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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
के रूप में किया गया है।१८ मूलाराधना में लेश्या के विषय में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा बताया गया है कि लेश्या छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव प्रभाव डालने के कारण अशुद्ध हैं तथा इन रंगों से प्रभावित होने परिणाम हैं।१९ धवला में स्पष्ट वर्णन है कि आत्मा और कर्म का वाली लेश्याएँ भी अशुभ-अप्रशस्त कोटि की मानी जाने के कारण सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है।२० सर्वार्थ सिद्धि में कषायों । इन्हें अधर्म लेश्याएँ कहा गया है२९ अतः ये सर्वथा त्याज्य हैं। के उदय से अनुरञ्जित मन, वचन व काय की प्रवृत्ति को लेश्या अरुण रंग मनुष्य में ऋजुता, नम्रता और धर्म प्रेम उत्पन्न करता है, कहा है।२१ इस प्रकार जैनागम में लेश्या की अनेक परिभाषाएँ पीला रंग मनुष्य में शान्ति, क्रोध-मान-माया-लोभ की अल्पता तथा स्थिर हुई हैं।
इन्द्रिय-विजय का भाव उत्पन्न करता है तथा श्वेत रंग मनुष्य में
अथाह शान्ति तथा जितेन्द्रियता का भाव उत्पन्न करता है। इस जीव के मन में जिस प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं उसी
प्रकार तेजस्, पद्म और शुक्ल ये तीन वर्ण शुभ हैं क्योंकि ये प्रकार के वर्ण तथा तदनुरूप पुद्गल परमाणु उसकी आत्मा की
मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। अतः ये सदा उपादेय ओर आकृष्ट होते हैं। शुभ-अशुभ विचारों के आथार पर ही जैन
हैं।३० इनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी प्रशस्त कोटि की मानी दर्शन में लेश्याएँ छहः भागों में विभक्त हैं
गयी हैं जिन्हें धर्म लेश्या कहा गया है। निश्चय ही लेश्याओं के १. कृष्णलेश्या २. नील लेश्या
ज्ञान-विज्ञान को जान-समझकर प्रत्येक संसारी जीव अपने मन के ३. कापोत लेश्या ४. तेजो लेश्या
विचारों को पवित्र शुद्ध करता हुआ अर्थात् अशुभ से शुभ और PORG
शुभ से प्रशस्त शुभ की ओर उन्मुख होता हुआ अपना आध्यात्मिक ५. पद्म लेश्या ६. शुक्ल लेश्या२२
विकास कर सकता है। कृष्णलेश्या वाले जीव की मनोवृत्ति निकृष्टतम होती है। उसके
आत्म तत्त्व को कलुषित करने वाली मनोवृत्तियाँ 'कषाय' से 2 0 विचार अत्यन्त कठोर, नृशंस, क्रूर एवं रुद्र होते हैं। विवेक विचार
संज्ञायित हैं। लेश्या की भाँति कषाय भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप से रहित भोग-विलास में ही वह अपना जीवन यापन करता है।२३
को प्रच्छन्न-आच्छन्न करने में एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह करते । नील लेश्या की कोटि में परिगणित जीव स्वार्थी होते हैं। उनमें
हैं। मन के विज्ञान का अध्ययन-अनुशीलन करते समय काषायिक ईर्ष्या, कदाग्रह, अविद्या, निर्लज्जता, द्वेष, प्रमाद, रस लोलुपता,
वृत्तियों को समझ लेना बी परम आवश्यक है। जैनदर्शन में इन प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे कार्य करने की प्रवृत्ति होती
वृत्तियों को मूलतः चार भागों में विभाजित किया गया हैहै।२४ किन्तु इस लेश्या वाले जीव की दशा कृष्णलेश्या वाले जीव की अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें जीव के विचार अपेक्षाकृत कुछ १. क्रोध
२. मान प्रशस्त होते हैं। कापोत लेश्यायी जीव की वाणी व आचरण में
३. माया
४. लोभ। वक्रता होती है। वह अपने दुर्गुणों को प्रच्छन्न कर सद्गुणों को प्रकट
मनोविज्ञान कहता है कि क्रोध के वशीभूत जीव अपने विवेक, करता है किन्तु नील लेश्यायी से उसके भाव कुछ अधिक विशुद्ध
विचार-क्षमता तथा तर्कणाशक्ति को विनष्ट कर देता है। क्रोध एक होते हैं।२५ तेजोलेश्या वाला जीव पवित्र, नम्र, दयालु, विनीत,
मानसिक किन्तु उत्तेजक संवेग है। क्रोधावेश में शरीर में विभिन्न इन्द्रियजयी तथा आत्मसाधना की आकांक्षा रखने वाला तथा अपने
प्रकार के परिवर्तनों को देखा-परखा जा सकता है। उदाहरणार्थ सुख की अपेक्षा दूसरों के प्रति उदारमना होता है।२६ पद्मलेश्या
रक्तचाप का बढ़ना, हृदयगति में अस्थिरता, मस्तिष्क के ज्ञान वाले जीव की मनोवृत्ति धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में विचरण करती है। इस कोटि का जीव संयमी, कषायों से विरक्त, मितभाषी,
तन्तुओं का शून्य होना आदि। क्रोध की अनेक अवस्थाएँ होती हैं।
जो उत्तेजन एवं आवेश के कारण उत्पन्न होकर भयंकर स्थिति जितेन्द्रिय तथा सौम्य होता है।२७ शुक्ल लेश्या वाला जीव समदर्शी,
धारण करती हैं। जैनागम में क्रोध के दश रूप निर्दिष्ट किए गए हैं निर्विकल्प ध्यानी, प्रशान्त अन्तःकरण वाला, समिति-गुप्ति से युक्त,
यथा-क्रोध, कोप, रोष, दोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, अशुभ प्रवृत्ति से दूर तथा वीतरागमय होता है।२८
भण्डन तथा विवाद।३१ दूसरी कलुषित वृत्ति (मान कषाय) में भी उपर्युक्त विवेचनोपरान्त यह सहज में ही जाना जा सकता है उत्तेजन-आवेश विद्यमान रहता है। इसमें कुल-बल-ऐश्वर्य-बुद्धिकि इन भावों-विचारों का रंगों के साथ और रंगों का प्राणी जीवन जाति, ज्ञानादि के अहंकार का समावेश रहता है। मान कषाय की के साथ कितना गहरा सम्बन्ध है ? रंग हमारे शरीर तथा मानसिक अवस्थाओं का वर्णन करते हुए जैन संहित्य में बारह प्रकार के मान विचारों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? जैन शास्त्रों में लेश्या को निरूपित किया गया है यथा-मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, के सिद्धान्त द्वारा इसी प्रभाव की व्याख्या की गई है। रंगों में काला अत्युत्क्रोश, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नत नाम तथा रंग मानवीय जीवन में असंयम, हिंसा और क्रूरता; नीलारंग, ईर्ष्या, दुर्नाम।३२ तीसरी मनोवृत्ति है माया अर्थात् कपट। जैनागम में माया PROO असहिष्णुता, रसलोलुपता तथा आसक्ति, और कापोत रंग, वक्रता, } की पन्द्रह अवस्थाएँ गिनायी गयी हैं। जिनमें संश्लिष्ट जीव अपने कुटिलता, दृष्टिकोण का विपर्यास उत्पन्न कराते हैं। इस प्रकार } आर्जवत्व गुण से सदा प्रच्छन्न रहता है। ये अवस्थाएँ निम्न हैं
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