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________________ 2900-6000 । श्रद्धा का लहराता समन्दर ३१ - भाल पर तिलक के समान हैं। जैन श्रमणों ने इस श्रमण संस्कृति महकता पुष्प की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम दिया। जैन श्रमण, श्रमण 100 -मुनि अमरेन्द्र कुमार सस्कृतिक कठारतम साधका मस हा वैसे देखा जाय तो, सन्त शब्द की परिभाषा में ही भद्रता श्रमण, भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी है। उसका संरक्षक निहित है। सन्त तो दूर की बात है, सच्चा मानव बनने के लिए भी, है, उद्धारक है, और उसे विकास के सर्वोच्च शिखर तक ले जाने परिणामों की भद्रता और सरलता की सर्वप्रथम अनिवार्य वाला साहसिक नेता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास, इन आवश्यकता हुआ करती है। शास्त्रकार तो यहाँ तक कहते हैं कि त्याग-मार्गी, महान् आत्माओं के समुज्ज्वल चरित्रों एवं पावन धर्मात्मा, एकमात्र भद्र हृदय मानव ही हो सकता है। अर्थात् भद्र उपदेशों से भरा पड़ा है। इन संस्कृति के उन्नायक महापुरुषों से | हृदय में ही धर्म सुस्थिर रह सकता है। उपाध्याय श्रीजी धर्मात्मा ही भला कौन परिचित नहीं है। प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी तक भी इनके | नहीं, बल्कि सच्चे महात्मा भी थे। क्या मन? क्या वाणी? और क्या महान् सद्गुणों एवं कार्य-कलापों से सुपरिचित हैं। सन्त देश-काल कर्म? उनका सारा जीवन ही भद्रता से ओत-प्रोत था। प्राकृतिक की तुच्छ सीमाओं में कभी बँध कर नहीं रहा। समाज, परिवार, | भद्रता के जबकि अन्यत्र दर्शन ही दुर्लभ होते हैं, वही प्राकृतिक सम्प्रदाय या देश भी उस अमर ज्योति को रोक कर नहीं रख सके। भद्रता उनके जीवन में प्रचुरतम मात्रा में, कूट-कूट कर भरी थी। उस महान् पुरुष की दिव्य ज्योति सर्वत्र फैली। अपने समुज्ज्वल उनके सम्पर्क में आने वाले, चाहे साधु-साध्वी हों, अथवा गृहस्थ, वे आलोक से उसने समस्त विश्व को आलोकित कर दिया। उसके उनकी भद्रता और सरलता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते थे। सद्गुणों और पावन अनुभूतियों की सुगन्ध को, क्षुद्र परिधि कब तक बन्द रख सकती थी? वह तो फैली समस्त विश्व में। जन मर्द शुख खू नहीं तो फिर क्या है? मानस का कोना-कोना उसकी विराट खुशबू से महक उठा, फूल में बू नहीं तो फिर क्या है? सुवासित और सुगन्धित हो उठा। इन श्रमण संस्कृति के पुण्य-स्रोत, श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्रीपुष्कर मुनिजी के किस-किस महान् सन्तों, अध्यात्मवेत्ताओं की पुण्य जन्मभूमि होने का गौरव वस्फ की तारीफ लिखू ? उनकी तो सारी जिन्दगी ही औसफ की भारत को ही अधिकांशतः सम्प्राप्त है। कश्मीर से लेकर | खान थी। खुशमिजाजी, जिंदा-दिली, खिदमतपरस्ती, नेक चलन कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक ऐसा कौन-सा । और पाक अमल किस-किस का अफसाना लिखने बै? उनके स्थान है, जो इन ऋषियों, मुनियों, त्यागियों, महात्माओं, सन्तों और एक-एक वस्फ की तारीफ में पोथे के पोथे और दीवान के दीवाना श्रमणों से गौरवान्वित न हुआ हो। भारत तो अध्यात्म संस्कृति का लिखे जा सकते हैं। फिर भी दो सतरें एक शायर के शब्दों में केन्द्र ही रहा है। अतः प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समाज में, प्रत्येक दोहरा ही देता हूँ। सम्प्रदाय में, प्रत्येक प्रांत में, एक से एक बढ़कर ये महामानव हुए सखावत, शुजाअत, इबादत, रियाजत। हैं तथा होते रहेंगे। सौराष्ट्र एवं गुजरात के सन्तों में, त्यागी हर एक वस्फ में तुझको थी काबलीयत॥ महापुरुषों से भला कौन परिचित नहीं है। महाराष्ट्र एवं बंग देश की विभूतियों को भला कौन नहीं जानता। राजस्थान के धीर, वीर, ए उनकी जिन्दगी एक महकते हुए फूल की जिन्दगी के मानिन्द भला कौन अनभित थी। फूल की महक तो थोड़ी देर कायम रहती है। फूल के मुझातेपञ्चनद के फक्कड़ फकीर भला किससे छिपे हुए हैं और उत्तर सूखते ही, उसकी हस्ती भी खत्म हो जाती है लेकिन उनके औसाफ प्रदेश? वह तो एक तरह से भक्तों, सन्तों एवं सत्पुरुषों की मानो की खुशबू तो हमेशा महकने वाली खुशबू है। वह उनकी जिन्दगो के खान ही रहा है। भारत की यह आध्यात्मिक सन्त परम्परा आज ही वक्त भी थी और इसी तरह मुश्तकबिल भी उसकी महक से नहीं अपितु अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। ऋषभदेव, महकता रहेगा। क्या अपना, क्या पराया? सब उसके औसाफ शान्तिनाथ, राम, कृष्ण, पारस और महावीर सरीखे अवतारी की खुशबू से मुअत्तर रहे हैं और रहेंगे। जैसा कि एक शायर ने DEE महापुरुषों की यह भारत ही जन्मभूमि रही है। महात्मा बुद्ध, कहा हैआचार्य शंकर, महव, निम्बार्क आदि तथा गुरुनानक, तुलसी, सूर, फूल बन करके महक, तुझको जमाना जाने। कबीर, दादू, मीरा जैसे एवं तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, नरसी, भीनी खुशबू को तेरी, अपना बेगाना जाने॥ आनन्दघन जैसे भक्तों और सन्तों की परम्परा यहाँ अविच्छिन्न रूप सचमुच में वे एक ऐसे ही हमेशा के लिए कायम रहकर से चलती आई है। खिलने वाले फूल बनकर, गुलशने आलम में महके थे। उनकी श्रमण संस्कृति के उन्नयन और उत्थान में, जैन श्रमणों का भी मिसाल कैसे दी जाए। वे अपने जैसे खुद ही थे। एक शायर के 20 महत्वपूर्ण योग रहा है। जैन श्रमण, श्रमण संस्कृति के विशालतम । शब्दों में For Bulvare a personas se on 20oyayrainelibrary 69DOE24
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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