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श्रद्धा का लहराता समन्दर
साधक पुरुष
-रसिकलाल धारीवाल,
(घोड़नदी)
सन् १९६८ का वर्षावास उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का महाराष्ट्र में घोड़नदी था। उस समय मैं वहाँ का चेयरमैन था । उपाध्यायश्री के दर्शन किये। मेरे अन्तर्मानस में उनके प्रथम दर्शन की छवि आज भी अंकित है। मेरे मकान पर भी वे पधारे। मुझे देखकर गुरुदेव श्री ने कहा कि तुम पुण्य पुरुष हो, तुम जिस कार्य में हाथ डालोगे सफलता प्राप्त होगी। गुरुदेव श्री की अमृतवाणी का मेरे पर जादू-सा असर हुआ।
गुरुदेव श्री के पुण्य प्रभाव से मैंने जिस किसी भी कार्य में हाथ डाला उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। मैं सोचने लगा कि गुरुओं के आशीर्वाद में कितने गजब की शक्ति है। पूना, बम्बई, दिल्ली, इन्दौर, उदयपुर आदि अनेक क्षेत्रों में मैं गुरुदेव के दर्शन हेतु पहुँचा। गुरुदेव श्री भी जितनी बार घोड़नदी पधारे उतनी बार मेरे मकान पर भी पधारे। मेरे पुत्र प्रकाश ने तो गुरुदेव से सम्यक्त्व दीक्षा भी ग्रहण की।
यह सत्य है कि उपाध्याय गुरुदेव महान सन्त थे । उनकी साधना बहुत ही गजब की थी, वे बहुत ही दयालु पुरुष थे। किसी भी दुःखी व्यक्ति को वे देख नहीं पाते थे। जब तक उसका दुःख दूर नहीं कर पाते तब तक उनका मन क्लान्त रहता था और वे उसे मंगलपाठ भी सुनाते तथा जप करने की प्रेरणा देते।
आज गुरुदेव श्री हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनकी स्मृति सदा हमारे मस्तिष्क में है और रहेगी। मेरी तथा माताजी आदि सपरिवार की गुरुदेव की चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि ।
मौत को चुनौती देने वाले वीर पुरुष
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- मूलचन्द घोसल ('निदेशक' जैन विश्व भारती, लाडनूँ)
उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि ने अन्त समय में अमित आत्मबल से अनशन स्वीकार कर जो पौरुष दिखलाया, वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। इस प्रकार शरीर छोड़ने से पहले शरीर का मोह छोड़कर पूर्ण सतर्कता के साथ मौत को चुनौती देने वाले ऐसे वीर बिरले ही होते हैं। अन्त समय में "आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न है " इस भेदज्ञान को प्राप्त करना, सहज काम नहीं है। हम दिवंगतआत्मा के प्रति विनम्रतापूर्वक हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की कामना करते हैं।
समन्वयशील विचारक
गुरु के वचन ही मंत्र का मूल है। और गुरु कृपा ही मोक्ष का मूल है।
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-मानव मुनि (इन्दौर)
भगवान् महावीर के २६०० सौ वर्ष बाद भी जैनाचार्यों एवं मुनियों ने, महासतियों ने जैन धर्म का अहिंसा परमोधर्म का ध्वज विश्व में लहराया है। वैसे ही विज्ञान युग के आध्यात्मिक आगम ज्ञाता, ध्यान योगी, सरल स्वभावी, समन्वय विचारक, अपने जीवन को संयम, तप त्याग सांचे में कठोर साधना, दृढ़ संकल्प, करुणा मूर्ति परम पू. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. संसार के लिये प्रकाश स्तम्भ बन गये। उन्होंने सदैव समता भावना को जागृत धर्मोपदेश के माध्यम से किया। वे कहा करते थे हम समय की कद्र करेंगे तो समय हमारी प्रतिष्ठा बढ़ायेगा। सदैव उनकी विचारधारा रहती थी कि भगवान् महावीर के शासन में ऊँच-नीच, जाति-पाँति को महत्व न देकर स्त्री या पुरुष मानव मात्र ही नहीं, प्राणी मात्र के लिये धर्म का संदेश दिया जाय। 'अहिंसा परमोधर्म' राष्ट्र धर्म है, विश्व धर्म है। 'जीओ और जीने दो' का संदेश जैनधर्म की बुनियाद है, दीन दुःखी अभावग्रस्त परिवारों के लिये उनके हृदय में करुणा जागृत हो जाती थी, जीव रक्षा एवं समाज-सुधार के वे महान प्रेरणा स्रोत थे।
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संयम की दृढ़ता हिमालय जैसी, गंगाजल जैसी निर्मल थी। मैंने नजदीक से देखा, सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ चातुर्मास जहाँ भी होता, सेवा में जाने की प्रबल भावना रहती थी जब भी जाता मंगलमय आशीर्वाद देते व शिक्षा देते साधनामय जीवन हो, मानव सेवा, जीवदया का लक्ष्य रहे, साधक जीवन न जीने का इच्छुक होता है, न मरने का, वह दोनों स्थितियों में समभाव की साधना में दृढ़ संकल्पी रहता है। जैन धर्म जैन दर्शन है जो जीने की कला सिखाता है, उनके एक-एक शब्द अनमोल मोती के समान होते थे, सबके साथ समता भाव रहता था चाहे अमीर आये या गरीब किसी प्रकार का भेद नहीं देखा। उनका सारा जीवन रोम-रोम राग-द्वेष रहित अध्यात्म साधना में परिपूर्ण भरा हुआ था। आवाज में तेज ओजस्वी प्रवचन से श्रोता भक्तिभाव से मंत्र मुग्ध हो जाते थे। ऐसा लगता था प्रवचन सुनते ही चले जायें, समय का भान नहीं रहता था। ठीक ११ बजे उठ जाते थे, ध्यान में चले जाते थे ठीक १२ बजे मांगलिक श्रवण करने को भीड़ उमड़ पड़ती थी । मंगलपाठ का बड़ा महत्व था, श्रद्धा-भक्ति से जो भी श्रवण करता उनकी इच्छाएँ पूर्ण होती थीं। मैंने देखा, अनुभव किया नम्रता के सागर थे, अहंकार तो पास में रह नहीं सका। सदैव स्वाध्याय, चिन्तन-मनन में तल्लीन रहा करते थे। समय-समय पर लेखनी भी चलती रहती थी। उदयपुर में चादर महोत्सव के समय भी दर्शन
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