________________
३९४
दूसरे खण्ड के प्रवचनों का संग्रह अध्यात्म और दर्शन शीर्षकान्तर्गत किया गया है। इसमें भी पहले अध्यात्म और दर्शन का अर्थ स्पष्ट किया गया है। यथा
अध्यात्म : अधि-आत्म-आत्मा की तरफ, आत्मा संबंधी चिन्तन, मनन और आचरण अध्यात्म का अर्थ है।
अध्यात्म, साधना भी है और चिन्तन भी। अध्यात्म-साधना धर्म है, अध्यात्म-चिन्तन दर्शन है।
दर्शन साधना की मूलभित्ति, साधना का मूल लक्ष्य, साधना के बाधक-साधक तत्व (सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् ज्ञान का समग्र स्वरूप) का विवेक ! (पृष्ठ ३६०)
इस खण्ड में अध्यात्म और दर्शन विषयक कुल इक्कीस प्रवचन संग्रहीत हैं।
प्रथम प्रवचन "साधना का ध्येय" है। शीर्षक के अनुरूप इस प्रवचन में साधना के ध्येय पर विचार किया गया है। इसमें अध्यात्म साधना का मूल आधार सम्यग् दर्शन बताया गया है।
दूसरा प्रवचन भी साधना पर ही केन्द्रित है। इसमें साधना को सर्वोच्च वरदान बताया गया है। मूलतः यह प्रवचन भी सम्यक् दर्शन से संबंधित है। तीसरे प्रवचन जिन्दगी की बदलती हुई तस्वीरें में सम्यग्दर्शन के उत्पत्तिक्रम के संबंध में बताया गया है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा पर प्रवचन फरमाया गया है। यह विवेचन संक्षिप्त है। फिर भी श्रोता / पाठक इसके अर्थ और महत्व को समझ सकते हैं।
जीवन दृष्टि के तत्व प्रवचन के माध्यम से सम्यक्दर्शन के अस्तित्व के परिचायक पाँच चिन्ह हैं-१ प्रशम, २. संवेग, ३. • निर्वेद, ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य। इन पाँचों की विवेचना इस प्रवचन में उचित प्रकार से की गई है। सम्यक्दर्शन की उपलब्धि होने पर ये पाँच प्रकार की विचारधाराएँ, जिन्हें पाँच लक्षण कहा गया है, आत्मा में अवश्य उत्पन्न हो जाती है।
दर्शनाचार एक अनुचिन्तन में सम्यग्दर्शन के आठ अंग या आचार की विवेचना की गई है। इनसे सम्यग्दर्शन का पालन, संरक्षण और संवर्द्धन होता है। सम्यग्दर्शन के ये आठ आचार इस प्रकार हैं :
१. निश्शंकता, २. निष्कांक्षता, ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूद्रदृष्टित्व, ५ उपबृंहण ६. स्थिरीकरण, ७ वात्सल्य और ८.
प्रभावना ।
इनके संबंध में प्रवचनकार का कथन दृष्टव्य है :
" जिस प्रकार आठ अंगों में सम्पूर्ण शरीर का समावेश हो जाता है या यों कहा जाए कि आठ अंगों में शरीर अन्तर्निहित है, उसी प्रकार इन आठ अंगों में सम्यग्दर्शन निहित है। जैसे शरीर के स्वास्थ्य के लिए उसके आठों अंगों की सार-सम्भाल आवश्यक है,
Jain Education Intematioftal
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
उसी प्रकार सम्यग्दर्शन को अविकृत रखने के लिए इन आठों अंगों का संरक्षण अनिवार्य है। (पृ. ३८२) ।
अगले प्रवचन में उन बातों पर विचार किया गया है जो अवांछनीय है। इन पर अमल नहीं करना है। उनसे बचकर चलना है। यहाँ एक प्रश्न सहज ही किया जा सकता है कि जो आचरणीय नहीं है, जिन पर हमें चलना नहीं है, उनकी जानकारी से हमें क्या लाभ? प्रवचनकार ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है"हेय पदार्थ भी हो होता है जिसे हम जानेंगे नहीं, उसके दुष्परिणाम से अपरिचित रहेंगे और उसके त्याग की आवश्यकता भी अनुभव नहीं कर सकेंगे। कदाचित अनजाने, देखादेखी या किसी के कहने मात्र से त्याग कर भी दिया तो उस त्याग में संकल्प का बल नहीं होगा। ऐसा त्याग निष्प्राण होगा। अतः त्याज्य वस्तु के दोषों को भी उसी प्रकार समझना चाहिए, जिस प्रकार ग्राह्य वस्तु के गुणों को समझना आवश्यक है।" (पृष्ठ ४१२ ) ।
जिन पर आचरण नहीं करना है उन्हें अतिचार कहा गया है। ये अतिचार पाँच प्रकार के बताए गए हैं। यथा- १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. परपाषण्ड-प्रशंसा और ५. परपाषण्डसंस्तव । इन्हीं पाँचों अतिचारों का दिग्दर्शन कराया गया है जीवन-दृष्टि की मलिनताएँ शीर्षक प्रवचन में।
इस संग्रह के पिछले कुछ प्रवचनों में सम्यग्दर्शन के कुछ पहलुओं पर विचार किया गया है। साधना का मूलाधार शीर्षक वाले प्रवचन में भी सम्यग्दर्शन पर ही विचार किया गया है। प्रवचनकार का कथन है कि पहले सम्यग्दर्शन से संबंधित कतिपय मूलभूत विषय ही रखे गये हैं। फिर भी कुछ अत्यावश्यक ज्ञातव्य विषय ऐसे हैं, जिनकी चर्चा यदि न की जाए तो सम्यग्दर्शन संबंधी निरूपण अधूरा ही रह जाएगा। इसी बात को ध्यान में रहकर यह प्रवचन है। इस प्रकार प्रवचन के अन्तर्गत जिन उपशीर्षकों के आधार पर विवेचन है, वे इस प्रकार है- उत्पत्तिक्रम, पंचविध लब्धियाँ, भेद प्रभेद, दशविधरुचि, सम्यग्दर्शन के भूषण, सम्यग्दर्शन की भावनाएँ और छह स्थान प्रवचनकार का स्पष्ट अभिमत है कि इस विवेचन के पश्चात् भी सम्यग्दर्शन के निरूपण में पूर्णता आ ही जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता।
ज्ञान का निरूपण किया गया है “अन्तर का आलोक" शीर्षक के अन्तर्गत दिए गए प्रवचन में प्रारम्भ में ज्ञान की महिमा बताई गई है फिर ज्ञान- ज्ञेय का संबंध स्पष्ट किया गया है। ज्ञान ज्ञाता का संबंध भी बताया गया है। इस संक्षिप्त प्रवचन में ज्ञान के संबंध में अच्छा विवरण दिया गया है। अगला प्रवचन सम्यक्ज्ञान से संबंधित है। शीर्षक दिया गया है-"साधना का प्रकाश स्तम्भ सम्यग्ज्ञान ।" इन दो प्रवचनों से पूर्व के प्रवचनों में मूलतः सम्यग्दर्शन पर ही विचार प्रकट किए गए। सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान का क्रम है। इसी अनुरूप में सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया जा रहा है। इस प्रवचन के निष्कर्ष में प्रवचनकार ने फरमाया कि सम्यग्दर्शन का
For Private & Personal use only.
(www.jainelibrary.org