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| वाग् देवता का दिव्य रूपाण
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के पश्चात् पाठक के मन में इस विषयक कोई भी संशय शेष नहीं कहा गया है कि सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला मेधावी रहता है।
जन्म-मरण (संसार) को पार कर जाता है। (पृष्ठ १७१) सत्य को चतुर्थ प्रवचन 'अणुव्रती, श्रमणोपासक और श्रावक' का है।
सभी दृष्टियों से समझाया गया है। अंत में कहा है कि यह माना जा इसमें श्रमणोपासक/श्रावक के विषय पर प्रकाश डाला गया है।
सकता है कि सत्य का अवलम्बन लेकर चलने वाले व्यक्ति को अणुव्रती को श्रमणोपासक क्यों कहा गया? इस प्रश्न के उत्तर में
प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयां महसूस हों, किन्तु आगे चलकर उसे प्रवचनकार गुरुदेव का कथन है कि अणुव्रती और महाव्रती का
आशातीत लाभ होता है। कम से कम असफलता तो नहीं मिलती। घनिष्ठ सम्पर्क और परस्पर साहचर्य शास्त्र में बताया गया है।
सत्य को पुण्य की खेती की संज्ञा देते हुए कहा गया है कि जिस
सत्य का पुण्य क एक-दूसरे के व्रतों को विशुद्ध रखने का कर्तव्य और दायित्व भी
तरह अन्न की खेती करने में प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयाँ उठानी शास्त्रकारों ने दोनों पर डाला है। खासतौर से महाव्रती श्रमण पर
पड़ती हैं, फसल के लिए थोड़ी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है, किन्तु अणुव्रती श्रमणोपासक के जीवन को विशुद्ध और व्रतों से अनुबद्ध
जब कृषि फलवान होती है, तो घर को धन-धान्य से भर देती है, रखने की जिम्मेदारी डाली गई है। यही कारण है कि अणुव्रती
उसी तरह सत्य की खेती भी प्रारम्भ में थोड़ा त्याग, बलिदान सद्गृहस्थ को श्रमणोपासक कहा गया है।
और धैर्य मांगती है किन्तु जब फलती है तो इहलोक से
परलोक तक मानव जीवन को पुण्यों से भरकर कृतार्थ कर देती द्वितीय अध्याय में 'अणुव्रत : एक विश्लेषण' के अन्तर्गत
है। (पृष्ठ १९५)। श्रावक के पाँच अणुव्रतों को विस्तार से समझाया गया है। ये पाँच अणुव्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। प्रथम
पाँचवाँ प्रवचन श्रावक की सत्य की मर्यादा से संबंधित है। प्रवचन में अहिंसा के सार्वभौम रूप को विस्तारपूर्वक समझाया है।
सत्य की साधना का द्वार किसी व्यक्ति विशेष के लिए ही नहीं, प्रश्नव्याकरण सूत्रकार के संदर्भ से बताया गया है कि अहिंसा सबके लिए खुला है। साधु भी सत्य साधना के पथ पर चलता है भगवती है, यह भयभीतों के अभयदान देने वाली है, त्रस्तों को और एक गृहस्थ (श्रावक) भी उस पथ पर चल सकता है। सत्य त्राण देने वाली है, आश्रितों को शरण देने वाली है। मानव जाति के सबके लिए एक-सा है। परन्तु व्यक्ति की शक्ति, क्षमता और रुचि लिए संजीवनी बूटी है (पृष्ठ ८९) इस प्रवचन में अहिंसा का विराट के अनुसार उसकी साधना में कुछ अंतर है, मर्यादाओं में थोड़ी-सी रूप, विस्तृत शक्ति और व्यापक प्रभाव का अनुभव करने का भिन्नता है। इस प्रवचन में असत्य के कार्यो से मन-वचन और काया आग्रह किया गया है। अहिंसाव्रत को स्वीकार करने वाले को से बचकर रहने की बात कहकर सत्य व्रत के पालन पर जोर अहिंसा का स्वरूप, उसकी मर्यादा, उसके प्रयोग की विधि आदि । दिया गया है क्योंकि सत्य ही जीवन का परम उद्देश्य है, वही का ज्ञान तो सर्वप्रथम कर ही लेना चीहए तभी वह अहिंसा की आराध्य है। विराट् शक्ति का अनुभव कर सकेगा।
छठा प्रवचन अस्तेयव्रत : साधना और स्वरूप से संबंधित है। दूसरे प्रवचन में श्रावक की अहिंसा मर्यादा को सम्यक्
प्रारम्भ में धन की अपेक्षा चरित्र की महत्ता पर प्रकाश डाला गया रीत्यानुसार समझाया गया है। इसमें श्रमण के लिए अहिंसा पालन है। फिर आर्थिक दृष्टि से अस्तेय का महत्व प्रतिपादित किया गया पर भा विचार प्रकट किए गए हैं। श्रावक का हिंसा से बचन क है। अस्तेय व्रत को सामाजिक धर्म का दिग्दर्शक बताया गया है। लिए कहा गया है। श्रावक को विवेकी और दीर्घद्रष्टा बनकर
इसके साथ ही स्पष्ट किया गया है कि अस्तेय व्रत का मूल संकल्पी हिंसा के विविध रूपों से बचने के लिए सचेत किया गया
ईमानदारी है। तत्पश्चात् भारत में अचौर्यवृत्ति का व्यापक प्रभाव है। यह भी बताया गया है कि कदाचित पूर्व संस्कारवश कभी मन
बताते हुए लिखा है कि हजारों वर्ष पूर्व यहाँ की स्थिति ऐसी थी वचन में इस हिंसा का क्षणिक विचार या वचन आ भी जाए तो
कि यहाँ के लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे, रास्ते में गिरी हुई तुरन्त उसे खदेड़ देना चाहिए, पश्चात्ताप करना चाहिए। श्रावक
चीज को कोई सहसा उठाता नहीं था। चोरों का कोई नाम भी नहीं जीवन में अहिंसा के विकास और अभ्यास का यही उचित क्रम है।
जानता था। इसके विपरीत वर्तमान समय की चर्चा करते हुए तीसरा प्रवचन है 'अहिंसा की मंजिल : श्रावक की दौड़'। इस बताया गया है कि आज बेईमानी और लूट का बाजार गर्म है। प्रवचन में आरम्भी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा पर लेकिन प्रवचनकार का कथन है कि इससे निराश होने की सभी दृष्टियों से विचार कर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है। श्रावक
आवश्यकता नहीं है, आशा की किरण विद्यमान है। उन्होंने से आग्रह किया गया है कि वह इन हिंसाओं से बचकर अहिंसा
रिश्वतखोरी और घूसखोरी की वृद्धि को चोरी का भयंकर रूप भगवती की आराधना में संलग्न रहे।
बताया है। साथ में चोरी के नये रूप काले बाजार की उत्पत्ति पर चौथा प्रवचन 'सत्य : जीवन का सम्बल' है। इसमें सत्य को भी प्रकाश डाला है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रवचन में इस अहिंसा के साथ आवश्यक बताया गया है। जैन शास्त्रों के संदर्भ से व्रत पर सभी दृष्टि से विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
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