________________
ODHP306200000 9540000
४६६
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
प्रज्ञा पुरुष आचार्य प्रवर श्री देवेन्द्र मुनिजी
।
REP
म
-दिनेश मुनि जम्बू द्वीप...भरत खण्ड...आर्यावर्त आदि गौरवशाली नामों से 'मेदपाट'-इस भू-भाग का संस्कृत नाम अवश्य रहा, उसी का अभिहित, जगद्गुरु भारत देश की पश्चिम दिशा का अलंकार है- अपभ्रंश रूप-'मेवाड़' है। इस क्षेत्र में मेद, मेव या मेर जाति की राजस्थान। शौर्य एवं तप त्याग की भूमि राजस्थान में समय-समय बहुलता के कारण इसका मेदपाट नाम प्रचलित हुआ था। विक्रम की पर अनेक शूरवीर, धर्मवीर, त्यागवीर, दानवीर, तपवीर, कर्मवीर ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ और मेदपाट दोनों ही नामों अवतरित हुए हैं जिन्होंने अपनी यशोगाथाओं से इसका 'वीर-भूमि' का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है। प्राकृत ग्रंथ-'धम्म परिक्खा' नाम चरितार्थ कर दिया है। शौर्य और पराक्रम के साथ-साथ (१०४४ वि.) और हर्डी के प्रस्तर लेखों (१०५३ वि.) में इन अध्यात्म, औदार्य, कला और संस्कृति की पावन धरा के रूप में भी नामों के उल्लेख प्राप्य हैं। मेवाड़ की दो नदियाँ-बेड़च और गम्भीरी यह सदा अविस्मरणीय रहेगी। राजस्थान समन्वय का मन्दिर है- अत्यन्त प्राचीन हैं। इनके मुहानों पर पुरातत्ववेत्ताओं के मतानुसारपौरुष और परमतत्त्व का, शौर्य और साधना का भी। यहाँ के वीरों मानव सभ्यता के विकास का अति प्राचीन क्रम रहा था। आहड़ की परम्परा धर्म और नीति-संगत रूप में पराक्रम-प्रदर्शन की रही और बागोर की खुदाई से प्राप्त अवशेषों ने मेवाड़ की ४ जहार है, तो भक्तगण अद्भुत पराक्रम, साहस और अध्यवसाय के साथ / वर्ष पूर्व की विकासमान सभ्यता के साक्ष्य निहित हैं। धर्म को ओज और तेज से ऊर्जस्वित रूप प्रदान करते रहे हैं।
मेवाड़ का राजनैतिक इतिहास भी अत्यन्त रोचक है। आठवीं धर्म-समन्वय और सर्वधर्म-समादर कर इस उदार भूमि पर वैदिक,
शती के अन्त में इस राज्य की स्थापना गुहिलवंशीय शासक बापा वैष्णव, शैव, शाक्तादि मत प्रचलित होते रहे तो जैन बौद्ध धर्म भी ।
रावल द्वारा की गयी थी। मुगल शासकों ने आक्रमण किये और पल्लवित हुए। इसी भूमि पर इस्लाम, ईसाई आदि विदेशी धर्मों को
१३वीं शताब्दी में चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया। अलाउद्दीन भी प्रचार-प्रसार का समुचित वातावरण मिला। सभी धर्मों ने
खिलजी के आमक्रण और रानी पद्मिनी द्वारा जौहर की इतिहास परस्पर सौहार्द और सौजन्य के साथ करुणा, क्षमा, मानव-मैत्री,
प्रसिद्ध घटना १४ वीं शताब्दी की हैं और १६वीं शताब्दी में अहिंसा, सत्य, शान्ति, संयम, त्याग, सेवा आदि उदात्त मानवीय
हल्दीघाट का वह प्रसिद्ध युद्ध हुआ जिसने राणा प्रताप की यशोगाथा गुणों से यहाँ की पीढ़ियों को ऐसा सींचा कि राजस्थान उदारचेता,
को अमरत्व प्रदान कर दिया। इन्हीं के पुत्र राणा अमरसिंह ने धर्मप्रिय जनता का पर्याय ही बन गय। इसी राजस्थान का दक्षिणी
१६७२ में 'मुगलों' से संधि की और मेवाड़ में शान्ति एवं स्थिरता भू-भाग मेदपाट या मेवाड़ है जो शक्ति और भक्ति, शौर्य और
का नवयुग आरम्भ हुआ। इससे कुछ ही पूर्व अरावली पर्वतमालाओं साधना के चरम और परम कीर्तिस्थल के रूप में इतिहास-विश्रुत ।
की उपत्यकाओं में सामरिक दृष्टि से सुरक्षित स्थल, पीछोला झील के और जगवंद्य रहा है।
समीप १५५९ वि. में उदयपुर नगर की स्थापना हुई थी। जलाशयों मेवाड़-महिमा
और उद्यानों की रमणीयता से शृंगारित उदयपुर नगरी आचार्य श्री इसी मेदपाट-मेवाड़ की पावन धरा महाराणा प्रताप के पराक्रम
की जन्मस्थली के रूप में धन्य और कृतकृत्य हो उठी है। से भी, तो भक्तिमती मीराबाई की उपासना से भी जगमगाती रही । ओसवाल वंश यशो गाथा है। रानी पद्मिनी के सतीत्व, पन्नाधाय की निष्ठा एवं बलिदान,
___ श्रद्धेय आचार्य सम्राट श्री ओसवाल वंशोत्पन्न बरडिया-कुल भामाशाह के त्याग और दानवीरता के अनुपम कीर्तिमानों से यह ।
दिवाकर, एक महान् विभूति सिद्ध हुए हैं। ओसवाल वंश की स्थापना धरती विभूषित है। धर्म और कर्म की इस अद्भुत लीला-स्थली ने ।
की भी एक ऐतिहासिक गाथा है। राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के आचार्य हरिभद्र सूरि जैसे ज्ञानयोगी, जैन दिवाकर जैसे धर्मवीर,
ओसिया स्थान से उद्गम पाने के कारण इस वंश का यह नाम रहा। उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी जैसे तेजस्वी सन्त, राष्ट्रसंत उपाध्याय ।
ओसिया-निवासी मांस-मदिरादि कुव्यसनों में ग्रस्त थे। सर्वजन-हितैषी श्री पुष्कर मुनि जी जैसे अध्यात्म योगी देकर धर्म-जगत् की महती
आचार्य रत्नप्रभसूरि जी ने जब अज्ञानांधकार में निमग्न जनता की सेवा और चिर-स्मरणीय उपकार किया है। इसी मेवाड़ प्रदेश की ।
यह दुर्दशा देखी तो वे करुणार्द्र हो उठे और उनके मन में इस हृदय स्थली झीलों की नगरी उदयपुर को श्रद्धेय आचार्य श्री देवेन्द्र
जन-समुदाय को व्यसन-मुक्त करने की अन्तः प्रेरणा जागृत हुई। मुनि जी की पावन जन्म स्थली होने का गौरव भी प्राप्त है।
व्यापक जनहित की भावना से तब उन्होंने देवमाया का प्रसार किया। _ 'मेवाड़'-इस नामकरण के आधार के सम्बन्ध में हमारा तत्कालीन नरेश उप्पलदेव के एकमात्र युवा पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु इतिहास और परम्पराएँ मौन हैं। प्राचीन ग्रंथों, पुरातात्विक महत्व हो गयी। सर्वत्र शोक व्याप्त हो गया। मरघट में युवराज के दाह के आलेखों में 'शिवि', 'प्रागवाट' आदि नामों का उल्लेख हुआ है, संस्कार की प्रारम्भिक प्रक्रिया चल रही थी, तभी जैनाचार्य जी का किन्तु कब से मेवाड़ नाम प्रचलित हो गया, कुछ निश्चित नहीं है। एक शिष्य वहाँ उपस्थित हुआ और संवेदना के स्वर में उसने संतप्त
Jain Education Interational
|
For private & Personal use only |
|
200
0 00.
cowww.jainelibrary.org
|