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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । दानवी शक्ति ने कहा-आपका कथन सत्य है, किन्तु ऐसा करें _मधुर मुस्कान के साथ आचार्यश्री के भाषणों ने जन-मन-नयन कि जिन महिलाओं को नहीं आना है, उन्हें न आने देवें।
को चुम्बक की तरह अपनी ओर खींच लिया। आचार्यश्री के भावों आचार्यश्री ने कहा-मैं स्वयं भी नहीं चाहता हूँ कि वे महिलाएँ
में गाम्भीर्य था, उनकी शैली में ओज था, शैली बड़ी सुहावनी थी, यहाँ आवें, किन्तु हम किन्हें पूछने जायेंगे कि तुम्हें आना है या नहीं
जो नदी के प्रवाह की तरह अपने प्रतिपाद्य विषय की ओर बढ़ती
थी। उनके सांस्कृतिक प्रवनचों में जैन संस्कृति की आत्मा बोलती आना है?
{ थी। आचार्यश्री के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों जन जैनधर्म दानवी शक्ति ने कहा-आप ऐसा कीजिए कि मेरा यह जो के प्रति आकर्षित हुए। स्थान विशेष है वहाँ पर कोई महिला नहीं आने पावे, अतः अपना }
भण्डारी खींवसीजी जो बाहर गये हुए थे, वे लौटकर पुनः पट्टा यहाँ पर ले लेवें।
जोधपुर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि आचार्यप्रवर को भयंकर _आचार्यश्री ने कहा-आपका यह कथन उचित है। हम आपके उपद्रवकारी स्थान में उतारा गया है। उन्होंने आचार्यश्री से पूछास्थान पर पट्टा ले लेंगे किन्तु पट्टे को तो आपने पहले से ही तोड़ भगवन् ! किस दुष्ट ने आपको यहाँ पर ठहराया ? मैंने तो आपको रखा है। अतः इसे पहले आप ठीक कीजिए।
महलों में ठहराया था। आपको यहाँ पर बहुत ही कष्ट हुए होंगे। दानवी शक्ति ने उसी समय पट्टे को ठीक कर दिया और
कृपया मुझे नाम बताइये जिससे उस दुष्ट को दण्ड दिया जा सके।
आचार्यश्री ने कहा-जिसने मुझे यहाँ पर ठहराया उसने मेरे पर आचार्यश्री से प्रार्थना की कि आप आनन्द से यहाँ विराजिए और
महान् उपकार किया है। यदि वह मुझे यहाँ न ठहराता तो मैं उतना धर्म की अत्यधिक प्रभावना कीजिए। आपको यहाँ विराजने पर
कार्य नहीं कर पाता। वर्षों तक प्रयत्न करने पर जितना प्रचार नहीं किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। दानवी शक्ति आचार्यप्रवर को
हो सकता था, उतना प्रचार यहाँ ठहराने से एक ही दिन में हो नमस्कार कर और अपने अपराधों की क्षमा याचना कर वहाँ से
गया। वह तो हमारा बहुत बड़ा उपकारी है, उसे दण्ड नहीं किन्तु विदा हो गयी।
पुरस्कार देना चाहिए जिसके कारण हम धर्म की इतनी प्रभावना प्रातः होने पर ज्यों ही सहस्ररश्मि सूर्य का उदय हुआ, कर सके। आचार्यश्री की उदात्त भावना को देखकर दीवान यतिभक्त इसी विचार से आसोप ठाकुर की हवेली में पहुँचे कि । खींवसीजी चरणों में गिर पड़े भगवन्! आप तो महान् हैं, अपकार आचार्य अमरसिंहजी अपने शिष्यों सहित समाप्त हो गये होंगे। करने वाले पर भी जो इस प्रकार की सद्भावना रखते हैं। वस्तुतः किन्तु आचार्यप्रवर व अन्य सन्तों को प्रसन्नमुद्रा में स्वाध्याय-ध्यान आपके गुणों का उत्कीर्तन करना हमारी शक्ति से परे है। आदि करते हुए देखा तो उनके आश्चर्य का पार न रहा। एक-दूसरे आचार्यप्रवर के प्रबल प्रभाव से यतियों के प्रमख गढ जोधपर को देखकर परस्पर कहने लगे कि दानवी शक्ति तो इतनी जबरदस्त में धर्म की विजय-वैजयन्ती फहराने लगी। यतिगणों का प्रभाव उसी थी कि किसी की भी शक्ति नहीं थी जो इससे जूझ सके। इस दानवी तरह क्षीण हो गया जिस तरह सूर्य के उदय होने पर तारागणों का शक्ति ने तो अनेकों को खत्म कर दिये थे। पता नहीं इनके पास / अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। वे मन ही मन पश्चात्ताप करने ऐसी कौनसी विशिष्ट शक्ति है जिससे इतनी महान् शक्ति भी इनके लगे कि हमने बहुत ही अनुचित किया। यदि हम ऐसा नहीं करते सामने परास्त हो गयी। लगता है, यह कोई महान् योगी है। इनके तो उनके धर्म का प्रचार नहीं हो पाता। हमारा प्रयास उन्हीं के लिये चेहरे पर ही अपूर्व तेज झलक रहा है। आँखों से अमृत बरस रहा लाभदायक सिद्ध हुआ। है। हमें इनके पास अवश्य चलना चाहिए और इनसे धर्म का मर्म
जोधपुर संघ की प्रार्थना को सम्मान देकर आचार्यप्रवर ने भी समझ लेना चाहिए।
संवत् १७६८ का चातुर्मास जोधपुर में किया। उस वर्ष जोधपुर आचार्यश्री की यशःसौरभ जोधपुर में फैल गयी। भौंरो की । नरेश महाराजा अजितसिंहजी अनेकों बार आचार्यप्रवर के प्रवचनों तरह भक्त मंडलियाँ मँडराने लगीं। हजारों लोग आचार्यश्री के दर्शन | में उपस्थिति हुए और आर्चाप्रवर के उपदेश से प्रभावित होकर के लिए उपस्थित हुए। आचार्यप्रवर ने जिज्ञासु श्रोताओं को देखकर शिकार आदि न करने की प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की और हजारों व्यक्तियों अपना प्रवचन प्रारम्भ किया। आचार्यश्री ने कहा-जैन संस्कृति का ने आचार्यश्री के सत्संग से अपने जीवन को निखारा। वर्षावास में मूल आधार है त्याग, तपस्या और वैराग्य। उसने जितना बाह्य श्रेष्ठिप्रवर रंगलालजी पटवा जयपुर से आचार्यप्रवर के दर्शनार्थ शुद्धता पर बल दिया है, उससे भी अधिक अन्तर्मन की पवित्रता । उपस्थित हुए। उन्होंने आचार्यश्री से निवेदन किया-भगवन्! आपश्री को महत्व दिया है। यह संस्कृति भोगवादी नहीं, त्याग, तपस्या, } के उपदेश से प्रभावित होकर मैंने श्रावक के व्रत ग्रहण किये थे। वैराग्य की संस्कृति है। इस संस्कृति के मूल में भोग नहीं, त्याग है। } परिग्रहपरिमाणव्रत में मैने पाँच हजार रखने का विचार किया था. भोगवाद पर त्यागवाद की विजय है, तन पर मन का जयघोष, किन्तु आपश्री के संकेत से मैने पच्चीस लाख की मर्यादा की। उस वासना पर संयम का जयनाद है।
समय मेरे पास पाँच सौ की भी पूँजी नहीं थी। पर भाग्य ने साथ
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