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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
स्वस्थ समाज का आधार : सदाचार
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
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धर्म का मेरुदण्ड : आचार
सम्बोधन से पुकारा गया। सुयोधन दुर्योधन के रूप में विश्रुत हुआ। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के अभ्युदय का मूल आधार आचार
आचार का परित्याग करने से कंस राजा होकर भी कसाई कहलाया है। आचार के आधार पर विकसित विचार जीवन का नियामक
और दक्ष दंभी के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जबकि सदाचार को धारण और आदर्श होता है, अतः विचार की जन्म-भूमि आचार ही है।
करने से शबरी भीलनी होकर भी भक्त बन गई। वाल्मीकि व्याध से
वन्दनीय बन गया। अर्जुनमाली हत्यारे से साधु बन गया। अतीत काल में आचार शब्द बिना किसी विशेषण के भी श्रेष्ठतम आचरण के लिए व्यवहृत हुआ है। शाब्दिक दृष्टि से आचार । तप का मूल : आचार का अर्थ है-'आचर्यते इति आचारः' जो आचरण किया जाय, वह आचार की महिमा बताते हुए वैदिक महर्षियों ने कहा- आचार आचार है। यह सदाचार का द्योतक है। आचार्य मनु, आचार्य व्यास
से विद्या प्राप्त होती है। आयु की अभिवृद्धि होती है, कान्ति और प्रभति विज्ञों ने 'आचारः प्रथमो धर्मः' कहा है। भगवान महावीर ने कीर्ति उपलब्ध होती है। ऐसा कौन-सा सदगण है जो आचार से द्वादशांगी में 'आचार' को प्रथम स्थान दिया है। श्रुतकेवली भद्रबाहु
प्राप्त न हो। आचार से धर्मरूपी विराट् वृक्ष फलता है। आचार से ने स्पष्ट शब्दों में कहा है 'आचार सभी अंगों का सार है।' महाभारत ।
धर्म और धन ये दोनों ही प्राप्त होते हैं। आचार की शुद्धि होने से में वेदव्यास ने भी यही कहा है कि सभी आगमों में 'आचार' प्रथम | सत्य की प्राटि होती है सत्य की गल्टि होने से चित्त काय बनता है। ऋषियों ने भी आचार से ही धर्म की उत्पत्ति बताई है
है और चित्त एकाग्र होने से साक्षात् मुक्ति प्राप्त होती है। सभी 'आचारप्रभवो धर्मः'। आचार्य पाणिनि ने प्रभव का अर्थ 'प्रथम ।
प्रकार के तप का मूल आचार है। प्रकाशन' किया है। अर्थात् आचार ही धर्म का प्रथम प्रकाशन स्थान है। आचार धर्म का मेरुदण्ड है जिसके बिना धर्म टिक नहीं सकता। आचार और सदाचार
विश्व में जितने भी प्राणी हैं उन सभी प्राणियों में मानव श्रेष्ठ भारतीय साहित्य में प्रारम्भ में आचार शब्द सदाचार का ही है। सभी मानवों में ज्ञानी श्रेष्ठ है और सभी ज्ञानियों में आचारवान द्योतक रहा। बाद में आचार के साथ 'सत्' शब्द का प्रयोग इस श्रेष्ठ है। आचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्यद्वार है। तथ्य को प्रमाणित करता है कि जब आचार के नाम पर कुछ गलत
प्रवृत्तियाँ पनपने लगीं तब श्रेष्ठ आचार को सदाचार और निकृष्ट आचार-रहित विचार : कल्चर मोती
आचार को दुराचार कहना प्रारंभ किया गया। इस तरह आचार आचारहीन मानव को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। कहा है- रूपी स्रोत दो धाराओं में प्रवाहित हो गया। उसकी एक धारा “आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचार रहित विचार कल्चर मोती ऊर्ध्वमुखी है, तो दूसरी धारा अधोमुखी है। ऊर्ध्वमुखी धारा के सदृश है, जिसकी चमक-दमक कृत्रिम है। विचारों की तस्वीर सदाचार है तो अधोमुखी धारा दुराचार है। शाब्दिक व्युत्पत्ति की चाहे कितनी भी मन-मोहक और चित्ताकर्षक क्यों न हो, पर जब दृष्टि से सदाचार शब्द सत् + आचार इन दो शब्दों से मिलकर तक आचार के फ्रेम में वह नहीं मढ़ी जायेगी तब तक जीवन- बना है। जो आचरण या प्रवृत्ति पूर्णरूप से सत् है, शिष्टजन सम्मत प्रासाद की शोभा नहीं बढ़ेगी। विचारों की सुन्दर तस्वीर को आचार है, उचित है वह सदाचार है। सत् या उचित को ही अंग्रेजी में के फ्रेम में मढ़वा दिया जाय तो तस्वीर भी चमक उठेगी और भवन 'राइट' (right) कहा है। जिसका अर्थ है नियमानुसार। जो भी खिल उठेगा।
आचरण नियम के अनुसार वह सदाचार है और जो आचरण शीशे की आँख स्वयं के देखने के लिए नहीं होती, दिखाने के । नियम के विरुद्ध है, असत् है, वह दुराचार है। दुराचार को ही लिए होती है, वैसे ही आचारहीन ज्ञान आत्म-दर्शन के लिए नहीं अनाचार या कदाचार भी कहते हैं। होता, किन्तु मात्र अहंकार प्रदर्शन के लिए होता है। प्रशंसा के गीत
सदाचार : परिभाषा गाने मात्र से अमृत किसी को अमर नहीं बनाता, पानी-पानी पुकारने से प्यास शान्त नहीं होती। इसी प्रकार सिर्फ शास्त्रों का
आचार्य मनु ने सदाचार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि ज्ञान बघारने से जीवन में दिव्यता नहीं आती।
'जिस देश, काल व समाज में जो आचरण की पवित्र परम्पराएँ
चल रही हैं वह सदाचार है।' सज्जन व्यक्तियों के द्वारा जिस पवित्र आचारहीनता से पतन
मार्ग का अनुसरण किया जाता है वह सदाचार है। सदाचार एक विराट् सम्पत्ति का अधिपति तथा वेद-वेदांगों का पारंगत होने । ऐसा व्यापक तथा सार्वभौम तत्त्व है जिसे देश, काल की संकीर्ण पर भी सदाचार-रहित होने से रावण 'राक्षस' जैसे घृणापूर्ण । सीमा आबद्ध नहीं कर सकती। जैसे सहस्ररश्मि सूर्य का चमचमाता
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