैं अश्व पारखी हूँ। हर तरह के घोड़े की अच्छाई, बुराई,
गुणावगुण स्पर्शमात्र से बता देता हूँ।" “मेरी भी सुनो ।"
वाणिज्य मन्त्री ने सुदर्शन से ही पुनः पूछाबीच में ही वाणिज्य मन्त्री ने पूछा
“अपने तीसरे भाई की विशेषता भी तुम्ही बता दो।" "तुम्हारी भी सुनेंगे, पर पहले यह तो बताओ कि तुम्हारे सुनाम ‘अन्तारमण' का अर्थ क्या है?"
"मेरा भाई सुलोचन स्त्री की परीक्षा जानता है। स्त्री कुलीन है
या निम्न कुल की, यह भेद मेरा भाई किसी भी स्त्री की बात “मन्त्रिवर! अन्तः और रमण से मिलकर मेरा नाम बना है,
सुनकर प्रमाण सहित बता देता है।" अन्तारमण। अर्थ भी आप समझ गये होंगे। अपने भीतर रमण करने वाला। हम अन्धों की भीतरी आँखें खुली होती हैं।"
वाणिज्य मन्त्री कुछ पूछे कि उससे पहले ही चौथे भाई अन्धे
अन्तारमण ने कहाआश्चर्य के साथ वाणिज्य मन्त्री ने अन्तारमण से पूछा
“मैं पुरुष परीक्षक हूँ। पुरुष के कुल-वंश की कलई खोलकर "मालूम पड़ता है, तुम पढ़े-लिखे भी हो?"
रख देता हूँ और सिद्ध भी करता हूँ कि ऐसा क्यों है।" अन्तारमण बोला
कुछ देर मौन रहने के बाद वाणिज्य मन्त्री ने चारों अन्धों से "श्रीमान! मैं क्या हूँ, मेरे अन्य तीनों भाई क्या हैं और हम चारों भाई क्या हैं-यही सब बताने तो मैं जा रहा था। बीच में
"सूरदासो! तुम अद्भुत हो, विचित्र हो। राजघोषणा के आपने नाम का अर्थ पूछ लिया। अब सुनें कि हमने जो अपना
अनुसार मुझे तुम्हारी खरीद कर लेनी चाहिए। तुम्हारे तर्कों से और मूल्य चार लाख स्वर्ण-मुद्राएँ माँगा है, वह अपनी योग्यता और
तुम्हारी बातों से मैं हारा भी हूँ और प्रभावित भी हुआ हूँ। लेकिन उपयोगिता का ही माँगा है। चार लाख की चौगुनी स्वर्ण-मुद्राएँ
तुम्हारे क्रय-विक्रय का निर्णय कल राजसभा में होगा। महाराज स्वयं आप हमसे चाहे जब वसूल कर सकते हैं।"
ही तुम्हें खरीदेंगे। अब तो रात होने को है, रात भर तुम आराम से अन्तारमण के इस कथन से तो वाणिज्य मन्त्री और सभी । हमारे विश्रामागार में रहो।"
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३२५ ।
वाग् देवता का दिव्य रूप
३२५ । वाणिज्य मन्त्री चारों अन्धों को यथास्थान भेजकर स्वयं अपने सोचते-सोचते राजा ने एक योजना सोच ली। राजा को चैन आवास पर चला गया।
मिला और उसे नींद आ गई। सबेरे दरबार में पहुँचा और एक
राजसेवक को आदेश दियाकिसी देश का एक राजा था। राजा के एक रानी थी। रानी
"नगर में घोषणा कर दो कि शाम तक जिसका माल बाजार सुन्दर थी और बड़े राजा की बेटी थी। राजा से प्रेम करती थी
में नहीं बिकेगा, उसका माल राज्य की ओर से खरीद लिया और सुशीला स्त्री की तरह पति की सेवा भी करती थी। राजा भी
जायेगा।" रानी को खूब चाहता था। राजा की माता भी जीवित थी। राजा राजा की इस घोषणा से महामात्य को आश्चर्य हुआ और दुःख अच्छा था। बहादुर भी था। मातृभक्त भी था और प्रजावत्सल भी। भी। महामन्त्री का कर्तव्य राजा को गलत रास्ते से हटाना होता ही राजा अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखता था और इसीलिए रात है। राजा अपने लिए नहीं होता, प्रजा के लिए होता है। यदि को वेश बदलकर नगर में घूमा करता था और अपनी प्रजा के । भावावेश में या भावुकतापूर्ण उदारता में आकर राजा कोई गलत दु:ख-दर्द का पता लगाया करता था।
घोषणा कर दे तो राज्य कितने दिन चलेगा? यही सब बातें एक बार रात को राजा अपने नगर में घूम रहा था। एक घर
सोचकर महामात्य ने राजा से कहामें स्त्री-पुरुष बातें कर रहे थे। एक आड़ में खड़े होकर राजा "राजन्! इस घोषणा से तो हमारी अर्थव्यवस्था बिगड़ उनकी बातें सुनने लगा। स्त्री पुरुष से कह रही थी
जायेगी।" "तो फिर तुम आज कुछ भी नहीं लाये? आज रात को भूखे "कैसे?" राजा ने पूछा। ही सोना पड़ेगा?"
मन्त्री ने बतायालाचार होकर पुरुष ने कहा
"इस घोषणा को सुनकर बहुत-से व्यापारी व्यर्थ का माल भी "क्या करूँ भामिनी! माल बिका ही नहीं। शाम तक बैठा रहा, बाजार में ले आयेंगे। अनबिका माल खरीदते-खरीदते राजकोष कोई भी खरीदार नहीं आया। अब तो कल ही बिक पायेगा।" खाली हो जायेगा और माल पड़ा रहेगा।" स्त्री ने निराशा के स्वर में कहा
पुराने समय में हर विभाग के मन्त्री कम होते थे। एक "कल का भी क्या भरोसा? बिके-न-बिके।"
महामात्य ही बहुत-से विभाग सम्हाल लेता था। इस राजा का अर्थ
विभाग भी महामात्य के अधीन था। महामात्य की टिप्पणी सुनकर "यह भी तू ठीक कहती है। मौत और ग्राहक का कोई समय
राजा चुप हो गया। मन्त्री को लगा कि मेरी बात का प्रभाव हुआ नहीं। जब चाहे, तब आये और जब न चाहे, न आये।"
है, अतः उसने पुनः कहास्त्री बोली
"राजन् ! एक बात यह भी होगी कि विक्रेता अधिक-से-अधिक "हमारे राजा के राज्य में सब सुख हैं, पर हम जैसे मूल्य पर माल बेचने का प्रयास करेंगे, क्योंकि न बिकने पर तो चल-विक्रेताओं के लिए कोई प्रबन्ध नहीं। हमारी तरह न जाने । आपकी ओर से खरीद ही लिया जायेगा।" कितने लोग शाम को निराश लौटते होंगे।"
राजा ने महामात्य के विचारों का सम्मान किया और कहाएक निःश्वास छोड़ते हुए पुरुष ने इतना और कहा
“महामन्त्री! एक रात एक घर में हमने जो बातचीत सुनी, वह "हमारी तो कोई बात नहीं। पानी पीकर ही सो जायेंगे। हमसे सुनी नहीं गई। प्रजा का दुःख हम से नहीं देखा जाता। यह परेशानी तो बाल-बच्चों बालों की है।"
घोषणा तो हमें करनी ही थी। घोषणा तो हो चुकी। अब ऐसा उपाय राजा उनकी बातें सुनते ही महल तो लौट आया। लेकिन नींद ।
करो कि राज्य की अर्थव्यवस्था भी न बिगड़े और प्रजा का यह उसे कैसे आती? मन बेचैन था। चैन का दूसरा नाम ही तो नींद है। दुःख भी दूर हो जाए कि उसका माल अनबिका न रहे।" राजा सोच रहा था- 'मेरे नगर में स्थायी और अचल दुकानों के ____ महामात्य ने वाणिज्य सचिव के साथ मन्त्रणा की। चीजों के बाजार हैं। उनकी तो कोई बात नहीं। पर चल विक्रेता-फेरी वाले दाम प्रायः निश्चित कर दिये गये। राज्य की ओर से दो विभाग दुकानदार अपना माल लेकर विविधा वीथी (General Market) और खोले गये। एक क्रय-विभाग और दूसरा विक्रय-विभाग। शाम में बैठते हैं, वे अगर अपना माल बिना बिके ही वापिस लेकर लौटें तक जो चीजें नहीं बिकती थीं, वे राजा के क्रय-विभाग द्वारा खरीद । तो बड़ी परेशानी होती है, उन्हें। इनके लिए इनके लिए क्या, सभी ली जाती थीं और वे सभी चीजें कभी-न-कभी विक्रय विभाग द्वारा विक्रेताओं के लिए, मैं कल ही कोई-न-कोई प्रबन्ध करूँगा।" बेच दी जातीं।
असा उपाय
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ऐसा निश्चित ही है कि शुभ संकल्प के लिए दैव भी सहायक था। इस तेल से पूरी-पराठे बन जाते थे और ऐसे विशिष्ट अनाथ 200529
हो जाता है। बहुत-सी चीजें ऐसी भी होती जो बाजार में नहीं सामान्य अनाथों से कुछ अधिक अच्छा भोजन पा लेते थे। ये अन्धे 0 मिलती थीं और राजा के विक्रय विभाग में मिल जाती थीं। दूर-दूर । तो सामान्य अन्धे अनाथों से भी गये बीते थे, क्योंकि ये चार लाख
के व्यापारी प्रायः राजा के विक्रय विभाग से ही सम्पर्क करते थे। मुद्राओं में खरीदे गये थे और बेकाम के थे, जबकि दूसरे अन्धे राज्य द्वारा खरीदा गया माल बिक ही जाता था और प्रायः चढ़े बेकाम के तो थे, पर बिना मूल्य के भी थे। जो भी हो, इन चारों भावों में बिकता था। राजा के इस शुभ संकल्प से दुहरा लाभ हुआ। अन्धों के दिन कटने लगे, सबके साथ उनका भी समय गुजर रहा प्रजा की भलाई भी हुई और राज्य की अर्थव्यवस्था भी नहीं था। इसी तरह वर्षों बीत गये। बिगड़ी, बल्कि पहले से अच्छी हो गई। राजा के नगर में एक ऐसा बाजार था, जहाँ हर तरह की
एक दिन राजा के दरबार में एक विदेशी रत्न व्यापारी आया। चीजें बिकती थीं। यहाँ चल-विक्रेता ही अधिक आते थे। 'विविधा
उस के पास मूल्यवान रत्न थे। राजा ने रत्न देखे और कुछ रत्न वीथी' नामक इस बाजार में पहले नगर के स्थानीय विक्रेता ही
पसन्द किये। राजा के निजी रत्न पारखियों ने भी उन रत्नों के रहते थे। राजा की घोषणा के बाद दूर देश के व्यापारी-विक्रेता भी
खरे-सच्चे होने की पुष्टि की। उन रत्नों में एक मोती राजा को आने लगे। इसलिए इस बाजार का नाम 'विदेश हाट' पड़ गया था।
बहुत पसन्द आया। यह मोती अन्य सामान्य मोतियों से आकार में इसी 'विदेश हाट' में एक दिन चार अन्धे बिकने आ गये। चारों
काफी बड़ा और विशेष कान्तिमान था। विदेशी रत्न व्यापारी ने इस अन्धे शाम तक बैठे रहे। उन्हें भला कौन खरीदता? एक तो अन्धे,
अकेले मोती का मूल्य ही एक लाख स्वर्णमुद्रा बताया। राजा ने किसी काम के नहीं और दूसरे, मूल्य भी इतना कि आकाश को
इतना मूल्य देना स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि उसकी रानी को छूए। अन्धों के पास ग्राहक तो बहुत आये, पर उनकी विशेषताएँ
भी यह मोती बहुत भाया था। लेकिन एक मोती का इतना अधिक सुन-सुनकर सबने अपना मनोरंजन ही किया। विशेषताएँ थीं भी
मूल्य यों आँखें बन्द करके भी कैसे दिया जा सकता था ? मिट्टी ऐसी कि विश्वास कोसों दूर रहता था। जैसे कोई कहे कि खरगोश
का घड़ा भी ठोक बजाकर खरीदा जाता है। एकाएक ही राजा को के सींग होते हैं और कमल पहाड़ पर खिलते हैं, ऐसी ही बातें इन
याद आया, 'बहुत पहले हमने चार अन्धे खरीदे थे। उनमें से एक अन्धों की भी थीं। अन्धा होकर रत्नों की परख, अश्व परीक्षा,
अन्धा रत्नपारखी भी था।' सोचते-सोचते राजा को अन्धे का नाम नारी ज्ञान और पुरुष की पहचान। ये सब बातें एक अन्धे के लिए
भी याद आ गया और उसने प्रतिहार को आदेश दियाकैसे सम्भव थीं? लेकिन राजा का काम तो अविश्वास करने से चलता नहीं। उसे तो खरीदना ही था। सो जब शाम हुई तो नित्य
। "हमारे अनाथालय से नयनरंजन नामक अन्धे को लिवा नियम के अनुसार वाणिज्य मन्त्री चार राजसेवकों को लेकर बाजार लाआ।" पहुँचे। एक स्थान पर बैठे चार अन्धे वाणिज्य मन्त्री को मिले । नयनरंजन आ गया। राजा ने कहाउनसे बातें कीं, मूल्य पूछा, विशेषताएँ जानी और उन्हें राजा के
"नयनरंजन! इस रत्न समूह में से कुछ रत्न छाँटो।" पास ले गये।
सभासद उत्सुक थे, क्योंकि उन्हें इस अन्धे के विषय में पहले दूसरे दिन राजसभा में चारों अन्धे पेश किये गये। राजा ने भी
ही मालूम था। महामात्य और वाणिज्य मन्त्री भी नयनरंजन के उनसे बातें कीं। राजसभा ठहाका मारकर हँसी और राजा भी हँसे
कथित गुण के बारे में सुन चुके थे। लेकिन रत्न व्यापारी आश्चर्य बिना न रह सके। अन्त में राजा ने निर्णय दिया
के साथ खीझ रहा था। उस से न रहा गया तो राजा से बोला“अपनी घोषणा के बाद हमें आज तक कोई घाटा नहीं हुआ।
“राजन्! यह तो मेरे रत्नों का मजाक है और मेरे पेशे का लगता है, आज हमारे शुभ संकल्प की परीक्षा है। हम इन चारों
अपमान भी है। रत्न परीक्षा आप शौक से कराइये। लेकिन कराइये अन्धों को खरीदते हैं।"
किसी रत्नपारखी (जौहरी) से ही। यह अन्धा क्या जाने ?' राजसभा अवाक् थी। महामात्य चकित थे। गृहामात्य, वाणिज्य
राजा ने कहामन्त्री आदि सभी हैरत में थे। पर राजा का निर्णय अटल था। P004 अन्धों के माता-पिता को चारों का मूल्य चार लाख स्वर्ण-मुद्राएँ दे
"तुम्हारी बात सामान्यतः तो ठीक ही है। लेकिन हमारा यह दिया गया और चारों अन्धों को राजा के अनाथालय में रख दिया
अन्धा असाधारण व्यक्ति है। एक बार इसी ने बताया था कि यह गया। राजा के अनाथालय में और भी अन्धे थे। सभी तरह के ।
अद्वितीय रल-पारखी है। इसकी परख, परख होती है। आज हम अनाथ थे। बूढ़े-टेढ़े, लड़की-लड़के सभी को राजा की ओर से दोनों
भी देखना चाहते हैं कि यह कितने पानी में है।" समय सब्जी-रोटी मिलती थी। किसी उपयुक्त-उपयोगी अनाथ को नयनरंजन ने रल टटोले। सीधे हाथ के अंगूठे और तर्जनी राजा की ओर से थोड़ा-सा तेल सरसों अथवा तिल का मिल जाता । उँगली के बीच में घुमा-घुमाकर रत्न देखे और रत्न छाँटकर राजा
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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के सामने रख दिये। यह देखकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि गईं। उसके तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। गुणी को सभी पूजते अन्धे नयनरंजन ने वही रत्न राजा को छाँटकर दिये, जो राजा ने हैं। व्यापारी ने अन्धे के पैर पकड़ लिए और पूछापहले पसन्द किये थे और राजा के निजी रत्न-पारखियों ने जिन्हें ।
"इस गुप्त रहस्य को भला कौन जान सकता था? आपने कैसे खरा और सच्चा बताया था। इसके साथ ही एक नई बात यह भी
जाना यह भेद ?" हुई कि अन्धे नयनरंजन ने उस बड़ें मोती को अलग उठाकर रख दिया, जो राजा-रानी को भाया था और जिसकी कान्ति सामान्य
राजा ने भी पूछामोतियों से अधिक थी। उस मोती को अन्धे नयनरंजन के हाथ में "नयनरंजन! सभी उत्सुक हैं। तुमने कैसे जाना कि यह मोती देते हुए राजा ने पूछा
कच्चा और दोषी है?" "नयनरंजन! यह मोती तुमने अलग क्यों रख दिया ?"
नयनरंजन बोला“महाराज! यह मोती बेकार है। बस, देखने का अच्छा है।" "राजन्! पहचान अनुभव की चीज है, शब्दों में बताने की नयनरंजन की इस टिप्पणी पर और कोई तो कुछ न बोला,
चीज नहीं। मैं अपने स्वजनों की आवाज पहचान लेता हूँ। लेकिन पर व्यापारी बौखला गया । राजमर्यादा की सीमा के अन्दर ही । कैसे पहचानता हूँ, यह बताया कैसे जा सकता है ?" उसने कहा
राजा ने पूछा“राजन्! मैं परम्परागत और वंशानुगत रन व्यापारी हूँ। "अच्छा यह बताओ सीप में पर्याप्त समय रहने पर भी यह दूर-दूर देशों में मेरे मुक्ता जाते हैं। मेरा यह मोती सबसे अधिक मोती कच्चा क्यों रहा ?" मूल्यवान है। एक लाख स्वर्णमुद्राओं से कम मैं एक भी न लूँगा।
"इसका भेद मैं बताऊँगा." अपनी पलकों को चार-पाँच बार आप भले ही यह मोती न लें, पर इस अन्धे से मेरे मोती का ।
जल्दी-जल्दी झपकाते हुए नयनरंजन ने कहामजाक न उड़वायें।"
“पृथ्वीनाथ! गजमुक्ता, नागमोती, वंश मोती आदि कितने ही व्यापारी की बात उचित थी और उसका बिगड़ना भी ठीक था।
प्रकार के मोतियों में सीपज मुक्ता विशेष कान्ति वाला होता है। सीप राजा ने अन्धे से पूछा
के खुले मुख में स्वाती नक्षत्र में बरसे पानी की बूंद पड़ने से मोती "क्या कमी है, इस मोती में?"
की सृष्टि होती है। स्वाती की पहली बूंद पड़ने से बनने वाला मोती “दीनरक्षक! यह मोती भीतर से कच्चा है। अभी पूरा नहीं पक
सामान्य मोतियों से बड़ा और विशेष कान्तिमान होता है। यह मोती पाया है। इस समय तो मंजूषा में रहता है। जब कुछ दिन खुले में
भी ऐसा ही मोती था। लेकिन जिस समय स्वाती वृष्टि की प्रथम रहेगा तो इसकी कान्ति नष्ट हो जायेगी।"
बूंद सीप में गिरी थी, उसी समय एक बाज मरी हुई चिड़िया को
लेकर सीप के ऊपर से उड़ा। स्वाती बूंद के साथ पक्षी की चोंच में "इसका कुछ प्रमाण भी है तुम्हारे पास?" राजा ने पूछा।
लगी चिड़िया के रुधिर की एक बूंद भी सीप के मुँह में गिरी। इसी नयनरंजन ने बताया
गड़बड़ी से मोती कच्चा और दागी रह गया।" "महाराज! इस मोती को तोड़ें तो इसमें से आधा पानी और नयनरंजन के इस रहस्योद्घाटन से सभी चकित-हर्षित थे। आधा रक्त निकलेगा।"
राजा के बहुत आग्रह पर व्यापारी ने शेष रत्नों का मूल्य तो ले “मैं अपना मोती एक ही शर्त पर तुड़वा सकता हूँ।" व्यापारी
लिया, पर एक लाख के अन्य रत्न अपनी ओर से भेंट किये। राजा ने सरोष स्वर में कहा।
को अपनी लाख मुद्राएँ व्यर्थ जाने से बची और लाख के मूल्य के
रत्न भी मिले। अन्धे नयनरंजन की खरीद पर व्यय की गई एक "क्या?" राजा ने व्यापारी से पूछा।
लाख स्वर्ण-मुद्राएँ दूने रूप में आज वसूल हो गईं। अपनी प्रसन्नता "शर्त यह है कि मेरे मोती में से रक्त निकला तो मैं सभी व्यक्त करते हुए राजा ने प्रतिहार से कहारत्न बिना मूल्य के दे जाऊँगा और अगर अन्धे की बात झूठी रही
"प्रतिहार! नयनरंजन को अनाथालाय पहुँचा आओ और तो "
अनाथालय प्रबन्धक से कहना कि अब इसे एक पाव तेल रोज देना "तुम्हें दूना मूल्य मिलेगा।" व्यापारी की शेष बात राजा ने पूरी शुरू कर दे, ताकि इसका भोजन सामान्य अनाथों से अधिक कर दी।
स्वादिष्ट और बढ़िया बन सके।" सभा में सन्नाटा था। मोती तोड़ा गया। सबने देखा, उसमें एक नयनरंजन को साथ लेकर प्रतिहार अनाथालय की ओर चल लाल धारी चमक रही थी। व्यापारी की आँखें फटी की फटी रह दिया। मुश्किल से पन्द्रह दिन ही बीते कि नगर में एक अश्व
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । व्यापारी आया। राजा ने घोड़े देखे और कुछ घोड़े छाँट भी लिए। के दूसरे किनारे से घोड़ा बड़ी तेजी से लौट रहा था कि उसके मुँह इन सबमें सफेद रंग का एक घोड़ा राजा को बहुत भाया। घोड़ा था से निकलते झाग सभी ने देखे और गन्तव्य स्थान पर आते-आते भी बहुत सुन्दर। उसके छोटे-छोटे कान अन्दर से लाल थे। वक्ष । घोड़े का दम फूल गया। व्यापारी को एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का चौड़ा था। टाँगे सुगठित थीं। पूँछ के बाल श्याम और लम्बे थे। घाटा सहना पड़ा, यह बात ज्यादा दुःख की नही थी। उसे दुःख इस राजा को ध्यान आया कि नयनरंजन की तरह उसका भाई अन्धा बात का था कि अपने पालित-पोषित घोड़े के बारे में मैं नहीं जान सुदर्शन भी तो अश्व पारखी है। क्यों न उसी की सलाह से घोड़े पाया और इस अन्धे ने बता दिया। राजा तो प्रसन्न था ही। उसने खरी ? प्रतिहार को आज्ञा दी तो वह सुदर्शन को बुला लाया। । सुदर्शन से पूछासुदर्शन ने स्पर्श अनुभव से वे सभी घोड़े अच्छे बताये, जो राजा ने
“यह दोष इस घोड़े में क्यों कर आया?" पसन्द किये थे। राजा ने श्वेताश्व के बारे में भी पूछा तो अन्धे सुदर्शन ने तीन बार घोड़े के वक्ष को ठोका। घोड़ा हिनहिनाया।
सुदर्शन ने बतायासुदर्शन ने निर्णय दिया
"राजन्! यह घोड़ा मातृ पोषित नहीं था। माँ के दूध में जो "राजन्! घोड़ा अच्छा नहीं है।"
प्रकृत गुण इसे मिलते, वे इसे नहीं मिल पाये। इसका पोषण भैंस के
दूध से हुआ मालूम पड़ता है। विजातीय मातृ पोषण के कारण ही “क्या खराबी है, इसमें?" राजा ने पूछा।
इसमें यह विकार पैदा हुआ था।" सुदर्शन बोला
राजा ने अश्व व्यापारी की ओर देखा। व्यापारी ने स्वीकार "इस घोड़े को तेज नहीं दौड़ाया जा सकता। अगर आप इसे कियातेज दौड़ायेंगे तो मुँह से झाग देने लगेगा, दम फूल जायेगा और
"अन्धा ठीक कहता है। मुझे तो यह कोई जादूगर मालुम हाँफता हुआ रुक जायेगा।"
पड़ता है। इस घोड़े को जन्म देते ही इसकी माँ अरबी घोड़ी मर सुदर्शन की यह टिप्पणी अश्व व्यापारी को बहुत लगी, पर गई थी। मैंने इसे भैंस के दूध से ही पाला है।" * अन्धे पर तरस खाकर बोला
राजा ने प्रसन्नता व्यक्त की और प्रतिहार से कहा"राजन्! किसी और घोड़े के बारे में यह अन्धा कुछ भी "प्रबन्धक से कहना, सुदर्शन को भी एक पाव रोज तेल देना कहता तो मैं इसकी बात का बुरा न मानता। लेकिन इस घोड़े की शुरू कर दे।" तो बात ही और है। इस घोड़े का जन्म मेरे यहाँ ही हुआ है। इसकी
राजा ने खरीदे हुए घोड़े तो अश्वशाला में बँधवा दिये और माँ अरब की थी और इसका गर्भागमन एक ईरानी लड़ाकू घोड़े से राजसभा में लौट आया। राजा ने विचार किया 'ये दोनों अन्धे तो हुआ था। यह घोड़ा तो लाखों में एक है।"
कमाल के निकले। शेष दोनों अन्धों की भी जाँच कर ही लूँ।' राजा नयनरंजन की मुक्ता परख के बाद राजा को इन अन्धों के ने शेष दोनों अन्धों में से पहले सुलोचन को बुलवाया। सुलोचन का गुणों पर बहुत विश्वास हो गया था। अतः राजा ने व्यापारी से । गुण नारी कुल का परीक्षण था। राजा ने उससे कहाकहा
"सुलोचन! स्त्री के कुलादि की परीक्षा करोगे न?" "मानता हूँ, तुम्हारा घोड़ा लाखों में एक है, पर सुदर्शन भी "हाँ महाराज! आप करायेंगे तो क्यों न करूँगा? आपने मुझ करोड़ों में एक ही अश्व पारखी है।"
पर एक लाख मुद्राएँ खर्च की हैं। मेरे गुण का पूरा उपयोग करने व्यापारी ने इतना ही कहा- ना.
का आपको अधिकार है।” |
"तो तुम हमारी रानी की परीक्षा करो।" “सो तो इसके सुदर्शन नाम और इसकी नेत्रहीनता से ही पता चल रहा है।"
"रानी की?" अपनी परख की चुनौती सुदर्शन बर्दाश्त न कर सका। उसने
“हाँ हमारी रानी की।" व्यापारी से कहा
"पृथ्वीनाथ! रानीजी तो ठीक ही होंगी। उनकी परीक्षा क्यों "इसमें बुरा मानने की बात क्या है? घोड़ा दौड़ाकर देख लो।" | कराते हैं ? किसी और की कराइये।" व्यापारी को भी जोश आ गया और राजा से सवारी करने को
“सुलोचन! ठीक हो तो ठीक बताना। तुम निर्भय होकर हमारी कहा। राजा ने घोड़े को चाबुक मारा और घोड़ा हवा से बातें करते । राना का परखा कि वह क्या है? वह किस कुल का है?" हुए दौड़ने लगा। अश्व परीक्षा एक बड़े मैदान में हो रही थी। मैदान सुलोचन ने कहा
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१ वाग् देवता का दिव्य रूप
३२९ । "राजन्! इसके लिए मुझे रनिवास में बे-रोक-टोक जाने की "राजन् ! जैसा दीखता है, सदा वैसा नहीं होता। बड़े-बड़े तथ्यों अनुमति दीजिये।"
पर परदा पड़ जाता है। अब आप पुनः निरख-परख करें और 'अनुमति है। तुम्हें कोई प्रतिहारी या प्रतिहार नहीं टोकेगा।" ।
सचाई खोजें।" सुलोचन बेखटके रनिवास में गया। रानी स्नानागर मेंनहा रही
राजा को क्रोध तो था, पर यह क्रोध सुलोचन पर न होकर थी। उसने झरोखे से सुलोचन को आते देखा तो चिल्लाकर बोली
रानी पर था। राजा ने सोचा, 'सुलोचन के दोनों बड़े भाइयों की
बातें सत्य थीं। इसकी भी परख खरी होगी। दोष रानी का ही है, “यह कौन बदमाश आ रहा है, लुच्चा कहीं का?"
जिसने अब तक मुझसे भेद छिपाया।' क्रुद्ध-क्षुब्ध राजा हाथ में नंगी सुलोचन ने विनय भाव से कहा
तलवार लिए रानी के पास पहुँचा और बोला"कोई नहीं, महारानी जी मैं अन्धा सूरदास हूँ।"
"रानी! मैं एक ही वार में तुम्हारा सिर गर्दन से अलग कर "सूरदास के बच्चे! हरामखोर कहीं के, जल्दी वापस हो जा। दूंगा। सच-सच बताओ तुम किसकी पुत्री हो।" जानता नहीं, यह रनिवास है। मैं नहा रही हूँ।"
रानी सहम गई। घबराई और चकराई भी। उसने राजा से सुलोचन उल्टे पैरों वापस लौट गया और सीधा राजा के पास । विनय वाणी में कहाराजसभा में आया। आते ही राजा से बोला
"प्राणनाथ! आपको आज क्या हो गया है? क्या मेरे “राजन्! रानी की परख हो गई।"
माता-पिता से आप अनभिज्ञ हैं, जो ऐसा पूछ रहे हैं? मेरे पिता
रिपदमन और माता महारानी कनकवती को कौन नहीं जानता? मैं 'हो गई? इतनी जल्दी? अभी तो तुम गये थे।"
उन्हीं की इकलौती पुत्री हूँ।" सुलोचन ने कहा
राजा ने कहा"देर की जरूरत ही नहीं थी। अब आप एकान्त में चलें और सुनें।"
"यह तो तुमने वही बताया, जो मैं भी जानता हूँ। मुझे तो वह
सब बताओ, जो सच है, जिसे मैं अब जानना चाहता हूँ और जिसे राजा ने आग्रह किया
तुमने अब तक मुझसे छिपाया है। अगर सच-सच कहोगी तो "नहीं, एकान्त में नहीं। यहीं सबके सामने बताओ।"
तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा, यह मैं तुम्हें वचन देता हूँ।" सुलोचन फिर भी मौन रहा। राजा ने पुनः कहा
राजा की तिरछी नजरें और गर्दन पर झूलती तलवार को "डरो मत! जो भी बात हो निर्भय होकर बतओ।"
देखकर रानी बताने को मजबूर हुई। उसने बतायासुलोचन बोला
“स्वामी! मेरी माँ महारानी कनकवती सदा से ही निस्सन्तान
थीं। उनकी एक दासी थी भानुमती। दासी होते हुए भी भानुमती “पृथ्वीनाथ! रानी राजकुल की नहीं है। किसी दासी की पुत्री
मेरी माँ की अन्तरंग सखी थी। भानुमती सुन्दर थी, मेरे पिताजी से है।"
उसका सम्पर्क हो गया और मेरा जन्म दासी भानुमती के गर्भ से ही "बकते हो तुम। अपने शब्द वापस लो।" राजा ने क्रोध और । हुआ। मेरी माता निस्सन्तान थीं, अतः उन्होंने मुझे भानुमती से ले दृढ़ता के साथ कहा।
लिया और इकलौती राजपुत्री की तरह मेरा लालन-पालन बड़े सुलोचन ने पुनः बताया
लाड़-प्यार से हुआ। मेरे माता-पिता ने कभी सोचा भी नहीं कि मैं
उनकी पुत्री न होकर एक दासी की पुत्री हूँ। सारा संसार जानता "राजन्! आप क्रुद्ध हो गये। इसीलिए मैं बताने से इन्कार कर
है कि मैं राजा रिपुदमन की आत्मजा और रानी कनकवती की रहा था। जो सचाई थी, सो मैंने बता दी। चाहें तो अपना अभयदान
अंगजा हूँ। विवाह से कुछ पहले जब मेरी जन्मदात्री माँ दासी वापस ले लें और मुझे मृत्यु-दण्ड दें।"
भानुमती स्वर्गवासी हुई तो मेरी रानी माँ ने मुझे यह भेद राजा नरम पड़ा और नरमाई से बोला
बताया था। कभी ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं आया, जो मैं आपको “सुलोचन! आँखों देखी बात मैं कैसे झुठला दूँ? मेरी रानी यह सब बताती। सचाई यही है अब आप चाहे मुझे त्यागें, चाहे एक बड़े राजा की राजकुमारी है और उसी को तुम दासी की अपनायें।" अंगजा बताते हो। देख-भाल कर मैंने विवाह किया था।"
राजा ने तलवार फेंक दी और रानी को वक्ष से लगाते हुए 1 सुलोचन ने कहा
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'प्रिये! इसमें तुम्हारा दोष ही क्या है? क्या कमल का जन्म पंक से नहीं होता? दासी पुत्री होते हुए भी तुम रति-सी सुन्दरी और दमयन्ती-सी पतिव्रता हो।"
रानी से और कुछ न कह राजा पुनः अन्धे सुलोचन के पास आया और पूछा
"सुलोचन ! परख तो तुम्हारी सही ही है। पर यह तो बताओ कि तुमने कैसे जान लिया कि मेरी रानी दासी की पुत्री है। " सुलोचन ने पूरी बात बताते हुए कहा
“राजन् ! पहली बात तो यह है कि राजकुल की स्त्री स्नान करते समय कभी नहीं बोलेगी। दूसरी बात अगर बोलेगी भी तो शिष्ट भाषा में बोलेगी। आपकी रानी ने एक ही बार में 'बदमाश, लुच्चे, सूरदास के बच्चे और हरामखोर' चार गालियाँ दी गाली देने की तो कोई बात ही नहीं थी। कुलीन स्त्री गाली देना तो जानती ही नहीं। इसी प्रमाण से मैंने कहा था कि आपकी रानी दासी की पुत्री होनी चाहिए।"
राजा सुलोचन से खुश हुआ और उसके लिए भी एक पाव रोज तेल देने का प्रबन्ध कर दिया। सुलोचन अपने भाइयों में जा मिला। पूरी घटना सुनाने के बाद सुलोचन ने सबसे छोटे भाई अन्तारमण से कहा
"भाई अन्तारमण ! राजा ने तुम्हें भी बुलाया है। हम तीनों को तो एक-एक पाव तेल मिलने लगा है। अब शायद तुम्हें भी मिलने लगे।"
अनाथालय के प्रबन्धक ने एक आदमी के साथ अन्धे अन्तारमण को भी राजा के पास भेज दिया। राजा ने अन्तारमण से
कहा
"अन्तारमण ! तुम पुरुष परीक्षक हो। अतः अब हमारी परीक्षा कर डालो।"
अन्तारमण बोला
"प्रजारक्षक! आपकी परीक्षा तो मैंने कर ली।
आश्चर्य से राजा ने पूछा
"आते-आते तुमने मेरी परख भी कर ली ?"
राजा के इस कथन पर अन्तारमण को हँसी आ गई और
बोला
"राजन्! आपकी परख तो मैंने बड़े भैया नयनरंजन द्वारा रन परीक्षण के बाद ही कर ली थी।"
अन्तारमण के इस कथन से राजा को और भी आश्चर्य हुआ और बोला
"तुम तो सबके गुरु निकले। मुझसे बिना मिले मेरी परख भी
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
कर ली? तो अब देर क्यों करते हो? बताओ कि मैं क्या हूँ, कैसा
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अन्तारमण बोला
"आप न्यायपरायण हैं। प्रजावत्सल हैं। एक अच्छे पति भी हैं। और वीर व पराक्रमी भी हैं। इसके अलावा ।"
कहते-कहते अन्तारमण मौन हो गया। राजा ने टोका
"आगे भी बताओ रुक क्यों गये? अब तक जो भी तुमने बताया, वह तो मैं बहुत बार सुन चुका हूँ। इसमें नया क्या है ?" अन्तारमण बोला
"नई बात सबके सामने कैसे बता सकता हूँ?"
"मैं तुम्हें अनुमति देता हूँ, सबके सामने ही बताओ।" "अगर आपका क्रोध भड़क उठा तो मैं बेमौत मारा जाऊँगा।" "नहीं अन्तारमण ! मैं तुम्हें वचन देता हूं कि बुरी-से-बुरी बात सुनकर भी मैं तुमसे कुछ नहीं कहूँगा। तुम तुरंत बताओ।" अन्तारमण ने बताया
"राजन्! आप क्षत्रिय पुत्र नहीं हैं। किसी तेली के पुत्र हैं।"
क्रोध के कारण राजा का चेहरा तमतमा गया। यह आक्षेप सीधा राजमाता पर था। लेकिन बचन बन्धन के कारण राजा कुछ न बोला। बहुत देर तक क्रोध को पचाने की कोशिश करता रहा। बहुत देर बाद राजा बोला
" अन्तारमण ! कैसे मान लूँ तुम्हारी बात ? मेरे पिता क्षत्रियकुल भूषण पद्मबाहु थे राजमाता बागेश्वरी सुनेंगी तो क्या हाल होगा ? लेकिन तुम्हारी बात भी नहीं झुठला सकता, क्योंकि अभी-अभी अपनी रानी का तमाशा देख चुका हूँ।"
अन्तारमण ने बताया
“राजन् ! संशय तो मिटाना ही होगा। राजमाता का चरित्र तो निर्मल है, पर आप तेली की ही सन्तान हैं। "
राजा तुरन्त राजमाता वागेश्वरी के पास गया और बोला“बता माँ ! मैं किसका पुत्र हूँ? मेरे पिता कौन हैं ?” राजमाता ने राजा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा
"बेटा! तू क्षत्रिय कुल भूषण राजा पद्मवाहु का वंश भास्कर है, यह मैं सच कहती हूँ।"
राजा बोला
"माँ! दाई से गर्भ नहीं छिपाया जा सकता। दिव्य ज्ञानी अन्धे अन्तारमण की बात कभी झूठी नहीं हो सकती। अगर तू सच नहीं बतायेगी तो मैं जीते जी चिताशयन करूँगा।"
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} वाग् देवता का दिव्य रूप राजमाता ने करुण-गम्भीर होकर कहा
"तुम सभी भाई एक से बढ़कर एक हो। तुम चारों पर करोड़ों "बेटा! अगर ऐसी बात है तो मैं तुझे सब कुछ बताती हूँ।
सुदृष्टि वाले न्यौछावर हैं। आखिर तुमने कैसे जाना कि मैं तेली का DDA राजमहल के नीचे एक तेली परिवार रहता था। उस घर की गृहिणी
पुत्र हूँ।" तेलिन से मेरा मेल-जोल हो गया। मैं और वह तेलिन एक साथ अन्तारमण ने बतायागर्भवती थीं। मुझे पुत्र की चाह थी। मैंने तेलिन से कहा-बहन! "राजन्! एक सुशासक के सभी गुण आप में हैं, पर क्षत्रिय अगर मेरे पुत्र हो तो कोई बात नहीं। अगर तेरे पुत्र और मेरे पुत्री वंश जनित सहज उदारता का आप में सर्वथा अभाव है। हम चारों हो तो बदला कर लेना। अपना पुत्र मुझे दे देना और मेरी पुत्री तू भाइयों के गुणों पर आप रीझे तो बहुत, पर उदारता दिखाई ले लेना।
एक-एक पाव तेल की। हमारे गुणों के बदले अगर कोई क्षत्रिय । "बेटा! राजज्योतिषी ने तेरे पिता राजा पद्मबाहु को बताया
कुलोत्पन्न राजा होता तो जागीरें देता। आपने तो इतना भी नहीं था कि उनके एक ही सन्तान होगी। तेरे पिता बहुत चिन्तित रहते
किया कि तेल की जगह घी का ही प्रबन्ध करा देते। आपकी इस
सहज कृपणता को देखकर अर्थात् अपने बड़े भाई नयनरंजन को थे कि अगर लड़की हो गई तो राज्य के उत्तराधिकारी का क्या
दिये जाने वाले तेल से ही मैं समझ गया था कि आप तेली की होगा। उनकी इसी चिन्ता को दूर करने के लिए मैंने अपनी सहेली
सन्तान हैं। तेलिन से यह सौदा किया था।
"राजन् ! जो भी हो, मेरे अविनय को क्षमा करें।" "वत्स! भाग्य का खिलवाड़ सफल रहा। मेरे लड़की हुई और । तेलिन के लड़का हुआ, यानि तुम हुए। तुम्हें मैंने तेलिन से ले
राजा ने अन्तारमण को वक्ष से लगा लिया और कहालिया। तुम्हारा पालन-पोषण राजपुत्र की तरह हुआ है। राजपुत्र "तुम चारों भाई नर नहीं, नररत्न हो। तुम्हारा स्थान के-से सभी शिक्षा-संस्कार तुम्हें दिये गये हैं। सभी जानते हैं कि तुम } अनाथालय में नहीं, मेरी राजसभा में है। तुम्हारे सहयोग से मैं सुशासक हो। फिर यह विषाद क्यों हुआ है तुम्हें ?"
अपनी प्रजा का पालन और भी अच्छा कर सकूँगा।" राजा कुछ न बोला और सीधा अन्तारमण के पास आया और उसी क्षण से चारों अन्धे-नयनरंजन, सुदर्शन, सुलोचन और उससे पूछा
अन्तारमण राजसभा की शोभा और राजा का हृदयहार बन गये। (जैन कथाएं : भाग ३१ पृष्ठ ६४-९६)
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* ईर्ष्यालु व्यक्ति को अपने उठने में इतना आनन्द नहीं आता जितना कि दूसरों को गिराने में। दूसरों को गिराने
के लिए वह स्वयं मिटने को तैयार रहता है। * दुरात्मा कितना ही बुरा चाहे, पुण्यात्मा के लिये बुराई में भी अच्छाई निकलती है। * मनुष्य पूरे दिन काम करने से इतना नहीं थकता जितना एक बंटे की चिन्ता से थक जाता है। * ज्ञानी जीव भी मोहवश हो जाते हैं; क्योंकि मोह बहुत प्रबल है। लेकिन ज्ञानी जन ही मोह पर विजय पाते हैं। * प्रजा की रक्षा के लिए प्रजा का ही वध करना राजा की बुद्धि का दिवालियापन है। * चापलूस आपकी चापलूसी इसलिये करता है कि वह आपको अयोग्य समझता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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(पूज्य गुरुदेव की प्रवचन शैली बड़ी अनूठी थी। विद्वत्ता के साथ-साथ मधुरता का संगम बेजोड़ था। चिन्तन की गहराई के साथ ही लोक जीवन को स्पष्ट दिशा दर्शन देने वाली सहज सुबोध सामग्री भी विपुल मात्रा में रहती थी।
सबसे बड़ी बात उनकी कथन शैली में भावों के साथ शब्दों का उतार-चढ़ाव बड़ा ही मनोरंजक, मनमोहक था। लेखन में यद्यपि कथन शैली की सहज रोचकता तो नहीं आ पाती किन्तु उनके विचारों को विशद रूप में प्रस्तुत करने में कोई कमी नहीं रह पाती। गुरुदेव श्री के प्रवचन एवं निबन्ध साहित्य की अनेकानेक पुस्तकें छप चुकी हैं और वे सर्वत्र समाट्टत हुई हैं, तथापि उनके सैकड़ों प्रवचन असम्पादित/अप्रकाशित भी हैं। यहाँ पर गुरुदेव श्री के अप्रकाशित प्रवचनों में से कुछ प्रवचन तथा निबन्ध संकलित किये गये हैं।
-सम्पादक
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HI THPT QG
(मनोनिग्रह : कितना सरल, कितना कठिन? )
प्रबलशक्ति से दूर ठेल दूंगा, परन्तु यह तो नपुंसक लिंगी होते हुए
भी बड़े-बड़े शक्तिशाली मर्दो को क्षणभर में पछाड़ देता है। इसकी -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.
शक्ति की कोई सीमा नहीं है।
मन सबको भिन्न-भिन्न रूप में नचाता है प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ, स्नेहशीलवती माताओ-बहनो!
यही कारण है कि बड़े-बड़े धनपति, शासनपति, विद्यार्थीआज आपका ध्यान एक ऐसे विषय की ओर खींचना चाहता शिक्षक मालिक-मजदर श्रमजीवी और बद्धिजीवी. योगी और हूँ जो आपके ही नहीं, जगत् के सभी मानवों के लिए समस्या बना
भोगी, सबके सब मन की चंचलता पर काबू न पाने के कारण, ० हुआ है, वह है "मन"।
कोई तनावग्रस्त है, कोई हीनता और दीनता से त्रस्त है, कोई hta मन ने सबको हैरान कर रखा है ।
मानसिक विकृति से युक्त है, कोई विक्षिप्त और मूढ़ बना हुआ है। 78 मन दो अक्षरों का छोटा-सा शब्द है, परन्तु इस छोटे से शब्द
कोई मन का गुलाम बनकर उसके नचाये नाचता है, तो कोई मन ने साधारण मनुष्यों, कलाकारों, शिल्पियों, धनपतियों, शासन
की प्रेरणा से अहंकार और ममकार के वश होकर कूदता- नाचता कर्ताओं, अधिकारियों ही नहीं, बड़े-बड़े महात्माओं और साधु
है। कोई मन की ऊलजलूल कल्पनाओं में उलझकर तदनुरूप कार्य सतियों की नाक में दम कर रखा है। यह अलक-मलक की
न होने से परेशान है। कोई काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममत्व और कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाया करता है। एक क्षण भी जम कर स्थिर
अहंत्व के चिन्ताचक्र में फंसकर अपने आत्मधन का ह्रास कर रहा नहीं रहता। योगीराज आनन्दधनजी जैसे योगीश्वरों को भी भगवान्
है। कोई मन को वश में करने के लिए भांग, गांजा, मद्य आदि से प्रार्थना करते हुए कहना पड़ा
नशैली चीजों का सेवन करके अपने आपको भुलाने की कोशिश में
लगा है, फिर भी यह मन पुनः पुनः उछल कर उस पर हावी हो मनडुं किम ही न बाझे हो, कुन्थु जिन!
जाता है। कोई मन का गुलाम बनकर अपने जीवनसत्व को भोगजिम जिम जतन करी ने राखू,
विलास में निचोड़ रहा है। कोई मन से राग-द्वेष या विषय, कषाय तिम तिम आलगो भाजे हो, कुन्थु जिन!
आदि करके अशुभ कर्म बाँध रहा है, अपने आत्मगुणों पर तात्पर्य यह है कि वे कहते हैं कि मन को सब तरह से
अधिकाधिक आवरण डाल रहा है। मना-कर, दबाकर, समझाकर, प्रलोभन और भय दिखाकर भी देख मन को जीतने का भगवान का निर्देश लिया, परन्तु यह किसी भी तरह से काबू में नहीं आता। मैं
इन सब मन की खुराफातों को जान-देखकर वीतराग परमात्मा ज्यों-ज्यों ध्यान, मौन, त्याग-वैराग्य आदि के द्वारा इसे चुप करके
ने सभी आत्मार्थी साधकों से यही कहा कि मन को वश में करो, सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता हूँ, त्यों-त्यों यह उछलकर भाग-दौड़
मन को जीतो, मन को स्थिर करो, मन का निग्रह करो, अथवा करने लगता है। मेरे ध्यान, मौन आदि को भी दूर ठेल देता है।
मन को साधो। एक आचार्य ने यहाँ तक कह दिया-"मनोविजेता, आगे चलकर उन्होंने कहा
जगतो विजेता" "मन पर विजय प्राप्त करने वाला, सारे जगत पर म्हें जाण्यु ए लिंग नपुंसक,
विजय पा लेता है।" 2800 सकल मरद ने ठेले हो, कुन्धु जिने!
योगवाशिष्ठ में कहा गया है___ मैंने तो समझा था कि मन (संस्कृत भाषा में) नपुंसक लिंगी है,
“एक एव मनो देवो ज्ञेयः सर्वार्थसिद्धिदः। इसमें क्या ताकत होगी? इसमें क्या दमखम होगा? मैं मर्द हूं, उसे
अन्यत्र विफल-क्लेशः सर्वेणं तज्जयं विना॥"
5800
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। वाग् देवता का दिव्य रूपमा
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मन
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_ “एक मात्र मन-देवता को ही समस्त सिद्धियों का दाता समझो। जिस प्रकार एक वालक को उसके माता-पिता जिस काम के मन को जीते बिना अन्य क्रियाओं को असफल प्रयास वाली हीलिए मना करते हैं, उस काम को करने की ओर उसका मन जानो।"
अधिकाधिक उत्सुक एवं तत्पर होता है, मनुष्य के मन का भी यही एक अन्य विद्वान ने भी कहा है-“मनो यस्य वशे तस्य, भवेत ।
स्वभाव है कि जिस वस्तु के लिए जितना अधिक निषेध किया सर्व जगत्वशे।" जिसके मन वश में है उसके सारा जगत् वश में
जाता है, मन उसे करने के लिए उतना अधिक तेजी से दौड़ता है।
इसलिए मन का वशीकरण इन्द्र आदि के वशीकरण की अपेक्षा है।" निगृहीत मन की शक्ति और चमत्कारों की घटनाओं से
अधिक कठिन है। यही कारण है कि अधिकांश व्यक्ति मन को वश भारतीय धर्म ग्रन्थों के पुराण एवं इतिहास भरे पड़े हैं। इसका
में करने का विचार या प्रयल ही नहीं करते। माहात्म्य एक सूत्र रूप में योगवाशिष्ठ में कहा गया है___“मनो हि जगतां कर्तृ, मनो हि पुरुषः स्मृतः।” मन ही त्रिजगत्
मनोनिग्रह-हेतु सर्वप्रथम चंचलता पर अंकुश लगाना आवश्यक का कर्ता है वही पुरुष कहा गया है।
शरीर, अंगोपांगों और इन्द्रियों पर नियंत्रण मन का है। मन
की प्रेरणा से ही ये सब काम करते हैं। प्रयल जिस दिशा में चल मन पर विजय पाने का पुरुषार्थ विरले ही करते हैं
पड़ते हैं, उसी दिशा में उसी प्रकार की प्रगति होती है। जिन्हें आजकल कई लोग भूत-प्रेतादि को वश में करने का तो प्रयत्न भौतिक मार्ग पर आगे बढ़ना है, उन्हें भी, और जिन्हें आध्यात्मिक करते हैं, परन्तु मन को वश में करने का पुरुषार्थ कोई विरले ही प्रगति के मार्ग पर बढ़ना है, उन्हें भी सर्वप्रथम मन की चंचलता को करते हैं। कई लोग तो यह कहकर निराश होकर बैठ जाते हैं कि । नियंत्रित करना आवश्यक है। अगर सर्वप्रथम मन की चंचलता पर मन वश में होना बहुत कठिन है।
अंकुश नहीं लगाया जायेगा तो वह अनगढ़ अस्तव्यस्त हेतु की और एक निर्जन वन में एक विख्यात योगी ध्यान-साधना करते थे।
शेखचिल्ली के स्तर की कल्पनाएं करता रहेगा, और बन्दर की उनकी प्रसिद्धि की चर्चा सुनकर कई व्यक्ति उनके पास अपने
तरह उछलकूद मचाने में ही अपना समय गंवा देगा। फलतः अभीष्ट
प्रयोजन की सिद्धि में उसका योगदान नहीं के बराबर ही प्राप्त हो लौकिक स्वार्थों की पूर्ति करने आया करते थे। एक दिन उस वन के निकटवर्ती नगर का एक सामान्य व्यक्ति उस योगी की सेवा में
सकेगा। ऐसी स्थिति में अपने अभीष्ट लक्ष्य तक साधक कैसे पहुँच
पाएगा? पहुँचा और एक महीने तक उनकी सेवा में रहा। वह योगी की प्रत्येक क्रिया के साथ लगा रहता था। एक दिन योगी ने उससे सी बात की एक बात है-प्रगति का ककहरा प्रारम्भ करते हुए पूछा-"तुम्हारा यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? मेरे पास क्यों रह । सर्व-प्रथम मनोनिग्रह की वर्णमाला को अपनाना आवश्यक है। इसके रहे हो?" उसने कहा-"भगवन। मझे ऐसा मंत्र चाहिए, जिससे बिना किसा भा काय म तत्परता तन्मयता और एकाग्रता नहीं सध देवों का राजा इन्द्र मेरे वश में हो जाए।" यह सुनकर योगी ने ।
सकेगी। साथ ही मनोनिग्रहकर्ता को अपने चिन्तन, चरित्र और कहा-"अरे भोले जीव! इन्द्र को वश में करने की चिन्ता क्यों ।
व्यवहार में घुसी हुई अनेकाग्रता, अस्तव्यस्तता वं त्रुटियों का भी करता है, मन को वश में क्यों नहीं करता?" वह बोला
निराकरण करना होगा। "भगवन्! बात तो आपकी ठीक है, परन्तु मुझे पहले मन को नहीं,
मनोनिग्रह कठिन क्यों लगता है? इन्द्र को वश में करना है। कृपा करके आप मुझे इन्द्र को वश में
इसीलिए मनोनिग्रह विलासी, भोगी एवं इन्द्रियलोलुप लोगों को करने का ही मंत्र दे दीजिए।" योगी ने उसे मंत्र बताया, साथ ही
बहुत कठिन लगता है। उसका कारण यह है कि वे अवसरहीन, S उस मंत्र को सिद्ध करने की प्रक्रिया बताते हुए कहा कि इस मंत्र
साधन और सहयोग से हीन तथा आधार रहित कल्पना करने के को एक गुफा में एकान्त में बैठकर सिद्ध करना होगा। इस मन्त्र को
आदी हो गए हैं। वे उनमें उलझे रहते हैं, इस कारण निरर्थक सिद्ध करने में छह महीने लगेंगे। इस मन्त्र साधना के साथ एक
समय, शक्ति और ऊर्जा खर्च होती है। वे अपनी बहुमूल्य आत्मिक बात का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। वह यह कि मंत्र-साधना के
सम्पदा एवं मन की शक्ति एवं सम्पदा को निरर्थक व्यय करने की दौरान तुम्हारे मन में बन्दर का विचार आ गया तो मंत्र सिद्धि
आदत को छोड़ नहीं सकते। कई लोग अपने निरर्थक मनोरंजन के नहीं होगा। वह साधक अपने मन में मन्त्र-साधना के समय
लिए ताश खेलने, जूआ खेलने, शिकार करने, अश्लील फिल्म सावधानी का संकल्प करके एक गुफा में उक्त मंत्र की जप-साधना
देखने, उपन्यास पढ़ने अथवा लड़ने झगड़ने में, गप्पें मारने में अपने करने चला गया। उसने वहाँ एक स्थान शुद्ध और स्वच्छ करके
बहुमूल्य समय और धन का अपव्यय करते रहते हैं। वे मन का मंत्र-साधना प्रारम्भ कर दी। इन्द्रविजय के मंत्र का जाप शुरू करने
निग्रह करने की बात सोचते ही नहीं। के थोड़ी देर के पश्चात् उक्त योगी द्वारा निषिद्ध बन्दर की याद आ गई। अब क्या था? ज्यों-ज्यों वह बन्दर की कल्पना को मन से ।
निषेधात्मक चिन्तन से मन की शक्ति का ह्रास हटाता या दबाता, त्यों-त्यों वह मन पर अधिकाधिक उभर कर कई लोग अपने मन की शक्ति को निषेधात्मक चिन्तन में आने लगी, बन्दर की कल्पना अधिकाधिक दृढ़ होने लगी!
लगाते हैं। ऐसे लोग छोटी-मोटी बातों को बढ़ा चढाकर मन को
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 26-012
व्यर्थ ही ऊटपटांग विचारों में उलझाते रहते हैं। उनके मन में चिन्तम-मनन करता है। स्मृति के साथ जुड़ी हुई एक बात और है, 5905DO
आशंका, भय, ईर्ष्या, निराशा, अविश्वास, हानि, चिन्ता का चक्र जिसे मन किया करता है, वह है संज्ञा, जिसका दूसरा नाम चलता रहता है। अथवा कई लोगों का मन लॉटरी, जूआ, तस्करी प्रत्यभिज्ञा है, पहचान है। स्मृति में वस्तु या व्यक्ति प्रायः प्रत्यक्ष नहीं आदि द्वारा अथवा चोरबाजारी, जमा-खोरी, चोरी-डकैती, हत्या होता, जबकि प्रत्यभिज्ञा में वह व्यक्ति या पदार्थ प्रत्यक्ष ही होता है। करने, किसी का धन हड़पने, ठगी करने, करचोरी करके सम्पत्ति स्मृति का आकार है-"वह" और प्रत्यभिज्ञा (पहचाना) का आकार कमाने व बचाने आदि आदि रौद्रध्यान के तिकड़म में लगा रहता होता है-"यह वही है।" प्रत्यभिज्ञा में स्मरण और पहचान दोनों है। कभी-कभी यह प्रवृत्ति आक्रामक रूप धारण कर लेती है। होते हैं। मन का चौथा विकल्प है-चिन्ता। इसका अर्थ है-तर्क और फलतः मन में बलात्कार, अपहरण, आक्रमण, अपराध, षड्यंत्र
युक्तिपूर्ण चिन्तन करना, अनुमान, ऊहापोह या व्याप्ति का विचार जैसे दूसरों को हानि पहुँचाने के विचार उठते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति
करना। इस प्रकार ये चार विकल्प मन के कार्य हैं! एक प्रकार से मानसिक रोगी होते हैं।
कल्पनाओं के अनेक रूप भी विकल्प हैं मनोनिग्रह करने के लिए पहले उसका स्वरूप
___हम देखते हैं कि मन बहुत लम्बी चौड़ी कल्पनाएँ करता रहता 2909OSD समझना जरूरी
है। स्वप्न में भी और जागृत रहते भी। स्वप्न में वह ऐसी-ऐसी मन को जीतने या उसे वश में करने के लिए उसका स्वरूप
कल्पनाएँ करता रहता है, जिनकी परस्पर कोई संगति नहीं होती। समझना आवश्यक है, क्योंकि हमारी प्रत्येक साधना का मूल
वे कल्पनाएँ स्वाभाविक भी होती हैं, अस्वाभाविक भी। कल्पनाओं आधार मन है, कई लोग कहते हैं-मन किसी को प्रत्यक्ष ता दिखाईपर से इच्छाओं और आन्तरिक अभिलाषाओं का पता लग जाता नहीं देता, उसे पकड़े बिना कैसे वश में किया जा सकता है? परन्तु है। कल्पनाएँ भी एक प्रकार के विकल्प है। जैसे बिजली प्रत्यक्ष दिखाई न देने पर भी प्रकाश, पंखा, हीटर,
_कल्पना का दूसरा रूप है-विकल्प। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ। कूलर आदि कार्यों द्वारा उसका मानस प्रत्यक्ष होता है, उसका अस्तित्व मालूम होता है। उसी प्रकार मन के कार्यों पर से मन का ।
यह अनुकूल है, यह प्रतिकूल है, यह प्रिय और इष्ट है, यह अप्रिय
और अनिष्ट है। इत्यादि नाना कल्पनाओं का जाल भी विकल्प है। मानस प्रत्यक्ष होता है, उसके अस्तित्व का बोध भी होता है।
कल्पना के साथ ही सुख-दुःख की तीव्रता-मन्दता का विकल्प पैदा अतः मन क्या है ? इसे समझने के लिए हमें उसके कार्यों को होता है। विविध वस्तुऔं के आकार एवं स्वभाव के अनुरूप नामों समझ लेना अनिवार्य है। तर्कशास्त्रियों ने मन का लक्षण किया है- की कल्पना भी विकल्प है। “संकल्प-विकल्पात्मकं मनः" जो संकल्प-विकल्पात्मक हो, वह मन
कल्पना का तृतीय तत्त्व है-विचार, चिन्तन-मनन। आदमी है।"
सतत् किसी न किसी विचार में विचरण करता रहता है। वह किसी मन के विकल्पात्मक कार्य
एक विषय पर प्रायः चिन्तन नहीं करता, एक विषय से दूसरे में, आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान इन्द्रियों या मन के द्वारा
दूसरे से तीसरे और चौथे विषय में बन्दर की तरह उछलता रहता होता है। इसमें मानसज्ञान के चार विकल्प बताये गये हैं-१. मति,
है। यही मन की चंचलता है। २, स्मृति, ३. संज्ञा और ४. चिन्ता। मति का अर्थ है-मनन करना, मन की चंचलता का विश्लेषण विचार करना। स्मृति का अर्थ है-याद करना, देखी, सुनी, जानी,
मन की चंचलता का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने सूंघी, स्पर्श की हुई या चखी हुई किसी वस्तु का स्मरण होना।
कहा-जिस प्रकार बन्दर वृक्ष की एक डाली से दूसरी डाली पर उसका न्यायशास्त्रीय अर्थ है-“संस्कार-प्रबोधप्रभवा स्मृतिः।" संस्कार
| उछलता रहता है, उसी तरह मन उछलता है। किन्तु यदि उस बन्दर के जागृत होने से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है। इन्द्रियां
को कोई मदिरा पिला दे तो वह किलकारियां करता हुआ और भी अपने-अपने नियत विषय को प्रत्यक्ष और तत्काल देखती हैं, वे
| ज्यादा कूद-फांद मचाता है। फिर उस पागल से बने हुए बन्दर को बाद में न तो अपने नियत विषय का ही स्मरण कर सकती हैं, न ।
कोई बिच्छू डंक लगा दे तो उसकी चंचलता का कहना ही क्या? ही अनियत विषय का, किन्तु मन भूतकाल के सभी विषयों का
। फिर तो वह स्थिर भी नहीं रह सकता और चीखता-चिल्लाता ही ग्रहण स्मृतिरूप में कर लेता है, वर्तमान में भी वह मनन,
रहता है। यही दशा मन की चंचलता की है। चिन्तन-कल्पना आदि कर सकता है और भविष्य के विषय में भी वह कल्पना, अनुमान, तर्क कर लेता है। मन त्रैकालिक और सभी
"मेरा मन काबू में नहीं, इसलिए बेचैनी है" विषयों को संकलित रूप से ग्रहण कर लेता है। आचार्य हेमचन्द ने एक व्यक्ति से पूछा गया कि “मन की चंचलता या "प्रमाण-मीमांसा" में मन का लक्षण किया है-"सर्वार्थ ग्रहणं मनः" कल्पनाशीलता से आपको क्या परेशानी है ? उसे अपना काम करने जो समस्त विषयों (अर्थों) को, सर्वकाल में ग्रहण करता है वह मन दो, आप अपना काम करो।" उसने कहा-“मैं बहुत सम्पन्न हूँ। है। वह अतीत की स्मृति, भविष्य की कल्पना और वर्तमान का समस्त सुखसुविधाएँ मुझे प्राप्त हैं। जितना चाहता हूँ, उससे अधिक
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| वागू देवता का दिव्य रूप
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ही मिलता है। साथ ही, मुझे अपने परिवार से भी संतोष है। चिन्तन, विकल्प या कल्पना बिल्कुल न कर सके। किन्तु यह कोरी परिवार में सब मुझे चाहते हैं। सभी मेरे आदेश और सन्देश पर । कल्पना है। मन को निर्विकल्प या निर्विचार बनाना जैन सिद्धान्त के चलते हैं। जिस काम को मैं चाहता हूँ, वे मेरे कहे बिना ही उस अनुसार तेरहवें गुणस्थान तक सम्भव नहीं है। क्योंकि तेरहवें काम में जुट जाते हैं। मेरे नौकर चाकर भी बहुत कर्मठ और गुणस्थान तक योग (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति) है। मगर मोह विनीत हैं, आज्ञाकारी हैं। बाहर की मुझे कोई भी परेशानी नहीं है। का नाश हो जाने से वहाँ विकल्प (राग-द्वेष-युक्त विचार) नहीं है। परेशानी है तो सिर्फ मन की है। मेरा मन बहुत ही नाजुक, चंचल । यहाँ वीतराग अवस्था है। चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में
और कमजोर हो गया है। वह दिन में दस बीस बार बदल जाता है। जाकर मन की अयोग-अवस्था-निष्कंप-दशा आती है। इसलिए मन सुबह वह एक बात सोचता है, दोपहर में ठीक उससे विपरीत | को विकल्प या विचार से शन्य दूसरी बात सोचने लगता है, और शाम को उससे भी विपरीत
छद्मस्थ दशा में सामान्य मानव का मन एक क्षण के लिए भी शून्य तीसरी बात की कल्पना करने लगता है। मैं सुबह अहिंसक बनने
नहीं होता। मन सदा क्रियाशील रहता है। जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्ति और शांत रहने की बात सोचता हूँ, किन्तु ज्यों ही दूसरा वातावरण
अवस्था में भी मन सर्वथा स्थिर नहीं रहता। यहाँ तक कि जागृत | या निमित्त मिलता है, मेरा मन उत्तेजित हो जाता है, मैं रोष और
और निद्रा अवस्था में भी मन में शून्यता नाम की कोई वस्तु नजर आवेश में आ जाता हूँ, मन में मैं सोचता हूँ, ऐसा नहीं करना है,
नहीं आती। अगर मन को शून्य बना दिया जाएगा तो वह जड़ता किन्तु समझ आने पर ठीक वैसा ही करने पर उतारू हो जाता हूँ।।
का प्रतिनिधि हो जाएगा। इसलिए जैन, बौद्ध, वैदिक आदि कोई भी प्रतिदिन सैकड़ों घटनाएँ घटित होती हैं। मन एक बार ठीक सोचता ।
आस्तिक दर्शन मन को शून्य नहीं मानता। हाँ, मन को जैनदर्शन ने है, परन्तु समय आने पर करता इसके विपरीत है। जो विचार
“अवक्तव्य" कहा है। अन्य भारतीय दर्शनों की परम्परा करता हूँ, वह कर ही नहीं पाता। इसी कारण मैं दिन रात परेशान
“अनिर्वचनीय" अवश्य मानती है। शून्य का अर्थ भी बौद्धदर्शन ने रहता हूँ। ऐसा मालूम होता है मन के अगणित पर्याय हैं और वह ।
“अनिर्वचनीय" माना है, वह सत् है, किन्तु है अवक्तव्य। अतः व्यक्ति को अनेक उतार चढ़ावों में ले जाता है।"
मन शून्य नहीं होता, छद्मस्थ दशा में मन संकल्प-विकल्प करता ही वस्तुतः देखा जाए तो प्रत्येक अल्पज्ञ व्यक्ति के मन में प्रतिदिन
रहता है। हजारों अवस्थाएँ बदलती हैं। एक घण्टे के ६० मिनट में भी प्रायः शताधिक घटनाएं बन जाती हैं। बाह्य जगत् में भी शायद उतनी
सामायिक प्रतिक्रमण में भी तो विकल्प करते हैं घटनाएँ घटित नहीं होती होंगी, मानस जगत् में उनसे कई गुना और तो और, आप सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्मक्रियाएँ अधिक घटनाएँ घटित होती हैं। जब व्यक्ति किसी कार्य को करने करते हैं, तब आप सावध योगों का त्याग करते हैं, परन्तु निरवद्य लगता है, तो उस कार्य के प्रारम्भ और समाप्ति के बीच के समय योग (प्रवृत्तियों) में तो प्रवृत्त होते ही हैं। वह भी एक प्रकार का में भी पचासों अन्य घटनाएँ, कल्पनाएँ घटित हो जाती हैं। इसीलिए शुभ विकल्प है। अतः हमारा मन छद्मस्थ अवस्था तक सर्वथा आचारांग में कहा गया है-कि “अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे"१ } निर्विकल्प या निर्विचार अथवा शून्य नहीं होता है। यह पुरुष (जीव) अनेकचित्त (मन) वाला है। मन का राज्य
शुभ और अशुभ दोनों विकल्प चलते रहते हैं भौगोलिक राज्य से कई गुना बड़ा है। सभी यानों की अपेक्षा मनोयान द्रुतगामी है। मन का शस्त्र अन्य सब शस्त्रों से तीक्ष्ण है।।
सामान्य व्यक्ति के मन में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के वह मारक भी उतना ही है, किन्तु तारक भी है, परन्तु मारक के ।
विचार आते हैं। शुभ विचार पुण्य का विकल्प है और अशुभ जितना तारक नहीं है। यह तो सर्वविदित है कि शोक, क्रोध, मोह, । विचार पाप का विकल्प है। उदाहरण के तौर पर एक आदमी एक ईर्ष्या, व्यामोह, व्यर्थ की महत्वाकांक्षा, चिन्ता, भीति, निराशा, संकड़ी गली में से जा रहा था। रास्ते में सोने की चैन पड़ी हुई तनाव आदि मानसिक विक्षोभ निषेधात्मक चिन्तन हैं, जिनसे जीवन । देखकर उसके मन में विचार आया-यहाँ कोई नहीं देख रहा है, की सरसता और आनन्द नष्ट हो जाते हैं, और पद-पद पर जलने । अतः यह सोने की चैन मैं ले लूँ। यह है पाप का विकल्प। एक घुटने, झुलसने, रोने, झींकने की आदत पड़ जाती है। सवाल यह है । दूसरा व्यक्ति जिस रास्ते से जा रहा है, उसी रास्ते में एक महिला कि ऐसी स्थिति में मन पर नियंत्रण कैसे किया जाए?
के गले से सोने की चैन छीन कर ले जाते हुए एक गुण्डे को उसने
देखा। तुरन्त उसे महिला को लुटने से बचाने का मन में विचार मन को विकल्प एवं विचार से शून्य बना देना छद्मस्थ
आया। उसने सोने का चैन गुण्डे के हाथ से झपट कर उस महिला भूमिका में असम्भव
को दे दिया। यह पुण्य का विकल्प है। इस प्रकार मन में पाप और इसीलिए कई लोग मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए
पुण्य दोनों विकल्प आते हैं। पुण्य का विकल्प आना तो शुभ है, कहते रहते हैं कि मन को शून्य बना दो, ताकि यह कोई विचार,
लेकिन है वह विकल्प ही। जब तक दोनों विकल्प रहेंगे, तब पूर्ण १. आचारांगसूत्र पृ. १. अ. ३,३०२
निर्विकल्प दशा नहीं आएगी। वीतराग बनने पर ही पूर्ण निर्विकल्प
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जल अवस्था आती है। विकल्प रहेंगे, तब तक पूर्ण मुक्ति नहीं होगी। यह चाहता है और जहाँ द्वेष, घृणा या अरुचि होती है, वहाँ नापसन्द तो हुआ विकल्प का विवरण।
चीज को मन पकड़ना नहीं चाहता। यही मन का विकल्पात्मक
कार्य है। 006 मन में संकल्प कैसे जागता है? वह क्या है? ___ मन का संकल्प क्या है? इसे भी समझ लें। व्यक्ति की कल्पना
पति पत्नी में परस्पर स्नेहभाव रहता है, तब दोनों का परस्पर का सुदृढ़ और ठोस होना संकल्प है। जब मन में संकल्प जागता है,
आकर्षण होता है और किसी कारणवश आपस में मनमुटाव हो कर तब उसमें अपूर्व शक्ति प्रादुर्भूत हो जाती है। पूरी शक्ति से वह
जाता है, तब एक दूसरे के प्रति विकर्षण होता है। एक दूसरे से ॐ विचार करता है, जो संकल्प का रूप धारण करने पर क्रियान्वित
बोलना, मिलना भी बंद हो जाता है। एक दिन पत्नी घर से बाहर
ओर AE
जा रही थी और पति महोदय बाहर से घर की आ रहे थे। हो जाता है। संकल्प में महान् शक्ति होती है। परन्तु वह संकल्प दुष्ट त विचारों, रौद्रध्यान आदि से प्रेरित होता है, किसी को हत्या करने,
दरवाजे के पास ही दोनों की परस्पर मुलाकात हो गई, मगर दोनों
में वैमनस्य होने के कारण दोनों नीची नजर करके चल पड़े। पत्नी लूटने, ठगी करने या धन हड़पने का संकल्प होता है, तो वह पाप
अपने पति को थाली में भोजन परोस कर चुपचाप चली जाती है, 36 संकल्प बन जाता है, परन्तु राष्ट्र को या देश को स्वतंत्र कराने
कुछ बोलती नहीं। पति भोजन के लिए मनुहार करता है, परन्तु 3 का, अहिंसक ढंग से सामूहिक शुद्धि प्रयोग करके अन्याय
परस्पर मनमुटाव होने के कारण पत्नी कहती है-मुझे भूख नहीं है। अत्याचार-पीड़ित को न्याय एवं सुरक्षा दिलाने का, समाज सेवा का
दोनों एक दूसरे से खिंचे-खिंचे रहते हैं। पहले परस्पर प्रेम था, तब -90900P या व्रत पालन का मन में संकल्प होता है, वह शुभ है। समत्व,
राग का विकल्प था, अब वैमनस्य है, इसलिए द्वेष का विकल्प है। SIDED अहिंसा, सत्य आदि धर्म पर दृढ़ रहने का निःस्वार्थ भाव से किया
दोनों विकल्प कौन करता है? मन ही करता है। 3 हुआ संकल्प शुद्ध है। कभी-कभी व्यक्ति संकल्पबल से प्रेरित होकर
अपना बलिदान तक देने को उद्यत हो जाता है, तथा समाधिमरण राग और द्वेष के विकल्प ए. सी.-डी.सी. करेंटवत् 300 का संकल्प भी करता है, वह शुद्ध है।
बिजली दो प्रकार की होती है-ए. सी. और डी. सी. । ए.सी. SHAD ऐसे अशुभ विकल्प पतन की ओर ले जाते हैं
विद्युत् धारा करेंट लगने पर अपनी ओर खींचती है और डी. सी.
विद्युत् धारा बाहर की ओर फैंक देती है। यही हाल राग-द्वेष के eopl किन्तु जब व्यक्ति के मन में आता है, यह भी कर लूँ, वह भी।
विकल्प का है। मन की धारा से राग का करेंट लगता है तो वह LOD कर लूँ। ऊँची-ऊँची कल्पना की उड़ाने भरता है। मन पूरा दृढ़ नहीं
| अपनी ओर खींचता है और द्वेष का करेंट लगता है तो उसे बाहर है तो वह संकल्प विकल्प बन जाता है। वह अशुभ विकल्प हो तो
दूर फैंक देता है। इसलिए वीतराग प्रभु कहते हैं कि तुम्हारा मन व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। झूठे एवं थोथे वायदे करना।
सांसारिक छद्मस्थ अवस्था तक राग और द्वेष के विकल्प में दौड़ता संकल्प नहीं है, न ही शुभ विकल्प है।
रहता है। म मन राग-द्वेषात्मक विकल्प करता रहता है
बालकों-सी चंचलता और अस्थिरता से मनोनिग्रह कठिन DED पहले मैं कह चुका हूँ कि मन संकल्प-विकल्प दोनों करता है।
बालकों में भी बहुत चंचलता होती है। वे देर तक एक स्थान 18 ये दोनों मुख्य कार्य हैं मन के। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का पर नहीं बैठ सकते, न ही वे किसी एक कार्य में मन लगा सकते B विचार वह करता है। मन विकल्प कैसे करता है? इसे एक रूपक
हैं। वे दिन भर भाग-दौड़ करते रहते हैं। किसी वस्तु को पाने के व द्वारा समझिये। एक व्यक्ति अपने घर से दस रुपये का नोट लेकर
लिए मचलते हैं, रोते-चिल्लाते हैं, किन्तु उसे पा लेने पर भी वे अपनी धुन में बाजार की ओर जा रहा था। वह जिस साइड में जा ।
सन्तुष्ट नहीं होते। जिसके लिए वे अभी आतुर हो रहे थे, उसे पाने Bह रहा था, उसी साइड में एक परिचित व्यक्ति मिला, जिससे मिलना
के कुछ ही देर बाद वे उससे ऊब जाते हैं, और जो हाथ में है, और बात करना वह पसन्द नहीं करता था, क्योंकि वह उसका । उसे फेंक कर, नई चीज ढूँढते हैं, उसे पाने के लिए भी वे पहले का विरोधी था, शत्रु था। अतः उससे बचने के लिए उसने साइड बदल । की तरह मचलते हैं। इस तरह वे उठा-पटक करते रहते हैं। उनका दी। दोनों अपने-अपने रास्ते से चले गए। अब वह लेफ्ट साइड में
बचपन प्रायः इसी चंचलता और अस्थिरता में बीत जाता है। यद्यपि TE जा रहा था कि आगे जाते उसे एक व्यक्ति और मिला, जो उसका उनका उत्साह, भागदौड़ और श्रम कम नहीं होता, बड़ों की अपेक्षा
मित्र था। वह मित्र राइट साइड में जा रहा था, अतः उसे इसने । अधिक ही होता है, परन्तु उससे कुछ बनता नहीं। सारी भाग-दौड़ 200 आवाज देकर अपने पास बुलाया। वह आया। दोनों मित्र मिले और निरर्थक होती है। परिश्रम भी निष्फल होता है। बच्चे की तरह, एक प्रेमपूर्वक बातें कीं। इस घटना से दो तथ्य अभिव्यक्त होते हैं-द्वेष । बंदरों और पक्षियों की अधिकांश भाग-दौड़ निरर्थक, निष्फल और 688 और राग। जहाँ जिस पर द्वेष होता है, उसे व्यक्ति नहीं पकड़ता निष्प्रयोजन होती है। उनकी पेट भरने की भाग-दौड़ समझ में आती
और जहाँ जिसके प्रति राग होता है, उसे पकड़ता है। इस रूपक से । है, मगर पेट तो उनका थोड़े से प्रयत्न से भर जाता है। कोई भी BP स्पष्ट है कि जहाँ राग, स्नेह, मोह होता है, वहाँ मन उसे पकड़ना बड़ी जिम्मेदारी उनके सिर पर नहीं होती। फिर भी वे चैन से नहीं
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३३७ बैठते। अतः बंदरों, बच्चों या पक्षियों की इन सब हलचलों में मन । आतुरता होती है, उनके केवल श्रम ही पल्ले पड़ता है। की चंचलता ही काम करती है। मानसिक चंचलता के इशारे पर ही मनोयोगपूर्वक किसी काम को न करने वाले अधीर और उतावले इधर-धर उचकते-मचलते रहते हैं, बिना उद्देश्य, निरर्थक, जिनमें लोग मन को योजनापूर्वक कार्यसिद्धि में नहीं लगा पाते। मन की एकाग्रता नहीं होती, जिनका मन वश में नहीं होता, उनकी ज्ञाताधर्मकथासूत्र में दो लड़कों का मोरनी की अण्डे से बच्चे ललक चंचलता में ही रची-पची रहती है। मन की ऐसी चंचलता को निकलने के विषय में धीरता/अधीरता के प्रतिफल का दृष्टान्त वानर वृत्ति या बाल बुद्धि कहा जाता है।
प्रस्तुत किया गया है। जिस लड़के में धीरता थी, वह मोरनी के फलाकांक्षा छोड़ने पर ही मन स्थिर होता है
अण्डे को बार-बार देखता नहीं था, उसमें दृढ़ श्रद्धा और धीरता
थी, फलतः एक दिन मोर का सुन्दर बच्चा उस अण्डे में से चंचलता की तरह मन की अस्थिरता भी मनोनिग्रह में बाधक
निकला, किन्तु दूसरे लड़के के मन में अविश्वास और अधैर्य था। है। मन किसी सत्कार्य, सद्विचार या सच्चिन्तन के लिए उमगता
वह बार-बार अण्डे को हाथ में उठाकर हिलाता, देखता और स्पर्श है, परन्तु इतना धैर्य नहीं होता कि उस कार्य, विचार या चिन्तन में
करता, फलतः अण्डे में से जीव विचलित हो गया, बच्चा नहीं धैर्यपूर्वक अन्त तक टिका जाए, उसमें मन को पूरी शक्ति से,
निकला। यही तथ्य मन की एकाग्रता या स्थिरता के प्रतिफल से दृढतापूर्वक नियोजित कर दिया जाए। आरंभ करने के कुछ ही वंचित रहने का है। इससे श्रम भी व्यर्थ जाता है। दिनों बाद, जब शीघ्र सफलता नहीं दिखती, उसका यथेष्ट फल नजर नहीं आता तो वे झटपट उसे समाप्त कर देते हैं, छोड़ देते हैं
मन की अशांति : मन की अत्यधिक गति अथवा एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कार्य की ओर मन को मन की अत्यधिक गति ही मन की अशांति है। मन को किसी दौड़ाते रहते हैं। जैसे चूल्हे पर अभी एक चीज फिर थोड़ी ही देर अयोग्य विचार को चढ़ाकर बार बार उस विचार को दोहराते बाद दूसरी और फिर तीसरी चीज चढ़ाई जाती रहे तो पूरी तरह } जाना, मानसिक असन्तुलन है। मनोनिग्रह के लिए शरीर और मन एक को भी पकने का अवसर न मिलने से वे सब चीजें कच्ची रह की गति और स्थिति का सन्तुलन अपेक्षित है। विचारों की प्रसाक्ति, जाती हैं। यात्री कुछ देर पूर्व को फिर पश्चिम को, तत्पश्चात् उत्तर मन को विक्षिप्त बना देती है। ऐसे व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन या दक्षिण को चले तो वह केवल इधर से उधर घूमता रहेगा, बिगड़ जाता है, जिससे मानसिक तनाव तथा विविध मनोरोग पैदा अपने अभीष्ट गन्तव्य स्थान तक पहुँच नहीं सकेगा। एक जगह ४० हो जाते हैं। मानसिक तनाव का सबसे बड़ा कारण है-अधिक फीट जमीन खोदने पर पानी निकलना था, इसलिए उतनी गहरी सोचना। दूसरा कारण है-अधीरता और जल्दबाजी। तनाव का खुदाई करने की आवश्यकता थी। परन्तु उतावले मन वाले ने दस । तृतीय कारण है-असहिष्णुता। सहिष्णुता की कमी से मानसिक फुट खोदने के बाद पानी न निकलते देखा तो दूसरी जगह खोदना असन्तुलन एवं पाचनतंत्र में गड़बड़ी तथा अनिद्रा की बीमारी आदि शुरू किया, वहाँ भी पानी न निकला तो तीसरी और चौथी जगह समस्याएँ पैदा होती है। इन मानसिक समस्याओं से तनाव पैदा होते। भी वही प्रयास दुहराया गया। खुदाई तो पूरी ४0 फीट हो गई, हैं जो अनेक मानसिक-शारीरिक रोगों के कारण बनते हैं। इसलिए परन्तु वह एक जगह न होने से बेकार का श्रम हुआ। एक भी मनोनिग्रह करने वालों को इन और ऐसे बाधक कारणों से बचना जगह के गड्ढे में पानी नहीं निकला। अच्छी जमीन भी ऊबड़ चाहिए। एक दृष्टि से मन की चंचलता बुरी नहीं है। मन का खाबड़ हो गई। मन की अस्थिरता, उतावली का परिणाम भी ऐसा तेजतर्रार होना अच्छा है। आवश्यकता इस बात की है कि जो ही होता है। एक पौधे को अभी यहीं लगाया, फिर दूसरी, तीसरी व्यक्ति मन को वश में करना चाहता है उसकी दृष्टि, विचार और
और चौथी जगह लगाया जाए तो उसकी जड़ें बेकार हो जाएंगी, जागरूकता या यतना ये तीनों स्पष्ट होनी अनिवार्य है। वह पौधा पनप नहीं सकेगा। यही हाल मन की चंचलता एवं
मन-मर्कट को मदारी के समान प्रशिक्षित करो अस्थिरतापूर्वक बार-बार अनेक विषयों में लगाने का है। मन की। चंचलता और अस्थिरता किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं करा ।
मन को हम अपना शत्रु एवं विरोधी न समझें। उसे अपना सकती। मनुष्य में धैर्य और प्रतीक्षा का अभाव ही अधीरता का मित्र एवं सहायक मानकर चलें। उसे मारना नहीं है, उसे निष्क्रिय कारण है।
भी नहीं बनाना है, परन्तु उसे साधना है, सक्रिय रखना है। उसे
सुसंस्कारी और प्रशिक्षित बनाइए। जैसे मदारी रीछ, वानर आदि एकाग्रता के लिए अधीरता, आतुरता एवं उतावली
को अभीष्ट खेल-तामाशा दिखाने के लिए अभ्यास कराता है। इसके छोड़ना आवश्यक
लिए एक ओर से वह उन्हें मनमानी करने से रोकता है, व्यर्थ की जिनके मन में अधीरता है, उन्हें भी निराशा ही हाथ लगती है।। उछल-कूद पर अंकुश लगाता है, दूसरी ओर से वह उन्हें अपने खजूर, बरगद जैसे पेड़ पूरी लम्बाई तक पहुँचने और प्रौढ़ । अभीष्ट खेल-तमाशे दिखाने के लिए प्रशिक्षित एवं अभ्यस्त करता विकसित होने में काफी लम्बा समय चाहते हैं. किन्त जिनके मन में है। इसी प्रकार एक ओर से मन को व्यर्थ की उछल-कूद मचाने, R अधीरता, उतावली और शीघ्र ही फल पाने या लाभ उठाने की । निरर्थक निराधार विचार, कल्पना करने या पाप विकल्प करने से
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । रोकना है। असम्बद्ध एवं निराधार या अनिष्टकर विकल्प का उससे । मन रूपी अश्व को कैसे साधे? छुड़ाने हैं। उसकी इस कुटेव को छुड़ाने के लिए दूसरी ओर से
बन्धुओ ! खाली मन को रचनात्मक, शुभ या शुद्ध क्रियाकलापों में, कल्पनाओं और विचारों में लगाने का अभ्यास डालना है। उसे शुभ विचार या
आपको भी मनरूपी घोड़ा मिला है? आप कौन-से घुड़सवार के विकल्प करने से रोकना उसकी शक्ति को खत्म करना है। मन की
समान हैं ? इसका उत्तर अपने आप से पूछिए। गति को रोको मत, ज्ञाता द्रष्टा बन कर रहो।
मनरूपी घोड़े को साधने के लिए दो प्रकार से काम लेना होगा।
एक ओर उसकी गति को बिल्कुल नहीं रोकना है दूसरी ओर वह तीसरे घुड़सवार की तरह मन को साधो
जो विभिन्न विषयों की ओर दौड़ता है, उसे प्रेम से रोकिये। अगर एक उदाहरण द्वारा इस तथ्य को समझिए
आप उसकी गति को एकदम रोकना चाहेंगे तो वह कभी नहीं 2 एक राजा के तीन पुत्र तीन घोड़ों पर सवार होकर चले।। रुकेगा। जबर्दस्ती करेंगे तो वह बगावत कर सकता है। प्रत्येक के पास एक-एक घोड़ा था। परन्तु तीनों नौसिखिये थे। घोड़े
मन की दो प्रकार की गति और दो अवस्थाएँ तीनों तेज-तर्रार और फुर्तीले थे। पहला राजकुमार जिस घोड़े पर छ सवार था, वह घोड़ा हवा से बातें करने लगा। राजकुमार ज्यों-ज्यों
मन की दो प्रकार की गति है-एकाग्र और अनेकाग्र। एकाग्रता उसकी लगाम खींचता, त्यों-त्यों वह अधिकाधिक तेज दौड़ता था।
उसकी गतिशून्यता का नाम नहीं है, अपितु उसकी जो गति विभिन्न स राजकुमार ने सोचा-यह घोड़ा पता नहीं कहाँ रुकेगा। आज तो यह
विषयों में हो रही है, उसे अपने एक ही अभीष्ट विषय में कर देना मुझे गिराकर खत्म कर देगा। यह सोचकर उसने तलवार से घोडे
है। इसे ही कहते हैं-मन की चंचलता पर अंकुश लगाना, मन को की टांग काट दी। टांग काटने से घोड़ा जमीन पर बैठ गया।
एक इष्ट विषय में एकाग्र करना। PE राजकुमार को उतर कर पैदल चलना पड़ा।
उसकी दो प्रकार की वैचारिक अवस्था हैं-असम्बद्ध विचार दूसरे राजकुमार ने भी इसी तरह घोड़े की लगाम खींची पर
और संबद्ध विचार। इन दोनों में से मन को किसी समस्या को हल वह भी नहीं रुका। अन्त में उसने एक पेड़ की डाली कस कर
करने के लिए शृंखलाबद्ध तर्क और युक्ति से युक्त व्यवस्थित पकड़ ली, घोड़े से नीचे कूद गया। फलतः उसकी टांग टूट गई,
चिन्तन में जोड़ना संबद्ध विचार है। संबद्ध विचार अतीत से कम घोड़े को आगे जाने दिया। किन्तु ऐसा करने से भी स्वयं को पैदल
किन्तु वर्तमान की समस्या, परिस्थिति या घटना से अधिक जुड़ा चलना पड़ा।
होता है, जबकि असंबद्ध विचार अतीत के साथ ही अधिक जुड़ा
होता है। मन को अतीत की स्मृति होती है, तब वह अपने भीतर तीसरा राजकुमार समझदार था। उसने घोड़े की लगाम ढीली ।
गहरी जमी हुई अतीत की इच्छाओं, संस्कारों, वृत्तियों, आदतों और कर दी, जिससे वह रुक गया, फिर उसने घोड़े को पुचकार कर
टेवों की ओर दौड़ लगाने लगता है। ये सब सतत स्पन्दित होती वह चलाया, परन्तु जब वह विपरीत रास्ते जाने लगता तो उसे चाबुक
रहती हैं अन्तर में। भूतकाल में कब, क्या, कैसे सोचा? किसके बताकर उधर जाने से रोका जाता। इस प्रकार दुलार और फटकार
साथ कैसा व्यवहार किया? कैसा आचरण किया? इनके साथ दोनों ही तरह से घोड़े को चलाकर वह सही सलामत अपने घर
अधिक दौड़ने को प्रवृत्त होता है। पूर्वकृत कर्मो से संबद्ध होने के पहुँच गया। दूसरे दोनों राजकुमार पैदल चलकर बहुत देर से पहुँचे।। कारण अतीत के ये स्पन्दन इतने अज्ञात और सूक्ष्म हैं कि इनका
यह एक रूपक है-तीन घुड़सवारों की तरह तीन प्रकार के मन । सिलसिला एकदम रुकता नहीं। मन की ऐसी विचार शृंखला को हम का रूपी अश्व के वाहक हैं। इनमें दो तो अनाड़ी हैं। पहले राजकुमार असंबद्ध कहते हैं, परन्तु पूर्व कर्मों से संबद्ध होने से ये वास्तव में हम की तरह एक मनरूपी अश्व को मारपीट कर, उसे सता-दबाकर । संबद्ध हैं, किन्तु हमारी स्थूल दृष्टि उन्हें पकड़ नहीं पाती, इसलिए DHA उसकी गति को रोक देता है। वह मन को मारने और उसकी गति । उसे असंबद्ध कह देते हैं। ट रोकने वाला व्यक्ति स्वयं भी दुःखी होता है, मन को भी दुःखी
मन की द्विविध शक्तियों पर "नयन" और "नियमन" Fac करता है। दूसरे नम्बर वाला मनरूपी अश्व का सवार भी मूर्ख है,
द्वारा नियंत्रण 3 वह घोड़े की गति को तो नहीं रोकता, उसे मनमानी दिशा में जाने Paदेता है, किन्तु उससे अभीष्ट कार्य न लेकर स्वयं जीवन के आनन्द
श्रुति में मन की दो प्रकार की शक्तियों का उल्लेख हैसे वंचित हो जाता है। तीसरा मनरूपी अश्व का आरोही मन की १. नयन और २. नियमन। जैसे कि इस मंत्र में कहा गया हैचंचलता को भी नहीं रोकता किन्तु दूसरी ओर से उसे उत्पथगामी
सुषारधिर खानिव यन्मनुष्यान नेमीयते भीर्वाजिन इव। होने से रोकता है, उस पर अंकुश रखता है। स्पष्ट शब्दों में कहें
हातिष्ठं यदाजिरं जविष्ट, तन्मे मनः शिव-संकल्पमस्तु ।। तो उसकी मनमानी भटकने की आदत को छुड़ाकर उसे सुविचार
करने में अभ्यस्त करता है। उसके साथ जोर अजमाई न करके प्रेम इस मंत्र में मन को सारथी की और इन्द्रियों को घोड़ों की 8 से उसे अपने वश में कर लेता है।
उपमा दी गई है। अश्व तथा बाजि शब्द घोड़े के लिए प्रयुक्त ङोता
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| वाग् देवता का दिव्य रूप है। इन दोनों के एकार्थक होते हुए भी इनके तात्पर्यार्थ में अन्तर है। हो, विधायक हो, विनाशक न हो, कल्याण का स्रष्टा हो, ध्वंस अश्व उस घोड़े को कहते हैं जो धीरे-धीरे दौड़ता है। बाजि कहते । का रचयिता न हो। वे मन की एकाग्रता और मनोबल में वृद्धि ही हैं-तीव्रगति से दौड़ने वाले घोड़े को। यदि उसे रोका न जाए तो नहीं, उसका सही दिशा में नियोजन भी चाहते थे। मनोबल के धनी वह दुर्घटना कर सकता है। सुयोग्य साधक प्रथम प्रकार के घोड़े को तो हिटलर और नेपोलियन आदि भी थे। परन्तु वे इस शक्ति का चाबुक मार कर सही मार्ग पर आगे बढ़ने को बाध्य करता है, नियोजन और उपयोग अच्छी दिशा में, सत्कार्यों में न कर सके। उसके ढीले-ढालेपन को स्फूर्ति में बदलने का प्रयत्न करता है। अतः मन में उठने वाले विचारों में से अनुपयोगी विचारों की किन्तु बाजि को सदा लगाम खींच कर गलत मार्ग पर जाने से काट छाँट एवं बहिष्कार की व्यवस्था तुरन्त बनानी जरूरी है। रोकता है। मन की पहली शक्ति को “नयन" करता है और दूसरी अन्यथा वे निरर्थक घास-पात की तरह उगते जाएँगे और मन । शक्ति पर "नियमन" करता है। अर्थात् वह मन की शिथिलता को की उर्वरा शक्ति को अवशोषण करके फलेंगे-फूलेंगे एवं मनुष्य के सक्रियता में बदलता है तथा उद्धत और मनमानी दौड़ लगाने वाले । अधःपतन और शक्तिह्रास का कारण बनेंगे। उनकी निरन्तर मन को लगाम खींचकर रोकता है, उद्धत आचरण से बचाता है। काट-छाँट करना उतना ही आवश्यक है, जितना कि मन में मन को साधने और प्रशिक्षित करने की कला यही है।
आध्यात्मिक सद्विचारों का बीजारोपयण तथा उन्हें परिपक्व बनाने मन को साधने के लिए एकाग्रता और नियंत्रण अपेक्षित
का प्रयास। मन को साधने में एकाग्रता और नियंत्रण ये दोनों ही उपाय } मन की एक वस्तु में समग्र तन्मयता अपेक्षित हैं। महत्वपूर्ण पक्ष विचारों का है। मन में प्रतिक्षण अच्छे एक बार संत विनोबाजी से किसी ने पूछा-आपको ध्यानयोग में बुरे संबद्ध-असंबद्ध विचार उठते ही रहते हैं। अगर उस पर अंकुश पारंगत माना जाता है, कृपया, उसकी विधि क्या है बताइए? उत्तर
और सावधानी न रखी जाए तो वे अपने अनुरूप अच्छा बुरा में उन्होंने कहा-मैं मन से जो सोचता हूँ या करता हूँ, उसमें प्रभाव डालते ही हैं। अतः उन पर नियंत्रण की उतनी ही अपनी समग्र तन्मयता केन्द्रीभूत कर देता हूँ। मैं जब किसी कार्य के आवश्यकता है, जितनी कि एकाग्रता के लिए प्रयत्न की। मन को विषय में सोचता हूँ कि क्या इस समय मेरे लिए यही कार्य सर्वोपरि स्वच्छन्द और अनियंत्रित छोड़ देने पर वह तरह-तरह की विकृतियां
महत्व का है? इस सन्दर्भ का चिन्तन ही मेरे लिए अभीष्ट है,। खड़ा कर देता है और मन की शक्ति को कुण्ठित एवं दुर्बल कर } इसे करने में मुझे इस प्रकार जुटना है कि मेरी तन-मन-बुद्धि की देता है। इसी प्रकार मन को बिखराव से भी रोकना अपेक्षित है, शक्ति का एक कण भी बिखरने न पाए। यही वह विधान है जिसे अगर मन को चारों ओर बिखरने-अनेकाग्र होने दिया जाए तो 1 मैं अपने हर कृत्य में अपनाता हूँ। इस प्रकार जागृत स्थिति में उसकी अधिकांश शक्ति लोभ, काम, क्रोध, मोह, राग-द्वेष आदि के निरन्तर ध्यानयोग में तल्लीन रहता हूँ। यहाँ तक कि विश्रान्ति के भौतिक आकर्षणों-विकर्षणों में यों ही नष्ट होती रहेगी और क्रमशः । समय भी मन की यही स्थिति रहती है। क्षीण होती जाएगी।
यह है मनोनिग्रह के संदर्भ में अभीष्ट विचार व कार्य में शक्तियों के पुंज मन को शिव संकल्प वाला बनाओ
तन्मयता और एकाग्रता से बिखरी हुई मनःशक्ति एवं कार्यक्षमता ___ मन असीम सामर्यों का स्रोत है। वह संकल्प-विकल्प का।
को व्यर्थ चिन्तन एवं कार्य से रोक कर एक मात्र अभीष्ट कार्य में खजाना है। संकल्प-विकल्प पर उत्थान-पतन का क्रम निर्भर है।। केन्द्रित करने का प्रतिफल! अनगढ़ मनुष्य को सुगढ़ और नर-पशु को नरनारायण बना देने की
मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम एकाग्रता और अगर किसी में क्षमता है तो मन में है। वह शक्तियों का पुंज है।
तन्मयता आवश्यक शारीरिक शक्ति की अपेक्षा मन की शक्ति कई गुना अधिक है।
सारांश यह है कि मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम एकाग्रता और महामानवों के गढ़ने की भी उसमें सामर्थ्य है और नर- पिशाचों को
तन्मयता आवश्यक है। एकाग्रता की उपयोगिता और क्षमता से बनाने की भी। मन जब ऊर्ध्वगामी बनता है तो मनुष्य महात्मा,
सभी परिचित हैं। साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, अभिनेता, संत, देवात्मा, परमात्मा तक बन जाता है, और जब निम्नगामी बनता है तो नर से नरपशु तथा नर-पिशाच भी बन जाता है।
शिल्पी, सर्कस के खेल दिखाने वाले, नट आदि अपनी कल्पना
शक्ति को एकाग्र करके उसे अभीष्ट प्रयोजनों में लगाते हैं। इसी इसलिए ऋषियों ने इस तथ्य को समझकर मन को नियंत्रित, सुदृढ़,
प्रकार मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता की साधना करनी पड़ती है। मन स्थिर और एकाग्र बनाने पर जोर दिया और प्रार्थना की-"तन्मे
के बिखराव को एकत्रित करने पर क्षमता कितनी बढ़ जाती है, मनः शिवसंकल्पमस्तु"-मेरा वह मन शिव (कल्याणमय) संकल्प
इसे सभी जानते हैं। मनुष्य का मन-मस्तिष्क अनन्त शक्तियों का वाला हो। यानी मन का जो भी संकल्प हो, वह शिव हो, रौद्र न
भण्डार है, परन्तु कठिनाई यह है कि वे शक्तियां बिखरी रहती हैं १. देखें-अखण्ड ज्योति, मार्च १९८१ (श्री राम शर्मा आचार्य) में पृष्ठ ११ और एक स्थान पर केन्द्रित नहीं हो पाने से उनसे अभीष्ट लाभ
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । नहीं मिलता। यदि उन्हें एकाग्र किया जा सके तो सामान्य स्तर का खरपतवारों की जड़ें भी बहुत मजबूत होती हैं। इनमें से कुछेक as समझा जाने वाला मन भी प्रखर एवं प्रचण्ड शक्ति का धनी हो । घास तो पशुओं के चारे के लिए उपयोगी होते हैं, बाकी अधिकांश सकता है और आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है।
तो कंटीले, विषैले और निकम्मे होते हैं, जो जगह घेरने के अलावा daeed
किसी काम में नहीं होते। एक अभीष्ट विषय में अनेकाग्र मन को एकाग्र करो, क्यों और कैसे?
मनुष्य के अनगढ़ मन-मस्तिष्क में भी प्रायः ऐसा ही होता है। Podio सूर्य की बिखरी हुई किरणें यदि आतिशी शीशे द्वारा एक छोटे
अपने संस्कार, संगति, आदत और अभिरुचि के अनुरूप ही विचार केन्द्र पर एकत्रित की जाती हैं तो दो इंच घेरे की धूप में अग्नि
तरंगें उठती हैं। पुरानी आदतें, स्मृतियां, रुचियां, घटनाएं, p3 प्रगट हो जाती है और वह अवसर पाकर दावानल का रूप धारण
परिस्थितियां चाहे अतीतकाल की एवं युगबाह्य व निरर्थक हो गई BooD कर सकती है। मन की क्षमताओं के विषय में भी यही बात है। मन
हों, अपनी जड़ें हरी रखती हैं। जब भी अनुकूलता होती है, पतझड़ को भी एक केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रित किया जाए तो सामान्य मन भी
के अलावा कोंपलों की तरह नये रूप में फूटने लगती हैं। उनका Hd अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे सकता है। धूप और गर्मी के प्रभाव
स्वेच्छाचार देखते ही बनता है। मन की एकाग्रता के मार्ग में ये 1 . से समुद्र, तालाबों एवं नदियों का पानी भाप बनकर उड़ता रहता
खरपतवार बाधक बन जाते हैं, अतः उन्हें हटाना या मिटाना है। किन्तु ट्रेन के इंजन में थोड़ा सा एकत्रित पानी है। किन्तु वह
अनिवार्य है। दूसरों की देखादेखी, उनका अनुकरण करने हेतु मन भाप बनकर शक्तिशाली बन जाता है। उसे हवा में उड़ने से बचाकर
ललचाता है। कभी-कभी निराशा, भय, आशंका, विपत्ति, असफलता एक एक टंकी में एकत्रित किया जाता है, फिर उसका शक्ति प्रवाह एक
आदि की कुकल्पनाएँ तथा ईर्ष्या, द्वेष, रोष आदि से प्रेरित कई क छोटे से छेद से होकर पिस्टन तक पहुँचा दिया जाता है। मात्र इतने
उत्तेजनाएँ मन में आती रहती हैं। ऐसी अनगढ़ मनःस्थिति और से रेलगाड़ी का भारी इंजन अपने साथ सैकड़ों टन वजन लेकर
आचरण मनःक्षेत्र के खरपतवार हैं, जिनके न उखाड़ने से तीव्रगति से दौड़ने लगता है। ढेरों बारूद जमीन में फैलाई हुई हो
आत्मवंचना और लोक-भर्त्सना के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं 0 और उसमें आग लग जाए तो सिर्फ थोड़ी-सी चमक और आवाज
पड़ता। यदि यह मनःस्थिति लम्बे समय तक बनी रहे तो वह अन्दर के साथ वह जल उठती है। परन्तु जब उसे सैनिक अपनी बन्दूक
से खोखला और बाहर से ढकोसला बनाकर ही दम लेती हैं। परन्तु 88 की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बंद कर । जैसे चतुर किसान सोचता है कि यदि खरपतवार को उखाड़ खेत 20 देता है और बन्दूक का घोड़ा दबाता है तो एक तोले से भी कम की जमीन को साफ नहीं किया जाएगा तो बोने उगाने के प्रयत्न में
वह एकत्रित बारूद की मात्रा गजब ढाती हुई दिखाई देती है। इस सफलता नहीं मिलेगी, बीज भी मारा जाएगा, परिश्रम भी व्यर्थ
प र से बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संगृहीत शक्ति जाएगा। मनःक्षेत्र में पहले से जमे हुए खरपतवार के रूप में 20 के एक दिशा-विशेष में प्रयुक्त किए जाने की सार्थकता में कितना अराजकता, अनुशासनहीनता, दुर्वृत्ति-प्रवृत्तियों और दुरभिसंधियों ० अन्तर है? यह सहज ही जाना-देखा जा सकता है। एकाग्रता की को उखाड़ा नहीं जाएगा तो मन की एकाग्रता के बहुमूल्य उपार्जन शक्ति का महत्व इससे जाना जा सकता है।
से लाभान्वित नहीं हुआ जा सकेगा। अतः मनः क्षेत्र में कुविचारों के
खरपतवार उगते ही उन्हें बाहर खदेड़ा जाए। उनकी जगह मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता के मार्ग में बाधक खरपतवारों
सुविचारों की श्रृंखला सतत नियोजित की जाए। मन को कुविचारों को उखाड़ना आवश्यक
से होने वाली हानियों का समझाया जाए। उसे तर्क, युक्ति और 5 चंचल मन को किसी एक विषय में एकाग्र करना कहने में
प्रमाण प्रस्तुत करके समझाया, बुझाया और भटकाव से विरत ः सरल है, परन्तु करना बहुत ही कठिन है। एकाग्रता और तन्मयता । किया जाए, इसे ही सच्चे माने में मनोनिग्रह कहते हैं। वश में किया के मार्ग में कई बाधक तत्व हैं, उन्हें जब तक हटाया या मिटाया
हुआ मन मित्र और उच्छृखल मन शत्रु होता है। शत्रुता को मित्रता ही नहीं जाएगा, तब तक वे एकाग्रता में बार-बार बाधा उत्पन्न करते
में बदलने के लिए मन को वशवर्ती बनाकर किसी भी उपयोगी
बदलने रहेंगे। चतुर किसान अपने खेत में बीज बोने से पहले जमीन को
चिन्तन एवं प्रयास में लगाया जा सकता है। विभिन्न प्रकार से जोतकर उसे साफ-सुथरी बनाता है, ताकि उस जमीन में उगी हुई फसल को व्यर्थ के घास-पात (खरपतवार)
एकाग्रता के दो पक्ष, प्रभाव, महत्त्व, विधि और सफलता विनष्ट कर सके। गाफिल और आलसी किसान भूमि समतल और इस प्रकार एकाग्रता के दो पक्ष हैं-१. अभीष्ट विचारों से भिन्न
साफ किए बिना ही बीज बो देता है, तब उस खेत में खरपतवार विचारों को मन-मस्तिष्क से हटाना, और २. इच्छित विचारधारा 200000 अनायास ही उग जाते हैं, जो भूमि की उर्वरा शक्ति को चूस लेते । को मनःक्षेत्र में अनवरत रूप से प्रवाहित करना। यह ध्यान रखिये
हैं। वे खरपतवारें जितनी जगह में जड़ जमा लेती हैं, उतनी जगह एकाग्रता कोई ईश्वरीय देन नहीं है, और न ही वह वरदान की र में अन्य उपयोगी पौधों को पनपने नहीं देतीं। बिना बोए ही उनकी तरह किसी को प्राप्त होती है। उसे अपने ही शभ परुषार्थ से अच्छी
सत्ता अधिकांश जमीन को घेरे रहती है। इन कुदरती उगी हुई आदत के रूप मे, मनोनिग्रह का मुख्य अंग समझकर चिरकाल तक
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वाग देवता का दिव्य रूप
नियमित रूप से अपनाने पर वह स्वभाव का अंग बनती है और अपने व्यक्तित्व के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ जाती है।
एकाग्रता का अभ्यास प्रारम्भ में १५ मिनिट से किया जा सकता है। लेखन, स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान, अनुप्रेक्षा आदि जो भी प्रयोजन हो, उसके आकर्षक पक्षों को सामने रखकर पूर्ण उत्साह, सत्कार एवं विनय के साथ अभीष्ट विचारों में मन को पिरो देना चाहिए। मन तभी भागता है, जब अभीष्ट विषय में गहरी रुचि नहीं होती। अतः चिन्तनीय विषय को जीवनोन्नति के लिए उपयोगी, लाभप्रद एवं आवश्यक माना जाएगा तो मन उसमें जरूर लगेगा। पूर्ण दृढ़ता, दृढ़ संकल्प, तन्मयता एवं पूरे उत्साह के साथ चिन्तन में अपने आपको को तल्लीन कर देने पर जल्दी ही एकाग्रता और मनोनिग्रह में सफलता प्राप्त होती है।
एकाग्रता के दूसरे पक्ष के अनुसार किन्हीं उत्कृष्ट विचारों में, ऊहापोह में गहराई तक उतरते जाना इस प्रकार एकाग्रता और तदनुरूप मनोनिग्रह में उभयपक्षीय पर्यवेक्षण समुद्रमंथनवत् विचारमन्थन अपेक्षित है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, योगसाधना के इन चारों अंगों में एकाग्रता का अभ्यास अनिवार्य है।
एकाग्रता में कई बार तो परिस्थितियाँ ही बाधक बन जाती हैं। बैठने का स्थान, या ढंग असुविधाजनक हो तो चित्त बार-बार डांवाडोल होता रहेगा। मलिन सीलन वाले, दुर्गन्धयुक्त तथा अनुपयुक्त तापमान वाले स्थान में मन एकाग्र नहीं होता तो कोलाहल, खटपट, भगदड़ एवं हलचल वाले स्थान एवं दृश्य से रहित, सर्दी-गर्मी की उत्कटता एवं स्वच्छता से रहित शान्त एवं उपयुक्त स्थान में मन शीघ्र एकाग्र हो सकता है। स्थान एवं बैठने के साधन मन की एकाग्रता के लिए अनिवार्य हैं। अतः स्थान, समय, स्थिति और प्रयोगकाल का सन्तुलन मन की एकाग्रता के लिए महत्वपूर्ण साधन हैं। एकाग्रता के अभ्यास के लिए स्थान शान्त एवं स्वच्छ हो, आसन भी शरीर के लिए सुविधाजनक हो। अभ्यास का समय निर्धारित हो तथा वह घड़ी के अनुसार नियम- नियमित हो, तो मन अवश्य ही एक अभीष्ट स्मृति, कल्पना, विकल्प या संकल्प में एकत्रित या केन्द्रित होगा।
अतः जितने समय तक अभीष्ट विषयक चिन्तन करने का संकल्प किया हो, उतने समय तक अभीष्ट चिन्तन के सत्परिणामों एवं संभावनाओं पर विचार करने तथा सुदृढ़ संकल्प एवं नियमित प्रयास जुड़ जाने से एकाग्रता सरल, अधिक लम्बी और गहरी होती जाती है। एकाग्रता की शक्ति बढ़ने से मनःशक्ति भी बढ़ती जाएगी। मन की चंचलता और उसके निग्रह के दो उपाय
इसीलिए अर्जुन ने कर्मयोगी श्रीकृष्ण जी से कहा थाचंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।
तस्याऽहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
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हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चंचल, हठी, बलवान् और वृढ़ है, मैं तो इसका निग्रह हवा को पकड़ने की तरह अति दुष्कर मानता हूँ। इसका समाधान श्रीकृष्ण जी ने किया
असंशयं महाबाहो ! मनोदुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥
10.02
"हे महाबाहू । निःसन्देह मन बड़ा ही चंचल और मुश्किल से पकड़ (चश) में किया जा सकता है सचमुच मन की चंचलता, अस्थिरता और अधीरता, उसके निग्रह में बाधक है। बड़े-बड़े साधक चंचलता, अस्थिरता और फलाकांक्षा की अधीरता के कारण मन का निग्रह ( वशीकरण) नहीं कर पाते।
मनोनिग्रह के लिए किन-किन बातों का अभ्यास आवश्यक ?
मन को निगृहीत करने, वश में करने या मन पर विजय पाने का योगदर्शन और गीता ने सर्वप्रथम उपाय बताया है-अभ्यास ।
आध्यात्मिक साधना के लिए मनोनिग्रह आवश्यक है। परन्तु मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम मन पर जमे हुए मिध्यात्व अज्ञान और मोह के मैल को दूर करना आवश्यक है। पदार्थ अनित्य है, उन्हें नित्य और अपने मानना तथा अपने माने हुए या परम्परा प्राप्त शरीर, परिवार, सम्प्रदाय, जाति, भाषा आदि को तथा काम, क्रोध, लोभादि विभावों को अपने न होते हुए भी अपने मानना मन पर मैल चढ़ाना है । मन पर जमने वाले इन मलों को दूर करने के लिए अन्यत्व, अनित्यत्व और एकत्व, इन तीन अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास जरूरी है। शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान होना, अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। आत्मा और आत्मगुणों के सिवाय संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा चिन्तन अनित्यानुप्रेक्षा है। इसी प्रकार आत्मा के निजी गुणों (ज्ञानादि) के साथ एकत्व का चिन्तन एकत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा करने से मन पर जमा मैल दूर करने का अभ्यास भी होगा तथा अनुप्रेक्षा से तत्वज्ञान प्राप्ति होने से वैराग्य भी होगा।
मनोनिग्रह के लिए दूसरा उपाय है मन को कुसंस्कारी होने से बचाने का अभ्यास करना। बाहर के लोगों को हम कितनी ही सलाह देते रहते हैं, परन्तु अपने मन की दुर्दशा, आवारागर्दी, उच्छृंखलता, अनगढ़ गतिविधि, अवांछनीयता, उद्दण्डता मूर्खता एवं कुमार्गगामिता पर कभी ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि मन ने हमारी प्रभुता, मनन क्षमता, एकाग्रता सबको चौपट कर दिया। इसी कारण मनोनिग्रह करने में कठिनाई पड़ती है। कवि अमरचंद जी म. ने मन की दुर्दशा पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा है
अद्भुत दशा कहूं क्या, कैसी हुई है मन की? सारी बिगाड़ डाली, प्रभुता स्वयं मनन की।
इस प्रकार मन बैसिर-पैर की उड़ाने उड़ता है, अस्त व्यस्त और अव्यवस्थित विचार करता है। इस से मन की अगाध शक्ति का अपव्यय होता है। ऐसी स्थिति में जीव की मात्र बदनामी ही
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नहीं, प्रत्यक्ष हानि भी है, जिसकी क्षतिपूर्ति अन्य कोई नहीं कर सकता। अतः मन को सुसंस्कृत बनने का अभ्यास कराना चाहिए। उसे हित अहित में, उचित-अनुचित में विवेक करना सिखाना चाहिए। अब तक जो मन समीपवर्ती लोगों की वृत्ति प्रवृत्ति देखता सुनता रहा, उसी की बन्दर की तरह नकल और तोते की तरह रटना करता रहा। अब उसे सुसंस्कारी और विवेकी तथा यत्नाचारी बनने का अभ्यास कराना है। तभी सच्चे अर्थों में मन पर विजय प्राप्त होगी!
जिस प्रकार गारूडी सांप को तथा मदारी बंदर को और सरकस में विविध पराक्रम दिखाने वाले शेर, हाथी और बनमानुष तक को भली भांति प्रशिक्षित करके ऐसा साथ लेते हैं कि वे दर्शकों का पर्याप्त मनोरंजन भी करते हैं और उन उन व्यक्तियों या कम्पनी को पर्याप्त आय भी होती है, साथ ही सिखाने वाले के कौशल की भी प्रशंसा होती है। इसी प्रकार मन को भी अनगढ़ से सुगढ़, कुसंस्कारी से सुसंस्कारी बनाया जा सकता है।
निरंकुश मन को नियंत्रित करना आवश्यक है।
मन की शक्ति अपार है। वही जीवन-सम्पदा का व्यवस्थापक है। वह आत्मा का मित्र या मंत्री भी है। उसे इतना अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने उपकरणों-साधनों का भला-बुरा मनचाहा उपयोग कर सकता है। इसलिए उस मन का अनगढ़ होना सचमुच दुभाग्यपूर्ण है। आत्मा द्वारा मन पर मन की गतिविधि पर अंकुश या चौकसी न रखने के कारण यह स्वच्छन्द और कुसंस्कारी बन जाता है जिस प्रकार महावत के बिना हाथी निरंकुश होकर चाहे जिस ओर चाहे जब चल सकता है तथा चाहे जिसका अनर्थ कर सकता है, यही निरंकुश मन के विषय में समझना चाहिए। हमारा सत्ताधीश आत्मा है, उसका साथी है- विवेक। दोनों मिल कर मन को सही दिशादर्शन, यथार्थ चिन्तन-मनन करने तथा यथार्थ इच्छा करने की शिक्षा दे सकते हैं, सन्मार्ग पर चलना सिखा सकते हैं। अप्रशिक्षित मन अनाड़ी भर है अवज्ञाकारी नहीं पूर्व अभ्यस्त दुर्गुणों और बुरी आदतों को छोड़ने तथा नये सिरे से सिखाये गये सद्गुणों का अभ्यास करने में पूर्व-अभ्यास या कुसंस्कार वश एक बार आनाकानी करेगा, मचल जाएगा, परन्तु उसे कठोर निर्देश आदेश दिया जाए, जो करणीय है, उसे करने को बाध्य किया जाए तो वह बदलने के लिए सहमत हो सकता है।
मन को सुसंस्कृत एवं सद्गुणरत करने हेतु चतुर्विध संयमाभ्यास कराओ
मन को कुसंस्कारों तथा पूर्व अभ्यस्त दुर्गुणों से विरत करने के लिए चार प्रकार के संयमों का अभ्यास बार-बार कराना चाहिए
१. विचार-संयम, २ समय-संयम ३ अर्थ संयम और ४. इन्द्रिय संयम (१) मन में जो भी विचार उन्हें उनका तत्काल परीक्षण किया जाए कि वे नीति-धर्म से युक्त, स्व पर हितकारक
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
एवं रचनात्मक है या नहीं? बेतुकी कल्पनाएँ या इच्छाएँ उठती हो तो तत्काल उन पर ब्रेक लगा देना चाहिए। गलत विचारों की गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने देनी चाहिए। (२) समय को हीरे मोतियों के समान मान कर उसका एक क्षण भी बर्बाद न होना चाहिए। उठने से लेकर सोने तक की समयचर्या ऐसी बनानी चाहिए, जिससे व्यक्तित्व का स्तर निखरे तथा आध्यात्मिक योग्यता प्रगति एवं विकास में वृद्धि होती हो। (३) अर्थ और पदार्थ का व्यर्थ उपभोग बिल्कुल न हो, उपयोग हो। उनका प्रदर्शन एवं अपव्यय भी न हो । श्रम को भी निरर्थक कार्यों या प्रयासों में लगाना अपनी शक्ति का ह्रास करना है तथा (४) चौथा अभ्यास है इन्द्रियसंयम का जो मनोनिग्रह के लिए नितान्त आवश्यक है। मनोनिग्रह के लिए सम्यग्ज्ञान की लगाम का अवलम्बन लो
इस संबंध में उत्तराध्ययनसूत्र में केशी- गौतम संवाद आता है। केशी श्रमण गणधर गौतम स्वामी से पूछते हैं
मणो साहासिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावइ । जॉस गोयम आरूढ कहते नहीस?
“हे गौतम ! मन भयंकर साहसी है, वह दुष्ट अश्व की तरह दौड़ता है। उस मन पर आरूढ़ (सवार) होकर भी, उसके द्वारा क्यों नहीं हरण किए जाते ?"
इसके उत्तर में गौतम स्वामी ने कहापथावंत निगिण्हामि सुयरस्सि समाहिये। न मे गच्छइ उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जइ ॥
मैं दौड़ते ( भागते हुए मन का निग्रह श्रुत ( शास्त्रज्ञान ) रूपी लगाम लगाकर करता हूँ, जिससे वह उन्मार्ग पर नहीं जाता और सुमार्ग को अपना लेता है।
वास्तव में जब साधक मन पर सम्यक् ज्ञान की लगाम लगा देता है तब तब मनरूपी अश्व की चंचलता से उसे कोई डर नहीं होता, वह इधर-उधर भटका नहीं सकता, न ही वह इधर-उधर मछल कूद मचाता है और एक मात्र शास्त्रपाठ में तन्मय व एकाग्र हो जाता है। यही मनोनिग्रह का सरल मार्ग है। मनोनिग्रह के लिए अवलम्बन ले सकते हैं
एक मनीषी ने मन को वश में करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग यह बताया है कि मन को अन्य सब विषयों से हटाकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा में, भगवान के नाम में जोड़ दो, उसी में तन्मय हो जाओ ।
मनोनिग्रह का सबसे सरल उपाय यह भी है कि मन जो बार-बार विभिन्न विषयों में दौड़ लगाता है, उसे रोककर किसी एक अभीष्ट विषय में लगा दो। उसकी गति को रोको मत उसे निकृष्ट विचारों से हटा कर उत्कृष्ट विचारों में लगा दो ।
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बाग देवता का दिव्य रूप
मन को जब हम धर्मध्यान में लगाते हैं, तब वह पिण्ड, पद और रूप में से जो भी आलम्बन होता है, उसकी स्मृति जरूरी है। अगर वह स्मृति चूक जाता है तो ध्यान नहीं कर सकता। अतः एक आलम्बन पर सतत स्मृति का रहना ध्यान के लिए जरूरी है। वही एकाग्रता है। मन के द्वारा सतत स्मृति का अभ्यास करना, स्मृति का दीर्घकाल तक टिक जाना ही मन को जीतने का सरल उपाय है। सतत स्मृति का फलितार्थ है, शेष की विस्मृति और एकमात्र गृहीत आलम्बन की स्मृति ।
सविकल्प ध्यान में भी पहले कल्पना करनी होती है। परन्तु बिना ध्यान के वह अनेक कल्पनाओं की उड़ानें भरता था, उसे अब उन कल्पनाओं से हटाकर एक अध्यात्म संबंधी कल्पना में अपनी चेतना को नियोजित कर देना पड़ता है। ऐसा करने से शेष सब कल्पनाएँ रुक जाती है, सारे विकल्प बंद हो जाते हैं जब अभीष्ट कल्पना संकल्प में बदल जाए तब समझना कि मन पर विजय हो गई।
इसी प्रकार विचार का प्रवाह भी सतत चलता रहता है। विचार का काम है- स्मृतियों और कल्पनाओं को लेकर आगे बढ़ना। जब ध्यान के दौरान स्मृति और कल्पना पर नियंत्रण कर लिया जाता है, तब विचार तो अनायास ही नियंत्रित हो जाते हैं, पहले जो एक के बाद एक विचार आते रहते थे, रुकते ही नहीं थे, वे अब ध्यानकाल में रुक जाते हैं। इस प्रकार विचार का आधारभूत निरंकुश स्मृति और कल्पना के बंद होने से उसका नियमन होना मन पर विजय पाना है।
छह प्रकार की मनःस्थिति पर से मनोनिग्रह की जाँच करें
मनोनिग्रह के लिए व्यक्ति की मनःस्थिति पर भी विचार करना आवश्यक है। ये मानसिक विकास की भूमिकाएँ छह प्रकार की होती हैं, 9. मूढ़, २. विक्षिप्त, ३ यातायात, ४. क्लिष्ट, ५. सुलीन और ६. निरुद्ध।
योगशास्त्र में विक्षिप्त से लेकर सुलीन तक चार ही प्रकार की भूमिका - मनःस्थिति का निरूपण है। प्रत्येक पर एक ही घटना का अलग-अलग प्रभाव होता है।
१. मूढ़-भूमिका में आसक्ति और द्वेष बहुत प्रबल होते हैं। कितने ही व्यक्तियों के समक्ष हत्या, मारकाट और उत्पीड़न के दृश्य आते रहते हैं, मगर उनके मूढ़ मन पर इनका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता।
२. विक्षिप्त भूमिका में किसी घटना का मन पर असर होता है। वह विक्षुब्ध हो उठता है। वह प्रभाव या अन्तर्निरीक्षण की स्थिति का अनुभव क्षणिक ही होता है। उसके भावुक मन पर अप्रिय घटना से अवसाक्ष्मग्नता आ जाती है अथवा वह विक्षिप्त हो उठता है। अध्ययन, असफलता, हानि, वियोग जैसी घटनाएँ होने पर कमजोर मनःस्थिति वाले साधारण-सी परिस्थिति में उद्विग्न हो
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जाते हैं। इस मनःस्थिति खीझ वालों में झटपट परेशानी, क्षुब्धता, तनाव, झुंझलाहट आदि हो जाती है। ऐसे लोग कहते हैं, ध्यान नहीं करते हैं, तब मन स्थिर रहता है, ध्यान में बैठते ही मन अधिक चंचल हो जाता है। इस स्थिति से घबरा कर मनोनिग्रह के अभ्यास को वह छोड़ देता है।
३. यातायात - इस भूमिका में ध्याता का मन विक्षिप्त तो नहीं होता, परन्तु लम्बे समय तक टिक नहीं पाता । अन्तर्निरीक्षण के लिए अन्तर्मुखी बना हुआ मन सहसा बाहर आ जाता है। फिर अन्तर्निरीक्षण का प्रयत्न करता है, फिर बाहर आ जाता है। ऐसे व्यक्ति भावुक और संवेदनशील होते हैं, परन्तु वार-बार के अभ्यास से घबराते नहीं हैं।
४. क्लिष्ट - इससे आगे की भूमिका क्लिष्ट है। ऐसे व्यक्ति का मनोनिग्रह एवं अन्तर्निरीक्षण का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते मन एक विषय पर टिकने और एकाग्र रहने लग जाता है। ध्येय के साथ ध्याता का इस भूमिका में श्लेष (चिपकाव) हो जाता है। परन्तु चिपके हुए वे एकात्मक नहीं हो जाते, वो ही रहते हैं।
५. सुलीन - यह मनोनिग्रह की पाँचवी अवस्था है। इस भूमिका में व्यक्ति का मन ध्येय में लीन हो जाता है, वह अपने अस्तित्व को उसी तरह खो देता है, जिस तरह पानी दूध में मिलकर खो देता है। दूध में चीनी के घुलने से चीनी का अस्तित्व मिटता नहीं है, किन्तु उसमें विलीन हो जाता है। उसी प्रकार मनोनिग्रह के अभ्यासी ध्याता का मन ध्येय में विलीन हो जाता है। जहाँ ध्याता- ध्येय की एकात्मता सथ जाए वहाँ सुलीन की भूमिका समझनी चाहिए।
६. निरुद्ध-यह मनोनिग्रह या मनः स्थैर्य की अन्तिम भूमिका है। पाँचवी भूमिका में मन का अस्तित्व या गति समाप्त नहीं होती, ध्येय की स्मृति भी बराबर बनी रहती है, जबकि छठी भूमिका में मन का अस्तित्व, उसकी गतिक्रिया तथा ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। योगों का निरोध हो जाता है यह निरालम्बन, निर्विचार एवं निर्विकल्प ध्यान की भूमिका है। इसमें मन का पूर्ण विलय हो जाता है। मन अमन-सा हो जाता है। अज्ञात मन पर ही मनःस्थिरता निर्भर है
सामान्य साधकों की भूमिका बाह्य मन-जागृत मन या द्रव्य मन को निग्रह करने की स्थिति तक की होती है, अजागृत अचेतन या भाव मन को स्थिर करने की भूमिका तक वे प्रायः नहीं पहुँच पाते। बाहर से मन को दबाकर संगोपन कर या मनोज्ञ वस्तुओं का त्याग करके रखा हुआ ज्ञात मन किसी भी निर्मित्त को पाकर भड़क उठता है, प्रवाह में बह जाता है, उसका कारण है-अज्ञात मन की स्थिरता या निग्रह का न होना। इसी कारण अज्ञात मन में पड़े हुए संस्कार निमित्त मिलते ही उभर आते हैं। मनोविज्ञान शास्त्र में मन की तीन भूमिकाएँ बताई है कोन्शस माइंड, अनकोन्शस माइंड और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्रोफोन्शस माइंड। इसे ही क्रमशः ज्ञात मन, अज्ञात मन और दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, रोहिणेय आदि के जीवन को मन ने ही ज्ञाताज्ञात मन करते हैं। योग की भाषा में भी मन की तीन । बदल कर उच्चकोटि के महात्मा की पंक्ति में बिठा दिया था। अवस्थाएँ बताई है-अवधान, एकाग्रता और केन्द्रीकरण।
परिस्थिति को यदि कोई बदल सकता है तो मन ही अपनी
मनःस्थिति को बदलकर। रक्त-मांस की दृष्टि से सभी मानव लगभग मनोनिग्रह का विकास मनःस्थिति पर निर्भर है
एक जैसी स्थिति के हैं, परन्तु एक का आसमान में चढ़ जाना और निष्कर्ष यह है कि मनःस्थिति पर निर्भर है-मनोनिग्रह या ।
दूसरे का खाई के गर्त में गिर जाना, यह सब मन द्वारा अपनाई मनःस्थैर्य। एक घटना की विभिन्न मनःस्थिति वाले व्यक्तियों में हुई उत्कृष्ट निकृष्ट गतिविधियों पर निर्भर है। अविनाशी आत्मा के परस्पर विरोधी विभिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जैसे-एक ही तरह की कौशल का परिचय मन के माध्यम से ही मिलता है। ऋद्धि-सिद्धियों पीड़ा को भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के लोग अलग-अलग तरह से का उद्गम और कार्यक्षेत्र मनोलोक में ही सीमित और विस्तृत है। अनुभव करते हैं। डरपोक किस्म की मनःस्थिति वाले लोग किसी
जिसके वश में अपना मन है, उसके हाथ में संसार का समस्त प्रकार के दर्द के उठते ही चीखने चिल्लाने लगते हैं। मध्यम आध्यात्मिक, बौद्धिक और मानसिक वैभव सिमट कर एकत्रित मनःस्थिति वाले व्यक्ति दर्द के कारण हल्के-हल्के कराहते हैं। लेक्नि होता है। उत्थान और पतन का अधिष्ठाता मन ही है। जड शरीर साहसी और सुदृढ़ मनःस्थिति वाले लोग उस पीड़ा को हँसते
और चेतन आत्मा का मध्यवर्ती कार्यवाहक मन ही है। आत्मा का हँसते सह लेते हैं। उच्च साधक अत्यधिक पीड़ा को भी समभाव से प्रतिनिधि एवं निकटवर्ती मन है। उसी का चिन्तन एवं अन्तरंग में सह लेते हैं, वे महसूस ही नहीं करते पीड़ा को। अतः जमे संस्कार उलटे सीधे होकर दुःख और सुख की भूमिका मनोनिग्रह के परिपक्व साधक की पहचान यह है कि वह कैसी भी बनाते हैं। विकट संकटापन्न परिस्थिति में भी मन का सन्तुलन नहीं खोता,
मन के निग्रह, मन पर विजय एवं मनोऽनुशासन तथा मनः स्वस्थ मन से शान्त होकर घटना पर विचार करता है और अपने
स्थैर्य के इतने साधन एवं विविध विधि-विधान व उपाय बताए हैं, उपादान को सुधारने और परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाने का
इन सबमें सुलभ है इन्द्रिय-जय। वायुवेग-सम चंचल मन को प्रयत्न करता है।
निग्रहीत करने के लिए वासना, तृष्णा और अहंता के क्षेत्र में लगने मनोनिग्रह से ही जीवन परिवर्तन साध्य है
वाली उसकी घुड़दौड़ को कम करना है। वासना आदि में ही उसे Poope
___मनोनिग्रह करने का असाधारण महत्व इसलिए बताया है कि रसों का अनुभव होता है। यदि इन तीनों से मन का मुख निजी जीवन की लगाम जिस भी दिशा विशेष में मोड़नी पड़े, उसमें । मोड़/सिकोड़ लिया जाए तो मनोनिग्रह की अनायास ही सिद्धि हो मन का पुरुषार्थ ही काम देता है। भवबन्धनों में उसी की ललक सकती है। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा गया हैलिप्साएँ बांधती हैं और उसी के दृढ़ संकल्प बल से भव बन्धन की
जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुव्वइ। बेड़ियाँ कटती हैं। प्रतीत तो ऐसा होता है कि शरीर को इन्द्रियों या
साहीणे वमइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ॥ आदतों ने जकड़ रखा है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं। आदतों को मन ही अपनाता है, उसी को परतों में वे अपना घोंसला बनाती हैं,
जो व्यक्ति अपने स्वाधीन कान्त, प्रिय, मनोज्ञ भोगों को प्राप्त इन्द्रियाँ और कामनाएँ भी मन की ही उधेड़बुन हैं। मन चाहे तो
हो सकने की स्थिति में भी उनकी ओर पीठ कर लेता है, मन । कामनाओं को चाहे जब उधेड़कर फैंक सकता है। मकड़ी अपना
उनकी ओर से मोड़ लेता है, वही वास्तव में त्यागी है, मनोविजेता जाला स्वयं ही बुनती है और स्वयं ही उस जाले को तोड़कर बाहर
है, संकल्पवशकर्ता है। इसीलिए पाँचों इन्द्रियों के विषयों का बाह्य आती है। इसी प्रकार मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को अच्छे बुरे
रूप से त्याग कर लेने पर भी उनके प्रति मन ही मन आसक्ति, रूप में निर्मित करना, उन्हें सुदृढ़ करना अथवा हटाना-मिटाना मन रसानुभूति या मूच्छा हा ता वह मनाानग्रह कच्चा हा इन्द्रियनवषया की संकल्प शक्ति का खेल है। शरीर और इन्द्रियाँ पुराने अभ्यासों
को मन से भी न चाहने, अथवा आत्मा को मन के चलाए न चलने को छोड़ने में थोड़ी ननुनच करती हैं, परन्तु मन की सर्वथा
की कला आ जाए तो मनोनिग्रह पक्का समझना चाहिए। अभ्यास के अवज्ञा करने की सामर्थ्य उनमें नहीं है। थोड़ा-सा मन को मजबूत
साथ वैराग्य भी मन को वश में करने का साधन है। सम्यग्ज्ञान का और कठोर रखने और इन्हें फटकारने भर से मनचाही अच्छी राह
फलितार्थ है, अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति। उसका परिणाम हैपर इन्हें चलाना आसान है। कहावत है-“मन के हारे हार है, मन
वैराग्य। अपने अस्तित्व अपने आत्मगुणों के प्रति अनुराग ही, के जीते जीत।' मन के बदलते ही निकृष्ट को श्रेष्ठ और श्रेष्ठ को
पर-पदार्थों के प्रति विरक्ति है। आत्मज्ञान की स्थिरता और निर्मलता
ही वैराग्य है। निकृष्ट बनते देर नहीं लेती। बाहर वालों के दिए हुए उपदेश
इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दिए जाते हैं। परन्तु आत्मा का शासन क्षेत्र मन है। आत्मा की पवित्रता, प्रखरता 20.00 885
मनरूपी बाजीगर धारले और किसी तथ्य को आत्मसात् कर ले तो और तेजस्विता किस हद तक ऊँची उठी है, इसकी प्रगति अप्रगति
वह पलभर में बाजी बदल सकता है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, } का मापदण्ड है-मन को निग्रहीत और सुनियोजित करने में मिली 209
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वाग्देवता का दिव्य रूप
हुई सफलता-असफलता । मन किस सीमा तक परिमार्जित हुआ, इसकी जाँच वासना, तृष्णा और अहंता के सूक्ष्म क्षेत्र पर कसौटी लगाने से ही हो जाती है।
इन्द्रियों व शरीर पर आधिपत्य है-मन का; और आत्मा का आधिपत्य है-मन पर मन कहाँ, क्या और कैसा कौतुक रच रहा है? कहाँ-कहाँ वह दौड़ लगा रहा है? इसके लिए परीक्षा क्षेत्र इन्द्रियाँ ही हैं। इन्हें नियंत्रित करना ही मोटे तौर पर मनोनिग्रह की सच्ची कसौटी है । इन्द्रियों के साथ द्रव्यमन गुंथा हुआ है। व्यक्तिगत चरित्र और चिन्तन के स्तर को समझने के लिए भी इन्द्रियों की वासनावृत्ति का देखना-परखना होता है। आचार्यश्री तुलसी ने एक ग्रन्थ की रचना की है, उसका नाम है-मनोऽनुशासनम् - " मन पर अनुशासन" उसमें उन्होंने मन को अनुशासित-निगृहीत- प्रशिक्षित करने के लिए ५ अनुशासन और बताएँ हैं-१. आहार का अनुशासन, २. शरीर का अनुशासन, ३. इन्द्रिय- अनुशासन, ४. श्वास का अनुशासन और ५. भाषा का अनुशासन । एक मनोदेव को सिद्ध करने के लिए पाँच अन्य देवों की साधना करनी पड़ती है, ऐसा क्यों? सीधे ही मन पर अनुशासन क्यों नहीं हो सकता? इसका समाधान यह है कि मन का आहार, शरीर, इन्द्रिया, श्वास, भाषा आदि के साथ सीधा संबंध है आहार-शुद्धी सत्वशद्धिः सत्वशुद्ध ध्रुवा स्मृति, ऐसा उपनिषद में कहा गया है। शरीरादि को सुशिक्षित न किया जाए तो मन पूर्ण रूप से निगृहीत नहीं हो सकता। एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाने के लिए बीच के आकाश को रज्जुमार्ग से रस्सी के सहारे पार किया जाता है। मनोऽनुशासन अध्यात्म मार्ग है, वह आकाशवत् निरालम्ब है, किन्तु मनोऽनुशासन तक पहुँचने के लिए ये बीच के रज्जुमार्गवत् आलम्बन बहुत जरूरी है।
इन पाँचों इन्द्रियों पर नियंत्रण पूर्वोक्त मोर्चों पर अनुशासन करने से होगा। सर्वप्रथम रसनेन्द्रिय नियंत्रण को लें। इससे स्वाद चखना और भाषा बोलना, ये दोनों काम होते हैं। दोनों पर अंकुश रखने से ही मन पर नियंत्रण या अनुशासन हो सकेगा। दूसरी हैकामेन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) नियंत्रण। स्वादेन्द्रिय और वचनेन्द्रिय (जिह्वा) पर अनुशासन की तरह बल्कि इससे भी अधिक कठोरतापूर्वक नियंत्रण कामेन्द्रिय पर रखा जाए तो मनोनिग्रह आसान होगा। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय चक्षुरेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय पर भी कड़ाई से नियंत्रण रखा जाए तो मन सहज ही वश में आ जाता है। कुछ दिनों के सतत अभ्यास से तथा अनुप्रेक्षा चिन्तन के फल स्वरूप वैराग्य से मनोनिग्रह बहुत ही सफल हो जाता है वैसे देखा जाए तो मनोनिग्रह बहुत ही सरल हो जाता है, पूर्वोक्त प्रकार के अभ्यास और वैराग्य से किन्तु जिन्हें अपने रूढ़ परम्परा और ढर्रे पर ही चलना है, उनके लिए मनोनिग्रह कठिन है, ऐसे लोग मनोनिग्रह न कर पाने के कारण नाना दुःखों से रोगों से और कष्टों से घिरे रहते हैं।
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जपयोग की विलक्षण शक्ति
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ बहनो!
आज मैं आपको जप की विलक्षण शक्ति के विषय में सभी पहलुओं से बताऊँगा।
जप क्या है?
स्थूलदृष्टि से देखने पर यही मालूम होता है कि जप शब्दों का पुनरावर्तन है। किसी भी इष्टदेव, परमात्मा या वीतराग प्रभु के नाम का बार-बार स्मरण करना, या किसी मंत्र या विशिष्ट शब्द का बार-बार उच्चारण करना जप है। इसे जाप भी कहते हैं। पदस्थ ध्यान का यह एक विशिष्ट अंग है।
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शब्दों के बार-बार उच्चारण से क्या लाभ?
प्रश्न होता है-शब्दों का उच्चारण तो संसार का प्रत्येक मानव करता है। पागल या विक्षिप्तचित्त व्यक्ति भी एक ही बात (वाक्य) को बार-बार दोहराता है अथवा कई राजनीतिज्ञ या राजनेता भी अपने भाषण में "गरीबी हटाओ", "स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है", अथवा “भारत छोड़ो” आदि नारे लगवाते हैं। कई लोग रात-रात भर हरे राम हरे कृष्ण आदि की धुन लगाते हैं, अथवा कीर्तन करते-कराते हैं, कई लोग तो रात-रात भर जागकर भजन करते हैं, लाउडस्पीकर के द्वारा कीर्तन, जप, या धुन लगाते हैं, क्या इनसे कोई लाभ होता है ? क्या ये शब्दोच्चारण आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति करते हैं ?
शब्द शक्ति का प्रभाव
इसका समाधान यह है कि वैसे प्रत्येक उच्चारण किया हुआ या मन में सोचा हुआ शब्द चौदह रज्जू प्रमाण (अखिल ) लोक (ब्रह्माण्ड ) में पहुँच जाता है। जैसे भी अच्छे या बुरे शब्दों का उच्चारण किया जाता है, या सामूहिक रूप से नारे लगाये जाते हैं, या बोले जाते हैं, उनकी लहरें बनती हैं, वे आकाश में व्याप्त अपने सजातीय विचारयुक्त शब्दों को एकत्रित करके लाती है। उनसे शब्दानुरूप अच्छा या बुरा वातावरण तैयार होता है। अच्छे शब्दों का चुनाव अच्छा प्रभाव पैदा करता है, और बुरे शब्द बुरा प्रभाव डालते हैं। अधिकांश लोग शब्दशक्ति को कैवल जानकारी के आदान-प्रदान की वस्तु समझते हैं। वे लोग शब्द की विलक्षण शक्ति से अपरिचित हैं वे शब्दोच्चारण की अचिन्त्यशक्ति से बहुत कम परिचित हैं। शब्दों के साथ-साथ अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की शक्ति साहित्य दर्पण आदि साहित्य ग्रन्थों ने स्वीकार की है इतना ही नहीं, शब्दों के साथ-साथ अनेकानेक भाव, प्रेरणाएँ, संवेदनाएं एवं अभिव्यंजनाएं भी जुड़ी हुई होती हैं। यही कारण है कि कटुशब्द सुनते ही क्रोध, रोष एवं आवेश उभर आता है और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप न कहने योग्य कहने और न करने योग्य । मंत्र जप से अनेक लाभ करने की स्थिति निर्मित हो जाती है।
वैज्ञानिकों ने अनुभव किया है कि समवेत स्वर में उच्चारित अच्छे-बुरे शब्दों का अचूक प्रभाव
| मंत्र पृथ्वी के अयन मण्डल को घेरे हुए विशाल चुम्बकीय प्रवाह वीतरागी या समतायोगी को छोड़कर शब्द का प्रायः सब लोगों
शूमेन्स रेजोनेन्स से टकराते हैं और लौटकर समग्र पृथ्वी के के मन पर शीघ्र असर होता है। अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय शब्द के
वायुमण्डल को प्रभावित करते हैं। शूमेन्स रेजोनेन्स के अन्तर्गत जो असर से प्रायः सभी लोग परिचित हैं।
गति तरंगों की रहती है, वही गति मंत्रजाप करने वाले साधकों की
तन्मयता एवं एकाग्रता की स्थिति में मस्तिष्क से रिकार्ड की जाने महाभारत की कथा प्रसिद्ध है। दुर्योधन को द्रौपदी द्वारा कहे
वाली अल्फा-तरंगों की (७ से १३ सायंकाल प्रति सैकण्ड) होती है। गए थोड़े से व्यंग भरे अपमानजनक शब्द-"अंधे के पुत्र अंधे ही
व्यक्ति चेतना और समष्टि चेतना में कितना ठोस साम्य है, यह होते हैं" की प्रतिक्रिया इतनी गहरी हई कि उसके कारण महाभारत
साक्षी वैज्ञानिक उपलब्धि देती है। इतना ही नहीं, मंत्रविज्ञानवेत्ता के ऐतिहासिक युद्ध का सूत्रपात हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहिणी
विभिन्न मंत्रों द्वारा शाप-वरदान, विविध रोगों से मुक्ति, आधिसेना मारी गई।
व्याधि-उपाधि से छुटकारा, भूत-प्रेतादिग्रस्तता-निवारण तथा मारण, स्वामी विवेकानंद के पास कुछ पंडित आए। वे कहने लगे क्या मोहन, उच्चाटन, कृत्याघात आदि प्रयोगों का दावा करते हैं और पड़ा है-शब्दों में। जप के शब्दों का कोई प्रभाव या अप्रभाव नहीं कर भी दिखाते हैं। होता। वे जड़ हैं। आत्मा पर उनका क्या असर हो सकता है? स्वामीजी कुछ देर तक मौन रहकर बोले-"तुम मूर्ख हो, बैठ
संगीतगत शब्दों का विलक्षण प्रभाव जाओ।" इतना सुनते ही सब आगबबूला हो गए और उनके चेहरे
लय-तालबद्ध गायन तथा सामूहिक कीर्तन संगीत के रूप में क्रोध से लाल हो गए। उन्होंने कहा-“आप इतने बड़े संन्यासी
शब्दशक्ति की दूसरी महत्वपूर्ण विधा है। इसका विधिपूर्वक होकर गाली देते हैं। बोलने का बिल्कुल ध्यान नहीं है आपको?" सुनियोजन करने से प्रकृति में वांछित परिवर्तन एवं मन-वचन-काया विवेकानंद ने मुस्कराते हुए कहा-“अभी तो आप कहते थे, शब्दों को रोग मुक्त करना संभव है। संगीत से तनाव शैथिल्य हो जाता का क्या प्रभाव होता है? और एक "मूर्ख" शब्द को सुनकर । है। वह अनेकानेक मनोविकारों के उपचार की भी एक नोवैज्ञानिक एकदम भडक गए। हुआ न शब्दों का प्रभाव आप पर?" वे सब
विधा है। संगीत के सुनियोजन से रोग-निवारण, भावात्मक पंडित स्वामी विवेकानंद का लोहा मान गए।
अभ्युदय, स्फूर्तिवर्धन, वनस्पति-उन्नयन, गोदुग्ध-वर्धन तथा प्राणियों जैन इतिहास में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की घटना प्रसिद्ध है। वे वन
की कार्यक्षमता में विकास जैसे महत्वपूर्ण लाभ संभव हैं। में प्रसन्न-मुद्रा में पवित्र भावपूर्वक ध्यानस्थ खड़े थे। मगध नरेश । विभिन्न रागों का विविध प्रभाव श्रेणिक नृप भगवान महावीर के दर्शनार्थ जाने वाले थे। उनसे पहले
गन्धर्ववेद में बताया गया है-श्री राग, मालकोष राग, दो सेवक आगे-आगे जा रहे थे। उनमें से एक ने उनकी प्रशंसा की,
भैरवराग, हिण्डोलराग, मेघ मल्हारराग, विहागराग आदि का जबकि दूसरे ने उनकी निन्दा की और कहा-"यह काहे का साधु
नियमानुसार ऋतु, समय एवं प्रकृति के विधानानुसार प्रयोग किया है? यह जिन सामन्तों के हाथ में अपने छोटे-से बच्चे के लिए
जाए तो इनसे जड़ चेतन सभी पर संगीत शक्ति का वांछित प्रभाव राज्यभार सौंपकर आया है, वे उस अबोध बालक को मारकर
पड़ता है। गायक की पात्रता, पवित्रता एवं शुद्ध भावना की भी स्वयं राज्य हथियाने की योजना बना रहे हैं। इस साधु को अपने
इसमें अनिवार्यता है। शास्त्रीय संगीत का प्रभाव प्राचीनकाल में भी अबोध बच्चे पर बिल्कुल दया नहीं है।" इस प्रकार के निन्दा भरे ।
था, आज भी है। दीपक राग में दीपकों के जल जाने का, शब्द सुनते ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि अपने आपे में न रहे। वे मन ही
मेघमल्हार राग में बादलों को बरसने के लिए विवश कर देने का, मन शस्त्रास्त्र लेकर शत्रुओं से लड़ने का उपक्रम करने लगे।
शंकर राग से मदमस्त हाथियों को वश में करने का और श्रीराग में श्रेणिक राजा द्वारा भगवान महावीर से पूछने पर उन्होंने सारी सखे वृक्षों को हरा कर देने का सामर्थ्य था। संगीत विज्ञानवेत्ता घटना का रहस्योद्घाटन करते हुए राजर्षि की पहले, दूसरे से बताते हैं कि भैरवी राग से कष्ट का प्रकोप, मल्हारराग से बढ़ते-बढ़ते सातवें नरक गमन की अशुभभावना बताई परन्तु कुछ मानसिक चंचलता एवं क्रोध, तप्त रक्त की अशुद्धि आसावरी राग ही देर बाद राजर्षि की भावधारा एकदम मुड़ी वे पश्चात्ताप और ।
से मिट जाना संभव है। श्वास संबंधी असाध्य कष्ट, तपेदिक, तीव्रतम आत्मनिन्दा करते-करते सर्वोच्च देवलोक गमन की
खांसी, दमा आदि श्वास रोगों का भैरवीराग से, यकृत प्लीहा वृद्धि संभावना से जुड़ गए। फिर घोर पश्चात्ताप से घाती कर्मदलिकों को }
तथा मेदस्वृद्धि का हिंडोल राग से तथा जठराग्नि संबंधी रोगों का नष्ट करके केवलज्ञान को प्राप्त हुए और फिर सर्वकर्मों का क्षय
निवाया हो सकता है। बाल गजरिया मग करके सिद्ध बुद्ध मुक्त बन गए।
सुनाकर राणा राजसिंह को अनिद्रा रोग से मुक्ति दिलाई थी। यह था शब्द का अमोघ प्रभाव।
ऐलोपैथी ने अल्ट्रासाउण्ड को मान्यता देकर शब्दशक्ति की महत्ता
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वाग देवता का दिव्य रूप
मान ली है। अमेरिका के पिट्सवर्ग में डॉ. राल्फ लारेंस ने भी संगीत से रोगनिवारण की आर्यपद्धति के आधार पर अपने आश्रम में चिकित्सा करके अनेक रोगियों को कष्ट मुक्त किया है। डॉ. पोडोलस्की एवं डॉ. मेकफेडेन भी सारा उपचार सोनोथेरेपी के माध्यम से करते हैं।
शब्द में विविध प्रकार की शक्ति
शब्द में मित्रता भी उत्पन्न करने की शक्ति है, शत्रुता भी । पाणिनी ने महाभाष्य में बताया है- “एकः शब्दः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुक भवति" प्रयोग किया एक भी अच्छा शब्द स्वर्गलोक और इहलोक में कामदुहा धेनु के समान होता है। शोक-संवाद सुनते ही मनुष्य अर्धमूर्च्छित-सा एवं विह्वल हो जाता है। उसकी नींद, भूख और प्यास मारी जाती है। तर्क, युक्ति, प्रमाण एवं शास्त्रोक्ति तथा अनुभूति के आधार पर प्रभावशाली वक्तव्य देते ही तुरन्त जनसमूह की विचारधारा बदल जाती है, वह बिल्कुल आगा-पीछा विचार किए बिना कुशल वक्ता के विचारों का अनुसरण करने को तैयार हो जाता है। ये तो शब्द के स्थूल प्रभाव की बातें हैं।
शब्दों का सूक्ष्म एवं अदृश्य प्रभाव
शब्द का अत्यन्त सूक्ष्म एवं अदृश्य प्रभाव भी होता है। मंत्र के शब्दों और संगीत के शब्दों द्वारा वर्तमान युग में कई अद्भुत परिणाम ज्ञात हुए हैं। मंत्रशक्ति और संगीत शक्ति दोनों ही शब्द की शक्ति है। पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र गर्भित विभिन्न मंत्रों द्वारा आधि, व्याधि, उपाधि, पीड़ा, विविध दुःसाध्य रोग, चिन्ता आदि का निवारण किया जाता है, अन्य मंत्रों का भी प्रयोग विविध लौकिक एवं लोकोत्तर लाभ के लिए किया जाता है।
गायन द्वारा अनेक रोगों से मुक्ति संभव
आयुर्वेद के भेषजतंत्र में चार प्रकार के भेषज बतलाये गए हैं-पवनौकष, जलीकष, वनौकष और शाब्दिक। इसमें अन्तिम भेषज से आशय है-मंत्रोच्चारण एवं लयबद्ध गायन आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ- चरकसंहिता सुश्रुतसंहिता आदि में ज्वर, दमा, सन्निपात, मधुमेह, हृदयरोग, राजयक्ष्मा, पीलिया, बुद्धिमन्दता आदि रोगों में मंत्रों से उपचार का उल्लेख है। जबकि सामवेद में ऋषिप्रणीत ऋचाओं के गायन द्वारा अनेक रोगों से मुक्ति का उपाय बताया गया है।
शब्दों के हस्व, दीर्घ, प्लुत तथा सूक्ष्म-सूक्ष्मतर- सूक्ष्मतम उच्चारण का प्रभाव
मंत्रोच्चारण से उत्पन्न ध्वनि-प्रवाह व्यक्ति की समग्र चेतना को प्रभावित करता है और उसके कम्पन अन्तरिक्ष में बिखर कर समष्टि चेतना को प्रभावित करके परिस्थितियों को अनुकूल बनाते हैं।
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शब्दों का उच्चारण हस्व, दीर्घ और प्लुत तो प्रसिद्ध ही है। मंत्र विज्ञानवेत्ताओं का कहना है-हस्व-उच्चारण से पाप नष्ट होता है, दीर्घ उच्चारण से धनवृद्धि होती है और प्लुत उच्चारण से होती हैज्ञानवृद्धि । इनके अतिरिक्त अध्यात्म विज्ञानवेत्ता तीन प्रकार के उच्चारण और बताते हैं- १. सूक्ष्म, २. अति सूक्ष्म और परम सूक्ष्म । ये तीनों प्रकार के उच्चारण मंत्र जप करने वाले साधक को ध्येय की अभीष्ट दिशा में योगदान करते हैं। एक ही "ॐ" शब्द को लें। इसका हस्व, दीर्घ और प्लुत उच्चारण करने से अभीष्ट लाभ होता है किन्तु इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म जप करने पर या 'सोऽहं" आदि के रूप में अजपाजप करने पर तो धीरे-धीरे ध्येय के साथ जपकर्ता का तादात्म्य बढ़ता जाता है, समीप्य भी होता जाता है।
इस प्रकार मंत्रोच्चारण एवं संगीत प्रयोग से असाध्य से असाध्य समझे जाने वाले रोगों की चिकित्सा, मानसिक बीद्धिक चिकित्सा का विधान पुरातन ग्रन्थों में है। शब्दतत्व में असाधारण जीवनदात्री क्षमता विद्यमान है। यह सिद्ध है।
शब्दशक्ति का स्थूल और सूक्ष्म प्रभाव बन्धुओ !
शब्द की शक्ति अद्भुत है जब हम कण्ठ तालु, जिह्वा आदि मुख्य अवयवों की सोद्देश्य रचना करके सुगठित शब्द-समुच्चय का उच्चारण करते हैं तो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती हैं। जिनका प्रभाव स्थूल शरीर के अंगोपांगों पर तो पड़ता ही है, सूक्ष्म शरीर स्थित उपत्यकाओं, नाड़ी-गुच्छकों तथा विद्युत प्रवाहों पर भी प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। इस प्रकार शब्दशक्ति सर्वप्रथम अपने उत्पादन स्थल को और बाद में आसपास के स्थलों को उसी प्रकार प्रभावित करती है, जिस प्रकार आग जहाँ पैदा होती है, सर्वप्रथम उस स्थान को गर्म कर देती है, उसके बाद आस-पास के पूरे क्षेत्र को प्रभावित करती है।
मंत्र जप की ध्वनि जितनी सूक्ष्म, उतना ही अधिक शक्ति लाभ
तब
एक चिन्तक ने बताया कि जैसे हम “अर्हम्" का उच्चारण नाभि से शुरू करके क्रमशः हृदय, तालु, बिन्दु और अर्धचन्द्र तक ऊपर ले जाते हैं, तो इस उच्चारण से क्या प्रतिक्रिया होती है ? उस पर भी ध्यान दें। जब हमारा उच्चारण सूक्ष्म हो जाता है, ग्रन्थियों का भेदन होने लगता है। आज्ञाचक्र तक पहुँचते-पहुँचते हमारी ध्वनि यदि अतिसूक्ष्म-सूक्ष्मतम हो जाती है तो उन ग्रन्थियों का भी भेदन शुरू हो जाता है, जो ग्रन्थियां सुलझती नहीं हैं, वे भी इन सूक्ष्म उच्चारणों से सुलझ जाती हैं।
निष्कर्ष यह है कि जब हमारा संकल्प सहित मंत्रजप स्थूलवाणी से होगा, तो इतना पावरफुल नहीं होगा, न ही हम यथेष्ट लाभ १. देखें - चित्त और मन (युवाचार्य महाप्रज्ञ) में, पृ. ४२
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्राप्त कर सकेंगे, हमारा जप तभी शक्तिशाली और लाभदायी होगा, तीन प्रकार से होता है-(१) जोर से बोल कर, (२) होठों से जब हमारा संकल्पयुक्त जप सूक्ष्म वाणी से होगा।
बुदबुदा कर और (३) मौन रहकर मन ही मन। इन तीनों में जप भावना, शुद्ध उच्चारण और तरंगों से मंत्रजप
का तीसरा प्रकार उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली माना जाता है। शक्तिशाली एवं लाभदायी।
प्रत्येक धर्म में जप की मान्यता और उपयोगिता मंत्र शक्तिशाली और अभीष्ट फलदायी तभी होता है, जब मंत्र । प्रत्येक धर्म की परम्परा में किसी न किसी रूप से जप का के शब्दों के साथ भावना शुभ और उच्चारण शुद्ध होता है। उससे विधान है। जैन "नवकार महामंत्र" का, बौद्ध-"नम्मो हो रेंगे क्यों' विभिन्न तरंगें पैदा होती जाती हैं। अतः मंत्रों की शब्दशक्ति के साथ मंत्र का, वैदिक-"गायत्री मंत्र' का हिन्दू धर्म की अन्य सभी तीन बातें जुड़ी हुईं, १. भावना, २. उच्चारण और ३. उच्चारण से शाखाएं “ॐ” का, मुसलमान-"अल्लाह" का एवं ईसाई “गॉड"
उत्पन्न हुई शक्ति के साथ पैदा होने वाली तरंगें। किसी शब्द के । का जप करते हैं। यों देखा जाए तो हजारों मंत्र हैं। मंत्रशास्त्र से वह उच्चारण से अल्फा तरंगें, किसी शब्द के उच्चारण से थेटा या बेटा संबंधित हजारों ग्रन्थ हैं। हजारों बीज मंत्र हैं। मंत्रजाप का
तरंगें पैदा होती है। ॐ के भावनापूर्वक उच्चारण से अल्फा तरंगें । पृथक्-पृथक् प्रभाव साधक के जीवन पर देखा जाता है। अमुकवध पैदा होती हैं, जो मस्तिष्क को प्रभावित एवं शिथिलीकरण करती । अमुक मंत्र प्रयोग से साधक के तन, मन, वचन, बुद्धि और हृदय
है। ॐ, ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ब्लूं, ऐं, अर्हम्, अ सि आ उ सा आदि में परिवर्तन होता है। मंत्रजप से अनेक बीमारियाँ और जितने भी मंत्र या बीजाक्षर हैं, उनसे उत्पन्न तरंगें ग्रंथि-संस्थान को मनोव्याधियां मिटती हैं, अनेक मनोविकृतियां दूर होती हैं। यही प्रभावित करती हैं तथा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सन्तुलित एवं । कारण है कि मुस्लिम-ईसाई-बौद्ध-जैन-वैदिक-पारसी आदि सभी धर्मों व्यवस्थित करती हैं।
के संतों और भक्तों के गले में, हाथ में अथवा कमर में माला
लटकती देखी जाती है। मंत्र जप के लिए शब्दों का चयन विवेकपूर्वक हो जैनाचार्यों ने बाक्सूक्ष्मत्व, वाग्गुप्ति तथा भाषासमिति का ध्यान
शब्दशक्ति का चमत्कार रखते हुए उन शब्दों का चयन किया है जो मंत्ररूप बन जाते हैं। पहले बताया जा चुका है कि शब्द शक्ति के द्वारा विविध रोगों
उन्होंने कहा कि साधक को यतनापर्वक उन शब्दों का चनाव करना की चिकित्सा होती है। अब तो शब्द की सूक्ष्म तरंगों के द्वारा THE चाहिए, जिनसे बुरे विकल्प रुक जाएं, जो उसकी संयम यात्रा को ऑपरेशन होते हैं, चीर-फाड़ होती है। ध्वनि की सूक्ष्म तरंगों के जल विकासशील और स्व-पर-कल्याणमय बनाएं एवं विघ्नबाधाओं से द्वारा अल्पसमय में हीरा काटा जाता है। शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि से 3 बचाएँ। जीवन में सुगन्ध भर जाए, दुर्गन्ध मिट जाए, जीवन मोक्ष वस्त्रों की धुलाई होती है। मकान के बंद द्वार, फाटक भी आवाज
के श्रेयस्कर पथ की ओर गति प्रगति करे, प्रेय के पथ से हटे, से खुलते और पुनः आवाज से बंद हो जाते हैं। यह है शब्दशक्ति उसी प्रकार के संकल्प एवं स्वप्न हृदयभूमि में प्रादुर्भत हों, जिनसे का चमत्कार। जप में शब्द शक्ति का ही चमत्कार है।
आत्म स्वरूप में या परमात्मभाव में रमण हो सके, परभावों और अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार विभावों से दूर रहा जा सके। “णमो अरिहंताणं' आदि पंचपरमेष्ठी
एक क्रम, एक सरीखी गति से सतत किए जाने वाले सूक्ष्म, नमस्कारमंत्र तथा नमो नाणस्स, नमो दसणस्स, नमो चरित्तस्स और
अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नमो तवस्स" आदि नवपद ऐसे शक्तिशाली शब्दों का संयोजन है।
देखा जा चुका है। इसी प्रकार प्रयोगकर्ताओं ने अनुभव करके भावना और श्रद्धा के साथ उनके उच्चारण (जप) से आधि, व्याधि
। बताया है कि एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीच में हक और उपाधि मिट कर अन्तरात्मा में समाधि प्राप्त हो सकती है।
लटका कर उस पर सिर्फ ५ ग्राम वचन के कार्क का लगातार उन्होंने कहा कि सम्यक्दृष्टि, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभ । शब्दाघात एक क्रम व एक गति से कराया जाए तो कुछ ही समय योग चेतना संयम एवं संवर की स्थिति भी उपर्युक्त पदों के के पश्चात् लोहे का गार्डर कांपने लगता है। पुलों पर से गुजरती भावपूर्वक उच्चारण (जप) से होने वाले ग्रन्थि भेद के द्वारा प्राप्त | सेना के लेफ्ट-राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से उत्पन्न हो सकती है। ग्रन्थि भेद होने से ये सब स्थितियाँ प्राप्त हो जाती हैं। हुई एकीभूत शक्ति के प्रहार से मजबूत से मजबूत पुल भी टूटकर साधक की जपनिष्ठा बढ़ने से सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद एवं मिट सकता है। इसलिए सेना को पैर मिलाकर पुल पर चलने से यतनापूर्वक शुभ या शुद्ध त्रियोग की दृष्टि विकसित होते देर नहीं मना कर दिया जाता है। मंत्रजप के क्रमबद्ध उच्चारण से इसी लगती। परन्तु यह सब विकास होता है-सूक्ष्म उच्चारण की विधि से प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है। मंत्रगत शब्दों के लगातार जाप करने से। धीरे-धीरे वाक्संवर की दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते | आघात से शरीर के अंतःस्थानों में विशिष्ट प्रकार की हलचलें साधक निर्विचारता निर्विकल्पता की भूमिका तक पहुँच जाता है। उत्पन्न होती हैं, जो आन्तरिक मूर्च्छना को दूर करती हैं एवं सुषुप्त परन्तु इसके लिए जप में सूक्ष्मतम उच्चारण होना अपेक्षित है। जप । आन्तरिक क्षमताओं को जागृत कर देती हैं।
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{ वाग देवता का दिव्य रूप
३४९16300008 शब्दशक्ति का माहात्म्य विभिन्न विज्ञों की दृष्टि में
लेना, उससे संबंधित आध्यात्मिक एवं मानसिक-बौद्धिक लाभों को नादयोग के द्वारा शब्दों की अनुपमेय शक्ति का परिचय प्राप्त
याद करके सजीव कर लेना तथा उस पर निष्ठा एवं आस्था में RRC होता है। नादयोग के प्रयोग द्वारा आत्मिक शक्तियों के परिचय के
दृढ़ता लाना, ये ही तो जपयोग के मूल उद्देश्य हैं। रूप में आन्तरिक ध्वनियों का साक्षात्कार किया जाता है। शब्द की जपसाधना से उत्कृष्ट आध्यात्मिक एवं भौतिक लाभ इस सूक्ष्म शक्ति का जब साधक विकास कर लेता है तो उसे सारा
जपसाधना का आश्रय लेने वाला साधक धीरे-धीरे इतना ऊंचा आकाश ही नहीं, सारा ब्रह्माण्ड शब्दमय लगता है। इसी आधार पर
उठ जाता है कि वह साधना से समाधि तक पहुँच जाता है। इससे वैयाकरण भर्तृहरि ने "शब्दः ब्रह्म" (शब्द ब्रह्मरूप है) कहा है।
आत्म साक्षात्कार एवं परमात्म साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त हो जाता नैयायिक-वैशेषिकों ने शब्द को आकाश का गुण माना है। किसी ने
है। यह मेरा अपना अनुभव है कि श्रद्धा, विश्वास एवं इच्छाशब्द को नित्य और किसी ने अनित्य माना है। योगदर्शन में कहा
शक्ति के साथ जप द्वारा नवकार मंत्र जैसे महामंत्रों में सन्निहित गया है-शब्द और आकाश दोनों पर संयम करने से स्वर-शक्ति की ।
| दिव्य आत्मशक्तियों को जगाया जा सकता है। सुप्रसिद्ध विचारक| वृद्धि होती है। पदार्थ-विज्ञानियों ने शब्द को भौतिक तरंगों का
"सर जान वुडरफ" ने अपने ग्रन्थ “गारलैण्ड ऑफ लेटर्स' में स्पन्दन भर कहा है। आधुनिक मनोविज्ञान ने पदार्थ विज्ञान से एक
लिखा है कि मंत्र या शब्दों की विशिष्ट रचना में गुप्त अर्थ एवं कदम आगे बढ़कर वाणी के वैचारिक प्रभाव की महत्ता स्वीकार
शक्ति होती है, जो अभ्यासकर्ता को दिव्य शक्तियों का पुंज बना की है तथा मानसोपचार में उसकी क्षमता के छोटे-मोटे प्रयोग भी
देती है। पातंजलयोगदर्शन में कहा गया है-मंत्रजप से सिद्धियां प्राप्त होने लगे हैं। किन्तु अध्यात्म विज्ञान ने माना है कि शब्द की
होती हैं। वैचारिक एवं संवेदनात्मक क्षमता भौतिक विज्ञान तथा प्राचीन मनोविज्ञान की विषयवस्तु न होकर आध्यात्मिक है।
आध्यात्मिक महत्व के अतिरिक्त जप का भौतिक महत्व भी
कम नहीं है। शरीर और मन में अनेकानेक शक्तियां, क्षमताएं - जप के साथ योग शब्द जोड़ने के पीछे आशय
आसन मारे बैठी है, जो विविध चक्रों, उपत्पिकाओं और ग्रंथियों में जप के साथ योग शब्द जोड़कर अध्यात्मनिष्ठों ने यह संकेत विद्यमान हैं। जपयोग की साधना द्वारा उन्हें जगाया जा सके तो किया है कि जप उन्हीं शब्दों और मंत्रों का किया जाए, जो साधक को अतीन्द्रिय और अलौकिक विशेषताएं और क्षमताएं प्राप्त आध्यात्मिक विकास के प्रयोजन को सिद्ध करता हो, जिससे व्यक्ति हो सकती हैं। ये सिद्धियां भौतिक प्रतिभा और आत्मिक शक्तियों के में परमात्मा या मोक्ष रूप ध्येय की प्रति तन्मयता, एकाग्रता, रूप में जिन साधना के आश्रय से विकसित हो सकती हैं, उनमें तल्लीनता एवं दृढ़निष्ठा जगे, आंतरिक सुषुप्त शक्तियां जगें। सबसे सुगम और सर्वप्रथम स्थान के योग्य जप को माना गया है। जपयोग में मंत्रशक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव का उपयोग किया जप से मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि सभी अन्तःकरण परिशुद्ध एवं जाता है तथा आत्मा में निहित ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख (आनंद), एकमात्र ध्येय में एकाग्र हो जाते हैं। आत्मबल आदि शक्तियों को अभिव्यक्त करने का पुरुषार्थ किया
जपयोग का महत्व क्यों ? जाता है।
वास्तव में जपयोग अचेतन मन को जागृत करने की एक नामजप से मन को प्रशिक्षित करने हेतु चार भूमिकाएं
वैज्ञानिक विधि है। आत्मा के निजी गुणों के समुच्चय को प्राप्त बन्धुओ!
करने के लिए परमात्मा से तादात्म्य जोड़ने का अद्भुत योग है।
इससे न केवल साधक का मनोबल दृढ़ होता है, उसकी आस्था नाम जप से मन को प्रशिक्षित करने हेतु मनोविज्ञान शास्त्र में
परिपक्व होती है, उसके विचारों में विवेकशीलता और समर्पणवृत्ति चार स्तर बताए हैं, १. लर्निंग, २. रिटेन्सन, ३. रिकॉल और ४.
आती है। बुद्धि भी निर्मल एवं पवित्र बनती है। जप से मनुष्य रिकाम्बिशन! लर्निंग का अर्थ बार-बार स्मरण करना, दोहराना है।
भौतिक ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है, यह इतना महत्वपूर्ण इस भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाता है। दूसरी परत
नहीं, उससे भी बढ़कर है, आध्यात्मिक समृद्धियों का स्वामी बनना। है-रिटेंसन अर्थात्-प्रस्तुत जानकारी या कार्यप्रणाली को स्वभाव का
5 जपयोग एक ऐसा विधान है, जिससे मनुष्य प्रेरणा प्राप्त कर अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है-रिकॉल, उसका अर्थ है-भूतकाल
भव-बन्धनों से मुक्त होने की दिशा में तीव्रता से प्रयाण कर सकता की उस संबंध में अच्छी बातों को पुनः स्मृतिपथ पर लाकर सजीव
है, साथ ही वह व्यक्तिगत जीवन में शांति, कषायों की उपशांति, कर लेना। चौथी भूमिका है-रिकाम्बिशन अर्थात् उसे मान्यता प्रदान
वासनाओं से मुक्ति पाने का अधिकारी हो जाता है। कर देना, उसे निष्ठा, आस्था एवं विश्वास में परिणत कर देना। जप साधना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। व्यक्ति नाम जप के विषय में विविध मनीषियों के उद्गार को समष्टि सत्ता से अथवा आत्मा को परमात्मसत्ता से जोड़ने के भारत के जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों धर्म परम्पराओं में जप लिए मन को बार-बार स्मरण दिलाना, उसे अपने स्वभाव में बुन । को अपनाया गया है। सूफी मत एवं कैथोलिक मत वाले इसे
की आस्था
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प्राचीनकाल से अपनाये हुए हैं। योगियों ने इसे स्वाध्याय का एक अंग माना है। जप यौगिक अभ्यास का महत्वपूर्ण अंग है। जप का अर्थ होता है-" किसी पवित्र मंत्र की लगातार बार-बार पुनरावृत्ति करते रहना। इसके बार-बार उच्चारण के अभ्यास से जपकर्ता अपने आपको अन्तिम उद्देश्य पर पहुँचने के योग्य बना लेता है।
रामकृष्ण परमहंस ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है" एकान्त में बैठकर मन ही मन भगवान् का नाम लेना जप है। इस प्रकार के नामस्मरण से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और उससे कषायों और रागद्वेषों से होने वाले बन्धन शिथिल होते हैं। पापवृत्तियां भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं।
कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने “जप को यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ यज्ञ और उसे अपनी विभूति बताया है।"
गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहूँ तो "विश्वासपूर्वक भगवद्-नाम-स्मरण से कठिन से कठिन संकटों पर विजय प्राप्त की जा सकती है, नाम जप का आश्रय लेने पर साधक या उपासक पर दशों दिशाओं से कल्याण की मंगलमयी अमृतवर्षा होती है । २"
?
शरीर पर मैल चढ़ जाता है तो उसे धोने के लिए लोग स्नान करते हैं। इसी तरह मन पर भी वातावरण में नित्य उड़ती फिरने वाली दुष्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है, उस मलिनता को धोने के लिए जप ही सर्वश्रेष्ठ सुलभ एवं सरल उपाय है। नामजप से इष्ट का स्मरण, स्मरण से आह्वान आह्वान से हृदय में स्थापन३ और स्थापन से उपलब्धि का क्रम चलना शास्त्रसम्मत भी है और विज्ञान सम्मत भी । अनभ्यस्त मन को जप द्वारा सही रास्ते पर लाकर उसे प्रशिक्षित एवं परमात्मा के साथ जुड़ने के लिए अभ्यस्त किया जाता है, परमात्म (शुद्ध आत्म) चेतना को जपकर्ता अपने मानस पटल पर जप द्वारा प्रतिष्ठित कर लेता है। जपयोग की प्रक्रिया से ऐसी चेतनशक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो साधक के तन-मन-बुद्धि में विचित्र चैतन्य हलचलें पैदा कर देती हैं। जप के द्वारा अनवरत शब्दोच्चारण से बनी हुई लहरें (Vibrations) अनन्त अन्तरिक्ष में उठकर विशिष्ट विभूतियों व्यक्तियों और परिस्थितियों को ही नहीं, समूचे वातावरण को प्रभावित कर देती हैं। सारे वातावरण में जप में उच्चरित शब्द गूँजने लगते हैं।
जपयोग से सबसे बड़ा प्रथम लाभ
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जपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी प्रक्रिया दोहरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है एक भीतर में दूसरी बाहर में जप के ध्वनि प्रवाह से शरीर में पत्र-तत्र सन्निहित अनेक चक्रों एवं उपत्यकाओं (नाड़ी संस्थानों) में एक विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। इस प्रकार के विशिष्ट शक्ति संचार की अनुभूति जपकर्ता
१. यज्ञानां जपयज्ञोस्मि
२. "नाम जपत मंगलदिसि दसहूँ"
३. “स देवदेवो हृदये ममास्ताम् "
"
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-गीता अ. १० श्लोक-२५
- गोस्वामी तुलसी दास -अमितगतिसुरि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अपने भीतर में करता है, जबकि बाहरी प्रतिक्रिया यह होती है कि लगातार एक नियमित क्रम से किए जाने वाले विशिष्ट मंत्र के जप से विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं, जो समग्र अन्तरिक्ष में विशेष प्रकार का स्पन्दन उत्पन्न करती हैं, वह तरंग स्पन्दन प्राणिमात्र को और समूचे वातावरण को प्रभावित करता है।
मंत्रजाप से दोहरी प्रतिक्रिया : विकारनिवारण, प्रतिरोधशक्ति
प्रत्येक चिकित्सक दो दिशाओं में रोगी पर चिकित्सा कार्य करता है। एक ओर यह रोग के कीटाणुओं को हटाने की दवा देता है, तो दूसरी ओर रोग को रोकने हेतु प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ाने की दवा देता है। क्योंकि जिस रोगी में प्रतिरोधात्मक शक्ति कम होती है, उसे दी जाने वाली दवाइयां अधिक लाभदायक नहीं होतीं। जिस शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता होती है, वहीं दवाइयां ठीक काम करती हैं। इसीलिए डॉक्टर या चिकित्सक इन दोनों प्रक्रियाओं को साथ-साथ चलाता है। इसी प्रकार मंत्रजप से भी दोहरी प्रतिक्रिया होती है-१. मन के विकार मिटते हैं, २. आन्तरिक क्रोधादि रोगों से लड़ने की प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। मंत्र जाप से ऊर्जाशक्ति प्रबल हो जाती है, फलतः बाहर के आघात प्रत्याघातों को समभावपूर्वक झेलने और ठेलने की प्रतिरोधात्मक शक्ति बढ़ जाती है। मन पर काम, क्रोध, लोभ तथा राग-द्वेषादि विकारों का प्रभाव प्रायः नहीं होता। मंत्रजाप से इस प्रकार की प्रतिरोधात्मक शक्ति के अभिवर्धन के लिए तथा मन को इस दिशा में अभ्यस्त करने के लिए शास्त्रीय शब्दों में संयम और तप से आत्मा को भावित करने के लिए मंत्रजाप के साथ तदनुरूप भावना या अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा होने पर वह मंत्रजाप वज्रपंजर या सुदृढ़ कवच हो जाता है, जिससे मंत्र जपसाधक पर बाहर के आघातों का कोई असर नहीं होता और न ही काम-क्रोधादि विकार उसके मन को प्रभावित कर सकते हैं।
जपयोग में शब्दों के अनवरत पुनरावर्तन से लाभ
बार-बार रगड़ से गर्मी अथवा बिजली पैदा होने तथा पानी के बार-बार संघर्षण से बिजली (हाइड्रो इलेक्ट्रिक ) पैदा होने के सिद्धांत से भौतिक विज्ञानवेत्ता भली भांति परिचित हैं। जपयोग में अमुक मंत्र या शब्दों का बार-बार अनवरत उच्चारण एक प्रकार का घर्षण पैदा करता है। जप से गतिशील होने वाली उस घर्षण प्रक्रिया से साधक अन्तर में निहित दिव्य शक्ति संस्थान उत्तेजित और जागृत होते हैं, तथा आन्तरविद्युत् (तेजस शक्ति) अथवा ऊर्जाशक्ति की वृद्धि होती है। श्वास के साथ शरीर के भीतर शब्दों के आवागमन से तथा रक्ताभिसरण से गर्मी उत्पन्न होती है, जो जपकर्ता के सूक्ष्म (तेजस्) शरीर को तेजस्वी, वर्चस्वी एवं ओजस्वी तथा आध्यात्मिक साधना के लिए कार्यक्षम बनाती है। साधक के जीवन की त्रियोग प्रवृत्तियां उसी ऊर्जा (तैजस्) शक्ति के सहारे चलती है।
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बाग देवता का दिव्य रूप
जपयोग की महान उपलब्धि
इन और ऐसी उपलब्धियों की अनुभूति जपयोग विधिविधानों का भलीभांति पालन करने वाला हर एक साधक कर सकता है। इस तथ्य को टाइपराइटर के उदाहरण से अच्छी तरह समझिए टाईपराइटर की कुंजियों को अंगुली से दबाने पर वे कुंजियां ( तीलियां) कागज पर गिरकर अक्षर छापने लगती हैं। मुख से उच्चारण किए जाने वाले मंत्र के शब्दों को टाईपराइटर की कुंजियां कह सकते हैं। मंत्रों का उच्चारण है-उन शब्द रूपी कुंजियों का दबाना। इस प्रक्रिया से उत्पन्न हुआ शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्मचक्रों तथा सूक्ष्मग्रंथियों तक पहुंचकर उन्हें जगाने की भूमिका निष्पन्न करता है। टाईपराइटर की कुंजियां दबाने से कागज पर अक्षरों के छपने की उपलब्धि के समान शक्ति संस्थानों की जागृति है, जो उपलब्धि के रूप में प्रत्येक उपयोग के सायक को दिखाई पड़ती है।
जपनीय शब्दों की पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार
मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमें कोई भी बात गहराई तक जमाने के लिए उसकी लगातार पुनरावृत्ति का अभ्यास करना होता है। पुनरावृत्ति से मस्तिष्क एक विशेष ढांचे में ढलता जाता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है, वह आदत में शुमार हो जाती है। जो विषय बार-बार पढ़ा, सुना, बोला, लिखा या समझा जाता है, वह मस्तिष्क में अपना एक विशिष्ट स्थान जमा लेता है। किसी भी बात को गहराई से जमाने के लिए उसकी पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है।
प्रारंभिक विद्यार्थियों को वर्णमाला के अक्षर, बारहखड़ी तथा गणित के पहाड़े कण्डस्थ कराने के लिए उन्हें प्रतिदिन दोहराना तथा स्लेट पर लिखाना पड़ता है। आगे चलकर विद्यार्थी इतना अभ्यस्त हो जाता है कि पुस्तक अतिशीघ्रता से पढ़ लेता है, गणित का कोई भी हिसाब मिनटों में जवानी करके बता देता है। यह पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार है योद्धाओं को प्रतिदिन कवायद तथा निशाना ताकने का अभ्यास करना होता है, इससे वह युद्ध भूमि में स्फूर्ति से सतर्क होकर लड़ सकता है। पुनरावृत्ति हमेशा अधिक प्रभावशाली होती है। जपयोग में पुनरावृत्ति ही अधिक महत्वपूर्ण है। बहुमूल्य रासायनिक औषधियां बनाने के लिए उनकी मात्रा में काफी देर तक घुटाई, पिसाई करनी होती है। रस्सी की बार-बार रगड़ से कुंए की पत्थर जैसी कठोर जगत पर निशान यह जाते हैं। पत्थर को मुलायम तथा चिकना करने के लिए घिसना पड़ता है। आटा पीसने की चक्की तथा तेल निकालने के कोल्हू में भी एक ही क्रिया का चक्रगति से प्रयोग चलता रहता है। कपड़े धोने के लिए उन्हें बार-बार फींचना पड़ता है। स्नान के लिए भी शरीर को रगड़ना पड़ता है। दांतों को चमकीला बनाये रखने के लिए ब्रश से या दतौन से घिसा जाता है। मशीनें भी बार-बार
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चलती हैं-गति करती हैं, तभी किसी चीज का उत्पादन कर सकती हैं। एक ही रास्ते पर बार-बार पशुओं व मनुष्यों के चलने से पगडंडियां बनती हैं। इसी प्रकार मंत्र जप के द्वारा नियमित रूप से अनवरत मंत्रगत शब्दों की आवृत्ति करने से जपकर्ता के अन्तरंग में वह स्थान जमा लेता है। उस लगातार जप का ऐसा गहरा प्रभाव व्यक्ति के अन्तर पर पड़ जाता है कि उसकी स्मृति लक्ष्य से संबंधित अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। चेतन मन में तो उसका स्मरण पक्का रहता ही है, अचेतन मन में भी उसका एक सुनिश्चिय स्थान बन जाता है। फलतः बिना ही प्रयास के प्रायः निद्रा और स्वप्न में भी जप चलने लगता है। यह है-जपयोग से पहला और महत्वपूर्ण लाभ |
जपयोग से दूसरा लाभः शब्द तरंगों का करिश्मा
जपयोग से दूसरा लाभ है अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाले दिव्य चैतन्य-प्रवाह से अभीष्ट परिमाण में शक्ति खींचकर उससे लाभ उठाना जैन दृष्टि से भी देखा जाए तो मंत्र के अधिष्टायक देवी-देव जपकर्ता साधक को अभीष्ट लाभ पहुंचाते हैं। इसका अर्थ है-मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म तरंगें विश्वब्रह्माण्ड (चीदह
प्रमाण लोक) में प्रवाहित ऊर्जाप्रवाह को खींच लाती है जिस प्रकार किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर उसमें से लहरे उठती हैं। और ये वहीं समाप्त न होकर धीरे-धीरे उस सरोवर के अन्तिम छोर तक जा पहुँचती हैं, उसी प्रकार मंत्रगत शब्दों के अनवरत जाप (पुनरावर्तन) से चुम्बकीय विचारतरंगें पैदा होती है, जो विश्व-ब्रह्माण्ड-रूपी सरोवर का अंतिम छोर विश्य के गोलाकार होने के कारण, वही स्थान होता है, जहां से मंत्रगत ध्वनि तरंगों का संचरण प्रारंभ हुआ था। इस तरह मंत्रजप द्वारा पुनरावर्तन होने से पैदा होने वाली ऊर्जा-तरंगें धीरे-धीरे बहती व बढ़ती चली जाती है और अन्त में एक पूरी परिक्रमा करके अपने मूल उद्गम स्थान - जपकर्ता के पास लौट आती हैं।
शब्द तरंगों की ब्रह्माण्डव्यापी यात्रा क्या और कैसी?
एक बात ध्यान में रखनी है कि शब्द तरंगों की यह यात्रा चुपचाप पूरी नहीं होती । तरंगों की चुम्बकीय शक्ति बहुत कुछ ग्रहण और विसर्जन करती चलती है। ये तरंगें जिस क्षेत्र से संपर्क बनाती हैं, उसे प्रभावित करती हैं और स्वयं भी प्रभावित एवं परिवर्द्धित होती हैं। उनका यह प्रभाव सजातीयता के सिद्धांत पर चलता है। "समानशील- व्यसनेषु सख्यम्" "समान आचार और व्यसन (आदत) वालों में दोस्ती हो जाती है," इस कहावता के अनुसार समानवर्ग के प्राणी या पदार्थ जैसे एक-दूसरे से प्रभावित एवं आकर्षित होते हैं, वैसे ही मस्तिष्क से उद्भूत तथा मुख से निकलने वाले भले-बुरे विचार या शब्द भी अपने साथ सजातीय विचारों व शब्दों का एक पूरा झुंड लेकर अपने उद्गम स्थान पर अपेक्षाकृत अधिक परिवर्द्धित एवं बलवत्तर होकर लौटते हैं।
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जप से उद्भूत सूक्ष्म विचार तरंगें स्वयं को तथा समस्त प्राणियों को प्रभावित करती हैं
निष्कर्ष यह है कि मंत्रजप के पुनरावर्तन से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म विचार-तरंगों की यात्रा भी इसी प्रकार प्रारंभ होती है। वे अपने सजातीयों को प्रभावित व आकर्षित करके उनकी शक्तियों और अनुभूतियों के अनुदान लेकर वापस लौटती है तथा अपनी चैतन्य विशेषताओं से साधक की शक्ति और क्षमता को भी कई गुनी बढ़ा देती हैं। प्रकृति का नियम है-सजातीयों का एकत्रीकरण होना पृथ्वी के गर्भ में स्थित खदानें इसी सिद्धांत पर बनती और बढ़ती चली जाती हैं। यह देखा गया है कि अमुक स्थान पर एकत्रित खनिज पदार्थ अपने में एक संयुक्त चुम्बकत्व उत्पन्न करते हैं। उस आकर्षण का प्रभाव जितनी दूर के क्षेत्र तक में होता है, वहां से उस जाति के बिखरे हुए कण खिंचते चले आते हैं। जितनी बड़ी व समृद्ध खान होती है, उतना ही सशक्त उसका चुम्बकत्व होता है, फिर उतने ही सुदूर क्षेत्र तक उसकी आकर्षण प्रक्रिया होती है। धातु आदि की खानों के अपना कद व आकार बढ़ाते रहने का यही अचूक आधार है। मंत्रजाप की प्रक्रिया का भी यही आधार है। इस प्रक्रिया के अनुसार मनुष्य अपनी विचार-सम्पदा से जहां असंख्य प्राणियों और पदार्थों को लाभान्वित करता है, वहां उनसे स्वयं भी बहुत कुछ लाभान्वित होता है अशुभ विचारों के साथ भी यही प्रक्रिया लागू होती है वे दूसरों को भी हानि पहुँचाते हैं, किन्तु वापस लौटने पर उनकी परिवर्द्धित घातक शक्ति की हानि स्वयं को ही अधिक भुगतनी पड़ती है।
रेडियो प्रसारणों की तरह तरंगों से विचार प्रसारण
रेडियो प्रसारण के उदाहरण से इसे भलीभांति समझा जा सकता है रेडियो प्रसारणों में एक साधारण-सी आवाज को विश्वव्यापी बना देने तथा उसकी असामान्य गति बढ़ा देने में इलकेक्ट्रोमैगनेटिक तरंगों का ही हाथ होता है। पदार्थ विज्ञानविशेषज्ञ जानते हैं कि इलेक्ट्रो-मैगनेटिकवैक्स पर साउण्ड को सुपर इम्पोज कर लिया जाता है। फलतः एक क्षण में वे सारे विश्व की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्ति प्राप्त कर लेती है। इन्हीं शक्तिशाली तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में भेजे गए राकेटों की गतिविधि को धरती पर से नियंत्रित करने उन्हें दिशा-दर्शन करने तथा उनकी यांत्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूर्ण किया जाता है। सुपरसोनिक स्तर की तरंगों का मंत्रजप प्रक्रिया के द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। मंत्र जप के समय उच्चारण किए गए शब्द एवं उसके साथ श्रद्धा, निष्ठा तथा संकल्प के संयोग से वही क्रिया उत्पन्न होती है, जो रेडियो स्टेशन पर प्रसारण करते समय बोले गए शब्दों में होती है। कुछ ही क्षणों में वे शक्तिशाली होकर समस्त भूमण्डल पर प्रसारण का उद्देश्य पूरा करते हैं।
रेडियो स्टेशनों से प्रसारण आदि से निजी लाभ नहीं
रेडियो स्टेशनों से प्रसारण तो होता है, परन्तु स्थानीय स्तर पर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ उसकी कोई विलक्षणता नहीं दिखाई देती। लेझर किरणें फेंकने वाले यंत्रों में भी कोई प्रभाव नहीं देखा जाता। वे उन स्थानों को ही प्रभावित करती हैं, जहां उनकी आघात लक्ष्य होता है किन्तु जपयोग की प्रक्रिया के साथ ऐसी बात नहीं है। जपयोग से केवल समस्त संसार का वातावरण ही प्रभावित नहीं होता, अपितु साधक का अपना व्यक्तित्व भी प्रभावित, परिष्कृत और परिवर्तित होता है अर्थात् जपयोग में व्यापक वातावरण और जपकर्ता दोनों को प्रभावित करने की दुहरी सामर्थ्य है होना चाहिए उपयोग के साथ जुड़ी उपर्युक्त मर्यादाओं और वैज्ञानिक विधिविधानों का पालन किसका जप किया जाए?
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अब प्रश्न होता है कि जपयोग का साधक जप किसका करें ? वैसे तो जप करने के लिए कई श्रेष्ठ मंत्र हैं, कई पद हैं, कई श्लोक और गाथाएं हैं। जैन धर्म में सर्वश्रेष्ठ महामंत्र पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र है। वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र को सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। एक बात मंत्र का चयन करते समय अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए।
मंत्रों में अर्थ का नहीं, ध्वनि विज्ञान का महत्व है
मंत्रों में उनके अर्थ का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि ध्वनिविज्ञान का अर्थ की दृष्टि से नवकार महामंत्र या गायत्री मंत्र सामान्य लगेगा, परन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से अद्भुत और सर्वोपरि हैं ये । इसका कारण यह है कि मंत्र स्रष्टा वीतराग की दृष्टि में अर्थ का इतना महत्व नहीं रहा, जितना शब्दों का गुंथन महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीजमंत्र ऐसे हैं, जिनका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं निकलता, परन्तु वे सामर्थ्य की दृष्टि से विलक्षण है "ही" "श्री" "क्ली" ब्लू, ऐ, हूं, यं फट् इत्यादि बीज मंत्रों का अर्थ समझने की माथापच्ची करने पर भी सफलता नहीं मिलती, क्योंकि उनका मंत्र के साथ सृजन यह बात ध्यान में रखकर किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का तथा कितनी सामर्थ्य का शक्तिकम्पन उत्पन्न करता है, एवं जपकर्ता, अभीष्ट प्रयोजन और समीपवर्ती वातावरण पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ?
जपकर्ता की योग्यता, जपविधि और सावधानी
बीजमंत्रों का तथा अन्य मंत्रों का जाप करने से पूर्व इन तथ्यों पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। दूसरी बात यह है कि जप द्वारा किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसकी मंत्रस्रष्टा द्वारा बताई गई विधि पर पूरा धान देना चाहिए। कई विशिष्ट मंत्रों की जप साधना करने के साथ मंत्रजपकर्ता की योग्यता का भी उल्लेख किया गया है कि मंत्रजपकर्ता भूमिशयन करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, सत्यभाषण करे, असत्य व्यवहार न करे, मंत्रजाप के दौरान किसी से वाद-विवाद, कलह, झगड़ा न करे, कषाय उपशान्त रखे, मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा-निष्ठा रखे, आदर के साथ निरन्तर नियमित रूप से जाप करे। एक बात जप करने वाले व्यक्ति को यह भी ध्यान में
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
३५३ रखनी है कि जप करने का स्थान पवित्र, शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वहां कवि ने जप का अन्तस्तल खोल कर रख दिया है। जप के किसी प्रकार की गन्दगी न हो, जीवजन्तु, कीड़े-मकोड़े, मक्खी- समय किसी प्रकार की दुविधा, दुश्चिन्ता, अशांति, बेचैनी, स्पृहा, मच्छर आदि का उपद्रव या कोलाहल न हो, जपस्थल के एकदम फलाकांक्षा, लौकिक वांछा, ईर्ष्या, द्वेषभावना आदि नहीं हो तो जप निकट या एकदम ऊपर शौचालय (लेट्रीन) या मूत्रालय न हो, शांति, शुभ भावनाओं, समर्पण वृत्ति, दृढ़श्रद्धा एवं सर्वतापहारी, हड्डी या चमड़े की कोई चीज वहाँ न रखी जाए। जप करने वाला मानस में तन्मयता, एकाग्रता और आराध्य के प्रति तल्लीनता लाने व्यक्ति मद्य, मांस, व्यभिचार, हत्या, दंगा, मारपीट, आगजनी, वाला है। जप से सम्यग्ज्ञान-दर्शन, आत्मिक आनंद और आत्मशक्ति जूआ, चोरी आदि से बिल्कुल दूर रहे। तथा जप करने का स्थान, । पर आए आवरण दूर होकर इनका जागरण हो जाता है। गंगा की व्यक्ति, दिशा (पूर्व या उत्तर), माला, समय, आसन, वस्त्र आदि जो तरंगों के समान जप से उद्भूत तरंगें दूर-दूर तक फैलकर
Fe निर्धारित लिये हों, वे ही मंत्र की सिद्धि तक रखे जाएं।
वातावरण को शुद्ध बनाती है।
Po%2009 जप के साथ लक्ष्य के प्रति तन्मयता, भावना एवं तीव्रता हो । नाम जप के साथ उत्कट भावना ही जप का प्राण _कई भक्तिपरायण व्यक्ति अपने इष्टदेव पंचपरमेष्ठी, वीतराग किन्तु जप सिर्फ अक्षरों को दुहराते रहने की क्रिया तक ही जीवनमुक्त अरिहंत या निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा के जप को । सीमित नहीं रहना चाहिए। जप के मंत्राक्षर अन्तर को छूने चाहिए, ही अभीष्ट मानते हैं। इष्ट देव का जाप करने से उनका सान्निध्य मंत्र के अर्थ के साथ अपनी पवित्र भावना और श्रद्धा जुड़नी
और सामीप्य प्राप्त होता है। ऐसे दिव्यात्मा भी कभी-कभी प्रत्यक्ष चाहिए। यही जप का प्राण है। भावना का आरोपण अपने इष्टप्रभु दर्शन देते हैं और कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। परमात्मा या या परमेष्ठी के नाम या रूप के प्रति अन्यन्य भक्तिभाव या परमात्मपद की प्राप्ति ही मुमुक्षु साधक के जीवन का लक्ष्य होना तादाम्यभाव के साथ होना चाहिए। निरंजन-निराकार परमात्मा में चाहिए। ऐसे मुमुक्षु जपकर्ता को एकमात्र निरंजन निराकार परमात्मा साथ अपनी शुद्ध आत्मा के गुणों की तुलना करनी चाहिए। जप के के प्रति पूर्णश्रद्धा रखकर जप प्रारंभ करने से पूर्व उन्हें विधिपूर्वक प्रेम और आत्मभाव का इतना सघन समावेश होना चाहिए कि वंदना-नमस्कार करना चाहिए। उस जपकर्ता पुण्यात्मा में परमात्मा उनके दर्शन या मिलन की, उनके प्रति एकता या आत्मीयता की के प्रति तीव्र तन्मयता, तल्लीनता, एकाग्रता एवं पिपासा होनी यथा समर्पण की असाधारण उत्कण्ठा हो। अपनी आत्मा में जो चाहिए। ऐसे शुद्ध आत्मा से मिलन या तादात्म्य-पिपासा जितनी तीव्र कमियां और खामियां हों, उन्हें दूर करने की प्रबल भावना/तमन्ना होगी, उसी अनुपात में मिलन की संभावना निकट आएगी। जाप । होनी चाहिए। भावना का सम्पुट जितना उत्कट एवं गहन होगा, जप या नामस्मरण जितनी समर्पणवृत्ति, शरणागति एवं भक्ति, प्रीति उतना ही शीघ्र नाम-स्मरण का उद्देश्य पूर्ण एवं सफल होगा। के साथ किया जाएगा, उतनी ही शीघ्र सफलता मिलनी संभव है। अन्यथा तोते की तरह केवल शब्द रटने या ग्रामोफोन की तरह इसीलिए भक्तिवाद के आचार्य ने कहा-"जपात् सिद्धिः । केवल शब्दोच्चारण से न तो भक्त की भावना झंकृत होती है और जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः"-जप से सिद्धि होती है, जप । न ही भगवान् के समक्ष हृदय खोलकर आत्म निवेदन बनता है। से सिद्धि होती है, जप से अवश्य ही सिद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः जपकर्ता में जप के फल के प्रति आशंका या
अजपाजप-स्वरूप और प्रक्रिया संशय नहीं होना चाहिए।
प्राणायाम की ही एक विधा, जो विशुद्ध आध्यात्मिक है, जिसे
अजपाजप "सोऽहं साधना' या" हंसयोग कहा जाता है। विपश्यना जप का अन्तस्तल एवं माहात्म्य
ध्यान एवं प्रेक्षा ध्यान के साथ जप काफी सुसंगत है। किन्तु प्रेक्षा जप का माहात्म्य बताते हुए कवि ने कहा है
ध्यान एवं विपश्यना ध्यान में और इसमें थोड़ा सा अन्तर है। प्रेक्षा स्थिर मन से सारे जाप करो,
ध्यान या विपश्यना ध्यान में प्रारंभ में केवल श्वास के आवागमन भव-भव का संचित ताप हरो। ध्रुव ॥
को देखते रहने का अभ्यास है, परन्तु अजपाजप में पहले स्थिर यह जाप शांति का दाता है, दुविधा को दूर भगाता है।
शरीर और शांत चित्त होकर श्वास के आवागमन की क्रिया प्रारंभ मानस का सब सन्ताप हरो ॥ स्थिर.॥१॥
की जाती है। सांस लेते समय “सो" और छोड़ते समय “हम्" की जप से सब काम सुधरते हैं, दिल में शुभ भाव उभरते हैं।
ध्वनिश्रवण पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। चेतन से सदा मिलाप करो ॥ स्थिर.॥२॥
१. देखें प्रपंचतंत्र में सोऽहम् जप की साधना का विधानजब जप का दीपक जलता है, तब अन्तर का सुख फलता है।
देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवः सदाशिवः (सनातनः) त्यजेदज्ञान-निर्माल्यं करणी से अपने आप तरो ॥ स्थिर.॥३॥
सोऽहं भावेन पूजयेत्॥ गर अन्तर का मन चंगा है, यह जाप पावनी गंगा है।
देहरूपी देवालय में जीव रूपी शुद्धआत्मा (शिव) सदैव विराजमान हैं। तरंगों से “सुमेरू" नाप करो ॥ स्थिर.॥४॥
अज्ञान-निर्माल्य छोड़कर सोऽहं भाव से इसी की पूजा करें।
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इस अनायास जप साधना में ध्यानयोग भी जुड़ा हुआ है। इसमें श्वास के आवागमन पर सतर्क होकर ध्यान रखना और चित्त को एकाग्र करना पड़ता है। इतना न बन पड़े तो वायु के भीतर प्रवेश के साथ "सो" और निकलने के साथ "हम्" के श्रवण का तालमेल ही नहीं बैठता। इसलिए प्रत्येक श्वास की गतिविधि पर ध्यान रखना पड़ता है। इतना ध्यान जम जाए, तभी ध्वनिश्रवण का अगला कदम उठता है।
सोऽहं मंत्र का अर्थ और रहस्य
"सोऽहम् मंत्र वेदान्त का है, परन्तु जैनधर्न के आध्यात्मिक आचार प्रधान आगम- आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में आत्मा के अस्तित्व सूचक सूत्र में "सोहं शब्द प्रयुक्त किया है। वह भी आत्मा का परमात्मा के साथ आत्मगुणों में आत्म स्वरूप में एकत्व का सूचक है। वैसे भी सोऽहं में "सो" का अर्थ यह और "अहम्" का अर्थ में है। यानी यह परमात्मा में (शुद्ध आत्मा) हूँ। तात्पर्य है- मैं परमात्मा के गुणों के समकक्ष हूँ। जितने मूल गुण परमात्मा में हैं, वे ही मेरी शुद्ध आत्मा में हैं। वेदान्त तत्वज्ञान का मूलभूत आधार है, उसी प्रकार "अप्पा सो परमप्पा" इस जैनतत्वज्ञान के निश्चयदृष्टिपरक तत्वज्ञान का आधार है। तत्त्वमसि शिवोऽहं यः परमात्मा स एवाऽहम् सोऽहम् सच्चिदानन्दोऽहम्, अयमात्मा ब्रह्म आदि सूत्रों में आत्मा और परमात्मा में समानता है "पंचदशी" आदि ग्रन्थों में इसी अनुभूति का दर्शन एवं प्रयोग विस्तृत रूप से बताया गया है। वस्तुतः अद्वैतसाधना, अथवा आत्मोपम्य साधना अथवा "ऐगे आया" की साधना का अभ्यास भी इसी प्रयोग के साथ संगत हो जाता है।
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गायत्री साधना की उच्च स्तरीय भूमिका में प्रवेश करते समय साधक को सोऽहम् जप की साधना का अभ्यास करना आवश्यक होता है अन्य जपों में तो प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना होता है, जबकि सोऽहम् का अजपाजप बिना किसी प्रयत्न के अनायास हो जाता है। इसीलिए इसे बिना जप किये जप- "अजपाजप" कहा जाता है। इसे योग की भाषा में अनाहत नाद भी कहते हैं।
सोऽहम् जप में आत्मबोध एवं तत्वबोध दोनों है
सोऽहम् जप साधना में आत्मबोध और तत्वबोध दोनों का सम्मिश्रण है। मैं कौन हूँ, इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया सः वह परमात्मा अहम् = मैं हूँ। इसे ब्रह्मदर्शन में आत्मदर्शन भी कह सकते हैं, यह आत्मा, परमात्मा की एकता-अद्वैत का ब्रह्मज्ञान है।
१. देखें आचारांग का वह पाठ "जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोहं ।" - आचारांग १/१/१/१/४
२. देखें सोऽहम् जप की विधि “योग रसायनम्" मेंहंसाहं सोहमित्यैवं पुनरावर्तनं क्रमात्।
सोऽहं सोऽहं भवेन्नूनर्हति सोहंविदा विदुः ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
इस ब्रह्मज्ञान के उदित हो जाने पर आत्मज्ञान, सम्यग्ज्ञान, तत्वज्ञान, व्यवहार्य सज्ञान आदि सभी की शाखा प्रशाखाएँ फूटने लगती हैं। इसीलिए "सोऽ "हं" जप को अतीव उच्चकोटि का जपयोग माना गया है। जैनदृष्टि से जाप एक प्रकार का पदस्थ ध्यान का रूप है। जाप के इन सब रूपों के लाभ, महत्व स्वरूप तथा प्रक्रिया एवं विधि-विधान को समझकर जपयोग-साधना करने से व्यक्ति परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
हंसो हंसोहं इस पुनरावृत्ति क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही सोऽहं सोऽहं, ऐसा जप होने लगता है इसे योगवेत्ता जानते हैं।
ध्यान योग : दृष्टि एवं सृष्टि
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म.
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ और बहनो !
इन दुःखों का मूल कारण है-मन का बाहर भटकना
आज विश्व में लगभग पांच अरब मनुष्य होंगे, उनमें से अधिकांश लोग दुःखी, अप्रसन्न, चिन्तातुर तनावग्रस्त, अस्वस्थ और कष्टों से घिरे हुए दिखाई देते हैं। कई लोग ऐसे भी हैं, जिनके पास धन और जीवन जीने के सभी साधन हैं, फिर भी वे मन ही मन चिन्ताग्रस्त रहते हैं। कई लोग ऐसे भी हैं जिनके पास वैभव का अम्बार लगा है, स्त्री, पुत्र, नौकर-चाकर आदि सभी उनके पास हैं, परन्तु वे उनकी आज्ञा में चलने को तैयार नहीं हैं। अथवा उनसे बढ़कर धनिकों और सुख-सामग्री वालों को देखकर या उनसे बढ़कर कीर्ति, प्रशंसा, वाहवाही वालों को देखकर उनके मन में ईर्ष्या, असूया या जलन होती है, इस कारण वे मन ही मन अत्यन्त दुःखी रहते हैं। कई लोग सब प्रकार के सुख सुविधा के साधनों से युक्त होते हुए भी उन साधनों को न तो किसी अभाव पीड़ित या जरूरतमंद लोगों को देते हैं और न ही स्वयं उपभोग करते हैं, और न ही अपने माने हुए लोगों को उपभोग करने देते हैं ऐसे लोग धन-वैभव की सुरक्षा की चिन्ता में रात-दिन घुलते जाते हैं।
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इन सब प्रकार के दुःखों का मूल कारण है-बाहर भटकना । जब मन बाहर ही बाहर बाह्य पदार्थों में भटकता है, तब बाह्य पदार्थों पर प्रिय अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ या अच्छे-बुरे अथवा अनुकूल-प्रतिकूल की छाप लगाता रहता है। अनुकूल पदार्थ एवं व्यक्ति के प्रति राग मोह और आसक्ति एवं प्रतिकूल पदार्थ एवं व्यक्ति के प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि या खेद होने से सुख-दुःख का वेदन करता है। इनके विपरीत होने पर यानी जिसे अनुकूल पदार्थ या व्यक्ति माना था, उसका वियोग होने पर एवं प्रतिकूल पदार्थ या व्यक्ति का संयोग होने पर दुःख का अनुभव करता है।
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वाग देवता का दिव्य रूप
अन्तर में डुबकी लगाने के लिए ध्यान ही सर्वोत्तम उपाय
अगर मनुष्य बाहर में भटकना छोड़कर, बाह्य पदार्थों और व्यक्तियों के प्रति इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करना छोड़कर अन्तर में रमण करे, अपने अन्तरात्मा में पड़े हुए आत्मगुणों का बार-बार स्मरण करे, चिन्तन जगाये और ज्ञाता द्रष्टा बन कर रहने का अभ्यास करे तो वह इन दुःखों से निश्चित ही मुक्त हो सकता है। असली सुख का खजाना उसे आत्मा में मिल सकता है। 'लुक इन्टु" ही ध्यान है-प्लेटो का विचार
ईसा मसीह से ३०० वर्ष पूर्व हुए पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, Look Out को छोड़कर Look Into में आ जाओ। अर्थात् बाहर की ओर से हटकर अंदर की ओर देखो। बाहर की ओर देखने से मन निर्धारित विषय में केन्द्रित नहीं हो पाता।
कबीर ने कहा- बाहर के पट बंद करो, अन्तर के पट खोलो
एक बार एक जिज्ञासु कबीर के पास आया और पूछा - "आप रोज ध्यान और समाधि की बात करते हैं। परन्तु ध्यान क्या है ? समाधि कैसे प्राप्त हो सकती है ? इसके विषय में तो आपने कुछ नहीं कहा।"
इस पर कबीर ने संक्षेप में कहा- "बाहर के पट बंद कर, अंदर के पट खोल ।"
इसका रहस्यार्थ यह है कि पांच इन्द्रियां और मन जो बाहर के विषयों की ओर दौड़ लगाते हैं, उनके द्वार बन्द कर दो, क्योंकि बाहर सुषुप्ति अवस्था रहती है। अन्दर जागृति आती है। किन्तु अभी अंदर का पट राग द्वेष से ढँका हुआ है, काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह से आवृत है। जैसे-जैसे बाहर के पट बंद होंगे, काम, क्रोध, राग-द्वेष आदि के कारण अशांत हुआ मन शांत होता जाएगा, अंदर के पट खुलते जाएंगे।
आधुनिक मनोविज्ञान में मेडिटेशन का यही तात्पर्य
आधुनिक मनोविज्ञान में ध्यान से संबंधित एकाग्रता के विषय में दो शब्द आते हैं- एटेन्सन और मेडिटेशन। “एटेन्सन" शरीर के प्रति सावधान होने (ध्यान देने) के लिए प्रयुक्त होता है, जब कि मेडिटेशन शब्द मन को एकाग्र करने के लिए है। मनोविज्ञान का भी यही तात्पर्य है कि मन को बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से हटाकर अन्तर्मन में एकाग्र करना ही मेडिटेशन है।
जैन दर्शनानुमत: सुध्यान से स्थायी आनंद
जैन दर्शन के शब्दों में बाहर के संकल्प-विकल्पों को दूर हटा कर, अंदर में अपने स्वभाव में लीन हो जाना ध्यान है। अंतर् में लीन होने से ही सच्चा और स्थायी आनंद प्राप्त हो सकता है।
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माता की गोद से लेकर पुत्र जन्म तक का आनंद क्षणिक एवं बहिर्मुखी है
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आप कहेंगे-बाहर में भी तो अपने अनुकूल विषय मिलने पर हमें आनंद प्राप्त होता है। फिर अंदर के आनंद की क्या जरूरत है ? जो प्रत्यक्ष सुख है, उसे छोड़कर परोक्ष और अनिश्चित सुख की ओर क्यों भागें ? उनका कहना है-बालक जब जन्म लेता है तब माता की गोद में उसे आनंद प्राप्त होता है, वही शिशु जब दो तीन वर्ष का हो जाता है तो उसे अब खिलौनों से खेलने में आनंद आता है। जब वह पांच सात साल का हो जाता है तो उसका आनंद खिलौनों से हटकर अपने हमजोली बच्चों के साथ खेलने में लग जाता है। जब वह पाठशाला में पढ़ने जाने लगता है तब दूसरे लड़कों से अधिक अंक पाने में आनंद मानने लगता है। फिर महाविद्यालय (कॉलेज) में प्रविष्ट होकर उच्च कक्षा में पढ़ने लगता है, तब उसे अपनी कक्षा में प्रथम आने पर आनंद प्राप्त होता है। और वहाँ से स्नातक होने पर किसी ऐसी सर्विस के लगने पर आनंद का अनुभव करता है, जिसमें कम से कम श्रम करना पड़े और उच्च पद एवं प्रतिष्ठा मिले। फिर उसके अभिभावकों द्वारा विवाह कर दिए जाने पर वह पत्नी के साथ आनंद मनाता है, दाम्पत्य जीवन का यह आनंद भी पुत्रजन्म होने पर बदल जाता है। अब वह पुत्र के लालन-पालन, शिक्षा-संस्कार आदि में आनंद का अनुभव करता है। किन्तु प्रौढ़ होने पर गृहस्थी की अनेक झंझटों से तथा जीवन की अनेक समस्याओं से घिर जाने पर जब किसी जिज्ञासु व्यक्ति को यथार्थ बोध होता है कि माता की गोद से लेकर पुत्र-प्राप्ति तक का यह आनंद स्थायी नहीं है, क्षणिक है, नाशवान् है, पुद्गलनिष्ठ है, बहिर्मुखी है यह सब पारिवारिक मेला, जिसमें मैं आनंद मानता था क्षणिक है, यह तो छूटने वाला है केवल इसीमें जन्म भटका है, इसका मेरी आत्मा से मोहजनित संबंध हो सकता है, वास्तविक संबंध नहीं है। माता, पत्नी, पुत्र आदि सब मेरे से भिन्न हैं, मैं (आत्मा) अपने-आप में अकेला हूँ। कर्मों के कारण यह सब मिथ्या संबंध जुड़ा है। इनके कारण मैं बाहर ही बाहर आनंद ढूंढ़ रहा था, मोहवश झूठे आनंद को आनंद मान रहा था। सच्चा आनंद बाहर में नहीं, अंदर में है, अन्तर् में लबालब भरा है।
इस प्रकार व्यक्ति जय अन्तर्मुखी होता है, तभी सच्चा व स्थायी आनंद पाता है। और यह होता है ध्यान से।
मन का शून्य हो जाना ध्यान नहीं है
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कुछ आचार्यों का कहना है कि ध्यान तभी हो सकता है, मन बिल्कुल शून्य- निर्विचार, निर्विकल्प हो जाए। अन्तर्मुखी हो जाने पर भी तो मन अंदर ही अंदर राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि के तूफान मचाएगा, वह निकम्मा रहेगा ही नहीं। इसलिए मन को शून्य बना देने पर ही वह सुध्यान कर सकेगा। परन्तु यह कथन युक्तिसंगत नहीं है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शून्य का अर्थ यदि जड़ हो जाना किया जाए तो ध्यान का बहिर्मुखी बना हुआ है, वह हर समस्या का समाधान प्रत्येक व्याधि अर्थ होगा-जड़ता में डूब जाना। भारत के नौ दर्शनों में से एक { का उपचार बाहर में ढूंढ़ता है, भीतर में समाधान खोजने की मात्र बौद्ध-दर्शन और उसमें भी सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक उसकी वृत्ति, रुचि या इच्छा ही नहीं होती। भीतर में खोजना होता और योगाचार, इन चार मतों में से केवल "योगाचार मत" ही है-ध्यान द्वारा। उसमें बहुत कुछ समाधान मिल सकता है। शून्यवाद को मानता है। किन्तु यह तो सब का प्रत्यक्ष अनुभव है कि । चिकित्सकों ने भी जब भीतर में समाधान खोजा तो उससे मन एक क्षण के लिए भी शून्य नहीं हो सकता। शून्य होने पर मानसिक, आध्यात्मिक और संकल्पनात्मक एवं ध्वन्यात्मक चिकित्सा ध्यान कैसे हो सकेगा? क्योंकि ध्यान में तो मन जागृत रहना का विकास हुआ। ध्यान के द्वारा अन्तर् में डुबकी लगाने पर शिव, चाहिए, आत्मा के प्रति। मन न तो अजागृत अवस्था में शून्य होता। अनल, अरुज (नीरोग) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध एवं शाश्वत
है और न ही स्वप्नावस्था में। स्वप्न भी मन में आता है। इसलिए | आत्मा के दर्शन होते हैं। वह पूर्ण स्वस्थता का अनुभव कर * मन को शून्य बनाकर ध्यान करने का उपदेश यथार्थ नहीं है। पाता है।
ध्यान का मुख्य प्रयोजन और उससे बहुत बड़ी निष्पत्ति मन को अशुभ विकल्पों से हटाकर शुभ विकल्पों में लगाना ना ध्यान का मुख्य प्रयोजन है-बाहर से सम्पर्क तोड़कर भीतर की मन जब संकल्प-विकल्पात्मक है, तब उसके शून्य होने का तो गहराई में डूब जाना। भीतर का जगत् एक अनोखा जगत् है। उस सवाल ही नहीं उठता। यह बात अवश्य है कि ध्याता को अन्तर्मुखी जगत् में प्रवेश करने का नाम ही ध्यान है। बाहर में अत्यन्त बनकर ध्यान-साधना करते समय मन की चंचलता, बहिर्मुखता, खींचातानी रहती है। आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्श की बाह्यविषयों में उछलकूल को तो अवश्य रोकना पड़ेगा। उसे इन्द्रियों के विषय अपनी-अपनी ओर खींचते है। कभी रूप खींचता । अन्तर्जागृति अवश्य रखनी पड़ेगी। शुभ ध्यान के समय मन अशुभ
है, कभी शब्द खींचता है, कभी सुगन्ध खींचती हैं, कभी स्वाद संकल्प-विकल्प न करने लगे, यह जागृति अवश्य रखनी है। परन्तु SDP खींचता है और कभी कोमल गुदगुदा मनमोहक स्पर्श खींचता है। मन की गति को रोकना नहीं है, उसकी गति को शुभ और शुद्ध 1955. बाह्य जगत् में पूर्ण खींचातानी मची हुई है। ध्यान-साधक जब इसकी ओर मोड़ना है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो अशुभ विकल्पों की
खींचातानी से मुक्त होकर अंदर में चला जाता है, भीतर का ओर दौड़ते हुए मन को रोककर शुभ विकल्पों में लगाना है, मन्द 2000 अनुभव करने लग जाता है और गहराई में डुबकी लगाता है। यह करते-करते उच्चभूमिका आ जाने पर निर्विकल्प बनाना है। 4 स्थिति प्राप्त होने पर ही ध्यान जमाता है।
ध्यान : मनरूपी कार को मन्द करता है, बंद नहीं FAR सामान्यतया व्यक्ति किसी वस्तु, विचार या व्यक्ति के प्रति या । बन्धओ!
बन्धुआ! स्तो अनुकूल, अच्छा या मनोज्ञ मानकर स्वीकार करता है या फिर
इसे एक रूपक द्वारा समझिए-एक व्यक्ति के पास कार है। प्रतिकूल बुरा या अमनोज्ञ मानकर अस्वीकार। परन्तु ध्यान इन
कार गेरेज में बंद करके रखने के लिए नहीं है। जब कार में गति बहिर्मुखी रागद्वेषात्मक विचारों से तादात्म्य न रखकर उपेक्षाभाव रख, ज्ञाता-द्रष्टा बनना सिखाता है। अर्थात् वह समता में रहकर न
नहीं होती, तब वह एक स्थान पर पड़ी रहती है। परन्तु कार ठीक
गति कर रही है, वह व्यक्ति भी उसका उपयोग तीव्रगति से एक तो उसे अच्छा मानता है, न बुरा केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता 10 है। जैसे दर्पण के सामने कोई भी वस्तु आए, दर्पण तो वस्तु का
स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए करता है। परन्तु कार जैसा आकार प्रकार है, उसे प्रतिबिम्बित कर देता है, उसे अच्छा
चालक को पूरा ख्याल रखना पड़ता है कि किस गन्तव्य स्थान पर
कार को ले जाना है? कहां-कहाँ मुझे टर्न लेना हैं? यदि गन्तव्य बुरा प्रगट करना उसका काम नहीं है। इसी प्रकार ध्यानलीन साधक के सामने बाहर की चीजें आती जाती हैं, परन्तु वह उन्हें
स्थान ५ माइल पर ही है तो कुशल ड्राईवर चार माइल आने पर
एक माइल पहले ही कार को धीमी कर देता है, बंद नहीं। गन्तव्य महत्व नहीं देता। अतः ध्यान सुख-दुःख से परे की अनुभूति है, इन
स्थान पर पहुँच कर ही वह कार को रोकता है, पहले नहीं। इसी दोनों से तटस्थ रहकर समता में स्थित-प्रज्ञता में प्रवेश है। जो
प्रकार आपको भी मनरूपी कार मिली है। वह शून्य बनाकर रख व्यक्ति अन्तर्गमन करता है, उसके लिए बाहर के सारे रस नीरस
देने के लिए नहीं है। मन के साथ संघर्ष करने से मन अपनी क्रिया पड़ जाते हैं। उसे ही सच्ची शांति प्राप्त होती है, जो ध्यान से ही
बंद करने वाला नहीं है। अतः मनरूपी कार जो जीवन के मार्ग पर PP शक्य है।
तीव्र गति से दौड़ रही है। एक ही क्षण में मन समग्र लोक में प्रायः व्यक्ति दूसरे व्यक्ति-बाह्य व्यक्ति, वस्तु, स्थिति को चक्कर लगाकर आ जाता है। अतः ध्यानवेत्ता कहते हैं कि :006
बदलना चाहता है, अपने आपको बदलने का प्रयास प्रायः नहीं | ध्यातारूपी ड्राईवर को चाहिए कि मनरूपी कार की तीव्र गति को करता। अपने अन्तर में झांकने पर ही व्यक्ति को अपने मन, वाणी, मन्द करे, उसकी गति को बंद न करे। उसे जहाँ-जहाँ मोड़ना है, विचार और कर्म में निहित दोषों को देखने, दूर करने और स्वयं वहाँ मोड़ दे। मनरूपी कार को अपना सहायक मानकर चले, शत्रु को सुधारने का मौका मिलता है। जिसका दृष्टिकोण केवल या विरोधी नहीं।
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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आन्तरिक सूक्ष्मक्रिया की ओर मन मोड़ना :
जीवन को वह बदलता नहीं है। कई व्यक्ति सिनेमा में तीन घण्टे ध्यान का प्रथम सोपान
बैठकर अन्य सब भूल जाते हैं। कई आदमी ढोल तासे बजाकर मन की बाह्य क्रियाओं को रोककर, आंतरिक सूक्ष्म क्रिया की ।
तथा साथ में जोर-जोर से नाच-गाकर अपने आपको भूल जाते हैं। ओर मोड़ने पर ही सुध्यान होगा। मन की बाह्य क्रिया को रोके ।
ये सब भूलने की तरकीबें अच्छी भी हो सकती है, बुरी भी। किन्तु बिना जो व्यक्ति ध्यान में बैठ जाता है, वह सुध्यान के बदले
| भूलने के इस प्रकार के प्रयत्नों से नींद की गोली लेने की तरह कुध्यान के चक्कर में पड़ जाता है।
थोड़ी देर के लिए दुःख और पीड़ा को भुला दिया जाता है, मगर
इनसे जीवन का अन्धेरा मिटता नहीं है, अज्ञान टूटता नहीं और न एक साधु नया-नया ही दीक्षित हुआ था, अधिक शास्त्रीय-ज्ञान
ही जीवन बदलता है। अतः ध्यान जीवन को भूलने की कोशिश भी नहीं था, किन्तु भद्रप्रकृति का था। वह प्रतिक्रमण करते-करते
नहीं, किन्तु जीवन को बदलने की और जानने-देखने की कोशिश जब ध्यान करने का समय आया तो काउसग्ग का पाठ मन ही मन
है। ध्यान तो सहज एकाग्रता के साथ जागरूकता-अवेयरनेस है, बोलते-बोलते, दूसरी ओर मुड़ गया। वह अपने गृहस्थ जीवन का
चित्त के समस्त विषयों के प्रति पूर्ण रूप से जाग जाना है, स्वयं के और बच्चों का ध्यान करने लगा। जब गुरु ने पूछा-इतनी देर
प्रति साक्षीभाव रखना है, आत्म निरीक्षण करना है, ज्ञाता द्रष्टा कायोत्सर्ग (ध्यान) में कैसे लगाई ? तब वह बोला-"मेरे मन में
बनकर रहना है। ध्यान जीवन के सत्यों को भूलना नहीं है, किन्तु अपने बालकों पर अनुकम्पा आई कि वे खेती ठीक से नहीं करेंगे ।
जीवन के सत्यों को जानने का पुरुषार्थ है। भगवान महावीर ने भी तो अनाज नहीं होगा। उसके अभाव में बेचारे भूखे मरेंगे।" गुरु ने ।
| नहा हागा। उसक अभाव म बचार भूख मरगा गुरु न। यही कहा-“अप्पणा सच्चमेसेज्जा"-अपनी आत्मा से (आत्मा में 3 कहा-“यह तो तुमने आत्मध्यान नहीं, आर्तध्यान कर लिया। अन्तर् ।
निहित) सत्य की खोज करो। इस प्रकार की सत्य की खोज ध्यान में डुबकी लगाने के बदले बाहर भटक गए।" भद्र शिष्य को
से ही हो सकती है। पश्चात्ताप हुआ। उसने “मिच्छामि दुक्कडं" देकर आत्मशुद्धि की।
ये दोनों प्रकार के चिन्तन शुभ ध्यान नहीं हैं अतः प्रारंभिक ध्यान सर्वथा विकल्पशून्य नहीं है, अपितु वह बाह्य अशुभ विकल्पों से मन को हटाकर उसे अन्तर्मुखी बनाना
__ कुछ लोग अपने जीवन में चल रहे काम, क्रोध, लोभ, मोह, और स्व-स्वरूपदर्शन करना है। अन्तर्दर्शन द्वारा ही व्यक्ति अपने
मद, मत्सर आदि दोषों को दबाकर आंखें मूंद कर बगुले की तरह दोषों को जानकर स्वयं को आत्मगुणों में लीन कर सकता है तथा
बैठ जाते हैं, यह भी ध्यान नहीं है। काम, क्रोध आदि दोषों को स्व-स्वरूप में एकाग्र हो सकता है। इसीलिए शंकराचार्य ने ध्यान का
निकाले बिना, मन में इन दोषों को दबाए रखने से अंदर बैठे हुए लक्षण किया-"स्व-स्वरूपानुसंधानं ध्यानम्" अर्थात् अपने स्वरूप
शुद्ध आत्मा के दर्शन कैसे हो सकेंगे? इन बाह्य दोषों के दबे रहते
अन्तर में प्रवेश करने से भी व्यक्ति का मन कचोटेगा, कतराएगा। का अनुसन्धान करना-शोध-खोज करना ध्यान है।
जैसे सरोवर के तट पर बगुला मछलियां पकड़ने के लिए एकाग्र कृत्रिम एकाग्रता पाने की ये सब तरकीबें ध्यान नहीं हैं होता है, वैसे ही कामी, क्रोधी, लोभी, ईर्ष्यालु या प्रसिद्धिलिप्सु,
कई लोग ध्यान का अर्थ केवल एकाग्रता - कंसंट्रेशन करते हैं आडम्बर-प्रिय व्यक्ति जनता को प्रभावित एवं आकर्षित करने के और वैसी कोरी एकाग्रता प्राप्त करने के लिए वे लोग शराब,
लिए आंखें मूंदकर ध्यान करने का डौल करता है। वह भी ध्यान भांग, चरस या अफीम आदि का नशा कर लेते हैं। कई लोग नींद
नहीं, वंचना है। इसी प्रकार किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग की दवा ले लेते हैं, ट्रॅकोलाइजर ले लेते हैं। इस प्रकार की
का चिन्तन या किसी इष्ट वस्तु या व्यक्ति को पाने का तीव्र चिन्तन हिप्नोटिक स्लीप-सम्मोहन तन्द्रा लाने की कोशिश भी कई लोग
भी शुभ ध्यान नहीं है। इन दोनों में पहला रौद्रध्यान है और पिछला निश्चिन्तता के लिए करते हैं। “सोमरस" से लेकर “लीसर्जिक
आर्तध्यान है। ये अशुभ ध्यान त्याज्य हैं। धर्मध्यान और एसिड" तक वेद के ऋषियों से लेकर अमेरिका के नवीनतम
शुक्लध्यान-ये दोनों प्रकार के ध्यान शुभ हैं, और उपादेय हैं। "अल्डुअस हक्सले" तक नशा लाकर निश्चिन्तता शुभ ध्यान का विविध धर्म परम्पराओं में वर्णन
190.90.5 पाने की तरकीबें आदमी खोजता रहा है। ये सब एकाग्रता लाने के
भारत की जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में शुभ नुस्खे केवल स्मृति (होश) को भुलाने, नींद लाने और बेहोश होने
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ध्यान का वर्णन मिलता है। भले ही इन तीनों परम्पराओं में ध्यान के हैं। पाश्चात्य देशों में ध्यान के नाम पर ये सब चल रहे हैं। वहां
की पद्धति और प्रक्रिया अलग-अलग हो, किन्तु ध्यान का उद्देश्य, टेंशन (तनाव) बहुत है, नींद की कमी के कारण लोग बेचैन हैं।
महत्व और लाभ, तीनों परम्पराओं में प्रायः मिलता जुलता है। लेकिन इन सब कृत्रिम एकाग्रताओं से अपने आपको भुलाना, ध्यान नहा है। ध्यान में अन्तर्मुखी एकाग्रता के साथ जागरूकता आवश्यक शुभ ध्यान का लक्षण है। नशीली चीजों का सेवन करके ध्यान के नाम पर व्यक्ति अपनी सबसे पहले हमें ध्यान शब्द के विशिष्ट अर्थ एवं उसके लक्षण सुध-बुध खो बैठता है, अपने जीवन को भूल जाता है, किन्तु अपने को समझ लेना चाहिए। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ध्यान के बिना OUS30000RGEODOOD.00000000R4o
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उपलब्ध नहीं हो सकता। जैन दर्शन में ध्यान की अपेक्षा संवर और निर्जरा (बाह्याभ्यन्तर तप) की साधना पर विशेष जोर दिया गया है। वैसे तपस्या के बारह भेदों में से ध्यान को आभ्यन्तर तप में स्थान दिया गया है। वैदिक परम्परा में यम-नियम आदि योग के आठ अंगों में से सातवें अंग को ध्यान कहा गया है। बौद्ध परम्परा में मोक्षप्राप्ति के लिए अष्टांगमार्ग का विधान है। समाधि को उसका एक विशिष्ट अंग माना है। समाधि के असामान्य कारण को वहां ध्यान कहा गया है। जैनधर्म के मूर्धन्य तात्विक ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान का लक्षण बताया गया है-किसी एक विषय में चिन्तन करने हेतु मन को एकाग्र करके निरुद्ध करना ध्यान है। ध्यानशतक आदि में भी कहा गया है किसी एक अध्यवसाय पर चित्त की स्थिरता चित्त की एकाग्रता ध्यान है पातंजल योगदर्शन में भी ध्यान का लक्षण इसी प्रकार का है-विशिष्ट वस्तु या पुरुष विशेष के प्रति एकतानता = एकलीनता ध्यान है।
ध्यान रहे, केवल चित्त की एकाग्रता या स्थिरता का नाम ही ध्यान नहीं है, क्योंकि एकाग्रता प्रशस्त विषय पर भी हो सकती है। और अप्रशस्त विषय पर भी इसीलिए यहां प्रशस्त विषयगत एकाग्रता ही अभीष्ट ध्यान रूप है।
ध्यानसाधना निष्क्रिय नहीं बनाती अपितु जागरूक और आत्मकेन्द्रित करती है
कई आधुनिक विचारक यह शंका उठाते हैं कि वर्तमान युग क्रियात्मक भौतिक विज्ञान और तकनीकी प्रगति का युग है, गतिशीलता और द्रुत प्रगति का युग है अतः ध्यान-साधना का दौर कहीं हमारी द्रुत-गामिता और प्रगतिशीलता में बाधक तो नहीं बनेगा ? हमारी क्रियाशीलता को कुण्ठित तो नहीं कर देगा? हमारे जीवन में निवृत्ति का डोज देकर हमें अकर्मण्य, आलसी और स्थितिस्थापक तो नहीं बना देगा? हमारे मन की गति को रोककर उसे विचारशून्य तो नहीं कर देगा? ये खतरे ऊपर-ऊपर से देखने पर यथार्थ प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु गहराई से विचार किया जाए तो ध्यान-साधना से इनका कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः ध्यानसाधना निष्क्रियता या जड़ता की प्रतीक नहीं है और न ही यह किसी भी जिज्ञासु या मुमुक्षु को निष्क्रिय, अकर्मण्य या आलसी बनाती है, अपितु जागरूक और आत्मकेन्द्रित बनाती है।
ध्यान के साथ योग होने पर ही ध्यान-योग
यही कारण है कि ध्यान के साथ योग शब्द जोड़ा गया है। योग का अर्थ यहां आत्मा का परमात्मा के साथ सुमेल - जुड़ना है। अथवा समस्त विकल्पों से रहित होकर मन को आत्मस्वरूप में या किसी एक वस्तु में एकाग्र करना, वचन और काया को स्थिर करना ध्यानयोग है। हाँ, यह बात अवश्य है कि बाह्य भौतिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों में भटकते हुए, रागद्वेषादि विकारों के कारण अशान्त एवं त्रस्त अतएव चंचल बने हुए मन को ध्यान योग द्वारा अचंचल, स्थिर एवं शांत बनाने का प्रयत्न किया जाता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
प्रशस्त ध्यान आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने का प्रशस्त प्रयास
प्रशस्त ध्यान आत्मा को बहिर्मुखी बनने से रोककर अन्तर्मुखी बनने का प्रशस्त प्रयास है। इसलिए ध्यान अन्तर् की अनुभूति है। इसे शब्दों द्वारा पूर्णतया समझाना कठिन है। अंदर में डुबकी लगाने पर यदि आपको अतीत की स्मृतियां आने लगी, भविष्य की स्वर्णिम कल्पनाएं मन पर उभर आई और वर्तमान में चल रहे राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह आदि का तूफान चलने लगा तो वह सुध्यान न होकर दुर्ध्यान हो जाएगा। यह ध्यान अन्तर्मुखीअन्तरात्मलक्ष्यी न होकर बहिर्मुखी और बहिरात्मलक्ष्यी हो जाएगा। ध्यान वह शक्ति है, जो आत्मा की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करती है। ध्यान से आत्म विकास होता है, आत्म शक्ति प्रगट होती है, अन्तरंग जागृति होती है, इसे सभी धर्म और दर्शन स्वीकार करते हैं।
सुध्यान कब घटित हो सकता है?
अतः ध्यान की परिभाषा को समझने के साथ-साथ उससे संबंधित सभी पहलुओं को समझ लेना चाहिए। ध्यान का तात्विक अर्थ यह निष्पन्न होता है कि अतीत की स्मृति भविष्य की कल्पना और वर्तमान का व्यामोह त्यागकर वर्तमान पर्याय के प्रति अनासक्त होकर अन्तरात्मा की सुखद अनुभूति करना ध्यान है।
केवल एकाग्रता ही ध्यान नहीं है, वह तो ध्यान को साधने का एक आवश्यक साधन है। एकाग्रता अतिचंचल एवं बहिर्मुखी चित्त को स्थिर एवं अन्तर्मुखी बनाती है। साथ ही अन्तर्मुखी एवं स्थिर बना हुआ चित्त जब जागरूक तथा रागद्वेषादि प्रसंगों में सम रहता है तथा जीवन की गतिविधियों के प्रति जागृत रहता है, समता में स्थित रहता है, तभी यथार्थ माने में सुध्यान घटित होता है। ध्यान-साधना का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति था, क्यों और कैसे?
प्राचीनकाल में ध्यान-साधना का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति माना जाता था। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस तथ्य को स्पष्ट किया है। "मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है, आत्मज्ञान से कर्मों का क्षय होता है और ध्यान से आत्मा का सर्वतोमुखी ज्ञान होता है। अतः ध्यान आत्मा के लिए अत्यन्त हितकारक माना गया है।"
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चूँकि सुध्यान पर आरूढ़ हुआ ध्याता इष्ट अनिष्ट विषयों में राग, द्वेष और मोह से रहित होता जाता है। इसलिए ध्यान से जहाँ नये कर्मों के आगमन (आस्रव) का निरोध होता है, वहाँ ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार ध्यान परम्परा से निर्वाण का कारण है। ध्यानशतक में इसी तथ्य को उजागर किया गया है मुक्ति (कर्म मुक्ति) के दो उपाय है-संबर और निर्जरा ये ही दो आध्यात्मिक साधन, अन्ततः तप में मिल जाते हैं। तप का प्रधान अंग है-ध्यान ! फलतः ध्यान मोक्ष का मुख्य साधन है। द्रव्य संग्रह भी इसी तथ्य का समर्थन करता है-नियमपूर्वक सुध्यान से मुनि निश्चय और व्यवहार, दोनों
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वागू देवता का दिव्य रूप
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90.00.00 प्रकार के मोक्षमार्ग को पाता है। इसलिए तुम एकाग्र एवं दत्तचित्त । पर पदार्थ या परभाव मेरे हैं। मैं तो एक मात्र शुद्ध-बुद्ध ज्ञानवान होकर ध्यान का सम्यक् अभ्यास करो। नियमित ध्यानाभ्यास से । (चैतन्य) हूँ।" वस्तुतः सालम्बन ध्यान हो या निरालम्बन, दोनों आत्मा की अनुभूति हो सकती है।
प्रकार के ध्यानों में जो योगी अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता, ध्यान : जीवन का कायाकल्प
वह उसी प्रकार शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, जिस प्रकार
भाग्यहीन व्यक्ति रत्न को प्राप्त नहीं कर पाता।" इसलिए ध्यान रूपान्तरण की प्रक्रिया है। इससे साधक के जीवन का कायाकल्प हो जाता है। स्वभाव, संकल्प और आदतें
अतः ध्यान चेतना के ऊर्ध्वारोहण की प्रक्रिया है। उसका बदलती हैं। पूरा व्यक्तित्व ही बदल जाता है। वैज्ञानिकों की भाषा में
तात्पर्य है-काम केन्द्र की ओर नीचे की ओर प्रवाहित होने वाली आर. एन. ए. नामक रसायन रूपान्तरण का घटक है।
चेतना को ऊपर उठा कर ज्ञान केन्द्र में ले जाना। ऊपर की ओर
मोड़ देना। चित्त को सभी वृत्तियों से हटाकर किसी एक पुद्गल या एकाग्रता संपन्न ध्यान किस प्रकार हो?
परमाणु पर केन्द्रित कर देना भी ध्यान की एक पद्धति है। ऐसे ध्यान मानसिक क्रिया है। किसी एक अभीष्ट वस्तु पर चित्त ध्यान में इन्द्रिय-संयम परम आवश्यक तत्व है। ध्यान करने बैठे को एकाग्र करना-तल्लीन करना ध्यान कहलाता है। पातंजल और चारों ओर निहारता रहे, बाहरी आवाजों को सुनने के लिए योगदर्शन के भाष्यकार कहते हैं-"जिस प्रकार एक व्यक्ति एक उत्सुक रहे तो कभी ध्यान नहीं हो सकता। इसलिए केवल आँखें पात्र से दूसरे पात्र में तेल डालता है, तब धारा लगातार एक मूंद कर, पल्हत्थी मार कर बैठ जाने का नाम ध्यान नहीं है, किन्तु सरीखी रहती है, टूटती नहीं, इसी प्रकार निर्वात स्थान में घर में शरीर के समस्त अंगों को स्थिर करके, इन्द्रियों को अन्तर्मुखी दीपक जलता हो, उसे बाहर की हवा का झोंका नहीं लगता तो बनाकर आत्मा में या परमात्मा में एकाग्र करने और चेतना को दीपक की लौ (शिखा) भी अखण्ड रहती है। आचार्य ने तेलधारा । ऊर्ध्वमुखी बनाने की प्रक्रिया ध्यान है। और दीपशिखा के साथ विचारधारा की तुलना करते हुए कहा है
सुध्यान : साधनाओं में शीर्ष स्थानीय कि इसी प्रकार हमारी विचारधारा भी जब एक अभीष्ट विषय पर निरन्तर केन्द्रित रहे, दीपशिखावत् एक सरीखी अखण्ड रहे, तभी
यही कारण है कि श्रमण-संस्कृति के उद्गाता दगमाली ऋषि ने ध्यान सफल होता है। वही शुद्ध ध्यान का लक्षण है।
ध्यान को समस्त साधनाओं का उत्तमांग (मस्तक) बताते हुए
कहा हैनिरालम्बन ध्यान और उसकी साधना
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। ध्यान तभी पूर्ण माना जाता है, जब ध्याता, ध्येय और ध्यान एक हो जाएं, उनमें कोई विभेद न रहे। परन्तु यह अवस्था
सव्वस्स साहुधम्मस्स तहा झाणं विधीयते॥ निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान की है। विकल्प और विचार के "मानव शरीर में जैसे मस्तक का महत्व है तथा वृक्ष में जैसे आलम्बन से रहित ध्यान भी एकाग्रता की साधना है। इस प्रकार के उसके मूल का महत्व है, वैसे ही समस्त साधुजनयोग्य धर्मों में ध्यान को निरालम्बन ध्यान कहते हैं। इस ध्यान को सिद्ध करने के । ध्यान का सर्वोपरि स्थान कहा गया है।" लिए "द्रव्य संग्रह" में कहा गया है-“यदि तुम विचित्र या विविक्त
| ध्यान और कायोत्सर्ग का अन्योन्याश्रय संबंध विकल्प जाल-रहित ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट इन्द्रिय विषयों में न मोह करो, न
ध्यान के साथ कायोत्सर्ग शब्द भी जुड़ा हुआ है। आवश्यक राग करो और न द्वेष करो। हे भव्यो ! कुछ भी चेष्टा मत करो,
चूर्णि में कहा गया है कि कायोत्सर्ग द्रव्य और भाव से दो प्रकार कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चिन्तन मत करो, जिससे आत्मा
का है। द्रव्य से कायचेष्टानिरोध और भाव से "ध्यान" ही निजात्मा में तल्लीन होकर स्थिर हो जाए। यही (आत्मा में आत्मा
कायोत्सर्ग है। "तस्स उत्तरी करण" पाठ में भी ध्यान रूप की लीनता ही) परम ध्यान है।
कायोत्सर्ग का माहात्म्य बताते हुए कहा है-१. आत्मा को विशेष 100.00 | रूप से उत्कृष्ट बनाने हेतु, २. प्रायश्चित = पापों का शोधन करने
20909 ध्यानयोगी का लक्षण और योग्यता
हेतु, ३. मिथ्या धारणाओं, भ्रांतियों तथा मिथ्यात्व के कारण अशुद्ध ध्यानयोगी का लक्षण श्रमणसुत्तं में इस प्रकार व्यक्त किया गया बनी हुई आत्मा को विशुद्ध करने हेतु या परम विशुद्ध स्वरूप को है-ध्यानयोगी वह है, जो अपनी आत्मा को समस्त बाह्य संयोगों प्राप्त करने हेतु तथा आत्मा को माया, निदान और मिथ्यादर्शन, तथा शरीर और शरीर से संबद्ध पदार्थों से विविक्त (भिन्न) देखता । इन तीन शल्यों से मुक्त करने हेतु एवं प्राणातिपात, मृषावाद आदि है, वह शरीर और उपधि का उत्सर्ग (समत्वत्याग) करके सर्वथा १८ प्रकार के पापों को नष्ट करने हेतु मैं स्थान (काया से स्थिर), निःसंग हो जाता है। वही साधक आत्मा का ध्याता है, जो अपने | मौन (वचन से मौन) और मन से ध्यानपूर्वक कायोत्सर्ग (ध्यान) ध्यान में चिन्तन करता है कि "मैं" न “पर" का हूँ और न ही } करता हूँ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अतः ध्यान आत्मा के लिए अनन्त-अव्याबाध सुख प्राप्ति का । आदर्श की कल्पना करते हैं। वैसे देखा जाए तो सिद्धान्त की दृष्टि मार्ग है। यह एक प्रकार का प्रतिक्रमण है, जो विभावों में या । से दसवें गुणस्थान तक क्रोध, मान, माया और लोभ का विकल्प परभावों में गए हुए आत्मा को स्वभाव में निमग्न होना सिखाता है। रहता है। इसलिए सर्व-साधारण मानव को देखें तो उसके मन में यह अपने घर में वापस लौटने की पद्धति है। ध्यान वस्तुतः अपने विकल्प उठते हैं और शान्त होते हैं, फिर उठते हैं। ग्यारहवें आपको मूलरूप में लौटाना है। ध्यान से व्यक्ति की ऊर्जाशक्ति और । गुणस्थान में मोह उपशान्त हो जाता है, क्षय नहीं होता। इसलिए इस मानसिक शांति बढ़ती है। आन्तरिक व्यक्तित्व के विकास में गुणस्थान तक सविकल्प समाधि रहती है। तेरहवें गुणस्थान में मोह ध्यानयोग बहुत ही सहायक है।
और अज्ञान सर्वथा नष्ट हो जाता है, इसलिए वहाँ निर्विकल्प ध्यान साधना के दो उद्देश्य : आत्म ज्ञान और आत्मशुद्धि
समाधि प्राप्त होती है। इसमें ध्यानान्तर, ध्येय, ध्यान इन तीनों
विकल्पों में भेद न रहकर अभेद अवस्था आ जाती है। योगी अरविन्द से प्रश्न किया गया कि ध्यान-साधना क्यों करें? उत्तर में उन्होंने कहा, ध्यान-साधना के दो उद्देश्य हैं-Self
हाँ, तो मैं कह रहा था कि जो सविकल्प या सबीज समाधि है, Knowledge and Self Purification आत्म ज्ञान और
उसमें जो ध्यान की अवस्था होती है-वह सालम्ब होती है और आत्मशुद्धि। मन शुद्ध हो, विकारों तथा अशुभ विकल्पों से रहित ।
निर्विकल्प या निर्बीज समाधि में होती है-निरालम्ब अवस्था। हो, तभी आत्मविशुद्धि हो सकेगी, और आत्मज्ञान की प्राप्ति भी।
सुध्यानद्वय की साधना के लिए चार अवस्थाएँ: उनका स्वरूप मन में विकार या अशुभ विकल्प हो तो न तो आत्मज्ञान होगा और ।
हरिभद्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने इन दोनों प्रकार के सुध्यानों न ही आत्मशुद्धि होगी। अतः अध्यात्म विकास की यात्रा में ध्यान
की साधना करने के लिए चार अवस्थाएं बताई हैं-१. पिण्डस्थ, अनिवार्य है।
२. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रुपातीत। प्रथम की तीन अवस्थाओं ध्यान के दो प्रकार : सालम्बन और निरालम्बन
में आलम्बन की अपेक्षा रहती है, जबकि ध्यान की रूपातीत __ध्यान के दो प्रकार जैन दर्शन ने बताए हैं-सालम्बन और।
अवस्था में किसी भी बाह्य वस्तु के आलम्बन की अपेक्षा नहीं निरालम्बन। समाधि के दो भेद योगदर्शन, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में
रहती। इसलिए ध्यान की चौथी अवस्था निरालम्बन ध्यान की है। बताये गए हैं-सविकल्पक और निर्विकल्पक। योगदर्शन के अनुसार
शेष तीन अवस्थाएं सालम्बन ध्यान की हैं। अनेक ध्यान-साधकों का विकल्प का अर्थ है-"शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्य विकल्पः" विकल्प
यह मत है कि सालम्बन ध्यान में योग्यता प्राप्त कर लेने पर केवल शब्दों के ज्ञान के सहारे वस्तु शून्य होता है, उसका ज्ञान |
निरालम्बन ध्यान की योग्यता स्वतः प्राप्त हो जाती है। यहाँ होना सविकल्प-समाधि है। इसलिए सविकल्प समाधि सालम्ब होती सालम्बन ध्यान के लिए मुख्यतया तीन आलम्बन बताए गए हैं। है और निर्विकल्प समाधि होती है-निरालम्ब। चंचल मन को एक । ध्यान रहे, इन आलम्बनों का उपयोग किए बिना कोई भी जगह टिकाने के लिए किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती
ध्यान-साधक निरालम्ब अवस्था तक नहीं पहुँच सकता। परन्तु यह है। ध्यान के प्रारंभकाल में किसी एक आत्म-लक्ष्यी लक्ष्य पर चित्त । भी ध्यान रखना है कि इन आलम्बनों का स्वीकार करते समय को स्थिर करना होता है। अन्त में तो वह लक्ष्य स्वयं छूट जाता है, इनमें निहित अशुद्ध आलम्बनों को ग्रहण न करे। जैसे-पिण्डस्थ ध्याता-ध्येय और ध्यान तीनों का एकात्म्य हो जाता है, चित्त की
ध्यान में पिण्ड यानी शरीर की अनुप्रेक्षा करते समय उसकी केवल स्थिरता रह जाती है। निरालम्बन ध्यान में कोई आलम्बन सुन्दरता, बालिष्ठता, पुष्टता, शारीरिक शक्ति आदि के मोह और नहीं लिया जाता। उसका अभ्यास करने से मन दीर्घकाल तक अहंकार आदि अशुद्ध पहलुओं का आलम्बन न ले, जिससे चेतना
एकाग्र और तन्मय होने लगता है। एकाग्रता की अन्तिम परिणति ही की सुषुप्त शक्तियां जागृत हों, शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान Boविचार-शून्यता-विकल्पशून्यता है।
जागृत हो, शरीर की अनित्यता-नश्वरता आदि के चिन्तन से शरीर
मोह से विरति एवं विरक्ति पैदा हो, ये और इस प्रकार की समाधि सबीज और निर्बीज : क्या और कैसे?
अनुप्रेक्षा पिण्डस्थध्यान का शुद्ध आलम्बन है। इसी प्रकार पदस्थ जैनाचार्यों ने दो प्रकार की समाधि बताई है-सबीज समाधि
और रूपस्थ ध्यान में भी शुद्ध आलम्बन ग्रहण करे उनमें निहित और निर्बीज समाधि। सबीज समाधि में मैं कौन हूँ? कहाँ से आया कामना, वासना आदि का अशुद्ध आलम्बन ग्रहण न करें। जिससे हूँ? यह जीवन और जगत् क्या है ? इत्यादि विकल्प उठते रहते हैं। चेतना का ऊवारोहण हो, आत्मा का विकास हो, वह शुद्ध सबीज समाधि में ध्याता, ध्येय और ध्यान, ये पृथक्-पृथक् भासित आलम्बन है। पदस्थ ध्यान के दौरान ॐ, अर्ह, पंचपरमेष्ठी पद, होते हैं। जबकि निर्बीज समाधि में सिर्फ ध्याता रहता है। इन्हीं दोनों
नवपद अथवा चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने वाले अन्य किसी भी को सविकल्प और निर्विकल्प समाधि कहा गया है। जो लोग ध्यान
शुद्ध पद का आलम्बन लिया जाता है। किन्तु ऐसा कोई मंत्र पद या को बिल्कुल निर्विकल्प और निर्विचार अवस्था मानते हैं, वे मानव ।
शब्द, जिससे कामना, वासना, परपदार्थलिप्सा बढ़ती हो, उसे ग्रहण DDO मन की स्थिति से अनभिज्ञ हैं और केवल भावुकता में बहकर करना अशुद्ध आलम्बन हो जाएगा। जैसे-"समता" पद का ध्यान
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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करते समय अविवेक, यशकीर्ति-लिप्सा, लौकिक पद, प्रतिष्ठा, धन । पुद्गल में दृष्टि स्थिर करना) था। उसमें भी रागद्वेष का कोई आदि का लाभ, गर्व, भय आदि भावों का आलम्बन लिया जाए तो विकल्प या विचार नहीं था। धर्मध्यान में चित्त को स्थिर करने हेतु वह अशुभ आलम्बन युक्त ध्यान हो जाएगा। रूपस्थ ध्यान में मन में चार आलम्बन बताए हैं-वाचना, पृच्छना, परियट्टना, अनुप्रेक्षा, अरहन्त, सिद्ध या किसी महापुरुष के स्वरूप का एकाग्रतापूर्वक धर्मकथा। सुध्यान ने पूर्वोक्त प्रकारों से मन की विचलितता को चिन्तन किया जाता है। भगवान् के प्रति प्रीति या भक्ति भी रूपस्थ रोकने हेतु चार अनुप्रेक्षाओं का आश्रय लिया जाता है। यथाध्यान की अवस्था है, जैसे वाल्मीकि ने लूटने आदि विपरीत कार्यों अनित्यानुप्रेक्षा, अशरण-अनुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा और संसारामें लगी हुई शक्ति को भगवान् राम के गुणगान और भक्ति में | नुप्रेक्षा। इसी प्रकार धर्म-ध्यान के चार लक्षण भी बताये गए हैं, लगाई। गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी पत्नी के देह के प्रति प्रीति १. आज्ञारुचि, २. निसर्गरुचि, ३. सूत्ररुचि और ४. अवागढ़रुचि। (मोह) को छोड़कर भगवान् राम के प्रति प्रीति में लगाई। यह भी
ध्यान की तैयारी के लिए आवश्यक सूचनाएँ एक प्रकार के रूपस्थ ध्यान कहा जा सकता है। तीर्थंकर भगवान् को समवसरण में विराजमान होने का मनःचित्रण करना भी
मनुष्य के पास तीन शक्तियाँ हैं-१. शरीर (Body), २. मन रूपस्थ-ध्यान है। श्वास, शरीर, अंगोपांग आदि पर मन को एकाग्र,
(Mind) और ३. बुद्धि (Intellect) शरीर और उसके अंगोपांग निश्चल करना भी पिण्डस्थ ध्यान का रूप है। “समणसुत्तं" में धर्म
या इन्द्रियां जड़ हैं, उनमें विकार या विकल्प पैदा नहीं होते। बुद्धि ध्यान के अन्तर्गत इन चारों ध्यानों में तीन ध्यानों का निरूपण
में भी कोई विकल्प पैदा नहीं होते। बुद्धि और शरीर के बीच में करते हुए कहा गया है-ध्यान करने वाला साधक पिण्डस्थ, पदस्थ
मन है। मन में ही वासना, विकल्प और विचार पैदा होते हैं। मन और रूपातीत, इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। पिण्डस्थ
का लक्षण है-“सर्वार्थग्रहणं मनः", वह अच्छे बुरे सभी पदार्थों को ध्यान का विषय है-छद्मस्थत्व, देहविपश्यत्व। पदस्थ ध्यान का
ग्रहण करता है, सामने लाता है। अतः धर्म-ध्यान में मन या चित्त विषय है-केवलियत्व = केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिन्तन
की शुद्धि के लिए वासना, अशुभ विकल्प दुर्विचार को हटाना और रूपातीत ध्यान का विषय है-सिद्धत्व = शुद्ध आत्मा। रूपातीत
आवश्यक है। योगदर्शन में भी ध्यान या समाधि के लिए चित्तशुद्धि ध्यान में किसी भी वस्तु का आलम्बन नहीं लिया जाता, केवल शुद्ध
या मनशोधन बताया गया है। चित्तशुद्धि के लिए मन के आत्मा-परमात्मा का ही अन्तर में ध्यान किया जाता है।
उदात्तीकरण हेतु चार भावनाएं बताई गई हैं-१. मैत्री, २. मुदिता
(प्रमोद), ३. करुणा और ४. उपेक्षा (माध्यस्थ)। इन चारों धर्मध्यान साधना में आने वाले विघ्न और
भावनाओं का अभ्यास करने से मन समभाव में स्थिर हो जाता है, उनके निराकरण के उपाय
निर्मल हो जाता है। चित्त में प्रसन्नता आती है। जड़, चेतन वस्तुओं सविकल्प समाधि में ध्यान में आने वाले विघ्नों को हटाने के के प्रति मन में द्वेष, ईर्ष्या, विरोध, दोष आदि भावों के प्रादुर्भाव लिए और केवल दर्शनचेतना या ज्ञानचेतना जगाने की क्षमता बढ़ाने
होते ही मैत्री का, गुणिजनों के प्रति प्रमोद (मुदिता) भावना का गुण के लिए अनेक आलम्बन लिए जाते हैं। पहला विघ्न है-स्मृति।
दृष्टि का, तथा पीड़ित पददलित, दुःखित एवं आर्त्त के प्रति करुणा ध्यान साधक जब ध्यान करने बैठता है-ज्ञाता-द्रष्टा बनने का
भावना का एवं विपरीतवृत्ति वाले, उद्दण्ड एवं अत्याचारी व्यक्ति के प्रयत्न करता है, तब सर्वप्रथम स्मृतियों का तूफान आकर विघ्न
प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ भावना का अभ्यास करना चाहिए। डालता है। दूसरा विघ्न है-कल्पना। कल्पनाएं ध्यान-साधक को ध्यान साधक को आहार और निद्रा पर नियंत्रण इधर-उधर भटका देती हैं। तीसरा विघ्न है-व्यर्थ का चिन्तन। जब
करना आवश्यक विभिन्न विचारों का ज्वार आता है, तब एक विचार या विकल्प में
ध्यानसाधक को आहार और निद्रा पर भी नियंत्रण करना ध्याता स्थिर नहीं रह सकता। सविकल्प ध्यान में एक विकल्प, एक
आवश्यक है। आहार बुद्धि से ही अन्तःकरण शुद्ध रहता है। विचार या स्मृति का अवलम्बन पर चित्त को एकाग्र किया जाता है।
तामसिक एवं राजसी भोजन से मन स्वस्थ और शुद्ध नहीं रहता। पूर्वोक्त पिण्ड, रूप, पद आदि ध्यान के अवलम्बन है-एक विषय
इसी प्रकार अतिनिद्रा एवं अल्पनिद्रा भी ध्यान साधना में बाधक है। में, एक पुद्गल में, एक मात्र इष्ट में एकाग्र होने का, एक विकल्प
ध्यान-साधना में चित्तदोष सबसे बड़ा विघ्न है। उसे दूर करने के पर होने वाली एकाग्रता ही धर्म ध्यान है। परन्तु ध्यान रहे, वह
लिए पूर्वोक्त चारों भावनाओं के अभ्यास के साथ आहारशुद्धि और विकल्प विचार या स्मृति, राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता से या अहंकार
निद्रा-नियंत्रण का ध्यान रखना चाहिए। ममकार से युक्त न हो। यह विचय ध्यान है। इससे जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा जानने देखने की क्षमता बढ़ जाती है। विचय ध्यान
ध्यान का समय एवं स्थान चार आलम्बनों से युक्त होता है-१. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ध्यान के समय एवं स्थान का भी विचार आवश्यक है। प्रारंभिक ३. विपाक विचय और ४. संस्थानविचय। गजसुकुमाल मुनि ने जो साधक को ध्यान का समय प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त से लेकर लगभग ९ ध्यान किया था, वह एगपोग्गल निविट्ठदिट्ठिए" (एक मात्र एक बजे तक का और रात्रि में द्वितीय और चतुर्थ प्रहर उपयुक्त है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्थिर मन वाले साधक के लिए रात्रि या दिन के नियत समय की | होगा। इसीलिए सुध्यान के लिए तीन उत्तम संहनन वाला पुरुष आवश्यकता नहीं है। जब भी मन-वचन-काय स्वस्थ, स्थिर एवं योग्य माना गया है। शान्त, हो, तब ध्यान किया जा सकता है। ध्यान साधक के लिए
ध्यानयोगी के लिए निम्नोक्त दृढ़ संकल्प सामान्यतया स्त्री, पशु, नपुंसक तथा कुशील व्यक्ति से रहित एकान्त, शान्त गंदगी एवं कोलाहल रहित, विघ्न-बाधारहित, निर्जन वन,
___एक बात और ध्यान करने से पूर्व साधक को निम्नोक्त बातों गुफा, निर्जीव प्रदेश, भूमि, शिला, तीर्थंकरों की जन्मभूमि, तपोभूमि,
का दृढ़ संकल्प करना चाहिए-१. मैं किसी भी परिस्थिति को निर्वाणभूमि, केवलज्ञान कल्याणकभूमि, आदि पवित्र स्थानों में
प्रतिकूल नहीं मानूंगा, २. मैं किसी की कमी या अवगुण नहीं कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थिर रहकर ध्यान करना उचित है। किन्तु जो
देलूँगा, ३. मैं किसी की आलोचना-निन्दा नहीं करूँगा, ४, मैं अपने संहनन एवं धैर्य से बलिष्ठ हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र- वैराग्य-मैत्री
ध्येय के लिए बलिदान देने को तैयार रहूँगा, ५. सुख-दुःख, प्रमोद-करुणा-माध्यस्थ्य आदि भावनाओं के प्रयोग से अभ्यस्त हैं तथा
मान-अपमान, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि में सम रहने का जिनका मन अत्यन्त स्थिरता एवं निश्चलता को प्राप्त हो चुका है,
प्रयास करूँगा, ६. मैत्री एवं बन्धुता की भावना को विकसित उनके लिए जनाकीर्ण ग्राम, नगर तथा निर्जनवन, श्मशान, गुफा,
करूँगा, ७. ध्यान का जो समय निर्धारित किया है, उस व उतने महल आदि सब समान हैं। ध्यानशतक के अनुसार जहाँ समय तक अवश्य ध्यान करूँगा, ८. अपनी शक्ति, समय एवं मन-वचन-काया के योगों को समाधि प्राप्त हो, तथा जो प्राणिहिंसादि योग्यता का पूर्ण सदुपयोग करूँगा। से विरहित स्थान हो, वही ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान है।
__ इस प्रकार के धर्म ध्यान की योग्यता चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ ध्यान के लिए आसन, स्थिति और मुद्रा
हो जाती है। जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी है, वह धर्मध्यान - जैनागम तथा अन्य ग्रन्थों में सुध्यान के लिए कुछ आसन
की भूमिका पर आरूढ़ नहीं हो पाता, किन्तु शुभ आर्तध्यान की बताए गए हैं, किन्तु ध्यान के लिए कोई निश्चित आसन न होकर
भूमिका पर आरूढ़ होकर धीरे-धीरे शुक्लपक्षी, सद्भावनाशील ऐसा सहज साध्य आसन होना चाहिए, जिससे देह को पीड़ा एवं
होकर समग्र दृष्टि प्राप्त धर्म ध्यान की ओर क्रमशः बढ़ सकता है। कष्ट न हो। ध्यान का ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि वह ध्यान : सभी वर्ग के व्यक्तियों के लिए बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, लेटे-लेटे ही हो, कायोत्सर्ग मुद्रा में ही हो,
कई लोग कहते हैं कि सुध्यान केवल ऋषि मुनियों एवं योगियों अथवा वीरासनादि आसन में ही हो। जिस योग से स्वस्थता रहे,
के लिए है। ध्यान से चित्त में सहज मैत्री एवं करुणा जागृत होती उस स्थिति, मुद्रा या आसन से ध्यान किया जा सकता है।
है। ध्यान से करुणा एवं आत्मौपम्य दृष्टि वश अहिंसा का पालन ध्यान-सिद्धि के लिए गोदुहासन, सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन
सहज में हो जाता है, साथ ही सत्य और अस्तेय का भी आचरण एवं कायोत्सर्गमुद्रा अधिक उपयोगी है। वस्तुतः आसन से चित्त की
हो जाता है। शरीर के प्रति रही हुई आसक्ति धीरे-धीरे कम होने से स्थिरता, काया की स्थिरता, कष्टसहिष्णुता तथा देह जड़ता
ब्रह्मचर्य पालन भी आसान हो जाता है। मन शांत होने से तृष्णा की निवारण होने से ध्यान में स्थिरता होती है। ध्यान के समय भगवान्
अग्नि भी बुझती जाती है, इस कारण अपरिग्रहवृत्ति भी अनायास महावीर ने ध्यानयोग के लिए नासाग्रदृष्टि का, अनिमेषदृष्टि व एक
ही जीवन में आ जाती है। पुद्गल निविष्ट दृष्टि का और स्वामी विवेकानन्द ने भ्रूमध्य दृष्टि का विधान किया है। ध्यान के समय मन तनावयुक्त न हो, इसके
अपनी आत्मा का सूक्ष्म रूप से दर्शन भी ध्यान के द्वारा होता लिए शरीर का शिथिलीकरण आवश्यक है। ध्यान साधना में मेरु है। अतः ध्यान सर्वसामान्य जीवन के लिए भी उपयोगी है। ध्यान से दण्ड सीधा रखना चाहिए। कमर, पीठ, गर्दन और मस्तक एक जब व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाता है, तब बाहर के सभी विषयों का सीधी रेखा में हों। दोनों कंधे व हाथ झुके हुए समग्र अवयव रस फीका पड़ जाता है। ध्यान से व्यक्ति अन्तर में जागृत और शिथिल रहें।
अप्रमत्त हो जाता है। उसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। बच्चों को
बचपन से ध्यान का अभ्यास कराया जाए तो उनमें अनायास ही ध्यानयोग के लिए आवश्यकताएं एवं योग्यताएँ
नियमों पर चलने की दृढ़ता आ जाती है। विद्यार्थियों में विनम्रता ध्यानयोग की साधना के समय छह आवश्यकताओं का विधान
और एकाग्रता ध्यान से आ जाती है, उनकी स्मृति तीक्ष्ण और बुद्धि समाधितंत्र में किया गया है-१. साधना में उत्साह, २. दृढ़ निश्चय
प्रखर हो जाती है। युवकों की शक्ति जो आज विलासिता और (मन में स्थिरता), ३. धैर्य, ४. सन्तोष, ५. तत्व दर्शन (स्वरूपानु- भोगों में रमणता की ओर लग रही है, वही शक्ति ध्यान से केन्द्रित भवन) 6. जनपदत्याग/विविक्तशय्यासन।
होकर तथा अन्तर्विवेक जागृत होकर सुन्दर एवं उन्नत जीवन'सुध्यान की योग्यता के लिए शारीरिक एवं मानसिक बल भी निर्माण में लग जाती है। समस्या से घिरा हुआ चित्त ध्यान से आवश्यक है। जिसका शारीरिक संघटन कम होगा, उसका मानसिक धीरे-धीरे शान्त एवं निर्मल होकर उक्त समस्या को शीघ्र सुलझाने बल भी कम होगा। मानसिक बल कम होगा तो चित्त स्थैर्य भी कम और शीघ्र निर्णय करने में सक्षम हो जाता है। अतः व्यापारी वर्ग
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वाग देवता का दिव्य रूप
के लिए भी ध्यान आवश्यक है। वृद्ध व्यक्ति भी बुढ़ापे में जब घर वालों से अलग-थलग अकेला पड़ जाता है, अकेलेपन से वह ऊब जाता है। ऐसे समय में ध्यानयोग उसके लिए वरदान बन जाता है। अकेलापन, असहायपन ध्यान से दूर होकर जीवन में आनंद से आता है। अतः ध्यान व्यक्ति को सुखशांति प्राप्त कराता है, वर्तमान को सुधारता है।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों के ध्यान संबंधी अनुभव
थियोफेर नामक वैज्ञानिक ने अपने दीर्घ अनुभव के पश्चात् पाया कि ध्यानकर्ता व्यक्तियों की साइकोलॉजी में असाधारण रूप से परिवर्तन हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों में घबराहट, मानसिक तनाव, उत्तेजना, स्वार्थपरता, साइकोसोमैटिक बीमारियां आदि में कमी पाई गई हैं। ध्यान से आत्म विश्वास, संतोष में वृद्धि, सहनशक्ति, साहसिकता, सामाजिकता, मैत्री भावना, जीवट भावनात्मक स्थिरता, कार्यदक्षता, विनोदप्रियता, एकाग्रता जैसे सद्गुणों की वृद्धि के प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं।"
अमेरिका के वैज्ञानिक द्वय राबर्ट शा और डैविड कोल्ब ने ध्यान के अभ्यासियों पर किए गए अपने प्रयोगों में पाया कि ध्यानकर्ता व्यक्तियों के शरीर और मस्तिष्क में सुचारु समन्वय, सतर्कता में वृद्धि, बुद्धिमन्दता में कमी, प्रत्यक्षज्ञान-निष्पादन क्षमता तथा प्रतिक्रिया के समय में वृद्धि असामान्य रूप से हो जाती है।
नीदरलैण्ड में वैज्ञानिकद्वय-" विलियम पी. बानडेनबर्ग" और "बर्ट-मुल्डर" ने विभिन्न वय, लिंग और शैक्षणिक योग्यता वाले
नाभ्यसासियों पर किए गए सप्ताह के प्रयोगों में पाया है कि ध्यानकर्ताओं के दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। उनमें भौतिक और सामाजिक अपर्याप्तता, दबाव और कठोरतायुक्त व्यवहार में कमी आई तथा आत्म सम्मान में वृद्धि हुई।
वैज्ञानिक विलियम सीमैन ने बताया कि प्रथम दो महीने तक ध्यान करने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व में विकास होता देखा गया है। नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करते रहने पर अन्तः वृत्तियों तथा अन्तःशक्तियों पर नियंत्रण हो सकता है और चिन्ता से मुक्ति मिल सकती है।"
वेलिंगटन विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक “टाम जे रौट" ने अपने अध्ययन में पाया कि “ध्यानाभ्यासियों की शारीरिक क्षमता सुचारु रूप से बढ़ने लगती है। ध्यानाभ्यास के बाद उनकी श्वसनगति धीमी और आरामदेह चलती रहती है, जो स्वास्थ्य के लिए सुखदायिनी मानी जाती है।"
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वैज्ञानिक “डैविड डब्ल्यू. आर्ये, जॉन्सन ने आटोनौमिक स्टैबिलिटी एण्ड मेडिटेशन" पर अपने अनुसंधान में पाया है कि "ध्यान के द्वारा तंत्रिकातंत्र के कार्यकलापों में एक नई चेतना आ जाती है और ध्याता के सभी शारीरिक, मानसिक कार्य नियमित स्थायी एवं सुचारु रूप से होने लगते हैं। शरीर में ऊर्जाशक्ति का
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संचरण, भंडारण एवं संरक्षण होने लगता है। अधिक दिनों तक ध्यान के नियमित अभ्यास से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में असाधारण रूप से वृद्धि होती है।
हालैण्ड में हाईस्कूल के छात्रों को आन्द्रे एस. जोआ ने एक वर्ष तक ध्यानाभ्यास कराया और पाया कि सामान्य छात्रों की अपेक्षा ध्यानाभ्यासी छात्रों की स्मृति क्षमता और बौद्धिक क्षमता में अत्यधिक वृद्धि हुई । कठिन प्रश्नों के उत्तर देने में छात्र अग्रणी रहे।
इस प्रकार ध्यानयोग की दृष्टि समझ कर उसका अभ्यास करने से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक लाभ के साथ-साथ स्वास्थ्यलाभ भी प्राप्त होता है। मैंने आपके समक्ष संक्षेप में ध्यानयोग की दृष्टि और सृष्टि के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है। इसे भलीभांति समझकर ध्यानयोग का अभ्यास करें।
मंत्रविद्या की सर्वांगीण मीमांसा
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ, स्नेहशीलवती माताओ बहनी ! विशिष्ट शब्द रचना या वाक्य विन्यास ही मंत्र हो जाते हैं।
आदिकाल से मनुष्य शब्दों के गूढ़ रहस्यों को जानने का प्रयत्न करता आया है। शब्दों की रचना के साथ जब संकल्प जुड़ जाता है, अथवा अमुक दिव्य शक्तियों का आह्वान किया जाता है और उनसे कुछ लीकिक, सांसारिक या कभी लोकोत्तर कार्य कराया जाता है, अथवा उनसे उस कार्य को सिद्ध करने में सहायता मांगी जाती है, तब वे ही वाक्य मंत्र बन जाते हैं।
इस प्रकार के मंत्र भारत में प्रचलित धर्मसम्प्रदायों या मत-पन्थों में ही नहीं, संसार के सभी धर्म-सम्प्रदायों अथवा मतों, पंथों में प्रचलित हैं। यहाँ तक कि आदिवासी एवं अक्ष कहलाने वाले व्यक्तियों में कुछ ऐसे प्रभावशाली मंत्र होते है, जिनसे कई अद्भुत एवं आश्चर्यजनक कार्य होते हैं। पहाड़ी गद्दी वालों के मंत्र भी आम जनता में प्रचलित हैं। बंगाल में तंत्रसम्प्रदायों के द्वारा भी तंत्रों के साथ विभिन्न मंत्र प्रचलित हुए। परन्तु वे मंत्र प्रायः मारण, मोहन, उच्चाटन, आकर्षण, वशीकरण एवं विद्वेषण कार्यों में ही अधिकतर प्रयुक्त होते हैं। शान्ति, तुष्टि, पुष्टि या अध्यात्मशक्तियों के जागरण के लिए उनका प्रयोग नगण्य है। कुछ मंत्र रोगनिवारण, धनप्राप्ति तथा गृहशान्ति कर्म आदि के लिए अवश्य हैं, परन्तु वे भी प्रायः लोभ, स्वार्थ, धर्नालप्सा, कामनापूर्ति आदि के रूप में तथाकथित मंत्रविदों द्वारा धन बटोरने के लिए ही प्रयुक्त किये जाते हैं।
सभी धर्मों एवं पंथों के प्रमुख मंत्रों की झांकी
जैन, बौद्ध, वैदिक, इस्लाम आदि धर्मों के कुछ मंत्र अवश्य ऐसे हैं, जिन्हें आत्मजागरण या आध्यात्मिक चिकित्सा के रूप में
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्रयुक्त किया जाता रहा है। जैसे-जैन-सम्प्रदाय के सभी फिरकों में जैनधर्म का यह महामंत्र इस प्रकार है‘णमोकार मंत्र महामंत्र' के रूप में प्रसिद्ध है। यह मूल में आत्मा का
"णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो जागरण करता है, आत्मा में सुषुप्त अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और
उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।" शक्ति को जगाता है। इससे अध्यात्म यात्रा निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न होती है। नमस्कार महामंत्र का प्रयोजन सर्पदंशमुक्तिमंत्र, लक्ष्मीप्राप्ति इसके साथ ही इसकी फल प्राप्तिसूचिका गाथा हैमंत्र, विद्यालाभमंत्र, रोगनिवारक मंत्र आदि मंत्रों के समान
एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। कामनामूलक नहीं है अर्थात् यह महामंत्र विविध लौकिक कामनाओं
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।। की पूर्ति करने वाला नहीं है। हाँ, यह कामना, इच्छा, लालसा, आसक्ति को समाप्त कर सकता है। नमस्कार महामंत्र से मानव की
बौद्ध धर्म का महामंत्र है-"नं म्यो हो रेंगे क्यो" इसका अर्थ ऊर्ध्वचेतना जागृत हो जाती है, सांसारिक कामनाओं से विरक्ति हो है-समस्त बुद्धों को नमस्कार। अध्यात्म-साधना में पारंगत बुद्धों को जाती है। जब व्यक्ति में अन्तश्चेतना जागृत हो जाती है, तब वह नमस्कार करने के पीछे यही उद्देश्य है कि उनके जैसा ज्ञान, भक्ति कामनापूर्ति, स्वार्थपूर्ति, यहाँ तक कि रोगनिवारण आदि के लिए। और चारित्र हमारे जीवन में भी आए। नमन समर्पणवृत्ति का लालायित नहीं होता। नमस्कार महामंत्र की आराधना करते समय द्योतक है। इसी का विस्तृत रूप है-"बुद्धं सरणं गच्छामि, धर्म जब साधक अन्तस्तल की गहराई में उतरता है, तब अलौकिक सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि। यह त्रिशरण-सूचक मंत्र है। ज्ञान-दर्शन के आलोक से परिपूर्ण हो जाता है, अलौकिक आनन्द । इन तीनों के प्रति आत्मीयता-शरणागति होने से विश्व की सभी की किरणें फूट पड़ती हैं, सुख-दुःख की भ्रान्त धारणाएँ बदल जाती | आत्माओं से मैत्री-आत्मौपम्य भावना और समता स्थापित हो सकती हैं और वह असीम आत्मिक सुख (आनन्द) की अनुभूति करने है। बौद्ध परम्परा पर चिन्तन करने से एक बात स्पष्ट हो गई कि लगता है, आत्मा में निहित सुषुप्त अथवा मूर्च्छित शक्तियों का उसमें हीनयान, महायान से लेकर वज्रयान सहजयान या सिद्धयान
नगता है। नमस्कार महामंत्र का प्रथम उदात्त हेतु ही 600
के काल तक मंत्रतंत्रात्मक साधना का बहुत जोर रहा। यह है कि वर्तमान में जो वृत्तियाँ, बुद्धि और अन्तरात्मा अधोमुखी हो रही हैं, निम्न स्तर का चिन्तन तथा विविध कामनामूलक मनन
योगमार्गियों के अन्तर्गत नाथ-सम्प्रदाय की साधना में भी नाद करने में लगी हैं, नमस्कारमंत्र की साधना उनका ऊर्चीकरण कर
और ध्यान की साधना के साथ-साथ मंत्र-साधना भी विकसित हुई। देती है। नमस्कार मंत्र का प्रत्येक पद (वाक्य) ही नहीं, उसका
परन्तु नाथों की साधना में ब्रह्मचर्य और आचार शुद्धि पर बहुत क एक-एक शब्द और अक्षर भी आत्मा का ऊर्चीकरण करता है।
बल रहा। 300 नमस्कार मंत्र इसलिए महामंत्र कहलाता है कि इसके साथ कोई
वैदिक धर्म का प्रमुख मंत्र है-गायत्रीमंत्रभी याचना, कोई भी मांग या लौकिक इच्छा जुड़ी नहीं है। इसके
“ॐ भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो नए साथ पाँच परम आत्माएँ विश्व की पाँच महाशक्तियाँ जुड़ी हुई है। यो नः प्रचोदयात्।" अर्हत् परमात्मा, सिद्ध परमात्मा तथा पंचविध आचार द्वारा परम
ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक में व्याप्त वह परमात्मा सूर्य से भी आत्मा का जागरण करने-कराने वाले आचार्य, समस्त श्रुतराशि में
श्रेष्ठ एवं तेजस्वी है। वह दिव्य तेज धारण कराए। वह परमात्मा अवगाहन करके ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाले उपाध्याय, एवं जो
हमें शुद्ध बुद्धि की प्रेरणा दे।" समस्त आवरणों को दूर करके परमात्मसाक्षात्कार करने की सतत् साधना कर रहे हैं, ऐसे समस्त साधुसाध्वीगण इस महामंत्र के साथ इसी गायत्री मंत्र के अन्तर्गत एक प्रार्थनात्मक मंत्र हैजुड़े हुए हैं। इसलिए आध्यात्मिक शक्तियों का अन्तरात्मा में जागरण
ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृत करना नमस्कार महामंत्र का द्वितीय उद्देश्य है।
गमय।" नमस्कार महामंत्र का तीसरा उद्देश्य है-सम्यग्ज्ञान-दर्शन- अर्थात्-हे प्रभो ! मुझे असत् से सत् (तत्त्व = आत्माचारित्र-तपरूप जो मोक्षमार्ग है, उसकी सुषुप्ति या मूर्छा दूर करके
परमात्मा) की ओर ले चलो, मुझे (अज्ञानरूपी) अन्धकार से प्रकाश 52 मोक्षमार्ग में जागृत कर देना। नमस्कार महामंत्र की साधना में
की ओर ले चलो तथा मृत्यु (विनाशी परभावों) से अमृत साधक की अध्यात्मयात्रा का समग्र पथ छिपा हुआ है। इसलिए यह
(अविनाशी = स्वभाव) की ओर ले चलो।" न महामंत्र परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाला पथप्रदर्शक है।
इस्लामधर्म का प्रार्थनात्मक मंत्र हैनमस्कार महामंत्र का चौथा उद्देश्य है-दुःख निवृत्ति का सामर्थ्य 2902 प्राप्त करना-कराना। मनुष्य की सारी वृत्ति-प्रवृत्तियाँ, चेष्टाएँ और
"अऊजुबिल्लाहि मिनश् शैत्वानिर रजीम।" क्रियाएँ हैं, वे दो तथ्यों से संलग्न हैं-दुःखों से मुक्ति और इसका अर्थ है-'शरण लेता हूँ मैं अल्लाह की, पापात्मा शैतान सुख-अव्याबाध सूख की प्राप्ति।
से बचने के लिए।"
NAGAU09002066R
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| वागू देवता का दिव्य रूप
३६५ इसके अतिरिक्त नमाज पढ़ते समय 'अल् फातिहा' पढ़ा (मन ही मन उच्चारण) करने से जो व्यक्ति की रक्षा करता है, वह जाता है
मंत्र है। सामान्य व्यक्ति मंत्र-शब्द का यही अर्थ समझता है जो कुछ "ईयाक न अबुदु व ईयाक नस्तई न।
विशिष्ट प्रभावशाली शब्दों द्वारा निर्मित किया हुआ वाक्य होता है,
वह मंत्र कहलाता है। उस एक मंत्रवाक्य का बार-बार जाप करने इहादिनस् सिरातल् मुस्तकीम।
पर शब्दों के पारस्परिक संघर्षण तथा पुनरावर्तन से वातावरण में सिरातल् लज़ीन अन् अम्त अलैहिम;
एक प्रकार की विद्युत् तरंगें पैदा होने लगती हैं, जिनसे मंत्र-साधक POR गरिल मगजूबे, अलैहिम वलज्जु आल्लीन।"
की अभीष्ट-भावनाओं को बल मिलने लगता है। फिर वह जिस अर्थात् हम तुम्हारी ही आराधना करते हैं और तुमसे ही मदद
कार्य के लिए मंत्रप्रयोग करता है, प्रायः वह अभीष्ट कार्य सफल माँगते हैं। ले चलो हमको सीधी राह पर उन लोगों की राह, जिन
होता दृष्टिगोचर होता है। पर तुम्हारा कृपाप्रसाद उतरा है; उनके रास्ते नहीं, जिन पर तुम्हारी ___मंत्रों के साथ-साथ यंत्रों और तंत्रों का भी विकास हुआ। कुछ
Rece नाराजी हुई है, या जो मार्ग भूले हुए हैं।
विद्याओं का भी आविष्कार हुआ। सभी धर्मों के महामनीषी ईसाई धर्म का मंत्र, जहाँ तक हम समझे हैं, वह है
आचार्यों, विद्वानों एवं साधकों ने मानवजीवन को समृद्ध, सुखी,
सुरक्षित एवं शान्तिमय बनाने के लिए विभिन्न प्रयत्न किये। मंत्र, 'Love is God. God is Love.
विद्या, यंत्र एवं तंत्र उसी के विभिन्न पहलू हैं, जिनके आविष्कार, शद्ध प्रेम ही परमात्मा है, परमात्मा का दूसरा नाम शुद्ध । साधना एवं विकास के लिए उन्होंने अतीव उत्साह और लगन से प्रेम है।
इस दिशा में प्रयत्न किया। पारसी (जरथोस्ती) धर्म का मूल मंत्र, जहाँ तक हम समझे हैं, तोपकार के मंत्र और उनका प्रभाव वह है
जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने दो प्रकार के मंत्रों का प्रतिपादन किया "मज़दा अत मोइ बहिश्ता, सवा ओस्चा श्योथनाचा व ओचा।
है-एक सिद्धमंत्र और दूसरा साधितमंत्र। पठन मात्र से जो मंत्र ता-तू बहू मनंधहा, अशाचा इषुदेय फेरणेम।
सिद्ध हो जाता है उसे सिद्ध मंत्र कहते हैं, जबकि जो विद्या (मंत्र) वसना हइ श्येम् दाओ अहूम्॥"
साधित होने पर सिद्ध होती है, उसे साधित मंत्र कहते हैं। अर्थात् “ये अहोरमज्द ! सर्वोत्तम दीन (धर्म) के कलाम मंत्र शब्द के गर्भ में मनन की व्याप्ति है। मंत्र अन्तर्जीवन में (शब्द) और कायों के बारे में मुझसे कह, ताकि मैं नेकी के रास्ते सन्निहित असीम शक्ति को प्रकट करने हेतु एकाग्रतापूर्वक बार-बार डट रह कर तेरी महिमा का गान करूँ। तू जिस तरह चाहे उस तरह मनन-आवर्तन करने से सफल होता है, सिद्ध होता है। मंत्र में शब्द, मुझे आगे चला। मेरी जिंदगी को ताज़गी बख्श और मुझे स्वर्ग का शब्द के मूल अक्षर, बीजाक्षर तथा गंभीर चिन्तन एवं दृढ़
। सुख दे।" वास्तव में यह प्रार्थनात्मक मंत्र भी समर्पणवृत्ति का संकल्पपूर्वक उच्चारण का उपक्रम, जब वृद्धिंगत या विकसित होता द्योतक है। ये तीनों धर्म-सम्प्रदाय परमात्मा के प्रति समर्पण एवं है, तभी अतल मननात्मक गहराई का परिणाम स्पष्टतया परिलक्षित शरणागति स्वीकार करके नैतिक जीवन की राह पर चलने की होता है। प्रेरणा देने वाले हैं।
लोकव्यवहार में भी शब्दों का प्रभाव देखा जाता है। मजदूरों के वास्तव में, मंत्रों में अचिन्त्य शक्ति है। उनसे अप्रत्याशित रूप । संगठन के लिए जब 'मजदूरो! एक हो जाओ', इस प्रकार के से कार्य सिद्ध होते हैं। अनेक कष्ट-साध्य कार्य मंत्रों द्वारा आसानी सूत्रात्मक शब्दों का प्रयोग होता है, जिन्हें हम लौकिक मंत्र कह से सिद्ध किये जा सकते हैं, बशर्ते कि विधि, श्रद्धाभक्ति, एकाग्रता सकते हैं। उनका भी अचूक प्रभाव देखा जाता है, तो इन बीजाक्षरों
be और प्रबल उत्कण्ठा तथा उत्साह हो। मंत्रसाधक को अनेक की अचिन्त्य शक्ति से युक्त मंत्रों का प्रभाव क्यों नहीं हो सकता है ? सिद्धियाँ, उपलब्धियाँ, लब्धियाँ तथा शक्तियाँ अमुक-अमुक मंत्रों से
शब्दों की शक्ति से अद्भुत और आश्चर्यजनक कार्य 165666 प्राप्त होती हैं।
शब्द की शक्ति अगाध होती है। उसी ध्वनितरंगें बंद पड़े मंत्र शब्द का अर्थ, भावार्थ और शक्ति सम्पन्नता
दरवाजों को खोल देती हैं। कलकत्ता में बिडला म्युजियम में एक ‘मत्रि गुप्त परिभाषणे' धातु से मंत्र शब्द निष्पन्न हुआ है। गुप्त । ऐसा कमरा है, जो आवाज करने से खुल जाता है और पुनः दूसरी परिभाषण, पठन, मननपूर्वक उच्चारण अर्थ में ‘मत्रि' क्रिया है। आवाज करने से बंद हो जाता है। इसी प्रकार आवाज करने से अर्थात्-जो विद्या या जो रहस्यमयी विधि प्रच्छन्न रूप से अनुष्ठित की जाय, उसे मंत्र कहते हैं। व्याकरण के आचार्यों ने इसकी १. 'सिद्धे पठिदे मंते' -मूलाधार ६/३८, 'विज्जा साधितसिद्धा' व्युत्पत्ति की है-“मननात् त्रायते इति मंत्रः", मनन चिन्तन-जपन
1 -वही ६/३८ (आचार्य कुन्दकुन्द)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ज्यपानी का नल चलने लगता है, वह पानी बहाने लगता है। इसी नाड़ी संस्थान जब निर्मल होता है, तब चेतना की शक्तिमत्ता बढ़ POOD प्रकार आज के वैज्ञानिक-प्रयोगनिष्पन्न चिकित्सक ध्वनितरंगों से । जाती है। शब्द अर्थ (पदार्थ) से संयुक्त होने लगता है। बिना शस्त्र लगाये ऑपरेशन कर देते हैं। ध्वनि तरंगों से बड़ी से ।
मंत्रोच्चारण की विधि से लाभ, अविधि से नहीं 30000 बड़ी चट्टान को तोड़ा जा सकता है। शब्दशक्ति के द्वारा बड़े से बड़े । अपराधी का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है।
अतः मंत्रजप से यथेष्ट लाभान्वित होने का प्रथम तत्त्व है
मंत्रगत शब्दों का यथार्थ विधिपूर्वक उच्चारण। जब तक मंत्र के त्रिशब्दात्मक मंत्र का चमत्कार
उच्चारण की विधि नहीं आती, तब तक उस मंत्र से जो लाभ होना चिलातीपुत्र नामी चोर था। वह अपनी टोली के साथ आया । चाहिए, वह नहीं हो पाता। व्याकरणशास्त्र में कण्ठ, मूर्धा, दन्त, पम और सुषमा नाम की श्रेष्ठिकन्या का अपहरण करके ले गया। श्रेष्ठी । तालु, ओष्ठ, नासिका, जिह्वामूल और वक्ष, ये आठ स्थान उच्चारण
ने पुलिस की सहायता से उसका पीछा किया। वह दौड़ते-दौड़ते थक के माने जाते हैं। परन्तु मंत्रशास्त्र में इससे भी सूक्ष्म अवस्था है गया। अतः पुलिस और श्रेष्ठी को चकमा देने के लिए उसने सुषमा ।
उच्चारण की। साधारणतया मंत्र के उच्चारण का प्रारम्भ मूलाधार की हत्या कर दी और एक हाथ में रक्तलिप्त तलवार और दूसरे ।
या शक्तिकेन्द्र से होता है, फिर वह क्रमशः तैजसकेन्द्र, आनन्दकेन्द्र हाथ में मृत सुषमा का मस्तक लेकर दौड़ता गया। मार्ग में एक ।
और विशुद्धिकेन्द्र को पार करके ताल के पास से गुजरता है और मुनिवर ध्यानमुद्रा में खड़े थे। चिलातीपुत्र उनके पास जाकर कहने
दर्शनकेन्द्र अर्थात् भ्रूकुटि के मध्य भाग तक पहुँच जाता है। उस लगा-"मुझे शीघ्र मोक्ष का मंत्र बताइए, नहीं तो आपका मस्तक भी
स्थिति में उक्त मंत्र से तेजस्विता अभिव्यक्त होती है। मैं धड़ से अलग कर दूंगा।" मुनिवर ने उसकी मनःस्थिति देखकर - मंत्रों के उच्चारण के सम्बन्ध में मंत्रशास्त्रविदों का कथन है कि त्रिशब्दात्मक मंत्र का उच्चारण किया-'उपशम, संवर और विवेक।" भाष्य जप (संजल्प) से जो लाभ होता है, उससे हजार गुना लाभ इस त्रिशब्दात्मक मंत्र का उच्चारण करते ही चिलातीपुत्र ने तलवार ।
अन्तजप (अन्तर्जल्प) से होता है और अन्तर्जप से जो लाभ होता और मृत सुषमा का सिर दोनों चीजें एक ओर डाल दी और
है, उससे भी सहस्रगुना लाभ मानसजप से होता है। त्रिशब्दात्मक मंत्र के ध्यान में लीन हो गया। मंत्र की शब्दशक्ति के । स्पष्ट शब्दों में कहें तो मंत्रशास्त्र के अनुसार मंत्रोच्चारण की द्वारा उसका जीवन ही बदल गया।
पहली अवस्था है-संजल्प अर्थात्-भाष्यावस्था, जिसमें उच्चस्वर से 26F त्रिपदी मंत्र से समग्रश्रुत का अवगाहन
उच्चारण किया जाता है। दूसरी अवस्था है-अन्तर्जल्प यानी मंत्र के dese
शब्दों का उच्चारण बाहर में सुनाई नहीं देता, मंत्र का उच्चारण यह शब्द शक्ति का ही चमत्कार था कि भगवान् महावीर ने
व्यक्तरूप में नहीं होता, वह अन्तर्जल्पास्था है और तीसरी गौतम गणधर को 'उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' यह त्रिपदी मानसजय की अवस्था ज्ञानात्मक है, वहाँ अन्तर्जल्प भी नहीं होला, (त्रिशब्दात्मक) मंत्र दिया, जिसके आधार पर उन्होंने समग्र श्रुत का सिर्फ ज्ञान के रूप में भाषा रह जाती है। मंत्रशास्त्र में इन तीनों अवगाहन कर लिया। उनके मस्तिष्क में समस्त श्रुतज्ञान के द्वार वाकुप्रयोगों को क्रमशः वैखरी, मध्यमा और पश्यंती कहा गया है। खुल गए। वे श्रुत में पारगत हो गए।
मंत्र कब शक्तिमान बनता है, कब नहीं? मंत्रशास्त्र में शब्दशक्ति का प्रभूत माहात्म्य
वस्तुतः मंत्र जब शब्द से अशब्द तक पहुँचता है, तभी उसमें मंत्रशास्त्र में शब्दशक्ति पर बहुत गहरा चिन्तन किया गया है। शक्ति उत्पन्न होती है। मंत्र जब संजल्प और अन्तर्जल्प की भूमिका यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि मंत्रों में प्रभावशालिता, सक्षमता को पार करके उच्चारण से परे मनोमय भूमिका में चला जाता है, और सद्यःकर्तृत्वशक्ति शब्दों के अमुक प्रकार के संयोजन से उत्पन्न सिर्फ मानसिक उच्चारणमय हो जाता है, बल्कि उससे भी आगे हो जाती है। मंत्रशास्त्र ने अमुक शब्दों के उच्चारण पर बहुत प्राणमय स्तर तक पहुँच जाता है, तब उसमें असीम शक्ति पैदा हो प्रकाश डाला है। मंत्रोच्चारण से प्रकट होने वाली ऊर्जा से व्यक्ति में जाती है। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट रूप से समझ लें-मंत्र का
अद्भुत रूपान्तर हो जाता है। अधिकांश लोग मंत्र की शक्ति को शरीर है-शब्द और मंत्र की आत्मा है-अर्थ। मंत्रजप की यात्रा शब्द Bी जानते-मानते हैं, परन्तु मंत्र की शब्दात्मक शक्ति में उन्हें विश्वास से शुरू होती है, आगे चल कर शब्द छूट जाता है, केवल अर्थ शेष
कम है। इसलिए मंत्र की शब्दशक्ति पर दढ विश्वास होने पर भी रह जाता है। यदि हम सिर्फ शब्द को ही मंत्र मान कर चलते हैं. उसके उच्चारण की विधि जाननी आवश्यक है। सही ढंग से मंत्र
उसकी जो आत्मा = अर्थ है-उसकी भावना न करें, तो जो लाभ 200000 का उच्चारण करने पर अन्तर् में जमे हुए मैल धुल जाते हैं,
मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। इसलिए मंत्रज्ञों द्वारा मंत्र के मनमस्तिष्क निर्मल हो जाता है। मैल दूर होते ही व्यक्ति का
शरीर से यात्रा शुरू की जाती है और मंत्र की आत्मा तक पहुँचा आन्तरिक व्यक्तित्व बदलता है; नाड़ी संस्थान निर्मल होने लगता है।
जाता है। मंत्र तभी सार्थक एवं सफल होता है, जब वह अर्थात्मा से
जुड़ जाता है। अतः मंत्रसाधक को पहले मंत्र के शरीर-शब्द का १. 'एसो पंच णमोक्कारो' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण
स्पर्श करके तदनन्तर उसके माध्यम से उसकी आत्मा-अर्थ तक D onal 390009
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वाग देवता का दिव्य रूप
पहुँचना आवश्यक है। जप के साथ भावनात्मक नियोजन होने पर ही मंत्र का जागरण होता है, मंत्र चैतन्य होता है, उसकी तेजस्विता अभिव्यक्त होती है।
मंत्र जप से सफलता कब और कैसे?
मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिन्त्य शक्ति होती है। मंत्रों के द्वारा आध्यात्मिक जागरण भी किया जा सकता है। मंत्रों से व्यक्ति बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बन सकता है, स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर सकता है। मंत्र के निरन्तर अधिकाधिक जाप से पुनरावर्तन सेअन्तर में सोई हुई अनेक शक्तियों का जागरण होता है। मंत्र से सफलता मिलती है, परन्तु कैसे मिल सकती है? यह जानना अनिवार्य है।
भारतीय आस्तिक दर्शनों ने, विशेषतः जैनदर्शन ने तीन शरीर माने हैं - एक है स्थूल शरीर, जिसे औदारिक शरीर कहते हैं। इस दृश्यमान स्थूल शरीर से परे एक सूक्ष्म शरीर है, जिसे हम तेजस् शरीर कहते हैं और तीसरा उससे भी परे अतिसूक्ष्म शरीर है, जिसे हम कार्मणशरीर कहते हैं। जब तक तैजस और कार्मण शरीर को प्रभावित नहीं किया जाता, तब तक हमारी मंत्रसाधना सफल नहीं हो सकती। अध्यात्म के नये-नये पर्यायों को अभिव्यक्त करने के लिए तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरों को जागृत और प्रभावित करना आवश्यक है और इन दोनों कार्यों की जागृति के लिए बाह्याभ्यन्तर तप का आलम्बन अनिवार्य है। तपश्चरण से मनोयोग, वचनयोग और कापयोग के परमाणु तथा सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म शरीर के परमाणु उत्तप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने मलिन परमाणुओं को छोड़कर निर्मल बन जाते हैं यहीं से मंत्र की साधना की सफलता प्रारम्भ होती है। बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण से स्वाध्याय (जप), ध्यान, विनय (श्रद्धा भक्ति) और प्रतिसंलीनता (एकाग्रता), कायक्लेश आदि से, अन्तर्मन में चिपटा हुआ मल पिघलने लगता है, अन्तर् में चिपके हुए परमाणु अपना स्थान छोड़कर पलायन करने लग जाते हैं। उपर्युक्त तप की प्रक्रिया से अशुद्ध परमाणुओं को उत्तप्त करके पिघलाने-निकालने में मंत्रशक्ति का बहुत बड़ा योगदान है। मंत्रजप के बार-बार आवर्तन से विस्फोट की शक्ति उपलब्ध होती है। विस्फोट की शक्ति उपलब्ध होने का सशक्त माध्यम है-मंत्रजप की साधना । विस्फोट की शक्ति से विस्फोट किए जाने पर ही अन्तस्तल में सुषुप्त शक्तियों को बाहर निकाला जा सकता है।
मंत्र-साधना से तेजः शरीर की सक्रियता तथा दशविध प्राणशक्ति सम्पन्नता
हमारे शरीर में सर्वाधिक सक्रियता पैदा करने वाला तैजस शरीर है। यह विद्युत्-शरीर है। यह शरीर न हो तो शरीर शीघ्र ही निष्क्रिय एवं निष्प्राण हो जाय। मंत्र की साधना में तेजस् शरीर को सक्रिय बनाया जाता है। जब तक तैजस् शरीर तक मंत्र नहीं पहुँचता, तब तक वह सफल एवं शक्तिशाली नहीं हो पाता; क्योंकि
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जैनदर्शनमान्य दशविध प्राण' तभी शक्तिशाली एवं ऊर्जस्वी हो सकते हैं जब उन्हें तेजस की शक्ति मिलती है। ये दसों प्राण तैजस् शक्ति के बिना निष्प्राण हो जाते हैं। मंत्र की सफलता भी तभी जानी जाती है, जब मंत्रगत शब्दों को आगे पहुँचाते-पहुँचाते स्थूल शरीर की सीमा को पारकर तैजस् शरीर की सीमा तक पहुँचा दिया जाता है। तैजस् शरीर की सीमा में प्रविष्ट होने पर मंत्र की संकल्प शक्ति बढ़ जाती है और तब मन को तमाम प्रवृत्तियों-प्रक्रियाओं में प्रबल सामर्थ्य बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में उक्त मंत्रसाधना से संकल्प शक्ति, निर्णय शक्ति, निरीक्षण-परीक्षण शक्ति, इच्छा शक्ति, मानसिक शक्ति एवं प्राणशक्ति जागृत एवं वृद्धिंगत हो जाती है। फिर उक्त मंत्र से जो-जो अभीष्ट कार्य सिद्ध करना चाहें कर सकते हैं। मंत्र साधना से उपलब्ध शक्ति का दुरुपयोग, अनुपयोग या सदुपयोग करना मंत्रसाधक के अधीन है। चूँकि मंत्र की सक्रिय आराधना अभ्यास रूप साधना का सर्वप्रथम प्रभाव तैजस् शरीर पर पड़ता है। तैजस् शरीर को शक्तिशाली बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है-मंत्र की दीर्घकाल तक दृढ़तापूर्वक निरन्तर संत्कार और श्रद्धा के साथ आवृत्ति करना। तेजस् शरीर विद्युत् शक्ति का भण्डार है। भौतिक विज्ञान ने आज जो भी विकास किया है, वह विद्युत् के आधार पर ही किया है। सभी चमत्कार विद्युत से सम्पन्न होते हैं हमारा सूक्ष्म शरीर-तैजस् शरीर भी समग्र विद्युत् के जेनरेटर जैसा है। शरीर की प्रत्येक कोशिका विद्युत् उत्पन्न करती रहती है, हमारा मस्तिष्क भी विद्युत् का उत्पादक है। शरीर का प्रत्येक कण विद्युन्मय है। तेजस् शरीर को शक्तिशाली बनाने हेतु मंत्र साधना की जाती है। मंत्र जब तेजस् शरीर के साथ घुलमिल जाता है, तब प्राणशक्ति जागृत हो जाती है और ऐसी स्थिति में उसके प्रयोग प्रयोजनों को लेकर होते है-सिद्धि के लिए और अन्तरंग व्यक्तित्व के परिवर्तन के लिए। सिद्धि की दृष्टि से जब इसका प्रयोग किया जाता है, तब मंत्र के शब्दों के साथ बीजाक्षरों को जोड़ा जाता है, और जब आत्मशोधन की दृष्टि से मंत्रजप किया जाता है, तब बीजाक्षरों का योग नहीं किया जाता। बीजाक्षररहित कई मंत्र आन्तरिक शक्तियों को जागृत करने वाले अनुभूत प्रयोग हैं। बीजाक्षरयुक्त मंत्रप्रयोग से तैजस् शरीर विकसित होने पर सम्मोहन, वशीकरण, रोगनिवारण, वचनसिद्धि, विचार सम्प्रेषण आदि अनेक सिद्धियाँ उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। यदि मंत्रप्रयोग अन्तर्मुखी होने तथा कषाय- नोकषाय को कम करने हेतु किया जाता है, तो मंत्रसाधक का आन्तरिक व्यक्तित्व बदल जाता है।
,
मंत्रों में शक्ति भरना
शब्दसंयोजकों के हाथ में
यही कारण है कि विविध धर्म-सम्प्रदायों में, मतों, पंथों के अग्रग्रंथों ने विविध प्रयोजनों से मंत्रों की रचना की है। एक आचार्य ने तो यहाँ तक कहा है
9. दस प्रकार के प्राण ये हैं
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास- निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ताः तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्तिमूलमनौषधम्।
भावना कूट-कूटकर भरी होनी चाहिए कि वह जिस मंत्र की अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः॥
साधना, जिस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए कर रहा है, अवश्य
ही सफल होगा। सफलता मिलने में देर-सबेर हो सकती है। किसी कोई अक्षर ऐसा नहीं, जो मंत्र न हो; कोई मूल (जड़ी) ऐसा
व्यक्ति को पूरी शक्ति के साथ मंत्रानुष्ठान करने पर ही सफलता के नहीं, जौ औषध न हो, कोई मनुष्य ऐसा नहीं, जिसमें योग्यता
दर्शन होते हैं, जबकि किसी व्यक्ति को अल्प प्रयत्न से ही सफलता छिपी हुई न हो, किन्तु दुर्लभ है-संयोजन करने वाला। योग्य का योग्य के साथ संयोग मिला कर इनकी शक्ति को अभिव्यक्त करने
मिल जाती है। इसके अनेक कारण हैं। इसीलिए जैनदर्शन में काल,
स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ, ये पाँच कारण-समवाय प्रत्येक 30 वाला। वाला।
कार्य की निष्पत्ति में कारण बताये गए हैं। परन्तु मंत्रसाधक में यदि मंत्रों की अचिन्त्य शक्ति : कब और कैसे?
आत्मविश्वास, दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प है तो वह अवश्य ही यह सच है कि योग्य अक्षरों को परस्पर जोड़ने और उनका अपने अनुष्ठान में सफल होता है। इसके विपरीत यदि संयोजन करके उन्हें मंत्र का रूप देने का दुर्लभ कार्य भी प्रत्येक आत्मविश्वास का अभाव है, इच्छा शक्ति दुर्बल है और संकल्प भी धर्म-सम्प्रदाय या मत-पन्थ के मनीषियों ने किया है। किन्तु मंत्रों के । शिथिल है तो असफलता के दर्शन होंगे। असफलता कोई कठिनाई
अक्षर-संयोजन के कार्य के लिए पहले योजक को प्रत्येक अक्षर का नहीं, कठिनाई है-व्यक्ति में आत्मविश्वास का अभाव। दृढ़ 092DP
अपने स्वयं पर या अपने इष्ट मित्र, परिवार आदि पर प्रयोग आत्मविश्वास के होने पर दिखाई देने वाली असफलता भी सफलता
करना पड़ा है। तभी वे सद्यः प्रभावशाली मंत्रों का संयोजन कर में परिवर्तित हो जाती है। 02PF सके हैं।
जैसे-जैसे मंत्र की आराधना आगे बढ़ती है, संकल्प शक्ति और कप्यु इसीलिए संस्कृत-साहित्य में एक प्रसिद्ध सूक्ति है-'अचिन्त्यो हि । इच्छा शक्ति का विकास होता जाता है। ऐसी स्थिति में चारों ओर
मणि-मंत्रौषधीनां प्रभावः-मणि. मंत्र और औषधि का प्रभाव एक प्रकार का सुरक्षात्मक कवच निर्मित होता है। उक्त कवच का अचिन्त्य होता है-कल्पना से परे होता है। वस्तुतः भाग्य अनुकूल हो
इतना प्रबल प्रभाव होता है कि व्यक्ति की चेतना पर कोई भी बाहर D तो मंत्र के द्वारा दुर्लभ कार्य भी शीघ्र ही सुलभ एवं सिद्ध हो जाते का आक्रमण, संक्रमण, दुश्चक्र हावी नहीं हो सकता। संकल्प शक्ति हैं। हमें कहना चाहिए कि उन्हीं मनीषियों की साधना के फलस्वरूप
और प्राण शक्ति का इतना विकास हो चुकता है कि ये सब अनिष्ट उक्त मंत्रों द्वारा ज्ञान, विद्याध्ययन, सुखानुभूति एवं सुरक्षा आदि की
प्रयोग बाहर ही पड़े रह जाते हैं। संकल शक्ति का विकास होने पर दिशा में गतिशील होने में व्यक्तियों को सहायता प्राप्त होती है,
वह बाह्य (वातावरण से आने वाली) और आन्तरिक (मन से आने वाली) विघ्न बाधाओं को पार कर सकता है। इसलिए मंत्रसाधना
की पूर्ण सफलता संकल्प शक्ति पर निर्भर है। मंत्र-साधना की सफलता : संकल्पशक्ति पर निर्भर वस्तुतः मंत्र-साधना की सबसे बड़ी उपलब्धि है-संकल्प शक्ति
मंत्रसाधना : कवचीकरण-साधना है साधना में संकल्पशक्ति का बहत बड़ा हाथ है। वस्तुतः देखा जाय तो मंत्र-साधना कवचीकरण की साधना है। मंत्रसाधना की यह धुरी है। प्राणवायु पर भी संकल्प शक्ति का ।
मंत्ररूपी कवच जब मंत्रसाधक के पास होता है, तो बाह्य अनिष्ट शासन है। जिसकी संकल्पशक्ति बलवान् होती है, वह वायु को वश
प्रहारों को झेलने में वह समर्थ हो जाता है। हम जो कुछ मन में में कर लेता है। वायु पर संकल्प शक्ति के द्वारा नियंत्रण किया जा
सोचते हैं, या बोलते हैं, उसकी लहरें बनती हैं, वे लहरें-विचारों सकता है। जिस व्यक्ति की संकल्प शक्ति प्रबल और सुदृढ़ होती है,
की, कार्यों की और शब्दों की तरंगें पूरे आकाश में फैल जाती हैं वह मंत्रसाधना में सफलता प्राप्त कर लेता है। जिसमें संकल्प शक्ति
और मंत्र के शब्दों को बार-बार उच्चारण करने पर वे अपने का अभाव होता है, यह मंत्रसाधना में तो क्या, प्रत्येक व्यावहारिक
समान परमाणु पुद्गलों को लेकर आती हैं। इससे समझा जा सकता कार्य में भी निराश, हताश और असफल होता है। वह प्रत्येक क्रिया
है कि मंत्र की कितनी उपयोगिता है। बाहर से आने वाले अनिष्ट करते समय आत्मविश्वास से हीन होता है। निराशा और आशंकाएँ
प्रकंपनों के प्रहारों से बचा जा सकता है क्योंकि मंत्रसाधक जिन उसके दिल-दिमाग को घेरे रहती हैं। जिसकी संकल्प शक्ति सुदृढ़
विचारों का मंत्र जाप करता है, उसकी समान लहरों से उसके चारों होती है, वह दुःसाध्य कहे जाने वाले रोग से भी मुक्त और स्वस्थ
ओर अच्छा आभामण्डल निर्मित हो जाता है। हो जाता है।
शुभमंत्रशक्ति द्वारा निर्मित आभावलय प्रतिरोधात्मकता अतः मंत्रसाधक में संकल्प शक्ति सुदृढ़ होनी अनिवार्य है। यदि का प्रतीक संकल्पशक्ति शिथिल है, ढीली-ढाली है, डांवाडोल है तो मंत्रसाधना अतः मंत्रशक्ति का सदुपयोग करें, शुभ शब्दों का संयोजन ऐसे P का यथेष्ट परिणाम नहीं आता। मंत्रसाधक को दिल-दिमाग, श्रद्धा, ढंग से करें कि उससे ऊर्जा का आभावलय निर्मित हो। मंत्रशक्ति
आत्मविश्वास और इच्छा शक्ति से ओतप्रोत होना चाहिए। उसमें यह द्वारा निर्मित वह आभावलय इतना शक्तिशाली और प्रतिरोधकारक
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हई है।
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| वाग् देवता का दिव्य रूपमा
३६९ बन जाता है कि कोई भी बाह्यशक्ति आक्रमण नहीं कर सकती। समग्र सामग्री प्राप्त होने मात्र से अथवा मंत्र के विषय में मंत्र-शब्दों में अपारशक्ति होती है। अतः मंत्र एक प्रतिरोधात्मक जानने-सुनने मात्र से सफलता मिल जाएगी। मंत्र की सफलता के शक्ति भी है। प्राचीनकाल में मंत्रों के द्वारा अपना सन्देश-प्रेषण- लिए सामग्री और विधि के साथ-साथ उसका दीर्घकाल तक सतत् विचार-सम्प्रेषण या समाचार मंगाने का कार्य किया जाता था, अतः नियमित अभ्यास और साधना आवश्यक है। दावे के साथ कहा जा सकता है किसी भी विकट समस्या, विपत्ति,
सफल मंत्रसाधक की योग्यता उपसर्ग, संकट या कष्ट का निवारण मंत्रशक्ति से हो सकता है।
___ मंत्र-साधक को मंत्र सिद्ध करने और उससे लाभ उठाने के कल्पना, संकल्प एवं दृढनिश्चय = संकल्प
लिए अधैर्य, विषमता, व्याकुलता, उद्विग्नता, फलाकांक्षा, आशंका, शक्ति का चमत्कार
विचिकित्सा मूढ़दृष्टि आदि से दूर रहना आवश्यक है। मंत्रशास्त्रों में व्यक्ति जब अपनी कल्पना को संकल्प का रूप दे देता है, तब बताया गया है कि मंत्रविद्या-साधक कैसा हो? "जो सदाचारी हो,00-900
2069 कल्पना दृढ़ निश्चय में बदल जाती है। संकल्प शक्ति के द्वारा कुलीन हो, सज्जन हो, परोपकारी हो, कर्मठ हो, एकाग्रचित्त हो, अमेरिका के नौसैनिक इलैक्ट्रिक स्विच के सम्मुख जाकर खड़े हो स्पष्ट शुद्ध उच्चारण करने में समर्थ हो, एवं जो देशकाल का ज्ञाता गए, स्विच दबाया नहीं, स्वतः ही वह ऑन हो गया, बिजली के } हो, वही मंत्रसाधक अपने कार्य में सफल होता है।" प्रकाश से कमरा जगमगाने लगा। संकल्प शक्ति के द्वारा लोह का मंत्रविद्या के छह तथा दस प्रयोजन भारी-भरकम अलमारी कमरे के एक छोर से दूसरे से दूसरे छोर
मंत्र-विद्या-विशारदों ने षट्कर्मों की सिद्धि के लिए मंत्र के ६ तक पहुँच गई। होता यह है कि ज्यों ही मंत्रसाधक व्यक्ति दृढ़
प्रकार बताए हैं-१. शान्ति, २. वश्य, ३. स्तम्भन, ४. उच्चाटन, संकल्प करता है, त्योंही संकल्प बल से समग्र परमाणुओं में प्रकम्पन
५. मारण और ६. विद्वेषण। कतिपय मंत्रविद्या-विशेषज्ञ इन ६ प्रारम्भ हो जाता है, इतना तीव्र प्रकम्पन हो जाता है कि वह संकल्प
प्रकार के मंत्रों के अतिरिक्त चार प्रकार के मंत्र चार कर्मों के लिए यथार्थ में परिणत हो जाता है।
और बताते हैं-७. आकर्षण, ८. मोहन, ९. जृम्भण और १०. मंत्रशक्ति-जागरण के तीन तत्व : शब्द, संकल्प और अभ्यास पौष्टिका मंत्रशक्ति का मुख्य तत्त्व है-शब्द या ध्वनि। पहले शब्द और
प्रश्न होता है, पूर्व पृष्ठों में मंत्र-विद्या के जो उद्देश्य और पदार्थ (अर्थ) में कुछ दूरी होती है। किन्तु शब्द-संयोजनात्मक मंत्र
प्रयोजन बताये गए हैं, उनसे तो ये पूर्वोक्त प्रकार के मंत्र काफी के जप के साथ जैसे-जैसे संकल्प शक्ति दृढ़ होती जाती है-शब्द
भिन्न उद्देश्य और प्रयोजन रखते हैं। इसका क्या कारण है ? इसके और अर्थ की दूरी कम होती जाती है। कल्पवृक्ष, कामधेनु और
समाधान के लिए हमें मंत्रशास्त्र के इतिहास की गहराई में उतरना चिन्तामणि, ये तीनों शक्तियाँ जैसे क्रमशः कल्पना, कामना और
पड़ेगा। चिन्तन के शब्द के साथ ही अर्थ को उपस्थित कर देती है, वैसे ही संकल्प शक्ति भी मंत्रजप के साथ ही व्यक्ति ही कल्पना, कामना ।
मंत्रों के द्वारा भौतिक सिद्धियों की प्रबलता : कब और क्यों? और चिन्तन के शब्द के अनुरूप अर्थ की पूर्ति कर देती है। । यद्यपि ऐहिक सिद्धि के लिए जैनपरम्परा में मंत्रविद्या के प्रयोग अर्थात्-संकल्प शक्ति शब्द और अर्थ की दूरी समाप्त कर देती है। । का निषेध है, प्राचीनकाल में जैन धर्माचार्य को संघ की उन्नति,
रक्षा एवं प्रभावना के लिए मंत्र-विद्या का वेत्ता होना आवश्यक मंत्रसाधना की फलदायकता अभ्यास पर निर्भर
माना गया था। इस प्रकार के प्रभावक आचार्यों के चरित्र सम्बन्धी निष्कर्ष यह है कि मंत्रसाधना का पहला तत्त्व है-शब्द, दूसरा
ग्रन्थों में उनके मंत्रवेत्ता होने का उल्लेख मिलता है। विद्यानुप्रवाद तत्त्व है-संकल्प और तीसरा तत्त्व है अभ्यास। मंत्रसाधक मंत्रगत
पूर्व में तथा उत्तरवर्ती सिद्ध प्राभृत, योनिप्राभृत, निमित्तप्राभृत एवं शब्दों का उच्चारण भी करता है, आत्मविश्वास के साथ दृढ़संकल्प
विद्याप्राभृत आदि मंत्र-साहित्य में विविध मंत्रों का उल्लेख है। इसके भी उसके मन में है, किन्तु अभ्यास नहीं कर रहा है, मंत्रसाधना में
अतिरिक्त 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' का जो परिचय नन्दीसूत्र में मिलता है, अभ्यास का अभाव है तो वह मंत्र फलदायक नहीं बनता। अतः इन
उसमें प्रश्न, अप्रश्न और प्रश्नाप्रश्न, विद्यातिशय आदि मंत्रविद्या से दोनों तत्त्वों के साथ अभ्यास सतत् और दीर्घकाल तक अपेक्षित है।
सम्बन्धित बातों का उल्लेख है। इसी प्रकार ‘आचारांगसूत्र' प्रथमश्रुत मंत्रसाधक आरोहण करता-करता जब तक मंत्र को प्राणमय-मनोमय
स्कन्ध के अष्टम अध्याय में भी विविध मंत्रों का वर्णन था, परन्तु न बना ले, तब तक वह आरोहण के क्रम को न छोड़े। मंत्रसाधना
कतिपय आचार्यों ने इनका दुरुपयोग होता देखकर इस अध्याय को में निरन्तर और दीर्घकालिक प्रयत्न जरूरी है।
विच्छिन्न और प्रश्नव्याकरण से में उक्त मंत्रविद्या को निकाल दिया। सारी सामग्री होने पर अभ्यास और साधना अनिवार्य
अतः इन पिछली शताब्दियों में जीवन का लक्ष्य तपःसंयम मंत्रजपानुष्ठान में सफलता के लिए सारी सामग्री होने पर भी परायण व त्यागपरक न होकर भोगोन्मुखी अधिक होने लगा। इस अभ्यास आवश्यक है। कोई व्यक्ति इस भ्रान्ति में न रहे कि मंत्र की दृष्टि से मंत्रों से किसी रूप में आध्यात्मिक विकास का प्रयोजन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । लुप्त होता गया, केवल भौतिक और वह भी प्रायः वासनात्मक बिलकुल स्वाभाविक है। मंत्रशास्त्र में बताए गए पूर्वोक्त ६ या १० प्रयोजन तथा शत्रु के प्रति मारण, मोहन, उच्चाटन आदि मंत्रों के प्रयोजनों ने जनमानस में एक भ्रान्ति फैला दी है कि मंत्र और प्रयोग ने जोर पकड़ा। जैनसंघों पर भी बड़े-बड़े उपसर्ग व संकट के अध्यात्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। पूर्वोक्त भ्रान्ति के शिकार लोग दौर आए। अतः दुर्बल आत्माओं, सांसारिक मोहाच्छन्न जीवों के यही सोचने लगे-मंत्रवेत्ता मंत्रों से मारने, सम्मोहित करने, उच्चाटन लिए एकमात्र आध्यात्मिक उद्देश्य पर टिके रहना, आत्मभावों के करने तथा वश में करने का ही प्रयोग करते हैं। अतः मंत्रविद्या निजी गुणों पर टिके रहना, पर भावों और विभावों से विमुख खराब विद्या है। किन्तु नमस्कारमंत्र आदि जैनमंत्रों के प्रयोगों ने यह रहना, बहुत ही कठिन हो गया। अधिकांश व्यक्ति विपत्ति आते ही सिद्ध कर दिया है कि मंत्र के द्वारा ऐसी सूक्ष्म ध्वनि-तरंगें पैदा की भय या प्रलोभन, स्वार्थ और लोभ का ज्वार आते ही स्वधर्म से- जाने से प्राणों की धारा सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगती है, स्व-भाव से विचलित होने लगे। कई लोग त्याग, तप, संयम से । अध्यात्मजागरण प्रारम्भ हो जाता है। दूसरी दृष्टि से देखें तो इन विमुख होकर जहाँ भोग-विलास एवं आडम्बर की प्रचुरता थी, उस मंत्रों से कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, इन्द्रिय विषयों के ओर झुकने लगे। मनुष्यों की ऐसी मनःस्थिति देखकर दीर्घदृष्टि प्रति राग-द्वेष उपशान्त होने लगते हैं। भय, घृणा, कामवासना, जैन-आचार्यों ने नवकारमंत्रकल्प, लोगस्स कल्प, णमोत्थुणं कल्प, तनाव एवं ईर्ष्या विषमता आदि विकार भी शान्त हो जाते हैं। मंत्रों उवसग्गहरस्तोत्रकल्प, तिजयपहुत्तकल्प, भक्तामरकल्प, कल्याणमन्दिर के विधिवत् प्रयोग से सभी समस्याएँ हल हो सकती हैं, सभी कल्प, ऋषिमण्डल स्तोत्र तथा ह्रींकारकल्प, वर्धमानविद्या एवं अनेक स्थितियों से निपटा जा सकता है। प्रकार के लौकिक मंत्रों की भी रचना की। इनका दौर बीच के
मंत्रशक्ति की सफलता के चिह्न चैत्यवासी साधुओं और यतियों के युग में खूब चला। उन्होंने मंत्रों के बल पर लोगों को चमत्कृत एवं आकर्षित करना शुरू किया।
मंत्रसाधक जब पुनः पुनः एक ही मंत्र का उच्चारण या अज्ञजनों को मंत्रों के नाम से ठगा भी जाने लगा। फलतः मंत्रों की
आवर्तन करता है, तब उसे वाच्य और वाचक की अभिन्नता का वास्तविकता और प्रभावशीलता से बुद्धिमान् लोगों की श्रद्धा उठने
अनुभव होने लगता है। यही मंत्र-साधना की सफलता का प्रथम लगी। आमजनता मंत्रप्रयोगों को जादू के खेल अथवा देव-देवी को
चिह्न है। मंत्र-साधना में सफलता का दूसरा चिह्न है-चित्त की वश में करने की विद्या मानने लगी। यद्यपि मंत्र विद्या, उसका
प्रसन्नता, मानसिक निर्मलता। पवित्र मंत्रों के उच्चारण से साधक के प्रभाव एवं शक्तिमत्ता सर्वथा नष्ट नहीं हुई, न आज भी नष्ट है।
अन्तःकरण में राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि का मैल धुलने लगता है। नमस्कार महामंत्र जैसे जैनमंत्रों की सात्विकता और प्रभावशालिता। तीसरा चिह्न है-बिना किसी उपलब्धि के भी चित्त की सन्तुष्टि होना की सत्यता आज भी सिद्ध है, लुप्त नहीं हुई। ऐसे सात्विक मंत्रों के साधक का मन सन्तोष से सराबोर हो जाता है कि उसकी भौतिक
गों की श्रद्धा और निष्ठा है। कई शास्त्रीय गाथाएँ। पदार्थों की या परभावों की सारी चाह शान्त हो जाती है। विविध उद्देश्यों को सिद्ध करने वाली मंत्ररूपा है, जिनका विधिवत् । मंत्रों के अधिष्ठायक देवी-देवों द्वारा मंत्रसिद्धि में सहायता प्रयोग करने से वे-वे कार्य सिद्ध होते हैं।
इसी प्रकार पवित्रमंत्रों की साधना से स्मरण, चिन्तन, मनन, मंत्रप्रयोग के सात्त्विक और आध्यात्मिक प्रयोजन भी हैं। विश्लेषण, निर्णय आदि बौद्धिक शक्तियाँ एवं अनुभूति की चेतना -
अतः इस भ्रान्ति को मन से निकाल देना चाहिए कि मंत्र प्रयोग ज्ञानचेतना जग जाती है। उसे इन मानसिक उपलब्धियों के के पूर्वोक्त छह या दस ही प्रयोजन हैं। समय-समय पर आचार्यों ने साथ-साथ शारीरिक उपलब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। मंत्रसाधक मंत्रों द्वारा अनेक प्रयोजन सिद्ध किये हैं। मंत्र एक शक्ति है, व्यक्ति क्षय, अरुचि, अग्निमान्द्य, कोष्ठबद्धता, दुर्बलता आदि रोगों ऊर्जावृद्धि का साधन है। शक्ति-शक्ति है, उसका अच्छा या बुरा पर नियंत्रण पा लेता है। तन और मन दोनों स्वस्थ और स्फूर्तिमान उपयोग प्रयोग करने वाले पर निर्भर है। शक्ति अपने आप में न हो जाते हैं। व्याधि, आधि और उपाधि मिट कर समाधि प्राप्त हो अच्छी है, न बुरी। मंत्रों द्वारा कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ भी जाती है या समाधि की दिशा में गति-प्रगति होने लगती है। नष्ट होती हैं। कुछ वर्षों पूर्व मंत्रों द्वारा विभिन्न रोगों की चिकित्सा । देवाधिष्ठित मंत्र की आराधना से शरीर भी प्रभावित होता है। का उपक्रम नागपुर में तथा कई अन्य स्थानों पर, विभिन्न साधकों। इसके अतिरिक्त जिस मंत्र के जो भी अधिष्ठायक देवी-देव द्वारा चलाया गया था। मंत्र की सक्ष्म ध्वनि अर्थात ध्वनि-तरंगों होते हैं, वे भी सहायता देते हैं। सात्विक मंत्राराधना से मंत्र के द्वारा औजारों के बिना ऑपरेशन क्रियां भी सम्पन्न की जाने लगी। अधिष्ठाता दिव्य आत्मा की सहायता कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष है। सूक्ष्म ध्वनिप्रयोग से हीरा भी काटा जाता है, पारे में पानी । रूप से मिल जाती है। दशवैकालिकक सूत्र में कहा गया हैमिलाया जाता है तथा वस्त्रों की धुलाई तक होती है और तो और } "देवावितं नमसंति, जस्स धम्मे सयामणो।" -जिसका मन सदैव धर्म वनस्पतिजगत् में मंत्रित जल का प्रयोग होने लगा है, जिससे । (उपलक्षण से धर्मदेव एवं धर्मगुरु) में रत रहता है, उसे देवता रासायनिक खाद देने की अपेक्षा दुगुनी फसल तथा फल भी दुगुने । आदि भी नमस्कार करते हैं। देवाधिष्ठित मंत्र की आराधना से प्रमाण में प्राप्त हुए हैं। मंत्रों के द्वारा आध्यात्मिक जागरण होना तो शरीर में रोमाञ्च होने लगता है; आँखों में हर्षाश्रु उमड़ पड़ते हैं,
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| वागू देवता का दिव्य रूप
३७१ । कण्ठ गद्गद हो जाता है। मंत्र-साधना के दौरान आने वाली समस्त पापों के प्रणाशक हैं। और समस्त मंगलों (कल्याणकारक या विघ्न-बाधाएँ भी दूर हो जाती हैं। यह प्रत्यक्ष अनुभूत सत्य है। जो सुखदायक बातों) में प्रथम (प्रधान) मंगल है। मंत्र देवतात्मक होते हैं, वे वाचक होते हैं, दिव्य आत्माएँ उनका तात्पर्य यह है कि इस नमस्कार-महामंत्र का एकाग्रता, वाच्य होती हैं। यही मंत्र-साधना में सफलता की निशानी है।
श्रद्धाभक्ति, उत्साह और तन्मयतापूर्वक अखण्ड जाप करने से सभी आध्यात्मिक पथ पर आरोहण करने में भी मंत्र सहायक
पापकर्मों का नाश हो जाता है तथा पुण्यकर्म प्रबल होने से दुःख के जब साधक पर विपत्तियाँ, संकट, उपसर्ग और परीषह उमड़
स्थान में सुख, विपत्ति के स्थान पर सम्पत्ति, शूली के स्थान पर घुमड़ कर आते हैं, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर, मान,
सिंहासन, निन्दा के स्थान पर प्रशंसा, प्रसिद्धि, अधर्म और पाप के माया, द्वेष, राग आदि विभावों और परभावों का आक्रमण होता
स्थान पर धर्म और पुण्य की प्रबलता हो जाती है। अशान्ति का है, उस समग्र उसे रत्नत्रयरूप धर्म पर टिकना बहुत कठिन हो
स्थान समता और शान्ति लेती है। पुण्य प्रबल हो जाने से सारे ही जाता है। ऐसे समय में बड़े-बड़े साधकों के पैर लड़खड़ाने लगते हैं।
पासे सीधे पड़ने लगते हैं। जीवन का दृष्टिकोण ही बदल जाता है।
बुद्धि, मति, प्रेक्षा और दृष्टि भी सम्यक् हो जाती है। जीवन जीने ऐसे समय में भक्तिभावपरक प्रार्थनात्मक-आरुग्ग-बोहिलाभं
की सम्यक् कला आ जाती है। जन्म-जन्मान्तर के पाप, ताप, सन्ताप समाहिवरमुनमं दिंतु।' 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' जैसे मंत्र साधक के
और पश्चात्ताप भी मिट जाते हैं। आध्यात्मिक विकास का भी आध्यात्मिक पथ पर आरोहण करने में बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।
आश्वासन मिलने लगता है। जैसे कि कहा हैपापकर्मनाशक और पुण्यकर्मवर्द्धक महामंत्र नवकार
"इक्को वि णमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स। इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति के जीवन में अशुभ (पाप) कर्मों
संसार-सायराओ, तारेइ नरं वा नारी वा॥" की प्रबलता होती है, पूर्वकृत पापकर्म के उदय से हर कार्य में विघ्न-बाधाएँ आती रहती हैं, पापकर्म के उदय से बीमारी उसका
वीतराग जिनेन्द्रों में श्रेष्ठ श्री वर्द्धमान महावीर को भावपूर्वक पीछा नहीं छोड़ती। निन्दा, मिथ्यादोषारोपण, आकस्मिक दुर्घटना, किया हुआ एक (मंत्रात्मक) नमस्कार भी नमस्कर्ता नर या नारी परस्पर कलह, मारपीट, आर्त्तध्यान, दारिद्रयपीड़ा, अभावग्रस्तता
। को संसार-सागर से पार करने (तारने) में समर्थ है। आदि होने की नौबत आ जाती है; ऐसे समय में 'णमोक्कार महामंत्र | अतः मंत्र-साधक को मंत्र विद्या से सम्बन्धित बाधक तत्वों से आश्वासन मिलता है-'एसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।' । और रहस्यों को जानना बहुत आवश्यक है। तभी वह मंत्रशक्ति का मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं' [ये पंचविध नमस्कार (मंत्र) सदुपयोग कर सकेगा, उससे आध्यात्मिक विकास भी साध सकेगा।
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* लम्बी यात्रा करने वाले अनेक पड़ावों पर रुक कर मार्ग में अनेक रातें ठहर कर अपने लक्ष्य तक
पहुँच जाते हैं। मोक्ष प्राप्ति मनुष्य का लक्ष्य है-मंजिल है। उसे प्राप्त करने के लिए कभी-कभी कई जन्म धारण करने पड़ते हैं। पूरा जीवन बिताना-मार्ग तय करना है और मृत्यु के बाद सबेरा होता
है तब दूसरे जन्म से यात्रा फिर शुरू हो जाती है। * आपत्ति संसार की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला है जहाँ मनुष्य को अनुभव व गुणों की शिक्षा मिलती है। * संसार किसे कहते हैं ? जहाँ कोई किसी का न हो, यहाँ तक कि हम स्वयं भी अपने नहीं हैं, वही
स्थान संसार है। * अंहकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
काव्य-सुमन की सौरभ
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(पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी एक सहज कवि थे। उनकी वाणी में कबीर सी फक्कड़ता, सहजता और उपदेश प्रवणता के दर्शन होते है। प्रवचन आदि में कभी-कभी प्रसंगानुसार आशु कविता के रूप में भी उनकी सरस्वती स्वतः स्फूर्त हो जाती थी। काव्य रचना की दृष्टि से भी गुरुदेव ने लगभग ५०० भजन लिखे हैं, और २५-३० चरित काव्य भी। यहाँ पर नमूने के रूप में कुछ भजन व चरित काव्यों के कुछ प्रेरक अंश तथा संस्कृत रचना का रसास्वाद प्रस्तुत हैं
-सम्पादक
जागजा इन्सान
मैं मूल रूप अविकारी हूँ।
चिन्मय ज्योति का धारी हूँ।
मैं शाश्वत सुख का स्वामी हूँ॥३॥ स्वकर्ता पर का काम नहीं। पर पुद्गल में विश्राम नहीं। 'पुष्कर' मैं मुक्ति का कामी हूँ।
मैं शुद्ध बुद्ध गुणधामी हूँ॥४॥
आपरी चिन्ता
[तर्ज-चुप-चुप आते हो] जागजा रे जागजा, जागजा इन्सान है। तेरे मन मन्दिर में, बैठे भगवान है।।टेर।। प्रेम से तू मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारे में जाता है। करता पूजा-पाठ और, भक्ति गीत गाता है। तन में भक्ति, मन में तेरे बैठा तो शैतान है।।१।। आगम और गीता की, स्वाध्याय भी करता है। लगा कर अपना कान, सन्त वाणी सुनता है। बेच देता लालच में, इज्जत और ईमान है॥२॥ लड़ाता है स्वार्थ हित, कहता धर्म लड़ाई है। मैत्री को नहीं देखता तू, देखता कमाई है। गरीबों से बनते तेरे, बंगले आलिशान हैं॥३॥ जाति-पाति की तो मैंने, खड़ी की दीवारे हैं। राम कृष्ण वीर के तू, लगा लेता नारे हैं। “पुष्कर मुनि" धर्म कर, छोड़ आर्तध्यान है।।४।।
[तर्ज-तेजारी] औरांरा अवगुण मत देखो-एक बात थे मानलो। अवगुण देखो तो देखो आपरा टेर।। चाहे जिसा दूसरा है जी, आपां रो नुक्सान के॥
आपां आपां रै ही हौ कामरा ॥१॥
चाहे भला दूसरा है जी, लाभ कांई है आपा रै॥
आपां आपां रै ही हां काम रा
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॥२
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आपां रो सुधार करो, आपां रै विचारां सूं॥
आपां आपां ने समझो आपरा
॥३॥
अविनाशी और निर्नामी हूँ
(तर्ज-जय बोलो महावीर स्वामी की) मैं शुद्ध बुद्ध गुणधामी हूँ।
और ज्ञानानन्द अभिरामी हूँ॥टेर॥ स्व पूर्ण हूं पर की गन्ध नहीं। मेरा पर से कोई सम्बन्ध नहीं।
अविनाशी और निर्नामी हूँ॥१॥ राग द्वेष से सदा निराला हूँ।
अखण्ड मैं चैतन्य वाला हूँ।
निरिच्छा और निष्कामी हूँ॥२॥
दूसरा तो हँसी उडावै, काम पड्यां सूं आपां री॥
रक्षा आपां री आपां ही करो ॥४॥
जिनवररी जय हो गई जय,
आपां री अब होणी है।
'पुष्कर' आपां ने चिन्ता आपणी ॥५॥
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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वृद्धानुगामी
विभिन्न स्थानों की प्रसिद्ध वस्तुएँ)
"सुरत नी धारी अनें डाकोर ना गोटा भला, बडौदा नो चेवडा ने, सहु जण खाय छ।
खंभात नी सुतरफेणी, वसई ना केला सारा,
नागपुर ना संतरा पान पुना ना केवाय छ। मुम्बईनो हलवो सारो, इडली डोसा मद्रास ना, वलसाड नी केरी खाई, मन खुश थाय छ।
पेटलाद नो पपैयो रू, गोल कोलापुर केरो, 'पुष्कर' कहे मानव, क्यां नो वखणाय छे।।।।
(तर्ज-जय बोलो महावीर स्वामी की) वृद्धों का नित अनुसरण करे। शुभ-कीर्ति प्रिया का वरण करे ॥टेर।।
वय-श्रुत-अनुभव से वृद्ध भले। उनकी छाया में पले-चले।
आज्ञानुसार निज चरण धरे शुभ ॥१॥ वृद्धों की सेवा करे सदा। हाजरियाँ उनकी भरे सदा। तज अवगुण, गुण को ग्रहण करे शुभ ॥२॥
वृद्धों ने युग को देख लिया। युग से ही सत्व विवेक लिया।
पदचिन्हों का अनुकरण करे शुभ ॥३॥ इतिहास बनाया वृद्धों ने। विश्वास जमाया वृद्धों ने। अनुकूलित वातावरण करे शुभ ॥४॥
जिसमें न वृद्ध वह नहीं सभा। "पुष्कर'' सूरज में सिर्फ प्रभा। श्रावक अज्ञानावरण हरे 'शुभ ॥५॥
वीतराग वाणी माहात्म्य
केशर काश्मिरी जान, सरवर मुक्ता खान काबूल में वो प्रधान, चम्पो आबू जानी है बिकानेरी मिश्री जारी, चीनी कारिगरी भारी
हिन्दी की है बोली प्यारी, पुंगल की राणी है ताल तो भोपाल ताल, गढ़ तो चित्तौड़ शाल विद्या माहिं काशी भाल, लौकिक कहानी है पक्ष पात छोड़ी दाखे, मुनि पुष्कर राज भाखे
वाणी माहीं वाणी आच्छी, वीतराग वाणी है।
कृतज्ञ
हिन्दी महिमा
नाना भाषा भारत में, प्रचलित होती जाती
उनमें निर्दोषता का, लेश भी न मानिये
(तर्ज-राधेश्याम) कृतज्ञता ज्ञापन करना क्यों, भूल जाय श्रावक प्यारा। किया गया उपकार समय पर, भले किसी ही के द्वारा॥१॥ उऋण होना सरल नहीं है, मात-सेठ से गुरुजन से। श्री ठाणांग सूत्र बतलाता, महावीर के प्रवचन से॥२॥ अंजनिसुत के उपकारों का, प्रतिफल राम न दे पाते। भाई से बढ़कर हो प्यारे, गले लगाते गुन गाते॥३॥ भार कृतघ्नों का लगता है, प्यारी पृथ्वी माता को। पता न कैसे भूला जाता, उपकारी को, त्राता को ।।४।। गुन एकोनविश श्रावक का, बने कृतज्ञ विशेष भला। कृतज्ञता-ज्ञापन करने की, 'पुष्कर मुनि' यह श्रेष्ठ कला ॥५॥
किसी में है कर्ण कटु, अशुद्धोच्चारण कहीं
किसी माहिं विलेखन, शुद्ध नहीं जानिये टेढ़े मेढ़े शिर कटे, किसी में अक्षर होते
कहीं पर वर्ण व्यर्थ, दोष पहचानिये विवेक वर्द्धिनी शुद्ध, पुष्कर सभ्य भाषा
भारत भाल की भव्य, बिन्दी हिन्दी जानिये
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नगरों के नाम पर द्वयर्थक-श्लेष प्रयोग
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सूरत सो शहर देखी, रतलाम भूल जाना जगन्नाथपुरी पाय, कुंबलगढ़ गाइये
वक्तगढ़ वांको घणी, रसालपुर बांधे क्यों
पाली छः काय सिद्धा, रक्षापुर जाइये खट कालो देख मना, नागपुर भूल मति सिद्ध पुर जाना जब, कर्मपुर ढाइये
कहे पुष्कर मुनि, नाम ही गांव सारे देखकर आत्मा में, ज्ञान को रमाइये
सागर में भम रह्यो, मदराश वास कर कलकटा अजमेरा दिल्ली में जचाइये।
पूना से ही मिला तुझ, सहायपुर कुटुम्ब का
धर्मपुरी छोड़, सारंगपुर न रीझाइये दौ-डेरलपुरी लिए, कानपुर फस रह्यो मालेगाँव पाय पुष्कर, धूले न भूलाइये
उदयपुर कर्म हुए, जोधपुर जी तलिये जयपुर होय सिद्धे, सिद्ध पुर जाइये।
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महावीर षट्कम्
महावीर षट्कम्
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मा (संस्कृत) मजाक नमामि युगनायकं, जिनवरैः सदोपसितम्, स एव पृथिवीतले, जिनवरेषु तीर्थान्तिमः। अनेन मुनिना स्वयं, जिनमतं पुनर्बोधितम् कलौ मुनिषु केवली, प्रथम एव पूज्योऽभवत्।।१।। अवैदिक जनैरहो! कलुषितैश्च हिंसामयः, तदाऽस्य समये महान् अधमधर्म इच्छापरः। अयुक्त विधिना क्रतुः, कथित हेतुर्मिमिथ्यात्मकः, दयालुषु महोत्तमै, जिनवरैय॑षेधि स्वयम् ॥२॥ यशस्वि पुरुषो मुनिः, करुणया जनान् बोधयन्, जगाम सततं भ्रमन्, क्रतुमिमं कुर्वतो बुधान्। अपृच्छदयमेव तान्, कथमिमे जीविनस्तदा, क्रती विधिवशादिमे, बलिहितायैव ते, समे॥३॥ निशम्य वचनं प्रभुः, करुणयाऽऽप्लावितोऽभवत्, न कोऽपि परमो गुणी, य इह वेदं वदेत्स्वयम्। न चाऽस्ति भवतां गणे, वदति वागुत्तरं स यः, पुनर्न, बत योग्यता, निरपवादं वदेदसौ॥४॥ प्रभोः समुचितं वचो, सदसि साभिमानः सुधीः, निशम्य हसति स्वयं, वदतु कोऽपि चेन्द्रोऽस्म्यहम्। वदेयमहमेव तं, बलिमिमं तु वैधं विधिम्, प्रयाति सविधे मुनेः पुनरयं सलज्जोऽभवत्॥५॥ स्मरामि मुनिमन्तिमं, तममिह केवलज्ञं गुरुम्, वदन्ति भुवनेऽप्यतः कुसुमवाणधीरं प्रभुम्। जनास्तु सकला :कली, शरणगामिजैना इमे, भवन्ति कथयाम्यतो, नमति पुष्करो गीतमम्॥६॥
(हिन्दी-भावार्थ) जिनवर जिनकी सदा उपासना करते हैं, जो युग के नेता रहे। ये ही सभी तीर्थंकर भगवानों में अन्तिम हैं। इन्होंने भूले हुए जैनधर्म को सुझाया। कलियुग के सर्वप्रथम केवली होकर पूज्य हुए।।१॥
अवैदिक जनता ने मर्जी मुताबिक हिंसाप्रधान अधर्म चलाया। बनावटी युक्तियों के यज्ञ होने लगे। ऐसे समय दयालु महावीर भगवान ने ऐसे यज्ञों का निषेध किया। वस्तुसत्य यह है कि स्वयं महावीर ने कभी वेद को असत्य अथवा अयथार्थ नहीं कहा ॥२॥
परम यशस्वी भगवान् महावीर ने निरन्तर घूमकर मनुष्यों को समझाते हुए कहा कि ये यज्ञादि में इन जानवरों की हत्या करना अवैदिक और मिथ्या है॥३॥
पशुओं की बात को ज्ञात कर केवली भगवान महावीर स्वामी बड़े व्यथित हुए और दयाविभोर हो उठे और कहने लगे कि पहले तो वेद के अर्थ को कोई जानता नहीं। आपमें से भी कोई ऐसा भी नहीं है कि जो वेद को जानता हो और उचित उत्तर दे सके ॥४॥
तब इन्द्रभूति गौतम गर्व से सुनकर हँसने लगे और कहने लगे कि बलि देना वैध है और जब सिद्ध करने के लिए भगवान के सामने खड़े हुए तो लज्जित हो हक-बक हो गये कि ये तो वेद के वास्तविक अर्थ को जानते हैं ॥५॥
केवली भगवान् महावीर महान् जितेन्द्रिय पुरुष थे अतः एव उस समय की जनता मिथ्याचार का परित्याग कर जैन बन गये थे जो अभी तक हैं। अन्त में स्वयं पुष्कर मुनि गौतम मुनि को प्रणाम करते हैं कि अन्त में वे वस्तु तत्त्व को समझकर जैन धर्म को यथार्थ में पहचान सके ॥६॥
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। वागू देवता का दिव्य रूप
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गुरुदेव स्मृत्यष्टकम्
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स्मरामि सन्तं सततोपकारिणं, गुरुं मदीयं स्थविरेष्वनन्यम्। अहं प्रभातेऽप्यधुना गुरुं नमन्, चरामि नित्यस्य विधेः क्रियापदम्॥१॥ पुराऽहमासं कृषिकर्म धारिणां, कुलेद्विजानां सुतएव वास्तवः। परन्त्वकस्मान्मम पूतकर्मणो, युवा गुरु मे पुरिदृष्टवानहम्॥२॥
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वणिगजनैः कैश्वन जैनबन्धुभिस्तदा गुरुं सेवितुमेष योजितः। अतिप्रसन्न पुनरेकदा गुरु, विवाहितस्त्वं किमसीत्यपृच्छत्॥३॥
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अहं विरागो युवकम्म्यतः स्वयं, तदोपयामं शयनेऽपि वाञ्छितम्। भवेयमीशो किमुचिन्तये रहो! निशम्य वाचं स त सस्पृहोऽभवत्।।४।।
मैं सतत् उपकारी स्थविरों में अनन्य मेरे गुरुदेव को अब भी अन्य नित्यविधियों के पूर्व में स्मरण करता हूँ॥१॥
पहले मैं खेतिहर ब्राह्मणों के वंश में उत्पन्न हुआ पुत्र था, परन्तु भाग्य से पुण्यकर्म के कारण युवक हुए मैंने मेरे इन गुरुदेव को अपनी नगरी में देखा ॥२॥
तब मुझे कुछ व्यापारी जैनबन्धुओं ने गुरुदेव की सेवा में लगाया। एक बार अत्यन्त प्रसन्न गुरुदेव ने प्रश्न किया कि क्या तुम विवाहित हो ऐसा पूछा ॥३॥
(मैंने कहा कि) मैं उदासीन युवक हूँ, इससे मैं इस बात की ओर स्वप्न में भी नहीं सोचता। मेरी इस बात को सुनकर गुरुदेव सस्पृह हो उठे।॥४॥
तदनन्तर गुरुदेव ने एक मुनि की नित्यविधि को अच्छी तरह से मुझे समझाया। उन्हीं गुरुदेव की कृपा से मैं पीछे यथा विधान Poraso0 दीक्षित हुआ॥५॥ ____ गुरुप्रिय होने से मुझे शिक्षक विद्वानों ने शिक्षित किया जिससे मैं भाषा में पण्डित हुआ, क्रम से फिर मुनि मण्डल में वाग्मी समझा
P..903 जाने लगा, यहाँ तक कि मैं उपाध्याय हो गया॥६॥
200 इस प्रकार मैं मुनि की नित्यविधि को समझा। फिर गुरुदेव के अन्य शिष्यों को मार्ग की दृष्टि को बताते हुए शिष्य प्रधान प्रथम शिष्य हो गया॥७॥ _मैं अपने गुरुदेव के गुणों का ऋणी मानता हूँ जिनका कि शुभनाम श्री ताराचन्द्र जी महाराज था, जिनको मैं क्या कहूँ। जिनको तप की साक्षात् मूर्ति सभी अन्य तपस्वी मुनि कहते हैं॥८॥
पुनर्मुनेर्नित्यविधेरपेक्षितं, क्रियाकलापं सकलं व्यबोधयत्। अनुग्रहेणैव गुरोरहं ततो, यथाविधानं भुवि दीक्षितोऽभवम्॥५॥
गुरुप्रियोऽहं विधिना प्रशिक्षकः, प्रशिक्ष्य शीघ्र गिरि पण्डितः कृतः। क्रमेण वाग्मी निपुणो मुनिर्गणे, तथाऽप्युपाध्यापदे व्यवस्थितः॥६॥
पुनर्मुनेर्नित्यविधिं यथोचितं, क्रियाकलापं सकलं व्यवागम। गुरोर्मुनीन् दृष्टिपथं निबोधयन् प्रधानशिष्येप्रथमोऽभवं ततः।।७।।
OROPO
ऋणी गुणानामहमस्मि मे गुरोर्मुनेस्तु तारा विधुनाम धारिणः वदाम्यहं किं मुनयस्तपस्विनो, वदन्ति रूपं तपसो जिनस्यतम् ॥८॥
अहिंसाष्टकम्
अहिंसाष्टकम्
TERRO
अहिंसाधर्मोऽयं परम रमणीयोऽवनि तले,
पृथिवी पर यह परम रमणीय अहिंसा धर्म है। जिस अहिंसा यतः सर्वे जीवाः सततसखिनो जीवनधरा।
धर्म से जीवनधारी जीव सभी सदा सुखी रहते हैं। महान् आनन्दित महान्तः सानन्दा विदधति यथेच्छं गतिविधिं
होकर इच्छानुसार अपने कार्य करते हैं और किसी को वे कष्ट नहीं pada न कष्टं ते दधुः कथयतु फलं किं निहनने ॥१॥ । देते। कहिये, इनके मारने में क्या लाभ होता है ?॥१॥
90009 कपोता अप्येते कथमपि हिंसा विदधति, hissa ये कबूतर भी कभी हिंसा नहीं करते। यहाँ तक कि जिन्दा म्रियेरन् जीवन्तस्तदपि पुनरन्यं व्यथयितुम्।
रहते हुए मर भले ही जायें फिर भी दूसरे को दुःखी करने के लिए parasi कदाप्येतेक्षीबा न हि तदपि हिंसां दधति ते, की | भूखे ये कबूतर हिंसा नहीं करते। यदि जीव के साथ अन्न हो तो सजीवं चान्नं चेज् जहति पुनरन्तेऽप्यशरणाः॥२॥
| उसको अशरण ये अन्त में छोड़ देते हैं॥२॥ महन्मेऽस्त्याश्चर्यं हृदि पशुमजं हन्ति पुरुषः
। मेरे हृदय में बड़ा आश्चर्य होता है कि मनुष्य बकरा जानवर प्रभोराख्यां स्मृत्वा वदति परमं धर्ममपि तम्।
को मारता है और ईश्वर का नाम लेता है, उसको बड़ा धर्म भी अहो! पापं किं स्यात्कथयतु पुनः कोऽपि भगवन्!
कहता है। कोई बताये कि फिर पाप किसको कहते हैं ? अरे ओ अहिंसा धर्मं तं जिन मुनिरयं वीर इति सः ॥३॥ | भगवान् महावीर जिनवर! अहिंसा धर्म उसको कहते हैं ।।३।।
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त्रिकालान
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सदा आप्त पुरुषों के द्वारा श्रुतवचन, तर्क और आगम के साथ जो त्रिकाल में एकार्थ रहता है वह धर्म होता है। अपनी इच्छा के अनुसार कहा गया धर्म विषय नहीं होता, जैसा कि मर्जी मुताबिक कामी पुरुषों ने धर्म बताया है॥४॥
भगवान महावीर ने विद्वानों की सभा में प्रश्न किया था कि ये वेद सब मेरे अहिंसा मत को बताते हैं। विद्वज्जन बतायें कि यज्ञ में मूक पशुओं को मारते हैं, यह श्रुति मुख से यथार्थ है ?॥५॥
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सदाऽऽप्तोक्ति द्वारा श्रुतवचनतर्कागमयुतः, त्रिकालऽनन्यार्थो निहितविषयो धर्म इति मे। निजेच्छाऽभिव्यक्तो भवति न पुनर्धर्मविषयः, यतेच्छाचारैस्तैरभिक पुरुषैर्धर्म इति सः॥४॥ महावीरः स्वामी सदसि विदुषां प्रश्नमकरोत्,
इमे वेदाः सर्वेऽप्यभिदधति धर्म मम मतम्। 300
वदेयुर्विद्वान्सो विदधति वधं यागविषये पशूनां मूकानां कथमपि यथार्थ श्रुतिमुखात्।।५।। अभूवन्मौनास्ते किमपि न वचस्तेऽप्युदतरन्, यतः सर्वज्ञोऽसौ श्रुतिमपि मुनिर्वेत्ति नितराम्। तदा मांसासक्तान् परमविदुषोऽसावमिदधी,
यथेच्छं श्रुत्यर्थं वदथ पुनरस्मान्न हि रुचिः॥६॥ GOOD
मुनिज॑नो नित्यं विहरति यथेच्छं प्रतिदिनम्, चतुर्मासान् वृष्टेर्गमयति पुरे वा पुरि तदा। परन्त्वेष स्वीयं विधिमपि न हातुं प्रभवति, प्रतिज्ञातं कार्यं गुरुवचनतोऽयं प्रकुरुते॥७॥ महाप्रतिष्ठो जिन धर्म एको, विराजते धर्मसमूहमध्ये। न कोऽपि धर्मः परमोऽस्ति चातो, नमाम्यहं जैनमिमं सुधर्मम् ॥८॥
(भगवान् महावीर के प्रश्न को सुनकर) विद्वान् चुप हो गये और कोई भी उत्तर नहीं दे पाया। क्योंकि भगवान् त्रिकालज्ञ केवली थे, वे वेदों को जानते थे! तब उन दिद्वानों को जो मांसासक्त थे, उनको भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि आप इच्छानुसार वेदों के अर्थ लगाते हो, अतः मेरी कोई कहने की इच्छा नहीं है॥६॥
जैन मुनि प्रतिदिन इच्छानुसार विहार करता है, केवल बरसात में चार महीनों तक नगर या नगरी में बिताते हैं, किन्तु ये अपने प्रतिक्रमण आदि धर्म को नहीं छोड़ते और गुरुवचन से प्रतिज्ञात कार्य को अच्छी तरह करते हैं॥७॥
सभी धर्मों में यह जिनधर्म महाप्रतिष्ठ है। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है। अतः इस जैनधर्म को मैं प्रणाम करता हूँ॥८॥
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सत्यपञ्चकम्
सत्यपञ्चकम्
सत्स्वेव साधुर्भवती सत्यं सत्यस्य सिद्धिः कथिता पदसः। तस्माद्यथार्थं कथनं समाजे, वयं तदा सत्यमिदं वदामः॥१॥
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परन्तु सत्यं परमस्ति मूलं, धर्मस्य तत्त्वार्थविदो वदन्ति। सत्यं बिना काऽपि पदार्थ सिद्धि स्त्येिवलोके कथयन्ति सन्तः॥२॥ न्यायालयोऽयं यदि तत्र सत्यं हिंसालयोऽसौयदिनास्ति सत्यम्। न्यायाधिकारी यम एव सोऽयं, सत्ये न यस्याभिरुचिस्तदानीम् ॥३॥
व्याकरण के ज्ञाता पुरुषों ने जो सन्तों में साधु होता है, उसको सत्य कहते हैं' ऐसे सत्य की सिद्धि कही है। इससे जो समाज में । सत्य कथन है, उसको हम तब सत्य कहते हैं॥१॥
तत्त्ववेत्ता धर्म की जड़ सत्य कहते हैं। सन्त कहते हैं, कि सत्य के बिना संसार में कोई भी पदार्थ सिद्धि नहीं होती॥२॥ । यह न्यायालय तभी न्यायालय है, जबकि वहाँ सत्य हो। यदि
वहाँ सत्य नहीं है तो वह हिंसालय अर्थात् कत्लगाह है। वह न्यायमूर्ति एक यमराज है, जिसकी रुचि सत्य में न हो॥३॥
साक्षात्केवली महापुरुषों में प्रमाण के साथ आगमों में यह सत्य कहा है। तदतिरिक्त कोई सत्य नहीं है, क्योंकि अभी कलियुग घोर समय है, अतः सभी अपनी-अपनी बात को सत्य कहते हैं ॥४॥
ये मुनिजन संसार में सत्य स्वरूप हैं, और ये सभी सम्मानित हैं। भद्र घोर तपस्वी की प्रसिद्धि का मूल सत्य होता है॥५॥
अध्यागम सत्यमिदं समूलं, साक्षात्तदा केवलिभिर्यथोक्तम्। सत्यं जनैर्व्यर्थमुदीर्यतेऽदः, कालः कलेः साम्प्रतमस्ति घोरः॥४॥
सत्यस्वरूपा मुनयः पृथिव्यां, सम्मानिताः सन्ति समेऽप्यथाऽन्ये। भद्रा जना घोर तपस्विनोऽमी, मूलं हि सत्यं बहुशः प्रसिद्धेः॥५॥
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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जपपञ्चकम्
जपपञ्चकम्
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सामान्या ये जनाः सन्तः, साध्यो वा परमाः स्त्रियः। धर्म पूज्यं समाश्रित्य, जीवन्त्येते यथाक्रियम् ॥१॥
सर्वेष्वेतेषु जीवेषु, प्रज्ञातत्त्वं प्रतिष्ठते। अतएव कृताभ्यासाः प्रसिद्धिं यान्ति ते पराम्॥२॥ परन्त्वेतेषु ये नित्यं, जपन्तीष्टं प्रभुं सदा। लभन्ते तेऽपरां सिद्धिं, स्वीयादिष्टाप्रभोस्तदा ॥३॥ तदा सिद्धेः प्रसादात्स, शक्तिं प्राप्नोत्यथाऽद्भुताम्। शक्त्याः शक्तेः प्रभावात्स, उपकारान् करोत्ययम्॥४॥ इच्छापूर्तिं च भक्तानां, कर्तुमर्हत्ययं जपी। तस्माज्जपोऽस्त्यनुष्ठेयः, सद्भिर्लोकहितादयम्॥५॥
सभी साधारण मनुष्य सन्त होते हैं और सब स्त्रियाँ परम साध्वी होती हैं जबकि ये पूज्य धर्म को मानकर क्रियानुरूप जीते हैं।॥१॥
सभी जीवों में बुद्धि तत्त्व होता है। इसीलिए कृताभ्यास अर्थात् निरन्तर के प्रयत्न से वे जीव बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं॥२॥
परन्तु इनमें से जो नित्य इष्ट प्रभु को जपते हैं तो वे अपने इष्ट प्रभु की कृपा से सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं॥३॥
तब सिद्धि प्राप्त कर लेने पर उसमें अद्भुत सामर्थ्य आ जाता है। सामर्थ्य के प्रभाव से यह उपकारों को करता है॥४॥
यही जपी महात्मा अपने भक्तों की इच्छापूर्ति करने के योग्य बन जाता है। इससे जप करने के योग्य है सन्तों के द्वारा क्योंकि लोकहित होता है॥५॥
ब्रह्मचर्य-पञ्चकम्
ब्रह्मचर्य-पञ्चकम् विराग के कारण प्रकृति के प्रेम का निरोध ब्रह्मचर्य होता है। गुरुजन के कहने से इस ब्रह्मचर्य को सदा साधते हैं, और पुरुष हो या स्त्री हो विषयभोग को छोड़ देता है, वह जिनवरों के निगम के अनुसार हम सबका वह साधु और साध्वी है।॥१॥
पृथिवी में यह ब्रह्मचर्य बहुत कठिन है तो भी तत्त्ववेत्ता मुनिवरों के और सतियों के द्वारा जिन्होंने विरति के मार्ग में संलग्न रहना ही पसन्द किया है, इस ब्रह्मचर्य को मुनि महावीर स्वामी जैन धर्म की जड़ बताते हैं॥२॥
प्रकृतिरतिनिरोधं ब्रह्मचर्यं विरागात्, गुरुजनवचनाद्यत्साधयत्येव नित्यम्। त्यजति विषयभोगञ्चापि लोकोऽथवा स्त्री, जिनवर निगमान्नः सोऽस्ति साधुश्च साध्वी ॥१॥ परम कठिनमेतद् ब्रह्मचर्यं पृथिव्याम्, तदपि मुनिवरैति सारैः सतीभिः। विरतिगतिरतामिर्धार्यते चाधुनेदम्, ज्ञपयति मुनिवीरो जैन धर्मस्य मूलम् ॥२॥ प्रकृतिनियमसिद्धं मैथुनं कृत्यमेतद्, परमकठिनमस्माद् ब्रह्मचर्य पुरोक्तम्। पुनरपि मुनिराजैः साधितं ब्रह्मचर्यम्, विवसन मुनिरेषोऽप्यस्ति तस्यैव रूपम्॥३॥ अतुलितमतिरूपं ब्रह्मचर्यं वरिष्ठम्, जगति परमतत्त्वं यस्य कीर्तिर्विशाला। मुनिभिरपि महत्त्वं यस्य गीतं त्रिलोक्याम्. व्रतमपि शुभमन्यन्नास्ति यत्स्याद् विशिष्टम्॥४॥ अति जटिल विशेषो निग्रहोऽपीन्द्रियाणाम्, मुनिभिरपि कृतोऽयं तत्त्वविद्भिस्तदा तैः। जगति परम पूज्याः सन्ति तेऽतः प्रणम्याः उपकृत जन जीवान् केन साधून नमेयुः॥५॥
यह मैथुनकर्म प्रकृति के नियम से सिद्ध है, जो ब्रह्मचर्य बहुत कठिन है, जिसको मैंने पहले भी कहा, फिर भी इस ब्रह्मचर्य को मुनिराजों ने साधा है, जिसका ही रूप यह दिगम्बर मुनि है॥३॥
सर्वोत्तम और अनुपम यह ब्रह्मचर्य है। संसार का महान् तत्त्व है, जिसकी मुनियों ने भी त्रिलोकी में महिमा गाई है और जिसकी विशाल कीर्ति है। जिससे बढ़कर दूसरा शुभ व्रत भी दूसरा नहीं हो सकता ॥४॥
तत्त्ववेत्ता मुनियों ने भी इन्द्रियों के निग्रह को अति जटिल विशेष माना है। इससे ब्रह्मचर्यधारी मुनिजन संसार में अधिक पूज्य
और प्रणाम करने के योग्य हैं। जो जन-जीवों का उपकार करने वाले हैं, ऐसे साधु-सन्तों को कौन प्रणाम नहीं करेंगे, अर्थात् सभी प्रणाम करेंगे॥५॥
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श्रावकधर्माष्टकम्
मुनीन् सदा नन्तुमुपाश्रयं ब्रजेम प्रणम्य पृच्छेत्सुखदां सुशान्ति । निमन्त्रयेत्सादरमेव तान्स्वयं, ग्रहीतुमाहार मथेऽप्सितं शुचिम् ॥१॥
नमेत् त्रिकृत्वो गृहमागतं मुनिं तथा सतीमादरतोऽप्युपस्थिताम् । समर्पयेत्सम्मुखमेव निर्मित, शुचिं तदाहारमिमं विधानतः॥२॥
न जीव हिंसा कुरुते कदाप्ययं कदापि कष्टं न ददाति जीवितम् । निजेच्छया रन्तुमयं न रोचते, बलात्कृतेश्चिन्तनमेति दूरतः ॥ ३ ॥
परोपकाराय सदा हि रोचते, करोति यत्नं परहेतवे सदा । सुखं भवेदन्यजनस्य जीवने, जनश्च जैनो भवतीह मन्यते ॥ ४ ॥
स्वजीवनं दातुमपीह यो जनो, हितात्परस्याऽस्ति समुद्यतः सदा ॥ स एव जैनः कथितोऽस्ति वास्तवः, परन्तु वक्तुं बहवो भवन्त्यमी ॥ ५ ॥
शृणोम्यहं श्रावक धर्म धारिणं, जनं स्त्रियं जैनमुनिं सतीम् च चतुर्विधं सङ्घमिमं विवक्षया, तनोमि पद्यानि यदृच्छया स्वयम् ॥६॥ अणुव्रती धर्म परायणो जन, स्तथैव नारी जिनधर्म धारिणी । करोति नित्यं बलिकर्म सत्क्रियां, नरश्च नारी भवतो हि धार्मिकौ ॥ ७ ॥ विलोक्य सारं सकलं कथागतं यथागमं श्रावक धर्ममुक्तवान् । • उपासकानां व्यवहारतोऽलिखं प्रमाणसूत्रं पठनीय मस्त्यदः ॥ ८ ॥
मौनव्रतपञ्चकम्
वेदान्तपुस्तकमिदं पदरूपविग्रहम्, श्रीकृष्ण चन्द्रविभुना प्रतिवेलमेतत् ।
प्रव्यमुक्तमिह तत्त्वमिदं यथार्थम्, गीताभिधानमित एवं मनः स्वरूपम् ॥१॥
अस्त्येव चञ्चलमिदं मन एव तावन्मथ्नात्यदः पुरुषमेन इदं विधातुम् ।
अभ्यासतो मन इदं वशमेति तस्मात् मौनं भवेत्तु मनसो दृढमेव बन्धम् ॥२॥ मौने गुणा अपि तदाभिहिता अनेके, सद्भिर्जितेन्द्रियवरै र्जिनधर्म धुर्यैः ।
दोषा भवन्ति सकलाः स्वयमेव शान्ताः, तस्मात्समे व्रतमिदं परिपालयन्ति ॥ ३ ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ श्रावक धर्माष्टकम्
जो व्यक्ति सदा उपाश्रय नमन करने को जाए, नमन कर उनकी सुख-शान्ति पूछे और शुचि ईप्सित आहार लेने को जो स्वयं सादर निमन्त्रित करे, आदर के साथ गृहागत सती और सन्त को नमन करे। ( वह श्रावक होता है ) ॥ १ ॥
जो तिखुत्तों के साथ गृहागत सती-साधु को प्रणाम करे, जो विधान से शुचि आहार बनाकर समर्पित करे। (वह श्रावक होता है ।) ॥ २ ॥
यह कभी जीव-हिंसा नहीं करता, कभी जीवित को कष्ट नहीं देता, अपनी इच्छा से स्त्री-प्रसंग नहीं चाहता । बलात्कार की बात तो बहुत दूर है ॥ ३ ॥
जो सदा दूसरे के भले लिए चाहना करता है, और दूसरे की भलाई के यत्न करता है, जीवन में दूसरे को सुख हो, ऐसा मनुष्य इस संसार में जैन माना जाता है ॥४॥
जो दूसरे के हित से अपना जीवन निछावर करने के लिए तैयार रहता है। वास्तव में वह व्यक्ति जैन होता है। यों तो कहने के लिए बहुत से जैन होते है ॥ ५ ॥
यह अपनी इच्छा से बताता हूँ कि सन्त, सती, मनुष्य और स्त्री- ये चतुर्विध संघ कहलाता है ॥६॥
जो अणुव्रतधारी स्त्री और पुरुष जो नित्य बलिकर्म के साथ आदर-सत्कार करते हैं, वे दोनों धार्मिक जैन हैं ॥ ७ ॥
जैसा कि जैनागम में कहानियों का सार है, मैंने श्रावक धर्म कहा। उपासकों के रीति-रिवाज से भी लिखा। इससे प्रमाणसूत्र पठनीय है ॥ ८ ॥
तीर
मौनव्रतपञ्चकम्
श्रीकृष्णचन्द्र परमात्मा ने समय समय पर अपने विचार व्यक्त किये। वे श्लोकों का शरीर बना जिसका नाम गीता हुआ । यह वेदान्त की पुस्तक है। इसमें मन के स्वरूप को जैसा चाहिए, वैसा बताया है ॥१ ॥
यह मन चंचल है। मनुष्य को पाप करने के लिए मथता रहता है । अभ्यास से मन वश में आता है। मौन मन का दृढ़ बन्धन है ॥२ ॥
वैसे मौन के, जितेन्द्रिय जैन मुनियों ने अनेक गुण भी बताये हैं। स्वयं ही मौन से सभी दोष मिट जाते हैं। इस कारण से सभी मौन व्रत का पालन करते हैं ॥ ३ ॥
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मौन व्रत से धैर्य गुण का प्रेम उत्पन्न होता है। अरे! स्वयं शीघ्र अद्भुत सामर्थ्य आ जाता है। मौनी सदा हृदय में परितोष प्राप्त करता है और विस्मृत हुआ विषय याद आ जाता है।।४।।
} वाग् देवता का दिव्य रूप
मौनव्रताद् भवति धैर्यगुणानुरक्तिः, सामर्थ्य मद्भुतमहो! स्वयमेति सद्यः।
मौनी सदा हि हृदये परितोषमेति,
साक्षादुपैति विषयो हृदि विस्मृतो यः।।४।। मौनव्रतं प्रतिदिनं न हि कोऽपि पातुम्, शक्नोत्यतो दिनगणाद् दिनमेकमन्ते।
चिन्वन् तदा व्रतमिदं परिपालयेत्सयस्माद् भवेत्स्वयमहो! मनसो निरोधः॥५॥
मौनव्रत को प्रतिदिन कोई नहीं रख पायेगा, अतएव दिनों में से । किसी एक दिन को अन्त में मौन रख सकता है, जिससे कि मन
का निरोध स्वयं हो जाये! ॥५॥
भारतवर्षपञ्चकम्
भारतवर्ष पञ्चकम
सर्वाभितुभिः सदाप्यनुगतो यत्राऽस्ति गङ्गा नदी, सर्वोच्चोऽस्ति हिमालयः सुषमिता कश्मीर भूमिस्तदा। कस्तूरीहरिणा भ्रमन्ति बहवो विश्वेऽपि ये दुर्लभाः, दिव्या संस्कृतगीरिहास्ति भुवने देशोऽस्ति मे भारतः।।१॥
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देशेऽस्मिन्मुनयो हृषीकजयिनो जाताश्च सन्तोऽपरे, विख्याताः प्रथमेषु केऽपि गुणिनां कैवल्यवन्तोऽभवन्। विद्वान्सोऽप्यतुलाः सुतीक्ष्ण मतयो ज्योतिर्धरा योगिनः, येषां कोऽपि पुरो निदान निपुणः स्थातुं न शक्तः सुधीः॥२॥
यह मेरा भारत देश संसार में एक ही है। सभी ऋतुएँ एक पश्चात् आती रहती हैं। यहाँ पर ही गंगा नदी है। यहाँ पर ही सबसे ऊँचा पहाड़ हिमालय है। यहाँ पर सुन्दर भूमि काश्मीर है। संसार में दुर्लभ कस्तूरी के हिरन यहाँ है। यहाँ पर ही दिव्य वाणी का संस्कृत का प्रचार-प्रसार है॥१॥
इसी देश में जितेन्द्रिय ऋषि, मुनि और महात्मा पुरुष हुए हैं, जिनको केवलज्ञान प्राप्त था। अनोखी सूझ-बूझ के धनी, अद्भुत DDIDI प्रतिभा के योगी हो गए हैं। ज्ञानी पुरुष भी यहाँ ऐसे हुए हैं कि जिनकी तुलना नहीं हो सकती और संसार का कोई विद्वान जिनका सामना नही कर सकता था ॥२॥
FOR सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह ऐसा गिरा कि यहाँ के शासकों ने मतिभ्रष्ट होने से नर राक्षसों अथवा म्लेच्छों को बुलाया। अप्राप्य ग्रन्थ भी जिन्होंने अग्नि में जला कर राख कर राख दिये। आज एकता के नाम पर भ्रष्ट हो रहे हैं ॥३॥
देशोऽयं न्यपतद् हिरण्यविहगो राज्ञा मतेभ्रंशनात्, आहूता इह राक्षसा नृपतिभिर्दुष्टैर्विरोधात् स्वयम्। अप्राप्या निधयो मतेश्च विदुषां नष्टाः कृशानोर्मुखे, किं ब्रूमो वयमेकता-विषयतो भ्रष्टा भवामोऽधुना ॥३॥ ज्ञात्वाऽहं समयोचितं पुनरिदं देशस्य वृत्तं परम्। प्राचा वोचं कथयान्यहो स्वय महं वृत्तं प्रसंगे तरत्। देशोऽयं जगतोऽस्ति कोऽपि यशसः पात्रं यथार्थं तदा, मूर्तिर्वा तपसः सतां पुनरियं सत्यस्य किञ्चिद् गृहम्॥४॥ स्वर्गोऽयं भुवने तदाऽस्ति जनता देशं मदीयं समा, ख्यातीमं कथयान्यहं पुनरिमं यावद्यसो साम्प्रतम्। आधर्म जगतोऽप्यसौ जनपदो नास्त्येव मन्ये स्वयम्, कोऽन्योऽसौ तुलनामपीह सकले लोके भजेताऽपरः।।५।।
जानकर ही मैंने अप्रासङ्गिक विषय समयोचित कर लिया है। विश्व प्रसिद्ध यह देश कभी था। तप और सत्य की प्रतिमा था कभी॥४॥
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संसार में तब यह स्वर्ग था। संसार भर की जनता ऐसा कहती है। जहाँ तक धर्म की स्थिति है, इसका कोई जनपद मुकाबला नहीं DDLA कर सकता। असल में कोई देश आज भी, जबकि नष्ट भ्रष्ट हो चुका है।॥५॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
जिज्ञासाएँ और समाधान
पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री की प्रवचन शैली की रोचकता, गंभीरता और लेखन शैली का माधुर्य पाठक पान कर चुके हैं। वार्तालाप में गुरुदेव जितने विनोदी और सहज स्वभाव रहते थे प्रश्नोत्तर के समय उतने ही गंभीर और संतुलित समाधान प्रस्तुत कर जिज्ञासु को पूर्णतया संतुष्ट करने का प्रयास करते थे। गुरुदेव के पास अनेक जिज्ञासु स्वयं उपस्थित होते रहते थे, तथा दूर स्थित जिज्ञासुओं, श्रमण-श्रमणियों स्वाध्यायीजनों तथा श्रावकों आदि के प्रश्नों के पत्र द्वारा समाधान प्रदान किया करते थे। जो प्रश्न आते और उनके उत्तर प्रदान करते उनमें से महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर समय-समय पर गुरुदेवश्री अपनी डायरी में स्वयं अपने हाथ से भी लिखते थे, तथा शिष्यों द्वारा भी लिखवा लेते थे।
प्रश्नोत्तरों की ५-७ डायरियाँ हमारे पास विद्यमान हैं। अगर सभी को संपादित कर प्रकाशित किया जाए तो तत्त्वज्ञान के ३-४ अच्छे ग्रंथ तैयार हो सकते हैं। यहाँ पर मात्र नमूने के रूप में प्रश्नोत्तरों की एक झलक प्रस्तुत है।
-संपादक
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सवालाण
१. प्रश्न-"णमो अरिहंताणं" पद में सामान्य केवलियों का २. प्रश्न-तीर्थंकर और सामान्य केवली में कौन समुद्घात समावेश होता है या नहीं?
करता है? उत्तर-केवलज्ञान केवलदर्शन की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है उत्तर-वीर विजय कृत प्रश्नचिन्तामणि में कहा है किन्तु तीर्थंकर के शरीर में एक हजार आठ शुभ लक्षण होते हैं
यः षण्मासाधिकायुष्को, स लभते केवलोद्गमम्। "अट्ठसहस्स लक्खणधरा" (उत्तरा अ. २२) तथा चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुणों से युक्त होते हैं। अतः सामान्य केवली
करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा॥ का ग्रहण प्रथम पद में नहीं होता है। चउसरणपइन्ना की ३२वीं गुणस्थान क्रमारोह में भी कहा हैगाथा में भी कहा है-“केवलिणो परमोही से सब्बे साहूणो" अथवा
"छम्माउसेसे उप्पन्न, जेसिं केवलं नाणं। अरिहंत में बारह गुण होते हैं
ते नियमा समुग्घाया, सेसा समुग्घाया भइयव्वा॥" अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च।
जिसका आयुष्य छह मास से कुछ अधिक शेष रहे उस समय भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्यातिहार्याणि जिनेश्वराणां। जिसको केवलज्ञान उत्पन्न होता है वह समुद्घात करता है, उसके
१. अशोक वृक्ष, २. देवकत पुष्प वृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, । सिवाय दूसरे समुद्घात करते भी हैं या नहीं भी करते हैं। ४. चामर युगल, ५. सिंहासन, ६. भामण्डल, ७. देव दुन्दुभि और औपपातिक सूत्र की वृत्ति में कहा है- “अन्तर्मुहूर्त शेषायुः । ८. तीन छत्र। तीर्थंकरों-अरिहंतों के ये आठ देव कृत अतिशय हैं, समदघातं ततोबजेत" जिसका आयष्य अन्तर्महर्त जितना बाकी रहे.. जो सामान्य केवलियों के नहीं होते। समवायांग सूत्र में भी कहा है- । उसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वही समुद्घात करते हैं। (तीर्थंकर
आगासगयं चक्कं आगासगयं छत्तं आगासियाउ सेयवर चामराओ।। को केवलज्ञान बहुत समय पूर्व ही उत्पन्न हो जाता है।) आगास फलियामयं सपायपीढं सीहासणे- -समयांग ३४ ३. प्रश्न केवली भगवान् को मरण वेदना होती है या नहीं?
अरिहंत तीर्थंकर के जन्म समय छप्पन दिक्कुमारिकाएँ आती उत्तर-नहीं होती है क्योंकि १४वें गुणस्थान में न समुद्घात है, हैं। चौंसठ इन्द्र आते हैं। दीक्षा लेते ही मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न होता न किसी कर्म की उदीरणा है। मोक्ष जाते समय जीव के आत्म-प्रदेश है। इन्द्र देवदृष्य वस्त्र देते हैं। केवलज्ञान होते ही देव समवसरण की सर्वांग से युगपत निकलते हैं। रचना करते हैं। गणधर होते हैं।
४. प्रश्न-विद्यमान तीर्थंकर के समय पूर्व तीर्थंकर का शासन । अरिहंत तीर्थंकर की आगति दो गति की है, देव और नरक ।
चलता है या नहीं? गति की। केवली की आगति चारों गति की होती है, अतः अरिहंत और सामान्य केवली में अन्तर है।
उत्तर-प्रत्येक तीर्थंकर के समय एक ही शासन चलता है। दो।
शासन का अस्तित्व शंकाशील बनता है। एक-दूसरे के पक्ष की एक पल्योपम में असंख्य करोड़ पूर्व बीत जाते हैं।
मजबूती करने के लिए समत्वभाव घटता है। इसलिए "संका सम्मत्तं । एक पल्योपम में असंख्य तीर्थंकरों का शासन बीत जाता है। नासइ" कहा है। तीर्थंकर माता के कुक्षि में आने के पहले पूर्व ।
एक एक करोड़ पूर्व में एक-एक तीर्थंकर नरक स्वर्ग से च्यव । तीर्थंकर के शासन में केवलज्ञान उत्पन्न होना बन्द हो जाता है और कर आते हैं तो एक पल्योपम में असंख्य तीर्थंकर हो जाते हैं। जब तक तीर्थंकर जन्में, दीक्षा लें, केवलज्ञान उत्पन्न हो उसके बाद ।
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जना
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में मिला।
। वाग् देवता का दिव्य रूप
३८१door चार तीर्थ की स्थापना करते हैं उसके पश्चात पूर्व तीर्थंकर के उत्तर-भगवतीसूत्र शत. १२वें उद्दे. ५वें में उत्थानादि को अरूपी शासन वाले साधु को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
बताया गया है "उट्ठाणे, बले, कम्मे, वीरिए, पुरिसक्कार परक्कमे पार्श्वनाथ का अनुयायी गांगेय अनगार महावीर के पास आया
एसणं कइ वण्णे? उत्तर में "तं चेव जाव अफासे पण्णत्ते" और “ठिच्चा" खड़ा रहा, महावीर जिन या नहीं प्रश्न पूछ शासन वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न जीव परिणाम
विशेष को उत्थानादि कहते हैं। उत्थानः शारीरिक चेष्टा, कर्म५. प्रश्न-कितने कहते हैं कि केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर भ्रमणादि क्रिया, बल-शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य-आत्मिक शक्ति, उसमें चार ज्ञान विलीन हो जाते हैं, जैसे सूर्योदय पर तारा आदि।
पुरुषाकार पराक्रम स्वाभिमान होता है। अन्तराय कर्म के क्षय से Peop क्या यह ठीक है?
अनन्तवीर्य-गुण प्रगट होता है। उत्तर-चार ज्ञान क्षयोपशम जन्य है और केवलज्ञान क्षायिक
भगवती श. २, उद्दे. ८ में “असंसारसमा” कहा गया है। भाव जन्य है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभदेव भगवान् के केवलज्ञान ९. प्रश्न-महाविदेह क्षेत्र का निवासी एक श्रावक कितने की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं “केवलमसहायं नट्ठम्मि तीर्थंकर की सेवा कर सकता है? छाउमथिए नाणे" केवलज्ञान उत्पन्न होने पर छद्मस्थ पणा विलीन हो गया। एक जीव में जघन्य एक ज्ञान पाया जाता है, उत्कृष्ट चार
उत्तर-एक सौ एक तीर्थंकर की सेवा कर सकता है क्योंकि ज्ञान पा सकते हैं। पाँच ज्ञान एक जीव में नहीं पाते हैं।
तीर्थंकरों की आयु ८४ लाख पूर्व की होती है और श्रावक की एक
करोड़ पूर्व की होती है। प्रत्येक तीर्थंकर तैयासी लाख पूर्व गृहवास ६. प्रश्न-किसी साधु ने पुष्करार्ध द्वीप में पादपोपगमन संथारा |
में रहकर एक लाख पूर्व शेष रहने पर दीक्षा लेते हैं। उनके मोक्ष POP किया हो और उसका एक पैर का कुछ हिस्सा मानुषोत्तर पर्वत के
पधारने पर क्रमशः करोड़ पूर्व की आयु वाला श्रावक एक सौ एक ऊपर रह जाता हो और उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया हो तो वह
तीर्थंकर की सेवा कर सकता है। आत्मा सिद्ध हो सकता है? -
____१०. प्रश्न-वर्तमान में २० तीर्थंकर विद्यमान हैं। उनकी एक उत्तर-नहीं हो सकता है क्योंकि मनुष्य क्षेत्र पैंतालिस लाख ।
श्रावक कितने तीर्थंकरों की सेवा कर सकते हैं ? योजन का है। उतनी ही सिद्धशिला है और सिद्धात्मा के प्रदेशों की विग्रह गति नहीं होती है। तत्वार्थसूत्र में कहा है “अविग्रहः जीवस्य"
उत्तर-१३ तीर्थंकरों की सेवा कर सकते हैं सो कैसे? मेरु जीव की विग्रह गति कभी नहीं होती है। क्योंकि “विग्रहगती कर्म पर्वत के पूर्व पश्चिम में सोलह-सोलह विजय हैं। एक ओर । योगः" और सिद्धों में कर्म नहीं है। अतः विग्रहगति नहीं होती है। आठ-आठ विजय हैं। उनमें अभी आठवीं विजय में श्रीमंदिर स्वामी । ७. प्रश्न-चार दिशाओं में कौन-कौन-सी दिशा में सिद्ध भगवान्
विराजित हैं, उनके मोक्ष पधारने के बाद में सातवीं विजय वाले अधिक हैं?
तीर्थंकर होंगे उनके बाद में छट्ठी फिर पाँचमी, उसके बाद चौथी, तबतक ।
तीसरी, दूसरी पहली फिर आठवीं में तीर्थंकर होंगे, वैसे एक करोड़ उत्तर-प्रज्ञापना सूत्र तृतीय पद में “सव्व थोवा सिद्धा
। पूर्व आयु में १३ तीर्थंकरों की सेवा कर सकता है। दाहिणुत्तरेणं पुरथिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया" सबसे थोड़े सिद्ध दक्षिण और उत्तर में हैं। पूर्व में संख्यात गुणे हैं
११. प्रश्न-स्थानांग सूत्र ३ ठा. पृ. ५३२ में मल्ली णं अरहा और पश्चिम में विशेषाधिक हैं।
तिहिं पुरिससएहिं सिद्धिं मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारियं
पव्वइए "प्रश्न होता है कि मल्ली भगवती तीन सौ पुरुषों के साथ प्रतिशंका यह कैसे होगा?
दीक्षित हुई तो वह रात्रि में श्रमणों के साथ कैसे रही होगी? और प्रत्युत्तर-दक्षिण और उत्तर में भरत और ऐरवत क्षेत्र है ।
छह राजा भी साथ में स्वयं दीक्षित हुए ऐसा उल्लेख स्थानांग के क्षेत्रफल की दृष्टि से ये बहुत छोटे हैं और इनसे महाविदेह क्षेत्र
सातवें स्थान में है" तो वे रात्रि में साधु के साथ कैसे रहे? चौसठ गुणा बड़ा है वहाँ से सिद्ध होते हैं, ये ऋजुगति से सिद्धालय में पहुँचते हैं वे वहीं स्थित होते हैं। भरत ऐवत क्षेत्र के सिद्ध पूर्व
उत्तर-स्थानांग की वृत्ति में अभयदेव सूरि ने “मल्लीजिनः और पश्चिम की अपेक्षा से कम होते हैं, भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रायः
स्त्रीशतैरपि स्त्रिभिः-मल्ली के साथ तीन सौ स्त्रियाँ प्रव्रजित हुई। दो आरे में ही सिद्ध होते हैं, पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में से निरन्तर
आवश्यक नियुक्ति की २२४ की दीपिका में पत्र ६३ "मल्लिस्त्रिभि । मोक्ष में जीव जाते रहते हैं, अतः अधिक है।
स्त्रीशतैः" ८. प्रश्न-कितने सिद्धों में द्रव्य आत्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा १२. प्रश्न-ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन के १७५ सूत्र में कहा और उपयोगात्मा ये चार ही मानते हैं। वीर्यात्मा को नहीं मानते हैं।। है "तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं जाइ सरणो समुप्पज्जित्था । उनका कहना है कि उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम ये 1 “मति ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जातिस्मरणं ज्ञान होता है । शरीर के हैं सो कैसे?
और उत्तराध्ययन ९ अ. की पहली गाथा में उवसंतो मोहणिज्जो" ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। कितने स्वयमेव पंचमुष्टि लुंचन करते थे। भगवती सूत्र के मोहनीय कर्म का ज्ञानावरणीय से क्या संबंध है?
शतक २ उद्दे. ९ में स्कंद के जी ने भगवान् महावीर को कहा-तं उत्तर-मोह के उपशान्त होने से सम्यग्दर्शन और ज्ञानावरणीय
इच्छामि णं देवाणुप्पिये, सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं" हे कर्म के क्षयोपशम से मतिज्ञान उत्पन्न हुआ नमिराज को सम्यग्दर्शन
देवानुप्रिय! मैं इच्छा करता हूँ स्वयमेव प्रव्रजित होऊँ और स्वयं था, अतः उवसंतो मोहणिज्जो कहा है तथा मेघमुनि को जाति ।
मुण्डित होऊँ। केश कटवाना और स्वयमेव मुंडित होने का वर्णन स्मरण ज्ञान सम्यग्दर्शन में हुआ और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को जाति
आगमों में मिलता है अतः नापित से दीक्षा पूर्व केश कटवाने में स्मरण मिथ्यात्व दशा में हुआ है।
कोई आपत्ति नहीं। १३. प्रश्न-जाति स्मरण ज्ञान किस ज्ञान का भेद है? वह ।
१६. प्रश्न-साधुओं के १२५ अतिचार कौन से हैं ? मनुष्य के कितने भवों को देख सकता है तथा अन्य संज्ञी जीवों के उत्तर-ज्ञान के १४, सम्यक्त्व के ५ और पाँच महाव्रतों के, कितने भवों को देखता है, सप्रमाण बताइये?
पच्चीस भावना के पच्चीस अतिचार। रात्रि भोजन के दो अतिचार उत्तर-जातिस्मरण ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान का भेद है (जाति
हैं (१) सूर्योदय के पूर्व का लिया हुआ आहार और अन्धेरे में स्मरणं त्वाभिनिबोधिक विशेषः) आचारांग प्रथमश्रुत-स्कन्ध- प्रथम
लिया हुआ आहार करना तथा दिन में किए हुए आहार का रात्रि अध्ययन प्रथम उद्देशक के चौथे सूत्र की शीलांकाचार्य कृत टीका
में उकाला आ जाने पर उसे निगल जाना यह दूसरा अतिचार।
रात्रि में खाने की इच्छा करना, सूर्योदय नहीं हुआ समझ उपाध्याय समय सुन्दर कृत विचार शतक में कहा है-"जातिः
करके भी खाना पहला एक अतिचार (२) दिन है ऐसा समझकर स्मरणो मनुष्यो नवभवान् पश्यति न त्वधिकान् (जाति स्मरण ज्ञान
खाना किन्तु सूर्यास्त हो गया। ईर्या समिति के चार अतिचार १. मनुष्य के नव भवों का देख सकता है।
द्रव्य से देखकर न चले, २. युग प्रमाण मात्र से देखकर न चले, ३.
काल से दिन में देखकर और रात्रि को पूजकर न चले, ४. भाव से १४. प्रश्न-प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणीय कर्मोदय से ।
बोलता हुआ चले, भाषा संबंधी दो अतिचार-असत्य और मिश्र होते हैं तो मुनियों में ये दो परीषह कैसे होंगे?
भाषा बोले। एषणा समिति के ४७ दोष नहीं टाले। उत्तर-कभी-कभी मुनि अपनी प्रखर बुद्धि से सचोट प्रश्नों के
आदान भंड मात्र निक्षेपन समिति के दो अतिचार १. बिना तब पूछने वाला प्रसन्न हो जाता है। तब मुनि को देखे उपकरण आदि लेना २. और रखना। अपनी प्रज्ञा पर गर्व हो जाता है। तब उन्हें प्रज्ञा परीषह हो जाता है
उच्चार-प्रस्रवण, खेल, सिंघाण जल्ल परिष्ठापिका समिति के और कोई मुनि अत्यधिक आगम पाठों को रटता है तब भी उसको
१० अतिचार। याद नहीं हो पाता तब वह आर्तवश याद करना छोड़ देता है, तब उस मुनि को अज्ञान परीषह उत्पन्न होता है।
उत्तराध्ययन २४वें में बताए गए दस बोल के अनुसार उन्हें
नहीं टाले। १५. प्रश्न आगमों में दीक्षा लेने वाले को पंचमुष्टि लुंचन का वर्णन आता है तो आज नाई से क्यों मुंडन करवाते हैं क्या यह मन, वचन और काया इन तीन गुप्ति के संरम्भ समारम्भ और पद्धति नई है?
आरंभ के भेद से नौ अतिचार। इस प्रकार ज्ञान के १४, दर्शन के उत्तर-दीक्षार्थी के केश नापित से कटवाने की प्रणाली प्राचीन
पाँच, संलेखना के पाँच, पाँच महाव्रतों के २५ रात्रि भोजन २ है। भगवती सूत्र शतक १ उद्दे. ३३वें में जमाली क्षत्रिय कुमार के
ईर्यासमिति के ४, भाषा समिति के २ एषणा समिति के ४७ आदान वर्णन में पिता ने नापित को बुलवाया और नापित आता है “परेण
भंड मात्र निक्षेपण समिति के २ उच्चार प्रस्रवण समिति के १० जत्तेणं चउरंगुलवज्जे णिक्खमण पाओगे अग्ग केसे कप्पए" यतना
तीन गुप्ति के ९ कुल १२५ अतिचार हुए। से चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण योग्य केश काटे।
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जल वही जिससे प्यास बुझे, बन्धु वही जो दुःख में सहायक हो, पुत्र वही जिससे पिता को निवृत्ति हो, विद्या वही जिससे आत्मा नरकगामी न हो ।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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वाग् देवता का दिव्य रूप
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श्रावक धर्म दर्शन : एक अनुशीलन
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-दिनेश मुनि
श्रद्धेय उपाध्यायश्री की प्रवचन शैली जितनी रोचक थी उतनी ही सार गर्भित और तथ्यों से परिपूर्ण। वे जिस विषय पर भी प्रवचन देते उसका सर्वांग सुन्दर विवेचन तथा विविध शास्त्रीय उद्धरणों व दृष्टान्तों से हृदयस्पर्शी बना देते थे कि श्रोता तन्मय होकर सुनता रहता और बहुत कुछ प्राप्त कर लेता। प्रस्तुत है उपाध्यायश्री की प्रसिद्ध प्रवचन पुस्तक श्रावक धर्मदर्शन पर एवं समीक्षात्मक विश्लेषण श्री दिनेश मुनि जी द्वारा।
-संपादक
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श्रावक जैन धर्म संघ का एक प्रमुख घटक है। चतुर्विध संघ में। और भाव की आराधना करता है। २-इसका दूसरा अर्थ श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका सम्मिलित हैं। इन चारों की उपस्थिति आवश्यकताओं को कम करने के संदर्भ में किया जाता है। तीर्थ के समान है।
इस प्रकार श्रावक शब्द का व्यापक अर्थ है। श्रावक को व्रत श्रावक धर्म दर्शन पर विचार करने से पहले यह आवश्यक ग्रहण करने से व्रती भी कहते हैं। वह श्रमणों की उपासना करता है प्रतीत होता है कि हम श्रावक के अर्थ को भली-भांति समझ लें। इसलिए श्रमणोपासक भी कहलाता है। वह अणुव्रतों का पालन श्रमण संघीय आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. ने लिखा है कि करने से अणुव्रती भी कहलाता है। उसके अन्य नाम इस प्रकार जैन साहित्य में श्रावक शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं। १-श्रु धातु बताए गए हैं-व्रताव्रती, विरताविरति, देशविरति, देशसंयति और से बना है जिसका अर्थ सुनना है। तात्पर्य यह कि जो श्रमणों से संयमासंयमी। घर में रहने के कारण से गृहस्थधर्मी और उपासना श्रद्धापूर्वक निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनता है, अपनी सामर्थ्यानुसार उस पर करने से उपासक कहलाता है और उसमें श्रद्धा की प्रमुखता रहने आचरण करने का प्रयास करता है, वह श्रावक है। सामान्यतः से वह श्राद्ध भी कहलाता है। श्रावक का यही अर्थ मान्य है। २-श्रावक का दूसरा अर्थ "श्रा
इस प्रकार यदि हम आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में कहें तो परके" धातु पर आधृत है। इससे संस्कृत रूप श्रापक बनता है।
श्रावक रत्नों का पिटारा है। ऐसे श्रावक के धर्म की सांगोपांग श्रापक की अर्थ संगति श्रावक के साथ नहीं बैठती है।
विवेचना राष्ट्र संत, राजस्थान केसरी, अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्रावक शब्द के अक्षरों के आलोक में भी इसका अर्थ किया उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने अपने प्रवचन संग्रह गया है। इसके तीनों अक्षरों के आधार पर जो अर्थ किया गया है, "श्रावक धर्म दर्शन' में की है। इस ग्रंथ रत्न का सम्पादन किया है वह निम्नानुसार है
उन्हीं के सुयोग्य शिष्यरत्न साहित्य वाचस्पति, सिद्धहस्त लेखक, १-श्रा : यह शब्द दो अर्थ का प्रतीक है। १-जो जिन प्रवचन पर
कुशल संपादक, प्रवचनकार आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. दृढ़ श्रद्धा रखता है। २-जो श्रद्धापूर्वक जिनवाणी का श्रवण
सा. ने। आचार्य सम्राट ने इस ग्रन्थ रत्न पर अपनी विस्तृत भूमिका करता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिन
लिखी है। इसी भूमिका में उन्होंने श्रावक धर्म दर्शन के संबंध में
लिखा है-"श्रावक धर्म दर्शन श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के द्वारा प्रदत्त प्रवचन पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए श्रद्धापूर्वक श्रवण करना।
प्रवचनों का सरस संकलन है, आकलन है। श्रावक धर्म से संबंधित २-व : एक अर्थ सत्कर्म वपन के रूप में लिया जाता है और
सभी विषयों पर गुरुदेवश्री ने बहुत ही गहराई से चिन्तन किया है, दूसरा अर्थ है वरण अर्थात् जो बात धर्म, समाज व आत्मा के
अनेक ज्वलन्त प्रश्नों का सम्यक् समाधान किया है। व्रत के नाम हित के लिए है, उसे वरण करना। तीसरा अर्थ विवेक के रूप
पर पनपने वाली अनेक भ्रान्त धारणाओं का निरसन किया है। जहाँ में लिया जाता है। यानी श्रावक की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्वक ।
तक मुझे ज्ञात है वहाँ तक हिन्दी में इस प्रकार का कोई ग्रन्ध नहीं होती है।
है जो श्रावकाचार पर विस्तार से विश्लेषण करता है। गुरुदेवश्री के ३-क : क अक्षर भी दो अर्थ का प्रतीक है १-पाप को काटने प्रवचनों में यह एक अनूठी विशेषता है कि न तो श्रोता ही ऊबता
वाला। श्रावक कसी भी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता, कदाचित् । है और न पाठक ही। वे अपने विचार विलक्षण और लाक्षणिक किसी परिस्थिति विशेष के कारण फँस भी जाता है तो अपनी शैली में इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जिन्हें श्रावकधर्म के संबंध विवेक बुद्धि से अपने आपको पाप कर्म से बचा लेता है। इसके } में किंचित् भी जानकारी नहीं है वह इस ग्रंथरत्न को पढ़कर पूर्ण po
अतिरिक्त वह पूर्वकृत पाप को काटने के लिए दान, शील, तप } बोध प्राप्त कर सकता है और जिन्हें जानकारी है उन्हें भी बहुत लन यमण्डपमा एनालगडावलण्यालय Sandalan internationaborseD 0000000
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कुछ नया जानने को मिलेगा। वस्तुतः उनके प्रखर चिन्तन में धर्म और दर्शन के, ज्ञान और विज्ञान के साहित्य और संस्कृति के, इतिहास और पुरातत्व के नये-नये उन्मेष खुलते हुए प्रतीत होते हैं।" (पृष्ठ २५) ।
प्रस्तुत प्रवचन संग्रह को सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित रूप में संपादित कर प्रकाशित करवाया गया है। यह संग्रह कुल चार अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय के अनुरूप ही उसमें प्रवचनों का संग्रह किया गया है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं। कि श्रावक-धर्म से संबंधित सभी विषयों का विभाजन चार भागों में करके फिर उनका उप-विभाजन कर विषय वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा करने से पाठकों के लिए काफी सुविधा प्रदान कर दी गई है। इस प्रवचन संग्रह में संग्रहीत प्रवचन अध्याय वार इस प्रकार है ।
अध्याय १ - व्रत : एक विवेचन इस अध्याय में कुल चार प्रवचन दिए गए हैं। यथा (१) मानव जीवन की विशेषता, (२) व्रत ग्रहण स्वरूप और विश्लेषण (३) व्रतनिष्ठा एवं व्रतग्रहण विधि और (४) अणुव्रती, श्रमणोपासक और श्रावक ।
अध्याय २- अणुव्रत : एक विश्लेषण शीर्षक से दिया गया है। और उसमें निम्नांकित ग्यारह प्रवचन संग्रहीत है :
१. अहिंसा का सार्वभौम रूप, २. श्रावक की अहिंसा मर्यादा, ३. अहिंसा की मंजिल : श्रावक की दौड़, ४. सत्य जीवन का संबल, ५. श्रावक की सत्य की मर्यादा, ६. अस्तेयव्रत : साधना और स्वरूप, ७ श्रावक जीवन में अस्तेय की मर्यादा, ८. ब्रह्मचर्य की सार्वभोम उपयोगिता ९ श्रावक जीवन में ब्रह्मचर्य की मर्यादा, १०. इच्छा का सरोवर: परिमाण की पाल और ११. परिग्रह : हानि, परिमाण विधि, अतिचार। प्रवचनों की संख्या की दृष्टि से यह अध्याय शेष सभी अध्यायों से समृद्ध है।
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अध्याय ३ : गुणव्रत एक चिन्तन के रूप में दिया गया है।
इस अध्याय में कुल चार प्रवचन दिए गए हैं। यथा- १. दिशापरिमाणव्रत एक चिन्तन, २. उपभोग- परिभोग-परिमाण एक अध्ययन, ३ उपभोग- परिभोग-मर्यादा और व्यवसाय-मर्यादा, ४. अनर्थदण्ड विरमण व्रत : एक विश्लेषण ।
अध्याय ४ : शिक्षा व्रत : एक पर्यालोचन के अन्तर्गत कुल सात प्रवचन संग्रहीत हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं :
१. सामायिक व्रत की सार्वभौम उपयोगिता, २. सामायिक का व्यापक रूप, ३. सामायिक व्रत विधि शुद्धि और सावधानी, ४. देशावकाशिक व्रत : स्वरूप और विश्लेषण, ५. पौषधव्रत : आत्मनिर्माण का पुण्य पथ, ६. श्रावक का मूर्तिमान औदार्य : अतिथिसंविभागव्रत और ७. संलेखना अन्तिम समय की अमृत
साधना ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
श्रावक की एकादश प्रतिमाओं का वर्णन इस लिए नहीं किया गया कि उन प्रतिमाओं की साधना वर्तमान युग में नहीं होती है। (पृष्ठ २५-२६) संपादकीय। यदि परिचय के लिए एकादश प्रतिमाओं का विवरण बिल्कुल संक्षेप में दे दिया जाता तो अनुचित नहीं होता।
अब हम इस संग्रह के प्रवचनों की विषयवस्तु का अवलोकन अध्यायानुसार करने का प्रयास करेंगे, जिससे पाठकों को प्रवचन संग्रह में विवेच्य विषयों की महत्ता का पता चल सके।
प्रथम अध्याय का प्रथम प्रवचन मानव जीवन की विशेषता से सम्बन्धित है। श्रावक सबसे पहले मानव / मनुष्य होता है मानव और मानव जीवन को समझने से पहले उसके धर्म को समझना कठिन होता है। यही कारण है कि सर्वप्रथम मानव जीवन की विशेषताओं को लिया गया है। प्रारम्भ में यही बताया गया है कि विचारवान होने के कारण मनुष्य विश्व के समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ है। अन्य बातें तो सभी प्राणियों में प्रायः समान रूप से पायी जाती हैं। मनुष्य अपनी इच्छानुसार शुभ और अशुभ कर्म कर सकता है। भावना की चेतना उसे परिपूर्ण मात्रा में प्राप्त है उसके सहारे वह धर्माचरण भी कर सकता है और कर्मों की अच्छाई-बुराई का मूल्यांकन भी कर सकता है। कुछ ऐसी ही अन्य बातों पर प्रकाश डाला गया है। 'मानव जीवन की विशेषता' प्रवचन में प्रवचनकार ने सभी दृष्टियों से प्रकाश डालकर समझाने का प्रयास किया है।
दूसरा प्रवचन व्रत ग्रहण स्वरूप और विश्लेषण' है। इसमें प्रारम्भ में 'मानव जीवन एक प्रश्न के अन्तर्गत प्रश्न उठाए गए है - मैं कौन हूँ, कहाँ से आकर मैं मानव हुआ? मेरा असली स्वरूप. क्या है ? मेरा संबंध किसके साथ है ? इस संबंध को मुझे रखना है। या छोड़ना है? अंतिम समय में क्या करोगे ? उपशीर्षकों के अन्तर्गत यह बताया गया कि एक मात्र धर्म ही अन्तिम समय में मनुष्य का साथी है। उसके पश्चात् धर्मपालन के लिए व्रत ग्रहण आवश्यक, व्रत एक पाल, एक तटबंध, व्रत अनिश्चित जीवन के लिए ब्रेक, व्रत स्वयं स्वीकृत मर्यादा, व्रत आत्मानुशासन, आध्यात्मिक जीवन की नींव व्रत, एक प्रतिज्ञा, व्रत से व्यक्ति विश्वसनीय एवं स्थिर व्रत एक प्रकार की दीक्षा, व्रत और योग-साधना, व्रत : एक प्रकार से आत्म संयम, व्रत आचार संहिता, व्रतों से जीवन-निर्माण, व्रत आत्मदमन रूप होने से सुखकारक, व्रत ग्रहण की आवश्यकता, व्रत सार्वभौम है। व्रत ग्रहण विचारपूर्वक हो, व्रत व्यवहार्य है और व्रत ग्रहण के लिए प्रेरणा आदि उपशीर्षकों के माध्यम से व्रत के माहात्म्य पर प्रकाश डाला गया है। इस व्रत के विषय में संपूर्ण जानकारी मिल जाती है और भ्रान्त धारणाओं का उन्मूलन हो जाता है।
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तीसरे प्रवचन 'व्रत निष्ठा एवं व्रत ग्रहण विधि' में प्रायः सभी बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसका अध्ययन करने
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के पश्चात् पाठक के मन में इस विषयक कोई भी संशय शेष नहीं कहा गया है कि सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला मेधावी रहता है।
जन्म-मरण (संसार) को पार कर जाता है। (पृष्ठ १७१) सत्य को चतुर्थ प्रवचन 'अणुव्रती, श्रमणोपासक और श्रावक' का है।
सभी दृष्टियों से समझाया गया है। अंत में कहा है कि यह माना जा इसमें श्रमणोपासक/श्रावक के विषय पर प्रकाश डाला गया है।
सकता है कि सत्य का अवलम्बन लेकर चलने वाले व्यक्ति को अणुव्रती को श्रमणोपासक क्यों कहा गया? इस प्रश्न के उत्तर में
प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयां महसूस हों, किन्तु आगे चलकर उसे प्रवचनकार गुरुदेव का कथन है कि अणुव्रती और महाव्रती का
आशातीत लाभ होता है। कम से कम असफलता तो नहीं मिलती। घनिष्ठ सम्पर्क और परस्पर साहचर्य शास्त्र में बताया गया है।
सत्य को पुण्य की खेती की संज्ञा देते हुए कहा गया है कि जिस
सत्य का पुण्य क एक-दूसरे के व्रतों को विशुद्ध रखने का कर्तव्य और दायित्व भी
तरह अन्न की खेती करने में प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयाँ उठानी शास्त्रकारों ने दोनों पर डाला है। खासतौर से महाव्रती श्रमण पर
पड़ती हैं, फसल के लिए थोड़ी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है, किन्तु अणुव्रती श्रमणोपासक के जीवन को विशुद्ध और व्रतों से अनुबद्ध
जब कृषि फलवान होती है, तो घर को धन-धान्य से भर देती है, रखने की जिम्मेदारी डाली गई है। यही कारण है कि अणुव्रती
उसी तरह सत्य की खेती भी प्रारम्भ में थोड़ा त्याग, बलिदान सद्गृहस्थ को श्रमणोपासक कहा गया है।
और धैर्य मांगती है किन्तु जब फलती है तो इहलोक से
परलोक तक मानव जीवन को पुण्यों से भरकर कृतार्थ कर देती द्वितीय अध्याय में 'अणुव्रत : एक विश्लेषण' के अन्तर्गत
है। (पृष्ठ १९५)। श्रावक के पाँच अणुव्रतों को विस्तार से समझाया गया है। ये पाँच अणुव्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। प्रथम
पाँचवाँ प्रवचन श्रावक की सत्य की मर्यादा से संबंधित है। प्रवचन में अहिंसा के सार्वभौम रूप को विस्तारपूर्वक समझाया है।
सत्य की साधना का द्वार किसी व्यक्ति विशेष के लिए ही नहीं, प्रश्नव्याकरण सूत्रकार के संदर्भ से बताया गया है कि अहिंसा सबके लिए खुला है। साधु भी सत्य साधना के पथ पर चलता है भगवती है, यह भयभीतों के अभयदान देने वाली है, त्रस्तों को और एक गृहस्थ (श्रावक) भी उस पथ पर चल सकता है। सत्य त्राण देने वाली है, आश्रितों को शरण देने वाली है। मानव जाति के सबके लिए एक-सा है। परन्तु व्यक्ति की शक्ति, क्षमता और रुचि लिए संजीवनी बूटी है (पृष्ठ ८९) इस प्रवचन में अहिंसा का विराट के अनुसार उसकी साधना में कुछ अंतर है, मर्यादाओं में थोड़ी-सी रूप, विस्तृत शक्ति और व्यापक प्रभाव का अनुभव करने का भिन्नता है। इस प्रवचन में असत्य के कार्यो से मन-वचन और काया आग्रह किया गया है। अहिंसाव्रत को स्वीकार करने वाले को से बचकर रहने की बात कहकर सत्य व्रत के पालन पर जोर अहिंसा का स्वरूप, उसकी मर्यादा, उसके प्रयोग की विधि आदि । दिया गया है क्योंकि सत्य ही जीवन का परम उद्देश्य है, वही का ज्ञान तो सर्वप्रथम कर ही लेना चीहए तभी वह अहिंसा की आराध्य है। विराट् शक्ति का अनुभव कर सकेगा।
छठा प्रवचन अस्तेयव्रत : साधना और स्वरूप से संबंधित है। दूसरे प्रवचन में श्रावक की अहिंसा मर्यादा को सम्यक्
प्रारम्भ में धन की अपेक्षा चरित्र की महत्ता पर प्रकाश डाला गया रीत्यानुसार समझाया गया है। इसमें श्रमण के लिए अहिंसा पालन है। फिर आर्थिक दृष्टि से अस्तेय का महत्व प्रतिपादित किया गया पर भा विचार प्रकट किए गए हैं। श्रावक का हिंसा से बचन क है। अस्तेय व्रत को सामाजिक धर्म का दिग्दर्शक बताया गया है। लिए कहा गया है। श्रावक को विवेकी और दीर्घद्रष्टा बनकर
इसके साथ ही स्पष्ट किया गया है कि अस्तेय व्रत का मूल संकल्पी हिंसा के विविध रूपों से बचने के लिए सचेत किया गया
ईमानदारी है। तत्पश्चात् भारत में अचौर्यवृत्ति का व्यापक प्रभाव है। यह भी बताया गया है कि कदाचित पूर्व संस्कारवश कभी मन
बताते हुए लिखा है कि हजारों वर्ष पूर्व यहाँ की स्थिति ऐसी थी वचन में इस हिंसा का क्षणिक विचार या वचन आ भी जाए तो
कि यहाँ के लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे, रास्ते में गिरी हुई तुरन्त उसे खदेड़ देना चाहिए, पश्चात्ताप करना चाहिए। श्रावक
चीज को कोई सहसा उठाता नहीं था। चोरों का कोई नाम भी नहीं जीवन में अहिंसा के विकास और अभ्यास का यही उचित क्रम है।
जानता था। इसके विपरीत वर्तमान समय की चर्चा करते हुए तीसरा प्रवचन है 'अहिंसा की मंजिल : श्रावक की दौड़'। इस बताया गया है कि आज बेईमानी और लूट का बाजार गर्म है। प्रवचन में आरम्भी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा पर लेकिन प्रवचनकार का कथन है कि इससे निराश होने की सभी दृष्टियों से विचार कर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है। श्रावक
आवश्यकता नहीं है, आशा की किरण विद्यमान है। उन्होंने से आग्रह किया गया है कि वह इन हिंसाओं से बचकर अहिंसा
रिश्वतखोरी और घूसखोरी की वृद्धि को चोरी का भयंकर रूप भगवती की आराधना में संलग्न रहे।
बताया है। साथ में चोरी के नये रूप काले बाजार की उत्पत्ति पर चौथा प्रवचन 'सत्य : जीवन का सम्बल' है। इसमें सत्य को भी प्रकाश डाला है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रवचन में इस अहिंसा के साथ आवश्यक बताया गया है। जैन शास्त्रों के संदर्भ से व्रत पर सभी दृष्टि से विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
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तुत
३८६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अस्तेय की मर्यादा को निरूपित किया गया है सातवें प्रवचन मनुष्य अपना सारा जीवन इसी में लगा देता है। एक दिन जीवन कह में। श्रावक के जीवन में अस्तेय की मर्यादा पर सांगोपांग निर्वचन समाप्त हो जाता है किन्तु मनुष्य की इच्छाएँ समाप्त नहीं होती।
6 है। इसके संबंध में कहा गया है कि परिवार, समाज और राष्ट्र में इन्हीं इच्छाओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए इनको नियंत्रित - इस प्रकार सावधान रहकर अस्तेय व्रत का पालन किया जाए तो करने के उपाय बताए गए हैं। जब इच्छायें अनन्त होंगी तो परिग्रह GAD सर्वत्र सुख शांति, सुव्यवस्था और आत्मविकास हो सकता है। बढ़ेगा। जैसे-जैसे परिग्रह बढ़ेगा, वैसे-वैसे ही इच्छाओं की
मिलावट करना, कम तौलना, कम नापना, घटिया दवाइयाँ, नकली असीमितता का चक्र और बढ़ेगा। फिर इसका कहीं अंत होता - वस्तु बेचना आदि सभी अनाचार है। श्रावक को चाहिए कि । दिखाई नहीं देगा। किन्तु जब अपनी इच्छाओं की पूर्ति में मनुष्य - अतिलोभ में पड़कर इस अप्रामाणिकता से बचने का प्रयास करे। बाधाओं का अनुभव करता है तो वह बेचैन हो उठता है तथा इच्छा क्योंकि इससे श्रावक का सत्य और अस्तेय दोनों व्रत भंग होते हैं। पूर्ति के लिए उचित अनुचित का ध्यान न रखते हुए उलटे सीधे ब्रह्मचर्य की सार्वभौम उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है,
कार्य करने लग जाता है। इसलिए बढ़ती हुई इच्छाओं पर नियंत्रण आठवें प्रवचन में। वैसे यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा
आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। इच्छाओं पर नियंत्रण लगाने का कि गुरुदेव ने ब्रह्मचर्य पर विस्तार से प्रकाश डाला है और ब्रह्मचर्य
सरल और सहज उपाय है इच्छा परिमाणं व्रत। इच्छा परिमाण व्रत EPH विषयक उनके प्रवचनों का संग्रह उनकी पुस्तक "ब्रह्मचर्य विज्ञान"
स्वीकार कर लेने पर किसी प्रकार की कोई बेचैनी/अशांति नहीं S T में संग्रहीत है। यहाँ ब्रह्मचर्य को एक व्रत के रूप में समझाया गया
होती है और इस व्रतधारी का कोई भी कार्य रुकता भी नहीं है। काला है। इस प्रवचन में सभी दृष्टि से ब्रह्मचर्य की उपयोगिता पर प्रकाश
कारण कि जो सीमा निर्धारित कर ली है, उससे अधिक ग्रहण डाला है और वर्तमान संदर्भ में उसकी उपयोगिता निरूपित करते
करने की लालसा स्वाभाविक रूप से नहीं होगी। जब कोई लालसा हुए समसामयिकता भी स्पष्ट कर दी है। ब्रह्मचर्य का अद्भुत प्रभाव
होगी ही नहीं तो अशांति और बेचैनी होने का भी कोई कारण नहीं
होगा। बताते हुए कहा गया है कि ब्रह्मचारी के मुख से जो कुछ भी निकल 4 जाता है, वह यथार्थ होकर रहता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य के एक से इच्छा परिमाण व्रत ग्रहण करने वाले श्रावक को मृत्यु के समय 10 एक बढ़कर अद्भुत चमत्कार देखकर क्या इसकी उपयोगिता में किसी प्रकार का दुःख नहीं होता। इसका कारण स्पष्ट है कि उसकी DO संदेह हो सकता है? क्या लौकिक, क्या लोकोत्तर सभी क्षेत्रों में कोई इच्छा नहीं होती. वह संतुष्ट रहता है। इसके विपरीत इच्छा
ब्रह्मचर्य की उपयोगिता, महत्ता और आवश्यकता से इन्कार नहीं परिमाण व्रत से विमुख महापरिग्रही को मृत्यु के समय में घोर कष्ट जल किया जा सकता (पृष्ठ ३१०)। अपने इस प्रवचन में उन्होंने ऐसे होता है, उसे खासकर अपने धन और साधनों के वियोग होने का तुम कुछ अद्भुत चमत्कारों का उल्लेख भी किया है।
। दुःख होता है, जिसमें उसके प्राण अटके रहते हैं। 22 अगले प्रवचन में श्रावक जीवन में ब्रह्मचर्य की मर्यादा पर यहाँ संक्षेप में इच्छा परिमाण व्रत का अर्थ स्पष्ट करना 34 विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। इस प्रवचन में यह बताया गया है। प्रासंगिक होगा। इच्छा परिमाण व्रत का अर्थ-“सांसारिक पदार्थों से
तक कि मानव जीवन की सार्थकता उच्छृखल रूप से विषयोप भोग में । संबंधित अशुभ (निकृष्ट, अति और अनुचित) इच्छाओं को छोड़कर
नहीं है। गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत आवश्यक क्यों ? विषय को शुभ (उत्कृष्ट और उचित दूसरों के हितों को हानि न पहुँचाने 985 बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है। इसके पश्चात् विवाह किसके वाली) इच्छाओं को सीमित करना।" यह संकल्प करना कि मैं 2000 लिए आवश्यक और किसके लिए अनावश्यक बताया गया है।। अमूक, इतने पदार्थों से अधिक की इच्छा नहीं करूँगा, इच्छा DOP पर-स्त्री-सेवन से हानियों का विवरण देकर स्वदार से लाभ बताए परिमाण व्रत है। सम्पूर्ण अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करने वाले को SDHS5D गए हैं। स्वदार-संतोष की भी मर्यादायें हैं और उन पर भी तो संसार के समस्त पदार्थों पर से इच्छा और मूर्छा का त्याग तु सुव्यवस्थित ढंग से प्रकाश डाला गया है। इसमें स्पष्ट किया गया है करना होता है लेकिन इच्छापरिमाणव्रत धारक को संसार के कि नीतिकारों ने स्पष्ट कहा है कि मैथुन का विधान केवल
समस्त पदार्थों से इच्छा मूर्छा का त्याग नहीं करना पड़ता, जो जो - सन्तानोत्पत्ति के लिए है। स्वदार-संतोष व्रती के लिए लगभग बारह } पदार्थ महापरिग्रह में माने जाते हैं या जिन पदार्थों की इच्छा निकष्ट 0 मर्यादाओं का पालन करना आवश्यक बताया गया है। अंत में है. दसरों के लिए घातक है. अनचित है. बलबते से बाहर है। 3 ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय बताए गए हैं।
(पृष्ठ ३५७) इच्छा का सरोवर : परिणाम की पाल-यह प्रवचन अपरिग्रह
इच्छा परिमाण व्रत का उद्देश्य दुनिया भर के समस्त पदार्थों की व्रत से संबंधित है। इस प्रवचन में मानव-जीवन में अपरिग्रह की
विस्तृत इच्छाओं से अपने मन को खींचकर एक सीमित दायरे में F उपयोगिता और आवश्यकता को विस्तार से समझाया गया है।
कर लेना है। इच्छा परिमाण व्रत और उसके उद्देश्य को बहुत ही मनुष्य की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती; वरन् तृष्णाएँ सुन्दर रीति से समझाया गया है। इससे अपनी आवश्यकता को 628 उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नियंत्रित करने/घटाते जाने का मार्ग प्रशस्त होता है। इधर इच्छा
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
३८७ सीमित होने लगती है उधर संतुष्टि/शांति/सुख में वृद्धि होने । प्लास्टिक कवर लगा कर उनमें सुदृढ़ता, स्थायित्व और चमक पैदा लगती है।
करने वाले हैं। तीन गुणव्रत पाँच अणुव्रतों में शक्ति का संचार इस अध्याय के अंन्तिम प्रवचन में परिग्रह से हानि, उसकी
| करते हैं, उनमें विशेषता पैदा करते हैं, उनके परिपालन को स्वच्छ परिमाण विधि और अतिचारों पर विचार किया गया है।
रखते हैं। कुछ आचार्यों ने इन सात उपव्रतों को शीलव्रत कहा है। उन्होंने प्रवचन का प्रारम्भ ही बहुत रोचक ढंग से किया है।
उनका कहना है कि जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं, वैसे ही प और सांप दोनों ही जगत में हानिकारक माने जातेशील व्रत अणुव्रतों की रक्षा करते हैं। (पृ. ३८५) हैं, दोनों से बचकर चलना विवेकी मनुष्य के लिए अनिवार्य है। इस प्रवचन में दिशा परिमाण-व्रत का स्वरूप, विधि, सावधानी, दोनों ही त्याज्य है, इसलिए उनका संग न करना ही उचित है।" | इसका अन्य व्रतों पर प्रभाव और इसके अतिचारों पर भी प्रकाश (पृष्ठ ३५९)।
डाला गया है। प्रारम्भ में इसके उद्देश्य और महत्व को सुन्दर ढंग से आगे परिग्रह को पाप बताते हुए कहा है-“परिग्रह भी एक
समझाया गया है जिसमें कुछ दृष्टान्त भी दिए गए हैं और शास्त्रीय प्रकार का पाप है। क्योंकि वह मानव जीवन को पतन के गहरे गर्त
उद्धरण भी। में डाल देता है। उसकी विवेक बुद्धि विचारशक्ति और सत्यशोधन दूसरा प्रवचन उपभोग, परिभोग-परिमाण : एक अध्ययन है। की रुचि को नष्ट कर देता है।" (पृष्ठ ३५९)।
इस प्रवचन में मूल रूप से इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि पापों का केन्द्र परिग्रह शीर्षकान्तर्गत इस पर विस्तार से प्रकाश
त्यागपूर्वक उपभोग करना सुखदायक है। जितना कम उपभोग होगा डाला गया है। परिग्रह को दोषों का आगार भी बताया गया है और
उतना ही अधिक सुख मिलेगा। जो त्याज्य हैं उनका त्याग तो संग्रहवत्ति को विषमता का कारण बताया गया है। यह सत्य भी है। अनिवार्य है और जो वस्तुएँ दैनिक जीवन में काम नहीं आती जो आर्थिक दृष्टिकोण से समर्थ है वह तो सभी प्रकार का संग्रह
। उनको भी उपभोग्य वस्तुओं की सूची में से निकाल देनी चाहिए। कर लेगा किन्तु जो व्यक्ति रोज कमाता है और रोज लाकर खाता
इसके बाद जो वस्तुएँ शेष रहें, वे भी सब तो उपभोग में नहीं है वह बेचारा संग्रह कैसे कर सकता है। वहाँ तो पेट भरने की ही आतीं, अतः उनका भी त्याग करके चीजों की संख्या या मात्रा सबसे बड़ी समस्या है। इससे समाज में विषमता बढ़ती जाती है।
| निर्धारित कर लेनी चाहिए। इस प्रकार यदि कोई श्रावक अपने और फिर यही बढ़ी हुई विषमता संघर्ष का कारण बन जाती है। जीवन में नियत वस्तुओं का निश्चित मात्रा या संख्या में उपभोग इससे समाज में अशांति फैल जाती है। यदि इनसे बचना है और
करता है तो उसके जीवन में ज्ञान एवं विवेक का प्रकाश बढ़ता सुखी होना है तो इच्छा परिमाण व्रत को स्वीकार कर लेना चाहिए। 1 जाता है। उनको स्वास्थ्य एवं सुख-शांति का लाभ भी मिलता है। परिग्रह परिमाण व्रत की ग्रहणविधि को भी भलीभांति
दूसरे व्यक्ति भी उन पदार्थों से वंचित नहीं रहते। लगभग इन्हीं समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि परिग्रह परिमाण व्रत को
बातों पर यह प्रवचन केन्द्रित है। नौ प्रकार के बाह्य परिग्रहों को मर्यादा करके ग्रहण किया जाता है। । अगले प्रवचन में उपभोग-परिभोग-मर्यादा और व्यवसायइसे ग्रहण करने वाले को एक बात अवश्य ध्यान में रखनी है कि मर्यादा पर विचार प्रकट किए गए हैं। इसमें पहले उपभोग- परिभोग परिग्रह मुख्यतः इच्छा एवं मूर्छा से होता है, इच्छा और मूर्छा का परिमाण के स्वरूप और प्रकार को समझाया गया है। यहाँ उत्पत्ति स्थान मन है। मन का संबंध आभ्यन्तर परिग्रह के साथ है। शास्त्रकारों द्वारा बताए गए संबंधित छब्बीस बोलों को स्पष्ट किया इच्छा परिमाण व्रत के पाँच दोष हैं जिन्हें अतिचार कहा गया ।
गया है। फिर मर्यादा की मर्यादा बताई है। भोजन की दृष्टि से है। इनसे बचना चाहिए।
सप्तम व्रत के पाँच अतिचार बताकर आवश्यकताओं के विवेक को
विस्तारपूर्वक समझाया है। श्रावक धर्म दर्शन का तीसरा अध्याय गुणव्रत : एक चिन्तन है। पिछले अध्याय में अणुव्रतों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया,
आवश्यकता के लिए व्यवसाय और व्यवसाय के पीछे श्रावक
की दृष्टि कैसी होनी चाहिए इस पर भी विचार किया गया है। अब आगे दिशा परिमाण व्रत पर प्रकाश डाला जा रहा है। ये दिशा । परिमाण व्रत आदि क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर प्रवचनकार के
इसमें कुछ वर्जित व्यवसायों का उल्लेख भी किया गया है। शब्दों में इस प्रकार है-“पाँच अणुव्रत तो मूल व्रत हैं। परन्तु इसके श्रावक के लिए आठवां अनर्थदण्ड-विरमण व्रत बतलाया गया पश्चात् श्रावक जीवन में अपनाए जाने वाले जो सात व्रत हैं, वे । है। इसी का विश्लेषण इस अध्याय के अंतिम प्रवचन में किया गया व्रत तो अवश्य हैं, परन्तु वे गुणव्रत और शिक्षाव्रत हैं। गुणव्रत है। अनर्थदण्ड की विभिन्न आचार्यों ने जो भी अलग-अलग व्याख्या अणुव्रतों में विशेषता पैदा करने वाले हैं। अणुव्रत सोना हों तो की है, उनको प्रस्तुत किया गया है। इसके पूर्व दण्ड के अर्थ को गुणव्रत उस सोने की चमक-दमक बढ़ाने के लिए पालिश के समान भलीभांति समझाया गया है। आचार्य उमास्वाति ने अनर्थ दण्ड में हैं। अणुव्रत पुस्तकें हैं तो गुणव्रत उन पर जिल्द बाँध कर और अर्थ-अनर्थ शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-"जिससे 2
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उपभोग-परिभोग होता हो, वह श्रावक के लिए अर्थ है और इससे । (३) काल-सामायिक और (४) भाव सामायिक को भी भली-भांति जो भिन्न हो अर्थात् जिससे उपभोग-परिभोग न होता हो, वह अनर्थ । समझाया गया है। अंत में चार शुभ भावनाओं का विवरण दिया है।" इसके लिए जो मन-वचन-काया की दण्ड रूप प्रवृत्ति-क्रिया हो, गया है। ये चार शुभ भावनाएँ हैं, १-मैत्री, २-करुणा, ३-प्रमोद, वह अनर्थ दण्ड है। उसका त्याग अनर्थ दण्ड विरति नामक व्रत है। ४-माध्यस्था
इसके पश्चात् प्रवचनकार गुरुदेव ने पाँच मूल अणुव्रतों पर र सामायिक व्रत की विधि, शुद्धि, और सावधानी पर प्रकाश सार्थक-निरर्थक दण्ड का विचार प्रस्तुत किया है। तत्पश्चात् | डाला गया है, इस अध्याय के तृतीय प्रवचन में। प्रारम्भ में साधु अनर्थदण्ड की एक और व्याख्या प्रस्तुत की है जो संक्षेप में इस और श्रावक की सामायिक में अन्तर स्पष्ट किया गया है फिर प्रकार है-"किसी आवश्यक कार्य के आरम्भ समारम्भ में त्रस श्रावक की सामायिक की मर्यादा बताई गई है। यहाँ यह भी स्पष्ट
और स्थावर जीवों को जो कष्ट होता है, वह अर्थदण्ड है और. किया गया है कि गृहस्थों और साधुओं के सामायिक व्रत में आदर्श निष्प्रयोजन ही बिना किसी कारण के केवल प्रमाद, कुतूहल, एक ही है किन्तु सामायिक ग्रहण पाठ में अन्तर है। इस अन्तर के अविवेक आदि के वश जीवों को कष्ट देना अनर्थदण्ड है।" कारण को भी स्पष्ट कर दिया गया है। इसके पश्चात् सामायिक की (पृष्ठ ४६१)
विधि बताई गई है। विधि बताने के पश्चात् बताया गया है कि
सामायिक कब, कितनी देर, कैसे और कहाँ करनी चाहिए। अनर्थदण्ड के आधार स्तम्भों को भी विस्तारपूर्वक समझाया
सामायिक का एक प्रतिज्ञा पाठ भी है। इस प्रतिज्ञा पाठ का गया है। अन्त में सावधान करते हुए फरमाया है कि इन व्रतों के पालन में पाँच दोषों से बचना चाहिए। वे पाँच दोष इस प्रकार
विश्लेषण भी भलीभांति किया गया है। बताए गए हैं-कन्दर्प, कौत्कच्य, मौखर्य, संयक्ताधिकरण और अंत में सामायिक के अतिचारों का उल्लेख करते हुए इनसे उपभोग-परिभोगातिरिक्तता।
दूर रहकर शुद्ध सामायिक करने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होना
बताया गया है। सामायिक केवल परलोक के लिए ही नहीं, इस अन्त में कहा है-“अनर्थदण्ड विरमणव्रत से मन-वचन-काया से
लोक के लिए भी हितकारी है। इसलिए अत्यन्त श्रद्धाभक्ति के साथ होने वाली समस्त प्रवृत्तियां शुद्ध होती है। प्रवृत्तियाँ निरवद्य हुए
उत्साहपूर्वक सामायिक की साधना करने की प्रेरणा प्रदान की गई बिना आगे के सामायिक आदि व्रतों की आराधना नहीं हो
है। सकती है। इसलिए जैसे किसान खेती करने से पहले खेत में उगे हुए निरर्थक घास-फूस, झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंकता है, तभी देशावकाशिक व्रत : स्वरूप और विश्लेषण चौथा प्रवचन है। उस भूमि में बीज बोने पर सुन्दर खेती हो सकती है, वैसे ही श्रावक एक दिन, एक रात, प्रहर, घंटा आदि तक उस सीमा का गृहस्थ साधक को सामायिक आदि की साधना करने से पूर्व संकोच कर लेता है। इसी अल्पकालिक क्षेत्र सीमा निर्धारण का नाम अनर्थदण्ड के घास फूंस या झाड़ झंखाड़ को उखाड़ फेंकना
देशावकाशिक व्रत है। श्रावक के बारह व्रतों में यह दशवां व्रत है चाहिए।" (पृष्ठ ४७८)
और चार शिक्षाव्रतों में दूसरा व्रत है। इस संग्रह के अंतिम अध्याय को 'शिक्षाव्रत : एक पर्यालोचन'
प्रवचनकार के अनुसार देशावकाशिक व्रत आत्मशक्ति बढ़ाने में शीर्षक दिया गया है। जैसा कि पूर्व में ही बता दिया गया था कि सहायक है। इस अध्याय में कुल सात प्रवचन संग्रहीत है। प्रथम प्रवचन जो देशावकाशिक, संवर के रूप में अल्पकाल के लिए ग्रहण सामायिक व्रत की सार्वभौम उपयोगिता पर है। सामायिक व्रत का किया जाता है उसमें उपभोग्य-परिभोग्य वस्तुओं से संबंधित चौदह नाम किसी भी जैन धर्मावलम्बी के लिए अनजाना नहीं है। इसी व्रत । नियमों का चिन्तन करने की भी प्रथा है, उन्हीं चौदह नियमों को की सार्वभौम उपयोगिता पर यहाँ विचार प्रकट किए गए हैं। आगे समझाया भी गया है।
दूसरे प्रवचन में सामायिक के व्यापक रूप को स्पष्ट किया गया । देशावकाशिक व्रत के वर्तमान में प्रचलित स्वरूप पर भी S00 है। सामायिक का अर्थ इस प्रकार बताया गया है-“सम, आय और विचार प्रकट किया गया है। वर्तमान काल में स्थानकवासी सम्प्रदाय १०० इक तीनों से मिलकर सामायिक शब्द बना है। सम का अर्थ है, में इसे दयाव्रत या छह कायाव्रत कहा जाता है। देशावकाशिक व्रत
समभाव, सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति, आय का अर्थ है-लाभ। जिस के पाँच अतिचार हैं। सावधानी ही नहीं बहुत ही सावधानी पूर्वक प्रवृति से समता-समभाव का लाभ अभिवृद्धि हो वही सामायिक इन अतिचारों से बचना चाहिए। है।" (पृष्ठ ५०७) आगे इसे और भी विस्तार से समझाया गया है।
आत्म निर्माण का पुण्य पथ है-पौषधव्रत। पाँचवें प्रवचन में इसके पश्चात् द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक को इसी व्रत पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इस प्रवचन में समझाकर सामायिक का विराट स्वरूप स्पष्ट किया गया है। बताया गया है कि धर्म ध्यान हीन पौषध व्रत में आत्मचिन्तन हो - सामायिक के चार रूप-(१) द्रव्य सामायिक, (२) क्षेत्र सामायिक, } नहीं सकता। प्राचीन कालीन श्रावकों का वर्णन पढ़ने से मालूम होता
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} वाग् देवता का दिव्य रूप
३८९ 2600 है कि रात्रि के प्रथम प्रहर में देव आया, उसने सेवा की या उपसर्ग
190590.90 । पड़ाव है। संलेखना मानव जीवन के अंतिम समय की साधना है, किया अथवा श्रावक ने अमुक चिन्तन किया।
कुछ अज्ञ संलेखना के स्वरूप को/महत्व को समझते नहीं या समझ
Face इसके अतिरिक्त शास्त्रों में एक बात और सूचित की गई है कि
नहीं पाये इसलिए उनके मन में इसके संबंध में अनेक भ्रान्त पौषधव्रत में श्रावक पर अनेक प्रकार के उपसर्ग एवं परीषह भी
धारणायें हैं। इस प्रवचन में संलेखना का सांगोपांग विवेचन है। आते हैं, उस समय उसे अपने धर्म, व्रत और आत्म स्वरूप में
अज्ञों के मन की भ्रांत धारणाओं का निरसन है। अंत में कहा गया दृढ़तापूर्वक स्थिर रहना चाहिए। यदि असहिष्णु बनकर श्रावक ने
है-"संलेखना जीवन की अंतिम साधना है, जीवन की समस्त धैर्य खो दिया या वह विचलित हो गया तो उसका व्रत भंग हो
साधना का अंतिम सार है, एक प्रकार से साधना के मंदिर पर जाएगा। (पृष्ठ ५९५)
अंतिम स्वर्ण कलश है। इस भूमिका पर पहुँचकर साधक जीवन की लालसा व मृत्यु की विभीषिका से मुक्त होकर धर्म जागरणा में लीन
000 पौषधव्रत के भी पाँच अतिचार हैं और उनसे प्रत्येक श्रावक
हो जाता है और अपने भीतर में सुप्त परम चैतन्य ज्योति का को बचना चाहिए।
दर्शन करता हुआ प्रसन्नता व आल्हादपूर्वक देह त्यागता है। वह श्रावक का मूर्तिमान औदार्य है : अतिथि संविभाग व्रत। यह जीवन की सभी चिन्ताओं को भरकर कृतकृत्यता अनुभव करता सद्गृहस्थ श्रावक का अंतिम बारहवाँ व्रत है-अंतिम सोपान है। इस | हुआ अगली यात्रा के लिए प्रस्थान करता है। व्रत का पालन करने से श्रावक के आत्म विकास के सक्रिय रूप का
सम्पूर्ण प्रवचन संग्रह न केवल जैनधर्मावलम्बियों के लिए वरन् यथार्थ अनुमान लग जाता है कि उसने चित्त में उदारता को कितना
जिनको भी इस विषय में जानकारी चाहिए उन सबके लिए अत्यन्त स्थान दिया है? उसकी आत्मा आत्मवत् सर्वभूतेषु के मंत्र को
उपयोगी है। वैसे श्रावक के धर्म विषय में अलग-अलग तो कई जीवन में कितना पचा सकी है? आत्मौपम्य उसके जीवन में कितनी
स्थानों पर प्रकाश डाला गया है। किन्तु सम्पूर्ण रूप से एक ही स्थान मात्रा में विकसित हुआ है ? इसका मूल्यांकन भी इस व्रत के पालन
पर विस्तार से प्रकाश इसी पुस्तक में डाला गया है। ऐसा करके से किया जा सकता है।
प्रवचनकार ने और संपादक ने समाज पर उपकार ही किया है। इस इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि यह व्रत सेवा कार्य अभ्यास संग्रह में कुल छब्बीस प्रवचन संग्रहीत है। के लिए है और दूसरों को लाभ पहुँचाना ही इस व्रत का उद्देश्य है,
। सभी प्रवचनों को निबन्ध रूप में सम्पादित कर प्रकाशित करने इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं। अंत में कहा गया है कि
से पुस्तक बहु-उपयोगी बन गई है। भाषा सुबोध है। सरल एवं सरस श्रावक को अत्यन्त उदार एवं व्यापक दृष्टि अपनाकर अपने प्राप्त
है। शैली में लाक्षणिकता है। विस्तार को देखते हुए व्यास शैली कही साधनों का यथायोग्य संविभाग करके इस व्रत की सम्यक् आराधना
जा सकती है किन्तु कही समास शैली भी परिलक्षित होती है। करनी चाहिए।
दृष्टान्त-कथाओं को प्रस्तुत कर विषय वस्तु को सहज-सरल बनाया संलेखना : अंतिम समय की अमृत-साधना। यह इस अध्याय गया है जिससे सामान्य पाठक भी इसे आत्मसात कर सके। ऐसे का और पूरे संग्रह का अंतिम प्रवचन है और मनुष्य का भी अंतिम सुन्दर प्रकाशन का सर्वत्र स्वागत होना स्वाभाविक है।
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* जब मनुष्य की अपनी शक्ति और बुद्धि काम नहीं देती तो वह सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ देता है। * मनुष्य संस्कारों की प्रेरणा से कर्म करता है और कर्मों से ही मनुष्य के संस्कार बनते हैं। * चिन्ता स्वार्थ का दण्ड है। स्वार्थी लोग ही सदा दुःखी व चिन्तित रहते हैं। * धन का उपयोग है दूसरों का पहले हित करना और बाद में स्वयं भोग करना।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में
-विदुषी रल महासती पुष्पवती जी म. 2000
(धर्म सचमुच ही कल्पवृक्ष है, परन्तु उनके लिए जो सच्चे मन से धर्म का आचरण करते हैं। जीवन के आंगन में निष्ठा और निष्कामता 350104 के जल से उसका सिंचन करते हैं। उनके जीवन प्रांगण में जब धर्म का कल्पवृक्ष लहराता है तो शील, सत्य, सुख, शान्ति, संतोष और 300.00 भौतिक विभूतियाँ के मधुर फलों का अम्बार लग जाता है।
पूज्य गुरुदेव ने इसी दृष्टि से धर्मरूपी कल्पवृक्ष के मधुर फलों का हृदयस्पर्शी रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। विभिन्न अवसरों पर विभिन्न दृष्टियों से।
विद्वान् मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी द्वारा संपादित प्रस्तुत प्रवचन पुस्तक पर समीक्षात्मक चिन्तन प्रस्तुत किया है विदुषीरल महासती पुष्पवती जी ने)।
-सम्पादक
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कल्पवृक्ष दस प्रकार के बताये गए हैं। कहा जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथ दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में धर्म और प्राचीन काल में इन कल्पवृक्षों से मनुष्य अपनी सभी प्रकार की जीवन पर गहराई से चिन्तन किया गया है। धर्म और जीवन के आवश्यकताओं की पूर्ति कर लिया करता था। वर्तमान काल में तो विभिन्न पक्षों व विभिन्न समस्याओं पर जो अनुचिन्तन किया गया है अब कल्प वृक्ष कहीं दिखाई नहीं देते। इनके नाम और विशेषतायें | वह सद्गुरुदेव श्री की बहुश्रुतता व अनुभूति की गहनता का स्पष्ट शास्त्रों की वस्तु बनकर रह गई हैं। वर्तमान में तो हम धर्म को 1 परिचायक है। द्वितीय खण्ड में अध्यात्म और दर्शन पर महत्वपूर्ण कल्पवृक्ष कह सकते हैं। कारण कि धर्म की आराधना से सभी विश्लेषण है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र जैसे प्रकार के सुख, सुविधा और शांति को प्राप्त किया जा सकता है। नीरस विषय को ऐसे सरस रूप में प्रस्तुत किया है जिसे पाठक इसलिए धर्म को जीवन के आंगन का कल्पवृक्ष कहा गया है। राष्ट्र सहज रूप से आत्मसात कर सकता है। उगती उभरती पीढ़ियों की संत, राजस्थान केसरी, पूज्य गुरुदेव उपाध्याय (स्व.) श्री पुष्कर मानसिक पूर्णता के लिए ये प्रवचन अनमोल रसायन के समान हैं, मुनि जी म. सा. के प्रवचनों का एक संग्रह भगवान श्री महावीर की । जीवन की निधि हैं। वाल्टहिटमेन ने अपनी एक पुस्तक के विषय में २५वीं निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में उनके विद्वान सुशिष्य श्रमण कहा था, "जो इस पुस्तक को छूता है वह एक मनुष्य का स्पर्श संघ के वर्तमान आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. ने करता है।" यह उक्ति प्रस्तुत ग्रन्थ के संबंध में भी पूर्ण चरितार्थ संपादित कर प्रकाशित करवाया। इस प्रवचन संग्रह को नाम दिया । होगी।" (पृष्ठ ८)। गया-“धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में"। प्रवचन संग्रह का
अपने प्राक्कथन में सुविख्यात साहित्यकार श्री श्रीचंद जी यह नाम सार्थक प्रतीत होता है। इस प्रवचन की महत्ता पर प्रकाश
सुराना “सरस' ने लिखा है-“इन प्रवचनों में सिर्फ साधना क्षेत्र के डालते हुए अपने संपादकीय में उन्होंने लिखा है-"धर्म का कल्पवृक्ष
ही अनुभव नहीं, किन्तु जीवन के बहुव्यापी, बहुआयामी अनुभव जीवन के आंगन में" एक जीवनदर्शी सफल अभिभाषक सन्त के
ललक रहे हैं। नीति, व्यवहार, धर्म-साधना हर क्षेत्र के अनुभव, हर अभिभाषणों का सुन्दर सरस संग्रह है, जो आधुनिक समाज को
अनुभव का निचोड़ इनमें मिलता है।" (पृष्ठ १२)। उबुद्ध करने वाले हैं। युगधर्म की व्याख्या को सही माने में चरितार्थ करने वाले हैं और समाज के सर्वांगीण हित में योगदान
प्रस्तुत प्रवचन संग्रह के समस्त प्रवचनों का वर्गीकरण करके देने वाले हैं। इन प्रवचनों में व्यर्थ के काल्पनिक आदर्शों की
। दो खण्डों में प्रकाशित किया गया है। प्रथम खण्ड का नाम दिया गगन-विहारी उड़ान नहीं है, न बौद्धिक विलास ही है और न धर्म,
गया है धर्म और जीवन। इस खण्ड में कुल उन्चालीस प्रवचन दिए सम्प्रदाय, राष्ट्र के प्रति व्यक्तिगत या समूहगत आक्षेप ही है।।
गए हैं। दूसरा खण्ड है अध्यात्म और दर्शन का। इस खण्ड में अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत पुस्तक के सभी भाषण जीवन-स्पर्शी हैं,
इक्कीस प्रवचन दिए गए हैं। प्रवचन के पूर्व खण्ड के शीर्षक के जीवन को उन्नत बनाने वाले हैं। जिन्दगी की सही मुस्कान को
संबंध में जो टिप्पणी दी गई है, वह दृष्टव्य है, “जैसे फूल की खिलाने वाले हैं, दिल और दिमाग को तरोताजा बनाने वाले हैं।
शोभा सौरभ से, नदी की शोभा जलधारा से और शरीर की शोभा समाज की विषमता और अभद्रता को मिटाने वाले हैं, प्राचीनता में
प्राणों से है, उसी प्रकार जीवन की शोभा धर्म से है। धर्ममय जीवन नवीनता का रंग भरने वाले हैं। संघ और राष्ट्र की अंध-स्थिति को
ही जीवन है।" ज्योतिर्मय बनाने वाले हैं क्योंकि इन भाषणों में त्याग और वैराग्य । धर्म को परखो, मानव ! इस प्रवचन संग्रह का प्रथम प्रवचन का अखण्ड तेज चमक रहा है। अनुभव का प्रकाश जगमगा रहा है। है। प्रारम्भ में इस प्रवचन में धर्म के महत्व को समझाया गया है। आत्म-साधना का गंभीर स्वर गूंज रहा है और मानवीय मूल्यों के फिर पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण से धर्म की परिभाषायें दी गई प्रतिष्ठान की मोहक सौरभ महक रही है।"
हैं। उसके पश्चात् धर्म पर, उसके रहस्य पर और अपने जीवन में
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70RO । वाग् देवता का दिव्य रूप धर्म के महत्व पर, जीवन को धर्म के माध्यम से उन्नत बनाकर हुआ जा सकता है; किन्तु दुःख इस बात का है कि आज विश्व में 24 मानव जीवन की सफलता की बात की गई है। अगले प्रवचन "धर्म बहुसंख्यक लोग विवेक से काम नहीं लेते। की आवश्यकता" में विषय वस्तु का उचित प्रकार से प्रतिपादन
___संयम का अर्थ है-"आत्म निग्रह करना, मन, वचन और करके अंत में स्पष्ट किया है कि धर्मों की सफलता और
शरीर का नियमन करना, इंद्रियों को अधिकार में रखना।" एक कल्याणकारिता भी तभी सिद्ध हो सकती है, जब आप धर्मों के नाम
पाश्चात्य दार्शनिक ने कहा है-"सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वह है जो |से लड़ाई झगड़े न करके अपने-अपने धर्म का अहिंसा, सत्य आदि
अपने आपको अपने अनुशासन में रख सकता है।" इसका दूसरा का यथोचित पालन करेंगे। तभी धर्म विश्व में स्वर्ग का सौन्दर्य
पक्ष यह हुआ कि जो व्यक्ति अपने आपको अनुशासन में नहीं रख उपस्थित कर सकता है। उनके इन दोनों प्रवचनों में आधुनिक काल सकता वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता। यदि अपने आपको
GOpp में धर्म के विषय में जो मतभेद चल रहे हैं, उन पर भी परोक्ष रूप
सुखी रखना हो तो सबसे पहले अपने आपको अनुशासन में रखो। से चिन्तन प्रकट किया गया है। इस संदर्भ में उन्होंने धर्म और
बस यही संयम है। संयम से रहने वाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सम्प्रदाय की विभिन्नता भी स्पष्ट की है तथा सच्चे धर्म को भी
सकता, असफल नहीं हो सकता। इसी संयम पर विस्तार से विचार | स्पष्ट किया है।
प्रकट किए गए हैं-"संयम का माधुर्य" शीर्षकान्तर्गत दिए गए आचार और विचार शीर्षक वाले प्रवचन में उन्होंने एक
प्रवचन में! ज्वलंत प्रश्न उठाया है जो आज भी विद्यमान है। उन्होंने कहा
सत्य को जीवन का अमृत बताया गया है इसी नाम के प्रवचन “आज हमें अपनी दयनीय दशा पर विचार करना होगा कि वास्तव
में और सत्य पर चलने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा है कि में हम व हमारा देश क्यों पिछड़ गया है? दूसरे देश आध्यात्मिकता
आप भी सत्य की पगडंडी पर चलें तो आपका जीवन अमृतमय बन का दावा नहीं करते, फिर भी ईमानदारी और नैतिकता में हमारे
100000 जाए, शांतिमय बन जाय और आनन्दमय बन जाय। भारतीय देश से क्यों आगे बढ़ रहे है?" इसका उत्तर भी स्वयं ही उन्होंने
संस्कृति तो इसी सत्य की उपासना द्वारा विश्व को शांति का संदेश इन शब्दों में दिया-"इसका कारण है कि वहाँ विचार और आचार
देती आ रही है। का मेल है, कथनी और करनी का मेल ही जीवन को ऊँचा उठाता है।" (पृष्ठ २५)।
जीने की कला में अपने कर्तव्यों को सुन्दर ढंग से पूर्ण
ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करने पर बल दिया गया है। आचार और विचार पर प्रकाश डालते हुए अपने इस ऐसा करने से ही भविष्य उज्ज्वल बन सकता है।
500 प्रवचन के अंत में उन्होंने कहा-“समाज में आज जो विचार और
doc आचार के बीच चौड़ी खाई पड़ी हुई है उसे पाटा जाय। अन्यथा वह
अगला प्रवचन है मानवता का अन्तर्नाद। इस प्रवचन में दिन दूर नहीं, जबकि विचार केवल विचार ही रह जायेंगे और मानवता पर विचार प्रकट करते हुए आत्म निरीक्षण करने की बात
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800- कही गई है। उन्होंने कहा-"जब मानव हृदय में मानवता अपना आचार स्वप्न की वस्तु हो जाएगा। विचारों के अनुरूप जब हम
Pho स्थायी निवास कर लेगी, मानवता को प्रतिक्षण प्रतिपल मनुष्य आचरण करें तभी समाज, देश और राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल
भूलेगा नहीं। मानव मन में मानवता का अन्तर्नाद गूंज उठेगा। तभी है।" (पृष्ठ २८)
जगत की सुख-शांति में वृद्धि होगी। तभी दुःख दारिद्र्य के बादल "चले चलो, बढ़े चलो" प्रवचन में जीवन के सही विकास के फट जायेंगे और सुख का सूर्य चमकने लगेगा। तभी मानव को लिए प्रगति करते रहने पर बल दिया गया है। इसमें बताया गया है अष्ट सिद्धि और नौ निधि की प्राप्ति का सा आनन्द आयेगा। कि “चर" धातु से आचार, विचार, संचार, प्रचार, उच्चार, राष्ट्रों, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों में निर्माण का स्वरूप साकार उपचार आदि शब्द बनते हैं। इन सबके मूल में चलना है, चर हो उठेगा।" (पृष्ठ ९५)
2000 क्रिया है। आप भी अपने जीवन में चर को स्थान दीजिये। घबराइये
"जिन्दगी की मुस्कान" नामक प्रवचन में प्रवचनकार ने
Pos नहीं, आपका व्यक्तित्व चमक उठेगा, आपका विकास सर्वतोमुखी हो
बताया-"आत्मिक दृष्टि से मुस्कान वहाँ है, जहाँ आत्मा के मूलभूत सकेगा, आपकी प्रतिभा चहुंमुखी खिल उठेगी। अपने मन-मस्तिष्क
गुणों सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अनासक्ति, क्षमा, का प्रवाह इसी ओर मोड़िये।
दया, संयम आदि को अपनाया जाय और जीवन के प्रत्येक प्रसंग 'विवेक का प्रकाश' में विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला में दृढ़तापूर्वक इनका पालन किया जाय। जहाँ ये गुण नहीं होते हैं गया है। वास्तव में मानव जीवन में विवेक का सर्वोपरि स्थान है, और केवल शिष्टता, सभ्यता आदि बाहरी नैतिक गुण होते हैं, वहाँ सर्वप्रथम आवश्यकता है। विवेक को अपनाकर संसार को स्वर्गीय आत्मा की चमक-दमक नहीं बढ़ती, आत्मा की सच्ची मुस्कान मन्द सुखों के भण्डार से भरा जा सकता है। विवेक के द्वारा ही नारकीय पड़ जाती है। वास्तव में आत्मा तो इन सभी मुस्कानों की जननी है। परिस्थितियों को स्वर्ग के समान बनाया जा सकता है और विवेक अगर आत्मा के सद्गुण जीवन में नहीं आए तो जिन्दगी की को अपनाकर ही पशुत्व से मानवत्व और देवत्व की ओर अग्रसर । मुस्कान सर्वांग सम्पूर्ण नहीं होगी।" (पृष्ठ २१)
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" रामराज्य" शीर्षक वाले प्रवचन में उपाध्यायश्री जी ने विषयानुकूल विचार प्रकट किए हैं। यह प्रवचन उन्होंने स्वतंत्रता दिवस (१५ अगस्त) के दिन फरमाया था। इसमें उन्होंने यह भी कहा कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के पूर्व हम जो रंगीन कल्पनाओं की ऊँची उड़ान भर रहे थे, वे कमनीय कल्पनाएँ साकार रूप धारण नहीं कर सकीं। उन्होंने अपने प्रवचन में फरमाया था कि यदि आप राम राज्य चाहते हैं, देश को आबाद और सुखी देखना चाहते हैं। तो नैतिकता की महाज्योति को हृदय में जगाइये, आज की स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर यह प्रतिज्ञा ग्रहण कीजिए कि हम राम की तरह आदर्श उपस्थित करेंगे, जिससे देश के गौरव को चार चांद लगेगा। वास्तव में किसी भी कार्य की सफलता में, उन्नति में नैतिकता ही चार चांद लगा सकती है। नैतिकता के अभाव में विकसित होने की कल्पना करना निरर्थक है। फिर चाहे वह व्यक्ति हो चाहे राष्ट्र
"जिन्दगी की लहरें " शीर्षक प्रवचन में जीवन का अर्थ बताते हुए तीन प्रकार के जीवन बताकर उनका विवेचन किया गया है। जीवन के तीन प्रकार इस प्रकार बताए गए हैं-9. आसुरी जीवन, २. दैवी जीवन और ३. अध्यात्म जीवन !
गुरु जीवन निर्माता होता है। वही हमें सब कुछ बताता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, हमारी डूबती नैया को किनारे लगाता है। गुरु-सद्गुरु के विविध स्वरूपों को और उसके महत्व को बताया गया है- "जीवन के कलाकार: सद्गुरु" प्रवचन में! अगला प्रवचन है साहित्य : एक चिराग ! एक ज्योति ! इसमें साहित्य पर प्रकाश डाला गया है।
"जीवन का सुनहरा प्रकाश : कर्तव्य" में कर्तव्य पर प्रकाश डालते हुए कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा प्रदान की गई है। "समय का मूल्य" प्रवचन में समय के महत्व को स्पष्ट किया गया है। जो समय व्यतीत हो चुका है वह लौटकर वापस आ नहीं सकता। इसलिए समय को कभी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। इस प्रवचन में समय की पाबन्दी रखने वाले अनेक इतिहास पुरुषों के दृष्टान्त भी दिए गए है। समय को जीवन का अमूल्य धन बताया गया है, इसी शीर्षक वाले अगले प्रवचन में इन दो प्रवचनों में "समय" पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इन्हें पढ़कर यदि पाठक समय का मूल्य समझकर अपना प्रत्येक कार्य समय पर करने लगें तो जीवन में एक नई चमक दमक आ सकती है।
मन पर हमारे यहाँ बहुत कुछ चिन्तन किया है। मन पर ही यहाँ दो प्रवचन हैं, 9. मन की साधना और २ मनोनिग्रह की कला। दोनों प्रवचनों में विषयानुरूप विषय का प्रतिपादन किया गया है। मनोनिग्रह की रक्षा के अंत में उन्होंने कितना सुन्दर चित्र उपस्थित करते हुए मन को साधने की बात कही है-“हाँ, तो आप निश्चिन्तता से मन के दीपक में श्रद्धा की बत्ती और सद्विचारों का तेल डालकर उसे जलाइये और प्रतिक्षण यह देखते रहिये कि कहीं
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
वासना की वायु का झोंका उसे बुझा न दे। बस, यही सावधानी आपको रखनी है। मन के वश होने की निशानी ही यही है कि वह वासना के झोंके से बुझे नहीं, सतत् प्रकाशमान रहे। पर इसके लिए निरन्तर साधना की आवश्यकता है। निरन्तर आप साधना चालू रखें, फिर मन आपका स्वाभी न होगा, आप मन के स्वामी होंगे और सफलता आपके साथ होगी।" (पृष्ठ १८० )
मृत्यु पर लगभग सभी दर्शनों में चिन्तन किया गया है। मृत्यु शाश्वत सत्य है। जिसका जन्म हुआ है, उसे एक न एक दिन मरना ही है किन्तु संसार का कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता मृत्यु का नाम आते ही प्राणी भयभीत हो जाता है। मृत्यु का सामना कोई भी करना नहीं चाहता । मृत्यु एक कला शीर्षकान्तर्गत प्रवचन में प्रवचनकार ने मृत्यु पर विस्तार से शास्त्रीय संदर्भों के साथ अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। उन्होंने कहा- "भारतीय तत्व चिन्तकों ने मृत्यु से डरने की जगह मृत्यु का सहर्ष आलिंगन करने की बात कही है। उनका कहना है कि मृत्यु तो इस जीवन का अन्त है और दूसरे जीवन का प्रारम्भ है।” (पृष्ठ १८३)
इस प्रकार प्रवचनकार का कथन है कि जब मरना ही है तो उसे महोत्सव के रूप में वरण कर मरना चाहिए। मरण भी एक कला है इस कला को सीखना चाहिए और हँसते-हँसते मृत्यु को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन मृत्यु की कला सीखने के लिए जीवन में पहले से ही साधना होनी चाहिए। जीवित काल ही कार्यकाल है, मृत्यु काल तो विश्रान्ति काल है। उस समय मन के मनसूबे मन में ही धरे रह जायेंगे, कुछ होगा नहीं। इसलिए भलाई के कार्य या सुकृत कार्य पहले से ही कर लेना चाहिए। अगले प्रवचन में “भारतीय संस्कृति में मृत्यु का रहस्य" प्रकट किया गया है।
विभिन्न शीर्षकों द्वारा अपरिग्रह के विविध पहलुओं को स्पष्ट किया गया है। ऐसे चार प्रवचन दिए गए हैं। "जीवन की लालिमा” शीर्षक से ब्रह्मचर्य पर विस्तार से विचार किया गया है। “कर्तव्य निष्ठा" में कर्तव्यनिष्ठ बनने का आग्रह किया गया है।
विनय का विवरण जीवन महल की नींव के नाम से दिया गया है वास्तव में विनय को अपनाने से जीवन चमक उठता है और विनयी व्यक्ति सर्वत्र आदर प्राप्त करता है। इस प्रवचन में एक महान् विचारक के संदर्भ से बताया गया है कि विनीत व्यक्ति के तीन लक्षण होते हैं। यथा
१. जो कड़वी बात का मीठा जवाब देता है,
२. क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी जो चुप रहता है, ३. दण्डनीय को दण्ड देते समय चित्त को कोमल रखता है।
जीवन का अरुणोदय के अन्तर्गत सुसंस्कारों की विवेचना की गई है। इसमें यह बताया गया है कि सुसंस्कार प्रदान करने का समय बाल्यकाल ही है। बाल्यकाल से ही जीवन का अरुणोदय होता
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
३९३ है और तभी से सुसंस्कार की किरणें मानव जीवन की लालिमा को खेलिए, अनासक्ति-पूर्वक पार्ट अदा कीजिए, मोहमाया के भ्रम जाल बढ़ा सकती हैं, मानव जीवन को प्रकाशमान कर सकती हैं। में नहीं फँसते हुए अपने दृश्य दिखाइये, साथ ही दूसरों के जीवन वर्तमान समाज में चारों ओर उच्छंखलता और अनुशासन
नाटक को देखते समय, सच्चे ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहिए, अपना हीनता दिखाई देती है। इसका एकमात्र नहीं तो सबसे बड़ा कारण
भान भूलिये मत, माया नटी के हाव-भाव में मत फँसिए, इसी में बाल्यावस्था में सुसंस्कारों का नहीं मिलना है।
आपके जीवन नाटक की सफलता है, इसी में जीवन-नाटक की
परिपूर्णता है (पृष्ठ ३०४)। दान पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है-"दान की लहरें" शीर्षक प्रवचन में। इस प्रवचन में दान संबंधी कई दृष्टान्त कथाओं
कोई भी मनुष्य अपने मकान को बनाता है तो सबसे पहले को भी प्रस्तुत किया गया है और एक अंग्रेजी कहावत के माध्यम
नींव डलवाता है। बड़ी-बड़ी इमारतों में आपने देखा होगा, गहरी से से यह समझाया गया है कि वह हाथ जो दान देता है, वह देता
गहरी नींव डाली जाती है। अगर मकान की नींव कच्ची रह जाए नहीं है, इकट्ठा करता है। दान में कुछ सोपान होते हैं जिनके द्वारा ।
या नींव गहरी न हो, तो वह मकान आंधी, तूफान और भूकम्प के मानव हृदय की विशालता का नाप-तौप किया जा सकता है। ऐसे ।
धक्कों को अधिक दिन नहीं सह सकेगा। इसी प्रकार मानव जीवन आठ सोपानों का इस प्रवचन में उल्लेख किया गया है, जिन्हें } का मकान खड़ा करना है और चिरस्थायी व दृढ़ बनाना है तो प्रवचनकार ने लहरें नाम दिया है।
उसकी ईमानदारी की नींव गहरी और मजबूत होनी चाहिए अन्यथा मन में शक्ति है किन्तु आत्मा में उससे भी अधिक शक्ति है।
वादों के झौकों, लोभ और मोह के तूफानों, तृष्णा की आंधियों वह चाहे तो अभ्यास, वैराग्य और ज्ञान के द्वारा मन को कुमार्ग से
और भय के भूकम्पों से जीवन का महल ढह जाएगा, उसका सन्मार्ग की ओर उत्प्रेरित कर सकता है। अशुभ चिन्तन को छोड़कर
अस्तित्व मिट्टी में मिल जाएगा। यह कथन है ईमानदारी की ली।
नामक प्रवचन में। जीवन की दृढ़ता के लिए ईमानदारी आवश्यक शुभ चिन्तन करना ही वस्तुतः श्रेय का मार्ग है। इसी को मन का ऊर्चीकरण कहते हैं। प्रशस्त मन उत्थान का कारण है और ।
ही नहीं अनिवार्य है। इसी विषय से संबंधित यह प्रवचन है। अगले अप्रशस्त मन पतन का कारण। यह कथन है उनके प्रवचन-मन का
प्रवचन में भी ईमानदारी पर ही विचार प्रकट किए गए हैं। पहले मनन में। इससे पूर्व भी "मन" पर दो प्रवचनों का उल्लेख पूर्व में
प्रवचन में ईमानदारी को जीवन की नींव बताते हुए विवेचन किया किया जा चुका है। चिन्तनकारों ने मन के विषय में बहुत कुछ
गया है तो इस प्रवचन में ईमानदारी को धर्म का मूलमंत्र बताया लिखा है।
गया है। सत्य भी है कि धर्म में बेईमानी का क्या काम? प्रवचनकार
का निम्नोक्त कथन यद्यपि आज से अठारह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ जैन संस्कृति में पर्वाधिराज पर्युषण का अत्यधिक महत्व है।
था किन्तु वह आज भी यथार्थ के धरातल पर खरा उतरता है। पर्युषण की अवधि में धर्माराधना/तपाराधना की धूम मच जाती है।
देखिये-"अब समय आ गया है कि भारतवासी अपनी आँखें खोलें, इसी विषयक प्रवचन है जैन संस्कृति का पावन पर्व और पर्युषण
विदेशों से सबक सीखें और आध्यात्मिकता की लम्बी-चौड़ी डींगें न समाप्ति पर जैन धर्मानुयायी अपनी अन्तरात्मा से/हृदय की गहराई
हाँककर ईमानदारी से प्रत्येक काम करके आध्यात्मिकता को जीवन से पश्चात्ताप करता हुआ अपने द्वारा जाने अनजाने में हुई भूलों के लिए प्राणिमात्र से क्षमायाचना करता है, वह है क्षमापर्व। क्षमा देना
में सिद्ध करने की कोशिश करें। (पृष्ठ ३२२)। ईमानदारी को और लेना दोनों कार्य महान हैं। क्षमा पर्व शीर्षकान्तर्गत क्षमापर्व पर
अपनाने से ही उसकी लौ सफलतापूर्वक जल सकेगी और मानव पकाश दालने का कहा गया कि जीवन सफल और सुखी होगा। कि जिसके साथ हमारा मन मुटाव हो गया है, लड़ाई झगड़ा हो शुद्ध पारस्परिक प्रेम की विवेचना की गई है जीवन की झंकार गया है, सर्वप्रथम उसी के साथ क्षमायाचना करनी चाहिए। हृदय में और प्रेम की प्रभा पर विश्लेषण दिया गया है इसी नाम के पर चढ़े कषाय-कालुष्य को पूरी तरह धोकर स्वच्छ दर्पण की तरह प्रवचन में। पारस्परिक प्रेम की सरिता जब प्रवाहित होने लगे तो निर्मल बना लेना चाहिए। अतीत की कोई भी कटु स्मृति अन्तःकरण परोपकार का पीयूष बरसने लगता है। इसी परोपकार पर प्रकाश के किसी कोने में शेष नहीं रह जानी चाहिए। हृदय पूरी तरह डाला गया है “परोपकार का पीयूष" में। यह प्रवचन प्रथम खण्ड निःशल्य और शुचि हो जाना चाहिए। संवत्सरी के पश्चात् जैसे नये
का अंतिम प्रवचन है। परोपकार पर प्रवचनकार ने बहुत कुछ कहा सिरे से जीवन प्रारम्भ हुआ हो।" (पृष्ठ २९०)
है और अंत में एक वाक्य में कहा-"परोपकार ही मानव जीवन विश्व के रंगमंच पर जीवन एक नाटक है। भारतीय संस्कृति की सच्ची निशानी है।" इससे जो वंचित रहता है, वह मानव में जीवन के संबंध में जितनी गहराई से विश्लेषण किया गया है, जीवन की सफलता से वंचित रहता है। अतः प्रतिक्षण, प्रतिपल उतना शायद ही किसी अन्य संस्कृति में क्यिा गया है। “जीवन : हमारे हृदय, मन, बुद्धि, वाणी और इन्द्रियों में परोपकार का पीयूष एक नाटक” प्रवचन में प्रवचनकार ने विस्तार से प्रकाश डालकर | बहता रहना चाहिए, तभी हम अपना ऐहिक और पारलौकिक बताया कि जीवन नाटक को सम्यक् प्रकार से, उत्तम ढंग से जीवन सफल कर सकते हैं।
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दूसरे खण्ड के प्रवचनों का संग्रह अध्यात्म और दर्शन शीर्षकान्तर्गत किया गया है। इसमें भी पहले अध्यात्म और दर्शन का अर्थ स्पष्ट किया गया है। यथा
अध्यात्म : अधि-आत्म-आत्मा की तरफ, आत्मा संबंधी चिन्तन, मनन और आचरण अध्यात्म का अर्थ है।
अध्यात्म, साधना भी है और चिन्तन भी। अध्यात्म-साधना धर्म है, अध्यात्म-चिन्तन दर्शन है।
दर्शन साधना की मूलभित्ति, साधना का मूल लक्ष्य, साधना के बाधक-साधक तत्व (सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् ज्ञान का समग्र स्वरूप) का विवेक ! (पृष्ठ ३६०)
इस खण्ड में अध्यात्म और दर्शन विषयक कुल इक्कीस प्रवचन संग्रहीत हैं।
प्रथम प्रवचन "साधना का ध्येय" है। शीर्षक के अनुरूप इस प्रवचन में साधना के ध्येय पर विचार किया गया है। इसमें अध्यात्म साधना का मूल आधार सम्यग् दर्शन बताया गया है।
दूसरा प्रवचन भी साधना पर ही केन्द्रित है। इसमें साधना को सर्वोच्च वरदान बताया गया है। मूलतः यह प्रवचन भी सम्यक् दर्शन से संबंधित है। तीसरे प्रवचन जिन्दगी की बदलती हुई तस्वीरें में सम्यग्दर्शन के उत्पत्तिक्रम के संबंध में बताया गया है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा पर प्रवचन फरमाया गया है। यह विवेचन संक्षिप्त है। फिर भी श्रोता / पाठक इसके अर्थ और महत्व को समझ सकते हैं।
जीवन दृष्टि के तत्व प्रवचन के माध्यम से सम्यक्दर्शन के अस्तित्व के परिचायक पाँच चिन्ह हैं-१ प्रशम, २. संवेग, ३. • निर्वेद, ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य। इन पाँचों की विवेचना इस प्रवचन में उचित प्रकार से की गई है। सम्यक्दर्शन की उपलब्धि होने पर ये पाँच प्रकार की विचारधाराएँ, जिन्हें पाँच लक्षण कहा गया है, आत्मा में अवश्य उत्पन्न हो जाती है।
दर्शनाचार एक अनुचिन्तन में सम्यग्दर्शन के आठ अंग या आचार की विवेचना की गई है। इनसे सम्यग्दर्शन का पालन, संरक्षण और संवर्द्धन होता है। सम्यग्दर्शन के ये आठ आचार इस प्रकार हैं :
१. निश्शंकता, २. निष्कांक्षता, ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूद्रदृष्टित्व, ५ उपबृंहण ६. स्थिरीकरण, ७ वात्सल्य और ८.
प्रभावना ।
इनके संबंध में प्रवचनकार का कथन दृष्टव्य है :
" जिस प्रकार आठ अंगों में सम्पूर्ण शरीर का समावेश हो जाता है या यों कहा जाए कि आठ अंगों में शरीर अन्तर्निहित है, उसी प्रकार इन आठ अंगों में सम्यग्दर्शन निहित है। जैसे शरीर के स्वास्थ्य के लिए उसके आठों अंगों की सार-सम्भाल आवश्यक है,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
उसी प्रकार सम्यग्दर्शन को अविकृत रखने के लिए इन आठों अंगों का संरक्षण अनिवार्य है। (पृ. ३८२) ।
अगले प्रवचन में उन बातों पर विचार किया गया है जो अवांछनीय है। इन पर अमल नहीं करना है। उनसे बचकर चलना है। यहाँ एक प्रश्न सहज ही किया जा सकता है कि जो आचरणीय नहीं है, जिन पर हमें चलना नहीं है, उनकी जानकारी से हमें क्या लाभ? प्रवचनकार ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है"हेय पदार्थ भी हो होता है जिसे हम जानेंगे नहीं, उसके दुष्परिणाम से अपरिचित रहेंगे और उसके त्याग की आवश्यकता भी अनुभव नहीं कर सकेंगे। कदाचित अनजाने, देखादेखी या किसी के कहने मात्र से त्याग कर भी दिया तो उस त्याग में संकल्प का बल नहीं होगा। ऐसा त्याग निष्प्राण होगा। अतः त्याज्य वस्तु के दोषों को भी उसी प्रकार समझना चाहिए, जिस प्रकार ग्राह्य वस्तु के गुणों को समझना आवश्यक है।" (पृष्ठ ४१२ ) ।
जिन पर आचरण नहीं करना है उन्हें अतिचार कहा गया है। ये अतिचार पाँच प्रकार के बताए गए हैं। यथा- १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. परपाषण्ड-प्रशंसा और ५. परपाषण्डसंस्तव । इन्हीं पाँचों अतिचारों का दिग्दर्शन कराया गया है जीवन-दृष्टि की मलिनताएँ शीर्षक प्रवचन में।
इस संग्रह के पिछले कुछ प्रवचनों में सम्यग्दर्शन के कुछ पहलुओं पर विचार किया गया है। साधना का मूलाधार शीर्षक वाले प्रवचन में भी सम्यग्दर्शन पर ही विचार किया गया है। प्रवचनकार का कथन है कि पहले सम्यग्दर्शन से संबंधित कतिपय मूलभूत विषय ही रखे गये हैं। फिर भी कुछ अत्यावश्यक ज्ञातव्य विषय ऐसे हैं, जिनकी चर्चा यदि न की जाए तो सम्यग्दर्शन संबंधी निरूपण अधूरा ही रह जाएगा। इसी बात को ध्यान में रहकर यह प्रवचन है। इस प्रकार प्रवचन के अन्तर्गत जिन उपशीर्षकों के आधार पर विवेचन है, वे इस प्रकार है- उत्पत्तिक्रम, पंचविध लब्धियाँ, भेद प्रभेद, दशविधरुचि, सम्यग्दर्शन के भूषण, सम्यग्दर्शन की भावनाएँ और छह स्थान प्रवचनकार का स्पष्ट अभिमत है कि इस विवेचन के पश्चात् भी सम्यग्दर्शन के निरूपण में पूर्णता आ ही जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता।
ज्ञान का निरूपण किया गया है “अन्तर का आलोक" शीर्षक के अन्तर्गत दिए गए प्रवचन में प्रारम्भ में ज्ञान की महिमा बताई गई है फिर ज्ञान- ज्ञेय का संबंध स्पष्ट किया गया है। ज्ञान ज्ञाता का संबंध भी बताया गया है। इस संक्षिप्त प्रवचन में ज्ञान के संबंध में अच्छा विवरण दिया गया है। अगला प्रवचन सम्यक्ज्ञान से संबंधित है। शीर्षक दिया गया है-"साधना का प्रकाश स्तम्भ सम्यग्ज्ञान ।" इन दो प्रवचनों से पूर्व के प्रवचनों में मूलतः सम्यग्दर्शन पर ही विचार प्रकट किए गए। सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान का क्रम है। इसी अनुरूप में सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया जा रहा है। इस प्रवचन के निष्कर्ष में प्रवचनकार ने फरमाया कि सम्यग्दर्शन का
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वाग् देवता का दिव्य रूप
३९५ सहभावी ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्दर्शन से परिपूत साधना का मूल स्त्रोत : सत्य, अस्तेय का विराट रूप, ब्रह्मचर्य ज्ञान आत्मा में हेय-उपादेय का विवेक जागृत करता है, आत्मा की। की शक्ति और साधना का सौन्दर्यः अपरिग्रह शीर्षकों से तत्संबंधी PHORS कल्मष-कालिमा को दूर करता है और आत्मा को ज्योतिर्मय । विषय का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि आकार की दृष्टि से ये Pased बनाता है।
प्रवचन अधिक विस्तार नहीं पा सके हैं किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि ज्ञान की तरंगें प्रवचन में विविधता का कारण, ज्ञान के
से इनमें कहीं भी कमी दिखाई नहीं देती है। पाठक विषय को विभाग, क्रम मीमांसा, मति श्रुत में समानता, पौर्वापर्य, अवधि और
भली-भाँति समझ सकता है और वह उन पर चिन्तन-मनन भी कर मनःपर्याय में समानता, मनःपर्याय और केवल में समानता तथा
सकता है। अनेक बातें, उपशीर्षकों के माध्यम से विषय निरूपण किया गया कुल मिलाकर यह प्रवचन संग्रह व्यावहारिक और सैद्धांतिक है। यहां प्रवचनकार ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया है। धरातल पर आधृत है। प्रथम खण्ड में जितने प्रवचन संग्रहीत हैं इस प्रयास में उन्हें सफलता भी मिली है।
उनका संबंध व्यावहारिक जीवन से है तो दूसरे खण्ड के प्रवचन
Fo290 ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः यह बहुश्रुत और बहुप्रचारित कथन है।
व्यावहारिक होते हुए सैद्धांतिक हैं। सबसे प्रमुख बात जो इन
प्रवचनों के संबंध में कही जा सकती है, वह यह है कि इनमें इसी शीर्षक से प्रवचन दिया गया है। इस प्रवचन में ज्ञान और
प्रवचनकार ने मानवीय मूल्यों पर अधिक जोर दिया है। इस बात क्रिया पर विचार प्रकट किए गए हैं। अंत में बताया गया है कि
से सभी परिचित हैं कि वर्तमान युग में मानवीय मूल्यों का बहुत दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसे प्रवचनकार ने मोक्ष का राजमार्ग
अधिक हास हो चुका है और दिन प्रतिदिन होता ही जा रहा है। ET बताया है।
ऐसी स्थिति में समाज का अंत कहाँ होगा कुछ कहा नहीं जा प्रकाश की किरणें शीर्षकान्तर्गत मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, सकता। आज आवश्यकता है समाज को गिरते हुए मानवीय मूल्यों अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान पर प्रकाश डाला गया है। के प्रति सचेत करने की। यह कार्य आम नागरिक के स्थान पर धर्म इस प्रकार सम्यग्ज्ञान पर अपना प्रवचन समाप्त कर प्रवचनकार ने नेता भलीभाँति कर सकते हैं। प्रवचनकार पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री सम्यक्चारित्र का निरूपण आरंभ किया और अगला प्रवचन इसी । पुष्कर मुनि जी म. ने अपने इन प्रवचनों के माध्यम से समाज पर शीर्षक से किया है। इस प्रवचन के आरम्भ में सम्यक् चारित्र का उपकार तो किया है किन्तु यह समाज पर निर्भर करता है कि वह महत्व बताया गया है। उसके पश्चात् सम्यक् चारित्र से संबंधित । इनसे कितना लाभ उठावे। लगभग अठारह वर्ष पूर्व प्रकाशित ये अन्य बातों का निरूपण किया गया है।
प्रवचन आज भी प्रासंगिक हैं। ऐसे प्रवचनों का समाज में अधिक से "जिन्दगी के हीरे"-प्रवचन में मार्गानुसारी गुणों का विवरण }
अधिक प्रचार प्रसार अपेक्षित है। देते हुए दुर्व्यसनों का परिचय दिया है तथा इन दुर्व्यसनों से दूर सभी प्रवचनों की भाषा प्रांजल है। कहीं पर भी दुरूहता का रहने की सलाह दी गई है। यह भी स्पष्ट किया है कि इन सात आभास नहीं होता। सरलता, सहजता और सुबोधता के कारण दुर्व्यसनों का त्यागी ही गृहस्थ-धर्म का पात्र बनता है। अतः लौकिक
सामान्य पाठक के लिए भी उपयोगी हैं। उपदेशपरक शैली होने और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से इनसे बचना चाहिए।
और बीच-बीच में विभिन्न दृष्टान्त कथाओं के विवरण होने से इनमें
रोचकता आ गई है। ऐसे में पाठक के ऊबने का प्रश्न ही उपस्थित मार्गानुसारी गुणों को जिन्दगी के हीरे निरूपित किया है, जो
नहीं होता। यदि इन प्रवचनों से समाज के कुछ व्यक्ति भी अपने जिन्दगी को चमकाते हैं, बहुमूल्य बनाते हैं। इसलिए सद्गुणों को
जीवन में परिवर्तन ला सके तो प्रवचनकार का परिश्रम सार्थक हो ग्रहण कर जीवन को सुखमय, मंगलमय बनाने पर बल दिया
जाएगा। गया है।
यहाँ एक बात कहना अप्रासंगिक नहीं होगा वह यह कि पूज्य "श्रावक-धर्म" शीर्षकान्तर्गत प्रवचन में श्रावक के लिए।
गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के इस प्रवचन संग्रह आवश्यक बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार
के अतिरिक्त और भी प्रवचन संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके सभी शिक्षाव्रतों का निरूपण किया गया है। श्रावक धर्म की चर्चा करने
प्रवचन संग्रहों में दृष्टान्त कथायें हैं। ये दृष्टान्त कथायें मानवीय के पश्चात् श्रमण-धर्म पर भी विचार किया गया है।
मूल्यों को बढ़ावा देने वाली हैं। यदि उनके सभी प्रवचन संग्रहों की अहिंसा को धर्म की रीढ़ बताया गया है, अगले प्रवचन में। दृष्टान्त कथाओं का संकलन कर स्वतंत्र कथा संग्रह के रूप में
। अहिंसा पर जितना भी लिखा जावे, वह कम ही है। इस प्रवचन में प्रकाशन किया जाता है तो वह संग्रह निश्चय ही समाज के लिए, प्रवचनकार ने अहिंसा के भक्तों और अनुयायियों से अहिंसक विशेषकर नवयुवक वर्ग के लिए उपयोगी होगा। विश्वास है, मेरे वातावरण के निर्माण में पूर्ण रूप से सहयोग करने की अपील इस कथन पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वित करने की दिशा की है।
में आवश्यक पहल की जावेगी। कृत्यलम्।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।।
जैन धर्म में दान : एक समीक्षात्मक अध्ययन
-महासती रल ज्योति (सुशिष्या साध्वी रत्न पुष्पवती जी म.)
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धनदान एक कल्पवृक्ष है। इसकी सैंकड़ों शाखा-प्रशाखाएँ हैं। सैंकड़ों रूप-स्वरूप हैं। महान् मनीषी उपाध्यायश्री के विविध प्रवचनों के आधार
पर दान के सर्वांग स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला यह सुव्यवस्थित सुसंगठित ग्रंथ मात्र एक प्रवचन पुस्तक नहीं होकर एक प्रकार से शोध ग्रंथ बन गया है। विद्वान् आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी की उत्कृष्ट सम्पादन कला का एक अद्भुत नमूना है।
प्रस्तुत पुस्तक के अन्तरंग स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला यह समीक्षात्मक आलेख पुस्तक का सर्वांग स्वरूप व्यक्त करता है। -संपादक 10. जैन धर्म में दान
अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। (पृष्ठ SSS जो दिया जाए वह दान है। क्या दिया जावे? किसे दिया है १७०)।
जावे? कब दिया जावे? कहाँ दिया जावे? कैसे दिया जावे? देने अपने और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है। इस प्रकार का के परिणाम क्या निकलेंगे? आदि अनेक प्रश्न “दान” विषय पर अनुग्रह करने के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान समझना चिन्तन करने के साथ ही उपस्थित हो जाते हैं। यदि पाठक इन
चाहिए। (पृष्ठ १७१)। प्रश्नों का समाधान चाहता है। ऐसे ही अन्य अनेक प्रश्नों का समाधान चाहता है। दान के विषय में सर्वांगीण जानकारी प्राप्त
दूसरे पर अनुग्रह करने की बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करने की इच्छा रखता है तो उसे राजस्थान केसरी, अध्यात्म योगी
करना दान है। (पृष्ठ १७१)। उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. सा. के प्रवचन संग्रह "जैनधर्म में अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए अपने अन्नपानादि 2800.00 दान : एक समीक्षात्मक अध्ययन" का अध्ययन करना चाहिए। द्रव्य समूह का पात्र में उत्सर्ग करना/देना दान है। (पृष्ठ १७१)। 3D मूलरूप में यह प्रवचन संग्रह जैनधर्म में दान पर दिए गए प्रवचनों
अपनी वस्तु का दूसरे पर अनुग्रह करने की बुद्धि से अर्पण 2000 का संग्रह है किन्तु इसमें अन्य धर्मों में दान विषयक विवरण भी
(त्याग) करना दान है। (पृष्ठ १७१)। -
यथास्थान दिए गए हैं। ऐसा करने से यह पुस्तक जैन धर्म में दान त तक ही सीमित न रहकर कुछ व्यापक हो गई है। इस संग्रह के धर्म वृद्धि करने की दृष्टि से दूसरे और अपने पर अनुग्रह 6 3 प्रवचनों को संपादित करते समय संपादक द्वय श्रमणसंघीय आचार्य करने वाली अपनी वस्तु का त्याग दान है, जिसे गृहस्थ व्रत रूप में
सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. एवं समर्थ साहित्यकार श्री श्रीचंद अपनाते हैं। (पृष्ठ १७१) जी सुराणा “सरस" ने प्रवचनों को निबन्धों का स्वरूप प्रदान कर
अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए जो दिया जाता है, 3 श्लाघनीय कार्य किया है।
वह दान है। (पृष्ठ १७१) इस प्रवचन संग्रह की विषय वस्तु की चर्चा करने से पूर्व यह
____स्व और पर के उपकार के लिए वितरण करना दान SoSD आवश्यक प्रतीत होता है कि दान की परिभाषा देख ली जावे। दान
है। (पृष्ठ १७१) का असली अर्थ समझ लिया जावे। कारण कि केवल यह कि जो 22 दिया जावे दान है, मान लिया जावे तो वह कदापि उचित नहीं
अपने श्रेय के लिए और दूसरों के सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की होगा। कारण यह कि हम अपने लौकिक व्यवहार में प्रतिदिन समृद्धि के लिए इस प्रकार स्व पर-अनुग्रह के लिए जो क्रिया होती 50
आदान-प्रदान करते रहते हैं। एक-दूसरे को कुछ न कुछ देते रहते है, वह दान है। (पृष्ठ १७१) हैं। इस प्रकार का जो लेन-देन होता है, उसे दान के अर्थ में नहीं अनग्रहार्थ यानी अपने विशिष्ट गुण संचय रूप उपकार के
लिया जा सकता। तब फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि दान का सही 5000200
लिए और दूसरों के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि वृद्धि रूप उपकार 998 अर्थ क्या है। सामान्य रूप से यह कह सकते हैं कि वस्तु विशेष से
के लिए स्व-धन का, उत्सर्जन करना/देना दान है। (पृष्ठ १७१)
के लिए स्वधन का उत्सर्जन करना देना दान व DODS अपना स्वामित्व समाप्त कर अन्य ऐसे व्यक्ति को सौंप देना, जिसे उसकी आवश्यकता है-दान कह सकते हैं। इसमें त्याग की भावना
पर इन परिभाषाओं के संदर्भ में कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। होनी चाहिए। वस्तु पर स्वामित्व परिवर्तन त्याग से ही होगा. यह तो
यथा-किसी के दबाव से त्याग करना, भय से, लाभ से, यश २० हमने अपनी बात कही। दान की शास्त्रीय परिभाषाओं के लिए इस ।
कामना से, किसी को नीचा दिखाने की भावना से, अपने आपको प्रवचन संग्रह का अवलोकन आवश्यक है। जो परिभाषाएँ दी गई
श्रेष्ठ सिद्ध करने की कामना से, किसी पर एहसान करने की है, वे इस प्रकार हैं :
भावना से त्याग करना भी क्या दान की श्रेणी में आता है ? वैसे DADS 00000000000
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| वाग् देवता का दिव्य रूप
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इन परिभाषाओं में प्रयुक्त अनुग्रह शब्द से इन प्रश्नों का समाधान अपने संपादकीय में संपादक-द्वय ने लिखा-“दान मनुष्य के हो जाता है। अनुग्रह अर्थात् उपकार। क्या देने वाला लेने वाले पर सहअस्तित्व, सामाजिकता और अन्तर मानवीय संबंधों का घटक उपकार की भावना से त्याग कर रहा है, दे रहा है? यदि ऐसा है है। कहीं वह संविभाग, कहीं समविभाग, कहीं त्याग और कहीं सेवा तो वह दान नहीं हो सकता। वास्तव में देने वाला लेने वाले पर के रूप में प्रकट होता है। दान इसलिए नहीं दिया जाता है कि इससे और लेने वाला देने वाले पर उपकार करता है। संक्षेप में हम यह व्यक्ति बड़ा बनता है, प्रतिष्ठा पाता है या उसके अहंकार की तृप्ति कह सकते हैं कि उपर्युक्त समस्त परिस्थितियों को छोड़कर यदि होती है अथवा परलोक में स्वर्ग, अप्सराएँ तथा समृद्धि मिलती है। कोई व्यक्ति निस्पृहभाव से, निर्लिप्त भाव से किसी को कुछ देता है किन्तु दान में आत्मा की करुणा, स्नेह, सेवा, बंधुत्व जैसी पवित्र जिससे लेने वाले को कुछ न कुछ लाभ मिलता है, वह दान है। देते भावनाएँ सहराती है, दान से मनुष्य की मनुष्यता तृप्त होती है, समय, देने के पूर्व या बाद में देने वाले के मन में किसी भी प्रकार देवत्व की जागृति होती है और ईश्वरीय आनंद की अनुभूति जगती 2000 के भाव नहीं होने चाहिए। तभी दान कहलाएगा, दान की सार्थकता है। (संपादकीय पृष्ठ ५) होगी। इन्हीं सब बातों का और ऐसी ही अन्य समस्त बातों का
इस प्रवचन संग्रह की प्रस्तावना विद्वान मुनिवर श्री विजय मुनि विवेचन इस प्रवचन संग्रह में किया गया है।
जी शास्त्री ने लिखी है। भूमिका काफी विस्तृत है और अपनी प्रस्तुत पुस्तक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तावना में उन्होंने जैन परम्परा, वैदिक परम्परा के साथ ही प्रस्तुत की गई है। इस प्रवचन संग्रह में कुल चवालीस प्रवचन । विभिन्न शास्त्रों, ग्रन्थों में दान के महत्व और परम्परा पर विस्तार संग्रहीत हैं, जिन्हें तीन विभिन्न अध्यायों में विभक्त कर प्रकाशित से प्रकाश डाला है। इसी अनुक्रम में उन्होंने प्रस्तुत संग्रह पर भी किया गया है।
अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। उन्होंने लिखा है-"पुस्तक की १. मानव जीवन का लक्ष्य, २. मोक्ष के चार मार्ग, ३. दान से ।
भाषा और शैली सुन्दर एवं मधुर है। विषय का प्रतिपादन विस्तृत विविध लाभ, ४. दान का माहात्म्य, ५. दान : जीवन के लिए
तथा अभिरोचक है। अध्येता को कहीं पर भी नीरसता की अनुभूति
एवं प्रतीति नहीं होती। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं के अमृत, ६. दान से आनंद की प्राप्ति, ७. दान : कल्याण का द्वार, ८. दान : धर्म का प्रवेश द्वार, ९. दान की पवित्र प्रेरणा, १०.
शास्त्रों से यथाप्रसंग प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। इससे लेखक की दान : भगवान एवं समाज के प्रति अर्पण, ११. गरीब का दान।।
बहुश्रुतता अभिव्यक्त होती है और साथ ही विचार की व्यपाकता
भी। विषय का वर्गीकरण भी सुन्दर तथा आधुनिक बन पड़ा है। द्वितीय अध्याय-“दान : परिभाषा और प्रकार" है। इस ।
बीच-बीज में विषय के अनुरूप दृष्टान्त और कथाओं का प्रयोग अध्याय में कुल उन्नीस प्रवचन संग्रहीत हैं। यथा-१. दान की करके विषय की दरूहता और शकता का सहज ही परिहार कर व्याख्याएँ, २. महादान और दान, ३. दान का मुख्य अंग :
दिया गया है। इतना ही नहीं, विषय का प्रस्तुतीकरण भी सरस, स्वत्व-स्वामित्व-विसर्जन, ४. दान के लक्षण और वर्तमान के कुछ ।
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सरल एवं सुन्दर हो गया है। आबाल वृद्ध सभी इसके अध्ययन का दान, ५. दान और संविभाग, ६. दान की तीन श्रेणियाँ, ७.।
आनंद उठा सकते हैं। आज तक दान पर जिन पुस्तकों का प्रकाशन अनुकम्पादान : एक चर्चा, ८. दान की विविध वृत्तियाँ, ९.
हुआ, यह पुस्तक उन सबमें उत्तम, सुन्दर तथा संग्रहणीय है।" अधर्मदान और धर्मदान, १०. दान के चार भेद : विविध दृष्टि से, ११. आहार दान का स्वरूप, १२. औषधदान : एक पर्यवेक्षण,
अपने इस संक्षिप्त कथन में प्रस्तावना लेखक ने इस पुस्तक के १३. ज्ञानदान बनाम चक्षुदान, १४. ज्ञानदान एवं लौकिक पहलू,
संबंध में बहुत कुछ कह दिया है। पुस्तक की मूलभूत विशेषताओं १५. अभयदान : महिमा एवं विश्लेषण, १६. दान के विविध
का विवेचन हो गया है। उनका यह कथन सटीक भी है। पहलू, १७. वर्तमान में प्रचलित दान : एक मीमांसा, १८. दान । उपर्युक्त कथन की पुष्टि तभी होगी जब हम पुस्तक की विषय और अतिथि सत्कार एवं १९. दान और पुण्य : एक चर्चा। । वस्तु को समझने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हमें पुस्तक में
संग्रहीत तीनों खण्डों के सभी प्रवचनों का सर्वेक्षण करना होगा। तृतीय अध्याय-“दान : प्रक्रिया और पात्र" शीर्षकान्तर्गत ।
100.00 दिया गया है। इसमें चौदह निम्नांकित प्रवचन दिए गए हैं-१. दान प्रथम अध्याय के प्रथम प्रवचन में मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष की कला, २. दान की विधि, ३. निरपेक्षदान अथवा गुप्तदान, ४. प्राप्ति बताया गया है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए चार मार्गों का दान के दूषण और भूषण, ५. दान और भावना, ६. दान के संग्रह | विवेचन द्वितीय प्रवचन में किया गया है। दान, शील, तप और : एक चिन्तन, ७, देय द्रव्य शुद्धि, ८. दान में दाता का स्थान, ९. भाव-ये चार मार्ग बताकर यह स्पष्ट किया गया है कि इनमें दान दाता के गुण-दोष, १०. दान के साथ पात्र का विचार, ११. सुपात्र । प्रथम क्यों? दान की प्राथमिकता के कारणों पर भी सुन्दर दान का फल, १२. पात्रापात्र विवेक, १३. दान और भिक्षा और । रीत्यानुसार प्रकाश डाला गया है। तीसरे प्रवचन में दान के विविध १४. विविध कसौटियाँ।
लाभों की चर्चा की गई है। इसके अंत में लिखा है-"दान ही वह
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 2994 वज्र है, जो अमीरी और गरीबी की विषमता और विभेद की लिए भी नहीं है यदि वह देता है तो उसके देने में उस दाता की SODo दीवारें तोड़ सकता है। दान की अमोघवृष्टि ही, मानव जाति में । महानता परिलक्षित होती है। अपने इस प्रवचन के प्रारंभ में उन्होंने
प्रेम, मैत्री, सद्भाव और सफलता की शीतल धारा प्रवाहित कर लिखा-"कई बार मनुष्य के अंतर् में दान देने की शुद्ध प्रेरणा होती सकती है। (पृष्ठ ३१)
है, किन्तु उस प्रेरणा को वह दबा देता है। वह कभी तो मन को इस Guide अपने पाँचवे प्रवचन में उपाध्यायश्री जी ने दान को जीवन के
प्रकार मना लेता है कि मैं कहाँ धनवान हूँ। मुझ से बड़े-बड़े धनिक लिए अमृत बताया है। अमृत में जितने गुण होते हैं, उतने ही बल्कि
दुनिया में पड़े हैं, वे सब तो दान नहीं देते, तब मैं अकेला ही उससे भी बढ़कर गुण दान में है। उन्होंने लिखा है-“इसीलिए
छोटी-सी पूँजी में से कैसे दान दे दूंगा। पर वह यह भूल जाता है दानामृत जिसके करकमल में हो, वह मनुष्य इतनी उच्च स्थिति पर
कि गरीब आदमी का थोड़ा-सा दान धनिकों को महाप्रेरणा देने पहुँच जाता है, वह विश्व वन्दनीय और जगतपूज्य बन जाता है।
वाला बन जाता है।" (पृष्ठ १४६)। एक गरीब को दान देते हुए ऐसा दान रूपी अमृत हजारों लाखों मनुष्यों को जिला देता है, रोते
देखकर अमीर व्यक्ति के अहं को चोट लगती है और तब वह उस हुए को हंसा देता है, रुग्ण शय्या पर पड़े हुए रोगियों को स्वस्थ ।
गरीब से प्रेरणा पाकर दान देना आरंभ कर देता है। किन्तु इस पर 3.5 एवं रोगमुक्त कर देता है, पीड़ितों में नई जान डाल देता है, }
भी गरीब के दान की महत्ता अपने स्थान पर प्रशंसनीय ही बनी बुभुक्षियों और तृषियों की भूख-प्यास मिटाकर उन्हें नया जीवन दे
। रहती है। जिस व्यक्ति के पास एक लाख रुपया है, वह उसमें से देता है, संकट-ग्रस्तों को संकट मुक्त करके हर्ष से पुलकित कर देता
एक हजार रुपये दान कर देता है तो कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता PEOPA है। सचमुच, दान संजीवनी बूटी है, अमृतमय रसायन है, }
है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति के पास एक हजार रुपये हैं और उनमें D o रोगनाशिनी अमृतधारा है, अद्भुत शक्तिवर्द्धक टॉनिक है,
से वह दो सौ रुपये दान करता है तो वह अधिक महत्वपूर्ण
होता है। दरिद्रतानाशक कल्पतरु है, मनोवांछित पूर्ण करने वाली कामधेनु है। तदान में आश्चर्यजनक चमत्कार है, यह वशीकरण मंत्र है, आकर्षक इस प्रवचन संग्रह का द्वितीय अध्याय-दान : परिभाषा और ॐ तंत्र है और प्रेमवर्द्धक यंत्र है।" (पृष्ठ ४७)।
प्रकार शीर्षक से अलंकृत किया गया है। धन की परिभाषा दान के _दान से सहज ही आनन्द की प्राप्ति होती है। दान देने वाला
अंग, दान के लक्षण, दान की श्रेणियाँ, दान की विविध वृत्तियाँ, देकर, संतुष्ट होकर आनंद का अनुभव करता है और लेने वाला
दान के भेद, दान के विविध पहलू, वर्तमान में प्रचलित दान, दान अपनी आवश्यकता की पूर्ति होने पर आनंद मनाता है। इस संबंध
और अतिथि सत्कार, दान और पुण्य आदि को समझने के लिए में उन्होंने लिखा है-"भारतवर्ष में ऐसी भी बहनें हुई हैं, जिन्होंने
इस अध्याय का परिशीलन आवश्यक है। अपनी मुसीबत के समय भी आशा लेकर घर पर आए हुए किसी हम प्रारंभ में दान की परिभाषाओं की चर्चा कर चुके हैं। अतः याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। मानो उनका जीवन सूत्र बन । इस संबंध में यहाँ पुनः चर्चा करना प्रासंगिक नहीं होगा। हां, गया था-"दानेन पाणिः न तु कंकणेनं।" निःसंदेह दान हाथ का । परिभाषाओं में स्व-पर अनुग्रह शब्द का प्रयोग हुआ है। पर अनुग्रह आभूषण है, वही हाथ को सुशोभित करता है और उसी शोभा से। अर्थात् दूसरे पर उपकार करना तो प्रायः सभी व्यक्ति समझते हैं मनुष्य की अन्तर् आत्मा प्रसन्न होती है, आनंद विभोर होती है। किन्तु दान देने में स्व-अनुग्रह स्वयं पर उपकार कैसा? इसे समझना आनंद का सच्चा स्त्रोत दान की पर्वतमाला से ही प्रवाहित होता ! कुछ आवश्यक प्रतीत होता है। वैसे प्रारंभ में इस संबंध में संकेत है।” (पृष्ठ ९६)।
किया जा चुका है किन्तु प्रवचनकार ने बहुत ही स्पष्ट रूप से आगे के कुछ प्रवचनों में उन्होंने दान को कल्याण का द्वार,
सरलता से इसे इस प्रकार समझाया है। यथाधर्म का प्रवेश द्वार बताया है। दान की पवित्र प्रेरणा में दान रूप में र “अपने पर अनुग्रह करने के यहाँ अनेक अर्थ फलित होते हैं, सहायता करने की प्रेरणा प्रदान की है और दान को भगवान एवं जिनमें कुछ का निर्देश इन व्याख्याओं में किया गया है। समाज के प्रति अर्पण बताया गया है।
का एक अर्थ यह है अपने में (अपनी आत्मा में) दया, उदारता, प्रथम अध्याय का अंतिम प्रवचन गरीब का दान है। शीर्षक सहानुभूति, सेवा, विनय, आत्मीयता, अहिंसा आदि विशिष्ट गुणों कुछ विचार करने के लिए बाध्य करता है। चौकाता है। किन्तु ऐसी के संचय रूप (अथवा उद्भव) उपकार करना स्वानुग्रह है। कोई बात नहीं है। केवल धनाढ्य ही दान करे ऐसा कोई नियम
दूसरा अर्थ है-अपने में धर्मवृद्धि करना स्वानुग्रह है। नहीं है। शास्त्रों में भी ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। वास्तव में गरीब का दान अमीर के दान की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
तीसरा अर्थ है-दान के लिए अवसर प्राप्त होना स्वानुग्रह है। जिसके पास अपनी आवश्यकता से भी अधिक है, वह देता है तो । दान के साथ जब तक नम्रता नहीं आती, तब तक दान कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जिसके पास अपनी आवश्यकता पूर्ति के अहंकार या एहसान का कारण बना रहता है। इसलिए दान के
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वाग देवता का दिव्य रूप
३९९
साथ उपकृत भाव आना चाहिए कि मुझे अमुक व्यक्ति के दान दान और संविभाग में बताया गया है कि दान मानव जीवन लेकर उपकृत किया।
का अनिवार्य धर्म है, इसे छोड़कर जीवन की कोई भी साधना अनुग्रह दाता की नम्रवृत्ति का सूचक है, वह सूचता है-“दान
सफल एवं परिपूर्ण नहीं हो सकती, दान के बिना मानव लेने वाले व्यक्ति ने मुझ पर स्नेह, कृपा अथवा वात्सल्य दिखाकर
जीवन नीरस, मनहूस और स्वार्थी है, जबकि दान से मानव जीवन स्वयं मुझको उपकृत किया है, आदाता ने मुझ पर कृपा की है कि
में सरसता, सजीवता और नन्दनवन की सुषमा आ जाती है। मुझे दान का यह पवित्र अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार अनुग्रह
(पृष्ठ २२९)। शब्द के पीछे यही भावना छिपी है।" (पृष्ठ १७२)।
प्रवचनकार ने दान की निम्नांकित तीन श्रेणियाँ बताई हैं
सात्त्विक, राजस और तामस। यह विभाजन भावना और मनोवृत्ति ऊपर स्व-अनुग्रह का अर्थ और भाव स्पष्ट हुए। किन्तु क्या आज वास्तविक जीवन में ऐसी स्थिति पाई जाती है? यदि हमारा
के आधार पर बताया गया है। दान की इन तीनों श्रेणियों का
विवरण उचित रीत्यानुसार दिया गया है तथा लक्षण भी बताए गए उत्तर नकारात्मक है तो फिर दान की मूल भावना ही नहीं रहती है।
हैं। अंत में तीनों दानों में अन्तर बताते हुए कहा है कि ये तीनों वह एक प्रदर्शन बन जाता है, अहंकार भावना की तुष्टि होकर रह
प्रकार के दान भावना और व्यवहार की दृष्टि से उत्तम, मध्यम जाता है। बड़प्पन का कारण बन जाता है। इसी प्रकार लेने वाले के
और जघन्य हैं। सात्त्विक दान ही इन तीनों में सर्वश्रेष्ठ कोटि का मन में भी यह भावना प्रायः नहीं आ पाती कि उसने दाता पर
है, राजस दान और तामस दान-दान होते हुए भी निकृष्ट और उपकार किया है। लेने वाले के हृदय में देने वाले के प्रति सदैव
निकृष्टतर कोटि के हैं। कृतज्ञ भाव रहते हैं। ऐसी स्थिति में अनुग्रह का जो अर्थ बताया गया है, उसके अनुरूप होना नहीं पाया जाता। खैर! कुछ भी हो।
। इनके विषय में आगे बताया गया है कि सात्त्विक दान उत्तम इससे दान की महत्ता पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।
फलदायक है, बल्कि उसमें दाता के मन में कोई फलाकांक्षा नहीं
होती, वह अनायास ही उस दान का मधुरफल प्राप्त कर लेता है। दान की व्याख्याएँ-यह प्रवचन अति विस्तृत है और इसमें
राजस दान का फल कदाचित पुण्य प्राप्ति हो सकता है किन्तु संसार प्रवचनकार ने विस्तार से समझाने का भी प्रयास किया है।
परिभ्रमण के कारणभूत कर्मबंधन को काटने में वह सहायक नहीं महादान और दान में उन्होंने दोनों के अन्तर को समझाया है। होता और तामस दान तो सबसे निकृष्ट है, उसका फल प्रायः एक आचार्य के संदर्भ से दोनों का अन्तर इस प्रकार स्पष्ट किया अधोगति या कुगति है। (पृष्ट २४२)। गया है-"भृत्य आदि के अन्तराय न डालते हुए थोड़ा-सा भी अनुकम्पा दान : एक चर्चा में स्थानांग सूत्र के आधार पर न्यायोपार्जित पदार्थ योग्य पात्र को देना महादान है, इसके अतिरिक्त पहले दस प्रकार के दानों के नाम गिनाये हैं। उसके पश्चात् दीन, तपस्वी, भिखारी आदि को माता-पिता आदि गुरुजनों की । अनुकम्पा दान पर चर्चा की है। अंत में बताया गया है कि आज्ञा से देना दान है।” (पृ. १९५)।
अनुकम्पा दान वास्तव में मनुष्य की जीवित मानवता का सूचक है, दान का मुख्य अंग स्वत्व-स्वामित्व-विसर्जन में यही स्पष्ट किया
उसके हृदय की कोमलता और सम्यक्त्व की योग्यता का मापक गया है कि वस्तु पर से जब तक स्वामित्व विसर्जित नहीं होता तब
यंत्र है। तक वह दान की श्रेणी में नहीं आता। इसमें उन्होंने बताया कि अगले प्रवचन में दान की विविध वृत्तियों पर सम्यक्प से यथार्थदान चार बातों से सम्पृक्त होता है। यथा
प्रकाश डाला गया है, इसमें यही बताया गया है कि मनुष्य विविध १. स्व (जिस चीज पर अपनापन हो उस) के त्याग से।
प्रकार के संकल्प-विकल्प से प्रेरित होकर देता है, पर सभी दिया
हुआ दान, धर्म या पुण्य नहीं होता। अधर्म दान और धर्म दान २. अहंत्व (जिन चीज के होने से अपना अहंकार या अभिमान |
शीर्षक से भी एक प्रवचन दिया गया है। इसमें अधर्म दान का यह प्रगट होता हो, उस) के त्याग से।
आशय बताया गया है कि अधर्म कार्यों के लिए दान देना। अधर्म ३. ममत्व (जिस वस्तु पर मेरापन हो उस) के त्याग से।
कार्य कौन से? चोर, जुआरी, हत्यारे, वेश्यागामी, कसाई आदि को
अधर्मी बताया गया है और इनको देना अधर्म दान की श्रेणी में ४. स्वामित्व (जिस वस्तु पर अपनी मालिकी (Possessing)
आएगा। स्थानांगवृत्ति में भी कहा गया है कि जो हिंसा, झूठ, चोरी हो, उस) के त्याग से। (पृष्ठ २०३)।
आदि में उद्यत हो, परस्त्रीगमन एवं परिग्रह में आसक्त हो, उस इस प्रवचन में उन्होंने दान और त्याग के अन्तर को भी स्पष्ट दौरान उसे जो कुछ दिया जाता है, उसे अधर्म दान समझना किया है। हर प्रकार का त्याग दान नहीं हो सकता। दान के साथ चाहिए। इस प्रवचन में दोनों पर विस्तार से प्रकाश डालकर अहत्व का होना अनिवार्य है।
समझाया गया है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्य जिनसेन ने महापुराण में विविध दृष्टियों से दान के विषय एकांगी नहीं रह पाता। इस प्रवचन में जिन दानों की चर्या निम्नांकित चार भेद बताए हैं
की है वे इस प्रकार है:-१. भूदान, २. संपत्ति दान, ३. साधन १. दयादत्ति, २. पात्रदत्ति, ३. समदत्ति और ४. अन्वदत्ति। इन
दान, ४. श्रमदान, ५. बुद्धिदान, ६. समयदान, ७. ग्रामदान, चारों पर ही आपने अपने प्रवचन में प्रकाश डाला है। प्रवचन के
८. जीवन दान आदि आदि। इन आठों प्रकार के दानों का उन्होंने अंत में स्पष्ट किया है कि दान के उक्त चार प्रकारों का विशेष
उचित विवरण देकर दान के प्राचीन भेदों की संख्या में तो वृद्धि विवेचन दिगम्बर जैन साहित्य में प्राप्त होता है, श्वेताम्बर आचार्यों
की ही साथ ही प्राचीन और वर्तमान के साथ समन्वय भी स्थापित ने अन्य रूप में अर्थात् दस भेदों के रूप में उस पर विचार किया है
कर दिया। और दिगम्बर आचार्यों ने चार दत्ति के रूप में। वास्तव में तो दान और अतिथि सत्कार में बताया गया है कि अतिथि प्रत्येक कसौटी पर दानधर्म को कसना, उसके उद्देश्य और प्रकार | सत्कार से नंवविध पुण्यों की प्राप्ति होती है। उन्होंने यह स्पष्ट पर विचार करना यहाँ अभीष्ट रहा है और इसीलिए यहाँ चिन्तन किया कि भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार के लिए प्राथमिक किया गया है।
रूप से चार बातें अवश्य मानी जाती थींअपने अगले प्रवचन में आहार दान का स्वरूप स्पष्ट किया है।। १. खड़े होकर स्वागत करना। ।
इसके पश्चात् औषधदान : एक पर्यवेक्षण है। ज्ञानदान बनाम २.बैठने के लिए आसन देना। चक्षुदान, ज्ञानदान : एक लौकिक पहलू भी दिए गए हैं। चारों
३. कुशल प्रश्न पूछकर भोजन आदि की मनुहार करना। प्रवचनों में विषय वस्तु का समीचीन स्पष्टीकरण किया गया है। विविध दृष्टांत कथाओं के माध्यम से एवं शास्त्रीय उद्धरणों से
४. जाते समय आदरपूर्वक विदा करना। (पृष्ठ ३७९)। 16906 अपने कथन को पुष्ट किया गया है।
इस प्रवचन में 'अतिथि देवोभव' की भावना का चित्रण विशेष ___ अभयदान : महिमा एवं विश्लेषण नामक प्रवचन में अभयदान
रूप से किया गया है। साथ ही भारतीय मनीषियों द्वारा पर प्रकाश डाला गया है। यह दान का चौथा भेद है। यह प्रवचन
अतिथि-सेवा पर किया गया गहनतम एवं उदार चिन्तन भी बताया भी अन्य प्रवचनों की भांति उपविभागों में विभक्त है। यथा-वर्तमान
है। देखियेयुग में अभयदान अनिवार्य, अभयदान का महत्व, अभयदान का "शत्रु भी अपने घर पर आ जाए तो उसका भी उचित लक्षण, अभयदान की कसौटियाँ, अभयदान भी अलौकिक और आतिथ्य करना चाहिए। वृक्ष भी अपने काटने वाले पर से अपनी लौकिक। प्रत्येक बिन्दु का विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है। छाया समेट (हटा) नहीं लेता। (पृष्ठ ३८१) अतिथि सेवा के इस प्रवचनकार ने यह भी बताया कि आहारदान्, औषधदान और । उदार चिन्तन के साथ ही उदार चिन्तन के प्रमाण के रूप में एक ज्ञानदान की अपेक्षा अभयदान का मूल्य अधिक है। आहारदान से घटना का उद्धरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया गया है। पूरा मनुष्य की क्षणिक तृप्ति हो सकती है, औषधदान से एक बार रोग प्रवचन अतिथि सत्कार और उससे संबंधित अन्य बातों पर केन्द्रित मिट सकता है और ज्ञानदान से व्यक्ति का जीवन अच्छा बन सकता है। उन्होंने अंत में यह भी स्पष्ट किया कि अतिथि सत्कार में भी है, किन्तु ये सब दे देने पर भी मनुष्य के सामने प्राणों का संकट
विवेक की आवश्यकता है। यहाँ पर अतिथि शब्द की व्याख्या भी 590000- आ पड़ा हो तो उस समय वह इन्हें छोड़कर प्राणों को चाहेगा, वह
की गई है। चाहेगा कि ये चाहे न मिलें, परन्तु प्राण मिल जाएँ, वे बच जाएँ। इस अध्याय का अंतिम प्रवचन है-“दान और पुण्य : एक । (पृष्ठ ३३९)। अभयदान का महत्व स्पष्ट करके अंत में बताया चर्चा।" इस प्रवचन में स्थानांग सूत्र के आधार पर पुण्य के नौ भेद गया है कि अभयदान का अर्थ जब प्राणियों के सब प्रकार के भय बताए हैं और फिर उनका विवरण दिया गया है। इन्हें नवविध दूर करना है तब आहारादि दान भी अभयदान के अन्तर्गत ही आ| पुण्य भी कहा है। पुण्य के ये नौ भेद इस प्रकार है-१. अन्न पुण्णे, जाते हैं। अभयदान के लक्षण के अंतर्गत सात बातों को लिया गया २. पाण पुण्णे, ३. वत्थ पुण्णे, ४. लयण पुण्णे, ५. सयण पुण्णे, है। (देखें पृष्ठ क्र. ३४६)। यह प्रवचन अन्य प्रवचनों की तुलना में ६. मण पुण्णे, ७. वयण पुण्णे, ८. काय पुण्णे, ९. नमोक्कार काफी विस्तृत है। विषय वस्तु के मान से विस्तृत होना भी चाहिए। पुण्णे। दिगम्बर विद्वानों का संदर्भ देते हुए बताया गया है कि वर्तमान में प्रचलित दान : एक मीमांसा-इस प्रवचन में वर्तमान
उन्होंने भी नौ पुण्य माने हैं किन्तु उनके स्वरूप में काफी अन्तर है। समय में प्रचलित दानों की चर्चा की गई है। समसामयिक विषयों
वे इस प्रकार है :को छोड़ना उचित भी नहीं होता। प्राचीन के साथ अर्वाचीन को १. प्रतिग्रहण, २. उच्चस्थापन, ३. पाद प्रक्षालन, ४. अर्चन, प्रस्तुत करने से विषय की सम्पूर्णता प्रकट होती है और प्रवचनकार) ५. प्रणाम, ६. मनःशुद्धि, ७. वचनशुद्धि, ८. कायशुद्धि और एषण अथवा लेखक की दीर्घदृष्टि की परिचायक होती है, ऐसे विवेचन से शुद्धि। (पृष्ठ ३९२)।
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वांग देवता का दिव्य रूप
इस प्रवचन में प्रवचनकार ने पात्रापात्र पर भी संक्षेप में विचार किया है। मूल रूप में तो यह प्रवचन नवविध पुण्यों पर ही आधृत है।
प्रस्तुत प्रवचन संग्रह के तृतीय अध्याय के संबंध में सम्पादकद्वय का कथन है कि तृतीय खण्ड में पात्र, विधि और द्रव्य-दान के तीन महत्वपूर्ण अंगों पर विविध दृष्टिबिन्दुओं को सामने रखकर चर्चा की गई है। दान का सम्पूर्ण दर्शन इन तीन ही तत्वों पर टिका हुआ है और इस विषय में परम्परागत विचार भेद भी कई है। सद्गुरुदेव का प्रयत्न यह रहा है, साम्प्रदायिक भेदों को महत्व न देकर शास्त्रीय व व्यावहारिक दृष्टि से उस पर चिन्तन किया जाए। सिर्फ व्यक्ति विशेष तक दान को सीमित न रखकर सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए इस अमृत (दानामृत) का उपयोग होना चाहिए। (सम्पादकीय, पृष्ठ ७)।
इस अध्याय का प्रथम प्रवचन दान की कला है। इस प्रवचन में यही स्पष्ट किया गया है कि दान देना भी एक कला है। उनका कहना है- "दान कभी व्यर्थ तो नहीं जाता, उसका फल यहाँ भी मिलता है, वहाँ भी लेकिन देखना यह है कि सत्कारपूर्वक विशिष्ट भावना से विशिष्ट द्रव्य का उतना ही दान देकर एक दानकला का विशेषज्ञ उस व्यक्ति से विशेष लाभ उठा सकता है, जितना कि एक दानकला से अनभिज्ञ व्यक्ति बेढंगेपन से, अनादरपूर्वक, उसी द्रव्य का उतना ही दान देकर या प्रसिद्धि, नाम या अन्य किसी स्वार्थ की आकांक्षा से देकर उतना लाभ खो देता है इसलिए दानकला निपुण व्यक्ति के दान देने और दान कला से अनभिज्ञ के दान देने में चाहे वस्तु और क्रिया में अंतर न हो, किन्तु भावना और फल में, लाभ और विधि में अन्तर हो जाता है (पृष्ठ ४१३-४१४)। अपने इन्ही विचारों पर आधृत उनका यह प्रवचन है।
दूसरा प्रवचन दान की विधि है। इस पर प्रवचन फरमाने के पश्चात् दान की सही विधि इस प्रकार बताई गई है-" बिना किसी यशोलिप्सा, प्रतिष्ठा, पद एवं सत्ता की लालसा के किसी स्वार्थ एवं आकांक्षा से रहित होकर निर्भय एवं निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक दान देना दान की विधि है (पृष्ठ ४२७)। वहीं यह विचारणीय है कि क्या वर्तमान युग के दानदाताओं के लिए यह कथन कसौटी पर खरा उतरता है।
निरपेक्षदान अथवा गुप्तदान। इस प्रवचन में इस दान पर प्रकाश डाला गया है और अंत में बताया गया है कि दान देने में विधि का ध्यान रखा जाए, मन को सरल, नम्र और विवेक के प्रकाश से जागृत कर फिर दान दिया जाए और दान देकर उसके विषय में मुंह को बंद रखे (पृष्ठ ४३५) ।
दान के दूषण और भूषण में दान के दूषण और भूषण की विवेचना की गई है। एक जैनाचार्य ने दान के पांच दूषण बताये हैं और उसी प्रकार दान के पाँच भूषण भी बताये गए हैं।
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दान और भावना का गहरा संबंध है। इसी पर प्रकाश डाला गया है, इसी शीर्षक वाले प्रवचन में। इस संबंध में कहा गया है कि सबसे अधिक ध्यान दाता की भावना, आस्था, श्रद्धा और भक्ति पर ही दिया जाना चाहिए। ऐसी दशा में यह तुच्छ दान भी महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान होकर चमक उठेगा। हजारों-लाखों रुपयों के दान को भी ऐसा दान चुनौती देने वाला होगा (पृष्ठ ४५५) ।
४०१
मनुष्य जिस प्रकार अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए धन संग्रह करके रखता है। उसी प्रकार कुछ व्यक्ति दान देने के लिए भी संग्रह करते हैं। इसी प्रकार का चिन्तनपूर्ण एक प्रवचन है। एक अन्य प्रवचन देव द्रव्य शुद्धि से संबंधित भी है जो वस्तु दान में दी जाने वाली है, उसका महत्व उसके मूल्य में नहीं वरन् उसकी शुद्धता में है। इसी भावना को इस प्रवचन में समझाया गया है।
दान देने वाला और लेने वाला दो पक्ष होते हैं और एक वस्तु होती है। यह स्वाभाविक ही है कि देने वाले का हाथ ऊपर रहेगा तथा लेने वाले का हाथ नीचे। इससे दोनों में अन्तर बता दिया गया है । देने वाला ऊँचा हो गया और लेने वाला नीचा। इस प्रकार दोनों का स्थान निर्धारण हो गया। दान में दाता का स्थान प्रवचन इसी बात को स्पष्ट करता है। इस प्रवचन में दाता के तीन प्रकार निम्नानुसार बताए गए हैं:
१. ऐसा दाता, जो स्वयं तो सुस्वादु भोजन करे, परन्तु दूसरों को अस्वादु भोजन दे, वह दानदास है।
२. जो जिस प्रकार का स्वयं खाता है, वैसा ही दूसरों को देता है, या खिलाता है, वह दान सहाय है और
३. जो स्वयं जैसा खाता है उससे अच्छा दूसरों को खिलाता या देता है, वह दानपति है। (पृष्ठ ४७१)।
इस प्रवचन के अंत में दाता की पात्रता पर भी विचार किया गया है। जो महत्वपूर्ण है।
अगले प्रवचन में दाता के गुण-दोषों पर प्रकाश डाला गया है। दाता के सात गुण निम्नानुसार बताए गए हैं:
१. फलनिरपेक्षता, २. अनुरूपता, ५. अविपादिता ६
क्षमाशीलता, ३. निष्कपटता, ४. मुदिता और ७. निरहंकारिता ।
साधुवर्ग को दान देने की दृष्टि से दाता के दस दोष बताए गए हैं। यथा-१ शक्ति, २ प्रक्षित, ३. निर्लिप्त, ४. पिहित ५. संत्यवहरण, ६. दायकदोष, ७. अन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त और 90 छर्दित (व्यक्त)। इन दोषों का परिचय देने के पश्चात् दान के लिए अनधिकारी दाता के विषय में विवरण दिया गया है।
दान के साथ पात्र का विचार और फिर सुपात्र दान का फल भी बताया गया है। अगले प्रवचन में पात्रापात्र विवेक पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रवचन में पात्रापात्र का विवरण देते हुए
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अंत में बताया गया है कि पात्र-अपात्र के विषय में तटस्थ दृष्टि से, साथ ही मानवीय भावना के साथ विचार करना चाहिए। हृदय और बुद्धि, शास्त्र और व्यवहार दोनों तुला पर तौलकर, पात्र विवेक करके दान में प्रवृत्त होना चाहिए।
दान और भिक्षा दोनों को एक तुला पर नहीं रखा जा सकता। इस कथन की पुष्टि भिक्षा के अर्थ से सहज ही हो सकती है। "समाज की अधिक से अधिक सेवा करके समाज से केवल शरीर यात्रा चलाने के लिए कम से कम लेना और वह भी लाचारीवश तथा उपकृत भाव से दान के अर्थ में और भिक्षा के अर्थ में अन्तर है। इसी से दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। दान और भिक्षा शीर्षकान्तर्गत इसी विषय को स्पष्ट किया गया है। भिक्षावृत्ति को उचित नहीं माना गया है।
अंतिम प्रवचन विविध कसौटियाँ है। इसमें पात्र की और दाता की परीक्षा, दान के पात्र मिलने दुर्लभ हैं, याचक और पात्र, सुधाजीवी दानपात्र का स्वरूप और दान-दर्शन का निष्कर्ष शीर्षकों के अन्तर्गत विवेच्य विषय का प्रतिपादन किया गया है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सम्पूर्ण प्रवचन संग्रह की विषय वस्तु पुस्तक के नाम के अनुरूप दान पर ही केन्द्रित है और विषय प्रतिपादन विस्तार से तथा सटीक किया गया है। प्रबंधन में शास्त्रोक्त उद्धरण तो दिए ही गए हैं कथा दृष्टांतों से उन्हें सरल एवं सरस बनाकर श्रोताओं / पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। दान जैसे विषय पर अपने आपमें यह एक परिपूर्ण पुस्तक है। प्रवचनों को प्रवचनाकार देकर और फिर उन्हें निबन्धों का स्वरूप प्रदान कर स्वयं प्रवचनकार उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. सा. ने और संपादकद्वय आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. एवं समर्थ साहित्यकार श्री श्रीचंद जी सुराणा ने बहुत बड़ा उपकार किया है। यदि इस प्रवचन संग्रह के अध्ययन करने के पश्चात् पाठकों के हृदय में दान देने की भावना जागृत होती है तो यह प्रवचनकार और संपादकद्वय के परिश्रम की सफलता कही जावेगी।
चूँकि इस पुस्तक को केवल जैनधर्म तक ही सीमित नहीं रखा गया है। इसमें जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों परम्पराओं के साहित्य का उपयोग हुआ है, इसलिए यह पुस्तक सभी के लिए उपयोगी बन गई है।
दान ही धन का प्रथम और उत्तम उपयोग है।
मनुष्य ज्ञानदान से ज्ञानी, अभयदान से निर्भय, औषध दान से निरोगी और आहार दान से हमेशा सुखी रहता है।
गृहस्थ जीवन का शृङ्गार दान ही है।
जैसे नित्य दुहने पर गाय का दूध कम नहीं होता, उसी प्रकार दान देने से भी धन नहीं घटता ।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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ब्रह्मचर्य विज्ञान : एक समीक्षात्मक अध्ययन
।
-डॉ. तेजसिंह गौड़ (उज्जैन) ब्रह्मचर्य एक साधना है और उस साधना के पीछे पूरा विज्ञान है। मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान के विविध पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए ब्रह्मचर्य साधना के सर्वांगीण स्वरूप को उद्घाटित करने वाली यह पुस्तक अपने विषय की सर्वोत्कृष्ट पुस्तक मानी गई है। इसमें श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्यायश्री के प्रवचन, चिन्तन, स्वानुभव, संस्मरण डायरी के नोट्स तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर लिखित विवरण सबको एक सुन्दर गुलदस्ते का स्वरूप प्रदान किया है विद्वान् मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी ने। पुस्तक पर समीक्षात्मक चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रसिद्ध विद्वान डॉ. तेजसिंह गौड़।
-सम्पादक
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ब्रह्मचर्य को भारतीय साधना पद्धति में विशेष महत्व दिया गया / गति करना, चर्चा करना या चलना है। अर्थात् ब्रह्म = आत्मभाव है। ब्रह्मचर्य भारतवर्ष के प्राचीन ऋषि-मुनियों की एक अद्भुत, की ओर चर्या करना, गति करना ब्रह्मचर्य है। शुद्ध आत्मभाव ही अनुपम एवं अमूल्य आध्यात्मिक देन है। ब्रह्मचर्य की जितनी ब्रह्म अर्थात् परमात्मा है, उसकी ओर बढ़ना यानि आत्मभाव में अनुभूति, साधना हमारे देश भारतवर्ष में हुई है, उतनी शायद ही रमण करना ब्रह्मचर्य है। अथवा परमात्मा में विचरण करना, अथवा विश्व के किसी देश में हुई हो। ब्रह्मचर्य मानव शरीर और आत्मा विद्याध्ययन या वेदाध्ययन में विचरण करना अथवा वेदाध्ययन का का तेजःस्रोत है। यदि समस्त शक्तियों का मूल स्रोत ब्रह्मचर्य को कहें आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ब्रह्मचर्य मनुष्य के तन, मन और आत्मा
ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है, उसमें लीन को सशक्त, सक्षम, स्थिर और सुदृढ़ बनाता है, जिसका तन निर्बल होनादानी
होना ब्रह्मचर्य है। भगवती आराधना के अनुसार "जीव ब्रह्म है, है, मन निर्बल है, आत्मा निर्बल है, वह न तो आध्यात्मिक साधना
जीव ही में जो पर देह सेवन रहित चर्या होती है, उसे ब्रह्मचर्य का श्रीगणेश ही कर सकता है और न ही आपत्तियों में आगे बढ़ने । समयो।" का साहस, ऐसा व्यक्ति आत्म स्वरूप का साक्षात्कार भी नहीं कर सकता है, यथा- नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।
ब्रह्मचर्य उपलब्ध अर्थों के परिप्रेक्ष्य में उपाध्याय प्रवर श्री
पुष्कर मुनि जी म. सा. ने लिखा-"जिस आचरण से आत्म चिन्तन आचार्य हेमचन्द्र ने ब्रह्मचर्य का लाभ बताते हुए कहा है :
हो, आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने स्वभाव में रमण "चिरायुषः सुसंस्थाना दृढ़ संहनना नराः।
कर सके, उस आचरण का नाम ब्रह्मचर्य है।" तेजस्विनो महावीर्या भवेयु ब्रह्मचर्यतः॥"
ब्रह्मचर्य के उपर्युक्त अर्थ से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य का ब्रह्मचर्य से मानव चिरायु होते हैं, उनके शरीर का संस्थान } अर्थ आत्मभाव में रमण करना है। इसके पालन से आध्यात्मिक मजबूत हो जाता है, उनके शरीर का सहनन भी सुदृढ़ हो जाता है, साधना की ओर अग्रसर हो सकते हैं। तब यहाँ सहज ही प्रश्न ब्रह्मचर्य के साधक तेजस्वी एवं परम वीर्यवान् होते हैं।
उपस्थित होता है कि इसका पालन अथवा साधना कैसे की जावे? जप, तप या आध्यात्मिक साधना आदि में सशक्त तन एवं
भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य साधना के लिए दो मार्ग बताएँ हैंसुदृढ़ स्थिर मन का होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है और १. आंशिक ब्रह्मचर्य और २. पूर्ण ब्रह्मचर्य। जो व्यक्ति तन-मन की सशक्तता के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य सांसारिकता से ऊपर उठकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का मन, वचन और है। क्योंकि कमजोर तन और मन के द्वारा साधना संभव नहीं हो काया से पालन कर सकता है, उसे उसका पालन करना ही चाहिए। सकती। मन भटका तो तन अटका। इस अटकाव-भटकाव में ऐसा करने से उसका मार्ग प्रशस्त होगा। मन, वचन और काया से साधना किस प्रकार संभव हो सकती है। ब्रह्मचर्य के परिपक्व } संबंधित जो मैथुन हैं, वे दक्ष संहिता के अनुसार इस प्रकार हैं :अभ्यास से मानव तन और मन दोनों ही इतने सशक्त हो जाते हैं
3000 स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य-भाषणम्,
Paroo कि फिर अटकने/भटकने/आसक्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता।।
संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिष्पत्तिरेव च। ब्रह्मचर्य की इस महत्ता को देखते हुए हमारे लिए यह एतन्मैथुनमष्टांग प्रवदन्ति मनीषिणः
POE आवश्यक हो जाता है कि हम उसके अर्थादि को समझें। सामान्यतः
विपरीतं ब्रह्मचर्य मेतदेवाष्ट-लक्षणम्॥ ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथुनवृत्ति का त्याग कर सकते हैं। इसे दूसरे शब्दों में वीर्यरक्षा भी कह सकते हैं। यदि दूसरे शब्द पर ध्यान देते
स्त्री या पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण, स्त्रियों के रूप आदि का हैं तो इसकी व्यापकता का बोध होता है। ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और
वर्णन, उनके साथ क्रीड़ा करना, उन्हें राग दृष्टि से देखना, एकान्त चर्य से मिलकर बना है। ब्रह्म का अर्थ आत्मा है और चर्य का अर्थ १. ब्रह्मचर्य विज्ञान, पृष्ठ १३८
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में उनसे बातें करना, उन्हें प्राप्त करने के लिए मन में संकल्प करना, प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना एवं प्रत्यक्ष मैथुन सेवन करना। मैथुन के ये आठ अंग हैं। ब्रह्मचारी को इनसे बचना चाहिए।
उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए स्पष्ट निर्देश है कि वे महिलाओं को रागपूर्वक न देखें, न उनको पाने के लिए मन में इच्छा करें, न उनसे प्रार्थना करें, उनका चिन्तन एवं गुणगान मोह दृष्टि से न करें।
२.
उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य की नी गुप्तियों का भी विवरण है। यथा:- १. स्त्री नपुंसक से संसक्त शयनासन का सेवन न करें, कामरागबर्द्धक स्त्री कथा न करें, ३. स्त्रियों वाले स्थानों का सेवन न करें, ४. ललनाओं की मनोहर इन्द्रियों का, अंगोपांगों का अवलोकन व ध्यान न करें, ५. अत्यन्त स्निग्ध सरस आहार न करें, ६. मात्रा से अधिक आहार पानी का सेवन न करें, ७ पूर्व काल में स्त्रियों के साथ की गई काम-क्रीड़ाओं का स्मरण न करें, ८. विकारवर्द्धक शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श में आसक्त न हों और ९. भौतिक सुख-सुविधाओं में आसक्त न हों। इन गुप्तियों के अतिरिक्त भी शास्त्रों में अनेक स्थानों पर ब्रह्मचर्य पालन की प्रेरणा दी गई है।
ब्रह्मचर्य जैसे महत्वपूर्ण विषय पर विस्तारपूर्वक लिखना कोई सरल कार्य नहीं है। फिर प्रवचनों को निबंधाकार रूप देकर पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत करना तो और भी कठिन कार्य है। इस कठिन कार्य को साकार स्वरूप प्रदान किया है, श्रमणसंघीय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने।
आपका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था और मात्र चौदह वर्ष की अल्पवय में जैन भागवती दीक्षा स्वीकार कर ली थी। लगभग ७० वर्ष का संयम साधना काल कोई कम नहीं होता है। इतने लम्बे संयम-साधना काल में साधक तपकर कुन्दन बन जाता है। अपूर्व तपोबल प्राप्त कर लेता है। सिद्धियों की उपलब्धि भी हो जाती है। यह तथ्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के लिए चरितार्थ होता है। हमारे इस कथन की पुष्टि उनकी प्रभावशाली मांगलिक के अनेकों प्रसंगों से सहज ही हो जाती है।
उपाध्यायश्री जी अनेक भाषाओं में निष्णात थे। वे एक कुशल कथाकार, सरस कवि, उच्चकोटि के निबंधकार और सफल प्रवचनकार थे अद्यावधि अनेक विषयों से संबंधित विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है तथा सभी पुस्तकें लोकप्रिय भी बहुत हुई हैं। उनके द्वारा लिखित काफी सामग्री अभी भी अप्रकाशित है, जिसके प्रकाशन की योजना बनाई जानी आवश्यक है।
उनका विहार क्षेत्र अति विस्तृत था और उससे भी विशाल उनका सम्पर्क क्षेत्र था। विहारकाल में अथवा अवस्थिति के समय सभी श्रेणी के व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे और उनके सरल
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
स्वभाव तथा उदार हृदय को देखकर उनके समूचे व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित होते थे।
वे एक कुशल प्रवचनकार थे। उनकी प्रवचनकला के संबंध में कहा जाता है- “ उनकी अद्भुत प्रभावशाली वक्तृत्वकला हजारों श्रोताओं का हृदय क्षणमात्र में आन्दोलित / परिवर्तित कर सकती थी।" ऐसा प्रभाव कुछ कम ही देखने को मिलता है।
उनके प्रवचनों के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। "ब्रह्मचर्य विज्ञान" उनमें से एक है। प्रसन्नता इस बात की है कि इस प्रवचन संग्रह का संग्रह और संपादन उनके सुयोग्य शिष्य रत्न श्रमण संघीय आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. "शास्त्री" ने बड़ी लगन, निष्ठा और परिश्रम के साथ किया है। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का कहना है- "गुरुदेव ब्रह्मचर्य विषय पर जब प्रवचन करते थे तो घंटों दिनों और महीनों बोलते जाते थे, इस प्रसंग पर इतनी अनुभवपूर्ण और जीवनस्पर्शी सामग्री उनके प्रवचनों में उपलब्ध होती है कि उसे वर्षों तक संग्रह करते रहने पर भी बासीपन नहीं आया, आज भी उनमें ताजगी है, जीवन्त प्रेरणा है।"
इस वक्तव्य से हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि ब्रह्मचर्य विषय पर उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का कितना अधिकार था। सहज ही कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य जैसे गंभीर विषय पर अथाह ज्ञान रखना कोई साधारण बात नहीं है।
प्रस्तुत “ब्रह्मचर्य विज्ञान प्रवचन पुस्तक की प्रस्तावना सुप्रसिद्ध विद्वान श्री यशपाल जैन ने लिखी है, उन्होंने लिखा है कि उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. की प्रस्तुत पुस्तक "ब्रह्मचर्य विज्ञान" अत्यन्त उपयोगी तथा प्रेरणादायी है। वह भोगवादियों की शंकाओं और तर्कों का उत्तर ही नहीं देती, ब्रह्मचर्य का जीवन में क्या स्थान है, उसकी उपादेयता क्या है, मानव जीवन को वह किस प्रकार ऊर्ध्वगामी बनाता है, मानव शरीर की दृष्टि से भी इसके क्या लाभ है आदि आदि इन सबका प्रतिपादन भी बड़ी सरल-सुबोध भाषा में बहुत ही सुन्दर ढंग से करती है।
प्रस्तुत प्रवचन संग्रह "ब्रह्मचर्य विज्ञान" को बहुत ही सुव्यवस्थित स्वरूप में पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसकी विषय सूची को देखते ही विदित हो जाता है कि इसे सोपानानुसार प्रस्तुत कर पाठकों की जिज्ञासा जाग्रत करने का प्रयास किया गया है। विषय सूची देखकर ही इसे पढ़ने की भावना उत्पन्न हो जाती है। अन्यथा सांसारिक पक्ष के लिए शुष्क लगने वाले विषयों के प्रति क्यों कर रुचि उत्पन्न हो । निःसंदेह यह कला प्रवचनकार और सम्पादक दोनों की है।
इस प्रवचन संग्रह को तीन खण्डो में विभक्त किया गया है।
यथा
प्रथम खण्ड- इस खण्ड में निम्नांकित सात प्रवचन संग्रहीत हैं१. ब्रह्मचर्य की सर्वतोमुखी उपयोगिता, २. ब्रह्मचर्य की सार्वभौम
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वाग् देवता का दिव्य रूप
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अनिवार्यता, ३. ब्रह्मचर्य की प्रधानता, ४. ब्रह्मचर्य का अमोघ श्रद्धेय उपाध्यायश्री ने ब्रह्मचर्य की उपयोगिता प्रस्थापित करने प्रभाव, ५. ब्रह्मचर्य का माहात्म्य, ६. ब्रह्मचर्य से विविध लाभ और का प्रयास किया, उसके पीछे वर्तमान युग में बढ़ती कामप्रवृत्ति ७. ब्रह्मचर्य की उपलब्धियाँ। इन सातों प्रवचनों को सैद्धांतिक प्रमुख है। फिर इस वर्तमान भोगवादी युग में यदि काम प्रवृत्ति पर पृष्ठभूमि के अन्तर्गत रखा गया है।
अंकुश नहीं लगाया गया तो इसका अंत कहाँ और कैसा होगा, द्वितीय खण्ड-द्वितीय खण्ड को स्वरूपदर्शन नाम दिया गया है
इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसलिए वर्तमान युग में और इस खण्ड में छः प्रवचन हैं-१. ब्रह्मचर्य : एक शब्दः अनेक
ब्रह्मचर्य का पालन अधिक आवश्यक और अनिवार्य है। उन्होंने अर्थ, २. इन्द्रिय संयम : ब्रह्मचर्य का प्रवेश द्वार, ३.
अपने प्रवचन में यह भी स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचर्य कोरा आदर्श ब्रह्मचर्य-साधना का मंत्र : मनोनिग्रह, ४. वीर्यरक्षा और ब्रह्मचर्य,
नहीं है। यह एक यथार्थ सत्य है और लोभी लोगों द्वारा भी इसकी ५. ब्रह्मचर्य और शील और ६. ब्रह्मचर्य बनाम मैथुन विरमण।
अपेक्षा की गई है। ब्रह्मचर्य पालन के संबंध में उनका स्पष्ट मत है
कि ब्रह्मचर्य पालन दुष्कर अवश्य हो सकता है किन्तु असाध्य नहीं तृतीय खण्ड-तृतीय खण्ड को साधना दर्शन शीर्षक दिया गया
है। ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति का होना है। इस पुस्तक का यह सबसे समृद्ध खण्ड है। इसमें चौदह प्रवचन
आवश्यक है। वास्तव में यहाँ दृष्टिकोण का भी प्रभाव पड़ता है। संग्रहीत हैं। १. ब्रह्मचर्य साधना : उद्देश्य और मार्ग, २. ब्रह्मचर्य-साधना : दृढ़ता के छः सूत्र, ३. ब्रह्मचर्य-साधना का
नारी को भोग्या मानने वाले व्यक्ति के विचारों में कामुकता ही आध्यात्मिक पक्ष, ४. ब्रह्मचर्य-साधना : विभिन्न दृष्टियों से, ५..
कामुकता रहेगी। इसके विपरीत यदि विचारों में नारी के प्रति यौगिक प्रक्रियाओं से ब्रह्मचर्य की सहज साधना, ६. मनोविज्ञान एवं
मातृभाव अथवा भगिनी भाव आ जाते हैं तो वहाँ काम-विकार शरीर विज्ञान के अनुसार ब्रह्मचर्य-साधना, ७. इन्द्रिय संयम के
और विचार दोनों ही समाप्त हो जाते हैं और पवित्र विचारों की अनुभूत नुस्खे, ८. काम-विजय के अनुभूत उपाय, ९. ब्रह्मचर्य
सरिता प्रवाहित होने लगती है। इसीलिए ब्रह्मचर्य पालन में साधना एवं योगाभ्यास, १०. ब्रह्मचर्य साधना के चार स्तर, ११.
मानसिकता का प्रमुख हाथ रहता है। ब्रह्मचर्य-सुरक्षा के मूलमंत्र : नववाड़, १२. वीर्यरक्षा के ठोस उपाय, __ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महत्व है। १३. नारी जाति और ब्रह्मचर्य एवं १४. ब्रह्मचर्य साधना : विशुद्धि परमात्मदर्शन के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। यहाँ तक कि सभी व्रतों और जाग्रति।
के लिए भी ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य पालन से इस प्रकार इस प्रवचन संग्रह में कुल मिलाकर सत्ताइस प्रवचन
मनोबल दृढ़ होता है और दृढ़ इच्छा-शक्ति का आध्यात्मिक साधना निबन्धाकार रूप में संग्रहीत हैं। यह अत्यन्त आल्हादकारी बात है
में विशिष्ट स्थान है। इसलिए सभी प्रकार की साधना और गुणों की कि अनुक्रमणिका को उपविभागों में विभक्त कर अत्यन्त उपयोगी
प्राप्ति करना हो तो यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है कि बना दिया गया है। उपविभाजन भी संक्षिप्त नहीं वरन् विस्तृत है।
ब्रह्मचर्य का पालन किया जावे। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य छोटे से छोटे बिन्दु को इसमें सम्मिलित कर पाठकों पर बहुत बड़ा
परमावश्यक है। यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य लौकिक एवं पारलौकिक उपकार किया गया है।
अभ्युदय के लिए भी आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक
काति खिल उठती है। चेहरे पर तेजस्विता आ जाती है। अब्रह्मचर्य सैद्धांतिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत जिन सात प्रवचनों को लिया
शरीर को निर्बल एवं कांतिहीन बना देता है। निर्बल तन किसी भी गया है, उनका अध्ययन करने से ब्रह्मचर्य की महत्ता और
प्रकार की साधना के लिए उपयुक्त नहीं होता है। यहाँ तक कि वह उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है। उपाध्यायश्री जी ने इस खण्ड के
सांसारिक प्रवृत्तियों में भी अनेक स्थानों पर अनुपयुक्त हो जाता है, अपने प्रवचनों में स्पष्ट किया है कि भगवान् महावीर के पूर्व
तब विचार करना चाहिए कि इन दोनों में से किसे अपनाया जावे। ब्रह्मचर्य पृथक व्रत के रूप में न होकर अपरिग्रह के अन्तर्गत ही माना जाता था। भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य की उपयोगिता को
ब्रह्मचर्य का पालन किसके लिए? यह प्रश्न सहज ही उठाया ध्यान में रखकर चतुर्थ व्रत के रूप में इसे प्रस्थापित किया। उसी
जा सकता है। उत्तर में यही कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य केवल प्रथम खण्ड में उन्होंने वर्तमान युग में ब्रह्मचर्य की सर्वाधिक
साधु-संन्यासियों के लिए ही आवश्यक नहीं है, वरन् संसार पक्ष में उपयोगिता भी बताई है। यहीं उन्होंने कुछ पाश्चात्य काम
रहने वाले प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है। अपनी-अपनी सीमा मनोविज्ञान शास्त्रियों के ब्रह्मचर्य विषयक मतों का भी उल्लेख किया
में रहते हुए ब्रह्मचर्य की आराधना/परिपालना करना स्वयं साधक है। ये मत भारतीय संस्कृति की मर्यादामूलक सभ्यता के विपरीत हैं।
के हित में ही है। वस्तु स्थिति तो यह है कि पाश्चात्य जगत ब्रह्मचर्य के महत्व को ब्रह्मचर्य की सार्वभौम अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने समझ ही नहीं सका है। आज भी उधर स्वच्छन्दवाद का ही बोल लिखा है-“परमात्मदर्शन, आत्म-साक्षात्कार, आध्यात्मिक पूर्णता, बाला है। इस स्वछन्द भोगवाद का तालमेल भारतीयता के परिप्रेक्ष्य । व्रतादि की आराधना, योगादि उच्च साधना, वानप्रस्थ साधना, में नहीं बैठ सकता।
समाज, राष्ट्र या विश्व की सेवा, आध्यात्मिक साधना, मोक्ष प्राप्ति,
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लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय, आन्तरिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण, मन्त्र-तन्त्रादि साधना, शाश्वत सुख-शांति एवं विद्यार्थी जीवन आदि समस्त क्षेत्रों में ब्रह्मचर्य की सार्वयिक और सार्वकालिक अनिवार्यता है।"
इसी खण्ड में उन्होंने ब्रह्मचर्य को सभी व्रतों का मुखिया भी. प्रतिपादित किया है। इसे गुणों का नायक भी बताया है। यह दृष्टिकोण यथार्थ है। क्योंकि अब्रह्मचर्य में मानसिक विकार बने रहते हैं और अपने उद्देश्य भोग की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के हथकण्डे अपनाये जा सकते हैं जिससे सभी प्रकार की छल प्रपंच/ कपट / झूठ /हिंसा आ जाते हैं। यदि ब्रह्मचर्यव्रत का संकल्प है तो फिर विचारों में उज्ज्वलता बनी रहती है। वहाँ तो निर्मल निर्झर बहता रहता है। ऐसे में ही उत्तम कार्य संपन्न होते हैं। इसलिए यदि ब्रह्मचर्य को सभी व्रतों का गुरु कहा गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने इस खण्ड में ब्रह्मचर्य के प्रभाव और उसके कुछ अद्भुत चमत्कारों का भी उल्लेख किया है। ऐसे उद्धरण ब्रह्मचर्य पालन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। साधक को प्रोत्साहित करते हैं। साधक उनको अपना आदर्श मान लेता है या मानने लगता है और जब कभी मन विचलित होता है तब ये उद्धरण उसे शक्ति प्रदान करते हैं। उन्होंने ऐसे कुछ प्रेरक उद्धरण भी दिये हैं।
ब्रह्मचर्य के माहात्य के अन्तर्गत उन्होंने ब्रह्मचर्य को जीवन की खाद के रूप में निरूपित किया है। जिस प्रकार फसल को खाद मिलती है और वह विकास कर लहलहा उठती है, ठीक उसी प्रकार जीवन को ब्रह्मचर्य की खाद मिलने से वह उज्ज्वल से उज्ज्वलतर स्थिति को प्राप्त करता है। इसकी साधना से मुक्ति का द्वार खुल जाता है। उन्होंने यहाँ ब्रह्मचर्य को समाज सुधारों का मूलाधार निरूपित किया है, जो सत्य है। इस प्रसंग में उन्होंने कुछ ऐतिहासिक दृष्टांत प्रस्तुत कर अपने कथन को पुष्ट किया है।
उन्होंने लिखा- "सचमुच ब्रह्मचर्य जीवन का अमृत है, वासना मृत्यु है, ब्रह्मचर्य अनन्त सुख है, वासना अशांति एवं दुःख का खारा सागर है, ब्रह्मचर्य शुद्ध ज्योति है, वासना पाप-कालिमा है। ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश है, अब्रह्मचर्य अज्ञान तिमिर है, ब्रह्मचर्य अजन अजेय बल है, अब्रह्मचर्य जीवन की दुर्बलता, कायरता और पामरता है। ब्रह्मचर्य जीवन का ओज और तेज है, अब्रह्मचर्य ग्लानि और निःसत्यता है। ब्रह्मचर्य ही साहस, शक्ति, उत्साह और प्राण बलदाता है। यही जीवन के सर्वांगीण विकास का स्रोत है। विशुद्ध ब्रह्मचर्य साधक पूज्यों का भी पूज्य बन जाता है। यही संयम, नियम, तप, शील आदि का मूलाधार है। यही सब व्रतों-नियमों में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ है।
ब्रह्मचर्य एक चिन्तामणि रत्न के समान है। जब रत्न प्राप्त हो जाता है तो फिर किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं रहती । ब्रह्मचर्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
की साधना से अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मनोवांछित कार्य स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य का साधक किसी का मोहताज नहीं रहता, वरन् सभी उसकी कृपा पाने के लिए लालायित रहते हैं।
ब्रह्मचर्य की साधना से अनेक ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ और लब्धियाँ प्राप्त होने का भी विवरण दिया गया है। यहाँ तक कि वर्तमान युग में भी ब्रह्मचर्य एवं तप के प्रताप से कई साधु-साध्वियों को वचनसिद्धि एवं वचन लब्धि प्राप्त हुई है।
इस प्रकार पुस्तक का प्रथम खण्ड पढ़ने के पश्चात् पाठक इस विषय के प्रति निश्चित ही आकर्षण का अनुभव करने लगेगा।
द्वितीय खण्ड-स्वरूप दर्शन के अन्तर्गत प्रवचनकार ने ब्रह्मचर्य के अर्थादि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। ब्रह्म और चर्य का विश्लेषण करने के पश्चात् उन्होंने ब्रह्मचर्य का पूर्ण अर्थ इस प्रकार किया है- "आत्मा में रमण करना अथवा परमात्मा (परमात्म भाव ) में विचरण करना अथवा वेदाध्ययन का आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है, अथवा वृहत् या महान् में विचरण करना, विराट में रमण करना भी ब्रह्मचर्य है। (पृष्ठ १३८) । इसी अध्याय में आगे उन्होंने ब्रह्मचर्य के विभिन्न अर्थों को विस्तार से स्पष्ट किया है, जिससे प्रतिपाय विषय को समझने में पाठकों को सुविधा होती है। यहीं एक बात का उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा। वह यह कि यहाँ उन्होंने जैनेतर धर्मग्रन्थों का भी संदर्भ ग्रहण किया है। इससे विषय और अधिक स्पष्ट हो गया है। वह एकांगी नहीं रह गया है। इसी अध्याय के अंत में ब्रह्मचर्य के विलक्षण अर्थ भी दिए गए हैं। ये अर्थ जैन ग्रन्थों के आधार पर दिए गए हैं। एक दो उदाहरण द्रष्टव्य है- " जिसके पालन करने पर अहिंसादि गुण बढ़ते हैं, वह ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म में विचरण करना ब्रह्मचर्य है। (पृष्ठ १४६) । पंच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति रूप चारित्र क्योंकि वह शांति और (आत्म-गुणों की) पुष्टि का कारण है; उक्त ब्रह्म में रमण करना ब्रह्मचर्य है।” (पृष्ठ १४६ ) ।
इन्द्रिय संयम के बिना ब्रह्मचर्य की कल्पना नहीं की जा सकती इसलिए उन्होंने इन्द्रिय संयम को ब्रह्मचर्य का प्रवेश द्वार बताया है। वास्तव में जब तक इन्द्रिय संयम नहीं होता, ब्रह्मचर्य की बात करना ही बेमानी होती है। इसी के साथ उन्होंने स्त्री-स्पर्श के परित्याग की भी चर्चा की है किन्तु इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्त्री-स्पर्श ब्रह्मचारी के लिए किस परिस्थिति में साधक होता है। इस संदर्भ में उनका कथन दृष्टव्य है- "ब्रह्मचर्य साधक के लिए किसी विशेष परिस्थिति में स्त्री-स्पर्श ब्रह्मचर्य बाधक है या ब्रह्मचर्य साधक ? इसका निर्णय ब्रह्मचर्य-साधक की. निर्विकार मनोदशा पर निर्भर है। रुग्ण सेवा, अशक्ति, विपत्ति, गुण्डों से रक्षा, विक्षिप्तता अथवा ऐसी ही किसी गाढ़ संकटापन्न परिस्थिति में यदि पुरुष-साधक निर्विकार भाव से मातृ-भगिनी-भाव या पुत्रीभाव से स्त्री का स्पर्श करता है, इसी प्रकार स्त्री-साधिका निर्विकार भाव से
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वाग देवता का दिव्य रूप
पिता, भाई या पुत्र भाव से पुरुष का स्पर्श करती है तो उसे ब्रह्मचर्य भंग नहीं कहा जा सकता। इसके मूल में तो विचार या भाव ही है। यदि निर्विकार भाव हे तो कोई अंतर नहीं पड़ता किन्तु इसके विपरीत विचार होने पर प्रभाव हो सकता है। बाधा आ सकती है, ब्रह्मचर्य साधना में विघ्न आ सकता है। अतः ब्रह्मचर्य साधना करने के पूर्व विचारों पर नियंत्रण आवश्यक है। दूसरे शब्दों में और सही अर्थों में मन पर नियंत्रण रखने की अत्यन्त आवश्यकता होती है। जब तक मन पर नियंत्रण नहीं हो जाता तब तक अन्य बातें करना निरर्थक ही समझनी चाहिए। यही कारण है। कि उन्होंने यहाँ मनोनिग्रह को ब्रह्मचर्य साधना का मंत्र बताया है।
ब्रह्मचर्य और वीर्य का गहरा संबंध है और यदि यह कहा जावे कि वीर्य रक्षा ब्रह्मचर्य है तो अनुचित नहीं होगा । ब्रह्मचर्य का पालन सार्थक तभी कहलाएगा तब साधक वीर्य रक्षा कर लेता है।
वीर्य रक्षा को समझने के लिए वीर्य को समझना आवश्यक है। वीर्य की उत्पत्ति आदि को समझने के पश्चात् इसका महत्व स्वतः ही समझ में आ जाएगा।
"मनुष्य के शरीर का सर्वोत्तम तत्व भाग वीर्य है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा है कि खाये-पीये हुए पदार्थ से सर्वप्रथम जो तत्व बनता है उसे "रस" कहा जाता है। रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है।" (पृष्ठ १८० ) ।
उन्होंने आगे बताया- "वीर्य शरीर रूपी यंत्र में सबसे अंत में बनने वाला शक्तिशाली सातवाँ धातु है। प्राचीन आयुर्वेद शास्त्र का अभिप्राय यह है कि स्वाभाविक क्रम के अनुसार आहार किए गए पदार्थों का वीर्य में रूपांतरण होने में ३० या ४० दिन तक लग जाते हैं।” (पृष्ठ १०८ ) । वीर्य बनने का क्रम इस प्रकार बताया गया है-" रस के पाँच दिन तक पाचन होकर रक्त बनता है, रक्त से पाँच दिन तक पाचन होकर माँस बनता है, यों क्रमशः पाँच-पाँच दिन के अन्तर से माँस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से सारभूत पदार्थ वीर्य तैयार होता है। इस प्रकार रस से वीर्य बनने तक में तीस दिन लग जाते हैं।” (पृष्ठ १८० ) । इस संबंध में उन्होंने कुछ विदेशी विद्वानों के उद्धरण भी प्रस्तुत किए हैं। विदेशी विद्वानों के अनुसार चालीस औंस रक्त से एक औंस वीर्य बनता है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिजिकल कल्चर के अनुसार एक औंस वीर्य की शक्ति साठ औंस रक्त के बराबर होती है। इन सब बालों से यह प्रमाणित होता है कि समय शरीर में सबसे अधिक मूल्यवान सारभूत एवं प्राणदायक तत्व बीर्य है। इसलिए भारतीय तत्वज्ञों ने एक सूत्र में कहा है-" "मरणं विन्दुपातेन, जीवनं विन्दुधारणात्।" उन्होंने बीर्य और उसकी महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डालकर पाठकों को वीर्य रक्षा के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया है। उन्होंने वीर्य का रासायनिक विश्लेषण भी दिया है। यह वैज्ञानिक विश्लेषण है यथा-"वीर्य का रासायनिक विश्लेषण
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करते हुए शरीरविज्ञान-शास्त्रियों ने बताया कि वीर्य एक प्रकार का श्वेत विलक्षण गन्ध वाला, चिकना पारदर्शक रसायन है वह ठोस कणों और तन्तुओं से बना हुआ है। शुद्ध वीर्य में ७५ प्रतिशत जल आदि तरल पदार्थ, पाँच प्रतिशत फॉस्फेट ऑफ लाइम, चार प्रतिशत चिकनाई, तीन प्रतिशत प्रोटीन ऑक्साइड और शेष भाग आल्बुमिन, केल्शियम, फॉस्फोरस, सोडियम क्लोराइड आदि क्षार पदार्थ होते हैं।" (पृष्ठ १८७ ) | आगे बताया कि इसके तन्तु सूक्ष्म और लम्बे होते हैं तथा सदैव गतिशील होते हैं। इस संबंध में विदेशी विद्वानों के जो उद्धरण/मत दिए गए हैं, वे अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं और उनसे भारतीय मतों की पुष्टि होती है।
उन्होंने यह भी बताया कि किस आयु में वीर्य की अवस्थिति शरीर में कहाँ रहती है और उसका प्रभाव क्या होता है-"दस वर्ष की आयु तक वीर्य दोनों भौहों के बीच में आ जाता था, दस से बारह वर्ष तक वीर्यशक्ति बच्चे के भौहों से उतर कर कण्ठ में आती थी, जिससे बालक के स्वर में भारीपन और बालिका के स्वर में सुरीलापन आ जाता है। इसके पश्चात् १३ से १६ तक की आयु में वीर्य मेरुदण्ड से होता हुआ उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे-धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थान जमा लेता है। १६ वर्ष की आयु में विपरीत लिंग का आकर्षण पैदा होने लगता है और यहीं से विकार या वासना का प्रारंभ होता है।" (पृष्ठ १८९)।
उन्होंने आगे फिर बताया कि वीर्य क्षय का अर्थ जीवन-क्षण है। इसलिए जीवन रक्षा के लिए वीर्य की रक्षा आवश्यक है वीर्य-क्षय से होने वाली हानियों की ओर भी उन्होंने संकेत किया है। फिर उन्होंने शील और ब्रह्मचर्य पर विचार प्रकट करके मैथुन विरमण पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इसमें उन सभी बातों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है, जो ब्रह्मचर्य के साधक के लिए बाधक हैं अतः उनसे बचना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक का तृतीय खण्ड साधना दर्शन से संबंधित है। जैसा कि हम प्रारंभ में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि इस पुस्तक में सोपानानुसार विषय वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। उसी क्रम में यह तृतीय खण्ड है। प्रथम दो खण्ड में प्रवचनकार ने भारतीय और विदेशी मतों से यह बात स्पष्ट कर दी कि ब्रह्मचर्य पालन जीवन की सार्थकता है। इसके विपरीत पतन है। जब पाठक इस तथ्य से परिचित हो जाता है तो फिर कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो जान-बूझकर अपने आपको मृत्यु के मुख में डालेगा। इसलिए अब निश्चित ही यह इतना समझने के पश्चात् आगे क्या करना है? यह जानना चाहेगा। यदि ब्रह्मचर्य पालन करने के पश्चात् करने योग्य या जानने योग्य बातों की जानकारी प्राप्त करना है तो तृतीय खण्ड का अध्ययन आवश्यक है। इस खण्ड में चौदह प्रवचन संग्रहीत है। इस खण्ड में उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने अपने प्रवचनों में बताया है कि ब्रह्मचर्य जीवन निर्माण की कला है। यह दुष्कर तो है। किन्तु सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक उपलब्धि भी है। उन्होंने ब्रह्मचर्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । साधना के उपायों पर भी विस्तार से प्रकाश डला है। इसी अनुक्रम नारी जाति और ब्रह्मचर्य पर पृथक से विचार प्रकट कर में उन्होंने प्रतिज्ञा को साधना की रीढ़ बताया है। एक कार्य उन्होंने उन्होंने एक और स्तुत्य कार्य किया है। यद्यपि जो कुछ भी कहा स्तुत्य किया है। वह है विभिन्न धर्मों में ब्रह्मचर्य साधना की परम्परा गया था वह सबके लिए था किन्तु फिर भी इस प्रकार के पर प्रकाश डालने का। यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका कथन पृथक्करण से सोने में सुहागा वाली बात हो गई है। प्रत्येक धर्म में एकांगी रह जाता। सभी धर्म परम्पराओं में ब्रह्मचर्य साधना का नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, वे यहाँ स्पष्ट हो जाते हैं। जहाँ तक विवरण प्रस्तुत कर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि ब्रह्मचर्य साधना जैन ब्रह्मचर्य-साधना के नियमों का प्रश्न है, वे सभी समान हैं। उनमें परम्परा अथवा वैदिक परम्परा में समान रूप से है। इससे एक बात कोई अन्तर नहीं है। भी स्वतः सिद्ध होती है कि जो श्रेष्ठ है, उसका स्थान प्रत्येक धर्म
प्रवचनकार ने अपनी इस प्रवचन पुस्तक को बार-बार पढ़ने परम्परा में है। यह बात अलग है कि अन्य धर्म परम्पराओं की
का आग्रह विषय की गहनता को ध्यान में रखकर किया है और तुलना में जैन धर्म-परम्परा में ब्रह्मचर्य को विशेष महत्व दिया गया
अंत में पुस्तक के नाम ब्रह्मचर्य विज्ञान रखने पर भी अपने विचार है। जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य को श्रमण-श्रमणियों के लिए महाव्रत
प्रकट किए हैं। इस संबंध में उन्होंने जो भी लिखा है, वह दृष्टव्य एवं श्रावक-श्राविकाओं के लिए अणुव्रत के रूप में स्वीकार किया
है:-"पुस्तक का नाम ब्रह्मचर्य विज्ञान है, इसे ब्रह्मचर्य साधना भी DD गया है।
लिखा जा सकता था, किन्तु मेरा अभिमत यह है कि श्रद्धा को ज्ञान योग साधना और ब्रह्मचर्य साधना का गहरा संबंध है। तभी तो | से परिपुष्ट करके यदि साधना की जाए तो वह साधना अधिक उन्होंने बताया कि यौगिक प्रक्रियाओं से ब्रह्मचर्य की साधना सहज सुन्दर, सप्राण व सतेज होगी, इसलिए इसे "ब्रह्मचर्य विज्ञान' नाम है। इससे आगे उन्होंने मनोविज्ञान की दृष्टि से भी ब्रह्मचर्य साधना से सम्बोधित किया है। विज्ञान हमेशा प्रायोगिक होता है इस दृष्टि पर प्रकाश डाला है तथा ब्रह्मचर्य साधना एवं योगाभ्यास पर से इसमें साधना तो सन्निहित है ही। बिना साधना के तो ज्ञानविस्तारपूर्वक लिखा है। यह साधकों के लिए महत्वपूर्ण है।
विज्ञान सब शून्य है, निष्प्राण है, अतः इस विज्ञान को जीवन___उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने इन्द्रिय संयम के अनुकूल साधना बनाकर जीवन-धर्म बनायें, तभी इसका चमत्कार आपके नुस्खे भी बताये हैं। अक्सर होता यह है कि व्यक्ति ब्रह्मचर्य की जीवन में सार्थक होगा।" साधना करना चाहता है किन्तु वह अपने मन को वश में नहीं
सम्पूर्ण पुस्तक न केवल पठनीय है वरन् मैं तो यह कहना कर पाता। परिणामतः वह आगे साधना मार्ग से हट जाता
चाहूँगा कि यह नित्य स्वाध्याय करने योग्य है। जो भी पाठक इसे है/भटक जाता है। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा प्रशस्त पथ साधकों
एक बार पढ़ेगा वह निश्चय ही एक बार तो यह अवश्य ही सोचेगा का मार्गदर्शन करेगा और उन्हें कुमार्ग पर जाने से बचाएगा।
कि ब्रह्मचर्य का मार्ग अपना लेना चाहिए। यदि ऐसी मानसिकता उन्होंने तो यहाँ तक बताया है कि काम भावना को ब्रह्म विद्या
पाठकों की बनती है तो प्रवचनकार का प्रवचन करना सार्थक हो के रूप में परिवर्तित कर स्वस्थ स्वरूप प्रदान करना चाहिए। इस
जाता है। सफल हो जाता है। पुस्तक में एक सौ बत्तीस विभिन्न प्रकार काम विजय दुष्कर तो है किन्तु दुःसाध्य नहीं है। दृढ़ प्रतिज्ञ
ग्रन्थों के उद्धरणों से प्रवचनकार ने अपने कथन को पुष्ट किया है व्यक्ति इस पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकता है, फिर उन्होंने
और ब्रह्मचर्य जैसे दुष्कर और शुष्क विषय को रोचक एवं सरल ब्रह्मचर्य की साधना के चार स्तरों की भी चर्चा की है। वे इस
बनाने के लिए अनेक महापुरुषों के चमत्कारिक दृष्टांत भी दिए गए प्रकार है:
हैं। इससे पाठकों का औत्सुक्य बराबर बना रहता है। १. पूर्ण अखण्ड (सर्वविरति) ब्रह्मचर्य (महाव्रत),
अंत में इस पुस्तक के संबंध में एक बात और कहना चाहता २. गृहस्थाश्रम में रहते हुए पूर्ण ब्रह्मचर्य,
हूँ। वह यह कि इस पुस्तक की सामग्री मूलतः प्रवचन हैं किन्तु ३. श्रावक का देशविरति-ब्रह्मचर्य (अणुव्रत),
प्रवचनकार के सुयोग्य शिष्यरत्न श्रमणसंघ के वर्तमान आचार्य ४. नैतिक दृष्टि से आंशिक ब्रह्मचर्य।
सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. सा. ने अपनी सम्पादन कला के द्वारा इनके विस्तृत विवरण के लिए प्रस्तुत पुस्तक का अध्ययन
इसे एक निबंध संग्रह का स्वरूप प्रदान कर दिया है। निबन्ध भी करना चाहिए।
कोई सामान्य कोटि के नहीं, वरन् ये सब इस विषय का शोध
करने वाले अनुसंधानकर्ता के लिए भी उपयोगी बन गए हैं और पुस्तक में ब्रह्मचर्य साधना के मूलमंत्र को भी बताया गया है
यह संग्रह ब्रह्मचर्य पर एक सम्पूर्ण ग्रंथ का स्वरूप पा गया है। और वीर्य-रक्षा के ठोस उपाय भी स्पष्ट किए गए हैं। इतना सब
विषय वस्तु को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करने से यह पुस्तक सभी स्पष्ट करने के पश्चात् भी और ब्रह्मचर्य की महत्ता को समझते हुए
धर्मावलम्बियों के लिए उपयोगी हो गई है। भी यदि कोई व्यक्ति इसकी साधना नहीं करता है तो यह उसका दुर्भाग्य ही करना चाहिए।
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वाग् देवता का दिव्य रूप
४०९ ।
20999
उपाध्यायश्री रौ राजस्थानी साहित्य
-डॉ. नृसिंह राजपुरोहित
संस्कृत-प्राकृत आदि प्राच्य भाषाओं के अधिकारी विद्वान् उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी बहुभाषा विज्ञ थे। उर्दू, फारसी, मराठी, गुजराती वे बहुत अच्छी प्रकार बोलते थे। राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी तो उनकी मातृभाषा ही थी। उनकी वाणी से जब मातृभाषा के स्वर शब्द रूप में प्रस्फुटित होते तो श्रोताओं को कुछ अलग ही आनन्द आता। राजस्थानी में आपकी अनेक प्रवचन पुस्तकें छपी हैं। कुछ पुस्तकें पहले हिन्दी और फिर राजस्थानी में अवतरित हुई हैं। राजस्थानी भाषा के प्रख्यात पंडित डॉ. नृसिंह राज पुरोहित ने उपाध्यायश्री के राजस्थानी साहित्य को विविध रूप में अनूदित किया है। अतः यहाँ पर उन्हीं की समीक्षात्मक व परिचयात्मक लेखनी का रसास्वाद कीजिए। -संपादक
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09665S5DD
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी रौ प्रवचन साहित्य यूँ तो मोकलो ई । राम राज है, पण खासकर नै जिको राजस्थानी भाषा में उपलब्ध है, वो तीन
इण कृति में उपाध्यायश्री रा कुल पाँच प्रवचन संकलित है। कृतियाँ रै रूप में है-संस्कृति रा सुर, "राम राज" अर
वारी विगत इण भांत है-रामराज, धरम री परख, जीवण री "मिनखपणा री मोल।" इण तीनूं कृतियाँ में उपाध्यायश्री रै दियौड़ा कला. जिंदगाणी रौ आणंद अर चालता रही आगे बढौ। यूं तो प्रमुख प्रवचनां रौ संकलन है। प्रवचन हिन्दी अर गुजराती ।
सगळा प्रवचन प्रेरणादायी अर जीवणोपयोगी है, पण कृति में भाषावां में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुया जिणरै पछै उक्त तीनूं ।
संकलित "राम राज" इण कृति री प्रमुख रचना है। कृतियाँ राजस्थानी भाषा में अनुवादित होयनै प्रकाशित हुई।
राम री सता भारत रै कण-कण में मौजूद है। मानखी वारा समीक्षात्मक दीठ सूं तीनूं कृतियाँ री न्यारी-न्यारी बंत इण भांत है
गुणगान तनमन सूं करै। यूं भारत री सगळी सांस्कृतिक विचार संस्कृति रा सुर
धारावां में राम रै नाम री सांगोपांग चरचा है। इण पुस्तक में उपाध्यायश्री रा कुल १४ प्रवचन संकलित है। आ बात सही के न्यारी न्यारी सांस्कृतिक विचार धारावां मुजब विषय वस्तु री दीठ सूं जीवण री झणकार, ढाई आखर प्रेम रा, राम रै सांसारिक जीवण रौ चित्राम न्यारै न्यारै ढंग सूं हुयो है। पण कर्तव्य निष्ठा, मन रौ मरम, ईमानदारी री जोत, धरम रौ मूळमंत्र, सगळा ग्रंथां रौ मूळ ओ इज के राम ओक अवतारी महापुरुष है। दान री आणंद अर परोपकार रौ इमरत इत्याद प्रवचन प्रमुख है।
राम री पितृ भगती, रामरी मातृ भगती, राम रौ बांधव प्रेम सगळां रा विषय प्रेरणास्पद अर मानव जीवण रै उत्थान सूं संबंध
अर सीता रौ पति प्रेम सगळी आदर्श स्थितियां रही है। इण कारण राखण आळा है। इण प्रवचनां में चिंतन री गेहराई, विचारां री
हजारूं बरस बीत्यां पछै ई राम रौ नाम आम आदमी री जबान निर्मळता, भावां रौ फूटरापौ अर प्रेरणा री पवित्रता है। सगळा
माये है। सगळां री ओक ई चावना है के राम राज पाछी आवै। प्रवचन घणा सरल, सहज अर गंभीर है। इणां में जीवण रै अनेकू प्रसंगां अर मोकळी समस्यावां माथै गेहरो चिंतन हुयी है।
__ इण कृति रा प्रमुख प्रवचन "रामराज' में आ ई बात बार
बार कहीजी है के राम रौ चरित्र ई इण मूल्क रौ मेरुदंड है। मुल्क पुस्तक री प्रस्तावना में राजस्थानी रा मानीता कवि डॉ.
री आजादी इण चरित्र राखूटा सूं ई बंध्यौड़ी है।
आजा शक्तिदान कविया रा इण कृति बाबत जे विचार सोळू आना सही है के इणरै न्यारै-न्यारै अध्यायां जिको अनुभव रा मोती पोया है अर
इणी ज भांत धरम री परख अर जीवण री कला प्रवचनां में समाज सुधार रा सुपना संजोया है। वे घणा ऊजला, उत्तम अर।
मानखे नैं जीवण कला रौ परम समझावण री कोशिश करीजी है। अनोखा है।
मानखौ जठा तांई जीवण कला रौ पारखी नी बणै, उठे तांई उणरी
जीवण सफल नी होय सके। इसै उतम साहित्य रै प्रचार-प्रसार री इण जमाने में अपूती जरूरत है। कारण के आज ईमानदारी ठकै सेर बिके है अर चोरटां
पैलड़ी कृति रै ज्यूं इण पुस्तक में संकलित सगळा प्रवचन ई
जीवण नै ऊपर उठावण आळा अर सद्कामां तांई प्रेरणा देवण रै घरां मालपूआ सिक है। आंधी पीसै नैं कृता खावै है अर बैवती गंगा में हाथ नी धोवै वो पछतावै है। कुवै भांग पड़ी है अर जनता
आळा है। पीवण ताई अडथड़ी है। आज राजकाज में भ्रष्टाचार, वैपार में मिनखपणा रौ मोल काळा बाजार, धरम म धुधुकार अर शिक्षा में बंटाढार है। इण उपरोक्त दोन कृतियाँ रै ज्यूं इण तीजी कृति “मिनखपणा रा कारण इसे साहित्य री इण जमानै मैं खास दरकार है। कुल मिळाय } मोल" में ई उपाध्यायश्री रा कुल छः प्रवचन संकलित है। मैं आ कृति प्रेरणादायी है, पाठकां रै मन भाई है जिण सूं इणै सूं मिनखपणा रौ मोल, आचार अर विचार, संयम रौ चमत्कार, इणै घणी प्रसिद्धि पाई है।
विवेक रौ प्रकाश, धरम रौ मरम अर जीवणा रौ इमरत। एकह
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पुस्तक री प्रमुख प्रवचन मिनखपणा री मोल है। इण में मान री व्याख्या करतां प्रवचनकार कहयौ है "मिनख रूप में करोडूं-अरबां जीव धरती माथै फिर रहया है, पण वां में साचा मिनख किताक लाभसी? भारत जिसा मुल्क में नीं धरमा री कमी है नीं संप्रदायां री नीं साधुवा री कमी है, नी गुरुवां री अठै नीं नेतावां री तोटी है अर नीं उपदेसकां रौ। तामपण संप्रदायवाद, पंथवाद, पोथीवाद, जातिवाद, प्रांतवाद अर भाषावाद रा दानव भारत री छाती माथै मूंग दल रहया है। इण भांत आपण विचारां रै ओछापण रै कारण मिनखपणै रा टुकड़ा टुकड़ा होयग्या है। आपण सोचण री तरीकी ई गळत होयग्यी है।"
इंण प्रवचनां में इण भांत हर तरै सूं समझाय नै प्रवचनकार मिनख पण री ओळखाण करावण री कोशिश करी है।
इण कृति रा बाकी रा प्रवचन ई मानवोपयोगी अर आध्यात्मिकता सूं ओत प्रोत है। दाखला सरूप आचार अर विचार प्रवचन में प्रवचनकार कहयौ है
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
आचारः प्रथमो धर्मः आचारः परमंतपः। आचारः परमं ज्ञानमाचारत किं न सिद्धयति ?
आचार इज मोटी धरम है, आचार इज मोटी तप है, आचार इज मोटी ज्ञान है अर ज्ञान रौ स्रोत पण है। आचार सूं किसी काम नीं बण सकै? मिनखाजूण में सगळी सफळतावां आचार सूं मिळ सकै ।
इण भांत इण तीनूं कृतियाँ रा सगळा प्रवचनों में विचारों रा मोती भरया पड़या है। प्रवचनकार उपाध्यायश्री राजस्थानी भाषा रा आछा जाणकार हा । वर्षावास अर दूजा कई अवसरां माये वे ग्रामीण श्रोतावां आगढ़ राजस्थानी भाषा में इज वखाण देवता। आप री वखाण देवण री अर समझावण री शैली घणी प्रभावशाली ही । आपरा इण तीनूं संग्रहीं में जिको प्रवचन राजस्थानी में प्रस्तुत है, वे आपरी वक्तृत्वकला रा अनूठा नमूना है। म्हने आं पोथ्यां री अनुवाद करण रौ मौका मिल्यौ । उपाध्यायश्री री प्रेरणा ई आं पोथ्यां री सफलता रौ राज है।
जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा
जो कर्म में शूरवीर समर्थ होते हैं, वे धर्म मार्ग में भी पराक्रमशाली और अग्रगामी होते हैं। समर्थ आत्मा हर क्षेत्र में अपनी प्रधानता स्थापित करता है। इसका जीवन्त उदाहरण है स्वयं भगवान महावीर का जीवन । देखिए
१. तीर्थंकर वर्द्धमान आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के पौत्र होकर फिर स्वयं अंतिम तीर्थंकर बने ।
२. भगवान महावीर प्रथम चक्रवर्ती भरत के पुत्र हुए फिर स्वयं प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती (२२ भव) बने
३. वे त्रिपृष्ट नामक अर्धचक्रवर्ती (१८वां भव) वासुदेव बनकर दीर्घकाल तक सांसारिक सुख-वैभव को भोगकर नरक में गये, तो नन्दनमुनि के (२४वां भव) रूप में एक लाख मासखमण तप कर समभावों में रमण करते हुए स्वर्ग के शिखर तक भी पहुँचे।
४. क्रूर सिंह (२०वां भव) के रूप में जन्म लेकर अत्यन्त क्रूरतापूर्ण प्राण वध करते हुए मांस भक्षण कर नरक गमन किया, तो तीर्थंकर के रूप में परम करुणाधर्म का उपदेश देते हुए विश्व की माता स्वरूप अहिंसा का सूक्ष्मतम उपदेश / आचरण किया।
५. उन्होंने अनेक बार (पूर्व भयों में) नरक-निगोद की अत्यन्त पीड़ादायी वेदनाएँ भोगी तो मोक्ष का परम सुख भी प्राप्त किया।
६. भगवान महावीर के जीव ने मिथ्यात्वग्रस्त होकर जीवों को मिथ्या उपदेश देकर नरकगामी बनाया तो क्षायिक सम्यक्त्व का स्पर्शकर रत्नत्रय रूप सद्धर्म का उपदेश देकर अगणित जीवों का उद्धार भी किया।
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-महावीर चरित्र के आधार पर
www.jainshipbrary.org DDDD
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वाग देवता का दिव्य रूप
'दान' का विश्वकोष-जैनधर्म में दान : एक समीक्षा
-डॉ. राकेश गुप्त, डी. लिट. उपाध्याय पुष्कर मुनि कृत 'जैन धर्म में दान' नामक महनीय ग्रन्थ में अनेक दृष्टियों से 'दान' की व्याख्या की गई है। यह विवेचन और व्याख्या केवल जैनधर्म तक सीमित नहीं है, अपितु विद्वान लेखक ने हिन्दू, बौद्ध, सिख, इस्लाम और ईसाई आदि धर्मों के मान्य ग्रन्थों से उद्धरण देकर अपने कथन की पुष्टि की है, तथा देश-विदेश के इतिहास एवं साहित्य से विपुल आख्यानात्मक उदाहरण देकर दान के महत्त्व और स्वरूप को स्पष्ट किया है।
-संपादक
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_दान के अनेक दृष्टियों से भेद किए गए हैं। एक दृष्टि से दान । ब्राह्मण के दान के पुण्य के प्रभाव से उस स्थान पर लोटने वाले तीन प्रकार का होता है : (१) सात्त्विक, (२) राजस, (३) तामस। नेवले का आधा शरीर सोने का हो गया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ निःस्वार्थ भाव से दिया गया दान सात्त्विक है, जो सर्वोत्तम है। की महिमा सुनकर नेवला वहाँ पहुँचा। उस यज्ञ में लाखों व्यक्तियों किसी प्रयोजन से, यश, प्रसिद्धि अथवा कोई अन्य लाभ प्राप्त करने ने भोजन किया था तथा अपार संपत्ति दान में दी गई थी। जब उस के उद्देश्य से दिया गया दान राजस है। तिरस्कारपूर्वक कुपात्रों को स्थल पर लोटने से नेवले का शेष आधा शरीर सोने का न हुआ, दिया गया दान तामस की कोटि में आता है। इस प्रकार के दान को तो उसने अनेक सभ्य जनों से घिरे हुए युधिष्ठिर को सुनाकर निकृष्ट माना गया है, तथा इससे पुण्यलाभ भी नहीं होता।
कहा-"महाराज, इस यज्ञ में दिए गए आपके विपुल दान से उतना एक अन्य दृष्टि से दान के चार भेद किए गए हैं : (१)
भी पुण्य अर्जित नहीं हुआ, जितना एक ब्राह्मण के द्वारा दिए गए अभयदान, (२) अन्नदान, (३) औषधदान, (४) ज्ञानदान। इनमें ।
थोड़े-से सत्तू के दान से हुआ था।" इसी प्रकार सर्वस्व दान चाहने अभयदान को सर्वोत्तम माना गया है। संसार के इतिहास और ।
वाले महात्मा बुद्ध के शिष्य अनाथपिण्ड ने समृद्धशालियों द्वारा दिए साहित्य में ऐसे अनेक आख्यान भरे पड़े हैं, जिनमें अभयदान देने
गए बहुमूल्य रत्नों के दान की उपेक्षा करके एक महादरिद्र किन्तु DOD वालों ने अपने प्राणों का मोह छोड़कर शरणागत की रक्षा की है।
भावनाशील महिला से उसके एक मात्र वस्त्र का दान-सर्वस्वदान प्रस्तुत ग्रंथ में इस प्रसंग में उद्धृत अनेक आख्यानों में से संत
आदरपूर्वक स्वीकार किया। महानाम से संबंधित प्रसंग अत्यन्त मार्मिक है। श्रावस्ती का राजा मनीषी लेखक ने दान से प्राप्त होने वाले लाभों का विस्तार से विडुडभ प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ कपिलवस्तु का सर्वनाश वर्णन किया है। दान एक वशीकरण मंत्र है, दान से शत्रु भी मित्र करने को उद्यत था। संत महानाम, जो विडुडभ के गुरु भी रह चुके | बन जाता है, दान से जिस दिव्य आनंद की अनुभूति होती है, वह ' थे, जब समझाने-बुझाने से उसे न रोक सके, तब उन्होंने विडुडभ शब्दातीत है। अपने प्रत्येक कथन को लेखक ने प्रामाणिक आख्यानों का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया-"इस तालाब में आप जितनी द्वारा पुष्ट किया है। दान से कैसे आनंद-लाभ होता है, इसे लेखक देर तक डुबकी मारे रहेंगे उतनी देर तक मैं कत्लेआम बन्द । ने एक अद्भुत किन्तु मर्मस्पर्शी घटना का उल्लेख करके रूपायित रलूँगा।" राजा ने सोचा था, आखिर पानी में ये कितनी देर तक किया है : एक अतुल संपत्तिवाला व्यक्ति महाकृपण था। उसके एक साँस रोक सकेंगे, पर महामानव संत ने कपिलवस्तु का विनाश परम मित्र ने, जो दुष्काल-पीड़ितों के लिए चंदा एकत्र कर रहा था, रोकने के लिए जल में चिर-समाधि ले ली।
लौटाने का वायदा करके केवल एक दिन के लिए उससे दस सहस्र 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को उद्धृत करते हुए मुनिवर ने
| रूपयों का एक चैक माँग लिया, तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सभा न्यायोपार्जित पदार्थ के दान को, यदि वह योग्य पात्र को दिया गया
में उस चैक को दिखाकर बहुत-सा चन्दा एकत्र कर लिया। दूसरे हो,'महादान' की संज्ञा दी है। दान का महत्त्व दी गई वस्तु के
दिन जब वह परोपकारी व्यक्ति वायदे के अनुसार अपने मित्र को परिमाण अथवा मूल्य से नहीं होता, अपितु देने वाले की ।
चैक लौटाने गया, तो वह उसकी बात सुनकर दंग रह गया। उसने त्याग-भावना से होता है। दृष्टान्त-स्वरूप उद्धृत अनेक उपाख्यानों
कहा था-"आज तक मैंने दान की महिमा नहीं जानी थी। कल में से महाभारत की नेवले और युधिष्ठिर की कथा अत्यन्त रोचक
संध्या से रात तक मुझे बधाई देने वालों तथा मेरी प्रशंसा करने एवं शिक्षाप्रद है। दुष्काल के समय एक सप्ताह के उपवास के बाद
वालों का तांता लगा रहा। इससे मुझे जो आनंद प्राप्त हुआ उसकी चार प्राणियों के एक ब्राह्मण परिवार को कहीं से थोड़ा-सा सत्तू
मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। तुम दुःखी जनता की सहायता प्राप्त हो गया। खाने बैठे ही थे कि एक क्षुधार्त अतिथि द्वार पर
के लिए मुझसे दस हजार का एक चैक और ले जाओ।" दिखाई दिया। ब्राह्मण परिवार के सभी सदस्यों ने प्रसन्नतापूर्वक धन की तीन गतियाँ मानी गई हैं-(१) भोग, (२) दान, (३) अपने-अपने हिस्से का सत्तू देकर उस अतिथि को तृप्त किया। उस / नाश। संयमित भोग में सीमित धन ही व्यय होता है। असंयम से म
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किया गया भोग रोग और क्लेश का कारण बनता है। संयमित भोग के उपरांत बचे हुए धन का दान करना ही श्रेयस्कर है। कृपण का धन अंत में नाश की गति प्राप्त करता है।
संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि दान के जितने भी रूप और प्रकार हैं, जितनी भी व्याख्याएँ हैं, उन सबका सरल-सुबोध भाषा में इस आकर ग्रंथ में विवेचन किया गया है। दान के संबंध में जहाँ भी, जो कुछ भी कहा गया है, वह सब यहाँ उपलब्ध है। चाहे वह आर्ष ग्रंथों की वाणी हो, चाहे वह कबीर, तुलसी एवं रहीम जैसे सिद्ध कवियों की अनुभव पुष्ट उक्ति हो, और चाहे वह दान की महिमा को प्रतिबिंबित करती कोई घटना अथवा कथा हो,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
उस सबका आकलन इस दान मंजूषा में बड़े अध्यवसाय एवं विवेक के साथ किया गया है। इसे दान का विश्वकोश भी कह सकते हैं तथा एक उच्चस्तरीय शोध प्रबंध भी इसके अनुशीलन से केवल सामान्य पाठकों को ही नहीं, अपितु प्रबुद्ध एवं संवेदनशील सहृदयों को भी सत्प्रेरणा प्राप्त होगी तथा इस आकाशदीप का आलोक उनकी गंतव्य दिशा निर्दिष्ट करने में समर्थ होगा। एवमस्तु ।
- राकेश गुप्त
३९८, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़-२०२ ००१
मौका मिल गया
अब तू कर ले धर्म काम। तुझे मौका मिल गया। रट लेना प्रभु नाम। तुझे मौका मिल गया ।। र ।।
पाप करता खूब और सुख फिर चाहता है। धर्म और धर्मी के तू पास नहीं जाता है। अब कर लेना प्रणाम तुझे मौका मिल गया ||१||
खुद के घर को आग लगाकर, खुद पछतायेगा। क्रोध मान माया में तू फँस दुःख पायेगा ॥ पा ले सुख का अब धाम तुझे मौका मिल गया ॥ २ ॥
बदियों में झूम-झूम जुल्म तू कमाता है । भलाई को छोड़ कर दीनों को सताता है। होता जग में तू बदनाम । तुझे मौका मिल गया ॥ ३ ॥
जीवन में सुगन्ध भर लो महावीर के प्यार की। प्रीति तुझे छोड़ना है झूठे इस संसार की ॥ "पुष्कर" पाना सुख धाम । तुझे मौका मिल गया ॥ ४ ॥
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- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर- पीयूष से)
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वाग् देवता का दिव्य रूप
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(उपाध्याय श्री के सूक्ति साहित्य पर एक विहंगम पर्यवेक्षण)
-डॉ. नागरमल सहल
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है इसलिए धनपति DOE12
प्रसाद किसी भी रूप में हो सदा ग्राह्य होता है, सरिता-तट पर गीता कहती है 'न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठव्यकर्मकृत्' तीर्थ का विशेषतः । उससे मन मुदित होता है तथा क्षणभर के लिए 'नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः'। आत्मस्थ होने का अवसर सुलभ होता है। सूक्तियाँ भी एक तरह का
अनुभव से आदमी सीखता नहीं है, इसीलिए इतिहास की प्रसाद ही है। जैसे विभिन्न प्रान्तों के मंदिरों में प्रसाद के विविध रूप
पुनरावृत्ति होती है। शरीर जड़ है। आत्मा अमर है। चार्वाकवादियों होते हैं, लेकिन उन सबमें भी एक तरह का साम्य होता है। सूक्तियाँ ।
के अतिरिक्त सबका यही उद्घोष है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि सब देशों और सब भाषा साहित्यों में मिलती हैं। उनमें वैषम्य की
अधिसंख्य लोग नास्तिक और भौतिकवादी हैं। अधिकतर अपेक्षा साम्य अधिक होता है। सूक्तियाँ सब नयी नहीं होतीं। अगर
अनात्मवादी और देह-पूजक हैं। होतीं तो उनका अमित भण्डार हो जाता। देश-विदेश का मानव तो बहुत कुछ एक ही है। उसका चिंतन कई वार एक सा लगता है।
उपाध्यायजी का कथन है 'वर्तमानयुग में मनुष्य वासना सेवन सूक्तियाँ परिचयात्मक, ज्ञानात्मक, विवरणात्मक, सूचनात्मक तथा में पशुओं को भी मात कर गया है। आज भारत में नैतिकता और
6.9 आदर्शोन्मुख होती हैं। इस कारण सूक्तियों का सतत् उद्धरण देने मानवता का दिवाला पिट चुका है। अर्थ-युग है, इसलिए धनपति JORSRO वाले महारथी भी व्यवहार में सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। 'महाजन' हो गये मानो धन ही महत्ता का परिचायक हो गया। pages
RS सूक्ति का विलोम शब्द 'कूक्ति' हो सकता है जिसका ही यत्र, शंकराचार्य ने कहा था 'अर्थमनर्थ भावय नित्यं नास्ति ततः तत्र, सर्वत्र व्यवहार होता है। मनसा, वाचा, कर्मणा शुद्धि की बात सुखलेशः सत्यम्। पुत्रादपि धनभाजां भीतिः विहिता सनातन सा कही गई है। प्रधान मन है। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। रीतिः' मूल्यहीनता ही उच्चतम मूल्य हो गया है। भौतिक वस्तुएँ मन शुद्ध होगा तो वाणी और कर्म अशुद्ध हो ही नहीं सकते। आज । अचिरस्थायी होती हैं। जिनमें स्थायित्व नहीं, उनमें मूल्यवत्ता अशुद्ध मन की स्थिति के कारण वाणी तो दूषित हो ही गई है। कर्म । कैसी? गौरव है त्याग में, भोग में नहीं। 'गुण तो अपनी आत्मा के भी निष्काम न होकर प्रदर्शनात्मक हो गये।
वश में यानी प्रयास से प्राप्त किये जा सकते हैं लैकिन धन तो सूक्तियाँ अधिकांश अनुभवजन्य होती है, इसलिए कथ्य में
भाग्याधीन है। विरोध स्वाभाविक है। भाग्यवाद और कर्मवाद पर बहुत कुछ लिखा लीजिए, फिर आ गया भाग्य। 'पापकर्म हंस-हंसकर बांधे जाते 509२० गया है। कर्म करते रहने पर भी अगर सफलता नहीं मिले तो हैं और उनका फल रो-रोकर भोगा जाता है। लेकिन तथ्य को कोई हठात् भाग्य में विश्वास करना पड़ता है। 'यत्ने कृते न सिध्यति तर्हि । समझे तब न। हँसते समय जैसे रोना है ही नहीं।
Poonam कोऽत्र दोषः' का भाग्यवादी और कर्मवादी अलग-अलग अर्थ करते
अंग्रेज कवि शैली ने लिखा 'Our sweetest laughter हैं। भाग्यवादी कहते हैं कि पूरा प्रयत्न करने पर भी सफलता वरण
with some pain is fraught' माताएँ बच्चों को कहती हैं नहीं करती है तो किसका दोष? भाग्य का दोष ही है। कर्मवादी
इतना हँसो मत अन्यथा फिर कभी रोना पड़ेगा। 'धर्म को सामने कहते हैं कि कर्म करने में कोई न कोई कमी रह गई थी, उसका
रखकर यदि अर्थ, काम, मोक्ष को अपनाया जाय तो जीवन सफल परिष्कार करो।
हो। धर्मार्थकाममोक्ष चतुर्वर्ग कहलाता है। धर्म का अर्थ मानवधर्म है। श्री पुष्कर मुनि की सूक्ति है ‘भाग्य लंगड़ा है, भाग्य कर्म की ये चारों पुरुषार्थ हैं। धर्म से हटकर चले तो मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न ही बैसाखी पर चलता है। पर साथ ही दैव-गति बड़ी विचित्र होती है। नहीं। बिना धर्म के अर्थ, काम का सेवन किया तो परिणाम भाग्य योग से सज्जन पुरुषों पर भी आपत्ति आती है। जगत का सामाजिक वैषम्य, निर्धनता की विभीषिका तथा नया रोग एड्स।
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16930 अंधेरा हरने वाले सूर्य-चन्द्र को भी ग्रहण लगता है, इन्हें भी धन धर्म से प्राप्त होता है, पर धनी उस धन को धर्म के लिए छोड राहु-केतु ग्रसते हैं। भाग फले तो सब फले, भीख बंज व्यापार देना नहीं चाहता, वह उसके लिए बेटा चाहता है, अपना न हो तो
संस्कृत में 'भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् गोद लेने की सोचता है। धनी यह क्यों नहीं समझते कि भीड़ उनके भवितव्यता वलवती राजन्' पर साथ ही 'उद्योगिनः पुरुषसिंहमुपैति
धन के कारण इकट्ठी होती है, उनके कारण नहीं। चाटुकारिता लक्ष्मीः '
पनपी इसीलिए कि चाटूक्तियाँ आपको सुहाती हैं। निष्कर्ष यही है कि 'अन्तर में वैराग्य और बाह्य में कर्तव्य यह सब इसलिए कि चाटुकार आपको अयोग्य समझते हैं। पालन इष्ट है।
पक्षपात, भाई-भतीजावाद इतना बढ़ा है क्योंकि सबको धन चाहिए।
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बाईबल ने तो यहाँ तक कहा कि ऊँट सूई की नोंक से भले निकल जाय पर धनी स्वर्म के द्वार तक भी नहीं पहुँच सकते। धर्म को जब पुरुषार्थ माना तो किसी धर्मविशेष को नहीं मात्र मानवधर्म की 'भृतिक्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीविद्या सत्यमक्रोधोदशकं धर्मलक्षणम्।
ध्यान देने की बात है कि ये दसों एक वचन है। खाली क्षमा धर्म नहीं है, न सत्य, न विद्या, न संयम एक-एक की साधना कर लोग धर्मात्मा होने का दंभ करने लगते हैं।
सूक्तियाँ या अच्छे विचारों पर अमल नहीं किया जाय तो अच्छे विचार स्वप्न मात्र ही हैं। कथनी और करनी में इतना भेद धर्मात्माओं का नहीं, दुरात्माओं का लक्षण है। 'दूसरों के गुण देखो, अपने दोष' 'अधिकार दूसरों के लिए छोड़ो, कर्तव्य सम्हालो पर आकांक्षा तो यह है कि बिना कर्तव्य के अधिकार मिल जाएँ।
राजनीतिशास्त्र का विधान है कि दोनों साथ चलते हैं, पृथक् नहीं । यश की कामना घातक है, और वह यश टिकेगा कब तक ? यश का अर्थ है दूसरे लोग आपके बारे में क्या कहते हैं पर बिना आत्म परिष्कार के यश की क्या कीमत ? इसकी कामना मिल्टन के शब्दों में संत महात्माओं को भी होती है Fame the last infirmity of noble minds / कबीर को कहना पड़ा 'कर का मनका फेरि कै मन का मनका फेर' यह भी निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय । पर सत्ताधारी का यह दोष है कि वह अपनी ही बात सही रखना चाहता है। 'आदमी आदमियत से बनता है, शक्ल सूरत से नहीं।'
अंग्रेजी में है- 'Handsome is that handsome does' 'मनुष्य अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है, फिर भी अकेला रह नहीं सकता। पर जाना कहाँ चाहता है। कवि की उक्ति है- 'For we are born in other's pain und die in our own's' बच्चा पैदा होता है तो माँ को कष्ट मरने के समय कष्ट स्वयं को होता है, अन्य चाहे जितना नाटक रचें। दूसरे कवि की उक्ति है 'डर क्या है इकला जाने में डर न किया जब इकला आने में'।
शकुन का अधिक विचार करने वाला जीवन में हार जाता है, 'सिंह शिकार के लिए अकेला ही निकलता है। कभी शुभाशुभ या चंद्रबल नहीं देखता।
प्रश्न उठता है कि सज्जनों को दुःख अधिक क्यों भोगने पड़ते हैं। उत्तर है 'सती के जीवन में कष्ट इसलिए आते हैं कि वह कष्टों में तपकर कुंदन बन सके।'
'सर्वे स्वार्थ समीहते' 'स्वार्थ ऐसी चिकनाई है जिस पर शुभ विचार कभी नहीं टिक पाते हैं, आते ही फिसल जाते हैं।' 'स्वार्थ से प्रेम नष्ट होता है भवभूति ने यही तो कहा था 'अहेतुः पक्षपातो यस्तस्य नास्ति प्रतिक्रिया । स हि स्नेहात्मकस्तन्तुरन्तर्ममाणि सीव्यते ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
स्नेह और वासना में बड़ा अंतर होता है। शैली ने एक कविता लिखी थी "The Flight of Love' अर्थात् इस धरती पर से प्रेम उठ गया है। मिलता है देखने को बस वासना का ताण्डव नृत्य । 'अन्तःकरण के निर्मल और सात्विक होने का नाम ही साधुता है। भारत के लाखों साधु अगर सचमुच साधु होते तो देश का कल्याण हो जाता और शायद कोई अवतार ही आ जाता। शर्त है 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय व दुष्कृताम्' धूर्त, लंपट तो बहुत, पर साधु कहाँ कितने ? अधिकांश तो ऐसे हैं 'मूंड मुंडायां तीन गुण, मिटे टाटरी खाज। बाबा वाज्या जगत में, मिल्यो पेट भर नाज।
मनोविश्लेषक फ्रायड ने अनेक लोगों से उगलवाया था उनकी बेहोशी में उनमें कितनी नारियों से कैसे-कैसे अवैध संबंध थे। नियंत्रण अति दुष्कर है। 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः 'सुख-दुःख जीवन सरिता के दो तट हैं, कभी इस तट पर तो कभी उस तट पर तट रहने के लिए नहीं होते, वैसे ही सुख-दुःख हैं। 'चक्रवत् परिवर्तत्ते सुखानि च दुःखानि च। तर्कसंग्रह में दुःख-सुख को परिभाषित नहीं किया जा सका। सुख का अभाव दुःख और दुःख का अभाव सुख यह कैसी निषेधात्मक परिभाषा
'अकड़ने वाला टूटता है, झुकता नहीं यह शेक्सपीयर की ट्रैजेडी के नायकों की याद दिलाती है जो Could break but not end 'शरीर नौका है, आत्मा मल्लाह है। शरीर नौका के माध्यम से आत्मा मांझी भवसागर के पार जाना चाहता है, इसमें धर्म पतवार है 'देह मेरी नहीं है, मेरे लिए है मेरी दासी है, मैं आत्मा इसका स्वामी हूँ।' पर दुनिया आत्मा का विस्मरण करके ऐन्द्रिय सुख में मग्न है। इंन्द्रियाणि हि प्रमार्थनि हरान्ते प्रसगं मनः ' 'स्मृतियां यदि भूत हैं तो आशा भविष्य की दूती है।' पशु-पक्षी वर्तमान में रहते हैं मनुष्य ही भूत, भविष्य में झांकता रहता है। भूत का अर्थ है जो व्यतीत हो गया होना यह चाहिए Learn from the past, work in the present and the future will take care of itself, अंग्रेज कवि पोप ने कहाIgnorance to the future kindly given by God अर्थात् भविष्य का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह । जैसे को तैसा Tit for tat इस नीति से कर्मों का कभी क्षय नहीं होता। यह शठे शाठ्य समाचरेत् है जो ताको कांटा दुवै उसको पुष्प समर्पित करो। कर्म कभी पिण्ड नहीं छोड़ते। तुम 'खमापणा' के दिन ही एक दूसरे को क्षमा करते दीखते हो, पर यह मौखिक है, हार्दिक नहीं तभी तो इसका प्रभाव न के बराबर होता है। 'कृतकर्म कभी माफ नहीं करते।' औषधियां रोग मिटा सकती हैं, कर्म नहीं। जीवन जीने की कला है हमारे खेल का निर्देशक हमारा पूर्वकृत कर्म है। अपने को खिलाड़ी मानकर जीओ, फिर आनन्द ही आनन्द है, न सुख, न दुख। क्रुद्ध नट भी अंदर से सर्वथा शान्त होता है, तभी तो अभिनय है। काम अन्धा होता है, क्रोध बहरा होता है। (Anger is a short madness.) उल्लू के लिए दिन रात है कौआ दिन में ही देख सकता है पर कामी दिन रात अंधा बना रहता है। Love is
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। वाग् देवता का दिव्य रूप blind. रूप में कोई जादू नहीं होता। जादू काम का है। भोगों में इज्जत उसे मिली जो बतन से निकल गया। घर का जोगी
- दासत्व है और त्याग में स्वामित्व है। न जातु कामः कामानुपयोगेन । जोगना, आनगाँव का सिद्ध । 'पक्षी तो बस गाना ही जानते हैं, Patos शाम्यति। कई सुक्तियाँ संस्कृत का अनुवाद सी हैं जैसे धन संग्रह में } रोना-हंसना तो मनुष्य के हिस्से में आया है। शेली ने यही बात चोरी का भय रहता है, कुटुम्ब में कुलटा स्त्री का आदि। निर्भयता कितने सटीक ढंग से कही है-We look before and after केवल वैराग्य में है। शत्रु और रोग को कभी बढ़ने नहीं देना । and tire for what is not, 'सोना लक्ष्मी का रूप है; त्याग, चाहिए। यह माघ का 'रोग शेषं शत्रु शेषं न शोषते' है। 'जो मन से अपरिग्रह, विवेक सरस्वती का रूप है' पर दीपावलि जितनी बूढ़ा नहीं होता वह कभी बूढ़ा नहीं होता' या A man is as old सोत्साह मनाई जाती है और कोई त्यौहार शायद नहीं। 'विश्व एक as he feels and a woman is as old as she looks. ऐसे खुली पुस्तक है। जो प्राणी एक ही स्थान पर टिका रहता है, वह ही स्वाति बूंद का साँप, सीपी, केला और बांस में गिरना है। 'श्रेष्ठ इस पुस्तक का एक ही पृष्ठ पढ़ सकता है। इसमें देशाटन का महत्व पुरुष जिस वस्तु का आचरण करते हैं,' अन्य उसी का अनुकरण।। है और कूपमण्डूकता पर सीधा प्रहार। 'जो चीज दिखाई देती है यह गीता का तहेवेतरो जनः है। कृपणों का धन हमेशा दूसरे ही वह जानी जाती है और जो दिखाई नहीं देती वह मानी जाती है। भोगते हैं। यह धन की तीन गति वाली बात है। यौवन, धन, प्रभुत्व जानने का काम मस्तिष्क का है और हृदय से माना जाता है। यह अविवेक-यह संस्कृत के श्लोक का सीधा अनुवाद है। कृतघ्न के यथार्थ है बिना हृदय-योग के मानना अंधविश्वासी हो जाता है। लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं। इससे बढ़कर कोई पाप नहीं।
आत्मा को जानते कितने लोग हैं और मानने वाली दुनिया का हृदय श्री उपाध्यायजी अंधश्रद्धा के विरुद्ध हैं। 'धर्म का पथ आँख
वहाँ है ही नहीं। इसलिए आस्तिकता आदि लोक दिखावे के लिए है। मूंद कर चलना नहीं है।' 'धर्म एक वृक्ष है, कर्त्तव्य उसकी एक क्रिया हुआ उपकार याद रखन का नहा हा प्रत्युपकार का दृष्टि स शाखा है।' शाखा पेड़ नहीं होती। धर्म व्यापक है, कर्त्तव्य व्याप्य।
किया गया उपकार स्वार्थ में सना हुआ होता है। अग्निपुंज होकर 'बुढ़ापा आने पर धर्म करेंगे' यह उतना ही हास्पास्पद है जितना
भी सूर्य किसी को भस्म नहीं करता: समुद्र सीमोल्लंघन करके किसी संत कवि कबीर को लगा था। 'आज कहै हरि काल्हि भनूँगा,
को जलमग्न नहीं करता, शक्तिसंपन्न कभी निर्बल का अहित नहीं कालि कहै फिर काल्हि। आज आल्हि करंतड़ा औसर जासी चालि'
करता; दाता अपने दान की, व्यापारी अपनी कमाई की और योगी यही है Tomorrow never comes. Excess of every
अपने उपसर्गों की अधिक समय तक याद नहीं करते शीघ्र भूल thing is bad अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति दान से बलि वांधा गया,
जाते हैं। मर्यादाहीनता उच्छृखलता कहलाती है। अति लोलुपता से रावणवध हुआ। 'भय के बिना प्रीति नहीं होती' वर्ड्सवर्थ ने कहा था He this unchartered freedom यह तुलसी का 'बिनु भय होइ न प्रीति' है।
tires. इन तथ्यों को लोग भूल जाते हैं। दान देते हैं तो पत्थर पर आज शासन में किसी को किसी का भय नहीं है, इसीलिए
अपना नाम खुदवाते हैं। 'बड़े से बड़ा घाव समय ही भरता है। यह कदाचार, भ्रष्टाचार का बोलवाला है। When the cat is away,
Time is the greatest healer 'आपत्ति 'मनुष्य' बनाती है,
संपत्ति राक्षस'। आपत्ति सिखाती है; संपत्ति बिगाड़ती है। इसी से तो mice play बहुत थोड़े मनुष्य निष्ठापूर्वक कर्तव्य का पालन करते हैं। कुछ डर से करते हैं और शेष चापलूसी से मुक्त हो जाते हैं।
'सुख के माथे सिल परे'। सुख में हृदय सिकुड़ता है। दुःख में हृदय 'राजा की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी दुःखदायी है।' यह अनुभव
का विस्तार होता है। 'मछली रसना इन्द्रिय वश, हिरण कर्णेन्द्रिय प्रसूत है। 'सचिव बैद गुरु' को स्पष्टवादी होना चाहिए पर
वश, हाथी स्पर्शेन्द्रिय वश, पतंगा चक्षुरिन्द्रिय वश और भ्रमर स्पष्टवादिता को सहन कितने तथाकथित अधिकारी कर पाते हैं।
घ्राणेन्द्रिय के वश होकर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते हैं। जो सभ्यता और संस्कृति में चुनाव करना हो तो संस्कृति का ही पलड़ा
पाँचों इन्द्रियों के वश हो उसकी क्या दुर्गति होगी।' विश्व की आज भारी होना चाहिए, क्योंकि संस्कृति में संस्कार समाविष्ट हैं जब कि यही तो गति है। बाहरी चकाचौंध, अंदर खोखलापन।
upsap सभ्यता वाह्य टीप-टाप है। ‘गाँवों में आतिथ्य की संस्कृति आज भी । 'सूक्ति-कोश' में जैनधर्म को व्याख्यायित किया गया है। दान, है। नगरों में सभ्यता तो है पर संस्कृति नहीं। सभ्यता उठना-बैठना, मोक्ष, धर्म, अणुव्रत, संलेखना आदि का सही टंकन है। अपरिग्रह G0069
16903 खाना-खिलाना, साज-सज्जा सब सिखा सकती है पर उसमें हृदय कितना बड़ा आदर्श है। निर्धन दीखने में अपरिग्रही है पर मन तो
JOD909 का स्पर्श कहाँ। 'अतिथिदेवो भव' पर शहरों में अधिकांश सातिथि परिग्रह में फंसा हुआ है। ब्रह्मचर्य में कितनी अपार शक्ति है पर Padme होते हैं। 'बिना बाप के बेटा बिगड़ जाता है और बिना माँ के बेटी आचरण तो अब्रह्मचर्य का है। ध्यान की कितनी महिमा है पर बिगड़ जाती है। क्योंकि बेटी को जितना माँ समझती है पिता नहीं। ध्यानस्थ कितने हो पाते हैं। एक बार ध्यान-संगम में मैं किसी पिता तो कह देंगे बिटिया विज्ञान पढ़ती है, प्रयोगशाला में विलंब कारणवश दो मिनट विलंब से पहुँचा और दरवाजे के पास सबसे हो गया होगा पर माँ स्वभावतः जानती है कि कब कौन से प्रयोग दूर चुपचाप बैठ गया, पर सबका ध्यान गया मैं महिला-कक्ष वाले होते हैं। बिना माता-पिता के अनाथ होते ही हैं। माता पिता भी आसन पर बैठ गया। यह है ध्यान का नाटक। इसी पर प्रश्नचिन्ह अधिक बार एकमत नहीं हों तो संतान पर विपरीत असर पड़ता है। शीर्षक मेरी एक कविता छपी थी। सामायिक का कितना ऊँचा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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आदर्श है। इसका कोई मोलतोल नहीं हो सकता पर यह भी संध्या, दिशा में हो रही है। व्रत चाहे महान् हो, चाहे अणु-व्रत ही होता है नमाज आदि की तरह यांत्रिक होती जा रही है। संध्या में बोला । पर कितने उसको निभा पाते हैं ? घड़ी के एक समय चाबी लगते जाता है-यत् रात्र्या पापकर्मगि मनसा वाचा हस्ताभ्यां पम्यांत, । रहने से ही इच्छाशक्ति बढ़ जाती है पर यह छोटी सी बात भी निभ उदरेण, शिश्ना आदि। पाप किये जाते हैं और यह सब पाठ भी। कहाँ पाती है? धर्म के नाम पर संघर्ष क्यों होते रहते हैं ? धार्मिक धर्म 'केक' नहीं, रोटी है। जीवन धार्मिक नहीं हुआ तो पूजा-पाठ, कट्टरता क्यों बढ़ रही है? असहिष्णुता क्यों पनप रही है ? मिलावट जप-तप किये जाइए, इससे किसका भला होगा। कबीर ने कहा था का क्यों बोलवाला है? एक जैन सभा में मैंने कहा था कि तेल, घी 'जब मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह मन-कपि ही तो उछल कूद की ऐसी दो चार दुकानें यहाँ खुल जायँ तो चातुर्मास की सार्थकता मचाता है। देश में अनेक धर्म हैं। सभी अच्छी बात करते बताते हैं
समझें। खरी बात कौन सुन सकता है ? रोष व्याप्त हो गया। पर उसका असर क्यों नहीं होता? लोग एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल क्यों देते हैं ? प्रवचन के समय श्रोता का मन कहाँ
सूक्तियों में सार बहुत है पर बिना समझे सब निस्सार है। कहाँ भटकता है या थोड़ी देर शरीर जैसे थकान मिटाने के लिए
अद्वैतवाद कहता है-ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, पर संसार मिथ्या कैसे ऊँघ लेता है। धर्म का राजनीतिकरण क्यों हो रहा है? धार्मिकों में
है? सब लोग इसी दुनिया में रहते हैं या नहीं? इसका अर्थ यही है शिथिलता क्यों फैल रही है?
कि मन जुड़ा है तो संसार है। अमन मन के लिए कोई संसार नहीं
है। दूसरा अर्थ यह है कि यहाँ कुछ स्थायी नहीं है। सब मकान, जायदाद, सुविधाओं में आगे बढ़ने की दौड़धूप लगी
परिवर्तनशील है। स्त्री, पुरुष, अन्य वस्तुएँ सब एक जैसे कभी नहीं हुई है। धर्मप्रवर्तकों की शिक्षा का अनुसरण कौन कर रहा है?
रह सकते। मरणधर्मा मनुष्य को सब कुछ यहाँ छोड़ कर जाना ईसा, मोहम्मद साहब, महावीर, गौतम, सिख गुरुओं आदि के
पड़ेगा। अनित्य, अशरणादि भावनाएँ यही बताती हैं कि दृष्टि बाहर उपदेशों का व्यवहार में कितना प्रचार-प्रसार है? सच्चरित्रता,
इतनी नहीं जितनी अंदर रहनी चाहिए। आत्मोद्धार इष्ट है, ईमानदारी, हृदय-शुद्धि आदि अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। गांधी की
शरीरोद्धार की कोई बात नहीं करता। शरीर साधन है, आत्मा समाधि पर पुष्प चढ़ाने सत्ताधारी पहुँच जाएँगे, हाथ भी जोड़ लेंगे
साध्य है। शरीर को साध्य समझने का सर्वत्र प्रचलन हो गया है। पर व्यवहार उलटा। कोई अधार्मिक न कह दे इसलिए धर्म के नाम पर भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। इच्छा-पूर्ति हो गई तो सवा
शरीर और आत्मा पृथक् हैं, यही समझ कर तदनुसार आचरण या एक सौ एक रुपयों का प्रसाद चढ़ा दो। श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को
करना इष्ट है। राग द्वेष से ऊपर उठे बिना निस्तार नहीं। द्वेष प्रकट याद कौन करता है। ध्यान रहता है मिष्ठान्न पर।
शत्रु है पर राग प्रच्छन्न है। यह जान अनजान में मार करता ही
रहता है। बुरी बातें मानी जाती हैं, अच्छी बातों को अव्यावहारिक धर्म निष्प्राण, निस्तेज क्यों हो रहा है? उपदेशकों के प्रति
| समझ छोड़ दिया जाता है। मान-सम्मान में कमी क्यों आ रही है। धर्म भी जैसे एक पेशा बन गया है। जमाना था जब खादी भण्डार में काम करने वाला अपने
श्री पुष्कर मुनि को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि उनकी आपको अन्य कार्यकर्ताओं से ऊँचा समझता था। धर्म में ऊँच-नीच
कतिपय महत्वपूर्ण सूक्तियाँ को हृदयंगम किया जाय। श्रमण, श्रमणी, की बात होनी ही नहीं चाहिए। धर्म में जाति आदि का प्रतिबंध
श्रावक, श्राविका चारों मिलकर संघ बनाते हैं। एक-दूसरे के नहीं, फिर भी कितने धार्मिक गरीबों का दुःख-दर्द सुनते हैं ? वहाँ
निःश्रेयस् के लिए प्रयत्नशील होने पर ही संघ का कल्याण है। यह भी धनाढ्यों की भीड़ लगी रहती है, चाहे तिरुपति का मन्दिर हो, होना चाहिए पारस्परिक निःश्रेयस् के लिए, मात्र अभ्युदय के लिए चाहे नाथद्वारा का। चरित्र कैसा भी हो, समाज में प्रतिष्ठा बनी । नहीं, क्योंकि अभ्युदय का संबंध शरीर के है जबकि निःश्रेयस् का रहनी चाहिए। धन और सत्ता-दो ही इसके उपाय हैं। चेष्टा उसी । आत्मा से। आत्मस्थ होना ही सूक्तियों का हार्द है।
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कैसी भी परिस्थिति-स्थिति हो, धर्म से बड़ा सहारा कोई नहीं है। जो सब सहारे छोड़कर आश्रय और आसक्ति-दोनी की दृष्टि से धर्म की शरण में जाते हैं उनको इस जगत में भी सुख-शान्ति मिलती है और परलोक में भी देव पद या मोक्ष पाते हैं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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। वाग् देवता का दिव्य रूप
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पुष्कर सूक्ति कोश : एक दृष्टि
-डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया (प्रोफेसर, हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाएँ
भारती नगर, मैरिस रोड, अलीगढ़-२०२००१) 'सूक्ति' एक प्रकार से 'सुभाषित' है। दोनों का शाब्दिक अर्थ यही बात प्रकारान्तर सेभी समान है। जब कोई मनीषी, कवि, चिन्तक अपने जीवन
-मन को शुभ चिन्ताओं में रमाने के लिए उसे एकाग्र कीजिए, अनुभवों को साररूप में प्रस्तुत करता है तो वही 'सूक्ति' का रूप ले
अपनी चित्त वृत्तियों को स्थिर कीजिए। लेती है। इनका लक्ष्य मात्र मनोरंजन नहीं वरन् इससे इहलौकिक । और पारलौकिक जीवन का परिमार्जन और परिशोधन होता है।
इसको ही कितने सहज ढंग से प्रस्तुत किया गया है__ 'सूक्ति' को परिभाषित करते हुए प्रस्तुत कोश की प्रस्तावना में
-मन अणु है, फिर भी उसमें विराट् शक्ति है वह सूक्ष्म तत्त्व डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया ने कहा है
है जिसको आँखें नहीं देख सकतीं। __“सूक्ति शब्द समूह में सत्पूर्वक उक्ति का प्रयोजन सन्निहित अभी इस वर्ष ही "मन क्या है, और कहा ह?" विषय पर रहता है। उक्ति का अर्थ है कथन और सूत से तात्पर्य है सूत्र धागा। अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई जिसमें अनेक दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, वह कथन जो सूत्र में पिरोया/रखा जा सके। इसमें कथन-दोष/ चिन्तकों ने भाग लिया। यह मन ही तो है जो बिना पंख के गहरी अनर्गलता का कोई लेश-विशेष नहीं रहता। मतिज्ञान की छलनी से उड़ानें भरता है। आचार्य मुनि ने इसका सहज उपाय बताया है कि छनकर जो हिए की तराजू पर तुलकर/नपकर निकलता है वह 'मनरूपी घोड़े को ज्ञान की लगाम से रोको।' बनती है सूक्ति। तपश्चरण से निष्पन्न एकदम कथ्यसार, बारहवानी
सूक्ति से ही सूक्ति काव्य का प्रणयन भी प्रारंभ हुआ। संस्कृत में सुवर्ण निर्मल, वेदाग।" (वही पृष्ठ-१०).
पर्याप्त मात्रा में सूक्ति साहित्य प्राप्त होता है। अपभ्रंश में भी हेमचन्द्र मानव-प्रकृति को मानव के इर्दगिर्द सामाजिक परिवेश में । के 'प्राकृत व्याकरण' और 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में पर्याप्त संख्या में समझने बूझने की चेष्टा सूक्ति में होती है। मानव के किसी भी सूक्तियों का सन्निवेश हुआ है। अंतरंग पक्ष को बड़े सटीक ढंग से सामने रखा जाता है। प्रस्तुत
सर्वाधिक प्रभावित करती हैं 'दान' संबंधी सूक्तियाँ और वह कोश में उदाहरणार्थ 'मन' से संबंधित सूक्तियों को लिया जा सकता
भी 'गरीब का दान'। इनमें से कुछ आज के संदर्भ में बहुत सार्थक
भी है। मन संबंधी सूक्तियाँ द्वितीय खंड में इन शीर्षकों से हैं-मन की साधना
-दान ही ऐसा उपाय है जो परिवार, समाज और राष्ट्र में पड़े -मनोनिग्रह की कला
हुए अभावों के गड्ढे को भर सकता है। -मन का मनन
-जो स्वेच्छा से किया जाता है, वह मीठा होता है और जो यहाँ कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
जबरन लिया जाता है, वह कडुआ होता है। -आत्मा रूपी राजा का मन मंत्री है, सारा संचालन उसी के ।
यह 'सूक्ति सरोवर' कुछ खंडों में बँटा हुआ है जिसमें सर्वप्रथम हाथों में है।
'दान विमर्श' है और शेष हैं: -मन मंत्री के झांसे में आकर आत्मा राजा भी चौपट हो । द्वितीय-धर्म, समाज और संस्कृति जाता है।
-धर्म एवं जीवन -मन मंत्री के इशारे पर ही इंन्द्रियाँ सेविका बनकर चलती हैं।
-अणुव्रत-विश्लेषण मन का निग्रह करना तो वायु के समान दुर्लभ है। पर जितना
-गुणव्रत कठिन है उतना ही सरल भी।
-शिक्षाव्रत मुनि प्रवर ने बड़ी अच्छी तरकीब बतायी है
तृतीय-ब्रह्मचर्य विज्ञान -मन की साधना के लिए सर्वप्रथम आपको उसकी शक्ति को केन्द्रित करने का अभ्यास करना होगा।
-ब्रह्मचर्य साधना
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ब्रह्मचर्य का सीधा संबंध शील से है। इसके लिए सर्वप्रथम बुद्ध "सूक्ति में सामाजिक सूत्र और आध्यात्मिक बुझबोध का अक्षय के पाँच व्रत 'पंचशील' कहलाए :
कोष होता है। उसमें मानव प्रकृति का समीकरण होता है जब और -सदाचार के गर्भ में अहिंसा
ज्यों ही उसके मनमानस के समक्ष किसी सम्बन्ध का एक विशेष
लक्ष्य अथवा उपलक्ष्य सामने आता है तो उसे वह बहुत कुछ -सत्य
निष्कर्षित रूप में उपन्यस्त कर देता है।" -अस्तेय
श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के प्रवचनों पर आधारित यह -ब्रह्मचर्य
सूक्तियों का भंडार आज के संदर्भ में बहुत उपयोगी है, -अपरिग्रह वृत्ति
चरित्र-निर्माण के लिए इसका महत्त्व सर्वाधिक है। आचार्य श्री के इन्द्रियों और मन की सुन्दर आदतों को भी शील कहा जाता } प्रवचन, काव्य, कथा लखन आदि क आधार पर विद्वान् शिष्य है; तथा सद्व्यवहार भी शील शब्द का लक्षण माना जाता है।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने अदभुत कलापूर्ण संपादन कर
माँ-सरस्वती के भंडार को अक्षय कीर्ति दी है। इसके साहित्यिक महत्त्व की ओर तो डॉ. प्रचंडिया ने संकेत किया ही है पर सामाजिक महत्त्व सर्वाधिक है :
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सोच कर बोलना
तुम सोच समझ कर मुख खोलो।
फिर स्वल्प वचन मीठे बोलो।।टेर।। है मिश्र मिथ्या सावध भाषा। मत बोलन की रखो अभिलाषा॥ और सत्य व्यवहार से अघ धोलो॥१॥
मत बोलना अणगमती वाणी। कर्कश कठोर है दुःख दानी॥
अवसर को देख कर चुप हो लो॥२॥ बिना तोल के बोलने वाला है। जूते खाता मतवाला है। वचनों में विष को मत घोलो॥३॥
क्रोध लोभ भय हास्य में। मत बोल झूठ उपहास्य में॥ मत अपना जीवन झकझोलो।।४।।
वाणी पे संयम रखना है। जिन वाणी का स्वाद चखना है। "पुष्कर मुनि" संयम बहुमोलो॥५॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
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इतिहास की अमर बेल
इतिहास हमारी गति/प्रगति का आईना होता है। वह बीते हुए कल का लेखा-जोखा है। भूतकाल की भूलें और समझदारियाँ, क्रिया और प्रतिक्रियाओं का बिम्ब इतिहास के आईने में प्रतिबिम्बित होता रहता है, इसलिए इतिहास मनुष्य जाति की प्रगति का थर्मामीटर भी है। इतिहास शिक्षक है और पथ दर्शक भी। साथ ही इतिहास हमारे गौरव की गाथाओं का महाकाव्य भी है।
जैन परम्परा का इतिहास बहुत प्राचीन है। इतना कि इसका आदि सूत्र खोज पाना भी संभव नहीं है। काल की आँख उस छोर को देख नहीं पाती। इसलिए उसे कालातीत या अनादि कहकर ही विश्राम लेना पड़ता है। भगवान ऋषभदेव से भगवान नेमिनाथ तक का प्राग् इतिहास पौराणिक काल के नाम से जाना जाता है। भगवान अरिष्टनेमि श्री कृष्ण युग के महापुरुष थे। उस युग को इतिहासकार काल गणना की परिधि में समेट लेते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर निस्संदेह ऐतिहासिक महापुरुष है। उनका इतिहास आज अनेक साक्ष्यों के आधार पर जीवंत है। वह इतिहास का स्वर्णकाल है।
भगवान महावीर के उत्तरकाल की जैन परम्परा विभिन्न उतार-चढ़ाव, आरोह-अवरोह से गुजरी है। इस युग में अनेक ज्योतिर्धर प्रभावक आचार्य हुए, जिन्होंने जैन धर्म और जैनशासन की गरिमा में चार चाँद लगाये, परन्तु इस काल खण्ड में ऐसी घटनाएँ भी हुईं जिनके कारण यशस्वी जैन परम्परा की गरिमा धुंधली पड़ी। जैनधर्म का सूर्य पारस्परिक राग-द्वेष व भौतिक अभीप्साओं के बादलों से आच्छादित हुआ और परम्परा की पुण्य सलिला गंगा का प्रवाह छोटी-छोटी धाराओं में विभक्त होकर प्रदूषित होता गया।
इतिहास करवट लेता है। काल पुरुष जागता है। अवनति की तन्द्रा टूटती है। पुनः उन्नति का प्रभास्वर सहस्ररश्मि चमकने लगता है।
भगवान महावीर निर्वाण की १८वीं सदी में लोंकाशाह की धर्म क्रांति जागृति का संदेश देती है। शिथिल प्रायः श्रमण परम्परा में क्रियोद्धार होता है और श्री लवजीऋषि आदि की परम्परा पुनः भगवान महावीर के सिद्धान्तों का सच्चा प्रतिनिधित्व करती हुई आगे बढ़ती है और फिर इस परम्परा में प्रकट होते हैं आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज।
इस स्मृति ग्रन्थ के नायक गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी महाराज की परम्परा के आदि पुरुष थे आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज। अतः इतिहास के विस्तार में नहीं जाकर प्रस्तुत में आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज से वर्तमान आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी तक की इस इतिहास बेल को रूपायित किया गया है प्रस्तुत खण्ड में।
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। इतिहास की अमर बेल
युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज
व्यक्तित्व और कृतित्व
। करना
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भारत की दो संस्कृतियां
समन शब्द का अर्थ समानता है। श्रमण संस्कृति में सभी जीव
समान हैं, उसमें धन, जन, परिजन की दृष्टि से कोई श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है जो हजारों
और कनिष्ठ नहीं है। आत्म-भाव में स्थिर रहकर साधना करना वर्षों से गंगा के विशाल प्रवाह की तरह जन-जन के अन्तर्मानस में
समानता है। प्रवाहित हो रही है। मन और मस्तिष्क का परिमार्जन कर रही है। यह संस्कृति मूलतः दो संस्कृतियों का समन्वित रूप है-एक वैदिक
इस तरह श्रमण संस्कृति का मूल श्रम, शम और सम है। ये संस्कृति और दूसरी श्रमणसंस्कृति। वैदिक संस्कृति में बाह्य शुचिता,
तीनों सिद्धान्त विशुद्ध मानवता पर आधारित है। इसमें वर्ग-भेद, सम्पन्नता एवं समृद्धि को प्रोत्साहन दिया गया है, तो श्रमण संस्कृति
{ वर्ण-भेद, उपनिवेशवाद आदि असमानता वाले तत्व नहीं हैं। में अन्तरंग पवित्रता, आत्मगुणों का विकास एवं आत्मलीनता पर श्रमण संस्कृति ने आत्म-विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। विशेष बल दिया गया है। वैदिक संस्कृति का मूल प्रकृति है, श्रमण आत्मा की अन्तरंग पवित्रता, निर्मलता और उसके गुणों का विकास संस्कृति का मूल स्वात्मा है। प्रथम बाह्य है तो दूसरी आन्तर है। करने में श्रमण संस्कृति ने उदात्त चिन्तन प्रस्तुत किया है। आत्मी प्रकृति के विविध पहलुओं, घटनाओं को निहारकर समय-समय
की अनन्त ज्ञान शक्तियाँ, अनन्त विभूतियाँ और अनन्त सुखमय पर ऋषियों ने जो कल्पनाएँ की उनमें से ब्रह्म का स्वरूप प्रस्फुटित
स्वरूप दशा में विकास में जागरूक ही नहीं; प्रयत्नशील भी रही हैं।
आत्म-गुणों का चरम विकास ही इस संस्कृति का मूल ध्येय रहा है। हुआ है किन्तु श्रमण संस्कृति का आत्मचेतना की ओर अधिक
भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक असंख्य साधकों झुकाव रहा है। उसका स्पष्ट मन्तव्य है-प्रत्येक प्राणी में एक चिन्मय
ने आत्म-साधना के महान पथ पर कदम बढ़ाये हैं, आत्म-जागरण ज्योति छिपी हुई है, चाहे कीड़ा हो, चाहे कुंजर, पशु हो या मानव, नरक का जीव हो या स्वर्ग का अधीश्वर देवराज इन्द्र हो, सभी में
और आत्म-विकास तथा आत्म-लक्ष्य तक पहुँचते रहे हैं। वह अखण्ड ज्योति जगमगा रही है। किसी ने उस ज्योति का विकास
इतिहासविज्ञों का अभिमत है कि भगवान महावीर का युग किया है तो किसी में वह ज्योति राख से आच्छादित अग्नि के समान
श्रमणसंस्कृति का स्वर्ण-युग था। इस युग में श्रमण संस्कृति अपने सुप्त है। वैदिक संस्कृति में परतन्त्रता, ईश्वरावलम्बन और
चरम उत्कर्ष पर थी। हजारों-लाखों साधकों ने आत्म-कल्याण व क्रियाकाण्ड की प्रमुखता रही तो श्रमण संस्कृति में आत्म-स्वातन्त्र्य,
जन-कल्याण किया। काल प्रवाह से उसमें कुछ विकृतियाँ आ गयी स्वावलम्बन और विशुद्ध आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास रहा।
थीं, जिसे श्रमण भगवान महावीर ने अपने प्रबल प्रभाव से दूर
किया और नया चिन्तन, नया दर्शन देकर युग को परिवर्तित किया। श्रमण संस्कृति का मूल शब्द “समण' है जिसका संस्कृत रूपान्तर है श्रमण, शमन और समन।
भगवान महावीर ने चिन्तन और दर्शन के क्षेत्र में जो क्रान्ति
कर अवरुद्ध प्रवाह को मोड़ा था, परिस्थितिवश पुनः उस प्रवाह में श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है
मन्दता आ गयी, धार्मिक अन्धविश्वासों ने मानव के चिन्तन को परिश्रम करना, उद्योग करना। इस संस्कृति में तथाकथित ईश्वर
अवरुद्ध कर दिया था। अतः क्रान्तिकारी ज्योतिर्धर आचार्यों ने पुनः मुक्तिदाता नहीं है, वह सृष्टि का कर्ता-धर्ता और हर्ता नहीं है। इस
क्रान्ति की। संस्कृति की मान्यतानुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम और सत्कार्यों से
क्रांति का युग ईश्वर बन सकता है। वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं, किन्तु आत्म-विकास से स्वयं उस चरम स्थिति को प्राप्त कर सकता है।
सन्त परम्परा के समुज्ज्वल इतिहास में सोलहवीं सदी का
विशेष महत्व है। इसी युग को वैचारिक क्रान्तिकारियों का युग कहा शमन का अर्थ शान्त करना है। श्रमण अपनी चित्तप्रवृत्तियों के
जाय तो अत्युक्ति न होगी। कबीर, नानक, सन्त रविदास, तरणविकारभावों का शमन करता है। उसकी मूल साधना है तारण स्वामी और लोकाशाह आदि ने क्रान्ति की शंखध्वनि से आत्म-चिन्तन और भेद-विज्ञान। चारों वर्ण वाले समान रूप से भारतीय जनमानस को नवजागरण का दिव्य सन्देश दिया। धर्म के आत्म-चिन्तन करने के अधिकारी हैं, मुक्ति को प्राप्त करने के भी। ।
मौलिक तत्वों के नाम पर जो विकार, असंगतियाँ और कलह-मूलक साधक शत्रु-मित्र, बन्धु-बान्धव, सुख-दुःख, प्रशंसा और निन्दा, धारणाएँ पनप रही थीं उनके प्रति तीव्र असन्तोष व्यक्त किया। उन जीवन और मरण जैसे विषयों में भी समत्व भावना रखता है। क्रान्तिकारियों के उदय से स्थितिपालक समाज में एक हलचल
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ उत्पन्न हो गयी और परिणामस्वरूप प्रतिक्रियावादी भावनाएँ उबुद्ध नगर का कोट बनवाया। कुतुबमीनार के सन्निकट जो आज हुईं। यह एक परखा हुआ ऐतिहासिक सत्य है कि मानव संस्कृति खण्डहरों का वैभव बिखरा पड़ा है उसे इतिहासकार द्वितीय का वास्तविक पल्लवन और संवर्धन संघर्ष की पृष्ठभूमि में ही होता अनंगपाल की राजधानी मानते हैं। उसके समय का शिलालेख भी है। शान्तिकाल में तो भौतिक समृद्धि और उसकी चकाचौंध पनप मिलता है जिसमें संवत् ११०९ अनंगपाल वही का उल्लेख है। सकती है किन्तु क्रान्ति और नवसृजन संघर्ष की पृष्ठभूमि पर ही कुतुबमीनार के सन्निकट अनंगपाल के द्वारा बनाया गया एक मन्दिर पनपते हैं। यही कारण है सन्त परम्परा का विकास विपरीत | है, उसके एक स्तम्भ पर अनंगपाल का नाम उत्कीर्ण किया हुआ परिस्थितियों में हुआ है। वह विशाल और उदात्त भावनाओं को है।५ श्री जयचन्द विद्यालंकार६ सन् १०५0 में अनंगपाल नामक लेकर पाशविकता से लड़ी और सुदृढ़ सौन्दर्यसम्पन्न परम्पराएँ डाली। एक तोमर सरदार द्वारा दिल्ली की स्थापना का उल्लेख करते हैं जिन पर मानवता सदा गर्व करती रही।
और श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का अभिमत है कि द्वितीय श्रमण संस्कृति की एक क्रान्तिकारी परम्परा स्थानकवासी
अनंगपाल ने दिल्ली बसाई। यह अनंगपाल तोमरवंशीय क्षत्रिय था। समाज के नाम से विश्रुत है जिसने साधना, भक्ति और उपासना के
संवत् १३८४ का एक शिलालेख जो दिल्ली म्यूजियम में है, उसमें क्षेत्र में विस्तार किया। यह एक अध्यात्मप्रधान सम्प्रदाय है। इसमें
तोमरवंशियों के द्वारा दिल्ली बसाने का उल्लेख मिलता है। इसके यम, नियम और संयम की प्रधानता है। मानव-जीवन के मूल्य व
। पूर्व दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। महत्व का इसमें सही-सही अंकन किया गया है। इस परम्परा का किसनदास ने अपनी कविता में दिल्ली नामकरण के सम्बन्ध में उद्देश्य मानव को भोग से योग की ओर, संग्रह से त्याग की ओर, । लिखा है कि जमीन में लोहे की एक कीली लगाई गई, किन्तु वह राग से विराग की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से ढीली हो जाने से उसका नाम ढिल्ली हुआ।९ फरिश्ता कहते है१० अमरता की ओर, असत्य से सत्य की और ले जाना है।
कि यहाँ मिट्टी इतनी मुलायम है कि इसमें मुश्किल से किल्ली मरुधर धरा के उद्धारक श्रद्धेय युग-प्रवर्तक पूज्यश्री अमरसिंह
मजबूत रह सकती है। अतः इसका नाम ढिल्लिका रखा गया। इसके जी महाराज इसी संस्कृति के सजग और सतेज सन्तरत्न थे। अपने
योगिनीपुर, दिल्ली, देहली आदि नामों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। युग के परम विद्वान्, विचारक और तत्ववेत्ता थे। आपके अगाध _गणधर सार्धशतक११ उपदेशसार१२ खरतरगच्छ गुर्वावली१३ पाण्डित्य व विद्वत्ता की सुरभि दिग्-दिगन्त में फैल चुकी थी और विविध तीर्थकल्प१४, तीर्थमाला१५ प्रभृति अनेक ग्रन्थों में यह स्पष्ट आज भी वह मधुर सौरभ जन-जन के मानस को अनुप्रेरित व उल्लेख है कि दिल्ली प्रारम्भ से ही जैनियों का प्रमुख केन्द्र रही है। अनुप्राणित करती है। आपका ज्ञान निर्मल था, सिद्धान्त अटल था यहाँ पर अनेक श्रेष्ठी लोग जैनधर्म के अनुयायी थे, श्रमण संस्कृति और आप स्थानकवासी जैन परम्परा व श्रमण संस्कृति की एक के उपासक थे। विमल विभूति थे।
जन्म और विवाह दिल्ली : इतिहास के पृष्ठों पर
देहली के ओसवालवंशीय एवं तातेड़ गोत्रीय सेठ देवीसिंहजी पूज्यश्री अमरसिंह जी महाराज का जन्म भारत की राजधानी
अपने युग के प्रसिद्ध व्यापारी थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम दिल्ली में हुआ। दिल्ली की परिगणना भारत के महानगरों में की
कमलादेवी था। पति और पत्नी दोनों समान स्वभाव के थे, संतों की गयी है। यह वर्षों से भारत की राजधानी रही है। इस महानगरी का
संगति में विशेष अभिरुचि थी। जैन श्रमणों का जब कभी योग निर्माण किसने किस समय किया, इस सम्बन्ध में विज्ञों में एकमत
मिलता तो वे धर्मकथा श्रवण करने को पहुँचते थे, धर्मचर्चा में उन्हें नहीं है। दिल्ली राजावली, कवि किसनदास व कल्हण की एक
विशेष रस था। महत्वपूर्ण कृति है। इसके अभिमतानुसार दिल्ली की संस्थापना संवत् एक दिन कमलादेवी अपनी उच्च अट्टालिका में सानन्द सो रही ९०९ में हुई।१ पट्टावली समुच्चय में संवत् ७०३ में अनंगपाल थी। शीतल मन्द सुगन्ध समीर बह रहा था। प्रातःकाल होने वाला तुमर द्वारा बसाने का उल्लेख है।२ कनिंघम३ ने “दि ही था कि उसे एक स्वप्न आया कि आकाशमार्ग से एक अति आर्कियलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया' ग्रन्थ में सन् ७३६ में । सुन्दर अमर भवन नीचे उतर रहा है और वह उसके मुँह में प्रवेश अनंगपाल प्रथम के द्वारा दिल्ली बसाने का निर्देश किया है। पं. | कर रहा है। स्वप्न को देखकर कमलादेवी उठकर बैठ गयी और लक्ष्मीधर वाजपेयी का मन्तव्य है तोमर वंशीय अनंगपाल प्रथम उसने अपने पति देवीसिंहजी से स्वप्न की बात कही। देवीसिंहजी ने दिल्ली का मूल संस्थापक है। उसका राज्याभिषेक सन् ७३६ में । हर्षविभोर होकर कहा-सुभगे, तेरे भाग्यशाली पुत्र होगा। यथासमय हुआ और उसी ने सर्वप्रथम दिल्ली में राज्य किया। उसके पश्चात् । आश्विन शुक्ला चतुर्दशी रविवार संवत् १७१९ में रात्रि के समय उसके वंशज कन्नौज में चले गये और वे वहीं पर रहे। बहुत वर्षों शुभ मुहूर्त और शुभ बेला में पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम के पश्चात् द्वितीय अनंगपाल दिल्ली में आया और उसने अपनी अमरसिंह रखा गया और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। शैशव-काल राजधानी दिल्ली बनाई। उसने नवीन नगर का निर्माण करवाया। में यह नाम माता-पिता को तृप्ति प्रदान करता था। श्रमण बनने पर
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। इतिहास की अमर बेल
४२३ आचार्य लालचन्दजी महाराज को तृप्ति देने लगा। आचार्य-जीवन में भोगों से उसी तरह उपरत था जैसे कीचड़ में कमल। इक्कीस वर्ष वह लाखों श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा का केन्द्र बन गया। यह नाम की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने अपनी पत्नी को विषय-भोगों की स्थानकवासी परम्परा के गौरव का प्रतीक है।
निस्सारता और ब्रह्मचर्य की महत्ता समझाकर अ-ब्रह्मचर्य का त्याग शिशु का वर्ण गौर था, तेजस्वी आँखें थीं, मुस्कुराता हुआ
करा दिया। वे अपने निश्चय पर चट्टान की तरह दृढ़ थे। माता की सौम्य चेहरा था और शरीर सर्वांग सुन्दर था। जिसे देखकर दर्शक
ममता, पिता का स्नेह और पत्नी का उफनता हुआ मादक प्यार आनन्दविभोर हो जाता था। अमरसिंह के जन्म लेते ही अपार
उन्हें अपने ध्येय से नहीं डिगा सका। एक दिन अवसर पाकर अपने संपत्ति की वृद्धि होने से और सुख-समृद्धि बढ़ने से पारिवारिक जन
मन की बात आचार्यप्रवर लालचन्दजी महाराज से कही! गुरुदेव,
क्या आप मुझे अपने श्रीचरणों में शिष्य रूप में स्वीकार कर सकते अत्यन्त प्रसन्न थे। माता का वात्सल्य, पिता का स्नेह और ।
3000 । हैं ? गुरु ने शिष्य की योग्यता देखकर कहा-वत्स! मैं तुम्हें स्वीकार पारिवारिक जनों का प्रेम उसे पर्याप्त रूप से मिला था। रूप और
290 बुद्धि की तीक्ष्णता के कारण सभी उसकी प्रशंसा करते थे। अमर
कर सकता हूँ, किन्तु माता-पिता और पत्नी की आज्ञा प्राप्त करनी संस्कारी बालक था। उसमें विचारशीलता, मधुरवाणी, व्यवहार
होगी। उनसे अनुमति प्राप्त करना तुम्हारा काम है। गुरु की स्वीकृति
प्राप्त करके अमरसिंह बहुत प्रसन्न हुए। कुशलता आदि सद्गुण अत्यधिक विकसित हुए थे। उसमें एक विशिष्ट गुण था, वह था चिन्तन करने का। वह अपने स्नेही
त्याग मार्ग पर साथियों के साथ खेल-कूद भी करता था, नाचता-गाता भी था, हँसता-हँसाता भी था, रूठता-मचलता भी था, बाल-स्वभाव सुलभ
राही को राह मिल ही जाती है, यह सम्भव है देर-सबेर हो यह सब कुछ होने पर भी उसकी प्रकृति की एक अनूठी विशेषता
सकती है, किन्तु राह न मिले यह कभी सम्भव नहीं। अमरसिंह ने थी कि सदा चिन्तन मनन करते रहना। योग्य वय होने पर उसे
माता-पिता और पत्नी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि मैं अब संसार में कलाचार्य के सन्निकट अध्ययन के लिये प्रेषित किया, किन्तु अद्भुत
नहीं रहूँगा। मुझे साधु बनना है। माता ने आँसू बहाकर उसके प्रतिभा के कारण अल्प समय में ही उसने अरबी, फारसी, उर्दू,
वैराग्य को भुलाना चाहा। पिता ने भी कहा-पुत्र, तुम्हीं मेरी संस्कृत आदि भाषाओं का उच्चतम अध्ययन कर लिया। आपकी
वृद्धावस्था के आधार हो, मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? पली ने प्रकृष्ट प्रतिभा को देखकर कलाचार्य भी मुग्ध हो गया। संस्कारों का
भी अपने मोह-पाश में बाँधने का प्रयास किया। किन्तु दृढ़ मनोबली वैभव दिन प्रतिदिन समृद्ध हो रहा था।
अमरसिंह ने सभी को समझाकर आज्ञा प्राप्त कर ली और भरपूर
युवावस्था में संवत् १७४१ में चैत्र कृष्णा दशमी को भागवती दीक्षा एक बार ज्योतिधर जैनाचार्य लालचन्दजी महाराज देहली
ग्रहण की। अब वे अमरसिंह से अमरसिंह मुनि हो गये। पधारे। उनके उपदेशों की पावन गंगा प्रवाहित होने लगी। अमरसिंह भी अपने माता-पिता के साथ आचार्यप्रवर के प्रवचन में पहुँचा।
अमरसिंह मुनि ने दीक्षा ग्रहण करते ही संयम और तप की प्रवचन को सुनकर उसके मन में वैराग्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने
साधना प्रारम्भ की। वे सदा जागरूक रहा करते थे? प्रतिपल- PROCE लगी। उसे लगा कि संसार असार है। माता-पिता ने उसकी भाव
प्रतिक्षण संयम साधना का ध्यान रखते थे। विवेक से चलते, विवेक भंगिमा को देखकर यह समझ लिया कि यह बालक कहीं साधना के
से उठते, विवेक से बैठते, विवेक से बोलते, प्रत्येक कार्य वे विवेक मार्ग में प्रवेश न कर जाय। अतः उन्होंने देहली की एक सुप्रसिद्ध
के प्रकाश में करते। संयम के साथ तप और जप की साधना करते, श्रेष्ठीपुत्री के साथ तेरह वर्ष की लघुवय में बालक अमर का
जैन आगम साहित्य का उन्होंने गहन अध्ययन किया। अपनी पैनी पाणिग्रहण कर दिया। उस युग में बालविवाह की प्रथा थी। बुद्धि से, प्रखर प्रतिभा से और तर्कपूर्ण मेधाशक्ति से अल्प काल में बाल्यकाल में ही बालक और बालिकाओं को विवाह के बन्धन में ही आगम के साथ दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य का विशेष बाँध दिया जाता था; किन्तु उनका गार्हस्थिक सम्बन्ध तब तक नहीं । अध्ययन किया। होता था जब तक वे पूर्ण युवा नहीं हो जाते थे। विवाह होने के
धर्म प्रचार पश्चात् भी लड़की मायके में ही रहती थी। किशोर अमर के विवाह के बन्धन में बँधने पर भी उसके मन में किसी भी प्रकार का तप, संयम के साथ विशेष अध्ययन में परिपक्व होकर आकर्षण नहीं था। उसका अन्तर्मानस उस बन्धन से मुक्त होने के । आचार्यश्री लालचन्दजी महाराज की आज्ञा से आपने धर्मप्रचार का लिए छटपटा रहा था। किन्तु माता-पिता की अनुमति के बिना वे कार्य आरम्भ किया। अपनी विमल-ज्ञान राशि को पंजाब और उत्तर संयम साधना के महामार्ग पर नहीं बढ़ सकते थे। उन्होंने माता-पिता । प्रदेश के जन जीवन में महामेघ के समान हजार-हजार धाराओं में से निवेदन किया, किन्तु माता-पिता धर्म-प्रेमी होने पर भी मोह के बरसाकर बिखेर दिया। अनेक स्थलों पर बलि प्रथा के रूप में कारण पुत्र को श्रामण जीवन में देखना नहीं चाहते थे। उन्होंने । पशुहत्या प्रचलित थी, उसे बन्द करवाया। अन्धविश्वास और से कहा- पुत्र, कुछ समय तक तुम रुको। अतः माता-पिता के आग्रह / अज्ञानता के आधार पर फैले हुए वैश्यानृत्य, मृत्युभोज और को सम्मान देकर वे गृहस्थाश्रम में रहे। किन्तु उनका मन विषय । जातिवाद का आपने दृढ़ता से उन्मूलन किया। श्रमणसंघ व
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्रावकसंघ में आये हुए शिथिलाचार और भ्रष्टाचार पर आप केसरी एक बार आपश्री पटियाला विराज रहे थे। पटियाला सिखों का सिंह की तरह झपटते थे। आपकी वाणी में ओज था, सत्य का तेज प्रमुख केन्द्र था। आपके प्रवचन में कुछ सिख सरदार प्रतिदिन आया था और विवेक का विशुद्ध प्रकाश था। अतः जिस विषय पर करते थे। मध्याह्न के समय एक सिख सरदार आया। उसकी आँखों आपश्री बोलते, साधिकार बोलते और सफलता देवी आपके चरण से आँसू टपक रहे थे। चेहरा उदास था। आपश्री ने उसकी उदासी चूमने के लिए सदा लालायित रहती थी। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, का कारण पूछा। उसने कहा-गुरुजी! मेरे एक ही लड़का है। रात अरबी, फारसी इन छह भाषाओं पर आपने पूर्ण अधिकार प्राप्त कर को वह बिल्कुल ठीक सोया था, पता नहीं उसकी नेत्र ज्योति कैसे लिया था और आप साधिकार छह भाषाओं में लेखन, भाषण कर गायब हो गयी। उसे कुछ भी नहीं दीखता है। अभी तो वह बच्चा सकते थे। आपने अनेक साधु-साध्वियों, श्रावक और श्राविकाओं को
ही है। मैंने हकीमों और वैद्यों को आँख बतायी। उन्होंने कहा कि शास्त्रों का अध्यापन करवाया। आप मानवरूप में साक्षात बहती हई। अब रोशनी नहीं आ सकती। यह कहकर उसकी आँखें डबडबा ज्ञानगंगा थे। जिधर भी वह ज्ञानगंगा प्रवाहित हुई उधर अध्ययन,
गयीं, गला भर आया। महाराजश्री ने कहा-बताओ, तुम्हारा लड़का मनन-चिन्तन के सूखे और उजड़े हुए खेत हरे-भरे हो गये।
कहाँ है? सरदार ने कहा-गुरुदेव! मैं अभी जाकर उसे ले के आता
हूँ। गुरुदेवश्री ने बच्चे को मंगल पाठ सुनाया कि लड़का पहले से प्रखर ज्ञान-साधना
भी अधिक स्पष्ट रूप से देखने लगा। सरदार जी चरणों में गिर अमरसिंह जी महाराज का आगम और दर्शनशास्त्र का ज्ञान
पड़े, और उनकी हत्तन्त्री के तार झनझना उठे-अमरसिंहजी बहुत ही गम्भीर था। आपके सम्बन्ध में लिखी हुई अनेक अनुश्रुतियाँ
महाराज देवता ही नहीं, साक्षात् भगवान हैं। मुझे प्राचीन पत्रों में मिली हैं। एक बार आपश्री जम्मू में विराज रहे एक बार अमरसिंहजी महाराज रोहतक विराज रहे थे। उस थे। श्रावक समुदाय आपके सन्निकट बैठा हुआ चर्चा कर रहा था। समय एक युवक आया। वह पारिवारिक संक्लेशों से संत्रस्त था। उस समय कुछ बहनें सुमधुर गीत गाती हुई जा रही थीं। वह आत्महत्या करने का संकल्प लेकर ही घर से चला था। किन्तु अमरसिंहजी महाराज कुछ समय तक रुक गये। वार्तालाप के प्रसंग आपश्री के मधुर वार्तालाप से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि में उन्होंने बताया गाने वाली बहनों में एक बहन जिसका स्वर इस / सदा के लिए उसने क्रोध का परित्याग कर दिया। उसका प्रकार का था उसका रंग श्याम है उसकी उम्र पच्चीस वर्ष की है
पारिवारिक जीवन जो विषम था, जिसमें रात-दिन क्रोध की और वह एक आँख से कानी है। महाराजश्री ने उस बहन को देखाचिनगारियाँ उछलती रहती थीं, आपश्री के सत्संग से उस परिवार नहीं था और न वह पूर्व परिचिता ही थी। अन्य बहनों के सम्बन्ध में
में स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार की अनेक भी उन्होंने वय, रंग और उम्र बतायी। लोगों को बहुत ही आश्चर्य
घटनाएँ आपके पंजाब प्रवास के समय की मिलती हैं जो हुआ। उन्होंने शीघ्र ही जाकर जाँच की तो उन्हें सत्य तथ्य का
विस्तारभय से यहाँ नहीं लिखी जा रही हैं। परिज्ञान हो गया। श्रावकों ने पूछा-गुरुदेव, आपको कैसे पता लगा? I अमरसिंहजी महाराज प्रकाण्ड पण्डित, प्रभावक, प्रवचनकार आपश्री ने फरमाया स्थानाङ्ग, अनुयोगद्वार आदि आगम साहित्य में और यशस्वी साधक थे। आपश्री को जैन-अजैन जनता में सर्वत्र स्वरों का निरूपण है, उसी के आधार पर मैंने कहा है। उन्होंने केवल एक दिव्य महापुरुष जैसा सत्कार, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होती शास्त्र पढ़े ही नहीं थे किन्तु उन शास्त्रों को हृदयंगम भी किया था। थी तथापि आपश्री के अन्तर्मानस में गुरुवर्य के प्रति अटूट श्रद्धा व
भक्ति थी। उनके लिए आचार्य लालचन्दजी महाराज एक व्यक्ति नहीं साधना के चमत्कार
किन्तु आदर्श थे। वे उनके प्रति समर्पित थे। समर्पण विनिमय के एक बार आपश्री लुधियाना विराज रहे थे। उस समय एक लिए नहीं होता, किन्तु जहाँ पर समर्पण होता है वहाँ विनिमय सज्जन घबराते हुए आये कि गुरुदेव शीघ्र ही मांगलिक फरमा। स्वतः ही हो जाता है। आचार्य लालचन्दजी महाराज के मन में दीजिये। मुझे आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना है। विलम्ब हो अमरसिंह मुनिजी के प्रति पूर्ण विश्वास था। एक दिन किसी सन्त ने गया है। मुनि अमरसिंहजी ने कहा-क्यों शीघ्रता करते हो, एक
आचार्य लालचन्दजी महाराज से कहा कि अमरसिंह जी प्रतिलेखना सामायिक कर लो। किन्तु श्रावक के मन में दृढ़ता कहाँ थी? उसने
सम्यक् प्रकार से नहीं करते हैं। आचार्य लालचन्दजी महाराज ने आपश्री के कथन की उपेक्षा की और बिना मांगलिक सुने ही चल
बिना अमरसिंहजी को पूछे ही दृढ़ता के साथ कहा कि वह तुम्हारे दिया। मार्ग में सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और हथकड़ियाँ
से श्रेष्ठ करता हैं। विश्वास उसी का नाम है जिसमें किसी भी डालकर कारागृह में बन्द कर दिया। जब वह न्यायाधीश के सामने
प्रकार का संशय नहीं होता। उपस्थित किया गया तब न्यायाधीश ने कहा-मैंने इन सेठजी को अमरसिंहजी मुनि प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय आदि नहीं किन्तु इनका नामराशि जो स्वर्णकार है उसे बुलाया था। तुमने । आचार्य लालचन्दजी महाराज के पास बैठ करके ही करते थे, अतः व्यर्थ ही सेठजी को परेशान किया। क्षमायाचना कर सेठजी को वे अमरसिंह मुनि की चर्या से पर्याप्त रूप से परिचित थे। उनके विदा किया गया। तब सेठजी को ध्यान आया कि महाराजश्री की । प्रति उनका आत्मीय भाव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था। उनकी कृपा आज्ञा की अवहेलना करने का क्या परिणाम होता है।
उन पर अत्यधिक थी।
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। इतिहास की अमर बेल
४२५ मुनि अमरसिंहजी जितने महान् थे उतने ही विनम्र भी थे। आप चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ताओ उपनिषद् में लिखा है कि पुष्पित फलित विराट वृक्ष के समान ज्यों-ज्यों यशस्वी, महान् और हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द प्रख्यात हुए त्यों-त्यों अधिक विनम्र होते गये। गुरुजनों के प्रति ही । कभी विश्वास योग्य नहीं होते। जो वाणी हृदय की गहराई से नहीं, लघुजनों के प्रति भी आपके हृदय में अपार प्रेम था। जब निकलती है उसमें स्वाभाविकता होती है और सहजता होती है। जैसे कभी भी लघु श्रमण भी रुग्ण होते तब आपश्री उनकी स्नेह से सेवा कुएँ की गहराई से निकलने वाला पानी शीतल, निर्मल और ताजा करते थे। अहंकार और ममकार के दुर्गुणों से आप कोसों दूर थे। होता है वैसे ही सहज वाणी भी प्रभावशाली होती है। जो उपदेश आपश्री सद्गुरुदेव के साथ ही पंजाब के विविध अंचलों में आत्मा से प्रस्फुटित होता है वह आत्मा का स्पर्श करता है, किन्तु जो परिभ्रमण कर धर्म की प्रबल प्रभावना करते रहे। हजारों व्यक्ति जीभ से निकलता है उसमें चिन्तन, भावना और आचार का बल न आपके उपदेशों से प्रभावित होकर श्रावक बने और सम्यक्त्वरत्न होने से वह हृदय को स्पर्श नहीं कर सकता। हृदय से निकली हुई को प्राप्त किया। बीस व्यक्तियों ने आर्हती दीक्षा ग्रहण कर आपका बात में बकवास नहीं होता किन्तु तीर-सी वेधकता होती है। शिष्यत्व स्वीकार किाय।
आचार्य संघदासगणी ने अपने बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि संवत् १७६१ में आचार्य श्री लालचन्दजी महाराज का गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी और चातुर्मास अमृतसर में था। आचार्यश्री का स्वास्थ्य अस्वस्थ रहने पथ-प्रदर्शक होता है, किन्तु गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित लगा। उनके मन में स्वास्थ्य पूर्ण रूप से ठीक होने की सम्भावना दीपक की तरह निस्तेज और अन्धकार से परिपूर्ण होता है। क्षीण हो गई। उन्होंने उसी समय-चतुर्विध संघ को बुलाकर उल्लास आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज के प्रवचनों में जीवन का गहरा के क्षणों में अमरसिंह मुनि को युवाचार्य पद प्रदान किया। सभी ने चिन्तन था, मनन था, साथ ही अनुभवों का सुदृढ़ पृष्ठबल था। नदी आचार्यश्री की अनूठी सूझ-बूझ की प्रशंसा की। आचार्यश्री ने । की निर्मल धारा की तरह उसमें गति थी, प्रगति थी और आलोचना व संथारा ग्रहण किया।
जाज्वल्यमान अग्नि की तरह उसमें आचार और विचार का तेज
था। उनके प्रवचनों में वासीपन नहीं, किन्तु विचारों, भावों और जैन साधना में समाधिपूर्ण जीवन का जितना महत्व है उससे भी अधिक महत्व समाधिपूर्ण मृत्यु का है। समाधिपूर्ण मृत्यु को
भाषा में ताजगी थी। यही कारण है कि जातिवाद, पंथवाद और वरण करने वाले साधक को पूर्ण शान्ति और समाधि प्राप्त करनी
सम्प्रदायवाद को भूलकर हजारों की संख्या में हिन्दू-मुसलमान, सिख होती है। आचार्यश्री ने सभी के साथ खमत-खामणा किये और और जैनी प्रवचन-सभाओं में उपस्थित होते थे और आचार्यश्री के
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DI कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन पन्द्रह दिन के संथारे के पश्चात्
पावन प्रवचनों को सुनकर झूमने लगते थे। आचार्यश्री के प्रवचनों स्वर्गवासी हुए।
की धूम से देहली गूंज रही थी। आचार्य पद पर प्रतिष्ठा
उस समय हिन्दुस्तान के बादशाह थे शाहनशाह बहादुरशाह।१६
वे दक्षिण से अजमेर आये थे। बादशाह से किसी विशिष्ट कार्य के संघ ने युवाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज से सनम्र प्रार्थना
लिए मिलने हेतु जोधपुर के महामन्त्री खींवसी जी भण्डारी अजमेर की कि आपश्री आचार्य पद पर आसीन होकर हमें सनाथ करें।।
आये और शहजादा अजीम के मारफत संवत् १७६७ में बादशाह स्थान-स्थान से शिष्ट मण्डल अमृतसर पहुँचे और सभी ने अपने से मुलाकात की। बादशाह भण्डारी जी को लेकर अजमेर से लाहौर यहाँ आचार्य पद महोत्सव मनाने की प्रार्थना की। अन्त में देहली होते हुए देहली पहुँचे। उस समय आचार्यप्रवर अमरसिंहजी महाराज संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया गया और आपश्री शिष्य समुदाय की प्रवचन-कला की प्रशंसा भण्डारी खींवसी जी ने सुनी। वे व सन्तों को लेकर देहली पधारे। संवत् १७६२ में चैत्र शुक्ला पूज्यश्री के प्रवचन श्रवण हेतु पहुँचे। पूज्यश्री के प्रभावोत्पादक पंचमी के दिन देहली में आचार्य पद महोत्सव मनाया गया।
प्रवचनों को सुनकर खींवसी जी अत्यधिक प्रभावित हुए।१७ उन्होंने 'आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की जय' के सुमधुर घोष से श्रावक धर्म ग्रहण किया। वे प्रतिदिन नियमित रूप से प्रवचन श्रवण वायुमण्डल गूंज उठा। समूचा संघ हर्ष से पुलकित हो उठा। आपश्री करने के लिए उपस्थित होते। विविध विषयों पर आचार्यप्रवर से जैसे अनासक्त कर्मठ आचार्य को पाकर संघ धन्य हो गया। विचारचर्चा भी करते। आचार्यश्री अमरसिंहजी ने देहली संघ की प्रार्थना को सम्मान
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500 देकर देहली में इस वर्ष वर्षावास सम्पन्न किया, धर्म की अत्यधिक
9000 प्रभावना हुई। उसके पश्चात् पुनः आपश्री पंजाब संघ की प्रार्थना बादशाह बहादुरशाह की अनेक लड़कियाँ थीं। एक कन्या जो को संलक्ष्य में रखकर पंजाब पधारे और चार चातुर्मास पंजाब में अविवाहिता थीं, वह गर्भवती हो गयी। जब बादशाह को यह सूचना करके पुनः संवत् १७६७ में देहली में चातुर्मासार्थ पधारे। पूज्यश्री प्राप्त हुई तब वे क्रोध से आग-बबूला हो उठे। उनकी आँखें क्रोध से का तेज प्रतिदिन बढ़ रहा था। उनके प्रवचनों में चुम्बकीय अंगारे की तरह लाल हो गयीं। उन्होंने कहा-यह लड़की कुल को आकर्षण था।
कलंक लगाने वाली है। शाही कुल में इस प्रकार की लड़कियों की
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आवश्यकता नहीं, मैं ऐसी लड़कियों का मुँह देखना भी पाप (४) दूसरों के द्वारा शुक्र-पुद्गलों के योनि-देश में अनुप्रविष्ट समझता हूँ। अतः इसे नंगी तलवार के झटके से खतम कर दो किये जाने पर, ताकि अन्य को भी ज्ञात हो सके कि दुराचार का सेवन कितना
(५) नदी, तालाब आदि में स्नान करती हुई स्त्री के योनि-देश भयावह है। भण्डारी खींवसी ने जब बादशाह की यह आज्ञा सुनी
में शुक्र-पुद्गलों के अनुप्रविष्ट हो जाने पर। तो वे काँप उठे। उन्होंने बादशाह से निवेदन किया-हुजूर, पहले गहराई से जाँच कीजिए, फिर इन्साफ कीजिए। किन्तु आवेश के
इन पाँच कारणों से स्त्री पुरुष का सहवास न करती हुई भी कारण बादशाह ने एक भी बात न सुनी। खींवसी जी गिड़गिड़ाते
गर्भ को धारण कर सकती है। रहे कि मनुष्य मात्र भूल का पात्र है, उसे एक बार क्षमा कर आप सारांश यह है कि पुरुष के वीर्य पुद्गलों का स्त्री-योनि में विराट हृदय का परिचय दीजिए, किन्तु बादशाह किसी भी स्थिति में समाविष्ट होने से गर्भ धारण करने की बात कही गयी है। बिना अपने हुकुम को पुनः वापिस लेना नहीं चाहता था। खींवसी जी वीर्य पुद्गलों के गर्भ धारण नहीं हो सकता। आधुनिक युग में भण्डारी कन्या को मौत के घाट उतारने की कल्पना से सिहर उठे। कृत्रिम गर्भाधान की जो प्रणाली प्रचलित है उसके साथ इसकी मनःशान्ति के लिए वे आचार्यश्री के पास पहुँचे। आचार्यश्री ने तुलना की जा सकती है। सांड़ या पाड़े के वीर्य पुद्गलों को उनके उदास और खिन्न चेहरे को देखकर पूछा-भण्डारीजी! आज निकालकर रासायनिक विधि से सुरक्षित रखते हैं या गाय और आपका मुखकमल मुरझाया हुआ क्यों है? आप जब भी मेरे पास भैंस की योनि से उसके शरीर में वे पुद्गल प्रवेश कराये जाते हैं आते हैं उस समय आपका चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिला और गर्भकाल पूर्ण होने पर उनके बच्चे उत्पन्न होते हैं। अमेरिका में रहता है। भण्डारीजी अति गोपनीय राजकीय बात को आचार्यश्री से 1 'टेस्ट-ट्यूब बेबीज' की शोध की गयी है। उसमें पुरुष के निवेदन करना नहीं चाहते थे। उन्होंने बात को टालने की दृष्टि से वीर्य-पुद्गलों को काँच की नली में उचित रसायनों के साथ रखा कहा-गुरुदेव! शासन की गोपनीय बातें हैं। आपसे कैसे निवेदन जाता है और उससे महिलाएँ कृत्रिम गर्भ धारण करती हैं। करूँ? कई समस्याएँ आती हैं, जब उनका समाधान नहीं होता है
आगम साहित्य में जहाँ पर स्त्रियाँ बैठी हों उस स्थान पर मुनि तो मन जरा खिन्न हो जाता है।
को और जहाँ पर पुरुष बैठे हों उस स्थान पर साध्वी को एक __आचार्यश्री ने एक क्षण चिन्तन किया और मुस्कराते हुए अन्तर्मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए, जो उल्लेख है वह प्रस्तुत सूत्र के कहा-भण्डारीजी, आप भले ही मेरे से बात छिपायें, किन्तु मैं प्रथम कारण को लेकर ही है। इन पाँच कारणों में कृत्रिम गर्भाधान आपके अन्तर्मन की व्यथा समझ गया हूँ। बादशाह की क्वारी पुत्री का उल्लेख किया गया है। किसी विशिष्ट प्रणाली द्वारा शुक्र को जो गर्भ रहा है और उसे मरवाने के लिए बादशाह ने आज्ञा पुद्गलों का योनि में प्रवेश होने पर गर्भ की स्थिति बनती है जिसे प्रदान की है, उसी के कारण आपका मन म्लान है। क्या मेरा कथन आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है। सत्य है न?
सुश्रुत संहिता में लिखा है१९ कि जिस समय अत्यन्त कामातुर मेरे मन की बात आचार्यश्री कैसे जान गये यह बात भण्डारी हुई दो महिलाएँ परस्पर संयोग करती हैं, उस समय परस्पर जी के मन में आश्चर्य पैदा कर रही थी। उन्होंने निवेदन किया- एक-दूसरे की योनि में रज प्रवेश करता है तब अस्थिरहित गर्भ भगवन्, आपको मेरे मन की बात का परिज्ञान कैसे हुआ? आप समुत्पन्न होता है। जब ऋतुस्नान की हुई महिला स्वप्न में मथुन तो अन्तर्यामी हैं। कृपा कर यह बताइये कि उस बालिका के प्राण
क्रिया करती है तब वायु आर्तव को लेकर गर्भाशय में गर्भ उत्पन्न किस प्रकार बच सकते हैं?
होता है और वह गर्भ प्रति मास बढ़ता रहता है तथा पैतृक गुण
(हड्डी, मज्जा, केश, नख आदि) रहित मांस पिण्ड उत्पन्न होता है। आचार्यप्रवर ने कहा-भण्डारी जी, स्थानाङ्गसूत्र में१८ स्त्री पुरुष का सहवास न करती हुई भी वह पाँच कारणों से गर्भ धारण
तन्दुल वैचारिक प्रकरण में गर्भ के सम्बन्ध में विस्तार से करती है, ऐसा उल्लेख है। वे कारण हैं
निरूपण किया गया है और कहा कहा है जब स्त्री के ओज का
संयोग होता है तब केवल आकाररहित मांसपिण्ड उत्पन्न होता है। (१) अनावृत तथा दुनिषण्ण-पुरुष वीर्य से संसृष्ट स्थान को
स्थानांगरे के चौथे ठाणे में भी यह बात आयी है। गुह्य प्रदेश से आक्रान्त कर बैठी हुई स्त्री के योनि-देश में । शुक्र-पुद्गलों का आकर्षण होने पर,
आचार्यश्री ने प्रमाण देकर यह सिद्ध किया कि बिना पुरुष के
सहवास के भी रजोवती नारी कुछ कारणों से गर्भ धारण कर (२) शुक्र-पुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र के योनि-देश में अनुप्रविष्ट
सकती है। बादशाह की पुत्री ने जो गर्भ धारण किया है, वह बिना हो जाने पर,
पुरुष के संयोग के किया है-ऐसा मेरा आत्मविश्वास कहता है। तुम (३) पुत्रार्थिनी होकर स्वयं अपने ही हाथों से शुक्र-पुद्गलों को बादशाह से कहकर उसके प्राण बचाने का प्रयास करो। यह सुनकर योनि-देश में अनुप्रविष्ट कर देने पर,
दीवान जी को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। उनका मन-मयूर नाच उठा
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प्राचीन चित्र की प्रतिलिपि
वि. सं. १७६७ में जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह को अहिंसा-जीव दया का उपदेश प्रदान करते हुए ।
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सूक्ष्म हस्तलिपि एवं चित्रकला के महान कलाकार आचार्य श्री जीतमल जी म. द्वारा बनाया हुआ चित्र जिसमें एक चने की दाल; जिस पर लाल झूलों सहित १०८ हाथी चित्रित हैं । यह चित्र वि. सं. १८७१ में जोधपुर नरेश राजा मानसिंह जी के लिए बनाया जिसमें बताया है कि एक चने की दाल जितने सूक्ष्म स्थान में १०८ हाथी चित्रित किये जा सकते हैं वह भी अपनी आँखों से दिखायी नहीं देता है तो जल की एक बूँद में असंख्यात जीव छद्मस्थ की आँखों से कैसे दिखलायी पड़ सकता है।
इसमें एक दोहा भी अंकित है- दाल चिणा की तेह में बाधत है कछु घाट ।
शंका हो तो देख लो हाथी एक सौ आठ ॥
चित्र देखकर राजा मानसिंह आचार्यश्री के कथन पर श्रद्धावनत हो गये। आपका शास्त्र सत्य है। जिन सूक्ष्म तत्वों को मनुष्य की आँख नहीं देख सकती उनके अस्तित्व को नकारना मनुष्य की भूल है।
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। इतिहास की अमर बेल
४२७
कि अब मैं बादशाह को समझाकर कन्या के प्राण बचा सकूँगा। एक चापलूसी (flattery), लालच (greed), पाखण्ड (hypocrisy), निरपराध कन्या के प्राणों की सुरक्षा हो सकेगी। उन्होंने आचार्यप्रवर असत्य (lying), कृपणता (miserliness), अभिमान (pride), को नमस्कार किया और मांगलिक श्रवण कर वे बादशाह कलङ्क (slandering), आत्महत्या (suicide), अधिक ब्याज लेना बहादुरशाह के पास पहुंचे। उन्होंने बादशाह से निवेदन किया-हजूर, } (usury), हिंसा (violence), उच्छृखलता (wickedness), युद्ध कन्या कभी-कभी बिना पुरुष संयोग के भी गर्भ धारण कर लेती है । (warfare), हानिप्रद कर्म (wrong doings), आदि को हमेशा ही
और आपकी सुपुत्री ने जो गर्भ धारण कर लिया है वह इसी प्रकार त्याज्य समझा है और ठीक इसके विपरीत भाईचारा (brotherका है, ऐसा मुझे एक अध्यात्मयोगी संत ने अपने आत्मज्ञान से { hood), दान (charity), स्वच्छता (cleanliness), ब्रह्मचर्य बताया है और उसकी परीक्षा यही है-जब बच्चा होगा तब उसके। (chastity), क्षमा (forgiveness), मैत्री (friendship), बाल, नाखून, हड्डी आदि पैतृक अंग नहीं होंगे और पानी के कृतज्ञता (gratitude), विनम्रता (hunility), न्याय (jistice), बुलबुले की तरह कुछ ही क्षणों में वह नष्ट हो जाएगा। अतः उस { दया (kindness), श्रम (labour), उदारता (liberality), प्रेम अध्यात्मयोगी की बात को स्वीकार कर उस समय तक जब तक (love), कृपा (mercy), संयम (moderation), सुशीलता कि बच्चा न हो जाय तब तक उसे न मारा जाय। दीवान खींवसीजी (modesty), पड़ोसीपन का भाव (neighbourliness), हृदय की अद्भुत बात को सुनकर बादशाह आश्चर्यचकित हो गया-अरे! की शुद्धता (purity of heart), सदाचार (righteousness), यह नयी बात तो आज मैने सर्वप्रथम सुनी है। उस फकीर के कथन धैर्य (steadfasteness), सत्य (truth), विश्वास (trust) को | की सत्यता जानने के लिए हम तब तक उस बाला को नहीं ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है।२१ मरवाएँगे जब तक उसका बच्चा पैदा नहीं हो जाता है।
इससे स्पष्ट है कि इस्लाम परम्परा में भी उन तत्त्वों की बादशाह ने कन्या के चारों तरफ कड़ा पहरा लगवा दिया ताकि अवहेलना की गयी है जिनसे हिंसा की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। वह कहीं भागकर न चली जाये। कुछ समय के पश्चात् बालिका के कुरान के प्रारम्भ में ही खुदा को उदार, दयावान कहकर सम्बोधित प्रसव हुआ। बादशाह और दीवान खींवसी उसे देखने के लिए पहुंचे। किया है।२२ यहाँ तक कि पशुओं को कम भोजन देना, उन पर जैसा आचार्यप्रवर अमरसिंहजी महाराज ने कहा था वैसा ही पानी चढ़ना, सामान लादना आदि का भी इस्लामधर्म में निधेष किया के बुलबुले की तरह पिण्ड को देखकर बादशाह विस्मय विमुग्ध हो गया है। वह वृक्षों को काटने के लिए भी नहीं कहता।२३ । गया। बादशाह और दीवान के देखते-देखते ही वह बुलाबुला नष्ट हो इस्लामधर्म में कहा है-खुदा सारे जगत् (खल्क) का पिता है, गया। बादशाह ने दीवान की पीठ थपथपाते हुए कहा-अरे, बता जगत् में जितने भी प्राणी हैं, वे खुदा के पुत्र (बन्दे) हैं। कुरान ऐसा कौन योगी है. औलिया है जो इस प्रकार की बात बताता है?
शरीफ सुरा उलमायाद सियारा मंजिल तीन आयत तीन में लिखा लगता है, वह खुदा का सच्चा बन्दा है।
है-मक्का शरीफ की हद में कोई भी जानवर न मारे। यदि भूल से
मार ले तो अपने घर के जो पालतू जानवर हैं उसे वहाँ पर छोड़ बादशाह बहादुरशाह को उपदेश
दें। मक्का शरीफ की यात्रा को जाये तब से लेकर पुनः लौटने तक दीवानजी ने नम्रता के साथ निवेदन किया कि देहली में रोजा रखा जाय और गोश्त का इस्तेमाल न किया जाए। आगे वर्षावास हेतु विराजे हुए ज्योतिर्धर जैनाचार्य पूज्यश्री अमरसिंहजी चलकर सुरे अनायम आयत १४२ में लिखा है कि सब्जी और अन्न महाराज हैं जो बहुत ही प्रभावशाली हैं और महान् योगी हैं। उन्होंने को ही खाया जाये किन्तु गोश्त को नहींही मुझे यह बात बताई थी। आप चाहें तो उनके पास चल सकते हैं।
"बमिल अनआमें हमूल तम्बू बफसद कुलुमिमा रजत कुमुल्ला हो।" बादशाह अपने सामन्तों के साथ आचायश्री के दर्शनार्थ पहुँचा। आचार्यप्रवर ने अहिंसा का महत्त्वपूर्ण विश्लेषण करते हुए कहा- हजरत मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी हजरत अली साहब जैनधर्म में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वहाँ पर किसी भी प्राणी
ने२४ कहा है-हे मानव! तू पुशु-पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत की हिंसा करना निषेध किया गया है। वैदिक और बौद्धधर्म में भी बना अर्थात् पशु-पक्षियों को मारकर उनका भोजन मत कर। इसी अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इस्लाम धर्म में भी
तरह दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक बादशाह अकबर ने भी कहा है-मैं अहिंसा का गहरा महत्त्व है। इस धर्म में ईश्वर में विश्वास रखने, अपने पेट को दूसरे जीवों का कब्रिस्तान बनाना नहीं चाहता। धर्म पन्थ प्रवर्तकों के विचारों पर आस्था रखने, गरीब और । | जिसने किसी की जान बचायी तो मानों उसने सारे इनसानों को कमजोरों पर दयाभाव दिखाने की शिक्षा प्रदान की गई है। इस धर्म
जान बख्शी।२५ में गाली (abuse), क्रोध (anger), लोभ (avarice), चुगली । विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा को स्वीकार किया है। वह खाना (back biting), खून-खराबी (blood-shedding), रिश्वत धर्म का मूल आधार है। संसार में चारों ओर दुःख की जो ज्वालाएँ लना (bribery), झूठा आभयाग (calumny), बइमाना उठ रही हैं उसका मूल कारण हिंसक भावना है। अहिंसा भगवती (dishonesty), मदिरापान (drinking), ईर्ष्या (envy), . है। भगवान महावीर ने कहा है जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही
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है, जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है। अतः अहिंसा के मर्म को समझा जाय। इस प्रकार अहिंसा पर आचार्यप्रवर ने गम्भीर विश्लेषण किया जिसे सुनकर बादशाह ने कहा-योगी प्रवर ! मेरे योग्य सेवा हो तो फरमाइये। उत्तर में आचार्यश्री ने कहा हम जैन श्रमण हैं। अपने पास पैसा आदि नहीं रखते हैं और न किसी महिला का स्पर्श ही करते हैं। हम पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यहाँ तक कि मुँह की गरम हवा से जीव न मर जायें इसलिए मुख पर मुखवस्त्रिका रखते हैं और रात्रि के अन्धकार में पैर के नीचे आकर कोई जन्तु खतम न हो जाये इसलिए रजोहरण रखते हैं। भारत के विविध अंचलों में पैदल घूमकर धर्म का प्रचार करते हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप किसी भी प्राणी को म मारें; गोश्त का उपयोग न करें यही हमारी सबसे बड़ी सेवा होगी। बादशाह ने आचार्यश्री के आदेश को सहर्ष स्वीकार किया और नमस्कार कर अपने राजभवन में आ गया।
मारवाड की ओर प्रस्थान
वर्षावास पूर्ण होने जा रहा था, आचार्यप्रवर के सम्पर्क से दीवान खींवसीजी का जीवन ही धर्म में रंग गया था। उनके अन्तर्मानस में यह विचार उदबुद्ध हो रहे थे कि यदि आचार्यश्री जोधपुर पधारें तो धर्म की अत्यधिक प्रभावना हो सकती है। जोधपुर राज्य की जनता धर्म के मर्म को भूलकर अज्ञान अन्धकार में भटक रही है। चैतन्योपासना को छोड़कर जड़ोपासना में दीवानी बन रही है। दीवान खींवसी जी ने आचार्यप्रवर से निवेदन कियाभगवन्! कृपाकर आप एक बार जोधपुर पधारे। क्योंकि "न धर्मो धार्मिकबिना।"
आचार्यश्री ने कुछ चिन्तन के पश्चात् कहा- दीवानजी, आपका कथन सत्य है; मारवाड़ में धर्म का प्रचार बहुत ही आवश्यक है। किन्तु साम्प्रदायिक भावना का इतना प्राबल्य है कि वहाँ पर सन्तों का पहुँचना खतरे से खाली नहीं है जिस प्रकार बाज पक्षियों पर झपटता है उसी प्रकार धर्मान्ध लोग सच्चे साधुओं पर झपटते हैं। मैंने यहाँ तक सुना है कि सम्प्रदायवाद के दीवानों ने इस प्रकार के सिद्धान्त का निर्माण किया है कि "चार सवाया पाँच" अर्थात् मक्खी चतुरिन्द्रिय है और जैन साधु पंचेन्द्रिय हैं, उनको मारने में सवा मक्खी का पाप लगता है। इस प्रकार निकृष्ट कल्पना कर अनेकों साधुओं को मार दिया गया है। अतः ऐसे प्रदेश में विचरण करना खतरे से खाली नहीं है।
दीवान खींवसी जी विचार सागर में गोते लगाने लगे कि किस प्रकार आचार्यप्रवर को मारवाड़ में ले जाया जा सके। चिन्तन करते हुए उन्हें एक विचार आया। वे आचार्यप्रवर को नमस्कार कर बादशाह बहादुरशाह के पास पहुँचे और विनम्र निवेदन करते हुए कहा- जहाँपनाह! मैं आचार्यसम्राट श्री अमरसिंह जी महाराज को जोधपुर ले जाना चाहता हूँ। आपश्री जानते ही हैं जैन साधु किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, वे पैदल चलते हैं। सम्प्रदायवाद के
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
नशे में उन्मत्त बने हुए लोग इन साधुओं को भी अत्यधिक कष्ट देते हैं। उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो, अतः आप शासन की ओर से ऐसा आज्ञा पत्र निकाल दें कि आचार्य अमरसिंह जी जो मारवाड़ में आ रहे हैं इन साधुओं को जो कष्ट देगा उनके साथ कड़क बर्ताव किया जायेगा; खेत वाले का खेत, घर वाले का घर, गाँव वाले का गाँव और अधिकारियों का अधिकार छीन लिया जायेगा। इस प्रकार बाईस ताम्रपत्रों पर आदेश लिखकर जोधपुर राज्य के वाईस परगनों में भिजवा दिए गये।
दीवान खींवसी जी प्रसन्नमुद्रा में आचार्यप्रवर के पास आये और उनसे सनम्र निवेदन किया-भगवन्! अब आप मारवाड़ में पधारें। आपको मारवाड़ में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। मैंने शासन की ओर से आज्ञा पत्र सभी स्थानों पर भिजवा दिये हैं। आचार्यश्री ने दीवान खींवसी जी भण्डारी की स्नेहपूर्ण प्रार्थना को स्वीकार किया और वर्षावास के पश्चात् आचार्यप्रवर ने देहली से मारवाड़ की ओर विहार किया। दीवानजी भी अपना कार्य पूर्ण कर चुके थे, अतः उन्होंने भी वहाँ से जोधपुर की ओर प्रस्थान कर दिया।
धर्म - रंग लगा रंगलालजी को
आचार्य श्री देहली से विहार करते हुए अलवर पधारे। कुछ समय तक अलवर में विराज कर धर्म की प्रभावना की और वहाँ से जयपुर पधारे। पूज्यश्री के जयपुर पधारने पर जयपुर की भावुक जनता प्रतिदिन हजारों की संख्या में प्रवचन सभा में उपस्थित होने लगी। पूज्यश्री ने अपने प्रवचन में अपरिग्रह का महत्व प्रतिपादन करते हुए कहा-जड़ वस्तुओं के अधिक संग्रह से मानव की आत्मा दब जाती है। उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है मानव चाहे जितने व्रत ग्रहण करे किन्तु संग्रहवृत्ति पर नियन्त्रण न रखे तो उसको सच्चे आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। धर्मरूपी कल्पवृक्ष को परिग्रहवृत्ति जलाकर नष्ट कर देती है। चिन्ता-शोक को बढ़ाने वाला, तृष्णारूपी विषवल्लरी को सींचने वाला, कूट-कपट का भण्डार और क्लेश का घर परिग्रह है। परिग्रह का अर्थ है मन की ममता व आसक्ति। जिनेश्वरदेव ने वस्तु के प्रति रहे ममत्व-भाव को परिग्रह कहा है
“मुच्छा परिग्गहो वृत्तो।"२६
विश्व के सभी प्राणियों के लिये परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नहीं है । २७ इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं । २८ विश्व के पदार्थ ससीम है किन्तु इच्छाएँ असीम हैं, अतः कामनाओं का अन्तः करना ही दुःख का अन्त करना है ।२९ प्रमत्तपुरुष धन के द्वारा न इस लोक में अपनी रक्षा कर सकता है न परलोक में।३०
पूज्यश्री के अपरिग्रह के विश्लेषण को सुनकर रंगलालजी पटवा जो बहुत ही गरीब थे, उन्होंने निवेदन किया- भगवन् मुझे पाँच हजार से अधिक परिग्रह नहीं रखना है, इसकी मर्यादा करवा
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इतिहास की अमर बेल
दीजिए। आचार्यश्री ने रंगलालजी के चेहरे की ओर देखकर कहानियम ग्रहण करने से पूर्व तुम्हें यह अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए कि नियम भंग न हो। बाद में विचार करने की स्थिति पैदा न हो।
रंगलाल जी पटवा ने निवेदन किया-भगवन्, मेरे पास पाँच सौ से अधिक पूँजी ही नहीं है। मेरी आर्थिक स्थिति बड़ी नाजुक है। बड़ी कठिनता से मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ तथापि तृष्णा के वशीभूत होकर पाँच हजार की मर्यादा करना चाहता हूँ और आपश्री मुझे पुनः चिन्तन के लिए फरमा रहे हैं। आचार्यश्री ने कहा- क्या नीति की कहावत तुम्हें स्मरण नहीं है ? "स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् देवो न जानाति कुतो मनुष्यः " अतः मैं जो कह रहा हूँ वह सोच-विचार कर कह रहा हूँ। रंगलालजी ने सोचा कि आचार्यप्रवर जो कुछ कह रहे हैं इसमें गम्भीर रहस्य होना चाहिए। उन्होंने बीस हजार की मर्यादा के लिए कहा तब भी आचार्यश्री ने वही बात दुहराई। रंगलालजी ने अन्त में पच्चीस लाख की मर्यादा की। आचार्यप्रवर ने कुछ दिनों तक जयपुर विराज कर किसनगढ़ की ओर प्रस्थान किया। किसनगढ़ से अजमेर होते हुए आचार्यश्री सोजत पधारे। सम्प्रदायवाद के अधिनायक यतिगण चिंतित हो गये कि यहाँ शुद्ध स्थानकवासी धर्म का प्रचार हो जायेगा तो हमारी दयनीय स्थिति बन जायगी। अतः उन्होंने अपने भक्तों को बुलाकर कहा कि कोई ऐसी व्यवस्था की जाय जिससे साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। यदि हम मारने का प्रयास करेंगे तो शासन की आज्ञा की अवहेलना होने से हमारी स्थिति विषम हो सकती है। अतः कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे हमें किसी भी प्रकार के कष्ट का सामना न करना पड़े। चिन्तन के पश्चात् यह नवनीत निकाला गया कि आने वाले आचार्यश्री को कोट के मुहल्ले में स्थित जो मसजिद है वहाँ पर ठहराया जाय क्योंकि वहाँ पर एक मुसलमान मरकर जिन्द हुआ है, वह रात्रि में किसी को उस मसजिद में रहने नहीं देता है। जो रात्रि में वहाँ रहते हैं ये स्वतः ही काल-कवलित हो जाते हैं।
भय बना अभय स्थान
यति भक्तों ने आचार्यश्री को पूर्व योजनानुसार इस मसजिद में ठहरने के लिए आग्रह किया और कहा कि इस मकान के अतिरिक्त कोई अन्य मकान खाली नहीं है। आचार्यश्री वहाँ ठहर गये। आचार्यश्री का शिष्य समुदाय भी अत्यन्त विनम्र था जो उनके इंगित पर प्राण न्योछावर करने के लिए सदा तैयार रहता था। उनके चुम्बकीय आकर्षण से शिष्यों का हृदय उनके प्रति नत था। आचार्यश्री ने मकान की स्थिति को देखकर अपने सभी शिष्यों को सूचित किया कि वे घबरायें नहीं परीक्षा सोने की होती है, उसे आग में डाला जाता है, तभी उसमें अधिक चमक और दमक आती है। हीरे को सान पर ज्यों-ज्यों घिसा जाता है त्यों-त्यों वह चमकता है। मिट्टी के ढेले को जमीन पर डाला जाय तो वह उछलता नहीं, किन्तु गेंद जमीन पर नीचे डालते ही वह और अधिक तेज उछलती
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है जिनके जीवन में तेज नहीं होता थे मिट्टी के ढेले की तरह होते हैं। परन्तु जिनमें तेज होता है वे गेंद की तरह प्रगति करते हैं। अतः तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है, कष्ट तुम्हारे जीवन को निखारने के लिए हैं। उनका हँसते और मुसकराते हुए मुकाबला करना है। सभी शिष्यों ने आचार्यश्री के उद्बोधक संदेश को सुना और उनमें दुगुना उत्साह संचरित हो गया।
रात्रि का गहन अन्धेरा मँडराने लगा। जिन्द ने अपने स्थान पर विचित्र व्यक्तियों को ठहरे हुए देखा तो क्रोध से उन्मत्त होकर विविध उपसर्ग देने लगा। किन्तु आचार्यश्री के आध्यात्मिक तेज के सामने वह हतप्रभ हो गया, उसकी शक्ति कुण्ठित हो गई। आचार्य भद्रबाहु विरचित महान् चमत्कारी “उवसग्गहर स्तोत्र" को सुनकर वह आचार्यश्री के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध की क्षमायाचना करने लगा-भगवन्! मुझे ज्ञात नहीं था कि आप इतने महान् हैं। आपके आध्यात्मिक तेज के सामने मेरी दानवी वृत्ति आज नष्ट हो गयी है। आज मेरा क्रोध क्षमा के रूप में बदल गया है। मैंने आज एक सच्चे व अच्छे सन्त के दर्शन किये हैं। मैं आपसे सनम्र प्रार्थना कर रहा हूँ कि यह स्थान अब सदा के लिए जैन साधु-साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाओं के ही धार्मिक साधना के लिए उपयोग में लिया जायेगा में स्थानीय मौलवी के शरीर में प्रवेश कर यह स्थान जैनियों को दिलवा दूँगा। आचार्यश्री मौन रहकर जिन्द की बात सुनते रहे। प्रातः होने पर यति भक्तगण इस विचारधारा को लेकर पहुंचे कि सभी साधुगण मर चुके होंगे। पर ज्यों ही उन्होंने सभी सन्तों को प्रसन्नमुद्रा में देखा तो उनके देवता कुँच कर गये। जिन्द ने मौलवी के शरीर में प्रवेश कर मसजिद को जैन स्थानक बनाने के लिए उद्घोषणा की। सर्वत्र अपूर्व प्रसन्नता का वातावरण छा गया। जैनधर्म की प्रबल प्रभावना हुई। दो सौ पचास घर जो ओसवाल थे उन्होंने पूज्यश्री के उपदेश से स्थानकवासी धर्म को स्वीकार किया। वर्तमान में नवीन कोट मुहल्ले में जो स्थानक है वही पहले मसजिद था। उसी स्थान पर कुछ वर्षों पूर्व नवीन स्थानक का निर्माण किया गया है।
शास्त्रार्थ के महारथी
आचार्यश्री ने सोजत में स्थानकवासी धर्म का प्रचार कर पाली की ओर प्रस्थान किया । पाली के श्रद्धालु लोगों का मानस उसी तरह नाचने लगा जिस तरह उमड़-घुमड़ कर आती हुई घटाओं को देखकर मोर नाचता है। आचार्यश्री के प्रभावोत्पादक प्रवचनों में जनता का प्रवाह उमड़ रहा था। यति गण देखकर उसी तरह घबरा रहे थे जिस तरह शृगाल सिंह को देखकर घबराता है। उन्होंने विचार किया कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे अमरसिंहजी का नदी की बाढ़ की तरह बढ़ता हुआ प्रभाव रुक जाय । गम्भीर विचार विनिमय के पश्चात् शास्त्रार्थ की आचार्यश्री को चुनौती दी। उन्हें यह अभिमान था कि आचार्य श्री में ज्ञान का अभाव है, वे तो केवल आचारनिष्ठ ही हैं। किन्तु जब शास्त्रार्थ के लिए आचार्य श्री तैयार हो
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गये तो यति समुदाय की ओर से बीकानेर से विमलविजयजी, काष्ठ की पट्टी बाँधने का विधान अन्यत्र देखने में नहीं आया है। जोधपुर से ज्ञानविजयजी, मेड़ता से प्रभाविजयजी और नागोर से। इससे यह सिद्ध होता है जैन श्रमण मुँहपत्ती बाँधते ते और उसी का जिनविजयजी ये चार मेधावी यति शास्त्रार्थ के लिए उपस्थित हुए। । अनुसरण सोमिल ने काष्ठ पट्टी बाँध कर किया हो। विविध विषयों पर शास्त्रार्थ हुआ। आचार्यश्री ने जब मुखवस्त्रिका
भगवती में३८ जमाली के दीक्षा ग्रहण करने के प्रसंग में नाई का का प्रश्न आया तब कहा कि-आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर
उल्लेख है, उसने भी आठ परतवाली मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी थी। मुखवस्त्रिका का उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी विभाग में बताया गया है कि "मुहपोत्तियं पडिलेहत्ता पडिलेहिज्ज गोच्छगं''३१
शिवपुराण ज्ञानसंहिता में३९ जैन श्रमण का लक्षण बताते हुए अर्थात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रतिलेखना करें।
कहा है-हाथ में काष्ठ के पात्र धारण करने वाले, मुँह पर निशीथ भाष्य३२ में जिनकल्पिक श्रमणों का उल्लेख है वहाँ पर
मुखवस्त्रिका बाँधने वाले, मलिन वस्त्र वाले, अल्पभाषी ही जैन मुनि पाणिपात्र और पात्रधारी ये दो भेद किये हैं। दोनों ही प्रकार के
है। उसमें यह भी बताया गया है कि इस प्रकार के जैन श्रमण श्रमण कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपधि रखते
ऋषभावतार के समय में भी थे। हैं। जिनकल्पिक श्रमणों के लिए भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये श्रीमाल पुराण में४0 मुँह पर मुँहपत्ती धारण करने वाले जैन दो आवश्यक है, अन्य उपकरण चाहे हों या न हों। फिर श्रमणों का वर्णन है। साथ ही भुवनभानु केवली चरित्र, हरिबल स्थविरकल्पिकों के लिए तो मुखवस्त्रिका अनिवार्य है ही।
मच्छीनु रास, अवतार चरित्र, सम्यक्त्वमूल बारहव्रत की टीप, भगवती सूत्र में३३ स्पष्ट कहा है कि जब खुले मुँह बोला जाता
हितशिक्षार्नु रास, जैनरलकथाकोश, ओघनियुक्ति आदि में है तब सावध भाषा होती है।
मुखवस्त्रिका का वर्णन है। महानिशीथ जिसे स्थानकवासी परम्परा प्रमाणभूत आगम नहीं
आचार्यप्रवर के अकाट्य तर्कों से यति समुदाय परास्त हो गया। मानती है उसमें भी यह विधान है कि कान में डाली गयी मुँहपत्ती के
वह उत्तर न दे सका। वहाँ से वे लौट गये। स्थानकवासी धर्म की बिना या सर्वथा मुँहपत्ती के बिना इरियावही क्रिया करने पर साधु
पाली में प्रबल प्रभावना हुई। वहाँ से आचार्यप्रवर ने जोधपुर की को मिच्छामि दुक्कडं या दो पोरसी का (पूर्वार्द्ध) दण्ड आता है।३४
ओर प्रस्थान किया। जब आचार्यप्रवर जोधपुर पधारे उस समय
दीवान खींवसीजी भण्डारी ने आचार्यप्रवर का हृदय से स्वागत किया योगशास्त्र३५ में भी कहा है मुख से निकलने वाले उष्ण स्वास से
और आचार्यप्रवर को तलहटी के महल में ठहरा दिया। राजकीय वायुकाय के जीवों की तो विराधना होती है किन्तु त्रस जीवों के मुख
कार्य से खीवसीजी बाहर चले गये, तब यतिभक्तों ने सोचा कि किसी में प्रवेश की भी सम्भावना सदा रहती है तथा अकस्मात् आयी हुई
तरह से अमरसिंहजी महाराज को खत्म करना चाहिए। खाँसी, छींक आदि से यूँक शास्त्रों या कपड़ों पर गिरने की सम्भावना रहती है, अतः मुखवस्त्रिका इन सभी का समीचीन उपाय है।
दुष्चक्र बना धर्मचक्र ___आगम साहित्य में यत्र-तत्र मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने का __ यतिभक्तों ने सोचा कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे विधान प्राप्त होता है। जैसे ज्ञातासूत्र३६ में तेतली प्रधान को उसकी आचार्यश्री सदा के लिए खत्म हो जायें। जोधपुर में आसोप ठाकुर धर्मपत्नी अप्रिय हो गयी तो वह दान आदि देकर समय व्यतीत साहब की एक हवेली है जहाँ पर ठाकुर राजसिंह जोधपुर नरेश के करने लगी। उस समय तेतलीपुर में महासती सुव्रताजी का आगमन बदले में जहर का प्याला पीकर मरे थे। वे व्यन्तर देव बने थे। वे हुआ। वे भिक्षा के लिए तेतली प्रधान के घर पर पहुँची, तब तेतली रात्रि में अपनी हवेली में किसी को भी नहीं रहने देते थे। यदि कोई प्रधान की अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने साध्वीजी को आहारदान दिया भूल से रह जाता तो उसे वे मार देते थे। अतः यतिभक्तों ने सोचा
और उसके पश्चात् उसने साध्वीजी से पूछा-आप अनेकों नगरों में कि ऐसे स्थान पर यदि आचार्य अमरसिंहजी को ठहरा दिया जाय तो परिभ्रमण करती हैं कहीं पर ऐसी जड़ी-बूटी या वशीकरण आदि वे बिना प्रयास के समाप्त हो जायेंगे। उन्होंने महाराज अजितसिंह से. मन्त्र के उपाय देखे हों तो बताने का अनुग्रह कीजिए जिससे मै प्रार्थना की-राजन् आप जिस महल के नीचे होकर परिभ्रमण करने पुनः अपने पति की हृदयहार बन जाऊँ। यह सुनते ही महासतीजी के लिए जाते हैं, उस महल के ऊपर अमरसिंहजी साधु बैठे रहते हैं। ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलियाँ डाल दी और वे आपको नमस्कार भी नहीं करते। हमसे आपका यह अपमान देखा कहा-भो देवानुप्रिये! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से सुनना भी नहीं जाता। राजा ने कहा-साधु फक्कड़ होते हैं। वे नमस्कार नहीं नहीं कल्पता फिर ऐसा मार्ग बताना दो दूर रहा। इस वर्णन से यह करते तो कोई बात नहीं है। यतिभक्तों ने मुँह मटकाते हुए कहास्पष्ट है कि साध्वीजी के मुँह पर मुखवस्त्रिका बाँधी हुई होनी राजन्! आप बड़े हैं, पृथ्वीपति हैं, आपको तो नमस्कार करना ही चाहिए नहीं तो दोनों हाथ दोनों कानों में डालकर खुले मुँह कैसे चाहिए। यदि आपश्री को कोई एतराज न हो तो हम आचार्यश्री को बोलती? निरयावलिका३७ में उल्लेख है सोमिल ब्राह्मण ने काष्ठ की दूसरा बहुत ही बढ़िया स्थान बता देंगे। दरबार ने कहा-जैसी तुम्हारी मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी थी। वैदिक परम्परा के संन्यासियों में मुँह पर इच्छा। यतिभक्त आचार्यश्री के पास आये और कहा कि महाराज
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इतिहास की अमर बेल
साहब ने आपको आज्ञा प्रदान की है, अतः आप दूसरे मकान में पधारिये । जहाँ पर आपको ठहरने की योग्य व्यवस्था की गई है। आचार्यप्रवर अपने शिष्यों के साथ चल दिये। यतिभक्तों ने पूर्व योजनानुसार आसोप ठाकुर साहब की हवेली उन्हें ठहरने के लिये बता दी। आचार्यश्री आज्ञा लेकर वहाँ पर ठहर गये।
असुर बना भक्त
रात्रि का झुरमुट अँधेरा होने लगा। आचार्यश्री ने पहले से ही अपने शिष्यों को सावधान कर दिया कि आज की रात्रि में भयंकर उपसर्ग उपस्थित हो सकते हैं, लेकिन तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है। सभी ध्यान साधना में दत्तचित्त हो लग जाओ जिससे कोई भी बाल बाँका न कर सके। आचार्यश्री जानते थे कि ध्यान में वह अपूर्व बल है जिससे दानवी शक्ति परास्त हो जाती है।
रात्रि का गहन अँधेरा धीरे-धीरे छा रहा था। रात्रि के गहन अन्धकार में दानवी शक्ति का जोर बढ़ता है। ज्यों ही अँधेरे ने अपना साम्राज्य स्थापित किया त्यों ही आसुरी शक्ति प्रकट हुई। उसने मानवाकृति में आकर सर्वप्रथम हवेली को परिष्कृत किया और सुगन्धित द्रव्यों से चारों ओर मधुर सुगंध का संचार कर दिया। उसके पश्चात् राजसिंहजी का जीव जो व्यन्तर देव बना था, वह अपने असुर परिजनों के साथ उपस्थित हुआ। वह सिंहासन पर बैठा किन्तु उसे मानव की दुर्गन्ध सताने लगी। अरे, आज इस हवेली में कौन मानव ठहरे हैं? लगता है, मौत ने इनको निमन्त्रण दिया है। इन्हें मेरी दिव्य-दैवी शक्ति का भान नहीं है। मैं अभी इन्हें बता दूँगा कि मेरे में कितनी असीम शक्ति है। विकराल रूप बनाकर वह आचार्यश्री के चरणों में पहुँचा और साँप, बिच्छू, शेर, चीते आदि विविध रूप बनाकर आचार्यश्री को संत्रस्त करने का प्रयास करने लगा जब आध्यात्मिक शक्ति के सामने दानवी शक्ति का बल कम हो गया, तब उसने क्रोध में आकर जिस पट्टे पर आचार्य श्री विराजमान थे उसका एक पाया तोड़ दिया और देखने लगा अब नीचे गिरे, अब नीचे गिरे। किन्तु पूज्यश्री ध्यान में इतने तल्लीन थे कि वे तीन पाये वाले पट्टे पर पूर्ववत् ही बैठे रहे । दानवी शक्ति यह देखकर हैरान थी क्या जादू है इनके पास ! ये तीन पाये पर ही बैठे हुए हैं। अन्त में हारकर उसने कहा- अभी रात में ही यहाँ से निकल जाओ, नहीं तो तुम्हें भस्म कर दूँगा। पूज्यश्री मौन रहे तो उसने कहा- रात में नहीं जाते हो तो कोई बात नहीं, कल सुबह ही यहाँ से चले जाना। अन्यथा मैं सभी को मौत के घाट उतार दूँगा। दानवी शक्ति अन्त में हारकर अपने स्थान पर जाकर बैठ गयी। आचार्यश्री ने ध्यान से निवृत्त होकर जैनागमों में से संग्रहीत अर्थ मागधी भाषा में भानुद्वार को उच्च स्वर से सुनाया। दानवी शक्ति ने जब सुना तब उसके आश्चर्य का पार न रहा-अरे! यह तो कोई विशिष्ट व्यक्ति है, इसे कोई विशेष ज्ञान है जिसके कारण इसे हमारी अवगाहना, स्थिति, भवन और अन्य ऋद्धियों का परिज्ञान है। आश्चर्य तो इस बात का है कि
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हमारा ही नहीं हमारे से भी बढ़कर जो देव है उनके सम्बन्ध में भी थे अच्छी तरह से जानते हैं जिन चीजों को हम नहीं जानते उन चीजों को ये जानते हैं। बड़े अद्भुत हैं ये व्यक्ति । दानवी शक्ति अपने स्थान से उठकर आचार्यश्री के श्रीचरणों में पहुँची और उसने नम्र शब्दों में निवेदन किया-भगवन्! मैं आपको समझ नहीं सका। आप तो महान हैं। हमारे से अधिक ज्ञानी हैं। हमें जिन बातों का परिज्ञान नहीं है, वे बातें भी आप जानते हैं, बताइये, आपको कौन सा ज्ञान है ?
आचार्यश्री ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा मेरे में कोई विशेष ज्ञान नहीं है। मैं जो बात कह रहा हूँ वह बात श्रमण भगवान महावीर ने अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर कही है। हम उन्हीं की वाणी को दुहरा रहे हैं। वह आगम वाणी है जिसमें । अनेक अपूर्व बाते हैं, यदि आप सुनेगे तो ताज्जुब करेंगे।
दानवी शक्ति ने विनत होते हुए कहा- हम आपकी यह स्वाध्याय प्रतिदिन सुनना चाहते हैं। क्या आप हमें यह स्वाध्याय सुनायेंगे?
आचार्यप्रवर ने कहा- तुम्हारे कहने से हमें कल यहाँ से प्रस्थान करना है । फिर तुम्हें किस प्रकार स्वाध्याय सुना सकेंगे ?
दानवी शक्ति ने कहा- भगवन्! आप यहीं रह सकते हैं, किन्तु अपने शिष्य आदि को मत रखिये।
आचार्य ने कहा- कहीं सूर्य और उसका प्रकाश पृथक् रह सकता है ? नहीं। वैसे ही गुरु और शिष्य कैसे पृथक् रह सकते हैं। ये तो देह की छाया की तरह सदा साथ में ही रहते हैं। उनका नाम ही अन्तेवासी ठहरा
दानवी शक्ति ने कहा आप अपने शिष्यों सहित यहाँ पर प्रसन्नता के साथ रह सकते हैं, किन्तु अन्य व्यक्तियों को यहाँ आने न दीजिएगा।
आचार्यश्री- जहाँ हम ठहरे हुए हैं वहाँ उपदेश श्रवण करने के लिए लोग आयेंगे ही। हम उन्हें कैसे इनकार कर सकते हैं?
दानवी शक्ति अच्छा, तो ऐसा कीजिएगा पुरुषों को आने दीजिएगा, किन्तु महिलाओं को यहाँ आने का निषेध कर दीजिएगा।
आचार्यश्री-आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में पुरुष और महिलाओं का भेद नहीं किया जाता। जिस प्रकार पुरुष आध्यात्मिक साधना करता है उसी प्रकार महिलाएँ भी साधना कर सकती हैं। पुरुषों से भी महिलाओं का हृदय अधिक भावुक होता है। वे साधना के मार्ग में सदा आगे रहती हैं। अतः उन्हें आध्यात्मिक साधना से वंचित करना हमारे लिए कैसे उचित है ? हम जहाँ रहेंगे वहाँ पर रात्रि में नहीं, किन्तु दिन में उपदेश श्रवण हेतु पुरुषों के साथ महिलाएँ भी आयेंगी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । दानवी शक्ति ने कहा-आपका कथन सत्य है, किन्तु ऐसा करें _मधुर मुस्कान के साथ आचार्यश्री के भाषणों ने जन-मन-नयन कि जिन महिलाओं को नहीं आना है, उन्हें न आने देवें।
को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लिया। आचार्यश्री के भावों आचार्यश्री ने कहा-मैं स्वयं भी नहीं चाहता हूँ कि वे महिलाएँ
में गाम्भीर्य था, उनकी शैली में ओज था, शैली बड़ी सुहावनी थी, यहाँ आवें, किन्तु हम किन्हें पूछने जायेंगे कि तुम्हें आना है या नहीं
जो नदी के प्रवाह की तरह अपने प्रतिपाद्य विषय की ओर बढ़ती
थी। उनके सांस्कृतिक प्रवनचों में जैन संस्कृति की आत्मा बोलती आना है?
{ थी। आचार्यश्री के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों जन जैनधर्म दानवी शक्ति ने कहा-आप ऐसा कीजिए कि मेरा यह जो के प्रति आकर्षित हुए। स्थान विशेष है वहाँ पर कोई महिला नहीं आने पावे, अतः अपना }
भण्डारी खींवसीजी जो बाहर गये हुए थे, वे लौटकर पुनः पट्टा यहाँ पर ले लेवें।
जोधपुर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि आचार्यप्रवर को भयंकर _आचार्यश्री ने कहा-आपका यह कथन उचित है। हम आपके उपद्रवकारी स्थान में उतारा गया है। उन्होंने आचार्यश्री से पूछास्थान पर पट्टा ले लेंगे किन्तु पट्टे को तो आपने पहले से ही तोड़ भगवन् ! किस दुष्ट ने आपको यहाँ पर ठहराया ? मैंने तो आपको रखा है। अतः इसे पहले आप ठीक कीजिए।
महलों में ठहराया था। आपको यहाँ पर बहुत ही कष्ट हुए होंगे। दानवी शक्ति ने उसी समय पट्टे को ठीक कर दिया और
कृपया मुझे नाम बताइये जिससे उस दुष्ट को दण्ड दिया जा सके।
आचार्यश्री ने कहा-जिसने मुझे यहाँ पर ठहराया उसने मेरे पर आचार्यश्री से प्रार्थना की कि आप आनन्द से यहाँ विराजिए और
महान् उपकार किया है। यदि वह मुझे यहाँ न ठहराता तो मैं उतना धर्म की अत्यधिक प्रभावना कीजिए। आपको यहाँ विराजने पर
कार्य नहीं कर पाता। वर्षों तक प्रयत्न करने पर जितना प्रचार नहीं किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। दानवी शक्ति आचार्यप्रवर को
हो सकता था, उतना प्रचार यहाँ ठहराने से एक ही दिन में हो नमस्कार कर और अपने अपराधों की क्षमा याचना कर वहाँ से
गया। वह तो हमारा बहुत बड़ा उपकारी है, उसे दण्ड नहीं किन्तु विदा हो गयी।
पुरस्कार देना चाहिए जिसके कारण हम धर्म की इतनी प्रभावना प्रातः होने पर ज्यों ही सहस्ररश्मि सूर्य का उदय हुआ, कर सके। आचार्यश्री की उदात्त भावना को देखकर दीवान यतिभक्त इसी विचार से आसोप ठाकुर की हवेली में पहुँचे कि । खींवसीजी चरणों में गिर पड़े भगवन्! आप तो महान् हैं, अपकार आचार्य अमरसिंहजी अपने शिष्यों सहित समाप्त हो गये होंगे। करने वाले पर भी जो इस प्रकार की सद्भावना रखते हैं। वस्तुतः किन्तु आचार्यप्रवर व अन्य सन्तों को प्रसन्नमुद्रा में स्वाध्याय-ध्यान आपके गुणों का उत्कीर्तन करना हमारी शक्ति से परे है। आदि करते हुए देखा तो उनके आश्चर्य का पार न रहा। एक-दूसरे आचार्यप्रवर के प्रबल प्रभाव से यतियों के प्रमख गढ जोधपर को देखकर परस्पर कहने लगे कि दानवी शक्ति तो इतनी जबरदस्त में धर्म की विजय-वैजयन्ती फहराने लगी। यतिगणों का प्रभाव उसी थी कि किसी की भी शक्ति नहीं थी जो इससे जूझ सके। इस दानवी तरह क्षीण हो गया जिस तरह सूर्य के उदय होने पर तारागणों का शक्ति ने तो अनेकों को खत्म कर दिये थे। पता नहीं इनके पास / अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। वे मन ही मन पश्चात्ताप करने ऐसी कौनसी विशिष्ट शक्ति है जिससे इतनी महान् शक्ति भी इनके लगे कि हमने बहुत ही अनुचित किया। यदि हम ऐसा नहीं करते सामने परास्त हो गयी। लगता है, यह कोई महान् योगी है। इनके तो उनके धर्म का प्रचार नहीं हो पाता। हमारा प्रयास उन्हीं के लिये चेहरे पर ही अपूर्व तेज झलक रहा है। आँखों से अमृत बरस रहा लाभदायक सिद्ध हुआ। है। हमें इनके पास अवश्य चलना चाहिए और इनसे धर्म का मर्म
जोधपुर संघ की प्रार्थना को सम्मान देकर आचार्यप्रवर ने भी समझ लेना चाहिए।
संवत् १७६८ का चातुर्मास जोधपुर में किया। उस वर्ष जोधपुर आचार्यश्री की यशःसौरभ जोधपुर में फैल गयी। भौंरो की । नरेश महाराजा अजितसिंहजी अनेकों बार आचार्यप्रवर के प्रवचनों तरह भक्त मंडलियाँ मँडराने लगीं। हजारों लोग आचार्यश्री के दर्शन | में उपस्थिति हुए और आर्चाप्रवर के उपदेश से प्रभावित होकर के लिए उपस्थित हुए। आचार्यप्रवर ने जिज्ञासु श्रोताओं को देखकर शिकार आदि न करने की प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की और हजारों व्यक्तियों अपना प्रवचन प्रारम्भ किया। आचार्यश्री ने कहा-जैन संस्कृति का ने आचार्यश्री के सत्संग से अपने जीवन को निखारा। वर्षावास में मूल आधार है त्याग, तपस्या और वैराग्य। उसने जितना बाह्य श्रेष्ठिप्रवर रंगलालजी पटवा जयपुर से आचार्यप्रवर के दर्शनार्थ शुद्धता पर बल दिया है, उससे भी अधिक अन्तर्मन की पवित्रता । उपस्थित हुए। उन्होंने आचार्यश्री से निवेदन किया-भगवन्! आपश्री को महत्व दिया है। यह संस्कृति भोगवादी नहीं, त्याग, तपस्या, } के उपदेश से प्रभावित होकर मैंने श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे। वैराग्य की संस्कृति है। इस संस्कृति के मूल में भोग नहीं, त्याग है। } परिग्रहपरिमाणव्रत में मैने पाँच हजार रखने का विचार किया था. भोगवाद पर त्यागवाद की विजय है, तन पर मन का जयघोष, किन्तु आपश्री के संकेत से मैने पच्चीस लाख की मर्यादा की। उस वासना पर संयम का जयनाद है।
समय मेरे पास पाँच सौ की भी पूँजी नहीं थी। पर भाग्य ने साथ
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। इतिहास की अमर बेल
४३३ दिया। जो भी व्यापार किया उसमें मुझे अत्यधिक लाभ ही लाभ | महापुरुष के कार्य को सुगम बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। हुआ। नवीन मकान बनाने के लिए ज्यों ही नींव खोदी गयी उसमें | अतः वे साचौर से विहार कर पूज्यश्री की सेवा में पधारे। उस समय पच्चीस लाख से भी अधिक की सम्पत्ति मिल गई। मैं चिन्तन करने । आचार्यश्री नागौर विराज रहे थे। दोनों ही महापुरुषों का मधुर संगम लगा कि कहीं मेरा नियम भंग न हो जाये, अतः उदार भावना के । हुआ। आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज, आचार्य धन्नाजी महाराज से साथ मैंने दान देना प्रारम्भ किया। किन्तु दिन-दूनी रात चौगुनी । दीक्षा और ज्ञान में भी बड़े थे। अतः विनय के साथ उन्होंने लक्ष्मी बढ़ती ही गयी। तब मुझे अनुभव हुआ कि दान देने से आचार्यश्री से अनेकों जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की और योग्य समाधान प्राप्त लक्ष्मी घटती नहीं किन्तु बढ़ती है। एक शायर ने इस तथ्य को इस कर उन्हें संतोष हुआ। दोनों ही महापुरुषों में दिन-प्रतिदिन प्रेम बढ़ता रूप में कहा है
ही रहा। आचार्य अमरसिंह जी महाराज ने वहाँ से विहार कर
मेड़ता, नागोर, बगड़ी (सज्जनपुर), अजमेर, किसनगढ़, जूनिया, जकाते माल बदर कुनके, फजल-ए-रजरा।
केकड़ी, शहापुरा, भीलवाड़ा, कोटा, उदयपुर, रतलाम, इन्दौर, चो बाग बां बबुर्द, वेशतर दिहद अंगूर।
पीपाड़, बिलाड़ा प्रभृति क्षेत्रों में धर्म प्रचार करते हुए वर्षावास किये। अर्थात्-दान देने से उसी तरह लक्ष्मी बढ़ती है जैसे अंगूर की जहाँ भी वर्षावास हुआ वहाँ पर धर्म की प्रबल प्रभावना हुई। शाखा काटने से वे और अधिक मात्रा में आते हैं।
आचार्यप्रवर के प्रतिदिन बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कानजी ___गुरुदेव! एक बहुत ही आश्चर्य की घटना हुई। अपराह्न का Jऋषि के सम्प्रदाय के आचार्यश्री ताराचन्द जी महाराज, श्री समय था, एक अवधूत योगी हाथ में तुम्बी लेकर आया और जयपुर जोगराजजी महाराज, श्री मीवाजी महाराज, श्री तिलोकचन्दजी की सड़कों पर और गलियों में यह आवाज लगाने लगा-“हे कोई महाराज एवं आचार्यश्री राधाजी महाराज, आचार्यश्री हरिदासजी माई.का माल! जो मेरी इस तुम्बी को अशर्फियों से भर दे।" जब । महाराज के अनुयायी श्री मलूकचन्दजी महाराज, आर्याजी फूलाजी मेरे कर्ण-कुहरो में यह आवाज आयी तब मैंने योगी को अपने पास महाराज, आचार्यश्री परसरामजी महाराज के आज्ञानुवर्ती महाराज बुलाया और स्वर्णमुद्राओं से तुम्बी को भरने लगा। हजारों स्वर्णमुद्राएँ खेतसिंहजी महाराज, खींवसिंहजी महाराज तथा आर्याश्री केशरजी डालने पर भी तुम्बी नहीं भरी। मैं मुद्राएँ लेने के लिए अन्दर जाने के महाराज आदि सन्त सती वृन्द पचवर ग्राम में एकत्रित हुए और लिए प्रस्ततु हुआ। योगी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा-हम साधुओं परस्पर उल्लास के क्षणों में मिले और एक-दूसरे से साम्भोगिक४१ को स्वर्णमुद्राओं से क्या लेना-देना? साधु तो कंचन और कामिनी का सम्बन्ध प्रारम्भ किया तथा श्रमण संघ की उन्नति के लिए अनेक त्यागी होता है। उसने पुनः तुम्बी खाली कर दी और कहा-मैं तुम्हारी महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित किये गये। इस समय आचार्यश्री परीक्षा लेने के लिए स्वर्ग से आया हूँ। मैंने सोचा, तुम नियम पर अमरसिंहजी मराहाज के लघु गुरुभ्राता दीपचन्दजी महाराज एवं कितने दृढ़ हो। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, यह कहकर वह अन्तर्धान । प्रवर्तिनी महासती भागाजी भी उपस्थित थीं। स्थानकवासी परम्परा हो गया। गुरुवर्य! वे सारी स्वर्णमुद्राएँ मैंने गरीबों को, जिन्हें । की दृष्टि से यह सर्वप्रथम सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में अनेक आवश्यकता थी, उनमें वितरण कर दीं। वस्तुतः गुरुदेव, आपका महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित हुए। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर ज्ञान अपूर्व है। आपश्री नियम दिलाते समय यदि मुझे सावधान न मुनिजी के पास उस समय का लिखित एक पन्ना है, उससे उस करते सो सम्भव है मैं नियम का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर पाता। | समय की स्थिति का स्पष्ट परिज्ञान होता है। दीर्घकाल से आपश्री के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा थी, वह आज
पचवर से विहार कर आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज ने पूर्ण हुई। कुछ दिनों तक श्रेष्ठिवर्य रंगलालजी आचार्यश्री की सेवा में
किसनगढ़ में चातुर्मास किया। वर्षावास के पश्चात् वहाँ पर रहे औ पुनः लौटकर वे जयपुर पहुँच गये।
परमादरणीय आचार्यश्री भूधरजी महाराज के शिष्य उग्र तपस्वी धर्म प्रभावना
श्रद्धेय आचार्य रघुनाथमलजी महाराज, श्रद्धेय आचार्यश्री जयमलजी
महाराज, आदि सन्तों ने तथा आर्या वखताजी ने आचार्यश्री के इस वर्षावास में धर्म की अत्यधिक प्रभावना हुई। वर्षावास पूर्ण
साथ स्नेह सम्बन्ध स्थापित किया और एक बनकर धर्म की होने पर आचार्यप्रवर ने मारवाड़ के विविध ग्रामों में धर्म का प्रचार
प्रभावना प्रारम्भ की। आचार्यप्रवर ने सं. १८११ में पुनः जोधपुर किया और पाली चातुर्मास किया। उसके पश्चात् सोजत और जालोर
चातुर्मास किया। आचार्यप्रवर के उपदेशों से धर्म का कल्पवृक्ष चातुर्मास किये। आचार्यप्रवर ने अथक परिश्रम से मारवाड़ के क्षेत्रों
लहलहाने लगा। जोधपुर का चातुर्मास सम्पन्न कर आयार्यश्री सोजत, में धर्मप्रचार किया था। उस समय पूज्यश्री धर्मदास जी महाराज के
बगड़ी, शहापुरा होते हुए अजमेर वर्षावास हेतु पधारे। क्योंकि शिष्य पूज्यश्री धन्नाजी महाराज जो साचौर में धर्मप्रचार कर रहे थे
अजमेर संघ आचार्यश्री की वर्षों से भावभीनी प्रार्थना कर रहा था। उन्होंने सुना कि आचार्यप्रवर अमरसिंहजी महाराज ने मारवाड़ क्षेत्र । को सुगम बना दिया है और उन्होंने स्थानकवासी धर्म का खूब प्रचार
आचार्यश्री का स्वास्थ्य वृद्धावस्था के कारण कुछ शिथिल हो किया है, तब उन्होंने विचार किया है कि मुझे भी चलकर उस । रहा था। किन्तु शरीर में किसी प्रकार की व्याधि न थी। उनके Jam Education titaivational OS Ear Private & Personal Use ay gug
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शक्तिशाली नेतृत्व में धर्म संघ का अभ्युदय के शिखर को स्पर्श कर अजमेर की पवित्र धरती भीग उठी। बोलने को बहुत कुछ था, रहा था, प्रगति के नये उन्मेष नयी सम्भावनाओं को खोज रहे थे। किन्तु बोलने की शक्ति कुण्ठित हो चुकी थी। सब देख रहे थे, सुन आचार्यश्री ने अपने शिष्यों को संस्कृत, प्राकृत और आगम । रहे थे किन्तु यह सब कुछ कैसे हो गया यह समझ में नहीं आ रहा साहित्य का उच्चतम अध्ययन करवाया था। स्वयं आचार्यश्री के हाथ था। आचार्यश्री की अर्थी के साथ लड़खड़ाते हुए कदमों से लोग के लिखे हुए अनेकों ग्रन्थ जोधपुर, जालोर, अजमेर और खाण्डप चल रहे थे। उनके अवरुद्ध कण्ठों से एक ही स्वर निकल रहा थातथा अन्य भण्डारों में मैंने देखे हैं। उनका लेखन शुद्ध है; लिपि
जीवन के उपवन में आये, आकर फिर क्यों लौट चले। इतनी बढ़िया और कलात्मक तो नहीं किन्तु सुन्दर है जो उनके गहन
मधुर प्रेम की बीन बजाकर, अब अपना मुँह मोड़ चले। अध्ययन और प्रचार की स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करती है। अत्यन्त परिताप है कि व्यवस्थापकों की अज्ञता के कारण उनके हाथ के
किन्तु सुनने वाला तो बहुत दूर चला गया था, जहाँ हजारों लिखे हुए अनेकों ग्रन्थ दीमकों के उदरस्थ हो गये, उन दीमकों की ।
कण्ठों का आर्तनाद भी पहुँच नहीं सकता। शिव जा चुका था, शव ढेर में से कुछ प्रतियाँ मुझे उपलब्ध हुई हैं, जो मेरे संग्रह में हैं।
में देखने और सुनने की कहाँ शक्ति थी? इस वर्षावास में आचार्यप्रवर ने विशेष जागरूकता के साथ ।
आचार्यश्री के अन्तिम पार्थिव शरीर को देखने के लिए सभी विशेष साधनाएँ प्रारम्भ की। उन्हें पूर्व ही यह परिज्ञान हो गया था ।
व्याकुल थे, देखते ही देखते चन्दन की लकड़ियों की आग ने उनके कि मृत्यु ने अपने डोरे डालने प्रारम्भ कर दिये हैं और अब यह
पार्थिव शरीर को जलाकर नष्ट कर दिया। शरीर लम्बे समय तक नहीं रहेगा। अतः उन्होंने आलोचना उस विमल विभूति के वियोग ने समाज को अनाथ बना दिया। सल्लेखना कर पाँच दिन का संथारा किया और ९३ वर्ष की आयु श्रद्धालुगण यह मानने के लिये प्रस्तुत नहीं थे कि ये हमारे बीच में पूर्ण कर संवत् १८१२ में आश्विन शुक्ला पूर्णिमा के दिन इस नहीं हैं। उनका भौतिक शरीर भले ही नष्ट हो गया था किन्तु यश संसार से अन्तिम विदा ली।
शरीर से वे जीवित थे और आज भी जीवित हैं। श्रद्वालुगण की आँखों में मोती चमक रहे थे, सर्वत्र एक अजीब आचार्यप्रवर का जीवन प्रारम्भ से ही चमकते हुए नगीने की शान्ति थी। चारों ओर सभी गमगीन थे, सभी का हृदय वेदना से तरह था और अन्त तक वे उसी प्रकार चमकते रहे। वे भीगा हुआ था। दूसरे दिन अन्तिम विदा की यात्रा प्रारम्भ हुई।। स्थानकवासी समाज के एक ज्योतिर्मय स्तम्भ थे। उनका जीवन विशाल जनसमूह, जिधर देखो उधर मानव ही मानव; सभी । पवित्र था, विचार उदात्त थे और आचार निर्मल था। उन्होंने जैन चिन्ताशील: हजारों आँखों से झरते हुए मोतियों की बरसात से शासन की महान् प्रभावना की थी।
आचार्य अमरसिंहजी महाराज का संसार पक्षीय तातेड़ वंश (दिल्ली) का संक्षिप्त परिचय : वि. सं. १७00 के लगभग श्री देवीसहायजी तातेड़ नागौर (राजस्थान) से दिल्ली आये और यहाँ पर अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया। वि. सं. १७१९ आसाढ सुदि १४ (रविवार) को माता कमला देवीजी की कुक्षि से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। नाम रखा गया अमरसिंह।
श्री देवीसहाय जी का वंश परिचय
श्री देवीसहाय जी
१. अमरसिंहजी
२. टोडरमलजी
३. कस्तूर चन्दजी
भीखामलजी हीरालालजी मिलापचन्दजी
१. मेघराजजी
२. कल्लूमलजी
३. प्यारेलालजी
४. गुलाबचन्दजी
१
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१. मानकचन्दजी
७. जगन्नाथजी
२.छुट्टनलालजी ३. गोपालचन्दजी ४.प्रेमचन्दजी ५. किशनचन्दजी ६. मोहनलालजी (विशाल एवं सम्पन्न तातेड़ परिवार दिल्ली में समाज की बहुविध सेवाओं में सक्रिय भाग लेता रहा है)
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इतिहास की अमर बेल
संदर्भ स्थल :
१. नृप अनंगपाल बावीसमाँ बत्तीस लक्षण तास ।
संवत् जहाँ नो सई निडोत्तर (९०९) वर्ष मीत सुप्रकास ॥ गुरुवार दसमी दिवस उत्तम तह असाढ़े मास दिल्ली नगर करि गढी किल्ली कहे कवि किसनदास ॥ सो गढ़के जब छखेडी उतपत्ति गड तह वेर ।
सो वह हुई किल्ली वहाँ गाडी भई ढिल्ली फेर ॥
२. संवत् सात सौ तीन दिल्ली तुअर बसाई अनंगपाल तुअर ।
-पट्टावली समुच्चय, भाग १ पृष्ठ २०९ 3. Cunnigham: The Archacological Survey of India, p. 140 ४. दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ, पृ. ६।
५. राजपूताने का इतिहास, प्रथम जिल्द, पृ. २३४।
६. इतिहास प्रवेश, भाग १. पृ. २२०.
७. टॉड - राजस्थान का इतिहास, पृ. २३०।
८. “देशोऽस्ति हरियनाख्यो पृथिव्यां स्वर्गसंनिभः। दिल्लीकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता ।" ९. नं. १ देखिए ।
१०. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, ले. अंबालाल, पृ. ३५२/
११. ले. वर्धमान सूरि ।
१२. उपदेशसार की टीका।
१३. ले. जिनपाल उपाध्याय ।
१४. ले. जिनप्रभ सूरि, सं. जिनविजय प्रकाशक सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई। १५. ले. विनयप्रभ उपाध्यायः प्रका. 'जैन सत्य प्रकाश' अन्तर्गत अहमदाबाद। १६. बहादुरशाह (९१७०७-१२) - औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बहादुरशाह गद्दी पर बैठा। बूढ़ा बहादुरशाह उदार हृदय और क्षमाशील मनुष्य था। इसलिए कभी-कभी इतिहासकार उसे शाह-ए-बेखबर कहा करते हैं। -भारतवर्ष का इतिहास १७. जिन व्यक्तियों से मारवाड़ का इतिहास गौरवान्वित हुआ है उन व्यक्तियों में भण्डारी खींवसी जी का स्थान मूर्धन्य है। वे सफल राजनीतिज्ञ थे। तत्कालीन मुगल सम्राट पर भी उनका अच्छा-खासा प्रभाव था। उस समय राजनीति संक्रान्ति के काल में गुजर रही थी। सम्राट औरंगजेब का निधन हो चुका था और उसके वंशजों के निर्बल हाथ शासन नीति को संचालन करने में असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। चारों ओर राजनीति के क्षेत्र में विषम स्थिति थी। उस समय जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह जी के प्रधानमन्त्री खींवसी भण्डारी थे। जब भी जोधपुर राज्य के सम्बन्ध में कोई भी प्रश्न उपस्थित होता तब वे बादशाह की सेवा में उपस्थित होकर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से गम्भीर समस्याओं का समाधान कर देते थे। शाहजादा मुहम्मद शाह को राज्यासीन कराने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ऐसा पारसी तवारीखों से भी स्पष्ट होता है। भण्डारी खींवसाजी सत्यप्रिय, निर्भीक वक्ता और स्वामी जी के परम भक्त थे। धर्म के प्रति भी उनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी। वे वि. सं. १७६६ में जोधपुर के दीवान बने और सं. १७७२ में वे सर्वोच्च प्रधान बने। फिर महाराजा अजीतसिंह के साथ भतभेद होने से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। महाराजा अजीतसिंह के पुत्र महाराज अभयसिंह के राज्यगद्दी पर बैठने पर वे पुनः सं. १७८१ में सर्वोच्च प्रधान बने और सं. १७८२ में मेड़ता में उनका देहान्त हुआ।
१८. पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि असंवसमाणीवि गब्धं धरेज्जा । तं
जहा
9. इत्थी दुब्बियडा दुण्णिसण्णा सुक्कपोग्गले अधिद्विज्जा । २. सुक्कपोग्गलसंसिट्टे से वत्थे अन्तोजोणीए अणुपवेसेज्जा ।
३. सईया से गले अणुपवेसेज्जा
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90
४. परो या सेले अणुपयेसेजा। ५. सीओदगवियडेणं वा से आयममाणीए
सुक्कपोग्ला
अणुपवेसेज्जा - इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेणं सद्धिं असंवसमाणीचि गमं धरेज्जा । -स्थानाङ्ग, स्थान ५, सूत्र ४१६
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१९. यदा नार्य्यावुपेयातां, वृषस्वन्त्यी कथञ्चन । मुञ्चन्नयी शुकमन्योन्यमनास्थिस्तत्र जायते ॥3 ॥ ऋतुस्नाता तु या नारी, स्वप्ने मैथुनमावहते। आर्त्तवं वायुरादाय, कुक्षी गर्भं करोति हि ॥ २ ॥ मासि मासि विवर्धेत, गर्भिण्या गर्भलक्षणम् । कललं जायते तस्याः वर्जितं पैतृकैः गुणैः ॥ ३ ॥ सुश्रुत संहिता २०. चत्तारि मणुस्सी गढ़मा पं. तं. इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताए विवत्ताए । अघसुक्कं बहुओयं, इत्थी तत्थप्पजाय । अप्पओयं बहुसुक्कं पुरसो तत्थ जाय ॥ दोपि रक्तसुक्काणं तुल्लभावे नपुंसओ । इत्थी ओतसएमोओगे, बिम्बं तत्थप्पजायई ।
३१. उत्तराध्ययन २६ / २३ ।
३२.
३३.
- 'स्थानांग'-पृ. ५१२-५१३, आचार्य अमोलक ऋषि 29. Glimpses of World Religion-Charles Dickens, Jaico Publishing House, Bombay, pp. 201, 202-203 २२. "बिस्मिल्लाह रहमानुर्रहीम"
- कुरान 9-91 23. Towards Understanding Islam-Sayyid Abulatt'la Mamdudi, pp. 186-187
२४. “फला तज अलू बुतून मका वरक्त हय बतात।"
२५. व मन अहया हा फकअन्नमा अह्यन्नास जमीअनः। कुरान श. ५/३५ २६. दशवैकालिक ६/२०
२७. अत्थि एरिसो पडिबंधो। सव्व जीवाणं सव्वलोए। प्रश्नव्याकरण १/५ २८. इच्छा हु आगास समा अणंतिया । -उत्तराध्ययन ९/४८ कामे कमाही कमियं खु दुक्ख । -दशवैकालिक २/५
२९.
३०. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था।
- प्रश्नव्याकरण १/५
निशीथभाष्य गाथा १३९०, भाग २, पृष्ठ ६८१।
गोयमा ! जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सक्के देविंदे देवराया सावज्जं भासं भासइ। जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं णिज्जूहित्ताणं भासं भासइ ताहे णं सक्के देविंदे देवराया असावज्जं भासं भासइ ।
.
-श्री व्याख्या-प्रज्ञप्ती षोडश शतकस्य द्वितीयोद्देशे। ३४. कन्नेट्टियाए व मुहणंतगेण वा विणा ।
-महानिशीध सूत्र अ ७
दरियं पडिक्कमे मिच्छुक्कडं पुरिमड्ढं ॥ ३५. तथा संपातिमा सत्त्वाः सूक्ष्मा च व्यजननोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेयो मुखवस्त्रिका ॥
- योगशास्त्र हिन्दी भा. पृ. २६०
३६. ज्ञातासूत्र अध्ययन १४वाँ । ३७. निरयावलिका । ३८.
भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक ३३ । ३९. हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयन्त्यल्पभाषिणः ॥ ४०. श्रीमाल पुराण अध्याय ७-३३। ४१. 'साम्भोगिक' यह जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ
-शि. पु. ज्ञान संहिता
है आहार आदि तथा अन्य वस्तुएँ एक सन्त का दूसरे सन्त को आदानप्रदान करना। यह संभोग कहलाता है। जैन परम्परा में एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान की जाने वाली वस्तुएँ बारह प्रकार की मानी गयी हैं और उनका परस्पर आदान-प्रदान ही साम्भोगिक सम्बन्ध कहा जाता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
हमारे ज्योतिर्धर आचार्य : आचार्य श्री तुलसीदासजी महाराज
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इस विराट विश्व में हजारों प्राणी प्रतिदिन जन्म लेते हैं और दोनों स्थितियों में सम रहता है। चाहे बसूले की मार हो या चन्दन प्रतिदिन मरते हैं, किन्तु उन्हें कोई भी याद नहीं करता। जिनका । का उपहार हो, मधुर मिष्ठान्न की मनुहार हो या घृणा-तिरस्कार ही जीवन आत्महित के साथ जगहित के लिये समर्पित होता है, दुत्कार हो उसके अन्तर्मानस पर कोई असर नहीं होता। वह आत्मविकास के साथ जन-जीवन के लिए क्रियाशील होता है, वह द्वन्द्वातीत और विकल्पातीत होकर साधना के महा-पथ पर बढ़ता जीवन विश्व में सार्थक जीवन गिना जाता है। जिन्दगी का अर्थ है। रहता है। विश्व की अन्धकाराच्छन्न काल-रात्रि में सुख, सद्भाव और स्नेह
महामहिम आचार्यप्रवर श्री तुलसीदासजी महाराज इसी प्रकार का आलोक फैलाना। सन्त अपने लिए ही नहीं, विश्व के लिए
के सन्तरत्न थे। आपश्री का जन्म मेवाड़ के जूनिया ग्राम में हुआ जीता है। भगवान पार्श्वनाथ के चरित्रकार ने भगवान पार्श्व की
था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम फकीरचन्दजी था और माता का परमं कारुणिक भावना का चित्रण करते हुए लिखा है-ये साधुजन
नाम फूलाबाई था। आपके पूज्य पिताश्री अग्रवाल समाज के प्रमुख स्वभाव से ही परहित करने में सदा तत्पर रहते हैं। चन्दन की तरह
नेता थे। आपका जन्म सं. १७४३ आश्विन शुक्ला अष्टमी सोमवार अपना शरीर छिलाकर सुगन्ध फैलाते हैं, अगरबत्ती की तरह
को हुआ था। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उक्ति के जलकर वातावरण को मधुर सौरभ से भहकाते हैं, मोमबत्ती की
अनुसार आपके जीवन में अनेक विशेषताएँ थीं। आपकी बुद्धि तरह अपनी देह को नष्ट कर अन्धकार से अन्तिम क्षण तक संघर्ष
बहुत ही तीक्ष्ण थी। किन्तु पूर्वभवों के संस्कारों के कारण आपके करते रहते हैं, अपने परिश्रम की बूंदों से मिट्टी को सींचकर
मन में संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण नहीं था। आपके कल्पवृक्ष उत्पन्न करते हैं। वे जीते-जागते कल्पवृक्ष हैं। जिनदासगणी महत्तर ने श्रमण जीवन की महिमा उत्कीर्तन करते हुए लिखा है
अन्तर्मानस की विरक्त वृत्ति को निहारकर माता और पिता के मन
में यह विचार उत्पन्न हुए कि कहीं यह साधु न बन जाय। अतः सन्तजन विविध जाति और कुलों में उत्पन्न हुए, पृथ्वी के चलते
पानी आने के पूर्व ही पाल बाँधनी चाहिए। इसलिए पन्द्रह वर्ष की फिरते कल्पवृक्ष हैं। वह कल्पवृक्ष भौतिक कामनाएँ पूर्ण करता है तो
किशोरावस्था में ही इनका पाणिग्रहण एक रूपवती कन्या के साथ यह कल्पवृक्ष आध्यात्मिक वैभव की वृद्धि करता है। श्रीमद्भागवत
कर दिया गया। में कर्मयोगी श्रीकृष्ण कहते हैं-सन्तजन ही सबसे बड़े देवता हैं। वे ही समस्त जगत् के बन्धु हैं, वे जगत् के आत्मा हैं, और सत्य- किन्तु जिनका उपादान शुद्ध होता है, उन्हें निमित्त मिल ही तथ्य तो यही है मेरे में (भगवान में) और सन्त में कोई अन्तर जाता है और अनुकूल निमित्त मिलते ही वह दबी हुई ज्योति नहीं है। गुरु अर्जुनदेव ने लिखा है-सन्त धर्म की जीती-जागती । प्रज्वलित हो जाती है। तुलसीदासजी का पाणिग्रहण होने पर भी मूर्ति हैं, तप और तेज के प्रज्वलित पिण्ड हैं और करुणा के उनका मन संसार के भौतिक पदार्थों में नहीं लगा था। आचार्य अन्तःस्रोत हैं।
सम्राट् अमरसिंहजी महाराज विचरण करते हुए जूनिया ग्राम में
पधारे। आचार्यप्रवर के प्रवचन को श्रवणकर उनके अन्तर्मानस में सन्त-जीवन के परमानन्द का मूल स्रोत है समता। जब तक मन
वैराग्य भावना उबुद्ध हुई। विक्रम संवत् १७६३ की पौष वदी में राग-द्वेष के विकल्प और संकल्प उबुद्ध होते रहते हैं, कषाय
ग्यारस को बीस वर्ष की भरी जवानी में उन्होंने संयम साधना के की लहरें तरंगित होती रहती हैं, मन अशान्ति की आग में झुलसता रहता है। सन्त समता के शीतल जल से कषायों की आग को शान्त
कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग को अपनाया। माता-पिता, पत्नी और
परिजनों के अति आग्रह करने पर भी वे विचलित नहीं हुए और करता है। वह क्रोध नहीं करता, किन्तु सदा प्रसन्न रहता है। वह चन्द्र के समान सौम्य और विराट सागर के समान गहन-गम्भीर
संयम ग्रहण कर एक आदर्श उपस्थित किया। होता है। यदि उस पर विरोधी असज्जन तेज कुल्हाड़ी का प्रहार संयम ग्रहण करने के पश्चात् आपश्री ने आचार्यश्री के नेतृत्व करता है या भक्त सज्जन शीतल चन्दन का लेप करता है तो वह । में आगम व दर्शन साहित्य का गहरा अध्ययन किया। अन्त में
१. "जात्यैवेते परहितविधी साधवो बद्धकक्षाः"।
५. महप्पसाया इसिणो हवंति
-उत्तराध्ययन ११ 39२. “विविह कुलुप्पण्णा साहवो कप्परुक्खा"। -नन्दी चूर्णि २/१६ ६. चन्दो इव सोमलेसा ३. "देवता बान्धवा सन्तः सन्त आत्माऽहमेव च"
७. सागरो इव गम्भीरा।
-औपपातिक सूत्र-समवसरण अधिकार __-श्रीमद्भागवत् ११/२६/३४८. वासी चंदणकप्पो य असणे अणसणे तहा -उत्तराध्ययन १९/९२ ४. साधु की महिमा वेद न जाने, जेता सुने तेता बखाने।
साधु की शोभा का नहिं अन्त, साधु की शोभा सदा बे-अन्त॥
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। इतिहास की अमर बेल
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आपश्री को योग्यतम समझकर आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज ने नाम विजयचन्द जी भण्डारी और माता का नाम याजूबाई था। आपको अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। आपश्री ने राजस्थान के | आपके पूज्य पिताश्री और मातेश्वरी दोनों ही सात्विक प्रकृति विविध अंचलों में विचरण कर स्थानकवासी धर्म की अत्यधिक | के धनी थे। दोनों में धर्म के प्रति गहरी निष्ठा थी। संसार में रह प्रभावना की। सैकड़ों, व्यक्तियों को श्रावकधर्म प्रदान किया और । करके भी जल कमलवत् वे निर्लिप्त थे। यही कारण है कि अनेकों को श्रमणधर्म में दीक्षित किया। अन्त में जोधपुर में माता-पिता के सुसंस्कार पुत्र पर भी गिरे और उसके जीवन में भी वृद्धावस्था के कारण कुछ दिनों तक स्थानापन्न विराजे और त्याग-वैराग्य के फूल महकने लगे। आचार्यप्रवर तुलसीदासजी पैंतालीस दिन का संथारा कर वि. सं. १८३० के भाद्रपद शुक्ला महाराज विविध स्थानों पर धर्म की ज्योति जागृत करते हुए जब सप्तमी को आप स्वर्गस्थ हुए।
मारवाड़ पधारे तब आचार्यश्री के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए
प्रवचनों को सुनकर अपनी मातेश्वरी याजूबाई तथा भगिनी के साथ आपश्री बहुत ही प्रभावशाली और तेजस्वी आचार्य थे। आचार्य
आचार्यप्रवर के सान्निध्य में वि. सं. १८१८ की चैत्र शुक्ला सम्राट् श्री अमरसिंहजी महाराज के शिष्यों में आप अग्रगण्य थे।
ग्यारस सोमवार को आपने आहती दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री आचार्यप्रवर जीवन के अन्तिम क्षणों तक जाग्रत रहे। जाग्रत मृत्यु
के सान्निध्य में रहकर आगम का गहराई से अध्ययन किया। विशिष्ट साधकों को ही उपलब्ध होती है जो उनके तेजस्वी जीवन
आपकी प्रवचन-कला बहुत ही चित्ताकर्षक थी, जो श्रोताओं के दिल की प्रतीक है। उनका जीवन युग-युग तक विश्व को प्रेरणा प्रदान
और दिमाग को आकर्षित कर लेती थी। आपने मेवाड़, मारवाड़ करता रहेगा।
और मध्य प्रदेश में परिभ्रमण कर हजारों भव्य प्राणियों को
प्रतिबोध प्रदान किया। आचार्यप्रवर तुलसीदासजी महाराज ने आचार्यप्रवर श्री सुजानमलजी महाराज आपको सुयोग्य शिष्य समझकर आचार्य पद प्रदान किया। आपने
अपने आचार्य काल में धर्म की ज्योति जागृत की। अनेकों व्यक्तियों महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक रूपक प्रस्तुत किया है कि । ने श्रामण्य प्रव्रज्या ग्रहण कर आपका शिष्यत्व स्वीकार किया। एक बार जलती हुई लकड़ी को निहार कर हरी लकड़ी की आँखों आप जहाँ भी पधारे वहाँ अपने यश सौरभ से जन-जन के मन को में आँसू आ गये। उसके अन्तर्मन की व्यथा इस रूप में व्यक्त हुई- मुग्ध किया। इसमें कितना तेज भरा पड़ा है। अन्धकार बेचारा लज्जा से एक
विहार करते हुए आचार्यश्री किशनगढ़ पधारे। आचार्यश्री के ओर खिसक गया है, चारों ओर ज्योति ही ज्योति जगमगा रही है।।
प्रवचनों में जनता उमड़ पड़ी। किसे ज्ञात था कि आचार्यश्री लघुवय परमात्मा! ऐसा तेज मुझे कब प्राप्त होगा।
में ही संसार से विदा हो जायेंगे। शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर जलते हुए अंगारे ने उत्तर दिया-बहन, चेष्टाविहीन इस व्यर्थ उसके उपचार का प्रयास किया गया। श्रद्धालुगण सेवा में प्रस्तुत थे। वासना से पीड़ित होने में क्या लाभ है? हमें जो कुछ भी प्राप्त हुआ उपचार करने के बावजूद भी व्याधि शैतान की आँत की तरह बढ़ है वह तप करके प्राप्त हुआ है। क्या वह तुम्हारे लिए यों ही टपक रही थी। शरीर एक था, व्याधियाँ अनेक थीं। रोगों ने ऐसे पड़ेगा?
महापुरुष पर आक्रमण किया था। जिसकी वेदना केवल उन्हीं को प्रत्येक आत्मा में दिव्य ज्योति छिपी हुई है। उसे प्रगट करने
ही नहीं अपितु अनगिनत श्रद्धालुओं को वह अभिभूत कर रही थी। के लिए अखण्ड साधना करनी होती है। कवीन्द्र रवीन्द्र की
रोगी वीर सेनानी की भाँति रोगों से जूझ रहा था, किन्तु उसके भाषा में अंगारे ने वही उत्तर दिया है कि बिना तपे कोई
श्रद्धालु उस युद्ध में उसका साथ नहीं दे पा रहे थे। वे आचार्य के ज्योति नहीं बनता और बिना खपे कोई मोती नहीं बनता। ज्योति
प्रति मोह से ग्रसित थे। बनने के लिए स्वयं को तपाना होता है, खपाना होता है। विश्व के अन्त में आचार्यश्री ने देखा मेरा शरीर अब रोगों का घर जितने भी महापुरुष हुए उन्होंने अपने जीवन को साधना की भट्टी बन चुका है, मुझे सावधानी से ही इस शरीर का त्याग करना में तपाकर निखारा है। आचार्यप्रवर श्री सुजानमल जी महाराज का । चाहिए। यदि शरीर ने मुझे छोड़ा, इसमें बहादुरी नहीं है। उन्होंने जीवन ऐसा ही जीवन था। उन्होंने उत्कृष्ट साधना एवं तप की । प्रसन्नता से चतुर्विध संघ की साक्षी से अनशन व्रत ग्रहण किया आराधना कर जीवन को माँजा था और स्वर्ण के समान उसे । और वि. सं. १८४९ की ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी मंगलवार को निखारा था।
स्वर्गस्थ हुए। सुजानमलजी महाराज आचार्यसम्राट श्री अमरसिंह महाराज के युवा आचार्य के स्वर्गवास से समाज ने भारी आघात का तृतीय पट्टधर थे। आप तुलसीदासजी महाराज के शिष्य थे। अनुभव किया। किन्तु क्रूर काल के सामने किसका जोर चला है? आपका जन्म राजस्थान के मारवाड़ ग्राम में विक्रम संवत् १८०४ । आचार्यश्री का भौतिक देह नष्ट हो गया किन्तु वे यशःशरीर आज भाद्रपद कृष्णा चौथ को हुआ था। आपश्री के पूज्य पिताश्री का भी जीवित हैं और भविष्य में सदा जीवित रहेंगे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । [ आचार्यश्री जीतमलजी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन |
साधु क्यों नहीं बन सकता? आत्मा तो न बालक है ? न वृद्ध है, न
युवा है। उसमें अनन्त शक्ति है। यदि उस शक्ति का विकास करे तो समय-समय पर विश्व के क्षितिज पर ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों
। वह नर से नारायण बन सकता है, मानव से महामानव बन सकता रदय होता है जो अपने अलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से है, इन्सान से भगवान बन सकता है। फिर माँ, हम साधु बनकर जन-जन का पथ-प्रदर्शन करते हैं। भूले-भटके जीवन राहियों को अपनी आत्मा का विकास क्यों नहीं कर सकते? अतः माँ. तम मझे मार्गदर्शन देते हैं। उन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों की श्रृंखला में अनुमति प्रदान करो तो मैं साधु बनना चाहता हूँ। आचार्यप्रवर श्री जीतमलजी महाराज का भी नाम आता है। वे एक माता ने अपने लाड़ले का सिर चूमते हुए कहा-बेटा, अभी तू मनीषी और मनस्वी सन्त थे। उन्होंने जैन साहित्य और कला के
बहुत ही छोटा है। तो साधु बनकर कैसे चलेगा? साधु बनना कोई क्षेत्र में एक अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया। जो आज भी । हँसी-मजाक का खेल नहीं है। मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाने चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है।
जैसा कठिन कार्य है। तलवार की धार पर चलना सरल है, किन्तु आपश्री का जन्म हाडोती राज्य के अन्तर्गत रामपुरा में हुआ
साधना के कठोर कंटकाकीर्ण पथ पर चलना बड़ा ही कठिन है। था। आपश्री के पिता का नाम सुजानमलजी और माता का नाम
साधु बनने के पश्चात् केशों का लुंचन करना पड़ता है। भूख और सुभद्रादेवी था। आपका जन्म कार्तिक शुक्ला पंचमी वि. सं. १८२६
प्यास सहन करनी पड़ती है। अतः जितना कहना सरल है उतना ही में हुआ था। माता-पिता के संस्कारी जीवन का असर आपके जीवन कठिन है साधना का मार्ग। पर पड़ा था।
_माँ, तुम तो वीरांगना हो। तुम मुझे समय-समय पर वीरता विक्रम संवत् १८३३ में आचार्यप्रवर सुजानमलजी महाराज का
की प्रेरणा देती रही। तुमने मुझे इतिहास की वे घटनाएँ सुनायी रामपुरा में पदार्पण हुआ। उनके पावन प्रवचनों को सुनकर
हैं कि वीर बालक क्या नहीं कर सकता? वह आकाश के तारे सुभद्रादेवी को और कुमार जीतमल के अन्तर्मानस में वैराग्य
| तोड़ सकता है। मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, दीक्षा लेकर अपने जीवन को ही भावना उबुद्ध हुई। पुत्र ने अपने हृदय की बात माँ को कही-माँ! नहीं किन्तु जैन धर्म को भी चमकाऊँगा। तुम्हारे दूध की कीर्ति मेरे पिताजी का नाम और आचार्यश्री का नाम एक ही है।
बढ़ाऊँगा। आचार्यश्री का उपदेश तो ऐसा है मानो अमृत रस हो। उस अमृत अच्छा बेटा! मुझे विश्वास है कि तेरी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है। रस का पान चाहे कितना भी किया जाय, तृप्ति नहीं होती। एक तेरे में प्रतिभा है। तू अवश्य ही जैन धर्म की प्रभावना करेगा। यदि अद्भुत आनन्द की उपलब्धि होती है। आचार्यप्रवर के उपदेश को तू दीक्षा लेगा तो मैं भी तेरे साथ ही दीक्षा लूँगी। मैं फिर संसार में सुनने के पश्चात् मेरे मन में ये विचार प्रतिपल प्रतिक्षण समुत्पन्न नहीं रहूँगी। किन्तु बेटा, पहले तेरे पिता की अनुमति लेना हो रहे हैं कि मानव का जीवन कितना अमूल्य है जिसको आवश्यक है। बिना उनकी अनुमति के हम दोनों साधु नहीं बन प्राप्त करने के लिए देवता भी छटपटाते हैं। क्या हम उसे यों ही । सकते। बरबाद कर दें? यह तो निश्चित है कि एक दिन जो व्यक्ति जन्मा
बालक जीतमल पिता के पास पहुंचा और उसने अपने हृदय है उसे अवश्य ही मरना है, जो फूल खिलता है वह अवश्य ही
की बात पिता के समक्ष प्रस्तुत की। पिता ने मुस्कराते हुए कहामुरझाता है। जो सूर्य उदय होता है वह अवश्य ही अस्त होता है।
'वत्स, तुझे पता नहीं है कि साधु की चर्या कितनी कठिन होती है। किन्तु हम कब मरेंगे यह निश्चित नहीं है। अतः क्षण मात्र का भी
तेरा शरीर मक्खन की तरह मुलायम है। तू उन कष्टों को कदापि प्रमाद न कर साधना करनी चाहिए। बोल माँ, क्या मेरा कथन
सहन नहीं कर सकता। तथापि मैं श्रावक होने के नाते साधु बनने सत्य है न?
के लिए इन्कार नहीं करता। किन्तु बारह महीने तक मैं तुम्हारे - हाँ बेटा, आचार्यश्री के उपदेश में पता नहीं क्या जादू है। तेरी वैराग्य की परीक्षा लूँगा और यदि उन कसौटियों पर तुम खरे उतर तरह मेरे मन में भी ये विचार पैदा होते हैं। मैं क्यों संसार में फँस गये तो तुम्हें सहर्ष अनुमति दे दूंगा।' गयी? अब तो घर-गृहस्थी का सारा भार मेरे पर है। मैं उसे कैसे
श्रेष्ठी सुजानमल जी ने विविध दृष्टियों से पुत्र की परीक्षा ली। छोड़ सकती हूँ। तू तो बच्चा है। अभी तेरी उम्र ही क्या है? अभी
जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि मेरा पुत्र वय की दृष्टि से भले तो तू खूब खेल-कूद और मौज मजा कर।
ही छोटा है, किन्तु इसमें तीक्ष्ण प्रतिभा है। यह श्रमण बनकर माँ, तुम्हें अब अनुभव हुआ है कि संसार असार है। यदि पहले जैनधर्म की ज्योति को जागृत करेगा। इसकी हस्तरेखाएँ यह बता न फँसती तो अच्छा था। फिर माँ तुम मुझे फँसाना चाहती हो? रही हैं कि यह कभी भी गृहस्थाश्रम में नहीं रह सकता। यह एक लगता है, तुम्हारा मोह का परदा अभी तक टूटा नहीं। आचार्यश्री ने ज्योतिर्धर आचार्य बनेगा। मैं स्वयं दीक्षित नहीं हो सकता तो इसे आज ही बताया था कि अतिमुक्तकुमार छह वर्ष की उम्र में साधु कयों रोकूँ। उन्होंने पुत्र व पत्नी को सहर्ष दीक्षा की अनुमति प्रदान बने थे। वज्रस्वामी भी बहुत लघुवय में साधु बन गये थे तो फिर मैं । की। गर्भ के सवा नौ मास मिलने से बालक की उम्र नौ वर्ष की हो
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गयी थी। अतः आचार्यप्रवर सुजानमलजी महाराज ने योग्य समझकर १८३४ में माँ के साथ बालक जीतमल को दीक्षा प्रदान की और उनका नाम जीतमुनि रख दिया गया।
बालक जीत मुनि ने गम्भीर अध्ययन प्रारम्भ किया। संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र और आयुर्वेद शास्त्र का भी गहराई से अध्ययन किया। उनकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। वे दोनों हाथों और दोनों पैरों से एक साथ लिख सकते थे। प्राचीन प्रशस्तियों के आधार से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने तेरह हजार ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की थीं। स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस आगमों को उन्होंने बत्तीस बार लिखा था। आपके द्वारा लिखित एक आगम बत्तीसी जोधपुर के अमर जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है और कुछ आगम उदयपुर तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, के संग्रहालय में हैं। आपके द्वारा लिखित नौ आगम बत्तीसी आपके सम्प्रदाय की साध्वियाँ चम्पाजी जो अजमेर में लाखन कोठड़ी में अवस्थित (चम्पाजी का स्थानक) स्थानक में स्थानापन्न थीं, उनके पास रखी गयी थीं। पर परिताप है कि स्थानकवासी समाज की साहित्य के प्रति उपेक्षा होने के कारण वे नौ बत्तीसियाँ और हजारों ग्रन्थ कहाँ चले गये, आज उसका कुछ भी पता नहीं है। जैन श्रमण होने के नाते से सारा साहित्य जो आपने लिखा था वह गृहस्थों के नेश्राय में कर देने से और उनकी, साहित्य के प्रति रुचि न होने से नष्ट हो गया है। उन्होंने उर्दू-फारसी में भी ग्रन्थ लिखे थे, उसमें से एक ग्रन्थ अभी विद्यमान है। एक फारसी के भाषा-विशेषज्ञ को हमने वह ग्रन्थ बताया था। उसने कहा यह बड़ा ही अद्भुत ग्रन्थ है, इस ग्रन्थ में महाराजश्री ने अपने अनुभूत अद्भुत प्रयोग लिखे हैं इस ग्रन्थ को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि महाराजश्री का ज्ञान बहुत ही गहरा था। एक जैन श्रमण विविध विषयों में कितनी तलस्पर्शी जानकारी रख सकता है इससे स्पष्ट होता है। यह ग्रन्थ ज्ञान का अद्भुत भण्डार है।
आप कुशल कवि भी थे। आपने अनेक ग्रन्थ कविता में भी बनाये हैं। चन्द्रकला रास यह आपकी एक महत्वपूर्ण रचना है जो आपश्री के हाथ से लिखा हुआ है। उसके अठारह पन्ने हैं प्रत्येक पन्ने में सत्रह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं। ग्रन्थ में लेखक ने अपना नाम नहीं दिया है और नाम न देने का कारण बताते हुए उसने लिखा है
"हूँ मतिमन्द बालकवत कीधो, हुकम सामियां दीघो रे । लोपी जे मर्याद प्रसिद्धो, मिच्छामि दुक लीधो रे ॥ अर्थात्, आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की परम्परा में उस समय ऐसा नियम बनाया गया था कि कविता आदि न लिखी जाय क्योंकि कवि को कभी-कभी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी करना पड़ता है और उस वर्णन से सत्य महाव्रत में दोष लगने की संभावना है। अतः कवि ने कविता लिख करके भी अपना नाम नहीं दिया।
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सम्भव है, जीतमलजी महाराज से पूर्व भी आचार्य प्रवरों ने तथा अन्य मुनिगणों ने कविताएँ आदि लिखी हों पर नाम न देने से यह पता नहीं चलता कि ये कविताएँ किन की बनाई हुई हैं।
आपका द्वितीय ग्रन्थ शंखनृप की चीपाई है। यह चार खण्डों में विभक्त है। इसमें छत्तीस ढालें हैं और बाईस पन्ने हैं। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति में कवि ने लिखा है
सम्मत अठारे चोपने, जेठ वद बारस दिन में रे। नगर बालोतरा भारी, रिष जीत भणे सुखकारी रे।
आपकी तृतीय रचना कौणिक संग्राम प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध में सत्तावीस ढालें हैं और दस पन्ने हैं और प्रत्येक पन्ने में चौदह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं। उसके अन्त में प्रशस्ति में लिखा है
एम सुणी ने चेतजाए, लोभ की मन वाल सेंठा रह जो सन्तोष में ए, भयो जीत रसाल ॥
एक बार आचार्यश्री जीतमलजी महाराज जोधपुर राज्य के रोइट ग्राम में विराज रहे थे। उस समय साम्प्रदायिक वातावरण था और उस युग में एक दूसरे की आलोचना प्रत्यालोचना की जाती थी। उस समय के ग्रन्थ इस बात की साक्षी हैं। रात्रि का समय था ! तेरह पन्थ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी भी वहाँ आये हुए थे और आपकी भी वहाँ पर विराज रहे थे। आपने उस समय उनके दयादान के विरोध में एक लघु-काव्य का सृजन किया जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
छांड रे जीव पत पात पाखण्डली, समकीत रहत नहीं मूल बाकी । देव गुरु धर्म उत्थापियो पापियाँ, नागडा दीघो छे खोय नाकी ॥ साधु मुख सांभली वाणी सिद्धान्त री सावण में जवासी जेम सूखे। नाम चर्चा से लिया थका नागड़ा, सिंयालिया जेम दिन रात रुके ॥
आपकी पाँचवीं रचना पूज्य गुणमाला प्राप्त होती है। आचार्यश्री तुलसीदासजी महाराज के गुणों का उत्कीर्तन करते हुए अन्त में लिखा है
संमत अठारें वर्ष गुणचासे, माहवद आठम भारी जी। शहर जोधाणे जोड़ी जुगत सु, थे सुणजो सहु नर नारी जी ॥
आचार्यश्री सुजानमल जी महाराज के गुणों पर प्रकाश डालते हुए भी अन्त में उन्होंने लिखा है
म्हारा गुरां रा गुण कहूँ किस्या, म्हारा दिल में तो म्हारा गुरु जी बस्या । जोडी जुगति सु ढाल हरसोर ग्रामी, मने, वल्लभ लागे सुजाण जी स्वामी ॥ संमत अठारे वर्ष पचासे, पूज जीतमल तो इम भाषे । वद फागुण शुक्ल तिथि छट्ट पामी ॥ मनें वल्लभ लागे...........॥
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्यश्री जीतमलजी जी महाराज के द्वारा लिखित रचनाएँ आचार्यप्रवर, जैन आगमों में हजारों बातें ऐसी हैं जो बुद्धिगम्य मुझे जितनी भी उपलब्ध हो सकी हैं वे सारी रचनाएँ मैंने नहीं हैं और पागलों के प्रलाप-सी प्रतीत होती है। यही कारण है कि 'अणविन्ध्या मोती' के नाम से संग्रह की हैं जो अभी तक बनियों के अतिरिक्त जैन धर्म को कोई नहीं मानता। अप्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त भी आपकी अनेक रचनाएँ थीं और ।
आचार्यश्री ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-राजन्! आपका उनकी संख्या पचास-साठ ग्रन्थों की थी। ऐसा मुझे एक प्राचीन पत्र ।
यह मानना भ्रांतिपूर्ण है। स्वयं भगवान महावीर क्षत्रिय थे। वे सम्राट में उल्लेख मिला है। किन्तु वे सारी रचनाएँ आज मिलती नहीं है।
सिद्धार्थ के पुत्र थे। उनके नाना चेटक गणतन्त्र के अधिपति थे। आपश्री कुशल चित्रकार भी थे। आपने संग्रहणी अढाई-द्वीप का उनके शिष्य उस युग के जाने-माने हुए विद्वान थे और शास्त्रार्थ नक्शा, बसनाड़ी का नक्शा, केशी गौतम की चर्चा, परदेशी राजा करने में निपुण थे। भगवान महावीर के अमैक राजागण उपासक के स्वर्ग का मनोहारी दृश्य, द्वारिका दृश्य, भगवान अरिष्टनेमि की थे। आठ राजाओं ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर जैन धर्म बरात, स्वर्ग और नरक आदि विविध विषयों पर, लगभग दो की प्रभावना की और अनेक राजकुमारों ने, महारानियों ने भी हजार चित्र आपने बनाये हैं। सूर्य पल्ली आपकी बहुत ही उत्कृष्ट
संयम स्वीकार किया था और सम्राट श्रेणिक जैसे अनेक राजागण कलाकृति है जिसे देखकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र
भी महावीर के परम भक्त थे। उसके पश्चात् भी सम्राट चन्द्रगुप्त ने प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मुग्ध हो गये थे। आपने
आर्हती दीक्षा ग्रहण की। कुमारपाल जैसे प्रभावी राजा भी जैन धर्म सूई की नोंक से काटकर कटिंग की है, वह कटिंग अत्यन्त
के दिव्य प्रभाव से प्रभावित थे। अतः आपका यह कहना कि जैन का चित्ताकर्षक है। साथ ही आपने कटिंगों में श्लोक आदि भी लिखे हैं। धर्म बनियों का धर्म है, यह उचित नहीं है। आचार्य भद्रबाहु, आपका एक कटिंग तो बड़ा ही अद्भुत और अनूठा है। उसमें
समन्तभद्र, उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, हेमचन्द्र, अभयदेव, आपने इस प्रकार अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया है कि
हरिभद्र, यशोविजय आदि अनेकों ज्योतिर्धर आचार्य हुए हैं जिन्होंने एक पन्ना होने पर भी आगे और पीछे पृथक-पृथक् श्लोक पढ़े जाते
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश में हजारों ग्रन्थों की रचना की। इसलिए हैं। भारत के मूर्धन्य मनीषी इसे विश्व का एक महान आश्चर्य
जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। जैन आगम साहित्य में प्रत्येक मानते हैं।
पदार्थ का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। राजन् ! आपने आगम
साहित्य को पढ़ा नहीं है। अतः आपको ऐसा भ्रम हो गया है कि एक बार आपश्री अपने शिष्यों के साथ संवत् १८७१ में
जैन आगमों में अनर्गल बातें हैं। वस्तुतः जैन आगमों में एक भी जोधपुर विराज रहे थे। उस समय आपके प्रवचनों की अत्यधिक
बात ऐसी नहीं है जो असंगत हो। धूम थी। जैन-अजैन सभी आपके प्रवचनों में उपस्थित होते थे और प्रवचनों को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। कुछ ईर्ष्यालु विपक्षियों
राजा मानसिंह ने कहाको आचार्यश्री का बढ़ता हुआ तेज सहन नहीं हुआ। उन्होंने आचार्यप्रवर! आप कहते हैं कि आगम साहित्य में अनर्गल आचार्यश्री से कहा-आप कहते हैं कि पानी की एक बूंद में असंख्य बातें नहीं है, तो देखिए जैन आगमों में बताया गया है कि जल की जीव होते हैं, कृपया हमें प्रत्यक्ष बतायें। आचार्यश्री ने विविध एक बूँद में असंख्य जीव हैं। यह कितनी बड़ी गप्प है। यदि कोई युक्तियाँ देकर उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु वे कहाँ । विद्वान् इसे सुने तो वह जैन आगमों का उपहास किये बिना नहीं समझने वाले थे? उनके अन्तर्मानस में तो ईर्ष्याग्नि जल रही थी। वे रह सकता। आचार्यश्री का अपमान करने हेतु तत्पर थे। उन्होंने उस समय
आचार्यश्री ने पुनः गंभीर वाणी में कहाजोधपुर के नरेश मानसिंह के पास जाकर निवेदन किया कि हुजूर, आपके राज्य में जैन-साधु मिथ्या प्रचार करते हैं। वे कहते हैं कि
राजन्! जिसकी दृष्टि जितनी तीक्ष्ण होगी वह उतनी सूक्ष्म जल की एक बूंद में असंख्य जीव है। आप जरा उन्हें पूछे तो सही
वस्तु देख सकता है। तीर्थंकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। उनका कथन
कभी मिथ्या नहीं हो सकता है। उन्होंने जो कहा है वह अपने प्रत्यक्ष कि कुछ जीव निकालकर हमें बतावें। इस प्रकार मिथ्या प्रचार कर
ज्ञान से देखकर कहा है। जन-मानस को गुमराह करना कितना अनुचित है। आपश्री को चाहिए कि उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाय।
मानसिंह-आचार्यप्रवर! आपको ताज्जुब होगा कि हमारे वैदिक
परम्परा के शास्त्रों में इस प्रकार की कहीं पर भी गप्पें नहीं हैं जैसे राजा मानसिंह एक प्रतिभासम्पन्न राजा थे। वे कवि थे,
कि जैन शास्त्रों में हैं। विचारक थे। उन्होंने महाराजश्री के पास सन्देश भिजवाया। महाराजश्री ने उत्तर में कहा-जिन्हें जिज्ञासा है, वे स्वयं आकर
आचार्यश्री ने कहाजिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं। जिज्ञासु राजा आचार्यश्री राजन्! किसी भी मत और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में खण्डन की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् करना हमारी नीति नहीं है। हम तो हंस की तरह जहाँ भी सद्गुण आचार्यश्री से पूछा
होते हैं वहाँ से ग्रहण कर लेते हैं, पर आपने जो कहा वह उचित Jan Education trtemation
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| इतिहास की अमर बेल
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नहीं है। आप कहते हैं इसीलिए मैं कहता हूँ कि वैदिक परम्परा के को देते हुए कहा-आप इसकी सहायता से देखिए, इसमें क्या चित्र ग्रन्थों में भी आपकी दृष्टि से अनेक गप्पें हैं। उदाहरणस्वरूप एक है? राजा ने ज्यों ही देखा उनके आश्चर्य का पार न रहा। उस लघु गाय की पूँछ में तेतीस कोटि देवताओं का निवास मानते हैं। वह | स्थान में हाथी चित्रित थे, जिन पर लाल झूलें थी। जब राजा ने कैसे सम्भव हो सकता है? क्या, आपने गाय की पूँछ में एकाध | गिना तो वे १०८ की संख्या में थे। आचार्यश्री ने कहादेवता भी कभी देखा है?
पशुओं में सबसे बड़ा हाथी है, और इसे मैंने चित्रित किया है। राजा मानसिंह-जैसे जैन शास्त्रों में असम्बद्ध बातें भरी पड़ी हैं, वे भी आपकी आँखों से नहीं दिखायी दिये तो जल की बूँद में वैसे ही वैदिक परम्परा के शास्त्रों में भी हैं। मुझे दोनों ही बातें असंख्यात जीव आपको किस प्रकार दिखाई दे सकते हैं? राजा मान्य नहीं हैं। मैं तो राजा हूँ जो न्याययुक्त बात होती है, उसे ही मैं । मानसिंह के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। वह श्रद्धा से नत था। स्वीकार करता हूँ, मिथ्या बातें नहीं मानता।
उसके हत्तन्त्री के तार झनझना उठे कि वस्तुतः जैन आगमों में कोई आचार्यश्री-राजन्! आपका चिन्तन अपूर्ण है। मैं सप्रमाण
मिथ्या कल्पना नहीं है। जैन श्रमणाचार्य के प्रति वे अत्यन्त प्रभावित सिद्ध कर सकता हूँ कि जैन आगम साहित्य में एक बात भी ऐसी
मी
हुए और उन्होंने कहा
हुए और उन्होंने कहा- गट नहीं है जिसे गप्प कहा जाए। हम भी लकीर के फकीर नहीं है। काहू की न आश राखे, काहू से न दीन भाखे, भगवान महावीर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-“पन्ना समिक्खए
करत प्रणाम ताको, राजा राणा जेबड़ा। धम्मतत्तं"-बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखें धर्म तत्व को। आपके
सीधी सी आरोगे रोटी, बैठा बात करे मोटी, अन्तर्मानस में जो यह शंका है कि जल की एक बूंद में असंख्यात जीव कैसे हो सकते हैं, मैं इसे सप्रमाण आपको आज से सातवें
ओढ़ने को देखो जांके, धोला सा पछेवड़ा। दिन बताऊँगा।
खमा खमा करें लोक, कदिय न राखे शोक, राजा मानसिंह नमस्कार कर लौट गये, किन्तु कहीं आचार्यश्री
बाजे न मृदंग चंग, जग माहिं जे बड़ा। यहाँ से प्रस्थान न कर जायें अतः अपने एक सेवक को वहाँ पर
कहे राजा मानसिंह, दिल में विचार देखो, नियुक्त कर दिया। उस समय आधुनिक विज्ञान इतना विकसित नहीं दुःखी तो सकल जन, सुखी जैन केवड़ा॥ हुआ था और न ऐसे साधन ही थे जिससे सिद्ध किया जा सके।
आचार्यश्री को नमस्कार कर श्रद्धा के साथ राजा मानसिंह आचार्यश्री ने अपनी कमनीय कल्पना से चने की दाल जितनी जगह
विदा हुए। आचार्यश्री के सत्संग से राजा मानसिंह के जीवन में में एक कागज पर एक चित्र अंकित किया और जब सातवें दिन
परिवर्तन हो गया और वे अब जैन श्रमणों का सम्मान करने लगे। राजा मानसिंह उपस्थित हुआ तब उन्होंने वह चित्र सामने रखते हुए जैन साहित्य के प्रति भी उनके मन में आस्था अंकुरित हो गयी। कहा-जरा देखिए, इस चित्र में क्या अंकित है? राजा मानसिंह ने गहराई से देखने का प्रयास किया किन्तु यह स्पष्ट नहीं हो रहा था
आचार्य जीतमल जी महाराज ने प्रज्ञापना सूत्र के वनस्पति पद कि उसमें क्या चीज है? तब आचार्यप्रवर ने उस पन्ने पर लिखित
का सचित्र लेखन किया। जिन वनस्पतियों का उल्लेख टीकाकार ने दोहे पढ़े-वे दोहे इस प्रकार हैं
वनस्पति विशेष में किया उन वनस्पतियों के चित्र आपश्री ने बनाये
और वे वनस्पतियाँ किन-किन रोगों में किस रूप में काम आती हैं पृथ्वी अप तेऊ पवन, पंचमी वणस्सई काय।
और वनस्पतियों के परस्पर संयोग होने पर किस प्रकार सुवर्ण तिल जितनी मांहि कह्या, जीव असंख्य जिनराय॥१॥
आदि निर्मित होते हैं आदि पर भी प्रकाश डाला। कर्म शरीर इन्द्रियप्रजा, प्राण जोग उपयोग।
___ अंगस्फुरण, पुरुष का कौन-सा शुभ है या कौन-सा अशुभ है, लेश्यादिक ऋद्धिवन्त को, लूटें अन्धा लोग॥२॥
हाथ की रेखाएँ और उनमें कौनसे लक्षण अपेक्षित होते हैं, जीव सताओ जु जुवा, अनघड नर कहे एम।
विजयपताका यन्त्र, ह्रींकार यन्त्र, सर्वतोभद्र यन्त्र तथा मन्त्र कृत्रिम वस्तु सूझे नहीं, जीव बताऊँ केम ॥३॥
साहित्य, तन्त्र साहित्य पर आपने बहुत लिखा था। आपने सूक्ष्माक्षर दाल चिणों की तेह में बाधत है कछु घाट।
में एक पन्ने पर दशवैकालिक सूत्र, वीर स्तुति (पुच्छिसुणं) और
नमि पवज्जा का लेखन किया था। राजस्थान, मध्यप्रदेश में आपका शंका हो तो देख लो, हाथी एक सौ आठ॥४॥
मुख्य रूप से विचरण रहा और आपने जैन धर्म की विजयजीव जतन निर्मल चित्ते, किधी जीव उद्धार।
वैजयन्ती फहरायी। एक कर्म भय आदि को, मेटे यह उपगार ॥५॥
आपने अठत्तर वर्ष तक शुद्ध संयम का पालन किया। जीवन आचार्यश्री ने एक काँच के टुकड़े को विशेष औषध लगाकर की सान्ध्य बेला में आपश्री कुछ दिनों तक जोधपुर विराजे। जैन तैयार किया था जो आइ-ग्लास की तरह था, उसे राजा मानसिंह साधना में समाधिमरण का वरण करने वाला व्यक्ति धन्य माना
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जाता है। संयम की आराधना करते हुए परम आह्लाद के साथ जो पानी मँगवाया और जो अत्यन्त श्रम से प्रज्ञापना सूत्र का वनस्पति मृत्यु का वरण करता है वह जागृत मृत्यु है। जिनमें भेद-विज्ञान | पद, सचित्र तैयार किया था उसका कहीं दुरुपयोग न हो जाय, होता है, आत्मा और शरीर की भिन्नता का जिसे बोध हो जाता है, । अतः आपने उसे पानी में डालकर नष्ट कर दिया। उस समय वह देह के प्रति आसक्त नहीं होता और न वह मृत्यु से ही भयभीत जोधपुर के प्रसिद्ध श्रावक वैदनाथ जी ने आपश्री से सनम्र प्रार्थना होता है। किन्तु वह तो मृत्यु को सहर्ष स्वीकार करता है। आचार्य की कि भगवन्! आप यह अनमोल वस्तु क्यों नष्ट कर रहे हैं? प्रवर ने चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की और संथारा ग्रहण किया। आपश्री ने उन्हें कहा-इन सबका सारांश मैंने एक पन्ने में लिख एक मास तक संथारा चलता रहा। दिन-प्रतिदिन आपके परिणाम दिया है जो समर्थ विद्वान होगा वह उससे सब कुछ समझ जायेगा उज्ज्वल और उज्ज्वलतर होते गये। उस समय आपके सन्निकट । और शेष व्यक्ति इसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। अन्त में ज्येष्ठ शुक्ला योग्यतम शिष्य का अभाव था। आपने अपने एक शिष्य से गरम दशमी के दिन सम्वत १९१३ में आपका स्वर्गवास हो गया।
प्राचीन पत्र के अनुसार आपश्री के वर्षावास की सूची
१. उदयपुर २. चावर ३. जूनिया ४. बड़ोदरा ५. चित्तौड़गढ़ ६. अजमेर ७. जोधपुर ८. पाली ९. बालोत्तरा १०. सोजत ११. जालोर १२. जोधपुर १३. मेड़ता १४. उदयपुर १५. पाली १६. सोजत १७. विशलपुर १८. बीकानेर १९. बघेरा २०. बालोत्तरा
२१. जोधपुर २२. जोधपुर २३. रूपनगर २४. जोधपुर २५. बघेरा २६. समदड़ी २७. जोधपुर २८. जालोर २९. पाली ३०. जोधपुर ३१. बालोतरा ३२. नागौर ३३. जोधपुर ३४. पाली ३५. जयपुर ३६. जोधपुर ३७. कोटा ३८. बीकानेर ३९. जोधपुर ४०. बालोतरा
४१. जालोर ४२. उदयपुर ४३. जोधपुर ४४. कुचामण ४५. किशनगढ़ ४६. जोधपुर ४७. जोधपुर ४८. अजमेर ४९. अजमेर ५०. जोधपुर ५१. सोजत ५२. अजमेर ५३. जोधपुर ५४. किशनगढ़ ५५. उदयपुर ५६. जोधपुर ५७. जोधपुर ५८. अजमेर ५९. जोधपुर ६०. पाली
६१. अजमेर ६२. जोधपुर ६३. पाली ६४. जोधपुर ६५. जोधपुर ६६. जोधपुर ६७. अजमेर ६८. अजमेर ६९. जोधपुर ७०. जोधपुर ७१. जोधपुर ७२. पाली ७३. जोधपुर ७४. जोधपुर ७५. चौपासनी ७६. जोधपुर ७७. जोधपुर ७८. जोधपुर
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के राजगृह नगर में १४ । आचार्यश्री जीतमलजी महाराज की शिष्य परम्परा चातुर्मास हुए तो आपश्री के जोधपुर में ३० चातुर्मास हुए। उसका आचार्यश्री जीतमलजी महाराज एक महान् प्रतिभा सम्पन्न मुख्य कारण कुछ सन्त वृद्धावस्था के कारण वहाँ पर अवस्थित थे आचार्य थे। उनके कुल कितने शिष्य हुए ऐतिहासिक सामग्री के तो उनकी सेवा हेतु आपश्री को वहाँ पर चातुर्मास करना आवश्यक अभाव में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। पर यह सत्य है हो गये थे।
कि उनके दो मुख्य शिष्य थे-प्रथम किशनचन्दजी महाराज और
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| इतिहास की अमर बेल
४४३ द्वितीय ज्ञानमलजी महाराज। ज्ञानमलजी महाराज और उनकी आपकी मातेश्वरी अपने पितृगृह थोब ग्राम में रहने लगीं। वहीं पर परम्परा का परिचय विस्तार के साथ मैंने अगले पृष्ठों में दिया है। आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय की आनन्द कुंवरजी किशनचन्दजी महाराज एक प्रतिभासम्पन्न सन्त रत्न थे। आपका ठाणा ९ वहाँ पधारी। उनके उपदेश से माता और पुत्र दोनों को जन्म अजमेर जिले के मनोहर गाँव में वि. सं. १८४३ में हुआ। वैराग्य भावना उत्पन्न हुई और आत्मार्थी श्री ज्येष्ठमलजी महाराज के आपके पिता का नाम प्यारेलालजी और माता का नाम सुशीलादेवी सन्निकट आपने मातेश्वरी के साथ सं. १९६७ में माघ पूर्णिमा के था। जाति से आप ओसवाल थे। आपने वि. सं. १८५३ में दिन दीक्षा ग्रहण की। ज्येष्ठमलजी महाराज ने आपको रामकिशनजी आचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की। आपको आगम साहित्य, स्तोक महाराज का शिष्य घोषित किया और आपश्री ने उन्हीं के नेश्राय में साहित्य का अच्छा परिज्ञान था। आपके हाथ के लिखे हुए पन्ने रहकर आगम साहित्य का व स्तोक साहित्य का अच्छा अभ्यास जोधपुर के अमर जैन ज्ञान भण्डार में आज भी सुरक्षित हैं। उनमें । किया। आपकी लिपि बड़ी सुन्दर थी। आपकी प्रवचन-कला मधुर, मुख्य रूप से आगम, थोकड़े व रास, भजनादि साहित्य है।
सरस व चित्ताकर्षक थी। आपश्री के दो शिष्य हुए-प्रथम शिष्य का वि. सं. १९०८ में आचार्यश्री जीतमलजी महाराज के सान्निध्य
नाम मुलतानमलजी महाराज था जिनकी जन्मस्थली बाड़मेर जिले का में ही आपश्री का स्वर्गवास हुआ। किशनचन्द जी महाराज के शिष्य
वागावास थी। आपके पिता का नाम दामनमलजी और माता का नाम हुकमचन्दजी महाराज थे। आपकी जन्मस्थली जोधपुर थी। वि. सं.
नैनीबाई था। सं. १९५७ में आपका जन्म हुआ। आपकी बुद्धि तीक्ष्ण १८८२ में आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नथमलजी तथा
थी। आपने वि. सं. १९७0 में समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की। वि. सं. माता का नाम राजीबाई था और वे स्वर्णकार थे। आपके
1 १९७५ में आपका स्वर्गवास हुआ। गृहस्थाश्रम का नाम हीराचन्द था। आपश्री ने वि. सं. १८९८ में नारायणचन्दजी महाराज के दूसरे शिष्य प्रतापमलजी महाराज किशनचन्द जी महाराज साहब के शिष्यत्व को ग्रहण किया। आप थे। आपका जन्म सं. १९६७ में हुआ। आप गृहस्थाश्रम में जाट कवि भी थे। आपकी कुछ लिखी हुए कविताएँ जोधपुर के अमर परिवार के थे। आपका नाम रामलालजी था। उपाध्याय पुष्कर मुनि जैन ज्ञान भण्डार में प्राप्त होती हैं और बहुत-सा कविता साहित्य | जी के साथ सं. १९८१ ज्येष्ठ शुक्ला १0 को जालोर में दीक्षा हुई जो सन्तों के पास में था, वह नष्ट हो गया। आपका आगम साहित्य और आपका नाम मुनिश्री प्रतापमलजी महाराज रखा गया। आप का अध्ययन बहुत ही अच्छा था। गणित विद्या के विशेषज्ञ थे। बहुत ही सेवाभावी सन्त रल थे। आपने अपने गुरुवर्य चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के रहस्यों के ज्ञाता थे। आपके मुख्य नारायणचन्दजी महाराज की अत्यधिक सेवा की। नारायणचन्दजी चातुर्मास जोधपुर, पाली, जालोर, जूठा, हरसोल, रायपुर, महाराज का दिनांक १८.९.१९५४ के आसोज सुदी ५ शुक्रवार को सालावास, बड़ और समदड़ी में हुए थे। सं. १९४० के भादवा बदी दुन्दाड़ा ग्राम में संथारे से स्वर्गवास हुआ और स्वामी नाराणचन्दजी दूज को चार दिन के संथारे के पश्चात् जोधपुर में आपका महाराज के स्वर्गवास के चार महीने के पश्चात् प्रतापमलजी स्वर्गवास हुआ। आपश्री के रामकिशनजी महाराज मुख्य शिष्य थे। महाराज का जोधपुर में स्वर्गवास हुआ। उनके कोई शिष्य नहीं थे। आपकी जन्मस्थली जोधपुर थी। सं. १९११ में भादवा कृष्ण चौदस इस प्रकार किशनचन्दजी महाराज की पद-परम्परा रही। मंगलवार को आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नाम गंगारामजी ज्योतिर्धर आचार्यश्री जीतमलजी महाराज का व्यक्तित्व बहुत और माता का नाम कुन्दन कुंवर था। गृहस्थाश्रम में आपका नाम
ही तेजस्वी था और कृतित्व अनूठा था। आप में वे सभी सद्गुण थे मिट्ठालाल था। वि. सं. १९२५ के पौष बदी ११ को गुरुवार बडु
जो एक महापुरुष में अपेक्षित होते हैं। आपकी आकृति में ग्राम में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी लिपि बड़ी सुन्दर थी।
बिजली-सी चमक थी। आपकी आँखों से छलकता हुआ वात्सल्य रस आपने पालनपुर, सिद्धपुर, पाटन, सूरत, अहमदाबाद, खम्भात और का स्रोत दर्शक को आनन्दविभोर कर देता था। आपश्री के शासन मौर्वी आदि महागुजरात के क्षेत्रों में विचरण किया। राजस्थान में
काल में सम्प्रदाय की हर दृष्टि से काफी अभिवृद्धि हुई। आपके जोधपुर, सोजत, पाली, समदड़ी, जालोर, सिवाना, खण्डप,
ग्रन्थ, आपकी चित्रकला आपके ज्वलन्त कीर्तिस्तम्भ के रूप में आज हरसोल, जूठा, रायपुर, बडु, बोरावल, कल्याणपुर, इंदाड़ा, भी विद्यमान हैं। बालोत्तरा, कर्मावास प्रभृति क्षेत्रों में आपका मुख्य रूप से विहार क्षेत्र और वर्षावास हुए। वि. सं. १९६० ज्येष्ठ वदी १४ को
महामहिम आचार्य संथारापूर्वक जोधपुर में आपका स्वर्गवास हुआ।
पूज्यश्री ज्ञानमलजी महाराज श्री रामकिशनजी महाराज के शिष्यरल थे, नारायणचन्दजी महाराज। आपका जन्म बाड़मेर जिले के सणदरी ग्राम में हुआ। महामनस्वी आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का व्यक्तित्व विराट आपके पिताश्री का नाम चेलाजी और माता का नाम राजाजी था। था। उनका तेजस्वी व्यक्तित्व जन-जन के लिये प्रेरणा-स्रोत था। वि. सं. १९५२ पौष कृष्णा १४ के दिन आपका जन्म हुआ। जब उन्होंने अपने जीवन का ही निर्माण नहीं किया किन्तु अनेकों आपकी उम्र ५ वर्ष की थी, आपके पिताश्री का देहान्त हो गया, तब व्यक्तियों का भी निर्माण किया। उनके जीवन की क्षमताओं को
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । पल्ववित, पुष्पित और फलित होने का सुअवसर प्रदान किया। को आकर्षित किया। आचार्यश्री ने आगम ग्रन्थों का अध्ययन जीवन का निर्माण वही व्यक्ति कर सकता है जिसके हृदय में कराया, लिपि कौशल सिखाया और साथ ही अन्य तत्वों का भी सद्भावना हो, स्नेह का सागर लहराता हो। आचार्यप्रवर ज्ञानमल परिज्ञान कराया। आप बहुत ही शान्त, दान्त और गम्भीर प्रकृति के जी महाराज का मानस जहाँ कसम-सा कोमल था वहाँ अनुशासन सन्तरत्न थे। अन्त में आचार्य जीतमलजी महाराज ने आपको अपना की दृष्टि से वज्र से भी अधिक कठोर था। स्नेह, सहानुभूतियुक्त उत्तराधिकारी नियुक्त किया। जब वि. सं. १९१२ में आचार्य अनुशासन ही निर्माण में सहायक होता है।
जीतमलजी महाराज का स्वर्गवास हो गया तब शासन की बागडोर आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का जन्म राजस्थान के सेतरावा
आपके हाथ में आयी। आपने आचार्यकाल में राजस्थान, मध्यप्रदेश ग्राम में हुआ था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम जोरावरमलजी
के विविध अंचलों में विचरण कर धर्म की प्रभावना की। गोलेछा और माता का नाम मानदेवी था। ओसवाल वंश और आचार्यप्रवर का वि. सं. १९३० में चातुर्मास जालोर में था। गोलेछा जाति थी। वि. संवत् १८६० की पौष कृष्णा छठ मंगलवार प्रतिदिन आचार्यश्री के प्रभावशाली प्रवचन होते। जैन संस्कृति का को आपका जन्म हुआ। जन्म के पूर्व माता ने स्वप्न में एक महान् पर्व पर्युषण सानन्द सम्पन्न हुआ। आचार्यश्री ने चतुर्विध संघ प्रकाशपुञ्ज को अपनी ओर आते हुए देखा और उस प्रकाशपुञ्ज में । के प्रातःकाल क्षमायाचना की और स्वयं एक पट्ट पर पद्मासन की से एक आवाज आयी-माँ, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। माता । मुद्रा में विराजकर भक्तामर स्तोत्र का पाठ किया और “अरिहन्ते मानदेवी ने कहा-जरूर आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ। सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, मानदेवी ने प्रातः अपने पति जोरावरमल जी से स्वप्न की बात कही। केवलिण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि" का उच्चारण करते हुए कि आज मुझे इस प्रकार का श्रेष्ठ स्वप्न आया है। जोरावरमलजी । स्वर्गस्थ हो गये। ने प्रसन्नता से कहा-तुम्हारे पुत्र होगा, प्रकाशपुञ्ज ज्ञान का प्रतीक
आचार्यप्रवर का एकाएक स्वर्गवास समाज के लिए एक चिन्ता है। लगता है तुम्हारा पुत्र लक्ष्मी-पुत्र के साथ सरस्वती-पुत्र भी बनेगा
का विषय था, किन्तु आपश्री के योग्यतम शिष्य पूनमचन्द जी थे। और वह हमारे कुल के नाम को रोशन करेगा।
उन्हें आपके पट्ट पर आसीन किया गया। आचार्यप्रवर के द्वारा सवा नौ मास पूर्ण होने पर बालक का जन्म हुआ। लिखे गये अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ ज्ञानभण्डारों में हैं। आपकी जोरावरमलजी ने ज्योतिषी से कुण्डली बनवाई। कुण्डली के आधार लिपि चित्ताकर्षक थी। आपने मौलिक ग्रन्थों का सृजन भी किया, पर ज्योतिषी ने कहा-यह बालक योगीराज बनेगा। यह बहुत ही। किन्तु वे ग्रन्थ मुझे प्राप्त नहीं हुए। भाग्यशाली है, किन्तु तुम्हारे घर पर नहीं रहेगा। जिसने भी बालक को देखा वह हर्ष से नाच उठा। उस बालक का नाम ज्ञानमल रखा
आचार्यश्री पूनमचन्द जी महाराज ।
गया।
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वि. सं. १८६९ में आचार्यप्रवर जीतमलजी महाराज अपने महापुरुषों के जीवन में कुछ ऐसी स्वाभाविक विशेषताएँ होती शिष्यों के साथ विहार करते हुए सेतरावा पधारे। आचार्यप्रवर के हैं जो जन-मानस को एक अभिनव प्रेरणा और आलोक प्रदान पावन प्रवचन को सुनकर बालक ज्ञानमल के अन्तर्मानस में करती हैं। उनका जीवन जन-जन के लिए एक वरेण्य, वरदान वैराग्यांकुर उबुद्ध हुआ। उसने अपने माता-पिता से दीक्षा की सदृश होता है। महामनस्वी, प्रतिभा-मूर्ति आचार्यश्री पूनमचन्दजी अनुमति माँगी। माता-पिता ने विविध उदाहरण देकर संयम-साधना महाराज इसी कोटि के महामानव थे। उनके जीवन में अध्यात्म की की दुष्करता बताकर और संसार के सुखों का प्रलोभन देकर उसके ज्योत्स्ना, साधना की आभा और ज्ञान की ज्योति सर्वत्र अनुस्यूत वैराग्य के रंग को मिटाने का प्रयास किया, किन्तु उसका वैराग्य थी। उनकी चिन्तनधारा सत्योन्मुखी थी। वे अध्यात्म वैभव के धनी रंग हल्दी का रंग नहीं था जो जरा से प्रलोभनों की धूप लगते ही महापुरुष थे। वे स्वयं प्रकाशपुञ्ज थे। उन्होंने आसपास के वातावरण धुल जाता। बालक ज्ञानमल की उत्कृष्ट वैराग्य भावना को देखकर को भी प्रकाशमय बनाया। ये पारदर्शी स्फटिक थे। उनकी स्वच्छता माता-पिता को अनुमति देनी पड़ी और संवत् १८६९ पौष कृष्णा में प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रतिबिम्ब देख सकता था। तीज बुधवार को झाला मण्डप, जो जोधपुर के सन्निकट है, वहाँ आपथी का जन्म राजस्थान के समिट ना जालो में हा हजारों मनुष्यों की उपस्थिति में दीक्षा की विधि सम्पन्न हुई। दीक्षा
था। आपके पिताश्री का नाम 'ऊमजी' था और माता का नाम देने वाले थे आचार्य अमरसिंहजी महाराज के चतुर्थ पट्टधर आचार्य ।
फूलादेवी। आपका वंश ओसवाल और गोत्र राय गान्धी था। वि. जीतमलजी महाराज और दीक्षित होने वाले ज्ञानमलजी।
सं. १८९२ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी शनिवार के दिन आपका मुनि ज्ञानमलजी में विनय और विवेक का मणि-कांचन योग जन्म हुआ था। आपका प्रारम्भिक अध्ययन जालोर में प्रारम्भ हुआ। था। उनकी बुद्धि बहुत ही प्रखर थी। साथ ही चारित्र की अनुपालना आचार्यप्रवर ज्ञानमलजी महाराज के पावन उपदेश को श्रवण कर में भी वे अत्यधिक जागरूक थे। उनकी विशेषताओं ने आचार्यश्री | ग्यारह वर्ष की लघुवय में आपके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना
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इतिहास की अमर बेलामा
४४५ । जागृत हुई। आपकी ज्येष्ठ भगिनी तुलसाजी के मन में तो पहले से कहकर दीक्षा ग्रहण करती हूँ। पिता की अनुमति से पुनः दोनों ही दीक्षा की भावना थी और आचार्यश्री के उपदेश से उसकी भाई-बहन दीक्षा के लिये तैयार हुए और ज्यों ही दीक्षा के लिए वे भावना अधिक बलवती हो गयी। आप दोनों ने पूज्य पिता से दीक्षा नगर के द्वार पर पहुँचे त्यों ही काका पुत्र जो कोतवाल था, वह के लिए अनुमति चाही। किन्तु पूज्य पिताजी ने साधना की। वहाँ आ पहुँचा और बालक पूनम का हाथ पकड़कर अपने घर ले अतिदुष्करता बताकर पहले तो दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दी, चला। सभी इन्कार होते रहे, किन्तु उसने किसी की भी न सुनी। किन्तु अन्त में पुत्र-पुत्री के अत्यधिक आग्रह को देखकर पिता ने । बहन तुलसा ने वहीं पर सत्याग्रह कर दिया कि अब मैं पुनः घर अनुमति दे दी।
नहीं जाऊँगी। अतः विवश होकर बहन तुलसा को उसी दिन दीक्षा पूनमचन्दजी के चाचा का लड़का जो जालोर में कोतवाल था,
देने की अनुमति प्रदान की। बालक पूनम ने भी अत्यधिक आग्रह जब उसने भाई-बहन की दीक्षा की बात सुनी तो समझाने का प्रयास
किया तो कोतवाल का कठोर दिल पिघल गया और उसने कहा-तू किया। जब आपको पूर्ण रूप से दीक्षा के लिए कटिबद्ध देखा तो
जालोर में तो दीक्षा नहीं ले सकता। यदि तुझे दीक्षा लेनी ही है तो उसने अन्य उपाय न देखकर एक कमरे में आपको बन्द कर दिया। ।
जालोर के अतिरिक्त कहीं पर भी दीक्षा ले सकेगा। तीन वर्ष तक मैं किन्तु भाग्यवशात् कमरे की खिड़की जो मकान से बाहर की ओर
तेरी हर दृष्टि से परीक्षा कर चुका। अतः तुझे मैं अब अनुमति देता थी, वह खुली रह गयी। उस खिड़की में से आप निकलकर जंगलों
हूँ। बालक पूनम ने अपने भ्राता कोतवाल की बात स्वीकार कर ली में लुकते-छिपते जोधपुर पहुँचे और पिताश्री का आज्ञा पत्र
और जालोर से २०-२५ मील दूर भँवरानी ग्राम में बड़े ही उत्साह आचार्यश्री के चरणों में रखकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की। पिता की
के साथ आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा का दिन वि. सं. १९०६ आज्ञा लेने से आचार्यश्री को दीक्षा देने में किसी प्रकार की बाधा
माघ शुक्ला नवमी मंगलवार था। इस प्रकार ग्यारह वर्ष की उम्र में नहीं थी। शुभ मुहूर्त में दीक्षा की तैयारी प्रारम्भ हुई। बालक
वैराग्य भावना जागृत हुई थी किन्तु तीन वर्ष तक विविध बाधाओं पूनमचन्द शोभायात्रा के रूप में दीक्षा के लिए घोड़े पर बैठकर
को सहन करने के पश्चात् चौदह वर्ष की उम्र में आपकी दीक्षा मध्य बाजार के बीच में से जा रहा था। आचार्य ज्ञानमलजी
सम्पन्न हुई। आपने आचार्यश्री के सानिध्य में आगम और दर्शन का महाराज दीक्षास्थल पर पहुँच चुके थे। बालक पूनमचन्द के फूफाजी
गम्भीर अध्ययन किया। आपका रूप पूनम के चाँद की तरह जोधपुर में रहते थे। उन्हें पता लगा कि बालक पूनमचन्द जालोर से ।
सुहावना था। आपके रूप और प्रतिभा पर मुग्ध होकर एक यति ने भागकर यहाँ आया है और वह श्रमणदीक्षा ग्रहण करने जा रहा है।
आपसे निवेदन किया कि स्थानकवासी परम्परा के श्रमणों को अतः वे शीघ्र ही आरक्षक दल के अधिकारी के पास पहुँचे और
अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है। न उन्हें समय पर खाने को मिलता आरक्षक दल के अधिकारी को लेकर बालक पूनमचन्द जो दीक्षा
है और न सुन्दर भवन ही मिलते हैं। आपका शरीर बहुत ही लेने के लिए जा रहा था उसके घोड़े को रोक दिया और अपने घर
सुकुमार है, वह इन सभी कष्टों को सहन करने में अक्षम है। ले आये। बुआ ने बालक को विविध दृष्टियों से रूपक देकर
एतदर्थ मेरा नम्र निवेदन है कि आप यति बन जाएँ तो मैं आपको
यतियों का श्रीपूज्य बना दूंगा। यतियों का श्रीपूज्य बनना बहुत ही समझाने का प्रयास किया कि तू बालक है, अतः दीक्षा ग्रहण न कर। हमारे घर में किसी भी बात की कमी नहीं है। जोधपुर नरेश
भाग्य की निशानी है। क्योंकि श्रीपूज्य के पास लाखों-करोड़ों की भी हमारे पर प्रसन्न हैं। फिर तू संयम क्यों ले रहा है? बालक
सम्पत्ति होती है। उनके पास अधिकार होते हैं। वे जमीन पर पैर पूनमचन्द ने कहा-बुआजी, दीक्षा किसी वस्तु की कमी के कारण
भी नहीं रखते। चलते समय उनके पैरों के नीचे पावड़े बिछा दिये नहीं ली जाती। जो किसी वस्तु की कमी के कारण दीक्षा लेता है
जाते हैं और खाने के लिए बढ़िया से बढ़िया मन के अनुकूल पदार्थ वह दीक्षा का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता। बुभुक्षु दीक्षा का
मिलते हैं। जीवन की प्रत्येक सुविधा उन्हें उपलब्ध है। अधिकारी नहीं, किन्तु सच्चा मुमुक्षु ही दीक्षा लेता है। आप चाहे मुनि पूनमचन्द जी ने यति को कहा-यतिवर, मेरे स्वयं के घर कितना भी प्रयास करें तथापि मैं संसार में न रहूँगा और दीक्षा में कौनसी कमी थी? यदि मुझे खाना-पीना और मौज-मजा ही ग्रहण कर जैन श्रमण बनूँगा। तथापि मोह के कारण बुआ ने उसे करना होता तो फिर साधु क्यों बनता? साधु बनकर इस प्रकार का कमरे में बन्द कर दिया और द्वार तथा खिड़कियों के ताले लगवा संकल्प करना ही मन की दुर्बलता है। मैं साधना के महापथ पर दिये। एक महीने तक वह कमरे में बन्द रहा। किन्तु एक दिन बुआ । वीर सेनानी की तरह निरन्तर आगे बढूँगा। शरीर भले ही मेरा एक खिडकी का ताला लगाना भल गयी थी। अतः उस खिडकी के कोमल हो, किन्तु मन मेरा दृढ़ है। मैं तो तुम्हें भी प्रेरणा देता हूँ कि रास्ते से बालक पूनम घर से बाहर निकल गया और लुकता-छिपता । भौतिकवाद की चकाचौंध में साधना से विस्मृत होकर आत्मवंचना जालोर पहुँच गया और अपनी बहन तुलसाजी को उन्होंने अपने / न करो। हृदय की बात कही। बहन तुलसा ने कहा-भाई, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा यति के पास कोई उत्तर नहीं था। वह नीचा सिर किये हुए करती-करती परेशान हो गयी हूँ। पता नहीं तुम्हारी दीक्षा कब वहाँ से चल दिया। आपश्री ने प्रवचन कला में विशेष दक्षता प्राप्त होगी। आचार्यप्रवर अभी यहाँ आये हुए हैं। अतः मैं पिता को । की। आपश्री के प्रवचनों में आगम के गहन रहस्य सुगम रीति से
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्त होते थे। कठिन से कठिनतर विषय को भी आप सरस, १९९७ में दुन्दाड़ा ग्राम में संथारापूर्वक स्वर्गवास हुआ और वि. सं. सुबोध रीति से प्रस्तुत करते थे जिसे सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध हो २000 में दयालचन्दजी महाराज साहब का गढ़ जालोर में जाते थे। आपश्री ने जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, कोटा, ब्यावर, स्वर्गवास हुआ। पाली, शहापुरा, अजमेर, किशनगढ़, फलौदी, जालोर, बगहुँदा,
आचार्यश्री के पाँचवें शिष्य कविवर नेमीचन्द जी महाराज थे। कूचामण, समदडी, पंचभद्रा प्रभृत्ति क्षेत्रों में वर्षावास किये। आप
आपका विशेष परिचय अगले लेख में स्वतन्त्र रूप से दिया है। जहाँ भी पधारे वहाँ पर धर्म की अत्यधिक प्रभावना हुई।
आपश्री के तीन शिष्य थे। सबसे बड़े वर्दीचन्द महाराज थे। वे ___आपश्री के मानमलजी महाराज, नवलमलजी महाराज, मेवाड़ के बगडुंडा गाँव के निवासी थे। आपने लघुवय में दीक्षा ज्येष्ठमलजी महाराज, दयालचन्द जी महाराज, नेमीचन्दजी ग्रहण की। वि. संवत् १९५६ में पंजाब के प्रसिद्ध सन्त मायारामजी महाराज, पन्नालालजी महाराज और ताराचन्दजी महाराज-ये सात महाराज मेवाड़ पधारे। कविवर नेमीचन्द जी महाराज के साथ शिष्य थे जो सप्तर्षि की तरह अत्यन्त प्रभावशाली हुए।
उनका बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा। वर्दीचन्द जी महाराज की इच्छा आचार्य पूनमचन्दजी महाराज के प्रथम शिष्य मानमलजी
मायारामजी महाराज के साथ पंजाब क्षेत्र स्पर्शने की हुई। कविवर्य महाराज थे। उनकी जन्मस्थली गढ़जालोर थी। वे लूणिया परिवार
नेमीचन्दजी महाराज ने उन्हें सहर्ष अनुमति दी। वे पंजाब में पधारे। के थे। उन्होंने अपनी माँ और बहन के साथ आर्हती दीक्षा ग्रहण
उनके शिष्य शेरे-पंजाब प्रेमचन्दजी महाराज हुए जो प्रसिद्ध वक्ता की थी। उनके शिष्य बुधमलजी महाराज थे, जो कवि, वक्ता और ।
और विचारक थे। उनकी प्रवचन-कला बहुत ही अद्भुत थी। जब वे लेखक थे।
दहाड़ते थे तो श्रोता दंग हो जाते थे। आचार्यश्री के द्वितीय शिष्य नवलमलजी महाराज थे, जो एक
कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के द्वितीय शिष्य हंसराजजी विलक्षण मेधा के धनी थे। किन्त आपका पाली में लघवय में ही महाराज थे। वे मेवाड़ के देवास ग्राम के निवासी थे और बाफना स्वर्गवास हो गया।
परिवार के थे। ___ आचार्यश्री के तीसरे शिष्य ज्येष्ठमलजी महाराज थे जो महान
आपकी प्रकृति बहुत ही भद्र थी। आप महान् तपस्वी थे, चमत्कारी थे। उनका परिचय स्वतन्त्र रूप से अगले पृष्ठों में दिया
आपने अनेक बार साठ उपवास किये, कभी इकावन किये, कभी गया है। ज्येष्ठमलजी महाराज के दो शिष्य थे। प्रथम शिष्य
मासखमण किये। वि. संवत् में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके नेणचन्दजी महाराज थे जो समदड़ी के निवासी और लुंकड़ परिवार |
तीसरे शिष्य दौलतरामजी महाराज थे जो देलवाड़ा के निवासी थे के थे। आपका अध्ययन संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ आगम
और आपका जन्म लोढा परिवार में हुआ था। आप जपयोगी साहित्य का बहुत ही सुन्दर था। आपकी प्रवचनकला चित्ताकर्षक सन्त थे। थी। आपश्री के द्वितीय शिष्य तपस्वी श्री हिन्दूमल जी महाराज थे।
आचार्यश्री के छठे शिष्य पन्नालालजी महाराज थे। आप इनकी जन्मस्थली गढ़सिवाना में थी। इन्होंने अपने भरे-पूरे परिवार
गोगुन्दा-मेवाड़ के निवासी थे। लोढा परिवार में आपका जन्म हुआ को छोड़कर दीक्षा ग्रहण की थी और जिस दिन दीक्षा ग्रहण की
था। वि. संवत् १९४२ में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। आपका गला उसी दिन से पाँच विगयों का परित्याग कर दिया और उसके साथ
बहुत ही मधुर था। कवि नेमीचन्दजी और आप दोनों गुरुभ्राता जब ही उत्कृष्ट तप भी करते रहते थे और पारणे में वही रूखी रोटी
मिलकर गाते थे तो रात्रि के शांत वातावरण में आपकी आवाज और छाछ ग्रहण करते थे।
२-३ मील तक पहुँचती थी। आपश्री का स्वर्गवास मारवाड़ के आचार्यश्री के चतुर्थ शिष्य दयालचन्दजी महाराज थे। आप राणावास ग्राम में हुआ। आपके सुशिष्य तपस्वी प्रेमचन्दजी महाराज मजल (मारवाड़) के निवासी थे। मुथा परिवार में आपका जन्म थे जो उत्कृष्ट तपस्वी थे। भीष्म ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की चिलचिलाती हुआ था। नौ वर्ष की लघुवय में पूज्यश्री के पास वि. संवत् १९३१ धूप में आप आतापना ग्रहण करते थे और जाड़े में तन को कँपाने में गोगुन्दा (मेवाड़) में दीक्षा ग्रहण की। आपका स्वभाव बड़ा ही वाली सनसनाती सर्दी में रात्रि के अन्दर वे वस्त्रों को हटाकर मधुर था। आपके हेमराजजी महाराज शिष्यरल थे जिनकी शीत-आतापना लेते थे। आप आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। जन्मस्थली पाली-मारवाड़ थी। आप जाति से मालाकार थे। आपने वि. संवत् १९८३ में मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। वि. सं. १९६० में दीक्षा ग्रहण की थी।आप ओजस्वी वक्ता थे। आपके सुशिष्य उत्तमचन्दजी महाराज थे जो मेवाड़ के कपासन ग्राम आपका गंभीर घोष श्रवण कर श्रोता झूम उठते थे। आपका स्वभाव । के सन्निकट एक लघु ग्राम के निवासी थे। आप जाति के मालाकार बहुत ही मिलनसार था। आपश्री ने गढ़जालोर में एक विराट थे। वि. सं. १९५६ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप आगम साहित्य पुस्तकालय की संस्थापना की थी। पर, खेद है कि श्रावकों की व थोकड़े साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। आपकी प्रकृति बहुत ही भद्र पुस्तकों के प्रति उपेक्षा होने से वे सारे बहुमूल्य ग्रन्थ दीमकों के थी। आपका प्रवचन मधुर होता था। वि. संवत् २000 में उदर में समा गये। पंडित मुनिश्री हेमराज महाराज का वि. सं. मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। आपश्री के दो शिष्य थे
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इतिहास की अमर बेल
जुवारमलजी महाराज और बाघमलजी महाराज, जिनकी जन्मभूमि क्रमशः वागावास और पाटोदी थी। जुवारमलजी महाराज को थोकड़ों का बहुत ही अच्छा परिज्ञान था। आपको सैकड़ों थोकड़े कण्ठस्थ थे।
आचार्यश्री के सातवें शिष्य ताराचन्दजी महाराज थे, जिनका परिचय अगले पृष्ठों में दिया गया है। आपश्री के सुशिष्य उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज, पंडित हीरामुनिजी महाराज और तपस्वी भैरूलालजी महाराज- ये तीन शिष्य हैं। उपाध्यायश्री के देवेन्द्रमुनि, शांतिमुनि, गणेशमुनि, रमेशमुनि, दिनेशमुनि और नरेशमुनि शिष्य हैं और देवेन्द्रमुनि के राजेन्द्रमुनि तथा गणेशमुनि के जिनेन्द्रमुनि और प्रवीणमुनि शिष्य हैं। इनका परिचय वर्तमान युग के सन्त सती वृन्द के परिचय के अन्तर्गत दिया गया है। हीरामुनि के भगवतीमुनि शिष्य हैं।
पंडित प्रवर श्री पूनमचन्द जी महाराज महान प्रतिभासम्पन्न थे। विक्रम संवत् १९५० में माघ कृष्णा सप्तमी को जोधपुर में चतुर्विध संघ ने आपश्री की योग्य समझकर आचार्य पद प्रदान किया। आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का स्वर्गवास संवत् १९३० में हुआ था। उसके पश्चात् बीस वर्ष तक आचार्य पद रिक्त रहा, यद्यपि आपश्री आचार्य की तरह संघ का संचालन करते रहे। किन्तु पारस्परिक मतभेद की स्थिति के कारण एकमत से निर्णय नहीं हुआ था। इसका मूल कारण यह भी था कि आचार्यप्रवर ज्ञानमलजी महाराज ने अपना उत्तराधिकारी पूर्वघोषित नहीं किया था जिसके फलस्वरूप यह स्थिति उत्पन्न हुई थी। किन्तु आपश्री संघ का कुशल संचालन करते रहे जिससे प्रभावित होकर अन्त में संघ ने आपश्री को आचार्य चुना ।
वि. सं. १९५२ का चातुर्मास आचार्यप्रवर का अपनी जन्मभूमि गढ़ जालोर में था। प्रस्तुत वर्षावास में आचार्यश्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर शताधिक व्यक्ति जैनधर्म के अभिमुख हुए। जैनधर्म और जैन संस्कृति में पण्डित-मरण का अत्यधिक महत्व है। प्रतिपल प्रतिक्षण साधक की यह प्रशस्त भावना
रहती है कि वह दिन कब होगा जब मैं पंडित मरण को प्राप्त करूँगा। आचार्यप्रवर जागरूक थे। शरीर में कुछ व्याधि समुत्पन्न होने पर आचार्यश्री ने वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए संलेखना सहित संथारा ग्रहण किया। ग्यारह दिन का संथारा आया और सं. १९५२ के भाद्रपद पूर्णिमा के दिन आपने समाधिपूर्वक स्वर्ग की राह ली।
४४७
सहस्राधिक भावुक भक्तगण जय-जय के गगनभेदी नारों से चतुर्दिशाओं को मुखरित करते हुए शोभायात्रा की तैयारी करने लगे। जनता ने श्रद्धावश एक भव्य विमान का निर्माण किया था। उसमें आचार्यप्रवर का विमुक्त शरीर रखा गया था। सभी उसे लेकर श्मशान पहुँचे। शरीर का दाहसंस्कार करने के लिए चन्दन की चिता लगायी गयी। ज्योतिपुञ्ज का वह विमुक्त शरीर ज्योति से प्रज्वलित हो उठा। अगरु की सुगन्ध से वातावरण महक उठा। घी, कपूर और नारियलों का प्रज्वलन वातावरण को सुरभित कर रहा था। लोगों ने देखा आचार्यप्रवर का दिव्यदेह विमान सहित जल गया है किन्तु विमान पर जो तुर्रा था वह अग्निस्नान करने पर भी प्रह्लाद की तरह जला नहीं है। श्रद्धालु श्रावकगण वीर हनुमान की तरह उसे लेने के लिए लपके किन्तु वह इन्द्र-धनुष की तरह रंग-बिरंगे रंग परिवर्तन करता हुई पक्षी की तरह उड़कर अनन्त गगन में विलीन हो गया। अद्भुत आश्चर्य से सभी विस्मित थे।
वहाँ से सभी श्रावकगण स्नान के लिए जलकुंड पर पहुँचे। वहाँ का जल केशर की तरह रंगीन, गुलाबजल की तरह सुगन्धित और गंगाजल की तरह निर्मल व शीतल था जिसे देखकर सभी चकित हो गये और उनके हत्तन्त्री के सुकुमार तार झनझना उठे। आश्चर्य! महान् आश्चर्य !! धन्य है आचार्यश्री को जिन्होंने स्वर्ग में पधार करके भी नास्तिकों को आस्तिक बनाया। प्रस्तुत घटना प्रत्यक्षद्रष्टा श्रावकों के मुँह से मैंने सुनी वस्तुतः आचार्यप्रवर का जीवन महान् था। वे महान् प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने अपने आचार्यकाल में हर दृष्टि से शासन का विकास करने का प्रयत्न किया।
मनुष्य तो अल्पज्ञ है किन्तु वह अल्प ज्ञान के अभिमान में भरा रहता है। यद्यपि वह पूर्ण ज्ञानी नहीं होता फिर भी अपने को सर्वज्ञ के समान समझने में गर्व करता है। पूर्ण सत्य न जानने पर भी चतुराई पूर्वक असत्य भाषण करता है, अपने को सर्वाधिक योग्य और चतुर समझता है और वैसा ही प्रदर्शित करता है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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हैं
भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् यद्यपि जैन गगन में किसी सहस्ररश्मि सूर्य का उदय नहीं हुआ किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि समय-समय पर अनेक ज्योतिष्मान नक्षत्र उदित हुए जो अज्ञान अन्धकार से जूझते रहे अपने दिव्य प्रभामण्डल के आलोक से विश्व का पथ-प्रदर्शन करते रहे ऐसे प्रभापु ज्योतिष्मान नक्षत्रों से जप-तप, सेवा सहिष्णुता और सद्भावना की चमचमाती किरणें विश्व में फैलती रही है। ऐसे ही एक दिव्य नक्षत्र थे अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज आपका जन्म बाड़मेर जिले के समदड़ी ग्राम में विक्रम संवत् १९१४ पौष कृष्णा तीज को हुआ था आपके पूज्य पिताश्री का नाम हस्तिमलजी और माताजी का नाम लक्ष्मीबाई था जिन्हें प्रेम के कारण लोग हाथीजी और लिछमाबाई भी कहा करते थे। आपका वंश ओसवाल और लुंकड़ गोत्र था। आपके पूज्य पिताश्री और मातेश्वरी दोनों ही धर्मनिष्ठ थे। पिताश्री व्यापारकला में कुशल थे। वे न्याय और नीति से और कठोर परिश्रम से धन कमाते थे। मातेश्वरी लक्ष्मी बहन को सत्संगति बहुत ही प्यारी थी। जब भी समय मिलता उस समय को वह निरर्थक वार्तालाप या किसी की निन्दा विकथा न कर धर्मस्थानक में पहुँचती और मौन रहकर समभाव की साधना करती जिसे जैन परिभाषा में सामायिक कहते हैं। माता के संस्कार बालक ज्येष्ठमलजी के जीवन में झलकने स्वाभाविक थे।
अध्यात्मयोगी सन्तश्रेष्ठ ज्येष्ठमलजी महाराज
नेपोलियन से किसी जिज्ञासु ने पूछा कि आपने यह वीरता कहाँ से सीखी? उसने उत्तर में कहा कि माता के दूध के साथ मुझे प्राप्त हुई थी। यदि कोई साधक ज्येष्ठमलजी महाराज के पूछता कि आपके जीवन में आध्यात्मिकता कैसे आयी तो सम्भव है कि वे यही कहते कि माता की जन्मपूँटी के साथ ही मिली। सत्य-तथ्य यह है कि माता के दूध के साथ जो संस्कार मिलते हैं ये चिरस्थायी होते हैं। बालक का हृदय निर्विकारी होता है। यह कच्ची मिट्टी के पिण्ड के सदृश है माता-पिता जैसा संस्कार उसमें भरना चाहे जैसी मूर्ति निर्माण करना चाहें वैसा ही कर सकते हैं।
बालक ज्येष्ठमलजी का अध्ययन समदड़ी में ही सम्पन्न हुआ। उस युग में गाँवों में उच्चतम अध्ययन की कोई व्यवस्था नहीं थी । जीवनोपयोगी अध्ययन कराया जाता था । अध्ययन सम्पन्न होने पर हस्तीमलजी ने अपने पुत्र का विवाह सम्बन्ध करना चाहा। पुत्र ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे अभी विवाह नहीं करना है। मेरे अन्तर्मानस में संसार के प्रति किंचित् मात्र भी आसक्ति नहीं है।
ज्योतिर्धर जैनाचार्यश्री पूनमचन्दजी महाराज जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म-दीप जलाते हुए समदड़ी पधारे आचार्यश्री के पावन उपदेशों को सुनकर किशोर ज्येष्ठमल जी के मन की कलियाँ उसी प्रकार खिल गयीं जैसे सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर सूरजमुखी फूल खिलता है। किशोर ज्येष्ठमलजी के भीतर दिव्य
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
संस्कारों की झलक थी। सत्संग से शनैः-शनै विचारों में एक रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और किशोर ज्येष्ठमलजी ने एक दिन अपने विचार माता-पिता के सामने रखे। माता-पिता ने कहा बत्स अभी तुम युवावस्था में प्रवेश करने जा रहे हो। तुम हमारे कुल- दीपक हो। पहले विवाह करो और तुम्हारी सन्तान होने के पश्चात् तुम साधना के मार्ग को स्वीकार करना । भगवान महावीर ने भी तो माता-पिता के आग्रह से विवाह किया था। फिर तुम्हें इतनी क्या जल्दी है ?
किशोर ज्येष्ठमल ने कहा- पूज्यप्रवर, आपका कथन उचित है। वे विशिष्ट ज्ञानी थे, किन्तु मुझे विशेष ज्ञान नहीं है जिससे मैं कह सकूँ कि मेरी इतनी उम्र है। विषय तो विष के समान भयंकर है। क्या कभी रक्त से सना हुआ वस्त्र रक्त से साफ हो सकता है ? वैसे ही विषय विकारों से किसी की तृप्ति नहीं हुई है। मुझे उनके प्रति किसी भी प्रकार का आकर्षण नहीं है। आप मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान करें जिससे मैं आचार्यप्रवर के सन्निकट प्रव्रज्या ग्रहण कर जीवन को निर्मल बना सकूँ।
पुत्र की उत्कृष्ट विरक्त वृत्ति को देखकर माता-पिता ने सहर्ष अनुमति प्रदान की और सत्रह वर्ष की उम्र में सं. १९३१ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी दीक्षा समदड़ी में ही सम्पन्न हुई। आचार्यश्री के सान्निध्य में रहकर आपने आगम साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आपकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। आपने जीवन की महान् विशेषता की स्वाध्याय और ध्यान। दिन में अधिकांश समय आपका स्वाध्याय में व्यतीत होता था। आपका अभिमत था कि जैसे शरीर की स्वस्थता के लिए भोजन आवश्यक है, वैसे ही जीवन की पवित्रता के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। जैसे नन्दनवन में परिभ्रमण करने से अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है वैसे ही स्वाध्याय के नन्दनवन के विचरण करने से जीवन में आह्लाद होता है। स्वाध्याय वाणी का तप है। उससे हृदय का मैल धुलकर साफ हो जाता है। स्वाध्याय एक अन्तःप्रेरणा है जिससे आत्मा परमात्मा बन जाता है। स्वाध्याय से योग और योग से स्वाध्याय की साधना होती है। स्वाध्याय का अर्थ है अपनी आत्मा का अपने अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर अध्ययन करना। मैं कौन हूँ और मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है इत्यादि का चिन्तन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है, जन्म-जन्मान्तरों में संचित किये हुए कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं। स्वाध्याय अपने आप में एक तप है। उसकी साधना-आराधना में साध को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। निरन्तर स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है और शास्त्रों के गम्भीर भाव उसमें प्रतिबिम्बित होने लगते हैं।
रात्रि का अधिकांश समय आप जप-साधना में लगाते थे। मन को स्थिर और तन्मय बनाने के लिए अशुभ विचारों से हटकर शुभ
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जन्म
दीक्षा
वि.सं.१९१४ पौष वदी ३ समदड़ी
महान साधक वचन सिद्ध योगीराज गुरुदेव श्री जेठमल जी महाराज
स्वर्गवास वि. सं. १९३१
वि.सं. १९७४ समदड़ी
वैशाख सुदी ४ समदड़ी
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महास्थविर परम सरल आत्मा गुरुदेव श्री ताराचन्द जी महाराज जन्म दीक्षा
स्वर्गवास वि. सं. १९४० वि.सं.१९५०
वि. सं. २०१३ आश्विन सुदी १४ ज्ये. सु. १३
का. सु. १३ बम्बोरा समदड़ी
जयपुर ।
suraliaritmadamala
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। इतिहास की अमर बेल
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रहे थे।
विचारों में लीन होने के लिए जप किया जाता है। जप के निष्काम महाराजश्री ने कहा कि इस प्रकार ज्ञानियों को ज्ञान का अभिमान और सकाम ये दो भेद हैं। किसी कामना व सिद्धि के लिए इष्टदेव | करना योग्य नहीं है। यदि उन्हें शास्त्रार्थ करना है तो मैं प्रस्तुत हूँ। का जप करना सकाम जप है और बिना कामना के एकान्त निर्जरा
शिष्यों ने राजेन्द्रसूरि जी की ओर से क्षमायाचना की और के लिए जप करना निष्काम-जप है। जप के भाष्यजप, उपांशुजप और
कभी भी किसी सन्त का अपमान न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की। मानसजप ये तीन प्रकार हैं। सर्वप्रथम भाष्यजप करना चाहिए, उसके
। महाराजश्री ने कहा-सूरिजी ठीक हो चुके हैं। आप पुनः सहर्ष जा पश्चात् उपांशु और उसके पश्चात् मानसजप करना चाहिए। ज्येष्ठ ।
सकते हैं। शिष्यों ने ज्यों ही जाकर देखा त्यों ही सूरि जी की उल्टी मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्यों से
और दस्ते बन्द हो चुकी थीं और वे कुछ स्वस्थता का अनुभव कर निवृत्त होकर जिस समय उपाश्रय में लोग बैठे रहते थे उस समय वे सो जाते थे और ज्यों ही लोग चले जाते त्यों ही एकान्त शान्त स्थान पर खड़े होकर जप की साधना करते थे और प्रातःकाल जब लोग एक बार आपश्री जालोर विराज रहे थे। प्रवचन के पश्चात् आते तो पुनः सो जाते थे। इस प्रकार उनकी साधना गुप्त रूप से । आपश्री स्वयं भिक्षा के लिए जाते थे। ज्यों ही आप स्थानक से चलती थी। लोग उन्हें आलसी समझते थे, किन्तु वे अन्तरंग में बहुत निकलते त्यों ही प्रतिदिन एक वकील सामने मिलता जिसके मन में ही जागरूक थे। स्वाध्याय और जप की साधना से उन्हें वचनसिद्धि साम्प्रदायकि भावना के कारण आपके प्रति अत्यधिक घृणा की हो गयी थी। अतः लोग उन्हें पंचम आरे के केवली कहते थे।
भावना थी। महाराजश्री ज्यों ही आगे निकलते त्यों ही वह अपने एक बार आपश्री आहोर से विहार कर वादनवाड़ी पधार रहे
पैर के जूते निकालकर अपशकुन के निवारणार्थ उसे पत्थर पर थे। रास्ते में उस समय के प्रकाण्ड पण्डित विजयराजेन्द्र सूरिजी
तीन बार प्रहार करता था। प्रतिदिन का यही क्रम था। एक दिन अपने शिष्यों के साथ आपसे मिले। आपश्री ने स्नेह-सौजन्यता के
किसी सज्जन ने गुरुदेव को बताया कि वह प्रतिदिन इस प्रकार का
कार्य करता है। साथ वार्तालाप किया। राजेन्द्रसूरिजी ने अहंकार के साथ कहा कि आप मेरे से शास्त्रार्थ करें। आपश्री ने कहा-आचार्यजी! शास्त्रार्थ से महाराजश्री ने उसे समझाने की दृष्टि से दूसरे दिन मुड़कर कुछ भी लाभ नहीं है। न आप अपनी मान्यता छोड़ेंगे, और न मैं देखा तो वह पत्थर पर जूते का प्रहार कर रहा था। महाराजश्री ने अपनी मान्यता छोडूंगा। फिर निरर्थक शास्त्रार्थ कर शक्ति का । मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा-वकील साहब, यह क्या कर रहे अपव्यय क्यों किया जाए? शास्त्रार्थ में राग-द्वेष की वृद्धि होती है, हैं ? आप जैसे समझदार बुद्धिमान व्यक्तियों को इस प्रकार सन्तों से किन्तु अन्य कुछ भी लाभ नहीं होता। अतः आप अपनी साधना करें
नफरत करना उचित नहीं है। सन्त तो मंगलस्वरूप होते हैं। उनका और मैं अपनी साधना करूँ, इसी में लाभ है।
दर्शन जीवन में आनन्द प्रदान करता है। राजेन्द्रसूरिजी ने जरा उपहास करते हुए कहा-ये ढूंढ़िया पढ़ा
वकील साहब ने मुँह को मटकाते हुए कहा-आपके जैसों को हम हआ नहीं है। लगता है, मुर्खराज शिरोमणि है। इसीलिए शास्त्रार्थ से । सन्त थोड़े ही मानते हैं। ऐसे तो बहुत नामधारी साधु फिरते रहते हैं। कतराता है। राजेन्द्रसूरिजी के सभी शिष्य खिलखला कर हँस पड़े। । महाराजश्री ने कहा-आपका यह भ्रम है। सन्त किसी भी __महाराजश्री ने उसी शान्तमुद्रा में कहा-अभी इतनी शास्त्रार्थ की । सम्प्रदाय में हो सकते हैं। किसी एक सम्प्रदाय का ही ठेका नहीं है। जल्दी क्यों कर रहे हो? कल ही आपका शास्त्रार्थ हो जाएगा। यह
सन्तों का अपमान करना उचित नहीं है। एक सन्त का अपमान कहकर महाराजश्री अपने लक्ष्य की ओर चल दिये और राजेन्द्र
। सभी सन्त समाज का अपमान है। अतः आपको विवेक रखने की सूरिजी भी आहोर पहुँच गये। आहोर पहुँचते ही दस्त और उलटिएँ
आवश्यकता है। प्रारम्भ हो गयीं। वैद्य और डाक्टरों से उपचार कराया गया किन्तु वकील साहब ने कहा-ऐसे तीन सौ छप्पन सन्त देखे हैं। कुछ भी लाभ नहीं हुआ। इतनी अधिक दस्त और उलटी हुई कि
महाराजश्री ने कहा-यहाँ पत्थर पर जूते क्यों मारते हैं? सिर राजेन्द्रसूरिजी बेहोश हो गये। सारा समाज उनकी यह स्थिति
पर ही जूते पड़ जायेंगे। यों कहकर महाराजश्री आगे बढ़ गये और देखकर घबरा गया। जरा-सा होश आने पर उन्हें ध्यान आया कि
वकील साहब कोर्ट में पहुँचे। वकील साहब के प्रति गलतफहमी हो मैंने अभिमान के वश उस अध्यात्मयोगी सन्त का जो अपमान
जाने के कारण न्यायाधीश ने आज्ञा दी कि वकील साहब के सिर किया उसके फलस्वरूप ही मेरी यह दयनीय स्थिति हुई है। उन्होंने
पर इक्कीस जूते लगाकर पूजा की जाय। उसी समय अपने प्रधान शिष्य विजय धनचन्द्रजी सूरि को बुलाकर कहा-तुम अभी स्वयं वादनवाड़ी जाओ और मुनि ज्येष्ठमल जी
वकील साहब अपनी सफाई पेश करना चाहते थे, पर कोई महाराज से मेरी ओर से क्षमायाचना करो। मुझे नहीं पता था कि सुनवाई नहीं हुई और जूतों से उनकी पिटाई हो गयी। वह इतना चमत्कारी महापुरुष है। यदि तुमने विलम्ब किया तो मेरे उस दिन से वकील साहब किसी भी सन्त का अपमान करना प्राण ही संकट में पड़ जायेंगे। राजेन्द्रसूरि के आदेश को शिरोधार्य । भूल गये और महाराजश्री के परम भक्त बन गये। इसको कहते हैं कर शिष्य वादनवाड़ी पहुंचे और महाराजश्री से क्षमाप्रार्थना की।
1 'चमत्कार को नमस्कार।'
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आचार्यप्रवर श्रीलालजी महाराज के एक शिष्य थे जिनका नाम । ज्ञानी वह है जिसमें अहंकार न होकर विनय हो। रहा सम्प्रदाय का धन्ना मुनि था। वे मारवाड़ में सारण गाँव के निवासी थे। उन्होंने प्रश्न ? मैं स्वयं मानता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज क्रियानिष्ठ आचार्य श्रीलालजी महाराज के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की और श्रेष्ठ सन्तों में से हैं। आपका सम्प्रदाय भी बड़ा है, किन्तु अहंकार तेले-तेले पारणा करते थे। लोग कहते थे चतुर्थ आरे का धन्ना तो करना योग्य नहीं है। बेले-बेले पारणा करता था और यह पंचम आरे का धन्ना उससे भी
घेवर मुनि ने अहंकार की भाषा में ही कहा कि सत्य को बढ़कर है जो तेले-तेले पारणा करता है। एक बार आत्मार्थी
छिपाना पाप है। किसी भी सम्प्रदाय में इतने ज्ञानी-ध्यानी व तपस्वी ज्येष्ठमलजी महाराज ब्यावर के सन्निकट 'बर' गाँव में पधारे।
सन्त नहीं है। वस्तुतः श्रीलालजी महाराज का सम्प्रदाय ही एक उधर धन्ना मुनि जी भी वहाँ पर अन्यत्र स्थल से विहार करते हुए
उत्कृष्ट सम्प्रदाय है और तो सभी नामधारी व पाखण्डी साधु हैं। पहुँच गये। जंगल में महाराजश्री उनसे मिले। किन्तु धन्ना मुनि को अपने तप का अत्यधिक अभिमान था। महाराजश्री के स्नेह
महाराजश्री ने कहा-ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है। आप जिस सद्भावना भरे शब्दों में सुख-साता पूछने पर भी वे नम्रता के साथ
सम्प्रदाय की प्रशंसा करते हुए फूले जा रहे हैं, अमुक दिन आप पेश नहीं आये। अभिमान के वश होकर उन्होंने कहा-ज्येष्ठमलजी,
स्वयं इस सम्प्रदाय को छोड़ देंगे और मन्दिरमार्गी सन्त बन जायेंगे। पूज्य श्रीलालजी महाराज के साधु ही सच्चे साधु हैं। अन्य सम्प्रदाय वस्तुतः महाराजश्री ने जिस दिन के लिए उद्घोषणा की उसी के साधु तो भाड़े के ऊँट हैं, जो इधर-उधर घूमते रहते हैं। उनमें दिन घेवर मुनि मन्दिरमार्गी सन्त बन गये और वे ज्ञानसुन्दरजी कहाँ साधुपना है? वे तो रोटियों के दास हैं।
नाम से विश्रुत हुए। उन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरोध में __ महाराजश्री ने कहा-धन्ना मुनि! आप तपस्वी हैं, साधु हैं। कम बहुत कुछ लिखा। वे जब मुझे पीपलिया और जोधपुर में मिले तब से कम भाषा समिति का परिज्ञान तो आपको होना ही चाहिए। । स्वयं उन्होंने मुझे यह घटना सुनायी कि तुम उस महापुरुष की सभी सम्प्रदायों में अच्छे साधु हो सकते हैं। इस प्रकार मिथ्या शिष्य परम्परा में हो जो महापुरुष वचनसिद्ध थे। बड़े चमत्कारी थे। अहंकार करना उचित नहीं है।
समदड़ी में नवलमलजी भण्डारी आपश्री के परम भक्त थे। वे धन्नामुनि मुनिजी! सत्य बात कहने में कभी संकोच नहीं करना आपश्री को कहा करते थे कि गुरुदेव क्या मुझे भी संथारा आयगा? चाहिए। मैं साधिकार कह सकता हूँ कि पूज्य श्रीलालजी महाराज
मेरी अन्तिम समय में संथारा करने की इच्छा है। वे पूर्ण स्वस्थ थे। के सम्प्रदाय के अतिरिक्त कोई सच्चे व अच्छे साधु नहीं हैं।
सर्दी का समय था। घर पर वे बाजरी का पटोरिया पी रहे थे। आपश्री
उनके वहाँ सहज रूप से भिक्षा के लिए पधारे। भण्डारी नवलमलजी महाराजश्री ने एक क्षण चिन्तन के पश्चात् कहा-आप जिस
ने खड़े होकर आपश्री को वन्दन किया। महाराजश्री ने उनकी ओर सम्प्रदाय की इतनी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर रहे हैं, उस सम्प्रदाय को
देखकर कहा-नवलमल, तू मुझे संथारे के लिए कहता था। अब अमुक दिन आप छोड़ देंगे और जिस तप के कारण आपको अहंकार आ रहा है उससे भी आप भ्रष्ट हो जायेंगे। तप अच्छा है, चारित्र
बाजरी का पटोरिया पीना छोड़ और जावजीव का संथारा कर ले। श्रेष्ठ है, किन्तु तप और चारित्र का अहंकार पतन का कारण है। नवलजी ने कहा-गुरुदेव मैं तो पूर्ण स्वस्थ हूँ। इस समय संथारा महाराजश्री इतना कहकर चल दिये। धन्ना मुनि व्यंग्य भरी ।
कैसे? महाराजश्री ने कहा यदि मेरे पर विश्वास है तो संथारा कर। हँसी-हँसते हुए अपने स्थान पर चले आये और जिस दिन के लिए
नवलमलजी ने संथारा किया। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। किन्तु महाराजश्री ने भविष्यवाणी की थी, उसी दिन उन्होंने सम्प्रदाय का
किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि महाराजश्री के सामने कुछ कह परित्याग कर दिया और तप आदि को छोड़कर विषय-वासना के
सके। तीन दिन तक संथारा चला और वे स्वर्गस्थ हो गये। गुलाम बन गये।
__एक बार जब महाराजश्री समदड़ी विराज रहे थे। उस समय इसी तरह आचार्यश्री श्रीलालजी महाराज के शिष्य घेवर मुनि
एक युवक और युवती विवाह कर मांगलिक श्रवण करने के लिए थे। उन्हें अपने ज्ञान तथा सम्प्रदाय का भयंकर अभिमान था। वे ।
आपके पास आये। महाराजश्री ने युवक को देखकर कहा-तुझे एक बार रोहट गाँव में महाराजश्री से मिले। उन्होंने भी अहंकार से
यावज्जीवन अब्रह्मसेवन का त्याग करना है। युवक कुछ भी नहीं महाराजश्री का भयंकर अपमान किया। उन्हें यह अभिमान था कि
बोल सका। लोगों ने कहा-गुरुदेव, अभी तो यह विवाह कर आया सबसे बढ़कर ज्ञानी मैं हूँ और हमारा सम्प्रदाय साधुओं की दृष्टि से
ही है। यह कैसे नियम ले सकता है? महाराजश्री ने कहा-मैं जो कह और श्रावकों की दृष्टि से समृद्ध है। महाराजश्री ने कहा-घेवर
रहा हूँ। अन्त में महाराजश्री ने उसे पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का नियम मुनिजी! आप इतना अभिमान न करें। आप अपने आपको महान्
दिला दिया। सायंकाल चार पांच बजे उसे अकस्मात ही हृदयगति का ज्ञानी समझते हैं। यह बड़ी भूल है। गणधर, श्रुतकेवली और हजारों
दौरा हुआ और उसने सदा के लिए आँख मूंद लीं। तब लोगों को ज्योतिर्धर जैनाचार्य हुए हैं। उनके ज्ञान के सामने आपका ज्ञान कुछ
पता लगा कि महाराजश्री ने यह नियम क्यों दिलाया था। भी नहीं है। सिन्धु में बिन्दु सदृश ज्ञान पर भी आपको इतना आपश्री का चातुर्मास विक्रम सम्वत् १९६३ में सालावास था। अहंकार है। यह सत्य ज्ञान की नहीं किन्तु अज्ञान की निशानी है। संवत्सरी महापर्व का आराधन उल्लास के क्षणों में सम्पन्न हुआ।
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इतिहास की अमर बेल
प्रतिक्रमण पूर्ण हुआ। रात्रि के दस बजे होंगे कि महाराजश्री ने सभी श्रमणों को और श्रावकों को कहा कि वस्त्र पात्र आदि जो भी तुम्हारे नेश्राय की सामग्री है वह सारी सामग्री लेकर इस स्थानक से बाहर चले जाओ। श्रावकों को भी जो १११ व्यक्ति पौषध किये हुए थे उन सभी को कहा कि बाहर निकलो। श्रावकों ने और श्रमणों ने निवेदन किया- गुरुदेव, रिमझिम वर्षा आ रही है। इस वर्षा के समय हम कहा जाए? और रात भी अँधियारी है।
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महाराजश्री ने कहा- मैं कहता हूँ, सभी मकान खाली कर दें। चाहे वर्षा है, उसकी चिन्ता न करें। महाराजश्री के आदेश से सभी बाहर निकल गये। महाराजश्री उसी मकान में विराजे रहे। जब सभी बाहर चले गये तब महाराजश्री ने हाथ में रजोहरण लेकर सारे मकान को देखा कि कहीं कोई नींद में सोया हुआ तो नहीं है। सभी को देखने के पश्चात् महाराजश्री बाहर पधारे और ज्यों ही बाहर पधारे त्यों ही वह तीन मंजिल का भवन एकाएक हड़हड़ करता हुआ ढह गया। तब लोगों को ज्ञात हुआ कि महाराजश्री ने सबको मकान से बाहर क्यों निकाला। यह थी उनकी आध्यात्मिक शक्ति जिससे भविष्य में होने वाली घटना का उन्हें सहज परिज्ञान हो जाता था ।
पूज्य गुरुदेव ज्येष्ठमलजी महाराज एक बार समदड़ी विराज रहे थे। प्रातःकाल का समय था। एक श्रावक रोता हुआ धर्मस्थानक में आया - गुरुदेव, मैं आँखों की भयंकर व्याधि से अत्यधिक परेशान हो गया हूँ, अनेक उपचार किये किन्तु व्याधि मिट ही नहीं रही है अब तो आपकी ही शरण हैं।
आपश्री उस समय शौच के लिए बाहर पधारने वाले थे। आपने कहा- भाई, सन्तों के पास क्या है, यहाँ तो केवल धूल है। उस व्यक्ति ने आपके चरणों की धूल लगाई त्यों ही व्याधि इस प्रकार नष्ट हो गई कि उसे पता ही नहीं चला कि पहले व्याधि कभी थी। रोता हुआ आया था और हँसता हुआ लौटा। अनेकों व्यक्ति भूत-प्रेत आदि की पीड़ाओं से ग्रसित थे। वे आपश्री से मांगलिक सुनकर पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाते थे। पण्डितप्रवर नारायणदासजी महाराज जिनको आपश्री ने दीक्षा प्रदान की थी और उन्हें पण्डितप्रवर रामकिशनजी महाराज का शिष्य घोषित किया था, उनके एक शिष्य थे मुलतानमलजी महाराज । जब ज्येष्ठमलजी महाराज का स्वर्गवास हो गया तब उन्हें एकाएक खून की उल्टी और दस्त होने लगे और भयंकर उपद्रव भी करने लगे। उस समय नागीर से मन्त्रवादी जुलाहा आया। उसने मन्त्र के द्वारा जिन्द को बुलवाया कि तू मुनिश्री को कब से लगा हुआ है? जिन्द ने कहा-मैं आज से पाँच वर्ष पूर्व लगा था इन्होंने मेरे स्थान पर पेशाब कर दिया था किन्तु इतने समय तक ज्येष्ठमलजी महाराज जीवित थे, उनका आध्यात्मिक तेज इतना था कि मैं प्रकट न हो सका। यदि मैं प्रगट हो जाता तो वे एक दिन भी मुझे नहीं रहने देते। उनके स्वर्गवास के बाद ही मेरा जोर चला। यह थी उनकी आध्यात्मिक शक्ति जिससे उनके सामने भूत भी भयभीत हो जाते थे।
आपश्री के प्रमुख शिष्य थे नेणचन्दजी महाराज जो समदड़ी के ही निवासी थे और लुंकड परिवार के थे। आपका स्वभाव बहुत ही
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मिलनसार तथा सेवापरायण था। आपके दूसरे शिष्य गढ़सिवाना के निवासी हिन्दूमल जी महाराज थे जो शंका परिवार के थे। हिन्दूमलजी महाराज ने आर्हती दीक्षा ग्रहण करते ही दूध, दही, घी तेल, मिष्ठान इन पाँच विगय का परित्याग का दिया था। साथ ही वे एक दिन उपवास और दूसरे दिन भोजन लेते थे साथ ही अनेक बार ये आठ-आठ दस-दस दिन के उपवास भी करते थे। किन्तु पारणे में सदा रूक्ष आहार ग्रहण करते थे। बहुत ही उग्र तपस्वी थे। श्रद्धेय श्री ताराचन्दजी महाराज ज्येष्ठमलजी महाराज के लघु गुरुभ्राता थे। किन्तु आचार्य पूनमचन्द जी महाराज का दीक्षा के तीन वर्ष पश्चात् स्वर्गवास हो जाने से आपश्री ज्येष्ठमलजी महाराज के पास ही रहे। उन्हीं के पास अध्ययन किया और गुरु की तरह उन्हें पूजनीय मानते रहे। आपकी उन्होंने बहुत ही सेवा की जिसके फलस्वरूप आपके हृदय से अन्तिम समय में यह आशीर्वाद निकला - ताराचन्द, तेरे आनन्द ही आनन्द होगा।
आपके जीवन के अनेकों चमत्कारिक संस्मरण हैं। किन्तु • विस्तारभय से मैं यहाँ उन्हें उट्टकित नहीं कर रहा हूँ श्री ज्येष्ठमलजी महाराज को अनेक बार संघों ने आचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की। किन्तु आपश्री ने सदा यही कहा कि मुझे आचार्य पद नहीं चाहिए। मैं सामान्य साधु रहकर ही संघ की सेवा करना चाहता हूँ। आप में नाम की तनिक भी भूख नहीं थी राजस्थान के सैकड़ों ठाकुर आपके परमभक्त थे। आप उपाधि के नहीं समाधि के इच्छुक थे।
संवत् १९७४ में आप समदड़ी पधारे और साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चारों संघ को बुलाकर कहा- मेरा अब अन्तिम समय सन्निकट आ चुका है। आपने शान्त और स्थिर मन से निश्शल्य होकर आलोचना की, संलेखना व संथारा किया। श्रावकों ने निवेदन किया- गुरुदेव! आपश्री का शरीर पूर्ण स्वस्थ है। असमय में यह संधारा कैसे ?
आपश्री ने कहा- मुझे तीन दिन का संधारा आयेगा । वैशाख शुक्ला चतुर्थी के दिन मध्याह्न में एक बजे जिस समय पाली से जो ट्रेन समदड़ी स्टेशन पर आती है, उसके यात्रीगण समदड़ी गाँव में आएँगे और मेरे दर्शन करेंगे, उसी समय मेरा स्वर्गवास हो जाएगा। जैसे महाराजश्री ने कहा था उसी दिन, उसी समय आप श्री का स्वर्गवास हुआ, स्वर्गवास के समय हजारों लोग बाहर से दर्शनार्थ उपस्थित हुए थे।
अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज अपने युग के एक महान चमत्कारी वचनसिद्ध महापुरुष थे। आपका जीवन सादगीपूर्ण था। आप आडम्बर से सदा दूर रहते थे और गुप्त रूप से अन्तरंग साधना करते थे। आपकी साधना मन्दिर के शिखर की तरह नहीं किन्तु नींव की ईंट की तरह थी। आज भी जो श्रद्धालु आपके नाम का श्रद्धा से स्मरण करते हैं ये आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त होते हैं। आपके नाम में भी वह जादू है जो जन-जन के मन में आह्लाद उत्पन्न कर देता है। आपसे जैन शासन की अत्यधिक प्रभावना हुई।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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का महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज
विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन के सम्बन्ध में गहराई से सम्बन्ध में चिन्तकों ने समय-समय पर विविध प्रकार के विचार चिन्तन किया है। यह सत्य है कि संस्कृति की भिन्नता के कारण व्यक्त किये हैं। चिन्तन की पद्धति पृथक्-पृथक् रही। पाश्चात्य संस्कृति भौतिकता
एक महान् दार्शनिक से किसी जिज्ञासु ने पूछा-जीवन क्या है ? प्रधान होने से उन्होंने भौतिक दृष्टि से जीवन पर विचार किया है,
दार्शनिक ने गम्भीर चिन्तन के पश्चात् कहा-जीवन एक कला है, तो पौर्वात्य संस्कृति ने अध्यात्म-प्रधान होने से आध्यात्मिक दृष्टि से
जो सुसंस्कारों को हटाकर सुसंस्कारों से संस्कृत किया जाता है। जीवन के सम्बन्ध में चिन्तन किया। भारतीय जीवन बाहर से अन्दर
जीवन को संस्कारित बनाने के लिए चरित्र की आवश्यकता है। की ओर प्रवेश करता है तो पाश्चात्य जीवन अन्दर से बाहर की
फ्रेडरिक सैण्डर्स ने सत्य ही कहा हैओर अभिव्यक्ति पाता है। महात्मा ईसा ने बाइबिल में जिस जीवन की परिभाषा पर चिन्तन किया है उस परिभाषा को शेक्सपियर ने
1 "Character is the governing element of life,
and is above genius." अत्यधिक विस्तार दिया है। वेद, उपनिषद्, आगम और त्रिपिटक } साहित्य में जीवन की जो व्याख्या की गयी है वह दार्शनिक युग में चरित्र जीवन में शासन करने वाला तत्त्व है और वह प्रतिभा अत्यधिक विकसित हो गयी। भारतीय संस्कृति में जीवन के तीन । से उच्च है। रूप स्वीकार किये हैं-ज्ञानमय, कर्ममय और भक्तिमय। वैदिक
बर्टल ने भी लिखा हैपरम्परा में जिस त्रिपुटी को ज्ञान, कर्म और भक्ति कहा है उसे ही जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा है
"Character is a diamond that scratches every और बौद्ध परम्परा में वही प्रज्ञा, शील और समाधि के नाम से
other stone." विश्रुत है। यह पूर्ण सत्य है कि श्रद्धा, ज्ञान और आचार से जीवन चरित्र एक ऐसा हीरा है जो हर किसी पत्थर को काट में पूर्णता आती है। पाश्चात्य विचारक टेनिसन ने भी लिखा है- सकता है।
"Self-reverence, Sefl-knowledge and Self- चरित्र से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है और चरित्र ही control, these three alone lead life to sovereign व्यक्ति को अमर बनाता है। भारत के महान् अध्यात्मवादी दार्शनिकों power."
ने व्यक्ति को क्षर और व्यक्तित्व को अक्षर कहा है। व्यक्ति वह है आत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान और आत्मसंयम इन तीन तत्वों से जो आकार लौट जाता है, बनकर बिगड़ जाता है, किन्तु व्यक्तित्व जीवन परम शक्तिशाली बनता है।
वह है जो आकार लौटता नहीं, बनकर बिगड़ता नहीं। व्यक्ति मरता
है किन्तु व्यक्तित्व अमर रहता है। महास्थविर परमश्रद्धेय सद्गुरुवर्य राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने जीवन पर चिन्तन करते हुए लिखा
श्री ताराचन्दजी महाराज व्यक्तिरूप से हम से पृथक हो गये हैं है-जीवन का उद्देश्य आत्मदर्शन है और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एकमात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना
किन्तु व्यक्तित्व रूप से वे आज भी जीवित हैं और भविष्य में भी
। सदा जीवित रहेंगे। है। महादेवी वर्मा ने साहित्यिक दृष्टि से जीवन पर विचार करते हुए लिखा है-जीवन जागरण है, सुषुप्ति नहीं; उत्थान है पतन नहीं; महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज का जन्म वीरभूमि मेवाड़ पृथ्वी के तमसाच्छन्न अन्धकारमय पथ से गुजरकर दिव्यज्योति से } में हुआ। मेवाड़ बलिदानों की पवित्र भूमि है, सन्त महात्माओं की साक्षात्कार करना है; जहाँ द्वन्द्व और संघर्ष कुछ भी नहीं है। जड़, 1 दिव्यभूमि है, भक्त औ कवियों की ब्रजभूमि है; एक शब्द में कहूँ तो चेतन के बिना विकास-शून्य है और चेतन, जड़ के बिना वह एक अद्भुत खान है जिसने अगणित रत्न पैदा किये। मेवाड़ आकार-शून्य है। इन दोनों की क्रिया-प्रतिक्रिया ही जीवन है। की पहाड़ी और पथरीली धरती में अद्भुत तत्त्व भरे हैं। वहाँ की स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-जीवन का रहस्य भोग में नहीं,
जलवायु में विशिष्ट ऊर्जा है। वहाँ के कण-कण में आग्नेय प्रेरणा है
जिससे मानव अतीत काल से ही राष्ट्र व धर्म के लिए बलिदान त्याग में है। भोग मृत्यु है और त्याग जीवन है। सुकरात ने लिखा है-जीवन का उद्देश्य ईश्वर की भाँति होना चाहिए। ईश्वर का
होता रहा है, परोपकार के लिए प्राणोत्सर्ग करता रहा है। अनुसरण करते हुए आत्मा भी एक दिन ईश्वरतुल्य हो जायगी। मैंने अनुभव किया है, यहाँ का मानव चट्टानों की भाँति दृढ़ श्रेष्ठ जीवन में ज्ञान और भावना, बुद्धि और सुख दोनों का निश्चयी है, अपने लक्ष्य और संकल्प के लिए परवाना बनकर सम्मिश्रण होता है। टाल्सटाय ने लिखा-मानव का सच्चा जीवन तब प्राणोत्सर्ग करने के लिए भी तत्पर है। शंका और अविश्वास की प्रारम्भ होता है जब वह अनुभव करता है कि शारीरिक जीवन आँधियाँ उसे भेद नहीं सकतीं। साथ ही वह अन्य के दुःख और अस्थिर है और वह सन्तोष नहीं दे सकता। इस प्रकार जीवन के } पीड़ा को देखकर मोम की तरह पिघल जाता है। किसी की
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। इतिहास की अमर बेल
४५३।
करुण-कथा को सुनकर उसकी आँखें छलछलाती हैं और किसी स्वल्प समय में ही उन्हें अक्षरज्ञान हो गया था और वे पुस्तकें भी क्षुधा से छटपटाते हुए याचक की गुहार सुनकर उसके मुँह का ग्रास पढ़ने लगे थे। हाथों से रुककर हाथ याचक की ओर बढ़ जाते हैं।
विक्रम संवत् १९४९ में आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्द जी मेवाड़ की भूमि जहाँ वीरभूमि है वहाँ धर्मभूमि भी है। यहाँ । महाराज अपने शिष्यों के साथ उदयपुर पधारे और साथ ही परम धर्म शौर्य का स्रोत रहा है, वीरत्व को जगाने वाला रहा है। यहाँ । विदुषी महासती गुलाबकुँवरजी, छगनकुँवरजी प्रभृति सती वृन्द भी पर वीरों का यह नारा रहा है-"जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि राखे वहाँ पर पधारी। आचार्यप्रवर के पावन प्रवचनों को सुनने के लिए करतार।" यहाँ के वीर धार्मिक थे, दयालु थे। वे राष्ट्र, समाज माता ज्ञानकुँवर के साथ बालक हजारीमल प्रतिदिन पहुँचता।
और धर्म के लिए त्याग, बलिदान और समर्पण हँसते और आचार्यप्रवर के प्रवचनों में जादू था। वे वाणी के देवता थे। जो एक मुस्कराते हुए करने के लिए सदा कटिबद्ध थे।
बार उनके प्रवचन को सुन लेता वह मन्त्रमुग्ध हो जाता। बालक महास्थविर ताराचन्दजी महाराज के जीवन में मेवाड़ की हजारीमल के निर्मल मानस पर प्रवचन अपना रंग जमाने लगे। वह संस्कृति, धर्म और परम्परा, शौर्य और औदार्य, भक्ति और तपस्या
सुबह-शाम-मध्याह्न में गुरुदेव के चरणों में बैठता, उनसे धार्मिक का विलक्षण समन्वय था। उसके साहस, शौर्य, त्याग, तप, दृढ़
अध्ययन करता। गुरुदेव ने सामायिक करने की प्रेरणा दी। उन्होंने संकल्प और अजेय आत्मबल की गाथाएँ जब भी स्मरण आती हैं
मुँह पत्ती लगाकर सामायिक की। मुँह-पत्ती लगाते ही उनका चेहरा तब श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है।
चमकने लगा। उनका गेहुवाँ वर्ण का गठा हुआ गुदगुदा शरीर,
बड़ी-बड़ी कटोरे-सी आँखें, गोल मुँह, भव्य भाल को देखकर मेवाड़ की एक सुन्दर पहाड़ी पर बंबोरा ग्राम बसा हुआ है।
हमजोले साथियों ने मजाक किया कि तुम तो गुरुजी की तरह लगते वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है। गाँव के सन्निकट ही मेवाड़
हो। तुम्हारे चेहरे पर मुँह-पत्ती बदुत अच्छी ऊँचती है। बालक की सबसे बड़ी झील जयसमन्द है जिसमें मीलों तक पानी भरा पड़ा है, जो जीवन की सरसता का प्रतीक है और दूसरी ओर विराट
हजारीमल ने आचार्यप्रवर से पूछा-भगवन्, मेरे मुँह पर मुँह-पत्ती मैदान है जो विस्तार की प्रेरणा दे रहा है। तीसरी ओर ऊँचे-ऊँचे
बहुत अच्छी लगती है न? मुँह-पत्ती लगाकर तो मैं साधु जैसा पहाड़ हैं जो जीवन को उन्नत बनाने का पावन संदेश दे रहे हैं। ऐसे
दीखने लगता हूँ। पावन पुण्यस्थल में महास्थविर श्री ताराचन्दजी उत्पन्न हुए। उनके आचार्यश्री ने बालक की ओर देखा। उसके शुभ लक्षणों को पिता का नाम शिवलालजी और माता का नाम ज्ञानकुंवर बहिन । । देखा। वे समझ गये कि यह बालक होनहार है और शासन की था। आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन वि. संवत् १९४० में आपका शोभा को बढ़ाने वाला है। गुरुदेव ने माता ज्ञानकुँवर को कहाजन्म हुआ। आपका नाम हजारीमल रखा गया। बालक हजारीमल तुम्हारा यह पुत्र जैन शासन की शान को बढ़ायेगा। बालक का स्वभाव से सरल, गम्भीर तथा बालसुलभ चंचलता से युक्त था। जब | भविष्य उज्ज्वल है। अतीत काल में भी अतिमुक्तक, ध्रुव, प्रह्लाद, आप तीन वर्ष के हुए तब आप इतने 'नटखट थे कि माता जब । आर्यवज्र, हेमचन्द्राचार्य आदि शताधिक बालकों ने बाल्यकाल में पानी भरने के लिए जाती तब वह आपके पाँव रस्सी से बाँध देती दीक्षा ग्रहण कर धर्म की प्रभावना की है। थी। आपकी चंचलता को देखकर माँ को कृष्ण की याद आ जाती
आचार्यप्रवर के उद्बोधक वचनों को सुनकर ज्ञानकुँवर ने थी। आप कभी रूठते, कभी मचलते और कभी किसी वस्तु के लिये
कहा-आचार्यप्रवर, यदि हजारीमल दीक्षा लेगा तो मैं इनकार न हठ करके माता और पिता के मन को आह्लादित करते। जब
करूँगी और यह मैं अपना सौभाग्य समझूगी कि मेरा पुत्र जैन आपकी उम्र सात वर्ष की हुई तब अकस्मात् पिताजी बीमार हुए
शासन की सेवा के लिए तैयार हुआ है। यदि वह दीक्षा लेगा तो मैं और सदा के लिए उन्होंने आँखें मूंद लीं। पिता के स्वर्गस्थ होने पर
स्वयं भी महासतीजी के पास प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी। सन्तान के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी माता पर आ गयी। किन्तु वह मेवाड़ की वीरांगना थी। वह अपने कर्तव्य को बालक हजारीमल के मामा सेठ हंसराजजी भण्डारी थे जो भली-भाँति समझती थी। अतः बम्बोरा से वह उदयपुर आकर रहने । उमड़ ग्राम के निवासी थे और बुद्धिमान थे। वे आसपास के गाँवों लगी। क्योंकि बम्बोरे में उस समय अध्ययन की इतनी सुविधा नहीं । में प्रमुख पंच के रूप में भी थे। जब उन्हें पता लगा कि मेरी बहिन थी और श्रमण-श्रमणियों के दर्शन भी बहुत ही कम होते थे। 1 और भानजा आहती दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं तो वे उदयपुर उदयपुर में बालक हजारीमल पोशाल में अध्ययन के लिए प्रविष्ट । पहुँचे। आचार्यप्रवर के पास बालक हजारीमल को धार्मिक अध्ययन हुआ, क्योंकि उस युग में स्कूल, हाई स्कूल व कालेज नहीं थे। करते हुए देखकर वे घबरा गये और बहिन को यह समझाकर कि पोशाल में आचार्य के नेतृत्व में अध्ययन कराया जाता था। । मैं कुछ दिनों के लिये हजारीमल को और तुम्हें लिवाने के लिए अध्ययन के साथ जीवन को संस्कारित बनाने के लिए अधिक लक्ष्य } आया हूँ। तुम न चलो तो भी कुछ दिनों के लिए बालक को तो भेज दिया जाता था। बालक हजारीमल की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, अतः ही तो ताकि मैं उसे प्यार कर सकूँ।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सहलहृदया माता ने बालक हजारीमल को उसके मामा के साथ ज्ञानकुँवरजी ने अपनी सद्गुरुणी के साथ विहार किया क्योंकि भेज दिया। हजारीमल को उन्होंने संयम की कठिनता बताकर उसके महासती गुलाबकुँवरजी उदयपुर में स्थानापन्न थीं। उनकी सेवा में वैराग्य को कम करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रेम, भय, लालच रहना बहुत ही आवश्यक था। और आतंक से समझाने की कोशिश की। किन्तु बालक हजारीमल
बालक हजारीमल ने आचार्यप्रवर के पास धार्मिक अध्ययन तो गहरे रंग से रँगा हुआ था। ‘सूरदास की काली कामरिया चढ़े न
प्रारम्भ किया और वि. सं. १९५० के ज्येष्ठ शुक्ला तेरस रविवार दूजो रंग।' उसके मुँह से एक ही बात निकली कि मैं आचार्यप्रवर
को समदड़ी ग्राम में संघ के अत्याग्रह को सम्मान देकर के पास साधु बनूँगा। बालक के मामा भण्डारी हंसराज जी के जब
आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की। बालक हजारीमल का नाम मुनि अन्य प्रयत्न असफल हो गये तो उन्होंने न्यायालय में अर्जी पेश की
ताराचन्द रखा गया। आपश्री का प्रथम चातुर्मास जोधपुर में हुआ। कि बालक हजारीमल नाबालिग है, माता उसे जबरदस्ती दीक्षा
उस समय आचार्य पूनमचन्दजी महाराज के अतिरिक्त जोधपुर में दिलाना चाहती है। अतः रोकने का प्रयास किया जाय। न्यायाधीश
अन्य सन्तों के भी चातुर्मास थे। किन्तु परस्पर में किसी भी ने बालक हजारीमल को अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि
प्रकार का मन-मुटाव नहीं था। जैसे वर्षाऋतु में वर्षा की झड़ी क्या तुम अपनी माता के कहने से दीक्षा लेना चाहते हो? उन्होंने
लगती है, वैसी ही तप-जप, ज्ञान-ध्यान, संयम-सेवा की झड़ी लगती पूछा-नहीं, मेरी स्वयं की इच्छा है। मेरी दीक्षा की बात को सुनकर
थी। नवदीक्षित बालक मुनि ताराचन्दजी मन लगाकर अध्ययन माँ ने भी कहा कि यदि तू दीक्षा लेगा तो मैं भी दीक्षा लूँगी। दीक्षा
करने लगे। प्रतिभा की तेजस्विता से उन्होंने कुछ ही समय में की प्रेरणा देने वाला मैं स्वयं हूँ, माँ नहीं।
आगमों का तथा स्तोक साहित्य का खासा अध्ययन कर लिया। हंसराजजी भण्डारी दो देखते ही रह गये। न्याय उनके विरुद्ध । आचार्यश्री के चरणों में उन्हें अपूर्व आनन्द आ रहा था। उनके हुआ कि बालक सहर्ष दीक्षा ले सकता है तथापि उन्होंने अपना स्नेहाधिक्य से वे माता के वात्सल्य को और पिता के प्रेम को भूल प्रयास नहीं छोड़ा। उन्होने बालक को अपने पास ही रख लिया। गये। उनका द्वितीय चातुर्मास पाली में हुआ और तृतीय चातुर्मास माता ज्ञानकुँवर पुत्र के बिना छटपटाने लगी। अन्त में प्यारचन्दजी जालोर में। महाकवि कालिदास ने कहा है-यह संसार बड़ा मेहता, जिनका महाराणा फतेहसिंह जी से बहुत ही मधुर सम्बन्ध विचित्र है; यहाँ पर न किसी को एकान्त सुख मिलता है और न था, उनके आदेश को लेकर वे उमड़ गाँव पहुंचे और बालक । किसी को एकान्त दुःख ही। नियति का चक्र निरन्तर घूमता हजारीमल को उदयपुर ले आये।
रहता है; कभी ऊपर और की नीचे। जन्म मानव का शुभ प्रसंग है आचार्यप्रवर वर्षावास पूर्ण होने पर उदयपुर से विहार कर
और मृत्यु अशुभ प्रसंग है जो कभी टल नहीं सकते। जालोर
वर्षावास में आनन्द की स्रोतस्विनी बह रही थी। सन्त समागम का जालोर पधारे। पुत्र ने माँ से कहा-माँ, अपने आचार्यश्री के सेवा में पहुँचे और आर्हती दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को साधना में
अपूर्व लाभ जन मानस को मिल रहा था और मुनिश्री
ताराचन्दजी की श्रुत-आराधना भी अस्खलित गति से प्रवाहित थी। लगावें। किन्तु उदयपुर से जालोर पहुँचना एक कठिन समस्या थी। क्योंकि उदयपुर से साठ मील चित्तौड़गढ़ था जहाँ तक
जैन संस्कृति का महापर्व पर्युषण का विशाल समारोह भी सानन्द बैलगाड़ी से जाना होता और वहाँ से ट्रेन के द्वारा समदड़ी पहुँचना
सम्पन्न हो चुका था। आचार्यप्रवर को भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के
दिन वि. सं. १९५२ को तेज ज्वर ने आक्रमण किया। साथ ही और समदड़ी से बत्तीस मील जालोर तक ऊँट पर जाना कितना
अन्य व्याधियाँ भी उपस्थित हुई। किन्तु आचार्यप्रवर समभावकठिन होगा। अतः वत्स, कुछ समय के पश्चात् अपन जायेंगे।
पूर्वक उन्हें सह रहे थे। व्याधि का प्रकोप प्रतिपल-प्रतिक्षण बढ़ बालक हजारीमल ने कहा-माँ, शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित
रहा था। मृत्यु सामने आकर नाचने लगी तथापि आपश्री पूर्ण नहीं है। विघ्न-बाधाओं से तो वह व्यक्ति भयभीत होता है जो
समाधिस्थ व शान्त थे। केवल उनके मन में एक विचार थाकायर है। तुम तो वीरांगना हो। फिर यह कायरतापूर्ण बात क्यों।
बालक मुनि ताराचन्द के व्यक्तित्व निर्माण का। अतः उन्होंने करती हो?
अपने प्रधान अन्तेवासी आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी महाराज को और पुत्र की प्रेरणा से प्यारचन्दजी मेहता की धर्मपत्नी के सहयोग कविवर्य नेमिचन्दजी महाराज को कहा-मुनि ताराचन्द को तुम्हारे से वे जालोर पहुँचे। आचार्यश्री के दर्शन कर अत्यन्त आह्लादित हुए हाथ सौंप रहा हूँ। इसका विकास करना तुम्हारा काम है और स्वयं
और जब माता ज्ञानकुंवर को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि मेरा शान्त व स्थिर मन से आलोचना, संलेखना-संथारा कर पूर्ण पुत्र दीक्षा ग्रहण करने के लिये योग्य है तब उसने आज्ञापत्र समाधिस्थ हो गये। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म लिखकर आचार्यप्रवर को समर्पित किया और स्वयं महासतीजी की इन चार महाशरण का स्मरण करते हुए उन्होंने पूर्णिमा के दिन सेवा में रहकर अध्ययन करने लगी। आचार्यप्रवर ने चैत्र सुदी दूज देहत्याग किया। पूर्णिमा की चारु चन्द्रिका चमक रही थी, किन्तु वह वि. सं. १९५० में ज्ञानकुंवर बहन को दीक्षा प्रदान की और परम ज्योतिपुञ्ज धरा से विलीन हो चुका था। बाल मुनि ताराचन्दजी के विदुषी महासती छगनकुंवर जी की शिष्या घोषित की। महासती हृदय को गुरु-वियोग का वज्र-आघात लगा जिससे वे विचलित हो
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। इतिहास की अमर बेल
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गये। जिस गुरुदेव की शीतल छाया में जीवन का यह नवीन पौधा माँ की शिक्षा भरी बातों को सुनकर बालकमुनि ताराचन्दजी ने संरक्षण व संवर्द्धन पा रहा था, अकस्मात् क्रूर काल की आँधी के कहा-माँ तू चिन्ता मत कर। मैं तेरे दूध को रोशन करूँगा। मैं ऐसा एक ही वेग से वह शीतल छाया ध्वस्त हो गयी। इस स्थिति में कोई भी कार्य नही करूँगा जिससे तुझे उपालंभ सुनना पड़े। माँ पुत्र बालक मुनि अपने को असहाय व आश्रयहीन अनुभव करने लगा।। के तेजस्वी और ओजस्वी चेहरे को देखकर प्रफुल्लित थी। उसे उस समय ज्येष्ठमलजी महाराज व नेमीचन्दजी महाराज ने मधुर आत्मविश्वास था कि मेरा लाल साधना के महामार्ग में सदा आगे स्नेह से उन्हें स्वस्थ किया। वे पुनः शान्त और स्थिरचित्त होकर } ही बढ़ता रहेगा। आपश्री ने विक्रम संवत् १९५३ का वर्षावास संयम-साधना में लीन हो गये।
रंडेडा में किया और वर्षावास के पश्चात् अपनी जन्मस्थली बम्बोरा ___ वर्षावास के पश्चात् जालोर से विहार हुआ। श्रमण ऋषियों के
पधारे। उस समय वहाँ पर पूज्यश्री तेजसिंहजी महाराज की 90 लिए विहार करना प्रशस्त माना गया है-'विहार चरिया इसिणं
गडा
सम्प्रदाय के बड़े प्यारचन्दजी महाराज से आपका मिलना हुआ। यहाँ पसत्था।' सरिता की सरस धारा के समान श्रमणों की विहार यात्रा यह स्मरण रखना चाहिए कि आपश्री इसके पश्चात् पुनः अपनी है। जैसी सरिता के सन्निकट की भूमि उर्वरा होती है वैसे ही सन्तों
| जन्मभूमि में संवत् २००३ में पधारे, अर्थात् पचास वर्ष के बाद। के सत्संग के जन-जीवन में सत्संस्कार, सद्विचार तथा सदाचार आपश्री का स्वभाव बहुत मधुर था। आपकी वाणी में मिश्री के पनपने लगते हैं और स्नेह सद्भावना की सरस भावनाएँ | समान मिठास था। सेवा और विनय के कारण आपश्री सन्तों के अठखेलियाँ करने लगती हैं। एक कवि ने कहा भी है
अत्यधिक प्रिय हो गये। आपकी प्रतिभा से सन्त प्रभावित थे। “साधु, सलिला, बादली, चले भुंजगी चाल।
आपश्री ने छह चातुर्मास कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के साथ
किये और दूज के चाँद की तरह आपका प्रेम निरन्तर बढ़ता ही हा जिण-जिण सेरी नीसरे, तिण-तिण करत निहाल ॥"
रहा। रतलाम में श्री उदयसागरजी महाराज ने आपको देखकर बालक मुनि श्री, ताराचन्दजी अपने गुरुभ्राता कविवर्य श्री
नेमीचन्दजी महाराज से कहा-इसके शुभ लक्षण बताते हैं कि यह नेमीचन्दजी महाराज के साथ मेवाड़ पधारे और मातेश्वरी महान प्रभावशाली सन्त होगा औ यह देश-विदेशों में भी लम्बी ज्ञानकंवरजी से मिले। माँ ने अपनी वाणी में स्नेह-सुधा घोलते हुए । यात्राएँ करेगा। कहा-वत्स! मैं जानती हूँ कि गुरुदेवश्री का एकाएक स्वर्गवास हो
विक्रम संवत् १९५९ में आपश्री आत्मार्थी ज्येष्ठमलजी गया है। तुम्हें साधना के क्षेत्र में अब अधिक जागरूकता से आगे
महाराज की सेवा में पधार गये और वे जब तक जीवित रहे तब बढ़ना है। दूध को गरम करते समय उफान आता है किन्तु
तक आपश्री उन्हीं की सेवा में रहे। आपश्री की सेवा से समझदार रसोइया जल के छींटे जाकर उस उफान को शान्त कर
ज्येष्ठमलजी महाराज अत्यधिक प्रभावित हुए। आपने ज्येष्ठमलजी देता है। जो व्यक्ति समुद्र की यात्रा करता है उसे तूफान का सामना
महाराज के सुशिष्य तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज जो गढ़सिवाना के करना पड़ता है। कुशल नाविक तूफानी वातावरण में भी नौका को
थे, जिन्होंने भरे-पूरे परिवार का परित्याग कर आर्हती दीक्षा ग्रहण खेता हुआ पार पहुंचा देता है। तो तुम्हें उफान और तूफान में शान्त
की थी, और दीक्षा ग्रहण करते ही जिन्होंने पाँचों विगयों का रहना है। उफान जीवन में अनेक बार आते हैं। यदि साधक
परित्याग कर दिया था एवं उग्र तप की साधना करते थे। एक बार जागरूक न रहे तो उफान भी तूफान बन जाता है। अतः सतत
वे सिवाना के सन्निकट उजियाना गाँव में थे। उस समय परस्पर जागरूकता की आवश्यकता है।
कुत्ते लड़ रहे थे। उनकी झपट में आ जाने से तपस्वी हिन्दूमलजी वत्स! अभी तेरी उम्र छोटी है। यह उम्र अध्ययन करने की है। महाराज नीचे गिर गये और उनके पैर की हड्डी टूट गयी, जिससे अध्ययन से बुद्धि मँजती है। विचारों में निखार व प्रौढ़ता आती है। वे चल नहीं सकते थे। आप उन्हें अपने कन्धे पर बिठाकर उपचार अध्ययन के साथ ही विनय और विवेक भी आवश्यक हैं। नगीना | हेतु छह मील चलकर गढ़ सिवाना लाये और उनकी अत्यधिक सेवा स्वर्ण में जड़ने से ही शोभा पाता है वैसे ही विनय के साथ विवेक करके उन्हें स्वस्थ किया। तपस्वी हिन्दूमलजी महाराज ने चौदह वर्ष की भी शोभा होती है। विनय से जीवन में हजारों सद्गुण आते हैं। 1 तक संयम-साधना और उग्र तप की आराधना की। अन्तिम चार विनय वह चुम्बक है जो सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता 7 वर्षों में वृद्धावस्था और रुग्णावस्था के कारण उनमें चलने का Padga है। साथ ही चाहे तुमसे बड़े हों चाहे छोटे हो उन सभी की तन, मन सामर्थ्य नहीं था। तब अध्यात्योगी ज्येष्ठमलजी महाराज के आदेश से सेवा करना। सेवा से तेरे जीवन में नयी चमक और दमकको शिरोधार्य कर चार वर्ष तक उनकी अत्यधिक सेवा की। आयेगी। देख बेटा, "चाम नहीं, काम वाल्हो है।" मेरी इन शिक्षाओं 1 नन्दीसेन मुनि की तरह अग्लानभाव से आपको सेवा करने में पर तू सदा ध्यान रखना। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् तू पहली | आनन्द की अनुभूति होती थी। अपनी सम्प्रदाय के सन्तों की तो बार मुझसे मिला है। अतः मैंने अपने हृदय की बात तुझे कही है। सेवा करते ही थे, किन्तु अन्य सम्प्रदाय के सन्तों की सेवा का प्रसंग इसे जीवन भर न भूलना।
उपस्थित होने पर भी आप पीछे नहीं रहते थे।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक बार आचार्य रघुनाथमलजी महाराज की सम्प्रदाय के सन्त फलस्वरूप सर्वप्रथम विक्रम संवत् १९८८ में पाली के पवित्र प्रांगण कालूरामजी महाराज अत्यधिक अस्वस्थ हो गये थे। उस समय । में मरुधर प्रान्त में विचरने वाले छह सम्प्रदायों के महारथियों का उनकी सेवा में कोई भी सन्त नहीं था। जब आपश्री को यह ज्ञात । सम्मेलन हुआ और आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ से संगठन का हुआ, तो गुरुजनों की आज्ञा लेकर उनकी सेवा में समदड़ी पहुँचे । सु-मधुर वातावरण तैयार हुआ। उस सम्मेलन के कारण संघ में
और मन लगाकर सेवा की। अन्त में कालूरामजी महाराज को बीस । एक उत्साहपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ और बृहत् साधुदिन का संथारा आया। उस समय आपकी सेवा प्रशंसनीय रही। सम्मेलन, अजमेर की भूमिका तैयार हुई। अजमेर में विराट आपश्री ने ज्येष्ठमलजी महाराज, नेमीचन्दजी महाराज, सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में भी आपश्री ने स्थानकवासी समाज मुलतानमलजी महाराज, दयालचन्दजी महाराज, उत्तमचन्दजी की एकता पर अत्यधिक बल दिया। सन् १९५२ में जो सादड़ी महाराज, बाघमलजी महाराज, हजारीमलजी महाराज आदि सन्तों
सम्मेलन हुआ उस वर्ष आपश्री का वर्षावास सादड़ी में था और की अत्यधिक सेवाएँ कीं। सेवा आपका जीवन-व्रत था। जिस आपकी ही प्रबल प्रेरणा से सादड़ी में सन्त सम्मेलन हुआ। उसमें असिधारा व्रत पर चलते समय बड़े-बड़े वीर भी घबरा जाते हैं, । आपश्री ने अत्यधिक निष्ठा के साथ कार्य किया। आपश्री का कार्य किन्तु आपने सेवा का ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया।
नींव की ईंट के रूप में था, यद्यपि वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण RUDP आपश्री को जब सेवा से अवकाश मिलता तब आप ग्रन्थों की संघ में आप सबसे बड़े थे, तथापि आपश्री में तनिक मात्र भी
प्रतिलिपियाँ उतारते थे। आपके अक्षर मोती के समान सुन्दर थे। अहंकार नहीं था। संघ की प्रगति किस तरह हो, यही चिन्तन
आपश्री ने रामायण, महाभारत, श्रेणिकचरित्र आदि चरित्र और । आपश्री का था। आपश्री को पद का किंचित् मात्र भी लोभ नहीं जह सैकड़ों भजन, चौपाइयाँ लिखीं।
था। यही कारण था कि सादड़ी सन्त सम्मेलन में आपको पद देने के आपकी प्रवचन-कला अत्यन्त आकर्षक थी। जब आप प्रवचन
लिए अत्यधिक आग्रह किया गया किन्तु पद लेना आपश्री ने करते तब सभा मन्त्रमुग्ध हो जाती थी। हास्यरस, करुणरस,
स्वीकार नहीं किया। यह थी आपकी पूर्ण निस्पृहता। वीररस और शान्तरस सभी रसों की अभिव्यक्ति आपकी वाणी में शिक्षा के प्रति आपश्री की स्वाभाविक रुचि थी। स्वयं आपने सहज होती थी। उसके लिए आपको किंचित्मात्र भी प्रयत्न नहीं तो पण्डित से डेढ़ दिन ही पढ़ा था। क्योंकि वह युग ऐसा था जिस करना पड़ता था। आपकी वाणी में मृदुता, मधुरता और सहज युग में पण्डितों से पढ़ना उचित नहीं माना जाता था। केवल सुन्दरता थी। वक्तृत्वकला स्वभाव से ही आपको प्राप्त हुई थी। किस गुरुओं से अध्ययन किया जाता था। किन्तु समय ने करवट बदली; समय क्या बोलना, कैसे बोलना, कितना बोलना यह आप अच्छी आपश्री ने देखा, संस्कृत, प्राकृत भाषा का जब तक गहरा अध्ययन तरह से जानते थे। जहाँ-जहाँ भी आप गये वहाँ आपका जय- नहीं होगा तब तक आगमों के रहस्य स्पष्ट नहीं हो सकते। अतः जयकार होता रहा।
आपश्री ने अपने सुयोग्य शिष्य भी पुष्कर मुनिजी महाराज को आपश्री का वि. सं. १९९१ का चातुर्मास ब्यावर में था। संस्कृत- प्राकृत भाषा का अध्ययन नहीं करवाया, अपितु किंग्स ब्यावर सदा से संघर्ष का केन्द्र रहा है। वहाँ का संघ तीन विभागों कालेज बनारस की और कलकत्ता ऐसोसियेशन की काव्यतीर्थ, में विभक्त है-प्रथम स्थानक के अनुयायी, दूसरे आचार्य न्यायतीर्थ आदि परीक्षाएँ भी दिलवायीं। अपने अन्य शिष्य और जवाहरलालजी महाराज को मानने वाले और तीसरे जैन दिवाकर प्रशिष्यों को भी तथा सती वृन्द को भी अध्ययन की दिशा में आगे श्री चौथमलजी महाराज के अनुयायी थे। स्थानक वालों में सदा । बढ़ने के लिए प्रेरणा दी। आपश्री को एक बार प्रातःकाल स्वप्न दिवाकरजी महाराज के अनुयायियों में परस्पर सद्भाव था जिससे आया था कि मेरे शिष्य-शिष्याएँ प्रकाश की ओर बढ़ रही हैं। एक वर्ष उनका चातुर्मास और द्वितीय वर्ष स्थानक का चातुर्मास आपश्री ने उसका यही अर्थ लगाया कि ज्ञान के क्षेत्र में ये प्रगति होता था। किन्तु उस वर्ष ऐसा वातावरण बना कि तीनों संघों ने करेंगे। मिलकर आपश्री से चातुर्मास की प्रार्थना की। संगठन, स्नेह
ज्ञान के साथ ही आचार पर आपका बहुत अधिक बल था। सद्भावना की वृद्धि को संलक्ष्य में रखकर आपने चातुर्मास स्वीकार
| आप स्वयं कम बोलते थे और गृहस्थों से निरर्थक वार्तालाप नहीं किया और आपके प्रवचनों की ऐसी धूम मची कि सभी श्रोता
किया करते थे। आपका यह मानना था कि सन्तों को गृहस्थों का विस्मित हो गये। आप प्रवचनों में आगमिक गम्भीर रहस्यों को
सम्पर्क कम से कम करना चाहिए। अधिक सम्पर्क से श्रमणों के रूपक, लोककथाओं, उक्तियों व संगीत के माध्यम से इस प्रकार
| जीवन में साधना की दृष्टि से न्यूनता आती है। मक्खन लम्बे समय व्यक्त करते थे कि श्रोता झूम उठते।
तक छाछ में रहेगा तो मक्खन का ही नुकसान है, छाछ का नहीं। आपश्री संगठन के प्रबल पक्षधर थे। स्थानवासी परम्परा में
साधना की उत्कृष्टता के लिए आचार की निर्मलता अपेक्षित है। OR विभिन्न मतों को देखकर आपका हृदय द्रवित हो गया था। आपने जितना आचार शुद्ध होगा उतना ही साधक के जीवन का प्रभाव उह स्थानकवासी समाज की एकता के लिये प्रबल प्रयत्न किया जिसके } बढ़ेगा।
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इतिहास की अमर बेल
आपके जीवन पर अध्यात्मयोगी ज्येष्ठमलजी महाराज के जीवन का प्रभाव था। यही कारण है आपको जप साधना अत्यधिक प्रिय थी। मैंने स्वयं देखा है कि जीवन की सान्ध्यबेला में प्रमाद आ जाता है। सूर्य का तेज भी कम होता है। किन्तु आपश्री जप- साधना के क्षेत्र के प्रतिक्षण आगे बढ़ते ही रहे। एक दिन मैंने पूछा- गुरुदेव, आप प्रतिदिन चौदह-पन्द्रह घण्टे तक जप करते हैं। आपने आज दिन तक कितना जप किया? आपने कहा- "देवेन्द्र! जय अपने लिए किया जाता है। जप में हिसाब की मनोवृत्ति नहीं होती। मैं नमस्कार मन्त्र का जाप करता हूँ।" आपश्री ने बात टालने का प्रयास किया। किन्तु मेरे बालहठ के कारण अन्त में आपने कहा “सवा करोड़ से भी अधिक जप हो चुका है।" मैं सोचने लगा सवा करोड़ का जप करना कितना कठिन है। उसके लिए कितना धैर्य अपेक्षित है। मैंने स्वयं यह देखा कि जप के कारण आपश्री को वचनसिद्धि भी हो गयी थी किन्तु विस्तारभय से मैं वे सारे प्रसंग यहाँ नहीं दे रहा हूँ।
आपश्री एक फक्कड़ सन्त थे। चाहे धनवान हो चाहे गरीब, सभी के प्रति समतापूर्ण व्यवहार था। धनवानों को देखकर आपने कभी उनका विशेष आदर करना पसन्द नहीं किया और निर्धनों को देखकर कभी अनादर नहीं किया। जयपुर वर्षावास में सेठ विनयचन्द दुर्लभजी जौहरी जब भी दर्शन के लिए आते तब पूज्य गुरुदेवश्री की सेवा में घण्टा आधा घण्टा बैठते थे, किन्तु गुरुदेव उनसे कभी भी बातचीत नहीं करते थे। वे अपनी जप-साधना में ही तल्लीन रहते थे। विनयचन्दभाई ने अनेकों बार पूज्य गुरुदेव श्री से प्रार्थना की कि मुझे कुछ सेवा का लाभ दीजिए। किन्तु गुरुदेव ने सदा यही कहा कि मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। अन्त में पूज्य गुरुदेवश्री की स्मृति सभा में बोलते हुए विनयचन्दभाई ने कहा- "मैंने ताराचन्दजी महाराज जैसे निस्पृह सन्त नहीं देखे जो मेरे द्वारा बीसों बार प्रार्थना करने पर भी कभी किसी वस्तु की या संस्था के लिए दान दिलवाने हेतु इच्छा व्यक्त नहीं की। सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ जो महान दानवीर थे, ये आपश्री के दर्शन हेतु कलकत्ता से जयपुर आये उस समय पूज्य गुरुदेवश्री शौच के लिए बाहर पधारे हुए थे। दुग्गड़जी गुरुदेव के साथ दो मील तक चलकर लालभवन आये। उन्होंने गुरुदेवश्री से अत्यधिक प्रार्थना की कि मुझे अवश्य ही लाभ दें। मैं कलकत्ता से ही यह संकल्प करके आया हूँ कि आप जहाँ भी फरमाएँगे, वहाँ मुझे अर्थ सहयोग देना है। आपश्री ने कहा- जहाँ आपको सुख उत्पन्न होता हो वहाँ पर आप दान दे सकते हैं। मुझे कहीं पर भी नहीं दिलवाना और आपश्री अपनी जप साधना में लग गये। सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ गुरुदेवश्री के चरणों में डेढ़ घण्टे तक बैठे रहे। पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी आपश्री ने कुछ भी नहीं फरमाया। आपश्री के स्वर्गवास के पश्चात् श्रमण संघ के उपाचार्य श्री गणेशीलालजी महाराज तथा उपाध्याय हस्तीमलजी महाराज के सामने सेठ सोहनलालजी दुग्गड़ ने कहा कि
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मैं अपने जीवन में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के साधु-सन्तों के और आचार्यों के सम्पर्क में आया किन्तु जैसा निस्पृह सन्त महास्थविर ताराचन्दजी महाराज को मैंने देखा वैसा अन्य सन्त मुझे दिखायी नहीं दिया।
भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ४ दिसम्बर, १९५४ को पूज्य गुरुदेवश्री से मिले थे, अन्य सन्तगण उनसे पचपन मिनट तक बातें करते रहे; किन्तु आपश्री उस समय भी जप साधना में तल्लीन थे आपश्री की निस्पृहता और आध्यात्मिक मस्ती को देखकर नेहरूजी के हत्तन्त्री के तार भी झनझना उठे कि यह महात्मा अद्भुत है।
आपश्री ने छह महीने पूर्व की कह दिया था कि अब मेरा अन्तिम समय सन्निकट है। अतः आपश्री ने अपने जीवन की, निःशल्य होकर आलोचना करली। और सदा मुझे या अन्य सन्त को अपने पास रखते। आपने यह भी कहा कि जब मुझे अर्धांग (लकवा) होगा, उस समय मेरा अन्तिम समय समझना। मैं तुम्हें अपने पास इसीलिए रखता हूँ कि कदाचित् उस समय मेरी याचा बन्द हो जाय तो तू मुझे संथारा करा देना । वि. सं. २०१३ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन मध्याह में आपश्री प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज के पास पधारे जो लालभवन में नीचे विराज रहे थे। वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री ने कहा मदनलालजी, कल व्याख्यान नहीं होगा। मदनलालजी महाराज ने विनय के साथ पूछा- गुरुदेव, किस कारण से व्याख्यान नहीं होगा ? आपश्री ने कहा-इसका रहस्य अभी नहीं, कुछ समय के बाद तुझे स्वयं ज्ञात हो जायेगा। सायंकाल पाँच बजे आपश्री ने आहार किया और हाथ धोने के लिए ज्यों ही लघुपात्र आपने उठाया त्यों ही लकवे का असर हो गया। लकवे के असर होते ही आपने कहा-मेरा अन्तिम समय आ चुका है। अब मुझे संथारा करा दो। उसी समय प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज ने आकर कहा- गुरुदेव, आपका शरीर पूर्ण स्वस्थ है? डाक्टर को अभी बुलवाते हैं। वे जाँच करेंगे क्योंकि लकवे का मामूली असर हुआ है और यह बीमारी तो ऐसी है कि समय का कुछ भी पता नहीं गुरुदेवश्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मेरा अब अन्तिम समय आ चुका है। यदि आप विलम्ब करते हैं तो मैं स्वयं चतुर्विध संघ की साक्षी से संथारा ग्रहण करता हूँ। आपश्री ने यह कहकर संथारा ग्रहण कर लिया। आपकी अत्युत्कृष्ट भावना देखकर अन्त में मदनलालजी महाराज ने संघ की साक्षी से संथारा करवाया। आपने चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की और अपने शिष्यों को हित-शिक्षाएँ दी ज्ञान-दर्शन- चारित्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और अन्त में आपने प्रधानमंत्री मदनलालजी महाराज से प्रतिक्रमण सुना आपके अन्तिम ये शब्द निकले कि मदनलालजी, आपने प्रतिक्रमण अच्छा सुनाया। उसके बाद आपकी वाचा बन्द हो गयी। आपकी भावना उत्तरोत्तर निर्मल हो रही थी और प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में आपने महाप्रकाश की ओर प्रयाण कर दिया।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
महास्थविर ताराचन्दजी महाराज का जीवन एक ज्योतिर्मय जीवन था। आप में चारित्रिक पवित्रता, वैचारिक उदारता और दृढ़ता तथा सेवापरायणता के सद्गुणों के सुमन सदा खिलते रहे। आप में अत्यधिक स्फूर्ति थी। अपना कार्य अपने हाथों से करना पसन्द था। लघुमुनियों की सेवा करने में भी आप सदा आगे रहते थे। आपका बिहार क्षेत्र पूर्वाचार्यों की अपेक्षा विस्तृत था। आपने भारत के विविध अंचलों में ६४ वर्षावास किये। उसकी तालिका इस प्रकार है
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जोधपुर
(मारवाड़)
(मारवाड़)
(मारवाड़)
रंडेडा
(मेवाड़)
निंबाहेड़ा (मेवाड़)
पाली
जालोर
सनवाड़ (मेवाड़)
भिंडर
(मेवाड़)
(मेवाड़)
गोगुंदा
साड़ी
सिवाना
समदड़ी
(मारवाड़)
(मारवाड़)
(मारवाड़)
KOLKA
चातुर्मास तालिका
(वि. संवत्)
१९५०, १९६१, १९७७,
२००१
१९५१, १९६२, १९७०,
१९८०
१९५२, १९६७, १९७५,
१९७९, १९८५
१९५३
१९५४
१९५५, १९६६
१९५६
१९५७, १९८८
१९५८, २००८
१९५९, १९६५, १९७८,
१९८४, १९८६, १९९९,
२००९
१९६०, १९६४, १९६९,
१९७१, १९७२, १९७३,
१९७४, १९८१, १९८३, १९९८
महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज के जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा यहाँ पर प्रस्तुत की गई है। जिससे विज्ञगण समझ सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना तेजस्वी, ओजस्वी और वर्चस्वी था । उनके विराट जीवन को शब्दों में बाँधना बड़ा ही कठिन है। उन्होंने जन-जन के सुषुप्त अन्तर-जीवन को जागृत किया। श्रमणसंघ के
(वि. संवत्)
सालावास
(मारवाड़)
१९६३
बालोतरा
(मारवाड़) १९६८
बेलबाड़ा
(मेवाड़)
१९७६
नान्देशमा (मेवाड़)
खंडप
पीपाड़
दुन्दाड़ा
ब्यावर
लीमड़ी
नासिक
मनमाड
कम्बोल
रायपुर
धार
घाटकोपर
चूड़ा
जयपुर
दिल्ली
१९८२, २००२, २००७
१९८७, १९९७
१९८९, २००0
(मारवाड़)
(मारवाड़)
(मारवाड़) १९९०
(राजपूताना ) १९९१
(गुजरात)
१९९२
(महाराष्ट्र)
(महाराष्ट्र)
(मेवाड़)
१९९५
(मारवाड़) १९९९
(मध्य प्रदेश) २००३
(बम्बई)
२००५
२००६
(सौराष्ट्र) (राजस्थान) २०१०, २०१२, २०१३ (राजस्थान) २०११
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१९९३, २००४
१९९४
संगठन के लिए भगीरथ प्रयास किया। ग्राम और नगरों में कलहाग्नि का उपशमन किया, शान्ति, सौमनस्य, एकता की स्थापना की, समाज की बुराइयों के विरुद्ध सिंहनाद किया और जैनधर्म के गौरव में चार चाँद लगाये।
• साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. का जीवनवृत्त खण्ड २ " तल से शिखर तक" में पाठक पढ़ चुके हैं। यहाँ उससे अगली कड़ी उपाध्यायत्री के शिष्यरत्न आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी का संक्षिप्त जीवन परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
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। इतिहास की अमर बेल
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श्रमण संघ : एक चिन्तन
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भारतीय संस्कृति का जब हम गहराई से अनुशीलन करते हैं। जो संघात को प्राप्त है उसे संघ कहते हैं। सर्वाथसिद्धि में और तो वह दो धाराओं में विभक्त दीखता है, एक धारा ब्राह्मण संस्कृति तत्वार्थ राज वार्तिक में संघ की परिभाषा इस प्रकार है-"सम्यग् है तो दूसरी धारा श्रमण संस्कृति है। ब्राह्मण संस्कृति में संन्यासी दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र से युक्त श्रमणों समुदाय संघ एकाकी साधना के पक्षधर रहे। उन्होंने वैयक्तिक साधना को अधिक की अभिधा से अभिहित है। महत्व दिया। एकान्त शान्त वनों में वे आश्रम में रहते थे। उन
भगवती आराधना की विजोदया टीका में संघ को प्रवचन शब्द आश्रमों में अनेक ऋषिगण भी रहते थे पर सभी की वैयक्तिक
से सम्बोधित किया है, जिसमें रत्नत्रय का प्रवचन उपदेश किया साधना ही चलती थी। जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से इस सम्बन्ध
जाता है, श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका के समूह का नाम संघ में चिन्तन प्रस्तुत किया। जो जिनकल्पी श्रमण थे वैयक्तिक साधना
है। ये श्रमण संघ के चार अंग हैं। इन्हें ही चतुर्विध संघ की संज्ञा करते थे, उन्हें समाज से कुछ भी लेना देना नहीं था। वे उग्र तपस्वी
प्रदान की गई। जो तप में श्रम करते हैं, वे श्रमण हैं। ऐसे श्रमणों थे, मौन रहकर प्रायः जंगलों में वृक्षों के नीचे खड़े होकर साधना
के समुदाय को श्रमण संघ के रूप में जन मानस जानता है| करते थे। अधिक से अधिक जिन कल्पी एक स्थान पर एकत्रित हो
पहचानता है। इस प्रकार का श्रमण संघ गुणों का प्राधान्य है, जाते तो सात से अधिक नहीं होते, पर सातों ही विभिन्न दिशाओं
समस्त प्राणियों के लिए सुख प्रदान करने वाला है। निकट भव्य में मुख रखते थे। परस्पर वार्तालाप भी नहीं करते थे। उनकी
जीवों के लिए आधार रूप है और माता-पिता के समान क्षमा प्रदान साधना का समाज के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था।
करने वाला है। स्थविरकल्पी श्रमणों के लिए संघीय साधना को अत्यधिक
यह सत्य है कि संघ शब्द अपने आप में एकता, सुव्यवस्था, महत्व दिया गया। जो साधक संघ बहिष्कृत रहा उसे जैन धर्म में न
सुसंगठन और शक्ति का प्रतीक है। एकाकी जीवन में अंकुश नहीं आदर प्राप्त हुआ और न प्रतिष्ठा ही प्राप्त हुई। देववाचक एक
रहता इसलिए उसमें स्वच्छन्दता व अनाचार की प्रवृत्ति बढ़ जाती महामनीषी आचार्य थे, उन्होंने नन्दीसूत्र जैसी महनीय कृति की
है, जो साधक अपने जीवन को आचार के आलोक से चमकाना रचना की, प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान महावीर के पश्चात् उन्होंने चाहते हैं विचारों के विमल प्रकाश में अपना जीवन व्यतीत करना विस्तार के साथ संघ की स्तुति की है। संघ को नगर, चक्र, रथ,
चाहते हैं उन साधकों की साधना संघ में रहकर ही निर्विघ्न रूप से पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, महामंदर प्रभृति विभिन्न उपमाओं से सम्पन्न हो सकती है, यही कारण है कि श्रमणों के लिए एकाकी महत्वपूर्ण है। उसमें यह भी कहा गया है, जैसे परकोटे से सुरक्षित रहने का निषेध किया गया है। आचार्य संघदासगणि ने बृहत्कल्प में नगर निवासियों को सुरक्षा प्रदान करता है, वैसे ही संघ रूपी नगर संघ स्थित श्रमण को ही ज्ञान का अधिकारी बताया है, वही श्रमण अपने साधकों को चारित्रिक स्खलनाओं से सुरक्षित रखता है। जैसे दर्शन और चारित्र में विशेष रूप से अवस्थित हो सकता है, श्रमण चक्र शत्रु का छेदन करता है वैसे ही संघचक्र साधना में जो दुर्गुण जीवन का सार उपशम है यदि श्रमण जीवन में कषायों की बाधक हैं, उन दुर्गुणों का उच्छेदन करता है और साधक के जीवन प्राधान्यता रही तो साधक के व्रत और नियम नहीं रह पायेंगे में सद्गुणों का सौन्दर्य लहलहाने लगता है। संघ रूपी रथ है, इस । एतदर्थ ही उन महान् आचार्यों ने साधकों को यह पवित्र प्रेरणा पर शील रूप पताकाएँ फहरा रही हैं जिसमें संयम और तप के प्रदान की कि संघ में रहकर ज्ञान, ध्यान और साधना के द्वारा अश्व लगे हुए हैं, स्वाध्याय का मधुर आघोष जन जीवन को आत्म-कल्याण के महापथ पर अग्रसर होना चाहिए। आहल्लादित कर रहा है ऐसा संघ रूपी रथ कल्याणप्रद है। पद्म
श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् दुष्काल की काली छाया कमल सदा अलिप्त रहता है, जल में रहने पर भी जल से निर्लिप्त
एकबार, नहीं किन्तु तीन बार मंडराई। बारह-बारह वर्ष के तीन रहता है, वैसे ही संघ रूपी पद्म विषय वासना से अलिप्त रहता
बार दुष्काल पड़े जिसने संघ को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया। है। यह संघरथ साधकों को दुर्गुणों की धूप से बचाता है संध चक्र
जो संघ आचार की दृष्टि से उत्कृष्ट था परिस्थिति के कारण उसमें के समान सौम्य है शांति प्रदाता है तो सूर्य के समान पाप ताप को
धीरे-धीरे शिथिलाचार ने प्रवेश किया। चैत्यवास उस शिथिलाचार नष्ट करने वाला भी है इस तरह विस्तार से संघ की महिमा और
का ही रूप था। आचार्य हरिभद्र ने “सम्बोध प्रकरण ग्रंथ" में गरिमाका उत्कीर्तन हुआ है।
विस्तार से उसका उल्लेख किया है। समय-समय पर आचार भगवती आराधना में आचार्य ने संघ की परिभाषा करते हुए शैथिल्य को नष्ट करने के लिए क्रियोद्धार हुए हैं, उन क्रियोद्धार से लिखा है-जो गुणों का समूह है वह संघ है। कर्मों के विमोचक को ही स्थानकवासी संघ का जन्म हुआ, जिसने विशुद्ध आचार और संघ कहा गया है। सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र में विचार को महत्व दिया।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्थानकवासी समुदाय के मुख्य पाँच क्रियोद्धारक हुए हैं-आचार्य १९६४ में अजमेर में हुआ। उस समय श्रमण संघ वरिष्ट श्री जीवराज जी म., आचार्य लवजी ऋषि जी म., आचार्यश्री पदाधिकारी मुनि प्रवरों का शिखर सम्मेलन का भी सफल आयोजन धर्मसिंह जी म., आचार्यश्री धर्मदास जी म. और हरजी ऋषि जी हुआ। इस सम्मेलन में जो श्रमणसंघ के मंत्री थे उनके लिए मंत्री म. और उसके पश्चात् स्थानकवासी समाज २२ सम्प्रदायों में शब्द हटाकर प्रवर्तक पद की घोषणा हुई। सन् १९७२ में राजस्थान विभक्त हो गया और वह विभाग धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते ३३ का प्रान्तीय सम्मेलन आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. के सम्प्रदायों में पहुँच गया। तब समाज के मूर्धन्य महामनीषियों के नेतृत्व में साण्डेराव में हुआ। सन् १९८७ में पूना में अखिल अन्तर मानस में यह विचार समूत्पन्न हुए कि इस प्रकार ये विभिन्न भारतीय स्थानकवासी श्रमणों का सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन पाँच धाराएँ संघ समुत्कर्ष हेतु हितावह नहीं है। उसी भावना के
मई से १२ मई तक चला जिसमें ३०० साधु साध्वियों ने भाग फलस्वरूप श्रावकों का एक संगठन सन् १९०६ में हुआ और वह लिया। श्रमण समाचारी के संबंध में पुनः उस समय चिन्तन किया श्रावक संघठन स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस के नाम से विश्रुत हुआ। गया। इस सम्मेलन में लाखों की संख्या में श्रावक श्राविकाएँ स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस ने समाज का नेतृत्व करने का बीड़ा
उपस्थित थी, महाराष्ट्र के राज्यपाल डॉ. शंकरदयाल जी शर्मा जो अपने हाथ में लिया। वे जानते थे कि जैन संघ का मूल आधार
वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति हैं, उन्होंने भी भाग लिया और जगत श्रमण समुदाय है। जब तक श्रमण समुदाय में एकता नहीं होगी तब
गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद जी और वी. एन. गाडगिल आदि तक स्थानकवासी जैन समाज का विकास नहीं होगा और उन कर्मठ
नेताओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन में आचार्य सम्राट श्री आनंद कार्यकर्ताओं के प्रबल प्रयास से अजमेर में सन् १९३२ में बृहत
ऋषि जी म. ने मुझे उपाचार्य पद प्रदान किया और डॉ. शिव मुनि साधु सम्मेलन हुआ और उस सम्मेलन के पूर्व प्रान्तीय सम्मेलन भी
जी म. को युवाचार्य पद प्रदान किया गया। हुए। अजमेर सम्मेलन में अनेक विभिन्न प्रश्नों पर चिन्तन हुआ। संवत्सरी जैसे उलझे हुए प्रश्न का वहाँ समाधान करने का प्रयास
श्रमण संघ का यह महान् सद्भाग्य रहा कि उसको प्रथम किया गया। जो एकता का स्वप्न सभी ने संजोया था वह भले ही
आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी म. जो आगम के महामनीषी थे, अजमेर में साकार रूप न ले सका हो पर नींव की ईंट के रूप में शांत और गंभीर थे, उनका कुशल नेतृत्व प्राप्त हुआ। द्वितीय जो कार्य हुआ वह बहुत ही प्रशंसनीय रहा।
पट्टधर महामहिम आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. आनंद
स्वरूप थे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भी बहुत ही अद्भुत और उसके पश्चात् सन् १९५२ में सादड़ी में बृहत साधु सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन अपनी शानी का निराला था। २२ सम्प्रदाय के
अनूठा था, ये दोनों महापुरुष समन्वय, स्नेह और सद्भावना के संत और आचार्य वहाँ पर पधारे, उन्होंने अपनी सम्प्रदायों की
पावन प्रतीक रहे। जिनके कुशल नेतृत्व में श्रमणसंघ फलता और पदवियों का त्याग कर श्रमण संघ का निर्माण किया। जैन इतिहास
फूलता रहा है। जिनकी असीम कृपा का स्मरण कर हृदय श्रद्धा से में दो हजार वर्ष के पश्चात् ऐसी अद्भुत धर्म क्रांति हुई, जिसकी
नत हो जाता है। स्वर्गीय आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. के मुक्तकंठ से सभी ने प्रशंसा की। इस सम्मेलन में सर्वानुमति से
स्वर्गवास के पश्चात् संघ संचालन का दायित्व मेरे कंधों पर आया। श्रमणसंघ प्रथम आचार्यश्री आत्माराम जी म. को अपना आचार्य
२८ मार्च १९९२ वि. स. २०४९, चैत्र वदि १० को अहमदनगर नेता चुना। उपाचार्यश्री गणेशीलाल जी म. को बनाया १६ मंत्री
1 में समाधिपूर्वक आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषिजी म. का स्वर्गवास मुनि बनाए और प्रधानमंत्री श्री आनन्द ऋषि जी म. चुने गए। हुआ। उसके पश्चात् संघ संचालन का दायित्व मुझ पर आया। सन् सादड़ी सम्मेलन के पश्चात् सन् १९५३ में सोजत में मंत्री मण्डल । १९९२ बैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर आचार्य की बैठक हुई। सचित और अचित के प्रश्नों को लेकर गहराई से पद की घोषणा सोजत में श्रमणसंघ के प्रवर्तक श्री रूपमुनि जी म. चिन्तन हुआ। संघीय एकता की दृष्टि से और गुरु गंभीर प्रश्नों पर ने श्रमणसंघ की ओर से की, और कांफ्रेंस के अध्यक्ष पुखराज जी चिन्तन करने हेतु सन् १९५३ का एक संयुक्त चातुर्मास छः बड़े । सा. लूंकड़ ने कांफ्रेंस की ओर से घोषणा की। सन् १९९३, २८ महासंतों का जोधपुर में हुआ और चार महीनों तक संघ समुत्कर्ष । मार्च को उदयपुर में चद्दर समारोह भी आनंद और उल्लास के के अनेक प्रश्नों को लेकर चिन्तन चलता रहा।
क्षणों में संपन्न हुआ। सन् १९५६ में भीनासर में बृहत साधु सम्मेलन हुआ और उस श्रमणसंघ एक जयवंत संघ है यह संघ सदा ही एकता का सम्मेलन में उपाध्याय आदि पदों का निर्णय हुआ। ध्वनि विस्तारक } पक्षधर रहा है, जिसको आचार की उत्कृष्टता और विचारों की यंत्र के प्रयोग के संबंध में चिन्तन हुआ और अपवाद में प्रयोग । विराटता में विश्वास है। जो स्व-दर्शन का पक्षधर रहा है और करने पर प्रायश्चित के संबंध में भी निर्णय लिया गया। सन् । प्रदर्शन से सदा दूर रहा है, हमारा परम सौभाग्य है कि हमें ऐसा १९६३ में श्रमणसंघ के प्रधानाचार्य श्री आत्माराम जी म. के महान् संघ प्राप्त हुआ है। हमें पूर्ण आत्म-विश्वास है कि हमारा संघ स्वर्गवास के पश्चात् श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री प्रतिपल प्रतिक्षण विकास करता रहेगा क्योंकि उसका मूल आधार आनंद ऋषि जी म. चुने गए और उनका चद्दर समारोह सन् पवित्र आचार और विचारों पर अवलम्बित है।
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इतिहास की अमर बेल
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जैनागम महोदधि के प्रकांड व्याख्याता
आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज अपने युग के एक विशिष्टि से सम्मानित किया गया। वि. सं. २००३ में पंजाब संघ ने आपको प्रज्ञास्कन्ध महापुरुष थे। उन्होंने अपनी प्रतापपूर्ण प्रतिभा की पंजाब प्रान्त का आचार्य पद प्रदान कर आचार्य बनाया। संवत् तेजस्विता से जन-जन को आलोक प्रदान किया था। वे ज्ञानयोगी २००९ में स्थानकवासी जैन समाज का बृहद् साधु सम्मेलन सादड़ी थे। जैनागम साहित्य के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होंने आगम में सम्पन्न हुआ। उस समय शारीरिक कारण से लुधियाना (पंजाब) में साहित्य का गहराई से मन्थन किया था और युगानुरूप आगमों पर आप अवस्थित थे। पर आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सविस्तृत भाष्य लिखकर अपनी उत्कृष्ट मेधा का परिचय दिया है। अनुपस्थिति होने पर भी आप एकमत से श्रमण संघ के आचार्य चुने 190866 आपके द्वारा लिखित भाष्य इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि गये। आप दस वर्ष तक श्रमण संघ का कुशल नेतृत्व करते रहे। आपका कितना गम्भीर अध्ययन था। आपने अध्ययन के साथ जो श्रमण संघ के आचार्य पद पर आसीन होकर भी अपने आपको संघ गहन चिन्तन और मनन किया था वह भी उसमें सहज रूप से का सेवक मानते रहे। सत्ता का कभी भी आपके मन में अहंकार नहीं प्रकट हुआ है। वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता स्मृति और पुराण } आया और न कभी भी उसका दुरुपयोग ही किया। आचार्यश्री प्रकृति साहित्य का जो तुलनात्मक अध्ययन आपने विभिन्न ग्रन्थों में प्रस्तुत से कठोर नहीं अपितु मधुर थे। आपने विशाल श्रमण संघ का किया, वह आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य को प्रदर्शित करता है। संस्कृत, । संचालन बहुत ही कुशलता के साथ किया। एक बार जो भी व्यक्ति प्राकृत, पालि जैसी प्राचीन भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके परिचय में आ जाता वह सदा-सर्वदा के लिए आपका आपने अपने जीवनकाल में शताधिक ग्रन्थों का लेखन और। अनुयायी बन जाता था। यही कारण है कि संघ की आप पर अपूर्व सम्पादन किया। आगमों के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, नीति निष्ठा थी। आप प्रतिभा, मेधा और शारीरिक सम्पन्नता से युक्त थे। प्रभृति विषयों पर अनेक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है। आपकी अधिक मधुर व्यक्ति शासन संचालन नहीं कर पाता पर आपने श्रुत-सेवा अपूर्व थी। आप स्थानकवासी समाज के एक युगान्तरकारी कुशल संचालन कर यह सिद्ध कर दिया कि आत्मीयतापूर्ण समर्थ साहित्यकार थे। आपकी साहित्य सम्पत्ति पर समाज को सद्व्यवहार से तन पर ही नहीं, मन पर भी शासन सम्भव है और सात्विक गर्व है।
वह शासन ही चिरस्थायी होता है। आचार्य आत्माराम जी महाराज का जीवन सागर से भी आपश्री का सीधा-सादा रहन-सहन था, सीधा-सादा व्यवहार था अधिक गम्भीर था, हिमगिरि से भी अधिक उत्तुंग था और धरती 1 और सीधा-सादा ही जीवन था। जो जादू की तरह जनमानस को से भी अधिक विशाल था। उनके जीवन का मूल्यांकन करना कठिन लुभाता था। ही नहीं, कठिनतर है।
आप बाह्य तप के साथ ही अन्तरंग तप पर अधिक बल देते आपका जन्म पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के अन्तर्गत राहों थे। स्वाध्याय आपश्री को अधिक प्रिय था। आपके जीवन के गाँव में हुआ। आपके पिता का नाम मनसाराम जी और मातेश्वरी अनमोल क्षण स्वाध्याय में व्यतीत होते थे। स्वाध्याय करते समय का नाम परमेश्वरी था। वर्ण से आप क्षत्रिय थे। वि. सं. १९३९ के | आप इतने अधिक तल्लीन हो जाते कि संसार में कहाँ पर क्या हो भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को आपका जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही रहा है, वह आपको ध्यान ही नहीं रहता। आप फरमाते थे कि माता-पिता का साया आपके सिर से उठ गया था। वकील सोहनलाल स्वाध्याय का आनन्द तो नन्दन-वन में विचरण करने के सदृश है। जी के साथ एक दिन आप पूज्य प्रवर श्री मोतीराम जी महाराज के स्वाध्याय के फलस्वरूप ही आप गम्भीर विषयों पर साधिकार लिख दर्शन हेतु पहुँचे। पूज्यश्री के पावन उपदेश को श्रवण कर मन में सके हैं। जैनागम न्याय संग्रह, जैनागमों में स्याद्वाद, जैनागमों में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई और वि. संवत् १९५१ आषाढ़ शुक्ला परमात्मवाद, जीव-कर्म संवाद, जैनागमों में अष्टांगयोग, विभक्ति पञ्चमी को छत बनूड़ गाँव में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपके | संवाद, तत्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय, वीरत्थुई विवेचन आदि दीक्षागुरु शालिगराम जी महाराज और विद्यागुरु आचार्य मोतीराम आपकी महत्वपूर्ण और मौलिक कृतियाँ हैं और साथ ही आवश्यक जी महाराज थे। संवत् १९६९ में पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज सूत्र, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, ने अमृतसर में आपको उपाध्याय पद प्रदान किया। वि. सं. १९९१ । उपासकदशांग, स्थानांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपातिक दशाश्रुतमें दिल्ली में आपको “जैन धर्म दिवाकर" की उपाधि प्रदान की गई। स्कन्ध, बृहद्कल्प, निरयावलिका, प्रश्नव्याकरण आदि पर जो वि. सं. १९९३ में स्यालकोट में आपको “साहित्य रत्न" की उपाधि आपने सविस्तृत व्याख्याएँ लिखी हैं-वे आपके गम्भीर अध्ययन की
in Education intomatical
For Private
Personal use only
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प्रतीक है। 'तत्त्वार्थ सूत्र- जैनागम समन्वय' तो आपकी अद्भुत कृति है तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्रों को ३२ आगमों के पाठों से तुलना कर आपने विद्वद् जगत् में एक अनूठा स्थान बना लिया। यह ग्रन्थ शोधार्थियों के लिए बहुत ही उपयोगी है।
आपश्री की दो मौलिक कृतियों का आपश्री के प्रपौत्र शिष्य श्री अमर मुनि जी तथा श्रीचन्दजी सुराना ने नवीन शैली से पुनः सम्पादन किया है।
(१) जैन तत्त्व कलिका विकास आचार्यश्री की रचना का 'जैन तत्त्व कलिका' नाम से पुनः प्रकाशन हुआ है, इसमें जैन तत्त्व ज्ञान का प्रामाणिक विवेचन बड़ी ही सरल भाषा तथा रोचक शैली में प्रस्तुत हुआ है।
(२) जैनागमों के अष्टांग योग-आचार्य श्री की इस कृति को 'जैन योग: सिद्धान्त और साधना' नाम से उक्त दोनों विद्वानों ने
ओहो !
प्रबुद्ध बुद्ध शुद्ध मेरे गुरुवर ज्ञानी आपकी आराधना, सात्विक साधना आलोक बनकर अज्ञान तिमिर को नष्ट करने फैल गई लोक में हर्षित हो आकर्षित हुए भविजन उमड़ पड़ा आपकी ओर शनैः शनै.
प्रसन्नता का पारावार
ज्ञान की लहरों से आर्द्र होने उतर गये कोटि कोटि जन पुष्कर की पावन गहराई में स्वर स्व के साथ गूंजा पर का दिशाएं जागृत हुई जले फिर दीप हर ओर बस उजाला था ज्ञान का आप भ्रमर बन गूँजे जिन बगिया में सिंह सम दहाड़े हर ओर निर्मल विमल भावना ले साहस का दीप जला दिया तूफाँ में प्रमाद को काटकर श्रम की धार से
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सम्पादन किया है। इसमें जैन योग का ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक स्वरूप बताकर साधना पद्धति पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। तुलनात्मक दृष्टि से पौर्वात्य और पाश्चात्य योग का भी विवेचन किया गया है। साधकों-शोधकों के लिए ग्रन्थ बहुत उपयोगी है।
विक्रम संवत् २०१८ (सन् १९६१) माघ वदी नवमी को तीन माह तक कैंसर की भयंकर व्याधि को सहन कर समाधिकपूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ। आपश्री की संयमनिष्ठा, कष्टसहिष्णुता, गम्भीरता, दीर्घदर्शिता, सरलता, नम्रता आदि ऐसे सद्गुण थे जो कभी भुलाये नहीं जा सकते।
आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के महान् व्यक्तित्व को शब्दों के संकीर्ण घेरे में निवद्ध करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है। वह तो 'महतो महीयान्' है, जो युग-युग तक प्रकाश दान करता रहेगा भूले-भटके जीवन-राहियों को मार्गदर्शन देता रहेगा। ••
हे अजातशत्रु आपकी जय हो !
महा श्रमण हो गये कलिकाल में जप तप आपका जन मन को भाया मंगल ही मंगल हुए हर पल जिसने आपका दर्शन पाया हे गुणों के आगार आपकी महिमा थी अपार सुलझे हुए रखे विचार वीर वाणी का किया प्रचार उपाध्याय बन जिन शासन को आपने दिया नया अध्याय इसीलिए उठता था हमारे मन में आपके दर्शन का ज्वार आपने सिखाया था मना पतवार युग को अभी ओर आवश्यकता थी आपकी मंझधार में गिरे किनारा चाहते थे पर आप चले गये दूर बहुत दूर जहाँ से नहीं लौटता है कोई मगर आपका दिव्य तेजस्वी स्वरूप यशस्वी वाणी मनस्वी मन का
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-साध्वी ज्ञानप्रभा जैन स्थानक, (पीपलिया बाजार, ब्यावर)
दर्शन जब चाहे नयन बन्द कर कर लेते हैं।
आपके उठे हुए कर कमलों से आशीर्वाद आज भी ले लेते हैं। अब तो हर ओर आप ही आप हैं पंच तत्वों में समाकर भी
सीखा रहे हैं ज्ञान दर्शन चारित्र का पाठ
"ज्ञान प्रभा" अंतर में उतर
दिव्य चरणों में कोटि कोटि नमन कर रही है।
कर बद्ध भावाञ्जली भेंट कर आपकी पताका लिए सतत विचर रही है।
हे अजात शत्रु ! आपकी
जय हो ! जय हो !! जय हो !!! आपकी प्रभावना थी जग को अजय हो। विजय हो ।
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आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज
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राष्ट्र सन्त आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज
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इतिहास की अमर बेल
विविध विशेषताओं के संगम
आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी महाराज
दीप्तिमान निर्मल गेहुँआ वर्ण, दार्शनिक मुखमण्डल पर चमकती दमकती हुई निश्छल स्मितरेखा, उत्फुल्ल नील कमल के समान मुस्कराती हुई स्नेह- स्निग्ध निर्मल आँखें स्वर्ण-पत्र के समान दमकता हुआ सर्वतोभद्र भव्य ललाट, कर्मयोग की प्रतिमूर्ति के सदृश सुगठित शरीर, यह था हमारे परमाराध्य आचार्य प्रवर का बाह्य व्यक्तित्व जिसे लोग राष्ट्र संत आचार्य आनन्द ऋषि जी महाराज के नाम से जानते हैं, पहचानते आज भी श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
वे बाहर से जितने सुन्दर थे नयनाभिराम थे उससे भी अधिक थे अन्दर से मनोभिराम। उनकी मञ्जुल मुखाकृति पर निष्कपट विचारकता की भव्य आभा झलकती थी और उनकी उदार आँखों के भीतर से बालक के समान सरल सहज स्नेह सुधा छलकती । जब भी देखा, वार्तालाप में सरस शालीनता के दर्शन होते थे। हृदय की उच्छल संवेदनशीलता एवं उदात्त उदारता दर्शक के मन और मस्तिष्क को एक साथ प्रभावित करती थी और कुछ क्षणों में ही जीवन की महान् दूरी को समाप्त कर सहज स्नेह सूत्र में बांध देती थी। जीवन-रेखा
आपश्री का जन्म वि. सं. १९५७ श्रावण शुक्ला १, तननुसार २६ जुलाई, सन् १९०० के शुभ दिन अहमदनगर के निकटवर्ती चिंचोडी ग्राम में हुआ आपके पिताजी देवीचन्द जी एवं माताश्री हुलासबाई बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। तेरह वर्ष की सुकुमार वय में आपने पूज्य श्री रत्न ऋषिजी महाराज के चरणों में वि. सं. १९७० मार्गशीर्ष शुक्ला ९ रविवार को मिरीगांव में भागवती दीक्षा ग्रहण की।
आपश्री वाल्यकाल से ही बहुत प्रतिभाशाली, मेधावी, अध्ययनरुचि वाले तथा शांत प्रकृति के थे।
वि. सं. १९९९ माघ कृष्णा ६ को पाथर्डी में आप ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तथा वि. सं. २००९ के ऐतिहासिक वर्ष में आपश्री श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानमंत्री एवं वि. सं. २०१९ माघकृष्णा ९ (३० जनवरी १९६१) को श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य बने तथा वि. सं. २०४९ (२८ मार्च १९९२) को अहमद नगर में स्वर्गवास
हुआ।
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
स्वर्णगरुड़
आचार्य प्रवर के सम्बन्ध में लिखने की भावना उमड़ी तो ऐसा अनुभव होने लगा कि कोई विहग शावक स्वर्णगरुड़ के विषय में अपना अनुभव व्यक्त करने को लालायति हुआ हो। आचार्य श्री विश्वरूपी आकाश के स्वर्णगरुड़ थे। उनका निर्भीक साहस, उनकी पारदर्शक दृष्टि उनका ज्वलंत त्याग आदि ऐसे गुण हैं जिनके कारण उनका समाज पर अद्भुत प्रभाव रहा और प्रतिष्ठा का उच्चतम सम्मान प्राप्त हुआ।
विशेषताओं का संगम
आचार्य प्रवर का जीवन अनेक विशेषताओं का संगम स्थल रहा। उनका आकर्षक व्यक्तित्व असाधारण था। उनके कमनीय कर्तृत्व ने उनके व्यक्तित्व को निखारा साधना के प्रथम चरण में ही उनकी प्रगति का अध्याय प्रारम्भ हुआ। प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनकी प्रगति में बाधा बनने का प्रयास किया किन्तु गंगा के निर्मल प्रवाह की तरह वे निर्बाध गति से आगे बढ़ते गये। वट वृक्ष की भाँति उनका व्यक्तित्व सदा विस्तार पाता गया। उनकी वरिष्ठ योग्यता का ही यह ज्वलन्त प्रमाण है कि वे सर्वप्रथम ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य बने फिर पाँच सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य बने, और फिर श्रमण संघ के प्रधान मन्त्री, उपाध्याय एवं आचार्य बने । ओजस्वी आचार्य
"
आप श्रमण संघ के एक ओजस्वी और तेजस्वी आचार्य थे। आपका जीवन एक सच्चे सन्त का जीवन था। जिस किसी ने आपको निकट से देखा, उसके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा आपश्री की प्रगाढ़ विद्वत्ता, अदम्य साहस, उत्तम कर्तव्यनिष्ठा, अद्वितीय अद्भुत त्याग, निस्सीम कर्मठता, स्नेह और संगठन की निर्मल भावना को देखकर कौन मुग्ध नहीं हुआ ? प्रलोभनों ने आपको कभी भी विचलित नहीं किया। सत्ता दासी होकर आई। अधिकार प्राप्त करके भी आपश्री उसी प्रकार निर्लेप रहे जैसे जल में कमल ।
आत्मविश्वास के धनी
आत्मविश्वास अचिन्त्य शक्ति का अक्षय कोष है। उसमें अमंगल को मंगल के रूप में परिणत कर देने की अद्भुत क्षमता है। महान् वह बनता है जो आत्मविश्वास का धनी होता है श्रद्धेय आचार्य श्री का आत्मविश्वास गजब का था। शरीर अनेक व्याधियों से ग्रसित
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था। तब चिकित्सकों की राय थी आप विहार न करें; विशेष शारीरिक श्रम न करें, पर आपश्री ने अपने आत्मविश्वास के बल पर जन-जन के मन में त्याग-निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा और शुद्ध जैनत्व का सन्देश देने के लिए हजारों मील की यात्रा की। चिकित्सक आपश्री के आत्म-विश्वास को देखकर चकित थे। आपकी सहिष्णुता बेजोड़ थी। दीन मनोभावों को आपने कभी आदर नहीं दिया।
कठोरता और कोमलता का समन्वय
जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए कठोरता और कोमलता ये दोनों तत्त्व अपेक्षित हैं, अनिवार्य हैं। केवल कठोरता विकास के मार्ग में बाधक है और केवल कोमलता भी उसका सम्बल नहीं हो सकती, मात्रा के औचित्य से ही दोनों की फलवत्ता है।
आचार्यश्री के जीवन की आलोचना करते हुए कुछ आलोचक कहा करते थे कि आचार्यश्री आवश्यकता से अधिक कोमल थे। वे किसी पर भी अनुशासन नहीं कर सकते, पर सत्य तथ्य यह है कि उनके जीवन में कठोरता और कोमलता का मथुर समन्वय था। उनका मानस जहां अनुशासन के क्षेत्र में वज्र से भी अधिक कठोर थी श्रद्धान्वित घेता के लिए कुसुम से भी अधिक सुकुमार था।
कोमलता को जो लोग उनका दूषण मानते हैं वे भूल-भरे हैं। कोमलता उनका दूषण नहीं अपितु भूषण था, वहां!
वात्सल्य और अनुशासन
आचार्य संघ के शास्ता होते हैं। प्रशासन उनका कार्य है। हजारों श्रमण और श्रमणियों को तथा लाखों श्रावक और श्राविकाओं को उन्हें मार्गदर्शन देना होता है। उनका प्रशासक भाव जिस समय वात्सल्य से भावित होकर संघ के सदस्यों को अपने कर्तव्यों की ओर अग्रसर होने के लिए उत्प्रेरित करता है, उस समय अनुशासन, अनुशासन न रहकर आत्मधर्म बन जाता है। उसमें सहजता और आत्मीयता आ जाती है। वह अनुशासन बाहर से थोपा हुआ नहीं, अपितु आत्मगत होता है। श्रद्धेय आचार्यश्री इस प्रकार के प्रयोग सदैव करते रहते थे। उन्होंने संघीय अनुशासन को | हमेशा प्रधानता दी। अनुशासन का उल्लंघन करना उन्हें बहुत ही अखरता और अनुशासनात्मक कार्यवाही भी करते। उसके पश्चात् उनका हृदय वात्सल्य से छलछलाने लगता, तब उनका कठोर अनुशासन भी किसी को कठोर प्रतीत नहीं होता।
विवादों से दूर
आचार्य श्री को वाद-विवाद पसन्द नहीं था। उनका यह स्पष्ट अभिमत रहा कि बाद-विवाद से तत्त्वबोध नहीं अपितु कषाय की अभिवृद्धि होती है। यह शक्ति का अपव्यय है। निरर्थक शक्ति का दुरुपयोग करना बुद्धिमानी नहीं है। मुझे स्मरण है कि अजमेर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
शिखर सम्मेलन के अवसर पर एक व्यक्ति आपश्री के पास आया और बोला- मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
आचार्यश्री ने मुस्कराते हुए पूछा-किसलिए ?
उसने कहा- मैं आपको पराजित कर यह उद्घोषणा करूँगा कि श्रमण संघ के आचार्य मेरे जैसे से हार गये।
आचार्यश्री ने उसी प्रकार मुस्कराते हुए पूछा-उससे तुम्हें क्या लाभ होगा ?
उसने कहा- इससे मेरा सम्पूर्ण समाज में यश फैलेगा। आचार्यश्री ने कहा तो फिर तुम यह मान लो मैं हारा और तुम जीते।
आगन्तुक आचार्यश्री के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि आपश्री ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही मुझे पराजित कर दिया। जीवन और शिक्षा
जीवन का शिक्षा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन शरीर है तो शिक्षा उसका प्राण है। शिक्षा के अभाव में जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है। शिक्षा से ही जीवन में अभिनव चमक और दमक आती है। आचार्यश्री समय-समय पर शिक्षा पर बल देते रहे, आपश्री ने प्रबल प्रेरणा देकर शताधिक स्थानों पर पाठशालाएँ और स्कूल व छात्रावास खुलवाये। श्री तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड आपश्री की ही कल्पना का मूर्त रूप है, जिसमें भारत के एक छोर से द्वितीय छोर तक हजारों विद्यार्थी, सन्त व सतीगण परीक्षा देते हैं, प्रवेशिका से लेकर आचार्य तक अध्ययन होता है।
आपश्री का अभिमत था कि जीवन को संस्कारी, विचारी और आचारी बनाने के लिए शिक्षा से बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है। आज स्वतन्त्र भारत के समक्ष दो समस्याएँ हैं- शिक्षा और रक्षा। रक्षा की समस्या का समाधान तो दस-बीस लाख सैनिक कर सकते हैं पर अज्ञानान्धकार को मिटाने के लिए सभी को शिक्षित बनना आवश्यक है। शिक्षा केवल व्यावहारिक ही नहीं अपितु आध्यात्मिक भी होनी चाहिए। सदाचार और निर्मल जीवन ही सच्ची शिक्षा का आधार है।
प्राकृत भाषा के प्रेमी
आज पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में मानव अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा को भूलता चला जा रहा है। यही कारण है कि वह प्राचीन महापुरुषों की मौलिक विचार-निधि से वंचित हो रहा है. और असहाय की भाँति इधर-उधर भटक रहा है। आपश्री का मत था कि संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से अपने असीम सौन्दर्य को अभिव्यक्त करती है। साहित्य सामाजिक भावना, क्रान्तिकारी विचार एवं जीवन के विभिन्न उत्थान और पतन की
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विशुद्ध अभिव्यंजना है। वह समाज के यथार्थ स्वरूप को अवगत को भी लुभा लेती, मन को मोह लेती। आपश्री की जादू भरी कराने वाला दर्पण है और संस्कृति का प्रधान संवाहक है। वह वाणी से साधारण व्यक्ति ही नहीं किन्तु देश के चोटी के विद्वान सार्वदेशिक और सार्वकालिक 'सत्य', शिवं और सुन्दरम्' को व्यक्त J और नेतागण भी प्रभावित हुए। आपकी वाणी में मृदुता, मधुरता करता है और गहन समस्याओं का समाधान करता है। प्राकृत । और सहज सुन्दरता थी। भावों की लड़ी, भाषा की झड़ी और तर्कों साहित्य भारत की अनमोल निधि है। उसमें आध्यात्मिक, सामाजिक की कड़ी का ऐसा मधुर समन्वय होता कि श्रोता झूम उठते।
और सांस्कृतिक प्रभृति जीवन की समस्त भावनाएँ अभिव्यंजित हुई आपका प्रवचन मधुर ही नहीं, अति मधुर होता था। आपश्री के हैं। भगवान महावीर एवं तथागत बुद्ध ने इसी भाषा में उपदेश प्रवचन की तुलना महात्मा गांधी के प्रवचनों से सहज रूप से कर प्रदान किया है। सम्राट अशोक ने शिला-लेख और स्तम्भ-लेखों को सकते हैं। इसी भाषा में उत्कीर्ण कराया है। खारवेल का हाथी गुफा लेख भी
बहुभाषाविद् प्राकृत में ही है। हजारों ग्रन्थ इस भाषा में निर्मित हैं, इसलिए इस
___ भाषा की दृष्टि से आचार्यश्री का परिज्ञान बहुविध और भाषा का अध्ययन आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य होना
बहुव्यापी था। संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं पर उनका चाहिए। आपश्री ने शताधिक व्यक्तियों को इस भाषा का गम्भीर
पूर्ण अधिकार था। हिन्दी, गुजराती, मराठी फारसी और अध्ययन करने के लिए प्रेरणा प्रदान की।
राजस्थानी भाषा में धाराप्रवाह प्रवचन कर सकते थे, लिख सकते | संगठन के प्रबल समर्थक
थे। मराठी आपश्री की मातृभाषा थी। सन्त तुकाराम के अभंगों को आचार्यश्री जीवन के अरुणोदय से ही संगठन के प्रबल समर्थक
और अन्य मराठी सन्तों के भजनों को आप बड़ी तन्मयता के थे। आपश्री के स्पष्ट विचार थे कि 'संगठन जीवन है और विघटन | साथ गाते थे। मृत्यु है। जैन समाज की बिखरी हुई शक्तियों को देखकर आपश्री के
महापुरुष मन में अपार वेदना होती, और हृदय की वेदना वाणी के द्वारा अनेक बार मुखरित भी हुई। मैंने स्वयं देखा है-सादड़ी, सोजत,
त्याग और मनस्विता, आदर्श चिन्तन और पुरुषार्थमय जीवन, अजमेर व साण्डेराव सन्त सम्मेलनों में आपश्री ने जो मानसिक व
उदार वृत्ति और सत्य पर दृढ़ रहने का आग्रह, प्रेम-पेशल हृदय बौद्धिक श्रम किया, वह किसी से भी छिपा नहीं है। जीवनभर आप
और निर्भय कर्तव्यनिष्ठा, सबके प्रति आदर भाव और सप्रयोजन सम्पूर्ण जैन समाज की एकता के लिए अथक पश्रिम करते रहे।
विरोध करने की क्षमता, विनम्रता और सैद्धान्तिक अकड़ एक साथ
नहीं रह पाती। जहाँ रहती है वह मानव नहीं, महामानव है। वाणी के जादूगर
आचार्यश्री के जीवन में इनका अद्भुत मिलन हुआ, इसलिए वे बोलना एक कला है और कलाओं में उसका प्रथम स्थान साधारण पुरुष नहीं, महापुरुष थे। युग-युग तक हम उस महापुरुष है। आचार्यश्री की वाणी में जादू था जो श्रोताओं के दिल । के उपकारों को याद करते रहेंगे।
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जिन्दगी में हंसना अब जिन्दगी में तुम हँसते चलो।
और ज्ञान का दीप जलाते चलो।।टेर॥ जीने की कला को सीखो जरा। न देना अन्य को कष्ट जरा॥
दुश्मन को मित्र बनाते चलो॥१॥ यदि आँधी तूफान भी आयेंगे। मन दृढ़ हो तो मिट जायेंगे।
काँटों में जैसे फूल खिलो॥२॥ यदि हार को जीत में बदलाएँ। तब विष भी अमृत हो जाए। "पुष्करमुनि" जीवन फूलो फलो॥३॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
प्रज्ञा पुरुष आचार्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी
।
REP
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-दिनेश मुनि जम्बू द्वीप...भरत खण्ड...आर्यावर्त आदि गौरवशाली नामों से 'मेदपाट'-इस भू-भाग का संस्कृत नाम अवश्य रहा, उसी का अभिहित, जगद्गुरु भारत देश की पश्चिम दिशा का अलंकार है- अपभ्रंश रूप-'मेवाड़' है। इस क्षेत्र में मेद, मेव या मेर जाति की राजस्थान। शौर्य एवं तप त्याग की भूमि राजस्थान में समय-समय बहुलता के कारण इसका मेदपाट नाम प्रचलित हुआ था। विक्रम की पर अनेक शूरवीर, धर्मवीर, त्यागवीर, दानवीर, तपवीर, कर्मवीर ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ और मेदपाट दोनों ही नामों अवतरित हुए हैं जिन्होंने अपनी यशोगाथाओं से इसका 'वीर-भूमि' का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है। प्राकृत ग्रंथ-'धम्म परिक्खा' नाम चरितार्थ कर दिया है। शौर्य और पराक्रम के साथ-साथ (१०४४ वि.) और हर्डी के प्रस्तर लेखों (१०५३ वि.) में इन अध्यात्म, औदार्य, कला और संस्कृति की पावन धरा के रूप में भी नामों के उल्लेख प्राप्य हैं। मेवाड़ की दो नदियाँ-बेड़च और गम्भीरी यह सदा अविस्मरणीय रहेगी। राजस्थान समन्वय का मन्दिर है- अत्यन्त प्राचीन हैं। इनके मुहानों पर पुरातत्ववेत्ताओं के मतानुसारपौरुष और परमतत्त्व का, शौर्य और साधना का भी। यहाँ के वीरों मानव सभ्यता के विकास का अति प्राचीन क्रम रहा था। आहड़ की परम्परा धर्म और नीति-संगत रूप में पराक्रम-प्रदर्शन की रही और बागोर की खुदाई से प्राप्त अवशेषों ने मेवाड़ की ४ जहार है, तो भक्तगण अद्भुत पराक्रम, साहस और अध्यवसाय के साथ / वर्ष पूर्व की विकासमान सभ्यता के साक्ष्य निहित हैं। धर्म को ओज और तेज से ऊर्जस्वित रूप प्रदान करते रहे हैं।
मेवाड़ का राजनैतिक इतिहास भी अत्यन्त रोचक है। आठवीं धर्म-समन्वय और सर्वधर्म-समादर कर इस उदार भूमि पर वैदिक,
शती के अन्त में इस राज्य की स्थापना गुहिलवंशीय शासक बापा वैष्णव, शैव, शाक्तादि मत प्रचलित होते रहे तो जैन बौद्ध धर्म भी ।
रावल द्वारा की गयी थी। मुगल शासकों ने आक्रमण किये और पल्लवित हुए। इसी भूमि पर इस्लाम, ईसाई आदि विदेशी धर्मों को
१३वीं शताब्दी में चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। अलाउद्दीन भी प्रचार-प्रसार का समुचित वातावरण मिला। सभी धर्मों ने
खिलजी के आमक्रण और रानी पद्मिनी द्वारा जौहर की इतिहास परस्पर सौहार्द और सौजन्य के साथ करुणा, क्षमा, मानव-मैत्री,
प्रसिद्ध घटना १४ वीं शताब्दी की हैं और १६वीं शताब्दी में अहिंसा, सत्य, शान्ति, संयम, त्याग, सेवा आदि उदात्त मानवीय
हल्दीघाट का वह प्रसिद्ध युद्ध हुआ जिसने राणा प्रताप की यशोगाथा गुणों से यहाँ की पीढ़ियों को ऐसा सींचा कि राजस्थान उदारचेता,
को अमरत्व प्रदान कर दिया। इन्हीं के पुत्र राणा अमरसिंह ने धर्मप्रिय जनता का पर्याय ही बन गय। इसी राजस्थान का दक्षिणी
१६७२ में 'मुगलों' से संधि की और मेवाड़ में शान्ति एवं स्थिरता भू-भाग मेदपाट या मेवाड़ है जो शक्ति और भक्ति, शौर्य और
का नवयुग आरम्भ हुआ। इससे कुछ ही पूर्व अरावली पर्वतमालाओं साधना के चरम और परम कीर्तिस्थल के रूप में इतिहास-विश्रुत ।
की उपत्यकाओं में सामरिक दृष्टि से सुरक्षित स्थल, पीछोला झील के और जगवंद्य रहा है।
समीप १५५९ वि. में उदयपुर नगर की स्थापना हुई थी। जलाशयों मेवाड़-महिमा
और उद्यानों की रमणीयता से शृंगारित उदयपुर नगरी आचार्य श्री इसी मेदपाट-मेवाड़ की पावन धरा महाराणा प्रताप के पराक्रम
की जन्मस्थली के रूप में धन्य और कृतकृत्य हो उठी है। से भी, तो भक्तिमती मीराबाई की उपासना से भी जगमगाती रही । ओसवाल वंश यशो गाथा है। रानी पद्मिनी के सतीत्व, पन्नाधाय की निष्ठा एवं बलिदान,
___ श्रद्धेय आचार्य सम्राट श्री ओसवाल वंशोत्पन्न बरडिया-कुल भामाशाह के त्याग और दानवीरता के अनुपम कीर्तिमानों से यह ।
दिवाकर, एक महान् विभूति सिद्ध हुए हैं। ओसवाल वंश की स्थापना धरती विभूषित है। धर्म और कर्म की इस अद्भुत लीला-स्थली ने ।
की भी एक ऐतिहासिक गाथा है। राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के आचार्य हरिभद्र सूरि जैसे ज्ञानयोगी, जैन दिवाकर जैसे धर्मवीर,
ओसिया स्थान से उद्गम पाने के कारण इस वंश का यह नाम रहा। उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी जैसे तेजस्वी सन्त, राष्ट्रसंत उपाध्याय ।
ओसिया-निवासी मांस-मदिरादि कुव्यसनों में ग्रस्त थे। सर्वजन-हितैषी श्री पुष्कर मुनि जी जैसे अध्यात्म योगी देकर धर्म-जगत् की महती
आचार्य रत्नप्रभसूरि जी ने जब अज्ञानांधकार में निमग्न जनता की सेवा और चिर-स्मरणीय उपकार किया है। इसी मेवाड़ प्रदेश की ।
यह दुर्दशा देखी तो वे करुणार्द्र हो उठे और उनके मन में इस हृदय स्थली झीलों की नगरी उदयपुर को श्रद्धेय आचार्य श्री देवेन्द्र
जन-समुदाय को व्यसन-मुक्त करने की अन्तः प्रेरणा जागृत हुई। मुनि जी की पावन जन्म स्थली होने का गौरव भी प्राप्त है।
व्यापक जनहित की भावना से तब उन्होंने देवमाया का प्रसार किया। _ 'मेवाड़'-इस नामकरण के आधार के सम्बन्ध में हमारा तत्कालीन नरेश उप्पलदेव के एकमात्र युवा पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु इतिहास और परम्पराएँ मौन हैं। प्राचीन ग्रंथों, पुरातात्विक महत्व हो गयी। सर्वत्र शोक व्याप्त हो गया। मरघट में युवराज के दाह के आलेखों में 'शिवि', 'प्रागवाट' आदि नामों का उल्लेख हुआ है, संस्कार की प्रारम्भिक प्रक्रिया चल रही थी, तभी जैनाचार्य जी का किन्तु कब से मेवाड़ नाम प्रचलित हो गया, कुछ निश्चित नहीं है। एक शिष्य वहाँ उपस्थित हुआ और संवेदना के स्वर में उसने संतप्त
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विद्वान मनीषी आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जन्म दीक्षा
आचार्य पद वि.सं.१९८८ वि. सं. १९९७
वि.सं. २०४९ कार्तिक वदि १३ शनिवार फाल्गुन सुदी ३ शनिवार चैत्रशुक्ला ५ उदयपुर खण्डप
२८ मार्च ९३ ७/११/१९३१ १/३/१९४१
उदयपुर
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इस पार सुखों का सागर है जिसमें भव-पीड़ा की लहरें।
उस पार त्याग का मधुवन है आओ निर्भय होकर विचरें।
दीक्षा के पूर्व भौतिक ऐश्वर्य एवं सुख सुविधाओं में पलते इच्छाओं के राजकुमार श्री धन्नालाल बरडिया (वैराग्य अवस्था में आज के आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि)
संयम के असिधारा पथ पर चलते हुए आत्मिक आनन्द की अनुभूति में मगन दीक्षा के प्रारम्भिक पलों में बाल मुनि देवेन्द्र
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जनों को परामर्श दिया कि यदि आप हमारे गुरुदेव के आदेशानुवर्ती प्रतिभाशाली तो थे ही, व्यावसायिक क्षेत्र में भी बड़े दक्ष थे। हो जायें तो युवराज पुनर्जीवित हो सकते हैं। डूबतों को मानों तिनके | उच्चस्तरीय मानवीय सद्गुणों ने उन्हें अत्यन्त जनप्रिय भी बना | का सहारा मिल गया। भग्नाश जनता के मन में सहसा आशा की दिया। लगभग १८ वर्ष की आयु में, उदयपुरवासी प्रतिष्ठित किरण जगमगा उठी। युवराज के पार्थिव तन को लेकर जन-समुदाय । अभिभाषक (वकील) श्री अर्जुनलाल जी भंसाली की कन्या प्रेमकुँवर आचार्य रत्नप्रभसूरि जी के समक्ष उपस्थित हुआ। करुणामूर्ति आचार्य जी के साथ आपका मंगल-परिणय सम्पन्न हुआ। सन् १९२४ ई. के जी ने शोकाकुल जनों को अपनी उपदेश-सुधा से सींचकर शान्त 1 ११ नवम्बर को इस बरडिया दम्पति को कन्या-रत्न-सुन्दरी की मनस्क बनाया और उन्हें आश्वस्त किया कि युवराज को प्राण-दान प्राप्ति हुई जो आगे चलकर परम यशस्विनी, जैन धर्माकाश की मिल सकता है, किन्तु यह तभी सम्भव है जब आप सभी मांस-मदिरा | उज्ज्वल तारिका महासती श्री पुष्पवती जी बनीं। कालान्तर में को त्यागकर, शुद्ध और सात्विक जीवन जीने का संकल्प ग्रहण करें। स्वनामधन्या सुशीला ने सुन्दरीजी की अनुजा के रूप में जन्म लिया तत्काल सभी ने आचार्य जी के आदेश को स्वीकार करते हुए संकल्प जो प्रारब्धवशात् अत्यन्त अल्प आयुष्यभोगी रही। सुशीला के लिया, देव माया का प्रभाव निरस्तकर आचार्य जी ने सभी को दिवंगत हो जाने का आघात माता प्रेमकुँवर जी को अतिशय गहन आशीर्वाद दिया। राजपुत्र को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ और हर्षातिरेक } रूप में लगा और वे अत्यन्त दारुण मनोरोग से ग्रस्त हो गयीं। के साथ राजपरिवार सहित समस्त ओसियावासियों ने जैन धर्म पतिदेव श्री जीवनसिंह जी ने दत्तचित्तता के साथ अपरिमित सेवा अंगीकार किया।
की, हर सम्भव उपचार कराया गया, किन्तु होनी ही कुछ ऐसी थी यों ओसवाल वंश की स्थापना विक्रमी सम्वत् ५०० से
कि यह दाम्पत्य साहचर्य दीर्घजीवी नहीं रहा। धर्मपत्नी के निधन से १००० के मध्य किसी समय हुई। इस वंश के १८ गोत्र माने गये
संतप्त श्री जीवनसिंहजी को सर्वत्र शून्य ही दृष्टिगत होने लगा। वे हैं जिनकी लगभग ५०० उपशाखाएँ हैं और बरडिया भी उन्हीं में
सघन नैराश्य में निमग्न से हो गये। से एत गोत्र है। कहा जाता है कि वट-वृक्ष का राजस्थानी में काल-यापन के संग उनके मानस को भी स्थैर्य-धैर्य मिला और प्रचलित नाम 'बरडा' इस गोत्र के नामकरण का आधार है, किन्तु परिजनों का भी प्रबल आग्रह रहा, परिणामतः श्री जीवनसिंह जी यह तर्क-संगत प्रतीत नहीं होता। बरडा के साथ गोत्र का कोई का परिणय गोगुन्दा निवासी श्रीमान् हीरालाल जी सेठ की सद्गुणी तारतम्य स्थिर नहीं हो पाता है। एक अन्य मतानुसार 'बरडिया' कन्या तीजकुमारी जी के संग सम्पन्न हुआ। “योग्य से ही योग्य का नाम मूल ‘वर दिया' (वरदान-प्राप्त) शब्द का अपभ्रंश रूप है। यह सम्बन्ध होना संयोग था। तीजकुमारी जी बाल्यकाल से ही सिद्धान्त अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
धर्म-संस्कार युक्त, शुद्धाचार-विचार की तथा स्वाध्याय परायणा थीं। पवित्र पारिवारिक परिवेश
सन्त-सतियों का सान्निध्य एवं मंगल प्रभाव सुलभ रहा। उनकी
मानसिकता भी जन्मजात धर्मप्रधान थी। प्राप्त वातावरण और गहन उदयपुर नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित बरडिया परिवार
अध्ययनशीलता ने उसे दृढ़तर बना दिया। धर्मतव की वे परम के मुखिया थे-श्री कन्हैयालाल जी। धर्मप्रिय समाज में अत्यन्त
विदुषी, प्रतिभाशालिनी महिला थीं। आध्यात्मिक उत्थान की आनन्द लोकप्रिय श्री कन्हैयालाल जी सौहार्द और औदार्य के मानो साकार
की अमंद ललक ने ही उन्हें उत्कर्ष प्रदान किया और कालान्तर में रूप ही थे। धर्माचार की दृढ़ता उनकी अनन्य विशेषता थी।
उन्होंने श्रमण संघ में अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। संयम आयंबिल, सामायिक आदि के नियमित साधक होने के साथ-साथ
ग्रहण कर वे ही महासती श्री प्रभावती जी के नाम से सुविख्यात आपको गुप्तदान की प्रवृत्ति अत्यन्त प्रिय थी। सन्तों की सेवा
हुईं। श्रीमती तीजकुमारी ने विवाहोपरान्त एक कुशल गृहस्वामिनी उपासना में रत रहने वाले श्री कन्हैयालाल जी बरडिया भक्तामर
और ममतामयी जननी का एक आदर्श स्थापित किया। बालिका स्तोत्र, उवसग्गहरं स्तोत्र आदि के नियमित पाठकर्ता और शास्त्र
सुन्दरी को तो मानो अपनी जननी ही पुनः मिल गयी। श्रीमती श्रोता थे। व्यावसायिक क्षेत्र में भी उनको प्रतिष्ठा और यश प्राप्त
तीजकुमारी जी का निर्मल स्नेह-भाव और वात्सल्यपूर्ण निश्छल था। उदयपुर, बड़ीसादड़ी, भीडर, कानोड़ में आपके वस्त्र-व्यवसाय
व्यवहार ही ऐसा था। सम्बन्धी प्रतिष्ठान थे। आप चार सुपुत्रियों तथा सर्वश्री जीवनसिंह जी, रतनलाल जी, परमेश्वरलाल जी, मनोहरलाल जी एवं
कुछ कालोपरान्त श्रीमती तीजकुमारी जी को मातृत्व का गौरव मदनलाल जी-पाँच सुपुत्रों के पिताश्री थे।
भी प्राप्त हुआ। कुल-दीपक बसन्त कुमार का आगमन इस
परिवार में हुआ, किन्तु महान् आत्माओं के जीवन में परीक्षा की पुण्यशील पिताश्री-माताश्री
अनेक घड़ियाँ उपस्थित होती हैं। नियति की क्रूर आँधी ने श्री कन्हैयालाल जी बरडिया के ज्येष्ठतम पुत्र श्री जीवनसिंह असमय ही इस नन्हीं ज्योति को बुझा दिया। बसन्त कुमार के जी बड़े ही योग्य और मनोज्ञ थे। वर्तमान शताब्दी के आरम्भिक निधन ने तीव्र पारिवारिक विचलन उपस्थित कर दिया, किन्तु दशकों में भी (जो शिक्षा की दृष्टि से मेवाड़ के इतिहास का अत्यन्त समत्वभाव से विवेकशील माताश्री सारी निर्मम परिस्थितियों को पिछड़ा हुआ युग था) आपने मैट्रिक तक की शिक्षा ग्रहण की। आप सहन करती रहीं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धनतेरस-धन्यतेरस हो गयी
प्रचण्ड और असाध्य हो गया था। उन्हें अपना अन्तिम समय निकट इसके पश्चात् ही उन मांगलिक परिस्थितियों का सूत्रपात हुआ
प्रतीत होने लगा। स्वप्न में उन्हें संथारा लेकर आत्मकल्याण की जिन्होंने न केवल इस बरडिया दम्पति को अनुपम गौरव प्रदान
प्रेरणा प्राप्त हुई। उन्होंने अपने पिताश्री से अपनी यह अभिलाषा किया, अपितु इसके माध्यम से उदयपुर नगरी धन्य हो उठी;
| व्यक्त करते हुए महासती सोहन कुँवरजी म. के दर्शनों की कामना राजस्थान ही नहीं, समग्र भारत देश को कीर्तिलाभ हुआ और
भी प्रकट की। महासती जी के सम्मुख श्री जीवनसिंह जी ने अपने श्रमण संघ को कुशल संरक्षण प्राप्त हुआ। एक मध्यरात्रि के
पापों की आलोचना करते हुए संथारा करवा देने का अनुरोध अनन्तर मातुश्री श्रीमती तीजकुमारी जी को मांगलिक स्वप्न में एक
किया। विवेक पूर्वक महासती जी ने परिजनों की सहमति से दिव्य विमान दृष्टिगत हुआ। प्रफुल्ल-मना श्रीमती तीजकुमारी जी को
सागारी संथारा तत्काल ही करा दिया। श्री जीवनसिंह जी ने अपने
अभिभावकों से क्षमा याचना की और तत्काल ही उनकी जीवन अद्भुत मानसिक शान्ति और सुख का अनुभव हुआ। अति उत्साह में उन्होंने पतिदेव को जगा कर अपने स्वप्न से अवगत कराया तब
लीला का पटाक्षेप हो गया। उन्होंने गद्गद कण्ठ से आन्तरिक हर्षद भावों को व्यक्त करते हुए मृत्यु-पूर्व उसी दिन का प्रसंग है। श्रीमती तीजकुमारी जी ने कहा कि तुम अत्यन्त भाग्यशालिनी हो। हमें महान् पुण्यपूत पुत्र की । अपने नवजात शिशु को पतिदेव की गोद में रख दिया था। प्राप्ति होने वाली है। स्वप्नफलवेत्ताओं ने भी पुष्टि की कि ऐसी भावविभोर होकर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से कहा था-"तुम चिन्ता स्वप्नद्रष्टा नारी के लिए महान् भाग्यशाली वत्स की जननी होने के नहीं करना। मेरा बेटा कभी भी दुःखी नहीं होगा। यह बड़ा ही गौरव का योग बनता है। सारे परिवार में इस सुखद भविष्य की भाग्यशाली रहेगा और मलमल के कपड़े पहनेगा।" पिताश्री का यह कल्पना से अमित आनन्द व्याप्त हो गया। मातुश्री दानशीलता की कथन आज हम सबके लिए मननीय हो उठा है। प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हुई। उनका मानस इन शुभभावों से पूरित बरडिया-परिवार के लिए महान् शोक और संताप का काला हो उठा कि दीन-हीनों की सेवा सहायता की जाय, चतुर्विध धर्म दिवस २८ नवम्बर सन १९३१ को आया। इसी माह की ८ तारीख संघ को आहार अर्पित किया जाय, जीवों को अभय प्राप्त हो और को बालक श्री धन्नालाल का जन्म हुआ था। स्पष्ट है कि इस समय जन-जन में धर्माचार सुदृढ़ हो। पतिदेव श्री जीवनसिंह जी ने भी बालक की आयु मात्र इक्कीस दिन की ही थी और इनकी अग्रजा प्रसन्न चित्तता के साथ इन शुभ मनोकामनाओं की पूर्ति में योगदान सुन्दरी इस समय सात वर्ष की थी। मात्र २७ वर्ष की अल्पायु के किया। मातुश्री को शुद्ध फलाहार करने का दोहद भी उत्पन्न हुआ। ही अपने ज्येष्ठ पुत्र को खोकर पिता श्री कन्हैयालालजी तो जैसे पावन आचार-विचार, शुभभावनाओं और धर्मसाधनाओं के साथ टूट ही चुके थे। श्रीमती तीजकुमारी जी पर विपत्तियों का पहाड़ ही गर्भकाल व्यतीत होता रहा और अन्ततः यथासमय वह शुभ घड़ी टूट पड़ा था, किन्तु वे प्रबुद्ध और विवेकशील थीं। वेदना की इन आयी जब विक्रम संवत् १९८८ की कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धन घड़ियों में भी उनका चिन्तन अपनी भावी भूमिका निर्धारित करने तेरस) तदनुसार ८ नवम्बर सन् १९३१ ई. को बरडिया दम्पति को
में लगा रहा। लौकिक आश्रय छूट जाने पर उन्होंने धर्म का आश्रय दिव्य पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। दीपावली पूर्व धन तेरस का यह पर्व ग्रहण कर लेने का निश्चय किया। संयोग ही था कि गृहस्वामी श्री जैन जगत को महान् विभूति प्रदान कर स्वतः ही 'धन्यतेरस' हो । कन्हैया लाल जी का चिन्तन भी इसी दिशा में सक्रिय था। उदयपुर उठा। लोकमान्यता है कि “अण-पूछा मुहूर्त भला धन तेरस के में स्थिरवास विराजिता साध्वीरत्न महासती श्री मदन कँवर जी एवं तीज” का मुहूर्त अत्यन्त शुभ होता है। हमारे चरितनायक (पूज्य महाश्रमणी सोहन कँवर जी का आश्रय पाकर श्रीमती तीजकुमारी आचार्य सम्राट) को तो तेरस और तीज दोनों का मांगलिक सुयोग्य जी आश्वस्त हुईं। यहीं से माता, पुत्री और पुत्र के जीवन में वह सहज ही सुलभ हो गया था। क्योंकि तेरस को जन्म लिया और } नया मोड़ आया जिसने इन्हें अध्यात्म मार्ग पर गतिशील कर दिया। तीज को दीक्षा ग्रहण की। यह आपश्री के भावी आध्यामित्क उत्कर्ष । इसी गति-प्रगति की सतत् निरन्तरता ने इन्हें महान् आध्यात्मिक का एक सशक्त पूर्व-संकेत ही था। प्रासंगिक रूप में नवजात शिशु उपलब्धियों से विभूषित भी किया है। का नाम धन्नालाल ही रखा गया। मोती जिस सीपी में उत्पन्न होता है ।
महासती श्री पुष्पवती जी वह भी आन्तरिक रूप से दीप्तिपूर्ण होती है। आपश्री के अभिभावक भी धार्मिक मनस्कला से कान्तिमान थे।
सद्गुरुणी जी द्वय की आध्यात्मिक शिक्षाओं और धर्मोपदेशों
का बालिका सुन्दरी जी पर अतिशय और गहन प्रभाव हुआ। वे पितृ-वियोग
अपनी मातुश्री जी के साथ-साथ स्वाध्याय में तल्लीन रहने लगीं। पिताश्री जीवनसिंह जी होनहार पुत्र की प्राप्ति पर अत्यन्त । इसी क्रम में उनके बाल-मन में ही वैराग्य-भावना अंकुरित हो गयी उल्लासित थे। सर्वत्र हर्षातिरेक था किन्तु यह चिरकालिक नहीं रहा। और अनुकूल परिवेश पाकर वह तीव्रगति से पल्लवित होने लगी। बरडिया परिवार पर वज्रपात जैसा हो गया। श्री जीवनसिंह जी महासती जी ने संयम मार्ग की दुष्करताओं से भी इन्हें परिचित संग्रहणी रोग से ग्रस्त थे और इस समय तक यह रोग अत्यन्त कराया, किन्तु इससे ये विचलित नहीं हुई, वरन् उनका संयम
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विदुषी • प्रवर साध्वी रत्न गुरु भगिनी महासती पुष्पवती जी महाराज
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परम निर्मल चारित्र आराधिका समतामूर्ति पूज्य मातेश्वरी महासती प्रभावती जी म.
दीक्षा
स्वर्गवास
वि. सं. १९९८
वि. सं. २०३८
माघ सुदी ३
खरोदा
जन्म
वि. सं. १९७०
श्री. कृ. ५ गोगुन्दा
आषाढ़ शुक्ला ३
उदयपुर
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संकल्प दृढतर होता गया। पितामह जब इस संकल्प से अवगत हुए तो विचलित हो गये। वे भी धर्मानुरागी श्रद्धालु पुरुष थे, किन्तु मोह वश वे सुन्दरी को संयमार्थ अनुमति नहीं दे सके। उनके स्वर्गवास के अनन्तर स्व. श्री जीवनसिंह जी के अनुज श्री रतनलाल जी बरडिया परिवार के मुखिया रहे। उन्होंने भी सहमति नहीं दी, किन्तु धर्मप्राण मातुश्री की ओर से उन्हें सदा ही प्रेरणा प्राप्त होती रही। उन्होंने अपनी पुत्री को दीक्षार्थ अनुमति देने का निश्चय कर लिया। और आगामी प्रातः वे आज्ञापत्र लिखने ही वाली थीं कि उसी रात्रि में भारी आसुरी विघ्न आ उपस्थित हुआ। स्वप्न में एक भयावह दैत्य प्रकट होकर श्रीमती तीजकुमारी जी को आज्ञा पत्र न लिखने का निर्देश देने लगा। यह भय भी दिखाया कि यदि मेरी आज्ञा न मानेगी तो मैं तुझे ऐसा कायिक कष्ट दूँगा कि वर्षों तक पीड़ा से त्रस्त रहेगी। किन्तु दृढ़ निश्चयी मातुश्री अपने संकल्प से विचलित होने वाली न थीं। उन्होंने दैत्य को निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया कि मैं आज्ञा पत्र अवश्य लिखूँगी। बेटी सुन्दरी को संयम ग्रहण करने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती। आसुरी शक्ति का प्रतीक वह दैत्य यह कहकर अदृश्य हो गया कि प्रातः ही मैं तेरे मन में प्रविष्ट होकर आज्ञा पत्र लिखने वाले दाएं हाथ को ही जला दूँगा।
स्वप्न सत्य रूप में घटित होकर ही रहा। प्रातः श्रीमती तीजकुमारी जी रसोई में गयी और सिगड़ी प्रज्वलित करने लगी। तभी उनके व्यवहार में अद्भुत परिवर्तन आया। अपने सीधे हाथ पर मिट्टी का तेल डालकर उन्होंने प्रज्वलित कर दिया और चूड़ियों के साथ अपना ही हाथ जलता देख देख कर वे अट्टहास करने लगीं। यह दुष्कृत्य वस्तुतः उनमें प्रविष्ट असुर का ही था और उसके प्रस्थान पर ही उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका हाथ दग्ध हो गया। है और दारुण पीड़ा हो रही है। स्थिर मन से सारी परिस्थिति विचार कर उन्होंने उच्चारण करके आज्ञा पत्र लिखवाया और अंगूठे की छाप अंकित करते हुए सुन्दरी जी से कहा कि मैं न भी रहूँ, तब भी तू संयम का मार्ग अवश्य ग्रहण करना ।
धर्म-मार्ग में ऐसी थी मातुश्री जी की दृढ़ता और ऐसी ही संकल्प की दृढ़ता का परिचय सुपुत्री सुन्दरी जी ने भी दिया। सभी व्यवधानों को निस्तेज करते हुए उन्होंने १२ फरवरी, १९३८ को दीक्षा ग्रहण की। सुन्दरी जी का दीक्षा नाम महासती श्री पुष्पवती जी रखा गया। आपश्री ने सद्गुरुणी महासती श्री सोहन कुँवरजी म. के. पावन सान्निध्य में स्वाध्याय साधना की और उच्चतर उपलब्धियों की पात्र बनी । न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ साहित्य-रत्न' महासती श्री पुष्पवती जी म. जैन सिद्धान्ताचार्या हैं। जैन दर्शन की अगाध ज्ञाता और निपुण व्याख्याता होने के साथ-साथ आपश्री अनेक जैनेतर धर्मों और दर्शनों की निष्णात विदुषी है। प्रवचन प्रवीणा महासती जी की वाणी में अद्भुत प्रभाव है। मंत्र-मुग्ध से श्रोता समस्त सुधि विस्मृत कर आपश्री द्वारा विवेचित विषय में खो से जाते हैं। महासती जी जब विश्लेषण करती हैं तो गूढ़तम विषय भी सर्व साधारण के लिए सुगम और ग्राह्य हो जाता है, सर्वथा
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निर्भ्रान्त एवं स्पष्ट हो जाता है। आपश्री के प्रवचन ज्ञान की अभिवृद्धि ही नहीं करते, अनुसरण की प्रेरणा भी देते हैं। साक्षात् सरस्वती-पुत्री-सी महासती पुष्पवती जी म. श्रमण संघ की अनुपम विभूति हैं।
महासती श्री प्रभावती जी
अपने पुत्र (आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री) की दीक्षा के उपरान्त स्वयं श्रद्धेया तीजकुमारी जी ने भी दीक्षा ग्रहण की। आपश्री का दीक्षा नाम महासती श्री प्रभावती म. रहा। परम वैदुष्यसम्पन्न, साध्वी रत्ना महासती श्री प्रभावती जी म. की अविचल धर्मनिष्ठा और अपार श्रद्धा, सत्संग और स्वाध्याय की प्रवृत्ति गृहस्थाश्रम की अवस्था में भी न केवल बढ़ी चढ़ी थी, अपितु वह सतत् रूप से उत्तरोत्तर विकसित और सशक्त भी होती रही। आपश्री अत्यन्त प्रबुद्ध एवं प्रखर प्रतिभा की स्वामिनी थीं। अनेक जैन शास्त्र एवं पांच सौ से भी अधिक श्लोक तो आपको कंठस्थ ही थे। साहित्य रचना द्वारा भी आपश्री ने जैन जगत पर बड़ा उपकार किया। आपश्री की रचनाएँ जैन साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। महासती श्री प्रभावती जी म. अध्यात्म साधिका थीं, धर्म-दर्शनतत्त्ववेत्ता थीं, आगम-विदुषी थीं, धर्म प्रसारक एवं समाज सुधारक थी और सबसे बढ़कर तो वे महामानवी थीं। आपश्री की मिलनसारिता, मृदुल व्यवहार और मानव मैत्री की विशेषताओं में ही आपश्री की अपार अपार लोकप्रियता का रहस्य निहित था। सन् १९८१ में अत्युच्च आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ महासती जी का स्वर्गारोहण हुआ।
आचार्य सम्राट बाल्यजीवन की आभापूर्ण भोर
महापुरुष स्वाश्रित होते है, स्वनिर्मित व्यक्तित्व के धनी होते हैं। आचार्य श्री इस स्वर्णिम सिद्धान्त के जीवन्त दृष्टान्त हैं। आपश्री का पितृ-सुख तो अति शैशवकाल तक ही सीमित रह गया था। अभिभावकगण की धर्म-विषयक नैष्ठिकता रक्त-संस्कार रूप में आपश्री में उदित हुई थी। मातुश्रीजी के धर्मानुराग का परोक्ष और प्रत्यक्ष प्रभाव उसे परिपुष्ट करता रहा। वे ही संस्कार ज्ञाताज्ञात रूप में अभिवर्धित होते-होते आज आपश्री की चरम उपलब्धियों के स्वरूप में रूपायित हो गये हैं। इस कथन में रंचमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है आज आपक्षी धर्माराधकों के शिरोमणि हैं। मातुश्री के संस्कारशील प्रबुद्ध संरक्षण श्रद्धेय श्रमण श्रमणियों का सान्निध्य, स्वाध्याय और साधनाओं के बल पर तथा गुरुदेव के आशीर्वादों के फलस्वरूप ही यह उत्कर्ष सम्भव हो पाया है।
महापुरुषों की भावी भव्यता के पूर्व-संकेत शैशवावस्था से ही मिलने लग जाते हैं। यही स्थिति आपश्री के जन्मजात महान सद्गुणों के साथ भी रही । अत्यन्त अल्प आयु में ही उनकी प्रवृत्तियाँ अतिविशिष्ट थीं। सम्वत् १९९१ वि. की चर्चा है। कपासन ग्राम में पूज्य आचार्य प्रवर जवाहरलालजी म. विराजित थे। महाराज साहब के रिक्त पाट के समीप ही आपश्री के पितामह श्री
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । कन्हैयालालजी बरड़िया सामायिक साधना में रत बैठे थे। पाट के संयम-स्वप्न साकार हुआ समीप ही बालवृन्द क्रीड़ारत था। चंचल स्वभावी बालक धन्नालाल
पुत्री सुन्दरी को संयम ग्रहण सम्बन्धी आज्ञापत्र के प्रसंग में सहसा आचार्य प्रवर के रिक्त पाट पर चढ़ बैठे और साथियों को
मातुश्री तीजकुमारी जी को भयावह आसुरी उपसर्ग सहना पड़ा नीचे बिठा कर प्रवचन देने का अभिनय करने लगे। इस बाल-क्रीड़ा
और हाथ जल जाने की पीड़ा दीर्घकाल तक रही। उनके भ्राता उन्हें को देखकर आचार्य प्रवर तीन वर्षीय बालक धन्नालाल से बड़े
हिम्मतनगर ले गये। वहाँ बालक धन्नालाल अपनी मातुश्री की वेदना प्रभावित हुए। बालक के पितामह से वे बोले कि यह बालक दीक्षा ।
से अत्यन्त दुखित रहते और रोते रहते थे। यहाँ तक कि उनके नेत्र ले तो तुम बाधा मत डालना। उन्होंने पूज्य श्रीलालजी म. के इस भी रोग ग्रस्त हो गये। तब स्थान परिवर्तन के प्रयोजन से बालक पूर्वकथन का उल्लेख भी किया कि बरड़िया-परिवार से दीक्षा होगीको उदयपर, अपनी मौसी राजबाई के पास भेज दिया गया था। और वह बालक आगे चलकर धर्मोद्योत करेगा। यह बाल क्रीड़ा । प्रस्थान से पूर्व बालक ने हिम्मतनगर में एक स्वप्न देखा कि पूज्य सत्य सिद्ध होगी और आज का यह बालक धन्नालाल भविष्य में ताराचन्दजी महाराज साहब जप कर रहे हैं, पुष्कर मुनिजी म. सर्वोच्च पाट का अधिकारी हो जायेगा। उस समय भला कौन ऐसी स्वाध्यालीन हैं। दोनों मुनिवरों को उन्होंने श्रद्धा सहित नमन किया कल्पना भी कर सका होगा। पितामह तो मौन हो गये। इसी प्रकार है और उनके मन में दीक्षा ग्रहण करने की भावना उत्पन हुई है।
न भा बालक धन्नालाल को देखकर उनका उज्ज्चल बस तभी निद्रा भंग हो गयी थी। भविष्य पढ़ लिया और मातुश्री से बोला-यह बालक तेरे घर में
उदयपुर आगमन के पश्चात् बालक का यह स्वप्न साकार नहीं रहेगा। यह तो जोगी बनने को आया है। वास्तव में बालक के
हुआ। स्वास्थ्य में किंचित् सुधार होने पर मातुश्री भी हिम्मत नगर अन्तर में वैराग्य ज्योति जगमग कर रही थी। अनुभवी-जन उसी ।
से उदयपुर पहुँच गयी थी। वे बालक को लेकर जब कम्बोल पहुँची की रश्मियों की आभा बाहर से देख लेते थे।
तो वहाँ बालक धन्नालाल का हिम्मतनगर में देखा गया स्वप्न __बालक धन्नालाल की क्रीड़ाएं होती ही इसी प्रकार की थीं। वे साकार हो उठा। पूज्य ताराचन्द जी म. जप कर रहे थे। गुरुदेव अन्य बालकों से पूछते कि कौन-कौन क्या-क्या बनेगा और तब पुष्कर मुनि जी म. स्वाध्याय में लीन थे। बालक ने मन ही मन अपने विषय में कहते-मैं तो पुज्जी (पूज्य आचार्य) बनूँगा। पट्टे पर निश्चित कर लिया कि मैं इन्हीं गुरुवर्यों से दीक्षा ग्रहण करूँगा। पट्टा लगाकर बैलूंगा। वे खेल-खेल में ऐसा करते भी थे। अपनी
मैंने स्वप्न में जिस मन मोहक रूप के दर्शन किये थे, वही मातुश्री से वस्त्र माँग कर उसकी झोली बनाते, पातरों के स्थान पर
आज आँखों के सामने उपस्थित है। साक्षात् वही है।'' एक माह तक कटोरे रख लेते और गोचरी का खेल खेलते। कभी-कभी इन्हें
बालक गुरुदेव श्री के आश्रय में रहे और धर्मग्रन्थों का पारायण बाल्योचित स्वर्णाभूषण भी पहनाये जाते थे। वे उन्हें उतार देते और
करते रहे। इस समय धन्नालाल की आयु लगभग सात वर्ष की रही कहते-ये सब बेकार हैं, मैं तो साधु बनूँगा। उस समय बालक
होगी। ऐसी लघुवय में और इतनी सी अवधि में ही उन्हें पच्चीस धन्नालाल अपने भवितव्य की ओर पूर्व-संकेत कर रहे होते थे।
बोल और प्रतिक्रमण कंठस्थ हो गये थे। स्पष्ट है कि बालक अल्पायु में भी आपश्री चौविहार का पालन किया करते थे। रात्रि में
धन्नालाल होनहार, अत्यन्त मेधावी और प्रतिभाशाली थे। यह घटना जल भी ग्रहण नहीं करते थे। आपश्री की संसार पक्षीय अग्रजा
वि. संवत् १९९५ की है। महासती श्री पुष्पवती जी म. ने अपने संस्मरणों में एक स्थल पर उल्लेख किया है कि एक रात्रि में आपश्री पर तृषा का तीव्र संकट
। वहाँ से लौटे तो उन्होंने परिजनों के सम्मुख अपनी दीक्षा ग्रहण उपस्थित हुआ। माता ने प्रबोधन दिया कि पुत्र, ऐसे कठोर व्रत तो
करने की अभिलाषा व्यक्त कर दी। मोहवशात् सभी परिवार जनों वयस्कों के लिए होते हैं। तुम तो अभी बालक ही हो-जल पीलो।
ने इसका विरोध किया। मात्र मातुश्री ही अपवाद रहीं। वे तो स्वयं किन्तु बालक धन्नालाल अडिग रहे। शरीर पर गीली पट्टियाँ
भी पुत्र की दीक्षा के उपरान्त संयम मार्ग ग्रहण कर लेने को रख-रख कर सारी रात व्यतीत करनी पड़ी। सूर्योदय पर ही ।
समुत्सुक थीं। मातुश्री के साथ बालक धन्नालाल साधु साध्वियों की आपश्री ने जल ग्रहण किया।
सेवा करते रहे। धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय भी निरन्तरित रहा। अहिंसा व करुणा का भाव भी आपश्री के बाल्यकाल में ही ।
वैराग्य-परीक्षा सुस्थापित एवं सशक्त होने लगा था। शीघ्र दीक्षा ग्रहण करने की । बाड़मेर (राजस्थान) जिले के खण्डप ग्राम में वि. संवत् अभिलाषावश आपश्री ने भैरव बाबा के समक्ष वचन (बोलमा) लिये १९९७ में, पूज्य ताराचन्दजी म. और पुष्कर मुनि जी म. का कि विकलांगों को भोजन कराऊँगा, एक सौ बकरों को अमरिया वर्षावास था। श्रीमती तीजकुमारी जी अपने पुत्र सहित वहाँ करूँगा, एक सौ दया पलवाऊँगा। दीक्षा-पूर्व ही इन वचनों की पूर्ति उपस्थित हुई और बालक धन्नालाल को दीक्षा प्रदान करने का भी आपश्री ने की। सत्य ही है कि महापुरुषों में सद्गुण और अनुरोध किया। खण्डप के ही धनाढ्य सेठ रघुनाथ जी धनराज जी महानता जन्मजात ही होती है और उनके विकास के लिए अनुकूल । लूंकड़ ने कई प्रकार के प्रश्न कर बालक धन्नालाल की परीक्षा ली परिवेश भी स्वतः ही सुलभ होता जाता है।
और उन्हें दीक्षा-योग्य घोषित किया।
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एक दिन सेठ रघुनाथ जी ने वैरागी धन्नालाल जी को अपने इंदाड़ा, जोधपुर पधारे जहाँ स्थविर श्री रावतमल जी (ठाणा-२) घर पर भोजन के लिए बुलाया। भोजनोपरान्त सेठ जी ने बालक और पं. नारायणदास जी (ठाणा-२) विराजमान थे। व्याख्यान स्थल धन्नालाल से पूछा-आपके थाल में तीन प्रकार की कटोरियाँ रखी | पर पहुँचने पर बाल मुनि श्री देवेन्द्र मुनि जी के स्वागत में अपार हैं। एक सोने की, एक चाँदी की, एक लकड़ी की! तो आप कौनसी जन समुदाय सहसा उठ खड़ा हुआ और 'एवन्ता मुनि' कहकर कटोरी लेना पसन्द करेंगे?
आपश्री का जय-जयकार किया। जोधपुर के दीवान ने आपश्री के बालक धन्नालाल ने क्षणभर सोचा फिर निर्भीकता पूर्वक बोले
दर्शन किये तो वे आश्चर्य और जिज्ञासा वश पूछ बैठे कि आपने लकड़ी की!
इतनी कम आयु में साधुत्व कैसे ग्रहण किया ? आपश्री का उत्तर
था संसार असार है, मैंने वैराग्य भाव से उत्प्रेरित होकर ही दीक्षा सेठ जी चौंक उठे। हैं !! लकड़ी की क्यों? सोना चाँदी ज्यादा
ग्रहण की है। आप भी इस अनुभव को करना चाहें तो दीक्षा ग्रहण मूल्यवान होता है, तुमको मालूम नहीं ?
कर सकते हैं। दीवान इस उत्तर से संतुष्ट और प्रभावित हुए। धन्नालाल सेठ जी, मेरे विचार से सोना, चाँदी की महत्ता कुछ आपश्री के लिए नवीन का यह स्वरूप नया होते हुए भी नया नहीं भी नहीं है। सोचिए, अगर आपको नदी पार करनी है, और एक था। इसे ग्रहण करने की तीव्र अभिलाषा और प्रतीक्षा लम्बे समय सोने की, एक चाँदी की और एक लकड़ी की नाव खड़ी हो तो से आपश्री के चित्त में थी। इस जीवन परिवेश को आपश्री ने आप कौनसी नाव में बैठना पसन्द करेंगे?
अपनाया तो अब था, किन्तु इससे गहन परिचय और लगाव बहुत सेठ रघुनाथ जी व्युत्पन्नमति बालक धन्नालाल की प्रखर
पूर्व से था, यही स्वरूप आपश्री के लिए श्रेयस्कर और प्रियकर था बुद्धिमत्ता और वैराग्य वृत्ति देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने
और बना रहा। पूज्य गुरुदेव ताराचन्द जी म. से निवेदन किया-"यह बालक जिन ____ गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के प्रेरक और पावन शासन दिपायेगा! महान प्रभावशाली होगा।"
सान्निध्य में आपश्री ज्ञानार्जन करते रहे। “अप्रमत्त भाव से ज्ञान तब खण्डप श्री संघ का अनुरोध प्रबल हो उठा-कि दीक्षा-स्थल
और ध्यान की साधना करो"-गुरुदेवश्री के इस आदेश निर्देश को खण्डप ही रखा जाय। दीक्षा सम्बन्धी निर्णय से पूर्व ही चातुर्मास
साधना का मूलमंत्र मानकर आपश्री किंचित् मात्र भी प्रमाद किये सम्पन्न हो गया और मुनि वर्यों का खण्डप से उदयपुर की और बिना, सतत् रूप में आगम, दर्शन और धर्म सिद्धान्तों का गहन 2902
900 प्रस्थान हो गया, किन्तु खण्डप श्री संघ का अनुरोध पुनः पुनः होता
अध्ययन करते रहे, ज्ञान को आत्मसात् करते रहे। स्वाध्याय की ही रहा। अन्ततः खण्डप में ही, नौ वर्ष की आयु में, बालक
इसी संजीवनी से आपश्री का काया-कल्प हो गया। मन परिष्कृत, धन्नालाल को पूज्य गुरुदेव श्री ताराचन्द जी म. द्वारा, फाल्गुन
विचार विमल और आपश्री स्वयं साक्षात् ज्ञान-मूर्ति हो गये। आपश्री शुक्ला तृतीया तदनुसार १ मार्च १९४१ को, भव्य समारोह में दीक्षा
का दीप्तमान एवं दिव्य व्यक्तित्व गुरुदेवश्री की अनन्त कृपा और प्रदान कर दी गयी। उनका दीक्षा नाम-देवेन्द्र मुनि रखा गया और
अमित आशीर्वादों का ही प्रतिफल है। सत्य ही है कि माता-पिता इन्हें गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. का प्रथम शिष्य घोषित किया व्यक्ति को जन्म देते हैं और सद्गुरुदेव ही व्यक्तित्व के जनक गया। इसके पश्चात् ही इसी वर्ष आषाढ़ शुक्ला तृतीया को मातुश्री होते हैं। श्रीमती तीज बाई जी ने भी महासती श्री सोहन कुँवर जी म. के
आपश्री के गहन अध्ययन ने आपश्री के चिन्तन को प्रेरित पावन सान्निध्य में संयम ग्रहण कर लिया और उनका नाम प्रभावती
किया और चिन्तन ने आपश्री को गम्भीर लेखन की दिशा में रखा गया।
अग्रसर किया। सृजनधर्मी होकर आपश्री ने जैन दर्शन, धर्म, श्री देवेन्द्र मुनि जी की लघुवय में दीक्षा के प्रश्न पर दीक्षा पूर्व । आचार-विचार, कर्म सिद्धान्त और नीतिशास्त्र आदि को अपनी जो कुतर्क विरोध-स्वरूप प्रस्तुत किये गये वे तो सभी शास्त्रीय विषय-भूमि के रूप में अपनाया। शोध की प्रवृत्ति ने आपश्री को विधान द्वारा निरस्त कर दिये गये, किन्तु दीक्षा पश्चात् उनकी तलस्पर्शी दृष्टि प्रदान की और कृतियों को नवीनता और मौलिकता लघुवय चर्चा और आकर्षण की कारण बनी रही। नवदीक्षित श्री से शृंगारित कर दिया। गूढ़ गम्भीर विषय भी आपश्री का विवेचनदेवेन्द्र मुनि जी को पदयात्रा का अभ्यास नहीं था। अनेक अवसरों विश्लेषण पाकर 'हस्तामलकवत्' अति स्पष्ट, सुगम और बोध-गम्य पर गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज सा. और दादागुरु श्री हो गये। वे सर्वग्राह्य हो गये। अपार साहित्य की सृष्टि आपश्री ने ताराचन्द जी महाराज साहब ने इन बाल-मुनि को अपने कंधों पर की है। आपश्री को जैन-वाङ्मय के उत्कृष्टतम रचनाकार होने का बिठाकर भी विहार किया। मोकलसर में आपश्री की बड़ी दीक्षा गौरव तो प्राप्त है ही, आपश्री सर्वाधिक कृतियों के रचयिता भी सम्पन्न हुई। उस मंगल अवसर पर जैन दिवाकर चौथमल जी म. माने जाते हैं। साहित्य को धर्म प्रचार का सबल और समर्थ साधन भी अपने शिष्यों के साथ मोकलसर पधारे। मोकलसर से विहार । स्वीकारते हुए आपश्री ने सर्वांगपूर्ण रूप में जैन दर्शन को अपनाया कर श्री देवेन्द्र मुनि जी अपने गुरुदेवश्री के साथ सिवाना, समदड़ी, और उसे जन-जन के लिए सुलभ भी करा दिया। विचार-वैविध्य,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । साहित्य रूपों की बहुलता और रचना संसार की व्यापकता आपश्री हुई। श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविकाओं के चतुर्विध धर्म संघ द्वारा की सृजनशीलता की विशेषताएं रही हैं। इन्हीं विशेषताओं के । अपनी श्रद्धा, आस्था, निष्ठा का आचार्य श्री के श्रीचरणों में आधार पर आपश्री का साहित्य खोज और शोध प्रबन्ध का विषय | समर्पण का यह भव्य चादर समारोह वस्तुतः एक भाव-भीना हो गया है। आपश्री के साहित्य के गवेषणात्मक अध्ययन की प्रस्तुति आदर-समारोह हो गया था। उन लक्ष-लक्ष धर्मानुरागी जनों की इस पर डॉ. राजेन्द्र मुनि जी को आगरा विश्वविद्यालय द्वारा पी.एच.डी. आस्था एवं अपेक्षा को आज पूज्य आचार्य श्री अपने अद्भुत की उपाधि से विभूषित भी किया गया है। विभिन्न विश्वविद्यालयों कौशल और सामर्थ्य से फलीभूत करने जा रहे हैं। सूत का के पाठ्यक्रमों में भी आपश्री के ग्रंथों को स्थान प्राप्त हुआ है। एक-एक धागा जैसे संगठित होकर चादर बना, उसी भाँति एकत्व विद्वद्जनों द्वारा आपश्री की कृतियों को सराहना और आदर प्राप्त
में बँधकर संघ भी संगठित रहे, उसकी समस्त शक्ति और क्षमता हुआ है। अपने मूल्यवान साहित्य के बल पर आपश्री अत्यन्त
व्यापक जनहित की ओर उन्मुख हो जाय-संघ की इस महत्वाकांक्षा लोकप्रिय और अबाध श्रद्धा के पात्र भी हो गये हैं।
की पूर्ति में आचार्य श्री दत्त-चित्तता के साथ संलग्न हैं। आचार्य श्री
के सक्षम हाथों में नेतृत्व की बागडोर सौंपकर संघ आज अपनी प्रगति के सोपान
गति-प्रगति, विकास और उन्नयन के लिए आश्वस्त है, निश्चिंत है। श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि आपश्री का विमल एवं विवेकपूर्ण संरक्षण पाकर संघ धन्य हो उठा जी म. का ध्यान भी धर्म तत्व के द्रष्टा और रचनात्मक व्यक्तित्व है-कृतकृत्य हो गया है। के धनी आपश्री की ओर आकर्षित हुआ। आचार्य सम्राट के गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण परीक्षण में आपश्री की गतिविधियों, प्रवृत्तियों,
आचार्य परम्परा और आपश्री का आचार्यत्व व्यक्तित्व, प्रभाव एवं उपलब्धियों को सर्वोपरि एवं उत्कृष्ट स्थान
आचार्य पद श्रमण संघ का सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न, शिखरस्थ पद प्राप्त हुआ। आचार्य सम्राट ने मन ही मन यह भावना निर्मित कर
है। संघ-वस्तुतः अनेकता में एकता का प्रतीक है। स्थानकवासी जैन ली थी कि देवेन्द्र मुनि जी ही मेरे उत्तराधिकारी होने की यथार्थ समाज कभी अनेकानेक सम्प्रदायों में विभक्त था। कालान्तर में और समुचित पात्रता रखते हैं। पूना सन्त-सम्मेलन में आचार्य सम्राट एकीकरण की अन्तःप्रेरणा जागृत हुई और विभिन्न सम्प्रदायों का श्री आनन्द ऋषि जी म. ने श्रमण संघ के समस्त पदाधिकारी एक समन्वित रूप गठित हुआ और यह नया संगठन-“अखिल मुनियों तथा प्रमुख साध्वियों-श्रावक और श्राविका चतुर्विध संघ से भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" के रूप में परामर्श पर १२ मई १९८७ को घोषित किया कि श्री देवेन्द्र अस्तित्व में आया। एकीकरण की यह महान् घटना वि. सं. २००९ मुनि शास्त्री को श्रमण संघ का उपाचार्य मनोनीत किया जाता है। में घटित हुई। इस चतुर्विध संघ के चार अंग हैं-श्रमण, श्रमणी, स्वयं आचार्य सम्राट ने आपश्री को उपाचार्य पद की चादर भी श्रावक एवं श्राविका। ओढ़ाई। डॉ. शिवमुनि जी का मनोनयन युवाचार्य के रूप में हुआ।
प्रस्तुत एकीकरण एवं संघ की स्थापना में स्थानकवासी जैन २८ मार्च १९९२ तदनुसार चैत्र कृष्णा दशमी, शनिवार को समाज के मूर्धन्य मुनियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। आगम संथारा-संलेखना पूर्वक आचार्य सम्राट आनन्द ऋषि जी म. का महोदधि श्रद्धेय श्री आत्माराम जी म. को संघ के आदि-आचार्यस्वर्गारोहण हुआ।
प्रथम पट्टधर होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इनके उत्तराधिकारी- तदनन्तर अक्षय तृतीया का वह मंगल दिवस (१५ मई, द्वितीय पट्टधर राष्ट्र सन्त जैन धर्म दिवाकर आचार्य सम्राट श्री १९९२) भी आया जब श्रमण संघ को युगद्रष्टा, संघ पुरुष, आनन्द ऋषि जी महाराज मनोनीत हुए। आपको आचार्य पद की मतिमान एवं कुशल अनुशास्ता पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री का चादर, अजमेर में वि. सं. २०१९ तदनुसार माघ कृष्णा ९ दिनांक प्रबुद्ध नेतृत्व आचार्य श्री के रूप में प्राप्त हुआ। श्रमण संघ और ३०-१-१९६३ को ओढ़ाई गई। आप ही के उत्तराधिकारी तृतीय अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन काँफ्रेंस ने सर्व-सम्मति से पट्टधर के रूप में जनप्रिय सन्त-शिरोमणि आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि आपश्री को आचार्य पद की गरिमा से विभूषित कर दिया। यह जी मनोनीत हुए। सहस्रों श्रावक संघों, अनेक तपी-जपी, निश्चय भी कर लिया गया कि आचार्य पद के चादर समारोह का ज्ञानी-ध्यानी, यशस्वी-मनस्वी मुनिजनों, सैकड़ों साधिकाओं तथा भव्य आयोजन उदयपुर में, २८ मार्च १९९३ को रखा जाय। लक्ष-लक्ष श्रावक-श्राविकाओं का समन्वित प्रतीक हो गया हैसर्वथा आधिकारिक रूप में ही आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. “श्रमण संघ और संघ के ही सर्वोच्च प्रतिनिधि एवं पर्याय हो गये आचार्यत्व की अप्रतिम गरिमा एवं महिमा से विभूषित हुए हैं। हैं-अनन्त आस्था के प्रतीक, प्रज्ञा पुरुष, संघाधिप हमारे लोकप्रिय निश्चयानुसार चादर समारोह का आयोजन हुआ। उदयपुर
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज। नगरी को अपने एक और महान् सुपुत्र श्रमणाधिप, परमश्रद्धेय अनुशासनप्रियता के साथ ही आचार्यश्री अत्यन्त विनयशील, आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. का अभिनन्दन करने का सुअवसर । बड़ों का सम्मान करने वाले, छोटों को आदर देकर प्रेम अर्जित प्राप्त हुआ। चादर समारोह की अपूर्व गरिमा इस नगर को प्राप्त करने वाले एक गुणज्ञ और गुणानुरागी अजातशत्रु व्यक्तित्व है।
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४७३ । आचार्यश्री शास्त्रीय दृष्टि से भी परिपूर्ण आचार्यत्व के वाहक । आचार्य श्री आचार-विचार की महानता के भी अद्भुत प्रतीक हैं। इस रूप में आपश्री समग्रतः सक्षम एवं कौशलयुक्त हैं। आचार्य हैं। भगवान महावीर के कथनानुसार-"कुछ लोग विद्या में श्रेष्ठ श्री का गतिशील नेतृत्व प्राप्त कर संघ ऊर्जस्वित हो उठा है, होते हैं, कुछ आचरण में। विद्या और आचरण, ज्ञान और शीलप्रगतिशील स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इसकी विकासमान अवस्था दोनों में जो महान् होते हैं वे ही विशिष्ट जन हैं।" आचार्यश्री का को नव-नवीन क्षितिज, नये आयाम मिलने लगे हैं। परम्परा एवं ऐसे विशिष्ट जनों में अग्रतम स्थान है। आपश्री के चरित्र से यह प्रगति, प्राचीन एवं अर्वाचीन के संतुलित और यथेष्ट समन्वय के कथन पुष्ट हो जाता है कि विद्या से विनय की और सरलता से पक्षधर हैं-आचार्यश्री। आपश्री धर्म को अधुनातन संदर्भो के साधुत्व की शोभा होती है। इन्हीं विशेषताओं ने आपश्री की अनुकूल रूप देकर उसे नवयुगानुरूप और नवपीढ़ी द्वारा महिमा-गरिमा को चरमोत्कर्ष प्रदान किया है, आपश्री का महान् । अनुसरणीय बनाने की साधना में रत हैं। अंध और असामयिक, व्यक्तित्व अनुपम वन्दनीय और अभिनन्दनीय हो गया है। मिथ्या परम्पराओं तथा आडम्बरों के झाड़-झंखाड़ों से मुक्त कर
परमश्रद्धेय आचार्य श्री करुणा के देवता, क्षमा के अवतार हैं। धर्म-समाज को सुरम्य उद्यान की शोभा प्रदान करना भी आचार्यश्री
आपश्री स्व के प्रति चाहे कितना ही निर्ममत्व-भाव रखें किन्तु अन्य का एक परम उद्देश्य है। यही प्रवृत्ति धर्म की चिरन्तनता की एक
सभी के प्रति अपनत्व, वात्सल्य और स्नेह सौजन्य का भाव, अपने सुदृढ़ आधार बन गयी है, सभी वर्गों के लिए संतुष्टि का कारण
अतिरेक के साथ आपश्री के विमल मानस में लहराता रहता है। बन गयी है। यह भी सत्य है कि किसी भी समाज या संगठन का
प्रतिपक्षियों-निन्दकों के प्रति भी आपश्री का जो उपेक्षा भाव बना उत्थान अनुशासन के अभाव में सम्भव नहीं होता और आचार्यश्री
रहता है-वह उनके हृदय-परिवर्तन का मूलाधार बन जाता है। एक कुशल अनुशास्ता हैं। आपश्री के इस सामर्थ्य का रहस्य भी कदाचित् यही रहा है कि आपश्री न केवल अनुशासनप्रिय हैं,
सेवा की प्रवृत्ति भी बड़ी ही कठिन साधना है। पीड़ितों के अपितु अनुशासनबद्ध भी हैं। चतुर्विध संघ के सभी अंगों को
सेवा-कार्य में आपश्री सदा ही अग्रस्थ रहे हैं। अपनी इस विशेषता अपनी-अपनी विधि से अनुशासन में रखने की कला में आचार्य श्री
के कारण आपश्री अपने गुरुदेव श्री की मुखर प्रशंसा के पात्र भी परम पारंगत हैं। संघ के उन्नयन में फिर भला कोई सन्देह की
बने रहे हैं। स्वभावगत मृदुलता और वाणीगत मधुरता आपश्री की स्थिति शेष कैसे रह सकती है।
विशिष्ट पहचान बन गयी है। आपश्री में भाषा का संयम अत्यन्त
उच्च कोटि का है। सभी के लिए आपश्री कोमल, स्नेहपूर्ण, शास्त्रानुसार "आचार्य वह है जो अन्य जनों को आचारवान
सम्मानपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं। 'गुणवान', 'पुण्यवान्', बनाता है, शास्त्रों की यथोचित व्याख्या और अनुशीलन करता है।
'भाग्यवान' जैसे सम्बोधन आपश्री की इस प्रवृत्ति के परिचायक हैं। आचार एवं शास्त्र-शिक्षा द्वारा अन्य जनों की बुद्धि को परिमार्जित
जैनेतर धर्म-सम्प्रदायों, उनके अवलम्बियों के प्रति भी आपश्री की करता है।" इस परीक्षण प्रस्तर पर आचार्य श्री का व्यक्तित्व और
सदा ही समादर और सौजन्य युक्त भावना रहती है। इस व्यवहार कतित्व कन्दनवत् सर्वथा खरा उतरता है। आप श्री तप-तपाय, ज्ञान । ने आप श्री को जन-जन की आस्था का पात्र बना दिया है। योगी सन्त रत्न हैं। आपश्री का अपरिमेय ज्ञान ही इस साधना का सशक्त उपकरण है।
सर्वतोन्मुखी प्रतिभावान, सन्त-शिरोमणि, ज्योतिर्मय व्यक्तित्व के
| धनी-आचार्यश्री के विषय में यह विचार भी सर्वथा समीचीन सद्गुण निधि : अपार प्रतिभा के धनी
। ही है कि ये धर्म से महान् हैं। कर्मशीलता के प्रति समर्पित गौरवर्ण....स्नेह-दृष्टिपूर्ण विशाल तेजस्वी नेत्र....उदार संतुलित रहने की उत्कट प्रवृत्ति को ही आपश्री के विविध क्षेत्रीय देहयष्टि....प्रशस्त उन्नत भाल....कान्तिपूर्ण सौम्य मुख । उत्थान का श्रेय जाता है। इसी प्रवृत्ति ने आपश्री को विभिन्न उच्च मंडल...अत्यन्त सुदर्शन व्यक्तित्व। शुभ्र-श्वेतवसनों में वह और भी स्तरीय उपलब्धियों से अलंकृत कर दिया है। आपश्री संघर्ष नहीं, अधिक पावन हो उठता है। यह भी एक ध्यातव्य तथ्य है कि समन्वय के पक्षधर हैं। इस दृष्टिकोण ने आपश्री को जनप्रिय बना आचार्यश्री का यह भव्य बाह्य व्यक्तित्व आन्तरिक दिव्यता की ही दिया है। प्रवचन प्रवीण आचार्यश्री की वाणी में अद्भुत अभिव्यक्ति है। आचार्य श्री सच्चे अर्थों में सरलता, विनम्रता और । परिवर्तनकारी शक्ति है। आपश्री के उपदेशों का एक-एक शब्द विद्वत्ता के त्रिवेणी संगम हैं। निरभिमानता-दर्पहीनता-आपश्री की श्रोता के मानस में अंकित हो जाता है और वे आत्मालोचन एवं अनन्य विशेषताएं हैं। सर्वोच्च पदासीन होकर भी आपश्री ममकार । स्वसुधार में प्रवृत्त हो जाते हैं। कान्ता-सम्मत-उपदेश जैसी कोमलता से सर्वथा परे हैं-आपश्री तो विनय की प्रतिमूर्ति ही हो गये हैं और के साथ कठोर यथार्थों को प्रस्तुत कर देने की आपश्री की अनूठी सत्य तो यह है कि आपश्री का यही विनय आपश्री के उत्थान का शैली अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होती है। आपश्री की वार्ताएं मूल रहस्य भी है। आपश्री के व्यक्तित्व में यह जो उच्चता और गूढ-गम्भीर विषयों को भी सरलतम रूप में प्रस्तुत कर देने की सरलता का 'मणि-कांचन योग' है-वह न केवल प्रशंसनीय एवं क्षमता रखती हैं और ऐसे विषय सर्वसाधारण द्वारा भी हृदयंगम उदाहरणीय है, अपितु अनुकरणीय भी है।
कर लिये जाते हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । यशस्वी कृतिकार
चरित्रवान महापुरुषों के धर्मादर्शपूर्ण आख्यान हैं जो पाठकों के आचार्यश्री ने अपनी विपुल साहित्य सेवा द्वारा जैन वाङ्मय की
संस्कार विकास में योगदान करते हैं। आपश्री का निबन्ध साहित्य अपूर्व श्रीवृद्धि की है। विषय ही नहीं, विधागत वैविध्य भी आपश्री
। तो अनुपम ज्ञान-कोष ही है। जैन आगम दर्शन, संस्कृति, सिद्धान्त के सारस्वत उपक्रम की एक उल्लेखनीय विशिष्टता रही है। आपश्री
| और ऐतिहासिक तथ्यों का विवेचन विश्लेषण तथा व्याख्या का की विशाल साहित्य राशि पर विश्वविद्यालयों द्वारा अध्ययन
। अभूतपूर्व उपक्रम इस साहित्य में हुआ है। गवेषणात्मक निबन्धों अनुसंधान की प्रायोजनाओं का गठन किया गया है। ऐसे शोधकार्यों
और प्रबन्धों में आपश्री के गहन अध्ययन, मौलिक दृष्टि की पर विद्वानों को "विद्यावाचस्पति" की उपाधियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
सम्पन्नता और विचार प्रतिपादन की प्रौढ़ता का परिचय मिलता है। धर्म कार्यों में अतिशय व्यस्तता की दशा में भी आपश्री की कृतियों । आचाय श्रा का अमर गवषणात्मक कृतिया हकी संख्या ३५० को पार कर गयी है- यह जानकर सभी को भगवान ऋषभदेव : एक परिशीलन आश्चर्य होता है। गहन अध्ययन, चिन्तन मनन का सुदीर्घ क्रम
भगवान पार्श्वनाथ : एक समीक्षात्मक अध्ययन आपश्री के आन्तरिक व्यक्तित्व की भव्य निर्मिति में सहकारी बना
भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्री कृष्ण : एक अनुशीलन रहा है। सत्साहित्य के इस सारे स्वाध्याय से आपश्री का शील और
भगवान महावीर : एक अनुशीलन चरित्र उज्ज्वलतर बना। आपश्री में यह प्रेरणा भी जागी कि अन्य
जैन जगत के ज्योतिर्धर आचार्य जनों के चरित्र में भी ऐसी निर्मलता, उज्ज्वलता लायी जाय। आपश्री
जैन साहित्य : मनन और मीमांसा इस लक्ष्य के प्रति भी समर्पित हैं। आपश्री का बहुविध साहित्य रचना
जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण का एक प्रमुख उद्देश्य यह भी रहा है।
जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप साहित्य की विभिन्न विधाओं में आचार्यश्री की लेखनी गतिशील
धर्म दर्शन : मनन और मूल्यांकन रही है, यथा-निबन्ध, कहानी, उपन्यास, लघु एवं बोध कथाएं,
कर्म विज्ञान, भाग १-६ शोध-प्रबन्ध आदि-आदि इतिहास परक ग्रन्थों की रचनाएं विशेष उल्लेखनीय स्थान रखती हैं। गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. के आगम के विभिन्न अंगों पर आचार्यश्री ने विद्वत्तापूर्ण, विस्तृत साहित्य-कहानी, उपन्यास, प्रवचनादि का सम्पादन आपश्री ने प्रस्तावनाओं का लेखन भी किया है। इन महत्त्वपूर्ण आलेखों से अत्यन्त कौशल के साथ किया है। आपश्री द्वारा अनेक विशिष्ट आपश्री के गम्भीर अध्ययन और चिन्तन की प्रवृत्ति का आभास जनों से सम्बन्धित स्मृति ग्रन्थों, अभिनन्दन ग्रन्थों का विशेषज्ञतापूर्ण मिल जाता है। वस्तुतः आचार्यश्री का अध्ययन और साहित्य-सृजन सम्पादन भी हुआ है। जैन इतिहास एवं आगम सम्बन्धी उल्लेखनीय दोनों ही अत्युच्च और असाधारण कोटि के हैं। कतिपय ग्रन्थों में भी आपश्री के सम्पादन-कौशल का परिचय
व्यापक सम्पर्क-क्षेत्र मिलता है।
आचार्यश्री का सम्पर्क क्षेत्र अति व्यापक और बहु आयामी इस प्रकार आचार्य श्री के प्रभूत साहित्यिक उपक्रम को, उनकी है। आपश्री अत्यन्त लोकप्रिय हैं, व्यवहार-कौशल की विद्या के सजनशीलता के आयाम को दो प्रमुख वर्गों में रखकर अध्ययन निष्णात हैं. स्नेहशील और सर्वजनहिताय हैं, निरभिमान और किया जा सकता है। व वग ह-मालिक साहित्य आर अनुवादित सरलमना हैं, विवेकशील और प्रबुद्ध हैं, उदारचेता, समाज- हितैषी साहित्य। मौलिक साहित्य के अन्तर्गत आपश्री के २१ कहानी संग्रह, एवं उन्नायक हैं. समन्वयशील और सर्वधर्म समादरकत्तां हैं। ९ उपन्यास, १४ निबन्ध संग्रह, ७ शाध प्रबन्ध आदि प्रमुख रूप म आचार्यश्री की ये विशेषताएं इस व्यापक सम्पर्क क्षेत्र का निर्माण उल्लेखनीय हैं। आपश्री द्वारा सम्पादित साहित्य की विपुलता भी करती हैं। साथ ही सम्पर्क क्षेत्र की ऐसी व्यापकता से आचार्यश्री की कम नहीं मानी जा सकती। आपश्री राजस्थानी भाषा के ३, ।
ऐसी परम विशेषताओं की पुष्टि भी हो जाती है। आपश्री का गुजराती के ३ और हिन्दी के ४ प्रवचन संग्रह भी सम्पादित कर
बहुआयामी व्यक्तित्व क्षेत्र-क्षेत्र के अनेक विशिष्टजनों को आकर्षित चुके हैं। इनके अतिरिक्त चार हिन्दी काव्यों और एक संस्कृत काव्य
करता रहा है। ऐसे कतिपय प्रमुखजनों की नामावली इस प्रकार है : के सम्पादन में आपश्री ने अपने साहित्य के भी आचार्य होने का परिचय बड़ी ही विशेषता के साथ दिया है। आचार्य श्री हिन्दी ही
स्थानकवासी आचार्य नहीं, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आचार्य श्री काशीराम जी म., आदि अनेक भाषाओं के अधिकारी विद्वान हैं।
आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषिजी म., ऐसी विशिष्ट कोटि की इतनी विपुल साहित्य रचना इस तथ्य
आचार्य श्री गणेशीलाल जी म., की द्योतक हो गयी है कि आपश्री न केवल धर्म संघ के अपितु आचार्य श्री हीराचन्द जी म., साहित्य क्षेत्र के भी आचार्य हैं। आपश्री के कथा साहित्य में आचार्य श्री हस्तीमलजी म.,
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इतिहास की अमर बेल
आचार्य श्री नानालाल जी म., आचार्य श्री शान्ति लाल जी म., आचार्य श्री कान्ति ऋषि जी म.. आचार्य श्री घासीलाल जी म. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक
आगम प्रभाकर श्री पुण्यविजय जी म., पं. अभय सागर जी म.. आचार्य श्री यशोदेव सूरि जी म. आचार्य श्री कान्तिसागर जी म., आचार्य श्री समुद्रसूरिजी म. आचार्य श्री इन्द्रदेव सूरि जी, आचार्य श्री रामचन्द्रजी, आचार्य श्री पदमसागर जी, आचार्य श्री नित्यानंद विजय जी महाराज
तेरापंथ संघ
आचार्य श्री तुलसी जी, आचार्य महाप्रज्ञजी।
दिगम्बर मतावलम्बी
दिगम्बराचार्य चरित्र चूड़ामणि श्री शान्तिसगरजी, आचार्य श्री विद्यानन्द जी, आचार्य श्री देशभूषण जी ।
जैनेतर सन्त
श्री शंकराचार्य जी द्वारिकापीठ, कांची कामकोटि के शंकराचार्यजी रामास्वामी सम्प्रदाय के आचार्य, सरसापुरी के मठाधीश, ज्ञान सम्प्रदाय के मठाधीश, महामंडलेश्वर महन्त मुरली मनोहरसरण जी जगदाचार्य श्री चन्द्रस्वामी रामस्नेही सम्प्रदाय के आचार्य रामकिशोर जी म. पदाधिकारी गण, विश्व हिन्दू परिषद् आदि। विद्वद्जन
श्री जैनेन्द्र कुमार जैन, पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजय जी, डॉ. डी. एस. कोठारी, श्री पं. दलसुख भाई मालवणिया, पं. बेचरदास जी दोशी, डॉ. बारलिंगे जी, पं. सुखलाल जी सिंघवी, भट्टारक चारुकीर्ति जी, श्री अगरचन्द जी नाहटा, डॉ. लक्ष्मीमल्लजी सिंघवी, डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित, डॉ. छगनलाल शास्त्री, डॉ. महेन्द्रसागर जी प्रचंडिया, डॉ मंगल पांडेय, डॉ. दरबारीलाल कोठिया, डॉ. प्रेमसुमन जैन, डॉ. नेमीचन्द्र जैन, डॉ. गोकुलचन्द जैन, पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, डॉ. कल्याणमल जी लोढ़ा, डॉ. कमलचन्द सोगानी, पं. जनार्दनराय नागर, डॉ. नथमलजी टॉटिया, डॉ. मोहनलाल मेहता, डॉ. भागचन्द भास्कर, श्रीचन्द सुराना, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. नरेन्द्र भानावत, डॉ. ए. डी. बतरा, डॉ. एम. एल. मेहता आदि । समाजसेवी
श्री जयप्रकाश नारायण, गुरुजी श्री गोलवलकर जी, श्री ऋषभदास राँका, पं. रविशंकर महाराज, बालासाहब देवरस, श्री अशोक सिंघल, श्री के. एल. गोधा, चिमन भाई चळू भाई शाह, श्री राधाकिशन रस्तोगी, पद्मश्री देवीलाल सामर, श्री डी. आर. मेहता,
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श्री प्रेमचन्द जैन, श्री ताराचन्द जैन, साहू रमेश जैन, सेठ हीराचन्द दोशी, सेठ कस्तूरभाई।
न्यायमूर्ति
इन्द्रनाथ जी मोदी, जसराज जी चौपड़ा, श्रीकृष्णमलजी लोढ़ा, चांदमलजी लोढ़ा, गुमानमलजी लोढ़ा, मिलापचन्दजी जैन, राजेन्द्रमल लोढा, कान्ता भटनागर, के. एल. तुकाल
राजनेता
पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री मोरारजी भाई देसाई, ज्ञानी जैलसिंह, डॉ. शंकरदयाल शर्मा, श्री जगजीवनराम, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, श्री मोहनलाल सुखाड़िया, श्री भैरोसिंह शेखावत, श्री गुलाबचन्द कटारिया, श्री बलराम जाखड़, श्री जगदीश टाइटलर, श्री एच. के. एल. भगत, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री अर्जुनसिंह, श्री अमरचन्द चौधरी, श्री सुन्दरलाल पटवा, श्री हरिशंकर भाभड़ा, श्री शंकरराव चव्हाण, राजमाता विजया राजे सिंधिया, डॉ. के. एल. श्रीमाली, राम निवास मिर्धा, नाथूराम मिर्धा, शिवचरण माथुर, हरिदेव जोशी, श्री निहाल चन्द जैन, श्री कुलानन्द भारती, श्री जयप्रकाश अग्रवाल, सरदार बूटासिंह, डॉ. गिरिजा व्यास, अशोक गहलोत, सरदार बेअंत सिंह आदि ।
पूर्व नरेशगण
श्री गजसिंह जी (जोधपुर), श्री भगवतसिंह जी (उदयपुर), श्री महेन्द्रसिंह जी (उदयपुर)।
विस्तृत मंगल विहार क्षेत्र
आचार्य श्री अपने संयमी जीवन की लगभग ५४ वर्षीय उपलब्धिपूर्ण सुदीर्घ अवधि का यापन कर चुके हैं। श्रमण जीवनोचित रूप में आपश्री ने इस अवधि में पद यात्राओं द्वारा देश का व्यापक भ्रमण किया है। धर्मानुसरण, समाज सुधार, जीवनोत्थान, सुसंस्कारविकास आदि के प्रयोजन से आपश्री पद यात्राओं के दौरान प्रेरित उद्बोधित करते रहे हैं। आपश्री के विहार के प्रमुख क्षेत्र रहे
राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू आदि ।
आचार्यश्री की ऐतिहासिक धर्मयात्रा
आचार्य पद चादर समारोह के पश्चात् संघ की अनेक विध सारणा वारणा आदि दृष्टियों से आवश्यकता / अनुकूलता देखते हुए आपश्री का प्रथम यशस्वी चातुर्मास राजस्थान की उद्योगनगरी भोपालगंज, भीलवाड़ा में सम्पन्न हुआ। अनेक दृष्टियों से यह चातुर्मास बहुत ही महत्वपूर्ण एवं सफल सिद्ध हुआ ।
उदयपुर चादर महोत्सव के अवसर पर पंजाब के श्रीसंघों की भावभरी प्रार्थना पर आचार्यश्री ने अपना संकल्प व्यक्त किया था
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । कि यदि देश-काल की अनुकूलता रही तो श्रमण संघ के प्रथम इस प्रकार आचार्य सम्राट के आचार्य पदारोहण का यह द्वितीय पट्टधर महामहिम आचार्य सम्राट श्री आत्मारामजी म. की दीक्षा । वर्ष वास्तव में अद्वितीय धर्म प्रभावना के रूप में स्वर्णाक्षरों में शताब्दी वर्ष के अवसर पर पंजाब की भूमि को स्पर्श ने के लिए लिखा जायेगा। भावना रखता हूँ।
समन्वय का संदेश भीलवाड़ा से विहार करके आचार्य सम्राट ब्यावर, अजमेर,
इसी वर्ष सम्मेद शिखर जी का जटिल विवाद समाज के लिए जयपुर, खंडेला-नारनोल, चरखी, दादरी, पानीपत आदि क्षेत्रों की
एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। इससे सम्पूर्ण जैन समाज आन्दोलित और लम्बी पदयात्रा करके २० अप्रेल को पंजाब के प्रवेश द्वार अम्बाला
पीड़ित हुआ है। आचार्य सम्राट के पास भी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर शहर पधारे। मार्ग में प्रायः सभी क्षेत्रों के श्रद्धालु जनता में अपार
समाज के वरिष्ठ नेता गण समय-समय पर उपस्थित हो रहे हैं। उत्साह से श्रद्धा भरा अद्भुत वातावरण देखने योग्य था। गाँव-गाँव
आचार्यश्री का दूरदर्शिता पूर्ण एक ही सन्देश है, एक ही उपदेश में एकता, संगठन तथा व्यसन मुक्ति का सन्देश देते हुए आचार्यश्री
है-एकता और सद्भाव के लिए कुछ न कुछ त्याग सभी को करना ने हजारों लोगों को सात्विक जीवन जीने का संकल्प कराया।
पड़ेगा। अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर दिगम्बर समाज यदि श्वेताम्बर अम्बाला शहर में आचार्यश्री का ऐतिहासिक स्वागत कार्यक्रम समाज के साथ सद्भाव व संगठन के हाथ बढ़ायेगा तो श्वेताम्बर हुआ। दीक्षा महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। २२ अप्रेल को भगवान समाज भी स्नेह, सहयोगपूर्ण भावना के साथ उसका स्वागत करेगा महावीर जयन्ती का विशाल समारोह मनाया गया। अम्बाला शहर और जैन तीर्थ क्षेत्रों की गरिमा अक्षुण्ण बनी रहेगी। आज से आचार्यप्रवर चंडीगढ़ तथा उसके पश्चात् हिमालय पर्वत मालाओं } हठाग्रह नहीं सत्याग्रह की आवश्यकता है। सत्याग्रह ही अनेकान्त से जुड़ी किन्नरों की क्रीड़ा भूमि हिमाचल प्रदेश की यात्रा पर आगे का मार्ग है। बढ़। इस यात्रा से पजाब एव हारयाणा का जनता का रगा म आचार्यश्री के भ्रमण-प्रवास की विशेषता यह रहती है कि जिस दौड़ता अपूर्व धर्म-उत्साह देखते ही बनता था। दान एवं सेवा की
क्षेत्र से आपश्री आगे बढ़ते हैं, वहाँ की जनता सन्मार्ग के लिए होड़ जैसी इस क्षेत्र में देखने को मिली वह अपने आप में एक }
प्रेरित तो होती ही है-सान्निध्य समापन की घड़ियाँ उनके लिए दुखद मिसाल थी। हिमालय की राजधानी परमाणु, धर्मपुर, सोनत्य,
भी हो जाती है। उनकी मनोकामना रहती है-काश ! यह मनोरम शिमला, नालागढ़ आदि अनेक क्षेत्रों में श्रद्धालु श्रावकों ने अपना
वातावरण कुछ समय और बना रहता। अन्य क्षेत्रों की जनता लाखों रुपयों का भवन धर्म स्थानकों के लिए संतों को समर्पित कर
आचार्यश्री के प्रेरक सान्निध्य की व्यग्रतापूर्वक प्रतीक्षा करती रहती सचमुच में ही एक ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया।
है। अनुरोध पर अनुरोध करती रहती है। कत्लखानों के विरोध में बुलन्द स्वर
आशाएँ : अपेक्षाएँ : कामनाएँ श्रद्धेय आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी म. की पवित्र जन्मभूमि
श्रमणसंघ के प्राण, जन-जन की श्रद्धा-आस्था के केन्द्र डेरावासी में बन रहे आधुनिक बूचड़ खाने के विरोध में अहिंसा प्रेमी
ज्ञानालोक के महादिवाकर, सुधा-सिंधु, संयम की प्रतिमूर्ति, अटल हजारों लाखों व्यक्तियों ने सम्मिलित विरोध का स्वर बुलन्द किया है।
कर्मयोगी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी के कुशल नेतृत्व में संघ सुदृढ़ इसी सन्दर्भ में आचार्य प्रवर ने स्थान-स्थान पर अपने उद्बोधक
हो, उनकी जन कल्याण की प्रवृत्तियाँ विकसित होती रहें। श्रमण भाषणों तथा जन नेताओं, राजनेताओं के साथ वार्तालाप में
संघ की कामना है कि आचार्यश्री की अपनी अद्भुत क्षमता से जिन कत्लखानों के विरोध तथा अहिंसा एवं शाकाहार का एक तेज जन
शासन की वृद्धि हो, वह सशक्त और प्रभावशाली बना रहे। आपश्री आन्दोलन जागृत किया और प्रबल जागृति की लहर पैदा की है।
के सद्प्रयासों से व्यक्ति के कुसंस्कार और समाज की कुरीतियों का पंजाब यात्रा के प्रथम पड़ाव के रूप में आचार्य सम्राट की क्षय होगा और सर्वत्र एक स्वस्थ एवं स्वच्छ वातावरण व्याप्त पंजाब की उद्योग नगरी लुधियाना में वर्षावास हेतु प्रथम पदार्पण, होगा-जन-जन के मन में यह दृढ़ विश्वास है। धर्म का विकास होस्वागत समारोह विशाल दीक्षा समारोह तथा आत्म-दीक्षा शताब्दी । नव पीढ़ियों में धर्म की चेतना प्रबल हो, समन्वयशीलता का वर्ष का शुभारंभ आदि कार्यक्रम अपने आप में बहुत ही अद्भुत, वातावरण निर्मित हो, धर्माचार का साम्राज्य स्थापित हो समाज आदर्श तथा ऐतिहासिक कहे जा सकते है जिनकी चर्चा अनेक और संघ के अभ्युदय के लिए आपश्री वरदान स्वरूप हो, पूज्य पत्र-पत्रिकाओं में हो रही है और समाज में एक दिशा दर्शन ने रूप आचार्य श्री युग-युग तक धर्म-पथ पर गतिशील रहने की प्रेरणा में स्थापित किया जा रहा है।
और शक्ति प्रदान करते रहें, यही कामना है।
ने अपना
वाताव
के प्रेरक सा
१. हर्ष की बात है कि पंजाब के मुख्य मंत्री सरदार बेअंतसिंह जी ने आचार्यश्री के समक्ष जन सभा में यह घोषणा की है कि पंजाब की अहिंसा प्रेमी जन
भावनाओं का आदर करते हुए हम इस पवित्र भूमि पर यह बूचडखाना नहीं खोलने देंगे। २३ सितम्बर १९९४ को होने वाला उद्घाटन भी स्थगित कर दिया गया है। आचार्यश्री की पंजाब यात्रा की यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जायेगी कि उनकी प्रबल प्रेरणा से लाखों जीवों को अभयदान प्राप्त हुआ।
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| इतिहास की अमर बेल
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पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी का शिष्य परिवार (श्रमण) ।
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पं. रत्न श्री हीरा मुनि जी म.
नाटक, मुक्तक, क्षणिकाएँ, गीत आदि साहित्य की विविध विधाओं
में लगभग ७५ ग्रन्थों का प्रणयन और आलेखन किया है। आपका जन्म संवत् १९२० में राजस्थान के उदयपुर जिले के ग्राम "वास" में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पर्वतसिंह
आपने उदयपुर में “अमर जैन साहित्य संस्थान" की स्थापना जी और माताजी का नाम श्रीमती चुन्नीबाई था। आपने महास्थविर
की है, आपके दो शिष्य हैं, मधुरवक्ता कवि श्री जिनेन्द्र मुनिजी म. श्री ताराचंद जी म. को अपना गुरुदेव और परम विदुषी साध्वी
"काव्यतीर्थ" और तरुण तपस्वी श्री प्रवीण मुनिजी म.। रल महासती श्री शीलकुंवर जी म. को अपनी गुरुणी बनाया था। आपने राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, आपने उदयपर जिले के मादडा ग्राम में महास्थविर श्री ताराचंद जी । उत्तरप्रदेश आदि क्षेत्रों में विचरण किया। साहित्य के क्षेत्र में आपका म. के पास दीक्षा ग्रहण की।
महत्वपूर्ण योगदान है। जब आपने दीक्षा ग्रहण की उस समय अक्षर परिज्ञान भी नहीं कवि श्री जिनेन्द्र मुनि जी म. "काव्यतीर्थ" था किन्तु उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. की असीम
आपका जन्म संवत् २००७ भाद्र पद कृष्णा ८ को उदयपुर कृपा से आपने ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति की और जीवन पराग,
जिले के पड़ावली ग्राम में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान मेघचर्या, जैन, जीवन, भगवान महावीर आदि अनेक पुस्तकें लिखी
रत्ताराम जी प्रजापत और माता जी का नाम श्रीमती सरसीबाई है। हैं। इन पुस्तकों की भाषा सरल है, पाठकों के लिए उपयोगी है।
आपने प्रसिद्ध साहित्यकार श्री गणेशमुनि जी म. “शास्त्री" को सेवा की प्रारम्भ से ही आपकी रुचि थी। महास्थविर श्रीअपना गुरु बनाया और परम विदुषी महासती श्री शीलकुंवर जी ताराचंद जी म. की आपने खूब सेवा की। जप साधना आदि के प्रति म. को गुरुणी बनाया। संवत् २०२० आश्विन शुक्ला दसमी भी आपका सहज रुझान रहा, गुरु कृपा से एक व्यक्ति जिसने बड़ी दिनांक १८ सितम्बर १९६३ को आपने राजस्थान के गढ़जालोर में उम्र में दीक्षा ग्रहण की और बाद में अ. आ. प्रारंभ की यह तो । प्रसिद्ध साहित्यकार श्री गणेश मुनि जी म. “शास्त्री" के पास दीक्षा कितनी बड़ी प्रगति की यह आपके जीवन से कोई सीख सकता है। धारण की।
आपने राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं का दिल्ली आदि प्रान्तों में विचरण किया।
अध्ययन किया तथा संस्कृत में काव्यतीर्थ और शास्त्री परीक्षा
उत्तीर्ण की। हिन्दी में विशारद परीक्षा पास की। विश्रुत साहित्यकार श्री गणेश मुनिजी म. "शास्त्री'
आप गीत, कविता, निबन्ध, कहानी, चरित्र आदि विविध आपका जन्म मेवाड़ प्रान्त के उदयपुर जिले के ग्राम करणपुर
साहित्यिक विधाओं में निपुण हैं। अभिनव अभिधा में कई कृतियां में हुआ। विक्रम संवत् १९८८ फाल्गुन शुक्ला १४ आपकी
प्रकाशित हुई है। जन्मतिथि है। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् लालचंद जी पोरवाड़ और माताजी का नाम श्रीमती तीजकुंवर बाई है जो वर्तमान में
आपने राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में
विचरण किया है। सेवामूर्ति महासती श्री प्रेमकुंवर जी म. हैं। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. को गुरु और महासती श्री प्रभावती जी म. को ।
श्री रमेश मुनिजी म. "शास्त्री" अपनी गुरुणी बनाया। आपने मध्यप्रदेश के धार नगर में सं.
राजस्थान के नागौर जिले के अन्तर्गत बडू ग्राम में आपका २००३ आश्विन शुक्ला दशमी को उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.
जन्म दिनांक २४ जनवरी, १९५१ को हुआ। आपके पूज्य पिताश्री के पास दीक्षा धारण की।
का नाम श्रीमान् पूनमचंद जी सा. डोसी तथा पूज्या माता जी का ___आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं का नाम श्रीमती धापकुंवर बाई है जो वर्तमान में महासती श्री गहन अध्ययन किया एवं हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की सर्वोत्तम प्रकाशवती जी हैं। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. को परीक्षा साहित्य रत्न उत्तीर्ण की। इसी तरह संस्कृत में "शास्त्री" की अपना गुरुदेव और प्रतिभा मूर्ति महासती श्री प्रभावती जी म. को परीक्षा समुत्तीर्ण की है।
अपनी गुरुणी बनाया। आप प्रतिभा संपन्न कवि, प्रबुद्ध चिन्तक, सुलेखक, प्रियवक्ता, आपने सन् १९६५ में १४ वर्ष की वय में राजस्थान के सहज-सरल स्वभावी संत रत्न हैं। आपने धर्म, दर्शन, विज्ञान एवं बाड़मेर जिले के गाँव गढ़सिवाना में उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर अध्यात्म से संबंधित अनेक ग्रन्थ लिखें हैं। कहानी, उपन्यास, मुनिजी म. के पास आहती दीक्षा धारण की।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आपने न्याय, व्याकरण, काव्य, जैनागम व जैन साहित्य का है। आगम संबंधी साहित्य में आपकी विशेष रुचि है। उत्तराध्ययन गहन अध्ययन किया है, संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा का आदि का आपने सुन्दर भाषान्तर और विवेचन किया है। अच्छा अभ्यास किया है, आपने जैन सिद्धान्त विषय में श्री धार्मिक
आपके द्वारा लगभग २० ग्रन्थ प्रकाशित कराये गये हैं। २४ परीक्षा बोर्ड पाथर्डी की “सिद्धान्ताचार्य' उपाधि प्राप्त की। साथ ही
तीर्थंकर, सत्य शील की साधिकाएँ, जम्बू कुमार, मेघकुमार, जैन काव्यतीर्थ और साहित्यशास्त्री की परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण की।
धर्म, भगवान् महावीर, मंगल पाठ, उत्तराध्ययन आदि उनमें आप संस्कृत और प्राकृत भाषा में भी रचनाएँ लिखते हैं। हिन्दी । प्रमुख हैं। में तो लिखते ही हैं। आप एक मंजे हुए लेखक एवं साहित्यकार हैं।
आपका स्वभाव बहुत मधुर और वाणी मिठास से पूर्ण है, जैन दर्शन, जैन धर्म और जैन संस्कृति से संबंधित विषयों पर
आपके प्रवचन बहुत ही प्रभावपूर्ण होते हैं, आगमों का पुट आपके आपके विपुल मात्रा में लेख प्रकाशित हुए हैं। आपके लेख शोध
प्रवचन की विशेषता है। मिलनसार और मृदुल प्रकृति के कारण प्रधान और चिन्तन की प्रभा से प्रकाशमान होते हैं। संस्कृत-प्राकृत आपके संपर्क में आने वाले व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। में श्लोकों की रचना करना आपकी अपनी विशेषता है।
आपने अनेक व्यक्तियों और युवकों को प्रेरणा देकर कई संस्थाएँ 20.00A
आपने अनेक साधु-साध्वी, विरक्त-विरक्ताओं को संस्कृत, . स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आपने कई स्थानों प्राकृत की उच्चस्तरीय बी. ए., एम. ए., शास्त्री, आचार्य परीक्षा के पर युवक संघों की स्थापना करवायी है। अखिल भारतीय अहिंसा ग्रन्थों का अध्यापन कराया है।
प्रचार संघ, वर्द्धमान पुष्कर जैन सेवा समिति आदि संस्थाओं के
आप प्रेरणा स्रोत हैं। आपको जैनागमों और जैन स्तोकों का अच्छा अभ्यास है और । उसके आधार से आप कई उपयोगी जानकारी को आधुनिक शैली
आपने मेवाड़, मारवाड़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र, में लिखते रहते हैं जो अभ्यासार्थियों के लिए बहुत सुविधापूर्ण सिद्ध तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश.. होती है।
हरियाणा और उत्तर प्रदेश में व्यापक विचरण किया है। स्वभाव से आप बहुत सहृदय, सरल और सौम्य हैं। विद्वज्जनों
आपकी साहित्यिक और सामाजिक सेवाएँ उल्लेखनीय हैं, के प्रति आपका व्यवहार बहुत ही सौजन्यपूर्ण और आदरणीय होता
विविध प्रकार के आयोजनों द्वारा आप अपने पूज्य गुरुदेव है, आपके संयमी जीवन में त्याग-वैराग्य की गहरी झलक
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. और आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. Pompapa., जापक स दृष्टिगोचर होती है। आपका जीवन साधना प्रधान और ज्ञान
के सान्निध्य में धार्मिक और सामाजिक जागरण का कार्य करते दर्शन-चारित्र से दीप्तिमान है।
रहते हैं। आगरा विश्वविद्यालय से आपने आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी OPP
म. के साहित्य पर पी.एच.डी. की है। डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी म. "शास्त्री" एम. ए., पी. एच. डी.
श्री प्रवीण मनिजी म. आपका जन्म राजस्थान के नागौर जिले के गाँव बडू में संवत् २०१० पौषवदी दशम् दिनांक १ जनवरी १९५४ को हुआ।
उदयपुर जिले के गाँव कमोल में आपका जन्म हुआ। आपके आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पूनमचंद जी सा. डोसी और
पिताश्री का नाम श्रीमान् सूरजमल दोशी और माताजी का नाम माताजी का नाम श्रीमती धापकुंवरबाई है जो वर्तमान में महासती
श्रीमती सलूबाई दोशी है। प्रकाशवती जी हैं। आपके बड़े भ्राता भी दीक्षित हैं जो श्री रमेश आपने संवत् २०२९ चैत्र वदि १ दिनांक १ मार्च, १९७२ को मुनिजी “शास्त्री" के नाम से विश्रुत हैं। इस प्रकार इस परिवार ने मारवाड़ के पाली जिले के गाँव सांडेराव में उपाध्यायश्री पुष्कर जैन शासन को तीन बहुमूल्य रल समर्पित किये हैं।
मुनिजी म. के पास दीक्षा धारण की। आपने जैन सिद्धान्त प्रभाकर आपने राजस्थान के बाड़मेर जिले के गाँव गढ़सिवाना में
परीक्षा पास की तथा आगम साहित्य का स्वाध्यायात्मक सामान्य दिनांक १५ मार्च, १९६५ को आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के
ज्ञान प्राप्त किया। स्वाध्याय में आपकी विशेष रुचि है। गुरु भक्ति
और सेवा भावना आपकी विशेषता है। सान्निध्य में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पूर्व आपने महासती श्री पुष्पवती जी म. को अपनी गुरुणी के रूप में स्वीकार किया।
श्री दिनेश मुनि जी म. आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का गहरा
राजस्थान प्रान्त के उदयपुर जिले के अन्तर्गत देवास ग्राम में अध्ययन किया। आपने संस्कृत में शास्त्री, काव्यतीर्थ, हिन्दी में
आपका जन्म संवत् २०१७ ज्येष्ठ कृष्णा १२ दिनांक २२ मई साहित्य रत्न, जैन सिद्धान्ताचार्य और एम. ए. परीक्षाएँ समुत्तीर्ण
१९६० को हुआ। आपके पूज्य पिताश्री का नाम श्रीमान् रतनलाल की है। आप साहित्य महोपाध्याय है। आपने जैन आगमों का गहन
जी सा. मोदी और वंदनीया माताजी का नाम श्रीमती धर्मानुरागिनी अध्ययन किया है और कई आगमों का हिन्दी अनुवाद भी किया। प्यारीबाई था। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को अपना गुरु
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उपाध्याय गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी
का शिष्य परिवार
आचार्य सम्राटश्री देवेन्द्र मुनिजी
गुरुभ्राता श्री हीरा मुनिजी
श्री गणेश मुनिजी शास्त्री
श्री रमेश मुनिजी
श्री दिनेश मुनि
श्री नरेश मुनि
पौत्र शिष्य
जिनेन्द्र मुनि
डॉ. राजेन्द्र मुनि
तपस्वी प्रवीण मुनि
मुनि शालि भद्र
प्रपौत्र शिष्य
श्री सुरेन्द्र मुनि
श्री गीतेश मुनि
मुमुक्षु वैरागी विकास जैन
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४७९
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। इतिहास की अमर बेल और साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी म. को गुरुणी बनाया। आपने +आपको संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान संवत् २०३० कार्तिक शुक्ला १३ दिनांक ९ नवम्बर १९७३ को है। जैन शास्त्र तथा थोकड़ों का अध्ययन है। कर्मग्रन्थ, तत्त्वार्थ सूत्र अजमेर में पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. के सान्निध्य में । आदि का अच्छा अभ्यास किया है। अनेक स्तोत्र, स्तवनादि कंठस्थ आर्हती दीक्षा अंगीकार की।
हैं। आप प्रखरवक्ता और कई प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान के धारक आपने जैन सिद्धान्त विशारद परीक्षा श्री धार्मिक परीक्षा बोर्ड
हैं। गर्म कपड़ों का आपने त्याग किया हुआ है, आपने राजस्थान, पाथर्डी से उत्तीर्ण की, आपने जैन आगम साहित्य और अन्य जैन
हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों
में विचरण किया है। साहित्य का अध्ययन किया। आपने हिन्दी साहित्य के लेखन में गीत, भजन, स्तवन, स्तोत्र आदि की रचनाएँ की हैं। कहानियों की
श्री सुरेन्द्र मुनिजी म. रचना और संकलन भी किया है। सूक्तियों का संग्रह भी किया है।
आपका जन्म ईस्वी सन् १९७४ श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन आपकी प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं
हुआ। आपके पिताजी चांदमलजी बम्ब तथा माताश्री प्रेमबाई है। एक राग भजन अनेक, प्रिय कहानियाँ, अमर गुरु चालीसा, पूज्य साध्वीरत्न महासती पुष्पवती जी म. की सद्प्रेरणा एवं पुष्कर गुरु चालीसा, अध्यात्म साधना, अध्यात्म प्रेरणा, भक्तामर सदुपदेश से प्रतिबोधित होकर आपने पूज्य गुरुदेवश्री के पौत्र शिष्य स्तोत्र, पुष्कर सूक्ति कोष, बोध कथाएँ, अध्यात्म कहानियाँ आदि। डॉ. राजेन्द्र मुनिजी का शिष्यत्व ग्रहण किया। अहमदनगर में दिनांक साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी म. के अभिनन्दन ग्रन्थ का आपने
२९.११.८७ को आपने भगवती दीक्षा ग्रहण की। आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. के सान्निध्य में सफल संपादन किया है। आप आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. के मार्गदर्शन तथा आपका स्वभाव मधुर, मिलनसार एवं सेवा परायण है। आपका डॉ. राजेन्द्र मुनिजी की देखरेख में संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी आदि व्यक्तित्व भी आकर्षक और मनोहर है। आप व्यवहार निपुण और भाषाओं तथा आगमों आदि का अध्ययन कर रहे हैं। कुशल आयोजक हैं। आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. की
आपने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल साहात्यक साधना म आर अन्य प्रवृत्तिया म आपका सहयाग प्रदेश एवं पंजाब आदि की यात्राएँ की हैं। भुलाया नहीं जा सकता। उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. और आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. की बहुआयामी जिम्मेदारियों
मुनिश्री शालिभद्र जी म.
The के निर्वहन में तथा वैयावृत्यादि द्वारा एक विनीत अन्तेवासी का आपका जन्म दिनांक २४.६.७९ को जयपुर के प्रसिद्ध धर्मप्रेमी कर्तव्य आप भली भांति निभाते हैं।
श्रावक परिवार में हुआ। आपके पिता श्री भंवरलालजी श्रावक तथा सामाजिक संस्थाओं की स्थापना के लिए आप प्रयत्नशील रहते माताश्री किरणदेवी श्रावक अच्छे धर्मशील व्यक्ति हैं। हैं। आपकी प्रेरणा से श्री पुष्कर गुरु धार्मिक पाठशाला बैंगलोर, श्री आपने महासती श्री चारित्रप्रभाजी के सदुपदेश से प्रतिबोधित वर्द्धमान पुष्कर गुरु जैन पुस्तकालय, किशनगढ़, श्री पुष्कर बाल होकर पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री के शिष्य श्री नरेश मुनिजी का मण्डल एवं गुरु पुष्कर देवेन्द्र जैन पुस्तकालय करमावास आदि शिष्यत्व ग्रहण किया। दिनांक २८.३.९३ को उदयपुर में आपने बड़े संस्थाएँ स्थापित हुई हैं। परोपकारमय सेवाभावी प्रवृत्तियों में आपको ही उत्साह ठाट-बाट से पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी के विशेष दिलचस्पी है, आप एक होनहार, प्रतिभासंपन्न संतरत्न हैं। सान्निध्य में भगवती दीक्षा ग्रहण की। आपश्री नरेश मुनिजी के प्रस्तुत स्मृति के संयोजक/सम्पादक
शिष्य बने। दीक्षापूर्व भी आपने अच्छा अध्ययन किया। दीक्षा के
पश्चात् भक्तामर, कल्याण मन्दिर, दशवैकालिक, तत्त्वार्थ सूत्र, श्री नरेश मुनि जी म.
उत्तराध्ययन आदि के अध्ययन से संलग्न हैं। आपकी ज्ञान जिज्ञासा आपका जन्म दिल्ली में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान तथा अध्ययन दृष्टि के साथ बुद्धि का विकास भी अच्छा है।
906009 रतनलाल जी लोढ़ा और माता जी का नाम श्रीमती कमलादेवी आपने आचार्यश्री के साथ-साथ राजस्थान, हरियाणा, पंजाब लोढ़ा है। आपने संवत् २०३९ जेठ सुदी १४ दिनांक ५ जून की यात्राएँ की हैं। १९८२ को राजस्थान के बाड़मेर जिले के गांव गढ़ सिवाना में उपाध्याय अथ्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी म. के पास दीक्षा ग्रहण
श्री गीतेश मुनि जी म. की। आपका व्यावहारिक शिक्षण बी. कॉम तक हुआ। गृहस्थ आपश्री साहित्य मनीषी श्री गणेश मुनि जी शास्त्री के शिष्य हैं। अवस्था में आपने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका परीक्षा में १00 में से । आपका स्वर मधुर तथा अध्ययनशील प्रवृत्ति के हैं। आपकी सेवा ९६ अंक प्राप्त कर बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। दीक्षा लेने । भावना तथा साहित्य रूचि प्रशंसनीय है। आपका विशेष परिचय के बाद आपने परीक्षाएँ न देने का निर्णय किया।
यथा समय प्राप्त नहीं हो सका।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी का शिष्या परिवार (श्रमणियाँ) SODE महासती श्री शीलकुंवर जी म..
श्रीमान् गणेशीलाल जी कोठारी है और माताजी वह श्रमणी रत्न है
जो आगे चलकर महासती कैलाशकुमारी जी म. बनी। आपने परम विदुषी साध्वीरल महासती श्री शीलकुंवर जी म. प्रतिभा
उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर चन्दनबाला की साक्षात् मूर्ति हैं, वे शरीराकृति से जितनी मन मोहक लगती हैं
श्रमणीसंघ की प्रवर्तिनी श्री सोहनकुमारी जी म. के पास देलवाड़ा उससे भी अधिक आकर्षक है उनका आन्तरिक व्यक्तित्व। उनकी
गाँव में केवल ११ वर्ष की वय में दीक्षा धारण की। वाणी में जादू है, चिन्तन में गहराई है, जैन धर्म और दर्शन की वे गम्भीर ज्ञाता हैं। एक बार जो भी व्यक्ति आपके संपर्क में आता है महास्थविर वयोवृद्ध श्री ताराचंद जी म. और उपाध्यायश्री वह सदा-सदा के लिए आपका ही नहीं किन्तु वीतराग वाणी का } पुष्कर मुनिजी म. के निर्देशन में आपके शिक्षण की विशेष व्यवस्था रसिक बन जाता है, उसके मन में जिनेश्वर देव की वाणी के प्रति की गई। महासती श्री पुष्पवती जी और आपका शिक्षण साथ-साथ अपूर्व आस्था जागृत होती है और वह अपनी शक्ति के अनुसार । ही हुआ। आपने तत्कालीन क्वीन्स कालेज बनारस की व्याकरण साधना के पथ पर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित हो जाता है।
मध्यमा परीक्षा पास की। न्याय विषय में आपने कलकत्ता संस्कृत राजस्थान की वीर भूमि में आपका जन्म हुआ, उदयपुर जिले
विश्वविद्यालय से न्यायतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की। पाथर्डी धार्मिक में बाघपुरा, अरावली की पहाड़ियों से घिरा हुआ है, गगन चुम्बी
परीक्षा बोर्ड से आपने जैन सिद्धान्ताचार्य की सर्वोच्च परीक्षा प्राप्त पर्वत मालाओं में बसा हुआ, खाकड़ गाँव में आपका जन्म हुआ। की। इस प्रकार आपने संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण और विक्रम संवत् १९६९ में जन्माष्टमी के दिन जन्म हुआ। आपके सिद्धान्त आदि विषयों में बहुमुखी विद्वत्ता अर्जित की। पिताश्री का नाम धनराज जी बनोरिया और मातेश्वरी का नाम आपकी प्रवचन शैली से प्रभावित होकर ब्यावर श्रीसंघ ने रोड़ीबाई था।
आपको “प्रवचन भूषण" के अलंकरण से विभूषित किया। इसी ___महास्थविर श्री ताराचंद जी म. के और परम विदुषी प्रकार उदयपुर श्रीसंघ ने आपको अध्यात्मयोगिनी की उपाधि साध्वीरत्न श्री धूलकुंवर जी म. के पावन उपदेशों को सुनकर } प्रदान की। आपके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना जागृत हुई और १३ वर्ष की
आपकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं-स्वर्ण कुसुमलता और लघुवय में संवत् १९८२ फाल्गुन शुक्ला २ के दिन खाखड़ में ही
कुसुम चुनिन्दे भजन। आपने दीक्षा ग्रहण की। ____ आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत और उर्दू भाषा का बहुत अच्छा
आपने राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और
जम्मू काश्मीर आदि प्रान्तों में विचरण कर धर्मभावना की है। ज्ञान प्राप्त किया, जैन आगम और स्तोक साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। आपकी प्रवचन शैली बहुत ही लुभावनी है, त्याग ___आपकी शिष्याएँ हैं, श्री चारित्रप्रभा जी, श्री दिव्यप्रभा जी, श्री और वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवचनों को सुनकर श्रोता मंत्र मुग्ध गरिमा जी आदि। हो जाते हैं। स्वाध्याय सुधा, शील के स्वर, जैन तत्व बोध आदि अनेक कृतियाँ हैं। आपकी प्रेरणा से वर्द्धमान जैन स्वाध्याय संघ की
विदुषी साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी म. स्थापना सायरा में हुई और महावीर गौशाला की भी स्थापना हुई ___महासती श्री पुष्पवती जी अपने जीवन पुष्प को ज्ञानादि तथा अन्य अनेक स्थानों पर पाठशालाएँ, स्थानक भवन आदि भी । सद्गुणों की सौरभ तथा संयमशील के विरल सौन्दर्य से मंडित कर निर्मित हुए। आप शासन प्रभाविका हैं। राजस्थान और मध्य प्रदेश जिनशासन के श्रमणसंघीय उपवन में सुरभि और सुषमा का में आपका विचरण रहा।
विस्तार कर रही हैं। श्रमणसंघ की श्रमणी शृंखला की वे एक P
सेवामूर्ति श्री सायरकुंवर जी म., सिद्धांताचार्य श्री चंदनबाला । सुदृढ़ कड़ी हैं। वे रमणीय श्रमणी माला की दीप्तिमय मुक्तामणि
जी, श्री चेलनाकुंवर जी, साधनाकुंवर जी आदि अनेक शिष्याएँ हैं। आपमें कतिपय दुर्लभ और अद्भुत विशेषताएँ हैं। आपका ल और प्रशिष्याएँ आपकी हैं, आप जैसी परम विदुषी साध्वीरत्न पर बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक है उतना ही अन्दर से भी अभिराम समाज को गौरव है।
है। आपमें अपने नाम के अनुरूप ही कमनीयता, कोमलता,
स्निग्धता है तो संयम और चारित्र के प्रति सुदृढ़ता भी है। आपका विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म.
व्यक्तित्व ज्ञान की गरिमा और साधना की महिमा से मंडित है। एक आपका जन्म मेवाड़ की राजधानी उदयपुर नगर में विक्रम ओर आप परम विदुषी हैं तो दूसरी ओर पहुँची हुई साधिका हैं। संवत् १९८२ आसोज सुदी ६ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम जहाँ आपमें आचारनिष्ठा है, वहाँ अनुशासन की कठोरता भी है।
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इतिहास की अमर बेल
आपके जीवन में सद्गुणों का ऐसा मधुर संगम है जो देखते ही बनता है।
आपका जन्म राजस्थान के उदयपुर नगर में संवत् १९८१ मृगशीर्ष कृष्णा सप्तमी दिनांक १८ नवम्बर १९२४ को हुआ । आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् जीवनसिंह जी बरडिया और माताजी का नाम श्रीमती प्रेमदेवी है। आपकी द्वितीया माता श्री तीजकुंवरबाई हैं जो दीक्षित होकर महासती प्रभावती जी म. के नाम से विश्रुत हुई आपके छोटे भाई का नाम धन्नालाल था जो दीक्षित होकर आज आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्रमुनिजी म. के रूप में श्रमणसंघ की गरिमा में चार चाँद लगा रहे हैं।
पुरातन पुण्य के उदय से और तथाविध संस्कारों के कारण केवल तेरह वर्ष की वय में आपने वि. सं. १९९४ माघ शुक्ला त्रयोदशी दिनांक १२ फरवरी १९३८ को उदयपुर में परम् विदुषी महासती श्री सोहनकुंवर जी म. के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। आपकी दीक्षा के पश्चात् आपके लघुभ्राता आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. ने तथा मातेश्वरी प्रभावती जी ने भी संयम का मार्ग अपनाया। तत्पश्चात् ११ अन्य पारिवारिक जनों ने भी साधना के पथ पर कदम बढ़ाकर संयमी जीवन की महत्ता प्रदर्शित की।
पचास वर्ष पहले स्थानकवासी समाज में शिक्षा के प्रति विशेष लगाव नहीं था। खासकर स्त्री-शिक्षा के विषय में तो बहुत ही उपेक्षा का वातावरण था परन्तु युग दृष्टा महास्थविर श्री ताराचंद जी म. ने समय की गति को पहचाना और अपने शिष्य श्री पुष्कर मुनिजी म. को विद्वान बनाने की दिशा में प्रयास किया और उन्हीं की प्रेरणा से महासती श्री सोहनकुंवरजी म. ने अपनी शिष्याओं के लिए शिक्षण की व्यवस्था करवायी महासती श्री पुष्पवती जी और महासती श्री जी कुसुमवती जी का अभ्यास और शिक्षण एक योग्य विद्वान के मार्गदर्शन में हुआ उस काल में संस्कृत व्याकरण सीखने की परम्परा थी। तदनुसार आपने अपनी कुशाग्रबुद्धि से तत्कालीन क्वीन्स कालेज बनारस की सम्पूर्ण व्याकरण मध्यमा और सम्पूर्ण साहित्य मध्यमा की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं । क्रमशः आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की साहित्यरत्न परीक्षा भी उत्तीर्ण की। जैन सिद्धान्तों का ज्ञान करने हेतु आपने जैनागम और जैन साहित्य का अध्ययन किया और पाथर्डी धार्मिक परीक्षा बोर्ड की सर्वोच्च परीक्षा जैन सिद्धान्ताचार्य उत्तीर्ण की। इस प्रकार आपने व्याकरण, साहित्य और सिद्धान्त के क्षेत्र में अच्छी विद्वत्ता अर्जित कर ली।
आप एक विदुषी सती होने के साथ सुमधुर प्रवचनकर्त्री और सुलेखिका भी हैं। आपने दशवैकालकिसूत्र का संपादन भी किया है। आपकी लिखी हुई पुस्तकें इस प्रकार है, किनारे-किनारे, पुष्प पराग, सती का शाप, प्रभावती शतक, साधना सौरभ, फूल और भंवरा, कंचन और कसौटी, खोलो मन के द्वार आदि ।
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आपकी शिष्याएँ चार है-श्री चन्द्रावती जी, श्री प्रियदर्शना जी, श्री किरणप्रभा जी म. श्री रत्नज्योति जी।
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आपने राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि प्रान्तों में विचरण कर जिनशासन की प्रभावना की है और धर्मजागृत्ति का संदेश दिया है।
अभी-अभी आपकी पचासवीं दीक्षा जयंती के अवसर पर आपको एक अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित किया गया है जो किसी श्रमणीरत्न को समर्पित किया गया सर्वप्रथम अभिनन्दन ग्रन्थ है। यह सन्मान सर्वप्रथम आपको ही प्राप्त हुआ है। श्री श्रीमती जी म.
आपका जन्म राजस्थान के उदयपुर जिले के अन्तर्गत गोगुन्दा में संवत् १९७७ भाद्रपद शुक्ला ५ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् देवीलाल जी सेठ और माता जी का नाम श्रीमती मोहनबाई था।
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और महासती श्री प्रभावती जी म. के पास संवत् १९९९ जेठ कृष्णा ११ को प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारा में दीक्षा ग्रहण की।
आपने जैन सिद्धान्त विशारद परीक्षा पाथर्डी बोर्ड से पास की। हिन्दी में प्रयाग साहित्य सम्मेलन से प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत में लघुसिद्धान्त कोमुदी का अध्ययन किया।
आपको संकेतलिपि का अच्छा अभ्यास है, राजस्थान और मध्य प्रदेश में आपका विचरण हुआ, प्रवचन शैली मधुर है।
श्री प्रेमवती जी म.
आपका जन्म झालावाड़ प्रदेश के झाड़ोल जिले के गाँव बागपुरा में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् तेजपाल जी और माता जी का नाम श्रीमती फूलवती बहन है। आपके पति श्री लालचन्द जी पोरवाड़ थे।
आपने उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर परम विदुषी श्री प्रभावती जी म. के पास संवत् १९४६ उदयपुर में दीक्षा ग्रहण की।
आपके सुपुत्र हैं प्रसिद्ध साहित्यकार श्री गणेश मुनिजी जी शास्त्री |
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आपने नन्दीसूत्र, उत्तराध्ययन की वाचना ली है और अनेक थोकड़े कंठस्थ किए हैं, आपका राजस्थान और मध्य प्रदेश में विचरण होता रहा है।
आप सेवाभाविनी और शान्त स्वभाव वाली हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्री चन्द्रावती जी म.
लेखिका भी हैं। आपके द्वारा निम्न साहित्य प्रकाशित करवाया गया
है-भक्ति के स्वर, विनय वंदन (प्रार्थना) कमल प्रभात प्रार्थना, आपका जन्म उदयपुर जिले के वल्लभनगर गाँव में संवत्
मंगल के मोती, सत्यं शिवं सुन्दरम् (तप एवं दीक्षा गीत) ६ १९९३ में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पन्नालाल जी
अनानुपूर्वी, मुक्ति साधना और तप और जप। मेहता और माताजी का नाम श्रीमती लहरकुंवरबाई है। जिन्होंने दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा नाम महासती श्री चन्द्रकुंवर जी था। आपने
आपने मेवाड़, मारवाड़, गुजरात और महाराष्ट्र में विचरण उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर बाल ब्रह्मचारिणी
कर धर्म की प्रभावना की है। परम् विदुषी साध्वी रत्नश्री पुष्पवती जी म. के पास संवत् २००४
महासती श्री प्रेमकुंवर जी म. माघ शुक्ला ३ को कपासन में दीक्षा ग्रहण की।
आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के गढ़सिवाना ग्राम आपने संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी भाषा का अच्छा अभ्यास
में संवत् १९७६ कार्तिक शुक्ला १३ दिनांक १३ नवम्बर १९१९ किया। पाथर्डी धार्मिक परीक्षा बोर्ड को सर्वोच्च परीक्षा “जैन
को हुआ। आपने पिता का नाम श्रीमान् मूलचंद जी गोलेच्छा और सिद्धान्ताचार्य" उत्तीर्ण की। प्रयाग की हिन्दी प्रथमा परीक्षा पास की, .
माताजी का नाम श्रीमती सुवटीबाई है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर प्राकृत भाषा का भी अध्ययन किया।
मुनिजी म. को गुरु बनाया और महासती श्री हर्षकंवर जी म. के आप काव्य और उपन्यास की रचनाकार भी हैं, "मगध का पास संवत् २००६ मार्ग शीर्ष कृ. ६ दिनांक ११ नवम्बर १९४९ राजकुमार मेघ" आपका खण्ड काव्य है और "दिव्य पुरुष" को पादरू (बाड़मेर) में दीक्षा ग्रहण की। ल भगवान् महावीर से संबंधित उपन्यास है। आपके कई लेख भी आपने मूल आगमों की स्वाध्याय, थोकड़े, चौपाई, रास आदि प्रकाशित हुए हैं। आपका प्रवचन तात्त्विक और मधुर होता
का अध्ययन किया। आपकी एक शिष्या है-महासती मदनकुंवर है, आपने मुख्यतया राजस्थान और मालव प्रदेश में विचरण जी म.। किया है।
आपने राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में - महासती श्री कौशल्याकुमारी जी म.
विचरण किया। मेवाड़ प्रदेश के उदयपुर जिले के अन्तर्गत नान्देसमा गाँव में
महासती श्री विमलवती जी म. आपका जन्म विक्रम संवत् १९९६ में हुआ। आपके पिताश्री का
आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के गाँव कानाना में नाम श्रीमान् लाड़जी पालीवाल और माताजी का नाम श्रीमती
संवत् १९९६ भाद्रपद कृष्णा ८ दिनांक १७अगस्त १९३९ को 3 वर्दीबाई पालीवाल था।
हुआ। आपके पिता जी का नाम श्रीमान् गेबीराम जी श्रीमाल और म आपने परमश्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को अपना माताजी का नाम श्रीमती बक्सूबाई है। गुरु बनाया और महासती श्री सज्जनकुमारी जी म. के पास संवत्
___आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और (२००५ वैशाख सुदी ५ को उदयपुर जिले के देवास गाँव में दीक्षा
महासती श्री हर्षकुंवर जी म. के सान्निध्य में राजस्थान के पादरू अंगीकार की। आप उपाध्याय गुरुदेवश्री की सांसारिक भानजी
(जि. बाड़मेर) में संवत् २००६ मार्गशीर्ष कृष्णा ६ दिनांक ११ लगती है।
नवम्बर १९४९ को दीक्षा अंगीकार की। नौ वर्ष की लघुवय में दीक्षित हो जाने पर आपने अध्ययन के
१० वर्ष की बालवय में दीक्षित होकर आपने स्वयं को प्रति स्वयं को समर्पित किया और क्रमशः अभ्यास करते हुए श्री
अध्ययन में समर्पित किया और हिन्दी, संस्कृत तथा सिद्धान्त में तिलोकरल स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी की
निपुणता प्राप्त की। आपने पाथर्डी परीक्षा बोर्ड से जैन परीक्षाएँ दी और “जैन सिद्धान्त आचार्य" की सर्वोच्च उपाधि
सिद्धान्तशास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। परीक्षा उत्तीर्ण की।
आपके द्वारा निम्न साहित्य प्रकाशित किया गया है-श्री आपकी प्रवचन शैली मधुर और प्रभावपूर्ण है। आप मधुर ।
प्रतिक्रमण सूत्र, ज्ञानतत्व बोध, आस्था के मोती, गुरु गुणगान, गायिका है। अध्यात्म के प्रति आपकी गहरी रुचि है। आप संघ में । प्रेमगीत प्रार्थना सरगम आदि। आप अच्छी प्रवचनकी और समन्वय की साधिका हैं। आपका स्वभाव शान्त, मृदु और लेखिका है। मिलनसार होने से आपको अच्छी लोकप्रियता प्राप्त है। शिक्षण के
आपकी एक शिष्या है-महासती ज्ञानप्रभा जी म.| आपने प्रति आपकी बहुत गहरी दिलचस्पी है।
राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में तथा कर्नाटक आदि में आप मधुरवक्त्री और प्रवचनकर्ती होने के साथ ही अच्छी विचरण किया है।
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। इतिहास की अमर बेल
PORN ४८३ ।
_महासती श्री दयाकुंवर जी म.
आपकी निम्न पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, चंदन पर्व प्रसाद, चन्दन
की सौरभ, साधना के गीत भाग १-२, गुणस्थान द्वार, नवक्त्व, आपका जन्म संवत् १९६९ के कार्तिक मास में उदयपुर ।
भक्तामर स्तोत्र आदि। (राजस्थान) के रावल्या ग्राम में हुआ। आपके पिता जी का नाम श्रीमान् भगवान जी परमार और माताजी का नाम श्रीमती आपकी शिष्याएँ तीन हैं-श्री देवेन्द्रप्रभा जी म., श्री धर्मज्योति फूलबाई है।
जी म. और श्री मंगलज्योति जी म.। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर आपका विचरण मेवाड़, मारवाड़ और मालवा में हुआ। महासती श्री शीलकुंवर जी म. के पास संवत् २००६ माघ कृष्णा आपकी स्वाध्याय के प्रति विशेष रूचि है। दूसरों को स्वाध्याय के पंचमी को पाली (मारवाड़) में दीक्षा धारण की।
लिए प्रेरित करने हेतु आपने वर्धमान स्वाध्याय संघ की स्थापना में आप सेवाभावी सती हैं। आपने मेवाड़, मारवाड़ और गुजरात
प्रेरणा प्रदान की। में विचरण किया है।
श्री प्रियदर्शना जी म. महासती श्री सत्यप्रभा जी म.
आपका जन्म राजस्थान के उदयपुर नगर में संवत् २००२ आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के गाँव खण्डप में। वैशाख शुक्ला २ दिनांक १३ मई १९४४ को हुआ। आपके पिताश्री संवत् २००३ श्रावण कृष्णा २ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम का नाम श्रीमान् कन्हैयालाल जी और माताजी का नाम श्रीमती श्रीमान् मिश्रीमल जी सुराणा और माता जी का नाम श्रीमती राजबाई है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया सोनीबाई है।
और परम विदुषी साध्वीरल महासती श्री पुष्पवती जी म. के पास आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और
सं. २०१८ फाल्गुन कृष्णा १३ दिनांक ४ अप्रैल १९६२ को RDD महासती श्री सुकनकुंवर जी म. के पास बाड़मेर जिले के गाँव ।
उदयपुर में दीक्षा धारण की। आप आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. की करमावास में दीक्षा ग्रहण की।
मौसी की पुत्री बहिन हैं। आपने वर्धा की राष्ट्रभाषा कोविद परीक्षा उत्तीर्ण की। पाथर्डी
आपने जैन सिद्धान्त विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की। आगम, 64 धार्मिक परीक्षा बोर्ड की जैन सिद्धान्त प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण की।
दर्शन, हिन्दी, संस्कृत तथा स्तोक साहित्य का अच्छा अभ्यास किया। संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, भाषा का अभ्यास किया। आगम तथा
आपके द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक है-आदर्श कहानियाँ। स्तोक साहित्य का अध्ययन किया है। आप अच्छी प्रवचनकार है। आपकी एक शिष्या है-श्री सुप्रभा जी म.। स्वभाव मिलनसार है।
आपका स्वभाव सरल व मधुर और सेवापरायण है। आपके आपकी चार शिष्याएँ हैं-श्री चंदनप्रभा जी म., श्री सुमित्रा जी । प्रवचन मधुर और प्रभावक हैं। आपने राजस्थान, गुजरात, म., श्री धर्मशीला जी म. और राजमती जी म.।
महाराष्ट्र और कर्नाटक में विचरण किया है। आपका विचरण मारवाड़, गुजरात और महाराष्ट्र में हुआ।
श्री विनयवती जी म. साध्वी श्री चन्दनबाला जी म. "सिद्धान्ताचार्य"
आपका जन्म मेवाड़ प्रदेश के उदयपुर जिले के गाँव पदराड़ा आपका जन्म मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में विक्रम संवत् में हुआ। आपके पिता जी का नाम श्रीमान् खेमराज जी नेमीचंद जी १९९४ मृगशीर्ष शुक्ला दशमी को हुआ। आपके पिताश्री का नाम दौलावात है और माताजी का नाम सौ. मोहनबाई खेमराज जी श्रीमान् सोहनलाल जी खाबिया एवं माताजी का नाम श्रीमती सोहनबाई खाबिया है। आपने वि. सं. २००९ चैत्र कृष्णा पंचमी
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और को उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर परम विदुषी
विदुषी महासती श्री कौशल्या कुमारी जी म. के पास वि. सं. आगमज्ञाता शासन प्रभाविका श्री शीलकुंवरजी म. के पास उदयपुर
२०१९ माह सुदी ११ को पदराड़ा में दीक्षा ग्रहण की। में दीक्षा ग्रहण की।
आपने जैन सिद्धान्त प्रभाकर परीक्षा पास की। आप आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत और अंग्रेजी भाषाओं का ।
सेवाभावनी है। अध्ययन करते हुए तिलोकरन स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा । बोर्ड की सर्वोच्च परीक्षा "जैन सिद्धान्ताचार्य" उत्तीर्ण की।
आपने राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में विचरण किया है।
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महासती श्री मदनकुंवर जी म.
आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के खण्डप ग्राम में संवत् १९८२ आश्विन कृष्णा ११ को हुआ। आपने पिता जी का नाम श्रीमान् सिरेमल जी धोका और माताजी की नाम श्रीमती टीपूबाई है।
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. को अपना गुरुदेव बनाया और स्वाध्याय प्रेमी श्री प्रेमकुंवर जी म. के पास संवत् २०२० वैशाख कृष्णा १० को बाड़मेर जिले के गाँव अजीत में दीक्षा ग्रहण की।
आपको थोकड़े और चौपाई आदि का अच्छा अध्ययन है। आपने राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र, कर्नाटक में विचरण किया है।
महासती श्री चेलना जी म.
आपका जन्म संवत् २००१ में राजस्थान के उदयपुर जिले में गांव सायरा में हुआ आपके पिता जी का नाम श्रीमान् चम्पालाल जी कोठारी और माताजी का नाम श्रीमती प्यारबाई है। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. को गुरु बनाया और महासती श्री शीलकुंवर जी म. के सान्निध्य में भीलवाड़ा (राजस्थान) में सं. | २०२० कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को दीक्षा ग्रहण की। आप सेवाभावी सती हैं, राजस्थान में विचरण करती है।
श्री हेमवती जी म.
आपका जन्म उदयपुर (मेवाड़) के नान्देशमा गांव में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् हंसराज जी और माताजी का नाम श्रीमती विजयाबाई है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. को गुरु बनाकर आपने संवत् २०२४ ज्येष्ठ शुक्ला ३ को डबोक (उदयपुर) में परम्विदुषी महासती श्री कौशल्याकुंवर जी म. के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की।
आपने उत्तराध्ययन, नन्दी, दशवैकालिक और सुखविपाक सूत्रों की वाचना और स्वाध्याय किया। अनेक थोकड़े कण्ठस्थ किए। विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की।
आपका स्वाभाव शान्त है, आप सरलमना और सेवाभाविनी हैं राजस्थान में विचरण किया है और कर रही हैं।
महासती श्री चारित्र प्रभा जी म.
आपका जन्म संवत् २००६ श्रावण कृष्णा अमावस्या को उदयपुर जिले के गाँव बगडून्दा में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् कन्हैयालाल जी छाजेड़ और माताजी का नाम श्रीमती हंजादेवी छाजेड़ हैं। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. को
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
गुरु बनाकर परम् विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म. के सान्निध्य में संवत् २०२६ फाल्गुन शुक्ला पंचमी दिनांक २९ फरवरी १९६७ को नाथद्वारा में दीक्षा ग्रहण की।
आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं का उच्चस्तरीय अध्ययन किया। जैन सिद्धान्तों का गहन अभ्यास किया। आपने हिन्दी में साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त की। जैन दर्शन में शास्त्री 'परीक्षा उत्तीर्ण की। पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धांताचार्य की उच्च परीक्षा पास की। आपने बी. ए. का व्यावहारिक शिक्षण लिया। आपने साहित्य लेखन कार्य भी किया।
आपके द्वारा लिखित एवं संकलित पुस्तकें हैं, चारित्र सौरभ, कुसुम चारित्र, स्वाध्याय माला, कुसुम-चरित्र नित्य स्मरण माला, चारित्र ज्योति (भजन)
आपकी पाँच शिष्याएं हैं-श्री दर्शन प्रभा जी, श्री विनय प्रभा जी, श्री रुचिका जी, श्री राजश्री जी, श्री प्रतिभा जी।
आपने कई संस्थाओं की स्थापना में प्रेरणा की है, अलवर में कुसुम सिलाई बुनाई केन्द्र, चांदनी चौक दिल्ली में महिला मण्डल, अमीनगर सराय में धार्मिक पाठशाला, दोघट में जैन वीर बाल संघ, कांधला में जैन वीर बालिका संघ आपकी प्रेरणा से स्थापित हुए हैं।
आपने राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, जम्मू तथा काश्मीर में विचरण किया है।
श्री साधनाकुंवर जी म.
आपका जन्म संवत् १९८७ में राजस्थान के जालोर जिले के गांव भारंडा में हुआ। आपके पिता जी का नाम श्रीमान् सरदारमल जी सालेचा और माताजी का नाम श्रीमती सकुबाई है। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. को अपना गुरु बनाया और महासती श्री शीलकुंवर जी म. के पास संवत् २०२७ माह सुदी ५ को बाड़मेर (राजस्थान) जिले के गांव समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की।
आपका सामान्य अध्ययन हुआ। आप सेवाभावी हैं। आपका विचरण राजस्थान में हुआ है।
महासती श्री ज्ञानप्रभा जी म. "साहित्यरत्न"
महाराष्ट्र प्रान्त के पूणे जिले के गांव बड़गाव में आपका जन्म संवत् २०१६ भाद्रपद कृष्णा ५ दिनांक २३ अगस्त १९५९ को हुआ आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पं. सिद्धराम जी जैन और माताजी का नाम श्रीमती कस्तूरीदेवी है।
आपने उपाध्याय प्रवर विश्वसंत श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और ब. ब्र. श्री विमलवती जी म. के सान्निध्य में
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४८५ । संवत् २०२८ मार्गशीर्ष शुक्ला ६ दिनांक २४ नवम्बर १९७१
श्री सुदर्शनप्रभा जी म. को महाराष्ट्र के ठाणा जिले के ग्राम केलवारोड़ में दीक्षा
महाराष्ट्र प्रान्त के धुलिया नगर में आपका जन्म विक्रम संवत् अंगीकार की।
२०१२ ज्येष्ठ शुक्ला ११ दिनांक १८ जून १९५६ को हुआ। आपने राष्ट्रभाषा वर्धा से कोविद, पाथर्डी से संस्कृत विशारद
आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पूनमचन्द जी मोतीलाल जी लोढ़ा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरल की सर्वोच्च ।
है और माताजी का नाम सौ. चम्पाबाई है, जो वर्तमान में साध्वी उपाधि प्राप्त की।
श्री दर्शनप्रभा जी म. है। आपकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई है, प्रार्थना पुष्प और गीतों की
आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और शहनाई।
परम् विदुषी मधुरव्याख्यानी श्री कौशल्याकुमारी जी म. के पास आपने राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में विचरण वैशाख शुक्ला ९, संवत् २०३३ दिनांक २२ अप्रेल १९७७ को किया है।
नन्दुरबार (धुलिया) में दीक्षा ग्रहण की। डॉ. साध्वी दिव्यप्रभा जी म.
आपने व्यावहारिक शिक्षण बी. कॉम. प्रथम वर्ष तक किया।
श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) का ५ वर्ष का पाठ्यक्रम पूर्ण आपका जन्म संवत् २०१४ मार्गशीष शुक्ला १० दिनांक ३०
किया। पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्त शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। नवम्बर १९५७ को मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में हुआ। आपके
आपकी निम्न पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं-१-मंगल के मोती, २-सत्यं पिताश्री का नाम श्रीमान् कन्हैयालाल जी सियार और माताजी की
शिवं सुन्दरं, ३-दीक्षा एवं तप के गीत, ४-विनय वंदन। आपने नाम श्रीमती चौथबाई सियार है। आपने उपाध्याय श्री पुष्कर
गुजरात और महाराष्ट्र में विचरण किया है। मुनिजी म. को गुरु बनाकर परम् विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी म. के पास संवत् २०३० कार्तिक शुक्ला १३ दिनांक ८
श्री किरणप्रभा जी म. नवम्बर १९७३ को अजमेर में दीक्षा ग्रहण की।
आपका जन्म महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के गांव जयसिंगपुर आपने संस्कृत विषय लेकर शास्त्री तथा एम. ए. की उपाधि में संवत् २०१५ फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को हुआ। आपके पिताश्री प्राप्त की तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरत्न परीक्षा का नाम श्रीमान् ख्यालीराम जी बरडिया और माताजी का नाम उत्तीर्ण की। आपने दिल्ली संस्थान में दर्शनाचार्य का प्रथम खण्ड श्रीमती सीताबाई बरड़िया है। पास किया और उपमिति भव प्रपंच कथा पर शोध प्रबन्ध लिखकर
आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और seas पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
परम् विदुषी साध्वीरल महासती श्री पुष्पवती जी म. की सेवा में oed आपकी दो शिष्याएं हैं-साध्वी अनुपमा जी और साध्वी संवत् २०३३ माघ शुक्ला १३ दिनांक २ फरवरी १९७६ को 600 निरुपमा जी। ये दोनों सांसारिक रिश्ते में बहिनें हैं। आपकी प्रवचन उदयपुर में दीक्षा धारण की। कला सुन्दर है।
आपने जैन सिद्धान्तशास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की और आगमों आपने राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और और थोकड़ों का अध्ययन किया। आपका गायन मधुर है। जम्मू काश्मीर में विचरण कर धर्म जागरण किया है। आपने
आप मधुर स्वभावी और सेवाभावी सती हैं। आपने राजस्थान, महासती श्री कुसुमवती जी के अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन
गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में विचरण किया है। किया है।
डॉ. श्री दर्शनप्रभा जी म. श्री दर्शनप्रभा जी म.
आपका जन्म भारत की राजधानी दिल्ली में संवत् २०१० महाराष्ट्र प्रान्त के जलगांव जिले के गाँव कासमपुरा में आपका
आश्विन शुक्ला १३ दिनांक २३ अक्टूबर १९५३ को हुआ। आपके जन्म हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् सुपडुलाल जी सा.
पिताश्री का नाम श्रीमान रतनलाल जी सा. लोढ़ा और माताजी का सुराणा है। आपने उपाध्याय पू. श्री पुष्कर मुनि जी. म. को अपना
नाम श्रीमती कमला बाई लोढ़ा है। गुरुदेव बनाया और पू. महासती श्री कौशल्याकुंवर जी म. के पास सं. २०३२ बैशाख सुदी १० दिनांक २२ अप्रेल, १९७७ को आपने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु मानकर श्री धुलिया जिले के गांव नंदूरबार में दीक्षा धारण की। आपको शास्त्रों चारित्रप्रभा जी म. के पास राजस्थान के अजमेर जिले के नगर तथा थोकड़ों का अच्छा ज्ञान है। आपने महाराष्ट्र में विचरण किया । ब्यावर में संवत् २०३२ फाल्गुन कृष्णा ५ दिनांक २० फरवरी, और कर रही है, आपके जीवन में तपःसाधना ओत प्रोत है। १९७६ को दीक्षा ग्रहण की।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आपने प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्यरत्न परीक्षा
श्री सुमन प्रभा जी म. 2002.य उत्तीर्ण की। वर्धा से "राष्ट्रभाषा रत्न" किया। अहमदाबाद से
राजस्थान के प्रसिद्ध जोधपुर नगर में आपका जन्म संवत् दर्शनाचार्य और पाथर्डी धार्मिक परीक्षा बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य 200
२०१८ माघ शुक्ला १४ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् परीक्षा समुत्तीर्ण की। आपने संस्कृत विषय लेकर एम. ए. की
मिश्रीमल जी सा. छाजेड़ और माता जी का नाम श्रीमती ऊकी 202004 उपाधि प्राप्त की है और आचार्य हरिभद्र और उनके साहित्य
बहिन छाजेड़ है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच.डी. की उपाधि से अलंकृत
बनाकर महासती श्री सत्यप्रभा जी म. के पास सं. २०३५ ज्येष्ठ हुई हैं।
शुक्ला ३ दिनांक ९ जून १९७८ को सिवाना के हाईस्कूल में दीक्षा आपने विविध विषयों में विद्वत्ता प्राप्त की है। आपने
ग्रहण की। आपने जैन सिद्धान्त प्रभाकर, वर्धा की परीक्षा और राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, जम्मू और कोविद परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। आपका प्रवचन मधुर और प्रभावी काश्मीर में विचरण किया है।
होता है, आपने राजस्थान में विचरण किया है। महासती श्री चन्दनप्रभा जी म.
श्री हर्ष प्रभा जी म. PaDiaD
आपका जन्म संवत् २०१६ कार्तिक शुक्ला ३ दिनांक २३ 20.001
राजस्थान के अजमेर जिले के किशनगढ़ गाँव में आपका जन्म अक्टूबर १९६० को गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में
संवत् २०११ बैशाख शुक्ला पूर्णिमा दिनांक १४ मई १९५४ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्री लाभुभाई दयाल जी मेहता और
हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पूनमचंद जी जामड़ और माताजी का नाम श्रीमती कंचर बहिन है। आपने उपाध्याय
माता जी का नाम श्रीमती कंचनबाई जामड़ है। प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. को अपने गुरु पद पर स्थापित
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर कर महासती श्री सत्यप्रभा जी म. के पास संवत् २०३४ माघ सुदी ५ दिनांक १२ फरवरी १९७७ को गांधीनगर में दीक्षा
महासती श्री प्रभावती जी म. के पास सं. २०३५ माघ शुक्ला
त्रयोदशी दिनांक २ फरवरी १९७७ को उदयपुर के पोरवाड़ों के अंगीकार की।
नोहरे में दीक्षा ग्रहण की। आपने १० वीं कक्षा तक व्यावहरिक शिक्षण गुजराती माध्यम से लिया। संस्कृत और हिन्दी का अभ्यास किया। जैन सिद्धान्त
आपने हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, गुजराती और अंग्रेजी भाषाओं
का ज्ञान किया। आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरल प्रभाकर परीक्षा पास की।
की उपाधि प्राप्त की। आपने सेंट्रल बोर्ड दिल्ली से १०वीं कक्षा का आप सेवाभावी, मधुर स्वभावी और व्याख्यात्री हैं। आपकी
व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त किया। पाथर्डी धार्मिक परीक्षा बोर्ड से जैन एक शिष्या है-श्री धर्म शीला जी म.।
सिद्धान्ताचार्य परीक्षा पास की। आपने प्रभावती श्रद्धांजलि नामक आपने मुख्य रूप से राजस्थान में विचरण किया।
पुस्तिका प्रकाशित कराई है। आपका राजस्थान में विचरण हुआ। श्री देवेन्द्रप्रभा जी म.
श्री विनय प्रभा जी म. आपका जन्म मारवाड़ प्रान्त के जालोर नगर में दिनांक २० आपका जन्म राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर में दिनांक ५ सितम्बर १९६० को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् मूलचंद जून १९५६ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् सुन्दरलाल जी सा. भंसाली और माताजी का नाम श्रीमती उगमबाई भंसाली है। जी गाँधी (जैन) और माताजी का नाम श्रीमती मुनीबाई गाँधी आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और (जैन) है। आपने भारत की राजधानी दिल्ली में दिनांक २४ स्वाध्याय संघ की संप्रेरिका सिद्धान्ताचार्य श्री चंदनबाला जी म. के । फरवरी १९७८ को संवत् २०३५ फाल्गुन शुक्ला २ को पास वि. सं. २०३४ फाल्गुन शुक्ला ६ दिनांक १५ मार्च, १९७८ । उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर महासती श्री को जालोर में दीक्षा धारण की।
चारित्रप्रभा जी म. के पास दीक्षा अंगीकार की। आपने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का आपने हिन्दी, संस्कृत आदि का अभ्यास किया। जैन सिद्धान्त अभ्यास किया। जैन सिद्धान्त के बोलचाल और थोकड़ों का अभ्यास । विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की। कर जैन सिद्धान्त प्रभाकर परीक्षा पास की।
। अपनी गुरुणी के साथ राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुरुणी के साथ आपने मेवाड़-मारवाड़ में विचरण किया है। हरियाणा, जम्मू और कश्मीर आदि प्रान्तों में विचरण किया है।
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श्री रत्नज्योति जी म.
है। आपकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। "गीतों की गरिमा"।
आपकी प्रवचन कला अच्छी है। आपका जन्म संवत् २०१९ कार्तिक शुक्ला १४ दिनांक १० नवम्बर १९६२ को महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के गाँव
आपने राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में विचरण जयसिंगपुर में हुआ। आपके पिताश्री का नाम गुलाबचंद की
किया है। बरड़िया और माताजी का नाम श्रीमती आनंदीबाई बरड़िया है।
श्री नयन ज्योति जी म. आपने परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु
आपका जन्म मेवाड़ की राजधानी उदयपुर नगर में ५ जुलाई बनाकर परम विदुषी साध्वी रत्न महासतीश्री पुष्पवती जी म. के
१९६२ को हुआ। आपके पिताजी का नाम श्रीमान् चन्दनमल जी पास संवत् २०३७ वैशाख शुक्ला पूर्णिमा दिनांक ३० अप्रैल
सोलंकी और माताजी का नाम श्रीमती कमलादेवी है। आपने १९८० को उदयपुर में दीक्षा धारण की।
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर परम विदुषी आपने बी. ए. द्वितीय वर्ष का तक का व्यावहारिक शिक्षण महासतीश्री विमलवती जी म. के पास बाड़मेर जिले के गढ़सिवाना लिया और तिलोकरत्न धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी की सर्वोत्तम 1 में संवत् २०३८ ज्येष्ठ चतुर्दशी दिनांक ५ जून १९८२ को दीक्षा परीक्षा "जैन सिद्धान्ताचार्य" उत्तीर्ण की। आपको अनेकों थोकड़े ग्रहण की। कंठस्थ हैं तथा हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, कन्नड़, अंग्रेजी का
आपने हिन्दी, गुजराती, मराठी, भाषाओं का अध्ययन किया। अच्छा अभ्यास है। आपका प्रवचन श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर देता आपने साहित्य विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की। नन्दीसूत्र, अन्तगड़सूत्र, है। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रदेशों में विचरण
उपासकदशांग, सुखविपाक, कल्पसूत्र आदि आगमों का वाचन
Joes000 किया है। किया।
Pat श्री रुचिका जी म. एम. ए. बी. एड.
आपने राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त में विचरण
किया है। आपका जन्म जन्मू काश्मीर के जिला जम्मू में संवत् २०१६ श्रावण शुक्ला ६, दिनांक ८ अगस्त १९५९ को हुआ। आपके
साध्वी श्री स्नेहप्रभा जी म. पिताश्री का नाम श्रीमान् मनीराम जी आनन्द और माताजी का
आपका जन्म महाराष्ट्र के पूना जिले के गाँव घोड़नदी में संवत् नाम श्रीमती राजदेवी आनन्द है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी
२०२५ कार्तिक शुक्ला नवमी दिनांक २९ अक्टूबर १९६८ को म. को गुरु बनाकर महासती श्री चारित्रप्रभा जी म. के सान्निध्य में
हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् ताराचंद जी अमोलकचंद जी संवत् २०३७ वैशाखी पूर्णिमा दिनांक ३० अप्रैल, १९८० को । गादिया और माताजी का नाम सौ. सूरजबाई ताराचंदजी गादिया है। दीक्षा अंगीकार की। आपका दीक्षा महोत्सव उत्तर प्रदेश के कांधला (मुजफ्फरनगर) में संपन्न हुआ। आपका व्यावहारिक शिक्षण
आपने सद्गुरुवर्यश्री पुष्कर मुनिजी म. को अपना गुरुदेव एम. ए. बी. एड. तक हुआ, हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत और जैन
बनाया और महासती श्री कौशल्याकुंवर जी म. के पास संवत् सिद्धान्तों का आपने अच्छा अभ्यास किया। जैन सिद्धान्त विशारद
२०३९ वैशाख सुदी ७ दिनांक ४ मई १९८३ को अहमदनगर में
दीक्षा अंगीकार की। परीक्षा उत्तीर्ण की। राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में विचरण हुआ है।
आपने ११वीं कक्षा तक व्यावहारिक शिक्षण लिया। श्री धार्मिक
परीक्षा बोर्ड पाथर्डी की जैन सिद्धान्त शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। साध्वी श्री गरिमा जी म. एम. ए. आपने महाराष्ट्र प्रान्त में विचरण किया है।
1080P आपका जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में हुआ। आपके पिता जी का नाम श्रीमान् तुलाराम जी और माताजी का नाम श्रीमती
साध्वी श्री संयम प्रभा जी म. रमादेवी जी है। आपका जन्म १५ अप्रैल, १९६३ को हुआ। आपने
आपका जन्म महाराष्ट्र के जलगांव जिले के गाँव कासमपुरा में उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और परम विदुषी दिनांक ४ फरवरी १९६२ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम महासती श्री कुसुमवती जी म. के पास दिनांक ३० अप्रैल १९८० श्रीमान् शोभाचन्द जी सुराणा और माताजी का नाम श्रीमती को मुजफ्फरनगर जिले के गाँव कांधला में दीक्षा ग्रहण की। शांताबाई सुराणा है।
आपने एम. ए. तक का शिक्षण लिया है। संस्कृत, प्राकृत और आपने उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर हिन्दी में अच्छी योग्यता प्राप्त की है। जैन सिद्धान्तों का ज्ञान किया । पू. महासती श्री कौशल्या कुमारी जी म. के पास अहमदनगर में सं. पाण्यावरण्डारण र
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२०४० वैशाख कृष्णा ७ दिनांक ४ मई १९८३ को आचार्यसम्राट् पू. श्री आनन्द ऋषि जी म. से दीक्षा ग्रहण की।
आपने घाटकोपर (बम्बई) श्रमणी विद्यापीठ के चार वर्ष का पाठ्यक्रम पूर्ण किया। शास्त्रों एवं थोकड़ों का अध्ययन किया। आप अच्छी प्रवचनकार हैं। आपका विचरण महाराष्ट्र में हुआ और हो रहा है।
साध्वी श्री अनुपमा जी म. बी. ए.
आपका जन्म संवत् २०२४ वैशाख कृष्णा २ दिनांक १५ अप्रैल १९६८ को राजस्थान के अजमेर जिले के गाँव जामोला में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् नौरतमल जी बौहरा और माताजी का नाम श्रीमती सोहनबाई है। आपने श्रद्धेय श्री राजेन्द्र मुनिजी म. को गुरु बनाकर महासती श्री दिव्यप्रभाजी म. के पास संवत् २०४० माघ शुक्ला त्रयोदशी दिनांक १५ फरवरी, १९८३ को अजमेर जिले के किशनगढ़ में उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. के मुखारविन्द से दीक्षा ग्रहण की।
आपने जैन सिद्धान्त के बोलचाल और थोकड़ों का अध्ययन किया। "दीक्षा ज्योति" नामक एक पुस्तक आपकी प्रकाशित हुई है। आपकी सांसारिक संबंध की बहिन श्री निरुपमा जी ने भी दीक्षा ली है । आपने राजस्थान में विचरण किया है और कर रही है।
श्री धर्मज्योति जी म.
आपका जन्म मारवाड़ प्रान्त के बाड़मेर जिले के गाँव खण्डप में वि. सं. २०२४ माघ शुक्ला १२ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् चम्पालाल जी विनायकिया और माताजी का नाम श्रीमती बदामबाई विनायकिया है। आपने उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर स्वाध्याय संघ की संप्रेरिका श्री चंदनबाला जी म. के पास संवत् २०४१ वैशाख कृष्णा ५ दिनांक २० अप्रैल १९८५ को खण्डप (बाड़मेर) में दीक्षा ग्रहण की।
आपको सामान्य बोलचाल और थोकड़ों का ज्ञान है। मारवाड़ मेवाड़ में विचरण हुआ है। आपने सिद्धान्त विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की है।
साध्वी श्री प्रतिभा जी म.
आपका जन्म जयपुर (राजस्थान) में संवत् २०२८ भाद्रपद कृष्णा ३ दिनांक १५ अगस्त १९७१ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् झंवरलाल जी झांबक (जैन) और माताजी का नाम श्रीमती किरणदेवी झांबक (जैन) है।
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाकर महासती श्री चारित्र प्रभा जी म. के पास संवत् २०४१ मगसर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
सुदी १० दिनांक २ दिसम्बर १९८४ को दिल्ली में दीक्षा धारण की।
आपने हाईस्कूल साहित्यरत्न तक का व्यावहारिक शिक्षण लिया। जैन सिद्धान्त विशारद परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन किया। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में अपनी गुरुणी जी के साथ विचरण किया।
साध्वी श्री सुलक्षणप्रभा जी म.
आपका जन्म उदयपुर जिले के कराई गाँव में विक्रम संवत् २०२३ कार्तिक शुक्ला ८ दिनांक १३ नवम्बर १९६६ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् पूनमचंद जी तेजपाल जी बागरेचा और माताजी का नाम सी सुन्दरबाई पूनमचंद जी वागरेचा है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को अपना गुरु बनाया और महासती श्री कौशल्याकुमारी जी म. के पास सं. २०४१ फाल्गुन सुदी ९ दिनांक १ मार्च १९८५ को अहमदनगर में दीक्षा धारण की।
आपने ८वीं कक्षा तक व्यावहारिक शिक्षण लिया तथा पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्त प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण की। आप अध्ययनशीला, सेवाभावी, संगीत प्रेमी और शान्तस्वभावी हैं। महाराष्ट्र में विचरण कर रही हैं।
श्री सुप्रभा जी म.
आपका जन्म कर्नाटक प्रान्त के बैंगलोर शहर में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् चंपालाल जी और माताजी का नाम श्रीमती मांगीबाई है।
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और साध्वीरल श्री पुष्पवती जी म. महासती श्री प्रियदर्शनाजी म. के पास दिनांक १९ जनवरी १९८४ को मदनगंज में दीक्षा ग्रहण की।
आपने दशवैकालिक, सुखविपाक, नन्दी आदि सूत्रों की स्वाध्ययाय की है। अनेक थोकड़े कंठस्थ किये हैं। आपने जैन सिद्धान्त प्रभाकर परीक्षा पास की है।
आपने राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में विचरण किया।
श्री मंगलज्योति जी म.
आपका जन्म मारवाड़ प्रान्त के जोधपुर जिले के अन्तर्गत दुन्दाड़ा गाँव (जो आपका ननिहाल है) में वि. सं. २०२२ कार्तिक कृष्णा अष्टमी को हुआ। आपके पिताजी का नाम श्रीमान् लालचंद जी सा. लूंकड़ और माताजी का नाम श्रीमती रेशमबाई लूंकड है।
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। इतिहास की अमर बेल
आपने अध्यात्मयोगी उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को । १० फरवरी १९६६ को मेवाड़ की राजधानी उदयपुर के बगडून्दा गुरु बनाया और स्वाध्याय संघ की संप्रेरिका सिद्धान्ताचार्य श्री | गाँव में हुआ। आपके पिताश्री का नाम श्रीमान् गोपीलाल जी छाजेड़ चन्दनबाला जी म. के पास वि. सं. २०४२ ज्येष्ठ शुक्ला तीज | और माता जी का नाम श्रीमती अमृताबाई छाजेड़ है! दिनांक २२ मई १९८५ को दीक्षा धारण की। आपकी दीक्षा का
आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी म. को गुरु बनाकर विदुषी समारोह समदड़ी (मारवाड़) में हुआ।
महासती श्री चारित्र प्रभाजी म. के सान्निध्य में संवत् २०४१ आपने जैन सिद्धान्त विशारद की परीक्षा श्री पाथर्डी बोर्ड से मगसर सुदी १० दिनांक २ दिसम्बर १९८४ को चांदनी चौक उत्तीर्ण की। आप अध्ययनशीला हैं। आगे अध्ययन चल रहा है। दिल्ली में दीक्षा ग्रहण की। आपका मारवाड़-मेवाड़ प्रदेश में विचरण हुआ है।
आपने संस्कृत का व्यावहारिक शिक्षण लिया तथा हिन्दी में साध्वी निरुपमा जी म.
“साहित्यरत्न" की उपाधि परीक्षा पास की। संस्कृत, प्राकृत का आपका जन्म राजस्थान के अजमेर जिले के गाँव जामोला में
भी अध्ययन किया। राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, संवत् २०२२ माघ शुक्ला पूर्णिमा को हुआ। आपके पिताश्री का
हरियाणा, हिमाचल प्रदेश में अपनी गुरुणी जी के साथ विचरण नाम श्रीमान् नौरतनमल जी बोहरा और माताजी का नाम श्रीमती
किया है। सोहनबाई बोहरा है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु आप “आचारांग वृत्ति का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर बनाकर महासती श्री दिव्यप्रभाजी म. के पास संवत् २०४३ । शोध कार्य करने में संलग्न हैं। अश्विन शुक्ला चतुर्दशी दिनांक १६ अक्टूबर, १९६८ को मारवाड़
महासती श्री राजमती जी म. के पाली नगर में उपाध्याय पू. गुरुदेवश्री पुष्कर मुनिजी म. के मुखारबिन्द से दीक्षा ग्रहण की।
आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के अजीत ग्राम में आपका व्यावहारिक शिक्षण मैट्रिक पर्यन्त हुआ। जैन सिद्धान्त ।
हुआ। के बोलचाल और थोकड़ों का आपने अध्ययन किया है। आपकी आपके पूज्य पिताश्री का नाम मिश्रीमल जी तलेसरा और छोटी बहिन अनुपमा जी ने भी दीक्षा ली है। दोनों बहिनें दीक्षा
मातेश्वरी का नाम हरखुबाई है। आपने परम आराध्य पूज्य गुरुदेव लेकर संयम की साधना कर रही हैं।
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के उपदेश को श्रवण कर त्याग आपका विचरण राजस्थान में हुआ एवं हो रहा है।
वैराग्य के मार्ग पर बढ़ने का निश्चय किया और विदुषी महासती
श्री सत्य प्रभाजी म. का शिष्यत्व स्वीकार किया और गुरुदेवश्री के महासती श्री धर्मशीला जी म.
मुखारविन्द से २५ मार्च १९९१ चैत्र शुक्ला ५ को खण्डप राजस्थान प्रान्त के जालोर जिले के गाँव घाणा में आपका (बाड़मेर) में दीक्षा ग्रहण की। जन्म संवत् २०१९ भाद्रपद शुक्ला ६ को हुआ। आपके पिताजी का
आप सेवामूर्ति हैं। स्तोक साहित्य का अच्छा अभ्यास है। मुख्य नाम श्रीमान् भंवरलाल जी विनायकिया और माताजी का नाम
रूप से आपका विहार राजस्थान और गुजरात रहा है। श्रीमती सुन्दरबाई है। आपने उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. को गुरु बनाया और
महासती श्री आभाश्री जी म. मधुर व्याख्यानी श्री चन्दन प्रभाजी म. के पास संवत् २०४९ । आपका जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में कार्तिक शुक्ला मार्गशीर्ष शुक्ला ६ दिनांक २८ दिसम्बर १९८४ को बाड़मेर जिले पूर्णिमा दि. २०.११.१९७६ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम के गाँव समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की।
विरेन्द्रपाल शर्मा तथा मातेश्वरी का नाम गीता रानी है। आपने हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं का और जैन सिद्धान्त
। आपने श्री गणेश मुनिजी शास्त्री को अपना गुरु बनाया तथा विशारद तक का अध्ययन किया। पाथर्डी बोर्ड से उक्त परीक्षा
परम विदुषी महासतीश्री चारित्र प्रभाजी को गुरुणी। वैशाख सुदी उत्तीर्ण की। आप सेवाभावी हैं।
छट दिनांक १९.५.१९९१ को आपने ढोल (जि. उदयपुर) में दीक्षा आपने राजस्थान में विचरण किया है, अभी समदड़ी में सेवा । ग्रहण की। में विराजित हैं।
आपको अनेकों थोकड़े कंठस्थ हैं। मैट्रिक तक व्यावहारिक श्री राजश्री जी म. एम. ए.
अध्ययन किया है। आपका जन्म संवत् २०२३ फाल्गुन शुक्ला पंचमी, दिनांक आपका विहार क्षेत्र राजस्थान रहा है।
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महासती श्री विचक्षणश्री जी म.
आपका जन्म राजस्थान के अजमेर जिले में स्थित किशनगढ़ नगर में दि. २८.११.७८ को हुआ। आपके पिताश्री का नाम जिनेन्द्र कुमार जी चौरड़िया तथा मातेश्वरी का नाम अ. सी. रतनबाई चौरड़िया है।
आपने आचार्यसम्राट पूज्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को अपना गुरु बनाया तथा परम विदुषी साध्वीरत्न महासती श्री पुष्पवती जी म. को गुरुणी बनाया।
आचार्यसम्राट पूज्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. के आचार्य चादर समारोह के शुभ अवसर पर आपने उदयपुर (राज.) में सं. | २०५० चैत्र शुक्ला पंचमी दिनांक २८.३.९३ को दीक्षा ग्रहण की।
आपकी अनेक थोकडे शास्त्र कण्ठस्थ है तथा धार्मिक परीक्षा बोर्ड अहमदनगर की जैन सिद्धान्त परीक्षा उत्तीर्ण की।
आपका गायन मधुर है। आपका विचरण क्षेत्र राजस्थान रहा है।
महासती श्री नवीन ज्योति जी म.
राजस्थान के सुप्रसिद्ध औद्योगिक क्षेत्र पाली में दिनांक ९.१०.७० को आपका जन्म हुआ। आपके पिताश्री का नाम प्रकाशचन्द जी और मातेश्वरी का नाम सी. सागर बाई मेहता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. के उपदेश से वैराग्य के बीज अंकुरित हुए और परम विदुषी साध्वीरल महासती श्री शीलकुंवर जी म. से पल्लवित और पुष्पित हुए।
२४ फरवरी १९९४ को पाली में आर्हती दीक्षा ग्रहण की और विदुषी महासती श्री चन्दन बाला जी का शिष्यत्व स्वीकार किया।
दीक्षा के पूर्व राजस्थान विश्व विद्यालय से संस्कृत में एम. ए. किया है तथा पाथर्डी बोर्ड की प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण की। आप होनहार साध्वी है।
महासती श्री पुनीत ज्योति जी
आपका जन्म राजस्थान के बाड़मेर जिले के ढींढस ग्राम में पौष वदी १ संवत् २०१० को हुआ। आपके पिताश्री का नाम दलीचन्द जी खांटेड तथा मातेश्वरी का नाम पानीबाई है।
आपने आचार्यसम्राट पूज्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. को अपना गुरु बनाया तथा महासती श्री सत्यप्रभा जी म. की सुशिष्या धर्मशीला जी को अपनी गुरुणी ।
आपने वैशाख सुदी ६ को मजल ग्राम में १६ मई १९४४ को दीक्षा ग्रहण की।
आपको अनेकों थोकड़े शास्त्र कंठस्थ हैं। आप सेवाभावी साध्वी हैं।
टाइम हो गया
उठ जाग मुसाफिर, तेरे जाने का टाइम हो गया । टेर ॥ सोया हुआ रहेगा कब तक निश्चित जगना जाना ।
ले सामान संभाल स्वयं का, जो भी नया पुराना रे ।। उठ-१ ।।
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इधर उधर से जो आये थे, चले गए वे सारे।
उन्हें भूल जा चाहे तेरे, थे वे प्यारे खारे रे ।उठ-२ ।।
रुका यहाँ इतने दिन तक तू उतरी तेरी थाक।
लूट नहीं ले जाये कोई, कट जाये ना नाक रे।।उठ-३ ॥
मुझे नहीं लेना-देना कुछ, तू है एक मुसाफिर ।
मैं भी एक मुसाफिर, हैं हम, भाई-भाई आखिर रे ।। उठ-४ ॥ जग है एक मुसाफिरखाना, "पुष्करमुनि" का गाना ।
।।
आना जहाँ वहाँ है जाना, है यह नियम पुराना रे ।। उठ-५ ॥ - उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर- पीयूष से)
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
आत्मा के अमर अस्तित्व की आस्था लिए उसकी पवित्रता का प्रयत्न करते हुए अनन्त आनन्द की अनुभूति करना तथा उसमें छिपी अनन्त शक्तियों को जागृत कर तेजोमय, चिन्मय स्वरूप की अभिव्यक्ति करना यही है अध्यात्म की भूमिका।
आत्मा को समझे बिना अध्यात्म को नहीं समझा जाता और अध्यात्म को समझने के लिए तप, जप, योग, कर्म से निष्कर्म की स्थिति, गुणस्थान आरोहण आदि को समझना अति आवश्यक है।
अध्यात्म के तीन स्तम्भ है१. सम्यग् दर्शन-आत्मा के अस्तित्व का विश्वास और कर्म शास्त्र पर श्रद्धा। २. सम्यग् ज्ञान-आत्म स्वरूप की पहचान और उसकी शुद्धि के साधनों का ज्ञान।
३. सम्यग् चारित्र-आत्मा को कर्म मुक्त करने के लिए जप-तप-ध्यान आदि के प्रयोग और अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव।
प्रस्तुत खंड में अध्यात्म साधना के इन्हीं शाश्वत स्वरों की अभिव्यंजना हुई है। अपने-अपने विषय के अधिकारी विद्वानों की लेखनी से, अनुभवी साधकों की अनुभव सिद्ध वाणी से।
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अनेकता में एकता ही अनेकान्त है
-आचार्यश्री विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी म. जैन धर्म और दर्शन ने विश्व को अनुपम और अद्वितीय आचार्य हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्रचार्य जैस जैन दार्शनिकों ने सिद्धान्त अर्पित किए हैं। वे सिद्धान्त इतने शाश्वत, कालजयी, अन्य दर्शनों में भी इस अनेकान्तत्व को ढूंढ़ा है। बुनियादी, जीवंत और युगीन हैं कि विश्व के लिए इनकी
वीतराग स्तोत्र में हेमचन्द्राचार्य ने कहा हैप्रासांगिकता सदैव बनी रहती है। जैन-दर्शन के इन्हीं शाश्वत सिद्धान्तों में से एक महान, चुनिंदा और व्यावहारिक सिद्धान्त
इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्य, विरुद्ध गुम्फितं गुणैः। अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भारतीय दार्शनिक अखाड़ों में जैन
सांख्यः संख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ दर्शन का यही सिद्धान्त सर्वाधिक चर्चित रहा है। कहीं-कहीं पर यह
सांख्य दर्शन प्रधान-प्रकृति को सत्त्व आदि अनेक विरुद्ध गुणों जैन धर्म का पर्याय और पहचान भी बन गया है। किसी ने इसकी से गंफित मानता है। इसलिए वह अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं प्रशंसा की, किसी ने निंदा। किसी ने आदरणीय बताया और किसी
कर सकता। ने घृणास्पद। आदि शंकराचार्य ने इसे संशयवाद होने का आरोप
अध्यात्मोपनिषद् में भी यही बात की गई हैलगाया। फिर भी इस सिद्धान्त की गहराई तक पहुँचने का प्रयल बहुत ।
चित्तमेकमनेकं च रूपं, प्रामाणिकं वदन्। कम विद्वानों ने किया है। अनेकान्त पर जो भी आरोप लगे हैं वे
योगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ अनेकान्त को अनेकान्त दृष्टि से न समझने पर ही लगे हैं।
न्याय-वैशेषिक एक चित्त को अनेक रूपों में परिणत मानते हैं। जैन धर्म का यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिससे विश्व के सभी
| अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर सकते। विवाद सुलझ सकते हैं। सभी युद्ध और झगड़े समाप्त हो सकते हैं।
विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम्। इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए समग्र विश्व में सुख, शांति
इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ और समृद्धि का साम्राज्य सर्वत्र छा सकता है।
विज्ञानवादी-बौद्ध एक आकार को अनेक आकारों से सन्मतितर्क के कर्ता ने तो यहां तक कहा है कि
युक्त मानते हैं। इसलिए वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर जेण विणा लोगस्सवि, ववहारो सव्वहा ण णिघडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥
जातिवाक्यात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम्। जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यगरूप से घटित
भट्टो वापि मुरारिर्वा, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ नहीं होता। उस त्रिभुवन के एकपात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा ___ भट्ट और मुरारी के अनुयायी प्रत्येक वस्तु को सामान्य नमस्कार है।
विशेषात्मक मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं अनेकान्त की नींव पर ही जैन धर्म और दर्शन की रचना
कर सकते। हुई है। जैन धर्म के सभी नियम-उपनियम और आचार परम्परा की
अबद्ध परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः। आधारशिला यही सिद्धान्त है। अनेकान्त को बिना अच्छी
ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ तरह समझे जैन धर्म और दर्शन का व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो
ब्रह्म वेदान्ती परमार्थ से ईश्वर को बद्ध और व्यवहार से उसे सकता।
अबद्ध मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर भारत का दार्शनिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि सकते। दार्शनिक विवाद के क्षेत्र में जैन-दर्शन बहुत बाद में उतरा है। इसलिए जैन दार्शनिकों को सभी दर्शनों का तटस्थ और तुलनात्मक
ब्रुवाणा भिन्न-भिन्नार्थान्, नय - भेदव्यपेक्षया। अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था। उन्होंने सभी दर्शनों के
प्रतिक्षिपेयु! वेदाः, स्याद्वादं सार्वतन्त्रिकम्॥ अध्ययन के बाद जैन-दर्शन को दार्शनिक अखाड़ों में उतारा था। वेद भी स्याद्वाद का खंडन नहीं कर सकते क्योंकि वे प्रत्येक परिणामतः जैन-दर्शन अन्य दर्शनों की अपेक्षा अधिक सांगोपांगता अर्थ या विषय को नय की अपेक्षा से भिन्न और अभिन्न दोनों और परिपूर्णता लिए हुए हैं। उसमें कहीं भी दार्शनिकत्व की न्यूनता मानते हैं। इस प्रकार प्रायः सभी मतावलम्बी स्याद्वाद को स्वीकार दृष्टिगत नहीं होती।
करते हैं।
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अनेकान्त या स्याद्वाद को एक प्रखर सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान करने का श्रेय जैन-दर्शन और जैन दार्शनिकों को जाता है।
जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखना अनेकान्त है। जैन धर्म के सम्यक्त्व-सम्यकदर्शन का मूलाधार भी यही है। जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में न देखने से विकृति उत्पन्न होती है।
प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं। मनुष्य की दृष्टि किसी एक पक्ष पर ही टिकती है। किसी एक ही पक्ष को देखना और उसी का आग्रह रखना एकान्त है। विश्व की द्वन्द्वात्मक स्थिति का मूल कारण यही एकान्त है। जहाँ-जहाँ एकपक्षी और एकांगी दृष्टि होगी वहाँ-वहाँ विवाद और कलह होगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ विवाद और कलह होगा वहाँ-वहाँ एकांगी दृष्टि होगी। वहाँ एक ही पक्ष का आग्रह होता है और वह आग्रह जब दुराग्रह में परिवर्तित होता है तब विग्रह का जन्म होता है।
किसी एक पक्ष से वस्तु पूर्ण नहीं हो सकती। अगर वह पूर्ण होगी तो दो पक्ष से ही पूर्ण होगी। इसलिए दो पक्ष प्रत्येक पूर्ण वस्तु की वास्तविकता है। यह उसकी सच्चाई है फिर दोनों पक्षों के स्वीकार में संकोच क्यों होना चाहिए।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अनेकता में एकता हमारे गणतंत्र देश का बहुप्रचलित सूत्र है। यह अनेकता में एकता अनेकान्त ही है। संसार में अनंत अनेकताएँ-भिन्नताएँ हैं। बावजूद इन सभी अनेकताओं और भिन्नताओं में कोई न कोई ऐसा तत्व है जो एक है, जो समान है, जिसे सभी स्वीकार करते हैं।
इन अनेकताओं में से जो एकता का तत्त्व है, उसे ढूंढ़ लो और उसी को स्वीकार कर लो। एकता स्वीकार करने का यह अर्थ नहीं कि अनेकान्त अनेकता का विरोध करता है। नहीं, अनेकान्त कभी किसी का विरोध नहीं करता। जहाँ विरोध होगा वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा। अनेकान्त निर्विरोध है। जहाँ विरोध होगा वहीं एकान्त आकर खड़ा हो जाएगा। विरोध का अर्थ ही एकान्त है। अनेकान्त तो वस्तु को देखने-परखने की एक दृष्टि प्रदान करता है।
इस तरह अनेकान्त के अनेक व्यावहारिक पहलू है। संसार के कल्याण के लिए ही सर्वज्ञ अरिहंत ने इन सिद्धान्तों की प्ररूपणा की थी। उनके प्रत्येक सिद्धान्त में संसार के सुखी होने का रहस्य छिपा हुआ है। चाहे वह अहिंसा का सिद्धान्त हो या अपरिग्रह का या अनेकान्तवाद का। इन शाश्वत सिद्धान्तों को अधिक से अधिक व्यावहारिक जगत् में लाने का उत्तरदायित्व जिन भगवान के अनुयायी प्रत्येक जैन का है।
सत्य की खोज
-डॉ. जगदीश चन्द्र जैन
प्राचीन शास्त्रों में सत्य की महिमा का बहुत बखान किया गया । बलहीन और असुरगण असत्य का आश्रय लेने के कारण बलवान है। उपनिषद् का वाक्य है-सत्यं वद, धर्म चर, यानी सच बोलो बन गये। अंत में देवों ने भी यज्ञ का आयोजन किया और उसके और धर्म का आचरण करो। लेकिन सत्य है क्या? सत्य तक कैसे ।
बल से उन्हें विजय प्राप्त हुई। अन्यत्र यज्ञ के अतिरिक्त तीन वेद, पहुँच सकते हैं?
चक्षु, जल, पृथ्वी और सुवर्ण आदि को सत्य कहा है। इससे जान शंकराचार्य का कथन है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' अर्थात् केवल । पड़ता है कि उस समय सत्य का अस्तित्व के अर्थ में प्रयोग ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है। लेकिन ब्रह्म क्या है? प्रचलित था, यथार्थ भाषण से इसका सम्बन्ध नहीं था। ऋग्वेद में स्तुति के अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है।
वस्तुतः सच या झूठ बोलने की कल्पना आदिम कालीन जातियों अथर्ववेद में ब्रह्म शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग मिलता है। वेदों
की उपज नहीं है। यह कल्पना उस समय की है जब मनुष्य की के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सायण ने विविध अर्थों में ब्रह्म शब्द
आर्थिक परिस्थितियों में उन्नति होने के कारण कायदे- कानून और का प्रयोग किया है।
धार्मिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस होने लगी। पूर्व काल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक ग्रन्थों में यज्ञ को ही सत्य कहा है। यह व्यवस्था नहीं थी क्योंकि मानव का जीवन बहुत सीधा-सादा एवं तत्कालीन समाज में यज्ञ-यागों के माध्यम से ही मनुष्य परमात्मा के सरल था। वह नैसर्गिक शक्तियों में कल्पित देवी- देवताओं को प्रसन्न साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम माना जाता था। देवासुर- करने के लिए यज्ञ-याग का अनुष्ठान करने में ही अपनी सारी शक्ति संग्राम में, कहते हैं कि देवगण सत्य का आश्रय लेने के कारण लगा देता था। यज्ञ-याग का यही आर्थिक मूल्य भी था।
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
भारतीय दर्शन में सत्य की खोज
अर्थात् धर्म को जानते हुए भी मैं उसमें प्रवृत्त नहीं होता, और
अधर्म को जानते हुए भी मैं उससे निवृत्त नहीं हो पाता। भारतीय दर्शन में सत्य को प्राप्त करने के लिये जितनी । उछल-कूद, जितना संघर्ष दिखाई देता है, उतना अन्यत्र दिखाई नहीं
। एक शराबी इस बात से भलीभाँति परिचित है कि शराब पीना देता। उपनिषद्-साहित्य सत्य पाने की इस खोज से भरा पड़ा है। सत्य
अच्छा नहीं, फिर भी वह अपनी आदत से लाचार है, शराब की क्या है ? ब्रह्म क्या है ? सृष्टि क्या है ? सृष्टि का आधार क्या है? गंध पाते ही उसके मुंह में पानी आ जाता है और उसे पीने के क्या आकाश और पृथ्वी एक दूसरे से जुड़े हैं जो गिर नहीं पड़ते?
लिए वह मचलने लगता है। पहले क्या था? सत् या असत् ? क्या पूर्वकाल से सर्वत्र जल ही जल
अनेकान्तवाद था? फिर जल से पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश, देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण, वनस्पति, जंगली जानवर और कीट-पतंग पैदा हुए।।
अनेकान्त वाद का सिद्धान्त हमें व्यापक दृष्टि प्रदान करता है, बृहदारण्यक उपनिषद् ५.१) ? इस प्रकार के ऊहापोहात्यक विचार
सहिष्णु बनने के लिए प्रेरित करता है। अनेक वर्ष पूर्व जैन-दर्शन जगह-जगह दिखाई देते हैं जिससे उपनिषद्कारों की असीम जिज्ञासा
के प्रकाण्ड पण्डित उपाध्याय यशोविजय जी लिख गये हैंका अन्दाजा लगाया जा सकता है। यही भारतीय दर्शन की शुरुआत । “अनेकान्तवादी समस्त नयरूप दर्शनों को उसी वात्सल्य है जिसमें जिज्ञासा की ही मुख्यता है।
दृष्टि से देखता है जैसे पिता अपने पुत्रों को, फिर किसी को कम प्राचीन यूनानी साहित्य में भी इसी जिज्ञासा वृत्ति के दर्शन होते ।
और किसी को ज्यादा समझने की बुद्धि उसकी कैसे हो सकती हैं। यूनान का महान् विचारक सुकरात जीवन में जिज्ञासा वृत्ति को
है। जो व्यक्ति स्याद्वाद का सहारा लेकर, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य छानबीन करने की वृत्ति को मुख्य मानता था। उसका कहना था ।
को सामने रखकर समस्त दर्शनों में समभाव रखता है, वही कि यदि इन्सान में यह वृत्ति नहीं हो तो उसमें रह ही क्या जाता।
शास्त्रवेत्ता कहलाने का अधिकारी है। अतएव माध्यस्थ भाव है? वह निष्प्राण है। प्लेटो ने यूनानवासियों में बालकों जैसी सुलभ । शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है, शेष सब बच्चों की बाल्यावस्था की जिज्ञासा वृत्ति की प्रशंसा की है। उसने अपने तीस बकवास है; तथा माध्यस्थ भाव की प्राप्ति होने पर एक पद का से अधिक लिखे हुए संवादों में इसी जिज्ञासा वृत्ति को प्रोत्साहित ।
ज्ञान भी पर्याप्त है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पठन करने से भी किया है जिनमें वह राजनीति जैसे गम्भीर विषयों पर चर्चा किया कोई लाभ नहीं इस बात को महात्मा पुरुषों ने कहा है।" करता और जहाँ निष्कर्ष का प्रश्न आता उसे वह अपने पाठकों पर । (अध्यात्मसार) छोड़ देता।
लेकिन क्या इन सब बातों का बार-बार स्वाध्याय करते रहने चीन के सुप्रसिद्ध विचारक लाओ-से ने एक सचमुच के पर भी हमने अपने मटमैले मन को शुद्ध किया? क्या हमने गच्छ, भलेमानस व्यक्ति के बारे में कहा है
बादों और आचार-विचार सम्बन्धी साम्प्रदायिक मतभेदों से ऊपर "वह प्रेरणा देता है लेकिन उसके स्वामित्व को स्वीकार नहीं
उठकर सच्चा अनेकान्तवादी बनने का प्रयत्न किया? करता, वह क्रियाशील है लेकिन उसका दावा नहीं करता, वह । लगता है, सत्य की खोज अभी जारी है, अभी तक हम सत्य योग्यता से सम्पन्न है लेकिन उसका कभी विचार नहीं करता, और } की पहचान करने में असफल रहे हैं। क्योंकि वह उसका विचार नहीं करता इसलिए उससे उसका
आशा है, हमारी यह मंजिल जल्दी ही पूरी होगी और. एक छुटकारा नहीं।"
दूसरे के प्रति सद्भावना शील रहते हुए हम पिछड़ी हुई प्रचलित लेकिन त्रासदी यह है कि सचमुच का भलामानस व्यक्ति कैसे परम्पराओं को उखाड़ फेंकने में सफलता प्राप्त करेंगे। बनाया जाये!
पतासंस्कृत में श्लोक है
१/६४, मलहार को-ओप. हाऊसिंग सोसाइटी जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः
बांद्रा, रैक्लेमेशन (वेस्ट) जानाम्यधर्म न च मे निवृत्ति।
बम्बई - ४०० ०५०
* अहिंसा के सामने हिंसा बालू की दीवार की तरह बैठ जाती है। * जिसका वैराग्य जाग गया है, उसे फिर मोह की जंजीरें नहीं बांध सकतीं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
जैन-दर्शन में काल की अवधारणा
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में 'काल-प्रत्यय' को लेकर जो कि जैन-दर्शन (सारा भारतीय दर्शन) ने काल के भिन्न रूपों तथा चिन्तन एवं मनन हुआ है, वह काल को निरपेक्ष, अनन्त, सापेक्ष, कोणों को प्रस्तुत किया है कि दिक्-काल का एक व्यापक परिदृश्य सीमित, रेखीय, चक्रीय तथा मानव अनुभव के क्षेत्र में हमारे सामने उजागर होता है। मनोवैज्ञानिक काल के अस्तित्व को किसी न किसी रूप में मानता
जैन-दर्शन में काल को मूलतः “द्रव्य" माना गया है, लेकिन है। इसका अर्थ यह हुआ कि दार्शनिक चिन्तन एवं मानवीय अनुभव
कुछ आचार्य काल को द्रव्य नहीं मानते हैं। इनका मानना है कि काल में काल एक पूर्व-अवधारणा है जिसके द्वारा हम मानव, विश्व और
स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वरन् वह जीवादि द्रव्यों का प्रवाह (पर्याय) है; जगत को समझ सकते हैं तथा दूसरी ओर, विज्ञान के क्षेत्र में काल
यह मत आचार्य उमास्वाति का है और यही मत आगमों का भी है। एक राशि या द्रव्य है जिसके द्वारा हम घटनाओं, क्रियाओं का
दूसरा पक्ष काल को स्वतंत्र द्रव्य मानता है। उनका मानना है कि मापन और उनसे गणना करते हैं। जब हम अंतरालों, दूरियों का
जिस प्रकार जीव-पुद्गल (भौतिक पदार्थ) आदि स्वतंत्र द्रव्य हैं उसी मापन करते हैं, तो वह एक तरह से 'दिक्' या स्पेस का ही मापन
प्रकार काल भी स्वतंत्र द्रव्य है। काल जीवादि पर्यायों का प्रवाह नहीं है। विज्ञान-दर्शन में काल, दिक् सापेक्ष है अर्थात् दिक्-काल का
है, वरन् उसे इससे भिन्न तत्त्व समझना चाहिए। सम्बन्ध निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। दिक्-काल का अस्तित्व दृष्टा सापेक्ष है और साथ ही गति सापेक्ष।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जैन-दर्शन की यह
प्रमुख मान्यता है कि काल, भौतिक पदार्थों और साथ ही इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में जैन-दर्शन में काल के स्वरूप तथा क्षेत्र को लेकर जो चिन्तन हुआ है, उसे हम दर्शन और विज्ञान की
आध्यात्मिक पदार्थों दोनों को रूपांतरित करता है, वह नित्य है; मान्यताओं के प्रकाश में सही प्रकार से लोकेट या निर्धारित कर
यहाँ तक कि काल के बगैर विश्व का विकास भी संभव नहीं है। सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि जैन-दर्शन एक सापेक्ष-दर्शन है तुलनात्मक दृष्टि से यही बात हमें रामायण और महाभारत में जो आधुनिक विज्ञान की मान्यताओं से न्यूनाधिक समानता रखता भी प्राप्त होती है जहाँ काल के द्वारा ही सब कुछ घटित होता है है। दूसरी ओर यह भी मानना होगा कि अक्सर भारतीय दार्शनिक और इस प्रकार काल ही विश्व का कारण है। इस तुलना से मैं यह पद्धतियों में (यथा वेदांत, बौद्ध, जैन तथा षट्दर्शन) अधिक कहना चाहता हूँ कि भारतीय-दर्शन की विचार-पद्धतियों में जो वर्गीकरण एवं मिथकीय आवरण के कारण सत्य और यथार्थ को समानता मिलती है (असमानता भी), वह यह स्पष्ट करती है कि निर्गमित करना होता है और साथ ही, प्रतीकों, बिम्बों और भारतीय दार्शनिक परम्परा का स्रोत बैदिक साहित्य है और यह आद्यरूपों के अन्तर्निहित अर्थ को उद्घाटित करना होता है। दूसरी । परम्परा द्वन्द्वात्मक है जो भिन्न विचार-दर्शनों के द्वन्द्व और विकास बात यह है कि इन्हें सूत्रात्मक थैली में कहा गया है, अतः गद्य के से सम्बन्धित है। जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है, वह काल को अभाव में उनका विस्तृत वर्णन संभव नहीं हो सका है। अतः आज | सापेक्ष, सीमित, आबद्धहीन एवं मापन का माध्यम मानता है। दिकहमारी यह आवश्यकता है कि हम उनके अर्थ को व्याख्याथित करें। काल का ससीम, छोरहीन रूप परोक्षतः काल के 'अनन्त' रूप का और उन्हें नए ज्ञान के प्रकाश में निर्धारित करें।
संकेत हैं, अतः काल का कोई ‘छोर' नहीं है, वह एक प्रकार से जैन-दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है "अनेकांत" जो ।
काल के 'अनन्त' रूप को ही संकेतित करता है। यही काल का वस्तुओं और चीजों को, सत्य और यथार्थ को देखने की भिन्न
तात्त्विक संदर्भ है। दृष्टियों को महत्त्व देता है और इस प्रकार भिन्न दृष्टियों के सापेक्ष इसी के साथ, जैन-दर्शन में काल को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अस्तित्व को स्वीकार करता है। जहाँ तक काल प्रत्यय का सम्बन्ध । धारणा यह है कि काल ही पदार्थों के सारे परिणमनों, क्रियाओं है, उसे भी भिन्न रूपों तथा प्रकारों के तहत विवेचित किया गया है। और घटनाओं का सहकारी कारण है। परिणमन और क्रिया काल द्रव्य है या नहीं, काल चक्रीय है या रेखीय, काल का मनुष्य । सहभागी है। क्रिया में गति का (घटना में भी) समावेश होता है। क्षेत्रीय और ज्योतिष क्षेत्रीय रूप, काल का अवसर्पिणी और { गति का अर्थ है वस्तुओं और परमाणुओं का आकाश-प्रदेश (दिक्) उत्सर्पिणी रूप, काल और समय का रूप, कालाणु और काल का में स्थान का परिवर्तन जिससे दिक् भरा हुआ है। यह स्थान सम्बन्ध, काल, घटना और क्रिया का सम्बन्ध तथा काल के । परिवर्तन दूरी या नजदीकी से जाना जाता है, अतः दो बिंदुओं के व्यावहारिक प्रकार-ये सभी तत्त्व इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं | बीच का अंतराल या अवकाश ही दिक् है।
प्रसिद्ध विद्वान डा. वीरेन्द्र सिंह का यह लेख विचित्र आयामों का करता हुआ चिन्तन की रोचक सामग्री प्रस्तुत करता है। यद्यपि कई स्थानों पर लेखक ने जैन दर्शन सम्मत धारणाओं के विपरीत स्वतंत्र चिन्तन प्रस्तुत किया है। जिससे सहमति आवश्यक नहीं है।
-संपादक
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
आधुनिक विज्ञान में भी विकू में पदार्थ वितरित है और दो वस्तुओं के बीच जो दूरी है, वह ही दिक् है। इसी प्रकार 'परत्व' और 'अपरत्व' अर्थात् पहले और बाद में होना भी मूलतः काल के द्वारा ही प्रत्यक्षीकृत होता है। विज्ञान में पूर्व और पश्चात् का मापन गणितीय सूत्रों के द्वारा होता है। भाषिक व्यापार एवं चिंतन में भाषा के घटक जैसे क्रिया, संज्ञा, सर्वनाम, भूत वर्तमान और भविष्य परोक्ष रूप से दिक्-काल का निबंधन करते हैं क्रिया-पद मूलतः घटना का द्योतन करते हैं और इस प्रकार घटना और क्रिया का एक सापेक्ष सम्बन्ध होता है (देखे मेरा लेख "भाषा चिंतन में दिक्-काल सकितन, आलोचना ८३)| क्रिया एक तरह से कालवाचक स्थितियों (भूत, वर्तमान आदि) का ही संकेत है। ये घटनाएँ क्रियापदों द्वारा एक तार्किक व्यवस्था प्राप्त करती हैं।
क्रिया का मूल गुण है गति और काल की वैज्ञानिक अवधारणा गति सापेक्ष है। इस प्रकार जैन-दर्शन में काल ही सारी क्रियाओं, घटनाओं तथा प्रक्रमों (प्रोसेस) का सहकारी तत्त्व है। यह एक ऐसा सत्य है जो विज्ञान, भाषा-चिन्तन और वैशेषिक चिंतन में किसी न किसी रूप में प्राप्त होता है। भर्तृहरि ने भाषिक स्तर पर क्रिया, घटना, काल और अंतरालों का जो विवेचन किया है, वह मेरी दृष्टि से वाक् शक्ति के वृहद एवं अर्थवान् रूप को प्रस्तुत करता है।
इस बिन्दु पर आकर 'कालाणु' की धारणा पर विचार अपेक्षित है जो जैन-दर्शन की अपनी एक विशेष धारणा है। जैनदर्शन की मान्यता यह है कि काल असंख्य कालाणुओं से भरा है अर्थात् काल की 'संरचना' में कालाणुओं का संघात है। यह कालाणु एक बिन्दु है और वह भी आकाश या स्पेस में जिसे जैन चिन्तन में "प्रदेश” की संज्ञा दी गयी है। दिगम्बर परम्परा में (गोम्मटसार जीवकाण्ड) "एगपदेशो अणुस्सहते" तथा "लोकपदेशप्पमा कालो जैसे कथन इस बात को स्पष्ट करते हैं कि “लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक अणु स्थित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि द्रव्य (पुद्गल) का एक-एक अणु प्रदेश में स्थित रहता है।
वैज्ञानिक शब्दावली में इसे "स्पेस प्वाईट" (दिक्-बिंदु) कहते हैं जो दिकू में पदार्थ के वितरण से सम्बन्धित है। यहाँ पर दिक् और काल का सापेक्ष सम्बन्ध है, उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। उपनिषद् की शब्दावली में कहें तो यह दिक्-काल का " युगनद्ध" रूप है। (स्टेडी आफ टाइम एण्ड स्पेस इन इंडियन बाट, के. मंडल, पृ. ३२)
जहाँ तक काल का सम्बन्ध है जैन-आचायों ने एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध की ओर संकेत किया है, यह सम्बन्ध है काल और समय का। अक्सर हम काल और समय को पर्यायवाची मान लेते हैं जबकि जैन- दार्शनिकों ने इनके मध्य सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट किया है। जैन-दर्शन में समय, आवलिका आदि काल के सूक्ष्म विभाग हैं। काल का सबसे छोटा अंश जिसका विखंडन संभव न हो सके, 'समय' कहा जाता है। असंख्यात समयों की एक आवलिका होती
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है। असल में सूर्य-चंद्र ग्रह की गति के कारण इस काल को विभाजित किया जाता है जो काल का वह रूप है जिसे हम व्यावहारिक काल की संज्ञा देते हैं, इसे ही मानवीय काल कहा जा सकता है जिसके द्वारा हम काल या काल-खण्डों (भूत, वर्तमान, पल, घंटे आदि) का अनुभव या प्रत्यक्षीकरण करते हैं।
जैनाचार्यों ने इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म समय को समझाने के लिए रेशमी वस्त्र या साड़ी का उदाहरण दिया है। कोई भी दर्जी एक वस्त्र को एक ही बार में फाड़ डालता है, इस फाड़ने में जितना काल व्यतीत होता है. इसमें असंख्यात 'समय' बीत जाते हैं वस्त्र तंतुओं का बना होता है, अतः ऊपर का तंतु पहले और नीचे का तंतु बाद में विदीर्ण होता है। इस प्रकार, अनन्त तंतुओं का संघात होता है और अनंत संघातों का एक समुदाय। ऐसे अनंत समुदायों से तंतु का ऊपरी रूप बनता है। इस प्रकार छेदन क्रमशः होता है। इस छेदन में जितना समय लगता है, उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश अर्थात् असंख्यातवाँ भाग 'समय' कहलाता है।
यदि गहराई से देखा जाएँ तो समय का इतना सूक्ष्म परिणाम बुद्धिग्राह्य नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी सत्य है कि आधुनिक विज्ञान ने आणविक कालमान के प्रयोग के द्वारा 'समय' का निर्धारण इतनी बारीकी से किया है कि उसमें त्रुटि की संभावना ३० हजार वर्षों में एक सेकेंड से भी कम है। इधर वैज्ञानिक हाइड्रोजन घड़ी भी विकसित कर रहे हैं जिसमें शुद्धता की त्रुटि की सम्भावना और भी कम हो जाएगी अर्थात् तीन करोड़ वर्षो के अंदर एक सेकेंड से भी कम अतः आणविक घड़ी नौ अरब उनीस करोड़ के लगभग भाग तक समय को संकेतित करने में सक्षम है। अतः असंख्यात समय की धारणा सत्य है।
प्रसिद्ध विज्ञान- दार्शनिक इप्रिंगटन का मानना है कि "इस आणविक युग में एक मिनट का सौवाँ भाग मूलतः 'अनंतता' का द्योतक है।" यदि सौवाँ हिस्सा अनंतता का संकेत है तो उपर्युक्त असंख्यात समयों की स्थिति जो कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसकी कल्पना की जा सकती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-दर्शन मे 'समय' की अवधारणा के द्वारा 'काल' के उस सूक्ष्म रूप की "गणना" का मार्ग प्रशस्त किया है जिसकी ओर विज्ञान और गणित क्रमशः अग्रसर हो रहे हैं।
इसी गणना से सम्बंधित जैन-दर्शन में संख्येय और असंख्येय काल की गणना की गयी है जो काल सूर्य गति की सापेक्षता में मापा जाता है (यथा-दिन रात मुहूर्त, क्षण, युग आदि) वह लौकिक काल है जिसे संख्येय काल की संज्ञा दी गयी है । यह काल का राशि रूप भी है जिसके द्वारा विज्ञान में गणना की जाती है।
दूसरा वह काल है जो गणना से परे है, उसे या तो रूपक या उपमान के द्वारा संकलित किया जाता है उसे असंख्येय काल कहा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ गया है, जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि नाम से पुकारा जाता है । है। सृजन के लिए 'युग्म' (स्त्री-पुरुष, ऋणात्मक-धनात्मक, पुरुषजो किसी न अर्थ किसी में अनंतता के वाचक हैं। काल का सबसे । प्रकृति, पदार्थ-ऊर्जा आदि) का होना जरूरी है जिसका संकेत कुछ छोटा निरंश अंश परमाणु हैं। यहाँ पर जैनाचार्यों ने एक योजन आरों में किया गया है। गहरे, लम्बे, चौड़े कुएँ की कल्पना की है जिसमें ठूस-ठूस कर
जीवशास्त्रीय दृष्टि से भी सृजन के लिए दो की आवश्यकता परमाणुओं का ऐसा संघात हो जिस पर यदि चक्रवर्ती की सेना भी ।
होती है जिसका जटिलतम् रूप हम स्तनधारी प्राणियों में (जिसमें गुजर जाए तो वह नमे नहीं। उस कुएँ में से सौ सौ वर्ष बाद एक
मानव प्राणी भी हैं।) पाते हैं। मैं इन आरों की अतिशयोक्तिपूर्ण खण्ड या परमाणु को निकाले, तो जितने 'समय' में यह कुँआ
मिथकीय आवरण में छिपे सृष्टि के तीन तत्त्वों को प्राप्त करता हूँखाली हो जाए, उस समय को ‘पल्योपम' कहते हैं। ऐसे दस
प्रलय, सृजन-युग्म और तीर्थंकर। कोड़ा-कोड़ी (कोटि का अपभ्रंश रूप जो अति सूक्ष्म कालगणना का प्रतीक है) पल्योपम का एक सागरोपम होता है। बीस कोड़ा-कोड़ी
जैन-दर्शन के इस काल-चक्र का एक समान बिम्ब है सागरोपम का एक काल-चक्र होता है। अनंत काल चक्र बीतने पर ! “महादोलक" जो हमें वैदिक चिंतन में भी प्राप्त होता है। एक 59 . एक पुद्गल परावर्तन होता है।
काल-चक्र, जिसे 'मन्वंतर' भी कहते हैं, उसका आवर्तन काल ३० 200D यहाँ पर इस काल-गणना को देने का तात्पर्य यह है कि इससे
करोड ६७ लाख वर्ष माना गया है। यह मन्वंतर-विज्ञान मात्र 5 2 यह अनुमान लगाया जा सके कि भारतीय मनीषा ने काल के सूक्ष्म
मिथक नहीं है, वरन् इसके द्वारा हम सृष्टि क्रम (प्रोसेस) को HD से सूक्ष्म अंशों की गणना करने का जो दायित्व उठाया था, वह
समझते हैं। यह समस्त सृष्टि एक “संकल्प' है जो गतिशील 2018 बेमानी नहीं था क्योंकि आज का विज्ञान काल गणना के इस सूक्ष्म
"दोलक" है जिसमें कोई विरोध या प्रतिबंधक नहीं है। इस दोलक रूप की ओर क्रमशः अग्रसर हो रहा है।
के दो बिंदु हैं 'अ' और “छ" जो काल गति के अवसर्पिणी और
उत्सर्पिणी के आरंभ एवं अंत हैं जो एक नित्य क्रम है। इसी प्रकार इस बिन्दु पर आकर अब मैं काल-चक्र की धारणा को लेना
'छ' से 'अ' तक के सात विभाग (आरे) हैं जो उत्सर्पिणी काल चाहँगा जो भारतीय चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है क्योंकि गति के संकेतक है। सष्टि चक्र का आरम्भ 'अ' बिंद से होता है। इसका कोई न कोई रूप हमें भारतीय, ग्रीक तथा यहूदी चिंतन में
जो सात विभागों का अतिक्रमण कर 'छ' बिंदु तक आता है और प्राप्त होता है। जैन-दर्शन में काल को 'चक्र' माना गया है जो
| फिर 'छ' बिंदु से 'अ' की ओर क्रमशः गतिशील होता है। 3299106) निरंतर गतिमान रहता है। इसे हम "दोलक" की संज्ञा भी देते हैं। काल के दो भेद हैं जो सापेक्ष हैं। एक भेद अवसर्पिणी है जो काल
इस प्रकार, यह गोलक एक नित्य गति से घूमता है। इस पथ चक्र की अधोगति का सूचक है और दूसरा, उत्सर्पिणी जो काल
के अतिक्रमण में जो काल निक्षेप होता है, वह एक 'कल्प' है। गति के ऊर्ध्वरूप का संकेतक है। ये दोनों प्रक्रियाएँ सत्य हैं, और
| गणना की दृष्टि से यह कल्प प्रमाण १000 चतुर्युग है। इस चक्र इनका पूर्वापर सम्बन्ध एक सतत् गति चक्र का वाहक है। दूसरे
के प्रत्येक विभाग को मनवंतर कहते हैं और प्रत्येक मन्वंतर (१४) शब्दों में, यह काल-दोलक विकास और नाश (संहार) का एक
का अधिष्ठाता 'मनु' है। इसे चित्र के द्वारा इस प्रकार संकेतित
किया जा सकता है : जैन-दर्शन में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी को क्रमशः छः छ: आरों में विभक्त किया गया है जो मूलतः काल गति के भिन्न सोपान हैं, नकारात्मक (अवसर्पिणी) और सकारात्मक (उत्सर्पिणी) रूपों में। अवसर्पिणी काल के छः आरों को जो नाम दिया गया है (यथा सुषमा-सुषमा-सुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुःषमा-दुःषमा)। यह क्रमशः सुख से दुख की ओर सृष्टि-क्रम है। दूसरी ओर उत्सर्पिणी काल के छः आरों (दुःषमा-दुःषमा से सुषमा-सुषमा तक विपरीत क्रम में) का जो संकेत है, वह क्रमशः दुःख से सुख की ओर सृजन
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30000- क्रम है।
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इन आरों का एक मिथकीय विवरण है जो दो बातें स्पष्ट करता है-एक प्रलय (दुःख) और सृजन (सुख) का सापेक्ष सम्बन्ध
और दूसरे प्रत्येक अवसर्पिणी इवसर्पिणी के दुःषम-सुषम आरे में किसी न किसी तीर्थंकर का संकेत। यहाँ पर तीर्थकर व्यक्ति न होकर एक 'प्रतीक' है जो विकास के भिन्न सोपानों का अधिष्ठाता
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
४९९ जैन-दर्शन में काल-चक्र के १२ विभाग हैं जबकि वैदिक चिंतन जैन-दर्शन में काल को द्रव्य के रूप में ग्रहण किया गया है में १४ विभाग हैं। इस का कारण आरंभ और मध्य बिंदु है जो । और पदार्थ के सारे परिणमन एवं प्रक्रमों में 'काल एक सहकारी वैदिक मन्वंतर-विज्ञान के १४ विभागों को समक्ष रखता है। तत्त्व है। यह स्थापना काल को भौतिक क्रियाओं तथा परिणमनों से इसी संदर्भ में एक तथ्य यह है कि यहाँ पक रेखीय-काल गति
जोड़ती है। चेतना के स्तर पर काल का यह जागतिक-भौतिक रूप (जो प्रत्येक विभाग में है) भी है और चक्रीय भी। जहाँ तक
एक सत्य है, तो दूसरी ओर, चेतना के ऊर्ध्व स्तर पर काल का
पराजागतिक या अनंत रूप भी एक सत्य है। चिंतन की द्वन्द्वात्मक आवर्तन चक्र का प्रश्न है, रेखीय और चक्रीय गतियाँ सापेक्ष हैं,
गति में काल के ये दोनों रूप सापेक्ष हैं, लेकिन यह भी एक सत्य है उन्हें मेरे विचार से निरपेक्ष नहीं माना जा सकता है। वे मानव अनुभव और विश्व-संरचना में सापेक्ष हैं।
कि बिना जागतिक काल के हम पराजागतिक काल की प्रतीति नहीं
कर सकते। सृजन और विचार के क्षेत्र में यह सत्य है। जागतिक अतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार जैन-दर्शन में काल की
दिक्-काल के बिम्ब, वस्तुएँ और पदार्थ ही वे आधार हैं जिनके अवधारणा का एक व्यापक भौतिक आधार है जो मनुष्य क्षेत्रीय
द्वारा हम पराजागतिक प्रतीतियों से साक्षात् करते हैं। इन दोनों एवं ज्योतिष क्षेत्रीय काल-रूपों को सापेक्ष रूप में प्रस्तुत करता है,
काल रूपों में से जब हम किसी एक रूप को अधिक महत्त्व देने और काल के निरंतर गतिशील रूप या आवर्तन को समक्ष रखता
लगते हैं तो असंतुलन के शिकार होते हैं जो हमें विचारों के है जो मेरे विचार से भारतीय चिंतनधारा की एक महत्त्वपूर्ण
इतिहास से स्पष्ट होता है। यहाँ पर भी एक सम्यक्-दृष्टि की स्थापना है। इसके अलावा, कालाणु की धारणा, काल और समय
आवश्यकता है। का सम्बन्ध तथा काल-चक्र का संदर्भ-ये ऐसे प्रत्यय हैं जो काल के व्यापक संदर्भ को रेखांकित करते हैं। इसी के साथ, काल गणना का रूप अपने में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है जो आधुनिक विज्ञान का
५ झ-१५, जवाहर नगर एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
जयपुर ३०२ ००४
ध्यान योग : दृष्टि और सृष्टि
-स्वामी अनन्त भारती
ध्यान शब्द चिन्तनार्थक ध्यै धातु से भाव अर्थ में अन (ल्युट) पूर्ण एकाग्रता (निश्चलता) होती है, द्वितीय स्तर में स्थूल विषय प्रत्यय करके बनता है। जिसका यौगिक अर्थ है चिन्तन करना, याद लुप्त-सा हो जाता है, तृतीय स्तर में चित्त की स्थिरता का विषय करना। साधकों की परम्परा में ध्यान शब्द पारिभाषिक अर्थ में सूक्ष्म पदार्थ परमाणु तन्मात्रा आदि होते हैं। चतुर्थ स्तर में सूक्ष्म अर्थात् एक सुनिश्चित विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत निबन्ध | विषय भी लुप्त हो जाता है। पंचम स्तर में केवल आनन्द की में उस विशेष अर्थ पर ही विचार किया जा रहा है।
अनुभूति होती है। छठे स्तर में आनन्द भी लुप्त-सा हो जाता है। योगसूत्र के लेखक महर्षि पतञ्जलि ने योग के जिन आठ अंगों
सातवें स्तर में केवल अस्मिता मात्र का अवभासन होता है। इन्हें की चर्चा की है, उनमें ध्यान सातवाँ अंग है, जिसकी साधना
क्रमशः संवितर्क, निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार, सानन्दा, निरानन्दा धारणा के बाद की जाती है। पतअलि द्वारा दी गयी परिभाषा के
और अस्मिता मात्र समाधि कहते हैं। ये सातों समाधियाँ सम्प्रज्ञात अनुसार किसी आन्तर या बाह्य देश में चित्त का स्थिर करना
समाधि के भेद हैं। इनके बाद असम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति है, धारणा है। (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।-यो. सू. ३.१) जब चित्त उस
जिसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय किसी का भी ज्ञान नहीं रहता। इस क्रम स्थल में कुछ काल तक स्थिर होने लग जाये तो उस स्थिति को
में ध्यान चित्त की एकाग्रता की बहुत प्रारम्भिक स्थिति है। ध्यान कहते हैं। (तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। यो. सू. ३.२) इस सांख्य सूत्र में मन के निर्विषय होने को ध्यान कहा गया है प्रकार ध्यान धारणा की उत्तरपीठिका है, बाद की स्थिति है। ध्यान (ध्यानं निर्विषयं मनः सांख्य सू. ६) यह स्थिति पतंजलि के 30 के बाद समाधि की स्थिति मानी गयी है है। इस स्थिति में चित्त में स्वीकृत निर्विचार समाधि के बाद की स्थिति है। षट्चक्र निरूपण इतनी एकाग्रता आ जाती है कि चित्त में अर्थमात्र ही अवभासित } (१.१३), ब्रह्मनिर्वाण तन्त्र (३.२६) आदि ग्रन्थों में मूलाधार आदि होता है। अर्थ के नाम, रूप आदि विकल्प चित्त से विलीन हो जाते। | चक्रों में ध्यान करने का निर्देश मिलता है, जिससे यह माना जा हैं, दूसरे शब्दों में अर्थ स्वरूप शून्य होकर अवभासित होता है। सकता है कि कुण्डलिनी साधनापरक ग्रन्थों में पतअलि स्वीकृत समाधि के अनेक स्तर है। प्रथम स्तर में स्थूल पदार्थ में चित्त की ध्यान का स्वरूप ही स्वीकार किया जाता है, जिसमें किसी स्थल में
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । चित्त की एकतानता को ध्यान माना गया है। दत्तात्रेय योगशास्त्र ध्यान साधना का प्रारम्भ प्रेक्षा ध्यान से करना चाहिए। प्रेक्षा तथा योगतत्त्व (८४.१० सू.) आदि ग्रन्थों में इन चक्रों में चित्त के का अर्थ है देखना, केवल देखना, संकल्प-विकल्प, राग-द्वेष, स्थिरीकरण को पंचभूत धारणा माना है। इनके अनुसार आकाश में आशा-अभिलाषा इन सबसे रहित होकर देखना, चित्त को विचारों अर्थात् शून्य में चित्त का २४ घंटे स्थिर होना ध्यान है। इस शून्य { से सर्वथा रहित करके देखना। यदि मन में किसी भी प्रकार की स्थान में साधक अपने इष्ट देवता को स्मरण करता है। इष्टदेवता । प्रवृत्ति होगी, तो देखने का कम भंग हो जायेगा, प्रेक्षा नहीं होगी। का एक स्वरूप साधक के मन में रहता है। वहाँ इसे सगुणध्यान प्रारम्भ में यदि विचार आते हैं, तो उनसे भी न बंधना, न उनका कहा गया है। इसके अतिरिक्त निर्गुणध्यान की भी वहाँ स्वीकृति है, अनुमोदन करना, न प्रतिरोध करना, बल्कि तटस्थ होकर उन्हें भी। जिसमें मन में इष्टदेवता की मूर्ति भी नहीं रहती। अर्थात् ध्यान के देखते रहना। प्रतिरोध भी एक प्रकार का उनसे जडाव ही है. अतः प्रथम रूप में मन में विषय रहता है, जबकि द्वितीय अर्थात् निर्गुण प्रतिरोध भी न करना। प्रेक्षा से संकल्प-विकल्प आदि से रहित ध्यान में कोई विषय नहीं रहता। निर्गुण ध्यान पुष्ट होकर जब होकर देखने से, विचारों का क्रम टूटता है, निर्विचार की स्थिति बारह दिन या अधिक बना रहता है, तब उसे समाधि कहते हैं। आती है। इस प्रकार निर्विचार अवस्था, जिसे शैव-साधकों की
जैन परम्परा में ध्यान शब्द चित्त की देश विशेष में एकतानता परम्परा में अमनस्क भाव कहा जाता है, को प्राप्त करने के लिए। और चित्त की निर्विषयता दोनों अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इनके प्रेक्षा ध्यान अमोघ साथन है। अतिरिक्त चिन्तन अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग जैन साधना क्रम
साधना की दृष्टि से प्रेक्षा ध्यान के अनेक भेद कहे जा सकते में हुआ है। इतना ही नहीं, साधना की दृष्टि से जितना सुस्पष्ट
हैं, तथापि सुविधा की दृष्टि से इसके छः भेद माने जाते हैं : (१) और क्रमिक विवरण जैन परम्परा में प्राप्त होता है, वैसा पातञ्जल
कायप्रेक्षा, (२) श्वास प्रेक्षा, (३) विचारप्रेक्षा अर्थात् संकल्प- | योग सूत्र की व्याख्याओं, दत्तात्रेय योगशास्त्र अथवा अमनस्कयोग
विकल्पों को देखना, (४) कषायप्रेक्षा अर्थात् आवेग-संवेगों को योगरत्नाकर आदि ग्रन्थों में सुलभ नहीं है। जैन परम्परा में स्थूल
देखना, (५) पुद्गल द्रव्य प्रेक्षा और (६) वर्तमान क्षण की प्रेक्षा। रूप से प्रथम तीन प्रकार स्वीकार किये जाते हैं-कायिक ध्यान, / वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान। ध्यानयोग का साधक जब
__कायप्रेक्षा के तीन स्तर हैं-स्थूलकायप्रेक्षा, तैजस् कायप्रेक्षा और शरीर को निष्कम्प-स्थिर करने के उद्देश्य से स्थिरकाय बनता है,
कार्मणकायप्रेक्षा। कायप्रेक्षा का प्रारम्भ स्थूलकाय की प्रेक्षा से होता तब वह उसका कायिक ध्यान होता है। इसी प्रकार संकल्पपूर्वक
है। स्थूलकायप्रेक्षा के भी अनेक स्तर हैं। कायप्रेक्षा की साधना के वचनयोग को स्थिर करना वाचिक ध्यान कहलाता है। संकल्पपूर्वक
लिए साधक किसी ऐसे आसन में सुस्थिर हो कर बैठता है, जिससे मन को एकाग्र करना मानसिक ध्यान है। साधक जब मन को
साधना हेतु देर तक बैठने में असुविधा या पीड़ा न हो । बैठने के एकाग्र करके वाणी और शरीर को भी उसी एक लक्ष्य पर केन्द्रित
समय मेरुदण्ड (Spinal Cord) सीधा रहे। शवासन में लेटकर भी। रखता है तब कायिक, वाचिक और मानसिक-तीन ध्यान एक साथ
कायप्रेक्षा की जा सकती है। रोगी अथवा जिन्हें देर तक किसी। हो जाते हैं। वस्तुतः मन, वचन और काय तीनों का निरोध होकर
आसन में बैठने का अभ्यास नहीं है, उनके लिए शवासन ही। एकत्र स्थिरता ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की पूर्णता संवरयोग में
सर्वोत्तम है। इसके बाद साधक आँखें बन्द करके ललाट अथवा पैर होती है। संवर आस्रव का निरोध है तथा आस्रव मन, वचन काय ।
के अंगूठे से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण शरीर का निरीक्षण करता है, की प्रवृति है, अतः मन, वचन और काय तीन के निरोध और
अंग-प्रत्यंग की स्थिति और गति का सूक्ष्म अनुभव करता है। इस उनकी स्थिरता में ही ध्यान की पूर्णता मानी जा सकती है, अन्यथा
स्थूल शरीर की प्रेक्षा के समय साधक का चित्त शरीर के उस भाग नहीं। ध्यान की इस अवस्था में साधक का चित्त अपने आलम्बन में
पर ही रहता है, जिस भाग की वह प्रेक्षा करता है, अन्य किसी पूर्ण एकाग्र हो जाता है। इस स्थिति में वह चेतना के विराट् सागर
प्रकार के सम्बद्ध या असम्बद्ध विचारों को भी वह चित्त में स्थान में लीन हो जाता है, वाणी और काय भी उसमें ही लीन हो जाते
नहीं देता है। वह शरीर के ऊँचे-नीचे समतल सभी भागों की उनकी हैं, तीनों एकाग्र होकर पूर्ण स्थिर हो जाते हैं। इस साधना से
उन्नतता और अवनतता का अनुभव करता है, उनकी स्थिति और साधक में असीम शक्ति का संचय होता है और उसके फलस्वरूप
गति का अनुभव करता है। यह स्थूलकायप्रेक्षा की प्रथम स्थिति है। उसमें अपूर्व स्फूर्ति आ जाती है। अन्तर्दृष्टि स्वयमेव जागृत हो जाती कायप्रेक्षा की दूसरी स्थिति में साधक शरीर के मर्मस्थानों, है, उसकी लेश्या रूपान्तरित होने लगती है, आभा मंडल स्वच्छ हो केन्द्रस्थानों और चक्रों की प्रेक्षा करता है। इसमें वह शरीरगत जाता है, मूलाधार से आज्ञाचक्र पर्यन्त सभी चेतना केन्द्र जागृत हो । प्रत्येक यन्त्र की कार्यप्रणाली, उसके शक्तिस्रोतों, उसके जीवन-स्रोतों जाते हैं और साधक अतीन्द्रिय ज्ञान का स्वामी हो जाता है। इस । का निरीक्षण करता है। प्रत्येक अंग में स्थित असंख्य कोशिकाओं ज्ञानाग्नि से कर्म भस्मसात् हो जाते हैं, कर्मबन्धनों के कट जाने से की गति का, उनकी उत्पत्ति, विकास और विनाश का साक्षात्कार साधक जन्म-मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर करता है, असंख्य स्नायुओं का जाल देखता है, उनमें रक्तसंचार लेता है।
गति और चेतना के प्रवाह को देखता है। इस क्रम में उसे शरीर
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
की अनित्यता, अशुचिता आदि का बोध होता है जिसके फलस्वरूप शरीर के प्रति उसका मोह क्षीण होने लगता है, अपने शरीर के प्रति भी जुगुप्सा भाव पनपने लगता है, जो कालान्तर में पूर्ण वैराग्य का हेतु बनता है। स्थूलकाय की प्रेक्षा का अभ्यास हो जाने पर साधक सूक्ष्मकाय, जिसे तैजस्काय भी कहते हैं, की प्रेक्षा करना प्रारम्भ करता है। सूक्ष्मकाय में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चार, अन्तःकरण, प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय ये दस प्राण और आत्मा आते हैं। साधक क्रमशः इनकी प्रेक्षा करता है। इनके स्वरूप, स्थिति और कार्यों का निरीक्षण करता है। चेतना के केन्द्रभूत चक्रों की प्रेज्ञा करता है, उनमें अद्भुत ज्योति का साक्षात्कार करता है।
तेजस कामप्रेक्षा के बाद साधक कार्मण काय की प्रेक्षा करता है, जिसे कारण शरीर भी कहते हैं। कार्मणकाय की प्रेक्षा के क्रम में वह क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्मों के समूह को, कर्मों के संस्कारों को देखता है, जिनके कारण उसे यह मानव शरीर मिला है और सुख-दुःख के विविध रूप परिणाम प्राप्त हो रहे हैं, कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध को देखता है, पहचानता है।
इस कायप्रेक्षा के परिणामस्वरूप साधक प्रमादरहित होकर सतत जागरूक हो जाता है, वह जन्म-जन्मान्तर के रहस्य को पहचान लेता है, फलत मोक्ष साधना में वह दृढ़तापूर्वक प्रवृत्त हो जाता है।
श्वासप्रेक्षा प्रेक्षा ध्यान का दूसरा रूप श्वासप्रेक्षा है। इसमें साधक नासिका मार्ग से आने जाने वाले श्वास-प्रश्वास की गति की प्रेक्षा करता है। श्वास-प्रश्वास, प्राण और मन तीनों परस्पर सतत सम्बद्ध और सहचारी है। नाड़ी संस्थान भी उसके साथ जुड़ा हुआ है अतः श्वासप्रेज्ञा में साधक इनकी स्थिति, गति और उसके प्रभाव की प्रेक्षा करता है।
श्वास-प्रश्वास की गति दो प्रकार की होती है; सहज और प्रयत्नपूर्वक प्रयत्नपूर्वक श्वास-प्रश्वास की गति को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम साधना अष्टांग योग का चतुर्थ अंग है। हठयोग की वह प्रधान क्रिया है, उसका वर्णन यहाँ अप्रासंगिक है । २ सहज और सप्रयत्न दोनों ही प्रकार के श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा से अनेक रोगों की निवृत्ति होकर सामान्य स्वास्थ्य की प्राप्ति तो होती ही है साधक को सुषुम्णा पर विजय प्राप्त हो जाती है, उसकी इच्छानुसार दक्षिण या वाम नासापुट से उसका श्वास चलने लगता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मनोवेगों पर साधक विजय प्राप्त कर लेता है और चंचल चित्त पूर्णतः उसके वश में हो जाता है।
विचार प्रेक्षा या संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा श्वासप्रेक्षा के अभ्यास से साधक सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है। विचार प्रेक्षा में वह स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी गहराई में पहुँचकर चेतन, अवचेतन और अचेतन मन को देखने समझने लगता है। वह चेतन मन में उठने वाले संकल्प-विकल्पों को तटस्थभाव से देखता है और धीरे-धीरे उनके ध्यान से अवचेतन मन में और उसके बाद अचेतन
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मन में पहुँचता है। कालान्तर में अपने सम्पूर्ण संस्कारों का साक्षात्कार कर लेता है क्योंकि संस्कार ही हमारे सुखों-दु:खों, व्यवहारों और वर्तमान कर्मों के नियामक होते हैं। अतः संस्कारों का साक्षात्कार होने पर साधक उनका निरसन कर लेता है, फलतः उसके राग, द्वेषादि, मन के संवेग जड़ मूल से नष्ट हो जाते हैं। संवेगों के शान्त हो जाने पर साधक की सभी क्रियाएँ निष्काम हो जाती हैं। निष्काम कर्म बन्धन के कारण नहीं बनते। अतः साधक के लिए मोक्षमार्ग का द्वार खुल जाता है।
कषायप्रेक्षा- कषाय का अर्थ काम, क्रोध आदि मनोवेग हैं। ये (काम, क्रोध आदि) सूक्ष्म रूप में हमारे कार्मण शरीर अर्थात् संस्कारों में भरे पड़े रहते हैं, और उत्तेजक परिस्थिति मिलने पर प्रकट होते हैं। सामान्य जन अभिव्यक्ति होने पर इन्हें पहचान पाता है, किन्तु संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा में दक्षता प्राप्त साधक अवचेतन | मन की गहराई तक पहुँचकर इनका इनके कारणों का और उनके कार्यों अर्थात् परिणामों का साक्षात्कार तटस्थ होकर करता है। उसके परिणामस्वरूप आवेग संवेग उपशान्त हो जाते हैं, उनके मूल कारण गलित हो जाते हैं और साधक सच्ची आध्यात्मिक शान्ति की ओर निर्वाध बढ़ने लगता है।
पुद्गल या अनिमेषप्रेक्षा-अनिमेष प्रेक्षा हठयोग की परम्परा के त्राटक के बहुत निकट है। किसी एक पुद्गल, भित्ति या फलक पर निर्मित बिन्दु जिन प्रतिमा अथवा अपने आराध्य की प्रतिमा के समग्र अंश अथवा बिन्दु विशेष पर अथवा नासाग्र पर अनिमेष अर्थात् पलक झपकाये बिना स्थिर रूप से देखना पुद्गल प्रेक्षा या अनिमेष प्रेक्षा है। सामान्यतः मानव मस्तिष्क के असंख्य ज्ञानकोषों में केवल कुछ ही क्रियाशील रहते हैं, शेष सुप्त अवस्था में पड़े। रहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता उन सुप्त कोशों में विद्यमान रहती है। किन्तु इन कोशों के सुप्त अवस्था में पड़े रहने से मानव अल्पज्ञ बना रहता है। अनिमेष प्रेक्षा से ये सुप्त ज्ञानकोश क्रियाशील हो जाते हैं, फलतः साधक अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है।
वर्तमान क्षण की प्रेक्षा वर्तमान क्षण भूत और भविष्य की विभाजक रेखा है। यह क्षण तलवार की धार की भांति सूक्ष्मतम है। सामान्यतः मानव वर्तमान को भूलकर भूत और भविष्य के मध्य जीता है। भूत के क्षणों को स्मरण कर राग-द्वेष के झंझावाती थपेड़ों में स्वयं को पीड़ित करता है और भविष्य के क्षणों की कल्पना में नाना संकल्प-विकल्पों के जाल बुनता हुआ उसमें निरन्तर उलझता जाता है, जो उत्तरोत्तर बन्ध का कारण बनता है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा की साधना से साधक राग द्वेष मान मत्सर आदि विकारों से और अनन्त संकल्प-विकल्पों के ज्ञान से मुक्त हो जाता है। इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा है 'खणं जाणाहि पंडिए' अर्थात् जो वर्तमान क्षण को जानता है, वही ज्ञानी है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा एकाग्रता का उत्कृष्टतर रूप है, जहाँ सूक्ष्मतम कालबिन्दु पर चित्त की। एकाग्रता होती है। इस प्रेक्षा को पतञ्जलि स्वीकृत निर्विचार समाधि के समानान्तर कहा जा सकता है। जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान |
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्वीकार करता है कि अणु का विखण्डन करने से अतुल ऊर्जा का लेश्याध्यान की साधना सिद्धगुरु के निर्देश से करनी चाहिए, स्फुरण होता है, उसी प्रकार वर्तमान क्षण की प्रेक्षा से अनन्त ज्ञान क्योकि वह ही भली प्रकार निर्णय दे सकता है कि किस व्यक्ति में का भण्डार खुल जाता है। पतंजलि की भाषा में ऋतम्भरा प्रज्ञा का | किस लेश्या की प्रधानता है। इसलिए उसे किस वर्ण की लेश्या से स्फुरण हो जाता है। यह प्रज्ञा (बोध) लोकोत्तर होती है, प्रत्यक्ष ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए। सामान्यतः अत्यन्त अशुभ विचारों अनुमान इससे बनने वाले संस्कार पूर्व संस्कारों को समाप्त कर वाले, अकारण बिना किसी निज स्वार्थ सिद्धि अथवा लोकहित की अन्त में स्वयं भी विलीन हो जाती है। कर्मबन्ध का नाश हो जाता । संभावना के बहाने दूसरों को पीड़ा देने वाले व्यक्ति को कृष्ण लेश्या है, साधक के लिए मोक्ष का द्वार खुल जाता है।
का मनुष्य समझना चाहिए और उसे काले रंग पर ध्यान करना लेश्या ध्यान-कर्म संस्कारों सहित आत्मप्रदेशों का स्पन्दन लेश्या
चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों को अधिक हानि पहुँचाने वाले
व्यक्ति को नील लेश्या का समझना चाहिए और उन्हें नीले रंग पर है। आत्मप्रदेश में यह स्पन्दन मोहनीय कर्मों के उदय, क्षयोपशम
ध्यान करना चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ हिचकते हुए दूसरों उपशम और क्षय के कारण होता है। यह स्पन्दन कषायों से
को पीड़ा पहुँचाकर कार्यसिद्धि की कामना रखने वाले कापोत लेश्या उपरंजित होता है (कषायोदयारंजिता योगप्रवृतिः) सर्वार्थसिद्धि,
वाले होते हैं। उन्हें कापोत वर्ण अथवा हरे रंग पर ध्यान करना २/६/१५९ [११]। ध्यान द्वारा इन कषायों का शोधन होता है। ये
चाहिए। स्वार्थ हानि की सम्भावना न होने पर अर्थात् अपने स्वार्थ कषाय कर्मसंस्कार रूप हैं। कर्मसंस्कारों से भावों की सृष्टि होती है।
की रक्षा करते हुए परोपकार, सेवा-सर्वजन हितकारी कार्य करने भाव सामान्यतः रूप और आकारहीन प्रतीत होते हैं, जबकि उनमें
वाले व्यक्ति तेजोलेश्या वाले होते हैं, उन्हें लाल रंग से ध्यान वर्ण (रूप) होता है। यह रूप इतना सूक्ष्म होता है कि चर्म चक्षुओं
साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। अपनी स्वार्थ हानि करके भी से प्रायः नहीं दिखायी पड़ता। प्राचीन मनीषियों ने इस वर्ण का
लोकोपकार करने वाले सत्पुरुष पद्मलेश्या वाले होते हैं। ऐसे साक्षात्कार किया था। इसी आधार पर सांख्यकारिका और
व्यक्तियों को पीले रंग पर ध्यान करना चाहिए। सब कुछ लुटाकर उपनिषदों में सत्त्व, रजस् और तमस् इन गुणों को शुभ्र, लोहित
स्वयं को संकट में भी डालकर दूसरों का हित करने वाले अथवा और कृष्ण वर्ण वाला माना गया है। दिव्य पुरुषों के शिर के पीछे
सर्व समत्व की भावना में प्रतिष्ठित व्यक्ति शुक्ल लेश्या वाले पुरुष तेजोमय प्रभामण्डल की कल्पना भावों के रूप के आधार पर की
हैं। उन्हें शुक्ल वर्ण पर ध्यान करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति ध्यान गयी है। आधुनिक विज्ञान ने भी विशेष फोटो कैमरा के माध्यम से प्रारम्भ करते ही समाधि में पहुँच जाते हैं। कुछ तो समाधि भाव में भावमण्डल के अनेक वर्गों के चित्र भी प्राप्त किये हैं। तात्पर्य यह है सदा रहते ही हैं। कि कर्मसंस्कारों से जीव में जो भाव (विचार) के रूप में स्पन्दन
कृष्णवर्ण से लेकर पद्म (पीत) वर्ण तक सभी वर्गों में श्यामिता होता है, वह अनेक वर्ण का हुआ करता है। प्राचीन मनीषियों ने
अवश्य रहती है। कृष्ण में सर्वाधिक, नील में कुछ कम, कापोत में अत्यन्त अशुभ भावों का वर्ण काला और अत्यन्त शुभ भावों का
उससे कम, लाल में अल्प और पीले में अल्पतर, शुक्लवर्ण वर्ण शुभ्र माना है। इनके मध्य में अर्थात् श्याम से शुभ्र के बीच
श्यामिता से रहित होता है। लेश्या के वर्ण को पहचानकर कृष्ण, नीलवर्ण, कापोत वर्ण, तेजोमय (लाल) पद्मवर्ण (पीला) ये चार वर्ण
नील अथवा किसी वर्ण पर ध्यान प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति क्रमशः और माने हैं। अर्थात् अत्यन्त अशुद्धतम भावों की लेश्या कृष्णवर्ण,
अपने कर्मसंस्कारों में श्यामिता (कालुष्य) को क्षय करने का संकल्प अशुद्धतर की नील, अशुद्ध की कापोत वर्ण, शुद्ध की अग्निवर्ण
लेता है, उसके लिए प्रयत्न करता है और उत्तरोत्तर संस्कार शुद्धि (लाल), शुद्धतर की पद्मवर्ण (पीली) और शुद्धतम की लेश्या शुभ्र
करता हुआ कृष्ण को नील में, नील को कापोत में, कापोत को (शुक्ल) वर्ण की होती है। ये रंग इन लेश्याओं के पुद्गल
लाल में, लाल को पद्म (पीले) में तथा पद्म को शुक्ल में परिवर्तन परमाणुओं के होते हैं। लेश्याध्यान में इन वर्गों का ही ध्यान किया
करता है क्योंकि यह परिवर्तन कर्मसंस्कारों में होता है, इसलिए जाता है।
बहुत मन्द होता है, देर लगती है। यदि रलत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, क्लिष्ट और अक्लिष्ट भावों की दृष्टि से भी इन लेश्याओं को सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना साथ-साथ चलती है, तो देखा जा सकता है। क्लिष्ट भाव के तारतम्य के आधार पर दो । एक जन्म में ही अन्यथा एकाधिक जन्म में साधक शुक्ल ध्यान का
और भेद होंगे-क्लिष्टतर और क्लिष्टतम। इसी प्रकार अक्लिष्ट अधिकारी हो जाता है। भावों के अक्लिष्टतर तथा अक्लिष्टतम दो अन्य भेद होंगे। इस । लेश्याध्यान-साधना के प्रसंग में जैन आचार्यों की मान्यता है कि प्रकार क्लिष्टतम, किलष्टतर, क्लिष्ट, अक्लिष्ट, अक्लिष्टतर और अत्यन्त सामान्य साधक कृष्ण लेश्या में ध्यान साधना करते हुए अक्लिष्टतम कुल छ: भेद होंगे। इन भावों से सम्बद्ध लेश्याएँ क्रमशः श्यामिता की निवृत्ति करके जब नील लेश्या की स्थिति में पहुँचता कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होंगी। इस । है, तो उसका स्वाधिष्ठान चक्र संयमित (जागृत) हो जाता है, उसे प्रकार लेश्याओं के वर्ण (रंग) विविध स्तरों में विद्यमान अशुभ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का लाभ होता है, भूख पर अथवा शुभ और क्लिष्ट अथवा अक्लिष्ट कर्मसंस्कारों और उनके नियंत्रण हो जाता है, क्रूरता, हिंसात्मक प्रवृत्ति विलीन हो जाती है। कारण आत्मा में होने वाले स्पन्दनों के प्रतीक हैं।
कापोत ध्यान तक पहुँचते-पहुँचते, उसके स्नायु पीड़ा की अनुभूति
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
से रहित हो जाते हैं, उसमें दूरश्रुति दूरदृष्टि की शक्ति आ जाती है, बहिर्मुखी प्रवृत्तियाँ शान्त हो जाती है, वह अन्तर्मुखी हो जाता है। पापवृत्तियाँ विलीन हो जाती हैं, सत्यनिष्ठा प्रामाणिक प्रातिभज्ञान और विनय उसके स्वभाव में बस जाते हैं। कापोत लेश्या पर ध्यान से काम, क्रोध, लोभ, मोह शान्त हो जाते हैं, शरीर रोग आदि से रहित पूर्ण शुद्ध और निर्मल हो जाता है। तेजोलेश्या में ध्यान से चेतना संस्थान पूर्ण सक्रिय हो जाता है, अन्तश्चेतना के विविध आयाम खुल जाते हैं। पद्म लेश्या में ध्यान से मस्तिष्क के सभी आयाम खुल जाते हैं, दर्शन केन्द्र और आनन्द केन्द्र जागृत हो जाते हैं और जब साधक शुक्ल लेश्या में ध्यान की स्थिति में पहुँचता है, तो उसकी चेतना के बाह्य मन के साथ अवचेतन और अचेतन मन से भी कषाय मिट जाते हैं, उसमें ऐसी अपूर्व शक्ति आ जाती है। कि उसके सान्निध्य में सब प्राणियों के वैर-विरोध मिट जाते हैं, उसके नाम के स्मरण मात्र से सहस्रों व्यक्ति शान्ति की अनुभूति करते हैं। आज्ञाचक्र के अनुप्राणित हो जाने से अवधि ज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान ही नहीं, केवल ज्ञान की भी उसे प्राप्ति हो जाती है। ध्यान साधना का यह सर्वोत्तम फल साधक को प्राप्त हो जाता है।
दार्शनिक दृष्टि से ध्यान के प्रकार-स्वरूप की दृष्टि से जैन आगमों में ध्यान के चार प्रकार माने गये हैं- (१) आर्त्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और (४) शुक्लध्यान। इनमें प्रथम दो को अप्रशस्त तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्रशस्त ध्यान माना गया है।
इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग प्रतिकूल वेदना अथवा पीड़ा का चिन्तन एवं कामोपभोगों की लालसा आर्त्तध्यान के चार प्रकार हैं।
हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषय संरक्षणानुबन्धी ध्यान रौद्रध्यान के भेद है।
धर्मध्यान-साधारण रूप से धर्मध्यान का अर्थ लिया जाता है; आंत और रौद्र ध्यान से भिन्न और धर्म से निर्देशित साधक के सभी क्रिया-कलाप और विचारणाएँ । किन्तु धर्मध्यान की सीमाएँ इतनी संकुचित नहीं हैं। धार्मिक अनुचिन्तन, तत्त्व विचारणा और तत्त्व चिन्तन के साथ धर्मध्यान में तत्त्व साक्षात्कार भी सम्मिलित है। इस साक्षात्कार के अनुरूप व्यवहार अर्थात् सम्यक्चारित्र का भी समावेश अभीष्ट है। वस्तुतः ज्ञान (विद्या) की परिपक्वता व्यवहार में ही होती है। तभी तो महर्षि पतञ्जलि ने कहा है- “चतुर्भिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति । आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेन इति । "
अर्थात् विद्या की उपयुक्तता अथवा पूर्णता चारों सोपानों को लांघने पर ही हो पाती है वे सोपान है-आगम (श्रवण या अध्ययन ) स्वाध्याय (चिन्तन-मनन) प्रवचन ( आग्रह रहित परिचर्चा) और व्यवहार अर्थात् जीवन में आचारण। जैन परम्परा भी सम्यक्चारित्र के बिना सम्प्रग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को सार्थक नहीं मानती। यदि एक वाक्य में हम कहना चाहें, तो कह सकते हैं कि धर्मध्यान
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रत्नत्रय की साधना है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना है। ध्यान योगी अनन्त धर्मात्मक अनन्त पर्यायात्मक जागतिक पदार्थों को एक-एक करके प्रत्येक पर्याय को, प्रत्येक धर्म को ध्येय बनाकर उसका ध्यान करता है, समग्र रूप से अनन्त पर्यायात्मक विश्व को जानने का प्रयत्न करता है। यह उसकी मोक्ष साधना का प्रथम सोपान होता है।
धर्मध्यान के अधिकारी भी सब नहीं बन पाते। आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि ये चार गुण किसी साधक को धर्मध्यान का अधिकारी बनाते हैं। इनके बिना कोई साधक धर्मध्यान में सफल होना कौन कहे, प्रवृत्त भी नहीं हो पाता। यदि किसी पुण्य प्रताप से प्रवृत्ति हो भी गयी तो स्थिरता नहीं बन पाती। यदि किसी साधक में उपर्युक्त चारों रुचियाँ विद्यमान हैं तो निश्चय ही कुछ काल की साधना से ही उसका चित पूर्ण पवित्र हो जायेगा और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों का विकास होने लगेगा।
धर्मध्वान के भेद जैन आगमों में धर्मध्यान के चार भेद बताये गये हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ।
आज्ञाविचय- आज्ञाविचय का अर्थ है तत्त्वश्रद्धान। अहिंसा सर्वज्ञ भगवान् के आदेशों पर श्रद्धापूर्वक विचार करना, चिन्तन मनन करना, साक्षात्कार करना और उन्हें जीवन में आत्मसात् करना, व्यवहार में उतारना आज्ञाविचय में सम्मिलित है।
अपायविचय- अपायविचय में राग-द्वेष, क्रोध, कषाय, मिथ्यात्व, प्रमाद, अविरति आदि दोषों का निवारण करने के लिए उपायों का चिन्तन और उनके द्वारा दोषों का निवारण किया जाता है।
विपाकविचय-विपाकविचय धर्मध्यान में शुभ और अशुभ कार्यफलों का अनुभव करते हुए उनके कारणभूत कर्मों, भावनाओं तक का अनुसन्धान करके साधक उनसे मुक्त होने के लिए क्रमशः गुणस्थानों में आरोहण करते हुए, आत्मा से कर्म सम्बन्ध के विच्छेद के लिए चिन्तन करते हुए तदनुकूल साधना करता है।
संस्थानविचय- चतुर्थ धर्मध्यान संस्थानविचय की साधना में ध्यानयोगी लोक के स्वरूप, छः द्रव्यों के गुण-पर्याय, संसार, द्रव्यों के उत्पाद- ध्रौव्य-व्यय, लोक की शाश्वतता और अशाश्वतता, द्रव्य की परिणामी नित्यता, जीव की देव, मनुष्य, नारक और तिर्यञ्च गति आदि का चिन्तन करके आत्मशुद्धि करता है।
धर्मध्यान की इस साधना में वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा ये चार आलम्बन होते हैं एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं, जिनके माध्यम से ध्यानयोगी तत्त्व साक्षात्कार तक पहुँचता है।
ध्यान के आलम्बन की दृष्टि से ध्यान के चार भेद हो सकते हैं-पिण्डस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान और रूपातीत ध्यान । इनके अतिरिक्त ध्येय की दृष्टि से योग की दृष्टि से भी ध्यान के अनेक भेद होते हैं। विस्तारभय से हम यहां उनकी चर्चा अथवा उनका परिचय नहीं दे रहे हैं।
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फल-जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि धर्मध्यान मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। धर्मध्यान की साधना से लेश्याओं की शुद्धि, वैराग्य की प्राप्ति और शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त होती है और शुक्लध्यान के माध्यम से साधक मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
शुक्ल ध्यान - लेश्याध्यान के प्रसंग में शुक्ल लेश्या ध्यान की चर्चा हुई है। शुक्लध्यान और शुक्ल लेश्याध्यान भिन्न होते हुए भी स्थिति की दृष्टि से दोनों समान हैं। शुक्ल लेश्या ध्यान में शुभतम, अक्लिष्टतम कर्मसंस्कारों का ध्यान किया जाता है, जबकि शुक्लध्यान में साधक विषयहीनता की ओर क्रमशः उन्मुख होता है, जो मन की शुभतम स्थिति है।
शुक्लध्यान का अधिकारी सर्वसामान्य साधक नहीं होता। चित्त में जब तक कषाय का लेश भी है, तब तक शुक्लध्यान संभव नहीं है । निरन्तर साधना से जब चित्तगत कषाय क्षीण हो जाते हैं, साधक साधना के माध्यम से आरोह क्रम से बारहवें गुणस्थान (क्षीणकषाय) में पहुँच जाता है, तब वह शुक्लध्यान का अधिकारी होता है उस अवस्था में उसमें अव्यथ असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग लिङ्ग व्यक्त होते हैं। वह सभी प्रकार के परीषों को निर्विकार भाव से सहन करता है ( अव्यथ) । किसी प्रकार के आकर्षण उसकी श्रद्धा को विचलित नहीं कर पाते (असम्मोह)। | उसका तत्त्व विषयक विवेक इतना सूक्ष्म होता है कि जीव-अजीव आदि के सम्बन्ध में उसके चित्त में भ्रम और सन्देह का लेश भी नहीं रहता (विवेक)। उसमें किसी प्रकार की आसक्ति या कामना नहीं रहती भोगेच्छा, यश की इच्छा उसके पास भी नहीं फटकती (व्युत्सर्ग)। उसके लिए सभी प्रकार के आकर्षण तृणवत् होते हैं। वह वीतराग होता है। क्षमा, मार्दव (नम्रता), आर्जव (निष्कपटता) और लोभ आदि कषायों से मुक्ति उसके आलम्बन होते हैं।
शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं अर्थात् शुक्लध्यान करने वाला योगी निम्नलिखित चार विषयों का चिन्तन मनन करता हैअनन्तवर्त्तितानुपेक्षा विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुपेक्षा अशुभापेक्षा और अपायानुप्रेक्षा । अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा का तात्पर्य है काल की दृष्टि से भवपरम्परा (संसार) अनन्तता का चिन्तन विपरिणामानुप्रेक्षा का अर्थ है समस्त वस्तुओं की परिणमनशीलता का चिन्तन क्योंकि वह अनुभव करने लगता है कि कोई भी पदार्थ न एकान्ततः शुभ है, न अशुभ अतः उनके प्रति उसकी हेच उपादेय बुद्धि समाप्त हो जाती है। विश्व के समस्त पदार्थों के प्रति वह उदासीन अर्थात् आसक्तिरहित हो जाता है। अशुभानुप्रेक्षा के फलस्वरूप वह संसार के अशुभ रूप का साक्षात्कार कर लेता है, फलतः निर्वेदभाव में उत्तरोत्तर प्रबल हो जाता है। अपायानुप्रेक्षा में वह समस्त शुभ और अशुभ माने जाने वाले विषयों (पदार्थों) और व्यवहारों में अपाय
१. समभ्यसेत्तथा ध्यानं घटिकाः षष्टिमेव च । वायुं निरुध्य चाकाशे देवतामिष्टदामिति ॥ सगुणध्यानमेवं स्यादणिमादि गुणप्रदम् । दिनद्वादशकेनैव समाधिं समवाप्नुयात् ॥
- योगतत्त्व १०४
- योगतत्त्व १०५-१०६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अर्थात् दोष का दर्शन करता है, फलतः आनव से पूर्णतः विरक्त हो जाता है।
शुक्लध्यान के चार प्रकार माने जाते हैं पृथक्त्व वितर्क सविचार, एकत्ववितर्क निर्विचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और व्युपरत क्रियानिवृत्ति।
प्रथम पृथक्त्व पृथक्त्व वितर्क सविचार में यह विश्वप्रपञ्च के प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक अवयव में भेद का पृथक्ता का दर्शन करता है। इस अवस्था में चित्त में विचलन (चंचलता) न रहते हुए भी वह भिन्न-भिन्न वस्तुओं, पर्यायों में संक्रमित होता रहता है।
द्वितीय अर्थात् एकत्व वितर्क निर्विचार साधक जागतिक पदार्थों के अनन्त सूक्ष्मताम अवयवों (परमाणु आदि) में अन्यतम का सूक्ष्मतम का चिन्तन करता है। शुक्ल ध्यान के इन दोनों प्रकारों को महर्षि पतञ्जलि स्वीकृत सूक्ष्मविषयक सविचार और निर्विचार सम्प्रज्ञात समाधि के सामानान्तर कहा जा सकता है। ये दोनों ध्यान प्रकार बारहवें गुणस्थान में स्थित योगी के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं।
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सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान में योगी काय योग को क्रमशः सूक्ष्म करता है। यह स्थिति तेरहवें गुणस्थान (सयोगकेवली) में आरोहण करने पर आती है। यहाँ पहुँचा हुआ साधक फिर कभी पीछे नहीं मुड़ता । वह इस ध्यान में काय योग को क्षीण कर लेता है, श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मक्रिया मात्र शेष रह जाती है। इस स्थिति में वह चौदहवें गुणस्थान ( अयोगकेवली) में आरूढ़ होकर शुक्लध्यान के अन्तिम चरण समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति में पहुँचता है। उसकी समस्त क्रियाओं का निरोध हो जाता है। स्थूल सूक्ष्म कायिक, वाचिक, मानसिक सभी व्यापार उच्छिन्न हो जाते हैं। इस अवस्था में आत्मा पूर्ण रूप से निष्कम्प निष्कलङ्क बन जाती है। उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार शुक्लध्यान मोक्षप्राप्ति का अन्तिम सोपान है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्यान की परिभाषा विविध परम्पराओं से भिन्न-भिन्न रूप से की गयी है कपिल की ध्यान की परिभाषा मतंजलि की समाधि की परिभाषा के समानान्तर है। जैन परम्परा में भी समाधि शब्द का प्रयोग न करके चित्तलय की अवस्था तक को ध्यान ही कहा है किन्तु इतना सुनिश्चित है कि जैन परम्परा में ध्यान के विविध पक्षों अथवा उससे सम्बन्धित विषयों का जितना सूक्ष्म विवेचन हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं हुआ है।
स्वामी केशवानन्द योग संस्थान B-२/१३९-१४० सेक्टर ६, दिल्ली-८५
रोहिणी ७,
२. प्राणायाम साधना के लिए हमारा राजयोग साधना और सिद्धान्त नामक ग्रन्थ देखिये ।
३. मोहोदयखओवसमोवसमखग जीव फंदणं भावो ।
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-गोम्मटसार जीवकाण्ड ५३६/९३१
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
जप योग साधना
विश्व के समस्त विवेकशील जीव इस संसार के आवागमन से मुक्त होना चाहते हैं। आवागमन से मुक्त होने का एक मात्र साधन है 'स्व' स्वरूप में रमणता, स्थिरता ।
जिस-जिस उपाय से चित्त का 'स्व' स्वरूप के साथ योग होता हैं उनको योग कहते हैं।
पू. हरिभद्र सूरिजी ने लिखा है-मुक्खेण जोयणाओ जोगो' जिन साधनों से मोक्ष का योग होता है उनको योग कहते हैं।
योग एक ही है किन्तु उसके साधन असंख्य है। मुख्यतः योग ३ भागों में विभक्त किये जा सकते हैं - १. ज्ञान योग, (२) कर्म योग, (३) भक्ति योग। मोटे रूप में तीनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं। ज्ञान योग में ज्ञान सेनापति और कर्म एवं भक्ति सैनिक हैं: कर्म योग में कर्म सेनापति और ज्ञान और भक्ति सैनिक हैं; भक्ति योग में भक्ति सेनापति है और ज्ञान और कर्म सैनिक हैं। इन तीनों योगों की असंख्य पर्याय है। मुख्यतः निम्नलिखित हैं
(१) ज्ञान योग के पर्याय- १. ब्रह्म योग, २. अक्षर ब्रह्म योग, ३. शब्द योग, ४. ज्ञान योग, ५. सांख्य योग, ६. राज योग, ७. पूर्व योग, ८. अष्टाङ्ग योग ९. अमनस्क योग, १०. असंप्रज्ञात योग, ११. निर्बीज योग, १२. निर्विकल्प योग, १३. अचेतन समाधि योग, १४ मनोनिग्रह इत्यादि ।
(२) कर्म योग के पर्याय- १. सन्यास योग, २. वृद्धि योग, ३. संप्रज्ञात योग, ४. सविकल्प योग ५. हठ योग, ६. हंस योग, ७, सिद्ध योग, ८. क्रिया योग ९. तारक योग १०. प्राणोपासना योग, ११. सहज योग, १२. शक्तिपात, १३. तन्त्र योग, १४. बिन्दु योग, १५. शिव योग, १६. शक्ति योग, १७. कुण्डलिनी योग, १८. पाशुपत योग, १९. कर्म योग, २०. निष्काम कर्म योग, २१. इन्द्रिय निग्रह इत्यादि।
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(३) भक्ति योग- १. कर्म समर्पण योग, २. चेतन समाधि, महाभाव, ४. भक्ति योग, ५. प्रेम योग, ६. प्रपत्ति योग, ७. शरणागति योग, ८. ईश्वर प्रणिधान योग, ९. अनुग्रह योग, १०. मन्त्र योग, ११. नाद योग, १२. सुरत-शब्द योग, १३ : लय योग, १४. जप योग, १५. पातिव्रत योग इत्यादि नाम भक्ति योग के पर्याय हैं।
जैन पम्परा के अनुसार योग के हेतु मन, वचन और काया है। मन ही मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का कारण है। जैन परम्परा में मन को मुख्य मानकर ज्ञान योग को विशेष महत्व दिया है। मन के लिये ज्ञान योग की प्रमुखता है; काय योग के लिये कर्म योग की प्रमुखता है और वचन योग के लिये भक्ति योग की प्रमुखता है।
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५०५
-विमल कुमार चौरड़िया
'जप' भक्ति योग का ही अंग है, बहिर् आत्मा से अन्तरात्मा में जाने का साधन है। जैन धर्म की अपेक्षा से नमस्कार महामंत्र के जप को ही लक्ष्य में रखकर यहाँ वर्णन करना उचित होगा।
जप करने के पूर्व सिद्धि के लिये कुछ प्रयोजनभूत ज्ञान आवश्यक है
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(१) पंच परमेष्ठी भगवन्तों का स्वरूप गुरु के पास से भली प्रकार समझना चाहिये।
(२) नमस्कार मंत्र का चिन्तन, मनन कर आत्मसात् कर लेना चाहिए।
(३) जैसे किसी अच्छे परिचित का नाम लेते ही उसकी छवि सामने आ जाती है, उसका समग्र स्वरूप ( गुण, दोष आदि) ख्याल में आ जाता है वैसे ही जप करते समय मंत्र के अक्षरों का अर्थ, पंच परमेष्ठि का स्वरूप मन के सामने प्रगट हो जाना चाहिए।
(४) परमेष्ठि भगवन्तों का हम पर कितना उपकार है, उनके उपकार से या उनके ऋण से हम कितने दबे हुए हैं उसका ध्यान बराबर रखना चाहिए।
(५) परमेष्ठि भगवन्तों के आलम्बन के बिना भूतकाल में अनन्त भव भ्रमण करने पड़े, उनका अन्त इन्हीं के अवलम्बन से आ रहा है इसकी प्रसन्नता होना चाहिये।
(६) मानस जप करते समय काया और वस्त्र की शुद्धि के साथ-साथ मन और वाणी का पूर्ण मौन रखना चाहिए।
(७) जप का उद्देश्य पहले से ही स्पष्ट और निश्चित कर लेना चाहिए।
(८) मोक्ष प्राप्त हो, मोक्ष प्राप्त हो, सब जीवों का हित हो, सब जीव परमात्मा के शासन में रुचिवन्त हों... भव्यात्माओं को मुक्ति प्राप्त हो, संघ का कल्याण हो, विषय कषाय की परवशता से मुक्ति मिले, मैत्री आदि भावनाओं से मेरा अंतःकरण सदा सुवासित रहे यह भाव हो ।
(९) जप करते समय कदाचित् चित्त वृत्ति चंचल रहे तो निम्नलिखित वाक्यों में से अथवा दूसरी अच्छी विचारणा में अपने चित्त को लगायें
जगत के जीव सुखी हों, कोई जीव पाप न करे, सबको सद्बुद्धि मिले-बोधि बीज प्राप्त हो... आदि ।
(90) राग द्वेष में चित्त को नहीं लगाना, समता युक्त रखना।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ (११) समता, शान्ति और समर्पण इन तीनों को साधक श्रावकाचार का पालन, (४) जीवन में प्रामाणिकता, (५) स्वधर्मी के जितना अधिक अपने जीवन में उतारेगा उतनी ही अधिक प्रगति प्रति वात्सल्य, (६) जप का निश्चित समय, (७) निश्चित आसन, होगी।
(८) निश्चित दिशा, (९) निश्चित माला या प्रकार, (१०) निश्चित (१२) अपने सभी सम्बन्धों में आध्यात्मिकता स्थापित करनी
संख्या, (११) पवित्र एकान्त स्थान, (१२) स्थान को शुद्ध व पवित्र चाहिये।
करना, (१३) सात्विक भोजन आदि। (१३) अयोग्य आकर्षणों की ओर झुकाव नहीं होना चाहिए।
महर्षियों ने जप के लिए कई मंत्र भिन्न-भिन्न आशयों के लिये |
बनाये हैं। मंत्र साधन है। अच्छे मंत्रों का श्रद्धापूर्वक, लयबद्ध, शुद्ध, (१४) किसी को भी किसी प्रकार के राग द्वेष में नहीं बाँधना
आत्मनिष्ठा, संकल्प शक्ति के समन्वय के साथ किया गया जप चाहिये।
अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है। मंत्र के निरन्तर जप से होने वाले (१५) साधना के परिणाम के लिए अधीर नहीं होना चाहिये। कम्पन अपने स्वरूप के साथ ध्वनि तरंगों पर आरोहित होकर (१६) यह विश्वास रखना चाहिये कि साधना में बीते प्रत्येक
पलक झपकें इतने समय में समस्त भू-मण्डल में ही नहीं अपितु १४ पल का जीवन पर अचूक असर होता है।
राजूलोक में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। जप के शब्दों की |
पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारित किये गये शब्दों की स्पन्दित (१७) नवकार सूक्ष्म भूमिकाओं में अप्रगट रूप से शुद्धि का
तरंगों का एक चक्र (सर्किट) बनता है। कार्य करता है। चाहे तात्कालिक प्रभाव नहीं मालुम हो परन्तु धीरे-दीरे योग्य समय पर अपनी समग्रता में तथा अपने वातावरण
जिस प्रकार इलेक्ट्रो मेग्नेटिक तरंगों की शक्ति से अन्तरिक्ष में में उसके प्रभाव का प्रगट रूप में अनुभव होता है।
भेजे गये राकेट को पृथ्वी पर से ही नियंत्रित कर सकते हैं, लेसर |
किरणों की शक्ति से मोटी लोहे की चद्दरों में छेद कर सकते हैं, (१८) जब तक साधक के चित्त में चंचलता, अस्थिरता,
उसी प्रकार मंत्रों के जप की तरंगों से मंत्र योजकों द्वारा बताये गये। अश्रद्धा, चिन्ता आदि होते हैं तब तक वह प्रगति नहीं कर सकता।
कार्य हो सकते हैं। जप क्रिया में साधक को तथा वातावरण को (१९) जप साधना के लिए शान्ति, स्थिरता, अडिगता चाहिये। प्रभावित करने की दोहरी शक्ति है। जप करने वाला मन के निग्रह (२०) साधक को गुणों का चिन्तन मनन करना चाहिये और
से सारे विश्व के प्राण मण्डल में स्पन्दन का प्रसार कर देता है। स्वयं गुणी होना चाहिये।
मन एक प्रेषक यंत्र की तरह कार्य करता है। मन रूपी प्रेषक यंत्र
(Transmitter) से प्राण रूपी विद्युत द्वारा विश्व के प्राण मण्डल (२१) साधक को श्रद्धा होनी चाहिये कि उद्देश्य की सफलता ।
में स्पन्दन फैलाया जाता है, जो उन जीवों के मन रूपी यंत्रों इस जप के प्रभाव से ही होने वाली है तथा जैसे-जैसे सफलता
(Receiver) पर आघात करते हैं जिनमें जप करने वाले योगी मिलती जावे उसमें समर्पण भाव अधिक होना चाहिये।
कोई भावना जगाना चाहते हैं। क्योंकि वाणी का मन से, मन का । (२२) जप की संख्या के ध्यान के साथ जप से चित्त में अपने व्यक्तिगत प्राण से और अपने प्राण का विश्व के प्राण से। कितनी एकाग्रता हुई इसका ध्यान रखना चाहिये।
उत्तरोत्तर सम्बन्ध है। (२३) एकाग्रता लाने के लिये भाव विशुद्धि बढ़ाना चाहिये। साधारण रूप में प्रत्येक शब्द चाहे किसी भाषा का हो, मंत्र है। (२४) जप से मन की शुद्धि होती है जिसके फल में बुद्धि ।
अक्षर अथवा अक्षर के समूहात्मक शब्दों में अपरिमित शक्ति निहित 32 निर्मल बनी रहती है ऐसा विचार रखना चाहिये।
है। मंत्रों से वांछित फल प्राप्त करने के लिए मंत्र योजक की
योग्यता, मंत्र योजक की शक्ति, मंत्र के वाच्य पदार्थों की शक्ति, 100 % (२५) जप करने वाले को विषयों को विष वृक्ष के समान,
उन वाच्य पदार्थों से होने वाले शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, LOR
संसार संयोगों को स्वप्न के समान समझना; अनित्यादि भावना व । सौर मण्डलीय शक्ति का प्रभाव तो है ही. साथ ही जप करने वाले। उसके मर्म को समझने का चिन्तवन करना चाहिये।
की शक्ति, आत्म स्थित भाव, अखण्ड विश्वास, निश्चल श्रद्धा, (२६) जप करने वालों को श्रद्धा रखनी चाहिये कि जप से । आत्मिक तेज, मंत्र की शुद्धि, मंत्र की सिद्धि आदि का विचार भी। Foooocन शुभ कर्म का आस्रव, अशुभ का संवर, पूर्व कर्म की निर्जरा. लोक । आवश्यक है।
स्वरूप का ज्ञान, सुलभ बोधिपना तथा सर्वज्ञ कथित धर्म की जप का मूल साधन ध्वनि है। भारतीय ध्वनि शास्त्र में भवोभव प्राप्ति कराने वाला पुण्यानुबंधि पुण्य कर्म का उपार्जन स्नायविक और मानसिक चर्चा के आधार स्वरूप ध्वनि के चार होता है। आदि.....
स्तर हैं-(१) परा, (२) पश्यन्ती, (३) मध्यमा, (४) वैखरी। जप करने वालों को कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक (१) परा-परा वाक् मूलाधार स्थित पवन की संस्कारीभूता है-(१) दुर्व्यसनों का त्याग, (२) अभक्ष्य भक्षण का त्याग, (३) । होने के कारण एक प्रकार से व्यक्त ध्वनि की मूल उत्स शक्ति की ।
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
तरह है। वहीं 'शब्द ब्रह्म' या 'नाद ब्रह्म' है। स्पन्दनशून्य होने के रेखा मिट जावे तब जप सिद्ध हुआ कहा जाता है। आत्मा और कारण वह बिन्दुरूपा है। यह निर्विकल्प, अव्यक्त अवस्था में है। परमात्मा की ऐक्यता। इसे जप का सर्वस्व कहा जाता है। ध्वनि अपने बीज रूप में है।
शब्दाज्जापान्मौन-स्तस्मात् सार्थस्ततोऽपि चित्तस्था (२) पश्यन्ती-परा स्तर से ऊपर चलकर नाभि तक आने
श्रेयानिह यदिवाऽऽवात्म-ध्येयैक्यं जप सर्वस्वम्॥ वाली उस हवा से अभिव्यक्त होने वाली ध्वनि मनोगोचरीभूत होने
शब्द जप की अपेक्षा मौन जप अच्छा है। मौन जप की अपेक्षा से पश्यन्ती कही जाती है। सविकल्प ज्ञान के विषय रूप है। यही
सार्थ जप अच्छा है। सार्थ जप की अपेक्षा चित्तस्य जप अच्छा है मानस के चिन्तन प्रक्रिया के रूप ध्वनि संज्ञा की तरह चेतना का
और चित्तस्थ की अपेक्षा ध्येक्य जप अच्छा है क्योंकि वह जप का अंग बन जाती है।
सर्वस्व है। (३) मध्यमा-ध्वनि उच्चारित होकर भी श्रव्यावस्था में नहीं आ
। तीसरी अपेक्षा से जाप के तेरह प्रकार हैं-(१) रेचक, (२) पाती है।
पूरक, (३) कुम्भक, (४) सात्विक, (५) राजसिक, (६) तामसिक, (४) वैखरी-श्रव्य वाक् ध्वनि रूप से मान्य है। यह मुख तक (७) स्थिर कृति-चाहे जैसे विघ्न आने पर भी स्थिरता पूर्वक जप आने वाली हवा के द्वारा ऊर्ध्व क्रमित होकर मूर्धा का स्पर्श करके किया जाय, (८) स्मृति-दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर जप किया सम्बन्धित स्थानों से अभिव्यक्त होकर दूसरों के लिये सुनने योग्य जाय। (९) हक्का-जिस मंत्र के पद क्षोभ कारक हों अथवा जिसमें बनती है।
श्वास लेते और निकालते समय 'ह' कार का विलक्षणता पूर्वक शास्त्रों में जप के कई प्रकारों का वर्णन है, कुछ
उच्चारण करते रहना पड़ता है। (१०) नाद-जाप करते समय निम्नानुसार हैं।
भ्रमर की तरह गुंजार की आवाज हो। (११) ध्यान-मंत्र पदों का
वर्णादि पूर्वक ध्यान करना। (१२) ध्येयैक्य-'ध्याता और ध्येय की एक अपक्षा क जप क तान प्रकार ह-(१) भाष्य, (२) उपाशु, । जिसमें ऐक्यता हो। (१३) तत्व-पंच तत्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु (३) मानस।
और आकाश तत्वों के अनुसार जप करना। (१) भाष्य-'यस्तु परैः श्रूयते भाष्यः' जिसे दूसरे सुन सकें वह
इस प्रकार जप के कई प्रकार हैं। भाष्य जप है। यह जप मधुर स्वर से, ध्वनि श्रवण पूर्वक बोलकर वैखरी वाणी से किया जाता है।
उच्चारण की अपेक्षा से जाप तीन प्रकार से होता है-(9)DS.DOD..
हस्व, (२) दीर्घ, (३) प्लुत। (२) उपांशु-'उपांशुस्तु परैरश्रूयमाणोऽन्तर्जल्प रूपः'। इसमें
शास्त्रों के अनुसार ओंकार मंत्र का जप ह्रस्व करने से सब मध्यमा वाणी से जप किया जाता है। इसमें होठ, जीभ आदि का
पाप नष्ट होते हैं। दीर्घ उच्चारण करने से अक्षय सम्पत्ति प्राप्त होती EDGE: हलन-चलन तो होता रहता है किन्तु वचन सुनाई नहीं देते।
है तथा प्लुत उच्चारण करने से ज्ञानी होता है, मोक्ष प्राप्त करता है। (३) मानस-'मानसो मनोमात्र वृत्ति निर्वृत्तः स्वसंवेद्य।' पश्यन्ती
जीवात्मा के चार शरीर माने गये हैं-(१) स्थूल, (२) सूक्ष्म,BA D . वाणी से जप करना। यह जप मन की वृत्तियों द्वारा ही होता है
(३) कारण, (४) महाकारण। | तथा साधक स्वयं उसका अनुभव कर सकता है। इस जप में काया की और वचन की दृश्य प्रवृत्ति-निवृत्त होती है।
जब जप जीभ से होता है तो उसे स्थूल शरीर का जाप; जप
जब कण्ठ में उतरता है तो सूक्ष्म शरीर का; हृदय में उतरने पर जब मानस जप अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है तब नाभिगता
कारण शरीर का तथा नाभि में उतरने पर महाकारण शरीर का परा ध्वनि से जप किया जाता है। उसे अजपा जप कहते हैं। दृढ़
जप समझना चाहिये। अभ्यास होने पर इस जप में चिन्तन बिना भी मन में निरन्तर जप होता रहता है। श्वासोच्छ्वास की तरह यह जप चलता रहता है।
जप में मौन जप सर्वश्रेष्ठ बताया है। मौन जप करने से शरीर
के अन्दर भावात्मक एवं स्नायविक हलन-चलन चलती है। उससे मनुस्मृति २/८५-८६ के अनुसार कर्म यज्ञों की अपेक्षा जप
उत्पन्न ऊर्जा एकीकृत होती जाकर शरीर में ही रमती हुई रोम-रोम | यज्ञ दस गुना श्रेष्ठ, उपांशु जप सौगुना और मानस जप सहस्र गुना से निकलती है। शरीर के चारों ओर उन तरंगों का वर्तुल बनता है श्रेष्ठ है।
| जिससे व्यक्ति का आभामण्डल प्रभावशाली होता जाता है। उससे दूसरी अपेक्षा से जप पांच प्रकार के हैं-(१) शब्द जप, (२) उनकी स्वयं की कष्टों को सहन करने की अवरोधक शक्ति तो मौन जाप, (३) सार्थ जाप, (४) चित्तस्थ जप = मानस जप-इस बढ़ती ही है, साथ ही शरीर से निकली तरंगों के प्रभाव से साधु जप में एकाग्रता बहुत चाहिए। चंचलता वाले यह जप नहीं कर सन्तों के सामने शेर और बकरी का पास पास बैठना; अरहंतों के सकते। अभ्यास से ही चित्त स्थिर होता है। (५) ध्येयैकत्व जप- 1 प्रभाव से आसपास के क्षेत्र में किसी उपद्रव का, बीमारी का न आत्मा का ध्येय से एकत्व होना। ध्याता और ध्येय के मध्य की भेद होना जो शास्त्रों में वर्णित है, हो सकता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आज के विज्ञान ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि प्रभाव वाली रही तो व्यक्ति के शरीर से निकली तरंगों का वर्तुल भिन्न-भिन्न प्रकार की तरंगों से भिन्न-भिन्न प्रकार के कई कार्य किये काला, नीला, कबूतर के पंख के रंग जैसा बनेगा और उसका जा सकते हैं। छोटा-सा टी. वी. का रिमोट कन्ट्रोलर ही अपने में से बाहरी प्रभाव भी उसी अनुरूप होगा। यदि मौन जप की भाव धारा अलग-अलग अगोचर तरंगों को निकालकर टी. वी. के रंग, शुभ, शुभकर्म, शुभ विचार की अथवा अरुण लेश्या, पीत लेश्या आवाज, चैनल आदि-आदि बदल सकता है। ओसीलेटर यंत्र की अथवा शुक्ल लेश्या के प्रभाव की रही तो उसके शरीर से निकली अगोचर तरंगें समुद्र की चट्टान का पता दे सकती है, तरंगों से तरंगों का पर्तुल लाल, पीला, श्वेत बनेगा। शरीर में ऑपरेशन किये जा सकते हैं इसी प्रकार साधक द्वारा जप भाष्य से प्रारंभ किया जाकर उपांशु किया जाने के बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के जप द्वारा अपने में एकीकृत ऊर्जा से मानस जप किया जा सकता है। अभ्यास से उसे अजपा जप में भी भिन्न-भिन्न मंत्रों में वर्णित कार्य किये जा सकते हैं। आवश्यकता है परिवर्तित किया जा सकता है। इसके लिये श्रद्धा, संकल्प, दृढ़ता, उन्हें विधिवत् करने की।
एकाग्रता, तन्मयता, नियमितता, त्याग, परिश्रम विधिवत्ता आदिपूर्वाचार्यों ने अलग-अलग ध्वनियों से निकलने वाली तरंगों के
आदि की आवश्यकता है। अलग-अलग प्रभाव जाने और उसी के आधार पर अलग-अलग जपयोग ध्यान व समाधि के लिये सोपान है। आर्त ध्यान, रौद्र । मंत्र, क्रियाएं आदि बनाये जिनके प्रभावों के बारे में कई बार ध्यान से मुक्त कराकर धर्म ध्यान में प्रविष्ट करता है जो परिणाम देखने, सुनने और समाचार पत्रों में पढ़ने में आता है।
में शुक्ल ध्यान का हेतु बनता है। मौन जप की भाव धारा यदि हिंसा, कपट, प्रवंचना, प्रमाद, } पताआलस्य की अर्थात् कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या के / भानपुरा (म. प्र.) ४५८ ७७५
अपरिग्रह से द्वंद्व विसर्जन : समतावादी समाज रचना
-मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' (मालव केसरी, गुरुदेव श्री सौभाग्यमल जी म. सा. के शिष्य)
प्रवर्तमान इस वैज्ञानिक यन्त्र युग में विविध विकसित का प्रकाश नहीं अपितु हिंसा की ज्वाला ही भड़कती है। हिंसा के सुख-साधनों की जैसे-जैसे बढ़ोत्तरी होती जा रही है, वैसे-वैसे पीछे परिग्रह/तृष्णा का ही हाथ है और अहिंसा की पीठ पर मनुष्य का जीवन अशान्ति/असन्तुष्टि/संघर्ष/द्वंद्व से भरता चला जा, अपरिग्रह/संविभाग का। रहा है। अधिकाधिक सुविधा सम्पन्न साधनों की अविराम दौड़ में
अहिंसा और अपरिग्रह-विश्ववंद्य, अहिंसा के अवतार, श्रमण लगा मानव भन, क्षणभर को भी ठहर कर इसकी अन्तिम परिणति भगवान श्री महावीर स्वामी ने पंच व्रतात्मक जिन धर्म का क्या होगी, इसके लिए सोचना/चिंतन करना नहीं चाहता है। संप्राप्त प्रतिपादन किया है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इंधन से अग्नि के समान मानव मन तृप्त होने की बजाय और
सामान्य दृष्टि से ये सब भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं किन्तु विशेष । अधिक अतृप्त बनकर जीवन विकास के स्थान पर जीवन विनाश दृष्टि से-चिंतन की मनोभूमि पर ये विलग नहीं, एक-दूसरे से के द्वार को खोल रहा है। मानव समाज में जहाँ एक ओर साधन संलग्न हैं। एक-दूसरे के प्रपूरक हैं। इनमें से न कोई एक समर्थ है। सम्पन्न मानव वर्ग बढ़ रहा है, उससे भी अनेकगुण वर्धित दैनिक 1 और न कोई अन्य कमजोर। ये सबके सब समर्थ हैं, एक स्थान पर साधन से रहित मानव वर्ग बढ़ता जा रहा है। दो वर्ग में विभिन्न खड़े हैं। एक व्रत की उपेक्षा अन्य की उपेक्षा का कारण बन जाती मानव समाज द्वंद्व/संघर्ष का कारण बन रहा है। क्योंकि एक ओर है, एक के सम्पूर्ण परिपालन की अवस्था में सभी का आराधन हो विपुल साधनों के ढेर पर बैठा मानव समाज स्वर्गीय सुख की सांसें जाता है। अहिंसा के विकास बिन्दु से प्रारंभ हुई जीवन यात्रा से रहा है, तो दूसरी ओर साधन अभाव की अग्नि से पीड़ित } अपरिग्रह के शिखर पर पहुँचकर शोभायमान होती है, तो मानव समाज दुःख की आहें भर रहा है। ऐसी स्थिति में अपरिग्रह से उद्गमित जीवन यात्रा अहिंसा के विराट् सागर पर मानव-मानव के बीच हिंसक संघर्ष/द्वंद्व होने लगे तो क्या आश्चर्य पूर्ण होती है। शेष तीन व्रत-सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य यात्रा को है? कुछ भी तो नहीं। तृष्णा की इस जाज्वल्यमान अग्नि से अहिंसा । पूर्णतया गतिशील बनाये रखने में सामर्थ्य प्रदान करते हैं।
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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अहिंसा और अपरिग्रह को लेकर जैनागमों और जैनदर्शन के अपरिग्रही होना = वीतरागी होना। वीतरागी होना == अप्रमत्त/जागृत अनेकानेक ग्रन्थों में जैन तत्व मनीषियों/प्राज्ञों/चिन्तकों/मननको ने होना। अप्रमत्त -जागृत होना = अहिंसक होना। कहने का अर्थ यही विशद् चर्चा/ऊहापोह किया है। विभिन्न दृष्टिकोणों से इनको । है कि “जो ममत्व बुद्धि का परित्याग कर सकता है, वही ममत्व = देखा/परखा और निष्कर्ष के रूप में यह दृष्टिगत किया है कि- परिग्रह का त्याग कर सकता है-'जे ममाहयमहं जहाइ, से जहाइ 'अहिंसा अपरिग्रह की पीठ पर खड़ी है और अपरिग्रह अहिंसा के ममाहय।' (आचारांग-१-२-६)। बिना असंभव है। अर्थात् ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और
_ मूर्छा ही परिग्रह-वस्तुतः वस्तु या व्यक्ति परिग्रह नहीं है। दोनों पहलू की जीवन्तता अत्यावश्यक है।
परिग्रह है रागभाव। तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है सामान्यतया हम देखते हैं कि हमारे चारों ओर अहिंसा पर कि 'मूर्छा परिग्रहः।' जिसे आगम के इस सूत्र से समर्थित किया जा बहुत-सी चर्चाएँ/संगोष्ठियाँ/सेमिनार आयोजित होते रहते हैं। जिनमें । सकता है-'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।' (दश. ६/२१)। प्रथमरति के ग्रन्थ अहिंसा का सूक्ष्मतम चिंतन और स्वरूप उजागर किया जाता है। कर्ता ने भी यही बात कही है-'अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रह किन्तु अपरिग्रह को गौण या दरकिनार कर दिया जाता है। जबकि वर्णयन्ति। वस्तु सत्य यह है-'अहिंसा अपरिग्रह के बिना सफल हो नहीं
मूर्छा का अर्थ है विचारमूढ़ता। मूर्छा शब्द दिखने में बहुत सकती। हिंसा का जन्म ही परिग्रह की भूमि पर ही होता है।
छोटा शब्द है, किन्तु यह अपने भीतर समस्त संसार के द्वंद्व को जैनागमों में प्रसिद्ध आगम सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि में स्पष्ट
समेटे हुए हैं। मद्यपान के बाद व्यक्ति की बेभान चेतना के समान ही उद्घोष है-'आरम्भपूर्वको परिग्रहः' (१-२-२) तथा मरणसमाधि
विमूढ़ व्यक्ति की अवस्था होती है। विमूढ़ावस्था में व्यक्ति नामक ग्रंथ में कहा है-'अत्थोमूलं अणत्थाणं'-(६०३) 'अर्थ
कर्तव्याकर्त्तव्य के विचार से रहित हो जाता और विवेकविकल बन (परिग्रह) अनर्थ का मूल कारण है।'
जाता है। विवेकविकल व्यक्ति संसार के महाजाल में बँधता हुआ अहिंसक बनने की पहली शर्त है अपरिग्रही बनना। विश्व के बंधन से अनजान रहता है। क्योंकि वह परिग्रह को ही दुःख मुक्ति समस्त धर्मों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है। जिसने त्यागी जीवन का साधन मान लेता है। 'पर' को 'स्व' मानना ही तो मूर्छा है। पर पर अधिकाधिक बल देते हुए ‘त्यागीधर्म' का मार्गदर्शन किया है। में रमणना कर्मजाल का पाश है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में यही कहा निवृत्ति प्रधान धर्म ही जैनधर्म है। त्याग की भूमि पर ही जैनधर्म | गया है-'नथि एरिसो पासो पडिबन्धो अस्थि सव्व जीवाणं सव्व खड़ा है। निवृत्ति का अर्थ है 'लौटना'-'किससे लौटना?'-'अशुभ । लोए' (१-५) अर्थात् संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए और परभाव से लौटना!' वस्तुतः त्याग के बिना अशुभ से लौटा दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है।' नहीं जा सकता है। जैन साधक की क्रियाओं में प्रतिक्रमण' एक
परिग्रह दुःखदायी-परिग्रह दु:ख मुक्ति का उपाय नहीं है। अपितु महत्वपूर्ण क्रिया है। जिसमें आत्मा अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में
यह तो दुःख के अथाह सागर में धकेलने वाला है। परन्तु स्थित होती है। जैसे अशुभ/अशुचियुक्त पदार्थ व्यक्ति अपने पास न
ममत्व/मूर्छा टूटे बिना जागरण भाव नहीं होता। मूर्छा-प्रमत्तावस्था तो रखना चाहता है, न ऐसे स्थान पर रूकना चाहता है जहाँ
है। प्रमत्त व्यक्ति विषयासक्त होता है-'जे प्रमत्ते गुणहिए'-आचा. अशुचि-अशुभता हो। ठीक वैसे ही जैन धर्म का कथन है कि अशुभ ।
१-१-४।" और विषयों में लीन व्यक्ति जिनसे अर्थात् भोगों या विचारों के त्याग के बिना और निवृत्ति मार्ग ग्रहण किये बिना
वस्तुओं में सुख की अभिलाषा रखते हैं, वे वस्तुतः सुख के हेतु जीवन का निर्माण नहीं होता है। पदार्थ त्याग के साथ-साथ अशुभ
नहीं है-'जेण सिया तेण णो सिया'-आचा. १-२.४।" प्रमादी व्यक्ति विचारों का त्याग भी अत्यावश्यक है। क्योंकि विचारों में ही सबसे
संसार में कभी भी सुख का मार्ग नहीं पकड़ पाता है। वह तो सदा पहले शुभाशुभ/हिंसाहिंसा का जन्म होता है। विचारों की दूषितता ही
दुःख का मार्ग ही ग्रहण करता है और फिर सदा पग-पग पर हिंसा तथा परिग्रह को जन्म देती है।
भयभीत बना रहता है-'सव्वओ पमत्तस्स भयं-१-३-४।' प्रमत्त जीव अपरिग्रह और वीतराग-जैनधर्म और दर्शन के प्रणेता तीर्थंकर । जागरण के अभाव में परिग्रह को नहीं छोड़ता है। जैसे-जैसे वह भगवान को माना जाता है। जिनके लिए एक विशेष शब्द का प्रयोग । संग्रहवत्ति में आसक्त होता है वैसे-वैसे वह संसार में अपने प्रति वैर किया जाता है। वह शब्द है-'वीतराग'। वीतराग शब्द दो शब्दों के । को बढ़ाता जाता है-'परिग्गह निविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवट्ठई-सूत्र. योग से बना है = वीत + राग। अर्थात् बीत गया/चला गया है राग । १-९-३।' और स्वयंमेव दुःखी होता है। आचारांग सूत्र में श्रमण भाव जिसका, वह है वीतराग। राग का अर्थ है = ममता/आसक्ति । भगवान महावीर फरमाते है-'आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुम चेव अपनत्व/जहाँ-जहाँ जिस-जिस व्यक्ति या वस्तु में ममता है, आसक्ति । सल्लनमाहटु।'-(१-२-४) अर्थात् हे धीर पुरुष! आशा, तृष्णा और है, अपनापन है, वहाँ-वहाँ रागभाव है। और जहाँ-जहाँ रागभाव है, स्वच्छंदता का त्याग कर। तू स्वयं ही इन काँटों को मन में रखकर वहाँ-वहाँ हिंसा है। परिग्रह है। ममत्वहीन होना = अपरिग्रही होना। दुःखी हो रहा है। "नदी के वेग की तरह परिग्रह भी क्या-क्या
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क्लेश पैदा नहीं करता है? किं ने क्लेश करः परिग्रह नदी पूर प्रवृद्धिंगत:- (सिन्दूर प्रकरण ४१) सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में तो यहाँ तक कहा है आचार्य श्रीनांकाचार्य ने कि- "परिग्रह ( अज्ञानियों के लिए तो क्या ) बुद्धिमानों के लिए भी मगर की तरह क्लेश एवं विनाश का कारण है-प्राज्ञस्थाऽपि परिग्रहो ग्राह व क्लेशाय नाशाय च - १-१-१1"
अध्यात्म चर्चा में बुद्धिमान उसे नहीं कहा जाता है जो विद्वान है, अपितु उसे कहा जाता है जो अप्रमत्त अपरिग्रही हो । प्रमत्त व्यक्ति साधनों के अभाव को ही दुःख का कारण मानता है। इसलिए उसकी दृष्टि साधनों की प्राप्ति पर टिकी रहती है। परन्तु वह साधन को पाकर भी तृप्त नहीं होता है। होता भी है तो क्षणिक जैसे भूख लगी- भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण के समय तृप्ति का अनुभव तो अवश्य होता है, पर वह कितने समय तक टिकता है? प्यास लगी, पानी पीया, तृप्ति हुई, पर कितनी देर तक ? मकान का अभाव, बनाया खरीदा, अच्छा लगा, कितनी देर ? कार खरीदने की इच्छा हुई, खरीदी, उपभोग किया, फिर बाद में अतृप्ति और जागी । ऊब गये कार में बैठे-बैठे। वास्तव में दुनियाँ के समस्त साधन परिग्रह वास्तविक सुख के हेतु हैं ही नहीं ये सुखाभास देते हैं, उत्तेजना देते हैं जो सुखद लगती है। परन्तु उत्तेजना सुखद हो नहीं सकती। मकान-दुकान स्त्री- पुत्र-पद-पैसाप्रतिष्ठा आदि सभी परिग्रह के ही प्रकार हैं, जिनमें ममत्व / मूर्च्छा दुःखदायी ही है।
परिग्रह के भेद-परिग्रह के दो भेद किए गये हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दुपद, चौपद और कुविय धातु आदि चल-अचल सम्पत्ति को गिना है, और आभ्यन्तर परिग्रह में
'मिच्छत्तवेदरागा, तहेव हासादिक या य छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया, चउदस अब्भंतरा गंथा ॥"
'मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभा'
वह
दोनों प्रकार का परिग्रह चेतना में विमूढ़ता पैदा करता है। बाह्याभ्यंतर दोनों रूप से निवृत्ति त्याग किये बिना परिग्रह समाप्त नहीं होता है। परिग्रह का शाब्दिक अर्थ इसी बात का दर्शन कराता है कि चारों ओर से ग्रहण करना -पकड़ना। जो किसी भी वस्तु या व्यक्ति को समग्र रूप से आसक्त भाव से ग्रहण करता है, परिग्रही होता है और अपरिग्रही आभ्यंतर परिग्रह से मुक्त होता हुआ बाह्य परिग्रह से भी मुक्त हो जाता है। आभ्यंतर परिग्रह से मुक्त होना अति आवश्यक है, क्योंकि बाह्य परिग्रह का त्याग सहज-सरल है किन्तु भीतरी परिग्रह का त्याग मुश्किल है। दरिद्री / भिखारी / साधनहीन व्यक्ति बाह्य परिग्रह से अवश्य मुक्त दिखाई देते
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
हैं किन्तु भीतरी परिग्रह से मुक्त नहीं हैं। इसीलिए उन्हें कोई अपरिग्रही नहीं कहता पशु-पक्षी आदि जीव भी बाह्य परिग्रह से रहित हैं, फिर भी वे अपरिग्रही नहीं कहे जा सकते हैं। आभ्यंतर परिग्रह से निर्बन्ध हुए बिना बाह्य परिग्रह से मुक्त होना न होना बराबर है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है 'जे सिया सन्निहिकाये, गिही पव्वइए न से।' ६-१२ जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं किन्तु (साधु वेष में) गृहस्थ ही है।' साधक बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्यागी होता है। यदि वह बाह्य परिग्रह तो त्यागे किन्तु आभ्यंतर परिग्रह न त्यागे तो वह साधना पथ पर चलकर भी लक्ष्य को नहीं पा सकता है।
आभ्यन्तर परिग्रह: तृष्णा-आभ्यन्तर परिग्रह का सामान्य अर्थ है विषय कषाय के प्रति ममत्व बुद्धि। "मनुष्य का मन अनेक चित्त वाला है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति ही करना चाहता है, एक तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है-'अणेग चित्ता खल अयं पुरिसे से केयणं अरिहए पूरइत्तए' (आचा. १-३-२)। कषाय और विषय से प्रेरित मनुष्य आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त नहीं हो पाता है। क्योंकि ये इच्छाओं को प्रेरित करते रहते हैं। और सागर की लहरों के समान प्रतिपल / प्रतिसमय हजारों लाखों इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं-नष्ट होती रहती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में निर्देश है कि 'इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया ॥९-४७॥ इच्छाएँ आकाश के समान अनत्त हैं। जिनका कभी पार नहीं पाया जा सकता है। उत्पन्न होना और नष्ट होना इच्छाओं की नियति है। किन्तु मानव इन्हें पूर्ण करना चाहता है। पर वे कभी पूर्ण नहीं होती हैं। कहा गया है
'कसिणं पि जो इमं लोभं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से ण संतुस्से, इह दुप्पूरए इमे आया ॥ १६ ॥।'
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धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाय तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं हो सकता - इस प्रकार आत्मा की यह तृष्णा बड़ी दुष्पूर है।'- क्योंकि "ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है और लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। जहा लाहो, तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई' उत्त. ८/१७/" अग्नि और तृष्णा में एक ही बात का अन्तर है। अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता है
सक्का यही निवारेतुं वारिणा जलितो वहि। सव्योदही जलेणावि, मोहग्गी दुष्णिवारओ ॥
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-ऋषि भा. ३/१०॥
श्रमण प्रभु महावीर ने तृष्णा को भयंकर फल देने वाली विष की वेल कहा है- 'भवतण्हा लया वृत्ता, भीमा भीम फलोदया
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
उत्त. ८३/४४ ॥ फिर भी मनुष्य परिग्रह में सुख मानता है। किन्तु मनीषी विद्वान कहते हैं कि 'रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, स्त्री, सन्तान एवं हन्डियों के इष्ट शब्दादि विषयों की अभिलाषा में व्याकुल बने हुए संसारी जीव स्वस्थता का स्वाद कैसे ले सकते हैं?
प्रथममशन पान प्राप्ति वाच्छादिहस्ता स्तदनु वसनवेश्माऽलङ्कृति व्यग्रचित्ताः । परिणयनमपत्यावाप्ति मिष्टेन्द्रियार्थान्
सततमभिलषन्ताः स्वस्थतां क्वानुवीरन् !! -शान्त सुधारस कारुण्य भावना ।
बाह्याभ्यंतर परिग्रह संसार के समस्त दुःखों से बचाने में असमर्थ है। क्योंकि जो कार्य जिसका नहीं है, वह उस कार्य को कैसे कर सकता है? परिग्रह तो संसार में द्वंद्व कराने वाला है। वह द्वंद्व से मुक्त करने में असक्षम है। तृष्णा के वशीभूत बनी दुनिया 'जर जोरू और जमीन' के लिए अनेकों बार रक्त-रंजित हुई है।
परिग्रह के ऐतिहासिक उदाहरण-जैन इतिहास में मगधेश कौणिक और चेटक का विराद युद्ध प्रसिद्ध है। जिसमें लाखों की सैना का घमासान हुआ। इस भीषण नर संग्राम के पीछे एक ही कारण था- हार और हाथी को हस्तगत करना। मगध सम्राट श्रेणिक के राजपुत्रों में जब राज्य का बटवारा हुआ, तब एक बेशकीमती हार और हरितराज हाथी हल-विहल भाइयों को प्राप्त हुआ। कौणिक की पत्नी ने जब हार हाथी को देखा, तब वह दोनों पर मोहित हो गयी। उसने मगधेश कौणिक से कहा- 'हार हाथी के बिना यह राज्य सूना है।' बस कौणिक के मन में हार हाथी का परिग्रह जाग उठा और जिसका परिणाम लाखों की संख्या में नर-संहार के रूप में आया।
बौद्ध साहित्य में कलिंग युद्ध प्रसिद्ध है जो सम्राट अशोक ने लड़ा था। कलिंग युद्ध राज्य लिप्सा का ही एक उदाहरण है।
महाभारत भी राज्यलिप्सा को प्रस्तुत करता है। रामायण स्त्री परिग्रह का संकेत करती है।
सम्राट औरंगजेब द्वारा अपने पिता शाहजहाँ को कैदखाने में बंद करना और भाइयों का वध करना राज्य परिग्रह का ही तो प्रतिफल है।
सिकन्दर की विकविजय के पीछे धनलिप्सा और जगत सम्राट बनने की भावना ही तो थी।
मगधेश कौणिक ने भी राज्य लोभ से अपने जनक सम्राट श्रेणिक को काराग्रह में बंद कर दिया था।
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कंस ने भी अपने पिता उग्रसेन को इसी राज्यलिप्सा के कारण कारावास में बन्द किया था व स्वयं राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ
था ।
और भी ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास गगन पर प्राप्त हो सकते हैं। इसी परिग्रह के कारण भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, पति-पत्नी में द्वन्द्व होते देखे गए हैं। घर के टुकड़े भी इसी तृष्णा की बढ़ती हुई बाढ़ के कारण होते हैं हरे-भरे घर उजड़ते हुए देखे जा सकते हैं। इस परिग्रह ने क्या नहीं किया? "अर्थमनर्थम भावयनित्यम् ।" विनोबा ने कहा है यह अर्थ अनर्थ की खान है। समस्त पापों का मूल है। या यों कहें कि यही अर्थ या लोभ पाप का बाप है। लोभी व्यक्ति अन्धा ही होता है। उसे अपना भला-बुरा भी दिखाई नहीं देता तो वह देश, समाज व राष्ट्र का क्या उत्थान करेगा ?
अनासक्त-अनिच्छक
अपरिग्रही - परिग्रह की इतनी चर्चा के बाद अब अपरिग्रह पर भी एक दृष्टि निक्षेप करें। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने इतिहास प्रसिद्ध ग्रंथ 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में कहा है सर्वभावेषु मूर्च्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । अर्थात् सभी पदार्थों पर से आसक्ति हटा लेना ही अपरिग्रह है।' जहाँ ममत्व / आसक्ति परिग्रह का हेतु है, वहाँ निमर्मत्व / अनासक्ति अपरिग्रह का। ममत्वशील प्राणी संसार में भटकते हैं 'ममाइ लुंपइ वाले।' सूत्र. १-१-१-४। और आचारांग सूत्र में कहा गया है कि 'अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे और परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखे- 'बहुपि लद्धुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्सा ॥ १-१-५१ परिग्रह कर्म बन्ध/ इन्द्र/संघर्ष का कारण है और अपरिग्रह मुक्ति का ।
मनुष्य को जीवन जीने के लिए, जीवन निर्वाह की साधन सामग्री अवश्य चाहिए। इससे भी इन्कार किया ही नहीं जा सकता है। ऐसे में कुछ परिग्रह की उपस्थित अवश्य हो ही जाती है। अतः क्या करे ? इस प्रश्न का उत्तर देतें हुए विशेषावश्यक सूत्र के भाष्यकार कहते हैं कि गंथोऽगंयो व मओ मुच्छा, मुच्छाहि निच्छयओ। २५७३ 'निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी । यदि मूर्च्छा है तो परिग्रह है और यदि मूर्च्छा नहीं है तो अपरिग्रह ।' + सूत्रपाहुड में कहा है- 'अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल अत्थेण - २७ ग्राह्य वस्तु में से भी अल्प (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए जैसे समुद्र के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प जल ही ग्रहण किया जाता है। ऐसी वृत्ति वाला साधक/मनुष्य अपरिग्रही कहलाता है। आवश्यकतानुसार अपरिग्रह भाव से ग्राह्य वस्तु का ग्रहण अपरिग्रह की कोटि में ही आता है। जैसाकि कहा है-'अपरिग्गहसंकुडेण सोगंमि विहरियव्वं ॥ प्रश्न २/३ 'अपने को अपरिग्रह भावना से संवृत बनाकर लोक में विचरण करना चाहिए।'
अपरिग्रह अर्थात् अनिच्छाभाव का जागरण / अनिच्छा से इच्छा को जीता जा सकता है। और सुख पाया जा सकता है- 'तम्हा
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । इच्छामणिच्छाए जिणित्ता सुहमेधति ऋषिभा. ४०/91 इच्छा व द्वन्द्व/संघर्ष की परिस्थितियां बनी हैं। और इस संघर्ष/द्वन्द्व को आकांक्षाओं से रहित व्यक्ति फिर चाहे वह 'भूमि पर सोये, भिक्षा / वाधित करने में अगर कोई समर्थ है, तो वह है 'अपरिग्रह। का भोजन करे, पुराने/जीर्ण कपड़े पहने और वन में रहे वह
अपरिग्रह = अनासक्त भाव से जीवन जीने वाला न स्वयं निस्पृही चक्रवर्ती से अधिक सुख भोगता है
दुःखी होता है और न किसी को दुःख देता है। अपरिग्रही तो 'मित्ती भूशय्या भक्ष्यमशनं, जीर्णवासो वनं गृहम् ।
मे सव्व भूएसु' इस आगमिक सूत्र को ही अपने जीवन का आदर्श तथापि निःस्पृहस्याहो! चक्रिणोष्यधिकंसुखम् ॥ज्ञानसार। मानता है। अपरिग्रह मेरे-तेरे के द्वन्द्व से ऊपर उठकर तेरा-मेरा, अपरिग्रह = जागरण-मूर्छा परिग्रह है। जागरण अपरिग्रह है।
मेरा-तेरा, न मेरा, न तेरा और न मेरा और न मेरा इस स्वर्णाक्षर जागरण कहते हैं अप्रमत्त अवस्था को। अप्रमत्त व्यक्ति दुःख
सूत्र से प्रवर्तित होता है। जब इतनी विशाल-विराट् भावना हृदय की निवारण का उपाय बाह्य जगत में नहीं देखकर अपने आपमें/भीतर
भावभूमि पर अंकुरित होने लगती है तब मानव, मानव का भेद देखता है। जो अपने भीतर में खोजता है उसे मार्ग अवश्य मिलता
नहीं होता और चारों ओर समरसता का प्रवाह बहने लगता है। है मुक्ति का। जो भी जीवनगत दुःख है, वह कहीं बाहर से, किसी
अपरिग्रही ही अकिंचन जीवन जीता हुआ एक ऐसे अविरल संदेश अन्य से हमारे पास नहीं आया, अपितु वह अपने अन्दर से ही
को प्रचारित करता है कि जो पूर्ण मानव समाज की संरचना में प्रकट हुआ है। और अन्दर से ही दुःख-मुक्ति का उपाय हस्तगत
सहायक बनता है। जैन धर्म के २४ ही तीर्थंकरों का जीवन होगा। जीवनगत साधनों के अभाव की पूर्ति करना दु:ख के बाह्य
अपरिग्रहता की एक बेजोड़ और आदर्श मिशाल है। जिन्होंने स्वयं मुक्ति का हेतु है तो अभाव क्यों है? हम कारण को ही नष्ट करना
अपरिग्रही जीवन जीकर मानव समाज को जागृत किया है कि आन्तरिक मुक्ति है। परिग्रहावस्था में/प्रमत्तावस्था में अभाव की पूर्ति
प्राणी-प्राणी में कोई अन्तर नहीं है। सब सुख और शांति के चाहक की जाती है, जबकि अपरिग्रहावस्था/अप्रमत्तावस्था में मूल कारण
हैं। सबका अपना अधिकार है कि वे सुखी जीवन जीएँ। जैन को ही निर्मूल किया जाता है। प्रमत्त व्यक्ति साधन की उपलब्धि में
तीर्थंकरों के इस जीवन्त जीवन संदेश से ही इस तथ्य की पुष्टि ही दुःख के निवारण का हेतु मानकर साधनों की प्राप्ति में तत्पर
होती है-अपरिग्रह ही प्रेम का निर्माण करता है और द्वन्द्व का
विसर्जन। जीवन जीने की आवश्यक वस्तु परिग्रह नहीं है अपितु बनता है, किन्तु वह सोच नहीं पाता है कि साधन की उपलब्धि दु-खवृद्धि का कारण भी हो सकती है। जैसे-जैसे यह भ्रमणा टूटती
अनावश्यक/अन्य के हक की वस्तुओं का वृथा संग्रह ही परिग्रह है।
वृथा और अनावश्यक परिग्रह का विसर्जन ही अपरिग्रह का है कि बाह्य परिग्रह सुख का कारण है, वैसे-वैसे अप्रमत्त स्थिति
आधार बनता हुआ मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और बनती जाती है। भ्रमणा का टूटना ही अपरिग्रह है-जागरण है।
अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व का विनाशक बनता है। जब साधनों का संविभाग अपरिग्रह से द्वन्द्व विसर्जन-परिग्रह-अपरिग्रह/मूर्छा-जागरण की होगा तब द्वन्द्व संघर्ष की उत्पत्ति कैसे होगी? संविभाग करना इतनी लम्बी चर्चा के बाद अब हमें यह चिन्तन करना है कि सुख-साधनों का बाह्य परिग्रह का, सुख का राजमार्ग है। अपरिग्रह-जागरण भाव क्या कार्य करता है? इसका क्या निष्कर्ष । उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने यही स्पष्ट घोष है ? अपरिग्रह की स्थिति जब मानव जीवन में प्रकट होती है तब उसका चिंतन सद्गामी होता है और सच्चिंतन के प्रकाश में व्यक्ति
'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।' यह अनुभव/महसूस करने लग जाता है कि वस्तुतः परिग्रह ही मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष/
अर्थात् स्वयं के साधनों और अधिकारों का संविभाग करे। द्वन्द्व का जनक है। क्योंकि परिग्रह ममत्व और आसक्तभाव को पैदा
इसके बिना मुक्ति नहीं। करने वाले हैं। जब-जब भी व्यक्ति के मन में ममत्व-आसक्त भाव अपरिग्रह और सर्वोदय-चरम तीर्थंकर वर्धमान महावीर प्रभु उठता है, तब-तब निश्चित संघर्ष-द्वन्दू भी पैदा होता ही है। चाहे द्वारा प्रवर्तित 'अपरिग्रह' का स्वरूप ही सर्वोदय सिद्धान्त का फिर बाह्य परिग्रह की स्थिति हो या आभ्यन्तर परिग्रह की। हमें आधारभूत रहा है। भारतवर्ष के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सर्वोदय प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि ममत्व-आसक्तशील स्वयं दुःख की सिद्धान्त की स्थापना की। सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ है 'सबका अनुभूति करता हुआ अन्य परिवारादि को भी दुःख में ढकेलने का । उदय !' कोई भी पिछड़ा न रहे, सबको अपना अधिकार मिलना प्रयास करता है। बाह्य परिग्रह की आसक्ति ही मानव-मानव में, चाहिए। महात्मा गाँधी के इस सर्वोदय शब्द का बीज भी जैन दर्शन परिवार में, समाज और राष्ट्र में विग्रह पैदा करती है। हर व्यक्ति, के 'संविभाग' शब्द में या अपरिग्रह शब्द में मिलता है। यदि इसी समाज और राष्ट चाहता है कि बस में ही प्रमख रहँ. मेरी ही सत्ता शब्द को ढूँढेंगे तो वह जैनाचार्य समन्तभद्र के द्वारा प्रयुक्त किया हो, मेरा ही वर्चस्व हो, स्वामित्व हो और शेष सर्व हमसे नीचे गया है सर्वप्रथमस्थित रहें। प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की इस भावना से ही
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महात्मा गाँधी द्वारा प्रवर्तमान इस सर्वोदय सिद्धान्त को विनोबा भावे ने आगे बढ़ाया और भूदान, सम्पत्तिवान, ग्रामदान, समयदान, जीवनदानादि द्वारा सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया गया। अपरिग्रह भी विषमता को मिटाकर समता की स्थापना करता है।
अपरिग्रह और समाजवाद-पदार्थ उपभोग के लिए है, संग्रह के लिए नहीं। उपभोग के लिए कोई मनाही नहीं है। किन्तु जब पदार्थों का संग्रह व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक किया जाता है तब समाज में विषमता की स्थिति बनती है। और जब विषमता की स्थिति सीमातिक्रान्त हो जाती है तब संघर्ष और हिंसा का प्रादुर्भाव होता है। ऐसे में मानव समाज दो विभागों में बंट जाता है-अमीर और गरीब शोषक और शोषित।
अमीर-गरीब / शोषक-शोषित का संघर्ष युग-युगान्तर से चला आ रहा है और इसको मिटाने के लिए 'समाजवाद' की स्थापना भी की गयी। समाजवाद सिद्धान्त रूस से गतिशील हुआ। जिसमें समान हक की बात कही गयी और शोषित अपने हक की प्राप्ति के लिए संघर्ष के रास्ते हिंसा के मैदान में आ डटे। इसकी परिणति यह हुई कि समाजवाद एक हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। समाजवाद की परिकल्पना का मूल भी 'अपरिग्रहवाद' ही रहा है। किन्तु जिस मार्ग का अवलम्बन समाजवाद ने लिया उस मार्ग का
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प्रास्ताविक मानव जाति का संस्कृत (परिष्कृत) भावात्मक एवं रूपात्मक कृतिपुंज संस्कृति है। संस्कृति चिर विकासशील एवं अविभाज्य है। संस्कृति को सम्पूर्ण मानव जाति की समन्वयात्मकता एवं अखण्डता के फलक पर रखकर ही पूर्णतया समझा जा सकता है । सम्पूर्ण मानव जाति एक अविभाज्य इकाई है; उसे धर्म, भूमि और जाति आदि की संकीर्ण सीमा में रखकर आंशिक एवं भ्रामक रूप से ही समझा जा सकता है। अल्वर्ट आइन्स्टाइन का कथन है। कि, 'संस्कृति का पौधा अत्यन्त सुकुमार होता है। अनेक प्रयत्नों और सावधानियों के बाद ही वह किसी समाज में फूलता फलता है। उसके लिए व्यक्ति का अभिमान, राष्ट्र का अभिमान और जाति का अभिमान सबको तिलांजलि देनी पड़ती है। संस्कृति के अन्तर्गत मानव जाति का समग्र जीवन गर्भित है, परन्तु प्रमुख रूप से उसकी भावनात्मक एकता, नैतिक एवं कलात्मक जिजीविषा को स्थान
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'अपरिग्रहवाद' निषेध करता है। अपरिग्रहवाद अहिंसक राह से समाजवाद की मंजिल पाने का निर्देश करता है।
समतावादी समाज रचना पूँजीपति और शोषितों का जो संघर्ष है, वह है पदार्थों के परिग्रह को लेकर एक ओर जीवन के आवश्यक साधनों का ढेर लगता चला गया और दूसरी ओर अभावों की खाई निर्मित होती गयी। ऐसी स्थिति में जो संघर्ष की स्थिति बनती है, उससे शांति नहीं अपितु अशांति का ही निर्माण होता है। इंड/ संघर्ष की इस स्थिति में भी मनुष्य को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। विवेक दीपक से विषमता का अंधकार नष्ट करके समता का प्रकाश फैलाना चाहिए। विवेक विकलता में विषमता नष्ट नहीं होती है अपितु और अधिक बढ़ती ही है। किन्तु जब समता का आंचल थाम लिया जाता है तब शांति की वर्षा होने लगती है। समता / समभाव अपरिग्रहवाद की पहली शर्त है क्योंकि समभाव के बिना 'अपरिग्रहबाद फल नहीं सकता। अनासक्त स्थिति समभाव से ही संभव है। अपरिग्रह समतावाद की स्थापना करता है। समतावादी समाज की संरचना से ही अपरिग्रहवाद फलता-फूलता है और मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय इन्द्र संघर्ष का विसर्जन होकर आनंद की बहार का सर्जन होता है।
मानव संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति (जैन धारा) की भूमिका
- डॉ. रवीन्द्र जैन डी. लिट्
दिया जाता है अतः स्पष्ट है कि संस्कृति मानव को ऊँचा उठाने वाली कृतियों का समन्वय है । "
संस्कृति की परिभाषा प्रायः अंग्रेजी भाषा के कल्चर शब्द के पर्याय के रूप में संस्कृति शब्द समझा जाता है। जिस प्रकार एग्रीकल्चर अपनी भावात्मक एकता को प्राप्त कर कल्चर बन गया; अथवा कल्चर अपनी स्थूलता में एग्रीकल्चर बन गया हमारी भौतिक जिजीविषा भी अन्ततः परिष्कृत होकर कल्चर बनी।
संस्कृति शब्द में भी कृषि या कृष्टि निहित है। बंगाल में कृष्टि शब्द का प्रयोग आज भी कृषि के लिए होता है। आशय यह है कि पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में जो आत्यन्तिक स्थिति है वह एक ही है; वे मूलतः एक हैं। कालिक प्रभाव से पश्चिम ने यथार्थ, उपयोगिता एवं इहलौकिकता को अधिक महत्त्व दिया तो पौर्वात्य
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धारा ने अध्यात्म, आदर्श एवं नैतिक जीवनदृष्टि को। आज दोनों तयैव तुलया विभिन्नसभ्यतानामुत्कर्षापकर्षी मीयेते। किंबहुना, एक दूसरे के बलाबल को समझ रहे हैं।
संस्कृतिरेव वस्तुतः सेतुर्विधतिरेषां लोकानामसंभेदाय।"४ संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का है। सम् उपसर्ग पूर्वक क करणे म अर्थात् किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन-व्यापारों में या धातु से सुद् का आगम करके तिन् प्रत्यय मिलाने पर संस्कृति शब्द सामाजिक सम्बन्धों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करने बनता है। संस्कृति का सीधा और सहज अर्थ है-सम्यक् रीति से वाले आदर्शों की समष्टि को ही संस्कृति समझना चाहिए। समस्त किये गये कार्य-अर्थात् परिष्कृत कार्य।
सामाजिक जीवन की समाप्ति संस्कृति में ही होती है। विभिन्न आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार? "The training and
सभ्यताओं का उत्कर्ष तथा अपकर्ष संस्कृति द्वारा ही मूल्यांकित refinement of mind, tastes and manners; the
किया जाता है। उसके द्वारा ही लोगों को संगठित किया जाता है। condition of being thus trained and refined; the मानव-संस्कृति का सातत्य-जातिगत, धर्मगत एवं भूमिगत intellectual side of civilisation, the acquainting संकीर्ण प्रतिबद्धता को त्यागकर ही विश्वव्यापी मानव-संस्कृति की ourselves with the best that has been known and अखंड धारा को समझा जा सकता है। संस्कृति किसी भी देश या said in the world.” अर्थात् मस्तिष्क, रुचि और जाति की प्रबुद्ध आन्तरिक चेतना की वह स्वस्थ एवं मौलिक आचार-व्यवहार की शिक्षा और शुद्धि, इस प्रकार शिक्षित और } विशेषता है जिसके आधार पर विश्व के अन्य देशों में उसका शुद्ध होने की प्रक्रिया, सभ्यता का बौद्धिक पक्ष, विश्व की महत्त्वांकन होता है। आज किसी भी देश की संस्कृति ऐसी नहीं है सर्वोत्कृष्ट कथित और ज्ञात वस्तुओं से स्वयं को परिचित कराना जो अन्य देशों की संस्कृतियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित संस्कृति है।
एवं पुष्ट न हो। सजीव संस्कृति सदा उदार एवं ग्रहणशील होती है। Sasa आप्टे की संस्कृत डिक्शनरी के अनुसार संस्कृति की व्याख्या
संस्कृति सदा एक विकासशील संस्था के रूप में रहकर ही किसी इस प्रकार है२-To adorn, grace, decorate, (2) to
देश या जाति के गर्व का कारण बन सकती है। कुछ मौलिक refine, polish, (3) to purify, (4) to consecrate by
विशेषताओं के साथ प्रत्येक संस्कृति के कुछ अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व भी repeating mantras, (5) to cultivate, educate, होते हैं। जो संस्कृति कम ग्रहणशील होती है, या अतीतोन्मुखी होती train, (6) make ready, proper, equip, fitout, (7) to
है, धीरे-धीरे वह अपना चैतन्य महत्त्व खोकर मात्र ऐतिहासिक cook food, (8) to purify-cleanse, (9) to collect, heapसंस्था बनकर रह जाती है। किन्तु इतिहास में भी सातत्य और together. अर्थात-सजाना, संवारना. पवित्र करना होना, परिवर्तनशीलता का प्रवाह या क्रम चलता ही रहता है। संस्कृति में वसुशिक्षित करना आदि।
भी यही क्रम नितान्त वांछनीय है। संस्कृति में वर्तमान का योग और । डॉ. सम्पूर्णानन्द की संस्कृति सम्बन्धी मान्यता भी अत्यन्त
भविष्यत् की सम्भावनाएं सदा अपेक्षित रहती हैं। वह पुरातन और महत्त्वपूर्ण है। वे एक प्रशस्त क्रान्तचेता के रूप में हमारे सम्मुख
नवीन का सुन्दर समन्वय है, मात्र प्राचीन उपलब्धियों भी आते हैं। उनके अनुसार३, "वस्तुतः संस्कृति पद्धति, रिवाज या
व्याख्यायिका नहीं है। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संस्था नहीं है। नाचना-गाना, "हिन्दूसच, जैनसच, बौद्धसच, ईसाईसच या मुस्लिमसच जैसे साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, गृहनिर्माण इन सबका अन्तर्भाव बोल पढ़े लिखे लोगों को ही नहीं, अनपढ़ को भी बेमतलब जचेंगे। सभ्यता में होता है। संस्कृति अन्तःकरण है, सभ्यता शरीर है। काश ऐसा ही हिन्दू संस्कृति, जैन-संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति इत्यादि संस्कृति सभ्यता द्वारा स्वयं को व्यक्त करती है। संस्कति वह साँचा बोलों के साथ भी होता। हमारे कान इन बोलों को भी बे-मतलब है जिसमें समाज के विचार ढलते हैं। वह बिन्दु है जहाँ से जीवन समझते होते, तो आज मनुष्यों की आत्माएँ कहीं ज्यादा मंजी हुई की समस्याएँ देखी जाती हैं।"
मिलती, दुनियां के आदमी कहीं ज्यादा सुखी पाये जाते। संस्कृति को चर्चित सभी परिभाषाओं का मथितार्थ यह है कि हमारी
मानव संस्कृति के ही नाम से पुकारना ठीक ऊंचता है।"५ जीवन-साधना का साररस ही संस्कृति है अर्थात् हमारी दृढ़ीभूत आज के विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिकों और विचारकों का यह 300000 चेतना-प्रेरक-जीवन की आन्तरिक पद्धति ही संस्कृति है। सुस्पष्ट मत है कि संसार की सभी जातियाँ मूलतः एक ही परिवार
छान्दोग्योपनिषद् में संस्कृति के व्यापक स्वरूप की व्याख्या स्थायी की शाखाएँ हैं। जलवायु की भिन्नता के कारण भाषा, रहन-सहन त महत्त्व की है। विश्व की सभ्यताओं का उन्नयन एवं पतन संस्कृति । एवं रूप-रंग में कुछ अन्तर अवश्य है। यह बाहरी अन्तर है और 2006 की तुला पर रखकर ही समझा जा सकता है। “कस्यापि देशस्य । इसके होते हुए भी भाव, विचार, विश्वास, अनुभूति, आदर्श एवं
समाजस्य वा विभिन्न जीव व्यापारेषु सामाजिक सम्बन्धेषु वा आकांक्षाओं में समस्त मानव जाति में विलक्षण समानता है। यही मानवीयत्त्व दृष्टया प्रेरणाप्रदानां तत्तदादर्शानी समष्टिरेव संस्कृतिः। भीतरी समानता निर्णायक होती है। विश्व के कतिपय प्रमुख देशों वस्तुतस्तस्यामेव सर्वस्यापि सामाजिक जीवनस्योतकर्षः पर्यवसति। की सांस्कृतिक विशेषताएँ धीरे-धीरे सभी देशों में आत्मसात् कर ली
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गयी हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं के केन्द्र भारत (सिन्धु), ईरान, सुमेर, बेबीलान, असीरिया, सीरिया और मिश्र रहे २३ इनकी संस्कृतियों में अद्भुत समानता है और परस्पर आदान-प्रदान भी प्रचुर मात्रा में हुआ है। भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के सहज मेल से बनी है। उसमें बाह्य अनेकता (रूप, रंग, भाषा, रहन-सहन) में आन्तरिक (भावात्मक) एकता निहित है। संस्कृति में आन्तरिक गुणों पर ध्यान दिया जाता है, वे ही विश्वसनीय होते हैं। एक व्यक्ति सुसभ्य होकर भी असंस्कृत हो सकता है, जबकि दूसरा व्यक्ति असभ्य होकर भी सुसंकृत हो सकता है। सभ्यता बाह्य और बौद्धिक होती है, जबकि संस्कृति आन्तरिक एवं भावात्मक होती है। वस्तुतः सभ्यता का विकास संस्कृति-सापेक्ष होना चाहिए, परन्तु बहुधा ऐसा नहीं हो पाता है। मानव बाह्य उपलब्धियों और आकर्षणों में उलझकर रह जाता है। सभ्यताएँ नष्ट हो जातीं हैं, पर संस्कृति चिर प्रवहमान रहती है। सभ्यता संस्कृति से संलग्न रहने पर कभी नष्ट नहीं होती।
संस्कृति और सभ्यता - असली संस्कृति मानव की परिष्कृत भीतरी सद्भावना और नैतिक परिष्कार है और असली सभ्यता उसका बाहरी विस्तार है। संस्कृति की पूर्णता उसके सभ्यतापरक विकास में है। संस्कृति आत्मा है और सभ्यता उसका शरीर जब आत्मा के मूलगुणों के अनुसार शरीर का ( सभ्यता का विकास होता है तो मानव (व्यक्ति) और मानव जाति का जीवन सात्त्विक और सुखमय होता है। जब आत्मा के विपरीत सभ्यता अपना मनमाना (हिंसा, अपहरण, स्वार्थ आदि पर आधारित) विस्तार करती है, तब वह अशान्ति और दुःख का कारण बनती है। विश्वभर के युद्धों के मूल में यही सभ्यताओं की अहम्मन्यता की टकराहट है। वस्तुतः संस्कृति से सभ्यता का जन्म होता है और सभ्यता से संस्कृति का विस्तार होता है। स्पष्ट है कि ये दोनों अविभाज्य हैं और एक दूसरे की प्रेरक एवं पोषक हैं। आज का सांस्कृतिक संकट यह है कि विश्वभर में सभ्यतापरक (बाह्य-भौतिक) विकास बहुत तेजी से और बहुत अधिक हो रहा है। यह विकास ईर्ष्यामूलक स्पर्धा और शत्रुता से भरा हुआ है। प्रायः सभी देशों ने नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। एक दूसरे पर अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने के लिए जघन्यतम हिंसक साधनों को अपनाया जा रहा है। भीतरी नैतिक गुणों से नाता टूट जाने पर सभ्यता ऐसी ही घातक हो जाती है वह अपनी मां की (संस्कृति की) हत्या भी कर देती है।
चीन ने हमें चीनी (शक्कर), चीनी मिट्टी के बर्तन, पतंग, कागज, कंदील, छज्जेदार शेप, संतरा, कमरख लीची और आतिशबाजी देकर सम्पन्न बनाया। चीन के दार्शनिक भी हमारे महावीर और बुद्ध के समान प्रसिद्ध थे। दार्शनिक दृष्टि, मूर्तिकला, वास्तुकला और आध्यात्मिक साधना भारत ने सम्पूर्ण एशिया और यूरोप को दी। ज्योतिष, आयुर्वेद, अंक (१, २, ३, ४ आदि), दशमलव सिद्धान्त भी भारत ने सारे विश्व को दिया। पूरे आठ सी
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वर्षों तक लगभग आधे यूरोप पर अरबों का शासन रहा। अरबों का यूनानी वैद्यक का सिलसिला बेहद विकसित हुआ। भारत में मुगलों ने इसे बहुत अपनाया। यूरोप में इसका प्रभाव बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक रहा। ईरान ने भारत को गुलाब जैसा फूल और अंगूर जैसा फल दिया। ईरान ने ही अतिथि सत्कार और दानशीलता के कीर्तिमान भी स्थापित किये मुस्लिम एकेश्वरवाद और भारतीय वेदान्त के मेल से सूफी धर्म तैयार हुआ काबा और काशी की एकता के गीत इसी भावभूमि का परिणाम हैं। सूमेरी धार्मिक कथाएँ, अक्षर लेखन कला और लटकते हुए बाग (हंगिग गार्डन) सुमेरी सभ्यता और संस्कृति की ही विश्व को देन है। सुमेरी सभ्यता से यहूदी सभ्यता ने और यहूदी सभ्यता से पूरे यूरोप ने बहुत कुछ सीखा है। समस्त यूरोप पर रोम का बोलवाला रहा है, पर रोम ने बहुत कुछ यहूदियों से लिया है। मिश्र की भी अद्भुत देन है। वहाँ की भवन-निर्माण-कला, पिरामिड और मीनारें आज भी अद्वितीय हैं। स्वेज नहर इसी देश ने ईसा से तेरह सौ वर्ष पहले बनवाई थी। इस नहर की सहायता से ही बड़े-बड़े जहाज लाल सागर और भूमध्य सागर तक जाते थे। अफ्रीका, एशिया और यूरोप को जोड़ने वाली यही नहर थी। यूनान ने कला दर्शन एवं साहित्य के क्षेत्र में विश्व को अनुपम ज्ञान दिया। अरस्तू को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पिता कहा जाता है। मिश्र के सम्राट इखनातन की सादगी और त्याग का आदर्श संसार में आज भी अनुपम है। इखनातन ने ही देशों में मैत्री और सद्भाव का प्रचार किया। अनाक्रमण की नीति भी उसी ने अपनायी। अरब के खलीफा उमर की सादगी का आदर्श आज भी बेजोड़ है। जब पहली बार कांग्रेस का मंत्री मंडल बना था. तो गाँधी जी ने देश के नेताओं के समक्ष खलीफा उमर का आदर्श रखा था। खलीफा उमर का साम्राज्य रोम और यूनान के साम्राज्य से बड़ा था, फिर भी खलीफा मोटी खद्दर का कुर्ता पहनता था। प्रतिदिन अपने कंधे पर मशक भरकर गरीब विधवाओं को पानी देता था ।
आज वैज्ञानिक आविष्कारों (बिजली, तार, टी. वी., एक्सरे, अणुशक्ति आदि) ने हमारा जीवन ही बदल दिया है। क्या हम इसके लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी एवं जापान आदि देशों के आभारी नहीं हैं? क्या हम इस परिवर्तन से अछूते रह सके हैं। क्या विज्ञान ने हमारी जीवन-दृष्टि को प्रभावित नहीं किया है?
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विश्व के इन कतिपय उदाहरणों से मानव रुचि स्वभाव एवं जिजीविषा की मूलभूत एकता ही प्रकट होती है। मानव का भावात्मक ऐक्य सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक है। प्रत्येक देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना को इस सन्दर्भ में तो अवश्य ही समझा जाना चाहिए कि उसने मानव चेतना के ऊर्ध्वींकरण में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह दृष्टि समभाव पर आधारित हो न कि भेदभाव पर आत्म प्रशंसा और बलात् छिद्रान्वेषण से दूर रहकर ही ऐसा किया जा सकता है। इसी निष्कर्ष पर हम श्रमण संस्कृति की जैन धारा का मूल्यांकन कर सकते हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ श्रमण-संस्कृति-स्वरूप एवं तत्त्व
साथ उसने काफी समझौता भी किया। श्रमण-साधु, मुनि और सन्तों
की परम्परा पर श्रमण-संस्कृति आधारित है। तमिलनाडु में जैन यद्यपि इतिहास अपने तथ्यमूलक आधार पर जैनधर्म के २३वें
मात्र को समनार कहा जाता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि तीर्थकर पार्श्वनाथ तक ही अपनी पहुँच रखता है। परन्तु
श्रावकों की भी श्रमण-संस्कृति में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। श्रमण-परम्परा आज से लाखों वर्ष पूर्व आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से ही प्रारम्भ होती है। यह आस्थामूलक मान्यता है। जैन पुराणों में
श्रमण शब्द में तीन शब्द गर्भित हैं-श्रम, सम, शम। अर्थात् एतादृश वर्णन है। हम ऐतिहासिक चक्र में न पड़कर सम्प्रति इतना
निष्ठापूर्ण साधना, प्राणीमात्र के प्रति समत्व की भावना और परम ही मानलें कि श्रमण-संस्कृति व्यवस्थित रूप से पार्श्वनाथ के समय
शमात्मक मनोभावमय जीवन ही श्रमण-आदर्श रहा है। आधुनिक में थी। भारतवर्ष सामान्यतः अनेक संस्कृतियों का संगम-स्थल है, युग के प्रख्यात विचारक एवं नेता क्रोपाटकिन, मार्क्स एवं महात्मा किन्तु भारतीय-मूल की संस्कृतियों के रूप में केवल वैदिक एवं गांधी ने अपने-अपने ढंग से मानव जाति का विकास माना है। श्रमण (वैदिकेतर) संस्कृति को ही स्वीकार किया गया है। श्रमण महात्मा जी की प्रक्रिया श्रमण धारा को आत्मसात् करके चली है। धारा के अन्तर्गत जैनों एवं बौद्धों का साहित्य लिया जाता है तथा "सन् १९४६ में आगा खाँ ने पूना में हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर वैदिक धारा में इतर सब साहित्य लिया जाता है। यह स्थापना या बातचीत करने के बाद महात्मा जी से पूछा-"मार्क्स के दर्शन के मान्यता सर्वधा निर्दोष नहीं है। श्रमणों के जैन, बौद्ध, आजीवक, विषय में आपकी क्या सम्मति है?" महात्मा जी ने तुरन्त ही उत्तर गैरिक आदि अनेक सम्प्रदाय थे। सांख्य दर्शन भी वैदिक धारा का दिया-मेरा आदर्श वही है जो मार्क्स का था, यानी शासन का सूखी विरोधी था। वैदिक धारा को आर्यों की धारा कहा जाता है और पत्तियों की तरह झड़ जाना, लेकिन मैं यह यकीन नहीं करता कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में द्रविड़ सभ्यता थी. श्रमण धारा मार्क्स के तरीके से हम कभी भी अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगेथी। अतः श्रमण धारा की प्राचीनता को सहज ही समझा जा सकता । यानी तमाम सरकारों का खात्मा हो जाएगा बल्कि उसके विपरीत है। यहाँ मेरा उद्देश्य देन पर विचार करना है, न प्राचीनता पर। मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा तथा अपनी अन्तरात्मा की ध्वनि भारत में और सम्पूर्ण एशिया में अध्यात्म प्रधान श्रमणधारा
के अनुसार काम करने से ही हम अपने लक्ष्य पर पहुँचेंगे। उसी से पूर्वतः चली आ रही थी; वैदिक धारा भी अपने व्यापक स्तर पर
शासन झड़ जाएंगे। किसी समाज की सभ्यता की यह कसौटी नहीं चली; परन्तु धीरे धीरे वह ऋषिमूलक अर्थात् यज्ञ एवं कर्मकाण्ड
है कि उसने प्राकृतिक शक्तियों पर कितनी विजय प्राप्त कर ली है। मूलक होकर रह गयी। उसमें पशुहिंसा बलवती हो गयी। उसकी
और न साहित्य तथा कला में पारंगत होना ही उसकी कसौटी है; शाखाओं में अन्तर्विरोध उत्पन्न हुआ। उपनिषदों में विशुद्ध अध्यात्म |
बल्कि उस समाज के सदस्यों में पारस्परिक बर्ताव में तथा प्राणीमात्र एवं ज्ञान की चर्चा है। उनमें ज्ञान की सर्वोपरिता, स्वीकार की गयी
के प्रति कितनी करुणा, उदारता या मैत्री है। बस यही उदारता की है। उपनिषदों का यह दृष्टिकोण अपना निजी हो सकता है, परन्तु ।
सबसे बड़ी कसौटी है।" इसके भी प्रमाण हैं कि उस समय प्रचलित श्रमण धारा ने भी इसे स्पष्टबोध एवं वर्गीकरण की दृष्टि से श्रमण-संस्कृति के मूल प्रभावित किया है। प्रभाव ग्रहण करना और दूसरों से वरेण्य को । संघटक तत्त्व ये हैंलेना यह सहज प्रवृत्ति है। स्पष्ट है कि श्रमण धारा मुनियों और
१. आध्यात्मिकता, २. अहिंसा, ३. अनेकान्त, ४. अपरिग्रह, सन्तों की धारा के रूप में विकसित हुई, तो अन्य धाराएँ ऋषियों
५. शील, ६. समता, ७. सैद्धान्तिक दृढ़ता- निजविवेक, ८. की धाराओं के रूप में। यह ऋषि-मुनि का एक कालिक एवं
आस्तिकता, ९. कर्मसिद्धान्त एवं वस्तु स्वातन्त्र्य, १०. लोकजीवन। घटनात्मक अन्तर था।
उक्त दशलक्षणी या दश तात्त्विक श्रमण-संस्कृति के ये सभी श्रमण-संस्कृति अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है। अहिंसा और
लक्षण संश्लिष्ट एवं अविभाज्य हैं। व्यवहार दृष्टि से ही विवेच्य हैं। वैचारिक समभाव के माध्यम से मानव आत्मा की विशुद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है। इसी जीवन-दृष्टि के आधार पर समस्त मानव
अध्यात्मदृष्टि-जैनधर्म अपनी सम्पूर्णता में अध्यात्म प्रधान धर्म जाति इस संसार में भी समता, सुख और शान्ति से रह सकती है।
है। उसकी संस्कृति, दर्शन एवं समस्त आचार-व्यवहार भी मूलतः यही इस संस्कृति की अन्तरात्मा है। बौद्धों और जैनों में प्रायः स्थूल
और अन्ततः अध्यात्मपरक है। आध्यात्मिक एवं नैतिक विशुद्धता व स्तर पर एकता थी। वे कर्मकाण्ड, यज्ञ और पशुबलि के समान रूप
को श्रमण-धारा में सर्वोपरि स्थान है। आत्मा की निर्विकार अवस्था से विरोधी थे। ईश्वरवाद के भी वे समर्थक न थे। उनकी
ज्यों-ज्यों बढ़ती जाएगी, मानव उतना ही स्वतन्त्र और विरोधात्मक दृष्टि में सीमित समानता थी। उनमें अहिंसा का भी
परमात्मत्वमय बनता जाएगा। अतः बाह्य आडम्बर और क्रिया कांड सीमित साम्य था। बौद्ध धारा में मांसाहार का अवकाश था और
से बचने का श्रमण सदा आदेश देते हैं। आचरण पर भी उतना बल न था। विदेशों में जाकर बौद्ध धर्म आत्मा का स्वरूप-अजरामर चैतन्यशक्ति ही आत्मा है। पर्याप्त व्यापक किन्तु शिथिल भी हो गया। विदेशी वातावरण के जैनदर्शन के अनुसार आत्मा अथवा जीव स्वतन्त्र अस्तित्व वाला
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
५१७ द्रव्य है। समस्त द्रव्यों में जीव सर्वश्रेष्ठ है। आत्मा एक नहीं अनन्त दशवैकालिक की यह गाथा भी श्रामणिक अहिंसा का सशक्त हैं। आत्मा का चैतन्य ज्ञान, भाव शक्ति एवं क्रिया रूप में प्रकट । उद्घोष करती हैहोता है। आत्मा सहज रूप से ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा
“सव्वे जीवा इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं। संसार में रहकर सुख-दुःखात्मक शुभ-अशुभ कर्मों को भोगता रहता
तम्हा पाणवहं घोरं, णिग्गन्था वज्जयन्ति णं ॥१0 है। मुक्त हो जाने पर वह परम निर्विकार एवं स्वतन्त्र हो जाता है। प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है अतः वह पुनः पुनः
अर्थात् सभी जीव जीवन चाहते हैं, मरण नहीं। अतएव निर्ग्रन्थ जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। प्रत्येक आत्मा सिद्ध-स्वरूप मुनि घोर प्राणिवध का त्याग करते हैं। है। साक्षात् सिद्ध भगवान् सिद्ध (कर्ममुक्त) हैं और अन्य प्राणी
इसी अहिंसक दृष्टि की आवश्यकता आज के मत्स्यन्याय-जीवी 30506 कर्मयुक्त संसारी हैं। कर्म के आवरण को अलग करके देखने पर जगत को है। प्रत्येक आत्मा सिद्धतुल्य है। प्रत्येक आत्मा अपने सुख-दुःख एवं
"धर्म का मौलिक रूप अहिंसा"११ है, सत्य, अचौर्य आदि उत्थान-पतन का स्वयं अधिकारी एवं उत्तरदायी है। किसी ईश्वरीय
उसका विस्तार है-“अवसेसा तस्स रक्खहा"-शेष व्रत अहिंसा की शक्ति का इसमें कोई योग नहीं है।
रक्षा के लिए हैं। अहिंसा की पूर्णता के लिए हमें अपनी प्रत्येक आध्यात्मिक धरातल पर आत्मा या जीव को तीन प्रकार का
गतिविधि का सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना चाहिए। हमें शास्त्रनिर्दिष्ट माना गया है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। संसारलिप्त
आरम्भी, उद्योगी, विरोधी एवं संकल्पी हिंसा से विरत होना चाहिए। और शरीर को ही आत्मा समझने वाला जीव बहिरात्मा है। संसार ये चारों हिंसक प्रणालियाँ क्रमशः अधिकाधिक अनिष्टकर एवं से स्वयं को पृथक समझने वाला दृढ़ निश्चयी जीव अन्तरात्मा है
घातक है। मानव सभ्यता का इतिहास लगभग दस हजार वर्ष का और परम पद प्राप्त व्यक्ति (जीव) परमात्मा कहलाता है।
है। इस कालावधि में मानव ने क्रमशः सभ्यतामूलक (सांसारिक) “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं"ट
विकास बहुत अधिक किया है। उसने जल, थल, नभ को निचोड़
डाला है। समस्त संसार को क्षण भर में ध्वस्त करने की भी उसने अर्थात् शरीर से पृथक आत्मा है, अतः भोगलिप्त शरीर को
शक्ति प्राप्त करली है। भौतिक सुविधाओं की दिशा में उसने आज तपश्चर्या द्वारा धुन डालना चाहिए।
स्वर्ग को भी उपहसित कर दिया है। उसने प्रकृति की सम्पूर्णता पर स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति में जीवात्मा के आन्तरिक सहज विजय पाने का दावा किया है, पर वह मानव-आज का मानव गुणों को ही महत्त्व दिया गया है।
स्वयं से-अन्तरात्मा से अपनी संस्कृति से उतना ही अधिक कटता आध्यात्मिक एवं नैतिक विशुद्धता को श्रमण धारा में सर्वोपरि
और दूर होता चला गया है। विश्व ध्वंस में पूर्ण समर्थ स्थान है। अध्यात्म की रीढ़ अहिंसक-जीवन है।
परमाणु-बम-रूपी ज्वालामुखी पर आज विश्व-मानवता बैठी हुई है।
कभी भी विस्फोट हो सकता है। आशय यह है कि आज अहिंसा की अहिंसा-सार्वभौम सहअस्तित्वमय निरापद जीवन के प्रति
विश्व को गत युगों की तुलना में बहुत अधिक आवश्यकता है। सद्भावमय जीवन दृष्टि अहिंसा है। किसी भी प्राणी को मन, वाणी
आध्यात्मिक मूल्यों का पुनर्जागरण आज पूर्णतया अपेक्षित है। और क्रिया से किसी भी प्रकार का (भावात्मक या शारीरिक) दुःख
महात्मा गांधी ने अहिंसा के मूल तत्त्व को उद्घाटित करते हुए कहा न पहुँचाना अहिंसा है। यह अहिंसा का निषेधात्मक रूप है। सभी
है-"मानव में जीवन-संचार किसी न किसी हिंसा से होता है। प्राणियों के प्रति समभाव रखना, यह अहिंसा का क्रियात्मक रूप है।
इसलिए सर्वोपरि धर्म की परिभाषा एक नकारात्मक कार्य अहिंसा इसके अन्तर्गत अन्य प्राणियों की रक्षा-सुरक्षा का भाव समाहित है।
से की गई है। यह शब्द संहार की संकडी में बंधा हुआ है। दूसरे समस्त श्रमण जीवन का आचार अहिंसा-मूलक है और विचार
शब्दों में यह है कि शरीर में जीवन-संचार के लिए हिंसा अनेकान्तात्मक है। अहिंसा की पूर्णता के लिए यह भी परमावश्यक
स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। इसी कारण अहिंसा का पुजारी है कि हम स्वयं तो अहिंसक रहें ही, परन्तु दूसरों के द्वारा भी
सदैव प्रार्थना करता है कि उसे शरीर के बन्धन से मुक्ति प्राप्त हिंसा न कराएँ तथा ऐसी हिंसा का अनुमोदन भी न करें। प्राणीमात्र
हो।"१२ की स्वत्रता और प्राणरक्षा का पूरा ध्यान रखकर ही हमें अपना जीवन निर्धारित करना चाहिए।
हिंसा धर्म और समाज में भी समय-समय पर नये-नये रूप
धारण कर प्रविष्ट होती रही है। श्रमण महावीर के युग में स्थिति "सव्वे पाणा पियाउया, सुह साया, दुक्ख पडिकूला अप्पियवहा।
ऐसी ही थी। धर्माधिकारी धर्म की हिंसामूलक व्याख्या कर रहे थे। पिय जीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं॥९.
समाज सुधारक भी वर्गवाद, छुआछूत, नारी के प्रति हीन भावना अर्थात् समस्त जीवों को अपने प्राण प्रिय हैं, वे सुख चाहते हैं। तथा नर-शोषण के अनेक उपाय निकाल रहे थे। महावीर ने इस दुख नहीं। सब जीने की इच्छा रखते हैं।
सबके विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया। वे एक विराट् सांस्कृतिक मयमयन्यप्राण्यालय एकजनाएयतजयन्तकायम 2600000. 00000000000000
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । FP906नव चेतना को लेकर आए। जैन धर्म की सांस्कृतिक देन के सम्बन्ध धन-धान्य एवं वैभव का संघर्ष कम है, परन्तु विचारधाराओं की 20690994 में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. राधाकमल मुखर्जी लिखते हैं-१३ । विपरीतता और दुराग्रहशीलता का संघर्ष सर्वाधिक है। रूस और
"भारतीय सभ्यता को जैनधर्म की सर्वोच्च मूल्य की देनें हैं-प्रत्येक अमेरिका, इंगलेण्ड और दक्षिण अफ्रीका, ईरान और ईराक,
जीवधारी के प्रति उदारता और तपस्या, वस्त्रत्याग तथा उपवासादि तमिल-लंका, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान आदि देशों के संघर्ष में वैचारिक RSS के प्रति विश्वजनीन भावना; यह बात केवल साधुओं ने ही नहीं, अहंकार की मात्रा सर्वाधिक है। शारीरिक हिंसा की अप्रेक्षा
श्राविकाओं ने ही नहीं, किन्तु जन-सामान्य ने भी स्वीकार की। वैचारिक हिंसा (दूसरों के विचारों का दमन) अधिक घातक है। सुप्रसिद्ध काव्यग्रन्थ 'तिरुक्कुरल' के ३३वें परिच्छेद में अहिंसा
अतः अनेकान्त दर्शन में परमत सहिष्णुता और सद्भावना को बहुत 38 8 के विषय में ये मर्मस्पर्शी वचन कहे गये हैं-१४
महत्त्व दिया गया है। सब धर्मों में श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म।
_ सैद्धान्तिक कट्टरता (Dogmatism) की दुराग्रहशीलता का हिंसा के पीछे लगे, पाप भरे सब कर्म॥१॥
जैन-विचार धारा ने सदा विरोध किया है। वैचारिक स्वातन्त्र्य होने
पर ही वैचारिक पूर्णता आ सकती है। वैदिक एवं औपनिषदिक जिनकी निर्भर जीविका, हत्या पर ही एक।
वैचारिकता में स्पष्ट टकराहट है। कर्मकाण्ड का गीता में भी विरोध मृत-भोजी उनको विबुध, माने हो सविवेक॥९॥ 200000
परिलक्षित होता है। पश्चिम में और विशेष रूप से ग्रीस में तो जैन परम्परा ने अहिंसा का वास्तव में सम्पूर्ण विश्व को
सुकरात जैसे स्वतन्त्र और निर्भीक विचारकों की आज भी विश्व FODD.spard अनोखा वरदान ही दिया है। इतनी गहरी, बहुमुख, सूक्ष्म,
पर छाप है। सुकरात के मृत्यु का वरण किया, किन्तु अपने विचार व्यावहारिक एवं निश्चयात्मक दृष्टि अन्यत्र दुर्लभ है। जैन-अहिंसा नहीं बदले। उसने कहा,१६ के आध्यात्मिक पक्ष के साथ उसके व्यावहारिक और आचारमूलक
{ "There are many ways of avoiding death in पक्ष के अन्तर्गत रात्रि भोजन परित्याग, मांसाहार त्याग एवं गालित । every danger if a man is not ashamed to say and जल-पान की विशेष चर्चा है।
to do anything. But, my friends, I think it is a अहिंसा के व्यापकतम प्रभाव के विषय में आचारांग में अत्यन्त्र
much harder thing to escape from wickedness
than from death, for wickedness is swifter than प्रभावकारी विवेचन है-१५
death." "अस्थि सत्थं परेण परं नत्थि असत्थं परेण परं।"
____ अर्थात् मनुष्य यदि इतना बेशर्म हो जाए कि वह मृत्यु से बचने अर्थात् शस्त्र एक से बढ़कर एक हैं। अशस्त्र-अहिंसा से । के लिए कुछ भी बोलने और करने के लिए तैयार है, तो मृत्यु को बढ़कर कोई शस्त्र नहीं। इसका अचूक प्रभाव होता है।
टाला जा सकता है। परन्तु, मित्रो, दुष्टता की अपेक्षा मृत्यु से बच अनेकान्त-अनेकान्त जैनदर्शन का एक प्रतिनिधि पारिभाषिक । निकलना सरल है, क्योंकि दुष्टता की चाल मृत्यु से अधिक तेज शब्द है। इसके साथ स्याद्वाद एवं सप्तभंगी शब्द भी जुड़े हैं। इन होती है। तीन शब्दों को सही सन्दर्भ में समझकर ही जैन दर्शन को समझा
सुकरात ने अपने हत्यारों से मरने के पहले कहा,१७ जा सकता है। अनेकान्त शब्द के द्वारा प्रत्येक वस्तु में सापेक्षिक रूप से विद्यमान अनेक अवस्थाओं या सम्बन्धों को समझा जाता है।
"It is much better, and much easier, not to अनेक (एक से अधिक), अन्त अर्थात् धर्म (अवस्थाएँ), यही इस
silence reproaches, but to make yourselves as शब्द का अर्थ है। वस्तु में स्थित सापेक्षिक अवस्थाओं को एक साथ
perfect as you can. This is my parting prophecy to
those who have condemned me." समझकर ध्यान में तो रखा जा सकता है, परन्तु बोलते समय तो एक क्रम अपनाना ही होगा। यही क्रम (विवेचन क्रम) स्याद्वाद शब्द
अर्थात् अपने विरोध को दमित न करना अधिक सरल और द्वारा स्पष्ट होता है। किसी वस्तु के एक पक्ष को ही एक बार में
श्रेयस्कर होगा, बल्कि खुद को अधिकाधिक निर्दोष एवं पूर्ण बनाना कहा जाता है। वस्त-विवेचन के कुल सात भंग (प्रकार) सप्तभंगी चाहिए। यह मेरी मृत्यु के पूर्व की भविष्यवाणी उन लोगों के प्रति है शब्द द्वारा घोतित होते हैं।
जिन्होंने मुझे दोषी ठहराया है। Po0
8 वस्तु को व्यवहार की दृष्टि से अनेक सापेक्ष रूपों में देखा सुकरात का समय आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का है।
जाता है जबकि निश्चयनय (तात्त्विक धरातल पर) अभेदात्मक एक उस समय कितनी वैचारिक असहिष्णुता थी। दमन से सत्य दबाया
रूप में ही समझा जाता है। अनेकान्त दर्शन में अपनी वैचारिकता तो जा सकता है, समाप्त नहीं किया जा सकता। जैनदर्शन 100000 के साथ दूसरे व्यक्ति की वैचारिकता को भी सहृदयता और व्यक्तिमात्र की उचित वैचारिकता का स्वागत करता है। वह 1568 ईमानदारी से समझा जाता है। आज विश्व के अनेक राष्ट्रों में समन्यववादी है।
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
स्याद्वाद में किसी वस्तु के सम्भव (सात) पक्षों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है। घट का उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं
१. स्यादस्ति घट (घट सापेक्षरूप से विद्यमान है )
२. स्यान्नास्ति घट (घट सापेक्षरूप से विद्यमान नहीं है) ३. स्यादस्ति नास्ति च घटः (घट सापेक्ष रूप से विद्यामान है, नहीं है)
४. स्यादवक्तव्यः घट (घट सापेक्ष रूप से अवक्तव्य है) ५. स्यादस्ति अवक्तव्यश्च घटः (घट सापेक्ष रूप से विद्यमान है और अवक्तव्य है)
५. स्यादस्ति अवक्तव्यश्च घटः (घट सापेक्ष रूप से विद्यमान है और अवक्तव्य है)
६. स्यान्नास्ति अवक्तव्यश्च घटः (घट सापेक्ष रूप से विद्यमान नहीं है और अवक्तव्य है)
७. स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यश्च घटः (घट सापेक्ष रूप से विद्यमान है, नहीं है और अवक्तव्य है।
प्रत्येक वस्तु के सापेक्ष दृष्टि से अनेक पक्ष होते हैं। अतः उनका एकान्तिक कथन संभव नहीं है। जैन दर्शन का विश्व की चिन्तनधारा में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है।
अपरिग्रह-अहिंसक आचरण मनुष्य में विशाल लोकचेतना जागृत करता है। इस आचरण के फलस्वरूप असंग्रह की भावना का उदय होता है। व्यक्तिगत सुख का अधिकतम त्याग मानव में जागृत होता है। मानव जाति का सम्पूर्ण इतिहास संग्रह और असंग्रह या गरीबी और अमीरी का है। कबीलावाद, साम्राज्यवाद सामन्तवाद और पूँजीवाद की लम्बी कारा में मानव कैद रहा है। आज वह पूँजीवादी व्यवस्था का शिकार है। यह निर्धन और धनवान का संघर्ष चिरन्तन-सा लगता है। मानव दूसरों के अधिकारों और जीवन साधनों को छीनकर सुखी होने का प्रयत्न करता है, परन्तु सम्पूर्ण मानव समाज की दृष्टि में वह मृत तुल्य हो जाता है। वह असामाजिक होकर जी नहीं सकता। अतः श्रेयष्कर यही है कि हम अपने जीवन को अधिकाधिक आत्मनिर्भर और स्वतन्त्र बनाएँ। यह कार्य असंग्रह या अपरिग्रह द्वारा ही संभव है।
अधिकाधिक धन सम्पत्ति का छल-कपट से संग्रह तो परिग्रह और सामाजिक अपराध है ही, इस सबके प्रति जो भीतरी रागात्मकता है वह सबसे अधिक घातक है। एक भिक्षुक घोर दरिद्र होकर भी सम्पत्ति आदि के प्रति आसक्ति के कारण परिग्रही है। दूसरी ओर एक चक्रवर्ती जल में कमल की भाँति निर्लिप्त रहने पर अपरिग्रही है। बात ईमानदारी की है। संसार के सभी धर्म त्याग और अपरिग्रह को महत्त्व देते हैं। पर जैन धर्म ने इसे बहुत अधिक और गहरी मान्यता दी है। जैन मुनि परम अपरिग्रही (नग्न) और विशुद्ध रूप से आत्मनिर्भर रहते हैं। आहार में भी परम संयमी होते
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हैं। यह अपरिग्रह भाव, सर्वव्यापी हो, यही भावना श्रमण संस्कृति में व्याप्त है। लोभ और मोह के प्रभाव में मानव के महान् गुण भी प्रकट नहीं होते। उसकी चेतना पर पर्दा पड़ा रहता है। यही संग्रह, अतिसंग्रह की भावना विश्वयुद्धों का कारण बनती है। अतः संसार के लाखों सम्राटों, राजाओं और पूँजीपतियों के जीवन का अन्त कैसा हुआ ? उनके इतिहास से हम पर्याप्त मात्रा में सबक सीख सकते हैं। मानव का सच्चा सुख बाह्य सम्पदा में न होकर भीतरी । गुणों के विकास में है। और गुणों का विकास निर्विकार एवं अपरिग्रही व्यक्ति में ही संभव है। कोरी अनेकान्तात्मक वैचारिक सहानुभूति अकिंचित्कर ही रहेगी यदि उसे अपरिग्रह अर्थात् त्याग के द्वारा पूरा न किया जाए। आचार्यों ने 'मूर्च्छा परिग्रहः' कहा है। मूर्च्छा अर्थात् मानव मन को मूर्च्छित रखने वाले मनोविकार लोभ, तृष्णा और उच्चताभिमान ही परिग्रह है। अपरिग्रह आत्मकल्याण और विश्वशान्ति का सर्वोत्तम आधार है। अपरिग्रह आत्मप्रेरित होता है, जबकि समाजवाद राज्य या शासन द्वारा आरोपित किया जाता है। आरोपित की स्थिति से स्वयं स्वीकृति श्रेयस्कर है।
"भारतीय संस्कृति त्याग और संयम की संस्कृति है । जीवन की सच्ची सुन्दरता और सुषमा संयताचरण में है; बाहरी सुसज्जा और वासनापूर्ति में नहीं जिन भोगोपभोगों में लिप्त हो मानव अपने आप तक को भूल जाता है, वह जरा आँखें खोलकर देखे कि वे उसके जीवन के अमर तत्त्व को किस प्रकार जीर्ण-शीर्ण और विकृत बना डालते हैं। जीवन में त्याग की जितना प्रश्रय मिलेगा, जीवन उतना ही सुखी, शान्त और उबुद्ध होगा।"१८
शील एवं समता - श्रमण संस्कृति के आदि प्रवर्तक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने पंच महावृतों का सूत्रपात किया था ये अहिंसा, सत्य, अचीर्य, ब्रह्मचर्य (शील) और अपरिग्रह थे। परवर्ती २२ तीर्थंकरों ने चातुर्याम का ( शीलव्रत को छोड़कर शेष चार) ही उपदेश दिया। शील को अपरिग्रह के साथ जोड़ लिया। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने अपने समय में शीलव्रत को पुनः स्वतन्त्र स्थान दिया और पंच महाव्रतों की अविकल स्थापना की।
आचार्य भद्रबाहु ने आचारांग का वर्णन करते हुए लिखा हैबारह अंगों में आचारांग प्रथम है। उसमें मोक्ष के उपायों का वर्णन है। आचाराङ्ग ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययनमय है। ब्रह्मचर्य का स्पष्ट अर्ध हैं ब्रह्म अर्थात् मोक्ष के लिए चर्या अर्थात् आचरण समस्त मोक्षमार्ग ब्रह्मचर्य शब्द में निहित है। धीरे-धीरे ब्रह्मचर्य शब्द में अर्थ संकोच हुआ और वह मैथुन-विरमण मात्र में सीमित हो गया । विश्व के समस्त धर्मों में ब्रह्मचर्य की महिमा स्वीकार की गयी है। महात्मा गांधी ने लिखा है - १९ “ मन, वाणी और काया से सम्पूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का अर्थ शारीरिक संयम मात्र नहीं है, बल्कि उसका अर्थ है- सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन, वचन, कर्म से काम वासना का त्याग।" इस रूप में वह आत्म साक्षात्कार या ब्रह्मप्राप्ति का सीधा
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मार्ग है। ब्रह्मचर्य समस्त गुणों की रक्षा करने वाला है और व्यभिचार समस्त गुणों को समाप्त करने वाला है। २० दृष्टव्य हैएक बार गौतम गणधर ने श्रमण महावीर से पूछा- 'भन्ते ! मैथुन सेवन करने वाले पुरुष में किस प्रकार का असंयम होता है ? महावीर ने उत्तर दिया जैसे एक पुरुष रुई की नली या दूर की नली में तप्तशलाका डाल उसे नष्ट कर दे। मैथुन सेवन करने वाले का असंयम ऐसा होता है।
समता भाव- समता भाव ब्रह्मचर्य के पालन का फलितार्थ है, प्राणीमात्र की आत्मा समान है। अतः सबके प्रति सदा सभी अवस्थाओं में समता भाव रखना श्रेयष्कर है। दूसरों को जाति, विद्या, रूप, धन, पेशा आदि के आधार पर प्रायः हम देखते हैं और छोटा बड़ा समझते हैं। हमें दृष्टि भीतरी गुणों पर और मूल पर रखनी चाहिए। वाह्य संसार तो आडम्बर है और परिवर्तनशील है । मानव ही नहीं जीव मात्र के प्रति समता भाव हो ।
सैद्धान्तिक दृढ़ता और निज विवेक प्रत्येक श्रमण से यह पूरी आशा की जाती है कि वह जिन सिद्धान्तों को पूरी तरह समझकर स्वीकार कर चुका है, उन पर अटल रहे। अपने प्रबुद्ध विवेक के साथा उन पर अमल करे। सिद्धान्त का अन्धानुकरण न करे। देश और काल के बदलने पर सद्विवेक के द्वारा पूर्व मान्यताओं में आवश्यक परिवर्तन या संशोधन भी करे। आशय यह है कि श्रमण लकीर का फकीर न हो श्रमण महावीर ने अपने समय में चातुर्याम को पंच महाव्रतों में परिवर्धित किया था अनेक धार्मिक सामाजिक सुधार किये थे। परम्परा और प्रगति का समन्वय श्रमण-चेतना का मूल स्वर है।
सन्दर्भ स्थल :
9. "Oxford Dictionary"
२. Apte's Sanskrit Dictionary.
३. सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृ. २२
-Culture -Culture (संस्कृति) -डॉ. सम्पूर्णानन्द
४. छान्दोग्योपनिषद् (८-४-१) भारतीय संस्कृति प्र. खण्ड पृ. ३ डॉ.
मंगलदेव शास्त्री |
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'जैन संस्कृति का व्यापक स्वरूप" पृ १
-महात्मा भगवान दीन
६. “मानव संस्कृति” लेखक- पं. सुन्दरलाल भगवानदास केला की सहायता
से पृ. २६२-२७२
७. “मानव संस्कृति" पृ. ६-७ लेखक- भगवानदास केला भूमिकाबनारसीदास चतुर्वेदी
८. आचारांग १-४-२
९. आचाराङ्ग सूक्त (लोक विजय ) ३७
International Sasala
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अस्तिकता और कर्म सिद्धान्त-जैन परलोक में विश्वास करते हैं। आत्मा के परमात्मत्व को मानते हैं। वे शास्त्रानुगामी हैं अतः आस्तिक हैं। आस्तिकता को किसी खास चौखट में कसना उचित नहीं है। जैन भाग्य और ईश्वर को सृष्टि नियन्ता न मनकर स्वयं मानव को (उसके अच्छे बुरे कर्मों को ही उसका भाग्य विधाता मानते हैं। मानव अपना जैसा कर्म करता है। तदनुरूप फल भोगता है। बस पुण्य-पाप उसके जीवन को ऊपर नीचे करते रहते हैं।
कर्मवाद समस्त भारतीय चिन्तन में किसी न किसी रूप में विद्यमान है। इसका जितना सविकसित रूप जैन शास्त्रों में है उतना अन्यत्र नहीं ।
कर्मवाद नियतिवाद नहीं है। जीव कर्म के बन्धन में रहकर अपने पुरुषार्थ से उसे कम करता और काटता भी है। कृत कर्म का फल भोगना ही है, परन्तु नये सत्कर्म करके हम साथ-साथ नयी शक्ति भी ग्रहण कर सकते हैं। प्राणी पर किसी बाह्य या दूसरे के कर्म का शासन नहीं होता, बल्कि स्वकृत कर्म का ही होता है। अतः हम स्वतन्त्र हैं। कर्मों को रोक भी सकते हैं।
कर्म का अर्थ-जैन परम्परा में कर्म शब्द एक पारिभाषिक अर्थ में ग्रहण किया जाता है। द्रव्य कर्म और भाव कर्म के भेद से कर्म दो प्रकार के हैं । जो जड़ तत्त्व या कर्म आत्मा के साथ मिलकर कर्म रूप हो जाते हैं, वे द्रव्यकर्म है। राग द्वेषमय भाव भावकर्म कहलाते हैं। योग (मन, वाणी, शरीर की प्रवृत्ति) और कषाय (क्रोध, मान, माया लोभ) ही कर्मबन्ध के कारण है।
पता
१३, शान्ति नगर, पल्लावरम् मद्रास ६०००४३
१०. दशवैकालिक
११. " अहिंसा तत्त्वदर्शन" पृ. ३-मुनि नथमल १२. “महात्मा गांधी के विचार" (५-१३८)
१३. ए हिस्ट्री ऑफ इन्डियन सिविलीजेशन, पृ. १६२
-राधाकमल मुखर्जी
१४. 'तिरुक्कुरल' अनुवादक- पं. गोविन्दराय जैन, परिच्छेद ३३ (१-९) १५. 'आचारांग 'शीतोष्णीय-६९
१६. “Socrates the man and his teaching." P. 47 99. "Socrates-the man and his teaching." P. 48
१८. प्रवचन डायरी - "आचार्य तुलसी के ५६-५७ के प्रवचन, पृ. ४९ १९. ब्रह्मचर्य - पृ. ३, शील की नव बाड़-पृ. ५ से
२०. शील की नव बाड़, पृ. ११
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कर्म चक्र से सिद्ध चक्र
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यथा
-विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया
(एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट.) प्राण एक अविनाशी तत्त्व/द्रव्य है। प्राण जब पर्याय धारण | रहता है। इसके अतिरिक्त चारित्र के अन्तर्गत नौ नोकषाय भी करता है तब वह प्राणी कहलाता है। प्राणी अनादि काल से सक्रिय रहती हैं-यथा . जन्म-मरण के दारुण दुःखों को भोग रहा है। भव-भ्रमण की कहानी
१. रति २. अरति ३. भय लम्बी है।
४. शोक ५. जगुप्सा
६. स्त्रीवेद जन्म-मरण, आना-जाना तथा करना-धरना परक आवृत्ति जब
७. पुरुषवेद८. नपुंसकवेद ९. हास्य। रूप धारण करती है, तब चक्र का जन्म होता है। प्राणी जब अपने कर्म द्वारा चक्र का संचालन करते हैं तब वह कहलाता है
इस प्रकार मोहनीय कर्मकुल कुटिल और कठोर होते हैं। कर्म-चक्र। कर्म-चक्र का अपर नाम है संसार-चक्र। कर्म-वैविध्य को
इनसे उबरना सामान्यतः सरल नहीं है। बड़ी बारीक पकड़ होती है आठ भागों में अथवा प्रकारों में विभक्त किया गया है। यथा
मोह की। १. दर्शनावरणी कर्म २. ज्ञानावरणी कर्म
अन्तराय कर्म में वीर्य, उपभोग, भोग, लाभ, दान परक रूप ३. मोहनीय कर्म ४. अन्तराय कर्म
भेद में कर्म कौतुक सक्रिय रहते हैं। वेदनीय कर्म साता और
असाता रूप मे, आयुकर्म-देव, मनुष्य तिर्यंच, नरक रूप में, नाम ५. वेदनीय कर्म ६. आयु कर्म
कर्म कुल स्थावर दशक, प्रत्येक प्रकृति. त्रस दशक और पिण्ड ७. नाम कर्म८ . गोत्र कर्म
प्रकृति रूप में तथा गोत्रकर्म ऊँच और नीच रूप में सक्रिय इनको शास्त्रीय विधान से दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है- रहते हैं।
_कर्मचक्र शुभ और अशुभ रूप में सतत सक्रिय रहता है। शुभ १. प्रथम चार कर्म-कुल को घातिया कर्म खहा गया
कर्मों की अपेक्षा अशुभ कर्म निर्बाध रूपेण सक्रिय रहते हैं। प्राणी २. अन्तिम चार कर्म-कुल को अघातिया कर्म कहा गया।
अपनी अज्ञान दशा में आम्नव को सदा खुला रखता है। कर्म
बँधते-रहते हैं और इस प्रकार कर्मचक्र सदा चिरंजीवी रहता है। घातिया कर्म आत्मा के स्वभाव को आवरित कर उसका घात करने का भयंकर काम करते हैं। जीव जब अपने स्वभाव को
संसार में प्राणी जब इन वसु कर्मों के कौतुक में सक्रिय रहता जानने-मानने से विमुख हो जाता है, तब उसका भटकना प्रारम्भ हो
है तब वह कहलाता है बहिरात्मा। बहिरात्मा पर-पदार्थों को अपना जाता है। मोहनीय कर्म कुल की भूमिका उसे पथ भ्रष्ट होने में
समझता है। वह उन्हीं को कर्म का कर्ता, हेतु तथा भोक्ता भी टॉनिक का काम करती है। दर्शन का आवरण होने पर जब ज्ञान
मानता है। इस प्रकार उसकी चर्या में मिथ्यात्व का एकछत्र साम्राज्य का भी आवरण हो जाता है तब पथभ्रष्टता का पोषण होने लगता
रहता है। कर्मचक्र से छुटकारा पाना कोई एक-दो भव की साधना है। भ्रष्ट से उत्कृष्ट की ओर कहीं मुड़ने न लगे, इस अवसर और
का परिणाम नहीं होता। भव्य जीव ही कर्म चक्र से छूटने का शुभ आशंका को निर्मूल करते हैं अन्तराय कर्म। अन्तराय कर्म शुभकर्मों संकल्प किया करते हैं। अभव्य सदा कर्म चक्र में ही अवगाहन में बाधा प्रस्तुत करते हैं।
करते रहते हैं। कर्मचक्र वस्तुतः थर्राने वाला चक्र है। मनुष्य और
तिर्यंच गति की दारुण दास्तान तो प्रत्यक्षतः सुनने और देखने में दर्शनावरणी कर्म कुल चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल, निद्रा,
आती ही है। नरक गति का रौरवपूर्ण वातावरण दिल दहला देता निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, सत्यान और गृद्धि दश रूपों में सक्रिय होते हैं। ज्ञानावरणी कर्म मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय
है। नरक गति से भी अधम अवस्था है निगोद। यहाँ जीव परम तथा केवल ज्ञान विषयक पाँच रूपों में आवरित कर सक्रिय होते
मूढ़ता के साथ अनन्त अवधि तक जीता-मरता रहता है। हैं। मोहनीय दर्शन और चारित्ररूप में सक्रिय रहते हैं। दर्शन निगोद से निकल कर जब प्राणी किसी प्रकार जब कभी मनुष्य मोहनीय में ये कर्म मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा मिश्र रूप में तथा / गति प्राप्त करता है तब, उसके विकास की सम्भावना बढ़ जाती है। चारित्र मोहनीय में ये कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ नामक यहाँ आकर वह कर्मचक्र को समझने का सुअवसर प्राप्त करता है कषाय कौतुक में पोषित होते रहते हैं। यहाँ इनका पोषण बंध और तब अपने को धर्मचक्र की ओर अग्रसर होने का सुअवसर अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन कोटि में होता । प्राप्त करता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ विचार कीजिए धर्म वस्तुतः एक शाश्वत द्रव्य है। इसके उदय । भोगों के प्रति विरति भावना उद्भूत होती है और संयम के संस्कार होने से प्राणी की दशा और दिशा में आमूलचूल परिवर्तन होने । परिपुष्ट होते हैं। लगता है। धर्म चक्र में प्रवृत्त होने पर प्राणी स्व और पर-पदार्थ का
तीर्थ वंदना, गुरु वंदना और शास्त्र वंदना अर्थात् स्वाध्याय स्पष्ट अन्तर अनुभव करने लगता है। उसे संसार के प्रत्येक पदार्थ
| सातत्य से उसका अन्तरंग धर्ममय होने लगता है। ऐसी स्थिति में की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। प्राणी के सोच और समझ में युगान्तर
उसकी इन्द्रियाँ भोग के लिए बगावत करना छोड़ देती हैं। वे उत्पन्न होने लगता है।
वस्तुतः योग के प्रयोग की पक्षधर हो जाती हैं। _धर्म चक्र में प्रवृत्त प्राणी की दृष्टि में प्रत्येक पदार्थ का अपना
धर्मचक्र से प्राणी की चर्या षट् आवश्यक और पंच समिति HD स्व भाव होता है। वह स्वभाव ही वस्तुतः उस पदार्थ का धर्म
सावधानी से वस्तुतः मूर्छा मुक्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में कहलाता है। प्रत्येक प्राणी अपने कर्म का स्वयं ही कर्ता होता है।
आत्म-गुणों के प्रति वंदना करने के शुभभाव उसमें रात-दिन जाग्रत अर्थात् उसकी मान्यता मुखर हो उठती है कि उपादान एवं निमित्त
होते रहते हैं। ऐसे प्राणी की चर्या पंच परमेष्ठी की वंदना में प्रायः के सहयोग से ही कर्म का सम्पादन होता है। यह भी स्पष्ट है कि
लीन हो जाती है। अन्ततः वह श्रावक से श्रमणचर्या में दीक्षित अपने कर्मानुसार ही प्राणी को निमित्त जुटा करते हैं। उसकी दृष्टि
होकर अनगार की भूमिका का निर्वाह करता है। प्रतिमाएँ और में निमित्त का जुटना पर-पदार्थ की कृपा का परिणाम नहीं है। कर्म
गुणस्थानों को अपनी चर्या में चरितार्थ करता हुआ जैसे-जैसे वह बँधते हैं और जब उनका परिणाम उदय में आता है तब शुभ
अन्तरात्मा ऊर्ध्वमुखी होता जाता है, वैसे-वैसे मानो वह परमात्मा के अथवा अशुभ परिणाम वह बड़ी सावधानीपूर्वक स्वीकार करता है।
द्वार पर दस्तक देने लगता है। उसके उत्तरोत्तर विकास-चरण उस शान्ति पूर्वक भोगता है। शुभ अथवा अशुभ परिणाम को वह किसी ।
सीमा को लाँघ जाते हैं जहाँ पर शुद्धोपयोग पूर्वक केवल ज्ञान को दूसरे के मत्थे नहीं मड़ा करता है। इतना बोध और विवेक धर्मचक्र
जगाता है। ज्ञान जब केवल ज्ञान में परिणत हो जाता है तब 5050 में संश्लिष्ट प्राणी की अपनी विशेषता होती है। धर्मचक्र में सक्रिय
धर्मचक्र की भूमिका प्रायः समाप्त होकर सिद्ध चक्र की अवस्था प्राणी की आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है।
प्रारम्भ हो जाती है। अन्तरात्मा मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व के साथ धर्मचक्र को
सिद्ध चक्र का प्रारम्भ होते ही प्राणी अपने घातिया कर्मों का BAD बड़ी सावधानीपूर्वक समझता और सोचता है कि कर्म-बन्ध से किस
समूल नाश कर लेता है। घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर ही PROB प्रकार मुक्त हुआ जा सकता है। कर्म-बन्ध की प्रकृति के अनुसार
उसमें केवल ज्ञान का उदय होता है। इसके उपरान्त अघातिया कर्म Focoo वह संयम और तपश्चरण में प्रवृत्त होता है। अपने भीतर संयम को
भी क्षय होने लगते हैं फिर भी यदि आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य a जगाता है और कर्म की निर्जरा हेतु वह अपने पूरे पुरुषार्थ का
| अघातिया क्षय होने से शेष रह जाते हैं तो साधक समुद्घात करके उपयोग करता है। यह उपयोग वस्तुतः उसका शुभ उपयोग
उसे भी क्षय कर लेता है और अन्ततः वह सिद्धत्व प्राप्त कर लेता कहलाता है।
है। सिद्ध चक्र तक पहुँचने पर साधक कर्म चक्र और धर्म चक्र से शुभोपयोग की स्थिति में प्राणी धर्म को अपनी चर्या में | मुक्त होता हुआ कर्म-बन्ध से वस्तुतः निर्बन्ध हो जाता है। इस चरितार्थ करता है। सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र 1 प्रकार वह जन्म-मरण के दारुण दुःखों से सर्वदा के लिए छुटकारा पूर्वक वह सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु में श्रद्धान जाग्रत प्राप्त कर लेता है। करता है। इसी श्रेद्धान से अनुप्राणित चर्या-मोक्ष-मार्ग पर चलने का
पता : भाव बनाती है। ऐसी स्थिति में प्राणी की आत्मा वस्तुतः अन्तरात्मा मंगल कलश
का रूप धारण कर लेती है। उसकी जागतिक चर्या वस्तुतः ३९४, सर्वोदयनगर BED20व्रत-विधान हो जाती है। व्रत-साधना से उसकी चित्तवृत्ति में इन्द्रिय आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१
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* ऐसा कोई भी कार्य जिसके साथ पीड़ा और हिंसा जुड़ी है धर्म की संज्ञा कैसे पा सकता है? * धर्म से वर्तमान और भविष्य दोनों सुधरते हैं।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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कर्म से निष्कर्म : जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त
-डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल
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'कर्म' बहुअर्थी शब्द है जिसका प्रयोग भावों के अनुसार होता हैं। जीव और जड़ कर्म की शक्तियों के बीच अनादि काल से है। व्याकरण के षट् कारकों में वर्त्ता-कर्म-आदि में भी शब्द का निरन्तर संघर्ष चल रहा है। जीव अपने स्वभाव के प्रति मूर्छा/ उपयोग हुआ है। जो परिणमित होता है वह कर्ता है। परिणमित अविश्वास, अज्ञान और असंयम के कारण दुखी है और जड़-कर्म होने वाले का जो परिणाम है वह कर्म है और जो परिणति है, वह की शक्ति के उदय के कारण उसकी चेतन-ज्ञान शक्ति निष्प्रभ, क्रिया है। यह तीनों एक-दूसरे से अभिन्न है। किसी वस्तु विशेष का । परावलम्बी और प्रतिबंधित हो रही है। बड़ी विचित्र स्थिति है। स्वभाव-रूप-कार्य ही उसका कर्म होता है, जैसे जल का कार्य चैतन्य आत्म शक्ति स्वरूप-विस्मरण के कारण अचेतन कर्म शक्ति शीतल या नम्र रहना, अग्नि का कार्य दाहकता-पाचकता प्रकाशमान के कारागृह में अपराधी/बंदी है। आश्चर्य यह है कि बंधन तथा आत्मा का कार्य ज्ञान-दर्शन आदि।
जीवात्माओं ने अपने-आप अपने प्रयासों से अपने लिये स्वयं गीता में भी कर्म-विकर्म-अकर्म की चर्चा आयी है। गीता के
स्वीकार किये हैं। कर्म-बन्धन में जड़-कर्म परमाणुओं का कुछ भी अनुसार स्वधर्माचरण की वाह्य क्रिया ही कर्म है। जब कर्म
कर्तव्य नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि वे इच्छा विहीन भाव-बोध पूर्वक किया जाता है तब वह विकर्म कहलाता है। ईश्वर
अचेतन हैं। कर्म-बन्ध कैसे और क्यों हुआ, यह निष्कर्म रूप होने के को समर्पित निष्काम कार्य अकर्म कहलाता है। कर्म और अकर्म के
लिए समझना आवश्यक है। बीच विकर्म सेतु का काम करता है। ध्यान, ज्ञान, तप, भक्ति जैन दर्शन की मान्यताएँ-जैन दर्शन की कुछ आधारभूत निष्काम-कर्म, संतुलित अनासक्त जीवन और शुभ संस्कार के साधन मान्यताएँ हैंविकर्म कहलाते हैं।
१. पहले, विश्व के सभी जीव-अजीव द्रव्य स्वभाव से स्वतन्त्र, जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त किया गया। स्वाधीन, स्वावलम्बी और परिपूर्ण हैं। कोई किसी द्रव्य में कुछ है। कर्म अतिसूक्ष्म पुद्गल (अचेतन) परमाणु हैं जो जीव के परिवर्तन नहीं कर सकता; यह बात विशिष्ट है कि सभी द्रव्य मोह-राग-द्वेष भावों के कारण आत्मा के प्रदेशों में आकर आत्मा के परिवर्तन प्रवाह में एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। साथ एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव २. दूसरे, विश्व का सृजन, नियमन, परिचालन एवं परिवर्तन को घातते हैं और सुख-दुख की वाह्य सामग्री उपलब्ध कराने में द्रव्यों की स्व-परिणमनशीलता के कारण होता है। अनादिकाल से निमित्त का काम करते हैं। ऐसे कर्म द्रव्य कर्म कहलाते हैं। आत्मा जो भी परिवर्तन होते रहे है/या हो रहे हैं, वह सभी द्रव्यों के और अचेतन कर्म-परमाणुओं के इस कृत्रिम एवं अस्वाभाविक परिवर्तनों का समुच्चय परिणाम है। कोई ईश्वर जैसी शक्ति विश्व सम्बन्ध को कर्मबन्ध कहते हैं। जैन दर्शन का सार कर्म-बन्ध और 1 का नियंता नहीं है। कर्म-क्षय की प्रक्रिया में निहित है!
३. तीसरे, विश्व की सभी चेतन-सत्ताएँ स्वभाव से स्वयंभू, विश्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह ज्ञायक और परमात्म स्वरूप हैं। वे अपने स्व-विवेक या भेद-विज्ञान द्रव्यों का समूह है। जीव को छोड़कर शेष द्रव्य अजीव हैं। पुद्गल द्वारा निज शक्ति से परमात्मा बन सकती हैं या विकार-विभाव-शक्ति द्रव्य रूपी है। जीव अरूपी है। ज्ञान-दर्शन जीव के सहज स्वाभाविक के मोहपाश में कर्मों के निमित्त से पीड़ित-प्रताड़ित-पतित होती रह गुण हैं। वह स्व-पर का ज्ञायक है। जीव अपने ज्ञान स्वभाव को । सकती हैं। छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में कुछ परिवर्तन नहीं करता। वह
निर्णय की स्वतंत्रता-सभी जीवात्माएँ इन्द्रिय एवं इन्द्रिय जन्य अकर्ता-अभोक्ता है। ममत्व-स्वामित्व भाव से परे हैं। वह अपनी पूर्ण ।
ज्ञान से युक्त हैं। पंचेन्द्रिय मन युक्त जीवात्माएँ विशिष्ट रूप से ज्ञान शक्ति से संसार के समस्त पदार्थों की त्रिकाली अवस्थाओं को
जानने, देखने और विचार करने की क्षमता रखती हैं। वे यह एक समय में जानने/देखने की शक्ति रखता है! इस कारण वह
निर्णय करने में स्वतंत्र हैं कि वे ज्ञान-दर्शन रूप स्वभाव मार्ग को परमात्म स्वरूप है।
चुनें जिसमें किसी का कुछ करना-धरना नहीं पड़ता मात्र ‘होलिपजड़-पुद्गल का परिवार अत्यन्त व्यापक और बहुरंगा है। रूप, ज्ञायक' रहना होता है या मोह रागादि भावों को चुने। यदि वे रस, गंध, वर्ण सहित सभी दृश्यमान वस्तुएँ, शरीरादिक अंगोपांग, मोह-राग-द्वेष के विभाव-भावों में जमी-रमी रहती है, तब पर-वस्तु अदृश्य-कर्म, मन और मन में उठने वाले क्रोध, अहंकार, मायाचार में ममत्व एवं इष्ट-अनिष्ट की भावना के कारण निरन्तर कर्म-बन्ध एवं लोभ के विकारी-भाव सभी जड़-पुद्गल परिवार में सम्मिलित करती रहती हैं। यह कर्म-बन्ध संसार-दुख का कारण है। यदि वे
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अपने ज्ञायक-साक्षी स्वभाव में होने-रूप- होती' हैं तब निष्कर्म या मोहनीयकर्म तथा (४) दान-लाभ-वीर्य-भोग-उपभोग की शक्तियों को कर्म क्षय की प्रक्रिया शुरू होती है, जो मोक्ष-मार्ग कहलाता है! { घातने वाला प्रतिरोधी अन्तराय कर्म! यह कर्म जब उदय रूप रहते कौन-सा मार्ग चुना जाये, इसके पूर्ण अवसर और स्वतंत्रता । हैं तब आत्मा के ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति-गुण प्रगट नहीं हो पाते हैं जीवात्माओं के समक्ष प्रत्येक समय रहती है। वे अपने स्वविवेक, और वह निजानंद-रस-पान से वंचित रहता है। ज्ञान और हित-अहित का निर्णय करने में स्वतंत्र-सक्षम है। इसे ही
मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-दर्शन मोहनीय और चारित्र पुरुषार्थ की संज्ञा दी है। जैसा निर्णय, वैसा फल।
मोहनीय। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय में जीव स्व-स्वरूप के प्रति स्व-स्वभाव की रुचि और रमणता का फल है-अतीन्द्रिय- मूच्छित रहता है, जो अनन्त संसार-दुख का कारण है। दर्शन मोह अनुपम आनन्द, परिपूर्ण ज्ञान-दर्शन और मोह-क्षोभ रहित सहज के उदय में जीव पर-वस्तुओं से राग-द्वेष रूप अनन्त सम्बन्ध शुद्धात्मा की प्राप्ति! विभाव-भाव में रमण का फल है-बाधित स्थापित करता है, इसे अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया-लोभ कहते क्षणिक सुखाभास, दुख के संयोग, इन्द्रिय जन्य अल्प ज्ञान और हैं। स्वभाव की दृष्टि से यह अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क चारित्रजिज्ञासा, अपूरणीय अभिलाषा और संसार परिभ्रमण! स्व-स्वभाव मोह कहलाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में दर्शन-मोह के उदय के की ओर प्रवृत्त आत्मा भव्य और स्व-समय-स्थित कहलाती है। कारण सम्यक्त्व का घात होता है जो चारित्र-मोह-कर्म निरपेक्ष है। विकार-विभाव तथा पर वस्तुओं से सुख की अभिलाषा करने वाली इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी- कषायों के उदय से अनन्तानुबन्धी
आत्माएँ ‘पज्जय मुढा पर-समया' के अनुसार अज्ञानी/अभव्य होती। चारित्र का ही घात होता है, सम्यक्त्व का नहीं। यह विशेष है कि है। अनादि काल से क्रोधादि-मोह रूप विभाव-भावों के कारण दर्शन-मोह के उदय में अनन्तानुबन्धी के उदय से जैसे क्रोधादिक जीवात्माएँ परावलम्बी, पराधीन और दुखी है! सुखी और । होते हैं, वैसे क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते अतः दुख और स्वावलम्बी होने की बाधा है-प्रतिपक्षी कर्म की शक्ति की, जो । आकुलता का मूल कारण दर्शन-मोह ही कहा गया है जो सर्व स्वरूप जागरण स्वरूप श्रद्धान-ज्ञान और स्वरूप रमण में अवरोध कर्मों में प्रधान है। घातिया कर्मों का क्षय करने वाला स्नातक उत्पन्न करती है। जिस प्रकार मेघ-पटल के कारण सूर्य का प्रकाश
कहलाता है। आवृत हो जाता है, और जितना-जितना मेघ-पटल घटता जाता है, दूसरे वर्ग में चार अघातिया कर्म आतें हैं जिनके उदय में उतना-उतना सूर्य प्रकाश फेंकता जाता है; उसी प्रकार मोह-राग-द्वेष जीवों को सुख-दुख की वाह्य सामग्री आदि मिलती है, जैसे-(१) के विकारी भावों के कारण जड़-कर्म-परमाणु आत्मा की सहज साता-असाता रूप इष्ट-अनिष्ट सामग्री देने वाला वेदनीयकर्म, (२) स्वभाव शक्तियों को आवृत कर लेते हैं। इससे आत्मा की दिव्यता, । किसी शरीर विशेष में आत्मा को रोके रखने वाला आयु कर्म। (३) । भव्यता और स्वाधीनता बाधित हो जाती है। जितने-जितने अंशों में शरीर, गति, जाति, इन्द्रियाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि ढाँचा आदि द्रव्य कर्मों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है उतने-उतने अंशों देने वाला नाम कर्म तथा (४) नीच-उच्च कुल प्रदान करने वाला में ज्ञान-दर्शन स्वभाव प्रकट होता है, शेष ढंका रहता है।
गोत्र कर्म। यह कर्म यद्यपि जीव के ज्ञानादि स्वभाव को नहीं घातते जैन दर्शन में बन्ध योग्य कार्मण-वर्गणाएँ कर्म कहलाती हैं, ।
किन्तु उनके उदय से सुख-दुख की सामग्री, मान-अपमान, जीव के शुभ-अशुभ भावों के निमित्त से जो कर्म आत्मा से बंधते
जन्म-मृत्यु, गति-जाति, उच्च-नीच कुल आदि प्राप्त होते हैं। हैं, वे द्रव्य कर्म कहलाते हैं। द्रव्य-कर्म अपनी स्थिति या काल के भावों की विविधता, विचित्रता और अनेकरूपता के अनुसार अनुसार उदय में आते हैं। कर्मों के उदय में जीव के जो मोह-राग
कर्मों के अनेक भेद-प्रभेद होते हैं फिर भी उन्हें व्यापक रूप से द्वेष रूप विकारी-भाव उत्पन्न होते हैं वे भाव-कर्म कहलाते हैं, तथा १६८ कर्म प्रकृतियों में विभाजित किया है। घातिया कर्मों में द्रव्य कर्मों के उदय से शरीर इन्द्रियादि प्राप्त होती हैं वे नो-कर्म ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की नौ, मोहनीय में दर्शन मोह कहलाते हैं। कर्म का बन्ध विभावी-भावों से होता है। जिनका उदय की तीन और चारित्र मोह की २५, और अन्तराय की ५ प्रकृतियाँ द्रव्य-कर्मों के कारण होता है। द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव
{ होती हैं। अघातियाँ कर्मों में वेदनीय की दो, आयु की चार, कर्म से द्रव्य कर्म-बन्ध की प्रक्रिया निरन्तर चलती है।
नामकर्म की ११३ और गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ होती है। इन
१६८ प्रकृतियों में ६८ पुण्य प्रकृतियाँ और १०० पाप प्रकृतियाँ व घातिया-अघातिया कर्मों का वर्गीकरण-आत्मा के संदर्भ में कर्मों
होती हैं। कर्म-बन्ध योग्य १२० होती है जिनमें ५८ अप्रतिपक्षी के प्रतिपक्षी प्रभावों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-घातिया
और ६२ प्रतिपक्षी होती हैं। अबन्ध योग्य २८ होती हैं। कर्म और अघातिया कर्म! पहले वर्ग में आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव को घातने/बाधित करने वाले कर्म आते हैं जैसे-(१) ज्ञान
एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार जीव विपाकी ७८, पुद्गल गुण को घातने वाला प्रतिरोधी ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शन गुण को
विपाकी ८२, भव विपाकी ४, और क्षेत्र विपाकी ४ होती हैं। घातने वाला प्रतिरोधी दर्शनावरण कर्म, (३) आत्म श्रद्धान रूप अभव्य जीवों को ४७ ध्रुबबंधी कर्म-प्रकतियों का अनादिसम्यक्त्व एवं स्वरूप-रमण रूप चारित्र को घातने वाला प्रतिरोधी । अनन्त बंध होता है। भव्य जीवों को ७३ अध्रुवबंधी कर्म प्रकृतियों
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का सादि-अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध होता है। निरन्तर-बंधी ५४ । कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। चार सुज्ञान, तीन अज्ञान, कर्म प्रकृतियाँ हैं। सान्तर-बंधी ३४ कर्म प्रकृतियाँ हैं। सान्तर- तीन दर्शन, पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र, और निरन्तर बंध वाली ३२ कर्म प्रकृतियाँ हैं। मिथ्यात्व आदि २७ । देश संयम यह अठारह भाव क्षायोपशमिक भाव होते हैं। इनमें चार कर्मप्रकृतियों का बन्ध तब होता जब वही कर्म प्रकृतियाँ उदय में सुज्ञान, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र तथा देश आती हैं, इन्हें स्वोदय-बंधी कहते है। कर्म प्रकृतियाँ अत्यन्त घातक संयम आत्मा के स्वभाव-भाव में साधक होते हैं। शेष तीन अज्ञान, और दुर्दमनीय होती हैं। तीर्थंकर, नरकायु आदि ग्यारह कर्म दो दर्शन एवं पाँच लब्धि विभाव-भाव होने के कारण दुख-स्वरूप प्रकृतियाँ परोदय बंधी हैं। शेष ८२ कर्म प्रकृतियाँ स्वोदय बंधी हैं। हैं। औपशमिक भाव कर्मों के उपशम से होते हैं। यह दो प्रकार का भावों के अनुसार पूर्ववद्ध कर्म प्रकृतियों में संक्रमण
है-पहला औपशमिक सम्यक्त्व और दूसरा औपशमिक चारित्र। यह (सातावेदनीय से असातावेदनीय आदि), उत्कर्षण, अपकर्षण,
दोनों भाव आत्म स्वभाव में साधक होते हैं। क्षायिक भाव प्रतिपक्षी उदय-उदीरणा, उपशान्तकरण आदि होता रहता है। इस दृष्टि से
कर्मों के क्षय से प्रकट होते हैं। गृह नौ प्रकार के हैं केवल दर्शन, आत्म स्वभाव और विभाव-भाव का स्वरूप समझना आवश्यक है।
केवल ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र तथा दान-लाभ
भोग-उपभोग-वीर्य की पाँच लब्धियाँ। घातिया कर्मों के क्षय होने पर कर्म-बन्ध का आधार विभाव-भाव-चेतन और जड़-कर्म
शुद्ध ज्ञान-दर्शन युक्त शुद्ध पर्याय का उदय होता है। जो शक्तियों के बन्ध का कारण आत्मा के विभाव-भाव हैं। भाव से ही।
कार्य-परमात्मा कहलाता है। इस प्रकार जीव के शुद्ध स्वभाव रूप मोक्ष, स्वर्ग और नरक मिलता है। भाव से ही उपलब्धि होती है।
परम पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर क्षयोपशम और उपशम भाव विहीन क्रिया निरर्थक होती है। जैसा भाव, वैसा कार्य। जैसा
रूप सुज्ञान एवं अपूर्ण शुद्ध पर्याय के साधन से वीतराग रूप शुद्ध कार्य, वैसा फल।
स्वभाव पर्याय का उदय होता है। इनसे प्रतिपक्षी क्रोधादिक प्रश्न यह है कि भाव क्या है? चेतन पुद्गल द्रव्यों के । औदयिक-विभाव भाव तथा अज्ञान आदि क्षायोपशमिक विभवों से अपने-अपने स्वभाव-भाव होते हैं, वे सब भाव कहलाते हैं। भवन । उत्पन्न अशुद्ध-पर्याय का विनाश हो जाता है। कर्म-बंध एवं निष्कर्म भवतीति वा भावः अर्थात् जो होता है, सो भाव है। इसमें होना' हेतु भावों की प्रकृति-स्वरूप और उनकी भूमिका सम्यक रूप से शब्द महत्वपूर्ण है जो करने या न करने के भाव से रहित है। समझना आवश्यक है। 'भावः चित्परिणामो' के अनुसार चेतन के परिणाम को भाव कहते
'सुद्धं सुद्ध सहाओ अप्पा अप्पम्मितं च णायव्वं' हैं। 'शुद्ध चैतन्य भावः' के अनुसार सहज शुद्ध चैतन्य भाव ही शुद्ध
(भाव पाहुड-७७) के अनुसार जीव का शुद्ध भाव है सो अपना भाव है। इस प्रकार आत्मा का शुद्ध ज्ञान-दर्शनादि भाव ही उसके
शुद्ध स्वभाव आप में ही है। शेष विभाव भाव अशुद्ध हैं। भावों को भाव हैं। आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यभाव में रहे, यही उसका धर्म है।
निम्न चार्ट द्वार स्पष्ट किया है। किन्तु कर्मों के उदय के अनुसार मोह-राग-द्वेष भाव आत्मा में उत्पन्न होते रहते हैं, जो अधर्म रूप है।
भाव/परिणाम जब जैसा भाव होता है, वैसा ही कर्म-बन्ध होता है। इस प्रकार
शुद्ध स्वभाव भाव
अशुद्ध विभाव-भाव आत्मा के भाव दो प्रकार के होते हैं, पहला-कर्म-निरपेक्ष भाव और
शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टाभाव
मोह-राग-द्वेष के भाव दूसरा कर्म सापेक्ष भाव। कर्म-निरपेक्ष भाव जीव का त्रिकाली पारिणामिक भाव है जो प्रत्येक जीव के साथ प्रत्येक अवस्था में
मोह
राग सदैव बना रहता है। यह भाव जीवों की मूल शक्ति है जो जीवत्व
अशुभ भाव शुभ-अशुभ भाव अशुभ भाव से सम्बद्ध है। जीवत्व भाव शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा भाव है जो कारण स्वभाव-विभाव में उपयोग की भूमिका-जीव चेतना स्वरूप है। Peo परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता है। जीव भी भव्य और अभव्य जीव की परिणति या व्यापार उपयोग कहलाता है। उपयोग दो - दो प्रकार के होते हैं। भव्य जीव परमात्म स्वरूप शुद्ध होने की प्रकार का होता है-ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग। यह वे साधन GOODS पात्रता रखते हैं।
हैं जिनसे जीव के भावों की परिणति व्यक्त होती है। 'दर्शन' Dee जीव के कर्म-सापेक्ष भाव चार प्रकार के हैं-औदयिक भाव,
अन्तर्चित प्रकाश का सामान्य प्रतिभास होने से वचनातीत, क्षायोपशमिक भाव, औपशमिक भाव और क्षायिक भाव। औदयिक
निर्विकल्प और अनुभवगम्य होता है। 'ज्ञान' बाह्य पदार्थों का विशेष भाव मोह-राग-द्वेष के विभाव भाव हैं जो पूर्व-वद्ध कर्मों के उदय
प्रतिभास होने के कारण वचन-गोचर और सविकल्प होता है। जीव के कारण पर-वस्तुओं के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। यह भाव पुनः
का ज्ञान-दर्शनात्मक व्यवहार शुद्ध, शुभ और अशुभ रूप तीन कर्मबन्ध के कारण बनते हैं। मनुष्यादि चार गति, क्रोधादि चार
प्रकार का होता है। जब जीव का उपयोग ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में कषाय, तीन वेद, छह लेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम और
मात्र 'होने-रूप' होता है तब वह निर्विकल्प और शुद्ध होता है, जो असिद्धत्व यह इक्कीस आत्मा के विभाव-भाव हैं। क्षायोपशमिक भाव शुद्धोपयोग कहलाता है। जब जीव का ज्ञान-दर्शनात्मक व्यापार पर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । वस्तुओं का आश्रय लेकर शुभ या अशुभ विकल्प रूप होता है, तब हैं। संवर-निर्जरा उपादेय-ग्रहणीय हैं और मोक्ष उसका फल है। इन वह क्रमशः शुभोपयोग और अशुभ उपयोग कहलाता है। धर्म-ध्यान, सात तत्वों की प्रक्रिया कर्म-बन्ध से निष्कर्म की प्रक्रिया कहलाती है। जीव दया, सद् विचार, सद् वचन, सद् कार्य, दान अनुकम्पा,
कर्म-बन्ध का आधार-आत्मापराध-चेतन जीव और जड़ कर्मों पूजा-भक्ति, शुद्ध ज्ञान-दर्शनादिक आदि शुभोपयोग कहलाता है जो
का सम्बन्ध आत्मा के अपराध का फल है। यदि आत्मा अपने परम पुण्य-बन्ध और स्वर्ग सुख का कारण है। आर्त-रौद्रध्यान, क्रूरता,
पारिणामिक शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा भाव रूप रहे तब वह संसिद्धि या मिथ्याज्ञान-दर्शनादिक, असद् विचार, असद् वचन, असद् कार्य
राध रूप कहलाता है। इसका अर्थ अपने स्वभाव रूप-होने-में-होना और हिंसादि पाँच पाप रूप प्रवृत्ति अशुभ उपयोग कहलाता है जो
कहलाता है। इसे ही शुद्ध पर्याय कहते हैं। किन्तु अनादि काल से पाप-बन्ध और नरक-दुख का कारण है।
आत्मा ने अपने इस होने-रूप-ज्ञायक-स्वभाव को नहीं पहिचाना और भाव और उपयोग का सम्बन्ध-जीव के भाव और उपयोग । पर-पदार्थों के प्रति ममत्व, कर्ता-भोक्ता एवं स्वामित्व के इष्ट-अनिष्ट यद्यपि समानार्थी जैसे लगते हैं किन्तु इनमें आधार-भूत अन्तर है। । सम्बन्ध बनाये हैं। स्व-का-विस्मरण और पर-में-रमण का आत्मभाव जीव के शुद्ध, शुभ और अशुभ भावों या परिणामों का सूचक अपराध ही कर्म बन्ध का आधार है। 'जो आत्मा अपगतराध हैं। उपयोग जीव के अन्तरंग भावों के अनुसार उसकी ज्ञान- अर्थात् राध या संसिद्धि से रहित है, वह आत्मा का अपराध है' दर्शनात्मक परिणति का सूचक है। शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा भाव से । (समयसार-३०४)' 'जो पर द्रव्य को ग्रहण करता है वह अपराधी शुद्धोपयोग, प्रशस्त राग से शुभोपयोग और मोह-द्वेष तथा अप्रशस्त है, बंध में पड़ता है। जो स्व-द्रव्य में ही संवृत्त है, ऐसा साधु राग से अशुभोपयोग की प्रवृत्ति होती है। भाव और उपयोग के निरपराधी है' (समयसार कलश १८६)। अनुसार कर्म से निष्कर्म/मोक्ष की चौदह श्रेणियाँ हैं, जो गुणस्थान
आत्म-अपराध का कारण-तत्वार्थ सूत्र के अध्याय ८ का प्रथम कहलाती हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र गुणस्थानों में क्रमशः
सूत्र है-“मिथ्या दर्शनाविरति प्रमाद कषाय योगा बन्ध हेतवः'' घटता हुआ अशुभ उपयोग होता है। अविरत सम्यक्त्व, संयमासंयम
अर्थात् मिथ्यात्व (दर्शन मोह), अविरति-प्रमाद-कषाय (चारित्र मोह) एवं प्रमत्त विरत गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का साधक क्रमशः बढ़ता
और योग, यह कर्म-बन्ध के कारण हैं। इनमें मिथ्यात्व-आत्म हुआ शुभ उपयोग होता है। अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति
अश्रद्धान 'मोह' है। अविरति प्रमाद और कषाय राग द्वेष हैं तथा करण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत कषाय एवं क्षीण कषाय गुणस्थानों
मन-वचन-काय की शुभ-अशुभ रूप प्रवृत्ति 'योग' है। मोह-राग-द्वेष में तारतम्य पूर्वक बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग होता है। सयोग और
जीव के अशुद्ध पर्याय रूप विभाव-भाव हैं जबकि योग शरीराश्रित अयोग केवली गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल शुद्धात्मा रूप स्वभाव
क्रिया का परिणाम है। कार्य तत्व की उपलब्धि है। इस प्रकार भाव-लक्ष्य के अनुसार आत्मा के ज्ञान-दर्शन रूप व्यापार की परिणति से शुद्ध वीतराग
मन-वचन-काय के शुभ-अशुभ योग रूप स्पंदन होने से आत्मा पर्याय की उपलब्धि होती है (प्रवचनसार गाथा ९)। उपयोग की
के प्रदेश प्रकंपित होते हैं जिससे शुभ-अशुभ कर्मों का आश्रव प्रवृत्ति के अनुसार आगे-आगे के गुण स्थानों में कर्मों का उच्छेद भी (आगमन) होता है। पश्चात् मोह-राग-द्वेष के भावों की सचिक्कणता होता जाता है, यथा-मिथ्यात्व गुणस्थान में १६, सासादन में २५, क अनुसार कम-बन्ध हाता हा आयु कम-बन्ध को छोड़कर शेष अविरत सम्यक्त्व में १०, संयमासंयम में ४, प्रमत्त विरत में सात कर्मों का बन्ध विभाव-भावों के अनुसार एक साथ होता है। अप्रमत्त विरत में एक, अपूर्वकरण में ३६, अनिवृत्तिकरण में ५,
कर्म-बन्ध के सम्बन्ध में प्रवचनसार की कुछ गाथाएँ महत्वपूर्ण हैं, सूक्ष्म सम्पराय में १६, और अयोग केवली में एक कर्म बन्ध की
जिनका अर्थ इस प्रकार हैव्युच्छिति होती है। अयोग केवली कर्म-बन्ध रहित होते हैं।
"जब आत्मा राग-द्वेष-मोह युक्त होता हुआ शुभ और अशुभ सात तत्व-'जीवाजीवाश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा- मोक्षास्तत्वम्' (त.
में परिणमित होता है तब कर्म-रज ज्ञानावरणादिक रूप से उसमें सूत्र अ. १- सू. १-४) जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा
प्रवेश करती है। प्रदेश युक्त यह आत्मा यथा काल मोह-राग-द्वेष के और मोक्ष यह सात तत्व कहलाते हैं। इन तत्वों की सही जानकारी
द्वारा कषायित होने से कर्म रज से लिप्त या बद्ध होता हुआ बंध और तदनुसार विश्वास से मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। आध्यात्मिक
कहा गया है (गाथा १८७/१८८)।" "रागी आत्मा कर्म बांधता है, संदर्भ में जीव ज्ञायक आत्मा है। अजीव जड़ कर्म हैं। मन-वचन
राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है- यह जीवों के बन्ध का काय की शुभ-अशुभ योग रूप प्रवृत्ति से कर्मों का आत्म प्रदेशों में
संक्षेप निश्चय से है। परिणाम से बन्ध है, जो परिणाम राग-द्वेष-गोह आगमन आश्रव है। मोह-राग द्वेष के भावों के कारण कर्मों का
। युक्त है। उनमें से मोह और द्वेष अशुभ है और राग शुभ और आत्म प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध कर्म-बन्ध है। कर्मों का अशुभ है (गाथा १७९-१८०)।" आगमन रुकना संवर है तथा सम्यक् तप पूर्वक पूर्ववद्ध कर्मों का कर्म-बन्ध-विधान-कर्म बन्ध चार प्रकार का होता है-प्रकृति बिना फल दिये झड़ना निर्जरा है। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय या नाश बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध। आचार्य वट्टकेर मोक्ष तत्व है। इनमें जीव-अजीव ज्ञेय, आश्रव और कर्म-बन्ध हेय-त्याज्य ने मूलाचार में कहा है कि "कर्मों का ग्रहण योग के निमित्त से
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होता है। वह योग मन-वचन-काय से उत्पन्न होता है। कर्मों का बन्ध कषाय ही अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है जो मिथ्यात्व की भावों के निमित्त से होता है और वह भाव रति-राग-द्वेष-मोह सहित सहगामी है। मिथ्यात्व की ग्रंथि टूटते ही अनन्तानुबन्धी कषाय का होता है (गाथा ९६८)” सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनन्दी ने मूलाचार की अभाव हो जायेगा। ऐसा नहीं है कि अनन्तानुबन्धी कषाय को मंद आचार वृत्ति टीका में उक्त भाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है। करने से मिथ्यात्व की ग्रंथि टूटे, क्योंकि कषाय भाव मंद करने या 'मन-वच-काय के कर्म का नाम योग है, ऐसा सूत्रकार का वचन । रोकने का भाव भी कर्त्तापने की पुष्टि है, जो जैनागम को इष्ट नहीं है। 'भाव' के निमित्त से बन्ध अर्थात् आत्मा के साथ संश्लेष है। आत्मा तो ज्ञायक अकर्ता-अबद्ध है। सम्बन्ध होता है जो स्थिति और अनुभाग रूप है। 'स्थिति और
_कर्म बन्ध के भेद-दो परस्पर विरोधी द्रव्यों के मध्य बन्ध के अनुभाग कषाय से होते हैं' ऐसा वचन है। 'अथ को भाव इति प्रश्ने
चार अंग हैं-(१) ज्ञान स्वभावी जीवात्मा, (२) जीवात्मा का मोह भावो रति राग द्वेष मोह युक्तो मिथ्यात्वासंयम कषाया इत्यर्थ इति।।
राग द्वेष युक्त विभाव भाव, (३) पुद्गल के कर्म बन्धन योग्य भाव क्या है? रतिराग द्वेष मोह युक्त परिणाम भाव कहलाते हैं।
परमाणु और (४) उदय में आने वाले पूर्व वद्ध द्रव्य-कर्म। इनके अर्थात् मिथ्यात्व, असंयम और कषाय भाव स्थिति बंध और
मध्य तीन प्रकार का बन्ध होता है-पहला- जीव बन्ध जो जीव के अनुभाग बन्ध के कारण है।” आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा
मोह राग द्वेष रूप पर्यायों के एकत्व-भाव से होता है। इससे १८८ में 'सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोह राग दोसेहि' कहकर
क्रोधादिक मनोविकारों का विस्तार निरन्तर होता जाता है। दूसराइसी भाव की पुष्टि की है। आचार्य भगवन्तों के इन कथनों के
अजीव-बंध जो पुद्गल कर्मों के स्निग्ध-रूक्ष स्वभाव के कारण स्पर्श सन्दर्भ में संसार दुख के मूल अर्थात् मिथ्यात्व को कर्म-बन्ध में गौण
विशेषों के एकत्व-भाव से होता है। तीसरा-उभय बन्ध जो जीव या अकार्यकारी जैसा कहना युक्ति-आगम के भावों के अनुकूल
तथा पुद्गल-कर्म के परस्पर भावों के निमित्त मात्र से उनके सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में विवेक संगत विचारणा
एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध से होता है। इस प्रकार विभावों से विभावों अनिवार्य है।
का बन्ध होता है । कर्मों से कर्मों का बन्ध होता है। और जीव तथा षटखंडागम के बन्ध स्वामित्व विचय, खण्ड ३ की पुस्तक ८ में । कर्मों के भावों के परस्पर निमित्त से उनके मध्य एकक्षेत्रावगाह गुणस्थानों की दृष्टि से कर्म-बन्ध-विधान भी इसी तथ्य की पुष्टि सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध भी ऐसा होता है कि कर्म के प्रदेश करता है-"प्रथम गुणस्थान में चारों प्रत्ययों (अर्थात् मिथ्यात्व, आत्मा का स्पर्श भी नहीं कर पाते। शुद्ध ज्ञान स्वभावी पर्याय असंयम, कषाय और योग) से होता है। इससे ऊपर के तीन कर्म-आवद्ध होती है। यह तभी सम्भव है जब जीव कर्मोदय जन्य गुणस्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष तीन प्रत्यय संयुक्त बंध
क्रोधादिक विकारी भावों को अपना न माने और उनका मात्र होता है। संयम के एकदेश रूप देश संयत गुणस्थान में दूसरा
ज्ञायक ही बना रहे। आत्मा का ज्ञायक साक्षी भाव स्वभाव है। इससे असंयम प्रत्यय मिश्र रूप तथा उपरितन कषाय व योग ये दोनों
नवीन कर्म बन्ध की प्रक्रिया रुकती है और कर्म से निष्कर्म का प्रत्ययों से बन्ध होता है। इसके ऊपर पाँच गुणस्थानों में कषाय
मार्ग प्रशस्त होता है जो मोक्ष मार्ग कहलाता है। और योग इन दो प्रत्ययों के निमित्त से बन्ध होता। पुनः उपशान्त मोहादि तीन गुणस्थानों में केवल योग निमित्तक बन्ध होता है।
___मोक्ष मार्ग का स्वरूप-तत्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम इस प्रकार गुणस्थान क्रम में आठ कर्मों के ये सामान्य प्रत्यय हैं
सूत्र है-'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' अर्थात् सम्यग्दर्शन, (पृष्ठ २४)।
सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है।
इससे आत्मा कर्मों की पराधीनता से मुक्त होकर स्वावलम्बी बनता कर्म-बन्ध में इतना विशेष है कि मिथ्यात्व आदिक १६ कर्म
है। इसका अर्थ है ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा का अपने स्वभाव में प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व निमित्तक है क्योंकि मिथ्यात्व के उदय
श्रद्धान या रुचि, उसका सम्यक ज्ञान और आत्म रमणता ही के बिना इनके बन्ध का अभाव है। २५ कर्म प्रकृतियाँ
मोक्षमार्ग है। यह तभी सम्भव है जब आत्म स्वभाव साधना से इन अनन्तानुबन्धी कषाय निमित्तक हैं, १० कर्म असंयम निमित्तक हैं,
गुणों के प्रतिपक्षी कर्म और उनके कर्मों के कारक मिथ्यात्व, ४ प्रत्याख्यानावरण अपने ही सामान्य उदय निमित्तक हैं, ६ कर्म
असंयम और कषाय भावों का अभाव हो जाये। यह कार्य संवर प्रमाद निमित्तक हैं, देवायु मध्यम विशुद्ध निमित्तक है, आहारद्विक
और निर्जरा पूर्वक होता है। विशिष्ट राग से संयुक्त संयम निमित्तक हैं, और परभव निबन्धक सत्ताईस कर्म एवं हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और चार
धर्म का आधार है अटूट-विश्वास, अपने आराध्य के प्रति। संज्वलन कषाय, ये सब ३६ कर्म कषाय विशेष के निमित्त से जैन-दर्शन में किसी परम शक्ति को आराध्य नहीं माना गया। एक बंधने वाले हैं, क्योंकि इसके बिना उनके भिन्न स्थानों में बन्ध । मात्र अपनी आत्मा ही परम देव और आराध्य है। आत्मा का व्युच्छेद की उत्पत्ति नहीं बनती (वही पृष्ठ ७६.७७)। इन अनुभव ही धर्म की पहली कक्षा है जहाँ से कर्मों का प्रवेश रुकता आगम-प्रमाणों के संदर्भ में कर्मबन्ध में मिथ्यात्व और कषाय भावों है। आगम में कहा है-आश्रव निरोधः संवरः'। जब मन-वचन-काय की भूमिका स्पष्ट होती है। मिथ्यात्व (दर्शन मोह) के उदय में उत्पन्न की प्रवृत्ति से निवृत्ति तथा निर्विकार-निर्विकल्प शुद्ध आत्म स्वरूप यमनएलयलयर
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । BOD 500 की अनुभूति होती है तब पुद्गल कर्मों का आत्म प्रदेशों में आगमन क्षय-नहीं होता (पृष्ठ २३७)।" धवला १.१.१ गाथा ४८ एवं ५१
स्वतः रुक जाता है। यह कार्य स्व-पर के भेद-विज्ञान पूर्वक होता भी मननीय है-“प्रवचन अर्थात् परमागम के अभ्यास से मेरु समान 66 है, जो आत्मा की ज्ञानात्मक सहज-क्रिया है। संवर में बुद्धिपूर्वक निष्कम्प, आठ मल-रहित, तीन मूढ़ताओं से रहित अनुपम
सहकारी होते हैं-तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह भावनायें { सम्यग्दर्शन होता है। अज्ञान रूपी अन्धकार के विनाशक भव्य जीवों 696 00. 00 बाइस परिषहजय और पाँच चारित्र। इनसे ऐसा पर्यावरण निर्मित के हृदय को विकसित और मोक्ष पक्ष को प्रकाशित करने वाले
होता है जो ज्ञान स्वभावी आत्मा को ज्ञान के द्वारा स्व-ज्ञेय में । सिद्धान्त को भजो।" बुद्धि पूर्वक तत्व विचार से मोहकर्म का स्थापित होने में (करने में नहीं) सहयोग करता है। इस प्रक्रिया में । उपशमादिक होता है। इसलिए स्वाध्याय, तत्व-विचार में अपना
ज्ञान-दर्शनात्मक आत्मा का उपयोग अपनी ओर ही होता है और उपयोग लगाना चाहिए, इससे ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान होता है। ED.SED विकल्पात्मक भाव का भेद विलय हो जाता है।
कर्मों की निर्जरा आत्म ध्यान से होती है। एकाग्रता का नाम शुद्धात्मा की प्राप्ति का दूसरा चरण है निर्जरा। अनादिकाल से ध्यान है। “चारित्र ही धर्म है जो मोह क्षोभ रहित आत्मा का आत्मा के साथ कर्मों का बन्धन है जो उसे पर-द्रव्यों में शुभाशुभ परिणाम है। द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है उस प्रवृत्ति कराते हैं। विकार-विभाव की उत्पत्ति की जड़ हैं-कर्म का । समय उस भाव-मय होता है। इसलिए धर्म परिणत आत्मा स्वयं धर्म उदय एवं कर्मों की सत्ता। निर्जरा से कर्मों की सत्ता का नाश होता होता है। जब जीव शुभ अथवा अशुभ भाव रूप परिणमन करता है है, वह भी करना नहीं पड़ता, क्योंकि 'करना' अधर्म है, होना धर्म । तब स्वयं ही शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्ध भाव रूप है। पूर्वबद्ध कर्मों की सत्ता की निर्जरा 'तपसा निर्जरा च' के । परिणमन करता है तब शुद्ध होता है" (प्र. सार ६ से ७)। अनुसार तप से होती है। प्रकारान्तर से इच्छा के निरोध को भी तप निरुपाधि शुद्ध पारिणामिक भाव और निज शुद्धात्मा ही ध्यान का कहते हैं। उत्तम क्षमादि दश धर्मों में भी तप सम्मिलित है। इस ध्येय होती हैं इससे ज्ञान-ज्ञायक-ज्ञेय तीनों का आनन्दमय मिलन प्रकार तप से कर्मों का संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं। होता है जिसका फल है प्रतिपक्षी कर्मों की पराजय-ध्वंस। ध्यान
चार प्रकार का है-आर्तध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल तब बारह प्रकार के हैं-छह अंतरंग और छह बहिरंग। अंतरंग
ध्यान। इनमें आर्तध्यान और रौद्र ध्यान शुभ-अशुभ रूप र तप आत्माश्रित हैं, वे हैं-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय,
मोह-राग-द्वेष उत्पन्न कराते हैं अतः अधर्म स्वरूप है। धर्म ध्यान व्युत्सर्ग और ध्यान। इससे ज्ञायक आत्मा अपने ज्ञान स्वरूप में
और शुक्ल ध्यान आत्मोपलब्धि एवं वीतरागता उत्पन्न कराते हैं। होने-जैसी-रहती हैं। बहिरंग तप शरीराश्रित हैं, वे हैं-अनशन, भूख
धर्म ध्यान शुभ रूप होता है और शुक्ल ध्यान वीतराग। अवलम्बन के कम खाना (ऊनोदरी) भिक्षा चर्या, रस परित्याग, विविक्त
की दृष्टि से ध्यान के चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और शैय्यासन और काय क्लेश। यह तप शरीर और मन की ऐसी सहज
रूपातीत। इस प्रकार संवर और तप से कर्मों का क्षय होता है और स्थिति निर्मित करते हैं जिससे साधक अंतरंग तप के द्वारा शुद्धात्मा
राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा के ज्ञानादि गुण प्रकट होते हैं। में स्थित रह सके। बहिरंग तप करते समय यदि आत्मा की
निर्जरा दो प्रकार की है- सविपाक और अविपाक। सविपाक उपलब्धि का भाव-बोध नही है तो वह शुद्धि की दृष्टि से
निर्जरा सभी जीवों की होती रहती हैं। अविपाक निर्जरा अर्थात् निरर्थक है।
बिना फल दिये कर्मों का झड़ना सम्यक् तप से ही होती है जो कर्मों की निर्जरा हेतु सभी तप एक साथ, आवश्यकतानुसार निष्कर्म का मूल है। उपयोगी हैं किन्तु अन्तरंग तप में स्वाध्याय और ध्यान तप _____कर्म से निष्कर्म का फल-सम्यक् तप का फल है वीतरागता की महत्वपूर्ण है। स्वाध्याय की नींव पर मोक्ष-मार्ग स्थित है। सत्शास्त्र
उत्पत्ति। धर्माचार से यदि राग-द्वेष का अभाव न हो तो वह का पढ़ना, मनन, चिन्तन या उपदेश ही स्वाध्याय है। जागरूकता
निष्फल-निरर्थक होता है। संवर-निर्जरा से तप की अग्नि में जब पूर्वक ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है। इससे कर्म संवर और
समस्त कर्म-कलंक भस्म हो जाते हैं तब आत्म पटल पर केवल निर्जरा होती है। “जिन शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को
ज्ञान-दर्शनादि नौ लब्धियों का दिव्य सूर्य उदित होता है और आत्मा जानने वाले के नियम से 'मोह-समूह' क्षय हो जाता है, इसलिए
परम-शुद्ध, परिपूर्ण, स्वतंत्र, स्वाधीन और स्वावलम्बी हो जाता है। शास्त्र का सम्यक प्रकार से अध्ययन करना चाहिए (प्रवचनसार । उसके शाश्वत ज्ञान-आनन्द के समक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान-सखाभाव ८६)। आगम हीन श्रमण निज आत्मा और पर को नहीं जानता,
सभी अकिंचित्कर सिद्ध हो जाते हैं। मोह राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों का क्षय किस प्रकार
मिथ्यात्व, असंयम/कषाय आदि का अभाव होने से कर्म-बन्ध का करेगा? (पृष्ठ २३३)। साधु आगम चक्षु है, सर्व इन्द्रिय चक्षु वाले मार्ग सदैव के लिए अवरुद्ध हो जाता है। आत्मा विज्ञान घन रूप हैं, देव अवधि चक्षु वाले हैं और सिद्ध सर्वतः चक्षु हैं (पृष्ठ वीतराग आनन्द-शिव स्वरूप हो जाता है। आत्मा की इस स्वावलम्बी
से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि-कर्म । अवस्था को ही निष्कर्म का फल-मोक्ष कहते हैं।
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
कर्म से निष्कर्म का आधार : मोहग्रंथि का क्षय - संसारी जीवात्माओं के अन्दर निरन्तर संघर्ष चल रहा है। एक ओर है, प्रतिपक्षी कर्मोदय से उत्पन्न मोह-राग-द्वेष रूपी कषायों के विभाव भाव जो निरन्तर आकुलता व्याकुलता उत्पन्न कर पर-द्रव्यों से अनन्त सम्बन्ध स्थापित कराते हैं। दूसरी ओर है, आत्मा की पारिणामिक भाव और कर्मों के क्षयोपशमादि से उत्पन्न ज्ञान-दर्शन अर्थात् जानने देखने की अल्प शक्ति। उसके साधन हैं-भेद विज्ञान की विचार दृष्टि और ज्ञान-दर्शनात्मक उपयोग। लक्ष्य है-कर्मशत्रुओं का नाश कर स्वावलम्बी शुद्धात्मा का पर्याय रूप उपलब्धि और तदनुसार स्वभाव रूप धर्म की प्राप्ति
विचार-दृष्टि मोहित भ्रमित होकर मोहादि कषायों का साथ देकर अनन्त संसार की वृद्धि करती है। यदि ज्ञान शक्ति स्व-पर के भेद-विज्ञान द्वारा आत्म स्वभाव का पक्ष लेकर उस ओर झुकती / ढकती है तब विभाव-विकार उदयागत होकर भी निष्प्रभावी हो जाते हैं और कर्म शक्ति की वृद्धि को रोकते हैं। फिर ज्ञानात्मक उपयोग का आत्मा से निरन्तर सम्पर्क / अनुभव से पूर्व संग्रहीत कर्म-शक्ति का नाश होता है। इस प्रक्रिया में आत्मा को किसी पर-द्रव्य या कषायादि विभाव-भावों के प्रति कुछ करना / रोकना नहीं पड़ता, मात्र सहज स्वाभाविक रूप से तटस्थ रहकर जानना और साक्षी होना होता है। बनना भी नहीं पड़ता क्योंकि बनना बनाना कर्त्ता-कर्म का जनक है जो स्वभाव के प्रतिकूल है। ऐसा ज्ञायक होते-होते एक समय ऐसा आता है जब स्व-होय, ज्ञान-ज्ञायक के एकत्व से कर्म सेना दुर्बल होते-होते धराशायी हो जाती है। आत्मा अन्त में सिद्ध जैसा शुद्ध होगा। ज्ञान और ज्ञायक दृष्टि से सिद्ध और संसारी जीव समान है अन्तर है 'ज्ञेय' की भूमिका का सिद्ध भागवान का ज्ञेय उनकी स्वयं आत्मा है। संसारी जीव का ज्ञेय पर वस्तुएँ और अनन्त पर-संसार है। सिद्ध भगवान निरन्तर धारावाही रूप से स्व-संवेदन स्वरूप आतिथ्य आत्मानंद में लीन हैं जिसके समक्ष इन्द्रियजन्य सुख अकिंचित्कर, श्रणिक-वाधित है। अतः सिद्ध जैसा होने के लिए आवश्यक है कि भेद-विज्ञान द्वारा अपने ज्ञान और ज्ञान दर्शनात्मक उपयोग को आत्मानुभव और आत्म-ज्ञान जैसा स्वभाव-रूप होने देकर शुद्धात्मा को उपलब्ध करें।
शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह ग्रन्थि का क्षय-अनन्त संसार का कारण मोह ग्रन्थि का क्षय शुद्धात्मा की उपलब्धि से होता है इसके लिए पर- द्रव्य में कुछ करना नहीं पड़ता। अपने ज्ञान स्वभाव को जानकर अपने में अपने द्वारा अपने को ही अनुभूत करना होता है। ऐसा करने से शुद्धात्मा की उपलब्धि के साथ ही मोह ग्रंथि या मिध्यात्व का क्षय हो जाता है। इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की गाथा १९१ से १९४ पठनीय और मननीय है जिनका अर्थ इस प्रकार है
'मैं पर का नहीं हूँ पर मेरे नहीं है में एक ज्ञान हूँ जो इस प्रकार ध्यान करता है, वह आत्मा ध्यान काल में शुद्धात्मा का
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ध्याता होता है (गाथा १९१ ) । मैं आत्मा को ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय, महा पदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध मानता हूँ ( गाथा १९२ ) । शरीर, धन, मुख-दुख, अथवा शत्रु-मित्रजन जीव के ध्रुव नहीं हैं। ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है (गाथा १९३) । जो व्यक्ति ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या निराकार, मोह दुग्रंथि का क्षय करता है (गाथा १९४ ) ।
समयसार गाथा ७३ में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने क्रोधादिक सर्व आश्रवों की निवृत्ति हेतु इसी मार्ग की पुष्टि की है, जो इस प्रकार है
अहमेक्को खलु सुद्धो निम्ममओ णाणदंसण समग्गो । तम्हि हिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ॥७३॥
अर्थ - निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ; उस स्वभाव में रहता हुआ, उस चैतन्य में अनुभव लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादिक सर्व आश्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ।
मोह ग्रंथि के क्षय हेतु अन्य उपाय भी प्रवचनसार में वर्णित हैं, जो प्रकारांतर से एक ही गन्तव्य को ले जाते हैं। 'जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण और पर्याय रूप से जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य नाश को प्राप्त होता है, क्योंकि अरहंत का इस प्रकार ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है (गाथा ८०) ' जो निश्चय से ज्ञानात्मक ऐसे अपने को और पर को निज-निज द्रव्यत्व से सम्बद्ध जानता है वह मोह का क्षय करता है। इस प्रकार भावात्मक स्व-पर विवेक से मोह क्षय होता है (गाथा ८९ / ९० ) ।' 'जिनशास्त्रों के अभ्यास द्वारा पदार्थों के सम्यक प्रकार से भाव -ज्ञान द्वारा भी मोह क्षय होता है (गाथा ८६) ।' इस प्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि, अरहंत भगवान की प्रतीति सहित आत्मा के ज्ञान, भाव-भासित स्व-पर विवेक एवं जिनशास्त्रों द्वारा पदार्थों के ज्ञान से दर्शन मोह ग्रंथि का क्षय होता है। इससे स्पष्ट है कि मोह-क्षय के लिए आत्म-ज्ञान-विहीन कषायादिक विभावों को मंद करने, रोकने या उनके विकल्पों में उलझने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता किन्तु सहज-शुद्ध ज्ञातादृष्टा रूप आत्मानुभव एवं शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह क्षय होता है। मोह सरोवर सूखने पर क्रोधादिक कषाय रूपी मगरमच्छों का निरंतरित अस्तित्व भी अल्पकालिक रह जाता है।
मोह ग्रंथि के क्षय का फल-दर्शन मोह के क्षय से स्वतंत्र आत्म दर्शन होता है और क्षोभ रहित अनाकुल सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रकट होता है। आगम के अनुसार प्रथम दर्शन मोह का क्षय - अभाव होता है पश्चात् क्रमिक रूप से चारित्र मोह का क्षय होकर आत्मा की शुद्ध ज्ञान-दर्शन पर्याय प्रकट होती है जो परावलम्बन का नाश करती है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'जो मोह ग्रन्थि को नष्ट करके, राग-द्वेष क्षय करके, सुख-दुख में समान होता हुआ श्रमणता
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में परिणमित होता है, यह अक्षय-सौख्य अर्थात् परम आनन्द को प्राप्त करता है (प्र, सार. १९५) । आत्मा का ध्यान करने वाले श्रमण निर्मोही, विषयों से विरक्त, मन के निरोधक, और आत्म स्वभाव में स्थित होकर आत्मा का ध्यान करते हैं ऐसी शुद्धात्मा को प्राप्त करने वाले श्रमण सर्व घातिया कर्मों का नाशकर सर्वज्ञ सर्व दृष्टा हो जाते हैं (१९६.१९७)। और तृष्णा, अभिलाषा, जिज्ञासा एवं संदेह रहित होकर इन्द्रियातीत अनाकुल परिपूर्ण ज्ञान से समृद्ध परम आनन्द का अनुभव-ध्यान करते रहते हैं (१९८) उनके इस परम आनन्द की तुलना में इन्द्रिय जन्य संसार सुख अकिंचित्कर-अकार्यकारी होता है, उसी प्रकार जैसे अंधकारनाशक दृष्टि वाले को दीपक प्रयोजन हीन होता है (गाथा ६७ ) |
आत्म श्रद्धान विहीन व्रत क्रियाएँ अकिंचित्कर-संक्षेप में आत्मा के साथ कर्म-बन्ध मिथ्यात्व, असंयम, कषाय एवं योग से होता है। जबकि कर्म से निष्कर्म का मार्ग प्रशस्त होता है ज्ञान सूर्य के उदय से जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अंधकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा के क्षितिज पर ज्ञान सूर्य उदित होते ही मोह-अंधकार विलीन हो जाता है। निष्कर्म का सूत्र है आत्म-श्रद्धान ज्ञान और चारित्र । भेद-विज्ञान पूर्वक आत्मानुभव से आत्म श्रद्धान एवं आत्मोपलब्धि होती है, जिससे मोह ग्रंथि का क्षय होता है। शुद्धात्मा के निरन्तर ध्यान रूप तप से राग-द्वेष का जनक-कारक चारित्र मोह का क्षय होकर आत्मा परम आनन्दमय होता है।
छह काया पर वह दया करे तन-मन से। दे सहायता दुखियों को तन से धन से ॥ कर तिरस्कार मारे न किसी को ताना ॥१॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
इस क्रम में व्रत क्रिया के शुभोपयोग रूप अनेक अनेक पडाव आते हैं और विलीन होते जाते हैं। यह तभी कार्यकारी होते हैं जब दृष्टि शुद्धात्मा पर होती है। आत्म श्रद्धान विहीन भाव-रहित व्रत- क्रियाएँ निष्कर्म मार्ग में अकिंचित्कर होती हैं। आगम में कहा भी है कि सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप भी तपै तो भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती" (दर्शन पा. ५ ) । इसी प्रकार चारित्र रहित ज्ञान, दर्शन रहित साधु लिंग तथा संयम रहित तप निरर्थक है ( शीलपाहुड ५) । भाव सहित द्रव्य लिंग होने पर कर्म का निर्जरा नामक कार्य होता है, केवल द्रव्य लिंग से नहीं । भाव रहित नग्नत्व अकार्यकारी है। हे, धैर्यवान् मुने, निरन्तर नित्य आत्मा की भावना कर (भाव पा. ५४-५५) ।
UPIT दे आश्रय आश्रय-हीन दीन जो आये । बेरोजगार को काम में तुरत लगाए । गिरता हो स्तर से ऊँचा उसे उठाना ॥ ३ ॥
उपसंहार जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जैसा देखता है, वैसा ही पाता है, आत्मा को शुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है और अशुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है (स. सार १८६ ) | कर्म से निष्कर्म होने हेतु परम पारिणामिक भाव आश्रित शुद्धात्मा का ज्ञान-ध्यान कर सभी परम सुख को प्राप्त करें, यही कामना है।
दयालु
है दया धर्म का मूल असूल पुराना ॥ श्रावक नही पीता पानी कभी अनछाना ॥टेर ।
पता :
के/ओ. ऑरियन्ट पेपर मिल्स अमलाई - ४८४११७ (म. प्र. )
भूखे को भोजन प्यासे को दे पानी रोगी को औषध दे कहलाये दानी ॥ अनुकंपा द्वारा धार्मिक लाभ कमाना ॥ २ ॥
बस दयालुता का सादा अर्थ यही है। समता का सेवन करना व्यर्थ नहीं है। "मुनिपुष्कर" श्रावक ले श्रमणों का बाना ॥ ४ ॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर- पीयूष से)
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
जैन दर्शन का मनोविज्ञान मन और लेश्या के सन्दर्भ में
जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ मनोविज्ञान की आज अपेक्षा न हो। इसका मूल कारण है कि विकार- तनाव अर्थात् त्रासमय प्राणी का मन अस्थिर अस्पष्ट होने के फलस्वरूप वह अनेक आपदाओं-विपदाओं से ग्रसित व्यथित है, अस्तु उसके जीवन की प्रत्येक क्रिया-प्रक्रिया और प्रतिक्रिया में असन्तोष और भय परिलक्षित है, आवेग आक्रोश समाविष्ट है। मन के विज्ञान-तन्त्र पर जब मनन- चिन्तन किया जाता है तो अनगिनत समस्याओं से सम्पृक्त वही व्यक्ति निश्चय ही अपने को इन समस्याओं से अलग-थलग पाता है। वास्तव में जो विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान आदर्शवादिता से परे यथार्थता से अनुप्राणित जीव के चेतन अथवा अचेतन मन के समस्त व्यवहारों-क्रियाओं का सम्यक् अध्ययन- विश्लेषण अर्थात् उसके रूप-स्वरूप का उद्घाटन करने में सक्षम हो वही वस्तुतः मनोविज्ञान है। जैनमनोविज्ञान किसी प्रयोगशालायी निकष पर नहीं अपितु आगम-मनीषियों / ध्यान-योगियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि पर अवस्थित है।
प्रस्तुत आलेख में 'जैन दर्शन का मनोविज्ञान मन और लेश्या के सन्दर्भ में' नामक सामयिक एवं परम उपयोगी व्यापक विषय पर संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है।
दृष्ट और अदृष्ट इन द्वय क्रियाओं में व्यक्ति का जीवन संचरण होता है। दृष्ट क्रियाओं का सीधा सम्बन्ध मन की चैतन्य अवस्था से रहा करता है जबकि अदृष्ट क्रियाएँ मन की अचेतन अवस्था के परिणामस्वरूप है। मनुष्य की ये समस्त क्रियाएँ उसकी मनोवृत्तियाँ कहलाती हैं। जैनदर्शन में मनोवृत्ति के मुख्यतः तीन रूप बताए गए हैं
१. ज्ञान
२. वेदना
३. क्रिया।
इन तीनों का ही एक दूसरे से शाश्वत तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध है क्योंकि जो कुछ ज्ञान जीव को होता है, उसके साथ-साथ वेदना और क्रियात्मक भाव भी स्थिर होने लगते हैं। प्रत्यक्षीकरण, संवेदन, स्मरण, कल्पना और विचार संवेदन नामक मनोवृत्तियाँ ज्ञान रूपी मनोवृत्ति सन्देश उत्साह स्थायी भाव और भावना नामक मनोवृत्तियाँ, वेदना तथा सहज क्रिया, मूलवृत्ति, स्वभाव, इच्छित क्रिया, चारित्र नामक मनोवृत्तियाँ, क्रिया मनोवृत्ति के अन्तर्गत आती हैं। इन त्रय मनोवृत्तियों के पल्लवन-विकसन से प्राणी का अन्तर्मन प्रबल होता है और संकल्प शक्ति स्थिर रहती है।
जैनदर्शन अध्यात्म अर्थात् आत्मवादी दर्शन है। यहाँ आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप अवस्थादि पर गहराई के साथ चिन्तन किया गया है। जैनदर्शन में आत्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शन मय माना गया
Passaged
-डॉक्टर राजीव प्रचडिया, एडवोकेट (एम. ए. (संस्कृत), बी. एस. सी. एल. एल. बी. पी. एच. डी. ) है।" इसके अमूर्त्तिक अर्थात् वर्ण गन्ध-रस स्पर्श आदि मूर्ति का अभाव होने के कारण साक्षात् दर्शन उपलब्धि हेतु जीव को 'इन्द्रियों' का अवलम्बन अपेक्षित रहता है। वास्तव में इन्द्रियाँ आत्मा के अस्तित्त्व की परिचायक हैं तथा आत्मा के द्वारा होने वाले संवेदन का साधन भी इन्द्रियाँ पाँच भागों में विभक्त हैं
२. चक्षु इन्द्रिय
४. रसना इन्द्रिय
१. जीव का शब्द ३. मिश्र शब्द ।
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१. श्रोत्र इन्द्रिय ३. घ्राण इन्द्रिय
५. स्पर्शन इन्द्रिय । २
ये पाँचों इन्द्रयाँ दो-दो प्रकार की होती हैं२. भावेन्द्रिय ३
१. द्रव्येन्द्रिय
इन्द्रियों की आगिक संरचना अर्थात् इन्द्रियों का बाह्य पौगलिक रूप द्रव्येन्द्रिय तथा आन्तरिक क्रियाशक्ति अर्थात् आन्तरिक चिन्मय रूप भावेन्द्रिय कहलाती है। जैनाचार्यों ने इनके पुनः भेद-प्रभेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय 'निवृत्ति' और 'उपकरण' तथा भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोग दो भागों में प्रभेदित हैं। उपर्युक्त पाँच इन्द्रियों में से चार इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, घ्राण, रसना और स्पर्शन प्राप्यकारी तथा चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी होती है। इसका मूल कारण है कि ये चारों इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों के अर्थात् अपने-अपने विषय के संसर्ग से उत्तेजित होकर अपने ग्राह्य विषय को ग्रहण करती हैं किन्तु चक्षु इन्द्रिय संसर्ग की अपेक्षा प्रकाश एवं रंगादि के माध्यम से ही संवेदन करती है। इन्द्रियों के भेद-प्रभेदों के उपरान्त यह जानना भी आवश्यक हो जाता है कि इन इन्द्रियों के क्या-क्या विषय- व्यापार हैं ? श्रोत्रेन्द्रिय का विषय 'शब्द' है । ६ शब्द तीन प्रकार के हैं
२. अजीव का शब्द
कुछ विचारक शब्द के सात प्रकार मानते हैं। वास्तव में शब्द एक प्रकार के पुद्गल परमाणुओं का कार्य है जिसके परमाणु सम्पूर्ण लोक में सदा व्याप्त रहते हैं। चक्षु इन्द्रिय का विषय रंग-रूप है। मुख्यतः पाँच प्रकार के रंग होते हैं - काला-नीला-पीलालाल-श्वेत। इन पाँचों के सम्मिश्रण से अन्य शेष रंग प्रकट होते हैं। तृतीय इन्द्रिय है प्राणेन्द्रिय, जिसका व्यापार नासिका द्वारा गन्ध प्राप्त कराना है। गन्ध दो प्रकार की होती हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध । रसनेन्द्रिय का विषय है रसास्वादन। अम्ल, लवण, कषैला, कटु, और तीक्ष्ण ये पाँच प्रकार के रस होते हैं। स्पर्शानुभूति में स्पर्शन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ इन्द्रिय निमित्त होती है। स्पर्श का अनुभव आठ प्रकार से किया । अमनस्क भी होते हैं। यह निश्चित है कि भाव मन आत्मा की ही जाता है-उष्ण, शीत, रूक्ष, चिकना, हल्का, भारी, कर्कश, कोमल।। एक शक्ति होने के कारण इन सभी प्राणियों में सदा विद्यमान रहता इस प्रकार इन पाँचों इन्द्रियों की सहायता से जीव उपर्युक्त विषयों है किन्तु द्रव्य मन के अभाव में इसका उपयोग नहीं हो पाता है। का निरन्तर सेवन करता हुआ उनमें सदा प्रमत्त रहता है। इसलिए । मन जिन-जिन विषयों में प्रमत्त रहता है, वासनाएँ उतने ही रूपों में साधक को शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इन पाँचों प्रकार के प्रकट-प्रबल होती जाती हैं। निश्चितरूपेण मन के अप्रमत्त अर्थात् इन्द्रिय विषयों को सदा-सदा के लिए त्यागने का निर्देश दिया गया । जाग्रत रहने पर ही वासनाएँ क्षीण एवं समाप्त हो जाती हैं। है।८ इन्द्रियाँ जब अनुकूल विषयों में एक बार नहीं अनेक बार
मन की जो शुभाशुभ प्रवृत्ति अर्थात् रागद्वेषात्मक भाव हैं, वे आकृष्ट होती हैं, उनमें रमण करती हैं तब जीव अपने को सुखी
बन्धन के मूल कारण माने गए हैं। वास्तव में मुक्ति और बन्धन का मानकर भ्रमित होता है किन्तु इसकी विपरीत स्थिति में वही जीव । सम्बन्ध प्राणी के मन से ही रहता है। मन के समस्त क्रिया-कलाप/ अपने को दुःखी समझता है अर्थात् जो इन्द्रियों को अनुकूल लगता व्यापार को समझ लेने पर प्राणी मुक्ति पथ पर अग्रसर होता है। है वह तो सुखद और जो प्रतिकूल है वह दुःखद होता है। इन्द्रियों अन्यथा इन्द्रियों और मन के विषयों में आसक्त प्राणी जन्म-मरण के के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति जो 'इच्छा' कहलाती चक्र में फँसकर विषयासक्ति से अवश, दीन, लज्जित और करुणा है१०, आसक्ति या राग का रूप ग्रहण करती है और इसकी । जनक स्थिति को प्राप्त करता हैं।१५ विपरीत स्थिति घृणा या द्वेष को धारण करती है।११ इन
जैनदर्शन में मन की चार अवस्थाएँ निरूपित हैंराग-द्वेषात्मक भावों-वृत्तियों से आत्म तत्त्व का वास्तविक स्वरूप अर्थात् समत्व रूप सदा प्रच्छन्न रहता है।
१. विक्षिप्त मन२. यातायात मन
३. श्लिष्ट मन आत्मा के संवेदन का दूसरा साधन है मन। वह आत्म तत्त्व के ।
४. सुलील मन१६ उत्कर्ष-अपकर्ष का प्रधान कारण बनता है। यह मन, इन्द्रिय नहीं
पहली अवस्था मन की विषयासक्त तथा संकल्प-विकल्प युक्त अपितु अनिन्द्रिय अथवा नोइन्द्रिय कहलाता है।१२ इन्द्रियाँ मात्र ।
विक्षुब्ध अवस्था है। यह प्रमत्तता की अवस्था भी कहलाती है। मन अपने-अपने विषयों में ही संश्लिष्ट रहती हैं जबकि मन
की द्वितीय अवस्था में मन कभी अन्तर्मुखी तो कभी बहिर्मुख की सर्वार्थग्राहक होता है अर्थात् वह मूर्त-अमूर्त समस्त पदार्थों में प्रवृत्ति
ओर प्रेरित होता है। मन की यह प्रमत्ताप्रमत्त अवस्था है। तृतीय करता है। इन्द्रियों की भाँति इसके विषय-क्षेत्र की कोई मर्यादा-सीमा
अवस्था चित्त की अप्रमत्त अवस्था है। इसमें चित्त पूर्णरूप से विषयों नहीं होती है। मन का विश्लेषण करते हुए जैनधर्म में मन को दो
से रहित तो नहीं होता किन्तु अशुभ भावों का पूर्ण समापन होता रूपों में विभक्त किया गया
है। यह साधक की आनन्दमय अवस्था होती है। चतुर्थ अवस्था तक
आते-आते साधक की समस्त चित्तवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। १. पीद्गलिक अर्थात् द्रव्यमन
साधक शुभ-अशुभ भावों से ऊपर उठकर स्वयं शुद्ध-ज्ञाता-दृष्टामय २. चैतन्यमन अर्थात् भावमन१३
हो जाता है। साधक की यह परमानन्द या समाधि की अवस्था होती
है। इस प्रकार जीव के विकास-हास में मन का योगदान, उसकी मनोवर्गणा के पुद्गलों से विनिर्मित तत्त्व विशेष द्रव्यमन तथा
भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह प्रत्यक्ष परिलक्षित है। मनोनिग्रह आत्मतत्त्व की चिन्तन-मनन रूप शक्ति वस्तुतः भाव मन कहलाता
से उपर्युक्त पाँचों इन्द्रियाँ तो वशीभूत हो ही जाती हैं विषयहै। ये दोनों ही मन अपने चिन्तन का कार्य सम्पादित करते हैं।
वासनाओं का भी उन्मूलन होता है, चंचलता भी नष्ट होती है और जैनदर्शन में मन के आधार पर ही प्राणी को दो भागों में विभाजित
आत्मा के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन भी होता है।१७ । किया गया है
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से जैनधर्म में 'लेश्या' का जो तल १. अमनस्क प्राणी अर्थात् असंज्ञी
स्पर्शी विवेचन-विश्लेषण है, वह वस्तुतः अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। २. समनस्क प्राणी अर्थात् संज्ञी१४
लेश्या-विचार में मानसिक वृत्तियों के वर्गों का, मन के विचारों का समनस्क-अमनस्क प्राणी के रूप-स्वरूप का अध्ययन करने पर तथा उनके उद्गमस्थलादि का अध्ययन किया जाता है। यह सहज ही कहा जा सकता है कि जिनमें ईहा, अपोह, मार्गणा, _'लेश्या' जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। आत्मतत्व गवेषणा, चिंता और विमर्श करने की शक्ति-सामर्थ्य होती है वे जिसके सहयोग से कर्म-कुल से आवरित है, जैनागम में वस्तुतः वह जीव, संज्ञी अर्थात् समनस्क और जिनमें इनका अभाव होता है, वे / लेश्या कहलाती है। साधारणतया लेश्या का अर्थ है मनोवृत्ति, वस्तुतः असंज्ञी अर्थात् अमनस्क की कोटि में परिगणित हैं। विचार या तरंग किन्तु जैनाचार्यों ने कर्माश्लेष के कारणभूत जैनागमानुसार एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों तक के जीव शुभाशुभ परिणामों को ही लेश्या कहा है। उत्तराध्ययन की वृहत् अमनस्क तथा पंचेन्द्रिय जीव कोई-कोई समनस्क और कोई-कोई वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
के रूप में किया गया है।१८ मूलाराधना में लेश्या के विषय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा बताया गया है कि लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव प्रभाव डालने के कारण अशुद्ध हैं तथा इन रंगों से प्रभावित होने परिणाम हैं।१९ धवला में स्पष्ट वर्णन है कि आत्मा और कर्म का वाली लेश्याएँ भी अशुभ-अप्रशस्त कोटि की मानी जाने के कारण सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है।२० सर्वार्थ सिद्धि में कषायों । इन्हें अधर्म लेश्याएँ कहा गया है२९ अतः ये सर्वथा त्याज्य हैं। के उदय से अनुरञ्जित मन, वचन व काय की प्रवृत्ति को लेश्या अरुण रंग मनुष्य में ऋजुता, नम्रता और धर्म प्रेम उत्पन्न करता है, कहा है।२१ इस प्रकार जैनागम में लेश्या की अनेक परिभाषाएँ पीला रंग मनुष्य में शान्ति, क्रोध-मान-माया-लोभ की अल्पता तथा स्थिर हुई हैं।
इन्द्रिय-विजय का भाव उत्पन्न करता है तथा श्वेत रंग मनुष्य में
अथाह शान्ति तथा जितेन्द्रियता का भाव उत्पन्न करता है। इस जीव के मन में जिस प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं उसी
प्रकार तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीन वर्ण शुभ हैं क्योंकि ये प्रकार के वर्ण तथा तदनुरूप पुद्गल परमाणु उसकी आत्मा की
मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। अतः ये सदा उपादेय ओर आकृष्ट होते हैं। शुभ-अशुभ विचारों के आथार पर ही जैन
हैं।३० इनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी प्रशस्त कोटि की मानी दर्शन में लेश्याएँ छहः भागों में विभक्त हैं
गयी हैं जिन्हें धर्म लेश्या कहा गया है। निश्चय ही लेश्याओं के १. कृष्णलेश्या २. नील लेश्या
ज्ञान-विज्ञान को जान-समझकर प्रत्येक संसारी जीव अपने मन के ३. कापोत लेश्या ४. तेजो लेश्या
विचारों को पवित्र शुद्ध करता हुआ अर्थात् अशुभ से शुभ और PORG
शुभ से प्रशस्त शुभ की ओर उन्मुख होता हुआ अपना आध्यात्मिक ५. पद्म लेश्या ६. शुक्ल लेश्या२२
विकास कर सकता है। कृष्णलेश्या वाले जीव की मनोवृत्ति निकृष्टतम होती है। उसके
आत्म तत्त्व को कलुषित करने वाली मनोवृत्तियाँ 'कषाय' से 2 0 विचार अत्यन्त कठोर, नृशंस, क्रूर एवं रुद्र होते हैं। विवेक विचार
संज्ञायित हैं। लेश्या की भाँति कषाय भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप से रहित भोग-विलास में ही वह अपना जीवन यापन करता है।२३
को प्रच्छन्न-आच्छन्न करने में एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह करते । नील लेश्या की कोटि में परिगणित जीव स्वार्थी होते हैं। उनमें
हैं। मन के विज्ञान का अध्ययन-अनुशीलन करते समय काषायिक ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लज्जता, द्वेष, प्रमाद, रस लोलुपता,
वृत्तियों को समझ लेना बी परम आवश्यक है। जैनदर्शन में इन प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति होती
वृत्तियों को मूलतः चार भागों में विभाजित किया गया हैहै।२४ किन्तु इस लेश्या वाले जीव की दशा कृष्णलेश्या वाले जीव की अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें जीव के विचार अपेक्षाकृत कुछ १. क्रोध
२. मान प्रशस्त होते हैं। कापोत लेश्यायी जीव की वाणी व आचरण में
३. माया
४. लोभ। वक्रता होती है। वह अपने दुर्गुणों को प्रच्छन्न कर सद्गुणों को प्रकट
मनोविज्ञान कहता है कि क्रोध के वशीभूत जीव अपने विवेक, करता है किन्तु नील लेश्यायी से उसके भाव कुछ अधिक विशुद्ध
विचार-क्षमता तथा तर्कणाशक्ति को विनष्ट कर देता है। क्रोध एक होते हैं।२५ तेजोलेश्या वाला जीव पवित्र, नम्र, दयालु, विनीत,
मानसिक किन्तु उत्तेजक संवेग है। क्रोधावेश में शरीर में विभिन्न इन्द्रियजयी तथा आत्मसाधना की आकांक्षा रखने वाला तथा अपने
प्रकार के परिवर्तनों को देखा-परखा जा सकता है। उदाहरणार्थ सुख की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारमना होता है।२६ पद्मलेश्या
रक्तचाप का बढ़ना, हृदयगति में अस्थिरता, मस्तिष्क के ज्ञान वाले जीव की मनोवृत्ति धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में विचरण करती है। इस कोटि का जीव संयमी, कषायों से विरक्त, मितभाषी,
तन्तुओं का शून्य होना आदि। क्रोध की अनेक अवस्थाएँ होती हैं।
जो उत्तेजन एवं आवेश के कारण उत्पन्न होकर भयंकर स्थिति जितेन्द्रिय तथा सौम्य होता है।२७ शुक्ल लेश्या वाला जीव समदर्शी,
धारण करती हैं। जैनागम में क्रोध के दश रूप निर्दिष्ट किए गए हैं निर्विकल्प ध्यानी, प्रशान्त अन्तःकरण वाला, समिति-गुप्ति से युक्त,
यथा-क्रोध, कोप, रोष, दोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, अशुभ प्रवृत्ति से दूर तथा वीतरागमय होता है।२८
भण्डन तथा विवाद।३१ दूसरी कलुषित वृत्ति (मान कषाय) में भी उपर्युक्त विवेचनोपरान्त यह सहज में ही जाना जा सकता है उत्तेजन-आवेश विद्यमान रहता है। इसमें कुल-बल-ऐश्वर्य-बुद्धिकि इन भावों-विचारों का रंगों के साथ और रंगों का प्राणी जीवन जाति, ज्ञानादि के अहंकार का समावेश रहता है। मान कषाय की के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है ? रंग हमारे शरीर तथा मानसिक अवस्थाओं का वर्णन करते हुए जैन संहित्य में बारह प्रकार के मान विचारों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? जैन शास्त्रों में लेश्या को निरूपित किया गया है यथा-मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, के सिद्धान्त द्वारा इसी प्रभाव की व्याख्या की गई है। रंगों में काला अत्युत्क्रोश, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नत नाम तथा रंग मानवीय जीवन में असंयम, हिंसा और क्रूरता; नीलारंग, ईर्ष्या, दुर्नाम।३२ तीसरी मनोवृत्ति है माया अर्थात् कपट। जैनागम में माया PROO असहिष्णुता, रसलोलुपता तथा आसक्ति, और कापोत रंग, वक्रता, } की पन्द्रह अवस्थाएँ गिनायी गयी हैं। जिनमें संश्लिष्ट जीव अपने कुटिलता, दृष्टिकोण का विपर्यास उत्पन्न कराते हैं। इस प्रकार } आर्जवत्व गुण से सदा प्रच्छन्न रहता है। ये अवस्थाएँ निम्न हैं
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 202090.3 माया, उपाधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुप, जिहमता, उपर्यंकित मन के विज्ञान का विवेचन-विश्लेषण से निष्कर्षतः GODDA किल्विषिक, आदरबता, गृहनता, वंचकता, प्रतिकुंचनता तथा । यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में व्यवहृत सिद्धान्त
सातियोग।३३ चौथी मनोवृति तृष्णा अर्थात् लोभ-लालसा है। इसकी नीति- आचारादि पक्ष के माध्यम से कोई भी प्राणी अपने मन को सोलह अवस्थाएँ हैं-लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तेष्णा, प्रभावित करता हुआ आत्मा का विकास कर सकता है। यह दर्शन
मिथ्या, अभिध्या, आशंसना, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, { जीव के मन की चेतन-अवचेतनअचेतन तीनों अवस्थाओं को 26 जीविताशा, मरणाशा तथा नन्दिराग।३४
। सुंस्कारित-परिष्कृत करने में सर्वदा सक्षम है। इसके सिद्धान्तों में उन वृत्तियों की तीव्रता-मन्दता तथा स्थायित्व को देखते हुए ।
ऐसी विद्युत शक्ति है जिसका सम्यक् ज्ञान तथा आचरण करने से
व्यक्ति का अन्तर्द्वन्द्व शान्त होता है। नैतिक भावनाएँ तो प्रस्फुटित जैनागम में ये वृत्तियाँ चार-चार भागों में विभक्त हैं-अनन्तानुबंधी,
होती ही हैं साथ ही कुत्सित भावनाओं असंख्यात वासनाओं का अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी तथा संज्वलन।३५ इन वृत्तियों में लीन ।
भस्म भी होना होता है। तदनन्तर प्राणी का मार्ग भी प्रशस्त अर्थात् व्यक्ति संसार चक्र के चक्रमण में भ्रमण करता है। नरक गति से ।
मंगलमय होता है। आज अपेक्षा है मन और लेश्याओं के माध्यम से देवगति तक की यात्रा तो करता है किन्तु इस यात्रा से बन्धन से
अन्तरंग में प्रतिष्ठित अनन्त शक्तियों के जागरण की जिससे स्व-पर मुक्त नहीं हो पाता। क्योंकि ये मनोवृत्तियाँ आत्मा में व्याप्त अनन्त
का कल्याण हो सके। वास्तव में जैनदर्शन का मनोविज्ञान जिसमें चतुष्टय को, लेश्याओं की सहायता से, अष्टकर्मों के मजबूत वेस्टन
मन और लेश्या की भूमिकाएँ विशेषेन अनिर्वचनीय हैं, समस्त से आवरित करने में परम सहायक हैं। वास्तव में ये काषायिक
प्राणवंत जीवों के लिए परम उपयोगी एवं कल्याणप्रद है। वृत्तियाँ प्रेम-प्रीति, विनय, मित्रता तथा अन्य समस्त सद्गुणों,
पता : मंगल कलश मानवीय गुणों को नष्ट करने में सदा प्रवृत्त रहती हैं।३६ अतः इनसे
३९४, सर्वोदय नगर छूटना ही श्रेयस्कर है।
आगरा रोड, अलीगढ़-२०२00१
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सन्दर्भ स्थल १. जे आया से विन्नाया" "पडिसंखाए। -आचारांग सूत्र, १/५/५/१ २. (क) नन्दी सूत्र, सूत्र ३०,
(ख) स्थानाङ्ग सूत्र, स्था. ५ ३. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वौँ, ४. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद १५वाँ ५. तत्त्वार्थ सूत्र, १/१९ ६. प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रिय पद, १/१९ ७. प्रज्ञापना सूत्र, भाषापद, १/१९ ८. सद्दे-रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य।
पंचविहे कामगूणे, निच्चसो परिवज्जए॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, १६/१० ९. सव्वे सुहसाया. दुक्ख पडिकूला।
-आचारांग सूत्र, १/२/३ १०. इन्द्रिय मनोनुकूलायाम्प्रवृत्तो, लाभस्यार्थस्याभिल्गाषातिरेके।
-राजेन्द्र अभिधान, खण्ड २, पृष्ठ ५७५ ११. रागस्सहेउ समणुनमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाह।
-उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/२३ १२. सर्वार्थसिद्धि, १/१४/१०९/३ १३. मनः द्विविधः द्रव्यमनः भावमनः च। -सर्वार्थसिद्धि, २/११/१७०/३ १४. नन्दी सूत्र, सूत्र ४० १५. तओ से जायंति-वइस्से। -उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/१०५/१२/१०३ १६. योगशास्त्र, आचार्य हेमचन्द्र १७. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय २३, गाथा ३६ १८ लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयना नीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपि का स्निग्ध दीप्त रूपछाया।
-बृहवृत्ति, पत्र ६५०
१९ मूलाराधना, ६/१९०६ २०. धवला, दिग्बराचार्य, वीरसेन, ७, २, १ सूत्र ३, पृष्ठ ७ २१. (क) सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद आचार्य, २/६
(ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक, आचार्य अकलंक, २/६/८, पृष्ठ १०९ २२. सा षड़विधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति।
-सर्वार्थसिद्धि, अ. २, सूत्र ६, पृष्ठ १५९ २३. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय ३४, गाथांक २१, २२ २४. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय ३४, गाथाङ्क २३, २४.. २५. वही, गाथांक, २५, २६ २६. वही, गाथांक, २७, २८ २७. वही, गाथांक, २९, ३० २८. वही, गाथांक, ३१, ३२ २९. वही, अध्याय ३४, गाथांक, ५६ ३०. वही, अध्याय ३४, गाथांक, ५७ ३१. भगवती सूत्र, शतक १२, उ. ५, पा.२ ३२. भगवती सूत्र, शतक १२, उ.५, पाठ ३ ३३. वही, पाठ ४ ३४. वही पाठ ५, ३५. (क) धवला, ६/१, ९-२, २३/४१/३
(ख) द्रव्यसंग्रह, टीका, ३०/६९/७ (ग) वारस अणुवेक्खा, गाथांक ४९
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
अनेकान्त : रूप-स्वरूप
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-डॉ. राजबहादुर पाण्डेय, साहित्यरत्न (एम. ए. (हिन्दी) : एम. ए. (संस्कृत) पी एच.डी.
सम्पादक : आनन्द बोध, दिल्ली) कहते हैं बहुत पहले कभी एक विशाल गुफा के समीप स्थित यह घटना न मालूम कब की है और यह घटी कहाँ थी, इसके किसी गाँव में पहली-पहली बार एक हाथी आया था। उस अद्भुत | विषय में निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता, किन्तु जब
और अपूर्वदृष्ट जन्तु को भली-भाँति निरख-परख कर गाँव के भी घटी थी, तभी से यह दर्शन के एक दिव्य-सिद्धान्त के दृष्टान्त 8 मुखिया ने उसे गुफा के भीतर अँधेरे में बाँध दिया था।
के रूप में सर्वत्र उद्धृत की जाती रही है। वह दिव्य सिद्धान्त ही गाँव में इस समाचार के फैलने पर कौतूहलवश गाँव के लोग। अनेकान्त है। हम अपने इस लेख में अनेकान्त की ही संक्षिप्त हाथी को देखने आए थे। उनमें से कुछ को अलग-अलग एक-एक व्याख्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं। करके मुखिया ने हाथी का आकार जानने के लिए गुफा के भीतर
सिद्धान्त शब्द की व्युत्पत्ति है-सिद्धः अन्तः यस्य स सिद्धान्तः भेजा था। अँधेरे में हाथ से स्पर्श करके और अपने स्पर्शानुभव के अर्थात सिद्ध यानी प्रमाणित है. 'अन्त' यानी पक्ष जिस मान्यता का आधार पर जन्तु (हाथी) के आकार की कल्पना करके उनमें से
वह कहलाती है-सिद्धान्त। प्रत्येक व्यक्ति गुफा से बाहर आया था और मुखिया के पूछने पर किसी ने हाथी का आकार सूप के समान, किसी ने पेड़ के तने के ।
विश्व में प्रचलित एवं आचरित अनेक धर्मों (सम्प्रदायों) के समान और किसी ने मोटी रस्सी के समान बताया था तथा वे
अपने-अपने अनेक दर्शन एवं अनेक सिद्धान्त हैं; किन्तु जैनधर्म के अपने-अपने प्रत्यक्ष अनुभव को ही सही मानकर दूसरों को गलत
अपने दर्शन का अथवा जैनागम का 'अनेकान्त' सिद्धान्त मात्र बताते हुए परस्पर झगड़ने लगे थे।
सिद्धान्त ही नहीं है, वह तो सिद्धान्तरत्न है तथा इसी सिद्धान्त के
आधार पर जैन-धर्म को विश्वधर्म की संज्ञा प्राप्त हुई है। कहा तब मुखिया ने कहा था-लड़ो-झगड़ो मत। इसमें संघर्ष की ।
जाता है कि हाथी के 'पाँव में सबका पाँव' यानी हाथी के पद चिह्न बात बिल्कुल नहीं है। देखो तुममें से जिसने हाथी का आकार सूप
इतने बड़े होते हैं कि उनमें सब जीवों के पद-चिह्न समा जाते हैं। के समान बताया है, वह भी अपने अनुभव के आधार पर सही है, मोटी रस्सी जैसा आकार है, यह बतलाने वाला भी सही है ।
अनेकान्त सिद्धान्त भी ऐसा व्यापक है कि उसमें सिद्धान्त मात्र के और तने जैसा आकार वाला हाथी होता है, यह बताने वाला भी
मूल तत्त्व समाविष्ट हैं। जिसके आचार से वैचारिक तथा अन्य
मूल तत्व समा सही है किन्तु प्रत्येक का अनुभव हाथी के आकार के एक पक्ष को
प्रकार के सभी संघर्षों एवं अशान्ति का विसर्जन होकर विश्व में ही प्रकट करता है। अँधेरे में स्थित हाथी के कान पर हाथ ।
सर्वत्र सत्य, शान्ति एवं अहिंसा स्थापित हो सकती है। रखकर जिसने हाथी को स्पर्श किया है, उसने अपने स्पर्श- 'अनेकान्त' शब्द का सन्धि-विच्छेद करने पर उसमें से तीन अनुभव के आधार पर सही ही कहा है कि हाथी सूप जैसा होता शब्द निकलते हैं अन+एक+अन्त। ये तीन शब्द ही मानो त्रिविध है। पैरों को छूकर जो आया है, उसने भी सही ही कहा है कि
तापों के शमन प्रतीक हैं। अन्+एक माने एक नहीं अनेक (कई) हाथी का आकार तने जैसा होता है तथा जो उसकी सूड़ का स्पर्श
और अन्त माने पक्ष। सम्मिलित तीनों शब्दों का अभिप्राय है-'एक करके आया है, उसका कथन भी सही है कि वह मोटी रस्सी जैसा ।
नहीं कई पक्ष। होता है। किन्तु ये सब कथन हाथी के शरीर के एक-एक अंग के आकार को प्रस्तुत करते हैं-उसके आकार के एक पक्ष को ही
जैनदर्शन का एक सूत्र है-वत्थु सहावो धम्मो अर्थात् वस्तुः प्रस्तुत करते हैं। हाथी के आकार की समग्रता को प्रकट नहीं करते
स्वभावः धर्मः। वस्तु, पदार्थ व्यक्ति का स्वभाव ही उसका धर्म है। अतः सही होते हुए भी एकांगी अथवा एक पक्षीय हैं। हाथी के
स्वभाव का अर्थ है-वह भाव जो उसका अपना बन गया है, उसमें आकार के अनेक पक्ष हैं। तुम सबने अपने सीमित अनुभव के
सर्वथा रचा-बसा हुआ है, वह भाव जो प्रत्येक परिस्थिति में उसमें आधार पर ही हाथी के आकार का वाणी से प्रस्तुतीकरम किया है। बना ही रहता है, उससे कभी अलग नहीं होता। दर्शन कहता है कि सबका कथन सही है, किन्तु अपूर्ण है अतः इसमें एक-दूसरे को । प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है कि उसका एक पक्ष नहीं होता वह गलत बताकर परस्पर संघर्ष की बात बिल्कुल नहीं है। तब मुखिया अनेक पक्षों-अन्तों-धर्मों वाली होती है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक का समझदारी भरा और तर्कसंगत यह कथन सुनकर सभी शान्त वस्त्र अथवा प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व अनेक पक्षी, अनेक धर्मी हो गए थे।
होता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 694 दूसरे प्रकार से कहें तो वस्तु अनेकान्तिनी होती है। उसको । जन्म हुआ कि 'जियो और जीने दो' यानी तुम भी जियो और GDS देखने वाला व्यक्ति अपनी देखने की शक्ति की सीमितता के कारण। दूसरों को भी जीने दो। कवि ने कहा भी है60 उसके एक पक्ष को ही देख पाता है। किन्तु वह मान लेता है कि
"विधि के बनाये जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ, Bodo मैंने वस्तु को या व्यक्ति को अपनी आँखों से देखकर पूरी तरह
खेलत-फिरत तिन्हें जान लिया। इस प्रकार एक अन्य व्यक्ति भी उस वस्तु के एक अन्य
खेलन फिरन देउ।" पक्ष को अपनी सीमित दृष्टि से देखकर यह मान बैठता है कि मैंने जीने का अधिकार तुम्हारा ही नहीं, सभी का है। यह नहीं कि 10 अपनी आँखों के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा उस वस्तु को पूरी तरह तुम अपने जीने के लिए दूसरों की हिंसा करो। यह तो इसलिए भी So देखकर जान लिया है किन्तु वास्तविकता तो यह है कि दोनों ने अनुचित है कि तिसे तुम दूसरा समझ रहे हो, वह दूसरा है ही वस्तु के एक-एक पक्ष को ही जाना है।
नहीं। तात्त्विक दृष्टि से वह भी वही है जो कि तुम हो। फिर तुम उस अनेकान्तिनी अनेक पक्षों और अनेक धर्मों वाली वस्तु के
चेतन हो या दूसरा चेतन है अथवा जड़ सब में एक ही तत्त्व की
प्रधानता है068 अन्य कई पक्ष, अन्त और धर्म उन दोनों के द्वारा अनदेखे रह गए PERSON हैं। किन्तु वे अपने-अपने सीमित अनुभवों के आधारों पर यह
“एक तत्त्व की ही प्रधानता। FOR मानकर कि हमीं सही हैं दूसरा गलत है, परस्पर झगड़ते हैं और
वह जड़ हो अथवा हो चेतन॥" लोक P..90900D इसी सीमित दृष्टिकोण के कारण संसार में संघर्षों तथा हिंसा तथा " इस प्रकार इस सिद्धान्त से हिंसा का निरसन एवं शान्ति,
असत्य का जन्म होता है। तब अनेकान्त सिद्धान्त यह कहता है, उन अहिंसा तथा सत्य धर्म की प्रतिष्ठा होती है और अभेदवाद की दोनों संघर्ष शील व्यक्तियों से कि भय्या! इसमें संघर्ष की बात । पुष्टि होती है। सारांशतः यह सिद्धान्त सत्य भी है, शिव अर्थात् बिल्कुल है नहीं, बस इतनी सी बात है कि तुम ही सही नहीं हो। कल्याणकारक भी है और सुन्दर भी है यानी सत्यं शिवं सुन्दरं है। वास्तविकता तो यह है कि तुम भी सही हो और तुम भी सही हो,
पता: DOO तथा वस्तु का दृष्टा अन्य व्यक्ति भी सही है।
उत्तरायन AD इसीलिए दर्शन का यह सिद्धान्त आचार में भी सिद्धान्त या सी-२४, आनन्द विहार SED स्याद्वाद' कहलाया, और इसी सिद्धान्त से इस स्वर्णिम वाक्य का न्यू दिल्ली-११००९२
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जीवन की घडी अब बना सफल जीवन की घड़ी॥
सत्य साधना कर जीवन की जड़ी।।टेर।। नर तन दुर्लभ यह पाय गया। विषयों में क्यों तू लुभाय गया। जग जाल में फँसता ज्यों मकड़ी॥१॥
परिवार साथ नहीं आयेगा। नहीं धन भी संग में जायेगा॥
क्यों करता आशाएँ बड़ी-बड़ी॥२॥ दुष्कर्म कमाता जाता है। नहीं प्रभु के गुण को गाता है। पर मौत सामने देख खड़ी॥३॥
जग के जंजाल को छोड जरा। महावीर प्रभु को भज ले जरा॥ “मुनि पुष्कर" धर्म की जोड़ कड़ी॥४॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
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व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा मेंजैन शिक्षा प्रणाली की उपयोगिता
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-श्रीचन्द सुराना 'सरस' ससांर का घटक है व्यक्ति, और व्यक्ति की पहचान होती है | नहीं है। विकास के सभी द्वार-शिक्षा से खुलते हैं। उन्नति के सभी 2009 उसके व्यक्तित्व से। जैस अग्नि की पहचान, उष्मा और प्रकाश से, मार्ग ज्ञान के राजमार्ग से ही निकलते हैं, अतः संसार के समस्त जल की पहचान उसकी शीतलता और तरलता से होती है, उसी विचारकों ने शिक्षा और ज्ञान को सर्वोपरि माना है। एक शायर का प्रकार व्यक्ति की पहचान उसके व्यक्तित्व–अर्थात् शारीरिक एवं
कहना हैमानसिक गुणों से होती है।
सआदत है, सयादत है, इबादत है इल्म। स्वेट मार्टेन ने व्यक्तित्व के कुछ आवश्यक घटक बताये हैं- हकूमत है, दौलत है, ताकत है इल्म। स्वस्थ शरीर, बौद्धिक शक्ति, मानसिक दृढ़ता, हृदय की उदारता,
एक आत्मज्ञ ऋषि का कथन हैभावात्मक उच्चता (करुणा-मैत्री-सेवा आदि) तथा व्यावहारिक
आयाभावं जाणंति सा विज्जा दुक्खमोयणी दक्षता, समयोचित व्यवहार आदि।
-इसिभासियाई-१७/२ लार्ड चेस्टरन ने वेशभूषा (ड्रेस-Dress) और बोलचाल की
जिससे अपने स्वरूप का ज्ञान हो, वहीं विद्या दुःखों का नाश शिष्टता-सभ्यता (एड्रेस-Adress) को व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण अंग
करने वाली है। माना है। भर्तृहरि ने नीतिशतक में महान व्यक्तित्व के घटक गुणों की
शिक्षा का अर्थ-सर्वांग विकास चर्चा करते हुए लिखा है
शिक्षा का अर्थ-केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। अक्षर ज्ञान विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
शिक्षा का मात्र एक अंग है। जैन मनीषियों ने शिक्षा को बहुत
व्यापक और विशाल अर्थ में लिया है। उन्होंने ज्ञान और आचार, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः
बुद्धि और चरित्र दोनों के समग्र विकास को शिक्षा का फलित यशसि चाभिरुचि र्व्यसनं श्रुती,
माना है। प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥
-नीतिशतक-६३
आधुनिक शिक्षा-शास्त्रियों-फ्रोबेल, डीवी, मोन्टेसरी आदि ने विपत्ति में धैर्य, ऐश्वर्य में सहिष्णुता, विकास के समय में स्वयं शिक्षण की अनेक विधियों-प्रणालियों (Teaching Method) का पर नियंत्रण, सभा में वचन की चतुराई, कभी हताश नहीं होना, प्रतिपादन किया है, किन्तु मुख्य शिक्षा प्रणालियां दो ही हैं-१. सुयश के कार्य में रुचि, पढ़ने में निष्ठा आदि गुणों से व्यक्तित्व अगमन (Inductive) और २. निगमन (Deductive)| निखरता है, चमकता है।
अगमन शिक्षा प्रणाली में शिक्षक अपने शिष्यों को कोई जैन आचार्यों ने व्यक्तित्व को प्रभावशाली, लोकप्रिय और सिद्धान्त या विषय समझाता है और शिष्य उसे समझ लेते हैं, सदाचार सम्पन्न बनाने के लिए २१ सद्गुणों पर विशेष बल दिया कंठस्थ कर लेते हैं। शिक्षक के पूछने पर (अथवा प्रश्नपत्र के प्रश्नों है। जैसे
के उत्तर में) जो कुछ समझा है, याद किया है, वही बोल या लिख हृदय की उदारता, प्रकृति की सौम्यता, करुणाशीलता,
देते हैं। आजकल निबंधात्मक प्रश्नोत्तर इसी शिक्षण प्रणाली के विनयशीलता, न्यायप्रियता, कृतज्ञता, धर्मबुद्धि, चतुरता। आदि।'
अन्तर्गत हैं।
निगमन प्रणाली में पहले परिणाम (फल) बताकर फिर शिक्षा का महत्त्व
सिद्धान्त निश्चित किया जाता है। इस प्रणाली में छात्रों से उत्तर विभिन्न विचारकों ने देश-काल की परिस्थितियों तथा निकलवाया जाता है। इससे छात्रों की बुद्धि एवं योग्यता आवश्यकता के अनुसार व्यक्तित्व के घटक तत्त्वों पर अनेक (Intelligence) ज्ञात हो जाती है तथा कीन छात्र किना मंदबुद्धि दृष्टियों से चिन्तन किया है, उसमें एक सार्वभौम तत्त्व है-शिक्षा. या तीव्रबुद्धि वाला है, यह भी पता चल जाता है। लघु-उत्तरीय प्रश्न ज्ञान, प्रतिभा।
इसी प्रणाली के अन्तर्गत हैं। उष्णता या तेजस्विता के बिना अग्नि का कोई मूल्य नहीं है, इन दोनों ही प्रणालियों से मानव का ज्ञान और बुद्धि तथा उसी प्रकार ज्ञान, शिक्षा या प्रतिभा के बिना व्यक्ति का कोई महत्त्व व्यक्तित्व विकसित होता है।
करतात तुपकर 2000000000000000000000000000000000000000000000000
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जैन-शिक्षा-प्रणाली
अनुसार पाँच से आठ वर्ष की आयु बालक के अध्ययन एवं
शिक्षाग्रहण करने की सर्वथ अनुकूल होती है। प्राचीन जैन शिक्षा प्रणाली में इन दोनों विधियों का समन्वय तो है ही, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं, जिनसे व्यक्तित्त्व का
प्राचीन वैदिक एवं जैन साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है समग्र विकास होता है।
कि पाँच वर्ष के पश्चात् ही बालक को अक्षर ज्ञान देने की प्रथा
थी। रघुवंश के अनुसार राम का मुण्डन संस्कार हो जाने के उपरोक्त दोनों शिक्षण प्रणालियाँ सिर्फ ज्ञान और बुद्धि के
अनन्तर उन्हें अक्षरज्ञान कराया गया। यह लगभग पाँचवें वर्ष में ही विकास तक ही सीमित हैं, किन्तु जैन शिक्षा प्रणाली शैक्ष या शिष्य
किया जाता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार भी इसी बात -50000 की पात्रता, विनय उसकी आदतों, चरित्र, अन्तर्हृदय की भावनाओं
की पुष्टि होती है। मुण्डन संस्कार के अनन्तर वर्णमाला और फिर आदि व्यक्तित्त्व के सभी घटकों पर ध्यान देकर शैक्ष के बहिरंग
अंकमाला का अभ्यास कराया जाता था। और अन्तरंग जीवन तथा उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास करती है। सभी दृष्टियों से उसके व्यक्तित्त्व को तेजस्वी, प्रभावशाली और
आचार्य जिनसेन तथा हेमचन्द्राचार्य के अनुसार भगवान आकर्षक (Dynamic Personalty) बनाती है।
ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से
अक्षर माला- वर्णमाला का तथा बायें हाथ से सुन्दरी को जैन आचार्यों ने बताया है
अंकमाला-गणित का ज्ञान दिया। सामान्यतः पाँचवें वर्ष से प्रारम्भ सिक्खा दुविहा
करके वर्णमाला, अंकमाला तथा तत्पश्चात गणित का ज्ञान कराने गहण सिक्खा-सुत्तत्थ तदुभयाणं
में तीन वर्ष का समय लग जाता है। इस प्रकार आठ वर्ष का आसेवणा सिक्खा-पडिलेहणा"ठटावणा व्रतादि सेवना।
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। भगवती सूत्र, ज्ञाता तथा | -पंच कल्पभाष्य-३
अन्तकृद्दशासूत्र आदि के प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि आठ वर्ष
की आयु पूर्ण करने पर माता-पिता बालक को कलाचार्य के पास ले शिक्षा दो प्रकार की है
जाते थे और उन्हें सभी प्रकार की कलाएँ, विद्याएँ गुरुकुल में १. ग्रहण शिक्षा-शास्त्रों का ज्ञान, शास्त्र का शुद्ध उच्चारण, रखकर ही सिखाई जाती थीं। महाबल कुमार, मेघकुमार, अनीयस पठन, अर्थ और देश-काल के संदर्भ में शब्दों के मर्म का ज्ञान प्राप्त कुमार आदि के प्रसंग उक्त सन्दर्भ में पठनीय हैं।५ बालक वर्धमान करना-ग्रहण शिक्षा है।
को भी आठ वर्ष पूर्ण करने पर कलाचार्य के पास विद्याध्ययन हेतु 300DPad २. आसेवना शिक्षा-व्रतों का आचरण, नियमों का सम्यग् ।
ले जाने का उल्लेख है।६ निशीथचूर्णि के अनुसार आठवें वर्ष में | परिपालन और सभी प्रकार के दोषों का परिवर्जन करते हुए,
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। तत्श्चात् नवम-दशम वर्ष में वह अपने चरित्र को निर्मल रखना आसेवना शिक्षा है।
दीक्षा-प्रव्रज्या के योग्य भी बन जाता है। जैन इतिहास के अनुसार
आर्य शय्यंभव के पुत्र-शिष्य मनक ने आठ वर्ष की अवस्था में सम्पूर्ण जैन साहित्य में शिक्षा को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में
दीक्षित होकर श्रुतज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। इसी प्रकार आर्य | लिया गया है, और इसी आधार पर उस पर चिन्तन हुआ है।
सिंहगिरि ने बालक वज्र को आठ वर्ष की आयु में अपनी नेश्राय में शिक्षा की यह दोनों विधियाँ मिलकर ही सम्पूर्ण और सर्वांग शिक्षा
लेकर विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया जो एक दिन महान् वाग्मी और
श्रुतधर बने। इस प्रकार जैन आचार्यों के अनुसार शिक्षा प्रारम्भ शिक्षा प्राप्ति की अवस्था
का सबसे अच्छा और अनुकूल समय आठवां वर्ष माना गया है।
आठ वर्ष का बालक शिक्षा योग्य बन जाता है। बौद्ध ग्रन्थों के यूँ तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए अवस्था या आयु का कोई नियम
अनुसार बुद्ध को भी आठ वर्ष की उम्र में आचार्य विश्वामित्र के नहीं है, कुछ विशिष्ट आत्माएँ जिनका विशेष क्षयोपशम होता है,
पास प्रारम्भिक शिक्षा के लिए भेजा गया था।१० जन्म से ही अवधिज्ञान युक्त होती है। किन्हीं-किन्हीं को जन्म से ही पूर्वजन्म का-जातिस्मृति ज्ञान भी होता है, परन्तु सर्वसामान्य में यह
शिक्षा की योग्यता विशिष्टता नहीं पाई जाती है।
शिक्षा प्राप्त करने के लिए जब बालक गुरुकुलवास या गुरु के आजकल ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को ही कच्ची उम्र में नर्सरी में सान्निध्य में आता था तो सर्वप्रथम गुरु बालक की योग्यता तथा भेज दिया जाता है, यद्यपि अमेरिका जैसे विकसित देशों में ५-६ पात्रता की परीक्षा लेते थे। ज्ञान या शिक्षा एक अमृत के समान वर्ष के पहले बच्चे के कच्चे दिमाग पर शिक्षा का भार नहीं डालने है, उसे धारण करने के लिए योग्य पात्र का होना बहुत ही की मान्यता है। बाल मनोविज्ञान की नवीनतम व्याख्याओं के आवश्यक है।
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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वैदिक एवं बौद्ध संस्कृति के अनुसार शिक्षा के लिए आया ५. शील की दृढ़ता-शिथिलाचारी या खण्डिताचारी अथवा हुआ विद्यार्थी सदाचारी और प्रतिभाशाली होना चाहिए। दुष्ट । संकल्प के अस्थिर व्यक्ति पर कभी भी श्रुतदेवता (सरस्वती) प्रसन्न स्वभाव का शिष्य कड़े जूते के समान होता है जो पहनने वाले का नहीं होते। अतः शैक्ष अपने चरित्र में दृढ़ निष्ठाशील रहे। पैर काटता है दुष्ट शिष्य आचार्य से विद्या या ज्ञान ग्रहण करके
६. रस लोलुप न हो-भोजन में चटोरा भजन नहीं कर सकता। उन्हीं की जड़ काटने लग जाता है।११ अतः सर्वप्रथम शैक्ष-विद्यार्थी
इसी प्रकार रस या स्वाद में आसक्त व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर की योग्यता और पात्रता की परीक्षा करना आवश्यक है।
सकता। शिक्षार्थी को अपनी सभी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना शिक्षा योग्य आय की परिपक्वता के बाद शैक्ष का भावात्मक जरूरी है। विकास देखना जरूरी है। विनय, संयम, शांति और सरलता-ये
७. क्रोध नहीं करनाचार गुण मुख्य रूप से देखे जाते हैं। स्थानांग सूत्र के अनुसार १२१. विनीत, २. विकृति-अप्रतिबद्ध (जिह्वा-संयमी), ३. व्यवशमित
८. सत्यभाषी होनाप्राभृत (उपशान्त प्रकृति) और ४. अमायावी (सरल हृदय)- ये आठ गुण, या योग्यता जिस व्यक्ति में होती हैं। वही जीवन चार प्रकार के व्यक्ति, शिक्षा एवं शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के । में शिक्षा-ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अपनी प्रतिभा का विकास कर योग्य अधिकारी माने गये हैं। इसके विपरीत, अविनीत आदि को
सकता है।१५ शिक्षा देने का निषेध है। दुष्ट प्रकृति, मूढमति, और कलह करने वाले व्यक्ति को शिक्षा देने का सर्वथा निषेध भी मिलता है।१३
इन्हीं गुणों का विकास व विस्तार करते हुए आचार्य 1000
जिनसेन१६ ने विद्यार्थी की योग्यता की १५ कसोटियां बताई हैंऐसे व्यक्ति को ज्ञान देता हुआ गुरु स्वयं दुखी और संतप्त हो जाता है।
१. जिज्ञासा वृत्ति उत्तराध्ययन में बताया है-कृतज्ञ और मेधावी शिष्य को शिक्षा २. श्रद्धाशीलता देते हुए आचार्य वैसे ही प्रसन्न होते हैं जैसे अच्छे घोड़े को ३. विनयशीलता हाँकता हुआ घुड़सवार, किन्तु अबोध और अविनीत शिष्य को
४. शुश्रूषा (सुनने की इच्छा व सेवा भावना) शिक्षा देता हुआ गुरु वैसे ही खिन्न होता है, जैसे दुष्ट घोड़े को
५. श्रवण-पाठ श्रवण के प्रति सतर्कता हाँकता हुआ उसका वाहक।१४ विनीत शिष्य अपने शिक्षक, गुरु की कठोर शिक्षाएँ भी यह समझकर ग्रहण करता है कि ये मुझे अपना
६. ग्रहण करने की क्षमता पुत्र व भाई समझकर कहते हैं, जबकि दुष्ट बुद्धि शिष्य मानता है
७. धारण-स्मरण रखने की योग्यता गुरु तो मुझे अपना दास व सेवक मानते हैं। शिष्य की दृष्टि का ८. स्मृति यह अन्तर उसके मानसिक विकास व भावात्मक विकास को सूचित ९. ऊह-तर्क शक्ति, प्रश्नोत्तर करने की योग्यता करते हैं।
१०. अपोह-स्वयं विचार करने की क्षमता उत्तराध्ययन में ही शिष्य या विद्यार्थी की पात्रता का विचार
११. निर्णीति-स्वयं निर्णय लेने की क्षमता करते हुए बताया है-शैक्ष में कम से कम ये आठ गुण तो होने ही
१२. संयम चाहिए
१३. प्रमाद का अभाव १. हास्य न करना-गुरुजनों व सहपाठी विद्यार्थियों का उपहास
१४. सहज प्रतिभा क्षयोपशम शक्ति न करना, व्यंग्य वचन न बोलना, मधुर व शिष्ट भाषा बोलना।।
१५. अध्यवसाय। २. इन्द्रिय दमन करना-विकारशील या स्वेच्छाचारी व्यक्ति ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः इन्द्रिय विजेता बनना चाहिए।
उक्त योग्यताओं के प्रसंग में कुछ अयोग्यताओं पर भी विचार
किया गया है, जिनके कारण व्यक्ति शिक्षा से वंचित रह जाता है। ३. मर्म वचन न बोलना-मधुर व शिष्ट भाषा जहां गुरुजनों
अथवा ज्ञान प्राप्त करके भी उसका सदुपयोग नहीं कर सकता। का मन जीत लेती है, वहीं कटु व मर्म वचन उनका हृदय दग्ध कर डालते हैं। इसलिए शिष्य व विद्यार्थी कभी अप्रिय व मर्म घातक
उत्तराध्ययन सूत्र के१७ अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए पाँच वचन न बोले।
बाधक कारण ये हैं४. शीलवान-यह गुण व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करता है १. अहंकार, २. क्रोध, ३. प्रमाद (निद्रा, व्यसन आदि), ४. [3 और लोगों में उसकी विश्वसनीयता बढ़ाता है।
रोग, ५. आलस्य।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
१०. उद्दण्डता
आचार्य जिनसेन ने१८ इन्हें विस्तार देकर १४ कारण
शिक्षा में विनय एवं अनुशासन बताये हैं।
जैन शिक्षा पद्धति के विभिन्न अंगों व नियम-उपनियमों पर १. कठोर परिणामी
दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा-प्राप्ति में विनय तथा २. सार छोड़कर निस्सार ग्रहण करना
अनुशासन का सर्वाधिक महत्त्व है। विनीत शिष्य ही गुरुजनों से ३. विषयी
शिक्षा प्राप्त कर सकता है और उसी की शिक्षा फलवती होती है। ४. हिंसक वृत्ति
शिक्षा जीवन का संस्कार तभी बनती है, जब विद्यार्थी गुरु व विद्या
के प्रति समर्पित होगा। भगवान महावीर की अन्तिम देशना का सार | ५. शब्द ज्ञान व अर्थज्ञान की कमी
उत्तराध्ययन सूत्र में है। उत्तराध्ययन सूत्र का सार प्रथम विनय ६. धूर्तता
अध्ययन है। विनय अध्ययन में गुरु शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध ७. कृतघ्नता
शिक्षा ग्रहण की विधि, गुरु से प्रश्न करने की विधि, गुरुजनों के ८. ग्रहण शक्ति का अभाव
समीप बैठने की सभ्यता, बोलने की सभ्यता आदि विषयों पर बहुत ९. दुर्गुण दृष्टि
ही विशद प्रकाश डाला गया है। वहाँ विनय को व्यापक अर्थ में
लिया गया है। ११. प्रतिभा की कमी
कहा गया है-गुरुओं का आज्ञा पालन करना, गुरुजनों के
समीप रहना, उनके मनोभावों क समझने की चतुरता, यह विनीत १२. स्मरण शक्ति का अभाव
का लक्षण है।२० १३. धारणा शक्ति का अभाव
विनय को धर्म का मूल माना है और उसका अन्तिम परम फल १४. हठग्राहिता।
है-मोक्ष/निर्वाण।२१ उत्तराध्ययन में शील, सदाचार और अनुशासन ये सब अयोग्यता शिक्षार्थी में मानसिक कुण्ठा तथा उच्चको भी विनय में सम्मिलित किया गया है। और कहा हैचारित्रिक गुणों के अभाव की सूचक है। जब तक विद्यार्थी में अणुसासिओ न कुप्पिज्जा खंति सेविज्ज पंडिए।२२ गुरुजनों का चारित्रिक विकास और भावात्मक गुणों की वृद्धि नहीं होती वह अनुशासन होने पर उन पर कुपित नहीं होवे, किंतु विनीत शिष्य ज्ञान या शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। आचार्य भद्रबाहु ने क्षमा और सहिष्णुता धारण करके उनसे ज्ञान प्राप्त करता रहे। आवश्यक नियुक्ति में तथा विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिन इसी प्रसंग में गुरुजनों के समक्ष बोलने की सभ्यता पर विचार भद्रगणी ने अनेक प्रकार की उपमाएँ देकर शिक्षार्थी की अयोग्यता किया गया है। का रोचक वर्णन किया है।१९ जैसे
नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियंवए२३ १. शैलघन-जिस प्रकार मूसलाधार मेघ वर्षने पर भी पत्थर
गुरुजनों के बिना पूछे नहीं बोले, पूछने पर कभी असत्य नहीं (शैल) कभी आई या मृदु नहीं हो सकता। उसी प्रकार कुछ शिष्य
बोले। ऐसे होते हैं जिन पर गुरुजनों की शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं
गुरु किसी से बात करते हुए हों तो उनके बीच में भी नहीं पड़ता।
बोले।२४ इसी प्रकार भग्नघट, चालनी के समान जो विद्यार्थी होते हैं,
गुरु विनय के चार लक्षण बताते हुए कहा हैउन्हें गुरु ज्ञान या विद्या देते हैं, परन्तु उनके हृदय में वह टिक नहीं पाता। महिष-भैंसा जिस प्रकार जलाशय में घुसकर जल तो कम १. गुरुओं के आने पर खड़ा होना पीता है, परन्तु जल को गंदला बहुत करता है, उसी प्रकार कुछ २. हाथ जोड़ना विद्यार्थी, गुरुजनों से ज्ञान तो कम ले पाते हैं, परन्तु उन्हें उद्विग्न
३. गुरुजनों को आसन देना या खिन्न बहुत कर देते है। गुरु ज्ञान देते-देते परेशान हो जाते हैं। इसी प्रकार मेढा, तोता, मच्छर, बिल्ली आदि के समान जो शिष्य
४. गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रूषा-सेवा करना होते हैं वे गुरुजनों को क्षुब्ध व परेशान तो करते रहते हैं परन्तु
विनय के ये चार लक्षण हैं।२५ ज्ञान प्राप्त करने में असफल रहते हैं। अगर ज्ञान की यकिंचित वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक प्राप्ति कर भी लेते हैं तो वह उनके लिए फलदायी नहीं, कष्टदायी | प्रकार है, दूसरा प्रकार है शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता और ही सिद्ध होती है।
व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप रहने वाला,
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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
४१ 1966
1008 योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ विशेष तपश्चरण)
गौतम की प्रश्नोत्तर शैली करने वाला, सबका प्रिय करने वाला और सबके साथ प्रिय मधुर बोलने वाला, शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त कर सकता है।२६
गुरु शिष्य के बीच प्रश्न-उत्तर की सुन्दर शैली पर गणधर
गौतम का आदर्श हमारे सामने है। जब भी किसी विषय पर उनके उत्तराध्ययन में ही कहा है-शिष्य गुरुओं, आचार्यों के समक्ष
मन में सन्देह या जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो वे उठकर भगवान या अकेले में कभी उनके प्रतिकूल अथवा विरुद्ध न बोले, न ही
महावीर के पास आते हैं और विनय पूर्वक उनसे प्रश्न पूछते हैं। उनकी भावना के विपरीत आचरण करें।२७
प्रश्न का समाधान पाकर व प्रसन्न होकर कृतज्ञता प्रदर्शित करते छान्दोग्य उपनिषद् का यह मन्तव्य भी इसी विचार को परिपुष्ट हुए कहते हैं-भन्ते! आपने जो कहा, वह सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता है
करता हूँ।३१ यदा वै बली भवति, तदा उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता उत्तर प्रदाता गुरु के प्रति शिष्य को इतना कृतज्ञ होना चाहिए भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता । कि वह उत्तर प्राप्त कर अपनी मनस्तुष्टि और प्रसन्नता व्यक्त करे। भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति।२८
उनके उत्तर के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करें। जब शिष्य में आत्मबल जागृत होता है तो वह उठ खड़ा होता एक बार गणधर इन्द्रभूति के पास भगवान पार्श्वनाथ परम्परा है। फिर वह अप्रमादी होकर गुरु की परिचर्या करता है। परिचर्या । के श्रमण उदक पेढाल आये और अनेक प्रकार के प्रश्न पूछे। करता हुआ गुरु की सन्निधि में बैठता है। गुरु की शिक्षाएँ सुनता है। इन्द्रभूति ने सभी प्रश्नों का बड़ी स्पष्टता और सहजता से उत्तर उन पर मनन करता है। उन्हें जानकर हृदयंगम कर लेता है उन दिया, किंतु गणधर इन्द्रभूति के उत्तर से उदक पेढाल क्रुद्ध हो पर अपनी जीवनचर्या ढालता है। और फलस्वरूप वह विज्ञाता गया, खिन्न भी हुआ और वह प्रश्नों का समाधान पाकर भी गौतम विशिष्ट विद्वान-आत्मज्ञानी बन जाता है।
का अभिवादन किये बिना, धन्यवाद या कृतज्ञता के दो शब्द भी गुरुजनों के समक्ष बैठने उठने की सभ्यता और शिष्टता पर
बोले बिना उठकर चलने लगा। स्पष्टवादी गौतम को उदक पेढाल विचार करते हुए कहा गया है-शिष्य-आचार्यों के बराबर न बैठे,
का यह व्यवहार अनुचित लगा। तब गौतम ने उदक पेढाल को पीछे आगे न बैठे, पीछे से सटकर न बैठे, गुरु की जांघ से जांघ
सम्बोधित करके कहा-भद्र ! किसी श्रमण-निर्ग्रन्थ या गुरुजन से धर्म सटाकर न बैठे। गुरु बुलावे तो विस्तर या आसन पर बैठे-बैठे ही
का एक भी पद, एक भी वचन सुना हो, अपनी जिज्ञासा का उनको उत्तर ने देवे। बल्कि उनका आमंत्रण सुनकर आसन से उठे,
समाधान पाया हो, या योग-क्षेम का उत्तम मार्ग दर्शन मिला हो तो, निकट आकर विनयपूर्वक निवेदन करे-२९
क्या उनके प्रति कुछ भी सत्कार सम्मान व आभार प्रदर्शित किये
बिना उठकर चले जाना उचित है? उठने बैठने की यह ऐसी सभ्यता है, जो गुरुजनों के लिए ही क्या, मनुष्य को सर्वत्र जीवन में उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति की
उदक पेढाल ने सकुचाते हुए पूछा-आप ही कहिए, उनके प्रति सुसंस्कृतता, उच्च सभ्यता झलकती है।
मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए?
__गणधर गौतम ने कहा-एगमपि आरियं सुवयणे सोच्चा" प्रश्न पूछने का तरीका
आढाई परिजाणेति वंदति नमंसति ३२ शिक्षा काल में शिष्य को शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ गुरुजनों से एक भी आर्य वचन सुनकर उनके प्रति आदर व्यावहारिक ज्ञान, सभ्यता और शिष्टतापूर्ण आचरण भी आवश्यक
{ और कृतज्ञता का भाव व्यक्त करना चाहिए। यही आर्य धर्म है। है। इसलिए जैन शास्त्रों में “विनय' के रूप में विद्यार्थी के
गौतम का यह उपदेश और स्वयं गौतम की जीवनचर्या से गुरु अनुशासन, रहन-सहन, वर्तन, बोलचाल आदि सभी विषयों पर ।
शिष्य के मधुर श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध और प्रश्न उत्तर की शैली तथा बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है और उसके आवश्यक
उत्तर प्रदाता, ज्ञानदाता गुरु के प्रति कृतज्ञ भावना प्रकट करना सिद्धान्त भी निश्चित किये गये हैं। गुरुओं से प्रश्न पूछने के तरीके
एक आदर्श पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। आज के संदर्भो में भी इस पर विचार करते हुए बताया है
प्रश्नोत्तर पद्धति और कृतज्ञ भावना की नितांत उपादेयता है। आसणगओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जागओ कया,
वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक गुरुजनों से कुछ पूछना हो तो अपने आसन पर बैठे-बैठे, या } आवश्यक अंग है। दूसरा अंग है-शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता शय्या पर पड़े-पड़े ही न पूछे, किन्तु खड़ा होकर हाथ जोड़कर नम्र और व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप आसन से प्रश्न करे।३०
रहने वाल, योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ
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| ५४२
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ विशेष तपश्चरण) करने वाला, सबका प्रिय करने वाला और जिनदास गणि चूर्णि में स्पष्टीकरण करते हैं कि गुरुजनों से शिल्प सबके साथ प्रिय मधुर बोलने वाला, शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त कर | आदि सीखने पर, वस्त्र, भोजन, माला आदि से उनका सम्मान, सकता है।३३
सत्कार करना, उनके कथनानुसार वर्तन करना-शिष्य अपना कर्तव्य इसी प्रसंग में शिक्षार्थी की १५ चारित्रिक विशेषताओं पर भी
समझता है। तो जिन गुरुजनों से शिष्य जीवन-निर्माण और आत्म विचार किया गया है जिनके कारण वह सुविनीत कहा जाता है
विकास की शिक्षा प्राप्त करता है, उनका सत्कार सम्मान करना और गुरुजनों के समीप रहकर शिक्षा प्राप्त कर सकता है। संक्षेप में
विनय करना और उनका आदेश पालन करना तो परम सौभाग्य वे इस प्रकार हैं-३४
का कार्य मानकर गुरुजनों की आज्ञा सदा शिरोधार्य करना ही
चाहिए। १. जो नम्र है।
__दशवैकालिक की वृत्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्याध्ययन २. अचपल है।
सम्पन्न होने पर छात्र के माता-पिता तथा छात्र गुरुजनों, आचार्यों ३. दंभी नहीं है।
को भोजन, वस्त्र, अर्थदान, प्रीतिदान आदि द्वारा सम्मानित करते ४. अकुतूहली-तमाशबीन नहीं है।
थे। राजा द्वारा उनके जीवन भर की आजीविका का प्रबन्ध भी
किया जाता था। ५. किसी की निंदा नहीं करता है।
अन्तकृद्दशा सूत्र में अणीयस कुमार का विद्याध्ययन पूर्ण होने ६. क्रोध आने पर उसे तत्काल भुला देता है, मन में क्रोध नहीं
पर नाग गाथापति कलाचार्य का सम्मान करता हैरखता, शीघ्र शान्त हो जाता है।
- तं कलायरियं मधुरेहिं वयणेहिं विपुलेणं वत्थ-गंध ७. मित्रों के प्रति कृतज्ञ रहता है। मित्रता निबाहना जानता है।
मल्लालंकारेण सक्कारेति, सम्माणेति '' विपुलं जीवियारिंह ८. ज्ञान प्राप्त करने पर अहंकार नहीं करता।
पीइदाणं दलयंति (३/१) ९. किसी की स्खलना या भूल होने पर उसका तिरस्कार एवं अणीयस कुमार के माता-पिता कलाचार्य का मधुर वचनों से उपहास नहीं करता।
सम्मान करते हैं, विपुल वस्त्र गंध माला अलंकार (आभूषण) प्रदान
कर सत्कार और सम्मान करते हैं, तथा सम्मानपूर्ण जीविका योग्य act १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता, सहाध्यायियों से झगड़ता
विपुल प्रीतिदान देते हैं। 30 नहीं। 624
इस प्रकार देखा जाता है कि प्राचीन काल में विद्यादाता ११. मित्र के साथ अनबन होने पर भी उसके लिए भलाई की
गुरुजनों का समाज में सर्वाधिक सम्मान और सत्कार किया जाता बात करता है। एकान्त में भी उनकी निंदा नहीं करता।
था और जीवन निर्वाह की कोई समस्या उन्हें चिन्तित नहीं १२. जो कलह या मारपीट नहीं करता।
करती थी। १३. जो स्वभाव से कुलीन और उच्च है।
विद्यार्थी जहाँ गुरुजनों के प्रति समर्पित होता था, वहाँ गुरुजन
भी विद्यार्थी के प्रति पितृवत् वात्सल्य रखते थे। गुरु-शिष्य के १५. बुरा कार्य करने में जिसे लज्जा अनुभव होती है। 1600
सम्बन्ध पिता-पुत्र की भाँति मधुर और स्वार्थ रहित-आत्मीय होते १५. जो अपने आपको संयत और शान्त रख सकता है।
थे। दशवैकालिक में बताया है जो शिष्य गुरुजनों को विनय, भक्ति गुरुजनों के प्रति आदर व कृतज्ञता
एवं समर्पण भाव से प्रसन्न करता है, गुरुजन भी उसे उसी प्रकार
योग्य मार्ग में नियोजित करते हैं, जैसे पिता अपनी प्यारी पुत्री को जैन शिक्षा पद्धति पर शिक्षार्थी के मानसिक गुणों के विकास में ।
योग्य कुल में स्थापित करता है।३६ सर्वाधिक महत्व की बात है, गुरुजनों के प्रति कृतज्ञता तथा आदर
इस सन्दर्भ में आचार्य विनोबा भावे का यह कथन भी बड़ा भावना। दशवैकालिक सूत्र मे बताया है
सटीक है-गुरु-शिष्य के बीच माता और पुत्र जैसा मधुर सम्बन्ध जो सुकुमार राजकुमार उच्च कुलीन शिष्य गुरुजनों से लौकिक
होना चाहिए। माता बालक को स्तनपान कराती है तो क्या वह शिक्षा, शिल्प आदि सीखते हैं, गुरुजन उन्हें शिक्षाकाल में कठोर
अभिमान या एहसान अनुभव करती है कि मैं स्तनपान कराती हूँ। बंधन, ताडना, परिताप आदि देते हैं फिर भी शिष्य उनका सत्कार
नहीं? इसमें दोनों को ही आनन्द का अनुभव होता है; और दोनों करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, तथा प्रसन्न करके उनके निर्देश के के बीच मधुर वात्सल्य रस बहता है। अध्ययन-अध्यापन में अनुसार वर्तन करते हैं।३५ इस पर टिप्पण करते हुए आचार्य गुरु-शिष्य की भी यही भूमिका होनी चाहिए।
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
इसी सिलसिले में कैनेथ वाउल्डींग का एक बहुत सुन्दर वाक्य
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When we love, we increase love with others and in ourselves as teacher increases knowledge within his student and himself by the simple act of the teach us.
जब हम प्रेम करते हैं, तब प्रेम को बढ़ाते हैं, औरों में और अपने में, जैसे कि एक शिक्षक ज्ञान को बढ़ाता है, विद्यार्थियों में और अपने में सिखाने की एक सादी सी क्रिया के द्वारा।
गुरु शिष्य का यह भाव ही जैन सूत्र वशवैकालिक के ९वें अध्ययन में विभिन्न सुन्दर उपमाओं द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। उपनिषद में एक वाक्य आता है तेजस्विनावधीतमस्तु-हमारा अध्ययन तेजस्वी हो। हमारा ज्ञान जीवन में प्रकाश और तेज पैदा करे। दशवैकालिक में भी कहा है - गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने वाले शिष्य का ज्ञान, यश और तेज "शीतल जल से सींचे हुए पादप की भाँति बढ़ते हैं। जल सित्ता इव पायवा । तथा जैसे घृत सिंचित अग्नि का तेज बढ़ता है, वैसे ही विनय से प्राप्त विद्या तेजस्वी होती है।
इसी अध्ययन में विनय और अविनय का फल बताते हुए आचार्य ने बहुत ही स्पष्ट बात कही है
विपत्ति अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स य ।
अविनीत को सदा विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती है, जिसने यह जान लिया है, वही शिष्य गुरुजनों से शिक्षा और ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ३७
शिक्षा का उद्देश्य
जैन आगमों व अन्य व्याख्या ग्रंथों के परिशीलन से इस बात का भी पता चलता है कि विद्यार्थियों को सिर्फ अध्यात्म ज्ञान ही नहीं, किन्तु सभी प्रकार का ज्ञान दिया जाता था। भगवान ऋषभदेव ने आत्मज्ञान से पूर्व अपने पुत्र-पुत्रियों को ७२ एवं ६४ प्रकार की कलाएँ तथा विविध विद्या शिल्प आदि का प्रशिक्षण दिया था। इन कलाओं की सूची से स्पष्ट होता है कि इनमें वस्त्र निर्माण, वास्तु कला, कृषिकला, गायन कला, शासन कला (राजनीति) काव्यकला, नृत्यकला, युद्धकला, मल्लविद्या, यहाँ तक कि कामकला का भी समावेश था । ३८
शारीरिक, मानसिक, विकास के समग्र साधन काम में लिये जाते थे और शिक्षार्थी को समाज में सम्मानपूर्वक आजीविका तथा उच्चजीवन स्तर यापन के योग्य बनाया जाता था । ३९
आज विद्यार्थी के सामने शिक्षा प्राप्त करने का सबसे पहला उद्देश्य है- डिग्री (उपाधि) प्राप्त करना तथा उसके पश्चात् कोई रोजगार प्रधान शिक्षण लेना। इन सबके पीछे, आजीविका प्राप्त
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करने का ही मुख्य उद्देश्य रह गया है। आज की शिक्षा वास्तव में एकांगी है। विद्यार्थी के सामने भी बहुत सीमित छोटा सा लक्ष्य रहता है, और गुरु के सामने केवल अपनी आजीविका (नौकरी) का ही ध्येय रहता है, इसलिए शिक्षा फलदायिनी नहीं होती और न ही जीवन का विकास कर पाती है। किन्तु प्राचीनकाल के संदर्भों से यह पता चलता है कि कला शिक्षण का उद्देश्य आजीविकोपार्जन करना मात्र नहीं था, किन्तु छात्र के व्यक्तित्व का संतुलित समग्र विकास करना उद्देश्य था। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् व्यक्ति समाज में सम्मानपूर्ण जीवन जी सके और साथ ही समाज के बहुमुखी विकास में योगदान कर सके शिक्षा का यह प्रथम उद्देश्य था ।
इसके साथ ही शिक्षा प्राप्त करने का एक महान उद्देश्य भी हैऔर वह है आत्मज्ञान प्राप्त करना। जीवन में अर्थ प्रथम आवश्यकता है, परन्तु सर्वोपरि आवश्यकता नहीं। मनुष्य के मन में भूख असीम है, अनन्त है, इसे धन, यश, सत्ता आदि की खुराक शान्त नहीं कर सकती। मन की शान्ति के लिए केवल एक ही उपाय है, और वह है- आत्मज्ञान आत्मविद्या विद्यार्थी के सामने ज्ञान प्राप्ति का विशिष्ट और महान उद्देश्य यही है।
दशवैकालिक सूत्र में श्रुत समाधि४० का वर्णन है जिसका अर्थ है ज्ञान प्राप्ति से चित्त की समाधि और शांति की खोज करना। उसके लिए शिक्षार्थी अपने मन में एक पवित्र और महान लक्ष्य निश्चित करता है।
१. अध्ययन करने से मुझे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होगी।
२. ज्ञान प्राप्ति से मेरे चित्त की चंचलता दूर होगी, एकाग्र चित्त बन सकेगा।
३. मैं स्वयं को धर्म में, सदाचार में स्थिर रख सकूँगा ।
४. मैं स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को भी धर्म में स्थापित कर पाऊँगा।
इन चार उद्देश्यों पर चिन्तन कर शिक्षार्थी ज्ञानाराधना में प्रवृत्त होता है।
४१
स्थानांग सूत्र में कुछ भिन्न प्रकार से शिक्षा प्राप्ति के पाँच विशिष्ट उद्देश्य बताये गये हैं
१. शिक्षा प्राप्त करने से ज्ञान की प्राप्ति होगी।
२. दर्शन (सम्यग् बोध) की प्राप्ति होगी ।
३. चारित्र (सदाचार) की प्राप्ति होगी।
४. दूसरों के कलह, अशान्ति, द्वेष आदि का शमन कर सकूँगा । ज्ञानी बनकर समाज में शान्ति स्थापित कर सकूँगा ।
५. वस्तु पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जान सकूँगा।
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उपसंहार-इस प्रकार भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रन्थों तथा मुख्यतः जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से प्राचीन शिक्षा प्रणाली का जो
स्वरूप उपलब्ध होता है, उससे यह पता चलता है कि प्राचीन काल 8002000 में शिक्षा या ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास
करना था। शरीर एवं इन्द्रियों का विकास करना मात्र शिक्षा का उद्देश्य नहीं है, यह तो पशुओं में भी होता है, पक्षियों और
कीट-पतंगों में भी होता है। मनुष्य के भीतर तो असीम शक्तियों के 8 विकास की संभावना छिपी है, शिक्षा के द्वारा उन शक्तियों को BI जागृत एवं प्रकट किया जाता है।
पत्थर या मिट्टी में मूर्ति बनने की योग्यता तो है ही, कुशल Re00 शिल्पकार उसे सुन्दर आकृति देकर उस क्षमता को प्रकट कर देता
है। गुरु को इसी लिए कुम्भकार शिल्पकार बताया है जो विद्यार्थी 200900PP की सुप्त/निद्रित आत्मा को जागृत कर तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । बना देता है। व्यक्ति समाज का एक अभिन्न घटक है। निश्चित ही अगर उसके व्यक्तित्व का, शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास होगा, उसमें तेजस्विता आयेगी। तो समाज स्वयं ही प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा। अतः व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु जो मानदंड, नियम, योग्यता, पात्रता तथा पद्धतियाँ प्राचीन समय में स्वीकृत या प्रचलित थीं, उनके अध्ययन/अनुशीलन के आधार पर आज की शिक्षा प्रणाली पर व्यापक चिन्तन/मनन अपेक्षित है, परिवर्तन और परिष्कार भी वांछनीय है। प्राचीन भारतीय जैन शिक्षा प्रणाली भारत की जलवायु तथा मानसिकता के अनुकूल थी, अतः उन सन्दर्भो के साथ आज की शिक्षा प्रणाली पर आवश्यक चिन्तन होना अपेक्षित है। पता : दिवाकर प्रकाशन ए-७, अवागढ हाउस एम. जी. रोड, आगरा-२८२००२
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१. विस्तार के लिए देखें-१. प्रवचनसारोद्वार द्वार-२३८, गाथा
१३५६-५८
२.धर्मसंग्रह अधिकार-१, गाथा-२० २. रघुवंश-३/२८/२९ (कालिदास ग्रंथावली) ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र-प्रकरण २१-अ-४. ४. आदिपुराण (महापुराण)-१६/१०४ तथा त्रिषष्टि. १/२ एवं
आवश्यकचूर्णि ५. कुमारं सातिरेग अट्ठवास सयं जायं अम्मापियरो कलायरियस्स उवणेति'
"""""भगवती सूत्र ११/११, ज्ञातासूत्र १/१, अन्तकृद्दशासूत्र-३/१ ६. गुणचन्द्र का महावीर चरित्र तथा त्रिषष्टि शलाका परुषचरितं देखें। ७. पढम दसाङ-अट्ठवरिसोवरि, नवम-दसमेसु दीक्खा-निशीथचूर्णि
उद्देशक-११ ८. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-५
९. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-१२ १०. ललित विस्तर, पृष्ठ-१४३ ११. चुल्लवग्ग-१-७-२, डा. हरीन्द्रभूषण जैन-प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति १२. चत्तारि वायणिज्जा-विणीते, अविगतिपडिबद्धे, विओसितपाहुडे अमाई
स्थानांग-४/सूत्र ४५३ १३. तओ अवायणिज्जा-दुढे, मूढे, वुग्गहिए-स्थानांग-३ १४. उत्तराध्ययन-१/३७-३९ १५. (१) अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई।
अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे॥ (२) नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए।
अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई॥ -उत्तराध्ययन-११/४-५ १६. आदि पुराण (भाग-१) १४०-१४८ तथा आदि पुराण (खण्ड-३)
३८/१०९-१११८ १७. उत्तराध्ययन-११/३ १८. आदि पुराण-भाग-१ १९. सेलघण-कुडग-चालणि परिपूणग हंस-महिस-मेसेय-मरुग-जलुग-विराली।
२०. आणा णिद्देस करे, गरूणमुववाय कारए। इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति वुच्चइ।।
-उत्तरा. १/२ २१. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो-दशवै. ९/२/२ २२. उत्तरा. १/९ २३. उत्तरा. ११४ २४. भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा।
-आचारांग-२/३/३ २५. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं, गुरुभक्ति भावसुस्सूसाविणओ एस वियाहिओ
-उत्त. ३०/३२ २६. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं, पियं करे पियं वाई से सिक्खं लभूमरिहइ
उत्त.-११/१४ २७. उत्तरा.-१/१७ २८. छांदोग्य उपनिषद् ७/८/१ २९. उत्तरा.-१/२२-२३ ३०. उत्तराध्ययन-२२-२३ ३१. देखिए भगवती सूत्र के प्रसंग ३२. सूत्रकृतांग-२/७/३७ ३३. उत्तराध्ययन-११/१४ ३४. उत्तरा.-११/१०-१४ ३५. दशवै. ९/२/१४-१५,जिनदास चूर्णि पू. ३१४, दसवेआलियं, पृ. ४३९ ३६. दशवैकालिक-९/३/१३ ३७. दशवै. १/२/३१ जिनदासचूर्णि पू. ३४१, दसवैआलियं-पृ. ४३९ ३८. देखें-त्रिषष्टिशलाका-१/२, आवश्यकचूर्णि तथा महापुराण पर्व-१६ ३९. इसी के साथ-भगवती ३१, ज्ञातासूत्र-१/२, अन्तकृद्दशा सूत्र-३/9
आदि में कला शिक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ४०. दशवैकालिक-९/४ ४१. स्थानांग सूत्र-५/३
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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साधुचर्या की प्रमुख पारिभाषिक शब्दावलि अर्थ और अभिप्राय
-श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया
(एम. ए. (संस्कृत), एम.ए. (हिन्दी), पी-एच. डी.) आस्था और व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण संस्कृति का अपना १. गोचरी
२. दीक्षा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्यक् श्रम-साधना पर आधृत स्वावलम्बन
३. प्रतिक्रमण ४. मुखवस्त्रिका और गुण प्रधान आस्था श्रमण संस्कृति का मुख्य लक्षण है। इस
५. मंगली पाठ ६. रजोहरण संस्कृति से अनुप्राणित होकर प्रत्येक प्राणी अपने श्रम के द्वारा स्वयं कर्म करता है और अपने किए गए कर्म-फल का स्वयं ही भोक्ता
७. वर्षावास
८. समाचारी होता है। इस प्रसंग में उसे किसी सत्ता अथवा शक्ति की कृपा की ९. सिंगाड़ा १०. संथारा आकांक्षा कभी नहीं रहती। किसी की कृपा का आकांक्षी होने पर
अब उपर्यंकित अकारादि क्रम से तालिका का क्रमशः उसे स्वावलम्बी बनने में बाधा उत्पन्न होती है। श्रमण सदा
अध्ययन-अनुशीलन करेंगे। स्वावलम्बी होता है। वह अपनी सूझ और समझ पूर्वक अपनी ही श्रम-साधना के बलबूते पर उत्तरोत्तर आत्म-विकास को उपलब्ध
गोचरी-गोचरी वस्तुतः आगमिक शब्द है। इसका आदिम रूप करता है। इस प्रकार श्रमण स्वयमेव चरम पुरुषार्थ का सम्पादन
'गोयर' है। गोयर का दूसरा रूप गोयरग्ग भी प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में कर स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त होता है।
उपलब्ध है। इसका अर्थ है गाय की तरह भिक्षा प्राप्त्यर्थ परिभ्रमण
करना। गाय घास चरते समय स्वयं जाग्रत रहती है। वह घास को स्वावलम्बन प्रधान आस्था की अपनी व्यवस्था होती है। इस
इस प्रकार चरती है ताकि उसका मूलवंश सुरक्षित रहे। इसी प्रकार व्यवस्था में किसी सत्ता अथवा शक्ति की वंदना अथवा उपासना
श्रमण-साधु किसी भी गृहस्थ के यहाँ जाकर उसे बिना कष्ट दिए करने का कोई विधान नहीं है। आत्मिक गुणों का स्मरण करना
यथायोग्य भिक्षा ग्रहण करता है। तथा उन्हें जान और पहिचान कर उनकी वंदना और उपासना करना उसे सर्वथा अभीष्ट रहा है। इस प्रक्रिया से साधक अपने
साधु के चित्त में गोचरी प्राप्त्यर्थ जाते समय सम्पन्न अथवा अन्तरंग में प्रतिष्ठित आत्मिक शक्ति अथवा सत्ता के गुणों का
विपन्न, कुलीन अथवा मलीन गृहस्वामी का विचार नहीं उठता। वह जागरण और उजागरण करता है। अपने आत्मिक गुणों को अनुभव
सरस और विरस भोज्य पदार्थ का भी ध्यान नहीं करता। वह कर वह स्वयं को साधता है और साधुचर्या का अनुपालन करता
निर्विकार भाव से शुद्धतापूर्ण भोज्य सामग्री को भ्रमर की भाँति है। साधुचर्या का आत्म विकास तीन चरण में सम्पन्न होता है-यथा
अल्पमात्रा में ग्रहण करता है, ताकि किसी गृहस्थ पर उसके गृहीत
आहार का किसी प्रकार से भार-भाव उत्पन्न न होने पावे। १. साधु चरण
साधु अथवा श्रमण मन-शास्त्र का ज्ञाता होता है। उसे अपने २. उपाध्याय चरण
नियमानुकूल संस्कृति से अनुप्राणित भोजन ग्रहण करना होता है। ३. आचार्य चरण
अन्य शुद्धियों के साथ भाव-शुद्धि सर्वोपरि है। गृहपति के साधु के तीन रूप पंच परमेष्ठी में अंतर्भुक्त हैं। इनकी वंदना अन्तर्मानस को वह सावधानी पूर्वक पढ़ता है। अन्यथा भाव होने करने से व्यक्ति साधक के आत्म-विकास की स्वयमेव वन्दना है। पर वह उसके यहाँ गोचरी हेतु प्रवेश नहीं करता। दर असल श्रमण साधुचर्या आत्मिक साधना की प्राथमिक प्रयोगशाला है। यहाँ
| साधु की भिक्षा पूर्णतः अहिंसक और विशुद्ध होती है। उसके द्वारा जागतिक जीवन से विरक्त होकर साधक अपनी साधना सम्पन्न
बयालीस दोषों से रहित भोजन ही ग्रहण किया जाता है। करता है। साधुचर्या से सम्बन्धित अनेक शब्दावलि आज प्रायः दीक्षा-दीक्षा शब्द में समस्त इच्छाओं और वासनाओं के दहन लाक्षणिक हो गयी है।
करने का विधान विद्यमान है। जागतिक जीवन की नश्वरता तथा शब्द एक शक्ति है और अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम।।
निस्सारता के प्रति वैराग्यमुखी प्राणी दीक्षा के लिए दस्तक देता है। साधु-चर्या का प्रत्येक शब्द आज अपनी आर्थिक सम्पदा की दृष्टि
उसके मनमानस में संसार और संसारीजनों के प्रति आसक्ति एवं से विशिष्ट हो गया है। उस शाब्दिक अर्थ वैशिष्ट्य की अपनी
| मोह के त्याग का भाव उत्पन्न होता है। परिभाषा है। उसी शब्दावलि से सम्बन्धित यहाँ कुछेक शब्दों की प्रश्न यह है कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करने की पाबता किसमें परिभाषा को स्पष्ट करना वस्तुतः हमारा मूलाभिप्रेत है। विवेच्य है? आगम के आदेशानुसार जिसमें वैराग्य की तीव्र भावना हो वह शब्दावलि की संक्षिप्ति तालिका निम्नलिखित है-यथा
मुमुक्षु सहज रूप में दीक्षा धारण कर सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में BREPORT
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अनेक संदर्भ उपलब्ध हैं जब पतित से पतित माने जाने वाले । शुद्धि आदि अधिक उल्लेखनीय हैं। इन सभी पर्यायवाची शब्दों का जिज्ञासुओं ने दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को पवित्र और पावन । प्रयोजन और प्रयोग प्रायः समान ही है-अशुद्धि से विशुद्धि की बनाया है। दीक्षा के लिए वय की दृष्टि से भी कोई विशेष निर्देश { ओर उन्मुख होना। आक्रमण में बाहरी आग्रह है जबकि प्रतिक्रमण नहीं दिया गया है। चाहे बालक हो चाहे हो (तरुण) वयस्क फिर } में आन्तरिक अनुग्रह। चाहे हो वृद्ध, जिसमें भावों की प्रबलता और वैराग्य का बलवती
प्रयोग और उपयोग की दृष्टि से प्रतिक्रमण के दो भेद किए जा वेग हो वही साधकेच्छु दीक्षा ग्रहण कर सकता है।
सकते हैंभारत की अन्य अनेक संस्कृतियों में संन्यास लेने के लिए
१. द्रव्य प्रतिक्रमण २. भाव प्रतिक्रमण जीवन का उत्तरार्द्ध समय अत्यन्त उपयोगी और सार्थक स्वीकारा । गया है। जैन संस्कृति ने इस दिशा में एक उत्तम उत्क्रान्ति उत्पन्न
द्रव्य प्रतिक्रमण वह जिसमें साधक एक स्थान पर आसीन कर दी। दीक्षा लेने के लिए यहाँ वयस्क अथवा तरुण काल ही
होकर बिना उपयोग के यश प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण श्रेष्ठ और श्रेयस्कर निरूपित किया है। इस समय शारीरिक ऊर्जा
करता है। भाव प्रतिक्रमण में साधक अन्तर्मानस में अपने कृत पापों उत्कर्ष को प्राप्त होती है तभी इन्द्रियों का उपयोग भोग से हटाकर
के प्रति ग्लानि अनुभव करता है। वह इस गिरावट के लिए चिन्तन योग की ओर रूपान्तरित करना चाहिए। जब इन्द्रियाँ शिथिल हों
करता है, भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो अतः वह दृढ़तापूर्वक तब साधना करने की सम्भावना शेष नहीं रहती और संयम का भी
संकल्प करता है ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। भाव संयोग प्रायः रहता नहीं, विवशता का परिणाम संयम नहीं, कहा जा
प्रतिक्रमण की उपयोगिता इतस्ततः असंदिग्ध है। सकता। इसीलिए आगम साहित्य में ही नहीं परवर्ती साहित्य में भी जीवन मांजने की कला का अपरनाम है-प्रतिक्रमण। सावधानी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है।
पूर्वक दिन भर रोजनामचा-क्रियाकलाप का तल पट-तौलनाप दर असल बुभुक्षु व्यक्ति नहीं अपितु मुमुक्ष व्यक्ति ही दीक्षा
करके साधक अभाव को जानता है और उचित सुधार और उद्धार ग्रहण करने की पात्रता रखता है जिसमें चंचल चित्त की एकाग्रता
कर वह सद् वृत्तियों का अभ्यास करता है ताकि जीवन शोधन में उत्पन्न करने की शक्ति और सामर्थ्य विद्यमान हो। उसे अपनी खोज
कोई अभाव शेष न रह जाय। प्रतिक्रमण में अपनी गिरावट उसके 1000 स्वयं करनी होती है वह किसी यात्रा का अनुकरण कर लाभान्वित
परिहार का पुनर्विचार तथा विकास का विवेकपूर्वक आचरण करना नहीं हो सकता। जागतिक जीवन-उत्कर्ष के लिए पराई नकल की
होता है। जा सकती है पर आध्यात्मिक उन्नति और उन्नयन के लिए किसी मुखवस्त्रिका-श्वेताम्बर साधु समुदाय के अन्तर्गत दो प्रमुख प्रकार की नकल उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। इसके लिए साधक परम्पराएँ हैं-स्थानकवासी और दूसरी है तेरापंथी। ये दोनों साधु को अपने अन्तरंग की ऊर्जा को उद्दीप्त करना होता है। अन्तरंग परम्पराएँ मुखवस्त्रिका का प्रयोग और उपयोग करती हैं। यह का अन्वेषण अथवा अन्तर्यात्रा तेज को तेजस्वी बनाता है। दीक्षा वस्त्रिका या पट्टिका श्वेत रंग की होती है। इसी काम को सम्पन्न करती कराती है।
श्रमण-साधु-जीवन के प्रत्येक चरण में अहिंसा की प्रधानता प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण साधु चर्या का महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसके रहती है। शरीर के भीतर गया श्वांस प्रायः उष्ण हो जाता है और अभ्यास करने से साधक का विचलित चरण सदाचरण में परिणत } जब वह वार्तालाप के साथ बाहर निकलता है तब बाहरी शीतल हो जाते हैं।
वातावरण में वायुकायिक जीवों पर अपनी ऊष्मा से प्रहार करता प्रतिक्रिमण शब्दों के संयोग से प्रतिक्रमण शब्द का गठन हुआ
है। उनको निरर्थक कष्ट होता है। किं बहुना कभी-कभी विराधना है। प्रति शब्द का अर्थ है-प्रतिकूल और क्रमण शब्द का तात्पर्य है
भी हो जाती है। एक तो इसलिए श्रमण 'मुँहवस्त्रिका' का प्रयोग पद निक्षेप। प्रतिकूल अर्थात् प्रत्यागमन, पुनः लौटना ही वस्तुतः
करता है। प्रतिक्रमण है। प्रमाद तज्जन्य अज्ञानतावश जब साधक अपनी दूसरे साधु अटवीन्मुख होता है। वह सदा पदयात्री रहता है स्वभाव दशा से लौट कर विभाव दशा में चला जता है और पुनः। अतः मार्ग में रजकण उनके मुँह द्वार से भीतर चले जाते, हैं जो चिन्तवन कर जब वह पुनः स्वभाव सीमाओं में प्रत्यागमन करता है। स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद सिद्ध होते हैं। यह 'मुँह वस्त्रिका' का तो वह कहलाता है-प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण वस्तुतः पुनरावृत्ति है। प्रयोग इस दिशा में अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होता है। इसके सूक्ति रूप में कहें तो कहा जा सकता है-पाप से आप में लौटना अतिरिक्त चिन्तन, ध्यान और आराधना काल में भी इसका प्रयोग प्रतिक्रमण है।
एकाग्रता में सहायक सिद्ध होता है। आगम के वातायन से प्रतिक्रमण जन्य अनेक शब्द निसृत हुए। मंगली पाठ-श्रमण अथवा साध चर्या सदा स्व-पर कल्याण में
हैं, जिनमें वारणा, प्रतिचरण, प्रतिहरणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, तथा प्रवृत्त रहती है। तीर्थंकर-भगवन्तों द्वारा निर्दिष्ट देशना का अभ्यास SDED OBiplundrion Grame POED0000 5800000000000000000HRISOure Dily to
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
सातत्य से वह स्व कल्याण तो करते ही हैं किन्तु पर-कल्याण हेतु वे आगम की आँख से देखकर कल्याणकारी बातों का उपदेशनिर्देश भी दिया करते हैं। मंगली पाठ आशीर्वचन की भाँति उत्तम उद्बोधन स्वरूप है।
संसार में चार ही मंगल उत्कृष्ट है। अरिहंत मंगल हैं, सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं और केवली द्वारा प्रज्ञप्त धर्म मंगल है।
लोक में चार पदार्थ सर्वश्रेष्ठ है-अरिहंत श्रेष्ठ है, सिद्ध श्रेष्ठ हैं, साधु श्रेष्ठ हैं और केवली द्वारा प्रज्ञाप्त धर्म श्रेष्ठ है।
लोक में चार ही श्रेष्ठ शरण हैं जिनकी शरण में जाता है। अरिहंतों की शरण में जाता हूँ, सिद्धों की शरण में जाता हूँ, साधुओं की शरण में जाता है, और केवली द्वारा प्रज्ञप्त धर्म की शरण में जाता हूँ।
इस अनुपाठ अनुगूंज के साथ साथ भक्तों को भगवंत महावीर को मंगल रूप स्वीकारता है, महामनीषी गीतम गणधर को मंगल रूप मानता है तथा अन्त में आचार्य स्थूलभद्र तथा जैन धर्म को मंगल रूप का स्तव करता है। इस पाठ के साथ वह भक्त के कल्याण की मंगल कामना करते हैं। श्रमण चर्या में, 'मंगली पाठ' एक आवश्यक अंग है।
श्रमण या साधु के आत्म साधना के लिए उत्तम उत्कृष्ट मंगल है तप । श्रमण श्रमणत्व स्वीकार कर सर्वप्रथम आगम साहित्य का गहन पाठ करता है। तत्पश्चात् उत्कृष्ट तपःकर्म का आचरण करता है इसी से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
रजोहरण- श्रमण समुदाय के संक्षिप्त किन्तु मुख्य उपकरणों में रजोहरण एक है। यह शब्द दो उपशब्दों से गठित है-रज तथा हर धूल कणों को दूर करने का उपकरण ।
रजोहरण का निर्माण पाँच प्रकार के धागों के योग से बनता है। उनके नाम निम्न प्रकार से हैं
औरणिक
औष्ट्रिक
सानक बच्चक-चिप्पक मुख्य-चिपक
औरणिक वस्तुतः ऊन के धागे कहलाते हैं औष्ट्रिक से तात्पर्य ऊँट के बालों के धागे । सानक शब्द का सम्बन्ध सन से है। सन की छाल के धागे वच्चक चिप्पक एक तृण विशेष की कुट्टी से निर्मित धागे तथा मुञ्ज-चिप्पण से तात्पर्य मूँज । इसके कुट्टी से निर्मित धागे । इन धागों से रजोहरण का निर्माण किया जाता है। जो पदार्थ जिस क्षेत्र में सहज रूप से उपलब्ध हो जाता है, उसी के द्वारा इस उपकरण का निर्माण करने का विधान है। आधुनिककाल में अधिकांशतः कपड़े के धागों अर्थात् सूती धागों और ऊन के धागों
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का रजोहरण तैयार किया जाता है। एक चिकनी लकड़ी में इन धागों को कलात्मक ढंग से बनाया जाता है।
बैठते, अथवा लेटते समय स्थान को चीउंटी अथवा छोटे-छोटे कृमिकीटो की रक्षार्थ रजोहरण का उपयोग किया जाता है चलते समय मार्ग में यदि किसी प्रकार के जीवों की विराधना होने की सम्भावना होती है तो रजोहरण के द्वारा श्रमण उनकी रक्षा करता है।
वर्षावास ( चौमासा) - श्रमण अथवा साधु स्थान-स्थान पर विचरणशील जीवन व्यतीत करता है। साधु प्रायः पदयात्री होता है। उनमें स्थान के प्रति मोह जाग्रत न हो अतः साधु एक स्थान पर अधिक काल तक प्रवास न करने का विधान है। एक ही स्थान पर वर्षावास में चार माह की दीर्घाति दीर्घ अवधि तक प्रवास कर सकता है। इसी अवधि तक वास को वर्षावास कहते हैं वर्षावास को वास वास, चातुर्मास पढम समोसरण ठपणा, जेट्टोग्गह भी कहा जाता है।
एक स्थान पर चार मास तक निवास करने से इसे 'बास- बास' कहा गया है। वर्षा ऋतु में एक ही स्थान में रहने से इसे चातुर्मास कहते हैं। प्रावृट ऋतु में चार महीने की दीर्घ अवधि तक एक ही स्थान पर प्रवास रखने पर 'पढ़म समोसरण' कहा जाता है। ऋतुओं की विभिन्न मर्यादाओं के कारण लम्बी अवधि तक एक ही स्थान पर ठहरने पर इसे ठवणा भी कहा जाता है।
दर असल साधु क्षेत्रावग्रह करता है। वर्षाकाल में चार मास का एक साथ क्षेत्र अवग्रह करने से "जेट्ठोग्गह' कहा जाता है। इसका हिन्दी रूप है 'ज्येष्ठावग्रह' ।
वर्षावास श्रावण कृष्णा पंचमी, श्रावणा कृष्णा दशमी तथा श्रावण कृष्णा पंचदशमी अर्थात् अमावस्या तक वर्षावास स्थिर करना होता है।
वर्षावास में साधु प्रायः विहार नहीं करता किन्तु यदि ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए आचार्य और उपाध्याय के लिए आदेश पर इनकी वैयावृत्व के लिए साधु स्थान परिवर्तन कर
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सकता है। प्राकृतिक द्वन्द्व और दुकाल-प्रकोप तथा धर्म संकट के अवसर पर भी स्थान त्यागने का विधान है। वर्षावास की अवधि व्यतीत हो जाने पर भी यदि विहार करने योग्य परिस्थिति न हो तो साधु संचार व्यवस्था न होने तक उसी स्थान पर और रह सकता है। वर्षावास पंच समितियों से सम्बन्धित तेरह प्रकार की सुविधाओं से सम्पृक्त क्षेत्र को चयन करना श्रेयस्कर है।
समाचारी- समाचारी वह विशिष्ट क्रिया-कलाप है जो साधु-चर्या के लिए मौलिक नियमों की भौति अत्यन्त आवश्यक और अनिवार्य सत्कर्म है। श्रमण अथवा साधु आचार को मूलतः दो भागों में विभक्त किया गया है
१. व्रतात्मक आचार। २. व्यवहारात्मक आचार।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । व्रतात्मक आचार वस्तुतः शाश्वत महाव्रत है। यह साधुजीवन किया करते हैं। सिंगाड़ा प्रमुख सामाजिकों को आशीर्वचन के रूप में को स्वावलम्बी बनाता है। इससे आत्मिक आलोक प्रायः उद्दीप्त होता । 'मंगली पाठ' सुनाया करता है। है। व्यवहारात्मक आचार परस्पर में पूरक की भूमिका का निर्वाह
संथारा-जन्म-जीवन की अत्यन्त हर्षप्रद घटना है। मृत्यु जीवन करता है। विचार जब व्यवहार में चरितार्थ होता है तब सामाचारी
{ की अत्यन्त दुःखद और शोक प्रद घटना है। जन्म महोत्सव संसार का जन्म होता है। श्रमण अथवा साधुचर्या की समस्त प्रवृत्तियाँ
की सभी संस्कृतियाँ सहर्ष मनाती हैं। केवल श्रमण संस्कृति है जहाँ वस्तुतः सामाचारी शब्द में समादिष्ट हो जाती हैं। सामाचारी साधु
मृत्यु को भी महोत्सव के रूप में आनन्दपूर्वक मनाया जाता है। समुदाय अथवा संघीय जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है।
मृत्यु एक महत्त्वपूर्ण कला है। पंडितमरण को श्रेष्ठ मरण कहा आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दना, इच्छाकार,
गया है। विवेकपूर्वक अत्यन्त निराकुल अवस्था में अपनी जागतिक मिच्छाकार, तदाकार, अभ्युत्थान तथा उपसम्पदा नामक दश विधि
पर्याय को छोड़कर नई पर्याय को ग्रहण करने की आकांक्षा को प्रयोग समाचारी के लिए आर्ष ग्रन्थों में उल्लिखित है।
लेकर पौद्गलिक शरीर-पर्याय को त्यागना अथवा उससे प्राणों का एक पूर्ण दिवस दो भागों में विभक्त है-रात और दिन। रात । बहिर्गमन करना मृत्यु महोत्सव है। और दिन क्रमशः चार-चार प्रहरों में विभक्त है। श्रमण समाचारी
पंडितमरण वस्तुतः सिद्धान्त है। मृत्यु की व्यावहारिक प्रक्रिया का निम्न क्रम से विभाजन किया गया है। श्रमण अथवा साधु दिन
का नाम है-संथारा! यह आगमिक शब्द है। इस शब्द का अभिप्रेत के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में।
है-दर्भ का बिछौना। संथारे की पूर्ण प्रक्रिया को संक्षेप में निम्न आहार और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय में प्रवत्त हो जाता है। प्रकार से व्यक्त किया जा सकता हैदिन की भाँति रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा-विश्राम और चतुर्थ प्रहर में पुनः
संथारा ग्रहण करने से पूर्व साधक को संल्लेखना व्रत का
पालन करना आवश्यक होता है। इसमें आहार अर्थात् जल-पान स्वाध्याय करने का निर्देश है।
क्रमशः त्यागकर शरीर की पुष्टता को कृश किया जाता है। अपनी इस प्रकार श्रमण अथवा साधु की चर्या का विकास सामाचारी ।
आयु कर्म की अवधि का ज्ञान होने पर सल्लेखना व्रत लेने का पर निर्भर करता है। इससे उसके जीवन में अनेक सद्गुणों की विधान है। साधारण संसारी इस महान व्रत का पालन नहीं कर अभिवृद्धि होती है।
पाता। श्रमण अथवा सुधी साधु द्वारा ही संल्लेखना और संथारा का सिंगाडा-श्रमण अथवा साधु संघ की एक अपनी आचार- उपयोग किया जाना सम्भव है। 140
संहिता होती है। संघ का प्रधान होता है-आचार्य। आचार्य का ____सुधी साधक अपने जीवन की आखिरी अवस्था में निरवद्य निदेश पाकर साधु-समाज पूरे देश की परिक्रमा लगाता है। साधु शुद्ध स्थान की खोज करता है। उसी स्थान पर वह अपना आसन पदयात्री होते हैं। वे भगवंत महावीर के कल्याणकारी मंगल उपदेशों जमाता है। दर्भ, घास, पराल आदि में से किसी एक का संथारा का जन-साधारण में प्रचार-प्रसार किया करते हैं। उनकी यात्रा का । अर्थात बिछौना बिछाया जाता है। साधक पूर्व अथवा उत्तर दिशा मूल अभिप्रेत जन-जीवन में सदाचार का प्रवर्तन करना रहा है। की ओर मुंह करके बैठता है। इसके उपरान्त मारणान्तिक प्रतिज्ञा आचार्य श्री के साथ निश्चित साधु-साध्वी रहा करते हैं, शेष सभी की जाती है। नमस्कार मंत्र का तीन वार अनुपाठ करते हैं। वंदना, साधुओं की तीन-तीन की टुकड़ी आवश्यकतानुसार अधिक या कम इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ कर भक्त भी बनायी जाती है जिसमें एक साधु अथवा साध्वी वरिष्ठ होता प्रत्याख्यान किया जाता है। साथ ही चारों आहार का त्याग, अठारह है। वही उस टुकड़ी का प्रमुख होता है। यह टुकड़ी ही वस्तुतः पाप स्थानों का त्याग तथा शरीर के प्रति समस्त मोह-ममत्व का सिंगाड़ा कहलाती है।
त्याग कर समाधिमरण को वरण किया जाता है। यद्यपि सिंगाड़ा का प्रमुख होता है वरिष्ठ साधु तथापि किसी उपर्यंकित अध्ययन और अनुशीलन के आधार पर यह सहज बात का निर्णय तीनों साधुओं से परामर्श करने के पश्चात ही ही कहा जा सकता है कि श्रमण अथवा साधु की जीवन चर्या को किया जाता है। सिंगाड़ा प्रमुख की आज्ञा प्राप्त किए बिना कोई । समझने के लिए उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण शब्दावलि का प्रयोग और साधु बाहर आ-जा नहीं सकता है। उसकी आज्ञा अथवा अनुमति । प्रयोजन समझना अत्यन्त आवश्यक है। इन शब्दों की लाक्षणिकता प्राप्त करके ही अन्य साधु गोचरी अथवा अन्य किसी कार्य से का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए संक्षिप्त अध्ययन का मूल बाहर विहार करता है।
अभिप्रेत रहा है। सिंगाड़ा की संस्कृति अनुशासन प्रधान होती है। लोक अथवा मंगल कलश समाज को उपदेश देने का शुभ अवसर सिंगाड़ा प्रमुख को प्राप्त ३९४, सर्वोदय नगर होता है। उसी के निदेश से अन्य साधु अपने-अपने विचार व्यक्त | आगरा रोड, अलीगढ़
(0:0900
16
2060409
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086864मरणयगडाव्यह
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Contact bed:09.0.015a0
96.04
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
१. अभिधान राजेन्द्र कोश
२. अन्तकृद्दशांग
३. आचारांग सूत्र
४. आवश्यक चूर्णि
५. आवश्यक सूत्र
६. उपासकाचार
संदर्भित ग्रन्थों की अकारादि क्रम से तालिका
११. दशवैकालिक सूत्र
१२. दर्शनसार
१३. निशीथ भाष्य
१४. भगवती आराधना
१५. भगवती सूत्र
७. उत्तराध्ययन
८. जैन आचार
९. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा १०. तत्त्वार्थ सूत्र
दो तरह के कर्म होते हैं-शुभ व अशुभ भोगना दोनों को पड़ता है। जैसा कर्म उपार्जन करेंगे वैसा ही फल भोगेंगे। कर्म पौद्गलिक है जो कर्म हम भोगते हैं वे चतुःस्पर्शी हैं। ये अदृश्य हैं-ये देखे नहीं जा सकते। क्योंकि ये सूक्ष्म है। कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से है, स्थूल शरीर से नहीं है जब आत्मा स्थूल शरीर को छोड़कर निकलती है तो उसके साथ दो शरीर और रहते हैं। सूक्ष्म व अति सूक्ष्म यानि तैजस् तेजोमय पुद्गलों का और कार्मण यानि कर्मपुद्गलों का। तैजस् शरीर का तो फोटो भी लिया जा सकता है- कार्मण शरीर का नहीं। जब तक ये कर्मपुद्गल आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे, आत्मा मुक्त नहीं होगी।
१०८१.०१
जैन मंत्र योग
तब प्रश्न आता है कि इनका आत्मा के साथ संबंध होता कैसे है ? वासना, ज्ञान, संस्कार व स्मृति से तो इनका कोई सम्बन्ध है। नहीं। इनका सम्बन्ध है केवल राग और द्वेष से इन दो स्थानों से ही आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध होता है और फिर कभी न कभी इनको भोगना पड़ता है। जिस तरह के बन्ध हम करेंगे उसी तरह का फल भोगेंगे। जब उनका विपाक हो जाता है तब उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है और वे हट जाते हैं विसर्जित हो जाते हैं। जब उनका उदय होता है तब उनके आंतरिक कारणों को खोजने का, उनको हटाने का प्रश्न आता है और उनके
१६. मूलाचार
१७. सागार धर्मामृत
१८. स्थानांग
१९. श्रावक धर्म दर्शन
५४९
-श्री करणीदान सेठिया
भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत हो जाते हैं। दो तरह के कर्म होते हैं। शुभ व अशुभ यानि पुण्य के व पाप के। यह सत्य है कि पुण्य का फल पुण्य और पाप का फल पाप होगा। पर कभी-कभी उल्टा भी हो जाता है जैसे- है तो पुण्य-परन्तु फल भोगेंगे पाप का है पाप और फल मिल जायेगा पुण्य का यह संभव है कोई आश्चर्य नहीं है ऐसा होता है। जाति परिवर्तन के द्वारा यह संभव है। पुण्य के कर्म परमाणु संग्रह से पुण्य का बंध हुआ और ऐसा कोई पुरुषार्थ हुआ कि उस संग्रह का जात्यंतर हो गया। थे तो पुण्य के पर प्रमाणु पर बन गए पाप के परमाणु। इसी तरह पाप का बंध हुआ इसमें सारे परमाणु संग्रह पाप से जुड़े हुए थे किन्तु ऐसा पुरुषार्थ हुआ ऐसी साधना की गई कि उस संग्रह का जात्यान्तर हो गया। इसी तरह जो सुख देने वाले परमाणु थे वे दुख देने वाले बन गए और जो दुःख देने वाले परमाणु थे थे सुख देने वाले बन गए। कौन जानता है कि कौन से कर्मपुद्गल निकायित हैं और कौन से दलिक। इसीलिए महावीर कहते हैं कि पुरुषार्थ करो कर्म करते रहो।
कहने का तात्पर्य है कि सब कुछ हमारे हाथ में है-जरूरत है पुरुषार्थ की निमित्त माध्यम चाहे जिसे बना लें। यह हमारे चिंतन पर निर्भर है। दो साल बाद आने वाली बीमारी को रोग को
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 5960000
डॉक्टर आज ही बता देते हैं। एक ज्योतिषी ग्रह दशाओं की गणना । दिये रहती है। परन्तु इतनी ऊँचाई पर पहुँचना बहुत ही असाधारण 6:00.0.00
करके, रेखा शास्त्री हस्तरेखा व मस्तक रेखा देखकर, छाया । बात है, क्योंकि इसके लिये जरूरी है कि मनुष्य या कम से कम शास्त्री-छाया को माप कर हमारे साथ वर्तमान व भविष्य में होने । उसकी चेतना का कोई भाग, साधारण मन की उड़ान से बहुत
वाले परिवर्तन को बता देते हैं। तब उसके निदान व उपचार के ऊँचा उड़ सके। 3000.00 लिये हम खोज करते हैं।
मंत्र एक जीवन्त सत्ता है। सच्चा मंत्र एक सच्ची सृष्टि का रोग एक है कारण की खोज अनेक है और उपचार अलग- अमोघ विधान है। मंत्र आरोपित हो गया तो सिद्धि निश्चित है। अलग। आध्यात्मिक महापुरुष उपचार बतायेंगे-दया-दान-तपस्या- कोई इसे रोक नहीं सकता। यदि हम दृढ़ आस्था, विश्वास, निष्ठा ध्यान व शुभ भावना, डॉक्टर, वैद्य, हड्डी, एक्यूपंक्चर व मेगनेट व भक्ति के साथ अन्तर्मन से मंत्र जाप शुरू करते हैं तो मन की विशेषज्ञ अपने ढंग से निदान व उपचार बताएंगे। रेखा शास्त्री, एकाग्रता के अभाव में भी मंत्र की ग्रहणशीलता अत्यन्त प्रखर होती
ज्योतिषी, मंत्र-तंत्र के ज्ञाता अपने तरीके से। BDDD
है-वह अपना प्रभाव अवश्य दिखाती है। इसलिए चंचल चित्त से भी जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि किन पाप कर्म पुद्गलों का किया गया मंत्र-जाप कल्याणकारी ही होता है। ध्यान व मंत्र को उदय हुआ है या आगे होने वाला है। कौन से ग्रह अभी अनुकूल
अलग नहीं किया जा सकता है। ध्यान व मंत्र जाप की एकाग्रता चल रहे हैं और कौन से प्रतिकूल और फिर कब कौन से
द्वारा हम कार्मण शरीर यानि अतिसूक्ष्म शरीर तक पहुँचकर उन अनिष्टकारी होंगे तब हमें सोचना होता है कि किसका माध्यम लें- मलिन परमाणुओं तक पहुँच सकते हैं उन्हें प्रभावित कर सकते हैं,
जिनके प्रयोग से इनसे छुटकारा मिल सके। अध्यात्म का, दवा का, उनमें प्रकंपन पैदाकर सकते हैं। सूक्ष्म शरीर तक पहुँचेंगे तो उससे याबरल व वनस्पति का या तंत्र-मंत्र का। यदि हम मंत्र-तंत्र का सहारा अनेक सिद्धियाँ मिलेंगी। जिस तरह का मंत्र ग्रहण करेंगे उसी तरह
लेते हैं तो फिर वैसे मंत्रों की व उनके विधि विधान की व उनके की सिद्धि प्राप्त करेंगे। विशेषज्ञों की खोज करनी होगी।
हम कोई भी चिंतन करें, कल्पना करें, विचार करें, उसका जैन मनीषियों ने पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने के लिए- माध्यम शब्द होगा। सारा जगत शब्दमय है। मंत्र एक कवच है। एक पद्य की रचना की और वो बन गया मंत्र, मंत्र ही नहीं
इससे ससार में होने वाले प्रकंपनों से बचाया जा सकता है। मंत्र के महामंत्र। इस महामंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है कि जब इसका शब्दों का जो संयोजन है-उसी पर सारा निर्भर है। जिन मनीषियों आत्मशोधन के लिए प्रयोग किया जाता है तब इसके साथ को यह ज्ञात है कि किस अक्षर की, शब्द की क्या ऊर्जा है, इससे बीजाक्षरों का प्रयोग नहीं किया जाता है और जब कोई सिद्धि की कौन से पुद्गल-परमाणु निकलेंगे वे ही शब्दों का संयोजन कर
न दृष्टि से इसका जप किया जाता है तब इसके साथ बीजाक्षरों का । सकते हैं-मंत्र निर्माण कर सकते हैं। SD योग किया जाता है।
__मुस्लिम चिन्तकों ने 'हु' शब्द को अपनाया-अल्हा 'हु' अकबर। आत्मशुद्धि के लिए, कर्म निर्जरा के लिए इस महामंत्र का जप बौद्ध विद्वानों ने हूँ' शब्द को ऊँ मणिपद्ये 'हूँ' और जैन मनीषियों आप जब चाहें-जिस दशा में हों शुरू कर सकते हैं। इसमें माला, ने ह्रीं शब्द को जिसमें वे चौबीस तीर्थंकरों का ही वास मानते हैं। वस्त्र, दिशा और किसी कर्मकाण्ड का कोई बन्धन नहीं-परन्तु आप इन तीनों का जप करके देखें-उनका सारा सम्बन्ध नाभिसमर्पण भाव होना चाहिए, कोई चाह व इच्छा नहीं। जब चाहें कमल (मणिपुर चक्र) से है। जब आप इनका जप करेंगे-पेट अन्दर स्मरण करना शुरू कर दें-अपने आपको समर्पित कर दें उस की और सिकुड़ता जावेगा-नाभि की ओर। परन्तु इन बीजाक्षरों के महामंत्र की आराधना में। यदि आपकी इच्छा-शक्ति, श्रद्धा व । शब्दों के परमाणु अलग-अलग हैं-उनकी ऊर्जा-अलग है। विश्वास उसके प्रति दृढ़ है। प्राणशक्ति के साथ इस महामंत्र की आभामंडल का, वलय का अलग तरह निर्माण होगा-अलग तरह आराधना जुड़ जाती है तो कर्मक्षय होगा-आत्मशुद्धि होगी-निश्चित की इनसे शक्ति पैदा होगी। वो अपना अलग-अलग कार्य करते हैं, रूप से आत्मा हलकी होगी।
पर हैं अत्यन्त शक्तिशाली। मंत्र बहुत ऊपर का काव्य है उसकी प्रेरणा मन से ऊपर के शब्द में अनन्त शक्ति होती है। बड़ी अद्भुत शक्ति से वह भरा अधिमानस से आती है। उसकी भाषा बहुत अधिक गंभीर और हुआ होता है। वही बात चित्र व आकृतियों में होती है। जिस तरह सारगर्भित होती है। उसका अर्थ उसके वाहक शब्दों की अपेक्षा सांथिये चार प्रकार से लिखे जाते हैं और उनसे निकलने वाले बहुत अधिक विस्तृत और गंभीर होता है। उसके लय तथा छंद में परमाणु अलग-अलग होते हैं-अलग-अलग उनका काम है। ठाणांग शब्दों से भी अधिक शक्ति होती है। उसका मूल चेतना के किसी सूत्र में अष्ट मंगल का वर्णन मिलता है ये भगवान के आगे-आगे ऐसे स्तर में होता है जो हमारी ऊपरी चेतना को पीछे से सहारा चलते हैं लेकिन इनका कार्य क्या है-क्या फल देते हैं-किन अनिष्ट
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●अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
पुद्गलों से बचाव करते हैं अपने यहाँ जहाँ तक मैंने खोज की है। इनका वर्णन कहीं नहीं मिलता है।
संकल्प शक्ति इच्छा शक्ति और मन की शक्ति को विकसित करने के लिए मंत्र की साधना का विधान है इसकी साधना के द्वारा, जप के द्वारा ऊर्जा शक्ति बढ़ती है, प्राण शक्ति जागृत होती है तब उसके प्रयोग दो दिशाओं में होते हैं। एक दिशा है सिद्धि की ओर दूसरी है आन्तरिक व्यक्तित्व के परिवर्तन की । तैजस् शरीर का विकास होने पर सम्मोहन, वशीकरण, वचन-सिद्धि, रोग निवारण, विचार संप्रेषण आदि अनेक चमत्कारिक सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं।
यदि इच्छा-शक्ति का जागरण हो जाये। इच्छा व इच्छा शक्ति में भेद हैं, फरक हैं। जब तक अज्ञान रहता है तब तक इच्छा रहती है और ज्ञान तीव्र होने पर वही इच्छा, इच्छा शक्ति का रूप धारण कर लेती है। जब तक आत्मा उस अनुत्तर ज्ञान को प्राप्त नहीं करती तब तक उसकी इच्छा, इच्छा मात्र है, इच्छा शक्ति नहीं है। इच्छा-शक्ति के द्वारा मनचाहा नियंत्रण करना संभव है। भावना और इच्छा-शक्ति का योग हर प्रकार की सिद्धि को संभव बना सकते हैं। विचारों को धारण करने वाले शब्द किसी भी पदार्थ के माध्यम से गमन कर सकते हैं। अत्यन्त प्रबल इच्छा-शक्ति के द्वारा जो रहस्यमयी शक्ति सक्रिय होती है वह शक्ति पूर्णतया स्वचालित और अवैयक्तिक होती है । उसका लक्ष्य गुण दोष से कोई सरोकार नहीं रखता। श्राप देने में यही शक्ति काम करती है। गुण दोष से बिल्कुल हटकर इससे उसका कोई सम्बन्ध नहीं।
इच्छा की तृप्ति हुए बिना मुक्ति भी नहीं होती। जब तक एक भी वासना अतृप्त रहेगी तब तक मुक्ति असंभव है। काम का त्याग, इच्छा का परित्याग व वासना को दूर करके ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है सृष्टि चक्र से बाहर जाया जा सकता है।
तंत्र-मंत्र, औषधियां, रत्न व वनस्पतियां इनका अचिन्त्य प्रभाव होता है। जिसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। प्रत्येक पदार्थ से
महामंत्र के पद्य
ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं
ॐ ह्रीं णमो आयरियाण
ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्व साहूणं
620
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ग्रह
चन्द्र और शुक्र
सूर्य और मंगल
गुरु
बुध
शनि, राहु, केतु
रंग
श्वेत
रक्त
पीला
नीला
काला
५५१
अनंत परमाणु निकलते हैं और अनंत परमाणु वे ग्रहण करते हैं। एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में परमाणु संक्रमित होते हैं। प्रत्येक पदार्थ दूसरे पदार्थ से प्रभावित होता है। हम भी अपने आपको इन संक्रमणों से नहीं बचा सकते हैं। जिस ग्रह में जो व्यक्ति जन्म लेता है उन ग्रहों के विकिरण व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। इस आकाश में विचरण करने वाले ग्रहों के परमाणु भी हमें संक्रान्त करते हैं, प्रभावित करते हैं। इसीलिए ज्योतिषियों ने रत्न धारण करने का विधान किया। ग्रहों से आने वाले विकिरण को झेलने की रत्नों में असीम क्षमता होती है। इनको धारण करने से उन विकिरण से होने वाले से बचा जा सकता है। घटना का जो निमित्त बनता दुष्प्रभाव है व निमित्त टल जाता है, वनस्पतियों का प्रभाव भी बहुत शक्तिशाली होता है। रत्नों के अभाव में वनस्पतियों के प्रयोग का विधान भी बताया गया है। वो भी वो ही काम करते हैं जो रत्न करते हैं।
एकाक्षी नारियल, हाथाजोड़ी, रुद्राक्ष ये भी तो वनस्पतियों के फल है। बहुत काम करते हैं भाग्य परिवर्तन में जिस तरह वनस्पतियों को कूट-पीसकर, घोटकर अवलेह, भस्म बनाते हैं उसी तरह यदि इनको भी ऊर्जा से भर दिया जाय, जागृत कर लिया जाये तो ये भी बहुत प्रभावशाली कार्य करते हैं-अकल्पनीय शक्ति का जागरण होता है इनमें वही बात दक्षिणावर्त्तीशंख में है। सनातन संस्कृति के ग्रन्थों में जहाँ पुरुषोत्तम क्षेत्र का विवरण आता है यहाँ बताया गया है कि महाशून्य से वैकुण्ठ का स्वरूप दक्षिणावर्ती शंख के सदृश्य दिखाई देता है इसलिए पूर्ण विधि विधान के साथ इनको जागृत कर घर में स्थापित किया जावे तो बहुत ही उत्तम, भाग्यशाली व लक्ष्मीप्रद माना गया है।
रंग पांच होते हैं-श्वेत, रक्त, पीला, नीला और काला। महामंत्र के पाँचों पदों का ध्यान भी पांच अलग-अलग इन्हीं रंगों के साथ अलग-अलग केन्द्रों पर किया जाता है। नौ ग्रहों के भी ये ही पांच रंग होते हैं। इन ग्रहों को योगियों ने हमारे शरीर में अलग-अलग जगह इनको स्थापित किया है। जैन मनीषियों ने निम्न रूप से बताया है
ध्यान
ज्ञान केन्द्र
दर्शन केन्द्र
विशुद्धि केन्द्र
आनन्द केन्द्र
शक्ति केन्द्र
Private & Personal Use Ont
रंग का स्वभाव
कर्म निर्जरा करने वाला
वशीकरण करने वाला
स्तम्भन करने वाला
प्रतिपक्षी को विक्षुब्ध करने वाला
मृत्यु व पीड़ा देने वाला
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1.
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५५२
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ धारण रत्न-माणिक्य, वनस्पति-बिल्वपत्र की मूल, अंगूठी
ताँबा की, रत्न या मूल चांदी में जड़वा कर रविवार
को मध्याह्न में ऊं हैं ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय स्वाहा। इस मंत्र की एक माला उस पर जप कर अनामिका अंगुली में या भुजा में धारण कर लें।
- सोना, मुंगा, ताँबा, गेहूँ, घृत, गुड़, लाल कपड़ा,
लालचन्दन, रक्तपुष्प व केशर। समय - सूर्योदय काल।
दान
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0
मंत्र
यंत्र:
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जो ग्रह अनुकूल नहीं है-प्रतिकूल चल रहे हैं या भविष्य में अनिष्टकारी बनने वाले हैं तो उसी ग्रह के रंग के साथ महामंत्र के उस पद्य का जप-ध्यान पूजा पूर्ण विधि विधान से चालु किया जाए
तो निश्चित ही उसमें सुधार होगा, उन कर्म पुद्गलों का क्षय होगा। 5 मैं एक ही ग्रह का पूर्ण विधान बता रहा हूँ ताकि निबन्ध लम्बा न
हो जावे। जैसे सूर्य की दशा चल रही है वो अनिष्टकारी है तो उसके लिए बताया गया है:मंत्र - ऊँ ह्रीं णमो सिद्धाणं।
- ११००
ऊं ह्री पद्मप्रभवे नमस्तुभ्यं मम शान्तिः शान्तिः
एक माला रोज। उपासना भगवान पद्मप्रभु के अधिष्ठायक देव कुसुम की
पूजा। दिशा उत्तर या पूर्व। निद्रा के समय भी मस्तक पूर्व की
ओर रहना चाहिए या दक्षिण की ओर। रंग प्रयोग - -
वस्त्र, आसन व माला का रंग लाल-जप व पूजा ।
के समय स्नान कनेर, दुपहिरिया, नागरमोथा, देव दार, मैनसिल,
केसर, इलायची, पदमाख, महुआ के फूल और सुगन्धि वाला के चूर्ण को पानी में डाल कर स्नान
करें। व्रत ३० रविवार के तीस व्रत करें लगातार।
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धारण विधि-रविवार के दिन अष्टगंध स्याही, अनार की कलम से भोजपत्र पर लिखकर ताँबा, चांदी या सोने के मादलिये में डालकर-लाल डोरे में पिरोकर पुरुष दाहिनी भुजा व स्त्री गले में धारण कर लें।
इस तरह प्रत्येक ग्रह के अलग-अलग विधान बताए गए हैं।
पता: जे. पी. काम्पलेक्स शाप नं. ८ डोर नं. ८-२४-२६, मेन रोड पो. राजमुंदरी-५३३१०१ (आ.प्र.)
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हाँ, मैं जैन हूँ
20300.00
-श्री परिपूर्णानन्द वर्मा
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धुरन्धर साहित्यकार तथा विद्वान लोग मुझसे प्रायः पूछ बैठते । माँगने जाते हैं। मुझे उन करोड़ों हिन्दू नर-नारी की मूर्खता तथा हैं कि मैं आध्यात्मिक सभाओं में अपने को जैनी क्यों कहता हूँ अज्ञान पर रुलाई आती है सर्व अन्तर्यामी देवी-देवताओं से कुछ जबकि मैं अपने को कट्टर सनातन धर्मी, घोर दकियानूसी हिन्दू माँगते हैं-हमें यह दे दो, वह दे दो। मानो वह देव न तो अन्तर्यामी तथा श्राद्ध, तर्पणा, पिण्डदान तक में विश्वास करने वाला भी है, हमें जानता-पहचानता है. वह सो रहा है और हम उसे जगाकर कहता हूँ। मेरा उनसे यहाँ निवेदन है कि मैं वह जैनी नहीं हूँ जो । अपनी आवश्कयता बतला रहे हैं। हमारे धर्म शास्त्र बार-बार अपने नाम के आगे तो जैन लिखते हैं पर घोर कुकर्मी, मद्य-माँस निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं पर कौन हिन्दू उसे मानता है। कब्र
सेवी तथा रोजमर्रा के जीवन में छल कपट करते रहते हैं। जब मैं पर फातिव पढ़ने वाला मुसलमान या गिर्जाघर में ईसाई यह क्यों SOD.4 श्रद्धापूर्वक भगवान महावीर या पार्श्वनाथ वीतराग की प्रतिमा के भूल जाता कि ईश्वर सर्वज्ञ है तभी तो उपास्य है। हमने एक प्रभु
सम्मुख नतमस्तक होकर उनसे यही चाहता हूँ कि उनके दर्शन से सत्ता तथा सार्व भौम शक्ति मानकर अपना काम हल्का कर लिया
मैं भी वीतराग, माया मोह बन्धन से छूट जाऊँ तो मुझे दया भी कि एक कोई सर्व शक्ति हैं जिसका सहारा है। इसलिए ईश्वरवादी ra.0.00%hd आती है इन मूों पर जो वीतराग से सांसारिक पदार्थ या सुख । होना तो सरल है पर जैन मत पर चलने वाला जो एक परम तत्व
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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
५५३
ईश्वर (जगत्कर्ता) की सत्ता में विश्वास नहीं करता और फिर भी अध्यात्म के, जीवन के रहस्य के परम शिखर पर पहुँच गया है, वह कितना महान् तथा आज के ही नहीं, अनन्त काल से पूजनीय तथा अनुकरणीय न हो, यह कितने दुःख तथा आश्चर्य की बात है।
हम वेद को अपौरुषेय मानते हैं। उसकी बात करने की हम में शक्ति नहीं है। पर उनमें भी ऋषभ अरिष्टनेमि आदि की सत्ता है। उपनिषदों से लेकर चलिये तो आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की असली तत्व धर्म का क्या है। जिसे लोग 'धर्म' नाम से पुकारते हैं वह तो केवल एक शाब्दिक विडम्बना है। धर्म का अर्थ न अंग्रेजी शब्द "रेलिजन" है और न मुसलिम शब्द “मजहब" है। हमारा समूचा धर्मशास्त्र केवल “कर्त्तव्य शास्त्र' है। हमारे किसी धर्म शास्त्र ने धर्म की व्याख्या नहीं की है। यह करो, वह करो, यह न करो, वह न करो, यह तो बार-बार मिलता है पर यह वहाँ कहाँ लिखा है कि यही करना धर्म है। यदि कहीं इतना स्पष्ट होता है तो महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि धर्म क्या है तो वे यह उत्तर न देते
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः स पन्था। धर्म का तत्व बड़ा गूढ़ है। जिस मार्ग से महापुरुष चलें, उसी मार्ग से चलना धर्म है। महापुरुष किसे कहते हैं, किस महापुरुष के बतलाये मार्ग से चलें, इसका उत्तर कौन देगा। "फिलासफी' नाम की चीज हमारे हिन्दू-बौद्ध-जैन किसी मत में नहीं है। पश्चिम के "फिलासफर" तर्क से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। हमारे देश में "दर्शन" है, दर्शन शास्त्र है यानी हमारे ऋषि, मुनि, भगवान तीर्थकर या भगवान बुद्ध ने जो देखा, अपनी तपस्या से जो अनुभव किया, दर्शन किया-वह तर्क से नहीं, अनुभव से बना दर्शनशास्त्र है। चूँकि दर्शन के आधार पर हमारे अध्यात्म की भित्ति खड़ी हुई है इसीलिए आज तक हमारे अध्यात्म शास्त्र की भित्ति पर एक से एक बढ़कर महान् शास्त्र की रचना होती जा रही है। कोई किसी मार्ग को पकड़ लेता है, कोई किसी को। आखिर हिन्दू धर्म में न्याय शास्त्र है, तर्क शास्त्र है, कपिल हैं, कणाद हैं, वैदान्तिक हैं, सांख्य हैं, और “जब तक जीये सुख से जीये, भस्म होने वाला शरीर फिर कहाँ मिलेगा" कहने वाले चार्वाक ऋषि भी हैं। इतने मत मतान्तरों में उलझा है हिन्दू धर्म कि पिछले एक हजार वर्ष में पुराणों में संवर्धन, संशोधन तथा मिलावट करके उनकी गरिमा तक नष्ट कर दी गयी है। आज के युग में हमारे महान पुराणों की दुर्गति करने वाले भी कम नहीं हैं।
सूझ-बूझ तथा तपस्या के अनुसार व्याख्या कर हमें सम्बोधित करते भरा रहें। भगवान महावीर के कोई मतावलम्बी न थे न सम्प्रदाय वाले। दिगम्बर, श्वेताम्बर, न मूर्तिपूजा विरोधी स्थानकवासी अथवा उग्र सुधारक तेरापंथी। पार्श्वनाथ के चार महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को मिलाकर जो पाँच महाव्रत दिये हैं, ऐसा कौन हिन्दू है जो अपने को हिन्दू कहता हो और उनको न माने-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचय। इन महान् तथ्या म स एक का पकड़ ले
ताल अन्य चार आप से आप सध जायेंगे। वैदिक कथन भी तो है कि %ae केवल ब्रह्मचर्य के व्रत से देवताओं ने मृत्यु को जीत लिया।
ब्रह्मचर्येण देवा तपसा मृत्युमुपाघ्नत। इन पाँच तत्वों या मूलमंत्र को मानने तथा जीवन में उतारने के लिए ही जैन धर्म ने विशद आचार संहिता का निर्माण किया है I
और आज तक इस संहिता की व्याख्या तथा जीवन में उतारने की शिक्षा बराबर मिल रही है। हिन्दू कहता है कि जब तक कर्म का बंधन नहीं टूटेगा, आत्मा की मुक्ति न होगी, जन्म तथा मरण का 64 ताँता लगा रहेगा। यह बंधन समाप्त हुआ और आत्मा मुक्त होकर परब्रह्म में विलीन हो जायगा। हिन्दू धर्म का एक पक्ष सृष्टि के हरेक पदार्थ में चैतन्य का वास मानते हैं। जैन मत के 22PDP अनुसार विश्व दो पदार्थों में विभाजित है-जीव सनातन है, अजीव PROD जड़ है-पर दोनों ही अज अमर और अक्षर हैं। जीवधारी पुद्गल जल (प्रकृति), धर्म यानी गति, अधर्म यानी अगति या लय, देश (आकाश) और काल यानी समय से बँधे हुए हैं। इसी पाँच तत्व के बीच जैन धर्म का महान् स्याद्वाद है। जैसे हम 'नेति नेति' परब्रह्म के लिए कहते हैं कि वह यह भी है, नहीं भी है या न वह 6 0sal है, न यह वह है-स्याद्वाद इस स्थिति को मेरे विचार से और भी स्पष्ट कर देता है-जिस दृष्टि से देखिये वैसा ही दिखेगा-यह मेरा अपना इसका अर्थ है, चाहे वह घट के रूप में हो या ब्रह्म के रूप में। हमारे लिये मोक्ष का अर्थ है परब्रह्म में उसी का अंश DSD आत्मा का लय हो जाना। ब्रह्म न जड़ है, न चेतन। वह तो नपुंसकं इदम् ब्रह्म नपुंसक लिंग है। बौद्ध का जीव निर्वाण को प्राप्त करता है। दीपक बुझ जाता है। पर जैन धर्म में जीव परम आनन्द की स्थिति में पहुँच जाता है, कैवल्य प्राप्त कर। सोचने-समझने से यह है स्थिति बड़ी आकर्षक लगती है। वस्तु स्थिति क्या है यह कोई अनुभवी हो तो बतलाये। हम तो केवल जो सुनते हैं, हमारे उपदेशक जो कहते हैं, वही जानते हैं। अन्यथा बाबा कबीरदास न कह जाते
उतते कोइ न आइया जासे पूछू धाय।
इतते सव कोई जात हैं मार तदाम तदाम॥ ऐसा कौन हिन्दू है जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य से परे कोई कर्म मानता हो। ब्रह्मचर्य का बड़ा व्यापक अर्थ है। अपनी स्त्री से सन्तुष्ट रहना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। छात्र जीवन में
मतभेद क्या है
५५
मुक्त, स्वयंसिद्ध विभूति आकर उपदेश देकर चल देते हैं। यह उनके अनुयायियों का काम है कि उनके कथन को अपनी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ब्रह्मचर्य रखना ही यह व्रत नहीं है। इसका अर्थ तो है ज्ञान की जैनी यदि कहता है कि जीव से पुद्गल छूटा तो जीव परम 26 प्राप्ति का आचरण।
आनन्द की अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इस कथन ब्रह्मणे वेदार्थ चर्यम् आचरणयिम्
तथा हमारे सनातनी विश्वास में कोई अन्तर नहीं होता-चाहे
ईश्वर की, जीव की या ब्रह्म किसी का कल्पना कीजिये। कल्पना मनसा वाचा कर्मणा किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है।
इसलिए कह रहा हूँ कि मैं सांसारिक आदमी क्या जानूँ कि हिन्दू धर्म का तत्व भी यही है। “पुराणों का निचोड़ व्यास कहते हैं
वास्तव में है क्या। हमारे महान् कठोपनिषद् में मृत्यु के देवता BJi-80 कि बस दो ही बात हैं-परोपकार करना पुण्य है तथा दूसरे का ।
यमराज, जो धर्मराज भी हैं, उनका तथा नचिकेता के वार्तालाप में 2009 अपकार करना ही पाप है।
मृत्यु की अपरिमेय जो व्याख्या की गयी है वैसी मुझे अन्यत्र नहीं परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्
मिलती। घण्टों मंदिर में नाक दबाये बैठे रहें और घर आकर हर आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र की व्याख्या में लिखा था तरह के जाल, फरेब रचने वाला कभी संसार से मुक्ति नहीं पा
बुद्धावभिव्यक्त विज्ञान प्रकाशनम् सकता। जीवन भर मरता, जन्म लेता, मरता-कभी नीचतम घर में जन्म लेता, हर प्रकार का कष्ट उठाता रहेगा। असली चीज है।
यानी घड़ा, कपड़ा, मकान, दिन, रात, बंधु, बांधव-जो भी आवागमन के बंधन से मक्ति पाना। महान पण्डित शास्वत विटान कुछ भी है वह केवल दिखायी पड़ने में भिन्न हैं. अन्यथा सब एक हो जाने से काम नहीं चलेगा-यदि वह व्यक्ति अपने मन की गति
मात्र रहते हैं, अविभिन्न है-दृष्टि दोष है-यही तो स्याद्वाद है। o नहीं जानता, जिसे अपनी वास्तविक आकांक्षा इच्छा तथा भावना ___अहस्वं, अदीर्घ, अनj, अदृश्ये, अनिरक्ते, अनिलयने 108538 का न बोध हो, न बोध के प्रति सम्मान भी, ऐसा व्यक्ति जिसका
संक्षेप में आत्मतत्त्व के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। हमारे में POLDभी हाथ पकड़ेगा, उसे लेकर स्वयं भी डूब जायेगा। बाबा कबीर ने
जो कुछ है, कामवासना है। यह चली जाय तो फिर अहिंसा, सत्य, 13 साफ कहा है
अस्तेय, अपरिग्रह भी तथा साथ ही ब्रह्मचर्य भी समाप्त हो जायेगा जाना नहिं बूझा नहीं समुझि किया नहिं गौन॥
इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण कहते हैंअंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ! 2000.006 संसार में केवल अटल सत्य है और वह है मृत्यु। जो लोग धन
यमराज से नचिकेता का तीसरा प्रश्न था कि मनुष्य का शरीर S ep तथा सम्पत्ति को ही अपना लक्ष्य बनाये हैं उन्हें जैन धर्म से यह तो छुटने पर शरीर का नाश हो जाता है। भस्म हो जाता है पर उसमें
सीखना ही चाहिए कि मृत्यु के बाद उनके साथ क्या कुछ जायेगा? स्थित चैतन्य जीव (आत्मा) की क्या गति होती है? तो यमराज ने X विजेता सिकन्दर के निधन के सम्बन्ध में यह कितना कटु सत्य उत्तर दिया था
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। DAV लाया था क्या सिकन्दर दुनियाँ से ले चला क्या?
स्थाणुमन्येऽनुसंयान्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्। ये हाथ दोनों खाली, बाहर कफन से निकले।
(द्वि.७) ENDSP हम जिसे ब्रह्म मानते हैं, जैनी जिसे जीव मानते हैं-वह कौन
अर्थात् कर्मानुसार तथा ज्ञान के अनुसार जीवात्मा का पुनः POP है, कहाँ है यह तो मुक्त, मोक्ष प्राप्त या तीर्थंकर ही जानते होंगे। जन्म होता है। किस कर्म के अनसार कौन-सी योनि प्राप्त होती है ASED हम तो सुनी, सुनायी बात ही कह सकते हैं। यह मृत्यु रोज दिखायी यह तो इस श्लोक में प्रकट नहीं है पर यह तो ज्ञानी पुरुष ही 28 पड़ रही है। ब्रह्मलीन अनन्त श्री स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती ने बतला सकते हैं। संक्षेप में39006 अपने प्रवचन में कहा था कि
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति “अन्तिम निष्कर्ष यह होना चाहिए कि मुझमें अद्वितीय,
कर्म-संस्कार-जन्म-मरण यह सब रहस्य केवल मुक्त ही स्पष्ट DD परिपूर्ण, अविनाशी, प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्म में न माया है, न
कर सकता है। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि अच्छा सनातनी हिन्दू 9 छाया, न विद्या, न अविद्या, न व्यष्टि बुद्धि न समष्टि बुद्धि, न मन,
या निर्मल जैनी होने के लिये एक-दूसरे से पूरी तरह परिचित होना 20000 न इन्द्रिय, न देह, न विषय। इस प्रक्रिया से विचार करने पर
नितान्त आवश्यक है। 100000 आत्मनिष्ठा सम्पन्न होती है।"
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जन-मंगल
धर्म के चार चरण
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जन मंगल धर्म के चार चरण
धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है-जो जीव मात्र को धारण करे, उसे आश्रय व सहारा देवे, उसकी उन्नति/प्रगति में आधार भूत बने, और जीवन में जीवन (जल) की भाँति प्राणदायी बने-वह है धर्म।
भगवान महावीर ने धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहा है। कणाद ऋषि कहते हैं-जो अभ्युदय एवं निःश्रेयस में सहायक हो, वह है धर्म।
धर्म जीवन का स्वभाव है। स्वभाव से विमुख होना अधर्म है। स्वभाव में रमते रहना-आनन्द व मंगलमय है। इसलिए धर्म जन-जीवन के लिए मंगलमय है।
धर्म और कर्म दो शब्द हैं, परन्तु दोनों ही परस्पर सम्बन्धित हैं। कर्म जब धर्ममय होगा और धर्म जब कर्म को अपने साथ रखेगा-तभी संसार में मंगल होगा। धर्म रहित कर्म अमंगल है, उदंगल है।
आज के जन-जीवन में धर्म की परिणति के चार अति प्रासंगिक विषय है• पर्यावरण शुद्धि
आहार शुद्धि-शाकाहार • आचार शुद्धि-व्यसनमुक्ति • व्यवहार शुद्धि-शोषणमुक्त समाज।
धर्म, शुद्धि करने वाला गंगा जल है। शुद्धि के बिना सिद्धि संभव नहीं है। गंगाजल की भाँति आज जन-जीवन भी प्रदूषित हो गया है। अनेक प्रकार की अशुद्धियां, विकार, विचार और व्यवहार का कूड़ा-कचरागंदगी जन-जीवन रूपी गंगा में मिल गया है। इसलिए मंगलमय धर्म भी प्रदूषण युक्त होकर अमंगल का निवारण नहीं कर पा रहा है। | अमंगल के निवारण हेतु शुद्धि आवश्यक है। पर्यावरण शुद्ध होने से हमारा सामाजिक, भावनात्मक वातावरण शुद्ध होगा।
आहार शुद्धि से विचार शुद्धि का सम्बन्ध है। व्यसन और आर्थिक विषमता, मानव समाज को घुन की भाँति खोखला बना रहे हैं।
धर्म के इन मंगल कारक सामयिक सन्दर्भो पर आज चिन्तन, मनन, और वर्तन परम आवश्यक हो गया है। प्रस्तुत खण्ड में इन्हीं बिन्दुओं पर विभिन्न विद्वानों और समाजशास्त्रियों ने अपने मननीय विचार और सुझाव प्रस्तुत किये हैं।
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पर्यावरण रक्षा और अहिंसा
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि पर्यावरण संतुलन और पर्यावरण सुरक्षा का प्रश्न आज प्रबुद्ध जैन दर्शन के अनुसार इस पृथ्वी का आधार है घनवात। जनों और विज्ञानवेत्ताओ के लिए ही नहीं, जनसामान्य के लिए भी घनवात आधारित है धनोदधि पर और वह आधारित है तनुवात चिन्तनीय विषय हो गया है। सर्वत्र इस सुरक्षा के लिए प्रयत्नशीलता पर। यही पर्यावरण का रचना-विधान है, जो विज्ञान से भी मेल दृष्टिगत होती है। इस की सुरक्षा के लिए, प्रदूषण निरोध के लिए खाता है। पृथ्वीतल से ऊपर २० मील की दूरी तक से १000 व्यापक स्तर पर जन चेतना विकसित की जा रही है।
मील तक वायुमण्डल है। उच्चतम भाग लगभग ७00 मील मोटीई यह प्रश्न है ही इतना महत्वपूर्ण। इसकी अनदेखी करना आत्म
में है जो एक्सोस्फेयर के नाम से जाना जाता है जो वायुमण्डल का हनन करना ही सिद्ध होगा। यह भी सत्य है कि मानव सृष्टि को
अत्यन्त पतला-विरल भाग है। इससे नीचे लगभग २५० मील की महाविनाश से बचाने के लिए पर्यावरण की सुरक्षा अनिवार्य है
परत कुछ मोटी है, वायु वहाँ कुछ सघन हो गयी है, इसे और इस की गम्भीरता से अवगत आज की मानव जाति इस दिशा
एग्नोस्फेयर कहा जाता है। सबसे नीचे का भाग ओजोनस्फेयर में सचेष्ट भी हो गई है।
कहलाता है जो पृथ्वी में २० मील ऊपर से ५० मील की मोटाई
में है। ये ही जैन दर्शन में वर्णित तीन वात क्रमशः तनुवात, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अहिंसा अमोघ साधन सिद्ध
घनोदधिवात और घनवात हैं। होगी-इस विचार में रंचमात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। यह पर्यावरण है क्या? इससे मानव जाति को अस्तित्व के संकट
प्राणिजगत का रक्षा आवरण यही ओजोनस्पेयर है। इस पर्त में का सामना क्यों करना पड़ रहा है? अहिंसक उपायों से इस संकट
ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है जो प्राणियों को सांस लेने के लिए को कैसे लुप्त किया जा सकता है? ये ही इस लेख के विचारणीय
अनिवार्य होती है। यह ऑक्सीजन गैस जब अत्यन्त सघन रूप में प्रमुख विषय हैं।
होती है तो ओजोन कहलाती है। आज का जो पर्यावरण संकट है
वह इसी ओजोन पर्त की दुरवस्था के कारण है। पृथ्वी को यह पर्यावरण क्या है?
बाहर के प्रहारों से बचाने वाला कवच है-इसे सुदृढ़ और सम्पूर्ण परि एवं आवरण-इन दो शब्दों के योग से बने यौगिक शब्द पृथ्वी को सुरक्षित रखकर ही मनुष्य स्वयं अपनी जाति और प्राणी पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है-भली प्रकार ढकने का साधन, सभी वर्ग को सुरक्षित रख सकता है। ओर से घेरे रखने वाला। इसका अर्थ है, यह वह घेरा है जो पृथ्वी
ओजोन पर्त : अस्तित्व का संकट को सभी ओर से आवृत, आच्छादित किए हुए है और यह आच्छादन भी सप्रयोजन है। इस आवरण से पृथ्वीतल की बाह्य
इस ओजोन पर्त का हम पर बड़ा उपकार है। सूर्य तो प्रचण्ड संकटों से सुरक्षा होती है।
अग्नि का विशाल गोला है। पृथ्वी के समीप आते आते भी उसकी
दाहक क्षमता इतनी अधिक रहती है कि वह पृथ्वी पर संकट लाने वास्तव में पर्यावरण विभिन्न गैसों की एक संतुलित संरचना है।
के लिए पर्याप्त है। सूर्य-किरणों में कोस्मिक, अल्ट्रा-वायेलेट आदि इस संतुलन में ही पर्यावरण की रक्षक क्षमता निहित है और इसके
अनेक प्रचण्ड विघातक किरणें हैं जो पृथ्वी पर सीधी पहुँचें तो असंतुलन या प्रदूषित होने में ही संकट है। इस संकट की स्थिति को
प्राणियों का सर्वनाश हो जाए। ओजोन इन्हें परावर्तित कर पुनः समझने की दिशा में अग्रसर होने के लिए यह अपेक्षित हो जाता है
पृथ्वी से दूरतर कर देता है। अस्तित्व के इस संकट में पृथ्वी तल कि पर्यावरण की संरचना का ज्ञान कर लिया जाए, यह जान लिया जाए कि यह किस संकट से बचाने की क्षमता किस विशेषता के
के प्राणियों के लिए ओजोनस्फेयर एक सक्षम सुरक्षक बना हुआ है।
यदि यह न होता तो प्राणियों का अस्तित्व भी नहीं, होता। यही नहीं कारण रखता है।
यदि अब भी ओजोन दुर्बल होने लगे तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि मात्र पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह
सकती हैं जिनमें से कुछ तो अत्यन्त विषम भी हो सकती हैं। है जिस पर प्राणियों का अस्तित्व है। बृहस्पति, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा
यह कवच क्षतिग्रस्त हो जाए तो सूर्य की किरणें सीधी आदि कहीं भी जीवन के चिन्ह नहीं मिले हैं। इसका कारण यह है कि अन्य ग्रह उपग्रहों का अपना पर्यावरण नहीं है, केवल पृथ्वी के
पहुंचकर पृथ्वी पर प्रचण्डतम ताप की सृष्टि कर देंगी। विशाल
हिमाच्छादित क्षेत्रों का हिम द्रवित हो जाएगा यह अपार जल राशि साथ यह विशिष्ट सुविधा संलग्न है। आज जब प्राणों के आधार इस पर्यावरण के दुर्बल होने के कारण संकट उत्पन्न हो गया है तो
प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। वह प्राणियों के लिए ही है और प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य ही इसके कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्राणियों के उपयोगार्थ समुचित लिए सर्वाधिक चिन्तित भी है।
मात्रा में जल की उपस्थिति पृथ्वी पर है-उस भयंकर ताप से वह
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जल भी सूख जाएगा-समस्त वनस्पति और प्राणी जल कर भस्म हो जाएंगे। सब कुछ स्वाहा हो जाएगा। आज प्रदूषण और पर्यावरण संतुलन का जो हडकम्प मचा हुआ है, इसका मूल कारण ही यही है। कि पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो गया है। दक्षिणी ध्रुव के उपर तो ओजोन पर्त कुछ क्षतिग्रस्त हो भी गयी है। इसी कारण सभी चिन्तित हैं।
अस्तित्व का यह संकट पर्यावरण के असंतुलन के कारण ही उत्पन्न हुआ है और असंतुलन का मूल कारण है प्रदूषण। ये प्रदूषण अनेक प्रकार के हैं। इनमें से प्रमुख 泉
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति प्रदूषण ।
इन उपर्युक्त प्रदूषणों से पर्यावरण की घोर हानि हो रही है और इनकी तीव्रता उत्तरोत्तर अभिवर्धित भी होती ही चली जा रही है। जैन दृष्टि से तो अहिंसा द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा का सार्थक और सफल उपाय किया जा सकता है। स्पष्ट है कि हिंसा ही इस महाविनाश के लिए उत्तरदायी कारण है जिनेश्वर भगवान महावीर ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर विशालकाय सभी चौरासी लाख जीवयोनियों के सुखपूर्वक एवं सुरक्षित जीवन का अधिकार मान्य किया। मानव जाति को किसी का घात न करने का निर्देश देते हुए महावीर स्वामी ने यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। सभी को सुख ही प्रिय है, दुःख किसी को नहीं अतः दूसरे सभी प्राणियों को जीवित रहने । में सहायता करो। जीवों को परस्पर उपकार ही करना चाहिए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन सभी में जैन दर्शन प्राणों का अस्तित्व स्वीकार करता है। अहिंसा इनकी रक्षा की प्रेरणा देती है। अस्तु, अहिंसा प्रदूषण पर अंकुश लगाकर पर्यावरण के असन्तुलन को रोकने का सबल साधन बन जाती है।
पृथ्वी प्राणियों का पालन भातावत् करती चली आ रही है। मनुष्य ने जो उपभोग की प्रवृत्ति को असीम रूप से विकसित कर लिया, उसके कारण पृथ्वी का अनुचित दोहन हो रहा है और वह प्रदूषित हो गयी है रासायनिक खादों का उपयोग धरती के तत्वों को असंतुलित कर रहा है। कोयला, पेट्रोल और खनिजों के लिए उसे खोखला बनाया जा रहा है। पृथ्वी रसहीन और दुर्बल हो रही है। धरती के ऊपर भी अनेक रसायनों की प्रतिक्रियाएं हो रही है। औद्योगिक कचरा और दूषित पदार्थों से भी यह प्रदूषित हो रही है। भूगर्भ से पानी का शोषण तो होता रहा है, जनसंख्या वृद्धि और आवासन उपयोग के आधिक्य ने भी धरती की आर्द्रता को बहुत घटा दिया है। अहिंसा वृत्ति को अपना कर धरा की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है।
जल तो जीवों का जीवन ही है "जीवन दो घनश्याम हमें अब जीवन दो" - श्लेष से जीवन का यहाँ दूसरा अर्थ जल से ही है। जल का जीवों पर भारी उपकार है। जल के बिना जीवन ही असम्भव है, किन्तु अपनी कृतघ्नता का परिचय देते हुए मनुष्य इसी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
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जल को दूषित कर रहा है और अपने अस्तित्व को ही संकट में डाल रहा है। यह अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना है। सभी नदियों, सरोवरों का यहां तक कि समुद्र का जल भी प्रदूषित होने लगा है। उद्योगों से निसृत गंदा जल, कूड़ा करकट नदियों में वहा दिया जाता है। विषाक्त पदार्थों को नदियों में विसर्जित करने में भी मनुष्य हिचकता नहीं है। अस्थि विसर्जन ही नहीं, शवों को भी नदियों में बहाया जाता है। महानगरों की सारी गंदगी और कूड़ा करकट बेचारी नदियां ही झेलती रही हैं। फिर अदूषित, शुद्ध जल भला बचे तो कैसे बचे पेयजल की आपूर्ति के लिए इस मलिन, प्रदूषित जल को क्लोरीन से स्वच्छ करने का प्रयत्न किया जाता है। इसका भी दोहरा दोष सामने आया है। एक तो क्लोरीन मिश्रित जल मनुष्य के लिए रोगोत्पादक हो जाता है और दूसरा यह कि प्रदूषित करने वाले कीटों के साथ-साथ क्लोरीन से जल के वे स्वाभाविक कीट भी नष्ट हो जाते हैं, जो जल को स्वच्छ रखने का काम करते हैं, यह प्रत्यक्ष हिंसा है जल को प्रदूषित करने वाले अन्य हिंसक कार्यों में पेट्रोल, तेजाब आदि को समुद्र और नदियों में बहा देने की घातक प्रवृत्तियां भी हैं, जिनका कर्ता यह नहीं समझ पा रहा कि अन्ततः इस सबको करके वह किसकी हानि कर रहा है।
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वायु जीवन के लिए स्वयं ही प्राणों के समान है। वायु ही ऑक्सीजन की स्रोत है और ऑक्सीजन के बिना प्राणी का कुछ पलों तक जीना भी असम्भव है। मनुष्य के दुष्कृत्यों ने ऐसी जीवनदायिनी वायु को ही प्रदूषित कर दिया है। कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ती जा रही है और प्राण वायु न केवल दूषित, अपितु क्षीण भी होती जा रही है। उद्योगों की बढ़ती परम्परा और वाहनों का बढ़ता प्रचलन कार्बनडाई ऑक्साइड के प्रबल स्रोत हो रहे हैं और वातावरण को दूषित घातक बना रहे हैं जनाधिक्य भी ऑक्सीजन की खपत और कार्बनडाइ ऑक्साइड के उत्पादन को बढ़ा रहा है। सांस लेना दुष्कर होता जा रहा है। और सांस लेने वाले द्रुत गति से बढ़ते ही चले जा रहे हैं अनेक रसायनों से विषाक्त गैसें और दुर्गन्ध निकलकर वायु को दूषित कर रही है। यही प्रदूषित वायु प्रदूषित जल और पृथ्वी के सम्पर्क में आकर और अधिक प्रदूषित होती जा रही है और अपने सम्पर्क से ओजोनस्फेयर को प्रदूषित कर रही है। मनुष्य की अहिंसा प्रवृत्ति अब भी वायु को जीव मानकर उसकी रक्षा करने लगे तो वह स्वयं पर ही उपकार करेगा।
अग्नि भी सप्राण है। इसकी रक्षा करना, इस पर प्रहार न करना हर मनुष्य के लिए करणीय कर्म है, यद्यपि यह चेतना भी उसमें अभी अत्यल्प है। भोजन मनुष्य के लिए अनिवार्य है, तो भोजन पकाने के लिए अग्नि भी अनिवार्य है। आधुनिक प्रचलन ईंधन रूप में गैस के प्रयोग का हो गया है। भोजन पकाने के साथ-साथ यह गैस कई हानिकारक गैसें भी बनाती है और
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
वातावरण विषाक्त हो जाता है। उद्योगों में भारी-भारी भट्टियां और प्रचण्ड ताप देने वाले अन्य अग्नि रूप प्रयुक्त होते हैं। इन सबसे वायु ही नहीं धरती का तापमान भी असामान्य रूप से बढ़ जाता है, ज्वालामुखी फूटते हैं और भीतर की अनेक विषैली गैसें बाहर आकर पर्यावरण को दूषित कर देती हैं। अनेक भारी-भारी आयुधों के परीक्षण होते हैं, उपग्रह छोड़े जाते हैं ये सभी तापवर्धक हैं। बाहर का ताप धरती को भीतर से भी असामान्य बना देता है और भूकम्प जैसी महाविनाशक विभीषिकाएं घटित हो जाती हैं।
वनस्पति प्रदूषण मानव के लिए सर्वाधिक घातक है। वनस्पति का भी मनुष्य को कृतज्ञ रहना चाहिए। इसकी बड़ी पोषक और रक्षक भूमिका मनुष्य के लिए रहती है। यही उसे भोजन देती है, फल देती है, औषधि देती है, अन्य जीवनोपयोगी साधन सुलभ कराती है। मनुष्य ने स्वकेन्द्रित होकर अपने तुच्छ और तात्कालिक स्वार्थों के अधीन होकर इसी उपकारिणी वनस्पति का घात किया है परिणाम घोर विनाशलीला में परिणत होना स्वाभाविक ही है।
जो ऑक्सीजन प्राणवायु है उसका उत्पादक अभिकरण भी वनस्पति ही है। मनुष्य द्वारा उत्पादित कार्बन डाई ऑक्साइड को पेड़ पौधे भोजन के रूप में ग्रहण कर लेते हैं - यह वनस्पति का दूसरा लाभकारी पक्ष है। कितनी रचनात्मक सहायता मनुष्य को जीवित रखने के लिए वनस्पति कर रही है। भगवान महावीर स्वामी की वाणी को वनस्पति जगत ने तो साकार कर दिखाया है, किन्तु प्रबुद्ध मनुष्य उसे विस्मृत करता जा रहा है - कैसी विडम्बना है। दुर्बुद्धि मनुष्य जिस निष्ठुरता के साथ वनों को नष्ट कर रहा है,
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उसे देखकर उसकी आत्मघाती चेष्टाओं पर आश्चर्य होता है। हमारी परम्परा में तो वृक्षों को पूज्य माना गया है। वनस्पति अन्य प्राकृतिक तत्वों को भी शुद्ध करती है। वायु को ऑक्सीजन देकर और कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखकर परिशोध करने वाली वनस्पति है। प्रदूषित जल को सोखकर मेघ बनते हैं, मेघों को बुलाकर वर्षा कराने में वनों की गहन और महती भूमिका रहती है। इस प्रकार मनुष्य को अदोष जलराशि दिलाने का काम वनस्पति करती है। वही क्षरण से मिट्टी की रक्षा कर वन एवं उपजाऊ धरती के समापन को रोकती है ऐसी वरदा बनस्पति को अपनी अहिंसा प्रवृत्ति का उपहार देकर रक्षित करना मनुष्य का परम धर्म है।
प्रकृति के पांचों तत्वों का ऋणी होना चाहिए मनुष्य को इसमें कोई संदेह नहीं। ये तत्व अहिंसक हैं और मनुष्य का घात करना तो दूर उसके वश में है ही नहीं, वे उसे सुखपूर्वक जीने में अपनी ओर से आधारभूत सहायता देते हैं। मनुष्य को भी यही भूमिका उनके प्रति निभानी चाहिए। यह परस्परोग्रहं है। जीओ और जीने दो के सिद्धांत का जीवित रूप इन तत्वों में दृष्टिगत होता है इनसे मनुष्य भी प्रेरणा से, उनका अनुसरण करे तो वह स्वयं के साथ-साथ सारे मानव जगत् के लिए सुखी और सुरक्षित जीवन का स्रोत बन सकेगा। ये पांचों तत्व जीवन हैं। जीव पर दया का भाव भी हमारे मन में प्रबल हो जाए तो हमारा यह आदर्श मार्ग सुगम हो जाएगा। ऐसा न करना न केवल प्राकृतिक तत्वों के लिए अपितु स्वयं मनुष्य के लिए भी मारक और घातक सिद्ध होगा और कुछ नहीं तो स्वार्थ बुद्धि के वशीभूत होकर ही अहिंसा की शरण में आ जाए फिर तो शुभ ही शुभ-मंगल ही मंगल है।
मनुष्य को पाप और बुरे काम से डरना चाहिये, अपने कर्त्तव्य से नहीं डरना चाहिये।
यदि उद्देश्य शुभ न हो तो ज्ञान, तप आदि भी पाप हो जाते हैं।
हम लोग ज्ञान- पापी हैं। जानने-समझने के बाद भी पापकर्म करना नहीं छोड़ते। फिर अज्ञानी बनने का ढोंग रचते हैं और रोते हैं।
जीना सब चाहते हैं पर जीना बहुत कम जानते हैं।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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पर्यावरण परिरक्षण : अपरिहार्य आवश्यकता
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-डॉ. हरिश्चन्द्र भारतीय मानव-जाति एक बहुत बड़े भय से मुक्त होकर बीसवीं सदी से अधिकता के कारण विकासशील देशों में जनसंख्या की वृद्धि-दर इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर पहुँच रही है। लगभग चालीस वर्ष । बहुत अधिक है, जबकि विकसित देशों में यह शून्य के आस-पास तक सारा संसार परमाणु युद्ध के सम्भावित महाविनाश की आशंका ही है। इस दृष्टि से भारत का परिदृश्य भी बड़ा निराशाजनक है। के साये में जीता रहा। सन् १९४९-५० से १९८९-९० तक दुनियां विभाजन के बाद भारत की आबादी ३३-३४ करोड़ के लगभग रह की दोनों महाशक्तिया, रूस और अमरीका एक दूसरे के | गई थी, जो आजकल बढ़कर ८९ करोड़ से अधिक हो चुकी है। आमने-सामने खड़ी रहीं और समस्त सृष्टि को १५-१६ बार नष्ट हमारे यहाँ प्रतिवर्ष लगभग १ करोड ७० लाख लोग बढ़ जाते हैंकरने की क्षमता रखने वाले नाभिकीय अस्त्रों के दुरुपयोग की घोर । यह संख्या आस्ट्रेलिया की कुल आबादी से अधिक है। पीड़ा हमें सताती रही। नाभिकीय विश्व युद्ध की विभीषिका को
पर्यावरण के बारे में विश्व-चिन्तन का आरम्भ सन् १९७२ में टालने में उदात्त मानवीय विरासत के अनुरूप भारत की विशिष्ट
स्टॉकहोम के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन से हुआ। पर्यावरण के चार मुख्य भूमिका को हम गर्व एवं गहरे आत्म-संतोष के साथ याद कर सकते
घटक हैं-वायु मण्डल, जल मण्डल, स्थल-मण्डल तथा जैव-मण्डल हैं। विश्व स्तर पर पंचशील और सह-अस्तित्व तथा गुट-निरपेक्षता
(वनस्पति एवं प्राणी वर्ग)। इनके पारस्परिक अध्ययन को की नीति के आधार पर हमारे शान्ति-प्रयास भगवान महावीर और
पारिस्थितिकी कहते हैं। अभी तक की निश्चित जानकारी के बुद्ध से लेकर कबीर, नानक और गाँधी की विश्व-दृष्टि के प्रतिफल
अनुसार हमारी पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह अथवा आकाशीय थे, जिन्हें युग पुरुष नेहरू ने मुखरित किया था। वे प्रयास कितने
पिण्ड है जिस पर जीवन पाया जाता है। इतना शस्य श्यामल सुन्दर सफल और असफल रहे, यह एक अलग बिन्दु है, किन्तु इसी
कोई अन्य ग्रह नहीं है। लगभग ५ अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई शताब्दी के महान् दार्शनिक चिन्तक बण्ड रसल ने जब यह कहा
पृथ्वी पर धीर-धीरे वायु मण्डल, जल मण्डल और स्थल-मण्डल का कि नेहरू की गुट-निरपेक्षता की नीति ने एक से अधिक अवसरों
निर्माण हुआ और २-३ अरब वर्ष पूर्व जीव-द्रव्य के निर्माण की पर संसार को तृतीय विश्व युद्ध से बचाया, तब स्वाधीन भारत की
प्रक्रिया आरम्भ हुई। जैव-विकास की लम्बी और जटिल पगडण्डियों ऐतिहासिक सार्थकता का महत्व सामने आया था।
पर चलते हुए सूक्ष्म-सरल संरचना के जीवों से लेकर विशाल एक नया संकट
जटिल जीवों का आविर्भाव होता गया। जीवों की जो जातियाँ अपने शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ नाभिकीय युद्ध का खतरा तो
आपको बदलते हुए पर्यावरण के अनुकूल नहीं ढाल सकीं, वे बहुत कुछ टल गया; किन्तु जिस नये संकट का सामना इक्कीसवीं
विलुप्त हो गई। जैव-विकास के दौरान विलोपन की ये घटनायें शताब्दी को करना पड़ सकता है, महाविनाश की दृष्टि से वह और
बहुत धीमी गति से यदा-कदा ही होती थीं।
बहुत धाम भी अधिक गम्भीर हो सकता है। वह संकट और कहीं नहीं, हमारे सर्वांगीण दृष्टि से विचार करें तो आधुनिक मानव को, पर्यावरण से आ रहा है, जो हमारी विविध गतिविधियों के कारण। जिसका वैज्ञानिक नाम “होमो सेपियन्स" (Homo sapiens) है, द्रुतगति से प्रदूषित हो रहा है। वह अभी से अपने विकराल रूप की प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति कह सकते हैं। अपने मुक्त हाथों पर झलकियां भी दिखाने लगा है, और अगर यही गति रही तो आधारित सर्जनात्मक (साथ ही विनाशात्मक भी) क्षमता, वाणी अत्यधिक प्रदूषण के परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, उनकी और विचार क्षमता के कारण वह अन्य सभी प्राणियों से भिन्न है। कल्पना करना भी कठिन है, और निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के निर्माण-क्रम के विगत सन्दर्भ में इस समस्या पर विचार करें तो सिर चकराने लगता है। १०-१२ हजार वर्षों के छोटे से इतिहास में उसने सारी पृथ्वी का परिवार नियंत्रण के अनेक प्रयासों के बावजूद विश्व की जनसंख्या रूप ही बदल डाला है और प्रकृति के सहज कार्य-कलापों में अनेक बराबर बढ़ती ही जा रही है। प्रतिवर्ष ९-९१ करोड़ की वृद्धि-दर विघ्न खड़े कर दिये हैं। वनों की व्यापक कटाई, खेती-बाड़ी, से वह ५१ अरब का आंकड़ा पार कर चुकी है तथा सन् दो पशुपालन, भवन-निर्माण, कल-कारखाने, जल-थल और वायु में हजार तक ६१ अरब के आस-पास पहुँच जायेगी। आबादी बढ़ने । गमन करते वाहन आदि मानव की ऐसी गतिविधियां हैं जिन्हें के साथ ही रोटी-रोजी, कपड़ा और मकान की समस्या तीव्र होती प्रकृति एक सीमा तक ही वहन कर सकती है। उसके बाद तो जाती है, जिससे और अधिक खेती, चरागाहों तथा भवन-निर्माण विनाश की राह पर ही अग्रसर होना है। हम पर्यावरण के सन्दर्भ में के लिए आवश्यक भूमि प्राप्त करने हेतु वनों की कटाई, उस 'लक्ष्मण रेखा' के अतिक्रमण के समीप पहुँच गये हैं, जहाँ से जैव-विविधता के विनाश और पेयजल की कमी का सिलसिला आगे सुरक्षित वापसी सम्भव नहीं है। हमारी विविध गतिविधियों के बढ़ता जाता है। दुर्भाग्य से भूख, गरीबी, अज्ञान और पाखण्ड की फलस्वरूप पर्यावरण के सभी घटकों में दोष आ रहा है और सारा
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पारिस्थितिक-तंत्र डगमगा रहा है। उनकी संरचना, गुणात्मकता और क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स तथा मीथेन का योगदान क्रमशः ५५, २४ व सन्तुलन सभी बिगड़ते जा रहे हैं।
१५ प्रतिशत है, शेष कुछ अन्य गैसों का है। पृथ्वी का तापमान पिछले २०-२२ वर्षों से जो अहम् बिन्दु विश्व-स्तर पर चिन्ता
बढ़ने से धूवीय वर्फ पिघलती है, जिससे समुद्री तल ऊँचा होता है। के विषय बने हुए हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं :
एक आकलन के अनुसार हरित-गृह गैसों के प्रभाव से पृथ्वी का
औसत तापमान ०.३ डिग्री सेल्सियस प्रति दशक के हिसाब से बढ़ १. वन विनाश-संसार में वनों का विनाश बहुत बड़े पैमाने
रहा है। अगर यही क्रम जारी रहा तो ४ डिग्री सेल्सियस से. औसत पर हो रहा है। सघन वन विश्व के फेफड़ों का काम करते रहे हैं।
तापमान बढ़ने से समुद्री तल एक सौ सेन्टीमीटर ऊँचा हो जायेगा ऐसे सघन वन विशेष रूप से उष्ण-कटिबन्धीय प्रदेशों में पाये जाते
और अनेक तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो जायेंगी। कार्बन-डाइ हैं और औद्योगिक युग में इन वनों की व्यापक कटाई की गई है।
ऑक्साइड मुख्य रूप से कल कारखानों और विविध वाहनों, जिनमें आजकल इनका विनाश एक करोड़ सत्तर लाख हेक्टेयर की दर से
खनिज ईंधन का उपयोग होता है, के द्वारा उत्पन्न होती है। हो रहा है। वनों का यह क्षेत्रफल फिनलैण्ड देश के आधे अथवा
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स का फ्रिजों, वातानुकूलन-यंत्रों, फोम, इत्रों बिहार राज्य के पूरे क्षेत्रफल के बराबर है। वनों की कटाई के साथ
आदि में उपयोग होता है, जबकि मीथेन गैस के मुख्य स्रोत धान के वन्य जीवों तथा वृक्षों पर निवास करने वाले विविध प्रकार के
खेतों का दल-दल और ढोर-मवेशियों का गोबर आदि है। आज की छोटे-बड़े प्राणी भी नष्ट होते जा रहे हैं। अनुमान है कि आजकल
सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि इन सब गैसों की मात्रा उत्तरोत्तर प्रतिदिन वनस्पतियों और प्राणियों की करीब १४0 जातियाँ
बढ़ती ही जा रही है। विश्वताप में वृद्धि होने से संसार की जलवायु (स्पीशीज) विलुप्त होती जा रही हैं। यह दर पिछली शताब्दी तक
पर भी गहरा प्रभाव पड़ने वाला है जो पृथ्वी पर जीवन के लिए नगण्य थी। वनों के विनाश से जैव-विविधता ही कम नहीं हो रही विकट संकट उपस्थित कर सकता है। है, वरन् समग्र पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। वायुमण्डल में
३. ओजोन छिद्र-हमारे वायुमण्डल में १५-२० किमी से प्राणदायी ऑक्सीजन की कमी तथा कार्बन-डाइ ऑक्साइड में वृद्धि
३५-४0 किमी की ऊँचाई तक औजोन गैस की परत पाई जाती है। हो रही है, जलवायु अनियमित व अनिश्चित हो रही है, भूमि की
यह परत रक्षात्मक कवच का काम करती है। ओजोन की परत उर्वरता घट रही है तथा जीव-जगत् में आहार-शृंखला और
अन्तरिक्ष से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोक लेती हैं। ऊर्जा प्रवाह की कड़ियां टूट रही हैं। लोगों के व्यावसायिक लोभ
पराबैंगनी किरणें त्वचा-कैंसर तथा नेत्र रोग उत्पन्न करती हैं। तथा शिकार के शौक के कारण विविध पशु-पक्षियों और जलचरों
आधुनिक जीवन पद्धति में सुख-सुविधाओं के उपकरणों की भरमार की शामत ही आ गई है। बीस-पच्चीस वर्ष पहले नजर आने वाले
होती जा रही है। आजकल घरों में फ्रिज, वातानुकूलन यंत्र, फोम अनेक पक्षी अब नजर नहीं आते।
के सामान आदि का उपभोग होना सामान्य बात हो गई है। भारत के वनों में कभी चीता बहुतायत से पाया जाता था; । विकसित देशों में तो इनका उपयोग अत्यधिक हो रहा है। इन सबमें किन्तु अन्धाधुन्ध शिकार के कारण सन् १९५३ के आते-जाते काम आने वाली क्लोरो-फलोरो कार्बन गैस अन्ततः वायुमण्डल में उसका पूर्ण विलोपन हो गया। आजकल हाथी, शेर, तेंदुआ, गैंडा, पहुँच कर ओजोन गैस को नष्ट करती है। यही कारण है कि जंगली भैंसा, मगर, गोडावण आदि विविध जीव-जन्तु विलोपन के | ओजोन की परत कई स्थानों पर बहुत विरल हो गई है। ओजोन के निकट हैं। प्रकृति में लाखों-लाखों वर्षों के विकास-क्रम के दौरान । विरलीकरण को ही ओजोन छिद्र कहते हैं। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स उद्भूत हुए जीवों को मनुष्य के लिए कुछ ही वर्षों में विलुप्त करना के कारण ओजोन छिद्र बड़ा होता जा रहा है। इसकी गम्भीरता को तो आसान है, किन्तु उन जैसी एक भी जाति को उत्पन्न करना | देखकर सन् १९८७ के मोन्ट्रियल सम्मेलन में क्लोरो-फलोरो कार्बन सम्भव नहीं है।
गैसों का कम हानिकारक विकल्प ढूँढ़ने तथा सन् २०00 तक २. विश्वतापन-वायुमण्डल में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्लोरो
क्लोरो-फलोरो कार्बन्स का उत्पादन पूर्ण रूप से बन्द करने का फ्लोरो-कार्बन्स, मीथेन आदि गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है। ये
निर्णय लिया गया है। यद्यपि इस दिशा में प्रयास जारी हैं, किन्तु यह गैसें पृथ्वी से ताप को अन्तरिक्ष में जाने से रोकती है जिससे लक्ष्य पूरा हो पायेगा या नहीं, अभी सब कुछ अनिश्चित है। सूर्यास्त के बाद भी उसमें काफी गर्मास बनी रहती है। इस तथ्य को ४. विकिरण प्रदूषण-हम परमाणु ऊर्जा के युग में रह रहे हैं। "हरित-गृह प्रभाव''(Green House Effect) कहते हैं। ऊर्जा की शक्तिशाली अदृश्य किरणों को आम तौर पर विकिरण औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् इन गैसों, विशेषकर कार्बन-डाइ कहते हैं। परमाणु के नाभिक से प्राप्त होने वाली विकिरणों में ऑक्साइड की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अत्यधिक ऊर्जा होती है तथा उनकी भेदन शक्ति भी बहुत होती है। अनुसार औद्योगिक-पूर्व युग के मुकाबले में वायुमण्डल में उसकी शरीर में प्रवेश करने पर वे अणु-परमाणुओं को आयनों (विद्युत सान्द्रता २६ प्रतिशत बढ़ गई है, जिससे धीरे-धीरे पृथ्वी का औसत मय कणों) में बदल देती हैं, जिससे शरीर में अवांछित रासायनिक तापमान बढ़ता जा रहा है। विश्वतापन में कार्बन-डाइ ऑक्साइड, क्रियाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो अन्ततः हानिकारक
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ होता है। इससे कैंसर जैसे असाध्य रोग हो जाते हैं जिनका हमें ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के उपयोग से कोलाहल के केन्द्र बनते जा रहे बहुत समय तक पता ही नहीं लगता। विकिरणों से हमारी पूरी तरह मुक्ति भी नहीं हो सकती; क्योंकि प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त
पृथ्वी पर पेयजल के रूप में जितना पानी उपलब्ध है, वह कुल विकिरणों से हम नहीं बच सकते। हमारे कुल विकिरणीय उद्भासन
जल का मुश्किल से एक प्रतिशत है। उसका भी हम न केवल में ८० प्रतिशत योगदान प्राकृतिक स्रोतों का होता है। अन्तरिक्ष से
बेरहमी से दुरुपयोग कर रहे हैं, वरन् नदियों और जलाशयों में प्राप्त कास्मिक किरणें तथा पृथ्वी में मिलने वाले रेडियोएक्टिव
रासायनिक निस्सरण, रंग-रोगन, मल-मूत्र, मृत शरीर व उनकी पदार्थों से निकलने वाली किरणें प्राकृतिक विकिरणों के प्रमुख स्रोत
राखादि जैसी गन्दगी डालकर उसे पीने के अनुपयुक्त बना रहे हैं। हैं। इनमें भी रेडोन नाम की गैस से सर्वाधिक उद्भासन (कुल
हमारी प्रवंचना और पाखण्ड तो देखिये-हम गंगा को गंगा मैया प्राकृतिक उद्भासन का दो तिहाई) होता है, और यह गैस चट्टानों
कहकर पूजते तो हैं, लेकिन साथ ही उसमें हर प्रकार की गन्दगी (पत्थर) व सीमेंट-कोंक्रीट आदि से निकलती है। आजकल आम
डालकर उसके उत्तम जल को अति कलुषित करने से चूकते भी तौर पर हम इन्हीं के बने पक्के मकानों में रहते हैं, फिर भला
नहीं हैं। आयनकारी विकिरणों से कैसे बचा जा सकता है?
पर्यावरण परिरक्षण-विज्ञान और तकनीकी ने हमें अपने जहाँ तक मानव-कृत विकिरणों का प्रश्न है, उनमें भी
जीवन को सुखी और सुविधापूर्ण बनाने के साधन उपलब्ध कराये चिकित्सा के काम में आने वाली विकिरणों से हमारा सबसे अधिक
हैं। जनकल्याण व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान का सामना होता है। आजकल आवश्यक-अनावश्यक रूप से एक्स रेज
सदुपयोग करते हुए मानव-जाति ने १९वीं और २०वीं शताब्दी में और गामा रेज का रोग-निदान तथा चिकित्सा हेतु जितना व्यापक
अद्भुत उपलब्धियां प्राप्त की। विज्ञान की रचनात्मक क्षमता में उपयोग हो रहा है, क्या निकट भविष्य में उस पर विवेक-सम्मत
अपार विश्वास व्यक्त करते हुए इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विचारक टी. नियंत्रण पाना सम्भव हो सकेगा? मानवकृत विकिरणों के दो अन्य
एच. हक्सले ले कहा था कि वैज्ञानिक ज्ञान के विवेकपूर्ण उपयोग स्रोत और हैं-परमाणु बमों के परीक्षण तथा परमाणु विद्युत गृहों से
से नरक को भी स्वर्ग में बदला जा सकता है। इसीलिए फ्रांस के प्राप्त रेडियो एक्टिव पदार्थ। सौभाग्य से परमाणु बमों के परीक्षण
महान् मानववादी वैज्ञानिक लुई पास्टर ने अपने देशवासियों से का सिलसिला लगभग समाप्त हो गया है तथा परमाणु बिजली घरों
अपील करते हुए कहा था कि-"मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि से प्राप्त विकिरणशील पदार्थों की मूल समस्या उनके रख
आप उन पवित्र स्थानों में, जिन्हें प्रयोगशाला कहा जाता है, रुचि रखाव उपयुक्त ढंग से उनके विसर्जन के तौर तरीकों से सम्बन्धित
लीजिये। वहाँ मानवता दिन-प्रदिदिन बड़ी होती है, अच्छी होती है, है। वैसे भी जितना प्रचार है, इन स्रोतों से उतनी हानि की आशंका
शक्तिशाली होती है। हमारे अन्य कार्य तो प्रायः बर्बरता, धर्मान्धता नहीं है। हाँ, उनका अधिक प्रसार भविष्य में बड़ी समस्या उत्पन्न
एवं विनाशकारी होते हैं। लेकिन विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण । कर सकता है।
के प्रबल पक्षधर पं. जवाहरलाल नेहरू उसके नकारात्मक पक्ष के पर्यावरण प्रदूषण के, जिससे उसका तेजी से निम्नीकरण हो । प्रति आशंकित भी थे। उन्होंने "विश्व-इतिहास की झलक" में उस रहा है अन्य और भी पक्ष हैं। पूर्व उल्लेखित हानिकारक गैसों के आशंका को व्यक्त करते हुए लिखा है- "ज्ञान का पूरा लाभ हम अतिरिक्त कारखानों, वाहनों, बिजली घरों आदि से वायुमण्डल
तभी उठा सकते हैं जब यह सीखलें कि उसका उचित उपयोग क्या सल्फर-डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइडस, कार्बन मोनो- है। अपनी शक्तिशाली गाड़ी को बेतहाशा दौड़ाने से पहले यह जान ऑक्साइड, बेन्जो पाइरिन, पदार्थ के प्रलंबित कणों आदि की मात्रा लेना चाहिए कि हमें किधर जाना है। आज अनगिनती लोगों के में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार के
दिलों में ऐसी कोई धारणा नहीं है और वे इसके बारे में कभी श्वसन रोगों, एनीमिया, क्षयरोग, नेत्र रोग व कैंसर आदि की चिन्ता ही नहीं करते। होशियार बन्दर शायद मोटर गाड़ी चलाना आवृत्ति बढ़ती जा रही है। सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों
सीख जाय, पर उसके हाथ में गाड़ी दे देना खतरे से खाली नहीं की वायुमण्डल में अधिक मात्रा न केवल मनुष्य वरन् अन्य सभी
है।" और आखिर हो यही रहा है। प्राणियों तथा पेड़-पौधों के लिए भी हानिकारक होती है। बड़े-बड़े हम ज्ञान-विज्ञान का उपयोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, आद्योगिक नगरों में तो इन गैसों के आधिक्य के कारण अम्लीय अन्ध-विश्वास. बीमारी आदि का उन्मूलन करके मानवीय संवेदना वर्षा भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त चारों ओर इतना कोलाहल एवं प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण समाज की रचना करने में करते, लेकिन बढ़ता जा रहा है कि शोर-प्रदूषण भी एक विकट समस्या का रूप ठीक इसके विपरीत उसका अधिक उपयोग युद्ध, विलासिता, हिंसा, धारण करता जा रहा है। बढ़ते हुए कोलाहल से बहरेपन, रक्तचाप, शोषण आदि के उपकरण तैयार करने में कर रहे हैं। महात्मा गाँधी मानसिक तनाव आदि में वृद्धि हो रही है। आजकल तो धार्मिक ने औद्योगिक घरानों के बीच चलने वाली स्पर्धा के घातक परिणामों स्थल भी, जो कभी आदर्श शान्ति के स्थान हुआ करते थे, को भली-भाँति समझ लिया। वे जान गये थे कि इस सभ्यता में
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
लोगों का लालच निरन्तर बढ़ता ही जायेगा और एक दिन दुनियां के सामने अत्यन्त विकट स्थिति आ जायेगी। वे कहा करते थे"लोगों के भरण-पोषण के लिए धरती माता के पास पर्याप्त भण्डार है, किन्तु उनके लालच को पूरा करने की क्षमता उसमें नहीं है।" दुर्भाग्य से वही स्थिति हमारे सामने आ गई है। आज हम पृथ्वी का इतना दोहन और निम्नीकरण कर रहे हैं कि उसकी संभरण क्षमता के चुक जाने की नौबत आ रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के एक फकीर नुन्द ऋषि (नूरुद्दीन शेख) ने अद्भुत बात कही थी कि जब तक जंगल रहेंगे, तब तक कोई भूखों नहीं मरेगा। लेकिन हम वनों और वन्य जीवों का तेजी से सफाया करते जा रहे हैं और समग्र पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। भारतीय मनीषियों ने तो इस तथ्य के मर्म को सहस्रों वर्ष पहले ही गहराई से समझ लिया था। तभी तो उन्होंने अपने आराध्य देवी-देवताओं, अवतारों, तीर्थंकरों आदि के साथ किसी न किसी वनस्पति अथवा प्राणी को जोड़ दिया था, ताकि जन साधारण उनका विनाश नहीं करें; किन्तु अपने आपको धर्म-परायण कहने वाले अधिकांश लोग इस महत्वपूर्ण पक्ष पर तनिक भी विचार नहीं करते।
अगर हमें पृथ्वी पर अपना और अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व बनाये रखना है तो दृढ़ संकल्प के साथ मानव समाज को अपनी जीवन-पद्धति में प्रबल परिवर्तन लाना पड़ेगा। यह बात कहने में बड़ी सरल प्रतीत होती है किन्तु लोगों की जड़-प्रवृत्ति, निहित स्वार्थों के विरोध एवं अन्य व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए इसे मूर्त रूप देना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भारतीय समाज को भी इस सन्दर्भ में अपनी उदात्त विश्व-दृष्टि के अनुरूप सामूहिक चेतना उत्पन्न करनी होगी तथा एक जुट होकर पर्यावरण की रक्षा में कार्यरत होना होगा। इस दृष्टि से सारा परिदृश्य बड़ा निराशाजनक है। हम लोग न तो अपनी आध्यात्मिक विरासत के प्रति आस्थावान हैं और न वैज्ञानिक ज्ञान और सिद्धान्तों के प्रति सच्चे हैं। अगर ऐसा होता तो क्या हम हमारे महान् पूर्वजों के "वसुधैव कुटुम्बकम्" सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा सभी जीवों के प्रति करुणाभाव के सिद्धान्तों को ताक में रखकर केवल प्रतीकों की पूजा-अर्चना करते हुए धर्म के गीण पक्षों पर जोर देते रहते और धर्म के विपरीत आचरण करते रहते? पर्यावरण के प्रदूषण को कम करना तथा उसके परिरक्षण का माहौल तैयार करना किसी एक व्यक्ति या देश के बस की बात नहीं है। यह एक विश्व-स्तरीय समस्या है जिसके लिए प्रयास भी विश्व-स्तरीय ही होना आवश्यक हैं। इस दिशा में कदम उठ चुके हैं और इस यज्ञ को सफल बनाने हेतु सबको कदम मिलाकर चलना पड़ेगा। इस दृष्टि से हमारे देश में प्राथमिकता के आधार पर जो ठोस कदम उठने चाहिए, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
१. सर्व प्रथम हमें जनसंख्या पर प्रभावशाली नियंत्रण करना पड़ेगा। इस क्षेत्र में पश्चिमी देश हमसे बहुत आगे हैं।
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निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या विकासशील देशों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
२. हमें हमारी लालसाओं और लोभ-लालच पर अंकुश लगाना पड़ेगा। ये अपार विलासिता के आधार हैं, जिसके कारण पर्यावरण विशेष रूप से प्रदूषित हो रहा है। यहाँ अपरिग्रह एवं आर्थिक समानता की सच्ची भावना बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। इस क्षेत्र में विकसित देश विकास के नाम पर मानवता के प्रति अक्षम्य अपराध के भागी हैं। उन देशों में संसार की मुश्किल से एक चौथाई आबादी बसती है; किन्तु विकासशील देशों की अपेक्षा पर्यावरण को प्रदूषित करने में उनका योगदान तीन चौथाई है। विकसित देशों ने इस सन्दर्भ में विकास और पर्यावरण को विवाद का विषय बना दिया है। आजकल विकसित देश विकासशील देशों को यह सीख दे रहे हैं कि वे विकास की गति को धीमा करें, जबकि विकसित देशों को अपनी विलासिता में प्रबल कमी करके कल-कारखानों और वाहनों की संख्या में भारी कमी करने तथा खनन कार्यों को प्रायः बन्द करने की तत्काल आवश्यकता है। इसी तरह यद्यपि विकासशील देशों को जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अभी विकास के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना है, तथापि भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन कार्यक्रमों को इस तरह नियोजित करना पड़ेगा जिससे प्रदूषण के कारण पर्यावरण अपने पुनरुद्धार की क्षमता नहीं खो बैठे।
३. हमें अपने वनों का परिरक्षण एवं पुनर्जनन करना होगा। एक स्वच्छ एवं स्वस्थ पर्यावरण के लिए धरती के एक तिहाई भू-भाग यानी ३३ प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिए। इस मानदण्ड के अनुसार स्थिति बहुत निराशाजनक है। आजकल विश्व में वन १६-१७ प्रतिशत और भारत में ९-१० प्रतिशत के आस-पास आ पहुँचे हैं। वनों पर जैव-विविधता, जलवायु तथा भूमि की उर्वरता निर्भर करती है। अतः जन-जन के बीच "वृक्ष लगाओ-वृक्ष बचाओ," "जब तक जंगल, तब तक मंगल", "पंचवटी में राम मिलेंगे, पहले वृक्ष पाँच लगाओ" - जैसे मंत्र फूँकने पड़ेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन १५ किग्रा ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जो सामान्यतया पांच वृक्षों से प्राप्त होती है। पाँच वृक्ष लगाने के पीछे यही मर्म है। सघन वनों के बीच ही पृथ्वी पर जीवों के अस्तित्व की कुंजी बसती है।
४. समग्र मानव समाज को एक ऐसी नवीन जीवन-पद्धति के आधार पर पुनर्गठित करने की आवश्यकता है, जिसके अधिकाधिक कार्य-कलाप सौर ऊर्जा से निष्पादित हो सकें ताकि खनिज ईंधन का उपयोग उत्तरोत्तर कम होता चला जाए।
ये कुछ बिन्दु हैं जो पर्यावरण परिरक्षण की दिशा निर्देशित करते हैं। पृथ्वी पर मनुष्य समेत समस्त जीव-जगत् के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना अपरिहार्य
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शर्त है। इसके लिए जनसाधारण में चेतना और उसकी सामूहिक भागीदारी आवश्यक है। पर्यावरण परिरक्षण का वातावरण सारी दुनियां में बनाना भी जरूरी है। इस कार्य को धर्मगुरु तथा समाज सेवा में ईमानदारी से संलग्न स्वयंसेवी संस्थायें प्रभावी ढंग से निबाह सकती हैं। इस अभियान के लिए अगर नई पीढ़ी को स्कूल स्तर पर तैयार किया जाये तो यह दुष्कर कार्य सचमुच सुलभ हो सकता है। संसार की सुरक्षा हेतु जैन धर्म का अहिंसा-सिद्धान्त अब क्रियात्मक रूप से व्यवहार में लाना अनिवार्य है।
संदर्भका
१. समाज और पर्यावरण- अनु. जगदीश चन्द्र पाण्डेय प्रगति प्रकाशन, मास्को।
२. "विश्व इतिहास की झलक" (भाग-२) - जवाहरलाल नेहरू : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली।
असन्तुलन का कारण प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप
अनादिकाल से सारा संसार जड़ और चेतन के आधार पर चल रहा है। प्रकृति अपने तालबद्ध तरीके से चलती है। दिन और रात तथा वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ एक के बाद एक क्रमशः समय पर आती हैं, और चली जाती हैं। गर्मी के बाद वर्षा और वर्षा के बाद सर्दी न आए तो संसार का सन्तुलन बिगड़ जाता है; जनता में हाहाकार मच जाता है। प्रकृतिजन्य तमाम वस्तुएँ अपने नियमों के अनुसार चलती हैं, तभी संसार में सुख-शान्ति और अमन-चैन रहता है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
3. Ecology and the Politics of SurvivalVandana Shiva United Nations University Press, Japan.
परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति की इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करता है: प्राकृतिक नियमों को जानता बूझता हुआ भी अपनी अज्ञानतावश उनका उल्लंघन करता है, और अव्यवस्था पैदा करता है। वह वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अथवा अपने असंयम से प्रकृति के इस सहज सन्तुलन को बिगाड़ने का खतरा पैदा करता है। इसी के फलस्वरूप कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ और कहीं भूकम्प तो कहीं तूफान और सूखा, ये सब प्राकृतिक प्रकोप पैदा होते हैं, इससे प्रकृति का जो सहज पर्यावरण है, उसका सन्तुलन बिगड़ जाता है। इन सब प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लाखों आदमी काल के गाल में चले जाते हैं, लाखों बेघरबार हो जाते हैं, हजारों मनुष्य पराधीन और अभाव पीड़ित होकर जीते हैं, यह सारी विषमता और अव्यवस्था मनुष्य के द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने के परिणामस्वरूप पैदा होती है। कभी तो यह समुद्र
4. The State of India's Environment (1984-85): The Second Citizens Report: Centre For Science and Environment, N. Delhi.
5. Survey of the Environment 1992 : The HINDU
6. Lectures and articles of Shri Sunder Lal Bahuguna.
पता :
जैन धर्म और पर्यावरण सन्तुलन
से.नि. एसोसिएट प्रोफेसर (जूलोजी)
१०८, 'जय जवान' कॉलोनी, टोंक रोड, जयपुर (राज.)
- पं. मुनिश्री नेमिचन्द्र जी महाराज (अहमदनगर)
में बम विस्फोट करता है, कभी वह लाखों मनुष्यों से आबाद शहर पर बम फेंकता है; कभी वह जहरीली गैस छोड़ कर अपनी ही जाति का सफाया करने पर उतारू हो जाता है। कभी उसके द्वारा उपग्रह छोड़ने के भयंकर प्रयोगों के कारण अतिवृष्टि, आँधी, तूफान या भूस्खलन आदि प्राकृतिक प्रकोप होते हैं।
प्रत्येक तीर्थङ्कर ने जीव-अजीव दोनों पर संयम की प्रेरणा दी
जैन धर्म के युगादि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सबने प्रकृति के साथ संतुलन रखने हेतु तथा पृथ्वीकायिक आदि समस्त जीवों के साथ परस्पर उपकार करने हेतु संयम का उपदेश दिया है। उन्होंने जैसे जीवकाय के प्रति संयम रखने की प्रेरणा दी है, वैसे अजीवकाय (जड़ प्रकृतिजन्य वस्तुओं या पुद्गलों) के प्रति भी संयम रखने की खास प्रेरणा दी है।
परन्तु वर्तमान युग का अधिकांश मानव समूह इस तथ्य को नजरअंदाज करके जीवकाय और अजीवकाय दोनों प्रकार के पर्यावरण सन्तुलन के लिए उपयोगी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अधिकाधिक असंयम करके, अन्धाधुंध रूप से सन्तुलन बिगाड़ने का पराक्रम करके प्रदूषण फैला रहा है। अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान एकादमी (१९६६) के अनुसार "वायु, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे और जानवर सभी मिलकर सुन्दर पर्यावरण या स्वच्छ वातावरण की रचना करते हैं। ये सभी घटक पारस्परिक सन्तुलन बनाये रखने के लिये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, जिसे 'परिस्थिति-विज्ञान
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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सम्बन्धी सन्तुलन' कहते हैं। जब (भौतिक) विकास के लिए प्रकृति प्रस्तुत किया गया है। प्रो. सी. एन. वकील ने अपनी पुस्तकका सीमा से अधिक असंतुलित उपयोग किया जाता है, तब हमारे । 'इकोनॉमिक्स ऑफ काऊ प्रोटेक्शन' में बताया है-“हमें यह कभी पर्यावरण या वातावरण में कुछ परिवर्तन होता है। यदि इन न भूलना चाहिए कि मिट्टी, वनस्पति, पशु और मानव का परस्पर परिवर्तनों की प्रक्रिया का प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं बिठाया | गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार मानव में जीवन है, पशु और वृक्ष जाता और परिस्थिति विज्ञान सम्बन्धी सन्तुलन कायम नहीं रखा आदि सजीव हैं, उसी प्रकार मिट्टी भी सजीव है। सुनने में यब बात जाता तो उससे न केवल विकास व्यय (विकास कार्य में समय, । भले ही अजीव लगे, पर अक्षरशः सत्य है। कोटि-कोटि अतिसूक्ष्म शक्ति और नैतिकता के अपव्यय) के बढ़ने का खतरा पैदा होता है, ऑर्गेनिज्म मिट्टी में सदा क्रियारत रहते हैं।" बल्कि उससे ऐसा असन्तुलन पैदा हो सकता है, जिससे पृथ्वी पर
सत्रह प्रकार का संयम-प्रदूषण निवारणार्थ मनुष्य जाति का जीवन खतरे में पड़ सकता है।" इसी प्रकार का
2009 असन्तुलन प्रदूषण फैलाता है।
भगवान महावीर ने जीव और अजीव दोनों प्रकार के पदार्थों 9
के प्रति १७ प्रकार के संयम बताए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) प्रकृति और जीवों के साथ मनुष्य का सम्बन्ध
पृथ्वीकाय-संयम, (२) अप्काय-संयम, (३) तेजस्काय-संयम, (४) यह एक निश्चित तथ्य है कि प्राकृतिक पदार्थों तथा जिनमें वायुकाय-संयम, (५) वनस्पतिकाय-संयम, (६) द्वीन्द्रिय (जीव) Face जीवन का अस्तित्व है, चेतना है, ऐसे सजीव पदार्थों का मानव संयम, (७) त्रीन्द्रिय-संयम, (८) चतुरिन्द्रिय-संयम, (९) पंचेन्द्रियजीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार भगवद्गीता में कहा संयम, (१०) अजीव-काय-संयम, (११) प्रेक्षा-संयम, गया है-'परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ'-२ सभी सजीव- (१२) उपेक्षासंयम, (१३) अपहृत्य-संयम, (१४) प्रमार्जनासंयम, निर्जीव पदार्थ परस्पर एक-दूसरे के साथ आत्मीय भाव अथवा (१५) मन-संयम, (१६) वचन-संयम और (१७) काय-संयम।५ इन अपने जीवन के लिए सहायक मानकर चलेंगे तो परम श्रेय को १७ प्रकार के संयमों का अर्थ ही पृथ्वीकाय आदि ९ प्रकार के 6 0 प्राप्त करेंगे। इसी प्रकार जैनाचार्य उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थसूत्र में जीवों के प्रति संयम रखना, उन जीवों को कष्ट हो, त्रास हो, ऐसी कहा-'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'-३ जीवों का स्वभाव परस्पर दूसरे प्रवृत्ति न करना। अजीवकाय संयम में प्रकृतिजन्य सभी निर्जीव पर उपग्रह-उपकार करना होना चाहिए।" यही कारण है कि पदार्थों के प्रति संयम की प्रेरणा है। प्रेक्षा, उपेक्षा, अपहृत्य एवं जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने कहा-"धम्म प्रमार्जनारूप संयम में प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय देखे, पूर्वापर का, चरमाणस्स पंच निस्सा ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-छकाए गणे राया परिणाम का विचार करे, जहाँ या जिस स्थान में अथवा जिस गिहवइ सरीरं।"४ जो व्यक्ति आध्यात्मिक धर्म का आचरण प्रवृत्ति से जीव हिंसा अधिक हो, जिससे अपने स्वास्थ्य, परिवार, (साधना) करना चाहता है, उसके लिए निम्नोक्त पाँच स्थानों का संघ, राष्ट्र या समाज को हानि हो, उस प्रवृत्ति के प्रति उपेक्षा करे, आश्रय (आलम्बन) लेना बताया गया है। जैसे कि-षट्कायिक जीव, जहाँ खींचना, खोदना, रगड़ना आदि घर्णण प्रवृत्ति हो, वहाँ भी गण, शासक, गृह-पति और शरीर। इस सूत्र में छह काया के जीवों संयम रखे, ताकि किसी जीव को पीड़ा न हो। मन से दूसरों को (अर्थात्-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीवों) के मारने, सताने, उत्पीडन करने का विचार न करे, वचन से भी शाप आश्रय को प्राथमिकता दी गई है। दूसरे दर्शन या धर्म जहाँ पृथ्वी, आदि का क्रोधादिपूर्वक आघातजनक वचन न बोले, न ही काया से पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवन का अस्तित्व प्रायः अंगोपांगों से किसी पर प्रहार करने आदि हिंसाजनक कृत्य-चेष्टा स्वीकार नहीं करते, वहाँ जैनधर्म ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और करें। यह १७ प्रकार का संयम है। वनस्पति में भी जीवन का अस्तित्व स्वीकार किया है। आज का
पृथ्वी की हिंसा : पर्यावरण-असंतुलन तथा विनाश का हेतु जीव विज्ञान (जिओलॉजी) भी इस निष्कर्ष से सहमत हो चुका है कि पृथ्वी, जल और वनस्पति में भी जीवन है, उनमें भी सुषुप्त
आज विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों के लिए खासकर पत्थर चेतना है, वे भी हर्ष शोक का अनुभव करते हैं। जैन-आगमों में तो के कोयलों के लिए पृथ्वी का खनन और जबर्दस्त दोहन किया जा पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनसपतिकाय, इन
रहा है। भूवैज्ञानिकों का मत है कि यदि इसी प्रकार खनिज पदार्थों पाँच स्थावर जीवों के बारे में बहुत विस्तार से निरूपण किया गया का उपयोग किया गया तो कुछ ही वर्षों में उसके भण्डार निःशेष है। वे जीव कहाँ-कहाँ रहते हैं? उनका शरीर किस-किस प्रकार का हो जायेंगे। संसार में जब से औद्योगीकरण की लहर आई है, पृथ्वी है? वे कैसे-कैसे श्वासोच्छ्वास, आहार आदि ग्रहण करते हैं, का पेट फाड़ कर कोयले निकालते रहने से पत्थर के कोयलों के उनका विकास ह्रास कैसे-कैसे होता है, उनकी उत्कृष्ट आयू जलाने से उनकी धूल, कार्बन-डाइ- ऑक्साइड, सल्फर डाइकितनी-कितनी है? उनमें कितनी इन्द्रियाँ हैं, कितने प्राण हैं? ऑक्साइड तथा कुछ ऑर्गनिक गैसों के रूप में प्रदूषणकारी पदार्थों इत्यादि सभी प्रश्नों पर बहुत गहराई से विचार प्रस्तुत किया गया । की भरमार हो गई है। इसी प्रकार बारूदों के द्वारा जिस जमीन में है। साथ ही उनका साथ मानवजीवन का परस्पर उपकार और विस्फोट किया जाता है, वह जमीन नीचे धसती जाती है, कहीं-कहीं हर गहन सम्बन्ध भी बताया गया है। जिसे आगम के उद्धरण द्वारा । इसी के फलस्वरूप भूकम्प, नदियों में बाढ़, तूफान, समुद्र मेंE8
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । DB मछलियों का मर जाना, धरती का खराब हो जाना आदि प्रकोप हो । की ऐसी हिंसा और असंयम को बंद कर दिया जाए तो पूर्वोक्त 5 - जाते हैं।
प्रकार से धन-जन-विनाश भी बंद होगा, साथ ही वायु-प्रदूषण एवं इन सब दुष्कृत्यों से दूर रहने के लिए भगवान महावीर ने पर्यावरण-असंतुलन पर भी काबू पाया जा सकेगा।
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले सद्गृहस्थों के लिए एक व्यक्ति पूरे साल में जितनी ऑक्सीजन का उपयोग करता D “स्फोटकर्म" (फोड़ीकम्मे) यानी जमीन में विस्फोट करने के खरकर्म है, उतनी ऑक्सीजन एक टन कोयला जलने से नष्ट हो जाती है.
का सर्वथा (तीन करण-करना कराना और अनुमोदन रूप से तथा । इतनी ही ऑक्सीजन १०० किलोमीटर दौड़कर एक मोटरगाड़ी
तीन योग-मन-वचन-काया से) निषेध किया था। इसी तरह । खर्च कर देती है। इनसे अग्निकाय की हिंसा तो होती ही है, साथ 85 पृथ्वीकायिक (पृथ्वी ही जिसका शरीर है, उन) जीवों को नष्ट ही अनेक प्राणियों के जीवन को भी खतरा पहुँचता है। करने, सताने, गहरे खोदने, फोड़ने आदि के रूप में हिंसा का
धूम्रपान भी अग्निकायिक हिंसा और वायुप्रदूषण का जबर्दस्त निषेध करते हुए कहा था-"मेधावी पुरुष हिंसा के दुष्परिणाम को
अंग है। धूम्रपान से दूसरों के जीवन को हानि तो पहँचती ही है, जानकर स्वयं पृथ्वी-शस्त्र का समारम्भ न करे, न ही दूसरों से
पीने वाले व्यक्ति की धीरे-धीरे आत्महत्या भी हो जाती है। ब्रिटिश उसका समारम्भ (घात) कराए और न समारम्भ करने वाले का ।
मेडिकल सर्जन्स की २५ अगस्त, १९७४ की रिपोर्ट से ज्ञात होता HERE अनुमोदन करे। मनुष्य पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ
है कि सिगरेटों के निर्माण में करीब ढाई हजार पौण्ड वार्षिक व्यय केवल पृथ्वीकायिक जीवों की ही नहीं, अन्य अनेक तदाश्रित या
होता है, वहाँ १९७४ में एक वर्ष में ३७000 व्यक्ति इसके कारण तत्सम्बन्धित प्राणियों की हिंसा करता है, अतः पृथ्वीकायिक हिंसा
होने वाले रोगों से मृत्यु शय्या पर सो गए। अमेरिका में सन् 836 से महाहानि की ओर इंगित करते हुए उन्होंने कहा था-"नाना
१९६२ में ४१000 लोग धूम्रपान के कारण मर गए। भारत में P-20 प्रकार के शस्त्रों (द्रव्यशस्त्रों तथा भावशस्त्रों) से पृथ्वी-सम्बन्धी
सिगरेट, बीड़ी, हुक्का या तम्बाकू पीने-खाने वालों की मृत्यु संख्या - हिंसाजन्य कर्म में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने
प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। प्रो. हिचकान आदि की सम्मति है कि वाला व्यक्ति (न केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा करता ।
शराब आदि मादक द्रव्यों की अपेक्षा तम्बाकू से बुद्धि का ह्रास, DAD है, अपितु) अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है।
इन्द्रिय-दौर्बल्य, स्मरण शक्ति की हानि, चित्त की चंचलता तथा यह ध्यान रहे कि जैनधर्म जहाँ प्राणिमात्र की दृष्टि से विनाश और
नाश और मस्तिष्कीय रोग अधिक होते हैं। जीवसृष्टि की महाहानि की दृष्टि से अहिंसा और संयम पर विचार Flag प्रस्तुत करता है, वहाँ विज्ञान उस पर प्रदूषण एवं प्राणिजगत् के
बड़े-बड़े कल-कारखानों में तो अग्निकायिक हिंसा से या 859 लिए दुःखवृद्धि तथा केवल मनुष्यमात्र की दृष्टि से विचार करता
अग्निकाय के असंयम से प्रदूषण बढ़ता ही है; धूम्रपान से भी है। किन्तु परिणाम की दृष्टि से दोनों एक ही निष्कर्म पर पहुँचते हैं।
प्रदूषण कम नहीं बढ़ता। इसी सिलसिले में भगवान् महावीर ने
कहा-"अग्नि के जीवों को पीड़ित करना अपने आपको पीड़ित अग्निकाय से होने वाला प्रदूषण
करना है। जो अग्नि-शस्त्र के स्वरूप तथा उससे होने वाली हानि को व अग्निकाय की हिंसा से होने वाला प्रदूषण भी वायु-प्रदूषण से जानता है, वह स्वयं को जानता है। जो स्वयं को जानता है, वह
सम्बन्धित है। ऑक्सीजन जीने के लिए आवश्यक है। किन्तु इन्धन अग्निकायिक शस्त्र के स्वरूप को जानता है।"९ जिस व्यक्ति में 388 और वायु के प्रदूषण से वायुमण्डल की ओजोन परत को चोट अग्नि पर संयम प्रतिफलित नहीं होता है, वह इन विनाशलीलाओं
पहुँचती है, और ओजोन परत के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से पृथ्वी पर (बम-विस्फोट, हवा में फायर, इंधन आदि से छूटने वाले गैस से - जीवधारियों का जीवन खतरे में पड़ सकता है।
दम घुटना आदि हानियों) को जानता हुआ भी अपने पैरों पर स्वयं अतः अग्निकाय की हिंसा अग्निकाय की ही हिंसा नहीं है;
कुल्हाड़ी मारता है। आधुनिकीकरण की होड़ में बढ़ते हुए धूल कणों अपितु उसके आश्रित या सम्बन्धित अनेक जीवों का विनाश,
तथा रेडियोधर्मी विकिरण के कारण विश्व स्तर पर तापक्रम में भी धन-जन हानि तथा वातावरण (पर्यावरण) का असन्तुलन भी
अन्तर आया है। इससे ध्रुवप्रदेशों की बर्फ पिघलने लगी है। समुद्रीय Dअवश्यम्भावी है। इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है, झरिया (धनवाद)
जल का स्तर ६० फुट ऊँचा हो सकता है। इससे केवल एक देश की कोयले की खान, जहाँ खान में काम करने वाले अनेक खनिक
और एक जातीय प्राणी (मानव) के लिए ही नहीं, विश्व की समूची मौत के मुँह में चले गए, उस खान में कई वर्षों से आग लगी हुई
जीव सृष्टि को खतरा है। जंगल में आग लगाने आदि से वनस्पति है। अभी तक बुझी नहीं है। सरकार को वह खान बंद कर देनी
आश्रित अनेक प्रकार के जीवों की प्राण हानि हो जाती है, यह 63 पड़ी, और झरिया शहर खाली करने का नोटिस सभी नागरिकों को
भगवान् महावीर ने कहा। देना पड़ा। यहाँ का जन-जीवन भी इससे प्रभावित है। यही कारण है अग्निकाय के इस समारम्भ में गृद्ध (आसक्त) व्यक्ति उन-उन Pop कि चौदहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड जैसे शहरों में कोयला जलाने पर विविध प्रकार से अग्निकायिक शस्त्रों से अग्निकाय का आरम्भ P.D. वहाँ की सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। अतः यदि पृथ्वीकाय (हिंसा) करते हुए उसके आश्रित अनेक जीवों की हिंसा कर बैठते
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Patna
जन-मंगल धर्म के चार चरण हैं। (अग्नि के प्रज्वलित होने पर) पृथ्वी के आश्रित, तृण (घास महावीर ने वायुकाय पर संयम रखने की बात कही तथा 2004 चारे) के आश्रित, पत्तो के आश्रित जो काष्ठ के आश्रित, गोबर के वायुकायिक हिंसा के कारण भयंकर हानि बताते हुए कहा-"तं PEOPos आश्रित तथा कचरे कूड़े के आश्रित जीव रहते हैं उनकी भी हिंसा से अहियाए तं से अबोहिए।" अर्थात्-वायुकायिक हिंसा उन मानवों हो जाती है। साथ ही, उड़ने वाले कई प्राणी आकर (प्रज्वलित के लिए अहितकर है तथा सम्यक् बोध से रहित कर देने वाली अग्नि में) सहसा गिर जाते हैं और मर जाते हैं।१० अतः अग्नि । बनती है। प्रदूषण भी कम हानिकारक नहीं है।
जल-प्रदूषण भी विनाश और महा हानि का कारण वायु-प्रदूषण और असन्तुलन का कारण : वायुकायिक हिंसा
पानी हमारी दुनिया के जीवन-धारण का एक मुख्य स्रोत है। वायु का प्रदूषण भी वर्तमान युग की गम्भीर समस्या है। गैस । परन्तु आज उसमें भी भयंकर प्रदूषण पैदा हो रहा है। जैनधर्म की के रिसाव से भोपाल में हुए वायु-प्रदूषण से कितने धन-जन की दृष्टि से पानी भी एक सजीव तत्व है। उसमें अप्काय के स्थावर हानि हुई, इससे इस खतरे का अनुमान लगा सकते हैं। जीव पाये जाते हैं। अप्काय के आश्रित वनस्पतिकाय के तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में पिछले १०० वर्षों में १६ द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय प्राणी, यहाँ तक कि मछली आदि जल जन्तु भी प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अगर इसी तरह वातावरण में इसकी । पलते हैं। मनुष्य का मल-मूत्र एवं गंदगी, कचरा आदि पानी के मात्रा बढ़ती रही तो मनुष्यों और जानवरों के शरीर हेतु आवश्यक साथ मिलता है, और वह खुला रहता है, उसमें अनेक कीटाणु प्राण वायु का अनुपात घट जाएघा। इसी घटते अनुपात के कारण मक्खी, मच्छर, बिच्छू आदि नाना प्रकार के जीव पैदा हो जाते हैं, महानगरीय इलाकों में रक्त चाप, श्वासरोग, हृदयरोग तथा नेत्ररोग, । मरते हैं, तथा जनता के स्वास्थ्य को भयंकर हानि पहुँचाते हैं। त्वचारोग, कैंसररोग आदि बढ़ रहे हैं।
अनेक कल-कारखानों में पानी का भारी मात्रा में उपयोग होता है, नैसर्गिक शुद्ध हवा का प्रदूषण मुख्यतः कारखानों में जलने
जब वह पानी रासायनिक प्रक्रियाओं से गुजर कर आता है तो वाले ईंधन तथा विविध प्रक्रियाओं से हवा में छोड़े जाने वाले
इतना प्रदूषित हो जाता है कि मनुष्यों के ही क्या, पशुओं, पक्षियों पदार्थों के कारण होता है। कारखानों से निकलने वाले धुंए से,
तथा जल-जन्तुओं तक के लिए हानिकारक और अपेय हो जाता है।
संसद सदस्य मुरली मनोहर जोशी के अनुसार दिल्ली के पानी में वाहनों से निकलने वाले दूषित पदार्थों से तथा कोयला जलाने वाले
इतना अधिक अमोनिया हो गया कि वह पानी पेशाव से भी खराब कारखानों से निकलने वाली गन्धकीय भाप, दावानल तथा अन्य
हो गया है। गोआ के एक खाद के कारखाने को इसी लिए बंद ads खुदरा ईंधन के जलने से वायु तीव्र गति से प्रदूषित होता जाता है। यह श्वसन-क्रिया द्वारा शरीर में पहुँचकर रक्त की लाल रुधिर
करना पड़ा। वर्तमान सर्वेक्षणों से ज्ञात हुआ कि दिल्ली में प्रतिवर्ष
लगभग दो लाख व्यक्ति जल-प्रदूषण से मर रहे हैं। स्विट्जरलैण्ड के कणिकाओं की ऑक्सीजन-परिसंचरण-क्षमता कम कर देती है, जिससे मानव समूह की मृत्यु की भी संभावना है। इसकी १०० पी.
जिनेहासागर का पानी एक समय अतिस्वच्छ और शीतल था। आज
यदि कोई उस पानी का सेवन कर ले तो वह अनेक दुःसाध्य रोगों पी. एम. सान्द्रता होने पर चक्कर, सिर दर्द एवं घबराहट का
से आक्रान्त हो जाता है। जर्मनी की राइन नदी में खतरे के कारण अनुभव होता है, तथा करीब १००० पी. पी. एम. पर मृत्यु हो
प्रदूषित जल से करोड़ों मछलियाँ मर गईं। ये यंत्रीकरण जल और जाती है। ईंधनों के जलने से प्रमुख हानिकारक नाइट्रोजन
वायु के प्रदूषण के मुख्य अंग हैं। भारत की ८० प्रतिशत आबादी पर-ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइ-ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन मोनो
जो देश की १४ बड़ी नदियों के किनारे पर बसी हुई है, पानी के ऑक्साइड है, जिनसे खाँसी श्वासरोग तथा पेफड़ों के रोग (टी. बी.
प्रदूषण से प्रभावित है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था-जो आदि) उत्पन्न होने का खतरा है।
यह अनेक प्रकार के शस्त्रों (प्रदूषणवर्द्धक) से जल कर्म समारम्भ कलकत्ता के वैज्ञानिक टी. एम. दास ने बताया है कि के लिए जलीय शस्त्रों का समारम्भ (हिंसा) करते हुए, जल के ही pos वायुमण्डलीय (पर्यावरणीय) प्रदूषण मानव के लिए ही नहीं, नहीं, तदाश्रित अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं।११ जलीय हिंसा 6 0 % वनस्पति और जल के लिए भी हानिकारक है। वायु में तैरते कण । अनेक लोगों के स्वास्थ्य धन-जन के विनाश का कारण है। सूर्य के प्रकाश का अवचूषण करते हैं, जो पौधों के फोटो सिंथेसिस
बम्बई जैसे शहरों में जल-प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि वहाँ के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। ऐसे प्रदूषित वातावरण से पाँच
के निकटवर्ती समुद्र में स्नान करना खतरे से खानी नहीं है। प्रदूषण लाख बच्चे प्रतिवर्ष दमा रोग से पीड़ित हो जाते हैं। फेंफड़ों का
की यदि यही गति रही तो एक दिन नदी तालाब समुद्र आदि सभी कैंसर तथा रक्तवाहिनी नाड़ियों में कड़ापना आना, आँखों की
जलाशयों में प्रदूषण अत्यधिक बढ़ सकता है। रोशनी धुंधली होना भी वायु-प्रदूषण का परिणाम है। जापान में जिंक के कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों की मृत्यु का कारण ध्वनि प्रदूषण और वायुकायिक हिंसा प्रदूषित वातावरण में काम करना है। इससे उनके मूत्राशय में काफी ध्वनि के अत्यधिक प्रयोग, तीव्र ध्वनि के संक्रमण एवं 2600
प्रमाण में केडमियम इकट्ठा हो जाना बताया गया। इसीलिए भगवान् । अत्यधिक बोलते से मनुष्य की जीवनी शक्तियों का तो ह्रास होता asoompass-0000000000000000 पलाम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ही है, वायु प्रदूषण भी कम नहीं होता। स्फोटक ध्वनि से बड़े-बड़े वनस्पतिजन्य हिंसा और प्रदूषण पत्थरों को तोड़ा जा सकता है तो मनुष्यों और पशुओं के कान के
वनस्पतिकाय की हिंसा के नानाविध दुष्परिणाम अतीव स्पष्ट पर्दे न फटें, यह असंभव है। यातायात की खड़खड़ाहट, विमानों का
है। एक ओर उससे प्राणवायु (ऑक्सीजन) का नाश हो रहा है, कर्णभेदी स्वर, रेडियो आदि का कर्ण कटु स्वर, कल-कारखानों
दूसरी ओर भूक्षरण तथा भूस्खलन को बढ़ावा मिल रहा है। और मशीनों की सतत धड़धड़ाहट अत्यधिक कोलाहल, विभिन्न
पेड़-पौधे आदि सब वनस्पतिजन्य हैं। इनमें जीवन का अस्तित्व वस्तुओं के घर्षण से होने वाली आवाज तथा कम्पन आदि कितने
जगदीशचन्द्र बोस आदि जैव वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है। ही प्रकार की ध्वनियाँ हमारे कानों पर आक्रमण करती हैं।
इनकों हर्ष-शोक या सुख-दुःख का संवेदन होता है। इसीलिए अमेरिका के वातावरण-संरक्षक विभाग ने अपनी रिपोर्ट में कहा
भगवान् महावीर ने वनस्पतिकाय-संयम बताया है। वृक्षों को है-'अकेले अमेरिका में तीव्र आवाज से ४ करोड़ लोगों के आरोग्य
काटकर उनसे आजीविका करने (वणकम्मे) तथा वृक्षों से लकड़ियाँ को धक्का पहुंचा है। कार्यालयों या घरों में शान्त जीवन बिताने वाले
काटकर कोयले बनाने के धंधे (इंगालकामे) एवं बड़े-बड़े वृक्षों के अन्य ४ करोड़ लोगों की कार्यक्षमता में कमी आई है। लगभग २५
लट्ठों को काट-छील कर विविध गाड़ियाँ बनाने और बेचने के धंधे लाख लोग कर्ण यंत्र के प्रयोग के बिना कानों से सुनने में असमर्थ हो गए हैं।
(साड़ी कम्मे) की सद्गृहस्थ के लिए सख्त मनाही ही की है। वनों
प्राकृतिक संपदा को नष्ट करना भयंकर अपराध है उससे वृष्टि तो असह्य ध्वनि का प्रभाव केवल कानों पर ही नहीं, सारे शरीर कम होती ही है, मानव एवं पशुओं के जीवन भी प्रकृति से बहुत पर पड़ता है। श्वसन-प्रणाली, पाचन-प्रणाली, प्रजनन क्षमता तथा दूर हो जाते हैं, कृत्रिम बन जाते हैं। पर्यावरण-सन्तुलन को बनाये मज्जा-संस्थान पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। सिर दर्द, रखने में वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं का बहुत बड़ा हाथ है। आँखों में घाव, स्नाय दौर्बल्य आदि बीमारियाँ भी इसी की देन हैं। परन्तु मनुष्य आज रासायनिक खाद एवं जहरीली दवाइयाँ डालकर श्रवण शक्ति तो मन्द पड़ती ही है। अधिकतर झगड़े, दंगे-फिसाद का।
जमीन को अधिक उर्वरा बनाने का स्वप्न देखता है, मगर इससे मूल कारण तीव्र एवं कर्कश ध्वनि है। इसीलिए भगवान् महावीर ने बहुत से कीड़े मर जाते हैं, तथा जो अन्नादि पैदा होता है, वह भी 'वइसंजमे' (वचनसंयम) वचनगुप्ति, विकथा-त्याग, भाषासमिति
कभी-कभी विषाक्त एवं सत्त्वहीन हो जाता है। इसीलिए भगवान् (भाषा की सम्यक् प्रवृत्ति) आदि पर अत्यधिक जोर दिया है। महावीर ने कहा-"जो लोग नाना पकार के शास्त्रों (खाट विषाक्त आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है-जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति रसायन, कीटनाशक दवा आदि) से वनस्पतिकाय के जीवों का पासहा।'१२ जो सत्व को जानता है, वही मौन का महत्त्व जानता है।
समारम्भ करते हैं, वे उसके आश्रित नाना प्रकार के जीवों का भगवान् महावीर ने इसी दृष्टि से वायुकायिक हिंसा से बचने का । समारम्भ करते हैं।१३ अतः वनस्पति से होने वाले प्रदूषण एवं उपदेश दिया था।
पर्यावरण-असंतुलन से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
सन्दर्भ स्थल
सन्दर्भ स्थल १. जीवकाय संजमे अजीवकाय संजमे -समवायांग समवाय २ २. भगवद्गीता ३/११ ३. 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्।'
-तत्त्वार्थ सूत्र ५/२१ ४. स्थानांग सूत्र, स्थान. ५/सू.४४७ ५. पुढवीकायसंजमे अपकायसंजमे, तेउकायसंजमे, वाउकायसंजमे,
वणस्सइ-काय संजमे, बेइंदिय-संजमे, तेइंदिय-संजमे, चउरिदिय-संजमे, पंचिदिय-संजमे अजीवकाय-संजमे, पेहासंजमे, उवेहा-संजमे, अवहट्ट संजमे, पमज्जणासंजमे, मणसंजमे, बइ संजमे, काय संजमे।
-समवायांग सूत्र १७ वां समवाय ६. देखें आवश्यकसूत्र में १५ कर्मादानों का पाठ ७. "तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं
पुढवि-सत्थं समारंभोवेज्जा, नेवण्णे पुढविसत्थं समारभते समणुजाणेज्जा।"
-आचारांग १/१/३४ ८. "जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं
समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसई।" -आचारांगसूत्र १/१/२७
९. "जे लोग अब्भाइक्खति, से अत्ताणं अब्भाइक्खति।"
-आचारांग १/१/४/३२ १०. “इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि
अगणिकाय-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसति।" "संति पाणा पुढवि-णिस्सिता तण-णिस्सिता, पत्त-णिस्सिता कट्ठणिस्सिता गोमय-णिस्सिता कयवर-णिस्सिता, सांते संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति च।
_ -आचारांग १/१/४/३६-३७ "जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णेऽणेगरूवं पाणेविहिंसति।... संतिपाणाउदयणिस्सिया जीवा अणेगा।"
-आचारांग १/१/२/२५ १२. वही, १/१/४/५१ १३. आचारांगसूत्र १/१/५/४४
११.
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
पर्यावरण-प्रदूषण : बाह्य और आन्तरिक
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-श्री विनोद मुनिजी म. (अहमदनगर) भौतिक विज्ञान की करामात
अंग अविकसित और दुर्बल हो तो कार्य करने की क्षमता शरीर में वर्तमान युग विज्ञान युग कहलाता है। यह विकास और प्रगति ।
नहीं आ सकती। मनुष्य के दोनों पैर बराबर और मजबूत हों, तभी का युग माना जाता है। धरती पर बैलगाड़ी और घोड़े की सवारी
वह आराम से गति कर पाता है; अन्यथा उनसे चलने-फिरने में करने वाला मानव आज गगनगामी विमानों में पक्षियों की भाँति
बहुत दिक्कत होती है। उड़ान भरने लगा है। जब हम सुदूर अतीत में झाँकते हैं, तो हमें वर्तमान युग का मानव अशान्त क्यों? ऐसा प्रतीत होता है कि वह युग कितना पिछड़ा हुआ और
वर्तमान का मानव इसीलिये अशान्त, त्रस्त, तनावग्रस्त एवं अविकसित था। एक दृष्टि से सोचें तो वह आदिम युग जंगली युग
भयाक्रान्त बना हुआ है कि भौतिक विज्ञान आध्यात्मिकता की था, जिसमें विकास और प्रगति का नामोनिशान नहीं था। आज
उपेक्षा करके आगे बढ़ा है। इसीलिए मानवमन को कदम-कदम पर भौतिक विज्ञान ने प्रचुर अकल्प सुख-साधन-सामग्री का अम्बार
शंका-कुशंकाएँ घेरे रहती हैं। वर्तमान युग का मानव शान्ति के लगा दिया है। मनुष्य स्वप्न में भी जिन चीजों की कल्पना नहीं कर
बदले अशान्ति तथा चैन के बदले बेचैनी से जी रहा है। आज पाया था, उन वस्तुओं का आश्चर्यजनक रूप से निर्माण करके
आदमी में स्वार्थ, ईर्ष्या, भय, अविश्वास एवं अहंकार की वृत्तियाँ विज्ञान ने मानव को चमत्कृत कर दिया है। साधारण जनता की
फलती-फूलती जा रही हैं। एक समाज दूसरे समाज को और एक बुद्धि तो वहाँ तक पहुँच भी नहीं पाई है। उन्हें तो यह सब आश्चर्य
राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को गिराने में तत्पर है। एक-दूसरे के विकास को ही लग रहा है। यद्यपि जादूगर जादू के करिश्मे दिखाकर मानव-मन
देखना भी असह्य हो रहा है। धर्म-परम्पराओं और सम्प्रदायों में भी को प्रभावित कर देते हैं, किन्तु वे करिश्मे सुदीर्घकाल स्थायी नहीं
इसी तरह की संकीर्ण मनोवृत्ति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। होते। उनमें या तो हाथ की सफाई होती है, या हिप्नोटिज्म या मैस्मेरिज्म द्वारा दर्शकों की आँखों को या मन को मूर्च्छित कर दिया। आध्यात्मिकता के अभाव में समस्याएँ नहीं सुलझा पाता जाता है। ये सारे चामत्कारिक प्रयोग अल्पकाल के लिये ही मानवमन वर्तमान में, भौतिक विज्ञान की अन्धी दौड़ में मानव के पैर न को गुदगुदाते और प्रमुदित करते हैं। इसके विपरीत भौतिक विज्ञान तो धरती पर टिक पा रहे हैं और न ही आकाश पर। उसके सामने के एक से एक बढ़कर चमत्कार मानव मन पर चिरस्थायी प्रभाव आज जीवन की अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हैं, जिन्हें सुलझाने डालते हैं, उसे स्वयं उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी करा देते हैं। में उसका दिमाग कुण्ठित हो जाता है। वह जैसे-जैसे उन समस्याओं भौतिक विज्ञान का आध्यात्मिक क्षेत्र में पिछड़ापन
को सुलझाने का प्रयास करता है, वैसे-वैसे वे उलझती जाती हैं।
आध्यात्मिकता के अभाव में, या यों कहिये आत्मवत् सर्वभूतेषु मंत्र किन्तु हम देखते हैं कि यह विज्ञान भौतिक क्षेत्र में जितना दूत
के अभाव में भौतिक विज्ञान के घोड़े पर चढ़ा हुआ मानव किसी गति से आगे बढ़ा और अहर्निश बढ़ता ही जा रहा है, उसकी
भी समस्या को ठीक तरह से हल नहीं कर पाता है। उतनी द्रुतगामिता आध्यात्मिक क्षेत्र में नहीं आ पाई है। जो कुछ गति हुई है, वह भी बहुत ही नगण्य है, क्योंकि भौतिक विज्ञान का
____ बाह्य और आन्तरिक समस्या है-पर्यावरण प्रदूषण की। आज प्रमुख उद्देश्य और कार्यक्षेत्र भौतिक क्षेत्र ही रहा है। इसलिए
सबसे बड़ी और अहम समस्या है पर्यावरण के प्रदूषण की। बाह्य आध्यात्मिक दौड़ में वह पिछड़ता रहा है। भौतिक विज्ञान के ।
पर्यावरण के प्रदूषण से भी बढ़कर आन्तरिक पर्यावरण का प्रदूषण आध्यात्मिक क्षेत्र में पिछड़ेपन का अनिष्ट फल वर्तमान प्राणिजगत्
है, जिसे पाश्चात्य देशों के लोग तो कथमपि हल नहीं कर पाते। को ही भोगना पड़ रहा है।
पाश्चात्य देश भारतवर्ष को अध्यात्म-सम्पन्न मानकर इससे इस
समस्या को हल करने की अपेक्षा रखते थे, परन्तु अफसोस है कि विज्ञान और अध्यात्म दोनों पूरक व सहयोगी हैं
भारतवर्ष आज स्वयं ही बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के यह तो दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि विज्ञान और
पर्यावरण-प्रदूषणों से ग्रस्त है। पर्यावरण-प्रदूषण का प्रश्न आज केवल
पर्यावरण प्रदूषणा से ग्रस्त हा पयावरण प्रदूषण का प्रा अध्यात्म दोनों प्रतिस्पर्धी या विरोधी नहीं है, बल्कि ये दोनों एक राष्ट्र का नहीं रहा, आज वह सारे जगत् का प्रश्न बन गया है। एक-दूसरे के पूरक, सहयोगी और जीवन विकास के अंग हैं। जो भारतवासी लोग गंगा, यमुना, सरस्वती, गोमती, गोदावरी, जीवन-निर्माण में दोनों का अपना-अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन कृष्णा, कावेरी आदि नदियों को जलीय पर्यावरण प्रदूषण से रहित दोनों में से किसी एक को छोड़कर दूसरा अकेला चले तो पवित्र, मैया तीर्थरूप एवं लोकमाता मानते थे, उन्हान या भारत के मानवजगत पर जानबूझ कर आफत लाने जैसी बात होगी। जैसे नागरिकों ने इस तथ्य को नजरअंदाज करके धड़ल्ले से गंगा आदि SSDHC मानव शरीर में मस्तिष्क और हाथ दोनों का विकसित और सुदृढ़ पवित्र, लोकमाता रूप नदियों के किनारे बड़े-बड़े कल-कारखाने
होना अनिवार्य है। एक अंग विकसित और पुष्ट हो और दूसरा लगाकर उसमें दृषित एवं गंदा, रोगवर्द्धक जल डालकर अमृत को 900 उन्न यन PORATE
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विष मिश्रित-सा बना देने का कार्य किया है, कर रहे हैं। उन वायुमण्डल दोनों को दूषित और आच्छादित कर देते हैं। इस कारण महानदियों का पानी इतना दूषित हो चुका है कि वह पीने योग्य वहाँ के निवासियों और कारखानों के कर्मचारियों की जिंदगी उस नहीं रहा। पर इस ओर उन यंत्र जीवी लोगों का ध्यान बिल्कुल | प्रदूषण से रोगग्रस्त और अल्पायुषी हो जाती है। कुछ वर्षों पहले नहीं रहा. अगर उन भौतिक विज्ञान के अनुचरों में अध्यात्म का भोपाल में गैस रिसाव काण्ड तथा बम्बई में हुए बमकाण्ड आदि ने पुट होता तो वे प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव, बन्धुभाव और समस्त वायुमण्डल को प्रदूषित करके अनेक लोगों के प्राणहरण कर आत्मौपम्य भाव से सोचकर इस पर्यावरण प्रदूषण से बचते। जलीय लिये थे, जो व्यक्ति घायल हुए, वे भी अपंग, रोगग्रस्त या सत्त्वहीन प्रदूषण के कारण कितनी मछलियाँ और जल जन्तु मर जाते हैं। रह गए। कभी-कभी कहीं अग्निकाण्ड हो जाता है तो वह भी वायु के | महासंहारक अणु-बमों और उपग्रहों आदि समुद्रजल में जब परीक्षण पर्यावरण को प्रदूषित कर देता है। किया जाता है, तब पर्यावरण तो प्रदूषित होता ही है, प्राणिजीवन के नाश के साथ-साथ मौसम पर भी उसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ता
पर्यावरण दूषित होने से मानव स्वास्थ्य खतरे में है। इस कारण कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं सूखा, कहीं
पर्यावरण और मानव-स्वास्थ्य का गहरा सम्बन्ध है। विकसित भूकम्प और बाढ़, तूफान आदि प्राकृतिक प्रकोप होते रहते हैं। राष्ट्र जो सुचारु स्वास्थ्य के प्रति सदैव जागृत हैं, वर्तमान भौतिक
विकास के कारण होने वाले पृथ्वी, जल, वनस्पति एवं वायु में हुए देवता मानकर भी प्राकृतिक पदार्थों का पर्यावरण
पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से बहुत व्यथित हैं। इस प्रदूषण से पानी प्रदूषित करते हैं
दूषित, पृथ्वी दूषित और वायु दूषित हो रहा है, इतना ही नहीं, अति प्राचीन काल के वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थों-वेदों, मानव का तन और मन भी दूषित हो रहा है। आज पर्यावरण और ब्राह्मणों, पुराणों और उपनिषदों में जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, जन-स्वास्थ्य दोनों ही बाह्य प्रदूषण द्वारा नष्ट किये जा रहे हैं। जल, वनस्पति, आकाश आदि सभी को क्रमशः वरुण, वैश्वानर, मरुत, मिट्टी और वायु से निकलने वाले जहरीले प्रदूषणकारी तत्त्व श्वास भूमि, वनस्पति, वियत् आदि देव कहकर उनकी दिव्यशक्तियों से । लेते समय, खाते-पीते समय मानव शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यत्र-तत्र प्रार्थना की गई है। पृथ्वी को "माता भूमिः पुत्रोऽह प्रदूषण का स्तर काफी ऊँचा होता है या लम्बे समय तक कम मात्रा पृथिव्याः " (भूमि माता है, मैं भूमि का पुत्र हूँ) कहा है। आज वे ही में भी प्रदूषण एकत्रित होते रहते हैं तो ऐसे प्रदूषणों से कैंसर, गैस, आर्यों के वंशज पृथ्वी पर गंदगी, कूड़ा-कर्कट, मल-मूत्र तथा / दमा, क्षय, रक्तचाप आदि जैसे जान लेवा रोग भी हो सकते हैं।। कल-कारखानों का गंदा दूषित तथा रासायनिक पदार्थ मिला हुआ नदियों का जल विविध उद्योगों से निकले गंदे जल के मिलने से गंदा पानी आदि डालते हैं, अथवा पृथ्वी का पेट फाड़ने हेतु बड़े-बड़े हो जाता है, फिल्टर करने के बावजूद भी उस पानी को पीने से । विस्फोट करते हैं, डायनामाइट लगाते हैं, ये सब पृथ्वी सम्बन्धित अनेक उदररोग, गैसट्रबल एवं हृदय रोग तक हो जाते हैं। पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, भूमिमाता को उसके पुत्र (मानव) मानव-समाज का हर व्यक्ति एक-दूसरे से जुड़ा होने के कारण किसी। प्रदूषित करें, यह अशोभनीय है। अग्नि का पर्यावरण भी कम न किसी रूप में एक-दूसरे के काम आता है, वैसे ही प्रकृति रूप प्रदूषित नहीं है। कई लोग कचरे, वनस्पति, जंगल आदि में आग समाज का भी हर तत्त्व एक दूसरे से जुड़ा है। अतः प्रकृति के जल, लगाकर उनके आश्रित जीवों का संहार कर देते हैं, साथ ही सहारा वायु, भूमि आदि किसी भी तत्त्व में असंतुलन होगा, इनका सीमा से या जैसलमेर आदि रेगिस्तानों में अणु-अस्त्रों या उपग्रहों का परीक्षण अधिक उपभोग होगा, इनसे छेड़छाड़ होगी तो प्रकृति का ढाँचा टूटे | करते हैं, जिससे सारा पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। कई रोग फैल बिना न रहेगा और उसके दुष्परिणाम मानव जाति को भोगने पड़ेंगे। जाते हैं। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चुरट आदि धूम्रपान करके वायु-सम्बन्धित प्रदूषण बढ़ाते हैं। वनस्पति का प्रदूषण भी कम नहीं
बाह्य प्रदूषण और उससे होने वाली भयंकर हानि की आशंका है। जगह-जगह वन काटकर, वनस्पति को जलाकर अथवा ऐसी बाह्य प्रदूषण और क्या है? मनुष्य द्वारा होने वाले विविध रासायनिक दवाइयाँ डालकर केला, आम, पपीता आदि फल पकाते कार्यकलापों के कारण पर्यावरण में छोड़े गए गंदे, सड़े-गले, । हैं जिससे उसमें से बहुत-सा विटामिन निकल जाता है। वनस्पतियों से दुर्गन्धयुक्त रोगोत्पादक अवशिष्ट पदार्थ। इसी प्रदूषण के कारण जो ऐलोपैथिक दवाइयाँ बनाई जाती हैं, वे भी रुग्ण व्यक्ति के द्वारा मानव जाति आज प्रकृतिमाता के प्रति घोर अपराधिनी बन गई है। सेवन करने के बाद साइड एफेक्ट करती हैं, रिएक्सन भी करती हैं। यही कारण है कि उर्वरा भूमि के बंजर होने की शंकाएँ बढ़ रही हैं। यब सब वनस्पति प्रदूषण के कारण होता है। वायुप्रदूषण भी बड़े-बड़े । पंजाब के एक प्रमुख कृषि वैज्ञानिक ने कुछ ही महीनों पहले कहा शहरों के कल-कारखानों से निकलने वाले धुंए से फैलता है। पेड़ों की था-"पंजाब में जिस तरह की फसलें ली जा रही है, एवं धरती के कटाई के कारण वन और वन्य जीव लुप्त होते जा रहे हैं। झीलें। नीचे के पानी का जिस प्रकार से उपयोग किया जा रहा है, उसे सूखती जा रही हैं। नगरों के पास नदियों का पानी पीने योग्य नहीं है। देखते हुए यह संभावना है कि आगामी दशक में पंजाब जैसलमेर और न ही नगरों का पानी पीने योग्य रहा है। बोकारो, राउरकेला, जैसा बन सकता है। पंजाब की जमीन पूर्णतया ऊसर हो सकती है, रांची आदि नगरों में बड़ी-बड़ी धमण भट्टियों के कारण उनसे उठने । पानी भी पूरी तरह से सूख सकता है। शहरों की प्रदूषित वायु और वाला धुंआ और आग की लपटें वहाँ के सारे आकाश और जल जीवन रक्षण के बजाय जीवन भक्षण करने वाले बन सकते हैं। लयकामायणमायनकायमाए यायलयय
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
५७१ । समग्र मानव जाति को पर्यावरण सुरक्षा के लिए अपनी सम्पन्न दिखाई देने वाला देश भीतर से खोखला है, त्रस्त है, संकटजीवन शैली बदलनी होगी
ग्रस्त है, प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भयाक्रान्त है। मानव बुद्धि की ___ मानव में आज मानवता और अन्य प्राणियों के प्रति हमदर्दी । यह कितनी घोर विडम्बना है। अगर यही क्रम लगातार चलता रहा लप्त होती जा रही है। जैनदर्शन के दो माला नत्य-अहिंसा और तो मानव जाति एक दिन विनाश के कगार पर पहुँच सकती है। अपरिग्रह ही पर्यावरण के वाह्य प्रदूषणों को रोकने में सक्षम हैं। यदि फिर आँखें मल-मल कर रोने-धोने के सिवाय कोई चारा न रहेगा। हमें मानवजगत् को विनाश से बचाना है तो जीवनयापन की अपनी इसीलिए महर्षियों ने मानवपुत्रों को निर्देश करते हुए कहाशैली और गलत पद्धति को बदलना होगा। हमें 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त पर अपनी जीवन शैली चलानी होगी। अपना जीवन
'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्यवरान् निबोधत' सादा, संयमी, अल्पतम आवश्यकताओं वााला बनाना होगा; अन्यथा, 'हे आर्यपुत्रो! तुम उठो, जागो और वरिष्ठ मानवों के पास इन सार्वभौमिक मूल्यों की उपेक्षा करने से और इन सार्वजनिक पहुँचकर बोध प्राप्त करो।' जीवन सिद्धान्तों का उल्लंघन करने से विश्व में पर्यावरण-प्रदूषण
। इसी दृष्टि से भगवान् महावीर ने कहा-'उहिए, नो पमायए' 'हे बाह्यरूप से अधिकाधिक बढ़ता जाएगा। अगर हम अपने इस धर्म
देवानुप्रियो! तुम स्वयं उत्थान करो (उठो) प्रमाद मत करो।' और कर्तव्य से मुँह मोडेंगे तो अपने हाथों से अपने और समाज के जीवन को नरक बना डालेंगे। यह कार्य अकर्मण्य बन कर सोते रहने
आन्तरिक प्रदूषण मिटाना वैज्ञानिकों के बस की बात नहीं । से नहीं होगा। इस कार्य को करना सरकार के या समूह के बस की पर्यावरण के बाह्य प्रदूषण कदाचित् विविध वैज्ञानिक उपकरणों बात नहीं है, व्यक्ति को इसके लिए स्वयं ही कमर कसनी होगी। और साधनों से मिटाये भी जा सकें, किन्तु आन्तरिक प्रदूषणों को जल, वायु, भूमि, वनस्पति, आकाश आदि मानव के अभिन्न मित्रों मिटाना वैज्ञानिकों के बस की बात नहीं है। आन्तरिक प्रदूषण की हमें सदैव रक्षा करनी होगी। तभी पर्यावरण की रक्षा होगी। व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, धर्म-सम्प्रदाय, जाति, कौम आदि समाज के
सभी घटकों में किसी न किसी रूप में व्याप्त है। आन्तरिक प्रदूषण बाह्य प्रदूषणों से जन-जीवन खतरे में
मिटाये बिना केवल बाह्य प्रदूषण मिटाने भर से मानव जाति की हम देखते हैं, आज पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति से सख-शान्ति, समाधि और आध्यात्मिक समृद्धि की समस्या हल नहीं सम्बन्धित बाह्य प्रदूषणों से सभी राष्ट्रों का जनजीवन खतरे में पड़ हो सकती। गया है। जैनधर्म-दर्शन तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव मानता है। अतः इनके पर्यावरणों के बाह्य प्रदूषणों से
| आन्तरिक प्रदूषणों में सर्वाधिक भयंकर : अहंता-ममता उन-उन जीवों की हानि तो होती ही है, साथ ही उनके आश्रित रहे आन्तरिक प्रदूषणों में सबसे भयंकर प्रदूषण है-अहंकार और हुए अनेक त्रस जीवों की हानि का तो कोई पार ही नहीं है। बाह्य ममकार। अहं और मम इन दो शब्दों ने जगत् को अन्धा कर रखा प्रदूषणों की इस विकट समस्या के कारण भारत ही नहीं, विश्व के है। अहंता-ममता के कारण ही राग, द्वेष, मोह, ममत्व, ईर्ष्या, घृणा, सभी देश चिन्तित और व्यथित हैं। विश्व की बड़ी-बड़ी शक्तियाँ। वैर-विरोध, भेदभाव, फूट, विषमता, क्रोध, मान, माया, लोभ, पर्यावरण शद्धि के लिए करोड़ों-अरबो रुपये व्यय कर रही हैं. मद-मत्सर, स्वार्थान्धता आदि एक-एक से बढ़कर आन्तरिक प्रदूषण इसके प्रचार-प्रसार के लिये जगह-जगह विचारगोष्ठियों और फैलाते हैं। कहीं धन को लेकर अहंकार-ममकार है, तो कहीं जाति, सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। फिर भी जगत के जाने-माने भाषा, धर्म-सम्प्रदाय, परिवार या अपने स्त्री-पुत्र को लेकर अहंकार, देवा नहीवीसी पटण में जी रहे हैं। बादा पटषण से ममकार है, स्वत्व मोह है, स्वार्थान्धता है, कहीं बलवान और होने वाली शारीरिक व्याधियों से आम जनता आज बहुत ही
निर्बल, शिक्षित और अशिक्षित, निर्धन और धनवान्, सवर्ण और आक्रान्त है। बाह्य रोगों की चिकित्सा और रोग निवृत्ति के लिये असवर्ण, काले-गोरे, आदि द्वन्द्वों को लेकर विषमता है। एक ओर नई-नई खर्चीली पद्धतियाँ और नये-नये यंत्रों की आयोजना अपनाई । हीनता की ग्रन्थि है तो दूसरी ओर उच्चता की ग्रन्थि है। जा रही है, फिर भी नैसर्गिक आरोग्य प्राप्त नहीं होता।
लाघवग्रन्थि और गौरवग्रन्थि को लेकर आये दिन कलह, सिर
फुटोव्वल, दंगा-फिसाद आदि से आन्तरिक और बाह्य पर्यावरण आन्तरिक प्रदूषण बाह्य प्रदूषण से कई गुना भयंकर
प्रदूषित होते रहते हैं। मनुष्य अपनी मानवता को भूलकर दानवता ख कारण है-आन्तरिक प्रदूषण, जिसकी और और पाशविकता पर उतर आता है। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों का ध्यान बहुत ही कम है। आन्तरिक प्रदुषण से आन्तरिक (मानसिक-बौद्धिक) रोगों की चिकित्सा की
आन्तरिक प्रदूषण हृदय और मस्तिष्क पर कब्जा कर लेता है ओर बड़े-बड़े राष्ट्रों का भी ध्यान कम ही है। एक तरह से आधि किसी के पैर में कांटा चुभ जाए अथवा आँख में रजकण पड़ और उपाधि इन दोनों आन्तरिक प्रदूषणों से जनित समस्याओं को जाए तो जब तक निकाला न जाए, तब तक चैन नहीं पड़ता; इसी सुलझाने में प्रायः सभी देशों के नागरिक अक्षम हो रहे हैं। हिमालय प्रकार बाह्य प्रदूषण न होने पर भी इनमें से कोई भी आन्तरिक जितनी बड़ी भूल करते जा रहे हैं, वे लोग इसी कारण बाहर से प्रदूषण हो तो उसको चैन नहीं पड़ता, मन में अशान्ति, घुटन,
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तनाव, अनिद्रा, चिन्ता, बेचैनी आदि बढ़ते रहते हैं, कभी-कभी तो आन्तरिक प्रदूषण से हार्टफेल तक हो जाता है। बाहर से शरीर सुडौल, स्वस्थ और गौरवर्ण, मोटा-ताजा दिखाई देने पर भी आन्तरिक प्रदूषण के कारण अंदर-अंदर खोखला, क्षीण और दुर्बल होता जाता है। उस आन्तरिक प्रदूषण का बहुत ही जबर्दस्त प्रभाव हृदय और मस्तिष्क पर पड़ता है। इतना होने पर भी किसी को अपने धन-सम्पत्ति और वैभव का गर्व है, किसी को विविध भाषाओं का या विभिन्न भौतिक विद्याओं का, किसी को जप-तप का और किसी को शास्त्रज्ञान का किसी को बुद्धि और शक्ति का, किसी को अपनी जाति, कुलीनता और सत्ता का अहंकार है। इस कारण वे आन्तरिक प्रदूषण से ग्रस्त होकर दूसरों का शोषण करने, उनकी अज्ञानता का लाभ उठाने, उन्हें नीचा दिखाने को तत्पर रहते हैं।
आन्तरिक पर्यावरण के प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण : वृत्तियों की अशुद्धता
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आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण है, वृत्तियों का अशुद्ध होना। आज मनुष्य की वृत्तियाँ बहुत ही अशुद्ध हैं, इस कारण उसकी प्रवृत्तियाँ भी दोषयुक्त हो रही हैं। वृत्ति यदि विकृत है, दूषित है, अहंकार, काम, क्रोध, लोभ आदि से प्रेरित है तो उसकी प्रवृत्ति भी विकृत, दूषित एवं अहंकारादि प्रेरित समझनी चाहिए। बाह्य प्रवृत्ति से शुद्ध-अशुद्ध वृत्ति का अनुमान लगाना ठीक नहीं है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की बाह्य प्रवृत्ति तो शुद्ध-सी दिखाई देती थी, परन्तु वृत्ति अशुद्ध और विकृत थी । तन्दुल मच्छ की प्रवृत्ति तो अहिंसक -सी दिखाई देती थी, किन्तु उसकी वृत्ति सप्तम नरक में पहुँचाने वाली हिंसापरायण बन गई थी। विकृत वृत्ति आन्तरिक प्रदूषण को उत्तेजित करती है। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय में, ग्राम-नगर, प्रान्त में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की और दूसरे राष्ट्रों की उन्नति, विकास और समृद्धि से ईर्ष्या, द्वेष करता है, अविकसित देशों में गृह कलह को बढ़ावा देकर उनकी शक्ति कमजोर करने में लगे हैं। यह कुवृत्तियों के कारण हुए आन्तरिक प्रदूषण का नमूना है। अमेरिका में भौतिक वैभव, सुख-साधनों का प्राचुर्य एवं धन के अम्बार लगे हैं, फिर भी आसुरी वृत्ति के कारण आन्तरिक प्रदूषण बंढ़ जाने से अमेरिकावासी प्रायः तनाव, मानसिक रोग, ईर्ष्या, अहंकार, क्रोध, द्वेष आदि मानसिक व्याधियों से त्रस्त है। निष्कर्ष यह है कि अगर प्रवृत्तियों को सुधारना है तो काम, क्रोध आदि वृत्तियों से होने वाले आन्तरिक प्रदूषण का सुधारना अनिवार्य है। वृत्तियों में अनुशासनहीनता, स्वच्छन्दता, कामना-नामना एवं प्रसिद्धि की लालसा, स्वत्व-मोहान्धता आदि से आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषित है तो प्रवृत्तियां नहीं सुधर सकतीं। आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण का मूल स्रोत : राग द्वेषात्मक वृत्तियाँ
वस्तुतः राग-द्वेषात्मक वृत्तियाँ ही विभिन्न आन्तरिक पर्यावरणों के प्रदूषित होने की मूल स्रोत हैं। ये ही दो प्रमुख वृत्तियाँ काम, (स्त्री-पुं-नपुंसकदेवत्रय) क्रोध, रोष, आवेश, कोप, कलह,
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ अभ्याख्यान, पैशुन्य, मोह, परपरिवाद इत्यादि अनेक वृत्तियों की जननी हैं। भगवद् गीता के अनुसार क्रोध और इसके पूर्वोक्त पर्यायों से बुद्धिनाश और अन्त में विनाश होना स्पष्ट है। क्रोध से सम्मोह होता है, सम्मोह से स्मृति विभ्रम, स्मृति भ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से प्रणाश- सर्वनाश होना, आन्तरिक पर्यावरण के प्रदूषित होने का स्पष्ट प्रमाण है। क्रोधवृत्ति के उत्तेजित होने की स्थिति में व्यक्ति की अपने हिताहित सोचने की शक्ति दब जाती है। यथार्थ निर्णय क्षमता नहीं रह जाती। आत्मा पतनोन्मुखी बन जाती है। एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है-क्रोध करते समय व्यक्ति की आँखें (अन्तर्नेत्र) बंद हो जाती हैं, मुँह खुल जाता है। अतिक्रोध से हार्टफेल भी हो जाता है।
मानववृत्ति से आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण
क्रोध के बाद मानवृत्ति का उद्भव होता है। अहंकार, मद, गर्व, घमण्ड, उद्धतता, अहंता, दूसरे को हीन और नीच माननेदेखने की वृत्ति आदि सब मानवृत्ति के ही परिवार के हैं, जिनका वर्णन हम पिछले पृष्ठों में कर आए हैं। इस कुवृत्ति से मानव दूसरे को हीनभाव से देखता है, स्वप्रशंसा और परनिन्दा करता है, जातीय सम्प्रदायीय उन्माद, स्वार्थान्धता आदि होते हैं, जिससे आन्तरिक पर्यावरण बहुत ही प्रदूषित हो जाता है। साम्प्रदायिकता का उन्माद व्यक्तियों को धर्मजनूनी बना देता है, फिर वह धर्म के नाम पर हत्या, दंगा, मारपीट, आगजनी, धर्ममन्दिरों या धर्मस्थानकों को गिरा देने अथवा अपने धर्मस्थानों का शस्त्रागार के रूप में उपयोग करके, आतंकवाद फैलाने आदि के रूप में करता है। इस प्रकार के निन्दनीय घृणास्पद कुकृत्यों को करते हुए उसे आनन्द आता है। ऐसे निन्द्य कृत्य करने वालों को पुष्पमालाएँ पहनाई जाती हैं, उन्हें पुण्यवान् एवं धार्मिक कहा जाता है। यह सब आन्तरिक पर्यावरण को प्रदूषित करने के प्रकार हैं।
माया की वृत्ति भी आन्तरिक प्रदूषणवर्द्धिनी है
माया की वृत्ति भी आन्तरिक प्रदूषण बढ़ाने वाली है। यह मीठा विष है। यह छल-कपट, वंचना, ठगी, धूर्तता, दम्भ, मधुर भाषण करके धोखा देना, वादा करके मुकर जाना, दगा देना इत्यादि अनेक रूपों में मनुष्य जीवन को प्रदूषित करती है। झूठा तील माप, वस्तु में मिलावट करना, असली वस्तु दिखाकर नकली देना, चोरी, डकैती, बेईमानी करना, लूटना, परोक्ष में नकल करना, नकली वस्तु पर असली वस्तु की छाप लगाना, ब्याज की दर बहुत ऊँची लगाकर ठगना, धरोहर या गिरवी रखी हुई वस्तु को हजम करना, झूठी साक्षी देना, मिथ्या दोषारोपण करना, किसी के रहस्य को प्रगट करना, हिंसादि वर्द्धक पापोत्तेजक, कामवासनावर्द्धक उपदेश देना, करचोरी, तस्करी, कालाबाजारी, जमाखोरी करना, आदि सब माया के ही विविध रूप हैं। किसी को चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर अपने साम्प्रदायिक, राजनैतिक या आर्थिक जाल में फंसाना, चकमा देना, क्रियाकाण्ड का सब्जबाग दिखाकर या अपने सम्प्रदाय, मत, पंथ का बाह्य आडम्बर रचकर भोले-भाले लोगों को स्व-सम्प्रदाय मत या पंथ
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
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में आकर्षित करना; किसी को समकित या गुरु धारणा बदलवाकर हास्य (हंसी-मजाक) रति-अरति (विलासिता और असंयम के प्रति अपने गुरु की समकित देना या गुरु धारणा कराना माया का प्रपंच प्रीति, सादगी और संयम के प्रति अप्रीति) शोक (चिन्ता, तनाव, है। माया किसी भी रूप में हो वह हेय है, परन्तु माया करने में उद्विग्नता आदि) भय (सप्तविध भयाकुलता) जुगुप्सा (दूसरों के कुशल व्यक्ति को व्यवहार कुशल, वाक्पटु या प्रज्ञाचतुर कहा जाता प्रति घृणा, अस्पृश्यता, बदनाम करना, ईर्ष्या करना आदि) है। व्यावहारिक जगत् में तो वर्तमान में इस प्रकार की माया का कामवासना (वेदत्रयाभिलाषा) इत्यादि नोकषाय भी भयंकर बोलबाला है ही; धार्मिक जगत् भी इससे अछूता नहीं रहा। जैनागमों आन्तरिक प्रदूषण फैलाते हैं। में बताया गया है कि मायी मिथ्यादृष्टि होता है। माया की तीव्रता
अहंकार और मद के आन्तरिक प्रदूषणों के बढ़ जाने से क्षमा, होने पर मिथ्यात्व का उदय हो जाता है। संक्षेप में माया का
मृदुता, नम्रता, सरलता, सत्यता, शुचिता, मन-वचन-काय-संयम, आन्तरिक पर्यावरण को प्रदूषित करने में बहुत बड़ा हाथ है।
सुख-सुविधा के साधनों पर नियंत्रण, आत्मदमन, देव-गुरु-धर्म के लोभवृत्ति : सर्वाधिक आन्तरिक प्रदूषण वर्द्धिनी
प्रति श्रद्धा-भक्ति, ब्रह्मचर्य भावना, त्याग-तप की वृत्ति, निःस्पृहता आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाने में इन सबसे बढ़कर है- आदि आत्मगुणों का लोप होता जा रहा है। इसी कारण परिवार, लोभ। माया को उत्तेजित करने वाला लोभ ही है। लोभ के भी समाज, राष्ट्र, धर्म सम्प्रदाय आदि में परस्पर कलह, संघर्ष, शोषण अनेक रूप हैं। माया के अन्तर्गत गिनाये हुए समस्त प्रदूषण लोभ के आदि पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। सामान्यतया उपशम से ही प्रकार हैं। इसीलिए लोभ को हिंसादि अठारह पाप स्थानों का क्रोध का, मृदुता (नम्रता) से मान का, ऋजुता (सरलता) से माया। जनक-पाप का बाप बताया गया है। इच्छा, तृष्णा, लालसा, वासना, का और संतोष से लोभ का नाश करने का विधान है। कामना, प्रसिद्धिलिप्सा, पद लिप्सा, प्रतिष्ठा लिप्सा, जिह्वा लिप्सा
बाह्य और आन्तरिक प्रदूषणों को रोकने के लिए तीन उपाय आदि सब लोभ के प्रकार हैं। लोभ समस्त अनर्थों का मूल है। इन सबकी पूर्ति के लिए लोलुप मनुष्य बड़े से बड़ा कष्ट, संकट,
परन्तु दून बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के प्रदूषणों को विपत्ति, सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि की तकलीफ भी उठाने को तैयार
रोकने के लिए तीन तत्त्वों का मानव जगत् में होना आवश्यक है-al हो जाता है। स्वार्थान्ध या लोभान्ध मानव अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए (१) संयम, (२) समता और (३) समाधि। माता-पिता, भाई-भतीजा, पुत्र-पुत्री आदि को भी कुछ नहीं गिनता। असंयम ही पृथ्वी, जल आदि के बाह्य प्रदूषणों एवं क्रोधादि धन के लोभ के वशीभूत होकर अपनी पत्नी, पुत्रवधू आदि को भी
एवं रागादि वृत्तियों से होने वाले आन्तरिक प्रदूषणों को फैलाता है। जलाने, मारने प्रताड़ित करने को उतारू हो जाता है। लोभी मनुष्य
इन्हें रोकने के लिए संयम (आस्रवनिरोधरूप तथा विषय-कषायादि लज्जा, शिष्टता, ईमानदारी, धर्म आदि सबको ताक में रख देता है।
त्यागरूप) का होना आवश्यक है। धार्मिक स्थानों, मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, तीर्थों, चर्चों आदि में भी लोभ-लालचियों ने अपना अड्डा जमा लिया है। अपरिग्रहवृत्ति
इसके साथ ही विषमता, दानवता, पशुता और भेदभाव होने और नि:स्पृहता की दुहाई देने वाले सन्तों, महन्तों, साधु-संन्यासियों
वाले बाह्य और प्रत्येक सजीव निर्जीव पदार्थ के प्रति प्रियताको भी तृष्णा नागिन ने बुरी तरह डस लिया है। उन पर भी लोभ
अप्रियता, आसक्ति, घृणा, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से होने वाले का जहर चढ़ने से उनकी आत्मा मूर्छित हो रही है। अनुयायियों ।
आन्तरिक प्रदूषण के निवारणार्थ समता का होना आवश्यक है, एवं भक्तों तथा शिष्य-शिष्याओं की संख्यावृद्धि करने का लोभ का जिससे मानवमात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति समभाव, मैत्री आदि भत उन धर्म धुरन्धरों के सिर पर हावी हो रहा है। जिसके लिए भावना जगे तथा रागद्वेषादि विभावों से निवृत्त होने के लिए अनेक प्रकार के हथकंडे अपनाये जाते हैं। इसके लिए वीतरागता । ज्ञाता-द्रष्टाभाव, ज्ञानचेतना तथा समभाव जागे। एवं समता के मार्ग को भी दाव पर लगा दिया जाता है, धर्म
इसी प्रकार व्याधि, आधि और उपाधि से होने वाले बाह्य एवं सम्प्रदायों में परस्पर निन्दा पर परिवाद, अभ्याख्यान, द्वेष,
आन्तरिक प्रदूषणों के निवारणार्थ समाधि का होना आवश्यक है। वैर-विरोध आदि के पाप-प्रदूषणों का प्रसार भी क्षम्य माना जाता
समाधि से शान्ति, तनावमुक्ति, आन्तरिक सन्तुष्टि आत्महै। अध्यात्मजगत् में इन पर्यावरण प्रदूषणों के कारण शुद्धता, ।
स्वरूपरमणता, आत्मगुणों में मग्नता आदि अनायास ही प्राप्त होगी। पवित्रता, शुचिता एवं संतोषवृत्ति आदि आज मृतप्राय हो रही है।
समाधिस्थ होने के लिए जप, तप, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा, भावना । प्रमुख आन्तरिक प्रदूषणों के बढ़ जाने से
आदि आलम्बनों का ग्रहण करना आवश्यक है। भयंकर प्रदूषणों का प्रसार
इस त्रिवेणी संगम में मानव जीवन बाह्य एवं आन्तरिक इन चारों कषायों के होने वाले आन्तरिक प्रदूषणों के अतिरिक्त । प्रदूषणों से विमुक्त एवं शुद्ध होगा।
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१. क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति-विभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशी, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥ -भगवद् गीता अ.२
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पर्यावरण प्रदूषण और जैन दृष्टि
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में अन्यतम है। इसका प्रारम्भ कब और किसके द्वारा हुआ अथवा इस संस्कृति का बीजवपन किन द्वारा हुआ, इस प्रसंग में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भित्र-भित्र मत हैं। एक परम्परा वेदों को आदि ज्ञान मानती है और उन्हें ही भारतीय संस्कृति का मूल स्वीकार करती है। इसके विपरीत दूसरी परम्परा सृष्टि को अनादि मानकर वर्तमान संस्कृति का प्रारम्भ आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव से मानती है।
हम प्रायः अनेकानेक प्राचीन ग्रन्थों में ऋषि-मुनि शब्दों का प्रयोग एक साथ प्राप्त करते हैं। 'ऋषि' शब्द वैदिक परम्परा के तत्त्वज्ञानियों के लिए प्रयुक्त और मुनि' शब्द जैन परम्परा में आदरणीय तत्त्वदर्शियों के लिए व्यवहृत होता है। इन दोनों शब्दों का युग्म के रूप में प्रयोग देखकर यह मानना अनुचित न होगा कि भारतीय संस्कृति के बीज वपन से लेकर अधुनातन विकास पर्यन्त दोनों परम्पराओं का समान रूप से योगदान रहा है दोनों की अपनी-अपनी मान्यताएँ इतर परम्परा में इस प्रकार प्रतिबिम्बित हुई। हैं कि उन्हें बहुत बार अलग से देख पाना सम्भव नहीं है। अतएव मैं वैदिक परम्परा में प्राप्त कुछ संकेतों को भी जैन दृष्टि से पृथक् नहीं सोच सकती।
आलेख के प्रस्तुत विषय पर्यावरण की सीमा बहुत व्यापक है। इसमें जल, वायु, पृथ्वी, आकाश (ध्वनि), ऊर्जा और मानव चेतना आदि सभी को संग्रहीत किया जाता है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन इतिहास ग्रन्थ महाभारत में पर्यावरण के अन्तर्गत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ की गणना की गयी है।
वैदिक परम्परा में यु. अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, औषधि, वनस्पति और इनके बाद विश्वदेव नाम से पर्यावरण के अन्य अंगों की ओर संकेत किया गया है एवं इन्हें निर्दोष तथा शान्तिदायी (उपयोगी) बनाये रखने की कामना की गयी है। प्रकृति के उन तत्त्वों में विजातीय हानिकारक तत्त्वों के मिश्रण से प्रायः प्रदूषण उत्पन्न होता है, जिसे वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के नाम से जाना जाता है।
आधुनिक विचारकों ने पर्यावरण प्रदूषण के सामान्यतः आठ विभाग किये हैं- १. जल प्रदूषण, २. वायु प्रदूषण, ३. मृदा प्रदूषण, ४. ध्वनि प्रदूषण ५. रेडियोधर्मी ६. जैय प्रदूषण, ७. रासायनिक प्रदूषण और ८. वैद्युत प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण के इस विभाजन में प्रथम तीन तो वे आधार हैं, जिनमें प्रदूषण होता है तथा शेष पांच प्रदूषण के कारण हैं। पर्यावरण प्रदूषण के इन आठ विभागों
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
-डॉ. सुषमा
में वैचारिक प्रदूषण का (मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण) का परिगणन नहीं हुआ है। यद्यपि प्रदूषण के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्त्व इसका ही है। इसके अप्रदूषित रहने पर शेष के प्रदूषण की सम्भावना कम से कम होती है। वैचारिक प्रदूषण के अभाव से व्यक्ति निरन्तर सचेष्ट रहेगा कि उसके किसी भी व्यवहार से जल, वायु, भूमि, अन्तरिक्ष, द्यु आदि कोई भी प्रदूषित न होने पाएं। इस प्रकार वैचारिक प्रदूषण को सम्मिलित कर लेने से उसके भेदोपभेदों के कारण पर्यावरण प्रदूषण के अनेक प्रकार हो सकते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण का नाम लेने पर स्थूल रूप से हमारा ध्यान जल, वायु, पृथ्वी, अन्तरिक्ष आदि की ओर जाता है। प्राचीनकाल में जब भारतीय संस्कृति अपने तेजस्वी रूप में प्रतिष्ठित थी, उसके फलस्वरूप जन-जन के विचारों में शुद्धता, समता, परोपकारिता आदि गुण विद्यमान थे, उस समय पर्यावरण प्रदूषण की समस्या नहीं रही है। उस काल में अग्नि, जल, बाबु पृथ्वी आदि को देवता के रूप में अथवा माता के रूप में स्वीकार किया जाता था उनको परिशुद्ध बनाये रखने के लिए समाज अत्यन्त गतिशील था।
वर्तमान समय में जब मानव विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति करता हुआ प्रकृति और उसके अंग-पृथ्वी आदि के प्रति मातृत्व की भावना को भुला बैठा है और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा है, तो अनजाने ही उसके हाथों से प्रकृति के सभी अंगों का प्रदूषण प्रारम्भ हो गया है। फलतः आज प्रकृति का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि विचारशील वैज्ञानिक प्रदूषण के प्रसंग में चिन्तित हो उठे हैं और वे अनुभव करने लगे हैं कि प्रदूषण के फलस्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगा है। यदि यही क्रम रहा तो सम्भावना है कि अगले २७ वर्षों के अन्दर पृथ्वी के तापमान में न्यूनतम दो डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जायेगी, परिणामतः हिम पिघलकर जल के रूप में समुद्रों में इतना पहुँचेगा कि मालद्वीप जैसे द्वीप समुद्र की गोद में समा जायेंगे भारत, बांगला देश और मिश्र जैसे समुद्रतटीय देशों का अस्तित्व भी संदिग्ध हो जायेगा। विगत कुछ वर्षों में भी इस उष्णतावृद्धि के फलस्वरूप जो समुद्री तूफान बार-बार आये हैं, उनमें १९६३ में २२००, १९६५ में ५७००, १९७० में ५०,००० और १९८५ में 90,000 व्यक्ति अपना जीवन खो बैठे हैं। २९-३० नवम्बर १९८८ का तूफान भी प्रलयकारी रहा है। इनके अतिरिक्त अन्य छोटे-बड़े तूफानों में भी जो धन-जन की हानि हुई है, वह अत्यन्त भयावह तथा चौंकाने वाली है।
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पर्यावरण प्रदूषण के मूल कारण-जैसा कि पहले संकेत किया
पालन अणुव्रत और महाव्रत के रूप में निर्धारित किया गया है। जा चुका है कि स्थूल पर्यावरण प्रदूषण के पीछे वैचारिक प्रदूषण क्योंकि तत्त्वदर्शी तीर्थंकरों ने यह अनुभव किया कि यदि अहिंसा मुख्य कारण हुआ करता है और उस वैचारिक प्रदूषण में भी
का पालन न किया गया तो कालान्तर में प्रकृति के असंतुलन से संकुचित स्वार्थ, लोभ, विषयवासना और उसकी पूर्ति के लिए उत्पन्न भूमि, जल और वायु का प्रदूषण कभी भी प्रलयंकारी हो साधन एकत्र करने की प्रवृत्ति कारण हुआ करती है। फलस्वरूप
सकता है। प्रदूषित विचारों वाला मानव जीवहिंसा, मित्रवृत्ति का नाश, असंतुलित तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण आदि में प्रवृत्त
भगवान् महावीर ने पृथ्वीकाय की हिंसा का निषेध करते B RE होता है।
हुए कहा है-'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं
पुढवि सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवेणेगरूवे पाणे विहिंसई तं परिण्णाय 2000 जीवहिंसा-प्रकृति ने विविध जीव-जन्तुओं को इस रूप में
मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्यं समारंभेज्जा नेवऽण्णेहिं पुढवि-सत्थ उत्पन्न किया कि वे कभी परस्पर शत्रुता के कारण, कभी अपने
समारंभावेज्जा नेवण्णे पुढवि-सत्यं समारंभे ते समणुजाणेज्जा।'४ शरीर से निकलने वाली गन्ध के कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाये
अर्थात् नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त रखते हैं। उदाहरणार्थ, कृषि को हानि पहुँचाने वाले अनेक कीड़ों
होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार को मेढ़क और चूहे आदि समाप्त करते हैं किन्तु उनकी वृद्धि भी
के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। मेधावी पुरुष हिंसा के अधिक हानिकर हो सकती है, इसलिए प्रकृति ने सों को उत्पन्न
परिणाम को जानकर स्वयं पृथ्वी शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों कर दिया है, जो चूहों और मेढ़क आदि को आहार बनाकर
से उसका समारंभ न करवाये, उसका समारंभ करने वालों का PROOP संतुलन बनाये रखने में अपना योगदान करते हैं। सो की
| अनुमोदन भी न करे। आज अनेक प्रकार के खनिज पदार्थों के अधिकता भी भयावह हो सकती है, इसलिए मयूर, चील्ह आदि
लिए विशेषकर पत्थर के कोयले के लिए पृथ्वी का जबरदस्त पक्षी प्रकृति ने उत्पन्न किये हैं, जो सर्यों की संख्या को भी नियंत्रित
दोहन किया जा रहा है। पत्थर के कोयले के जलने, उसकी धूल, किये रहते हैं। वनों में उत्पन्न घास कई बार महत्त्वपूर्ण औषधियों
कार्बनडाईऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा कुछ अन्य और वृक्षों की वृद्धि में बाधक होती है, इसलिए प्रकृति ने हरिण
ऑर्गेनिक गैसों के रूप में प्रदूषणकारी पदार्थों की भरमार हो गयी बनाये हैं, जो चरकर बाधक तृणों को समाप्त करते हैं। किन्तु
है। यदि पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा बन्द कर दी जाये, तो 2000 हरिणों की संख्या यदि अधिक हो जाए, तो वे खेतों की फसलों
कोयला तो बचेगा ही, वायु प्रदूषण पर भी नियंत्रण किया जा और तमाम उपयोगी पेड़-पौधों को नष्ट कर सकते हैं, उनके तथा
सकेगा। इस प्रकार पृथ्वीकाय की हिंसा केवल पृथ्वीकाय की हिंसा इसी प्रकार अन्य पशुओं के नियमन के लिए प्रकृति ने भेड़िया,
ही नहीं है, अपितु उसके साथ वातावरण के संतुलन का भी चीता, तेन्दुआ, बाघ और सिंह जैसे मांसाहारी पशुओं की रचना
कारण है। की है। इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली सिंहों का उपद्रव पीड़ादायी न हो, इसलिए एक तो उनकी संख्या कम रहती है एवं दूसरे प्रकृति ने ए जीवनमित्र वृक्षों का नाश (वानस्पतिक प्रदूषण)-पर्यावरण के 0 a4 उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है कि वे क्षुधित होने पर ही किसी । संरक्षण में वृक्षों का सर्वाधिक महत्त्व है। सामान्य रूप से वृक्ष प्राणी की हिंसा करते हैं, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जल में मल को मनुष्यों के द्वारा दूषित वायु के रूप में निष्कासित अथवा प्रकृति समाप्त करने के लिए प्रकृति ने छोटी-छोटी मछलियों, केकड़ों, शंख, के भिन्न-भिन्न तत्त्वों के संसर्ग से स्वतः उत्पन्न होने वाली कछुआ आदि जलचरों की रचना की है और उन जलचरों में भी कार्बनडाइऑक्साइड आदि गैसों को आहार के रूप में ग्रहण करते उत्तरोत्तर दीर्घकाय तिमि, तिमिंगिल, तिमिंगिलगिल और ह्वेल आदि । हैं और उनसे सुपुष्ट होते हैं। इसके बदले में वे मानव-जीवन के जलचरों को भी उत्पन्न किया है।
लिए अत्यन्त आवश्यक ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिसके फलस्वरूप सामान्य पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की यह
वायु में प्रदूषण उत्पन्न नहीं हो पाता। कार्बनडाइऑक्साइड ग्रहण
वायुम प्रदूषण उत्प व्यवस्था रही है। परन्तु स्वार्थी मानव कभी जिह्वा के स्वाद के लिए
करने का यह कार्य वृक्ष प्रायः रात्रि में करते हैं और प्रातः कभी शारीरिक शक्ति प्राप्त करने के नाम पर, कभी सौन्दर्य
ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पीपल आदि वृक्ष ऐसे भी हैं जो मानों प्रसाधन के लिए और कभी घर की साज-सज्जा के लिए इन
ऑक्सीजन के भण्डार हैं और वे रात्रि में भी प्रभूत मात्रा में जीव-जन्तुओं की हिंसा करने में प्रवृत्त हो गया। यह जीवहिंसा ऑक्सीजन विसर्जित करते हैं। नीम, अशोक आदि कुछ वृक्ष ऐसे उत्तरोत्तर बढ़ती गयी और आज भूमि, जल और वायु का प्रदूषण हैं, जो अन्य अनेक प्रकार के वायुगत प्रदूषणों को समाप्त करके बढ़ाने में हेतु बन गयी। जैन आचार संहिता में श्रावक और श्रमण पर्यावरण, में संतुलन बनाये रखते हुए मनुष्य को स्वास्थ्य प्रदान दोनों के लिए अपने कर्त्तव्य और सामर्थ्य के अनुरूप अहिंसा का करते हैं।
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न्यान्मएडयालय
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वृक्षों का एक और महत्त्व भी है। वे भोजन के लिए अपनी जिन जड़ों के द्वारा भूमिगत जलग्रहण करते हैं, उन्हीं जड़ों के द्वारा भूमि को बांधने का भी काम करते हैं, जिससे भूमिक्षरण नही होता। फलतः भूमिक्षरण से होने वाले प्रदूषण से सुरक्षा हो जाती है। पीपल, बांस आदि वृक्ष इस दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। भूमि के कटाव को रोकने के लिए इनका योगदान अविस्मरणीय है।
पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दृष्टि से वृक्षों का एक कार्य और महत्त्वपूर्ण है, यह है वायु की गति में अवरोध उत्पन्न करके बादलों को बरसने के लिए विवश करना। जहाँ वृष्टि से वृक्ष, वनस्पति बढ़ते हैं, फलते-फूलते हैं, वहीं उपर्युक्त प्रकार से वृक्ष वर्षा के प्रति कारण भी बनते हैं। इसके साथ ही वर्षा के माध्यम से भूमि पर आये हुए जल को सम्भाल कर रखने में भी वृक्षों और वनस्पतियों का बड़ा योगदान है।
जीव-जन्तुओं को सुरक्षित रखने के क्रम में वृक्षों का महत्त्व सर्वाधिक है। वृक्षों से प्राप्त फल, बीज, पुष्प और पत्र आहार के रूप में तथा सूखे काष्ठ इंधन के रूप में मनुष्य के आहार का सम्पादन करते हैं। अनेक वृक्ष और वनस्पतियाँ अपने विविध अंगों | के माध्यम से शरीरगत रोगों के निवारण में अपूर्व योगदान करती हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति में तो लगभग ७५% से अधिक औषधियों वृक्षों वनस्पतियों से प्राप्त उपादानों से ही निर्मित होती हैं। रोगनिवारण के क्षेत्र में उत्तरकालीन हानिरहित जो योगदान वानस्पतिक उपादानों का है, उसकी तुलना में अन्य स्रोतों से प्राप्त उपादान अपना कोई महत्त्व नहीं रखते।
विगत कुछ दशाब्दियों में वृक्षों का संहार करते हुए वनसम्पदा का जिस प्रकार दोहन विकसित कहे जाने वाले देशों द्वारा किया गया है, उस से आज पर्यावरण सम्बन्धी विभीषिका इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य को उसका कोई उपाय खोजने पर भी नहीं मिल रहा है।
जैन परम्परा में इस यथार्थ को समझते हुए वृक्षों के प्रति आत्मीयता की ही नहीं, पूजनीयता की भावना प्रतिष्ठित की गयी है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस परम्परा में सर्वाधिक महनीय भगवान् के रूप में आदरणीय तीर्थंकरों की तीर्थंकरत्व (केवलज्ञान) की प्राप्ति में वृक्षों की छाया का अतिशय योगदान रहा है, जिसके फलस्वरूप तीर्थंकरों की चर्चा करते हुए उनके नाम के साथ उस वृक्ष विशेष का नाम सदा स्मरण किया जाता है। जिसके नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। ५
जैन परम्परा के अनुसार वृक्ष मानवजीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। भोजन, वस्त्र, अलंकरण, आवास, मनोरंजन आदि सभी कुछ इनसे प्राप्त होता है। फल-फूल, पत्र, कन्द आदि के रूप में ये भोजन देते हैं, पत्र छाल और इनके
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
रेशे कपास एवं आक आदि के फल से प्राप्त रुई से हमें वस्त्र आदि के रूप में आच्छादन प्राप्त कराते हैं। वृक्षों के पत्र और पुष्प तथा उन (वृक्षों) से उत्पन्न लाख शृंगार के उपादान बनकर मानव को विभूषित करते हैं। पेड़ों की टहनियों, शाखाओं और पत्तों आदि से मनुष्य अपना आवास बनाता है, तो उनके कोटरों में शुक आदि पक्षी और अनेक जीव-जन्तु वास करते हैं। कुछ पक्षी शाखाओं पर अपने नीड स्थापित करते हैं तथा अधिकांश वनचर जीव, अनेक बार मनुष्य भी वृक्षों की छाया में विश्राम प्राप्त करते हैं। सामान्य बांसों से निर्मित वंशी, असन (विजयसार) के काष्ठ से बने हुए मृदंग, तबले, वीणा आदि संगीत के साधन बनकर मनुष्य का मनोरंजन करते हैं। कीचक नामक बांस विशेष तो स्वयं ही वन में मधुर संगीत उत्पन्न करता हुआ मानव मन की व्यथा और श्रम का हरण करता है । ६ इस प्रकार वृक्ष मानव की दो-चार नहीं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होते हैं इसीलिए जैन मनीषियों ने वृक्षों के कल्पवृक्ष स्वरूप को पहचानते हुए उन्हें प्रतिष्ठित किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अवसर्पिणी काल के सुषमा- सुषमा विभाग में केवल कल्पवृक्षों को ही मनुष्य की समस्त जरूरतों की पूर्ति करने वाला स्वीकार किया है और व्याख्या करते हुए मानव की दस प्रकार की आवश्यकताओं तथा उनके पूरक दस प्रकार के कल्पवृक्षों की कल्पना की है । ७ जैन आचार्यों की इस कल्पना को न केवल ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों में स्वर्ग में कल्पवृक्ष की स्थिति का वर्णन किया गया है, अपितु कालिदास जैसे महाकवियों ने शकुन्तला जैसी नायिकाओं के शृंगार के लिए वृक्षों से ही अंगराग, क्षौमवसन एवं विविध प्रकार के आभरणों की प्राप्ति का भी वर्णन किया है।
वृक्षों की इस महिमा को स्वीकार करते हुए ही जैन परम्परा में चैत्यवृक्षों के नाम से वृक्षों को अत्यन्त पूजनीय स्वीकार किया गया है। इन वृक्षों में आरोग्यदायी, आनन्ददायी भोजनदायी और अन्य प्रकार के इन्द्रिय सुख देने वाले अशोक, सप्तपर्ण, आम्र, चम्पक वृक्ष प्रतिनिधिभूत हैं। इन चैत्यवृक्षों के प्रति जैनपरम्परा में सर्वाधिक आदर है, केवल तीर्थंकर ही इनसे अधिक आदर के पात्र हो पाते हैं । १० जैन परम्परा में स्वीकृत वृक्षों के प्रति आदरपूर्ण प्रेम भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग सा बन गया है। तभी कालिदास की शकुन्तला कण्व - आश्रम के वृक्षों के प्रति सोदर स्नेह रखती है११ और उनकी ही पार्वती वृक्षों को पुत्र के रूप में हेमघटों से स्तन्यपान कराती हैं। शिव भी उन वृक्षों में पुत्र भाव रखते हैं। १२ वृक्षों के प्रति अतिशय अनुराग के कारण नवयुवतियां अपना श्रृंगार छोड़ सकती हैं किन्तु उनके प्रति अनुराग में शिथिलता नहीं आने देती |१३
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वृक्षों के प्रति देव, मानव और सामान्य प्राणी इन तीनों के अनुराग की सूचना हमें जैन पुराणों में प्राप्त देवारण्य, देवरमण,
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मानुषोत्तर, प्रमद, सौमनस, सहायक, नागरमण, भूतरमण आदि वन तथा वायु प्रदूषण के शिकार हो गये। वनविहीन क्षेत्रों के निवासी नामों से भी मिलती है।१४
बर्बर, क्रूर और हिंसक होते हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में ऑक्सीजन की इन सब संदर्भो के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा
कमी हो जाती है, परिणामतः शारीरिक और मानसिक रूप से कई सकता है कि जैन दृष्टि से प्रभावित भारतीय संस्कृति में
रोग पनपते हैं। तात्पर्य यह है कि वनों के कटने से प्राकृतिक वृक्षों को जीवन का मित्र माना गया है। पेड़-पौधों की अहिंसा
संतुलन में विषमता आ जाती है। वनस्पतिकाय की हिंसा के अनेकमनुष्य के अपने जीवन के लिए भी अनिवार्य है। इसी कारण
विध दुष्परिणाम होते हैं-प्राणवायु का नाश, भूक्षरण को बढ़ावा, प्राचीनकाल में भारतभूमि शस्यश्यामला रही है। यहाँ फल और
भूमि की उर्वराशक्ति का घटना, वर्षा के अनुपात में कमी, कन्दमूल का भण्डार रहा है तथा वृक्ष-वनस्पतियों पर ही ।
जनजीवन के विनाश में तीव्रता आदि। आश्रित होकर जीने वाले गो आदि पशुधन की समृद्धि से। औद्योगिक प्रदूषण-भूमि आदि प्रकृति के सभी अंगों का घी-दूध आदि की नदियां बहती रही हैं। सम्प्रति न केवल पौष्टिक सर्वाधिक प्रदूषण आधुनिक विज्ञान पर आश्रित उद्योगों के कारण आहार (दूध-घी आदि) अपितु सामान्य खाद्य पदार्थों के अतिशय होता है। यह प्रदूषण सर्वाधिक तीव्र और भयानक है। इस प्रदूषण अभाव का कारण जीवनमित्र वृक्षों का नाश ही है। वर्षा का को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं। (१) उद्योगों से अभाव, बाढ़ से फसलों का विनाश, भूस्खलन से जन और धन की अपसृष्ट कचरा, जो जल, वायु अथवा भूमि को प्रदूषित करता है। बर्बादी आदि सभी आपदाएँ जीवनमित्र वृक्षों के नाश के कारण ही (२) उद्योगों से प्रसूत उपभोग सामग्री, जो विविध प्रकार की गैसों उत्पन्न हुई हैं।
का विसर्जन करके वायुमंडल में प्रदूषण पैदा करती है। जोधपुर विश्वविद्यालय में वानस्पतिक प्रदूषण के सम्बन्ध में (१) औद्योगिक अपसृष्ट (कचरा)-उद्योगों से कई प्रकार का आयोजित एक गोष्ठी में बोलते हुए प्रो. जी. एम. जौहरी ने कहा अपसृष्ट (कचरा) निकलता है। कोयला, डीजल, पेट्रोल अथवा था-पेड़ पौधों से ही पृथ्वी पर जीवन है। वनस्पति के बिना जैविक यूरेनियम का ईंधन के रूप में प्रयोग करके चलायी जाने वाली प्रक्रिया असम्भव है। जैविक संतुलन बनाये रखने के लिए मशीनों से विविध प्रकार की गैसे निकलती हैं, जिनमें सर्वप्रमुख पीध-संरक्षण आवश्यक है। सचमुच वनस्पति मनुष्य के लिए अनेक कार्बनडाइऑक्साइड और कार्बनमोनोऑक्साइड हैं। ये गैसें दृष्टियों से वरदान है। संसार में जितना प्राणवायु है, उसका बहुत प्राणशक्ति (जीवन शक्ति) को नष्ट करती हैं। इसके अतिरिक्त बड़ा भाग वनस्पति से ही उत्पन्न होता है। यतः मानव जीवन कार्बनडाइऑक्साइड गैस सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने तो वनस्पति पर आधारित है, वही मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं देती है किन्तु वापिसी में गर्मी के कुछ भाग को पृथ्वी पर रोक लेती की पूर्ति करती है उसका विनाश व्यक्ति का अपना स्वयं का विनाश । है। यह क्रिया क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस में सौ गुनी अधिक है। है। इसीलिए आज प्राणवायु की दृष्टि से भी वनों की कटाई रोकने । ग्रीनहाउस गैसों की स्थिति और भयावह है। इनके कारण पृथ्वी तल और पौधों को संरक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। निश्चय ही के वनों का निरन्तर ह्रास हो रहा है। अब तक १.१ करोड़ हेक्टेयर आज वनस्पति-सम्पदा का जिस तरह विनाश हो रहा है, वह एक वनों का नाश हो चुका है। फलतः वायुमण्डल का सन्तुलन बिगड़ चिन्ता का विषय है। पेड़-पौधों की लगभग ५00 प्रजातियां नष्ट हो रहा है। गयी हैं। इसी प्रकार वनस्पति के विनाश से रेगिस्तान का जो
उद्योगों से प्रसूत गैसों के कारण ही सूर्य और पृथ्वी के बीच विस्तार होता है, वह भी एक भयंकर समस्या है। रेगिस्तान का
सुरक्षा कवच के रूप में स्थित ओजोन परत का क्षरण हो रहा है, विकास मानव द्वारा किया गया है और वह उसके अपने अस्तित्व
जो अत्यन्त भयावह है। ओजोन परत के विच्छिन्न होने के कारण के लिए भी खतरा सिद्ध हो रहा है।
पृथ्वीवासियों के अस्तित्व पर भी भय की छाया मंडराने लगी है। वनस्पति की हिंसा का तीव्र विरोध करते हुए आचारांग में सूर्य से निरन्तर पराबैंगनी किरणों का विकिरण होता है, ओजोन भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई साधक स्वयं वनस्पतिकायिक उन्हें रोकने के लिए कवच का कार्य करती है। सामान्य स्थिति में जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है या करने की | अविच्छिन्न ओजोन पराबैंगनी किरणों से टकराकर ऑक्सीजन में अनुमति देता है, वह हिंसा उसके स्वयं के लिए अहितकर होती है। बदल जाती है। ये किरणें पुनः ऑक्सीजन से टकराती हैं और आवश्यकता इस बात की है कि हम महावीर की क्रान्त दृष्टि ओजोन का निर्माण होता है। इस प्रकार सन्तुलन बना रहता है। वनस्पतिकाय की अहिंसा को युगीन सन्दर्भ में गम्भीरतापूर्वक पृथ्वी पर ऑक्सीजन का मुख्य स्रोत ओजोन ही है। पराबैंगनी समझाकर उसे एक नया अर्थबोध दें। इतिहास साक्षी है कि जहाँ भी किरणे अत्यन्त शक्तिशाली और इसी कारण अतिशय भयानक होती वन समाप्त हुए वहाँ संस्कृतियाँ और समाज समाप्त हो गये, क्योंकि } हैं। उनके संस्पर्श से शरीर की सुरक्षा-व्यवस्था समाप्त हो सकती है। वृक्षविहीन धरती रेगिस्तान में बदल गयी और समाज भूख, प्यास शरीर में कैंसर, आँखों के रोग आदि भयावह रोगों का जन्म हो
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सकता है। वर्तमान में ओजोन कवच के छिद्रयुक्त होने से कैंसर करता है।१९ जल की इस अमृतमयता को सुरक्षित रखने के लिए रोगियों की संख्या में छः प्रतिशत वृद्धि हुई भी है।
जहाँ कौटिल्य अर्थशास्त्र में जल का प्रदूषण करने वाले को कठोर उद्योगों से अपसृष्ट कुछ गैसों से वातावरण का अम्लीकरण भी
दण्ड देने की व्यवस्था दी गयी थी वहीं समाज के मार्गदर्शकों ने भयंकर परिणाम देता है, इसके फलस्वरूप जर्मनी के वन उजड़ रहे । नदियों में सोने-चाँदी और ताँबे के सिक्के डालने की प्रथा धर्म के हैं, उत्तरी अमेरिका की झीलें सूख रही हैं, ब्राजील की कृषिभूमि रूप में प्रारम्भ करवा दी थी, जिससे अनजाने जल में होने वाला अनुपयोगी होती जा रही है और ताजमहल जैसे भव्य ऐतिहासिक प्रदूषण दूर हो सके और उसकी गुणवत्ता न केवल सुरक्षित रहे भवन बदरंग होते जा रहे हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपितु बढ़ती भी रहे। स्मरणीय है कि सुवर्ण के सम्पर्क में आया वातावरण में विद्यमान इन अम्लों के अधिक बढ़ जाने पर वे वर्षा हुआ जल कीटाणुरहित होकर हृदय के रोगों से सुरक्षा प्रदान करता के साथ भूमि पर आते हैं, उस समय कभी तो सल्फ्यूरिक एसिड, है और ताम्बे के संसर्ग से वह उदर रोगों को दूर करने वाला हो कभी हाइड्रोक्लोरिक एसिड और कभी नाइट्रिक एसिड की मात्रा | जाता है। इसी प्रकार रजत से भावित जल श्वांस संस्थान सम्बन्धी इतनी अधिक होती है कि उपर्युक्त हानि के अतिरिक्त प्राणियों के रोगों का निवारण करता है। सामान्य स्वास्थ्य पर भी भयंकर प्रभाव प्रकट होते हैं। इन अम्लीय । इसके अतिरिक्त उद्योगों में प्रयोग के लिए विविध प्रकार की वर्षा से नदियों का जल भी प्रदूषित हो जाता है।
गैसों का भण्डारण होता है। अनेक बार उन भण्डारित गैसों का औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला अपसृष्ट जल इतना
रिसाव अथवा विस्फोट आकस्मिक रूप स पर्यावरण को इतना कचरा लेकर नदियों में पहुँचता है कि उनका जल पीने को कौन प्रदूषित कर देता है कि लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना कहे, सिंचाई के योग्य भी नहीं रह जाता। इस समय देश में । पड़ता है। १९८४ में भोपाल कांड, १९८६ में उक्रेन स्थित सर्वाधिक दूषित जल यमुना नदी का है, जिसके वैज्ञानिक अध्ययन चेरनोबिल विस्फोट और १९८६ में ही राइन नदी की भयंकर आग से पता चला है कि यमुना के प्रति १०० मिलिलीटर जल में आदि की उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
७,५00 कौलिफार्म बैक्टीरिया हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त (२) उद्योगों से प्रसूत उपभोग-सामग्री से प्रदूषण-उद्योगों द्वारा Dosto हानिकारक हैं एवं अनेक रोगों को जन्म देने वाले हैं। इसी प्रकार | मानव के उपभोग के लिए जो विविध उपादान तैयार किये जाते हैं,
बम्बई के निकट कल्याण अम्बरनाथ और उल्हासनगर के उद्योगों से । वे स्वयं में भी अनेक प्रकार का प्रदूषण पैदा करते हैं। इनमें निकलने वाले दूषित जल का वैज्ञानिक परीक्षण करने पर पाया शृंगार-प्रसाधन आदि कुछ पदार्थ ऐसे हैं, जो अत्यन्त सीमित क्षेत्र में
गया कि उल्हास नदी में प्रतिवर्ष १,१०० किलोग्राम ताँबा, । प्रदूषण पैदा करते हैं और उनका प्रभाव मुख्यरूप से उनका उपभोग Ja %88७,000 किलोग्राम सीसा, ४ लाख किलोग्राम जिन्क, ७,000 करने वालों पर पड़ता है। इसी श्रेणी में केश को काला करने वाले
कि. ग्रा. पारा और ५०० कि. ग्रा. क्रोमियम के कण प्रवाहित होते खिजाब को लिया जा सकता है, जो चर्मरोगों को तो उत्पन्न करता हैं, जो प्रत्यक्षतः विष हैं। शराब की फैक्टरियों से निकलने वाले ही है, कभी-कभी कैंसर का भी जन्मदाता हो जाता है। सिगरेट, जल में क्लोराइड, नाइट्रेट, फास्फेट, पोटेशियम और सोडियम के सिगार आदि पदार्थ उपभोग करने वाले के साथ पड़ोसी को भी कण होते हैं, जो नदियों के जल को ही नहीं, अपितु तालाबों और हानि पहुँचाते हैं। यद्यपि उनसे वायुमण्डल का प्रदूषण सीमित मात्रा
कुओं के जल को भी प्रदूषित कर देते हैं। उद्योगों से निकला हुआ में ही होता है। कार, स्कूटर, हवाई जहाज आदि ऐसे भोग साधन D.SED यह अपस्रष्ट (कचरा) जल के साथ-साथ भूमि को भी प्रदूषित हैं, जिनमें पेट्रोल का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है और उस SEARD करता है और उसकी उत्पादक शक्ति को क्षीण या समाप्त कर ईंधन के प्रज्वलन के अनन्तर कार्बनमोनोऑक्साइड आदि गैसें देता है।
निकलती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। दिल्ली, पानी का प्रदूषण चाहे तालाब में हो, चाहे नदी में, अन्ततः वह बम्बई, वाशिंगटन, न्यूयार्क और लन्दन आदि महानगरों में इन 4 समुद्र में ही मिलता है, इससे प्राणवायु के उत्पादन का सन्तुलन
भोगसाधनों के द्वारा जो प्रदूषण उत्पन्न हुआ है, वह इस बात का बिगड़ता है। भगवान् महावीर ने कहा है-तंसे अहियाई तंसे
प्रमाण है। इसी प्रकार सीमेंट, सीमेंट निर्मित चादरें आदि से अबोहिये अर्थात् जल की हिंसा मनुष्य के अहित तथा अबोधि का निकलने वाली गैसें भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर हैं, इस पर 0 कारण है। जल के सम्बन्ध में प्राचीनकाल से स्वीकार किया जाता है वैज्ञानिकों ने अनेक बार अपने मत प्रकट किये हैं।
कि जल अमृत का ओढ़ना और बिछौना (आस्तरण अपिधान) दह नगर प्रदूषण-उद्योगों के विस्तार के फलस्वरूप विगत वर्षों में 32 है।१५ यह अभीष्ट फलों को देने वाला है और सबका पालन करने ग्रामीण जनता का नगरों की ओर आकृष्ट होना प्रारम्भ हो गया है,
वाला है।१६ यह सुख और ऊर्जस्विता प्रदान करता है।१७ यह । परिणामतः छोटे कस्बे नगरों में और नगर महानगरों में परिवर्तित R 0 विश्व का शिवतम् रस है,१८ जो दीर्घायुष्य और वर्चस्व प्रदान होते जा रहे हैं। ग्रामों में जहाँ सामान्यतः दो-ढाई सौ से लेकर
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
५७९ ।
दो-ढाई हजार तक आबादी होती है, वहाँ महानगरों की जनसंख्या अधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं कि वे किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के करोड़ों तक पहुँच रही है। इन महानगरों में एक स्थान से दूसरे कानों को बहरा कर देने के लिए पर्याप्त हैं। विगत २५-३० वर्षों स्थान की दूरी भी बहुधा ५०-६० कि. मी. तक पहुँचने लगी है। से आकाशवाणी और दूरदर्शन का प्रसार होने के बाद कुछ श्रोता सेवा-संस्थानों तथा औद्योगिक इकाइयों में कार्यरत व्यक्तियों को उनका प्रयोग इस प्रकार तीव्रतम ध्वनि (Full Volume) के साथ लम्बी दूरी तय करने के लिए स्कूटर, कार, बस आदि वाहनों की करते हैं कि पास-पड़ोस के कम से कम चार-पांच घरों में शान्त आवश्यकता आ पड़ी है। इन महानगरों में वानस्पतिक (पेड़-पौधों बैठकर एकाग्रतापूर्वक कोई किसी कार्य को सम्पन्न करना चाहे, तो वाले) वनों के स्थान पर कंकरीट के जंगल (ऊँची-ऊँची।
वह सम्भव नहीं है। होली आदि पर्व, विवाहादि पारिवारिक उत्सव अट्टालिकाएँ) तैयार होने लगे हैं जिनमें मनुष्य घोंसलों में पक्षी की
अथवा रामायण, कीर्तन, देवीजागरण आदि धार्मिक उत्सवों पर तरह रहने को विवश हो रहा है। फलतः ग्रामों की तुलना में नगरों
ध्वनिविस्तारक यन्त्रों का इस बहुतायत के साथ प्रयोग होने लगा है। में वायवीय पर्यावरण प्रदूषण अत्यधिक मात्रा में होता है।
कि उसकी तीव्रता को न सह पाने के कारण अनेक लोगों की कभी-कभी तो इस प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि
श्रवण और स्मरण शक्ति भी क्षीण हो गयी है। इससे भी भयंकर वह पर्यावरण मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाता।
स्थिति दिवाली, दशहरा, नववर्ष आदि पर्यों पर प्रयोग होने वाले आजीविका की खोज में निरन्तर ग्रामों से शहरों की ओर आने । पटाखों और आतिशबाजी से होती है, जिसके फलस्वरूप प्रायः सभी वाली गरीब जनता के आवासीय क्षेत्र में, जिन्हें झुग्गी-झोपड़ी या जन (विशेषतः बच्चे और रोगी) बार-बार चौंक उठते हैं, विश्राम झोपड़-पट्टी के नाम से जाना जाता है, जल-मल व्यवस्था न होने (निद्रा) नहीं ले पाते। अध्ययनशील विद्यार्थी और साधनारत तपस्वी
और आवासियों की अधिकता होने के कारण जो प्रदूषण होता है, तो ऐसे दिनों में आवासीय क्षेत्र का त्याग करके बाहर (अन्यत्र) सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। दिल्ली, बम्बई, चले जाने की कामना करते हैं। महावीर स्वामी ने 'स्वयं जिओ कलकत्ता आदि महानगरों के साठ से अस्सी प्रतिशत लोग इन्हीं। और जीने दो' का जो संदेश दिया था, यदि उसकी प्रतिष्ठा बस्तियों में रह रहे हैं। विगत दस वर्षों से ग्रामों से नगरों की ओर । सर्वसामान्य के मानस में हो जाये, तभी ध्वनि-प्रदूषण की समस्या 555064 लोगों के भागने की प्रवृत्ति के फलस्वरूप आगामी कुछ वर्षों में का समाधान हो सकता है, अन्यथा नहीं। नगरों के पर्यावरण की स्थिति अत्यन्त शोचनीय होने जा रही है।
कृषि प्रदूषण-औद्योगिक प्रदूषण से उत्पन्न दूषित जल अनेक इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था करना प्रकार के विषों से मिश्रित होकर कृषि क्षेत्रों में पहुँचता है, भूमि में निश्चित ही एक समस्या है, इसलिए उपलब्ध जल में क्लोरीन । उन विषैले तत्त्व का अवशोषण होता है। आणविक विस्फोटों से मिलाकर उसे कीटाणु रहित करके उपलब्ध कराया जाता है। वायुमंडल में जो रेडियोधर्मी तत्त्व पहुंचते हैं अथवा रासायनिक क्लोरीन स्वयं में विष है, अतः विवशता में शुद्धि के नाम पर यह
प्रदूषणों स वायुमण्डल में जो गैसें प्रविष्ट हो जाती है, वर्षा के जल प्रदूषण महानगरीय संस्कृति की देन हैं।
माध्यम से उनके विष तत्त्व कृषि क्षेत्रों में पहुँचते हैं, जहाँ अन्न,
फल, साक, सब्जी के पौधों द्वारा उनका अवशोषण होता है। फलतः इन महानगरों में मल-व्ययन की समस्या और भी कठिन है।।
अन्न फल आदि सब विषैले हो जाते हैं, जो भोजन के रूप में सीवरों के माध्यम से प्रायः नगरों का सम्पूर्ण मल एकत्र होकर ।
प्राणियों के शरीर में पहुँच जाते हैं। यह सब कृषि प्रदूषण कहलाता नदियों में गिराया जा रहा है, जिससे नदियों का अमृतमय जल
है। इसके अतिरिक्त चूहों तथा कृषि को हानि पहुँचाने वाले अन्य प्रदूषित होकर इतना विषमय हो रहा है कि पीने को कौन कहे, वह
। कीड़ों के संहार के लिए जिन कीटनाशक रसायनों का प्रयोग होता 900 स्नान योग्य भी नहीं रह गया है।
है अथवा खरपतवार के उन्मूलन के लिए भी विविध रसायनों का ध्वनि प्रदूषण-महानगरीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के जो प्रयोग आज प्रचलन में आ चुका है, उनसे भी अन्न, फल आदि DDRE फलस्वरूप एक नवीन प्रकार का प्रदूषण सुरसा के मुख की भाँति विषाक्त होते जा रहे हैं, जो जन स्वास्थ्य के लिए अतिशय हानिकर निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है, जिसे ध्वनि प्रदूषण कहते हैं। हैं। नगर और महानगरों के निवासियों में बहुधा पीलिया जैसे रोग नगरों में यातायात के रूप में प्रयुक्त होने वाले यन्त्र स्कूटर, कार, महामारी के रूप में फैलते दिखायी पड़ रहे हैं, वे औद्योगिक कचरे 20% बस, ट्रक आदि अपने इंजन के द्वारा अथवा हार्न के द्वारा जो तीव्र से उत्पन्न कृषि प्रदूषण का ही परिणाम है। साथ ही उत्पादन में वृद्धि ध्वनि उत्पन्न करते हैं, उसने नयी प्रकार की समस्या उत्पन्न कर दी । के लिए रसायनों तथा सुरक्षा के उद्देश्य से कीटनाशकों के प्रयोग के है। बहुधा रोगी व्यक्ति हार्न की ध्वनि सुनकर बेचैन हो उठता है । फलस्वरूप अन्न और फल आदि की गुणवत्ता भी नष्ट हो रही है।
और वह बैचैनी कई बार प्राणघातक बन जाती है। तीव्र गति वाले रासायनिक प्रदूषण औद्योगिक प्रदूषणों के समान ही युद्धलिप्सा जेट और सुपरसोनिक आदि विमान अपनी उड़ान के समय इतनी से विविध प्रकार के पारम्परिक शस्त्र-अस्त्र, नाभिकीय और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ रासायनिक अस्त्रों, जिनमें एटम बम, हाइड्रोजन बम इत्यादि प्रमुख में लोभ, मोह, क्रोध अथवा संकीर्ण स्वार्थ लिप्सा से जो प्रदूषण हैं, का पर्यावरण के प्रदूषण में अतिशय महत्त्व है। द्वितीय महायुद्ध होता है, उसे वैचारिक प्रदूषण कहते हैं। यह वैचारिक प्रदूषण ऊपर
में प्रत्यक्षतः हिरोशिमा और नागासाकी में किये गये अणुबम के वर्णित अन्य प्रकार के प्रदूषणों का जनक अथवा संवर्धक है। PORA
प्रयोग से जो पर्यावरण का प्रदूषण हुआ और उसके फलस्वरूप जो वैचारिक प्रदूषण के चार चरण माने जा सकते हैं-(i) अशुभचिंतन नरसंहार आदि हुआ, उसे आज ४८ वर्षों के बाद भी भूलना। (ii) अभिनिवेश (आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह) (iii) ईर्ष्या-द्वेष सम्भव नहीं है। ध्यातव्य है कि इस अणु विस्फोट के कारण प्राणियों / और उससे उत्पन्न चरित्र हनन की कुत्सित प्रवृत्तियां तथा (iv) के गुणसूत्रों में जो असंतुलन पैदा हुआ है, उससे आज भी अपंग वैचारिक प्रदूषण मुक्त लोक जीवन। सन्तानें जन्म ले रही हैं। प्रत्यक्ष प्रयोगों के अतिरिक्त इन अस्त्रों के
(i) अशुभचिन्तन-मानव के हृदय में अनेक बार असीम निर्माण के उद्देश्य से किये गये विविध प्रकार के भूमिगत अथवा
ब्रह्माण्ड के साथ तादाम्य की भावना तिरोहित हो जाती है और वायुमण्डलीय परीक्षणों से जो रेडियोधर्मिता उत्पन्न होती है, उसकी
संकीर्ण स्वार्थ उसे घेरने लगते हैं। इस संकीर्ण स्वार्थ के फलस्वरूप विभीषिका भी कम नहीं है।
उसके हृदय में विविध प्रकार के अशुभ भावों का उदय होता है। इस प्रकार पर्यावरण का अम्लीकरण, नदियों के जल का इन अशुभ भावों में मुख्य है-लोभ, मोह और क्रोध। इनका उदय 20 . प्रदूषण, वायु में कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बनमोनोऑक्साइड आदि इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन से होता है। इसीलिए जैन परम्परा में
गैसों का मिश्रण प्राणिमात्र के लिए भयावह हो उठा है। पर्यावरण विषयचिन्तन और विषय-कथा को भी तिरस्करणीय माना गया की इस भयावह स्थिति की ओर न केवल वैज्ञानिकों अपितु विविध है।२० वस्तुतः विषयों का चिन्तन होते ही उनके प्रति आसक्ति राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों का भी ध्यान गया है और वे चिन्तित हो उठे } उत्पन्न होने लगती है। आसक्ति का जन्म कामना की सृष्टि करता है, हैं। इस चिन्ता के फलस्वरूप गतवर्ष (१९९२) में स्टाकहोम में | कामना की पूर्ति सदा होती रहे, यह आवश्यक नहीं है। काम्य वस्तु सम्पन्न पृथ्वी सम्मेलन में विकसित विकासशील और अविकसित के मिलने पर भी उसके उपभोग का अवसर मिल ही जाये, यह भी
देशों के १२० से अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया, अपनी चिन्ताएं । आवश्यक नहीं है। दोनों ही परिस्थितियों में कामी के हृदय में 8 प्रकट की और उनके निवारण क लिए कुछ सिद्धान्त भी निर्धारित प्रतिबंधक व्यक्ति, परिस्थिति अथवा भाग्य के प्रति क्रोध सहज ही
किये। इस सम्मेलन के पूर्व भी १९७०, ७२, ७६, ७७, ८६, ८८, } आ जाता है। क्रोध विचारशीलता का शत्रु है, अतः क्रोध का जन्म 1000 ८९ में अनेक सम्मेलन पर्यावरण प्रदूषण के चिन्ता के फलस्वरूप ही होने पर विचारशीलता का प्रतिपक्षी संमोह सहजभाव से प्रकट होता
हुए हैं और प्रदूषण रोकने के लिए कुछ न कुछ संकल्प भी उनमें है और वह विवेक को नष्ट कर देता है। विवेक-नाश का अर्थ है लिये गये हैं। पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा के लिए सभी देशों के सर्वनाश।२१ अविवेकी व्यक्ति कभी हिंसा में प्रवृत्त होता है, कभी शासनतंत्र ने अपने-अपने यहाँ समय-समय पर अनेक नियम- छल-छद्म करता है, कभी उसमें लम्पटता जन्म लेती है और अधिनियम बनाये। उदाहरणार्थ, भारत में १९०५ में औद्योगिक विविध प्रकार के परिग्रहों की कामना भी बुद्धिनाश के प्रदूषण निरोध अधिनियम, १९४८,१९७६ में कारखाना संशोधन परिणामस्वरूप होती है।२२ इस प्रकार विषयों का चिन्तन लोभ, अधिनियम, १९६८ में कीटनाशी अधिनियम, १९७४ में जल 1 मोह, क्रोध आदि के माध्यम से सर्वनाश का कारण बन जाता है। प्रदूषण नियंत्रण कानून, १९७५, ७७ में जल प्रदूषण अधिनियम, वह सर्वनाश अपना ही नहीं कई बार समाज और राष्ट्र का भी हो १९७८, ८१ में वायु प्रदूषण अधिनियम, १९७२ में वन्यजीवन । सकता है। विषय-चिन्तन से लेकर बुद्धिनाश तक की जो विविध संरक्षण कानून, १९७४ में वन्यप्राणी संवर्धन कानून और १९८१ । मानसिक स्थितियां हैं, वे सभी वैचारिक प्रदूषण कही जाती हैं। में वनसंरक्षण कानून आदि बनाये गये।
आज के समाज में मूलबद्ध हो रहा भ्रष्टाचार वैचारिक प्रदूषण इसके साथ ही १९४८ में बनाये गये संविधान में स्वीकृत का ही दुष्परिणाम है। इसी से उत्पन्न असन्तोष विस्फोट के रूप में संकल्पों को आधार बनाकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने आतंकवाद के नाम से समस्त विश्व को पीड़ित कर रहा है। विविध अनेक निर्देश दिये, जिससे पर्यावरण की सुरक्षा हो सके। इसी राष्ट्रों के परस्पर संघर्ष वैचारिक प्रदूषण की ही सृष्टि हैं। युद्ध की प्रकार फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका आदि विश्व तैयारियां, उसमें विजय के लिए विविध प्रकार के पारम्परिक, के अन्य देशों के न्यायालयों ने भी ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय आणविक अथवा रासायनिक शस्त्रास्त्रों की होड़ इसी वैचारिक दिये, जो पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए विशेष महत्त्व प्रदूषण का परिणाम है। रखते हैं।
जैन आचार्यों ने सब प्रकार के पर्यावरण प्रदूषणों के मूल रूप वैचारिक प्रदूषण-जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि प्रदूषण स्थूल । इस अशुभ चिन्तन रूप वैचारिक प्रदूषण को देखा था और उससे पंचभूतों में होते हैं किन्तु अष्टधा प्रकृति में से मन, बुद्धि, अहंकार । बचने के लिए श्रावकों के लिए अणुव्रत के रूप में और मुनिजनों
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
५८१ 10000000 के लिए महाव्रत के रूप में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और (योद्धा) थे, तो दूसरे मषिजीवी (कर्णिक) थे। एक वर्ग कृषि पर अपरिग्रह का पालन अनिवार्य माना था। इस वैचारिक प्रदूषण रूप । आश्रित था, तो अन्य वर्ग वाणिज्य से अपनी जीविकायापन करता महारोग से बचने अथवा उसकी चिकित्सा के लिए इन अणुव्रतों था। कुछ बुद्धिजीवी विद्या के प्रचार-प्रसार में संलग्न थे, तो अन्य अथवा महाव्रतों के पालन से बढ़कर कोई अन्य उपाय नहीं है और कला की साधना में। सभी अपनी-अपनी साधना में लीन और उससे इनकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही बनी हुई है।
प्राप्त परिणामों से सन्तुष्ट थे। जैन पुराणों में इस स्थिति का विस्तार अभिनिवेश-अभिनिवेश अर्थात् आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह
से वर्णन हुआ है। भी वैचारिक प्रदूषण का एक प्रकार है। इससे ग्रस्त व्यक्ति यथार्थ । जैन परम्परा में छः प्रकार के जीव माने गये हैं-पृथ्वीकायिक को समझकर भी झूठे अभिमान के चक्कर में पड़कर अपने जीव, जलकायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वायुकायिक जीव, अन्यायपूर्ण आग्रह से हटना नहीं चाहता, जिससे समाज में अनेक वनस्पतिकायिक जीव और त्रसकायिक जीव। इन सब जीवों के प्रति प्रकार की विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन, पूर्ण रूप से संयम रखना ही अहिंसा है। किसी भी जीव को नहीं सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय इस वैचारिक-प्रदूषण के सताना, परिताप नहीं पहुँचाना, बलपूर्वक शासित नहीं बनाना और निवारण का सर्वोत्तम उपाय है।
शोषण नहीं करना ये सब अहिंसा के पहलू हैं। आचार्य समन्तभद्र ने चरित्रहनन की कुत्सित प्रवृत्तियाँ-समाज में प्रत्येक व्यक्ति की । रत्नकरण्डश्रावकाचार में सर्वविद्य पर्यावरण प्रदूषण के विविध योग्यता और कार्य-सामर्थ्य भिन्न-भिन्न स्तर का हुआ करता है, प्रकारों का समष्टि रूप से संकत करते हुए कहा है कि व्यर्थ ही जिसके फलस्वरूप उसकी उपलब्धियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इस पृथ्वी को खोदना, पानी को बिखेरना, अग्नि को जलाना, वायु को स्थिति में स्वयं को हीन स्थिति में देखकर बहुत बार मनुष्य उच्च रोकना, वनस्पति का छेदन करना, स्वयं निष्प्रयोजन घूमना और स्थिति वाले व्यक्ति के प्रति ईर्ष्याग्रस्त हो जाता है। कभी प्रतिद्वन्द्विता । दूसरों को भी निष्प्रयोजन घुमाना, यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड की स्थिति में अपनी असफलता देखकर प्रतिद्वन्द्वी के प्रति द्वेष का है।२६ जब तक कोई विशेष प्रयोजन न हो, त्रस जीवों की भांति जन्म होता है। ये दोनों ही मनोभाव उसे प्रतिपक्षी के चरित्रहनन की स्थावर जीवों को भी विराधना नहीं करनी चाहिए। कुत्सित प्रवृत्ति में प्रेरित करने हैं, जिसके फलस्वरूप दोनों के ही
इस तथ्य को केन्द्र में रखकर ही भारतीय संस्कृति में प्रायः चित्त में अशान्ति और विक्षोभ उत्पन्न होता है। समाज भी उस
सभी परम्पराओं में प्रदूषण से बचने के लिए निर्विवाद रूप से विक्षोभ से अलग नहीं रह पाता और अशान्त हो उठता है। यह
स्वीकृत रहा हैअशान्ति सबकी पीड़ा का कारण बनती है। जैनविचारकों ने इस वैचारिक प्रदूषण से बचने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद)
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) वृत्तियों को अपनाने का निर्देश दिया है।२३
सत्यपूतां वदेत् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।२७ इनके द्वारा चित्त में निर्मलता प्रतिष्ठापित हो जाती है और वैचारिक
अर्थात् भूमि पर पग रखने से पहले भूमि का दृष्टि से प्रदूषण मिट जाता है।
विशोधन कर लिया जाये, प्रयोग से पूर्व जल को वस्त्र से छानकर वैचारिक प्रदूषण-मुक्त लोक जीवन-जैन पुराणों के अनुसार दूषण रहित किया जाये, वाणी की पवित्रता सत्य से सुरक्षित की सृष्टि व्यवस्था में अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ में और उत्सर्पिणी जाये और मन की पवित्रता से सम्पूर्ण आचरण को निर्दोष बनाया काल के अन्त में सुषमा-सुषमा उपविभाग में मानव की उत्पत्ति जाये। युगल के रूप में होती है इसमें स्त्री-पुरुष का जोड़ा एक साथ ही
इस प्रकार हम देखते हैं कि भूमि, जल, वायु आदि में जन्म लेता है और मरता है। उसे जीवन भर भोग साधन कल्पवृक्षों
औद्योगिक अथवा वैचारिक कारणों से उत्पन्न होने वाला पर्यावरण से प्राप्त होते हैं।२४ उन्हें किसी प्रकार की कमी होती ही नहीं है,
प्रदूषण ही अनन्त विपत्तियों और पीड़ाओं का कारण होता है। इसलिए उनमे वैचारिक प्रदूषण के उत्पन्न होने की कल्पना भी नहीं
'कारणाभावत् कार्याभावः' इस दार्शनिक सिद्धान्त को चित्त में की जा सकती। सुषमा काल में भी यही स्थिति रही। कालान्तर में
रखकर यदि लोक जीवन समस्त प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त किया (तीसरे सुषम-दुषमा काल में) कल्पवृक्षों के समाप्त होने पर मनुष्य को अपने श्रम से भोगसाधन प्राप्त करने की आवश्यकता हुई। उस
जा सके, तो समस्त पीड़ाओं का अभाव होने से जीवन के आनन्द समय नाभिराय के पुत्र भगवान् ऋषभदेव ने असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प२५ इन षट्कर्मों की समाज में सर्वविध पर्यावरण प्रदूषण मुक्त अतएव आनन्दमय एवं मधुर प्रतिष्ठापना की। फलतः उस काल में भी लोकजीवन वैचारिक लोक-जीवन की झांकी वैदिक कवि ने कामना के रूप में प्रदूषण से सर्वथा मुक्त रहा है। समाज के कुछ लोग असिजीवी । निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त की है
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१५८२
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनः सन्त्वोषधीः। मधु नक्तभुतोऽसो मधुमत्पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता। मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः। माध्वीवो भवन्तु नः२८
अर्थात् सर्वतोभावेन पर्यावरण प्रदूषण मुक्त समाज इतना सन्तुष्ट और आनन्दित हो, जिससे प्रत्येक प्राणी यह अनुभव करे, मानों समस्त वायुमण्डल उसके लिए मधु की वर्षा कर रहा है, नदियां मधु की धारा प्रवाहित कर रही हैं, औषधियों से मधु का
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ स्रवण हो रहा है। दिन-रात भी मधुमय हैं, पृथ्वी का कण-कण मधुमय है, धुलोक में स्थित ग्रहमण्डल पिता के समान मधु रूपी स्नेह से सबको आप्लावित कर रहा है। वनस्पति, सूर्य, चन्द्र और गौवें सभी में माधुर्य का वितरण कर रही हैं।
क्यों न आज भी हम सकल लोक को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त कर इसी मधुमय सागर में अवगाहन करें। पता: साधना मन्दिर ९०, द्वारिकापुरी मुजफ्फरनगर (उ. प्र.)२५१ 00१
डायालयासहरमा पाले
सन्दर्भ स्थल १. पर्यावरण अध्ययन, पृ. ११ (डॉ. एस. सी. बंसल, डॉ. पी. के. शर्मा) २. अग्ने गृहपतये स्वाहा सोमाय वनस्पतये स्वाहा, मरुतामोजसे स्वाहा,
इन्द्रस्थेन्द्रियाय स्वाहा पृथिवी माता मा हिंसी, मो अहं त्वाम् यजुर्वेद,
१०/२३॥ ३. पद्मपुराण ४/४८, आदिपुराण २०/२६१-२६५, हरिवंशपुराण
२/२१६-२२१ ४. आचारांग १-२७, १-३४) ५. ऋषभदेव-न्यग्रोध, अजितनाभ-सप्तपर्ण, सम्भवनाथ-शाल, अनन्तनाथ
पीपल इत्यादि। द्रष्टव्य तिलोयपण्णात्ति ४,६०४-६०५, ९१६-९१८,
९३४-९४० ६. (क) स कीचकर्मारुतपूर्णरन्त्रैः कुंजद्भिरापादितवंशकृत्यम्। शुश्राव कुशेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानैः वन देवताभिः
रघुवंश॥२ (ख) उत्तररामचरित २/२९ ७. आदिपुराण ३/२२-५४, हरिवंशपुराण ५/१६७, पाण्डवपुराण ४/२१३,
तत्त्वार्धसूत्र ३/३७। ८. रघुवंश १४/४८, नैषधीयचरित १/१५, पंचतंत्र-मित्रभेद, पृ. २ ९. क्षीमं केनचिदिन्दुपाण्डु तरुणा मांगल्यमाविष्कृत
निष्ठ्यूतरचरणोपरागसुभगो लाक्षारसः केनचित्। अन्येभ्यो वनदेवताकरतलैरापर्वभागोत्थितदत्तान्याभरणानि नः किसलयोद्भदेप्रतिद्वन्द्विभिः
॥ अभिज्ञान शाकुन्तल ।।४/५ १०. आदिपुराण २२/२००-२०१ ११. शकुन्तला-अस्ति मे सोदर स्नेहोऽप्येतेषु। अभिज्ञान शाकुन्तल, प्रथम
अंक पृ. ४३ १२. (क) अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसी वृषभध्वजेन। यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसा रसज्ञः
रघुवंश ॥२/३६ (ख) कुमारसम्भव ५/१४ १३. अभिज्ञान शाकुन्तल ४/९ १४. जैनाचार्यों के संस्कृत पुराणसाहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन पृ. २०९। १५. अमृतोऽपस्तरणमसि, अमृतापिधानमसि।
आश्वलायन -गृह्यसूत्र १/२४/२१-२२॥
१६. रान्नो देवीरमिष्टये आपो भवन्तु पीतये। रां योरभि प्रवन्तु नः।
-यजुर्वेद ३६/१२ १७. आपो हि ष्ठा मयो भूवस्तान ऊर्जे दधातन। -वही, ३६/१४ १८. यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। वही, ३६/१५ १९. ओं सवित्रा प्रसूता दैव्या आप उन्दन्तु ते तर्नु। दीर्घायुत्वाय वर्चसे।
-पारस्कर गृह्यसूत्र २/१/९ २०. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराानिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टर मस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च।
-तत्त्वार्थसूत्र ७/७ २१. ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते॥ क्रोधाद्भवती सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
-श्रीमद्भगवद्गीता २/६२-६३ २२. वितर्का हिंसादयः १.१ १.१ " लोभमोहक्रोधपूर्वकाः मदमध्याधिमात्राः '' इति प्रतिपक्षभावनम्।
-योगसूत्र २/३४ २३. (क) मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानावित्यलेषु।
_-तत्त्वार्थसूत्र ७/११ (ख) मैत्रीकरुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्।
-योगसूत्र १/३३ २४. आदिपुराण ३/२२-२४ २५. आदिपुराण १६/१७९, १८१-१८२ २६. (क) क्षितिसलिलदहन पवनाभ्यां विफलं वनस्पतिछेद। सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते।
-रत्नकरण्डश्रावकाचार ३/३४, पृ. १६० (ख) भूखननवृक्षमोट्टनशाद्वलदलनाम्बुसेचनादीनि। निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयादीनि च॥
-पुरुषार्थसिद्धयुपायः, १४३ (ग) भूपय पवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम्। यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्यादयं तु यत्॥
-यशस्तिलकचम्पू ७/२६ २७. मनुस्मृति, ६/४६ २८. यजुर्वेद १३/२७-२९
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पर्यावरण के संदर्भ में जैन दृष्टिकोण
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-डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद
प्रधान संपादक-"तीर्थंकरवाणी" पिछले दशक से 'पर्यावरण', प्रदूषण शब्द अधिक प्रचलित 'स्थावरजीव' की संज्ञा प्रदान की थी। धवला में कहा है-"स्थावर हुआ। आज विश्व का प्रत्येक देश उसके राजनीतिज्ञ, बौद्धिक, जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, वैज्ञानिक सभी इसकी चर्चा और चिंता व्यक्त कर रहे हैं। अच्छाई । सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है।" सर्वार्थसिद्धि में 20 यह उभरकर आई कि यह आम चर्चा का विषय बन सका। पर, कहा है जिसके उदय से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर अधिकांशतः यह चिन्तन का एक फैशनेबल शब्द भी बनता जा । नाम कर्म है। पंचास्तिकाय मूलाचार में पृथ्वीकाय अप्काय, रहा है।
अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय यह कायें जीव सहित हैंप्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों होने लगा। यदि हम पृथ्वी की
ऐसा निर्देश है। इसे स्पष्ट करते हुए 'धवला' में कहा गया है कि वर्तमान स्थिति को देखें और विचार करें तो स्पष्ट होता है कि ।
स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जाना जाता है, देखता पृथ्वी का मूल परिवेश ही लोगों में अपने वैयक्तिक हित के लिए।
है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है बदल डाला है। प्रकतिक संतलन जो वनस्पति, जीवधारी प्राणियों के । इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है। कारण था उसे असंतुलित कर डाला। जिसके भयंकर विनाशकारी इन एकेन्द्रिय जीवों की प्रयोगात्मक स्थिति को ‘पंचास्तिकाय' परिणाम सामने आये और मानव चिंतित हो उठा। अस्तित्व का आदि ग्रंथों में समझाते हुए लिखा है-“अण्डे में वृद्धि पाने वाले खतरा बढ़ने लगा जिससे वह इस पर्यावरण की रक्षा के लिए प्राणी गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्छा प्राप्त मनुष्य जैसे हैं-वैसे सोचने लगा। यह प्रश्न व्यक्ति का नहीं पर समग्र विश्व और एकेन्द्रिय जीव जानता है। यह एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व चराचर के प्राणी मात्र से जुड़ा होने के कारण सबके लिए चिन्ता होने संबंधी दृष्टान्त का कथन है। अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में
और चिन्तन का कारण बना। इसीलिए आज इस प्रश्न की चर्चा, रहे हुए और मूर्छा पाये हुए के जीवत्व का, उन्हें बुद्धि पूर्वक उपाय ढूँढ़े जा रहे हैं।
व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता 'पर्यावरण' शब्द को सामान्य रूप से समझेंगे इतना ही कहा
है। उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है, जा सकता है कि पर्यावरण अर्थात् आवरण या रक्षण कवच। आज
क्योंकि दोनों में बुद्धिपूर्वक व्यापार का अदर्शन है। इस रक्षाकवच को तोड़ा जा रहा है अतः पूरी पृथ्वी का रक्षण
"राजवार्तिककार" ने माना है कि वनस्पति आदि में ज्ञान का डगमगाने लगा है। पृथ्वी ही ऐसा नक्षत्र है जिसमें प्राण और
सद्भाव होता है। खान-पान आदि मिलने पर पुष्टि और न मिलने वनस्पति दोनों का स्थान है। प्रकृति से मनुष्य को बुद्धि का विशिष्ट
पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान होता है। वरदान मिला है अतः यह अपेक्षा थी कि वह इस सृष्टि का स्याद्वादमंजरी में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-"मूंगा रक्षण करेगा। पर, इस बुद्धि का दुरुपयोग करके उसने इस सृष्टि पाषाणादि रूप पृथ्वी सजीव हैं क्योंकि डाभ के अंकुर की तरह पर ही आघात किए। मनुष्येतर सभी प्राणी अपने नैसर्गिक जीवन । पृथ्वी के काटने पर वह फिर से उग आती है। पृथ्वी का जल के अलावा अन्य किसी भी विनाश या संग्रह या मौज शौक के लिए सजीव है, क्योंकि मैंडक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथ्वी अन्य प्राणी या वनस्पति का घात नहीं करते-जबकि मनुष्य ने के समान है। आकाश का जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की अपनी पेट की भूख के साथ अपनी पशुवृत्ति के पोषण एवं संग्रह तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है। अग्नि 5 के कारण अनेक प्राणी वध किए। जंगल उजाड़े और अपनी ही भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के मौत को आमंत्रित किया। प्रगति के नाम पर हुए वैज्ञानिक- ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है। वायु में भी जीव है, क्योंकि गौ प्रौद्योगिक परीक्षण व निर्माण पृथ्वी के पर्यावरण को निरंतर दूषित की तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है। वनस्पति में भी कर रहे हैं। इन्हीं तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हम जैनदृष्टिकोण से जीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उसमें मलिनता पर्यावरण पर विचार करेंगे।
देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पदाघात आदि से जिस तथ्य का स्वीकार आज वैज्ञानिक कर रहे हैं कि वनस्पति
विकार होता है इसलिए भी वनस्पति जीव है। अथवा जिन जीवों में में जीव होता है उसका प्रतिपादन और निरूपण जैनागम हजारों
चेतना घटती हुई देखी जाती है वे सब सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान ने वर्ष पूर्व कर चुका था। इतना ही नहीं जैनदर्शन ने तो स्थावर
पृथ्वी आदि को जीव कहा है। पंचास्तिकायिक जीवों में प्राणों की कल्पना की थी। कल्पना ही नहीं । इस प्रकार इस शास्त्रीय व्याख्या और लक्षण से यह सिद्ध हो परीक्षण से जीव के अस्तित्व को प्रामाणित किया था। इन्हें गया कि पृथ्वी आदि पाँचों प्रकार के स्थावर जीव एकेन्द्रिय हैं और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जीव हैं। यद्यपि वे पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य की तरह अभिव्यक्त नहीं किया है। कुदरत के संतुलन हेतु प्रत्येक प्राणी का आहार-बिहारकर सकते पर उनमें सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूति होती है यह / रूप-रंग आदि निश्चित हैं। मनुष्य को मूलतः निरामिष भोजी ही शास्त्रों में कहा गया है और वर्तमान विज्ञान ने भी प्रयोगों से इस बनाया गया। आश्चर्य तो इस बात का है कि अन्य किसी प्राणी ने तथ्य को सत्य पाकर उसका स्वीकार किया है। वनस्पति पर ऐसे । अपने नैसर्गिक जीवन को न तो बदला न तोड़ा। पर, मनुष्य ने प्रयोग हुए हैं कि यदि दो पौधे अलग-अलग अच्छी और दुष्ट प्रकृति उसमें आमूल तोड़-फोड़ की उसने अपना भोजन और जीवन का के मनुष्य में लगाये हों तो उनकी वृद्धि में फर्क देखा गया। इसी क्रम बदल डाला। जीभ के क्षणिक स्वाद के लिए उसने अनेक भोले प्रकार यदि एक पौधे को प्यार से और दूसरे को तिरस्कार से प्राणियों का वध किया। उनका भक्षण किया और उदर को सींचा गया तो उनकी वृद्धि में भी पर्याप्त अंतर देखा गया। और श्मशानगृह बना दिया। विवेकहीन होकर वह करुणा-दया को यह भी निरीक्षण से सिद्ध हुआ है कि एक पौधे को सुन्दर संगीत भूलकर क्रूर बनकर हत्यायें करने लगा। अरे ! हिंसक भोजी पशु सुनाया गया तो उसकी वृद्धि अकल्पित ढंग से हुई। इन सब प्रयोगों भी जब तक भूख नहीं लगती-शिकार नहीं करते। पर, इस मनुष्य से इन एकेन्द्रिय स्थावर में जीव की पुष्टि होती है। उनके सुख-दुख ने निहत्थे, निर्दोष पशुओं को मारकर उसे भोज्य बनाया। की अनुभूति का परिचय मिलता है।
पशु-पक्षियों की कल आम बात हो गई। शास्त्रों में लिखा है कि जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है "जिओ और जीने की
माँसाहारी एक जीव का ही वध नहीं करता पर माँस में उत्पन्न सुविधा प्रदान करो।" इसी सिद्धान्त का उमास्वामी ने 'परस्परोपग्रहो
अनन्त त्रस जीवों की भी हिंसा करता है। प्रवचनसार में इसीलिए जीवानाम्' द्वारा प्रतिपादन किया। दोनों सिद्धांत और सूत्र प्रत्येक
श्रमण को युक्ताहारी कहा है। ऐसा ही उपदेश सागारधर्मामृत आदि प्राणी के प्रति सहिष्णुता एवं सहयोग के प्रतीक हैं। थोड़ा विचार
ग्रंथों में है। "मद्य-माँस-मधु" का सर्वथा त्याग इसी जीवहिंसा के करें कि जिस प्रकार हमें अपना जीव प्यारा है। थोड़ा-सा कष्ट भी।
संदर्भ में कराया जाता है। तभी इनकी गणना अष्टमूलगुण के हमें व्याकुल कर देता है। यत्किंचित भी अन्य द्वारा दी जाने वाली
अन्तर्गत की गई है। प्रवचनसार में आचार्य कुंदकुद ने कहा-“पके शारीरिक या मानसिक पीड़ा हमें प्रतिशोध से भर देती है-फिर हम
हुए या कच्चे माँस के खंडों में उस माँस की जाति वाले निगोद यह महसूस क्यों नहीं करते कि अन्य सभी एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय
जीवों का निरंतर जन्म होता है। जो जीव पक्की या कच्ची माँस की जीवों को भी ऐसी ही संवेदना होती होगी। जैसे हम सुख से जीना
डली खाता है या स्पर्श करता है वह अनेक करोड़ जीवों का चाहते हैं वैसे ही प्रत्येक प्राणी भी अपने ढंग से जीना चाहता है।
निश्चित रूप से घात करता है। इतना ही नहीं अंडा, कंदमूल आदि फर्क इतना है कि हमने अपनी बुद्धि-विकास-चतुराई या बुद्धि के
को अभक्ष्य इसीलिए माना है कि उससे जीव हिंसा निश्चित रूप से विकार से अपना जीना ही महत्त्वपूर्ण माना। अपनी सुख सुविधा के
होती है। हिंसा एवं माँसाहार के दूषणों से शास्त्र भरे पड़े हैं। यहाँ लिए दूसरों का घात किया, कष्ट दिया और उनका विनाश किया।
उनकी भावना ही प्रस्तुत है। अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सके। उनकी असहाय स्थिति को समझ इसी प्रकार भोजन के उपरांत शिकार के व्यसन ने भी इस कर उनके मौन दर्द को जान कर यदि हममें यह संवेदना जाग जाये | मानव को हिंसा-पशुवध के लिए उकसाया है। शिकारी का विकृत तो निश्चित रूप से हम अनुभव करेंगे कि जैसी सुखात्मक-दुखात्मक मानसिक शीक निरपराध प्राणी की जान ले लेता है। काश ! शिकारी अनुभूति हमारे अंदर घटित होती है-वैसी ही प्रत्येक प्राणी में घटित उस पशु-पक्षी की आँखों की करुणा-असहायता को देख पाता। होती है। यदि हमारे पास बुद्धि और शक्ति है तो हमें उन सभी शिकारी स्वभाव से क्रूर ही होता है। कुदरत के धन पशु-पक्षियों का प्राणियों को जीने की सुविधा प्रदान करनी होगी जो उनका भी वध करके आनंद प्राप्त करने वाले मानव को क्या कहें ? घर की जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके लिए दया-करुणा-क्षमा और ममता के दीवान खाने सजाने को उसने कितने मासूमों की जान लीं। भावों का विकास करना होगा। ये भाव जैन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में
इसी प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन देखें तो अहिंसा के गुण से ही उत्पन्न होते हैं और पनपते हैं।
के बदले बाह्य प्रसाधनों से सजाने की धुन में सैंकड़ों पशुओं की 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के मूल में इसी अहिंसा के सिद्धान्त की
निर्मम हत्यायें की गई। महँगे सेन्ट, लिपिस्टिक, स्प्रे आदि में इन्हीं मुख्यता है। जैनदर्शन की नींव या रीढ़ यह अहिंसा है। हिंसा की
पशुओं का रक्त झलकता है। जिस क्रूरता से उनकी हत्या की जाती भावना कभी परस्पर उपकार की भावना को दृढ़ीभूत नहीं कर
है उसका वर्णन भी पढ़ने से आँखें छल-छला जाती हैं। चमड़े की सकती। यद्यपि सभी धर्मों ने अहिंसा की महत्ता का स्वीकार किया
मँहगी बनावट में जीवित पशुओं की चमड़ी उधेड़ दी जाती है। इस पर जैनधर्म ने उसे मूलतत्त्व या आधार के रूप में स्वीकार किया।
प्रकार जीभ की लोलुपता, शिकार का शौक और फैशन ने क्रूर यहाँ चूंकि हम पर्यावरण के प्ररिप्रेक्ष्य में बात कर रहे हैं अतः द्रव्य
हत्याओं के लिए मनुष्य को प्रेरित किया। इससे पशुओं की संख्या हिंसा की ही विशेष चर्चा करेंगे।
घटने लगी। अरे ! कुछ पशुओं की तो नस्लें ही अदृश्य होती जा मूलतः मानव शाकहारी प्राणी है। उसके शरीर, दाँत आदि की । रही हैं। इससे प्रकृति का संतुलन डगमगाया है और पर्यावरण की संरचना भी तदनुकूल है। कुदरत ने प्रत्येक जीव का भोजन निश्चित । समस्या गंभीर हई है।
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
हिंसा की इस भावना से मनुष्य की मनोवृतियाँ दूषित हुईं। दया का तत्त्व ही अदृश्य हो गया। पशु वध करते-करते उसकी क्रूरता इतनी बढ़ी कि वह मानव-हत्या करने में भी 'नहीं' हिचकिचाया। परस्पर प्रीत करने वाला मानव बड़े-बड़े युद्धों का जनक बना। आज विश्व का मानवतावादी संतुलन इसी हिंसात्मक युद्ध की परिस्थिति के कारण है।
पर्यावरण की असंतुलिता का दूसरा कारण बढ़ती हुई जनसंख्या है। यदि हमने जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण अंग 'ब्रह्मचर्य' का 'अणुरूप' भी पालन किया होता तो इस परिस्थिति का निर्माण नहीं होता। पश्चिमी भौतिकवाद एवं काम विज्ञान की अधूरी समझ, हिंसात्मक भोजन ने मनुष्य की वासनायें भड़काई। वह कामांध बन गया। परिणाम बड़ा विस्फोटक हुआ। आज यह जनसंख्या का विस्फोट बम विस्फोट से अधिक भयानक है। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण मनुष्य को निवास, खेती, उद्योग के लिए अधिक भू-भाग की आवश्यकता पड़ी।
मनुष्य यह भूल गया कि वनस्पति आदि पंचास्तिकाय जीव भी प्रकृति के वैसे ही अंग है जैसा वह है अपने रहने के लिए उसने जंगलों को काटना शुरू किया। जंगल सिमटते गये। जहाँ कभी घने जंगल थे- पशु-पक्षी थे वहाँ आज खेत या मनुष्य के रहने के घर-नगर बस गये। जंगल सिकुड़ गये। इसी प्रकार ईंधन के लिए उसने आँखें बन्द करके वृक्षोच्छेदन किया। यह भूल गया कि हमारे कार्बनडाइ ऑक्साइड को पीकर वे हमें ऑक्सीजन देकर प्राणों में संचार भरते थे। यह भूल गया कि हमारे पानी के यही संवातक थे। भूस्खलन इनसे रुकता था। हरियाली, शुद्धता एवं सौन्दर्य के ये प्रतीक थे। बस जंगल कटे और आफत आई आज देश में ही नहीं ● विश्व में पीने के पानी की समस्या है। आये दिन होने वाला भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ इन्हीं के परिणाम हैं। पानी खूब गहराई में उतर गया है। ऋतुओं का संतुलन बिगड़ गया है। यदि हमने वृक्ष काटने को पाप और दुख का कारण माना होता तो यह आत्मघाती कार्य हम कभी न करते।
खेती में हमने पेस्टीसाइड्स द्वारा उन जीवों की हत्या की जो फसल को थोड़ा खाकर अधिक बचाते थे। कीड़े तो मार दिये पर उनका विष नहीं मार सके। वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध हुआ है कि बार-बार ऐसी दवायें मानव रक्त में जहरीलापन भर देती हैं। यही कारण है कि विश्व के समृद्ध या विकसित देशों ने इनका उत्पादन बंद कर दिया है जबकि हम उसके उत्पादन को अपना गौरव मान रहे हैं। भय तो इस बात का है कि एक दिन इनके कारण भूमि की उर्वरकता ही नष्ट न हो जाये तात्पर्य कि जंगलों की कटाई ने भूमि के संतुलन को बिगाड़ दिया और जहरीली खाद ने भूमि की उर्वरकता पर प्रहार किया।
बड़े-बड़े उद्योग धंधे भी प्रदूषण उत्पन्न कर पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। हम प्रौद्योगिकी के विकास के सुनहरे चित्र
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प्रस्तुत कर रहे हैं पर यह भूल गये कि विद्युत उत्पादन, अणुरीएक्टर के रजकण, ईंधन के विविध प्रयोग (पेट्रोल-डीजलकेरोसीन) कितना प्रदूषण फैला रहे हैं कारखानों का धुआ आकाशीय वातावरण को प्रदूषित कर रहा है तो उनका गंदा पानी नदियों के जल को प्रदूषित बना चुका है। इससे असंख्य जलचर जीव जो पानी को फिल्टर करते थे उनका विनाश हो रहा है। हमारी पवित्र नदियों, झीलें, सरोवर आज प्रदूषित हो गये हैं। गैस उत्पादक कारखाने तो हमारे पड़ोस में बसने वाली साक्षात् मौत ही है। भोपाल का गैस कांड या चार्नोबिल का अणुरिसाव हमारी शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है। सच तो यह है कि वर्तमान में फैल रहे रोगों का मूल यह प्रदूषित जल एवं हवा ही है। विकसित देश चालाकी से ऐसे मानवसंहारक कारखाने अपने यहाँ नहीं लगाते वरन् उन अविकसित देशों में लगाते हैं जहाँ मानव संहार का मानों कोई मूल्य ही नहीं। फिर ऐहसान तो यह जताते हैं कि वे हमारी प्रगति के कर्णधार हैं। यदि ऐसे कारखाने फैलते गये तो यह प्रदूषित वातावरण ही इस सृष्टि के विनाश हेतु प्रलय सिद्ध होगा। जैनदृष्टि से इन तथ्यों पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि यदि अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धान्त लागू किया जाये तो मनुष्य पैसे कमाने और संग्रह की होड़ से बच सकता है। वह आवश्यक जीवनयापन की सामग्री की उपलब्धि तक अपने आपको सीमित कर देगा। फिर वह उन उत्पादनों द्वारा संसृति का विनाश नहीं होने देगा। धन की लालसा चाहे व्यक्ति की हो या देश की उसके कारण ही ये जहरीले धंधे किए जा रहे हैं। इसी प्रकार जैनदर्शन का सह अस्तित्त्व का सिद्धांत यदि समझा जाये, प्रत्येक प्राणी के साथ मैत्री का भाव उदय हो तो फिर हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेगे जो जीवहिंसा एवं प्रकृति को विकृत करता हो। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के कारण प्रकृति के वैज्ञानिक संतुलन जिसमें पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान एवं जीवविज्ञान का समावेश है उसके साथ भी खिलवाड़ किया। परिणाम स्वरूप 'ऑजोन' की परत भी आज छिद्रयुक्त बन रही है जो भीषण विनाश का संकेत है। वास्तव में थोड़ी सी दृश्य सुविधा के लिए हमने पृथ्वी के स्वरूप पर बलात्कार ही किया है। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि यदि ऐसी ही मनमानी होती रही तो शताब्दी के अंत तक लाखों जीवों की प्रजातियाँ ही नष्ट हो जायेंगी। जिससे पर्यावरण में असंतुलन हो जायेगा।
आल्बर्ट स्वाइट्जर के शब्दों में- "मानव आज अपनी दूरदर्शिता खो बैठा है जिससे वह सृष्टि को विनाश की ओर ले जायेगा।" यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विकास की आड़ में हम विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि हम चाहते हैं कि इस विनाश को रोकें तो हमें प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करना होगा।
पर्यावरण की इस सुरक्षा या विनाश का आधार हमारी जीवन शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जैन जीवन शैली अपनायें तो अवश्य इसकी सुरक्षा में एक कदम बढ़ाया जा सकता है। जैनों की
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दिनचर्या उनके परिमाणव्रत, बारहव्रत बारहतप को जीवन में उतारा जाये तो अनेक विनाशकारी तत्त्वों से बचा जा सकना संभव है। जैन शास्त्रों में गृहस्थ एवं साधू की जो जीवन शैली वर्णित है। उसमें किसी भी प्राणी, वनस्पति, जल, पृथ्वी, अग्निकायिक जीवों की विदारणा न हो इसका पूरा निर्देश है। आसक्ति से मुक्ति, इच्छाओं का शमन, प्राणीमात्र के प्रति करुणा उसके मूल में हैं। विचारों की स्वच्छता ऐसे ही भाव और भोजन से आती है जो रक्षण में सहायक तत्त्व होते हैं।
थोड़ा-सा और गहराई से विचार करें तो हमारा संबंध प्रकृति एवं उसके अंगों से कितना रहा है उसका प्रमाण है हमारे तीर्थंकरों के लांछन, उनके चैत्यवृक्ष इनमें पशु-पक्षी एवं वृक्षों की महत्ता है। हिन्दू शास्त्रों में जो चौबीस अवतार की चर्चा है उसमें भी जलचर, थलचर, नभचर पशु-पक्षियों का समावेश है। गाय को माता मानकर पूजा करना। पशुपालन की प्रथा क्या है ? वट वृक्ष की पूजा या वसन्त में पुष्पों की पूजा क्या प्रकृति का सन्मान नहीं । देवताओं के वाहन पशु-पक्षी हमारे उनके साथ आत्मीय संबंधों का ही प्रतिबिंव है। तात्पर्य कि पशु-पक्षियों और वनस्पति के साथ हमारा अभिन्न रिश्ता रहा है। कहा भी है-"यदि गमन या प्रवेश के समय सामने मुनिराज, घोड़ा, हाथी, गोवर, कलश या बैल दीख पड़े तो जिस कार्य के लिए जाते हों। वह सिद्ध हो जाता है। (हरिषेणवृहत्कथाकोश स्व. पं. इन्द्रलाल शास्त्री के लेख प्राकृत विद्या से साभार)
हमारे यहाँ शगुनशास्त्र में भी पशुपक्षियों का महत्त्व सिद्ध है। एक ध्यानाकर्षण वाली बात यह भी है कि हमारे जितने तीर्थकर, मुनि एवं सभी धर्मों के महान् तपस्वियों ने तपस्या के लिए पहाड़, गिरिकंदरा, नदी के किनारे जैसे प्राकृतिक स्थानों को ही चुना। प्रकृति की गोद में जो असीम सुख-शांति मिलती है, निर्दोष पशु-पक्षियों की जो मैत्री मिलती है वह अन्यत्र कहाँ ? तीर्थंकर के समवसरण में प्रथम प्रातिहार्य ही अशोक वृक्ष है। गंधोधक वर्षा में पुष्पों की महत्ता है। ज्योतिषशास्त्र की १२ राशियों में भी पशु-पक्षी की महत्ता स्वीकृत है। इस देश की संस्कृति ने तो विषैले सर्प को भी दूध पिलाने में पुण्य माना है तुलसी की पूजा की है और जल चढ़ाने की क्रिया द्वारा जल का महत्त्व एवं वृक्ष सिंचन को महत्ता प्रदान की है।
सम्राट अशोक या सिद्धराज कुमारपाल के राज्यों में गुरुओं की प्रेरणा से जो अमारि घोषणा ( हिंसा का पूर्ण निषेध हुई थी उसमें हिंसा से बचने के साथ परोक्ष रूप से तो पर्यावरण की ही रक्षा का
भाव था।
जैनदर्शन का जलगालन सिद्धांत, रात्रि भोजन का निषेध, अष्टमूल गुणों का स्वीकार इन्हीं भावनाओं की पुष्टि के प्रमाण हैं। कहा भी है " जैसा खाये अन्न वैसा उपजे मन। जैसा पीए पानी वैसी बोले वानी ।"
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
जैनदर्शन मन-वचन-काय की एकाग्रता और संयम पर जोर देता है। 'मौन' पर उसने विशेष जोर दिया। सामायिक, ध्यान, योग में मौन की महत्ता है। वास्तव में जितना उत्तम चिंतन मौन में होता है उतना अन्यत्र नहीं। आज 'आवाज' का प्रदूषण भी कम खतरनाक नहीं है। निरंतर आवाजें ध्वनियंत्र की चीखें, रेडियोटेलीविजन के शोर ने मानव की चिंतन शक्ति खो दी है। उसके शुद्ध विचारों पर इनका इतना आक्रमण हुआ है कि वह अच्छा सोच ही नहीं पाता। इस प्रकार पूरे निबंध का निष्कर्ष यही है कि यदि हम हिंसा से बचें, पंचास्तिकायिक जीवों की रक्षा करना सीखें, भोजन का संयम रखते हुए जीवन शैली में योग्य परिवर्तन करें तो हम सृष्टि के मूल स्वरूप को बचा सकते हैं।
इसके उपाय स्वरूप हमें वायु, जल एवं ध्वनि के प्रदूषण को रोकना होगा।
वृक्षों की सुरक्षा करनी होगी। कटे वनों में पुनः वृक्षारोपण करना होगा। जिससे हवा में संतुलन हो । भूस्खलन रोके जा सकें। ऋतुओं को असंतुलित होने से बचाया जा सके। शुद्ध वायु की प्राप्ति हो हिंसात्मक भोजन, शिकार एवं फैशन के लिए की जाने वाली हिंसा से बचना होगा।
कलकारखानों की गंदगी से जल को बचाना होगा। हवा में फैलती जहरीली गैस से बचना होगा। जैनदर्शन की दृष्टि को विश्व में प्रचारित करते हुए परस्पर ऐक्य । प्रेम एवं 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की भावना के संदर्भ में सह-अस्तित्व एवं प्राणीमात्र के प्रति दया, ममता, प्रेम, आदर एवं मैत्री के भाव का विकास करना होगा। गीत की ये पंक्तियाँ सजीव करनी होंगी
"तुम खुद जिओ जीने दो जमाने में सभी को, अपने से कम न समझो सुख-दुख में किसी को।"
सर्वे भवन्तु सुखिनः के मूल मंत्र के साथ याद रखना होगा वह सिद्धांत
जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सये ।
जयं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पापं ण वज्झई।
यदि हम सामूहिक आत्महत्या से अपने आपको बचाना चाहते हैं तो हमे पर्यावरण की रक्षा पर पूरा सहिष्णुता पूर्वक ध्यान देना होगा।
पता :
डॉ. शेखरचन्द्र जैन
प्रधान संम्पादक "तीर्थंकरवाणी"
६, उमिया देवी सोसायटी
नं. २ अमराईबाडी, अहमदाबाद
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
बढ़ता प्रदूषण एवं पर्यावरणीय शिक्षा
सम्पूर्ण जड़ और चेतन पदार्थ जो हमारे चारों ओर दिखाई देते हैं या नहीं दिखाई देते हैं, उन सभी पदार्थों के सम्मिलित स्वरूप को पर्यावरण कहते हैं। पर्यावरण का समस्त जीवों से गहरा सम्बन्ध होता है। यदि पर्यावरण शुद्ध होगा तो धरातल पर रहने वाले जीव स्वस्थ होंगे और पर्यावरण प्रदूषित होगा तो प्राणी अनेक रोगों से ग्रसित होते रहेंगे। प्राणियों की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता घटती जाएगी तथा विश्व विनाश के कगार पर पहुँच जाएगा।
आज हमारा देश ही नहीं सारा विश्व पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव से चिन्तित है। विश्व की प्रत्येक वस्तु किसी-न-किसी प्रकार से प्रदूषित होती जा रही है। हवा, पानी और खाने के पदार्थ भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं है। पर्यावरण प्रदूषण मानवतावादी वैज्ञानिकों के लिए चुनौती का विषय बनता जा रहा है। निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या, औद्योगीकरण, शहरीकरण और प्राकृतिक साधनों के तेजी से दोहन के कारण पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इक्कीसवीं सदी के मध्य तक इस प्रदूषण से मानव जाति घुटने लगेगी। जल, थल और वायु पूर्ण रूप से दूषित हो जाएँगे ।
पर्यावरण प्रदूषण एक अनावश्यक परिवर्तन है। एक सर्वेक्षण के अनुसार वायु का प्रदूषण असीमित मात्रा में बढ़ने लगा है। प्रतिवर्ष प्रदूषित वायु से अमेरिका में लगभग तैंतीस करोड़ डालर का अनाज नष्ट हो जाता है। भारतीय राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान का कहना है कि वर्षा के मौसम को छोड़कर शेष महीनों में दिल्ली में सबसे अधिक वायु प्रदूषण रहता है और यही स्थिति बम्बई, कलकत्ता और कानपुर की है।
प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव जलीय स्रोतों पर हो रहा है। छोटे-छोटे एवं बड़े उद्योगों से गन्दा पानी नालों से नदियों में मिलकर पानी को दूषित कर रहा है। उस पानी में हैजा, डिप्थीरिया आदि अन्यान्य रोगों के रोगाणु होते हैं। ये रोगाणु नदियों के पानी को दूषित कर देते हैं। अनेक सर्वेक्षणों से यह तथ्य सामने आया है। कि गंगा का पानी पूर्ण रूप से गन्दा हो । हो चुका है।
औद्योगिक संस्थानों में प्रयुक्त ईंधन (कोयला, तेल आदि) के जलने से जहरीली गैस बनती है, जो हवा में बिखरकर सभी तक पहुँचती है। अधिक ताप के कारण नाइट्रोजन के ऑक्साइड भी बनते हैं। ये ऑक्साइड हाइड्रोकार्बन के साथ मिलकर एक जटिल किन्तु हानिकारक फोटोकेमिकल ऑक्साइड बनाते है ये रसायन वायुमण्डल में स्थित कणों के साथ मिलकर धुन्ध का निर्माण करते है, जो सूर्य की किरणों में गतिरुद्धता उत्पन्न करती है।
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-डॉ. हेमलता तलेसरा, रीडर शिक्षा (सेन्टर ऑफ एडवान्स स्टडीज इन एज्युकेशन, फेकल्टी आफ एज्युकेशन एण्ड साइकॉलाजी एम. एस. विश्व विद्यालय, बड़ोदरा (गुजरात))
आणविक शक्ति के निरन्तर विकास एवं परीक्षण के कारण भी प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इससे रेडियोधर्मिता बढ़ी है। इसका अनुवाशिक प्रभाव पड़ता है, जो कि आगे चलकर मानव सभ्यता के विनाश का कारण हो सकता है। प्राकृतिक सभ्यता का विदोहन करने से भी पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। वनों की कटाई से अनेक समस्याएँ पैदा होने लगी है, क्योंकि वातावरण की शुद्धता बनाए रखने में वनस्पति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालयों के द्वारा प्रदूषण से बचने के लिए अनेक उपाय कर रहा है। यह संगठन पर्यावरण प्रदूषण से होने वाली हानियों से सचेत कर रहा है। संगठन द्वारा किया जाने वाला कार्य इस विशाल समस्या के लिए नगण्य है। इसके लिए तो पर्यावरण प्रदूषण के खिलाफ जन आन्दोलन चलाया जाना चाहिए। जन-जन को इसकी विभीषिका का ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था को पर्यावरण से सम्बन्धित करने की अत्यधिक आवश्यकता है। पर्यावरण शिक्षा को विद्यालयों में अनिवार्य विषय के रूप में लागू करके छात्रों को प्रदूषण से बचने का ज्ञान देना चाहिए। हमारे ऋषि-मुनि यदि अपने व्याख्यान में पर्यावरण शिक्षा को जोड़े तो अधिक जनसमुदाय को सहज ही में पर्यावरण के बारे में जागरूक किया जा सकता है।
पर्यावरण शिक्षा
बालक चारों ओर से पर्यावरण से जुड़ा हुआ है, जिसमें वह जीता है, एक दूसरे को प्रभावित करता है और पर्यावरण साधनों पर आश्रित रहता है। जिसके बिना वह जी नहीं सकता है। पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध उस वातावरण से है, जिसमें बालक जीवित रहते हैं, सीखते हैं तथा काम करते हैं। काफी संख्या में आज ऐसे लोग मिल जायेंगे जो गंदी, संकरी बस्तियों में ठूसे हुए है। ऐसी दशा में सबसे पहली आवश्यकता यह है, कि वे स्वस्थ, सुखी व उत्तरदायित्वपूर्ण पारिवारिक जीवन जीने के उपाय सीखे।
रसूल (१९७९) ने पर्यावरण शिक्षा में इसके चार महत्त्वपूर्ण पक्षों को जोड़ने की बात कही है, जो इस प्रकार है
१. भौतिक पर्यावरण - जल, वायु और भूमि । २. जैविक पर्यावरण-पौधे और जन्तु।
३. जनोपयोगी पर्यावरण कृषि, उद्योग, वन, बस्ती, यातायात, जल आपूर्ति, जल ऊर्जा और मनोरंजन ।
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४. मानव मूल्य पर्यावरण-परम्परागत जीवन पद्धति, धार्मिक स्तर आर्थिक आधार, सामाजिक संरचना, शिक्षा, जनस्वास्थ्य, पर्यटन और जनसंख्या ।
पर्यावरण अविभाज्य है, इसका यह विभाजन कृत्रिम है, क्योंकि पर्यावरण के विभिन्न घटक परस्पर अन्तर्क्रिया करते हैं। इस अन्तर्क्रिया का अध्ययन ही पर्यावरणीय शिक्षा है।
पर्यावरणीय शिक्षा में प्राकृतिक विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान की विषय वस्तु का वर्तमान परिवेश में समन्वय है। यह विषय पर्यावरण के स्वरूप, उसको प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों तथा उसके समाधान को सुझाता है। इसीलिए निकल्सन (१९७१) ने कहा है- " आज ज्ञान का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जो 'पर्यावरणीय क्रांति' से अप्रत्यक्षतः प्रभावित न हो।"
पर्यावरणीय शिक्षा में जैव भौतिकीय एवं सामाजिक वातावरण की मानव जीवन के साथ अन्तर्क्रिया का अध्ययन किया जाता है, इसलिए इसका पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय हमें पर्यावरण के सभी पक्षों को इसमें सम्मिलित करना होगा, जैसे- प्राकृतिक एवं मानवनिर्मित प्रौद्योगिक एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा सौन्दर्यपरक पर्यावरणीय शिक्षा प्राथमिक स्तर से प्रारम्भ होकर जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया अपेक्षित है, क्योंकि यह पर्यावरणीय समस्याओं की रोकथाम एवं समाधान की दिशा में जनसामान्य को सक्रिय सम्भागीत्व हेतु तत्पर करती है।.
पर्यावरणीय शिक्षा की वर्तमान में सर्वाधिक आवश्यकता
इस शताब्दी में विज्ञान व तकनीकी के अतिशय विकास स्वरूप | मानव ने प्रकृति पर पर्याप्त नियंत्रण पा लिया है। उद्योग, वाणिज्य और कृषि के क्षेत्र में एक आर्थिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ है। औद्योगीकरण द्वारा जहाँ एक ओर मानव जीवन को सुख सविधा सम्पन्न बनाया जा रहा है, वहाँ दूसरी ओर आज विश्व औद्योगीकरण के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों के विनाशकारी प्रभावों को झेल रहा है।
आज विश्व में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण और परमाणु ऊर्जा के कारण पर्यावरण पर सीधा प्रहार हुआ है, फलतः वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, मिट्टी का कटाव, कम वर्षा, दुर्भिक्ष, नगरों में आबादी की सघनता, स्वचालित वाहनों की अभिवृद्धि, जल-मल निकासी की दोषपूर्ण प्रणाली, रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के उपयोग, वन्य जीवों के प्रति उपेक्षाभाव, वाष्प एवं शोर प्रदूषण, | परमाणु विस्फोटों से उत्पन्न विकिरणों से उत्पन्न खतरे सम्पूर्ण विश्व सभ्यता को निगलने के लिए तत्पर खड़े प्रतीत हो रहे हैं। इस पर्यावरणीय संकट को दूर करने के लिए कोई पूर्णतया वैज्ञानिक या तकनीकी समाधान संभव नहीं है। अतः इसके लिए शिक्षा द्वारा सामाजिक संचेतना उत्पन्न करना ही आज की आवश्यकता है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ औपचारिक के साथ-साथ अनौपचारिक तथा निरोपचारिक शिक्षा की आज उतनी ही आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन अपने आदर्शों के साथ-साथ पर्यावरण शिक्षा भी आसानी से देकर जनसमुदाय को लाभान्वित कर सकते हैं।
कई पर्यावरण ऐसे हैं, जो व्यक्ति स्वयं बनाते हैं। इसके सबसे सामान्य उदाहरण रहने और काम करने के आवास है। अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए ही ये बनाये जाते हैं जब लोगों की संख्या तेजी से बढ़ती है अथवा औद्योगीकरण में तेजी आती है, तब पर्यावरण का परिस्थितिगत सन्तुलन बिगड़ जाता है। घर आसपास बनने से, उद्योगों के लिए पेड़ों को काटने और औद्योगिक रासायनिक अवशिष्टों को बिना सूझबूझ के पानी में छोड़ देने से पर्यावरण के प्राकृतिक साधन विकृत हो जाते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या तेजी से बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे असंतुलन के कुप्रभाव प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरणों पर भी दिखाई देने लगते हैं। इनमें से कुछ निम्न लिखित हैं
१. ऑक्सीजन का मनुष्य और उद्योगों द्वारा उपयोग होने से
वायु दूषित होने लगती है, पेड़ पौधों की कमी से भी ऑक्सीजन नहीं बनती है। तेजी से चलने वाले यातायात के साधनों का धुँआ पर्यावरण को और भी दूषित करता है। २. हरे भरे क्षेत्रों और जंगलों को आवास तथा उद्योग मिल जाते हैं तथा खेती के लिए जमीन नहीं रहती हैं।
३. बस्तियाँ, उद्योग, रेल की पटरियाँ और सड़कें खाली स्थान नहीं छोड़तीं।
४. औद्योगिक और मानवीय अवशिष्ट से जो दूषण होता है, वह नदियों व नहरों को खराब कर देता है।
५. पर्यावरण की ऊपरी सतह धुएँ, धूल और उद्योग धन्धों से
बनने वाले कोहरे से ढक जाती है तथा मनुष्य को दूषित जिन्दगी जीने पर मजबूर होना पड़ता है।
शहरी आबादियों का यह सामान्य अनुभव है, कि वह नगरों को गंदी बस्तियों में परिवर्तित होते देखते हैं और गंदी बस्तियों को गंदगी में नागरिक सुविधाएँ कम पड़ जाती हैं पीने का पानी मुश्किल से मिलता है। गंदगी और कूड़े को सही ढंग से किनारे न लगाना समस्याएँ पैदा करता है। आवास, बिजली, यातायात के साधन, खाद्य पदार्थों का संभरण सभी में कमी होती है। यदि स्वास्थ्य खराब करने वाली स्थितियाँ चलती रहें तो हवा और पानी दूषित हो जाते हैं हवा और पानी के दूषण से बीमारी का खतरा बना रहता है।
गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग हमेशा रोगाणुओं और संक्रामक बीमारियों के जोखिम में जीते हैं। विशेषकर हवा से आने वाली बीमारियाँ घनी बस्तियों में खूब फैलती हैं। इनमें से कुछ सांस लेने के अवयवों से सम्बन्धित हैं। इन रोगों में सबसे सामान्य है
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खाँसी, जुकाम या तपेदिक। ऐसे रोगियों के साथ से अन्य रोग भी पर आत्मनिर्भरता की भावना उत्पन्न करके उन्हें जागरूक बनाया हो सकते हैं। खुजली, कोढ़ और अन्य त्वचा रोग भी इसी कोटि में जा सकता है। हर उम्र के लोगों के सरल शब्दों में समझाया जाये आते हैं।
कि पर्यावरण हमारा वह वातावरण है, जिसका उपयोग हम अपनी घनी बस्तियों में रहने से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है। इस ।
प्रतिदिन की जिन्दगी में करते हैं; वह जमीन है, जिस पर हम रहते तनाव के कारण है-शोर भरा वातावरण, आराम करने के लिए
हैं। पेड़, पहाड़, नदियाँ और समुद्र-यह सभी पर्यावरण के भाग ही समय की कमी, थके हुए स्नायुओं को राहत न मिलना आदि।
। है। पर्यावरण को स्वच्छ रखना, इस योग्य बनाना कि प्राणी मात्र भीड़-भड़क्के की जिन्दगी से बचने के लिए कई लोग घर से भाग
इसमें स्वस्थ जीवन जी सके। यह हर व्यक्ति, बालक, महिला सभी Sanp जाते हैं और ज्यादातर समय घर से बाहर ही बिताते हैं। अनेक
का दायित्त्व है। बार व्यक्ति के सामाजिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है, जैसे वायु प्रदूषण के बारे में भी हर वय वर्ग को स्पष्टीकरण किया है। चिड़चिड़ा करने वाला रवैया, जल्दी क्रोधित होना, लड़ाई-झगड़ा जा सकता है। वायु में हम श्वांस लेते हैं और प्रदूषण से जिन्दगी करना आदि। गंदी बस्तियों के खराब हालत के मुख्य शिकार छोटे को खतरा हो सकता है। वायु प्रदूषण उद्योगों के जरिये होता है। बच्चे होते हैं, जो या तो अपने माता-पिता को उनके असामाजिक परिवहन के साधनों के धुएँ से वायु के स्वास्थ्यकर गुण समाप्त हो । कुकृत्यों के कारण खो देते हैं अथवा स्वयं समाज से बहिष्कृत हो जाते हैं, जिनसे मानव को हानि पहुँचती है। वायु को स्वच्छ रखने जाते हैं। असामाजिक कार्यक्रम उन्हें आसानी से भटका देते हैं। लोग की दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता वृक्षों की है। जितने वृक्ष भीड़ युक्त इलाकों में रहने के कारण स्वच्छ हवा से वंचित रहते हैं। लगाये जायेंगे, उतनी ही हवा स्वच्छ होगी और उसमें प्राणदायी वे शक्ति की कमी महसूस करते हैं। इस कमी से उनके शारीरिक, तत्त्व बढ़ेंगे। वृक्ष न सिर्फ हमें लकड़ी देते हैं अथवा फल देते हैं, Peopp मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य में असंतुलन उत्पन्न होता है। बल्कि हवा में वे आवश्यक तत्त्व भी छोड़ेते हैं, जिनकी सहायता से saal भीड़ युक्त स्थल पर रहने से छूत की बीमारियाँ होती है। गंदे । स्थल पर रहने की बीमारियाँ टोली
पृथ्वी प्राणियों के योग्य रहती है। वातावरण में कीड़े, चूहे, खटमल और मक्खियाँ पनपती है। साथ वायु प्रदूषण के साथ-साथ जल प्रदूषण के बारे में विस्तृत 3000 ही गंदे वातावरण से लोग आलसी भी हो जाते हैं। गंदगी, पानी, जानकारी भी हर उम्र के स्त्री-पुरुष, बालकों को देनी आवश्यक है। हवा और जमीन के प्राकृतिक गुणों का नाश करती है। घनी । उन्हें बताना चाहिए कि गंदा पानी पीने से अनेक बीमारियाँ फैलती बस्तियों में रहने वाले लोगों में असामाजिक व्यवहार पनपता है, हैं। पानी को शुद्ध करके पीना चाहिए। धोवन का अथवा उबला 100%acs स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली आदतों को बढ़ावा मिलता है और हुआ पानी भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। जीवन स्तर गिरता है।
बालकों को पृथ्वी की सतह की देखभाल करने तथा उसका प्रदूषित वातावरण में बार-बार महामारियाँ आती हैं, छूत की संरक्षण उचित प्रकार से समझाया जाना चाहिए। उन्हें यह बताना बीमारियाँ फैलती है, जिससे मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी होती है। बीमारी आवश्यक है, कि पृथ्वी की सतह जिस पर अन्न पैदा होता है तथा तथा मृत्यु-दर की बढ़ोत्तरी से लोगों के दिलों में अपने स्वयं के जहाँ से हमें अनक प्रकार के पदार्थ प्राप्त होते हैं, उसका संरक्षण जीवन के प्रति तथा बच्चों के जीवन के प्रति असुरक्षा उत्पन्न होती । हम उचित ढंग से नहीं करते हैं, इसके कारण पृथ्वी पर रेतीले है। स्वास्थ्य की खराबी से लोग निम्न स्थितियों में जीने को बाध्य खण्ड फैलते जा रहे हैं। उपजाऊ धरती ऊसर होती जा रही है होते हैं-खेती लायक जमीन की कमी से अन्न की कमी होती है। पर्वतों की ढलाने, वृक्षों की कटाई के कारण मिट्टी को बहाकर, बालकों, महिलाओं और प्रौढ़ों को यदि पर्यावरण की शुद्धता
पथरीली बना रही हैं। ऐसी स्थिति में हर व्यक्ति सजग नहीं होगा एवं अशुद्धता, उत्पादन पर इसका प्रभाव, पेड़ों का कटाव, उद्योग
तो ऊसर भूमि का फैलाव कम नहीं किया जा सकेगा। उपजाऊ धन्धों पर पर्यावरण का प्रभाव, जनसंख्या और पर्यावरण का
मिट्टी जमीन की ऊपरी सतह पर पानी और कीड़ों-पत्तों के गलने से सम्बन्ध, ऑक्सीजन की कमी, यातायात के साधनों के धुएँ से
बनती है। इस उपजाऊ मिट्टी को कायम रखने के लिए हम बहुत पर्यावरण पर दूषित प्रभाव, मानवीय अवशिष्ट, प्रदूषण आदि के
कम उपाय करते हैं। जरूरत यह है, कि उचित उर्वरकों की बारे में जानकारी दी जा सकती है। शिक्षण या व्याख्यान के समय
सहायता से हम पृथ्वी में से लिए गये तत्त्वों का संभरण करें और पर्यावरण से सम्बन्धित उदाहरण देकर विषय वस्तु का स्पष्टीकरण
उसे पुनः कृषि योग्य बनाएँ। धरती के तत्त्वों का संरक्षण करने पर किया जा सकता है। हर उम्र के लोगों को स्वच्छ रहने हेतु प्रेरित
ही यह हो सकेगा। किया जा सकता है, सफाई का महत्त्व समझाया जा सकता है; दी गई जानकारी बालक, युवा, महिलाएँ तथा वृद्ध सभी अपने रोगों की रोकथाम सम्बन्धी जानकारी दी जा सकती है तथा स्वयं । परिवार के सदस्यों, पड़ोसियों तथा समाज के लोगों को बताएँ को अपने स्वास्थ्य की उचित प्रकार से संभाल करने हेतु जानकारी ताकि एक स्वस्थ और समृद्ध जीवन जीने की ओर आगे बढ़ा जा Dog दी जा सकती है। बालकों तथा महिलाओं में पराश्रयता के स्थान } सके।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
कैसा हो हमारा आहार
-आचार्य राजकुमार जैन हम प्रतिदिन जो कुछ खाते-पीते हैं वह आहार कहलाता है। वह (१) शरीर में होने वाली विभिन्न प्रकार की क्षति की पूर्ति
आहार प्राणिमात्र के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है, क्योंकि करना और उसके विकास में सहायता प्रदान करना। 1200 वह आहार हमारे शरीर की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही
(२) ताप या शक्ति उत्पन्न करना। FROD900 नहीं करता है उस आहार के द्वारा शरीर का भरण-पोषण होता है, 5D अतः वह शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा और स्वास्थ्य संवर्धन का मुख्य
(३) उपर्युक्त दोनों क्रियाओं का नियन्त्रण करना। आधार है। यह एक स्वतः स्थापित तथ्य है कि कोई भी मनुष्य इनमें से प्रथम कार्य मांसतत्व (प्रोटीन), खनिज लवण (साल्ट) * खाए बिना जी नहीं सकता और जब जी नहीं सकता तो कुछ कर एवं जल के द्वारा निष्पन्न होता है। दूसरा अर्थ वसा (फैट) और
नहीं सकता। अत: कुछ करने के लिए जीना आवश्यक है और शाकतत्व (कार्बोहाइड्रेट) के द्वारा पूर्ण होता है और तीसरा कार्य 000000 जीने के लिए आहार ग्रहण करना आवश्यक है। इससे यह स्पष्ट है जीवनीय तत्व (विटामिन्स) तथा खनिज लवण सम्पादित करते हैं। 1 0.6 कि मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के लिए आहार की अपेक्षा है।
शरीर की क्रियाशीलता के लिए शरीर में स्थित मांस पेशियाँ 100280 आहार का हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है। सदैव चेष्टावान् रहती हैं जिससे शरीर में सदैव शक्ति का क्षय होता
- क्योंकि प्रतिदिन हम जो कुछ खाते हैं पीते हैं वह हमारे शरीर में रहता है। अतः इस क्षति की पूर्ति के लिए नित्य नूतन आहार द्रव्यों NERHOO207 पहँचकर शरीर के पाचन संस्थान, शरीर में स्थित अवयवों की की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त शरीर के विकास काल 1666 क्रियाओं तथा रस-रक्त मांस आदि धातुओं को अनुकूल या प्रतिकूल में भी शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों
ROOPO रूप से प्रभावित करता है। इससे स्पष्ट है कि हमारे जीवन निर्वाह 1 की पूर्ति एवं शक्ति खाए हुए आहार से ही प्राप्त होती है। अतः HOORD के लिए आहार की अपेक्षा है जो हमारे शरीर और शारीरिक | शरीर शास्त्र की दृष्टि के उपयुक्त आहार वही है जो शरीर में (१) 885 स्वास्थ्य के संरक्षण और संवर्धन का मुख्य आधार है।
आवश्यक परिमाण में शक्ति उत्पन्न करें, (२) नित्य प्रति होने वाली PODISA आहार का प्रभाव केवल शरीर पर ही नहीं पड़ता है, अपितु
क्षति की पूर्ति एवं शरीर के विकास के लिए आवश्यक उपादानों
(पोषक तत्वों) की पूर्ति करे तथा (३) शरीर में होने वाली विभिन्न POS मन और मस्तिष्क भी उससे अपेक्षित रूप से प्रभावित होते हैं।
रासायनिक क्रियाओं का नियन्त्रण करे। 68 क्योंकि हमारे द्वारा ग्रहण किए गए आहार से केवल शरीर का ही DB पोषण नहीं होता है, अपितु मन और उसकी क्रियाओं पर भी हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं के संचालन के लिए तथा 000 उसका पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः शरीर के साथ-साथ मन भी
शारीरिक स्वास्थ्य संरक्षण के लिए जो आहार तत्व हमारे लिए 1600 स्वस्थ रहे-यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क
आवश्यक हैं तथा आवश्यकतानुसार हमारे भोजन में समावेश होना 100 की रासायनिक क्रियाएँ भी हमारे शरीर और मन को प्रभावित
आवश्यक है। सामान्यतः प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, स्नेह (वसा), लवण, 8 करती हैं। दूसरी ओर मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रिया हमारे द्वारा
क्षार, लौह और जीवनीय तत्व (विटामिन्स) ये हमारे आहार के गृहीत भोजन में विद्यमान विभिन्न तत्वों से प्रभावित होती है। इस
सामान्य तत्व हैं। शरीर के पोषण, संवर्धन और संरक्षण के लिए TROOPS अर्थ में आहार मात्र शरीर का ही पोषण नहीं करता है, उससे मन
हमारे दैनिक आहार में आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में इनका DS और मस्तिष्क को भी पोषण तत्व प्राप्त होते हैं। आहार की
समावेश होना सन्तुलित भोजन माना जाता है। यदि शरीर को यथा DD8% उपयोगिता बतलाते हुए आयुर्वेद शास्त्र में आहार को शरीर के
समय इन तत्वों की आपूर्ति होती रहती है तो शरीर स्वस्थ, निरोग BED बल, वर्ण और ओज का मूल प्रतिपादित किया गया है-“प्राणिनां ।
और क्रिया करने में सक्षम बना रहता है। 00% पुनर्मूलमाहारो बलवीजतां च।"
आहार की मात्रा आयुर्वेद में आहार की परिभाषा बतलाते हुए कहा गया है- आहार की मात्रा मनुष्य की अग्नि (पाचकाग्नि) के बल की
"आहियते अन्ननलिकया यत्तदाहारः।" अर्थात् अन्न नलिका (मुख अपेक्षा रखती है, जैसा कि आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित है2006 मार्ग) से जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह आहार है। इस विषय में / “मात्राशी स्यात्। आहारमात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी।" इसका आशय 1000000 आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से पर्याप्त विचार किया यह है कि आहार की जो मात्रा भोजन करने वाले मनुष्य की
2068 गया है। तदनुसार आहार उस द्रव्य को कहते हैं जो पाचन नलिका प्रकृति में कोई बाधा नहीं पहुँचाते हुए यथा समय पच जाय वही 12022 (आंत्र) के द्वारा शरीर में शोषित होकर निम्न कार्यों को सम्पन्न । उस व्यक्ति के लिए अभीष्ट एवं प्रामाणित मात्रा है। इसे और PORD करता है :
अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है-“मात्रां खादेद
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५९१ | बुभुक्षितः।" तथा "नाप्राप्तातीतकालं वा हीनाधिकमथापि वा।" । खाने वाला व्यक्ति कभी भी उदर सम्बन्धी विकारों-परेशानियों से अर्थात् जिसे अच्छी भूख लगी हो ऐसा बुभुक्षित व्यक्ति उचित मात्रा । पीड़ित नहीं होता और वह स्वस्थ रहता हुआ पूर्ण सुखायु का तुर पूर्वक आहार ग्रहण करे तथा समय से पूर्व एवं समय बीत जाने के उपभोग करता है। बाद भोजन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बिल्कुल हीन मात्रा
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि हमारे द्वारा खाए गए या अत्यधिक मात्रा में भी भोजन नहीं करना चाहिए। मात्रा पूर्वक
आहार का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। कम खाने वाला a ad आहार लेने से जो लाभ होते हैं उनका प्रतिपादन आयुर्वेद के
व्यक्ति आत्म सन्तोषी होता है। उसकी महत्वाकांक्षाएँ अधिक नहीं 8000 आचार्य चरक ने निम्न प्रकार से किया है:
बढ़ पाती हैं। उसे जितना मिलता है वह उतने में ही संतुष्ट रहता 68 "मात्रावद् ह्यशनमशितमनुपहत्य प्रकृति बलवर्णसुखायुषा है। यही कारण है कि उसकी धैर्यशक्ति और सहन शक्ति बराबर योजयत्युपयोक्तारमवश्यमिति।"
बनी रहती है और वह उसे कभी असन्तुलित या अनियन्त्रित नहीं 90020 अर्थात् मात्रा पूर्वक ग्रहण किया गया आहार, आहार ग्रहण
होने देती। करने वाले व्यक्ति की प्रकृति को हानि (बाधा) पहुँचाए बिना अधिक खाना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य के 500 अवश्य ही उसे बल, वर्ण, सुख एवं पुर्णायु से युक्त करता है। | लिए हितकारी नहीं होता है। अधिक खाने से शरीर में भारीपन, आहार के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण ज्ञातव्य तथ्य यह भी है।
बुद्धि में ठसता और मन में तामस भव उत्पन्न होता है जिसका कि जब हम इस बात के लिए सचेष्ट और सावधान हैं कि हम क्या
प्रभाव इन्द्रियों पर पड़ता है। परिणामतः मनुष्य में आलस्य औरत खाएँ? तो हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम कितना खाएं
निद्रा उत्पन्न होती है। ये दोनों भाव मनुष्य की सहज एवं स्वाभाविक और कब खाएँ? इसका समाधान करते हुए आचार्य चरक कहते
वृत्ति में बाधक होते हैं। इससे धर्माचरण तथा अन्य आचार-व्यवहार हैं-"हिताशी स्यान्मिताशी स्यात्।" अर्थात् हितकारी भोजन करने
में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। आत्महित चिन्तन में लगे हुए969 वाला और परिमित याने सीमित भोजन करने वाला होना चाहिए।
व्यक्तियों के लिए सदैव जागरूक बने रहना आवश्यक है, ताकि इसका आशय यह है कि लघु, सुपाच्य एवं सुस्वादु वह भोजन
उनके स्वाध्याय, धर्मानुचिन्तन एवं धर्माचरण में कोई व्यवधान 30 करना चाहिए जो मनुष्य की अपनी प्रकृति के अनुकूल हो। इसके
उत्पन्न न हो। यह तब ही सम्भव है जब वह अल्पाहारी हो। भूख से 500 साथ ही परिमित मात्रा याने सीमित प्रमाण में आहार सेवन करना
कम खाना एक ओर जहाँ विभिन्न रोगों के आक्रमण से शरीर की जय चाहिए। परिमित परिमाण में खाने से शरीर सदा स्वस्थ एवं निरोग
रक्षा करता है वहाँ दूसरी ओर मानसिक भावों को दूषित होने से तो बना ही रहता है, मन में प्रसन्नता और बुद्धि में निर्मलता रहती
बचाता है और बौद्धिक विचारों में विकृति नहीं आने देता। आहार तक है। व्यवहार में सामान्यतः देखा गया है कि कुशाग्र या तीव्र बुद्धि
के सम्बन्ध में एक मूलभूत सामान्य नियम यह है कि “खाना जीने 8000 वाले लोग सीमित मात्रा में ही आहार लेते हैं। आत्महित चिन्तन में के लिए है, न कि जीना खाने के लिए।" आज स्थिति इससे सर्वथा
l लगे हुए धार्मिक वृत्ति वाले लोग भी केवल अपने शरीर निर्वाह के भिन्न है। हम में से अधिकांश लोग खाने के लिए जीते हैं। यही 88820 लिए अल्प प्रमाण में ही आहार लेते हैं।
कारण है कि वे जरूरत से अधिक खाते हैं और ऐसा करके वे 3936
अपने स्वास्थ्य के प्रति गैर जिम्मेदार रहते हुए अनेक समस्याएँ Dacos - हम जो भी कुछ खाते हैं वह हमारी पाचन शक्ति को
उत्पन्न कर लेते हैं। प्रभावित करता है। उस खाए हुए आहार का परिपाक होने के बाद जब वह आहार रस में परिवर्तित होता है तो वह रस सम्पूर्ण यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर की समस्त क्रियाएँ ऊर्जा
व शरीर में घूमता हुआ प्रत्येक अंग, अवयव, मस्तिष्क आदि के के द्वारा उत्पन्न होती हैं। उस ऊर्जा की पूर्ति ग्लूकोज और प्राणवायु सूक्ष्मांशों में पहुँचता है और वे सभी अंगावयव उससे प्रभावित होते
(ऑक्सीजन) इन दो स्रोतों से होती है। सामान्यतः जब उचित हैं। लगातार अधिक खाते रहने से कालान्तर में पाचकाग्नि मन्द हो । परिमाण में आहार लिया जाता है तो उसके पाचन के लिए शरीर जाती है जिससे अल्प मात्रा में खाए हुए अन्न का पचाना भी दुष्कर । में विद्यमान (पाचन संस्थान में स्थित) ऊर्जा से काम चल जाता है, हो जाता है। परिणाम स्वरूप अग्निमांद्य, अरुचि, अतिसार आदि किन्तु अधिक मात्रा में आहार ग्रहण किए जाने की स्थिति मेंER बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। यदि लगातार यही स्थिति अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति शरीरगत बनी रहती है तो शरीर के लिए आवश्यक रस-रक्तादि धातुओं का
अन्य संस्थान या केन्द्र से की जाती है। सामान्यतः आहार पाचन के निर्माण, प्रभावित होता है और शरीर धीरे-धीरे बलहीन एवं लिए जो ऊर्जा काम में आती है वह विद्युत ऊर्जा के रूप में जानी का निस्तेज होता जाता है। अतः सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि जाती है, जबकि मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों के काम में आने वाली SUSD अग्निबल (पाचन शक्ति) की रक्षा की जाए। इसके लिए यह ऊर्जा प्राण-ऊर्जा होती है। अधिक मात्रा में खाए गए आहार के ED आवश्यक है कि हित और मित अर्थात् हमारे लिए जो हितकारी है । पाचन के लिए अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता होने पर और उचित परिमाण या मात्रा में हो उसे ग्रहण किया जाए। कम | उसकी पूर्ति मस्तिष्कीय विद्युत ऊर्जा से होती है जिससे मस्तिष्कीयात
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क्रिया-कलाप प्रभावित होते हैं, उनमें मन्दता आती है। क्योंकि पाचन संस्थान द्वारा अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा का उपयोग किए जाने पर मस्तिष्क को मिलने वाली विद्युत ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। | परिणामतः उदरस्थ पाचन की क्रिया प्रधान और मस्तिष्क की क्रिया गीण हो जाती है। इसका सीधा प्रभाव यह होता है कि मनुष्य अधिक आहार वाला और कम बुद्धि वाला होता है शरीर में निर्मित होने वाली उस ऊर्जा का सम्बन्ध शारीरिक श्रम से है। खाए हुए आहार का पाचन करने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता होती है वह सामान्यतः सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान रहती है। शरीर का कोई भी अंग जब अतिरिक्त श्रम करता है तब उसके ऊर्जा का प्रवाह अधिक हो जाता है। आहार के पाचन के लिए पाचन संस्थान को अतिरिक्त या अधिक श्रम करना पड़ता है तब उसे अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति अन्य संस्थान या अवयव से होती है। अतः किसी एक अवयव को अतिरिक्त ऊर्जा की पूर्ति होने पर जिस अवयव से पूर्ति होती है उस अवयव में ऊर्जा की कमी हो जाती है जिससे निश्चित रूप से उस अवयव की क्रियाएँ प्रभावित होती है, परिणाम स्वरूप उस अवयव की क्रियाओं में मन्दता आ जाती है।
भोजन करने के तत्काल बाद कोई भी बौद्धिक कार्य नहीं करने का निर्देश विद्वानों ने दिया है। इसका कारण सम्भवतः यही है कि पाचन संस्थान में जाने वाली ऊर्जा में अवरोध उत्पन्न नहीं हो और उस अवरोध या ऊर्जा की अल्पता के कारण पाचन में कोई विकृति नहीं हो सामान्यतः जब सादा और संतुलित भोजन लिया जाता है तब शरीर के सभी अंग प्रत्यंगों को संतुलित ऊर्जा का प्रवाह सतत बना रहता है, क्योंकि पाचन के लिए अपेक्षित ऊर्जा वहाँ स्वतः ही विद्यमान रहती है, उसे अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु जब गुरु (भारी) और असन्तुलित भोजन (बार-बार खाना या अधिक मात्रा में खाना) लिया जाता है तब पाचन संस्थान को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो वह अन्य अंगोंअवयवों से खींचता है। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है, क्योंकि आकृष्ट ऊर्जा वहीं से आती है। अतः यह स्वाभाविक है कि जब पाचन संस्थान की ऊर्जा बढ़ेगी तो मस्तिष्क की ऊर्जा क्षीण होगी। ऐसी स्थिति में अधिक या असन्तुलित खाने वाले का मस्तिष्क या बुद्धि उतनी तीव्र या कुशाग्र नहीं होती है। जितनी कम और संतुलित खाने वाले की होती है। अधिक खाने वाले का पेट तो बड़ा होता है, किन्तु मस्तिष्क छोटा होता है। यही कारण है कि न तो उनकी बुद्धि विकसित होती है और न ही प्रतिभा का विकास होता है। अतः यह आवश्यक है कि ऊर्जा का अनावश्यक व्यय या अपव्यय न हो। पाचन के लिए कम से कम व्यय हो, ताकि चिन्तन-मनन आदि मस्तिष्कीय एवं मानसिक गतिविधियों में उसका उपयोग अधिकाधिक हो सके जो मनुष्य के बौद्धिक व मानसिक स्तर तथा प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
आहार सात्विक हो
दैनिक रूप से हम जो भी आहार लेते हैं वह तीन प्रकार का होता है- सात्विक, राजसिक और तामसिक शुद्ध, लघु, सुपाच्य आहार सात्विक आहार होता है। जिस आहार के सेवन से सत्व (मन) बुद्धि और विचार शुद्ध, निर्मल और सरल होते हैं, वह आहार सात्विक होता है। सात्विक आहार के सेवन से हृदय में सरलता और निर्मलता आती है, विचारों में पवित्रता आती है और मानसिक भाव या परिणाम शुद्ध होते हैं। सात्विक आहार के अन्तर्गत सभी प्रकार का अनाज, दलहन, साग-सब्जियाँ, फलियाँ, फल, सूखे मेवे तथा उचित मात्रा में दूध, मक्खन, पनीर आदि आते हैं। ऐसा आहार मानसिक शान्ति और समरसता उत्पन्न करता है, चित्त और मस्तिष्क में विकार उत्पन्न नहीं होने देता तथा मनोभावों को दूषित नहीं होने देता।
अधिक मात्रा में मिर्च-मसाले, अचार, चटनी, खट्टे तीखे, उष्ण, तीक्ष्ण पदार्थों वाले भोजन का सेवन करना राजसिक आहार के अन्तर्गत आता है। राजसिक आहार स्वभाव को उग्र बनाता है। उत्तेजक होने से मन, मस्तिष्क और इन्द्रियों को उत्तेजित करता है। राजसिक आहार सेवन करने वालों का मन अशान्त और असन्तुलित होता है, उन्हें क्रोध जल्दी आता है। मन और मस्तिष्क में चंचलता होने से उनके विचार अस्थिर होते हैं, ऐसे व्यक्ति कोई निर्णय नहीं कर पाते हैं।
बासा खाना, मांस, मछली, अण्डा, मुर्गे का चूजा, स्मैक, हेराइन, गांजा, भांग, धतूरा आदि विभिन्न नशीले द्रव्यों का सेवन एवं मदिरा आदि नशीले पेयों का सेवन तामसिक आहार में परिगणित होता है। तामसिक भोजन मन एवं बुद्धि को मन्द करता है, विचारों को कुण्ठित करता है तथा शारीरिक कार्यक्षमता को मन्द करता है। सतत रूप से तामसिक आहार लेने वाले व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर प्रकृति के होते हैं, उनकी विचार शक्ति कुण्ठित हो जाती है, उनके हृदय में स्वाभाविक सहज भाव उत्पन्न नहीं हो पाते। वे सतत दुर्भावना से ग्रस्त रहते हैं और उनके विचारों की पवित्रता नष्ट हो जाती है। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं।
उपर्युक्त तीन प्रकार के आहार में सात्विक आहार सर्वोत्तम होता है, राजसिक आहार मध्यम और तामसिक आहार अधम होता है। निर्मल बुद्धि एवं सात्विक विचारवान् लोग सर्वथा सात्विक आहार को ही ग्राह्य मानते हैं वे अपने आचार-विचार एवं व्यवहार को सरल एवं निर्मल बनाने के लिए सात्विक आहार ही ग्रहण करते हैं। आध्यात्मिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए भी सात्विक आहार ही अनुकूल होता है। व्यक्ति चाहे किसी धर्म या सम्प्रदाय से जुड़ा हो, ईश्वराराधन के लिए उसे सात्विक होना आवश्यक है और सात्विक होने के लिए सात्विक आहार का ही ग्रहण करना आवश्यक है विभिन्न धर्मो का सन्देश भी हमें यही प्रेरणा देता है कि हम सात्विक बनें और सात्विक आहार ही ग्रहण करें।
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
५९३ | आहार सेवन के क्रम में शुद्ध एवं सात्विक आहार के सेवन फल, फली, कन्द, मूल, पत्ते, गूदा आदि का उपयोग प्राकृतिक को विशेष महत्व दिया गया है। अतः सामान्यतः हमारा आहार स्थिति में या थोड़ा उबालकर आसानी से किया जा सकता है। शाक ERPAPOOR सात्विक होना चाहिए। सात्विक आहार शरीर को तो स्वस्थ रखता खरीदने में सस्ते और पकाने में आसान भी पड़ते हैं। उन्हें DSS ही है वह मस्तिष्क को अविकृत और मन को सन्तुलित रखता है। आंगनबाड़ी के रूप में घरों में भी उगाया जा सकता है। फलों के इस प्रकार सात्विक आहार शारीरिक स्वास्थ्य रक्षा में तो सहायक है बाद उन्हीं की संगति शरीर के साथ ठीक बैठती है। सामान्यतः ही, इससे मानसिक भावों और परिणामों में भी विशुद्धता आती है। विभिन्न ऋतुओं में होने वाले मौसमी फल भी इतने मंहगे नहीं होते सबसे बड़ी बात यह है कि सात्विक आहार के मूल में अहिंसा का कि उन्हें थोड़ी बहुत मात्रा में लेना कठिन प्रतीत हो। केला, पपीता, भाव निहित है जो प्राणिमात्र के प्रति कल्याण के व्यापक दृष्टिकोण । आम, अमरूद, बेर, खरबूजा जैसे ऋतुकालीन फल आसानी से मिल का परिचायक है। यह सम्पूर्ण प्राणिजगत् की समानता के आधार । जाते हैं और सस्ते भी पड़ते हैं। इन्हें भी अपने दैनिक भोजन का का निर्माण करता है। यह अनिवार्यता के सिद्धान्त को प्रतिपादित प्रमुख अंग बनाया जा सकता है। करता है जिसके अनुसार हमें वह भोजन लेना चाहिए जो जीवन
आज आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति एवं आचारधारण के लिए अनिवार्य है। जिसकी अनिवार्यता न हो वह नहीं
विचार सबको दकियानुसी कहने वाले इस झूठी धारणा के शिकार लेना चाहिए। मात्र स्वाद की दृष्टि से जिह्वा की लोलुपता के
| हो रहे हैं कि शाकाहारी भोजन से उचित मात्रा में प्रोटीन अथवा वशीभूत होकर ऐसा आहार नहीं लेना चाहिए जो दूसरे प्राणियों को
शक्तिवर्धक उचित आहार प्राप्त नहीं होता। वस्तुतः यह मात्र भ्रान्ति मारकर बनाया गया हो।
है। आधुनिक शोधकर्ताओं व वैज्ञानिक की खोजों से यह स्पष्ट हो मनुष्य यदि अपनी इच्छाओं, वासनाओं एवं महत्वाकांक्षाओं के गया है कि शाकाहारी भोजन से न केवल उच्चकोटि के प्रोटीन अधीन नहीं होता है तो वह निश्चय ही सुखी रहता है, क्योंकि प्राप्त होते हैं, अपितु अन्य आवश्यक पोषक तत्व विटामिन, आत्म सन्तोष के कारण वह कभी विचलित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति
खनिज, कैलोरी आदि भी अधिक मात्रा में प्राप्त होते हैं। सोयाबीन मनोविकारों से ग्रस्त नहीं होता, क्रोधादि विकार भाव ऐसे व्यक्ति
व मूंगफली में मांस व अण्डे से अधिक प्रोटीन होता है। सामान्य को ग्रसित नहीं कर पाते हैं, राजस और तामस भाव उसे अपने
दालों में भी प्रोटीन की मात्रा कम नहीं होती। गेहूँ, चावल, ज्वार, य शव प्रभाव में लेने में समर्थ नहीं पाते और वह इन्द्रिय जनित इच्छाओं
बाजरा, मक्का इत्यादि के साथ उचित मात्रा में दालें एवं हरी और वासनाओं का दास नहीं बन पाता।
सब्जियों का सेवन किया जाए तो न केवल प्रोटीन की आवश्यकता दूषित, मलिन एवं तामसिक आहार स्वास्थ्य के लिए पूर्ण होती है, अपितु अधिक संतुलित आहार प्राप्त होता है जो 245 अहितकारी और मानसिक विकार उत्पन्न करने वाला होता है। कई शाकाहारी व्यक्ति को मांसाहारी की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, सबल बार तो यहाँ तक देखा गया है कि आहार के कारण मनुष्य एवं कार्यक्षम बनाता है तथा उसे दीर्घायु प्रदान करता है। शारीरिक रूप से स्वस्थ होता हुआ भी मानसिक रूप से अस्वस्थ
1. वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह तथ्य उद्घाटित हुआ है कि होता है और जब तक उसके आहार में समुचित परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक उसके मानसिक विकार का उपशमन भी नहीं
| मांसाहार हमारे जीवन के लिए कतई अनिवार्य नहीं है। मांसाहार 6000
कोलेस्ट्रोल को बढ़ाता है जो हृदय रोग का कारण है। वास्तव में होता।
माँस का अपना तो कोई स्वाद होता नहीं है, उसमें मसाले, 886 उपयोगिता शाकाहार की
{ चिकनाई आदि अन्य अनेक क्षेपक द्रव्य मिलाए जाते हैं उनका ही मनुष्य का स्वाभाविक आहार शाकाहार है। शाकाहार से स्वाद होता है। इसके विपरीत शाकाहारी पदार्थों-फल, सब्जी, मेवे अभिप्राय उस आहार से है जो हमें विभिन्न वनस्पतियों या आदि में अपना अलग स्वाद होता है जो बिना किसी मसाले आदि वानस्पतिक द्रव्यों के माध्यम से मिलता है। विभिन्न प्रकार का } के बड़े स्वाद और चाव से खाए जाते हैं। अनाज, दालें, शाक-सब्जी और फल शाकाहार में समाहित है।
शाकाहार के अन्तर्गत दूध, दही, छाछ भी हमारे दैनिक आहार 200PP इसके अतिरिक्त गाय, भैंस, बकरी से प्राप्त होने वाला घी, दूध
1 में सम्मिलित रह सकते हैं। मिठास के लिए सफेद चीनी के स्थान 0000 और उससे निर्मित विविध पदार्थ जैसे दही, छाछ, मक्खन, घी
1 पर गुड़, शक्कर, किसमिस, अंजीर, खजूर आदि को प्रयोग में लाया आदि भी इसी के अन्तर्गत आते हैं।
जा सकता है। इससे बहुत कुछ अंशों में लोगों को मधुमेह व्याधि जंगलों की कमी और मनुष्यों की बढ़ती हुई आबादी से अब होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। हमारे दैनिक भोजन में अन्न फलों का उत्पादन कम होता जा रहा है और इनकी खपत बढ़ने से की मात्रा यदि शाक और दूध की तुलना में कम रखी जाती है तो 2000d वे मंहगे मिलने लगे हैं। इसलिए दूसरी श्रेणी का आहार जिसके । यह हमारे शरीर की दैनिक आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए अन्दर विभिन्न प्रकार के शाक आते हैं, शाकाहार के रूप में पर्याप्त है, यह हमारे स्वास्थ्य संरक्षण में सहायक होता है। हमारे अपनाया जा सकता है। ऐसे कितने ही सुपाच्य शाक हैं, जिनके दैनिक आहार में यदि एक तिहाई या चौथाई अन्न रहता है तो ठीक
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का पालन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । है, इससे अधिक अनाज का भार उदर की पाचन शक्ति पर नहीं । ५. भोजन के दौरान बीच में थोड़ा-थोड़ा जल लेना चाहिए। डाला जाना चाहिए।
भोजन के बाद बहुत अधिक जल नहीं पीना चाहिए। यह एक तथ्य परक स्थिति है कि अनाज हो या शाक-फल ६. सामान्यतः दिन में दो बार भोजन करना चाहिए और दोनों आदि हों, उनके छिलकों में अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्व रहते हैं। भोजनों के मध्य लगभग छह से आठ घंटे का अन्तराल (अन्तर) अतः विभिन्न अनाज, दालों और फलों का उपयोग यदि छिलका होना चाहिए। इससे भोजन के पचने में सुविधा रहती है और सहित किया जाता है तो वह अधिक लाभदायक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन का परिपाक ठीक होता है। होता है। गेहूँ, चना आदि को अंकुरित कर लिया जाए और प्रातः ।
७. दिन भर मुँह चलाते रहने की आदत ठीक नहीं है। उन भीगे व फूले हुए चनों को खाया जाय तो उससे न केवल
बार-बार कुछ न कुछ खाते-पीते रहना पाचन सिद्धान्त के विरुद्ध शरीर की आहार सम्बन्धी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति होती है,
और हानिकारक है। इससे पाचन शक्ति प्रभावित होती है और वह अपितु वह गुणकारी एवं पौष्टिक भी होता है। अन्न द्रव्य को
बिगड़ जाती है जिससे भोजन के परिपाक में बाधा आती है और भिगोकर उसे भीगे तौलिया में बांधकर हवा में लटका दिया जाय
आहार का परिपाक जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हो पाता है। अतः तो वह अन्न द्रव्य स्वयं की अंकुरित हो जाता है। उसे कुचलकर या
बार-बार खाने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। ऐसे ही खाया जा सकता है। थोड़ा सा उबाल लेने पर सुखादु खाने लायक एवं रुचिकर तो बन जाता है, उसकी पोषक शक्ति में
८. भोजन करने के बाद लगभग १०० कदम चलना चाहिए। अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो जाती है। पेट खाली हो जाने पर और ९. ग्रीष्म आदि ऋतु में भोजन के बाद यदि लेटने की आदत है तेज भूख लगने पर यदि देर तक चना चबाकर खाया जाय तो तो बाँई करवट से लेटना चाहिए। साधारण आहार भी विशेष गुणकारी हो जाता है।
१०. भोजन में सामान्यतः चोकर युक्त युक्त आटा, जौ, यह तथ्य परक वस्तु स्थिति है कि गेहूँ आदि अनाज का पिसा । चावल, दालें, चना, घी, तक्र, सोयाबीन, ताजी हरी तरकारियों हुआ आटा छानकर प्रयोग करने से उसके पुष्टिकारक और । आदि का सेवन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार बलवर्धक तत्व चोकर में निकल जाते हैं और आटा सार हीन बन । नीबू, अदरक, आंवला आदि का प्रयोग भी करना चाहिए। जाता है। अतः सदैव चोकर युक्त आटे का प्रयोग करना चाहिए।
११. भोजन के अन्त में ऋतुओं के अनुसार उपलब्ध फल जैसे । इसी प्रकार मूंग और उड़द की दालें छिलका सहित ही सेवन करना ।
केला, अमरूद, अनार, संतरा, नाशपाती, सेब आदि का सेवन चाहिए। सेव जैसे फलों का छिलका उतार कर खाना बुद्धिमानी नहीं
करना चाहिए। है। अपने आपको सुसंस्कृत समझने वाले भले ही इसे आज सभ्यता का तकाजा मानकर सेब का छिलका उतारकर खाएँ, किन्तु यह
१२. सबसे अंत में तक्रपान करना अत्यन्त लाभदायक है। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी और लाभदायक नहीं होता है। १३. प्रतिदिन दही सेवन नहीं करना चाहिए। रात्रि में दही का । जलपान में दूध-छाछ जैसे द्रव प्रधान आहार लेना पर्याप्त एवं प्रयोग हानिकारक होता है। अतः बिल्कुल नहीं करना चाहिए। उपयोगी होता है, प्रात:कालीन नाश्ता में यथा सम्भव ठोस आहार
१४. पानी का सेवन भी हमारे शरीर के लिए उपयोगी एवं का परिहार करना चाहिए।
आवश्यक आहार के रूप में माना जाता है। भोजन के दौरान थोड़ा भोजन के सम्बन्ध में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना पानी पीना उपयोगी होता है। भोजन करने के एक घंटे बाद से आवश्यक है :
लेकर दूसरा भोजन लेने तक पाँच-छह ग्लास पानी पीते रहने से। १. सामान्यतः भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए, बिना ।
पेट और रक्त की सफाई होती रहती है। भूख के जबरदस्ती भोजन करना शरीर की पाचन क्रिया और आहार सेवन क्रम में वास्तव में यदि रखा जाय तो मनुष्य की। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
एक सीमा मर्यादा होती है जो उसकी प्रकृति या स्वभाव के अनुकूल २. भरपेट या लूंस-ठूस कर भोजन करना शरीर की पाचन
रहती है। यदि इसका व्यतिक्रम नहीं किया जाय तो मनुष्य की उदर क्रिया और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अतः ढूंस-ठूस कर।
सम्बन्धी स्वाभाविक स्थिति सामान्य बनी रह सकती है और उसके भोजन नहीं करना चाहिए।
उदरगत पाचन तन्त्र की कार्यक्षमता में कोई गतिरोध उत्पन्न होने
की सम्भावना समाप्त हो जाती है। उदरगत आंत्र, अमाशय, यकृत, ___३. भोजन करते समय किसी चिन्ता से ग्रस्त या तनावपूर्ण
प्लीहा आदि अवयवों से प्रवित होने वाले विभिन्न स्राव (पाचक स्थिति में नहीं होना चाहिए।
रस) वनस्पतियों तथा वनस्पतिक द्रव्यों से बने आहार को ४. खाद्य पदार्थों को अच्छी तरह चबा-चबाकर खाना चाहिए। सम्यक्तया पाचित कर उसे रस-रक्त मांस आदि धातुओं में खाना खाने में जल्द बाजी नहीं करना चाहिए।
परिवर्तित कर शरीर को पुष्ट करने का कार्य करते हैं। प्रत्येक
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
५९५।। मनुष्य के उदर में खाए हुए आहार के पाचन की सीमित क्षमता Jहै। शील, संयम, विनय आदि आचरण शील भावों के लिए होती है। अतः अधिक मात्रा में खाने, खाद्य पदार्थों को अधिक मनःस्थिति का विकास नहीं होता है। उसके लिए उसका शरीर ही भूनने, तलने या मसाले की भरमार करने से पाचन शक्ति पर प्रधान होता है। इससे भिन्न मनुष्य के पास शरीर से परे उन्नत अनावश्यक दबाव पड़ता है। जिससे उस खाए हुए आहार का मानसिकता एवं मानसिक चेतना होती है जो उन्नत, शुद्ध एवं पाचन ठीक से नहीं हो पाता। इसी प्रकार स्वाभाविक रूप से गुरु । सात्विक भावों को उत्पन्न करती है। इसी चेतना के संस्कार प्राण (गरिष्ठ) मांस-मछली आदि पदार्थों को भी पचाने में उदर को शक्ति को विकसित एवं सन्तुलित रखते हैं। इसी से संकल्प शक्ति कठिनाई होती है। इसलिए आहार के चयन पर समुचित ध्यान देने का भी विकास होता है जो चित्त शुद्धि के साथ-साथ आहार शुद्धि की आवश्यकता है। जो अभक्ष्य है उसे तो खाया ही नहीं जाय और / की भावना को विकसित करती है। जो भक्ष्य है उसे अभक्ष्य बनाकर नहीं खाया जाए।
यही कारण है कि मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवन विकास का सोपान
उसमें हिताहित विवेक अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक होता है। शाकाहार मात्र अपने आहार में शाक-सब्जियों के समावेश तक।
उसमें कुछ भी करने से पूर्व समीक्षा करने की चेतना है, वह अपने सीमित नहीं है, वह आचार की मर्यादा, मानसिक भावों में अहिंसा
संस्कारों का निर्माण स्वयं करता है और अपनी अन्तरात्मा की की व्यापकता, प्राणियों के प्रति करुणा एवं समानता की भावना
ऊँचाइयों को छूने की क्षमता रखता है। वह संकल्प कर सकता है तथा जीवन के प्रति आस्था का अनुष्ठान है। यह जीवन में अहिंसा
और शाश्वत जीवन मूल्यों को प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्य के आचरण के उस चरण का प्रतिपादक है जिसमें प्राणि मात्र के
निर्धारित कर सकता है। यही उसकी मौलिक विशेषता है जो उसे प्रति समता एवं ममता के भाव को तो मुखरित करता ही है, प्राणि
| संसार के सभी प्राणियों में गरिमा प्रदान करती है। मात्र से मनुष्य के मैत्री भाव को प्रोत्साहित करता है। शाकाहार के जीवन की सार्थकता के लिए संयम पूर्ण जीवन यापन मनुष्य प्रयोग से मनुष्य का मानसिक धरातल इतना उन्नत हो जाता है कि का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए चित्त की शुद्धि और तदर्थ उसमें स्व-पर का भेद-भाव मिट जाता है और वह उस सीमा रेखा समुचित उपाय अपेक्षित है। शाकाहार चित्त की शुद्धि करता है, वह को पार कर परहित चिन्तन में ही लगा रहता है। "जीवो जीवस्य निर्मल परिणामों-भावों को उत्पन्न करता है। इससे संयम की प्रेरणा भोजनम्”-'जीव के लिए जीव का जीवन' उस मिथ्या और भ्रम । मिलती है और उस ओर प्रवृत्ति होती है, अतः असंदिग्ध रूप से मूलक धारणा का पोषक है जिसमें जीवन के अस्तित्व की
शाकाहार संयम की भूमिका है। इस सन्दर्भ में उपनिषद् का वाक्यअवधारणा ही सदा के लिए तिरोहित हो जाती है। अतः जीव जीव “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः" महत्वपूर्ण है। आहार शुद्ध होता है तो का भोजन नहीं है, तब जीव मनुष्य का भोजन कैसे हो सकता है? चित्त शुद्ध होता ही है। जब चित्त शुद्ध होता है तो विवेक जाग्रत जीव उसका सहयोगी है जो सम्पूर्ण प्राणि जगत् में प्रकृति की रहता है, भाव शुद्ध रहते हैं और स्वतः ही संयम की भावना प्रबल व्यवस्था के अनुरूप रहने और जीने का अधिकार रखता है। किसी होती है। आहारगत संयम को स्वतः बल मिलता है। यही जीवन की भी प्राणि के जीने के अधिकार को छीनना मानवीय मूल्यों और
वास्तविकता है जो मनुष्य को प्रकृति के समीप ले जाता है और सिद्धान्तों के विरुद्ध है। मनुष्य के भोजन के लिए दूसरे निरीह
प्रकृति की व्यवस्था में उसे ढालता है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो प्राणियों का वध और घात करना मानवीयता के उच्चादर्शों का पति स्वयं व्यवस्था है सन्तलन है और सात्विक जीवन का हनन और मनुष्य के पाशविक होने को सिद्ध करता है।
अनवरत प्रवाह है। यद्यपि सिंह आदि कुछ हिंसक प्राणियों में अन्य प्राणियों को
आचरण की शुद्धता मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है मारकर खाने का वृत्ति पाई जाती है। बड़ा मछलिया भा छाटा। जिसमें आहारगत संयम, आहार की मर्यादा और पवित्रता का मछलियों को निगल जाती हैं। जलचर मगर भी मांस भक्षी होता है।
स्वतः समावेश है। इसके अन्तर्गत चाहे जो मत खाओ, चाहे जिस इसीलिए "जीवो जीवस्य भोजनम्" जैसे विकृत उक्तियों का कथन
समय और चाहे जिसके साथ मत खाओ का निर्देश अंधा आग्रह किया गया जो विकृत मानसिकता की परिचायक है। सम्पूर्ण प्राणि
नहीं है। यह प्रकृति का विधान है जो आहारगत संयम का निर्देश जगत् की संरचना पर गौर किया जाए तो हम पाते हैं कि सभी
करता है। सात्विक आहार की अवधारणा भी इसी पर आधारित प्राणियों में देह या शरीर ही प्रधान है, आहार, निद्रा, भय और
अनान में अशित पण चेतना मैथुन ही उसकी वृत्ति है जो मनुष्य और अन्य प्राणियों में समान है।
मन, बुद्धि और इन्द्रियों को प्रदूषण से मुक्त तो रखता ही है मनुष्य जिजीविषा सभी प्राणियों में समान रूप से पाई जाती है, कामैषणा
के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के पर्याप्त प्राणियों की स्वाभाविक वृत्ति की परिचायक है।
अवसर भी प्रदान करता है। शाकाहार असत् से सत्, पशुता से पशु जीवन मात्र चतुर्विध प्रवृत्ति-आहार, निद्रा, भय और मनुष्यता की विकास यात्रा है जो सतत अंधकार से प्रकाश की मैथुन के लिए होता है। पशु के पास बुद्धि और विवेक नहीं होता ओर उन्मुख करती हुई हिंसा से विरति और अहिंसा से रति उत्पन्न
शुष्क
तष्तष्प्ताल तक MADEdidroineतिoिng205000000000000000PROPPESeisaidseomp3300- PROPahPRAMETHOBHA RRORS-00000000000000000000000000000
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । करती है। आहार में शुद्धता और सन्तुलन तथा शरीर और मन की हस्तक्षेप या बाधा उत्पन्न करना प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ना है शोधन प्रक्रिया सन्निहित है जो शरीर और मन के दोषों को दूर कर जो जीवन की गति को विखण्डित करता है। आज मनुष्य विज्ञान शरीर और मन का संशोधन करती है। इस प्रकार के शोधन से । और भौतिकवाद के प्रवाह में बह कर प्रकृति से दूर होता जा रहा जिन दोषों का निराकरण होता है उससे चेतना केन्द्र भी निर्मल बन { है। उसका आकाश के नीचे खुली हवा में रहना, जीवों से तादात्म्य जाते हैं। आहार ही क्रियमाण शरीर की संरचना में मुख्य भूमिका । स्थापित करना, प्राकृतिक संरचनाओं से प्रेम करना स्थगित हो गया का निर्वाह करता है। मनुष्य के स्थूल शरीर से आगे सूक्ष्म शरीर है। इससे मनुष्य में उसके स्वाभाविक गुणों का विकास अवरुद्ध हो भी होता है जो तेजोमय होता है। चित्त की शुद्धि से तेजस शरीर गया है और उसमें पशुता हावी होती जा रही है। इसे भले ही का निर्माण होता है जो मनुष्य के आध्यात्मिक शक्ति के विकास में वैज्ञानिक विकास की संज्ञा दी जाय, किन्तु वास्तव में यह मानव सहायक होता है।
विकास की गति में अवरोध है। यह देखा गया है कि मात्र शाक-सब्जी खाने से शाकाहार की
। वर्तमान भोगवादी संस्कृति एवं विकसित भौतिकवाद आधुनिक मल भावना विकसित नहीं होती है। यह तब तक सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक विकास की देन है जो पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित है। जब तक शाकाहारी मनुष्य भावनात्मक रूप से इस प्रक्रिया से नहीं । इसमें आध्यात्मिक विकास या आत्मोन्नति की बात करना मूर्खता या जुड़ जाता है। संसार में अनेक लोग हैं जो मांस जैसे खाद्य पदार्थों । पोंगा पंथी माना जाता है। फिर भी मनुष्य उस लक्ष्य या ध्येय को को छूते भी नहीं हैं, केवल शाकाहार ही उनका दैनिक आहार है। अंश मात्र भी प्राप्त नहीं कर पाया है जो जीवन विकास के लिए किन्तु मात्र शाकाहारी होने से वे सात्विक या अहिंसक वृत्ति वाले आवश्यक है तथा मानवीय उच्चादर्शों का प्रतीक है। यदि ऐसा हो नहीं बन जाते। उनके अन्तःकरण में जब तक शाकाहार की मूल पाता तो निश्चय ही वैज्ञानिक विकास की सार्थकता हो जाती। भावना अहिंसा भाव और सात्विकता का विकास नहीं होता है तब वर्तमान में हमारे जीवन में जो सांस्कृतिक विकृति आई है उसने तक शाकाहार की सार्थकता नहीं है। संसार में अधिसंख्य प्राणि ऐसे हमारे आचार, विचार और आहार को भी अपने दायरे में समेट हैं जिनका जीवन केवल शाकाहार पर निर्भर है। अतः औपचारिक लिया है। अतः इससे हमारा आचार, विचार और आहार विकृत रूप से वे शाकाहारी हैं। मनुष्य भी शाकाहारी होते हुए भी अपने होना स्वाभाविक है। इसके दुष्परिणाम भी हमारे सम्मुख आने लगे भावों और क्रिया में पूर्ण सात्विक नहीं हो पा रहा है। उनके दैनिक हैं। प्रकृति में निरन्तर असन्तुलन बढ़ता जा रहा है, पर्यावरण का आहार क्रम में मांसाहार वर्जित है, किन्तु क्या उनके जीवन में निरन्तर विनाश हो रहा है तथा प्रकृति एवं अन्य संसाधनों में तीव्र हिंसा भाव की वर्जना हो पाई है। वह अपने आचार, विचार और गति से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इस प्रदूषण ने मनुष्य के जीवन दैनिक व्यवहार में क्या उन द्रव्यों की वर्जना कर पाया है जिनके । में भी जबर्दस्त घुसपैठ की है जिससे जीवन में अहिंसा का स्थान मूल में हिंसा की प्रवृत्ति छिपी है। आज ऐसे अनेक प्रसाधन व्यवहार | हिंसा ने ले लिया है। समाज में हिंसा, नफरत, अराजकता तथा में प्रचिलत हैं जिनका निर्माण हिंसा का सहारा लिए बिना सम्भव द्वेषभाव तेजी से पनप रहा है। आपसी सौहार्द का स्थान व्यक्तिवाद नहीं है, उनका प्रयोग वही शाकाहारी मनुष्य धड़ल्ले से कर रहा है। | लेता जा रहा है। जिससे समाज में असन्तुलन बढ़ता जा रहा है। ऐसी अनेक आधुनिक औषधियाँ हैं जिनका आविष्कार एवं
शाकाहार अहिंसा भावना की ही अभिव्यक्ति है जो प्राणि जगत् निर्माण निरीह पशुओं की प्राणाहुति पर आधारित है। उनमें
{ में एक-दूसरे के प्रति आदर और निष्ठा के भाव को बढ़ाती है। औषधियों का नियमित सेवन आज मनुष्य की नियति बन गई है।
निरामिष आहार सेवन करने में मनुष्य का नैसर्गिक जीवन से स्वतः अतः उन शाकाहारियों में न तो हिंसा भाव की वर्जना हो पाई और
सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। शाकाहार मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता न ही सात्विकता का भाव विकसित हो पाया। इससे शाकाहार की
है, अतः प्रकृति की रक्षा इससे स्वतः हो जाती है जिसका सीधा मूल भावना स्वतः बाधित हो गई और रह गई केवल
प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। अतः निरामिष आहार या शाकाहार औपचारिकता।
में केवल आहार या क्या खाना और क्या नहीं खाना ही महत्वपूर्ण आज भौतिकवाद अपने चरमोत्कर्ष पर है, क्योंकि विज्ञान के नहीं है, महत्व है मानसिक सात्विकता एवं मानसिक चेतना के साथ उसकी संगति है। वैज्ञानिक धरातल पर हुए आविष्कार और उत्थान का। भक्ष्याभक्ष्य का विचार तो व्यक्तिगत रुचि पर भी विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध कराए | आधारित होता है, किन्तु जब भावना, सात्विकता, मानसिक भावों हैं उनसे मनुष्य को शारीरिक या भौतिक सुख तो अवश्य उपलब्ध आदि का सम्बन्ध उससे होता है तो मनुष्य सामान्य धरातल से हुआ है, किन्तु मानसिक शान्ति और आनन्दानुभूति से वह कोसों उठकर उच्चता के आदर्श तक पहुँच जाता है। जिससे मनुष्य में दूर रहा। वस्तुतः विज्ञान से जीवदया, प्रेम आनन्द का कोई रिश्ता स्वतः ही हिताहित विवेक जाग्रत हो जाता है। अतः यह असंदिग्ध नहीं। आज विज्ञान का आधार केवल बुद्धि कौशल, भौतिकवादी रूप से कहा जा सकता है कि मनुष्य के जीवन निर्माण एवं जीवन प्रवृत्ति और प्रकृति का दोहन कर अपनी सत्ता का विस्तार करना । विकास में आहार विशेषतः निरामिष या शाकाहार का महत्वपूर्ण है। इससे प्रकृति में असन्तुलन स्वाभाविक है। प्रकृति के प्रवाह में । स्थान है।
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण अनुपयोगी और हानिकारक है मांसाहार
जीवनीय तत्व (विटामिन्स) मुख्य हैं। शरीर के पोषण, संवर्धन और आजकल मांसाहार का प्रचलन बहुत अधिक बढ़ गया है।
संरक्षण के लिए हमारे दैनिक आहार में आवश्यकतानुसार उचित किन्तु वैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य के
मात्रा में इनका समावेश होना सन्तुलित भोजन माना जाता है। सामान्य जीवनयापन के लिए मांसाहार कतई उपयोगी या आवश्यक
| किन्तु कुछ अति उत्साही लोगों ने प्रोटीन को इतना अधिक महत्व दे नहीं है। इसके अतिरिक्त मांस, मछली, अण्डा आदि को धार्मिक
दिया है कि अधिक प्रोटीन की लालसा ने लोगों को मांसाहार की दृष्टि से भी अभक्ष्य माना गया है। वे केवल धार्मिक दृष्टि से ही
{ ओर प्रेरित कर दिया। सम्भवतः अधिक प्रोटीन एवं मांसाहार ने ही अभक्ष्य पदार्थ नहीं हैं, अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वे उपयोगी,
लोगों में बीमारियाँ उत्पन्न होने का अवसर दिया। लोगों में घुटने का आवश्यक या हितकारी नहीं हैं। पहले इन अखाद्य पदार्थों में
दर्द होने का एक कारण शरीर में प्रोटीन की अधिक मात्रा होना है। विटामिन और प्रोटीन की अधिक मात्रा पाई जाने के कारण मनुष्य
विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को भी प्रारम्भ से यही सिखाया के लिए उपयोगी माना गया था, किन्तु जैसे-जैसे चिकित्सा विज्ञानीय
जाता है कि प्रोटीन शरीर के लिए आवश्यक और महत्वपूर्ण तत्व गहरी खोजें होती गई वैसे-वैसे इन पदार्थों की खाद्य पदार्थ के रूप
है और यह अण्डा में अधिक मात्रा में पाया जाता है। किन्तु उन्हें में अनुपयोगिता सिद्ध होती गई।
यह जानकारी नहीं दी जाती कि शरीर के लिए कितना प्रोटीन
आवश्यक होता है और कितना आसानी से सुपाच्य होता है? मांसाहार के समर्थन में एक यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि मांस और अण्डे में प्रोटीन की बहुत अधिक मात्रा होती है। किन्तु
आज आहार के विषय में नवीनतम खोजें सामने आ रही हैं वैज्ञानिक खोजों ने यह तथ्य उजागर किया है कि अधिक मात्रा में
जिनसे पता चलता है कि आहार के सम्बन्ध में लोगों में कितनी सेवन किया गया प्रोटीन लाभदायक नहीं होता है। प्रोटीन की
भ्रांतियाँ थी। अब वे भ्रांतियाँ टूटती जा रही हैं। अब माना जाने अधिक मात्रा सेवन करने से मनुष्य के शरीर में तत्वों का जो
लगा है कि अधिक प्रोटीन खाना कतई उपयोगी नहीं है, अपितु वह असंतुलन उत्पन्न हो जाता है उससे मनुष्य शीघ्र ही अस्वस्थ या
हानिकारक होता है। अतः अण्डा खाना और मांस का सेवन करना बीमार हो जाता है। कभी-कभी उससे उसका मानसिक सन्तुलन भी
रोगों को आमंत्रण देना है। बिगड़ जाता है और वह मानसिक विकृति से आक्रान्त हो जाता है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में पोषण विभाग के अतः अधिक मात्रा में प्रयुक्त प्रोटीन लाभदायक नहीं होता है। प्रोफेसर डॉ. महेश चन्द्र गुप्ता ने शाकाहारी आहार को वैज्ञानिक सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक दिन में १०-१५ ग्राम प्रोटीन दृष्टिकोण से मांसाहारी आहार की तुलना में श्रेष्ठ बताते हुए कहा की आवश्यकता होती है, किन्तु मांसाहार करने वाले या नियमित Jहै कि शाकाहारी भोजनों में अनेक ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं जो रूप से अण्डा खाने वालों के शरीर में प्रोटीन की अधिक मात्रा । कैंसर जैसी घातक बीमारियों से भी बचाव कर सकते हैं। उन्होंने पहुंच जाती है जो बिल्कुल भी लाभप्रद नहीं होती है।
बताया कि यद्यपि प्रोटीन की मात्रा दोनों प्रकार के भोजनों में
पर्याप्त होती है, किन्तु विटामिन सी और ए मुख्यतः शाकाहारी जो लोग प्रोटीन के आधार पर मांसाहार का समर्थन करते हैं ।
भोजन में ही पर्याप्त रूप से उपलब्ध होता है। इसके विपरीत जिस उनके अनुसार शाकाहार में इतना प्रोटीन नहीं मिलता है कि शरीर
मांसाहारी खाद्य में विटामिन ए अधिक होता है, वह है अण्डा की आवश्यकता की पूर्ति हो सके, अतः शरीर के लिए अपेक्षित
जिसमें कोलेस्ट्रोल की भी मात्रा अधिक होता है। कोलस्ट्रोल केवल प्रोटीन की आपूर्ति मांसाहार के द्वारा करना चाहिए। किन्तु वे भूल
सामिष खाद्यों में ही होता है। निरामिष भोजन में नहीं। एक अण्डे जाते हैं कि शरीर के लिए उतना प्रोटीन आवश्यक ही नहीं होता है
में लगभग २५० मि.ग्रा. कोलेस्ट्रोल होता है। असान्द्रित वसा जितना वे मांसाहार के द्वारा प्राप्त करते हैं। अतः अधिक मात्रा में
(अनसेचुरेटेड फैट्स) प्रायः निरामिष भोजन में ही पाई जाती है। शरीर में पहुँचा हुआ प्रोटीन शरीर के लिए हानिकारक होता है।
इसके अतिरिक्त अनेक डाक्टरों की राय है कि मांस का सेवन प्रोटीनों में भी प्राणिज प्रोटीन अपेक्षाकृत अधिक हानिकारक होता
करने वाला और नियमित रूप से अण्डा खाने वाला व्यक्ति जितने है। वानस्पतिक प्रोटीन ही शरीर के लिए अधिक उपयोगी होता है,
भयंकर रोगों से पीड़ित या ग्रस्त होता है उतना शाकाहारी कभी वह भी उचित मात्रा में। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है
नहीं होता। इसके अतिरिक्त सामिष भोजनों से अनेक संक्रामक रोग कि बाजरा से जो प्रोटीन प्राप्त होता है वह अत्यन्त उच्चकोटि का
होने की सम्भावना रहती है। उदाहरण के लिए स्फीतकृमि, यकृत 0 होता है और उसके समक्ष मांस से प्राप्त होने वाला प्रोटीन नगण्य
सम्बन्धी विकार आदि। क्योंकि जिन पशुओं का मांस आहार के है। अतः बाजरा में विद्यमान प्रोटीन असंदिग्ध रूप से स्वास्थ्य के
लिए लिया जाता है वे पशु जिस किसी भी रोग से पीड़ित हों वह लिए उपयोगी और लाभदायक होता है। जबकि मांस और अण्डा में
रोग उस पशु के मांस को खाने वाले में संक्रमित होने की प्रबल विद्यमान प्रोटीन रोगोत्पादक होता है।
सम्भावना रहती है। विशेषज्ञों के अनुसार शायद ही कोई ऐसा लाभ शरीर के लिए जिन तत्वों की आवश्यकता होती है उनमें है जो सामिष खाद्य से प्राप्त होता है। इसके विपरीत सामिष भोजन सामान्यतः प्रोटीन कार्बोहाड्रेट, स्नेह (वसा), लवण, क्षार, लौह और निरामिष भोजन की तुलना में अधिक मंहगे भी होते हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अधिकांशतः देखा गया है कि मांसाहारी व्यक्ति के लिए नहीं खाली। उसके द्वारा जो कुछ शरीर को मिलता है उसमें अल्कोहल जैसी मादक वस्तुओं का सेवन अनिवार्य होता है। क्योंकि विजातीय तत्वों का बाहुल्य रहता है, जिसके कारण रोग निरोधक जो मांस खाया जाता है उसे पचाने के लिए या तो अधिक मात्रा में । क्षमता में कमी हो जाती है। यह पाया गया है कि जो लोग विभिन्न नमक का सेवन किया जाय या फिर अल्कोहल का सेवन किया । रोगों से ग्रसित होते हैं उनमें शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों जाए। अल्कोहल का सेवन यद्यपि मांस पचाने में सहायक होता है, की संख्या अधिक होती है। किन्तु दूसरी ओर वृक्कों (गुर्दे) की क्रिया को प्रभावित कर उनमें
वैसे १९वीं सदी के अन्त तक स्वास्थ्य शास्त्रियों की यह विकृति उत्पन्न करता है। अल्कोहल के रूप में प्रयुक्त मदिरा का
धारणा जबर्दस्त रूप से रही है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए मांस का सीधा प्रभाव यकृत फुफ्फुसों पर पड़ता है। परिणामतः उनमें विकृति
सेवन अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के उत्पन्न होन का सम्भावना बढ़ जाता ह। साथ हा रक्तचाप बढ़ जाता। प्रारम्भ से मांसाहार को प्रोत्साहन मिला। इस धारणा के विरुद्ध है जो अन्ततः हृदय और उसकी क्रियाओं को प्रभावित किए बिना ।
बीसवीं शताब्दी में इटली के आहार विशेषज्ञों ने मनुष्य के आहार नहीं रहता।
से मांस का बहिष्कार करने की सलाह दी। इसी सन्दर्भ में जोहंस D मांसाहार का समर्थन करने वाले कुछ आहार शास्त्रियों का यह हापकिंग्स इंस्टीट्यूट के प्रो. ई. वी. मैक्कालम ने कहा कि यदि
मानना है कि मांस का सूप मनुष्य के लिए शक्ति का स्रोत होता है। मांसाहारी मांस खाना छोड़ दें तो कुछ समय में उनका स्वास्थ्य किन्तु दूसरी ओर वे इस तथ्य को नजर अन्दाज कर जाते हैं कि अधिक अच्छा हो जायगा। इसी प्रकार पश्चिम जर्मनी के हैजेजवर्ग इसमें विषैले तत्वों की भी भरमार होती है जो मनुष्यों के शरीर में । स्थित कैंसर अनुसंधान केन्द्र में किए गए अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष स्वतः निर्मित रोग प्रतिरोध क्षमता (इम्युनिटी) को कम करती है।। के आधार पर बतलाया गया है कि शाकाहारी व्यक्तियों की तुलना यह पाया गया है कि शारीरिक सहन शक्ति एवं रोगों का प्रतिरोध में मांस का भोजन करने वाले व्यक्तियों को दिल के दौरे तथा रक्त करने की शक्ति मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में अधिक परिभ्रमण सम्बन्धी घातक रोग अपेक्षाकृत अधिक होते हैं। संस्थान होती है। वैसे भी सामान्यतः मांस में ऐसा कोई विशेष तत्व नहीं ने अपने अध्ययन में यह भी पाया है कि शाक-सब्जी खाने वाले होता है जो शाकाहार में नहीं पाया जाता हो। कुछ परीक्षणों से यह रोगों को कैंसर होने का खतरा कम होता है। भी पुष्टि हुई है कि लगातार मांस का सेवन करने वाले व्यक्तियों के
उक्त संस्थान में लगातार पाँच वर्ष तक लगभग दो हजार पेट में अपचित मांस के रह जाने से पेट में सड़न पैदा होती है जो
शाकाहारियों पर परीक्षण किए गए। शोथकर्ताओं ने पाया कि एक Facead अनेक उदर विकारों एवं रोगों को जन्म देती है।
तिहाई भाग की मृत्युदर में कमी हुई। जो शाकाहारी व्यक्ति अपने इस सम्बन्ध में डॉ. जे. एच. कैलाग द्वारा मांसाहार के विषय दैनिक भोजन में नियमित रूप से दूध, मक्खन और पनीर आदि R में की गई खोज और उसके परिणाम स्वरूप निकाला गया निष्कर्ष । साथ लेते हैं तो उन्हें अन्य पदार्थों की आवश्यकता नहीं रहती है।
महत्वपूर्ण है कि मांस के प्रति मनुष्य की रुचि अति सामान्य उनका भोजन पूर्ण होता है और उन्हें कुपोषण की समस्या का (नार्मल) होती है और मांस खाने से उच्च रक्तचाप, वृक्क सम्बन्धी सामना नहीं करना पड़ता है। इस प्रकार परीक्षणों, शोधों एवं तथ्यों रोग, आन्त्रपुच्छ शोध (अपेण्डिसाइटित), कैंसर, पेट के जख्म, से स्पष्ट है कि मांस की अपेक्षा शाकाहारी भोजन अधिक अच्छा, आंत्रशोध, पित्ताशय की पथरी, कुष्ठ रोग आदि उत्पन्न होने की । पौष्टिक, विटामिनों से भरपूर तथा हानिरहित है। प्रबल सम्भावना रहती है।
आहार सेवन क्रम में विशेषज्ञों ने लोगों को पोषण सम्बन्धी विभिन्न वैज्ञानिक खोजों ने तथा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने कुछ परामर्श भी दिए हैं। उन्होंने लोगों से आग्रह किया है कि इस तथ्य की पुष्टि की है कि मांसाहारी मनुष्य की अपेक्षा यथासंभव खाद्य पदार्थों को प्राकृतिक रूप में ही प्रयोग करें। घर शाकाहारी मनुष्य हृदय विकृति, गुर्दे की बीमारी, विभिन्न चर्मरोगों, फैक्टरी आदि में भोजन को विभिन्न साधनों से प्रोसेस करने का दांतों की बीमारियों तथा अन्य अनेक रोगों विशेषतः उदर रोगों से अर्थ है भोजन की पोषण शक्ति घटाना तथा भोजन में हानिकारक बचे रहते हैं।
पदार्थों का समावेश करना। उनके अनुसार भोजन में सामान्य और 8 नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता डॉ. माइफल ब्राउन ने मांसाहार के
आसानी से उपलब्धता वाले खाद्य पदार्थों का ही प्रयोग करना सभी वर्गों का विश्लेषण किया है। उनका कथन है कि अण्डा
चाहिए। मंहगे आहार या भोजन से अधिक पोषण की अपेक्षा नहीं कोलेस्ट्रोल रसायन उत्पन्न करता है जिससे रक्तचाप और हृदय रोग
रखना चाहिए। उत्पन्न होने की संभावना बढ़ती है और कई प्रकार के रक्त विकार स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार भोजन का पर्याप्त प्रभाव मनुष्य उठ खड़े होते हैं। मांस के बारे में उनका कथन है कि इसे खाने के मनोभावों और मानसिक क्रियाओं पर भी पड़ता है। इस बात के वाले अपने पेट की स्वस्थता गंवा बैठते हैं और मानसिक संतुलन प्रमाण पाए गए हैं कि निरामिष भोजन करने वाले व्यक्ति की दृष्टि से भी घाटे में रहते हैं। मछली की संरचना भी तालमेल अपेक्षाकृत शांत, सरल और मधुर स्वभाव के होते हैं, जबकि
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
सामिष भोजन करने वाले व्यक्तियों में हिंसा और क्रूरता की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। गत दिनों ग्वालियर जेल में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार जब कैदियों को सामिष भोजन के स्थान पर निरामिष भोजन दिया गया तो उनके व्यवहार में इस प्रकार का स्पष्ट परिवर्तन पाया गया।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि मनुष्यों और जानवरों के मस्तिष्क में हिंसा की प्रवृत्ति उनके भोजन विशेष के कारण होती। है। सतत रूप से मांस भक्षण एवं मदिरा का सेवन करने वाले मनुष्य का मस्तिष्क हिंसक प्रवृत्ति वाला हो जाता है। इसके विपरीत शाकाहारी मनुष्य स्वभावतः शांत एवं सरल होता है।
मनुष्य प्रकृति से अहिंसक प्राणी होने से शाकाहारी है, तदनुसार ही उसके शरीर और दांतों की रचना आकृति आदि पाई जाती है। मांसाहार के पाचन में सामान्यतः जिन पाचक रसों की आवश्यकता होती है वे हिंसक पशुओं में ही पाए जाते हैं। उनके दांत की बनावट तथा आंतों की लम्बाई भी उसी के अनुसार होती है जिससे वे मांस को चबा और पचा सकें, किन्तु मनुष्य के लिए यह अति कठिन है। खाया हुआ मांस यदि किसी प्रकार पच भी जाय तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है कि जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और उसकी जीवनी शक्ति प्रभावित होती है। मनुष्य के शरीर में निर्मित और नवित होने वाले पाचक रस शाकाहार को पचाने की क्षमता रखते हैं। उन पाचक रसों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे शाकाहार को ही ठीक तरह से पचा सकते हैं।
विशेषज्ञों ने लोगों से आहार में सामिष पदार्थों को घटाने एवं हरी पत्तियों वाली सब्जियों का अधिकाधिक प्रयोग करने का आग्रह किया। डाक्टरों ने लोगों से यह भी आग्रह किया कि वे जीने के लिए खाएँ, न कि खाने के लिए जिएँ । मात्र स्वाद की दृष्टि से जिका की लोलुपता की वशीभूत होकर ऐसा आहार नहीं लेना चाहिए जो दूसरे प्राणियों को मारकर बनाया गया हो। वस्तुतः यदि देखा जाए तो मांस का तो अपना कोई स्वाद होता ही नहीं है। उसमें जो मसाले, चिकनाई आदि अन्य अनेक क्षेपक द्रव्य मिलाए जाते हैं उनका ही स्वाद होता है, जबकि शाकाहारी पदार्थों फल, सब्जी, मेवे आदि में अपना अलग स्वाद होता है और वे बिना किसी मसाले आदि के स्वाद से खाए जाते हैं।
अमेरिका और इंगलैंड की सरकारों द्वारा इस समय जनता को औपचारिक रूप से यह हिदायत दी जा रही है कि वे भोजन में
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मांस की खपत को कम करें, ताकि उनका स्वास्थ्य अच्छा रहे। डॉ. गुप्ता ने कहा कि मैं पूरे वैज्ञानिक आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस समय संसार में व्याप्त भुखमरी का एक प्रमुख कारण योजनावद्ध मांसाहार है। इसके तर्क में उन्होंने कहा कि योजनाबद्ध मांसाहार का तात्पर्य एक ऐसी कृषि खाद्य प्रणाली से है। जिसमें खेतों में कुछ अनाजों का उत्पादन सिर्फ इसलिए किया जाता है कि वह अनाज जानवरों को खिलाया जाय ताकि उनका मौस अधिक कोमल और स्वादिष्ट हो।
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समय-समय पर आयोजित विभिन्न गोष्ठियों में इस सम्बन्ध में आश्चर्यजनक आंकड़े भी प्रस्तुत किए गए हैं। उन आंकड़ों के अनुसार अमेरिका और कनाडा में उत्पन्न होने वाले गेहूँ का केवल ३०वां भाग ही मनुष्य के आहार के लिए प्रयुक्त होता है। इन देशों में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति एक हजार किलोग्राम गेहूँ की खपत है। जिसमें से मनुष्य केवल ३०-४० किलोग्राम गेहूँ खाते हैं और शेष ६०-७० किलोग्राम गेहूँ गायों, सूअरों आदि को खिलाया जाता है, ताकि वे पुष्ट हो सकें और उनसे अधिक और अच्छा मांस मिल सके। यह एक तथ्य है कि संसार की विशाल जनसंख्या के बावजूद विश्व में इतना अनाज पैदा होता है कि प्रत्येक मनुष्य का पेट भर सके।
पर्यावरण की दृष्टि से भी यदि शाकाहार और मांसाहार की उपयोगिता पर विचार किया जाय तो स्वतः यह तथ्य सामने आता है कि पशुओं का जीवन वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अनिवार्य है। इसलिए यदि अपनी स्वाद लोलुपता और आहार के लिए पशुओं को मारकर उनका जीवन समाप्त किया जाता है और वनों को पशु विहीन बना दिया जाता है तो इसका सीधा प्रभाव वनों पर पड़ेगा। क्योंकि पशु जीवन समाप्त होने से वनों से पशुओं की संख्या घटेगी जिससे वनों का ह्रास होगा और हम बहुत बड़ी वन सम्पदा और उससे प्राप्त होने वाले लाभों से वंचित हो जायेंगे। क्योंकि वनों के ह्रास का अर्थ है बंजर जमीन में वृद्धि तथा कृषि उत्पादन में कमी होना सामिष भोजन के अधिक प्रयोग से परोक्ष रूप से कृषि उत्पादन के घटने की संभावना रहती है।
पता :
आचार्य राजकुमार जैन
'भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद्
ई / ६, स्वामी रामतीर्थ नगर
नई दिल्ली ११००५५
जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब मनुष्य पतित से पावन और दुष्ट से सन्त बन जाता है।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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शाकाहार है संतुलित आहार
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करो।
-डॉ. नेमीचन्द जैन, इन्दौर शाकाहार अब एक स्थापित जीवन-शैली है; अतः उससे होने } जिगर और उनके गुर्दे छोटे होते हैं; उनकी लार में अल्केलाइन वाले फायदों को अलग से सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। होता है-प्रश्न उठता है कि आखिर यह अन्तर क्यों है ?
सब जानते हैं कि शाकाहार मानवीय गुणों को विकसित/समृद्ध ३. आर्थिक दृष्टि से भी शाकाहार सस्ता और पर्यावरण/ करने वाला आहार है। उसके उत्पादन में न तो कोई जीवहत्या । परिस्थिति के अनुरूप है। होती है और न ही कोई क्रूर कर्म। वह मांसाहार जिस तरह खून
४. शाकाहार में प्रोटीन जितना चाहिये, उतना है। चिकित्साकी नींव पर खड़ा है, अवस्थित नहीं है।
शास्त्र के अनुसार एक किग्रा वजन पर एक ग्राम प्रोटीन चाहिये। दुनिया के सारे देश अब यह भलीभाँति जानने लगे हैं कि हमें । अधिक प्रोटीन से एक तो शरीर में कैल्शियम का भण्डार घट जाता ऑक्सीजनयुक्त/स्वास्थ्यप्रद वायु चाहिये और चाहिये धरती की है, दूसरे नाइट्रोजनिक उत्पादों को निकाल फेंकने में गर्दो को काफी कोख में जल तो शाकाहार हर हालत में अपरिहार्य है।
श्रम करना पड़ता है। ध्यान रहे, अतिरिक्त प्रोटीन को एकत्रित
रखने की क्षमता मानव-शरीर में नहीं है। प्रोटीन की प्रचुरता का यह एक दुश्चक्र है कि पहले पशुओं का संवर्द्धन करो अर्थात्
नारा मात्र व्यापारिक पैंतरा है, इसे समझना चाहिये। उन्हें वनस्पति खिलाओ, और ऑक्सीजन के उर्वर स्रोत बंद करो, कत्लखानों का मलवा-रक्त, मांस, मज्जा-बहाने के लिए पेय जल ५. वस्तुतः संतुलित आहार का दुनिया में कोई सानी नहीं है। की बर्बादी करो, और फिर बूंद-बूंद के लिए तरसो; नदियों में एमीनो अम्ल का समायोजन शाकाहार में परस्पर पूरकता द्वारा। गंदगी डालो और फिर उनके निर्मलीकरण के लिए एड़ी-चोटी एक
संपन्न होता है। दाल-रोटी इसी समायोजन का प्रतीक है। गेहूँ में लायसिन नहीं है, दाल में मेथोसिन अनुपस्थित है। किन्तु इनकी
पूरकता कमी को पूरा कर लेती है। तय है कि मांसाहार हिंसा के बगैर संभव नहीं है। जिन लोगों ने कत्लखानों की मानसिकता का अध्ययन किया है उनका निष्कर्ष
६. शाकाहार में विटामिन 'बी' के न होने का आरोप भ्रामक है कि मांसाहार मनुष्य को बर्बर, रक्त-पिपासु और नृशंस बनाता है
है। शाकाहारियों का शरीर स्वयं इसका प्रबन्ध करता है। 'बी' नतीजतन युद्ध, रक्तपात, लड़ाई-तकरार, कलह-तबाही के अलावा
विटामिन से होने वाली बीमारियों का शाकाहारियों को प्रायः न उसका कोई और परिणाम निकल ही नहीं सकता।
होना इसका जीवन्त प्रमाण है। प्रकृति ने स्वयं मनुष्य को शाकाहारी अस्मिता प्रदान की है।
७. शाकाहार में 'कार्बोहाइड्रेट्स' का होना आँतों के लिए उसने उसके शरीर की रचना भी तदनुरूप की है। शाकाहार और
सुखद निर्विघ्नता है। इससे कब्ज से रक्षा होती है और पेट कई मानवता का परस्पर गहन संबन्ध है।
गंभीर/असाध्य रोगों से बच जाता है। शाकाहार के बारे में कुछ सकारात्मक तथ्य इस प्रकार हैं
८. शाकाहार में विटामिन 'सी' है, जो मांसाहार में बिल्कुल
नहीं है। १. शाकाहार सात्विक आहार है; अतः वह सहज की अहिंसा, भ्रातृत्व, विश्वास, मैत्री आदि मानवीय गुणों को विकसित करता है।
९. कुछ शाकाहारी पदार्थों में लौहतत्त्व सर्वाधिक है। गुड़ में
११.४, मेथी में वह १६.९ प्रतिशत है, जबकि मांसाहारी पदार्थों में २. प्रकृति ने मांसभक्षी और शाकाहारी जीवधारियों की शरीर
से किसी में भी वह ६.३ से अधिक नहीं है। रचना अलग-अलग तरह से की है : यथा-मांसाहारियों के दाँत नुकीले और पंजे/नाखून लम्बे/ तेज होते हैं; उनके जबड़े सिर्फ
१०. विटामिन ए की सर्वाधिक समृद्ध स्रोत पत्तीदार सब्जियाँ ऊपर-नीचे चलते हैं; वे अपना आहार निगलते हैं; उनकी जीव ।
हैं। बंदगोभी, करमकल्ला, धनिया और आम में क्रमशः २,00 खुरदरी होती है; वे जीभ से पानी पीते हैं; उनकी आँतें छोटी होती।
१०,४६०; और ४,८00 अन्तर्राष्ट्रीय इकाई (आईयू) विटामिन हैं; उनका जिगर उनके गुर्दे अपेक्षाकृत बड़े होते हैं; उनकी लार में
होता है। विटामिन 'ए' की इतनी इकाइयाँ किसी मांसाहारी पदार्थ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल होता है-दूसरी ओर शाकाहारी जीवधारियों के |
में उपलब्ध नहीं है। विटामिन 'ए' अधिक मात्रा में लेने पर विषैला दाँत और नाखून नुकीले नहीं होते; उनके जबड़े सभी दिशाओं में
भी साबित हो सकता है। चलते हैं; वे अपना आहार चबाते हैं; उनकी जीभ चिकनी/स्निग्ध ११. विटामिन 'ई' अंकुरित गेहूँ और सोयाबीन में प्रति १०० होती है;वे होठ से पानी पीते हैं। उनकी आँते बड़ी होती हैं। उनका ग्राम क्रमशः १४.१ मिग्रा तथा १४.00 मिग्रा होता है। किसी भी
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
मांसाहारी पदार्थ में यह इतना नहीं है। गेहूं को विटामिन 'ई' का सर्वश्रेष्ठ / सर्वोपरि स्रोत माना जाता है।
जहाँ तक कैलोरियों (ऊर्जाकि) का प्रश्न है, मांसाहार को कैलोरियों का अच्छा स्रोत नहीं माना गया है। गेहूँ, चावल और सोयाबीन से क्रमशः प्रति १०० ग्राम ३५०, ३४६ और ४३२ कैलोरियाँ मिल सकती है, जबिक किसी भी मांसाहारी पदार्थ में १२५ कैलोरी प्रति १०० ग्राम से अधिक प्राप्य नहीं हैं।
अब यह लगभग पूरी दुनिया ने मान लिया है कि मांसाहार से भू-क्षरण (इरोजिन), मरुस्थलीकरण (डेजर्टफिकेशन), वर्षा वनों की बर्बादी (डीफॉरेस्टेशन ऑफ रेनफोरेस्ट्स), पृथ्वी की उष्णता में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग), जल प्रदूषण (वाटर पॉल्यूशन) तथा कीटनाशी विषों के फैलाव जैसे दुष्परिणाम प्रकट हुए हैं, इसीलिए सेव्ह अर्थ फाउंडेशन (७०६ फ्रेडरिस स्ट्रीट सान क्रूझ सीए ९५०६२) ३ द्वारा प्रकाशित 'अवर फूड अवर अर्थ' (मार्च
६०१
१९९२) के पृष्ठ पर स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि हमने अपनी व्यक्तिगत आहार आदतों में परिवर्तन नहीं किया और मांस, पौल्ट्री तथा डेअरी उत्पादों की हमारी माँग इतनी ही या इससे अधिक बनी रही तो संसार क्रमशः विनाश की ओर बढ़ जाएगा और यदि हमने अपनी खानपान की आदतों में परिवर्तन किया तो हम धरती के घाव भर सकेंगे और आने वाली पीढ़ी के लिए एक संपुष्ट जगत् की रचना कर पायेंगे।
इन तमाम कारणों से स्पष्ट है कि शाकाहार आज सबमें अधिक प्रासंगिक है और वही इस धरती को विनाश से बचा सकता है।
पता :
६५, पत्रकार कालोनी, कानाडिया रोड, इन्दौर (म. प्र. )
विशेषज्ञों ने माँसाहार के दुष्प्रभावों का जो विवरण दिया है, उसमें दो टूक कहा गया है कि माँसाहार के कारण वन मरुस्थल बन रहे हैं, पानी ज़मीन में गहरे उतरता जा रहा है, पृथ्वी की उपजाऊ परत (टॉप्सॉइल) निरन्तर नष्ट हो रही है, समुद्र-धरती आकाश तीनों रासायनिक विष से पटते जा रहे हैं। इस तरह मनुष्य जीवन की गुणवत्ता को हर पल कम कर रहा है और खुद को तथा आगामी पीढ़ी को आँख मूँद कर अत्यन्त बेरहमी के साथ मृत्यु के मुँह में धकेल रहा है।
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आम आदमी संभवतः यह नहीं जानता कि जल की कमी का सबमें बड़ा कारण माँसाहार है। जो आँकड़े इस संदर्भ में हमारे सामने हैं, उनसे हम चकित न हों, बल्कि उनकी समुचित व्याख्या करें। विशेषज्ञों का अभिमत है कि एक पौंड माँस के उत्पादन में २,५०० गैलन पानी की खपत होती है। पानी का यह परिमाण एक पूरे परिवार के लिए महीने भर के लिए पर्याप्त होता है कहाँ एक पीड माँस और कहाँ पूरे परिवार के लिए महीने भर पानी !
अमेरिका से जो आँकड़े हमें मिले हैं उनके अनुसार एक माँसाहारी के पूरे दिन के आहार के उत्पादन में ४,000 गैलन पानी लगता है, जबकि एक शुद्ध शाकाहारी के भोजन पर दिन-भर में मात्र ३०० गैलन पानी पर्याप्त होता है। है कोई तुलना ? एक अन्य सर्वे के अनुसार १०० पौंड गेहूँ पैदा करने में जितना जल लगता है, उतना सिर्फ एक पौंड माँस के उत्पादन में लग जाता है।
-डॉ. नेमीचन्द जैन ( शाकाहार मानव-सभ्यता की सुबह पेज ८१-८२ से)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
शाकाहार : एक वैज्ञानिक जीवन शैली
-मुनि नवीनचन्द्र विजय
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संसार के प्रत्येक प्राणी का जीवन आधार आहार है। प्रत्येक । देवताओं का आहार चार प्रकार का कहा है-(१) अच्छे वर्ण प्राणी किसी रूप में आहार ग्रहण करते हैं। उन आहारों के प्रकार | वाला। (२) अच्छे गन्धवाला। (३) अच्छे रसवाला। (४) अच्छे भिन्न हो सकते हैं। पेड़ और पौधे जमीन के भीतर से आहार लेते स्पर्शवाला। हैं। पानी में रहने वाले प्राणियों के लिए पानी ही आहार है।
आहार प्रत्येक प्राणी की प्रथम आवश्यकता है। संसार का कोई सूत्रकृतांग और स्थानांग आदि कई जैन सूत्रों में आहार के भी प्राणी बिना आहार ग्रहण किए जीवित रहने का दावा नहीं कर भेद-उपभेदों का विस्तृत वर्णन है। द्रव्य आहार के अन्तर्गत सचित्त, । सकता। जैन दर्शन के अनुसार ‘आहार संज्ञा' प्रत्येक जीव के साथ अचित्त और मिश्र आहारों का प्रतिपादन हुआ है। भाव आहार के चिपकी हुई है। अन्तर्गत ओज आहार, लोम आहार और प्रक्षिप्त आहार आते हैं।
मनुष्य का प्रमुख आहार अन्न है। यह अन्न उसके जीवन का ओज आहार अर्थात् जो जन्म के प्रारंभ में लिया जाता है। लोम
आधार है। ब्राह्मण-ग्रन्थों ने इस अन्न को ब्रह्म कहा है। तैत्तरीय आहार अर्थात् जो त्वचा या रोम के द्वारा लिया जाता है। प्रक्षिप्त
आरण्यक में कहा है-अन्नं ब्रह्मेत व्यजानात् अर्थात् यह अच्छी तरह आहार अर्थात् जो शरीर में इन्जेक्शन आदि के द्वारा प्रक्षिप्त किया
जान लीजिए कि अन्न ही ब्रह्म है। जाता है।
यह ब्रह्म अन्न, जल और फल है। जिसे हम शाकाहार कहते हैं। ___ स्थानांग सूत्र में नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवताओं के
वास्तव में वही ब्रह्म है। यह शाकाहार ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ और आहार के विषय में कहा गया है-णेरइयाणं चउव्विहे आहारे
प्राकृतिक आहार है। इसे हम यदि मनुष्य की एक वैज्ञानिक जीवन पण्णत्ते, तं जहा-इंगलोवमे, मुम्मुरोवमे, सीयले, हिमसीयले।
शैली कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। सृष्टि के प्रारंभ काल से लेकर नरक में रहने वाले प्राणियों के आहार चार प्रकार के आज तक मनुष्य के जीवन का प्रमुख आधार शाकाहार रहा है। कहे हैं-(१) अंगारों के समान थोड़ी देर तक जलाने वाला। (२) यह धार्मिक और अहिंसक आहार है। मुमुरे के समान अधिक समय तक दाह उत्पन्न करने वाला। (३)
शाकाहार का विरोधी आहार मांसाहार है। शाकाहार की शीतल-सर्दी उत्पन्न करने वाला (४) हिमशीतल-हिम के समान
विकृति मांसाहार है। यह मनुष्य की अवैज्ञानिक और अप्राकृतिक अत्यन्त शीतल।
जीवन शैली है। बिना हिंसा के मांस नहीं बनेगा और हिंसा से ___तिरिक्खजोणियाणं चउब्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-कंकोवमे, .
बढ़कर कोई पाप नहीं है। विलोवमे, पाणमंसोवमे पुत्तमंसोवमे।
भारत की अहिंसक और सात्विक संस्कृति ने मांसाहार को तिर्यंचों का आहार चार प्रकार का कहा है-(१) कंक के
। मनुष्य के आहार के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। समान-सुभक्ष्य और सुखकारी परिणाम वाला। (२) बिल के
___ भारतीय संस्कृति ने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उद्घोष की है। समान-बिल में वस्तु की तरह (रस का स्वाद दिए बिना) सीधा पेट में जाने वाला। (३) मातंगमांस के समान-मातंगमास के समान घृणा
सभी जीवों को अपने समान मानो। जैसा हमें दुःख अनुभव होता है पैदा करने वाला। (४) पुत्रमांस के समान-पुत्रमांस के समान अत्यन्त
वैसा ही दूसरा अनुभव करता है। इसलिए कभी किसी को दुःख न
दो। यहीं से अहिंसा और शाकाहार का सूत्रपात होता है। यही दुःख से खाया जाने वाला।
कारण है कि हमारी संस्कृति ने मांसाहार को कभी प्रश्रय नहीं मणुस्साणं चउव्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-असणे, पाणे, दिया। मांसाहार यदि आया भी है तो वह संस्कति की विकति के खाइमे, साइमे।
रूप में आया है और इसे सदैव पाप ही माना गया है। लोग ___ मनुष्यों का आहार चार प्रकार का कहा है-(१) असन, दाल, मांसाहार को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और इसे तिर्यंच एवं रोटी, भात आदि। (२) पान-पानी आदि पेय पदार्थ। (३) खादिम- राक्षसों का आहार मानते हैं। फल-मेवा आदि। (४) स्वादिम-पान-सुपारी आदि मुँह साफ करने की
इस वैज्ञानिक सत्य की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता कि
आदमी जैसा आहार ग्रहण करता है वैसा ही बनता है। आहार का देवाणं चउबिहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णमंते, गंधमंते, प्रभाव व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व पर पड़ता है। उसका समग्र रसमंते, फासमंते।
जीवन व्यवहार और आचरण उसके आहार के अनुरूप ढला
चीजें।
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जन-मंगल धर्म के चार चरणमा DANA
६०३ हुआ होता है। तामसिक आहार तामस व्यक्तित्व का जनक है जो मांस क्रुद्ध और आतंकित प्राणी का होगा। यदि उसी प्राणी
और सात्विक आहार सात्विक व्यक्तित्व का। जिन संस्कृतियों, के मांस को मनुष्य खाएगा तो क्या वह क्रुद्धता और उग्रता से बच जिन धर्मों और जिन समाजों ने मांसाहार को वर्जित करके सकता है। यदि मांसाहारी व्यक्ति के व्यक्तित्व में पशुता और शाकाहार को अपनाया है, वे अधिक सहिष्णु, शांतिप्रिय और । राक्षसीपन की झलक मिलती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सात्विक रही हैं।
जहाँ पर मांसाहार अधिक होगा वहाँ अपेक्षाकृत अधिक हिंसा और वर्तमान विश्व में आज जो इतनी हिंसा, आतंक, अंधाधुंधी,
क्रूरता होगी। मांसाहारी व्यक्ति आत्मिक, हार्दिक और मानसिक असहिष्णुता, क्रूरता, हत्याएं, क्रोध, तनाव, उग्रता, छटपटाहट और
संवेदना गंवा देता है। उस व्यक्ति से मृदुल, स्नेहिल और कोमल बेचैनी है, यदि इनका मूल कारण खोजेंगे तो ज्ञात होगा कि इसके
स्वभाव तथा आचरण की आशा नहीं रखी जा सकती। यह सूक्ष्म बीज मांसाहार में हैं। कोई भी जीव स्वेच्छा से मरना नहीं चाहता।
वैज्ञानिक कारण है। जिसकी कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता। सभी में दुर्वार जिजीविषा होती है। मरने से बचने के लिए जीव । इससे विपरीत वर्तमान विश्व में जो भी अव्यवस्था फैली है सबकुछ छोड़कर अपने मारने वाले से दूर भाग जाता है। जिसे उसका समाधान शाकाहार के पास है। मनुष्य ने जो शांति, संतुलन, मारा जाता है उसे बांधकर, बेबस और निरीह बनाकर ही मारा संवेदना और सहिष्णुता गंवा दी है वह शाकाहार के द्वारा पुनः जाता है। जिस समय उसकी गर्दन काटी जाती है उस समय वह लौटाई जा सकती है। मांसाहार से जो भी विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं चीखता है, चिल्लाता है, रोता है, आहे भरता है, छटपटाता है, उग्र । उनका एकमात्र उपाय और परिहार शाकाहार है। जिस दिन
और उत्तेजित होता है, आतंकित और भयभीत होता है, क्रुद्ध । शाकाहार मनुष्य की जीवन शैली बन जाएगा उस दिन वह समस्त होता है।
आन्तरिक और बाह्य वैभव से मंडित हो जाएगा।
इन्सानियत इन्सान कहलाने वाले हो॥ जिनवाणी का पीना प्याले हो।।टेर॥
मुश्किल में नर तन पाते हो। नहीं होश मोह में लाते हो।
जीवन को बनाते काले हो|॥१॥ मोह माया में क्यों फूल रहे?। अपने कर्तव्य को भूल रहे।
बन जाते मोह मतवाले हो॥२॥ यह बंगला माल खजाना है। नहीं संग तेरे कुछ आना है।
तू इनसे चित्त हटाले हो॥३॥ तेरी नैय्या डगमग डोल रही। बिन धर्म तुम्हारी पोल रही॥
अब नैया पार लगाले हो॥४॥ "मुनि पुष्कर" तुम्हें चेताता है। गया वक्त हाथ नहीं आता है। नर-भव का लाभ उठाले हो॥५॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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स्वास्थ्य रक्षा का आधार-सम्यग् आहार-विहार
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-सुशीला देवी जैन हमारे शरीर का स्वस्थ रहना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आयुर्वेद में प्रतिपादित स्वस्थ, निरोग या आरोग्य की उपर्युक्त यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो मनुष्य अपने कार्य कलापों को व्याख्या अत्यन्त व्यापक, सारगर्भित और महत्वपूर्ण है जो अपने समुचित रूप से सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है। शरीर की आप में पूर्ण और सार्थक है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस स्वस्थता का सम्बन्ध मन और उसकी स्वस्थता से भी है, अतः प्रकार का कोई दृष्टिकोण, विचार या सिद्धान्त नहीं है। आधुनिक शरीर की स्वस्थता और अस्वस्थता का पर्याप्त प्रभाव मन और चिकित्सा विज्ञान जो स्वयं को एकमात्र वैज्ञानिक होने का दावा मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। इस सम्बन्ध में आयुर्वेद के महर्षियों करता है में मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए केवल भोजन और ने बहुत ही तथ्य परक एवं महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार उसके आवश्यक तत्वों के सन्तुलन पर ही बल दिया गया है, शरीर का डील-डौल अच्छा रहना या शरीर में कोई बीमारी उत्पन्न जिसके अनुसार प्रोटीन, विटामिन्स, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा और नहीं होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु सम्पूर्ण शरीर की समस्त खनिजों को उपयुक्त अनुपात में सेवन करने से स्वास्थ्य की रक्षा हो क्रियाएं अविकृत रूप से सम्पन्न हों, मन में प्रसन्नता हो, इन्द्रियां । सकती है। निराबाध रूप से अपना कार्य करें, तब ही मनुष्य स्वस्थ कहा जा
____सामान्यतः हमारे द्वारा जो कुछ भी आहार ग्रहण किया जाता सकता है। आयुर्वेद के एक ग्रंथ 'अष्टांग हृदय' में आचार्य वाग्भट् ।
है उसका जठराग्नि के द्वारा पाचन होने के बाद जो आहार रस ने स्वस्थ पुरुष की परिभाषा निम्न प्रकार से बतलाई है
बनता है वह सीधा दोषों को प्रभावित करता है। अतः मनुष्य के समदोषः समाग्निश्च सम धातुमलक्रियः।
द्वारा जब ऐसे आहार विहार का सेवन किया जाता है जो हमारे प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः 'स्वस्थ' इत्यभिधीयते॥
शरीर के अनुकूल नहीं होता है तो उसके परिणाम स्वरूप शरीर में
दोष वैषम्य (दोषों का क्षय या वृद्धि) उत्पन्न होता है जिससे धातुएँ अर्थात् जिस मनुष्य के शरीर में स्थित दोष (वात-पित्त-कफ)
प्रभावित होती हैं, और धातु वैषम्य उत्पन्न हो जाता है। धातु वैषम्य सम (अविकृत) हों, जठराग्नि (पाचकाग्नि) सम (अविकृत) हो,
के कारण शरीर में विकारोत्पत्ति होती है। हिताहार-विहार दोषों की धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र) और मलों (स्वेद-मूत्र
समस्थिति बनाए रखने में सहायक होता है और स्वस्थ व्यक्ति के पुरीष) की क्रियाएं सम (अविकृत) हों, आत्मा, इन्द्रिय और मन
लिए दोषों की साम्यावस्था अत्यन्त आवश्यक है। प्रसन्न हों वह स्वस्थ होता है।
शरीर को स्वस्थ एवं निरोग रखने के लिए यह भी आवश्यक आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वात-पित्त-कफ ये तीन दोष होते ।
है कि मनुष्य का आहार सम्यक् हो। हित-मित आहार का सेवन ह जा अपना सम अवस्था मशरार का धारण करतह-यहा शरार करने से शरीर में स्थित दोष-धातू-मल समावस्था में रहते हैं और की स्वस्थावस्था है। दोषों का क्षय या वृद्धि नहीं होना सम या । वे अपने अविकत (प्राकत) कार्यों के द्वारा शरीर का उपकार करते अविकृत अवस्था कहलाती है। किसी एक भी दोष का क्षय या वृद्धि हैं। मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत होकर अहित विषयों में प्रवृत्त न हो, होना विकृति कारक होता है। इस प्रकार विकृत या दूषित हुआ । विशेषतः रसना इन्द्रिय के वशीभूत होकर वह अभक्ष्य भक्षण एवं दोष उपर्युक्त धातु या धातुओं को विकृत (दूषित) करता है जिससे । अति भक्षण में प्रवृत्त न हो। मिथ्या आहार से अपने शरीर की रक्षा उन धातुओं में क्षय या वृद्धि रूप विकृति उत्पन्न होती है। इसका करते हुए मनुष्य को शुद्धता एवं सात्विकता पूर्वक अपना जीवन न्यूनाधिक प्रभाव अत्र को पचाने वाली जठराग्नि, इन्द्रिय, मन और निर्वाह करना चाहिये। आचरण की शुद्धता मानव जीवन के उत्कर्ष आत्मा पर भी पड़ता है। ये सब जब सम अवस्था में रहते हैं तो के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अतः सात्विक वृत्ति पूर्वक उसे अविकृत रहते हुए शरीर को स्वस्थ रखते हैं। इनकी विषम स्थिति परिमित रूप में ही विषयों के सेवन में प्रवृत्ति रखना अभीष्ट है। विकृति की द्योतक होती है, अतः शरीर अस्वस्थ याने रोग ग्रस्त हो | जो मनुष्य अपने आचरण की शुद्धता और हिताहार के सेवन की जाता है। यह तथ्य निम्न आर्ष वचन से स्वतः स्पष्ट है-"रोगस्त । ओर विशेष ध्यान देता है वही व्यक्ति सुखी और निरोगी जीवन का दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता। अर्थात् दोषों की विषमता रोग और उपभोग करता है। दोषों की साम्यावस्था अरोगता की परिचायक है। इसी प्रकार एक
। आहार-आहार प्रत्येक मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखता है। अन्य आर्ष वचन के अनुसार "विकारो धातुवैषम्यं साम्यं
एक ओर वह शरीर की स्वास्थ्य रक्षा, मानसिक स्वास्थ्य एवं प्रकृतिरुच्यते।" अर्थात् धातुओं की विषमता विकार और समता
बौद्धिक सन्तुलन के लिए उत्तरदायी है तो दूसरी ओर अनेक प्रकृति कहलाती है।
बीमारियों को उत्पन्न करने में भी कारण है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
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एवं मन की प्रकृति एवं दोष स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। यही कारण स्वभावतः गुरु। जो द्रव्य पचने में भारी होते हैं या जो द्रव्य देर से है कि सभी मनुष्यों के लिए एक जैसा आहार सदैव अनुकूल नहीं पचते हैं वे स्वभावतः गुरु या भारी होते हैं। जैसे उड़द कहू, आलू रहता है। कुछ लोगों को मधुमेह, ब्लड प्रेशर (उच्च या हीन । आदि। ये द्रव्य कठिनता से देर में पचते हैं। २. मात्रा गुरु। कुछ रक्तचाप) मानसिक या बौद्धिक तनाव, अम्लपित्त (एसिडिटी), गैस द्रव्य स्वभावतः गुरु तो नहीं होते, किन्तु यदि अधिक मात्रा में उन्हें की बीमारी, कब्ज की शिकायत, अनिद्रा आदि कुछ ऐसी बीमारियाँ लिया जाता है तो उनका पचना मुश्किल होता है। जैसे कोई व्यक्ति हैं जो सीधे उसके आहार से प्रभावित होती हैं। हमारे द्वारा सेवन केवल एक पाव दूध ही पचा सकता है। वह यदि आधा किलो या किया गया आहार सीधे-सीधे हमारी जठराग्नि, शरीर के एक किलो दूध पीये तो वह उसे पचा नहीं पाएगा और उसे अजीर्ण आभ्यन्तरिक अवयवों और उनकी क्रियाओं को प्रभावित करता है, या अतिसार हो जायगा। कई लोगों को एक छटाँक घी पचना भी कभी अनुकूल रूप से और कभी प्रतिकूल रूप से। जब अनुकूल रूप कठिन होता है। घी, दूध, जूस आदि मात्रा गुरू होते हैं। ३. संस्कार से प्रभावित करता है तो शरीर स्वस्थ, पृष्ट और विकास की ओर। गुरु-जो द्रव्य पकाने के बाद भारी गुण वाले या कठिनता से पचने अग्रसर रहता है। इसके विपरीत जब प्रतिकूल रूप से प्रभावित
वाले होते हैं वे संस्कार गुरु कहलाते हैं। जैसे-खीर, पुड़ी, पुआ, EBRUT करता है तो अनेक प्रकार की बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न होकर
मिष्ठान्न आदि पकवान। जिन द्रव्यों से इन्हें बनाया या पकाया जाता शरीर को अस्वस्थ कर देती हैं।
है वे सामान्यतः गुरु प्रकृति के नहीं होते हैं, किन्तु पकाने के बाद
उनमें गुरुता आती है। आहार द्रव्यों को बनाना या पकाना ही प्रकृति के नियमानुसार उपयुक्त आहार समय पर लेना चाहिये।
संस्कार कहलाता है। अतः संस्कार के परिणाम स्वरूप जो आहार सामान्यतः दिन में दो बार ही उचित प्रमाण में आहार लेना चाहिये।
द्रव्य बनकर तैयार होते हैं वे संस्कारतः गुरु होते हैं। असमय या बार-बार लिया गया आहार पाचनतंत्र और उससे सम्बन्धित अवयवों की प्राकृत क्रिया को प्रभावित करता है। अधिक
विहार-इसी प्रकार मनुष्य के द्वारा दैनिक क्रिया के रूप में जो मात्रा में लिया गया आहार अजीर्ण तथा पेट सम्बन्धी अन्य
कार्य या व्यवहार किया जाता है वह विहार कहलाता है। उसे भी बीमारियों का कारण बनता है। जिस ऋतु में, जिस अवस्था में जिन
आयुर्वेद में रोग या आरोग्य का कारण माना गया है। इस विषय में खाद्य पदार्थों के सेवन से शरीर की पाचन क्रिया प्रतिकूल रूप से
अष्टांग हृदय में आचार्य वाग्भट ने स्पष्ट रूप से कहा हैप्रभावित या बाधित न हो, खाया पदार्थ शीघ्र पच जाय, अजीर्ण,
कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः। अफारा अतिसार खट्टी डकार आदि विकार उत्पन्न नहीं हों वही
सम्यग् योगश्च विज्ञेयः रोगारोग्यैककारणम्॥ खाद्य या आहार ग्रहण करना चाहिये। भोजन के समय का ध्यान
। अर्थात् काल (समय) अर्थ (इन्द्रिय गम्य समस्त पदार्थ) तथा र रखना भी आवश्यक है। दिन में दो बार ही भोजन करना चाहिये
कर्म (मनुष्य द्वारा किया जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार) इनके और दो भोजन के बीच का अन्तराल ४ से ६ घण्टे से कम नहीं
। हीन योग, मिथ्या योग एवं अतियोग को रोग तथा इनके सम्यक् होना चाहिये। जो व्यक्ति दिन में कई बार या बार-बार खाता है वह योग को आरोग्य का कारण समझना चाहिये। बीमारी स्वयं बुलाता है।
- काल से अभिप्राय दिन और रात्रि तथा ऋतु से है। दिन के R ad लगातार अल्पहार या अनाहार करना स्वास्थ्य के लिए नुकसान तीन भाग हैं-प्रातः, मध्याह्न और सायम्। रात्रि के तीन भाग हैंदायक होता है। रोगग्रस्त होने पर या किसी विशेष स्थिति में
प्रथम प्रहर, मध्य प्रहर या मध्य रात्रि और अन्तिम प्रहर। ऋतुएं उपवास या लंघन करना उपयुक्त हो सकता है। विशेष परिस्थितियों तीन या छह होती हैं-शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। छः में उसका अपना महत्व एवं उपयोगिता है, किन्तु सर्वत्र, सर्वकाल में ऋतुएँ-वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, बसन्त और ग्रीष्म। इनका हीन, और लगातार वह उपादेय नहीं है। भोजन काल में जल का भी मिथ्या और अतियोग होना अर्थात् शीतऋतु में अपेक्षित या पर्याप्त Rod अपना अलग महत्व है। भोजन के तुरन्त पहले जल पीना या जल ठंड नहीं होना, ग्रीष्म ऋतु में अपेक्षित या पर्याप्त गरमी नहीं पड़ना, पीकर तुरन्त भोजन करना कृशताकारक है। भोजन के पहले जल । वर्षा ऋतु में पर्याप्त या अपेक्षित वर्षा नहीं होना इन ऋतुओं का जल पीने से अग्निमांद्य होता है, भोजन के बीच-बीच में जल पीने से । हीन योग है। इन ऋतुओं में अपेक्षा से अधिक सरदी, गरमी या जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा भोजन के पश्चात् जल पीने से बरसात होना उन ऋतुओं का अतियोग है। शीत ऋतु में गरमी Res100 स्थूलता और कफ की वृद्धि होती है।
होना, ग्रीष्म में सरदी होना, वर्षा में कम या अधिक, आगे-पीछे या भुक्तस्यादौ सलिलं पीतं कायमन्दाग्निदोषकृत्।
विषम वर्षा होना, समय पर वर्षा नहीं होना मिथ्या योग है। ऋतुओं
में इस प्रकार की विषमता होने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो मध्येऽग्निदीपनं श्रेष्ठमन्ते स्थौल्यकफप्रदम्॥
जाते हैं। अतः ऋतुओं का विषम या मिथ्या योग रोग का कारण हैं। इसी तरह गुरु आहार के सेवन में भी सावधानी बरतनी । इसके विपरीत इन ऋतुओं का सम्यक् योग रहने पर मनुष्य स्वस्थ
चाहिये। गुरु या भारी आहार तीन प्रकार का होता है-१. या निरोग रहते हैं। एपण लवणलण्णपाय RAGG6290.90%ac%800:00:00:00.0000.6000
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उपर्युक्त को ध्यान रखते हुए क्रियाएँ, आचरण या व्यवहार कोई रोग या विकार उसे पीड़ित नहीं कर सकता। वही संयम जब
करना विहार कहलाता है। इसके लिए आयुर्वेद में दिनचर्या, बिगड़ जाता है तो उसका प्रभाव शरीर में स्थित दोषों पर पड़ता 8000 निशाचर्या और ऋतु चर्या का निर्देश किया गया है और यह कहा जिससे उनमें विषमता उत्पन्न हो जाती है और फिर रोग उत्पन्न होने 50566 TOS गया है कि इन चर्याओं का नियमानुसार आचरण करने वाला की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। 30909 व्यक्ति स्वस्थ रहता है और जो उनके अनुसार आचरण नहीं करता
मनुष्य के आहार-विहार के अन्तर्गत आयुर्वेद में तीन उपस्तम्भ है वह अस्वस्थ या रोगी हो जाता है। निम्न आर्ष वचन द्वारा
बतलाए गए हैं-आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य। ये तीनों ही सुदृढ़ 600 उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है
स्वास्थ्य के आधार माने गए हैं। सम्पूर्ण आहार विहार इन तीन दिनचर्या निशाचर्या ऋतुचर्या यथोदिताम्। उपस्तम्भों में ही समाविष्ट है। यही कारण है कि प्राचीन काल में आचरन् पुरुषः स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा॥
इनके पालन-आचरण पर विशेष जोर दिया जाता रहा है।
स्वविवेकानुसार यदि इनका पालन एवं आचरण किया जाता है तो प्रातःकाल उठकर नित्य क्रियाएँ करना, शौच आदि से निवृत्त
मनुष्य आजीवन स्वस्थ तो रहता ही है, वह दीर्घायुष्य भी प्राप्त होकर आवश्यकता एवं क्षमता के अनुसार अभ्यंग, व्यायाम आदि
करता है। करना, तदुपरान्त स्नान करना, समयानुसार वस्त्रा धारण करना, देव दर्शन करना, स्वाध्याय करना, ऋतु के अनुसार आहार लेना, पता: अन्य दैनिक कार्य करना, सायंकालीन आहार लेना, विश्राम करना, सुशीला देवी जैन, रात्रि के प्रथम प्रहर में अध्ययन-स्वाध्याय करना आदि, तत्पश्चात् आरोग्य सेवा सदन, शयन करना-यह सब विहार के अन्तर्गत समाविष्ट है। मनुष्य यदि सी. सी./११२ए, शालीमार बाग, अपने आचरण को देश, काल, ऋतु के अनुसार संयमित रखता है तो दिल्ली-११००५२
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माँसाहार के कारण किस तरह हमारी खनिज संपदा उजड़ रही है इसे मात्र इस तथ्य से जाना जा सकता है कि यदि मनुष्य माँस केन्द्रित आहार छोड़ दे तो जो पेट्रोल भण्डार उसे प्राप्त है वह २६० वर्षों तक चल सकता है; किन्तु यदि उसने ऐसा नहीं किया तो यह भण्डार सिर्फ १३ वर्ष चलेगा (रिएलिटीज १९८९)। वस्तुतः हम पेट्रोल का दोहन तो बेतहाशा कर रहे हैं; किन्तु फॉसिल-ऊर्जा के रूप में वनों द्वारा उसे धरती को वापिस नहीं कर रहे हैं।
-डॉ. नेमीचन्द जैन (शाकाहार मानव-सभ्यता की सुबह : पेज ८१ से)
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भगवान महावीर और महात्मा गाँधी की भूमि पर बढ़ते कत्लखाने
-पद्मश्री श्री यशपाल जी जैन, विद्यावाचस्पति (सम्पादक : जीवन-साहित्य) दरियागंज, दिल्ली
एक घटना याद आती है।
को भूनकर खा जाता था। वैदिक काल में नर-बलि दी जाती थी, महात्मा गांधी उड़ीसा में प्रवास कर रहे थे। एक दिन उन्होंने
लेकिन धीरे-धीरे मनुष्य सुसभ्य और सुसंस्कृत होता गया। उसने देखा कि कुछ लोग गाजे-बाजे के साथ कहीं जा रहे हैं। आगे एक
अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कष्ट होता है, उसी प्रकार सजा हुआ बकरा है। जिज्ञासावश गांधी जी ने आगे बढ़कर पूछा
दूसरों को भी कष्ट होता है। उन्होंने नर-बलि का विरोध किया। नर कि वह जूलूस क्या है और वे कहाँ जा रहे हैं ? उत्तर मिला
के स्थान पर पशुओं की बलि दी जाने लगी। विवेकशील लोगों ने "हमने कामाख्या देवी के मंदिर में मांनता मांगी थी कि यदि हमारा
कहा-पशु भी तो जीवधारी हैं। उन्हें भी मारने पर कष्ट होता है। अमुक काम हो गया तो हम उन पर बकरा चढ़ा देंगे। देवी ने
उन्होंने पशु-बलि पर भी अंकुश लगाने का आह्वान किया। हमारी प्रार्थना सुन ली, काम हो गया, अब हम इस बकरे की बलि ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर के समय में भी यज्ञों में चढ़ाने जा रहे हैं।"
पशु-बलि दी जाती थी। महावीर ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई। यह सुनकर गांधीजी ने उस मूक निरीह पशु को देखा, उनकी
हिंसा पर अहिंसा की श्रेष्ठता का वातावरण बनाया। उन्होंने मानव आत्मा चीत्कार कर उठीं। उन्होंने कहा-"तुम लोग ऐसा क्यों कर
जाति की सोती आत्मा को जगाया। रहे हो?"
____ लेकिन मनुष्य घोर स्वार्थी है। उसके अन्दर पशु विद्यमान है, उन्होंने जबाब दिया-"इसलिए कि देवी प्रसन्न होगी।"
जो उसे अमानवीय कार्य करने के लिए सतत् प्रेरित करता रहता
है। पशु-बलि एकदम रुकी नहीं। आज तो वह अपनी पराकाष्ठा पर गांधी जी ने आहत स्वर में कहा, “यदि देवी को बकरे से भी
पहुँच गयी है। मांस का चलन अपने देश में तो बढ़ा ही है, विदेशों अधिक मूल्यवान भेंट की जाय तो वह और भी प्रसन्न होगी?"
को भी मांस का भारी निर्यात होता है। किसी भी पशु का मांस "जी हाँ।"
वर्जित नहीं है। हिन्दू के लिए गाय का मांस निषिद्ध है, मुसलमानों "तो सुनो ! गांधी ने कहा- "बकरे से भी अधिक कीमती मांस
के लिए सूअर का, किन्तु उन दोनों का मांस भी धड़ल्ले से बाहर Padmaa मनुष्य का होता है। होता है न?"
जाता है। “जी हाँ।"
भूदान के सिलसिले में जब आचार्य विनोबा भावे कलकत्ता गये
थे तो एक कत्लखाने के आगे कटने वाले पशुओं की आंखों में "क्या आपमें से कोई अपनी बलि देने को तैयार है?" गांधी
वेबसी देखकर उन्होंने कहा था, "जी करता है कि इन निरीह जी ने गंभीर स्वर में पूछा
प्राणियों के साथ कटने के लिए मैं भी अंदर चला जाऊँ।" सब चुप
बाद में उन्होंने बम्बई के सबसे बड़े कत्लखाने देवनार पर तब गांधी जी ने कहा-"मैं तैयार हूँ। बकरे को छोड़ दो। मुझे
सत्याग्रह करने की प्रेरणा दी। आज वहाँ अनेक वर्षों से सत्याग्रह ले चलो।" उन लोगों की आत्मा एकदम जाग्रत हो उठी। उन्होंने चल रहा है, लेकिन कहा जाता है कि आज उस कत्लखाने में कटने तत्काल बकरे को छोड़ दिया।
वाले पशुओं को संख्या कई गुनी अधिक हो गई है। हमारे शरीर में पर आज वह संवेदनशीलता एकदम नष्ट हो गई है और जरा-सी चोट लगती है तो हम बिलबिला उठते हैं, लेकिन हमें उन संकीर्ण स्वार्थ के लिए धड़ाधड़ पशुओं का हनन किया जा रहा है। प्राणियों के वध में होने वाली पीड़ा का अनुभव नहीं होता, जिनमें वह कमाई का ऐसा धंधा बन गया है कि दिनोंदिन नये-नये हमारी तरह आत्मा है। कत्लखाने खुलते जा रहे हैं। इन कत्लखानों में यह दुष्कृत्य कितने
। भारत की राजधानी दिल्ली में नये कत्लखाने खोलने की क्रूर ढंग से किया जाता है, उसे कोई सहृदय व्यक्ति देख नहीं
योजना के समय प्रशासकों से बात हुई थी। उनके तर्कों में दो तर्क सकता। देश में जगह-जगह पर ये कत्लखाने खुल गए हैं और नये
। प्रमुख थे। पहला यह कि हमारे देश में मांसाहार का चलन बढ़ रहा नये खुलते जा रहे हैं।
है। मांस की मांग में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। हमें उसकी पूर्ति किसी जमाने में आदमी जंगली था, असमझ था। वह आदमियों करनी है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । दूसरा तर्क यह था कि गली-गली में पशु काटे जाते हैं। उनके । रुक गए। सुधीर ने वहाँ काउण्टर पर खड़ी लड़कियों से कहा500DDA काटने का ढंग बड़ा घिनौंना है। उसका खून चारों ओर बहता है। "मेरे माता-पिता यहाँ हैं वे पूर्ण शाकाहारी हैं। उन्हें कुछ ऐसी चीजें
हम कत्लखानों के द्वारा, इस कार्य को वैज्ञानिक ढंग पर करना खाने को दे दो, जिनमें अण्डा भी न हो।" चाहते हैं।
उनमें से एक लड़की ने उत्सुक होकर पूछा-"तुम्हारे माता___हमने उनसे कहा कि मांस से अधिक मांग तो वेश्याओं का पिता स्वस्थ तो हैं न?" खुले आम नाच कराने का है। क्या तुम उसकी व्यवस्था करोगे?
"तुम्हीं उनके पास जाकर पूछ लो।" सुधीर ने उत्तर दिया। तुम्हारा यह कहना कि मांस खाने वालों को रोक दो, हम कत्लखाने बन्द कर देंगे, बेमानी है। तब तुम कत्लखाने क्या बन्द करोगे, वे
एक लड़की मेरे पास आई। युवा थी। बोली-"आपके बेटे का अपने आप बन्द हो जायेंगे।
कहना है कि आप पूर्ण शाकाहारी हैं। आपकी उम्र कितनी है ?" जहाँ तक तुम्हारे इस तर्क का प्रश्न है, कि तुम वैज्ञानिक ढंग ।
यह दश वर्ष पहले की घटना है। मैंने कहा-"यह मेरा पर कत्ल करना चाहते हैं, वह भी कोई अर्थ नहीं रखता। कल
बहत्तरवाँ वर्ष है।"
बहर 988 कत्ल है, चाहे अपने देश की बनी छुरी से करो, चाहे विदेश की वह लड़की मेरी ओर मुँह फाड़ कर देखती रह गई। फिर बनी छुरी से।
बोली-“देखिये, हमारे माता-पिता कहते हैं कि तुम मांस नहीं हमारा तर्क उनके गले नहीं उतरा। जिनकी आँखों पर स्वार्थ ।
खाओगी तो कमजोर हो जाओगी और जल्दी मर जाओगी।" का पर्दा पड़ा होता है, वे प्रकाश नहीं देख सकते। दुर्भाग्य से मैंने हँसकर कहा-"तुम्हारे माता-पिता और तुम कितने अज्ञान कत्लखाने बड़ी तेजी से देश में बढ़ते जा रहे हैं ?
में हो, यह प्रत्यक्ष देख रही हो।" मजे की बात यह है कि विदेशों में लोग शाकाहार की ओर लड़की विस्मित होकर चली गई। अधिकाधिक आकर्षित हो रहे हैं, परन्तु हमारे देश में उल्टा हो रहा
शाकाहार के प्रभावशाली प्रचार के द्वारा लोगों के इस भ्रम है। हाल ही के अपने कैनेडा और अमरीका-प्रवास में हमने देखा
और अज्ञान को दूर करना होगा। बड़े-बड़े चार्ट बनाकर लोगों को कि जगह-जगह पर शाकाहारी भोजन की व्यवस्था है, नये-नये
समझाना होगा कि मांस में जितने पोषक तत्त्व माने जाते हैं, उनसे शाकाहारी होटल और रेस्तरां खुल रहे हैं, परन्तु हमारे देश में
। अधिक पोषक तत्त्व शाकाहारी भोजन में हैं। इसको प्रदर्शिनी द्वारा मांसाहार का प्रचार बराबर बढ़ रहा है।
दिखाया जाना आवश्यक है। ऐसी दशा में प्रश्न उठता है कि कत्लखानों को किस प्रकार
भारत-भूमि भगवान महावीर की भूमि है, महात्मा गांधी की रोका जा सकता है? इसका एक ही उत्तर है-देशव्यापी आन्दोलन
भूमि है। महावीर की जानकारी कम लोगों को है, लेकिन गांधी से। सरकार से कह दिया जाय कि हम अपना मत उस दल को
और उसकी अहिंसा को तो सारी दुनियाँ जानती है। जानती ही नहीं देंगे, जो कत्लखानों को बंद करेगा। सरकार मत के मूल्य को भली
मानती भी है। उनके महान व्यक्तित्व और उनके महान आदर्शों को प्रकार जानती और समझती है। जहाँ उसे यह पता चलेगा कि
सकल विश्व के लिए कल्याणकारी मानती है। उसका अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है, वह तत्काल उस दिशा में कदम उठावेगा।
ऐसी पवित्र भूमि पर निर्दोष-निरीह मूक प्राणियों का खून बहे,
उनकी निर्मम हत्या हो, इससे अधिक लज्जा और कलंक की बात इस प्रकार पहला उपाय है सरकार पर प्रत्येक आन्दोलन द्वारा
क्या हो सकती है ? विज्ञान और तकनीक की दृष्टि से चरम शिखर प्रभाव डालना। दूसरा उपाय है पशुओं की निकासी पर प्रतिबंध
पर पहुँची दुनियाँ इतनी अमानवीय इतनी संवेदनहीन हो, इससे लगाना। कत्लखाने उन पशुओं पर चलते हैं, जो गाँवों से बड़ी
बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है? संख्या में भेजे जाते हैं ? इसके लिए गाँव-गाँव में ऐसे संगठन बनाने होंगे, जो एक भी पशु को बाहर न जाने दें। इसमें युवा-शक्ति और
एक समय था जब कि प्रेम और जीव दया के क्षेत्र में ग्रामों के अध्यापक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।
भारतवासियों ने उत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत किया था। अल्वर्ट स्विट्जर
का नाम आज भी आदर से लिया जाता है। उन जैसे अनगिनत तीसरे, देश भर में शाकाहार का प्रचार किया जाय। आज उस
व्यक्ति विभिन्न देशों में हुए हैं, जिन्होंने प्राणि मात्र के प्रति अपार दिशा में जो प्रयास हो रहा है, वह पर्याप्त नहीं है। उस संबंध में
करुणा प्रदर्शित की। भारत की भूमि में तो सबके कल्याण के गीत कितना अज्ञान है, यह एक दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है।
किसी युग में गाये जाते थे। जन-जन की जिह्वा पर रहता था-"सर्वे कुछ वर्ष पूर्व हम अपने लड़के सुधीर के पास कैनेडा गए थे। भवन्तु सुखिनाः।" संसार के समस्त प्राणी सुखी हों। सर्वे सन्तु
एक दिन बाहर से लौट रहे थे तो एक रेस्तरां में चाय पीने के लिए निरामया।' संसार के सभी प्राणी नीरोग हों। ENGER
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
कत्लखानों को बंद कराने के लिए वैसे तो सारे भारत को तत्पर होना चाहिए। किन्तु भगवान महावीर का अपने को अनुयायी मानने के नाते जैन समाज को और गांधी का अपने को अनुयायी मानने वाले गांधीवादी समाज को आगे आना चाहिए। दो महायुद्ध हम देख चुके हैं। शीत युद्ध आज भी देख रहे हैं। आग की छोटी चिनगारी महान अग्निकाण्ड को जन्म दे देती है। इसी प्रकार कत्लखानों को छोटी हिंसा महायुद्ध की हिंसा की जननी बन जाती
है। हम इस तथ्य को न भूलें और अपने मानवोचित दायित्व के प्रति तत्काल सजग हो जायें। देश और दुनियां को महावीर और गांधी के सिद्धान्त बचायेंगे, विज्ञान और तकनीक नहीं। लोक कल्याण की आधारशिला अहिंसा है, हिंसा नहीं। पता: ७/८ दरियागंज
दिल्ली
१९७० के बाद से पश्चिम-के-देशों ने 'वे क्या खा रहे हैं और जो कुछ वे खा रहे हैं उसका व्यक्ति और समाज के व्यक्तित्व-निर्माण पर क्या प्रभाव पड़ रहा है' विषय पर काफी गहराई से विचार किया है। आश्चर्य है कि हम जो चाहे वह खा रहे हैं और सामने आ रहे नतीजों को उन मामलों से जोड़ रहे हैं, जिनका उनसे दूर का भी कोई रिश्ता नहीं है। वस्तुतः हम असली घाव पर अपनी अंगुली नहीं रख पा रहे हैं।
हम स्वादिष्ट और चटखारेदार चीजें खाना चाहते हैं; किन्तु स्वाद के पीछे बैठे जहर को पहिचानने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यह भी नहीं पहिचान पा रहे हैं कि हमारे इस अप्रत्याशित आचरण के फलस्वरूप आने वाली पीढ़ियों को कितनी बड़ी सजा भुगतनी पड़ेगी।
स्वाद और शौक की असंख्य सनकों के बीच हम स्वयं को तो बर्बाद कर ही रहे हैं; किन्तु पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की जो नस्लें हमारी अदूरदर्शिता और तात्कालिक लाभ लेने की आदत के कारण नष्ट हो रही हैं, उन्हें हम फिर कभी जीवित नहीं कर पायेंगे।
हमारा ध्यान मात्र स्वयं पर है, दुनिया के उन भावी वाशिन्दों पर नहीं है, जो अपना असली जीवन शुरू करने वाले हैं।
आहार पर ध्यान न देकर हम इतनी बड़ी भूल कर रहे हैं कि जिसके कई सांस्कृतिक और सामाजिक दुष्परिणाम सामने आयेंगे। संसाधित (प्रोसेस्ड) कार्बोहाइड्रेट्स स्वाद में तो रुचिकर लगते हैं; किन्तु संसाधन (प्रोसेसिंग) के दौरान उनमें अवस्थित विटामिनों की जो दुर्दशा होती है, उसके बारे में बिल्कुल चिन्तित नहीं हैं। बावजूद चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों की चेतावनी के हमने बर्ताव में कोई खास तब्दीली नहीं की है और संसाधित (प्रोसेस्ड) आहार को लगातार उत्साहित करते जा रहे हैं।
जो मुल्क प्रोसेस्ड कार्बोहाइड्रेट्स अर्थात् ऐसे खाद्य-जिनमें-से रेशे खत्म हो जाते हैं, की टेक्नॉलॉजी को अविकसित, अर्द्धविकसित या भारत जैसे विकासशील देशों को बेच रहे हैं और जो ये बदनसीब देश सभ्य होने के मिथ्या भ्रम और आवेश में इन खारिज तकनीकों को अपना रहे हैं, वे स्वयं अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। उन्हें इस बात का अन्दाज नहीं है कि उनके इस आचरण से एक पूरा मुल्क हिंसा के बदहवास दौर से गुज़र सकता है।
पश्चिम में कई प्रयोग हुए हैं और आहार-विशेषज्ञों ने कई शोधपत्र पढ़े हैं, जिनमें उन्होंने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि यदि हमने अपने रोजमर्रा के आहार का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया और उसमें उन तत्त्वों को शरीक नहीं किया जो हमारे व्यक्तित्व की संतुलित रचना के लिए जिम्मेदार हैं तो उसका दुष्परिणाम न सिर्फ व्यक्ति को बल्कि सारे मानव-समाज को भोगना पड़ेगा।
-डॉ. नेमीचन्द जैन (शाकाहार मानव सभ्यता की सुबह : पेज ३० से)
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
अण्डा-उपभोग : स्वास्थ्य या रोग !
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-साध्वीरत्न पुष्पवतीजी म. “सण्डे हो या मण्डे-रोज खाओ अण्डे"-"अण्डे खाओ-बल प्रक्रिया का आधारभूत उपादान, प्राणी जन्म का साधन भला बुद्धि बढ़ाओ" "रोज सवेरे अण्डा खाए-वो ही अपनी सेहत निरापद सब्जी कैसे मानी जा सकती है। अब यह तथ्य विधिवत् बनाए"-ऐसे-ऐसे भ्रामक दुष्प्रचार के युग में जनसामान्य की प्रतिपादित हुआ है कि अण्डा सब्जी नहीं है, इस रूप में इसे मानसिकता का भ्रष्ट हो जाना स्वाभाविक ही है। आज न जाने विज्ञापित किया जाना और इसका विक्रय करना राष्ट्रीय और क्या-क्या मिथ्या तर्क जुटाकर अण्डाहार के पक्ष को समर्थित, पुष्ट | सामाजिक अपराध माना गया है। और सबल बनाया जा रहा है, अन्यथा यथार्थ तो यही है कि अण्डा घोर अनर्थकारी पदार्थ है। उपर्युक्त प्रचारोक्तियों के उत्तर में यही ।
दूर कीजिये पौष्टिकता का भ्रम कहा जाना चाहिए कि-"सण्डे हो या मण्डे-कभी न खाओ अण्डे"- दीर्घकाल तक तो यह भ्रांति पल्लवित होती रही कि अण्डा “अण्डे खाओ-बल-बुद्धि घटाओ"-रोज सवेरे अण्डा खाए-वो मृत्यु अत्यन्त पौष्टिक होता है, किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है। को पास बुलाए।" भ्रांतियों के घने अंधेरे से बाहर निकल कर सभी बच्चों के लिए तो बेजोड़ आहार माना जाता रहा, किन्तु अण्डा का यही आन्तरिक विश्वास सबल होगा कि-"जिसने लिया अण्डे बच्चों के लिए विशेषरूप से हानिकारक है। दूध की अपेक्षा अण्डा का स्वाद, उसका तन-मन-धन बरबाद" और "जिसने किया अधिक पौष्टिक माना गया, किन्तु अब आहार विशेषज्ञों का अण्डा-उभयोग-खोया स्वास्थ्य बुलाये रोग"। अण्डा-प्रशस्ति तो धन अभिमत यह बन गया है कि ऐसा मानना भारी भूल है। अण्डे में लोलुप व्यवसाइयों का एक ऐसा मोहक जाल है कि सामान्य जन बी-२ और बी-१२ तत्व और केलशियम की मात्रा नहीं के तुल्य है, को उसमें फंसाकर वे अपने अर्थोपार्जन का लक्ष्य तो आशा से भी जबकि ये पोषक तत्व दूध में पर्याप्ततः पाये जाते हैं। कार्बोहाइड्रेट्स अधिक प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु विमूढ़ उपभोक्ता रोग और पीड़ाओं जैसा अत्यावश्यक तत्व तो अण्डे में होता ही नहीं है। मानव से घिर जाते हैं।
शौष्ठव के लिए प्रोटीन को अत्यावश्यक तत्व हुआ करता है। अण्डा खाद्य रूप में अप्राकृतिक पदार्थ
अन्य खाद्य पदार्थों की अपेक्षा अण्डे में प्रोटीन की मात्रा अल्पतम
पायी जाती है। प्रोटीन अण्डे में मात्र १३.३ प्रतिशत होता है, अण्डा आहार निश्चित् रूप से हानिकारक है, रोगोत्पादक है,
जबकि यह प्रतिशत दालों (विशेषतः मसूर की दाल) में २५, मैथी यह सत्य ही है, किन्तु विचारणीय यह प्रश्न है कि क्या अण्डा
में २६.२ प्रतिशत, सोयाबीन में ४३.२ प्रतिशत होता है। मूंगफली उपयुक्त आहार है भी? क्या अण्डा मनुष्य की भोज्य सामग्री की
1 में प्रोटीन की मात्रा ३१.५ प्रतिशत मिलती है। ऐसी स्थिति में क्या सूची में सम्मिलित होने योग्य पदार्थ है? वास्तविकता यह है कि
अण्डे को पौष्टिक मानना औचित्यपूर्ण है। ध्यातव्य है विगत अण्डे का अस्तित्व एक प्रजनन प्रक्रिया के प्रयोजन से बना है-यह खाने के लिए बना ही नहीं है। वैज्ञानिकों का अभिमत है कि अण्डे
दीर्घकाल तक यह मान्यता रही कि प्रोटीन प्रथम और द्वितीय दो की आन्तरिक संरचना प्राणी-जन्म के लक्ष्य से हुई है। सन्तति-वृद्धि
श्रेणियों का होता है और प्रथम श्रेणी का प्रोटीन अण्डों में, जबकि का उपादान अण्डा कभी खाद्य पदार्थ का रूप नहीं ले सकता।' इस
वनस्पतियों व उसके उत्पादनों में द्वितीय श्रेणी का होता है। अब रूप में यह अप्राकृतिक पदार्थ है। इसे खाद्य मानना मनुष्य की
आंकिक आधार पर अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि अण्डा अगति और बर्बरता का द्योतक है। यह व्यवहार मानव सभ्यता को
द्वितीय श्रेणी का प्रोटीन ही रखता है। स्वाभाविक एवं प्राकृतिक विलोम गति देता है, मनुष्य को वन्य अवस्था में लौटाने की प्रवृत्ति
खाद्य-वानस्पतिक उत्पादों के प्रथम श्रेणी के प्रोटीन की तुलना में है। मुर्गी से अण्डा और अण्डे से मुर्गी का जो प्राकृतिक चक्र
अण्डा कोई महत्व नहीं रखता। इसके अतिरिक्त प्रोटीन की अण्डे में गतिमान रहता है-मनुष्य अण्डे को भोज्य बनाकर उस व्यवस्था में
असंतुलित उपस्थिति होती है। अण्डे का अतिरिक्त प्रोटीन मानव व्यवधान ही उपस्थित कर रहा है। वह स्वयं को भी अपने इस उदर के लिए दुश्पाच्य भी सिद्ध हुआ है और यह मांस पेशियों में अनैसर्गिक कृत्य के कुफल से रक्षित नहीं रह सकता। समय रहते । जमकर उन्हें जड़ बना देता है। ही मानव जाति को सावधान हो जाना चाहिए। इस अप्राकृतिक यह मान्यता भी अब मिथ्या सिद्ध हो गयी है कि अण्डा सेवन का परित्याग ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है-विश्वमंगल भी मानव-शरीर को अपेक्षाकत अधिक ऊर्जा प्रदान करता है। इस इसी से, उसके द्वारा संभाव्य होगा।
विश्लेषण से वास्तविकता उजागर हो जाती है कि जहाँ ५० ग्राम कैसी विडम्बना है कि भारत जैसे अहिंसा प्रधान देश में अण्डे | अण्डे से ८६.५ किलौरी ऊर्जा प्राप्त होती है-वहाँ इतनी ही मात्रा के को सब्जी मानने की भ्रांति इतनी बलवती हो गयी है। प्रजनन । अन्य खाद्य पदार्थ अधिक ऊर्जा देते हैं, यथा-आटा १७६.५, धनिया
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१४४, मैथी १५६.५, मसूर की दाल १७० किलौरी ऊर्जा देती है। स्पष्ट है कि नमक की यह राशि सारी की सारी अतिरिक्त मूंगफली द्वारा प्राप्त ऊर्जा तो अण्डे की अपेक्षा लगभग चार गुनी होती है। नमक के उपयोग की जो साधारण मात्रा होती है वह तो होती है। ५० ग्राम मूंगफली २३० किलौरी ऊर्जा की स्रोत बन ज्यों की त्यों ही बनी रहती है। अण्डे के श्वेतांश में नमक रहता है जाती है।
और उसके पीतांश में कोलेस्टेरोल। अर्थात् उसका कोई भी भाग
निरापद नहीं। अण्डा सारा का सारा ही हानिकारक और रोगजनक तात्विक दृष्टि से असंतुलित
होता है। केलशियम की कमी के कारण अण्डा दाँतों की रक्षा और पूर्ववर्णित कतिपय तथ्यों से भी यही ध्यातव्य बिन्दु उभरता है ।
अस्थियों की सुदृढ़ता में भी सहायक नहीं हो पाता। अण्डे में एक कि अण्डे की संरचना में विभिन्न अनिवार्य तत्व संतुलित रूप में
विशेष प्रकार का बैक्टेरिया३ भी होता है जो जान लेवा सिद्ध नहीं मिलते। कार्बोहाइड्रेट्स और केलशियम तो इसमें है ही नहीं,
हुआ है। ब्रिटेन में लगभग ६-७ वर्षों पूर्व इस बैक्टेरिया के कारण इसमें लोहा, आयोडीन और विटामिन-ए की भी कमी होती है। इस }
कोई डेढ़ हजार लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था। असंतुलन के कारण अण्डा मानव शरीर के संतुलित विकास में
करोड़ों अण्डों और लाखों मुर्गियों को वहाँ उस समय नष्ट कर तनिक भी सहायक नहीं हो पाता। चिकित्सा विशेषज्ञों की तो यह
दिया गया था। मान्यता भी है कि इस स्वरूप के कारण अण्डा-सेवन आंतों में सड़ान उत्पन्न कर सकती है। चिकित्सकीय विज्ञान में इस सड़ान को
अण्डे के विषय में यह समस्या भी रहती है कि वह प्रयोग के "प्यूटीफेक्शन" कहा जाता है।
पूर्व कहीं विकृत और दूषित होकर हानिकारक तो नहीं हो गया
है-इसका आभास भी नहीं हो पाता। इसका पता भी नहीं चलता कोलेस्टेरोल-घातक तत्व का कोष
कि अण्डा कितना पुराना है। अण्डों को शीतलता के साथ सुरक्षित कोलेस्टेरोल कलियुग का काल कूट बन गया है। चर्बी बसा रखने की व्यापक व्यवस्था भी संभव नहीं हो पाती। ४०° सेल्सियस युक्त पदार्थों में इस मारक तत्व की उपस्थिति रहती है। शरीर में तापमान पर ही अण्डा विकृत होने लग जाता है। यही नहीं उसके कोलेस्टेरोल का आधिक्य जीवन के लिए भयंकर संकट का ऊपर के श्वेत आवरण (खोल) में से होकर उसकी तरलता माप कारण बन जाता है। यह संकट "हाथ पर कोलेस्टेरोलियम" बनकर बाहर निकलने लग जाती है और बाहर से अनेक प्रकार के नामक असामान्य स्थिति के रूप में जाना जाता है। त्वचा के रोगाणु भीतर प्रविष्ट होकर उसे सड़ा देते हैं। कहा जाता है कि आन्तरिक भागों में, नसों में यह तत्व जम जाता है और नसों को अण्डे के खोल में पन्द्रह हजार से अधिक रन्ध्र होते हैं जो संकरा कर देता है। परिणामतः रक्त-प्रवाह बाधित हो जाता है। इसी । रोगाणुओं के लिए द्वार का काम देते हैं। ऐसे दूषित अण्डों का कारण हृदयरोग और रक्त चाप जैसे घातक रोग हो जाते हैं। सेवन निश्चित रूप से अनेक रोगों का कारण बन जाता है। अण्डा अपस्मार या लकवा जैसा दयनीय रोग भी इसका स्वाभाविक
सेवन करने वालों के लिए आंतों का केंसर एक सामान्य रोग है। परिणाम होता है। कोलेस्टेरोल की पर्याप्त मात्रा अण्डों में विद्यमान । हृदय रोग का तो जैसा कि वर्णित किया गया है यह एक प्रबल रहती है। माना जाता है कि एक सौ ग्राम अण्डे में ५०० मिलिग्राम
कारण है। एक सर्वेक्षण के आधार पर केलिफोर्निया के एक कोलेस्टेरोल होता है जो अपने मारक धर्म को देखते हुए बहुत विश्वविद्यालय ने यह निष्कर्ष निकाला है कि शाकाहारी हृदयरोगियों अधिक है। आज के विश्व के सम्मुख यह कोलेस्टेरोल भयावह
की अपेक्षा अण्डाहारी हृदयरोगियों में मृतकों की संख्या १० अभिशाप बनकर खड़ा है। जिन्हें हृदयरोग और रक्तचाप की दारुण
प्रतिशत अधिक रहती है। इस निष्कर्ष का आधार २४ हजार हृदय छाया घेरे हुए हैं, उन्हें तो अण्डा आहार की कल्पना भी नहीं
रोगियों का अध्ययन रहा है। करनी चाहिए यह तो कगार पर खड़े व्यक्ति के लिए अंतिम धक्के का काम करेगा जिससे इहलीला का पटाक्षेप सर्वनिश्चित रूप
अब वैज्ञानिकों-चिकित्सा शास्त्रियों की तो ये स्वीकारोक्तियां । में हो जाएगा।
होने लगी हैं कि अण्डा खाद्य पदार्थ ही नहीं है, इसमें पोषण की
क्षमता नहीं है। वे यह भी मानने लगे हैं कि इस अप्राकृतिक खाद्य अण्डा कारण है रोगों और हानियों का
से नानाविध संकट और रोग उत्पन्न होते हैं। सुखी और स्वस्थ अण्डे की जो रासायनिक संरचना है-उसके अनुसार उसमें जीवन के लिए इस त्याज्य मानना ही हितकर ह। अब समय आ नमक (सोडियम) की प्रचुर मात्रा होती है। इस प्रचुरता का ।
गया है जब जन सामान्य को भी अण्डे की वास्तविकताओं को अनुमान इस प्रकार लगाया जा सकता है कि मात्र एक अण्डे का । पहचान लेना चाहिए और आत्मरक्षा के लिए चिन्ता करनी चाहिए। सेवन आधे चम्मच नमक का प्रवेश हमारे शरीर में कर देता है। अण्डा गुणहीन ही नहीं दुर्गुणों की खान भी है। यह जितना शुभ्र नमक का ऐसा आधिक्य शरीर में अनेक प्रकार के उपद्रव मचा और धवल दिखायी देता है-इसकी करतूत उतनी ही काली है। देता है। विशेषता यह है कि यह नमक रहता भी अदृश्यमान है।। दुष्प्रचार के भ्रष्ट तंत्रों से सावधानी बरतते हुए आज के आम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ आदमी को अण्डे की भीषण विनाशलीला को समझ लेना होगा- दिशाओं से सहकार अपेक्षित है। अहिंसावादियों का तो यह विशिष्ट तभी वह “निरोगी काया" का मूलभूत सुखं प्राप्त कर सकेगा, दायित्त्व हो गया है कि भ्रूणहत्या जैसे क्रूर कर्म-अण्डा-आहार की स्वस्थ रह सकेगा। क्या ही अच्छा होता कि जैसे सिगरेट पर उसके प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न करें। अहिंसा परम धर्म है तो अण्डा हानिकारक होने की वैधानिक चेतावनी छपी होती है-वैसे ही प्रत्येक विरोधी अभियान का संचालक परमधर्मी होने का गौरव प्राप्त करेंअण्डे पर यह छाप भी लगी होती कि अण्डा पौष्टिक नहीं होता, इसमें भी कोई अस्वाभाविकता नहीं। यदि वे इस कुमार्ग पर आरूढ़ इसको खाने से हृदयरोग, कैंसर, रक्तचाप जैसे रोग होते हैं। होने वाले नये पथिकों को भी बोध देकर रोक सकेंगे तो यह उनकी आवश्यकता इस बात की है कि अण्डा विरोधी जनमानस
उपलब्धि होगी। ऐसे व्यक्ति सच्चे जन नेता होंगे और उनके स्वर में निर्मित किया जाए। तभी इस अनैसर्गिक आहार के प्रति विकर्षण
जनहित की शक्ति होगी। आत्मविश्वास के साथ जब वे नारा उत्पन्न किया जा सकेगा। यही विकर्षण व्यापक होकर जन स्वास्थ्य
लगाएंगे-“अण्डा छोड़ो" तो अन्तः प्रेरणा के वशीभूत असंख्यजन का जागरूक रखवाला बन सकेगा। इस पवित्र कार्य में सभी
की वाणी गूंज उठेगी-"सुख से नाता जोड़ो"।
* साधारण लोगों की सेवा ही जब मनुष्यों को महान् बना देती है तो संघ सेवा यदि तीर्थंकर
पद प्राप्त करा दे तो उसमें क्या आश्चर्य? * एक ही क्रिया-व्यापार अनेक मनुष्य करते हैं किन्तु वे न्यूनाधिक के भेद से कर्म बन्धन
करते हैं। इसका कारण लेश्या भेद है। मनोबल कुछ मनुष्यों का तो स्वभाव से ही क्षीण होता है और कुछ का उसके संगी-साथी
क्षीण कर देते हैं। * धरती का आधार धर्म है। धर्म धार्मिक व्यक्ति ही धारण कर पाते हैं। * धर्मनिष्ठ व्यक्ति सदा ही अपने दोष देखा करते हैं और दूसरे का मंगल चाहते हैं। * संकट के समय दिमाग में धर्म का सहारा और दिल में धर्म प्रेम होना चाहिये।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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सन्दर्भ स्थल १. मेकडोनल्ड एनसायक्लोपीडिया ऑफ बईस ऑफ वर्ल्ड | २. भारतीय विज्ञापन मानक परिषद् का २६ मई १९९० का निर्णय।
३. साल्मोनिला एण्टराइडीस फेज टाईप-४ (पीटी-४)
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
६१३ ।
तम्बाकू एक : रूप अनेक
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. मिर्जा गालिब उर्दू-फारसी के प्रसिद्ध कवि थे। उन्हें तम्बाकू- । तम्बाकू के घातक तत्वसेवन, धूम्रपान बड़ा प्रिय था। एक बार वे अपने एक मित्र के साथ
तम्बाकू-सेवन और धूम्रपान अनेक रोगों का जनक है। कतिपय तम्बाकू के खेत में खड़े थे। पास ही कुछ गधे भी चुप-चाप खड़े थे।
रोग तो सर्वथा असाध्य एवं मारक भी होते हैं, अन्य भी घोर उनकी ओर संकेत करते हुए मित्र ने कहा-"मिर्जा, देखो-गधे भी
पीड़ा-दायक होते हैं। धूम्रपान चाहे कितना ही आनन्दप्रद क्यों न तम्बाकू नहीं खाते" [तम्बाकू की खेती बड़ी सुरक्षित रहती है, उसे
प्रतीत होता हो, अन्ततः तो वह नारकीय यातनाओं का ही कारण कोई पशु नहीं चरते]। गालिब ने मित्र के व्यंग्य को समझते हुए बनता है। जर्दा अनेक घातक तत्वों से युक्त होता है उसी के ये मुस्करा कर उत्तर दिया-हाँ भाई, गधे ही नहीं खाते।"
मारक और त्रासद परिणाम होते हैं। ____ मिर्जा गालिब ने उक्त कथन कदाचित् विनोदपूर्वक किया था,
सिगरेट के धुएँ में लगभग ४000 तत्वों की खोज हुई है। किन्तु आज प्रतीत होता है, मानो नये युग की नयी पीढ़ी ने तो इस इनमें से निकोटीन नामक तत्व अत्यन्त प्रचण्ड रूप से हानिकारक कथन को जैसे अपना जीवन मंत्र ही बना लिया है। इनकी मान्यता होता है। इसकी विषाक्तता और घातकता का अनुमान इस तथ्य से में धूम्रपान सभ्यता का प्रतिमान है। जो सिगरेट नहीं पीता वह लगाया जा सकता है कि अनेक कीटनाशक रसायनों और दवाओं असभ्य, वन्य और पिछड़ा हुआ माना जाता है। सभ्य सोसायटी की, में निकोटीन का उपयोग किया जाता है। निरन्तर और प्रचुर मात्रा शान और वैभव की यही अभिव्यक्ति रह गयी है। आश्चर्य है जिस में जब निकोटीन शरीर में प्रवेश करता है तो इससे हृदय की पीढ़ी से समाज और देश प्रगति के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है। धमनियों में जमाव होने लगता है, धमनियाँ सँकरी होने लगती हैं वही धुएँ के अंधियारे गुबार में घिरा हुआ है। भारत ही नहीं सारे । और रक्त प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। दुष्परिणाम स्वरूप हृदय रोग विश्व की स्थिति यही बनी हुई है। न केवल पुरुष, अपितु स्त्रियाँ | हो जाता है। आँतों में अल्सर भी हो सकता है और धूम्रपान से भी, कम आयु के बालक-बालिकाएँ भी इस अभिशाप से ग्रस्त हैं। कार्बन मोनोक्साइड नामक अन्य तत्व रक्त में मिश्रित होकर एक ग्रामीण क्षेत्रों में और नगरों में, शिक्षितों में और अशिक्षितों में, ऐसी प्रतिक्रिया देता है जिससे शरीर की रोग-निरोधक क्षमता कम धनाढ्यों और निर्धनों में सभी ओर इस व्यसन को सर्वथा हो जाती है। धूम्र से निकले अनेक तत्व कैंसर (विशेषतः गले, विकसित रूप में देखा जा सकता है। भारत में कम से कम दस । फेफड़े के) को जन्म देते हैं। कुछ तत्व रक्त में मिलकर गुर्दे, करोड़ पुरुष और ५ करोड़ महिलाएँ इस अभिशाप के काले साये | मूत्राशय और पाचन थैली का कैंसर विकसित कर देते हैं। विज्ञान से घिरी हुई हैं। भारत में कुल जितने धूम्रपान करने वाले हैं, उनमें वेत्ताओं का मत है कि निकोटीन और कार्बन मोनोक्साइड के से ५६% ग्रामीण क्षेत्रों में और ३४% शहरी क्षेत्र में हैं। २५% अतिरिक्त भी २२ अन्य प्रकार के विष तम्बाकू में रहते हैं; यथा महिलाएँ और ७५% पुरुष हैं। भारत में लगभग १० लाख लोग मार्श (नपुंसकता का कारण), अमोनिया (पाचन शक्ति का क्षय), प्रतिवर्ष तम्बाकू सेवन और धूम्रपान के कारण अकाल मृत्यु को कार्बोलिक एसिड (अनिद्रा, स्मरण शक्ति का क्षय, चिड़चिड़ापन), प्राप्त हो जाते हैं। अमरीका और चीन के पश्चात् भारत विश्व का परफेरोल विष (दन्त क्षय), एजालिन विष (रक्त विकार) सबसे बड़ा तम्बाकू उत्पादक देश माना जाता है। स्वाभाविक है कि आदि-आदि। भारत में इसके उपभोक्ताओं की संख्या भी अधिक हो। यह और भी
इन विषैले पदार्थों और तत्वों की मारक शक्ति का अनुमान इस अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि किशोरावस्था से ही यह कुटेव जड़
तथ्य से लगाया जा सकता है कि यदि एक सिगरेट का सारा का पकड़ने लगी है। एक अध्ययन से पता चलता है कि गोवा में १८%
सारा धुआँ शरीर में रह जाय तो वह मृत्यु के लिए पर्याप्त होता है। स्कूली बच्चे धूम्रपान करते हैं। बीस वर्ष से अधिक आयु के ऐसे
एक सिगरेट का उपभोग १४ मिनट आयु कम कर देता है। युवक ५०-६४% और युवतियाँ १४-२३% है। कहा जाता है कि सद्गुणों को समाज में फैलाने के लिए बहुत श्रम करना होता है,
| तम्बाकू सेवन-भयावह संहारककिन्तु दुर्गुणों का प्रचार-प्रसार स्वतः ही हो जाता है। उन्हें तम्बाकू अपनी विषैली तात्विक संरचना के कारण विशेष रूप जनसामान्य का अपनाव भी बड़ी गहराई के साथ मिलता है। से इस शताब्दी का भयावह और प्रचण्ड संहारक हो गयी है। तम्बाकू-सेवन और धूम्रपान का साथ भी ऐसा ही है। “गली-गली अनेक-अनेक रोगों और पीड़ाओं का आश्रय एक धूम्रपान ही नाना गोरस फिरै, मदिरा बैठि बिकाय।"
विध नरक का स्रष्टा हो गया है। मानव जाति वर्तमान शताब्दी में
अनेक रोगों की शिकार हुई है जिसके अनेकानेक कारण हैं और १. इण्डियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का सर्वेक्षण
उन कारणों में तम्बाकू-सेवन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । मुँह, गला व फेंफड़े के कैंसर के जितने रोगी होते हैं उनमें से । माना जा सकता। शिक्षित महिलाएँ ही अधिक धूम्रपान करती हैं। ९०% ऐसे होते हैं जो जर्दा सेवन के अभ्यस्त होते हैं। इसी प्रकार महिला-छात्रावासों में इस प्रवृत्ति के घातक रूप में विकसित दशा के हृदय रोग से ग्रस्त रोगियों में से भी अन्य कारणों की अपेक्षा १५ दर्शन होते हैं। वास्तव में धूम्रपान को फैशन, विलास और गुना अधिक वे रोगी होती हैं जो धूम्रपान करते हैं। दमा रोग से आधुनिकता का प्रतीक मान लिया गया और महिला भी अपनेपीड़ित हर १० रोगियों में से ९ का कारण तम्बाकू सेवन होता है । आपको पिछड़ी और पुरातन ढरे भी नहीं रखना चाहती। जो भी
और ब्रोकाइटिस (क्रोनिक) रोग को ३०% रोगी धूम्रपान के हो-किन्तु महिलाओं की शरीर रचना अपेक्षाकृत अधिक मृदुल और अभ्यस्त होते हैं। ब्रेब हेमेज, मधुमेह, रीढ़ की हड्डी के रोग आदि कोमल होती है। परिणामतः उनको धूम्रपान से अधिक तीव्रता के भी ऐसे हैं जिनके पीछे धूम्रपान की भूमिका अधिक रहती है। साथ हानियाँ होती हैं। धूम्रपान-जर्दा-सेवन के हानिकारक प्रभाव
__महिला मातृत्व के वरदान से विभूषित होती है। वह जननी इस अप्राकृतिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप मानव-तन पर
होती है। उसकी देह के विकार उसकी सन्तति में भी उतरते हैं और अनेक हानिकारक प्रभाव होते हैं। भारत के ख्याति प्राप्त दमा रोग
इस प्रकार भावी पीढ़ी भी विकृत होती है। इस प्रकार महिलाओं विशेषज्ञ डॉ. वीरेन्द्र सिंह का कथन है कि जो लोग १५ सिगरेट
द्वारा किया जा रहा धूम्रपान दोहरे रूप से घातक सिद्ध होता है। प्रतिदिन की दर से धूम्रपान करते हैं, उनके वक्ष में उतनी विकिरण
चिकित्सकों का मत है कि गर्भवती महिलाओं को तो भूलकर भी रेडियेशन की मात्रा पहुँच जाती है जितनी ३०० एक्सरे करवाने से
धूम्रपान नहीं करना चाहिए। आशंका रहती है कि इससे गर्भ का पहुँचती है। यह रेडियेशन फेफड़ों को दुर्बल बनाता है। उनकी यह
शिशु रुग्ण और दुर्बल हो-वह विकलांग भी हो सकता है। चिकित्सा मान्यता भी है कि चिन्ता और तनाव ग्रस्त लोग धूम्रपान का आश्रय
विज्ञान यह मानता है कि गर्भ का दूसरे से पाँचवें महीने की अवधि 46667 लेते हैं और उन्हें कुछ मानसिक राहत अनुभव होने लगती है,
तो इस दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील रहती है। माता द्वारा किये गये किन्तु ऐसे लोगों को धूम्रपान करना ही नहीं चाहिए-इससे
धूम्रपान के धुएँ का ऐसा घातक प्रभाव शिशु पर होता है कि जन्म 4.30003 DDI हृदयाघात की आशंका तीव्र और प्रबल हो जाती है। जो व्यक्ति दो
के पश्चात् उनमें से अधिकतर आयु इतनी ही रहती है कि वे पैकेट प्रतिदिन की दर से सिगरेट पीते हैं, उनके लिए यह इतनी
पलने से बाहर भी नहीं आते। सौभाग्य से जो इसके पश्चात् भी हानिकारक होती है, जितनी शरीर के भार में ५० किलो की
जीवित रह जाते हैं वे अत्यन्त दुर्बल होते हैं। ऐसे बच्चों में अनावश्यक बढ़ोत्तरी से हुआ करती है। जो अत्यधिक धूम्रपान
रोग-निरोधक क्षमता शून्यवत् रह जाती है। संक्रामक रोगों की करते या तम्बाकू उपभोग करते हैं उनके स्वाद तंतु दुर्बल हो जाते
जकड़ में ऐसे बच्चे शीघ्र ही आ जाते हैं और उनका जीवन संकट हैं। उन्हें स्वाद कम आने लगता है, वे भोजन सम्बन्धी अरुचि से | ग्रस्त बना रहता है। भर उठते हैं। भोजन की मात्रा का कम हो जाना स्वाभाविक है- महिलाओं के धूम्रपान की प्रवृत्ति उनकी प्रजनन क्षमता को ही
और ऐसे लोग दुर्बल होते जाते हैं। धूम्रपान मानव देह की क्षतिग्रस्त कर देता है। बीड़ी-सिगरेट का निकोटीन उनके कारमोनल स्वाभाविक कान्ति को भी नष्ट करता है। जो जितना अधिक इस
सिस्टम को और उनके मस्तिष्क को कुप्रभावित करता है। इसके व्यसन में लिप्त है उसके मुख पर उतनी ही अधिक झुर्रियाँ पड़ने
परिणामतः या तो स्त्री गर्भ धारण कर ही नहीं पाती या इसमें बड़ा लगती हैं, तेज लुप्त होने लगता है और उसे अकाल वार्धक्य घेर
विलम्ब हो जाता है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि गर्भाशय के लेता है। धूम्रपान करने वालों की सूंघने की क्षमता तो कम होती
स्थान पर गर्भ नालियों में ठहर जाता है गर्भपात ही इसका जाती है, अनेक रोगों की अत्यन्त प्रभावशाली औषधियाँ भी उनके
परिणाम होता है। सम्बन्धित विज्ञान इसे 'एप्टोपिक प्रेगनेंसी' कहता लिए पर्याप्त लाभकारी नहीं हो पातीं। व्यक्ति की यौन क्षमता पर भी
है। ऐसे प्रसंगों में जिनमें माता धूम्रपान की अभ्यस्त हो-प्रसव तम्बाकू सेवन का बड़ा भारी विपरीत प्रभाव होता है और इस
अवधिपूर्व ही हो जाता है, बच्चे का भार असाधारण रूप से कम कारण वह मानसिक रूप से तनावग्रस्त और हतप्रभ सा हो ।
होता है। उसका आकार भी बहुत छोटा होता है। जाता है।
अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि माता द्वारा किया गया धूम्रपान महिलाएँ और धूम्रपान
गर्भस्थ शिशु को मिलने वाली ऑक्सीजन में कमी आ जाती है। इन दिनों महिलाओं में धूम्रपान का प्रचलन बड़ी तीव्रता के जिस थैली में विकासमान शिशु लिपटा रहता है-वह थैली धूम्रपान साथ बढ़ता जा रहा है। पश्चिमी देशों में तो यह प्रवृत्ति अति } से विषाक्त हो जाती है। धूम्रपान से अनेक विष और विकार माता सामान्य रूप ग्रहण कर चुकी है। हमारे देश में भी इसकी तीव्रता के रक्त में मिल जाते हैं। इसी विषाक्त रक्त से जब शिशु का पोषण बढ़ती जा रही है। ग्रामीण और नगरीय कोई भी क्षेत्र इससे छूटा हो तो शिशु का स्वस्थ होना स्वाभाविक भी नहीं है। उसका विकास हुआ नहीं है। इसके पीछे अबोधता या अज्ञान का कारण भी नहीं अवरुद्ध रहे तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं। ऐसा माना जाता है
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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कि गर्भवती स्त्री यदि एक पैकेट सिगरेट प्रतिदिन प्रयोग में लाती है। यह भी सत्य है कि एक सिगरेट की अपेक्षा एक बीड़ी में निकोटीन 2000 तो गर्भस्थ शिशु का भार तीन सौ ग्राम कम रह जाता है। शिशु की मात्रा डेढ़ी होती है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि सिगरेट कितना अभागा है कि उसे उस कुकृत्य का दुष्परिणाम भोगना । हानिकारक पदार्थों की सूची से बाहर हो गयी हो। एक बीड़ी में पड़ता है जो उसने नहीं किया। क्या माता का दायित्व नहीं कि वह । कैंसर उत्पन्न करने की जितनी क्षमता है, उतनी क्षमता दो सिगरेटों अपनी संतति का हित साधे। यदि गंभीरता के साथ स्त्रियाँ इस में होती है, किन्तु होती अवश्य है। यही कहा जा सकता है कि दृष्टि से चिन्तन करें तो उन्हें व्यसन-परित्याग की प्रेरणा प्राप्त हो। बीड़ी की अपेक्षा सिगरेट का खतरा कुछ कम रहता है। यह मानना सकती है।
भी ठीक नहीं होगा कि फिल्टर युक्त सिगरेट कम हानिकारक होती
है। फिल्टर में सिगरेट के निकोटीन तत्व को कम करने की क्षमता गर्भस्थ शिशु का अस्तित्व उस धूम्रपान से खतरे में पड़ जाता
नहीं होती। है, जो उसकी माता द्वारा किया जाता है-मात्र यहीं तक संकट का
1906 क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता है। पति अथवा वे अन्यजन जिनके
धूम्रपान के अतिरिक्त भी तम्बाकू उपभोग की अन्य अनेक संसर्ग में महिला रहती है, उनके धूम्रपान का प्रभाव भी गर्भस्थ विधियाँ हैं। चूने के साथ मिलाकर तम्बाकू का सेवन किया जाता शिशु पर हो जाता है। ये अन्यजन जब धूम्रपान करते हैं और है। ऐसा मिश्रण निचले होठ और दांतों के बीच दबा कर रखा महिला उनके समीप होती है तो धुएँ की यकिंचित मात्रा महिला जाता है। यह मसूढ़ों और दाँतों के लिए हानिकारक होता है। के शरीर में भी प्रविष्ट हो जाती है और तब वह विषाक्त धुआँ आजकल बाजार में बनी बनायी ऐसी खैनी भी कई प्रकार के 10 अपनी भूमिका उसी प्रकार निभाने लग जाता है जैसे स्वयं उसी पाउचों में मिलने लगी है। खैनी का सिद्धान्त है कि ताजा ही महिला ने धूम्रपान किया हो। यही कारण है कि ऐसी गर्भवती प्रयुक्त की जाय। ये पाउच न जाने कब के बने होते हैं, ज्यों-ज्यों महिलाओं के शिशु इस अभिशाप से ग्रस्त हो जाते हैं। गर्भवती
| समय व्यतीत होता जाता है उसकी विषाक्तता बढ़ती जाती है। इस महिला को अपनी भावी संतति के योगक्षेम के लिए न स्वयं धूम्रपान दृष्टि से इन खैनियों के प्रति अविश्वसनीयता का विकास करना चाहिए और नहीं उन लोगों के संग रहना चाहिए जो स्वाभाविक है। पान पराग-फिर एक नया संकट स्रोत हो गया है। धूम्रपान करते हों-चाहे ऐसा व्यक्ति उसका पति ही क्यों न हो। यह बड़ा ही घातक स्रोत है। एक व्यक्ति उदर शूल से बहुत EDS अधिक उत्तम तो यह है कि ऐसे भावी माता और पिता-दोनों को ही पीड़ित था। असह्य पीड़ा से तड़पते इस रोगी की परीक्षा की गयी धूम्रपान त्याग देना चाहिए। इस शुभ निवृत्ति के बड़े ही मंगलकारी
और चिकित्सकों के शल्य चिकित्सा का निर्णय लेना पड़ा। रोगी के लिए दूरगामी परिणाम सुलभ होंगे।
उदर से बाह्य पदार्थ को एक भारी गोला निकला और रोगी को
शान्ति तथा पीड़ा मुक्ति प्राप्त हो गयी। रासायनिक परीक्षण से ज्ञात तम्बाकू एक : रूप अनेक
हुआ कि इस गोले का निर्माण उदर में पान पराग के जमाव के तम्बाकू का सेवन धूम्रपान के रूप में तो प्रमुख रूप से होता ही । कारण हुआ था। पान पराग में मिले सुपारी के नुकीले टुकड़े है, इसके अन्य की अनेक रूप हैं। सिगरेट, बीड़ी, पाइप, च्यूरट, जबड़े की भीतरी तह को छीलकर खुरदरा कर देते हैं, पान पराग हुक्का आदि धूम्रपान की विविध विधियाँ हैं। यह मानना मिथ्या भ्रम का जर्दा रस बनकर जबड़ों में इस प्रकार जज्ब होता रहता है। मुँह है कि इनमें से कोई एक अधिक और दूसरी कम हानिकारक है।। का कैंसर इसका दुष्परिणाम बनता है। आश्चर्य है कि युवा पीढ़ी सिगरेट पीने से तो हुक्का पीना अच्छा है क्योंकि हुक्के में धुआँ पानी इस घातक व्यसन की दास होती जा रही है। किसी भी पल उनका में होकर आता है और ठण्डा हो जाता है। इस इस प्रकार की मुख पान पराग से रिक्त नहीं मिलता। दिन-ब-दिन पान पराग के धारणा वाले व्यक्ति स्वयं को छलने के अतिरिक्त अन्यजनों को भी नये-नये पाउच ढेरों की मात्रा में निकलते जा रहे हैं। किराना की भ्रमित करते हैं। धूम्रपान का कोई धुआँ गर्म नहीं होता, नहीं वह दुकान हो, पान की दुकान को, प्रोविजन स्टोर अथवा जनरल गर्म होने के कारण ही हानिकारक होता है। यह भी सत्य नहीं है । मर्चेन्ट की दुकान हो-अनेकानेक ट्रेडमार्कों की रंग-बिरंगी पान कि हुक्के का धुआँ पानी में से होकर ठण्डा हो जाता हो। ठण्डा पराग पौच की बन्दनवारों से सजी मिलती है। यह सब इस तथ्य होकर वह लाभकारी हो जाता हो-यह भी मिथ्याधारणा है। धूम्रपान की घोतक हैं कि इस घातक पदार्थ की खपत कितनी बढ़ गयी है। तो धूम्रपान ही होता है-वह प्रत्येक दशा में हानिकारक ही होता है। | हमारा समाज तम्बाकू व्यसन के घेरे में सिमटता चला जा रहा है। उसकी निकोटीन तत्व की मारकलीला किसी भी स्थिति में निष्क्रिय | सचेत होने और विशेष रूप से सचेत करने की आवश्यकता इस हो ही नहीं सकती।
युग में चरम सीमा पर पहुँच गयी है कि पान पराग जैसा भयावह लोग तो यह भी बड़ी आस्था के साथ मानने लगे हैं कि बीडी तम्बाकू व्यसन घोर अनर्थ कर रहा है और इसके उपभोक्ता
माजशासित पीना अच्छा है। आत्मघाती चेष्टा ही कर रहे हैं। पान पराग, रजनी गंधा, अम्बर, वास्तविकता यह है कि घातक तो बीड़ी भी है और सिगरेट भी। तुलसी मिक्स, अमृत-ना-ना नामों से प्रचलित यह विष न अमृत है,
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । न तुलसी है, न पराग है और न ही और कुछ है। यह है तो केवल धूम्रपान और तम्बाकू व्यसन के भयंकर परिणामों के प्रति जन 1300DDE 'घातक पदार्थ' है।
जागृति और चेतना का प्रसार आज के युग की माँग है। जन शिक्षा अनेक जन पान के साथ जर्दा लेने के अभ्यस्त होते हैं। पान में ।
द्वारा समाज को सज्ञान कर व्यक्ति-व्यक्ति में इसके प्रति विकर्षण लिपटे रहने के कारण जर्दा मुँह के अवयवों के सीधे सम्पर्क में नहीं
उत्पन्न कर जनमानस तैयार किया जाना अत्यावश्यक हो गया। आता-यह इस विधि में भले ही कुछ ठीक बात है, किन्तु चबा लेने
प्रचार माध्यमों और स्वास्थ्य संगठनों, सामाजिक संगठनों और के बाद तो यह स्थिति भी नहीं रह सकती। पान के साथ सुपारी
स्वैच्छिक संस्थाओं को यह पवित्र दायित्व वहन करना होगा। वही संकट उपस्थित कर देती है जो पान पराग के कारण बनती
धूम्रपान और जर्दे का नारा हैहै। तम्बाकू अपने कुछ छद्म रूपों में भी प्रयुक्त हो रही है। कभी
जो हमको अपनायेगा। किमाम के रूप में तो कभी मुश्कीदाने के रूप में यह पान के साथ
वह मिट्टी में मिल जायेगा। काम में आती है। पान में जर्दा तो मिला ही है-इस रूप में वही
तो इन संगठनों को इसके उत्तर में नारा बुलन्द करना चाहिएजर्दा अतिरिक्त मात्रा में बढ़ जाता है। इसका मारक और घातक प्रभाव केवल स्वरूप के बदल जाने से कम नहीं हो जाता। चाहे
बन्द करो जर्दे का फाटक। नसवार, नासक, तपकीर का मंजन किया जाय और चाहे उसे सूंघ
रुक जायेगा मौत का नाटक ॥ कर नशा किया जाय-यह भी हानिकारक ही होता है।
व्यर्थ घमण्ड
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माटी का तू पुतला, करता क्यों गरूर है।
घमण्ड करने से होते, मानव चकनाचूर है।टेर। घमण्ड की सुन लेना, फव्वारे की कहानी है। आकाश को छूने चला, फव्वारे का पानी है।
सिर के बल नीचे गिरा, हो गया मजबूर है॥१॥ देखो राजा रावण का, बजा जग में डंका था। किया जब घमण्ड गया, मालिकपन लंका का।
मारा गया युद्ध में वह, धड़ से सिर दूर है।।२।। यादवों के दिल में देखो, कितना घमण्ड था। उनका गया घमण्ड और, व्यवहार उद्दण्ड था।
कट-कट मरे सारे व्यर्थ का फितूर है॥३॥ आज कहाँ गया देखो, कारूँ का खजाना है। कहता “पुष्कर" बनता क्यों, माया में दिवाना है।।
"घमण्डी का सिर नीचा" कहावत यह मशहूर है।।४।।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
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तम्बाकू
जर्दा
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घातक
परिणाम
तम्बाकू जर्दा पान मसाला, धन का तन का मीठा दिवाला । मुँह और गले के कैंसर से ग्रस्त, हैं ये असह्य पीड़ा से त्रस्त ॥
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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मॉसाहार या व्याधियों का आगार !
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. पौष्टिकता की एक सशक्त आन्ति :
संगठन (डब्ल्यू. एच. हो.) के बुलेटिन की चर्चा करते हुए डॉ. टुण्ड्रा प्रदेश हिमाच्छादित ऐसा भूभाग है, जहाँ वनस्पति का
नेमीचन्द ने उल्लेख किया है कि-"माँसाहार से मनुष्य के जिस्म नामो-निशान भी नहीं। सर्वत्र श्वेत ही श्वेत रंग व्याप्त रहता है।
नहीं। मनव पती मवेत ग व्याप्त रहता है। (शरीर) में १६० बीमारियाँ दाखिल हो सकती है, अड्डा जमा हरित वर्ण के दर्शन भी नहीं होते हैं। प्रकृति ने अपनी वनस्पति
सकती हैं। ख्याल रहे बीमारियों की यह संख्या कम नहीं है। इनमें शून्यता से वहाँ की एस्कीमो जाति को माँसाहारी बना दिया है। माँस स कुछ तो ऐसी हैं जो जानलेवा है और कुछ लाइलाज है।"१ भक्षण ही उनकी जीवनी शक्ति का एक मात्र आधार है। एस्किमो वनस्पात जगत् प्राणाजगत् क रागा का कोई प्रभाव ग्रहण नहीं लोगों की आयु मात्र तीस वर्ष तक सीमित रहती है। है न एक करता अतः शाकाहार सर्वथा शुद्ध और निरापद होता है। किन्त चौंका देने वाला तथ्य! किन्तु इससे भी अधिक चौंकाने वाली तो पशु को अपने रोग भी होते हैं, वह अन्य स्रोतों से भी रोग ग्रहण यह भ्रांति है कि सामिष भोजन निरामिश की अपेक्षा कहीं अधिक
कर लेता है और अपने इन रोगों को अपने माँस द्वारा उन मनुष्यों पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है। सचमुच यह एक आधारहीन धारणा
के शरीर में भी प्रविष्ट करा देता है, जो उसका आहार करते हैं। है। वस्तुस्थिति तो यह है कि माँसाहार आहार के समस्त प्रयोजनों
माँसाहार इस प्रकार संकटपूर्ण बना रहता है। माँसाहार जनित रोग को पूर्ण ही नहीं कर पाता। आहार से शरीर की आवश्यकताएँ पूर्ण | "जूनीसिस" कहलाते हैं। ये जूनोसिस चार प्रकार के होते हैंहोनी चाहिए। इसमें वे सारे तत्व होने चाहिए जो मानवदेह को (१) डायरेक्ट जूनोसिस वे रोग है जो रुग्ण पशु के माँस । वर्धमान बनाने में, शक्ति प्रदान में, रोग प्रतिरोध में, दीर्घायु में, भक्षण से सीधे ही उत्पन्न हो जाते हैं (२) साइक्लो जूनोसिस में रोग स्वस्थ रखने में अपेक्षित समझे जाते हैं। माँसाहार में अनेक तत्व तो इस प्रकार सीधे अपने स्रोत से मानवदेह तक नहीं पहुँचता। किसी शून्यवत् हैं, जैसे कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, विटामिन आदि। यह जीव जन्तु को रोग हो, उसका माँस अन्य पशु खाए और इस अन्य आहार ऊर्जा का भी कोई संबल स्रोत नहीं है। मूंगफली जैसा एक पशु के माँस का आहार जब मनुष्य करें तो यह पहले वाले जीव साधारण शाकाहारी पदार्थ जितनी मात्र से ५७० कैलोरी ऊर्जा देता जन्तु के रोग से ग्रस्त हो जाता है। टेपवार्म का रोग इसी प्रकार का है, उतनी ही मात्रा में माँस और अण्डा केवल ११४ और १७३ | होता है। यह साइक्लो या चक्रिक या आवर्ती इसी कारण कहा गया कैलोरी ऊर्जा दे पाता है। भला फिर इसे क्यों कर पौष्टिक आहार है। (३) रीढ़ विहीन जन्तुओं के सेवन से मेरा जनोसिस रोग होते माना गया।
हैं, यथा प्लेग (४) जूनोसिस का चौथा प्रकार “सेपरो" होता है। वस्तुतः केवल माँसाहार पर निर्भर रहकर कोई व्यक्ति स्वस्थ
इसमें पहले कोई रुग्ण जीव जन्तु अपने रोग के कीटाणु पेड़ पौधों एवं निरोग जीवन नहीं बिता सकता। अनेक महत्वपूर्ण और
पर मिट्टी अथवा जल पर फैला देते हैं। अन्य पशु उनसे रोगग्रस्त अनिवार्य तत्वों के अभाव में वह अनेक रोगों से घिर जायेगा और
हो जाते हैं। मनुष्य इन पशुओं से कीटाणु ग्रहण कर रुग्ण हो जाते उसकी बढ़ती हुई कार्यक्षमता सीमित रह जायेगी।
हैं। लारवा, माइग्रन्स आदि रोग इसी प्रकार के होते हैं।
रोगियों के एक व्यापक सर्वेक्षण से यह तथ्य प्रकाश में आया माँसाहार रोगों का जनक :
है कि संक्रामक एवं घातक रोग शाकाहारियों की अपेक्षा - माँसाहारी देशों में ब्रिटेन का प्रमुख स्थान है। अनुभवों और माँसाहारियों में बहुलता के साथ मिलते हैं। एक और अन्तर इन दो दुष्परिणामों के आधार पर उस देश का बी. बी. सी. टेलीविजन
प्रकार के रोगियों में यह पाया गया कि माँसाहारी रोगियों के ये स्वयं यह प्रचारित करने लगा है कि मानव जाति को माँसाहार रोग शाकाहारियों की अपेक्षा अधिक गम्भीर और तीव्र होते हैं। जनित घातक रोगों से सावधान रहना चाहिए। ये घातक रोग शाकाहारी अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ प्रतीत होते हैं। वे शान्त और मनुष्य को उस समय से ही ग्रस्त करने लग जाते हैं, जब वह मननशील भी होते हैं। जिन देशों में माँसाहार सामान्य और गर्भस्थ होता है। अमेरिका का एक सर्वेक्षण यह सूचना देता है कि | बहुप्रचलित है, वहाँ हृदयाघात, कैंसर, रक्तचाप, मोटापा, गुर्दे के वहाँ ४७ हजार बच्चे इस कारण जन्मजात रोगी होते हैं कि उनके रोग, कब्ज, अनेक प्रकार के संक्रामक रोग, जिगर के रोग, पथरी अभिभावक, विशेषतः माता माँसाहारी होती है। माँ का रक्त इस आदि घातक रोग अत्यधिक हैं। असंख्यजन इन रोगों से बुरी तरह आहार के कारण दूषित और विकृत हो जाता है और इस रक्त से । ग्रस्त मिलते हैं। भारत, जापान आदि देशों में इन रोगों का पोषण पाकर गर्भस्थ शिशु में रोगों का बीजपवन हो जाता है। ये व्यापकत्व अपेक्षाकृत कम है। यहाँ माँसाहार की प्रवृत्ति भी इतनी बच्चे आयु पाकर भी पूर्ण स्वस्थ नहीं रह पाते। विश्व स्वास्थ्य अधिक नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि इन घातक रोगों
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । का माँसाहार से सीधा सम्बन्ध है। आस्ट्रेलिया विश्व का सर्वाधिक में सर्वथा सार्थक और समीचीन प्रतीत होती है। विशेषता इसके माँसाहार वाला देश है। वहाँ १३० किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति । साथ यह भी जुड़ी रहती है कि इन पदार्थों का दूषित और विकृत खपत तो अकेले गोमांस की ही मानी जाती है। इसी देश में आँतों । होना-साधारणतः दृष्टिगत भी नहीं होता, उसे पहचाना नहीं जा का कैंसर भी सबसे अधिक होता है। इस समस्या के समाधान | सकता। अतः ऐसे हानिप्रद पदार्थों से आत्म रक्षा के प्रयल की स्वरूप विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा शाकाहार को अधिकाधिक आवश्यकता भी नहीं अनुभव होती और उनसे बचा भी नहीं जा अपनाए जाने का परामर्श दिया जा रहा है। अमेरिका के डॉक्टर इ. | सकता है। बी. ऐमारी और इंगलैण्ड के डॉ. इन्हा ने तो अपनी पुस्तकों में ।
उदाहरणार्थ ब्रिटेन में लगभग ५० लाख लोग प्रतिवर्ष यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति भी की है कि अण्डा जहर है। डॉ. आर. जे.
सालेमोनेला से प्रभावित होते हैं। अण्डे व चिकिन की सड़ी हुई विलियम्स (ब्रिटेन) की मान्यता है कि सम्भव है कि आरम्भ में
अवस्था में उनका उपभोग करने से यह फूडपोइजनिंग की घातक अण्डा सेवन करने वाले कुछ स्फूर्ति अनुभव करें किन्तु आगे।
स्थिति बनती है। कुक्कुट शाला के १२ प्रतिशत उत्पाद इस प्रकार चलकर उन्हें मधुमेह, हृदयरोग, एग्जीमा, लकवा जैसी त्रासद
दूषित पाये जाते हैं। गर्भवती महिलाओं का गर्भपात और गर्भस्थ बीमारियाँ भोगनी पड़ती है। अण्डा कोलेस्टेरोल का सबसे बड़ा
शिशु का रुग्ण हो जाना भी इसके परिणाम होते हैं। अण्डा ८° अभिकरण माना जाता है, माँस भी इससे कुछ ही कम है।
सेलसियस से अधिक तापमान में रहे तो १२ घण्टे के बाद वह कोलेस्टेरोल का यह अतिरिक्त भाग रक्तवाहिनियों की भीतरी सतह
सड़ने लग जाता है। भारत जैसे उष्ण देश में तापमान अधिक ही पर जम जाता है और उन्हें संकरी कर देता है। परिणामतः
रहता है और अण्डा कब का है, यह ज्ञात नहीं हो पाता-ऐसी रक्तप्रवाह में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और उच्च रक्त चाप एवं
स्थिति में विकृत अण्डे की पहचान कठिन कार्य हो जाती है। हृदयाघात जैसे भयावह रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँतों का अलसर
न्यूनाधिक रूप में ये दूषित ही मिलते हैं। अण्डे का जो श्वेत कवच अपेंडिसाइटिस और मलद्वार का कैंसर भी माँसाहारियों में अति
या खोल होता है, उसमें लगभग १५ हजार अदृश्य रंध्र (छेद) होते सामान्य होता है। माँसाहार से रक्त में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़
हैं जिनमें से अण्डे का जलीय भाग वाष्प बनकर उड़ जाता है और जाती है जो जोड़ों में जमा होकर गठिया जैसे उत्पीड़क रोगों को
। तब अनेक रोगाणु भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं और वे अण्डे को जन्म देता है। सामिष भोजन के निरन्तर सेवन से पेचिस, मंदाग्नि
रोगोत्पादक बना देते हैं। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि आदि रोग हो जाते हैं। कब्ज रहने लगता है, जो अन्य अनेक रोगों
अमेरिका में चालीस हजार लोग प्रतिवर्ष दूषित अण्डों व माँस के को जन्म देता है। आमाशय दुर्बल हो जाता है और आँतें सड़ने लग
सेवन से रुग्ण हो जाते हैं! जाती है। वास्तव में मनुष्य का पाचन संस्थान शाकाहार के अनुरूप ही संरचित हुआ है, माँसाहार के अनुरूप नहीं। त्वचा की स्वस्थता माँसाहार प्राप्ति के प्रयोजन से जिन पशुओं की हत्या की जाती के लिए विटामिन-ए की आवश्यकता रहती है जो टमाटमर, गाजर, है, उनका स्वस्थ परीक्षण नहीं किया जाता। व्यावसायिक दृष्टिकोण हरी सब्जी आदि में उपलब्ध होता है। माँसाहार विटामिन शून्य भी रोगी पशुओं को इस निमित्त निर्धारित कर देता है। पशुओं में
आहार है, अतः एग्जीमा आदि अनेक त्वचा रोग हो जाते हैं, (अण्डों में भी) प्रायः कैंसर, ट्यूमर आदि व्याधियां होती है। मुंहासे निकल आते हैं। मासिक धर्म सम्बन्धी स्त्री रोगों की माँसाहारी इस सबसे परिचित होता नहीं और दुष्परिणामतः दूषित अधिकता भी माँसाहारियों में ही पायी जाती है।
माँस उदरस्थ होकर उपभोक्ता को इसे ही रोग उपहार में दे देता है।
माँसाहारी जब स्वयं चिन्तन करें कि वे कैसे अंधकूप की डगर पर माँसाहार मानव देह की रोग प्रतिरोधक शक्ति को भी कम कर देता है। परिणामतः रोगी साधारण से रोग का सामना भी नहीं कर
बढ़े चले जा रहे हैं। | पाता और रोग बढ़ते हुए जटिल होता जाता है। एक रोग अन्य । पशु जब वध के लिए वधशाला लाए जाते हैं तो वे बड़े
अनक रोगों को अपना संगी बनाने लगता है। माँसाहार बुद्धि को भयभीत और आतंकित हो जाते हैं। प्राकृतिक रूप से मल विसर्जित मन्द तथा स्मृति को कुण्ठित भी कर देता है। शारीरिक व मानसिक हो जाता है जो रक्त में मिलकर उसे विषाक्त बना देता है। इसी विकास भी सामिष आहार के कारण बाधित हो जाता है।
प्रकार माँस के मल मूत्र, वीर्य, रक्तादि अनेक हानिकारक पदार्थ
मिल जाते हैं। वध से पूर्व भी पशु छटपटाता है, भागने का प्रयत्न माँसाहार के विकार : रोगों के लिए अधिक जिम्मेदार :
करता है, उसके नेत्र लाल हो जाते हैं, नथुने फड़कने लगते हैं, मुँह सामिष पदार्थ स्वयं ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं, से फेन आने लगते हैं। इस असामान्य अवस्था में उसके शरीर में रोगों के उत्पादक होते हैं। तिस पर भी यह और बढ़ोत्तरी की बात 1 "एडरी-नालिन" नामक पदार्थ उत्पन्न हो जाता है जो उसके माँस में है कि वे प्रायः दूषित और विकृत अवस्था में प्राप्त होते हैं। यह मिश्रित हो जाता है। इस माँस के सेवन से यह घातक पदार्थ स्थिति माँसाहार को और अधिक घातक बना देती है। "करेला माँसाहारी के शरीर में जाकर अनेक उपद्रव करता है, उसे रूग्ण पहले ही कड़वा और ऊपर से नीम चढ़ा" वाली कहावत इस प्रसंग / बना देता है।
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। जन-मंगल धर्म के चार चरण
६१९ ।। ब्रेनबग नामक एक कीड़ा ऐसा होता है जो पशु को काटता है। माँसाहार का भला ऐसा करिश्मा कहाँ! और इससे पशु पागल हो जाता है। किन्तु पागलपन का यह प्रभाव
बात प्रथम विश्व युद्ध की है जब डेनमार्क की नाकाबंदी कर अस्तित्व में रहते हुए भी लम्बे समय तक अप्रकट रूप में रहता है।
दी गई थी। उस देश में खाद्य संकट उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही कभी-कभी तो इसमें दस वर्षों का समय भी बीत जाता है कि सभी
था। तब वहाँ माँसाहार बन्द कर दिया गया। अन्न पर देशवासियों को वह पशु पागल लगने लगे। इसके पूर्व भी पशु रोगी तो हो चुका
को रखा गया। इस व्यवस्था के समय एक समय एक वर्ष में वहाँ होता है। यदि इसका माँस आहार में प्रयुक्त हो जाए (जो कि प्रायः
की मृत्यु दर ३४ प्रतिशत कम हो गयी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के होता ही है) तो उस माँसाहारी को भी वही रोग हो जाता है। दौरान ऐसी स्थिति देनमार्क में भी आयी। मॉस टी के कारण वहाँ माँसाहार के साथ वेक्टीरिया की भी बड़ी भारी समस्या रहती है।।
भी रक्त संचार सम्बन्धी रोगों में उल्लेखनीय कमी आई। इन बेक्टीरियाँ रक्त में अतिशीघ्र ही विकसित हो जाते हैं। वधोपरान्त
घटनाओं ने विश्व को माँसाहार विरोधी सोच के लिए प्रेरित किया। तुरन्त ही माँस में निहित रक्त बेक्टीरिया ग्रस्त होकर सड़ने लग
इसी समय ब्रिटेन में भी माँस आपूर्ति में कमी आयी। सार्वजनिक जाता है। इस दूषित माँस का आहार करने वाले चाहे उसे कितना
स्वास्थ्य में इससे वहाँ बड़ी प्रगति हुई। शिशु मृत्यु दर में कमी आने ही ताजा माने, किन्तु माँस के साथ उनके शरीर में बेक्टीरिया भी
1 के साथ-साथ वहाँ रक्ताल्पता के रोग में भी भारी गिरावट आयी। पहुंच जाते हैं। मांस तो पचकर समाप्त हो जाता है, किन्तु ये प्रमाण है माँसाहार से शाकाहार की श्रेष्ठता के। माँसाहार बेक्टीरिया पनपते ही रहते हैं जो आजीवन माँसाहारी का पीछा व्याधियों का आगार है तो शाकाहार रोग मुक्ति का द्वार है। नहीं छोड़ते और भाँति-भांति के घातक और भयावह रोगों को उत्पन्न करते रहते हैं।
मानसिक पतन का आधार : माँसाहार इन सभी परिस्थितियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सामिष
आहार का उद्देश्य शरीर के विकास तक ही सीमित नहीं होता, भोजियों को यह जान लेना चाहिए कि वे केवल माँस नहीं, दूषित
उसका प्रयोजन मन के विकास का भी रहता है। शाकाहार द्वारा तो माँस आदि का उपभोग करते हैं और वह संकट से मुक्त नहीं है।
यह शर्त पूर्ण हो जाती है किन्तु माँसाहार इस दिशा में सक्रिय नहीं जैसा कि पूर्व पंक्तियों में वर्णित है शाकाहार ऐसे सभी संकटों से
है। आहार से मानसिक, मानसिक से बौद्धिक और अध्यात्मिक मुक्त है। वही विवेकशीलजनों के लिए चयन योग्य है। माँस मनुष्य
उन्नति की सिद्धि होनी चाहिए। श्रीमद् भागवत् में भोजन को के आहार हेतु बना ही नहीं। अण्डा तो किसी के लिए भी खाने की
वर्गीकृत कर तीन श्रेणियों में रखा गया हैवस्तु नहीं है, वह तो प्रजनन प्रक्रिया की एक अवस्था विशेष है। १. सात्विक भोजन उसे खाद्य रूप में प्रकृति ने बनाया ही नहीं। वास्तविकता यह है कि
२. राजसिक भोजन और अण्डा, माँस, मछली आदि सभी माँसाहार मनुष्य के लिए भोज्य
३. तामसिक भोजन रूप में अप्राकृतिक पदार्थ हैं। इन्हें आहार रूप में ग्रहण करना अप्राकृतिक कृत्य है जो अपने परिणामों में निश्चित रूप से घातक
सात्विक भोजन में फल, सब्जी, अन्न, दलहन (दालें) दूध, मेवे, और हानिप्रद ही सिद्ध होता है।
मक्खन इत्यादि सम्मिलित होते हैं और इस प्रकार का भोजन मनुष्य
की आयु और शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। यह शक्तिवर्धक भी बेहतर क्या है : माँसाहार अथवा शाकाहार :
होता है और मानवोचित मनोवृत्तियों को बढ़ावा देता है। आहारी प्रबुद्धजन धीरे-धीरे माँसाहार के गुणगान को मिथ्या और को सात्विक भोजन सुख, शांति, करुणा, अहिंसा की भावना से शाकाहार के औचित्य को स्वीकारने लगे हैं। अमेरिका के हृदय रोग परिपूर्ण करता है। यह मन को राक्षसी गलियों में विचरण नहीं विशेषज्ञ डॉ. व्हाइट सन् १९६४ ई. में भारत आए। काश्मीर में कराता। मनोमस्तिष्क की पतन से रक्षा करने वाला यह एक सबल उनकी भेंट वहाँ के आदिवासी हुंजा कबीलों से हुई। उन्हें आश्चर्य साधन है। राजसिक भोजन में अति गर्म, तीखे, चटपटे, खट्टे, हुआ कि हुंजा कबीलों में अनेक लोग १० से ११0 वर्ष की आयु तीक्ष्ण मिर्च-मसाले युक्त व्यंजन सम्मिलित होते हैं। ये रूखे और के हैं और वे सभी पूर्णतः स्वस्थ हैं। डॉ. व्हाइट ने १० वर्ष से जलन पैदा करने वाले पदार्थ होते हैं। यह भोजन उत्तेजना उत्पन्न उच्च आयु के २५ हुंजाओं का परीक्षण किया और पाया कि उनमें करने व बढ़ाने वाला होता है। यह रोग, दुःख, चिन्ता व तनाव को से एक भी रक्तचाप या हृदय रोग से पीड़ित नहीं है। उन्होंने अपना | जन्म देता है। निकृष्ट कोटि का भोजन होता है-तामसिक भोजन! शोध लेख अमरीका की शीर्ष पत्रिका "हार्टजर्नल' में प्रकाशित बासी, सड़े-गले, नीरस, अधपके, दुर्गे-पयुक्त खाद्य पदार्थ इस श्रेणी किया और इस लेख में उन्होंने हुंजा जाति के लोगों में हृदय रोग में आते हैं। तामसिक भोजन क्रोध, हिंसा, विद्वेष का जागृत और नहीं होने का श्रेय उनकी आहार प्रणाली को दिया। यह सारी की प्रबल बनाता है। यह भोजन मन का पतन करता है, कुसंस्कारों की सारी जाति शाकाहारी है।
ओर उन्मुख करता है, बुद्धि को भ्रष्ट करता है, चरित्र का नाश
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। करता है, रोगों को उत्पन्न करता है, आलस्य और निष्क्रियता का माँसाहारी बना देती है। शिशु मन से शांति, मैत्री, करुणा और अभिशाप देता है। शाकाहार प्रथम वर्ग का सात्विक भोजन है और अहिंसा का प्रतीक होता है। जब उसे पहली बार माँसाहार कराया माँसाहार इस हीन कोटि का तामसिक भोजन है। आदर्श भोजन तन जाता है तो उसे वह रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इसके पीछे की मन और आत्मा का विकास करता है, स्नेह, प्रेम, दया, करुणा, हिंसा, क्रूरता उसे विचलित करती है। उसे जानकर इस कुपथ पर शांति, अहिंसा का विस्तारक होता है। इस कसौटी पर सामिष } लगाया जाता है। यही षड्यन्त्र या दुरभिसंधि है भावी पीढ़ी को आहार खरा नहीं उतरता। कहा जाता है कि किसी व्यक्ति की रुचि । भ्रष्ट करने की। क्या अभिभावकों का यही कर्तव्य है, अपनी संतति का व्यंजन जानकर उसके चरित्र, आचरण और मनोवृत्तियों का के प्रति। पता लगाया जा सकता है। जैसा भोजन वह करता है-वैसा ही
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का छोटा पुत्र गम्भीर रूप से रुग्ण था। उसका आभ्यन्तरिक व्यक्तित्व होता है, वैसा ही उसका व्यवहार
मरणासन्न शिशु के लिए चिकित्सकों ने माँस का सूप निर्धारित होता है। माँसाहारियों के विषय में कहा जा सकता है कि वे प्रायः
किया। बापू से कहा गया कि बच्चे को बचाना हो तो यही एक क्रूर, क्रोधी, अकरुण, हिंसाप्रिय, निमर्म और हृदयहीन होते हैं।
उपाय है। किन्तु बापू का दृढ़ निश्चय दृढ़तर हो गया। उन्होंने कहा ग्वालियर में ४00 बंदियों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें से
कि चाहे जो परिणाम हो बच्चे को हम माँस का सूप नहीं देंगे। यह २५० माँसाहारी और १५० शाकाहारी थे। माँसाहारी बन्दियों में से
बापू की कठोर परीक्षा थी, जिसमें वे सफल हुए। बच्चे के प्राण ८५ प्रतिशत ऐसे थे जो अशान्त, अधीर, क्रोधी और कलह प्रिय
चमत्कारिक रूप में, बिना सूप दिए ही बच गये। जहाँ संकल्प की थे। हिंसा में वे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मानते थे। किन्तु
दृढ़ता हो, वहाँ कुछ भी असम्भव नहीं! शाकाहारी बन्दियों में से ९० प्रतिशत शान्तिप्रिय प्रसन्नचित्त, दयालु, सहानुभूतिपूर्ण, संवेदनशील थे। कहा जा सकता है कि माँसाहार
आवश्यकता इस बात की है कि भ्रांतियों के कुहासे से बाहर असुरत्व का मार्ग है तो शाकाहार देवत्व के समीप पहुँचाता है।
निकल कर हम माँसाहार को उसके नग्न रूप में देखें, पहचानें मनुष्य को मानव बनाने वाला माँसाहार नहीं, शाकाहार ही हो
उसके राक्षसत्व को और तब उसका संग न करने का निश्चय करें। सकता है। माँसाहार का क्षय हो! शाकाहार की जय हो!!
इस व्याधि के केन्द्र का परित्याग जितना ही शीघ्र किया जायेगा।
उतना ही शुभकारी होगा। जो जाग गये हैं उनका दायत्वि (नैतिक) मनुष्य स्वाभाविक रूप से सामिष नहीं होता। उसका जन्म
है कि गहरी नींद में सोयों को झिंझोड़ कर जगायें। यदि हमने एक निरामिष रूप में ही होता है। दुग्ध जैसा निर्दोष और पवित्र पदार्थ
माँसाहारी को भी इस मार्ग से हटाकर शाकाहारी बनाया तो यह उसका पोषण करता है। यह तो एक दुरभिसंधि है जो उसे
एक पुण्य कार्य होगा।
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आत्म पहचानो मत फँसो मोह मंझार । आत्म-पहचानो |टेर॥ भौतिक सुख को मानते अपने पर यह सारे झूठे सपने ॥
कहते जगदाधार । आत्म पहचानो ॥१॥ धर्म पुण्य से रहते दूरे । पाप कर्म करने में शूरे ॥
जाते नरक द्वार । आत्म पहचानो ॥२॥ धर्म ध्यान में चित्त लगाना । अपने आपको जल्दी जगाना || कहे "पुष्कर" अनगार | आत्म पहचानो ॥३॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
सन्दर्भ स्थल १. शाकाहार-मानव सभ्यता की सुबहः विश्व स्वास्थ्य संगठनः बुलेटिन नं. ६३७ २. ब्रिटेन के डॉ. एम. रॉक ३. पोषण का नवीनतम ज्ञान (डॉ. इ. बी. एमारी): रोगियों का प्रकृति (डॉ. इन्हा)
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
शाकाहारी अण्डा : एक वंचनापूर्ण भ्रांति
जब रसना मन से आगे बढ़ जाती है तो अनेक अनर्थ होने लग जाते हैं। जीभ पर नियंत्रण होना अत्यावश्यक है। कहीं तो यह अनर्गलवाणी द्वारा विग्रह खड़े कर देती है और कहीं स्वाद लोलुप बनाकर मनुष्यों से वे कृत्य भी करवा देती है कि जो उनके लिए अकरणीय है। अभक्ष्य पदार्थ भी इसी कारण खाद्य सूची में स्थान पाने लग गये हैं। अण्डा आहार इसका एक जीवन्त उदाहरण है!
अण्डा वास्तव में प्रजनन चक्र की एक अवस्था विशेष है। सन्तानोत्पत्ति लक्ष्य का यह एक साधन है, यह आहार की सामग्री कदापि नहीं है। प्रकृति ने इसे प्राणीजन्म के प्रयोजन से रचा है, प्राणियों के भोजन के लिए नहीं। यह तो मनुष्य का अनाचरण ही है। कि उसने इसका यह रूप मान लिया और घोर हिंसक कृत्य में लिप्त हो गया है। आहार तो पोषण करता है, स्वयं शुद्ध और उपयोगी तत्वों से सम्पन्न होता है-अण्डे में यह लक्षण नहीं पाये जाते । यदि आहार रूप में मनुष्य अण्डे पर आश्रित हो जाए तो उसका सारा शारीरिक विकास अवरूद्ध हो जाएगा। इसमें कार्बोहाइड्रेड लगभग शून्य होता है कैल्शियम और लोहा तथा आयोडीन जैसे तत्व अण्डे में नहीं होते, विटेमिन ए की भी कमी होती है। ऐसी सामग्री चाहे खाद्य मान भी ली जाए उसकी उपयोगिता क्या है ? केवल अण्डे का आहार किया जाए तो दांतों, अस्थियों आदि का विकास और सुदृढ़ता के लिए संकट उत्पन्न हो जाए। कोलेस्टेरोल की मात्रा अण्डे में इतनी होती है कि हृदयाघात और रक्तचाप जैसे भयावह रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लकवा और कैंसर की आशंका को भी अण्डा जन्म देता है। शरीर में नमक की मात्रा को बढ़ावा देकर यह अप्राकृतिक आहार मानव तन में नाना प्रकार की समस्याएँ जागृत कर देता है। अण्डे में न तो पोषण क्षमता है और न ही यह पर्याप्त ऊर्जा का स्रोत है। प्रोटीन शरीर के लिए एक आवश्यक तत्व है, वह अण्डे की अपेक्षा सोयाबीन, दालों और अन्य शाकाहारी पदार्थों में कहीं अधिक प्राप्त होता है। मूंगफली में तो अण्डे की अपेक्षा ढाई गुणा (लगभग) प्रोटीन है। अण्डा जितनी ऊर्जा देता है उससे लगभग तीन गुनी ऊर्जा मूंगफली से उपलब्ध हो जाती है। फिर विचारणीय प्रश्न यह है कि अण्डा जब ऐसा थोथा और रोगजनक पदार्थ है तो भला इसे इतना महत्व क्यों दिया गया है ? उत्तर स्पष्ट है, सामान्यजन अण्डे की इस वास्तविकता से अनभिज्ञ है। ये अज्ञजन अण्डा व्यवसाय के प्रचार तंत्र के शिकार हैं। इसी कारण जो ना कुछ है, उस अण्डे को "सब कुछ" मान लिया गया है।
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मिथ्या प्रचार तंत्र के कारण अण्डा महात्म्य तो इतना विकसित हो चला है कि सभी का जी इसकी ओर ललकने लगा। व्यवसाइयों
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-आचार्य देवेन्द्रमुनि
का तो यह प्रयास रहेगा ही कि अण्डों की खपत अधिकाधिक बढ़े। उसके उपभोक्ताओं का वर्ग और अधिक व्यापक हो । विगत कुछ युगों से तो यह भ्रान्त धारणा विकसित की जा रही है कि अण्डे सामिष खाद्यों की श्रेणी में आते हैं, किन्तु सभी अण्डे ऐसे नहीं होते। कुछ अण्डे निरामिष भी होते हैं, अर्थात् उनकी गणना शाकाहारी पदार्थों में की जाती है। यह एक विचित्र, किन्तु असत्य है, मिथ्या प्रलाप है उनका यह मानना है कि ऐसे शाकाहारी अण्डों का उपभोग वे लोग भी कर सकते हैं जो अहिंसा व्रतधारी हैं। ये शाकाहारी अण्डे सर्वथा सात्विक समझे जा रहे हैं। वस्तुतः अण्डे न तो सात्विक होते हैं, न शाकाहारी और न ही अजैव। यह तो एक छद्मजाल है जो अण्डा व्यवसाय के विकासार्थ फेंका गया है और जिसमें अहिंसावादी वर्ग के अनेक जन उलझते जा रहे हैं। यह इन व्यवसाईयों की दुरभिसंधि है। अबोध अण्डा विरोधीजन स्वयं भी इस भ्रम से मुक्त नहीं हो पा रहे थे अबोध तो यह पहचान भी नहीं रखते कि कौन-सा अण्डा सामिष है और कौन-सी निरामिष कोटि का अण्डे -अण्डे तो सभी एक से होते हैं-फिर भला विक्रेता के कह देने मात्र से शाकाहारी अण्डा कैसे मान लिया जाए अपने धर्म और मर्यादा के निर्वाह के लिए भी उसने इस समस्या पर कभी चिन्तन नहीं किया, आश्चर्य है कुछ अण्डे शाकाहारी होते हैं, यह कहकर जनमानस को भ्रमित करने का ही षड्यन्त्र है।
शाकाहारी पदार्थों की पहचान
शाकाहारी पदार्थ क्या होते हैं यह पहचानना दुष्कर नहीं है। वनस्पतियाँ और उनके उत्पाद ही शाकाहरी श्रेणी के पदार्थ कहे जा सकते हैं। वनस्पति की उत्पत्ति मिट्टी, पानी, धूप, हवा आदि के सम्मिलित योगदान से होती है। कृषिजन्य पदार्थ शाकाहारी हैं। प्राकृतिक उपादानों का आश्रय पाकर ही ये पदार्थ उत्पन्न होते हैं। अतः ये निर्दोष है, सात्विक है। दूध जैसा पदार्थ भी शाकाहार के अन्तर्गत इसलिए मान्य है कि दुधारू पशु वनस्पति (घास-पात) चरकर ही दूध देते हैं। अब तनिक विचार कर देखें कि क्या अण्डे भी इसी प्रकार के पदार्थ हैं, ये मिट्टी-पानी आदि से नहीं जीवित प्राणी-मुर्गी से उत्पन्न होते हैं इनकी संरचना में मुर्गी के शरीर के रक्त, रस, मज्जादि का योग रहता है और उसकी उत्पत्ति भी प्रजनन स्थान से ही होती है। अण्डों को शाकाहार फिर भला कैसे माना जा सकता है। सभी विज्ञानी और प्रबुद्धजन अब यह मानने लगे हैं कि शाकाहारी अण्डा जैसा कोई पदार्थ नहीं हो सकता। फलों और सब्जियों के साथ, एक ही दुकान पर अण्डे भी बिकते हैं। यह छद्म रचा गया कि सामान्यजन अण्डों को शाक या सब्जी के समान
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ समझने लगें। विभिन्न प्रचार-माध्यमों से यह भी खूब प्रसारित किया लायसन में सूखी मछली और मांस का चूरा सम्मिलित होता है। 2000D गया कि अण्डा भी एक सब्जी है। भारत की विज्ञापन मानक ऐसी परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप भी क्या अण्डा शाकाहार रह
परिषद ने इसका अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँची कि सकता है ? निषेचित या फलित अण्डे के विषय में कहा गया है कि अण्डा सब्जी नहीं है और ऐसा विश्वास दिलाकर इसका विक्रय यह तो जन्म से पूर्व चूजे को खाना है, किन्तु अफलित अण्डा तो नहीं किया जा सकता। ऐसा करना अपराध भी मान लिया गया है। सर्वथा अप्राकृतिक पदार्थ है-जहाँ तक उसके भोज्य रूप को मानने
का संबंध है।२ अहिंसावादियों का इन अण्डों को शाकाहारी मानना अण्डा शाकाहारी भी होता है :
उनकी सारी भूल ही है। DED भ्रांति का तथाकथित आधार :
चूजों को बड़ी दयनीय अवस्था में रखकर विकसित किया
जाता है। उन्हें प्रचण्ड प्रकाश में रखा जाता है और इतने छोटे से यह सत्य है कि अण्डे दो प्रकार के होते हैं, यद्यपि इससे यह
स्थान में अनेक मुर्गियों को रखा जाता है कि वे अपने पंख फैलाना DDIT तथ्य सुनिश्चित नहीं हो जाता कि अण्डों का एक प्रकार सजीव
तो दूर रहा-ठीक से हिल डुल भी नहीं सकती। मुर्गियां एक-दूसरे और दूसरा निर्जीव है। वस्तुस्थिति यह कि कुछ अण्डे ऐसे होते हैं
पर चोंचों से आक्रमण करती हैं और घायल होती रहती हैं। इसी २०० जो मुर्गे के संयोग होने पर मुर्गी देती है और उनसे चूजे निकल
कारण मुर्गियों की चोंचें तक काट डाली जाती है। भीड़ भड़क्के के 200 सकते हैं। ये निषेचित या फलित होने वाले अण्डे होते हैं। मुर्गे से
मारे वे दाने पानी तक भी नहीं पहुँच पातीं। यह बीभत्स वातावरण संयोग के बिना भी मुर्गी अण्डे दे सकती है और देती है। ये
उनमें विक्षिप्तता का विकास कर देता है। सतत् उद्विग्नता के कारण अनिषेचित या फलित न होने वाले अण्डे होते हैं, जिनसे चूजे नहीं
उनका अशान्त रहना तो स्वाभाविक ही है। ऐसा इस प्रयोजन से निकलते हैं। यह अविश्वसनीय नहीं माने कि मुर्गे के संयोग के
किया जाता है कि वे शीघ्र बड़ी होकर अण्डे देना आरम्भ कर दें। बिना भी मुर्गी अण्डे दे सकती है। जब वह यौवन पर आती है तो
उनमें उत्पन्न हिंसक वृत्ति अण्डों में भी उतर आती है और इनका : ऐसा प्राकृतिक रूप से होता ही है। जैसे स्त्री को मासिक धर्म में रज
उपभोग करने वाला भी इस कुप्रभाव से बच नहीं पाता। शाकाहार स्राव होता है-ये अण्डे मुर्गी की रज के रूप में बाहर आते हैं। यह
तो तृप्ति, शांति, संतोष और सदयता उत्पन्न करता है। इस दिशा में उसके आन्तरिक विकार का विसर्जन है। यह सत्य होते हुए भी कि
अण्डों को शाकाहार की श्रेणी में लेना अस्वाभाविक है। चाहे अण्डे दूसरी प्रकार के अफलित-अनिषेचित अण्डे चूजों को जन्म नहीं देते,
फलित अथवा अफलित हों-उनकी तामसिकता तो ज्यों की त्यों किन्तु केवल इस कारण इन्हें प्राणहीन मानना तर्क संगत नहीं। इन
णहीन मानना तक संगत नही बनी रहती है। अण्डों में भी प्राणी के योग्य सभी लक्षण होते हैं, यथा ये Fa श्वासोच्छ्वास की क्रिया करते हैं, इनमें विकास होता है, ये खुराक यद्यपि यह मानना सर्वथा भ्रामक है कि अफलनशील अण्डे Dog भी लेते हैं। अब विश्वभर के विज्ञानी और जीवशास्त्री इन अफलित अहिंसापूर्ण, अजैव और निरामिष होते हैं, तथापि एक तथ्य और तु अण्डों को जीवयुक्त मानने लगे हैं। अमरीकी विज्ञानवेत्ता फिलिप भी ऐसा है कि जो आँखें खोल देने वाला है अनिषेचित अण्डों को
जे. एकेबल ऐसी ही मान्यता के हैं। मुर्गे के बिना उत्पन्न होने के शाकाहारी मानने वाले इस ओर ध्यान दें कि मुर्गे के संयोग में आने
कारण इन्हें निर्जीव मानना मिशिगन विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने वाली मुर्गी पहले दिन तो फलित वाला अण्डा देती ही है, आगे यदि 10 भी उपयुक्त नहीं माना है। इनका जन्म मुर्गी से हुआ, वह स्वयं । संयोग न भी हो, तो भी वह लगातार अण्डे देती है और तब वे
प्राणी है। उसकी जीवित कोशिकाओं से जन्मे ये अण्डे निर्जीव नहीं । अजैव, अफलनशील नहीं होते। मुर्गे के शुक्राणु मुर्गी के शरीर में हो सकते। चाहे ये मुर्गी की रज रूप में ही क्यों न हों = इनकी । लम्बे समय तक बने रहते हैं और यदा कदा प्रतिक्रिया भी देते सजीवता में संदेह नहीं किया जा सकता। हम कह सकते हैं कि रहते हैं। कभी-२ तो यह अवधि छह माह तक की भी हो सकती है। प्राणवानता की दृष्टि से तो सभी अण्डे एक समान ही होते हैं। इन्हें बीच-बीच में कभी भी वह फलनशील अण्डे दे देती है। दूसरे और शाकाहारी मानना भयंकर भूल होगी।
पाँचवें दिन तो ऐसा होता ही है। फिर इस बात की क्या आश्वस्तता एक ओर भी तथ्य ध्यान देने योग्य है। कोई भी मुर्गी तब तक
कि संयोगविहीन मुर्गी के अण्डे सदा प्राणशून्य ही होंगे, जैसा कि E% अण्डे नहीं दे सकती जब तक उसे जैविक प्रोटीन का आहार नहीं
भ्रम कुछ लोगों में व्याप्त है। दिया जाता। मांस, मछली, रक्त, हड्डी आदि का आहार इन्हें दिया ए मानव मात्र को यह सत्य गाँठ-बाँध लेना चाहिए कि अण्डा 536ही जाता है। शैशवावस्था में जो चूजे मर जाते हैं, उन्हें सूखाकर । आहार है ही नहीं, शाकाहार तो वह कदापि-कदापि नहीं। उसका
36 उसका चूरा तक मुर्गियों को खिलाया जाता है। चूजावस्था में-जन्म । आहार रूप में उपभोग निरर्थक है क्योंकि उसमें पुष्टिकारक तत्व है P306 के बाद आठ सप्ताह तक लायसन युक्त आहार दिया जाता है। ही नहीं।
EDDDE१. ए. सी. कैम्पबेल रीजस-"प्रोफिटेबल पोल्ट्री कीपिंग इन इण्डिया"
२. विक्टोरिया मोरान-"कम्पाशन द अल्टिमेटिक एथिक'
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यह भ्रम भी दूर कर लेना चाहिए कि दूध की अपेक्षा अण्डा होगा। धर्माचारियों और अहिंसाव्रतधारियों को तो इस फेर में पड़नाaana अधिक पौष्टिक होता है। शाकाहार वह कभी हो ही नहीं सकता, । ही नहीं चाहिए। अण्डा-अन्ततः अण्डा ही है। किसी के यह कह देने यद्यपि किसी को यह विश्वास हो तब भी उसे अण्डा सेवन के दोषों से कि कुछ अण्डे शाकाहारी भी होते हैं-अण्डों की प्रकृति में कुछ से परिचित होकर, स्वस्थ जीवन के हित इसका परित्याग ही कर । अन्तर नहीं आ जाता। अण्डे की बीभत्स भूमिका इससे कम नहीं हो देना चाहिए। अण्डे हानि ही हानि करते हैं-लाभ रंच मात्र भी जाती, उसकी सामिषता ज्यों की त्यों बनी रहती है। मात्र भ्रम के नहीं-यही हृदयंगम कर इस अभिशाप क्षेत्र से बाहर निकल आने में वशीभूत होकर, स्वाद के लोभ में पड़कर, आधुनिकता के आडम्बर ही विवेकशीलता है। दूध, दालें, सोयाबीन, मूंगफली जैसी साधारण में ग्रस्त होकर मानवीयता और धर्मशीलता की, शाश्वत जीवन शाकाहारी खाद्य सामग्रियां अण्डों की अपेक्षा अधिक मूल्यों की बलि देना ठीक नहीं होगा। दृढ़चित्तता के साथ मन ही पोष्टिकतत्वयुक्त हैं, वे अधिक ऊर्जा देती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक है। मन अहिंसा पालन की धारणा कीजिए-अण्डे को शाकाहारी मानना तथाकथित शाकाहारी अण्डों के इस कंटकाकीर्ण जंगल से निकल | छोड़िए। आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता चला जाएगा।
2060P कर शुद्ध शाकाहार के सुरम्य उद्यान का आनन्द लेना प्रबुद्धतापूर्ण
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सुखी जीवन का आधार : व्यसन मुक्ति
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-विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया
(एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् (अलीगढ़)) सुखी जीवन का मेरुदण्ड है-व्यसन मुक्ति। व्यसनमुक्ति का "धूतं च मासं च सुरा च वेश्या पापर्द्धिचौर्य परदार सेवा। आधार है श्रम। सम्यक् श्रम साधना से जीवन में सद्संस्कारों का | एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति॥ प्रवर्तन होता है। इससे जीवन में स्वावलम्बन का संचार होता है।
अर्थात् जुआ, माँसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, स्वावलम्बी तथा श्रमी सदा सन्तोषी और सुखी जीवन जीता है।
तथा पर-स्त्री-गमन से ग्रसित होकर प्राणी लोक में पतित होता है, श्रम के अभाव में जीवन में दुराचरण के द्वार खुल जाते हैं। मरणान्त उसे नरक में ले जाता जाता है। संसार में जितने अन्य जब जीवन दुराचारी हो जाता है तब प्राणी इन्द्रियों के वशीभूत हो । अनेक व्यसन हैं वे सभी इन सप्तव्यसनों में प्रायः अन्तर्मुक्त हो जाता है। प्राण का स्वभाव है चैतन्य। चेतना जब इन्द्रियों को अधीन | जाता है। काम करती है तब भोगचर्या प्रारम्भ हो जाती है और जब इन्द्रियाँ
श्रम विहीन जीवनचर्या में जब अकूत सम्पत्ति की कामना की चेतना के अधीन होकर सक्रिय होते हैं तब योग का उदय होता है।।
जाती है तब प्रायः द्यूत-क्रीड़ा अथवा जुआ व्यसन का जन्म होता है। भोगवाद दुराचार को आमंत्रित करता है जबकि योग से जीवन में ।
आरम्भ में चौपड़, पासा तथा शतरंज जैसे व्यसन मुख्यतः उल्लिखित सदाचार को संचार हो उठता है।
हैं। कालान्तर में ताश, सट्टा, फीचर, लाटरी, मटका तथा रेस आदि श्रम जब शरीर के साथ किया जाता है तब मजूरी या मजदूरी । इसी व्यसन के आधुनिक रूप है। घूत-क्रीड़ा से जो भी धनागम होता का जन्म होता है। श्रम जब मास्तिष्क के साथ सक्रिय होता है तब है, वह बरसाती नदी की भाँति अन्ततः अपना जल भी बहाकर ले उपजती है कारीगरी। और जब श्रम हृदय के साथ सम्पृक्त होता है। जाता है। व्यसनी अन्य व्यसनों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होता है। तब कला का प्रवर्तन होता है। जीवन जीना वस्तुतः एक कला है।
वासना बहुलता के लिए प्राणी प्रायः उत्तेजक पदार्थों का सेवन मजूरी अथवा कारीगरी व्यसन को प्रायः निमंत्रण देती है। इन्द्रियों
करता है। वह मांसाहारी हो जाता है। विचार करें मनुष्य प्रकृति से का विषयासक्त, आदी होना वस्तुतः कहलाता है-व्यसन। बुरी
शाकाहारी है। जिसका आहार भ्रष्ट हो जाता है, वह कभी उत्कृष्ट आदत की लत का नाम है व्यसन।
नहीं हो पाता। प्रसिद्ध शरीर शास्त्री डॉ. हेग के अनुसार शाकाहार संसार की जितनी धार्मिक मान्यताएँ हैं सभी ने व्यसन । से शक्ति समुत्पन्न होती है जबकि मांसाहार से उत्तेजना उत्पन्न होती मुक्ति की चर्चा की है। सभी स्वीकारते हैं कि व्यसन मानवीय गुणों । है। मांसाहारी प्रथमतः शक्ति का अनुभव करता है पर वह शीघ्र ही के गौरव को अन्ततः रौख में मिला देते हैं। जैनाचार्यों ने भी । थक जाता है। शाकाहारी की शक्ति और साहस स्थायी होता है। व्यसनों से पृथक रहने का निदेश दिया है। इनके अनुसार यहाँ प्रत्यक्षरूप से परखा जा सकता है कि मांसाहारी चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनों के प्रकार बतलाते हुए उन्हें सप्त भागों में विभक्त किया । निराशावादी और असहिष्णु होते हैं क्योंकि शाकाहार में ही केवल गया है। यथा
कैलसियम और कार्बोहाइड्रेट्स का समावेश रहता है, फलस्वरूप
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शाकाहारी प्रायः प्रसन्नचित्त, शान्तप्रिय, आशावादी और सहिष्णु इसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है। विचार करें चोरी करने वाले होते हैं। इसीलिए सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से मांसाहार और की स्वयं भी चोरी होती जाती है, जिसकी उसे कोई खबर नहीं मांसाहारी सदा अनादृत समझे जाते हैं।
रहती। उसकी अचौर्यवृत्ति की होती है। उसका चारित्र्य ही चुर मांसाहारी मद्यपेयी होता है। जिस पदार्थ के सेवन करने से जाता है। चौर्य संस्कार परिपुष्ट हो जाने पर इस दुष्प्रवृत्ति को प्राणी मादकता का संचार हो, उसे मद्य के अन्तर्गत माना जाता है। भांग कभी आक्रान्त नहीं कर पाता। गाँजा, चरस, अफीम, चुरूट, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू, ताड़ी, पर-स्त्री गमन नामक व्यसन व्यक्ति की कामुक प्रवृत्ति पर विस्की, ब्रांडी, शेम्पेइन, जिन, रम्प, पोर्ट, वियर, देशी और विदेशी निर्भर करता है। सामाजिक और नैतिक दृष्टियों से पर-स्त्री-सेवन मदिरा वस्तुतः मद्य ही माने जाते हैं। जैनचर्या तो इस दृष्टि से } अत्यन्त अवैध पापाचार है। यही स्त्रियों के लिए पर-पति- सेवन का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विचार करती है। यहाँ बासी भोजन, दिनारू
रूप बन जाता है। इस व्यसन से व्यक्ति सर्वत्र निंदित होता है। उस अचार आदि के सेवन न करने के निदेश हैं।
पर किसी का विश्वास नहीं रहता। वह अन्तःबाह्य दृष्टियों से प्रायः हर मतिभंग और बुद्धि विनाश का मुख्य कारण है-नशा। शराब का भ्रष्ट हो जाता है। पर-स्त्री-सेवन और वेश्यावृत्ति में भेद है। देशज रूप है सड़ाव। साड़ अर्थात् खमीर शराब की प्रमुख प्रवृत्ति है। वेश्यावृत्ति उन्मुक्त मैथुन की नाली है जबकि परस्त्री बरसाती
इसमें दुर्गन्ध आती है, अस्तु वह सर्वथा अभक्ष्य है। इसीलिए संसार परनाला। किसी का जूठन सेवन करना पर-स्त्री-सेवन है। यह पशु 200500 के सभी धर्म-प्रवर्तकों, दार्शनिकों तथा आध्यात्मिक चिन्तकों ने प्रवृत्ति है। पशुप्रवृत्ति में किंचित संयम रहता है, इसमें उसका भी
मदिरापान की निन्दा की है और उसे पापकर्म का मूल माना है। सर्वथा अभाव रहता है। पुरुष प्रवृत्ति के यह सर्वथा प्रतिकूल है।
शरीर और बुद्धि दोनों जब विकृत और बेकाबू हो जाते हैं तब इस प्रकार व्यसन व्यक्ति को भ्रष्ट ही नहीं करता अपितु उसे व्यसनी वेश्यागमन की ओर उन्मुख होता है। महामनीषी भर्तृहरि ने निरा निकृष्ट ही बना देता है। जीव अपनी आत्मिक उन्नति प्राप्त्यर्थ वेश्यागमन को जीवन-विनाश का पुरजोर कारण बताया है। यथा । मनुष्य गति की कामना करता है क्योंकि उत्तम उन्नति के लिए प्राणी वेश्याऽसौ मदन ज्वाला रूपेन्धन समेक्षिता।
को संयम और तपश्चरण कर अपनी समस्त इच्छाओं का निरोधन कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च॥
करना पड़ता है। कामना का सामना करना साधारण पुरुषार्थ नहीं
है, जो उस पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह उत्तरोत्तर विकास के अर्थात् वेश्या कामाग्नि की ज्वाला है जो सदा रूप-ईंधन से
सोपान पर आरोहण करता है। व्यसनी जीवनचर्या में सदा सुसज्जित रहती है। इस रूप-ईंधन से सजी हुई वेश्या कामाग्नि
अवरोहण करता है जबकि संयमी करता आरोहण और फिर ज्वाला में सभी के यौवन धन आदि को भस्म कर देती है।
अन्ततः ऊर्ध्वारोहण। वेश्या समस्त नारी जाति का लांछन है और वेश्यागामी है
चारों गतियों में निरन्तर जन्म-मरण के दारुण दुःखों को कोढ़। विचार करें वेश्यासंसार का जूठन है। इसके सेवन से नाना |
भोगता रहता है भला प्राणी। उसके भव-भ्रमण का यह क्रम जारी व्याधियों का जन्म होता है। वेश्यागमन एक भयंकर दुर्व्यसन है।
है। सभी पर्यायों में प्राणी के लिए मनुष्य पर्याय श्रेष्ठ है। उसकी शिकार का अपरनाम है पापर्द्धि। पाप से प्राप्त ऋद्धि है पापर्द्धि। श्रेष्ठता का आधार है उसमें शील का उजागरण तथा आत्मिक गुणों मकार सेवन अर्थात् माँस, मधु और मदिरा-से जितनी दुष्वृत्तियों का के प्रति वन्दना करने के शुभ संस्कारों का. उदय। प्रत्येक जीवधारी उपचय होता है, उन सभी का संचय शिकार वृत्ति या शिकार खेलने में जो आत्मतत्व है उसमें समानता की अनुभूति करना अथवा होना से होता है। शिकारी स्वभावतः क्रूर, कपटी और कुचाली होता है। वस्तुतः समत्व का जागरण है। सारे पापों और उन्मार्गों का मूल अपनी विलासप्रियता, स्वार्थपरता, रसलोलुपता, धार्मिक अंधता तथा कारण है ममत्व। ममत्व मिटे तब समत्व जगे। ज्ञान, दर्शन और मनोरंजन हेतु विविध प्राणलेवा दुष्प्रवृत्ति के वशीभूत शिकारी चारित्र की त्रिवेणी इस दिशा में साधक को सफलता प्रदान करती शिकार जैसे भयंकर व्यसन से अपना अधोगमन करता है।
है। इस त्रिवेणी से अनुप्राणित जीवन जीने वाला व्यक्ति सदा सुखी शिकार की नाईं चोरी भी भयंकर व्यसन है। चोर परायी । और सन्तोषी जीवन जीता है। उसका प्रत्येक चरण मूर्छा मुक्त तथा सम्पत्ति का हरण-अपहरण तो कर लेता है पर साथ ही अपना जाग्रत होता है तब उसका उन्मार्ग की ओर उन्मुख होने का प्रश्न सम्मान, सन्तोष तथा शान्ति-सुख समाप्त कर लेता है। चोरी के ही नहीं उठता। दूसरी शब्दावलि में इसी बात को हम इस प्रकार अनेक द्वार होते हैं उनमें प्रवेश कर चोर प्रायः अविश्वास और कह सकते हैं कि व्यसन मुक्त जीवन सदा सफल और सुखी होता लोभ जैसी प्रवृत्तियों को जगा लेता है। लोभ के वशीभूत होकर चोर । है। जब यही त्रिवेणी सम्यक्चर्या में परिणत हो जाती है तब साधक मनोवृत्ति व्यक्ति को चालाक और धूर्त भी बना देती है। वह अपने की साधना मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होने लगती है। मोक्ष की व्यापार और व्यवहार में सर्वथा अप्रामाणिक जीवन जी उठता है। प्राप्ति चारों पुरुषार्थों की श्रेयस्कर परिणति है।
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
भूकम्प कैसे रोका जाये ?
-मानिकचन्द नवलखा
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वैज्ञानिकों व अभियन्ताओं के गहराई से कई शोध किये जाने | भी जोड़ दे (जो टापू पास-पास हो) समुद्र में नजर आ सकती है। के बावजूद भूकम्प को रोकने के प्रयासों में सफलता न प्राप्त हुई। | इन मछलियों का व समुद्र तल व नीचे गहराई पर कई अन्य इसका कारण है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के चौरासी लाख जीवों का मछलियों व जीवों का कार्य कीचड़ साफ करने में व मन्थन के वेग वर्णन जो कुछ श्रमण धर्मावलम्बी, अहिंसा महाव्रत पालने हेतु बढ़ाने में काफी उपयोगी होता है। जो मन्थन, पृथ्वी के नीचे गहराई गहराई से समझाने का प्रयास करते हैं, उसे आधुनिक वैज्ञानिक, पर दरारे, नाले, खड्डे आदि को समुद्र तल के काफी नीचे का पानी प्रचलित हिंसक आदतों में फँसे रहने के कारण स्वार्थवश, समझने । पहुँचाने में उपयोगी होता है व मछलियाँ कीचड़ खाने हेतु दरारों का प्रयास न करना व धर्म का विज्ञान से समन्वय करने का को भी साफ करने में अपनी ऊर्जा से मदद करती है। पानी के इस वातावरण तैयार न हो सका। प्रत्येक जीव किसी उपयोगी कार्य के सम्बन्ध व बहाव से पृथ्वी के अन्दर का तापक्रम का सन्तुलन बना लिए ही जन्म लेता है व पर्यावरण को सुचारू रूप से रखने में भी । रहता है। यदि यह सन्तुलन टूट जावे व किसी अमुक जगह पर कई जीव उपयोगी हो सकते हैं। ऐसे कई कार्य यदि मशीनों व तापक्रम जरूरत से ज्यादा बेहद बढ़ जावे तो पानी कम होने पर यन्त्रों से किये जावे तो खरबों डॉलर की आवश्यकता होगी, जो भाप में बदलते हुए गैस का गुब्बारा-सा बन कर दबाव बढ़ता ही कार्य कई जीव बिना अधिक खर्चे के सावधानी रखने से भी कर जाता है। जो स्वभाव परिणत उदार (स्थूल) बड़े पुद्गलों के टकराने सकते हैं। पर आधुनिक मानव खरबों डॉलर प्राप्त करने की । से तोड़ते हुए कम्पन्न पैदा करते हैं। क्योंकि कीचड़ के साफ न होने कोशिश करेगा पर स्वार्थ वश जीवों पर सावधानी बरतना ठीक न से सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं। हिन्द महासागर, गंगा नदी, अरब समझेगा। पानी या समुद्र के जीवों का भण्डार, ऊर्जा हेतु कई कार्यों सागर व बंगाल की खाड़ी में व ब्रह्मपुत्रा में मछलियों के कम होने में उपयोगी हो सकता है जो कार्य मशीनों से कठिन व अति । पर भूकम्प की संभावना बढ़ जाती है। चूँकि संसार के धनी प्रदेश खर्चीला, असम्भव सा नजर आता है। पर मानव का स्वार्थ उन जरूरत से ज्यादा खाने हेतु मछलियाँ पकड़वाते हैं, मछलियाँ बहुत जीवों को बचाने में बाधक हो जाता है।
कम होती जा रही है। ऊर्जा का उपयोगी भण्डार कम होने से यानी इस पृथ्वी के अन्दर भी गहराई पर कई खड्डे, दरारे, नाले,
ताकतवर बड़ी मछलियों की कमी के कारण भूकम्प आता है, खाद नदियां व तालाब कई जगहों पर होते हैं जिनका सम्बन्ध समुद्र के
कम हो जाता है व मानसून का रुख भी बदल जाता है। भूकम्प को
रोकने के लिए समुद्र के जीवों को कम से कम छेड़ा जावे। यह पानी से गहराई पर समुद्र तल पर व नीचे होता है। संसार में ७५ प्रतिशत से ज्यादा जगह समुद्रों ने ले रखी है। समुद्र के पानी व
| धारणा कि मछलियाँ आदि न पकड़ने से खाद्य पदार्थ कम होंगे नदियों के पानी का मन्थन, तापक्रम की भिन्नता व वायु के प्रभाव
| गलत है, क्योंकि मछली के साथ चावल खाने की खपत बढ़ जाती व जीवों की ऊर्जा आदि से, वेग से होता रहता है जो पृथ्वी के
है। दाल से चावल कम खाया जाता है। मछली अति तामसिक होने आन्तरिक तापक्रम को प्रभावित करता है। पानी के असंख्य जीव
{ से आबादी बढाती है, मनुष्य की उम्र कम होती है आदि आदि। मछलियाँ, मगरमच्छ आदि पृथ्वी व समुद्र के आन्तरिक सम्बन्धों को (भा. विज्ञान कांग्रेस में ७-१-९४ पढ़े गये शोध पत्र के हिन्दी स्वच्छ रखने में, पानी के बहाव व मन्थन को बनाये रखने में, अनुवाद के कुछ अंश उपरोक्त लिखित लेख में दिये गये हैं।) खरबों किलोवाट बराबर ऊर्जा के उपयोग से मदद करते हैं।
पता : मछलियों की ऊर्जा का मुकाबला मशीनों की ऊर्जा से नहीं हो सकता। व्हेल मछलियाँ किसी जमाने में एक किलोमीटर से ज्यादा
मानिक चन्द नवलखा लम्बी होती थी। यदि उन व्हेल-मछलियों को न पकडा जावे तो ए-४९, जनता कालोनी, आज भी काफी लम्बी व्हेल मछलियाँ जो एक टापू को दूसरे टापू से जयपुर ३०२ ००४ (राज)
मनोबल कुछ मनुष्यों का तो स्वभाव से ही क्षीण होता है और कुछ का उसके
संगी-साथी क्षीण कर देते हैं। * दिमाग में धर्म का सहारा चाहिये और दिल में धर्म के प्रति विश्वास चाहिये।
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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जीवन के कांटे व्यसन
राष्ट्र की अमूल्य निधि
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीयों का उत्तरादायित्व अत्यधिक बढ़ गया है। देश के सामने अनेक विकट समस्याएँ हैं। उन सभी समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्र की नैतिक, चारित्रिक दृष्टि से रक्षा करना। वही राष्ट्र की अमूल्य निधि है। राष्ट्र का सामूहिक विकास इसी आदर्शोन्मुखी उत्कर्ष पर निर्भर है। पवित्र चरित्र का निर्माण करना और उसकी सुरक्षा करना, सैनिक रक्षा से भी अधिक आवश्यक है। भौतिक रक्षा की अपेक्षा आध्यात्मिक परम्परा का रक्षण सार्वकालिक महत्त्व को लिए हुए है। आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समुन्नत राष्ट्र भी नैतिकता व चारित्रिक उत्कर्ष के अभाव में वास्तविक सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। अर्धमूलक उन्नति से वैयक्तिक जीवन को भौतिक समृद्धि की दृष्टि से समाज में भले ही उच्चतम स्थान प्राप्त हो किन्तु जन-जीवन उन्नत समुन्नत नहीं हो सकता।
भौतिक उन्नति से वास्तविक सुख-शान्ति नहीं
भारत में अतीत काल से ही मानवता का शाश्वत मूल्य रहा है । समाजमूलक, आध्यात्मिक परम्परा के प्रबुद्ध तत्त्व-चिन्तकों ने मानवों को वैराग्यमूल त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने की प्रबल प्रेरणा दी जिससे मानवता की लहलहाती लता विश्व मण्डप पर प्रसरित होकर राष्ट्रीय विमल विचारों के तथा पवित्र चरित्र के सुमन खिला सके और उन सुमनों की सुमधुर सौरभ जन-जीवन में ताज़गी, स्फुरणा और अभिवन जागृति का संचार कर सके।
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राजनैतिक श्रम से अर्जित स्वाधीनता की रक्षा धर्म, नीति, सभ्यता, संस्कृति और आत्मलक्ष्यी संस्कारों को जीवन में मूर्तरूप देने से ही हो सकती है। केवल नव-निर्माण के नाम पर विशाल बाँध, जल से पूरित सरोवर, लम्बे चौड़े राजमार्ग और सभी सुख-सुविधा सम्पन्न भवनों का निर्माण करना अपर्याप्त है और न केवल यन्त्रवाद को प्रोत्साहन देना ही पर्याप्त है। जब तक जीवन व्यसनों के घुन से मुक्त नहीं होगा, तब तक राष्ट्र का और जीवन का सच्चा व अच्छा निर्माण नहीं हो सकता । एतदर्थ ही गीर्वाण गिरा के एक यशस्वी कवि ने कहा है
"मृत्यु और व्यसन इन दोनों में से व्यसन अधिक हानिप्रद है। क्योंकि मृत्यु एक बार ही कष्ट देती है, पर व्यसनी व्यक्ति जीवन भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी वह नरक आदि में विभिन्न प्रकार के कष्टों का उपभोग करता है जबकि अव्यसनी जीते जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है और मरने के पश्चात् स्वर्ग के रंगीन सुखों का उपभोग करता है।"
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
व्यसन की परिभाषा
व्यसन शब्द संस्कृत भाषा का है जिसका तात्पर्य है 'कष्ट' । यहाँ हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है। जिन प्रवृत्तियों का परिणाम कष्टकर हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा गया है। व्यसन एक ऐसी आदत है जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता। व्यसनों की प्रवृत्ति अचानक नहीं होता। पहले व्यक्ति आकर्षण से करता है। फिर उसे करने का मन होता है। एक ही कार्य को अनेक बार दोहराने पर वह व्यसन बन जाता है।
व्यसन बिना बोये हुए ऐसे विष-वृक्ष हैं जो मानवीय गुणों के गौरव को रौरव में मिला देते हैं। ये विष-वृक्ष जिस जीवन भूमि पर पैदा होते हैं उसमें सदाचार के सुमन खिल ही नहीं सकते। मानव में ज्यों-ज्यों व्यसनों की अभिवृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसमें सात्त्विकता नष्ट होने लगती है। जैसे अमरबेल अपने आश्रयदाता वृक्ष के सत्त्व को चूसकर उसे सुखा देती है, वैसे ही व्यसन अपने आश्रयदाता (व्यसनी) को नष्ट कर देते हैं। नदी में तेज बाढ़ आने से उसकी तेज धारा से किनारे नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही व्यसन जीवन के तटों को काट देते हैं। व्यसनी व्यक्तियों का जीवन नीरस हो जाता है, पारिवारिक जीवन संघर्षमय हो जाता है और सामाजिक जीवन में उसकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है।
व्यसनों की तुलना
व्यसनों की तुलना हम उस दलदल वाले गहरे गर्त से कर सकते हैं जिसमें ऊपर हरियाली लहलहा रही हो, फूल खिल रहे हों पर ज्यों ही व्यक्ति उस हरियाली और फूलों से आकर्षित होकर उन्हें प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है त्यों ही वह दल-दल में फँस जाता है। व्यसन भी इसी तरह व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, अपने चित्ताकर्षक रूप से मुग्ध करते हैं, पर व्यक्ति के जीवन को दलदल में फँसा देते हैं। व्यसन व्यक्ति की बुद्धिमता, कुलीनता, सभी सद्गुणों को नष्ट करने वाला है।
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व्यसनों के अठारह प्रकार
यों तो व्यसनों की संख्या का कोई पार नहीं है। वैदिक ग्रन्थों में व्यसनों की संख्या अठारह बताई है। उन अठारह में दस व्यसन कामज हैं और आठ व्यसन क्रोधज हैं। कामज व्यसन हैं(१) मृगया (शिकार), (२) अक्ष (जुआ), (३) दिन का शयन, (४) परनिन्दा, (५) परस्त्री-सेवन, (६) मद, (७) नृत्य सभा, (८) गीत-सभा, (९) वाद्य की महफिल, (१०) व्यर्थ भटकना ।
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| जन-मंगल धर्म के चार चरण
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आठ क्रोधज व्यसन हैं-(१) चुगली खाना, (२) अति साहस
(२) मांसाहार करना, (३) द्रोह करना, (४) ईर्ष्या, (५) असूया, (६) अर्थ-दोष,
जूए के समान मांसाहार भी एक व्यसन है। मांसाहार मानव (७) वाणी के दण्ड, और (८) कठोर वचन।
प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। वह किसी भी स्थिति में मानव के लिए व्यसन के सात प्रकार
उपयुक्त नहीं है। मांसभक्षी पशुओं के शरीर की रचना और जैनाचार्यों ने व्यसन के मुख्य सात प्रकार बताये हैं-(१) जुआ, मानव-शरीर की रचना बिलकुल भिन्न है। आधुनिक शरीरशास्त्रियों (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) ।
का भी स्पष्ट अभिमत है कि मानव का शरीर मांसभक्षण के लिए चोरी, (७) परस्त्री-गमन। इन सातों व्यसनों में अन्य जितने भी। सर्वथा अनुपयुक्त है। मानव में जो मांस खाने की प्रवृत्ति है, वह व्यसन हैं उन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है।
उसका नैसर्गिक रूप नहीं है, किन्तु विकृत रूप है। प्राचीन आर्य आधुनिक युग में अश्लील चलचित्र, कामोत्तेजक, रोमांटिक ।
मनीषी तो मांस को स्पष्ट त्याज्य बताते ही हैं। महाभारतकार कहते और जासूसी साहित्य, बीड़ी-सिगरेट आदि भी व्यसनों की तरह ही
हैं-"मांसाहार प्राणिजन्य होने के कारण त्याज्य है, क्योंकि मांस न हानिप्रद हैं।
पेड़ पर लगता है और न जमीन में पैदा होता है" आचार्य मनु ने
कहा-जीवों की हिंसा के बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों ___ये व्यसन अन्धकूप के सदृश है जिसमें गिरकर मानव सभा का वध कभी स्वर्ग प्रदान नहीं करता; अतः मांसभक्षण त्यागना प्रकार के पापकृत्य करता है। व्यसन प्रारम्भ में लघु प्रतीत होते हैं,
चाहिए। किन्तु धीरे-धीरे हमुमान की पूँछ की तरह बढ़ते चले जाते हैं। आग की नन्ही-सी चिनगारी घास के विशाल ढेर को नष्ट कर देती है।
हिंसा से पाप कर्म का अनुबन्ध होता है। इसलिए उसे स्वर्ग तो छोटी-सी ग्रन्थि कैंसर का भयंकर रूप ग्रहण कर लेती है। बिच्छू का
मिल ही नहीं सकता। या तो उसे इसी जन्म में उसका फल प्राप्त जरा-सा डंक सारे शरीर को तिलमिला देता है, थोड़ा-सा विष प्राणों
होता है अथवा अगले जन्म में नरक और तिर्यंच गति के भयंकर का अपहरण कर लेता है। वैसे ही थोड़ा-सा भी दुर्व्यसन जीवन की
कष्ट सहन करने पड़ते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट रूप से कहामहान् प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। अतः व्यसनों के सम्बन्ध में
पंगुपन, कोढ़ीपन, लूला आदि हिंसा के ही फल हैं। स्थानांग में सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है।
मांसाहार करने वाले को नरकगामी बताया है। आचार्य मनु ने
कहा-मांस का अर्थ ही है, जिसका मैं मांस खा रहा हूँ वह अगले (१) जूआ
जन्म में मुझे खाएगा। मांस शब्द को पृथक-पृथक लिखने से "मां" बिना परिश्रम के विराट् सम्पत्ति प्राप्त करने की तीव्र इच्छा ने और "स" याने वह मुझे खाएगा। इस प्रकार मांस का अर्थ जूआ या द्यूत-क्रीड़ा को जन्म दिया। जूआ एक ऐसा आकर्षण है मनीषियों ने प्रतिपादित किया है। कबीरदास ने भी मांसाहार को जो भूत की तरह मानव के सत्त्व को चूस लेता है। जिसको यह । अनुचित माना है और मांसाहार करने वाले को नरकगामी कहा है। लत लग जाती है वह मृग-मरीचिका की तरह धन-प्राप्ति की अभिलाषा से अधिक से अधिक धन बाजी पर लगाता चला जाता
(३) मद्यपान है और जब धन नष्ट हो जाता है तो वह चिन्ता के सागर में जितने भी पेय पदार्थ, जिनमें मादकता है, विवेक-बुद्धि को डुबकियाँ लगाने लगता है। उसके प्रति किसी का भी विश्वास नहीं । नष्ट करने वाले हैं या विवेक-बुद्धि पर परदा डाल देते हैं वे सभी रहता। भारत के सभी ऋषि और महर्षियों ने जूए की निन्दा की है। 'मद्य' के अन्तर्गत आ जाते हैं। मदिरा एक प्रकार से नशा लाती है। ऋग्वेद में भी द्यूत क्रीड़ा को त्याज्य माना है। वहाँ द्यूत क्रीड़ा को | इसलिए भांग, गाँजा, चरस, अफीम, चुरुट, सिगरेट, बीड़ी, जीवन को बरबाद करने वाला दुर्गुण बताया गया है। जूआ एक | तम्बाकू, ताड़ी, विस्की, ब्रांडी, शेम्पेइन, जिम, रम पोर्ट, बियर, देशी प्रकार की खुजली है, जितना उसे खुजलाओगे उतनी ही वह और विदेशी मद्य हैं, वे सभी मदिरापान में ही आते हैं। मदिरापान बढ़ती जाएगी। यह एक छुआ-छूत की बीमारी है जो दूसरों को भी ऐसा तीक्ष्ण तीर है कि जिस किसी को लग जाता है उसका वह लग जाती है।
सर्वस्व नष्ट कर देता है। मदिरा की एक-एक बूंद जहर की बूँद के सूत्रकृतांग में भी चौपड़ या शतरंज के रूप में जूआ खेलना । सदृश ह। मानव प्रारम्भ में चिन्ता को कम करने के लिए मादरापान मना किया है। क्योंकि हारा जुआरी दुगुना खेलता है। एक आचार्य
| करता है। पर धीरे-धीरे वह स्वयं ही समाप्त हो जाता है। शराब ने ठीक ही कहा है जहाँ पर आग की ज्वालाएँ धधक रही हों वहाँ । का शौक बिजली का शॉक है। जिसे तन से, धन से और जीवन के पर पेड़-पौधे सुरक्षित नहीं रह सकते, वैसे ही जिसके अन्तर्मानस में
आनन्द से बरबाद होना हो उसके लिए मदिरा की एक बोतल ही जुए की प्रवृत्ति पनप रही हो उसके पास लक्ष्मी रह नहीं सकती। पर्याप्त हैं। मदिरा की प्रथम घुट मानव को मूर्ख बनाती है, द्वितीय एक पाश्चात्य चिन्तक ने भी लिखा है-जूआ लोभ का बच्चा है पर
घुट पागल बनाती है, तृतीय चूंट से वह दानव की तरह कार्य करने फिजूलखर्ची का माता-पिता है।
लगता है और चौथी घूट से वह मुर्दे की तरह भूमि पर लुढ़क
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पड़ता है। आज तक विराट्काय समुद्र ने भी जितने मानवों को नहीं निगला है, उतने मानव मदिरा ने निगल लिये हैं। मदिरापान से नकली प्रसन्नता प्राप्त होती है और वह असली उदासी से भी खराब है।
मदिरालय : दिवालिया बैंक
एक पाश्चात्य चिन्तक ने मदिरालय की तुलना दीवालिया बैंक से की है। मदिरालय एक ऐसे दीवालिया बैंक के सदृश है जहाँ तुम अपना धन जमा करा देते हो और खो देते हो। तुम्हारा समय, तुम्हारा चरित्र भी नष्ट हो जाता है तुम्हारी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। तुम्हारे घर का आनन्द समाप्त हो जाता है। साथ ही अपनी आत्मा का भी सर्वनाश कर देते हो।
जितने भी दुर्गुण हैं वे मदिरापान से अपने आप चले आते हैं। ऐसा कोई दुर्गुण और अपराध नहीं है जो मदिरापान से उत्पन्न न होता हो।
महात्मा गाँधी ने कहा- मैं मदिरापान को तस्कर कृत्य और वेश्यावृत्ति से भी अधिक निन्दनीय मानता हूँ; क्योंकि इन दोनों कुकृत्यों को पैदा करने वाला मद्यपान है।
मदिरापान और शुद्धि
मदिरा के सेवन से स्वास्थ्य चौपट होता है। मन-मस्तिष्क और बुद्धि का विनाश होता है। मदिरापान से उन्मत्त होकर मानव निन्दनीय कार्यों को करता है जिससे उसका वर्तमान लोक और परलोक दोनों ही विकृत हो जाते हैं। आचार्य मनु ने मदिरा को अन्न का मल कहा है। मल को पाप भी कहा है। मल-मूत्र जैसे अभक्ष्य पदार्थ है, खाने-पीने के लिए अयोग्य है, वैसे ही मदिरा भी है। व्यास ने कहा है-मदिरा का जो मानव सेवन करता है वह पापी है। यदि वह पाप से मुक्त होना चाहता है तो मदिरा को तेज गरम करके पिये जिससे उसका सारा शरीर जल करके नष्ट हो जाएगा।
ब्राह्मण के लिए यह निर्देश है कि यदि ब्राह्मण मदिरापान करने वाले व्यक्ति की गन्ध ले ले तो उसे शुद्ध होने के लिए तीन दिन तक गरम जल पीना चाहिए, उसके बाद तीन दिन गरम दूध का सेवन करे और उसके बाद तीन दिन तक केवल वायु का सेवन करे, तब वह शुद्ध होगा।
(४) वेश्यागमन
मदिरापान की तरह वेश्यागमन को भी विश्व के चिन्तकों ने सर्वथा अनुचित माना है क्योंकि वेश्यागमन ऐसा दुर्व्यसन है जो जीवन को कुपथ की ओर अग्रसर करता है। वह उस जहरीले साँप की तरह है जो चमकीला, लुभावना और आकर्षक है किन्तु बहुत ही खतरनाक है। वैसे ही वेश्या अपने शृंगार से, हावभाव और कटाक्ष से जनता को आकर्षित करती है। जिस प्रकार मछली को
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
पकड़ने वाले काँटे में जरा-सा मधुर आटा लगा रहता है जिससे मछलियाँ उसमें फँस जाती हैं, चिड़ियों को फँसाने के लिए बहेलिया जाल के आस-पास अनाज के दाने बिखेर देता है, दानों के लोभ से पक्षीगण आते हैं और जाल में फँस जाते हैं, वैसे ही वेश्या मोहजाल में फँसाने के लिए अपने अंगोपांग का प्रदर्शन करती है, कपट अभिनय करती है जिससे कि वेश्यागामी समझता है, यह मेरे पर न्योछावर हो रही है, और वह अपना यौवन, बल, स्वास्थ्य धन सभी उस नकली सौन्दर्य की अग्नि ज्वाला में होम देता है।
वेश्या: प्रज्वलित दीपशिखा
वेश्याओं के पीछे बड़े-बड़े धनियों ने अपना धन, वैभव, स्वास्थ्य, बल आदि सर्वस्व समाप्त किया और फिर उन्हें दर-दर के भिखारी बनना पड़ा। बड़े-बड़े वैभवशाली परिवार भी वेश्यासक्ति के कारण तबाह और निराधार हो गये। एतदर्थ ही भर्तृहरि ने कहा'येश्या कामाग्नि की ज्वाला है जो सदा रूप-ईंधन से सुसज्जित रहती है। इस रूप-ईंधन से सजी हुई वेश्या कामाग्नि ज्वाला में सभी के यौवन, धन आदि को भस्म कर देती है।'
वेश्या यह प्रज्वलित दीपशिखा है जिस पर हजारों लोग शलभ की तरह पड़-पड़ कर भस्म हो गये। वह एक जलती मशाल है जिसने हजारों परिवारों को जलाकर साफ कर दिया। समाज की अर्थ व्यवस्था और पारिवारिक जीवन को अव्यवस्थित करने वाली वेश्या है वेश्या आर्थिक और शारीरिक शोषण करने वाली जीती-जागती प्रतिमा है। वह समाज का कोढ़ है, मानवता का अभिशाप है, समाज के मस्तक पर कलंक का एक काला टीका है। समस्त नारी जाति का लांछन है।
(५) शिकार
शिकार मानव के जंगलीपन की निशानी है शिकार मनोरंजन का साधन नहीं अपितु मानव की क्रूरता और अज्ञता का विज्ञापन है। क्या संसार में सभ्य मनोरंजनों की कमी है जो शिकार जैसे निकृष्टतम मनोरंजन का मानव सहारा लेता है? शिकार करना वीरता का नहीं, अपितु कायरता और क्रूरता का द्योतक है। शिकारी अपने आप को छिपाकर पशुओं पर शस्त्र और अस्त्र का प्रयोग करता है। यदि पशु उस पर झपट पड़े तो शिकारी की एक क्षण में दुर्दशा हो जायेगी। वीर वह है जो दूसरों को जख्मी नहीं करता। दूसरों को मारना, उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना यह तो हृदयहीनता की निशानी है। भोले-भाले निर्दोष पशुओं के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना मानवता नहीं, दानवता है।
शिकारी के पास धर्म नहीं
शिकार को जैन ग्रन्थों में "पापर्द्धि" कहा है। पापर्द्धि से तात्पर्य है पाप के द्वारा प्राप्त ॠद्धि। क्योंकि शिकारी के पास धर्म नाम की कोई चीज होती ही नहीं, वह तो पाप से ही अपनी आय करता है।
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जन-मंगल धर्म के चार चरण
इसलिए आचार्य ने शिकारी की मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए कहा है-जिसे शिकार का व्यसन लग जाता है वह मानव प्राणी-वध करने में दया को तिलांजलि देकर हृदय को कठोर बना देता है। वह अपने पुत्र के प्रति भी दया नहीं रख पाता। शिकार के व्यसन ने अनेकों के जीवन को कष्टमय बनाया है। शिकारी एक ही पशु का वध नहीं करता, वह अहंकार के वशीभूत होकर अनेकों जीवों को दनादन मार देता है। इसीलिए आचार्य वसुनन्दी ने कहा- मधु, मद्य, मांस का दीर्घकाल तक सेवन करने वाला जितने महान् पाप का संचय करता है उतने सभी पापों को शिकारी एक दिन में शिकार खेलकर संचित कर लेता है।
(६) चोरी
शिकार की तरह चोरी भी सप्त व्यसनों में एक व्यसन है। चोरी का धन कच्चे पारे को खाने के सदृश है। जैसे कच्चा पारा खाने पर शरीर में से फूट निकलता है, वैसे ही चोरी का धन भी नहीं रहता। जो व्यक्ति चोरी करता है वह अपने जीवन को तो जोखिम में डालता ही है साथ ही वह अपने परिवार को भी खतरे में डाल देता है। चोरी करने वाला धन तो प्राप्त कर लेता है किन्तु उसका शांति, सम्मान और सन्तोष नष्ट हो जाता है। चोरी करने वाले के मन में अशांति की ज्वालाएं धधकती रहती हैं। उसका मन सदा भय से आक्रान्त रहता है। उसका आत्म-सम्मान नष्ट हो जाता है, उसमें आत्मग्लानि पनपने लगती है।
चोरी का प्रारम्भ छोटी वस्तुओं से होता है और वह आदत धीरे-धीरे पनपने लगती है। जैसे साँप का जहर धीरे-धीरे सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है वैसे ही चोरी का व्यसन-रूपी जहर भी जीवन में परिव्याप्त होने लगता है। इसलिए सभी धर्म-प्रवर्तकों ने चोरी को त्याज्य माना है। वे उसे असामाजिक कृत्य, राष्ट्रीय अपराध और मानवता के विरुद्ध उपक्रम मानते हैं। भगवान महावीर ने कहा- बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करो। यहाँ तक कि दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका भी न लो। कोई भी चीज आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। वैदिक धर्म में भी चोरी का स्पष्ट निषेध है। किसी की भी कोई चीज न ग्रहण करे महात्मा ईसा ने भी कहा- 'तुम्हें चोरी नहि करनी चाहिए।'
(७) परस्त्री-सेवन
भारत के तत्त्वदर्शियों ने कामवासना पर नियन्त्रण करने हेतु अत्यधिक बल दिया है। कामवासना ऐसी प्यास है, जो कभी भी बुझ नहीं सकती। ज्यों-ज्यों भोग की अभिवृद्धि होती है त्यों-त्यों वह
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ज्वाला भड़कती जाती है और एक दिन मानव की सम्पूर्ण सुख-शान्ति उस ज्वाला में भस्म हो जाती है।
गृहस्थ साधकों के लिए कामवासना का पूर्ण रूप से परित्याग करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि जो महान् वीर हैं, मदोन्मत्त गजराज को परास्त करने में समर्थ हैं, सिंह को मारने में सक्षम हैं, वे भी कामवासना का दमन नहीं कर पाते। एतदर्थ ही अनियन्त्रित कामवासनों को नियन्त्रित करके समाज में सुव्यवस्था स्थापित करने हेतु मनीषियों ने विवाह का विधान किया। विवाह समाज की नैतिक शान्ति, पारिवारिक प्रेम और प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने वाला एक उपाय है। गृहस्थ के लिए विधान है कि वह अपनी विधिवत् विवाहित पत्नी में सन्तोष करके शेष सभी परस्त्री आदि के साथ मैथुन विधि का परित्याग करे। विराट् रूप में फैली हुई वासनाओं को जिसके साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण हुआ है उसमें वह केन्द्रित करे। इस प्रकार असीम वासना को प्रस्तुत व्रत के द्वारा अत्यन्त सीमित करे।
परस्त्री से तात्पर्य अपनी धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों से है। चाहे थोड़े समय के लिए किसी को रखा जाय या उपपत्नी के रूप में, किसी की परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, दासी या किसी की पत्नी अथवा कन्या- ये सभी स्त्रियों परस्त्रियों है। उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेम पत्र लिखना या अपने चंगुल में फंसाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना, उसकी इच्छा के विपरीत काम-क्रीड़ा करना, वह बलात्कार है और इसकी इच्छा से करना परस्त्री-सेवन है।
जनतन्त्रवादी समाज के लिए व्यसनमुक्ति एक ऐसी विशिष्ट आचार पद्धति है जिसके परिपालन से गृहस्थ अपना सदाचारमय जीवन व्यतीत कर सकता है और राष्ट्रीय कार्यों में भी सक्रिय योगदान दे सकता है। दर्शन के दिव्य आलोक में ज्ञान के द्वारा चारित्र की सुदृढ़ परम्परा स्थापित कर सकता है। यह ऐसी एक आचार संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के लिए ही नहीं किन्तु मानव मात्र के लिए उपयोगी है। वह नागरिक जीवन को समृद्ध और सुखी बना सकती है तथा निःस्वार्थ कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर वह राष्ट्र में अनुपम बल और ओज का संचार कर सकती है, सम्पूर्ण मानव समाज में सुख-शान्ति और निर्भयता भर सकती है। अतः व्यसनमुक्त जीवन सभी दृष्टियों से उपयोगी और उपादेय है।
मनुष्य चाहे न बदले पर उसके विचार बदलते हैं। तभी तो एक ही झटके में महाभोगी महायोगी बन जाता है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
स्वस्थ समाज का आधार : सदाचार
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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धर्म का मेरुदण्ड : आचार
सम्बोधन से पुकारा गया। सुयोधन दुर्योधन के रूप में विश्रुत हुआ। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के अभ्युदय का मूल आधार आचार
आचार का परित्याग करने से कंस राजा होकर भी कसाई कहलाया है। आचार के आधार पर विकसित विचार जीवन का नियामक
और दक्ष दंभी के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जबकि सदाचार को धारण और आदर्श होता है, अतः विचार की जन्म-भूमि आचार ही है।
करने से शबरी भीलनी होकर भी भक्त बन गई। वाल्मीकि व्याध से
वन्दनीय बन गया। अर्जुनमाली हत्यारे से साधु बन गया। अतीत काल में आचार शब्द बिना किसी विशेषण के भी श्रेष्ठतम आचरण के लिए व्यवहृत हुआ है। शाब्दिक दृष्टि से आचार । तप का मूल : आचार का अर्थ है-'आचर्यते इति आचारः' जो आचरण किया जाय, वह आचार की महिमा बताते हुए वैदिक महर्षियों ने कहा- आचार आचार है। यह सदाचार का द्योतक है। आचार्य मनु, आचार्य व्यास
से विद्या प्राप्त होती है। आयु की अभिवृद्धि होती है, कान्ति और प्रभति विज्ञों ने 'आचारः प्रथमो धर्मः' कहा है। भगवान महावीर ने कीर्ति उपलब्ध होती है। ऐसा कौन-सा सदगण है जो आचार से द्वादशांगी में 'आचार' को प्रथम स्थान दिया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु
प्राप्त न हो। आचार से धर्मरूपी विराट् वृक्ष फलता है। आचार से ने स्पष्ट शब्दों में कहा है 'आचार सभी अंगों का सार है।' महाभारत ।
धर्म और धन ये दोनों ही प्राप्त होते हैं। आचार की शुद्धि होने से में वेदव्यास ने भी यही कहा है कि सभी आगमों में 'आचार' प्रथम | सत्य की प्राटि होती है सत्य की गल्टि होने से चित्त काय बनता है। ऋषियों ने भी आचार से ही धर्म की उत्पत्ति बताई है
है और चित्त एकाग्र होने से साक्षात् मुक्ति प्राप्त होती है। सभी 'आचारप्रभवो धर्मः'। आचार्य पाणिनि ने प्रभव का अर्थ 'प्रथम ।
प्रकार के तप का मूल आचार है। प्रकाशन' किया है। अर्थात् आचार ही धर्म का प्रथम प्रकाशन स्थान है। आचार धर्म का मेरुदण्ड है जिसके बिना धर्म टिक नहीं सकता। आचार और सदाचार
विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ भारतीय साहित्य में प्रारम्भ में आचार शब्द सदाचार का ही है। सभी मानवों में ज्ञानी श्रेष्ठ है और सभी ज्ञानियों में आचारवान द्योतक रहा। बाद में आचार के साथ 'सत्' शब्द का प्रयोग इस श्रेष्ठ है। आचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्यद्वार है। तथ्य को प्रमाणित करता है कि जब आचार के नाम पर कुछ गलत
प्रवृत्तियाँ पनपने लगीं तब श्रेष्ठ आचार को सदाचार और निकृष्ट आचार-रहित विचार : कल्चर मोती
आचार को दुराचार कहना प्रारंभ किया गया। इस तरह आचार आचारहीन मानव को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। कहा है- रूपी स्रोत दो धाराओं में प्रवाहित हो गया। उसकी एक धारा “आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचार रहित विचार कल्चर मोती ऊर्ध्वमुखी है, तो दूसरी धारा अधोमुखी है। ऊर्ध्वमुखी धारा के सदृश है, जिसकी चमक-दमक कृत्रिम है। विचारों की तस्वीर सदाचार है तो अधोमुखी धारा दुराचार है। शाब्दिक व्युत्पत्ति की चाहे कितनी भी मन-मोहक और चित्ताकर्षक क्यों न हो, पर जब दृष्टि से सदाचार शब्द सत् + आचार इन दो शब्दों से मिलकर तक आचार के फ्रेम में वह नहीं मढ़ी जायेगी तब तक जीवन- बना है। जो आचरण या प्रवृत्ति पूर्णरूप से सत् है, शिष्टजन सम्मत प्रासाद की शोभा नहीं बढ़ेगी। विचारों की सुन्दर तस्वीर को आचार है, उचित है वह सदाचार है। सत् या उचित को ही अंग्रेजी में के फ्रेम में मढ़वा दिया जाय तो तस्वीर भी चमक उठेगी और भवन 'राइट' (right) कहा है। जिसका अर्थ है नियमानुसार। जो भी खिल उठेगा।
आचरण नियम के अनुसार वह सदाचार है और जो आचरण शीशे की आँख स्वयं के देखने के लिए नहीं होती, दिखाने के । नियम के विरुद्ध है, असत् है, वह दुराचार है। दुराचार को ही लिए होती है, वैसे ही आचारहीन ज्ञान आत्म-दर्शन के लिए नहीं अनाचार या कदाचार भी कहते हैं। होता, किन्तु मात्र अहंकार प्रदर्शन के लिए होता है। प्रशंसा के गीत
सदाचार : परिभाषा गाने मात्र से अमृत किसी को अमर नहीं बनाता, पानी-पानी पुकारने से प्यास शान्त नहीं होती। इसी प्रकार सिर्फ शास्त्रों का
आचार्य मनु ने सदाचार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि ज्ञान बघारने से जीवन में दिव्यता नहीं आती।
'जिस देश, काल व समाज में जो आचरण की पवित्र परम्पराएँ
चल रही हैं वह सदाचार है।' सज्जन व्यक्तियों के द्वारा जिस पवित्र आचारहीनता से पतन
मार्ग का अनुसरण किया जाता है वह सदाचार है। सदाचार एक विराट् सम्पत्ति का अधिपति तथा वेद-वेदांगों का पारंगत होने । ऐसा व्यापक तथा सार्वभौम तत्त्व है जिसे देश, काल की संकीर्ण पर भी सदाचार-रहित होने से रावण 'राक्षस' जैसे घृणापूर्ण । सीमा आबद्ध नहीं कर सकती। जैसे सहस्ररश्मि सूर्य का चमचमाता
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हुआ प्रकाश सभी के लिए उपयोगी है, वैसे ही सदाचार के मूलभूत नैतिकता के अभाव में मानव पशु से भी गया-गुजरा हो जाता है। नियम सभी के लिए आवश्यक व उपयोगी हैं। कितने ही व्यक्ति मानव का क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इसका निर्णय नीति अपने कुल, परम्परा से प्राप्त आचार को अत्यधिक महत्त्व देते हैं । के आधार से किया जा सकता है। जो नियम नीतिशास्त्र को कसौटी और समझते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ वही सदाचार है, पर जो । पर खरे उतरते हैं, वे उपादेय हैं, ग्राह्य हैं और जो नियम सत् आचरण चाहे वह किसी भी स्रोत से व्यक्त हुआ हो, वह सभी नीतिशास्त्र की दृष्टि से अनुचित हैं वे अनुपादेय हैं और अग्राह्य है। के लिए उपयोगी है।
मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज में जो नैतिक सदाचार : दुराचार
आचार और व्यवहार प्रचलित होता है वह उसे धरोहर के रूप में
प्राप्त होता है। मानव में नैतिक आचरण की प्रवृत्ति आदिकाल से सदाचार से व्यक्ति श्रेयस् की ओर अग्रसर होता है। सदाचार
रही है। वे नैतिक नियम जो समाज में प्रचलित हैं उनके औचित्य वह चुम्बक है, जिससे अन्यान्य सद्गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं।
और अनौचित्य पर चिन्तन कर जीवन के अन्तिम उच्च आदर्श पर दुराचार से व्यक्ति प्रेय की ओर अग्रसर होता है। दुराचार से व्यक्ति
नैतिक नियम आधृत होते हैं। के सद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे शीत-दाह से कोमल पौधे झुलस जाते हैं। सदाचारी व्यक्ति यदि दरिद्र भी है तो वह
यद्यपि आचार या नीति शब्द के अर्थ कुछ भिन्न भी हैं, आचार सबके लिए अनकरणीय है यदि वह टर्बल है तो भी प्रशस्त है। सम्पूर्ण जीवन के क्रिया-कलाप से सम्बन्ध रखता है, जबकि 'नीति' क्योंकि वह स्वस्थ है। दुराचारी के पास विराट् सम्पत्ति भी है तो भी
आचार के साथ विचार को भी ग्रहण कर लेती है। 'नीति' में वह साररहित है।
सामयिक, देश-काल की अनुकूलता का विशेष ध्यान रखा जाता है
जबकि 'आचार' में कुछ शाश्वत व स्थायी सिद्धान्त कार्य करते हैं। शोथ से शरीर में स्थूलता आ जाना शरीर की सुदृढ़ता नहीं
नीति, व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों पर जोर देती है, आचार व्यक्ति कही जा सकती अपितु वह शोथ की स्थूलता शारीरिक दुर्बलता का
व ईश्वर सत्ता (आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध पर) के अधिक निकट ही प्रतीक है। सदाचार और सद्गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रय
रहता है। पश्चिमी विद्वान-देकार्ते (Descartes), लॉक (Locke) सम्बन्ध है। सद्गुणों से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से
आदि के मतानुसार धर्म ही नीति का मूल है, जबकि कांट (Kant) सद्गुण दृढ़ होते हैं। गगनचुम्बी पर्वतमालाओं से ही निर्झर प्रस्फुटित
के अनुसार नीति मनुष्य को धर्म की ओर ले जाती है। नीति का होते हैं और वे सरस सरिताओं के रूप में प्रवाहित होते हैं, वैसे ही
लक्ष्य 'चरित्र शुद्धि' है और चरित्र शुद्धि से ही धर्म की आराधना उत्कृष्ट सदाचारी के जीवन से ही धर्मरूपी गंगा प्रगट होती है।
होती है। इस प्रकार 'नीति' और 'आचार' के लक्ष्य में प्रायः सदाचार और सच्चरित्र
समानता है। भारतीय धर्म आचार को नीति से व नीति को आचार सदाचार और चरित्र ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। से नियंत्रित रखने पर बल देते हैं। एक ही धातु खण्ड के दो टुकड़े हैं, एक ही भाव के दो रूप हैं। पश्चिम के प्रसिद्ध नीतिशास्त्री मैकेंजी (Mackenzie) का आचार्य शंकर ने शील और सदाचार को अभेद माना है। सदाचार कहना है कि 'नीति' एक क्रिया है, धर्म मनुष्य का सत्संकल्प है, मानव-जीवन की श्रेष्ठ पूँजी है। अद्भुत आभा है। वह श्रेष्ठतम गंध नीति उस संकल्प को क्रियान्वित करती है, इसलिए नीति को है जो जन-जीवन को सुगन्ध प्रदान करती है। इसीलिए धम्मपद में नियामक विज्ञान (Normative Science) कहा जाता है, और शील को सर्वश्रेष्ठ गंध कहा है। रामचरित मानस में शील को पताका | वह धर्म, सदाचार का ही अन्तिम अंग है। के समान कहा है। पताका सदा सर्वदा उच्चतम स्थान पर अवस्थित होकर फहराती है वैसे ही सदाचार भी पताका है, जो अपनी
| आचार और विचार स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता के आधार पर फहराती रहती है।
आचार और विचार-ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। विश्व
में जितनी भी विचारधाराएँ प्रचलित हैं, उन्होंने आचार और चरित्र को अंग्रेजी में (Character) करेक्टर कहते हैं। मनुष्य
विचार को महत्त्व दिया है। व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये का बर्ताव व्यवहार, रहन-सहन, जीवन के नैतिक मानदण्ड व
आचार और विचार दोनों का विकास अपेक्षित है। जब तक आदर्श ये सब करेक्टर या चरित्र के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन्हीं
आचार के विकास के लिए पवित्र विचार नहीं होंगे, तब तक सबका संयुक्त रूप जो स्वयं व समाज के समक्ष व्यक्त होता है, वह
आचार सदाचार नहीं होगा। जिन विचारों के पीछे आचार का आचार या सदाचार है। इसलिए सदाचार व सच्चरित्रता को हम
दिव्य-आलोक नहीं है, वे विचार व्यक्तित्व-निर्माण में अक्षम हैं। जब अभिन्न भी कह सकते हैं तथा एक-दूसरे के सम्पूरक भी।
आचार और विचार में एकरूपता होती है, वे परस्पर एक-दूसरे से आचार और नीति
सम्बन्धित होते हैं, तभी विकास के नित्य-नूतन द्वार उद्घाटित आचार के अर्थ में ही पाश्चात्य मनीषियों ने 'नीति' शब्द का । होते हैं। प्रयोग किया है। आचारशास्त्र को उन्होंने नीतिशास्त्र कहा है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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रात्रि भोजन के घातक परिणाम
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सरोवर में खिलते कमल को देखिये-जब सूर्य की कोमल किरणों का स्पर्श और प्रकाश मिलता है तभी वह खिलता है, सूर्यास्त होते ही उसकी विकसित पंखुड़ियाँ अपने आप सिकुड़ जाती हैं। सूर्यास्त होने पर फूल मुझ जाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार सूर्यास्त होने पर हृदय कमल तथा नाभिकमल मुझ जाता है। संकुचित हो जाता है, और उदर में गया हुआ भोजन पचने में बहुत कठिन होता है। तोते, चिड़िया आदि पक्षियों को देखिये-उषा की लाली चमकने पर चहक-चहक कर एक दूसरे को जगाते हैं, और सूर्य की किरणें धरती पर फैलने के पश्चात् चुग्गा-दाना की खोज में आकाश में उड़ते हुए दूर-दूर तक चले जाते हैं, किन्तु संध्या होते होते वे दिनभर उड़ने वाले पक्षी अपने-अपने घोंसलों में लौट आते हैं। रात का अँधेरा छाने से पहले पहले वे अपने घोंसलों में घुस जाते हैं। और फिर रातभर कुछ खाना नहीं, पीना नहीं। शान्ति के साथ विश्राम करते हैं। प्रकृति के नियम सभी के लिए समान हैं। किन्तु मनुष्य सदा ही प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ और उसके नियमों का मजाक करता रहा है। परिणाम स्वरूप वह आधि, व्याधि, रोग, पीड़ा और संकटों से घिरता जाता है। आज संसार के प्रायः सभी स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह मानने लगे हैं कि मनुष्य को सूर्य प्रकाश में ही अपना भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए। सूर्य की ऊर्जा/ऊष्मा से भोजन ठीक से पचता है। सूर्यास्त के बाद पाचन क्रिया कमजोर पड़ जाती है, जठराग्नि मंद हो जाती है, अतः रात में किया हुआ भोजन दुष्पाच्य होता है, उससे अजीर्ण, कब्ज गैस आदि रोग पैदा होते हैं। रात्रि भोजन से आरोग्य बिगड़ता है। आलस्य बढ़ता है। काम वासना बढ़ती है। शरीर में मुटापा, (चर्बी) कोलस्टोरल आदि बढ़ते हैं।
माणि भोजन अनेक रात में आप चाहे जितना प्रकाश कर लेवें, वह आपके शरीर व पाचन संस्थान को ऊष्मा नहीं दे सकता। बिजली की ऊष्मा से कभी भी खाया हुआ भोजन हजम नहीं हो सकता। जैन सूत्रों में बताया है-ऐसे बहुत से सूक्ष्म जीव हैं, उड़ने वाले कीट पतंग हैं, जो आँखों से दिखाई नहीं देते किन्तु भोजन में आकर गिर जाते हैं और वे हमारे उदर में चले जाते हैं। उन जहरीले कीट पतंगों के कारण शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। योगशास्त्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- रात में भोजन करने से भोजन के साथ जू आ जाने से जलोदर, मक्खी आ जाने से उल्टी, चींटी (कीड़ें) आने से बुद्धिमंदता, मकड़ी आने से कुष्ट (महा कोढ़) होता है। कोई काटा आदि आ जाने से तालु में छेद हो जाता है। मच्छर आने से ज्वर, विषैला
जन्तु आने से जहर-परिणाम स्वरूप मृत्यु और कैंसर आदि रोग होते हैं। देखिये संलग्न चित्र
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-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि के प्रवचन ('रात्रि भोजन के घातक और संघातक परिणाम' से)
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सुथारा सलेषणा समाधिमरण की कला
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संथारा-संलेषणा: समाधिमरण
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मनुष्य को सुखमय दीर्घ जीवन की कला सिखाने वाले हजारों शास्त्र लिखे गये हैं। सभी दिन-रात, सुखी जीवन के लिए लालायित हैं, परन्तु मानव जब तक जीवन का अर्थ और जीने की शैली नहीं सीखेगा-सुखी जीवन की चाबी उसके हाथ नहीं लगेगी। ___भगवान महावीर ने कहा है-जीवन उसी का आनन्दमय हो सकेगा, जिसने मृत्यु को समझा है। जो जीवन के प्रति अनासक्त एवं मृत्यु के प्रति निर्भय रहकर जल में कमल की भाँति जीयेगा, वही जीवन का आनन्द ले सकेगा और वही वीर की भाँति हँसता-हँसता मृत्यु का सुखद वरण करेगा।
मृत्यु मित्र है, उसका स्वागत करने की कला है-संलेषणा। संलेषणा-संथारा जैन परम्परा का वह विधान है, वह प्रक्रिया है जो जीवन और मृत्यु का रहस्य उद्घाटित कर दोनों को ही सुखद-मंगलमय-आनन्दमय-सार्थक बनाती है।
संलेषणा-संथारा पर प्रस्तुत में गंभीर चिन्तन प्रस्तुत किया है विद्वान मनीषी आचार्यश्री देवेन्द्र मुनिजी ने।
इस खण्ड में आपश्री का सर्वांगीण चिन्तनपूर्ण मौलिक लेख वास्तव में ही अपने विषय को पूर्ण रूप में स्पष्ट करता है। यह विस्तृत निबंध ज्ञानवर्द्धक होने के साथ-साथ संथारा के विषय में सभी प्रकार की भ्रान्तियों का निराकरण भी प्रस्तुत करता है। इसी के साथ अन्य विद्वानों के लेख भी इस विषय को सर्वांगता प्रदान करते हैं।
गुरुदेव पूज्य उपाध्यायश्री पुष्कर मुनिजी म. ने अपने अंतिम समय में संथारा की भावना व्यक्त की और लगभग ४८ घंटा का संथारा प्राप्त किया। वे जप योगी महा योगी थे और समाधि उनके जीवन का अंग था। जीवन के अंतिम क्षणों में भी असह्य शारीरिक वेदना की स्थिति में भी उन्होंने समाधि योग में लीन रहकर समाधिमरण प्राप्त किया। इसलिए प्रस्तुत खण्ड गुरुदेव की जीवन दृष्टि का एक पूरक अंग बन गया है। आशा है पाठक इस रुचिकर मार्गदर्शक ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित होगें।
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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
संथारा, संलेषना : एक चिन्तन
जीवन और मरण
भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन और मरण के संबंध में गंभीर अनुचिन्तन किया है। जीवन और मरण के संबंध में हजारों ग्रन्थ लिखे गये हैं।' जीवन सभी को प्रिय है और मरण सभी को अप्रिय है।
" जब कोई भी व्यक्ति जन्म ग्रहण करता है तब चारों ओर प्रसन्नता का सुहावना वातावरण फैल जाता है। हृदय का अपार आनंद विविध वाद्यों के द्वारा मुखरित होने लगता है। जब भी उसका वार्षिक जन्म दिन आता है तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार समारोह मनाकर हृदय का उल्लास अभिव्यक्त करता है। जीवन को आनंद के सुमधुर क्षणों में व्यतीत करने के लिए गुरुजनों से यह आशीर्वचन प्राप्त करना चाहता है। वैदिक ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता है कि मैं सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीऊँ मेरे तन में किसी भी प्रकार की व्याधि उत्पन्न न हो। मेरे मन में संकल्पविकल्प न हों। मैं सौ वर्षों तक अच्छी तरह से देखता रहूँ, सुनता रहूँ, सूँघता रहूँ, मेरे पैरों में मेरी भुजाओं में अपार बल रहे जिससे मैं शान्ति के साथ अपना जीवन यापन कर सकूँ।"
मानव में ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में जिजीविषा है। जिजीविषा की भव्य भावना से उत्प्रेरित होकर ही प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक युग तक मानव ने अनुसंधान किए हैं। उसने ग्राम, नगर, भव्य भवनों का निर्माण किया। विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ, औषधियां, रसायनें, इंजेक्शन, शल्य क्रियाएं आदि निर्माण की। मनोरंजन के लिए प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा के केन्द्र संस्थापित किये। उद्यान, कला केन्द्र, साहित्य, संगीत, नाटक, चलचित्र, टेलीविजन, टेलीफोन, रेडियो, ट्रेन-प्लेन, पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले उपग्रह आदि का निर्माण किया। अब यह चन्द्र लोक आदि ग्रहों में रहने के रंगीन स्वप्न देख रहा है।
पर यह एक परखा हुआ सत्य तथ्य है कि जीवन के साथ मृत्यु का चोली-दामन का संबंध है। जीवन के अगल-बगल चारों ओर मृत्यु का साम्राज्य है । मृत्यु का अखण्ड साम्राज्य होने पर भी मानव उसे भुलाने का प्रयास करता रहा है। वह सोचता है कि मैं कभी नहीं मरूँगा किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पुष्प खिलता है, महकता है, अपनी मधुर सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध करता है वह पुष्प एक दिन मुरझा जाता है। जो फल वृक्ष की टहनी पर लगता है, अपने सुन्दर रंग रूप से जन मानस को आकर्षित करता है, वह फल भी टहनी पर रहता नहीं, पकने पर नीचे गिर पड़ता है। सहस्ररश्मि सूर्य जब उदित होता है तो चारों ओर दिव्य आलोक जगमगाने लगता है, पर सन्ध्या के समय उस सूर्य को भी अस्त होना पड़ता है।
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी
जीवन के पश्चात् मृत्यु निश्चित है मृत्यु जब आती है तब अपनी गंभीर गर्जना से जंगल को कंपाने वाला वनराज भी कांप जाता है। मदोन्मत्त गजराज भी बलि के बकरे की तरह करुण स्वर में चीत्कार करने लगता है। अनन्त सागर में कमनीय क्रीड़ा करने वाली विराटकाय व्हेल मछली भी छटपटाने लगती है। यहाँ तक कि मौत के वारन्ट से पशु-पक्षी और मानव ही नहीं स्वर्ग में रहने वाले देव-देवियां व इन्द्र और इन्द्राणियाँ भी पके पान की तरह कांपने लगते हैं। जैसे ओलों की तेज वृष्टि से अंगूरों की लहलहाती खेती कुछ क्षणों में नष्ट हो जाती है वैसे ही मृत्यु जीवन के आनंद को मिट्टी में मिला देती है।
गीर्वाण गिरा के यशस्वी कवि ने कहा- जो जन्म लेता है वह अवश्य ही मरता है- "जातस्य हि मरणं ध्रुवम्" । तन बल, जन बल, धन बल और सत्ता बल के आधार से कोई चाहे कि मैं मृत्यु से बच जाऊँ यह कभी भी संभव नहीं है। आयु कर्म समाप्त होने पर एक क्षण भी जीवित रहना असंभव है। काल (आयु) समाप्त होने पर काल (मृत्यु) अवश्य आयेगा। बीच कुंए में जब रस्सी टूट गई हो, उस समय कौन घड़े को थाम सकता है ?३
मृत्यु का भय सबसे बड़ा
जैन साहित्य में भय के सात प्रकार बताये हैं। उन सभी में मृत्यु का भय सबसे बड़ा है। मृत्यु के समान अन्य कोई भय नहीं है । ४
एक बादशाह बहुत मोटा ताजा था। उसने अपना मोटापा कम करने के लिए उस युग के महान् हकीम लुकमान से पूछा- मैं किस प्रकार दुबला हो सकता हूँ ?
लुकमान ने बादशाह से कहा- आप भोजन पर नियंत्रण करें, व्यायाम करें और दो-चार मील घूमा करें।
बादशाह ने कहा- जो भी तुमने उपाय बताये हैं, मैं उनमें से एक भी करने में समर्थ नहीं है। न मैं भोजन छोड़ सकता है. न व्यायाम कर सकता हूँ और न घूम ही सकता हूँ।
लुकमान कुछ क्षणों तक चिन्तन करते रहे, फिर उन्होंने कहाबादशाह प्रवर। आपके शारीरिक लक्षण बता रहे हैं कि आप एक माह की अवधि के अन्दर परलोक चले जायेंगे।
यह सुनते ही बादशाह ने कहा- क्या तुम्हारा कथन सत्य है ? लुकमान ने स्वीकृति सूचक सिर हिला दिया।
एक माह के पश्चात् जब लुकमान बादशाह के पास पहुँचा तो उसका सारा शरीर कृश हो चुका हो 'चुका था। बादशाह ने लुकमान से पूछा- अब मैं कितने घण्टों का मेहमान हैं।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । लुकमान ने कहा-अब आप नहीं मरेंगे।
धन हो तो वह कहीं भी चला जाय उसे कोई कष्ट नहीं होता। इसी बादशाह ने साश्चर्य पूछा-यह कैसे?
तरह जिस साधक ने जीवन कला के साथ मृत्युकला भी सीख ली।
है, उस साधक के मन में मृत्यु से भय नहीं होता। उसकी हत्तन्त्री के लुकमान ने कहा-आपने कहा था कि मुझे दुबला बनना है।
तार झनझनाते हैं-मैंने सद्गति का मार्ग ग्रहण किया है। मैंने जीवन देखिए, आप आप दुबले बन गये हैं। मृत्यु के भय ने ही आपको
में धर्म की आराधना की है, संयम की साधना की है। अब मुझे । कृश बना दिया है।
मृत्यु से भय नहीं है। मेरे लिए मृत्यु विषाद का नहीं, हर्ष का भगवान महावीर ने प्राणियों की मनःस्थिति का विश्लेषण करते । कारण है। वह तो महोत्सव की तरह है। हुए कहा है-"प्राणिवधरूप असाता कष्ट सभी प्राणियों के लिए
जीवन और मृत्यु एक-दूसरे के पूरक महाभय रूप है।"५
मृत्यु से भयभीत होने का कारण यह है कि अधिकांश व्यक्तियों । मृत्यु कला
का ध्यान जीवन पर तो केन्द्रित है, पर वे मृत्यु के संबंध में कभी भारतीय मूर्धन्य चिन्तकों ने जीवन को एक कला माना है। जो सोचना भी नहीं चाहते। उनका प्रबल पुरुषार्थ जीने के लिए ही होता साधक जीवन और मरण इन दोनों कलाओं में पारंगत है, वही है। उन्होंने जीवन पट को विस्तार से फैला रखा है। किन्तु उस पट अमर कलाकार है। भारतीय संस्कृति का आघोष है कि जीवन और को समेटने की कला उन्हें नहीं आती। वे जाग कर कार्य तो करना । मरण का खेल अनन्त काल से चल रहा है। तुम खिलाड़ी बनकर । चाहते हैं, पर उन्हें पता नहीं केवल जागना ही पर्याप्त नहीं है, खेल रहे हो। जीवन के खेल को कलात्मक ढंग से खेलते हो तो विश्रान्ति के लिए सोना भी आवश्यक है। जिस उत्साह के साथ मरने के खेल को भी ठाट से खेलो। न जीवन से झिझको, न मरण जागना आवश्यक है, उसी उत्साह के साथ विश्रान्ति और शयन से डरो। जिस प्रकार चालक को मोटर गाड़ी चलाना सीखना आवश्यक है जिस प्रकार जागरण और शयन एक-दूसरे के पूरक हैं । आवश्यक है, उसी तरह उसे रोकना सीखना भी आवश्यक है। वैसे ही जीवन और मृत्यु भी। केवल उसे गाड़ी चलाना आये, रोकना नहीं आये, उस चालक की स्थिति गंभीर हो जाएगी। इसी तरह जीवन कला के साथ मृत्यु-कला
मरण शुद्धि भी बहुत आवश्यक है। जिस साधन ने मृत्यु कला का सम्यक् प्रकार
महाभारत के वीर योद्धा कर्ण ने अश्वत्थामा को कहा था कि से अध्ययन किया है वह हंसते, मुस्कराते, शान्ति के साथ प्राणों का तू मुझ सूतपुत्र कहता हा पर चाह जा कुछ भा हा म अपन पुरुषाथ परित्याग करेगा। मृत्यु के समय उसके मन में किंचित मात्र भी से तुझे बता दूंगा कि मैं कौन हूँ। मेरा पुरुषार्थ तुम देखो। उद्वेग नहीं होगा। वह जानता है ताड़ का फल वृन्त से टूटकर नीचे प्रस्तुत कथन से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति अपने आपको गिर जाता है वैसे ही आयुष्य क्षीण होने पर प्राणी जीवन से च्युत बनाता है। जिस साधक ने जीवन कला के रहस्य को समझ लिया हो जाता है।६ मृत्यु का आगमन निश्चित है। हम चाहे कितना भी है, वह मृत्युकला के रहस्य को भी समझ लेता है। जिसने वर्तमान प्रयत्न करें उससे बच नहीं सकते। काल एक ऐसा तन्तुवाय है जो । को सुधार लिया है, उसका भविष्य अपने आप ही सुधर जाता है। हमारे जीवन के ताने के साथ ही मरण का बाना भी बुनता जाता | आत्म विशुद्धि के मार्ग के पथिक के लिए जीवन शुद्धि का जितना है। यह बुनाई शनैः-शनैः आगे बढ़ती है। जैसे तन्तुवाय दस बीस । महत्व है उससे भी अधिक महत्व मरण शुद्धि का है। गज का पट बना लेने के पश्चात् ताना बाना काटकर वस्त्र को पूर्ण
पंडित आशाधर जी ने कहा-जिस महापुरुष ने संसार परम्परा करता है और उस वस्त्र को समेटता है। जीवन का ताना बाना भी
को विनष्ट करने वाले समाधिमरण अर्थात् मृत्यु कला में पूर्ण इसी प्रकार चलता है। कालरूपी जुलाहा प्रस्तुत पट को बुनता जाता
योग्यता प्राप्त की है उसने धर्म रूपी महान् निधि को प्राप्त कर है। पर एक स्थिति ऐसी आती है जब वह वस्त्र (थान) को समेटता
लिया है। वह मुक्ति पथ का अमर पथिक है। उसका अभियान आगे है। वस्त्र का समेटना ही एक प्रकार मृत्यु है। जिस प्रकार रात्रि और
बढ़ने के लिए है। वह पड़ाव को घर बनाकर बैठना पसन्द नहीं दिन का चक्र है वैसे ही मृत्यु और जन्म का चक्र है।
करता है किन्तु प्रसन्न मन से अगले पड़ाव की तैयारी करता है, एक वीर योद्धा अपनी सुरक्षा के सभी साधन तथा शस्त्रास्त्रों यही मृत्युकला है। को लेकर युद्ध के मैदान में जाता है, वह युद्ध के मैदान में भयभीत
मरण के विविध प्रकार नहीं होता, उसके अन्तर्मानस में अपार प्रसन्नता होती है, क्योंकि वह युद्ध की सामग्री से सन्नद्ध है।
का जो व्यक्ति जीवन कला से अनभिज्ञ है वह मृत्यु कला से भी
अनभिज्ञ है। सामान्य व्यक्ति मृत्यु को तो वरण करता है, पर किस मृत्यु महोत्सव
प्रकार मृत्यु को वरण करना चाहिए, उसका विवेक उसमें नहीं एक यात्री है। यदि उसके पास पाथेय है तो उसके मन में एक होता। जैन आगम व आगमेतर साहित्य में मरण के संबंध में प्रकार की निश्चिन्तता होती है। यदि उसके पास यथेष्ट अन्न और विस्तार से विवेचन किया गया है। विश्व के जितने भी जीव हैं, उन
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। संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
जीवों में मरण को दो भागों में विभक्त किया है (१) बालमरण प्रतिक्षण आयुष्य आदि का जो क्षय हो रहा है, वह नित्य मरण है और (२) पण्डितमरण।
और प्राप्त शरीर का पूर्ण रूप से छूट जाना अथवा जीव का उस भगवती सूत्र में90 बालमरण के बारह प्रकार बतलाये हैं और
शरीर को छोड़ देना तद्भवमरण है। सामान्य मानव जिसे आयु पंडित मरण के दो प्रकार बताये हैं। इस प्रकार मरण के कुल १४ ।
वृद्धि कहता है, वह स्वतः आयु का ह्रास है। हमारा प्रत्येक कदम प्रकार हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं
मृत्यु की ओर ही बढ़ रहा है। बालमरण
२. अवधिमरण१६ (१) वलय (२) वसट्ट (३) अन्तोसल्ल (४) तब्भव
जिस मरण में जीव एक बार मरण करता है उसी गति में (५) गिरिपडण (६) तरुपडण (७) जलप्पवेस (८) जलणप्पवेस दूसरी बार मरण करना अवधिमरण है। (९) विषभक्खण (१०) सत्थोवाडण (११) बेहाणस (१२) गिद्धपिट्ठ।
३. आत्यंतिकमरण१७ पंडितमरण
वर्तमान आयु कर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण प्राप्त (१) पावोवगमण (२) भत्तपच्चक्खाण।
| होता है, पुनः उस भव में वह जीव उत्पन्न न हो तो वह मरण समवायांग सूत्र में११ और उत्तराध्ययन नियुक्ति में१२ तथा
आत्यतिंक मरण है। दिगम्बर ग्रन्थ मूलाराधना१३ में मरण के १७ भेद इस प्रकार हैं- ४. बलायमरण
(१) आवीचिरमरण (२) अवधिमरण (३) आत्यंतिकमरण जो संयमी संयम पथ से भ्रष्ट होकर मृत्यु को प्राप्त करता है (४) वलायमरण (५) वशार्तमरण (६) अन्तःशल्यमरण (७) वह बलन मरण है या भूख से छटपटाते हुए मृत्यु को प्राप्त करना तद्भवमरण (८) बालमरण (९) पंडितमरण (१०) बालपण्डित- भी बलाय मरण है। मरण (११) छद्मस्थमरण (१२) केवलीमरण (१३) वैहायसमरण
५. वशार्तमरण१९ (१४) गृद्धपृष्ठमरण (१५) भक्तप्रत्याख्यानमरण (१६) इंगिनीमरण (१७) पादपोपगमनमरण।
दीप शिखा में शलभ की भाँति जो जीव इन्द्रियों के वशीभूत
होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनका मरण वशार्तमरण है। इस मरण के इन सत्रह प्रकारों में "उत्तराध्ययननियुक्ति" और
मरण में आर्त और रौद्र ध्यान की प्रधानता रहती है। "मूलाराधना" की विजयोदयावृत्ति में नाम और क्रम में कुछ अन्तर है। इन सत्रह प्रकार के मरण के संबंध में उत्तराध्ययन- नियुक्ति
६. अन्तःशल्यमरण२० और विजयोदयावृत्ति में अनेक भेद प्रभेदों का निरूपण है। हम यहाँ शरीर में शस्त्र आदि शल्य रहने पर मृत्यु होना वह द्रव्य अन्तः ७०० विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही इन १७ प्रकार के मरण के अर्थ | शल्य मरण है। लज्जा, अभिमान प्रभृति कारणों से अतिचारों की का प्रतिपादन करेंगे।
आलोचना न कर दोषपूर्ण स्थिति में मरना अन्तःशल्यमरण है। १. आवीचिमरण
७. तद्भवमरण२१ आयु कर्म के दलिकों की विच्युत्ति अथवा वुच्छित्ति को
वर्तमान भव में मृत्यु का वरण करना, तद्भवमरण है। आवीचिमरण कहा है। जैसे अंजलि में लिया हुआ पानी प्रतिपल प्रतिक्षण घटता रहता है, इसी प्रकार प्रतिक्षण आयु भी कम होता
८. बालमरण२२ जाता है। यहाँ वीचि का अर्थ समुद्र की लहर है। समुद्र में प्रतिपल विश्व में आसक्त, अज्ञानांधकार से आच्छादित, ऋद्धि व रसों प्रतिक्षण एक लहर उठती है और उसके पीछे ही दूसरी और तीसरी में गृद्ध जीवों का मरण, बालमरण कहलाता है। लहर उठती रहती है। असंख्य लहरों का नर्तन समुद्र के विराट्
bedeo ९. पण्डितमरण२३
Jos00 वक्षस्थल पर होता रहता है। समुद्र की लहर की भांति मृत्यु की लहर भी प्रतिक्षण आती रहती है। एक क्षण की समाप्ति जीवन के
संयतियों का मरण पंडितमरण है। सम्यक् श्रद्धा, चारित्र एवं क्षण की समाप्ति है। नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव१४ ने
विवेकपूर्वक मरण, पण्डितमरण है। आवीचिमरण की व्याख्या करते हुए लिखा है-प्रत्येक समय अनुभूत १०. बालपंडितमरण२४ होने वाले आयुकर्म के पूर्व-पूर्व दलिकों को भोगकर नित नूतन दलिकों का उदय, फिर उनका भोग, इस प्रकार प्रतिक्षण दलिकों
___संयतासंयत मरण बालपंडितमरण है। का क्षय होना आवीचि है।
११. छत्मस्थमरण२५ आचार्य अकलंक ने१५ आवीचिरमरण को नित्य मरण कहा है।
__ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी को छद्मस्थ उन्होंने मोटोपमा बनाये * नियम और नशावरण कहते हैं। ऐसे व्यक्ति का मरण, छद्ममस्थमरण है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । १२. केवलीमरण
प्रायोपगमन अनशन करने वाला साधक अपने शरीर को इतना केवलज्ञानी का मरण केवलीमरण है।
कृश कर लेता है कि उसके मलमूत्र आदि होते ही नहीं।३५ वह
अनशन करते समय जहाँ अपने शरीर को टिका देता है वहीं पर 100000१३. वैहायस मरण२६
वह स्थिर भाव से स्थित हो जाता है। इस तरह वह निष्प्रतिकर्म वृक्ष की शाखा से लटकने, पर्वत से गिरने, झंपा लेने, प्रभृति । होता है। वह अचल होता है, अतः अनिर्हार होता है। यदि कोई कारणों से होने वाला मरण वैहायसमरण है।
अन्य व्यक्ति उसे उठाकर दूसरे स्थान पर रख देता है तो भी १४. गृद्धपृष्ठमरण२७
स्वयंकृत चालन की अपेक्षा वह निर्हारी ही रहता है।३६ । हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के
संविचारी और अविचारी, निर्हारी और अनिर्हारी ये शब्द साथ उस जीवित शरीर को भी गीध आदि नोंचकर मार डालते हैं। श्वताम्बर आर दिगम्बर दाना परम्पराआ म व्यवहृत हुए हैं किन्तु उस स्थिति में जो मरण होता है, वह गृद्धपृष्ठमरण है।
दोनों ही परम्पराओं में इनके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। जैसे श्वेताम्बर में
सविचार का अर्थ गमनागमन सहित है३७ तो दिगम्बर में अर्हलिंग १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण२८
आदि विकल्प सहित है३८ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यावज्जीवन के लिए त्रिविध और चतुर्विध आहार के अविचार३९ का अर्थ गमनागमन रहित है तो दिगम्बर के त्यागपूर्वक जो मरण होता है वह भक्त प्रत्याख्यान मरण है।
अनुसार४० अर्हलिंग आदि विकार रहित है। श्वेताम्बर में मूलाराधना में इसका नाम “भक्त पयिण्णा' है और निहरी४१ का अर्थ है-उपाश्रय के एक स्थान में जिसमें मृत्यु के विजयोदया में "भक्तप्रतिज्ञा" है।
पश्चात् शरीर को निर्हरण किया जाये और दिगम्बर में स्वगण का
त्याग कर पर गण में जा सके वह निर्हारी है। श्वेताम्बर में १६. इंगिणीमरण२९
अनिर्हारी४२ का अर्थ है गिरि गुफा आदि में जिसमें मृत्यु के पश्चात् प्रतिनियत स्थान पर अनशनपूर्वक मरण को इंगिणीमरण कहा
निर्हरण करना आवश्यक हो, और दिगम्बर में४३ स्वगण का है। इस मरण में साधक अपनी शुश्रूषा स्वयं कर सकता है पर
त्यागकर पर गण में न जा सके वह। दूसरे श्रमणों से सेवा ग्रहण न करे, उसे भी इंगिणीमरण कहा है। इस मरण में चतुर्विध आहार का परित्याग आवश्यक होता है।
आचार्य शिवकोटि ने प्रायोपगमन के वर्णन में, अनिर्हारी और
निहारी का अर्थ अचल और चल भी किया है।४४ १७. पादपोपगमन मरण३०
भगवती सूत्र में इंगिणी और भक्तप्रत्याख्यान को एक मानकर ___ वृक्ष के नीचे स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक
उनकी पृथक व्याख्या की है।४५ किन्तु मूलाराधना में४६ भक्तजो मरण होता है। वह पादपोपगमन मरण है। पादपोपगमन को ही ।
प्रत्याख्यान, इंगिणी और पादपोपगमन-इन तीनों को पंडितमरण का दिगम्बर ग्रन्तों में "प्रायोपगमन"३१ कहा है। जो अपनी परिचर्या ।
भेद माना है। स्वयं न करे और न दूसरों से बरवावे ऐसे संन्यास मरण को प्रायोपगमन अथवा प्रायोपज्ञमरण कहते हैं।
मरण के जो सत्रह प्रहार बताये हैं उनमें आवीचिरमण प्रतिपल
प्रतिक्षण होता है। वह सिद्धों के अतिरिक्त सभी संसारी प्राणियों में ___ पादपोपगमन३२ अपने पैरों से चलकर योग्य प्रदेश में ।
होता है। शेष मरण संसारी जीवों में संभव हो सकते हैं। जाकर जो मरण किया जाता है, उसे पादपोपगमन मरण कहा गया है। प्रस्तुत मरण को चाहने वाला श्रमण अपने शरीर की परियर्या
मरण के दो प्रकार न स्वयं करता है और न दूसरों से ही करवाता है। प्रस्तुत मरण उत्तराध्ययन सूत्र में मरण दो प्रकार के बताये हैं-अकामरण के लिए "प्रायोज्ञ"३३ अथवा “पाउग्गमण" पाठ भी प्राप्त होता और सकामरण।४७ टीकाकार ने अकाममरण का अर्थ विवेक रहित है। भव के अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोज्ञ कहा मरण किया है और सकाममरण को चारित्र और विवेकयुक्त मरण है। विशिष्ट संहनन और संस्थान वाले ही इस मरण को वरण कहा है। अकाममरण पुनः पुनः होता है।४८ किन्तु सकाममरण करते हैं।
जीवन में एक बार होता है। पंडितमरण एक बार होता है, इसका ___भगवती सत्र में३४ पादपोपगमन के निर्हारी और अनिर्हारी ये
तात्पर्य है कि साधक कर्म क्षय कर मृत्यु को ऐसे वरण करता है दो भेद बताये हैं। निर्हारी उपाश्रय में मृत्यु को वरण करने वाले
जिससे पुनः मृत्यु प्राप्त न हो। "मरण विभक्ति' में कहा है-तुम श्रमण के शरीर को उपाश्रय से बाहर निकाला जाता है। इसलिए
ऐसा मरण मरो जिससे मुक्त बन जाओ।४९ उस मरण को निर्हारी कहते हैं। अनिर्हारी अरण्य में अपने शरीर । जिस मरण में विषय वासना की प्रबलता हो, कषाय की आग का परित्याग करने वाले श्रमण के शरीर को बाहर ले जाना नहीं । धधक कर सुलग रही हो कि विवेक की ज्योति लुप्त हो चुकी हो, पड़ता, इसलिए उसे अनिर्हारी मरण कहा गहा गया है।
हीन भावनाएं पनप रही हों, वह बालमरण है।
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। संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
सकाममरण के पंडितमरणं और बालपंडितमरणं-ये दो भेद ही निरुद्ध रहता है, एतदर्थ उसके भक्तप्रत्याख्यान को अनिर्हारी भी किये हैं।५० पंडितमरण और बालपंडितमरण-इन दोनों में मुख्य भेद कहा गया है।६१ निरुद्ध के जनजात और अनअजात६२ ये दो पात्र का है। विषयविरक्त संयमी जीवों का मरण पंडितमरण है और प्रकार हैं। श्रावक का मरण बालपंडितमरण है। बालपंडितमरण का भी
निरुद्धतर अन्तर्भाव पंडितमरण के अन्तर्गत ही किया गया है क्योंकि दोनों प्रकार ही के मरण में साधक समाधिपूर्वक प्राणों का परित्याग
जहरीले सर्प के काट खाने पर, अग्नि आदि का प्रकोप होने करता है।
पर तथा ऐसे मृत्यु के अन्य तात्कालिक कारण उपस्थित होने पर
उसी क्षण जो भक्तप्रत्याख्यान किया जाता है, वह निरुद्धतर है।६३ स्थानांग में५१ प्रशस्त मरण के पादपोपगमन और भक्त
अथवा ऐसा कोई कारण उपस्थित हो जाय जिससे शारीरिक शक्ति प्रत्याख्यान ये दो मरण बताये हैं। भगवती में५२ भी आर्य स्कन्धक
एकदम क्षीण हो जाए तो उसका अनशन निरुद्धतर कहलाता है। के प्रसंग में पंडितमरण के दो प्रकार बताये हैं। उत्तराध्ययन की
यह अनिहारी होता है।६४ । प्राकृत टीका में५३ पंडितमरण के तीन प्रकार और पांच भेद बताये हैं-भक्तपरिज्ञामरण, इंगिणीमरण और पादपोपगमनमरण, छद्मस्थ- परम् निरुद्ध मरण और केवलीमरण।
सर्पदंश या अन्य कारणों से जब वाणी अवरुद्ध हो जाती है, भक्तप्रत्याख्यान और इंगिणीमरण में यह अन्तर है कि उस स्थिति में भक्तप्रत्याख्यान को परम् निरुद्ध६५ कहा है। भक्तप्रत्याख्यान में साधक स्वयं अपनी शुश्रूषा करता है और दूसरों आचार्य शिवकोटि द्वारा प्रतिपादित भक्तप्रत्याख्यान के निरुद्ध से भी करवाता है। वह त्रिविध आहार का भी त्याग करता है और और परम् निरुद्ध की तुलना औपपातिक में आए हुए पादपोपगमन चतुर्विध आहार का भी त्याग करता है। अपनी इच्छा से जहाँ भी और भक्तप्रत्याख्यान के व्याघात सहित से की जा सकती है। जाना चाहे जा सकता है। किन्तु इंगिणीमरण में चतुर्विध आहार का औपपातिकवृत्ति में व्याघात का अर्थ किया है-सिंह, दावानल प्रभृति त्याग होता है, वह नियत प्रदेश में ही इधर उधर जा सकता है,
व्याघात उपस्थित होने पर किए जाने वाला अनशन।६६ औपपातिक उसके बाहर नहीं जा सकता। वह दूसरों से शुश्रूषा भी नहीं करवा की दृष्टि से पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान ये दोनों अनशन DS.SE सकता है।
व्याघात सहित और व्याघात रहित दोनों ही स्थितियों में होते हैं। 800 शान्त्याचार्य ने५४ निहारी और अनिहारी ये दो भेद । सूत्रकृतांग की दृष्टि से शारीरिक बाधा उत्पन्न हो या न हो तब भी पादपोपगमन के बताये हैं, किन्तु स्थानांग में५५ भक्तप्रत्याख्यान के । अनशन करने का विधान है। भी दो भेद किये हैं।
प्रकारान्तर से पांडितमरण के सागारी संथारा और सामान्य आचार्य शिवकोटि५६ ने भक्तप्रत्याख्यान के सविचार और संथारा ये दो प्रकार किए जा सकते हैं। विशेष आपत्ति समुपस्थित P ascal अविचार दो भेद माने हैं। जिस श्रमण के मन में उत्साह है, तन में होने पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा है। बल है, उस श्रमण के भक्तप्रत्याख्यान को सविचार५७ कहा जाता | वह संथारा मृत्यु पर्यन्त के लिए नहीं होता, जिस परिस्थिति के है। आचार्य ने इस संबंध में चालीस (४०) प्रकरणों के द्वारा कारण संथारा किया जाता है वह परिस्थिति यदि समाप्त हो जाती विस्तार से विश्लेषण किया है। मृत्यु की आकस्मिक संभावना होने | है, आपत्ति के बादल छंट जाते हैं तो उस व्रत की मर्यादा भी पूर्ण पर जो साधक भक्तप्रत्याख्यान करता है, वह अविचार भक्त | हो जाती है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णन है। भगवान् महावीर प्रत्याख्यान५८ है! अविचार भक्त प्रत्याख्यान के (१) निरुद्ध (२) राजगृह नगर के बाहर पधारे। श्रावक सुदर्शन उनके दर्शन हेतु निरुद्धतर और (३) परम् निरुद्ध ये तीन प्रकार हैं।
प्रस्थित हुआ। अर्जुन मालाकार, जो यक्ष से आविष्ट था, वह मुद्गर घुमाता हुआ श्रेष्ठी सुदर्शन की ओर लपका। उस समय सुदर्शन
श्रेष्ठी ने सागारी संथारा किया और उस कष्ट से मुक्त होने पर जिस श्रमण के शरीर में व्याधि हो और वह आतंक से पीड़ित
उसने पुनः अपनी सम्पूर्ण क्रियाएं कीं। यह सामान्य संथारा है। इसमें हो, जिसके पैरों की शक्ति क्षीण हो चुकी हो, दूसरे गण में जाने में
आगार रहता है।६७ असमर्थ हो, उस श्रमण का भक्तप्रत्याख्यान निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान कहलाता है।५९ जब तक उसके शरीर में शक्ति का संथारा पोरसी संचार हो, वह स्वयं अपना कार्य करने में सक्षम हो वहाँ तक वह जैन परम्परा में सोते समय जब मानव की चेतना शक्ति धुंधली अपना कार्य स्वयं करे और जब वह असमर्थ हो जाये तब अन्य पड़ जाती है, शरीर निश्चेष्ट हो जाता है, वह एक प्रकार से श्रमण उसकी शुश्रूषा करें।६० पैरों का सामर्थ्य क्षीण हो जाने से । अल्पकालीन मृत्यु ही है। उस समय साधक अपनी रक्षा का किंचित् 6000 दूसरे गण में जाने में असमर्थ होने के कारण श्रमण अपने गण में मात्र भी प्रयास नहीं कर सकता, अतः प्रतिदिन रात्रि में सोते समय
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सागारी संथारा करने का विधान है, जिसे “संथारा पोरसी" कहते अन्य पदार्थ में बन्धन की अनुभूति होती है। वह बन्धन को हैं। सोने के पश्चात् पता नहीं प्रात:काल सुखपूर्वक उठ सकेगा या । समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है। नहीं। इसीलिए प्रतिपल प्रतिक्षण सावधान रहने का शास्त्रकारों ने
या महाराष्ट्र के संत कवि ने कहा-"माझे मरण पाही एले डोला सन्देश दिया है। मोह की प्रबलता में मृत्यु को न भूला जाये। उसे ।
तो झाला सोहला अनुपम्य"_"मैंने अपनी आँखों से मृत्यु को देख प्रतिक्षण याद रखा जाये। ममता भाव से मुड़कर समता भाव में ।
लिया, यह अनुपम महोत्सव है।" रमण किया जाये, बाह्य जगत् से हटकर अन्तर् जगत् में प्रवेश किया जाए। सोते समय यदि विशुद्ध भावना रहती है तो स्वप्न में
वह मृत्यु को आमंत्रित करता है, पर मृत्यु से भयभीत नहीं भी विचार विशुद्ध रहते हैं। इसीलिए साधक सोते समय "संथारा
होता। जैसे कबूतर पर बिल्ली झपटती है तब कबूतर आँखें मूंद पोरसी" करता है।
लेता है और वह सोचता है, अब बिल्ली झपटेगी नहीं। आँखें
मूंद लेने मात्र से बिल्ली कबूतर को छोड़ती नहीं है। इसी तरह संथारा या पंडितमरण एक महान कला है। मृत्यु को मित्र
यमराज भी मृत्यु भी भुला देने वाले को छोड़ता नहीं है। वह तो मानकर साधक उसके स्वागत की तैयारी करता है। वह अपने
अपना हमला करता ही है। अतः साधक कायर की भाँति मुँह नहीं जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है। उसका मन स्फटिक की तरह
मोड़ता अपितु वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए मृत्यु का स्वागत उस समय निर्मल होता है। पण्डितमरण को समाधिमरण भी कहते
करता है। हैं। संथारा ग्रहण करने के पूर्व साधक संलेखना करता है। संलेखना। संथारे के पूर्व की भूमिका है। संलेखना के पश्चात् जो संथारा किया। संलेखना : मृत्यु पर विजय पाने की कला जाता है, उसमें अधिक निर्मलता और विशुद्धता होती है।
____संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह संलेखना का महत्व
जीवन-शुद्धि और मरण शुद्धि की एक प्रक्रिया है। जिस साधक ने PORब श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई
मदन के मद को गलित कर दिया है जो परिग्रह पंक से मुक्त हो
चुका है, सदा सर्वदा आत्म चिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति उस है। श्वेताम्बर परम्परा में “संलेखना" शब्द का प्रयोग हुआ है तो
मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, दिगम्बर परम्परा में सल्लेखना शब्द का। संलेखना व्रतराज है। जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है।
विशिष्ट मनोबल प्राप्त करता है। उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं,
समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा-जैसे कोई वधू डोले जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाये६८ तो
पर बैठकर ससुराल जा रही हो७१ तब उसके मन में अपार आह्लाद उसका जीवन निष्फल हो जाता है। उसकी साधना विराधना में
होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता
होती है। परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहां तक लिखा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति संलेखना और समाधिमरण करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर
संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। बैठता है तो वह संसार में अनंत काल तक परिभ्रमण करता है।६९
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम संलेखना का संलेखना : जीवन की अन्तिम साधना
लक्षण बताया है और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का। आचार्य संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है।
शिवकोटि ने “संलेखना" और समाधिमरण को एक ही अर्थ में संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का
प्रयुक्त किया है। आचार्य उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक
लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का
भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए चलना है। वह मृत्यु का मित्र की तरह आह्वान करता है-मित्र! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है।
मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण क्रिया है। मैंने अगले जन्म के लिए संलेखना क्या शिक्षाव्रत है सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है।७0 संलेखना जीवन की अन्तिम श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें आचार्य आवश्यक साधना है। वह जीवन मंदिर का सुन्दर कलश है। यदि कन्दकन्द ने संलेखना को चौथा व्रत माना है।७२ आचार्य कुन्दकन्द संलेखना के बिना साधक मृत्यु का वरण करता है तो उसे कदापि
॥ साधक मृत्यु का वरण करता है तो उस कदापि । का अनुसरण करते हुए शिवार्यकोटि, आचार्य देवसेन, आचार्य B.SODS उचित नहीं माना जा सकता है।
जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सं लेखना को एक दृष्टि से स्वेच्छा मृत्यु कहा जा सकता है। सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को 2000 DD जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब साधक को शरीर और श्रावक के द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। उन्होंने संलेखना को अलग
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{ संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
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नियम धर्म के रूप में प्रतिपादन किया है। आचार्य समन्तभद्र, जिस संलेखना में प्रीति का अभाव है, वह संलेखना सम्यक् पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, विद्यानन्दी, आचार्य सोमदेव, संलेखना नहीं है। जब कभी मृत्यु पीछा करती है, उस समय अमितगति, स्वामि कार्तिकय प्रभृति अनेक आचार्यों ने आचार्य सामान्य प्राणी की स्थिति अत्यन्त कातर होती है, जैसे शिकारी उमास्वाति के कथन का समर्थन किया है। इस सभी आचार्यों ने एक द्वारा पीछा करने पर हरिणी घबरा जाती है, इसके विपरीत वीर स्वर से इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षाव्रतों में योद्धा पीछा करने वाले योद्धाओं से घबराता नहीं, आगे बढ़कर संलेखना को नहीं गिनना चाहिए क्योंकि शिक्षाव्रतों में अभ्यास उनसे जूझता है, वह जैसे-तैसे जीवन जीना पसन्द नहीं करता, किया जाता है। जबकि संलेखना मृत्यु का समय उपस्थित होने । किन्तु दुर्गुणों को नष्ट कर जीवन जीना चाहता है। एक क्षण भी पर स्वीकार की जाती है, उस समय अभ्यास के लिए अवकाश ही जीऊँ, किन्तु प्रकाश करते हुए जीऊँ-यही उसके अन्तहृदय की कहाँ है? यदि द्वादश व्रतों में संलेखना को गिनेंगे तो फिर एकादश । आवाज होती है। जो साधक जीवन के रहस्य को नहीं पहचानता है प्रतिमाओं को धारण करने का अवसर ही कहाँ रहेगा, इसलिए और न मृत्यु के रहस्य को ही पहचानता है, उसका निस्तेज जीवन उमास्वाति का मानना उचित है।
| एक प्रकार से व्यक्तित्व का मरण ही है।८४ । श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य और आगमेतर साहित्य में कहीं संलेखना के साथ मारणांतिक विशेषण प्रयुक्त होता है। इससे पर भी संलेखना को द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। इसलिए अन्य तपःकर्म से संलेखना का पार्थक्य और वैशिष्ट्य परिज्ञात समाधिमरण श्रमण के लिए और संलेखना गृहस्थ के लिए है। यह होता है। कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगम साहित्य में अनेक श्रमण
काय संलखना को बाह्य संलेखना कहते हैं और कषाय श्रमणियों के द्वारा संलेखना ग्रहण करने के प्रमाण समुपलब्ध
संलेखना को आभ्यन्तर संलेखना। बाह्य संलेखना में आभ्यन्तर होते हैं।
कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को वह शनैः-शनैः कृश करता संलेखना की व्याख्या
है। इस प्रकार संलेखना में कषाय क्षीण होने से तन क्षीण होने पर आचार्य अभयदेव ने “स्थानांगवृत्ति" में७३ संलेखना की ।
भी मन में अपूर्व आनंद रहता है। परिभाषा करते हुए लिखा है-जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं संलेखना में शरीर और कषाय को साधक इतना कृश कर कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है, वह संलेखना है। लेता है, जिससे उसके अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की कामना "ज्ञातासूत्र" की वृत्ति७४ में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। नहीं होती। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है। "प्रवचनसारोद्धार" में७५ शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है, पर आयुकर्म क्षीण न हो और को संलेखना कहा है।" निशीथचूर्णि व अन्य स्थलों पर संलेखना का वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है, जैसे दीपक में अर्थ छीलना-कुश करना किया है।७६ शरीर को कश करना तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है वैसे द्रव्य-संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव-संलेखना है। ही आयुष्यकर्म और देह एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण
होता है। संलेखना यह “सत्" और "लेखना" इन दोनों के संयोग से । बना है। सत् का अर्थ है सम्यक् और "लेखना" का अर्थ है कश संलेखना कब करनी चाहिए करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना। जैन दृष्टि से काय और आचार्य समन्तभद्र८५ ने लिखा है प्रतीकार रहित असाध्य दशा कषाय को कर्मबन्धन का मूल कारण माना है, इसीलिए उसे कृश । को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा व रुग्ण स्थिति में या अन्य करना ही संलेखना है। आचार्य पूज्यपाद ने७७ और आचार्य किसी कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है। श्रुतसागर ने७८ काय व कषाय को कुश करने पर बल दिया। श्री
मूलाराधना में८६ संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए चामुण्डराय ने “चारित्रसार" में लिखा है-बाहरी शरीर का और
सात मुख्य कारण दिए हैंभीतरी कषायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना संलेखना है।७९
१. दुश्चिकित्स्यव्याधि : संयम को परित्याग किये बिना जिस
व्याधि का उपचार करना संभव नहीं हो, ऐसी स्थिति पूर्व पृष्ठों में हमने मरण के दो भेद बताये हैं-नित्यमरण और
समुत्पन्न होने पर। तद्भवमरण। तद्भवमरण को सुधारने के लिए संलेखना का वर्णन है। आचार्य उमास्वाति ने लिखा-मृत्यु काल आने पर साधक को वृद्धावस्था : जो श्रमण जीवन की साधना करने में प्रीतिपूर्वक संलेखना धारण करनी चाहिए।८० आचार्य पूज्यपाद,८१
बाधक हो। आचार्य अकलंक८२ और आचार्य श्रुतसागर८३ ने मारणांतिकी ३. मानव, देव और तिर्यंच संबंधी कठिन उपसर्ग उपस्थित होने संलेखना जोषिता" में जोषिता का अर्थ "प्रीतिपूर्वक" किया है। पर।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ४. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये राजा परीक्षित के भी प्रायोपवेशन ग्रहण करने का वर्णन जाते हों।
श्रीमद् भागवत् में मिलता है।९५ महाभारत, राजतरंगिणी और ५. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो।
पंचतन्त्र में भी प्रायोपवेशन का उल्लेख संप्राप्त होता है। रामायण में
"प्रायोपवेशन" के स्थान पर "प्रायोपगमन" तथा चरक में ६. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथभ्रष्ट हो जाए।
"प्रायोपयोग" अथवा "प्रायोपेत" शब्द व्यवहृत हुए हैं। श्रीमद् ७. देखने की शक्ति व श्रवणशक्ति और पैर आदि से चलने की भगवद्गीता में मृत्युवरण में योग की प्रधानता स्वीकार की है।९६ शक्ति क्षीण हो जाए।
इस प्रकार वैदिक परम्परा में भी प्रायोपवेशन जीवन की एक इसी प्रकार अन्य कारण भी उपस्थित हो जाने पर साधक अंतिम विशिष्ट साधना रही है। 1080 अनशन का अधिकारी होता है।
आचारांग९७ में संलेखना के संबंध में बताया है कि जब श्रमण वैदिक परम्परा और संलेखना
को यह अनुभव हो कि उसका शरीर ग्लान हो रहा है, वह उसे वैदिक परम्परा में संलेखना के ही अर्थ में “प्रायोपवेशन", |
धारण करने में असमर्थ है, तब वह क्रमशः आहार का संकोच "प्रायोपवेश", "प्रायोपगमन", "प्रायोपवशानका" शब्द व्यवहृत
करे, आहार संकोच करके शरीर को कृश करे। हुए हैं जिनका अर्थ है वह अनशन व्रत जो प्राण त्यागने के लिए संलेखना की विधि किया जाये, अन्न जल त्याग करके बैठना।८७ बी. एस. आप्टे के
संलेखना का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का माना गया है। शब्दकोश में “प्रायोपवेशन" में अन्न जल त्याग की स्थिति।
मध्यमकाल एक वर्ष का है और जघन्य काल छः महीने का।९८ और मृत्यु की प्रतीक्षा पर बल दिया है।८८ पर मानसिक स्थिति के
"प्रवचनसारोद्धार" में उत्कृष्ट संलेखना का स्वरूप प्रतिपादित करते संबंध में कुछ भी चिन्तन नहीं है। जबकि संलेखना में केवल
हुए बताया है कि प्रथम चार वर्षों में चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदि तप अन्न-जल त्यागना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्न जल के
की उत्कृष्ट साधना करता रहे और पारणे में शुद्ध तथा योग्य त्याग के साथ विवेक, संयम और शुभसंकल्प आदि अत्यन्त
आहार ग्रहण करे। अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध प्रकार आवश्यक है। "प्रायोपगमन" या "पादोपगमन" एक सदृश
से विचित्र तप करता रहे और पारणे में रसनियूंढ़ विगय का शब्द होने पर भी दोनों में गहन अंतर है। प्रथम का सीधा
परित्याग कर दे। इस तरह आठ वर्ष तक तपः साधना करता रहे। संबंध शरीर से है तो दूसरे का संबंध मानसिक विशुद्धि से है।
नौवें और दसवें वर्ष में उपवास करे तथा पारणे में आयंबिल तप मानसिक विशुद्धि होने पर शारीरिक स्थिरता, स्वाभाविक रूप से
की साधना करे। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः मास में सिर्फ चतुर्थ आ सकती है।
भक्त, छट्ठ भक्त तप के साथ तप करे और पारणे में आयंबिल 9 00 वैदिक पुराणों में प्रायोपवेशन की विधि का उल्लेख है। मानव तप की साधना करें तथा आयंबिल में भी ऊनोदरी तप करें। अगले से जब किसी प्रकार का कोई महान पाप कार्य हो जाए या
छ: माह में उपवास, छट्ठ भक्त, अष्टम भक्त, प्रभृति तप करे किन्तु दुश्चिकित्स्य महारोग के उत्पीड़ित होने से देह के विनाश का समय पारणे में आयंबिल तप करना आवश्यक है। इन छ: माह में उपस्थित हो जाये, तब ब्रह्मत्व की उपलब्धि के लिए या स्वर्ग आदि आयंबिल तप में ऊनोदरी तप करने का विधान नहीं है।९९ के लिए प्रदीप्त अग्नि में प्रवेश करें अथवा अनशन से देह का
मा संलेखना के बारहवें वर्ष के संबंध में विभिन्न आचार्यों के परित्याग करें। प्रस्तुत अधिकार सभी वर्णवालों के लिए है। इस
विभिन्न मत रहे हैं। आचार्य जिनदासगणी महत्तर का अभिमत है कि विधान में पुरुष और नारी का भी भेद नहीं है।८९
बारहवें वर्ष में निरन्तर उष्ण जल के आगार के साथ हायमान प्रायोपवेशन का अर्थ अनशनपूर्वक "मृत्यु का वरण करना" आयंबिल तप करे। जिस आयंबिल में अंतिम क्षण द्वितीय आयंबिल
किया गया है।९० प्रायोपवेशन शब्द में दो पद हैं-"प्राय" और । के आदि क्षण से मिल जाता है वह कोडीसहियं आयंबिल कहलाता Sasha "उपवेशन"। "प्राय" का अर्थ "मरण के लिए११ अनशन" और। है।900 हायमान से तात्पर्य है निरन्तर भोजन और पानी की मात्रा "उपवेशन" का अर्थ है "स्थित होना"।९२
न्यून करते जाना। वर्ष के अन्त में उस स्थिति पर पहुँच जाए कि प्रायोपवेशन किसी तीर्थ स्थान में करने का उल्लेख प्राप्त होता
एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण किया जाए। प्रवचनहै। महाकवि कालिदास ने तो रघुवंश में स्पष्ट कहा है-“योगेनान्ते
सारोद्धार की वृत्ति में भी प्रस्तुत क्रम का ही प्रतिपादन किया तनुत्यजां।९३ वाल्मीकि रामायण में सीता की अन्वेषणा के प्रसंग में
गया है। प्रायोपवेशन का वर्णन प्राप्त होता है। जब सुग्रीव द्वारा भेजे गये बारहवें वर्ष में भोजन करते हुए प्रतिदिन एक-एक कवल कम वानर सीता की अन्वेषणा करने में सफल न हो सके तब अंगद ने करना चाहिए। एक-एक कवल कम करते-करते जब एक कवल उनसे कहा कि हमें प्रायोपवेशन करना चाहिए।९४
आहार आ जाए तब एक-एक दाना कम करते हुए अंतिम चरण में
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| संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
६४३ । एक दाने को ही ग्रहण करें।१०१ इस प्रकार अनशन की स्थिति का त्याग किया जाता है। ग्यारहवें वर्ष में केवल आयंबिल किया पहुँचने पर साधक फिर पादपोपगमन अथवा इंगिणी मरण अनशन जाता है। बारहवें वर्ष में प्रथम छ: माह में अविकृष्ट तप, उपवास, व्रत ग्रहण कर समाधिमरण को प्राप्त होवे।
बेला आदि किया जाता है।११६ बारहवें वर्ष के द्वितीय छः माह मेंEEDS उत्तराध्ययन वृत्ति के१०२ अनुसार संलेखना का क्रम इस
विकृष्टतम तेला, चौला आदि तप किए जाते हैं। प्रकार है। प्रथम चार वर्ष में विकृति परित्याग अथवा आयंबिल, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में संलेखना के द्वितीय चार वर्ष में विचित्र तप, उपवास, छट्ठ आदि पारणे में । विषय में यत्किंचित् मतभेद है पर दोनों ही परम्पराओं का तात्पर्य 265069 यथेष्ट भोजन ०३ ग्रहण कर सकता है। नौवे और दसवें वर्ष में एक सदृश है। मूलाराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा हैएकान्तर उपवास और पारणे में आयंबिल किया जाता है। ग्यारहवें संलेखना का जो क्रम प्रतिपादित किया गया है, वही क्रम पूर्ण रूप वर्ष के प्रथम छः माह में अष्टम, दशम, द्वादश भक्त आदि की। से निश्चित हो, यह बात नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और शारीरिक तपस्या की जाती है, जिसे विकृष्ट कहा है। 0४ ग्यारहवें वर्ष में | संस्थान आदि की दृष्टि से उस क्रम में परिवर्तन भी किया जा पारणे के दिन आयंबिल तप किया जाता है। प्रथम छ: माह में | सकता है।११७ आयंबिल में ऊनोदरी तप करते हैं।१०५ और द्वितीय छः माह में ।
संलेखना में तपविधि का प्रतिपादन किया गया है, उससे यहO RDI आयंबिल के समय भर पेट आहार ग्रहण किया जाता है।१०६
नहीं समझना चाहिए कि तप ही संलेखना है। तप के साथ कषायों बारहवें वर्ष में कोटि-सहित आयंबिल अर्थात् निरन्तर आयंबिल
की मन्दता आवश्यक है। विगयों से निवृत्ति अनिवार्य है। तपः कर्म किया जाता है या प्रथम दिन आयंबिल और दूसरे दिन अन्य कोई
के साथ ही अप्रशस्त भावनाओं का परित्याग और प्रशस्त भावनाओं तप किया जाता है, पुनः तीसरे दिन आयंबिल किया जाता है।१०७
का चिन्तन परमावश्यक है। बारहवें वर्ष के अन्त में अर्धमासिक या मासिक अनशन भक्त, परिज्ञा आदि किया जाता है।१०८
आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि संलेखना व्रत ग्रहण करने के 6000
पूर्व संलेखना व्रतधारी को विचारों की विशुद्धि के लिए सभी जिनदास गणि क्षमाश्रमण के अभिमतानुसार संलेखना के सांसारिक संबंधों से संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए। यदि किसी के बारहवें वर्ष में धीरे-धीरे आहार की मात्रा न्यून की जाती है,
प्रति मन में आक्रोश हो तो उससे क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। जिससे आहार और आयु एक साथ पूर्ण हो सकें। उस वर्ष अन्तिम | मानसिक शान्ति के लिए साधक को सबसे पहले सद्गुरु के समक्ष 3000 चार महीनों में मुख-यन्त्र विसंवादी न हो अर्थात् नमस्कार महामंत्र निःशल्य होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना करते समय आदि के जप करने में असमर्थ न हो जाए, एतदर्थ कुछ समय के | मन में किंचित् मात्र भी संकोच नहीं रखना चाहिए। अपने जीवन में लिए मुँह में तेल भरकर रखा जा सकता है।१०९
तन से, मन से और वचन से जो पापकृत्य किए हों, करवाये हों या दिगम्बर आचार्य शिवकोटि ने अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी,
करने की प्रेरणा दी हो उनकी आलोचना कर हृदय को विशुद्ध रस-परित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता इन छ: बाह्य तपों को बाह्य
बनाना चाहिए। यदि आचार्य या सद्गुरु का अभाव हो तो अपने संलेखना का साधन माना है।११० संलेखना का दूसरा क्रम यह भी
दोषों को बहुश्रुत श्रावकों एवं साधर्मी भाइयों के समक्ष प्रकट कर है कि प्रथम दिन उपवास और द्वितीय दिन वृत्तिपरिसंख्यान तप
देना चाहिए। पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए।११८ किया जाए।१११ बारह प्रकार की जो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं, उन्हें भी आचार्य वीरनन्दी ने अपने "आचारसार"११९ नामक ग्रन्थ में संलेखना का साधन माना गया है।११२
लिखा है कि साधक को संलेखना की सफलता के लिए योग्य स्थान काय संलेखना के इन विविध विकल्पों में आयंबिल तप उत्कृष्ट
का चुनाव करना चाहिए जहाँ के राजा के मन में धार्मिक भावना साधन है। संलेखना करने वाला साधक छट्ठ अष्टम, दशम, द्वादश
J हो, जहाँ की प्रजा के अन्तर्मानस में धर्म और आचार्य के प्रति आदि विविध तप करके पारणे में बहुत ही परिमित आहार ग्रहण
गहरी निष्ठा हो, जहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से सुखी और DDDA करे, या तो पारणे में आयंबिल करे अथवा कांजी का आहार ग्रहण
समृद्ध हों, जहाँ का वातावरण तपः साधना के लिए व्यवधानकारी करें।११३
न हो। साथ ही साधक को अपने शरीर तथा चेतन-अचेतन किसी 400000
भी वस्तु के प्रति मोह ममता न हो। यहाँ तक कि अपने शिष्यों के race मूलाराधना में भक्त परिज्ञा का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का प्रति भी मन में किंचित् मात्र भी आसक्ति न हो। यह परीषहों को माना है। उनकी दृष्टि से प्रथम चार वर्षों में विचित्र कायक्लेशों सहन करने में सक्षम हो। संलेखना की अवधि में पहले ठोस पदार्थों के द्वारा तन को कृश किया जाता है। उसमें कोई क्रम नहीं होता। का आहार में उपयोग करें। उसके पश्चात् पेय पदार्थ ग्रहण करे। Read दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को कृश आहार उस प्रकार का ग्रहण करना चाहिए जिससे शरीर के वात,05000 किया जाता है।११५ नौवें और दसवें वर्ष में आयंबिल और विगयों । पित्त, कफ विक्षब्ध न हों।
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संलेखना ग्रहण करने के पूर्व इस बात की जानकारी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है। यदि शरीर में व्याधि हो गई हो पर जीवन की अवधि लम्बी हो तो साधक को संलेखना ग्रहण करने का विधान नहीं है।
दिगम्बर परम्परा के तेजस्वी आचार्य समन्तभद्र को "भस्म रोग" हो गया और उससे वे अत्यन्त पीड़ित रहने लगे। उन्होंने अपने गुरु से संलेखना की अनुमति चाही पर उनके सद्गुरुदेव ने अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्होंने देखा कि इनका आयु बल अधिक हैं, इनसे जिन शासन की प्रभावना होगी।
संथारे की विधि
संलेखना के पश्चात् संथारा किया जाता है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की दृष्टि से संथारा ग्रहण विधि इस प्रकार है-सर्वप्रथम किसी निरवद्य शुद्ध स्थान में अपना आसन जमाए उसके पश्चात् वह दर्भ, घास पराल आदि में से किसी का संधारा बिछौना बिछाए फिर पूर्व या उत्तर दिशा में मुँह करके बैठे। उसके पश्चात् "अह भंते! अपच्छिम मारणातिय संलेहणा सणां आराहणाए आरोहेमि" "हे भगवान् ! अब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन एवं आराधना करता हूँ"-इस प्रकार प्रतिज्ञा ग्रहण करे। उसके बाद नमस्कार महामंत्र तीन बार, वन्दना, इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ व उसके पश्चात् ऊपर का पाठ बोलकर तीर्थंकर भगवान् की साक्षी से इस व्रत को ग्रहण करे। तदुपरांत निवेदन करे कि "भगवन् ! मैं अभी से सागारी या आगाररहित संथारा-भक्तप्रत्याख्यान करता हूँ-चारों आहार का त्याग करता हूँ। अठारह पापस्थानों का त्याग करता हूँ। मनोज्ञ, इष्ट, कान्त, प्रिय, विश्वसनीय, आदेय, अनुमत, बहुमत, भाण्डकरण्डक समान, शीत-उष्ण, क्षुधा पिपासा आदि मिटाकर सदा जतन किया हुआ, हत्यारे, चोरादि से, डांस मच्छर आदि से रक्षा किया हुआ, व्याधि, पित्त, कफ, वात, सन्निपातिक आदि से भी बचाया हुआ विविध प्रकार के स्पर्शो से सुरक्षित, श्वासोच्छ्वास की सुरक्षा प्राप्त इस शरीर पर मैंने जो अब तक मोह ममत्व किया था, उसे अब मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ, मुझे कोई भी चिन्ता न होगी। क्योंकि अब यह शरीर धर्म पालन करने में समर्थ न रहा, बोझ रूप हो गया, आतंकित या अत्यन्त जीर्ण, अशक्त हो गया।"
उपासक दशांग में आनंद श्रमणोपासक बहुत वर्षों तक गृहस्थ जीवन में सुखों का उपभोग करते रहे। जीवन की सान्ध्यबेला में वे स्वयं पोषधशाला में जाते हैं और दब्द संचारयं संबरई दर्भ का संथारा बिछाते हैं। धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर विविध तप कार्यों द्वारा उपासक प्रतिमाओं की आराधना करते हुए शरीर को कृश करते हैं। जिसे हम संथारा कहते हैं, वह अनशन का द्योतक है। आगम साहित्य में संथारा का अर्थ "दर्भ का बिछौना" है। "संलेखना " शब्द का प्रयोग "मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता" इस सूत्र रूप में किया जाता है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
" प्रवचनसारोद्धार" में लिखा है-साधक द्वादशवर्षीय उत्कृष्ट संलेखना करके तदनन्तर कन्दरा, पर्वत, गुफा या किसी निर्दोष स्थान पर जाकर पादपोपगमन या भक्तप्रत्याख्यान या इंगिणीमरण को धारण करे । १२०
सारांश यह है कि संलेखना के पश्चात् संथारा ग्रहण किया जाता था। यदि कोई आकस्मिक कारण आ जाता तो संलेखना के बिना भी संथारा ग्रहण कर समाधिमरण को वरण किया जाता था। संथारा-संलेखना का महत्व
संथारा-संलेखना करने वाला साधक धर्मरूपी अमृत को पान करने के कारण संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा निःश्रेयस् और अभ्युदय के अपरिमित सुखों को प्राप्त करता है। १२१ पंडित आशाधरजी ने कहा है-जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है, उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव में जाने के लिए साथ ले लिया है। इस जीव ने अनन्त बार मरण प्राप्त किया किन्तु समाधि सहित पुण्यमरण नहीं हुआ। यदि समाधि सहित पुण्यमरण होता तो यह आत्मा संसाररूपी पिंजड़े में अभी भी बन्द होकर नहीं रहता । १२२ भगवती आराधना १२३ में कहा है- जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है, वह सात आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। आचार्य समन्तभद्र ने १२४ कहा है-जीवन में आचरित तपों का फल अन्त समय में गृहीत संलेखना है।
" मृत्यु महोत्सव" में लिखा है जो महान् फल बड़े-बड़े व्रती, संयमी आदि को कायक्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण करने से प्राप्त नहीं होता वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है ।१२५
"गोम्मटसार १२६ में आचार्य नेमिचन्द्र ने शरीर के त्याग करने के तीन प्रकार बताए हैं-च्युत, च्यावित और व्यक्त । अपने आप आयु समाप्त होने पर शरीर छूटता है वह च्युत है, विषभक्षण, रक्तक्षय, धातुक्षय, शास्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जल प्रवेश प्रभृति विभिन्न निमित्तों से जो शरीर छूटता है, यह व्यायित है। रोग आदि समुत्पन्न होने पर तथा असाध्य मारणांतिक कष्ट व उपसर्ग आदि उपस्थित होने पर विवेकयुक्त समभावपूर्वक जो शरीर त्याग किया जाता है, वह त्यक्त है । त्यक्त शरीर ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें साधक पूर्ण जागृत रहता है। उसके मन में संक्लेश नहीं होता। इसी मरण को संथारा, समाधिमरण, पंडितमरण, संलेखनामरण प्रभृति विविध नामों से कहा गया है।
आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविरों का वर्णन है। वे संथारा-संलेखना करने वाले साधकों के साथ पर्वत आदि पर जाते हैं और जब तक संथारा करने वाले का संथारा पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते। १२७
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| संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना१२८ में भी इस प्रकार है, उन विज्ञों ने यह आक्षेप उठाया है कि समाधिमरण आत्महत्या के साधकों का विस्तार से वर्णन है।
है। पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता 0
है कि समाधिमरण आत्म हत्या नहीं है। जिनका जीवन भौतिकता से संलेखना के पांच अतिचार
ग्रसित है, जो जरा सा शारीरिक कष्ट सहन नहीं कर सकते, जिन्हें १. इहलोकाशंसा प्रयोग : धन, परिवार आदि इस लोक संबंधी
आत्मोद्धार का परिज्ञान नहीं है, वे मृत्यु से भयभीत होते हैं, पर किसी वस्तु की आकांक्षा करना।
जिन्हें आत्म तत्व का परिज्ञान है, जिन्हें दृढ़ विश्वास है कि आत्मा २. परलोकाशंसा प्रयोग : स्वर्ग-सुख आदि परलोक से संबंध । और देह दोनों पृथक हैं, उन्हें देहत्याग के समय किंचित् मात्र भी रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना।
चिन्ता नहीं होती जैसे एक यात्री को सराय छोड़ते समय मन में ३. जीविताशंसा प्रयोग : जीवन की आकांक्षा करना।
विचार नहीं आता। ४. मरणाशंसा प्रयोग : कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की
_समाधिमरण में मरने की किंचित् मात्र भी इच्छा नहीं होती, आकांक्षा करना।
इसलिए वह आत्महत्या नहीं है। समाधिमरण के समय जो आहारादि
का परित्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं ५. कामभोगाशंसा प्रयोग : अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में
होती, पर देह पोषण की इच्छा का अभाव होता है। आहार के काम-भोगों की आकांक्षा करना।
परित्याग से मृत्यु हो तो सकती है, किन्तु उस साधक को मृत्यु की सावधानी रखने पर भी प्रमाद या अज्ञान के कारण जिन दोषों । इच्छा नहीं है। किसी व्यक्ति के शरीर में यदि कोई फोड़ा हो चुका के लगने की संभावना है उन्हें अतिचार कहा है। साधक इन दोषों । है, डॉ. उसकी शल्य चिकित्सा करता है। शल्य चिकित्सा से उसे से बचने का प्रयास करता है।
अपार वेदना होती है। किन्तु वह शल्यचिकित्सा रुग्ण व्यक्ति को जैन परम्परा की तरह ही तथागत बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा
कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु उसके कष्ट के प्रतीकार के लिए है, और मृत्यु की इच्छा को अनैतिक माना है। बुद्ध की दृष्टि से
वैसे ही संथारा-संलेखना की जो क्रिया है वह मृत्यु के लिए नहीं पर S E भवतृष्णा और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा का
उसके प्रतीकार के लिए है।१३० द्योतक है। जब तक ये आशाएँ और तृष्णाएँ चिदाकाश में मण्डराती एक रुग्ण व्यक्ति है। डॉक्टर शल्य चिकित्सा के द्वारा उसकी रहती हैं, वहाँ तक पूर्ण नैतिकता नहीं आ सकती। इसलिए इनसे व्याधि को नष्ट करने का प्रयास करता है। शल्य चिकित्सा करते 2000 बचना आवश्यक है।
समय डॉक्टर प्रबल प्रयास करता है कि रुग्ण व्यक्ति बच जाए। साधक को न जीने की इच्छा करनी चाहिए, न मरने की इच्छा
उसके प्रयत्न के बावजूद भी यदि रुग्ण व्यक्ति मर जाता है तो Pldhana करनी चाहिए क्योंकि जीने की इच्छा में प्राणों के प्रति मोह
डॉक्टर हत्यारा नहीं कहलाता। इसी तरह संथारा-संलेखना में होने 500
वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं हो सकती। शल्य चिकित्सा दैहिक जीवन झलकता है तो मरने की इच्छा में जीने के प्रति अनिच्छा व्यक्त होती
की सुरक्षा के लिए है और संलेखना-संथारा आध्यात्मिक जीवन की है। साधक को जीने और मरने के प्रति अनासक्त और निर्मोही होना चाहिए। एतदर्थ ही भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है
सुरक्षा के लिए है। साधक जीवन और मरण दोनों ही विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त कितने ही समालोचक जैन दर्शन पर आक्षेप लगाते हुए कहते बनकर रहे१२९ और सदा आत्मभाव में स्थित रहे। वर्तमान जीवन हैं कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वह जीवन से के कष्टों से मुक्त होने के लिए और स्वर्ग के रंगीन सुखों के प्राप्त इनकार करता है। पर उनकी यह समालोचना भ्रान्त है। जैन दर्शन करने की कमनीय कल्पना से जीवन रूपी डोरी को काटना एक जीवन के मिथ्यामोह से इनकार अवश्य करता है। उसका स्पष्ट प्रकार से आत्महत्या है। साधक के अन्तर्मानस में न लोभ का मन्तव्य है कि यदि जीवन जीने में कोई विशिष्ट लाभ है, तुम्हारा साम्राज्य होता है, न भय की विभीषिकाएं होती हैं, न मन में जीवन स्व और परहित की साधना के लिए उपयोगी है तो तुम्हारा निराशा के बादल मंडराते हैं और न आत्म ग्लानि ही होती है। वह
कर्तव्य है कि सभी प्रकार से जीवन की सुरक्षा करो। श्रुतकेवली इन सभी द्वन्द्वों से विमुक्त होकर तथा निर्द्वन्द्व बनकर साधना करता
भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में साधक को कहा-"तुम्हारा शरीर न है। उसके मन में न आहार के प्रति आसक्ति होती है और न
रहेगा तो तुम संयम की साधना, तप की आराधना और मनो-मंथन शारीरिक विभूषा के प्रति ही। उसकी साधना एकान्त निर्जरा के
किस प्रकार कर सकोगे? संयम साधना के लिए तुम्हें देह की लिए होती है।
सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उसका प्रतिपालन आवश्यक
ही नहीं, अनिवार्य भी है।"१३१ संयमी साधक के शरीर की समस्त संलेखना आत्महत्या नहीं है
क्रियाएँ संयम के लिए हैं। जिस शरीर से संयम की विराधना होती जिन विज्ञों को समाधिमरण के संबंध में सही जानकारी नहीं हो, मन में संक्लेश पैदा होता हो वह जीवन किस काम का?
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जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषियों का यह स्पष्ट मंतव्य रहा है कि वही जीवन आवश्यक है जिससे संयमी जीवन की शुद्धि होती है, उस जीवन की सतत् रक्षा करनी चाहिए। इसके विपरीत जिस जीवन से संयमी जीवन धुंधला होता हो उस जीवन से तो मरना अच्छा है। इस दृष्टि से जैन दर्शन जीवन से इनकार करता है किन्तु प्रकाश करते हुए, संयम की सौरभ फैलाते हुए जीवन से इनकार नहीं करता।
संलेखना व संथारे के द्वारा जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसमें और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है, जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। वह संघर्षों से ऊबकर जीवन से पलायन करना चाहता है या किसी से अपमान होने पर, कलह होने पर, आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर, पारस्परिक मनोमालिन्य होने पर, किसी के द्वारा तीखे व्यंग कसने पर, वह कुएं में कूदकर, समुद्र में गिरकर, पैट्रोल और तेल छिड़कर, ट्रेन के नीचे आकर, विष का प्रयोग कर फाँसी लगाकर या किसी शस्त्र से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है। आत्महत्या में वीरता नहीं, किन्तु कायरता है, जीवन से भागने का प्रयास है। आत्महत्या के मूल में भय और कामनाएं रही हुई हैं। उसमें कषाय और वासना की तीव्रता हैउत्तेजना है। पर समाधिमरण में संघर्षों से साधक भयभीत नहीं होता। उसके मन में कषाय, वासना और इच्छाएं नहीं होतीं। जब साधक के सामने एक ओर देह और दूसरी ओर संयम रक्षा इन दो में से एक को चुनने का प्रश्न आता है तो साधक उस समय देह को नश्वर समझकर संयम की रक्षा के लिए संयम के पथ को अपनाता है।
जीवन की सान्ध्य वेला में जब उसे मृत्यु सामने खड़ी दिखाई देती है, वह निर्भय होकर उस मृत्यु को स्वीकार करना चाहता है। उसकी स्वीकृति में अपूर्व प्रसन्नता होती है। वह सोचता है कि यह आत्मा अनन्तकाल से कर्मजाल में फँसी हुई है। उस जाल को तोड़ने का मुझे अपूर्व अवसर मिला है। वह सर्वतन्त्र स्वतंत्र होने के लिएअविनश्वर आनंद को प्राप्त करने के लिए शरीर को त्यागता है। समाधिमरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के द्वारा यह चिन्तन करता है कि कर्मबन्धन का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण ही मैं देह और आत्मा को एक मानता रहा हूँ। जैसे चना
और चने का छिलका पृथक् हैं वैसे ही आत्मा और देह पृथक् हैं। मिथ्यात्व से ही पर पदार्थों में रति होती है। ज्ञान और देह पृथक हैं। मिथ्यात्व से ही पर पदार्थों में रति होती है। ज्ञान आत्मा का निजगुण है। मिथ्यात्व के कारण वह निजगुण प्रकट नहीं हो सका है। आत्मा सही ज्ञान के अभाव में अनन्त काल से विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। जब ज्ञान का पूर्ण निखार होगा तब मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा।
इस प्रकार वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान से आत्मा और देह की पृथक्ता समझकर चारित्र और तप की आराधना करता है। उसकी
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आराधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति और भय नहीं होता। इसलिए समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। संलेखना की विशेषताएं
संक्षेप में संलेखना व समाधिमरण की निम्न विशेषताएं हैं१. जैन धर्म की दृष्टि से शरीर और आत्मा ये दोनों पृथक
पृथक् हैं। जैसे-मोसम्बी और उसके छिलके। २. आत्मा निश्चय नय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है, वह
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनंत आनंद से युक्त है। जो शरीर हमें प्राप्त हुआ है, उसका मूल कर्म है।
कर्म के कारण ही पुनर्जन्म है, मृत्यु है, व्याधियाँ हैं। ३. दैनन्दिन जीवन में जो धार्मिक साधना कर तप पर बल
दिया गया है, उसका मूल उद्देश्य है आत्मा में जो कर्ममैल है उस मैल को दूर करना। प्रश्न हो सकता है-कर्म आत्मा पर चिपके हुए हैं, फिर शरीर को कष्ट क्यों दिया जाए? उत्तर है-घृत में यदि मलिनता है तो उस मलिनता को नष्ट करने के लिए घृत तो तपाया जाता है, किन्तु घृत अकेला नहीं तपाया जा सकता, वह बरतन के माध्यम से ही तपाया जा सकता है। वैसे ही आत्मा के मैल को नष्ट करने के लिए शरीर को भी तपाया जाता है। यही कारण है कि संलेखना में कषाय के साथ तन को भी कृश किया जाता है। जब शरीर में वृद्धावस्था का प्रकोप हो, रुग्णता हो, अकाल आदि के कारण शरीर के नष्ट होने का प्रसंग उपस्थित हो, उस समय साधक को संलेखना व्रत ग्रहण कर आत्मभाव में स्थिर रहना चाहिए। संलेखना आत्मभाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है। संलेखना व्रत ग्रहण करने वाले को पहले मृत्यु के संबंध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। मृत्यु की जानकारी के लिए श्वेताम्बर आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय
सरलता से जाना जा सकता है। ६. संलेखना करने वाले साधक का मन वासना से मुक्त हो,
उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। ७. संलेखना करने से पूर्व जिनके साथ कभी भी और किसी
भी प्रकार का वैमनस्य हुआ हो उनसे क्षमा याचना कर लेनी चाहिए और दूसरों को क्षमा प्रदान भी कर देनी
चाहिए। ८. संलेखना में तनिक मात्र भी विषम भाव न हो, मन में
समभाव की मंदाकिनी सतत् प्रवाहित रहे।
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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
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९. संलेखना अपनी स्वेच्छा से ग्रहण करनी चाहिए। किसी के जैन आगम साहित्य, उसका व्याख्या साहित्य और जैन कथा
दबाव में आकर अथवा स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति साहित्य इतिहास में संलेखनायुक्त समाधिमरण प्राप्त करने वाले
की इच्छा से संलेखना संथारा नहीं करना चाहिए। हजारों साधक और साधिकाओं का उल्लेख है। तीर्थंकरों से लेकर १०. संलेखना करने वाला साधक मन में यह न सोचे कि
गणधर, आचार्य, उपाध्याय व श्रमण-श्रमणियां तथा गृहस्थ साधक संलेखना-संथारा लम्बे काल तक चले जिससे लोग मेरे
भी समाधिमरण को वरण करने में अत्यन्त आनंद की अनुभूति दर्शन हेतु उपस्थित हो सकें, मेरी प्रशंसा हो और यह भी
करते रहे हैं। न सोचे कि मैं शीघ्र ही मृत्यु को वरण कर लूँ। संलेखना श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी का साधक न जीने की इच्छा करता है, न मरने की। वह समाधिमरण का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। इस तरह सम्पूर्ण जैन तो सदा समभाव में रहकर संलेखना की साधना करता परम्परा समाधिमरण को महत्व देती रही है। है। उसमें न लौकषणा होती है, न वित्तैषणा होती है, न
भगवान महावीर के पश्चात् द्वादश वर्षों के भयंकर दुष्कालों में पुत्रैषणा होती है।
संयम-साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होने लगी तो उन वीर संलेखना आत्म बलिदान नहीं
श्रमणों ने संलेखनायुक्त मरण स्वीकार कर ज्वलन्त आदर्श उपस्थित शैव और शाक्त सम्प्रदायों में पशु बलि की भाँति आत्म
किया। विस्तार भय से हम यहाँ प्रागैतिहासिक काल से आज तक
की सूची नहीं दे रहे हैं। यदि कोई शोधार्थी इस पर कार्य करे तो बलिदान को अत्यधिक महत्व दिया गया है। किन्तु जैन धर्म में उसका किंचित् भी महत्व नहीं है। संलेखनायुक्त समाधिमरण आत्म
उसे बहुत कुछ सामग्री सहज रूप से उपलब्ध हो सकती है। बलिदान नहीं है। आत्म बलिदान और समाधिमरण में बहुत अन्तर संलेखना और आत्मघात में अन्तर है। आत्म बलिदान में भावना की प्रबलता होती है, बिना भावातिरेक
संलेखना और आत्मघात में शरीर त्याग समान रूप से है, पर के आत्म-बलिदान नहीं होता, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक ।
शरीर को कौन, कैसे और क्यों छोड़ रहा है? यह महत्वपूर्ण बात नहीं, किन्तु विवेक व वैराग्य की प्रधानता होती है।
है। संलेखना में वही साधक शरीर का विसर्जन करता है जिसने यदि हम श्रमण जीवन को सूर्य की उपमा से अलंकृत करें तो अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों से जो कह सकते हैं कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करना श्रमण जीवन का
अच्छी तरह से परिचित है, जिसका चिन्तन स्वस्थ, सुचिन्तित है। उदयकाल है, उसके पूर्व की वैराग्य अवस्था साधक जीवन का
"मैं केवल शरीर ही नहीं हूँ, किन्तु मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है। शरीर उषाकाल है। जब साधक उत्कृष्ट तप जप व ज्ञान की साधना
मरणशील है और आत्मा शाश्वत् है। पुद्गल और जीव ये दोनों करता है, उस समय उसकी साधना का मध्याह्न काल होता है और पृथक्-पृथक् हैं। दोनों के अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व हैं। पुद्गल कभी जब साधक संलेखना प्रारंभ करता है, तब उसका सन्ध्याकाल होता
जीव नहीं हो सकता और जीव कभी पुद्गल नहीं हो सकता। है। सूर्योदय के समय पूर्व दिशा मुस्कुराती है, उषा सुन्दरी का दृश्य संलेखना जीव और पुद्गल जो एकमेक हो चुके हैं उसे पृथक् करने अत्यन्त लुभावना होता है। उसी प्रकार सन्ध्या के समय पश्चिम
का एक सुयोजित प्रयास है।" दिशा का दृश्य भी मन को लुभाने वाला होता है। सन्ध्या की संलेखना और आत्मघात इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनंद विभोर बना देती आत्मघात करते समय व्यक्ति की मुख मुद्रा विकृत होती है, उस पर है। वही स्थिति साधक की है। उसके जीवन में भी संयम को ग्रहण तनाव होता है, उस पर भय की रेखाएं झलकती रहती हैं किन्तु करते समय जो मन में उल्लास और उत्साह होता है, वही उत्साह संलेखना में साधक की मुख-मुद्रा पूर्ण शान्त होती है, उसके चेहरे मृत्यु के समय भी होता है।
| पर किसी भी प्रकार की आकुलता-व्याकुलता नहीं होती। आत्मघात जिस छात्र ने वर्ष भर कठिन श्रम किया है, वह परीक्षा देते । करने वाले का स्नायु तंत्र तनावयुक्त होता है, जबकि संलेखना समय घबराता नहीं है। उसके मन में एक प्रकार का उत्साह होता करने वाले का स्नायु तन्त्र तनावमुक्त होता है। आत्मघात करने वाले है। वह प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण भी होता है, वैसे ही जिस साधक ने
| व्यक्ति की मृत्यु आकस्मिक होती है, जबकि संलेखना करने वाले को निर्मल संयम की साधना जीवन भर की है। वह संथारे से घबराता मृत्यु जीवन दर्शन पर आधारित होती है। आत्मघात करने वाला नहीं, उसके मन में एक आनंद होता है। एक शायर के शब्दों में- जिस स्थान पर आत्मघात करना चाहता है, उस स्थान को वह
प्रकट नहीं होने देना चाहता, वह लुक-छिपकर आत्मघात करता है, "मुबारक जिन्दगी के वास्ते दुनिया का मर मिटना।
जबकि संलेखना करने वाला साधक किसी भी प्रकार उस स्थान को हमें तो मौत में भी जिन्दगी मालूम देती है।
नहीं छिपाता है, उसका स्थान पूर्व निर्धारित होता है, सभी को ज्ञात मौत जिसको कह रहे वो जिन्दगी का नाम है।
होता है। आत्मघात करने वाले की वृत्ति में कायरता है, वह अपने मौत से डरना-डराना कायरों का काम है।" कर्त्तव्य से पलायन करना चाहता है जबकि संलेखना वाले की वृत्ति
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । में प्रबल पराक्रम है, उसमें पलायन नहीं वरन् सत्य स्थिति को में१३४ वर्णन है-जो क्लेश, भय, घमण्ड, क्रोध, प्रभृति के वशीभूत स्वीकार करना है।
होकर आत्महत्या करता है, वह व्यक्ति साठ हजार वर्ष तक नरक आत्मघात और संलेखना के अन्तर को मनोविज्ञान द्वारा भी। में निवास करता है। स्पष्ट समझा जा सकता है। मानसिक तनाव तथा अनेक सामाजिक महाभारतकार१३५ की दृष्टि से भी आत्महत्या करने वाला विसंगति व विषमताओं के कारण आत्मघात की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही । कल्याणप्रद लोक में नहीं जा सकता। हैं। भौतिकवाद की चकाचौंध में पले-पुसे व्यक्तियों को यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि शान्ति के साथ योजनापूर्वक मरण का वरण
वैदिक ग्रन्थों में मरण के पाँच प्रकार प्ररूपित किए हैंकिया जा सकता है। संलेखना विवेक की धरती पर एक सुस्थित १. कालप्राप्तमरण : आयु पूर्ण होने पर जीव की जो मरण है।
स्वाभाविक मृत्यु होती है, वह कालप्राप्तमरण है। संसार के सभी संलेखना में केवल शरीर ही नहीं, किन्तु कषाय को भी कृश
प्राणी इस मृत्यु को प्राप्त होते हैं। किया जाता है। उसमें सूक्ष्म समीक्षण भी किया जाता है। जब तक २. अनिच्छितमरण : प्राकृतिक प्रकोप, वर्षा की अधिकता,
शरीर पर पूरा नियंत्रण नहीं किया जाता, वहाँ तक संलेखना की दुर्भिक्ष, विद्युत्पात, नदी की बाढ़, वृक्ष, पर्वत आदि से गिरने पर जो DD अनुमति प्राप्त नहीं होती। मानसिक संयम, सम्यक् चिन्तन के द्वारा मृत्यु होती है, वह अनिच्छितमरण है।१३६ . पूर्ण रूप से पक जाता है तभी संलेखना धारण की जाती है।
३. प्रमादमरण१३७ : असावधानी से निःशंकावस्था में अग्नि, DD संलेखना पर जितना गहन चिन्तन-मनन जैन मनीषियों ने किया है
जल, शस्त्र रज्जु, पशु आदि से मृत्यु हो जाना प्रमादमरण है। उतना अन्य चिन्तकों द्वारा नहीं हुआ है। संलेखना के चिन्तन का संबंध किसी प्रकार का लौकिक लाभ नहीं। उसका लक्ष्य पार्थिव
अनिच्छित और प्रमाद मरण में यही अन्तर है कि प्रमाद में मृत्यु
अकस्मात् होती है। समृद्धि या सांसारिक सिद्धि भी नहीं है, अपितु जीवन दर्शन है। संलेखना जीवन के अंतिम क्षणों में की जाती है, पर आत्मघात ४. इच्छितमरण : क्रोध आदि के कारण मरने की इच्छा से किसी भी समय किया जा सकता है।
जाज्वल्यमान अग्नि में प्रवेश करना, पानी में डूब जाना, पर्वत से
गिरना, तीव्र विष का भक्षण करना, शस्त्र से आघात करना आदि बौद्ध परम्परा में
से मृत्यु को वरण करना।१३८ इस इच्छितमरण का वैदिक ग्रन्थों में जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में समाधिमरण के संबंध
विधान नहीं है। स्मृति ग्रन्थों में इस प्रकार मृत्यु को वरण करने में विशेष चिन्तन नहीं किया है। उन्होंने इस प्रकार के मरण को
वाले को अनुचित माना है। उसका श्राद्ध नहीं करना चाहिए।१३९ 4 एक प्रकार से अनुचित ही माना है। बौद्ध साहित्य का पर्यवेक्षण ।
उनके लिए अश्रुपात और दाहादि कर्म भी न करें।१४० करने पर कुछ ऐसे सन्दर्भ भी प्राप्त होते हैं, जिसमें इच्छापूर्ण मृत्यु को वरण करने वाले साधक की मृत्यु का समर्थन भी किया गया
विधिमरण-जिसका शास्त्रों ने अनुमोदन किया है। यह वह DD है। सीठ, सप्पदास, गोधिक, भिक्षु वक्कलि१३२ कुलपुत्र और भिक्षु
मरण है जो इच्छापूर्वक अग्निप्रवेश, जलप्रवेश आदि से होता है। छन्न१३३ ये असाध्य रोग से पीड़ित थे। उन्होंने आत्महत्याएँ कीं।। गौतम धर्मशास्त्र में मरण की आठ विधियां १४१ प्रतिपादित जब तथागत बुद्ध को उनकी आत्महत्या का परिज्ञान हुआ तो उन्होंने कहा-वे दोनों निर्दोष हैं। उन दोनों भिक्षुओं ने आत्महत्या
१. प्रायः महाप्रस्थान१४२ : महायात्रा कर प्राण विसर्जन करके परिनिर्वाण प्राप्त किया है।
करना। आज भी जापानी बौद्धों में "हाराकीरी" (स्वेच्छा से शस्त्र द्वारा
२. अनाशक१४३ : अन्नजल का त्याग कर प्राण त्यागना। आत्महत्या) की प्रथा प्रचलित है, जिसके द्वारा मृत्यु को वरण किया जाता है, पर वह समाधिमरण से पृथक है। बौद्ध परम्परा में शस्त्र के ३. शस्त्राघात : शस्त्र से प्राण त्याग करना। द्वारा तत्काल मृत्यु को वरण करना अच्छा माना गया है। जैन ४. अग्निप्रवेश : अग्नि में गिरकर प्राणों का परित्याग करना। मनीषियों ने शस्त्र के द्वारा मृत्यु को वरण करना सर्वथा अनुचित
५. विषभक्षण : विषसेवन से प्राणों का त्याग। माना है क्योंकि उसमें मरण की अभिलाषा विद्यमान है। यदि मरण की अभिलाषा न हो तो शस्त्र के द्वारा मरने की आतुरता नहीं होती।
६. जल प्रवेश : जल में प्रवेश कर प्राण त्याग। वैदिक परम्परा में
७. उबन्धन : गले में रस्सी आदि से फाँसी लगाकर प्राण वैदिक परम्परा के साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने आत्महत्या को महापाप माना है। पाराशर स्मृति
८. प्रपतन : पहाड़, वृक्ष प्रभृति से गिरकर प्राण त्याग।
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। संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
६४९ ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रपत, नैः के पश्चात् "च" शब्द का प्रयोग की सूचना मिलने पर उनका हृदय अत्यन्त व्यथित हो जाता है। वे हुआ है, उससे अन्य मरण भी ग्रहण किए जा सकते हैं।१४४ कहते हैं- मेरी वृद्धावस्था आ चुकी है। जिससे मेरा शरीर रस और वशिष्ठ स्मृति में (९) लोष्ठ और (१०) पाषाण इन दो मरण । धातु से नीरस बन चुका है, तथापि यह निंदित शरीर अभी तक विधियों का भी उल्लेख है।
नहीं गिर रहा है। ऋषियों ने कहा कि अन्धकारयुक्त सूर्यरहित लोक रामायण और महाभारत में ऐसे अनेक प्रसंग है। जब किसी
उनके लिए नियुक्त है जो आत्मघात करते हैं। अतः मुझसे आत्मघात व्यक्ति को अपने मन की प्रतिकूल परिस्थिति का परिज्ञान हुआ
भी किया नहीं जा रहा है। बाल्मीकि रामायण,१५३ शांकर अथवा प्रियजनों के वियोग के प्रसंग उपस्थित हुए, निराशा के
भाष्य,१५४ बृहदारण्यकोपनिषद१५५ और महाभारत१५६ प्रभृति बादल उनके जीवन में उमड़ घुमड़कर मंडराने लगे, युद्ध में
ग्रन्थों में आत्मघात को अत्यन्त हीन, निम्न एवं निन्द्य माना है। साथ पराजय की स्थिति समुत्पन्न हुई तब वे व्यक्ति मरण की इन
ही जो आत्महत्या करते हैं, उनके संबंध में भी मनुस्मृति,१५७ विधियों को अपनाने की भावना व्यक्त करते हैं। उदाहरण के रूप
याज्ञवल्क्य,१५८ उषन्स्मृति,१५९ कूर्मपुराण,१६० अग्निपुराण,१६१ में, सीता को जब राम वन में अपने साथ ले जाने के लिए तैयार
पाराशरस्मृति१६२ प्रभृति ग्रन्थों में बताया है कि उन्हें जलांजलि नहीं नहीं हुए तो उसने इन्हीं विधियों द्वारा अपने प्राण त्यागने की
देनी चाहिए। वे आत्मघाती अशौच और उदक क्रिया के पात्र नहीं भावना व्यक्त की।१४५ इसी प्रकार पंचवटी में भी लक्ष्मण को राम
होते हैं। की अन्वेषणा के लिए प्रेषित करने हेतु उत्प्रेरित करते हुए सीता ने एक ओर आत्मघात को निन्द्य माना है, दूसरी ओर विशेष इसी बात को दुहराया।१४६ राम को वनवास देने के कारण पापों के प्रायश्चित के रूप में आत्मघात का समर्थन भी किया गया भरत१४७ अपनी माँ पर क्रुद्ध हुआ और उसने आवेश में मां है, और उससे आत्मशुद्धि होती है ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन किया गया की भर्त्सना करते हुए कहा-या तो तुम धधकती हुई ज्वाला में है। जैसे मनुस्मृति में१६३ आत्मघाती, मदिरा पायी ब्राह्मण प्रविष्ट हो जाओ, या दण्डकारण्य में चली जाओ, या फांसी गुरुपत्नीगामी के लिए उग्रशस्त्र, अग्नि आदि के द्वारा आत्मघात लगाकर मर जाओ।
करने से शुद्ध होता है-ऐसा विधान है। यात्रवल्क्य स्मृति,१६४ इन सभी उद्धरणों से ज्ञात होता है कि रामायण काल में वे
गौतमस्मृति,१६५ वशिष्ट स्मृति,१६६ आपस्तंबीय धर्मसूत्र,१६७ उपाय अपनाये जाते थे। रामायण काल के पश्चात् महाभारत काल
| महाभारत१६८ आदि में इसी तरह के शुद्धि के उपाय बताए गये हैं। में भी आत्मघात के लिए इन उपायों को अपनाने के लिए तैयारी
सभी में आत्मघात का विधान है। इन विघ्नों के परिणामस्वरूप ही देखी जाती है। दुर्योधन पांडवों को देखकर ईर्ष्याग्नि में जलता है।
। प्रयाग में अक्षय बट से गंगा में कूदकर और काशी में काशी वह पांडवों के विराट वैभव को देख नहीं सकता। उनके वैभव को
| करवट लेकर आत्मघात की प्रथाएं प्रचलित हुईं। ये स्पष्ट आत्मघात देखकर वह मन ही मन कुढ़ता है और अपने विचार शकुनि के
| ही थीं, फिर भी इनसे स्वर्ग-प्राप्ति मानी जाती थी। पापी लोग इस सामने व्यक्त करता है कि मैं अग्नि में प्रविष्ट हो जाऊँगा, प्रकार की मृत्यु का वरण करते थे और यह समझते थे कि इससे विष-भक्षण कर लूँगा, जल में डूबकर प्राणों का त्याग कर दूँगा, उनके पापों का प्रायश्चित् हो जाएगा, वे शुद्ध हो जायेंगे और स्वर्ग किन्तु जीवित नहीं रह सकता।१४८
के दिव्य सुख भोगेंगे। सती दयमन्ती नल के रूप और शौर्य पर इतनी मुग्ध हो गई इस प्रकार मृत्युवरण को पवित्र और धार्मिक आचरण माना कि उसने नल से स्पष्ट शब्दों में कहा-यदि आप मेरे साथ गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व,१६९ वनपर्व१७० और पाणिग्रहण नहीं करेंगे तो विष, अग्नि, जल या फाँसी द्वारा अपने मत्स्यपुराण१७१ में अग्निप्रवेश, जल प्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग प्राण समाप्त कर दूंगी।१४९ अग्नि, जल आदि के द्वारा प्राणों का या अनशन द्वारा देहत्याग करने पर ब्रह्मलोक अथवा मुक्ति प्राप्त परित्याग करने वाला आत्महा, आत्महन, आत्मत्यागी या आत्मघाती होती है, इस प्रकार का स्पष्ट विधान है। कहलाता है।१५०
प्रयाग, सरस्वती, काशी आदि जैसे पवित्र तीर्थ स्थलों में वैदिक साहित्य में आत्मघात का निषेध करने वाले कुछ वचन आत्मघात करने वाला संसार से मुक्त होता है। इन तीर्थ स्थलों में
Pos प्राप्त होते हैं, जिनमें यह बताया गया है कि आत्मघात करने वाला जल प्रवेश या अन्य विधियों से मृत्यु प्राप्त करने के विधान भी महापापी है। ईशावास्योपनिषद् में१५१ आत्मघात करने वाले व्यक्ति मिलते हैं। महाभारत में स्पष्ट कहा है-वेद वचन से या लोक वचन परभव में कहाँ जाते हैं, उसका चित्रण करते हुए कहा है-जो से प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिए।१७२ इसी प्रकार आत्मघात करते हैं वे मरने के पश्चात् गहन अंधकार में आवत कूर्मपुराण,१७३ पद्मपुराण,१७४ स्कंदपुराण,१७५ मत्स्यपुराण,१७६ आसुरी नाम से पुकारी जाने वाली योनि में जन्म ग्रहण करते हैं। ब्रह्मपुराण,१७७ लिंगपुराण,१७८ अग्निपुराण१७९ में स्पष्ट उल्लेख है उत्तर रामचरित में१५२ लिखा है कि राजा जनक को सीतापहरण कि जो तीर्थस्थलों पर जल प्रवेश करता है या अन्य साधनों के
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1६५०
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ द्वारा मृत्यु का वरण करता है, भले ही वह किसी भी अवस्था में राजस्थान के राजपूतों में भी पति के पीछे सती होने के साथ हो, चाहे स्वस्थ हो, चाहे अवस्थ हो, वह अवश्य मुक्ति प्राप्त ही “जौहर" की प्रथा थी। सती पद्मिनी की कथा और अनेक करता है।
राजपूतानियों के उत्सर्ग की कथाएँ राजस्थान के इतिहास में भरी यदि शरीर में असाध्य विहित अनुष्ठान करने में शरीर असमर्थ
पड़ी हैं। स्थान-स्थान पर उनके स्मारक भी बने हुए हैं। राजस्थान हो जाए, उस समय वानप्रस्थी के महाप्रस्थान का भी उल्लेख विस्तार
तथा दक्षिणी भारत में “कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र में भी के साथ आया है। मनुस्मृति में१८० कहा है-असाध्य रोग होने पर ।
अनेक स्मारक है। कई महासती कल (महासती शिला स्मारक), वानप्रस्थी ईशान दिशा की ओर मुँह करके योगनिष्ठ होकर पानी
वीरगल (वीरों के शिला स्मारक), अपने राजा के लिए अपना और हवा पर रहता हुआ शरीर त्यागने तक निरन्तर गमन करता
बलिदान चढ़ाने वाले वीरों के स्मारक हैं। बंगाल में तो उन्नीसवीं रहे। याज्ञवल्क्य ने१८१ भी मनु के कथन का समर्थन करते हुए।
सदी तक सती-प्रथा प्रचलित थी। भारत में ही नहीं प्राचीन ग्रीक कहा-वायु भक्षण करता हुआ ईशान दिशा की ओर मुड़कर प्रस्थान
और मिश्र में भी यह प्रथा प्रचलित थी। यदि स्त्रियां सती होना नहीं करे। महाभारत में१८२ पांडवों के हिमालय की ओर महाप्रस्थान का
चाहती तो भी उन्हें बलात् सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। वर्णन है। सर्वप्रथम द्रौपदी पृथ्वी पर गिर पड़ी, उसके पश्चात्
चिताओं के आस-पास जोर से वाद्य बजाए जाते जिससे उसका सहदेव, नकुल, अर्जुन और भीम भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त
करुण क्रन्दन किसी को भी सुनाई न दे सके। हुए और सभी स्वर्ग पहुंचे। युधिष्ठिर भी उसी शरीर से स्वर्ग पहुंचे। प्राचीनकाल में यूनान में प्लेटो और अरस्तू ने सती प्रथा का डॉ. पांडुरंग वामन काणे ने१८३ वाल्मीकि रामायण तथा
विरोध किया था, आधुनिक काल में भारत में राजा राममोहन राय अन्यान्य वैदिक धर्म ग्रन्थों व शिलालेखों के आधार से शरभंग,
के विशेष प्रयत्न से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा के महाराजा रघु, कलचुरि के राजा गांगेय, चन्देल कुल के राजा
विरुद्ध कानून बनाकर इसका अन्त कर दिया था। रूस में गंगदेव, चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रभृति के स्वेच्छापूर्वक मृत्यु वरण
१७-१८वीं सदी में धार्मिक उद्देश्य से पूरे के पूरे परिवार अपने का उल्लेख किया है।
को जला देते थे। इस प्रथा का भी विज्ञ व्यक्तियों ने अत्यधिक
विरोध किया था। वानप्रस्थी की तरह गृहस्थ के लिए भी उसी प्रकार का विधान है। जिसके शरीर में व्याधि हो, वृद्धावस्था हो, जो शौचशून्य हो
इस्लाम धर्म में स्वैच्छिक मृत्यु का किंचित् मात्र भी समर्थन नहीं चुका हो वह भी अग्नि-प्रवेश, गिरिपतन या अनशन द्वारा मृत्यु को
है। उनका मानना है-खुदा की अनुमति के बिना निश्चित समय से वरण करे, इस प्रकार का उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति१८४ अत्रि ।
पूर्व किसी को भी मारना ठीक नहीं है। इसी प्रकार ईसाई धर्म में स्मृति१८५ आदि ग्रन्थों में हैं।
भी आत्महत्या का विरोध किया गया है। ईसाइयों का मानना है-न।
तुम्हें दूसरों को मारना है और न स्वयं मरना है।१९१ वैदिक ग्रन्थों में पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को पति के शव के साथ अग्नि में प्रवेश हो जाना चाहिए। अंगिरस ने कहा
वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में एक ओर जहाँ आत्महत्या को ब्राह्मण, स्त्री, पति की चिता पर उसके शव के साथ मरण कर ।
महापाप बताया है, वहाँ दूसरी ओर आत्महत्या से स्वर्ग प्राप्त होता सकती है। मिताक्षरी१८६ टीका में गर्भावस्था आदि विशेष
है-ऐसा भी स्पष्ट विधान किया गया है। उदाहरणार्थ वशिष्ठ ने परिस्थितियों के अतिरिक्त पति का अनुगमन करना ब्राह्मण से लेकर ।
कहा-पर्वत से गिरकर प्राण त्याग करने से राज्यलाभ मिलता है चाण्डाल तक सभी वर्ग की स्त्रियों के लिए आवश्यक माना है।।
तथा अनशन कर प्राण त्यागने से स्वर्ग की उपलब्धि होती है।१९२ विष्णुपुराण१८७ के अनुसार रुक्मिणी आदि कृष्ण पलियों ने कृष्ण
ब्यास ने कहा-जल में डूबकर प्राण त्याग करने वाला सात हजार के शव के साथ अग्नि प्रवेश किया। रामायण१८८ काल में सती प्रथा
वर्षों तक, अग्नि में प्रविष्ट होने वाला चौदह हजार वर्ष तक फल के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। महाभारत में सती प्रथा के संबंध
प्राप्त करता है, अनशन कर प्राण त्यागने वाले के लिए तो फल में स्पष्ट विचार प्राप्त होते हैं। महाभारत में१८९ कहा है-यदि
प्राप्ति के वर्षों की संख्या की परिगणना नहीं की जा सकती। पतिव्रता स्त्री पति के पूर्व मर जाए तो वह परलोक में जाकर पति
१९३महाभारत के अनुशासनपर्व१९४ में बताया है जो आमरण की प्रतीक्षा करे, और पहले पति मर जाए तो पतिव्रता स्त्री उसका
अनशन का व्रत लेता है, उसके लिए सर्वत्र सुख ही सुख है। अनुगमन करें।
अनशन से स्वर्ग की उपलब्धि होती है। डॉ. उपेन्द्र ठाकुर १९० का मंतव्य है कि सती प्रथा के पीछे । समाक्षा: धार्मिक भावनाएं अंगड़ाइयां ले रही थीं। हारीत के मन्तव्यानुसार वैदिक परम्परा में मरण की विविध विधाओं का वर्णन है। उनमें जो स्त्री पति के साथ सती होती है, वह स्त्री तीन परिवारों-माता, परस्पर विरोधी वचन भी उपलब्ध होते हैं। कहीं पर आत्मघात को पिता और पति के परिवारों को पवित्र करती है।
निकृष्ट माना गया और उसके लिए वैदिक परम्परा मान्य जो भी ।
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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
६५१ /
धार्मिक अनुष्ठान हैं उनका भी निषेध किया गया, दूसरी ओर समाप्त होने वाला है तो हमें मृत्यु का तिरस्कार न कर, एक आत्मघात की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन भी दिया गया है। जिस प्रकार | आदरणीय अतिथि समझ कर उसका स्वागत करना चाहिए। किन्तु जैन परम्परा में समाधिमरण का उल्लेख है, कुछ इसी प्रकार का । रोते और बिलखते हुए मृत्यु को वरण करना कायरता है। प्रसन्नता मिलता जुलता वैदिक परम्परा में भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध होता है। के साथ मृत्यु को स्वीकार करना एक नैतिक आदर्श है। महात्मा पर उस वर्णन की अपेक्षा जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश, विष भक्षण, गाँधी ने भी इस प्रकार की मृत्यु को श्रेष्ठ मृत्यु माना है। गिरिपतन, शस्त्राघात द्वारा मरने के वर्णन अधिक हैं।
। हम पूर्व पृष्ठों में विस्तार के साथ बता चुके हैं कि भारत के इस प्रकार जो मृत्यु का वरण किया जाता है, उसमें मृत्यु इच्छा तत्वदर्शी महर्षियों ने केवल जीने की कला पर ही प्रकाश नहीं डाला प्रमुख रहती है, कषाय की भी तीव्रता रहती है। इसलिए भगवान् । किन्तु उन्होंने इस प्रश्न पर भी गहराई से चिन्तन किया कि किस महावीर ने इस प्रकार के मरण को बालमरण माना और इस प्रकार प्रकार मरना चाहिए। जीवन कला से भी मृत्यु-कला अधिक मरने के लिए आगम साहित्य में स्पष्ट रूप से इनकारी की। भगवान । महत्वपूर्ण है। वह नैतिक जीवन की कसौटी है। जीवन जीना यदि महावीर का मानना था कि इस प्रकार जो मृत्यु का वरण किया अध्ययनकाल है तो मृत्यु परीक्षाकाल है। जो व्यक्ति परीक्षाकाल में जाता है, उसमें समाधि का अभाव रहता है। भगवान महावीर ने जरा सी भी असावधानी करता है, वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो युद्ध में मरने वाले को स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता का भी खण्डन जाता है। मृत्यु के समय जिस प्रकार की भावना होगी उसी स्थान किया। उन्होंने अनेक अन्ध विश्वासों पर प्रहार किया।
पर जीव उत्पन्न होता है। जैन कथा साहित्य में आचार्य स्कन्दक का
वर्णन आता है। वे अपने ५०० शिष्यों के साथ दण्डकपुर जाते हैं। समाधिमरण : एक मूल्यांकन
वहाँ के राजा दण्डक के द्वारा मृत्यु का उपसर्ग उपस्थित होने पर जैन धर्म सामान्य स्थिति में चाहे वह स्थिति लौकिक हो,.. अपने ५०० शिष्यों को समभाव में स्थिर रहकर प्राण त्यागने की धार्मिक हो या अन्य किसी प्रकार की हो, मरने के लिए अनुमति प्रेरणा देते हैं। पर स्वयं समभाव में स्थिर न रह सके जिसके कारण नहीं देता। किन्तु जब साधक के समक्ष तन और आध्यात्मिक वे अग्निकुमार देव बने। अन्तिम समय की भावना अपना प्रभाव सद्गुण इन दोनों में से किसी एक को ग्रहण करने की स्थिति उत्पन्न दिखाती है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी जड़ भरत का आख्यान हो तो वह देह का परित्याग करके भी आध्यात्मिक सद्गुणों को / है। उसमें यही बताया है, भरत की हरिण पर आसक्ति रहने से उसे अपनाता है। जिस प्रकार एक महिला अपने सतीत्व नष्ट होने के } पशुयोनि में जन्म ग्रहण करना पड़ा। प्रसंग पर सर्वप्रथम अपने सतीत्व की रक्षा करती है, भले ही उसे
इन सभी अवतरणों से सिद्ध है कि मृत्यु के समय अन्तर्मानस में शरीर का परित्याग करना पड़े। उसी प्रकार साधक अपने शरीर
समभाव रहना चाहिए, और समभाव रहने के लिए ही संलेखना का मोह त्यागकर अपने आत्मिक सद्गुणों और संयम की रक्षा
का विधान है। संलेखना और संथारा आध्यात्मिक उत्कर्ष का मूल करता है। जैन धर्म का स्पष्ट विधान है-जब तक तन की और । मंत्र है। आध्यात्मिक जीवन की रक्षा होती है तो साधक दोनों की ही रक्षा
श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना और संथारे का करें और दोनों की रक्षा करने का वह पूर्ण ध्यान रखें। सामान्य
उल्लेख है। श्रावक द्वादशव्रतां का पालन करने के पश्चात् एकादश मानव और साधक में यही अन्तर है कि साधारण मनुष्य का ध्यान
प्रतिमाओं को धारण करता है और आयुष्य पूर्ण होने के पूर्व देह पर केन्द्रित होता है, वह देह के लिए ही सतत् प्रयास करता है,
संलेखना करके शांति और स्थिरता से देह त्याग करता है। यदि किन्तु साधक देह की अपेक्षा संयम की साधना का अधिक लक्ष्य
कोई श्रावक शारीरिक शैथिल्य के कारण प्रतिमाओं को धारण नहीं रखता है, संयम की साधना के लिए ही वह देह का पालन पोषण
कर सकता है, तो भी वह अन्तिम समय में संलेखना करता है। करता है और जब वह देखता है कि शरीर में भयंकर व्याधि
संलेखना आत्मा को शुद्ध करने की अन्तिम प्रक्रिया है। यह व्रत उत्पन्न हो चुकी है, दुष्काल में स्वयं के साथ ही दूसरे व्यक्ति भी
नहीं, व्रतान्त है। संलेखना एक प्रकार से प्राणान्त अनशन है। परेशान हो रहे हैं तो नैतिकता की सुरक्षा के लिए वह देह-विसर्जन
संलेखना निर्दोष साधना है। यदि उसमें भी दोष लग जाए तो उसी के लिए समाधिमरण को स्वीकार करता है।
समय आलोचना कर चित्त की विशुद्धि करनी चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता१९५ में वीर अर्जुन से श्रीकृष्ण ने कहा-वह
उपरोक्त विवेचन से संलेखना का महत्व स्पष्ट है। यह जीवन जीवन किस काम का जिसमें आध्यात्मिक सद्गुणों का विनाश होता
भर के व्रत नियम और धर्म-पालन की कसौटी है। जो साधक इस है। उस जीवन से मरण अच्छा है।
कसौटी पर खरा उतरता है, वह अपने मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष ___ गांधीवादी विचाराधारा के महान् चिन्तक काका कालेलकर का } के अधिक समीप पहुँच जाता है, फिर मुक्ति रूपी मंजिल उससे दूर अभिमत है-जब हमें ऐसा अनुभव हो कि जीवन का प्रयोजन | नहीं रहती और वह उसे यथाशीघ्र प्राप्त कर लेता है।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
सन्दर्भ स्थल
१. सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जि। -दशवकालिक ६-१० २. जीवेम शरदः शत।
-यजुर्वेद ३६-२४४ ३. "रज्जुच्छेदे के घटं धारयन्ति ?" ४. (क) मरण सम नत्थि भयं।
(ख) भयः सीमा मृत्युः। ५. असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं।
-आचारांग १-२ ६. ताले जह बंधणच्चुए एवं आउखयंमि तुट्टइ। -सूत्रकृतांग २-१-३ ७. नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि।
-आचारांग १-४-२ ८. गहिओ सुग्गइ मग्गो नाहं मरणस्स बीहेमि। -आतुर प्रत्याख्यान ६३ ९. (क) संसारासक्तचित्तानां मृत्यु तै भवेन्नृणाम्।
मोदायते पुनः सोपि ज्ञान वैराग्यवासिनाम्॥ -मृत्यु महोत्सव १७ (ख) संचित तपोधन न नित्यं व्रत नियमे संयमरतानाम्।
उत्सवभूतं मन्ये मरणमनपराधवृत्तीनाम्॥ -वाचक उमास्वाति १०. भगवती २-१ ११. समवायांग १७ सूत्र ९ (मुनि कन्हैयालाल कमल) १२. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा २१२-१३, पत्र-२३० १३. मरणाणि सत्तरस देसिदाण तित्थंकरहिं जिणवयणे। तत्थ विये पंच इह संगहेणं मरणाणि वोच्छामि।
-मूलाराधना आश्वास १, गा. २५, पत्र ८५ १४. प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपराऽयुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वाऽयुर्दलिक विच्युतिलक्षणाः।
-अभयदेववृत्ति-भगवती १३,७ १५. तत्त्वार्थराजवार्तिक २-२२ १६. (क) समवायांग, पत्र ३२
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २१६
(ग) मूलाराधना विजयोदयावृत्ति, पत्र ८७ १७. (क) समवायांग, पत्र ३२
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २१६ १८. (क) समवायांग, पत्र ३२
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २१६ १९. (क) समवायांग, पत्र ३२
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २१७
(ग) भगवती २-१, अभयदेववृत्ति, पत्र २५२ २०. (क) भगवती २-१, अभयदेववृत्ति, पत्र २५२
(ख) समवायांग १७, सूत्र ३२
(ग) उत्तराध्ययननियुक्ति २१९ २१. (क) भगवती २-१
(ख) समवायांग पत्र, ३२-३३
(ग) मूलाराधना विजयोदया टीका, पत्र ८७ २२. (क) समवायांग, पत्र ३३
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २२२ २३. मूलाराधना विजयोदया टीका, पत्र ८१ २४. (क) समवायांग १७, पत्र ३२
(ख) उत्तराध्ययननियुक्ति २२२
२५. उत्तराध्ययननियुक्ति २८३ २६. (क) भगवती-२-१, पत्र २५२
(ख) उत्तरा. नि. गा. २२४ २७. (क) भगवती २-१
(ख) उत्तरा. नि. गा. २२४ २८. (क) भगवती २-१
(ख) उत्तरा. नि. गा. २२५ (ग) मूलाराधना गाथा २९, पत्र ११३
(घ) विजयोदया पत्र ११३ २९. (क) मूला. विजयो, पत्र ११३ (ख) सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंदि चे विधिणा।।
-मूला, आ. ८, गा. २०४२ ३०. (क) भगवती २-१, पत्र २५२
(ख) समवायांग, समवाय १७, पत्र ३३ (ग) उत्तरा, नि. गा. २२५
(घ) औपपातिकवृत्ति पत्र ७१ ३१. (क) गोम्मटसार, गाथा ६१
(ख) मू. आ.८, गा. २०६३ ३२. मू. आ. वि. पत्र ११३ ३३. विज. ११३ ३४. भगवती सूत्र २-१, पत्र २५२ ३५. मूला. ८ गा. २०६५ ३६. मू. आ. ८, गा. २०६८ से २०७० ३७. उत्तरा. वृ.पृ.६०२ ३८. मू. आ.२ गा.६५ विज. ३९. उत्तरा. वृ. पृ. ६०२ ४०. (क) मूला. आ.२ गा. ६५ विज.
(ख) मू. आ.७ गा. २०१५ वृत्ति ४१. स्थानांगवृत्ति २-१०२ ४२. वही २-१०२ ४३. मू. आ. ७ गा. २०१५ ४४. मू. आ. ८ गा. २०६९ ४५. भगवती सूत्र ९-१, पत्र २५३ ४६. पायोपगमण मरणं भत्त पाइण्णं च इंगिणि चेव। तिविहं पंडिअमरणं साहुस्स जहुत्त जालिस्स॥
-मूला. २९ ४७. उत्त. अ. ५, ३-४ ४८. वही. अ. ५, ३-४ ४९. तं मरणं मरियर्व जेणमओ मुक्कओ होई।
-मरणविभक्ति, प्रकरण १०-१४५ ५०. उत्तरा. ५ ५१. स्थानांग २,३,४ ५२. भगवती २-5 ५३. उत्तरा. प्राकृत टीका ५ ५४. उत्तरा. शान्त्याचार्य टीका
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| संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
५५. स्थानांग २ ५६. मूला. आ. आश्वास २, गाथा ६५ ५७. वही आ. २, गा. ६५ ५८. वही आ.७, गा. २०११ ५९. वही आ.७, गा. २०१३ ६०. वही आ.७ गा. २०१४ ६१. वही. आ. ७ गा. २०१५ ६२. वही, आ.७ गा. २०१६ ६३. मूला. आ. ७, गा. २०१५ ६४. मूला. आ. ७ गा. २०२१ ६५. बही. ७ गा. २०२२ ६६. औपपातिक वृत्ति पृ. ७१
व्याघातवत्-सिंहादावानलाद्यभिभूतो यत्प्रतिपद्यते। ६७. अन्तकृद्दशांग ३ ६८. अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्याविद्विभवं समाधिकरणे प्रयतितव्यम्।
-समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र ६-२ ६९. भगवती आराधना, गाथा १५ ७०. "लहिओ सुग्गइ मग्गो नाहं मुच्चस्स बीहेमी।" ७१. "सजनि ! डोले पर हो जा सवार। लेने आ पहुँचे हैं कहार।" ७२. सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसह भणियं।
वइयं-अतिहिपुज्जं चउत्थ संलेहणा अन्ते॥ -चारित्र पाहुड, गाथा ६ ७३. संलिख्यतेऽनया शरीर कषायादि इति संलेखना।
-स्थानांग २, उ. २ वृत्ति ७४. “कषाय शरीर कृशतायाम्"
-ज्ञाता. १-१ वृत्ति ७५. आगमोक्तविधिना शरीराद्यपकर्षणम्। -प्रवचनसारोद्धार १३५ ७६. (क) संलेखन-द्रव्यतः शरीरस्थभावतः कषायाणांकृशताऽपादन संलेखसंलेखनेति।
-बृहबृत्ति पत्र (ख) मूला. ३-०८, मूला. दर्पण पृ. ४२५ ७७. सम्यक्कायकषायलेखना -तत्त्वार्थसर्वार्थसिद्धि ७-२२ का भाष्य पृ. ३६३ ७८. सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं।
-तत्त्वार्थ वृत्ति ७-२२ भाष्य, पृ. २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ७९. बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहायनयाक्रमेण
सम्यकृलेखना संलेखना।२२॥ ८०. तत्त्वार्थ सूत्र ७-२२ ८१. तत्त्वार्थसर्वार्थसिद्धि ७-२२ पृ.३६३ ८२. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ७-२२ ८३. तत्त्वार्थ श्रुतसागरीया वृत्ति ७-२२ ८४. यज्जीवति तन्मरणं, यन्मरणं सास्य विश्रान्ति। ८५. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनामाहुः संलेखनामार्याः॥
-समीचीन धर्मशास्त्र, ६-१ मृ. १६० ८६, मूलाराधना २, ७१-७४ ८७. संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, पृष्ठ ११३० ८८. 'Sitting down and abstaining from food thus awaiting
the approach of death.
८९. समासक्तो भवेद्यस्तु पातकैर्महदादिभिः।
दुश्चिकित्स्यैर्महारोगैः पीडितो व भवेत्तु यः। स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः। आब्रह्माणं वा स्वर्गादिमहाफलजिगीषया। प्रतिशेज्ज्वलनं दीप्तं कुर्यादनशनं तथा। एतेषामधिकारोऽस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु। नराणामथनारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा।।
-रघुवंश के ८-९४ श्लोक पर मल्लिनाथ टीका ९०. प्रायेण मृत्युनिमित्तक अनशनेन उपवेशः स्थितिसंन्यास पूर्वकानशन 0DP600 स्थितिः।
-शब्द कल्पद्रुम, पृ. ३६४ 0 ९१. “प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि इति विश्वः"। प्रकृष्टभयनम् इति प्रायः, प्र + अय् + घञ्, मर अर्थमनशनम्।
-हलायुधकोश, सूचना प्रकाशन ब्यूरो, उ. प्र. ९२. “प्रायोपवेशनेऽनशनावस्थाने।"
-मल्लिनाथ ९३. रघुवंश १-८ ९४. इदानीमकृतार्थनां मर्तव्यं नात्र संशयः।
हरिराजस्य संदेशमकृत्वा कः सुखी भवेत्॥१२॥ अस्मिन्नतीते काले तु सुग्रीवेण कृते स्वयम्। प्रायोपवेशनं युक्तं सर्वेषां च वनौकसाम्॥१३॥ अप्रवृत्ते च सीतायाः पापमेव करिष्यति। तस्मात्क्षममिहाद्यैव गन्तुं प्रायोपवेशनम्॥१५॥ अहं वः प्रतिजानामि न गमिष्याम्यहं पुरीम्। इहैव प्रायमासिष्ये श्रेयो मरणमेव मे॥
-वाल्मीकि रामायण ४, ५५-१२ 500 ९५. (क) प्रायोपवेशः राजर्षेर्विप्रशापात् परीक्षितः। -भागवत, स्कंध १२ (ख) “प्रायोपविष्टं गंगायां परीतं परमर्षिभिः।"
-"प्रायेण मृत्युपर्यन्तानशनेनोपविष्टम् इति 180
तट्टीकायां-श्रीधर स्वामी" 3000 (ग) शब्द कल्पद्रुम पृ. ३६४ ९६. श्रीमद्भगवद्गीता ८-१२, ८-१३, ८-५, ८-१० यथा ५-२३ ९७. आचारांग १-८-६७ ९८. सा जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च।
-व्यवहारभाष्य २०३ ९९. चत्तारि विचित्ताई विगइ निज्जूहियाई चत्तारि।
संवच्छरे य दोन्नि एगंतरियं च आयाम॥९८२ ॥ नाइ विगिद्धो य तवो छम्मास परिमिअंच आयाम।
अबरे विय छम्मासे होई विगिळं तवो कम्मं ॥९८३॥ -प्रवचनसारोद्धार १००. दुवालसयं वरिसं निरन्तरं हायमाणं उसिणोदराणं आयंबिलं करेइ त 2007
कोडी सहियं भवइ जाणेय विलस्स कोडी कोडीए मिलइ। -निशीथचूर्णि 9000.00 १०१. द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमेकैक कवल हान्यातावदूनोदरता
करोति यावदेकं कवलमहारयति। -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति Padoas १०२. उत्तराध्ययन ३६, २५१-२५५ १०३. द्वितीये वर्ष चतुष्के। 'विचित्रं तु' इति विचित्रमेव चतुर्थषष्ठामादिरूपं
तपश्चरेत्, अथ च पारणके सम्प्रदाय:-"उग्गमविसुद्ध" सब्वं कम्मणिज्ज पारेति।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ १०४. विकृष्ट-अष्टमदशमद्वादशादिकं तपः कर्म भवति।
-प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र २५४ 720
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१०५. पारणके तु परिमितं किंचिदूनोदरता सम्पन्नमाचाम्लं करोति ।
-वही पत्र २५४ १०६. पारणके तु मां शीघ्रमेव मरणं यासिषमितिकृत्वा परिपूर्णघ्राण्या आचाम्लं करोति न पुनरुनदरयेति । -वही. पत्र २५४ १०७. कोट्यो- अग्रे प्रत्याख्यानाद्यन्तकोणरूपे सहिते मिलिते यस्मिंस्तत्कोटिसहितं, किं मुक्तं भवति ? विवक्षितदिने प्रातराचाम्लं प्रत्याख्यान तच्चाहोरात्रं प्रतिपालय पुनद्वितीयेऽन्हि आयान्तमेव प्रत्याचष्टे ततो द्वितीयस्यारंभ कोटिरादस्य तु पर्यन्त कोटिरूपे अपि मिलिते भवत इति तत्कोटि सहितमुच्यते, अन्येत्याहुः आचास्त्रमेकस्मिन् दिने कृत्वा द्वितीय दिने च तपोदन्तरमनुष्ठाप पुनस्तृतीयदिन आयान्तमेव कुर्वतः कोटि सहितमुच्यते । - बृहद्वृत्ति पत्र ७०६
१०८. "संवत्सरे" वर्षे प्रक्रमाद द्वादशे "मुनिः साधुः" मास, ति सूत्रत्वान्मासं भूतो मासिकरतेनैवमार्द्धमासिकेन आहारेणेन्ति-उपलक्षण त्वादाहार त्यागेन, पाठान्तरतश्च क्षणेन तपः इति प्रस्तावाद् परिज्ञानादिकमनशनं "चरेत"। -वही पत्र ७०६-७०७
भक्त
१०९. निशीथ चूर्णि
११० (क) मूलाराधना ३, २०८
(ख) मूलाराधना दर्पण पृ. २४५
१११. मूलाराधना ३, २४७
११२. वही. ३, २४९
११३. वही. ३, २५0-२५१
११४. वही. ३, २५२
११५. (क) मूलाराधना ३, २५३
(ख) निर्विकृतिः सव्यंजनादिवर्जितमव्यतिकीर्णमोदनादिभोजनम्।
-मूलाराधना दर्पण ३, २५४ पृ. ४७५
११६. मूलाराधना ३-१५४
११७. वही. ३, २५५
११८. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२४-१२८
११९. आचारसार, 90
१२०. द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्टा संलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरं गत्वा उपलक्षणमेतद् अन्यदपि षट्कायोपर्द्दरहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनं वा शब्दाद् भक्तपरिज्ञामिंगिनी मरणं च प्रपद्यते। -प्रवचनसारोद्धार, द्वार १३४
१२१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १३०
१२२. सागार धर्मामृत ७, ५८ और ८, २७-२८
१२३. भगवती आराधना
१२४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२३
१२५. शांति सोपान, श्लोक ८१
१२६. गोम्मटसार- कर्मकाण्ड, ५६-५७-५८
१२७. ज्ञातासूत्र, अ. १, सूत्र ४९ १२८. भगवती आराधना गा. ६५०-६७६ १२९. जीवियं नाभिकंखेज्जा मरणं नाभिपत्थए ।
ओ विन सज्जना जीविए मरणे तथा ॥ -आचारांग ८-८-४ १३०. मरणपडियारभूया एसा एवं च ण मरणनिमित्ता जह गंड छे अकिरिआणो आयविरहाणारूपा।
-दर्शन और चिन्तन पृ. ५३६ से उद्धृत
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
१३१. संजमहेउ देहो धारिज्जइ सो कओ उ तदभावे । संजम हानिमित्तं देह परिपालणा इच्छा। १३२. संयुक्त निकाय २१-२-४-५ १३३. (क) संयुक्त निकाय ३४-२-४-४
(ख) History of Suicide in India
१३४. अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात्। उद्बध्नीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते । पूयशेोणितसम्पूर्ण अन्धे समजत षष्टि वर्षसहस्त्राणि नरकं प्रतिपद्यते ॥ १३५. महाभारत, आदिपर्व १७९, २० १३६. मष्करिभाष्य १४ ११ गौतम १३७. (क) वही. १४-११
-Dr. Upendra Thakur, p. 107
- ओघनियुक्ति ४७
(ख) पाराशर ३-१० माधव टीका ब्रह्मपुराण से उद्धृत ।
- पाराशरस्मृति ४-१-२
१३८. वशिष्ठ. २३, १५
१३९. याज्ञवल्क्यस्मृति ३-२०
१४०. अपरार्क द्वारा पृ. ८७७ पर उद्धृत।
१४१. प्रायोऽनाशक शस्त्राग्निविषोदकोद्बन्धनप्रपतनैश्चेच्छाताम् !
१५५. बृहदारण्कोपनिषद् ४, ४-११
१५६. महाभारत, आदिपर्व १७८-२०
१५७. मनुस्मृति ५, ८९
१५८. याज्ञवल्क्य ३, ६
१५९. उषनुस्मृति ७, २ १६०. कूर्मपुराण, उत्त. २३-७३ १६१. अग्निपुराण १५७-३२
१६२. पाराशर स्मृति ४, ४-७
-गौतम धर्मशास्त्र, १४-११
10
१४२. प्रायो महाप्रस्थानम् (मष्करि भाष्य )
१४३ (क) अनाशकमभोजनं (मष्करि भाष्य ) । (ख) अनाशकमनशनम् । -याज्ञ. ३१६ की मिताक्षरा टीका १४४. चकारादन्यैरप्यैव भूतैरात्महननहेतुभिरिति द्रष्टव्यम्। -मष्करि भाष्य १४५. रामायण २, २९, २१ १४६. वही. ३, ४५, ३६-३७ १४७. वही २, ७४, ३३
१४८. महाभारत २, ५७, ३१, ३, ७, ५-६ १४९. वही. ३, ५६, ४
१५०. कोष्ठपाषाणशस्त्रविरभिर्य आत्मानम्"
- वशिष्ठ २३, १५
१५१. असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तामसावृताः । ता स् ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाः ।। १५२. उत्तररामचरित, अंक ४, श्लोक ३ के बाद का अंश।
१५३. बाल्मीकि रामायण ८३, ८३
१५४. आत्मनं घ्ननन्तीत्यात्महनः । के ते जनाः येऽविद्धांस..... अविद्यादोषेण विद्यमानस्यात्मनस्तिरस्करणात्..... प्राकृत विद्वांसो आत्महन उच्यन्ते ।
- ईशा. ३
G&P DA १४
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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला १६३. सुरां पीत्वा द्विजो महोदग्निवर्णा सुरां पिबेत् ।
तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्त त्तः ॥
-मनुस्मृति : ११, ९०, ९१, १०३, १०४
१६४. याज्ञवल्क्य स्मृति ३, २४८, ३-२५३ १६५. गौतम स्मृति २३, १
१६६. (क) वशिष्ठ स्मृति २०, १३-१४ (ख) आचार्य पुत्र शिष्य भार्यासु चैवम्
१६७. आपस्तंबीय धर्मसूत्र १९, २५, १-२-३-४-५-६-७
१६८. महाभारत अनुशासन पर्व, अ. १२
१६९. महाभारत अनुशासन पर्व २५, ६१-६४
१७०. वही. वनपर्व ८५-८३
१७१. मत्स्यपुराण १८६, ३४-३५
१७२. न वेदवचनात् तात ! न लोकवचनादपि । मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयाग मरणं प्रति ॥ १७३. कूर्मपुराण १, ३६, १४७, १, ३७३, ४ १७४. पद्मपुराण आदिकाण्ड, ४४-३, १-१६-१४, १५
१७५. स्कंदपुराण २२, ७६
१७६. मत्स्यपुराण १८६, ३४-३५
- वशिष्ठ स्मृति १२-१५
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-महाभारत, वनपर्व ८५, ८३
१७७. ब्रह्मपुराण ६८, ७५, १७७, १६-१७, १७७, २५ १७८. लिंगपुराण, ९२, १६८-१६९
१७९. अग्निपुराण १११, १३ १८०. मनुस्मृति ११६, ३१ १८१. याज्ञवल्क्य स्मृति ११३, ५५
१८२. महाभारत- महाप्रस्थानिक पर्व २१८, १२-१८-२३, ३, ५-७ तथा ३,
६-२२-२८
१८३. धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ. ४८७-डॉ. पा. वा. काणे
१८४. याज्ञवल्क्य स्मृति ३, ६ की अपरार्क टीका से उद्धृत । १८५. अत्रि स्मृति २१८-२१९
१८६. याज्ञ. १, ८६ की मिताक्षरी टीका
१८७. विष्णुपुराण ५, ३८, २
१८८. रामायण २, ६६, १२:५, १३, १९, ३०: ७, १७, १५ १८९. प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते ।
पूर्व-मृतं च भर्तारं पश्चात् साध्य्यनुगच्छति ।
६५५
-महाभारत १, ७४, ४६, १, १२५, ३०-३१
१९०. History of Suicide in India.
- Dr. Upendra Thakur. p. p. 107, 110-111 १९१. Thou shalt not kill, neither thyself nor mother. १९२. भृगुप्रपतनाद्राज्यं नाकपृष्ठनाशकात् ।
१९३. यज्ञ. ३, ६ टीका में अपरार्क द्वारा उद्धृत ।
१९४. महाभारत - अनुशासन पर्व ७, १८, १-९ १९५. संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादप्यतिरिच्यते।
-गीता. २, ३४
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
संलेषना-संथारा के कुछ प्रेरक प्रसंग
00000000000000000000
जी
करता रहता है।
-उपाध्यायश्री केवल मुनिजी संलेखना और संथारा के विषय में जो कुछ लिखा गया है, क्षणों में भी गजसुकुमार वैसे ही शान्त और ध्यान लीन रहे। शरीर
उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीवन की उस निष्काम, जल रहा है, रुधिर माँस जल रहा है, हड्डियाँ भी जल रही है; 19060030निःसंग और स्थितप्रज्ञ स्थिति में प्रवेश है, जहाँ न तो भोगों की परन्तु गजसुकुमार को जैसे इस वेदना से कुछ भी लेना-देना नहीं। Heap.. कामना शेष रहती है, न शरीर की आसक्ति। क्षुधा की पीड़ा, शरीर वे सोचते हैं-देह जलने पर मेरी आत्मा नहीं जलती, मेरे ज्ञान-दर्शन DED की वेदना, स्वजन और मित्रों की ममता और कषायों की तपन- और सुखमय स्वरूप पर कोई भी आँच नहीं आ रही है। जिसने
सब कुछ वहाँ शान्त हो जाती है। संयोग-वियोग जनित घटनाएँ। मुझे यह उपसर्ग किया है वह तो मुझे संसार से मुक्त होने में उसके अन्तर्मन को प्रभावित तो क्या, स्पर्श भी नहीं कर पाती। सहायता करने वाला मित्र है, सहायक है। इस प्रकार पवित्र प्रसन्न आलोयणा (आत्म-निरीक्षण एवं प्रायश्चित्त) द्वारा वह अपने } मनःस्थिति में ही खड़े-खड़े उनकी समूची देह लकड़ी के ढाँचे की मन-मस्तिष्क की शुद्धि कर लेता है। इस प्रकार साधक परम प्रसन्न, तरह जल जाती है परन्तु गजसुकुमार की समाधि, मारणांतिक शान्त और निर्विकार स्थिति में आत्म-रमण करने लगता है। सुख । संलेखना नहीं टूटती। उसी रात्रि में उनका मोक्ष हो जाता है। दुख की बाह्य अनुभूतियाँ उसके अन्तर् में प्रवेश नहीं कर पातीं।
मुनि गजसुकुमार ने यद्यपि दीर्घकालीन संलेखना संथारा का अन्तर्तम में वह प्रतिपल परमानन्द-परम प्रसन्न स्थिति का अनुभव
आचरण नहीं किया था, परन्तु एक ही रात्रि के समाधियोग में
अपार सहिष्णुता और आत्म-लीनता का जो उदाहरण प्रस्तुत किया, 50000 प्राचीन काल से लेकर आज तक अगणित साधकों ने इस पथ वह समाधिमरण का एक अनूठा उदाहरण है।' SonD. का अनुसरण कर जीवन को कृतार्थ किया है, मृत्यु को मंगलमय
इसी अन्तकृद्दशा सूत्र में इस प्रकार के नब्बे साधकों का बनाया है और जीवन के अन्तिम क्षणों में उस दिव्य स्थिति का
वर्णन आता है। जिन्होंने विविध प्रकार की दीर्घकालीन तपस्याएँ अनुभव किया है जिसका वर्णन शब्द नहीं कर सकते। केवल
की, काली-महाकाली आदि आर्याओं ने तथा गौतम कुमार, जाली, अन्तिम समय में तपस्वि-साधकों के भावों से प्रकट होता है। उनकी
मयालि, आदि अणगार श्रमणों ने पहले तपस्या करके शरीर को प्रसन्न मुद्रा से झलकता है अद्भुत तेज, प्रकाश और अनिर्वचनीय
कृश किया, फिर धीरे-धीरे मासिक अनशन, मारणांतिक संलेखना शान्ति।
संथारा द्वारा शरीर त्यागकर मोक्ष प्राप्त किया। जैन आगमों में इस प्रकार के अनेकानेक वर्णन उपलब्ध हैं,
धन्ना अणगार की संलेखना-संथारा जिन्हें पढ़/सुनकर उन साधकों की इस दिव्य स्थिति की कल्पना की जा सकती है।
अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र में काकंदी नगर में जन्मे धन्ना
अणगार आदि तपस्वियों के जो वर्णन उपलब्ध हैं, उन्हें पढ़ने से मृत्युंजयी-गजसुकुमार
मन रोमांचित हो उठता है। सुख-सुविधाओं में पलने वाला, धन्ना जैन आगमों में समाधिमरण की एक बहुत प्राचीन घटना है- जैसा श्रेष्ठीपुत्र जब विरक्त होकर साधना पथ पर बढ़ता है तो पीछे sarosaca समत्वयोगी गजसुकुमार की।
मुड़ कर नहीं देखता। स्वाध्याय, ध्यान आदि के साथ-साथ लम्बी वासुदेव श्रीकृष्ण के छोटे भाई युवक गजसुकुमार भगवान
तपस्याएँ करते हुए उसके सुकुमार सम्पुष्ट देह की क्या स्थिति हुई अरिष्टनेमि के पास जिस दिन दीक्षा लेते हैं, उसी दिन मध्यान्ह के
इसका रोमांचक वर्णन आगम की भाषा में इस प्रकार हैबाद वे महाकाल श्मशान में जाकर एक अहोरात्रि की महाभिक्षु “दीर्घ तपस्या के कारण धन्ना अणगार के शरीर का रुधिर प्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ हो जाते हैं। कायोत्सर्ग की इस मुद्रा माँस सब कुछ सूख गया था। उनकी कटि (कमर) इतनी पतली हो में वे देह के आधार पर स्थित जरूर हैं, परन्तु देह के सुख-दुख की गई थी, जैसे ऊँट का पैर हो, अथवा किसी बूढ़े बैल का पैर हो। अनुभूतियों से मुक्त होकर आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं। उस
उनके घुटने इतने दुर्बल कृश हो गये थे, जैसे मयूर के पैर हों। समय सोमिल नामक व्यक्ति ने पूर्व वैर का बदला लेने के लिए उनके सिर पर मिट्टी की पाल बाँधी और उसमें धधकते अंगारे
धन्ना अणगार का उदर माँस सूखकर ऐसे दीखता था जैसे, लाकर डाल दिये। गजसुकुमार का शरीर जलने लगा, खिचड़ी की तरह माँस और रुधिर तपने/पकने लगा। कितनी असह्य मारणांतिक दीर्घ तप के कारण उनका सम्पूर्ण शरीर सूखकर काँटा हो गया वेदना, पीड़ा हुई होगी? मन की आँखों से उस दृश्य की कल्पना था। एक कंकाल की तरह ! उसमें सिर्फ हड्डी, नसें और चमड़ी ही करने पर आज भी रोम-रोम काँपने लगता है। इस उदग्र पीड़ा के दीखती थी। रुधिर माँस का वहाँ दर्शन भी नहीं होता था।
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| संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
६५७ । किन्तु इतनी दुर्बलता में भी उनके चेहरे पर एक अद्भुत तेजजी म. का यह संथारा आज भी हजारों साधकों के लिए प्रेरणा का और प्रकाश दमकता था, जैसे हवन की अग्नि अपने तेज से प्रकाश पुंज बना हुआ है। शोभित होती है, वैसे उनका शरीर तपस्तेज से अतीव -अतीव
आनन्दमय समाधिमरण की यह अविच्छिन्न परम्परा जैन दीप्त/शोभित होता रहता था।२
परम्परा में आज भी प्रचलित है। श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों ही धन्ना अणगार इस प्रकार दीर्घकालीन तपस्या (संलेखना) करने आम्नायों में आज भी संलेखना, समाधिमरण, संथारा का वही के पश्चात् अपने शरीर को निःसत्व समझकर अन्तिम समय में महत्व है। संलेखना जीवन की परम उपलब्धि है। प्रत्येक साधक की संथारा करने के लिए भगवान की आज्ञा लेकर विपुलाचल पर्वत यह अन्तर् अभिलाषा रहती है कि मैं जीवन के अन्तिम समय में पर आरोहण करते हैं और वहाँ व्रतों की आलोयणा/प्रायश्चित्त संलेखना संथारा करके जीवन को कृतकृत्य करता हुआ, आदि करके समस्त जीव राशि के साथ क्षमापना और परम मैत्री समाधिपूर्वक प्राण त्याग करूँ। भावना करते हुए मासिक संलेखना (संथारा) पूर्वक उच्च शुद्ध
आज के युग में संथारा के कुछ विशिष्ट उदाहरण हमारे सामने शान्त भावों के साथ देह त्यागकर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न
हैं, जिनकी संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रासंगिक होगी। होते हैं।
तपस्वी जगजीवन मुनिजी का संथाराआगमों के इन वर्णनों से यह भी ध्वनित होता है कि जैन परम्परा में हजारों शताब्दियों पूर्व भी जीवन-मरण का यह
सौराष्ट्र में जन्मे तपस्वी श्री जगजीवन जी म. स्थानकवासी आत्म-विज्ञान उपलब्ध था जिसके अनुसार हजारों हजार साधक
जैन परम्परा के एक प्रभावशाली सन्त थे। संसार सरोवर में कमल की भाँति निर्लिप्त जीवन जीते हुए अन्तिम । वि. सं. १९४३ में दलखाणिया (सौराष्ट्र) में उनका जन्म हुआ। समय में धीरे-धीरे शरीर को तपस्या द्वारा कृश करते, मोह कषाय | जीवन की प्रौढ़ अवस्था में अपना भरा पूरा समृद्ध परिवार, धन आदि वासनाओं को ध्यान द्वारा भस्मीभूत करते, परमसमाधि पूर्वक वैभव, मान प्रतिष्ठा आदि का मोह त्याग कर बड़े वैराग्य भाव के शरीर का त्याग करके सद्गति का वरण करते थे।
साथ अपने एक पुत्र तथा दो पुत्रियों के साथ जैन दीक्षा ग्रहण की। पूज्य श्री धर्मदासजी म. का संथारा
गुजरात आदि प्रदेशों में विचरने के पश्चात् पूर्व भारत में विहार
करने लगे। लगभग ८२ वर्ष की अवस्था में उन्हें शरीर की वर्तमान समय की चर्चा करने से पहले इतिहास प्रसिद्ध एक
अशक्तता का अनुभव होने लगा। उनके मन में संकल्प उठा कि अब घटना का उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा।
मैं भगवान महावीर की उपदेश भूमि राजगृह के उदयगिरि पर्वत स्थानकवासी सम्प्रदाय के आदि पुरुष पूज्य श्री धर्मदासजी पर जाकर संलेखना संथारा पूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग करूँ। महाराज एक महान् वैरागी और वज़ संकल्प के धनी संत थे। वि. उनके योग-शुद्ध अन्तःकरण में यह प्रतिभास होने लगा कि अब सं. १७०१ में सरखेज (अहमदाबाद) में आपका जन्म हुआ और यह शरीर अधिक दिन टिकने वाला नहीं है। अतः मैं ध्यान, वि. सं. १७२१ में संयम ग्रहण किया। आपके ९९ शिष्य हुए। समाधि और समतापूर्वक संलेखना करते हुए इस शरीर को मृत्यु जिनमें २२ शिष्य बहुत विद्वान और प्रभावशाली थे, जिनके कारण आने से पूर्व ही मृत्यु के लिए तैयार कर लूँ और एक समाधिपूर्ण आगे चलकर बाईस सम्प्रदाय प्रसिद्ध हुए।
सजग मृत्यु का वरण करूँ। एक बार धार में आपके एक शिष्य ने अपरिपक्व मनोदशा में इस लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर अत्यन्त दृढ़ मनोबल के साथ संथारा ग्रहण कर लिया, कुछ दिन बाद उसकी मनःस्थिति डांवाडोल मुनिश्री जी ने उदयगिरि पर्वत की तलहटी में पहुँचकर तपस्या हो उठी। आचार्यश्री ने जब यह घटना सुनी तो बड़ा दुख हुआ। संलेखना का प्रारम्भ किया। संलेखना के प्रारम्भिक काल में सोचा-"यदि साधु संथारे से उठ जायेगा तो जैन धर्म की बड़ी शारीरिक दृष्टि से अशक्त तो थे, परन्तु विशेष अस्वस्थ नहीं थे। निन्दा होगी। जैन श्रमण के त्याग और नियम का ही तो महत्व है, एक मास के निरन्तर उपवास से उनका शरीर सूखता चला गया। स्वीकत प्रतिज्ञा भंग होने से तो जैन मुनियों की गरिमा को चोट किन्तु वाणी में वही ओज था। चेहरे पर पहले से भी अधिक स्फूर्ति पहुँचेगी।"
और चमक थी। इस संलेखना के क्रम में भारत के सुदूर अंचलों से आपश्री ने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया और उग्र विहार कर हजारों श्रद्धालु मुनिजी के दर्शनार्थ आने लगे। बिहार के राज्यपाल, धार पहुँचे, मुनि को समझाया-स्वीकृत प्रतिज्ञा से हटना उचित नहीं मुख्यमंत्री आदि अनेकानेक राजनेता, पत्रकार, साहित्यकारों का भी है। किन्तु जब वह मुनि स्थिर नहीं हो सका तो पूज्य श्री ने उसको तपस्वी मुनिजी के दर्शनार्थ आने का ताँता लग गया। जापान के वहाँ से उठाया और स्वयं को संथारे के लिए समर्पित कर दिया। 1 बौद्ध धर्म गुरु श्री फुजी गुरुजी भी अपनी शिष्य मण्डली सहित स्वीकृत नियम और धर्म गरिमा की रक्षा के लिए उन्होंने प्राणों का आये, और बौद्ध धर्म पद्धति के अनुसार मुनिजी की स्तुति वन्दना मोह त्यागकर एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। पूज्य धर्मदास } करते हुए बोले-"मैं ८४ वर्ष का हूँ, आपके पीछे-पीछे मैं भी आ
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रहा हूँ।" संलेखना तपस्या के उनतीसवें दिन मुनिश्री जी ने यावज्जीवन संथारा ग्रहण करने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की । तदनुसार उनके लिए ४४६ का एक घास का विछीना (संस्तारक) विछाया गया। मुनिजी उसी पर आसीन हुए जो संथारे के अंतिम क्षण तक उसी मर्यादा में रहे व्रतों की आलोयणा एवं प्रायश्चित्त आदि करके मुनिश्री ने अरिहंत सिद्ध भगवान को नमस्कार करके यावज्जीवन संथारा पचखा। संथारा पचख लेने के बाद उनके चेहरे पर निश्चिंतता, प्रसन्नता और अपूर्व समाधि का भाव प्रकट हो रहा था। जो इसके पहले कभी नहीं देखा गया।
इकतालीसवें दिन दार्शनिक संत आचार्य विनोबा भावे राजगृह आये, और सीधे तपस्वीजी के दर्शन करने उदयगिरि की तलहटी में पहुँचे। विनोबाजी ने तपस्वी जी के चरणों में अपना सिर रख दिया और गद्गद् होकर गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ योगी के शान्त स्वरूप का साक्षात् किया। उन्होंने मुनिश्री जी से रस ग्रहण करने तथा पानी चालू रखने की भी विनती की। तपस्वी जी ने दृढ़ता के साथ प्रेमपूर्वक कहा - " अब खाने-पीने की बात करने का समय निकल चुका है।" श्री जयप्रकाश नारायण भी सपत्नीक तपस्वीजी के दर्शन करने आये उनका तपस्तेज और प्रसन्न मुखमुद्रा देखकर नतमस्तक हो गये।
तपस्या काल में मुनिजी अधिकतर मौन और ध्यानस्थ जैसे रहते। ४२वें दिन जैसे उनको कुछ अन्तरज्ञान हो गया हो, अपने पुत्र जयंत मुनिजी की हथेली पर लिखकर सूचना दी - “हवे मने असातानो उदय थशे, परन्तु गबराशो नहीं ।" अब शरीर में कुछ असाता का उदय होगा, किन्तु तुम लोग घबराओगे नहीं। इसके बाद मुनिजी के शरीर में निर्जल उपवास की गर्मी से कई प्रकार की असह्य व्याधियाँ उठ खड़ी हुईं, किन्तु उस असह्य शारीरिक वेदना में भी मुनिजी अत्यन्त शांत और प्रसन्न थे। अन्तिम समय तक उनके अन्दर सजगता बनी रही। अन्तिम क्षणों की महावेदना को भी शांति के साथ भोगते रहे। ४५वें अन्तिम दिन शरीर त्यागने से कुछ समय पूर्व ही वे लगभग स्थिर योगमुद्रा में लीन से हो गये। मृत्यु के समय न कोई हिचकी आई न आँखें फटीं । जिस मुद्रा में सोये थे, उसी मुद्रा में चिर स्थिरता प्राप्त कर ली । ४
तपस्वी जगजीवन मुनिजी का यह संलेखना संधारा हजारों प्रबुद्ध व्यक्तियों ने देखा और यह अनुभव किया कि जीवन को कृतार्थता के शिखर पर चढ़ाने की यह कला, समाधिपूर्वक देह त्याग की यह आत्मविजयी शैली हर साधक की अंतिम मनोकामना है।
तपस्वी श्री चतुरलालजी म. का संथारा
सौराष्ट्र में दरियापुरी सम्प्रदाय की परम्परा में तपस्वी श्री चतुरलालजी महाराज का संधारा बहुत प्रसिद्ध व प्रभावशाली माना जाता है। उनमें शरीर की असह्य वेदना के प्रति अपार तितिक्षा और सहिष्णुता का भाव देखकर जनता आश्चर्य मुग्ध थी।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
मुनिश्री का जन्म वि. सं. १९३६, चैत्र मास में सौराष्ट्र के पींज ग्राम में हुआ। लगभग २३ वर्ष की भर जवानी में ही हृदय में तपस्या की लौ जल उठी अनेक प्रकार की तपस्याएँ की स्वाध्याय, सामायिक आदि करने लगे।
वि. सं. १९९५, साठ वर्ष की उम्र में पूज्य भायचन्द्र जी महाराज के पास भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की श्री चतुरलालजी महाराज स्वभाव से बहुत ही सरल और अत्यन्त करुणाशील थे। दीक्षा के बाद वे निरन्तर एकान्तर तप करते रहे। जीवन में उन्होंने ८ मासखमण तप किये, व अन्य भी अनेक प्रकार की तपस्याएँ कीं ।
लगभग ८२ वर्ष की उम्र में उन्हें प्रोटस्टेट ग्रंथि की असह्य वेदना उठी। डाक्टरों ने आपरेशन के लिए कहा, किन्तु तपस्वीजी ने आपरेशन की जो विधि पूछी तो उन्हें लगा, इसमें मेरे गृहीत महाव्रतों में दोष लगेगा अनेक विकल्पों के पश्चात् उन्होंने मन ही मन में निर्णय लिया
इदं शरीरं परिणामपेशलं पतत्यवश्यं श्लथसंधि जर्जरम किमीषः क्लिश्यसि मूढ दुर्मते ! निरामयं वीर रसायनं पिव!
-यह शरीर क्षण विनाशी है, रोगों का धाम है, कितनी ही इसकी संभाल व रक्षा करो, एक दिन अवश्यमेव नष्ट होगा। फिर हे अज्ञानी जीव ! औषधि आदि से रक्षण करने का क्लेशदायी मोह क्यों करता है ? वीर वचन रूपी रसायन का पान कर, जिससे तू पूर्ण निरामयता प्राप्त कर सकेगा।
शरीर और आत्मा की पृथक्ता का बोध करते-करते मुनिजी धीरे-धीरे शरीर के प्रति अनासक्त होते गये वेदनाओं से जूझते रहे, और जब देखा, अब यह शरीर नष्ट होने वाला है, मेरी निर्दोष साधुचर्या के योग्य नहीं रहा है, तो उन्होंने संलेखना (क्रमिक तपस्या) प्रारंभ कर दी। १५ दिन की संलेखना के पश्चात् उन्होंने यावज्जीवन अनशनव्रत ग्रहण कर लिया। हजारों श्रद्धालु जनों ने उनके दर्शन किये और देखा कि रोगों से आक्रांत शरीर के प्रति बे एकदम ही निरपेक्ष थे। जैसे शरीर की वेदना उनके मन को किंचित् मात्र भी स्पर्श नहीं कर रही है। उनके चेहरे पर अपूर्व शांति झलकती थी।
उपवास के ४२वें दिन अर्थात् अनशन संथारा के २८वें दिन जीवन की अन्तिम घड़ी में आलोयणा आदि करके चौविहार अनशन स्वीकार कर लिया। उस समय उनके अन्तःकरण में जो आनन्द और प्रफुल्लता उमड़ी उसकी झलक उनके चेहरे पर देखकर दर्शक मुग्ध हो उठे। कहते हैं कि उस उज्ज्वल परिणाम धारा में कोई विशिष्ट ज्ञान भी हुआ, ऐसा संभव लगता है। उन्होंने अपने भाव प्रकट करने चाहे, किन्तु वाणी की शक्ति लगभग क्षीण हो चुकी थी, इसलिए एक कागज व पैन लेकर उन्होंने लिखा
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संथारा - संलेषणा : समाधिमरण की कला
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“पांचमुं देवलोक वि. १८० मुकटा" उपस्थित दर्शकों का अनुमान है कि संभव है उन्होंने अपने आगामी भव के विषय में जो अनुभूति हुई "पाँचवा देवलोक का मुक्ता नामक १८० विमान", यह प्रकट करना चाहा।
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२२ अक्टूबर की अन्तिम रात्रि लगभग चार बजे जहाँ तपस्वी जी का संथारा बिछा था, उस कोटडी में अचानक एक दिव्य प्रकाश सा प्रविष्ट हुआ और कुछ ही क्षणों में धीरे-धीरे प्रकाश तुप्त हो
गया।
२५ अक्टूबर को मध्यान्ह में ४२ दिन के संलेखना, संथारा पूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया । ५
महासती कंकुजी म. का संधारा
पूज्य माता महासती कंकुबाई महाराज के हृदय में संधारा की प्रबल भावना थी। वे अनेक बार मुझसे कहते थे-“मैं अन्तिम समय में संधारा के बिना नहीं चली जाऊँ आप मुझे अवश्य सहयोग करना। माता का जीवन ही नहीं, मरण भी मंगलमय बना देने वाला पुत्र ही सुपुत्र होता है इसलिए आप मेरा ध्यान रखना।" उन्होंने जीवन में अनेक लम्बी-लम्बी तपस्याएँ कीं उदर व्याधि से पीड़ित होने पर भी तप के प्रति मन में गहरी निष्ठा थी। अनुराग था। अन्तिम समय में जब शरीर घोर व्याधि से ग्रस्त हुआ और जीवन की स्थिति डॉवाडोल लगने लगी तब आपने अत्यन्त धैर्य व साहस के साथ कहा- " अब मेरा अन्तिम समय निकट दीख रहा है, अतः मुझे दवा आदि कुछ नहीं चाहिए। सब कुछ छोड़कर अब मुझे संथारा करवा दीजिए। मेरा जीवन सफल हो जायेगा।"
मैंने देखा - पूज्य महासती जी का शरीर एक तर्फ व्याधि से पीड़ित था। डॉक्टर आदि दवा के लिए आग्रह कर रहे थे। दूसरी तर्फ वे व्याधियों की वेदना से असंग जैसे होकर कहते हैं- "बीमारी तो शरीर को है, शरीर भुगत रहा है; मेरी आत्मा तो रोग-शोकपीड़ा से मुक्त है। अब मैं आत्मभाव में स्थित हूँ, मुझे शरीर व्याथि की कोई पीड़ानुभूति नहीं है, मुझे संथारा पचखा दो, मेरा मन प्रसन्न है। मेरी आत्मा प्रसन्न है। "
शरीर के प्रति इस प्रकार की अनासक्ति तभी होती है जब साधक के मन में भेद-विज्ञान की ज्योति जल उठती है, शरीर और आत्मा की पृथक्ता का अनुभव होने लगता है और शरीर के सुख-दुःख से मन असंग अप्रभावित रहता है।
गुप्ततपस्वी श्री रोशनलालजी म.
तपस्वी श्री रोशनलालजी म. का संथारा यद्यपि बहुत लम्बा नहीं हुआ, किन्तु उनके जीवन में संलेखना -तप का बड़ा आश्चर्यजनक रूप देखने को मिलता है महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे गुप्त तपस्वी थे। लम्बी-लम्बी तपस्याएँ चलती रहतीं, श्रावक दर्शन करने आते और चले जाते, परन्तु किसी को उनके दीर्घ तप का पता नहीं चलता। जब पारणा हो जाता, तब लोग आश्चर्यपूर्वक
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सुनते, आज तपस्वीजी का ३२ या ३०ब दिन के उपवास का पारणा हुआ। गुप्त तप के साथ शान्ति, समभाव और स्वाध्यायलीनता भी अद्भुत थी। जीवन में उन्होंने अनेक लम्बी तपस्याएँ व एकान्तर तप किये।
एक बार उनके उदर में भयंकर दर्द उठा, दर्द असह्य होता चला गया तब अचानक उनके मन में संकल्प उठा - " अब इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है, कब रोगों का आक्रमण हो जाय। अतः कल से ही मैं बेले-बेले निरन्तर तप करूँगा।" इस वज्र संकल्प का आश्चर्यकारक प्रभाव हुआ कि थोड़ी ही देर में पेट का असह्य शूल शान्त हो गया। दूसरे दिन ही आपने बेले-बेले तप प्रारंभ कर दिया, जो निरन्तर १२ वर्ष तक चलता रहा।
तप का प्रभाव
सन् १९६५ में मेरा चातुर्मास सिकन्द्राबाद था। उस समय तपस्वी रोशनलालजी म. जोधपुर में चातुर्मास कर रहे थे। उस समय पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था। जोधपुर सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ठिकाना था पाकिस्तान ने जोधपुर को अपने बमों का निशाना बनाया। सिकन्द्राबाद में भी जोधपुर के अनेक लोग रहते थे। जोधपुर पर बम गिरने की बातें सुन-सुनकर वे बड़े चिन्तित हो रहे थे। एक दिन मैंने अपने प्रवचन में कहा- जोधपुर के आसपास चाहे जितने बम गिरें, परन्तु जोधपुर शहर को कोई खतरा नहीं हो सकता। लोगों ने पूछा - "क्यों ?"
मैंने कहा- "वहाँ तपस्वी रोशनलालजी म. का चातुर्मास है। जहाँ पर ऐसे घोर तपस्वी सन्त विराजमान हो, वहाँ पर शत्रु के भयंकर प्रहार भी निष्फल हो जाते हैं।” आश्चर्य की बात है कि जोधपुर पर पाकिस्तान के विमानों ने सैकड़ों बम गिराये, परन्तु सभी के निशाने चूकते गये, जोधपुर शहर को कुछ भी क्षति नहीं हुई।
तपस्वी रोशनलालजी म. का यह प्रत्यक्ष तपः प्रभाव सभी लोगों ने अनुभव किया।
वि. सं. १९८२ में श्रीनगर (दिल्ली) में जब वे अत्यधिक अस्वस्थ हो गये तो शिष्यों को संकेत कर उन्होंने चौविहार संथारा पचख लिया। २ दिन के स्वल्पकालिक संथारा पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया।
तपस्वी जी के मन में समभाव और जीवन के प्रति अनासक्ति का जो स्वरूप मैंने देखा वह किसी विरले ही सन्त में दिखाई देता है।
तपस्वी बद्रीप्रसाद जी म. का संथारा
तपस्वी श्री बद्रीप्रसाद जी म. का संधारा इस दशक में बहुत ही चर्चित रहा है। इस संथारे की प्रतिक्रिया लगभग सर्वत्र अच्छी प्रभावनाशील रही।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । तपस्वी जी का जन्म सन् १९०६ में हरियाणा के रिण्ढाणा १६ सितम्बर तक तो शरीर अस्थिसंहनन (हड्डियों का ढाँचा (सोनीपत) ग्राम में हुआ। सन् १९४५ में व्याख्यान वाचस्पति श्री मात्र) रह गया। पसलियों को एक-दो-तीन करके गिना जा सकता मदनलालजी म. के पास भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की और | था। पांवों और हाथों की खाल ऐसे लटक गई थी जैसे पुराने वट सन् १९८७, सोनीपत में ७३ दिन के संथारा पूर्वक स्वर्गवास वृक्ष की शाखाएँ लटक जाती हैं.....। किन्तु उनके चेहरे पर काफी हो गया।
चमक थी, जो आत्मा की प्रसन्नता प्रकट करती थी। सशक्तता भी आपने जीवन में कोई विशेष लम्बी तपस्याएँ नहीं की, किन्तु
थी। ८ अक्टूबर से तो जल का भी त्याग कर दिया था। १० जीवन के संध्याकाल में जिस प्रकार दीर्घ संथारा संलेखना करके अक्टूबर को सुन्दर मुनि के पूछने पर उन्होंने कहा-"मैं अब मृत्यु जीवन को कृतार्थ किया और समूचे विश्व में जैन जीवन शैली को
से अतीत पार का जीवन जी रहा हूँ। मेरा मन बहुत प्रसन्न है...... प्रतिष्ठित किया, यह सचमुच एक ऐतिहासिक कार्य हुआ।
जिस शान्त तेजोमय शक्ति से जी रहा हूँ। वह वाणी से अगम्य _सन् १९८७ के अगस्त मास में महान तपस्वी जैन सन्त श्री
। है..... तुम चाहो तो उसका अनुभव कर सकते हो......." बद्री प्रसादजी म. ने देहली के निकट सोनीपत (हरियाणा) में ७३ ११ अक्टूबर से उन्होंने सम्पूर्ण मौनव्रत धारण कर लिया... दिन का सुदीर्घ संथारा किया था, देश-विदेश की समाचार और १६ अक्टूबर को ७३ दिन के दीर्घ अनशन काल में ऐजेन्सियाँ-पी. टी. आई., यू. एन. आई. आदि के प्रतिनिधियों ने समाधिपूर्वक देह त्याग किया। प्राण त्यागते समय बिल्कुल शान्ति के वहाँ जाकर जो कुछ देखा, समझा, वह उनकी भौतिक समझ से परे । साथ उन्होंने नाभिकेन्द्र को झकझोरा, तीन लम्बे साँस लिये, आँखें था। अनेक डाक्टर, वकील, बड़े-बड़े राजनेता, सामाजिक पूरी खुल गई, केश खड़े हो गये।... एक प्रकाश पुंज निकलता सा कार्यकर्ताओं ने भी तपस्वीजी के दर्शन किये, उनसे बातचीत की। प्रतीत हुआ। शरीर एवं मन की स्थितियाँ देखीं तो सभी ने यह अनुभव किया
इस महान तपस्वी के संथारा का प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले कि शरीर की स्थिति अत्यन्त क्षीण व निराशाजनक होते हुए भी
सैंकड़ों हजारों जनों ने अध्यात्मशक्ति को सहज अनुभव किया, उनके चेहरे पर तेज-ओज था। उनकी वाणी में दृढ़ता और जीवन
अन्तःकरण में यह भावना भी कि-'हे प्रभु ! हमें भी इसी प्रकार के प्रति अनासक्ति एवं मृत्यु के प्रति अभय भावना बड़ी अद्भुत व
का शान्तिपूर्वक समाधिमरण प्राप्त हो।" किन्तु कुछ सांप्रदायिक आश्चर्यजनक थी। ऐसा लग रहा था कि शरीर की क्षीण दीवट में
भावना रखने वाले, धर्म और अध्यात्म नाम से ही नफरत करने दिव्य आत्म-ज्योति दीपक दीप्तिमान है।
वाले लोगों ने इस संथारा पर टीका टिप्पणी भी की। प्रश्नचिन्ह भी तपस्वी जी के अन्तेवासी श्री सुन्दरमुनिजी की रिपोर्ट के । लगाये...... किन्तु फिर भी इस भौतिकवादी युग में यह एक ऐसा अनुसार १९ जुलाई से ४ अगस्त के बीच सिर की चोट, फिर हार्ट प्रत्यक्ष उदाहरण था जिसने सभी को अध्यात्म की अगम्य-शक्ति के के एनाजाइना पेन, तथा बाद में दस्त आदि के कारण उनकी शरीर समक्ष नतमस्तक कर दिया। स्थिति अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी। ४ अगस्त को डॉक्टरों ने उनके
मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के प्रति किस प्रकार निरपेक्ष शरीर का परीक्षण करके कहा-मुनिजी के शरीर का जल खत्म हो
होकर शान्ति एवं समाधिपूर्वक जी सकता है, और मर भी चुका है। अतः तुरन्त ग्लूकोज दिया जाये अन्यथा २४ घंटा से अधिक जीवित रह पाना संभव नहीं है। किन्तु उस स्थिति में
सकता है। इस विषय पर सोचने को बाध्य करता है। मृत्यु का मुनिश्री बद्रीप्रसाद जी ने बार-बार अपने शिष्यों से आग्रह करके
सहज वरण करने की यह अध्यात्म प्रक्रिया-शान्ति मृत्यु का मार्ग
प्रशस्त करती है। कहा-"अब मुझे न कोई दवा की जरूरत है, और न ही अन्य किसी चीज की। मैं जीवन भर के लिए अन्न को त्यागकर । आचार्य श्री हस्तीमलजी म. का आदर्श समाधिमरण शान्तिपूर्वक आत्मस्थ होना चाहता हूँ। मुझे शास्त्र सुनाओ और भक्ति
आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज इस युग के एक अत्यन्त पूर्ण स्तोत्र आदि का निरन्तर पाठ कराओ।"
प्रभावशाली चारित्रनिष्ठ बहुश्रुत आचार्य हुए हैं। उन्होंने जीवन भर ५ अगस्त को उन्होंने संथारा व्रत ग्रहण किया। उसके २६ घंटा सामायिक-स्वाध्याय, व्यसन मुक्त जीवन के लिए हजारों हजार बाद उनकी शारीरिक स्थिति में एकाएक परिवर्तन आने लग गया। । व्यक्तियों को प्रेरणा और मार्गदर्शन दिया। जैन धर्म के इतिहास पहले जबान लड़खड़ा रही थी, किन्तु अब वह स्पष्ट और लेखन का एक विशिष्ट कार्य किया। शरीर से सामान्य कृशकाय थे। सशक्त हो गई। पहले उनका चेहरा मुझाया था, किन्तु २६ घंटा बाद | परन्तु उनका मनोबल अद्भुत था। वैसे जीवन में तेले से अधिक जैसे भीतर से आभा दमक कर फूटकर बाहर आ रही है, मुख । का दीर्घ तपश्चरण नहीं कर सके, किन्तु जीवन के संध्याकाल में, मुद्रा तेजस्वी दीखने लगी। शरीर- स्थिति में यह आश्चर्य- अत्यधिक शारीरिक अस्वस्थता के बाबजूद अचानक ही इतना जनक रासायनिक परिवर्तन आ गया, जो शरीर विज्ञान की समझ अद्भुत आत्मबल जागृत हुआ कि तप संलेखना करते हुए से परे था।
यावज्जीवन संथारा की स्थिति में पहुँच गये।
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2009
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। संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
वि. सं. १९६७ पोषसुदि १४ को पीपाड़ (राजस्थान) में । लगा, अब शरीर काफी अशक्त हो गया है। चलने-फिरने, उठने में आचार्यश्री का जन्म हुआ।
भी ग्लानि अनुभव होती है, खाते-पीते अचानक ये प्राण निकल वि. सं. १९७७ माघसुदि-२, १० वर्ष की अवस्था में भागवती
जायें, इससे तो श्रेष्ठ है तप, स्वाध्याय, आलोयणा-प्रायश्चित्त आदि दीक्षा ग्रहण की।
से जीवन को विशुद्ध बनाकर शरीर के प्रति निर्मोह स्थिति में मित्र
की भांति मृत्यु का स्वागत किया जाये। अस्सीवें वर्ष में शारीरिक अस्वस्थता के कारण उन्हें आयुष्य बल की क्षीणता का अनुभव हुआ। अन्तर्दृष्टि से मृत्यु को नजदीक
बस इस महान संकल्प के साथ उन्होंने तपस्या (संलेखना) व्रत आता देखकर सहसा उन्होंने चौविहार तेला (३ दिन का उपवास)
प्रारंभ किया। बीसवें उपवास के दिन, २७ जनवरी को उन्होंने किया। डॉक्टरों ने तथा शिष्यों, श्रावकों आदि ने तरल आहार
चतुर्विध श्री संघ के समक्ष पूर्ण जागृत अवस्था में संथारा ग्रहण ग्रहण करने तथा ग्लुकोज, ड्रिप इंजेक्शन आदि लेने के लिए।
किया। श्रावकों को अपने मुख से अन्तिम बार मंगलपाठ सुनाया। बहुत-बहुत आग्रह किया। किन्तु आचार्य श्री अपने लक्ष्य के प्रति ।
| पूर्ण समाधिभाव पूर्वक १४ दिन का संथारा पूर्णकर ३३ दिन का स्थिर हो चुके थे। उन्होंने सभी को एक ही उत्तर दिया-'मेरे जीवन ।
संलेखना-संथारा की आराधना कर पंडित मरण प्राप्त किया। की समाधि में कोई विघ्न मत डालो, अब मुझे मौन आत्मलीनता में आपके संथारा की स्थिति में अनेक साधु साध्वियों ने दर्शन ही आनन्द की अनुभूति होती है।'
किये। अनेक राजनेता तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी संथारा में अत्यधिक शारीरिक दुर्बलता के बाबजूद भी उनकी मुखमुद्रा
आपके दर्शन किये और चेहरे पर जीवन के प्रति कृतकृत्यता और पर तेज और वाणी में अदम्य आत्म विश्वास था। तीन दिन के
प्रसन्नता की अनुभूति देखकर धन्य-धन्य कहने लगे। चौविहार तप के बाद उन्होंने यावज्जीवन संथारा के लिए अपनी इस प्रकार संथारा संलेखना के प्राचीन तथा वर्तमान कालिक अन्तर् इच्छा प्रकट की। उनकी समाधिलीन स्थिति देखकर दर्शक । उदाहरणों पर दृष्टिपात करने से एक बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि भाव विमुग्ध हो रहे थे। चौथे दिन यावज्जीवन संथारा स्वीकार जीवन के प्रति निर्मोह दशा आने पर ही मन में संथारा का संकल्प किया और बड़े समाधिभाव के साथ संथारे के दसवें दिन निमाज उठता है। जब तक शरीर व प्राणों के प्रति जरा सी भी आसक्ति (राजस्थान) में स्वर्गवासी हुए।
रहती है-अन्न-जल का त्याग नहीं किया जा सकता। शरीर के प्रति आचार्य श्री के संथारे की स्थिति में हजारों श्रावकों के
पूर्ण अनासक्ति और मृत्यु के प्रति संपूर्ण अभय भावना जागृत होने अतिरिक्त मुसलमान व अन्य धर्मावलम्बियों ने भी उनके दर्शन
पर ही संथारा स्वीकार किया जाता है और पूर्ण समाधिपूर्वक किये, और जिसने भी उनकी इस समाधिस्थ प्रशान्त स्थिति को
जीवन को कृत-कृत्य बनाया जाता है। त्यागी उच्च मनोबली संत देखा, वह अन्तःकरण से उनके प्रति श्रद्धावनत हो गया।
सतियाँ समय-समय पर होते रहे हैं। जिन्होंने जीवन को संथारा
| संलेखना द्वारा कृतार्थ किया। प्रवर्तक श्री कल्याणऋषिजी का दीर्घ संलेखना-संथारा
इस प्रकार की प्राचीन व वर्तमानकालीन घटनाओं का अभी सन् १९९४ में श्रमण संघ के वयोवृद्ध संत प्रवर्तक श्री ।
विश्लेषण यही बताता है कि मनुष्य ही नहीं, किन्तु कुछ विवेकवान कल्याणऋषि जी के संलेखना-संथारा की घटना तो सभी ने सुनी है।
अन्य प्राणियों में भी जीवन के अन्तिम क्षणों में एक विचित्र उन्होंने पूर्ण सचेतन अवस्था में जीवन का संध्या काल निकट
समाधि, शान्ति व सौम्यता की भावना जाग जाती है जो हमें जानकर संलेखना व्रत प्रारंभ किया और बड़े उत्कृष्ट परिणामों के ।
"समाधिमरण" का अर्थ समझाती है और संथारा संलेखना की साथ प्रसन्नतापूर्वक देहत्याग किया। वे छियासी वर्ष के थे और
सार्थकता/उपयोगिता भी बताती है। नियमित रूप में अपनी साधुचर्या का निर्वाह कर रहे थे। उनको
१. अन्तकृद्दशासूत्र, वर्ग ३. अध्ययन ८ २. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र, वर्ग-३, अ.१ ३. वि. सं. २०२४, माघ शुक्ला सप्तमी, जनवरी १९६८ ४. निर्वाण के पथ पर-लेखक श्री जयन्ती मुनिजी के आधार से। ५. तपस्वी चतुरलालजी महाराज जीवन चरित्र : प्रकाशक : दरियापुरी आठ कोटी स्थानकवासी जैन संघ, अहमदाबाद। ६. महावीर मिशन, मासिक, दिल्ली, विशेषांक-वर्ष १५, अंक ४ ७. जिनवाणी, श्रद्धांजली विशेषांक में आचार्य श्री के शिष्य श्री गौतममुनिजी के वर्णन के आधार पर।
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जैन दर्शन में संथारा
वर्तमान युग में ऐच्छिक मृत्युवरण का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। व्यक्ति को स्वेच्छापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने का अधिकार है या नहीं यह आधुनिक नीति-दर्शन की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी बहुचर्चित है कि क्या इच्छापूर्वक शरीर त्याग के सभी प्रयत्न आत्महत्या की कोटि में आते हैं अथवा नहीं? नीति और धर्म-दर्शन के विद्वानों के इस सम्बन्ध में अनेक मत हैं। इसी प्रकार असाध्य रोग से या असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति अपना जीवन समाप्त कर देना चाहता है तो क्या उसे मृत्युदान देने वाला व्यक्ति हत्या का अपराधी है अथवा वह स्वयं आत्महत्या का दोषी है। आज ये सभी प्रश्न नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि से गंभीर चिन्तन की अपेक्षा रखते हैं।
प्राचीन सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में ऐच्छिक मृत्युवरण को स्वीकृत किया जाता रहा है। भारतवर्ष में पर्वत या वृक्ष से गिरकर अथवा अपने शीश या अंग विशेष की बलि चढ़ाकर मृत्यु प्राप्त करने की परम्परा प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। ये सभी मृत्यु प्राप्त करने के वीभत्स ढंग हैं जिन्हें अनुचित माना जाता रहा है और इनका विरोध भी हुआ है। लेकिन जैनधर्म में संथारा के रूप में मृत्युवरण की प्रथा प्राचीन काल से लेकर आज तक अबाधगति से चली आ रही है। कभी भी इसका विरोध नहीं हुआ है। यह मृत्यु प्राप्त करने की एक ऐसी कला है जिसे महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन परम्परा में इसे कई नामों से अभिहित किया गया है-संलेखना संधारा, समाधिमरण, संन्यासमरण, मृत्युमहोत्सव, सकाममरण, उद्युक्तमरण, अंतक्रिया आदि। प्रस्तुत निबंध में जैनधर्म में वर्णित संथारा के स्वरूप पर प्रकाश डाला जा रहा है।
स्वरूप - संथारा या संलेखना के स्वरूप पर प्रकाश डालने से पहले हम यह जान लें कि वस्तुतः यह है क्या? जीवन की अंतिम बेला में अथवा किसी आसन्न संकटापन्न अवस्था में जिसमें जान जाने की पूरी संभावना है के समय सभी तरह के भावों से मुक्त होकर संपूर्ण आहार त्याग करके आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा करने का नाम ही संथारा है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार “उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, असाध्य रोग अथवा इसी तरह की अन्य प्राणघातक अनिवार्य परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा अथवा समभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है वह संथारा के नाम से जाना जाता है।"२
संथारा में जो देहत्याग किया जाता है उसके पीछे देह में उत्पन्न होने वाले कष्टों से बचने का भाव नहीं रहता है। यहाँ व्यक्ति के मन में धर्म-रक्षा का भाव रहता है। मनुष्य जब तक जीवित रहता है वह कुछ न कुछ करता ही रहता है। अपने कार्य-संपादन के लिए
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
- डॉ. रज्जन कुमार'
उसे अन्य व्यक्तियों का सहयोग लेना पड़ता है, लेकिन कुछ ऐसे कार्य हैं जिन्हें वह स्वयं अपने दैहिक अंगों की सहायता से करता है। दुर्भाग्यवश यदि वह अपने इस कार्य का संपादन स्वयं नहीं कर पाता है। उन अंगों में पुनः शक्ति का संचार होना संभव नहीं है. वह वनस्पति की तरह जीवित शरीर मात्र है तथा वह जो भी आहार ग्रहण कर रहा है वह शरीर में नहीं लग रहा है अर्थात् उसका शरीर आहार ग्रहण नहीं कर पा रहा है. उसे बचाने के सारे प्रयत्न निष्फल हो चुके हैं। उसका जीवन भार स्वरूप हो गया है। सेवा करने वाले तथा सेवा लेने वाले दोनों थक गए हों, तो ऐसे समय व्यक्ति द्वारा आहार त्याग करने का संकल्प ही संथारा है क्योंकि उस व्यक्ति को यह भान हो जाता है कि शरीर को सेवा देने से कोई लाभ नहीं होने वाला है। उत्तराध्ययन में इसे पंडितमरण कहा गया है। ३
समय-अब प्रश्न उठता है कि संथारा लेने का उपयुक्त अवसर क्या है ? कारण कि अनायास कोई व्यक्ति मरने लगे और यह घोषणा कर दे कि मैं संथारा ले रहा हूँ तो वस्तुतः उसका यह देहत्याग संथारा की कोटि में नहीं आयेगा। इस सम्बन्ध में हम आराधनासार में उद्धृत प्रसंग पर विचार कर सकते हैं-"जरारूपी व्याधि जब देह पर आक्रमण करे, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्द को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां अपने विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाएँ, आयुरूपी जल पूर्णरूपेण छीज जाए, शरीर की हड्डियों की संधियों का बंध तथा शिराओं और स्नायुओं से हड्डियों के जोड़ शिथिल हो जाएँ अर्थात् शरीर इतना अधिक कृशकाय हो जाए कि वह स्वयं काँपने लगे आदि अवस्थाएँ ही संथारा ग्रहण करने के लिए उपयुक्त हैं। यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है कि पूर्ण निःसहायता की अवस्था में ज्ञान से युक्त होकर ही संथारा ग्रहण किया जा सकता है। इस संबंध में हम आचार्य श्री तुलसी के मंतव्य को भी देख सकते हैं-"व्यक्ति का जीवन जब भारस्वरूप हो जाए (वृद्धावस्था, रोग, उपसर्गादि के कारण) तथा वह अपनी आवश्यक क्रियाओं का सम्पादन ठीक से नहीं कर पाए तो धर्म की रक्षा हेतु संथारा व्रत ले सकता है।"५ इन सबका प्रतिफलित यही निक ला कि व्यक्ति संथारा निम्नलिखित परिस्थितियों में ग्रहण कर संकता है
१. शारीरिक दुर्बलता ।
२. अनिवार्य मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर।
३. अनिवार्य कार्यों के सम्पादन नहीं कर सकने की परिस्थिति में
४. धर्म रक्षा हेतु।
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1 संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
योग्यता-संथारा कौन ले सकता है और कौन नहीं, यह भी में एक वर्ष तक कोटि सहित अर्थात् निरंतर आचाम्ल करके फिर 40 एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और इसका समाधान जैन ग्रंथों के आधार मुनि द्वारा पक्ष या एक मास के आहार से अनशन तप किया पर ही करने का प्रयास किया जा रहा है। उत्तराध्ययन में लिखा जाता है। गया है कि संयमशील, जितेन्द्रिय और चारित्रयुक्त सकाम तथा
संथारा लेने के क्रम में आहार का त्याग तो किया ही जाता है अकाम मरण के भेद जानने वाले तथा मृत्यु के स्वरूप के ज्ञाता एवं
लेकिन साधक को कुछ अन्य उपक्रम भी करने पड़ते हैं। साधक मृत्यु से भयभीत नहीं होने वाले व्यक्ति ही संथारा लेने के योग्य
सर्वप्रथम ऐसे स्थान की खोज करता है जहां वह शांतिपूर्वक अपने हैं। यहाँ योग्यता संबंधी विवेचन स्पष्ट है। प्रायः कोई भी मरना
तपों का अभ्यास कर सके। इस हेतु वह ग्राम या वन में जाकर नहीं चाहता है। अंतिम क्षण तक व्यक्ति जीना चाहता है। मृत्यु को
अचित्त भूमि का अवलोकन करता है और वहाँ कुश, घास आदि स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं है। आचार्य वट्टकेर द्वारा
अचित्त वस्तुओं की सहायता से संस्तारक बना लेता है।१० इस प्रस्तुत विचार अत्यन्त उल्लेखनीय है-ममत्वरहित, अहंकार रहित,
संस्तारक पर आरूढ़ होकर वह समत्व की साधना करता है। वह कषायरहित, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन से संपन्न, इन्द्रियों को
राग-द्वेष से मुक्त होकर अपने शरीर के प्रति होने वाले ममत्व का अपने वश में रखने वाला, सांसारिक राग को समझने वाला, अल्प
भी त्याग करता है। रेंगने वाले जंतु जैसे चींटी आदि प्राणी या कषाय वाला, इन्द्रिय निग्रह में कुशल, चरित्र को स्वच्छ रखने में
आकाश में उड़ने वाले पक्षी चील, गिद्धादि जमीन के अंदर रहने प्रयासरत्, संसार के सभी प्रकार के दुःखों को जानने वाला तथा
। वाले जन्तु यथा सादि उसके शरीर को कष्ट पहुँचाते हैं तो वह इनसे विरत रहने वाला व्यक्ति संथारा लेने का अधिकारी है।
इनसे विचलित नहीं होता है। इनसे होने वाले कष्टों को व्यक्ति सबसे अधिक मोह अपने से ही करता है। सामान्य रूप से
समभावपूर्वक सहन करता है।११ वह जन्म और.मरण के संबंध में उसके सारे प्रयत्न चाहे वे परोक्ष हैं या प्रत्यक्ष शरीर को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। ऐसे शरीर का त्याग करना
विचार करता है और दोनों को जीवन के लिए आवश्यक मानता है साधारण बात नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को संयमी, ज्ञानी,
है। वह यह विचार करता है कि हर्ष, विषाद, जरा आदि शरीर के 350
ही कारण हैं क्योंकि यह शरीर ही जन्म-मरण, सुख-दुःख का भौतिक-अभौतिक सुखों को समझने वाला होना चाहिए। उसमें निम्न
त गुणों का समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
उपभोग करता है।१२ इस प्रकार वह ममत्व रहित होकर मृत्यु की
प्रतीक्षा करता है। जब मरण काल आता है तो बिना किसी भाव के १. सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त।
सहजतापूर्वक उसे स्वीकार करते हुए देहत्याग करता है। २. इन्द्रिय जीत।
भेद-संथारा के तीन भेद हैं१३-(क) भक्त प्रत्याख्यानमरण, ३. राग-द्वेष से मुक्त।
(ख) इंगिनीमरण और (ग) प्रायोपगमनमरण। ४. अल्प कषाय वाला।
(क) भक्तप्रत्याख्यानमरण-चारों प्रकार के आहार (अशन, ५. गृहीत व्रतों के महत्त्व को समझने वाला।
पान, खादिम, स्वादिम) का त्याग करके समभावपूर्वक देह त्याग ६. जीवन और मृत्यु दोनों को अनिवार्य एवं आवश्यक मानने करने की कला को भक्तप्रत्याख्यानमरण संथारा कहते हैं। इसे वाला।
स्वीकार करने वाला साधक अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है विधि-जैन ग्रंथों में संथारा लेने की विधि का वर्णन और दूसरों से भी करवा सकता है। इसकी अवधि कम से कम विस्तारपूर्वक हुआ है। यहाँ छह मास से लेकर बारह वर्ष तक के अन्तर्मुहूर्त अधिकतम बारह वर्ष तथा मध्यम अन्तर्मुहूर्त से ऊपर संथारा का विधान मिलता है। समयावधि के अनसार जघन्य. तथा बारह वर्ष से कम है। मध्यम तथा उत्कृष्ट ये तीन प्रकार के संथारा माने गए हैं। इनका (ख) इंगिनीमरण-इस संथारा को ग्रहण करने वाला साधक काल क्रमशः छह मास, १२ मास तथा १२ वर्ष का है। उत्कृष्ट एक क्षेत्र नियत कर लेता है तथा ऐसी प्रतिज्ञा ले लेता है कि इस जिसका कालमान १२ वर्ष का है उसमें साधक विभिन्न प्रकार के
। सीमा क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा। इस संथारा व्रत को स्वीकार कार्य करते हैं जो इस प्रकार है९-वर्ष के प्रथम चार वर्ष में साधक
करने वाला अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है किसी अन्य से दुग्ध आदि विकृतियों (रसों) का परित्याग करता है तथा दूसरे चार ।
नहीं करवाता है। वर्षों में विविध प्रकार का तप करता है फिर दो वर्ष तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करता
(ग) प्रायोपगमन मरण-संथारा की इस प्रक्रिया में साधक है। भोजन के दिन आयाम आचाम्ल करता है। तत्पश्चात् ग्यारहवे
अपनी संपूर्ण क्रियाओं का निषेध कर देता है। वह अपने शरीर की वर्ष में पहले छह महीने तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चोला)
सेवा न तो स्वयं करता है और न किसी से करवाता है। तप नहीं करता है तथा बाद के छह महीने में विकृष्ट तप करता है। अतिचार-संथारा के क्षण में व्यक्ति के मन में नाना प्रकार इस पूरे वर्ष में पारणे के दिन आचाम्ल किया जाता है। बारहवें वर्ष के विचार चलते रहते हैं लेकिन जिन विचारों के कारण
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
यह व्रत खंडित हो सकता है उन्हें अतिचार कहते हैं। इनकी ४. मित्रानुरागशंसा-पूर्व में, बाल्यावस्था में, युवावस्था में अपने -56090924
कुल संख्या पाँच मानी गई है१५- १. जीविताशंसा, २. मरणाशंसा, मित्रों के साथ की गई गतिविधियों को याद करना एवं उससे दुःखी कुवत ३. भयानुशंसा, ४. मित्रागुराग और ५. निदानुशंसा.
होना भी अतिचार है। 2000
१. जीविताशंसा-अधिक समय तक जीवित रहने की ५. निदानानुशंसा-लोक-परलोक के विषय में चिन्तन करना अभिलाषा। संथारा लेने वाले साधक को मन में यह विचार नहीं है तथा यह सोचना कि मेरे इस कठिन व्रत का फल क्या मिलेगा रखना चाहिए कि मैं कुछ समय तक और जीवित रहता तो निदानानुशंसा अतिचार है। अच्छा होता।
इस तरह जैन दर्शन में उल्लिखित संथारा की अवधारणा पर २. मरणाशंसा-शीघ्र मरण की कामना। व्रत में होने वाले कष्टों विचार प्रस्तुत किया गया है। त ब से घबराकर शीघ्र मरने की कामना नहीं करनी चाहिए।
पता ३. भयानुशंसा-मैंने अपने जीवन में कई तरह के उपभोगों का । सहायक आचार्य 9 भोग किया है। मैं इस प्रकार सोता था, खाता था, पीता ता आदि जीवन विज्ञान विभाग प्रकार के भावों का चिन्तन करना अतिचार है।
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनू।
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संदर्भ स्थल १. सहायक-आचार्य, जीवन विज्ञान विभाग, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं-३४१३०६, राजस्थान। २. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि प्रतिकारे। धर्माय तनु विमोचन माहुः सल्लेखनामार्याः।
-रलकरंडकश्रावकाचार, ५/१ ३. उत्तराध्ययन सूत्र,७/२,३२ ४. आराधनासार, २५-२८ ५. आयारो, पृ. २९३ ६. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं संजयाणं वुसीमओ। न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया॥
-उत्तराध्ययन, ५/२९ ७. णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जिदिदिओ धीरो। अणिदाणो दिट्ठिसंपण्णोमरंतो आराहयो होइ॥
-मूलाचार, १०३ ८. बारसेव उ वासाई संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छर मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया॥
-उत्तराध्ययन,३६/२५ ९. वही., ३६/२५२-२५४
भगवती-आराधना, २५५-२५६ १०. गामे अदुवा रण्णे थंडिलं पडिलेहिया।
अप्पाणं तु विण्णाय तणाई संथरे मुणी। -आचारांग (संपा.-श्रीचन्द सुराणा), ८/८/२२ ११. पाणा देह विहिंसंति ठाणतो ण वि उब्भमे। आसवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणों घियासए॥
-वही., ८/८/२५ १२. णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खें। जम्मणमरणादकं छिंदि ममत्ति सरीरादो॥
-मूलाचार, ११९ १३. स्थानांग, २/४/४१४, भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, पृ. ५१, समाधिमरणोत्साह दीपक, ९१ १४. गोम्मटसार (कर्मकांड), ६० १५. जीवितमरणासंसा मित्रानुरागसुखानुबंध निदान-करणानि॥ -तत्त्वार्थ सूत्र, ७/३२
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श्री रमेश शाह भाई सौ. स्व. मालती बेन शाह (दिल्ली)
केतन कुमार सौ. सोनल शाह
निमेश कुमार सौ. नमीता शाह
देवकरण जी नवलखा सौ. प्रतिभा नवलखा (दिल्ली)
कुमारी अर्पणा नवलखा दिव्यांग नवलखा ।
श्री शांति लाल जी तलेसरा (जसवंतगढ) सौ. भवरी बाई तलेसरा Peश्री लक्ष्मी लाल जी तलेसरा (सूरत) सौ. लक्ष्मी देवी तलेसरा) brary.org |
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
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श्री विजय कुमार जी जैन मोतियां वाले
(दिल्ली)
श्रीमती शांति देवी विजय कुमार जी जैन.
श्री मोहनलाल जी पन्नालाल जी लुंकड
सौ. विमलाबाई मोहनलाल जी लुंकड
पूना
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श्री नेमनाथ जैन-इन्दौर
स्व. श्री कंवरलाल जी बैताला (गौहाटी)
श्री रमण भाई पुनमिया सौ. भानु बहिन पुनमिया (सादडी)
श्री जयन्ती भाई पुनमिया सौ. कान्ता बाई पुनमिया
श्रीमान जे. डी. जैन (गाजियाबाद)
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श्री जयंतीलाल जी कांतिलाल जी भरत कुमार जी दर्डा
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(जयपुर) सौ. कुशालदेवी मेहता
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(दिल्ली) सौ. पुष्पा रानी जैन
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(दिल्ली) श्रीमती जयमाला जैन
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(उदयपुर) सौ. सुगनदेवी बर्डिया
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स्व. श्री संग्रामसिंह जी मेहता
(उदयपुर) धर्मशीला श्रीमती रतन बाई मेहता
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(कमोल-सूरत) सौ. कमला बाई डोसी
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(मोहरा-मेटुपालियम) सौ. भंवरीबाई सांखला
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साधना के शिखर पुरुष उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
गुरुभक्त उदारमना सहयोगदाता सज्जनों का चित्र-परिचय एवं शुभ नामावली श्री रमेशभाई शाह : दिल्ली
आपके महेन्द्रकुमार जी और देवेन्द्रकुमार जी ये दो भाई भी हैं
और सविता रानी, सुदर्शनादेवी, ऊषादेवी और मधु जैन ये आपकी धार्मिक जीवन की सबसे बड़ी पहचान है सरलता और ।
चार बहिनें हैं। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अनंत आस्थाएँ देव-गुरु-धर्म के प्रति आस्था। जिस जीवन में सरलता, भक्ति और
थीं। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक उदारता है वह जीवन धार्मिकता का पर्याय बन जाता है। श्री ।
साधुवाद। रमेशभाई शाह के जीवन में ये गुण विशेष रूप से पल्लवित हुए हैं। सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सदा सहयोग देते रहते हैं। आप श्री शांतिलाल जी लक्ष्मीलाल जी तलेसरा : सौराष्ट्र में धोराजी के निवासी हैं किन्तु ४० वर्ष से भारत की
जसवंतगढ़ राजधानी दिल्ली में व्यवसाय हेतु संलग्न हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम प्रभुलालभाई और मातेश्वरी का नाम धनकुँवर बेन है।
का नाम धनऊवा बेन है। मेवाड़ अपनी आन, बान और शान के लिए सदा विश्रुत रहा आपका पाणिग्रहण बम्बई निवासी स्व. श्री प्रभुदासभाई की सुपुत्री । है। वहाँ पर दानवीर, धर्मवीर सदा पैदा होते रहे हैं। वीर सेनानी मालतीबहिन के साथ संपन्न हुआ। मालतीबहिन बहुत ही
की तरह कर्त्तव्य-पथ पर निरन्तर बढ़ने में गौरवानुभूति करते रहे धर्म-परायणा महिला थीं। अ. सौ. मालतीबहिन भी देव-गुरु-धर्म के
। हैं। मेवाड़ के शताधिक व्यक्तियों ने साधना-पथ को स्वीकार कर भक्तिभाव रखती थीं। साध-संतों की सेवा एवं स्वधर्मी । अपने जीवन को चमकाया है। कितने ही ज्ञानी, ध्यानी, जपी, तपी, बन्धुओं की सेवा के लिए भी उनकी भावना रहती थी। उनका हृदय । महात्मा, संत वहाँ पर हुए हैं और संतों के प्रति अपार निष्ठा रखने बहुत ही सरल और भावनाशील था। आयुष्य बल क्षीण होने से । वाले श्रावक और श्राविकाओं की भी वहाँ कमी नहीं है। असमय में ही उनका निधन हो गया। आपके दो पुत्र और एक पुत्री श्री शांतिलाल जी लक्ष्मीलाल जी तलेसरा ऐसे ही गुरु चरणों में है। प्रथम पुत्र का नाम केतनकुमार है तथा उनकी धर्मपत्नी का नाम
समर्पित व्यक्ति हैं। आप मेवाड़ में जसवंतगढ़ के निवासी हैं। आपके सोनल है। उनके दो पुत्र पुरवित और दरसित हैं।
पूज्य पिताश्री का नाम शिवलाल जी और मातेश्वरी का नाम द्वितीय सुपुत्र श्री निमेशकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम नमिता। नवलबाई था। माता-पिता के धार्मिक संस्कार पुत्रों में पल्लवित और है। रमेशभाई की पुत्री का नाम सौ. कविता है। आपका पूरा । पुष्पित हुए हैं। शांतिलाल जी जीवन के ऊषाकाल से ही परिवार सुसंस्कारों से मंडित है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर कर्तव्य-परायण व्यक्ति रहे हैं। कोई भी कार्य हो धार्मिक, सामाजिक मुनि जी म. के प्रति आपकी अनंत आस्था थी और श्रद्धेय समर्पित मन से करते रहे जिससे सफलतादेवी सदा उनका वरण आचार्यश्री के प्रति भी आपका पूरा परिवार श्रद्धानत है। प्रस्तुत करती रही है। ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हम
शांतिलाल जी का पाणिग्रहण बगडून्दा निवासी गेरीलाल जी आपके आभारी हैं।
लोढ़ा की सुपुत्री धर्मानुरागिनी भंवरदेवी के साथ सम्पन्न हुआ। श्री लाला बेनीप्रसाद जी देवकरण जी नवलखा : आपके तीन सुपुत्र कुन्दनलाल जी, महेन्द्रकुमार जी और दिल्ली
तरुणकुमार जी एवं चार सुपुत्रियाँ सौ. रतनकुमारी, सौ.
लीलाकुमारी, सौ. लक्ष्मीकुमारी और जसमाकुमारी हैं। कुन्दन जी लाला बेनीप्रसाद जी यों मूल राजस्थान में पाली के निवासी की धर्मपत्नी का नाम सौ. नूतनदेवी है। आपके दो सुपुत्र हैं। रहे। आपके पूर्वज पाली से जीरा (पंजाब) में पहुँचे। जीरा में आपने
श्री लक्ष्मीलाल जी सा. की धर्मपत्नी का नाम भाग्य से लक्ष्मीदेवी अपनी शक्ति से केवल प्रतिष्ठा ही प्राप्त नहीं की अपितु पुरुषार्थ से सौ गाँवों के जागीरदार बन गए। आपका पूरा परिवार धर्मनिष्ठ
है। आपके एक पुत्र और चार सुपुत्रियाँ हैं। पुत्र का नाम गौरव है परिवार रहा है। आपके सुपुत्र का नाम देवकरण जी जैन है।।
1 और पुत्रियों के नाम कु. पुष्पा, कु. सुमित्रा, कु. अनोखा और नीता
कुमारी हैं। आपके दो बहिनें हैं-देवीबाई और कमलाबाई। आपकी धर्मपत्नी सौ. प्रतिभा जैन (जो लाहौर में जन्मी) लाहौर में स्व. लाला खजान्चीमल जी पुस्तकों वाले के नाम से विश्रुत थे आपकी फर्म का नाम है “अमर तारा कॉर्पोरेशन", "अमर उनकी धर्मपत्नी शांतिदेवी की कुक्षी से प्रतिभा जी का जन्म हुआ। शांति सिल्क मिल्स" सूरत है। आपका पूरा परिवार श्रद्धेय आपके सुपुत्र का नाम दिव्यांग और पुत्री का नाम अर्पणा है। उपाध्यायश्री के प्रति अनन्य आस्थावान रहा है। आपने भक्तिभाव से पच्चीस वर्षों से आप जीरा से दिल्ली आ गए। आपका व्यवसाय । विभोर होकर प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में अनुदान दिया है, तदर्थ हौजरी का है। “एम. डी. ओसवाल हौजरी" दिल्ली।
आभारी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ श्री विजयकुमार जी जैन (मोतियों वाले) : दिल्ली। सौ. विमलाबाई है। आपके पाँच पुत्र हुए-अशोक जी, सुभाष जी,
प्रकाश जी, विजय जी और नितिन जी। श्री विजयकुमार जी जैन एक लब्ध प्रतिष्ठित स्थानकवासी जैन समाज के प्रमुख व्यक्ति हैं। आप पहले अमृतसर (पंजाब) में रहते
अशोक जी की धर्मपत्नी का नाम आशादेवी है और उनके दो थे और ५० वर्षों से दिल्ली में मोतियों का व्यवसाय करते हैं।
सुपुत्र हैं-अभिजित और अतुल। आपके पूज्य पिताश्री का नाम लाला बनारसीदास जी और सुभाष जी की धर्मपत्नी का नाम लता है। इनके दो पुत्र हैंमातेश्वरी का नाम लाजवन्तीदेवी था। आपकी धर्मपत्नी का नाम नितेश और धीरज। अखण्ड सौ. शान्तिदेवी है। श्रीमती महिमावन्ती और श्रीमती ।
मिता माहमावन्ती आर श्रीमती प्रकाश जी की धर्मपत्नी का नाम उज्ज्वला है। उनकी फलवन्ती ये दो आपकी बहिनें हैं। आपके चार सुपुत्र हैं- के नाम प्रांजल और प्रतीक्षा हैं। प्रकाश जी बहुत ही तेजस्वी वीरेन्द्रकुमार, वीरकमलराय जैन, विनोदकुमार और विपिनकुमार। थे, लघुवय में ही स्वर्गवास हो गया।
श्री वीरेन्द्रकुमार जी जैन की धर्मपत्नी का नाम विनीता जैन विजय जी की धर्मपत्नी का नाम सुमतिदेवी है। उनके एक है। उनके तीन सुपुत्रियाँ हैं-सौ. अनामिका, सौ. दीपाली और कु.
कुणाल है और दो पुत्रियाँ हैं-प्रियंका और पराजकता।
नितिन जी की धर्मपत्नी का नाम मीनूदेवी और पुत्री का नाम - श्री वीरकमलराय जैन की धर्मपत्नी का नाम प्रेमदेवी है, पुत्र ।
चेलना है। दीपक और पुत्री नीलू जैन है।
मोहनलाल जी सा. वर्षों तक अ. भा. स्था. जैन कॉन्फ्रेंस के श्री विनोदकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम ज्योति जैन है।।
उपाध्यक्ष भी रहे और अनेक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। पन्नालाला उनके पुत्र का नाम पीयूष तथा पुत्री का नाम नेहा और निधि है।
लूंकड़ चेरिटी ट्रस्ट के आप मैनेजिंग ट्रस्टी हैं जिसकी ओर से श्री विपिनकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम नीनादेवी है, पुत्र । महाराष्ट्र के पूना जिले में अनाथ, निराधार व निराश्रित अनाथालय का नाम प्रशान्त और पुत्री का नाम दिप्सी है।
चलाये जाते हैं। अनाथालय में ४०-५० बच्चे हैं और ३० प्राइमरी
और माध्यमिक पाठशालाएँ चलाई जाती हैं, जहाँ निःशुल्क बच्चे श्री विजयकुमार जी जैन विविध संस्थाओं से संबंधित रहे हैं।
पढ़ते हैं। २,000 बच्चों को धार्मिक/नैतिक शिक्षा दी जाती है। वे वीरनगर जैन सभा के प्रधान हैं तथा सोहनलाल जैन विद्या
जैन विद्या प्रसारक मण्डल, चिंचवड़ में १,५00 बच्चे संस्कार प्राप्त प्रसारण समिति वाराणसी, सुन्दरलाल जैन हॉस्पिटल, महावीर
कर रहे हैं। आपकी ओर से पांजरा पोल और गोशालाएँ भी चलती फाउण्डेशन, भारत जैन महामण्डल बम्बई, जैन श्रमणोपासक
हैं। महाराष्ट्र शासन ने आपको “दलित मित्र" का पुरस्कार प्रदान हाईस्कूल, महावीर जैन संघ, ग्लास बोर्ड ऐसोसिएशन, जैन समाज,
किया है और पूना नगरपालिका की ओर से भी आपको पुरस्कार जैन महासभा उत्तरी भारत के उपाध्यक्ष हैं। भगवान महावीर
मिला है। इस प्रकार आपने अनाथाश्रम, महिला उद्योग, कुष्ट हस्पताल, जैन महासभा, जैन सहायता सभा, आचार्य आनंद ऋषि
रोगियों के लिए और मन्दबुद्धि छात्रों के लिए भी पाठशालाएँ जी म. शिक्षा समिति, जैन कॉन्फ्रेंस, वीरायतन, महावीर सीनियर
स्थापित की हैं। आपसे समाज को बहुत कुछ आशा है। आप परम मॉडल स्कूल आदि विविध संस्थाओं से जुड़े हुए हैं।
श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति और आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति आपकी अपार आस्था प्रति निष्ठावान हैं। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका योगदान प्राप्त हुआ, रही है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक तदर्थ साधुवाद। आपका व्यवसाय "नव महाराष्ट्र ऑयल चाकण आभार।
मिल्स" है। श्री मोहनलाल जी लूंकड़ : पूना । श्री सुवालाल जी बाफणा : धुलिया महाराष्ट्र की पावन पुण्य धरा वीरों की और संतों की धरा भारत के तत्त्वदर्शी चिन्तकों ने जीवन पर गहराई से चिन्तन
रही है। वहाँ पर शिवाजी जैसे नरवीर पैदा हुए वहाँ की धरती पर } करते हुए कहा कि एक क्षण भी जीओ, किन्तु प्रकाश करते हुए DOO
अनेक राष्ट्र-नेता पैदा हुए तो संत तुकाराम, संत नामदेव आदि संत जीओ, विकार और वासनाओं का धुंआ छोड़ते हुए जीना तो भी पैदा हुए हैं। महाराष्ट्र की उर्वरा भूमि में श्रेष्ठी प्रवर श्री जीवन नहीं है। कौआ भी चिरकाल तक मृत व्यक्ति का माँस खाकर मोहनलाल जी लूंकड़ का भी जन्म हुआ। आपके पूज्य पिताश्री का | जीवित रहता है, उस जीवन का कोई महत्त्व नहीं। जीवन वह है
नाम पन्नालाल जी लूंकड़ तथा माताश्री का नाम गंगूबाई था। आपके जिसमें तेज है, ज्योति है और कार्य करने की अपूर्व क्षमता है। श्री 0000000
दो भाई और थे-श्री सूरजमल जी और श्री रतनचन्द जी, दोनों ही सुवालाल जी बाफणा इसी प्रकार के एक तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी भाइयों का स्वर्गवास हो गया। मोहनलाल जी की धर्मपत्नी का नाम व्यक्ति हैं। आपके मन में जोश है, वाणी में ओज है और कार्य
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साधना के शिरवर पुरुष उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि
स्मृति ग्रन्थ
परिशिष्ठ
(सहयोग दाता सज्जनों के चित्र एवं परिचय)
Jain Education Interational
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६६७ करने की एक दृष्टि है। वर्षों से सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में संस्थाओं को भी। हर सामाजिक कार्य में आप सदा ही अग्रगण्य रहे सक्रिय रहे हैं। आपके ज्येष्ठ भ्राता संचालाल जी सा. बाफणा वर्षों हैं। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. और तक अ. भा. स्था. जैन कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष पद पर आसीन रहे । आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति भी आपकी अनन्य और समाज को एक और नेक बनाने के लिए अथक प्रयास करते । आस्था रही है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ, रहे, वही भव्य-भावना आपमें भी है। आप भी समाज का कायाकल्प तदर्थ आभारी।
. . करने के लिए समय-समय पर अथक प्रयास करते रहे हैं। आप
श्री रमणभाई जयन्तीभाई पुनमिया : बसई (बम्बई) वर्षों से धुलिया में रहते हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम अ. सौ. किरणदेवी है। आप पर श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. की धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल हैं-सुख, सौभाग्य, यश, निर्मल असीम कृपा रही है एवं आचार्यश्री की भी आप पर अपार कृपा विचार, देव-गुरु-धर्म के प्रति भक्ति, दान की भावना एवं साधु-संतों है। समाज को आपसे बहुत बड़ी अपेक्षा है। औद्योगिक क्षेत्र में जहाँ के प्रति हार्दिक अनुराग। जिसमें ये लक्षण दिखते हैं, वह जीवन आपने एक कीर्तिमान स्थापित किया है वैसे ही सामाजिक क्षेत्र में अवश्य ही धर्म का आराधक/उपासक रहा होगा यह माना जा भी आपने प्रतिष्ठा प्राप्त की है। आप जैसे समर्थ सुश्रावक समाज सकता है। श्री रमणभाई जयन्तीभाई पुनमिया के जीवन को देखकर के शृंगार हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ । हम कह सकते हैं धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल उन्हें अपने जीवन में हार्दिक साधुवाद।
प्राप्त हुए हैं। श्री नेमनाथ जी जैन : इन्दौर
आप राजस्थान में सादड़ी मारवाड़ के निवासी हैं। आपके पूज्य
पिताश्री का नाम मोतीलाल जी था। आपकी मातेश्वरी का नाम एक महान् चिन्तक ने लिखा है-“कुछ व्यक्तियों में सहज
जमनाबाई है। आपका व्यवसाय केन्द्र बसई (बम्बई) है। आप दो प्रतिभा होती है कुछ व्यक्तियों पर प्रतिभा थोपी जाती है।" जिन पर
भाई हैं-रमणभाई और जयन्तीभाई। दोनों की यह जोड़ी प्रतिभाएँ थोपी जाती हैं वे विकास नहीं कर पाते किन्तु गुमराह
राम-लक्ष्मण की तरह है। आपकी दो पुत्रियाँ हैं-सौ. विमलाबाई होकर ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिसका जीवन भर उन्हें पश्चात्ताप
और सौ. कान्ताबाई। रहता है। लाला नेमनाथ जी जैन एक प्रतिभा पुरुष हैं। रावलपिण्डी (पाकिस्तान) में उनका जन्म हुआ। इलेक्ट्रिकल, मेकेनिकल व
रमणभाई की धर्मपत्नी का नाम भानुमतिदेवी है। आपके दो बायलर टेक्नालॉजी में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। पाकिस्तान
पुत्र हैं-अशोक और संजय। अशोक जी की धर्मपत्नी का नाम बनने पर आप रावलपिण्डी से इन्दौर में आकर बसे और अपनी ललितादेवी है और उनके पुत्र का नाम अक्षय तथा लड़की का नाम प्रतापपूर्ण प्रतिभा से औद्योगिक क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित । कु. इतिशा है। रमणभाई के तीन पुत्रियाँ हैं-स्व. आशा, सौ. रक्षा किया। आपने अनेक स्थानों पर फैक्ट्रीयाँ लगाई हैं। प्रेस्टीज ग्रुप के । और कु. बबीता। आप मालिक हैं। सोया प्रोसेसिंग रिफाइन्ड ऑयल की और एल.
जयन्तीभाई की धर्मपत्नी का नाम कान्ताबाई है और उनके पी. जी. गैस सिलेण्डर, स्टील प्लान्ट, टेलीविजन फैक्ट्री और
निलेश और जुलेश दो सुपुत्र हैं तथा कु. नीता पुत्री है। दोनों भाइयों आयात-निर्यात के साथ डेढ़ सौ करोड़ से भी अधिक का कारोबार ।
की अपूर्व भक्ति उपाध्यायश्री के प्रति रही है। प्रस्तुत ग्रन्थ के आपका है।
प्रकाशन में आपका आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ है, तदर्थ हम जहाँ औद्योगिक क्षेत्र में आपके चरण आगे रहे हैं वहाँ धार्मिक आभारी हैं। क्षेत्र में भी आप सदा ही अग्रणी रहे हैं। वर्षों से इन्दौर श्रावक संघ
श्री जे. डी. जैन : गाजियाबाद के अध्यक्ष हैं और मध्य प्रदेश अ. भा. स्था. जैन कॉन्फ्रेंस के भी आप अध्यक्ष हैं तथा अ. भा. जैन कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष हैं। इनके एक महान् आचार्य ने जीवन के सम्बन्ध में चिन्तन प्रस्तुत अतिरिक्त अनेक संस्थाओं के आप सम्माननीय अध्यक्ष हैं। स्वाध्याय करते हुए कहा कि वही जीवन सार्थक जीवन है जिस जीवन में भवन, छवि मेमोरियल, छवि नेत्र कोष आदि अनेक स्कूलों के आप । संयम की मधुर सौरभ, जिस जीवन में धर्म पल्लवित और पुष्पित निर्माता भी रहे हैं। भारत सरकार के द्वारा आपको उद्योग पत्र और हुआ हो। यदि जीवन में धर्म नहीं है तो वह जीवन पशुतुल्य है। उद्योग विभूषण आदि पद राष्ट्रपति के द्वारा प्राप्त हुए हैं। श्री पुष्कर धर्म ही पशु-जीवन से मानव-जीवन को पृथक् करता है। सुश्रावक गुरु महाविद्यालय, पुष्कर गुरु नगर में आपने शिलान्यास किया है। प्रसिद्ध उद्योगपति श्री जे. डी. जैन एक प्रमुख श्रावक हैं। जहाँ
और आपके द्वारा एक महाविद्यालय का इन्दौर में निर्माण हो रहा। उन्होंने व्यवसाय के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है वहाँ है। आप उदार हृदय के धनी हैं। अनेक संस्थाओं को आपने बहुत पर वे जीवन के ऊषाकाल से ही धर्मनिष्ठ रहे हैं। धार्मिक ही उदारता के साथ दान दिया है। पार्श्वनाथ शोध संस्थान, सद्भावनाएँ उनके जीवन में प्रारम्भ से रहीं। यही कारण है कि वाराणसी को आपने लाखों का अनुदान दिया है और अन्य उन्होंने धर्मोपदेष्टा श्री फूलचंद जी म. की जिस प्रकार सेवा-सुश्रुषा
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और भक्ति की वैसी सेवा, भक्ति और सुश्रुषा हर व्यक्ति नहीं कर सकता। उन्होंने एक सच्चे शिष्य का आदर्श उपस्थित किया और उस गुरु की मंगल आशिष उन्हें प्राप्त हुई और उस आशिष का सुपरिणाम रहा। उन्होंने जिस कार्य को अपने हाथ में लिया उसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। एक सच्चे संत के हृदय से निकले आशीर्वाद में कितनी अपूर्व शक्ति होती है इस सत्य तथ्य का संदर्शन यदि कोई करना चाहें तो जे. डी. जैन के जीवन से कर सकता है। जीवन के प्रारम्भ में हृदय में केवल भक्ति का अनंत सागर लहलहा रहा था और उस भक्ति-भावना से विभोर होकर दिन-रात सेवा करते रहे जिसके फलस्वरूप आज हर क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है, आज भी उनके अंतर्मानस में धर्म के प्रति अनन्त आस्था है। प्रतिदिन सामायिक साधना किये बिना वे मुँह में पानी भी नहीं डालते। संत-सतियों की भक्ति करना, सेवा करना यही उनका उद्देश्य रहा है और भाग्य योग से उनकी धर्मपत्नी डॉ. विद्युत् जैन भी इसी प्रकार धर्म-परायणा महिला हैं, जो अ. भा. स्था. महिला जैन संघ की अध्यक्षा हैं। उस पद पर रहकर उन्होंने महिला समाज में जागृति का शंखनाद फेंकने का प्रयास किया है। परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति एवं आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति आपकी अनन्त आस्था रही है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
श्री शोरीलाल जी जैन : दिल्ली
आप एक धर्मानुरागी सुश्रावक थे। आप पाकिस्तान बनने के पूर्व सियालकोट में रहते थे। जब पाकिस्तान बना उस समय आप यहाँ से दिल्ली आ गए। आपके पूज्य पिताश्री का नाम हजूरीलाल जी जैन था जो जैन समाज के जाने-माने कर्मठ कार्यकर्ता थे। सियालकोट में ही उनका व्यवसाय था । आपके एक भ्राता थे जिनका नाम श्रीचंद जी था और दो बहिने सी. कान्तारानी और सी. आशारानी थी आपकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती पुष्पावन्ती जैन, जो बहुत ही धर्म-परायणा महिला हैं। आपके दो सुपुत्र हैंअशोककुमार जी और शुक्लचन्द जी । अशोककुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. रत्नमाला और उनके दो पुत्रों का नाम सुधीर और राकेश है। आपके लघु-पुत्र का नाम शुक्लचन्द है। उनकी धर्मपत्नी का नाम सौ. सुदेशदेवी और पुत्रों का नाम मुकेश व विजय है तथा पुत्री का नाम दीपिका है। आपके दो पुत्रियाँ हैं- सौ. प्रेमलता और सौ. वीणा। आपका व्यवसाय दिल्ली में प्रोपर्टी डीलर का है।
बाबू अशोक जी और शुक्लचंद जी दोनों ही युवा होने पर भी उनमें धर्म की भावना अपूर्व है श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के बहुत ही श्रद्धालु भक्त रहे हैं और उनकी पावन प्रेरणा को पाकर डेरावाल नगर, दिल्ली में आपने "गुरु पुष्कर भवन" नामक धर्म स्थानक का निर्माण किया है। इस स्थानक के निर्माण में
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
तन, मन, धन से आपका सहयोग प्राप्त हुआ। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में भी आपने अर्थ सहयोग देकर अपनी हार्दिक भक्ति की अभिव्यक्ति की है।
लाला आनन्दस्वरूप जी जैन गुड़गाँव
:
कुछ व्यक्ति बाह्य दृष्टि से दिखने में बहुत सीधे सादे होते हैं। पर उनका हृदय बहुत ही उदार, सरल और स्नेह से सराबोर होता है वे सद्गुणों के आगार होते हैं और सद्गुणों के कारण ही जन-जन के स्नेह के पात्र बन जाते हैं। श्रीमान् सुश्रावक लाला आनंदस्वरूप जी जैन बहुत ही उदारमना सुश्रावक हैं आपश्री के पूज्य पिताश्री का नाम विश्वेश्वरदयाल जी और माताश्री का नाम मिश्रीदेवी था। माता-पिता के धार्मिक संस्कार सहज रूप में आपको प्राप्त हुए थे। उन संस्कारों को पल्लवित और पुष्पित करने का श्रेय आगम मर्मज्ञ महामनीषी धर्मोपदेष्टा श्री फूलचंद जी म. पुफभिक्खू को है। उन्होंने आपको पहचाना और आपने भी गुरु चरणों में अपने आपको सर्वात्मना समर्पित कर दिया और विहार यात्राओं में लम्बे समय तक साथ में रहे और जब फूलचंद जी म. रुग्ण हो गए तो उनकी तन, मन से अत्यधिक सेवा भी की और उनके आशीर्वाद को प्राप्त किया। आपकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती चन्द्रकान्ता वहिन भी आपकी तरह ही धर्म-परायणा हैं।
सन् १९८५ में परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. का गुड़गाँव में पदार्पण हुआ तब श्री आनंदस्वरूप जी जैन और उनके सुपुत्र सुनीलकुमार जी, प्रवीणकुमार जी और नवीनकुमार जी ये तीनों उपाध्यायश्री के सम्पर्क में आए और ज्यों-ज्यों सम्पर्क में आए त्यों-त्यों उनमें धर्म भावना उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली गई, जहाँ भी उपाध्यायश्री के वर्षावास हुए, आप सपरिवार उपाध्यायश्री के चरणों में पहुँचे। आपकी अनंत आस्थाएँ श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति रहीं।
सुनीलकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. रानी जी है व आपकी दो पुत्रियाँ हैं-पूजा व श्रद्धा
प्रवाणीकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. अर्चना जी है व एक पुत्र हैं राहुल
नवीनकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सी. मीनू जी है व एक पुत्री है मनु।
श्रद्धेय उपाध्यायश्री के स्वर्गवास के पश्चात् जैन धर्म दिवाकर आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म के प्रति आपकी अनंत आस्थाएँ हुईं। आप तीनों भाइयों की भक्ति प्रशंसनीय है। आपकी दो बहिनें हैं- शशिबाला जी और निर्मला जी । श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति श्रद्धा-सुमन समर्पित कर प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी।
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६६९ श्री भीमराज जी कच्छारा : बम्बई
कांतिलाल जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. विजयादेवी है। आपके
पुत्र का नाम सुरेशकुमार और अनिलकुमार है। सुरेशकुमार जी की मेवाड़ की पावन पुण्य धरा सदा ही वीरों की स्मृति दिलाती
धर्मपत्नी का नाम छायादेवी और अनिल जी की धर्मपत्नी का नाम रही है। अरावली की पहाड़ी में बसा हुआ दोवड़ एक नन्हा-सा गाँव
ऊषादेवी है। अनिल जी के एक पुत्र और एक पुत्री हैं जिनके नाम है, इस नन्हे से गाँव में भीमराज जी सा. का जन्म हुआ। आपके
क्रमशः विनीत और पूनम हैं। कांतिलाल जी की सुपुत्री का नाम पूज्य पिताश्री का नाम किशनलाल जी और मातेश्वरी का नाम
सौ. वंदना है। पानीबाई था। आप बहुत ही उत्साही, दानवीर सज्जन हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम शंकरबाई है। आपके बाबूलाल जी और
आपके द्वितीय पुत्र का नाम जयन्तीलाल जी है। उनकी
धर्मपत्नी का नाम सौ. सुमनदेवी है तथा उनके दो पुत्र हैं किशोर हिम्मतलाल जी दो पुत्र हैं।
और आनंद एवं एक पुत्री है जिसका नाम ज्योति है। बाबूलाल जी की धर्मपत्नी का नाम पिस्ताबाई और पुत्री का
तृतीय पुत्र का नाम भरतकुमार है। उनकी धर्मपत्नी का नाम नाम रीणाबाई है। भीमराज जी सा. की छह पुत्रियों के नाम इस प्रकार हैं-सौ. गौमतीदेवी, सौ. बसंतीदेवी, सौ. मिठूदेवी, सौ.
सौ. अल्कादेवी और उनके पुत्र ऋषभ और पुत्री का नाम भावना
है। श्री करचदास जी के चार पुत्रियाँ हुईं-पद्मादेवी, गुलाबदेवी, लक्ष्मीदेवी, सौ. लीलादेवी और सौ. मीनादेवी। भीमराज जी कर्मठ
शकुन्तलादेवी और शीलादेवी। कार्यकर्ता एवं समाजसेवी हैं। श्री वर्द्धमान स्थानकवासी मेवाड़ संघ, बम्बई के आप प्रमुख भी हैं। आपने धर्म स्थानकों के लिए और कई आपका व्यवसाय केन्द्र जालना है। आपका मुख्य व्यवसाय संस्थाओं को समय-समय पर अनुदान भी दिया है।
"पुष्कर एजेन्सी" के नाम से मेडीकल का है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपने
भक्ति-भावना से विभोर होकर गुरु चरणों में जो समर्पण किया है आपके लघु भ्राता का नाम पृथ्वीराज जी है। उनकी धर्मपत्नी
वह आपके सहज भक्ति-भाव का प्रतीक है। का नाम कमलाबाई है। पृथ्वीराज जी के भागचन्द जी, मुकेशकुमार जी और राकेशकुमार जी ये तीन पुत्र हैं। भागचन्द जी की पत्नी श्री केवलचन्द जी बोहरा : रायचूर का नाम टीनादेवी है। आपकी पुत्रियों के नाम मुन्नी, सुशीला,
भारत के महामनीषियों ने जीवन की परिभाषा करते हुए रंजना, प्रेमलता और मंजू हैं।
कहा-जीवन वही श्रेष्ठ है जो उदार हो। श्री केवलचन्द जी बोहरा आपके तीसरे भाई का नाम सोहनराज जी है। उनकी धर्मपत्नी । एक उदारमना सुश्रावक थे और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सरदारबाई का नाम किस्तूरबाई है। उनके तीन लड़के-दिनेशकुमार, मदनलालजी थीं। वे बहुत ही उदार हृदय की सुश्राविका थीं। केवलचन्द जी और सुरेशकुमार तथा दो सुपुत्रियाँ-कुमारी संगीता और सुमित्रा हैं। सा. के दलीचन्द जी, चुन्नीलाल जी, जसराज जी और अमरचन्द जी आपका व्यवसाय बम्बई-बलसाड़ में "कोपन ब्रास पाइप" की ये चार अन्य भाई थे और तीन सुपुत्र हैं मोहनलाल जी, दानमल फैक्टरी है और दीवड़ में भी फैक्टरी है। आपका पूरा परिवार स्व. जी और मनोहरलाल जी। परम श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म. का अनन्य भक्त रहा है। मुनि जी म. सा. का सन् १९७६ में वर्षावास रायचूर में हुआ। उस आचार्यसम्राट् के प्रति आपकी अनंत आस्था है। प्रस्तुत ग्रंथ-रल हेतु वर्षावास में धर्मानुरागिणी सरदारबाई ने खूब सेवा की और आपका हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
दानमल जी ने तथा उनकी धर्मपत्नी अ. सौ. मदन कुँवरबाई ने
सेवा का अपूर्व लाभ लिया। उनके मन में श्रद्धेय उपाध्यायश्री के श्री कचरदास जी दर्डा : जालना
। प्रति अपार आस्था थी और समय-समय पर सेवा का लाभ वे लेते श्री कचरदास जी दर्डा महाराष्ट्र में घोड़ नदी के निवासी थे। रहे हैं। सन् १९६८ का उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का घोड़ नदी
दानमल जी सा. के दो पुत्र हैं-उत्तमचन्द जी और मनीषकुमार चातर्मास हआ। उपाध्यायश्री के पावन प्रवचनों को सुनकर उनके जी तथा तीन पत्रियाँ हैं-अ. सौ. अंजदेवी, क. अर्चना, क. दिव्या। अन्तर्मानस में सहज श्रद्धा जाग्रत हुई और वे जब तक जीवित रहे
|आपका व्यवसाय कर्नाटक में रायचूर में कॉटन का जनरल मर्चेन्ट तब तक पर्युषण महापर्व की आराधना करने हेतु उपाध्यायश्री के ।
का है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपकी ओर से सहयोग राशि प्राप्त हुई, यह चरणों में पहुँचते रहे। आपके पूज्य पिता श्री का नाम नानूराम जी
आपकी गुरुदेव के प्रति अपार आस्था और श्रद्धा को अभिव्यक्त और 'मातेश्वरी का नाम देऊबाई था। आपकी धर्मपत्नी का नाम
करती है। शान्ताबाई था। आपके एक बहिन थी जिसका नाम हरकूबाई बरमेचा था जिनको जीवन की सांध्य बेला में ५६ दिन का संथारा
स्व. श्री कंवरलाल जी बेताला : गौहाटी आया। आपके तीन सुपुत्र हैं-कांतिलाल जी, जयन्तीलाल जी और यह सत्य है कि मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान् बनता है। भरतकुमार जी।
किन्तु यह भी सत्य है कि पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों के कारण ही
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ उसे द्रव्य क्षेत्र आदि की अनुकूलताएँ मिलती हैं, जिसके बल पर धर्मपत्नी का नाम सौ. कमलेशदेवी है। आपके चार सुपुत्र हैं वह महानता की सीढ़ियाँ चढ़ता है।
शिवकुमार, आकाश, विश्वास और दीपक तथा तीन पत्रियाँ हैं सौ. मूलतः डेह (जिला नागौर-राज.) निवासी श्री कंवरलाल जी
प्रेमा, सौ. किरण और सौ. रेखा। आपका पूरा परिवार धार्मिक बेताला एक धर्मप्रेमी, उदार हृदय, साहसी और समाज के कर्मठ
भावना लिये हुए है। परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति और कुशल व्यक्तित्व के धनी श्रावक थे। स्व. युवाचार्य श्री मधुकर जी
आचार्यश्री के प्रति आपकी अनन्त आस्था है। आपको कार्य करने में म. के परम भक्त और आगम प्रकाशन योजना के विशिष्ट सहयोगी
विश्वास है नाम में नहीं, युवकोचित जोश और होश के धनी हैं, थे। अनेक संस्थाओं तथा सामाजिक कार्यक्रमों में उन्होंने उदार मन
आप जैसे उत्साही और कर्मठ व्यक्तियों पर समाज को गौरव है। से सहयोग प्रदान किया।
प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका सहयोग प्राप्त हुआ है, तदर्थ
आभारी। आपके व्यवसाय केन्द्र मेरठ में "एवरेस्ट लेबोरेटरीज" श्री कंवरलाल जी के पिताजी का नाम श्री पूनमचन्द जी एवं
और उदयपुर में “एवरेस्ट एण्टरप्राइजेज" के नाम से है। माताजी का नाम श्रीमती राजाबाई था। श्री दुलीचन्द जी, 2000 माणकचन्द जी, मदनलाल जी, किशनलाल जी आपके भाई तथा स्व. श्रीमती भंवरीबाई व श्रीमती गणेशीबाई आपकी बहिनें हैं।
श्री शांतिलाल जी सुराणा : हुबली आपकी धर्मपत्नी का नाम है श्रीमती बिदामदेवी। आपके पुत्र
विश्व के चिन्तकों के सामने एक बहुत ही गम्भीर प्रश्न रहा है का नाम है श्री धर्मचन्द जी तथा पुत्रवधू है सौ. मोहनीदेवी। सौ.
कि जीवन क्या है ? विभिन्न चिन्तकों ने विभिन्न दृष्टियों से प्रस्तुत कान्तादेवी व सौ. भान्तादेवी आपकी पुत्रियाँ हैं। श्री महेशकुमार व ।
प्रश्न पर चिन्तन किया और विविध समाधान भी प्रस्तुत किए हैं। श्री मुकेशकुमार आपके पौत्र तथा सौ. संगीतादेवी पौत्र वधू हैं। श्री । केवल तन मिलने से ही मानव-मानव नहीं कहलाता किन्तु तन के महेशकुमार जी के पुत्र का नाम है अभिनन्दन।
साथ मन का मिलना भी अधिक महत्त्वपूर्ण है-जिसका मन उदार है.
और सद्गुणों से मंडित है वही सच्चा व्यक्ति है और उसी का _आपका गोहाटी में लगभग १०० वर्ष से मोटर फाइनेंस का
जीवन सफल है। प्रस्तुत कसौटी पर जब हम शांतिलाल जी सुराणा व्यवसाय है। इन्दौर में भी आपका व्यवसाय है। प्रस्तुत ग्रन्थ के
के जीवन को कसते हैं तो वे एक सच्चे मानव नजर आते हैं। प्रकाशन में आपके परिवार द्वारा आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ,
उनका हृदय बहुत ही उदार और विशाल है और सदा ही गुरुभक्ति तदर्थ हार्दिक आभारी।
में तत्पर रहे हैं। श्री सुन्दरलाल जी सा. बागरेचा : मेरठ बाड़मेर जिले के खण्डप ग्राम में आपका जन्म हुआ जहाँ पर 9 भारत के तत्वदर्शियों ने जीवन के संबंध में चिन्तन करते हुए
आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने संयम साधना के पथ को तु कहा-जीवन उनका सार्थक है जो उदार होते हैं जो अपनी संपत्ति
स्वीकार किया था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम बादरमल जी था ता का जन-जन के कल्याण हेतु समर्पण करते हैं। मेवाड़ की पावन
जो बहुत ही सरलमना सुश्रावक थे और आपके एक भ्राता हैं 6 पुण्य धरा में आपका जन्म हुआ और व्यवसाय के लिए आप उत्तर
जिनका नाम सुमेरमल जी है। आपका व्यवसाय केन्द्र हुबली भारत में मेरठ पहुँचे। अपनी व्यावसायिक प्रतिभा से व्यवसाय दिन
(कर्नाटक) में है। आप अगरबत्ती के एक जाने-माने व्यवसायी हैं। 785 दूना और रात चौगुना चमकने लगा। आपके पूज्य पिताश्री का नाम ।
प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपने उदारता के साथ सहयोग प्रदान 600 कजोड़ीमल जी है और मातेश्वरी का नाम सुहागबाई है। माता-पिता
किया, तदर्थ हार्दिक आभारी। SED के धार्मिक संस्कार आपके जीवन में विकसित हुए। आप छह भाई परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री और आचार्यश्री के प्रति आपकी PORNO
3D हैं स्व. रूपराज जी, लक्ष्मीलाल जी, कन्हैयालाल जी, गोकुलचंद जी | अनन्य निष्ठा रही है। आपका पूरा परिवार ही आचार्यश्री और *
और मांगीलाल जी और एक बहिन श्रीमती वरदीबाई है। आपकी उपाध्यायश्री के प्रति निष्ठावान रहा है।
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परिशिष्ट
६७१। श्री देवराज जी सा. मेहता : जयपुर
जी के एक बहिन भी है जिसका नाम विमलादेवी है। दर्शनकुमार
जी और उनका पूरा परिवार परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति भांवरी (राजस्थान) का मेहता परिवार सदा ही धर्म के क्षेत्र में,
अनन्य आस्थावान रहा है। वे परम गुरुभक्तों में से रहे हैं। आपके सामाजिक क्षेत्र में और राजनीतिक क्षेत्र में अगुवा रहा है। श्री
सद्प्रयास से डेरावाल नगर में "श्री पुष्कर गुरु धर्म स्थानक" का देवराज जी मेहता भी उसी भांवरी के निवासी हैं और वर्तमान में
निर्माण हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ आपका व्यवसाय केन्द्र जयपुर और कलकत्ता होने से जयपुर में रह
हार्दिक साधुवाद। रहे हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम वस्तीमल जी मेहता और मातेश्वरी का नाम सारीबाई मेहता था। आपके ज्येष्ठ भ्राता
श्री आर. डी. जैन : दिल्ली अन्नराज जी मेहता थे। मनोहरबाई, विमलाबाई, सुखीबाई और श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने एक बार अपने मंगलमय लीलाबाई आपकी बहिनें हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम कुशालदेवी प्रवचन में कहा कि कितने ही बादल गरजते हैं पर बरसते नहीं, है। आपके छह पुत्र हैं-उगमराज जी, अशोककुमार जी, कितने ही बादल बरसते हैं पर गरजते नहीं, कितने ही बादल न किशोरकुमार जी, राजेन्द्रकुमार जी, रमेशकुमार जी और बरसते हैं और न गरजते हैं और कितने ही बादल बरसते भी हैं नवरतनकुमार जी।
और गरजतें भी हैं। इसी प्रकार चार तरह के मानव हैं-कुछ मानव उगमराज जी की धर्मपत्नी का नाम गुलाबदेवी है। उनके रोहित केवल बातों के बादशाह होते हैं पर देने-लेने के नाम पर कुछ भी एक पुत्र और शिप्रा और स्वाती दो पुत्रियाँ हैं।
नहीं होते, कुछ देते हैं पर बोलते नहीं हैं, कुछ देते भी नहीं और अशोककुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सुशीलादेवी है। उनके
बोलते भी नहीं और कुछ देते भी हैं और बोलते भी हैं। श्री आर. दो पुत्रियाँ हैं-मानसी और रक्षिका।
डी. जैन एक ऐसे व्यक्ति हैं जो देते हैं पर बोलते नहीं हैं। उनका
विश्वास काम करने में है बातों में नहीं। आपका मूल निवास खट्टा किशोरकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम आशादेवी है। उनके
एहलादपुर जो मेरठ जिले में अवस्थित है। १९ वर्ष से आप दिल्ली पुत्र का नाम भविक है।
में व्यवसाय हेतु पधारे। आपके पूज्य पिताश्री का नाम तारीफसिंह राजेन्द्रकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम अल्पनादेवी है, पुत्री का
वाह, पुत्रा का जी जैन और मातेश्वरी का नाम इमृतीदेवी जैन है। आप तीन भाई नाम महिका है।
हैं स्व. रोशनलाल जी और सूर्यसिंह जी। आपके एक बहिन है रमेशकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम अल्कादेवी है।
जिसका नाम मायादेवी जैन है। आपके दो सुपुत्र हैं और एक पुत्री आपका व्यवसाय रेलवे स्प्रिंग का जयपुर में है और कलकत्ता । है। पहले पुत्र श्री योगेन्द्र जी उनकी धर्मपत्नी का नाम लता है। में आपके कई फैक्ट्रीयाँ हैं। आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय । उनके पुत्र का नाम ऋषभ और पुत्री का नाम राखी है तथा दूसरे सद्गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनंत पुत्र अरुण हैं उनकी धर्मपत्नी का नाम दीपा है। उनके पुत्र का नाम आस्थावान रहा है और आचार्यश्री के प्रति भी आस्थावान है। अखिल जैन और पुत्री का नाम आशीता जैन है। आपश्री की पुत्री प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।। का नाम सौ. रीता जैन है। आपने अपनी योग्यता एवं उदारता और
कर्मठ कार्य-शक्ति के कारण सेवा और सद्भावना के कारण आप श्री दर्शनकुमार जी जैन : दिल्ली दिल्ली प्रदेशिय कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष एवं अ. भा. स्था. जैन कॉन्फ्रेंस
के उपाध्यक्ष हैं। अनेक संस्थाओं के आप सम्माननीय पदाधिकारी भगवान महावीर ने कहा-"कुछ बादल बरसते हैं पर गजरते
हैं। परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. और नहीं, कुछ व्यक्ति उदार होते हैं किन्तु उदारता का प्रदर्शन नहीं
आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति आपकी अनंत आस्था करते।" दर्शनकुमार जी बहुत ही उदार हृदय के धनी व्यक्ति हैं। आपका मूल निवास स्थान सियालकोट था। पाकिस्तान बनने के
रही है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, पश्चात् आप दिल्ली, डेरावाल नगर में आकर रहने लगे। आपके
तदर्थ हार्दिक आभारी। पूज्य पिताश्री का नाम दिलाराम जी जैन और मातेश्वरी का नाम श्री श्यामसुन्दर जी बर्डिया : उदयपुर श्रीमती देवकीरानी जैन है। आप पाँच भाई थे चंदनलाल जी,
उदयपुर को मेवाड़ की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। इस मदनलाल जी, स्व. शांतिप्रकाश जी, स्व. सुशीलकुमार जी। आपकी
नगरी की अपनी अनूठी विशेषताएँ रही हैं। जहाँ महाराणा देश की धर्मपली का नाम सौ. पुष्पारानी है। आपके दो सुपुत्र हैं
आजादी के लिए जूझते रहे वहाँ पर वहाँ के निवासियों में भी सदा विपिनकुमार जी और अभिनन्दनकुमार जी तथा एक पुत्री है-सौ.
ही आजादी के परवाने बनकर जीते रहे, परतंत्रता के समान कोई डोली जैन।
दुःख नहीं और स्वतंत्रता के समान कोई सुख नहीं। जीओ पर विपिनकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम वीणादेवी है। आपके
स्वतंत्र बनकर जीओ, परतंत्र बनकर आँसू बहाते हुए जीना कोई एक पुत्र और एक पुत्री हैं-नितिन और निधि।
जीवन नहीं है। श्री श्यामलाल जी बर्डिया को ये पवित्र संस्कार अभिनन्दनकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम मीनूदेवी और पुत्र परम्परा से ही प्राप्त हुए थे। यही कारण है कि वे वर्षों से प्रारंभ से का नाम हितेश है। "जनरल स्टोर" का व्यवसाय है। दर्शनकुमार ही "राष्ट्रीय स्वयं सेवक" के कर्मठ कार्यकर्ता रहे और आज भी
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ वे मेवाड़ संभाग के अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। आपके पूज्य
श्री विजयकुमार जी जैन : लुधियाना पिताश्री का नाम नानालाल जी एवं मातेश्वरी का नाम सोहनबाई
श्री विजयकुमार जी जैन एक उत्साही धर्मनिष्ठ युवक हैं। आप है। आपकी धर्मपत्नी का नाम सुगनदेवी है जो बहुत ही समझदार, विवेकशील, धर्म-परायणा महिला हैं। आपके दो पुत्र हैं-राकेश और
पंजाब में लुधियाना के निवासी हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम शोनक और दो पुत्रियाँ हैं-कालिनी और मंजू।
देवराज जी सा. जैन और मातेश्वरी का नाम त्रिलोकसुन्दरी है।
आपकी धर्मपत्नी का नाम नीरू जैन है। आपकी पुत्री का नाम भव्या राकेश जी की धर्मपत्नी का नाम शामला है जो एक प्रतिभा
है। आप छह भाई हैं-रमेशकुमार जी, अशोककुमार जी, संपन्न महिला हैं। आपका व्यवसाय “सोप स्टोन मार्बल", "यूक्रोन
नरेशकुमार जी, कुशलकुमार जी और जिनेन्द्रकुमार जी तथा एक इण्डिया", "मेवाड़ खनिज उद्योग" के नाम से उदयपुर में है। बहिन है सौ. ऊषा जैन। आप फरीदकोट पंजाब के मूल निवासी हैं।
यों राष्ट्रीय और व्यावसायिक कार्य में अत्यन्त व्यस्त रहने के । सन् १९६४ से लुधियाना में व्यवसाय हेतु निवास है। आपका कारण आपका मुनियों से संपर्क बहुत ही कम था पर आचार्यसम्राट् । व्यवसाय “जैन पैकवेल बॉक्स मैन्यूफैक्चर एण्ड प्रिन्टर्स" है। श्री देवन्द्र मुनि जी म. सांसारिक संबंधी होने के नाते परम श्रद्धेय श्री विजयकुमार जी जैन और बहिन नीरू जैन श्रद्धेय उपाध्यायश्री के चरणों में अनेकों बार उपस्थित हुए और आपके उपाध्यायश्री के प्रति अनन्य आस्थावान रहे हैं और आचार्यसम्राट मन में धर्म के सहज संस्कार उबुद्ध हो उठे। यों आपका पूरा श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति भी अपार आस्था है। प्रस्तुत ग्रंथ में परिवार श्रद्धेय गुरुदेवश्री के प्रति एवं आचार्यश्री के प्रति श्रद्धानत | आपका हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ
श्री रणजीतमल जी महेन्द्रकुमार जी लोढ़ा : अजमेर साधुवाद।
राजस्थान की पावन पुण्य धरा में समय-समय पर नर-रत्नों ने श्रीमती रतनबाई संग्रामसिंह जी मेहता : उदयपुर जन्म लेकर धरती को अपनी आन, बान और शान से चमत्कृत प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा की दृष्टि से उदयपुर का अपना
किया है। कितने ही ऐसे नर-रल हुए हैं जिनकी जीवन की प्रवाह गौरवपूर्ण स्थान है। वह झीलों की नगरी है उस नगर के चारों ओर
हजारों हजार वर्ष तक चमकती रही है। नागौर एक ऐतिहासिक झीलें हैं। इसलिए वह शहर झीलों की नगरी के नाम से मशहूर है
भूमि रही है जिसका सांस्कृतिक इतिहास उज्ज्वल रहा है। नागौर के 12P003 और उसे राजस्थान का कश्मीर भी कहते हैं। उसी उदयपुर में
इतिहास में लोढ़ा परिवार का योगदान अपूर्व रहा है। श्रीमती धर्मानुरागिनी रतनबाई का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम
श्री चंचलमल जी लोढ़ा नागौर के एक जाने-माने मेधावी व्यक्ति श्री कन्हैयालाल जी सा. लोढ़ा और मातेश्वरी का नाम राजबाई
थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम उमरावकुंवर था। श्री रणजीतमल जी लोढ़ा है। आपका पाणिग्रहण मेहता परिवार के अग्रगण्य संग्रामसिंह
और श्री महेन्द्रकुमार जी आपके सुपुत्र हैं। दोनों भाइयों में अपार जी के साथ संपन्न हुआ। संग्रामसिंह जी के पूज्य पिताश्री का नाम
स्नेह और सद्भावना है। आपका व्यवसाय अजमेर में “ओवरसीज माधवसिंह जी और मातेश्वरी का नाम झेमाबाई था। संग्रामसिंह जी
ट्रेड एजेन्सीज" के नाम से है। व्यवसाय में व्यस्त रहने के कारण के मनोहरसिंह जी, दौलतसिंह जी, पद्मसिंह जी और नवलसिंह जी
धार्मिक साधना के प्रति आप दोनों भाइयों में बहुत कम रुचि थी पर भाई थे और मोहनबाई और बंसताबाई दो बहिनें थीं।
सन् १९८३ में उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. का वर्षावास
मदनगंज-किशनगढ़ में हुआ। उपाध्यायश्री का परिचय होने पर संग्रामसिंह जी बहुत ही भद्र प्रकृति के सज्जन पुरुष थे। आपके
आपकी धार्मिक भावना दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती चली गई। चार पुत्र हैं-अनिलकुमार, सुशीलकुमार, किशनकुमार और
श्री रणजीतमल जी की धर्मपत्नी का नाम धर्ममूर्ति पवनदेवी है। सुनीलकुमार तथा चार पुत्रियाँ हैं-मंजूदेवी और लालीदेवी आदि।
आपके दो सुपुत्र हैं-रवीन्द्रकुमार जी और महेशकुमार जी। अनिलकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम केसरदेवी है और पुत्र
श्री रवीन्द्रकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम बबीतादेवी है और का नाम हिमांशु तथा पुत्रियों के नाम रानू और श्यानू हैं।
उनके एक सुपुत्री है जिसका नाम पूर्णिमा है। सुशीलकमार जी की धर्मपत्नी का नाम ज्योतिदेवी है तथा पुत्र
श्री महेन्द्रकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सुशीलादेवी है। का नाम सैंकी और पुत्री का नाम पिंकी है।
आपके सुपुत्र का नाम ललितकुमार तथा सुपुत्री का नाम प्रितू है। किशनकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम कुसुम है और उनके दो
इस प्रकार आपका सम्पूर्ण परिवार परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री के wasal पुत्रियाँ हैं-खुशबू और मीनू।।
प्रति सर्वात्मना समर्पित रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपने सुशीलकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम मंजूदेवी है। उनके पुत्र । आर्थिक अनुदान प्रदान कर अपनी भक्ति का परिचय दिया है। का नाम चीकू और पुत्री का नाम प्रिया है। | आपका "रतन ऑटोमोबाइल" का व्यवसाय है। प्रस्तुत ग्रंथ
श्री मीठालाल जी सिंघवी : सरत | हेतु आपका आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। जीवन पर चिन्तन करते हुए एक चिन्तक ने लिखा है कि
मानव अगरबत्ती की तरह खुशबू फैलाता हुआ जीये और मोमबत्ती
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परिशिष्ट
की तरह प्रकाश करता हुआ जीये। जिसके जीवन में खुशबू और प्रकाश है वह जन-जन का आदरणीय बन जाता है। मीठालाल जी का जीवन इसी प्रकार का जीवन है। आप कर्मठ कार्यकर्ता है। आपने अपने प्रबल पुरुषार्थ से व्यवसाय के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। आप राजस्थान के डेलाना (भीलवाड़ा - राजस्थान) के निवासी हैं पर व्यवसाय की दृष्टि से सूरत में "शैलेष डाईंग एण्ड प्रिन्टिंग मिल” है, बम्बई में पत्थर का व्यापार है और उदयपुर में मार्बल का। बम्बई मेवाड़ संघ के आप संस्थापक हैं और उपाध्यक्ष हैं। आप गुजरात कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष हैं तथा अम्बा गुरु शोध संस्थान के उपाध्यक्ष हैं। आपने गंगापुर में "अम्बेश गुरु रेफरल हस्पताल" भी बनाया एवं उसके अध्यक्ष हैं। ओसवाल मित्र मण्डल और भारत जैन महामण्डी के सदस्य हैं।
आपके पूज्य पिताश्री का नाम मनोहरलाल सिंघवी तथा मातेश्वरी का नाम रमाबाई है। आपके चार भ्राता सोहनलाल जी, शोभालाल जी, बस्तीलाल जी, शांतिलाल जी तथा दो बहिनेंसज्जनबाई और नजरबाई हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम संतोषदेवी है। संतोषदेवी भी एक धर्म-परायणा सुश्राविका हैं। सूरत में आप महिला मण्डल की अध्यक्षा हैं। आपने चन्दनबाला महिला मण्डल की वहाँ पर स्थापना की है। परोपकार के कार्य में विशेष रुचि है। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम है किशोरकुमार ।
किशोरकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम आशादेवी है और पुत्री का नाम है सोनिया।
मीठालाल जी की पुत्री का नाम सौ. सुशीलादेवी गोखरू है। आपसे समाज को बहुत कुछ आशा है श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अनन्य आस्था थी। आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
श्री खेतरमल जी सूरजमल जी डोशी सूरत :
कहा जाता है लक्ष्मी प्राप्ति तो पुण्यों से हर किसी को हो जाती है किन्तु उसका धर्म के लिए सदुपयोग करना हर किसी को सुलभ नहीं होता दान, सेवा, परोपकार और धर्म-प्रभावना हेतु जो पुरुषार्थ से अर्जित अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करता है, वह अगले जीवन के लिए भी पुण्यों का पाथेय साध लेता है।
श्री खेतरमल जी डोशी के विषय में यही कहा जा सकता है कि जन सेवा आदि कार्यों में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करने वाले भाग्यशाली व्यक्ति हैं। आप एक युवक होते हुए भी धार्मिक भावों में खूब रमे व रंगे हुए हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम सूरजमल जी डोशी और मातेश्वरी का नाम पन्नीबाई है। आप मेवाड़ में कमोल ग्राम के निवासी हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम कमलाबाई है। आपके पुत्र दो हैं जिनके नाम नरेशकुमार और संतोषकुमार तथा दो पुत्रियाँ हैं पिंकी और कपिला आपकी तीन बहिनें हैं- भंवरीदेवी, चंदनाबहिन और भगवतीदेवी। आप श्रद्धेय उपाध्यायश्री के परम श्रद्धालु सुश्रावक रहे हैं। आपका व्यवसाय सूरत में है। आपकी फर्म का नाम "अमर तारा कार्पोरेशन" एम. जी. मार्केट, रिंग रोड, सूरत है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
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एडवोकेट इन्द्रमल जी जैन रतलाम
मालव की पावन पुण्य धरा सदा ही प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से आकर्षक रही है जहाँ पर कदम-कदम पर पानी और हर स्थान पर खाना मिलता था, इसलिए "मालव धरती गहन गंभीर, पग-पग रोटी मग-मग नीर"। मालव में रत्नपुरी रतलाम का अपना अनूठा महत्त्व रहा है। इन्द्रमल जी जैन एक बहुत ही सुलझे हुए धर्मनिष्ठ सुश्रावक है आपके पूज्य पिताश्री का नाम नानालाल जी और मातेश्वरी का नाम मगनबाई था। आपका पाणिग्रहण रतलाम निवासी धूलचंद जी पीतलिया की सुपुत्री सौ. शान्तादेवी के साथ हुआ। शान्तादेवी बहुत ही धर्म-परायणा महिला हैं। आपके दिनेशकुमार पुत्र हैं।
श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अनंत आस्था थी और उस आस्था की रूप में अभिव्यक्ति हुई है आर्थिक अनुदान के रूप में, तदर्थ हार्दिक सांधुवाद।
श्री विमलकुमार जी महावीरप्रसाद जी जैन: दिल्ली
भारत के महामनीषियों ने मानव-जीवन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने कहा- “बड़े भाग मानुस तन पावा"। मानव का तन मिलना बहुत ही कठिन और उस तन को पाकर जो व्यक्ति उदारता के साथ सत्कर्म करता है उसका जीवन धन्य हो उठता है। श्री विमलकुमार जी इसी प्रकार के व्यक्ति हैं। वे हृदय के उदार हैं। भारत की राजधानी दिल्ली में निवास करते हैं। आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति बहुत ही श्रद्धानत रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका योगदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
श्री रतनलाल जी सा. धोका : रायचूर
रायचूर कर्नाटक का एक धर्म-केन्द्र है। वहाँ के श्रद्धालुओं में अपार भक्ति है। श्री रतनलाल जी सा धोका परम गुरुभक्त धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम गिरधारीलाल जी तथा मातेश्वरी का नाम बदामबाई है। आपकी धर्मपत्नी का नाम सौ. सुशीलादेवी है जो पूना निवासी सोहनलाल जी दफ्तरी की पुत्री हैं। माता और पिता के धर्म संस्कार पुत्री में पल्लवित और पुष्पित हुए। आपके तीन पुत्र हैं-शैलेष, महेश और नरेश तथा एक पुत्री है स्वाती आपके तीन भाई हैं-मदनलाल जी, कांतिलाल जी और रमेशचंद जी तथा दो बहिनें हैं मोहनबाई और रतनबाई श्री रतनलाल जी का अध्ययन महाराष्ट्र के चालीस गाँव में हुआ। उसके पश्चात् उन्होंने सेठ पारसमल जी सा. मुथा के साथ व्यवसाय किया और सन् १९८५ से स्वतंत्र व्यवसाय प्रारंभ किया है। प्रतिभा की तेजस्विता से व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त की है। आपका व्यवसाय "कॉटन मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट" का है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री के प्रति आपकी अंनत आस्था रही है। प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आपका अनुदान सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
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हुआ।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्री संतोषचन्द जी झामड़ : मद्रास
आपकी पुत्री का नाम अनीता है। आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय
उपाध्यायश्री के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ के _श्री संतोषचन्द जी सा. झामड़ राजस्थान में भंवाल गाँव के ।
प्रकाशन में आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी। निवासी हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम सुगनचन्द जी और 0000
मातेश्वरी का नाम सिरेकुंवरबाई था। आपकी धर्मपत्नी का नाम चम्पादेवी है। आप चार भाई हैं जवरीलाल जी, महावीरचन्द जी श्री भंवरलाल जी सा. सांखला : पाली और ज्ञानचन्द जी तथा आपके दो बहिनें हैं-उमरावबाई और
श्री भंवरलाल जी सांखला एक धर्म-परायण सुश्रावक हैं। आप श्रीमती पुष्पाबाई। उमरावबाई का पाणिग्रहण सेठ मोहनमल जी
राजस्थान में पाली जिले के मोहरा गाँव के निवासी रहे हैं। आपके चौरड़िया के ज्येष्ठ पुत्र सेठ पारसमल जी चौरड़िया के साथ सम्पन्न
पूज्य पिताश्री का नाम मगराज जी एवं मातेश्वरी का नाम भूरीबाई
था। आपकी धर्मपत्नी का नाम भंवरीबाई है। आपके पाँच पुत्र हैं__आपके चार पुत्र हैं-स्वरूपचन्द जी, सुमेरचन्द जी, सुरेशचन्द
नवरतनमल जी, महावीरचंद जी, रमेशचंद जी, विमलचंद जी और 656 जी और सुभाषचन्द जी तथा छह पुत्रियाँ हैं-सौ. इन्द्राबाई, सौ.
ज्ञानचंद जी। सरदारबाई, सौ. किरणदेवी, सौ. यशोदादेवी, सौ. आशादेवी और ।
नवरतनमल जी की धर्मपत्नी का नाम वसंताबाई है। उनके दो सौ. ऊषादेवी।
पुत्र राजकुमार और विजयकुमार हैं और एक पुत्री सीमा है। स्वरूपचन्द जी सा. की धर्मपत्नी का नाम जसकुंवर है। उनके तीन पुत्र हैं-गौतम, सुधीर और राकेश तथा एक पुत्री है सुजाता।
महावीरचंद जी की धर्मपत्नी का नाम कमलाबाई है। उनके एक
पुत्र संजय है और दो पुत्रियाँ हैं आरती और शीतल। सुमेरचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम सुशीलादेवी है। उनके संजय और कमल दो पुत्र हैं।
रमेशचंद जी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती सुरेश है, पुत्र
पंकज और पुत्रियाँ पूनम तथा मनीषा हैं। सुरेशचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। उनके एक पुत्र और एक पुत्री है उनके नाम हैं-विशाल और वर्षा।
विमलचंद जी की धर्मपत्नी का नाम मधुबाई है। उनके एक
लड़का और एक लड़की हैं-धीरज और हर्षा। सुभाषचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम प्रेमादेवी है। उनके दो पुत्रियाँ हैं-सुरेखा और श्रद्धा। आपका व्यवसाय मद्रास में “जामड़
ज्ञानचंद जी की धर्मपत्नी का नाम कविता है। पुत्र का नाम फाइनेन्स" के नाम से और मदरान्तकम् में "मनी लेण्डर्स" के नाम
ऋषभ और पुत्री का नाम वर्षा है। आपका व्यवसाय केन्द्र से है। श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति आपकी
मेटूपालियम में "फाइनेन्स" का है। आपका पूरा परिवार श्रद्धेय अपार निष्ठा रही है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपका हार्दिक साधुवाद प्राप्त उपाध्यायश्री के प्रति निष्ठावान रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आपका हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद। श्रीमती विद्यावन्ती रलियाराम जी जैन : दिल्ली स्व. मूलचन्द जी सा. साकरिया : बम्बई
भारतवर्ष की महान संस्कृति एवं उज्ज्वल परम्परा में नारी का स्व. मूलचन्द जी सा. साकरिया राजस्थान में साण्डेराव के
महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वह परिवार, समाज और धर्म के क्षेत्र में निवासी थे। इनके पूज्य पिताश्री का नाम गुलाबचन्द जी और 00000
अपनी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका सदा निभाती रही है। उसमें विविध मातेश्वरी का नाम थापूबाई था। उनकी धर्मपत्नी का नाम घीसीबाई गुण हैं। श्रीमती विद्यावन्तीदेवी में वे सारे गुण विकसित थे। वे था। आपके चार पुत्र हैं-कुन्दनमल जी, शंकरलाल जी, इन्द्रमल जी ममतामयी माँ थीं और तन-मन को समर्पित करने वाली सधर्मणी और केवलचन्द जी तथा चार पुत्रियाँ हैं-सौ. सुशीलादेवी, सौ. भी थीं। आपके पति रलियाराम जी जैन बहुत ही धर्मनिष्ठ सुश्रावक
सरोजदेवी, सौ. अंजनादेवी और सौ. रंजनादेवी। थे, जिन्हें आगमों का परिज्ञान था और अनेक थोकड़े भी कंठस्थ
श्री कुन्दनमल जी सा. की धर्मपत्नी का नाम रूपीबाई है। उनके थे। आप मूल रूप में अमृतसर के निवासी थे। आपका व्यवसाय अश्व केन्द्र दिल्ली और बम्बई रहा है। आपके चार सुपुत्र हैं-दीपचन्द जी,
एक पुत्र और एक पुत्री है। रमेशकुमार जी, सतीश जी और धर्मवीर जी तथा तीन सुपुत्रियाँ J शंकरलाल जी की धर्मपत्नी का नाम विमलाबाई है। उनके तीन हैं-राजकुमारी जैन, सुमित्रा जैन और शशि जैन।
पुत्र हैं-अरविन्दकुमार, अनिलकुमार और विकास तथा दो पुत्रियाँ
हैं-नीलम और पिंकी। श्री दीपचन्द जी बहुत ही उदारमना सुश्रावक हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम पद्मावतीदेवी था जो लघुवय में ही स्वर्गस्थ हो इन्द्रमल जी की धर्मपत्नी का नाम बेबीदेवी है और उनके पुत्रों
गईं। आपके दो पुत्र हैं-वरिशकमल जैन और नरेशकमल जैन तथा ) के नाम कमलेश, शैलेष, मितेश और पीयूष हैं। 00006
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। परिशिष्ट
६७५ । केवलचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। उनके एक श्री नेनमल जी श्रीश्रीमाल : बाड़मेर पुत्र अंकित है और पुत्रियाँ हैं-रश्मि और श्वेता।
बाड़मेर जिले के मजल गाँव के आप निवासी रहे हैं जहाँ से आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री ।
अनेक संत और सतियों की दीक्षाएँ हुईं। आपके पूज्य पिताश्री का पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनन्य निष्ठावान रहा है। आपका
नाम कपूरचन्द जी था। आप बहुत ही धर्म-परायण सुश्रावक हैं। व्यवसाय “पी. के. प्लास्टिक" के नाम से इन्दौर में और
आपकी धर्मपत्नी का नाम अणसीबाई था। आपके तीन सुपुत्र हैं"साकरिया प्लास्टिक" के नाम से बम्बई में है। उपाध्याय श्री पुष्कर ।
छगनलाल जी, ताराचन्द जी और लक्ष्मीचन्द जी। मुनि जी म. के प्रति आपका पूरा परिवार अनन्य आस्थावान रहा है और आचार्यश्री के प्रति है। आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ
छगनलाल जी की धर्मपत्नी का नाम कमलादेवी है। पुत्र का हार्दिक आभारी।
नाम दिनेशकुमार है और छह पुत्रियाँ हैं-सौ. पुष्पादेवी, सौ.
मंजूदेवी, कु. वीणा, कु. लता, कु. संतोष और कु. नीतू। श्री देवीलाल जी हीरालाल जी कोठारी : बम्बई
ताराचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम रंगूदेवी है। आपके चार अरावली की गहन घाटियों में बसा हुआ फतेहपुर आज भी
सुपुत्र हैं-सम्पतराज जी, जयंतीराज जी, विक्रम और नितेष तथा जन-जन के आकर्षण का केन्द्र है। प्रदूषण से मुक्त यह स्थान है।
तीन पुत्रियाँ हैं-संगीता, वीणा और हेमा। आपकी जन्मभूमि का श्रेय उसी नन्हें-से कस्बे को मिला है। आपकी धर्मपत्नी का नाम राधाबाई है। आपके तीन पुत्र हैं-उम्मेदमल जी,
सम्पतराज जी की धर्मपत्नी का नाम निर्मला और पुत्र का नाम सुन्दरलाल जी और हिम्मतमल जी।
मदन है। उम्मेदमल जी की धर्मपत्नी का नाम लीलादेवी और पुत्र का ।
लक्ष्मीचन्द जी की धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। उनके मुकेश, नाम संजयकुमार तथा पुत्रियों के नाम सीमादेवी और नूतन हैं।
कैलाश और हितेश तीन पुत्र हैं तथा मनीता एक पुत्री है। सुन्दरलाल जी की धर्मपत्नी का नाम तारादेवी, पुत्र का नाम
आपका पूरा परिवार श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति और भरतकुमार और पुत्री का नाम चंचल है।
आचार्यश्री के प्रति अनन्त आस्थावान है। प्रस्तुत ग्रन्थ हेतु आपका
हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। आपका हिम्मतमल जी की धर्मपत्नी का नाम शान्तादेवी और पुत्री का
व्यवसाय बल्लारी और कर्नूल में है। आपका व्यवसाय फेब्रिक्स नाम राखी है। आपका व्यवसाय केन्द्र बम्बई है। उसका नाम है
और टैक्सटाइल्स का है। फर्म : “महालक्ष्मी टैक्सटाइल्स"। "उम्मेदमल प्रभात कलर कम्पनी" ३५, शाही सदन, सात रास्ता, बम्बई है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के प्रति आपकी एवं आपके परिवार की पूर्ण आस्था थी और आचार्य
श्री शान्तिलाल जी टाटिया : बम्बई सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के प्रति पूर्ण आस्था है। प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
श्री शान्तिलाल जी टाटिया एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवक हैं। बम्बई में आप चार्टेड एकाउन्टेंट हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम
घेवरचन्द जी टाटिया तथा माताजी का नाम सुन्दरदेवी है। श्री श्री शान्तिमल जी लोढ़ा : औरंगाबाद
पारसमल जी व श्री सोहनलाल जी आपके भाई हैं। आपकी तीन शान्तिमल जी लोढ़ा एक परम उत्साही सुश्रावक हैं। आपके । बहिनें हैं-श्रीमती बीदामकुंवर, केवलकुंवर तथा छोटादेवी। आपकी पूज्य पिताश्री का नाम फतेहमल जी लोढ़ा और मातेश्वरी का नाम । धर्मपत्नी का नाम श्रीमती रीटा जैन है। सज्जनकुंवर है। आपकी धर्मपत्नी का नाम उर्मिलादेवी है। आपके
श्री शान्तिलाल जी एवं श्रीमती रीटा जैन धार्मिक संस्कारों में पुत्र का नाम सतीश और पुत्री का नाम छवि है। आपके दो भाई
पले उच्च विचारों के हैं। पूज्य महासती श्री पुष्पवती जी म. के प्रति हैं-प्रकाशमल जी और रणजीतमल जी तथा एक बहिन है-सौ. ।
अपनी विशेष श्रद्धा-भावना है। पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. निर्मला मोदी। आप राजस्थान में अजमेर के निवासी हैं। आपका
के प्रति आपकी अमिट निष्ठा है। धार्मिक रुचि व समाज-सेवा में व्यवसाय औरंगाबाद में “सतीश मोटर्स" जालना रोड पर है।
आप सदा अग्रणी रहे हैं। पूज्य माताजी की स्मृति में आपने पूज्य आपकी श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति अनन्य निष्ठा रही है। सौ. छवि
गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. स्मृति-ग्रन्थ हेतु अनुदान संचेती के पुत्री के विवाह के उपलक्ष में आपने अनुदान प्रदान किया है, तदर्थ साधुवाद।
प्राप्त किया, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
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। ६७६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ श्री जेठमल जी सा. सुराणा : खण्डप
श्री नेमीचन्द जी सा. कोठारी : पीपाड़ श्री जेठमल जी सा. सुराणा एक धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं। आपके पीपाड़ का स्थानकवासी जैन समाज के इतिहास में महत्त्वपूर्ण पूज्य पिताश्री का नाम मन्नीलाल जी और मातेश्वरी का नाम स्थान है जहाँ पर जीवराज जी म. ने सर्वप्रथम क्रियोद्धार किया हरकबाई है। आपकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती सोहनीबाई है। था। नेमीचंद जी सा. कोठारी उसी पीपाड़ की पवित्र भूमि में जन्मे आपके ज्येष्ठ भ्राता का नाम बादरमल जी. सा. है। आपके दो हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम बच्छराज जी सा. और मातेश्वरी पुत्रियाँ और दो पुत्र हैं। पुत्रियों के नाम इस प्रकार हैं-सौ. का नाम हीराकुंवर था। आपकी धर्मपत्नी का नाम सीतादेवी है, जो पिस्तादेवी और सौ. कमलादेवी। आपके ज्येष्ठ पुत्र का नाम बहुत ही धर्म-परायणा सुश्राविका थीं। आपके दो सुपुत्र हैंअमृतलाल जी और उनकी धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। उनके दो निहालचंद जी और ज्ञानचंद जी। दोनों भाइयों की जोड़ी पुत्रियाँ हैं ममता और शिल्पी एवं दो पुत्र हैं संदीप और विक्रम। राम-लक्ष्मण की तरह है। दूसरे पुत्र गौतम जी हैं उनकी धर्मपत्नी का नाम सौ. ललितादेवी __ निहालचंद जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. सरितादेवी है। आपके और पुत्री का नाम हेमलता है।
अभय और ललित दो पुत्र हैं। अभय जी की धर्मपत्नी का नाम आप राजस्थान में खण्डप के निवासी हैं जहाँ पर आचार्यसम्राट् । अल्पा है और दो पुत्रियाँ हैं-सौ. संगीता और सुनीता। श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने दीक्षा ग्रहण की थी। आपका पूरा परिवार ज्ञानचंद जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. सुरजदेवी है। उनके दो श्रद्धेय उपाध्याय पूज्य गुरुदेवश्री के प्रति पूर्ण श्रद्धानिष्ठ रहा है। पुत्र हैं-पंकज और सौरभ। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। नेमीचंद जी सा. के छह पुत्रियाँ हैं-सौ. पुष्पादेवी, सरला,
गुलाबदेवी, सुशीला, सौ. रसिला और श्रीमती बसंतीदेवी। श्री धनसुखभाई मोहनलाल जी डोशी : बम्बई आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
जी म. के प्रति सर्वात्मना समर्पित है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका ___ श्री धनसुखभाई बहुत ही धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं। आपके पूज्य
आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। पिताश्री का नाम मोहनलाल जी डोशी और मातेश्वरी का नाम धर्ममूर्ति शान्ताबहिन है। माता-पिता के धर्म और आध्यात्मिक श्री जयचंदलाल जी वेद : नारनौल संस्कार आपमें पल्लवित और पुष्पित हुए। आपकी धर्मपत्नी का
श्री जयचंदलाल जी वेद के पूज्य पिताश्री का नाम माणकचंद नाम सौ. सुमनबहिन है। आपके पुत्र का नाम रशेश और पुत्री का
जी था और माता का नाम था रूपाबाई। आपकी धर्मपत्नी का नाम
जी था और माता नाम स्मिता है। आप तीन भाई हैं अरुणकुमार और अश्विनीकुमार मेंटीबाई है। आपके पाँच पब नेमीचंट जी पारसमल जी श्रीचंद तथा आपकी चार बहिनें हैं-मंजुलाबहिन, मधुकान्ताबहिन, जी. पनमचंद जी और उम्मेदकमार जी। ज्योतिबहिन और भारतीबहिन। आप मूल निवासी सौराष्ट्र के हैं।
नेमीचंद जी की धर्मपत्नी का नाम प्रेमलता है। उनके एक पुत्र वर्तमान में बम्बई में आपका व्यवसाय है। श्रद्धेय आचार्यश्री और
और एक पुत्री है जिनके नाम हैं-नवीन और सिमी। उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अपार आस्था है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
पारसमल जी की धर्मपत्नी का नाम विजयादेवी है। उनके दो
पुत्र हैं-रमणीश और पंकज तथा एक पुत्री है रुचिका। श्रीमती शांताबहिन मोहनलाल जी डोशी : बम्बई
श्रीचंद जी की धर्मपत्नी का नाम किरण है। उनके पुत्र का नाम शांताबहिन बहुत ही धर्म-परायणा सुश्राविका हैं। आपके जीवन कमल है तथा पुत्रियों के नाम पिंकी और निशा हैं। के कण-कण में मन के अणु-अणु में आध्यात्मिक भव्य भावना सदा पूनमचंद जी की धर्मपत्नी का नाम मंजूदेवी है। उनके दो पुत्रअँगडाइयाँ लेती रहती है। आप शांताक्रुज, बम्बई में महिलाओं की हेमन्त एवं मनीष और एक पुत्री है रेखा। प्रमुखा हैं। आपकी प्रबल प्रेरणा से शांताक्रुज में धर्म की भव्य
उम्मेदकुमार जी की धर्मपत्नी का नाम सीमा है। उनके पुत्र का भावनाएँ विकसित हुई हैं। धर्म स्थानक के निर्माण में भी आपका
नाम गौतम है और पुत्री का नाम वीणा है। अपूर्व योगदान रहा है। सेठ मोहनलाल जी डोशी भी बहुत ही उदार हृदय के धनी सुश्रावक थे। आपके तीन सुपुत्र हैं-धनसुखभाई,
आप राजस्थान में खण्डेला के निवासी हैं और ३५ वर्षों से अरुणकुमार और अश्विनीकुमार तथा चार पुत्रियाँ हैं-मंजुलाबहिन,
नारनौल में रह रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका सहयोग प्राप्त हुआ, ज्योतिबहिन, मधुकान्ताबहिन और भारतीबहिन। शांताक्रज. बंबई में तदर्थ साधुवाद। आचार्यश्री के प्रति आपकी अनंत आस्था है। आपका निवास है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति आपकी अनन्य आस्था रही है एवं आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी । श्री बाबूलाल जी रांका : गढ़सिवाना म. के प्रति आपकी अपूर्व श्रद्धा है। प्रस्तुत ग्रंथ प्रकाशन हेतु आपका गढ़सिवाना का रांका परिवार बहुत ही बांका रहा है। रांका आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
। परिवार के संबंध में वहाँ पर अनेक अनुश्रुतियाँ भी प्रचलित हैं।
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2005
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
श्री धनसुख भाई मोहनलाल डोशी (बम्बई)
श्रीमान जयचन्दलाल जी बैद सौ. गेन्दीबाई बैद (नारनौल)
श्री जेठमल जी सा. सुराणा सौ. सोहनीबाई सुराणा (खण्डप)
धर्मशीला शान्ताबेन मोहनलाल डोशी (बम्बई)
श्री बाबूलाल जी रांका (गढ़ सिवाना)
उदार सहयोगी
श्री नेमीचन्द जी कोठारी (पीपाड़)
श्रीमान अमरचन्द जी सम्पतराज जी गांधी (बैंगलौर)
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
उदार सहयोगी
श्री इन्द्रचन्द जी सा. धारीवाल सौ. लीलाबाई धारीवाल (बगड़ी-आरकोणम्)
श्री गौतम जी आंचलिया सौ. कुशलदेवी आंचलिया
(जोधपुर).
श्री दुलीचन्द जी लुंकड
(खण्डप)
स्व. श्री किस्तूरचन्द जी सा. माण्डोत
(ढोल-सूरत)
श्री रवीन्द्रकुमार जी गेहरीलाल जी
सियाल (समीचा-बम्बई)
श्री मेघराज जी सा. बेताला
(नागौर-बैंगलौर)
श्री चुन्नीलाल जी दीपचन्द जी कसारा
(तिरपाल-विरार)
श्री मोहनलाल जी सा. भोगर सौ. चम्पाबाई भोगर
(जसवंतगढ़)
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त र रारा
उदार सहयोगी
उदार सहयोगी
श्री ज्ञानचन्द जी तातेड सौ. प्रसन्नकुंवर तातेड
(दिल्ली)
श्रीमान नन्दलाल जी लोढा
(बगडूंदा)
श्रीमान किशनलाल जी तातेड़ सौ. नगीनादेवी तातेड़
(दिल्ली)
श्री हिम्मतलाल जी हिंगड
(कांकरोली)
श्री हंसराज जी जैन श्री पंकज कुमार जैन (पुत्र) सौ. शान्तिदेवी जैन (पत्नी)
(चरखी दादरी)
श्री चन्द्रेश जी जैन सौ. डोली जैन (लुधियाना)
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
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श्री मांगीलाल जी कटारिया सौ. पारस बाई कटारिया
(औरंगाबाद)
श्री मीठालाल जी भंसाली (करमावास-बैंगलौर)
श्री गणेशलाल जी सियाल सौ. झमकूदेवी (पत्नी) एवं परिवार
(नाथद्वारा)
श्री दीपचन्द जी भंसाली (करमावास-बैंगलौर)
श्री सौभाग्य सिंह जी सा. मांडावत सौ. स्नेहलता मांडावत
(उदयपुर)
श्री शोभाचन्द जी संचेती सौ. चंचलादेवी संचेती (अकलूज)
स्व. श्रीमान कल्याणचन्द जी बोथरा
(दिल्ली)
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
उदार सहयोगी
श्री खुमाणसिंह जी कागरेचा
(सिंघाड़ा)
श्री रतनलाल जी मारू
(मदनगंज)
स्व. श्री धनराज जी कोठारी
(अहमदाबाद)
श्री मूलचन्द जी आंचलिया
(इन्दौर)
श्री रमेश मुथा (रायचूर)
श्री जालमचन्द जी बम्बोरी
(सूरत)
श्री रंगलाल जी डागलिया सौ. चन्द्रादेवी डागलिया
(नाथद्वारा)
स्व. श्री लाभचन्द जी मेहता
(नागोरी) जोधपुर
श्री विभूति कुमार मादरेचा
(ढोल)
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
श्री हिम्मतसिंह जी मेहता (जयपुर)
श्री सुभाषचन्दजी जैन श्रीमती सौ. तृप्ता जैन (माडलटाऊन-दिल्ली)
श्रीमती अ. सौ. सुशीला देवी उगमराज मेहता (बैंगलौर)
श्री बाबूलाल जी जड़ाव चन्दजी तलेसरा (तिरपाल-उदयपुर)
श्री राजकुमार जी जैन (इन्दौर)
श्रीमान लादुलालजी मेहता श्रीमती सौ. पिस्तादेवी (गंगापुर)
श्री रवीन्द्रकुमारजी सौ. अनीता जैन (फरीदाबाद)
पूर
श्रीमान पारसमल जी श्रीश्रीमाल (समदड़ी)
उदार सहयोगी
श्री कन्हैयालालजी कटारिया (अहमदनगर)
श्रीमान रोशनलाल जी झगड़ावत श्रीमती भागवन्ती देवी (डबोक - उदयपुर)
स्व. सुदर्शन लाल जी जैन (दिल्ली)
श्री मनोहरलाल जी श्रीश्रीमाल (जयपुर)
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________________
धर्मप्रेमी गुरु भक्त
उदार सहयोगी
श्री गणेशलाल जी भंडारी
(नांदेशमा)
श्रीमान चुन्नीलाल जी भोगर
(जसवन्तगढ़)
श्री सुनील कमार चौपडा
(जोधपुर)
श्री सुकनराज धारीवाल
(जोधपुर)
श्री सम्पतलाल जी धोका सौ. सरसदेवी धोका (अहमदनगर)
स्व. श्रीमती गुलसन देवी धर्मपत्नी, सतपालजी जैन
(दिल्ली)
श्रीमती सक्कर बाई धर्मपत्नी, कान्तिलाल जी गाँधी
(अहमदाबाद)
श्री मिश्रीलालजी तातेड़ जैन
(बैतूल-म.प्र.)
श्रीमान् माणकचन्द जी भण्डारी
(चन्दननगर-पूना)
श्री किस्तूरचंद जी कमलचंद जी चव्हाण सुआवतों का गुड़ा
(राजस्थान)
www.ainality.org
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धर्मप्रेमी गुरु भक्त
श्रीमान थावरचन्द जी कन्हैयालाल जी जैन श्री अमरचंद जी भैंरूलाल जी रांका (ठाकुरगोता गुडली वाले)
(शोलापुर)
श्री जसवन्तमलजी सखलेचा (अजमेर)
30
श्री रतनलाल जी कोठारी (नासिक)
श्री पवनकुमार जैन (कांधला)
स्व. श्री शाह धनराज जी धारोलिया (पाली-राजस्थान)
उदार सहयोगी
श्री एम. भँवर लाल जी कोठारी (विरंजीपुरम)
श्री प्रेमचन्द जी देवड़ा (एडवोकेट) (औरंगाबाद)
श्री सम्पतराजजी सुपुत्र श्री कालूरामजी कांठेड (बैंगलौर)
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छगनराज जी की माताई, शो
। परिशिष्ट
६७७ बाबूलाल जी सा. रांका के पूज्य पिताश्री का नाम बंशराज की आपकी अनंत आस्था है। प्रस्तुत ग्रन्थ हेतु आपका अनुदान प्राप्त रांका था एवं मातेश्वरी का नाम भंवरीबाई था। आपकी धर्मपत्नी । हुआ, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद। का नाम सुशीलादेवी है। आपके तीन पुत्र और एक पुत्री है
श्री दुलीचन्द जी लुंकड़ : खण्डप अशोककुमार, पवन, विपिन और संगीता। अशोककुमार जी की धर्मपत्नी का नाम कीर्ति है। आपका
मेवाड़ की उर्वरा माटी ने अनेक रनों को जन्म दिया है। व्यवसाय केन्द्र "रांका स्टील्स" बैंगलोर है।
बाड़मेर जिले के खण्डप गाँव का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है।
आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने इसी गाँव में आर्हती दीक्षा आप श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति अनन्य आस्थावान रहे हैं।
ग्रहण की थी और आर्हती दीक्षा प्रदान करने में श्री रघुनाथमल जी प्रस्तुत ग्रंथ में आपका आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
धनराज जी लूंकड़ का अपूर्व योगदान रहा था। धनराज जी सा.
लूंकड़ के सुपुत्र का नाम छगनराज जी। दुलीचंद जी लूंकड़ श्री अमरचंद जी संपतराज जी गांधी : बैंगलोर छगनराज जी सा. के सुपुत्र हैं। दुलीचंद जी की मातेश्वरी का नाम
भागवन्तीदेवी और इनके तीन बहिनें-उमरावबाई, शोभाबाई, श्री अमरचंद जी गांधी एक सुश्रावक हैं। आप राजस्थान में
भंवरीबाई हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम सौ. धापूदेवी और पुत्र का सारण के निवासी हैं और आपका व्यवसाय बैंगलोर में है। आपके
नाम तरुणकुमार है। आपके चार सुपुत्रियाँ हैं-रजनी, मीना, संतोष पूज्य पिताश्री का नाम हीराचंद जी और मातेश्वरी का नाम
और डिम्पल। आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री घेवरबाई है। आपके पाँच भाई हैं-लालचंद जी, सोहनलाल जी और
पुष्कर मुनि जी म. और उपाध्यायश्री के प्रति श्रद्धावान है। आपका मनोहरलाल जी आदि तथा तीन बहिनें हैं-शांतिदेवी, सुखीदेवी और
व्यवसाय "जनता इलेक्ट्रिक कम्पनी" धारवाड़ है। प्रस्तुत ग्रंथ में लक्ष्मीदेवी।
आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी। अमरचंद जी की धर्मपत्नी का नाम सौ. टीपूदेवी है। उनके तीन पुत्र हैं-गौतम, महावीर और विनोद तथा एक पुत्री है सरस्वतीदेवी।
श्री गौतम जी आंचलिया : जोधपुर संपतराज जी गांधी की धर्मपत्नी का नाम विमलादेवी है। उनके
श्री गौतम जी एक उत्साही युवक हैं। आपके पूज्य पिताश्री का पुत्रों का नाम है-सुदर्शन और विकास।
नाम जौहरीमल जी और मातेश्वरी का नाम छोट्याबाई है। माता
पिता के पवित्र संस्कार गौतम जी में पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। "सुदर्शन इलेक्ट्रीकल्स" बैंगलोर के नाम से आपका
आपकी धर्मपत्नी का नाम कुशलदेवी है। आपके एक पुत्र और दो व्यवसाय है।
पुत्रियाँ हैं। पुत्र का नाम अभिषेक है और पुत्रियों के नाम कु. माला आप श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति अनंत आस्थावान रहे हैं। और कु. प्रीति हैं। आपके लघु भ्राता का नाम दशरथ जी आंचलिया प्रस्तुत ग्रंथ में आपका आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।। है और बहिन का नाम ज्ञान जी है। आपका पूरा परिवार श्रद्धेय
. . उपाध्यायश्री और आचार्यश्री के प्रति सर्वात्मना समर्पित रहा है। श्री इन्द्रचंद जी सा. धारीवाल : आरकोणम् । प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आपका अनुदान मिला, तदर्थ साधुवाद। .. व्यक्ति का नहीं किन्तु व्यक्तित्व का महत्त्व है क्योंकि व्यक्तित्व
श्री किस्तूरचंद जी सा. माण्डोत : सूरत शाश्वत है। व्यक्तित्व जीवन की सौरभ है। श्रीमान् धर्मप्रेमी सुश्रावक आपके पिताश्री सेठ सूरजमल जी ढोल (राजस्थान) के प्रमुख इन्द्रचंद जी सा. धारीवाल एक ऐसे ही उदार व्यक्तित्व के धनी हैं प्रभावशाली श्रावकों में थे तथा माताश्री लूणीबाई भी धर्मशीला जो राजस्थान में बगड़ी के निवासी रहे हैं और आपका व्यवसाय श्राविका थीं। श्री किस्तूरचंद जी तथा उनकी धर्मपली चम्पाबाई भी केन्द्र "आरकोणम्" तमिलनाडू में है। आपके पूज्य पिताश्री का नाम पूज्य गुरुदेवश्री के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति रखती थीं। शेषमल जी और मातेश्वरी का नाम गजराबाई है। आप पाँच भाई
आपके पुत्र श्री जवाहरलाल जी तथा उनकी पत्नी सी. हैं-उत्तमचंद जी, जीवराज जी, प्रकाशचंद जी और विमलचंद जी
तीजाबाई हैं। जवाहरलाल जी के दो पुत्र हैं-सुभाष व भावेश तथा तथा पाँच बहिनें हैं-भंवरीबाई, सूरजबाई, सुमतीबाई, सज्जनबाई
एक पुत्री है भावना। आपके द्वितीय पुत्र का नाम है मीठालाल जी और शकुन्तलाबाई। आपकी धर्मपत्नी का नाम लीलाबाई है। आपके
तथा उनकी धर्मपत्नी हैं शकुन्तलाबाई। पुत्र हैं-राजेन्द्र, पारस, दो पुत्र हैं-गौतमचंद जी और निर्मलकुमार जी।।
पंकज, शैलेष। किस्तूरचंद जी की तीन पुत्रियाँ हैं-सुहागबाई, गौतमचंद जी की धर्मपत्नी का नाम संगीता है। इन्द्रचंद जी के । बसन्तीबाई तथा पुष्पाबाई।। पाँच सुपुत्रियाँ हैं-सौ. मंजुला, सौ. संजुला, सौ. रेखा, सौ. संगीता आपके परिवार का "अम्बिका सिल्क कार्पोरेशन" के नाम से और सौ. अनीता।
। सूरत में अच्छा व्यवसाय है। सभी परिवार पूज्य गुरुदेव उपाध्याय परम श्रद्धेय पूज्य उपाध्याय गुरुदेव श्री के प्रति अनन्य । श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति रखता है। स्मृतिनिष्ठावान रहे हैं और आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी.म. के प्रति ग्रन्थ हेतु आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी। .. Jore HoroscoNOणलण्ण एययन गायन
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्री रवीन्द्रकुमार जी जैन : बम्बई
मीठालाल जी की धर्मपत्नी का नाम भंवरीबाई है। उनके भावेश
और कुणाल दो पुत्र एवं पिंकी एक पुत्री है। श्री रवीन्द्रकुमार जी जैन एक तेजस्वी युवक हैं। आप | राजस्थान में समीचा के निवासी रहे हैं। आपके पिताश्री का नाम
कालूलाल जी की धर्मपत्नी का नाम चम्पादेवी है और आपके देवीलाल जी और मातेश्वरी का नाम हमेरबाई तथा धर्मपत्नी का
पाँच सुपुत्रियाँ हैं। नाम सोनीटेली। आपकेतीन भाई-मांगीलाल जी चुन्नीलाल जी सा. कसारा के लघु भ्राता का नाम दीपचंद जी 5 नन्दलाल जी और प्रकाशचंद जी। आपके एक पुत्र और दो पुत्रियाँ । है। उनके दो पुत्र हैं-मोहनलाल जी और कांतिलाल जी। मोहनलाल
हैं। पुत्र का नाम राहुल और पुत्रियों के नाम दीपा और श्वेता हैं। जी की धर्मपत्नी का नाम उल्लासदेवी है। उनके कमलेश एक पुत्र है। आपका व्यवसाय केन्द्र बम्बई है।
तथा अमिता और अविता दो पुत्रियाँ हैं। आप वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, ठाकुरद्वारा के कांतिलाल जी की धर्मपत्नी का नाम ललितादेवी है। उनके पुत्र अध्यक्ष व उत्साही कार्यकर्ता हैं।
का नाम नितेश और पुत्रियों के नाम पूजा और पप्पी हैं। आपका आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति आपकी अपूर्व निष्ठा
व्यवसाय "महालक्ष्मी प्रोवीजन स्टोर" के नाम से विरार में है।
आपका पूरा परिवार श्रद्धेय आचार्यश्री और उपाध्यायश्री के प्रति PARDA है। आपसे समाज को बहुत आशाएँ हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आपका FODD हार्दिक सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
पूर्ण आस्थावान् रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका आर्थिक अनुदान
प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद।। GoD श्री मेघराज जी बेताला : बैंगलोर
श्री मोहनलाल जी सा. भोगर : सूरत ओसवाल समाज में अनेक गोत्र हैं। कहा जाता है कि १४४४
श्री मोहनलाल जी सा. भोगर बहुत ही उत्साही धर्म-परायण गोत्र हैं उनमें से बेताला भी एक गोत्र है। इस गोत्र के संबंध में इस प्रकार की किंवदंती है कि सबसे पहले तो लोग अपने मकान में
परम गुरुभक्त सुश्रावक हैं। आपके पिताश्री का नाम भंवरलाल की
भोगर और मातेश्वरी का नाम केकुबाई है। आपकी धर्मपत्नी का ताले नहीं लगाते थे। जब ताले लगवाने प्रारंभ हुए तो एक ताला
नाम चम्पाबाई है। आपके चार पुत्र हैं-मांगीलाल जी, जसराज जी, लगता था पर किसी ने दो ताले लगाए तो वह बेताला के नाम से विश्रुत हुआ। इसी परिवार में जन्मे मेघराज जी सा. बेताला। आप
नरेशकुमार जी और हितेषकुमार जी।। राजस्थान में नागौर के निवासी हैं और व्यवसाय हेतु कर्नाटक में
___ मांगीलाल जी की पत्नी का नाम मधुबहिन है। उनके एक पुत्र DIGIगलो में आपका व्यवसाय आपके सपत्र कातिकमार जीव विवेक और एक पुत्री विम्मी है। 1060 राजेन्द्रकुमार जी। आप परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी जसराज जी की पत्नी का नाम सीमादेवी है और उनकी पुत्री
म. के अनन्य श्रद्धालु रहे हैं। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी का नाम पप्पीकुमारी है। अनन्य आस्था थी। आपका पूरा परिवार श्रद्धेय आचार्यश्री के प्रति
मोहनलाल जी के सात बहिनें हैं-दाखूबाई, रोशनबाई, निष्ठावान रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका आर्थिक
शांताबाई, टालीबाई, पानीबाई, पुष्पाबाई और लीलाबाई। आप अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
राजस्थान में जसवंतगढ़ के निवासी हैं। आपका व्यवसाय सूरत में श्री चुन्नीलाल जी दीपचंद जी कसारा : विरार "शाह अनिलकुमार मोहनलाल एण्ड कम्पनी" के नाम से है। आप
गुरुदेवश्री के परम भक्तों में से थे। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका अनुदान जिनका हृदय फूल की तरह कोमल है और जिनका जीवन
प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी। चन्द्रमा की तरह शीतल है ऐसे हैं हमारे चुन्नीलाल जी सा. दीपचंद 64जी सा. कसारा। श्री चुन्नीलाल जी कसारा बहुत ही कोमल प्रकृति श्री ज्ञानचंद जी माणकचंद जी तातेड़ : दिल्ली के सरलमना व्यक्ति हैं जिनके जीवन के कण-कण में मन के
दिल्ली भारत की राजधानी है। राजधानी होने के कारण Pasana अणु-अणु में परम गुरुभक्ति रही हुई है। आप राजस्थान में तीरपाल
उसकी महिमा और गरिमा अतीतकाल से ही चल रही है। गाँव के निवासी हैं। जहाँ से तप और त्याग की साक्षात् मूर्ति
ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से उसका स्थान सदा महासती श्री सोहनकुंवर जी म. और उनके पूरे परिवार ने आहेत
अग्रगण्य रहा है। स्थानकवासी समाज के ज्योतिर्धर आचार्य श्री धर्म स्वीकार किया। कसारा जी के पूज्य पिताश्री का नाम भेरूलाल
अमरसिंह जी म. ने वहाँ जन्म लेकर जहाँ अपने जीवन को धन्य 26 जी और मातेश्वरी का नाम मोतीबाई था। माता-पिता के सद्संस्कार
बनाया वहाँ उस परिवार को भी गौरवान्वित किया है। श्री ज्ञानचंद 18 आपमें सहज रूप से विकसित हुए हैं।
जी तातेड़ आचार्य श्री अमरसिंह जी म. के परिवार के ही एक चुन्नीलाल जी सा. कसारा के तीन सुपुत्र हैं-लक्ष्मीलाल जी, } जान-माने सदस्य रहे हैं। 1936 मीठालाल जी और कालूलाल जी।
दिल्ली का तातेड़ परिवार सामाजिक, धार्मिक तथा व. लक्ष्मीलाल जी की धर्मपत्नी का नाम रतनदेवी है। उनके आनंद व्यावसायिक क्षेत्र में सदा अगुआ रहा है जो परिवार “कोठी वाले" P और रवि दो पुत्र हैं तथा आशा और वर्षा दो पुत्रियाँ हैं।
के नाम से जाना और पहचाना जाता है। श्री ज्ञानचंद जी के पूज्य
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पिताश्री का नाम माणकचंद जी सा. और मातेश्वरी का नाम तातेड़। परम्परा के सुसंस्कार इनके जीवन के कण-कण में व्याप्त सर्वतीदेवी था। आप तीन भाई हैं-फूलचंद जी, कमलचंद जी और । हैं। तातेड़ परिवार हमेशा ही संपन्न रहा है और बहुविद सेवा के ज्ञानचंद जी तथा दो बहिनें हैं-पद्माबाई और निर्मलाबाई।
क्षेत्र में सक्रिय भाग लेता रहा है। ज्ञानचंद जी का पाणिग्रहण ब्यावर निवासी हीरालाल जी बोहरा श्री किशनचंद जी तातेड़ की धर्मपत्नी नगीनादेवी जी बहुत ही की सुपुत्री धर्मानुरागिनी सौ. प्रसन्नकुंवर जी के साथ संपन्न हुआ। धर्म-परायणा विवेकशीला सुश्राविका हैं। सेवा जिनका विशेष गुण प्रसन्नदेवी बहुत ही उदार महिला थीं। आपके दो सुपुत्र हैं-राजीव रहा है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति और भाष्कर।
आपकी अनन्य आस्था रही है और श्रद्धेय आचार्यश्री के प्रति भी राजीव जी की धर्मपत्नी का नाम बबीता है।
आपका पूरा परिवार अनंत आस्था लिए हुए है। प्रस्तुत स्मृति-ग्रंथ ज्ञानचंद जी के चार सुपुत्रियाँ हैं-सौ. मंजु, सौ. प्राची, सौ.
के प्रकाशन में आपका अपूर्व योगदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद। नवरंग और सौ. बबीता।
श्री हिम्मतलाल जी हींगड़ : मोही आपकी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनन्य आस्था थी। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका हार्दिक अनुदान आपके पूज्य पिताश्री का नाम गणेशीलाल जी सा. हींगड़ है। प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद। आपकी फर्म का नाम है। आपकी जन्म-स्थली मोही जिला राजसमन्द (राजस्थान) है। "माणकचंद जैन गोटे वाला" किनारी बाजार, दिल्ली।
राजसमन्द ब्लॉक काँग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष, मार्केटिंग सोसायटी,
कांकरोली के अध्यक्ष, उदयपुर सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक लि. के श्री नन्दलाल जी लोढ़ा : बगडून्दा
उपाध्यक्ष, साधन क्षेत्र विकास समिति, राजसमन्द के फाउण्डर, ट्रस्टी अरावली की पहाड़ियों में बसा हुआ बगडून्दा एक नन्हा-सा । एवं मंत्री, लायन्स क्लब, कांकरोली के अध्यक्ष व ई-३०२ के जोन गाँव है किन्तु इस गाँव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ के चेयरमैन तथा अन्य जिला व राज्यस्तरीय संस्थाओं में रहे हैं। अब श्रद्धालुगण सदा ही धर्मनिष्ठ रहे हैं। इस गाँव में से अनेक दीक्षाएँ भी ग्राम सेवा संघ, मोही के संस्थापक एवं मंत्री, राजसमन्द चेम्बर हुई हैं। कविसम्राट् श्री नेमीचंद जी म. इसी गाँव के थे और लोढ़ा ऑफ कॉमर्स एवं इण्डस्ट्री के फाउण्डर व अध्यक्ष, राजसमन्द मार्बल परिवार के थे, जो आशु कवि थे जिनकी रचना नेमवाणी के रूप एवं खनिज उत्पादक संघ के अध्यक्ष, भारतीय रेडक्रास सोसायटी, में प्रकाशित हुई है। उसी लोढ़ा परिवार के जगमगाते नक्षत्र हैं राजसमन्द के संरक्षक, कल्पतरु सोसायटी के फाउण्डर व अध्यक्ष हैं। नन्दलाल जी सा. लोढ़ा। आपके पूज्य पिताश्री का नाम कस्तूरचंद
सन् १९५८ से व्यापार शुरू किया। सन् १९७४ में मार्बल जी और मातेश्वरी का नाम सुन्दरबाई तथा धर्मपत्नी का नाम ।
माइन्सग्राम तलाई से लेकर सर्वप्रथम कार्य शुरू किया। सन् १९७७ धर्मानुरागिनी रोशनबाई है।
में मार्बल फैक्ट्री लगाई। उदयपुर जिला व राजसमन्द जिले में आपके परिवार में सदा से ही धार्मिक संस्कार फलते-फूलते रहे मार्बल की खानें व उद्योग लगवाने में, मंडी बनाने में, व्यापार हैं। संतों के प्रति भक्ति और ज्ञान दर्शन तप की आराधना करने में बढ़ाने में पूरा-पूरा योगदान दिया। इस क्षेत्र में मार्बल के जन्मदाता आपका परिवार कभी पीछे नहीं रहता। स्व. पूज्य गुरुदेव उपाध्याय । हुए एवं कठिन परिश्रम कर मार्बल की मंडी बनाई। सारा जीवन श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के प्रति आपके समस्त परिवार की संघर्ष में बीता। मार्बल के विकास में हमेशा संघर्ष किया। अपार आस्था भक्ति रही है। वही आचार्यसम्राट् के प्रति आज भी
श्री हंसराज जी जैन : दादरी है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
श्री हंसराज की जैन एक बहुत ही धर्मनिष्ठ सुश्रावक हैं। श्रीमती नगीनाबाई किशनलाल जी तातेड़ : दिल्ली
आपके पूज्य पिताश्री का नाम हीरालाल जी जैन और मातेश्वरी का
नाम प्रसन्नदेवी जैन है। आपकी धर्मपत्नी का नाम शांतिदेवी जैन है। दिल्ली की परिगणना भारत के महानगरों में की गई है। यह
आपके एक पुत्र है जिसका नाम पंकज है। आपके पाँच पुत्रियाँ हैंवर्षों से भारत की राजधानी रही है। इस महानगरी का निर्माण ।
श्रीमती शशि, श्रीमती मधु, श्रीमती सरोज, श्रीमती सुरेखा और किसने किया इस संबंध में विज्ञों के अनेक मत हैं पर यह सत्य है } श्रीमती बबीता। आप हरियाणा में दादरी के निवासी हैं। श्रद्धेय कि दिल्ली अतीतकाल से ही जन-जन के आकर्षण का केन्द्र रही है।। आचार्यश्री के प्रति आपकी अपार आस्था है। उपाध्यायश्री के देहली के ओसवाल वंशीय तातेड़ गोत्रिय सेठ देवीचंद जी अपने स्मति-ग्रंथ हेत आपका हार्दिक अनदान पैदा हुआ. तदर्थ हार्दिक युग के एक जाने-माने व्यापारी थे। उनके सुपुत्र श्री अमरसिंह जी । आभारी। थे जिन्होंने युवावस्था में संयम साधना के पथ पर अपने मुस्तैदी
श्री चन्द्रेश जी जैन : लुधियाना कदम बढ़ाकर जैन शासन की महिमा और गरिमा में अपूर्व अभिवृद्धि की तथा जैनाचार्य के रूप में उनकी सर्वत्र ख्याति रही है। श्री चन्द्रेश जी जैन एक युवक हैं और युवकोचित उनमें जोश और राजस्थान में मारवाड़ में स्थानकवासी धर्म के वे प्रथम भी है, होश भी है और कार्य करने की लगन भी है। इनके पूज्य प्रचारक रहे हैं उसी परम्परा में जन्मे हैं सेठ किशनचंद जी सा. पिताश्री का नाम शोरीलाल जी जैन और मातेश्वरी का नाम
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शांतिदेवी जैन है। इनके तीन भाई-रवीन्द्र जी, लोकेश जी और
श्री दीपचंद जी भंसाली : बैंगलोर संजीव जी तथा पाँच बहिनें हैं-सौ. पपिल, प्रमिला, माला, शशि तल और मधु। आपकी धर्मपत्नी का नाम सौ. डौली है। आपके एक पुत्र
भारत के तत्त्वदर्शी महर्षि सदा ही चिन्तनशील रहे हैं। प्रत्येक है जिसका नाम निशान्त है और पुत्री का नाम श्वेता है।
प्रश्न के तलछट तक पहुँचकर उसका समाधान करते रहे हैं। उन्होंने
जीवन के संबंध में भी विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन किया और आपकी परम श्रद्धेय पूज्य उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी
चिन्तन का आधार रहा। केवल कूकर-शूकर की तरह जीवन जीना म. के प्रति अनन्त आस्था है। आप प्रति वर्ष गुरुदेवश्री के दर्शनों के ही जीवन की सार्थकता नहीं है जीवो. प्रकाश करते हुए जीओ. लिए सपरिवार उपस्थित होते रहे। आप लुधियाना के निवासी हैं।
गुणों से जीवन को चमकाते रहो। श्री दीपचंद जी भंसाली एक 00002"पापुलर स्पिनर्स", लुधियाना के नाम से आपकी फर्म है। प्रस्तुत ग्रंथ ।
युवक हैं। उनमें युवकोचित जोश भी है और कार्य करने की FDS हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
भव्य-भावना भी है। आपके पूज्य पिताश्री का नाम धींगड़मल जी श्री मांगीलाल जी कटारिया : औरंगाबाद और मातेश्वरी का नाम प्यारीबाई है। आप चार भाई हैं घेवरचंद श्री मांगीलाल जी सा. कटारिया एक सुश्रावक हैं। आप राजस्थान
जी, धनराज जी, मीठालाल जी और आप सबसे छोटे हैं। आपकी 100.0000 में सहवाज गाँव के निवासी रहे हैं और ९० वर्षों से औरंगाबाद में
एक बहिन भी है उसका नाम फाऊदेवी है। आपकी धर्मपत्नी का DD रह रहे हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम बालचंद जी और मातेश्वरी
| नाम पुष्पादेवी है। आपके पुत्र तीन हैं-महेन्द्र, हितेश और नितेश। का नाम कुसुमबाई है। आपकी धर्मपत्नी का नाम पारसबाई है।
२२ वर्षों से आप बैंगलोर में पेपर का व्यवसाय करते हैं। आपकी E0% आपके सुमतिलाल, गौतमकुमार और प्रवीणकुमार ये तीन सुपुत्र
फर्म का नाम "पुष्कर पेपर एजेन्सीज" है। आप कर्नाटक पेपर और सुयेश, प्रीतमकुमार और श्रेयांसकुमार ये तीन पौत्र हैं। आप
मर्चेन्ट ऐसोसिएशन के सहमंत्री हैं। कर्नाटक मारवाड़ी यूथ फेडरेशन र उपाध्यायश्री के परम भक्त रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका
के आप स्थायी मेम्बर भी हैं। आप परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री आर्थिक योगदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनन्य निष्ठावान रहे हैं। आचार्यसम्राट्
श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति आपकी अनंत आस्था है। प्रस्तुत ग्रंथ श्री मीठालाल जी भंसाली : बैंगलोर
हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी। आप मनुष्य में अपने कर्त्तव्य के प्रति सच्ची लगन और निष्ठा हो, कर्मावास के निवासी हैं। TFEEP गुरू के प्रति आस्था हो और स्वयं पर विश्वास हो तो वह
_ श्री सौभाग्यसिंह जी माण्डावत : उदयपुर D कठिन-से-कठिन परिस्थिति से जूझकर प्रगति के शिखर को छू लेता तित है। श्री मीठालाल जी भंसाली भी अपने इन्हीं गुणों के बल पर श्रीमान् धर्मप्रेमी परम गुरुभक्त सौभाग्यसिंह जी सा. माण्डावत Fac प्रगति करते हुए आज समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान-प्राप्त व्यक्ति एक युवक हैं। युवकोचित उनमें जोश है, होश है और कार्य करने o00 हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम धींगड़मल जी और माताजी। में पूर्ण दक्ष हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम कन्हैयालाल जी सा.
प्यारीबाई भी गुरुदेवश्री के प्रति श्रद्धावान थीं। आप चार भाई और और मातेश्वरी का नाम सहेलीबाई था। आपके दो भाता और चार SPएक बहिन हैं। बैंगलोर में आपका मर्करी पेपर एजेन्सी के नाम से बहिनें जिसमें स्व. दलपतसिंह जी सा. का स्वर्गवास हो गया।
पेपर का अच्छा व्यवसाय है। आप युवक होकर भी धर्म के प्रति मोहनलाल जी सा. आपके ज्येष्ठ भ्राता हैं। आपकी बहिनों के नाम B. श्रद्धाशील हैं। सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में तन-मन-धन से हैं-श्रीमती राजबाई, श्रीमती वनीता और श्रीमती विमला। आपकी
200 सहयोग करते रहे हैं। आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति । धर्मपत्नी का नाम सौ. स्नेहलता है जो बहुत ही धर्मनिष्ठ सुश्राविका Faar आपका सम्पूर्ण परिवार निष्ठावान है। प्रस्तुत स्मृति-ग्रन्थ के प्रकाशन हैं। आपके तीन सुपुत्र हैं-दिनेश, महेश और पंकज। दिनेश जी की 9 में आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
धर्मपत्नी का नाम सौ. सुनीता है और उनके पुत्र का नाम मनन है। श्री गणेशलाल जी सा. सियाल : जयपुर
आपका व्यवसाय “साधना केमिकल्स" ई-१०९, मादड़ी इण्डस्ट्रीयल
एरिया, उदयपुर (राजस्थान) है। प्रस्तुत ग्रन्थ हेतु आपका सहयोग श्री गणेशलाल जी सियाल बहुत ही उदार हृदय के उत्साही 1656 युवक हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम नन्दलाल और मातेश्वरी
श्री शोभाचंद जी संचेती : अकलूज TIPSP का नाम नानीबाई है। आप राजस्थान में नाथद्वारा के निवासी हैं
किन्तु इन दिनों में आप जयपुर में रहते हैं। आपकी धर्मपत्नी का मानव-जीवन मिलना पुण्य का फल है किन्तु मानव-जीवन प्राप्त
नाम जमकूदेवी है। आपके तीन पुत्र हैं-दीपककुमार, प्रदीपकुमार । कर भी अगर मनुष्य को सद्धर्म का श्रवण, सद्गति और BR42 और प्रकाशकुमार तथा दो पुत्रियाँ हैं-तरुणा और कामिनी। आप । सद्गुरुदेव का संयोग नहीं मिलता तो वह जीवन का पूर्ण लाभ नहीं
तीन भाई हैं चतरलाल और रमेशचंद। आपका व्यवसाय “एक्सपोर्ट उठा पाता, इसलिए जीवन को सफल बनाने के लिए उक्त संयोग 8 वस्त्र हैण्डीक्राफ्ट्स" का है। परम श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति मिलना भी महान् पुण्य का परिणाम समझना चाहिए। श्री शोभाचंद
आपकी अनंत आस्था रही है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका हार्दिक जी संचेती का परिवार इस दृष्टि से पुण्यशाली माना जायेगा कि 1080P सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
उनके परिवार में धर्म के संस्कार और सद्गुरुदेव के प्रति श्रद्धा का
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परिशिष्ट संचार था। आपके पिताश्री घेवरचंद जी, माताश्री गेन्दाबाई के श्री रतनलाल जी सा. मारू: किशनगढ़ धार्मिक संस्कार संतानों में पल्लवित हुए। श्री लीलाचन्द जी, रामलाल जी, संपतलाल जी आदि आपके भाई हैं। आपकी धर्मपत्नी
किशनगढ़ अपनी आन, बान और शान के लिए सदा विश्रुत
रहा है। यहाँ के नरवीरों ने समय-समय पर जो कार्य किये हैं वे का नाम सौ. चंचलादेवी एवं पुत्र सचिन, पुत्री सोनल आदि हैं। सभी में धर्म-भावना अच्छी है। आप महाराष्ट्र में अकलूज (जिला
इतिहास के पृष्ठों पर सदा चमकते रहे हैं। श्री रतनलाल जी सा. सोलापुर) निवासी हैं। पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
मारू मदनगंज (किशनगढ़) के निवासी हैं। श्री पुष्कर गुरू सेवा म. के प्रति आपकी असीम आस्था थी। प्रस्तुत स्मृति-ग्रंथ प्रकाशन
समिति, मदनगंज के आप वर्षों से अध्यक्ष हैं और आपके संद्प्रयास में आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी।
से श्री पुष्कर गुरू सेवा समिति की बिल्डिंग तैयार हुई और आज
वहाँ पर चिकित्सालय तैयार हो गया है। आपकी धर्मपत्नी का नाम स्व. लाला कल्याणचंद जी बोथरा : दिल्ली सुमनदेवी है। अभयकुमार जी आपके दत्तक पुत्र हैं, उनके पारस श्री कल्याणचंद जी बोथरा एक विलक्षण जौहरी थे। उनके पूज्य ।
जी और कमल जी दो पुत्र हैं। आपका पूरा परिवार परम श्रद्धेय पिता श्री कपूरचंद जी बोथरा दिल्ली के जाने-माने जौहरियों में से
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहा थे। पिताश्री के पद-चिह्नों पर चलकर आपने जवाहरात के कार्य में
है। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति भी आपकी अनन्त विशेष योग्यता प्राप्त की थी। लघुवय में ही आपका स्वर्गवास हो
आस्था है। गया। आपकी धर्मपत्नी का नाम निर्मलकुमारी जी है। आपके तीन श्री धनराज जी कोठारी : अहमदाबाद पुत्र हैं-अम्ब्रेस, संजीव और पंकज तथा एक सुपुत्री है निरजा जैन।
पुरुषार्थ से भाग्य में परिवर्तन होता है इस उक्ति का उपयोग अम्बेस जैन की पत्नी का नाम रेणु है और दो सुपुत्री हैं-कु. । किया धनराज जी कोठारी ने। जीवन के ऊषाकाल में उनकी निशा और ईशा।
आर्थिक स्थिति उतनी बढ़िया नहीं थी। वे मेवाड़ कोशीथल से संजीव जैन की धर्मपली का नाम सीमा जैन है। आपका पूरा
अहमदाबाद पहुँचे और वहाँ पर उन्होंने अपने पुरुषार्थ से करोड़ों परिवार श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के
रुपये कमाए और गुजरात के साहित्यिक प्रकाशन के क्षेत्र में प्रति अनन्य आस्था रही है एवं आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के
अग्रगण्य स्थान प्राप्त किया। "श्री लक्ष्मी पुस्तक भण्डार" उनका प्रति अपूर्व श्रद्धा है। आपके तीनों सुपुत्र जवाहरात के क्षेत्र में पिता
प्रकाशन केन्द्र रहा जिस प्रकाशन केन्द्र ने बड़े-बड़े ग्रन्थ प्रकाशित के पद-चिह्नों पर चल रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका अनुदान प्राप्त
किये। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रकाशन करने की उनके हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
मन में एक लगन थी। धनराज जी के पूज्य पिताश्री का नाम
घासीलाल जी सा. कोठारी था और उनकी मातेश्वरी का नाम श्री खुमानसिंह जी कागरेजा : सिंघाड़ा कोयलबाई था। उनकी धर्मपत्नी का नाम प्यारीबाई है। आप चार श्री खुमानसिंह जी कागरेचा मेवाड़ संघ के एक जाने-माने हुए
भाई थे मोहनलाल जी, बादरमल जी और राजमल जी। आपके दो लब्धप्रतिष्ठित सुश्रावक हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम हुकमीचंद
पुत्र और तीन सुपुत्रियाँ हैं। आपके ज्येष्ठ पुत्र का नाम पूनमचंद जी जी था। आपकी धर्मपत्नी का नाम धर्मानुरागी सुश्राविका भूरीबाई
और उनकी धर्मपत्नी का नाम सुशीलादेवी है। उनके चार पुत्रियाँ था। आपके दो सुपुत्र हैं-मीठालाल जी और हिम्मतमल जी।
हैं-रसिला, रमिला, हीना और जयश्री। मीठालाल जी की धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। उनके दो।
दूसरे पुत्र का नाम धर्मचंद जी है। उनकी धर्मपली का नाम सुपुत्र हैं-पारसकुमार और भूपेन्द्रकुमार तथा तीन पुत्रियाँ हैं
आशादेवी है। पुत्र का नाम प्रकाश और पुत्रियाँ प्रीति और मोनिका शारदा, रवीना और वीणा।
हैं। धनराज जी की पुत्रियों के नाम हैं-सुन्दरबाई, सज्जनदेवी और
शिमलाबाई। हिम्मतमल जी की धर्मपत्नी का नाम मीनादेवी है। इनके तीन पुत्र हैं-भावेश, निलेश और दीपक तथा दो पुत्रियाँ हैं-ममता और
श्री धनराज जी कोठारी ने श्रद्धेय उपाध्यायश्री के साहित्य को
और आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के साहित्य को गुजराती प्रबुद्ध नयना।
पाठकों तक पहुँचाने हेतु उन ग्रंथों के अनुवाद कर प्रकाशित किये आपका व्यवसाय केन्द्र अहमदाबाद और सूरत में है और
हैं। अपने भगवान महावीर एक अनुशीलन, जिन्दगी नो आनंद, राजस्थान में आप सिंघाड़ा (उदयपुर) के निवासी हैं। आप अनेक
जीवन नो झनकार, सफल जीवन, चिन्तन की चाँदनी और पुष्कर संस्थाओं के पदाधिकारी भी हैं। परम श्रद्धेय गुरुदेव उपाध्याय श्री
प्रसादी कथामाला की २०० पुस्तकें और पुष्कर कथामाला की ५० पुष्कर मुनि जी म. के अनन्य भक्तों में से हैं। आपकी और आपके ।
पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित की। यह सम्पूर्ण साहित्य आपने अपने परिवार की गुरुदेवश्री के प्रति अपार आस्था रही है। ग्रंथ के
व्यय से प्रकाशित किया, यह आपकी अनन्य गुरुभक्ति का स्पष्ट प्रकाशन में आपका अनुदान प्राप्त हआ. तदर्थ हार्दिक साधूवाद।।
परिचायक है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ आचार्यश्री के प्रति भी आपकी हार्दिक भक्ति है।
हार्दिक आभारी।
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समन्वयक
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श्री जालमचंद जी बम्बोरी : सूरत
व्यक्ति जन्म से नहीं अपितु अपने कर्त्तव्य से महान् बनता है। श्री जालमचंद जी बम्बोरी एक ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम भंवरलाल जी और मातेश्वरी का नाम बाबूभाई है। आप चार भाई हैं-मीठालाल जी, पुखराज जी और देवेन्द्र जी तथा दो बहिनें हैं- सुन्दरदेवी और धन्नादेवी आपकी धर्मपत्नी का नाम पुष्पादेवी है। आपके दो पुत्र हैं- लोकेश और मनीष। आपका व्यवसाय केन्द्र सूरत में जालमचंद भंवरलाल के नाम से है। आप परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनंत आस्थावान रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ आभारी।
श्री मूलचंद जी आंचलिया : इन्दौर
श्री मूलचंद जी आंचलिया एक बहुत ही सुलझे हुए विचारक युवक हैं। आपमें कार्य करने की अपूर्व शक्ति है। इन्दौर की विविध संस्थाओं के आप कर्मठ कार्यकर्ता रहे हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम मालमचन्द जी सा. और मातेश्वरी का नाम कान्तादेवी है। पूज्य माता-पिता के संस्कार आपके जीवन में विकसित हुए हैं। | आपकी धर्मपत्नी का नाम कमलादेवी है। आपके तीन बहिनें हैंश्रीमती सुनीता कांकरिया, श्रीमती मंजुला मारू और श्रीमती साधना आपके एक पुत्र सचिन आंचलिया है तथा दो पुत्रियाँ हैंसोनू और सुरभि आपका व्यवसाय "मंजुला साड़ी सदन के नाम से विश्रुत है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति और आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति आपकी अपार आस्था रही है। ग्रन्थ के प्रकाशन में आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
श्री रमेश मुथा
रायचूर विश्व के रंगमंच पर प्रतिदिन हजारों व्यक्ति आते हैं और व्यक्ति अपनी जीवन लीला समाप्त कर विदा भी हो जाते हैं पर कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने व्यक्तित्व से जन-मानस में अपना स्थान बनाते हैं। श्रीमान् धर्मप्रेमी श्री रमेश जी एक ऐसे ही युवक हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम हीरालाल जी जो कर्नाटक में रायचूर के निवासी हैं। आप चार भाई हैं-शान्तिलाल जी, रमेश जी, राजेन्द्र जी और हंसराज जी। चारों भाइयों में आपस में स्नेह और सद्भावनाएँ हैं।
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आपका पूरा परिवार उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति श्रद्धानत् था एवं आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के प्रति श्रद्धावान है। प्रस्तुत ग्रन्थ हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक साधुवाद।
श्री रंगलाल जी डागलिया : नाथद्वारा राजस्थान नर-रत्नों की जन्मभूमि है। यहाँ की भूमि में अनेक
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
रणवीर राष्ट्रभक्त और अध्यात्म साधक संत व साध्वियाँ समुत्पन्न हुईं। राजस्थान का एक गौरवपूर्ण स्थान है नाथद्वारा जो "श्री नाथद्वारा" के नाम से मशहूर है। उसी नाथद्वारा में रंगलाल जी सा. का जन्म हुआ। आपके पूज्य पिताश्री का नाम कालूलाल जी और मातेश्वरी का नाम गेंदीबाई है। आप चार भाई हैं मोतीलाल जी, चुन्नीलाल जी और शांतिलाल जी आपकी धर्मपत्नी का नाम चन्द्रादेवी है। आपके सुपुत्र का नाम महेश जी है जो "चारटेड एकाउण्टेण्ट' हैं जो बम्बई में हैं। आपके दूसरे पुत्र का नाम राकेश जी है आपके एक सुपुत्री है जिसका नाम सरोजदेवी है आपका व्यवसाय वस्त्रों का है। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अनंत श्रद्धा रही है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन हेतु आपका अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
श्री विभूतिकुमार जी हीरालाल जी मादरेचा ढ़ोल
विभूति सात वर्ष का नन्हा सा बालक है पर उसमें सहज प्रतिभा है। विभूति के पिताश्री का नाम हीरालाल जी है। हीरालाल जी एक युवक हैं और कर्मठ उत्साही व्यक्ति हैं। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से जहाँ व्यापार के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। वहाँ वे धर्म में भी सदा अगुआ रहे हैं। राजस्थान में आप ढोल के निवासी हैं। आपकी धर्मपत्नी का नाम लक्ष्मीवहिन है जिन्हें विभूति की माँ बनने का गौरव प्राप्त है। विभूति की पाँच बहिनें हैं- हीना, पूजा, बरखा, प्रियंका और कामां ।
श्री हीरालाल जी की गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति अनन्य आस्था थी । धार्मिक सत्साहित्य को सदा पढ़ते रहते हैं और धार्मिक, सामाजिक कार्यों के लिए भी अपना तन, मन और धन समर्पित करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी आपका सहयोग प्राप्त हुआ है, तदर्थ हम आभारी हैं। हमारी यही मंगल मनीषा है कि बालक विभूति आगे बढ़कर समाज की सच्ची विभूति बने ।
श्री राजेन्द्र जी मेहता : सूरत
श्री राजेन्द्र जी मेहता परम गुरुभक्त उत्साही स्वाध्यायी बन्धु हैं। आप राजस्थान में सायरा के निवासी हैं। स्वाध्याय संघ के सक्रिय कर्मठ कार्यकर्त्ता हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम लालचंद जी मेहता और मातेश्वरी का नाम खुमानीबाई था। आपकी धर्मपत्नी का नाम कोयलदेवी है। आपके तीन पुत्र है-चन्द्रप्रकाश, रमेशकुमार और अशोककुमार तथा दो सुपुत्रियों है-शीला और चन्दन
चन्द्रप्रकाश जी की धर्मपत्नी का नाम यशोदा है। उनके तीन पुत्रियाँ हैं- टीनू, मीनू और सीनू ।
रमेश जी की धर्मपत्नी का नाम सविता है और पुत्री का नाम दिव्या है।
आपका व्यवसाय "बेस्टन एजेन्सीज" रिंग रोड, सूरत में है। पूज्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के प्रति आपकी अनंत
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परिशिष्ट
आस्था रही है एवं पूज्य आचार्यसम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. के प्रति आपकी अनंत आस्था है। प्रस्तुत ग्रंथ हेतु आपका आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
श्री कनकमल जी सा. सिंघवी : बदनावर
पुरुषार्थ के द्वारा व्यक्ति भाग्य को भी परिवर्तित कर सकता है। पुरुषार्थ एक ऐसा पारस पत्थर है जिसके स्पर्श से जीवनरूपी लोहा स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। कनकमल जी सा. सिंघवी ऐसे ही प्रबल पुरुषार्थ के धनी व्यक्ति रहे हैं। आपकी जन्मभूमि मध्य प्रदेश के बदनावर में रही। आपके पूज्य पिताश्री का नाम सौभागमल जी सिंघवी और मातेश्वरी का नाम राणीबाई था। माता-पिता के संस्कारों से आपके जीवन में निखार आया आप छह भाई हैं समर्थमल जी सा., सुरेन्द्रमल जी, चाँदमल जी, उमरावमल जी और दिलीपकुमार जी तथा दो बहिनें हैं- सोहनबाई और मंजुलाबाई । आपकी धर्मपत्नी का नाम बदामबाई है। आपके तीन सुपुत्र हैंप्रमोदकुमार, प्रवीणकुमार तथा पंकजकुमार और एक पुत्री हैसुनीतादेवी ।
आपका व्यवसाय स्कूल एवं कॉलेज की पुस्तक प्रकाशन का है- "संघवी प्रकाशन", "सफलता प्रकाशन", "संघवी डिस्ट्रीब्यूटर्स", "संघवी प्रिन्टर्स” आदि सत्साहित्य के प्रति आपकी अभिरुचि रही है तथा उसके प्रचार और प्रसार के लिये आप अपने प्रकाशनों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास करते रहते हैं। श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के प्रति आपकी अनन्य आस्था रही है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी
श्री भंवरलाल जी डांगी (सिंघवी)
मद्रास मेवाड़ की पावन पुण्य धरा में जन्म लेने वाले भंवरलाल जी डांगी ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से मद्रास में अपनी एक प्रतिष्ठा प्राप्त की है आपके पूज्य पिताश्री का नाम जोरावलमल जी सा. और मातेश्वरी का नाम राणीबाई है। आप चार भाई है-भंवरलाल जी. सोहनलाल जी, जीतमल जी और ताराचंद जी आपके दो बहिनें हैं- नाथीबाई और शिक्षाबाई। आपकी धर्मपत्नी का नाम मीराबाई है
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जो बहुत ही धर्म-परायणा सुश्राविका हैं। आपके विमलकुमार और महेशकुमार ये दो पुत्र हैं। आपका व्यवसाय केन्द्र " श्री मुरली साड़ी सेन्टर" के नाम से मद्रास में है। आप परम श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. के अनंत आस्थावान / श्रद्धावान रहे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन हेतु आपका आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
श्री चमनलाल जी जैन
दिल्ली
आप एक बहुत ही उत्साही सुश्रावक है। पाकिस्तान बनने के पूर्व आप रावलपिण्डी में रहते थे। आजादी के बाद आप दिल्ली में रह रहे हैं। आप अरिहंत नगर के प्रधान भी हैं। आपके पूज्य पिताश्री का नाम उत्तमचंद जी और मातेश्वरी का नाम दिवानदेवी था। आपकी धर्मपत्नी का नाम विमलादेवी है। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम प्राणेश है। उनकी धर्मपत्नी का नाम मंजूदेवी है। उनके एक पुत्र भुवनेश है और तीन पुत्रियाँ हैं-शिखा, श्वेता और सुभी। आप वस्त्र के व्यापारी हैं। श्रद्धेय उपाध्यायश्री के प्रति आपकी अपार आस्था थी । प्रस्तुत ग्रंथ में आपका हार्दिक अनुदान प्राप्त हुआ, तदर्थ साधुवाद।
श्री प्रेमचंद जी नगीनादेवी जी तातेड़ : दिल्ली
धर्मानुरागिनी श्रीमती नगीनादेवी जी एक धर्म-परायणा महिला हैं आपके पूज्य पिताश्री का नाम शेरसिंह जी सुराणा और मातेश्वरी का नाम देवतीदेवी है। १३ वर्ष की लघुवय में आपका पाणिग्रहण प्रेमचंद जी सा. तातेड़ के साथ हुआ। लघुवय में ही पति का स्वर्गवास हो गया। तब जगन्नाथ जी तातेड़ के सुपुत्र पूनमचंद जी तातेड़ को आपने दत्तक पुत्र के रूप में रखा। पूनमचंद जी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती उमा तातेड़ है। पूनमचंद जी के गौतम और रवि ये दो सुपुत्र हैं तथा नीलम व तारिका ये दो सुपुत्रियाँ हैं। गौतम जी की धर्मपत्नी का नाम अंजुदेवी है। परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री के प्रति आपकी अनंत आस्था थी। आपके व्यवसाय का नाम "प्रेमचंद पूनमचंद जैन" १५, नया मारवाड़ी कटला, नई दिल्ली - ६ है। प्रस्तुत ग्रंथ में आपका सहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक आभारी।
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति यन्थ प्रकाशन में
सहयोग दाता सज्जनों की शुभ नामावली
श्री संपतराज जी कातरेला, बम्बई स्व. जुगराज जी रामलालजी सिंघवी, मैसूर श्री गौतमचंद जुगराज सिंघवी, मैसूर श्री बस्तीमल जी बोहरा, अजमेर श्री रतनलाल जी जैन, शक्तिनगर, दिल्ली स्व. मनोहरसिंह जी कर्णावट, जयपुर
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गुरु एक ऐसा दिव्य दीपक है. जिसकी माटी की देह बिखर जाने के बाद भी उसकी ज्ञान- रश्मियाँ आलोक वर्तिका बनकर हजारों-हजार पथिकों का पथ आलोकित करती रही है
साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी ऐसे ही गुरु थे, जिन्होंने अपने भीतर के गुरु को जगाया, जिप-तप ध्यान योग की ज्योति में तपाया और असीम आत्म-ऐश्वर्य प्राप्त कर कृत कृत्य हुए। उनके चरणों में जो भी आया उसे मुक्त हाथों से बीटा-सद्भावों का उजाला, विघ्न भय हारी मंगल पाठ का प्रसाद: जीवन को सुखमय आनन्दमय बनाने वाला अनन्त आत्म-ऐश्वर्य ।
उनके चरणों में बैठने वाला हर सांस में आत्म-उल्लास की सुगंध का अहसास पाता था। हर पल शांति की जीवनदायी शीतल फुहारों से स्फूर्ति और संचेतना का अनुभव करता था। उनका चरण-स्पर्श तो दूर, उनका सान्निध्य भी मन की छाया की भाँति मनोवांछित देने
वाला था।
-आचार्य देवेद्र मनि
www.janelibrary.org
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________________ - पुष्कर गुरू यावन धाम (उदयपुर) का प्रकल्पित स्वरूप (मॉडल) - MILLI Minim यी हुन् म पायथन श्री पुरावधान रात्रि के सघन अंधकार में दीपक जब तक जलता है, उसके प्रकाश का अहसास करते हुए भी हम उसकी अस्मिता का मूल्यांकन नहीं कर पाते, किन्तु जब दीपक बुझ जाता है, तो तम की गहन घुटन में दीपक का अभाव मन में टीस बनकर खटकने लगता है। सत्पुरुषों की उपस्थिति में हम उनकी व्यापक प्रभावशीलता एवं उपयोगिता को अनुभव करते हुए भी व्यक्त नहीं कर पाते किन्तु उनके चले जाने के पश्चात् उनका अभाव खटकने लगता है और मन की गहरी शून्यता कभी भर नहीं पाती। ऐसा लगता है, हम कुछ ऐसा खो चुके हैं, जो रह-रहकर स्मृतियों में स्पन्दन बनकर प्रतिपल मन के अथाह श्रद्धा समुद्र को उद्वेलित कर रहा है....... __संसार में महापुरुषों का जन्म होता रहा है, होता रहेगा, किन्तु जो चले गये, उनके अभाव की पूर्ति जैसे युग-युग तक नहीं हो। पाती..... उनके उपकारों से, मानवता युग-युग तक ऋणी रहती है। उनके सत्कर्म-प्रेरित सदुपदेशों की गंगा जन-मन के पाप/ताप/संताप को दूर करती हुई भी उनकी अनुपस्थिति का अहसास सदा-सदा कराती रहती है। स्मृति ग्रन्थ के रूप में उनके गुणोत्कीर्तन की ये शीतल लहरें उनके बताये पुण्य पथ पर बढ़ने को प्रेरित करती रहेगी और शायद इसी रूप में हम अपने बीच उनके अभौतिक स्वरूप की उपस्थिति सदा पाते रहेंगे..... - आचार्य देवेन्द्र मुनि श्री तारक गुरू जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर www.lainelibrary.org