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किये, चेहरा चमक रहा था, आध्यात्मिक तेज प्रकट हो रहा था। वे कई बार चर्चा के दौरान कहा करते थे शरीर का क्या मोह ? पंचभूत का यह पीजरा है एक दिन माटी में मिल जायेगा पर आत्मा अमर है। कबीर का पद कहा, चूनडी पर दाग नहीं लगे, ज्यों की त्यों धर दीनी चूनडिया वह पद अन्तिम समय चरितार्थ किया, संयम-साधना में दाग नहीं लगने दिया। महापुरुष के जीवन के बारे में जितना भी लिखा जायेगा तो एक ग्रन्थ तैयार हो जावेगा। वर्तमान आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने जो गुरु की सेवा की है वह अद्वितीय है, लिखना व वर्णन करना कठिन है। एक क्षण भी उनसे दूर नहीं होते थे। उनका आशीर्वाद ही इनकी दौलत है, आध्यात्मिक धरोहर है। महापुरुष के चरणों में कोटि-कोटि वंदन । उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी उनके सिद्धान्तों व बताये हुये मार्ग पर चलें।
स्वाध्याय के अखण्ड ज्योतिर्धर
-माणक चंद जैन (संयोजक- स्वाध्याय संघ अहमदनगर )
मेवाड़ भूमि जो वीरभूमि के नाम से विख्यात है वह संत-रत्नों को जन्म देने में भी पीछे नहीं रही। उसी श्रृंखला में इस वीर व धर्म भूमि ने एक संत रत्न को जन्म देकर अपने यथा नाम तथा गुण को सार्थक कर दिया। स्व. उपाध्याय पूज्य गुरुदेव ही इस गुदड़ी के अमूल्य लाल थे जो मेवाड़ धरा तक ही संकुचित न रहकर विश्व संतों की श्रृंखला की एक कड़ी बन गये। मुझे उपाध्याय श्रीजी के १९७५ के पूना चातुर्मास में सर्वप्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हआ। कितना आकर्षक व्यक्तित्व था मैं सहज लोह चुम्बक की तरह उस ओर खिंचता ही चला गया। गौर वर्ण, विशाल भुजाएँ, चौड़ा ललाट तथा वाणी में अद्भुत आकर्षण सहज ही मन को मोह लेते थे।
अपनी आदत के अनुसार मैं अपनी जिज्ञासा को शान्त करने की हिम्मत कर ही बैठा। बस प्रश्नोत्तर शुरू करना था प्रश्नों पर प्रश्न चलते रहे प्रश्नों के समाधान का एक अनोखा ही ढंग व आनंद था। मैंने देखा कितना भी समय व्यतीत हो जावे ? होनी चाहिए जिज्ञासा फिर तो क्या था उस पहली हिम्मत ने मुझे उनका अपना ही बना दिया। फिर तो जब भी दर्शनों का अवसर मिलता अरे पुण्यवान स्वाध्यायी क्या नये प्रश्न लाया है? फिर क्या, जिज्ञासा प्रारम्भ हो जाती। और मुझे समाधान मिल जाता था । घुमा-फिरा कर कहने की आदत नहीं थी।
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आपके चिन्तन से जो नये प्रश्न अंतगड सूत्र पर तैयार होते अपनी डायरी से मुझे बताते। कितना चिंतन था ? कितना अपनापन था। वे ज्ञान के भण्डार थे। जहाँ जप-तप में महान स्वयंसिद्ध थे वहाँ स्वाध्याय-चिंतन में भी किसी से पीछे नहीं थे। उनके
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
स्वाध्याय-चिंतन से हम स्वाध्यायी बंधुओं को नया दिशा-बोध मिलता था। इसके लिए स्वाध्यायी संघ उनका सदैव ऋणी रहेगा। आज वे हमारे बीच नहीं हैं किन्तु स्मरण ही हमें दिशा-बोध देता रहता है। मैं उनकी पुण्य तिथि पर श्रद्धा के भाव पुष्प ही अर्पण कर सकता हूँ और मेरे पास में इससे अधिक है भी क्या जो उन्हें अर्पित कर सकूँ।
असाधारण व्यक्तित्व के पुरोधा
-भंवर सेठ (उदयपुर)
अपने जीवनकाल में ही अपनी आयु और उसके अंतिम क्षणों का आभास करना आज के वैज्ञानिकों के लिये भले ही आश्चर्यजनक हो सकता है लेकिन श्रमण संस्कृति के महान संत उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज साहब को अपनी आयु-रेखा तथा उसके अन्तिम क्षणों के एक-एक पल की पूरी जानकारी थी और उसी के अनुसार उन्होंने अपनी इस भौतिक देह का त्याग कर देवलोक का मार्ग सहर्ष स्वीकार किया यह रहस्योद्घाटन उनकी एक डायरी से प्राप्त एक छोटे से पत्रक से होता है।
जिस महापुरुष को अपने जीवन रहस्य की जानकारी हो, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं होता है, वह एक अलौकिक एवं असाधारण व्यक्तित्व होता है। अर्थात् वह भगवान् का स्वरूप या ईश्वर का देवदूत होता है, जिसे स्वयं भगवान् ने अपने भक्तों के मार्गदर्शन के लिये इस पुण्य धरा पर अवतरित किया है।
यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे अपने बचपन से ही श्रद्धेय पुष्कर मुनि महाराज सा. का सान्निध्य प्राप्त हुआ। आपके बहुमुखी व्यक्तित्व ने हमेशा मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया कि मैं प्रतिवर्ष उनके दर्शन कर सकूँ। मुझे नहीं मालूम उनमें वह कौन-सा जादू था कि मैं अनायास व कभी-कभी प्रयत्नपूर्वक परन्तु लगभग प्रतिवर्ष उनके चरणों में पहुँचता रहा।
ट्रेड यूनियन में सक्रिय होने के कारण मेरा कार्यक्षेत्र राजस्थान व उसके बाहर भी रहा और ऐसे अनेक अवसर मुझे मिले कि जहाँ-जहाँ महाराज साहब विराजे वहाँ-वहाँ मुझे अपने कार्य से जाना पड़ा, फलस्वरूप जो मेरे अभिन्न मित्र थे तथा जिनका कार्यक्षेत्र राजनैतिक या सामाजिक था, उनका सम्पर्क भी महाराज साहब से हुआ और वे भी उनके ऐसे भक्त बन गये कि प्रतिवर्ष उनके दर्शन व आशीर्वाद का लाभ प्राप्त करने का उन्होंने नियमित क्रम ही बना लिया।
अभी पिछले वर्ष का ही प्रसंग है, श्री सुन्दरलाल जी जैन (मेरठ) के साथ हम कई मित्र गढ़सिवाना (मारवाड़) गये। हमारे साथ वर्तमान शिक्षामंत्री श्री गुलाबचन्द कटारिया, कर्मचारियों व
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