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तल से शिखर तक
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
श्रद्धेय उपाध्यायश्री का जीवन सामान्य व्यक्ति की भाँति तल (तलहटी) से प्रारम्भ होकर एक अलौकिक पुरुष के रूप में शिखर आरोहण का जीवन्त उदाहरण है। यों तो सभी का आरम्भ तल से ही होता है परन्तु जिन के भीतर दिव्यता/भवितव्यता के अलौकिक संस्कार छुपे होते हैं, अमित उज्ज्वल संभावनाओं की ज्योति प्रज्ज्वलित होती हैं वे तल पर खड़े होकर भी अतल गहराई और असीम ऊँचाई लिये होते हैं। उनका तल स्थित जीवन भी सबके मध्य शिखर रूप ही प्रतीत होता है। पूज्य उपाध्यायश्री के जीवन की यही विलक्षणता थी कि वे प्रारम्भ से अन्त तक सर्व सामान्य के बीच रहकर भी सदा असामान्य गरिमा लिये जीये। उनकी अपनी अलग ही एक निराली छवि, अद्भुत अस्मिता थी और इसी गरिमा की चरम स्थिति में देह त्यागकर कृतकृत्य हुए।
पड़ मंगलम् !
और अनगिन सूर्य अवतरित हुए हैं।
एक सूर्यपुरुष हमारे बीच भी आया थासघन, अँधेरी रात्रि का भी अन्त होता ही है।
वह तिरोहित भी हो गया। ब्राह्ममुहूर्त चैतन्य का शंख फूंकता है।
आरोहण कर गया। ऊषा पूर्व क्षितिज को लाल-गुलाबी-केशरिया कर देती है.... अब हम उसकी पुण्य-प्रकाशवान स्मृति के अमर आलोक में 6000 और सूर्योदय होता है।
अपना जीवन-पथ टटोलकर आगे बढ़ सकें, इसलिए उचित होगा
कि हम उस स्मृति को अपने अन्तर में उतारें और आत्मालोक प्राप्त सृष्टि के प्रगाढ़ तमस पर आलोक-धाराएँ फूट पड़ती हैं। दृष्टि ।
करें। ही नहीं, सृष्टि की अन्तरात्मा तक आलोकित, आनन्दित होकर 'सुन्दरम्' हो जाती है।
हम ले चलते हैं आपको उस आलोक-लोक मेंपुरुषार्थ का पुण्य-प्रवाह मंगल ध्वनि में गा उठता है। वसुधा के कल्याण का मंत्र दिशाओं में निनादित होता है और सृष्टि 'शिवम्'
एक विजन, सघन, भयावह वन । बन जाती है।
अँधेरी घुप्प अँधेरी रात ॥ अंधकार के आवरण हटते हैं। आलोक आत्मा का, आत्मा में क्रूर, हिंसक प्राणियों से भरे उस वन के आकाश में चमकते से ही फूटता है और सुन्दरम् तथा शिवम् ‘सत्यम्' होकर शाश्वत सितारे भी उस वन की भयावहता से काँप रहे थे। हो जाते हैं। कण-कण और पल-पल में अखण्ड, अव्याहत ‘मंगलम्'
उस विषमतम परिवेश में, उस गाढ़ वन में किसी वृक्ष के का अनहद नाद व्याप्त हो जाता है।
नीचे, किसी नर-शार्दूल की समस्त शोभा, गरिमा और भव्यता की क्योंकि रात बीतती है।
मनोहारी एवं प्रभावोत्पादक छटा बिखेरता हुआ एक महायोगी सन्त और सूर्य अवतरित होता है।
ध्यानस्थ, साधनारत बैठा था। अँधेरी रात्रि की सघनता और गहन
वन की भयावहता उसे कहीं स्पर्श नहीं कर पा रही थीं। न तन को, सूर्य आकाश में ही नहीं, आदमी में भी होता है। कोई आश्चर्य
न मन को। आत्मा तो उसकी त्रैलोक्य की शरणस्थली ही थी। नहीं यदि आदमी ही सूर्य होता हो तो! शेष जो कुछ हो वह भ्रम ही हो, अंधकार ही हो। सत्य यही हो कि आदमी ही सूर्य हो।
रात्रि प्रगाढ़ होती गई। सन्नाटा साँय-साँय करने लगा। उस
सन्नाटे को चीरता हुआ, अभी-अभी अपनी गुफा से निकले सिंह का किन्तु वह जानता न हो। भूल गया हो। भटक गया हो। भ्रमित ।
भीषण गर्जन उठा । हो गया हो।
सारा जंगल भय से काँप उठा । वनराज जो आ रहे थे, और जब वह जागे, तब उसका आत्म-सूर्य त्रैलोक्य को
अपने शिकार की खोज में, चुनौती देते हुए-यदि कोई प्रतिद्वन्द्वी हो आलोकित कर दे।
सकता हो तो उसे सामने आने के लिए ललकारते हुए।
be समय अनादि है।
भयानक केशरी सिंह अपनी अयाल फैलाए, अहंकार भरी समय अनन्त है।
मदमस्त चाल से गर्जन-तर्जन करता हुआ उसी वृक्ष के सामने पहुंचा इस अनादि-अनन्त काल में हमारी सृष्टि में अनगिन रातें ।
और उसे अपने सामने एक अन्य नर-शार्दूल दिखाई दिया-ध्यानस्थ घिरी हैं।
योगी के रूप में। प्रशान्त, प्रदीप्त मुखमुद्रा धारण किए हुए।
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