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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । "तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत।।
वे मनस्वी पुरुष अपने युग के तेजस्वी पुरुष थे। समाज के हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।"
मुख व मस्तिष्क भी थे। समाज के विकास व कल्याण के लिए
अपने युग के अन्धविश्वासों, अन्धपरम्पराओं, मूढ़ता से परिपूर्ण औसाफ से चमकता चेहरा, नेक अमल से दहकती सोने-सी। हा देह। क्या मजाल? किसी की निगाहें ठहर सकें। बेशक वह इन्सान
रूढ़िवाद से संघर्ष करते रहे, जूझते रहे। स्वकल्याण और पर
कल्याण करना उनका परम लक्ष्य था। उनका सोचना, उनका थे। लेकिन उनकी जिन्दगी एक पुरनूर मेहरोमाह से भी बढ़कर थी।
बोलना व उनका कार्य करना सभी में जन कल्याण करने की तभी तो शायर को कहना ही पड़ा आपको देखकर
भावना अंगड़ाइयाँ लेती रहती थीं। उन्होंने अपने प्राणों की बाजी निगाह बर्क नहीं, चेहरा आफताब नहीं।
लगाकर भी समाज को नूतन आलोक से भर दिया। उनका स्वभाव वह आदमी थे, मगर देखने की ताब नहीं॥
निस्तरंग समुद्र की तरह था जो हलचल कोलाहल से दूर रहकर उनके कौल और फैल, खुशी हो या गम, अकेले हों या लोगों ।
विकास की तरंगों से आन्दोलित था। वे सृजनात्मक शक्ति में 3 के बीच में, हर हालत में यकसां रहते थे। यह नहीं कि उनका दिल ।
विश्वास करते थे। जीवन में कितने ही विरोध के स्वर उभरे पर कुछ सोचे और जबान कुछ कहे, जबान कुछ कहे और फैल कुछ
विरोध को विनोद मानकर सदा उदात्त सृजनात्मक कामों में ही और ही कर गुजरें। नहीं, दिल-जबान और अमल, यह तीनों ही
संयोजित होते रहे। यदि कोई उनकी निन्दा भी करता तो भी उनकी आपके यकसा रहे हैं। तभी तो आप एक महान पुरुष बन सके,
पावन शक्ति कबूतर की भाँति इतनी प्रचण्ड थी कि मान अपमान
के कंकड़-पत्थरों को भी हजम कर शक्ति प्राप्त करते रहे। पाकबातन कहला सके। ऐसे ही महान् भारतीय त्यागी सन्तों के, महान् जीवन से ।
सूर्य की संतप्त चमचमाती किरणों से जो भी सम्पर्क में आता प्रकाश लेकर, आज हम भी, अपना जीवन-पथ, आलोकित कर,
है वो चमक उठता है। वैसे ही उन महान् युग पुरुष के सम्पर्क में निःश्रेयस और कल्याण के राजमार्ग पर, आगे निरन्तर आगे बढ़
अधम से अधम व्यक्ति भी आता है वह महान् जीवन-धारियों की
श्रेणी में आ जाता है। सकते हैं। "जीवन चरित महापुरुषों के, हमें यह शिक्षा देते हैं।
जस्थानकवासी जैन समाज के युग पुरुष के लड़ियों की कड़ी में हम भी अपना-अपना जीवन, स्वच्छ-रम्य कर सकते हैं।
सदगुरुवर्य अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. भी एक विरल तेजस्वी कड़ी हैं। आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक व नयनाभिराम है तो उससे भी अधिक आन्तरिक जीवन अभिराम
है। प्रथम दर्शन में ही व्यक्ति उनसे प्रभावित, आकर्षित हुए बिना मेरे आराध्य देव थे !
नहीं रहता। विशाल देह, लम्बा कद, दीप्तिमान निर्मल गौर वर्ण,
प्रशस्त चौड़ा भाल, नुकीली ऊँची नाक, उन्नत वक्ष, सशक्त मांसल -श्री भगवती मुनि “निर्मल" भुजाएँ, तेजपूर्ण शान्त मुख-मण्डल, प्रेमामृत वर्षात दिव्य नेत्र,
उज्ज्वल सफेद खादी के वस्त्रों से परिमण्डित विभूति को देखकर मेरे विचारों ने एकदम मोड़ खाया। कल तक जो सम्मुख थे।
बरबस ही दर्शक मोहित हो जाता है। प्रेम की पवित्र प्रतिमा, न दृष्टिपथ के पर्दे में आबद्ध थे पर आज क्या हो गया। कहाँ चले
सरसता की श्रेष्ठ निधि, दृढ़ संकल्प शक्ति, अद्भुत कार्यक्षमता गये। वर्तमान धरा की पुण्य सलिला में नहाते हुए भविष्य की
आभ्यन्तर व बाह्य परिपेक्ष्य के रूप में कभी देखा जा सकता था। सुन्दरतम कल्पना को संजोये आगे बढ़ गये। पर मेरा मन व्यथित है, उद्वेलित है। कौन भानजा कहेगा किसको मामा कहकर
आपश्री की जन्मभूमि का गौरव मेदपाट है। जहाँ तलवारों की
खनखनाहट, रण की झंकार नाद गूंजती रही, वहाँ मीरा की पुकारूँगा?
तरंगमती भक्ति के गीतों के स्वर भी गूंजे हैं। जन्मभूमि का गौरव प्रत्येक युग में कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का जन्म होता है
मिला है सिमटार (नान्देशमा) को। बाल्यावस्था में अम्बालाल के जिन्होंने अपनी महानता, दिव्यता और भव्यता से जन-जन के
नाम से पुकारे जाते थे। ग्राम धार्मिकता से ओत-प्रोत था। सुसंस्कार अन्तर्मानस को अभिनव आलोक से आलोकित किया है। जो समाज
गहरे में पहुँच रहे थे। संस्कृत के एक श्लोक को परिवर्तन के साथ की विकृति को नष्ट कर संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित
यों कह सकते हैंकरते हैं। अपने युग के गले-सड़े व्यर्थ के आचार व विचार में नव B सृजन का प्राणसंचार करते रहे हैं। उनके अध्यवसाय से पथ सुपथ
आस्ते कलियुगे विप्रो धर्म कर्म विशारदः। हो जाता है। पथ के शूल तो पुष्प व विपत्ति सम्पत्ति बन जाती है।
अम्बालाल इति ख्यातो नाम्ना धर्मपरायणः।। मार्ग की प्रत्येक बाधायें उत्साह प्रदान करती हैं। उलझन सुलझन योग्य गुरु की सन्निधि को पाकर आपने अपने जीवन को मोड़ बन जाती है।
दिया। संसार की असारता, नश्वरता, क्षणभंगुरता व स्वार्थ
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