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तल से शिखर तक
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जन्म जीवन का मंगलम् है। जन्म पर खुशियाँ बाँटना, महोत्सव मनाना संसार की रीति है।
जन्म के साथ ही जीवन की महान शिखर यात्रा प्रारंभ होती है। यह यात्रा हिमशिखर का आरोहण है। इसलिए इसमें प्रतिपल जागरूकता, सचेतनता और लक्ष्य के प्रति अटूट आस्था होना जरूरी है। जिन व्यक्तियों में इस आरोहण के प्रति जीवट होता है, लक्ष्यबद्धता होती है, आस्था होती है-वे शिखर तक पहुँच जाते हैं, उनकी यात्रा की समाप्ति महोत्सव के रूप में होती है। उनकी मृत्युबेला-उत्सवबेला बन जाती है और मृत्यु दिन पर्व के रूप में मनाया जाता है। ___अधिकतर मनुष्यों का जन्म-मंगल तो मनाया जाता है, परन्तु मृत्यु? मृत्यु मातम के रूप में, शोक दिवस के रूप में और कारुणिक रूप में उपस्थित होती है। विरले ही ऐसे भाग्यशाली होते हैं जिनके जन्म-मंगल पर घी के दिये जलते हैं, तो मृत्यु दिन पर स्वर्ग के देवगण भी फूल बरसा कर महोत्सव मनाते हैं। एक घर का चिराग लाखों हृदयों का दीपक बनकर, एक माता का लाडला लाखों माता-पिता, बंधु परिजनों की आँख का तारा बनकर चमके, ऐसे भाग्यशाली शलाका पुरुषों की गणना में आज एक नाम हमारी जिह्वा पर नाच रहा है- ' गुरुदेव श्री उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म.।
उपाध्याय श्री मेवाड़ की पथरीली लाल माटी में से निकले वह वैडूर्य मणि थे, जिनकी चमक-दमक निरन्तर बढ़ती ही गई, बढ़ती ही गई। जौहरी की दृष्टि कसौटी बन जाती है।
उपाध्याय श्री का जीवन एक शतशाखी वट था। उनके व्यक्तित्व के घटक सद्गुणों की गणना करने बैठे तो लगेगा-ऐसा कौन-सा गुण फूल है, जो उस महावट की शाखा पर नहीं फला होगा। विश्व की ऐसी कौन-सी दुर्लभ विशिष्टता है, जो उस बहुआयामी व्यक्तित्व के परिसर में न समाई होगी।
इन्द्रधनुष की तरह उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व मनभावन रंगों का ऐसा मिश्रण था जिसकी रंग-छटा रंग-विलय के बाद भी स्मृतियों में छाई रहती है।
उपाध्याय श्री के सबसे निकट और सबसे प्रिय, उनके शिल्प की सबसे श्रेष्ठ कृति आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी द्वारा ही उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व का आस्था भरी मंजुल शब्दावली में जो शब्दांकन हुआ है, वह अनेक दृष्टियों में महत्वपूर्ण तथा चिरस्थायी मूल्यवत्ता समन्वित है। यहाँ पर प्रस्तुत है-तल से शिखर तक।
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