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________________ &000000 ३३ जीने | श्रद्धा का लहराता समन्दर परायणता को देखकर उनका मन संसार से विरक्त हो गया। योग्य आप में आस्था का ओज अद्वितीय था। साथ ही व्यवस्था की गुरु की सन्निधि पाकर गुरुता के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सूझ भी बेमिसाल थी, सत्वमयी थी। मन मोद से परिपूर्ण हो जाए गये। जिस समय आपने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया उस और कठोर तपश्चरण द्वारा किसी लक्ष्य को प्राप्त करना यथार्थतः। समय का वातावरण विचार भिन्नता था। जैन श्रमण का संस्कृत उल्लेखनीय प्राप्ति है। जो आप में सहज प्राप्त थी। आपकी वाणी का अध्ययन करना व परीक्षा देना दोनों निषिद्ध थे पर आपने वह में मनमोहकता होने से मंत्रित थी। वह जैसी निकलेगी वैसी ही उसकी किया। आपश्री में अध्ययन के साथ-साथ प्रतिभा, मेधा व कल्पना जागतिक और आध्यात्मिक फलश्रुति निकलेगी। वाणी चरित्र की शक्ति की प्रधानता है, कल्पना शक्ति उर्वरता तीव्र होने से नयी-नयी प्रतिध्वनि है। भाषा समितिपूर्वक जिन्हें वाणी व्यवहार का अद्भुत कल्पनायें प्रसुत होती रही हैं। तर्कणा शक्ति की तीव्रता से कठिनतम । अभ्यास हो फिर उस. मौन व्याख्यान की वार्ता को क्या कहना वहDER विषयों को भी सरलता से हृदयङ्गम कराने में आप समर्थ थे। तो उनके नेत्रों में पढ़ा जा सकता है। उनके चरणों में सदाचरण का व्याख्यान कला में भी आप दक्ष थे। विद्वता अध्ययन से सन्देश मुखरित होता है। स्व. उपाध्यायश्री जी का जीवन सदाचरणपरिपूर्ण वक्तृत्व विधा के मध्य में ऐसी बात कहते कि श्रोता पूर्वक संयम-साधना से सम्यक् तपश्चरण अपनी आत्मा का तेजस्वी खिलखिला उठते, क्लिष्ट विषय को भी सरलता से हृदयङ्गम कर महातेज प्रकटीकरण में आप पूर्णरूपेण सफल हुए हैं। लेते। आप वाणी के जादूगर थे। किस समय कौन-सी बात कहना आपका दर्शन स्पर्शन जब से मेरे नेत्र खुले तभी से हो रहे हैं। यह सम्यक् रीति से जानते थे। आप जपयोगी थे। जप की यह आपका व मेरा पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। आपकी बाल्यावस्था निधा आपको परम्परा से प्राप्त थी। जप में महान् शक्ति है। जो अपने मातुलगृह में व्यतीत हुई तो मेरी भी बाल्यावस्था भी उसी घर कार्य अन्य शक्ति से सम्भव नहीं वह असम्भव कार्य भी जप से सम्भव है। नियमित रूप से, नियमित समय पर सद्गुरुदेव सविधि साधनावस्था में भी अनेकों स्थानों पर साथ रहने का प्रसंग महामन्त्र नवकार को लेकर जप किया जाये तो अवश्य ही सिद्धि बना। यत्र-तत्र सर्वत्र प्रेम स्नेह का अमृत मिला। अन्तिम कालावधि मिलती है। उपाध्यायश्री जी नियमित रूप से प्रतिदिन जप करते थे। भोजन की उन्हें चिन्ता न थी, जप की चिन्ता थी। जप का समय में तो एक मास से अधिक समय पर्यन्त सेवा में रहने का प्रसंग अचूक था, बिहार-यात्रा में भी जप समय होने पर बैठ जाते थे। मिला। आत्मसंतोष है कि सेवा मिली। चाहे जंगल ही क्यों न हो। सड़क के किनारे पर वृक्ष के नीचे चेहरे पर सतेज भाव अन्तिम समय पर्यन्त रहा। स्वर्ग-गमन के पश्य ध्यानावस्थित हो जाते थे। वे खूब रसपूर्वक जप करते थे। उनके । बाद भी शव को देखकर ऐसा लगता कि अब बोलेंगे। जहाँ भी हो सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता उसे जप की प्रेरणा देते थे। जिस लोक में भी हों वहीं मेरे श्रद्धा सुमन स्वीकार करें। बस यही एक श्रमण भगवान महावीर का सिद्धान्त कि भारण्ड पक्षी के अभ्यर्थना। समान अप्रमत्त रहते हुए समयं गोयम मा पमायए-क्षण मात्र के लिए प्रमाद न करो। सतत् आत्मध्यान स्वाध्याय ध्यान में संलग्न सद्गुरु की महिमा अनन्त रहो। स्व. उपाध्याय जी इस सूत्र के कायल थे। आपका प्रत्येक कार्य नियमित समय पर होता था। प्रातः २ बजे से कार्य प्रारम्भ होता जो -श्री दिनेश मुनि रात्रि के ९ बजे पर्यन्त अविराम गति से चलता था। दर्शनार्थियों का जनसमूह सतत बना रहता था पर अपने कार्यक्रम में परिवर्तन सद्गुरु की महिमा अनन्त है, गुरु के उपकार भी अनन्त हैं करना उन्हें रुचिकर न था। और अनन्त की अनुभूति बिना गुरु की कृपा के कदापि सम्भव जीवन की सांध्यबेला में उन पर अनेक व्याधियों ने आक्रमण । नहीं है। जीवन अनन्तकाल से अँधेरी गलियों में भटक रहा है। कर दिया था पर चेहरे पर वही सहनशीलता के भाव। इन पंक्तियों विषय-वासना में अटक रहा है। गुरु हमें प्रकाश देते हैं, गुरु पारस के लेखक से गुरुदेव ने कहा-कष्टों की पराकाष्ठा है। वेदना असह्य पत्थर हैं जो हमारे जीवन रूपी लोहे को स्वर्ण में परिवर्तित कर देते 900 होती जा रही है पर उनका दृढ़ता से सामना करना है। रोग अपना हैं, गुरु कुशल नाविक हैं जो शिष्य की जीवन-नौका को इस विराट कार्य करें मैं अपना कार्य करूँ। चेहरे पर वही प्रसन्नता का भाव। संसार रूपी सागर से पार कर देते हैं। गुरु आध्यात्मिक चिकित्सक 2000 सिंह-सी दहाड़ती हुई बुलन्द आवाज और शारीरिक कष्ट हैं जो रोगों को ही नहीं किन्तु मन के रोगों को निर्मूल कर देते हैं । वेदना के क्षणों में भी अपार धीरता, सहिष्णुता को देखकर ऐसा और ऐसा आरोग्य प्रदान करते हैं जिससे आत्मा अपने स्वरूप को HD आभास होता था कि गुरुदेव जपयोगी हैं। पीड़ायें उन पर हावी नहीं समझ जाता है। गुरु के बिना संसार में कुछ नहीं है, गुरु की सबसे हो सकतीं। अधिकतम वेदना के क्षणों में भी बापा यह आवाज बड़ी विशेषता है कि वह शिष्य को भगवान के रूप में प्रतिष्ठित निकलती थी। दादा गुरुजी को बापा कहकर पुकारते थे। कर देता है। DOG DOODS:08तततत 602 an Education International Por Private Personal Use Only HODD RRCasseg600000000000ROERA
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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