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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । प्राप्त कर सकेंगे, हमारा जप तभी शक्तिशाली और लाभदायी होगा, तीन प्रकार से होता है-(१) जोर से बोल कर, (२) होठों से जब हमारा संकल्पयुक्त जप सूक्ष्म वाणी से होगा।
बुदबुदा कर और (३) मौन रहकर मन ही मन। इन तीनों में जप भावना, शुद्ध उच्चारण और तरंगों से मंत्रजप
का तीसरा प्रकार उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली माना जाता है। शक्तिशाली एवं लाभदायी।
प्रत्येक धर्म में जप की मान्यता और उपयोगिता मंत्र शक्तिशाली और अभीष्ट फलदायी तभी होता है, जब मंत्र । प्रत्येक धर्म की परम्परा में किसी न किसी रूप से जप का के शब्दों के साथ भावना शुभ और उच्चारण शुद्ध होता है। उससे विधान है। जैन "नवकार महामंत्र" का, बौद्ध-"नम्मो हो रेंगे क्यों' विभिन्न तरंगें पैदा होती जाती हैं। अतः मंत्रों की शब्दशक्ति के साथ मंत्र का, वैदिक-"गायत्री मंत्र' का हिन्दू धर्म की अन्य सभी तीन बातें जुड़ी हुईं, १. भावना, २. उच्चारण और ३. उच्चारण से शाखाएं “ॐ” का, मुसलमान-"अल्लाह" का एवं ईसाई “गॉड"
उत्पन्न हुई शक्ति के साथ पैदा होने वाली तरंगें। किसी शब्द के । का जप करते हैं। यों देखा जाए तो हजारों मंत्र हैं। मंत्रशास्त्र से वह उच्चारण से अल्फा तरंगें, किसी शब्द के उच्चारण से थेटा या बेटा संबंधित हजारों ग्रन्थ हैं। हजारों बीज मंत्र हैं। मंत्रजाप का
तरंगें पैदा होती है। ॐ के भावनापूर्वक उच्चारण से अल्फा तरंगें । पृथक्-पृथक् प्रभाव साधक के जीवन पर देखा जाता है। अमुकवध पैदा होती हैं, जो मस्तिष्क को प्रभावित एवं शिथिलीकरण करती । अमुक मंत्र प्रयोग से साधक के तन, मन, वचन, बुद्धि और हृदय
है। ॐ, ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ब्लूं, ऐं, अर्हम्, अ सि आ उ सा आदि में परिवर्तन होता है। मंत्रजप से अनेक बीमारियाँ और जितने भी मंत्र या बीजाक्षर हैं, उनसे उत्पन्न तरंगें ग्रंथि-संस्थान को मनोव्याधियां मिटती हैं, अनेक मनोविकृतियां दूर होती हैं। यही प्रभावित करती हैं तथा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सन्तुलित एवं । कारण है कि मुस्लिम-ईसाई-बौद्ध-जैन-वैदिक-पारसी आदि सभी धर्मों व्यवस्थित करती हैं।
के संतों और भक्तों के गले में, हाथ में अथवा कमर में माला
लटकती देखी जाती है। मंत्र जप के लिए शब्दों का चयन विवेकपूर्वक हो जैनाचार्यों ने बाक्सूक्ष्मत्व, वाग्गुप्ति तथा भाषासमिति का ध्यान
शब्दशक्ति का चमत्कार रखते हुए उन शब्दों का चयन किया है जो मंत्ररूप बन जाते हैं। पहले बताया जा चुका है कि शब्द शक्ति के द्वारा विविध रोगों
उन्होंने कहा कि साधक को यतनापर्वक उन शब्दों का चनाव करना की चिकित्सा होती है। अब तो शब्द की सूक्ष्म तरंगों के द्वारा THE चाहिए, जिनसे बुरे विकल्प रुक जाएं, जो उसकी संयम यात्रा को ऑपरेशन होते हैं, चीर-फाड़ होती है। ध्वनि की सूक्ष्म तरंगों के जल विकासशील और स्व-पर-कल्याणमय बनाएं एवं विघ्नबाधाओं से द्वारा अल्पसमय में हीरा काटा जाता है। शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि से 3 बचाएँ। जीवन में सुगन्ध भर जाए, दुर्गन्ध मिट जाए, जीवन मोक्ष वस्त्रों की धुलाई होती है। मकान के बंद द्वार, फाटक भी आवाज
के श्रेयस्कर पथ की ओर गति प्रगति करे, प्रेय के पथ से हटे, से खुलते और पुनः आवाज से बंद हो जाते हैं। यह है शब्दशक्ति उसी प्रकार के संकल्प एवं स्वप्न हृदयभूमि में प्रादुर्भत हों, जिनसे का चमत्कार। जप में शब्द शक्ति का ही चमत्कार है।
आत्म स्वरूप में या परमात्मभाव में रमण हो सके, परभावों और अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार विभावों से दूर रहा जा सके। “णमो अरिहंताणं' आदि पंचपरमेष्ठी
एक क्रम, एक सरीखी गति से सतत किए जाने वाले सूक्ष्म, नमस्कारमंत्र तथा नमो नाणस्स, नमो दसणस्स, नमो चरित्तस्स और
अश्राव्य शब्द के आघात का चमत्कार वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नमो तवस्स" आदि नवपद ऐसे शक्तिशाली शब्दों का संयोजन है।
देखा जा चुका है। इसी प्रकार प्रयोगकर्ताओं ने अनुभव करके भावना और श्रद्धा के साथ उनके उच्चारण (जप) से आधि, व्याधि
। बताया है कि एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीच में हक और उपाधि मिट कर अन्तरात्मा में समाधि प्राप्त हो सकती है।
लटका कर उस पर सिर्फ ५ ग्राम वचन के कार्क का लगातार उन्होंने कहा कि सम्यक्दृष्टि, विरति, अप्रमाद, अकषाय, शुभ । शब्दाघात एक क्रम व एक गति से कराया जाए तो कुछ ही समय योग चेतना संयम एवं संवर की स्थिति भी उपर्युक्त पदों के के पश्चात् लोहे का गार्डर कांपने लगता है। पुलों पर से गुजरती भावपूर्वक उच्चारण (जप) से होने वाले ग्रन्थि भेद के द्वारा प्राप्त | सेना के लेफ्ट-राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से उत्पन्न हो सकती है। ग्रन्थि भेद होने से ये सब स्थितियाँ प्राप्त हो जाती हैं। हुई एकीभूत शक्ति के प्रहार से मजबूत से मजबूत पुल भी टूटकर साधक की जपनिष्ठा बढ़ने से सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद एवं मिट सकता है। इसलिए सेना को पैर मिलाकर पुल पर चलने से यतनापूर्वक शुभ या शुद्ध त्रियोग की दृष्टि विकसित होते देर नहीं मना कर दिया जाता है। मंत्रजप के क्रमबद्ध उच्चारण से इसी लगती। परन्तु यह सब विकास होता है-सूक्ष्म उच्चारण की विधि से प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है। मंत्रगत शब्दों के लगातार जाप करने से। धीरे-धीरे वाक्संवर की दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते | आघात से शरीर के अंतःस्थानों में विशिष्ट प्रकार की हलचलें साधक निर्विचारता निर्विकल्पता की भूमिका तक पहुँच जाता है। उत्पन्न होती हैं, जो आन्तरिक मूर्च्छना को दूर करती हैं एवं सुषुप्त परन्तु इसके लिए जप में सूक्ष्मतम उच्चारण होना अपेक्षित है। जप । आन्तरिक क्षमताओं को जागृत कर देती हैं।
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